Book Title: Yuktiprakasha Sutram
Author(s): Padmasagar Gani, 
Publisher: Mahavir Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ક્રમાંક - ૦૫ શ્રી યુક્તિપ્રકાશ સૂત્ર : દ્રવ્ય સહાયક: અધ્યાત્મયોગી આચાર્ય દેવ શ્રીમદ્ વિજયકલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના શિષ્યરત્ન પ.પૂ. આ. શ્રી કલાપ્રભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાવર્તિધ્ધાધ્વીજી શ્રી મયુરકળાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી શા. વિમળાબેન સરેમલ ઝવેરચંદજી બેડાવાળઆરાધના ભવનની બહેનોની જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી : સંયોજક : વિક્રમ સંવત ૨૦૬૫ શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫. (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ ઈ. સ. ૨૦૦૯ Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्ह श्रीमहावीर ग्रंथमाला १० दशम पुष्पं में पण्डितवर्य पद्मसागर गणिविरचितम् श्रीयुक्ति प्रकाशसूत्रं श्री महावीर ग्रंथमालाके मानद मंत्री S. K. Kotecha मुद्रकः-कालीदास सिताराम पंडित समर्थ इलेक्ट्रिक प्रेस धुलाया, पश्चिमखानदेश सर्वेधिकारः स्वाधिनाः वीरसंवत् २४६२ विक्रमाद १९९२ मूल्यं रूप्यद्वयम् २ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAEBAR __* जैन समाजमें अपूर्व क्रान्ति ॐ श्रीमहावीर जैनग्रंथमालाकेपुस्तकें प्रकाशित होगये. पढिये-अवश्य पढिये और मनन करिये.. ज्ञात होकि श्रीमहावीरग्रंथमालाके मुख्यतया दो विभाग करनेमे आये हैं. जिसके प्रथम विभागमें आजतक अप्रकाशित अध्यात्मग्रंथोका और सूत्रग्रंथोंका प्रकाशन दूसरे विभागमें श्रीगणधर महाराज पूर्वधर और पूर्वाचार्योके अनूभूत सिद्ध हैमकल्प, औषधिकल्प, मंत्रकल्प, आदि ग्रंथोंका प्रकाशन करवाना सुनिश्चित किया है. स्वाध्याय प्रेमी कोईभी महानुभाव अगर इसग्रंथमालाकग्राहक बनना चाहेतो नियमित फीसके पांच रुपये भरकर ग्राहक श्रेणी में अपना नाम लिखवा सकते है. अभीतक इसग्रंथमालाके अनकरीब पचास महानुभाव स्थायीरूपसे ग्राहक हो चुके है. इसग्रंथकी इस सूचनाके अतिरिक्त और कोई जाहिर सूचना देने में नहीं आयेगी. क्योंकि इसमें गुप्तविद्या होनेके कारण इसका जितना सद्उपयोग होना चाहिये संभवहकि सर्व साधारण जनताकेद्वारा उससे कहीं अधिक इसका दुरूपयोग हो इसीलिये हमने इस ग्रंथकी अभी अधिकप्रतियाँ न छपवाकर थोडीसी प्रतियाँ छपवाई है। बाद इन प्रतियोंके खपजानेसे यदि ग्राहकोंकी अधिक संख्यामें माँगे आईतो दुसरीदफेमें हम अधिक संख्यामें प्रतियाँ छपवा सकेंगे. स्वाध्याय प्रेमी सज्जन ग्रंथमालाकी ग्राहक श्रेणी में शीघ्रातिशीघ्र अपना नाम लिखवाकर यश और पुण्यके भागी बनेंगे क्या मै ऐसी उम्मीद करसकताहूं? निवेदक मंत्री:-S. K. Kotecha. Dhulia. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तिप्रकाशः - युक्तिप्रकाशः प्रणम्य व्यक्तभक्त्या श्री-वर्धमानक्रमाम्बुजम् ॥ आत्मार्थ तन्यते युक्ति-प्रकाशो जैनमण्डनम् ॥१॥ मू. भा.-प्रगट भक्तिथी श्री वर्धमानप्रभुना चरणकमलने नमीने पोतामाटे जैनोने मंडनभूतएवो युक्तिप्रकाश विस्तारुंछु. प्रणाम्य श्रीमहावीरं। नम्राखण्डलमण्डलम् ॥कुर्वे युक्तिप्रकाशस्य । खोपज्ञां वृत्तिमादरात् ॥१॥ टी.-प्रणत्येति, श्रीवर्धमानः श्रीमहावीरनामाऽस्यामवसर्पिण्या अन्तिमजिन स्तस्य क्रम्बुजं पादपप्रणत्य नत्वा युक्तिप्रकाशनामा ग्रन्थो मया तन्यत इति तावदन्वयः। तत्र व्यक्तभत्त्येति करणपदं वीरप्रणाम विशेषणं, तथा च व्यक्तभत्तयन्वितप्रणामस्य बलवन्मंगलभूतत्वेन प्रत्यूहव्यूहोपशमनार्थमादावुपन्यासः। ननु बहूनां युक्तिप्रका शकशास्त्राणां विद्यमानत्वेन किं युक्तिप्रकाशविस्तरकरणादरेणेत्यत आह आत्मार्थ स्वार्थ पूर्वाभ्यस्तान्येव शास्त्राण्य तत्करणा दरेण. विशेषात् स्मारितानि संति, स्वसंस्कारोबोधलक्षणं स्वार्थ साधयेयुरित्यर्थः । नन्वेतच्छास्त्र अध्ययनांगीकाराभ्यां केऽधिकारिण इत्याह-किं भूतो युक्तिप्रकाशः जैनमण्डनं जिनशासनानुयायियुक्तिनामेवात्र प्रतिपादितत्वेन जैनानामेवाध्ययनांगीकाराभ्यामधिकारित्वात् मण्डनमिव मण्डनं, यद्यप्येतदध्ययनमात्रे शाक्यादयोऽधिकारिणो भवत्येव तथाप्यत्र तदुच्छेदकयुक्तीनां विद्यमानत्वेनाऽनधिकारिण एव शाक्यादय इत्यर्थादापन्नं । ननु श्रीमड़ियों युक्तिप्रकाशविस्तरः क्रियते स किं पूर्व विद्यते नवेति, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति आरटी. भा. प्रणरणकमल (पटला भक्तिये करीने एतनो) विनोना विद्यम चेत् पूर्व विद्यते, तदा सतः पुनः करणेन पिष्टपेशणं संपन्नं, चेन्न विद्यते तदाऽसतः करणायोग इत्युभयथाप्यत्र निरर्थकैव श्रीमतां प्रवृत्ति रिति चेन्न, अस्त्येव स्याद्वादरत्नाकरादिशास्त्रेषु युक्तिप्रकाशविस्तार स्तथाप्यनया गत्या तत्र नास्तीति सार्थकैव प्रवृति रत्रेति तथाविधशास्त्रस्था अतीवगहनगंभीरा युक्तयो लालित्येन मुकरतया चात्र विस्तार्यत इत्यर्थः ॥ इति प्रथमवृत्तार्थः ॥ १॥ टी. भा.-नमेल छे इंदोनो समूह जेमने एवा श्रीमहावीरप्रभुने नमीने युक्तिप्रकाशनी स्वोपज्ञ वृत्ति आदरपूर्वक हुं करूंछु ॥१॥ टी. भा.-प्रणाम करीने एटले श्रीवर्धमानप्रभु (एटले) श्रीमहावीरनामना आ अवसर्पिणीमा (थयेला ) जे || छेल्लाजिन, तेमना चरणकमल (एटले) पगो रूपी कमलने प्रणमीने (एटले) नमीने युक्तिप्रकाशनामनो ग्रंथ हुं विस्तार छु, एवो अहीं अन्वय छे. त्यां प्रगटभक्तिये करीने ए करणपद वीरप्रभुना प्रणामरूपी पदनुं विशेष रूप छे वली प्रगटभक्तिरूप प्रणामने उत्कृष्ट मंगलपणुं होवाथी (तेनो) विनोना समूहने शांतकरवा माटे आदिमां उपान्यास कर्यो छे. अही शंका करेछेके घणां युक्तियोनेप्रकाश करनारां शास्त्रो विद्यमान छे, तोपछी शामाटे युक्तिप्रकाशनो विस्तार करवानो आदर करवो जोइये! एवी शंका माटे कहेछे के आत्मार्थे (एटले) पोतामाटे (अर्थात्) पूर्वे भणेला ज शास्त्रो आकरवाना आदरथी विशेष प्रकारे स्मरणवाला थायछे; पोताना संस्कारने प्रफुल्लित करवारूप स्वार्थ सधाय एवो अर्थ छे. (वली) शंका करेछे के आशास्त्रमा अभ्यास अने अंगीकारने अपेक्षीने कोण अधिकारिओछे! ते कहे छे युक्तिप्रकाश केवोछे! जैनमंडन (एटले) जिन शासनने अनुसरनारी युक्तिओनुंज Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः S SHA अंही प्रतिपादनहोवाथी जैनोनेज (तेमां ) अभ्यास अने अंगीकारनं अधिकारीपणुं छे. ( एटले ) ते मण्डननी पेठे मंडनभूत छे. जो के आना अभ्यास माटे बौद्ध आदिको ( पण ) अधिकारी थाय छे ज, तो पण आमां तेमना | खंडननी युक्तिओ होवाथी तेशाक्यआदिको अधिकारविनाना ज छे. एम भावार्थथी सिद्ध (अहीं) धयुं शंकाकरे छेके | आप जे आ युक्तिप्रकाशनो विस्तार करोछो ते शुं पूर्वे विद्यमानछे, के नथी, एम जो (ते ) ( कहीशतो) पूर्वे छे. त्यारे तो छताने फरीने करवाथी तो पिष्टपेषनजेवुं धयुं. (अने) जो नथी, (एम कहेशो) तो अछतुं करायज नही एम बन्नेरीतें पण अहीं आपनी प्रवृत्ति वृथाज छे एम जो कहीये तो युक्त नथी छेज ( जोके ) स्याद्वादरत्नाकर | आदिक शास्त्रोमां युक्तिप्रकाशनो विस्तार तो पण आ रीतीथी तेमां नथी माटे आमां जे प्रवृत्ति करवीते सार्थक ज छे. (एटलेके) तेवां शास्त्रोमा रहेली अत्यंत कठीन अने गंभीर एवी युक्तिओने लालित्यपणाथी सुगमरीते अहीं विस्तारायछे, एवो अर्थ छे, एवीरीते पेहेला काव्यनो अर्थ जाणवो. ॥ १ ॥ aaौद्ध वस्तुक्षणिक मते ते । तत्साधकं मानमदस्तथैव ॥ तथा च तेन ह्यसता कथं तत् । प्रमेव धूमेन हुताशनस्य ॥ २ ॥ . भा. हे बौद्ध तारा मतमां जो वस्तु क्षणिक छे, तो तेने साघनारुं आ प्रमाण ( पण ) तेवुंज ( एटले क्षणिक होवु जोइये ) अने एवीरीते ते अछता ( प्रमाणथी ) धुंवाडावडे करीने अग्नीनीपेठे ते क्षणिक पणानो प्रभा केम ( उत्पन्न थइशके ! ) ॥ २ ॥ ********BY Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या चेति, तथा च एवं सतित इत्यर्थाद् योध्यं, प्रमात्स्यात् तदापक्ष धर्मत्व टी.-अथ प्रथमं बौद्धं निराकरोति, चेद बौद्धः हे बौद्ध तव मते चेद् यदि वस्तु घटपटलकुदशकटादिकं युक्ति क्षणिक क्षणेन एकेन समयेन विनश्वरमस्तीत्यध्याहार्यान्वयः, तर्हि तत्साधकं वस्तु क्षणिकत्व साधकं अद प्रकाशः इदं मानमपि तथैव क्षणिकमेव स्यात्, अयं भावः-यदि सकलमपि वस्तु क्षणिकमित्येवांगीकृतं त्वया, तदा क्षणिकत्वसाधकं प्रमाणमिदमेव वाच्यं, अर्थक्रियाकारित्वात् क्षणिकं वस्त्विति, इदमपि सकलवस्त्वंतः पातित्वेन क्षणिकमेवेत्यर्थः, ननु क्षणिकत्वसाधकं प्रमाणं चेत् क्षणिकं तदा कः प्रकृते दोष इत्यत आह तथा चेति, तथा च एवं सति क्षणिकत्वादेकसमयानंतरं असता विनष्टेन तेन क्षणिकत्व साधक प्रमाणेन कथं तत्पमा क्षणिकत्वप्रमा जन्यत इत्यर्थाद् बोध्यं, प्रमात्वत्रानुमितिरूपैव गृह्यते, तथा चायमर्थः-क्षणिकत्वं | तावत्साध्यं अर्थक्रियाकारित्वादिति हेतुः, हेतुस्तु यदि सन् स्यात् तदापक्ष धर्मत्वसामानाधिकरण्येन साध्यानुमिति जनयति, एतस्य हेतो विनष्टत्वेन पक्षधर्मत्वाऽभावात् कथं साध्यानुमितिजनकत्वं, न कथमपीत्यर्थः । अत्र दृष्टांतभामुखेन दायं दर्शयति, इव यथा धूमेन हेतु भूतेन हुताशनस्य वहेरनुमिति र्जन्यते विनष्टत्वेन पक्षधर्मत्वसामानाधिकरण्यात्, न तथानेन हेतुना क्षणिकत्वात् खसाध्यानुमितिर्जनयितुं शक्येत्यर्थ इति वृत्तार्थः॥२॥ टी. भा.