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________________ तृतीय अध्याय २०३ वेत्ति । मनोमतिस्तु तथाविधं मूर्तममूर्त च । अवधिस्तु तथाविधान् पुद्गलान् पुद्गलसम्बद्धांश्च जोवान् । मनःपर्ययस्तु सर्वावधिज्ञानविषयानन्तिमभागमिति । उपयुञ्जते-स्वार्थग्रहणे व्यापारयन्ति । यथास्वं-आत्मीयप्रयोजनानतिक्रमेण । तथाहि-श्रोत्रं शास्त्रग्रहणादी, चक्षुजिनप्रतिमाभक्तपानमार्गादिनिरीक्षणे, मनश्च ३ गुणदोषविचारस्मरणादी, तथाऽवधि संदिग्धश्रुतार्थनिर्णये स्वपरायुःपरिमाणादिनिश्चये च व्यापारयन्ति, एवं मनःपर्ययमपि ॥४॥ अथ श्रुतसामग्रीस्वरूपनिर्णयार्थमाह स्वावृत्यपायेऽविस्पष्टं यन्नानार्थनिरूपणम् । ज्ञानं साक्षारसाक्षाच्च मतेर्जायेत तच्छुतम् ॥५॥ स्वावृत्यपाये-श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमे सति । नानार्थः-उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं वस्तु, तस्य प्ररूपणं-सम्यकस्वरूपनिश्चायनम् । 'श्रुतमविस्पष्टतर्कणम्' इत्यभिधानात् । शाक्षादित्यादि-घट इत्यादिशब्दश्रवणलक्षणाया धूमोऽयमित्यादि चक्षुरादिज्ञानलक्षणायाश्च मतेर्जातं क्रमेण घटादिज्ञानं वयादिज्ञानं च शब्दजं लिङ्गजं च श्रुतं स्यात् । ततश्च जातं जलधारणादिज्ञानं च श्रुतम् । श्रुतपूर्वमप्युपचारेण मतिपूर्वमित्युच्यते। १२ या कहा था। विपुलमतिके छह भेद हैं-तीन ऋजुरूप और तीन वक्ररूप । ऋजुमति मनःपर्यय वर्तमान जीवके द्वारा चिन्तित त्रिकालवर्ती रूपी पदार्थोंको जानता है किन्तु विपुलमति चिन्तन करनेवाला यदि भूत हो-पहले हो चुका हो या आगे होनेवाला हो तब भी उसके द्वारा चिन्तित या आगामी काल में विचारे जानेवाले रूपी पदार्थोंको भी जानता है। हृदयमें खिले हुए आठ पाँखुड़ीके कमलके आकार द्रव्यमन स्थित है वही मनःपर्ययज्ञानका कारण है। ये सभी ज्ञान सामान्य विशेषात्मक वस्तुके स्वरूपको जानते हैं। उनमें से इन्द्रियजन्य मतिज्ञान केवल मत द्रव्यकी कुछ ही पर्यायोंको जानता है। मनोजन्य मतिज्ञान मर्त और अमूर्त द्रव्योंकी कुछ पर्यायोंको जानता है । अवधिज्ञान पुद्गल और पुद्गलसे सम्बद्ध जीवोंकी कुछ पर्यायोंको जानता है। मनःपर्ययज्ञान सर्वावधिज्ञानके विषयभूत द्रव्यके भी अनन्तवें भागको जानता है। सभी ज्ञान यथायोग्य अपने प्रयोजनके अनुसार ही पदार्थों को जानते हैं । यथा-मुमुक्षुगण श्रोत्रके द्वारा शास्त्र श्रवण करते हैं, चक्षुके द्वारा जिनप्रतिमाका, खानपानका और मार्ग आदिका निरीक्षण करते हैं, मनके द्वारा गुण-दोषका विचार स्मरण आदि करते हैं । अवधिज्ञानसे शास्त्रके सन्दिग्ध अर्थका निर्णय करते हैं, अपनी और दूसरोंकी आयुके परिमाणका निश्चय करते है। इसी तरह मनःपर्ययको भी जानना ।।४।। श्रुतज्ञानकी सामग्री और स्वरूपका विचार करते हैं श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेपर उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक या अनेकान्तात्मक वस्तुके स्वरूपका निश्चय करनेवाले अस्पष्ट ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं। यह श्रुतज्ञान या तो साक्षात् मतिज्ञानपूर्वक होता है या परम्परा मतिज्ञानपूर्वक होता है ।।५।। विशेषार्थ-श्रुतज्ञान दो प्रकारका है-शब्दजन्य और लिंगजन्य । 'घट' इत्यादि शब्दके सुननेरूप मतिज्ञानके अनन्तर होनेवाले घटादिके ज्ञानको शब्दजन्य श्रुतज्ञान कहते हैं । और 'यह धूम है' इत्यादि चक्षु आदिके द्वारा होनेवाले मतिज्ञानके अनन्तर होनेवाले आग वगैरहके ज्ञानको लिंगजन्य श्रुतज्ञान कहते हैं। घट आदिके ज्ञानके बाद जो यह ज्ञान होता है कि यह घट जल भरनेके काम आता है या अग्निके ज्ञान के बाद जो यह ज्ञान होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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