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________________ ३ ९ १२ १५ २८० धर्मामृत (अनगार) 'रम्यमापातमात्रेण परिणामे तु दारुणम् । किपाकफलसंकाशं तत्कः सेवेत मैथुनम् ॥' [ क्व क्व स्त्रियां - मनुष्यां देव्यां तिरश्च्यां निर्जीवयां वा ॥६८॥ अथ कामाग्नेरचिकित्स्यतामाचष्टे ज्येष्ठ ज्योत्स्नेऽमले व्योम्नि मूले मध्यन्दिने जगत् । दहन् कथंचित्तिग्मांशुश्चिकित्स्यो न स्मरानलः ॥६९॥ ज्योत्स्नः - शुक्लपक्षः । अमले — निरभ्रे । मूले — मूलनक्षत्रे । यल्लोके - 'हारो जलार्द्रवसनं नलिनीदलानि प्रालेयसीकरमपस्तुहिनांशुभासः । यस्येन्धनानि सरसानि च चन्दनानि निर्वाणमेष्यति कथं स मनोभवाग्निः ॥' [ Jain Education International अपि च 'चन्द्रः पतङ्गति भुजङ्गति हारवल्ली स्रक् चन्दनं विषति मुर्मुरतीन्दुरेणुः । तस्याः कुमार ! भवतो विरहातुरायाः किन्नाम ते कठिनचित्त ! निवेदयामि ||' [ 1 ] ॥६९॥ विशेषार्थ - - एक कविने लिखा है— कामी पुरुष ऐसा कोई काम नहीं है जिसे नहीं करता। पुराणों में कहा है कि कामसे पीड़ित ब्रह्माने अपनी कन्यामें, विष्णुने गोपिकाओंमें, महादेवने शन्तनुकी पत्नीमें, इन्द्रने गौतम ऋषिकी पत्नी अहिल्यामें और चन्द्रमाने अपने गुरुकी पत्नी में मन विकृत किया । अतः मैथुनके सम्बन्धमें जो सुख की भ्रान्त धारणा है उसे दूर करना चाहिए | विषय सेवन विष सेवनके तुल्य है ||६८ || आगे कहते हैं कि कामाग्निका कोई इलाज नहीं है ] ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में, मेघरहित आकाशमें, मूल नक्षत्र में, मध्याह्न के समय में जगत्को तपानेवाले सूर्यका तो कुछ प्रतिकार है, शीतल जल आदिके सेवनसे गर्मी शान्त हो जाती है किन्तु कामरूपी अग्निका कोई इलाज नहीं है ||६९ || विशेषार्थ – ज्येष्ठ मासके मध्याह्न में सूर्यका ताप बड़ा प्रखर होता है किन्तु उसका तो इलाज है - शीत ताप नियन्त्रित कमरेमें आवास, शीतल जलसे स्नान-पान आदि । किन्तु कामाग्निकी शान्तिका कोई इलाज नहीं है। कहा है- 'हार, जलसे गीला वस्त्र, कमलिनीके पत्ते, बर्फ के समान शीतल जलकण फेंकनेवाली चन्द्रमाकी किरणें, सरस चन्दनका लेप, ये जिसके ईंधन हैं अर्थात् इनके सेवन से कामाग्नि अधिक प्रज्वलित होती है वह कामाग्नि कैसे शान्त हो सकती है' ? फिर सूर्य तो केवल दिनमें ही जलाता है और कामाग्नि रात-दिन जलाती है। छाता वगैरह से सूर्य के तापसे बचा जा सकता है किन्तु कामाग्निके तापसे नहीं बच्चा जा सकता । सूय तो शरीरको ही जलाता है किन्तु कामाग्नि शरीर और आत्मा दोनोंको जलाती है ||६९ ॥ १. 'जेट्ठामूले जोहे सूरो विमले ण डहदि तह जह पुरिसं For Private & Personal Use Only हम्मि मज्झण्हे । हृदि विवत कामो' ॥ भ. आरा ८९६ गा. । www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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