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________________ Gr ३२६ धर्मामृत ( अनगार) अथ श्रियमुपाय॑ सत्पात्रेषु विनियुअानस्य सद्ग्रहिणस्तत्परित्यागे मोक्षपथकप्रस्थायित्वमभिष्टौति पुण्याब्धेर्मथनात्कथंकथमपि प्राप्य श्रियं निर्विशन्, वैकुण्ठो यदि दानवासनविधौ शण्ठोऽस्मि तत्सद्विधौ। इत्यर्थैरुपगृह्णता शिवपथे पान्थान्यथास्वं स्फुर तादृग्वीर्यबलेन येन स परं गम्येत नम्येत सः॥१३८॥ मथनात्-उदयप्रापणाद्विलोडनाच्च । निर्विशन्-अनुभवन् । वैकुण्ठः-वै स्फुटं कुण्ठो मन्दो । दानवासनविधौ-दानेनात्मनः संस्कारविधाने । उक्तिलेशपक्षे तु दानं वन्ति गच्छन्तीति दानवास्त्यागशीलास्तेषामसुराणां वासनविधी निराकरणे वैकुण्ठो विष्णुरिति व्याख्येयम् । शण्ठः-यत्नपरिभ्रष्टः । सद्विधीसाध्वाचरणे । उपगळता-उपकुर्वता । स:-शिवपथः । नम्येत-नमस्क्रियेत श्रेयोथिभिरिति शेषः ॥१३८॥ अथ गृहं परित्यज्य तपस्यतो निर्विघ्नां मोक्षपथप्रवृत्ति कथयतिप्रजाग्रद्वैराग्यः समयबलवल्गस्वसमयः, सहिष्णुः सर्वोर्मोनपि सदसदर्थस्पृशि दृशि । १२ गृहं पापप्रायक्रियमिति तदुत्सृज्य मुदित ___ स्तपस्यनिशल्यः शिवपथमजलं विहरति ॥१३९॥ समयबलं-श्रुतज्ञानसामर्थ्य काललब्धिश्च । सहिष्णुः-साधुत्वेन सहमानः । सर्वोर्मीन्-निशेषपरिषहान् । अपि सदसदर्थस्पृशि-प्रशस्ताप्रशस्तवस्तुपरामशिन्यामपि । दृशि-अन्तर्दृष्टौ सत्याम् । निःशल्य:-मिथ्यात्वनिदानमायालक्षणशल्यत्रयनिष्क्रान्तः ॥१३९।। जो सद्गृहस्थ लक्ष्मी कमाकर सत्पात्रोंमें उसे खर्च करता है और फिर उसे त्याग कर मोक्षमार्गमें लगता है उसकी प्रशंसा करते हैं पुण्यरूपी समुद्रका मन्थन करके किसी न किसी प्रकार महान् कष्टसे लक्ष्मीको प्राप्त करके 'मैं उसको भोगता हूँ। यदि मैं दानके द्वारा आत्माका संस्कार करने में मन्द रहता हूँ तो स्पष्ट ही सम्यक चारित्रका पालन करनेमें भी मैं प्रयत्नशील नहीं रह सकूँगा' ऐसा विचारकर जो मोक्षमार्गमें नित्य गमन करनेवाले साधुओंका यथायोग्य द्रव्यके द्वारा उपकार करता है तथा मोक्षमार्गके योग्य शक्ति और बलके साथ स्वयं मोक्षमार्गको अपनाता है उसे कल्याणार्थी जीव नमस्कार करते हैं ।।१३८॥ आगे कहते हैं जो घर त्याग कर तपस्या करता है उसीकी मोक्षमार्गमें निर्विघ्न प्रवृत्ति होती है लाभ आदिकी कामनाके बिना जिसका वैराग्य जाग्रत् है, तथा काललब्धि और श्रुतज्ञानके सामथ्यसे स्वस्वरूपकी उपलब्धिका विकास हुआ है, समस्त परीषहोंको शान्तभावसे सहन करने में समर्थ है, वह गृहस्थ अच्छे और बुरे पदार्थोंके विवेक करनेमें भी कुशल अन्तर्दृष्टिके होनेपर 'घरमें होनेवाली क्रियाएँ प्रायः पापबहुल होती हैं। इस विचारसे घरको त्याग कर माया, मिथ्यात्व और निदानरूप तीन शल्योंसे रहित होकर प्रसन्नताके साथ तपस्या करता हआ, बिना थके निरन्तर रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गकी आराधना करता है ॥१३९।। विशेषार्थ-गृहका त्याग किये बिना मोक्षमार्गकी निरन्तर आराधना सम्भव नहीं है । इसलिए घर छोड़ना तो मुमुक्षुके लिए आवश्यक ही है। किन्तु घर छोड़कर साधु बननेसे पहले उसकी तैयारी उससे भी अधिक आवश्यक है। वह तैयारी है संसार, शरीर और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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