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________________ mr २०८ धर्मामृत ( अनगार) 'श्रुतं केवलबोधश्च विश्वबोधात् समं द्वयम् । स्यात्परोक्षं श्रुतज्ञानं प्रत्यक्षं केवलं स्फुटम् ॥ [ प्रयोगः-सर्वमने कान्तात्मकं सत्त्वात् यन्नेत्थं तन्नेत्थं यथा खपुष्यम् ॥७॥ अथ तीर्थाम्नायपूर्वकं श्रुतमभ्यस्येदित्युपदिशति वृष्टं श्रुताब्धेरुद्धृत्य सन्मेधैभव्यचातकाः। प्रथमाद्यनुयोगाम्बु पिबन्तु प्रीतये मुहुः ॥८॥ सन्मेषैः-सन्तः शिष्टा भगवज्जिनसेनाचार्यादयः ॥८॥ अथ प्रथमानुयोगाभ्यासे नियुक्ते पुराणं चरितं चार्थाख्यानं बोधिसमाधिदम् । तत्त्वप्रथार्थी प्रथमानुयोगं प्रथयेत्तराम् ॥९॥ पुराणं-पुराभवमष्टाभिधेयं त्रिषष्टिशलाकापुरुषकयाशास्त्रम् । यदार्षम्-- 'लोको देशः पुरं राज्यं तीर्थं दानतपोद्वयम् । पुराणस्याष्टधाख्येयं गतयः फलमित्यपि ॥ [ महापु. ४।२ ] श्रद्धा न हुई तो वह ज्ञान कैसे हितकारी हो सकता है। श्रुतज्ञानका बड़ा महत्त्व है। उसे केवलज्ञानके तुल्य कहा है। समन्तभद्र स्वामीने कहा है-स्याद्वाद अर्थात् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही सर्व जीवादि तत्त्वोंके प्रकाश हैं। दोनोंमें भेद प्रत्यक्षता और परोक्षता है। जो दोनों में से किसीका भी ज्ञानका विषय नहीं है वह वस्तु ही नहीं है ॥७॥ तीर्थ और आम्नायपूर्वक श्रुतका अभ्यास करनेका उपदेश देते हैं परमागमरूपी समुद्रसे संग्रह करके भगवज्जिनसेनाचार्य आदि सत्पुरुषरूपी मेघोंके द्वारा बरसाये गये प्रथमानुयोग आदि रूप जलको भव्यरूपी चातक बार-बार प्रीतिपूर्वक पान करें। विशेषार्थ-मेघोंके द्वारा समुद्रसे ग्रहीत जल बरसनेपर ही चातक अपनी चिरप्यासको बुझाता है। यहाँ भव्य जीवोंको उसी चातककी उपमा दी है क्योंकि चातककी तरह भव्य जीवोंको भी चिरकालसे उपदेशरूपी जल नहीं मिला है। तथा परमागमको समुद्रकी उपमा दी है और परमागमसे उद्धृत प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग सम्बन्धी शास्त्रोंको जलकी उपमा दी है; क्योंकि जैसे जल तृष्णाको-प्यासको दूर करता है उसी तरह शास्त्रोंसे भी संसारकी तृष्णा दूर होती है। और उन शास्त्रोंकी रचना करनेवाले भगवज्जिनसेनाचार्य आदि आचार्योंको मेधकी उपमा दी है क्योंकि मेघोंकी तरह वे भी विश्वका उपकार करते हैं ॥८॥ आगे प्रथमानुयोगके अभ्यासकी प्रेरणा करते हैं हेय और उपादेयरूप तत्त्वके प्रकाशका इच्छुक भव्य जीव बोधि और समाधिको देनेवाले तथा परमार्थ सत् वस्तु स्वरूपका कथन करनेवाले पुराण और चरितरूप प्रथमानुयोगको अन्य तीन अनुयोगोंसे भी अधिक प्रकाशमें लावे अर्थात् उनका विशेष अभ्यास करे ।।९।। १. 'स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥' -आप्तमी., १०५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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