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________________ ११०. धर्मामृत ( अनगार ) युक्त्या 'आप्तवचनं प्रमाणं दृष्टेष्टाविरुद्धत्वात्', सर्वमनेकान्तात्मकं सत्त्वादित्याख्यया। अनुगृहीतयाव्यवस्थितया आप्तवचनज्ञप्त्या । 'जीवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पह कत्ता। भोत्ता य देहमेत्तो ण हु मुत्तो कम्मसंजुत्तो॥' [ पञ्चास्ति., गा. २७ ] इत्याद्यागमज्ञानेन । वचनमुपलक्षणं तेन आप्तसंज्ञादिजनितमपि ज्ञानमागम एव। तथा च सूत्रम 'आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः।' इति [ परीक्षामुख ३।९५ । ] स्फारितेषु-स्फुरद्पीकृतेषु। अर्थेषु-जीव-पुद्गल-धर्माधर्माकाशकालेषु पदार्थेषु प्रतीत्यादि । सत्-सत्ता भाव इत्यर्थः । भावप्रधानोऽयं निर्देशः। सत आदिर्येषां नित्यभेदादीनां धर्माणां ते सदादयः । प्रति९ पक्षा विरुद्धधर्मा यथाक्रममसत्क्षणिकभेदादयः। प्रतिपक्षलक्षिता विशिष्टाः सदादयः प्रतिपक्षलक्षितसदादयस्ते च ते अनन्ता एव आनन्त्या धर्मा विशेषाः प्रतिपक्षलक्षितसदाद्यानन्त्यधर्माः, त एवात्मा स्वरूपं येषां ते तथोक्ताः । नीत्या-नीयते परिच्छिद्यते प्रमाणपरिगहीतार्थंकदेशोऽनयेति नीतिर्नयः स्वार्थंकदेशव्यवसायात्मको बोध १२ इत्यर्थः । विशेषार्थ-आप्त पुरुषके वचनोंसे होनेवाले ज्ञानको आगम कहते हैं। परीक्षामुख सूत्रमें ऐसा ही कहा है। जैसे- "आत्मा जीव है, चेतनस्वरूप है, उपयोगसे विशिष्ट है, प्रभु है, कर्ता है, भोक्ता है, शरीरके बराबर है, अमूर्तिक है किन्तु कर्मसे संयुक्त है।" ___ इस आप्त वचनसे होनेवाले ज्ञानको आगम कहते हैं। यहाँ 'वचन' शब्द उपलक्षण है। अतः आप्त पुरुषके हाथके संकेत आदिसे होनेवाले ज्ञानको भी आगम कहते हैं। वह आगम युक्तिसे भी समर्थित होना चाहिए । जैसे, आप्तका वचन प्रमाण है क्योंकि वह प्रत्यक्ष और अनुमानप्रमाण आदिके अविरुद्ध है । या सब वस्तु अनेकान्तात्मक है सत् होने से। इन युक्तियोंसे आगमकी प्रमाणताका समर्थन होता है। आगममें छह द्रव्य कहे हैं-जीव, पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मेद्रव्य, आकाश और काल। एक-एक पदार्थमें अनन्त धर्म होते हैं। और वे धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्मों के साथ होते हैं। अर्थात्, वस्तु सत् भी है और असत् भी है, नित्य भी है और अनित्य भी है, एक भी है और अनेक भी है आदि । यह अनन्त धर्मात्मक वस्तु प्रमाणका विषय है। प्रमाणसे परिगृहीत पदार्थके एकदेशको जाननेवाला ज्ञान नय है। किन्तु वह नय अपने प्रतिपक्षी नयसे सापेक्ष होना चाहिए। जैसे नयके मूल भेद दो हैंद्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय। जो नय द्रव्यकी मुख्यतासे वस्तुको ग्रहण करता है वह द्रव्यार्थिक है और जो नय पर्यायकी मुख्यतासे वस्तुको ग्रहण करता है वह पर्यायार्थिक नय है। द्रव्यार्थिक नय पर्यायार्थिक सापेक्ष होनेसे सम्यक् होता है और पर्यायार्थिक नय द्रव्यार्थिक सापेक्ष होनेसे सम्यक होता है। क्योंकि वस्तु न केवल द्रव्यरूप है और न केवल पर्यायरूप है किन्तु द्रव्यपर्यायरूप है। उस द्रव्यपर्यायरूप वस्तुके द्रव्यांश या पर्यायांशको ग्रहण करनेवाला द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय है । यदि द्रव्यांशग्राही द्रव्याथिक नय अपने विषयको ही पूर्ण वस्तु मानता है तो वह मिथ्या है। इसी तरह पर्यायांशका ग्राही पर्यायार्थिक नय यदि अपने विषयको ही पूर्ण वस्तु कहता है तो वह भी मिथ्या है । कहा भी है प्रतिपक्षका निराकरण न करते हुए वस्तुके अंशके विषयमें जो ज्ञाताका अभिप्राय है उसे नय कहते हैं। और जो प्रतिपक्षका निराकरण करता है उसे नयाभास कहते हैं। [नयके सम्बन्धमें विशेष जाननेके लिए देखें तत्त्वा. श्लोक वा., १६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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