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________________ ३१४ धर्मामृत ( अनगार) अथ पितृमातृज्ञातीनामपकारकत्वं वक्रभणित्या निन्दन् दुष्कृतनिर्जरणहेतुत्वेनोपकारकत्वादरातीनभिनन्दति बीजं वःखैकबोजे वपुषि भवति यस्तर्षसन्तानतन्त्र स्तस्यैवाधानरक्षाधुपषिषु यतते तन्वतो या च मायाम् । भद्रं ताभ्यां पितृभ्यां भवतु ममतया मद्यवद् घूर्णयद्भयः, स्वान्तं स्वेभ्यस्तु बद्धोऽञ्जलिरयमरयः पापदारा वरं मे ॥११७॥ आधानरक्षाद्युपधिषु-गर्भाधानपालनवर्द्धनाद्युपकरणेषु । मायां-संवृति मिथ्यामोहजालम् । धूर्णयद्भयः-हिताहितविचारविलोपकरविक्लवं कुर्वद्भयः । स्वेभ्यः-बन्धुभ्यः । पापदाराः-अपकार९ करणद्वारेण पातकाम्मोचयन्तः । मुमुक्षोरात्मभावनोपदेशोऽयम् ॥११७॥ अथ पृथग्जनानां मित्रत्वमधर्मपरत्वादपवदति अधर्मकर्मण्युपकारिणो ये प्रायो जनानां सुहृदो मतास्ते। स्वान्तबंहिःसन्ततिकृष्णवमन्यरंस्त कृष्णे खलु धर्मपुत्रः ॥११८॥ स्वेत्यादि । स्वान्तःसन्ततो-निजात्मनि, कृष्णस्य-पापस्य, वर्म-मार्गः प्राप्त्युपाय इत्यर्थः । कृष्णशब्देन च सांख्याः पापमाहुः । तथाहि तत्सूत्रम्-'प्रधानपरिणामः शुक्लं कृष्णं च कर्मेति ।' तथा स्वबहिः १५ सन्ततौ-निजवंशे कृष्णवर्मा वह्निः कैरवसंहारकारकत्वात् । अरंस्त-प्रीतिमकार्षीत् ॥११८॥ अथ ऐहिकार्थसहकारिणां मोहावहत्वात्याज्यत्वमुपदर्शयन्नामुत्रिकार्थसुहृदामधस्तनभूमिकायामेवानुकर्तव्यमभिधत्ते पिता-माता आदि बन्धु-बान्धव अपकारक हैं अतः वक्रोक्तिके द्वारा उनकी निन्दा करते हैं और पापकर्मोंकी निर्जराका कारण होनेसे शत्रु उपकारक हैं अतः उनका अभिनन्दन करते हैं जो तृष्णाकी अविच्छिन्न धाराके अधीन होकर दुःखोंके प्रधान कारण शरीरका बीज है उस पिताका कल्याण हो। जो मिथ्या मोहजालको विस्तारती हुई उसी शरीरके गर्भाधान, पालन, वर्धन आदि उपकरणों में प्रयत्नशील रहती है उस माताका भी कल्याण हो। अर्थात् पुनः मुझे माता-पिताकी प्राप्ति न होवे क्योंकि वे ही इस शरीरके मूल कारण हैं और शरीर दुःखोंका प्रधान कारण है । तब बन्धु-बान्धवोंमें तो उक्त दोष नहीं हैं ? तो कहता हैममताके द्वारा मदिराकी तरह मनको हित-अहितके विचारसे शून्य करके व्याकुल करनेवाले बन्धु-बान्धवोंको तो मैं दूरसे ही हाथ जोड़ता हूँ। इनसे तो मेरे शत्रु ही भले हैं जो अपकार करके मुझे पापोंसे छुटकारा दिलाते हैं ॥११७॥ विशेषार्थ-यह मुमुक्षु के लिए आत्मतत्त्वकी भावनाका उपदेश है ।।११७।। नीच या मूर्ख लोगोंकी मित्रता अधर्मकी ओर ले जाती है अतः उसकी निन्दा करते हैं प्रायः लोगोंके ऐसे ही मित्र हुआ करते हैं जो पापकर्ममें सहायक हैं क्योंकि धर्मपुत्र युधिष्ठिरने ऐसे कृष्णसे प्रीति की जो उसकी अन्तःसन्तति अर्थात् आत्माके लिए पापकी प्राप्तिका उपाय बना । और बहिःसन्तति अर्थात् अपने वंशके लिए अग्नि प्रमाणित हुआ क्योंकि उसीके कारण कौरवोंका संहार हुआ ॥११॥ आगे कहते हैं कि जो इस लोक सम्बन्धी कार्योंमें सहायक हैं वे मोहको बढ़ानेवाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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