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________________ धर्मामृत ( अनगार) ___ अथ मिथ्यात्वस्योपस्कारिका सामग्री प्रतिनिवर्तयितुं मुमुक्षून् व्यापारयति दवयन्तु सदा सन्तस्तां द्रव्यादिचतुष्टयीम् । पुंसां दुर्गतिसर्गे या मोहारेः कुलदेवता ॥२॥ दवयन्तु-दूरीकुर्वन्तु । द्रव्यादिचतुष्टयीं-द्रव्यक्षेत्रकालभावान् । तत्र द्रव्यं परसमयप्रतिमादि, क्षेत्रं तदायतनतीर्थादि, कालः संक्रान्तिग्रहणादिः, भावः शङ्कादिः । दुर्गतिसर्गे-मिथ्याज्ञानस्य नरकादि६ गतेर्वा पक्षे दारिद्रयस्य सर्गे निर्माणे ॥२॥ अथ मिथ्यात्वस्य कारणं लक्षणं चोपलक्षयति मिथ्यात्वकर्मपाकेन जीवो मिथ्यात्वमृच्छति । स्वादं पित्तज्वरेणैव येन धर्म न रोचते ॥३॥ पावकः ( पाकः )-स्वफलदानायोद्भूतिः । मिथ्यात्वं-विपरीताभिनिवेशम् । धर्म-वस्तुयाथात्म्यम् । तदुक्तम् 'मिच्छत्त वेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होदि । ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥३॥' [ गो. जीव. १७ गा. ] १२ १२ मिथ्यात्वको बढ़ानेवाली सामग्रीको दूर करनेके लिए मुमुक्षुओंको प्रेरणा करते हैं मुमुक्षु जन उस द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप सामग्रीको सदा दूर रखें जो मनुष्योंकी दुर्गतिके निर्माण करने में मोहरूपी शत्रुकी कुलदेवता है ।।२।। विशेषार्थ-जैसे प्रतिपक्षके मनुष्योंको दरिद्री बनाने के लिए जीतनेवालेका कुलदेवता जागता रहता है वैसे ही प्राणियोंकी दुर्गति करने में मोहका कुलदेवता द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव हैं । मिथ्या देवताओंकी प्रतिमा वगैरह द्रव्य हैं, उनके धर्मस्थान तीर्थस्थान क्षेत्र हैं। संक्रान्ति, ग्रहण, पितृपक्ष आदि काल हैं । और समीचीन धर्मके सम्बन्धमें शंका आदि भाव हैं । मिथ्या देवताओंकी आराधना करनेसे, उनके धर्मस्थानोंको पूजनेसे, संक्रान्ति ग्रहण वगैरहमें दानादि करनेसे तथा समीचीन धर्म की सत्यतामें सन्देह करनेसे मिथ्यात्वका ही पोषण होता है । अतः उनसे दूर रहना चाहिए ॥२॥ मिथ्यात्वका कारण और लक्षण कहते हैं मद्यके समान दर्शनमोह कर्मके उदयसे जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होता है जिससे आविष्ट हुए जीवको धर्म उसी तरह रुचिकर नहीं लगता जैसे पित्तज्वरके रोगीको मधुर रस अच्छा नहीं लगता-कड़आ लगता है ॥३॥ विशेषार्थ-यहाँ यह बात ध्यान देनेकी है कि जिस मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होता है वह मिथ्यात्व कर्म स्वयं उस जीवके द्वारा ही बाँधा गया है। . यदि जीव मिथ्यात्व कर्मके उदयमें भी मिथ्यात्वरूप परिणमन न करे अपने भावोंको सम्हाले तो मिथ्यात्व कर्मका बन्ध भी न हो या मन्द हो। ऐसा होनेसे ही तो सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है । अतः मिथ्यात्व अपनी ही गलतीका परिणाम है। उसे सुधारनेसे मिथ्यात्वसे उद्धार हो सकता है और उसे सुधारनेका रास्ता यही है कि मिथ्यात्वके सहायक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे दूर रहा जाये ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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