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________________ तृतीय अध्याय अथ मनसः श्रुतसंस्कारपुरःसरस्वसंवेदनोपयोगेन शुद्धचिद्रूपतापरिणति दृष्टान्तेन स्पष्टयति श्रुतसंस्कृतं स्वमहसा स्वतत्त्वमाप्नोति मानसं क्रमशः। विहितोषपरिष्वङ्ग शुद्धयति पयसा न किं वसनम् ॥३॥ स्वमहसा-स्वसंवेदनेन । उक्तं च 'अविद्याभ्याससंस्कारैरवश्यं क्षिप्यते मनः।। तदेव ज्ञानसंस्कारैः स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ॥ [ समा. तं. ३७ श्लो. ] स्वतत्त्वं-शुद्धचिन्मात्रं तस्यैव मुमुक्षुभिरपेक्षणीयत्वात् । तदुक्तम् 'अविद्यासंस्कारव्यतिकरविवेकादकलिलं प्रवृत्ति-व्यावृत्ति-प्रतिविहतनैष्कर्म्यमचलम् । लयात्पर्यायाणां क्रमसहभुवामेकमगुणं स्वतत्त्वं चिन्मात्रं निरुपधि विशुद्धं स्फुरत वः ॥ [ ] ॥३॥ रागादि दोषोंसे रहित और अव्याबाध सुख आदि गुणोंसे सहित आत्माका भावकर्म शब्दसे कहे जानेवाले रागादिरूप विकल्प जालसे भेद नहीं जानता। इसी तरह कर्मरूपी शत्रुओंका नाश करने में समर्थ अपने परमात्मतत्त्वका ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्मोंके साथ भी भेद नहीं जानता। तथा शरीरसे रहित शुद्ध आत्मपदार्थका शरीर आदि नोकमसे भी भेद नहीं जानता । इस प्रकारका भेदज्ञान न होनेसे उसे अपने शुद्ध आत्माकी ओर रुचि नहीं होती और रुचि न होनेसे वह समस्त रागादिसे रहित आत्माका अनुभवन नहीं करता । तब वह कैसे कर्मक्षय कर सकता है। अतः मुमुक्षुओंको परमागमके उपदेशसे उत्पन्न निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञानकी ही भावना करनी चाहिए। सारांश यह है कि परमागमसे सभी द्रव्यगुण पर्याय ज्ञात होते हैं क्योंकि आगम परोक्ष होते हुए भी केवलज्ञानके समान है। पीछे आगमके आधारसे स्वसंवेदन ज्ञान होनेपर स्वसंवेदन ज्ञानके बलसे केवलज्ञान होनेपर सभी पदार्थ प्रत्यक्ष हो जाते हैं। इसलिए श्रुतज्ञानरूपी चक्षु परम्परासे सबको देखती है इसलिए श्रुतकी आराधना करनी चाहिए ॥२॥ मनके श्रुतसंस्कारपूर्वक स्वसंवेदनरूप उपयोगके द्वारा शुद्ध चिद्रप परिणतिको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं_____ कालक्रमसे श्रुतज्ञानसे भावित मन स्वसंवेदनसे शुद्ध चिन्मात्र स्वतत्त्वको प्राप्त कर लेता है । क्या खारी मिट्टीसे रगड़ा गया वस्त्र जलसे शुद्ध नहीं होता ॥३॥ विशेषार्थ-यहाँ मन वस्त्रके समान है। श्रुतज्ञान खारी मिट्टी या क्षारके समान है। स्वसंवेदन जलके समान है। जैसे वस्त्रकी शुद्धि कालक्रमसे होती है। उसी तरह मनकी शुद्धि भी धीरे-धीरे कालक्रमसे होती है। कहा है 'अविद्या अर्थात् अज्ञानके अभ्याससे उत्पन्न हुए संस्कारों द्वारा मन पराधीन होकर चंचल हो जाता है-रागी-द्वेषी बन जाता है। वही मन श्रुत्तज्ञानके संस्कारोंके द्वारा स्वयं ही आत्मस्वरूप स्वतत्व में स्थिर हो जाता है। यहाँ स्वतत्त्वसे शुद्ध चिन्मात्र लेना चाहिए क्योंकि मुमुक्षुओंको उसीकी अपेक्षा होती है ॥३॥ :: 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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