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________________ द्वितीय अध्याय १२३३ नित्यं-जीवादिवस्तु । स्वयं-सहकारिकारणमन्तरेणैव । अखिलार्थोत्पादनात्-सकलस्वकार्यकरणात् । प्राक्क्षणे-प्रथमक्षणे एव । परतः-द्वितीयादिक्षणेषु । परिणामि-उत्पादव्ययध्रौव्यैकत्वलक्षणवृत्तियुक्तम् । अन्यकांक्ष-सहकारिकारणापेक्षम् । सर्वोद्भवाप्तेः सकृत्-सर्वेषां कार्याणां युगपदुत्पत्तिप्रसंगात् । अतश्च-सकृत् सर्वोद्भवाप्तेरेव, सह-युगपदक्रमेणेत्यर्थः । अव्यापिनि-देशकालव्याप्तिरहिते । कः क्रम: ?-न कोऽपि देशक्रमः कालक्रमो वा स्यादित्यर्थः । यथाहः यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव तदैव सः।। न देशकालयोर्व्याप्तिर्भावानामिह विद्यते ॥ [ ] विशेषार्थ-आचार्य अकलंक देवने कहा है 'नित्य और क्षणिक पक्षमें अर्थात् नित्यैकान्त और क्षणिकैकान्तमें अर्थक्रिया नहीं बनती। वह अर्थक्रिया या तो क्रमसे होती है या अक्रम से होती है। अर्थक्रियाको ही पदार्थका लक्षण माना है।' __ आशय यह है कि अर्थक्रिया अर्थात् कार्य करना ही वस्तुका लक्षण है । जो कुछ भी नहीं करता वह अवस्तु है। अर्थक्रिया या तो क्रमसे होती है या युगपत् होती है। किन्तु नित्यैकान्त और क्षणिकैकान्तमें क्रम और अक्रम दोनों ही सम्भव नहीं है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-पहले एक कार्य करके फिर दूसरा कार्य करनेको क्रम कहते हैं। नित्य पदार्थ क्रमसे तो कार्य नहीं कर सकता; क्योंकि जिस स्वभावसे वह पहला कार्य करता है उसी स्वभावसे यदि दूसरा कार्य भी करता है तो दोनों ही कार्य एककालीन हो जायेंगे। । तब पीछेवाला कार्य भी पहले वाले कार्यके कालमें ही हो जायेगा; क्योंकि जिस स्वभाव से पहला कार्य जन्म लेता है उसी स्वभावसे पीछेका कार्य भी जन्म लेता है। यदि वह जिस स्वभावसे पीछेवाले कार्यको उत्पन्न करता है उसी स्वभावसे पहलेवाले कार्यको उत्पन्न करता है तो पहले वाला कार्य भी पीछेवाले कार्यके कालमें ही उत्पन्न होना चाहिए, क्योंकि वह पीछेवाले कार्यको उत्पन्न करनेवाले स्वभावसे ही उत्पन्न होता है। यदि कहोगे कि यद्यपि दोनों कार्य एक ही स्वभावसे उत्पन्न होते हैं तथापि सहकारियोंके क्रमके कारण उनमें क्रम माना जाता है, तब तो वे कार्य सहकारियोंके द्वारा हुए ही कहे जायेंगे। होगे कि नित्यके भी रहनेपर वे कार्य होते हैं इसलिए उन्हें सहकारिकृत नहीं कहा जा सकता तो जो कुछ कर नहीं सकता; उसके रहनेसे भी क्या प्रयोजन है ? अन्यथा घड़ेकी उत्पत्तिके समय गधा भी उपस्थित रहता है अतः घड़ेकी उत्पत्ति गधेसे माननी चाहिए। यदि कहोगे कि नित्य प्रथम कार्यको अन्य स्वभावसे उत्पन्न करता है और पीछेवाले कार्यको अन्य स्वभावसे, तो उसके दो स्वभाव हुए। अतः वह परिणामी सिद्ध होता है। अतः नित्य क्रमसे कार्य नहीं कर सकता। युगपद् भी कार्य नहीं करता, क्योंकि एक क्षणमें ही सब कार्योंको उत्पन्न करनेपर दूसरे आदि क्षणों में उसे करनेके लिए कुछ भी शेष न रहनेसे उसके असत्त्वका प्रसंग आता है। अतः नित्य वस्तु क्रम और अक्रमसे अर्थक्रिया न कर सकनेसे अवस्तु ही सिद्ध होती है। इसी तरह क्षणिक वस्तु भी न तो क्रमसे अर्थक्रिया कर सकती है और न युगपत् । युगपत् अर्थक्रिया माननेसे एक ही क्षणमें सब १. अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः । क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतपा मता ॥-लघीयस्त्रय, ८ यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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