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________________ चतुर्थ अध्याय तथा चोक्तम 'सीलेसि संपत्तो णिरुद्ध णिस्सेस आसवो जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि ॥' दोष लगता है। दिनमें किसी पात्रमें आहार लाकर रात्रिमें खानेसे अपरिग्रहब्रतका लोप होता है। किन्तु रात्रिभोजनका ही त्याग करनेसे पाँचों ही व्रत परिपूर्ण रहते हैं। अतः पाँचों व्रतोंकी रक्षाके लिए रात्रिभोजन निवृत्ति व्रत है। तत्त्वार्थसूत्रके सातवें अध्यायके प्रथम सूत्रमें हिंसा आदि पाँच पापोंके त्यागको व्रत कहा है। उसकी सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक आदि टीकाओंमें यह शंका की गयी है कि रात्रिभोजन नामका एक छठा अणुव्रत रात्रिभोजननिवृत्ति है उसको भी यहाँ कहना चाहिए ? इसका समाधान यह किया गया है कि उसका अन्तर्भाव अहिंसाव्रतकी आलोकित पानभोजन भावनामें होता है इसलिए उसे नहीं कहा है। तत्त्वार्थाधिगम भाष्यमें इसकी कोई चर्चा नहीं है। किन्तु सिद्धसेन गणिने उसकी टीकामें इस चर्चाको उठाया है जो सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवार्तिकका ही प्रभाव प्रतीत होता है। उसमें कहा है-जैसे असत्य आदिका त्याग अहिंसावतके परिपालनके लिए होनेसे मूलगुण हैं उसी तरह रात्रिभोजनविरति भी मूलगुण होना चाहिए ? इसका उत्तर यह है कि महाव्रतधारी के लिए ही वह मूलगुण है क्योंकि उसके बिना मूलगण पूर्ण नहीं हो सकते। अतः अहिंसा आदि मूलगुणोंके ग्रहणमें उसका ग्रहण आ जाता है। तथा जैसे रात्रि भोजन सब व्रतोंका उपकारी है वैसे उपवास आदि उपकारी नहीं हैं। इसलिए महाव्रतीका वह मूलगुण है, शेष उत्तरगुण हैं। किन्तु अणुव्रतधारीका रात्रिभोजनत्याग उत्तरगुण है क्योंकि उसमें आहारका त्याग होता है। अथवा वह उपवासकी तरह तप ही है। 'रात्रिभोजनमें क्या दोष है' इसके उत्तरमें वही बातें कही गयी हैं जो ऊपर विजयोदया टीकामें और तत्त्वार्थवार्तिकमें कही हैं। विशेषावश्यक भाष्य (गा. १२४०-४५) में भी वही कथन है जो सिद्धसेन गणिकी टीकामें है। श्वे. आगम साहित्यमें भी पाँच मूलगुणोंके साथ छठे रात्रि-भोजननिवृत्तिका निर्देश पाया जाता है। किन्तु उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं बतलायी है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि रात्रिभोजनका त्याग तो गृहस्थ अवस्था में ही हो जाता है फिर मुनि अवस्थामें उसके त्यागका विधान क्यों किया गया ? इसका समाधान यह है कि गृहस्थ अवस्थामें मन, वचन, कायसे ही रात्रिभोजनका त्याग किया जाता है, कृत, कारित, अनुमोदनासे नहीं; क्योंकि गृहस्थ अवस्थामें इनसे बचाव होना कठिन होता है, स्वयं रात्रिभोजन न करके भी दूसरों के लिए प्रबन्ध करना या कराना पडता है। न भी करें या करावें तब भी अनुमोदनसे बचना कठिन होता है। किन्तु मुनि नौ प्रकारोंसे रात्रिभोजनका त्याग करता है । तत्त्वार्थसूत्रके नौवें अध्यायके अन्तिम सूत्रकी व्याख्या में सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिकमें कहा है कि पाँच मूल गुण और रात्रिभोजन त्यागमें-से बल१. ननु च षष्ठमणुव्रतमस्ति रात्रिभोजनविरमणं तदिहोपसंख्यातव्यम् । न, भावनास्वन्तर्भावात् । अहिंसावत भावना वक्ष्यन्ते । तत्र आलोकितपानभोजनभावना कार्येति ।'-सर्वार्थ. । २. 'पञ्चानां मलगुणानां रात्रिभोजनवर्जनस्य च पराभियोगाद् बलादन्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति ।' ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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