SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० धर्मामृत ( अनगार) का लेश होनेसे शुद्धोपयोगकी भूमिकापर आरोहण करने में असमर्थ हैं उन्हें श्रमण माना जाये या नहीं ? इसका उत्तर देते हए उन्होंने कहा है कि आचार्य कुन्दकुन्दने 'धम्मेण परिणदप्पा' इत्यादि गाथासे स्वयं ही कहा है कि शुभोपयोगका धर्मके साथ एकार्थसमवाय है। अतः शुभोपयोगीके भी धर्मका सद्भाव होनेसे शुभोपयोगी भी श्रमण होते हैं किन्तु वे शुद्धोपयोगियोंके समकक्ष नहीं होते । आचार्य कुन्दकुन्दने शुभोपयोगी श्रमणोंकी प्रवृत्ति इस प्रकार कही है-शुभोपयोगी श्रमण शुद्धात्माके अनुरागी होते हैं। अतः वे शुद्धात्मयोगी श्रमणोंका बन्दन, नमस्कार, उनके लिए उठना, उनके पीछे-पीछे जाना उनकी वैयावृत्य आदि करते हैं। इसमें कोई दोष नहीं है । दूसरोंके अनुग्रहकी भावनासे दर्शन ज्ञानके उपदेशमें प्रवृत्ति, शिष्योंका ग्रहण, उनका संरक्षण, तथा जिनपूजाके उपदेशमें प्रवृत्ति शुभोपयोगी मुनि करते हैं। किन्तु जो शुभोपयोगी मुनि ऐसा करते हुए अपने संयमकी विराधना करता है वह गृहस्थधर्म में प्रवेश करने के कारण मुनिपदसे च्युत हो जाता है। इसलिए प्रत्येक प्रवृत्ति संयमके अनुकूल ही होना चाहिए क्योंकि प्रवृत्ति संयमकी सिद्धिके लिए ही की जाती है। यद्यपि शुद्धात्मवृत्तिको प्राप्त रोगी, बाल या वृद्ध श्रमणोंकी वैयावृत्यके निमित्त ही शुद्धात्मवृत्तिसे शून्य जनों के साथ सम्भाषण निषिद्ध नहीं है, किन्तु जो निश्चय व्यवहार रूप मोक्षमार्गको नहीं जानते और पुण्यको ही मोक्षका कारण मानते हैं उनके साथ संसर्ग करनेसे हानि ही होती है अतः शुभोपयोगी भी साधु लौकिक जनोंके साथ सम्पर्क से बचते है । परिग्रह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही साधु परिग्रह त्याग महाव्रतके धारी होते हैं। किन्तु इसोके कारण दोनोंमें मुख्य भेद पैदा हुआ है। दिगम्बर साधु तो नग्न रहते हैं। नग्नता उनके मूलगुणोंमें-से हैं । किन्तु श्वेताम्बर साधु वस्त्र धारण करते हैं और वस्त्रको संयमका साधन मानते है । यद्यपि आचारांगमें कहा है कि भगवान महावीर प्रवजित होनेसे तेरह महीने पश्चात् नग्न हो गये। स्थानांगमें महावीरके मुखसे कहलाया है-'मए समणाणं अचेलते धम्मे पण्णत्ते।' अर्थात् मैंने श्रमणोंके लिए अचेलता धर्म कहा है। दशवैकालिकमें भी नग्नताका उल्लेख है। उत्तराध्ययनमें नग्नताको छठी परीषह कहा है। किन्तु उत्तरकालीन टीकाकारोंने अचेलताका अर्थ अल्पचेल या अल्पमूल्य चेल आदि किया, सम्पूर्ण नग्नता अर्थ नहीं किया। स्थानांगसूत्र में नग्नताके अनेक लाभ बतलाये हैं। यथा-अल्प प्रतिलेखना, लाघव, विश्वासकर रूप, जिनरूपताका पालन आदि । किन्तु टीकाकारने इसे जिनकल्पियोंके साथ जोड़ दिया। वस्त्रधारणके तीन कारण कहे हैं-लज्जानिवारण, कामविकारका आच्छादन और शीत आदि परीषहका निवारण । साधु तीन वस्त्र धारण करता है। बौद्धोंमें भी तीन चीवरका विधान है-संघाटी, उत्तरासंग और अन्तरावासक । आचारांगके अनुसार ग्रीष्म ऋतुमें साधु या तो एक वस्त्र रखते हैं या वस्त्र नहीं रखते। वस्त्रका विधान होनेसे वस्त्र कैसे प्राप्त करना, कहाँसे प्राप्त करना, किस प्रकार पहिरना, कब धोना आदिका बिघान श्वे. साहित्य में वर्णित है। जिनकल्पिक साधु हाथमें भोजन करते हैं, पीछी रखते हैं, वस्त्र धारण नहीं करते। अंगसाहित्यमें सर्वत्र जिनकल्प और स्थविर कल्पकी चर्चा नहीं होने पर भी टीकाकारोंने उक्त प्रकारके कठोर आचारको जिनकल्पका बतलाया है। किन्तु उत्तरकालमें तो जिनकल्पियोंको भी वस्त्रधारी कहा है। श्वे. साधु ऊनसे बनी पीछी रखते हैं और दि. साधु मयूरपंखकी पीछी रखते हैं। दि. साधु हाथमें भोजन करते हैं अतः भिक्षापात्र नहीं रखते । कल्पसूत्र में भगवान् महावीरको भी पाणिपात्रभोजी बतलाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy