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________________ चतुर्थ अध्याय ३३१ अथ समरसीभावसमुज्जम्भितसहजज्योतिषो मोहविजयातिशयं प्रकाशयतिस्वार्थेभ्यो विरमय्य सुष्ठु करणग्रामं परेभ्यः पराक् कृत्वान्तःकरणं निरुध्य च चिदानन्दात्मनि स्वात्मनि । यस्तत्रैव निलीय नाभिसरति द्वैतान्धकारं पुन स्तस्योद्दाममसीम धाम कतमच्छिन्दत्तमः श्राम्यति ॥१४५।। पराक्-पराङ्मुखम् । द्वैतान्धकारं-अयमहमयं पर इति विकल्पं ध्येयादिविकल्पं वा तम इव शुद्धात्मोपलम्भप्रतिबन्धकत्वात् ।।१४५॥ अथ शुद्धस्वात्मोपलम्भोन्मुखस्य योगकाष्ठासौष्ठवावाप्तिभवितव्यतानुभावभावनामनुभावयति । आगे कहते हैं कि उक्त प्रकारकी भावनाके बलसे समरसी भावके द्वारा जिनकी स्वाभाविक आत्मज्योति विकसित हो जाती है वे पुरुष मोहको जीत लेते हैं समस्त इन्द्रियोंको अपने अपने विषयोंसे अच्छी तरह विमुख करके तथा मनको शरीर आदिसे विमुख करके और ज्ञानानन्दमय निज आत्मामें एकाग्र करके जो उसीमें लीन हो जाता है, और द्वैतरूपी अन्धकारकी ओर पुनः अभिमुख नहीं होता, अर्थात् 'यह मैं हूँ' 'यह पर है' या ध्यान, ध्येय आदि विकल्प नहीं करता, उस योगीका सीमा रहित और प्रतिबन्धरहित तेज किस चिरकालसे जमे हुए अज्ञानका छेदन नहीं करता, अपितु सभी प्रकारके अनादि अज्ञानके विलासको नष्ट कर देता है ॥१४५॥ विशेषार्थ-मेरा चिदानन्दमय आत्मा शरीर आदिसे भिन्न है, इस भावनाके बलसे निर्विकल्प मनके द्वारा आत्माकी अनुभूति होती है। यह अनुभूति ही इन्द्रियोंको अपने-अपने विषयोंसे विमुख होने में मूल कारण है। आत्मानुभूतिके बिना जो विषयोंके प्रति अरुचि होती है वह स्थायी नहीं होती। और जबतक इन्द्रियाँ विषयोंके प्रति रागी रहेंगी तबतक मन आत्मोन्मुख नहीं हो सकता। आत्मासे मतलब है ज्ञानानन्दमय शुद्ध चिद्रूप । जब मनमें राग-द्वेषमूलक विकल्पजाल छाया हुआ हो तब मनके स्थिर होनेकी बात ही व्यर्थ है । ऐसे मनसे आत्मस्थिति सम्भव नहीं है। 'कहा है-'जिसका मनरूपी जल राग-द्वेषरूपी लहरोंसे चंचल नहीं होता वही पुरुष आत्माके यथार्थ स्वरूपको देखता है, दूसरा मनुष्य उसे नहीं देख सकता।' अन्य रागमूलक विकल्पोंकी तो बात ही क्या, 'यह शरीर पर है' यह विकल्प भी द्वैतरूप होनेसे शुद्धात्माकी उपलब्धिमें प्रतिबन्धक है। इसीसे द्वैतको अन्धकारकी उपमा दी है। उस अन्धकारके दूर होनेपर ही वह आत्मज्योति प्रकट होती है जो सब अनादि अज्ञानको नष्ट करती है । उसीकी प्राप्तिके लिए सब त्यागादि है ॥१४५।। आगे शुद्ध स्वात्माकी उपलब्धिके प्रति अभिमुख हुए योगीके भविष्य में होनेवालो योगकी चरम सीमाकी प्राप्तिके फलकी भावना व्यक्त करते हैं १. 'रागद्वेषादिकल्लोलरलोलं यन्मनोजलम् । स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत्तत्वं नेतरो जनः ॥-समाधितन्त्र, ३५ श्लो. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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