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________________ ३८ धर्मामृत ( अनगार ) इसका अभिप्राय यह है कि जिन शद्रोंमें पुनर्विवाह नहीं होता तथा खान-पान और रहन-सहन भी पवित्र है वे जैनधर्मका पालन करते हुए मुनिको आहारदान दे सकते हैं। अतः आजकल जो मुनिगण आहार लेते समय श्रावकसे शूद्रके हाथका पानी न लेनेकी प्रतिज्ञा कराते हैं वह शास्त्रसम्मत नहीं है। सत् शूद्रके हाथका आहार तक साधुगण भी ले सकते हैं । गृहस्थकी तो बात ही क्या ? ४. ग्रन्थकार आशाधर १. वैदुष्य अनगार धर्मामृतके रचयिता आशाधर अपने समयके एक बहुश्रुत विद्वान् थे। न्याय, व्याकरण, काव्य, साहित्य, कोश, वैद्यक, धर्मशास्त्र, अध्यात्म, पुराण आदि विविध विषयोंपर उन्होंने ग्रन्थरचना की है। सभी विषयोंमें उनकी अस्खलित गति थी और तत्सम्बन्धी तत्कालीन साहित्यसे वे सुपरिचित थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उनका समस्त जीवन विद्याव्यासंगमें ही बीता था और वे बड़े ही विद्यारसिक और ज्ञानधन थे। आचार्य जिनसेनने अपनी जयधवला टीकाकी प्रशस्तिमें अपने गुरु वीरसेनके सम्बन्धमें लिखा है कि उन्होंने चिरन्तन पुस्तकोंका गुरुत्व करते हए सब पूर्वके पुस्तकशिष्यकोंको पीछे छोड़ दिया था अर्थात चिरन्तनं शास्त्रोंके वे पारगामी थे। पं. आशाधर भी पुस्तकशिष्य कहलानेके सुयोग्य पात्र हैं। उन्होंने भी अपने समयमें उपलब्ध समस्त जैन पुस्तकोंको आत्मसात कर लिया था। जिनका उद्धरण उनकी टीकाओं में नहीं है उनके कालके सम्बन्धमें सन्देह रहता है कि ये आशाधरके पश्चात् तो नहीं हुए ? आज सिद्धान्त और अध्यात्मकी चर्चाके प्रसंगसे दोनोंमें भेद-जैसा प्रतीत होता है क्योंकि सिद्धान्तके अभ्यासी अध्यात्ममें पिछड़े हैं और अध्यात्मके अभ्यासी सिद्धान्तमें। किन्तु भट्टारक युगमें पैदा हुए पं. आशाधर सिद्धान्त और अध्यात्म दोनोंमें ही निष्णात थे। उन्होंने मुनिधर्मके व्यवहारचारित्र षडावश्यक आदिका कथन करनेसे पूर्व उसका लक्ष्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि स्वात्मामें निःशंक अवस्थान करनेके लिए षडावश्यक करना चाहिए। और इस अध्यात्म चर्चाका उपसंहार करते हुए कहा है कि इस प्रकारके भेद-विज्ञानके बलसे जबतक मैं शुद्धात्माके ज्ञानको, जो कर्मोंका साक्षात् विनाशक है प्राप्त नहीं करता, तबतक ही सम्यग्ज्ञानपूर्वक आवश्यक क्रियाको करता हूँ। यह सब कथन करनेके पश्चात् ही उन्होंने षडावश्यकोंका वर्णन किया है। मुनि और श्रावकका आचार सम्बन्धी उनकी धर्मामृत नामक कृति तथा उसकी भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका और ज्ञानदीपिका पंजिका यह एक ही ग्रन्थ उनके जिनागम सम्बन्धी वैदुष्यके लिए पर्याप्त है। वे मुनि या आचार्य नहीं थे, गृहस्थ पण्डित थे। किन्तु उन्होंने प्रत्येक प्रकारके व्यक्तिगत अभिनिवेशसे अपनेको दूर रखते हए सिद्धान्तके वर्णनमें आचार्यपरम्परासम्मत वीतराग मार्गको ही दर्शाया है। उनकी सम्पूर्ण कृति किसी भी प्रकारके दुरभिनिवेशसे सर्वथा मुक्त है । यह उनके वैदुष्यकी एक बड़ी विशेषता है। तभी तो उनके पास मुनि तक पढ़ने के लिए आते थे। भट्टारक युगमें रहकर भी वह उस युगसे प्रभावित नहीं थे। उन्होंने भट्टारकों और मुनिवेषियोंको समान रूपसे भर्त्सना की है। और शासनदेवताओंको स्पष्ट रूपसे कुदेव कहा है। विषयकी तरह संस्कृत भाषा और काव्यरचनापर भी उनका असाधारण अधिकार था। धर्मामृत धर्मशास्त्रका आकर ग्रन्थ है किन्तु उसकी रचना श्रेष्ठतम काव्यसे टक्कर लेती है : उसमें केवल अनुष्टुप् श्लोक ही नहीं है, विविध छन्द हैं और उनमें उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकारको बहुतायत है। संस्कृत भाषाका शब्द भण्डार भी उनके पास अपरिमित है और वे उसका प्रयोग करने में भी कुशल हैं । इसीसे उनकी रचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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