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________________ धर्मामृत ( अनगार) येनांशेन विशुद्धिः स्याज्जन्तोस्तेन न बन्धनम् । येनांशेन तु रागः स्यात्तेन स्यादेव बन्धनम् ॥११०॥ एक धर्मको ग्रहण करता है। जैसे जब आत्माके शुद्ध स्वरूपके कथनकी विवक्षा होती है तो कहा जाता है आत्माके गुणस्थान नहीं हैं, मार्गणास्थान नहीं हैं, जीवसमास नहीं हैं, और जब आत्माकी संसारी दशाका चित्रण करना होता है तो उसके गुणस्थान, जीवसमास आदि सभी बतलाये जाते हैं। इससे आत्माके स्वाभाविक और वैभाविक दोनों रूपोंका बोध हो जाता है। यदि कोई यह हठ पकड़ ले कि संसारी जीवके संसारावस्थामें भी गुणस्थानादि नहीं हैं और वह द्रव्य रूपसे ही नहीं पर्याय रूपसे भी शुद्ध-बुद्ध है तो वह मिथ्या कहलायेगा। जो वस्तुके एक धर्मको ग्रहण करके भी अन्य धर्मोंका निषेध नहीं करता वह नय है और जो ऐसा करता है वह दुर्नय है। दुर्नय अनेकान्तका घातक है, नय अनेकान्तका पोषक है। ॥१०८-१०९।। आगे एकदेश विशुद्धि और एकदेश संक्लेशका फल कहते हैं जीवके जितने अंशसे विशुद्धि होती है उतने अंशसे कर्मबन्ध नहीं होता और जितने अंशसे राग रहता है उतने अंशसे बन्ध अवश्य होता है ॥११॥ विशेषार्थ-मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त गुणस्थान भेदसे अशुभ, शुभ और शुद्धरूप तीन उपयोग होते हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र गुणस्थानोंमें ऊपर-ऊपर मन्द होता हुआ अशुभोपयोग होता है। उससे आगे असंयत' सम्यग्दृष्टि, देशसंयत और प्रमत्त संयत गुणस्थानोंमें ऊपर-ऊपर शुभ, शुभतर और शुभतम होता हुआ शुभोपयोग रहता है जो परम्परासे शुद्धोपयोगका साधक है। उसके अनन्तर अप्रमत्त गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे शुद्ध नयरूप शुद्धोपयोग होता है। इनमें से प्रथम गणस्थानमें तो किसी भी कर्मका संवर नहीं है, सभी कर्मोंका यथायोग्य बन्ध होता है । किन्तु सासादन आदि गुणस्थानों में बन्धका निरोध इस प्रकार है '-मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रियजाति, दो इन्द्रियजाति, तेइन्द्रियजाति, चौइन्द्रिय जाति, हुण्डक संस्थान, असंप्राप्तामृपाटिका संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारणशरीरनाम, ये सोलह प्रकृतियाँ मिथ्यात्वके साथ बंधती हैं, अतः मिथ्यात्वके चले जानेपर सासादन आदि गुणस्थानोंमें उनका संवर होता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी कषाय, स्त्रीवेद, तियचायु, तियचगति, मध्यके चार संस्थान, चार संहनन, तिथंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, नीचगोत्र इन प्रकृतियोंके बन्धका कारण अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे होनेवाला असंयम है। अतः एकेन्द्रियसे लेकर सासादन गुणस्थान पर्यन्त जीव इनके बन्धक हैं। आगे इनका बन्ध नहीं होता। अप्रत्याख्यानावरण कषाय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, इन दस प्रकृतियोंके बन्धका कारण अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे होनेवाला असंयम है। अतः एकेन्द्रियसे लेकर १. सोलस पणवीस णभं दस चउ छक्केक बंधवोच्छिण्णा । दूगतीसचदुरपुव्वे पण सोलस जोगिणो एक्को ॥-गो. कर्म., गा. ९४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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