SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना २३ तक ही जावे । जहाँ विरोधके निमित्त हों वहाँ न जावे । दुष्ट गधा, ऊँट, भैंस, बैल, हाथी, सर्प आदिको दूरसे ही बचा जाये। मदोन्मत्त जनोंसे दूर रहे। स्नान, विलेपन, मण्डन तथा रतिक्रीडामें आसक्त स्त्रियों की ओर न देखे । सम्यक विधिसे दिये हुए आहारको सिद्धभक्ति करके ग्रहण करे। छिद्र रहित पाणिपात्रको नाभिप्रदेशके समीप करके शुरशुर आदि शब्द रहित भोजन करे। भोजन करके मुख, हाथ, पैर धोकर शुद्ध जलसे पूर्ण कमण्डल लेकर घरसे निकले । धर्मकार्यके बिना अन्य घरमें न जावे। इस प्रकार जिनालय आदिमें जाकर प्रत्याख्यान ग्रहण करके प्रतिक्रमण करे । उत्तराध्ययनके २६वें अध्ययनमें साधुकी दिनचर्या दी हुई है। दिन और रातको चार पहरोंमें विभाजित किया है। रात्रिके प्रथम पहर में स्वाध्याय, दूसरेमें ध्यान, तीसरेमें शयन और चतुर्थमें स्वाध्यायका विधान किया है। उसकी दैनिक चर्याके मुख्य कार्य हैं प्रतिलेखना, स्वाध्याय, आलोचना, गोचरी, कायोत्सर्ग और प्रतिक्रमण । छह आवश्यक छह आवश्यक दोनों परम्पराओंमें समान हैं। वे हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग। साधु प्रतिलेखना करके शुद्ध होकर प्रतिलेखनाके साथ हाथोंकी अंजलि बनाकर कायोत्सर्गपूर्वक • एकाग्रमनसे सामायिक करता है। उस समय साधु समस्त सावद्यसे विरत, तीन गुप्तियोंसे युक्त, इन्द्रियोंको वशमें करके सामायिक करता है अतः वह स्वयं सामायिकस्वरूप होता है। उस समय उसका सबमें समता भाव होता है। दोनों पैरोंके मध्यमें चार अंगुलका अन्तर रखकर कायोत्सर्गपूर्वक चौबीस तीर्थंकरोंका स्तवन चतुर्विशतिस्तव है। कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म ये सब वन्दनाके ही नाम हैं । बत्तीस दोष टालकर वन्दना करनी चाहिए। वन्दनाका मतलब है तीर्थकर, आचार्य आदिके प्रति विनय करना। इससे कर्मोकी निर्जरा होती है । इसका विस्तृत वर्णन मूलाचारके षडावश्यक अधिकारमें है । लगे हुए दोषोंकी विशुद्धिको प्रतिक्रमण कहते हैं । दोनों परम्पराओं में प्रतिक्रमणके छह भेद समान हैदेवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक । यह आलोचनापूर्वक होता है । वन्दनाके पश्चात् बैठने के स्थानको पिच्छिकासे परिशुद्ध करके साधुको गुरुके सम्मुख दोनों हाथोंकी अंजलि करके सरलतापूर्वक अपने दोषोंको स्वीकार करना चाहिए। दोनों ही परम्पराएं इस विषयमें एकमत हैं कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरके समयमें प्रतिक्रमण करना आवश्यक है, चाहे दोष हुआ हो या न हुआ हो। किन्तु मध्यके बाईस तीथंकरों के साधु दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण करते थे। प्रत्याख्यानके दसे भेद है-अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, निखण्डित, साकार, अनाकार, परिमाणगत, अपरिशेष, अध्वानगत और सहेतुक । जैसे चतुर्दशीका उपवास तेरसको करना अनागत प्रत्याख्यान है। चर्तुदशीका उपवास प्रतिपदा आदिमें करना अतिक्रान्त प्रत्याख्यान है। यदि शक्ति होगी तो उपवास करूंगा, इस प्रकार संकल्प सहित प्रत्याख्यान कोटिसहित है । यथासमय उपवास आदि अवश्य करना निखण्डित है। १. मूलाचार ७१२९ । २. मूला. ७।१४०-१४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy