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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૨૯
વાસ્તુશાસ્ત્ર ગ્રંથ
વેધવાસ્તુ પ્રભાકર
દ્રવ્ય સહાયક :
પ.પૂ.પા. ગચ્છાધિપતિ શ્રી વિજયરામસૂરીશ્વરજી મ.સા.
(ડહેલાવાળા)ના શિષ્યરત્ન પ.પૂ. વિ.ગચ્છાધિપતિ અભયદેવસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાવર્તિની સા
શ્રી ચન્દ્રોદયાશ્રીજી મ.સા.ની છઠ્ઠી સ્વર્ગારોહણ તિથિ નિમિત્તે ચંદ્ર ગુણ અમી આરાધના ભવનના બહેનોની જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫ (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬૫ ઈ.સ. ૨૦૦૯
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॥ श्री विश्वकर्मणे नमः ।। ॥ वेधवास्तु प्रभाकर ॥ VEDIAVASTY-PRABHAKAR
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संपादक स्थपति प्रभाशंकर ओबहभाइ
शिल्पविशारद पालीताणा (सौराष्ट्र)
EC
बि. स. २०२१
सने १९६५
शिल्प स्थापत्य कला साहित्य प्रकाशन श्री बलवंतराय प्र. सोमपुरा एवं भ्राताओ
AA 2
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Jambeddhisasaram म .
488EBLSEELPEK
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ग्रन्थ प्राप्तिस्थान
स्थपति प्रभाशंकर ओ. सोमपुरा, शिल्पविशारद
गोरावाडी, शिल्पि निबास - पालीताणा सौराष्ट्र ) Sthapati Prabhashanker O, Sompura Goravadi, PALITANA ( Saurashtra ) श्री बलवंतराय प्र. सोमपुरा Shri Balvantrai P. Sompura 3, Pathik Society, Sardar Patel Colony
३. पथक सोसायटी
सरदार पटेल कोलोनी
अहमदाबाद नं. १३
AHMEDABAD-13
एन. एम. त्रिपाठी एन्ड कु. प्रिन्सेसस्ट्रीट, बंबइ-१
गुर्जर ग्रंथ रत्न कार्यालय
गांधी रोड, अहमदाबाद
सरस्वती पुस्तक भंडार रतनपोल हाथोखाना
अहमदावाद
श्री चौखम्बा संस्कृत सीरीज ओफिस गोविंद मंदिर लेन पो.बो. न. ८. वाराणसी - १
Munshiram Manoharlal
P. B. No. 1186, Nai Sarak DELHE-6
यह ग्रंथ प्रत्येक विभाग एवं चित्राकृति आदि प्लान डीवाइन संपादक के स्वाधीन है ।
प्रथमावृत्ति Ist Edition'
प्रत १००० हिन्दी गुजराती संयुक्त अनुवाद तथा मूल Price Rs10/
मूल्य २० दश
excluding postage.
पोस्टेज पृथक्
મુદ્રક : દુદાભાઈ ગોવિંદભાઈ ધામેલિયા, પ્રેમભકત મુદ્રણાલય-પાલીતાણા-મૈારાષ્ટ્ર
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नामदार महाराजा जायसाहब सर दिमूविजयसिंहनी बहादुर ग्रन्थके बारेमें अपनी शुभाशिष भेजते हुए लिखते है :--
I
शिल्पशाखा के प्राचीन संस्कृत ग्रंथ लोगों की भाषामें अनुवाद होकर और गहरे के साथ प्रसिद्ध हावे तो ज्ञानकी रखवाली होती है । जैसे प्रकाशनकी जरुरत तो थी । श्री प्रभाश करभाइ स्थपति द्वारा तैयार किये गये शिल्प ग्रंथको देखकर बडी प्रसन्नता हुई । शिल्पविशारद श्री प्रभाश कुग्भाइके कुलमें परंपरागत रितिसे शिल्पविज्ञानकी रखवाली होती रही हैं । जैसे कौशल्यवान स्थपति हाथी श्री सोमनाथजी महाप्रासादका नवनिर्माण हुआ है यह बडे गौरवकी बात है | जैसे शिल्पशास्त्र के निष्णातो ज्ञानका लाभ उठाना भारत के लिये भी गौरवकी बात है । श्री प्रभाश करभाइ शिल्पशास्त्रके गहरे की सुझवृझ रखते है ।
अपनी सरकार विद्या और कलाके से ज्ञाताओंकी कद्र नियमानुसार करती आयी हैं । हम चाहते हैं कि हमारी सरकार जैसे स्थायी कला निष्णातको पट्टी प्रदानमे विभूषित करें और उनकी विशेषतया कद्र करें । जामनगर ता. १९ -११-६०
उत्तरप्रदेश के भूतपूर्व गवर्नर भारतीय विद्याभवन बम्बई के कुलपति श्री कन्हैयालाल मुन्शोजी जिस ग्रन्थके बारेमे अपने पुरोवचन लिख भेजते है कि:
भारत के पास कमसे कम बीस शताब्दी पुरानी अपनी शिल्प स्थापत्यकी एक अपनी निजी परंपरा है । सिकी समृद्धि और सिद्धी व्यक्त हुइ हो वैसे प्रकाशन श्रीनेगीने हैं । जिसमें अप्रकाशित साहित्य भी बहुत ही बाकी पडा है । भारतके कुछेक प्रदेशो में स्थपति लोगोंके पास शिल्प साहित्य हस्तलिखित ग्रन्थ हैं । प्रस्तुत ग्रंथ असे एक संग्रहके फलस्वरूप है । जैसे एक हस्तलिखित ग्रन्थका उद्धार एक कौशल्यवान प्राचीन परंपरा पालक स्थपतिके हाथों ग्रंथके स्वरूपमें हुआ है I
श्री प्रभाशंकर भाइका जन्म एक जैसे सोमपुरा कुल में हुआ है जो कुल प्राचीन शिल्प स्थापत्यकी पर पगकी रखवाली करनेके पेशे में मशहूर है । वे सोमनाथजी आदि जैसे महाप्रासादोंके निर्माण करनेवाले और
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औषलवान स्वातनाम स्थपति तो है ही। शिल्प पुस्तक के सपादन से ये वास्तुशासके भी निष्णा-माता है वैसा भी प्रतित होता है।
श्री सोमपुराने मामुली स्कूलो तालीम पाई है। फिर भी अपने स्वप्रयत्नोसे उन्होंने शिल्प स्थापत्यका आमूल अभ्यास किया है । भिसके लिये वे धन्यवादके. पात्र ठहरते हैं। कला और विद्या दानेका असा अच्छा समन्वय, क्रियात्मक ज्ञान के साधक असे स्वाही प्राचीन भारतकी समृद्ध परंपराको नया जीवन दे रहे है । बम्बई ता. १-१०-६०
- - एशियाके सुप्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ, बनारस हिन्दु युतीवीटीके कला और स्थापत्य विभागके अध्यापक डो चामुदेवशरण अग्रवाल जी ग्रंथ संपादक और उनको कलाको सराहते हुए लिखते हैं :
श्री प्रभावंकरजी सोमपुग स्थपति मंदिर निर्माणके प्रख्यात और प्रकृष्ट अनुभवी है। असे विद्वान अल्ल देखे जाते हैं। श्री सोमनाथजीके मध्यको सीन भग्न मंदिर पर वास्तुमासके नियमानुसार नव निर्माण उन्होंने किया है। उनमें प्राचीन वास्तु विधाचायेकि कौशल्यके नवसंस्कार देखकर प्रसमना होती है। मेरी इच्छा कबसे एक असे व्यक्ति के दर्शन करने की भी । वही इच्छा नई दिल्ही में करीब पंद्रह साल पहले श्री प्रभाशंकरभाइके परिचय से पूर्ण हुभी । वे शास्त्रीय ज्ञानके साथ क्रिया कौशस्यके मच्चे शाता है। मुझे विश्वास है कि शिप स्थापत्य कलाके असे ग्रंथके प्रकाश नसे समस्त बास्तुशास्त्रके सुस्पष्ट अध्ययनका एक नया द्वार खुलेगा । पिस बातके लिये समाज स्वपति प्रभाशंकरजीका अत्यंत अनुरहित है।
- -- भारत सरकारके 'टेम्पल सर्वे प्रोवेकर' के सुप्रीन्टेनन्ट श्री कृष्णदेव नी अन्धके बारेमें अपनी प्रशस्ति जिस प्रकार लिखते है :
पश्चिम भारतके परंपरागत शिल्पशास्त्रके महान ज्ञाता श्री प्रभाशं करनी सोमपुरासे सुन्दर और सचित्र अनुवाद सह प्रकाशित किया गया शिस ग्रंथ उत्तम है। मंदिर स्थापत्यकी रचना पद्धतिके विशाल ज्ञानको सक्रिय अनुभव
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क साथ मिलाकर उन्हातले विषय गही सुझबुझ बता भी है। वह एक भूत बात है। उनका यह प्रयत्न संशोधन क्षेत्रकी एक आदर्श कृति है । भोपाल केम्प ता. १३-१०-६०
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द्वारका ज्योतिपीठके जगद्गुरू श्री शंकराचार्य जी महाराज के शुभाशीर्वाद और शुभ संदेश :
शिल्प - स्थापत्य कला विशारद, शिल्पप्रवर श्री प्राशकर ओ. सोमपुरा का ग्रन्थका प्रकाशन - कार्य बढी प्रसंशाका पात्र है। गिल्प स्थापत्य कलाके ग्रंथ क्षीण होते जा रहे हैं । राज्याश्रय से रहित होकर शिल्पिलौंग आज अन्य व्यवसाय में जा रहे हैं । भिस तरह जिस देशमें विद्या और कलाका ह्रास होता जा रहा है। जैसे जमाने में प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग श्री सोमनाथजीके महाप्रासादकी आर्यजनक और असाधारण र नामें कौशल्यवान शिल्पज्ञ महोदय श्री प्रभावश कर भाइने अपनी कलाका जो निर्माण किया है यह एक आनंदका विषय है ।
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पूज्य जैनाचार्य श्रीमद् विजयोदयसूरिश्वरजी महाराजके शुभाशिर्वाद :
शिल्पशास्त्री श्री प्रभाशंकरभाह शिल्पविशारद से किया गया ग्रंथ संपादनका कार्य शिल्प स्थापत्य के कार्यास उपकारक हो । जैन आगमोमें शिल्प विषयक संदर्भ मिलते है । यह ग्रंथ शिल्पज्ञान उपर कलश समान है । आर्य साहित्य-ग्रंथांका सर्जन संस्कृत भाषा में हुआ है। शिल्प विशारद स्थपति श्री प्रभाश कर ओढ भाइ सेोमपुराने बहुत से भव्य जिनमंदिरे और पर जिनालय, कलामय उपाश्रय, धर्मशालायें, ज्ञानशाला ए आदि धार्मिक स्थापत्यका सर्जन किया है । करीव चालीस सालसे अनवरत a fre विषयमें हमारे परिचयमें आये हैं । उनके सुपुत्र श्री बलवंतराय स्थपति भी पीछले पंद्रह वर्षो से हमारे परिचयमें रहे हैं । हमारे आशिर्वाद हैं कि आर्य स्थापत्य और सद्धर्म के आदर्शों को अपना कर आपकी प्रगति हो ।
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श्री उदयेश्वर मंदिरका भंडोवर - उदयपुर (माळवा)
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વેઢવાસ્તુ પ્રભાકર
પ્રસ્તાવના
જગતમાં પ્રત્યેક પ્રાણીને શીત, તાપ અને વર્ષાની પ્રાકૃતિક અગવડો સામે રક્ષાની આવશ્યકતા પ્રારંભમાં સમજાઇ, આથીજ વાસ્તુ વિદ્યાના પ્રારંભ સ્થૂળ રૂપે આદિકાળથી થયેઢે ગણી શકાય. પૃથ્વીપર વસનારા પ્રાણી જીવે ભૂમિ ખાદીને કે કાતરમાં કરેલા દર અને પક્ષીઓએ વૃક્ષ પર આંધેલા માળાની માફક માનવીએ ઘાસની પણ કુટી બનાવી અગર પવ તેની ગુફાએની શેાધ કરી તેમાં વાસ કર્યાં. આમ માનવ વિકાસના પ્રારંભ પછી સામુહિક વાસનું ગ્રામ્ય સ્વરૂપ અને પછી નગર રૂપ થયેલ ોઇ શકાય છે. માનવ સભ્યતાના વિકાસ સાથેજ શિલ્પને વિકાસ ક્રમશઃ થતા ગયા.
“વસ” ધાતુ પરથી વાસ્તુ. વાસ્તુના અમાં ભવન, રાજપ્રાસાદે, દેવપ્રાસાદે, સામાન્ય ગૃહે. જળાશયે, નગર, દુ, દેશમા, વિશ્રામસ્થાન આદિ સવ થાય છે. ભારતીય વાસ્તુ વિદ્યાના પ્રારંભ ઘણેા પ્રાચીન છે. વેદ-બ્રાહ્મણ ગ્રંથા-રામાયણ, મહાભારત, ઔધ ગ્રંથા અને જૈનઆગમા, સહિતાએ આદિમાં વાસ્તુ વિદ્યાના ઉલ્લેખેા મળે છે.
स्थापत्यवेदो विश्वकर्मादि शिल्पग्रास्त्रं अथर्ववेदेस्योपवेदः ||
સ્થાપત્ય વાસ્તુવિદ્યા એ અથવવેદના ઉપવેદ છે અથવવેદના સૂકતામાં સ્થાપત્ય કલા વિશે ઘણું' કહ્યું છે.
પ્રાચીન આ યુગમાં તે સાદા રૂપમાં અલ્પજીવી પદાર્થોથી થવા લાગી. કાન્ટ, ઇષ્ટિકા અને પાષાણુ પછી ધાતુ આદિ વાસ્તુ દ્રવ્યેના વપરાશ ક્રમે ક્રમે થતા ગયા અને રામાયણ અને મહાભારત જેવા ઐતિહાસિક મહા કાવ્યેમાં દેવાલયે, રાજમહાલયા અને સામાન્ય ગૃહોના વિવિધ વહુ ને શાબ્દિક ચિત્રો આપેલા છે. માનવ વિકાસની સાથે શિલ્પવિદ્યાને પણ વિકાસ થતા ગયા.
વદિક, જૈન કે ઔધ સ‘પ્રદાયની ગુફાએ કાતરવા પછી પાષાણુનાં દેવાલાના આંધકામેાની પ્રથા શરૂ થઇ હોય તેમ માનવાને
કારણું મળે છે.
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દેશના જુદા જુદા ભાગોમાં ગુરૂએ કેાતરી શકાય તેવી ગિરિમાળાઓ છે. ત્યાં પ્રથમ સાદા રૂપમાં કાતરાવા લાગી. પાછળથી તે અલંકૃત થવા લાગી. કેટલીક ગુફાઓની છત કાષ્ટની પ્રતિકૃતિ રૂપે છે તેથી તે કળા કાષ્ટ પરથી પાષાણુમાં ઉતરાવી હોય તેમ લાગે છે.
જગતના
આવી કળામય ગુફાઓની છત અને દીવાલા પર પૌરા{ણક ધાર્મિક પ્રસંગેા અને સુદર મૂર્તિએ કાતરાયેલ છે. તેના દર્શન કરતાં કળા વાંચ્છુઓનું મસ્તક ભારતના શિલ્પી પ્રતિ નમે છે. શિલ્પીઓએ જડ પાષાણુને સજીવરૂપ આપી પુરાણના કાવ્યને હુબહુ પ્રદર્શિત કર્યું... છે. તેમાં દર્શીન કરી ગુણુજ્ઞ પ્રેક્ષકા શિલ્પીની સર્જન શકિતની પ્રશંસા કરતાં ધરાતા નથી. અહીં ટાંકણાના શિલ્પ વડે શિલ્પીએ અમરકૃત્તિ સર્જી ગયા છે. અખંડ પહાડામાંથી કાતરેલ ઈલારાના કૈલાસ દિરની ભવ્ય કળામય વિશાળ પ્રાસાદની રચના શિલ્પીએની અદ્ભૂત કળા ચાતુર્ય ને અજોડ નમૂના છે.
કોઈપણ દેશની સંસ્કૃતિનુ મૂલ્ય તેના પ્રાચીન સ્થાપત્ય અને સાહિત્ય પરથી `કાય છે. વિદ્યા કળા તા દેશનુ અમાલુ ધન છે. શિલ્પ સ્થાપત્ય માનવ જીવનનું અત્યંત ઉપયેાગી મભર્યું અંગ છે. આ કળા હૃદય તેમજ ચક્ષુ બન્નેને આકર્ષે છે. શિલ્પ સૌંદય એ માત્ર તરંગ નથી પણ હૃદયના સભર ભાવ છે. જગતમાં ભારતનું સ્થાપત્ય ઉત્તમ કેટનું દેશને ગૌરવ લેવા સરખુ છે.
ભારતમાં સર્વ સાહિત્યના પ્રારંભ ધર્મ બુદ્ધિથી પ્રેરાઇને થયેલ છે. શિલ્પશાસ્ત્ર પણ ધમ ભાવના સાથે સ'કળાયેલુ છે. જેની બુદ્ધિપૂર્વકની રચના પ્રાચીન ઋષિમુનિઓએ કરેલી છે.
ભારતીય વાસ્તુવિદ્યાના પ્રારભ કાળ ઘણા પ્રાચીન છે. વેદે, બ્રાહ્મણ ગ્રંથૈ, ઉપનિષદે, રામાયણુ, મહાભારત, પુરાણા, જૈન આગમો, ખૌધત્ર થા, સહિતા અને સ્મૃતિગ્રંથામાં વાસ્તુવિદ્યાના ઉલ્લેખેા મળે છે.
શિલ્પ સ્થાપત્યની પ્રાસાદ રચના ભારતની આધ્યાત્મિક વિચારધારામાંથી ઉદ્ભવી છે. પુનર્જન્મના સિદ્ધાંત મુજખ જીવ પ્રાણી વિકાસ સાધતા અનેક કટીની ચાનીઓમાં જન્મતાં જન્મતાં આખરે બ્રહ્મમાં વિલીન થાય છે. આ સિદ્ધાંત દેવમદિરના શિખર શકુ આકારે ચેાજ્યે છે. ધર્મ પ્રવૃત્તિથીજ ધાર્મિક સ્થાપત્ય ભારતમાં ઠેર ઠેર ઉભાં થયાં. તે દ્વારાજ શિલ્પી વર્ગ ને
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ઉત્તેજન પણ મળ્યું. પ્રાચીનકાળમાં શિલ્પીઓને બ્રહ્માના પુત્ર માની પૂજન થતું. એશિયા ખંડમાં જાપાનમાં બૌધ ધર્મનો પ્રચાર થતાં તે દેશની રાજમાતાએ પ્રજામાં સહર્ષ ઢઢેરા દ્વારા ઈચ્છા પ્રદર્શિત કરેલી કે “મારા રાજ્યના નગર અને ઉદ્યાનમાં શિલ્પીઓના ટાંકણાને ગુંજારવ સદા થતું રહે.”
શુક્રાચાર્યે કળા અને વિદ્યા વિશે બહુ સુંદર સ્પષ્ટતા કરી છે. વિદ્યા અનંત છે અને કળાની ગણત્રી થઈ શકતી નથી પરંતુ સામાન્ય રીતે વિદ્યા બત્રીશ છે અને કળા એ સઠ પ્રકારની કહી છે. આગળ જતાં તેઓ વિદ્યા અને કળાની સામાન્ય વ્યાખ્યા આપતાં કહે છે.
यद्यत्माद वाचिक सम्यकम विद्याभिसंज्ञकम् ।
शक्तो मुकोपि यत्कत कलोसंशंतु तत्स्मृतम् ॥ જે કાર્ય વાણીથી થઈ શકે તેને વિદ્યા કહે છે અને મુંગે પણ જે કાર્ય કરી શકે તે “કળા”. શિલ્પ, ચિત્ર, નૃત્ય આદિ મૂક ભાવે થઈ શકે છે તેથી તે દરેકને કળા કહી છે.
કળાના પ્રકાર વિષે જુદા જુદા આચાર્યોએ જુદી જુદી સંખ્યા કહી છે- શુક્રાચાર્યો અને લલિત વિસ્તારમાં તેમજ કામસૂત્રમાં અને શ્રીમદ્ ભાગવતમાં-કળ ૬૪ પ્રકારની કહી છે. સમુદ્રપાળે જેનસૂત્રમાં ૭૨ કળ વર્ણવી છે. થશેઘરે કામશાસ્ત્રમાં કળ ૬૪ કહી છે પરંતુ તેમાં અવાક્તર દે ૫૧૨ કળાના ભેદ પાડેલા છે.
સૂત્રધાર, શિલ્પી, સવર્ણકાર, કંસકાર (કંસારા), ચિત્રકાર, માલાકાર (માળી ), લેહકાર, શંખકાર (શંખના આભૂષણે બનાવનાર , કુંભકાર કુલિન્દકાર, (વણકર)-આમ કળામાં વિવિધ હન્નરો સમાવ્યા છે. નૃત્ય, ગીત અને વાઇિત્ર એ સર્વ કળા છે. હુન્નરકળાના જ્ઞાતાના જથ પ્રમાણે તેઓની જ્ઞાતિઓ બંધાઈ–મહાભારતમાં વિશ્વકર્માને હજારે શિલ્પના સુણ કહ્યા છે.
વાસ્તુશાસ્ત્રના મહાન પ્રણેતા ઋષિમુનિઓ હતા. તેઓ અરણ્યના શાંત વાતાવરણમાં રહી અનેક શાસો અને વિદ્યા અને કળાના જીજ્ઞાસુઓને પિતાના આશ્રમમાં રાખીને વિદ્યા દાન કરતા. મત્સ્યપુરાણકારે તેવા અઢાર આચાર્યોના નામે આપેલ છે. ભૃગુ, અગ્નિ, વશિષ્ટ, વિશ્વકર્મા, મય, નારદ, નગ્નજિત, વિશાલાક્ષ, પુરંદર, બ્રહ્મા, કુમાર, નંદીશ, શૌનક, ગર્ગ, વાસુદેવ, અનિરૂદ્ધ, શુક અને બૃહસ્પતિ.
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અનિપુરાણ અ. ૩૯ માં લેકાખ્યાયિકામાં તંત્ર ગ્રંથ કર્તાના ૨૫ નામે આપેલ છે. માનસારમાં બત્રીશ શિલ્પાચાર્યના નામ આપેલા છે જોકે આ ગ્રંથોમાં કેટલાક નામોની પુનરૂકિત થઈ જાય છે તેમાં શિલ્પનો પણ વિષય હશે. એ રીતે ૧૮૪૨૫+૩૨=૭૫ માંથી ખરે વિશ્વકર્મા પ્રકાશમાં કહ્યું છે કે –
इतिग्रोक्त वास्तुशास्त्र पूर्व गर्गायधियते । गर्गेत्पराशरः प्राप्तस्तस्याप्राप्तोबृहद्रथ
प्रहद्रथद्विश्वकर्मा प्राप्तवान वास्तुशास्त्रकम् ।। મહર્ષિ ગગ મુનિ વાસ્તુશાસ્ત્રના મહાબુદ્ધિમાન જ્ઞાતા હતા તેમાંથી પરાશર મુનિને પ્રાપ્ત થયું. તેમાંથી બ્રહદ્રથને પ્રાપ્ત થયું. બ્રહદ્રથ મુનિથી વિશ્વકર્માને વાસ્તુશાસ્ત્રનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થયું. તેમણે જગત હિતને સારું પ્રવર્તાવ્યું.
આ ક્રમ પાછલા યુગના વિશ્વકર્માને હેય. કારણકે મૂળ તે આદિ વિશ્વકર્માજ શિલ્પશાસ્ત્રના પ્રણેતા ગણવામાં આવે છે. એક સ્થળેથી વાસ્તુશાસ્ત્રના જ્ઞાતાઓની નોંધ મળેલ છે. તેમાં શૌનક, રાવણ, રામ, પરશુરામ, હરિ, ગાલવ, ગૌતમ, ગોભિલ, (અને વિશ્વકર્માના ચાર શિષ્યોમાં) વિજય, સિદ્ધાર્થ, અપરાજિત, વૈશ્યાચાર્ય, ગચ્છવૈક્ષ, મયપુત્ર, કાર્તિકેય અને ચ્યવન-આમ જણાવેલ છે.
માનસારમાં બત્રીશ શિ૮પાચાર્યોના નામે આપેલા છે. બૃહદસંહિતામાં મનુ, પરાશર, કાશ્યપ, ભારદ્વાજ, પ્રહલાદ, અગત્ય, માર્કંડેયના નામે આપેલા છે. તે ઉપરાંત ગર્ગ, મય અને નગ્નજીત અને વસિષ્ઠના પ્રમાણે પોતાના ગ્રંથના અવતરણ રેફરન્સ આપેલ છે. કમભાગ્યે ત્રણેક આચાર્યો સિવાય કોઈ આચાર્યોને એક સળંગ ગ્રંથ હજુ ઉપલબ્ધ થયો નથી.
શ્રી વિશ્વકર્મા અને તેના શિષ્યોના સંવાદ રૂપ ગ્રંથ અપરાજીતપૃચ્છા, જયપૃચ્છા, નારદ્દ અને વિશ્વકર્માના સંવાદ રૂપ. ક્ષીરાર્ણવ અને વૃક્ષાર્ણવ ગ્રંથ છે. જ્ઞાનપ્રકાશ, દ્વીપાર્ણવ, જ્ઞાનરત્નકેશ, વિશ્વકર્મા પ્રકાશ, વાસ્તુવિદ્યા જ્ઞાનસાર, અપરાજિત વાસ્તુશાસ્ત્રકારિકા, રત્નતિલક- આ ગ્રંથ સિવાય દશમી સદીમાં વિરેચન લક્ષણ સમુચય. માળવામાં ભોજદેવનાકાળમાં સમરાંકણ સૂત્રધાર, કાછશિલ્પ વિષય, શ્રી માલદેવે “પરિમાણ મંજરી” તેરમી સદીમાં ઠકકુર કેરૂએ વાતુસાર માગધીમાં રચેલે છે.
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મંડન નામને સૂત્રધાર સેળમી સદીમાં થયેલ તેના પિતા ગુજરાત પાટણના ભારદ્વાજ ગોત્રના હતા. તેઓ મેવાડના રાણા કુંભાના નિમંત્રણથી ગુજરાતમાંથી મેવાડમાં વસેલા. તે વિદ્વાનના કાળમાં શિલ૫ર્ચા અસ્તવ્યસ્થ અને ઘણા અશુદ્ધ થયેલા તેને પુનરૂદ્ધાર વિદ્વાન મંડન કરીને તેણે નવા ગ્રંથેની રચના કરી. પ્રાસાદાંડન, રૂપાંડન, વાસ્તુમંડન, રાજવલભદેવતા મૂર્તિ પ્રકરણ, રૂપાવતાર વગેરે શિલપગ્રંથની સુંદર રચનાઓ કરી. તેના પરિવારમાં ગોવિંદે “કલાનિધિ” અને “ઉદ્ધાર દેરણી”, મંડનના કનિષ્ઠબંધુ માધજીએ વાસ્તુમંજરી”, મંડનના બે પુત્રો ગોવિંદ અને ઈશર, અને ઈશરને પુત્ર છીતા થયે. સૂત્રધાર રાજસિંહે “વાસ્તુશાસ્ત્ર, સૂ સુખાનંદે “સુખાનંદવાસ્તુ”, પં. વસુદેવે “વાસ્તુપ્રદીપ”, “સરિ૭૫ તંત્ર", સૂ. વીરપાલે “પ્રાસાદતિલક” રચ્યાં.
આમ પશ્ચિમ ઉત્તર ભારતના વિદ્વાનોના ગ્રંથે વર્તમાનમાં પ્રાપ્ત થાય છે. પૂર્વ ભારતમાં એરિસ્સામાં શિલ્પના ગ્રંથ છે તેમાં શિલ્પ સાહિત્ય મળે છે. તે સંસ્કૃત, પ્રાકૃત, લેક ભાષા મીઢમાં ગ્રંથ છે.
દ્રવિડ ગ્રંથમાં ભયમતમ, માનસાર, કાશ્યશિલ્પ આદિ ગ્રંથે છે. સોળમી સદીમાં શ્રીકુમારે શિલ્પરત્ન ગ્રંથની રચના કરી. મહાયાલય ચંદ્રિકા, વિશ્વકર્મા વગેરે પ્રાપ્ત થાય છે.
પુરાતત્વવિદો ની ભાષા પરથી આ થે બારમી સદી પછીના કાળના રચાયેલા કપે છે તે વિવાદાસ્પદ છે. બૃહદસંહિતા બીજી કે છઠ્ઠી સદીની કહેવાય છે. શુકનીતિ તેની પછીના કાળની છે. લક્ષાત્સમુચ્ચય દશમી સદીને રચના કાળ જણાય છે. પ્રાચીન રૂઢીના શિપને ઘાટોના વિકાસને અંતે આ ગ્રંથે લખાયા હોય. ગ્રંથમાં દર્શાવેલા ચાર વિભાગના ઘાટથી ગુપ્તકાળના અને તે પહેલાં અને પછીના કાળના સ્થાપત્યના ઘાટમાં ભિન્નતા છે તેથી આપણે અનુમાન કરી શકીએ છીએ કે કાળના ગ્રંથને કાં તે નાશ થયે અને દશમીથી બારમી સદી પછી સ્થાપત્યના નિયમ રૂઢ થયા પછી આ ગ્રંથની રચના થઈ હોય.
વાસ્તુશાસ્ત્ર અને શિલ્પ સ્થાપત્યની વ્યાખ્યાની સ્પષ્ટતાના અભાવે તે ત્રણેનું યથાર્થ સ્વરૂપ સમજનો ભાષા પ્રગ કરવામાં લોકે મીશ્ર અર્થ કરે છે. વાસ્તુશાસ્ત્ર એ સર્વના બહોળા અર્થમાં છે. તેમાં અંતર્ગત સ્થાપત્ય અને સ્થાપત્યનું અંતર્ગત શિલ્પ છે.
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૧. વાસ્તુશાસ્ત્ર-દેશ, પથ, નગર, દુર્ગ, જળાશય, રાજપ્રાસાદ, દેવપ્રાસાદ, સામાન્ય જ્ઞાન, શિરાજ્ઞાન, ભૂમિ પરીક્ષા એ સર્વ વિદ્યાનું શાસ્ત્ર એ વાસ્તુશાસ્ત્ર.
૨. સ્થાપત્ય-નગર, દુગ, જળાશય, રાજપ્રાસાદ વગેરે વિશાળ બાંધકામ સ્થાપત્ય.
૩. શિલ્પ–દુર્ગનાં દ્વાર, રાજભવન, દેવપ્રસાદ, જળાશય આદિ સ્થાપના સુશોભન, અલંકરણ, મૂર્તિ-પ્રતિમા, ગોખ, જરૂખા આદિ અલંકૃત ભાગ તે શિલ્પ
શિલ્પીઓના કર્તાની પ્રશંસા- ભારતના શિલ્પીઓએ પુરાણના પ્રસંગને પાષાણમાં સજીવ કેતર્યા છે. તેમનાં ટાંકણાની સર્જનશકિત પ્રશંસાને પાત્ર છે. જડપાષાણને વાચા આપનારા આવા કુશળ શિપીઓ પણ કવિ જ છે. તેઓ ભારે ધન્યવાદને પાત્ર છે. અલબત્ત કલા કઈ ધર્મ કે જાતિની નથી. એ તે સમગ્ર માનવસમાજની છે. ભારતીય શિલ્પીઓએ આ કળા દ્વારા સ્વર્ગ – વૈકુંઠને પૃથ્વી પર ઉતાર્યું છે. સ્થાપત્ય કળા પ્રત્યે આજે રાજકર્તા સરકાર બેદરકાર બની છે એ દેશનું દુર્ભાગ્ય સૂચવે છે.
જડ પાષાણુમાં પ્રેમ, શૌર્ય, હાસ્ય, કરુણું કે કોમળ ભાવ મૂર્તિમંત કરે બહુ કઠીન છે. ચિત્રકાર તો રંગ રેખાથી તે દર્શાવી શકે છે, જ્યારે શિલ્પી રંગની મદદ વિનાજ પાષાણમાં ભાવ સર્જન કરે છે તેમાં તેની અપૂર્વ શક્તિ રહેલી છે. ભારતીય કળાએ તે જગતના શિલ્પ સ્થાપત્યમાં ઘણે કિંમતી ફાળે આપે છે.
- ભારતીય શિલ્પ સ્થાપત્ય પર વિધમીઓના સાત વર્ષના પ્રહાર પછી પણ શિવપીઓએ કળાને જીવતી રાખી છે. પાશ્ચાત્ય શિલ્પીઓ તાદશ્યતાનું નિરૂપણું અનુકરણ કરે છે, ત્યારે ભારતીય શિલ્પીઓએ પિતાની કૃતિમાં ભાવના રેડવાનું કઠીન કાર્ય કર્યું છે.
અનેક કવિઓ સ્ત્રીની પ્રકૃતિ વિકૃતિના ગુણેના ગાન ગાય છે. તેનાં સૌદર્યનું પાન કરાવનાર ભવભૂતિ અને કાળીદાસ જેવા મહાન કવિઓએ તેનાં રૂપ અને ગુણોની શાશ્વત ગાથા ગાઈ છે. તેની પ્રકૃતિથી રીઝેલા ભારતીય શિલ્પીએ એ સ્ત્રી સંદર્યને માતૃત્વભાવે પ્રદર્શિત કર્યું છે, જ્યારે પાશ્ચાત્ય શિલ્પીઓએ વાસનાના ફળ રૂપે તેને કંડારી છે.
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ભારતીય શિપિીઓએ ભારતીય જીવન દર્શન અને સંસ્કૃતિને પોતાનું સર્વોત્તમ લક્ષ માનીને રાષ્ટ્રના પવિત્ર સ્થાને પસંદ કરીને ત્યાં પિતાનું જીવન વીતાવીને વિશ્વની શિલ્પકળાના ઇતિહાસમાં અદ્વિતીય વિશાળ ભવનના નિર્માણ કર્યા છે, જે જોતાંજ હૈ કેઈ આશ્ચર્યમુગ્ધ બને છે.
ભારતીય શિલ્પીઓએ પહાડમાંથી દીર્ઘકાય શિલાએ બેદી કાઢીને ભૂખ અને તરસની પણ પરવા કર્યા વગર પિતાના ધર્મની મહત્તમ ભાવના રાષ્ટ્રના ચરણોમાં ધરી છે. જનતા જનાર્દન અને ધર્મ સંસ્કૃતિના પ્રતીકનું પ્રસ્થાપન કર્યું છે. જનતાએ પણ શંખનાદ વડે પિતાના શિલ્પકારની અક્ષય કીર્તિને ચતુર્દિશ ફેલાવી છે. જગતે આવા શિપીઓની અજબ સ્થાપત્ય કળાના કારણે ભારતને અજરઅમર પદે સ્થાપેલ છે. આવા પુણ્યવાન શિલ્પીઓને કેટિ કેટિ ધન્યવાદ ઘટે છે.
શિલ્પના આદ્યપ્રણેતા વિશ્વકર્માની ઉત્પત્તિ વિશે પૃથક પૃથક મતો છે. તેમાં પુણેમાં દક્ષપ્રજાપતિની ૬૦ કન્યાઓમાંથી દસ કન્યા એ “ધર્મ” ના વેરે પરણાવી તેમાંની “વવું” નામની કન્યાથી અષ્ટ વસુ થયા. તેમાંના કનિષ્ઠ પુત્ર પ્રભાસ થયા. તેઓએ મહર્ષિ ભૃગુની બહેન સાથે પાણિગ્રહણ કર્યું તેનાથી વિશ્વકર્મા થયા. આમ પુરાણમાં ઉલ્લેખ છે.
માનસર ગ્રંથમાં વિશ્વકર્મા સત્યયુગમાં મૃગશીર્ષમાં બ્રહ્મકુળમાં થયેલા. વિશ્વકર્મપુરાણના આધારે વર્તમાનમાં શિપીએ મહા સુદ ૧૩ ના તેમના જનમેન્સવ શિપી વગ ઉજવે છે.
સૂત્રસંતાન અપરાજિત ગ્રંથમાં શ્રી વિશ્વકર્માના ચાર માનસપુત્રો (૧) જય (૨) વિજય (૩) સિદ્ધાર્થ અને (૪) અપરાજિત કહ્યા છે. અન્યમાં મય અને ત્વષ્ટા નામ પણ આપેલાં છે.
પદ્મપુરાણ ભૂખંડમાં વિશ્વકર્માનાં પાંચ મુખથી પાંચ શિલ્પીઓ ઉત્પન્ન થયા તેમ પદ્મપુરાણના ભૂખંડના કહેલ છે. તે વિરાટ વિશ્વકર્મ કદા છે તે પંચાનને અને ચાલાદિ પૂજે છે.
સૂત્રસંતાન ગ્રંથમાં ચારે માનસ પુત્રોને વિશ્વકર્માએ જ્ઞાન આપ્યાનું જણાવે છે.'
૧. જયને હેમવત પાછળ એક ગુફાશ્રમના રમ્ય સ્થાને શ્રી વિશ્વકર્માએ વાસ્તુશાસ્ત્ર સંબંધનું જ્ઞાન આપ્યું. તેની ચોવીશ હજાર ( ગ્રંથ) શ્લેક પ્રમાણની ગ્રંથાકારે ૨ચના થઈ.
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૨. વિજયને હેમકૂટ મહારેલી ઉપર સે યોજન ઊંચે વિરૂપાખ્યાશ્રમે શ્રી વિશ્વકર્માએ નૃત્ય, ગીત, વાદિત્ર, રાગ, તાલ, લાસ્ય-હાસ્ય તાંડવ, સમસ્વર, છ રાગ, છત્રીસ રાગીણી વિષયનું જ્ઞાન આપ્યું તે બારહજાર લોક પ્રમાણ ગ્રંથની રચના થઈ. તે ભારતના નામે ઓળખાયું.
૩. સિદ્ધાર્થને મંદાર પર્વત સુખાસનથી શ્રી વિશ્વકર્માએ તાલ કંડરવર શાસ્ત્ર, ગણિત, તિષ, વ્યાકરણ, અલંકાર સહિત છંદ તથા તેને મુકિત માર્ગનું રહસ્ય પણ આપ્યું. * ૪. અપરાજિતને પણ વાસ્તુવિદ્યાનું જ્ઞાન જયના જેવું આપેલ લિંગ પ્રતિમા, પીઠ, રાજગૃહ, નગર, દુર્ગ, પ્રતોલી માગ, ગેપુર, જળાશયે આદિ વાસ્તુશાસ્ત્રનું રહસ્ય આપ્યું અને તે દસ હજાર ગ્લૅક પ્રમાણ ગ્રંથની રચના થઈ.
પદ્મપુરાણ તથા શૈગે શિવાગમ તથા વસિષ્ઠપુરાણ ૩-૬ માં વિશ્વકર્માના પાંચમુખના નામ અને તેમાંથી ઉત્પન્ન થયેલ પંચ શિલ્પીઓનાં નામ અને ગોત્ર કહ્યાં છે. તેમાં પાંચ શિલ્પીઓના (૧) મનુ લોહકર્મના. (૨) મય કાછ- કર્મના. (૩) ત્વષ્ટા કંસકાર. (૪) શિપી શિલપકાર. (૫) દેવજ્ઞ સુવર્ણકાર એમ પાંચ શિલ્પીઓના નામ અને કર્મ, સ્કંદપુરાણના નાગરખંડ . ૬-૧૩-૧૪ માં કહેલ છે.
શિલ્પીઓમાં સામાન્ય રીતે એક મુખના વિશ્વકર્મા બ્રહ્મા સ્વરૂપ જેવા દાઢીવાળા, ત્રણ નેર, ચાર ભૂજાના સૂત્ર–માપકરણને ગજ, પુસ્તક અને કમંડળ એમ ચાર સૃષ્ટિમાગે ધારણ કરેલ છે, હંસનું વાહન છે. તતિરીયકૃતિ પંચ બ્રહ્યોપનિષદમાં વિશ્વકર્માને પંચમુખી અને દશભૂજાના કહ્યા છે. તે પંચમુખ પૂર્વાદિ દિશાના ક્રમે, મનુ, મય, ત્વષ્ટા, શિલ્પી અને દેવજ્ઞ (તક્ષ કહ્યા છે. તેમના દશ હાથના આયુધ સૌ પિતતાના કર્મ પ્રમાણે કહપે. શિલાકમ કરન ઓ કમંડળ. સૂત્ર હાડી, સાધણી (લેવલ) અને પુસ્તક જમણા હાથમાં અને ટાંકાણું, ગજ, ચુનાલ હું, માળા અને એળે એમ પાંચ ડાબા હાથમાં ધારણ કરેલા.
પદ્મપુરાણ ભૂખંડમાં પંચમુખને દેશભૂજ વિશ્વકર્માના જમણુ પાંચહાથમાં કેદાળી, પાવડો, તગારૂ (તાંસળી), ઘટિકાપાત્ર (ઘડા) અને સુવર્ણ કમંડળ છે અને ડાબો પાંચ હાથમાં કરવત, હડી, સાણસી, અલંકાર અને અગ્નિકુંડ ધારણ કરેલાં છે. આ સ્વરૂપ લેહકાર, સુવર્ણકાર, કાણકાર અને કંસકાર (કંસારા)ને પૂજ્ય છે.
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સ્કંદપુરાણ નાગરખંડ . ૬ માં પાંચે શિલ્પીઓના કર્મ કહ્યા છેઃ अस्कृतिनां च मयानां दारुकर्म च । त्वष्टाणा ताम्रकर्माणि शिलाकर्म च शिल्पिनाम् ॥ १३॥ सौवर्ण तक्षकाणां च पंचकर्माणि तानि वै ।
एतै पंचरूपाश्च यज्ञकर्म पराः स्मृताः || १४ ||
વિશ્વકર્માના પાંચ પુત્રોમાંના મનુએ લેહકર્મ મયે કાષ્ટકર્મ, ત્વષ્ટાએ તામ્રકમ ( ક’સારાનું ) શિલ્પીએ પાષાણુકમ અને તક્ષક દૈવજ્ઞે સુત્ર – ચાંદીનુ કર્મ કર્યું. તે પાંચે પ્રકારના કર્મો યજ્ઞકાં કહેવાય છે.
વસિષ્ઠપુરાણના પ્રવરાધ્યાયમાં ઉપરાકત પાંચે કમઁકારના ૨૫-૨૫ ગેાત્રો કહ્યા છે. પરંતુ શિલ્પી સામપુરાના-અઢાર ગેત્રો આથી ભિન્ન છે એટલે સામપુરા શિલ્પીએ વિશ્વકર્માના રૂપ હોઈ તેઓના ગાત્ર પૃથક છે.
વિશ્વકર્મા પૃથક પૃથક કાળમાં પ્રગટ થયા વેદો અને ઉપનિષદોમાં તેના ઉલ્લેખા છે. ઋગ્વેદ અને યજુર્વેદમાં ભૃગુકુલમાં વિશ્વકર્મો થયા. તે પછીના કાળમાં આંગીરસ કુળમાં ઉત્પન્ન થયા. અને ત્રીને અવતાર બ્રહ્મ કુલેત્પન્ન પ્રભાસવસુના પુત્ર વિશ્વકર્મા પ્રગટ થયા. આંગીરસ વિશ્વકર્માં વિરાટ વિશ્વકર્માના ચેાથેા અવતાર મનાય છે તેમ મહાભારતમાં તેના ઉલ્લેખ છે. આચા વિશ્વકર્માના પાંચમા અવતારને ઉલ્લેખ વાયુપુરાણુમાં છે. જગદ્ગુરુ વિશ્વકર્મોના છઠ્ઠા અવતારનું વણૅન સકલાધિકારમાં આપેલ છે. પ્રજાપતિ વિશ્વ કર્મોના સાતમા અવતારના ઉલ્લેખ મૂલસ્તંભમાં આપેલ છે. કાશ્યપીય વિશ્વકર્માંના આઠમા અવતારનું વર્ણન સ્ક ંદપુરાણમાં છે. શિષાચાય વિશ્વકર્મા અને બ્રહ્મકુલે પન્ન વિશ્વકર્મોના નવમા અને દશમા અવતારના ઉલ્લેખ બ્રહ્મવૈવત પુરાણમાં આપેલ છે. જુદા જુદા ગ્રંથા આપેલ વર્ણન અને અવતાર જુદા જુદા નામે કરેલ હાવાથી તે સમજવુ" કઠીન થઇ પડે છે.
યજુર્વેદ ૩૧-૧૧ તથા વસિષ્ટપુરાણુ ૐ, હું અને મનુસ્મૃતિમાં કહ્યું છે કેઃ|| विश्वकर्मा कुले जाता गर्भब्राह्मण निश्चितां ॥
વિશ્વકર્મા કુળમાં જન્મેલા જન્મથીજ બ્રાહ્મણા છે. તેમાં શ`ફા નથી. પ્રાચીન કાળમાં આ સવ વર્ગ શુદ્ધ કર્મકાંડ ધમને આચરણને પાળનારા હતા. વ્યવસાયના કારણે અને ઉતરતા વર્ગના સ`સથી તેઓ તે કર્મકાંડ વિસરતા ગયા તેમ તેઓને મૂળ કર્મકાંડી બ્રાહ્મણા પેતાન થી ભિન્ન માનવા લાગ્યા. આથીજ તેની પૃથક વ્યવસાય પ્રમાણેના જ્ઞાતિ બંધાઈ.
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ભારતમાં શિપીઓની જાતિ જુદા જુદા પ્રાંતોમાં વસેલી છે. તેમાંના થોડા વર્ગની માહિતી મેળવવા પ્રયાસ કર્યો છે. ચાર, પાંચ કે સાતસો વર્ષ પહેલાં તેઓ જે વ્યવસાય કરતા તેઓ વર્તમાનમાં બજાજ વ્યવસાયમાં ધર્માધતાથી કે વટાળ પ્રવૃત્તિમાં પડી ગયા છે તેથી શિપીવર્ગની ચોક્કસ માહિતી મેળવવામાં ઘણી મુશ્કેલી પડે છે.
વિશ્વકર્મા અને તેના વંશના અઢારેક (૧૮) શિલ્પીઓની નોંધ આ નીચે આપું છું – ' (૧) વિશ્વજ્ઞ ( દ્રવિડમાં શિલ્પકર્મ કર્તા) (૨) આચાર્ય ( દ્રવિડમાં ) (૩) પંચાલ (ગુર મહારાષ્ટ્ર) (૪) દેવજ્ઞ ( ) (૫) સ્થપતિ (પશ્ચિમ ભારતના સોમપુરા) (૬) રથાકાર (દ્રવિડ અને ગુર્જર આદિ પ્રદેશમાં) (૭) સૌધન્ય ( ) (૮) પૌરુષેય ( ) (૯) નારાશસ ( ) (૧) કંસાલી (કંસારા) (૧૧) કમાલિયન ( ) (૧૨) અર્કશાળી (
) (૧૩) જાંગીડ (આંગીરસ બ્રાહ્મણનું અપભ્રંશ. આ લેક મધ્યપ્રદેશ અને ઉત્તરપ્રદેશમાં વસે છે) (૧૪) ધીમાન ( સોમપુરા) (૧૫) પંચ શિપી ( ) (૧૬) કોકાસ ( ) (૧૭) તક્ષા (સુવર્ણકાર) (૧૮) કર્મકાર ઓઝા (કુંભકાર) ઉપરોકત ૧૮ પ્રકારના શિલ્પ કર્મકારો પૃથક પૃથક વિભાગમાં વહેચાયેલા છે.
વર્તમાન કાળમાં જે જે પ્રમુખ શિલ્પી જ્ઞાતિ વગનનું સંશોધન કરતાં પ્રાપ્ત થયું તે આપીએ છીએ –
૧. સોમપુરા-શિલ્પાનો આ અભ્યાસી વગર પશ્ચિમ ભારતમાં સોમપુરા શિલ્પીઓને છે. સ્કંદપુરાણના પ્રભાસ ખંડમાં તેમની ઉત્પત્તિઓ પ્રભાસસોમનાથમાં થઈ તે રસિક ઈતિહાસ છે. તેઓ બ્રાહ્મણ તરીકે કર્મ કરે છે. પરંતુ દાન સ્વીકારતા નથી. સોમપુરાને પવિત્ર માનેલ છે, તેની ઉત્પત્તિ અને તેઓએ શિ૯૫ વ્યવસાય કેમ સ્વિકાર્યો તે પુરાણમાં કહ્યું –
प्रभासेहत्पत्तिर्यस्य शिल्पकर्म प्रदायिना । सोमपुरा झाति रुपोहि देहः श्री विश्वकर्मणः ॥१॥ सोमनाथाज्ञयाकेचित् सोमपरारिति स्मृताः । पाषाणकर्मकारो विश्वकर्मानुगामिनः ॥२॥ चतुराशिति विज्ञेया ब्राह्मणा द्विजकमणि । धर्मशास्त्र गुणैर्युक्ता भोगैश्वर्यै विभूषिता ॥३॥
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સૌરાષ્ટ્રના સેમિનાથપ્રભાસક્ષેત્રમાં જેની ઉત્પત્તિ છે તેવા શિકર્મના જ્ઞાતા સેમપુરા વિશ્વકર્મા સ્વરૂપ છે. સોમનાથજીની આજ્ઞા વડે વિશ્વકર્માના અનુગામી પાષાણ કર્મના કર્તા, ચોરાશી કળાના જ્ઞાતા, ચોરાશી પ્રકારના બ્રાહ્મણેમાં ધર્મશાસ્ત્રના ગુણયુક્ત ભોગ અને ઐશ્વર્ય વડે ભતા એવા બ્રિજ કર્મમાં અનુરક્ત સેમપુરા બ્રાહ્મણે થયા.
સેમપુરા શિલ્પીઓ મૂર્તિઓ ને મંદિરનું નિર્માણ કરે છે તેઓ પાસે હસ્તલિખિત શિલ્પગ્રંથને સંગ્રહ હોય છે. પવિત ધારણ કરે છે. તેમાં ૧૮ ગોત્ર છે. તેથી પરસ્પર લગ્ન ગ્રંથીથી જોડાય છે. સગોત્ર લગ્ન કરતા નથી, પુનર્લગ્નની પ્રથા પાછળથી દાખલ થઈ. બ્રાહ્મણ સિવાય કેઈનું જમતા નથી.
આ સોમપુરા શિલ્પીઓ-ગુજરાત, કચ્છ, સૌરાષ્ટ્ર, રાજસ્થાન અને મેવાડમાં વસેલા છે એટલે તેઓએ પશ્ચિમ ભારતના સુપ્રસિદ્ધ શિલ્પ સ્થાપના તેઓ નિર્માણ કરેલા છે. તેઓ બ્રાહ્મણ હોવાથી તેમણે યજમાન વૃત્તિ સ્વિકારી દાન ગ્રહણ કરવાની ના પાડી તેથી દેવોએ તેઓને આ પૃથ્વી પર વિશ્વકર્મા સ્વરૂપે પ્રવૃત્તિ કરાવી.
૨ મહા પાત્ર-મહારાણુ પૂર્વ ભારતના ઓરીસ્સામાં વસે છે તેઓ શિલ્પના સુંદર મંદિરે શાસ્ત્રવિધિ પ્રમાણે બાંધે છે. તેઓ પાસે શિ૯૫ગ્ર થે હસ્તલિખિત હોય છે. પુરી અને ભુવનેશ્વર તથા કેનાના મંદિરો તેઓના વડીલના બાંધેલા છે. વિશ્વકર્મા મહારાણા અને મહાપાત્રની બે પદવીઓ ત્યાંના શિલ્પીઓ વિશેષ ધારણ કરે છે. પુરીમાં તેઓના ૩૦ કુટુંબે વસે છે. યોજપુરમાં બે કુટુંબ અને ભુવનેશ્વરમાં બે કુટુંબ વસે છે.
૩. પંચાનન જાતિના શિપીઓ-કર્ણાકટ, આંધ્ર ને મહારાષ્ટ્રના પ્રદેશમાં વસે છે. વિશ્વકર્મા જાતિના પંચાનન નામની જાતિના શિદ્ર એ પિતાને બ્રાહ્મણ તરીકે ઓળખાવે છે. યજ્ઞોપવિત ધારણ કરે છે, વિશેષ ભાગના માંસાહાર કરતા નથી, થોડો વર્ગ અમુક પ્રદેશમાં રહે છે, ગાયત્રી પૂજાપાઠ કરે છે, સ્ત્રીએ પુનલન કરતી નથી, તેઓ પાસે શિપગ્રંથોનો સંગ્રહ હોય છે. આ પંચાનન શિલ્પીઓ એકજ જ્ઞાતિના છે અને તેઓ (૧) શિકી (૨) સુવર્ણકાર (૩) કંસકાર (૪) કાષ્ટકમ કાર અને (૫) લેહકાર એમ જુદા જુદા પાંચ વ્યવસાયના જુથેની એકજ જ્ઞાતિ છે–એકજ વ્યવસાય ધંધાદારીનું એક ગોત્ર છે તેથી તેઓ પિતાના ધંધાદાર ભાઈમાં સગોત્ર લગ્ન કરી શકે છે, તેઓ બ્રાહ્મણ સિવાય કેઈના હાથનું ભજન લતા નથી.
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શિપીએ મંદિરે બાંધે છે, મૂર્તિઓ બનાવે છે, તેઓ પણ સગોત્રના છે કાષ્ટકાર્યો રથ બનાવે છે, તેને ચાંદી પણ ચડાવે છે. આ પંચાનન શિપીઓમાં રોટી બેટી વ્યવહાર પરસ્પરમાં છે. તેઓને વિસ્તાર પ્રદેશ અધ જીલ્લામાં બીજવાડા, કાકીવાડા, રાજમહેદ્રી, ગુજુર, તેમાલી. પૂર્વ-પશ્ચિમ ગોદાવરી તથા આંધ્રના ૧૧ જીલ્લા કર્નલ. કડપ્પા, ચતુર, અનંતપુર, મછલીપટ્ટમ, બાલાજી (રણુગુંટા) વિજયનગર એટલે ઉત્તરે વાડી જંકશન, દક્ષિણે બાલાજી (રણુગુંટા) પશ્ચિમે કાવેરી મુચકુંદા નદી સુધી અને પૂર્વમાં બંગાળ ઉપસાગર સમુદ્રતટ સુધી છે. આ પંચાનન શિલ્પીઓ મહારાષ્ટ્રના વિસ્તારમાં છે.
- વિશ્વકર્મા પંચાનન શિલ્પીઓમાં વિ. સં. ૧૨૩૫ ના સમયમાં મામેશ્વર ગંગાધર કરીને સુપ્રસિદ્ધ વિદ્વાન લેહકમના જ્ઞાતા- ગુલબર્ગ જીલલામાં ગેનાલ ગામમાં થઈ ગયેલા. તેઓ અવતારી પુરુષ ગણતા-વર્તમાન કાળમાં આ વર્ગના પણ ધારવાડ જીલ્લામાં દેવગિરિમાં અને ગુડી સંસ્થાનમાં પણ એવા ગૃહસ્થી છતાં આશ્રમ જીવન ગાળી રહ્યા છે. મસુરમાં સિદ્ધાલન સ્વામી શિલ્પના જ્ઞાતા હતા. તેમના બે પુત્રોમાંના નાગલિંગસ્વામી મંદિરે ને મૂર્તિઓ બનાવે છે. બીજા મહાદેવ સ્વામી રાજ્યાશ્રયે શિલ્પ વિદ્યાલય હાલ ચલાવે છે. તેઓ પંચાનના શિલ્પી જાતિના છે. તે કુટુંબને મસુર રાજ્યથી શિલ્પ પંડિત તરીકે વર્ષાસન હજુ મળે છે.
આ વિશ્વકર્મા પંચાનન પાંચ શિલ્પીઓના સ્વરૂપ-કમ–દેવ, ગોત્ર, તિલકચિહ્ન અને વેદ નીચેના કેઇકથી જાણવા ૧ વિશ્વકર્માના પંચ મનુ ભય ત્વષ્ટા શિલ્પી દેવજ્ઞ વિશ્વ મુખથી ઉત્પત્તિ પૂર્વ દક્ષિણ પશ્ચિમ ઉત્તરે ઉર્ધ
સઘજા વામદેવ અધાટ તત્યુ૫ ઇશાન ૩ કર્મ લેહકાર કાષ્ઠકાર કંસકાર શિલ્પકાર સુવર્ણકાર મેત્ર
સાનગ સનાતન અહભૂત પ્રત્નસ સુપણું ૫ વેદ
સવેદ યજુર્વેદ સામવેદ અને
અથર્વવેદ સૂક્ષદ ૬ દેવ
રૂદ્ર વિષ્ણુ બ્રહ્મા ઇદ્ર આદિત્ય ૭ તિલકચિહ્ન ત્રિખંડ ઊભું તિલક ચાંદલે ચોરસ
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હુળશાળ રાજ્યકુળ બધાવેલ હેલીબેડ- બેલુર અને સામાનાથપુરમનાં સર્વોત્તમકૃતિનાં મંદિરા ઉપરાંકત કુળના શિલ્પીઓના પૂર્વજોની રચના છે. ઇ. સ. ૧૧૧૭ માં ડંકનાચાય નામે વિદ્વાન શિલ્પી તેમાં હતા. કર્ણાટક મસુર પ્રદેશમાં ગણાય છે અને તેની શિપશૈલી વેઅર કે વિરાટ જાતિની દ્વવિડથી ઉત્તરે થતી.
૪ તેલ'ગણુ પંચાનન વિશ્વકર્મા શિલ્પીએ વઃ— આંધ્ર અને તેલ ગણુ પ્રદેશ મેળવીને હમણાની સરકારે આંધ્ર પ્રદેશની રચના કરી તેમાં તેલંગણુ આવી જાય છે. તૈલ‘ગણુના નવ જીલ્લામાં હૈદરાબાદ, નિઝામાબાદ, નાલગુ’ડા, વર'ગુલ, મહેબુબનગર, કરીમનગર, આદિલાબાદ વગેરે છે. તે તૈલગના પંચાનન વિશ્વકર્મા વના છે. પરંતુ તેઓ ઉપરોકત આંધ્ર, કર્ણાટક કે મહારાષ્ટ્રના પંચાનનથી ભિન્ન જાતિના છે. તેની સાથે ટી બેટી વ્યવઢાર નથી. ત્રણસો થી મુસ્લીમ પ્રદેશોમાં રહેવાથી માંસાહાર કરે છે. છતાં તેઓનુ' પ્રત્વ એવું નથી. ગાયત્રી પૂજાપાઠ કરે છે. યજ્ઞોપવિત ધારણ કરે છે. સ્ત્રીએ પુનઃલગ્ન કરતી નથી. તેઓ બ્રાહ્મણ કે ઈ ઉચ્ચ જાતિના હાથનુ ભાજન લેતા નથી. તેઓમાં મરણુ ખાદ અગ્નિસાર કે ભૂમિદાહની પ્રથા છે. તેલંગણુ શિપીા મંદિરનું નિર્માણ કરે છે. મૂર્તિઓ પશુ બનાવે છે. તેમાં રથ સેના ચાંદીને લુહાર, સુતારનુ અને કસાશના વ્યવસાય કરે છે. તેએના શિલ્પીએ પાસે હસ્ત લિખિત ગ્રંથે ના સગ્રહ પણ હોય છે.
૫. વિરાટ વિશ્વ બ્રાહ્મગુ આચાય શિલ્પીએ દ્રવિડ પ્રદેશનાં મદ્રાસ, મદુરાઇ (છો), દક્ષિણમાં રામેશ્વર, કુંભકેમ, ત્રિવેદ્રમ, કન્ય કુમારી, પશ્ચિમે કેરાલા (મલખાર), પૂર્વે ચિદમ્બર, કાંચી, શ્રીગમ અને ઉત્તરે ખાલાજી સુધીમાં તેઓના જ્ઞાતિના શિલ્પી તાલિમ અને મલયાલાય પ્રદેશેામાં છે. આ દ્રવિડ શિપીએ વિશ્વકર્મા વંશના બ્રાહ્મણ કુળના હેઠવાને દાવે કરે છે. તેમના કેટલાક સિલેાનમાં પશુ વસે છે. કુંભકેણુમ પાસે એક નાના ગામમાં ધાતુમૂર્તિએમાં પ્રવિણ એવા શિલ્પીઓ વસે છે. આ વર્ગના શિલ્પીએ માંસાહાર કરે છે. પજ્ઞોપવિત ધાશ્ કરે છે. સીએ પુન લગ્ન કરતી નથી. વૃદ્ધ સ્ત્રીએ મસ્તક 'ડાવે છે. તેઓ હસ્ત લિખિત ગ્રંથોના સંગ્રહ પડ્યુ હાય છે. તેમાં (૧) અગસ્ત (૨) ૨જગુરુ (૩) સન્મુખ સરસ્વતી. તેએા કા નથી.
પાસે શિલ્પના ત્રણ ગાત્ર છેઃ સગાત્ર દુન
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આ વિરાટ વિશ્વ બ્રાહ્મણુ આચાય શિલ્પીઓમાં મરણ બાદ કુંવાર સ્ત્રી, પુરુષાને નનામીમાં સુવાડીને સ્મશાન લઈ જાય છે, પરિણિતને પાલખીમાં બેસારીને સ્મશાન ભૂમિ લઈ જવાના રિવાજ છે. તેમાં અગ્નિ સંસ્કારની પ્રથા નથી પરંતુ તે ભૂમિદાહ દે છે. આ વિચિત્ર રિવાજ છે,
આ દ્રવિડ શિલ્પીએ પાસે નાયકર, પીજ્ઞેવાલ, કેંન્ટર અને મુદ્દલીયાર લા કારીગર તરીકે કામ કરે છે પરંતુ તે મૂળ શિલ્પી જાતિના નથી.
