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________________ प्रथम अध्याय असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः । स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ॥ [पुरुषार्थ. २११ ] ॥२१॥ एकदेश रत्नत्रयका भावन करनेसे जो कर्मबन्ध होता है वह अवश्य ही विपक्षकृत है क्योंकि मोक्षका उपाय बन्धनका उपाय नहीं हो सकता । __इस श्लोकका अर्थ कुछ विद्वान इस रूपमें करते हैं कि असमग्ररत्नत्रयसे होनेवाला कर्मबन्ध मोक्षका उपाय है। किन्तु यह अर्थ आचार्य अमृतचन्द्रके तथा जैन सिद्धान्तके सर्वथा विरुद्ध है । क्योंकि आगे वे कहते हैं - इस लोकमें रत्नत्रय मोक्षका ही हेतु है, कर्मबन्धका नहीं। किन्तु एकदेश रत्नत्रयका पालन करते हुए जो पुण्य कर्मका आस्रव होता है वह शुभोपयोगका अपराध है। जिसे बन्ध अपराध कहा है वह मोक्षका उपाय कैसे हो सकता है। ____ व्यवहार रूप रत्नत्रयसे जो अपूर्ण होता है, अशुभकर्मका संवर और निर्जरा होती है। यहाँ अशुभ कर्मसे पुण्य और पाप दोनों ही लिये गये हैं क्योंकि सभी कर्म जीवके अपकारी होनेसे अशभ कहे जाते हैं। निश्चयरत्नत्रयकी समग्रता तो चौदहवें गणस्थानके अन्तमें ही होती है उसके होते ही मोक्ष हो जाता है इसलिए उसे मोक्षका ही कारण कहा है। किन्तु उससे पहले जो असम्पूर्ण रत्नत्रय होता है उससे नवीन कर्मबन्धका संवर तथा पूर्वबद्ध कर्मोंकी निर्जरा होती है । पश्चास्तिकायके अन्तमें आचार्य कुन्दकुन्दने निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्गका कथन किया है और अमृतचन्द्राचार्यने दोनोंमें साध्यसाधन भाव बतलाया है। इसकी टीकामें कहा है-व्यवहार मोक्षमार्गके साध्यरूपसे निश्चय मोक्षमार्गका यह कथन है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रसे समाहित हुआ आत्मा ही जीव स्वभावमें नियत चारित्र रूप होने से निश्चयसे मोक्षमार्ग है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-यह आत्मा किसी प्रकार अनादि अविद्याके विनाशसे व्यवहार मोक्षमार्गको प्राप्त करता हुआ धर्मादि तत्त्वार्थका अश्रद्धान, अंगपूर्वगत पदार्थ सम्बन्धी अज्ञान और अतपमें चेष्टाका त्याग तथा धर्मादि तत्त्वार्थका श्रद्धान, अंग पूर्वगत अर्थका ज्ञान और तपमें चेष्टाका उपादान करने के लिए अपने परिणाम करता है । किसी कारणसे यदि उपादेयका त्याग और त्यागने योग्यका ग्रहण हो जाता है तो उसका प्रतीकार करता है। ऐसा करते हुए विशिष्ट भावनाके सौष्ठवके कारण स्वभावभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रके साथ अंग और अङ्गिभावरूप परिणतिके साथ एकमेक होकर त्याग और उपादानके विकल्पसे शून्य होनेसे परिणामोंके व्यापारके रुक जाने पर यह आत्मा निश्चल हो जाता है। उस समयमें यह ही आत्मा तीन स्वभाव में नियत चारित्र रूप होनेसे निश्चय मोक्षमार्ग कहा जाता है। इस लिए निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गमें साध्य-साधन भाव अत्यन्त घटित होता है ॥११॥ १. रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगस्य सोऽयमपराधः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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