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________________ ६४ धर्मामृत (अनगार) मिथ्या वैपरीत्येऽभावे च । दुःखप्रभवः-दुःखं प्रभवत्यस्मादस्मिन्वा भावे (भवे)। संजात:अयोगिचरमसमये संपूर्णीभूतः । जन्मदुःखात्-संसारक्लेशादुद्धृत्य । अर्थात् अभिधेयं परमार्थ ३ वाश्रित्य ॥९॥ अथ निश्चयरत्नत्रयलक्षणनिर्देशपुरस्सरं मोक्षस्य संवरनिर्जरयोर्बन्धस्य च कारणं निरूपयति - मिथ्यार्थाभिनिवेशशन्यमभवत् संदेहमोहभ्रमं वान्ताशेषकषायकर्मभिदुदासीनं च रूपं चितः। तत्त्वं सद्गवायवृत्तमयनं पूर्ण शिवस्यैव तद् रुन्द्धे निर्जरयत्यपोतरदघं बन्धस्तु तद्वयत्ययात् ॥११॥ और सम्यक् चारित्र रूप धर्म भी शुद्धभावरूप ही है । रागद्वेष मोह रहित परिणामको धर्म कहा है, वह भी जीव का शुद्ध स्वभाव ही है। वस्तुके स्वभावको धर्म कहा है। वह भी जीवका शुद्धस्वभाव ही है । इस प्रकारका धर्म चारों गतिके दुःखोंमें पड़े हुए जीवको उठाकर मोक्षमें धरता है। प्रश्न-आपने पहले कहा था कि शुद्धोपयोगमें संयम आदि सब गुण प्राप्त होते हैं। यहाँ कहते हैं कि आत्माका शुद्ध परिणाम ही धर्म है उसमें सब धर्म गर्भित हैं। इन दोनोंमें क्या अन्तर है समाधान-वहाँ शुद्धोपयोग संज्ञाकी मुख्यता है और यहाँ धर्म संज्ञा मुख्य है-इतना ही विशेष है । दोनोंके तात्पर्यमें अन्तर नहीं है। इसलिए सब प्रकारसे शुद्धपरिणाम ही कर्तव्य है। धर्मकी इस अवस्थाकी प्राप्तिमें ध्यानको प्रमुख कारण बतलाया है। कहा भी है कि ध्यानमें दोनों ही प्रकारके मोक्षके कारण मिल जाते हैं अतः आलस्य छोड़कर ध्यानका अभ्यास करना चाहिए ॥११॥ निश्चयरत्नत्रयके लक्षणके निर्देशपूर्वक मोक्ष, संवर, निर्जरा तथा बन्धके कारण कहते हैं- मिथ्या अर्थात् विपरीत या प्रमाणसे बाधित अर्थको मिथ्या अर्थ कहते हैं। और सर्वथा एकान्तरूप मिथ्या अर्थके आग्रहको मिथ्या अर्थका अभिनिवेश कहते हैं। उससे रहित आत्माके स्वरूपको निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं। अथवा जिसके उदयसे मिथ्या अर्थका आग्रह होता है ऐसे दर्शनमोहनीयकर्मको भी मिथ्या अर्थका अभिनिवेश कहते हैं। उस दर्शनमोहनीय कर्मसे रहित आत्माका स्वरूप निश्चय सम्यग्दर्शन है । यह स्थाणु (ठूठ ) है या पुरुष इस प्रकारके चंचल ज्ञानको सन्देह कहते हैं। चलते हए पैरको छनेवाले तृण आदिके ज्ञानकी तरह पदार्थका जो अनध्यवसाय होता है उसे मोह कहते हैं । जो वैसा नहीं है उसे उस रूपमें जानना-जैसे ठूठको पुरुष जानना-भ्रम है । इन सन्देह मोह और भ्रमसे रहित आत्माके स्वरूपको निश्चय सम्यग्ज्ञान कहते हैं । क्रोधादि कषाय और हास्य आदि नोकषायों से रहित, ज्ञानावरण आदि कर्म और मन वचन कायके व्यापार रूप कर्मको नष्ट करनेवाला १. दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा। तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह ॥ -द्रव्य संग्रह ४७ । स च मुक्तिहेतुरिद्धो ध्याने यस्मादवाप्यते द्विविधोऽपि । तस्मादम्यस्यन्तु ध्यानं सुधियः सदाऽप्यपालस्यम् ॥-तत्त्वानुशा. ६३ श्लो. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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