૬. (૧) વૈશ્ય (૨) મેવાડા (૩) ગુર્જર (૪) પચાળી-આ ચારે અને પચાળ એમ પાંચે જાતિના શિલ્પી વિશ્વકર્માના પુત્રો હેવાના દાવેશ કરે છે. આમાં વૈશિલ્પીએ પેાતાને સથી ઊંચા માને છે. તેએ ખીજા કાર્યનુ બ્રાહ્મણ સિવાયનું-જમતા નથી. વૈશ્ય, મેવાડા, ગુર્જર અને પંચાળી આ ચારે વગ કાષ્ટ કાર્ય કરે છે, પંચાળ લેાહુકમ કરે છે. વૈશ્ય અને મેવાડા દેવાંશી કામ એટલે મંદિરના રથ,- પાલખી, ભંડાર આદિ વિશેષ કરે છે. તેએ! ચાંદીનું કામ પશુ કરે છે. વૈશ્ય ઊંચા છે. બાકીના ઉતરાત્તર છે. ગુર્જર સિવાય બધા યજ્ઞોપવિત ધારણ કરે છે. જોકે હવે ગુજરા પણુ જનોઈ પહેરે છે. સ્ત્રીઓ ભાગ્યે જ પુનલગ્ન કરે છે,
ગુજર અને પંચાળી ગામડામાં ખેતીના ઓજારેનું કામ કરતા. હવે તેઓ શહેરમાં મકાનેાનું, ર્નિચરનું વગેરે કામ સુંદર મનાવે છે. આ પાંચેમાં કાઇને રાટી બેટી વ્યવહાર નથી જેકે વશ્યનું ખીજાએ જમે છે. કાજીકા કરનારાઓ ઇલેરગઢ યાત્રાએ જાય છે ત્યા વિશ્વકર્માનું મંદિર હાવાનું માને છે. પર ંતુ ખરી રીતે તે તે બૌધ મૂર્તિ વિશાળ છે પણુ શ્રદ્ધાથી ત્યાં યાત્રા કરે છે.
પંચાળ શિલ્પીઓàાડુ કન કરે છે. વમાનમાં તે એ જીને અને મશીનરીનું ઢાળવા વગેરેનું વૈજ્ઞાનિક રીતે અજમ કામ કરે છે. આ પચાળ ભાઇઓ ગામડાઓમાં ખેતીના આારા કરી આપે છે. શહેરામાં ફીર્ટીંગ સામાન-વગેરેનું કામ કરે છે. તેએમાંના ચાંઢીના દાગીનાએ પણુ અનાવે છે અને વેપારી પશુ છે. પંચાળભાઇએમાં જ્ઞાતિ જાગૃતિ ઘણી છે તેથી તેએમાં કેટલાક સુખી કુટુંબે પણ છે.
પચાળ શિલ્પીએ-આંધ્ર કર્ણાટકના પંચાનન શિલ્પીઓના માર્ક વિશ્વકર્મોથી પેાતાની ઉત્પત્તિ માને છે અને પંચાનના પ્રમાણે કમ, ગાત્ર, વેદ, દેવ વગેરેને પ્રામાણિક રીતે માને છે.
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૭ ગૌડ બ્રાહ્મણ શિલ્પીએ-રાજસ્થાનના ઉત્તર ભાગમાં જયપુર, અલવર વગેરે આસપાસ અને ગામડામાં વસે છે. જયપુરમાં વિશેષ કરીને તેએ મૂર્તિઓ બનાવવાના વ્યવસાય કરે છે. એકે તેઓ મદિરાનુ નિર્માણુ પશુ કરી શકે છે તેઓ પાસે શિલ્પના ગ્રંથા છે, બ્રાહ્મણ તરીકે વ્યવહાર રાખે છે, યજ્ઞાપવિત વિધિથી ધારણ કરે છે, પર’તુ શાકાહારી છે. આમાંના કેટલાક ગામડામાં વસનારા ખેતીનું પણ કામ કરે છે. પુનર્લગ્નની પ્રથા મહુ અપ છે. આ વર્ગ ફકત પાષાણુકમ જ શિલ્પી તરીકે કરે છે. બહુ થા ધાતુમૂર્તિ ને ચિત્રકારીનું પણ કામ કરે છે.
૯. જાગડ જાતિના શિલ્પી વ–મધ્યપ્રદેશ અને ઉત્તર પ્રદેશમાં વિશેષ કરીને તેઓ આંગીરસના અપભ્ર'શ જાગડ કહેવાતા હાય તેમ ફેટલાકની માન્યતા છે. તે લેાહુકમ વિશેષ કરીને કરે છે ગુજરાતના પાંચાળ ભાઈઓની જેમ તેએ મશીનરી વગેરે મનાવે છે. અન્ય સ્થળે કાષ્ટકમ પણ કરે છે. ચિત્રકારીનું પણ કામ કેટલાક કરે છે, ગામડ માંના ખેતીનુ કામ પણ કરે છે, કેટલાક સાદું' પાષાણુ કામ પણ કરે છે, તેએ વિશ્વકર્માને પાતાના ઈષ્ટદેવ માને છે, ાપાલમાં તે જ્ઞાતિના વિદ્વાન વિશ્વકર્મા નામનું માસિક કાઢે છે, તેએ દિલ્હી સુધી પશુ વસતા ય તેમ લાગે છે.
કચ્છ, સૌરાષ્ટ્રમાં ભારિયા કડીયા પથ્થર અને ચણુતરનું કામ કરે છે. સૌરાષ્ટ્રમાં પ્રભાસ, માંગરોળ, પોરબંદર, ઊના વગેરે તે પથકમાં સલાડ નામે એળખાતી જ્ઞાતિ છે. તેઓ પેાતાને સામપુરાની જ્ઞાતિના કહે છે પર તુ ત માંસ દારૂના ઉપયાગ કરે છે. તે સેામપુરા જ્ઞાતિના અરધી ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્રમાં, કચ્છમાં વૈશ્ય, મેવાડા, ગુજર અને પંચાળી, સુતારા સિવાય સઇ સુનારના નામે એળખાતા વગ છે. તેમાંના કેટલાક દરજીનુ કામ કરે છે અને અમુક કાષ્ટકમ સુતારી કામ કરે છે.
પશ્ચિમ ભારતના ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્ર, રાજસ્થાન, મેવાડના સેામપુરા શિલ્પીઓ અને ગૌડ બ્રાહ્મણ રાજસ્થાનના ઉત્તરે જયપુર અલવરવાળા શિલ્પીએ ઘ્ર હ્મણકુળના શિલ્પી છે. હજી તેઓમાં પ્રમત્ન કાંઇક અંશે રહ્યું છે. પાંચાનન શિલ્પીએ વૈશ્યકુળના અને એરિસ્સાના મહામાત્ર મહારાણા ક્ષત્રિયકુળના શિલ્પી હોય તેમ અનુમાન ૭ દ્રવિડના શિલ્પીએ કયા વના છે તે જોવાનું છે. ખ'ગાળ, બિહાર, ઉત્તરપ્રદેશ, મધ્યપ્રદેશ, પ'જામ, સરહદપ્રાંત અને હિમાલયપ્રદેશના શિલ્પીકુળાનું શેાધન કરવાની આવશ્યતા છે.
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ભારતના કેટલાક પ્રાંતમાં ધમધ રાજબળની વટાળ પ્રવૃત્તિથી ધમપરિવર્તનના કારણે કુળપરંપરાનો વ્યવસાયવાળે શિલ્પી વર્ગ નષ્ટ થયે. એવા લેકે શિપના આજીવિકાના અભાવે અન્ય વ્યવસાયમાં પડી ગયેલા છે. કેટલાક હજુ મુસલમાન સલાટ તરીકે જીવે છે. તેઓ મૂળ ભારતીય શિકપીઓ છે.
કરછ પ્રદેશમાં સેમરા શિલ્પીઓને “ગઈધર” કહે છે તે ગજબનું અપભ્રંશ છે. સૌરાષ્ટ્ર, ગુજરાત આદિ પશ્ચિમ ભારતના જૂના લેખો શિલ્પશાસ્ત્રને સૂત્રધારથી ઓળખવેલ છે. સૂત્રધારનો અપભ્રંશ “ઠાટ” શબ્દથી શિભીિઓ પરસ્પર સંબધના. અંગ્રેજી રાજ્ય શાસનમાં કારીગરોના સમુહના ઉપરીને મીસરી શબ્દથી સંબોધે છે. તે શિલ્પીઓ માટે એગ્ય સાધન નથી. “શિલાવટનું અપષશ સલાટ જેને ઉત્તર ભારતમાં શિલાટ કહે છે.
દ્રવિડ-મય સ્થપતિની એક શાખા અમેરિકાના મેકસીકોના પ્રદેશમાં જઈ વસેલ. હાલ પણ તેઓ માયા નામથી પૃથક જાતિ તરીકે ઓળખાય છે. તેના રીતરિવાજો-ધર્મ જુદા છે. તેઓ અમેરિકામાં ઈજનેરી કળામાં કુશળમાં કુશળ આ જાતિ ગણાય છે. મયશાસ્ત્રના ત્રીજા અધ્યાયમાં શિલ્પીની મહત્તા ઘણી કહી છે -
शिल्पिमाता शिलापुत्रो दासत्व सब पूजका । मातामह पिता शिल्पि पुत्रांश्च सर्व देवताः ॥६॥ शिरिषपूजा शिलापूजा शिस्पिदुखे न दुखित । शिल्पिनो कलित देव शिल्यि ब्रह्ममय जगत् ।।७।। धेनुर्गजतुरङ्गाश्च ग्रामक्षेत्राणि छत्रयुत् । शिल्पिनो मनः संतुष्टं देव संतुष्टरेव च ॥८॥
शिल्पि नमस्कया पूर्व पक्षात ब्राह्मणो राजा ॥ પ્રતિમાના શિલા પુત્ર રૂપ શિલ્પીરૂપ માતાથી જન્મ ધારણ કરે છે. અને તેના પૂજનાર દાસ છે. સર્વ દેવ પુત્રરૂપ છે. અને શિલ્પી મ તા. અને પિતા રૂપ છે. શિલાવું અને શિપીનું પૂજન કરવું. શિલ્પીના દુખે દુઃખી થવું. શિલ્પીને દેવરૂપ કઃપવા. શિપી એ બ્રામય જગતમાં છે. તેને બાયો, હાથી, ઘેાડી, ગામ, ખેતર, છત્ર, ચામર આદિ ભેટ કરવા. શિલ્પીનું મને સંતુષ્ટ કરવાથી દેવ સંતુષ્ટ થાય છે. પ્રતિમા પછી સર્વ પ્રથમ શિલ્પીને નમસ્કાર કરી પછી બ્રાહ્મણ આશા ન ર જાને નમસ્કાર કરવા.
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આપણું મહર્ષિઓએ નીતિશાસ્ત્રના નિયમે નક્કી કરી વિરૂદ્ધ વર્તનારને : પાતક લાગવાનું કહી સમાજને સચેત કરેલ છે અને રાજાઓને પણ આજ્ઞા કરી છે કે તેવા મનુષ્યોને શિક્ષા કરવી પાતકનું ફળ તેને ભોગવવાનું રહે છે. એ રીતે સ્થાપત્યના નિયમ વિરૂદ્ધ થયેલ બાધકામથી શિલ્પી અને ગ્રેડસ્વામી યજમાનને તેના દોષનું ફળ ભેગવવાનું કહેલ છે. વર્તમાન કાળમાં આવા વેધને વહેમ ગણું માનવાને તાત્કાલિક બુદ્ધિએ તૈયાર નથી હોતા, પરંતુ તેઓ ભૂલી જાય છે કે મહર્ષિઓએ રચેલા શાસ્ત્રોના નિયમે ઘણા ગહન અને ઊંડા વિચારને અને ઘડેલા છે. અને શાસ્ત્રીય નિયમે ખરેખર વ્યવહારૂ અને કેટલાક અગમ્ય છે તે જે વિજ્ઞાનની દૃષ્ટિએ બારીકાઈથી તપાસી ઘટાવવામાં આવે તો તેનું મહત્વ જણાયા વગર ન રહે. પાશ્ચ ત્ય કેળવણી પામેલા ઉપરછલી દ્રષ્ટિએ આવી વાતને હમ્બગ માને છે તે ખોટું છે.
દ્વાર સામે થાંભલે આવે કે દ્વાર સામે ખૂણે પડતું હોય તે તે દષ્ટિને જ બરાબર નથી લાગતું. દ્વાર સામે કાર કે બારી કે જાળી હેવા જોઈએ. તેમ ન હોય તે વેધ કહેલ છે. પરંતુ આરોગ્યની દૃષ્ટિએ તે જરૂરી છે. તેમ હોય તે હવાનો સંચાર થાય. શાસ્ત્રમાં કહેલા માન પ્રમાણથી ઓછું હોય તે તે કામ નબળું થાય છે, અધિક હોય તે વજન વધીને ભારરૂપ થાય; પ્રમાણથી પાયે છે હેય, ચણતરમાં સાંધચ ળે ન હોય, નીચે કરતાં ઉપર જાડું હેય, છંદભંગ કે થરભંગ હેય કે સમસૂત્ર (લેવલમાં) ન હોય, દ્વાર સામે પાણીને સતત પ્રવાહ વહેતે હોય, દ્વાર સામે માર્ગ પડતે હોય, એક કરે છે ઘર હોય, ઘરના કે પશ્ચિમે નજીક કૂવો હોય, જે ઘર જોતાં જ ભયાનક લાગતું હોય, ઘરના ઓરડાએ ની ભૂમિતળ ઊંચા વુિં હોય, દ્વાર સામે પાટડે આવતું હોય, ઘરની નીચેની ભૂમિથી વિપરીત તેની ઉપરની ભૂમિના દ્વાર, સ્તંભ, પાટ કે ભીંત આઘા પડછા મૂકેલા હોય વગેરે અનેક દે કહ્યા છે.
ગૃહના પ્રાસાદના પ્રતિમાના નગર કે રાજગૃહમાં એમ અનેક વેધ દોષ કહ્યા છે. વાસ્તુશાસ્ત્રમાં મકાન કે મંદિરમાં અમુક માપ કે વીને તેના પરથી તેનાં આય, નક્ષત્ર, ચંદ્ર, ગણ, રાશી આદિ મેળવવાનું કહ્યું છે તે ખગોળ તિષની દષ્ટિએ સરખાવીશું તો તેનું રહસ્ય વૈજ્ઞાનિક રીતે બરાબર
ગ્ય સમજાશે. ઘર કે મંદિરની ભૂમિ નીચે શલ્ય ( હાંડકા ) હોય તે તે દેષ છે તેથી ભૂમિ શુદ્ધિ કરવી જરૂરી છે. આ વસ્તુ જે વૈજ્ઞાનિક રીતે
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જાડેથી વિચારવામાં આવે તો તે સત્ય છે અમુક અમુક સ્થાન પર ઘર ન કરવું તે જે વિચારવામાં આવે તે સત્ય જણાયા વગર ન રહે શાસ્ત્રકારોએ વિવિધ વેધદેષ ઉપર પાપ અને મૃત્યુનો ભય બતાવેલ છે, તેવા અશાની શિપીને નકને અધિકારી કહ્યો છે, જ્યારે સ્વામી નિધન થવાને ભય બતાવેલ છે. એ રીતે સમાજને સજાગ કરેલ છે તે ગ્યજ છે. બાંધકામના કેઈ પણ નિયમથી વિરૂદ્ધ કરવાનું ફળ વેધદેષનું ફળ ગૃહસ્વામી અને તેના કુટુંબને ભેગવવું પડે છે. આથી જ્ઞાની સમજદાર શિલ્પીને કાર્ય સોંપવું.
ભૃગુ સંહિતામાં શિલ્પના વાસ્તુ દ્રવ્યમાં પાષાણુ, ઈંટ, ચુનો, લાકડું, માટી, અષ્ટલેહ (મિશ્રધાતુ), મુખ્યત્વે કહી છેવર્તમાન વૈજ્ઞાનિક કાળમાં બાંધકામના દ્રવ્યમાં અનેક રીતે સંશોધ થઈ રહ્યા છે. તેમાં જુદી જુદી જાતના વાસ્તુ દ્રવ્ય બનાવે છે. પરંતુ કેટલાક સ્થાને હવામાનને પ્રતિકૂળ દ્રવ્ય આરે ગ્યની દૃષ્ટિએ નુકશાન કારક થઈ પડે તેથી તેવાનો શાસ્ત્રકારોએ નિષેધ કરેલ છે. વર્તમાનકાળના વિજ્ઞાનના વિકસિત સંશોધનના સામે (ધર્મ વિરૂદ્ધ હેાય તે સિવાય ) આપણે કશું ન કહી શકીએ.
એક વસ્તુ મારે દુઃખ સાથે જણાવવી પડે છે કે વર્તમાનકાળમાં પ્રગતિના નામે ભારતીય કળાનો નાશ થઈ રહ્યો છે. તે આપણા દેશના કેટલાક પાશ્ચાત્ય કેળવણીકારે તે નાશના કારણભૂત છે. ભારતની કળાકૃતિ કરતાં પશ્ચિમનું સારું છે તેવું તેઓ મનાવે છે. આપણા દેટલે દાળ કરતાં પાંઉ બ્રેડ સારાં છે, આપણા સસ્તા કડુ કરીયાતાની ઔષધિ કરતાં પશ્ચિમી ઢબના ઔષધિના બાટલા સારા છે, ભારતની સંસ્કારી પતિવ્રતા આર્યનારી કરતાં પશ્ચિમની લજજા મર્યાદા વગરની નારી શ્રેષ્ઠ છે. આવી અધોગતિની માન્યતાવાળા ભારતના પશ્ચિમી પક્ષપાતીઓની વિકૃત દષ્ટિમાં તેઓને દેશના કળા કે સાદાઈના ગુણે પ્રત્યે અભાવ છે.
ભારતમાં વર્તમાનમાં હમણાં શિલ્પ, સ્થાપત્ય અને ચિત્ર એ ત્રણે કળામાં એવી વિકૃતિ પડી છે કે ભારતી કળાને નાશ કરશે કે શું ? (૧) સ્થાપત્યમાં પશ્ચિમનું અનુકરણ કરી પશ્ચિમના માળા જેવા ઢંગધડા વગરના વિકૃત અને કળા વિહિન ભવને ઉભાં થઈ રહ્યા છે. (૨) સુંદર મૂર્તિઓનું સર્જન આંખને આનંદ આપતું તેના સ્થાને એક સુકા લાકડાનું કુડુ કે જેને કોઈ હાથ પગ માં માથું નથી તેવા શિલ્પની પ્રશંસા થઈ રહી છે. (૩) ચિત્રો સુંદર થતાં જે પ્રેક્ષકોને આનંદથી સભર કરી દેતા તેના સ્થાને .
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કોઈ સમજ ન પડે તેવા બાળકોએ કરેલા રંગના લપેડા કે ગુણપાટ કોથળા પર રંગના ઢંગધડા વગરના પીછામાં કપના સજીને તેના ગુણગાન ગવાય છે. પ્રેક્ષકને સમજાવવું પડે છે કે આ શું છે? આવા આવા વિકૃત ચિત્ર કરી જગતને મૂર્ખ બનાવે. યુરોપને આ એક ચિત્રકાર પિકાસાં કે જે લાખે પાઉંડ આવા વિકૃત ચિત્રોમાં કમાયે છે તે પિતેજ કહે છે કે મને પણ કાંઈ સમજ નથી પડતી તેવા આડા અવળા રંગના પીછાએ પ્રદર્શનમાં સુવર્ણચંદ્રક અપાવ્યા છે. દુનિયા મૂખે છે, તે બીજાને મૂર્ખ બનાવી રહ્ય નો ખુલે એકરાર કહે છે. આવું જ એક મહિલા ચિત્રકાર કહે છે કે મારા પાળેલા વાંદરાએ કરેલા આડા ઉભા પીછાએ જગતમાં સુવર્ણ ચંદ્રક અપાવ્યો. એજ મહિલાએ જગતને ઉલ્લુ બનાવતું નિવેદન કર્યું.
મોડર્ન આર્ટના નામે ભારતીય કળાને નાશ થઈ રહ્યો છે. આ કાંઈ કળાને વિકાસ નથી પણ ભારતીય કળાની હાંસી થઈ રહી છે.
વર્તમાન કાળમાં શિલ્પ સ્થાપત્ય કળાને પ્રોત્સાહન આપનાર વર્ગ, ધર્માધ્યક્ષ, ધનાઢ્ય અને રાજાઓ હવે રહ્યા નથી તેથી કળાને પ્રોત્સાહન મળતું નથી તેમજ આ વિદ્યાના ગ્રંથોના સંશોધન પણ હવે થતાં નથી. આથી વર્તમાન કાળની સરકારે આ કળાને સર્વ રીતે વિકસાવવી જોઈએ. વર્તમાન સરકાર તે નૃત્ય, ગીત, નાટકટક અને ફેક ચિત્ર જેવી અસ્થાયી કળાને પ્રોત્સાહન આપી રહી છે. જ્યારે સ્થાયી શિલ્પ સ્થાપત્ય કળાની ઉપેક્ષા થઈ રહી છે. સરકારની ઉદાસીનતા છે.
સ્થાપત્યાધિકારી- વાસ્તુશાસ્ત્રમાં યજમાને શિપીના ગુણદોષ તપાસીને શ્રેષ્ઠ શિલ્પીને સકારીને કાર્યધુરા સંપવી. શાસ્ત્રકારોએ બાંધકામના અધિકારી પ્રમાણેમાં ચાર વર્ગ પાડેલ છે. (૧) સ્થપતિ-પ્રમુખ, ચીફ એ જીનીયર (૨) સૂવગ્રાહી રેખા ચિત્ર દોરનારો, શિલ્પીઓની ભાષામાં “સૂત્ર છોડે ” આચિટેકટ (૩) તક્ષક-સૂત્ર પ્રમાણને જાણનાર-પાષાણુ કાર્યમાં નકશી રૂપ કરનારે – (૪) વર્ધકી--બે પ્રકારના કહ્યા છે. એકતે કાષ્ઠ કર્મ કરનાર, અને બીજા માટી કાર્યમાં નિપુણ (મેડલીસ્ટ).
પ્રાસાદ શિલ્પની રચના ભારતના પ્રત્યેક પ્રાંતમાં કંઈક ભિન્ન ભિન્ન કહી છે. તેમાં મુખ્ય તે ઉત્તર ભારતની જુદી જુદી જાતે છેપરતું તે વિશેષ ભાગે નાગરાદિ જાતિની રચના છે. દક્ષિણ તરફની દ્રવિડ જાતિ અને ઉત્તર દક્ષિણ વરચેની વેસર (થા વિરાટ ૧) જાતિના પ્રાસાદે છે. શાસ્ત્રીએ
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પ્રત્યેક પ્રાંતના ભિન્ન ભિન્ન તરીકે (૧) નાગર (૨) દ્વવિડ (૩) ભૂમિજ (૪) લતિન (૫) વિનાન (૬) મિશ્રક (૭) પુષ્પક (૮) સાવધારા અ મુખ્ય જાતિ કહી છે. ઉપરાંત જી પણ છ જાતિ કહી છે.
ઉત્તર ભારત કરતાં દ્રવિડના પ્રાસાદની ભવ્ય અને વિશાળ વિસ્તારની રચના હેાય છે. ઉત્તર ભારતમાં વિશેષ કરીને વિધર્મીઓની ધર્માંધતાના કારણે પ્રાસાદની રચના સકુચિત થઈ હોય.
ભારતની પૂર્વ-સમુદ્રપાર હિન્દી ચીન, અનામ ( ચ'પા ), કેએડીયા, સીયામ, થાઇલે'ડ, જાવા, સુમાત્રાના ટાપુમાં ભારતીય સાહસિક પ્રજા દોઢ બે હજાર વર્ષથી વસીને ત્યાં ઘણાં જ ભવ્ય પ્રાસાદેની રચનાએ આશ્ચય મુગ્ધ કરે તેવી છે. તે ભારતનાજ શિલ્પીએની કૃતિ છે.
ભિન્ન ભિન્ન કાળમાં જુદા જુદા પ્રાંતામાં સુપ્રસિદ્ધ સ્થપતિએ થઇ ગયા તેના ક્રમવાર ઉલ્લેખા મળવા દુલ ભ છે. જે કાઇ જાણુમાં આવેલ તેની અહીં સક્ષિસ નાંધ આપેલ છે. સેમપુરા શિલ્પીએ પશ્ચિમ ભારતમાં મુખ્યત્વે પાષાણુનું કાય કરે છે, તે ઉપરાંત ધાતુકામમાં પણ તેઓ પ્રવિણુ હતા. તે પ્રાચીન પુરાવાઓ પરથી જાણી શકાય છે.
ગુપ્ત કાળમાં પાંચમી સદીના મર્મંડપના શાધર નામના શિલ્પી અને વિ. સ, ૭૪૪ માં ગુજરાતના શિલ્પી શિવનાગની બનાવેલ સુંદર ધાતુની મૂર્તિઓ મળે છે. બંગાળમાં પાલ રાજ્યકાળમાં નવમી સદીમાં ધાતુ કામના કુશળ કળાકાર ધીમન અને દીતપાલ હતા. તેના નમૂના નાલંદામાંથી મળેલ છે. વિ. સં. ૧૫૬૬ માં અચળગઢ આબુની ચતુર્મુખ મૂર્તિએ શિલ્પીવાચ્છાના પુત્ર દેવાના પુત્ર અખુદના પુત્ર હરદાસે ખનાવેલ. ત્યાંની ૧૫૧૮ ની ધાતુ મૂર્તિ ડુંગરપુર નિવાસી સમપુરા શિલ્પી લુભા અને લાંપાએ ભરેલ છે. જોધપુરના કિલ્લાની તાપા સામપુરા શિલ્પીએ સેાળમી સદીમાં ભર્યાના તેના પર હજી લેખા છે.
સાંચી સ્તૂપના દક્ષિણના કળામય દરવાજે ઇ. સ. પૂર્વની પહેલી સદીમાં પુતાના ખર્ચે બાંધનાર આંધ્રના શ્રી સાતપર્ણી રાજાના મુખ્ય સ્થપતિ આના મદા હતા. સારનાથ નામે શિલાલેખને શિલ્પી વામન હતા. અર્જુનવર્માની દ્વારા પ્રશસ્તિના ઉકિણુંક ઉત્તમ રૂપકાર સિંહાકના પુત્ર શિલ્પી રામદેવ હતા.
વિ. સ. ૯૯૯ પછી મુળરાજ સાલકીના સ્થપતિ સામપુરા ગ‘ગાધરે રૂદ્રમહુ-લની રચના કરેલી. તે કાર્ય તેના પરિવારના પૌત્ર પ્રાણધરે સિદ્ધરાજના
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કાળમાં પૂર્ણ કરેલ. વિ. સં. ૧૦૨૭ ના કાળમાં વિમળ મંત્રીના આબુના સુપ્રસિદ્ધ પ્રાસાદેના નિર્માતા ગણધર નામે સ્થપતિ હતા. ડભેદના હીરાભાગેળના સ્થપતિ હીરા ઘર સોમપુરા હતા. તેની લોક વાર્તાઓ ગવાય છે. વિ. સં. ૧૨૮૫ ના કાળમાં વસ્તુપાળ તેજપાળના આબુના અદભૂત મંદિરના સ્થપતિ શનિદેવ વિશ્વકર્માના અવતાર રૂપ હતા. અગ્યારમી સદીમાં પ્રમાણ મંજરી નામે કાષ્ટ શિલ્પગ્રંથના કર્તા નકુલના પુત્ર મલદેવ હતા.
વિ. સં. ૧૪૫ મા અરસાના રાજસ્થાનના રાણકપુરના સુપ્રસિદ્ધ ચતુર્મુખ જૈન મહાપ્રાસાદની ધરણી વિહાર રચના દેપાક નામને સોમપુરા શિલ્પીએ કરેલ તેની લોક કથા ગવાય છે.
વિ. સં. ૧૧૭૩ માં દક્ષિણના કર્ણાકટના બેલુરના સુપ્રસિદ્ધ મંદિરના નિર્માતા પંચાનન શિલ્પી ડંકનાચાર્ય હતા. પંદરમી સદીમાં મેવાડના કુંભારાણાના રાજ્ય કાળમાં કેટલાક સ્થાપત્યની રચના ભારદ્વાજ ગોત્રના સુપ્રસિદ્ધ સ્થપતિ મંડન સેમપુરા હતા. તેના ત્રણ પેઢીના પુત્ર પૌત્રોએ રાજ્યાશ્રયે કામે બાંધેલા અને તે પરિવાર શિલ્પના ગ્રંથની રચના પણ કરેલી છે સૂ. મંડન વિશ્વકર્મા સ્વરૂપે હતા. સત્તરમી સદીમાં મેવાડના કાંકરાલી રાયનગર પાસેના રાયસાગરને હજાર ફુટ લાંબે કાંઠે અને નવચેકીનું કાર્ય સેમપુર શિલ્પી એ બાંધેલ તેને મેવાડના રાણાએ ગામ ગરાસ અને સત્તર હજાર કચ બક્ષિસમાં આપી સન્માન કર્યાને લેબ છે.
વિ સં. ૧૮૯૦ માં પાલીતાણાના જૈનેના પવિત્ર શત્રુંજય પહાડની બે ભિન્ન ટેકરીઓ હતી. શેઠ મોતીશાહને મંદિર માટે જોઇતી જમીન મેળવવા આ બે ટેકરી વચ્ચેને ગાળો પૂરી વિશાળ સૂકે બાંધનાર એ
જનાને સ્થપતિ શ્રી રામજી સાધારામ કુશળ સૂત્રધાર વિશ્વકર્મા સ્વરૂપ થઈ ગયા. અમૂલ્ય કળાને વારસો મૂકનાર શિલ્પીઓના નામે મળતા નથી. એવા નિસ્પૃહ અશાતા સ્થપતિએન અમારા શત રાઃ વંદન છે.
આ ગ્રંથ દીપાર્ણવ ગ્રંથની પૂર્તિરૂપે સંગ્રહ કરેલ છે. જુદા જુદા ગ્રંથમાં કહેલા વેધ દેષ સંગ્રહેલ છે. તેમાં વિશેષ કરીને જ્ઞાનસાર અપરાજીત, નિર્દોષ વાસ્તુ, ગૃહપ્રકરણ, વિશ્વકમાં પ્રકાશ (ના તેરમા અધ્યાયને ૧૧૨ શ્લોક છે)ને વિશેષ આધાર લેવામાં આવેલ છે. અહીં અનેક વેધને બહુ સુંદર રીતે સમજાવેલ છે. ભૂમિ કેવી પસંદ કરવી, ભૂમિ પરીક્ષા, સ્થળની પસંદગી, કેવી ભૂમિમાં ઘર ન કર, ત્યાજ , ભૂમિમાંથી
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શક્યહાડકાનું સાધન, તલવેધ, તાલવેધ, તુલાવેધ, સ્વરવેધ, કાણુવેધ, કૃપવેધ, છાયાવેધ, વૃક્ષવેધ આદિ ધરામાં અનેક વેદે કહેલ છે. વિશ્વકમ પ્રકાશમાં કહેલા ૧૬ અસ્થિત વેધ અને દશ મહિસ્થિત વેધ, ગૃહાભૂત, અકસ્માત-વૃક્ષાભૂત વેધ, વાસ્તુમમ વગેરે ચાર પ્રકારના વાસ્તુ દ્રષ્યના ગુણુદેષ કહ્યા છે.
પ્રાસાદના વધામાં માનહીન, અધિકવેધ, છંદભેદ, શ્રેણીસંગ, જાતિભેદ, વિષમસ્તુભ, ભિન્નદોષ, ધ્વજહીન વગેરે તથા લિંગ અને પ્રતિમાના અનેક દોષ, દ્રશ્યદોષ, પ્રતિમાના ચેષ્ટા વેધ ખંડિત પ્રતિમાના નિણું ય, જીર્ણોદ્ધાર વિધિ, તેના ગુણદોષો. વાસ્તુના ક્રૂરતા દેવાના કયા સ્થાનમાં દ્વાર સ્થાપનના ગુણદોષ, પ્રાસાદના દેવતાન્યાસ, શવિજ્ઞાન અને તેના સથેોધન અને અને તેના મત્ર.
ગૃહંપ્રાસાદના પ્રારંભના શુભ મુહૂત, વૃષચક્ર, દ્વારચક્ર, સ્તંભચક્ર, માભપાચક્ર, ઘંટા આમલસારાચક્ર, વાસ્તુ પુરુષાત્પત્તિ અને તેમાં અંગપરના દેવ દેવીઓના સ્થાપન, વજ્રલેપના બે પ્રકાર, પૂજાવિધિ, ગણપતિ વાસ્તુ દિગ્પાલ, પૂજામત્રો,પૂજાકૂબ્યોની યાદી, ગજપૂજન અને સૂત્રધાર પૂજનવિધિ આદિ.
આ સર્વાં વિષયે ને સ‘ગ્રહિત ગ્રંથ દીપાણુંવ ગ્રંથની પૂર્તિ રૂપે આપેલ છે. પૂર્વાચાર્યોએ જે કહેલું છે તેજ મૈં વ્યસ્થિત રીતે આપવા પ્રયાસ કર્યો છે.
જ્ઞાનસાર અપરાજિતના ૧૬ સાળ આધ્યાયમાંના નિર્દોષ વાસ્તુ પહેલું પ્રકરણુ છે. તે વૈક્ષ અને અપરાજિતના સવાદ રૂપે છે. વિશ્વકર્મા પ્રકાશના તેરમા અધ્યાયની અક્ષરશઃ આવૃત્તિ “પ્રયાગ મ`જરી” નામે સક્ષિપ્ત ગ્રંથ પેાતાના નામે ઉત્તર ભારતના કાઈ પડિંત ચડાવ્યે છે.
આ ગ્રંથમાં આખા પાનાના ખારેક આલેખન, ડ્રોઈંગ અને બીજા અા નાના પાંચેક આલેખને છે.
આ ગ્રંથમાં અન્ય ગધાના પ્રમાણેા લેવામાં આવ્યા છે. તેની જીદ્દી નોંધ ૩૫ પ્રથાની આપવામાં આવી છે.
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સૂત્રસતાન,
પ્રાસાદમ’જરી,
અપરાજિત્તસૂત્ર, - પ્રાસાદમ’ડન,
જયગ્રંથ,
દીયાણું વ, ક્ષીરાઈવ,
વાતુરાજ,
વૃક્ષાણું વ, જ્ઞાનરત્નકાશ, વિશ્વકમ પ્રકાશ, રફેવાસ્તુસાર, ગૃહપ્રકરણમ્,
કલાનિધિ, પરિમાણુમ'જરી, નિર્દોષવાસ્તુ, .
•
૨૩
રૂપમ ડન, દેવતાભૂતિપ્રકરણમ્,
પ્રકીણું કવાસ્તુ,
~ આયતત્વ
અગ્નિપુરાણ, .
મત્સ્યપુરાણુ, .
ગૂડપુરાણ,
મયમતમ,
શિલ્પરમ, વિષણુસહિતા, વૈખાનાસાશમ્, •
ઇશ્વરસહિતા,
પ્રતિષ્ઠામયુખ
બૃહસહિતા
શુક્રનીતિ
વિવેકવિલાસ,
આચારદિનકર,
ज्योतिषे तंत्रशास्त्रे च विवादे शिल्प | अर्थमात्र तु गृहणीयानात्र शब्द विचारयेत् ||
ગર્ગ વાસ્તુ,
ગૌતમીત”ત્ર,
પૃથક પૃથક પ્રાચીન શિલ્પન્ગ્રીયાના આધારે સહિત આ ગ્રંથ છે. આ પ્રથમાં સંસ્કૃત વ્યાકરણ શુદ્ધિ કે મુખ્ય શુદ્ધિની ક્ષતિ જણાય ત્યાં સુજ્ઞ વાચકો હુંસવૃત્તિ ધારણ કરશે એવી માશા રાખુ છુ. શિલ્પના ગ્રંથા વ્યાકરણ દોષ રહિત છે તેવુ' નથી એટલે આ તા શિલ્પીએની ભાષા છે. તે રીતે તેને સ્વીકારવા વિનંતી છે. કવિની છઠ્ઠામાં સરસ્વતી વસે છે, જ્યારે શિલ્પીના કરકમળમાં સરસ્વતી ને કળાદેવી વસેલા છે. એટલે શિલ્પીના સાહિત્ય અને કૃતિ તરફ વિશાળ દૃષ્ટિ રાખતી. એક વિદ્વાને કહ્યું છેઃ
જ્યાતિષ, તત્રશાસ્ર, વિવાદગ્રંથ, આયુર્વેદ અને શિલ્પ થામાં તેની ભાષાના શબ્દોને બહુ વિચાર ન કરતાં તેના ભાવા જ ગ્રહણુ કરવેા.
અગત નોંધ- શિલ્પ સ્થાપત્યને અમારા વશ પરપરાને કૌટુબિક વ્યવસાય છે. ઉત્તરાવસ્થા થતાં પહેલાં મને ઘણા વખતથી હમેશાં એવું રહ્યા કરે કે શિલ્પ થાના લે ભાગ્ય ભાષામાં અનુવાદ તેના મર્મ અને આલેખને સાથે પ્રકાશિત થાય તા પ્રાચીન ભારતીય વિદ્યાકળાને ઉત્તેજન મળે. જોકે ઘસાતી જતી સ્થિતિમાં જો તેવા પ્રયાસ થાય તા કઈક જળવાય તેવા હુ પ્રયાસ કરૂ તે મને આત્મસતષ થશે એવું હું માનું,
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આવા ગ્રંથેામાં દીપા વપ્રાસાદ મ ́જરી હિંદી અનુવાદ, પ્રાસ!# મજરી ગુજરાતી અનુવાદ અને અગ્રેજી અનુવાદ તથા વૈધવાસ્તુ પ્રભાકર તેન હિંદી ગુજરાતી અનુવાદ સાથે પ્રકાશિત થઇ રહ્યો છે તેથી મને આનંદ થાય છે. આ ઉપરાંત ક્ષીરાઝુંવ, વૃક્ષાણુવ અને બેડીયા પ્રાસાદ તિલકના અનુવાદ
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તૈયાર છે પણ પ્રકાશિત થાય તેમ ઈચ્છું છું પરંતુ હું અંગત રીતે આટલું બધું કાર્ય કઈ રીતે પ્રકાશિત કરી શકું? આર્થિક મુશ્કેલી છે. પ્રયાસ છે કે આ ત્રણ મથો પણ પ્રકાશિત થાય.
આવા કાર્યમાં ક્ષતિઓ જાણે અજાણે થતી હોય એ સ્વાભાવિક છે. મારા વ્યવસાયના અંગે મારે પ્રવાસ રહેતું હોવાથી પ્રફ રીડીંગમાં ક્ષતિઓ રહી જવા પામી હોય ત્યાં સુજ્ઞ વિદ્વાને હંસવૃત્તિ ધારણ કરશે એવી આશા રાખું છું. - ગ્રંથના મૂળ લેકને આધાર રાખીને અનુવાદ કરવાને પ્રયાસ કરેલ છે. કેટલીક વખત જુદે અર્થ કરી મતભેદ ઉભો થાય. કેટલીક વખત શાસ્ત્ર પ્રમાણ અને પ્રત્યક્ષ પ્રમાણની ભિન્નતાના કારણે આવા મતભેદો તીવ્ર બને છે. કેટલીક વખત અમુક પ્રાદેશિક શિલ્પીઓની કાર્ય પદ્ધતિ પરથી પણ મતભેદ ઉભું થાય છે. પરંતુ સુજ્ઞ વિદ્વાનોએ દુરાગ્રહ સેવો ન જોઈએ. પૂર્ણ વિચાર કરીને અન્ય મતને નિષ્કારણ ઉતારી પાડવા ન જોઈએ. કારણે, સંજોગે તપાસવા જોઈએ.
કેટલાક વિદ્વાનોને સમાગમ થાય છે, ત્યારે તેઓ પ્રાચીન વિદ્યા પ્રતિ આદર દર્શાવી ભલામણ કરે છે કે “આપના સક્રિય અને સિદ્ધાંતિક જ્ઞાનને વાર બીજાને પાછવી પ્રજાને આપવો જોઈએ.” જો કે તેનું આ સૂચન યોગ્ય છે પરંતુ વિદ્યાના પ્યાસી ઉત્કંડિત ઉમેદવાર હોવું જોઈએ. વિદ્યા સોમપુરા યુવાને ગ્રહણ કરે તેવા પ્રયાસે બે ત્રણ વખત કરેલા પરંતુ ઉપર જણાવ્યું તેમ પિતાની અંદરની ઉત્કંઠા જોઈએ. આથી મારા પ્રયાસો નિષ્ફળ ગયા તે કહેતાં મને દુઃખ થાય છે.
ચાલુ ક્રિયા સાથે ગ્રહણ કરનારા મને બહુ અલ્પ મળ્યા છે તેટલા પૂરતોય મને કંઈક સંતેષ માની લઉં છું. પરંતુ વિદ્યાના અનુવાદ તેના મર્મ અને આલેખન સાથે ગ્રંથેના પ્રકાશનથી વધુ સંતોષ માની લઉં છું તે પણ ઘણું છે.
- શ્રી સોમનાથના સાંધર મહાપ્રાસાદનું નિર્માણ મારા હસ્તે થતાં તેમજ પાટણ, મુંબઈ, કલ્યાણ, અમદાવાદ, હૈદ્રાબાદ, કેરાલા (મલબાર), આગમ મંદિર પાલીતાણું, પ્રયાસપાટણ, જામનગર, રાજકોટ વગેરે અનેક સ્થળોએ પ્રાસાદોમાં નિર્માણ શિ૯૫ ગ્રંથે.ના સૂત્રો સમન્વય કરી કરેલ અને તેમાં શ્રી સોમનાથજી જેવા સાંધાર મહાપ્રાસાદ ગુજરાતમાં આ વર્ષે બંધાયે.
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આથી આવા સાંધાર મહાપ્રાસાદના યમ નિયમે બીજા સાધારણ નિરધાર પ્રાસાદથી ભિન્ન હોવાથી એ ભગિરથ કાર્ય કરવામાં બૌદ્ધિક શ્રમ લેવું પડે તેવું તે કાર્ય હતું. જોકે અમારા કુળના અભ્યાસ અને જૂના આ બનના આધારે મને ઘણું મદદરૂપ થયા. આથીજ હું આવું મહાકાય પ્રભુ કૃપાએ કરવા સફળ થયે કોઈપણ વિદ્યાની સાધના વહેલ મેડી પણ ફળદાતા થાય છેજ તેવું મારા અંગત અનુભવોથી માનું છું. વેદોષના વિશે વિવેક વિકાસમાં મુનિશ્રીએ ઘણી સુંદર ભાષામાં કહ્યું છે
ग देोपो यत्र वेधादि यत्र संमार्जनादिकम् । वहु द्वाराणि नो यत्र यत्र धान्यस्य संचय ॥१॥ पूज्यन्ने देवना यत्र यत्राभ्युत्थानमादरात् । यत्र ज्येष्ठ कनिष्ठादि--व्यवस्था सुप्रतिष्ठिता ॥२॥ भानवीया विशन्त्यन्त-भानवो यत्र नैव च । दीप्यते दीपको यत्र पालन यत्रोगिणाम् ॥३॥ श्रान्त संवाहना यत्र तत्रस्यात्कमल गृहे ।
જ્યાં વેધ આદિ દેષ નથી જ્યાં ઘણી ચોખાઈ છે. જ્યાં પેસવા નીકળવાના બહુ કરે નથી. જ્યાં ધાન્યને સંગ્રહ ઘણું છે જયાં દેવતા પૂજાય છે. જયાં અતિથિને આદર થાય છે. જ્યાં નાના મોટાની મર્યાદા જળવાય છે. જ્યાં સૂર્યના કિરણે છાપરામાંથી અંદર પેસતા નથી. જ્યાં દીપક સારી પેઠે પ્રકાશ બાપે છે. જ્યાં રોગી લેકેનું રક્ષણ થાય છે. અને
જ્યાં થાકેલા મનુષ્યને આરામ મળે છે એવા પ્રકારના ઘરમાં હંમેશા લહમી વાસ કરે છે. वृक्ष गुणदोष-खर्जुरी दाडिमी गम्मा कर्कन्धीजपुरका ।
उत्पद्यने गृहे यत्र तनिकृतानि मूलतः ॥१॥
લાદ્રીગોવાં fથા-શ્વાસુ સામાન્ !
नृपपीडा वटानेत्र व्याधि मुदुम्बरात् ।।२।। ખજુરી, દાડમી, કેળ, બોરડી અને બીજેરૂના વૃક્ષ ને ઘર આગળ ઉગે ત્યાં ઘરને સમુળગો નાશ થાય. ઘર નજીક પીપરનું વૃક્ષ હેાય તે રોગ થાય. પીપળો હોય તે સદા કાળ ભય ઉત્પન્ન થાય. વડ હોય તો રાજાને ઉપદ્રવ થાય અને હું બા હોય તે નેત્રના વધ થાય,
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लक्ष्मी नाशकरः क्षीरी कण्टकी शत्रुमीप्रदः । अपत्यन्नः फली तस्मादेषां काष्टमपि त्यजेत् ||३||
દૂધ નીકળે તેવા વૃોા જો ઘર સમીપ હાય તે લક્ષ્મીને નાશ થાય. કાંટાળા વૃક્ષથી શત્રુના ભય ઉપજે. ફળવાળા વૃક્ષથી સ`તિના નાશ થાય. તેમ એ વૃક્ષનું લાકડું' પણ તજી દેવું,
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कश्चिवे पुरो भागे वटाश्लाध्य उदुम्बरः । दक्षिण पश्चिमे भागेऽश्वत्थः लक्षस्तगोत्तरे ||४|| विवेकविलास કોઇ વિદ્વાને કહ્યું છે કે ઘરના આગળ દક્ષિણ ભાગમાં ખરે પશ્ચિમ ભાગમાં પીપળે અને ઉત્તર ભાગમાં પીપર સારા જાણવા. (વિવેકવિલાસ )
શિલ્પ સ્થાપત્યને કલા સાહિત્યના ગ્રંથેના પ્રકાશન અંગે શ્રીમાન્ શ્રી શ્રીગાપાલજી નેવટીયાજી શેફ સાહેખના પ્રયાસથી શ્રી બીરલા કેન્સનના આર્થિક પ્રોત્સાહન માટે તેએશ્રીને હું ઘણુંાજ ઋણી છું.
પૂજ્ય પિતાશ્રી અને વડીલાએ વિદ્યાના સ'સ્કાર સિંચ્યા અને માકને આપ્યા. તેએનુ ઋણ મારાથી વાળી શકાય તેમ નથી. બાળવયે અંગ્રેજી વિદ્યાભ્યાસની મહેચ્છા હતી પરંતુ વિધિએ જુદું જ નિર્માણ કરેલું હતું. કેટલાક કારણાસર કૌટુબિક વ્યવસાયની સાધના કરી વિદ્યાની તપ આરાધનાએ પ્રભુ કૃપાએ મને ઠીક ફળ આપ્યું.
આ ત્ર'થનું હિન્દીકરણ મારા પરમમિત્ર શ્રી કપીલરાય જયસુખલાલ આચાય કૈાવિંદે કરી આપી મને આભારી કરેલ છે. તેમજ આ ગ્રંથનુ` છપાઇ,કામ પાલીતાણામાં પ્રેમભકિત મુદ્રણાલયના વિદ્વાન માલિક શ્રી દુદાભાઇ ગાવિંદભાઈ ધામેલિયા એમ. એ., ટી ડી. (ઇંગ્લેન્ડ)એ સુંદર અને સમયસર છાપી આપ્યા ખદલ તેમને ધન્યવાદ ઘટે છે. તેમજ મુદ્રણાલયના પ્રેસ કામદારને પણ ધન્યવાદ. सर्वे सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख आप्नुयात् ॥
વિ. સ. ૨૦૨૧ આશ્વિન વદ ૦))
દીપે સ્વી
તા. ૨૪ ઓકટોબર ૧૯૬૫ શિલ્પી નિવાસ-પાલીતાણા
( સૌરાષ્ટ્ર )
ત્રિશુમ મચતુ
સ્થતિ
પ્રભાશંકર આઘડભાઇ સામપુરા શિલ્પ વિશારદ,
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२७
७-८
श्री वेधवास्तु प्रभाकर
अनुक्रमणिका विषय श्लोक पत्र विषय श्लोक पत्र ग्रंथ संपादकको अभिनंदन-पत्रिका १ १ तारङ्गाका प्रासाद तल चित्र १४ स्तुति
पीठहीन, स्थापत्यहीन, जंधाहीन, टीकाकारका परिचय
शिखरहीन २६-२७ १५ भूमि परीक्षा
अतिदीर्घ, टुका, स्कंधहीन, विना त्याज्यभूमि
बंधका, सांधचाला न हो मस्तक ऋतु अनुसारभूमि ९ ६ स्थूल, कम नीमवाला ये पांच दिग्मुढका नेष्टफल और दिग्मुढका
प्रकारका दोष २८-२९ १५ दोष कहां न लगतो हे १०-१२ ७ दिग्मुर, नछंद. मस्तकभारी, आनहीन शिलारोपणके लिये नीम कहां तक ए चार प्रकारका दोष ३० १६
गाइना और शल्यशोधन १३-१४ महापीठ. कामदपीठ, कर्णपीठका गणितके तीन या चार अङ्ग मीलाना रेखाचित्र प्रतोल्या स्वरुपका रेखाचित्र १५ ९
मानहीन, अधिक यमचुलीवेध देवमंदिरसे कीस दिशामें
लक्षण
११-१२ १७ मकान बनाना
१६ १०
जगतीचोकी मंडप और गर्भ गृहका नाभिवेध और वो कहां दोष न
भूमितल केसे रखना १ . १७ वेध-वेध्यका अंतरसे दोष
शिखर रेखागका महामर्म ३४ १७
छंदभेद, जातीभेद, पदहोन, एकीन लगे २०-२१ १२
स्तंभ, मानसे दीर्घहस्व, वक्र, प्रासादमें सात दफा वास्तुपूजन
हीनमान ३५-३७ १८-१९ करना प्रासादवेध
प्रासाद या मंडपोंका सम विषमतल, विभक्ति अनुसार तल शिखर
स्तंभ, पट्टादि, सम विषमका बनाना
२. १३ दोष केसे न हो ? ३८ १९ हीनमान, द्वारहीन, कौलीहीन, अपवाद | खंड में एकस्तंभ न मुफनो मूलग स्तंभ-स्तंभन्यासहीन २४-२५ १३ । दबाना नहि
३९ २०
लगे
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विषय श्लोक पत्र | विषय लोक पत्र कम चूरा या अधिक चूना, सधि- मूलमूर्ति और परिकर बर्णशंकर चाला विना माथाभारी, विना
पाषाणकी उदयमें सम वेकी निम या कम निमका दोष ४० २०, __ आगुलको प्रतिमा न बनाना ५५ २६ । भिन्नदोष
प्रतिमा दोषभिन्नदोषका लक्षण, क्या देवको हाथपावहीन, अव्यवहृत, नासिकाहीन,
भिन्नदोष लगे या न लगे ४१।११। ३ २० चीपटा गालवाली, उपदेखाती, पाचीन द्वारका रेखाचित्र
उंची द्रष्टिवाली विकराल, नीची भाज्य प्रासाद या धजहीन प्रासादमें द्रष्टिवाली नासिका पति द्रष्टिवाली असुर भूतप्रेतादि वास
बगल द्रष्टिवाली जंधा कटिहीन, करता है
नीचेसेहीन, भाल नख मुख विभागशिखरका शुकनाश और मंडपपरका हीन, पतलाद्रव्यवाली, पतला उदयघंटाका समन्वय
४६ २२ वाली, रुदन या हसती, अधिक गृहमंदिरमें ध नादंड न रखना ४७ २३ अंगवाली लंबी आंख उघाड बंध गृहपूना देवप्रतिमा प्रमाणादिका दोष करता आश्चर्य वाली प्रतिमाके गृहपूजाकी मूर्तिका प्रमाण ४८ २४ | चित्र
५६-६४ २७-३० . गृहपूजन में क्या क्या देव कीतना अन्याय धनसे बनाई हुइ, दुसरा कार्य के रखना अधिक नहि ४९-५० २४ लीये लाये पाषाण हो, कमी जास्ती एक हस्तप्रमाणके गृहमें स्थिर
अंगवाली मूर्ति मूर्ति या लिङ्ग न रखना ५१ २५ क्या प्रकारको अशुद्धि हुइ हो एसा प्रतिमाद्रव्य मानाधिकके परिवार होन लिंग या मूर्तिकी फीर प्रतिष्ठा मूर्ति घरे न पूजना ५२ २५ करनी ?
६७ ३१ तीन जैन तीर्थकरकी मूर्ति गृहस्थके सो साल पहेले महापुरुपासे स्थापित
घर न रखना पूजना ५३ २६ / या उनकी सानिध्यमा स्थापित लिंग प्रतिमादोष
खंडित या व्यङ्ग हो तो भी त्याग खील, छीद्र, पोल, जीवजाला,
न करना सांधावाला रेखामंडल गार
लिंङ्ग केसी हालतमे खंडित चलित गांउवाला दुषण द्रव्य से प्रतिमा पतित अग्नि स्पर्श हो तो भी न बनाना
५४ २६ । समुद्धार करना ६८-६९ ३२
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बिषय
श्लोक
नख, केश, आभूषणके शस्त्र या वस्त्र खंडित हो तो यह मूर्ति देोषित नहि हे समुद्धार विवि करके
पत्र
પુર
पूजन करना
७०–७४
स्थापित मूर्ति व्यङ्ग खंडित हो तो विसर्जन करके अन्य प्रतिमाका
स्थापना करना
७२
धातु रत्नकी खंडित मूर्ति फीर संस्कार योग्य है मगर कष्ट पाषाणकी मूर्ति संस्कार योग्य नहि. विसर्जन करना ७५ लघुतम दोषवाली प्रतिमाका त्याग ७६
३४
३६
नहि करना खंडित दग्ध फटी हुई मूर्तिको मंत्र संस्कार न रहने से विसर्जन करना७९ मूर्तिका तरुण या बाल स्वरुप बनाना मगर वृद्ध रुप नहि वनोना ८ १ ३६ क्या सजोगो क्या स्थान पर असुरसे भ्रष्ट लिङ्गका फोर संस्कार करना ८२ भित संलग्न मूर्ति स्थापन करना अशुभ है, चित्रलेपकी मूर्ति भित्र संलग्न करना देवमूर्तिका आयुध कर्ण से उचा न करना
८३
८४ ३७
( जनमत ) प्रतिमा उत्थापन विधि से करना ८५-८७ ३८ अथ जिर्णोद्वार उपसे पुण्य बीप्रनुगृह के शिवालय ये निष्कारण
८८
तोडने से महादेोष जीर्ण व्यङ्ग वास्तु प्रासाद विधिसे तोडना ९०-९१
ર
३३
३५
૩૭
३७
८९ ३९
विषय जीर्णोद्धार में पूर्व मान रखना होन अधिक न करना और वास्तु द्रव्य-अधिक करना
श्लोक पत्र
९२-९३
अन्य वास्तु मंदिरको द्रव्य दुसरेमें' लेना दोष हे
,
४१
९४ ४२
अथ गृहवेध -
तन्दवेध तालवेध, द्रष्टेवेध, जावे स्त भवेध, ममवेव मार्गवेध, वृक्षवेत्र, छायावेध द्वाग्वैत्र, स्वग्वेध, कीलवेध, कोणवेध, भ्रमवेध, दीपालयवेध. कूपवेध, देवस्थानवेत्र ९५-९७ ४३-४८ प्रथम भूमिका आगेका भागमे स्वामीकी द्रष्टि पीळचा भाग पडे तो दोष है
९८ ४८
विश्वकर्मा प्रकाशोक्त गृहका अंतस्थित वेध १६
१ अंधक, २ रुधिर, कुब्ज, ४ कोण, ५ बधीर, ६ दिग्वक्र, ७ त्रिपिट ८ व्यङ्ग ९ मुग्ज, १० कूटिल, ११ कुट्टकं, १२ सुप्त, १३ शंखनाल, १४ विघट, १५ कंक और १६ कैर यह सोलोवेध १६ को लक्षण ९९ - १०४
४९-५०
विश्वकर्मोक्त गृहका बहिस्थित दशवेव १ कोण, २, ३ छिद्र, ४ छाया, ५ ऋजु, ६ वंश, ७ उक्ष, ८ उच्च, ९ संघात ओर १० द ंत
1
१०५-११८
५२-५५
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विषय लोक पत्र विषय लोक प २१ प्रकारके दुषितगृह-
दुकान-वावमुख आगे चोडा पीछे १ पर्व नगर, २ पर्वतपापाग मोलीत, । सकडा अच्छा . १३४ ६१ ३ पोषाग गुफाके मीलन, ४ जलप्रवाह गोखपर खुंटा, द्वारपर उपरी भूमिमें समीप, ५ परत मध्यमे, ६ नदी समीप, स्तंभ हो या स्तंभपर द्वार हो एक द्वार ७ दो पहाडोके बीच. ८ पहाड ताफ पर दे। द्वार हो की खंड या एकी स्तंभ एक दीवालसे भिन्न होय, ९ घरमे मदेव यह सब दुषित हे १३५ ॥ जलप्रवाह हो, १० किंवाड में शन | गृहके कोण गोलम्वृत हो या १-२-३ आता हो, ११ घरमे कौन उल्लुका | को ना हो दाहिनी या बांयी ओर वास हो, १२ किंवाड-जाली खिडकी लवे हे एसे गृह दुषित हे १३६ ६२ मोरी हीन हो छीद्र हीन हो, १: घरमे | फलवाला या पुष्पवाला वृक्ष या शुभ खरगोश शब्द करे, १४ अजगर साप } चित्रा लेखन कराना १३७ ६२ का काम हो, १५ जे गृहपर बीजली दिमुह, पदलोर, गर्भलोप. थरभंग पडी हो या अग्निसे दुपित हो. १६ दोष विषय पद तुलास्तभ विना स्मशान दुपिन, १७ समाधी हो, निम १८ विना वसा ( अवारु), १९ म्लेच्छ ।
। पीडीया बड़ाद-पगयीका इद्र यम, चांडालका वास हो. २० भूमिमें बील
राजा बाकोरा हो, २१ घो-गोह रहती हो ।
अथ संवर्धनएप्ता २१ प्रकारका दुषितगृह जानना ११९-१२४ ५५-५६ ।
गृह - भवनकी वृद्धि करनेमे गुण दोष जे गृह देखनेही भयंकर लगता हो १२५
| बारा भूमिका सो हायसे उंचा मकान
। गृहमें क्या क्या प्रकारके चित्र न
न करना (गर्गमत) १४२-४३ ६४ आलेखना १२६-१२७ ५७ | तुलावेध, तालवेध, तलवेध, वास्तसारमें कहेहए सात प्रकारके वेध | वावध
१४४-४६ ,, १ जलवेध, २ कोणवेध, ३ तालुव, वास्तुपुरुषका क्या अङ्ग न ४ कपालवेध, ५ स्तंभवेध, ६ तुलावेध, । दबाना ७ द्वाग्वेष १२८-१३३ ५९ | देवध्वज-कुप ओर वृक्षकी दुसरा तीसरा गृह आगे सकडा पीछे चोडा हो एमा । प्रहरका छाया दोष १४८-४९ ६६ गह दापित नहि हे १३४ ६१ / वाजिकवेध, भागषेध १५०-५२ ६७
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विषय लोक पत्र । विषय श्लोक पत्र पनीहारा, घटी, दीपस्थान, खाणीया, | शाखागीरे-बोलवक्षने फरफूल भावे रसोईघर, द्रव्यकोष-सीडी, गृहके क्या । शुष्कवृक्ष पल्लयात हो. विना ऋतुके स्थानमे रखना
फल पुष्पपत्र हो, वृक्ष प्रमाण जलगोरे । वास्तुद्रव्यका गुणदोष १५-१५५ ६७ येह सब अपशुकन समजना १७९-८१ ७६ गृहकार्य में कीतने जातीका काष्टको मंदिर या गृह पृष्ठभागमें छीद्र न होना प्रयोग करने में गुणदोष १५६-५७ ६८ | इष्ट काममे थरमान रखना १८२-८३ ७७ का दिशामें मस्तक रखके शयनकरने । भितद्वार पाटबीम स्तभ नीचेकी भूमिसे में गुणदोप
१५८ , विटिम उपरको भूमिमे न रखे १८४ ७७ द्वारवेषमें क्या कथा
गृह या प्रासादनी पहेली भूमिका उदय बेध कीतना दर १५९-६१ ६९ | उपरकी भूति १२ अथ काम करना द्वारका उत्तरङ्ग नीचा हो तो
नहि तो समवेध होता हे १८५ ७८ ललाटवेध, तुळावेध १६३ ७१ | सूर्याकार या विकर्ण न बनाना १८६ ७९ स्तभद्वार भिति, पाट नीचेकी भूमिसे द्वार सम्पने स्तंभ-पाट घोडा भीत
उपर विपरीत न करना १६७ ७१-७२ | हो तो दोष हे १८७ " श्रेणीभङ्ग ब्रह्म शेष १७१ ७३ | समला-न कागवेध १८८ , भवनका बीचला चोकमे तीन दिशामें प्रस्तावनामें जहां स्वच्छता विवेक छपरेका नेवा जलधारा करनी चारो आदि हे वहां लक्ष्मी बात करती है तरफसे न पडना चाहीए १७२ ७४ या समीप वक्षका गुणवेोष १.२६ मूल घरसे डेहली बलाणक नीचे करना
| अथ प्रवेशअशास्त्रीय वास्तु न करना १७३ ,
| १ उत्मंग, २ होनबाहु, ३ पूर्णवाहु, अथ गृहाद्भूतानि अकस्मान अकारण
४ पत्यचाय १८९-१९३ ७९-८१ द्वार उद्घाटन, स्वरनाद, कम्प, तोरण। ध्वज भङ्ग अकारणगीरे द्वार-गढ गृहगीरे
ब्रह्मवाक्य-वेध और वेध्यका अंतर गृहभूमि फटे कम्पे हमे शृगालादि।
प्रमाणसे दोष मुक्ति कहां कहां पशु प्रवेश अकारण रक्तधारा सप्रवेश
दोष लगता नही १९४-१९६ ८१-८२ ये सर्व अकस्मात अकारण हो तो दोष उत्पन्न हो ते उसका नेष्ट फरकी महा दोष जानना १७६-७८ ७४-७५ अय क्षद्भितानि
मानहीनका कहाँ दोष लगता नहि गृह समीपका वृनमें से स्दन-हास्य । मौसम
१९४ ८३
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विषय
भोक
गर्गतत्रे= मन और चक्षुसे संतुष्टी हो वहां दोष नहि लक्षणहीन वास्तु हो परंतु मनकी प्रसन्नता हो वहां दोष नहि २००-२०१
शुक्र
अथ भवने द्वार स्थापन -
निश्चित
८१ पदका वास्तु
द्वार स्थापन कग्ना
शहरमें चारो दिशाका गृह शुभ हे
पत्र
१९९ ८३
८५
२०२-२०८ ८६
""
देवमंदिरकी प्रदक्षणा - २११ देवमंदिर में प्रनाताका नियम स्तंभवेध, वास्तुवेध, देववेध, २१३ गृह जीर्णोद्धार में द्वारप्रमाण कीनेसे वास्तुपूजन करना शिल्पि लक्षणा - वास्तुकार्य एक हाथसे
२१४
२०९-२१० ८७
"
२१२ ८८
"
"
कराना
२१५-२१७८९
जे वास्तु गुण अधिक हो ओर दोष अल्प हो वह वास्तु निर्दोष समजना २१८ वास्तु दोष अधिक हो ओर गुण अल्प हो वह वास्तुकला करना २/९-२२० ९० प्रासाद देवतान्यास थरमे देवोका वास होना है तो पूजन करना २२१-२४४ ९१-९६ वास्तु द्रव्यानुसार वास्तुनामाभिधान २४५-२५० ९७
अथ शल्यविज्ञान शल्यका प्रकार भूमि शुद्धि करना शल्यदर्शक कोष्टक शल्यशोधनका मंत्र २५१-२५९ ९८-१०१
ફર
19
विषय
श्लोक पत्र
गृहप्रसाद प्रारंभसे शुभमुहूर्त देखना वृषचक्र - पृथ्वी सुति वेठी जागती देखना २६०-२६१ १०२-१०४
द्वार स्थापनचक्र वत्सचक्र
२६३-६६ १०५-१०७
४ धातु-वघा २८६-९३ ११८-२० वज्रलेपका दुसरा प्रकार - १ कराल २ मुद्गी ३ गुल्पास ४ कल्क ५ चिकम ब्रद्धोदक ए सर्वना मिश्रणने वज्रलेप २९४ ३१२ १२०-१२४ पूजा विधि-गणपति पूजन संकल्प पूजा आरती वास्तु पूजा वास्तुका सर्व देवका पूजन दिपाल जनकवान पूजन मंत्र पूजा पूर्णाहुती क्षमायाचन विसर्जन ३१३-३३३ १२५-१३१
पूजा द्रव्य सूत्रधार पूजनविधि वास्तुपीठ और अन्य प्रतिष्ठा सामग्रीका शोल्पीका अधिकार आचार्यका अधिकार यजमान सूत्रधार सूत्रधारना अष्टसूत्र काटगा सिद्धि प्रासादाङ्ग देव स्वरुप ३३४-३५५ १३२-१३९ || संपूर्ण ॥
स्तंभचक्र मोभ = पाटचक्र
२६७-२७० १०८-१०९ मंठा आलमसाराचक्र २७१-७३ ११० द्वारमें राहु देखना राहु वत्स छोडके मुहुर्त करना पुष्प नक्षत्रकी प्रशा
२७४-२८० १११-१३
""
वास्तु पुरुषोत्पत्ति २८२-२८५ वास्तु पुरुषका अङ्ग पर देवोकी स्थान २१४ वज्रलेप ( हद हिना ) १ कल्प नामक वज्रलेप २ वज्रलेप ३ कल्क (वग्रसर )
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CAMPANIM
21226
aisies तोरणयुक्त विविध स्तम्भो
आबु
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mans are SIRE
SITE
VIDE
BREA
समदल रुपस्तम्भ शाखायुक्त द्वार
आबु
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ग्रन्थ संपादकको अभिनन्दन पत्रिका
आदिदेव महादेव कृपापात्रो महातनुः । ओघडजो महामाज्ञ शिल्पशास्त्र विशारदः ॥१॥ कैलासस्य महामेरो जीद्धिारकारकः । प्रभाशंकर नामाय मान्यः केषां न कारकः ? ॥२॥
सत्य सत्य पुनः सत्य सत्यधर्म प्रवर्तकः । वृक्षार्णव शिव प्रोक्त क्षारार्णव यतनो ॥३॥ ग्रन्थानां शिल्पशास्त्रस्य पुनरुद्धारकारकः ।। आदिदेव नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्य' विशारद ॥ ४ ॥
આદિદેવ એવા શ્રી શિવજીની કુપાવડે મહાપ્રાણ એ ઘડભાઈના સુપુત્ર શ્રી પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ શિલ્પવિશારદે શ્રી સેમિનાથજીને મહામેરુ કેલાસ પ્રાસાદને આપે જીર્ણોદ્ધાર કર્યો છે. શ્રી પ્રભાશંકરભાઈ સંસારમાં કેને માન્ય નથી ? (સર્વને માન્ય છે.) સત્યધર્મની પ્રવૃત્તિઓ માટે વૃક્ષાર્ણવ તથા ક્ષીરાઈવ જેવા મહાગ્રંથે રચના શિવજી અને હરિ દ્વારા રચાયેલા અને શિલ્પના મહાન પ્રાસાદ ગ્રાનો આપે તેના મર્મ સમજાવી જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. આદિદેવ એવા શ્રી મહેને તથા શિલ્પવિશારદ શ્રી પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈને અમારા વંદન હો.
