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________________ ३४०. धर्मामृत ( अनगार) दुःखी-दुःखेन च पापेन युक्तः । असद्भर्म-अविद्यमानव्याजं पारमार्थिकमित्यर्थः । यदाह _ 'मा कार्षीत् कोऽपि पापानि माभूत् कोऽपि दुःखितः।। मुच्यतां जगदप्येषा मतिमैत्री निगद्यते ॥ [ ] ज्यायः-प्रशस्यतरम् । हृत्-मनः । तेषु-सम्यग्ज्ञ.नादिगुणोत्कृष्टे (-४) देशकाल-विप्रकृष्टेषु स्मृतिविषयेषु । एषु-पुरोवतिषु दृश्यमानेषु । प्रमोदं वदनप्रसादादिभिरभिव्यज्यमानमन्तर्भक्तिरागम् । .. ६ तथा चाह 'अपास्ताशेषदोषाणां वस्तुतत्त्वावलोकिनाम् । गुणेषु पक्षपातो यः स प्रमोदः प्रकीर्तितः ॥' [ ] करुणां-दीनानुग्रहभावम् । तथा चाह 'दीनेष्वार्तेषु भीतेषु याचमानेषु जीवितम् । प्रतीकारपरा बुद्धिः कारुण्यमभिधीयते ॥ [ ] १२ ब्राह्मि-हे वाग्देवि । मां-साम्यभावनापरमात्मानम् । अद्रव्येषु--तत्त्वार्थश्रवणग्रहणाभ्यामसंपादितगुणेषु । उपेक्षा-माध्यस्थ्यम् । यदाह 'क्रूरकर्मसु निःशङ्कं देवतागुरुनिन्दिषु । आत्मशंसिषु योपेक्षा तन्माध्यस्थ्यमुदीरितम् ।।' [ इमानि च मैश्यादिसूक्तानि ध्येयानि 'कायेन मनसा वाचा परे सर्वत्र देहिनि । अदुःखजननी वृत्तिमैत्री मैत्रीविदां मता ॥ की भावनाको प्रमोद कहते हैं। 'मैं दुःखसे पीड़ित प्राणियोंकी कैसे रक्षा करूँ' इस प्रकारकी भावना करुणा है। हे वचनकी अधिष्ठात्री देवी ! तुम मेरे साम्यभावमें लीन आत्मामें अवतरित होओ, अर्थात् बोलो मत, क्योंकि जिनमें सज्जनोंके द्वारा आरोपित गुणोंका आवास नहीं है अर्थात् जो अद्रव्य या अपात्र हैं उनको शिक्षा देना निष्प्रयोजन है इस प्रकारकी भावना माध्यस्थ्य है। जो अनन्त चतुष्टयरूप परम पदको प्राप्त करनेके लिए तत्पर हैं उन्हें इन भावनाओंका निरन्तर चिन्तन करना चाहिए ॥१५१॥ विशेषार्थ-तत्त्वार्थसूत्र (७।११) में व्रतीके लिए इन चार भावनाओंका कथन किया है। परमपदके इच्छुक ही व्रतादि धारण करते हैं अतः उन्हें ये भावनाएँ क्रियात्मक रूपसे भानी चाहिए। प्रथम है मैत्री भावना। मित्रके भाव अथवा कर्मको मैत्री कहते हैं। प्राणिमात्रको किसी प्रकारका दुःख न हो इस प्रकारकी आन्तरिक भावना मैत्री है। दुःखके साथ दुःखका कारण जो पाप है वह भी लेना चाहिए। अर्थात् कोई प्राणी पापकर्ममें प्रवृत्त न हो ऐसी भी भावना होनी चाहिए । केवल भावना ही नहीं, ऐसा प्रयत्न भी करना चाहिए । कहा है-'अन्य सब जीवोंको दुःख न हो' मन, वचन और कायसे इस प्रकारका बरताव करनेको मैत्री कहते हैं। जो अपनेसे विशिष्ट गुणशाली हैं उनको देखते ही मुख प्रफुल्लित होनेसे आन्तरिक भक्ति प्रकट होती है। उसे ही प्रमोद कहते हैं । तप आदि गुणोंसे विशिष्ट पुरुषको देखकर जो विनयपूर्वक हार्दिक प्रेम उमड़ता है उसे प्रमोद कहते हैं। ऐसे भी कुछ प्राणी होते हैं जिन्होंने न तो तत्त्वार्थका श्रवण किया और श्रवण किया भी तो उसे ग्रहण नहीं किया। इससे उनमें विनय न आकर उद्धतपना होता है । समझानेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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