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________________ १८४ धर्मामृत ( अनगार) अथ हिंसाहिंसयोर्माहात्म्यमाह हीनोऽपि निष्ठया निष्ठागरिष्ठः स्यादहिंसया। हिंसया श्रेष्ठनिष्ठोऽपि श्वपचादपि हीयते ॥१०१।। निष्ठया-व्रतादिना ॥१०॥ अथ मिथ्याचारित्रपरैः सह सांगत्यं प्रत्याख्याति केचित् सुखं दुःख निवृत्तिमन्ये प्रकर्तुकामाः करणीगुरूणाम् । कृत्वा प्रमाणं गिरमाचरन्तो हिंसामहिंसारसिकैरपास्याः ॥१०२॥ करणीगुरूणां-मिथ्याचार्याणाम् ॥१०२॥ अथ त्रिमूढापोढत्वं सम्यग्दृष्टभूषणत्वेनोपदिशति यो देवलिङ्गिसमयेषु तमोमयेषु लोके गतानुगतिकेऽप्यपथैकपान्थे । न द्वेष्टि रज्यति न च प्रचरद्विचारः सोऽमूढदृष्टिरिह राजति रेवतीवत् ॥१०३॥ समयः-शास्त्रम्। तमोमयेषु-अज्ञानरूपेष्वज्ञानबहुलेषु वा । अपथैकपान्थे–केवलोन्मार्गानन्यचारिणि । ननु च कथमेतद् यावता लोकदेवतापाषण्डिभेदात् त्रिधैव मूढमनुश्रुयते। तथा च स्वामिसूक्तानियदि तत्काल सद्बुद्धि आ जानेसे पंचनमस्कार मन्त्रका जप करते हुए प्राण छोड़ता है तो वह अपनी गलतीका प्रतीकार तत्काल कर लेता है अतः अनन्त दुःखका भागी नहीं होता ।।१०।। हिंसा और अहिंसाका माहात्म्य कहते हैं व्रतादिके अनुष्ठानरूप निष्ठासे हीन भी व्यक्ति द्रव्य और भावहिंसाके त्यागसे निष्ठाशाली होता है और उत्कृष्ट निष्ठावाला भी व्यक्ति हिंसा करनेसे चाण्डालसे भी नीच होता है ॥१०॥ मिथ्याचारित्रका पालन करनेवालोंके साथ संगति करनेका निषेध करते हैं कुछ लोग स्वयं अपनेको और अपने सम्बन्धियोंको खूब सुखी करनेकी इच्छासे और कुछ दुःख दूर करनेकी इच्छासे मिथ्या आचार्योंकी वाणीको प्रमाण मानकर हिंसा करते हैं। अहिंसाप्रेमियोंको उनसे दूर ही रहना चाहिए ।।१०२॥ आगे कहते हैं कि तीन मूढ़ताओंका त्याग सम्यग्दृष्टिका भूषण है जो विचारशील पुरुष अज्ञानमय या अज्ञानबहुल देव, गुरु, शास्त्रमें तथा केवल कुमार्गमें नित्य गमन करनेवाले गतानुगतिक लोगोंमें न द्वेष करता है और न राग करता है वह अमूढदृष्टि इस लोकमें रानी रेवतीकी तरह सम्यक्त्वके आराधकके रूपमें शोभित होता है ।।१०।। विशेषार्थ-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमके द्वारा जो वस्तु जिस रूपमें स्थित है उसको उसी रूप में व्यवस्थित करने में हेतु तर्क वितर्कको विचार कहते हैं। तथा देश काल और समस्त पुरुषोंकी अपेक्षा बाधकामावरूपसे विचारका प्रवर्तन करनेवालेको विचारशील कहते हैं । बिना विचारे काम करनेवालोंका देखादेखी अनुसरण करनेवालोंको गतानुगतिक कहते हैं। ऐसे लोगोंमें और कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्रमें जो न राग करता है और न द्वेष करता है अर्थात् उनकी उपेक्षा करता है वह अमूढ़दृष्टि है। यहाँ यह शंका होती है कि मूढ़ताके तो तीन ही भेद हैं लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता और पाषण्डिमूढ़ता । स्वामी समन्तभद्रने कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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