. आदिदेव महादेव की कृपा पात्र महाप्राश भोघहभाइ मुत महाप्रास शिल्पशास्त्र विशारद महामेरु कैलास के बीद्धार कारक श्री प्रभाशंकरजी संसारमें कीसके मान्य नहीं है ? अपित सबके है। य सत्य है भोर बारबार सत्य है कि शिवजी द्वारा रचित "मार्णव" और हरि रचित "क्षीरार्णब" सत्यधर्मके प्रवर्तक है। शिल्पशास्त्रके मंथोके पुनरुद्धारक है । आदिदेव ! आपको नमस्कार हो और शिल्पविशारद ! आपको भी नमस्कार है।
शुभेच्छक स्नेहाधीन मनःसुखलाल लालजीभाइ सोमपुरा
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REAMPIRA
श्री सरस्वती
AOSOMPURA.
MP.SOMPURA.
ADSUHPAAD
श्री विश्वकर्मा
COMPURA
RASDMPURA..
श्री गणपति
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श्री सरस्वत्ये नमः ॥ श्री विश्वकर्मणे नमः ॥ श्री गणेशाय नमः ॥
स्थपति प्रभाशंकर संग्रहित ॥ वेधवास्तु प्रभाकर .
॥ स्तुति ॥ श्री विघ्नेश नमस्कृत्य हंसारूढां सरस्वतीम् । ब्रह्मा विष्णु महेश्वरा श्रिया गौरीं नमाम्यहम् ॥ १ ॥ શ્રી ગણપતિને નમસ્કાર કરું છું. હંસવાહીની સરસ્વતી-બ્રહ્મા, વિષ્ણુ, મહેશ, લક્ષ્મી અને ગૌરીને હું (પ્રભાશંકર ) નમસ્કાર કરું છું. ૧ ___ श्री गणेशजी, हंसवाहीनी सरस्वती, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, लक्ष्मी एवं गौरीजीको में (प्रभाशंकर) नमस्कार करता हु । १
॥ ग्रन्थकर्ता परिचय ॥ भारद्वाजमुने गोत्र शिल्पि श्री गमजीगुरुः । तत्पुत्रो नेमजी नाम भवानीशंकरात्मजः ॥२॥ तज्जोहमोऽघडजी वयः प्रभाशंकर निर्मिता ।
विश्वकर्मा प्रसादेन पूर्वाचार्यादित शिवम् ॥३॥ ભારદ્વાજ મુનિના ગોત્રમાં શિલ્પશારી (મંગલજી-નરભેરામ-લાધારામ ના પુત્ર) રામજીભાઈ વંશમાં થયા તેના પુત્ર નેમજી, તેમના ભવાનીશંકર, તેમના ઓઘડભાઈ અને તેમના કનિષ્ઠ પુત્ર નામે પ્રભાશંકર શિલ્પશાસ્ત્રી છે. શ્રી વિશ્વકર્માની પ્રસન્નતાથી પૂર્વાચાર્યોએ કહેલું વધવાસ્તુશાસ્ત્ર મેં (પ્રભા3रे ) निर्माण यु. २-३
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भारद्वाज मुनिके गोत्र में शिल्पशास्त्रो : पंगलजी-नरभेराम-लाधाराम तत्पुत्र) रामजीभाइ वंशमे हुआ। रामजीभाई के सुपुत्र नेमनी, उनके भवानी शंकर, ऊनके भोघडभाइ हुए। ओघडभाइके कनिष्ठ पुत्र प्रभाशंकर नामके शिल्पशास्त्री है जिन्होंने श्री विश्वकर्माके प्रसादसे पूर्वाचान कहे हुए वेधवास्तुशास्त्रका निर्माण किया । २-३ भय भूपरीक्षा १-क्षेत्रमादौ परीक्षेय गन्धवर्ण रसप्लवैः ।।
मधुपुष्पाम्ल शीतानि गन्धानि विमानुपूर्णतः ॥ ४ ॥ शीता रक्ता च हरिता कृष्णा वर्णा तथा कृमात् ।
मधुरां फटुका तिक्तां कषायां च रस क्रमात् ।। ५ ।। વાસ્તુ ક્ષેત્રની પ્રસંદગીમાં પ્રથમ ભૂમિની પરીક્ષા તેનાં ગંધ. વર્ણ, સ્વાદ અને ઢાળ ઉપરથી કરવાની કહી છે. મીઠી સુગંધવાળી–બ્રાહ્મણને, પુષ્પ
की क्षत्रियन, भारी-वैश्यने, मने ताभी-शूद्र १५ श्रष्ट तरावी. स३, સતી, લીલી અને શ્યામ વર્ણની ભૂમિ બ્રાહ્નણાદિ વર્ણને અનુક્રમે શ્રેષ્ઠ જાણવી. સ્વાદિષ્ટ, કડવી, તીખી અને તુરી સ્વાદવાળી ભૂમિ અનુક્રમે બ્રાહ્મણદિ ચતુकरने योग्य वी. ४-५
बास्तु विद्यामें जमीनकी जांच:
भूमिकी जांचमें उसकी गन्ध, वर्ण, स्वाद और दाछ परसे करनेका कहा है । खुशघुदार ब्राह्मणों के लिये, पुष्प सुरभित क्षत्रियोंक लिये, खट्टी वैश्यों के लिये, और विक्ष भूमि शुद्रोंके लिये श्रेष्ठ है । रंग यानी कि वर्णकी दृष्टिसे सफेद, लाल, हरे और श्याम वर्णकी भूमि प्राह्मणादि चतुर्वर्णके अनुक्रममें योग्य है । स्वादिष्ट, कहुमा, तीखा और कषाय स्वादवाली जमीन अनुक्रममें ब्राह्मणादि चतुर्वर्णके लिये योग्य है । ४-५ १ भूपरीक्षा कई प्रकारसे होती है । जमीनके अन्दर गाड धनाके फिर उसी मिट्टी को इसी गाडमें भरना । जो मिट्टी भरनेसे वृद्धि हो तो उत्तम अगर घटे तो नेष्ट समझना । नाज बोयर भी परीक्षा होती है। जमीममें १ राज ४१ राज यज प्रमाणका गढे में पानी भरके सो कदम चलकर वापस आना । इस समय में जो पानी पूरा भरा हुआ हो तो भुत्तम भूमि, पानी में रहे तो नेष्ट जानना । भूमिके आकार परसे भी कसोटी हो सकती है। लेकिन यह सब को माम, शहर, नगर बसाने के समय हो सकता है।
शहरमें मिली हुई जमीन के गुण दोषकी जांच तो शुसके आकार परसे .. की जा सकती है।
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अत्यंत वृद्धिदं नृणां इंशान पागुराक लवम् । पुरुषाधः स्थित शल्य' न गृहे दोषद भवेत् ॥ ६ ॥ अग्निपुराणम्
ઈશાન અને પૂર્વ તરફના ઢાળવાળી જમીન સર્વને અત્યંત વૃદ્ધિ કરનારી જાણવી. ઘરની ભૂમિમાં શલ્ય દેષકારક છે, પરંતુ કદાચ જમીન મથાળેથી માણસના માથડાથી નીચ જે શક્ય હોય તે તે ઘરને વિશેષ દેવકર્તા નથી. (પરંતુ પ્રસાદને અને રાજભવનન પાષાણ, જળ કે વાળુ રેતી સુધી ખેદી જમીન શલ્ય કાઢી નાખવા. શલ્ય એટલે હાડકા, કેલસા, રાખ, વાળ, ચામડું -એ દેષકારક કહ્યાં છે. પરંતુ ધાન્ય કે સુવર્ણાદિ દ્રવ્ય શ્રેષ્ઠ કહ્યાં છે. પણ તે કાઢી લેવા. ) ૬
___ इशान और पूर्व की दालू भूमि मालीफके लिये श्रेष्ठ वृद्धि कर्ता है। घरकी भूमिमें शल्य दोकाक है परंतु पुरुष पमाणसें निम्न शल्य दोषकर्ता नही है। (किन्तु पासाद और गजभवनके लिये पत्थर, जल, જ વાણુ થાણા ચાં તા લુટારૂ ની છૂ) ૬ ક્રા , વાર, भस्म और चमहा को शल्य कहेते है । धान्य-वर्णादि द्रव्य श्रेष्ठ द्रव्य कहलाते है फिर भी उनको निकाल लेना चाहिये । ६ पसंद करने लायक भूमि-कौनसी भूमि वज्र्य है ?
स्मशाने पर्वनाग्रे च क्षारभूमि तथैव च । કત્રિ વિત્યા રે વાાિ પુમિઃ + ૭ || म्लेच्छ चांडाल कुग्रामन् त्यक्त्या भूमि वसेन्नरः ।
पूर्वाऽपर सोम श्रेष्ठा भू यमि दिगू विवर्जिता ॥ ८ ॥ રમશાન પૂર્વકાળમાં હેય તેવી જમીન, પર્વતની ટેચવાળી, ખારવાળી, પાણીના ધંધવાળી કે પ્રવાહવાળી, ભેજવાળી, જ્યાં પૂર્વકાળે દેવમંદિર કે સ્થાનક હોય તેવી જમીન, સપના રાફડાવાળી, જ્યાં પવે યુદ્ધ થયું હોય તેવી જમીન, રહે. ચાંડાળો જેવા શુદ્ર વર્ણ વસેલા હોય તેવી જમીન કે તેના પાડેશની જમીન, કુત્રામ-જ્યાં સજજન ન વસતા હોય અને દુર્જને વિશેષ વસતા હોય તેવા ગ્રામને કુગ્રામ કહે છે-આવા નેષ્ટ સ્થાનેની ભૂમિ પર મનુષ્ય વસવાટ માટે ઘર, ભવન કે દેવમંદિર પણ ન બાંધવું, પૂર્વ, પશ્ચિમ અને ઉત્તર મુખવાળી જમીન શ્રેષ્ઠ જાણવી. પરંતુ દક્ષિણ મુખની જમા ( શકય હોય ત્યાં) તજવી. છ-૮
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.( નેટ –વર્તમાનકાળમાં આ સૂત્ર જળવાતું નથી, જૈન મંદિર શહેરને વિષે
ચારે દિશામાંથી ગમે તે દિશામાં કરવાનું કહ્યું છે. )
भूतकालमें जहां स्मशान हो एसी जमीन, पहाडकी चोटी हो, क्षार युक्त हो, प्रचंड जल प्रवाह आता हो, कोइ स्मारक हो, देवमंदिर हो, साँपका बील हो, युद्धभूमि हो, म्लेच्छ चांडालो जेसे वर्ण बसे हो, या उनकी पडोशमें के उपरोक्त स्थानो पर रहेनेके लिये मकान और देवमंदिर नहीं करना चाहिये । पूरब, पच्छम और उत्तराभिमुख भूमि श्रेष्ठ है। किन्तु दक्षिणाभिमुख जमीन वयं है। ( वर्तमानकालमें यह सूत्रकी मुश्किल है. जैनमंदिर किसी दिशामें होता है इसमें दोष नहीं है ) ७-८
शीत काले उष्णदा च उष्ण काले शितपदा ।
प्रशस्ता सर्वोत्तमा भूमिर्भाषिते विश्वकर्मणा ॥ ९ ॥
જે જમીન ઠંડીના કાળમાં ગરમ હૂંફવાળી જણાય અને ગરમીના સમયમાં ઉનાળામાં ઠંડક આપે તેવી ભૂમિ સર્વોત્તમ જાણવી. તેવી ભૂમિ વસવાટને યોગ્ય વિશ્વકર્માએ કહી છે.
झाडमें जो उष्मादात्री हो, गर्भीमे ठंडी-शित प्रदान करती हो, यह भूमि बसने के लिये सर्व श्रेष्ठ कही है। एसा श्री विश्वकर्मा कहेते है। अथ दिग् साधनम्
दिग्शुद्धि कृते वास्तौ दिग्मूढ वास्तु घेधकृत् ।
जीर्णे तु स्थापिते वास्तु धोदोषो न विद्यते ॥१०॥ થાશય, નગર, દેવમંદિર, રાજભવન, ઘરે આદિ વાસ્તુ શુદ્ધ દિશાનું સાધન કરીને શુદ્ધ દિશામાં બાંધવા. પરંતુ તે દિમુખ વિદિશામાં થાય તે દિમૂઢ વાસ્તુવેધ જાણુ. પરંતુ જીણું વાસ્તુ ભવન કે પ્રાસાદ કે ગૃહ જે વિમૂઢ હોય તે તેના જીર્ણોદ્ધારમાં તેને દેષ ન જાણો.
जलाश्रय, नगर, देवप्रासाद राजभवन और गृहादि वास्तु दिग्साधन झेनेके बाद शुद्ध दिशामें निर्माण करना चाहिये । किन्तु यदि दिग्मूद
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विदिशामें हो तो उसे दिग्मूढ वस्तुवेध समझना । परंतु जीर्ण वास्तु भवन या प्रासाद यदि दिग्मूढ हो तो भी जीर्णोद्धार में दोष नहीं है।
पूर्वोत्तरे च दिग्मूढ मूढ पश्चिम दक्षिणे ।
तय मूढ' अमूह वा तत्तु तीर्थ समं हितम् ॥ ११ ॥ પૂર્વ અને ઉત્તર દિશા વચ્ચે એટલે કે ઈશાનકાણ તરફ વક્ર દિમૂઢ હોય અગર પશ્ચિમ અને દક્ષિણ દિશા વચ્ચે એટલે નિત્યકાણ તરફ વક દિમૂઢ હોય તે તે દિમૂઢ ન જાણવું. તે તીર્થ સમાન જાણવું. (તીર્થ સમાન खित४२ छे.) ११.
पूर्व और उत्तर के बीच अर्थात् इशानकोणमें या पश्चिम और दक्षिण के बीच नैऋन्यकाणमें चक्र दिग्मूढ होतो दिग्मूढ न मानना । यह तीर्थ समझना चाहिये (तीर्थ सम हितकर है. ) ११ सिद्धायतम तीर्थेषु नदीना संगमेषु च स्वयंभू वाण लिङ्गेषु नत्र दोषो न विद्यते जिनेन्द्राणां समवसरणे दिग्दोषो न विद्यते ।।१२।।३ सूत्रसंतान
વળી દિમૂઢને દેષ ક્યાં ક્યાં નથી લાગતો તે કહે છે કે સિદ્ધપુરુષને આશ્રમમાં, તીર્થસ્થાનમાં, નદીના સંગમ સ્થાને, સ્વયંભૂ લિંગના મંદિર માટે દિમૂહને દોષ લાગતું નથી; વળી જૈન તીર્થકરના સમવસરણની રચના કરવાની હોય ત્યાં દિમૂહનો દોષ લાગતું નથી. ૧૨.
दिशादोष कहां नही लगता है ? सिद्धपुरुषोंके आश्रममें, तीर्थस्थानमें, नदीका संगम स्थानमे, स्वयंभू बाण लिंग के मंदिरमें, दिग्मुख का दोष लगता नही. और जैन तीर्थंकरोंकी समवसरणकी रचनाका स्थानमें दिशादोष लगता नही । १२ शल्य शुद्धिर-जलांतिकं स्थित शल्यं प्रासादे दोषदं नृणाम् ।
तस्मात्प्रासादिकी भुमि खनेत् शिला जलान्विकाम् ॥१३॥ २ इस श्लोकका अर्थ और रीतसे बिठानेका मत है। कि पूर्वादि दिशामांमें जमीन न हो नो दिग्मुख होता है । दुसरा मत यह भि होता हे कि तीर्थ स्थानमें यालो जीर्णोद्धार जैसा हो तो दोष नहो है।
३ अपराजित सूत्र ३५१
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દેવમંદિરમાં શલ્ય જળ સુધી દોષકારક કહ્યું છે. તેથી પ્રાસાદની ભૂમિ પાણી આવે ત્યાં સુધી કે બાઝેલ પથ્થર (મેરમ) કે ઊંડે રેતી આવે ત્યાં સુધી પાયે ખેદ. ( જે પ્રદેશમાં રેતાળ ભૂમિ=જમીન હેય ત્યાં શલ્ય શુદ્ધિ થાય તેટલે ઊંડે પાયે ખેતીને શિલા સ્થાપન કરવી. ) ૧૩
देवमंदिरमें शल्य जल तक दोषकर्ता कहा है। इससे प्रासाद भूमिके लिये तो जल या ठोस पत्थर तक यातो गहरेमें रेत आ जावे वहां तक . नांव गाडना चाहिये। (जिस प्रदेशमें रेतीली जमीन हो वहां शल्य शुद्धि वहां तक गहरे ब्राकर कूर्मशिला रोपण करना चाहिये । १३
पाषाणं त जलांत वा वालुकांत खनेह भूमिम् । केशां गारा काष्ट लोहा स्थिकांतां शोधयेत् भूमिम् ॥१४॥ प्रकीर्ण वास्तु
કેટલાક આચાર્યો કહે છે કે પથ્થર આવે ત્યાં સુધી કે પાણી આવે ત્યાંસુધી ઊંડે કે રેતી આવે ત્યાં સુધી પાયે ખેદી ભૂમિ શુદ્ધ કરીને શિલા स्थापना भाटे (हेवमहिनी भूभिर्नु ) मनन ४२९. श-(वा) ससाલાકડું, લટું, હાડકાં, રાખ આદિ શલ્યનું ધન ભૂમિમાં કરી જમીન શુદ્ધિ કરવી. ( ખોપરી શીંગડા વગેરે શલ્ય છે. ધાતુ, દ્રવ્ય ને ધાન્યને પણ ઉત્તમ સલ્ય કહ્યું છે પણ તે કાઢી લેવું) ૧૪
कई आचार्योंका मंतव्य है. किं शिला स्थापन के लिये देव मूमिको पत्थर, पाणी या तो गहरे में शुद्ध बालू आजाय वहां तक नींव खोदना
वास्तुराज और कलानिधि ग्रंथोमें देवमंदिरका नींव कोतना गहरे मोदना :
शिलान्त वा जलान्त वा वालुकान्त खनेत्तं च ।
गापुरं च महाक्षारि इश्यंते खात लक्षयाम् ॥ वास्तुराज દેવમંદિર-ગાપુર-બજાણકાદિન પા પથ્થર કે પાણી આવે ત્યાં સુધી કે જ્યાં એકલી જ આવતી હોય ત્યાં ઊંડે બાઝેરી રતી સુધી દયા. તે તમે લહાણું જાણવા પ ડે દવાને હેતુ વાલ્વ શેધન અને ભારતની દઢતાને છે તે લક્ષમાં રાખીને
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देवमंदिर-गापुर-बलाणकादि का नींव पाषाण, जल या द्रढ पालु-तक खोदना यह खानक लक्षण जानना-घेरा नींव खोदनेका हेतु. शल्य शोधन और मापनकी द्रढताका है।
भस्माङ्गार काप्टेन नख शाषण चर्मणि: शृङ्गास्थि कपालथ शल्य शुद्धिः कृते सति ॥ मत्स्यपुराण.
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(९)
चाहिये । बाल, कोयला, लकडी, लोहा, हड्डी, भस्म = राख आदि शल्यांका शोधन करके जमीन शुद्ध करना । १४
अथ गणितः
आय ऋक्ष गण चंद्र चतुरंङ्गा प्रयोजयेत् ।
आयव्ययोरंश शुद्धि जीर्णो चितयेत्गृहे || १५ || प्रकीर्ण वास्तु
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चित्रकथ दर्शन
चित्ररूप प्रनोल्या
चिनुरसंभ बेड यान
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प्रताल्या स्वरूप
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विचिच प्रतोल्या
चतुस्थम
मकरध्व अलोल्या
चतुष्किका रूप विशेषस्थ स्म युष्म
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( ૨૦ ) ક નવીન પ્રાસાદ કે રાજભવન કે ઘરમાં (૧) આય (૨) નક્ષત્ર (3) ગણ (૪) ચંદ્ર એ ચાર અર્થે ગણિતનાં મેળવવાં, પરંતુ જીર્ણોદ્ધાર વાસ્તુમાં આચ, વ્યય કે અંશકની શુદ્ધિ જોવાની જરૂર નથી. ૧૫ ' .
નવીર રાસાઃ રામવન ગૌર જુદો (?) મા (૨) નક્ષત્ર (३) गण और (४) चंद्र इन चार गणित के अंगोको मिलाना, लेकिन नीर्ण वास्तुमें आय, व्यय या अंशको शुद्धिकी जरुरत नहि है । १५ દેવમંદિરની કઈ દિશામાં ઘર ન કરવું –
वर्जयेदर्हतः पृष्टमग्रं तु शिव सूर्ययोः । ब्रमाविष्णु च पार्श्वन्तु चंडी सर्वत्र वर्जयेत् ॥ १६ ॥ विवेक विलास
જિન તીર્થકરના મંદિરની પાછળ, શિવ અને સૂર્યના આગળ, બ્રહ્મા અને વિષ્ણુના પડખે અને ચંડીદેવીના મંદિરની કેઇ પણ બાજુમાં નજીક ઘર ન કરવું. ૧૬
जिन तीर्थकरके मंदिरके पीछले भागमें, शिव और सूर्य के अग्र भागमें, ब्रह्मा और विष्णु के बाजु-धार्थ में और चंडीके नजदीक किसी भी भागमे मनुष्यको घर न बनाना चाहिये । १६
૯ નેટ-નાગદ શિલ્પપ્રથમ એક ૧૫ પ્રમાણે ભણત મેળવવાનું કહ્યું છે તે ઉપરાંત એકવીશ અંગે મેલવવાનું આયતત્ત્વાદિ ગ્રંથમાં કહ્યું છે, પણ તે દુર્લભ છે. ઉત્તરપ્રદેશોમાં આ ગણિતની જુદી રીતે કહી છે. ક્ષેત્રફલને અમુક અમુક વડે ગુણાકાર કરી અમુક ભાગે ભાગવાના કહ્યા છે. કવિ શિલ્પષ્યમાં પણ આવ, નક્ષત્રાદિ અંગે મેલવવાનું કહ્યું છે,
देव देव मनुयाय राक्षमध्या चक्रक्षेयो
उदय आय वर्ण च हे मुनि सुखकारयेत् ॥ દેવાલયને દેવગણ ઘરમાં મનુષ્યગણ અને અધમ જાતિનાને રાક્ષસગણના નક્ષત્ર ગણિત 'તમ મેળવવા હે મુનિ ઘરની ઉભણીને આય વર્ણ પ્રમાણે દેવો એવો અહીં અર્થ કરવામાં
આવે છે. દેવ કે મનુષ્યને જન્મ નક્ષત્રને જે મણ હોય તે મેળવે પરંતુ અવહારમાં શિલ્પીઓ ને ધર્માચાર્યો ? મતનું સમર્થન કરતા નથી.
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( ११ )
नामिषेधः - ६ अग्रतः पृष्ठतश्चैव वाम दक्षिण तोऽपिवा ।
प्रासाद' कारयेदन्य' नाभिवेध विवर्जयेत् ॥ १७॥ अपराजित सूत्र
કોઈ પણ પ્રાસાદની આજુબાજુ બીજે પ્રાસાદ કરવાના હોય તે આગળ, પાછળ કે પડખાના ગવૈધ થવા ન દેવા. મૂળ પ્રાસાદના ગલે અન્ય પ્રાસાદ કરવા. જો ગવેધ થાય તે નાભિવેધના દોષ જાવ અને તે तव १७
जब एक प्रासाद की आगेपीछेके बगलमें अन्य प्रासाद निर्माण करनेका हो, तब मूल मंदिरके आगे पीछे या बगलका गर्भवेध न होना चाहिये. जो गर्भवेध हो जाय तो इसे नाभिवेध कहते है । वह अवश्य त्याज्य है | १७
शिवस्याग्रे शिवं कुर्यात् ब्रह्माण ब्रह्मणोऽग्रतः । बिष्णोरग्रे भवेद्विष्णु जिनो जैने वो रविः ॥ १८ ॥
ब्रह्मा विष्णोरेक नाभौ द्वर्यो देषिो न विद्यते । शिवस्याग्रेऽन्य देवस्य दृष्टि वेधान्महाभयम् || १९ ॥
શિવના મદિર સામે શિવનું, બ્રહ્માના સામે બ્રહ્માનું, વિષ્ણુના સામે વિષ્ણુનું, જૈનના સામે જૈનનું, સૂના સામે સૂર્યનું મંદિર બાંધવું તે નાભિ
નાભવેલમાં સન્મુખ કે પાછી તે ઠીક છે, પરંતુ પડખે ખીજું મંદિર કરવાનું ડાય અને જો જગાની વક્રતા ય તો ગર્ભગૃહ કે મહપના કે છેવટ ચતુષ્ટિકાના ગભ મેળવીને અન્ય મંદિરનું નિર્માણુ કરવું; તેમ કરતાં એક ખીજાતાં સ્તંભ કે ક્રાણુના વધ ન થાય તે લક્ષમાં રાખવુ.
नाभिवेध में आगे पीछेकी बात तो ठीक है लेकिन पार्श्व में दूसरा मंदिर बनाना हो और जगह की वक्रता हो तो कर्भगृह मंडप या चतुष्किका के गर्भ मिलाकर अन्य मन्दिर का निर्माण करना, धर्ना किसी एक दुसरा मंदिर का स्तंभ या कोणका वेध न हो यह ख्याल में रखना चाहिये ।
चण्डिका भवेन्माता, यक्षः क्षेत्रादि भैरवः । शैयास्तेषामभिमुखे ये मेषां च हितैषिणः ॥
ચદંડના સામે કાઈ માતાનુ, યક્ષ, ક્ષેત્રપાળ, ભૈરવનું, એમ એક સામસામે મુખે થર્ષ કે.
जिमेद्रस्य तथा यक्षा देवाच जिनमातृकाः ।
आश्रयन्ति जिन सर्वे ये योका जिनशासनः ॥
જિન, યક્ષ, વગેરે સવ જિનક્રાસનના દેવ-દેવીઓ જિનના આશ્રયના જે,
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વેધ તજીને બાંધવું. બ્રહ્મા અને વિષ્ણુના મંદિર એક સામસામા એક નાભિએ બાંધવામાં આવે તે દેશ નથી, પરંતુ શિવમંદિરની સામે અન્ય કોઈ પણ દેવ સ્થાપન ન કરવાનું કારણ કે દ્રષ્ટિવેધથી મહાભય ઉપજે છે. સૂર્યના માટે પણ તેમજ અન્ય ગ્રંથમાં કહ્યું છે. ૧૮-૧૯
शिवमंदिरके सामने शिवका, ब्रह्माके सामने ब्रह्माका, विष्णुके सामने विष्णुका, जिनके सामने जिनका, सूर्य के सामने सूर्य का मंदिर नाभिषेध छोडकर करना. ब्रह्मा और विष्णु के मंदिर एक ही नाभि पर करना इसमें दोष नही किन्तु शिव मंदिर के सामने किसीके भी मंदिरकी स्थापना न करना क्यों कि इससे द्रष्टिवेधसे महाभय पैदा होता है। ( अन्य ग्रन्थोमें सूर्य के लिये भी असा ही कहा है ) १८-१९
प्रसिद्ध राजमार्गे च प्राकारस्यान्तरेऽपि वा । 'त्यक्त्वा द्विगुणीतां भूमि तत्र दोषो न विद्यते ।२०|| मुत्रसंतान - નાભિધમાં કે અન્ય બીજા વેધ વચ્ચે જે પ્રસિદ્ધ રાજમાર્ગ હોય, કિલો હોય અગર કઈ અંતર વંડી જેવું હોય અગર તે વેધસ્થાનથી બમણી ઊંચાઈ જેટલી ભૂમિ તજીને જે તે વેધ હોય તે તેને દેવ सागत नथी. २० . नाभिवेध या अन्यवेध बीचमें सरेआम राजमार्ग हो, किल्ला हो या दिवारका अंतर जैसा हो या षेध स्थान से द्विगुणी भूमि छोडकर गे वेध हो तो उसका दोष नहीं है । २० उच्छायाद् भूमि द्विगुणा त्यक्त्या चैत्ये चतुर्गणाम् । वेषादि दोषो नैवस्यादेव त्वष्ट मत तथा ॥२१॥ आचार दिनकर
આ ચાર દિનકરમાં કહ્યું છે કે ઘરની ચાઈબી બમણી બ િતજીને અને જિન ય મંદિરની ઊંચાઈથી ચારગણી ભૂમિ તને જે સાચ વેધાદિ દેષ હોય તે તે દોષ લાગતું નથી એવું વિશ્વકર્માનું કથન છે. ૨૧
आचार दिनकर ग्रन्थमें कहा है कि परकी ऊंचाइसे द्विगुणा भूमि तजना और जैनमंदिर की उंचाइसे चौगुनी भूमि छोडकर जो सामने वेधादि दोष हो तो भी वह दोष लगता नहीं है असा विश्वकर्माका कथन है । १
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(१३) कुर्मे कुम्मे पटेद्वारे पद्मारव्यां यां तु पौरुषे । घट ध्वजयोः प्रतिष्ठा यामेव पुण्याह सप्तके ॥ २२ ॥
પ્રાસાદ બનાવતાં ચૌદ વખત મુહૂર્તોમાં વાસ્તુ શાન્તિ કરવાનું કહ્યું છે. पर तमाये (१) शिक्षा स्थापन समये, (२) नियतले,(3) पाट स्थापने (४) १२ स्थापन, (५) पशिखा समये, (६) प्रासाई पुरुष स्थापनेઆમલસા સ્થાપન સમયે અને છેલ્લે, (૭) ધ્વજા પ્રતિષ્ઠા સમયે એમ સાત વખત પુણ્યાહ પ્રસંગે મુહૂર્ત અવશ્ય વાસ્તુ પૂજન કરવું. ૨૨
प्रासाद निर्माण कालमें चौदह मुहूर्तमे वास्तु शान्ति करनी चाहिये. फिर भी उसमें शिला स्थापन समय पर कुंभस्तंभ द्वार स्थापन पाट भारोट लगाने पद्मशिला लगाने का प्रासाद पुरुष स्थापन काले आमल मारा ध्वजा प्रतिष्ठा समय दिन मात्र पुण्याह प्रसंगोपर वास्तु पूजन अवश्य करना । २२ अब प्रासाद येवाधि:--
विभक्ति बालच्छन्दाय शिग्वरोध हि कारयेत् । अर्धा भिवानक रूपाने तलच्छेद तथाभिधम् ॥ २३ ॥
પ્રાસાદના તળદને વિભક્તિ પ્રમાણે જ ઉપર શિખર કરવું, ઉપરનું શિખર જે નામથી ઓળખાતું હોય તેજ તળ છેદ રાખવું તેમાં ફેરફાર हिन ४२२१. २३
प्रासादके तळच्छेदकी विभक्ति अनुसार ही ऊपर शिखर करना; ऊपरका शिखर जिस नामसे ज्ञान हो उसको हो नलच्छेद रखना चाहिये। ईसमें कभी फेर नहीं करना चाहिये । २३
हीनपाने को देपा कराने तान समासतः ।। ' आधुनि बार होने कौलि हीने धनक्षयः ॥ २४ ॥
अपद स्थापना नभै महारोगो विनिदिशेत् । स्तंभ व्यासोद, हीने कान्ता तत्र विनश्यति ॥ २५ ॥
શાસ્ત્રમાં કહેલા માનથી ઓછું કરવાથી થતા દો હું કહું છું - હાર માનથી હીન કરવાથી આયુષ્ય ઘટે, કૌલી નાની કરવાથી લક્ષ્મીને
७ नातिहीने-मनालीने पाठान्तरे
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નાશ થાય કે અનાહીનથી પણ તે ફરી સ્તંભના પદથી વિમુખ જે સ્તંભ સ્થાપન કરવાથી મહારોગ ઉત્પન્ન થાય. સ્તંભની જાડાઈથી કે ઊંચાઈથી साछु ४२वाथी स्त्रीन। नाश थाय. २४-२५
शास्त्र में कहे हुए प्रमाणसे हीनकम करनेसे होते हुए दोषोंका वर्णन अब में करता हूँ-द्वार मानसे कम करनेसे आयुष्य घरता है. कौली हीन या प्रनाल होन से लक्ष्मी का नाश होता है. पदके स्थानसे
ओर जगह पर स्तंभ रखने से महारोग होता है, संभके प्रमाणसे पतला या ऊचाइ में प्रमाणसे हीन स्तंभ से स्त्रीका नाश होता है । २४-२५ . प्रासादे पीठ हीने तु नश्यति गजवाजिनः ।
रथोपरथ हीने तु प्रजा पीडा विनिर्दिशेत् ॥ २६ ॥ ~ जंघा हीने भवेत् बन्धोर्नाशः कर्तुकारेदिको स्तथा । • शिखरे होनमाने तु नश्यति पुत्र पौत्रकाः ॥ २७ ॥ अपराजित
પ્રાસાદ પીઠ વગરનું કરવાથી હાથીડાના વાહનોની સમૃદ્ધિનો નાશ થાય, પ્રાસાદના રથ ઉપરથનાં ઉપાંગો આદિમાનથી ઓછા કરવાથી પ્રજાને પીડા કરાવે, મંડોવરની જંઘા ઓછી કરવાથી ભાઈઓ અને કર્તા કરાવનારને નાશ થાય, શિખર પ્રમાણુથી નાનું કરવાથી પુત્ર અને પૌત્રોને नाश थाय, २६-२७
प्रासाद के पोठ बीमा करने से हाथी घोडाका बहिनकी समृद्धिका नाश होता है. प्रासादके अंगो पाइ रथ उपरथ भवादि मानसे काम करनेसे प्रजाको पीडा होती है। मंडोवरकी जंघा हीनसे भाईयों कर्ता और कराने चालोंका नाश होता है। प्रमाण में छोटा शिखर बनानेसे पुत्र परिवारका नाश होता है । २६-२७
अति दीर्थे कुलोच्छेदा इस्त्रे व्याधि समुद्भवः । स्थपुटे स्थापने पीडा कर्ता तत्र विनश्यति ॥ २८ ॥ स्कंध होनो कबंधश्च समसंधि शिरोगुरु ।
अपसारिते पादश्च पंचते धन नाशकाः ॥ २९ ॥ अपराजितसूत्र શિખર તેના પ્રમાણુથી લાંબું કરવાથી કુળને નાશ થાય, વધુ ટૂંકું કરવાથી વ્યાધિરેગ થાય-(૧) શિખર બાંધણે કપે ઓછું કરવાથી, (૨)
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ચપટ ઘેરામાં આધવગરનું શિખર, (૩) સાંધચાળા વગરનું अभ, (४) નીચેથી સાંકડુ અને માથા ભારે કામ, (૫) પ્રમાણથી નીચે સાંકડું હોય એ પાંચ દોષ ધન=લક્ષ્મી નાશ કરવાવાળા છે. ૨૮-૨૯
18.
शिखरप्रमाणसे लम्बा करनेसे कुलका नाश होता है. छोटा करने से व्याधि रोग होता है. स्थूल नीचेसें बेहद मोटा करनेसे करानेवालों को uter कारक और नाश करने वाला होता है । ( १ ) शीखर बांधणे काम हो (२) चपट थरके बंध विना (३) सांध पर सांध हो ( ४ ) ऊपर चौड़ा और नीचेसे संकडा ( ५ ) प्रमाणसे नीचेका संकडा हो जैसा पांच दोष लक्ष्मीका नाश करता है । २८-२९
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दिग्मूढो नष्ट छन्दश्च द्वायते होने शिगेगुरुः । ज्ञेया दोषास्तु चत्वारो प्रासादाः कर्मदारुणाः ||३०|| अपराजितसूत्र
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छे - ( १ ) हिग्भूढ होय, (२) छडलग, (3) હાય અને (૪) માથા ભારે કામ હોય તે
बजी सीन यार होतो વ્યયથી ઓછે ને અશુભ પ્રાસાદ કમમાં મહાભય‘કર ચારે દાષા જાણવા. ૩૦
और चार दोष कहा है- (१) (१) व्ययसे कम और अशुभ आय हो तो वह प्रासाद कर्ममे महाभयंकर चार मानाधिक न कर्तव्य मानहीनं शास्त्रोक्त विधि मान शुभ सर्व कामसु ॥ ३१ ॥ निर्दोषवास्तु શાસ્ત્રમાં કહેલા માનથી અધિક ન કરવું, તેમ માનથી આધુ પશુ ન કરવું, પરંતુ શાસ્ત્રોમાં કહેલા માન વિધિથી સવ કાર્ય કરવાથી તે શ્રેયને આપનારૂં જાણવું. ૩૧
न कारयेत् ।
दिग्मूढ हो
(२) छंदभंग हो
( ४ ) और शिरसे भारी कार्य हों दोष है । ३०
शास्त्रमें कहे हुए मानसे हीन या अधिक कार्यं न करना किन्तु शास्त्रोंके कहे अनुसार विधिमानसे करनेसे कार्य श्रेयस्कर होता है । ३१ यमचुलीषेधः
एक द्वित्रिक मात्राभि गर्भगेह यदायतम् ।
यमचुली स्तदा नाम कर्तृ भर्त्र विनाशिकः ||३२|| अपराजित सूत्र પ્રાસાદને ગર્ભ ગૃહ (મ`ડપ કે ચેકીના પદ) પહેાળાઈથી એક એ ત્રણ માત્રા ઊંડાઈમાં વધુ હાય તા તે બાંધનાર અને અંધાવનારને વિનાશ કરનારી યમશુલ્લી નામના વેધ જાણવા. ૩૨
प्रासादका गर्भगृह (मंडप या चोकोकापद ) चोढाइसे एक दो या तीन मात्रा से भी गहराई में जास्ती हो तो वह कराने वाले और शिल्पी का विनाशक यमचुल्ली वेध कहते है । ३२
अगत्यां लोपयेद्च्छाला शालायां मंडपं तथा
मंडपे नैव प्रासादा ग्रस्त वैद् दोषकारकः ||३३|| प्रासादमंडन
જગતીથી શાલા (ચાકી), ચાકીથી મંડપ અને માઁડપથી પ્રાસાદને ગભગૃહ એમ ઉત્તરાત્તર ભૂમિતલ ઊંચાં ઊંચાં કરવાં, તેમ ન કરવાથી દોષ કારક થાય છે. તેથી તે ઉપર કહ્યા તેમ ઉત્તરાત્તર ભૂમિ ઊંચી કરતાં જવું. ૩૩ जगतीसे शाला ( चौकी), चौकीसे मंडप और मंडपसे प्रासादका गर्भगृह यही रीतसे उत्तरोत्तर भूमितल उचा उंचा करना । भूमितक
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नीची करने से दोषकारक है। (इससे उपर कहे अनुसार उत्तरोत्तर भूमि ची कराते जाना ) ३३
भित्तेः पृथुत्वे यन्मानं तच्छृत क्रम ऊर्ध्वतः ।। गर्भमध्ये यदा रेखा महामम क्षया वहा ॥ ३४ ॥ सूत्रसंतान
પ્રાસાદની ભીતની જાડાઈના માન પ્રમાણે ઉપર શિખરના શૃંગો કમથી ચઢાવવા. પરંતુ મૂળશિખરની રેખા પાય જે ગર્ભગૃહમાં ગળે તે તે નાશ કરનારો એવો મહામર્મ ઉપજાવનાર દેષ ઉત્પન્ન થાય, માટે ગભારામાં શિખરનો પાયો ગળવા ન દે. ૩૪
प्रासादकी दीवारोंकी चौडाइके मान अनुसार ऊपरके शिखरोंके श्रृङ्ग क्रमसे चढाना. परन्तु शिखरकी मुख्य रेखाका पायचा अगर जो गर्भगृहमें गलता हो तो वह नाशकर्ता एसा महामम दोष पैदा करता है। ( इस लिये गर्भ गृहमें शिखरका पायचा गलना न चाहिये) ३४
८ छन्दभेदा न कर्तव्यो जाति में दो न वा पुनः ।
उद्भवेच्च महामी जाति भेदे कृते सति ॥ ३५ ॥ सूत्रसंतान ૮ ઉદભેદના સામાન્ય અર્થ શિલ્પીઓમાં એક સરખુ જેવું, એક બાજુ હોય તેવું બીજી બાજુ હોવું જોઇએ એમ મનાય છે. પરંતુ અંદભેદ સમજવા માટે ઘણું વાચવું વિચારવાનું છે. તેવું સાહિત્ય શિપમાં છે સંગીત, કાવ્ય, રાગ, રાગણી, સ્વર અદિમાં લઘુગુરૂ છે તેવી રીતે શિપમાં પણ તેના છ પ્રકાર છંદના બનાવેલ છે. (૧) भेरु' (२) ५७७४ (3) ७६ (४) भूमिछ। () GREE (6) था.
મેહંદમાં નાગરા, વિદિ, ભૂમજાદ. લતિનાદિ, સાંધાર, વિરાટાદિ એ છ ઈt રહ્યા છે, એવી જ રીતે ગૂઢમંડપના છ છદ-સતારા મંડપના છંદ, વિતાન (ઘુમટ)ના છંદ, શાલાના છંદ, પીઠના છંદ, લિંગના છંદ, વેદિકાન છંદ, નગરના છંદ, જળાશયના છંદ, રથયંત્રના છંદ, એમ અનેક છદો કયા છે. તે બધું ઘણું વિચારવા સમજાયેગ્ય છે.
छदभेदका सामान्य अर्थ शितिपआंमें एक समान; एक ओर हो जैसा दुसरी और समान हो मेसा होता है किन्तु छंदभेद समझने में खूब मननीय विचारणीय साहित्य शिल्पशास्त्रमे है, संगीत, काव्य, कला, स्वर, राय, रागिनी आदिमे लघुगुरु कहा है. असा शिल्पमें भी छ प्रकारके भेद बताये है. (१) मेरुछन्द (२) खन्डछन्द (३) पताकाछन् (४) सूविछन्द (५) उदिष्ट छन्द (६) नष्टछन्द कहा है। मेरुछन्दमें (१) नागरा (२) द्राविड (३) लतिन (४) भूमिज (4) विराट (६) सांधार छन्द है. गूढनृत्य चंद्रावलोक, भद्रावलोक आदि जैसे मटपके छन्द है. वितान (गुंबज ) के छन्द, शालाका इंद, पीठके छंद, लिङ्गके छंद, वेदिका छद, नगर के, जलाश्रयोंके, रथयंत्रके आदि अनेक छंद कहें है. यह सब मननीय है।
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( १९ )
છંદભેદ કે જાતિભેદના દાયે થવા ન દેવા; જાતિભેદથી મહામમ ને રાષ ઉપજે છે. ૩૫
छन्दभेद और जाति भेदके दोष न होना चाहिये. जातिभेदसे महाममं दोष पैदा होता है ।
३५
प्रासाद मठ मंदिरम् ।
पद हीन न कर्तव्य एक स्तंभे कृते द्वारे पुत्र पत्नी धन क्षयः || ३६ || सूत्रसंतान
દેવપ્રાસાદ, રાજપ્રાસાદ, મઠે કે જળાશયમાં પદ હીન ન કરવું. એક સૂત્રમાં જ્યાં સ્તંભા આવે તેમજ મૂકવા. આડા એક સ્ત'ભુ કે એકી સ્તંભે કે ઘરના વચ્ચે એકજ સ્તભ આવે તા તે વેષથી પુત્ર, શ્રી અને લક્ષ્મીના નાશ થાય. ૩૬
देवप्रासाद, राजप्रासाद या मठ या जलाश्रयो में पद हीने न करना, एक सूत्रमें जहां स्तंभो पंक्तिमें खड़े करना. द्वारके मध्यमे स्तंभ नींदनीय है. एक स्तंभो या घर में एक स्तंभ होने से वेधदोषसे पुत्र, स्त्री और लक्ष्मtar नाश होता है । ३६
दीर्घ मानाधिक स्वे चक्रे चापि सुरालये । छन्दमेदे जातिभेदे हीनमाने महद्भयम् ॥ ३७ ॥ सूत्रसंतान
દેવાલય માનથી લાંબુ, ટૂ'કુ` કે વાંકુ કે છંદભેદ કે જાતિભેદથી પર હાય કે માનહીન હોય તે દેાષથી મહાલય ઉપજે છે. દ્વાર વચ્ચે એક સ્તંભ કે ખૂણા શાખના ગાળામાં હોય તે દોષ મહાલય ઉપજાવે. પરંતુ દ્વારના ગાળામાં બે સ્તભ કે એ ખૂા મળતા હાય તે દોષ नथी.
( युग्मेषु भवेद् श्रेष्ठ) २७
देवालय मानसे लंबा, ट्रंका, वक्र या छंदभेद या जातिभेदसे पर हो या मानहीन होता महा भय कर्ता है. दरवाजे के बीच एक स्तंभ या कोना गलता हो तो दोष है किन्तु दो स्तंभ या कोने गळते होतो दोष नहीं है । ३७
समतल च विषम संघाटो मुखमंडपे ।
भित्यन्तरे यदा स्तंभः पट्टादि नैव दृष्यते ।। ३८ ।। सूत्रसंतान
પ્રાસાદના આગળ મુખમ’ડપ જોડતા જો એ ખંડ ઊંચાનીચા વચ્ચે ભીંતનું
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(२०) અંતર હોય તે સ્તંભ કે પાટ આદિ સમવિષમ, આઘાપાછા કે ઊંચાનીચા હેય તે તેમાં દોષ લાગતો નથી. (અંતર ન હોય તે દોષ જાણવો.) ૩૮ __प्रासादके सन्मुख मंडप जोडनेमें विचमें दीवारका अंतर हो तो स्तंभो या पट्टादि सम विषम या उच नीचा हो तो दोष नहीं होता है। ३८
क्षणमध्येषु सर्वेषु स्तंभमेक न दापयेत् । दद्याद्युग्माकारमेव मूलगर्भ न पीडयेत् ॥ ३९ ॥
એક ખંડ કે પદની વચ્ચે આડે એક તંભ ન મૂકો, પરંતુ બે જે સ્તંભ મૂકવા. પણ ગર્ભ પડાવા ન દે. (ગર્ભ દબાવા ન દે.) ૩૯
एक खंड या पदके बीच एकही स्तंभ न रखना. बल्कि दोका योग युग्म स्तंभ रखना. फिम्त मूल गर्न दबना न चाहिये । ३९
अल्पलेप बहुलेप समसंधिः शिगे गुरुः । अप्रतिष्ठा पादहीनं तच्च वास्तु विनश्यति ॥ ४० ॥ सूत्रसंतान
ચણતર કામમાં સાંધામાં છે ચૂનો કે બહુ સૂનો ભરેલ હોય તેમજ ચણતર કામમાં નીચે ઉપરના થરને સાંધ ચાળે ન હોય તો અગર કામ માથાભારે (નીચે એસાર એ છે ને ઉપર વધુ હોય) હોય અગર પાયા પીઠ વગરનું હોય તેવું વાસ્તુ પ્રાસાદ, રાજભવન, મઠ કે જળાશય નાશને ४२॥३ . ४०
काममें चुनाकम या ज्यादा हो. थरका सांध चाला न हो. मस्तक भारि काम हो या तो नीम पीड वगैरा कम हो यह वास्तु नाशकरने वाला जानना । ४० अथभिन्नदोषः-भिन्नदोषकर यत्स्यात् प्रासाद मठ मंदिरम् ।
मूषकै जर्जालकै द्वारा राश्मिभि च प्रभेदितम् ।। ४१ ।। ब्रह्मा विष्णु शिवाणां भिन्नदोषानदृष्यते ।
जिन गौरि गणेशानां गृहे भिन्नं विवर्जयेत् ।।४२॥ सूत्रसंतान પ્રાસાદ, મઠ કે મંદિરને ભિન્નદોષ કહ્યો છે; ઉંદર કે કળીયાના જાળાં હેય અગર ભીતે ફાટીને સૂર્યના કિરણો ગર્ભગૃહમાં પ્રવેશતાં હેય તે તે ભિન્નદેષ જાણવઃ બ્રહ્મા, વિષ્ણુ અને શિવના દેવમંદિરમાં ભિન્નદોષ લાગતો નથી, પરંતુ જિન, પાર્વતી અને ગણેશના મંદિરમાં ભિન્નદેષ सागे छ. ४१-४२
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(२२) प्रासाद गड या मंदिरको भिन्नदोष कहा है चूहे या माटाके जाले हो या दीवार जर्जरीत होनेसे सूर्यका किरण गर्भगृहमें दाखिल होती हो तो भित्रदोष कहते है. ब्रह्मा, विष्णु या महेशके मंदिरोंमे भिन्नदोष नही लगता; वरना जिन, पार्वती और गणेशजीकी मंदिरोंमे भित्रदोष लगता है। ४१-४२
मंडलं जालकं चैव कीलक मुषिर' तथा । छिद्र संषिश्चकाराच महादोषा इति स्मृता ॥ ४३ ॥ सूत्रसतान
પ્રાસાદ કે ઘરમાં ભમરા મંડળ કરે, કરેળીયા જાળાં કરે, જીવડાં છેતરી બાંકા પાડે, ભમરા દર કરે-છિદ્ર પાડે, (પ્લાસ્તર) ચૂનામાં તો પડે, પિપડી પડે, ભી તેમાં ચીરા પડે તે મહાદેષકારક ભિન્નદોષ જાણવા. અર્થાત્ કર્તાએ જીદ્ધાર કરાવ. ૪૩
प्रासाद या घरमें भौंरे, मकडी, भुनगे आदि भितोमे, जाले छिद्र आदि करे या चूनेमें फटीव करें तो यह महादोष कारक भिन्नदोष समझना अर्थात् कर्ताको प्रासाद भवनका जीर्णोद्धार कराना चाहिये । ४३
भूत प्रेत पिशादि राक्षसाच वसन्तिकः । तस्मात्प्रासाद निष्यन्ने सर्वथा प्रोक्षण चरेत् ॥ ४४ ॥
મયઋષિએ કહ્યું છે કે પ્રાસાદ દેવ વગરને અપૂજય (વાશી) રાખવાથી તેમાં ભૂત, પ્રેત, પિશાચ, રાક્ષસને વાસ થાય છે માટે પ્રાસાદમાં હંમેશા ₹५ ५५५५. ४४
मय ऋषिने कहा है कि प्रासाद देवहीन अपूज्य रखनेसे उसमें भूत प्रेत पिशाच और राक्षसका वास होता है. अतः प्रासादमें हमेशा देव विराजमान करना । ४४
निश्चिन्हें शिखर द्रष्वा ध्वजाहीन तथैव च । अमुरा वास मिच्छन्ति वजाहान मुगलये ॥४५॥ प्रासाद मंडन
ધ્વજાના ચિહ્ન વગરના દેવાલય જોઈને અસુરે વાસ કરવાને ઈચ્છે છે માટે મંદિરમાં દેવ પધરાવીને ધ્વજા ચઢાવવી. ધ્વજા વગરને પ્રાસાદ ન રાખે. ૪૫
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(२३) ध्वजा चिन्ह विनाका शिखर देवालयका देखकर असुर बास करना चाहते है इस लिये मंदिरमे देव प्रस्थापित करके प्रासादका शिखर ध्वजाहीन नहीं रखना । ४५
९ शुकनासा समा घटा न्यूना श्रेष्ठा न चाधिका ।
एतन्माने न वारांगनाख्ये मंडये च बलाणके ॥४६॥ सूत्रसतान શિખરના ગુનાસ બરાબર મંડપનો આમલસારે કે શામરણની મૂલ ઘંટા સમસૂત્રમાં રાખવા, પરંતુ શુકનારાથી ઘંટા નીચી હોય તે શ્રેષ્ઠ છે. પરંતુ શુકમાસથી ઘટા ઊંચી ન રાખવી એજ માન પ્રમાણ નૃત્યમંડપ કે બલાણુક (પ્રવેશદ્વાર પરનો મંડપ)ના આમલસારા સમસૂત્રમાં રાખવા है शुधनासथी नीया रामवा. ४६
शिखरके शुकनास बराबर मंडपका आमलसारा था उसके शामरणकी मूल घटा समसूत्रमें रखना. शुकनाससें नीची घटा उत्तम. किंतु शुकनाससे ऊचो घटा नही रखना. इसी मानके समसूत्र नृत्यमंडप या बलाणक ( प्रवेश मंडप ) का आमलसाराघटा रखना । ४६
न कदापि ध्वजाद डी स्थाप्यो वै गृहपंदिरे । कलशामलसारौ च शुभदौ परिकिर्तितौ ॥ ४७ ॥ यिवेकविलास
ગૃહસ્થના ઘરમાં જે ગૃહમંદિર હોય તે તે પર કદાપિ ધ્વજદંડ ન ચઢાવ; પરંતુ આમલસારે અને કળશ ચઢાવવાથી તે શુભને દેનારૂં at. ४७
गृहस्थके घरमे अगर देवमंदिर हो तो उस पर कभी धनदंड नही चढाना. किन्त आमलसारा और कलश चढानेसे शुभ देनेबाला समझना । ४७
૯ અપરાજિત સૂત્ર સંતાનના સૂત્ર ૧૮૫ ના તેરમા શ્લોકમાં આ મતનું સમર્થન કરે છે જ્યારે તેજ મંચ અન્ય સ્થળે શુકાસના બરાબર મંડપને આમલસારો સમસત્રમાં રાખવાનું કહી ધંટા નીચે ન રાખવો તેવું કહે છે. પ્રાસાદમંડન, વાસ્તુરાજ, વાસ્તુમંજરી, જ્ઞાનરત્નકોશ આદિ ગ્રંથોમાં મહીં ઉપરોકત આપેલા મતનું સમર્થન કરે છે.
