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________________ द्वितीय अध्याय एवं समासतो धर्मादिषटपदार्थव्यवस्था मुमुक्षभिर्लक्ष्या। विस्तरतस्तु न्यायकुमुदचन्द्रादिशास्त्रेष्वसौ प्रतिपत्तव्येति । किंच व्यामोहव्यपोहाय सूक्तानीमानि नित्यं मनसि संनिधेयानि सदैव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥ [ आप्तमी. १५ ] अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः । क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता ॥ [ लघीयस्त्रय. ८ ] रस, रूप, स्पर्श चारों गुण व्यक्त होते हैं, जलमें रस, रूप, स्पर्श गण व्यक्त होते हैं, अग्निमें रूप और स्पर्श गुण व्यक्त होते हैं तथा वायुमें केवल एक स्पर्श गुण ही व्यक्त होता है, शेष गुण अव्यक्त होते हैं।' _इस तरह छह ही द्रव्य हैं क्योंकि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु पुद्गल द्रव्यके ही परिणाम विशेष होनेसे अन्य द्रव्य रूप नहीं हैं। दिशा तो आकाशसे भिन्न नहीं है क्योंकि आकाशके प्रदेशकी पंक्तियोंमें जो पूर्व-पश्चिम आदि व्यवहार होता है उसे ही दिशा कहते हैं। मन भी पृथक द्रव्य नहीं है क्योंकि द्रव्यमन पुद्गलकी पर्याय है और भावमन जीवकी पर्याय है। अतः न्यायवैशेषिक दर्शनमें जो नौ द्रव्य माने है वे ठीक नहीं हैं।। गुणपर्यायवाला होनेसे इन्हें द्रव्य कहते हैं । उनका लक्षण इस प्रकार कहा है "एक द्रव्यसे दूसरा द्रव्य जिसके कारण भिन्न होता है वह गण है । गुण ही द्रव्यका विधाता है। गुणके अभावमें सब द्रव्य एक हो जायेंगे। जैसे जीव ज्ञानादि गुणोंके कारण पुद्गल आदिसे भिन्न होता है और पुद्गल आदि रूपादि गुणोंके कारण जीवादिसे भिन्न होते हैं । यदि दोनोंमें ये गुण न हों तो दोनों समान होनेसे एक हो जायेंगे। इसलिए सामान्यकी अपेक्षासे अन्वयी ज्ञानादि जीवके गुण हैं और रूपादि पुद्गल आदिके गुण हैं। उनके विकारको-विशेष अवस्थाओंको पर्याय कहते हैं। जैसे घटज्ञान, पटज्ञान, क्रोध, मान, तीव्र गन्ध, मन्द गन्ध, तीव्र वर्ण, मन्द वर्ण आदि । उन गुण-पर्यायोंसे सहित नित्य द्रव्य होता है, गुण, पर्याय और द्रव्य ये सब अयुतसिद्ध होते हैं, इन सबकी सत्ता पृथक्-पृथक् नहीं होती, एक ही होती है । पर्याय क्रमभावी होती हैं, द्रव्यमें क्रमसे होती हैं। गुण सहभावी होते हैं। वे द्रव्यकी प्रत्येक अवस्थामें वर्तमान रहते हैं। पर्याय तो आती-जाती रहती हैं। पर्यायके भी दो प्रकार है-अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय । अर्थपर्याय धर्मादि द्रव्योंमें होती है तथा व्यंजनपर्याय जीव और पुद्गल द्रव्योंमें होती है। कहा भी है धर्म, अधर्म, आकाश और काल तो अर्थ पर्यायके विषय हैं उनमें अर्थपर्याय होती है। किन्तु जीव और पुद्गलोंमें व्यंजन पर्याय भी होती है और अर्थपर्याय भी होती है। व्यंजन पर्याय मूर्त-स्थूल होती है। उसे वचनसे कहा जा सकता है। वह नश्वर भी होती है और स्थिर भी होती है। किन्तु अर्थ पर्याय सूक्ष्म और क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाली होती है। मूर्त द्रव्यके गुण मूर्तिक और अमूर्त द्रव्यके गुण अमूर्तिक होते हैं। गुण कथंचित् नित्य हैं अर्थात् द्रव्यरूपसे नित्य और पर्याय रूपसे अनित्य हैं।' ___जैन तत्त्वज्ञानके नीचे लिखे कुछ सूत्रोंको सदा हृदयमें धारण करना चाहिए। उससे तत्त्व ज्ञान विषयक भ्रान्तियाँ दूर होती हैं 'द्रव्य और पर्याय एक वस्तु है । क्योंकि दोनोंमें प्रतिभास भेद होनेपर भी भेद नहीं है। जिनमें प्रतिभास भेद होनेपर भी अभेद होता है वे एक होते हैं। अतः द्रव्य और पर्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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