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________________ धर्मामृत ( अनगार) ये स्त्रीशस्त्राक्षसूत्रादिरागाद्यङ्ककलङ्किताः । निग्रहानुग्रहपरास्ते देवाः स्युन मुक्तये ॥ नाद्याट्टहाससंगीताद्युपप्लवविसंस्थुलाः । लम्भयेयुः पदं शान्तेः प्रपन्नात् प्राणिनः कथम् ।। [ ग्रथिल:-परिग्रहवान् । उक्तं च- । सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः । अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु ॥ [ हिंसामये । उक्तं च देवातिथिमन्त्रौषधपित्रादिनिमित्ततोऽपि संपन्ना। हिंसा धत्ते नरके किं पुनरिह नान्यथा विहिता ॥ [ अमि. श्रा. ६।२९] कुदेव आदिका श्रद्धान दूर होता है इससे गृहीत मिथ्यात्वका अभाव होता है। इसलिए इसे सम्यक्त्वका लक्षण कहा है। किन्तु यह सम्यक्त्वका नियामक लक्षण नहीं है क्योंकि व्यवहारधर्मके धारक मिथ्यादृष्टियोंके भी ऐसा श्रद्धान पाया जाता है। अतः अरहन्त देवादिका श्रद्धान होनेपर सम्यक्त्व हो या न हो किन्तु अरहन्तादिका यथार्थ श्रद्धान हुए बिना सम्यग्दर्शन कभी भी नहीं हो सकता। सम्यग्दृष्टिको उनका श्रद्धान होता ही है। किन्तु वैसा श्रद्धान मिथ्यादृष्टिको नहीं होता । वह पक्षमोहवश श्रद्धान करता है। क्योंकि उसके तत्त्वार्थ श्रद्धान नहीं है इसलिए उसके अरहन्त आदिका श्रद्धान भी यथार्थ पहचान सहित नहीं है। जिसके तत्त्वार्थश्रद्धान होता है उसके सच्चे अरहन्त आदिके स्वरूपका यथार्थ श्रद्धान होता ही है तथा जिसके अरहन्त आदिके स्वरूपका यथार्थ श्रद्धान होता है उसके तत्त्वश्रद्धान होता ही है ; क्योंकि अरिहन्त आदिके स्वरूपको पहचाननेसे जीव आदिकी पहचान होती है अतः इन दोनोंको परस्परमें अविनाभावी जानकर भी अरहन्त आदिके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। तथा सप्ततत्त्वोंके श्रद्धानमें अरहन्त आदिका श्रद्धान गर्भित है। क्योंकि तत्त्वश्रद्धानमें मोक्षतत्त्व सर्वोत्कृष्ट है। और अरहन्त सिद्ध अवस्था होनेपर ही मोक्षकी प्राप्ति होती है अतः मोक्षतत्त्वमें श्रद्धा होनेपर अरहन्त सिद्धमें श्रद्धा होना अनिवार्य है। तथा मोक्षके कारण संवर निर्जरा हैं। संवर निर्जरा निर्ग्रन्थ वीतरागी मुनियोंके ही होती है। अतः संवर निर्जरा तत्त्वोंपर श्रद्धा होनेपर संवर निर्जराके धारक मुनियोंपर श्रद्धा होगी ही। यही सच्चे गुरुका श्रद्धान हुआ। तथा रागादि रहित भावका नाम अहिंसा है। उसीको उपादेयरूप धर्म माननेसे वही धर्मका श्रद्धान हुआ। इस प्रकार तत्त्वश्रद्धानमें अरहन्त आदिका श्रद्धान भी गर्भित है। अतः सम्यक्त्वमें देव आदिके श्रद्धानका नियम है। इस विषयमें ज्ञातव्य यह है कि तत्त्वश्रद्धानके बिना अरहन्तके छियालीस गुणोंका यथार्थ ज्ञान नहीं होता क्योंकि जीव-अजीवको जाने बिना अरहन्त आदिके आत्माश्रित गुणोंको और शरीराश्रित गुणोंको भिन्न-भिन्न नहीं जानता। यदि जाने तो आत्माको परद्रव्यसे भिन्न अवश्य माने। इसलिए जिसके जीवादि तत्त्वोंका सच्चा श्रद्धान नहीं है उसके अरहन्त आदिका भी सच्चा श्रद्धान नहीं है। तथा मोक्ष आदि तत्त्वके श्रद्धान बिना अरहन्त आदिका भी माहात्म्य यथार्थ नहीं जानता। लौकिक अतिशयादिसे अरहन्तका, तपश्चरणादिसे गुरुका और परजीवोंकी हिंसा आदि न करनेसे धर्मका माहात्म्य जानता है। यह सब तो पराश्रित भाव हैं। आत्माश्रित भावोंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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