__ अपराजित-सूत्रसंतान के सूत्र १८५ के तेरमे प्रलोक में इस मतका समर्थन करते है हालाकि इसी प्रथमें अन्य स्थल पर शुकनास बराबर मंडपकी घंटा समसूत्र रखना. नीची नहीं रखने का कहा है। प्रासादमण्डन, वास्तुराज, वास्तुमंजरी, शामरत्नकोश आदि ग्रंथोमें यहां उपरोक्त दिये हुए मतका समर्थन किया गया है।
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(२४) -अथ देव प्रतिमा गृहमा प्रमाणादि दोषाः । गृहपूजा योग्य प्रतिमा प्रमाण:
अंगुष्ट पर्व दारम्य वितस्ति बिदेवतु । गृहेषु प्रतिमा पून्या नाधिका शस्यते बुधैः । ४८ ॥ मत्स्यपुराण
१२ મસ્યપુરાણ કરે કહ્યું છે કે અંગુઠાના પર્વથી વહેત (નર્વ આંગુલ) સુધીની દેવ પ્રતિમા ઘરને વિષે જવી. તેથી મેટા પ્રતિમા ગૃહપૂજામાં બુદ્ધિમાને ન રાખવી. નવ હાથની મૂર્તિ સુધી દેવાલયમાં અને તેથી વિશેષ માટી મૂર્તિ ખુલ્લામાં પૂજવાનું વિશ્વકર્માએ અન્ય ગ્રંથોમાં કહ્યું છે. નિર્દોષવાસ્તુમાં બાર આંગળ સુધીની મુર્તિ બ્રાહ્મણને ઘેર, નવ આંગળ સુધીની મૂર્તિ ક્ષત્રિયને ઘેર, સાત આંગળની ધિરને ઘેર, પાંચ આંગળ સુધીની શુદ્ધના ઘરને વિષે પૂજવા કહ્યું છે. ૪૮
मत्स्यपुराण कारने कहा है . अंगूठेको पोरसे बालिन्त (नौ इंच) भरकी देव प्रतिमा घरमें पुजा. इससे बड़ी प्रतिमा गृहपूजामे बुद्धि मानको नहीं रखना चाहिये हायकी मूर्ति देवालयमें पूंजना और इससे बड़ी खुल्लेमें पूजनेका कहा है ) । ४८
(निषि वास्तु ग्रन्थमे बारह आंगुल तफकी मूर्ति ब्राह्मणों के घर, नो आंगुलकी क्षत्रियोंके, सात आंगुलकी वैश्योंके, और पांच इंचकी मूर्ति शुद्रोंके घरमें पूंजनेका कहा है । )
गृह लिङ्गा द्वयं नाय॑ गणेशंत्रयमेव च । शक्ति त्रय तथा शंख मत्स्यादि दशकांकिम्ः ।। ४९ ।। द्वे चक्रे द्वारिकायास्तु शालिग्राम द्वय तथा द्वौ शंखो नार्चयेत् तत्र सूर्य युग्मं तथैव च । देषां च पूजने नैव उद्वेग प्राप्तुयांदही ॥ ५० ॥ रुपमण्डन
ગૃહસ્થને ઘરને વિષે એક પૂજામાં બે લિંગ, ત્રણ ગણપતિ, ત્રણ દેવીપૂર્તિ, ત્રણ શંખ, મસ્યાદિ દશ અવતારો, દ્વારકાના બે મુખવાળા બે શાલિગ્રામ દ્વારકાના બે શંખ, અને બે સૂર્યની મૂર્તિઓ તે સર્વ એક પૂજમાં પૂજવા નહીં. તેથી ઉદ્વેગની પ્રાપ્તિ થાય છે. ૪૯-૫૦
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(२५) गृहस्थके घरमें पूजामें दो लिंग, तीन गणपति, तीन देवीमूर्तियां, तीन शंख, मत्स्यादि दश अवतार, द्वारिकाके दो मुखबाले दो शालिग्राम, द्वारिकाके दो शंख और सूर्य की दो मूर्तियां-इन सब एक पूजामें रखना नहीं चाहिये, क्योंकि उससे उद्वेगकी प्राप्ति होती है ।
नैक हस्तादि तोऽन्यूने प्रासादे स्थिरतां नयेत् । स्थिर न स्थापयेद्रेहे गृहीणां दुःख कुच्चयत् ।। ५१ ॥ सूत्रसंतात
એક ગજથી નાની દેરીમાં સ્થિર લિડ કે પ્રતિમાનું સ્થાપન ન કરવું ગૃહસ્થ પિતાના ઘરમાં મૂર્તિ કે લિડની સ્થિર સ્થાપન કદી ન કરવી. સ્થિર કરવાથી તે દુઃખદાયક થાય છે. ( રૌદ્ર પ્રતિમા ચંડી, ભરવાદિની ગૃહસ્થને ઘેર સ્થાપના ન કરવી. પૂજામાં પ્રતિમા ચળ રાખવી. ) પ૧
एक गजसे छोटी देवकृलिकामे स्थिर लिंङ्ग या प्रतिमाकी स्थापना करना नहीं । गृहस्थको अपने घरमें मूर्ति या लिंङ्गकी स्थापना नहीं करना । स्थिर करनेसे गृहस्थको दुःख कारक होता है। रौद्र प्रतिमा चंडी-भैरवादिकी स्थापना गृहस्थके घर कभी नही करना, पूजाके लिये चल प्रतिमा ही रखना । ५१ प्रतिमा काष्ट लेपाश्म दंत चित्रायसां गृहे । मानाधिका परिवार रहिता नैव पूजयेत् ॥ ५२ ॥ मत्स्यपुराण
प्रतिभा (१) ४०टनी, (२) अपनी, (3) पाषानी, (४) giant, (५) यिनी, (6) वायधातुनी, २ भानथी न्यून अधि डाय ॐ પરિવાર રહિત હોય તે તે ગૃહસ્થને ઘરે પૂજવી નહિ. અર્થાત ધાતુની પ્રતિમાનું ગૃહે પૂજન કરવું. (નેટ – ચિત્ર, લેપ કે દાંતની પ્રતિમાના દેષ અન્ય ગ્રંથમાં કહ્યા નથી. ) પર
प्रतिमा (१) काष्टको (२) लेपकी (३) पाषाणकी (४). दांतकी (५) चित्रकी-ओर पंचधातु लोहकी मानसे अधिक या कम हो या परिवार रहित हो तो गृहस्थके घर पूजना नहीं अर्थात् धातुकी प्रतिमाका गृह
मना करना । (नोटः चित्र, लेप या दांवकी प्रतिमाका. दोष अन्य अन्यौमें कहा नही है । ५२
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(२६) नेमिनाथो वीर मल्लीनायौ वैराग्यकारकाः । यो वै मंदिरे स्थाप्या न गृहे शुभदायका ॥ ५३ ।। आचार दीनकर
न तिथ शभा (१) नेभनय, (२) मडावी२२वामी भने (3) મલ્લીનાથજી એ ત્રણે વિરાગ્યકારક છે તેથી એ ત્રણ પ્રતિમાઓ પ્રાસાદને વિષે સ્થાપન કરી પૂજવી શુભદાયક છે, પરંતુ ઘર મંદિરમાં તે ત્રણે પ્રતિમાઓ સ્થાપન કરવી શુભકારક નથી. ૫૩
जैन तिर्थकरोंमे नेमिनाथजी, महावीरस्वामि और मल्लीनाथजी ये तीनों वैराग्यकारक है। जिससे इन तीनोंकी प्रतिमा प्रासादमे स्थापन करना शुभदायक है, लेकिन घरमंदिरमे यह तीनोंकी प्रतिमाओंकी स्थापना शुभदायक नहीं है । ५३ अथ प्रतिमा दोषा· किलिका छिद्र सुषिर-त्रस जालक संधयः ।
मंडलानि च गारश्च महादरण हेतवे ।। ५४ ॥ देवतामूर्ति प्रकरणम् - પ્રતિમાના દ્રવ્ય-પાષાણ કે કષ્ટમાં ખીલા, છિદ્ર, પિલાણ જીવના જાળાં, સાંધા, મંડલાકાર રેખા કે ગાર ગાંઠ હોય તેવા દૂષણવાળું દ્રવ્ય દોષ કારક જાણવું. પ૪
प्रतिमाके द्रव्य-पाषाण या काष्टमें कील, मुराख, पोल, जीवजंतुके जाले, सांधा, मंडलाकार रेखा, गार या गांठ हो तो यह दूषणवाला द्रव्य दोपकारक है । ५४ . रक्षितव्ये परिवारे दोषदा वर्णसंकराः । .. न समांगुल संख्येष्टा प्रतिमा मानकर्णिके ॥५५|| रुपमंडन. दे.म.प्र..
પ્રતિમાના પરિવારમાં કે પરિકરમાં પથ્થરની વર્ણસંકરતા ( બે રંગ અગર રેખાવાળા ) હોય તો તે દોષકારક છે. પ્રતિમાની ઊંચાઈનું પ્રમાણ એક આંગુલનું રાખવું ઈટ છે. ૨૫
प्रतिमाके परिवारमें या परिकरमे पत्थरकी वर्णसंकरता (दो रंगवाला या रेखाचाला) हो तो वह दोषमय है। प्रतिमाकी ऊंचाइका प्रमाण सम . अंक न रखना ईष्ट है, दो अंगुल ( दोहरा) नहीं रखना । ५५
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( २७ )
पाणिपाद विनिांजातु धनक्षय विनाशिनी । चिरंपर्युषिता यातु नादर्तव्या यतस्ततः ॥ ५६ ॥ मत्स्यपुराण
ટૂંકા હાથ પગવાળી કે અંગ વગરની પ્રતિમા ધનને નાશ કરે છે. અવાવરૂ પ્રતિમાએ જયાં ત્યાંથી ગ્રહણુ ન કરવી. પદ્
छोटे हाथ पांववाली या अंगहीन प्रतिमा धरका नाश करती है । इधर ऊधरसे जैसी तैसी पडी हुई बिनउपयोगी प्रतिमा ग्रहण नहीं करना । ५६
१० नासाहीना श्रियं इन्ति दु:ख दैन्ये कपोलयोः ।
ऊग्र
મયઋષિ કહે છે કે નાસિકાહીન પ્રતિમા લક્ષ્મીનેા નાશ કરે છે, બેઠેલા ગાલવાળી પ્રતિમા દુઃખ આપનારી જાણવી, ભયંકર દેખાવની પ્રતિમા કરાવનારને શિઘ્ર નાશ કરે છે. ૫૭
प्रतिमा शीघ्र निहनिष्यति नायकम् । ५७ ॥ मयमतम्
ऋषि कहते है कि नासिकाहीन प्रतिमा लक्ष्मीका नाश करती है । बेठे हुए गालवाली प्रतिमा दुःखदाता समझनी भयंकर दिखाती हुई प्रतिमा करानेवालेका जल्दी नाश करती है । ५७
૧૦ પૂજનિક મુખ્ય પ્રતિમા ભચાર સ્વરૂપવાળા પશ્ચિમ અને ઉત્તર ભારતમાં મહુ ઓછી જોવામાં આવે છે. જોકે મુ પ્રાધાન્ય સ્થાપિત ન હોય તેવા સ્વરૂપવાળી મૂર્તિસ્મા ભયંકર હોય તેવી શવ સ્વરૂપમાં ધારશ્વરાદિ વિષ્ણુમાં નૃસિંહાવતાર સ્વરૂપ, ચંડી કાર્લાદેવી સ્વરૂપો, ચ’ડીના સ્વરૂપમાં શરીરનાં પાંસળા હાડડ્ડ દેખાતી સ્તન લખતા પેટ ઉપર વીચ્છી દેખાતી -સના આભુષણાવાળી મૂર્તિએ જૂની જોવામાં આવે છે, તેવી મૂર્તિ એ પૂનિક બહુ ઓછી છે, વિશેષે કરીને પ્રાસાદની જ ધા કુંભના વિભાગમાં કાતરેલી હોય છે. જો કે પૂત્ર ભારતમાં ભગાળમાં “ કાળી ” ની મૂર્તિ જીભ ાઢેલી ભયંકર રૂપવાળી શત્રુનું મન કરતી પ્રમુખ રીતે પુજાય છે.
भयंकर पुज्य मुख्य प्रतिमा पश्चिम और उत्तर भारतमें कम देखने मे आती है । शलांकि प्रधान रूपसे स्थापित न हो इसे स्वरूपवाली भयंकर मूर्ति हो-जैसे कि शिवकी अघोरेश्वर विष्णुका नृसिंहावतार चंडी और कालीका स्वरुप, चंडीका शरीरकी हढीया देखाइ देते है । लटकते स्तनबाली पेट पर बिच्छुवाली एसा रुद्रस्वरूपवाली पुराना मूर्तियां हम देखते है । किंतु मुख्य प्राधान्य स्थान पर पूज्य होने के बजाय प्रासादकी गंधा कुंभा के थरके विभाग में बनायी हुआ हैं । पूर्व भारत में बंगाल में कालिकीकी मूर्ति मुंहसे जीवा नीकलती हुई शत्रुके मर्दन फरती पूजाती है । द्रविड मैसुर प्रांत में महिषासुरमर्दिनीकी मूर्तियां भी पूजाती है।
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( २८ ) उध्वं द्रष्टिश्च रौद्री च राष्ट्र राज्ञोः क्षयं करी । अधोद्रष्टिश्च रौद्री च अर्चके निहनिष्यति ॥ ५८ ॥ यदि नासाग्रद्रष्टि स्यात् शिल्पाचार्यो विनश्यति । पार्श्वदृक् बंधुनाशाय समद्रष्टि तु कारयेत् ।।५९॥ देवतामूर्ति प्रकरणम्
પ્રતિમાની ઊંચી કે વિકરાળ દષ્ટિ હોય તે રાજા અને રાજ્યનો નાશ કરે, નીચી કે ક્રોધાયમાન દષ્ટિવાળી પૂજનારનો નાશ કરે, નાસિકા તરફ દૃષ્ટિવાળી પ્રતિમા શિપી અને આચાર્યને નાશ કરે, પડખે દષ્ટિવાળી ભાઈઓને નાશ કરે, માટે સમદષ્ટિવાળી પ્રતિમા કરાવવી. ૫૮-૫૯
प्रतिमाकी द्रष्टि उर्ष या रौद्र हो तो राष्ट्र और राजाका नाश करती है। नीची और क्रोधित द्रष्टिवाली प्रतिमा पूजकका नाश करती है । नाककी और द्रष्टिवाली शिल्पी और आचार्यका नाश करती है । चगलमें द्रष्टिवाली प्रतिमा भाई ओंका नाश करती है । अतः समद्रष्टिचाली प्रतिमा करानी चाहिये । ५८-५९ । जंघा हीना भवेत् भक्षा कटि हीना च घातिनी । अधो हीनानि दुःखाय शिल्पिनो भोग वर्जिता ॥ ६० ॥ भाले नखे मुखे चैव क्षीणोऽधिके कुलक्षयः । कृशा द्रव्या विनाशाय दुर्भिक्षाय कृशोदरी ॥६१ ।। अपराजित
પાતળી જાંઘવાની પ્રતિમા ભક્ષણ કરે, કેડથી પાતળી કર્તાને ઘાત કરાવે, નીચેથી પાતળી પ્રતિમા દુઃખ આપે અને શિપીની સમૃદ્ધિને નાશ ७२. ४ा, नभ, भुकणेरे पातमा हाय तवी प्रतिमाथी ५3. ६०-६१
पतली जांघवाली प्रतिमा भक्षण करती है. कमरसे पतली कर्ताका घात कराती है. नीचेसे पतली दुःखदायक और शिल्पिकी समृद्धिका नाशकरनेवाली है. कपाल, नख, मुख आदि पतले हों एसो प्रतिमासे अकाल होता है । ६०-६१ ।। रुदंती च हसन्ती चाधिकाङ्ग च शिल्पिना ।
अति दीर्धा च द्रष्टा चेद गौ ब्राह्मग विनाशिनी ॥ ६२ ॥ ११ मदिकाङ्गा पाठान्तर मदसे भरे हुए अङ्गवाली. विष्णुसंहिता-पतन चलन स्वेदेो असन वैष रोदनम् ।
उत्पादन हतिरै दाहः प्रध्वंसम'बलात् ॥ ८ ॥
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सांधार - महाप्रासादका द्वयजंघायुक्त मंडोवर
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(३०) રૂદન કરતી, હસતી કે અધિક અંગવાળી પ્રતિમા શિલ્પીએ કરી હોય કે પ્રમાણથી ઘણી લાંબી દેખાતી હોય તે તેવી પ્રતિમા ગાય અને બ્રાહ્મણને नाश ४२ छ. १२
रुदन करती हंसती या अधिक अंगवाली प्रतिमा शिल्पिने बनाइ हो या प्रमाणसे अधिक लंबी दिखाती है जैसी प्रतिमा गाय और ब्राह्मणांका विनाश करती है ।
अन्याय द्रव्य निष्पन्ना पर वास्तुदलोद्भवा । हीनाधिकाङ्गी प्रतिमा स्व परोन्नति नाशिनी ॥६३॥ विवेक विलास
અન્યાયથી પેદા કરેલા ધનથી પ્રતિમા કરાવી હોય અથવા બીજા કામ સારૂ લાવેલા પાષાણુની પ્રતિમા કરાવી હોય કે હીન અંગવાળી કે અધિક અંગવાળી પ્રતિમા પિતાને કે પારકાને નાશ કરે છે. ૬૩
अन्यायसे उपार्जित धनसे प्रतिमा बनबाई हो या किसी अन्य कामकें लिये, लाये हुए पत्थरसें बनवाई हो अथवा हीन अङ्गवाली या अधिक अङ्गवाली प्रतिमा हो तो वह अपना था औरोंका नाश करती है । ६३
नर्तनं रोदनं हास्यमुन्मीलन निमीलने । देवा यत्न प्रकुर्वन्ति तत्र विद्यान्महेद्भयम् ।। ६४ ॥ रुपमंडन
જે સ્થાને દેવ પ્રતિમા શબ્દ કરે, રૂદન કરે, હાસ્ય કરે અથવા નીચે ઊંચી કે તીરછી દષ્ટિ કરે કે સ્વયં ચલાયમાન થાય તે સ્થળે મહા ભય 647. ६४.
जिस स्थान पर देवप्रतिमा शब्द करें, हास्य करें अथवा नीची, उंची या टेढी द्रष्टि करें अथवा स्वयं चलायमान हो उस स्थान पर महाभय पैदा होता है । ६४ संस्कृते तुलिते चैव दुष्ट स्पर्श परीक्षते । चाण्डाल पतितया द्रष्टया मृतिकादि निरीक्षिता ॥ ६५ ॥ हृते बिंबे च लिंगे च प्रतिष्ठा पुनरेव च ॥ सूत्रसंतान-अपराजित
અપરાજિતકાર કહે છે કે કારણવશાત્ તેલ કરેલી, દુષ્ટ મનુષ્યને સ્પર્શ થયેલી, ચોરાયેલી અગર પરીક્ષા કરવી પડેલ મૂર્તિ, પતિત કે
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ચાંડાલને સ્પર્શ થયો હોય કે રજસ્વલા કે સુવાવડી સ્ત્રીની દષ્ટિ પડેલી હોય તેની પ્રતિમા કે લિંગની ફરીથી પૂર્વવત્ પ્રતિષ્ઠા કરવી. ૬૫
अपराजितकार कहते है कि किसी कारणसे तुली हुई, दुष्टमनुष्यसे छुई हुई, चुराई हुई या तो जांचकी हुई, पतित और चाण्डालस स्पर्शीत, रजस्वला या जच्चासे देखी हुई असी प्रतिमा या लिङ्गकी फिरसे पूर्ववत् प्रतिष्ठा करनी चाहिये । ६५
अति ताब्द शतास्यान्मूर्तिः स्थापिता या महत्तमै । खंडिता स्फूटिताप्यर्चाऽ अन्यथा दुःख दायिका ॥६६।। देवतामूर्ति प्रकरणम्
જે મૂર્તિ સો વર્ષથી પૂજાતી હોય કે મહાત્મા પુરુષે એ સ્થાપન કરેલી હોય તેવી મૂર્તિ કદાચ ખંડિત કે ફાટેલી હોય તો પણ તે પૂજવી; પરંતુ બીજી એવી ખંડિત મૂર્તિ પૂજવાથી દોષ લાગે છે. ( શિવલિંગ કે બહુ મેટા તીર્થને માટે આ સૂત્ર યોગ્ય છે. ત્યાં સામાન્ય રીતે આ સૂત્રનો 6पयोग ४२व नलि. ) ६६ ... जिस मूर्तिको पूजने में सो वर्षसे अधिक समय व्यतीत हुए हो या किसी बड़े महात्माने जिस मूर्तिकी स्थापनाकि हो. एसी मूर्ति खंडित या फटी हुई होते हुए भी उसे पूजना, किन्तु और कोइ एसी मूर्ति पूजनेमें दोष होता है । ( शिवलिङ्ग या बहुत 4: तीर्थके लिये यह सूत्र योग्य है । वहां सामान्यतः इस सूत्रका उपयोग नहीं करना चाहिये ।) ६६
तत्तत् स्थानेषु ये देवा स्थापिताच महनः । तत्सान्निध्य सर्वकाले व्यंगिता न पि न त्यजेत् ॥ ६७ ॥ वैखानसागम्
વખાનસાગમ અર્ચા પદ્ધતિ અને ઈશ્વર સંહિતાકાર કહે છે કે ઉત્તમ સ્થાનમાં મહાપુરુષોએ સ્થાપન કરેલ કે તેમની સાનિધ્યમાં સ્થાપન થયેલ હોય તેવી મૂર્તિ કે લિઇ, વ્યંગ હોય તે પણ કોઈ કાળે તે મૂર્તિ તજવી नही. (शिनि । भने महाती भाटे) ९७
वैखानसागम अर्चा पद्धति और .ईश्वरसंहिताकार कहते है कि उत्तम स्थानमें महापुरुषांने स्थापनकी हो या उनके सान्निध्यमे स्थापित
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( ३२) हुई हो औसी मूर्ति या लिङ्ग व्यङ्ग होते हुए भी कभी उनका त्याग नही करना चाहिये (शिवलिङ्ग और महातीर्थके लिये ) ६७
खंडितं स्फुरितं भग्नं चलितं चालितं तथा । । पतितं पातितं जीर्णममिलिङ्गो सयुद्धरेत् ॥ ६८ । प्रासादमण्डन
ખંડિત થયેલું કે ફાટેલું કે ભાંગેલું કે ચલિત થયેલ કે ચલાયેલ લિડ હેય, તે પાપીઓથી અપવિત્ર થયું છે, અગ્નિથી બળેલું હિય, તે ५५ तेवी सिलिम (न तवी) ने पाथः खा . ६८
खंडित, फटाहुआ, टूटाहुआ, चलिनहुधा या हटायाहुआ, पापीओसे अपवित्र हुआ हो, भागसे जलाहुआ हो फिर भी एसे शिवलिङ्ग ( का त्याग न करते.) का लेयादिसे समोद्धार करना । ६८
नवीनापि जीमाया चातिव शोभना । परिष्कृता ऽ परिष्कृता वा तत्र दोषो न विद्यते ॥ ६९ ॥ १२
નવીન કે જર્ણ પ્રાચીન પ્રતિમા હોય પણ તે મૂર્તિ રમ્ય અને અતિ મનહર આકર્ષક હોય તે તે ગમે તેવી અવસ્થામાં પરિષ્કાર કે અપરિષ્કાર (ખંડિત કે ત્રુટિતો હોય તે પણ તેવી મૂર્તિ દેષિત ગણાતી નથી. (આ सूत्र मा ३५ छ.) १६
नेयी या जीर्ण प्रतिमा हो पर अगर यह मूर्ति रम्य अति मनोहर आकर्षक हो तो चाहे कोभीभी अवस्थामें परिष्कृत या अपरिष्कृत ( खंडित या टूटी हुमी ) हो तो भी वह दोषित नहीं है। (यह सूत्र अपवाद रुप है ) ६९
नख केशा भूषणादि शस्त्र वस्त्रालंकृतिः । विषमा व्यगिता नैव परोन्मूर्ति रंगकम् ॥ ७० ॥ अपराजित सूत्र १२ सुयाय' ५५ - शास्त्रमान विहिन यदरम्यं न तद्विपाविताम् ।
पवेषामेवेतद्रभ्य लग्न यत्र च यस्य. हुत ॥ १०५-अ.. જે ભૂતિ શાસ્ત્રમાં કે ના હોય તે વિદ્વાનને રમ લાગતી નથી પરંતુ કેટલાકને એ મત છે કે મને જ્યાં આગળ લાગ્યું હોય તેને તે પ્રિય લાગે છે,
शुक्राय : ओ मूर्ति शास्त्रप्रमाण विहिन हो वह तजसबों को रम्य प्रति किन्दा पसा मत है निसका मन मा इग्न हो, मुले वह यि और लगती है। (नाकी जासों प्रीत ताहीताको मुहात)
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सूर्य मंदिर. मोढेरा (गुजरात)
Stay LALAL
वितान ( गुम्बज )
आबु
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TAITAABAR R
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तोरण (कमोन) स्तम्भपंक्ति नृत्यमंडप. मोढेरा (गुजरात)
प्रतोल्या तोरण. बडनगर (गजगत )
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(३३) २ भूतिन नम, श, माभूष, स, शख माभूषो। विषभઅયોગ્ય, વાંકા કે ખંડિત થયા હોય તે પણ તે મૂર્તિના અંગને દૂષિત કરતા નથી, તેથી તેવી મૂર્તિ ભંગ કે ખંડિત ગણાતી નથી. ૭૦
जिस मूर्तिके नख, केश, आभूषण, अस्त्र, शस्त्र या वस्रोंके आभूषण विम अयोग्य और टेढे, खंडित हो गये हों तो भी वे मूर्तिके अङ्गोको दूषित करते नहीं जिससे एसी मूर्तिको व्यंगित-खंडित नहीं मानना । ७०
शान्ति पुष्टादि कृत्यैश्च पुनः सा च समीकृता । पुनरयोत्सव' कृत्वा प्रतिमाऽयं ते सदा ॥ ७१ ॥ वैखानसागम
ઉપર કહી તેવી ખંડિત થયેલી મૂર્તિનાં આભૂષણ અસ્ત્રશસ્ત્ર વગેરેને ફરીથી એગ્ય બનાવીને શાન્તિ પુછાદિ કાર્યો વડે તેમજ ફરીથી રથોત્સવ -વરઘોડો કાઢીને તે મંગળ પ્રતિમાનું સ્થાપન કરી અર્ચન-પૂજન કરવું. ૭૧
एपरोक्त कहीहुई एसी मूर्तिके आभूपण, अख, शस्त्रादि फिरसे योग्य बनाकर शान्ति पुष्टादि कार्य से और रथोत्सव करके उस मंगल प्रतिमाको स्थापना करना, और पूजन-अर्चन करना । ७१
स्थापिता चैव या मूर्ति स्थगिता चेविसर्जयेत् । तन्मूर्तिः प्रकर्तव्या नान्यमूर्तिः प्रवेशयेत् ॥ ७२ ॥ नख केशा घंगकैश्चहारैः कंठ विभूषणैः । कंकणे कटिसूत्रैश्च कीरीट कुंडलादिभिः ॥ ७३ ॥ वनमाला तुरगा या नपुरैः पाद कंकणैः । शस्त्रायायुध भेदेश्च व्यङ्गि तामपि न तां त्यजेत् ।। ७४ ।।
સ્થાપિત મૂર્તિ ભંગ ખંડિત થઇ તે વિસર્જન કરી અન્ય મૂર્તિને પ્રવેશ કરાવી સ્થાપિત કરવી. પરંતુ જે તે પ્રતિમાના નખ, કેશ, Ast२, IARY, ४४४, टिसूत्र, ठिरी, समासा, पान वा, નૂપુર, ઝાંઝર કે શસ્ત્રાદિ આયુધ ખંડિત થયાં હોય તે તેને સુધરાવીને पुन: डिया विधिवत् स्थापन ४२वी. ५५ तना त्या न श. ७२-७३-७४
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स्थापित मूर्ति व्यंग खंडित हुई हो तो विसर्जन करके अन्य मूर्ति प्रतिष्ठ करके स्थापित करना. किन्तु अगर मूर्तिके नख, केश, अंगहार, कंठा भूषण, कंकण, कटिसूत्र, किरिट, कुंडल, . वनमाला, वाहन अश्व, नूपुर, झांशर, शस्त्रादि आयुध खंडित हुए हों तो उनको समुद्धार करके विधिवत् स्थापन करना. किन्तु त्याग नहीं करना । ७२-७३-७४
धातु रत्न विलेपोत्था व्यङ्ग संस्कारयोग्यक । काष्ट पाषाण जा भग्ना संस्कार हीनदेवता ।। ७५ ॥ रुपमण्डन
ધાતુ કે રતની મૂર્તિ ખંડિત કે વાંકીચૂકી થઈ ગઈ હોય તે પણ સંસ્કાર યોગ્ય પૂજનિક જાણવી. પરંતુ પાષાણુ કે કાણની પ્રતિમા ખંડિત થઈ હોય તો તે સંસ્કારને યેગ્ય ન જાણવી. (અન્ય ગ્રંથમાં ધાતુ, લેપ, ચુનાની પ્રતિમા વિકલાંગ ખંડિત થઈ હશે તેને ફેર સુધારી પૂજવાનું કહ્યું છે. પણ તે કયાં કેવા સ્થાને તે વિચારીને કરવું. ) ૭૫
. जंधाना तापसरुप अने युग्म स्वरुपो
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अग्नीदेवनु स्वरूप
धातु या रत्नकी प्रतिमा खंडित या टेढी मेढी हो गई हो तो भी संस्कार योग्य पूजनीक जानना. परन्तु पत्थर या लकडीकी मूर्ति खंडित हो गई हो तो वह फिर संस्कारके योग्य नहीं है । (अन्य ग्रन्थोमें धातु, लेप, चूने की प्रतिमा विकलांग हुइ हो तो फिर मुधार करः पूजनेका कहा है। पर कहां और किस स्थान पर यह सब सोचके कार्य करना ।) ७५
दोषो लघुत्तरे बिबे नैव त्याज्य कदाचन । बाहुच्छेदे करच्छेदे पावच्छेदे तथैव च ॥ ७६ ॥ तथैव स्फूटिते भिन्ने यस्मिन्नवय गते । वैरूप्यं जायते यस्य तत् त्याज्य प्रायशो भवेत् ॥७७॥ शिल्परत्नम्
શ્રી કુમાર શિત્પરત્ન ગ્રંથમાં કહે છે કે જે મૂર્તિ બહુદેષ કે વિશેષ ખંડિત ન હોય તેવી મૂર્તિને ત્યાગ ન કરે. પરંતુ જેમાં હાથ, કાંડ, પગ તૂટેલાં હોય કે ફાટેલ હય, અવયવ ખંડિત થયા હોય તેવી કદરૂપી भूति डाय तो ना त्या ४२वी. ७६-७७
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( ३६ )
शिल्प रत्न ग्रन्थमे कहते हैं कि जो मूर्ति बहु दोषी या विशेष खंडित न हो उसे त्यागना नहीं. पर जिस मूर्तिके हाथ, कर, पांव टूटे या फटे हो, अवयव खंडित हो एसी विरूप मूर्तिका त्याग करना चाहीये । ७६-७७
अङ्गोपाङ्गेय मत्याङ्गौ कथंचिद् व्यंगदूषिताम् । विसर्जयेत् तां प्रतिमामन्य मूर्ति प्रवेशयेत् ॥ ७८ ॥
या खंडिताच दग्धाच विशीर्णाः स्फुटितास्तथा ।
न तासां मंत्र संस्कारो गतांच तत्रदेवताः ।। ७९ ।। अपराजित सूत्र
પ્રતિમાનાં અંગ, ઉપાંગ, પ્રત્યાંગ ખ`ડિત થયાં હોય તા તેનું વિસર્જન કરી ખીજી પ્રતિમાના વિધિથી પ્રવેશ કરાવવા— ખંડિત, મળેલી, ફાટેલી, કે તડકેલી પ્રતિમામાં મંત્ર સંસ્કાર રહેતા નથી. તેમજ તેમાં દેવપણું પણુ रहेतु' नथी. ( तेथी तेनुं विसन २. ) ७८-७९
अपराजितकार कहते है कि प्रतिमा अङ्ग, उपाङ्ग, प्रत्याङ्ग, खंडित हुए हो तो उसका विसर्जन करके और प्रतिमाका विधि पुरःसर प्रवेश कराना | खंडित, जळीहुई, फटी हुई प्रतिमामें मंत्र संस्कार रहते नहीं और उसमें दैवत्व भी नहीं रहता । ( अतः उसका विसर्जन करना) ७८-७९
बाहुपाद शिरोहीनां कर्णनासास्य हीनकम् । तादृशां परिवाराणां प्रतिमा परिवर्जयेत् ॥ ८० ॥
જેના હાથ, પગ, માથું, કાન, નાક અને મુખ તેવી પ્રતિમા તેમજ તેવાં પરિવાર ( પરિકર )ના પણ
प्रतिष्ठा मयुख
ખંડિત થયાં હોય ત્યાગ કરવા. ૮૦
प्रतिष्ठा मखकारने कहा है कि जिन मूर्तिके हाथ, पांव, शिर, कान, नाक और मुख खंडित हुए हो जैसी प्रतिमा और उसके परिवार ( मुख प्रतिमा के इर्दगिर्द परिकर ) का भी त्याग करना | ८०
कचित्तु बाल सदृशं सदैव तरुणां वपुः ।
मूर्तिनां कल्पयेच्छिल्पी न हृद्ध सदृशं क्वचित् ॥ ८१ ॥ शुक्राचार्य
શિલ્પીએ મૂર્તિનુ રવરૂપ હંમેશાં તરુણુ-યુવાન અનાવવું. કદાચ કઇ વેળા ખાળક જેવુ. અનાવવું પડે પરંતુ કંઇપણુ વેળા વૃદ્ધ સ્વરૂપ (પૂનીય) મૂર્તિનું ખનાવવું નહિ. ૮૧
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( ३७) शिल्पिने मूर्तिका स्वरुप हमेशा तरूण-युवान बनाना, कभी बालस्वरुप (बालकुष्ण गजानन जेसे ) बनाना किन्तु जइफ-वृद्ध स्वरुप कभी नही बनाना । ८१
देवो भ्रष्टास्तथा भग्नो विषमे च तटे स्थितः । . यथा प्रतिष्टितथास्तत्र दोषो न विद्यते ॥ ८२ ॥ अपराजित सूत्र
દેવ મૂર્તિને અસુરોએ ભ્રષ્ટ કરી હોય, ખંડિત કરી હોય, તેવું વિષમ જંગલનું સ્થાન કે નદીના તટ પર વિષમ સ્થિતિમાં હોય તે તેને આર્ય (પૂજ્ય ) લોકેએ જેવી રીતે પ્રતિષ્ઠા કરી હોય તે જીર્ણોદ્ધાર કરી ફરી પ્રતિષ્ઠા કરવી તેમાં દેષ નથી. ( અપવાદ રૂપ સૂત્રને વિકટ પરિસ્થિતિમાં પ્રયોગ કરી શકાય. ) ૮૨
असुरोने देवमूर्तिको खंडितकी हो, भ्रष्टकी हो एसा जंगल स्थान हो या नदी तट पर विषम स्थितिमें हो तो आर्य लोगोंने जिसकी प्रतिष्ठा की हो उसका जीर्णोद्धार करके फिरसे प्रतिष्टा करनेमें कोई दोष नहीं । ( अपवाद रूप सूत्रका विकट परिस्थितिमें उपयोग करना चाहिये ) ८२
भित्ति संलग्न बिब च पुरुषः सर्वथाऽशुभः । चित्र मयाश्च नागाद्य भित्तौ चैव शुभावहाः ॥ ८३ ॥ आचारदीनकर
ગર્ભગૃહમાં પાછળની ભીંતને અડીને પ્રમુખ દેવ પ્રતિમા કે શ્રેષ્ઠ પુરુષની મૂર્તિ બેસારવાથી હમેશાં અશુભ ફળ દે છે, પરંતુ ચિત્રમય દેવ - દેવી કે નાગ આદિ ભીંતને અડીને હોય તે તે શુભ જાણવું. ૮૩
गर्भगृहमें पीछली दिवारको छुकर मुख्य देव या श्रेष्ठ पुरुषकी मूर्ति बिठानेसें हमेशा अशुभ होता है। किन्तु चित्रमयदेव देवियां नाग आदि दीवारसे संलग्न होये तो शुभ है । ८३
आयुध जिन देवानां केशांतदधिक न हि । कृते कारयित्वा स्वामी गृहकर्ता विनश्यति ।। ८४ ॥ आचारदीनकर
निशसभा सा पार निय। (१) भूपनपति (२) २ (3) નતિષી (૪) વૈમાનિક એ ચારે યોનીને દેવની મૂર્તિઓનાં શસ્ત્ર કેશાન્ત (માથા સુધી)થી અધિક ઊંચા કરવાં નહિ. જે અધિક કરે તે કરાવનાર
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(३८) સ્વારી ઘર અને કરનારને વિનાશ થાય છે. ( નેટ : આ નિયમ જિનટેના વિષયમાં હશે. રૌદ્ધ પ્રતિમા ચંડી, કાળી, ભૈરવ, ક્ષેત્રપાલાદિ દેવદેવીના વિષયમાં આ નિયમ કદાચ ન પણ જળવાય. તેમ પ્રાચીન મૂર્તિઓમાં જોવાય છે. જેનદર્શનમાં તેમ હેય. ) ૮૪
जिन शासनमें कहे हुए चार निकाय-(१) भुवनपति (२) व्यंतर (३) ज्योतिषी (४) वैमानिक-इन चार योनियोके देवोकी मूर्तिक शस्त्र के सान्तसे अधिक ऊंचे न करना वर्ना कराने वाला स्वामि, गृह और करने वालेका नाश होता है। (नोट : रौद्र प्रतिमा भैरवचंडी क्षेत्रपालादि देव देवीयांके बारेमें यह नियम
. पालित नहि हो. एसा प्राचिन मूर्तिओंसे दीखाता है) ८४ जीर्णोद्धारादि कार्यमें प्रतिमा उत्थापन बारेमे :
प्रासाद प्रतिमोत्यानंश्वरे लग्ने शुभेदिने । लैचेन चालयेद् देव सर्व दोष विवर्जिते ॥ ८५ ।। संचन च गजाश्वस्य रुपक वजक तथा । शिल्पिना हियते दोषा सर्व काम फलप्रदम् ॥ ८६ ॥
દેષ રહિત એવા શુભ દિવસે ચળ લગ્નમાં પ્રાસાદની પ્રતિમાનું ઉત્થાપન કરવું, પ્રથમ લંચન વડે દેવને ચલિત કરવા, હાથી કે અશ્વનું ચાંદીનું કે વજનું લંચન સર્વ કામનાને ફળ દેનારૂં છે. આ રીતે લંચનથી પ્રતિમા ઉત્થાપન સારા શિપી દ્વારા કરાવવાથી દેષ લાગતું નથી. ૮૫-૮૬
दोष रहित शुभदिनको चल लग्नमें प्रासादकी प्रतिमाका उत्थापनकरना. प्रथम लंचनसें देवको चलित करना. हाथी, अश्व, रंजत या बजका लचन सर्वकामनाओका फलदाता है. इस तरह लचनसे मतिमीत्थापन किसी अच्छे शिल्पि द्वारा करानेसें दोष नहीं लगता । ८५-८६
सोमपुरा स्व हस्तेन संचरे देवशुद्धये । शिल्पि हस्ते कृते सौख्य शुद्र वर्ण विवर्जयेत् ॥ ८७ ।।
સમપુરા જ્ઞાતિના શિલ્પીના હાથથી દેવ શુદ્ધિ કવી, કેમકે સેમપુરા શિલ્પીની શુદ્ધિ સુખકારક થાય છે. દેવ શુદ્ધિના કાર્યમાં શુક્રવર્ગને તજ. ૮૭
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सोमपुरा ज्ञातिके शिल्पिसे देवशुद्धि कराना क्योंकि उससे मुख प्राप्त होता है. देव शुद्धिके कार्यमें शुद्र त्याज्य है । ८७
वापिकूप तडागादि प्रासाद भवनादि च । जीर्णान्युद्धारयेद्यस्तु पुण्यमष्टगुणं लभेत् ।। ८८ ॥
જીર્ણ થયેલાં જળાશ-વાવ, કૂવા, તળા, પ્રાસાદ અને ઘર આદિ જીર્ણોદ્ધાર કરવાથી જે પુણ્ય નવાથી થાય તેનાથી આઠ ગણું પુણ્ય પ્રાપ્ત થાય છે. ૮૮
जर्जरित जलाशय-वावडी, कुआ, तालाव-देवमंदिर और मकानादिका जिर्णोद्धार करनेसे नया करानेसे आठ गुणा पुण्य प्राप्त होता है । ८८
अचाल्य चालयेद्वास्तु विप्रवास्तु शिवालयम् । न चालयेत् सर्वदा तं हि चलिते राष्ट्र विभ्रम ॥ ८९ ।।
જે વાસ્તુ ન પડે તેવું હોય, બ્રાહ્મણનું ઘર કે શિવાલય ચાળવવું (પાડવું) નહીં, જે તે પાડે તે સર્વદેશ અને રાષ્ટ્રને નાશ થાય. ૮૯
जो वास्तु गिरे एसा न हो, ब्राह्मणका घर या शिवालय इन सबको गिराना नहिं । अगर गिरावे तो देश और राष्ट्रका नाश होता
अथ चेत् चालयेत्तत्तु जीर्ण व्यङ्ग च दृषितम् ।
आचार्य शिल्पिभिः प्राज्ञो शास्त्रदृष्ट्वा समुद्धरेत् ॥ ९० ॥
હવે જે જીર્ણ થયેલ પ્રાસાદ દ્દષિત કે વાંકુ થયેલું હોય તે બુદ્ધિમાન પુરુષોએ સારા આચાર્ય અને ડાહ્યા શિલ્પીની સલાહ લઈને તેને શાસ્ત્રોક્ત વિધિથી જીર્ણોદ્ધાર કરે. ૯૦
यदि जीर्ण प्रासाद दक्षित या टेढा हुआ हो तो बुद्धिमान पुरुषाने अच्छा आचार्य और चतुर शिलाका मशविरा करके उसका शास्त्रोक्त विधि अनुसार जीणेद्वार करना । ९० स्वर्णजं रूप्यजं वापि कुर्यात्नाग वृषादिकम् । तस्य श्रोन दंतेन पतितं पातयेत्सुधिः ॥ ९१ ॥
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(४१) શુભ મુહૂર્તમાં જીર્ણોદ્ધારનો પ્રારંભ કરવો. વાતુનું દેવનું પૂજન અને શિલ્પીને સંતુષ્ટ કરીને સેના કે ચાંદીના હાથીના દંકૂશળ કે નંદીના શીંગડાથી પહેલું પાડવાનો પ્રારંભ કર. ૯૧
शुभमुहूर्तमे जीर्णोद्धारका प्रारंभ करना वास्तुदेवका पूजन और शिल्पीको संतुष्ट करके सुवर्ण या चांदीके हस्तीदंत या नंदीके सींगसे गिरे हुएको गिराकर जिणेद्धारका प्रारंभ करना । ९१ १३ तद्रूपं तत्प्रमाणं च पूर्वसूत्र न चालयेत् ।
हीने तु जायते हानिरधिके स्वजन क्षयः ॥ ९२ ॥
જીર્ણોદ્ધાર કરતાં જૂનું જે માપનું હોય તેટલા જ માપનું કરવું તેનું પૂર્વનું સૂત્ર ચાળવવું નહિ. જે પહેલાના જૂનાથી ઓછું કરે તો હાનિનુકશાન થાય અને વધુ કરે તે પોતાના કુટુંબને નાશ થાય. ૯૨
जीर्णोद्धार करनेसे जिस प्रमाण मापका हो ईतने ही प्रमाणका करना. पहेलेका सूत्र चलायमान नहीं करना. यदि कम हो जाय तो हानिकर्ता है और जास्ती हो जायतो स्वपरिवारका नाश होता है । ९२ वास्तु द्रव्याधिक कुर्यात् मृत्काष्टे शैलजंहिता । शैलजे धातुजे चैव धातुजे रत्नज तथा ॥ ९३ ॥
, પ્રાસાદાદિ વાસ્તુ કાર્યને જીર્ણોદ્ધાર કરતાં જે દ્રવ્ય હોય તેનાથી અને ધિક દ્રવ્યનું કરવું એટલે માટીનું હોય તે ઇટ લાકડાનું કરવું, લાકડાનું હોય તે પાષાણનું કરવું. પાષાણુનું હોય તો ધાતુનું કરવું અને ધાતુનું હોય તો ૧૩ જીદ્વારમાં દિગ્મઢને દેવ નથી. તેમજ એ આપ નક્ષત્રાદિ ગણિત પણ
भवानी ४३२ नथी. ते शत मां ष म । न । २ . છે તેથી નાનું કે મોટું ન કરવું. જે વસ્તુનું હેય જે હી જતુનું ન કરવું તેમજ અન્ય સ્થળની બીજા સ્થળની લાવીને નવામાં ન વાપરવી.
संकोचे मरण प्रोक्त विस्तारे तु अवश्य ।
न द्रव्य श्रेष्ठ द्रव्य वा तत्कार्य तत्प्रमाणाम् । गारपुराण जीर्णोद्धार में दिग्मुढ का दोष नहि, और आप नक्षत्रादि गणित मिलाने की आवश्यकता न है एसी शाखाशा है। पुरामासे छोटा म करना. पुराना वस्तु से हीन घस्तु उपयोगमे न लेना दुसरे पुराने मकामका पाषाण या काष्टादि नये मकाम में उपयोग न करमा।
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(४३) રત્નનું કરવું તેમ દ્રવ્યાધિક કરવું પણ હીન દ્રવ્યનું ન કરવું. વાસ્તુદ્રવ્યमाग भटीरीय-भाटी, सा, पथ्य, युनो वगेरे. 63
प्रासादादि वास्तुका जिर्णोद्धार करते समय जो वास्तु द्रव्यका हो इससे अधिक द्रव्यका करना. अर्थात्-मीट्टीका होतो ईट लकडीका, छकडीका होतो पाषाणका, पाषाणका होतो धातुका, धातुका होतो रत्नका करना. एसे वास्तुद्रव्याधिक होना चाहिये. होनद्रव्यका नहीं करना । ( वास्तुद्रव्यम्बील्डींग भटीरीयल्स ). ९३
अन्यवास्तु च्युतंद्रव्यमन्यवास्तौ ने योजयेत् । प्रासादे न भवेत् पूजा गृहे च न वसेबरः ॥ ९४ ॥
કોઈ એક ભવન કે પ્રાસાદના સારૂ લાવેલા કે જૂનું પાને લાવેલા કે પડી ગયેલા વાસ્તુ દ્રવ્ય પાષાણું–લાકડું, ઈટ વગેરે બીજા ભવન કે દેવાલયના કામમાં વાપરવા નહિ. જે બીજાનું વાપરે તો પ્રાસાદ હોય દેવપૂજા પ્રતિષ્ઠા થાય નહિ અને ભવન=ઘર હોય તે તેમાં વસનારે
एक भवन या प्रासादके लिये लायेहुए या उसके गिरे गिरायेहुए वास्तुद्रव्य पत्थर लकडी इंट इत्यादिका उपयोग और देवालय या भवनन्धरके लिये इस्तेमाल नहीं करना चाहिये. अगर उपयोग करे तो इस प्रासादमें देवपूजा प्रतिष्ठा नहीं हो सकती. मकान हो तो उसमें गृहस्थ सुखपूर्वक वास नहीं कर सके । ९४
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( ४३ )
॥ अथ गृहवेधः ॥"
तवेधस्तालवेधो द्रष्टिवेधस्तथैव च ।
५.
तुला वेधस्तथा.......था भवेध तिस्कटः ॥ ९५ ॥
७
८
मर्मवेधो मार्गवेधो वृक्षवेधस्तथा पुनः ।
११
१०
छायावेध
****
१२
१३ द्वारवेध स्वरषेधस्तथैव च ॥ ९६ ॥
૨૪
१५ १६
कोलवेधस्तथा कोणा भ्रमवेध स्तथैव च ।
१७
१८
ર
दीपालय च कूपवेधश्व देवस्थानं परित्यजेत् ॥ ९७ ॥
૧ તલવે-પાંચ પ્રકારે કહ્યા છે : (૧) ઘની કુંભી ઉખરા એક સૂત્રમાં न होय (२) धरना उतरंग वाढ ( द्वार, भारी, भजी, उप्पाट વગેરેના ) સમસૂત્રમાં ન હોય (૩) મૂળ ઘર કે ગર્ભ ગૃહ કરતાં ઓસરી કે મડપ ચાકી ઊંચાં હોય તે (૪) પૂર્વમાં આગળ ચુ' હાય ને પશ્ચિમમાં ઢાળ હોય તે ( પ્લવ દોષ ) ઘરની જમીનથી આસપાસની જમીન ઊંચી હાય-અર્થાત્ ઘર ખાડમાં હાય-તે અધા તલવેય દોષ જાણુવા.
१ तलवेध - पांच प्रकारे (१) घरकी कुंभी उदंबर एक सूत्रमें न हो (२) घरका द्वार, जाली, बारी कवाटका उत्तरंग बाढ समसूत्रमें न हो
૧૪ વડીલાની નોંધપોથી પરથી લીધેલું –
पूर्वजे पुरखोको रोजनिशीसे लिया है ।
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२
3
( १४४ )
(३) मुख्य घर या गर्भगृहसे बरामदा या मंडप चोकी ऊंचा हों (४) जमीन पूर्वमे ऊंची हो और पच्छममें नोची हो (प्लवदेोष ) (५) मकान के आसपासकी भूमि ऊंची हो - घर खड्डे में हो - वे सब तलवेध समजना |
તાલવે-એ પ્રકારે કહ્યા છે : (૧) જે ઘર કે મંદિરના જાળીયા, ગાખલા, દ્વાર, કમાટ એ સવના ઉપરના તળ એક સૂત્રમાં ન હેાય તે (૨) એકજ ખંડમાં પાટડા, પીઢીયા, એકજ સૂત્રમાં ન હોય તે અગર નાના મોટા કે ઊંચા નીચા ઢાય તે તાલવેધ જાણવા.
तालवेध - दो प्रकारके (१) जिस घर या मंदिरकी खीडकियां द्वार, अलमारी आदि के उपरके तक एक सूत्रमें न हों (२) एक ही कमरे में पॉट-बीम - भरन-पीट एक सूत्रमें न हो या तो छोटे मोटे हो या ऊंचा नीचा हो. इन सबको ताळवेध कहते हैं ।
વિશ્વ-વિધ ૭ પ્રકારના કહ્યા છે ઃ (૧) ઘરધણીની દૃષ્ટિ આગળના ભાગે જતી ન હોય (૨) મૂળ ઘરની સામેના ભાગનું દ્વાર વધુ નીચું હાય (૩) પ્રાસાદમાં દેવતાઓની ષ્ટિ કારના શાસ્ત્રમાં કહેલા નિયત સ્થાને ન હેાય (૪) જે ઘર દેખતાંજ અરુચિકર કે ભયકર લાગતું હાય (૫) એક મુખ્ય ઘરના દ્વારની સામે બીજાના મુખ્ય ઘરનું દ્વાર આવતું હાય (૬) ઘરના દ્વાર સામે બીજું દ્વાર બમણું હાવ (૭) એક ઘરની અન્ય ઘરવાળા ચેષ્ટા જોઈ શકતા હોય તે દૃષ્ટિવેષ भगवा
३ द्रष्टिवेध - सात प्रकारके (१) मकान मालिकको द्रष्टि आगे के भाग में पडती न हो ( २ ) मूलघर के सामने के भागका द्वार बहुत नीचा हो (३) प्रासाद में द्वारके विभाग में शास्त्रमें कहे हुए नियत स्थान पर देवको द्रष्टि न हो (४) जिस घर देखने ही घृणा या भय पैदा होता हो (५) मुख्य घरके द्वारके सामने औरके मुख्य घरका द्वार आता हो (६) घर के दरवानेके सामने अन्य द्वार दो गुना हो (७) एक घर वालोंकी चेष्टा अन्य घरवालो देख सकते हो इन सब द्रष्टिवेध कहा है ।
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(). ૪ તુલાવેધ-ત્રણ પ્રકારના કહ્યા છે : (૧) એક પાટ ઉપર બીજે પાટ
આડે આવે અને ત્યાં સ્તંભ ન મૂકેલ હોય તે (૨) નીચે ઉપરના માળના પાટ ઓછાવત્તા કે પ્રમાણહીન હોય તે (૩) પીઢીયાં (બાદ) કે પાટડા ( આમ ) ઊંચાનીચા હોય તે સર્વ દુલાવેધ જાણવા.
४ तुलावध-तीन प्रकारके (१) एक पाट (धरन ) के उपर दूसरा पाट
(धरन) आता हो और जहां स्तंभ न रखा हो (२) नीचे उपर भूमिका पाट कमी जास्ती हो या प्रमाणसें हीन अधिक हो (३) पाट (धरन) बडोद चे नीचे हो ये सब तुलावेध कहलाते है ।
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૬ તંવેધ-પાંચ પ્રકારના કહ્યા છે : (૧) એકજ પંકિતના સ્ત
જાડાઈમાં અસમાનતા (ઓછાવત્તા) હોય (૨) પંકિતમાં ન હોય તે (૩) દ્વાર કે બારી જાળી સામે સ્તંભ હોય (૪) યેગ્ય સ્થાને પદમાં ન હોય તે (૫) ઘરના વચ્ચેના ભાગમાં હોય તે-હદય શલ્ય સ્તંભ વેધ જાણ. पांच प्रकारके स्तंभवेध-(१) एक ही पंक्तिमें आये हुए संभोकी मोटाइ कमी जास्ती हो (२) पंक्तिमें न हो (३) द्वार खीडकी या जालीके सामने स्तंभ हो (४) योग्य स्थान पर पदमें न हो (५) घरके
मध्य भागमे हो-जिसे हृदय शल्य कहते हैं-ये स्तंभवेध है । ૭ મર્મવેધ–પ્રાસાદ કે ભવનની જમીન પર ઊંઘ સૂતેલો વાસ્તુ પુરુષ કપેલો છે. તેનાં મર્મ સ્થાન પર ભીંત, થાંભલો કે પાટ આવે
તે મર્મવેધ જાણ. ७ मर्मवेध-भवनकी जमीनमें औंधा सोया हुआ वास्तुपुरुष कल्पीत है.
उसके मर्मस्थान पर दीवार, खंभा, पाट (वीम) आजावे उसे ममें जानना।
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૮ માર્ગધ-ત્રણ પ્રકારના કહ્યા છે : (૧) મકાન ઘરના મુખ્ય કાર
સીધી લાઈનમાં રાજમાર્ગ હેય તે (૨) ઘરમાં કે ઘરના ભાગમાં થઈને બીજાને રાહદારીને માગ હોય તે (૩) જોડેના બે ઘરને એકજ માર્ગ હોય તે માગવેધ જાણો.
मार्गवेध-तीन प्रकारके-(१) मकानके मुख्य द्वार सामने सिद्धि रेखामें गली मार्ग हो (२) घरमें या घरके कोइ भागमें होकर औरोंका राहदारियांका रास्ता हो (३) जोटे युग्म घरोंके लिये एक ही रास्ता हो उसे मार्गवेध जानना.
૯ વૃક્ષધ-ત્રણ પ્રકારના કહ્યા છે : (૧) ઘરના દ્વારની સામે નિષિક
વૃક્ષ હોય તે (૨) નિધિ વૃક્ષો ઘરની ચારે દિશામાં હોય તે (૩)
ભૂત પ્રેતાદિના વાસવાળું ઘર સમીપમાં હોય તે વૃક્ષ જાણો. ९ क्षवेध-तीन प्रकारके (१) घरके द्वारके सामने निषिध वृक्ष हो
(૨) ઘી વારે ઘોર રિષિ દે () મૃત તાવિ વાસવાણા
वृक्ष घरकी समीप हो वह वृक्षवेध जानना । ૧૦ છાયાધ-ત્રણ પ્રકારના કહ્યા છે : (૧) ઘર-ભવન ઉપર વૃક્ષની
(૩) દેવાલયની ધ્વજાની (૩) ભવન-ઘરની છાયા કૂપ-કૂવામાં પડે તે છાયાધ જાણો. પરંતુ જે દિવસના બીજા કે ત્રીજા પ્રહરની છાયા પડે તેને દોષ જાણ, અન્ય સમયને દોષ નથી. છાયા-ત્તાન કા –(2) અવન-ઘર પર વૃક્ષ જાવા (૨) વાलयकी ध्वजाकी (३) भयन-घरके प्रासादकी छाया कुोंमे पहती हो. किन्तु दिनके दूसरे या तीसरे प्रहरकी छाया पडे यह दोष मानना. अन्य समयकी छायाका दोष नहीं है।
૧
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( ૭ ) ૧૨ ધારધ-ચાર પ્રકારના કહ્યા છે: (૧) ઘરના ગર્ભે દ્વાર મૂકે (૨) ઘરથી
નીચેની ભૂમિમાં પછીતે કે કરામાં દ્વાર મૂકે (૩) એક પંકિતના દ્વારે જાળી બારીઓ આઘા પાછા મૂકી “શાખગળ” થાય તે તે (૪) ઘરની સામે સ્તંભ કે પૂણે માગ, કુ, અરટ, ઘાણી, ખાળ (ગટર) દેવસ્થાન, પાટ કે ભેંત આવે તે તે દ્વારેવેધ જાણો. ( જો કે પરસ્પર આગળ કહ્યાા છે.)
द्वारवेध-चार प्रकारके (१) घरके गर्भ मध्य भागमेद्वार रखा हो (૨) ઘર વહે અમને રીવાર (gg મા') વા ચશ=ારે द्वार हो (३) एक ही पंक्तिके द्वार जाली खीडकी ज्योत्यों रखकर “સારવાર હો (૪) ઘર સામને તંબ, મા, રસ્તા, ગાં, અર=ાની, દર (ર) લેવાન, પાટ (વીસ) વવાર ગાન तो द्वारषेध होता है । (ये सब परस्पर वेध आगे कहे हैं)
૧૫ સ્વરધ-કમાડ ઉઘાડતાં વાસતાં અવાજ કરે અકસ્માત અવાજ
કરે તે સ્વરધ જાણવો.
११ स्वरषेध-किंबाड उघाड-बंध करते समय आवाज करे या अकस्मात
आवाज करे यह स्वरवेध जानना ।
૧૪ કીલવેધ– ઘરના મુખ્ય દ્વારની સામે કે ઉપર ખીલી, ખુંટી કે ઘોડા
મધ્ય ગર્ભમાં હોય તે કોઈ જાણ.
१४ कीलवेध-घरके मुख्य द्वारके सामने या उपर की खूटा या घोडा
मध्य गर्भ में हो वह कीलवेध कहा है। ૧૫ કણધ–ઘર કે પ્રાસાદના કાર સામે કે પદમાં જે સામે ખૂણે પડતા
હેય તે કેણવેધ જાણો. १५ कोणवेध-घर या प्रासादके द्वार सामने या पदमें सामने कौन हो तो
यह कोनवेध कहते है। ૧૬ જમવેધ-ઘરના મુખ્ય દ્વારની સામે અટ, ઘાણ વા રેટ હોય તે
જમવેધ જાણ.
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( ४८ )
१६ भ्रमवेध - घर के मुख्य द्वारके सामने अरट, वाणी या रहेंट हो तो यह भ्रमवेध समझना |
१७
દીપાલયવેધઘરની જમણી બાજુ ઘરના દ્વારની અર્ગલા ( ભેગલ ) સમસ્તે દીવાનું ચાડું ન હોય તા દીવાલયવેધ જાણવા.
१७ दीपालयवेध - घरका दाहिनी और घरकी द्वारकी अर्गला के समसूत्रमे दीपस्थान न रखा हो तो वह दीपालयवेध जानना |
૧૮ ગ્રૂપવેધ——ઘરના સામે કૂવા હાય અગર તેમાં કૂવામાં છાયા પડે તેવુ ઘર હોય તે કૂપવેધ જાણવા.
१८ कूपवेध - भवनके सामने कुआं हो या कुओमें छाया पडती हो बा कूपवेध |
૧૯ દેવસ્થાનવેધ એ પ્રકારના કહ્યા છે : (૧) ઘરના સામે કાઇપણ દેવનું સ્થાનક હાય (૨) દેવ દેવીના દેવ'દિથી કહેલી દિશાથી ઉલટી રીતે જો ઘર હાય તૈ દેવસ્થાનવેધ જાણવા.
१९ देवस्थानचे दो प्रकारके (१) भवनके सामने किसी देवका स्थानक हो (२) देवदेवी मंदिरसे कहीहुइ दिशासे उलटी दीशामें भवन हो वह देवस्थान |
એવા એવા અનેક પ્રકારના વેધ પ્રયત્નથી તજવા.
एसे एसे अनेक प्रकारके वेध प्रयत्नसे छोडना ।
गृहपृष्ठ पूर्व भूमिषु स्वामि द्रष्टि यदाभवेत् । तदाग्रहवते मृत्यु विश्वकर्मा प्रभाषितम् ॥ ९८ ॥
ઘરની પહેલી ભૂમિના આગલા ભાગથી જે ઘરધણીની ષ્ટિ પાછલા ભાગ તરફ્ પડે તે તે ઘરધણીનું મૃત્યુ થાય તેમ શ્રી વિશ્વકર્માંએ કહ્યું છે. ( એટલે પહેલી ભૂમિમાં પછી તે દ્વાર ન મૂકવું. ) ૯૮
भवनकी पहली भूमिके अगले भागसे मकान मालिककी दृष्टि पीछ भाग की ओर पडे तो गृहपतिकी मृत्यु होती है जैसा श्री विश्वकर्माने कहा है । इससे पहली भूमिमें पृष्ठमें द्वार न रखना । ९८
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( ९ )
श्री विश्वकर्मा प्रकाशोक्त वेध
अतः परं प्रवश्यामि गृहाणां वेध निर्णयम् ।
૧
૩
४
५
rai afer to noज काण बधिरकम् ॥ ९९ ॥
or
६ ७
दिग्वक्रं चिपिट्ट चैव व्यङ्गजं मुरजं तथा ।
।
1
11
સર
१३
कुटिल कुट्टकं चैत्र सुप्त च शंखपालकम् ॥ १०० ॥
૧૪
१५ १६
विघटं च तथा केक कैंकर षोडशं स्मृतम् ।
हवे धरीना वेध निर्णय हुं हुं ४ : (१) मऊ (२) ३धिर (3) ४ (४) आयु (1) अधिर (1) हिव (७) चिट्टि (८) व्यंग (ङ) भुश्ब (१०) डुटिस (११) सुट्ट४ (१२) सुप्त (१३) भास (१४) विघट ( 14 ) ४४ (१९) १५२-भ सोण प्रहारना ( धरना अंतर स्थित ) वेध शुवा.
