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________________ धर्मामृत ( अनगार) कथमपि भवकक्षं जाज्वलदुःखदाव ज्वलनमशरणो ना बम्भ्रमन् प्राप्य तीरम् । श्रितबहुबिधसत्त्वं धर्मपीयूषसिन्धो - रसलवमपि मज्जत्कीर्णमृध्नोति विन्दन् ॥१११॥ ऋध्नोति-ज्ञानसंयमादिना प्रह्लादबले (-लौज) वीर्यादिना च वर्द्धते । विन्दन्- लभमानः ॥१११॥ अथ धर्माचार्यैर्युत्पादितमतिः सङ्गत्यागादिना स्वात्मानं तद्भवे भवान्तरेषु वा निःसंसारं करोतीत्याह त्यक्त्वा सङ्गं सुधीः साम्यसमभ्यासवशाद् ध्रुवम् । समाधि मरणे लब्ध्वा हन्त्यल्पयति वा भवम् ॥११२॥ समाधि रत्नत्रयैकाग्रताम् । हन्ति चरमदेह इति शेषः । तथा चोक्तम् ध्यानाभ्यासप्रकर्षेण त्रुट्यन्मोहस्य योगिनः । चरमाङ्गस्य मुक्तिः स्यात्तदैवान्यस्य च क्रमात् ।।११२।। [तत्त्वानुशा., २२४ ] अथाभेदसमाधिमहिमानमभिष्टौति अयमात्मात्मनात्मानमात्मन्यात्मन आत्मने । समादधानो हि परां विशुद्धि प्रतिपद्यते ॥११३॥ परां विशुद्धि-घातिकर्मक्षयलक्षणां सकलकर्मक्षयलक्षणां वा ॥११३।। उपासक वर्गके अनुग्रहके लिए होता है, यह कहते हैं जिसमें दुःखरूपी दावानल प्रज्वलित है ऐसे संसाररूपी जंगलमें भटकता हुआ अशरण मनुष्य किसी तरह धर्मरूपी अमृतके समुद्रके तीरको प्राप्त होता है जहाँ निकट भव्य आदि अनेक प्राणी आश्रय लिये हुए हैं। और धर्मरूपी अमृतके समुद्र में स्नान करनेवाले मुमुक्षु घटमान योगियोंके द्वारा प्रकट किये गये रसके लेशको भी प्राप्त करके ज्ञान संयम आदिके द्वारा तथा आह्लाद, ओज, बलवीर्य आदिके द्वारा समृद्ध होता है ॥११॥ धर्माचार्य के द्वारा प्रबुद्ध किया गया मनुष्य परिग्रह त्याग आदि करके उसी भवमें या भवान्तरमें अपनेको संसारसे मुक्त करता है, यह कहते हैं परिग्रहको त्यागकर सामायिककी निरन्तर भावनाके बलसे, मरते समय अवश्य ही रत्नत्रयकी एकाग्रतारूप समाधिको प्राप्त करके, प्रमाण नय-निक्षेप और अनुयोगोंके द्वारा व्युत्पन्न हुआ चरमशरीरी भव्य संसारका नाश करता है। यदि वह अचरमशरीरी होता है उसी भवसे मोक्ष जानेवाला नहीं होता तो संसारको अल्प करता है, उसे घटाता है ॥११२।। __ अभेद समाधिकी महिमाकी प्रशंसा करते हैं स्वसंवेदनके द्वारा अपना साक्षात्कार करनेवाला यह आत्मा शुद्ध चिदानन्द स्वरूप आत्माके लिए, इन्द्रिय मनसे उत्पन्न होनेवाले क्षायोपशमिक ज्ञानरूप आत्मस्वरूपसे हटकर, निर्विकल्प स्वात्मामें, स्वसंवेदनरूप स्वात्माके द्वारा, शुद्धचिदानन्दमय आत्माका ध्यान करते हुए घातिकर्मोंके क्षयस्वरूप या समस्त कर्मोंके क्षयस्वरूप उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त करता है ॥११३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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