SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६३ ३ चतुर्थ अध्याय 'तव्विवरी सव्वं कज्जे काले मिदं सविसए य । भत्तादिकहारहिदं भणाहि तं चेव य सुणाहि ॥ [ भ. बारा. ८३४ गा.] ॥४७॥ अथ एकादशभिः पद्यरचौर्यव्रतं व्याचिख्यासुः स्तेये दोषख्यापनपुरःसरं तत्परिहारमुपदेष्टुं तावदिदमाह- दौर्गत्याधुग्रदुःखाग्रकारणं परवारणम् । हेयं स्तेयं त्रिधा राधुमहिंसामिष्टदेवताम् ॥४८॥ दौर्गत्यं-नरकादिगतिर्दारिद्रयं वा । आदिशब्दाद् वधबन्धादि । तदुक्तम् 'वधबन्धयातनाश्च छायाघातं च परिभवं शोकम् । स्वयमपि लभते चौरो मरणं सर्वस्वहरणं च ।। [ इत्यादि । परदारणं-परस्य धनपतेः परमुत्कृष्टं वा दारणं विनाशनम् । तदुक्तम् 'अर्थेऽपहृते पुरुषः प्रोन्मत्तो विगतचेतनो भवति । म्रियते कृतहाकारो रिक्तं खलु जीवितं जन्तोः॥ [ ] बालकोंकी भाषा। इस प्रकार ये सब वचन अनुभयरूप होते हैं। अस्तु, तथा 'मैं अयोग्य नहीं बोलता इसीलिए कि मैंने सत्यव्रत पाला है' मुमक्षको इतनेसे ही आश्वस्त नहीं होना चाहिए। क्योंकि दूसरेके द्वारा कहे गये असत्य वचनको सुननेसे भी अशुभ परिणामोंका होना सम्भव है और उससे महान् कर्मबन्ध होता है इसलिए असत्य बोलनेकी तरह असत्य सुननेसे भी साधुको यत्नपूर्वक बचना चाहिए। कहा है ____ 'हे मुमुक्षु ! तू असत्य वचनसे विपरीत सब सत्य वचनोंको बोल । ज्ञान-चारित्र आदिकी शिक्षावाला, असंयमसे बचाने वाला, दूसरेको सन्मार्गमें स्थापन करनेवाला वचन बोल । समयके अनुरूप मितवचन बोल । तथा भोजनकथा, स्त्रीकथा, चोरकथा और राजकथासे रहित वचन बोल। और इसी प्रकारके वचन सुन । असत्य वचन सुननेसे भी पाप होता है। इस प्रकार सत्यमहाव्रतका स्वरूप जानना।॥४७॥ आगे ग्यारह श्लोकोंसे अचौर्यव्रतका व्याख्यान करनेकी इच्छासे चोरीकी बुराइयाँ बतलाते हुए उसके त्यागका उपदेश देते हैं चोरी नरक आदि गति अथवा दारिद्रय आदि दुःखोंका प्रधान कारण है और जिसका धन चुराया जाता है उसके विनाशका कारण है। इष्ट देवता रूप अहिंसाकी आराधनाके लिए मन-वचन-कायसे चोरीका त्याग करना चाहिए ॥४८॥ विशेषार्थ-मूलवत अहिंसा है उसीके पालनके लिए शेष व्रत हैं। अतः पराये द्रव्यको चुराना, अनुचित साधनोंसे उसे लेना लेनेवालेके लिए भी दुःखदायक है और जिसका धन लिया जाता है उसके लिए भी दुःखकारक है अतः हिंसा है। लोकमें ही चोरको राजदण्ड भोगना होता है, जेलखानेका कष्ट उठाना पड़ता है। मारपीटकर लोग उसे अधमरा कर डालते हैं। पुराने समयमें चौरका सर्वस्व हर लिया जाता था। तथा धन मनुष्योंका दूसरा प्राण होता है। धन चुराये जानेपर उसका स्वामी पागल हो जाता है, उसकी चेतना लुप्त हो जाती है और अन्तमें वह रोता कल्पता हुआ मृत्युके मुख में चला जाता है। जबतक मनुष्य के पास धन रहता है वह अपने परिवारके साथ सुखपूर्वक जीवन बिताता है। धन चुराये जानेपर उसका सुख और जीवन दोनों ही चले जाते हैं । अतः किसी भी प्रकारके अनुचित साधनसे पराये धनको हरनेका विचार ही छोड़ने योग्य है। अनुचित साधनोंसे धनवान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy