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________________ ३ ६ ९ १२ १५ १४० धर्मामृत (अनगार ) स संवरः संवियते निरुध्यते कर्मास्रवो येन सुदर्शनादिना । त्यादिना वात्मगुणेन संवृतिस्तद्योग्यतद्भावनिराकृतिः स वा ॥४१॥ अथ संवरस्वरूपविकल्प निर्णयार्थमाह संवरः -- भावसंवरः शुभाशुभ परिणामनिरोधो द्रव्यपुण्यपापसंवरस्य हेतुरित्यर्थः । उक्तं च' जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु । णासवदि सुहमसुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ॥' [ पञ्चास्ति. १४६ ] कर्मास्रवः - कर्म ज्ञानावरणादि आस्रवति अनेन । भावास्रवो मिथ्यादर्शनादिः । सुदर्शनादिना - सम्यग्दर्शनज्ञानसंयमादिना गुप्त्यादिना । उक्तं चवदसमिदीगुत्तीओ धम्मणुवेहा परीसहजओ य । चारितं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा ॥ [ द्रव्य सं. ३५ ] कर्मयोग्यानां पुद्गलानां कर्मत्वपरिणतिनिराकरणं द्रव्यसंवर इत्यर्थः । उक्तं च'चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेऊ । सो भावसंवरो खलु दव्वासवरोहणी अण्णो ॥ [ द्रव्य सं. ३४ ] ॥४१॥ अथ निर्जरातत्त्वनिर्जरार्थ ( ( - निश्चयार्थ - ) माह निर्जीर्यते कर्म निरस्यते यया पुंसः प्रदेशस्थित मेकदेशतः । सा निर्जरा पर्ययवृत्तिरंशतस्तत्संक्षयो निर्जरणं मताथ सा ॥४२॥ स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति ये चौंतीस नामकर्म, असातावेदनीय, नीच गोत्र । ये सब पाप कर्म हैं ॥४०॥ संवरका स्वरूप कहते हैं - आत्माके जिन सम्यग्दर्शन आदि अथवा गुप्ति आदि गुणोंके द्वारा कर्मोंका आस्रव संवृत होता हैहै - रुकता है उसे संवर कहते हैं । अथवा कर्मयोग्य पुद्गलोंके कर्मरूप होने से रुकनेको संवर कहते हैं || ४१ || विशेषार्थ - संवरके दो भेद हैं, भावसंवर और द्रव्यसंवर । शुभ और अशुभ परिणामोंको रोकना भाव संवर है । यह द्रव्यपुण्य और द्रव्य पापके संवरका कारण है क्योंकि शुभ और अशुभ परिणामोंके रुकने से पुण्यपाप कर्मों का आना रुक जाता है । दूसरे शब्दोंमें भावास्रवके रुकनेको भावसंवर कहते हैं । भावास्रव है मिथ्यादर्शन आदि, उन्हींसे ज्ञानावरणादि कर्मोंका आस्रव होता है । मिथ्यादर्शनके विरोधी हैं सम्यग्दर्शन आदि और गुप्त आदि रूप चेतन परिणाम । अतः इन परिणामोंको भावसंवर कहा है । कहा भी है 'व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय तथा अनेक प्रकारका चारित्रये भाव संवरके भेद जानना । भावसंवर के होने पर कर्मयोग्यपुद्गलोंका परिणमन ज्ञानावरण आदि रूप नहीं होता । यही द्रव्यसंवर है' ॥ ४१ ॥ आगे निजतत्वका स्वरूप कहते हैं 'जिसके द्वारा जीवके प्रदेशों में स्थित कर्म एकदेशसे निर्जीण किये जाते हैं - आत्मासे पृथक् किये जाते हैं वह निर्जरा है । वह निर्जरा पर्ययवृत्ति है - संक्लेश निवृत्ति रूप परिणति है । अथवा जीवके प्रदेशों में स्थित कर्मका एक देशसे क्षय हो जाना निर्जरा है' ॥४२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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