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________________ १५४ धर्मामृत (अनगार) तैः स्वसंविदितैः सूक्ष्मलोभान्ताः स्वां दृशं विदुः । प्रमत्तान्तान्यगां तज्जवाक्चेष्टानुमितैः पुनः ॥५३॥ सूक्ष्मलोभान्ताः-असंयतसम्यग्दृष्ट्यादिसूक्ष्मसाम्परायपर्यन्ताः सप्त । प्रमत्तान्तान्यगां-असंयतसम्यग्दृष्टि-संयतासंयतप्रमत्तसंयताख्यपरवतिनीम् । 'तज्ज' इत्यादि-तेभ्यः प्रशमादिभ्यो जाता वाक्-वचनं, चेष्टा च कायव्यापारः । अयमर्थः-सम्यक्त्वनिमित्तकान् प्रशमादीन् स्वस्य स्वसंवेदनेन निश्चित्य तदविनाभाविन्यो ६ च वाक्कायचेष्टे यथास्वं निर्णीय तथाविधि(धे)च परस्य वाक्चेष्टे दृष्ट्वा ताम्यां तद्धेतून् प्रशमादीन् निश्चित्य तैः परसम्यक्त्वमनुमिनुयात् ॥५३॥ अथ औपशमिकस्यान्तरङ्गहेतुमाह शमान्मिथ्यात्वसम्यक्त्वमिश्रानन्तानुबन्धिनाम् । शुद्धेऽम्भसीव पङ्कस्य पुंस्यौपश मिकं भवेत् ॥५४॥ मिश्र-सम्यगमिथ्यात्वम् ॥५४॥ अथ क्षायिकस्यान्तरङ्गहेतुमाह तत्कर्मसप्तके क्षिप्ते पकवत्स्फटिकेऽम्बुवत् । शुद्धेऽतिशुद्ध क्षेत्रज्ञ भाति क्षायिकमक्षयम् ॥५५॥ असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थान तकके जीव अपने द्वारा सम्यक् रीतिसे निर्णीत, अपने में विद्यमान सम्यक्त्वसे होनेवाले प्रशमादिके द्वारा अपने सम्यक्त्वको जानते हैं। तथा असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती दूसरे जीवोंके सम्यक्त्वको अपने में सम्यक्त्वसे होनेवाले प्रशमादिसे जन्य वचन व्यवहार और काय व्यवहारके द्वारा अनुमान किये गये प्रशमादिके द्वारा जानते हैं ।।५२॥ विशेषार्थ-आशय यह है कि सम्यक्त्वके होनेपर प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भाव अवश्य होते हैं। किन्तु ये भाव कभी-कभी मिथ्यादृष्टि में भी हो जाते हैं। यद्यपि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दष्टिके प्रशमादि भावोंमें अन्तर होता है। उसी अन्तरको समझकर यह निर्णय करना होता है कि ये प्रशमादि भाव यथार्थ हैं या नहीं। तभी उनके द्वारा अपने में सम्यक्त्वके अस्तित्वका यथार्थ रीतिसे निश्चय करने के लिए कहा है। जब ये भाव होते हैं तो वचन और कायकी चेष्टामें भी अन्तर पड़ जाता है। अतः सम्यग्दृष्टि अपनी-जैसी चेष्टाएँ दूसरोंमें देखकर दूसरोंके सम्यक्त्वको अनुमानसे जानता है। चेष्टाएँ छठे गुणस्थानपर्यन्त जीवोंमें ही पायी जाती हैं। आगेके गुणस्थान तो ध्यानावस्था रूप हैं। अतः छठे गुणस्थानपर्यन्त जीवोंके ही सम्यक्त्वको अनुमानसे जाना जा सकता है ॥५३।। औपशमिक सम्यक्त्वके अन्तरंग कारण कहते हैं जैसे निर्मलीके डालनेसे स्फटिकके पात्रमें रखे हुए जलमें पंक शान्त हो जाती हैनीचे बैठ जाती है और जल स्वच्छ हो जाता है । उसी तरह मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यक्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभका उपशम होनेसे जीवमें औपशमिक सम्यक्दर्शन होता है ।।५४॥ क्षायिक सम्यक्त्वका अन्तरंग कारण कहते हैं जैसे पंकके दूर हो जानेपर शुद्ध स्फटिकके पात्रमें अति शुद्ध जल शोभित होता है, वैसे ही मिथ्यात्व आदि सात कोका सामग्री विशेषके द्वारा क्षय होनेपर शुद्ध आत्मामें अति शुद्ध अविनाशी क्षायिक सम्यक्त्व सदा प्रदीप्त रहता है ॥५५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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