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________________ २५० धर्मामृत ( अनगार) अर्थतद्भावनावतां निजानुभावभरनिर्भरमहिंसामहाव्रती दूरमारोहतीति प्रतिपादयितुमाहसम्यक्त्व-प्रभुशक्ति-सम्पदमल-ज्ञानामृतांशुद्रुति निःशेषव्रतरत्नखानिरखिलक्लेशाहिताहितिः। आनन्दामृतसिन्धुरद्भतगुणामागभोगावनी श्रीलोलावसतिर्यशःप्रसवभूः प्रोदेयहिंसा सताम् ॥३५॥ शक्तिसम्पत-शक्तित्रयी। अयमर्थः-यथा विजिगीष: 'मन्त्रशक्तिर्मतिबलं कोशदण्डबलं प्रभोः। प्रभुशक्तिश्च विक्रान्तिबलमुत्साहशक्तिता ॥ [ ] इति शक्तित्रयेण शत्रूनुन्मूलयति एवं सम्यक्त्वं कर्मशत्रूनहिंसया । अमृतांशुः-चन्द्रः । द्रुति:-निर्यासः । तथा चोक्तम् 'सर्वेषां समयानां हृदयं गर्भश्च सर्वशास्त्राणाम्।। व्रतगुणशीलादीनां पिण्डः सारोऽपि चाहिंसा ॥ [ ] तााहतिः-गरुडाघातः। अमागा:-कल्पवृक्षाः । भोगावनी-देवकुरुप्रमुखभोगभूमिः । यथाऽसौ कल्पवृक्षः संततं संयुक्तं तथा अहिंसा जगच्चमत्कारकारिभिस्तपःसंयमादिभिर्गुणरित्यर्थः । श्रीलोलाव१५ सतिः-लक्ष्म्या लीलागृहं निरातङ्कतया सुखावस्थानहेतुत्वात् ।।३५॥ __अथ द्वादशभिः पद्यः सत्यव्रतं व्याचिकीर्षुरसत्यादीनां हिंसापर्यायत्वात्तद्विरतिरप्यहिंसाव्रतमेवेति ज्ञापयति-आत्मेत्यादि आगे कहते हैं कि इन भावनाओंको भानेवाले साधुओंका अहिंसा महाव्रत, जो पालन करनेवालेके भावों पर निर्भर है, उन्नत होता है अहिंसा सम्यग्दर्शनरूपी राजाकी शक्तिरूप सम्पदा है, निर्मलज्ञानरूपी चन्द्रमाका निचोड़ है, समस्त व्रतरूपी रत्नोंके लिए खान है, समस्त क्लेशरूपी सोंके लिए गरुड़का आघात है, आनन्द रूपी अमृतके लिए समुद्र है, अद्भुतगुण रूपी कल्पवृक्षोंके लिए भोग भूमि है, लक्ष्मीके विलासके लिए घर है, यशकी जन्मभूमि है। उक्त आठ विशेषणोंसे विशिष्ट अहिंसा असाधारण रूपसे शोभायमान होती है ॥३५॥ विशेषार्थ-जैसे जीतनेका इच्छुक राजा मन्त्रशक्ति, प्रभुशक्ति और उत्साह शक्तिसे सम्पन्न होने पर शत्रुओंका उन्मूलन करता है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन अहिंसाके द्वारा कर्मरूपी शत्रुओंको नष्ट करता है। निर्मल ज्ञानका सार अहिंसा ही है । कहा भी है'अहिंसा समस्त सिद्धान्तोंका हृदय है, सर्वशास्त्रोंका गर्भ है, व्रत, गुण, शील आदिका पिण्ड है । इस प्रकार अहिंसा सारभूत है।' अहिंसामें-से ही व्रतोंका निकास होता है । तथा जैसे गरुड़की चोंचके प्रहारसे सर्प भाग जाते हैं वैसे ही अहिंसासे सब क्लेश दूर होते हैं । जैसे समुद्रसे अमृत निकलता है वैसे ही अहिंसासे आनन्द रूप अमृत पैदा होता है। जैसे उत्तरकुरु आदि भोगभूमि सदा कल्प वृक्षोंसे पूर्ण रहती है वैसे ही अहिंसा, तप, संयम आदि गुणोंसे पूर्ण होती है । अहिंसकके घर में छक्ष्मीका आवास रहता है और जगत्में उसका यश छाया रहता है । इस प्रकार अहिंसा महाव्रतका स्वरूप तथा माहात्म्य जानना ।।३५।। __ आगे बारह श्लोकोंसे सत्यव्रतका कथन करते हुए बताते हैं कि असत्य आदि सभी पाप हिंसाकी ही पर्याय हैं अतः उनका त्याग भी अहिंसा व्रत ही है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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