SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्याय १६३ अथ सुसिद्धसम्यक्त्वस्य न परं विपदपि संपद् भवति कि तहि तन्नामोच्चारिणोऽपि विपद्धिः सद्यो मुच्यन्त इति प्रकाशयति सिंहः फेरिभः स्तम्भोऽग्निरुदकं भीष्मः फणी भूलता पाथोधिः स्थलमन्दुको मणिसरश्चौरश्च दासोऽञ्जसा । तस्य स्याद ग्रहशाकिनोगदरिपुप्रायाः पराश्चापद स्तन्नाम्नापि वियन्ति यस्य वदते सदृष्टिदेवी हृदि ॥६७॥ फेरुः-शृगालः । भूलता--गण्डूपदः । अन्दुक:-शृंखला । मणिसरः-मुक्ताफलमाला । अञ्जसाझगिति परमार्थेन वा । वियन्ति-विनश्यन्ति । वदते-वदितुं दीप्यते सुसिद्धा भवतीत्यर्थः । 'दीप्त्युपाक्तिज्ञानेहविमत्युपमंत्रणे वद' इत्यात्मनेपदम् ॥६॥ अथ मुमुक्षून सम्यग्दर्शनाराधनायां प्रोत्साहयन् दुर्गतिप्रतिबन्धपुरस्सरं परमाभ्युदयसाधनाङ्गत्वं साक्षान्मोभाङ्गत्वं च तस्य दृढयितुमाह परमपुरुषस्याद्या शक्तिः सुदृग् वरिवस्यता नरि शिवरमासाचीक्षा या प्रसीदति तन्वती। कृतपरपुरभ्रंशं क्लुप्तप्रभाभ्युदयं यया सृजति नियतिः फेलाभोक्त्रीकृतत्रिजगत्पतिः॥६॥ वरिवस्यतां-हे मुमुक्षवो युष्माभिराराध्यताम् । नरे-पुरुषे। शिवरमासाचीक्षा-मोक्षलक्ष्मीकटाक्षम् । प्रसीदति-शंकादिमलकलङ्कविकलतया प्रसन्ना भवति । तन्वती-दीर्घाकुर्वती । मोक्षलक्ष्मी तद्भवलभ्यां द्वित्रिभवलम्यां वा कुर्वतीत्यर्थः । कृतपरपुरभ्रंशं-परेण- सम्यक्त्वापेक्षया मिथ्यात्वेन सम्पाद्यानि १८ आगे कहते हैं कि जो सम्यग्दर्शनको अच्छी तरहसे सिद्ध कर चुके हैं उनकी विपत्ति भी संपत्ति हो जाती है। इतना ही नहीं, किन्तु उनका नाम लेनेवाले भी विपत्तियोंसे तत्काल मुक्त हो जाते हैं जिस महात्माके हृदयमें सम्यग्दर्शन देवता बोलता है उसके लिए भयंकर सिंह भी शृगालके समान हो जाता है अर्थात् उसके हुंकार मात्रसे भयंकर सिंह भी डरकर भाग जाता है, भयंकर हाथी जड़ हो जाता है अर्थात् क्रूर हाथीका बकरेकी तरह कान पकड़कर उसपर वह चढ़ जाता है, भयंकर आग भी पानी हो जाती है, भयंकर सर्प केंचुआ हो जाता है अर्थात् केचुआकी तरह उसे वह लांघ जाता है, समुद्र स्थल हो जाता है अर्थात् समुद्र में वह स्थलकी तरह चला जाता है, साँकल मोतीकी माला बन जाती है, चोर उसका दास बन जाता है। अधिक क्या, उसके नामका उच्चारण करने मात्रसे भी ग्रह, शाकिनी, ज्वरादि व्याधियाँ और शत्रु वगैरह जैसी प्रकृष्ट विपत्तियाँ भी नष्ट हो जाती हैं ।।६७॥ मुमुक्षुओंको सम्यग्दर्शनकी आराधनामें प्रोत्साहित करते हुए, सम्यग्दर्शन दुर्गतिके निवारणपूर्वक परम अभ्युदयके साधनका अंग और साक्षात् मोक्षका कारण है, यह दृढ़ करनेके लिए कहते हैं हे मुमुक्षुओ ! परम पुरुष परमात्माकी आद्य-प्रधानभूत शक्ति सम्यग्दर्शनकी उपासना करो, जो मनुष्यपर शिवनारीके कटाक्षोंको विस्तृत करती हुई शंकादि दोषोंसे रहित होनेसे प्रसन्न होती है तथा जिसके द्वारा प्रभावित हुई नियति अर्थात् पुण्य मिथ्यात्वके द्वारा प्राप्त होनेवाले एकेन्द्रियादि शरीरोंकी उत्पत्तिको रोककर ऐसा अभ्युदय देती है जो तीनों लोकोंके स्वामियोंको उच्छिष्टभोजी बनाता है ॥६८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy