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________________ १८८ धर्मामृत ( अनगार) अथ स्वपरयोः स्थितिकरणाचरणमाह दैवप्रमादवशतः सुपथश्चलन्तं ___स्वं धारयेल्लघु विवेकसुहृदबलेन । तत्प्रच्युतं परमपि दृढयन् बहुस्वं, स्याद्वारिषेणवदलं महतां महाहः॥१०६॥ सुपथः-व्यस्ताद् समस्ताद्वा रत्नत्रयात् । धारयेत्-स्थिरीकुर्यात् । तत्प्रच्युतं-सन्मार्गप्रच्यवनोन्मुखम् । दृढयन्-स्थिरीकुर्वन् । बहुस्वं-आत्मानमिव । ईषदसिद्धः स्व इति विगृह्य 'वा सुपो बहुः प्राक्' इत्यनेन बहुप्रत्ययः पूर्वो विधीयते । महाहः-पूज्यः ।। उक्तं च-'कामक्रोधमदादिषु चलयितुमुदितेषु वर्त्मनो न्याय्यात् । __द्रुतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ।।' [ पुरुषार्थ. २७ ] ॥१०६॥ अथाऽन्तर्बहिर्वात्सल्यकरणे प्रयुङ्क्ते धेनुः स्ववत्स इव रागरसावभीषणं दृष्टि क्षिपेन्न मनसापि सहेत् क्षति च । धर्मे सधर्मसु सुधीः कुशलाय बद्ध प्रेमानुबन्धमथ विष्णुवदुत्सहेत ॥१०७॥ दृष्टि-अन्तर्मतिं चक्षुश्च । क्षिपेत्-व्यापारयेत् । विष्णुवत्-विष्णुकुमारो यथा। उक्तं च 'अनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्मे ।। सर्वेष्वपि च सधर्मसु परमं वात्सल्यमवलम्ब्यम् ।।' [पुरुषार्थ. २९] ॥१०७॥ इस अंगका पालन करनेवालोंमें जिनेन्द्र भक्त सेठ प्रसिद्ध हुआ है। उसने एक क्षुल्लक भेषधारी चोरके अपने चैत्यालयसे मणि चुरा लेनेपर भी धर्मकी निन्दाके भयसे उसका उपगूहन किया था ॥१०५॥ अपना और दूसरोंका स्थितिकरण करनेकी प्रेरणा करते हैं बलवान् दैव-पूर्वकृत कर्म और प्रमादके वशसे सम्पूर्ण रत्नत्रयरूप या उसके एक देशरूप सुमागसे गिरनेके अभिमुख अपनेको युक्तायुक्त विचाररूप मित्रकी सहायतासे शीघ्र ही सन्मार्गमें स्थिर करना चाहिए। सन्मार्गसे गिरनेके अभिमुख दूसरे साधर्मीको भी अपनी ही तरह सन्मार्गमें स्थिर करनेवाला श्रेणिक-पुत्र वारिषेणकी तरह इन्द्रादिके द्वारा महान् पूज्य होता है ॥१०६।। अन्तरंग और बाह्य वात्सल्यके करनेकी प्रेरणा करते हैं जैसे तत्कालकी ब्याही हुई गाय अपने बच्चेपर अनुरागवश निरन्तर दृष्टि रखती है, उसे आँखोंसे ओझल नहीं होने देती, और उसकी हानि नहीं सह सकती, उसी तरह मुमुक्षुको भी धर्म में अपनी दृष्टि रखनी चाहिए। तथा मनसे भी की गयी धर्मकी क्षतिको नहीं सहना चाहिए । और साधर्मी जनोंके कल्याणके लिए विष्णुकुमार मुनि की तरह स्नेहके अनुबन्धको लिये हुए प्रयत्न करना चाहिए ॥१०७॥ विशेषार्थ-वात्सल्य अंगका पालन करनेवालोंमें मुनि विष्णुकुमार प्रसिद्ध हुए हैं। उन्होंने बलिके द्वारा अकम्पनाचार्य सहित सात सौ मुनियों पर किये गये उपसर्गको अपनी विक्रिया दृष्टिके द्वारा दूर करके वात्सल्य अंगका पालन किया था ॥१०७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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