-हवे प्रथम बौद्धनुं खंडन करेछे. हे बौद्ध ! तारा मतमां जो लाकडी पदार्थ घडो, वस्त्र, तथागाडां आदिक पदार्थ क्षणिक (एटले) क्षणमा (अर्थात) एक समयमांज नाशवाला छे, एवीरीते अध्याहारवालो अन्वय छे. त्यारे तेनेसाधनारु (एटले) पदार्थनाक्षणिकपणानेसाधनाएं आदः (एटले) आ प्रमाण पण तेवूज Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तिप्रकाशः (एटले ) क्षणिकज थाय. एवो भावार्थ छ के, ज्यारे सर्व पण पदार्थ क्षणिक छे, एमज ते स्वीकार्यु, त्यारे क्षणिक पणाने साधनाऊं प्रमाण एज छे, (एम) कहेवू (एटलेके). अर्थ क्रिया करनार होवाथी क्षणिक पदार्थ छे, एम (कहेवू.) आ पण (प्रमाण ) सर्व पदार्थोनी अंदर आवीजवादी क्षणिकजछे, एवो भावार्थ छे. शंका करेछे के, क्षणिकपणाने साधनाऊं प्रमाण जो क्षणिक थाय, तो आ चालती बाबतमां शुं दोष छे! ते माटे कहेछे के, तथा च इति, तथा च (एटले ) एम होते छते क्षणिक होवाधी अकसमयबाद अछता (एटले) नष्ट थयेला (एवा) ते क्षणिकपणुं साधनारां प्रमाणे करीने केवीरीते तेनो प्रमा ( एटले) क्षणिकपणानो प्रमा उत्पन्न इशके ! एम भावार्थथी जाणवू. प्रभा तो अहीं अनुमानरूपज ग्रहणकराय छे (अने) तेम करवाथी आ भावार्थ छे क्षणिक पणुं अहीं साधवानुं छे. अर्थक्रिया करनार होवाथी, एवो हेतु छे. (हवे) हेतु तो ज्यारे छतो होय, त्यारे पक्षधर्म पणानासमानाधिकरणपणायें करीने साध्यना अनुमानने उत्पन्न करेछे. (अने) हेतुने तो विनश्वरपणुं होवाथी पक्ष धर्मपणाना आभावथी केवी रीते साध्यना अनुमानने उत्पन्न करवापणुं थाय! कोइपण रीते न थाय, एवो भावार्थ छे. अहीं दृष्टांतद्वारायें (तेसंबंधि) दृढता देखाडे छे. इव (एटले) जेम हेतुरूप एवा धुंबाडावडे करीने हुताशन, (एटले ) अग्नि, अनुमान उत्पन्नथाय छे, (केमके) ते नष्ट न थवाथी [तेने] पक्षधर्मनुं समानाधिकरणपणुं छे. एवीरीते आ हेतु क्षणिक होवाथी [ तेनावडेकरीने ] पोतानासाध्यतुं अनुमान उत्पन्न करीशकातुं एवो अर्थ छे. एवीरीते काव्यनो अर्थ [जाणवो.] ॥२॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति तत्सन्तति नैव पदार्थसतन्तेः । संग्राहिकायक्षण एव नष्टा ॥ प्रकाशः नाशग्रही नो युगपद्भवेतां । विरुद्धभावा दिव बालवृद्धे ॥३॥ मू. भा.-तेप्रमाणनी संततिने पदार्थनीसंततिने ग्रहणकरनारी नधीज. किमकेतेतो] प्रथमक्षणेज नष्ठथयेलीछे. [ माटे] बालपणुं [ अने] वृद्धपणानी पेठे विरुद्ध भाव होवाथी नाशअनेग्रहण एकीहारे होतां नथी. ॥ ३॥ टी.-अथ क्षणानंतरं विनश्यता प्रमाणेन वसंततिर्जन्यते, तया विनश्यदवस्थार्थजनितसंततेः क्षणिकत्वं साध्यत इति चेन्नैतदपि सुंदर मित्याह-तदिति तत्संततिः प्रमाण संततिः पदार्थसंततेः क्षणिकत्वरूपसाध्यग्रहपुरस्कारेण न संग्राहिका सम्यग् ग्राहिका भवति कुत इति विशेषणद्वारेण हेतु माह-सा प्रमाणसंततिः किं विशिष्टा नष्टा, क्व आद्यक्षण एव प्रथमक्षण एच, उत्पत्त्यनंतरं यः प्रथमः क्षणस्तस्मिन्नेव क्षणिकत्वात् क्षयं गतेत्यर्थः, भावार्थ स्त्वयं-विनश्यता प्रमाणेन वसंततिर्जन्यते, सापि विनश्यती संतत्यंतरमियं किल बौद्धानां परिपाटिः तथा च खनाशव्यग्रत्वात् प्रमाणसंततिरपि तथावस्थापनार्थसंततेः कथं ग्राहिका स्यात्, नैवेत्यर्थः । जाननु युगपत्ममाणसंतते शोऽप्यस्तु पदार्थ संततिग्रहोऽप्यस्तु को दोष इत्यत आह, नाशश्च ग्रहश्च नाशग्रहो, खस्य नाशः परस्य ग्रहः, एतौ द्वौ युगपत् समकालं नो भवेतां, तथाहि-प्रमाण संतति हि बिनश्यती वा पदार्थसंततिग्राहिका विनष्टा वा, नाद्यो विनश्यत्यास्तस्याः स्वनाशव्यग्रत्वेन परकृत्यकरणाऽसमर्थत्वात्, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः ALLAL*********** विनाशकाला दधिककाला लाभाच्च, न, द्वितीय स्तस्या नाशस्याऽभावरूपत्वात्, अभावस्य प्रतियोगिकृत्याऽ करणात् । यद्य भावोऽपि प्रतियोगिकृत्यं करोति तदा घटाभावस्यापि जलाहरणक्रियाकरणप्रसक्त्या घटव्यति| रिक्ता अपि अर्धा जलाहरणं कुर्युरिति व्यवहारोच्छेदस्तस्माद्विनष्टा प्रमाणसंततिर्न पदार्थसंततिग्राहिकेति, कुत | इत्यत आह, विरुद्ध भावा द्विरुद्धत्वादित्यर्थः । अथात्र दृष्टांतः - इव यथा वृद्धबालते नोयुगपद्भवेतां, द्वंद्वांते श्रूयमाणं पदं उभयत्रापि संबंध्यत इति न्याया वृद्धताबालते सामानाधिकरण्येनायमर्थः - एकस्मिन्नेव पुरुषे युगपद् वृद्धताबालते न संभवत इत्यर्थः ॥ इतिवृत्तार्थः ॥ ३ ॥ टी. भा. - हवे क्षणपछी नाश पामता एवा प्रमाणवडे करीने पोतानी संतति उत्पन्न थाय छे. ( अने) तेणें करीने नाशपामती अवस्थावाला पदार्थथी उत्पन्न थयेली संततिथी क्षणिकपणुं सधायछे एमजो ( कहीशतो ) ते पण युक्त नथी ते कहे छे. तद् एटले तेनी संतति (अर्थात् ) प्रमाणनी संतति पदार्थनी संततिने क्षणिकपणा रूप साध्यने ग्रहणकरवापूर्वक संग्रहिका ( एटले ) सम्यक् प्रकारें ग्रहणकरनारी थती नथी. शामाटे ? तोके, विशेषणद्वारा हेतु कहेछे- ते प्रमाणसंतति केवी छे ? तोके नाशपामेलीछे क्यारे ? तोके प्रथम क्षणे ज. (एटले) आद्यक्षणेज. (अर्थात् ) उत्पत्तिपछी जे प्रथम क्षण तेज क्षणे क्षणिक होवाथी क्षय थईछे एवो अर्थ छे. भावार्थ तो आछे. - नाशपामता प्रमाणेंकरीने पोतानी संतति उत्पन्न थाय छे; ते पण नाश पामती थकी बीजी संततिने | ( उत्पन्न करेछे ) आमकारनी खरेवर बौद्धोनी परिपाटी छे। अने एवीरीते पोताना नाशमां व्यग्रहोवाथी प्रमाणसंतति S Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः नाशग्रहण पण तेवी अवस्थाने प्राप्त धयेला एवा पदार्थनी संततिने केम ग्रहणकरनारी धाय ? नजधाय एवो अर्थ छे. शंका करेछे के एकीहारे प्रमाणनी संततिनो नाश पण भले थाय (अने) पदार्थनी संततिनुं ग्रहण पण थाओ ( तेमां ) शुं दोषछे ? तेमाटे कछे-नाश अने ग्रहण पोतानो नाश परतुं बन्ने एकीवखते (एटले) समकाले न संभवे; तेकहे छे. - प्रमाणनीसंतति खरेवर नाशपामती अथवा पदार्थनी संततिने ग्रहण करनारी थाय. ! के नाश धयेली (थाय ?) (तेमां ) प्रथम पक्षतो युक्त नथी. ( केमके) नाश पामती एवी तेणीने पोताना नाश मांज व्यग्रपणुं होवाथी परनुं कार्यकरवामां असमर्थ पणुं छे. ( केमके) नष्ट थवाना कालथी वधारे वखत तेने मली शकतो नथी. बीजोपक्षपण युक्त नथी; (केमके) तेणीना नाशने अभावरूप पणुंछे. (अने) अभावछे ते प्रतियोगी कार्यकरी शकतो नथी; (वली) जो अभाव पण प्रतियोगिनुं कार्य करे, तो घडाना अभावने पण जल भरवानी क्रिया करवानो प्रसंग आववाथी घडा शिवायना पदार्थोपण जल भरवानुं कार्य करत; एम (स्वीकारवाथी तो) व्यवहारनो नाश थाय छे. माटे नष्ट थयेली प्रमाणनी संतति पदार्थनी संततिने ग्रहण करनारी नथी. शामादे ? ते कहेछे. विरुद्ध भावधी (एटले) विरुद्धपणाथी एवो अर्थ छे. | हवे अहीं दृष्टांत कहेछे. इव ( एटले ) जेम वृद्धपणुं अने बालपणुं एकीहारे होतुं नथी. द्वंद्वसमासने छेडे संभलातुं पद बन्नेपदोमां संबंध घरावेछे, एवा न्यायधी वृद्धपणुं (अने) बालपणुं, समानाधिकरणपणायें करीने एवो अर्थ | छेके एकज पुरुषमां एकीहारे वृद्धपणुं अने बालपणुं नथी संभवतुं एवो अर्थ छे. एवी रीते काव्यनो अर्थ छे. ॥ ३ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तिप्रकाशः प्रामाण्य मुर्वदतांऽपरोक्षा-नुमानयो रेव निषिद्ध मेतत् ॥ शद्वेषु बौद्ध त्वयका तथा चा-प्रामण्यमाप्तं तकयोर्न दृष्टं ॥ ४ ॥ मू. भा. हे बौद्ध ! प्रत्यक्ष अने अनुमानना प्रमाण पणाने उंचे प्रकारे बोलता एवा तें शवोमां तेने निषेध्युं छे. अने एवी रीते तेऊने प्राप्त थयेल अप्रमाणपणुं (तें) जोयुं नही ॥४॥ टी.-प्रामाण्यं इति, हे बौद्ध अपरोक्षानुमान (एटले) प्रत्यक्षानुमानयो रेव प्रामाण्यं वदता प्रमाणेस्त इत्युक्तं, तथा च शद्वेषु त्वया एतदिति प्रामाण्यं निषिद्धं, ततः किमित्यत आह-तथा चेति, एवं सति तकयो स्तयो स्तव प्रामाण्येनाभिमतयोः प्रत्यक्षानुमानयो रप्रामाण्यमाप्तं प्राप्तं सदपि भवता न दृष्टं नददृशे इति शहार्थ: भावार्थ स्तु त्वयाहि धावत भोडिंभाः नदीतीरे गुडशकटं विपर्यस्त मित्यादिवचनवत् संवादकत्वाऽभावात् सर्वेषां शद्वानामप्रामाण्य मित्येवं वक्तव्यं, तच्च प्रत्यक्षाऽनुमानयोरपि समानं, क्वचिद् भ्रमरूपे प्रत्यक्षादौ संवादक|त्वाऽदर्शनात् क्वचिद्धत्वाभासादावनुमानेऽपि संवादकत्वा दर्शनात्तयोः समग्रयोरपि अप्रामाण्यप्रसक्त स्तस्मा त्तयोरिव शहनामपि प्रामाण्यांगीकार कुर्वित्यर्थः॥ इति वृत्तार्थः॥४॥ टी. भा.-प्रामाण्यं इति हे बौद्ध ! अपरोक्षअनुमानने ज (एटले) प्रत्यक्ष अने अनुमान प्रमाणनेज प्रमाणपणुं कहेतां थकां (एटले) (ते बन्ने) प्रमाणो छ एम (तें) कयुं एवी रीते अने शहोमां ते ते एटले Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः प्रमाणपणुं निषेध्यु, तेथी शु? ते कहेछे एवीरीते एटले एम होतेछ ते तकयोः तेउने एटले ( अर्थात् ) ते प्रमाणरूपें मानेलां एवां प्रत्यक्ष अने अनुमानने अप्रमाणपणुं मल्यं (एटले) प्राप्त थयुं छतुं पण तें न जोडे (एटले) न दीर्छ, एवो |शद्वाछे, भावार्थ तो ने खरेखर दोटो हे बालको नदीकिनारे गोलनुगाडं विखरायुंछे, इत्यादि वचननीपेठे |संवादकपणाना अभावधी सर्वे शहोने अप्रमाणपणुं एवीरीते कहेवं जोइये. अने ते प्रत्यक्ष अने अनुमानबन्नेने पण तुल्यछे. क्यांक भ्रमरूपएचा प्रत्यक्ष आदिकमां संवादकपणुं नही देखावाथी (तथा) क्यांक हेत्वाभासादि| कमां अनुमानमा पण संवादकपणुं न देखावाथी तेनु समग्रने पण अप्रमाणपणानो प्रसंग थायछे. माठे तेओनी | पेठे शद्बोनो पण प्रमाणपणानो अंगीकार तुं कर ? एवो अर्थ छे. ॥ एवीरीते काव्यनो अर्थ (जाणवो.) ॥ ४॥ नांतर्भवत्येव किलानुमानाशाद्वंप्रमाणं विपरीतरूपाप्रत्यक्षवत्तस्य यतो विभिन्ना।समग्रसामग्र थपि सुप्रतीता॥५॥ मू. भा.-शाह प्रमाणनो खरेखर अनुमानमा समावेश थतो ज नथी (केमके) ते तेथी विपरीत स्वरूपवालुं छे. केमके प्रत्यक्ष प्रमाणनी पेठे तेनी सघली सामग्री पण भिन्नतावाली प्रसिद्धछे. ॥५॥ | टी.