८८-१००
ro aaroh daar निर्णय कहता हूं : ( १ ) अंधक (२) रुधिर (३) कुब्ज (४) काण (५) बधिर (६) दिग्वक्र (७) चिपि (८) व्यंज्ञ ( ९ ) सुरज (१०) कुटिल (११) कुटुक (१२) सुप्त (१३) शंखपाल (१४) (१५) कंक (१६) कैर. इस तरह सो प्रकारके ( घरके अंतरस्थित ) वेध है । ९९-१००
अन्धक च्छिद्रहीनं च विच्छिद्रं दिशिकाणकम् ४ १०१ ॥
हिना कुब्जकं चैव पृथ्वी द्वार बघिरकम् । रं विकीर्णान्दिग्वक रुधिर च विपद्गतम् ॥ १०२ ॥
જે ઘર નળી, ખારી કે ખાળ વગરનું હાય તે બધા ગભુવુ, દિશાઓમાં વિછિદ્ર હોય તે કાવેધવાળુ, અંગહીન સરખી ભાજી न होय ते ४ ( भई ) वैधवाणु, જેનું કાર જમીનમાં નખાયેલું ઊંડું હોય તે અધિવેધવાળુ, જ્યાં જ્યાં છિન્ન-મહું મારી ખારશાં હાય અને વિકણ દિશામાં ( કાટખૂણે ન હોય ) ન હોય તે દિશ્વક વેલવાળુ, ખરાખર પટ્ટમાં મૂકાયેલ ન હોય રૂધિરવેધવાળુ, ૧૦૧-૨
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{ ५०) जो घर जाली, खिडकी या मोरी वगरका हो वह अंधक, दिशाओमे विछिद्र हो वह काणवेध, अंगहीन असमान वाजूवाला हो वह कुब्जक (कुरूप), जिसका द्वार जमीनमें गहा हुए गहरा हो वह बधिर, जहां जहां बहुत बारियों हो और विक्रीण दिशाम (समकोन न हो) न हो वह दिग्वत्रा, वरावर पदमें रखा न हो वह रुधिर वेघवाला जानना ।।
तुङ्गहीन च चिपिट व्यङ्ग चानर्थ दर्शनम् । पाचोन्नत च सुरज कुटिल तालहीनकम् ।। १०३ ।।
પ્રમાણુથી ઓછી ઊંચાઈવાળું, ચપટા જેવું હોય તે ચિપટવેધવાળું જાણવું, જે જોતાંજ અર્થ વગરના જેવું દેખાય તેવું વાંકું હોય તે મુરજ વેધવાળું, તાલમાનથી હીન હોય તે કુટિલવેધવાળું. ૧૦૩
प्रमाणसे ऊचाई कम हो चिपट जैसा हो वह चिपट वेधवाला, देखनेसे ही जो अर्थहीन दिखता हो एमा टेढा हो वह व्यङ्गवेध, जिन घर बगलमें अचा हो वह मुरजवेध, और बालमानसे हीन हो उसे कुटिलवेध समझना । १०३
शंखपाल जंघाहोन दिग्वक्र विकट स्मृतम् । पार्श्वहीन तथा कंकं कैकर च हलोन्नतम् ॥ १०४ ॥ इत्येते अधमाः प्रोक्ता वर्जनीयाः प्रयत्नतः
જે ઘર જંઘા–પ્લીંથ વગરનું કે બહુ ઓછા પરથારવાળું હોય તે શંખપાલ વેધવાળું જાણવું, દિશામાં વાકું ચૂકું હોય તે વિકટવેધવાળું, પડખાં જે ઘરના હીન જેવા હોય તે કંકધવાળું, જે ઘર હળની જેવું ઉન્નત ઊંચું હોય તે કેકવેધવાળું ભવન જાણવું. તે રીતે સેળ પ્રકારના અધમવેધ કહ્યા તે વે પ્રયત્ન કરી તજવાં. ૧૦૪
जंघा यानी प्लीथ हीन हो वह शंखपालवेध, दिशामा टेढामेंढा हो वह विकटवेध, जिम घरकी बगले पाचं नीची हो वह कंकषेध, जो घर हलके समान उन्नत यातो ऊंचा हो वह कैंकरवेध जानना. इस प्रकार सोलह अधमवेध कहे है. उनका प्रयत्नपूर्वक त्याग करना । १०४.
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(५३) अब दश प्रकारके बहिस्थित घेध कहते है :
अथान्यान्दशवेधाश्च कथयामि बहिःस्थिताम् ॥ १०५ ॥ कोणदृक्छिद्र दृक छाया ऋजु वंशाग्र भूमिकाः । संधातः दंतयोश्चैव मेदाश्च दशधा स्मृताः ॥ १०६ ॥
હવે ભવનના બીજા બહિસ્થિત દશ વેધ કહું છું: (૧) કેણ, (૨) ३६, (3) छिद्र, (५) छाया, (५) ag, (९) २२, (७) अय, (८) भूमि, (6) सात भने (१०) त मे महा२।। ६२५ वे ह्या छे. १०५-१०६ __अब दश प्रकारके वहिस्थित वेध कहते हैं (१) कोण (२) दृक् (३) छिद्र (४) छाया (५) ऋजु (६) वंश (७) अय (८) भूमि (९) संघात और (१०) दंत ये दशवेध चाहरके कहे हैं । १०५-६
હવે તેનાં લક્ષણ કહે છે – अब ऊनके लक्षण कहेते हैं:कोणाग्रे चान्यगेहे च कोणाकोणान्तर पुरः । तथा ग्रहाध संलमं कोणं न शुभदं स्मृतम् ॥ १०७ ।। कोणवेधे भवेद्व्याधिर्धन नाशोरि विग्रहः । एक प्राधान द्वार स्याभि मुखेन्यत्प्रधानकम् ॥ १०८ ॥ द्वारं गृहाच्च द्विगुणं तादग्वेषं प्रचक्षते । द्रष्टि वेधे भवेन्नाशो धनस्य मरणं ध्रुवम् ॥ १०९ ॥ એક ઘરના કેણની અગ્રભાગમાં બીજુ ઘર હોય અથવા જે ઘરની સન્મુખ બીજા ઘરને ખૂણે હોય અને તેવાજ અર્ધભાગે મળેલ બીજા ઘરનો કેવું હોય તો તે અશુભ જાણવું. તેવા કેણવેધથી ઘરમાં
વ્યાધિ થાય, ધનનાશ થાય અને શત્રુ સાથે ઝઘડા વિગ્રહ થાય. ૨ એક મુખ્ય ઘરના મુખ્ય દ્વારની સામે બીજા ઘરનું મુખ્ય દ્વાર બમણું
ઊંચું હોય તે દધ જાણ તેવા દષ્ટિવેધથી ધનને નાશ થાય અને નિશ્ચયથી મૃત્યુ થાય. ૧૦૭–૧૦૮-૧૦૯ एक घरके कोणके अग्रभागमें दूसरा घर हो या जिस घरके सामने दूसरे घरका कोण है। और असे ही अर्धभागमें और घरका कोण हो तो वह घर अशुभ है । एसे कोणषेधसे घरमें रोग होता है, धनका नाश होता है और दुश्मनोंके साथ झघडे होते हैं ।
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( ५३ )
ककु मुख्य घरके मुख्य दरवाजेके सामने किसी और घरका मुख्य द्वार दुगुणा ऊचा हो तो वह दृक् वेध होता है । ईस वेधसे धनका नाश और निश्चय मृत्यु होती है । १०७-८–९
समक्षुद्र क्षुद्रवेथे पशु हानिकर परम् ।
द्वितीये तृतीये यामे छाया यत्र पतेद्गृहे ॥ ११० ॥
छायावेध' तु तद्गेह रोगद पशु हानिदम् ।
સમાન સરખા એ ઘરમાં એક નાનું-નીચુ' હેાય તે ક્ષુદ્રવેધ જાણવા. તેનાથી પશુ હાનિ થાય ખીજા કે ત્રીજા પ્રહરની છાયા ( દેવગૃહની ધ્વજા ) પડે તા તે છાયા વેધ જાણવા, તે રાગ અને અને પશુધનને હાનિ કરનારૂં અશુભ ફળ દેનારૂં જાણવું. ૧૧૦
दो समान घरों से एक छोटा निवा हे तो क्षुद्रवेध उत्पन्न होता है । उससे पशुधनका नाश होता है। दूसरे या तीसरे प्रहरकी देवगृह या ध्वजाकी छाया पडे तो यह छायावेध है । यह रोग और पशुधनकी अशुभ फलदाता है | ११०
आदौ पूर्वोत्तरा पंक्तिः पश्चाद् दक्षिण पश्चिमे ॥ १११ ॥
वास्त्वंतरे भित्ति समं शुभदं तत्प्रकीर्तितम् । विषमे दोष बहुल ऋजुवेध प्रजायते ॥ ११२ ॥
જે ઘરાની પહેલાં ઘરાની પકિત પૂર્વ ઉત્તરની હેાય અને પછીની પતિ દક્ષિણ પશ્ચિમની હોય તેવા વાસ્તુના મધ્યમાં સમાન ભીંત હોય તે શુભદાયી ઘર જાણવું. પણ જો વિષમ રીતે અર્થાત્ જો એક તરફ લાંબી અને બીજી તરફ ટૂંકી હેાય તેમાં અનેક દષા દેનાર એવા ઋજુવેશ્વ જાણવા. તેનાથી મહાત્રાસ થાય તેમાં શંકા ન જાણુવી. ૧૧૧-૧૧૨
जिन घरोके पहले घरोंकी पंक्ति पूर्व-उत्तर हो और बादकी 'दक्षिण-पश्चिमकी हो और एसे वास्तुके मध्यमे समान दीवार हो वह घर शुभदायी है । किन्तु विषम रीतसे यानी एक और लंबा और दूसरी और कम हो तो इसमें अनेक दोषदाता ऋजुवेध जानना । इससे महा त्रास उत्पन्न होता है इसमें शक नहीं । १११-१२
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( ५४ )
वंशाग्रे चान्य वंशः स्यादग्रे वा भित्ति बाह्ययाः । तद्वश वेधयेद्गेह वंश हानिः प्रजायते ।। ११३ ।।
જે ઘરમાં વંશની આગળ વશ હાય અગર આગળ બહારની ભીંત હાય તે વશવેષ જાણવા. તે વશની હાનિ કરાવે. ૧૧૩
जिस घरमे वंशके आगे वंश हो या आगे बहार दिवार हो वह वंश वेध होता है | इससे वंशकी हानी होती है ॥
११३
उक्षयोर्यत्र संयोगो यूपाग्रेषु प्रजायते ।
उक्षवेध बिना जीयाद्विनाशः कलहो भवेत् ॥ ११४ ॥
ઘરની ભૂજામાં સચૈાગ ચૂપ-સ્થ ́ભના અગ્ર ભાગમાં થાય. અર્થાત્ સ્વ'લની સન્મુખ હોય તે વેધ જાણવા. તેનાથી વિનાશ અને કલેશ
થાય. ૧૧૪
घरकी भूजामें संयोग यूपस्तंभके अग्र भागमें हो या स्तंभके सन्मुख हो वह उक्षवेध है । इससे विनाश और क्लेश होता है । ११४पूर्वोत्तर वास्तु भूमौ विपरिते यनिम्नका | उच्चवेधो भवेन्नूनं तद्द्वेधे न शुभप्रदम् । ११५ ॥
જે વાસ્તુની પૂર્વોત્તર ભૂમિ વિપરીત હોય એટલે દક્ષિણ પશ્ચિમ ભૂમિ નીચી હોય તે ઉચ્ચવષ જાણવા તે અશુભને દેનારા છે. ૧૧૫
जिस वास्तुका पूर्वोत्तर भूमि विपरित हो यानी दक्षिण पश्चिम भूमि नीची हो वह उच्चवेध समझना. यह अशुभ देनेवाला है । ११५ द्वयोर्गेहान्तर गतं गृह तच्छुभदायकम् ।
गृहोच्चादर्द संलग्ने तथा पाराग्रसंस्थितम् ।। ११६ ॥
संधाय मेलनं यत्र गेहयोर्मित्तिरेकतः ।
विधि वश्यं शीघ्रमेव मरणं स्वामिनोद्वयोः ॥ ११७ ॥
એ જોટે ઘરની વચ્ચે એ અંતર ભીંતા ( કરા ) હોય તે શુભદાયક જાણવુ, પણ જો તે એક ઘરની ઊંઉંચાઇથી બીજું ઘર અધે” ભાગે હૈય તેવી રીતે પારાગ્ર છેડાના આગળના ભાગમાં સ્થિત હાય અને તે જોડીયા ઘરની વચ્ચે એકજ ભીંત (ક) હોય તે તે સધાતવેષ જાણવા. તે વિધિવો કરીને અને ઘરના સ્વામીનું શીઘ્ર મૃત્યુ થાય. ૧૧૬-૧૧૭
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(५५) दो स्थानवाले ग्रहोंके बीचकी दो अंतर दीवार हो वह शुभदायक जानना । परन्तु यदि एक घरकी उंचाइसे दूसरा घर अर्थ भागमें हो पिसी तरह पाराग्र अंतके आगेके भागमें स्थित हो और साथवाले घरोंके बीच एकही दीवार (करा) हो तो यह संधातवेध है। इससे दोनो घरके स्वामियोंकी शीघ्र मृत्यु होती है । ११६-१७
पर्वतानिःसृतं चामं देतवद्भित्ति सन्मुखम् ।
तदंतवेध मित्याहुः शोकरोगं करोति तत् ॥ ११८ ॥ - પર્વતથી બહાર પથ્થરના દાંતાની જેમ નીકળેલા પથ્થર જે ઘરની ભીંતની બહાર સન્મુખ હોય તેને દંતવેધ કહે છે. તે શેક અને રેગ કરનારે વેધ જાણો. ૧૧૮
जिस घरों में पर्वतसे बहार निकाले हुए दंत जैसे पत्थरे हो जो घरकी भीतोके बाहर नीकला हो वह दंतवेध कहलाता है और वह शोक और रोग करनेवाला वेध है । ११८ अब २१ प्रकारके दूषित गृहो कहेते है।
હવે ર૧ પ્રકારના દૂષિત ગૃહે કહે છે – अधित्यका मुयद्गेहं यद्गेई पर्वतादधः ।। यद्नेहं चाश्म संलग्नं घोरं पाषाण संयुतम् ।। ११९ ।। धारानं संस्थितं वापि संलग्नान्तर पर्वते । नदीतीरे स्थितं वापि शृङ्गान्तरगतं तथा ।। १२० ॥
(૧) જે ઘર પર્વત ઉપર હેય કે તલાટીમાં હોય. (૨) જે ઘર પર્વતેના પાષાણથી મળેલું હોય. (૩) જે ઘર પાષાણયુકત ગુફાને મળતું હેય. (૪) જે ઘર પાણીના મોટા પ્રવાહ ધેધ આગળ હાથ. (૫) જે ઘર પર્વતના મધ્યભાગમાં આવેલું હોય. (૬) જે ઘર નદીના તીરે કાંઠે નજીક હેય. (૭) જે ઘર બે નજીક પહાડે વચ્ચે હોય. ૧૧-૧૨૦
(१) जो घर पर्वतकी तलहट्टीमें हो (२) जो घर पर्वतेकि . पाषाणांसे मिला हो (३) जो घर पाषाण युक्त गुफा जैसा हो (४) जो घर जल प्रपातके पास हो (५) जो घर पर्वतके मध्यमें हो (६) जो घर नदीके . किनारे समीप हो (७) जो घर दो समीप पहाडोंके बीच हो । ११९-२० ।
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(५६)
भित्ति भिन्न तु यद्गेहं सदा जले समीपगम् । ver द्वार शब्दार्थ काकोलूक निवासितम् ॥ १२१ ॥
कपाट छिद्र हीन च रात्रौ च शशनादितम् । स्थूल सर्प निवास' च यच्च वज्राह्नि दूषितम् ॥ १२२ ॥
(૮) જે ઘર પહાડની તરફ એક ભીંતથી ભિન્ન છૂટુ પડેલુ होय. (૯) જે ઘર આગળ સદૈવ જળના પ્રવાહ ચાલુ હોય. (૧૦) જે ઘરનાં કમાડ રૂદન કરતાં હોય તેવા અવાજ થતા હોય. (૧૧) જે ઘરના કોઇપણ लागमां झगड़ा में धुवड बसता होय. (१२) उभाङ, भारी, मारणा ખાળ વગરના છિદ્રહીન હાય. (૧૩) જે ઘરમાં રાત્રે સસલાં શબ્દ કરતા હાય. (૧૪) જે ઘરમાં અજગર કે સર્પ રહેતા હાય. (૧૫) જે ઘર પર વિજળી પડી હોય કે અગ્નિથી ખળેલું દૂષિત હોય. ૧૨૧-૨૨
(८) जो घर पहाडकी ओर एक दीवारसे भिन्न हो ( ९ ) जिस घरके पास हमेशां जलका प्रवाह चालु हो (१०) जिस घरके किवाड रुदन जैसे शब्द करने हो ( 11 ) जिस घरके किसी भागमें कौओं और उल्लुओंका ( १२ ) जो घर किवाड, जाली, खिडकी, मोरी हीन हो यानी छिद्र हीन हो (१३) जिस घरमें रातको खरगोश शब्द करते हो (१४) जिसमें अगर सपि बसते हो (१५) जिस घर पर बिजली गिरि हो या अग्निसे जो दूषित हुआ हो । १२१–२२
स्मशान वूषितं यच्च यत्र चैत्य निकास्थितम् ।
वासहीनं तथा म्लेच्छ चांडालेचाधिवासितम् ॥ १२३ ॥
विवरांतर्गत वापि यच्च गोधाधि वासितम् ।
तत्गृहे न वसेत्कर्ता वसनषि न जीवति ॥ तस्मात्सर्वे प्रयत्नेन वर्जयेन्मतिमान्नरः || १२४ || विश्वकर्मा प्रकार
(१६) ने घर स्मशानधी इषित थयेलुं होय. (१७) नयां मंहिर, સમાધિ કે ચબૂતરા હૈાય. (૧૮) જે ઘર અવાવરૂ−ઘણા વખતનું પડતર होय: (१८) बेच्छ, थांडासेो मां वसेला होय. (२०) क्यां लयमा भोटां अशं होय. (२१) ज्यां । रहेती होय. मेरा मेवा उपर उद्या हृषितः ઘરમાં વસવું નહિ અને જે વસે તો જીવિત ન રહે. માટે બુદ્ધિમાન પુરુષોએ પ્રયત્ન કરીને એવા દૂષિત ઘરના ત્યાગ કરવા. ૧૨૩–૧૨૪
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(५७) (१६) जो घर स्मशानसे पित हुवा हो (१७) जहां मंदिर समाधि या चबुतरा हो (१८) जो घर लम्बे अरसे से बसा हुआ न हो (१९) म्लेच्छ चांडाल जहां बसे हो (२०) जो घरकी भूमिमें बडे बडे बिल हो (२१) जहां गोह रहती हो. एसे मकानोंमें वास न करना. अगर मानवी बसेगा तो जीवीत नहीं रहता है. इसलिये बुद्धिमान पुरुषोंको कोषिश करके एसा दुषित मकानोंको छोडदेना । १२३-२४
द्रष्टया रौद्र करालं च भिषणं रौद्रतां नयेत् । वर्जयेत्तत्गृहं चैव श्रियस्तत्र न विद्यते ॥ १२५ ॥
જે ઘર જોતાં જ ભયંકર, કાળ, ભીષણ લાગે તેવું બીહામણું ઘર તજી દેવું. તેમાં લક્ષમી રહેતી નથી. ૧૨૫
जो घर देखनेही भयंकर, कराल भीषण, भयावह लयता हो एसे घर छोडदेना. इधर लक्ष्मी नहीं रहती । १२५
गीधे फाक कपोताचा प्रति संग्राम भिषणाः । पिशाचा राक्षसाः क्रूरा गृहेषु परिबर्जयेत् ॥ १२६ ॥ इतिहास पुराणोक्त वृत्तांतं प्रतिरूपकम् । निन्दितं च गृहे नेष्ट सप्तदेवादि चयत् ॥ नग्न तपस्यि लिलां च भावादिनि न योजयेत् ॥ १२७ ।।
ઘરને વિષે ગીધ, કાગડા, હેલાનાં ચિત્રો કે વિકરાળ સામસામા કરે તેવાં કે પિશાચ, રાક્ષસ કે એવા કુર રૂપનાં આલેખન (ચિત્ર) ન કરવાં. તેવાજ ઇતિહાસ અને પુરાણમાં કહેલા વૃત્તાના રૂપક સપ્તદેવનાં ચિત્રો ઘરની તિ પર ચીતરવા નહીં. વળી નગ્ન, અશ્લીલ સ્વરૂપે. વૈરાગ્યવાન તપસ્વી, લેકીલા કે માયાદિનાં ચિત્રો કે શિ૫ ઘરને વિષે જવા नहि. १२६-२७
घरमें गिध, कौओ, पंडुकके चित्र या विकराल रुपबारे आमने सामने युद्ध कराते हो एसै चित्र या पिशाच, राक्षस जैसे, कररुपके आलेखान कभी न करना । इतिहास और पुराणोंमें कहेहुए हसतिके रुपक सप्तदेवके चित्रो घरकी दिवार पर कभी नहीं करना. नग्न, अश्लील स्वरुप, वैराग्यवान तपस्वी, लोकलीला या मायाके चित्र या शिल्प घरमें नहि योजना चाहिये । १२६-२७
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(५९) सात प्रकारके वेध ठक्कुर फेरुने वास्तुसारमें कहाहुधा वेवदोषः
કુર ફેરૂએ વાતુસારમાં કહેલા સાત વેધ – तलवेह-कोणवेह तालुयवेह कवालवेह च । तहथंभ तुलावेह दुवारवेहं च समय ।। १२८ ॥ (१) तबध (२) आवे५ (3) तायुवेध (४) ६ (१)
२ ५ (६) तुदावे५ (७) वेध. १२८
वास्तुमारमें कहे सात वेध (१) तलवेध (२) कोणवेध (३) तालुवेध (४) कपालवेध (५) स्तंभवेध (६) बुलावेध (७) द्वारवे । १२८ ये वेधका लक्षण अब कहेते है :- य नाय ते रक्षणे! ४ छ:
समविसम भूमि कुंभि अजलपुर परंगिहस्स तलवेही । कूणसमं जइकूर्ण न हवइता कूणवेहो अ॥ १२९ ॥ इक खणे नीचुच्चं पीठत मुपाह तालुयावेहे । बारस्म परिमपट्टे गम्भे पोह' च सिरवेहे ॥ १३० ।।
જે ઘરની ભૂમિ ઊંચા નીચી હાય, દ્વારની સીમે કુંભી (ઘાણ, અટ) હેય કે બીજાના ઘરની પાણીની પરનાળ કે રસ્તે હેય તે તલવે જાણ. જે ઘરના ખૂણા બરાબર ન હોય તે કેણવેધ જાણ. જે ઘરના એકજ ખંડમાં પાટડા કે પીઢીયાં ઊંચાનીચા હોય તે તાલુધ જાણવો. જે ઘરના ઉત્તરંગમાં એ પાટડે આવે તે કપાલવેધ કે સિરધ જાણ. ૧૨૯-૩૦
जिस घरकी भूमि समविषम हो और द्वारके सामने कुंभी (घाणी, अरट) हो या किसी और मकानके पानीका परनाला हो या दुसरोका रास्ता हो वह तलवेध जानना. घरके कौन बराबर न ही से कोणवेध होता है. घरके एकही कमरेमें धरन या पोढ उंचा नीचे हो वह तालमेधः पाके दरवाजेके उपर धरन (बीय ) आ जाय तो वह कपालवेध या सिरवेथ जानना । १२९-३०
गेहस्स मज्झि भाए भेणं तमुपोह उरसल्लं । अह अनलो विनलाई हविज जा थंभवेहो सो ॥ १३१ ॥ हिहिम उपरि खणायांहिणाहिय पीढतं तुलवेह । पीठा समसंखाओं हवंति जइतत्य नहुदोषो ॥ १३२ ॥ .
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( ૬૦ )
दुमकून थंभकोण य किलविधे दुवारबेहो । गेहुच्च विउण भूमि ते न विरुद्ध बुहा विति ।। १३३ ।।
જે ઘરના મધ્ય ભાગમાં થાંભલે આવતું હોય અથવા અગ્નિ કે જળનું સ્થાન હોય તે તે હૃદયશલ્ય જાણવું. તેને ખંભવેધ કહે. જે ઘરના નીચેના ભાગ કરતાં ઉપરના માળામાં પીઢીયાં ન્યૂન કે અધિક હોય તે તુલાવેધ જાણો. પરંતુ જે પાટડાની સંખ્યા બરાબર હોય તે દોષ નહીં. જે ઘરના દરવાજા સામે વૃક્ષ, કુ, સ્તંભ, પૂણે, કોલ–ખીંટી, ખુંટા હોય તે તે દ્વારેવેધ જાણવો. પરંતુ ઘરની ઊંચાઈથી બમણી ભૂમિ છેડીને ઉપરોકત કેઈપણ વેધ હોય તે દોષ લાગતો નથી. એમ બુદ્ધિમાન પુરુએ કહ્યું છે. ૧૩૧-૩૨-૩૩
जिस मकानके मध्ये स्तंभको अथवा अग्नि या जलका स्थान हो उसे घरका हृदयशल्य समझना और उसे स्तंभवेध कहते हैं। जिस घरके नीचेकी भूमिए ऊपरकी भूमिका पीढीया कम या जास्ती हो वह तुलावेध जानना किन्तु घरके धरन (बीम ) की संख्या बराबर हो तो वहे दोष નહી હૈ ! બિસ ઘર તરવા દોર , સુગ, પતંગ, જળ, શિ, खूटे हों तो वह द्वारवेध कहलाता है। परन्तु घरकी उंचाइसे दोगुना भूमि छोडकर उपरोक्त कोइ वेध हो तो वह दोषकारक नहीं. ऐसा बुद्धिमान मनुष्योने कहा है । १३१-३२-१३
सगडमुहा वरगेहा कायव्वा तह य हट्ट बग्धमूहा । बाराड्ड मिहकमुच्चा हटुच्चा पुरड मज्झ समा ॥ १३४ ॥
જેમ ગાડાને આગળને ભાગ સાંકડે અને પાછળ પહોળો હોય છે તેવા ગૃહપ્રવેશ દ્વાર આગળ સાંકડું અને પાછળ પહેલું હોય તે દેવ નથી. અને દુકાન-હાટ સિંહના મુખ જેમ આગળને પહેબે ભાગ રાખવે. દરવાજાની પાછળ મૂળ ઘર ઊંચું કરવું અને દુકાન આગળના ભાગમાં ઊંચી અને મધ્યમાં સમાન હોવી જોઈએ. ૧૩૪
(મુખ્ય ઘર ઊંચું રાખવું, ડેલી નીચે રાખવી, વચ્ચેની ભૂમિ નીચી હોય તે હરકત નહિ. આ સૂત્ર ભૂમિતળ માટે અને મજલા કે છાપરાના મથાળા માટે સમજવું. )
जिस तरह बैलगाडीका आगला भाग संकडा और पीछेका भाग चौडा होता है. उस तरह गृहप्रवेशद्वार आगेसे संकटा और बादमें
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चौडा हो वह दोष नही । दुकाने और हाट व्याघ्रमुख जैसा आगेसे चौडा रखना. दरवाजे के पीछे मुख्य घर उंचा बनाना और दुकाने आगले भागमें उची और मध्यमें समान होना चाहिये । १३४ .
आलय सिरम्मि कीला थंभो बारुवरि बारु यंभुवरे । बार द्विचार समखणां विसमा थंमा महाअनुहा ।। १३५ ॥
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ગોખલાની ઉપરના ઘોડા ખૂંટા, ઉપરના માળે દ્વાર ઉપર થાંભલે કે થાંભલા ઉપર કાર કે એક દ્વાર ઉપર બે કાર કે બેકી ખંડ અને એક સ્તંભ એ સર્વ અશુભકારક છે. ૧૩૫
गोखलेके उपर खुंटा, उपरके भूमि पर द्वार पर स्तंभ का स्तंभके उपर छार या एक द्वारके उपर दो द्वार या दुभी कमरों पर एकही स्तंभ-यह सब अशुभकारक है । १३५
वलयाकार कूणेहिं संकुल अहव एग दूति कूप । दाहिया कामइ दीहं न वासियष्येरिस गेहं ॥ १३६ ॥
ગોળ ખૂણાવાળા એક, બે કે ત્રણ ખૂણાવાળા અને જમણી કે ડાબી તરફ લાંબા એવા ઘરમાં કયારેય પણ વાસ ન કરે, ૧૩૬
गोल वलय आकार कोनेवाले एक या दो या तीन कोनेबाले घर हो और दाहिनी और बायी ओर लम्बे एसे घरमें कभी न रहना । १३६
फलि य तरु कुसुभवल्ली सरस्सइ नवनिहागंजु अलच्छी । कलश बद्धावणयं मुमिणा वलियाइ मुहचित्त ॥१३७॥ वन्धुसाय
ફળવાળાં વૃક્ષ, પુની લતાઓ, સરસ્વતી, નવવિધાનયુકત લક્ષમીદેવી, ફળશ, વૃદ્ધિ આપનારાં માંગલિક ચિહ્નો અને સુંદર સ્વપ્નાની માળ એવાં ચિત્રો ઘરમાં ચીતરાવવા એ શુભ છે. ૧૩૭
फलार पेड, पुष्पलताएं, स्वस्वती, नवविधान युक्त लक्ष्मीदेवी, फलश, वृद्धि करनेवाले चिन्ह और सुंदर स्वप्नकी माला ऐसे चित्र घरमे बनाना शुभ है । १३७
दिशिलो पद लोपं च गर्भलोपं तथैव च । उभयोन्नरके यान्ति स्वामि सर्व धनक्षयः ॥ १३८॥ निषिवास्तु
દિમુખ કે પદને લેપ કે ગને લેપ કરવાથી કરાવનાર અને કે- ૨ બને નકે જાથ છે અને સ્વામીની લફને નાશ થાય છે. ૧૩૮ ૫૫ મલોપ સંબંધે ગર્ભના બાબતમાં અમુક સંજોગોમાં શાસ્ત્રકારોએ અપવાપ કરેલ છે. તેને વિવેક બુદ્ધિથી ઉપયોગ કરે.
लोप बारेमें पक्ष गभं के विषयमें शास्रकारोंने संजोगानुसार अपवाद कहे है। इसमे' विवेक बुद्धि का उपयोग करना।
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( ६३ )
दिग्मुख या पदलोप या गर्भलोप करनेसे स्वामी और शिल्पि दोनोंका वास होता हैं और स्वामिकी लक्ष्मीका नाश होता है । १३८ थरभंगो यदायस्य कोपिता स्वत्र देवताः ।
शिल्पिनो च क्षयं यान्ति तद्भवेत् स्वामि मृत्युदम् ||१३९|| निर्दोषवास्तु દેવાલયમાં પાષણ કે ઈંટના કામમાં થરનેા ભંગ થાય તે તેમાં રહેનારા દેવતા કાપિત થાય છે અને શિલ્પીના નાશ થઈ સ્વામિનુ મૃત્યુ થાય છે. ૧૩૯
देवालय में पाषाण या ईंटोके थरका भंग हो तो रहनेवाले देवता कोपित होता है. शिल्पका नाश होता है और स्वाभिकी मृत्यु होती है । १३९
विषम पदस्तुलस्तंभ' पादभित्ति नष्टकम् ।
क्रम पद चलिते यश्च न शुभं कर्तुकारकम् || १४० || अपराजितसूत्र
કાટખૂણે પદ ન હોય તેવા પદ કે પાટડા કે એકી સ્ત ંભ હોય કે નીચે लींत पाया वगरनी होय............... તા તે તે કર્તા–કરાવનારનું અશુભ
થાય છે. ૧૪૦
चोरसाई में विषम पद हो एसे पद या धरन (बीम- पाट) हो, एकी स्तंभ हो या नीचे दीवारकों नींम न हो..
तो स्वामीका अशुभ होता है । ( वापि मंडप या मकाननेसे जीनने तीन स्तंभ एकी स्तंभ ) नही रखना भिति स्तंभ और सीडी यमोक्ष न करना । १४०
त्रिविभक्त' तुल्यराशि द्विशेष ं नैव कारयेत् ।
विशेष एकशेष च तदादृद्धिमवाप्नुयात् || १४१|| परिमाणमज्जरी ॥
પીઢીયાં (પગથીયા) જેટલી સંખ્યા હોય તેને ત્રણે ભાગતાં જો શેષ . એ રહે તે તે શુભ ન જાણવું. પરંતુ શૂન્ય રહે અથવા એક શેષ વધે તે, તે સવ સુખની વૃદ્ધિદાયક જાણવુ', ૧૪૧
तुला राशि ( पीढीयां पगथी ) के तीनसे बांटनेसे द्वि शेष रहे तो शुभ नही है । किन्तु शुन्य या एक शेष रहे तो सर्व सुखांकी वृद्धि करनेवाला समझना । ( इससे पीढीया पगथी कम या ज्यादा करगा ) १४१.
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( ६४ )
अथ संवर्धन
प्रासाद च चतुर्दिक्ष्य वृद्धि कुर्याद्विचक्षणः ।
नैव भवेत्त च भाषितं विश्वकर्मणा ।। १४२ ।। जयपृच्छा
પ્રાસાદને જો સવર્ધન (વધારવું હોય તે) કરવું પડે તે તે બુદ્ધિમાન શિલ્પીએ ચારે તરફ કરી શકાય તે તેના દોષ નથી એમ શ્રીવિશ્વકર્માએ કહ્યું છે. ૧૪૨
प्रासादका अमर संवर्द्धन वृद्धि करनी पडे तो बुद्धिमान शिल्पिको चारो ओरसे हो सके तो वृद्धिसंवर्धन करना चाहिये । उसमें दोष नही है असा विश्वकर्माने कहा है | १४२
૧૬
एक द्वित्रियोगेना वृद्धिति वास्तु शोभन ।
पुरं तु पूर्वतो वृद्धे अपरानैव वर्धयेत् || १४ || जयपृच्छा
ભવન વાસ્તુને એક, બે કે ત્રણ અંગે વૃદ્ધિ કરવી. સન્મુખ પૂર્વમાં વધારવું. પરંતુ પશ્ચિમ તરફ એટલે પાછળ વધારવું નહિ. ડાબીજમણી તરફ વધારવાથી સર્વ કામનાને આપનાર જાળુવુ. ૧૪૩
भवन वास्तुको एक दो तीन अङ्गोसे वृद्धि करना | सन्मुखके भागमें बढाना. किन्तु पीछेनेा भागमें बढाना नहीं । दाहिनी बाई औरसें बढानेसे सर्वकामना में फळिभूत होति है । १४३
उदये शत हस्तांते मूल द्वादशभूमिका । मध्य उच्चं गृह श्रेष्टमग्रोच्चमशुभावहम् ॥ १४४ ॥
इति गर्ग वास्तुराज શ્રી ગર્ગાચાય જીએ કહ્યુ` છે કે સા હાથ સુધી ઊ'ચા કે આર માળ સુધીના ઊંચા ભવન કરવાનું વરાહમિહિર અને કિરણાક્ષ તત્રમાં સેા હાથથી ઊંચું ભવન ન કરવાનું કહ્યું છે. ભવનની રચનામાં ભવન કરતા ખડામાં મધ્યના ખડ ઊંચા કરવા. પરંતુ ગૃહસ્થના ઘરને વિષે આગળ ડેલી અલાણુક કદી ઊંચુ" ન કરવુ કરે તે તે તે અશુભ નવુ. ૧૪૪
૧
આજકાલ શહેરમાં ગાતા ઘણી અગવડ હેાય છે, તેથી ભવિષ્યમાં જમીન મળી શકે તેમ ધારીને પાછળથી જમીન મળી ગ્રસ્તી હાય તો ભવિષ્યની અપેક્ષાએ તે લેવાની વિવેક બુદ્ધિ વાપરે છે,
आजकल शहरेमिं जमीनकी बहुत असुविधा होती है । इससे भविष्यमे जमीन मील शके यों मानकर बादमे जमीन प्राप्त हो शकती होतो भविष्य की अपेक्षा लेनेको विवेक बुद्धिका उपयोग करना ।
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गर्गाचार्य ने कहा है कि भवन एकसौ हाथों तककी उंचाइका करना. या बारह सगि (दरजे ) तकका उंचा करना। वहार भिहिर और किरणाक्ष तंत्रमें कहा है किं भवन एकसौ हाथोंसे उंचा बनाना नही । भवनकी रचनामें मध्यखंड (कमरा) उंचा करना किन्तु गृहस्थ के मकानमें आगेका भाग डेहली बलापाक कभी उचा न करना अगर करे तो वह अशुभ होता है । १४४
न्यूनाधिक्येन पट्टानां तुलावेध उपर्यधः । एकक्षयो नीचोच्चत्वे पट्टानां तालुवेधताः ॥ १४५ ॥
પાટ ઉપરના પીઢીયાં નાના-મોટા હોય છે તે તુલાવેધ જાણ. તેમજ એકજ ખંડમાં પાટડા ઉંચા નીચા હોય તો તે તાલેવેધ જાણ. ૧૪૫
विवेक विलासमें कहा है कि धरन ( बीमपाट ) के ऊपरके बडोद (पीढीयां) छोटे बडे हों तो यह तुलाषेध जानना । एक ही कमरेमें धरन (बीम-पाट ) उचा नीचे हो तो तालुवेध जानना । १४५
भूमैषम्यातले वेधो द्वारवेधश्च घोटके । एकस्मिन्सन्मुखे द्वाभ्यां पुनव कदाचन ॥ १४६ ॥
ઘરની જમીન ઊંચી નીચી હોય તે તે તલવેધ, દ્વાર ઉપરના મળે એ જ ઘડો (બ્રેકેટ) હોય તે તે દ્વારધ. પરંતુ જે એકને બદલે બે વેધ ” હોય તે તેનો દેષ નથી. ૧૪૬
घरकी भूमि ऊंची नीची हो तो वह तबषेध जानना. द्वारके उपरके भागमें एक ही वोडा (घेटिक) हो तो वह द्वारवेष समझना. परंतु दो घोडे हो तो दोष नही है । १४६
पारोक्षसि शी च नामौच स्तनपोद्वयोः । गृहस्यैवानि मर्माणि नैषु स्तंभादि खत्रयेत् ॥ १४७ ॥
વાસ્તુભુમિમાં વાસ્તુ પુરુષની છાતી, મસ્ત, નાણિ, બે સ્તન એ પાંચ અંગ ધરનાં મર્મ સ્થાન જાણવાં. માટે એ પાંચે સ્થાનકોએ સ્તંભ, પાટ કે लीत न वi. १४७
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वास्तुभूमिमें वास्तुपुरुषका वक्ष, मस्तक, नाभि और दो स्तन ये 'पांचां अङ्ग घरके मर्म स्थान जानना. इसलिये उन पांच स्थानों पर स्तंभ, पाट, धरन या दीवार न रखना । १४७
देव ध्वज कूपवृक्ष न दोष उत्तरायतम् । द्वीदशी सर्वदोषानां छाया तुष्टि दोषयेत् ॥ १४८ ॥ गृहप्रकरणम्
ઘરપર દેવના શિખરની ધ્વજાની છાયા કે ઘરની છાયા કૂવામાં કે વૃક્ષની છાયા ઘર૫ર બાજુમાં એટલે ઉત્તર દક્ષિણમાં પડે છે તે દેષકત નથી. પરંતુ જો તે ઘરની સામે કે પાછળ ( પૂર્વ પશ્ચિમ ) એમ બે દિશામાંથી પડે છે તે દોષકારક જાણવું. ૧૪૮
घर पर देवकी ध्वजाकी छाया या घरकी कु.मे यो वृक्षकी छाया घरकी पक्ष भागमें (उत्तर दक्षिण) पडनेसे दोषकर्ता नहीं है। किन्तु घरकी आगे पीछे (पूर्व पश्चिम) में छाया घरके उपर पडे तो दोपकारक है । १४८
प्रथमात्य यामवयं द्वित्रिप्रहर संभवा । छायावृक्ष ध्वजाकूप सदादुःख प्रदायिनी ॥ १४९ ।। सूत्रसंतान
દિવસના પહેલા અને ચોથા પ્રહરની છાયા છોડીને બીજા કે ત્રીજા પ્રહરની છાયા દેવવ્રજ કે વૃક્ષની પડે અગર ઘરની છાયા તે સમયમાં કૂવામાં પડે છે તે સદેવ દુઃખ દેનાર જાણવું. ૧૪૯
दिनके प्रथम या चोथे प्रहरकी छाया छोडकर दूसरे या तीसरे प्रहर की छाया देवध्वजकी या वृक्षकी घरकी छाया इस समय कूौंमें पडे तो हमेश दुःखकारक समझना । १४९ समलाभ भवेत्यत्र अन्योन्य प्रतिष्ठिते । खाजिकं च त्यजेद्वेश्म यदिच्छेदीप जीवितम् ॥ १५० ।। समराङ्गण सूत्रधार
એક પછીતે બે ઘર હોય અથવા વચ્ચે એકજ પછીતની ભીંત હોય તે તેને “ખાજીક” નામને વેધ કહે છે. લાંબા આયુષ્યની ઈચ્છાવાળાએ તેવું ઘર તજી દેવું. ૧૫૦
एक पछीतकी एक दिवारसे दो घर हो और बीचमे पछीतकी एक ही दीवार हो तो उसे खाजिकवेध जानना. लंबी आयुष्य चाहने वालोंको एसे घरका त्याग करना चाहीये । १५०
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सरले न च मार्गेण प्रवेशो यत्र वेश्मनि । मार्गवेध विजानीयानानाशोक फलप्रदम् ॥१५१॥ विश्वकर्मा प्रकाश मार्गश्चेको यदागच्छेदुमयोह पार्श्वयोः । मार्ग वेधस्तदा सस्याच्छोक संतापकारकः ॥१५२॥ अमराङ्गण सूत्रधार .
જે ઘરમાં થઈને રાહદારીનો સરળ માર્ગ હોય તે માર્ગથ અવેક પ્રકારના શેકનાં ફળનો દાતા જાણવો. તેવી જ રીતે જ કેવ સમરાંગણ સુધારમાં કહે છે. એક પડખે બે ઘર હોય અને એકજ માર્ગ હાથ તે તે "भागवध" शा४ भने दुःसने २ ng. १५१-५२. . जिस घरमें राहदारीका सेरळ रास्ता हो वह मायवेध अनेक प्रकारके शोकफल के दाता है। इसी प्रकार एक पगलमे दो घर हो और एक ही रास्ता हो वह मार्गवेष शोक और दुःख देनेवाला भाबना । १५१-५२
जलघंट दीपमार रसोई दक्षिणांकरम् । इशाने कोपदेवे वामदिशिष्ट दीपंकरे ॥ १५ ॥ नापसव्येन कुर्वित मृहमारोहण तथा । कुड्यांभित्या नकुत द्वार तहै सुखेमुभिः ।। १५४॥ निषिबास्तु
પાણીયારૂ, ઘંટી, દીવાનું ચોડું, ખાણી અને રડું એ સર્વ ઘરની જવણી તરફ રાખવા; ઈશાન કોણમાં દ્રવ્ય મૂકવાની તિજોરી, દેવાલયમાં દેવની ડાબી તરફ દીવાનું સ્થાનક રાખવું. ઘરને દાદર જમણી તરફ તેનાં ચઢવાનાં પગથીયાં અપસવ્ય ન રાખવાં. સુખના અભિલાણી મનુષ્ય ભીતમાં છેદ પાડીને કદાપી દ્વાર ન મૂકવું. ૧૫૩-૫૪
पनीहारा, चक्की, दीपककास्थान, फूलस्थाम और रसोईघर ये सर्व घरकी दाहिनी ओर रखना । इशान कोणमें द्रव्यकोष रखमा. देवा. बयमें देवकी बायी और दीपस्थान रखना. घरका जीदा वाहिनी ओर रखना । चढनेकी सीढियां अपसव्य न रखना । १५३-५४ वास्तुद्रव्यका गुणदोष
काष्टमुदिष्ट चैव पाषाणेधातु रत्ननं । उत्तरोतन्द्रढं द्रव्यं लोहकर्म विवर्जयेत् ॥ १५५ ॥ प्रवाविकपास्तु उचमोत्तय धात्वादि पाषाणेष्टिक काष्टकम् । भेष्ट मध्याऽधम द्रव्यं लोह चैवाऽधमाधमम् ॥ १५६ ॥
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(६८) વાસ્તુ કર્મમાં લાકડું, ઇટ, પથ્થર, ધાતુ અને રત્ન એ દ્રવ્ય એકેકથી મજબૂત છે. પરંતુ લોહનું કામ કરવાનું કહ્યું નથી. ઉત્તમમાં ઉત્તમ ધાતુ અને રત્ન છે. વાસ્તુ કર્મમાં પાષાણ શ્રેષ્ઠ છે, ઈટ મધ્યમ છે અને કાષ્ટ કનિષ્ઠ છે. પરંતુ લોખંડ ( વિશેષ કરીને મંદિરના કામમાં તે ) અધમમાં અધમ હીન દ્રવ્ય કહ્યું છે. તેથી લોખંડ દેવાલયના ઉપયોગમાં વર્જિત છે. ૧૫૫-૫૬
वास्तुकर्ममे लकडी, इंट, पथ्थर, धातु और रत्न उत्तरोत्तर एकएकसे मजबूत है। किन्तु लोहेका काम न करना । सर्वोत्तम द्रव्य धातु और रत्न है. वास्तुकर्ममें पाषाण श्रेष्ट है. इंट मध्यम और काष्ट कनिए है । किन्तु लोहा (विशेषकरके मंदिरके काममें ) तो अधमाधम हीन द्रव्य हे. इससे देवालयके काममें वयं है । १५५-५६
कारयेत्सर्व मेहेषु तदर्धा नैव कारयेत् । एकदारु मयागेहाः सर्व शील्प निवारकाः । द्विजात्या मध्यमा प्रोक्ता त्रिजात्याऽधमास्मृता ॥१५७॥ विश्वकर्माप्रकाश
મકાનના કામમાં એક જાતનું લાકડું વાપરવું તે ઉત્તમ શલ્યનિવારક જાણવું. બે જાતિના કાષ્ટ વાપરે તો તે મધ્યમ અને ત્રણ જાતિના કાષ્ટ વાપરે તો તે કનિષ્ઠ જાણવું. તેથી વિશેષ જાતિના કાઈ ઘરમાં કદી ન વાપરવા. ૧૫૭
( નોટઃ- શય્યા=પલંગમાં ચાર જાતના વૃક્ષ કાષ્ટ્રમાંથી ફકત એક જ જાતનું લાકડું વાપરવાનું વિશ્વકર્માએ કહ્યું છે. ત્રણ જાતિના વૃક્ષના કાષ્ટ ઉપરની भूमि Reli न पा५२वा. वि. प्र.)
मकानके काममें एक ही प्रकारकी लकडीका इस्तेमाल करना कह उत्तम शल्यनिवारक जानना । दो प्रकारकी लकडीका इस्तेमाल करना मध्यम है । और तीन प्रकारकी लकडीका उपयोग मकानमें करना यह कनिष्ठ है ॥ १५७
(नोट : शैया पलंगमें चार जातके पेडोमे से फक्त एक जातको लकडीका उपयोग करना ) शयनकी दिशाका शुभाशुभ फल :---
सौम्य प्रत्यकि छरो मृत्यु क्शाधारक मुनाजिदा ।। प्राकि छराः शयने विद्या दक्षिणे मुखसंपदः । पश्चिमे प्रबलां चिन्ता हानि मृत्यु तथोत्तरे ॥१५८॥ विश्वकर्माप्रकाश
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ઉત્તર અને પશ્ચિમ તરફ મસ્તક રાખીને શયન મૃત્યુને દેનારૂં, રોગ અને પુત્રને દુઃખ દેનારૂં જાણવું. પૂર્વ કે દક્ષિણ તરફ મસ્તક રાખીને શયન કરવાથી સુખ અને સંપદ સદૈવ પ્રાપ્ત થાય છે. પશ્ચિમે મસ્તક રાખીને શયન કરે તો તેથી પ્રબળ ચિંતા કરાવે. ઉત્તરમાં મસ્તક રાખીને શયન કરે તે મૃત્યુ અને હાનિ કરાવે છે. ૧૫૮
उत्तर और पश्चिमकी और मस्तक रखके सोनेको मृत्यु, रोग और पुत्रको दुःखदाता है । पूर्व या दक्षिणकी और सर रखके शयन करनेसे सुखसंपदा मिलती है. पश्चिममें माथा रखे तो प्रबल चिंता करता है।
और उत्तरमें मस्तक हो तो मृत्यु और हानि होती है । १५८ अथ द्वारवेध
अन्यगृहा द्वारविद्ध गृहारद्वार ने चिंतयेत् । . चक्षकोण स्तंभ मार्ग भ्रम कूपैश्व वेधितम् ॥ १५९ ॥
ઘરના દ્વારની સામે બીજાના ઘરનું દ્વાર હોય તો તે દ્વાર પરંતુ પિતાના જ ઘરનું દ્વાર હોય તે ચિંતા નહિ. ઘરના મુખ્ય દ્વારની સામે वृक्ष, भू, यind , मन्यना भाग हाय, श्रम ( २५२८-t ). ફ હોય તે તે વેધ જાણ. ૧૫૯
घरके द्वारके सामने दूसरोके घरका द्वार होतो यह द्वारवेध है। किन्तु खुदके घरका द्वार हो तो चिन्ता नहीं, दोष नहीं, घरके मुख्य द्वारके सामने पेड, कोण, स्तंभ या अन्य जनाका जानेका मार्ग हो, भ्रम ( अरट, घानी, रहट ) या कुआं हो तो वह वेध है । १५९ उत्तानमर्थ नाशाय अधोमुखं व्याधि साधकम् । मीलीतं व्याधि पीडायै विकर्ण च न हितं च तत् ।। १६०॥ निषिवास्तु
ઘરનું દ્વાર ઓળભે ન હોય અને અગાડુ હોય તે દ્રવ્યનો નાશ થાય, પછાડું મૂકે તે વ્યાધિ કરાવે, મિલિત ટેવું દ્વાર હોય તો વ્યાધિ પીડાકારક જાણવું, દ્વાર જે કાટખૂણે ન હોય તે સ્વામિના હિતમાં ન જાણવું. ૧૬૦
घरका द्वार अवलंबमे औंधा रखानेसे द्रव्यका नाश होता है । पिछडा रखे तो व्याधि कराता है। मिलित टेढा द्वार होनेसे पीडाकारक है । काठखुण-समकोण न होनेसे स्वामिका हित नहीं होता । १६०
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(७०) पृष्ठि द्वार ने कर्तव्यं एक भूमि गृहेषु च । द्वितीय भूमि द्वारं च न दोष अद्रिप्पयके ।। १६१ ॥ निषिवास्तु
સામાન્ય રીતે ઘરના જમીન મજલાની ભૂમિમાં પછીતે દ્વાર ન મૂકવું. બીજી ભૂમિમાં દ્વાર મૂકવામાં દોષ ન જાણ. ૧૬૧
सामान्यतः एक भृमि घरमे पछितमें पीछे द्वार न रखना. दूसरे दरबमैं द्वार रखने में दोष नही । १६१
कक्षौ द्वार न कर्तब्य पृष्टि द्वार विर्जयेत् । पृष्ठे चैव भवेतरोगी कुक्षौ व्याधि विनिर्दिशेत् ॥१२॥ निषिकास्तु
ઘરના કરામાં દ્વાર ન મૂકવું અને પછી પણ હાર ન મૂકવું. કે તે व्याधि भने रोग ४२वे. १९२
घरकी कुक्ष और पछीक्य द्वार न रखना. कुक्षय द्वार मूकनेसे व्याधी रहती है। और पृष्ठ-पछितमें द्वार रखनेसे रोग होता है । १६२
उत्तरगा देन्यस्ता ललाटे न समायदि । . .ला ललाटिका लापि कुलक्षय करी भवेत् ॥ १६३ ॥
ઘરના દ્વારના ઉતરંગના પટામાં પાટ સામેલ હેય કે સામાન્ય રીતે - લલાટથી નીચે ઉતરંગ જે હેય તો અગર બે પાટની સંધિ થાય ત્યાં જે એક બીજાના પેટામાં સાલવી નીચે સ્તંભ ન મૂક્રે તો તે તુલાવેધ જાણો. અગર પાટકે ઉતરંગ લલાટ બરાબર નીચે હોય તે તેવા તુલાઈથી ઘરધણીના કુળને નાશ થાય. ૧૬૩
घरके द्वारके उत्तरंगमें धरन (पाटम्चीम) सामेल हुआ हो या ललाटसे नीचा उत्तरंग हो. या दो घरन (पाट ) जहां संधी होता हो वहीं एक दूसरेके बीच में सालकर नीचे स्तंभ न रखा हो यह तुलावेध है। धरन ( बीम-पाट ) या उतरंग ललाटके बराबर हो तो इसे तुलावेवसें स्वामिके कुळका नाश होता है । १६३ द्वारे सर्व गृहाणांतुलमान न बोपन् । अग्रत पृष्ठतश्चैव समसूत्र च कारयेत् ॥ १६४ ॥ भिषिवास्तु
મકાન આગળ પાછળના બધા દ્વારે (બારી, જાળીયા, કબાટ, ગોખલા) ના ઉતરગના તળ ન લેવા. તે બધા એક સૂત્રમાં રાખવા. ૧૬૪
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( ७१ )
earth समीद्वारो (खीडकी, जाली, कबाट, गोखलेांका) का उत्तरंग समसूत्रमें होना चाहिये. उंचा निचा रखनेमें दोष है । १६४ सुरजं वर्तुलं द्वारा मानहीन' च वर्जयेत् । प्रथमा भूमियत् द्वारे तेनस्या दुपरिभूमिषु ॥
१६५ ॥ समराङ्गणसूत्रधार
ઘરના દ્વારના ઉપર ગાળ મુરજ ( ત્રિકાણ પ્રમાણથી હીન=નાનું ન કરવું. પહેલી ભૂમિનું દ્વાર પહેાળું હાય તેવડુ ઉપરના માળે દ્વાર સૂકવું. મેઢું ન મૂકવુ. ૧૯૫
જેવુ. ) ન કરવું. તેમજ પહેાળુ હોય જેટલુ
घरके द्वारके उपर गोल मुरज ( त्रिकोण जैसा ) न करना और मान प्रमाणसे हीन कम भी न करना । भूमितल के द्वार के गर्भ पर उपकी भूमिका द्वार मुकना. आगे पीछे द्वार न खड़े करना । १६५
द्वार मध्ये कोण स्तंभमेकदोष च कारयेत् ।
युग्मेषु भवेत् श्रेष्टमेकैकं परिवर्जयेत् || १६६ ।। निर्देषवास्तु
ઘરના દ્વાર સામે મધ્યમાં જે ખૂણે! કે થાંભલેા એક શાખ ગળે તા તે દોષકારક છે. પરંતુ જે તે કારમાં એ ખૂણીચા કે સ્ત ંભે કે એ શાખ ગળતી હાય તે સારૂ તેમાં દોષ નથી પરંતુ દ્વારમાં એક ન ગળવું જોઇએ. ૧૬૬
घरके द्वारके सामने यदि एक काण, स्तंभ या शाख गलती हो तो hreकारक है । किन्तु जो द्वारमें दो कोण, दो स्तंभ या दो शाख गलती हो तो दोष नही है. यह अच्छा है. परंतु एक हो तो दोष है । १६६
स्तंभ द्वार' च भितिच विपरीत न कारयेत् ।
उपरि यै परीत्येन दोषाः स्युर्बहवो नृणाम् || १६७ || परिमाण मंजरी
ઘરની નીચેની ભૂમિમાં દ્વાર, સ્તંભ અને ર્ભીત આવેલ હાય ત્યાં તે રીતે ઉપરની ભૂમિમાં દ્વાર, સ્તંભ કે ભીંત રાખવાં. પરંતુ જો ખીજે માળે આડા અવળાં કરેતા તે દોષ દેનારૂં જાણવુ. ( અર્થાત્ દ્વાર પર દ્વાર, તભ પર સ્ત ંભ અને ભીંત ઉપર ભીંત એમ રાખવું. ) ૧૬૭
नीचेनी भूमि समान उपर द्वार, स्तंभ, भिति, पाट, रखना से दोष उत्पन्न होता है । १६७
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( ७३ )
द्वारवेध तु यत्नेन सर्वथा हि परित्यजेत् ।
गृहोत्सेध तृतीयांश हीनो वा मान मुच्यते ।। १६८ ।। परिमाणमंजरी સામાન્ય ઘરની ઉભણી હોય તેને ત્રીજો ભાગ તજીને જે રહે તેટલી દ્વારની ઊંચાઈ રાખવી. ૧૬૮
सामान्य गृहकी उंचाइसे तीसरे भाग छोडके देो भागकी द्वारकी ऊंचाई रखनी । १६८
द्वारवेध यत्नेन सर्वथा ही परित्यजेत् ।
गृहच्छाय द्विगुणितां नयक्ता भूमि बहिः स्थिकम् || १६९ || परिमाणमंजरी
तवा.
