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________________ ३ ६ ९ १२ १५ २१० धर्मामृत (अनगार ) अथ चरणानुयोगमीमांसायां प्रेरयति - सकलेतरचारित्रजन्मरक्षाविवृद्धिकृत् । विचारणीयश्चरणानुयोगश्चरणादृतैः ॥११॥ चरणानुयोगः– आचाराङ्गोपासकाध्ययनादि शास्त्रम् ॥११॥ अथ द्रव्यानुयोगभावनायां व्यापारयति - जीवाजीव बन्धमोक्षौ पुण्यपापे च वेदितुम् । द्रव्यानुयोगसमयं समयन्तु महाधियः ॥ १२ ॥ द्रव्यानुयोगसमयं - सिद्धान्तसूत्र-तत्त्वार्थसूत्रादिकम् । समयन्तु — सम्यग्जानन्तु ॥ १२ ॥ अथ सदा जिनागमसम्यगुपास्तेः फलमाह - सकल पदार्थबोधन हिताहितबोधनभावसंवरा, नवसंवेगमोक्षमार्गस्थिति तपसि चात्र भावनान्यदिक् । सप्तगुणाः स्युरेवममलं विपुलं निपुणं निकाचितं सार्वमनुत्तरं वृजिनहृज्जिनवाक्यमुपासितुः सदा ॥१३॥ भावसंवरः - मिथ्यात्वाद्यास्रवनिरोधः । नवेत्यादि - नवसंवेगश्च मोक्षमार्गस्थितिश्चेति समाहारः । अन्यदिक् — परोपदेशः । अमलं - पूर्वापरविरोधादिदोषरहितम् । विपुलं - - लोकालोकार्थव्यापि । निपुणं करणानुयोगमें होता है । लोकानुयोग, लोकविभाग, पंचसंग्रह आदि ग्रन्थ उसी अनुयोगके अन्तर्गत हैं ||१०|| Jain Education International चरणानुयोग के चिन्तनमें प्रेरित करते हैं— चारित्रपालन के लिए तत्पर पुरुषोंको सकलचारित्र और विकलचारित्रकी उत्पत्ति, रक्षा और विशिष्ट वृद्धिको करनेवाले चरणानुयोगका चिन्तन करना चाहिए || ११|| विशेषार्थ - हिंसा आदिके साथ रागद्वेषकी निवृत्तिको चारित्र कहते हैं । उसके दो भेद हैं- सकल चारित्र और विकल चारित्र । इन चारित्रोंको कैसे धारण करना चाहिए, धारण करके कैसे उन्हें अतीचारोंसे बचाना चाहिए और फिर कैसे उन्हें बढ़ाना चाहिए, इन सबके लिए आचारांग, उपासकाध्ययन आदि चरणानुयोग सम्बन्धी शास्त्रों को पढ़ना चाहिए ॥११॥ द्रव्यानुयोगकी भावनामें लगाते हैं dr बुद्धशाली पुरुषको जीव अजीव, बन्ध-मोक्ष और पुण्य-पापका निश्चय करने के लिए सिद्धान्तसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र, पंचास्तिकाय आदि द्रव्यानुयोग विषयक शास्त्रोंको सम्यक् रीतिसे जानना चाहिए ||१२|| इस प्रकार चारों अनुयोगों में संग्रहीत जिनागमकी उपासनाका फल कहते हैं जिनागम पूर्वापर विरोध आदि दोषोंसे रहित होनेसे अमल है, लोक और अलोकवर्ती पदार्थों का कथन करनेवाला होनेसे विपुल है, सूक्ष्म अर्थका दर्शक होनेसे निपुण है, अर्थतः अवगाढ़ - ठोस होनेसे निकाचित है, सबका हितकारी है, परम उत्कृष्ट है और पापका हर्ता है । ऐसे जिनागमकी जो सदा अच्छी रीति से उपासना करता है उसे सात गुणोंकी प्राप्ति होती है - १. त्रिकालवर्ती अनन्त द्रव्य पर्यायोंके स्वरूपका ज्ञान होता है, २. हितकी प्राप्ति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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