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________________ चतुर्थ अध्याय ३४९ अथ मनोगुप्तरतीचारानाह रागाद्यनुवृत्तिर्वा शब्दार्थज्ञानवैपरीत्यं वा। दुष्प्रणिधानं वा स्यान्मलो यथास्वं मनोगुप्तेः ॥१५९॥ रागाद्यनुवृत्तिः-रागद्वेषमोहानुगम्यमानात्मपरिणतिः । एतस्याश्चातिचारत्वं मनोगुप्तौ सापेक्षत्वेनैकदेशभङ्गत्वात् । एष रागादित्यागरूपाया मनोगुप्तेरतिचारः ॥१५९॥ अथ वाग्गुप्तेरतिचारानाह कार्कश्यादिगरोद्गारो गिरः सविकथादरः। हुंकारादिक्रिया वा स्याद्वाग्गुप्तेस्तद्वदत्ययः ॥१६०॥ काकश्यादीत्यादि एष दुरुक्तित्यागरूपाया वाग्गुप्तेरतिचारः । हुंकारादिक्रिया-आदिशब्दाद् हस्तसंज्ञाखात्कारभ्रूचलनादयः । एष मौनलक्षणाया वाग्गुप्तेरतिचारः ॥१६०॥ अथ कायगुप्तेरतिचारानाहमनोगुप्ति के अतीचारोंको कहते हैं आत्माकी रागद्वेष मोहरूप परिणति, शब्द-विपरीतता, अर्थ-विपरीतता और ज्ञानविपरीतता तथा दुष्प्रणिधान अर्थात् आत-रौद्ररूप ध्यान या ध्यानमें मन न लगाना ये मनोगुप्ति के यथायोग्य अतीचार होते हैं ॥१५९|| विशेषार्थ-पहले मनोगुप्तिका स्वरूप तीन प्रकारसे कहा है-रागादिकी निवृत्ति, आगमका अभ्यास और सम्यध्यान । इन्हीं तीनोंको ध्यानमें रखकर यहाँ मनोगुप्तिके अतीचार कहे हैं । आत्माकी परिणतिका रागद्वेष मोहका अनुगमन करना यह अतीचार प्रथम लक्षणकी अपेक्षासे कहा है । मनोगुप्तिकी अपेक्षा रखते हुए ही इसे अतीचार कहा जाता है क्योंकि एक देशके भंगका नाम अतीचार है । शब्द शास्त्रका विरोधी होना अथवा विवक्षित अर्थको अन्यथारूपसे प्रकाशित करना शब्द-विपरीतता है। सामान्य विशेषात्मक अभिधेय वस्तु अर्थ है। केवल सामान्यरूप अथवा केवल विशेष रूप अथवा दोनोंको स्वतन्त्र मानना अर्थ-विपरीतता है । अथवा आगममें जीवादि द्रव्योंका जैसा स्वरूप कहा है वैसा न मानकर अन्यथा मानना अर्थ-विपरीतता है। शब्दका, अर्थका अथवा उन दोनोंका विपरीत प्रतिभास ज्ञान-विपरीतता है । ये आगमके अभ्यास रूप मनोगुप्तिके अतीचार हैं। दुष्प्रणिधान अर्थात् आत रौद्ररूप ध्यान या ध्यानमें मन न लगाना समीचीन ध्यानरूप मनोगुप्तिके अतीचार हैं ॥१५९|| वचनगुप्तिके अतीचार कहते हैं कर्कश आदि वचन मोह और संतापका कारण होनेसे विषके तुल्य है । उसका श्रोताओं के प्रति बोलना और स्त्री, राजा, चोर और भोजन विषयक विकथाओंमें-मार्ग विरुद्ध कथाओंमें आदर भाव, तथा हुंकार आदि क्रिया अर्थात् हुं हुं करना, खकारना, हाथसे या भ्रूके चालनसे इशारा करना ये वचन गुप्तिके यथायोग्य अतीचार हैं ॥१६०॥ विशेषार्थ-आगे भाषासमितिके कथनमें कर्कशा परुषा आदि दस वचन दोषोंका कथन करेंगे। उनका प्रयोग तथा खोटी कथाओंमें रुचि दुरुक्तित्याग रूप वचनगुप्तिके अतीचार हैं। और हुंकार आदि मौनरूप वचनगुप्ति के अतीचार हैं ॥१६०॥ कायगुप्तिके अतीचारोंको कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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