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________________ धर्मामृत ( अनगार) __ अनुषंगः-अनुषज्यते धर्मेण संबध्यत इत्यनुषंगोऽत्र पुण्यम् । अनन्तशर्मामृतदः-निरवधिसुखं मोक्षं दत्ते ॥६॥ अथ द्वाविंशत्या पधर्मनुष्यत्वस्य निःसारत्वं चिन्तयति तत्र तावच्छरीरस्वीकारदुःखमाहप्राङ् मृत्युक्लेशितात्मा द्रुतगतिरुदरावस्करेऽह्नाय नार्याः संचार्याहार्य शुक्रार्तवमशुचितरं तन्निगीर्णान्नपानम् । गुद्धचाऽश्नन् क्षुत्तषातः प्रतिभयभवनाद्विवसन् पिण्डितो ना दोषाद्यात्माऽनिशात चिरमिह विधिना ग्राह्यतेऽङ्ग वराकः ॥६॥ द्रुतगतिः-एक-द्वि-त्रिसमयप्राप्यगन्तव्यस्थानः। अवस्करः-व!गृहम् । आहार्य-ग्राहयित्वा । तन्निगीण-तया नार्या निगीर्णमाहृतम् । प्रतिभयभवनात्-निम्नोन्नतादिक्षोभकरणात् । ना-मनुष्यगतिनामकर्मोदयवर्ती जीवः। दोषाद्यात्म-दोषधातुमलस्वभावम् । अनिशात-नित्यातुरम् । चिरंनवमासान् यावत् नृभवे ॥६४॥ तत्पर है और अनन्त सुख स्वरूप मोक्षको देनेके साथ लम्बे समय तक सांसारिक सुख भी देता है ॥३॥ विशेषार्थ-धर्म सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त देवत्व रूप और तीर्थकरत्व पर्यन्त मानुषत्व रूप फल देता है इसका समर्थन पहले कर आये हैं। वह धर्मका आनुषंगिक फल है। अर्थात् धर्म करनेसे सांसारिक सुखका लाभ तो उसी प्रकार होता है जैसे गेहूँकी खेती करनेसे भूसेका लाभ अनायास होता है। किन्तु कोई बुद्धिमान भूसेके लिए खेती नहीं करता ॥३॥ आगे यहाँसे बाईस पद्योंके द्वारा मनुष्यभवकी निस्सारताका विचार करते हैं । उसमें सबसे प्रथम शरीर ग्रहण करनेके दःखको कहते हैं नया शरीर ग्रहण करनेसे पहले यह आत्मा पूर्वजन्मके मरणका कष्ट उठाता है। पुनः नया शरीर धारण करनेके लिए शीघ्र गतिसे एक या दो या तीन समयमें ही अपने जन्मस्थानमें पहुँचता है। उस समय पदार्थों के जाननेके लिए प्रयत्न रूप उपयोग भी उसका नष्ट हो जाता है क्योंकि विग्रहगतिमें उपयोग नहीं रहता। वहाँ तत्काल ही वह माताके उदररूपी शौचा लयमें प्रवेश करके अति अपवित्र रज-वीर्यको ग्रहण करता है और भूख प्याससे पीड़ित होकर माताके द्वारा खाये गये अन्न पानको लिप्सापूर्वक खाता है। ऊँचेनीचे प्रदेशों पर माताके चलने पर भयसे व्याकुल होकर सिकुड़ जाता है। रात-दिन दुखी रहता है । इस प्रकार बेचारा जीव पूर्वकर्मके उदयसे वात पित्त कफ, रस, रुधिर, मांस, मेद, हडी, मज्जा, वीर्य, मलमूत्र आदिसे बने हुए शरीरको नौ दस मासमें ग्रहण करता है। विशेषार्थ-इस विषयमें दो श्लोक कहे गये हैं ॥६४॥ कललं कलुषस्थिरत्वं पृथग्दशाहेन बुद्बुदोऽथ घनः। तदनु ततः पलपेश्यथ क्रमेण मासेन पञ्च पुलकमतः ।। चर्मनखरोमसिद्धिः स्यादङ्गोपाङ्गसिद्धिरथ गर्ने । स्पन्दनमष्टममासे नवमे दशमेऽथ निःसरणम् ।। माताके उदरमें वीर्यका प्रवेश होने पर दस दिन तक कलल रूपसे रहता है। फिर दस दिन तक कलुषरूपसे रहता है। फिर दस दिन तक स्थिर रहता है । दूसरे मासमें बुबुद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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