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________________ २८२ धर्मामृत ( अनगार) ____ एवं कामदोषान् व्याख्याय इदानीं षड्भिः पद्यैः स्त्रीदोषान् व्याचिकीर्षुः तदोषज्ञातृत्वमुखेन पाण्डित्यप्रकाशनाय मुमुक्षुमभिमुखीकुर्वन्नाह पत्यादीन् व्यसनाणवे स्मरवशा या पातयत्यञ्जसा, या रुष्टा न महत्त्वमस्यति परं प्राणानपि प्राणिनाम् । तुष्टाऽप्यत्र पिनष्टयमुत्र च नरं या चेष्टयन्तीष्टितो दोषज्ञो यदि तत्र योषिति सखे दोषज्ञ एवासि तत् ॥७२॥ पिनष्टि-संचूर्णयति सर्वपुरुषार्थोपमर्दकरत्वात् । इष्टितः-स्वेच्छातः । दोषज्ञ एवविद्वानेव ॥७२॥ विशेषार्थ-यह जीव अपने स्वरूपको नहीं जानता। इसने अनादिकालसे शरीरमें ही आत्मबुद्धि की हुई है । उसीके साथ अपना जन्म और मरण मानता है। फलतः पुद्गलमें इसकी आसक्ति बनी हुई है। जबतक इसे अपने स्वरूपका ज्ञान नहीं होता तबतक यह आसक्ति नहीं हट सकती और इस आसक्तिके हटे बिना मैथुन संज्ञासे छुटकारा नहीं हो सकता। अतः शरीर और आत्माके भेदज्ञान करानेकी सख्त जरूरत है। शरीरसे भिन्न चिदानन्दस्वरूप आत्माकी अनुभूतिके लिए शरीर और आत्माका भेदज्ञान आवश्यक है। वह होनेपर ही अपनी ओर उपयोग लगानेसे स्वात्मानुभूति होती है। किन्तु उस अनुभूतिकी बाधक है मैथुन संज्ञा। अतः मैथुनकी भावनासे मनको हटाकर आत्मभावनामें मन लगानेके आत्माके स्वरूपके प्रतिपादक ग्रन्थोंका स्वाध्याय करना चाहिए। उससे ज्यों-ज्यों आत्माभिरुचि होती जायेगी त्यों-त्यों मैथुनकी रुचि घटती जायेगी और ज्यों-ज्यों मैथुनकी रुचि घटती जायेगी त्यों-त्यों आत्माभिरुचि बढ़ती जायेगी। यह आत्माभिरुचि ही स्वात्मानुभूतिको पृष्ठभूमि है । उसके बिना ब्रह्मचर्य व्रत लेनेपर भी मैथुनकी मावनासे छुटकारा नहीं होता। इसीसे इस व्रतका नाम ब्रह्मचर्य 'आत्मामें आचरण है ॥७१॥ पहले ब्रह्मचर्यकी वृद्धि के लिए स्त्रीवैराग्यकी कारण पाँच भावनाओंको भानेका उपदेश दिया था। उनमें से कामदोष भावनाका व्याख्यान पूर्ण हुआ। आगे छह पद्योंसे स्त्री-दोष भावनाका कथन करते हुए मुमुक्षुको उनके जाननेको यह कहकर प्रेरणा करते हैं जो त्रियोंके दोषोंको जानता है वही पण्डित है जो स्त्री कामके वशमें होकर पति-पुत्र आदिको दुःखके सागरमें डाल देती है और सचमुचमें रुष्ट होनेपर प्राणियोंके महत्त्वका ही अपहरण नहीं करती किन्तु प्राणों तकका अपहरण कर डालती है। तथा सन्तुष्ट होनेपर भी अपनी इच्छानुसार चेष्टाएँ कराकर पुरुषको इस लोक और परलोकमें पीस डालती है। इसलिए हे मित्र ! यदि तुम स्वीके दोषोंको जानते हो तो तुम निश्चय ही दोषज्ञ-विद्वान् हो।।७२।। विशेषार्थ-जो वस्तुओंके यथार्थ दोषोंको जानता है उसे दोषज्ञ अर्थात् विद्वान् कहते हैं। यह बात प्रसिद्ध है। संस्कृत अमरकोशमें लिखा है-'विद्वान् विपश्चिद् दोषज्ञः' [२७५ ] अर्थात् विद्वान्, विपश्चिद्, दोषज्ञ ये विद्वान पण्डितके नाम हैं। ग्रन्थकारका कहना है कि सभी दूषित वस्तुओंके दोषोंको जानकर भी यदि स्त्रीके दोषोंको नहीं जानता तो वह विद्वान नहीं है। किन्तु जो अन्य वस्तुओंके दोषोंको जानकर या नहीं जानकर भी यदि स्त्रीके दोषोंको जानता है तो वह विद्वान् है ॥७२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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