ઘરના દ્વાર સામે આવતા સવ વેધા યત્ન કરીને હુમેશાં પરંતુ જો ઘરની ઊંચાઇથી ખમણી જમીન છેાડીને તેટલે દૂર હોય તે તે વેધ દોષકર્તા નથી. ૧૬૯
घरके द्वारके सामने आयेहुए सर्ववैधका यत्न से त्याग करना चाहिये. परंतु घरकी उंचाइसें दोगुनी भूमि छोडके दूर वेध हो तो areकर्ता नहीं है । १६९
reater द्वारे मूलैचानको भवेत् ।
द्वारा देव सदन' बालानामापत्ति दायकम् || १७० ॥ निर्दोष वास्तु प्रकीर्णक वास्तु
ઘરના દ્વારની સામે પાણીની માટી મેરી-ખાળ હોય તો તે અનકારી જાણવું. તેથી પાયામાં પાણીનું વહન થતુ. હાય. દેવનું સ્થાનક દ્વાર સામે હોય તે તે આળકોને માટે આત્તિદાયક જાણવુ. ૧૭૦
घरके द्वारके सामने पानीकी बडी मोरी हो तो वह अनर्थकारी है । उससे नींवमें पानी बहता रहता हो । द्वारके सामने देवस्थान हो तो बालके के लिये आपत्ति कारक है । १७०
श्रेणीभङ्गास्य लोपेन. ब्रह्मदेोषेो महाभयः ।
शिल्पिनो निकुलं याति स्वामि सर्वधनक्षयः ॥ १७१ ॥ निदेषवास्तु
શ્રેણીબાના લેપ કરવાથી મહા ભય ઉપજાવનારા ગભલાપના બ્રહ્મદોષ લાગે છે. તેથી શિલ્પીના કુળના નાશ થાય છે અને ઘરધણીની લક્ષ્મીના નાશ થાય છે. ૧૭૧
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( ७ )
श्रेणीभङ्गका लोप होनेसे महाभयंकर दोष और गर्भ लोपसे ब्रह्मदेोष लगता है। इससे शिल्लिका कुलनष्ट होता है । और स्वामिकी लक्ष्मीका भी नाम होता है । १७१
वेणीय सर्वदिक्षु च बलाणकं न कारयेत् ।
चाणकं हस्वोदय त्रिदश जलधारियेत् ।। १७२ ।। गृहप्रकरणम्
ભવનમાં મધ્યે ચાક રાખીને ચારે તરફઆરડાઓનુ ચણુતર કરવું. પણ આગળ અલાણુક-ડેલી મૂળ ઘર ખરાખર ન કરવું. પશુ તે ડેલી મૂળ ઘર થી નીચુ' કરવું અને તે ભવનના અંદરના ચાકના નેવાની ધારા ત્રણખાનુ પાડવી. ( ચારે ખાજુ નેવા ચેામાં ન પાડવા. ) ૧૭ર
भवन मध्यचौक रखकर चारों ओर कमरे बनाना, और आगे प्रवेशमे बलाणक ( डहली भाग ) मूल घरके समान उदयका न करना. किन्तु वह बलाक मूल गृहसे नीचा होना चाहिये और भवनका मध्यचौक तीन ओर से पानीका छपरेका नेवा गिरे यह शुभ है । ( किन्तु चारो दिशाओंके छपरेके नेवा चौकमें नहीं गिराना ) १७२
अशास्त्र' मंदिर कृत्वा प्रजाराज्यंगृहाणि च । तद्गृहाण्य शुभाम्वाद श्रियस्तत्र न विद्यते ॥
१७३ || निर्दोष वास्तु
શાસ્ત્રવિદ્યાથી રહિત મંદિર કે પ્રજાના ઘર કે રાજભવન કરવાથી તે ભવને અશુભ જાણવા. ત્યાં લક્ષ્મી કદી વાસ કરતી નથી. ૧૭૩
शास्त्रविधि रहित मंदिर घर या राजभवन बनाना यह भवन अशुभ जानना | यहां लक्ष्मीका वास कभी होता नहीं । १७३
अथ गृहायभूतम् -- ( वास्तुराज )
स्वयं मृद्घटिने नादे पतिते मरणं भवेत् ।
कम्पनेन च महारोगो विघटना कुलक्षयम् ॥ १७४ ।।
ઘરનાં દ્વાર પેાતાની મેળે ઉઘડી જાય, અવાજ થાય, અકસ્માત કાઇ પડે તે તેથી સ્વામિનું મૃત્યુ થાય, કમ્પાયમાન થાય તે મહા રાગ થાય, આવી ઘટનાના દોષથી કુળને ક્ષય થાય. ૧૭૪
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घरके द्वार स्वय स्खुल जायें, आवाज करें, अकस्मात् कोइ गिर जाय तो इससे स्वामिकी मृत्यु होती है । इस घटनाके देापसे कुलका क्षय होता है । १७४
राजवेश्मानि चैत्येषु प्रासाद तोरणे ध्वजे । अन्यानि यानि द्रश्यन्ते तत्र भयौं भवेत् ॥ १७५ ॥. द्वार प्राकार वेश्मानि निर्मितं तु पतनं यदाभवेत् । द्रढस्थूणा कयाटादि वंशभङ्गः पति क्षये ॥ १७६ ।।
રાજભવન, ચૈત્ય કે પ્રાસાદ, દેવાલયના તોરણ કે વજનું અકસ્માત પતન થાય કે એવા દશ્યથી મહા ભય ઉપજે. બારણાં, ગઢ, કિલ્લે કે ઘર અકસમાત અકારણ પડે અગર કમાડે દઢ હોય છતાં તે પડે તે વંશને નાશ થાય અને સ્વામિનું મૃત્યુ થાય. ૧૭૫-૧૭૬
राजभवन, चैत्य या प्रासादके तोरण पा ध्वजका अकारण पतन हो तो महाभय पैदा होता है । द्वार, गढ, किल्ला या मकान अकारण गिरें या किंवाड मजबूत होते हुए भी गिरजाय तो वंश नाश होता है और स्वामिकी मृत्यु होती है । १७५-७६ अकस्मात गृहभूमिश्च स्फुटिते कुख्यक तथा । यस्य गेहे शृगालादि प्रविष्टवाय श्रूयते ॥ १७७ ।। रक्तधारा गृहे द्रष्ट्वा द्वारेण सर्पः प्रवेशीनः । गृह तस्य विनश्येन पत्नि वा म्रियते पतिः ॥१७८॥ इतिगृहाद्यद्भूतम्
અકસ્માત ઘરની ભૂમિ ફાટે કે શિયાળ આદિ પશુ પ્રવેશ કરે, ઘર કે ફળીમાં લેહી જેવી ધારા દેખાય કે દ્વારમાં સર્પ પ્રવેશ કરતાં જણાય તે તે ઘરનો વિનાશ થાય અને ઘરધણી કે તેની પત્નીનું મૃત્યુ થાય. १७७-७८
घरकी भूमि अकस्मात् फट जाय या मकानमें शृगालादि पेक्षुका प्रवेश हो जाय, घर या प्रांगणमें रक्तधारा द्रश्यमान होती हो या द्वारमें सांप प्रवेश करता हो तो यह घरका नाश होता है। पति या पत्निकी मृत्यु होती है। १७७-७८
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(७६) अथ वृक्षाद्भूतानि-( वास्तुराज)
वृक्षाणां रोदने व्याधि ईसने देशविग्रहम् । शाखा प्रपतनोदस्मात् संग्रामे हि विघातस्तु । बालानां मरणं कर्तुम् बालानां फल पुष्पतः ॥ १७९ ॥
વૃક્ષમાંથી રૂદન સંભળાય તો વ્યાધિ થાય, હસવાનો અવાજ આવે તે દેશમાં વિગ્રહ કે ભંગ થાય, શાખા-ડાળ અકસ્માત પડે તે સંગ્રામમાં ચોદ્ધાઓને ઘાત- સંહાર થાય. બાળવૃક્ષ-ડા સમયમાં આવેલા વૃક્ષને પરિપકવ સમય પહેલાં ફળ કે ફૂલ આવે તો બાળકોનાં મરણ થાય. ૧૯
पेडमे से रोनेकी आवाज सुनी जाय तो व्याधि होती है। हंसनेकी आवाज निकले तो देशभङ्ग होता है । शाखा या डाली अकस्मात् तूट पड़े तो संग्राममें यौद्धाका संहार होता है। बाल वृक्षमे अकाल फलफूल प्राप्त हो (परिपक्व होने पहेले फल आवे ) तो बालकोंको मृत्यु होती है । १७९
शुष्केषु संप्रशेहेतु दुर्भिक्ष च बल क्षयः । अनृतौ चेत्फलं पत्र द्रश्यते यदि वा मे ॥ १८० ॥ ज्वलनादपि च वृक्षाणां रौद्रस्याद्धि धनक्षयः । पतनात्पूजित वृक्षाणां सर्व राज्य विपर्यते ॥१८१॥ इति वृक्षाद्भूतानि
સૂકેલાં વૃક્ષ જે ફરી કેળ, પાન પત્તા આવે, તે તે દુષ્કાળ અને બળ હીણુતાના લક્ષણ જાણવા. ઋતુ વગરનાં ફળ પત્ર આવે તે .... ઉભેલું વૃક્ષ અકારણ બળી જાય તે ભય કરનારું કે લક્ષમીને નાશ થાય. પૂજાતાં વૃક્ષ ( પીપળો, વડલે ) જે અકારણ પડે કે બળે તે સર્વે રાજ્યનું પરિવર્તન થાય. ( નોટ-દુષ્ટ વૃક્ષ એટલે જે કાપતાં રક્ત જેવું નીકળે, ભૂતવૃક્ષ ભૂતના વાસો રહે તેવા વૃક્ષ પીપળો, આંબલી વગેરે.) ૧૮૦-૮૧
शुष्क पेड फिरसे पल्लवित हो तो अकाल और बलहीनता आती है। ऋतुकाल विना फलफूल आ जाय तो लक्ष्मीका नाश हो. अकारणही वृक्षका पतन हो जाय तो भयंकरता और धनक्षय होता है । पूजते वक्ष यदि गिरें तो राज्यका परिवर्तन होता है । (दुष्टवृक्ष-जिसको काटते ही रक्त
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( ३७ )
जेसा निकलता है । भूतप्रेतका वासवाला वृक्ष पीपला - ईमली ) इति वृक्षाद्भूतानि । १८०-८१
अथ गृहदेोषा -
सुचि मुखं भवेच्छिद्र प्रासादे पृष्ठे च यदा
प्रासादे न भवेत्पूजा गृहे क्रिडन्ति राक्षसाः || १८२ || निर्दोषवास्तु
પ્રાસાદ કે ઘરને નીચેની ભૂમિમાં જે સાયના મૂળ જેટલુ પણ છિદ્ર પછીતે (પાછળ) ન રાખવુ. જે છિદ્ર રાખે તા પ્રાસાદમાં પૂજા કરનાર ન રહે અને તેવા ઘરમાં રાક્ષસા ક્રીડા કરે એટલે કે ઉજ્જડ થાય. ( ઉપરની ભૂમિ કે ચતુર્મુ`ખ પ્રાસાદ કે ઘર માટે તે દોષ નથી. ) ૧૮૨
प्रासाद वा घरके नीचेकी भूमिमें पीछली दीवार में सुईके मुंह जितना छिद्र नहीं रखना. यदि छिद्र रखे तो प्रासादमें पूजा करनेवाला नहीं रहता, अर्थात् मृत्यु होती है । अगर मकानसे एसा हो तो उस घरमे राक्षस रहते हैं - उजाड होता है । ( उपरकी भूमि या चतुर्मुख प्रासाद या घरके लिये यह प्रमाण नही समझना ) १८२
इष्टि कर्मेषु सर्वेषु थरमान न लोपयेत् ।
इष्टिकादि थरे किंचित् वेदेोषेो न कारयेत् || १८३|| निदेषवास्तु
ઘર કે મંદિર કામમાં ઈંટે કે પથ્થર વગેરેના ચણતરમાં ઘરમાન ન લેાપવા. એક સૂત્રમાં થા રાખવા. ઈંટ કે પાષાણુના ઘરનું ચણુતર એક સૂત્રમાં થવાથી તેમાં વેધ દોષ ઉપજતે નથી. ૧૮૩
मकान या प्रासाद इंट या पाषाणका चुनमें समधर एक सूत्र में लेना चाहिये. थरमानका लोप नही होना चाहिये. ईंट, पथ्थरके थर एक सूत्रमे होनेसे 'वेधदोष नहीं होते । १८३
अधः भित्तौ कृतं पूर्वे तस्मिनैव तथोपरि । द्वार द्वारस्य कथित उपर्युपरिभूमिषु || १८४ ।।
पट्टोsपरि च न स्तंभभिति विपरितं न कारयेत् ।
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(७८ ) उपर्युपरिभूमिषु द्वादशांश विवर्जयेत् । समवेध भवेत्तत्र समस्त कुलजः क्षयः ।। १८५ ॥ समराङ्गण सूत्रधार
ભવનની નીચેની ભૂમિમાં જ્યાં ભીંતે, ધાર, સ્તંભ કે પાટ આવતા હોય ત્યાંજ ઉપરના માળે મૂકવા. ભીંત પર ભીંત, દ્વાર પર ગર્ભદ્વાર તેમજ પાટડા ઉપર પાટ આવે. પરંતુ પાટ ઉપર થાંભલો કે ભીંત ઉપરના માળે ન મૂકવા. તેવું વિપરિત કામ ન કરવું. વળી નીચેના મજલાની ઉભી ઉદયથી ઉપરના મજલાની ઉભણી બારમે અંશ ઓછો રાખવી. પરંતુ તેમ ન કરતાં નીચે પ્રમાણે જેટલી જ ઉભણું ઉપરના માળની રાખે તે આખા કુટુંબને નાશ કરનાર એ સમવેધ ઉત્પન્ન થાય. ૧૮૪-૮૫
भवनकी नीचेकी भूमिमें जहां दोवार द्वार, स्तंभ, पाट रखे हो इस तरह उपरकी भूमिमें वहां भी रखना. दीवार पर दीवार, द्वार पर गर्भे द्वार, पाट पर पाट (बीम) स्तंभके पर स्तंभ रखना. किन्तु बीम-धरन-पाटके उपर खंभा या दीवार नहीं रखना । असा विपरीत कार्य न करना । नीचेकी भूमिकी उंचाइ ( उदय ) से बारहवां अंश घटाकर उपरकी भूमिका उदयमान रखना. एसा न करनेसे उपर नीचेका उदय सरखा रखनेसे सारे परिवारका नाश करनेवाले समवेध उत्पन्न होतो हैं । १८४-८५ सुर्पाकारं गृहकार्य विकर्ण नैव कारयेत् । अग्रतश्च भवेच्छेन्ठ पृष्ठित परिवर्जयेत् ॥ १८६ ॥ निषिवास्तु
१७
સુપડાની જેમ આગળનો ભાગ પહેળ અને પાછળ ભાગ સાંકડે હોય તેવી કે વાંકે ન હોય તેવી જમીન કે ઘર ન કરવું. પરંતુ આગળને ભાગ સાંકડો હોય કે પાછળ પહેલું હોય તેવી જમીન કે ઘર સારું જાણવું. પણ પાછલે ભાગ સાંકડે હોય તેવું તજી દેવું. ૧૮૬ ૧૭ સપડાના આકારનું ઘર કે જમીન માટે વારતુસારમાં ઠક્કરએ દુકાન કે હાટ માટે
સારૂં કહ્યું છે. પરંતુ ધાને માટે આગળ સાંકડું અને પાછળ પહેલું રાખવાનું તે પ્રકાર કહે છે. सुपट्टे के आकार के घर या ममीन के बारेमें वास्तुसार मथमे ठक्कर फेरने दुकान या हाट के लीये अच्छा कहा है। मगर घर के लीये आगे सकडा ओर पीछे चोखा रखनेका ग्रंथकारने कहा है।
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(७९) सुप जेसी आगेसे चौडी और पीछे संकडी हो या समकोण (गुनीये ) में न हो एसी जमीन या घर नहीं करना. किन्तु आगेका भाग सांकडा हो एसे घर श्रेष्ठ जानना. पीछेका भाग संकडा हो असा घर वर्जना । १८६
द्वार मध्येस्तुला स्तंभो नागदंतश्च भित्तिका । द्वार मध्ये समाश्रेष्ठा न चैते विषमा स्थिता ॥१८७॥ प्रकीर्णक वास्तु
ઘર કે પ્રાસાદના દ્વાર સામે પાટડે, થાંભલે કે નાગદંત ( ઘેડ ) કે ભીંત આવે તો તે નેષ્ઠ જાણવું. જે એકી હોય તો દેશ છે, પરંતુ તે જે બેકી ( બે ) હોય તે શ્રેષ્ઠ જાણવું. ૧૮૭
घर या प्रासादके द्वारके सामने बीम-पार, स्तंभ, नागदंत (घोडा) या आडी भीत्त-दीवार हो तो वह नेष्ट है । विषममें दोष है. किन्तु सम ( द्वय ) में दोष नहीं है । १८७ पार्वाधिक पृष्ठहीनं समुलो वेधदायकम् । कुंडी भित्वा नकुर्वीत द्वारं तत्र सुखमीसुधीः ॥१८८॥ समराङ्गण सूत्रधार
જે ઘરને કર અધિક લાંબો હોય અને પછીત ઓછી હોય તો નળાંગ ઘરને સમુલા નામને વેધ કહે. સુખના અભિલાષી મનુષ્ય ભીતે ખોદીને દ્વાર ન મૂકવું. ૧૮૮
जिस धरका पार्श्व ( करा ) अधिक लंबा हो और पछीत कम हो तो वह नलांग घरको समुलवेध कहता है । सुखके अभिलाषी मनुष्यको दीवार खोद कर द्वार मुकना उचित नहीं है । १८८ अथ प्रवेश
उत्संगो हीन बाहुश्च पूर्णबाहस्तथा परः । प्रत्यकायश्चतुर्थश्च निवेशः परिकीर्तितः ॥ १८९ ॥ समराङ्गण सूत्रधार
ઘર કે નગર કે પ્રાસાદના ચાર પ્રકારના પ્રવેશ કહ્યા છે (૧) ઉત્સગ (२) डनमा (3) यूमा भने (४) प्रत्यक्षाय. १८६
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(८०) प्रासाद, घर या नगरके चार प्रकारके प्रवेश कहै हैं (१) उत्संग (२) हीनबाहु (३) पूर्णबाहु (४) प्रत्यक्षाय । १८९
उत्संगे एकदिकाम्यं द्वाराभ्यां वास्तुवेश्मनाः ।। स सौभाग्य प्रजावृद्धि धनधान्य जयप्रदा ॥ १९० ॥ ..
વાસ્તુગ્રહના ઘરમાં સન્મુખ એકજ દિશામાંથી પ્રવેશ થાય તે ઉત્કંગ નામને શ્રેષ્ઠ પ્રવેશ જાણો તે સૌભાગ્ય, પ્રજાવૃદ્ધિ, ધનધાન્ય અને વિજયને દેનારે ઉત્તમ પ્રવેશ જાણે. ૧૯૦
__ वास्तुगृहके द्वारमें सन्मुख एकही दिशाम से सामनेसे प्रवेश हो वह जसंग प्रयेश कहलाता है । और यह सौभाग्य, प्रजावृद्धि, धनधान्य और विजय देनेवाला हे । १९० ।
यदि प्रवेशो हि वास्तु गृहाद् दक्षिणतां भवेत् । प्रदक्षिणा प्रवेशाद्धि भवेत् पूर्णबाहुकः । तत्रपुत्राश्च पौत्राश्च धनधान्य मुखानि च ॥ १९१ ॥
જે વાસ્તુ ઘરમાં ઘરની જમણી તરફ થઈને પ્રવેશ થાય તે પ્રદક્ષિણાથી પ્રવેશ થાય તે પૂર્ણબાહુ પ્રવેશ જાણો. તે પુત્ર, પૌત્ર, ઘનધાન્ય અને સુખને દેનાર પ્રવેશ જાણ. ૧૯૧
जिस वास्तु गृहमें दाहिनी ओरसे प्रवेश हो सकता हो प्रदक्षिणासे प्रवेश हो वह पूर्णबाहु प्रवेश है । यह पुत्र, पौत्र, धनधान्य और सुख देनेवाली है। १९१
यत्र प्रवेशतो बास्तुग्रह भवति वामत् । तहिनबाहुक वास्तुगृह' निदित वास्तु चिन्तकैः ॥ १९२ ॥
જે વાતુગૃહમાં ડાબી તરફ થઈને (અપસવ્ય) પ્રવેશ થાય તે હીનરાહુ નામને નિંદિત પ્રવેશ થાય તેમ વાસ્તુશાસ્ત્રના આચાર્યો કહે છે તે નષ્ટ પ્રવેશ જાણો. ૧૯૨
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(८१) जिस वास्तुगृहमें बायीं ओरसे ( अपसव्य ) प्रवेश हो, वह हीनबाहु प्रवेश कहलाता है और वह निध-नेष्ट है । १९२
गृहपृष्ठ समाश्वित्य वास्तुद्वार यथाभवेत् । १८प्रत्यक्षायत्वसौ नियो वाम वर्तः प्रवेशस्ततः ॥१९३॥ समराङ्गण सूत्रधार
વારતુઘરની પછીતે થઈને ઘરની ડાબી બાજુથી જે પ્રવેશ થાય તે પ્રત્યક્ષાય અગર પૃષ્ઠભંગ પ્રવેશ નિંદિત-નેષ્ઠ જાણ. ૧૯૩
घरकी पछीत ( पृष्ठ दिवार ) से वायी ओरसे जो प्रवेश होता ही उस प्रत्यक्षाय या पृष्ठ भग प्रवेश कहते है और वह निंद्य और नेष्ठ
उच्चायाद्विगुणाभूमि वेधदोषो न जायते ।
यदा भित्यंतरेवानि प्राकारा राजमागौं हि ॥ १९४ ॥ ૧૮ (૧) ઉત્કંગ પ્રવેશ સન્મુખ થાય. (૨) પૃષ્ઠભંગ-ધરની પછીતે થઈ પ્રવેશ થાય છે, (૩) અપસર પ્રવેશ- પ્રથમ ઘરમાં પ્રવેશ કાં જમણી તરફ નમીને વાસ્તુ ઘરમાં પ્રવેશ થાય તે, (૪) સભ્યપ્રવેશ-પ્રથમ ધમાં પ્રવેશ કર્યો પછી ડાબી તરફ નમીને વારતુધરમાં પ્રવેશ થાય તે (૫) પ્રતિક્ષય- જે ઘરનું મુખ પશ્ચિમ સામે છે તેમાં પૂર્વ સામે પ્રવેશ કર્યા પછી પશ્ચિમમાં વાસ્તુદરમાં પ્રવેશ થાય છે. (૬) હીનબાજુ- જે ધરનું મુખ દક્ષિણ સામે હોય તેમાં પ્રવેશ કર્યા પછી ડાબી બાજ તરફ નમીને ઘરમાં પ્રવેયા થાય તે --આમ પંડિત માં મતમતાન્તર કહેલા છે
(૭) ઉસંગ પ્રવેશ- જે ઘરનું મુખ ઉત્તરમાં હેય તે જળ મિર્ગે થઈને વાસ્તુ ઘરમાં પ્રવેશ થાય છે. (૮) પૂર્ણાહુ પ્રવેશ-જે ઘરનું મુખ પૂર્વમાં હોય તેમાં પ્રવેશ કર્યા પછી વાસ્તુધરની સન્મુખ પ્રવેશ કરવામાં આવે છે. १८ (१) उत्संग सन्मुख प्रवेश होता हो। (२) पृष्टभ'ग घरकी पछीतसे होकर मो प्रवेश होता हो। (३) अपसत्य- पहेले द्वारमें दाखिल होकर दाहिनी औरसे प्रवेश हो बह । (४) सव्यप्रवेश-पहेले द्वारमै राखिल होकर बांयी औरसे प्रवेश हो पह। (५) प्रतिक्षय- जिस घरका मुख पश्चिमे हो उसमें पूर्व में दाखिल होकर फिर पश्चिम में जाकर घर में प्रवेश हो । (१) हिनबाहु- जिस घरका मुम पश्चिममें ही उसमें' प्र- बार बांयी और मात्र प्रवेश हो एसे पंडितामे मतभेद है। (७) उत्संग प्रवेश-जिस घरकी मुख उत्तर में हो और सृष्टिमार्ग से वास्तुगृहमें प्रवेश होता हो। (८) पूर्ण वाहु-जीस धरका मुख पूर्व में हो, उसमें दाखिल होकर वास्तुगृहमें सन्मुख प्रवेश हाता हो ।
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(८२) अदर्शने नदीपारे दूरे या समभूमिषु । विदिक स्थ न दोषा ये नषेधोन्दरतः सदा ॥ १९५ ॥ न दोष। नीच जातेषु न दोषा भग्नमंदिरे । चतुष्पयां तेन भवेत्वेधो न च जीर्ण गृहान्तरे । न तत्रवेध देोष स्यात्सत्यं ब्रह्ममुखाच्छुतम् ।।१९६॥ विश्वकर्म प्रकाश
શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે કે દોષ કયાં કયાં ન લાગે - ઘરની ઊંચાઇથી બમણી ભૂમિ તજીને વેધદોષ હોય તો દોષ લાગતો નથી અગર જે ઘર અને વેધ વચ્ચે ભીંતનું અંતર હય, ગઢ, કિલ્લે કે વંડી કે રાજમાર્ગ હોય તે દેષ લાગતું નથી.
અગર દેખાય નહિ તેવું હોય કે નદીના સામે કાંઠે પાર વેધ હોય તે કે દર સરખી ભૂમિમાં હોય કે ત્રિકેણ, ત્રાંસું કે છેટે હેય તે તે દેષ લાગતું નથી. નીચ જાતિના લોકોને દોષ લાગતો નથી. જીર્ણ મંદિર માં દેષ નહિ. ચારામાં વેધ દેષ નહીં. જૂના મકાનમાં વેધ દેષ નહિ. તેવા વેધની સત્ય વાત બ્રહ્માના મુખેથી મેં સાંભળી છે. ૧૯૪-૯૫-૯૬
श्री विश्वकर्मा कहते हैं कि कहां नहीं दोष लगताः-धरकी उंचाइसे दोगुनी भूमि छोडनेसे दोष नहीं; घर और वेधके बीच दीवारका अंतर हो, गढ, किल्ला या राजमार्ग होनेसे दोष लगता नहीं ।
अगर देख न सके इतना दूर हो, नदीके सामनेके तट पर हो या दरि सम भूमिमें हो या विकर्ण (ज्यासा ) दूर हो तो दोष लगता नहीं । नीच जातीको दोष नहीं लगता. जीर्णमंदिर, चौपालमें पुराने मकानमें वेधदोष नहीं. एसी वेधदोषांकी सत्य वार्ता मैंने श्री ब्रह्माजीके मुखसे सुनी है । १९४-९५-९६ षड् वर्षे भ्रियते स्वामि गत श्रीनवमे भवेत् । चतुर्थे पुत्र नाशः स्यात्सर्वनाशस्तथाष्टमे ॥ १९७ ॥ विश्वकर्म प्रकाश
વેધ દેશનું ફળ છઠ્ઠા વર્ષે સ્વામિનું મૃત્યુ પામે કે નવમે વર્ષે લક્ષમી જાય અગર ચોથા વર્ષે પુત્રને નાશ થાય અગર આઠમે વર્ષે સર્વ નાશ થાય. ૧૯૭
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(८३) वेधदोषका फल-छठवें वर्षे स्वामीकी मृत्यु हो। नौवे साल लक्ष्मी नाश हो या चौथे वर्षे पुत्र नाश हो आठवें वर्षे सर्व नाश होता है । १९७
पर्वाग्रे नदीतीरे चत्वरे मोष्ठ भूमिषु । समुद्रकूले वाऽरण्ये मानहीन न दूषितम् ।। १९८ ॥ गौतमी तो
ગૌતમ ઋષિ કહે છે કે પર્વત ઉપર કે આગળ નદીના કાંઠે કે ચારા પાસે, ગાયના ગોંદરે. સમુદ્ર કાંઠે કે અરણ્યમાં માનહીન વસ્તુને દેવ सागत"नथी. १८८
श्री गौतम ऋषि कहते हैं कि पहाडके उपर या आगे, नदीके तीरपर चौपाल-गोष्ठ भूमिमें समंदरतीर पर, जंगलमें अगर वास्तु मानहीन हो तो भी देोषकर्ता नहीं । १९८
मनसश्चक्षुषार्यत्र संतापो जायते हदि । तथा कार्य गृह सेवरिति गर्गस्य भाषिते ॥ १९९ ॥ गर्गो
ब्रहदसंहिता
મન અને ચશ્નને જે કાર્ય જોઈને સંતોષ થાય તેનાં કાર્યો હમેશાં નિર્દોષ જાણવા એમ ગર્ગ ઋષિએ કહ્યું છે. ૧૯૯
गर्ग ऋषि कहते हैं कि जिनको देख मन मोर पशु प्रसन्न संतष्ठ होते है वह कार्य हमेश मिदेष है। १९९
बास्तु लक्षण हीनेपि यत्र वैरान्यते मनः । ता दोषो न विन्याच धर्मकामा मोलदे ॥ ॥ वास्तुकौतुक
૧૯ મે ૨ થી ૨૦૫ આ ચાર મકને વિવેકબુદિથી પીગ કરો. જ્યાં त्या न श्वा. ..'
१९ २०२ से २०५ श्लोक-आ चार "लोक का मुपयोग विषेकबुद्धिसे करना. जहां तहां न करना ।
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જે વાસ્તુ લક્ષણથી હીન હોય પરંતુ જ્યાં મનની રુચિ વધે તેવું સારું લાગે ત્યાં દોષ ન જાણ. તેવા વાસ્તુ ધર્મ, અર્થ, કામ અને મોક્ષને ना ता . २००
जो वास्तु लक्षणसे हीन हो फिर भी जहां मन प्रसन्न होता हो वहां दोष न जानना. असे वास्तु धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देनेचाले जानना । २००
शास्त्रमान विहिन यद् रम्यं तद्धिवि पश्चिताम् । एकेषामेव तद्रम्य लग्न यत्र च यस्य हृत् ॥ २० ॥ शुक्रनीति
શુક્રાચાર્ય કહે છે કે શાસ્ત્રમાનથી રહિત હોય તે વિદ્વાનોને રમ્ય લાગતું નથી પરંતુ કેટલાકનો એવો મત છે કે જ્યાં જેનું મન લાગ્યુંરચ્યું હોય તે તેને પ્રિય લાગે છે. (તેમાં દેષ ન જાણ) ૨૦૧
शुक्राचार्यजी कहते है कि शास्त्र मानसे रहित विद्वानोंको रम्य लगता नहीं फिर भी कितनोंका मंतव्य है कि जहां जिसका मन लगत्ता हो वह उसे प्रिय लगता है । ( उसमें दोष नहीं ) २०१
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(८५) ॥ अथ भवने हार स्थापन ॥ एकाशीति पदे वास्तौ द्वांत्रिशद् देवता पदे । पूर्वा पर याभ्योत्तरे वच्मि द्वाराणि वै कमात् ॥ २०२ ॥ पूर्व जयेंद्र सूर्य तथा सत्य भृशाकाशे पदे । यमे गृहक्षते गंधर्व भृगे पदे द्वार स्थितः ॥ २०३ ॥ अपरा नंदी सुग्रीवे च तथा पुष्यदंत वारुणे । सोम्ये कुबेर भल्लाटो दितिदिति द्वार स्थापन ॥ २०४ ॥
એકાશી પદના વાસ્તુ મંડળમાં ફરતા બત્રીશ પદમાં દેવતાઓ પૂર્વ કક્ષિણ, પશ્ચિમ અને ઉત્તરે સ્થાપન થયેલ છે. તેમાં પૂર્વાદિ દિશામાં શુભ સ્થાનો દ્વારા સ્થાપનના અનુક્રમે કહે છે – पूर्वमा -य--, सूर्य, सत्य, मृश भने माशन ५४मा बा२ भू. દક્ષિણમાં-ગૃહસત, ગંધર્વ અને ભંગરાજના પદમાં દ્વાર મૂકવું. પશ્ચિમમાં-દવારિકા (નદી), સુગ્રીવ, પુષ્પદંત અને વરુણના પદમાં હાર મૂકવું ઉત્તરમાં- કુબેર, ભલ્લાટ, દિતિ અને અદિતિના પદમાં દ્વાર મૂકવું.
२०२-२०३-२०४
एकाशी पदका वास्तुमंडलमें चारो दिशाका बत्रीस पदमें देवताओ पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उचर स्थापीत है. वही पदमें द्वार स्थापन करनेमें शुभाशुभ फल कहा है. उसमें शुभ फल दाता पदका स्थान संक्षिप्तमें बताता हूं :पूर्व में-जयका स्थानमें-इंद्रका स्थानमें, सूर्यका स्थानमें, सत्य, भृश
और आकाशका पद स्थानमें द्वार मुकनेसे शुभ फलदाता हे.
अन्य पद अशुभ फलदाता हे. दक्षिणमे-गृहक्षतका स्थानमें गंधे और मृगका स्थान-पदमें द्वार मुकना. पश्चिममें -नंदी, सुग्रीव पुष्पदंत और वरुणका पद स्थानमें द्वार मुकना. उत्तरमें-मुख्य-भल्लाट-कुबेर, अदिति, दिति । २०२-२०३-२०५
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( ८६ )
द्वाराणि तु प्रवक्ष्यामि प्रशस्तानीह यानि तु पूर्व णेंद्र जयंत च द्वार सर्वत्र प्रशस्यते ॥ २०५ ॥
याम्य च वितथं चैव दक्षिणे न विदुर्बुधाः । पश्चिमे पुष्यदंत च वरुणं च प्रशस्यते । उत्तरेण तु भल्लाट सोम्य तु शुभद भवेत् ॥ २०६ ॥ मत्स्यपुराण
મત્સ્યપુરાણકાર એકાદશી પદના વાસ્તુમ`ડળમાં શુભ એવા દ્વાર મૂકવાના સ્થાન કહે છેઃ- પૂર્ણાંમાં ઈંદ્ર જ્યંતના પદમાં, દક્ષિણમાં વિતથ ( ગૃહક્ષત ) ના પદમાં, પશ્ચિમમાં પુષ્પદંત ને વરુણના પદમાં અને ઉત્તરમાં ભલ્લાટ અને સેમ ( કુબેર ) ના પદમાં દ્વાર મૂકવાથી તે શુભ ફળદાતા
लावु. २०५-२०१
'
'मत्स्यपुराण में बहुत संक्षिप्त में कहते हैं कि पूर्व में इंद्रके स्थान में, दक्षिणमे गृहक्षतको पदमें, पश्चिममै पुष्यदंतका पद स्थान में, और उत्तर में भल्लाका पद स्थान में द्वार रखनेसे शोभा और शुभफलदाता है | २०५-२०६
वास्तव परिधावुक्ता द्वात्रिंशदमराः क्रमात् । शुभद्वा तु गृहण्यादशुभ नैव गृयते ॥ २०७ ॥
दिशा भागेषु च तथा द्वार शोभन मण्डितम् । द्र गृहक्षत पुष्पदन्त भल्लाट चिह्नतः ॥ २०८ ॥ अपराजित सूत्र
એ રીતે વાસ્તુના ફરતા ચારે દિશાના ફરતા ખત્રીશપમાં દ્વાર સ્થાનના શુભાશુભ ફળે અનુક્રમે કહ્યા તેમાં જીભ દ્વાર સ્થાન કહ્યા હૈય ત્યાં દ્વાર મૂકવા અને અશુભ સ્થાન ન લેવું. ચારે દિશાના વિભાગે પૂર્વમાં ઈંદ્રના સ્થાને, દક્ષિણમાં ગૃહન્નતના સ્થાને અને પશ્ચિમમાં પુષ્પદ તના સ્થાને તથા ઉત્તરમાં ભલ્લાટના સ્થાને દ્વાર મૂકવાથી શેશભાને આપે છે भनें ते शुभ इहाता लघुवा २०७-२०८
fre रितसे वास्तुके चारों और घूमते, बत्रीस पदोंमें द्वार स्थानके फल अनुक्रम कहे, जिसमे शुभहार स्थान जहाँ कहे हो वहां स्थान न लेना ।
रखा और
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( ८७ ) चारों दिशाओंके विभागमें पूर्वमे इंद्रके स्थानमे दक्षिणमे गृहक्षत स्थानमें और पश्चिममें पुष्पदंतके स्थान तथा उत्तरमे भल्लाट स्थानमें द्वार रखनेसे शोभा बढती है और उसे शुभफल दाता समझें ।
२०७-२०८
पूर्वतोऽभिमुखं वेश्म ध्वजे चाये तु शान्तिदम् ।
याम्यतोऽभिमुखं गेह सदा कल्याणकारकम् ॥ २०९ ॥
गृह च वारुणे शस्तं धनधान्यादिकं भवेत् । कौबेरी मुख च शान्ति पुष्टि सुखावहम् || २१० || अपराजित सूत्र
પૂર્વ મુખનુ ઘર શાંતિ અને કીર્તિ દેનારૂ' જાણવું, દક્ષિણ મુખનું ઘર હંમેશાં કલ્યાણકારી જાણવુ, પશ્ચિમાભિમુખ ઘર ધન ધાન્યાદિ દેનારૂં જાણુવું અને ઉત્તર મુખનુ· ઘર શાંતિ, પુષ્ટિ અને સુખને દેનારૂં જાણુયુ.. ૨૦૯-૧૦
अपराजित सूत्र संतान अ० १०१ का १४-१५ श्लोकमें कहेते हैं कि शहरमें चारों ओरका भवन शुभ जानना. पूर्व मूखका गृह शान्ति और कीर्ति देता है. दक्षिणाभिमूख गृह हमेशा कल्याणदाता समजना. पश्चिमाभिमूखका गृह धनधान्य दाता है और उत्तराभिमूख गृह शान्ति पुष्टि और सुखको देता है एसे चारों दीशाका गृह उत्तम कहा है । कोइ दिशा निषिध नहीं कही । २०९ - २१०
एक चण्ड्या रवे सप्त तिस्रीयाद्विनाथके | चतरत्रो विष्णु देवस्य शिवस्याद्ध प्रदक्षिणा ।। २११ ।। सूत्रसंतान
દેવ પ્રદક્ષિણાના પ્રકાર એવા છે કે ચડીને એક, સૂર્યને સાત, વિનાયક-ગણપતિને ત્રણ, વિષ્ણુને ચાર, અને શિવજીને અરષી પ્રદક્ષિણા ફેરવી. ( કારણ કે શિવ પ્રનાલ ઓળંગાય નહિ. ) ૨૧૧
चंडीदेवी मंदिर में एक, सूर्यको सात, गणेशको तीन, विष्णुको चार और शिवमंदिरमें आधी प्रदक्षणा करनी । ( क्योकीं शिवनाल उल्लंघन नहीं होते ) २११
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( ८८ )
पूर्वापर यदाद्वार प्रणालं चोत्तरे शुभम् । मशस्त शिवलिङ्गनामिति शास्त्रार्थ निश्वक || २१२ ॥ सूत्रसंतान
પ્રનાલ
પૂર્વ અને પશ્ચિમ મુખ દ્વારવાળા પ્રસાદને ઉત્તર દિશામાં ( पाणीवाहुनी ) राजवी ते शिवना भाटे विशेष प्रशस्त हे उत्तर-दक्षिण મુખના પ્રાસાદને પૂર્વમાં પ્રનાલ રાખવી એમ શાસ્ત્ર નિશ્ર્ચય જાણવા. ૨૧૨
पूर्व पश्चिम मुखवाला प्रासादको मनाल उत्तर और रखनी. शिवलिङ्गके लिये यह प्रशस्त है । उत्तर दक्षिण मुखके प्रासादको प्रनाल पूर्व में रखनी एसे शास्त्रार्थं निश्चित है । २१२
स्तंभवेधेर्यथा वास्तु वास्तुवैषैस्तथा सुराः । भवेन्मृत्युः शिल्पिकारावरादिषु ।। २१३ ॥
देव
સ્ત ંભવેધવાળું ભવન કે વાસ્તુવેધવાળુ દેવદેિર કે દેવપ્રતિમા વેધ હેય તેા શિલ્પી અને કરાવનાર બન્નેનું મૃત્યુ થાય. ૨૧૩
स्तंभाला भवन या वास्तुवेधवाला देवमंदिर देवप्रतिम/वेधसे शिल्प और स्वामीकी मृत्यु होती है । २१३
गृहे देव गृहे वापि जीणें चोद्धर्तुमीप्सिते ।
प्राग्वदद्वार प्रमाणं च - वास्तुत्यादोऽन्यथा कृते ॥ २१४ ॥
ઘર કે મંદિરને જીર્ણોદ્ધાર કરતા જે દ્વાર પ્રમાથુ ફેરફાર કરે તે વાસ્તુનુ નવીન પૂજન કરવું. ૨૧૪
घर या मंदिरका जीर्णोद्धार करते वक्त अगर द्वार- प्रभागमें फर्क करें तो वास्तुका नया पूजन करें । २१४
स्थयत्ति लक्षण-
सुशीलश्वातुरो दक्ष शास्त्रज्ञो लोभ वर्जित् ।
क्षमावान् द्विजचैव सूत्रधार स उच्यते ।। २१५ ॥
स्थपत्ति अक्षाशु उखे छे.
सुशींस, तुर, शण, शास्त्रांना ज्ञाता, चारित्रवान, निबोली, क्षुभाष व એવા ોજ બાહ્મણકુળના સૂત્રધાર-સ્થપતિ=ગાધર જાણવા. ૨૧૫
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शिखरका शुकनास उद्येश्वरमंदिर उदयपुर (मध्यप्रदेश)
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सुशील चतुर इल्मी चारित्रवान शास्त्रोमें प्रविण, निलेभी और क्षमावान एसो द्विज ब्राह्मण कुलका सूत्रधार-स्थपति गजधर मानना । २१५
सोमपुराणां सुहस्रेस्तु सचरे देवभुवनानि च । शिल्पिहस्ते कृते सौख्यं अन्यवर्णान्विवर्जयेत् ॥ २१६ ।।
બ્રાહ્મણકુળના એવા સોમપુરા શિલ્પીના હાથથી દેવમંદિર કે રાજભવનના કાર્યોના નિર્માણ કરાવવા. તેઓના હાથથી થએલા કાર્યો સુખ અને સિદ્ધિને દેનાર જાણવું. ૨૧૬
ब्राह्मण कुलके सोमपुरा शिल्पीके हाथसे देवमंदिर या भवनके कार्य निर्माण कराना. उनसे सुख संपत्ति पैदा होती है । अन्यव का त्याग करना । २१६
एकहस्ते तु कल्याणं द्विहस्ते मृत्युरेव च । गृहादियैक शिल्पिना भाषितं विश्वकर्मणा ॥ २१७ ॥
ભવન કે મંદિર કરાવનાર યજમાને પરીક્ષા કરીને વિદ્વાન શિલ્પીને પિતાનું કાર્ય સેપવું. શાસ્ત્રકાર કહે છે કે જે કાર્ય એકજ શિલ્પીના હાથે થયેલું હોય તે કલ્યાણકારી જાણવું. પરંતુ ચાલુ કામ બીજા શિલ્પીને બદલવાથી બે હાથથી થયેલું કાર્ય સ્વામીને મૃત્યુ દેનારૂં જાણવું तेभ विश्व मे यु छे. २१७
भवन या मंदिर बनवानेवाले यजमाने जांच के बाद विद्वान स्थपतिका कार्य सेांपना चाहिये. शास्त्रकार कहते है कि जो कार्य एक शिल्पीसे हुधा हो वह कल्याणकारी है। किन्तु-चालु कार्य ने पिलि बदलने से दो हाथोंसे बनाहुआ कार्य मृत्युदाता जानना एसा विश्वकर्माका विधान
.
गुणाश्च बहवो यत्र दोषमेकं भवेयदि । गुणाधिक्य अल्पदोषं कर्तव्यं नात्र संशय ॥ २१८
થયેલાં ભવન કે પ્રાસાદ-દેવમંદિરમાં ઘણા ગુણો હોય અને એકાદ દોષ દેખાતું હોય તે પણ તેને દોષ નથી. જેમાં ઘણા ગુણે હોય અને થોડા ષવાળું કાર્ય શ્રેષ્ઠ જાણવું, તેમાં જરાપણ સંશય કરવો નહિ. જેમ
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અગ્નિમાં પાણીના બિંદુઓથી અગ્નિ ઓલવાતો નથી તેમ ઘણું ગુણે પણ ફળદાતા જ જાણવા. ૨૧૮
किये हुए भवन या देवमंदिरमें अनेक गुण हों और एकाद दोष हो तो भी यह दोष लगता नहीं । अनेक गुणवाला और थोडे दोषवाला कार्य श्रेष्ट ही है। इसमें किंचित संशय रखना नहीं । जिस तरह शुद्ध अग्निमें थोडे जलबिंदुओंसे ‘अग्नि बुझाता नहीं ईसी तरह . अनेक गुण फलदायी होता हैं । २१८
अल्पदोष गुणाधिक्य दोषायन भवेद्गृहम् । दोषाधिक्य गुणाल्पत्व गृहमन्ते विवर्जयेत् ॥ २१९ ॥
જે ગૃહકાર્ય ડા દેજવાળું અને ઘણુ ગુણવાળું હોય તે ઘર દોષવાળું ગણાતું નથી પરંતુ જેમાં ઘણું દેષો હોય અને ગુણે ઓછા હોય તેવું ઘર અંતે પ્રયત્નશી તજી દેવું. ૨૧૯
जो गृहकार्य कमदोषवाला और ज्यादा गुणवाला हो वह दोष वाला नहीं है । किन्तु गुणसे दोष अधिक हो तो यह भवन आखिरमे छोडदेना चाहिये । २१९
.गुणदोषौ च विज्ञाय शिल्पिकुर्वीत बुद्धिमान ।। अन्यथा यदि कुर्यान्तु को भर्ता विनश्यति ॥ २२० ॥ मयमतम्
મયઋષિ કહે છે કે શિપીએ ગુણદોષ વિચારીને જ કાર્ય કરવું. એથી ઊલટું બીજા કરે તે વાતુ કરનાર અને કરાવનાર બનેને નાશ થાય છે.
૨૨૦
मयऋषि कहते है कि शिल्पिको गुणदोषका विचार करके कार्य करना चाहिये-अन्यथा करनेसे स्वामि और शिल्पि दोनोंका नाश होता है । २२०
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(९१) अथ प्रासाद देवतान्यास विश्वकर्मा उवाच
प्रासादे देवतान्यास स्थापयेच समस्ततः । तदनुक्रमतो वक्ष्ये श्रुणुचैकान मानसः ॥ २२१ ॥ पादे पराक्रमदेव प्रतिष्ठाप्य भूमध्यतः । प्राग्भारोद्भवं देव शिलायां च तद्धतिः ॥ २२२ ॥ शिलोद्भवोधृता चादौ दंष्ट्रया भूः समस्तिका । वराहरुपेण खरशिलायां धरणीधरः ॥ २२३ ॥ सूत्रपात समोसायं स्थाप्यचिन्तामणिस्तथा । आद्यस्तरोधंदेशे च तत्र नागकुलानि च ॥ २१४ ॥ मातिष्ठाप्याः पनगाश्च स्थाने पोल्यभिधानके । तदूचे कुम्मकाख्ये च संस्थाप्या अनदेवताः ॥ २२५ ॥ पुष्पकं च त तु चिप्पिका पुष्पकाग्विदा । संस्थाप्याः किन्नरास्तत्र चिप्पिका पुष्पकाकुला ।। २२६ ॥ जाज्यकुम्भे स्थितो नन्दी कर्णाल्यां च ततो हरिः । गजपीठे गणेशश्च अश्वपीठे तथाऽश्विनौ ॥ २७ ॥ नरपीठे नरांश्चैव स्थापयेत् झमयोगतः ।। क्षमां देवीं च सुरके स्रष्टार कुम्भक नया ॥ ११ ॥ निर्ग मोद्गम सीमायां ततः सृष्टिविनिता। संध्यात्रय प्रतिष्ठाप्य ऋमतो भद्रकाये ॥ १९ ॥ कलशे च स्थितादेवी पार्वती तु हरप्रिया । धनदोतरफो प्रतिष्ठाप्यो यथाक्रमम् ॥ २१॥
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શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. પ્રાસાદના સમસ્ત થરમાં દેવતા ન્યાય સ્થાપન આહાહન તેના કમથી હું કહું છું તે એક ચિત્તે સાંભળોઃ–પાયાની વામિમાં પરાક્રમદેવની સ્થાપના કરવી. તે ઉપરની શિલાઓમાં પ્રગટનાર દેવ બમિ
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( १२ )
ઉપરથી પહેલા ખર શિલાના થરમાં વરાહરૂપે ધરણીધરનું સ્થાપન કરવું. સૂત્રપાત નેાંધમાં ચિંતામણી નીચે ઉપરના થરામાં નાગકુળાનું આહ્વાહન કવું. ખડશીલાના વારિમામાં નાગદેવ. તે પર કુંભિકાના થરમાં જળદેવતા. પુષ્પક ઠામાં કિન્નર અને અંતરાળના થરમાં પુષ્પકકુલ; જા ડખામાં નદી; કણીમાં હરિ, ગજપીઠમાં ગણેશ, અશ્વપીડમાં અશ્વિનીકુમાર, નરપીડમાં નરદેવ, એમ મયાગે કરીને મહાપીડમાં દેવાનુ આહ્વાહન કરવું. ખરાના થરમાં ક્ષમાદેવી ( પૃથ્વી )નું આહ્વાહન કરવું.કુંભમાં તેના સૃષ્ટિમા નિકળાના ત્રણ ભદ્રમાં ત્રણ સંધ્યાનું સ્થાપન કરવું, કળશાના થરમાં શિવને પ્રિય એવા પાતી દેવીનુ આહ્વાહન કરવું, અંતર પત્રમાં કુબેરનું આહ્વાહન કરવું, એમ યથાક્રમે કરીને દેવેની પ્રતિષ્ઠા કરવી. ૨૨૪ થી ૨૩૦
विश्वकर्मा कहते हैं : प्रासादके समस्त घरमें देवता न्यास, स्थापन, आवाहन उसके क्रमसे में कहता हूं उसे एक चित्तसे सुनिये | बुनीयादकी भूमिमें पराक्रम देवकी स्थापन करें, उसके उारकी शीलाओंमें प्राग्भार देव, भूमि परसे पहले खरशीलाके घरमें तराहके रूपमें धरणीधरको स्थापना करे | सूत्रपात में चिंतामणी, नीणे उपरके घरमें नागकुलोंका आव्हाहन करे । खडशीलाके वारिमार्ग में नागदेवका, उस पर कुंभीका के घरमे जलदेवता, पुष्पकंठामें किन्नर, अंतराळके घरमें पुष्पकुल, जाडंबामे नंदी, कीमें हरि, गजपीठमे' गणेश, अश्वपीठमें अश्विनीकुमार, नरपीठमें नरदेव, असे कर्मयोगसे महापीठमें देवोंका आवाहन करे । खरके घरमें क्षमादेवी (पृथ्वी) का आवाहन करे । कुम्भमें उसके सृष्टि मार्ग से निकलते तीन भद्रमें तीन संस्थाकी स्थापन करे । शंकरके मी पार्वतो देवीका आवाहन करे। अंतर पत्र में कुबेरका आवाहन करे. असे यथाकर्म करके देवकी प्रतिष्ठा करनी चाहिये । २२१ - २३०
कलशेके घरमें
कपोताभ्यां गन्धर्वा अन्तःपत्र ं च किन्नरा |
शारदा मंचिकायां च जंघायां मेरूरेव च ॥ २३१ ॥ लोकपाला दिक्पालाः सुरावाथ गणेश्वराः । उदीच्या मिंद्रदेवश्च सावित्री भरणे स्थिता || २६२ ।। भारवारः शिरावर्या पट्टेदेव्यश्च संस्थिताः । विद्याः कपोताभ्या मन्त्रःपत्रे सुरास्तथा ॥ २३३ ॥
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(९३) पर्जन्यः कूटछाद्यैतु छायनिर्गम संयुते । तदनतरतो देवान् स्थापयेद् गर्भमध्यतः ॥ २३४ ॥ शाखयोथंद्रसूयौं तु त्रिमूर्तीश्चोत्तरङ्गके । उदुम्बरे स्थिता यक्षा अश्विना वर्धचंद्रकं ।। २३५ ॥ कोलिकायां धराधारः क्षितिचीत्तानपट्टके । स्तंभेषु पर्वताः शेक्ता आकाश च करोटके ॥ २३६ ।।
મંડોવરના થરવાળાના કેવળના થરમાં ગંધર્વનું આહ્વાહન કરવું, અંતરપત્રમાં કિન્નરનું, માયીના થરમાં શારદા સરસ્વતીનું આહ્વાહન કરવું, જધા મેરુરૂપ છે તેમાં લોકપાલ, દિગ્ધાલ, ગણેશ્વર આદિ દેવાનું આહ્વાહન કરવું, ઉદ્ગમઃદેઢીયામાં ઈંદ્રનું, ભરણીમાં સાહિત્રિનું, શીરાવટીમાં દેવીનું ઉપલા કુવાળમાં વિદ્યાધરનું, અંતરપત્રમાં સુરનું, ફટછાદ્યમાં પર્જન્ય (વરુણ)નું છાજાના નિકાળા સાથે તેમાં સંસ્થાપના કરવી, ગર્ભગૃહમાં મૂળનાયક દેવની સ્થાપના કરવી, બેઉ શાખામાં સૂર્ય અને ચંદ્રની, ઉતરંગમાં બ્રહ્મા, વિષ્ણુ, મહેશની, ઉંબરમા યક્ષની, અર્ધચંદ્રમાં અશ્વિનીકુમારની, કેપીમાં ધરાધાર-(
) ની, ઉત્તાનપટ=ભારવટમાં પૃથ્વી ક્ષિતિજની, સ્તંભમાં પર્વતત્રશલની અને ઘુમટમાં આકાશ દેવની સ્થાપના કરવી. ૨૩૧ થી ૨૩૬
___मंडोवरके घरवालोके कवालके घरमें गंधर्वको आवाहन करें । अंतर पत्रमें किन्नरका, माचीके थरमे शारदा सरस्वतीका, जंधा मेरुरुप है उसमें लोकपाल, दिग्पाल, गणेश्वर आदि देवांका आवाहन करें। उदगम् देढियेमें इंद्रका, भरणीमें सावित्रिका, शीरावटीमें देवीका, उपले कीवाळमें विद्याधरका, अंतरपात्रये सुरका, कूट छायमे पर्जन्य (वरुता.) के छालेके निकालेके साथ उसमें संस्थापना करवी, गर्भ गृहमें सूलनायक देवकी स्थापना करें । दोनों शाखोमें सूर्य और चंद्रकी, उतर गमें . ब्रह्मा, विष्णु, महेशकी, उंबरमें यक्षकी, अर्धचंद्रमें अश्विनीकुमारकी, कोळीमें धराधारको, उत्तानपट भारवटमें पृथ्वी क्षितिजको, स्तंभमें पर्वत शैलकी और गुम्बजमें आकाश देवोंकी स्थापना करनी चाहिये । २३१-२३६
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बालके ऋषि संध्याव सुरा मध्ये प्रतिष्ठिताः । મર્ નાથી રા વંશો ગોમતી તથા || ૨૩૭ ॥
aar विष्णुस्तथा सूर्य ईश्वरी व सदाशिवः । ऊरुगे तथा पंच भद्रभद्रेष्वयं विधिः ॥ २३८ ॥ शिखरे चेश्वर विद्याच्छिखायां तु सुराधिपम् । ગ્રીવાયાં સમ્પર ફેવમં ૨ નિશારામ | ૨૨૨ ॥
पद्माक्षे पत्रको चामलमामळ सारके | कलशे च स्थितोरुद्रो व्योम व्यापी सदाशिव ॥ २४० ॥
सद्यो वामस्तथा धारस्तत्पुरुष ईश एव च । જાને તિને ધૈવ” વૈજ્ઞમદ્રયોઃ | સ્ફુર્ ||
पंचवक्चाणि पंचाग संख्या भद्रान्तगा भवेत् । રૂત્યે તે જ સમાવ્યતાઃ ગામનું ત્રિાઃ સજી ॥ ૨૪૨ ॥
न्यूनाधिक स्थिता यह देवास्तत्रैव ते पुनः । हीनेहीनाः प्रतिष्ठाच्या अधिके चाधिकाः श्रुता ॥ २४३ ॥
જાલીમાં ઋષિ સધ દેવા સાથે પ્રતિષ્ઠિત કરવા; પ્રનાલની મર મુખે ગંગાજમના અને દેશમાં ગામતીનું આહ્વાહન કરવું; શિખરના ભદ્રપરના પાંચ ઉશશૃંગા બ્રહ્મા, વિષ્ણુ, સૂર્ય ઇશ્વર એ સદાશિવનું આહ્વાહન કરવું. શિખરમાં ઇશ્વર, કળશમાં ઈંદ્ર, આમલસારાના ગળામાં અંવાર દેવ, અ'ડક વચલા ગાળ આમલસારામાં નિશાચર, ચદ્રસમાં પદ્માક્ષ, એમ આમલસારામાં આહ્વાહન કરવું. કળશમાં દ્ર અને ગાળ અંડકમાં સદાશિવનું આહ્વાહન કરવું', પ્રાસાદના ઉપાંગામાં કણુ-પ્રતિરથ, રથ, નદી અને ભદ્રશાં અનુકગે, સો, વામ, મદ્યારે, તત્પુરુષ અને પાંચમાં અંગમાં ઈશનું અાહન કરતું એમ પાંચ મુખના પાંચ અગે ભદ્ર સુધીના જાણુવા. એ રીતે પ્રાસનની ત્રણ ખાજુનાં અંગાનું જાણવું, આછા કે વત્તા થા પ્રમાણે દેવાનું સ્થાન જાણ્યુ. ને થાની હીન પ્રતિક્ષા કરે તા હીન ફળદાતા અને અધિક હોય તો તે અધિક શુભકારક જાવુ. ૨૩૭-૨૪૩
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जालीमें ऋषि संघ देवाके साथ प्रतिष्ठित करे | परनालके मकर मुखको गंगाजल, और चंडेशमें गोमतीका आव्हाहन करे । शिखर के भद्र परके पांच उरु श्रंग ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य, ईश्वर, और सदाशीवका आव्हाहन करे । शिखरमें इश्वर, कलशमे इन्द्र, आमलसाराके गलेमें अंबरदेव, बीचके आमलसारमें निशाचर, चंद्रसमे पद्माक्ष, जिस तरह आमलसारमे आव्हाहन करे कलश में रुद्र और गोल एडकमें सदाशीवका आव्हाहन करे । प्रासादके ऊपांगों में कर्ण प्रतिरथ, रथ, नंदी और भद्रमे अनुक्रमसे सद्यो, वाम, अघोर, तत्पुरुष और पांच अंगमे इशका आव्हाहन करना चाहिये । भिस तरह पांच मुखके पांच अंगोमय ash जानने चाहिये | वैसे प्रासाद तीनों ओरके अंगोका जाने । कम या ज्यादा थके मुताबीक देवोंका स्थान जाने । अगर घरोंकी हीन प्रतिष्ठा करें तो हीन फलदाता, और अधिक हो तो अधिक शुभ कारक समज्ञे । २४०-२४३
अर्चाजुक्सि थर स्तंभ पीठ मंडोवरेषु च ।
पुजन लोपयेद्यत्र निष्फलं तत्प्रजायते ।। २४४ ॥
દેવની પૂજા, પ્રાસાદના થા, સ્તંભ, પીઠ અને મડવર આદિમાં દેવતાઓનુ પૂજન કરવું. જો જેમાં લેપ થાય તે પ્રાસાદનું પુણ્ય કૂળ નિષ્ફળ જાય છે, ૨૪૪
-देवकी पूजा, प्रासादके थर, स्तंभ, पीठ और चंडोवर आदिमें देवताओंका पूजन करें । अगर उसमें लोप होगा तो प्रासादका पुण्यफल निष्फल जायेगा । २४४
श्री विश्वकर्मा कहते है किं प्रासादका समस्त अंङ्गमे देवता . न्यास = आव्हाहन क्रमसे कहते है :
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शुरुश्रृंगमें
नोवेमे पराक्रमदेव
अंतरपत्र सुरदेव नीमकीशिला प्राग्भारदेव
कूटछाद्य पर्जन्य शिलामे वराह
गर्भ गृहमे , मूलनायकदेव सूत्रपातरोध-----चिन्ताममि
हरिशाखा सूर्य चंद्र नीचे परकाथरमें नागकुल
ऊत्तरग त्रिमूर्ति पाणिनार में नागदेव
शुर्दवरमे
यक्ष कुभीस्तरमे जलदेव
अधचंद्र अश्वीनीकुमार पुण्यक ठमे किन्नर
काली पृथ्वी चिप्यिकामे पुप्पकाकुल:
स्त भमे
पर्वतदेव जाडबामे नदी
धुमटमे
आकाश कर्णिकामे हरि.
आलिमे । ऋषिसध गजपीठमे गणेश
प्रनाल गंगा यमुना अश्वपीठमे अश्विनी ।
चंडेश
गोमती नरपीठमे नरदेव ।
शीखरका पांच । ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य खरामे पृथ्वी-क्षमा
इश्वर, सदाशिव कुंभामे त्रियसध्या
शीखरमे इश्वर कम्शमे पार्वती... अंतरपत्र कुबेर
आमलासगला अम्बरदेव केवाल गंधर्व
गोलअंड निशाचर अंतरपत्र किन्नर
चंद्रस
पन्नाक्ष বিকা शारदादेवी
कलशमे रुद्र-सदाशिव जधामे लोकपालदिग्पाल प्रासादउपा कर्ण सपो उमग गणेश्वरदेव
प्रतिरथ धाम भरणमे सावित्रि
रथ
अघोर शीराषष्टी
नही
तत्पुरुप कैवाल विद्याधर
भद्र
इश .. उपरोक्त प्रासादके अंगमें देवताओंके आव्हाहन करनार देवपूजापासायका थर, स्वभ, पीठ और मंडोवर आदिमे देवताओंका आव्हाहेन करके पूजाकरना. उसका लोप होवे तो प्रासादका पुण्यफल निष्फल होता है।
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वास्तुद्रव्यानुसार वास्तुनामाभिधान
पाषाण निर्मितं यत्तुतत्गृहस्य । पक्केष्टक वास्तुनाम भवनाहनमुत्तमम् । अनिष्टकैः सुम्नन्तु सुधार कद मेनतु ॥ २४५ ।। मानस्य वद्धि त काटेर्यत्रश्च चन्दन स्मृतम् । वस्त्रैश्च विजय प्रोक्त राज्ञां शिल्पि विकल्पितम् ।। २४६ ॥ कालमेति च विज्ञेय मष्टमंतण जातिभिः ।
उत्तमा मिच चत्वारि गृहाणि गृहमेधिनाम् ॥ २४७ ॥ વાસ્તુદ્રવ્યના ઉપગ પરથી નામાભિધાન કહે છે- પથ્થરથી બનાવેલ ભવનને ઉત્તમમંદિર કહે છે, પાકી ઈટથી બનાવેલ ભવનને સુવન કહે છે, કાચીઈટથીના ઘરને સુમન, મારે માટીના ઘરને સુધાર, કાષ્ટ-લાક્રતુરી બનાવેલ ઘરને માનસ્ય, વેતથી બનાવેલ ઘરને ચંદન, રાજાઓના વસ્ત્ર તંબુને વિજ્ય, તૃણ ઘાસનાને કલમ. હવે ઉત્તમ એવા ચાર દ્રવ્યના ગૃહના नाम ४ छे. २४५-४६-४७
__वास्तु द्रव्योंके उपयोगसे नामाभिधान कहते हैं। पत्थरसे बने भवनको उत्तम मंदिर कहते हैं । पक्की ईटसे बने मकानको भुवग कहते हैं । कच्ची इंटसे बने घरको सुमन, मिट्टोसे बनेको सुधार, काष्टसे बनेको भानस्य, घे तसे बनेको चंदन, राजाओंके वस्त्र तंबुको विजय, तीन घासवालेको कालम, अब उत्तमसे चार द्रव्यके गृहके नाम कहते हैं । २४५-४६-४७
सौवर्ण राजस ताम्र मायस च प्राकीर्तितम् । सौवर्णन्तुकरमाम राजत श्रीभवन्तथा ॥ २४८ ॥ ताम्रण सूर्य मंत्रन्तु चंडनाम तथा यसम् । देव दानव गंधर्व यक्ष राक्षस पनगाः ॥ २४९ ॥ द्वादशै ते प्रकारास्तु गृहाणां नियताः स्मृता ।
जातुषत्वनिल नाम प्रायुव वारिबन्धकम् ।।२५०॥ विश्वकर्म प्रकाश સુવર્ણ, ચાંદી, તાંબુ અને અષ્ટલેહ એ ચારના ગૃહના નામ કહે છે - સુવર્ણના ભવનને કર, ચાંદીના ભવનને વિભવ, ત્રાંબાના ભવનને સૂર્યમત્ર,
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वेत
(९८) અને લોહ અષ્ટલેહના ભવનને ચંડ નામથી ઓળખાય છે. દેવ, દાનવ, ગંધર્વ, યક્ષ, રાક્ષસ અને પન્નગ (નાગ) એ પૂર્વોક્ત બાર પ્રકારના ગૃહો नियमयी ४ा- सायना धरने मनिस" हे छ. नहीन मने "प्रायुव"
छ. २४८-४८-५०
मुवर्ण, चांदी, तांबा और अष्टलोह-वे चारे के गृहोंके नाम कहते हैं । सुवर्णके भुवनको कर, चांदीके भवनको विभव, तांबेके भवनको सूर्य मंत्र और लोह अष्टके भवनको चंड नामसे जानते हैं। देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और नाग सब लोगोंने पूर्वोक्त बार प्रकारके गृह नीयमीसे कहे । लाखसे बने घरको 'अनिल' कहते हैं और नदीके बांधको 'प्रायुव' कहते है । २४८-४९-५० पाषाणभवन पक्कीइंटकाभवन कच्चीईटका मीट्टी काष्ट मंदिर
भवन सुभन सुधार मानस
राजाकावस्रका तृणधास सुवर्ण चदन विजय
वादा
कालम्क र श्रीभव त्रविकाभवन सूर्य मंत्र
अथ शल्य विज्ञान जलान्त प्रस्तरां तं वा पुरुषान्तमथोपि वा । क्षेत्रस शोद्धये चोध्धृत्य शल्यं सदनमारभेत् ॥ २५१ ॥ केशाः कपालमत्यास्थि भस्मलोहे च मृत्यये । शल्यानेकविधाः प्रोक्ता धातुकाष्टास्थि संभवा ॥ २५२ ॥ तान्परिक्ष्य प्रकर्तव्यो गृहार भो द्विजोत्तम । नवकोष्टी कृते भूमि भागे पाच्यादितो लिखेद् ।
अक चट तप यशान्क्रमाद्वर्णा निमानि च ॥२५॥ विश्वकर्म प्रकाश मंत्रश्व
ॐ ह्रीं कूष्मांडि फौमारि ममहृदये कथय कथय ह्रीं स्वाहा । एक विंशति वारमनेन मंत्रेणाभि मात्र प्रश्ना मानयेत् ॥ २५४ ।।
__ अष्टलोह
जलबध
लाख Maa कहते हैं ।
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પ્રાસાદને રાજભવનમાં પાણી કે પથ્થર આવે ત્યાં સુધી અને અન્ય ગૃહોને માણસના માથડા જેટલું ડું ખોદવું ને ક્ષેત્ર ( ઘરની ભૂમિ ) સારી રીતે શોધ કરીને શલ્યનો ઉદ્ધાર કરીને ગૃહારંભ કરવો. વાળ, मोपरी, शी , 81sxi, अमराम, याम, ससा, दु, ट, धातु, દ્રવ્ય, ધાન્ય, એમ અનેક પ્રકારના શલ્ય કહ્યા છે. તે ઘરની બૂમિમાં હોય તો મૃત્યુકર્તા જાણવા. ધાતુ, ધાન્યને દ્રવ્ય શલ્યમાં ગણેલા છે.
