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________________ चतुर्थ अध्याय 'अक्खाण रसणी कम्माण मोहणी तह वयाण बंभं च । गुत्तीणं मणगुत्ती चउरो दुक्खेण सिज्झति ॥' [ ] ॥१०२॥ ३ अथ पूर्वेऽपि भूयांसो मुक्तिपथप्रस्थायिनो ब्रह्मव्रतप्रमादभाजो लोके भूयांसमुपहासमुपगता इति दर्शयंस्तत्र सुतरां साधूनवधानपरान् विधातुमाह दुर्धर्वोद्धत मोहशौल्किक तिरस्कारेण सद्माकराद, भूत्वा सद्गुणपण्यजातमयनं मुक्तेः पुरः प्रस्थिताः । लोलाक्षी प्रतिसारकै मंदवशैराक्षिप्य तां तां हठा नीताः किन्न विडम्बनां यतिवराः चारित्रपूर्वाः क्षितौ ॥ १०३ ॥ २९९ Jain Education International ९ शौल्किक:- शुवति शुलति वा सुखेन यात्यनेनेति शुल्कः प्रावेश्यनैष्क्रम्यद्रव्येभ्यो राजग्राह्यो भागः । शुल्के नियुक्तः शौल्किकः । तेन साधर्म्यं मोहस्य पापावद्यभूयिष्ठत्वात् । तस्य तिरस्कारः छलनोपक्रमः । आक्षिप्य - सोल्लुण्ठं हठाद् व्यावर्त्य । चारित्रपूर्वा: - पूर्वशब्देन शकट - कूर्च कर रुद्रादयो गृह्यन्ते ॥ १०३ ॥ विशेषार्थ - भगवद्गीता (अ. १५/१) में कहा है - ' ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्' इसके द्वारा संसारको वृक्षका रूपक दिया है । उसीको लेकर यहाँ ग्रन्थकारने पुरुषके ऊपर घटित किया है। पुरुष मूल ऊपर है अर्थात् जिह्वा आदि उनका मूल है और हाथ-पैर आदि अवयव अधोगत शाखा हैं । इसका आशय यह है कि जिह्वाके द्वारा पुरुष जिस प्रकार - का भोजन करता है उसी प्रकारके उसके शरीरके अवयव बनते हैं । अतः जिह्वा द्वारा वाजीकरण पदार्थों का सेवन करनेसे शरीर के अवयव भी तदनुरूप होंगे। अतः उन्हें संयत करने के लिए जिह्वा इन्द्रियको संयत करना चाहिए। उसके बिना ब्रह्मचर्य का पालन कठिन है ॥ १०२ ॥ पूर्वकालमें बहुत-से मोक्षमार्गी पुरुष ब्रह्मचर्य व्रतमें प्रमाद करके लोकमें अत्यधिक उपहासके पात्र बने, यह दिखलाते हुए साधुओंको उसमें सावधान करते हैं पूर्वकालमें चारित्र, शकट, कूर्चवार रुद्र आदि अनेक प्रमुख यति, दुर्धर्ष और उद्धत चारित्र मोहनीय कर्मरूपी कर वसूल करनेवालेको छलकर घररूपी खान से सम्यग्दर्शन आदि गुणरूप बहुत-सी विक्रेय वस्तुओंको लेकर मुक्तिके मार्ग की ओर चले थे । किन्तु कर वसूल करनेवाले चारित्र मोहनीय कर्मके स्त्रीरूपी गर्विष्ठ भटोंके द्वारा बलपूर्वक पकड़ लिये गये । फिर उनकी जगत् में शास्त्र और लोकमें प्रसिद्ध क्या-क्या विडम्बना नहीं हुई, उन्हें बहुत ही दुर्दशा भोगनी पड़ी ॥१०३॥ विशेषार्थ - राज्यों में किसी खान वगैरहसे निकलनेवाली विक्रेय वस्तुओं पर कर वसूल करने के लिए मनुष्य नियुक्त होते हैं । यदि कोई मनुष्य उन्हें छलकर और खानसे रत्न आदि लेकर मार्ग में जानेका प्रयत्न करता है तो कर वसूल करनेवालोंके उन्मत्त सिपाहियोंके द्वारा पकड़े जाने पर बलपूर्वक पीछे ढकेल दिया जाता है और फिर उसकी दुर्दशाका पार नहीं रहता । वही स्थिति पूर्वकालमें कुछ यतियोंकी हुई । वे भी मोक्षमार्ग में चले थे किन्तु उनके अन्तस्तलमें बैठा हुआ चारित्र मोहनीय कर्म बड़ा उद्धत था, उसे धोखा देना शक्य नहीं था । किन्तु उन यतियोंने उसकी परवाह नहीं की और घर त्याग कर बन गये संन्यासी और चल पड़े मुक्ति की ओर। उन्हें शायद पता नहीं था कि चारित्रमोहनीय महाराजके बड़े गर्वीले भट नारीका सुन्दर रूप धारण करके ऐसे लोगोंको पकड़नेके लिए सावधान हैं । बस पकड़ लिये गये, कामिनीके मोहपाश में फँस गये। फिर तो उनकी जगत्में खूब हँसी For Private & Personal Use Only ६ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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