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________________ चतुर्थ अध्याय अथादाननिक्षेपणसमिति लक्षयति सुदृष्टमृष्टं स्थिरमावदीत स्थाने त्यजेत्तादृशि पुस्तकादि। कालेन भूयः कियतापि पश्येदादाननिक्षेपसमित्यपेक्षः ॥१६८॥ सुदृष्टमृष्टं-सुदृष्टं पूर्वं चक्षुषा सम्यग्निरूपितं सुमृष्टं पश्चात् पिञ्छिकया सम्यक् प्रतिलेखितम् । स्थिरं-विश्रब्धमनन्यचित्तमित्यर्थः । त्यजेत्-निक्षिपेत् । तादृशि-सुदृष्टमृष्टे । पुस्तकादि-आदिशब्दात् कवलिकाकुण्डिकादि द्रव्यम् । उक्तं च 'आदाणे णिक्खेवे पडिलेहिय चक्खुणा समाजेज्जो। दव्वं च दव्वट्ठाणं संजमलद्धीए सो भिक्खू ॥' [ मूलाचार ३१९] 'सहसाणाभोइददुप्पमज्जिदापव्ववेक्खणा दोसो। परिहरमाणस्स भवे समिदी आदाणणिक्खेवा ॥ [म. आ. ११९८ ] ॥१६८॥ अथोत्सर्गसमिति निर्देष्टुमाहआहार भी साधु ग्रहण कर सकता है। वे सब घर एक ही पंक्तिमें लगे हुए होने चाहिए। दूरके या सड़कसे दूसरी ओरके घरोंसे आया आहार साधुके लिए अग्राह्य होता श्वेताम्बर परम्परामें धर्मके साधन अन्नपान, रजोहरण, वस्त्र पात्र और आश्रय सम्बन्धी उद्गम उत्पादन एषणा दोषोंका त्यागना एषणा समिति है ॥१६७॥ आदान निक्षेपण समितिका स्वरूप कहते हैं आदाननिक्षेपण समितिके पालक साधुको स्थिर चित्त होकर प्रथम अपनी आँखोंसे अच्छी तरह देखकर फिर पीछीसे साफ करके ही पुस्तक आदिको ग्रहण करना चाहिए और यदि रखना हो तो पहले अच्छी तरह देखे हुए और पीछे पिच्छिकासे साफ किये हुए स्थानपर रखना चाहिए । रखनेके पश्चात् यदि कितना ही काल बीत गया हो तो सम्मूर्च्छन जीवोंकी उत्पत्तिकी सम्भावनासे पुनः उस रखी हुई पुस्तकादिका सावधानीसे निरीक्षण करना चाहिए ॥१६८।। विशेषार्थ-अन्य ग्रन्थों में भी आदाननिक्षेपण समितिका यही स्वरूप कहा है। यथा-मूलाचार में कहा है-वह भिक्षु संयमकी सिद्धिके लिए आदान और निक्षेपमें द्रव्य और द्रव्यके स्थानको चक्षुके द्वारा अच्छी तरह देखकर और पीछीके द्वारा परिमार्जित करके वस्तुको ग्रहण करता और रखता है। भ. आराधनामें कहा है-बिना देखे और विना प्रमाजन किये पुस्तक आदिका ग्रहण करना या रखना सहसा नामका पहला दोष है । विना देखे प्रमार्जन करके पुस्तक आदिका ग्रहण या रखना अनाभोगित नामक दूसरा दोष है। देखकरके भी सम्यक् रीतिसे प्रमार्जन न करके ग्रहण करना या रखना दुःप्रमृष्ट नामका तीसरा दोष है। पहले देखकर प्रमान किया किन्तु कितना ही काल बीत जानेपर पुनः यह देखे बिना ही कि शुद्ध है या अशुद्ध, ग्रहण या निक्षेप करना चौथा अप्रत्यवेक्षण नामक दोष है। इन चारों दोषोंका परिहार करनेवालेके आदाननिक्षेपण समिति होती है ॥१६८॥ उत्सर्ग समितिका स्वरूप कहते हैं १. 'अन्नपानरजोहरणपात्रचीवरादीनां धर्मसाधनानामाश्रयस्य चोद्वमोत्पादनेषणादोषवर्जनमेषणा समितिः । -तत्त्वार्थभाष्य ९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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