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________________ तथा तृतीय अध्याय 'सुहमणिगोद अपज्जत्तयस्स जातस्स पढमसमयम्हि । हवदि हि सव्वजहणं णिचचुघाडं णिरावरणं ॥ [ गो. जी. ३१९ ] 'सूक्ष्मापूर्ण निगोदस्य जातस्याद्यक्षणेऽप्यदः । श्रुतं स्पर्शमतेर्जातं ज्ञानं लब्ध्यक्षराभिधम् ॥' [ ] तदेवं ज्ञानमनन्तासंख्येय(-संख्येय - ) भागवृद्धया संख्येया ( -संख्येया - ) नन्त गुणवृद्धया च वर्धमानसंख्येयलोक Jain Education International २०५ पद, पद समास, संघात, संघात समास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्ति समास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभृत-प्राभृत, प्राभृत-प्राभृत समास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तु समास, पूर्व, पूर्वसमास । ये श्रुतज्ञानके बीस भेद जानने चाहिए। इनका स्वरूप श्रीधवला टीकाके आधारपर संक्षेपमें दिया जाता है— सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक्के जो जघन्य ज्ञान होता है उसका नाम लब्ध्यक्षर है क्योंकि यह ज्ञान नाशके बिना एक रूपसे अवस्थित रहता है । अथवा केवलज्ञान अक्षर है क्योंकि उसमें हानि-वृद्धि नहीं होती । द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा चूँकि सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकका ज्ञान भी वही है इसलिए भी उसे अक्षर कहते हैं । इसका प्रमाण केवलज्ञानका अनन्तवाँ भाग है । यह ज्ञान निरावरण है क्योंकि आगम में कहा है कि अक्षरका अनन्तवाँ भाग नित्य उद्घाटित रहता है । यदि यह भी आवृत हो जाये तो जीवके अभावका प्रसंग आ जावे | यह लब्ध्यक्षर अक्षर संज्ञावाले केवलज्ञानका अनन्तवाँ भाग है । इसलिए इस लब्ध्यक्षर ज्ञानमें सब जीवराशिका भाग देनेपर ज्ञानके अविभागी प्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा सब जीवराशिसे अनन्तगुणा लब्ध आता है । इस प्रक्षेपको प्रतिराशिभूत लब्ध्यक्षर ज्ञानमें मिलानेपर पर्यायज्ञानका प्रमाण आता है । पुनः पर्यायज्ञानमें सब जीवराशिका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे उसी पर्यायज्ञानमें मिला देनेपर पर्याय समास ज्ञान उत्पन्न होता है । आगे छह वृद्धियाँ होती हैं- अनन्त भाग वृद्धि, असंख्यात भाग वृद्धि, संख्यात भाग वृद्धि, संख्यात गुण वृद्धि, असंख्यात गुण वृद्धि और अनन्त गुण वृद्धि । इनके क्रमसे असंख्यात लोकमात्र पर्याय समास ज्ञान स्थान प्राप्त होते हैं । अन्तिम पर्याय समास ज्ञान स्थानमें सब जीवराशिका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिलानेपर अक्षरज्ञान उत्पन्न होता है । वह अक्षरज्ञान सूक्ष्म निगोदू लब्ध्यपर्याप्तकके अनन्तानन्त लब्ध्यक्षरोंके बराबर हैं । अक्षर के तीन भेद हैं - लब्ध्यक्षर, निर्वृत्यक्षर और संस्थानाक्षर | सूक्ष्मनिगोद लब्ध्यपर्याप्त कसे लेकर श्रुतवली तक जीवोंके जितने क्षयोपशम होते हैं उन सबकी लब्ध्यक्षर संज्ञा है । जीवोंके मुखसे निकले हुए शब्दकी निर्वृत्यक्षर संज्ञा है । संस्थानाक्षरका दूसरा नाम स्थापनाक्षर है । 'यह वह अक्षर है' इस प्रकार अभेदरूपसे बुद्धिमें जो स्थापना होती है या जो लिखा जाता है वह स्थापनाक्षर है । इन तीन अक्षरोंमें यहाँ लब्ध्यक्षर से प्रयोजन है, शेषसे नहीं, क्योंकि वे जड़ हैं । जघन्य लब्ध्यक्षर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके होता है और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधारी होता है । एक अक्षरसे जो जघन्य ज्ञान उत्पन्न होता है वह अक्षर श्रुतज्ञान है । इस अक्षर के ऊपर दूसरे अक्षरकी वृद्धि होनेपर अक्षर समास नामक श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार एक-एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए संख्यात अक्षरोंकी वृद्धि होने तक अक्षर समास श्रुतज्ञान होता है । पुनः संख्यात अक्षरोंको मिलाकर एक पद नामक श्रुतज्ञान होता है । सोलह सौ चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी अक्षरोंका एक मध्यम पद होता For Private & Personal Use Only ३ ६ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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