-मनु शाई प्रमाणं पृथग् नोच्यते किंत्वनुमानांतःपाती त्युच्यत इति चेन्नैतदपि सुंदरमित्यत आहनांतर्भ० शाहं प्रमाणमनुमाने न अंतर्भवति, यथा प्रत्यक्षमनुमाने नांतर्भवति तथेदमपि, कुतोऽस्याऽनुमानाs नंतर वे प्रत्यक्ष साम्य मित्यतो विशेषणद्वारा हेतुमाह-किंविधं शाई प्रमाणं विपरीतरूपं, अनुमानाद्विप, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तिप्रकाशः कoय, तच्चायुक्त प्रत्यक्षत्वप्रसंगाणांतरत्वं न र रीतरूपं यस्य तदिति प्रत्यक्षसाम्यं, कुतोऽस्य प्रत्यक्षस्येव नानुमानरूपत्व मित्यत आह-यतःकारणात्तस्य शाहप्रमाणस्य समग्रसामग्रन्थपि अनुमानाद्विभिन्नास्तीति शद्वार्थो, भावास्त्वयं-त्वयाहि शाई प्रमाणं किंसंबद्ध मर्थं गमयेदसंबद्धं वा, न तावदसंबद्धं गवादेरपि अश्वादि प्रतीतिप्रसंगात्, संबद्धं चेत्तदा तल्लिंगमेव तज्जनितं च ज्ञान मनुमान मेवेति वक्तव्यं, तच्चायुक्तं प्रत्यक्षस्याप्येव मनुमानस्वप्रसंगात् । तदपि हि स्वविषये संबई सत्तस्य गमकं, अन्यथा सर्वस्य प्रमातुः सर्वार्थप्रत्यक्षत्वप्रसंगात् । अथ विषय संबद्धत्वाविशेषेपि प्रत्यक्षाऽनुमानयोः सामग्रीभेदात् प्रमाणांतरत्वं तर्हि शद्वस्यापि किमेवं प्रमाणांतरत्वं न स्यात्, शाब्दं हि शब्दसामग्रीतः प्रभवतीति, तदुक्तं प्रमेयकमलमार्तडे-"शब्दादुदेति यद ज्ञान-म प्रत्यक्षेपि वस्तुनि ॥ शाब्दं तदिति मन्यते । प्रमाणांतर्वादिनः॥१॥ तस्मात् प्रत्यक्षानुमानयो रिव शब्दस्यापि प्रमाणांतरत्व मंगीकर्तव्य मेव, अथ शब्दसाम| ग्रथा बहुसंमतत्वं दर्शयति, किंविधा सामग्री सुप्रतीता अतिशयेन प्रतीतेत्यर्थः ॥५॥ टी. भा.-शंका करेछेके शाह प्रमाण भिन्न नथी कहेवातुं, परंतु अनुमाननी अंदर रहेनारूं कहेवायचे. ते पण युक्त नथी एम जो कहीशतो ते माटे कहेछे-शाब्द प्रमाण अनुमानमा समावेशवालंथतुं नथी जेम प्रत्यक्ष प्रमाण अनुमान प्रमाणमां समावेशवालं थतुं तेम आ पण (जाणवू ) शामाटे तेनुं अनुमाननी अंदर समावेश न थवामां प्रत्यक्षनु तुल्यपणुं छे? तेमाटे विशेषण द्वाराए हेतु कहेछे-केवूछे ? शाब्द प्रमाण? तोके विपरीतरूप वालुंछे (एटले) तेने प्रत्पक्षनी पेठे अनुमानरूपपणुं केम ते माटे कहेछे-जे कारणथी ते शाब्द प्रमाणनी सघलीसामग्री पण अनुमान प्रमाणथी भिन्न छे, एवी रीते शब्दार्थ (जाणवो) भावार्थ तो आछे.-तुं शाब्द प्रमाणने | Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः शुं संबंधवाला अर्थने के असंबद्धवाला अर्थने प्राप्त करेछे ? असंबंध वालाने तो नही. ( केमके तेथी तो ) गायआदिकने पण घोडा आदिकनी प्रतीतिनो प्रसंगधाय. संबद्धने जो ( कहीश ) तो तेनु लिंगज तेथी उत्पन्न थयेलं ज्ञान अनुमान जछे, एम कहेवुं. अनेते तो अयुक्त छे. (केमके) प्रत्यक्षने पण एवी रीते अनुमान पणानो प्रसंग थाय; (अने) ते पण खरेखर पोताना विषयमा संबद्ध थयुं थकुं तेने जणावनाएं थायः नहीतर सर्व प्रमातानो | सर्व पदार्थोंना प्रत्यक्षपणानो प्रसंग आवे. वली विषयना संबंध पणानो तफावत न होते छते पण प्रत्यक्ष अने अनुमान प्रमाणने सामग्रीना भेदधी अन्यप्रमाणपणुं (जोहोय ) तो शब्दने पण एवीरीते अन्यप्रमापणुं शामादे न थाय ? केमके शाब्दप्रमाण शब्दनी सामग्रीथी उत्पन्न थाय छे, प्रमेयकमलमार्तंडमां तेमाटे कछेके, | परोक्ष पदार्थमां पण शब्दथी जे ज्ञान उत्पन्न धायछे तेने प्रमाणांतर्वादीनु शाब्द प्रमाण एम माने छे. ॥ १ ॥ माटे प्रत्यक्ष अने अनुमाननी पेठे शब्दनुं पण प्रमाणांतर पणुं स्वीकारयुंज. हवे ते शब्दसामग्रीनुं बहुसम्मत | पणुं देखाडेछे. केवी सामग्रीछे ? तोके सुप्रतीता ( एटले ) अत्यंतरीते प्रसिद्धछे, एवो अर्थ छे. ॥ ५॥ न संनिकर्षोऽपि भवेत्प्रमाणं । प्रमाकृतौ तद्व्यभिचारदर्शनात् ॥ अप्राप्यकार्यं बकसंनिकर्षो । घटादिनाऽर्थेन कथं भवेत् पुनः ॥ ६ ॥ मू. भा. - ( हे योग ) संनिकर्ष पण प्रमाणरूप न थाय; (केमके) प्रमाने उत्पन्न करवामां तेनो व्यभिचार देखायछे. ( माटे) अप्राप्यकारी जे चक्षु, तेनो संनिकर्ष वली घडा आदिक पदार्थवडेकरीने केम थाय ? ॥ ६ ॥ RETR १२ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश टी.-अथ सुगतामत मपाकृत्य नैयायिकमतमपाकरोति, न संनि. चेत्प्राप्य. द्विधाप्य न तैज. अग्रगकाव्यगतं योगपदमध्याहत्यात्र व्याख्येयं, हे योग त्वया प्रमाणत्वेन काल्पतोऽपि संनिकर्षः प्रमाणं न भवेत् कुत इति हेतुमाह-प्रमाकृती प्रमाजनने तदिति तस्य संनिकर्षस्य व्यभिचारदर्शनात्, भावार्थ स्त्वयंप्रमासाधकतमं प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणं त्वयाऽभ्युपगतं, यद्यस्मिन् सति भवत्येवाऽसति च न तत्तस्य साधकतमं क्वचित् सत्यपि संनिकर्षे प्रमाया अनुत्पादात्, क्वचिद् सत्यपि प्रमोत्पत्ते रित्यत्रान्वय व्यतिरेकाभ्यां व्यभिचारदर्शनात्, तथाहि गगनस्य विभुत्वेन सकलमूर्तद्रव्यसंयोगित्वं विभुत्व मिति वचनाद् गगनचक्षुषों घंटचक्षुषोरिव संनिकर्षण घटविषयकममाया अजननात्, न च तत्रयोग्यताया अभावान्न संनिकर्ष स्तत्प्रमा जनयतीति वाच्यं, योग्यतांगीकारे किमंतर्गडुना संनिकर्षेण, योग्यताहि प्रतिबंधकाऽभावः, स च स्वावरण|क्षयोपशमरूपं भावेंद्रियमेव, तथा चामत्कक्षापंजरप्रवेशः, विशेषणज्ञाना द्विशेष्यप्रमायां जायमानायां क्वचिद सत्यपि सनिकर्षे प्रमोत्पत्ते रिति स्थितमेतन्न संन्निकर्षः प्रमाणमिति, अथ ग्रामोनास्ति कुतः सीमेति न्यायात् घटाद्यर्थैः संनिकर्ष एव न संभवति, तस्य प्रमाणाप्रमाणत्वविचारस्तु दूरेऽस्त्विति दर्शयति, अप्रपाप्येति अप्राप्यकारि यदंबकं चक्षु स्तस्य घटादिनार्थेन संनिकर्षः कथं भवेन्न कथमपीत्यर्थः, यदि चक्षुः प्राप्यकारि स्यात् तदाऽस्यार्थप्राप्त्या संनिकर्षः संभवतीति भावार्थ इति वृत्तार्थः ॥ ६॥ टी. भा.-हवे बौद्धमतने छोडीने नैयायिकोना मतनुं खंडनकरेछे. आगलना काव्यमा रहेला योगपदनो अध्याहार करीने अहीं व्याख्या करवी हे योग ! ते प्रमाणपणे कल्पेलो एवो पण संनिकर्ष प्रमाणरूप न थाय Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः केम ? तेमाटे हेतु कहेछे. प्रमाकृतौ (एटले ) प्रमानेउत्पन्न करवामां तद् एटले ते संनिकर्षनो व्यभिचार देखायछे भावार्थ तो आम छे. - प्रमाने साधनाएं ते प्रमाण ( कहेवाय) एवं प्रमाणनुं लक्षण तें स्वीकार्य छे. ज्यारे आ होतेछते होयजछे; अने नहोते छते नथी ते तेने साधनाएं ( केमके) क्यांक संनिकर्ष होते छते पण प्रमानी उत्पत्ति नथी थती, (अने) क्यांक न होते छते पण प्रमानी उत्पत्ति थाय छे, एवीरीते अहीं अन्वय अने व्यतिरेकें | करीने व्यभिचार देखायछे. तेकहेछे. आकाशने सर्वव्यापकपणाये करीने, सघलारूपी पदार्थोनुं संयोगिपणुं ए सर्वव्यापकपणुं छे एवां वचनधी आकाश अने नेत्रने घडा अनेनेचनी पेठे संनिकर्षे करीने घडा संबंधिप्रमाने उत्पन्न करी शकतुं नथी। वली त्यां योग्यपणाना अभावधी संनिकर्ष तेनाप्रमाने नथी उत्पन्नकरतो एम न कहेवुं (केम के ) योग्यतानो स्वीकारकरते. छते कोकटवच्चे रहेलाएवा संनिकर्षे करीने शुंछे ! योग्यता एटले प्रतिबंधकनो अभाव ( जाणवो ) अने ते पोताना आवरणवा क्षयोपशमरूप भावेंद्रियछे. अने एवीरीते तो अमाराज मतमां प्रवेशथइ गयो. विशेषणना ज्ञानथी | विशेष्यनो प्रमा उत्पन्न होते छते क्यांक संनिकर्ष पण नहोते छते पण प्रमाणनी उत्पत्तिथायछे भाटे नक्की धयुंके ते | संनिकर्ष प्रमाणरूप नथी. वली गाम नथी, तो सीमा क्यांथी होय ? ए न्यायथी घटादिक पदार्थो वडेकरीने संनिकर्ष ज नथी संभवतो, (माटे ) तेना प्रमाणअप्रमाणपणानो विचार तो दूरें रहो, एम देखाडेछे, अप्राप्य | एटले प्राप्तथयेला पदार्थने नहीं ग्रहणकरनारु जे अंबक (एटले ) नेत्र तेने घटादिक पदार्थों करीने संनिकर्ष क्यांथी थाय ? न कोइपण रीते थाय. एवो अर्थ छे. जो चक्षु प्राप्यकारि होय तो तेने पदार्थनी प्राप्तिवडे करीने संनिकर्ष १४ | संभवे एवो भावार्थछे एवीरीते काव्यनो अर्थ छे. ॥ ६ ॥ ARY Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तिप्रकाश चेत्प्राप्यकार्यं बकमस्ति योगा-त्यासन्नमर्थं हि कथं न पश्यति ॥ तथाविधं सकिमु तेषुगत्वा । गृह्णातिवायांत्यथ तेत्रदेशे ॥७॥ मू. भा.-हे योग ! जो चक्षु प्राप्यकारि छे, तो अत्यंतनजीकना पदार्थने खरेखर केम नथी जोतुं? (अने) तेम होते छते शुं तेनुप्रते जइने (ते) गृहण करेछे ? अथवा तो तेनु ते भागमां आवेछे ? ॥७॥ टी.-अथ चक्षुःप्राप्यकारित्वं निरस्थति, चेत्प्राप्य. चेदंबकं चक्षुः प्राप्यकारि हे योगअस्ति तदात्यासन्न मंजनादिकमर्थ कथं न गृह्णातीत्यर्थः । यद्यत् प्राप्यकारिष्टं तद त्यासन्नार्थग्राहकमपि, यथा शद्वादेः श्रोत्रादि, तथा च तौल्लेखः-यदि चक्षुः प्राप्यकारिस्यात्तदात्यासन्नार्थग्राहकमपि स्यादिति तर्कोपजीवितप्रयोगोपि, यथा चक्षुर्न प्राप्यकारि अत्यासन्नार्थीग्राहकत्वात् , यन्नैवं, तन्नैवं, यथा स्पर्शनं, अथ तुष्यतु दुर्जन इतिन्याया त्तावत्तवांगीकृतं चक्षुःप्राप्यकारित्वमप्यंगीक्रियते यदिविकल्पसहंस्यात् । तथाहि-तथाविधं प्राप्यकारित्वं किमुकथं तेषु अर्थेषु गत्वा गृह्णाति, अथवाते• अत्रदेशे चक्षुःप्रदेशे आयांतीति विकल्पद्वयमिति विकल्पद्वयमिति वृत्तार्थः ॥७॥ | टी. भा.-हवे चक्षुनुं प्राप्यकारिपणुं दूर करेछे, हे योग जो अंबक (एटले ) चक्षु प्राप्तथयेल पदार्थने ग्रहण करनारुं छे. तो अत्यंत नजीक रहलाएवा अंजनआदिक पदार्थने (ते) केम नथी गृहणकरतुं? एवो अर्धछे. जे जे प्राप्यकारि देखायेलुछे, ते अत्यंतनजीकना पदार्थने ग्रहणकरनारं पण छे. जेम शद्वआदिकने कर्णआदिकग्रहण करेछे वली तेवो तर्कनो लेखछेके जो चक्षु प्राप्यकारि होय तो (ते) अत्यंत नजीकना पदार्थने ग्रहण करनारं पण Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः **************ALKLA SHARE EYE होय, (वली ) ते तर्कनेलगतो प्रयोग पण छे के जेम, चक्षु प्राप्यकारी नथी (केमके ) ते अत्यंत नजदीक रहेला | जे नथी एम ते नथी तेम. जेम स्पर्शेद्रि, वली पदार्थने ग्रहणकरनारुं नथी. दुर्जन भले खुशीथानु एवा न्यायथी तो तें स्वीकारेलुं चक्षुनुं प्राप्यकारिपणुं पण स्वीकारीये, ( परंतु ) जो विकल्पनेसहन करनाएं होयतो, ते कहे छे --तेवीरीतनुं प्राप्यकारिपशुं शुं ते पदार्थोमां जहने ग्रहणकरेछे ? अथवा ते पदार्थों ते भागमां ( एटले ) चक्षुप्रदेशमां आवेछे ? एवीरीते बेविकल्पो थया; एवीरीते काव्यनो अर्थ ( जाणवो. ) ॥ ७ ॥ द्विधाप्ययुक्तं हि गतस्य तस्य । वह्नयादिकार्थेषु कथं न दाहः ॥ भूभूधराद्यर्थसमागमेऽपि । नाच्छादनंस्यात् किमु तस्य चक्षुषः ॥ ८॥ मू. भा. - (ते) बन्ने रीते पण अयुक्तछे. केमके अग्नि आदिक पदार्थोंमां दाह केम नथी थतो ? ( तेमज ) | पृथ्वी तथा पर्वत आदिक पदार्थोंनो समागम होते छते पण ते चक्षुने आच्छादन केम न थाय ? ॥ ८० ॥ टी. - अथ विकल्पद्वयमध्यन्यातर विकल्पांगीकारेणाऽदक्षतां यौगस्य दर्शयति- द्विधाप्य० द्विधापि उभयथापि अयुक्तं स्यात् न तु युक्तिमत्त्वं स्यात्, तत्कथमिति तावत् प्रथमपक्षे दोषं दर्शयति, यदि हि चक्षुस्तेषु गत्वा गृह्णातितदातस्य चक्षुषोोवह यादिकार्थेषु गतस्य दाहोदहनं कथं न स्यात्, अथार्था चक्षुः प्रदेशे समायांति इति द्वितीय विकल्पं दूषयति, भूः पृथ्वी भूधराः पर्वतास्तेषां चक्षुः प्रदेशे समागमे, भूभूधराद्यर्था यदि चक्षुः प्रदेशे | समायांति तदा किंस्यादित्यत आह-तस्य चक्षुष आच्छादनं आवरणं किमुनस्यात् । ते ह्यागताश्चक्षु राच्छादयंति, | तथा च लाभ मिच्छतो मूलक्षति स्तवायाति इति वृत्तार्थः ॥ ८ ॥ १६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तिप्रकाशः टी.भा.-हवे ते बेविकल्पोमांधी एक विकल्पने स्वीकारीने योगमतवालानुं अदक्षपणुं देखाडेछे. द्विधापि (एटले) | वन्नेरीते पण अयोग्य थाय; परंतु युक्तिवाल न थाय; ते केम? तोके, पेहेलापक्षमां दूषण देखाडेछे. ज्यारे चक्षु तेउमा जइने ग्रहण करेछे, त्यारे ते चक्षुने अग्निआदिकपदार्थोमां जवाथी दाह (एटले) दहन केम न थाय ? वली पदार्थों (जो) चक्षुपदेशमां आवेछे, एवीरीतना बीजाविकल्पने (हवे) दूषितकरे छे. भूः (एटले) पृथ्वी | (तथा) भूधरो (एटले) पर्वतो, तेउनुं चक्षुप्रदेशमा समागमन होतेछते (एटले) पृथ्वी तथा पर्वत आदिक | पदार्थो जो चक्षुप्रदेमां आवेछे, तो शुं धाय ? ते हवे कहेछे के, ते चक्षुने आच्छादन (एटले) आवरण केम न थाय ? केमके तेनु आवतेछते चक्षुने ढांकीदेछे. एवीरीते लाभने इच्छता मूलनी हानि तने आक्छे. एवीरीते काव्यनो अर्थ छे. ॥ ८॥ न तैजसत्वादथ तस्य दाहो । वहृयादिना चेदिति नैवमेतत् ॥ न तैजसं स्यात्तमसो ग्रहायत-स्तेजो न गृह्णाति च तत्क्षणोति ॥ ९॥ मू. भा.-वली (ते चक्षु ) तैजस होवाथी तेनो अग्निआदिकें करीने दाह (धतो) नथी, एम जो कहीश तो ते (युक्त) नथी. (केमके) (चक्षु ) तेजस नथी; (केमके)ते अंधकारने ग्रहण करनारं छे केमके तेज (कंई) (अंधकारने) गृहण करतुं नथी, (परंतु )तेने नष्ट करेछे.॥९॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाश टी.-अथेत्यादिवचश्चपेटाताडितो यौगवावदकः किंचित् प्रतिवदति न तैज. अथेतिनन्वर्थे, ननुअस्य चक्षुष स्तैजसत्वाद्वाहृयादिना न दाहः स्यात्, तेजोहि तेजसिगतं सद्बर्द्धते न तु हीयते, इति चेन्नैवमिति प्रतिवदंतं वावदूकं पुनर्वचश्चपेटाभि स्ताडयित्वा मौनं कारयति, एतत् चक्षुस्तैजसं न स्यात्, कुत इति हेतुमाह-तमसोऽधकारस्य ग्रहाद ग्राहकत्वादित्यर्थः तथा च तोल्लेखः–यदि चक्षुस्तैजसं स्यात् तदा तमोग्राहकं आलोकवत्, |प्रयोगोऽपि यथा-चक्षुर्न तैजसं तमोग्राहकत्वात्, यन्नैवं. यथा लोक इति अत्रार्थे हेतुमाह-यतः कारणात्तेजस्तमो न गृह्णाति प्रत्युत तमःक्षणोति विनाशयति, अत्रापि तौल्लेख:-यदि चक्षुस्तैजसं स्यात्तदा तमोध्वंसकं स्यात्, व्यतिरेक दृष्टांतेन प्रयोगोऽपि तथैवेतिस्थित मेतन्न तैजसं चक्षुरिति पूर्वोक्तविकल्पाऽसहत्वेन चक्षुर्न प्राप्यकारीति वृत्तार्थः ॥९॥ टी. भा.-अथ इत्यादिक वचनरूपीथपडथी ताडना पामेलो ते बकबकीयो यौग कंइंक उत्तर आपछे. अथ ए शब्द ननु अथैछे. शंकाकरेछे के आ चक्षुने तैजसपणु होवाथी अग्निआदिकथी दाह न थाय (केमके) तेज तो तेजमां गयुं थकुंवृद्धिपामेछे, परंतु हीनयतुं नथी. एम जो (कहीशतो) (ते युक्त) नथी. एवीरीते उत्तर आपता एवा ते बकबकीयाने वली वचनरूपीथपडोथी मारीने मौन करावेछे के, आ चक्षु तैजस न होय; शामाटे? तेनो हेतु कहेछे-(केमके) ते तमसने (एटले) अंधकारने (एटले) ग्रहण करनारूंछे, माटे, एवो अर्थ छे. (वली)तेबो तर्कनो लेख छे के ज्यारे चक्षु तैजस होय त्यारे (ते) अंधकारनेग्रहण करनारं न होय. केमके जे तेजस छे, ते अंधकार, ग्राहक नथी. आजबालांनीपेठे. प्रयोग पण तेवोछे. जेमके-चक्षु तैजस नथी; (केमके ते) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति प्रकाश कछ. तमोग्राह. जे नथी एम ते नथी तेम, जेम अजवालं. आ माटे हेतु कहेछ.-जे कारणथी तेज अंधकारने नधी ग्रहण करतुं, परंतु उलटुं अंधकारनो नाश करेछे. (एटले) (तेने) दूरकरेछे. अहीं पण (एवो) तर्कोल्लेख छे के ज्यारे चक्षु तैजस होय, त्यारे (ते ) अंधकारनो नाश करनारं होय. उलटांदृष्टांते करीने प्रयोग पण तेमज छे. माटे नकीथयुं के आ चक्षु तैजस नथी. एवीरीते पूर्वेकहेलाविकल्पने न सहन करवाथी चक्षु प्राप्यकारी नथी. एवी रीते काव्यनो अर्थ जाणवो. ॥९॥ बोधस्य बोधांतरवेद्यतायां।योग त्वयानो ददृशेऽनवस्था।सौवग्रहव्यग्रतया पदार्था-ग्रहश्च शंभो रसमयवित्त्वं॥१०६ मू. भा.--ज्ञाननु अन्यज्ञानें करीने वेद्यपणुं स्वीकारते छते हे योग ! तें अनवस्था न जोइ. (केमके) पोताने ग्रहण करवामां व्यग्रहोवाथी ( तेनाथी) पदार्थोनु ग्रहण थइशकतुं नथी. अने (तेथी) ईश्वरनु असमग्रवित्पर्यु (एटले असर्वज्ञपणुं थायछे.)॥१०॥ टी.--बोधस्य. हे योग त्वया बोधस्य ज्ञानस्य बोधांतरवेद्यतायां ज्ञानांतरवेद्यतायां स्वीकृताया मित्य | ध्याहार्य, ज्ञानं ज्ञानांतरवेद्य मित्यंगीकृते त्वयाऽनवस्था न ददृशे, घटादिज्ञानं ज्ञानांतरग्राह्यं चेत्तदा ज्ञानांतरण ग्राह्यं तदंतरेणेति, च पुनर्दूषणाभ्युच्चये, ज्ञानस्य ज्ञानांतरवेद्यतायां घटादिविषयकज्ञानस्य सौवग्रहव्यग्रतया, स्वसंबंधाग्रहः सौवग्रहस्तास्मन् व्यग्रतया पदार्थानां ज्ञेयानामग्रह स्तथा च लाभ मिच्छतो मूलक्षति रायाता तथाहि-पदार्थग्रहाय ज्ञानं त्वया कल्पितं तच्चेत् स्वग्रहेऽप्यसमर्थं तदा परग्राहकं कथं स्यात्, खग्रहे व्यग्रत्वं Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः च शहबुद्धिकर्मणां त्रिक्षणावस्थायित्वेन प्रथमक्षणे स्वयमुत्पद्यते, द्वितीयक्षणे ज्ञानांतरमुत्पन्नं सत् तद् गृह्णाति, तृतीयक्षणे तु गृहीतं सत् तद्विनश्यति, तथा च कुतस्तेन पदार्थग्रहः, पुनर्दूषणांतरमाह - शंभोरीश्वरस्याऽसमग्रवित्त्व मसर्ववेदित्वं स्यात्तथाहि - ईश्वरज्ञानस्यापि ज्ञानत्वेन ज्ञानांतरग्राह्यत्वमेव वाच्यं त्वया तथा च तद् ज्ञानं परोक्षं | स्यात्, तथा च तेन स्वयं स्वज्ञान मपि न गृहीतं, तदा तेन कथं घटादयोऽर्था गृह्यते, अथेश्वरज्ञानं तथा नास्तीति | चेत् तदाऽस्मदादीनामपि ज्ञानत्वे विशेषाभावात् तथा नास्तीत्यर्थस्तथा च प्रयोगः ज्ञानं न ज्ञानांतरवेद्यं, ज्ञानत्वा |दीश्वरज्ञानवदिति वृत्तार्थः ॥ १० ॥ टी. भा. हे योग ! तें बोधने ( एटले ) ज्ञानने बोधांतरवेद्यपणुं ( एटले ) अन्यज्ञानथी जाणपणुं स्वीकारते छते ए पदनो अध्याहार करवो. (एटले ) ज्ञान अन्य ज्ञानथी जणाय तेबुंछे, एम स्वीकारते छते तें अनवस्था न जोई. ( एटले ) घडा आदिकनुं ज्ञान (जो ) अन्य ज्ञानयी ग्रहण कराय तेनुं होय तो अन्य ज्ञानथी जे ग्राह्य छे, ते तेथीअन्ये करीने ग्राह्यथवं जोइये. चरा वली पण दूषण देखाडवामाटे छे. ज्ञानने अन्य ज्ञानथी जाणवापणुं स्वीकारते छते घडाआदिकना ज्ञानने पोतानाग्रहणमां व्यग्रपणाथी, पोतासंबंधि जे ग्रहणते सौवग्रह ( कहेवाय) तेनीअंदर व्वग्रपणाथी जाणवालायक पदार्थोंनुं ग्रहण न थाय. एवीरीते तो लाभ इच्छतां (उलटी ) मूलनीहानि आवी ते कहेछे-पदार्थोनाग्रहणमाटे तें (जे) ज्ञान कल्पेतुं छे, ते जो पोतानाग्रहणमां पण असमर्थछे, तो (ते) पर नेग्रहण करनारुं केम थाय ? पोतानाग्रहणमां व्यग्रपणं (एम जाणवु के) शहबुद्धि अनेकर्मने त्रणक्षणो सुधि रहेवापणुं होवाथी, पेहेलाक्षणमांतो पोते उत्पन्नथायछे; बीजाक्षणमां अन्यज्ञान उत्पन्न KKERALA २० Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Raiथयुथकुंतेने ग्रहण करे. (अने) त्रीजे क्षणे तो ग्रहण थयं छतं ते नाशपामेछ; अने एवीरीते क्यांधी से पदार्थोद्ग्रहण करीशके ? वली बीजुदूषण कहेहेरे के, शंभुनें एटले ) ईश्वरनुं असमग्रवित्पणुं (एटले) प्रकाशः असर्वज्ञपणुं थाय; ते कहेछे.-ईश्वरनाज्ञानने पण ज्ञानपणायें करीने अन्यज्ञानथीज ग्राह्यपणुं तारे केह जोइये. अने तें ए रीते तो ज्ञान परोक्ष थाय; अने एरीते तेगे पोते पोतानुज्ञान पण व ग्रहणकयु, त्यारे तेनाथी घटआदिक पदार्थों केम ग्रहण कराय? वली ईश्वरतुं ज्ञान से नथी, एम जो (कहीशतो) अमाराआदिकनो पण ज्ञानपणामां विशेषपणुं न होवाथी तेम नथी, एवो अर्थ छे. वली (तेवो) प्रयोगपणछे के, ज्ञानछेते ज्ञान होवाधी ईश्वरना ज्ञाननी पेठे अन्यज्ञानी जणायतेवू नथी. एवीरीते काव्यनो अर्थ (जाणवो.) ॥१॥ सकर्तृकत्वेऽ वनिभूधरादिषु । साध्येऽत्र हेतुर्बत कार्यभावः ॥ न्यस्त स्त्वया तत्र कथं न दृष्टः । शरीरजन्यत्वमुपाधिरेषः ॥११॥ मू. भा.-हे योग तें अही पृथ्वीतथापर्वतआदिकनेविवे कर्तासहितपणुं साधवामा कार्यभावरूपी जे हेतु स्थापन कर्यो छे, तेमां शरीरवालाथीउत्पन्नथवारूप आ उपाधि (तें) केम न जोयो ? ॥११॥ टी.-सकत० चेदेक० चेतस. बतेत्यामंत्रणे हे योग त्वयाऽवनिः पृथ्वी भूधराः पर्वता स्तदादिषु अर्थेषु सकर्तृकत्वे साध्ये कार्यभावः कार्यत्वहेतुय॑स्तः, तथाहिप्रयोग:-भूभूधरादिकं सकर्तृकं कार्यत्वाद् घटवत्, यश्चात्र कर्ता स शंभुरेवेति, तत्र तस्मिन्ननुमाने शरीरीरिजन्यत्वं साध्यव्यापक साधनाव्यापकत्वाद् व्यभिचारोन्नायकत्वाच Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तिप्रकाश: कथं त्वया एष उपाधिन दृष्टः, अत्र एष इत्यनेन एवं ध्वन्यते, यदि व्यभिचारोन्नायकेतरः स्यादुपाधि स्तदास्याऽ किंचित्करत्वाददर्शनमपि स्यात् , अयमुपाधि स्तु व्यभिचारोन्नायकत्वेन व्याप्तिविघटकोऽपि कथं न दृष्टः, यदुक्तं तत्त्वचिंतामणी-व्यभिचारोन्नयनं कुर्वन्नुपाधिर्याति दोषता मिति ॥ तथा चायमर्थः-यत्कार्य तच्छरीरिजन्यं कार्यत्वाद् घटवत । ननु यथा घटादिकार्यस्य कर्ता कुलाल उपलभ्यते, तथा भूधरादिकार्याणां कःशरीरी कर्ता स्तीतिचेच्छृणु, स्वस्वकर्मसहकृताः पार्थिवादिजीवास्तत्कारस्ते च संसारित्वेन शरीरिण एव । ननुपृथ्व्यां जीवाः, संतीत्यत्र किंपमाणं, इतिचेदनुमानादेव तदास्था कुरु, सकलापि पृथ्वी जीवच्छरीरं छेद्यत्वात्तरुवत्, मनुष्यशरीर सतीत्यत्र किंपमाण, तानिरासः ॥११॥ माटे ( तेथी) हे टी. भा.-बत एशब्द आमंत्रण माटेछे (तेथी) हे योग! ते अवनि (एटले) पृथ्वी (तथा) भूधरो (एटले) पर्वतो इत्यादिक पदार्थोमा कर्तासहितपणुं साधते छते कार्यभाव (एटले) कार्यपणारूप हेतु आपेलोछे ते माटेनो प्रयोग (नीचेमुजबछे ) पृथ्वीतथा पर्वत आदिक कार्य होवाथी घडानी पेठे कर्तावालुं छे (अने) जे अहीं कर्ता छेते शंभुजछे त्यां (एटले) ते अनुमानमां शरीरवालाथी उत्पन्न थवापणुं साध्यमां व्यापक अने साधनमा अव्यापक होवाथी (तथा ) व्यभिचारवालं होवाथी ते आ उपाधि केम न जोयो ? अहीं एष एशहॅकरीने एम सूचवाय छेके जो व्यभिचार जणावनार शिवाय बीजो होय उपाधि तो आनुं कंइंपण करवा पणुं न होवाथी (तेनु) अदर्शन पण थाय (अने) आ उपाधि तो व्यभिचारयुक्त होवाथी व्याप्तिने बगाडनारो होवा छतां पण तें) केमन जोयो?तत्वचिंतामणिमांकयुं छे के व्यभिचारने प्रगट करतोछतो उपाधि प्राप्त थायछे दोषपणाने एवीरीत Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तिप्रकाशः |ए अर्थ (थयोके) जे कार्य ते छे, शरीरवालाथी कार्यहोवाथी घडानी पेठे उत्पन्नथायतेवूछे शंका करेछे के जेम घडाआदिक all कार्यनो कर्ता कुंभार मलीआवेछ, तेम पर्वत आदिककार्यानो कयो शरीरवालो का छे? एम जो(कहे) तो सांभली पोतपोतानाको साथेकरेला पृथ्वीकाय आदिक जीयोछते तेना कर्ताओछे, अने तेओसंसान्दिोवाथी शरीरवालाज छे वली शंका करेछे के पृथ्वीमा जीवा छेतेनाटे अहीं शं प्रमाणछे। एम जो (कहींशतो) मानथीज तेनीआस्था तुंकरी संघली पण पृथ्वी वृक्षनीपेठे अनेमनुष्यनाशरीरनीपेठे छेदाती होवाथी जीवता शरीरवालीछे एवीरीते इश्वरतुं जगत्कर्तापणा, खंडनकयु ॥११॥ चेदेक एवास्ति हरस्तदासौ। न जीवभावं भजतेंऽतरिक्षवत् ॥ अथेश्वरश्चेत् खवशः कथं न । करोति लोकं सुखिनं समग्रम् ॥१२॥ मू. भा.-जो एकज इश्वर छे, तो ते आकाशनी पेटे जीवभावने भजे नहीं. वली ईश्वर जो पोताने वश छे |तो समस्त लोकने (ते) केम सुखी करतो नथी? ॥१२॥ | टी.-अथ हर एक एवास्तीति यद्योगा वदति तनिषेधायाह-चेद्यदिहर एक एवास्ति तदासौ शंभुजीवभाव न भजते न प्राप्नोति अंतरिक्षवद् गगनवत् यथा हि गगनं एक त्वाद जीवः तथायमपि, कथमितिचेच्छृणु, एकत्वं सजीवत्वंच तावन्न कचिदृष्टं, एकत्वं चात्र सजातीयाऽभावः, सच गगनादौ विद्यते, तस्माद्यथा जीवत्वे सति एकत्वं गगने विद्यते तथापि, तथाच प्रयोगः-ईश्वरोऽनात्मा एकत्वाद् गगनवत्, अथेश्वरस्य स्ववशत्वं निराकरोति Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्ववशोऽस्ति परनिरपेक्षोडश महाष्टमर्जितं तादृशामत्व नास्य ववशत्वं, लोक किल युक्तिप्रकाश अथेत्यानंतर्यार्थ चेदीश्वरः स्ववशोस्ति परनिरपेक्षोऽस्ति इत्यर्थः, तदातत्तत्माणिगणो पार्जित तत्कमजन्य सुखदुःख प्रदाताऽसौ कथ मंगीक्रियते, येन हि प्राक्तनं यादृश मदृष्टमर्जितं तादृशादृष्टानुसारी परमेश्वरस्तस्य तज्जनितं सुखं दुःखं वा ददातीति भवन्मतरहस्यवेदिनः । तथा च प्राणिगणोपार्जितकर्मत्वे नास्य ववशत्वं कुत इति, अथेशस्य ववशत्वं यदिस्यात् तदा समग्रं लोक कथं नासौ सुखिनं करोति, कथमिति चेच्कृणु, लोकं किल सृजन्नसौ कारुणिकोऽकारुणिको वा, चेदकारुणिकस्तदाऽस्य देवत्वमेव व्याहतं, म्लेच्छवन्निष्टुरहृदयत्वात् तस्येति कारुणिकश्चेत्तदा स्ववशत्वे सति कारुणिकः सन् का न समग्रं लोकं सुखिनं करोति, कारुणिकत्वविशि|टस्ववशत्ववत स्तथा स्वभावत्वादिति वृत्तार्थः ॥ १२॥ टी. भा.-हवे ईश्वर एकज छे, एम जे यौगो कहेछे, तेनानिषेधमाटे कहेछे-जो ईश्वर एकज छे, तो ते ईश्वर जीवभावने नथी भजतो (एटले) नथी प्राप्तथतो; अंतरिक्षनी पेठे (एटले) आकाशनी पेठे. जेम आकाश एकहोवाथी जीवरहितछे तेम आ पणछे. केम? एम जो (कहोतो) सांभल ? एकपणुं अने सजीवपणुं अने नथी क्यायपण जोएलं. एकपणुं तो अहीं सजातीयनाअभावरूपछ; अने ते आकाशआदिकमा जेम अजीवपणुं होतेछते एकपणुं आकाशमां छे, तेम अहीं पण छे. वली तेवो प्रयोगछेके-ईश्वर आव क होवाथी जीव विनानो छे हवे ईश्वरतुं स्ववशपणु दूरकरेछे. अथ ऐश आनंतर्यमाटे छे. जो ईश्वर पोतानपीछ(एटले) परनी अपेक्षा विनानो छे, एवो अर्थ छे, तो ते ते प्राणिओना समूहे उपार्जन करेला एवांतेमनां कर्मोथी उत्पन्न धयेला सुखदुःखोनोदेनार ते केम स्वीकाराय ? जेणे पूर्वलं जेवू कर्म उपार्जन कर्युछे; तेवां कर्मने अनुसारे ईश्वर तेने तेथी Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाश उत्पन्न थयेलुं सुख अथवा दुःस्व आपछे, एम तारा मतनुं रहस्य जाणनारानुं ( कहेछे.) अने एवीरीते प्राणिओना समूहे उपार्जन करेला कर्मना वशपणाथी ते ईश्वरने खवशपणुं क्या रह्यं ? वली ईश्वरने जो खवशपणुं होय, तो समस्त लोकने केम ते सुखी न करे? (ते) केम ? एम जो (कहीशतो) सांभल ! लो करतो एवो आ दयालुछ.? के निर्दयछे? जो निर्दय छे तो म्लेच्छनीपेठे तेना निष्टुरहृदयपणाथी ते ष्ट थयु. जो दयालुछे तो पोतानवशपणुं होते छते दयालुथयो थको शामाटे लोकने समस्त सुखी साथी ? (केमके) || दयालुपणावाला एवापोतानावशपणा वालानो तो तेवो स्वभावहोवो जोइए. एवीरीते काव्यनो अर्थ थे. ॥१२॥ चेत् सर्वगत्वं हि हरस्य मन्यसे । ऽविज्ञानविज्ञान विभक्त आत्मा ॥ मान्यस्तदीयोऽथ समग्रगत्वे । ज्ञानस्य तत्त्वं विजहाति तत्पुनः ॥ १३ ॥ - मू. भा.-जो ईश्वरनुं सर्वव्यापकपणुं तुं मान से तो तेनो आत्मा अज्ञान अने ज्ञानथी विभक्त थयेलो (तारे) |मानवो पडशे. अने ज्ञानना सर्वव्यापकपणामां तो ते वली ज्ञानपणुंज छोडीदेछे. ॥१३॥ |.टी.-अथ हरस्य विभुत्वं निषिध्यते, चेत् हरस्य शंभोश्चेत्त्वं सर्वगत्वं विभुत्वं मन्यसे तदा तदीय आत्मा | ईश्वरात्मा अविज्ञानविज्ञानविभक्तो मान्यः, भावार्थ स्त्वयं-यदिश्वरो व्यापक स्तदा तद्गतं ज्ञानं व्यापक मव्यापकं वा, चेदव्यापकं तर्हिसिद्धांत बाधः, चेदव्यापकं तदैकस्मिन्नीश्वरात्मकखंडे ज्ञानं, अपरस्मिनात्मखंडे | ज्ञानं, तथा चाविज्ञानविज्ञानाभ्यां विभक्त आत्मा तदीय इति । अथेश्वरस्य व्यापकत्वेन तद्गतं ज्ञानमपि Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूक्तिप्रकाश व्यापकमेव ब्रूमः, अस्मत्सिद्धांतं वयमेव विद्रो न भवंत इति चेत्तहि ईश्वरज्ञान मज्ञानमेव स्यात् । तथा च प्रयोगः-ईश्वरज्ञान मज्ञानं व्यापकत्वात्, यदेवं तदेवं यथा गगनमितीवरस्य सर्वगत्वनिरास इति वृत्तार्थः ॥१२॥ | टी. भा.-हवे ईश्वरना सर्वव्यापकपणानुं खंडन करेछे. हरतुं (एटले) ईश्वरनुं जो तुं सर्वपणुं (एटले) सर्वव्यापकपणुं मानेछे, तो तेनो आत्मा (एटले) ईश्वरनो आत्मा अज्ञान अने ज्ञानथी विभक्त थयेलो मानवो पडशे. (तेनो) भावार्थ तो आप्रमाणेछे. ज्यारे ईश्वर व्यापक छे, त्यारे तेमां रहेलं ज्ञान व्यापकछे! के अव्यापकछे! जो व्यापकछे तो सिद्धांतने बाध आवेळे; जो अव्यापक, तो एकएवा ईश्वरना आत्माना देशमा ज्ञान छे, (अने) वीजा आत्मप्रदेशमा अज्ञान छे अने एवीरीते तो अज्ञान अने ज्ञानेकरीने वेंचायेलो एवो तेनो आत्मा ठरेछे. हवे ईश्वरना व्यापकपणाथी तेमा रहेलं ज्ञान पण व्यापकज (अमो) कहीयेलीये. अमारो सिद्धांत अमोज जाणीए, तमो न (जाणो) एम जो (कहीश) तो ईश्वरतुं ज्ञान अज्ञानज थाय; वली तेवो प्रयोग पण छे| ईश्वरनु ज्ञान व्यापक होवाथी अज्ञानरूपछे जे एम छे ते तेम छे.जेम आकाश; एवीरीते ईश्वरना अर्विव्यापकपणानुं | खंडन कर्यु. एवीरीते काव्यनो अर्थ छे. ॥१॥ चिच्छक्तिसंक्रान्तिवशेन बुद्धि-र्जडापि सांख्यस्य तवाऽज. आभासते यन्न च युक्तमेतत् । चिच्छक्ति राप्नोति न संक्रमं यतः मू. भा. हे सांख्य तने जड एवी पण बुद्धि चेतनशक्तिनासंक्रमणना वशथी जे अजडज भासेछे ते युक्त नधी. कैमके चित्शक्ति संक्रमणने प्राप्तथती नथी. ॥१४॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति टी.-अथ सांख्यमतं निराकरोति-चिच्छाक्त. अहो पुरुष सांख्य तव मते जडापि बुद्धि विच्छक्तिसंक्रान्ति वशेनाऽजडै वा भासते, अयमर्थ:-बुद्धिर्जडत्वेन न खपरप्रकाशिकाऽस्ति, यदा चैतस्यां चिच्छतेः संक्रमः स्या प्रकाशः भत्तदा प्रकाशिकापि स्यात् , इत्यजडैव तवाभासते, न चैतयुक्तं, कुत इत्याह-यतः कारणा- यक्तिः संक्रम नामोति, कथ मिति चेच्छृणु, संक्रमणस्तावन्मूर्तधर्म श्चिच्छक्तरमूर्तधर्मत्वात् संक्रमो नोत अर्थः॥१४॥ | टी. भा.-हवे सांख्यनामतनुं खंडनकरे के. अहो पुरुष सांख्य ! तारा मतमा जड ण बुद्धि चित् शक्तिनासंक्रमणनावशेंकरीने जडताविनानीज जणाय छे. एवो भावार्थछेके-बुद्धि जडपणायें करीने खपरनोप्रकाश | करनारी छे नही. ज्यारे तेमां चित्शक्तिनुं संक्रमण थाय, त्यारे (ते) प्रकाशवाली पण थाय; मा जडताविनानीज तने भासे छे. ( परंतु) ते युक्त नथी. शामाटे! ते कहेछे-जे कारणथी ( एटले कारणके) चित्शक्ति संक्रमण नथी पामती. केम ? एम जो (कहीशतो) सांभाल ? संक्रमण तो रूपीधर्मवालुंछे, (अने) चित्शक्तिने तो अरूपिधर्मपणुं होवाथी संक्रमण थइशकतुं नधी, एवो काव्यनो अर्थ छे. ॥१४॥ तस्या अथो संभवनेऽपि बुद्धि-जडत्वतो न क्रियते सचेतना ॥ सचेतनस्यापि नरस्य संक्रमात् । यदर्पणो नैव भवेत् सचेतनः ॥ १५ ॥ मू. भा.-वली ते चित्शक्तिसंक्रांतिनो संभवहोते छते पण जडपणाथी बुद्धि सचेतन कराती नथी. केमके। चैतन्यवालाएवा पण पुरुषना मंक्रमणधी दर्पण (कंई) चेतनयुक्त थतुंज नथी. ॥ १५॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .टी.-तस्या० अथ तुष्यतु दुर्जन इति न्यायात्तव संतोषायैव मुच्यते अथो अथानंतरं तस्याश्चिच्यक्तिसंक्रांतेः कथंचित् संभवनेऽपि संभवेपि जडा सती बुद्धिः सचेतनानैव क्रियो, कुत इत्याह-यत्कारणात् सचेतनस्यापि नरस्य दर्पणे संक्रमात् दर्पणः सचेतनो न स्यात्, दर्पणस्य सचेतनाऽचेतनसंक्रमावसरे तुल्यत्वादिति वृत्तार्थः ॥१५॥ | टी. भा. हवे दुर्जन (भले ) खुशीथाओ एवा न्यायधी तने संतुष्टकरवामाटे एम कहीये छीये. अथो (एटले) होते ते चितशक्तिना संक्रमणनो कोहकरीते संभवन ( एटले) संभव होते छते पण जडपणे रहेली बुद्धि सचेतन नयीज कराती; शामाटे ? ते कहेछे-जे कारण माटे सचेतनएवा पण पुरुषनो दर्पणमा संक्रमथवाथी दर्पण (क) सचेतन नथी थतो; (केमके) दर्पणने सचेतन अने अचेतननासंक्रमण व वते तुल्यपणुं छे; एवो काव्यनो अर्थछे. ॥१५ ___ यदिस्तः प्रकृतेरेव । बंधमोक्षौ तदा धृवं ॥ वंध्याजस्येव जीवस्या-ऽवस्तुत्वं न भवेत् कथं ॥१६॥ म.टी.-जो प्रकृतिनेज बंधअने मोक्ष छे, तोखरेखर वांजणीना पुत्रनी पेठे जीवने अवस्तुपणुं के न संभवे ॥१६॥ टी.-यदिस्तः भो सांख्य यदि प्रकृतेरंव बंधमोक्षौस्तः तदा ध्रुवं निश्चितं वं . नाव निशितं रवंध्यासतस्येव |जीवनस्यात्मनोऽवस्तुत्वं कथं न भवेदपितु भवेदित्यर्थः, कथमिति चेन्कृणु, यथाहि बंध याकारित्वा5मावात अवस्तुत्वं तथा जीवस्यार्थक्रियाकारित्वाऽभावादवस्तुत्वं, तथाहि जीवस्यार्थक्रिया -मोक्षश्च, तीच| तत्य तवमते न स्त इति वंध्यासुतसदृश आत्मा स्यादिति वृत्तार्थः ॥१६॥ . टी. भा.~ हे सांख्य ! जो प्रकृतिनेज बंध अने मोक्ष होय, तोध (एटले ) खरेखर वंध्याजनी पेठे (एटले) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाश वंध्यापुत्रनी पेठे जीवने (एटले) आत्माने अवस्तुपणुं केमन थाय? परन्तु थाय, एवो अर्थ छे. केम? एम जो (कहीशतो) सांभल ? जेम वांझणीनापुत्रने अर्थक्रियाकारिपणाना अभावधी अवस्तुपणुंछे, तेम जीवने अर्थक्रिया कारिपणाना अभावधी अवस्तुपणुं छे. वली जीवनी अर्थक्रिया बंध अने मोक्ष छे. अने ते. रा मतमा नथी; एवीरीते वंध्यापुत्रसरखो आत्मा होय, एवो काव्यनो अर्थ छे. ॥१६॥ न स्तश्चेदात्मनो बंध-मोक्षौ तर्हि कथं त्वया ॥ भोगीति मन्यते बद्धं । प्रकृत्या भोग्यमान यत् ॥१७॥ | मू.टी.-जो आत्माने बंधअनेमोक्ष नथी, तो जो तुं (ते आत्माने) भोगी एम केम मानेछे ? केमके भोग्यकर्म प्रकृतिएज बांधेलुं छे. ॥१७॥ टी.-नस्तश्चे० चेद्वंधमोक्षौ आत्मनो न स्त स्तर्हि आत्मा भागिति त्वया कथं मन्यते, भोगो हि शुभाड शुभकर्मबंधजनितः स चास्य नास्तीति न भोगित्वव्यपदेशो युक्तः, तथा च प्रकृतेरेव त्वया भोगित्वं वाच्यं, कुत इत्याह, यत्कारणात् भोग्यं कर्म प्रकृत्येव बद्धं नान्येनेति वृत्तार्थः ॥१७॥ टी. भा.-जो बंध अने मोक्ष आत्माने नथी, तो आत्मा भोगी छे एम तुं केम मानेछे? भोग तो शुभअशुभ कर्मोना बंधथी उत्पन्न धयेलोछे. अने ते नथी, तेने नथी, माटे भोगिपणानो व्यपदेश युक्त अने एवीरीते, प्रकृतिनेज तारे भोगिपणुं कहे; शामाटे ? ते कहेछे. जे कारणधी भोग्य कर्म प्रकृतिएज बांध्युछे, अन्ये नही, एम काव्यनो अर्थ छे. ॥१७॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः SHESHANSENSESY स्वयं च विहितं कृत्यं । स्वयं भोक्तव्यमेव भोः ॥ दृश्यते ह्यत्र लोकेऽपि । तद्भोग स्तस्करादिषु ॥ १८ ॥ मू. टी. - हे सांख्य पोते करेलुं कार्य पोतेज भोगववाकुंज छे, केमके आलोकमां पण तेनो भोग चोर आदिकोमा देखायछे ॥ १८ ॥ टी. - अथ मंत्रिणे वान्येन कृतं राज्ञे वान्येन भुज्यमानमपि दृश्यत इति मंत्रिस्थानीयप्रकृत्या बद्धं आत्मना भुज्यमान मस्तीत्यत आह स्वयंच० भो सांख्य स्वयं विहितं कृत्यं स्वयमेव भोक्तव्यं नाऽपरेण हि यतः कारणा | लोकेऽपि तद्भोगः खयं कृतभोगः स्वस्यैव, तस्करादिषु दृश्यते, येनैव हि तस्करेण चौर्यं कृतं तस्यैव तस्करस्य शूलारोपणादि क्रियमाणमस्ति ना परस्येति मंत्रिदृष्टांत स्त्वत्राऽसत्य एवेति, नहि सर्वमपि मंत्रिणा कृतं राजा भुनक्ति, य च किंचिद्भुनक्ति तत्तु तेन मंत्रिणा करणभूतेन निर्मितत्वात्, तथा चास्मन्मतमेव सुस्थं, करणभूतैः कर्मभिः कृतं जीवो भुनक्तीति वृत्तार्थः ॥ १८ ॥ टी. भा. - हवे मंत्रिए अथवा अन्ये करेलुं राजाए अथवा अन्ये भोगवातुं पण देख जोएरहेली प्रकृतिए बांधेलु आत्माथी भोगवाय छे, ते माटे कहे छे. हे सांख्य ! पोते क वानुं छे, अन्ये ( भोगववानुं ) नथी. कारणके दुनीयामां पण तेनोभोग (एटले) पोतेक चोर आदिकोमा देखायछे. केमके जे चोर चोरी करीछे तेज चोरने शूलीए चडाववा आदिक कराय छे; बीजाने नयी (करातुं ) एवीरीते मंत्रिनुं दृष्टांत तो अहीं असत्यज छे; केमके सघल मंत्रिए करेले राजा कह भोगवतो वीरीते मंत्रिनी ज भोगवपोतानेज おおおおお ३० Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः नथी. तथा जे कंइंभोगवेछे ते तोते करणभूत एवा मंत्रिए करलं छ; अने एरीते तो अमारो मतज आवीगयो (केमके) करणभूतएवां कर्मोयें करेलु जीव भोगवेछे, एवो काव्यनो अर्थ छे. ॥१८॥ एकांतनित्यं गगनादिवस्तु । स्वभावभेदात् किमु कार्यकारि स्वभावभेदस्तु न तत्र चेद्भवेद् । भवेत्तदा तजनितार्थसंकर मू. भा.-आकाश आदिक पदार्थ एकांतनित्य थयोथको खभाव भेदथी कार्यकरनार केम य? (वली) जो ते पदार्थमा स्वभावभेद न होय तो तेथी उत्पन्न धयेला पदार्थोनो संकर थाय. ॥ १९ ॥ टी.-अथ सांख्यमतं निरस्य वैशेषिकमतं निराकरोति । एकांत. अहो वैशेषिक गगनादि गगनकालदि| गात्मादिकं वस्तु एकांतनित्यं सत् स्वभावभेदाद भिन्नस्वभावकत्वात् कार्यकारि किमु कथं भवति, न कथमपीति | भावार्थस्त्वयं-यदि गगनादि वस्तु नित्यं तदा कथं स्वभावभेदः संभवति, अपच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं हि नित्यं, गगनादिकं हि येनैव स्वभावेन तवमते प्रथमं शद्वादिकं जनयति, न तेनैव स्वभावेन द्वितीयं शद्वादिकं जनयति, एव मात्मादिना सुखदुःखादिजननेऽप्यवसेयं, न हि येनैव स्वभावेनात्मा सुखं जनयति तेनैव खभावेन दुःखमपीति, तथा च स्वभावभेदात् खभाववतोऽपि भेद इति । ननु स्वभावभेदो मास्तु, एकस्वभावेनैव गगनादि | वस्तु कार्यकारि भविष्यतीत्याशंक्याह-चेद्यदि तत्र गगनादिवस्तुनि कार्यजननावसरे स्वभावभेदो न भवेत्तदा तदिति गगनादिना क्रमेण जनितार्थानां संकरः स्यात्, कथ मिति चेच्छृणु, येनैव स्वभावेन प्रथम शब्दं जनयति Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तिप्रकाशः गगनं तेनैव स्वभावेन द्वितीयतृतीयचतुर्थशद्वान् जनयति, समवायिकारणस्वभाव भेदात् तदुत्थकार्यस्याप्यभेद एकस्वभावजन्यत्वात् न ह्येकस्वभावेन मृदा जनिते एकस्मिन्नेव घटे भेद उपलभ्यते, द्वितीयघटे तु स्वभावभेदेन मृदा जनितत्वाल्लभ्यतेऽपि भेदः । एवं चात्मापि एकस्वभावत्वात् येनैव स्वभावेन सुखं जनयति तेनैव स्वभावेन दुःखमपि तथा चैकस्वभाववत्त्वात् सुखदुःख सांकर्यं स्यात् तथाच महती भवतो हानि लोकव्यवहारलोपात्, एकं कालादिष्वपि नेयमिति, तस्मान्न तद्गगनादि एकांतनित्यं स्यादिति वृत्तार्थः ॥ १९ ॥ टी. भा. - हवे सांख्यनामतनुं खंडनकरीने वैशेषिकोना मतनुं खंडन करेछे. अहो ! वैशेषिक ! आकाश आदिक ( एटले) आकाश, काल, दिशा तथा आत्मा आदिक पदार्थ एकांतनित्य भयोथको स्वभाव भेदथी (एटले) भिन्नख भाववालो होवाथी कार्य करनारो किमु ( एटले ) केम थाय ? नही कोई पण (रतिथाय) एवं छे, भावार्थ तो | आप्रमाणेछे. ज्यारे आकाश पदार्थ आदिक पदार्थ नित्य छे, त्यारे केम स्वभावभेद संभवे ? नही प्रच्युतथयतुं नही उत्पन्न धयेलं फक्त स्थिर स्वभाववालुं नित्य छे. (वली ) आकाश आदिक जे स्वभावें करीने तार मतमां प्रथम | शहू आदिकने उत्पन्न करेछे, तेज स्वभावें करीने बीजा शह्नादिकने उत्पन्नकरतुं नथी, आत्माआदिकें करेछे, तेज | करीने सुखदुःखआदिक उत्पन्न करवामां पण जाणवुं केमके जे स्वभावें करीने आत्मा | स्वभावें करीने दुःखने पण (कईउत्पन्न ) वली स्वभावनाभेदथी स्वभाववालानो पण शंका करेछेके, स्वभावनो भेद न थाओ ? एकस्वभावें करीनेज आकाशआदिक पदार्थ कार्यकरनारो | आशंका करीने कहे छे. जो ते आकाशा आदिक वस्तुमां कार्य उत्पन्न करती बेलाए स्वभावभेद न थाय, ( जाणवुं ) थशे, एवी तो ते एटले. ३२ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः आकाशआदिकना क्रमेंकरीने उत्पन्नथयेला पदार्थोंनो संकर थाय; शामाटे ? एम जो ( कहीशतो ) सांभल ? जे | स्वभावेंकरीने प्रथम शहूने आकाश उत्पन्न करेछे, तेज स्वभावेंकरीने बीजात्रीजा तथा चोथा शहूने उत्पन्न करेछे; | समवायिकारणरूप स्वभावना भेदथी, तेथी उत्पन्नथयेलां कार्यनो पण अभेद छे; (केमके ) ते एकस्वभावथीज उत्पन्नथायतेबुंछे. कारणके एकस्वभाववाली माटीथी उत्पन्न धयेला एकज घडामां (कंई) भेद देखा तो नथी. (अने) बीजाघडामां तो स्वभावभेदें करीने माटीथी थयेल होवाथी भेद पण मलेछे. एवीरीते आत्मापण | एकस्वभाववालो होवाथी जे स्वभावथी सुखने उत्पन्न करेछे, तेज स्वभावथी दुःखनेपण ( उत्पन्नकरेछे ) अने एन तो एकस्वभावपणाथी सुखदुःखनुं मिश्रण थईजाय; अने तेथी तो लोकव्यवहारना विनाशधी एवीरी काल आदिकमां पण जाणवुं. माटे ते आकाशआदिक एकांतनित्य न होय शके एवीरीते काव्यनो अर्थ ( जाणवो.) ॥ १९ ॥ न सर्वथाऽनित्यतया प्रदीपा दिकस्य नाशः परमाणुनाशात् ॥ तद्दीपतेजःपरमाणवोऽमी । आसादयंत्येव तमोऽणुभावम् ॥ २० ॥ मू. टी. - परमाणुना नाशथी सर्वथा प्रकारे अनित्यपणायें करीने दीपक आदिकनो नाश (थतो ) नथी. ( केमके) आ ते दीपकना तेजना परमाणुनु अंधकारनापरमाणुना भावने पामे छेज ॥ २० ॥ टी. - अथार्थस्य सर्वथाऽनित्यतां निराकरोति, न सर्व० हे वैशेषिक प्रदीपादिकस्यार्थस्य सर्वथाऽनित्यतया नाशो न स्यात्, कुत इत्याह- परमाणुनाशात्, यदि प्रदीपस्य सर्वथाऽनित्यतया सर्वथा नाशोऽगीक्रियते तदा ३३ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तिप्रकाशः तदारंभकपरमाणूनामपि नाशः स्यात्, एतच तवाप्यनिष्ट, ननु पूर्व दृश्यमाणप्रदीपाऽदर्शने कोहेतुरित्यत आह| तदिति, स चासौ दीपश्च तद्दीप स्तस्मिन् ये तेजःसंबंधिपरमाणवः, अमी इति उभय सम्मताः तमोरूपतया | परिणता दृश्यंते, न पूर्वदृश्यमाणप्रदीपो दृश्यत इति तददर्शनेऽयमेव हेतुरिति वृत्तार्थः ॥ २० ॥ टी. भा.-हवे पदार्थनुं सर्वथा प्रकारे अनित्यपगुं दूरकरछे. हे वैशेषिक! दीपक आदिक पदार्थनो सर्वथा प्रकारे अनित्यपणायें करीने नाश न थाय; शामाटे? ते कहेछेके परमाणुना नाशथी, जो दीपकनो सर्वथाप्रकारे अनित्यपणायें करीने तमाम नाश स्विकारवामां आवे तो तेनोआरंभकरनारापरमाणुओनो पण नाश थाय; तेबाबत |जो अने तने पण सम्मत नथी; शंका करेछे के, पूर्वे देखातो दीपक न देखावामां शुं हेतु छे! तेमाटे कहेछे के तद् एटले तेजे आदीपक ते तद्दीप ( कहेवाय ) तेमां जे तेजसंबंधिपरमाणुनु अमी एटले ( आपण ) बन्नेने सम्मत थयेलाछे (तथा) अंधकाररूपें परिणमेला देखायछे, (परंतु) पूर्वदेखातो दीपक देखातो नधी. एवीरीते तेन देखावामां आज हेतुछे, एवीरीते काव्यनो अर्थ (जाणवो.) ॥२०॥ द्रव्यं तमो यद् घटवत् स्वतंत्र-तया प्रतीतेरथ रूपवत्त्वात् ॥ नाऽभावरूपं प्रतियोगिनोऽपि । तथा स्वरूपं किल केन वायं ॥ २१ ॥ मू. भा.-अंधकार द्रव्यरूपछे; केमके (ते) घडानीपेठे स्वतंत्रपणायें करीने (तेनी) प्रतीति थायछे, तथा| (ते) रूपवालुं छे. (तेमते) अभावरूप (पण) नथी. (केमके) प्रतियोगिनुं पण तेचं स्वरूप खरेखर कोनाथी वारीशकाय? ॥ २१ ॥ -तया प्रतीतर केन वायं ॥ पायछे, तथा ३४ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति टी.-ननु तमसोऽभावरूपत्वेन कथं परमाणुजन्यत्व मित्यत आह-द्रव्यंत. हे वैशेषिक तमो द्रव्यं कुत इत्याह-स्वतंत्रतया प्रतीतेः, यत् स्वातंत्रेण परनिरपेक्षतया प्रतीयते तद् द्रव्यं घटइवेति, अथेति द्वितीयहेत्वर्थे रूपवत्त्वात्तद्रव्यं घटवदिति, अथाऽभावरूपत्वे दोषमाह तमोनाऽभावरूपं, कुत इत्याह-प्रतियोगीति, तमसोऽ भावरूपत्वे प्रतियोगी तावदालोको वक्ष्यते भवता, आस्माभिस्तु वक्ष्यते तमएव प्रतियोगि, तस्याऽभावस्तु आलोक इति, तथा च भवता प्रोच्यमानप्रतियोगिनोऽपि तथा स्वरूपं केन वार्य, न केनापीत्यर्थः, इति तमसो द्रव्यत्वात्परमाणुजन्यत्व मिति वृत्तार्थः ॥२१॥ टी. भा.-शंका करेछेके अंधकारनेतो अभावरूपपणुंछे, तो पछी (तेने) परमाणुथी उत्पन्नथषापणुं केम वा(संभवे?) तेमाटे कहेछेके हे वैशेषिक! अंधकार द्रव्य केमछे? ते माटे कहेछेके (तेनी) स्वतंत्रपणे प्रतीति थवाथी (ते तेमछे.) ते स्वतंत्रपणे (एटले) परनी अपेक्षाविना प्रतीतथायछे, ते घडानीपेठे द्रव्यछ; अथ एशह बीजाहेतुमाटेछे. रूपवान्होबाथी जे घडानीपेठे द्रव्य छे. हवे (तेना) अभावरूपपणामां दूषण कहेछे. अंधकार अभावरूप नथी; शामाटे? ते कहेछे-प्रतियोगी एटले अंधकारना अभावरूपणामां प्रतियोगी तो तुं अजवालांनो कहेछे. ( अने) अमो तो अंधकारनेज प्रतियोगी कहीये छोए. (अने) तेनो अभाव तो अजवालुंछ; अने एवीरीते ताराधी कहेवाता प्रतियोगिनुं पण तेवू खरूप कोनाथी वारीशकाय तेवूछे ? कोइथी पण (वारीशकाय तेम) नथी. एवो अर्थ छे. माटे अंधकारने द्रव्यपर्ण होवाथी परमाणुथी उत्पन्न थवापणुंछे. एवो काव्यनो अर्थछे.॥ २१ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुक्तिप्रकाशा काणाद शब्द स्तव चेन्नभोगुणो-ऽनातींद्रियः स्यात् परिमाणवत्कथम् ॥ गुणोऽपि चेत्तर्हि तदाश्रयेच । द्रव्येऽगृहीते किमु गृह्यतेऽसौ ॥ २२ ॥ म. टी.-हेकाणाद! तारा ( मतमा) शह जो अकाशगुणवालोछे, तो गगनपरिमाणनीपेठे (ते) अतींद्रिय केम न होय? जोकदाच गुण पण (होय) तो तेनाआश्रयभूतएवा द्रव्यने ग्रहणकर्याविना ते केम ग्रहण कराय? ॥२२॥ टी.-अथ शहस्य गुणत्वं निषेधयति-काणाद.हे काणाद तव मते चेन्नभोगुणः शहोस्ति तदाऽतींद्रिय इंद्रियाऽग्राह्यः कथं न स्यात् परिमाणवत्, अधिकाराद्गनपरिमाणमिच, यथा गगनपरिमाणं तद्गुणत्वे नातीद्रिय ||तथा शब्दो भवेदिति, तस्मान्न गगनगुणः शङ्कः, ननु शद्वस्य गगनगुणत्वं मास्तु तथापि कस्यचिद्व्यांतरस्य गुणोऽयं भविष्यतीति वैशेषिककदाशां निराकरोति । चेत् शद्वो गुण स्तहि तदाश्रये द्रव्येऽगृहीतेऽसौ कथं गृह्यते, तस्मान्नायं गुणोऽपीति वृत्तार्थः॥ २२॥ टी. भा.-हवे शहनुं गुणपणुं निषेधेछे. हे काणाद ! तारा मतमां जो आकाशगुणवालो शब्द छे, तो अतिंद्रिय ( एटले) इंद्रियथी न ग्रहणकराय तेवो केम न होय ? (कोनीपेठे? तोके) परिमाणनीपेठे (एटले) (अहीं) अधिकारथी आकाशना परिमाणनी पेठे. जेम आकाशपरिमाण तेनागुणपणायें करीने अतींद्रियछे, तेम शह (पण ) होय, माटे शव आकाशगुणवालो नथी. शंका करेछेके शहने आकाशपणुं ( भले) न हो, तो पण कोइक, ३६ अन्यद्रव्यनो गुण ते हशे; एवीरीतनी (बीचाराते ) वैशेषिकनी कदाशाने (पण) तिरस्कारेछेके, जो शद्ध गुण छे Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तिप्रकाशः तो तेना आश्रयभूतएवा द्रव्यने ग्रहण कयाविना ते केम ग्रहण कराय! माटे ते गुण पण एवो काव्यनो अर्थ छ ॥२२॥ द्रव्यं हि शब्दो गतियुक्तभावाद । व्याघातकत्वाच्च गुणान्वितत्वात् ॥ अर्थ क्रिया कारितया च किंचा-ऽनुद्भूत रूपादिगुणान्वितोऽसौ॥२३॥ मू. भा.--गतिवालापणुं होवाथी व्याघातकरनार होवाथी तथा गुणयक्त होवाथी अने अर्थ क्रियाने करवा|पणाथी ते शब्द खरेवर द्रव्य छे. वली ते शब्द नथी उत्पन्न थयेल रूपआदिगुणो जेना एवो छे. ॥ २३ ॥ टी.-अथ शब्दस्य गुणत्वं निरस्य स्वमतसिद्धं द्रव्यत्वं दर्शयति, द्रव्यं हि शब्दो द्रव्यं कुत इत्याह-गतियुक्त | भावाद्गतिमत्त्वादित्यर्थः, गतिर्हि द्रव्य एव दृष्टा न पुनगुणादिषु, द्रव्यत्वे हेतुमाह-व्याघात्कत्वात् यद्याघातका तव्यमेवं दृष्टं यथा कुख्यादि, गुणादीनां व्याघातकत्वाऽसंभवात् दृश्यते च तीवशब्दै मंदशब्दानां व्याघातकरणमिति, पुनद्रव्यत्वे हेत्वंतरमाह-गुणान्वितत्यात् , गुणाः संख्यादयस्तैरन्वितत्वात , एको द्वौ त्रयो वा शब्दा मया श्रुता इत्यवाधितप्रतीते जर्जायमानत्वात् , अथ पुनस्तस्य द्रव्यत्वे हेतुमाह-अर्थक्रियाकारितया, यदर्थक्रिययाकारि तद्व्यं यथा घट इति, ननु नीलरूपस्य गुणत्वे ऽपि नयनतेजो वृद्धिजनकत्वे नार्थक्रियाकारित्वायभिचार इति चे ननहि नीलं रूपं नयनतेजःप्रवर्द्धकं, किंतु तदाश्रयद्रव्यमेव, तथाहि-नीलरूपाश्रये द्रव्ये गृहीते तद्गृहीतुं शक्यते तयोश्च सर्वथा भेदाऽभावेन युगपद्ग्रहात्, नीलरूपविशिष्टं द्रव्यं गृहीतं सन्नयनतेजःप्रवर्द्धक मिति स्थितमेतत् ॥ ननु शदश्चेद् घटवत् द्रव्यं तर्हि तस्मिन्निव तत्र कथं रूपादिगुणा नोपलभ्यंत इत्याशंक्याह-किं चेति आकाशगुण Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः निराकरणार्थ, असौ शवोऽनुभूतरूपादिगुणान्वितो भवति, अत्र हि रूपादिगुणास्तु सत्येव, परमनुभूता इति नो दृश्यंते, वायाविच, ननु कस्तावद्वाया वनुभूतगुण इति चेच्कृणु, रूपादिरेव, ननु वायौ रूपमेव नास्ति, अनुभूतत्वं तत्र तस्य कुत इति चेन्न, स्पर्शेन वायो रूपस्य साधितत्वात, तथाहि प्रयोगः-वायू रूपवान् स्पर्शवत्त्वात् , यस्तथा स तथेति, वायुवत शहोऽप्यनुभूतरूपवानिति वृत्तार्थः ॥ २३ ॥ | टी. भा.-हवे (ते) शहन गुणपणुं निषेधीने पोताना मतमा सिद्धथयेलं द्रव्यपणुं देखाडेछे. शह द्रव्यरूप छ; शामाटे ? ते कहेछे- गतियुक्त भावथी (एटले) (लेशह) गतिवालोछे तेथी, एवो अर्थ छे. (वली) गति तो द्रव्यमांज देखायेलीछे; परंतु गुणआदिकोमा नथी. द्रव्यपणामाटे हेतु कहेछे के ते व्याघात करनारोछे. जे व्याघात करनारुं छे, ते द्रव्यज देखायुं छे; जेम भीतआदिक (अने) गुणआदिकोने तो व्याघातकपणानो नथी. संभव देखायछे बली तीव्रशदोबडें करीने मंदशहोर्नु व्याघातकरवापj. माटे बली द्रव्यपणामाटे बीजो हेतु कहेछ के-(ते शह) गुणोवालो छे. गुणो (एटले) संख्याआदिक जे गुणो तेनु बडेकरीने से युक्त छे. एक, बेत्रण अथवा शहो में सांभल्या; एवीरीतनी बाधाविनानी प्रतीति उत्पन्न थायछे. हवे वली तेना द्रव्यपणामाटे हेतु कहेछेके-(ते शहने) अर्थक्रियानुं करवापणुं पणछे (माटेपण ते द्रव्य छे) जे अर्थक्रिया करनारं छे, ते द्रव्य छे. जेम घडो. शंकर करेछे के नीलरूपने गुणपणामां पण आंखना तेजनी वृद्धिने उत्पन्न करवापणाधी अर्थक्रिया कारिपणाथी व्यभिचार ( आवेछे) एम जो (कहीशतो) (ते युक्त) नथी. केमके नील रूप कई आंखना तेजने वधारना नथी. परंतु तेना आश्रयवालं द्रव्य ज ( वधारनारु.) ते कहेछे- नीलरूपना आश्रय Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति वालु द्रव्य ग्रहण करते छते ते ग्रहण करी शकायछे अने तेऊना सर्वथा प्रकारे भेदना अभावें करीने एकीहारे ग्रहण करवाथी नीलरूपवालुं द्रव्य ग्रहण करायुं छतुं आंखोना तेजने वधारनारु छे एवीरीते ते सिद्ध ययुं शंकाकरेछेके शब्द जो घडानी पेठे द्रव्य छे, तो तेमां जेमतेम तेनी अंदर केम रूपआदिक गुणो नधी प्राप्तथता? एवी आशंका करीने कहेछेके-वली एटले आकाशगुणने दूरकरवामाटे आ शद नथी उत्पन्नथयेल रूप आदिक गुणो जेमां एवो छे तेनीअंदर जोके रूपआदिक गुणो तो छेज, परंतु प्रगटथया नथी, माटे वायुमा जेम तेम देखाता नधी. शंका करेछे के भला वायुमां न उत्पन्नथयेलो एवोगुण कयो छे ? एम जो ( कहीशतो) सांभल ? रूप आदिकजगुणो (तेमांछे) | ( वली) शंका करछेके वायुमां रूप ज नथी; (तो पछी) तेमां तेनुं अनुभूतपणुं ( वली ) क्याथी (आव्यु?) | एम जो (कहीशतो ते) (युक्त) नथी. (केमके ) स्पर्श करीने वायुन रूप साधी शकायचे. वली तेवो प्रयोग छे के स्पर्शवालो होवाथी वायु रूपवालोछे. जे तेमछे त एमछे. माटे वायुनीपेठे शब्द पण नही प्रगटएवां रूपवालोछे. एवीरीते काव्यनो अर्थ छे.॥२३॥ | नभःप्रदेशश्रेणिष्वा-दिव्योदयवशादिशां ॥ पूर्वादिको व्यवहारो । व्योम्नो भिन्ना न दिक्ततः ॥२४॥ - मू. भा. - आकाशनाप्रदेशोनी श्रेणिओमा सूर्योदयना वशथी दिशाओनो पूर्वआदिकवालो व्यवहार छे; माटे दिशा आकाशथी भिन्न नथी.॥२४॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः टी. - अथ वैशेषिकमतसिद्धदिगाकाशयो भेंदं निराकरोति, नभः प्र० हे वैशेषिक त्वया, यतः पूर्वादिदशप्रत्यया जायंते सा दिक् गगनाद् भिनेति निगद्यते तचानुपपन्नं, दशप्रत्ययानां गगनादेव जायमानत्वा दिति दर्शयति नभःप्रदेशश्रेणिषु आकाशप्रदेशश्रेणिषु आदित्यस्य भानो रुदयवशात् पूर्वादिको व्यवहारो व्यवहृति जयते, अयमर्थः येषु नभः प्रदेषु सूर्य उदेति ते नभः प्रदेशाः पूर्वदिक्त्वव्यवहारजनका स्त एव नभः प्रदेशाः पूर्वदिगित्युच्यते, शेषासु नवस्वप्यनयैव रीत्या योज्यं, ततः कारणाद् व्योम्नो दिक् न भिन्ना, व्योमप्रदेशाना मेव दित्तवादिति वृत्तार्थः ॥ २४ ॥ टी. भा. – हवे वैशेषिकमतें सिद्धकरेलो दिशा अने आकाशनो भेद दूर करेछे. हे वैशेषिक! तें, जेथी पूर्वआदिक दशप्रतीतिनु (जेमां ) थायछे, ते दिशाने आकाशथी भिन्न एम (जे) कही छे, ते अयोग्यछे. (केमके) (ते) दशे प्रतीतिनु आकाशथीज उत्पन्न धायछे. ते देखाडेछे नभः प्रदेशनी श्रेणिओमां (एटले ) आकाशना भागोनी पंक्तिओमां आदित्यना ( एटले ) सूर्यना उदयने लीघे पूर्वआदिक व्यवहार ( एटले ) लोकमान्य संज्ञा थाय छे, (तेनो ) ए भावार्थ छे के जे आकाश प्रदेशोमां सूर्य उगेछे ते आकाशना प्रदेशो पूर्वदिशासंबंधि व्यवहार उत्पन्न करनाराछे (अने ) तेज आकाशप्रदेशो पूर्वदिशा एम कहेवाय छे. (वली ) बाकीनी नवमां पण आज रीतें योजलेवु. ते कारणथी आकाशधी दिशा जूदी नथी ( केमके ) आकाशना प्रदेशोने ज दिशापपुंछे एवीरीतें काव्यनो अर्थ छे. ॥ २४ ॥ *********. ४० Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः **** おすす आत्मा महापरिमाणा-धिकरणं न संभवी ॥ असाधारणसामान्य-वत्त्वेऽनेकत्वतः सति ॥ २५ ॥ मू. भा. - असाधारण सामान्ययुक्तपणुं होते छते अनेकपणाथी आत्मा महापरिमाणना अधिकरणरूप संभवतो नथी. ॥ २५ ॥ टी. - अभ्रात्मनः परमतसिद्धं महापरिमाणाधिकरणत्वं निषेधयति, आत्माम० हे वैशेषिक आत्मा महापरिमाणाधिकरणं न संभवी, यथा गगनं महापरिमाणाधिकरणं संभवति न तथात्मा संभवति, कुत इत्याह-असाधारणसामन्यवत्त्वे सत्यनेकत्वतः अनेकत्वादित्यर्थः, अनेकत्वा दित्युक्ते सत्तादिसामान्येषु व्यभिचारः, अत उक्त-सायान्यत्वे सति, तथा चाकाशकालादिषु व्यभिचारः, नत्वा काशादिना मनेकत्वं, कुत स्तेषा मेकत्वा दिति चेन्न घटाद्युपाधिभेदात्तेषा मनेकत्व मिति तेषु व्यभिचार स्तन्निरासायाऽसाधारणसामान्यवत्त्वे सतीति तेषु असाधारणसामान्य माकाशत्वकालत्वादिकं न संभवति, तच भवतापि सामान्यत्वेन नांगीकृत मिति, दृष्टांतश्चात्र घटएव, घटेह्येतादृश हेतुसाध्ययोः प्रवर्तमानात् एव मनेकयुक्तय आत्मनो विभुत्वनिषेधिकाः संति, ताश्वातीवग्रंथगौरव भया नोच्यत इति वृत्तार्थः ॥ २५ ॥ " टी. भा. - हवे आत्मानुं परमतें सिद्ध करेलुं महापरिमाणनुं अधिकारपणुं निषेधेछे. हे वैशेषिक ! आत्मा महापरिमाणना अधिकरणवालो नथी संभवतो जेम आकाश महापरिमाणना अधिकरणवालुं संभवेछे तेम | आत्मा संभवतो नथी. शामाटे ? ते कहे छे. असाधारणसामान्ययुक्तपणुं होते छते अनेकत्वतः ( एटले ) अनेकपणाथी एवो अर्थ छे. अनेकपणाथी एम कहेते छते सत्ताआदिक सामान्योमां व्यभिचार ( आवेछे. ) आधी ४१ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तिप्रकाशः कह्युछेके सामान्यपणुं होते छते; वली आकाश तथा कालआदिकोमा व्यभिचार (आवेळे) (वली) आकाश आदिकोने अनेकप' नथी. शामाटे तोक तेओनो एकपणुं छे, एम जो (कहीशतो ते) युक्त नथी. (केमके) घडाआदिकनीउपाधिना भेदधी तेओने अनेकपणुंछे; एवीरीते तेओमां व्यभिचार ( आवेळे) तेनेदूरकरवामाटे असाधारण सामान्ययुक्तपणुं होते छते एम कथु; तेओमां असाधारण सामान्यवालं आकाशपणा तथाकालपणाआदिक न संभवे, अने तेतो ते पण सामान्यपणे नथी स्वीकार्य दृष्टांतरूपे तो अहीं घडाने ज (जाणवो.) केमके घडामां तेवाहेतु अने साध्यनुं हीवापणुं छे. एवीरीते अनकयुक्तिनु आत्माना सर्वव्यापीपणाने निषेधनारी छे; तेओने अत्यंत ग्रंथगौरवना भयथी नथी कहेवामां आवती एवा काव्यनो अर्थ छे. ॥ २५ ॥ नास्त्यात्मन श्वेत्तव सक्रियत्वं । देशांतरे चेह भवांतरे वा ॥ गतिः कथं तर्हि भवेत्तथा च । वायोरिवा स्मान्न विभुत्वमस्य ॥ २६ ॥ मू, भा. जो तारा मतमा आत्माने सक्रियपणुं नथी (तो) अही देशांतरमां अथवा भवांतरमा गति क्यांची त्यारे थाय ? अने एवीरीते तेथी ते आत्माने वायुनीपेठे सर्वव्यापकपणुं होतुं नथी. टी.-नास्त्या. हे वैशेषिक तव मते चेद्यदि आत्मनः सक्रियत्वं नास्ति तर्हि देशांतरे वा भवांतरे वात्मनः कथं गतिर्भवति, यद्यात्मनः सक्रियत्वं नेष्यते तर्हि तस्य परलोकगतिर्वा न स्यात्, तथा च तव नास्तिका दप्याधिक्यं, नास्तिकेन हि तस्य परलोकगति न स्वीक्रियते, देशांतरगति स्ध्यक्षसिद्धा स्वीक्रियते एव, त्वं Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाश तुतामपि निषेधयसीत्यर्थः, तस्मादात्मनः सक्रियत्वादिति हेतोरस्यात्मनो विभूत्वं वायोरिव न स्यात्, तथा च प्रयोगः-आत्मा न विभुः, सक्रियत्वाद्वायुवदिति वृत्तार्थः ॥२६॥ टी. भा.-हे वैशेषिक! तारा मतमां जो आत्माने सक्रियपणं नथी तो देशांतरमां अथवा भवांतरमा || आत्मानी केम गति थायछे? जो आत्मानुं सक्रियपणुं न स्वीकारायें तो तेनी परलोकमांगति न थाय. अने एवीरीते तने नास्तिकथी पण अधिपणुं (प्राप्तथयं ) नास्तिके तो तेनी परलोकनीगति नथी स्वीकारी, परंतु प्रत्यक्ष सिद्ध एवी देशांतरनी गति तो (तेणोपण) स्वीकारीज छे. ( अने ) तुं तो तेनेपण निषेधेछे, एवो अर्थ छे. माटे आत्माने सक्रियपणुं छे एवा हेतुथी आ आत्मानुं सर्वव्यापकपणुं वायुनीपेठे न संभवे. वली तेवो प्रयोगछेके आत्मा सक्रिय होवाथी सर्व व्यापक नथी. वायुनीपेठे एवो काव्यनो अर्थ छे. ॥ २६ ॥ जीवेऽत्र मध्यं परिमाणमस्त्य-ऽविभुत्वतः कुंभ इवावदातम् ॥ पर्यायनाशा दथ पिंडभावा-नानित्यता नापि च नित्यतास्मिन् ॥ २७ ॥ मू. भा.-आ आत्मामां अव्यापकपणाथी घडानी पेठे स्पष्टरीते मध्य परिमाण छे. वली पर्यायना नाशथी| ते आत्मामां नित्यपणुं पण नथी. अने पिंड भावधी अनित्यपणुं (पण ) नथी ॥ २७ ॥ टी.-अथ विभुत्वे सिद्धे सति मध्यमपरिमाणाधिकरणत्वमात्मनो दर्शयति-जीवेऽत्र. अत्र जीवेऽस्मि नात्मनि, अस्मिन्नित्युक्ते केवलिसमुद्घातावस्थापन्नात्मनिरासः, मध्यं विभुत्वाणुत्वविकलं परिमाणमस्तीति Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाश साध्यवत्यक्षनिर्देशः, कुतइत्याह-अविभुत्वतः कुंभ इव घटइव, यथा कुंभे घटे विभुत्वाऽभावान्मध्य परिमाण मस्तीति भावः, अवदातं स्पष्टं यथा स्यात्तथा; ननु तस्मिन्नात्मनि किं नित्यतोच्यते नुताऽनित्यतेत्याशंक्याहपर्याय० पर्याणामात्मसंबंधिनां देवनारकतिर्यक्त्वादीनां नाशाद् ध्वंसाननित्यता, पिंडभावात् द्रव्यतः सत्त्वेन ध्वंसाप्रतियोगित्वा नानित्यतापि, तस्मादात्मनि नित्यतानित्यता चात्राऽभ्युपगंतव्या, तथा च न कश्चिद्दोषः | इति वृत्तार्थः॥ २७॥ टी. भा.-हवे सर्वव्यापकपणुं सिद्ध होते छते आत्मानुं मध्यम परिमाणन अधिकरणपणुं देखाडेछे. आ जीवमां (एटले ) आ आत्मामां अस्मिन् एम कहेते छते केवलि समुद्घातनी अवस्थाने प्राप्त थयेला एवा आत्माना |निरास कॉ. मध्यम (एटले ) व्यापकपणा तथा परमाणुपणा विनानं परिमाणछे, एवीरीते साध्यनीपेठे पक्षनो निर्देश (जाणवो.) शामाटे? ते कहेछे. अव्यापकपणाथी कंपनी पेठे (एटले) घडानी पेठे. जेम कुंभमा (एटले) घडामा व्यापकपणाना अभावधी मध्यम परिमाण छे, एवो भावार्थ छे. अवदातं (एटले) स्पष्टरीते जेम थाय तेम शंका करेछेके ते आत्मामां शुं नित्यपणुं कहेवायछे ? के अनित्यपणुं छे ? एबी आशंका करीने कहेछेके पर्यायोना (एटले) आत्मसंबंधि देवनारकी अने तिर्यचपणा आदिकोना नाशथी ( एटले) विध्वंसथी नित्यपणुं नथी. पिंडभावथी द्रव्यना छतापणायें करीने नाशना अतिप्रतियोगीपणाथी अनित्यपणुं पण नथी. माटे आत्मामा | नित्यअनित्यपणुं अहीं जाणीलेवू. अने तेम (मानवाथी) कई पण दोष नथी एवीरीते काव्यनो अर्थ छे. ॥ २७॥ ४४ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ति प्रकाशः इति स्फुरद्वाचकधर्मसागर-क्रमाब्ज,गः कविपद्मसागरः ॥ युक्तिप्रकाशं खपरोपकारं । कर्तुं चकारार्हतशासननस्थः ॥ २८ ॥ मू.टी.-एवीरीते प्रख्याति पामेला श्रीधर्मसागरजी उपाध्यायजीना चरणकमलमां भ्रमरसमणन वा (तथा) जिनशासनमा रहेला एवा कविपद्मसागरजीए पोताने अनेपरने उपकार करवामाटे युक्तिप्रकाश को छे. एवीरीते श्रीयुक्तिप्रकाशनामनुं शास्त्र पंडित श्रीपद्मसागरगणिजीएरचेलं समाप्त थयु लक्ष्मीथाउ थयु.॥२८॥ टी.--अथ ग्रंथोपसंहारार्थ माह-इति स्फु० सुकरमेवेदं वृत्तमिति ॥ इति श्रीयुक्तिप्रकाशविवरणं भद्दारक घटाकोटिरीहीरविजय सुरीश्वरविजयराज्ये महोपाध्याय श्रीधर्मसागरगणिशिष्य पं० पद्मसागरगणि विरचितंत्र संपूर्ण ॥ ग्रंथाग्रंथ० ३०० टी. भा.-हवे ग्रंथनी समाप्तिमाटे कहेछे. आ काव्य सेहेलं जछे एवीरीते श्रीयुक्तिप्रकाशन विवरण भट्टार कोनासमूहोनी श्रेणिमां मुकुटसमानएवा श्रीहीरविजयजीसूरीश्वरना विजययुक्त राज्यमा महोपाध्याय श्रीधर्मसागर गणिजीनाशिष्य पंडित पद्मसागरगणिजीएरचेलुं संपूर्ण थयुं. ग्रंथाग्रंथ. ३००॥ ॥ इति श्रीयुक्तिप्रकाशसूत्रं पं०पद्मसागरगणिविरचितं समाप्तं ॥ श्रीरस्तु ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 NEL जन AIMER 556 द अहं नयुक्ति प्रकाश सूत्रं संपूर्ण