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________________ ३१८ धर्मामृत ( अनगार) पञ्चशूनाद् गृहाच्छ्न्यं वरं संवेगिनां वनम् । पूर्व हि लब्धलोपार्थमलब्धप्राप्तये परम् ॥१२५॥ पञ्चसूनात् 'कुण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भः प्रमार्जनी। पञ्चशूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति ॥' [ लब्धः-प्रक्रमात् संवेगः । अलब्धं-शुद्धात्मतत्त्वम् । कदाचिदप्यप्राप्तपूर्वकत्वात् ।।१२५।। अथ गृहकार्यव्यासक्तानां दुःखसातत्यमनुशोचति विवेकशक्तिवैकल्याद् गृहद्वन्द्व निषद्वरे। मग्नः सीदत्यहो लोकः शोकहर्षभ्रमाकुलः ॥१२६॥ विवेकः-हिताहितविवेचनं विश्लेषणं च । निषद्वरः-कर्दमः। भ्रमः-पर्यायेण वृत्तिर्धान्तिर्वा । तदुक्तम् 'रतेररतिमायातः पुना रतिमुपागतः । तृतीयं पदमप्राप्य बालिशो वत् सीदति ।।' [आत्मानु. २३२ । ] तथा वासनामात्रमेवैतत्सुखं दुःखं च देहिनाम् । तथा ह्यद्वेजयन्त्येते भोगा रोगा इवापदि ॥ [ इष्टोप. ६ । ] ॥१२६।। शूनका अर्थ है वधस्थान । घरमें पाँच वधस्थान हैं। अतः पाँच वधस्थानवाले घरसे संसारसे भीरुओंके लिए एकान्त वन श्रेष्ठ है। क्योंकि घरमें तो जो प्राप्त है उसका भी लोप हो जाता है और वनमें जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ उस शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्ति होती है ॥१२५।। विशेषार्थ-उखली, चक्की, चूला, जल भरनेका घड़ा और बुहारी इन पाँचके बिना घरका काम नहीं चलता। जो घरमें रहेगा उसे कूटना, पीसना, आग जलाना, पानी भरना , और झाड़ लगाना अवश्य पड़ेगा। और ये पाँचों ही जीवहिंसाके स्थान हैं अतः घरको पाँच वधस्थानवाला कहा है। यथा-'ओखली, चक्की, चूला, जल भरनेका घट और बुहारू ये पाँच शूना गृहस्थके हैं । इसीसे गृहस्थ दशामें मोक्ष नहीं होता। अतः घरसे श्रेष्ठ एकान्त वन है। घरमें तो जो कुछ धर्म-कर्म प्राप्त है वह भी छूट जाता है किन्तु वनमें जाकर आत्मभ्यान करनेसे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है ।।१२५॥ जो गृहकार्यमें विशेषरूपसे आसक्त रहते हैं वे निरन्तर दुःखी रहते हैं। अतः उनके प्रति शोक प्रकट करते हैं खेद है कि हित-अहितका विवेचन करनेकी शक्तिके न होनेसे शोक और हर्षके भ्रमसे व्याकुल हुआ मूढ़ मनुष्य घरकी आसक्तिरूपी कीचड़में फंसकर कष्ट उठाता है ॥१२६॥ विशेषार्थ-जैसे कीचड़में फंसा मनुष्य उसमें-से निकलने में असमर्थ होकर दुःख उठाता है, उसी तरह घरके पचड़ों में फंसा हुआ मनुष्य भी हित और अहितका विचार करने में असमर्थ होकर दुःख उठाता है। गृहस्थाश्रममें हर्ष और शोकका या सुख-दुःखका चक्र चला करता है। कहा है-'खेद है कि मूर्ख मनुष्य रतिसे अरतिकी ओर आता है और पुनः रतिकी ओर जाता है। इस तरह तीसरा पद रति और अरतिके अभावरूप परम उदासीनताको प्राप्त न करके कष्ट उठाता है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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