ઘરના આરંભ કરતાં પહેલાં, દ્રિીજમાં ઉત્તમ એવા રિપીએ તેની પરીક્ષા કરવી. ઘરની ભૂમિના નવ કોઠા=ભાગ પૂર્વાદિ દિશામાં અનુક્રમ પાક तभा अ, क, च, ट, त, प, य, श-ओम २ता मा कामाष्ट માર્ગ અક્ષરે લખવા.
સ્વામીએ એક કુમારિકાના હાથમાં ફળ આપીને આ મંત્ર એકવીસ વાર मावा, ॥ ॐ ह्रीं कूष्मांडि कौमारि मम हृदये कथय कथय ही स्वाहा । એકવીશ વાર મંત્ર ભણીને પ્રશ્ન કરી ઉપરોકત કઢામાં ફળ મૂકવું અમે તે જે કેડામાં ફળ મૂકે તેનું નીચે પ્રમાણે શલ્ય જાણવું. અને તે કાઢીને ભૂમિશુદ્ધિ કરવી. ૨૫૧-૨૫૪
प्रासादमें' या राजभवन में पानी या पत्थर आ जाये वाहतक और अन्य गृहको आदमीकी उंचाई तक गहरा खोदना चाहिये । और क्षेत्र (धसीभूमि ) की अच्छी तरह शोधकरके शल्यका उद्धारकरके गृहार भ करे । बाल, खोपडी, सींग, हड्डियों, भस्म, चमडा, कोयला, लोह, काष्ट, धातु द्रव्य धान्य से अनेक प्रकारके शल्य कहे हैं। वे घरकी भूमिमें हो तो मृत्युकर्ता जाने । धातु धान्यको द्रव्य शल्यमे गौने हैं वे उत्तम हैं लेकिन ले लेना चाहिये ।
घरका आरंभ करते पहले द्वीजमें उत्तम हो वैसे शिलपी उसकी परिक्षा करे । घरकी भूमिके नव कोठे भाग पूर्वादि दिशासे अनुक्रमे बनाकर उसमें अ-क-च-ट-त-थ-य-श भिस प्रकार मोर बाठ कोठेमे पूर्वादि सृष्टि मार्ग अक्षर लिखे । गृह स्वामी कुमारिकाके हाथमें फल देकर अिक्कीस बा यह मंत्रको पढे ह्रीं कूष्मांडि कौमारि समादय कथय कथय ह्रीं स्वाहा । मंत्र बोलके प्रश्न करके कोठेमें फख रखें जो कोठेमें फल रखें उसका नीम्न शल्य जाने और उसे निकालकर भूमि शुद्ध करे । २५१-२५४
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( १०० )
प्रारंभः स्याद्यदि प्राच्यां नरशल्य तदाभवेत् । सार्द्धहस्त प्रमाणेन तच्चमामुष्यम्रत्यवे ।। २५५ ।। अग्नेर्दिशि चकः प्रश्ने खरशल्यं करद्वयो | याम्यादिशि च कृते प्रश्ने नरशल्य मधोभवेत् ॥ २५६ ॥ नैर्ऋत्यान्दिशित: प्रश्ने सार्द्धहस्ते श्वानास्थित । पश्चिमायान्तु शिशुशल्य' सार्द्धहस्तरधानीत् ।। २५७ ॥ वायव्यां दिशि तु प्रश्ने नराणां वा चतुष्करे । उत्तरस्यां दिशि प्रश्ने विशल्य कटेरधः || २५८ ।।
ईशान दिशि यः प्रश्ने गोशल्य' सार्द्धहस्ततः ।
मध्य कोष्टे च यः प्रश्नो वक्षो मात्रादधस्तदा ।। २५९ ।।
नैऋत्य डेड हस्ते
श्वान शल्य
दक्षिण कटिपुर विप्रशल्य
are गडाकाशल्य.
अग्नि
ट
च
क्र
शल्य दर्शक यंत्र
डेठ हस्ते
बालकका शल्य पश्चिम
त
मध्य
छातीपुर
नर शल्य
अ
पूर्व
डेढ हस्ते
नर शल्य
प
श
वायव्य
चार हस्ते
नर शध्य
उत्तर
कटिपुर विप्रशस्य
डेट हस्ते
गा शस्य
इशान
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(૨૦૨) પ્રશ્ન કરતાં પૂર્વ મ ખંડ કેડામાં દોઢ હાથ નીચે મનુષ્યના હાડકા નીકળે તે ઘરધણીનું મૃત્યુ કરાવે. અગ્નિ દિશાના # કોઠામાં બે હાથ નીચે ગધેડાના હાડકા નીકળે. દક્ષિણ દિશાના જ કેડામાં કેડ નીચેથી મનુષ્યના હાડકા નીકળે, નિત્ય કેણુના ૪ કેઠામાં કુતરાના હાડકા નીકળે, પશ્ચિમ દિશામાં ત કોઠામાં હાથ નીચે બાળકના હાડકાં નીકળે, વાયવ્ય કોણના
કેડામાં ચાર હાથ નીચે મનુષ્યના હાડકા નીકળે. ઉત્તર દિશાના જ કઠામાં બ્રાહ્મણના હાડકા કેડ નીચે ઊંડે નીકળે, ઈશાનકના શ કોઠામાં દોઢ હાથ નીચે ગાયના હાડકાં નીકળે, મધ્યના કેઠામાં છાતી એટલે ઊંડે મનુષ્યના વાળ, ખોપરી, લેહભસ્મ આદિ નરશલ્ય નીકળે, તે શલ્ય કાઢીને વાસ્તુ પૂજન કરી ભૂમિની શુદ્ધિ કરવાથી સ્વામી સુખ વૈભૂવથી રહે છે. ૨૫૫ થી ૨૫૯
प्रश्नकरनेके पूर्व अ ख कोठेमें डेठ हाथ नीचे मानवकी हड्डियां नीकले तो गृहस्वामीकी मृत्यु हो। अग्निकोणके क कोठेमें दो हाथ नीचे गधेकी हड्डियां नीकले, दक्षिण दिशाके च कोठेमें कमरके नीचे से आदमोकी हड्डियां नीकले, पश्चिम दिशामें त कोठेमें डेढ़ हाथ नीचे बच्चोंकी हड्डियां नीकले, वायव्य कोणके प कोठेमें चार हाथ नीचे आदमीकी हड्डियां नीकले, उत्तर दिशाके य कोटेमें ब्राह्मणकी हडिया कमरतक नीचे से नीकले, इशानकोनेमें श कोठेमें डेठ हाथ नीचे गायकी हडियां नीकले, मध्यके कोटेमें छातीकी गहराई से मनुष्यके बाल, खोपरी, लोहमस्म आदि नर शल्य नीकले तो बसे शल्यको नीकाल कर वास्तु पुजन करके भूमिको शुद्ध करनेसे स्वामी सुख वैभवसे रहते है । २५५-२५९
इति शल्य विज्ञान
ગૃહ કે પ્રાસાદના પ્રારંભ માટે શુભ મુહૂર્તો વિદ્વાન જ્યોતિષ પાસે કઢાવવા. પ્રથમ માસ શુદ્ધિમાં વૈશાખ, શ્રાવણુ, માગશીર્ષ, પોષ અને ફાગણ એ પાંચ માસ ઉત્તમ ખાત માટે છે. પ્રતિષ્ઠા માટે મહા અને જેઠ માસ પણ લેવાય છે. શુભ દિવસે ચંદ્રબળ નિષિદ્ધ કાળ છેડીને પ્રત્યેક મુહૂર્તો કરવા. પ્રથમ-ખનન મુહૂર્ત, બીજું ખાત શિલારોપણ વિધિ જ્યાંથી પા પૂરવાને પ્રારંભ થાય. ભૂમિ ઉપરથી નોંધ કરવાનું, કણપીઠ અને ઉપરનો
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( १०२ )
नधि-या भाटे सारा हिवसेो लेवा. त्री स्तमनु, यथु द्वारनु, पांयभु પાટનું, છઠ્ઠું પદ્મશિલા અથવા છત, આચ્છાદન વચ્ચે શિખરના પ્રારંભ અને શુકનાસ, સાતમુ આમલસાળાનું. આ સાતે મુહૂર્તો તેના ચાદિ જોઇને ખૂબ ઉત્સાહથી અને ઉદારતાથી કરતાં વાસ્તુ પૂજન કરવું, છેલ્લે મૂર્તિ પ્રતિષ્ઠા જેમાં કળશ અને ધ્વજદંડ સ્થાપત સાથેજ મૂર્તિ પ્રતિષ્ઠા≠િ ખૂક્ષ્મ ધામધૂમથી કરવા.
गृह या प्रासादके प्रारंभके लिये शुभहूर्त विद्वान जयोतिषिके पास निकलवाये. प्रथम मास शुद्धिमें बैसाख, सावन, मगशीर्ष, पुस और फाल्गुन पाँच मास उत्तम खानके लिये हैं । प्रतिष्ठाके लिये महा और ज्येष्ठ भी लेते हैं । शुभदिन चंदवक निषिद्ध काळको छोडकर प्रत्येक मुहुर्त करे । प्रथम खनन मुहूर्त - दूसरा खात शिलारोपण विधि जहांसे नींव पूरनेका प्रारंभ हो वही भूमि परसे नौध करे । कणपीठ और उमरका नौध अिसलिये शुभदिन देखे / तीसरा स्तंभका चौथा द्वारका, पांचवा पाटका, छट्टा पद्मशिला या छत आच्छादनका । बीचमें शीखरका आरंभ और शुकनाथ, सातवां आमलसाखका | सातों मुहुर्त शकादि देखकर बड़े उत्साहसे उदारतासे करके वास्तु पूजन करे। अंत में मूर्ति प्रतिष्ठा जिसमे कळश, ध्वज दण्ड स्थापनके साथ मूर्ति प्रतिष्ठादि बढी धामधूम से मनाये |
1
મુહૂર્ત શ્વેતાં-પ્રારંભમાં વૃષચક્ર પૃથ્વી સૂતી, એડી કે ઉભી જોવાય છે. ચિલારાપણ પર દ્વારચક્ર તેમાં વત્સ દોષ અને રાહુ દોષ જેવા. સ્તંભચક્ર, પટચક્ર અને આમલસલા ચક્ર જોઈ મુહૂર્તો કરવા. જૈન્ના પ્રતિષ્ઠામાં પ્રતિમા સ્થાપન-પ્રાસાદભિષેક, ધ્વજદંડ અને કળશ સ્થાપના ઘણુા મહોત્સવપૂર્વક કા, તે સમયે સ્થપતિ-સૂત્રધાર અને અન્ય શિલ્પીંગણ તથા ખીજા શ્રમજીવીઓને ધન, વસ્ત્ર, સુવર્ણ, આભૂષણાદિથી સંતુષ્ટ કરી શુભાશિષ
४वा.
न
मुहुर्त देखते वक्त प्रारंभ में वृषचक्र पृथ्वो खडी या सोती देखते हैं । शिलारोपण पर द्वारचक्र, जिसमें वत्स शेष और राहु देखे । क्र, पाटचक्र और आमलसला चक्र देख्ने | मुहुर्त करने अंतमें प्रतिष्कामे प्रतिमा स्थापना प्रारणाशभिषेक ध्वजदंड और कलश स्थापना
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बड़े महोत्सवके साथ करते वक्त स्थपति, सुत्रधार, अन्यशिल्पिगण और मजदरोंको धन वस्त्र सुवर्ण आभुषण आदिसे संतुष्ट करे। और स्थपतिके शुभाशिष प्राप्त करे ।
પ્રાસાદ નિર્માણના પાંચ કે સાત મુહૂર્તે સમયે સ્થપતિ- સૂત્રધારપૂજન કરી સુવર્ણવ્ય વડે ગજપૂજન આદિ આઠ સૂત્રધારનું પૂજન યજમાને કરવું.
प्रासाद निर्माणके पांचके सात मुहुर्त के समय स्थपति-सूत्रधार पूजन करके सुवर्ण द्रव्यके साथ गणपूजन आदि अष्ट मुत्रोंका पूजन यजमानको करना चाहिये ।
मुहुर्त चक्रादि गृहारंभकाले वृषचक्र । महार भेऽर्क भाद्रामः शीर्षस्थैदहि ईरितः । अग्रपाद स्थितेवेंदैः शुन्य स्याङ्घषचक्रके ॥ २६० ।। स्थिरता पृष्ठपादस्थैवें दैः पृष्ठे श्रियस्त्रिभिः । लाभोवेदैर्दक्षकुक्षौ रामैः पुच्छ पतिक्षति ।।
कुक्षौ वामेऽधिभिनॅस्व मुखे पीडा त्रिभिश्च भैः ।। २६१ ॥ ગૃહના આરંભમાં સૂર્યનક્ષત્રથી દિનિયા નક્ષત્ર સુધી ગણતાં નક્ષત્રજુદા જુદા અંગ પર મૂકતાં તેનું શ્રેષ્ઠ નષ્ટ ફળ કહે છે. પ્રથમના ત્રણ નક્ષત્ર વૃષના માથાપર, તેનું ફળ દાહ તે પછીના ચાર નક્ષત્રો આગલા પગે-તેનું ફળ શૂન્ય. પછીના ચાર નક્ષત્ર પાછલા પગે સ્થાપવા-તેનું ફળ સ્થિરતા. પછીના ત્રણ નક્ષત્ર પીઠ પર-લક્ષ્મી પ્રાપ્તિ પછીના ચાર નક્ષત્ર જમણી કુખે-તે લાભ કર્તા. પછીના ત્રણ નક્ષત્ર પુછડે તેનાથી સ્વામીને નાશ. પછીના ચાર નક્ષત્રે ડાબી કુખે-તેનાથી નિર્ધનતા. પછીના ત્રણ નક્ષત્રે भुममा स्थापना-तेनु ३0 पी।४।२४ गए.. २६०-२६१ . .
गृहके आर भमें सूर्य नक्षत्रसे दिनिया नक्षत्र तक गीनते गीते नक्षत्रोको अलग अलग अंग पर रखे तो श्रेष्ठ या नेष्ठ फल कहे जाते हैं। प्रथमके तीन नक्षत्र वृषके सीरपर उसका फलदाह उसके बादके चार नक्षत्र पीछले पैर पर उसका फल शून्य । वादके चार नक्षत्र पोछले .
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( १०४ ) पैर पर उसका फल स्थिरता, उसके बादके तीन नक्षत्र पीठ पर, लक्ष्मी प्राप्ति,
और चार नक्षत्र दायीं करवट पर वही लाभकर्ता, और तीन नक्षत्र पूंछ पर फल निधनता, बादके तीन नक्षत्रकी स्थापना मुखमें' और उसका फल पीडाजनक जाने । २६०-२६१
वृषयानुको (१) 3 नक्षत्र नेट (२) ४ , नष्ट (3) ४ , श्रे (४) 3 , भारत (५) ४ , श्रेष्ठ (6) 3 , नष्ट (७) ४ , नष्ट (८) 3 , नष्ट
२८ नक्षत्र
ખાત વખતે પૃથ્વી સૂતી-એઠી જેવાની રીત - સુદ ૧ થી તિથિ, વાર રવિવાર અને અશ્વિનીથી નક્ષત્રથી નક્ષત્ર, એ રીતે જે દિવસે મુહૂર્ત જેવું હોય તે દિવસની તિથિ, વાર કે નક્ષત્રની સંખ્યાને સરવાળે કરીને ચારે ભાંગતાં જે શેષ રહે તે તેનું ફળ જાણવું. શેષ ૧ વધે તે પૃથ્વી ઉભી. તેથી ઘર કરતાં કલેશ થાય. બે વધે તે પૃથ્વી બેઠી તે શુભ. ત્રણ શેષ રહે તે પણ શુભ, અને શૂન્ય રહે તો જાગતી તે નેપ્ટ જાણવી.
खातके वक्त पृथ्वी सोती या खडी देखनकी विधि । सूद १ से तिथि, रविवार से वार, अश्विनी से नक्षत्र नक्षत्र । जिस प्रकार जिस दिनसे मूहुर्त देखना हो उस दिनकी तिथि चार या नक्षत्रको कुल मिलाकर चार के बंक से विभाजित करके जो शेष संख्धा बाकी बचे वही उसका फल जाने । शेष १ बचे तो पृथ्वी खडी, उससे गह बनाते कलेश होवे, दो की संख्या शेष बचे तो पृथ्वी बैठी, वेही शुभ । तीन शेष बचे तो वह भी शुभ । और शेष ४ बचे तो जागती वही नेष्ट समझें ।
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अथ द्वार चक्रम् अच्चित्वारि ऋक्षाणि ऊमें चैव पदापयेत् । द्वौद्वौ दद्याच कोणेषु शाखायाञ्च चतुःश्चतुः ॥ २६२ ।। अधश्चत्वारि देवानि मध्ये त्रीणि प्रदाययेत् । ऊध्र्षे तु लभते राज्यमद्वेगः कोणकेषु च ।। २६३ ।। शाखायां लभते लक्ष्मीमध्ये राज्यप्रद तथा ।
अधस्ते मरणं प्रोक्त द्वारचक्र प्रकीर्तितम् ।। २६४ ॥
સૂર્યનક્ષત્રથી દિનિયા નક્ષત્ર સુધી ગુણ પહેલા ચાર નક્ષત્ર ઉતરશે રાજ્ય પ્રાપ્તિ પછીના ચાર ખૂણુના બન્ને નક્ષત્ર મળી આઠ નક્ષત્ર ઉદ્વેગ કરાવેપછીના ચચ્ચાર નક્ષત્રો બેઉ શાખામાં તે લક્ષમી પ્રાપ્તિ કરાવે, પછીના ચાર નક્ષત્રો નીચે ઉંબરામાં તેનું મૃત્યુ ફળ, પછીના બ કીના છેલ્લા ત્રણ નક્ષત્રો દ્વારની મધ્યમાં રાજ્યપ્રાપ્તિ-આ રીતે દ્વારચક્રનું શુભાશુભ ફળ કહ્યું. तभा शुस ५ देनार नक्षत्रीमा दार स्थापन ४२. २६२-६३-६४
सुर्य नक्षत्रसे दिनिया नक्षत्र तक गीनकर पहले चार नक्षत्र उतरंगसे राज्य प्राप्ति, बादके चार कोनेके दो दो नक्षत्र सब मिलकर उद्वेग करावेपादके चार चार नक्षत्र दोनों शाखामें हैं वे लक्ष्मी प्राप्ति करावे. बादके बाद चार नक्षत्रसे नीचे देहली में मृत्युफल बताता है । बादके अंतीम तीन नक्षत्र द्वारकी मध्यमें राजप्राप्ति । भिस तरह द्वार चक्रका शुभाशुभ फल कहा हैं । शुभफल दीखते हो वैसे नक्षत्रों में द्वार स्थापन करें । २६२-६३-६४
घ नेष्ट २ मेष्ट
नक्षत्र
(૧) ઉતરંગ ૪ રાજપ્રાપ્તિ द्वारचक
(૨) ચાર ખૂણુના ૮ નેષ્ઠ श्रेष्ट ध
(3) शाम ८ श्रे (४) 64 ४ नष्ट
(५) मध्य मेष्ट २
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ध श्रेष्ट
२ नेष्ट
२८
ध श्रेष्ट
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.. ( १०६ )
द्वार स्थापनमां वत्स
कन्यादीना त्रिके सूर्य द्वार पूर्वादिषु त्यजेत् ।
यत्र वत्समुखं तत्र स्वामिनो हादं कृनिते ॥ २६५ ॥ કન્યાદિ ત્રણ ત્રણ રાશિને સૂર્ય હોય ત્યારે પૂર્વાદિ વગેરે દિશાઓમાં દ્વાર न भू . કન્યા, તુલને વૃશ્ચિક એ ત્રણ રાશિ સૂર્યમાં પૂર્વ દિશાનું દ્વાર ન મૂકવું. ધન, મકર, કુબ એ ત્રણ રાશિ સૂર્યમાં દક્ષિણ દિશાનું દ્વાર ન મૂકવું. મીન, મેષને વૃષભ એ ત્રણ રાશિ સૂર્યમાં દક્ષિણ દિશાનું છે કે मिथुन, ४, सिंह , , ,, उत्तरे , , , કારણ કે તે દિશાઓમાં દ્વાર મૂકવાથી વસમુખ સામું હોય છે. તેમાં મૂકવાથી સ્વામીને નુકશાન થાય છે. ૨૬૫
कन्यादि तीन तीन राशिका सूर्य होवे तब पूर्वादि दिशाओमें द्वार न रखे । कन्या तुला और वृषिक यह तीन राशीमें सूर्य में पूर्व दिशामें द्वार खडा न करें । धन, मकर, कुंभ वे तीन राशीमें सूर्य आवे तो दक्षिण दिशामें द्वार न करे । मीन, मेघ और वृषम वे तीन राशिके सूर्य में पश्चिम दिशामे' द्वार न करे । मीथुन, कर्क, सिंह यह तीन राशिमें उत्तरमे द्वार न करे । कयोंकि उन दिशाओंमें द्वार रखनेसे वत्सका विरुद्ध मुख होता है । और स्वामीको नुकसान पहुंचता है । २६५
सिंहे चैव तथा कुंभे वृश्चिके वृषभे तथा ।
नैव दोषो भवेत्तत्र कुर्याच्चतुर्दिशामुखम् ॥ २६६ ॥ સિંહ, કુંભ, વૃશ્ચિક તથા વૃા. ભ રાશિના સૂર્યમાં ચારે દિશા તરફ દ્વાર મૂકવામાં આવે તો પણ વત્સના દોષ લાગતું નથી, કેમકે તે સમયે वत्सनु भुम अयास त२५ डाय छे. २६६ ___सिंह कुभ, वृश्चिक और वृषम राशिके सूर्य में चारों दिशाकी ओर द्वार करें तो भी वत्सका दोष छूना नहीं । क्योंकि उस वक्त वत्सैका मुख कोणांकी तरफ होता है । २६६
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( ૨૦૭)
वत्सचक्र पश्चिम
मौन, मेष, धुषभ
धन, मकर, कुंभ
दक्षिण
! ૧૦ ૧૯ રૂ૦ { { [ ૨૦
1 ૧૦] ૧૯1 રૂ૦ / ૧૯| ૧૦ | ૯ |
भवननी भूमि
उत्तर
मिथुन, कर्क, सिंह
!
wriા |
ક | ૧૦ | ૧
| ૨૦ | ૧ | ૧e
पूर्व कन्या, तुला, वृश्चिक ઉપરોકત કહેલી દિશામાં અને કહેલા રાશિમાં તે દિશામાં દ્વાર ન મૂકવું. પરંતુ વત્સએ આકાશમાં સૃષ્ટિક્રમે ફરે છે તેથી તે રાશિના મધ્યના ૩૦ દિવસમાં અને તેની સામેની દિશામાં વત્સ હોય છે તેથી તે વિભાગમાં દ્વાર મૂકવું નહિ.
વચક્રમાં ભવનની ચારે દિશાઓમાં સાત સાત વિભાગો કરવા - પહેલા વિભાગમાં પાંચ દિવસ વત્સ રહે છે; બીજામાં દશ દિવસ, ત્રીજામાં પંદર દિવસ, મધ્યમાં ત્રીશ દિવસ વત્સ રહે છે પાંચમામાં પંદર દિવસ, છઠ્ઠામાં દશ દિવસ અને સાતમામાં પાંચ દિવસ વત્સ રહે છે, આ રીતે પ્રત્યેક દિશામાં વત્સ રહે છે, પરંતુ જે વિભાગમાં વત્સ સામે કે પૃષ્ઠ હોય તે દિવસોમાં દ્વાર ન મૂકવું, બાકીના વિભાગમાં વત્સ ન હોય ત્યારે દ્વાર શુભ મુહૂર્તે મૂકવું. વત્સ એક દિશાણાં ત્રણ માસ રહે છે તેમ સામાન્ય રીતે કહ્યું, પરંતુ તે દિશામાં ૯૦ દિવસ વહેચી વિભાગ કહ્યા.
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(१०८) उपरोक्त बतायी दिशामे और कही राशिमें उसी दिशामें द्वार न करे । लेकिन वत्स वही आकाशमें सृष्टि क्रमके मुताबीक फिरता है। जिससे उस राशिके मध्यके ३० दिवसोंमें और उसकी सोमनेको दिशामे वत्स होता है अिसलिये उस विभाग द्वार न करे ।
वत्स चक्रमें भवनकी चारों दिशाओं में सात सात विभाग करें। पहले विभागमें पांच दिन तक वत्स रहेता है। दूसरेमें दस दिन तक तीसरेमें पंदर दिन और मध्यमें तीस दिन तक वत्स रहता है । बादके पांचवेमें पंद्रह दिन, छठवेमे दस दिन, और सातमे विभागों पांच दिन तक वत्स रहता है । भिस तरह प्रत्येक दिशामें वत्स रहता है। लेकिन जिस विभागमें वत्स होवे, सामने हो के पृष्ठभे हो उन दिनेमे द्वार न खडा करे । बाकीके विभागोमें वत्स होवे तब द्वार शुभ मुहूर्तमे खडा करे। वत्स एक ही दिशामें तीन माह रहता है वैसा बताया लेकिन उस दिशाके ९० दिनांका बंटवारा करके विभाग करे ।
अथ स्तंभ चक्र सर्याधिष्टि न भात्रय प्रथमतो मन्ये तथा विंशति । स्तंभाग्रे शर संख्यया मुनिवरैरुक्तानि धिण्यानि च ॥ २६७ ॥ स्तंभाग्रे मरणं भवेद् गृहपतेर्मूले धनाथ क्षय ।
मध्ये चव मुखार्य कीर्तिमतुलां प्राप्नोति कर्ता सदा ॥ २६८ ॥ अपमें
સૂર્યના મહાનક્ષત્રથી દિનિયા નક્ષત્ર સુધી ગણત્રી કરી પ્રથમના ત્રણ નક્ષત્રો સ્તંભના અગ્ર ભાગમાં મૂકવા, ત્રણથી તે ત્રેવીશ સુધીના અર્થાત્ વીશ નક્ષત્રો મધ્ય વિભાગમાં મૂકવા અને ૨૩ થી તે અબિજિત સહિત એકવીશ સુધીના એટલે પાંચ નક્ષત્રો સ્તંભના મૂળ ભાગમાં મૂકવા એમ મુનિવરેએ કહ્યું છે. સ્તંભના ઉપલા માત્ર ભાગના ત્રણ નક્ષત્રોથી સ્વામીનું મૃત્યુ થાય અને નીચે મૂળના પાંચ નક્ષત્રોમાં ધન અને મને ફળતા નથી. પરંતુ વચલા ભાગના વીશ નક્ષત્રોમાં મુહૂર્ત કરવાથી સ્વામીને સુખ, લક્ષમી અને અતુલ કીર્તિ મળે છે. २१७-२१८
मध्ये श्रेष्ठ
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( १०९ )
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सूर्य के महा नक्षत्रसे दिनीया नक्षत्र तक गौनती करके प्रथमसे तीन नक्षत्र स्तंभके अग्र भागमे रखे । तीने से तेईस तकके अर्थात् बीस नक्षत्र मध्य विभागमें रखे । और २३ से लेकर अभिजित सह २८ तकके नक्षत्र अर्थात् पांच नक्षत्र स्तंभके मूल भागमें रखे। वैसा मुनिवरोंने बनाया ।
स्तंभके उपरके अग्रभागमे तीन नक्षत्रसे स्वामी की मृत्यु हो और नीचे मूलके पोच नक्षत्रोंमें धन और मनोरथका फलता नहीं मिलता। लेकिन बीचके बीस नक्षत्रोंमे मुहूर्त करनेसे स्वामीको पुख, लक्ष्मी और अतुल किति मिलती है । २६७-२६८
मोभचक्र वा पाटचक्र मृले मोमे त्रिऋक्षे गृहपति मरणं पंचगर्भ सुखं स्यात् । मध्ये चैवाष्ट ऋक्षं धनसुत सुखदं पुच्छके चाष्ट हानिः ।। २६९ ।। पश्रादग्र त्रिभाति गृहपति सुखदं भाग्यपुत्रार्षद स्यात् ।
सुर्धादेव च ऋक्षं यदि विधुदिनभ मोमचक्र विलोक्यम् ।।२७०॥
સૂર્યના મહા નક્ષત્રથી તે દિનીયા નક્ષત્ર સુધી ગણતાં પહેલાં ત્રણ નક્ષત્રો મોભ કે પાટ મૂળમાં મૂકવા તે અશુભ છે–સ્વામીનું મૃત્યુ નીપજાવે, ગર્ભમાં પાંચ મૂકવા તે સુખ કર્તા છે. મધ્યમાં આઠ નક્ષત્રો મૂકવા તે ધન, પુત્ર અને સુખ આપનારા છે. પુછડે આઠ' નક્ષત્ર મૂકવા તે હાનિકર્તા છે, પાછળના ભાગે અગ્ર ભાગે ત્રણ નક્ષત્રે મૂકવા તે ઘરના સ્વામીને સુખ આપનાર તથા ભાગ્ય અને ઘણા પુત્ર આપનાર જાણવા, આ પ્રમાણે મોભ તથા પાટડ (ભારવટ)ને ચર્ફ એકજ જાણવું, ૨૬૯-૨૭૦
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3
५
( ११० )
८
३
नेष्ट
શ્રેષ્ઠ
શ્રેષ
ਜੇ
सूर्य के महा नत्रसे लेकर दीनाया नक्षत्र तक गीनते पहले तीन नक्षत्रों मोभको पाट मूलमें रखे वही अशुभ है। स्वामीकी मृत्यु हो । गर्भ में पांच रखे वही सुखकर्ता है । मध्यमें आठ नक्षत्र रखेतो जिससे धन, पुत्र और सुख प्राप्त हो । पूंछ पर आठ नक्षत्र रखेतो हानिकर्ता है । पीछेके भाग पर, अग्र भाग पर तीन नक्षत्र रखेतो वे घरके स्वामीको सुख देनेवाले, सुभाग्य और बहुत पुत्रोंको देनेवाले समझे । जिस तरह मोभ और पाeet ( भारवट ) का चक्र एकही जाने । २६९-२७०
श्रेष्ठ
अथ आमलसारा घंटा चक्रम् ||
घंटा चक्रं विधायैवा मध्ये पूर्वादिशाकमात् ।
त्रीणि त्रीणि प्रदेयानि सृष्टि मार्गेण क्रामके ।। २७१ ।।
मध्ये चैव स्मृती लाभो पूर्व भागे जमा रयो ।
याचैव हानिः स्याद् दक्षिणे पतिनाशनम् || २७२ ।।
नैऋत्ये पारणालाभ: पश्चिमे सर्वदा सुखम् । वायव्या मश्वलाभः स्यादुत्तरे व्याधिसंभवः । fara aaorte घण्टा चक्रफल स्मृतम् ॥ २७३ ॥
સંગ્રા
આમલસાસનુ મુહૂત કરવામાં ઘટાચક અવશ્ય જેવું, મધ્યમાં त्रशु અને પૂર્વાદિ દિશા વિદિશાક્રમથી આઠ સ્થાનમાં ત્રણ ત્રણ મળીને ૨૭ નક્ષત્ર વહેચવા, મધ્યના ત્રણ નક્ષત્ર લાભદાયક, પછી પૂર્વના ત્રણ નક્ષત્ર માં વિજય અપાવે, પછીના ત્રણુ નક્ષત્રા પછીના અગ્નિ કાણુમાં હાનિકારક, પછીના દક્ષિણના ત્રણ પ્રતિનાશ, પછીના ત્રણ નૈરૂત્યના ત્રણ પુત્રલાભ પછીના પશ્ચિમના ત્રણ હંમેશા સુખ આપનાર, પછીના વાયવ્યના ત્રણ વાહનનેા લાભ અપાવે, પછીના ઉત્તરના ત્રણ વ્યાધિને સંભવ, અને છેલ્લા ત્રણુ નક્ષત્રો ઇશાનના વસ્ત્ર લાભ અપાવે, આ રીતે ઘંટાચક્રનું ફળ જાવુ. ૨૭૧-૭૨૭૩
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( १९१ )
३मेष्ट उत्तर
३ष्ट
पधिम
2016
३ष्ट
बेष्ट
अमलसाराके मुहुर्त करनेमें घंटाचक्र अवश्य देखे. मध्यमें तीन और पूर्वादि दिशा विदिशाके क्रमसे आठ स्थानमें तीन तीन कुल मिलाकर २७ नक्षत्रों में बांटे । पहले मध्यके तीन लाभकर्ता, बादके तीन रणसंग्राममें विजय देनेवाले, बादके तीन संधीनाम, बादके अग्निकोणके हानिकारक, वादके दक्षिणके तीन प्रतिनाश, नैऋत्य के तीन पुत्र लाभ, पश्चिम के तीन हमेशा सुख देनेवाले, वायव्यके तीन यातायातके वाहनका लोम देनेवाले, उत्तरके तीनमें व्याधिका संभव, और अंतके ईशानके तीन वस्त्र लाभ देनेवाले । यही घंटा चक्रका फल समझे । २७१-७२-७१
રાહુ સન્મુખ હોવા છતાં દ્વાર મૂકવાનું વિધાન. राहु सन्मुख होवे फिर भी द्वार रखनेका विधान :सन्मुखो राहु पृष्ठे वा द्वार श्च स्थापयोत्सुधीः । सूर्यागुला शलाकाया विस्तागेगुलिका तथा ॥२७॥ द्विशलाका द्विकोणे स्यात्ताम्रशुद्धा च तत्र वै । स्थापिने वदने धीमान्तरिक्षः प्रजायते ।।२७५॥
રાહ સમ્મુખ હોય કે પછવાડે હેય તેવા સમયમાં દ્વાર મૂકવાની અગત્ય હોય તે બુદ્ધિમાન શિપીએ નીચે બતાવેલ વિધિ અનુસાર દ્વાર સ્થાપન કરવું.
બાર આગળ લાંબી અને એક આંગળ પહોળી એવી શુદ્ધ ત્રાંબાની બે શલાકાએ (, પટ્ટીઓ ) કરાવી દ્વારના નીચેના બને ખૂણાઓ નીચે મૂકી તે પર દ્વારા સ્થાપન કરવું. આ પ્રમાણે દ્વારા સ્થાપન કર્યાથી અંતરિક્ષ દ્વાર થાય છે તેથી રાહુને દોષ લાગતો નથી. ર૭૪-૭૫
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( ११२ )
राहु सन्मुख होवे या पीछे होवे उस वक्त द्वार रखनेकी अगत्य होवे ती बुद्धिमान शिल्पो निम्न विधिसे स्थापन करना बताते हैं ।
बार अंगुल लंबी और एक अंगुल चौडी वैसी 'शुद्ध त्रांची दो सलाकाओ कराके द्वारके नीचेके दोनो कोनोंके नीचे रख उस पर द्वार स्थापन करें। वैसे द्वार स्थापन करनेसे अंतरिक्ष द्वार होता है और उससे राहुका दोष लगता नहीं । २७४ -२७५
पुनः शुद्धदिशाकाले तिर्यगुक्षे सुशोभने । द्वारचक्र शुभस्थाने बलिपूजाविधानकै || २७६॥
खातयेत् कुच्छ्रित द्वारभित्तिकायाञ्च बुद्धिमान | नीत्या तदा शलाकाञ्च द्वार वै स्थापयेतथा ॥ २७७||
ફરી જ્યારે રાહુ શુદ્ધ દિશામાં આવે ત્યારે તિયગૃતિના શુભ નક્ષત્રના દિવસે પેાતાના મૂળ સ્થાપનમાં દ્વાર ચક્રને દ્વાર પ્રતિષ્ઠાની અલિપૂજાના વિધાનપૂર્વક નીચે બતાવેલી વિધિ પ્રમાણે સ્થાપવું . બુદ્ધિમાન શિલ્પીએ દ્વારના નીચેના ખૂણાએ ( શલાકાની જગ્યાએ ભીંતમાં દિવાલ કાંચી માંકુ પાડવું શલાકા ખે’ચી કાઢવી અને પછી દ્વાર સ્થાપી દિવાલમાં પાડેલ मांडु यज़ी बेवु : ) आ अमले द्वार स्थापन विधि लावी. २७६-६७
फिर जब राहु शुद्ध दिशा में आवे तब तिर्यग्गतिके शुभ नक्षत्र के दिन अपने मूल स्थानमें द्वार चक्रको द्वारं प्रतिष्ठाकी बलिपूजा के विधानपूर्वक निम्न विधिसे स्थापित करें | बुद्धिमान शिल्पी द्वारके नोचेके कोने में ( सलाकाकी जगह पर भितिनें दिवाल कुरेदके बील बनाके शलाका खींच निकाले और फिर द्वारको स्थापना करके दिवालका वील पूरा भरले ) वैसे द्वारकी विधि जानें । २७६-२७७
॥ पुष्य नक्षत्रनी प्रशंसा ||
पापौर्विछेयुते हीने चन्दताराबलेऽपि च ।
पुष्पे सिद्धयन्ति सर्वाणि कार्याणि मंगलानि च || २७८ || ચક્રમા અને તારા મલહીન હાય, પાપગ્રહે થી વિંધાયલ હોય અથવા પાપગ્રહેાથી યુકત હોય તેપણુ પુષ્યનક્ષત્રમાં સમાંગલિક કાર્યો સિદ્ધ થાય છે. ૨૭૮
चंद्र और तारे बलहीन होवे, पाप ग्रहों से विद्यालय होवे और पाप ग्रहसि युक्त होवे फिर भी पुष्य नत्र में सर्व मांगलिक कार्य सिद्ध होते हैं । २७८
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(१९३) ॥ व सदोष उत्पन्न न थवा विषयमा ।। भारद्वाज वशिष्टानां वंश ज्ञातीन् विशेषतः । प्रासादे च चतुरे पुरे च नगरायणे ॥२७९॥ कूपे कुंडे तडागे वा वत्मदोषो न विद्यते । द्वारस्याभ्यन्तरे द्वारे मध्ये भौम चतुर्मुखम् ॥२८॥ प्रतिष्ठा मंडपे चैव होम स्थाने विशेषतः । वत्सदोषो न कर्तव्यश्वाथ सौभाग्यदायकाः ॥२८।।
ભારદ્વાજ ગોત્ર અને વસિષ્ઠ ગોત્રના વંશજો કે જ્ઞાતિવાળાઓને વિશેષ કરીને વત્સદેષ લાગતો નથી. તેમજ ચતુર્મુખ પ્રાસાદ, પુર, નગર, કૂવા, કુંડ કે તળાવ. પ્રતિષ્ઠા મંડપ કે હમશાલા. ચતુમુખ ભૂમિ કે દ્વારની અંદરના ભાગે બીજું દ્વાર મૂકવામાં. આ સર્વેમાં વત્સદોષ લાગતું નથી. વત્સદોષ હોય તો પણ તે સર્વ સુખ ભાગ્યને દેનાર જાણવું. ર૭૯-૮૦-૮૧
भारद्वाज गोत्र और वसिष्ठ गोत्रके वशवालोके ज्ञातिजनों को विशेष करके वत्सदोष नहीं लगता । और चतुर्मुख प्रासाद, पुर, नगर, कुए, कुण्ड, तालाब, प्रतिष्ठा मंडप या होमशाला, चतुर्मुख भूमि या द्वारके अंदरके भागमें दूसरा द्वार खडे करने में-भिन सबमें वत्स दोष नहीं लगता । वत्स देोष होवे फिर भी वह सब सुख सौभाग्यके देनेवाला ज.ने । २७९-८०-८१
वास्तुपुरुषोत्पत्ति और पूजन पुरान्धकवधे रुद्रललाट पतितः क्षितौ । स्वेद स्नेतोद्भतं जातः पुरुषो वे सुदुःसहः ।।२८२।। गृहीत्वा सर्वदेवस्त न्यस्तो भूवावधोमुखम् । जानकोणी च पादौ च रक्षौदिशि शिवे शिरः ॥२८॥ चत्वारिंशाताः पञ्च वास्तुदेहे स्थिताः सुराः । अष्टौ च बाह्मणास्तेषां वसनाद्वास्तुरुच्यते ।।२८४।।
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( ૧૨ ) प्रासाद भवनादिनां प्रारंभे परिवर्तने । वास्तुकर्मसु सर्वेषुपूजितः सुखदे। भवेत् ॥२८५।।
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પૂર્વે અંધકાસુર દૈત્યની સાથે યુદ્ધ કરતાં રૂદ્રના લલાટમાંથી પરસેવાનું બિંદુ પૃથ્વી ઉપર પડ્યું. અને તેમાંથી એક આશ્ચર્યકારક અતિદુ સહ અને વિકરાળ એક પુરૂષ ઉત્પન્ન થયો. આથી સર્વ દેવતાએ તેને પકડી
બે મુખે ભૂમિ પર સુવાડી તેના બે જધ, ઘૂંટણ, પગ નૈઋત્ય દિશામાં અને માથું ઈશાન કોણમાં રહ્યું. તેમાં શરીર પર પીસ્તાલીશ દે બેઠેલા છે. તેમાંથી આઠ દેવતાઓ ચારે દિશામાં રહેલા છે. દેએ તેના પર વાગ્ન કરવાથી તે “ વાસ્તુપુરુષ” કહેવાય.
પ્રાસાદ અને ભવન વગેરે વાસ્તુકાના પ્રારંભમાં સમાતિ વખતે તેમજ અન્ય કામમાં વાસ્તુપુરુષનું પૂજન અવશ્ય કરવું. તેમાથી સુખ પ્રાપ્ત થાય છે. ( નેટ-આ વાસ્તુપુરુષના અંગના મર્મસ્થાન પર સ્થંભ-પાટ કે ભીંત ન
આવવા દેવા તેમ આગળ કહ્યું છે. ). વાસ્તુના પદવિભાગ પ્રથમ પ્રથક કહ્યા છે તેમાં વિશેષ કરીને ૭x૭=૪૯ પદને મરિચિ વાસ્તુ જીર્ણોદ્ધારના કાર્ય પ્રસંગે પૂજવો.
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૮૪૮૬૪ પદને ભદ્રકવાસ્તુ નગર ગ્રામ જળાશ્રવ અને રાજભવનમાં પૂ. ૯૪=૮૧ પદનો કામદવાસ્તુ સામાન્ય ઘરોને વિશે પૂજવે. ૧૦×૧૦=૧૦૦ પદને ભદ્રાખ્ય વાસ્તુ પ્રાસાદ મંડપને વિશે પૂજવે અને હજાર પદને સર્વતે ભદ્રવાસ્તુ મેરુપ્રાસાદ યજ્ઞયાગાદિને વિશે તેમજ છ હાથના મહાલિંગ સ્થાપનામાં પૂજ. એકાશીપદના વાસ્તુ મંડપમાં મધ્યના નવપદ બ્રહ્મા તેનાથી ચારે દિશામાં છ છ પદના પૂર્વમાં અર્યમાં, દક્ષિણ વિવસ્વત, પશ્ચિમે રૌત્રગણુ અને ઉત્તરે પૃથ્વી ઘર ચારે દેવે છે છ પદના છે. હવે બ્રહ્માથી ચારે કેણના ચાર ચાર પદના દેવદેવીઓમાં ઈશાને આપને આપવત્સ અગ્નિમાં સાહિત્રિ અને સવિતા, નૈઋત્યકેશુમાં ઇદ્ર અને જયંત અને વાયવ્યકોણમાં રૂદ્રને રૂદ્રદાસ રથાપન થયેલા છે. અને તેની ચારે તરફ દેવોમાં પૂર્વથી ઈશ, પર્જન્ય-જય, ઇંદ્ર, સૂર્ય, સત્ય ભશ ને આકાશ દક્ષિણે અનિ. પુષા વિતથ ગૃહક્ષત યમ ગંધર્વ ભૃગરાજ અને મૃગ એ આઠ પશ્ચિમે-ખુણે પીતૃ-દૌવારિક, સુગ્રીવ, પુખદેવ, વરુણ, અસુર શેષ પાપયક્ષમ ઉત્તરમાં ખૂણે રોગ નાગ મુખ્ય. ભલાટ, સોમ, શૈલ, અદિતિ ને દીતિ એમ ફરતા બત્રીશ પદમાં બત્રીશ દે વસેલા છે.
વાસ્તુપદના બહારની દેવીઓમાં ઈશાને ચરક, અનિકેશુ વિદારિકા, નૈઋત્યમાં પૂતના અને વાયવ્યમાં પાપરાક્ષસી–દેવીઓ છે. પૂર્વાદિ દિશાના
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રોષ અનુર વરુણ પુણસુઝિવ રીવાર્ષિક
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( ११६ )
મધ્યમાં પૂર્વે પિલિપિછી, દક્ષિણે જમ્બા, પશ્ચિમે કદા અને ઉત્તરે અમા એક બ્રાહ્મ આઠ દેવીએ વાસ્તુપદમાં વસેલી છે. ૨૮૨-૮૩-૮૪-૮૫
पूर्व कामे अंधकासुर दैत्यके साथ युद्ध करते वकत रुद्रके ललाटसे पसीनेका बिन्दु पृथ्वी पर गीर पढा उससे एक आश्चर्यकारक अति दु:सह, कुर पुरुष पैदा हुआ । सिसे सब देवोंने उसे पकड़ा और खुलाया | उसकी दोनो जंघा, घुटने, पैर नैऋत्य दिशामें और मस्तक ईशान कोने में रहे । उसकी देह पर पैंतालीस देव बैठे हुए हैं । उसमें से आठ देव आठ दिशामें रहे हैं । देवाने उस पर बसेरा किया सिलिये वह 'वास्तु पुरुष' कहलाया |
प्रासाद और भवन आदि वास्तु कार्य के प्रारंभ में, समाप्ति के वकत और अन्य कामोंमें वास्तु पुरुषका पूजन अवश्य करें | जिससे सुख प्राप्त होता है ।
(नोट:- जिस वास्तुपुरुषके अंगके मर्मस्थानों पर स्तंभ पाटके दीवार न आने दें वैसा आगे बताया गया है ).
वास्तुके पद विभाग पृथक पृथक कहे हैं । उसमें विशेष करके ७७ = ४९ पदका मरिचि वास्तु जिर्णोद्वारके प्रसंग पर पूजें । ८x८=६४ पदका भद्रक वास्तु नगर, ग्राम, जलाशय और राजभवन में पूजें । ९x९= ८१ पदका कामद वास्तु सामान्य घरांमें पूजे । १०x१०= १०० पदका भद्राख्य वास्तु प्रासाद मंडप में पूजे । और हजार पदका सर्वतो भद्र वास्तु मेरु प्रासादको स्थापनमें पूजें । एकाशी पदके वास्तु मंडलमें मध्यके नवपद ब्रह्मा, उससे चारों दिशाओंमें छछ पदके, पूर्व में अर्यमा, दक्षिण वैवस्तव, पश्चिममें मैत्रगण और उत्तर पृथ्वीवर यह चार देव छछ पदके हैं । देव देवियों में ईशानमें आप आपवास । अग्नि कोन में सवित्री और सविता, नैऋत्य कोनेमे इन्द्र और जयंत और वायव्य कोने में रुद्र और रुद्रदास स्थापन हुए हैं । और उसकी चारों ओर देवोमे' पूर्व से इर्श पर्जन्य, जयद्र सूर्य, सत्य, भृश और आकाश, दक्षिण अग्नि, पुषा, वितथ, गहथत, यम, गंधर्व भृंगराज और मृग
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( ११७ ) वैसे आठ पश्चिममें खुणे पीर, दोवारिक, सुग्रीव, पुष्यदेव, वरुण, अमुर, शेष, पापयक्ष्मा उत्तरमें रोग, नाम, गुख्य भल्लाट, सोम, शैल. अदिति, दीति ये आठ एम चारो ओर बत्तीस पदमें वत्तीस देव बसे
वास्तु पदके बाहरकी देवियोंमे ईशानमें चरक, अग्निकोनेमें विदारिका, नैऋत्यमे पूतना और वायव्यमें पाराक्षसी, देवियां हैं । पूर्वादि दिशाके मध्यमें पूर्व पिलिपिन्छा । दक्षिणमे जम्बा, पश्चिममें सेदा और उत्तरमे अय मा वैसी आठ देवियां वास्तुपदमें बसी हुआ है। २८२-८३-८४-८५
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मरिक अर्थी
भाग
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नाग
सन
मैगन
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पाNIAN
पाय
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( १९८ )
॥ वज्रलेप लक्षणम् ॥
गृहत् संहिता आम तिन्दुकमान कपित्यक पुष्पमयि च शारमल्याः । बीजानि शल्लकीना धन्वनवल्को वचा चेति ।।२८६।। एतैः शलिलद्रोणः काथयितव्योऽष्ट भाग शेष श्च । अवतार्योऽस्य च कल्को द्रष्यरेतैः समनुयोज्यः ॥२८७।। श्री वासकर सगुग्गुलु भल्ला तक कुन्दुरूक सर्जरसैः । अतसी बिल्यैश्च यतः कल्कोऽयं वनलेपारव्यः ॥२८८।। प्रासाद हयं बल भी लिङ्ग प्रतिमासु कुऽयकूपेषु । सन्तप्तो दातव्यो वर्ष सहस्रायुत स्थायी ।।२८९॥
તંદુનાં કાચાં ફળ, કેથનાં કાચાં ફળ, સેમલન ફલ, સલકી શાલ વૃક્ષનાં બી. બંધન ધામન વૃક્ષ વૃક્ષની છાલ. અગર વચ, આ સર્વને એક દ્રોણ ભર પાણીમાં કવાથ કરે. જ્યારે આઠમો ભાગ બાકી રહે, ત્યારે ઉતારી--પછી તેમાં સરલસર વૃક્ષને ગુંદ, હીરા બોલ शुभक, निसामी, ३४३ ( देवारनी १२ ) , मसशी, मन परબીલીની વેલ ફળ ગિરી– એ સર્વને બરાબર લઈ ઘૂંટી નાખવા. એ વજલેપ " ४६५ " नामन। यो. मा १५ देवमासाह, डवली, वेसभी (વરંડા), શિવલિંગ, દેવપ્રતિમા. ભીતે અને કુવામાં ગરમ કરીને લગાડવા या वे५ ॥२ प ५ त २ छ, २८६-८७ ८८-८८
तेंदुके कच्चेफल, कैंथके कच्चेफल, सेमरके फल, सालक्षके बोज. घामनवृक्षकी छाल, अगर वच-भिन सबको एक द्रोणभर जलमे कवाथ करें । जव आठवां भाग बाकी रहे तब उतारकर उसमें सरावृक्षका गुंग, हीरावोल, बेलफळ गुगल, भिलामा, कुदरु ( देवदार वृक्षका गुंद ) राल, अलसी, और वेळा (बोली ) की गिरी, भिन सबको बराबर लेकर पीसे । उसे वज्रलेप "कल्क" जाने । यह वज्रलेप देवप्रासाद, हथेली. घे भी ( बरामदे ) शिवलिङ्ग, देव प्रतिमो, दीवार पर या कुएमे गरम करके लगादे । यह लेप हजारो साल तक बाकी रहता है । २८६२८७-८८-८९
भा५- १ *द्रो-२४६ १. अथवा १०२४ तासा.
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(१९) लाक्षा कुन्दुरू गुग्गुळ गृहम कपित्यनिस्व मध्यानि । नागवला फळ तिन्दुक मदन फल मधूकमजिष्टाः ॥२९॥ सर्जरस रामलकानि चेति कल्कः कुतौ द्वितीयोऽयम् । वज्राख्यः प्रथमगुणै रयमपि तेष्वेव कार्येषु ॥२९१॥ गोमहिषाजविषाणैः खररोम्णा महिष चर्मगव्यश्च । निम्बकपित्थरसैः सह वज्रतरो नाम करकोऽन्यः ॥२९२।।
લાખ, કુદરૂ ગુગળ, ઘરનાં ધુમાડાનાં જાળાં, કેથના ફળ, બેલની जिरी, ना (२पना दूस) माना २१, नी, राण, माण मन આંબળા એ સર્વ વસ્તુઓના કલ્પને પહેલાની જેમ સિદ્ધ કરી દ્રોણ ભર પાણીમાં મેળવવાથી બીજા પ્રકારને વાલેપ સિદ્ધ થાય છે. એમાં પણ પહેલા વજલેપમાં કહેલા ગુણ છે અને તે પણ પ્રાસાદ આદિના વેપમાં પહેલાં કહ્યો તેવા વાલેપની જેમ કામ આપે છે.
ગાય, ભેસ અને બકરા એ ત્રણેના શીંગ, ગધેડા મહિષત્રપાડા અને ગાય એ ત્રણેના ચર્મ. ધીમડાનાં ફળ, કંથનાં ફળ અને નીલ એ સર્વ પહેલાની જેમ ત્રીજે કયક સિદ્ધ થાય છે. એને “વળતર ” કહે છે તેમાં ગુણ પહેલાની જેવા અને આગળ કહ્યા કાર્યોમાં કામ આવે છે.
२८०-८१-८२
लाख, कुदरु, गुगल, घरके धुओंके जाले, कैंथके फल, वेलकी गिरी, नालवला ( ग गेरण ) के फूल, महुडाके फल, मजीठ, राल, चोल, और
आंवले भिन सब वस्तुओंके कलपको पहलेकी भांती सिद्ध किये हुए द्रोण भर पानीमें मिलानेसे दूसरे प्रकारका वज्रलेप सिद्ध होता है । भिसमें पहले बताये वचलेपक जैसे गुण है। वह प्रापाद अादिके लेपमें वजलेप का काम देता है ।
गाय. भैंस, बकरा, भिन तीनोंके सींग, गधे, महिष ( भैंसा) और गाय अिन तीनेक चम, नीमके फल, कैथके फल, और नील, पिन सत्र नीजे पहलेकी भांति तीसरा कल्क सिद्ध करती हैं । उसे
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(१२०:) 'वज्रत्तर' कहते है । उसके मुळ और उपयोग भी पहले बताये बच जैसे बलवतर समझे । २९०-९१-९२
अष्टौ सोसकभागाः कांसस्थद्वौ तु रीतिका भागः । मयकथितो योगोऽयं विझेयो बज्रसंघातः ॥२९॥
આઠ ભાગ સીસું, બે ભાગ કાંસું અને એક ભાગ પીત્તળ- એ ત્રણેને એક સાથે ગળાવવા એ મયના કહેલો યોગ છે અને તેનું નામ
सधात anyt. (पृ तिl.) २८३ __आठ भाग सीम, दो भाग कोसा, एक भाग पीतल, तोने धातुओक एक साथ वीघलाकर वनयात दोता है (बृहद् संहिता) उसे मयना योग कहा है । २९३
॥ वज्रलेपको बीजो प्रकार ॥ करालमुद्गी गुल्माषकल्क चिकपाकाश्च ये । चूयियुक्ता यचैते सुधा प्रकृतयो मताः ।। २९४॥
કરાળ મૃગી–ગુભાષ, કુક અને ચિકણ સૂર્ણ સહિત આ પાંચને ચુનામાં સમાન ગણેલા છે. ૨૯૪
बज्रलेपका दूसरा प्रकार : कराल, मृद्गी, गुलमाप, कक्ल और चिक्कण चूर्ण सह अिन पांचोंको चुनेमें समान माने हैं । २९४
अभयाक्ष बीजमात्रा शराः सार्थचूर्णिताः । ताः स्युः करालको मुद्रतुल्या याः क्षुद्रशर्कराः १,२९५।। सैव मुद्गीति कथ्यते शिल्पशास्त्र विशारदैः ।
અર્ધખાડી હરડે, બહેડા અને સાકર એ ત્રણને કરાલ કહે છે, મગના દાણું જેવા કલા સાકરના ટુકડાને “મુદગી” કહે છે. એમ શિ૯પશાસ્ત્રના વિશારદાએ કહ્યું છે. ૨૫ - आधी पीसी हीरडे, बहेडे, और मीसरी, भिन तीनोंको मिलानका 'कगल' कहते हैं । मुंगके दाने जैसे किये मीसरीके टुकडोंको 'मुदगी' कहते हैं। वैसा शिल्पशास्त्रके विशारद कहते हैं । २९५
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( १२१) साधं त्रिपाद त्रिगुण किं जकसिकतान्वितम् ॥२९॥ चूर्ण शर्कराशुक्तयो यद् गुल्माषं तदुच्यते । દેહભાગે ત્રીજાભાગે-અથવા ત્રણ ગણા કેશર અને રેતી સાથેના સાકર અને શુક્તના ચૂર્ણને ગુલ્મષ કહે છે. ૨૬
डेढभागसे, सीसरेभागसे, या तीनगुने केसर, रेत, के साथ मीसरी और शुक्तना चुर्णको गुलमाष कहते हैं । २९६
कराल मुद्ग पूर्वोक्त मानेन सिकतान्वितम् ।।२९७।। चणकस्य च चूर्णस्य यत्पिष्ठ कल्क मिष्यते । चिक्कणं केवलं काथं बद्धोदक मिति द्विधा ॥२९८॥ निश्छिदं मिष्ट मानेन क्षेत्र विष्टकयाचिते । पूर्वोक्तानां तु पंचानां विधातव्य प्रथक प्रयक ॥२९९||
આગળ કહેલા કરાળ-મૃદંગી, અને રેતી સાથે મેળવવું ચણાના લેટનું જે પિન્ક (પીઠું) તેને કક કહે છે. કેવળ કવાથને ચિકણ તથા બોદક એમ બે પ્રકારે કહે છે. ઈટના કામમાં ઈટને નિછિદ બનાવવા માટે આગળ કરેલા આ પાંથે મિશ્રણેને જુદી જુદી રીતે ઉપયોગ કરવો.
