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________________ २५४ धर्मामृत ( अनगार) अथ चतुर्विधस्याप्यनृतस्य दोषानाहयद्विश्वव्यवहारविप्लवकरं यत्प्राणिघातायघ द्वारं यद्विषशस्त्रपावकतिरस्कारोद्धराहंकृति । यन्म्लेच्छेष्वपि गहितं तदनतं जल्पन्न चेद्रौरव प्रायाः पश्यति दुर्गतीः किमिति ही जिह्वाच्छिदाद्यान् कुधीः ॥४०॥ यत्-सत्प्रतिषेधनाद्यनृतत्रयं, यत् सावद्याख्यमनृतम् । प्राणीत्यादि । तद्यथा-पृथिवीं खन्, स्नाहि शीतोदकेन, पचापूपम्, प्रसूनमुच्चिनु, चौरोऽयमित्यादि। यत् सत्प्रतिषेधनाद्यनृतत्रयं यत् सावद्याख्यमनृतं यत् गहिताख्यमनृतं कर्कशादि । तदुक्तम् 'पैशुन्यहास्यगर्भं कर्कशमसमञ्जसं प्रलपितं च । अन्यदपि यदुत्सूत्रं तत्सर्वं गर्हितं गदितम् ॥' [ पुरुषार्थसि. ९६ ] गर्हितं-निन्दितं किमिति न पश्यतीत्यत्रापि योज्यम् । जिह्वाछिदाद्यान्-जिह्वायाच्छिदा छेदनमाद्यो १२ येषां विषाग्न्युदकाद्यसहन-स्वजनावमानव-मित्रविरक्ति-सर्वस्वहरणाद्यपायानाम् ॥४०॥ वस्तुका भी जिसमें निषेध किया जाता है वह पहला असत्य है। जैसे देवदत्तके होते हुए भी कहना कि यहाँ देवदत्त नहीं है। परक्षेत्र, परकाल और परभावसे असत् भी वस्तुको सत् कहना दूसरा असत्य है। जैसे घड़ेके अभावमें भी घड़ेका सद्भाव कहना । स्वरूपसे सत् भी वस्तुको पररूपसे कहना तीसरा असत्य है जैसे गायको घोड़ा कहना। चतुर्थ असत्यके सामान्यसे तीन भेद हैं-गर्हित, सावद्य और अप्रिय । कर्कश वचन, निष्ठुर वचन, दूसरोंके दोषसूचक वचन, हास्यपरक वचन तथा जो कुछ भी वृथा बकवादरूप वचन हैं वे सब गर्हित वचन हैं। जिस वचनसे हिंसा आदि दोषोंमें प्रवृत्ति हो उसे सावद्य वचन कहते हैं। जैसे पृथ्वी खोदो, भैंस दुहो, फूल चुनो। जो वचन बैर, शोक, कलह, भय, खेद आदि उत्पन्न करता है उसे अप्रिय वचन कहते हैं। इन सभी असत्य वचनोंमें प्रमादका योग ही कारण है इसलिए असत्य बोलने में हिंसा अवश्य होती है। अतएव असत्य बोलना त्याज्य है। [ भग. आ. ८३०-३२ । पुरुषार्थ. ९६-९९ श्लो.] ॥३८-३९।। चारों ही प्रकारके असत्य वचनके दोष कहते हैं जो प्रथम तीन प्रकारके असत्य सभी लौकिक और शास्त्रीय व्यवहारोंका नाश करनेवाले हैं, सावध नामक असत्य वचन हिंसा, चोरी, मैथुन आदि पापोंका द्वार है, अप्रिय नामक असत्यका उत्कट अहंकार तो विष, शस्त्र और अग्निसे होनेवाले विनाशका भी तिरस्कार करता है । निन्दित वचन तो सब धर्मों में बहिष्कृत म्लेच्छों में भी निन्द्य माने जाते हैं । इन असत्य वचनोंको बोलनेवाला दुर्बुद्धि मनुष्य जब रौरव नरक आदि दुर्गतियोंको ही नहीं देखता तो हाय वह जिह्वाका छेदन आदि छह लौकिक अपायोंको कैसे देख सकता है ? ॥४०॥ वस्तु सदपि स्वरूपात्पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् । अनुतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरिति यथाश्वः ।। गहितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन श्रेधा मतमिदमन्तं तुरीयं तु ॥-पुरुषार्थ. ९२-९५ श्लो. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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