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________________ चतुर्थ अध्याय ३०५ मिथ्यात्व - हास्य - वेद - रत्य रति-शोक-भय-जुगुप्सा मान कोप- माया अथ धनधान्यादिग्रन्थ ग्रहाविष्टस्य लोभोद्भवपारतन्त्र्यं यत्र तत्र प्रवर्तमानमनुक्रमेण व्याकर्तुमाह श्रद्धत्तेऽनर्थमथं हसमनवसरेऽप्येत्यगम्यामपीच्छ त्यास्ते रम्येऽपि रम्येऽप्यहह न रमते दैष्टिकेऽप्येति शोकम् । यस्मात्तस्मादबिभेति क्षिपति गुणवतोऽप्युद्धतिक्रोधदम्भा नस्थानेsपि प्रयुङ्क्ते ग्रसितुमपि जगद्वष्टि सङ्गग्रहाः ॥ १०७ ॥ अनर्थं – अतत्त्वभूतं वस्तु —– तत्त्वभूतं रोचते धनेश्वरादिछन्दानुवृत्तिवशादिति यथासंभवमुपस्कारः कार्यः । तथा च पठन्ति -- 'हसति हसति स्वामिन्युच्चे रुदत्यति रोदिति गुणसमुदितं दोषापेतं प्रणिन्दति निन्दति । कृतपरिकरं स्वेदोद्गारि प्रधावति धावति धनलवपरिक्रीतं यन्त्रं प्रनृत्यति नृत्यति ॥' [ वादन्याय. पृ. १११ ] Jain Education International जिसपर धन-धान्य आदि परिग्रहका भूत सवार रहता है वह मिथ्यात्व हास्य, वेद, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मान, कोप, माया और लोभके वशीभूत होकर जहाँ-तहाँ कैसी प्रवृत्ति करता है इसे क्रमसे बतलाते हैं - परिग्रहरूपी भूतसे पीड़ित व्यक्ति अनर्थको अर्थरूप श्रद्धा करता है अर्थात् अतत्त्वभूत वस्तुको तत्त्वभूत मानता है । इससे मिथ्यात्व नामक अभ्यन्तर परिग्रहका प्रभाव बतलाया है । अवसरकी तो बात ही क्या, बिना अवसरके भी हँसता है । यह हास्य नामक परिग्रहका प्रभाव है । अगम्या स्त्रीको भी पसन्द कर लेता है अर्थात् यदि गुरु, राजा आदिकी पत्नी लालच दे कि यदि तुम मेरे साथ सहवास करोगे तो मैं तुम्हें यह यह दूँगी तो उसके लोभ में आकर उसका कहा करता है । यह पुरुषवेद नामक परिग्रहका माहात्म्य है । इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसक वेदका भी जानना । अरुचिकर भील आदिके गाँवों में भी जा बसता है । यह रति नामक परिग्रहका प्रभाव है । कभी रमणीक राजधानी आदि स्थान में भी इसका मन नहीं रमता । यह अरति नामक परिग्रहका प्रभाव है । दैववश आयी हुई विपत्ति में भी शोक करता है । यह शोक नामक परिग्रहका प्रभाव है । जिस किसीसे भी डरकर चाहे वह डरका कारण हो अथवा न हो भयभीत होता है । यह उसके भय नामक परिग्रहका प्रभाव है । दोषीकी तो बात ही क्या, गुणवान् से भी घृणा करता है । यह जुगुप्सा नामक परिग्रहका प्रभाव है । अस्थान में भी क्रोध, मान और मायाचार करता है । यह उसके क्रोध, मान और माया नामक परिग्रहका प्रभाव है। अधिक क्या कहें, परिग्रहकी भावनासे पीड़ित होकर समस्त विश्वको भी अपने उदरमें रख लेना चाहता है । यह लोभ नामक परिग्रहका प्रभाव है । यह बड़े ही खेद या आश्चर्य की बात है । ये सब अन्तरंग परिग्रह हैं ॥१०७॥ १२ अगम्यां - गुरुराजादिपत्नीम् । अरम्ये - अप्रीतिकरे भिल्लपल्ल्यादिस्थाने । दैष्टिके – दैवप्रमाणके । इष्टवियोगादी | क्षिपति - जुगुप्सते । अस्थाने -- गुर्वादिविषये । वष्टि - वाञ्छति ॥ १०७ ॥ अथाचेतनेतरबाह्यपरिग्रहद्वयस्य दुस्त्यजत्वं तावदविशेषेणैवाभिघत्ते इस तरह अन्तरंग परिग्रहका माहात्म्य बतलाकर आगे सामान्य रूप से चेतन और अचेतन दोनों ही प्रकारकी बाह्य परिग्रहको छोड़ना कितना कठिन है यह बतलाते हैं ३९ ३ For Private & Personal Use Only ६ १५ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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