२८७-८८-८८ __ आगे बताये कराल, मृद्गोको रेतके साथ मिलाये । बेसनको षिष्ठको कल कहते है । केबल काथको चिकण और बरोटक वैसे दो प्रकारसे कहा है । इंटोंके काममें इंटोंके निश्छिद् बनाने के लिये भागे कहे भिन सब पांच मीश्रणोंका अलग अलग उपयोग करें ।
२९७-९८-९९ तत्र तत्र तदुक्तेन द्रवेण परिमदं येन् । केवले नास्मसा पूर्व पूर्वोक्तास्त्रीन्प्रमद येन् ॥३०॥
તે તે મિશ્રણમાં કહેલા દ્રવવડે મઈન કરવું. પ્રથમના ત્રણ મિશ્રણ કેવળ પાણી સાથે પહેલાં મર્દન કરવા. ૩૦૦
जिस जिस मिश्रणमें कहे द्रव से मर्दन करें। पहलेके तीन मिश्रण केवल पानीके साथ पहले मर्दन करें । ३००
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(१२२ ) शोरद्रुमामलाक्षाणां कदम्बाभययोरपि । . स्वग्जलै त्रिफला तोय माषपूष च तत्समम् ॥३०१॥ मर्थ शर्कराशुक्तयोश्चूर्ण तत्काथवारिणि ।
खुर संधुन कृत्वा स्वावयित्वाथ वाससा ।।३०२॥ चिक्कणं कल्पयेगेन बद्धोदक मथोच्यते ।
દુધામાં વૃક્ષ, આમળા, બહેડા, કદમ અને હરડેની છાલનું જળ તથા ત્રિફળાનું પાણી તેમજ તેટલા પ્રમાણનું માલ જુથ. આ સર્વેને કવાથ કરી તેમાં શર્કરા અને શુકતનું ચૂર્ણ નાખી ખૂબ હલાવવું અને પછી વસ્ત્ર ગાળ કરી તેના વડે ચિકણ બનાવવું હવે બદ્ધોધકની વિધિ કહે છે. ૩૦૧-૩૦૨
दुधवाले वृक्ष, आंबले, बहडे, कदम, और हीरडकी छालका पानी, त्रिफलका पानी और जितने ही प्रमाणमें माष जुथ अिन सबका कवाथ करके उसमें शर्करा और शुक्तका चूर्ण डालके बहूत हीलावे और फिर वस्त्र से छनके उससे चिकण बतावें । अब बद्धोधककी विधि कहते हैं।
दधिदुग्ध माषयुष गुलाज्य कदली फलैः ॥३०॥ नालिकेरा भ्रफलयो जैलै चै तत्प्रकल्पितम् । बद्धोदक भवत्येतत् समभाग नियोजयेत् ।।३०४।।
અડદને જુષ ગોળ, ઘી, કેળાં તેમજ નાળીએરને કેરીના પાણીમાં દહીં દુધ મેળવી બનાવેલું મિશ્રણ “બદ્ધોદક કહેવાય છે. પ્રત્યેક વસ્તુ સરખા भागे देवी. ३०3-3०४
उहदका जुप, गुड, घी, केले और श्रीफलको आमके पानी में दही दुध मिलाकर बनाये मिश्रणको "वद्धोदक" कहते हैं। प्रत्येक वस्तु समान प्रमाणमें ले । ३०३-१०४
लन्ध चूर्ण शतांश क्षौद्र मंशद्वयं भवेत् । भाज्यं तु कवलीयक नालिकेराम्बुमाषयुक ॥३०५।। क्षीराङ्ग स्वकषाय च क्षीर. दधि ततो गुलम् । पिच्छिल त्रिफलांम्भश्च व्येशादिकमिद कमात् ॥३०६॥
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( १२३ )
अंशवृद्धया समायोज्य पूतपकाम्बु शक्ति तः । एकी कृत्य कराल च प्रक्षिपेद् द्रढवेष्टितम् ॥२०७॥ aateesfer पादव धनतां भवेत् । नालिकेरस्थ शाखादिंडे ताऽयेन्मुहुः || २०८ ||
अतीत्य दशरात्र तु गुद्गीगुल्माषकल्पकैः । युक्त संघुट्टित युक्तया सुधा भवति शोभना ||३०९ ||
,
66 કરાલ
દશ ભાગ ચૂણું હાય તા તેમાં એ ભાગ भघ भेजनवु श्री, मां, અડધયુકત નારીયેરનું પાણી દુધાળાં વૃક્ષોની છાલના કાઢો દુધ દહી તથા ગાળ તેમજ ભાતનુ એસામણ, ત્રિફળાનુ' પાણી, એ દરેક ત્રણ ભાગથી આરભી એકેક ભાગ વધારી લેવાં. આ ખધાં ભેગા કરી તેમાં નાખી ખૂબ મજબૂત ખાંધી એક દિવસ રાખી મુકવું. પછી તે ઘાટુ' થશે. તેને નારીએરની શાખ એ અગર ઈંડા વડે ખૂખ ટીપવું. આ પ્રમાણે दृश रात्रि बीत्या "भृङ्गी” “गुहभाष" भने " ૩૬ સાથે યુકિતપૂર્વ ક મિશ્રણ કરવામાં ઘણા ઉત્તમ ચુને તૈયાર થાય છે.
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३०५-३०६-३०७-३०८३०८
दस भाग चूर्ण होवे तो उसमें दो भाग शहद मिलावे । घी, केले. उडद युक्त श्रीफलका पानी, दुधवाले वृक्ष की छालका काढा, दुध दही और गुड चावलका मांड, त्रिफलाका पानी वे सब तीन भागों से आरंभ करके एक एक भाग बढालेना | जिन सबको मिलाकर उसमें 'कल' डालके खूब मजबूत बांधके एक दिन रख छोडे । फिर वह गाढा होगा | फिर उसे दंड से खूब पीपे । मिस प्रकार तीन रात बीतने के बाद 'मृद्गी' 'गुलमाप' और कल्कके साथ युक्तिपूर्वक मिश्रण करनेसे बहुत बढिया चूना तैयार होता है ।
३०५-०६-०७-०८-०९
पूर्व द्वयशे कराल मधुकृत कदली नालिकेराम्बुमाय । व्यूष ं दाक्षा कषाय रतन जलधि गुगत्रैफलाम्भोसि चैवम् ||३१० ||
वृद्धान् शक्रमेण स्फुटशशि धवल' चूर्णयुक्त शतांश पिष्ठ सर्व यथावद् भवति थर सुधा वज्रलेपस्तथैव ॥ ३११||
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( १२४ )
કરાલ એ ભાગ તથા મધ કેળાં નારીએરનુ પાણીને અડદને ચૂષ, બહેડાના કાઢો. સ્તન, સમુદ્ર ગેાળ અને ત્રિફળાનુ પાણી એ દરેક ત્રણથી આરંભી એકેક ભાગ વધારી લેવાં. અને દશ ભાગ ચૂર્ણ મેળવી સ ખૂબ મન કરવાથી શ્રેષ્ટ “ વજ્રલેપ” જેવા ચુના બને છે. ૩૧૦-૧૧
कराल दो भाग, तथा शहद केले और श्रीफलके पानीको उड़द का व्युष, बहेडेका काढ । स्तन, समुद्र गुड और त्रिफलके पानी अिन हरेक को तीन आरंभ करके एक एक भाग बढाते चलें । और दस भाग चूर्ण मिलाकर सबका खुब मर्दन करने से श्रेष्ठ 'वज्रलेप' सा चुरा बनता है । ३१०-११
Tags मसान्त मुष्टिका युक्ति मर्दिना ।
श्रेष्ठ मध्योत्तमा ज्ञेया सुधा सौधादि बन्धिनी ।। ११२ ।।
આ તૈયાર થયેલ ચૂનાને ચાર ણુ અને બે માસ પર્યંત મુટ્ઠીએ દ્વારા મન કરવામાં આવે તા ક્રમે શ્રેષ્ટ મધ્યમ અને ઉત્તમ ચુના બને છે.
શુકતા એટલે શુદ્ધ માટીના વાસણમાં ગાળ મધુ અને કાજી એ ત્રણેને એકઠાં કરીને ડાંગરની કાઠીમાં ત્રણ રાત્રિ દીવસ રાખી મુકવામાં આવે તેને શુકત કહે છે.
ચૂષ=એટલે મગ વગેરે એ દળ દ્રવ્યને અઢારગણા પાણીમાં દાળ મળી જતાં સુધી સીઝવી પીળાં જેવાં કરતાં કંઇક ઘાડા પાકને ચૂષ કહે છે. અભિલષિતાથ ચિંતામણીના પહેલા પ્રકરણનાં ત્રીજા અધ્યાયના શ્લાક ૧૪૦ થી ૧૫૪ માં લેપ દ્રવ્ય આપેલ છે વિષ્ણુધર્માંતર પુરાણુ વલેને અધ્યાય ૯૨ મા છે, અપરાજિત્ત પૃચ્છા. મા. ૩૧૨
जिस तैयार हुए चुनेको चार, तीन और दो मास पर्यंत मुठीऔं द्वारा मर्दन करें तो क्रमसे श्रेष्ठ, मध्यम, और उत्तम चुना बनता है । शुक्ता मूंग बगैरह द्वोदल द्रव्यको अठ्ठारह गुने पानीमें दाल मिल जावे वहां तक सीज्ञा कर पीळा सा बनाकर जो घाडा पाक जैसा हो उसे यूष कहते है ।
अभिलाषताथ 'चिन्तामणि' के पहले प्रकरणके तीसरे अध्यायके श्लोक १४० से १५४ तक द्रव्य लेप दिये हैं। 'विष्णु धर्मेतिर' पुराण मे वज्रलेप अध्याय दसवां हैं । ३१२
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( १२५ )
पूजाविधि हाथजोरश्री मन्महागणाधि पतये नमः । इष्टदेवताभ्यो नमः । कुलदेव ाभ्यो नमः । स्थानदेवताभ्यो नमः । बास्तुदेवताभ्यो नमः । सगोदेवेभ्य नमः । एतत्कर्म प्रधानदेवताभ्यो नमो नमः । गणपतिध्यानम्-सुमुनकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः ।
लंबोदरश्च विकटो विघ्ननाशो गणाधिपः ॥३१॥ धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचंद्रो गजाननः । द्वादश्रुतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ।।३१४॥ तदेव लग्न मुदिन तदेव ताराबलंचंद्र वरतदेव । विद्याबलं देववलं तदेव लक्ष्मीपते तेऽन्धियुगं स्मरामि ॥३१५॥
अथ संकल्प श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया, प्रवर्तमानस्याय ब्रहणो द्वितीये परार्धे विष्णुपदे श्रीधेतबाराहकल्पे वैवस्यतमन्वन्तरे कलियुगे प्रथमचरणे भगतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्त देशे जम्बुद्वीपे अमुक नाम संवत्सरे, अमुकमासे, शुक्ल-कृष्ण पक्षे. अमुकतिथौं, अमुकवासरे, अमुकनक्षो मम सपुत्रस्य सभार्यस्य सहपरिवारस्य सर्वानिष्ट प्रशान्तिपूर्वक' आयुरारोग्य वृद्धये गृहाविष्टित वास्तुपुरुष प्रीतर्थे ब्रह्मादिनां वास्त्वङ्ग देवतानो प्रीतर्थ अमुक कार्य निमित श्रीवास्तुदेवता पूजन महंकरिष्ये ।। कलश मंत्र- गंगे च यमुने चैष गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धो काषेरि जलेऽस्मिन्सन्नियि कुरु ॥३१६॥ पंचामृत स्नान-पञ्चामृतेः स्नापयिष्ये कामधेनोः समुद्भवः ।
पयोददामि स्नानाथ देवेश प्रतिगृह्यताम् ॥३१७॥ शुद्धोदक स्नान-गंगा सरस्वती रेवापयोष्णी नर्मदा जल्लैः ।।
स्नायितोऽसि मयादेव तथा शांन्ति कुरुष्व मे ।।३१८॥
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( १२६ ) स्नान कराया बाद नीम्न मंत्र पढ़कर मूर्ति कलशकी पास पधरानी
नाना रत्न समायुक्त कांचन रत्नभूषितम् ।
आसनं देवदेवेश प्रीत्यर्थ प्रतिगृह्यताम् ॥३१९।। नमस्कार- नमस्ते देवदेवेश नमस्ते मुरपूजिते ।
नमस्ते जगदाधार नमस्ते वास्तुदेवते ।।३२०॥ . वस्त्र अर्पण- जीवम सर्व लोकानां लज्जाया रक्षणं परम् ।
सुषेषधारि वस्त्रं हि कलशे वेष्टयाम्यहम् ॥३२॥ स्थापनकी मूर्तिका अर्चन-चंदन कुमकुमादि से करना. पुष्प अर्पण करना धूप करना धृतदीप अर्पण करना फीर नैवेद्यः आचमन, ताम्बुल, आरती. आरति- चक्षुदं सर्व लोकाना तिमिरस्य निवारणम् ।
आतिक्यं कल्पित भक्त्या गृहाणा सुरसत्तम् ॥३२२॥ प्रदक्षणोपद- यानि कानि च पापानि जन्मान्तर कृतानि च ।
तानि तानि विनश्यति प्रदक्षिणपदे पदे ॥३१॥ नमस्कार- अपराध सहस्त्राणि क्रियतेऽहनिशं मया ।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्य परमेश्वर ।।३२४।। नमस्ते वास्तुपुरुष भूशय्यानिरत प्रभो । मद्गृहे धनधान्यादि समृद्धि कुरु सर्वदा ॥३२५॥
॥ अथ वास्तुपूजा ॥ वास्तुका स्थापन बाजोठ-पीठीका १४१ गजकी पर श्वेतबस्त्र, पर पीतवस्त्र पाथरवु उस पर चावलका अष्टदल कमल करके वास्तुकी आकृती करना मध्ये ब्रह्माका पदमे जलपूर्ण कलश. श्रीफल पंचरत्न रखता. वहां सुवर्णकी वास्तुपुरुषकी मूर्ति विधिपूजन करके स्थापन करना. ओर सुवर्ण महोर या. रुः पा रखना-नीन मंत्र पढके स्थापनकी बीच कलशकी स्थापना करना. ॐ श्री सिद्धयै नमः । ॐ ब्रह्मणे नमः । ॐ ब्रह्मासने स्थिरो भव ॥
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( १२७) नमस्कार- अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाजन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलित येन तस्मे श्रीगुरुवे नमः ॥२६॥ नीम्न मंत्रसे पूजा द्रव्य और अपने मोक्षग करके पवित्र करना.
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा ।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाधाभ्यन्तरः शुचिः ।।३२७।। ॥ॐ नमो श्री वास्तुदेवाय । ॐ श्री विश्वकर्मणे नमः ।। (१) वास्तुमंडलाका पूर्वादि चार दिशाका देवोका मंत्र से प्रावाहन करना. १ ॐ क्लीं सिद्धयै नमः। ॐ अयमणे नमः। आगच्छ-२. अत्रस्थाने स्थिरो भव । २ ॐ क्लीं सिद्धयै नमः । ॐ विवस्वते नमः। आगच्छे-२. अत्रस्थाने स्थिरो भव । ३ ॐ क्लीं सिद्धयै नमः। ॐ मित्राय नमः । आगच्छ-२. अत्र याने स्थिो भव । ४ ॐ क्लीं सिद्धयै नमः । ॐ पृथ्वीधराय नमः। आगच्छ-२. भास्थाने स्थिोमा। __ (२) इशानादिकोण से अंदरका अष्टकोण आपवत्सादि अष्टदेवका आवाहन, ऋद्धयै नमः। ॐ आपवत्साभ्यां नमः। आगच्छ-२. अत्रस्थाने स्थिरो भव । २ ॐऋद्धय नमः । ॐ सावित्रि सवितृभ्यां नमः। आगच्छ-२. अत्रस्थाने स्थिगे भव । ३ ॐ ऋदय नमः । ॐ इंद्रजयाभ्यां नमः । आगच्छ-२. अत्रस्थाने स्थिरो भव । . ४ ॐ श्राद्धयै नमः । ॐ रुद्र दासाभ्यां नमः । आगच्छ-२. अत्रस्थाने स्थिरो भव ।
(३) इशानकोण से पूर्वका अष्टदेवोका आवाहन-- १ ॐ श्री ईशाय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिगे भव । २ ॐ हीं श्री पर्जन्याय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ॐ श्री श्री जयाय नमः । आगच्छ-२ अस्मिन स्थाने स्थिरो भव ।
श्री श्री इंद्राय नमः । आगज-२, अस्मिन स्थाने स्थिरो भव ।। श्री श्री सूर्याय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव ।
श्री श्री सत्याय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ७ ॐ श्री श्री भृशाय नमः । आगच्छर-२. अस्मिन स्थान स्थिरो भव ।
ॐ श्री श्री आकाशाय नमः। आगच्छ-२. अस्मिन स्थान स्थिरो भव ।
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( १२८) (४) अग्निकोण से दक्षिणका अष्टदेवोका आवाहन१. ॐ ह्रीं श्री अग्नये नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । २ ॐ क्लीं श्री पूष्णे नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ३ ॐ क्लीं श्री विरोचनाय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव ।
ॐ क्लीं श्री गृहक्षताय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ५ * क्लीं श्री यमाय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ६ ॐ क्लीं श्री गंधर्वाय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ७ * की श्री शृंगाय नमः । आगच्छ-२ अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ८ * क्लीं श्री मृगाय नमः । आगच्छ-२ अस्मिन स्थाने स्थिरो भव ।
(५) नैऋत्यकोण से पश्चिमका अष्टदेवोका आवाहन१ ॐ क्लीं श्री पितृभ्यो नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । २ ॐ क्लीं श्री दौवारिकाय नमः। आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ३ ॐ क्लीं श्री सुग्रीवाय नमः। आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ४ ॐ क्लीं श्री पुष्पदंताय नमः। आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ५. क्लीं श्री बरुणाय नमः। आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ६ ॐ क्लीं श्री असुराय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ७ * क्लीं श्री शेषाय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ८ ॐ क्ली श्री पापाय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव ।
(६) वायव्यकोण से उत्तरका अष्टदेवोका आवाहन-- १ॐ क्लीं श्री रोगाय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । २* क्लीं श्री नागाय नमः । आगच्छे-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । १ * क्लों श्री मुख्याय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ४ बली श्री भल्लाटाय नमः। आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ५ ॐ क्लीं श्री सोमाय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ६ ॐ क्लीं श्री शैलाय नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ७ ॐ क्ली' श्री अदिव्य नमः। आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव । ८ ॐ क्लीं श्री दित्यै नमः । आगच्छ-२. अस्मिन स्थाने स्थिरो भव ।
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( १२९) (७) वास्तु मंडलकी बहारका पूर्वादि अष्ट देव देवोभोका आवाहन-- १ ॐ चिपिच्छायै नमः । आगच्छ-२. अत्रस्थाने स्थिरो भव । २ ॐ विदार्यै नमः । आगच्छ-२. अत्रस्थाने स्थिरो भव । ३ ॐ जंभायै नमः । आगच्छ-२. अत्रस्थाने स्थिरो भव । ४ ॐ पूतनाय नमः । आगच्छ-२, अत्रस्थाने स्थिगे भव । ५ ॐ स्कंदाय नमः । आगच्छ-२. अत्रस्थाने स्थिरो भव । ६ ॐ पापराक्षस्यै नमः । आगच्छ-२. अत्रस्थाने स्थिो भव । ८ ॐ यरक्यै नमः । आसेच्छ-२ अत्रस्थाने स्थिरो भव ।
इस प्रकार वास्तुदेवताओंका मंत्रपूर्वक यजमानका हाथ से अक्षत कुमकुम से आवहन करके गंधपुष्पादि वैद्यादि से पूजा करना. मंत्र ध्यान में "ॐ ह्रीं श्रीं कुरु कुरु स्वाहा” इस मंत्रका २१ जाप करना.
ॐ वास्तुदेवाय नमः मंत्र से वास्तुदेवको नमस्कार करके नीम्न मंत्रोसे दीग्पाल और भैरवादिको नमस्कार करना यजमानको हाथ से. अक्षत कुमकुम पुष्पादिसे मंत्रस्थान पूजा करना.
॥ अथ दिग्पाल पूजन विधि ॥ दिग्पालः क्षेत्रपालश्च गणेशश्चण्डिका तथा ।
एतेषां विधिवत्पूजा कृत्वा कर्म समारभेत् ।।२८॥ पूर्व मे - १ ॐ आँ ई क्लीं इंद्राय नमः । स्थिरासने स्थिरो भव ।
__ अष्ट गजारुह क्षेत्रपालैः प्रयुक्तो बलिं गृह्य गृह्य स्वाहा । अग्निकोणमे-२ ॐ हीं 80 हाँ वद्विमूर्तये नमः । स्थिरासने स्थिरो भव ।
अष्ट मेषारुह क्षेत्रपालैः प्रयुक्तो बलिं गृह्य पृष्ठ स्वाहा । दक्षिणमे - ३ ॐ ऋौं क्रौ . कालमूर्तये नमः । स्थिरासने स्थिरो भव ।
अष्ट महिषारुढ क्षेत्रपालैः प्रयुक्तो बलिं गृह्य गृह्य स्वाहा । नैरुत्यकोणमें-४ॐ ऐं क्षाँक्षी क्षेत्रपाल क्षेत्राधिपमृत्यये नमः । स्थिरासने स्थिगेभव ।
अष्ट दिग्गजारुह क्षेत्रपालैः प्रयुक्तो बलिं गृह्य गृह्य स्वाहा ।
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( १३०) पश्चिमे- ५ ॐ आँ श्री ध्रुव विं वरुणाय नमः । स्थिरासने स्थिरो भव ।
अष्ट दिग्गजारुह क्षेत्रपालै प्रयुक्तो बलिं गृह्य गृह्य स्वाहा । वायुकोण-६ ॐ विश्वाधिनाय नमः । स्थिरासने स्थिरी भत्र ।
अष्ट दिग्गजारुह क्षेत्रपालैः प्रयुक्तो बलिं गृहय गृहय स्वाहा । उत्तर- ७ ॐ हीं श्रीं कुवेगय नमः । स्थिरासने स्थिो भव ।
अष्ट दिग्गजारुह क्षेत्रपालैः प्रयुक्तो बलिं गृहय गृहथ स्वाहा । इशान- ८ ॐ क्लीं क्लीं क्ल विश्व'मराय नमः । स्थिरासने स्थिगे भव ।
अष्टु दिग्गजारुह क्षेत्रपालैः प्रयुक्तो बलि गृहय गृहय स्वाहा । आकाशे- ९ ॐ वां श्रीं बृं ब्राह्मणे नमः । स्थिरासने स्थिरो भव ।
अष्ट दिग्गजारुह क्षेत्रपालैः प्रयुक्तो बलि गृहय गृहय स्वाहा । पाताले- १० ॐ श्री श्री श्रीयतये नमः । स्थिरासने स्थिरो भव ।
अष्ट दिग्गजारुह क्षेत्रपालैः प्रयुक्तो बलि गृहेय गृहय स्वाहा ।
- दिग्पाल नमस्कार ' ॐ पूर्व इन्द्राय नमः । २ ॐ आग्नेये अग्नये नमः । ३ ॐ दक्षिणे यमाय नमः । ४ नरुत्ये नैरुत्याय नमः । ५ ॐ पश्चिमे वरुणाय नमः । ६ ॐ वायव्ये बायुदेवाय नमः । ७ ॐ उत्तरे कुबेराय नमः । ॐ ईशाने ईशानाय नमः । ९ ॐ आकाशे ब्रह्मणे नमः । १० ॐ पाताले विष्णवे नमः ।
भैरवाय नमस्कार १ ॐ पूर्व हेतक भैरवाय नमः । २ ॐ आग्नेये त्रिपुरान्तक भैरवाय नमः । ३ * दक्षिणे आदिवैताल भैरवाय नमः। ४ ॐ नैरुत्ये अग्निजिक्षाक भैरवाय नम । ५ ॐ पश्चिमे कालभैरवाय नमः। ६ ॐ वायव्ये करालभैरवाय नमः । ७ * उत्तरे एकपादभैरवाय नमः । ८ ईशाने कालमुखभैरवाय नमः । ९ ॐ उध्धे स्वछंदभैरवाय नमः । १० * पाताले गंधमालिकभैरवाय नमः ।
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( १३१) वास्तुपूजनके स्थापनमें स्थपति-शिल्पिका-चांदीका अष्टमूत्र रखके यजमान से पूजा करानी. विश्वकर्मा स्वरुप स्थपति-शिल्पिकी मंगोपचार पूजा करनी गजका पूजा करके वस्त्र और द्रव्य रु. ११ या ५ मुकाना. शिल्पि यजमानकी शुभाषिर्वाद देवे हस्त गजपूजन मंत्र
ईशो मारुत विश्ववद्धि विधयः सूर्यश्चरुद्रोयमः । वैरूपोवसवोष्टदंतिवरुणो षड्वक्र इच्छाक्रिया ॥ ज्ञान वित्तयति निशापति जयौ श्री वासुदेवोहली । कामोविष्णुरिति क्रमेण मरुतो हस्ते आयोविंशतिः ॥३२९।। राजवल्लभ
१ इश. २ वायु, ३ विश्वदेव, ४ अग्नि, ५ ब्रह्मा, ६ सूर्य, ७ रुद्र, ८ यम, ९ विश्वकर्मा, १० वसु, ११ गणेश, १२ वरुण, १३ कार्तिक, १४ इच्छा, १५ क्रिया, १६ ज्ञान, १७ कुबेर, १८ चंद्रमा, १९ जय, २० वायु. २१ बलभद्र, २२ कामदेव, २३ विष्णु एम २३ देवो स्थपति पूजन गज पूजन विधियो कर ।। तिनो स्थापनकी साथमें आरती करके अयं पुष्पांजली.
आवाहन न जानामि न जानामि तवार्चनम् । पूजांचैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥३३०।। मंत्र हीन क्रिया हीन भक्ति श्रद्धा विवर्जितम् ।
यत्पूजित मया देव परिपूर्ण तदस्तुमे ॥३३१॥ स्तुति बाद जो मुहूर्त करना हो वह करके आवाहन कीया देवोका और स्थापनका विसर्जन करना.
गच्छ गच्छ सुर श्रेष्ट स्वस्थाने परमेश्वर । यत्र ब्रह्मादयो देवा गच्छ व वास्तुदेवते ॥३३२।। यांतुदेव गणा सर्वे पूजामादाय माम । इष्ट काम समृद्धयर्थं पुनरागमनाय च ॥३३॥
॥ इति पूजाविधि समाप्त ॥
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(ર)
પા દ્રવ્યાદિ સ્થાપન ત્રણ
| ૧ શિલારોપણ વિધિમાં નીચેની સામગ્રી ગણપતિ દિપાલ વાસ્તુ
કુર્મશિલા અષ્ટશિલાને લપેટવાનાવો રાતુ લીલુ પીળુ રેશમીવર | દિશા ચિહ્ન વસ્ત્રનાં વર્ણ ઘઉં ચોખા ચોખા ધાન્ય ૧ પૂર્વ વા પીળું કળા કળશ કળશ ત્રાંબાના ૨ અગ્નિ સર રાતું
કળશ ૩ દક્ષિણ દેડ ઘેરજાંબલી વાસ્તુના સ્થાપનમાં
૪ નૈઋત્ય ખડગ વાદળી કાસાની થાળી, વાટકો, સુવર્ણની ૫ પશ્ચિમ પાસ પીળું પા વાલની મૂર્તિ
૬ વાગ્યે ધ્વજા સફેદ વાસ્તુના સ્થાપનમાં ચાંદીના અણુસૂત્રાદિ ૭ ઉત્તરે ગદા લીલું ગજ, ઓળો , ટાંકણુ, હાડી, ૮ ઈશાને ત્રિશુલ ધેલું સૂત્રતાર, કાટખુણે કમ્પાસ, તગારું, ૯ મધ્યની કૂર્મશિલાટી રાતું ચુનાલટું, ખનન વખતે ત્રીકમ,
નવ શિલાઓ નીચે-ઢાંકણાવાળા પાવડે, કોશ.
ત્રાંબાના કળશ નંગ ૯ પંચરત્નની પાટલી
ત્રાંબાના કાચબા નંગ ૯ અબીલ ગુલાલ, કંકુ, હળદી- ધૂપ
સપ્તવાચ-પંચરત્નની પિટલી ૯ ( કપુર, કેસર,
કેડી ૯ ચઠી ૯ ગંગાજળ, મુખવાસ-તજ, એલચી, લવીંગ, જાવંત્રી વગેરે.
શેવાળ. કેમે-કાજુ, દ્રાક્ષ, અંજીર,
ત્રાંબાનું ક” ડાયમેટરનુ નાભિ બદામ વગેરે.
માટે ભૂગળું ત્રણ ફુટ લાંબું.
મધ્યમાં ચાંદીનો કૂર્મ પ્રાસાદ ફળ-દાડમ, કેરી, પપૈયા, મુસુંબી,
પ્રમાણુને સંતરા, જામફળ વગેરે ઋતુનાં ફળ પ્રત્યેક છ છ નંગ.
દ્વારા સ્થાપન મુહૂર્તમાં નાડાછડી, મીંઢળ, મરડોશીંગ, શ્રીફળ પંચરત્નની પોટલી, રાહુ સન્મુખ ૫ કે ૭ નિવેદ્યમાં પડા, બરફી, લાડુના
હોય તો ત્રાંબાની શલાડી ૧૨૪૨ ત્રણ ત્રણ પડીકા, એપારી શેર ૨, ખારેક શેર ૧, સાકર શેર , દ્વાર ઉપર બાંધવાને લીલા વસ્ત્રને ગોળ શેર ૫, ધાણુ શેર મા, કમળ- ટુકડો તેમાં કોડી, ચાઠી, મરડાકાકડી ૦),
શીંગ, શેરી પિળની ધૂળ.
ની નંગ ૨
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( ૧૨૩ )
પંચામૃત-દહીં, દૂધ, ઘી, મધ, સાકર ચંચગવ્ય, ગાયનું છાણું મૂત્ર ઘીને દીવા ફાનસ, નાગરવેલી પાન, ગજ પૂજનમાં રૂા. ૨૧૦ કે ૧૧ પૂજનમાં રોકડા તથા પરચુરણુ. માળીને સામાન - ફૂલ, ધરેહાટ, આંખા કે આશાપલ
વના પાન.
દિગ્પાલને ખલી માટેનુ દ્રવ્ય-આચાર્ય કહે છે પ્રમુખ સૂત્રધારને શાલ પાઘડી ધોતીજોટા અન્ય શિલ્પીએ શ્રવજીવીને યાગ્યતા પ્રમાણે આપી સંતુષ્ટ કરવા.
તથા
દ્વાર ઉપર મૂકવાને રેશમી શાલ (શિલ્પીની)
૩ આમલસારાના શુભ મુર્તમાં ગાયનુ ઘી શેર ૧૫
رو
પાઘડી
77
.
ત્રાંબાના કળશ ઢાકણા સાથે,
પ્રાસાદ પ્રમાણની પ્રાસાદ પુરુષની સુવણુના પતરાની મૂર્તિ, પુરુષની ભૂતિ પ્રમાણુની સહેજ મેટા ઢોલીયે।. ગાદલુ, આશીક
ચાદર,
સમાય તેવડા
આમલસારા પર રેશમીયાઘડીને શાલ વીટવા તે શીલ્પીના પ્રત્યેક મુહૂત સમયે એઈતી તાત્કાલિક ચીજો વપરાશ થાપન માટે મોટા પાટલા ત્રણ, બેસવાના પાટલા નંગ ૧૦ શુદ્ધ જળના હાંડા, ધૂપીયુ, દીપક સારૂ ફાનસ, દીવી રૂઉં, દીવાસળીનું ખાસ. તગારા, પાવડા, ચુનાલેદુ, ચુને સીમેન્ટ, રેતી, પાણીના મોટાપીપ નીસરણી,દોરીસૂત્ર, મગળ ગીત ગાવાને સુવાસથ્થુ ખડ઼ેને, મગળ વાજી.
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( १३४ ) सूत्रधार पूजनविधि इत्यनन्तरतो वक्ष्ये पूजित्वा सूत्रधारकम् । यज्ञमंडपयोर्मध्ये मंडलंकारयेच्छुभम् ।। ३३४ ॥ पट्टाच्छादनकं कृत्वा स्वस्तिकं च समालिखेत् । सूत्रधार सूत्रासने पादौ प्रक्षाल्य सादरम् ॥ ३३५ ॥ कुकुमालेपन कृत्वा दिव्य वस्त्रमावर्णयेत् । मुकुट कुण्डल सूत्र कंकण दिव्यमुद्रिकाम् ॥ १६ ॥ हारकेयूर संयुक्त पादाभरणसंयुतम् । देयंखीनरयुग्मस्य पुत्रपौत्रौश्च स कुलम् ॥ ३३७ ।। गृहोपस्करक सर्व गोमहिश्चकादिकम् । दासी कर्मकरांश्चैव यानमुखासनादिकम् || १३८ । ग्रामश्चैव ततोटद्याऽथवा भूमिरुत्तमा । ते न तुष्टेन तुष्टा हि ब्रह्मा विष्णु हरादयः ॥ ३३९ ॥ कर्मकराणां सर्वेषां धनदद्याच सर्वज्ञः ।
वस्त्र प्रावरणैः सर्वे उत्तमादिक्रमेण तु ।। ३४० ॥ હવે હું શ્રેષ્ઠ એવા સૂત્રધાર-પતિની પૂજનવિધિ કહુ છું. યજ્ઞ મંડપના મધ્યમાં શુભ એવું મંડળ કરવું, વસ્ત્રથી આચ્છાદિત કરી સ્વસ્તિક મંડળ રચવું. સૂત્રધારને સૂત્રસને બેસારી પાદ પ્રક્ષાલન આદરપૂર્વક કરવું. કુમકુમનું લેપન કરવું. કિંમતી એવાં દીવ્ય વસ્ત્ર ઓઢાડવા. મુકુટ, કુંડળ, સૂત્ર કડાં, ઉત્તમ વીંટી, હાર, બાજુબંધ, પગનાં અભૂષણે આદિ સર્વ અલંકાર સ્ત્રીપુરુષ ( સૂત્રધાર અને સૂત્રધારપત્ની )ને તેમના પુત્ર પરિવરાદિ સહિત સર્વને આપવા રહેવાનું ઘર અને ઘરની સર્વ સામગ્રી, ગાય, ભેંસ, ઘેડા આદિ તથા કામ કરવા દાસી અને ચાકર વગ, વાહન, સુખાસન, પલંગ વગેરે આપવા. ગામ અથવા સારી ભૂમિ-જમીન અથવા સૂત્રધારને પ્રસન્ન કરવા તેની પ્રસન્નતાથી બ્રહ્મા, વિષ્ણુ અને મહેશની સંતુષ્ટ પ્રસન્નતા જાણી અન્ય બીજા કામ કરવા વાળા સર્વને ધન યોગ્યતા પ્રમાણે આપવા તેમને વસ્ત્રો ઓઢાડવા. તે સર્વને ઉત્તમ એવા વસ્ત્રધન યોગ્યતા પ્રમાણે ક્રમથી દઈ संतुष्ट ४२११. ३३४-३४०
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। १३५ ) अब मैं श्रेष्ठ सूत्रधार स्थपतिकी पूजन विधि कहता हूं । यक्ष और मंडपके मध्यमें शुभसा मण्डल करें। वस से आच्छादित करके स्वस्तिक मंडल रचें। सूत्रधारको सूत्रासन पर बीठला कर आदरपूर्वक पाद प्रक्षालन करें । कुमकुमका लेपन करें और कीमती शालदुशाले और दीव्य बस्त्र पहनावे । मुकुट, कुन्डल, सूत्र कडा, उत्तम अंगूठो, हार, बाजुबंध, चरणके आभूषण आदि सर्व अलंकार स्त्री पुरुष ( मूत्रधार और सूत्रधार पनि ) को दानोंको उनके पुत्र परिवारादि सहित सबको दे । रहनेकेलिये घर, ग्रहसामग्री, गाय, भैंस, घोडा, आदि और काम करने वाले दासी और चाकर. वर्ग वाहन, सुखासन, पलंग, वगैरह दें। गांव या अच्छी भूमि-जमोन दें। सूत्रधारको पसन्न करें। उसकी प्रसन्नतासे ब्रह्मा विष्णु और महेशकी सतुष्टी और प्रसन्नता जाने । अन्य दुसरे काम करने वाले सबको योग्यता मुताबोक धन दें और वस्रो से आच्छादित करें । उन सबको उत्तम से वस्त्र उनकी योग्यताके क्रमसे दे कर संतुष्ट करें । ३३४ थी ३४०
योजनीया स्तथा सर्वे मिष्टान्नैः खंडपककैः । ताम्बुल विलेपन दद्या द्यावत् संतुष्ठ चेतसः ॥ ३४१ ।। तुप्टेव च जगतुष्ट' त्रैलोक्यौं सचराचरम् ।। सर्वतीर्थाद्भव' पुण्य सर्व देवानुषजकम् ।। ३४२ ॥
સર્વને મિષ્ટાન્ન ભજન પકવાનનું કરાવવું, પાનબીડું આપવું, ચંદન અર્ચવું. પ્રત્યેકના ચિત્ત પ્રસન્ન કશ્યા. એમના સંતુષ્ટ થવાથી સચરાચર ત્રિક સંતુષ્ટ થાય છે અને સર્વ તીર્થોથી મળનારૂં તથા સર્વ દેવેનું પૂજન ४२वाथी थना३ पुश्य प्राप्त थाय छे. ३४१-४२
सबको मिष्टान्न भोजन पका कर खिलावे । पानकी गिल्लोरी खिलावें । चंदनकी अर्चना करें सबके चित्तको प्रसन्न करें । उनके संतुष्ट होनेसे सचराचर त्रिलोक संतुष्ट होते हैं। और सब तिका और सर्व देवेकि पूजन से प्राप्त पुण्य मिलता है । ३४१-४४२
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( १३६ ) वास्तुपीठस्य भोक्तारः सूत्रधारश्च शिल्पकः । अतस्तस्मै प्रदातव्य वास्तुपीठ' शुभेच्छुना ॥ ३४३ ॥ यद्देवा भरण पूजावस्त्रल कार भूषणम् ।। स्नान मण्डपोपस्कर स्थाली पात्र तु शिल्पिने ॥ ३४४ ॥ शलाकामधुपा च छत्रिकाद्यं च शिल्सिने ।
स्नानशय्या महाध्वजा दातव्या चैव शिस्पिने ॥ ३४५ ॥ વાસ્તુપીઠની સ્થાપનની સામગ્રીના અધિકારી સૂત્રધાર શિપી છે. કલ્યાણ ઇચ્છનારે વાસ્તુપીઠની સામગ્રી સૂત્રધારને આપવી પ્રતિષ્ઠા મહોત્સવ દેવતા સંબધીનું જે આભષ્ણ પૂજા સામગ્રી વસ્ત્ર, અલંકાર અને આભૂષણ હેય, સ્નાન તેમજ મંડપ સંબધી જ સામગ્રી હોય, થાળી, જળપાત્ર, શલાકા, મધુપાત્ર, છત્ર વગેરે તથા શય્યા અને મહાપતાકા વગેરે સામગ્રી શિલ્પીને આપવા. યજ્ઞાદે સ્થાપનાદિ આચાર્યને આપવા. ૩૪૩ ૩૪૫
वास्तुपीठकी स्थापनकी सामग्रीके अधिकारी सूत्रधार शिल्पी है । कल्याण चाहनेवाला वास्तुपीठको सामग्री सूत्रधारको दें । प्रतिष्ठा महोत्सवमें देवता संबंध में जो आभरण पूजा सामग्री वस्त्र, अलंकार
और आभूषण होवे, स्नान और मडप सबध जो सामग्री होवे: थाली, जलपान, शलाका, मधुपात्र, छेना वगैरह और शैया और महापताको आदि सामग्री शिल्पीको दे। यज्ञादे स्थापनादि आचार्यको दें।
३४३ थी ३४५ સૂત્રધારના આશિર્વચન,
पुण्य प्रासादज स्वामी प्रार्थ येत् सूत्रधारतः ।
सूत्रधारो वदेत् स्वामिन् अक्षय' भवतात् तव ॥ ३४६ ।। પ્રાસાદનું નિર્માણ કરવાવાલા સૂત્રધારને યજમાન પ્રાસાદ બાંધવાના પુય ફળની પ્રાર્થના કરવી. ત્યારે સૂત્રધાર સ્થપતિએ આશિર્વાદ દેવે કે
હે સ્વામિન, દેવાલય નિર્માણ બાંધવાનું તમને પુણ્યફળ અક્ષય હો.” ૩૪૬ સૂત્રધારના અષ્ટવિધ સૂત્ર
प्रासादका निर्माण करनेवाले शिल्पीको यजमान प्रासाद बांधने के पुण्य फलकी प्रार्थना करें । तब सूत्रधार स्थपति आशिर्वाद दें कि हे स्वामिन देवालय निर्माण बांधनेका आपको अक्षय पुण्य फल हो । ३४६
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( १३७ ) द्रष्टि करस्तथा मौंज कापसिंश्चांवलंबकम् ।
काष्ट सृष्टि विलेख्यानि सूत्राण्यष्ट वदन्ति च ।। ३४७ ॥ | શિલ્પશાસના જ્ઞાતાં સૂત્રધારને આઠ પ્રકારના સૂત્રો કહ્યા છે. ૧. દષ્ટિ, २. 14, 3. भुनी होरी, 3 सुतनी , ४. स . ५. ५८पूछ। (४ाट ४ यातुन।) ७. सृष्टि-साue (वेस नेवानु साधन) ८. विसेप्य અથવા પ્રકાર પાસે આ આઠ સૂત્ર શિલ્પીના કહ્યા છે. આ સૂત્ર સેના કે ચાંદીના કરાવી મુહૂર્ત સમયે તેની પૂજા કરાવવી. ૩૪૭ કાષ્ટ કાટખુણે કે સૃષ્ટિ સાધનો કાટખૂણે બનાવવાને.
शिल्पशास्त्रके ज्ञाता सूत्रधारको आठ प्रकारके सूत्र कहे हैं। १ दृष्टि, २ गज, ३ मुजकी रस्सी, ४ ओलभा, ५ काटकोण, ( काष्ट या धातुका ) ७ सृष्टि साधनिका (लेवल देखने का साधन ) ८ प्रकार कम्पास । वैसे आठ सूत्र शिल्पीके बताये हैं। सोना या चांदीके वैसे सूत्र बनवाकर मुहुर्त के वकत उनकी पूजा करावे । ३४७
सूर्योङगुलमित दैये विस्तृतौ च नवांङगुलम् ।
उभयोः कोण संलग्न तिथ्यंडगुलमुदीरितम् ॥ ३४८ ॥ પહેલી રેખા-બાર આગળ લાંબી અને તેનાથી આડી બીજી રેખા નવ આંગળની તે બેની કણે રેખા પંદર આંગુલની થાય તે કાટખૂણાની સિદ્ધિ જાણવી. ૩૪૮
काटकोण या मृष्टि साधनिका का काटकोण बनानेके लिये पहली रेखा बारह अंगुल लम्बी और उससे काटकोण भूजा नौ अंगुल लम्बी ले । दोनोंकी कर्ण रेखा पंद्रह अंगुल होवे तब काटकोणकी सिद्धि जाने । ३४८
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( १३८ )
॥ प्रासादाङ्गदेवस्वरुप ॥
पासादे देवरुप स्यात् पादौं पादशिलास्तथा ।' गर्भश्चैवोदरे हया जंघा पादर्ध्विमुच्यते ॥ ३४९ ॥ स्तंभाश्च जानवो ज्ञेया घंटा जिव्हा प्राकीर्तिता । दीपः प्राणोऽस्य विज्ञेयो हगनो जलनिगतः ।। ३५० ॥
ब्रह्मस्थान यदेतच्च तन्नाभिः परिकीर्तिता । हृदय पीठिका ज्ञेया प्रतिमा पुरुषः स्मृतः ।। ३५१ ॥
पादचार स्तु हेकारो ज्योतिस्तच्चक्षुरुच्यते । ता प्रकृतिस्तस्य प्रतिमात्मा स्मृतो बुधैः ।।३५२।। प्रतिष्ठा
પ્રાસાદના અંગમાં દેવરૂપની કલ્પના કરી છે. પાયાની શિલાઓ-દેવના પગરૂપ છે, ગર્ભગૃહ પટરૂપે, પાયાઉપરનો જગતી સુધીને અંધારૂપ થાંભલાએ ઢીંચણરૂપ, ઘ,ટ જીલ્ડારૂપ, દીપક પ્રાણરૂપ, પ્રણાલ ગુદામાર્ગરૂપ, મધ્યનું બ્રહ્મસ્થાન નાભિરૂપ, પીઠિકા=સિંહાસન હદયરૂપ. પ્રતિમા પુરુષરૂપ હે કાર પગને સંચાર, દીપને પ્રકાશ ચક્ષુરૂપ, તેની ઉપરનો ભાગ પ્રકૃતિરૂપ, પ્રતિમાને આત્મારૂપ બુદ્ધિમાન પુરુષોએ જાણવ. ૩૪૯ થી ૩પર
प्रासादके अंगोंमें देवरुपोंकी कल्पना की है । बुनियादकी शिलायें देवेकेि पैर स्वरुप, गर्भ ग्रह पेट स्वरुप, बुनियाद से लेकर जगमीतक जंघा स्वरुप, खंभे घुटन स्वरुप, घंट जीव्हारुप, दीपक प्राण स्वरुप, परनाल गुदामार्ग स्वरुप, मध्यका ब्रह्म स्थान नाभिरुप, पीठिका सिंहासन हृदयरुप, प्रतिमा पुरुषरुप, हे कार पगका संवार, दिपक, प्रकाश, चक्षुरुप उसके उपरका भाग प्रकृतिरुप, प्रतिमाओंका आत्मारुप बुद्धिमान पुरुष समझें । ३४९ थी ३५२
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नलकुभादधो द्वार तस्य प्रजनन स्मृतम् । शुकनासो भवेन्नासा गवाक्षः कर्णउच्यते ॥ ३५ ॥ कायपाली स्मृता स्कंधो ग्रीवा चामल सोरिका । कलशस्तु शिरो ज्ञेयो ध्वजाः केशाः प्रकीर्तिताः ॥ ३५४ ॥ मेदश्च वसुधा विद्यात् प्रलेपो मांसमुच्यते । अस्थिनि च शिला स्तस्य स्नायुः कोलादयः स्मृता ।
एव पुरुषरुपं तु ध्यायेच्च मनसा सुधीः ॥ ३५५ ॥ કુંભાના તળને નચલે ભાગ લિંકરૂપે, શિખરનું શુકનાશ નાસિકારૂપે શિખરની એક બાજુને ગોખ કાનકર્ણરૂપે, શિખરનું બાંધણું ખંભારૂપે, અમલસારાનું ગળુ-ગળારૂપે, કળશ મસ્તકરૂપે, ધ્વજ પાઘડીએ કેશરૂપે જાણવા. પૃથ્વી ભેદરૂપ, ચુનાનો લેપ માંસરૂપ, શિલાઓ હાડકારૂપ, કેલ અર્થાત્ પાઉને કુકરા વગેરે સ્નાયુરૂપ, જાણવા, એ રીતે પ્રાસાદના સર્વ અંગેનું મનથી ધ્યાન કરવું. ૩૫૩ થી ૩૫૫ ___ कुभके तलके नीचेका भाग लिङ्गरुप, शिखरका शुकनास नासिका रुप, शिखरके बाजुके गोख कानरुप, शिखरका बंधना कंधेरुप, आमलसारका गला गलारुप, कलश मस्तकरुा, ध्वजा केशरुप आदि जाने । पृथ्वी मेदरुप, चुनेका लेप मांसरुप, शिलाओं हड्डी के रुप, कोल कुकरा आदि स्नायु रुप जाने । जिस तरह प्रासादके सर्व रुपेकिा मनसे ध्यान करें । १५३ थी ३५५
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( ૧૦ ) એક હાથ (ગજ) થી ૫૦ હાથ સુધીના કુમશિલા જગત
હીદ, પીઠ, પ્રાસાદેદિય, દ્વાર, સ્તંભ, પ્રતિમાદિના માન.
જમતી પ્રમાણ
ઉદય
uિlf lakk
અle
નાગરાદિ દ્વારમાન
પ્રતિમામાન
૧ થી ૫૦
ભીમાન
પ્રાસાદવમાન
ભિમાન પૃથુગાન
વજદંડ જાડે
દીપાર્ણવ | કલરવ માં મુજ ગજ | ગુjમજ ગિજ મજ મુજ આ?
મુલઆંગુલી
ગુલાલ | અમુલ અ
ગુર ગુલ ગુણ ૪ | - |
૧-૦ - 0 1 -1 -૧૬
જંગલો
3
I
( ૧૧
૨-૧૯ : ૨
૧૨ I
૧ ૦ ૧૬i[
૫-૧ર
'
3
1
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? ૩-૧૦ ૧૨
-૧૨
.
*
૫-૮
૫-૨૦ { ૫-૧૮ |
૨૫ ૧-૧૨ ૧૩-૧૦ ૨૦૧૭-: ૧૧-૧૦
સ્થપતિ પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા
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( ૪ ) દેવગણ નક્ષત્રો અને શુભ આય મેળવેલા સમરસ અને
છ આગળ સુધીનાના વધઘટના માપના અંકે. લંડ ચો. ના અંકે ! દેવગણ નક્ષત્ર લં. ચે.ના અંકે | નક્ષત્ર ગજ.
ગજ ગજ ૧–૧ ૪૦ - ૨૧ | સ્વાતિ
૨-૫ ૪૨-૫ મુખ્ય ૧-૧ ૮૧-૧ | મૃગશીર્ષ
૨-૭ ૪૨–૭ | પુષ્ય ૧–૧ ૪૧-૫ | શ્રવણ
૨-૭ ૪૨–૧૧ | હસ્ત ૧–૧ ૮૧-૭ | અનુરાધા
૨–૧૩૪૨–૧૭ | શ્રવણ ૨–૧૫૪૨-૯ [ રેવતી -
_
o
-
૦ ૧-૩ ૧-૫ [ રેવતી
૨-૧૫૪૦-૧૫ | રેવતી ૨-૧૫-૨-૨૧ | રેવતી
૨-૧૭૪૨-૧૧ | પુષ્ય - ૧-૫ ૪૧–૫ | મૃગશીષ ૨-૧૯૪૩-૧ | મૃગશીર્ષ ૧-૫ ૪૧-૯ | સ્વાતિ
૨-૧૯૪૨-૨૩ | હસ્ત ૧-૭ x૧-૧૧ | હસ્ત
૨-૨૬૪૨-૨૩ ! સ્વાતિ ૧-૧૧×૧-૧૭ | મૃગશીર્ષ ૧–૧૩૪૧-૧૫ | સ્વાતિ
ર–૨૩૪૨-૨૩ : અનુરાધા ૧-૧૩૪૧-૧૭ ] હસ્ત
૩-૧ ૪૩–૫ | હસ્ત
૩–૧ ૪૩-૯ | રેવતી ૧-૧૩૪૧-૧૩ | અનુરાધા
૩-૩ ૪૩–૭ ! સ્વાતિ ૧-૧૫x૧-૨૧ | રેવતી
૩-૩ ૮૩-૯ | રેવતી ૧– ૧૪ર-૧ | મુખ્ય
૩-૫ ૪૩–૯ રેવતી ૧–૧૯૪૧-૨૩ | શ્રવણ ૧-૨૧૮૧-૨૧ | રેવતી ૧-૨૧૮૨-૩ [ રેવતી ૨-૧ ૪૨-૫' | હસ્ત ઉપર પ્રમાણે–દેવગણી નક્ષત્ર અને શુભ આય મળે છે. આનાથી વધુ
ગજ આ. ગજ આ. .. આ. ગજ મોટું-માપ રાખવાનું હોય તે ૨–૬–૪–૧૨ કે ૬- ૧૮ અગર ૯- ! ગજ ઉપર આપેલા આંકડામાં ઉમેરવાથી ઉપર લખ્યા તેજ દેવગણ નક્ષત્રોજ આવશે. આ સહેલી રીત છે.
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ધારેલ દેવગણું અને મનુષ્યગણુ નક્ષત્રો લાવવાનું કેષ્ટક ક્ષેત્રફળના બને બાજીના આગળના આંકડા કાષ્ટકમાં મૂકેલા છે.
દેવગણી નક્ષત્રો રાંદ્રમા | પૂર્વ | દક્ષિણ | પશ્ચિમ | ઉત્તર
નક્ષત્ર
મૃગશીર્ષ
| અનુરાધા
. રેવતી
૪
૨૭-૮-૧૮
:
:
૨૭
ર૭-૧૮-૯
. :
૮ : ૬ ક ક : + 1 : દ : ૪ દ | અશ્વિની
૨૭
-
૩-૬-૧૨-૧૮-૨૧-ર૭.
ર દ ?
૨૭ ૨૭--૧૮
ક :
૨૭
૨૭ ૨૭-૯-૧૮
૮ :
- ૪ :
૨
:
- - :
૯૧૫૧૮રર. ૨
૮
૨૭
૨૭-૯-૧૮
:
, :
૨
૨૭
૯-૧૦-૨૭,
૨૧
A :
- ૮ :
૨૭
. | .... ૧થી ૨૭ સુધીના અકે ઉપરની પહેલી પંતિકના ૧ થી ૨૭ ના અંક સામે ઉપરના છૂટા છૂટા આંકડા છે.
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ધારેલ દેવગણ અને મનુષ્યગણ નક્ષત્રો લાવવાનું કેક ક્ષેત્રફળના બન્ને બાજુના આગળના આંકડા કેકમાં મૂકેલા છે.
મનુષ્યગણ નક્ષત્ર | દક્ષિણ પશ્ચિમ
ચંદ્રમા !
મલ્ટિ
નક્ષત્ર
૫ વાઢા
ઉ. વાઢા
)
૮ : ૮ ૨ | સહિણી
૧૫ | ૧૬ !.
છે ...
૨૩-૫-૧૪ ... 1. ૨૪ | ૪
: : : : : : : : : :
Jપ-૧૪૨૩
: :
-11
:
૧૪ | ૩ | ૨૩
૪-૧ ૩-૨૨
: ૮ : :
૨
૧૨ | ૧૦ | ૨૧
ને લંબાઈ પહોળાઈના એક બાજુના સમજવા તેના ઉપરનું નક્ષત્ર સમજવું.
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प्राचिन शिल्प स्थापत्य कला का अलभ्य साहित्य अन्योका
प्रकाशन
OMMAR
S
MINMAY
मायामा
CSA
शिल्प स्थापत्य साहित्यका संपादक श्री प्रभाशंकर ओ. सोमपुरा
शिल्पविशारद
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स्थपति प्रभाशंकर ओघडभाइ. शिल्पविशारद सशोधित प्राचीन शिल्प स्थापत्य का अलभ्य साहित्य
___ ग्रन्थोका प्रकाशन १ दीपार्णवः-श्री विश्वकर्मा पणित शिल्पका प्राचीन महान ग्रन्थ-७६
+ :८८=५५६ पृष्ठो; ३५० लाईन लोक रेखाचित्र; १०५ हाफटोन फोटा ब्लोको सहित मूल श्लोक और उनका गुजराती अनुवाद, मम
और टीपणी आदि भरपुर संपूर्ण विवरण के साथका दलदार ग्रन्थ अध्याय २७ जिनमें प्रासादका संपूर्ण प्रमाणा अनेक देवदेवो भोंकी शिल्पाकृतियां अनेक प्लान इलिवेशन साथ दीये गये है । शिल्पका प्रत्येक अङ्ग प्रासाद विषय बहुत सुन्दर रीतसे दीया गया है । स्व. राष्ट्रपति डो. राजेन्द्रप्रासादजीने यह ग्रन्थकी प्रसंशाकरके रु. चारहजार पारितोषिक दीया । ना० जामसाहेब. पू मू गवर्नर श्री कनैयालाल मुनशीजी, और विद्वान पुरातत्त्वज्ञ डा. वासुदेव शरणजी अग्रवालजीने विस्तृत भूमिका दोहै । श्रीमद् शङ्कगचार्य नी तथा जैनाचार्य श्री विजयोदयमूरिश्वग्जीने ग्रन्थकी प्रामाणिकता, उपयोगिता और स्थाति श्री प्रभाशंकरभाइजीका दोर्य अनुभवकी प्रसंशाकी है । ५० पृष्ठकी विद्वद् पूर्ण प्रस्तावना पढनेसे सौंपादककी कुशलता और बिद्वताका परिचय होता है. इसमें ६० प्राचीन ग्रन्थो का प्रमाण दोया है । मूल्य रु. २५ डाकखर्च पृथक् प्रासाद मञ्जरी-मूल सहित हिन्दी अनुवाद पंदर शताब्दीका यह ग्रन्थ सूत्रधार मण्डनके कनिष्ठबन्धु सूत्रधार नाथजीने वास्तुमारी नामक बडाग्रन्थकी रचनाकी हे उसके मध्यका स्तबक प्रामाद विषय का संक्षिप्त रूप है । ग्रन्थमें ८० रेखाचित्र बहा है और हाफटोन फोटो ब्लोक २० है। इस ग्रन्धकी भूमिका एशिया खण्ड के सुप्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ डो. वासुदेव शरणजी अयवालजीने लीखी है । जिसमें ग्रन्थकी और संपादक स्थपति श्री प्रभाशंकरभाइजीकी विद्वताका परिचय दीया है । इस ग्रन्थका अनुवाद टीप्पणसे भरपुर है अनेक शिल्पग्रन्थोका प्रमाण दीया गया है ।
मूल्य रु. ७ सात रु. डाकखर्च पृथक
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३ प्रासादमञ्जरी-मूल सहित गुजराती अनुवाद. विवरण उपरोक्त
मूल्य रु. ७ सात डाकखर्च पृथक ४ PRASAD - MANJARI-मूल सहित अंग्रेजी अनुवाद उपरोक्त दीये हुए विवरणवाली अंग्रेजी आवृत्ति---जीनका अंग्रेजी अनुवाद और अन्य विभाग प्रस्तावना. भारतकी प्रथंक २ प्रासादजातीका लक्षण आदि पुरातत्वज्ञ विद्वान श्री मधुसुदनभाइ ढाकीजीने अच्छी तरह से लिखा है । भारतके प्रत्येक प्रांत और विदेशक भारतीय शिल्प स्थापत्यका रसज्ञ विद्वानांको भारतीय प्राचीन कलाका सुन्दर परिचय हो । यह ग्रन्थ अव प्रेसमें है मूल्य अंदान रु. ११ अग्यार डाकखर्च पृथक ५ जिनदर्शन शिल्प--यह ग्रन्थ दीपार्णव के उत्तरार्ध रूप है । इनमें
जैन प्रासाद शिखर-जिन प्रतिमालक्षण-जिन परिकर लक्षण २४ यक्ष २४ यक्षणी, दश दीपाल, नवग्रह, पोडप विद्यादेवी, जिन अष्ट प्रतिहार, जिन क्षेत्रपाल, पद्मावतीको पृथक पृथक स्वरुप, माणिभद्रजी, सरस्वती, घंटाकर्ण यह सर्व देवदेवीयांकी मूर्तिका रेखा चित्रालेखन चोसठ योगीनी नाम, बावनवीर नाम समवसरण-अष्टापद, मेरुगिरि, नंदीश्वरद्वीप यह चारो शाश्वत तीर्थकी रचना प्रमाण आदि शास्त्रोक्त शिल्प कृतिओं--जीनायत-१०८. ८४, ७२, ५२, २४ आयतनकी रचना क्रमअतित अनागत और वर्तमान तीर्थकगेकी चोवीशी क्रमका नाम लाच्छन, वीश विहरमानका नाम लाच्छन, चौदसो बावन गणधर, सहस्त्र कूटोन्तर्गत १०२४ तीर्थंकरो, अष्टमंगल, चौदस्वप्नका आलेखन आदि जैनदर्शनका स्थापन विषयका यह अद्भुत ग्रन्थ है. सिद्धचक्र महायंत्र, ऋषिमडळयत्र है जिनमें १७५ देवदेवीयोंका रेखाचित्र स्वरुप आदि है।
मूल रु. ९ नव डाक पृथक वेधवास्तु प्रभाकर-इस ग्रन्थमें प्रासाद गृह प्रतिमा आदिके वेधदोष अनेक प्रकारके दीये हुऐ है विविध प्राचीन ग्रन्थोके प्रमाणोके सार अच्छी तरहसे दीये है यह ग्रन्थ दीपार्णव ग्रन्थकी पूर्तिरुप है ।
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( १४७ )
इसमें क्रिया विधिपूजन आदि द्वार स्थापन प्रासादके धरदेवतान्यास, शस्यविज्ञान मूहुर्त चक्रादि वास्तु, वास्तुपूजन, वज्रलेपका प्रकार, वास्तुद्रव्य, गणित कोष्ठक प्रासादाङ्ग प्रमाणो आदि० विषयोंसे पूर्ण ret सुन्दर ग्रन्थ में रेखाचित्रो नकसा आदि दीया हुया है ।
मूल्य रु. १० दस डाक पृथकू
७-८ श्रीरार्णय- |
वृक्षार्णव - | यह दानु ग्रन्थ विश्वकर्मा और नारदजीका संवादरूप अद्भुत अद्वितिय महाग्रन्थ है सांधार महाप्रासादा चतुर्मुख महाप्रासादो के विषय है. तीन साढे तीन भूमि उदयका महामंडपों पृथक् पृथक् प्रकारका कहा है जीन में अनेक विषयोकी चर्चाकी है जो विद्वान लोगका विषय है क्षीरार्णका २२ अध्यायका ८०० श्लोक प्रमाण प्राप्त हुआ है । वृक्षार्णवका १८०० श्लोक प्रमाण- प्राप्त हुआ है ।
ये दानु दुष्याप्य शिल्प साहित्य अवर्णनीय है. ये दानु ग्रन्थमे महाचमुख प्रासादकी चारो ओर २० - २७ मंडपकी रचना मेघनाद आदि मंडप बनानेका विवरण है। तीन भूमि तक का एकt fast स्थापना की विधि चतुर्मुख में कही है । एसा अद्भुत ग्रन्थ दुर्लभ है । देोनु ग्रन्थका संशोधन हो रहा है ।
९
बेडामा प्रासाद तिलक - यह ग्रन्थ पंदरवी शताब्धीका सूत्रधार वीरपालकी सुन्दर रचना है freeका अन्य ग्रन्थो अनुष्टुप छंदमें है ।
―
प्रसाद तिलक संस्कृत राग रागणी मे शार्दुल विक्रीत वसंततिलका आदि छदमें ग्रन्थकी सुन्दर रचना की है । अब तक उसका चार अध्याय प्राप्त हुआ है । ग्रन्थका संशोधन कार्य चल रहा है । संशोधन कार्य में श्री अमृतलाल भाइ त्रिवेदी. शिल्पी बहुत भ्रम ले रहा है ।
शिल्प स्थापत्य कला साहित्य
प्रकाशन
बलवंतराय सोमपुरा एवं भ्रातुओं
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________________ // देवी सरस्वती स्वरुप // ANDI Bant KI AVA 210 तुबरीदेवी नारदीदेवी सर्वमङ्गला विद्याधरीदेवी सर्वविधा सर्वप्रसन्ना