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________________ द्वितीय अध्याय १८१ 'एकैकं न त्रयो द्वे द्वे रोचन्ते न परे त्रयः। एकस्त्रीणीति जायन्ते सप्ताप्येते कुदर्शनाः ॥ [ अमि. श्रा. २।२६ ] ॥१५॥ अथापरैरपि मिथ्यादृष्टिभिः सह संसर्ग प्रतिषेधतिमुद्रां सांव्यवहारिकी त्रिजगतीवन्द्यामपोद्याहती, वामां केचिदहंयवो व्यवहरन्त्यन्ये बहिस्तां श्रिताः। लोकं भूतवदाविशन्त्यदशिनस्तच्छायया चापरे, म्लेच्छन्तीह तकैस्त्रिधा परिचयं पुंदेहमोहैस्त्यज ॥१६॥ मुद्रां-आचेलक्यादिलिङ्गं टंकादिनाणकाकृति च । सांव्यवहारिकी-समीचीनप्रवृत्तिप्रयोजनाम् । अपोद्य-अपवादविषयां कृत्वा 'निषिद्धय' इत्यर्थः । वामां-तद्विपरीतां । केचित्-तापसादयः । अहंयव:- अहङ्कारिणः । अन्ये--द्रव्यजिनलिङ्गमलधारिणः । तच्छायया-अर्हद्गतप्रतिरूपकेण । अपरे-द्रव्यजिनलिङ्गधारिणः। म्लेच्छन्ति-म्लेच्छा इदाचरन्ति । तक:-कुत्सितस्तैः । त्रिधा परिचयं-मनसानुमोदनं वाचा कीर्तनं कायेन संसर्ग च । तदुक्तम् ९ १२ माननेवाला चार, सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्रको न माननेवाला पाँच, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको न माननेवाला छह तथा तीनोंको ही न माननेवाला सात । कहा भी है 'जिन्हें तीनों में से एक-एक नहीं रुचता ऐसे तीन, जिन्हें दो-दो नहीं रुचते ऐसे तीन और जिन्हें तीनों भी नहीं रुचते ऐसा एक, इस तरह ये सातों भी मिथ्यादृष्टि हैं।' ये सम्यग्दर्शनके प्रभाव और स्वरूपको क्षति पहुँचाने में तत्पर रहते हैं। अतः सम्यग्दृष्टिको इनसे दूर रहना चाहिए ॥९५॥ अन्य मिथ्यादृष्टियोंके भी साथ सम्बन्ध रखनेका निषेध करते हैं दिगम्बरत्वरूप जैनी मुद्रा तीनों लोकोंमें वन्दनीय है, समीचीन प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप व्यवहारके लिए प्रयोजनीभूत है। किन्तु इस क्षेत्रमें वर्तमान कालमें उस मुद्राको छोड़कर कुछ अहंकारी तो उससे विपरीत मुद्रा धारण करते हैं-जटा धारण करते हैं, शरीर में भस्म रमाते हैं। अन्य द्रव्य जिनलिंगके धारी अपनेको मुनि माननेवाले अजितेन्द्रिय होकर उस जैन मुद्राको केवल शरीरमें धारण करके धर्मके इच्छुक लोगोंपर भूनकी तरह सवार होते हैं। अन्य द्रव्यलिंगके धारी मठाधीश भट्टारक हैं जो जिनलिंगका वेष धारण करके म्लेच्छोंके समान आचरण करते हैं। ये तीनों पुरुषके रूपमें साक्षात् मिथ्यात्व हैं। इन तीनोंका मनसे अनुमोदन मत करो, वचनसे गुणगान मत करो और शरीरसे संसर्ग मत करो। इस तरह मन-वचन-कायसे इनका परित्याग करो ॥९॥ विशेषार्थ-इस श्लोकके द्वारा ग्रन्थकारने अपने समयके तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि साधुओंका चित्रग करके सम्यग्दृष्टिको उनसे सर्वथा दूर रहनेकी प्रेरणा की है। इनमें से प्रथम तो अन्य मतानुयायी साधु हैं जो भस्म रमाते हैं और जटा वगैरह धारण करते हैं। किन्तु शेष दोनों जैन मतानुयायी साधु हैं जो बाहरसे दिगम्बर जैन मुनिका रूप धारण किये होते हैं-नग्न रहते हैं, केश लोंच करते हैं। किन्तु अन्तरंगमें सच्चे मुनि नहीं होते। इन दोमें-से अन्तिम मठाधीश भट्टारक होते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि शंकराचार्यने जैनों और बौद्धोंके विरुद्ध जो अभियान चलाया था और दण्डी साधुओंकी सृष्टि करके धर्म के संरक्षणके लिए भारतमें मठोंकी स्थापना की थी उसीके अनुकरणपर जैनोंमें भी साधुओंने वनवास छोड़कर मन्दिरोंमें रहना शुरू किया और मन्दिरोंके लिए दानादि स्वीकार करके धर्मकी रक्षाका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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