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________________ ३ ४८ ६ धर्मामृत (अनगार ) अथ दुर्निवारेऽपि दुष्कृते विलसति सति धर्मः पुमांसमुपकरोत्येव इत्याहयज्जीवन कषायकमंठतया कर्माजितं तद् ध्रुवं धर्मः किन्तु ततस्त्रसन्निव सुधां स्नौति स्वधाम्न्यस्फुटम् ॥५६॥ कषायकमंठतया- - क्रोधादिभिर्मनोवाक्कायव्यापारेषु घटमानत्वेन । उच्चैः कटून् - हालाहलप्रख्यान् । चतुर्धा हि पारस : निम्ब- कांजीर - विष - हालाहलतुल्यत्वात् । उद्भटं - प्रकटदर्पाटोपम् । भावान् -- अहिविपकण्टकादीन् पदार्थान् । सुधाम् – लक्षणया सर्वाङ्गीणमानन्दम् । स्वधाम्नि - स्वाश्रयभूतो पुंसि । ९ अस्फुटं - गूढं बाह्यलोकानामविदितम् । अत्रेयं भावना बाह्यादुर्वारदुष्कृतपाकोत्थमुपर्युपर्युपसर्गमेव पश्यन्ति न पुनः पुंसो धर्मेणानुगृह्यमाणसत्त्वोत्साहस्य तदनभिमतम् ॥५६ ।। नाभुक्तं क्षयमृच्छतीति घटयत्युच्चेः कटूनुद्भटम् । भावान् कर्मणि दारुणेऽपि न तदेवान्वेति नोपेक्षते कठिनतासे हटाने योग्य पाप कर्मका उदय होने पर भी धर्म पुरुषका उपकार ही करता है ऐसा उपदेश देते हैं - जिसका प्रतीकार अशक्य है ऐसे भयानक पाप कर्मके उदयमें भी धर्म न तो उस पाप - कर्मका ही सहायक होता है और न धर्मात्मा पुरुषकी ही उपेक्षा करता है । इसपर यह शंका हो सकती है कि सच्चे बन्धु धर्मके होते हुए भी पापरूपी शत्रु क्यों अशक्य प्रतीकार वाला होता है इसके समाधानके लिए कहते हैं— जीवने क्रोध, मान, माया और लोभ कषायसे आविष्ट होकर मानसिक, वाचनिक और कायिक व्यापारके द्वारा पूर्व में जो कर्म बाँधा वह अवश्य ही भोगे विना नष्ट नहीं होता, इसलिए वह अपने फलस्वरूप अत्यन्त कटु हालाहल विषके समान दुःखदायी पदार्थोंको मिलाता है । तब पुनः प्रश्न होता है कि जब धर्म न तो उस पाप कर्मकी सहायता करता है और न धर्मात्मा पुरुषकी उपेक्षा करता है तब क्या करता है ? इसके उत्तरमें कहते हैं - यद्यपि धर्म ये दोनों काम नहीं करता किन्तु चुपचाप छिपे रूपसे धर्मात्मा पुरुषमें आनन्दामृतकी वर्षा करता है । प्रकट रूपसे ऐसा क्यों नहीं करता, इसके उत्तर में उत्प्रेक्षा करते हैं मानो धर्म उस भयानक पाप कर्मसे डरता है ॥ ५६ ॥ विशेषार्थ - जैसे रोगकी तीव्रतामें साधारण औषधिसे काम नहीं चलता - उसके प्रतीकारके लिए विशेष औषधि आवश्यक होती है वैसे ही तीव्र पाप कर्मके उदय में धर्म की साधारण आराधनासे काम नहीं चलता । किन्तु धर्माचरण करते हुए भी तीव्र पापका उदय कैसे आता है यह शंका होती है । इसका समाधान यह है कि उस जीवने पूर्व जन्ममें अवश्य ही तीव्र कषायके वशीभूत होकर ऐसे पाप कर्म किये हैं जो विना भोगे नष्ट नहीं हो सकते । यह स्मरण रखना चाहिए कि कर्म किसीके द्वारा न दिये जाते हैं और न लिये जाते हैं । हम जो कर्म भोगते हैं वे हमारे ही द्वारा किये होते हैं । हम कर्म करते समय जैसे परिणाम करते हैं हमारे परिणामोंके अनुसार हो उनमें फल देनेकी शक्ति पड़ती है। घाति कर्मों की शक्तिकी उपमा लता (बेल), दारु (लकड़ी), अस्थि (हड्डी) और पाषाणसे दी जाती है । जैसे ये उत्तरोत्तर कठोर होते हैं वैसे घातिकर्मों का फल भी होता है । तथा अघातिया पाप कर्मोंकी शक्ति की उपमा नीम, कंजीर, विष और हालाहलसे दी जाती है । निकाचित बन्धका फल अवश्य १. लतादार्वस्थिपाषाणशक्तिभेदाच्चतुविधः । स्याद् घातिकर्मणां पाकोऽन्येषां निम्बगुडादिवत् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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