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________________ चतुर्थ अध्याय ३३५ अथोक्तलक्षणानां पञ्चानां व्रतानां महत्त्वसमर्थनपुरस्सरं रात्रिभोजनविरमणलक्षणं षष्ठमणुव्रतं रक्षणार्थमुपदिशन्नुत्तरोत्तराभ्याससौष्ठवेन सम्पूर्णीकरणे सति निर्वाणलक्षणं फलं लक्षयति पञ्चैतानि महाफलानि महतां मान्यानि विष्वग्विर त्यात्मानीति महान्ति नक्तमशनोज्झाणुवताग्राणि ये। प्राणित्राणमुखप्रवृत्त्युपरमानुक्रान्तिपूर्णीभव ___ त्साम्याः शुद्धदृशो व्रतानि सकलीकुर्वन्ति निर्वान्ति ते ॥१५०॥ महतां मान्यानि-गणधरदेवादीनामनुष्ठेयतया सेव्यानि इन्द्रादीनां वा दृविशुद्धिविवृद्धयङ्गतया पूज्यानि । विष्वग्विरत्यात्मानि-स्थूलसूक्ष्मभेद-सकलहिंसादिविरतिरूपाणि । उक्तं च 'आचरितानि महद्भिर्यच्च महान्तं प्रसाधयन्त्यर्थम् । स्वयमपि महान्ति यस्मान्महाव्रतानीत्यतस्तानि ॥' [ज्ञानार्णव १८ में उद्धृत] अपि च'महत्त्वहेतोगुणिभिः श्रितानि महान्ति मत्वा त्रिदशैतानि । १२ महासुखस्थाननिबन्धनानि महाव्रतानीति सतां मतानि ।' [ज्ञानार्णव १८३१] नक्तमित्यादि-नक्तं रात्रावशनस्य चतुर्विधाहारस्योज्झावर्जनं सेवाणुव्रतम् । तस्याश्चाणुव्रतत्वं रात्रावेव भोजननिवृत्तेदिवसे यथाकालं तत्र तत्प्रवृत्तिसंभवात् । तदनं प्रधानं येषां रक्षार्थत्वात् । तदुक्तम्- १५ पाँचों व्रतोंका लक्षण पहले कह आये हैं। अब उनके महत्त्वका समर्थनपूर्वक उनकी रक्षाके लिए रात्रिभोजन विरति नामक छठे अणुव्रतका कथन करते हुए यह बताते हैं कि उत्तरोत्तर अच्छी तरह किये गये अभ्यासके द्वारा इन व्रतोंके सम्पूर्ण होनेपर निर्वाणरूप फलकी प्राप्ति होती है ये पाँचों व्रत अनन्तज्ञानादिरूप महाफलवाले हैं, महान् गणधर देव आदिके द्वारा पालनीय है अथवा दर्शनविशुद्धिकी वृद्धि में कारण होनेसे इन्द्रादिके द्वारा पूजनीय हैं और स्थूल तथा सूक्ष्म भेदरूप सकल हिंसा आदिकी विरतिरूप हैं इसलिए इन व्रतोंको महान् कहा जाता है। रात्रिभोजनत्याग नामक अणुव्रत उनका अगुआ है उस पर्वक ही ये व्रत धारण किये जाते हैं । जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि नीचेको भूमिकामें होनेवाली प्राणिरक्षा, सत्यभाषण, दत्तवस्तुका ग्रहण, अब्रह्म सेवन और योग्य परिग्रहका स्वीकाररूप प्रवृत्तिको उपरिम भमिकामें त्याग कर उसके गुणश्रेणिरूप संक्रमके द्वारा सर्वसावद्ययोग विरतिरूप सामायिक चारित्रको प्राप्त करता है वह जीवन्मुक्तिको प्राप्त करके परम मुक्तिको प्राप्त करता है ॥१५०॥ विशेषार्थ-उक्त पाँच व्रतोंको महाव्रत कहा जाता है। उसकी तीन उपपत्तियाँ . बतलायी हैं। प्रथम उनका फल महान् है उनको धारण करनेपर ही अनन्त ज्ञानादिरूप महाफलकी प्राप्ति होती है। दूसरे गणधर आदि महान् पुरुष भी उन व्रतोंको पालते हैं या महान् इन्द्रादि उनको पूजते हैं क्योंकि व्रतोंके पालनसे सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि में वृद्धि होती है। तीसरे उनमें स्थूल और सूक्ष्म भेदरूप सभी प्रकारकी हिंसा असत्य, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य और परिग्रहका पूर्ण त्याग होता है। इसलिए उन्हें महान कहा है। कहा भी है १. साधेति जं महत्थं आयरिदाई च जं महल्लेहि । जं च महल्लाइ सयं महव्वदाई हवे ताई॥ [भ. आ., १९८४ गा. ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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