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________________ प्रस्तावना २९ सिद्धयुपायमें आचार्य अमृतचन्द्रजीने इसे अत्यन्त स्पष्ट किया है। आशाधरजीने भी इसी अध्यायके ९१वें श्लोक में रत्नत्रयकी पूर्णताको मोक्षका ही कारण कहा है और इसी प्रसंगसे पुरुषार्थसिद्धयुपायके बहुचचित श्लोकोंको प्रमाण रूपसे उद्धृत किया है। वे श्लोक इस प्रकार हैं-' रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आसवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगस्य सोऽवमपराधः ॥ २२० ॥ असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः । पुरुषार्थसिद्धयुपायमें नीचेवाला श्लोक पहले है स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ॥ २११॥ उसकी क्रम संख्या २११ है और ऊपरवाला श्लोक बादमें है। उसकी क्रमसंख्या २२० है । इस दूसरे श्लोकका अर्थ प्रायः विद्वान् तक यह करते हैं कि 'असमयएकदेश रत्नत्रयका पालन करनेवालेके जो कर्मबन्ध होता है वह विपक्षकृत रागकृत होनेपर भी अवश्य मोक्षका उपाय है बन्धनका उपाय नहीं है।' किन्तु यह अर्थ गलत है। पं. आशाधरजीके द्वारा इस लोकको पूर्वमें न रखकर पीछे देने से इसके अर्थ में जो भ्रम है वह दूर हो जाना चाहिए। अर्थ इस प्रकार है- 'यहाँ रत्नत्रय किन्तु (एकदेश) रत्नत्रयका पालन करते हुए जो पुण्यका अर्थात् उस समय जो शुभोपयोग होता है उसके कारण निर्वाणका ही कारण है. वन्धका कारण नहीं है। आस्रव होता है वह तो शुभोपयोगका अपराध है। पुण्य कर्मका आस्रव होता है' । 'एकदेश रत्नत्रयका पालन करते हुए जो कर्मबन्ध होता है वह कर्मबन्ध अवश्य ही विपक्ष - रागकृत है । क्योंकि मोक्षका उपाय बन्धनका उपाय नहीं होता' । अर्थात् रत्नत्रयके साथ होनेवाले शुभोपयोगसे बन्ध होता है। रत्नत्रयसे बम्ब नहीं होता। रत्नत्रय तो मोक्षका ही उपाय है । और मोक्षका उपाय बन्धनका उपाय नहीं होता । यही यथार्थ है । प्रबुद्ध पाठक २११ से २२० तकके श्लोकोंको पढ़ें तो उनका भ्रम अवश्य दूर होगा। यदि आचार्य अमृतचन्द्रको पुष्पवन्धको मोक्षका कारण बतलाना इष्ट होता तो प्रथम तो वे 'कर्मबन्धो के स्थान में ही पुष्पवन्य शब्द रखते। दूसरे जो आगे कहा है कि जितने अंश में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है उतने अंशसे बन्ध नहीं होता । जितने अंशमें राग है उतने अंशमें बन्ध होता है, यह कहना व्यर्थ हो जाता है । उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता । किसी भी श्लोकका अर्थ पूर्वापर सापेक्ष ही यथार्थ होता है । पुरुषार्थसिद्धघुपायमें गृहस्वके एकदेश रत्नत्रयके कथनका उपसंहार करते हुए २०९ नम्बर के श्लोकमें कहा है कि मुक्तिके अभिलाषी गृहस्थको प्रति समय एकदेश रत्नत्रयका पालन करना चाहिए। इस परसे यह आशंका होना स्वाभाविक है कि एकदेश रत्नत्रयका पालन करते हुए भी कर्मबन्ध तो होता है । तो २१० नम्बरके पद्यमें उसे स्वीकार करते हुए कहा गया कि यह कर्मबन्ध रत्नत्रयसे नहीं होता किन्तु रत्नत्रयके विपक्षी रागके कारण होता है अर्थात् एकदेश रत्नत्रयका पालन करते हुए जो राग रहता है वही बन्धका कारण है, रत्नत्रय बन्धका कारण नहीं है । वह तो मोक्षका कारण है और जो मोक्षका कारण होता है वह बन्धका कारण नहीं होता। आगे के सब पद्य इसी की पुष्टिमें कहे गये हैं- जिस अंशसे सम्यग्दृष्टि है, सम्यग्ज्ञानी है, सम्यक्चारित्री है उस अंशसे बन्ध नहीं होता । जिस अंशसे राग है उस अंशसे वन्य होता है। योगसे प्रदेशबन्ध होता है। कषायसे स्थितिबन्ध होता है । दर्शन ज्ञान चारित्र न तो योगरूप हैं न कषायरूप हैं । तब इनसे बन्ध कैसे होता है । अतः रत्नत्रय तो निर्वाणका हो हेतु है बन्धका हेतु नहीं है। उसके होते हुए जो पुण्यका आसव होता है वह तो शुभोपयोगका अपराध है ।' यदि श्लोक २११ का अर्थ यह करते हैं कि वह कर्मबन्ध मोक्षका ही उपाय है तो आगेके कथन के साथ उसकी संगति नहीं बैठती और दोनोंमें पूर्वापर विरोध तो आता ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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