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________________ my २१४ धर्मामृत ( अनगार) . दोषोच्छेदविजम्भितः कृततमश्छेदः शिवश्रीपथः __ सत्त्वोदबोधकरः प्रक्लप्तकमलोल्लासः स्फुरद्वैभवः । लोकालोकततप्रकाशविभवः कीति जगत्पाविनों, तन्वन् क्वापि चकास्ति बोधतपनः पुण्यात्मनि व्योमनि ॥१८॥ दोषोच्छेदः-सन्देहादिविनाशो रात्रिक्षयश्च । शिवश्रीपथः-मोक्षलक्ष्मीप्राप्त्युपायः पक्षे शिवानां-मुक्तानां प्रधानमार्गः । सत्त्वोद्बोधकरः-सात्त्विकत्वाभिव्यक्तिकारी प्राणिनां निद्रापसारी च । प्रक्लुप्त इत्यादि-प्रक्लप्तो रचितः कमलायाः श्रियः, पक्षे कमलानां पङ्कजानामुल्लास उद्गतिविकासश्च येन । अथवा, कस्य आत्मनो मला रागादयस्तेषामुल्लास उदभवः प्रक्लप्तः प्रकर्षेण च्छिन्नोऽसौ येन बोधेनेति ग्राह्यम् । लोकालोको पूर्वोक्ती । लोकालोकश्चक्रवालशलः । कीति-यशः स्तुति च ॥१८॥ अथ ज्ञानस्य साधननिस्तरणयोः प्रणुदति निर्मथ्यागमदुग्धाब्धिमुद्धृत्यातो महोद्यमाः। १२ तत्त्वज्ञानामृतं सन्तु पीत्वा सुमनसोऽमराः ॥१९॥ उद्धृत्य, एतेन साधनमाम्नातं समग्रद्रव्यागमावगाहनप्रभवभावागमसंपूर्णीकरणलक्षणत्वात् तत्त्वज्ञानोद्धरणस्य । तत्त्वज्ञानामृतं-परमोदासीनज्ञानपीयूषं पीत्वा । एतेन निस्तरणमुक्तम् । तत्त्वज्ञानपरिणत्य १ सम्यग्ज्ञान सूर्यके समान है। जैसे सूर्य दोषा अर्थात् रात्रिका क्षय करने में निरंकुश रूपसे प्रवृत्त होता है वैसे ही ज्ञान भी दोषोंका विनाश करने में निरंकुश रूपसे प्रवृत्त होता है। जैसे सूर्य तमका विध्वंस करता है वैसे ही ज्ञान भी तम अर्थात् ज्ञानको रोकनेवाले कमका विध्वंस करता है। जैसे सूर्य मुक्तिको जानेवालोंका प्रधान मार्ग है (एक मतके अनुसार मुक्त हए जीव सूर्य मण्डलको भेदकर जाते हैं) वैसे ही ज्ञान भी मुक्त जीवोंका प्रधान मार्ग है। जैसे सूर्य प्राणियोंको नींदसे जगाता है वैसे ही ज्ञान भी प्राणियोंको मोहरूपी निद्रासे जगाता है। जैसे सूर्य कमलोंको विकसित करता है वैसे ही ज्ञान भी 'क' अर्थात् आत्माके रागादि मलोंकी उत्पत्तिको एकदम नष्ट कर देता है। सूर्यका प्रभाव भी मनुष्योंके मनमें चमत्कार पैदा करता है, ज्ञानका प्रभाव तीनों लोकोंका अधिपतित्व मनुष्यों के मनमें चमत्कार पैदा करता है। सूर्य अपना प्रकाश लोकालोक अर्थात् चक्रवाल पर्वतपर फैलाता है, ज्ञानका प्रकाश लोक-अलोकमें फैलता है क्योंकि वह लोकालोकको जानता है। सूर्य भी जगत्को पवित्र करनेवाली अपनी कीर्तिको फैलाता है-भक्त लोग उसका स्तुतिगान करते हैं। ज्ञान भी धर्मोपदेशरूप दिव्यध्वनिसे जगत्को पवित्र करता है। जैसे सूर्य अन्धकारादि दोषोंसे रहित आकाशमें प्रकाशित होता है वैसे ही ज्ञान भी किसी एक पुण्यात्मा जीवमें प्रकाशित होता है अर्थात् सबमें ज्ञानका उदय होना असम्भव है ।।१८।। आगे ज्ञानकी साधन आराधना और निस्तरण आराधनाको कहते हैं हिन्दू पुराणोंमें कथा है कि देवोंने बड़े उत्साहसे समुद्र-मन्थन करके अमृतका पान किया था और अमर हो गये थे। उसीको दृष्टिमें रखकर कहते हैं कि मैत्री आदि भावनाओंसे प्रसन्नचित्त ज्ञानीजन आगमरूपी समुद्रका मन्थन करके-शब्दसे, अर्थसे और आक्षेप समाधानके द्वारा पूरी तरह विलोडन करके उससे निकाले गये तत्त्वज्ञानरूपी अमृतको पीकर अपने उत्साहको बढ़ावें और अमरत्वको प्राप्त करें-पुनमरणसे मुक्त होवें ॥१९॥ विशेषार्थ-आगमरूपी समुद्रका मन्थन करके तत्त्वज्ञानरूपी अमृतका उद्धार करनेसे ज्ञानकी साधन आराधनाको कहा है क्योंकि तत्त्वज्ञानके उद्धारका मतलब है सम्पूर्ण द्रव्यरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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