SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ तृतीय अध्याय २०१ तल्लक्षणविकल्पस्वामिशास्त्रं त्विदम् 'अवधीयत इत्युक्तोऽवधिः सीमा सजन्मभूः । पर्याप्तश्वभ्रदेवेषु सर्वाङ्गो (-त्थो जिनेषु च ।। गुणकारणको मर्त्यतिर्यक्ष्वब्जादिचिह्नजः । सोऽवस्थितोनु-) गामी स्याद् वर्धमानश्च सेतरः ॥ [ ] इत्यादि । किं चावधिज्ञानिनां नाभेरुपरि शङ्खपद्मादिलाञ्छनं स्यात्, विभङ्गज्ञानिनां तु नाभेरधः ६ शरटमर्कटादिः । मनःपर्ययः । तल्लक्षणाया (?) यथा -- 'स्वमनः परीत्य यत्परमनोऽनुसंधाय वा परमनोऽर्थम् । विशदमनोवृत्तिरात्मा वेत्ति मनःपर्ययः स मतः ॥' [ अवधिज्ञानका लक्षण, भेद और स्वामीका कथन करते हुए कहा है 'अवधि' का अर्थ है मर्यादा या सीमा। मर्यादा सहित ज्ञानको अवधिज्ञान कहते हैं । उसके दो भेद हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । भवप्रत्यय-जन्मसे ही होनेवाला अवधिज्ञान देवों और नारकियों तथा तीर्थंकरोंके होता है। यह समस्त अंगोंसे उत्पन्न होता है। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तिर्यञ्च और मनुष्योंमें होता है । अवधिज्ञानियोंके नाभिके ऊपर शंख, पद्म आदि चिह्न प्रकट होते हैं और कुअवधिज्ञानियोंके नाभिसे नीचे सरट, मर्कट आदि चिह्न होते हैं। उन्हींसे अवधिज्ञान होता है। षट्खण्डागमके वर्गणा खण्ड (पु. १३, पृ. २९२, सूत्र ५६) में अवधिज्ञानके अनेक भेद कहे हैं । उनका कथन श्रीधवलाटीकाके अनुसार किया जाता है अवधिज्ञान अनेक प्रकारका है-देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, हीयमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एकक्षेत्र, अनेकक्षेत्र । जो अवधिज्ञान कृष्णपक्षके चन्द्रमाके समान घटता ही जाये वह हीयमान है। इसका अन्तर्भाव देशावधिमें होता है, परमावधि, सर्वावधिमें नहीं; क्योंकि ये दोनों घटते नहीं हैं। जो अवधिज्ञान शुक्लपक्षके चन्द्रमाके समान बढ़ता ही रहता है वह वधमान है। इसका मोव देशावधि, परमावधि, सावंधिमें होता है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर हानि वृद्धिके बिना केवलज्ञान होनेतक अवस्थित रहता है वह अवस्थित है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर कभी बढ़ता है, कभी घटता है और कभी अवस्थित रहता है वह अनव स्थित अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर जीवके साथ जाता है वह अनुगामी है। वह तीन प्रकारका है-क्षेत्रानुगामी, भवानगामी और क्षेत्रभवानगामी। जो अवधिज्ञान एक क्षेत्र में उत्पन्न होकर जीवके स्वयं या परप्रयोगसे स्वक्षेत्र या परक्षेत्रमें जानेपर नष्ट नहीं होता वह क्षेत्रानुगामी है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर उस जीवके साथ अन्य भवमें जाता है वह भवानुगामी है। जो अवधिज्ञान भरत, ऐरावत, विदेह आदि क्षेत्रों में तथा देव, नारक, तिर्यश्च और मनुष्य भवमें भी साथ जाता है वह क्षेत्रभवानुगामी है । अननुगामी अवधिज्ञान अन्त १. तत्त्वार्थ राजवातिक आदि में सर्वावधिको वर्धमान नहीं कहा है क्योंकि पूरे अवधिका नाम सर्वावधि है। उसमें आगे बढ़ने का स्थान नहीं है। २. सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थ राजवातिकमें केवलज्ञानकी उत्पत्ति तक या वह जीवन समाप्त होने तक तदवस्थ रहनेवाले अवधिज्ञानको अवस्थित कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy