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॥ श्रीवीरनाथाय नमः ॥
श्रीवर्तमान चौवीसी पूजा विधान
BE:IVLE लेखक-ख० पं० वृन्द्रावनदासजी
___ संग्रहकर्ता और प्रकाशक :
दुलीचंद पन्नालाल परवार, AK-~प्रोप्राइटर-जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता । श्रुत पंचमी १९८५ न्योछावर एक रुपया
। रेशमी जिन्द १॥)
प्रथम वार १००० प्रति
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पत्रांक
६७
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पूजाओंकी सूची। पत्रांक
१३ श्री वासुपूज्यजिनपूजा १४ श्रीविमलनाथजिनपूजा १५ श्रीअनन्तनाथजिनपूजा १६ श्रीधर्मनाथजिनपूजा १७ श्रीशान्तिनाथजिनपूजा १८ श्रीकुन्यनाथजिनपूजा - १६ श्रीअरहनाथजिनपूजा २० श्रीमल्लिनाथ जिनपूजा २१ श्रीमुनिसुव्रतजिनजा २२ श्रीनमिनाथजिनपूजा २३ श्रीनेमिनाथजिनपूजा
२४ श्रीपार्श्वनाथजि पूजा ८४ | २५ श्रीमहावीरजिनपूजा
१ समुन्धय चतुर्विशतिजिनपूजा २ श्रीआदिनाथजिनपूजा ३ श्रीअजितनाथजिनपूजा ४ श्रीशंभवनाथजिनपूजा ५ श्रीअभिनन्दननाथजिनपूजा ६ श्रीसुमतिनाथजिनपूजा . श्रीपमप्रभजिनपूजा ८ श्रीसुपार्श्वनाथजिनपूजा ६ श्रीचन्द्रप्रभजिनपूजा १० श्रीपुष्पदन्तजिनपूजा ११ श्रीशीतलनाथजिनपूजा १२ श्रीश्रेयांसनाथजिनपूजा
१२५
१४०
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श्रीपरमात्मने नमः। काशीनिवासी स्वर्गीय कविवर वृन्दावनकृत। ... I
वर्तमानचतुर्विंशतिजिनैपूजा Parela दोहा-बंदों पाचौं परमगुरु, सुरगुरु बंदत जास।
बिधनहरन मंगलकरन, पूरन परमप्रकाश ॥१॥ चौवीसौं जिनपति नमों, नमों सारदा माय । शिवमगसाधक साधु नमि, रचों पाठ सुखदाय ॥२॥
नामावली स्तोत्र। जय जिनंद सुखकंद नमस्ते । जय जिनंद जितफंद नमस्ते ॥ जय जिनंद वरबोध नमस्ते । जय जिनंद जितक्रोध नमस्ते ॥१॥
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पू
पापतापहरइंदु नमस्ते । अर्हवरनजुतबिंदु नमस्ते ॥ शिष्टाचारविशिष्ट नमस्ते । इष्ट मिष्ट उतकृष्ट नमस्ते ॥२॥ परम धर्म वरशर्म नमस्ते । मर्मभर्मघन धर्म नमस्ते ॥ हगविशाल वरभाल नमस्ते। हृदिदयाल गुनमाल नमस्ते ॥३॥ शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध नमस्ते। रिद्धिसिद्धिवरवृद्ध नमस्ते ॥ वीतराग विज्ञान नमस्ते । चिद्विलास धृतध्यान नमस्ते ॥४॥ स्वच्छगुणांबुधिरन नमस्ते । सत्त्वहितंकरयत्न नमस्ते ॥ कुनयकरी मृगराज नमस्ते । मिथ्या खगवर बाज नमस्ते ॥५॥ भव्यभवोदधितार नमस्ते । शर्मामृतसितसार नमस्ते ॥ दरशज्ञानसुखवीर्य नमस्ते । चतुरानन धरधीर्य नमस्ते ॥६॥ हरि हर ब्रह्मा विष्णु नमस्ते । मोहमद मनु जिष्णु नमस्ते ॥ महादान महभोग नमस्ते । महाज्ञान महजोग नमस्ते ॥७॥
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महा उग्र तपसूर नमस्ते । महा मौन गुणभूरि नमस्ते॥ धरमचक्रि बृषकेतु नमस्ते । भवसमुद्रशतसेतु नमस्ते ॥८॥ विद्याईस मुनीश नमस्ते । इंद्रादिकनुतशीस नमस्ते ॥ जय रतनत्रयराय नमस्ते । सकल जीवसुखदाय नमस्ते ॥ ६ ॥ अशरनशरनसहाय नमस्ते । भव्यसुपंथलगाय नमस्ते ॥ निराकार साकार नमस्ते । एकानेकअधार नमस्ते ॥१०॥ लोकालोकविलोक नमस्ते । त्रिधा सर्वगुनथोक नमस्ते ॥ सल्लदल्लदलमल्ल नमस्ते । कल्लमल्ल जितछल्ल नमस्ते ॥ ११ ॥ भुक्तिमुक्तिदातार नमस्ते। उक्तिसुक्ति श्रृंगार नमस्ते ॥ गुन अनंत भगवंत नमस्ते। जै जै जै जयवंत नमस्ते ॥ १२॥
इति पठित्व जिनचरणाने परिपुष्पांजलि क्षिपेत् ।
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समुच्चयचतुर्विंशतिजिनपूजा
छंद कवित्त। वृषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमति पदम सुपास जिनराय । चंद पुहुप शीतल श्रेयांस नमि, वासुपूज पूजितसुरराय ॥ विमल अनंत धरम जस उज्जवल, शांति कुंथु अर मल्लि मनाय । मुनिसुव्रत नमि नेमि पार्श्वप्रभु, वर्द्धमानपद पुष्प चढ़ाय ॥१॥
ॐ ह्रीं श्रीवृपभादिवीरान्तचतुर्विशतिजिनसमूह अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । । ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतिजिनसमूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः। ॐ ह्रीं श्रीबृपभादिवीरान्तचतुर्विशतिजिनसमूह अत्र मम सन्निहितो भव भव । वपट् ॥
अष्टक। चाल द्यानतरायकृत नंदीश्वरद्वीपाष्टककी तथा गरवारागआदि अनेक चालोमें बनता है। मुनिमलसम उज्ज्वल नीर, प्राशुक गंध भरा। भरि कनककटोरी धीर, दीनों धार धरा ॥
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चौबीसों श्रीजिनचंद, आनंदकंद सही। पदजजत हरत भवफंद, पावत मोक्षमही ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरान्तेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामि० ॥ गोशीर कपूर मिलाय, केशररंग भरी। जिनचरनन देत चढ़ाय, भवआताप हरी ॥चौ० ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीवृपभादि वीरान्तेभ्यो भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामि० तंदुल सित सोमसमान, सुन्दर अनियारे। मुकताफलकी उनमान, पुज धरों प्यारे॥ चौ० ॥३॥ ॐ ही श्रीवृषभादिवीरान्तेभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामि० ॥ वर कंज कदंब करंड, सुमन सुगंध भरे। जिन अग्र धरौं गुनमंड, कामकलंक हरे॥ चौ० ॥४॥ ॐ ह्रीं श्रीवृपभादिवीरान्तेभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामि०॥
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मनमोहन मोदक आदि, सुन्दर सद्य बने। रसपूरित प्राशुक स्वाद, जजत क्षुधादि हने ॥ चौ० ॥५॥ ॐ हीं श्रीवृषभादिवीरान्तेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि०॥ तमखंडन दीप जगाय, धारों तुमागे।
सब तिमिरमोह क्षय जाय, ज्ञानकला जागै॥ चौ० ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीवृपमादिवीरान्तेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि०॥
दशगंध हुतासनमाहि, हे प्रभु खेवत हों। मिस धूम करम जरि जॉहिं, तुम पद सेवत हों॥ चौ० ॥७॥ ॐ हीं श्रीवृपभादिवीरान्तेभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपं नि० ॥ शुचि पक्क सरस फल सार, सब ऋतुके ल्यायो। देखत हगमनको प्यार, पूजत सुख पायौ ॥ चौ०॥८॥ ॐ ह्रीं श्रीबृषभादिवीरान्तेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं नि०॥
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जलफल आठों शुचि सार, ताको अर्घ करों। तुमको अरपों भवतार, भवतरि मोक्ष वरों॥चौ०॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिचतुर्विशांतितीर्थकरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ नि० ॥
जयमाला दोहा-श्रीमत तीरथनाथपद, माथ नाय हितहेत।
गावो गुणमाला अबै, अजर अमरपद देत ॥१॥ छन्द-जय भवतमभंजन जनमनकंजन, रंजन दिनमनि स्वच्छ करा। शिवमगपरकाशक अरिंगननाशक, चौवीसों जिनराज वरा ॥२॥ छंद पद्धरी-जय रिपभ देव रिषिगन नमंत। जय अजित जीत वसुअरि तुरंत । जय संभव भवभय करत चूर। जय अभिनंदन आनंद पूर ॥ ३॥ जय सुमति सुमतिदायक दयाल । जय पद्म पद्मा ति तन रसाल ॥ जय जय सुपास भवपासनाश । जय चन्द चन्दतनदुतिप्रकाश ॥ ४॥ जय पुष्पदंत दुतिदंत सेत। जय शीतल शीतलगुननिकेत ॥ जय श्रेयनाथ नुतसहसभुज । जय वासवपूजित वासुपुज ॥५॥ जय विमल विमलपददेनहार । जय जय अनंत गुनगन अपार ॥ जय धर्म धर्म शिवशर्म देत ।
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जय शांति शांति पुष्टी करत ॥६॥ जय कुथु कुथवादिक रखेय। जय अर जिन वसुअरि छय करेय ॥ जय मल्लि मल्ल हतमोहमल्ल । जय मुनिसुव्रत व्रतसल्लदल्ल ॥ ७॥ जय नमि नित वासवनुत सपेम । जय नेमनाथ वृषचक्रनेम ॥ जय पारसनाथ अनाथनाथ । जय वर्द्धमान शिवनगरसाथ ॥ ८॥ घत्तानंद छंद-चौवीस जिनंदा आनंदकंदा, पापनिकंदा सुखकारी।
तिनपद जुगचन्दा उदय अमन्दा, वासववंदा हितधारी ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिचतुर्विंशतिजिनेभ्यो महाघ निर्वपामीति स्वाहा ॥ सोरठा-मुक्तिमुक्तिदातार, चौवीसौं जिनराज पर।
तिनपद मनवचधार, जो पूजै सो शिव लहैं ॥ १० ॥ इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत् )
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श्रीआदिनाथपूजा।
अडिल्ल-परमपूज वृषभेश स्वयंभूदेवजू। पिता नाभि मरुदेवि करै सुर सेवजू । कनकवरणतन तंग धनुष पनशत तनों। कृपासिंधु इत आइ तिष्ठ मम दुख हनों ॥१॥
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ॐ ह्री श्रीआदिनाथ जिन अत्र अवतर अवतर। संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठ । | अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् ।
अष्टक । हिमवनोद्भव वारि सुधारिक। जजत यों गुनबोध उचारिक ॥ परमभाव सुखोदधि दीजिए । जन्ममृत्युजरा छय कीजिये ॥१॥
ॐ ह्रीं श्रीऋपभदेवजिनेन्द्रभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निव॑पामीति स्वाहा ॥ मलयचंदन दाहनिकंदनं । घसि उभै करमें करि बंदनं ॥ जजत हों प्रशमाश्रम दीजिये। तपततापत्रिधा क्षय कीजिये ॥२॥
ॐ हीं श्रीवृपभदेवजिनेन्द्र भ्यो भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामि ॥ अमल तंदुल खंडविवर्जितं । सित निशेषहिमामियतर्जितं ॥ जजत हों तसु पुंज धरायजी। अखय संपति यो जिनरायजी ॥३॥
ॐ ह्रीं श्रीवृपभजिनेन्द्रभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामि ॥
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कमल चंपक केतकि लीजिये। मदनभंजन भेट धरीजिये। परमशील महा सुखदाय हैं। समरसूल निमूल नशाय हैं ॥४॥
ॐ हीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्रभ्यः कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामि ॥ सरस मोदनमोदक लीजिये । हरनभूख जिनेश जजीजिये। सकल आकुलअंतकहेतु हैं । अतुल शांतसुधारस देतु हैं॥ ५॥
ॐ हीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्रभ्यः क्षुधादिरोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामि ॥ निविड मोहमहातम छाईयो । स्वपरभेद न मोहि लखाइयो॥ हरनकारन दीपक तासके । जजत हों पद केवल भासके ॥६॥
___ॐ हीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्र भ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वामि ॥ अगरचन्दन आदिक लेयकें । परम पावन गंध सुखेयकें॥ अगनिसंग जरै मिस धूमके । सकल कर्म उड़े यह घूमके ॥७॥
ॐ हीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्रभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामि ॥
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सुरस पक्क मनोहर पावने । विविध ले फल पूज रचावने ॥ त्रिजगनाथ कृपा अब कीजिये । हमहि मोक्ष महाफल दीजिये ॥८॥
____ॐ हीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्रभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामि ॥ जलफलादि समस्त मिलायकैं। जजत हों पद मंगल गायके । भगतवत्सल दीनदयालजी। करहु मोहि सुखी लखि हालजी ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्रभ्यो अनयंपदप्राप्तये अघ्र निवंपामि ॥
पंचकल्याणक ।
छंद द्रुतविलंवित तथा सुन्दरी। असित दोज अषाढ़ सुहावनी । गरभमंगलको दिन पावनी ॥ हरि सची पितुमातहिं सेवही । जजत हैं हम श्रीजिनदेवही ॥१॥ ॐ हीं आपाढकृष्णद्वितीयादिने गर्भमंगलप्राप्ताये श्रीपभदेवाय अभ्यं निव॑पामीति खाहा ॥१॥ असित चैत सुनौमि सुहाइयो । जनममंगल तादिन पाइयो। हरि महागिरिपै जजियो तबै । हम जजै पदपंकजको अबै ॥२॥
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ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णनवमीदिने जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीवृषभनाथाय अर्घ निर्य० ॥२॥ असित नौमि सुचैत धरे सही । तपविशुद्ध सबै समता गही॥ निज सुधारससों झरलाइयो। हम जजै पद अर्घ चढ़ाइयो॥३॥ ___ॐ हीं चैतकृष्णनवमीदिने दीक्षामंगलप्राप्ताय श्रीआदिनाथाय अर्घ निर्व० ॥३॥
असित फागुन ग्यारसि सोहनों । परम केवलज्ञान जागो भनों ॥ हरि समूह जजै तहँ आइकैं। हम जजै इत मंगल गाइकैं॥४॥ ___ॐ हीं फाल्गुनकृष्णकादश्यां शानसाम्राज्यमंगलप्राप्ताय श्री वृषभनाथाय अर्घ ॥४॥
असित चौदसि माघ विराजई । परम मोक्ष सुमंगल साजई ॥ हरिसमूह जजे कैलाशजी । हम जजै अति धार हुलासजी॥५॥ ___ॐ ह्रीं माघ कृष्णचतुर्दश्यां मोक्षमंगल प्राप्ताय श्रीवृषभनाथाय अर्घ निवं ॥५॥
जयमाला।
छंद घत्तानंद। जय जय जिनचंदा आदिजिनंदा, हनि भवफंदा कंदा जू।
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वासवशतवंदा धरि आनंदा, ज्ञान अमंदा नंदा जू ॥ १॥
छंद मोतीदाम।। त्रिलोकहितंकर पूरन पर्म। प्रजापति विष्ण चिदातम धर्म ॥ जतीसुर ब्रह्मविदांबर बुद्ध । बृषक अशंक क्रियाम्बुधि शुद्ध ॥ २॥ जबै गर्भागममंगल जान । त. हरि हर्ष हिये अति आन ॥ पिताजननीपदसेव करेय । अनेक प्रकार उमंग भरेय ॥३॥ जन्मे जब ही तब ही हरि आय । गिरेंद्रविषै किय न्हौंन सुजाय ॥ नियोग समस्त किये तित सार । सुलाय प्रभू पुनि राज अगार ॥४॥ पिताकर सोंपि कियो तित नाट । अमंद अनंद समेत विराट ॥ सुथानपयान कियो फिर इंद। इहां सुर सेव करें जिनचंद ॥५॥ कियौ चिरकाल सुखाश्रित राज । प्रजा सब आनँदको तितसाज ॥ सुलिप्त सुभोगनिमें लखि जोग । कियो हरिने यह उत्तम योग॥६॥
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निलंजन नाच रच्यो तुमपास । नवों रसपूरित भाव विलास ॥ बजै मिरदंग हम हम जोर । चलै पग झारि मनांझन झोर ॥७॥ घना घन घंट करै धुनि मिष्ट । बजै मुहचंग सुरान्वित पुष्ट ॥ खड़ी छिनपास छिनैही अकाश । लघू छिन दीरघ आदि विलास॥८॥ ततच्छन ताहि विलै अविलोय । भये भवतै भयभीत बहोय ॥ सुभावत भावन बारह भाय । तहां दिवब्रह्मरिषीश्वर आय॥६॥ प्रबोध प्रभू सुगये निज धाम । तबै हरि आय रची शिवकाम ॥ कियो कचलौंच पिरागअरन्य । चतुर्थम ज्ञान लह्यो जगधन्य॥१०॥ धस्यो तब योग छमास प्रमान । दियो शिरियंस तिन्हैं इख दान ॥ भयो जब केवलज्ञान जिनेंद । समोसृतठाठ रच्यो सु धनेंद ॥११॥ तहां वृषतत्त्व प्रकाशि अमेस । कियो फिर निर्भयथानप्रवेस ॥ अनंत गुनातम श्रीसुखराश । तुमैं नित भव्य नमैं शिवआश॥१२॥
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छंद घत्तानंद। यह अरज हमारी सुनि त्रिपुरारी, जनम जरा मृति दूर करो। शिवसंपति दीजे ढील न कीजे, निज लख लीजे कृपा धरो॥ १३ ॥ ___ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय महाधु निर्वपामीति स्वाहा ॥ छंद आर्या-जो ऋषभेश्वर पूजै, मनबचतनभाव शुद्ध कर प्रानी॥ सो पोवै निश्च सौं, भुक्ति औ मुक्ति सारसुखथानी ॥ १४॥
__पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत। इत्याशीर्वादः
श्रीअजितनाथपूजा। छंद-त्याग वैजयंत सार सारधर्मके अधार, जन्मधार धीर नग्र सुष्टुकौशलापुरी। अष्ठदुष्टनष्टकार मातु वैजयाकुमार, आयु लक्ष पूर्व दक्ष है बहत्तरैपुरी॥ ते जिनेश श्री महेश शत्रु के निकंदनेश, अत्र हेरियेसुदृष्टि भक्तपै कृपा पुरी। आय तिष्ट इष्टदेव मैं करों
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पदान्जसेव, पर्मशमदाय पाय आय शर्न आपुरी ॥१॥
ॐ हीं श्रीअजितनाथ जिन अत्रावतरावतर । संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ उ: । अत्र मम सन्नि हितो भव भव वषट् ॥१॥
अष्टक।
. छंद त्रिभंगी अनुप्रासक। गंगाहृदपानी निर्मल आनी, शौरभसानी सीतानी। तसु धारत धारा तृषानिवारा, शांतागारा सुखदानी॥ श्रीअजितजिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं । मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजों ख्याता जग्गेशं ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीअजितजिनेन्द्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामि ॥ शुचि चंदन बावन तापमिटावन, सौरभ पावन घसि ल्यायो। तुन भवतपभंजनही शिवरंजन, पूजारंजनमैं आयो ॥ श्री० ॥२॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं नि० ॥
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सितखंडविवर्जित निशिपतितर्जित पुंज, विधर्जित तंदलको । भवभावनिखर्जित शिवपदसर्जित,आनंदभर्जितदंदलको॥श्री०३॥
ॐ हीं श्रीअजितजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि० ॥ मनमथमदमंथन धीरजग्रंथन, ग्रंथनिनथन ग्रंथपती। तुअपादकुशेसे आदिकुशेसे, धारि अशेसे अर्चयती ॥श्री०॥४॥
ॐ हीं श्रीअजितजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं नि० ॥ आकुलकुलवारन थिरताकारन,छुधाविदारन चरु लायो। षटरसकर भीने अन्न नवीने पूजन कीने सुख पायो॥श्री०॥५॥ ___ॐ ह्रीं श्रीअजितजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय चरु नि० ॥ दीपकमनिमाला जोतउजाला; भरि कनथाला हाथलिया। तुम भ्रमतमहारी शिवसुखकारी केवलधारी पूज किया ॥ श्री० ॥६॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि.॥
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अगरादिकचूरन परिमलपूरन खेवत क्रूरन कर्म जरै। दशहूं दिशि धावत हर्ष बढ़ावत अलिगुणगावत नृत्य करै॥श्री०॥ ___ ॐ ह्रीं श्रीअजितजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि० ॥ बादाम नरंगी श्रीफल चंगी आदि अभंगीसौं अरचौं। सब विघनविनाशै सुखपरकाशै आतम भासै भौविरचौं ॥श्री० ॥८॥ ___ॐ हीं श्रीअजितजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि०॥' जलफल सब सज्जे बाजत बज्जै गुनगनरज्जै मनमज्जै । तुअपदजुगमज्जेसजन जज्जै ते भवभज्जै निजकज्जै॥श्री॥६॥ ॐ हीं श्रीअजितजिनेन्द्राय अनर्थ्यपद प्राप्तये अर्घ निर्वपामि० ॥ ६॥
पंचकल्याणक ।
छंद द्रुतमध्यकं १६ मात्रा। जेठ असेत अमावशि सो है। गर्भदिना नँद सो मनमोहै। इंद फनिंद जजे मनलाई । हम पद पूजत अर्घ चढ़ाई ॥१॥
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___ॐ हीं ज्येष्ठकृष्णामावास्यायां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीअजितजिनेन्द्राय अंर्घ निर्ष० ॥१॥ l माघसुदी दशमी दिन जाये। त्रिभुवनमें अति हरष बढ़ाये॥
इंद फनिंद जजै तित आई। हम नित सेवत हैं हुलशाई ॥२॥ ___ॐ हीं माघशुक्लदशमीदिने जन्ममंगलमंडिताय श्रीअजितजिनेन्द्राय अर्घ निर्व० ॥ २॥ माघसुदी दशमी तप धारा । भव तन भोग अनित्य विचारा॥ इंद फनिंद जजें तित आई। हम इत सेवत हैं सिरनाई ॥३॥ l ॐ हीं माघशुक्लदशमीदिने दीक्षाकल्याणकप्राप्ताय श्रीअजितजिनेन्द्राय अर्घ निर्व०॥३॥
पौषसुदी तिथि चौथ सुहायो । त्रिभुवनभानु सु केवल जायो॥ . इंदफनिंद जजै तित आई। हम पद पूजत प्रीत लगाई॥४॥ ॐ ही पौपशुकचतुर्थीदिने ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीअजितजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ पंचमि चैतसुदी निरवाना । निजगुनराज लियो भगवाना॥ इंदफनिंद जजै तित आई। हम पद पूजत हैं गुनगाई ॥५॥ ॐ ही चैतशुक्लपञ्चमीदिने निर्वाणमंगलप्राप्ताय श्रीअजितनाथाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥
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जयमाला। दोहा-अष्ट दुष्टको नष्ट करि इष्टमिष्ट निज पाय । शिष्ट धर्मभाख्यो हमें पुष्ट करो जिनराय ॥१॥
छंद पद्धड़ी १६ मात्रा। __ जय अजित देव तुअ गुन अपार । पै कह कछुक लघु बुद्धि धार ॥ दशजनमतअतिशय बलअनंत । शुभलच्छन मधुरवचन भनंत ॥२॥ संहनन प्रथम मलरहित देह । तनसौरभ शोणितस्वेत जेह ॥ वपु स्वेदबिना महरूपधार। सम चतुर धरें संठान चार ॥ ३॥ दश केवल गमनकाशदेव । सुरभिच्छ रहै योजन सतेव ॥ उपसर्गरहित जिनतन सु होय । सय जीव रहितवाधासु जोय ॥ ४॥ मुखचारि सरवविद्याअधीश । कवलाअहार बर्जित गरीश ॥ छायाविनु नख कच बढ़े नाहि । उन्मेष टमक नहिं भ्रुकुटि माहिं ॥५॥ सुरकृत दशचार करों बखान । तब जीवमित्रता भावजान ॥ कंटकविन दर्पणवत सुभूम । सब धान वृच्छ फल रहे झूम ॥६॥ पटरितुके फूल फले निहार। दिशि निर्मल जिय आनंदधार ॥ जहँ शीतल मंद सुगंध वाय । पदपंकजतल पंकज रचाय ॥७॥ मलरहित गगन सुर जय उचार । परपा गंधोदक होत सारn वर धर्मचक्र आगे चलाय । वसुमंगलजुत यह सुर रचाय ॥८॥
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सिंहासन छत्र चमर सुहात। भामडलछवि वरनी न जात॥ तरु उच्च अशोक र सुमनवृष्टि धुनि दिव्य और दुन्दुभी मिष्ट ॥ ६॥ इंग ज्ञान शर्म बीरज अनंत । गुण छियालीस इम तुम लहंत ॥ इन आदि अनंते सुगुन धार। वरनत गनपति नहिं लहत पार ॥ १०॥ तव समवशरनमहँ इंद्र आय। पद पूजत बसुविधि दरव लाय ॥ अति भगतिसहित नाटक रचाय ॥
ताथेइ थेइ थैइ पुनि रही छाय ॥ ११॥ पग नूपुर झननन झनननाय । तननननन तननन स तान गाय ॥ घननन नन नन घंटा घनाय । छम छम छम छम घुघरू बजाय ॥१२॥ द्वम
दूम दम दम दम मुरज ध्वान । संसानदि सरंगी सुर भरत तान ॥ झट झट झट अटपट नटत नाटः । इत्यादि रच्यो अद्भुत सुठाट ॥ १३ ।। पुनि बंदि इंद थुति नुति करंत । तुम हो जगमें जयवंत संत ॥ फिर तुम विहार करि धर्मवृष्टि। सव जोग निरोध्यो परम इष्ट ॥१४॥ सन्मेदथकी लिय मुकति थान । जय सिद्धशिरोमन गुननिधान ॥ वृन्दावन बंदत वारवार । भवसागरते मो तार तार ॥१५॥
- छंद घत्तानंद। जय अजित कृपाला गुनमणिमाला, संजमशाला बोधपती। वर सुजसउजाला हीरहिमाला, ते अधिकाला स्वच्छ अती॥ १६॥
ॐ हीं श्रीअजितजिनद्राय पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा ॥
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छंद मवावलिप्तकपोल। जो जन अजित जिनेश जजै हैं, मनवचकाई।
ताकों होय आनंद ज्ञान सम्पति सुखदाई॥ पुत्र मित्र धन्यधान्य सुजस त्रिभुवनमह छावै। सकल शत्रु छय जाय अनुक्रमसों शिव पावै ॥ १७ ॥
___ इत्याशीर्वादः । श्रीशंभवनाथ पूजा।
छंद मवावलिप्तकपोल। जय शंभव जिनचंद सदा हरिगनचकोरनुत ।
जयसेना जसु मातु जैति राजा जितारसुत ॥ तजि ग्रीवक लिये जन्मनगर सावत्री आई।
सो भवभंजनहेत भगतपर होहु सहाई ॥१॥
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ॐ ह्री श्रीशंभवनाथ जिनेन्द्र ! अत्रावतरावतर । संवौपट् ॥ ॐ ह्रीं श्री शंभवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः॥ ॐ ही श्रीशंभवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव ।वपट् ॥
___ अष्टक ।
छंद चौधोला तथा अनेक रागोमे गाया जाता है। मुनिमनसम उज्जल जल लेकर, कनक कटोरीमें धारा। जनमजरामृतुनाशकरनकों, तुमपदतर ढारों धारा ॥
शंभवजिनके चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावै। HAI निजनिधि ज्ञानदरशसुखवीरज, निरावाध भविजन पावै ॥१॥ ___ ॐ ह्री श्रीशंभवजिनेन्द्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्वामि० ॥ तपतदाहकों कंदन चंदन मलयागिरिको घसि लायो। जगवंदन भौफंदनखंदन समरथ लखि शरनै आयौ ॥२०॥२॥
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ॐ हीं श्रीशंभवजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं नि० ॥ देवजीर सुखदास कमलवासित, सित सुन्दर अनियारे। पंज धरों इन चरनन आगें, लहों अखयपदकों प्यारे ॥ शं०॥३॥ ___ॐ ह्रीं श्रीशंभवजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि० ॥
कमल केतकी बेल चमेली चंपा, जूही सुमन वरा। तासों पूजत श्रीपति तुमपद, मदनबान विध्वंसकरा ॥ शं०॥४॥
ॐ ह्रीं श्रीशंभवजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं नि०॥ घेवर बाबर मोदन मोदक, खाजा ताजा सरस बना। तासों पदश्रीपतिको पूजत, क्षुधारोग ततकाल हना ॥ शं०॥५॥
ॐ हीं श्रीशंभवजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि० ॥ घटपटपरकाशक भ्रमतमनाशक, तुमढिग ऐसो दीप धरों। केवलजोत उदोत होहु मोहि, यही सदा अरदास करों ॥शं०॥६॥
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ॐ ही श्रीशंभवजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि० ॥ अगरतगर कृसनागर श्रीखंडादिक चूर हुताशनमें। खेवत हों तुम चरनजलजढिग, कर्म छार जरिहै छनमें ॥शं०॥७॥ ____ॐ ही श्रीशंभवजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामि० ॥ श्रीफल लौंग बदाम छुहारा, एला पिस्ता दाखर मैं। लै फल प्राशुक पूजों तुमपद, देहु अखयपद नाथ हमैं ॥शंगा॥ ___ॐ ह्रीं श्रीशंभवजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामि०॥ जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप फल अर्घ किया। तुमको अरपों भावभगतिधर, जै जै जै शिवरमनिपिया॥शं०॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीशंभवजिनेन्द्राय अनयंपदप्राप्तये अर्थ नि० ॥
पञ्चकल्याणक।
छन्द हंसी मात्रा १५। मातागर्भविषै जिन आय । फागुनसित आ3 सुखदाय ॥
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सेयो सुरतिय छप्पन वृन्द । नानाविधि मैं जजों जिनन्द ॥१॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लाष्टन्यां गर्भंगलप्राप्ताय श्रीशंभवजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ कार्तिक सित पूनम तिथि जान । तीनज्ञानजुत जनम प्रमाण ॥ धरि गिरिराज जजे सुरराज । तिन्हें जजों मैं निजहित काज ॥२॥ ___ ॐ ही कार्तिकशुक्लपूर्णिमायां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीशंभवजिनेन्द्राय अर्धं निर्व०॥२॥ मंगसिरसित पून्यों तप धार । सकल सङ्ग तजि जिन अनगार ॥ ध्यानादिक बल जीते कर्म । च) चरन देहु शिवशर्म ॥३॥ ____ॐ हीं मार्गशीर्षपूर्णिमायां दीक्षाकल्याणकप्राप्ताय श्रीशंभवजिनेन्द्राय अधं ॥३॥ कातिक कलि तिथि चौथ महान । घाति घात लिया केवल ज्ञान ॥ समवशरनमहँ तिष्ठ देव । तुरिय चिहन चर्ची वसुभेव ॥४॥ ____ॐ ही कार्तिककृष्णचतुर्थीदिने शानसाम्राज्यमंगलप्राप्ताय श्रीशंभवजिनेन्द्राय अभ्यं० चैत शुकल तिथि षष्ठी घोख । गिरसमेंदतें लीनों मोख ॥
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चारशतक धनु अवगाहना। जजों तासपद थुतिकर धना ॥५॥ __ॐ हीं चैत्र शुक्लषष्ठीदिने निर्वाणकल्याणप्राप्ताय श्रीशंभवजिनेन्द्राय अर्ध० ॥ ५॥
जयमाला। दोहा-श्रीशंभवके गुन अगम, कहि न सकत सुरराज। मैं वशभक्ति सुधीठ है, विनवों निजहितकाज ॥१॥
छंद मोतीदाम। जिनेश महेश गुणेश गरिष्ट । सुरासुरसेवित इष्ट वरिष्ट ॥ धरे वृषचक्र करे अघ। चूर। अतत्वछपातममई नसूरः ॥२॥ सुतत्त्वप्रकाशन शासन शुद्ध । विवेक विराग बढ़ावन बुद्ध ॥ यातरुतर्पनमेघ महान। कुनैगिरिगंजन वन समान ॥३॥ सुगर्भर जन्ममहोत्सवमाहि। जगजन आनंदकंद लहाहि ॥ सुपूरव साठहि लच्छ जु आय । कुमार चतुर्थम अंश रमाय ॥४॥ चवालिस लाख सुपूरव एव । निकंटक राज कियो जिनदेव ॥ तजे कछुकारन पाय सुराज। धरे व्रत संजम आतमकाज ॥५॥ सुरेन्द्र नरेन्द्र दियो पयदान । धरे बनमें निज आतम ध्यान ॥ कियौ चवघातिय कर्म विनाश। लयो तब
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नगर अजोध्या जनम इंद, नागिंद जु ध्यावै।
तिन्हें जजनके हेत थापि, हम मंगल गावें ॥१॥ ॐ हीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ॐ ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् ॥३॥
अष्टक।
छन्द गीता, हरिगीता तथा रूपमाला । पदमद्रहगत गंगचंग, अभंग धार सुधार है।
कनकमणिगनजड़ित झारी, द्वारधार निकार है। कलुषतापनिकंद श्रीअभिनंद, अनुपम चंद है।
पदवंद बंद जजे प्रभू, भवदंदफंदनिकंय है ॥ १॥ ॐ ही श्रीअभिनन्दनजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामि ।।
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शीतचंदन कदलिनंदन, सुजलसंग घसायकैं।
ह सुगंध दशोंदिशामैं, भ्रमैं मधुकर आयकैं॥क० ॥२॥ ॐ हीं श्रीअभिनन्दनजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामि ॥
हीरहिमशशिफेनमुक्ता, सरिस तंदुल सेत हैं। __ तासको ढिग पंज धारौं, अछयपदके हेत हैं ॥ क० ॥३॥ ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतान् निर्वपामि । समरसुभटनिघटनकारन, सुमन सुमनसमान हैं।
सुरमिते जा करै झंकार, मधुकर आन हैं ॥क० ॥४॥ ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दनजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामि ॥ सरस ताजे नव्य गव्य मनोज्ञ, चितहर लेयजी।
छुधाछेदन छिमाछितिपतिके, चरन चरचेयजी ॥ क० ॥५॥ ॐ ही श्रीअभिनन्दनजिनेन्द्राय शुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि० ॥
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अतततममर्दनकिरनवर, बोधभानुविकाश है।
तुम चरनढिग दीपक धरों, मोहि होहु स्वपरप्रकाश हैं ।क० ॐ ही श्रीअभिनन्दनजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि० ॥
भर अगर कपूर चूर सुगंध, अगिनि जराय है। सव करमकाप्ट सुकाप्टमैं मिस, धूमघूम उड़ाय है। क०॥७॥ ॐ हीं श्रीअभिनन्दनजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामि ॥ ऑम निंबु सदा फलादिक, पक्क पावन आनजी।
मोछफलके हेत पूजौं, जोरिकै जुगपानजी ॥क० ॥८॥ ॐ हीं श्रीअभिनन्दनजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि०॥
अष्टद्रव्य संवारि सुन्दर, सुजस गाय रसाल ही। नचत रचत जजों चरनजुग, नाय नाय सुभाल ही॥क०॥॥ ॐ ह्रीं श्रीभभिनन्दनजिनेन्द्राय अनभ्यपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामि ॥
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पञ्चकल्याणक।
छंद हरिपद। शुकलछट वयशाखविषै तजि, आये श्रीजिनदेव ।
सिद्धारथमाताके उरमें, करै सची शुचि सेव ॥ रतनवृष्टि आदिक वर मंगल, होत अनेकप्रकार ।
ऐसे गुननिधिकों मैं पूजौं, ध्यावों वारंबार ॥१॥ ॐ ही वैशाखशुक्लषष्ठीदिने गर्भमंगलमंडिताय श्रीअभिनन्दनजिनेन्द्राय अर्धं ॥ १ ॥ माघशुकलतिथि द्वादशिके दिन, तीनलोकहितकार।
अभिनंदन आनंदकंद तुम, लीन्हों जगअवतार ॥ एक महूरत नरकमांहि हू, पायो सब जिय चैन।
कनकबरन कपि चिह्वधरनपद, जजों तुमैं दिनरैन ॥ २॥ ॐ हीं माघशुक्लद्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय अर्घ ॥२॥
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साढे छत्तिसलाख सुपूरब, राजभोग वर भोग।
कछु कारन लखि माघशुकल, द्वादशिकों धारो जोग ॥ पष्टम नैम समापत करि लिय, इंद्रदत्तघर छीर। __ जय धुनि पुष्प रतन गंधोदक, वृष्टि सुगंध समीर ॥३॥ _ॐ हीं माघशुक्लद्वादश्यां दीक्षाकल्याणप्राप्ताय श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय अर्घ ॥ ३॥ पोप शुकल चौदशिको घाते, घातिकरमदुखदाय । ___उपजायो वरबोध जासको, केवल नाम कहाय ॥ समवसरन लहि बोधिधरम कहि, भव्यजीवसुखकंद ।
मोकों भवसागरतें तारो, जय जय जय अभिनंद ॥४॥ ॐ हीं पौपशुक्लचतुर्दश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय अर्घ ॥ ४ ॥ जोगनिरोध अघातिघाति लहि, गिरसमेदतै मोख ।
माससकल सुखराश कहे बैशाखशुकल छट चोख ॥
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चतुरनिकाय आय तित कीनो, भगतभाव उमगाय ।
हम पूर्जे इत अरघ लेय जिमि विधनसघन मिट जाय ॥५॥ ॐ हीं वैशाखशुक्पष्ठीदिने मोक्षमङ्गलप्राप्ताय श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय अर्घ ॥५॥
जयमाला दोहा-तुंग सु तन धनु तीनसौ, औ पचास सुखधाम । कनकबरन अवलौकिकैं, पुनि पुनि करू प्रणाम ॥१॥
छंद लक्ष्मीधरा।। सच्चिदानंद सद्ज्ञान सद्दर्शनी । सत्स्वरूपा लई सत्सुधासर्सनी॥ सर्वआनंदकंदा महादेवता । जास पादाब्ज सेवे सबै देवता ॥२॥ गर्भ औ जन्मनिःकर्मकल्यानमें । सत्त्वको शर्म पूरे सवै थानमें ॥ वंशइक्ष्वाकमें आयु ऐसे भये । ज्यों निशाशमें इंदु स्वच्छ ठये ॥३॥
लक्ष्मीवती छंद। होत वैराग लौकांतसुर बोधियो।
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फेरि शिविकासुःचढ़ि गहन निजसोधियो॥ घाति चौघातिया ज्ञान केवल भयो। ____ समवसरनादि धनदेव तव निरमयो॥ ४॥ एक है इन्द्रनीली शिला रत्नकी। _____ गोल साडेदशै जोजने जलकी॥ चारदिशपैडिका वीस हज्जार है।
रनके चूरका कोट निरधार है ॥५॥ कोट चहुंओर चहुँद्वार तोरन खचे। ___ तास आगे चहूं मानथंभा रचे॥ मान मानी तर्जे जासढिग जायकैं।
नम्रताधार सेचैं तुम्हें आयकै ॥६॥
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छंद लक्ष्मीधरा। विव सिंहासनोंप जहाँ सोहहीं। इंद्रनागेन्द्र केते मन मोहहीं।
वापिका वारिसों जन सोहै भरीं। जासमें न्हात ही पाप जावै टरी॥७॥ तास आगें भरी खातिका वारसों। हंस सूआदि पंखी रमैं प्यारसों।
पुष्पकी वाटिका वागवृच्छे जहां । फूल और श्रीफल सर्वही हैं तहां ॥ ८॥ कोट सौवर्णका तास आगे खड़ा । चारदजचौओर रत्नों जड़ा॥
चार उद्यान चारोंदिशामें गना । है धुजापंक्ति औ नाटशाला बना ।॥६॥ तासु आगें त्रितीकोट रूपामयी । तूप नौ जास चारों दिशामें ठयी ॥
धाम सिद्धांतधारीनके हैं जहां । औ सभाभूमि है भव्य तिष्ठ तहां ॥ १०॥ तास आगें रची गंधक्कूटी महां । तीन है कट्टिनी सारशोभा लहा॥
एक तौ निधै ही धरी ख्यात हैं । भव्यप्रानी तहां लौं सर्व जात हैं ॥११॥ दूसरी पीठप चक्रधारी गमै । तीसरे प्रातिहायें लशै भागमें ॥
तास वेदिका चार थंभानकी। है बनी सर्वकल्यानके खानकी ॥१२॥ तास है सुसिंघासनं भासनं । जासपै पम प्राफुल्ल है आसनं ॥
तासुपै अंतरीक्ष विराजै सही। तीनछत्रे फिरें शीसरन यही ॥१३॥
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पंचमउदधितनों सम उज्जल, जल लीनों वरगंध मिलाय। कनककटोरीमाहिं धारिकरि, धार देहं सुचि मनवचकाय ॥ हरिहरवंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय। तुमपदपद्म सद्मशिवदायक, जज़त मुदितमन उदित सुभाय ॥१॥
ॐ हीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामि ॥ मलयागर घनसार धसौं वर, केशर अर करपूर उलाय । भवतपहरन चरन परवारों, जनमजरामृतताप पलाय ॥ हरि० ॥२॥ ___ॐ ही श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामि ॥ शशिसमउज्जल सहितगंधतल, दोनों अनी शुद्ध सुखदास। सो ले अखयसंपदाकारन, पंज धरों, तुमचरननपास ॥ हरि० ॥३॥
ॐ हीं श्रीनुमनिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामि ॥ कमलकेतुकी बेल चमेली, करना अरु गुलाव महकाय ।
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सो लै समरशूल कारन, जजों चरन अति प्रीत लगाय॥हरि०॥४॥ I ॐ ही श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निवँपामि ॥
नव्य गव्य पकवान बनाऊं, सुरस देखि हगमन ललचाय ।
सो लै छुधारोगछयकारण, धरौं चरणढिग मनहरषाय ॥ हरिः॥५॥ ___ॐ हीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामि ॥ रतनजड़ित अथवा घृतपूरित, वा कपूरमय जोति जगाय। दीप धरों तुम चरननआगें, जातें केवलज्ञान लहाय ॥ हरि० ॥६॥ ___ ॐ ही श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामि ॥ अगर तगर कृष्णागर चंदन, चूरि अगिनिमें देत जराय । अष्टकरम ये दुष्ट जरतु हैं, धूम घूम यह तासु उड़ाय ॥हरि० ॥७॥
ॐ हीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामि ॥ श्रीफल मातुलिंग वर दाडिम, आम निंबु फल प्रासुकलाय ।'
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मोक्षमहाफल चाखन कारन, पूजत हो तुमरे जुग पाय ॥ हरि०॥८॥ ____ॐ हीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामि ॥ जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप फल सकल मिलाय ।
नाचि राचि शिरनाय समरचों,जय जय जय जय जय जिनराय॥ह०६॥ | ॐ ही श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामि ॥
पंचकल्याणक ।
रूप चौपाई। संजयंत तजि गरभ पधारे। सावनसेतदुतिय सुखकारे ॥ रहे अलिप्तमुकुर जिमि छाया। जजोंचरनजय जय जिनराया॥ १॥ ___ॐ हीं श्रावणशुक्लद्वितीयादिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथजिनेद्राय अर्धं ॥१॥ चैतसुकलग्यारस कहँ जानों। जनमे सुमति सहित त्रयज्ञानों ॥ मानों धस्यो धरम अवतारा । जजों चरनजुग अष्टप्रकारा ॥२॥
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ॐ हीं चैत्रशुक्लैकादश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्थ ॥२॥ चैतसुकलग्यारस तिथि भाखा। तादिन तप धरि निजरस चाखा॥ पारन पद्मसद्म पय कीनों। जजत चरन हम समता भीनों ॥३॥ ___ॐ हीं चैतशुक्लैकादश्यां तपमङ्गलमंडिताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्धं ॥३॥ सुकलचैतएकादशि हाने ।घाति सकल जे जुगपति जाने॥ समवसरनमहँ कहि वृषसारं । जजहुं अनंतचतुष्टयधारं ॥४॥ ___ॐ हीं चैत्रशुक्लैकादश्यां ज्ञानसाम्राज्यप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ ॥ ४ ॥ चैतसुकलग्यारस निरवानं । गिरिसमेदतै त्रिभुवनमानं ॥ गुनअनंत निजनिरमलधारी । जजों देव सुधि लेहु हमारी ॥५॥ ॐ हीं चैत्रशुक्लकादश्यां मोक्षमङ्गलप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्रायाधं ॥५॥
जयमाला। सुमति तीनसौ छत्तिसौ, सुमतिभेद दरसाय ।
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सुमति देहु विनती करों, सुमति विलंब कराय ॥१॥ दयावेलि तह सुगुननिधि, भविक-मोद गम चंद ॥
सुमतिसतीपति सुमतिकों, ध्यावो धरि आनंद ॥२॥ पंच परावरतन हरन, पंचसुमति सित दैन । पंचलब्धिदातारके, गुन गाऊं दिनरैन ॥३॥
छंद भुजंगप्रयात। पिता मेघराजा सवै सिद्धकाजा। जपें नाम जाको सवै दुःख भाजा॥
___महासूर इक्ष्वाकवंशी विराजे । गुणग्राम जाको सवै ठौर छाजै ॥४॥ निन्होंके महापुण्यसों आप जाये । तिहृलोकमें जीव आनंद पाये॥
सुनासीर ताही घरी मेरु धायो। क्रिया जन्मकी सर्व कीनी यथा यों॥ बहुर्तातकों सोंपि संगीत कीनों । नमें हाथ जोरौं भलीभक्ति भीनों ।
विताई दश लाख ही पूर्व बाले । प्रजा लाख उन्तीस ही पूर्व पाले ॥६॥ कछू हेतुने भावना वार भाये । तहाँ ब्रह्मलोकांनके देव आये ॥
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गये बोधि ताही समैइन्द्र आयो । धरे पालकीमें सु उद्यान ल्यायो॥७॥ नमें सिद्धको केशलोंचे सवै ही। धखो ध्यान शुद्ध जुधाती हनै ही।
लह्यो केवलं औ समोसन साजं । गणाधीश जु एक सौ सोलराजं ॥ ८॥ खिरै शब्द तामें छहौं द्रव्य धारे । गुनौपर्जउत्पादव्यध्रौव्य सारे ॥
तथा कर्म आठों तनी तित्थि गाजं । मिल जासुके नाशतेंमोच्छराज ॥ धर मौहिनी सत्वरं कोड़कोड़ी। सरित्पत्प्रमाणं थितिं दीर्घ जोड़ी ॥
अवनिगुग्वेदिनी अंतरायं। धरै तीसकोड़ाकुड़ी सिंधुकायं ॥ १० ॥ नथा नाम गीतं कुड़ाकोड़ी वीसं । समुद्रप्रमाणं धरे सत्तईसं॥
सु तैंतीसन्धिं धरे आयु अब्धिं । कहें सर्व कर्मोतनी वृद्धलब्धिं ॥ ११॥ जघन्यप्रकार धरें भेद ये ही। मुहत्तं वसू नामगोतं गने ही॥
तथा शानद्गुग्मोह प्रत्यूह आयं । सुअंतर्मुहत्तं धरैधित्ति गायं ॥ १२ ॥ तथा वेदिनी वारहें ही मुहत्तं । धरै थित्त ऐसें भन्यो न्यायजुत्तं ॥ ___ उन्हें आदि तत्त्वार्थ भाव्यो अशेसा । लह्यो फेरि निर्वान माहीं प्रवेसा ॥१३॥ अनंत महंत सुरतं सुतंतं । अमंदं अफंदं अनंद अभंतं ॥ ।
अलक्षं विलक्षं सुलक्षं सुदक्षं । अनक्षं अवक्षं अभक्षं अतक्षं ॥१४॥
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अवणं अधणं अमणं अकणं । अभणं अतर्णं अशण सुशण ॥
अनेक सदेकं चिदेकं विवेक । अखंड सुमंडं प्रचंडं तदेर्फ ॥१५॥ सुपर्म सुधर्म सुशर्म अकर्म । अनंतं गुनाराम जैवन्त वर्म ॥ नमैं दास वृदावन शर्न आई । सबै दुःख मोहि लीजै छुड़ाई ॥ १६ ॥
छंद घत्तानंद। तुव सुगुन अनंता ध्यावत संता, भ्रमतमभंजनमातंडा। सतमतकरचंडा भवि-कजमंडा, कुमतिकुबल इन गन हंडा ॥१७॥ ॐ हीं सुमतिजिनेन्द्राय महा निर्वपामीति स्वाहा ॥
छंद रोड़क। सुमतिचरन जो जजै, भबिक जन मनवचकाई ।
तासु सकलदुखदंद फंद ततछिन छय जाई॥ पुत्रमित्र धन धान्य, शर्म अनुपम सो पावै ॥ बृन्दावन निर्वान, लहै जो निहचै ध्यावै ॥१८॥
इत्याशीर्वाद पुष्पाञ्जलि क्षपेत् ।
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पद्मप्रभजिनपूजा।
छंद रोड़क (मदाविलिप्तकपोल)। पदमरागनिवरनधरन, तनतुंग अढ़ाई।
शतक दंड अघखंड, सकल सुर सेवत आई ॥ धरनि तात विख्यात सुसीमाजूके नंदन।
पदमचरन धरि राग सु थापो इतकरि वंदन ॥१॥ ॐ हीं श्रीपभप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतरः। संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीपभप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं श्रीपशप्रभजिनेन्द्र । अत्र मम सन्निहितो भव जव । वपट् ।
अष्टक।
चाल होलीकी-ताल जत्त। पूजों भावसों, श्रीपदमनाथपद सार, पूजों भावसों ॥ टेक॥
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गंगाजल अति प्रासुक लीनों, सौरभ सकल मिलाय ॥ मनवचतन त्रयधार देत ही, जनमजरामृत जाय।
पूजोंभावसों, श्रीपदमनाथपद लार, पूजों भावसों॥१॥ ॥ ॐ डी श्रीपमप्रभजिनेन्द्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामि ॥ मलयागर कपूर चंदन घसि, केशररंग मिलाय।
भवतपहरन चरनपर वारो, मिथ्याताप मिटाय ॥ पू०॥२॥ ॐ ही श्रीपदाप्रभजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामि ॥ तंदुल उज्जल गंधअनीजुत, कनकथार भर लाय ।
पंज धरों तुब चरनन आगें, मोहि अखयपद दाय ॥पू०॥३॥ ॐ ही श्रीपाप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपद्प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामि ॥ पारिजात मंदार कलपतरुजनित, सुमन शुचि लाय । ___ समरशूल निरमूलकरनकों, तुम पद पद्म चढ़ाय ॥पू०॥ ४॥
ॐ ही श्रीपानभजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामि ॥
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घेवर बावर आदि मनोहर, सद्य सजे शुचि भाय। छुधारोगनिर्नाशन कारन, जजों हरष उर लाय ॥ पू०॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामि ॥ दीपकजोति जगाय ललित वर, धूमरहित अभिराम । तिमिरमोह नाशनके कारन, जजों चरन गुनधाम ॥पू०॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीपशप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामि ॥ कृष्णागर मलयागर चंदन, चूर सुगंध बनाय । अगिनिमाहिं जारों तुम आगे, अष्टकरम जरि जाय॥पू०७॥ ॥ ॐ हीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामि॥
सुरस-वरन रसना मनभावन, पावन फल अधिकार । तासों पूजों जुगम चरन यह, विघन करमनिरबार पू० ॥८॥ ॐ हीं श्रीपमप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामि ॥
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जल फल आदिमिलाय गाय गुन, भगतभाव उमगाय । जजों तुमहिं शिवतियवर जिनवर, आवागमन मिटायापून ॐ ह्रीं श्रीपमप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अधं नि पामि ॥
पञ्चकल्याणक।
छंद द्रुतविलेवित तथा सुन्दरि (मात्रा १६)। al असित माग सु छट बखानिये । गरभमंगल तादिन मानिये ॥
उरधग्रीवकसौं चय राजजी। जजत इंद्र ज हम आजजी ॥१॥ ___ॐ हीं माघकृष्णपष्ठीदिने गर्भावतरणमङ्गलप्राप्ताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ ॥१॥ R: सुकलकातिकतेरसकों जये। त्रिजगजीव सु आनंदकों लये॥
नगर स्वर्गसमान कुसंबिका । जजतु हैं हरिसंजुत अंबिका ॥२॥ उन्हीं कार्तिकशुरुत्रयोदश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीपमप्रभजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्याहा॥२॥ सुकलतेरसकातिक भावनी । तप धरयो वनषष्टम पावनी ॥
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करत आतमध्यान धुरंधरो। जजत हैं हम पाप सबै हरो॥३॥ ___ॐ ही कार्तिक शुक्लत्रयोदश्यां निःक्रमणकल्याणकप्राप्ताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अभ्य सुकलपूनमचैत सुहावनी। परमकेवल सो दिन पावनी॥ सुरसुरेश नरेश जजै तहाँ । हम जजै पदपंकजको इहाँ ॥ ४॥ ___ॐ ही चैत्रपूर्णिमायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ असित फागुन चौथ सुजानियो । सकलकर्ममहारिपु हानियो॥ गिरिसमेदथकी शिवकोगये। हम जजै पद ध्यानवि लये ॥५॥ ॐ हीं फाल्गुनकृष्णचतुर्थीदिने मोक्षमङ्गलमण्डिताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ ॥५॥
जयमाला।
___ छंद घत्तानंद। जय पद्मजिनेशा शिवसदमेशा, पादपदम जजि पद्मशा। जयभवतमभंजन मुनिमनकंजन, रंजनको दिवसाधेशा॥१॥
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छंद रूपचौपाई। जय जय जिन भविजनहितकारी । जय जय जिन भवसागरतारी ॥ जय जय समवसरन धनधारी । जय जय वीतराग हितकारी ॥२॥ जय तुम साततत्व विधि भाख्यौ। जय जय नवपदार्थ लखि आल्यौ ॥ जय पटद्रव्यपंच जुत काया । जय सबभेद सहित दरशाया ॥३॥ जय गुनथान जीव परमानो। जय पहिले अनंत जिय जानो ॥ जय दूजे शासादनमाही। तेरहकोडि जीवथित आंहीं ॥४॥जय तीजे मिश्रितगुणथाने । जीव सु बावनकोडि प्रमाने जय चौथे अविरति गुन जीवा । चारअधिक शतकोड़ि सदीवा ॥५॥ जय जिय देशवरतमें शेषा । कौड़ि सातसौ हैं थिति वेशा॥ जय प्रमत्त पटशून्य दोय वसु । पांच तीन नव पांच जीव लसु ॥६॥ जय जय अपरमत्तगुन कोरं । लच्छ छानवै सहस बहोरं । निन्यानवे एकशत तीना। ऐते मुनि तित रहहिं प्रवीना ॥७॥ जय जय अष्टममें दुइ धारा । आठशतक सत्तानों सारा ॥ उपशममें दुइसो निन्यानों । छपकमाहिं तसु दूने जानों ॥८॥ जय इतने २ हितकारी। नवे दर्श जुगश्रेणी धारी ॥ जय ग्यारे उपशममगगामी । दुइस निन्यानों अध आमी ॥६॥ जय जय छीनमोह गुनथानों। मुनिशनपांचअधिक अट्ठानों ॥ जय जय तेरहमें अरहता। जुग नभ पन वसु नव वसु तंता ॥१०॥ एते राजतुं हैं चतुरानन । हम बंद पद थुतिकरि आनन ॥ है अजोग गुनमें जे देवा । पनसोठानों करों सुसेवा ॥११॥ तित तिथि अइउल
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लघु भापत । करि थिति फिर शिवआनँद चाखत । ए उतकृष्ट सकलगुण थानी । तथा जघन मध्यम जे प्रानी ॥१२॥ तीनो लोकसदनके वासी। निज गुनपरजभेदमय राशी ॥ तथा और द्रव्यनके जेते । शुनपरजाय भेद हैं तेते ॥१२॥ तीनों कालनते जु अनंता । सो तुम जानत | जुगणत संता॥ सोई दिव्यवचनके द्वारे । दै उपदेश भवकि उद्धारे ॥१४॥ फेरि अचलथल। वासा कीनों । गुन अनंत निजआनॅदभीनों ॥ चमरदेहते किंचित ऊनो । नरआकृति तित हैं नित गूनो ॥१५॥ जय जय सिद्धदेव हितकारी । बार बार यह अरज हमारी ॥ मोकों दुख' सागरतें । काढ़ो वृदावन जाँचतु हैं ठाढ़ो ॥१६॥
छंद घत्ता। जय जय जिनचंदा पदमानंदा, परमसुमतिपदमाधारी ॥ जय जनहितकोरी दयाविचारी, जय जय जिनवर अधिकारी ॥ ॐ हीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय महाधु निर्व पामीति स्वाहा ॥
छंद रोड़क। जजत पद्मपद्मसन ताके सुपद्म अत। होत वृद्ध सुतमित्र सकल आनंदकंद शत॥
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लहत स्वर्गपदराज, तहाँतें चय इत आई। चक्रीको सुख भोगि, अंत शिवराज कराई॥८॥
इत्याशीर्वाद। इतिश्रीपद्मप्रभजिन पूजा समाप्त । सुपार्श्वनाथजिनपूजा।
छंद हरिगीता तथा गीता। जय जय जिनिंद गनिंद इंद, नरिंद गुन चिंतन करै। तन हरीहर मनसम हरत मन, लखत उर आनंद भरै। नृप सुपरतिष्ठ वरिष्ठ इष्ट, महिष्ठ शिष्ठ पृथी प्रिया। तिन नंदके पद वंद वृद, अमंद थापत जुतक्रिया ॥१॥ ॐ ही सुपार्श्वनाथजिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ॥१॥ ॐ हीं सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ । 3. ॥२॥
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ॐ हीं सुपार्श्वनाथजिनेन्द्र अत्र ममसन्निहितो भव भव । वषट् ॥ ३॥
चाल धानतरायजीकृत सोलहकारणभापाष्टककी। तुम पद पूजों मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय ॥
दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो॥ उज्जल जल शुचि गंध मिलाय, कंचनझारी भरकर लाय। दयानिधि हो, जयजगबंधु दयानिधि हो ॥ तुम० ॥१॥ ___ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामि ॥
मलयागरचंदन घसि सार, लीनो भवतपभंजनहार। all दयानिधि हो, जयजगबंधु दयानिधि हो। तुम० ॥२॥ ___ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय भवतापविनाशाय चंदनं निर्वपामीति ॥२॥ देवजीर सुखदास अखंड । उज्जल जलछालित सित मंड ॥ दयानिधि हो, जयजगबंधु दयानिधि हो । तुम०॥३॥ ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्व पामीति ॥३॥
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प्रासुक सुमन सुगंधित सार । गुंजत अलि मकरध्वजहार ॥ दयानिधि हो, जयजगबंधु दयानिधि हो। तुम०॥४॥ ___ ॐ हीं श्रीसुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामि ॥ ४॥ छुधाहरन नेवज वर लाय ।हरों वेदनी तुम्हें चढ़ाय ॥ दयानिधि हो, जयजगबंधु दयानिधि हो। तुम ॥ ५॥
ॐ हीं श्रोसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविध्वसनाय चळं निवपामीति ॥५॥ ज्वलित दीप भरकरि नवनीत । तुमढिग धारतु हों जगमीत ॥ दयानिधि हो, जयजगबंधु दयानिधि हो। तुम०॥६॥ ___ॐ हीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्व पामि ॥६॥ दशविधि गंध हुताशनमाहिं । खेवत कूर करम जरि जाहिं ॥ दयानिधि हो, जयजगवंधु दयानिधि हो। तुम०॥७॥
ॐ हीं श्रीमुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्चपामीति ॥७॥
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श्रीफल केला आदि अनूप । लै तुम अग्र धरों शिवमूप ॥ --- दयानिधि हो, जयजगबंधु दयानिधि हो। तुम०॥८॥ ____ॐ हीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्व पामीति ॥८॥ आठों दरखसाजि गुनगाय । नाचत राचत भगति बढ़ाय ॥
दयानिधि हो, जयजगबंधु दयानिधिहो.॥ तुम०॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्थ्यपदप्राप्तये अयं निर्व पामीति ॥६॥
पञ्चकल्याणक ।
छंद द्रुतिविलंवित तथा सुन्दरी (वर्ण १२)। सुकलभादवछट्ट सुजानिये । गरभमंगल तादिन मानिये ॥ करत सेव सची रचि मातकी। अरघलेय जजों वसुभांतिकी॥१॥ ___ ॐ हीं भाद्रपदशुक्लापष्ठिदिने गर्भमङ्गलमंडिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अधं ॥१॥ सुकलजेठदुवादशि जन्मये । सकल जीव सु आनँद तन्मये॥ त्रिदशराज जजै गिरिराजजी। हम जजै पद मंगल साजजी॥२॥
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ॐ हीं ज्येष्ठशुक्लद्धादश्यां जन्ममङ्गलमण्डिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ ॥२॥ जनमके तिथ श्रीधरने धरी । तप समस्त प्रमादनकों हरी ॥ नृपमहेन्द्र दियो पय भावसों। हम जजै इन श्रीपद चावसों ॥३॥
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लद्वादश्यां निःक्रमणकल्याणप्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्धं ॥३॥ भ्रमरफागुनछट्ट सुहावनों। परमकेवलज्ञान लहावनों ॥ समवसनविर्षे वृष भाखियो। हम जजै पद आनंद चाखियो॥४॥ ____ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णपष्ठिदिने ज्ञानसाम्राज्यपदप्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अधं ॥४॥ असितफागुणसॉतयै पावनों । सकलकर्म कियो छय भावनों। गिरिसमेदथकी शिव जातु हैं । जजत ही सब विघ्न विलातु हैं ॥५॥ ॐ हीं फाल्गुनकृष्णसप्तमीदिने मोक्षमङ्गलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्धं ॥५॥
जयमाला। दोहा-तुंग अंग धनु दोयसो, शोभा सागरचंद।
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मिथ्यातपहर सुगुनकर, जय सुपास सुखकंद ॥१॥
छंद कामिनीमोहन (२० मात्रा।) जाति जिनराज शिवराजहितहत हो। परमवैरागआनंद भरि देत हो॥ गर्भके पूर्व पटमास घनदेवने। नगर निरमाशि वाराणसी सेवने ॥२॥ गगनसों रतनकी धार बहु वरपहीं। कोड़ि अर्द्ध त्रैवार सब हरषहीं ॥ तातके सदन गुनवदन रचना रची।मातुकी सर्गविधि करत सेवा सची ॥३॥ भयो जव जनम तब इंद्रआसन चल्यों। होय चक्रित तुरित अवधितै लखि भल्यो। सप्त पग जाय शिर नाय वन्दन करी। चलन उमग्यो तबैं मानि धनि धनि घरी ॥४॥ सातविधि सैन गज वृषभ रथ वाज लै। गन्धरब निरतकारी सबै साज लै ॥ गलितमदगन्ड ऐरावती साजियो। लच्छजोजन सु तन वदन सत राजियो॥ ५॥ वदन वसुदन्त प्रतिदन्त सरवर भरे। तासुमधि शतकपनबीस कमलिनी खरे ॥ कमलनी मध्य पनवीस फूले कमल । कमलप्रति कमलमह एकसौ आठदल ॥६॥ सर्वदल कोड़शतवीस परमान जू। तासुपर अपछरा नचहि जुतमान जू ॥ तततता तततता विततता ताथई । धृगतता धृगतता धृगततामें लई ॥७॥ धरत पग नन नन सनन नन गगनमें । नूपुरे झनन नन झनन नन पगनमे । केइ तित बजत बाजे मधुर पगनमे ॥ ८॥
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केइ गुम द्वम सुदम दम मृदंगनि धुनै । केइ झल्लरि झनन झझनन झझनै ॥ केइ संसागृदि संसागृदि सारांगि सुर । केई वीनापटह वंसि बाजै मधुर ॥ ६॥ केइ तनननन तनननन ताने पुरें। शुद्ध उच्चारि सुर केइ पाठे फुरै ॥ केइ झुकि झुकि फिरै चक्रसी भानमी । धृगततां ध्रुगतगत परम शोभा बनी ॥१०॥ केइ छिन निकट छिन दूर छिन थूल लघु । धरत वैक्रियकपरभावसों तन सुभगु ॥ केइ करताल करलालतलमें धुनै। तत वितत घन सुखरि जात बाजै मुनै ॥ ११॥ इन्हें आदिक सकल सोज सँग धारिक। आय पुर तीन फेरी करी प्यारकै ॥ सचिय तबजाय परसूतथल मोदमें। मातु करि नींद लीनों तुम्हें गोदमें ॥ १२॥ आनगिरवाननाथहिं दियो हाथमे । छत्र अर चमर वर हरि करत माथमे ॥ चढ़े गजराज जिनराज गुन जापियो । जाय गिरिराजपांडुकशिला थापियो ॥ १३॥ लेय पंचमउदधिउदक करकर सुरनि । सुरन कलशनि भरे सहित चर्चित पुरनि ॥ नहस अरु आठ शिर कलश ढारे जबैं । अघघ घघ घघघघघ भभभ भभ भौ तबैं॥१४॥ धधध धध धधध धध धुनि मधुर होत है। भव्यजनहंसके हरश उद्योत है ॥ भयै इमि न्हौन तब सकल गुन रंगमें । पोंछि भंगार कीनों सची अंगमें ॥१५॥ आनि पितुसदन शिशु सौपि हरि थल गयो। बालयय तरुन लहि राजसुख भोगयो॥ भोग तज जोग गहि चार अरिकों हने। धारि केवल परमधरम दुइविधि भने ॥ १६ ॥ नाशि अरि शेष शिवथानवासी भये। झानद्गशर्मबीरजअनंते
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लये ॥ सो जगतराज यह अरज उर धारियो । धरमके नंदको भवउदधि तारियो ॥१७॥
छंद घत्तानंद। जय करुनाधारी शिवहितकारी, तारनतरनजिहाजा हो। सेवक नित बंदै मनआनंदै, भवभयमेटनकाजा हो ॥ १८ ॥ ___ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णाधं निर्वपामीति स्वाहा ॥ दोहा-श्रीसुपार्श्व पदजुगल जो, जजै पढ़े यह पाठ। अनुमोदै सो चतुर नर, पावै आनँद ठाठ ॥ १६ ॥
___ इत्याशीर्वादाय पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । श्रीचन्द्रप्रभजिनपूजा। छप्पय–अनौष्ठय जमकालंकार तथा शब्दालंकार शान्तरस। चारुचरन आचरन, चरन चितहरनचिहनचर। चंदचंदतनचरित, चंदथल चहत चतुर नर ॥
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चतुक चंड चकचूरि, चारि चिदचक्र गुनाकर ।
चंचल चलितसुरेश, चूलनुत चक्र धनुरहर ॥ चरअचरहितू तारनतरन, सुनत चहकि चिरनंद शुचि । जिनचंदचरन चरच्यो चहत, चितचकोर नचि रच्चि रुचि ॥१॥ दोहा-धनुष डेढसौ तुग तन, महासेन नृपनंद ।
मातुलछना उर जये, थापों चंदजिनंद । ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवोषट् । ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः। ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वशट् ॥
अष्टक। चाल यानतरायकृत नंदीश्वरापक्रकी अष्टपदी तथा होलीकी तालमें, तथा
गरभा आदि अनेक चालोमे ।
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गंगाहृदनिरमलनीर, हाटकभृगभरा। तुम चरन जजों वरवीर, मेटो जनमजरा॥ श्रीचंदनाथदुति चंद, चरनन च'द लगै। मनवचतन जजत अमंद, आतमजोति जगै॥१॥ ॐ हीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामि० ॥ १॥ श्रीखंडकपूर सुचंग, केशररंग भरी। घसि प्रासुकजलके संग भवआतप हरी ॥ श्री० ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वामि ॥२॥ तंदुल सित सोमसमान, सम लय अनियारे। दिय पुंज मनोहर आन, तुमपदतर प्यारे॥ श्री० ॥३॥ ॐ हीं चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षप्तान निर्वपामि ॥३॥
सुरद्रुमके सुमन सुरंग, गधिन अलि आवै।
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तासों पद पूजन चंग, कामविथा जावै ॥४॥ ॐ हीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय वामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामि ॥४॥ नेवज नानापरकार, इंद्रियबलकारी।
सो लै पद पूजों सार, आकुलताहारी ॥ श्री० ॥५॥ ॐ हीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामि ॥५॥
तमभंजन दीप सँवार, तुमढिग धारतु हों।
मम तिमिरमोह निरवार, यह गुन धारतु हों॥श्री०॥६॥ ॐ हीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामि ॥ ६ ॥ दशगंधहुतासनमाहिं हे प्रभु खेवतु हौं।
__ मम करम दुष्ट जरि जॉहि, यात सेवतु हौं ॥श्री०॥७॥ ॐ हीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीनि स्वाहा ॥७॥ अति उत्तमफल सु मंगाय, तुम गुनगावत हौं।।
पूजों तनमन हरपाय, विधन नशावतु हौं ॥श्री०॥८॥
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ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८॥ सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंग नमों।
पूजों अष्टमजिन मीत, अष्टम अवनी गमों॥श्री०॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनयंपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
पंचकल्याणक ।
छंद तोटक (वर्ण १२)। कलि पंचमचैत सुहात अली । गरभागममंगल मोद भली ॥ हरि हर्षित पूजत मातु पिता । हम ध्यावत पावत शर्मसिता ॥१॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णपञ्चभ्यां गर्भमङ्गलप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अधं निर्वपामीति ॥ १॥
कलि पौषइकादशि जन्म लयो। तब लोकविषै सुखथोक भयो॥ । सुरईश जज गिरशीश तबै । हम पूजत हैं नुतशीस अबै ॥२॥ ____ॐ ह्रीं पौपकृष्णैकादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ ॥२॥ तप दुद्धर श्रीधर आप धरा । कलिपौष इग्यारसि पर्व वरा ॥
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निजध्यानविषै लवलीन भये। धनि सो दिन पूजत विघ्न गये ॥३॥ ___ॐ ही पौषकृष्णौकादश्यां निःक्रमणमहोत्सवमण्डिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ ॥३॥ कर केवलभानु उद्योत कियो। तिहुं लोकतणों भ्रम मेट दियो॥ कलिफाल्गुणसप्तमी इन्द्र जजे ॥ हम पूजहिं सर्व कलंक भजे ॥४॥ ___ॐ हीं फाल्गुनकृष्णसप्तभ्यां केवलज्ञानमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ ॥४॥ II सित फाल्गुण सप्तमि मुक्ति गये ॥ गुणवंत अनंत अबाध भये ॥ हरि आय जजें तित मोदधरे॥ हम पूजत ही सब पाप हरे ॥५॥ ॐ हीं फाल्गुनशुक्लसप्तम्यां मोक्षमंगलमण्डिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ ॥५॥
जयमाला । दोहा-हे मृगांकअंकितचरण, तुम गुण अगम अपार ।
गणधरसे नहिं पार लहि, तौ को वरनत सार ॥१॥ पै तुम भगति हिये मम, प्रेरै अति उमगाय ।
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तातें गाऊं सुगुण तुम, तुम ही होउ सहाय ॥२॥
छंद पद्धरि (१६ मात्रा।) जय चन्द्र जिनेन्द्र दयानिधान । भवकानन हानन दवप्रमान ॥ जय गरभजनममंगल दिनंद । भवि जीवविकाशन शर्मकंद ॥ ३॥ दशलक्षपूर्वकी आयु पाय । मनवांछित सुख भोगे जिनाय ।। लखि कारण हवे जगते उदास । चिंत्यो अनुप्रक्षा सुखनिवास ॥ ४ ॥ तित लौकांतिक योध्यो नियोग । हरि शिविका सजि धरियो अभोग ॥ तांपै तुम चढ़ि जिनचंदाय ताछिनकी शोभाको कहाय ॥५॥ जिन अंग सेत सित चमर ढार । सित छत्र शीस गलगुलकहार ॥ सित रतनजड़ित भूषण विचित्र । सित चन्द्रचरण चरचे पवित्र ॥ ६ ॥ सित तन धु ति नाकाधीश आप सित शिवका कांधे धरि सुचाप ॥ सित सुजस सुरेश नरेश सर्व । सित चितमें चिन्तत जात पर्व ॥ ७॥ सित चंदनगरतें निकसि नाथ । सित बनमे पहुचे सकलसाथ ॥ सितशिलाशिरोमणि स्वच्छछाँह । सित तप तित धारयो तुम जिनाह ॥ सित पयको पारण परमसार सित चंद्रदत्त दीनो उदार ॥ सित करमें सो पयधार देत । मानो यांधत भवसिन्धुसेत ॥ ६॥ मानों सुपुण्यधारा प्रतच्छ । तित अचरज पन सुर किय ततच्छ ॥ फिर जाय गहन सित तपकरंत । सित केवलज्योति जग्यो अनंत ॥ लहि समवस
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रणरचना महान । जाके देखत सब पापहान ॥ जहँ तर अशोक शोभै उतंग । सब शोकतनो चूरै प्रसंग ॥ ११ ॥ सुर सुमनवृष्टि नमतें सुहात । मनु मन्मथ तज हथियार जात ॥ बानी जिन मुखसौं खिरत सार । मनुतवप्रकाशन मुकुर धार ॥ १२ ॥ जहँ चौंसठ चमर अमर दुरत । मनु सुजस मेघझरि लगिय तंत ॥ सिंहासन है जहँ कमलजुक्त। मनु शिवसरवरको कमलशुक्त ॥ १३॥ दु'दभि जित बाजत मधुर सार । मनु करमजीतको है नगार ॥ सिर छत्र फिरै त्रय श्वेतवर्ण । मनु रतन तीन त्रयताप हर्ण ॥ १४॥ तन प्रभातनों मंडल सुहात । भवि देखत निजभव सात सात मनुदपणा ति यह जगमगाय । भविजन भव मुख देखत सुआय ॥ १५॥ इत्यादि विभूति अनेक जान बाहिज दीसत महिमा महान ॥ ताको वरणत नहिं लहत पार । तौ अन्तरंगको कहै सार ॥ १६ ॥ अनअंत गुणनिजुत करि विहार। धरमोपदेश दे भव्य तार ॥ फिर जोगनिरोधि अधाति हानि । सम्मेदथकी लिय मुकतिथान ॥ १७ ॥ वृन्दावन बन्दत शीश नाय । तुम जानत हो मम उर जु भाय ॥ तातेका कहाँ सु यार वार । मनवांछित कारज सार सार ॥१८॥
.. छंद घत्तानंद। जय चंदजिनंदा आनंदकंदा, भवभयभंजन राजे है॥ रागादिकद्दा हरि सब फंदा, मुकतिमांहि थिति साजै हैं ॥१६॥
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ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय पूर्णाधं निर्वपामीति स्वाहा ॥
छंद चौबोला। आटों दरब मिलाय गाय गुण, जो भविजन जिनचंद जडें ॥
ताके भवभवके अघ भाजै, मुक्तासारसुख ताहि सजै ॥२०॥ जमके त्रास मिटै सब ताके, सकल अमंगल दूर भनें। वृन्दावन ऐसो लखि पूजत, जाते शिवपुरि राज र0 ॥२१॥
इत्याशीर्वादः परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । श्रीपुष्पदन्तजिनपूजा।
छंद मदावलिप्तकपोल तथा रोड़क (मात्रा २४) । पुष्पदंत भगवंत संत सुजपंत तंत गुन ।
महिमावंत महंत कंत शिवतियरमंत मुन ॥ काकंदीपुर जनम पिता सुग्रीव रमासुत ।
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स्वेतवरन मनहरन तुम्हें थापों त्रिवार नुत ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ॥ ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्रय ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ॥ ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव ॥ वषट् ॥
चाल होली, ताल जत्त। मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी ॥ टेक ॥ हिमवनगिरिगतगंगाजलभर, कंचनभृग भराय । करमकलंक निवारनकारन, जजों, तुम्हारे पाय ॥मेरी० ॥१॥ ___ ॐ हीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ बावन चंदन कदलीनंदन, कुंकुमसंग घसाय । चरचों चरन हरन मिथ्यातप, वीतराग गुणगाय ॥ मेरी० ॥२॥
ॐ ह्री श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ शालि अखंडित सौरभमंडित, शशिसम द्युति दमकाय ।
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ताको पुज धरों चरननढिग, देहु अखयपद राय ॥ मेरी० ॥३॥
ॐ ही श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ सुमन सुमनसम परिमलमंडित, गुजतअलिगन आय । ब्रह्मपुत्रमदभंजनकारन, जजों तुम्हारे पाय ॥ मेरी०॥४॥ ___ ॐ हीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ घेवरवावर फेनी गोंझा, मोदन मोदक लाय । छुधावेदनीरोगहरनको, भेंट धरों गुणगाय ॥ मेरी०॥५॥
ॐ हीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ II वाति कपूर दीप कंचनमय, उज्वल ज्योति जगाय ।
तिमिरमोहनाशक तुमको लखि, धरों निकट उमगाय ॥मेरी॥६॥ ___ ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ दशवर गंध धनंजयके संग, खेवत हौं गुन गाय। अष्टकर्म ये दुष्ट जरै सो, धूम घूम सु उड़ाय ॥ मेरी०॥७॥
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ॐ ही श्रीपुष्पदन्तजिनेद्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीती स्वाहा ॥७॥ श्रीफल मातुलिंग शुचि चिरभट, दाडिम आम मँगाय। तासों तुमपदपदम जजत हों, विधनसघन मिट जाय ॥मेरी०॥८॥ __ॐ हीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ जल फल सकल मिलाय मनोहर, मनवचतन हुलसाय ॥ तुमपद पूजों प्रीति लायकै, जय जय त्रिभुवनराय ॥मेरी॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीपुप्पदन्तजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
पञ्चकल्याणक।
___ छंद स्वयंभू (मात्रा ३२ )। नवमीतिथिकारी फागुन धारी, गरभमांहिं थितिदेवाजी।
तजि आरणथानं कृपानिधानं, करत सची तितसेवाजी ॥ रतननकी धारा परमउदारा, पस्यो व्योमतें साराजी॥
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में पूजो ध्यावों भगतिबढ़ावौं, करो मोहि भवपाराजी ॥१॥ ही फाल्गुनकृष्णनयम्यां गर्भमङ्गलप्राप्ताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्ध ॥ १ ॥ मंगसिर सितपच्छं तरिवा स्वच्छं, जनमे तीरथनाथाजी। तब ही चवभेवा निरजर येवा, आय नये निजमाथाजी॥ सुरगिरनहवाये, मंगलगाये, पूजे प्रीति लगाईजी। मैं पूजों ध्यावौं भगतवढावौं, निजनिधिहेत सहाईजी ॥२॥ ॐ हीं मार्गशीर्षशुक्लप्रतिपदि जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ ॥ ३॥ सित मँगसिरमासा तिथिसुखरासा, एकमके दिन धारा जी। तप आतमज्ञानी आकुलहानी, मौनसहित अविकाराजी ॥ सुरमित्र सुदानीके घरआनी; गो-पय-पारन कीना है। तिनको मैं बन्दौं पापनिकंदों, जो समतारसभीना है ॥३॥ ॐ ही मार्गशीर्षशुक्लप्रतिपदि तपमङ्गलमण्डिताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ ॥३॥
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सितकातिक गाये दोइज घाये, घातिकरम परचंडाजी। केवल परकाशे भ्रमतमनाशे, सकल सारसुख मंडाजी॥ गनराज अठासी आनंदभासी, समवसरणवृषदाता जी। हरि पूजन आयो शीश नमायो, हम पूर्णा जगताताजी ॥४॥ ॐ ही कार्तिक शुक्लद्वितीयायां ज्ञानमङ्गलमण्डिताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ ॥४॥
आसिन सित सारा आठ धारा, गिरिसमेद निरवाना जी। गुन अष्टप्रकारा अनुपमधारा, जै जै कृपानिधानाजी ॥ तित इंद्र सु आयौ पूज रचायौ, चिन्ह तहां करि दीना है। मैं पूजत हों गुन ध्याय महीसौं, तुमरे रसमें भीना है ॥५॥ ॐ हीं आश्विनशुक्लाष्टम्यां मोक्षमङ्गलमण्डिताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ ॥५॥
जयमाला दोहा-लच्छन मगर सुश्वेत तन, तुंग धनुष शतएक ॥
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सुरनरवंदित मुकतपति, नमों तुम्हें शिरटेक ॥१॥ पुहुपरदन गुनवदन है, सागरतोयसमान ॥
क्योंकर कर अंजुलिनकर, करिये तासु प्रमान ॥२॥
छंद तामरस तथा नयमालिनी तथा चंडी मात्रा (मात्रा १६) पुष्पदंत जयवंत नमस्ते । पुण्यतीर्थकर संत नमस्ते ॥ ज्ञानध्यानअमलान नमस्ते। चिद्विलास सुखशान नमस्ते ॥ ३॥ भवभयभंजन देव नमस्ते मुनिगनकृतपदसेव नमस्ते ॥ मिथ्यानिशिदिनईद्र नमस्ते । शानपयोदधिचन्द्र नमस्ते ॥४॥ भवदुखतरुनि:कंद नमस्ते। रागदोपमदहंद नमस्ते ॥ विश्वेश्वर गुनभूर नमस्ते ॥ धर्मसुधारसपूर नमस्ते ॥५॥ केवल ब्रह्मप्रकाश नमस्ते । सकल चराचरभास नमस्ते ॥ विघ्नमहीधरविज्जु नमस्ते। जय ऊरधगतिरिज्जु नमरते ॥ ६ ॥ जय मकराकृतपाद नमस्ते। मकरध्वजमदवाद नमस्ते ॥ कर्मभर्मपरिहार नमस्ते। जय जय अधमउधार नमस्ते ॥ ७॥ दयाधुरंधर धीर नमस्ते । जय जय गुनगंभीर नमस्ते ॥ मुक्तिरमनिपति वीर नमस्ते। हरता भवभयपीर नमस्ते॥८॥ व्ययउतपतिथितिधार नमस्ते । निजअधार अविकार नमस्ते ॥ भन्यभवोदधितार नमस्ते। वृन्दावननिसतार नमस्ते ॥६॥
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घत्ता छंद (मात्रा ३२)। जय जय जिनदेवं हरिकृतसेवं, परमधरमधनधारी जी॥ मैं पूजौ ध्यावौं गुनगन गावौं, मेटो विथा हमारी जी ॥१०॥ ॐ हीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय पूर्णाधं निर्वपामीति स्वाहा ॥
छंद मदाविलिप्तकपोल। पुहुपदंतपद संत, जजैजोमन बचकाई। नाचै गावै भगति करै, शुभपरनति लाई ॥ सो पावै सुख सर्व, इंद अहिमिंद तनों वर । अनुक्रमतें निखान, लहै निहचै प्रमोदधर ॥ ११॥
इत्याशीर्वादः परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । श्रीशीतलनाथ जिनपूजा।
छंद मत्तमातंग तथा मत्तगयंद । (वर्ण २३)
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शीतलनाथ नमो धरि हाथ, सुमाथ जिन्हों भवगाथ मिटाये। अच्युतते च्युत मातसुनंदके,नंद भये पुरभदल भाये ॥ वंश इख्वाक कियौ जिनभूषित, भव्यनको भवपार लगाये। ऐसे कृपानिधिके पदपंकज, थापतु हौं हिय हर्ष बढ़ाये ॥१॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ट तिष्ठ । ठः ठः। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् ।
अष्टक।
छंद वसंततिलका (वर्ण १४)। देवापगा सुवरवारि विशुद्ध लायौ।
भृगार हेमभरि भक्ति हिये बढ़ायौ। रागादिदोषमलमई नहेतु येवा।
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चों पदाज तव शीतलनाथ देवा ॥१॥ ॐ ही श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ थ्रीखंडसार वर कुंकुम गारि लीनों।
__ कंसंग स्वच्छ घसि भक्ति हिये धरीनों ॥ ॥२॥ ॐ हीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥] मुक्तासमान सित तंदुल सार राजै।
धारंत पुंज कलिकंज समस्त भाजै ॥ रा०॥३॥ ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ श्रीकेतकीप्रमुखपुष्प अदोष लायौ।
___ नौरंग जंगकरि भृग सुरंग पायौ ॥ रा०॥४॥ ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ नैवेद्य सार चरु चारु सँवारि लायौ।
जांबूनदप्रभृतिभाजन शीस नायौ ॥ रा०॥५॥
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ॐ ही श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्याहा ॥५॥
नहप्रपूरित सुदीपत जोति राजै।
स्न प्रपूरित हिये जजतेऽघ भाजै ॥ रा०॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति खाहा ॥ ६ ॥
कृष्णागुरुप्रमुखगंध हुताशमाहीं।
खेवों तवाग्र वसुकर्म जरंत जाहीं ॥ रा०॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥
निम्बान कर्कटि सु दाडिम आदि धारा ।
सौवर्ण गंध फलसार सुपक्क प्यारा ॥रा०॥८॥। ॐ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निवपामीति वाहा ॥ ८॥
कंश्रीफलादि वसु प्रासुकद्रव्य साजे ।
नाचे रचे मचत बजत सज्ज बाजे॥रा०॥६॥ ॐ हीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनयंपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
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पञ्चकल्याणक ।
छंद इंद्रवज्रा तथा उपेंद्रवधा (वर्ण ११) आ वदी चैत सुसुगर्भमाहीं। आये प्रभू मंगलरूप थाहीं। al सेवे सची मातु अनेक भेवा। च) सदा शीतलनाथ देवा ॥१॥ ___ॐ हीं चैत्रष्णाप्टम्यां गर्भमङ्गलमण्डिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अधं ॥१॥ श्रीमाधकी द्वादशी श्याम जायो। भूलोकमें मंगलसार आयो॥ शेलेन्द्रपे इन्द्र फनिन्द्र जज्जे ।मै ध्यानधारों भवदुःख भजे ॥२॥ ___ॐ हीं माघकृष्णाद्वादश्यां जन्मंगलप्राप्ताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ ॥२॥ श्रीमाघकी द्वादशि श्याम जानों। वैराग्य पायो भवभाव हानों॥ ध्यायो चिदानंद निवार मोहा। चर्चा सदा चर्न निवारि कोहा॥
ॐ हीं माघरूणावादश्यां निःक्रमणमहोत्सवमण्डिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अघं॥॥ चतुर्दशी पोपवदी सुहायो । नाही दिना केवललब्धि पायो॥
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शोभै समोसृत्य बखानि धर्म । चौँ सदा शीतल पर्म शर्म॥४॥ ___ॐ ह्रीं पौपकृष्णचतुर्दश्यां केवलज्ञानमण्डिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ ॥ ४॥ कुँवारकी आठय शुद्धबुद्धा । भये महामोक्षसरूप शुद्धा ॥ समेदतें शीतलनाथस्वामी । गुनाकर तासु पदं नमामी ॥६॥ ___ॐ ही आश्विनशुक्लाष्टम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ ॥५॥
जयमाला।
छंद लोलतरंग (वर्ण ११)। आप अनंतगुनाकर राजै । वस्तुविकाशनभानु समाजै॥ मैं यह जानि गही शरना है। मोहमहारिपुको हरना है ॥१॥ दोहा-हेमवरन तन तुंग धनु, नव्वै अतिअभिराम । सुरतरुअंक निहारि पद, पुनपुन करों प्रणाम ॥२॥
छंद तोटक (वर्ण १२)। जय शीतलनाथ जिनंद वरं । भवदाघवानल मेघझरं ॥ दुखभूभृतभंजन वनसमं । भवसागर
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नागर पोतपम ॥३॥ कुहमानमयागदलोभहरं । अरि विनगयंद मृगिंद वरं ॥ वृषवारिदवृष्टन
सृष्टिहितू । परदष्टि विनाशन सुष्टुपितू ॥४॥ समवस्त्रतसंजुत राजतु हो । उपमा अभिराम विराजतु हो ॥ वर बारहभेद समाथितको । तित धर्म वखानि कियौ हितको ॥ ५॥ पहले मैं श्रीगनराज रजें। दुतियेमैं कल्पसुरी जु सजें ॥ त्रितिये गगनी गुनभूरि धरैं। चवथे तियजोतिप जोति भरें ॥ ६ ॥ तिय वितरनी पनमें गनिये । छहमें भुवनेसुर ती भनिये ॥ भुवनेश दशों थित सत्तम है। वसुमें वसुर्वितर उत्तर हैं ॥७॥ नवमें नभजोतिप पंच भरे । दशमें दिविदेव समस्त परे ॥ नरवृन्द इकादशमें निवसें । अरु बारहमें पशु सर्व लस ॥ ८॥ तजि और प्रमोद धर सय हो । समतारसमझ लसें तब ही ॥ धुनि दिव्य सुने तजि मोहमलं । गनराज असी धरि शानबलं ॥६॥ सबके हित तत्त्व बखान करें । करुनामनरंजित शर्म भरें । घरने पटदर्चतनं जितने। वर भेद विराजतु हैं तितने ॥१०॥ पुनि ध्यान उभे शिवहेत मुना। एक धर्म दुती सुकलं अधुना ॥ तित धर्म सुध्यानतणो गनियो । दशभेद लखे भ्रमको हनियो ॥ ११ ॥ पहलो अरि नाश अपाय सही। दुतियो जिनवैन उपाय गही ॥ त्रिति जीवविचे निजध्यान है। चवथो सु अजीव रमायन है ॥२२॥ पनमों सु उदयलटारन है। छहमों अरिरागनिवारण हे भरत्यागनचिंतन सप्तम मसुमो जितलोभ न आतम है ॥ १३॥ नवमों जिनकी गुनि सीप धरे । रशमो जिनभापित हेत फर ॥ इमि धर्मतणो वशमेद भन्यो। पुनि
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|| शुक्लतणो चदु येम गन्यो ॥१४॥ सुपृथक्त वितर्कविचार सही। सुइकत्ववितर्कविचार गही॥ Fall पुनि सूक्ष्मक्रिया प्रतिपात कही। विपरीत क्रिया निरवृत्त लही ॥१५॥ इन आदिक सव परकाश । कियो। भवि जीवनको शिव स्वर्ग दियो ॥ पुनि मोच्छविहार कियो जिनजी। सुखसागर
मग्न चिरं गुनजी ॥ १६ ॥ अव मैं शरना पकरी तुमरी। सुधि लेहु दयानिधिजी हमरी ॥ भवव्याधि निवार करो अबही । मति ढील करो सुख द्यो सव ही॥
छंद घत्तानंद। शीतलजिन ध्यावौं भगति बढ़ावौं, ज्यों रतनत्रयनिधि पावौं । भवदंद नशावौं शिवथल जावौं, फेर न भौवनमें आवौं ॥१८॥ ___ ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा ॥ छंद मालनी-दिढ़रथसुत श्रीमान, पंचकल्याणधारी।
तिनपदजुगपद्म, जो जजै भक्तिधारी। सहसुख धनधान्यं, दीर्घ सौभाग्य पावै। अनुक्रम अरि दाहै, मोक्षको सो सिधावै ॥ १६ ॥
इत्याशीर्वादः पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।
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श्रीश्रेयांसनाथजिनपूजा।
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छंद रूपमाला तथा गीता। विमलनृप विमलासुअन, श्रेयांशनाथ जिनंद॥
सिंघपुर जन्में सकल हरि, पूजि धरि आनंद ॥ भवबंधध्वंशनहेत लखि मैं, शरन आयौ येव ॥
थापौं चरन जुग उरकमलमें, जजनकारन देव ॥१॥ ॐ हीं श्रीश्रेयांशनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ॥१॥ ॐ हीं श्रीश्रेयांसनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ॐ ॥२॥ ॐ ही श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! भत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् ॥ ३ ॥
___ छंद गीता तथा हरिगीता । (मामा २८) कलधौतवरन उतंगहिमगिरिपदमबहत आवई ।
सुरसरितप्रासुकउदकसों भरि भृग धार चढ़ावई ॥
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श्रेयांसनाथ जिनंद त्रिभुवनवंद आनंदकंद हैं।
दुखदंदफंदनिकंद पूरनचंद जोतिअमंद हैं ॥१॥ ॐ हीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ गोशीर वर करपूर कुंकुम नीरसंग घसों सही।
भवतापभजनहेत भवदधिसेत चरन जजों सही ॥श्रे०॥२॥ ॐ हीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति ॥२॥ सितशालि शशिदुतिशुक्तिसुन्दर मुक्तिकी उनहार हैं।
भरि थार पुज धरंत पदतर अखयपद करतार हैं ॥श्रे० ॥३॥ ॐ हीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्चपामीति स्वाहा ॥३॥ सद सुमन सुमनसमान पावन, मलयतें मधु झकरें।
पदकमलतर धरतें तुरित सो मदनको मदखंकरैं॥श्रे०॥४॥ ॐ ही श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥
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यह परममोदकआदि सरस संवारि सुदर चरु लियो। तुव वेदनीमदहरन लखि, चरचों चरन शुचिकर हियौ ॥श्रे॥५॥
ॐ हीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ संशयबिमोहविभरमतमभंजन दिनंदसमान हो।
तातें चरनढिग दीप जोऊ देहु अबिचल ज्ञान हो ॥श्रे०॥६॥ ___ॐ हीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि०॥ ६ ॥ वर अगर तगर कपूर चूर सुगंध भूर बनाइया।
दहि अमरजिह्वविः चरनढिग करमभरम जराइया ॥०॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥ सुरलोक अरु नरलोकके फल पक्व मधुर सुहावनें।
लै भगतसहित जजौं चरन शिव परमपावन पावने ॥०॥ ॐ ही श्रीश्रेयांसनाशजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८॥ जलमलयतंदुलसुमनचरु अरु दीपधूपफलावली ।
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करि अरघ चरचों चरन जुगप्रभुमोहि तार उतावली ॥ ६॥ ॐ ही श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनर्यपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
पंचकल्याणक ।
__ छंद आर्या। पुष्पोत्तर तजि आये, विमलाउर जेठकृष्ण आठकों। सुरनर मंगल गाये, मैं पूजों नासि कर्मकाठकों ॥१॥ ___ॐ ही ज्येष्ठकृष्णाटभ्यां गर्भमंगलमण्डिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्धं ॥१॥ जनमें फागुनकारी, एकादशि तीनग्यानदृगधारी॥ इख्वाकवंशतारी, मैं पूजों घोर विघ्नदुखटारी ॥२॥ ___ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णकादश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ ॥२॥ भवतनभोग असारा, लख त्याग्यो धीर शुद्ध तपधारा ॥ फागुनवदि इग्यारा, मैं पूजों पाद अष्टपरकारा ॥३॥
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ॐ हीं फाल्गुनकृष्णकादश्यां निःक्रमणमहोत्सवमण्डिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अभ्यं ॥३॥ केवलज्ञान सुजान, माधवदी पूर्णतित्थको देवा। चतुरानन भवमानन, बंदौं ध्यावौं करौं सुपदसेवा ॥ ४॥ ____ॐ ही माघटष्णामावस्यायां केवलज्ञानमिण्डताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ ॥४॥ गिरिसमेदतें पायो, शिवथल तिथि पूर्णमासि सावनको। कुलिशायुध गुनगायो, मैं पूजों आपनिकट आवनको ॥५॥ ___ ॐ हीं श्रावणशुरूपूर्णिमायां मोक्षमंगलमण्डिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्धं ॥५॥
जयमाला।
छंद लोलतरंग (वर्ण ११) शोभित तुंग शरीर सुजानों। चाप असी शुभलच्छन मानों॥ कंचनवर्ण अनूपम सोहै देखत रूप सुरासुर मोहै ॥ १॥
छंद पचडी (मात्रा १६) जैसे श्रेयारा जिन गुनगरिष्ठ। तुमपदजुग वायफ इष्टमिष्ट ॥ जय गिष्ट शिरोमणि
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जगतपाल जै भवसरोजगन प्रात काल ॥२॥ जै पंचमहावृतगजसवार । लै त्यागभावदलवल || सु लार ॥ जै धीरजको दलपति बनाय । सत्ताछितिमह रनको मचाय ॥३॥ धरि रतन
तीन तिहुं शक्तिहाथ । दशधरमकवच तपटोप माथ ॥ जै शुकलध्यानकर खड़गधार । लल| कारे आठौं अरि प्रचार ॥ ४॥ तामैं सबको पति मोहचंड। ताकों तत छिन करि सहस a खंड ॥ फिर भानदरसप्रत्यूह हान । निजगुनगढ लीनों अचल थान ॥ ५॥ शुचि ज्ञान दरस | सुख वीर्य सार, हुव समवसरणरचना अपार ॥ तित भाषे तत्व अनेक धार। जाकों सुनि
भव्य हिये विचार ॥६॥ निजरूप लह्यौ आनंदकार। भ्रम दूरकरनकों अतिउदार ॥ पुनि नयप्रमाननिच्छेपसार । दरसायो करि संशयप्रहार ॥७॥ तामैं प्रमान जुगभेद एव । परतच्छ परोछ रज सुमेव ॥ तामैं प्रतच्छके भेद दोय। पहिलो है संविवहार सोय ॥ ८॥ ताके जुगभेद विराजमान । मति श्रुति सोहैं सुदर महान ॥ है परमारथ दुतियो प्रतच्छ । हैं भेद जुगम तामाहिं दच्छ ॥ इक एकदेश इक सर्वदेश इकदेश उभैविधिसहित वेश ॥ घर अवधि सु मनपरजै विचार । है सकलदेश केवल अपार ॥ १०॥ चरअचर लखत जुगपत पतच्छ । निरद्धदरहित परपंचपच्छ॥ पुनि है परोच्छमह पंच भेद । समिरति अरु प्रतिभिज्ञानवेद ॥ ११ ॥ पुनि तरक और अनुमान मान । आगमजुत पन अव नय वखान ॥ नैगम संग्रह व्यौहार गूढ़। रिजुसूत्र शब्द अरु समभिरूढ़ ॥ १२॥ पुनि एवंभूत सु सप्त एम । नय कहे जिनेसुर
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न गुन जु तेम ॥ पुनि दरवछेन अर काल भाव । निच्छेप चार विधि इमि जनाव ॥ १३ ॥
इनको समस्त भाष्यौ विशेष । जा समुझत भ्रम नहिं रहत लेश ॥ निज शानहेत ये मूलमंत्र तुम भाषे श्रीजिनवर सु तंत्र ॥१४॥ इत्यादि तत्वउपदेश देय । हनि शेषकरम निरवान लेय ॥ गिरवान जजत बसु दरख ईश । वृन्दावन नितप्रति नमत सीश ॥१५॥
घतानंद छंद। श्रेयांस महेशा सुगुनजिनेशा, वज्र धरेशा ध्यावतु हैं। हम निशदिन बंदै पापनिकंदै, ज्यों सहजानंद पावतु हैं ॥ १६ ॥ ॐ हीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा।।
सोरठा-जो पूजै मनलाय, श्रेयनाथपदपद्मको॥ पावै इष्ट अघाय, अनुक्रमसौं शिवतिय वरै॥ १ ॥
इत्याशीर्वादाय पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
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श्रीवासुपूज्य जिनपूजा।
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छंद रूपकवित्त। श्रीमतवासुपूज्य जिनवरपद, पूजनहेत हिये उमगाय । थापों मनवचतन शुचि करिकै, जिनकी पाटलदेव्या माय ॥ महिष चिन्ह पद' लसै मनोहर, लाल बरन तन समतादाय । सो करुनानिधि कृपादिएकरि, तिष्ठहु सुपरितिष्ठ यहँ आय ॥१॥ ॐ हीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ॥ १॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । उः ठः ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् ॥३॥
अष्टक। छंद जोगीरासा । आंचलीबंध "जिनपदपूजों लवलाई ॥" गंगाजल भरि कनककुभमैं, प्रासुक गंध मिलाई।
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करम कलंक विनाशन कारन, धार देत हरषाई । जिनपद०॥ वासुपूज वसुपूजतनुजपद, वासव सेवत आई। बालब्रह्मचारी लखि जिनको, शिवतिय सनमुख धाई ॥ जिन॥१॥ ___ॐ हीश्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निपामीति स्वाहा ॥१॥ कृष्णागरु मलयागिरचंदन, केशरसंग घसाई। भवआताप विनाशनकारन, पूजों पद चित लाई ॥वा०॥२॥ ___ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति खाहा ॥२॥ देवजीर सुखदास शुद्ध वर, सुवरनथार भराई। पुंजधरत तुम चरननआगैं, तुरित अखय पदपाई ॥ वा०॥३॥ ___ॐ हीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ पारिजात संतानकल्पतरु,-जनित सुमन बहु लाई। मीनकेतुमदभंजनकारन, तुम पदपद्म चढ़ाई ॥वा०॥३॥
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__ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय कामयाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।। ४ ॥ नव्यगव्यआदिकरसपूरित, नेवज तुरित उपाई। छुधारोग निरवारनकारन, तुम्हें जजों शिरनाई ॥ वा०॥५॥ ___ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि० ॥५॥ दीपकजोत उदोत होत वर, दशदिशमें छवि छाई । तिमिरमोहनाशक तुमको लखि, जजों चरन हरपाई ॥ वा० ॥६॥ ___ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ दशविध गंधमनोहर लेकर, वातहोत्रमें डाई। अष्ट करम ये दुष्ट जरतु हैं, धूम सु घूम उड़ाई ॥७॥
ॐ हीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाथ धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥ सुरस सुपक्कसुपावन फल लै, कंचनथार भराई । मोच्छ महाफलदायक लखि प्रभु, भेंट धरों गुनगाई ॥ वा०॥८॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥
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जलफल दरव मिलाय गाय गुन, आठों अंग नमाई। शिवपदराज हेत हे श्रीपति ! निकट धरों यह लाई ॥ वा०॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा ।। ६ ॥
पञ्चकल्याणक।
छंद पाईता (मागा १४)। कलि छद्र असाढ़ सुहायो । गरभागम मंगल पायौ ॥ दशमें दिवितं इत आये । शतइद्र जजे सिर नाये ॥१॥ ___ॐ ही आपारुष्णपाठयां गर्भमङ्गलमण्डिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ निर्व० कलि चौदश फागुन जानों । जनमें जगदीश महानों। हरि मेर जजे तव जाई। हम पूजत हैं चितलाई ॥२॥ ___ ही श्रीफाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यां जन्ममङ्गलप्राप्ताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अभ्यं नि० तिथि चौदस फागुन श्यामा। धरियो तप श्रीअभिरामा॥
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नृप सुंदरके पय पायो। हम पूजत अतिसुख थायो॥३॥
ॐ हीं फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यां तपमङ्गलप्राप्ताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ ॥ ३ ॥ वदि भादव दोइज सोहै। लहि केवल आतम जो है ॥ अनअंत गुनाकर स्वामी। नित बंदों त्रिभुवन नामी ॥४॥ ___ॐ हीं भाद्रपदकृष्णद्वितियायां केवलज्ञानमण्डिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्धे ॥ ४॥ सितभादवचौदशि लीनों । निरवान सुथान प्रवीनों॥ पुर चंपाथानकसेती। हम पूजत निजहित हेती ॥५॥ ॐ हीं भाद्रपदशुक्लचतुर्दश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्धं नि० ॥५॥
जयमाला। दोहा-चंपापुरमें पंचवर, कल्याणक तुम पाय। सत्तर धनु तन शोभनो, जै जै जै जिनराय ॥१॥
छंद मोतियदाम (वर्ण १२)।
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महासुखसागर आगर ज्ञान । अनंत सुखामृतभुक्त महान ॥ महाबलमंडित खंडितकाम । रमाशिवसंग सदा विसराम ॥२॥ सुरिंद फनिंद खगिंद नरिंद। मुनिंद जजै नित पादरनिंद ॥ प्रभु तुव अंतरभाव विराग। सुवालहिते व्रतशीलसों राग ॥३॥ कियो नहिं राज उदाससरूप । सुभावन भावत आतमरूप ॥ अनित्य शरीर प्रपंच समस्त। चिदातम नित्य मुखाश्रित पस्त ॥ ४॥ अशन नही कोउ शर्न सहाय। जहां जिय भोगत कर्मविपाय॥ निजातम के परमेसुर शर्न । नहीं इनके विन आपदहर्न ॥५॥ जगत जथा जलबुद्द येव । सदा जिय एक लहै फलभेव ॥ अनेकप्रकार धरी यह देह । भमें भवकानन आनन नेह ॥ ६ ॥ अपावन सात कुधात भरीय। चिदातम शुद्धसुभाष धरीय ॥ धरै इनसों जब नेह तयेव । सुआवत कर्म तवे वसुभाव ॥ ७॥ जवै तनभोगजगत्तउदास। धरै नव संवर निर्जरआस ॥ फर जब कर्मकलंक विनाश। लहै तय मोक्ष महासुखराश ॥ ८॥ तथा यह लोक नराकृत । नित्त । विलोकियते पटद्रव्यविचित्त ॥ सुआतमजानन बोधविहीन । धरै किन तत्वप्रतीत
प्रवीन ॥ ६॥ जिनागमशानरु संयमभाव । सबै निजज्ञान विना विरसाव ॥ सुदुर्लभ द्रव्य म सुक्षेत्र सुकाल। सुभाव सबै जिहतें शिव हाल ॥ १० ॥ लयो सब जोग सुपुन्य वशाय ।
हो किमि दीजिय ताहि गंवाय ॥ विचारत यों लवकान्तिक आय । नमें पदपंकज पुष्प चदाय ॥ १२ ॥ फाहो प्रभु धन्य कियो सुविचार। प्रबोधि सु येम कियो जु विहार ॥ तये
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सषधर्मतनों हरि आय । रच्यौ शिविका चढ़ि आप जिनाय ॥ धरे तप पाय सुकेवलयोध। दियो उपदेश सुभव्य संबोध ॥ लियो फिर मोच्छ महासुखराश । नमैं तिन भक्त सोई सुखआश ॥
घत्तानंद। नित वासववन्दत, पापनिकंदत, वासपूज्य ब्रत ब्रह्मपती। भवसंकलखंडित, आदमंडित, जै जै जै जैवंत जती ॥१४॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ सोरठा-वासपूजपद सार, जजौ दरबविधि भावसों। सो पावै सुखसार, भुक्ति मुक्तिको जो परम ॥ १५ ॥
इत्याशीर्वादः परिपुष्पांजलिं क्षिपेत् । श्रीविमलनाथ जिनपूजा।
- छंद मदावलिप्तकपोल (मात्रा २४)। सहस्रार दिवि त्यागि, नगर कम्पिला जनम लिय।
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कृतधर्मानुपनंद, मातु जयसेन धर्मप्रिय । तीन लोक वरनंद, विमल जिन विमल विमलकर।
थापों चरनसरोज, जजनके हेत भावधर ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अत्र मम सन्निहितो भव भव । वपट् ॥३॥
अष्टक।
सोरठा छंद (मनसुखरायजीकृत)। कंचनझारी धारि, पदमद्रहको नीर ले।
त्रषा रोग निरवारि, विमल विमलगुन पूजिये ॥१॥ ॐ हीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निपामीति ॥१॥ मलयागर करपूरा देववल्लभा संग घसि। हरि मिथ्यातमभूर, विमल विमलगुन जजतु हों ॥२॥
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ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति वासमती सुखदास, स्वेत निशापतिको हंसै। पूरै वांछित आस, विमलविमलगुन जजत ही ॥३॥ ॐ हीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ पारिजात मंदार, संतानकसुरतरुजनित। जजों सुमन भरि थार, विमल विमलगुन मदनहर ॥ ४॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ नव्यगव्य रसपूर, सुवरनथार भरायके। छधावेदनी चूर, जजों विमलपद विमलगुन ॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वामीति स्वाहा ॥ मानिक दीप अखंड, गो छाई वर गो दशों। हरो मोहतम चंड, विमल विमलमतिके धनी ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
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अगर सगर घनसार, देवदार कर चूर वर ।
खेवों वसु अरि जार, विमल विमलपदपद्मढिग ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ श्रीफल सेव अनार, मधुर रसीले पावने ।
जजों विमलपद सार, विघ्न हरें शिवफल करें ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ आठों दरव संवार, मनसुखदायक पावने । जजों अरघ भरथार, विमल विमलशिवतिय- रमन ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६॥
पञ्चकल्याणक ।
छंद द्रुतिविलम्बित तथा सुंदरि ( वर्ण १२ ) ।
गरम जेठवदी दशमी भनों । परम पावन सो दिन शोभनों ॥
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करत सेव सची जननीतणी। हम जजै पदपद्मशिरोमणी ॥१॥
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णदशम्यां गर्भमंगलमण्डिताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अर्धं नि० शुकलमाघ तुरी तिथि जानिये । जनममंगल तादिन मानिये ॥ हरि तबै गिरिराज बिर्षे जजे, हम समर्चत आनंदको सजे ॥२॥ ___ॐ ह्रीं माघशुक्लचतुर्दश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अर्ध नि० ॥२॥
तप धरे सितमाघ तुरी भली । निज सुधातम ध्यावत हैं रली॥ Fi हरि फनेश नरेश जजे तहां । हम जजै नित आनंदसों इहां ॥३॥
____ॐ ह्रीं माघशुक्लचतुर्दश्यां निःक्रममहोत्सवमण्डिताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अभ्य ॥ विमल माघरसी हनि घातिया। विमलबोध लयो सब भासिया ॥ विमल अर्घ चढ़ाय जजों अब । विमल आनंद देहु हमैं सबै ॥४॥ ___ॐ हीं माघशुक्लषष्ठयां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्व० भ्रमरसादरसी अति पावनों। विमल सिद्ध भये मनभावनों॥
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गिरसमेद हरी तित पूजिया हम जजै इतहर्ष धरै हिया ॥५॥ ॐ हीं आपाढकृष्णषष्ठयां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्रायाधं निर्वपामीति
जयमाला
दोहा छंद । अति उपमालंकार। गनन चहत उड़गन गगन, छिति थितिके छह जेम। तिमि गुन बरनन बरनन,–माहिं होय तव केम ॥१॥ साठधनुष तन तुग है, हेमवरन अभिराम। वर बराह पद अंक लखि, पुनि पुनि करों प्रनाम ॥२॥
छंद तोटक । (वर्ण १२)। जय केवलब्रह्म अनंतगुनी। तुव ध्यावत शेप महेश मुनी ॥ परमातम पूरन पाप हनी । चितचिंततदायक इष्ट धनी ॥३॥ भवआतपध्वंसन इदुकरं । घर साररसायन शर्मभरं । सब जन्मजरामृतदाघहरं । शरनागतपालन नाथ वरं ॥४॥ नित संत तुमे इन नामनिते॥ चितचिंतत हैं गुनगामनित ॥ अमलं अचलं अटलं अतुलं । अरलं अछलं अथलं अकुलं ॥५॥
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अजर अमर अहरं अडरं । अपरं अभर अशरं अनरं ॥ अमलीन अछीन अरीन हने । अमतं अगतं अरतं अधने ॥ ६॥ अछुधा अतृषा अभयातम हो। अमदा अगदा अवदातम हो । अविरुद्ध अक्रुद्ध अमानधुना। अतल अशलं अनअंत गुना ॥७॥ अरसं सरसं अकल सकलं । अवचं सवचं अमनं सबलं ॥ इन आदि अनेकप्रकार सही। तुमको जिन संत जपें नित ही ॥ ८॥ अब मैं तुमरी शरना पकरी। दुख दूर करो प्रभुजी हमरी ॥ हम कष्ट सहे भवकाननमैं। कुनिगोद तथा थल आननमैं ॥६॥ तित जामनमर्न सहे जितने। कहि केम सकै तुमसों तितने ॥ सुमहरत अन्तरमाहिं धरे । छह नै त्रय छः छहकाय खरे ॥ १०॥ छिति वह्नि वयारिक साधरनं । लघु थूल विभेदनिसों भरनं ॥ परतेक वनस्पति ग्यार भये। छहजार द्वादश भेद लये ॥ ११॥ सब द्वै त्रय भू षट छःसु भया। इक इन्द्रियकी परजाय लया ॥ जुग इन्द्रिय काय असी गहियो । तिय इन्द्रिय साउनिमें रहियो ॥ १२ ॥ चतुरि दिय चालिस देह धरा। पनईदियके चववीस वरा ॥ सब ये तन धार तहां सहियो। दुखघोर चितारित जात हियो ॥ १३ ॥ अव मो अरदास हिये धरिये। सुखदंद सवै अव ही हरिये ॥ मनवंछित कारज सिद्ध करो। सुखसार सबै घर रिद्ध धरो ॥१४॥
धत्तानंद छंद। जै विमलजिनेशा नुतनाकेशा, नागेशा नरईश सदा॥
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भवतापअशेषा, हरननिशेशा दाता चिन्तित शर्म सदा ॥१५॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्धं निर्वपामीति स्वाहा ॥ दोहा-श्रीमत विमलजिनेशपद, जो पूजो मनलाय। पूर्णा बांछित आश तसु। मैं पूजों गुनगाय ॥ १६ ॥
इत्याशीर्वादः । परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ! इति श्रीविमलनाथजिनपूजा समाप्त ॥ १३ ॥ श्रीअनन्तनाथजिनपूजा।
फवित्त छंद (मात्रा ३१ )। पुप्पोत्तर तजि नगर अजुध्या, जनम लियो सूर्याउर आय ।
सिंघसेन नृपके नंदन, आनंद अशेष भरे जगराय ॥ गुन अनंत भगवंत धरे, भवदंद हरे तुम हे जिनराय ।
थापतु हों अयबार उचरिक कृपासिन्धु तिष्ठहु इत आय ॥१॥
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ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर । संबोषट् ॥ १॥ ॐ हीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र । अत्र तिष्ठ तिष्ट । ॐ ॥२॥' ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र । अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् ॥ ३॥
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छंद गीता तथा हरिगीता (मात्रा २८)। शुचि नीर निरमल गंगको लै, कनकभृग भराइया।
मलकरम धोवन हेत मन, वचकाय धार ढराइया ॥ जगपूज परमपुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत महंत ध्यावों, भ्रतवंत नशावनों ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वामीति० ॥१॥ हरिचंद कदलीनंद कुंकुम, दंतताप निकंद है। सब पापरुजसंतापभंजन, आपको लखि चंद है ॥ ज०॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति० ॥२॥
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कनशालदुति उजियाल हीर, हिमालगुलकनितें घनी। तसु पंज तुम पदतर धरत, पद लहत स्वच्छ सुहावनी ॥ज०॥ ॐ हीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति० ॥३॥ पुष्कर अमरतरजनित वर, अथवा अवर कर लाइया। तुम चरनपुष्करतर धरत, सरशूल सकल नशाइया ॥ज॥४॥ ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति० ॥४॥ पकवान नैना घान रसना,--को प्रमोद सुदाय हैं।
सो ल्याय चरन चढ़ाय रोग, छुधाय नाश कराय हैं ॥ज०॥५॥ ॐ हीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय क्षुधाररोगविनाशनाय नेवेद्य निर्वपामीति० ॥५॥ तममोहभानन जानि आनंद, आनि सरन गही अबै। वर दीप धारों बारि तुमढिग, सुपरज्ञान जु द्यो सबै ज०॥६॥ ॐ हीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति० ॥६॥ यह गंध चूरि दशांग सुंदर, धूम्रध्वजमें खेय हों।
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वसुकर्म भर्म जराय तुम ढिग, निजसुधातम बेय हों॥ज०॥७॥ ॐ हीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्मपामीति स्वाहा ॥ ७॥ रसथक्व पक्व सुभक्व चक्व, सुहावनें मृदुपावनें। फलसारखंद अमंद ऐसो, ल्याय पूज रचावनें ॥ज०॥८॥ ॐ हीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्मपामीति स्वाहा ॥८॥ शुचिनीर चंदन शालिशंदन, सुमन चरु दीवा धरों। अरु धूप जुत, अरघ करि करजोरजुग विनती करों ॥ज०॥६॥ ॐ हीं श्रीभनननाथ जिनेद्राय अनर्थ्य पद प्राप्तये अयं निर्मपामीति० ॥६॥
पञ्चकल्याणक ।
छंद सुंदरी तथा द्रुतिविलंबित। असित कातिक एकम भावनों । गरभको दिन सो गिन पावनों। किय सची तित चर्चन चावसों। हम जजै इतआनँद भावसों ॥१॥
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ॐ हीं कार्तिककृष्णप्रतिपदिगर्भमंगलमण्डिताय श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥१॥ जनम जेठवदी तिथि द्वादशी । सकलमंगल लोकविर्षे लशी। al हरि जजे गिरिराज समाजते। हम जजें इत आतमकाजतैं ॥२॥ ___ॐ ही ज्येष्ठकृष्णद्वादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताये श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥२॥ भवशरीर विनखर भाइयो असित जेठदुवादशि गाइयो। सकल इंद्र जजे तित आइकैं। हम जजै इत मंगल गाइकैं॥३॥ ___ ॐ ही ज्येष्ठकृष्णद्वादश्यां निःक्रमणमहोत्सवमण्डिताय श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ ॥ असित चैत अमावसको सही। परम केवल ज्ञान जग्यो कही। लहि समोसृत धर्म धुरंधरो। हम समर्चत विघ्न सबै हरो॥४॥ ___ॐ हीं नेत्ररुष्णामावस्यायां केवलज्ञानप्राप्तये श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्ध नि०॥४॥
असित चेततुरी तिथिगाइयौ । अघतघाति हने शिवपाइयो। गिरिसमेद जजे हरि आयकैं। हम जजै पद प्रीति लगायकैं॥५॥
ॐ ही चैत्रकृष्णचतुर्थ्या मोक्षमंगलप्राप्तये श्रीअनन्तताथजिनेन्द्राय अर्थ नि० ॥५॥
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जयमाला। दोहा-तुम गुनबरनन येम जिम, खंविहाय करमान ।
तथा मेदिनी पदनिकरि, कीनों चहत प्रमान ॥१॥ जय अनन्त रवि भव्यमन, जलजवृद बिहसाय ॥ सुमति कोकतियथोक सुख, वृद्ध कियो जिनराय ॥२॥
छंद नयमालनी। तथा चंडी। तथा तामरस (मात्रा १६)। जै अनन्त गुनवंत नमस्ते। शुद्धध्येय नितसंत नमस्ते ॥ लोकालोकविलोक नमस्ते। चिन्मूरत गुनथोक नमस्ते ॥ ३॥ रत्नत्रयधर धीर नमस्ते। करमशत्रुकरिकीर नमस्ते॥ चारअनंत महंत नमस्ते । जै जै शिवतिकंत नमस्ते ॥४॥ पञ्चाचारविचार नमस्ते। पंचफर्णमदहार नमस्ते ॥ पंच-पराव्रत-चूर नमस्ते । पंचमगतिसुखपूर नमस्ते ॥५॥ पंचलब्धिधरनेश नमस्ते । पंचभावसिद्ध श नमस्ते ॥ छहों दरबगुनजान नमस्ते । छहो काल पहिचान नमस्ते ॥६॥ छहोंकायरच्छेश नमस्ते । छहसम्यक उपदेश नमस्ते ॥ सप्तविशनवनवह्नि नमस्ते। जय केवलअपरहि नमस्ते ॥७॥ सप्ततत्वगुनभनन नमस्ते। सप्तशुभ्रगतहनन
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नमस्ते ॥ सप्तभड़के ईश नमस्ते । सातों नयकथनीश नमस्ते ॥८॥ अष्टकरममलदल्ल नमस्ते। अष्टजोगनिरशल्ल नमस्ते ॥ अष्म-धराधिराज नमस्ते। अष्ट-गुननि-सिरताज नमस्ते ॥६॥ जै नवकेवल-प्राप्त नमस्ते । नव पदार्थथिति आप्त नमस्ते ॥ दशों धरमधरतार नमस्ते । दशों चंधपरिहार नमस्ते ॥ १०॥ विघ्न-महीधर-विज्जु नमस्ते। जै उरधगति-रिज्जु नमस्ते॥ तनकनकंदुति पूर नमस्ते ।. इख्याकजगनसूर नमस्ते ॥ ११ ॥ धनु पचासतन उच्च नमस्ते। कृपासिन्धु गुन शुच्च नमस्ते ॥ सेही-अंक निशंक नमस्ते। चितचकोर मृगअंक नमस्ते ॥ १२॥ रागदोपमदटार नमस्ते। निजविचारदुखहार नमस्ते ॥ सुर-सुरेश-गन-वंद नमस्ते। 'वृन्द करो सुखकंद नमस्ते ॥१३॥
___घत्तानंद छंद। जय जय जिनदेवं, सुरकृतसेवं, नितकृतचित हुल्लासधरं ॥ आपदउद्धार, समतागारं, वीतरागविज्ञान भरं ॥ १४॥ ॐ हीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्धं निर्वपामीति स्वाहा ॥
___ मदावलिप्त-कपोल तथा रोड़क छंद ( (मात्रा २४)। जो जन मनवचकायलाय, जिन जजै नेह धर ।
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वा अनुमोदन करै करावै पढे पाठ वर॥ ताके नित नव होय, सुमंगल आनंददाई। अनुक्रमः निरवान, लहै सामग्री पाई ॥१॥
___इत्याशीर्वादः परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।
श्रीधर्मनाथ जिनपूजा।
माधवी तथा किरीट छंद ( ८ सगण व गुरु)। तजिके सरवारथ सिद्ध विमान, सुभानके आनि अनंद बढ़ाये। जगमातसुब्रत्तिके नंदन होय, भवोदधि डूबत जंतु कढाये ॥ जिनको गुन नामहिं माहिं प्रकाश है, दासनिको शिवस्वर्ग मँढाये। तिनके पद पूजनहेत त्रिबार, सुथापतु हों यह फूल चढ़ाये ॥१॥
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ॥१॥
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ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । है ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव धव। वपट् ॥३॥
अष्टक।
छंद जोगीरासा (मात्रा २८)। मुनि मनसम शुचि शीर नीर अति, मलय मेलि भरि मारी। जनमजरामृत तापहरनको, चरचों चरन तुम्हारी॥ परमधरम-शम-रमन धरम-जिन, अशरन शरन निहारी।
पूजों पाय गाय गुन सुदर, नाचौं दै दै तारी ॥१॥ ____ॐ हीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ कुशर चंदन कदली नंदन, दाहनिकंदन लीनों। जलसँगघस लसि शसिसमशमकर, भवआताप हरीनों ॥ पर०॥२॥
ॐ हीं श्रीधर्मनाथ जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥
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जलज जीर सुखदास हीर हिम, नीर किरनसम लायो। पुंज धरत आनंद भरत भव,-दंद हरत हरषायो ॥ पर०॥३॥ ___ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ सुमन सुमनसम सुमनथालरम, सुमनवंद विहसाई।। सुमन-मथ-मद मधनके कारन, चरचों चरन चढ़ाई ॥पर०॥४॥ ___ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति ॥४॥ घेवर बोवर अर्द्ध चन्द्र सम, छिद्र सहस विराजै।
सुरस मधुर तासों पद पूजत, रोग असाता भाजै॥पर०॥५॥ 1 ॐ हीं अधीर्मनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥
सुदर नेह सहित वर दीपक, तिमिर हरन धरि आगै। नेह सहित गाऊं गुन श्रीधर, ज्यों सुबोध उर जागै॥पर०॥६॥ ___ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
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अगर तगर कृष्णागर तरदिव हरिचंदन करपूरं। चूर खेय जलजवनमांहि जिमि, करम ज वसु कूरं ॥पर ॥७॥ ____ॐ ही श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥
आम्न कानक अनार सारफल, भार मिष्ट सुखदाई। सो ले तुमढिग धरई कृपानिधि, देहु मोच्छठकुराई परा॥ ॐ ही श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥
आठों दरव साज शुचि चितहर, हरषि हरषि गुनगाई। वाजत हम हम हम मृदंग गत, नाचत ता थेई थाई ॥ पर०॥६॥ ॐ ही श्रीधानाथ जिनेन्द्राय मनभ्यपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
पंचकल्याणक । राग टप्पाफी चाल 'नोयोरे गंवार ते सारो दिन यों ही खोयो' । ऐसी। पूजों हो अवार, धरमजिनेसुर पूजों। प्रजों हो। टेक।
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आठ सित वैशाखकी हो । गरभदिवस अविकार ॥ जगजन वंछित पूजों हो अवार,
धरमजिनेसुर पूजों। पूजो हो० ॥१॥ ॐ हीं वैशास्त्रशुक्लाष्टम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥१॥
शुकल माघ तेरस लयो हो । धरम धरम अवतार ॥
सुरपति सुरगिर पूजों। पूजों हो अबार, ॥ धरम० ॥२॥ ॐ हीं माघशुक्लत्रयोदश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥२॥
माघशुकल तेरस लयो हो । दुद्धर तप अबिकार ॥
सुररिषि सुमनन पूज्यो । पूजों हो अवार,॥ धरम ॥३॥ ॐ ह्रीं श्रीमाघशुक्लत्रयोदश्यां निःक्रममहोत्सवमण्डिताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्ध मि०
पोषशुकल पूरन हने अरि । केवल लहि भवितार ॥ गनसुर नरपति पूज्यो । पूजों हो अबार, ॥ धरम०॥४॥
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ॐ ह्रीं श्रीपौषशुक्लपूर्णिमायां केवलज्ञानमण्डिताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥
जेठशुकल तिथि चौथकी हो। शिव समेदते पाय ॥
जगतपूजपद पूजों। पूजों। हो अबोर ॥ धरम०॥ ४॥ ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लचतुर्थ्या मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥ ५॥.
जयमाला। ___दोहा ( विशेपोक्ति अलंकार)। घनाकार करि लोक पट, सकल उदधि मसि तंत। लिावै शारदा कलम गहि, तदपि न तुव गुन अंत ॥१॥
___ छंद पद्धरी (मात्रा १६)। जय धरमनाथ जिन गुनमहान । तुम पदको मैं नित धरों ध्यान ॥ जय गरभजनम तप शानयुक्त। वर मोच्छ सुमंगल शर्म-भुक्त ॥ २ ॥ जय चिदानंद आनंदकंद । गुनबृन्द सु ध्यावन मुनि अमंद ॥ तुम जीवनिके विनु हेत मित्त। तुम ही हो जगमें जिन पबित्त ॥३॥ तुम समवसरणमें तत्वसार । उपदेश दियो हे अति उदार ॥ ताकों जे भवि निजहेत चित ।
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धार ते पावे मोच्छवित्त ॥ ४॥ मैं तुम मुख देवत आज पर्म । पायो निजातमरूप धर्म ॥ मोकों अय भौभयतें निकार। निरभयपद दीजै परमसार ॥५॥ तुम सम मेरो जगमे न कोय । तुमहीतं सब विधि काज होय ॥ तुम दयाधुरंधर धीर वीर । मेटी जगजनकी सफल पीर ॥६॥ तुम नीतनिपुन विनरागदोप। शिवमग दरसावतु हो भदोप ॥ तुम्हरे ही नामतने , प्रभाव । जगजीव लहें शिव-दिव-सुराव ॥ ७॥ तातें मैं तुमरी शरण आय । यह अरज करतु हो शीस नाय ॥ भवबाधा मेरी मेट मेट । शिवरासों करि भेट भेट ॥ ८॥ जंजाल जगतको चूर चूर । आनंद अनूपन पूर पूर ॥ मति देर करो सुनि अरज एव । हे दीनदयाल जिनेश देव ॥ ६॥ मोंको शरना नहिं और ठौर । यह निहचै जानों सुगुन-मौर ॥ वृन्दावन, बंदत प्रीति लाय । सब विघन मेट हे धरम-राय ॥ १०॥
छंद घत्तानंद (मात्रा ३१)। जय श्रीजिनधर्म, शिवहितपम. श्रीजिनधर्म उपदेशा। तुम दयाधुरंधर विनतपुरंदर, कर उरमंदर परवेशा॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्धं निवपामीति स्वाहा ॥ ११ ॥
छंद मदावलिप्तकपोल (मात्रा २४)।
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जो श्रीपतिपद जुगल, उगल मिथ्यात जजै भव । ताके दुख सब मिटहिं, लहै आनंदसमाज सब ॥ सुर-नर-पति-पद भोग, अनुक्रमः शिव जावै । वृंदावन यह जानि धरम, जिनको गुन ध्यावै ॥ १॥
इत्याशीर्वादः परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । श्रीशान्तिनाथ जिनपूजा।
मत्तगयंद छंद । ( शब्दाडम्वर तथा जमकालंकार)। या भवकाननमें चतुरानन, पापपनानन घेरि हमेरी।
आतमजान न मान न ठान न, वान न होइ हिये सठ मेरी॥ तामद भानन आपहि हो, यह छान न आन न आननटेरी । आन गही शरलागतको, अब श्रीपतजी पत राखहु मेरी॥१॥
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ॐ हीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । : ठः॥२॥ ॐ हीं श्रोशान्तिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सनिहितो भव भव वपट् ॥ ३॥
अष्टक। छंद त्रिभंगी। अनुप्रयासक । (मात्रा ३२ जगनवर्जित)। हिमगिरिगतगंगा,--धार अभंगा, प्रासुक संगा, भरि भृगा। जरमरनभृतंगा, नाशी अघंगा, पूजि पदंगा मृदुहिंगा॥ श्रीशान्तिजिनेशं, नुतशक्र शं, वृषचक्र शं, चक्रशं। हनि अरिचक्रशं, हे गुनधेशं, दयानृतेशं, मक्रशं॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति० ॥१॥
वर बावनचंदन, कदलीनंदन, धनआनंदन सहित घसों। भवतापनिकन्दन, ऐरानंदन, वंदि अमंदन, चरनवसों॥श्री०॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय भयतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति० ॥२॥
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हिमकरकरी लज्जत, मलयसुसज्जत, अच्छत जज्जत, भरिथारी। दुखदारिद गज्जत,सदपदसज्जत, भवभय भज्जत,अतिभारी॥श्री०३ ॐ हीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति० ॥३॥ मंदार सरोज, कदली जोज, पुंज भरोज, मलयभरं ।
भरि कञ्चनथारी,तुम ढिग धारी,मदनविदारी, धीरधरं॥श्री०४ ॐ सी श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय कामयाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति० ॥ ४ ॥ पकवान नवीने, पावन कीने, षटरसभीने, सुखदाई। मनमोदनहारे, छुधा विदारे, आरौं धारे, गुनगाई ॥श्री० ॥५॥ ॐ हीं श्रोशान्तिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति ॥५॥ तुम ज्ञानप्रकाशे, भ्रमतम नाशे, ज्ञयविकाशे सुखरासे। दीपक उजियारा, यातें धारा, मोहनिवारा, निज भासे ॥श्री ६ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति ॥ ६ ॥
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चन्दन करपूर, करि वर चूरं, पावक भूरं, माहि जुरं । तसु धूम उडावै, नांचतजावै, अलि गुंजावै,मधुरसुरं॥श्री०॥७॥ ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति० ॥७॥ बादाम खजूरं, दाडिम पूरं निंबुक भूर, लै आयो। तासोंपद जज्जों, शिवफल सज्जों, निजरसरज्जों; उमगायो॥श्री०
ॐ हीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ वसु द्रव्य सँवारी, तुमढिग धारी, आनंदकारी, गप्यारी। तुम हो भवतारी, करुनाधारी, यातै थारी, शरनारी ॥०॥६॥ ___ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अनयंपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
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सुंदरी तथा ग्रुतिविलंबित छंद। असित सातय भादव जानिये । गरभमंगल तादिन मानिये ॥
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सचि कियो जननी पद चचनं । हम करें इत ये पद अर्चनं ॥१॥
ॐ हीं भाद्रपदकृष्णसप्तम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्धं नि० ॥ जनम जेठ चतुर्दशि श्याम है । सकलइंद्र सु आगत धाम है। गजपुरै गज राज सबै तजै। गिरि जजे इत मैं जजि हो अबै ॥२॥ ___ॐ ही ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥२॥
भव शरीर सुभोग असार हैं । इमि विचार तबै तप धार हैं। भ्रमर चौदश जेठ सुहावनी। धरमहेत जजों गुन पावनी ॥ ३ ॥ ___ॐ ही ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां निःक्रममहोत्सवगण्डिताय स्त्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्ध नि० शुकलपोप दर्श सुखराश है । परम-केवल ज्ञान प्रकाश है ॥ भवसमुद्रउधारन देवकी । हम करें नित मंगल सेवकी ॥ ४ ॥
ॐ हीं गौपशुरूदशम्यां केवलशानप्राप्ताय श्रोशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥४॥ असित बौदस जठ हनं अरी। गिरि सभेदथकी शिव-ती वरी ॥
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सकलइंद्र जज तित आइकैं। हम जजै इत मस्तक नाइकें ॥५॥ ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दशयां मोक्षमङ्गलप्राप्ताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥५॥
जयमाला - ___ छंद रथोद्धता, चंद्रवत्स तथा चंद्रवर्त्म (वर्ण ११- लाटानुप्रास) शान्ति शान्तिगुनमंडिते सदा। जाहि ध्यावत सुपंडिते सदा ॥ में तिन्हें भगतमंडिते सदा । पूजि हों कलुषहडिते सदा ॥१॥ मोच्छहेत तुम ही दयाल हो । हे जिनेश गुनरत्नमाल हो। में अवै सुगुनदाम ही धरों। ध्यावते तुरित मुक्ति-ती वरों॥२॥
छंद पद्धरि (१६ मात्रा) जय शान्तिनाथ चिद्र पराज । भवसागरमे अदभुत जहाज ॥ तुम तजि सरवारथसिद्ध थान । सरवारथजुत गजपुर महान ॥ १॥तित जनम लियौ आनंद धार । हरि ततछिन आयो राजद्वार ॥ इंद्रानी जाय प्रसूतथान । तुमको करमे ले हरप मान ॥२॥ हरि गोद देय सो मोद्धार । सिर चमर अमर ढारत अपार ॥ गिरिराज जाय तित शिला पांड। तापै थाप्यो
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अभिषेक माड ॥ ३ तित पंचम उदधि तनों सु वार। सुर कर कर करि ल्याये उदार ॥ तव इंद्र सहसकर करि अनंद । तुम सिर धारा ढासौ सुनंद ॥४॥ अघ घघ घघ घघ धुनि होत घोर । भभ भभ भभ धध घध कलशशोर ॥ दुमद्गम द्रुमद्म बाजत मृदंग । झन नन नन नन नन नूपुरंग ॥५॥ तन नन नन नन नन तनन तान । घन नन नन घंटा करत ध्वान ॥ ताथेई थेइ थेइ थे। सुचाल। जुत नाचत नाचत तुमहिं भाल ॥६॥ चट चट चट अटपट नटत नाट । झट' झट झट हट नट शट विराटः ॥ इमि नाचत राचत भगत रंग। सुर लेत जहां आनंद संग ॥ ७॥ इत्यादि अतुल मंगल सुठाट । तित बन्यौ जहां सुरगिरि विराट ॥ पुनि | करि नियोग पितुसदन आय । हरि सौंप्यौ तुम तित वृद्ध थाय ॥ पुनि राजमाहिं लहि चक्ररत्न । भोग्यौ छखंड फरि धरम जन ॥ पुनि तप धरि केवलरिद्धि पाय । भवि जीवनकों
शिवमग बताय ॥ शिवपुर पहुचे तुम हे जिनेश । गुनमंडित अतुल अनन्त भेष ॥ मैं ध्यावतु Sil हौं नित शीश नाय । हमरी भवबाधा हरि जिनाय ॥१०॥ सेबक अपनो निज जान जान । al फरुना करि भौभय भान भान ॥ यह विधन मूल तरु खंड खंड । चितचिन्तित आनंद मंड मंड ॥११॥
घत्तानंद छंद (मात्रा ३१) श्रीशान्ति महंता, शिवतियकता, सुगुन अनंता, भगवन्ता।
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भवभ्रमन हनंता, सौख्यअनंता, दातारं तारनवन्ता ॥१॥ ॐ हीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥
छंद रूपक सवैया (मात्रा ३१) शांतिनाथजिनके पदपंकज, जो भवि.पूजै मनवचकाय । जनम जनमके पातक ताके, ततछिन तजिकै जाय पलाय ॥ मनवंछित सुख पावै सो नर, बाँचै भगतिभाव अति लाय । तात 'वृन्दावन' नित बंद, जातें शिवपुरराज कराय ॥ १ ॥
___ इत्याशीर्वादः पुष्पाञ्जलि क्षिपेत्। श्रीकुंथनाथ जिनपूजा।
छंद माधवी तथा किरीट (वर्ण २५)। अजअंक अजैपद राजै निशंक, हरै भवशंक निशंकित दाता। मतमत्त मतंगके माथे गॅथे, मतवाले तिन्हें हर्ने ज्यौं हरिहाता ।।
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गजनागपुरै लियो जन्म जिन्हौं, रविके प्रानंदन श्रीमतिमाता। सहकुंथुसुकुंथुनिके प्रतिपालक, थापों तिन्हें जुतभक्ति विख्याता ॥१॥
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ॥ ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः॥ ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथ जिनेन्द्र ! अब मम सन्निहितो भव भय । वपट् ॥
| ভক্ত।
चाल लावनी मरहठी को लाला मनसुखरायजी कृत । कुंथु सुन अरज दासकेरी । नाथ सुनि अरज दासकेरी॥ भवसिन्धु पस्यो हो नाथ निकारो बांह पकर मेरी॥ प्रभू सुन अरज दासकेरी। नाथ सुनि अरज दासकेरी ॥ जगजाल पस्यो हों बेग निकारो बांह पकर मेरी ॥ टेक ॥ सुरतरनीको उज्जलजल भरि, कनकभृग भेरी।
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मिथ्यातृपा निवारन कारन, धरों धार नेरी ॥ कुंथु० ॥१॥ ____ॐ ही श्रीकुथुनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ बावन चंदन कदलीनंदन, घसिकर गुन टेरी। तपन मोह लाशनके कारन, धरों चरन नेरी ॥ कुथु०॥ २॥ ___ ॐ हीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय भवनापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीनि स्वाहा ॥२॥ मुक्ताफलसम उजल अच्छत, सहित मलय लेरी। पुंज धरों तुम चरनन आग, अखय सुपद देरी ॥ कुंथु० ॥३॥ __ॐ ह्रीं श्री कुंथुनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३॥ कमल केतकी वेला दौना, सुमन सुमनसेरी। समर शूलनिरमूल हेतु प्रभु, भेंट करों तेरी ॥ कुथु०॥४॥
ॐ ही श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ कंचन दोपमई वर दीपक, ललित जोति धेरी।
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सो लै चरन जजों भ्रम तम रबि, निज सुबोददेरी ॥ कु॥६॥ ____ॐ हीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दोपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ देवदारु हरि अगर तगर करि चूर अगनि खेरी। अष्ट करम ततकाल जरै ज्यौं, धूम धनंजेरी ॥ कुंथ ॥७॥ ___ॐ ह्रीं श्रीकुंथुताथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूमं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥ लोंग लायची पिस्ता केला, कमरख शुचि लेरी। मोच्छ महाफल चाखन कारन, जजों सुखरि ढेरी ॥८॥
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वयामीति स्वाहा ॥८॥ जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दोप धूप लेरी। फलजुत जजल करों मन सुख धरि हरो जगत फेरी ॥ कु.॥६॥ ॐ हीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनयंपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
पच कल्याणक मोतीदाम छन्द (वर्ण १२)
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सुसावनको दशमी कलि जान । तज्यो सरवारथसिद्ध विमान ॥ भयो गरमागममंगल सार । जज हम श्रीपद अष्टप्रकार ॥१॥ ____ ॐ हीं श्रावणकृष्णदशम्यां गर्भमंगलप्राप्तये श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥१॥ महा बयशाख सु एकम शुद्ध । भयो तब जन्मतिज्ञान समुद्ध ॥ कियो हरि मंगल मंदिरशीस । जजै हम अत्र तुम्हें नुतशीस ॥२॥ ___ॐ हीं वैशाखशुक्ल प्रतिपदि जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० तज्यो खटखंड विभौ जिनचंद । विमोहितचित्तचितारि सुछंद ॥ धरे तप एकम शुद्ध विशाख । सुमन भये निजानंद चाख ॥३॥ ___ॐ ही वैशाखशुक्लप्रतिपदि निःक्रममहोत्सवमण्डिताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि०
सुदी तिय चैत सु चेतन शक्त। चहूं अरि छै करि तादिन व्यक्त ।। | भई समवस्त्रत भाखि सुधर्म । जजों पद ज्यों पद पाइय पम ॥४॥ ___ ॐ हीं चैत्रशुक्लतृतीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० सुदी वयशाख सु एकम नाम । लियौ तिहिं द्यौस अभै शिवधाम
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All जजे हरि हर्षित मंगल गाय। समर्चतु हौं सु हिया वचकाय ॥५॥ AI ॐ हीं वैशास्त्रशुलपतिपद मोक्षमङ्गलप्राप्ताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अब नि०
जयमाला
अरिल्ल छन्द (मात्रा २१ रूपकालंकार) खट खंडनके शत्रु राजपदमें हने। धरि दीक्षा खटखंडन पाप तिन्हें दर्ने । त्यागि सुदरशन चक्र धरमचक्री भये । करमचक्र चकचूर सिद्ध दिढ़ गढ़ लये ॥१॥ ऐसे कुथ जिनेशतने पदपनका । गुन अनंत भंडार महासुखसमकों ॥ पूजों अरघ चढ़ाय पूरणानंद हो। चिदानन्द अभिनन्द इंदगनवंद हो ॥२॥
परि छंद (मात्रा १६ )। जय जय जय जय श्रीकुंथुदेव । तुम ही ब्रह्मा हरि त्रिवुकेव ॥ जय पुद्धि विदांबर विष्णु ईस । जय रमाकत शिवलोक शीस ॥ ३ ॥ जय दयाधुरंधर सृष्टिपाल। जय जय जगवंधू सुगुनमाल ॥ सरवारथसिद्धविमान छार । उपजे गजपुरमें गुन अपार ॥ ४॥ सुरराज कियो
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गिरन्होन जाय ॥ आनन्द-सहित जुत-भगत भाय ॥ पुनि पिता सौंपि कर मुदित अंग। हरि तांडव-निरत कियो अभंग ।। पुनि स्वर्ग गयो तुम इन दयाल । वय पाय मनोहर प्रजापाल ॥ पटवंड विभो भोग्यौ समस्त । फिर त्याग जोग धालो निरस्त ॥ ६ ॥ तव धाति घात केवल उपाय | उपदेश दियो सवहित जिनाय ॥ जाके जानत भ्रम-तम विलाय । सम्यकदरशन निरमल लहाय । ७। तुम धन्य देव किरपा-निधान । अज्ञान-छपा-तमहरन भान ॥ जय स्वच्छगुनाकर शुक्तशुक्त । जय स्वच्छ सुकामृत भुक्तभुक्त ॥८॥ जय भोभयभंजन कृत्यकृत्य । मैं तुमरो हो निज भृत्य भृत्य ॥प्रभु अशरन शरन अधार धार । मम विघ्नतूलगिरी जार जार॥ जय फुनय-यामिनी सूर सूर । जय मनवंछित सुख पूर पूर॥ मम करम वध दिढ़ चूर चूर । निज़सम आनन्द दे भूर भूर।। ०॥ अथवा जव लों शिव लहौं नाहि। तव लों ये तो नित ही लहाहिं । भव भव श्रावक कुलजनमसार । भव भव सतमत सतसंग धार ॥१॥ भव भव निज आतम-तच्च-शान । भव भव तप संजम शील दान ॥ भव भव अनुभव नित चिदानंद । भव भव तुम आगम हे जिनंद ॥१२॥ भव भव समाधिजुत मरन सार। भव भव व्रत चाहों अनागार ॥ यह मोकों हे करुणानिधान । सब जोग मिलो आगम प्रमान ॥१३॥ जब लो शिव सम्पति लहों नाहिं । तबलों में इनकों नित लहाँहि ॥ यह अरज हिये अवधारि नाथ । भवसंफट इरि कीजै सनाथ ॥१४॥
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छन्द घत्तानंद (मात्रा ३१) जय दीनदयाला, वरगुनमाला, विरदविशाला सुख आला ॥ में पूजों ध्यावों, शीस नमावां, देह अचल पदकी चाला ॥१५॥ ॐ हीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा ॥१५॥
छन्द रोड़क मात्रा (२४) कथुजिनेसुरपोदपदम, जो पानी ध्यावें । अलि समकर अनुराग, सहज सो निजनिधि पावै ।। जो बाँचें सरदहै, करै अनुमोदन पूजा, वृन्दावन तिह पुरुप सदृश, सुखिया नहिं दूजा ॥१६॥
इत्याशीर्वादः परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । श्रीअरनाथ जिनपूजा। छप्पय छन्द (चीररसकपकालंकार मात्रा १२)
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तप तुरंग असवार धार, तारन विवेक कर ।
ध्यान शुक्ल असि धार, शुद्ध सुविचार सुबखतर ॥ भावन सेना धरम, दशों सेनापति थापे । रतन सोन धर सकति, मंत्रि अनुभो निरमापे ॥ सत्तातल सोहं सुभट धुनि त्याग केतु शत अग्र धरि । इहविध समाज सज राजकों, अरजिन जाते करम अरि ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्रीभरनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवोषट् ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्रीअरनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं श्रीअरनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् ॥ ३॥
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छन्द त्रिभंगी ( अनुप्रयासक मात्रा ३२ - जगनवर्जित ) कनमनिमय भारी, हगसुखकारी, सुरसरितारी नीरभरी ॥ मुनिमनसम उज्जल, जनमजरादल, सो लै पदतल, धार करी ॥
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प्रभु दीनदयालं, अरिकुलकालं, विरदविशालं सुकुमालम् । हनि मम जंजालं, हे जगपाल, अरगुनमालं वरमालम् ॥१॥ ॐ हीं श्रीअरनाथजिनेन्दाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ भवताप नशावन विरद सुपाव, सुनि मन भावन मोद भयो। तातें घसि बावन, चंदन पावन, तरहिं चढ़ावन उमगि अयो॥प्रभु०॥ ___ॐ ह्रीं श्रीअरनाथ जिनेन्द्राय भवताप विनाशनाय चंदन ॥२॥ तंदुल अनियारे, श्वेतसँवारे, शशिदुति टारे, थार भरे। पद अखय सुदाता, जगविख्याता, लखि भवताता, पुंजधरे॥प्रभु० ___ॐ हीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥
सुरतरुके शोभित, सुरन मनोभित, सुमन अछोभित, लै आयो। | मनमथके छेदन, आप अवेदन, लखि निरवेदन, गुन गायौ ॥ प्रभु. ____ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ नेवज सज भक्षक, प्रासुक अक्षक, पक्षकरक्षक, स्वक्ष धरी।
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तुम करमनिकक्षक, भस्मकलक्षक, दक्षक, पक्षक, रक्षकरी ॥ प्रभु० ____ॐ हीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ तुम भ्रमतमभंजन, मुनिमनकंजन, रंजन गंजनमोहनिशा। रविवलस्वामी, दीप जगामी, तुम ढिग आमी, पुन्यहशा ।। प्रभु. ___ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ दशधूप सुरंगी गंधअभंगो वन्हिवरंगीमाहिं हवै। वसुकम जरावै धूमउड़ावे, तॉडव भाव नृत्य पवै ।। प्रभु० ____ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नर्विपामीति स्वाहा ॥७॥
रितुफल अतिपावन, नयनसुहावन, रसनाभावन, कर लीने। PM तुम विघनविदारक, शिवफलकारक, भवदधि-नारक, चरचीने ॥प्रभु०
___ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ सुचि स्वच्छ पटीरं, गंधगहीरं तंदुलशीरं, पुष्पचरु।
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वर दीपं धूपं, आनन्दरूपं, लै फल भूपं, अर्घकर ॥ प्रभु० ___ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अनयंपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
पच कल्याणक
छद चौपाई (मात्रा १६)। फागुन सुदी तीज सुखदाई । गरभ सुमंगल ता दिन पाई ॥ मित्रादेवी उदर सु आये। जजे इंद्र हम पूजन आये ॥ १ ॥ ___ॐ ह्रीं फल्गुनशुक्लतृतीयायां गर्भमङ्गलप्राप्ताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥१॥ मंगसिर शुद्ध चतुर्दशि सोहै । गजपुर जनम भयौ जग मोहै ॥ सुरगुरु जजे मेरुपर जाई । हम इत पूर्जे मनवचकाई ॥२॥ ____ॐ ह्री मार्गशीर्षशुक्लचतुर्दश्यां जन्ममङ्गलप्राप्ताय श्रीधरनाशजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥२॥ मंगसिर सित चौदस दिन राजै। तादिन संजम धरे विराजै। अपराजित घर भोजन पाई। हम पूजे इत चित हरषाई ॥३॥
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ॐ ही मार्गशीर्षशुक्लचतुर्दश्यां निःक्रममङ्गलमण्डिताय श्रीअरनाथाजि नेन्द्राय अर्घ नि० ॥ कातिक सित द्वादसि अरि चुरे । केवलज्ञान भयो गुन पूरे॥ समवसग्नथित धरम बखाने । जजत चरन हम पातक भाने ॥४॥ ___ॐ ह्रीं कार्तिक शुक्लद्वादश्यां शानमंगलमण्डिताय श्रीअरनाथ जिनेन्द्राय अधं नि०
चैत शुकल ग्यारस सब कर्म । नाशि वास किय शिव-थल पर्म। निहचल गुन अनन्त भंडारी। जजों देव सुधि लेहु हमारी ॥ ५ । ___ॐ हीं चैत्रशुक्ल कादश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥५॥
जयमाला
दोहा छंद ( जमकपद तथा लाटानुबंधन।) बाहर भीतरके जिने, जाहर अर दुखदाय । ता हर कर अरजिन भये, साहर शिवपुर राय ॥ १ ॥ राय सुदरशन जासु पितु, मित्रादेवी माय।
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हेमवरन तन वरप वर, नव्वै सहस सुआय ॥२॥
__ छंद तोटक (वर्ण १२) जय श्रीधर श्रीकर श्रीपति जी । जय श्रीवर श्रीभर श्रीमति जी ॥ भवभीमभवोदधि तारन है। अरनाथ नमों सुखकारन हैं ॥३॥ गरभादिक मंगल सार धरे । जग जीवनिके दुखदंद हरे ॥ कुरवंशशिखामनि तारन हैं। अरनाथ नमों सुखकारन हैं ॥ ४॥ करि राज छखंडविभूनिमई । तप धारत केवलबोध ठई ॥ गण तीस जहां भ्रमवारन हैं। अरनाथ नमों सुखकारन हैं ॥३॥ भविजीवनिको उपदेश दियौ। शिवहेत सब जन धारि लियौ॥ जगके सब संकट टारन हैं। अरनाथ नमों सुखकारन हैं ॥ ६॥ कहि वीसप्ररूपनसार तहां । निजशर्म
सुधारस धार जहां ॥ गति चार हपी पन धारन हैं। अरनाथ नमों सुखकारन हैं ॥७॥ खट A फाय तिजोग तिवेद मथा। पनवीस कपा वसु ज्ञान तथा ॥ सुर संजमभेद पसारन है।
अरनाथ नमों सुखकारन हैं ।।८॥ रस दर्शन लेश्यय भव्य जुगं । खट सम्यक सैनिय भेद युगं ॥ जुग हार तथा सु अहारन हैं। अरनाथ नमों सुखकारन हैं ॥३॥ गुनथान चतुर्दश मारगना। उपयोग दुवादश भेद भना॥ इमि वीस विभेद उवारन हैं। अरनाथ नमों सुराकारन हैं ॥१०॥ इन आदि समस्त वखान कियो। भवि जीवननें उरधार लियौ ॥ कितने
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शिववादिन धारन है । अरनाथ नमों सुखकारन हैं ॥१९॥ फिर आप अघाति विनाश सर्व। शिवधामवि शित कीन तवै॥ तकृत्यभू कृप्र जगतारन हैं। अरनाथ नमों सुख कारन हैं ॥१२॥ अब दीनदयाल दया धरिये। मम कर्म कलंक सबै हरिये ॥ तुमरे गुनको कछु पार न हैं । अरनाश नमों सुखकारन हैं ॥१॥
घत्तानंद छन्द (मात्रा ३१) जय श्रीअरदेवं, सुरकृतसेवं, समताभेवं, दातारं । अरिकर्मविदारन, शिवसुखकारन, जय जिनवर जगत्रातारं ॥१४॥ इति श्रीअरनाथजिनेन्द्राय पूर्णाध निर्वपामीति स्वाहा॥
छन्द आर्या , मात्रा ६०) अरनिनके पदसारं, जो पूजै द्रव्यभावसों प्रानी। सो पावै भवपारं, अजरामर मोच्छथोन सुखखानी ॥ १५ ॥
इत्याशीर्वादपरिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।
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श्रीमल्लिनाथजिनपूजा।
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अपराजितते आय नाथ मिथिलापुर जाये । कुंभरायके नन्द, प्रजापति मात बताये। कनक वरन तन तुंग, धनुष पच्चीस विराजै। सो प्रभु तिष्ठहु आय निकट मम ज्यों भ्रमभा। ॐ ह्रीं श्रीमलिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवोषट् । ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् ।
अष्टक।
छंद जोगीरासा (मात्रा २८) . सुर-सरिता-जल उज्जल लौ कर, मनिभृगार भराई। जनम जराभृत नाशनकारन, जजहुं चरन जिनराई ।।
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राग-दोष-मद-मोहहरनको, तुम ही हौ वरवीरा । याते शरन गही जगपतिजी, बेग हरो भवपीरा ॥ १॥ * हीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपानीति स्वाहा ॥१॥ पावनचंदन कदलीनंदन, कुंकुमसंग घसायौ ॥ लेकर पूजौं चरनकमल प्रभु, भवआताप नसायो ॥ राग० ॥२॥ ॐ हीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निवपामीति० ॥ २॥ . तंदुलशशिसम उज्जल लीने, दीने पुंज सुहाई। नाचत राचात भगति करत ही, तुरित अखैपद पाई ॥ राग० ॥३॥ ॐ ह्रीं श्रीमलिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति० ॥३॥ पारिजातमंदार सुमन, संतानजनित महकोई। मार सुभट मदभंजनकारन, जजहुं तुम्हें शिरनाई ॥ राग०॥४॥ ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति०॥४॥
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फेनी गोझा मोदनमोदक, आदिक सद्य उपाई। 1:| सो ले छुधा निवारन कारन, जजहुं चरन लवलाई॥ गग० ॥५॥
ॐ हीं श्रीमलिनाथजिनेन्द्राय शुधारोगविनाशनाय नैवेद्य' निर्वपामोति० ॥५॥ तिमिरमोह उरमंदिर मेरे, छोय रह्यो दु..दाई। तासु नाशकारनको दीपक, अद्भुतजोति जगाई ॥ रोग० ॥६॥ ॐ हीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति० ॥६॥ अगर तगर कृष्णागर चंदन, चूरि सुगंध बनाई। अष्टकरम जारनको तुमढिग, खेवतु हौं जिनराई॥ राग० ॥७॥ ॐ हीं श्रीमल्लिनाथ जिनेन्द्राय भटकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति० ॥७॥ श्रीफल लौंग बदाम बुहाग, एला केला लाई।। मोखमहाफलदाय जानिक, पूजौं मन हरखाई॥राग०॥८॥ | ॐ ही श्रीमल्लिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ जान फल अरघ मिलाय गाय गुन, पूनौं भगति बढ़ाई।
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शिवपदराज हेत हे श्रीधर शरन गही में आई ॥ रोग० ॥६॥ ॐ हीं नीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्थ्यपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
पंचकल्याणक ।
लक्षमीधरो छन्द (१२ वर्ण)। चैतकी शुद्ध एक भली राजई । गर्भकल्यान कल्यानकौं साजई ॥ कुंभराजा प्रजापति माता तने। देवदेवी जजे शीस नाये घने। ॐ हीं चैत्रशुक्लप्रतिपदा गर्भागममङ्गलमण्डिताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्ध नि० मार्गशीर्ष सुदी ग्यारसी रोजई। जन्मकल्यानको द्यौस सो छाजई॥ इंद्र नागेंद्र पूजें गिरेंद्र जिन्हें । मैं जजौं ध्यायके शीसनावौं तिन्हें॥ ____ॐ हीं मार्गशीर्षशुक्ल कादश्यां जन्ममङ्गलप्राप्ताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० मार्गशीर्षेसुदीग्यारसीके दिना । राजको त्याजदीच्छा धरी है जिना॥ दान गोचीरको नंदसेनें दयौ । मैं जजौं जासुके पंचचर्जे भयो।
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___ॐ ही मार्गशीर्षशुल कादश्यां तपमंगलमण्डिताय श्रीमलिनाथजिनेद्राय अर्घ नि० पौषकी श्यामदूती हने घातिया। केवलज्ञानसाम्राज्य लक्ष्मीलिया ॥ धर्मचक्री भये सेव शक्री करें। में जजौं चर्न ज्यों कर्मवक्री टरै ॥ ___ ॐ ही पौरकृष्णाद्वितीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्ध नि०
फाल्गुन सेत पांचे अघाती हते सिद्ध आलै बसे जाय सम्मेदते॥ | इंद्रनागेंद्र कीन्हीं क्रिया आयकें । मैं जजौं सो महो ध्यायके गायके ॐ हीं फाल्गुन शुरूपञ्चम्यां मोक्षमङ्गलप्राप्ताय श्रीमलिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥
जयमाला।
घत्तानंद छंद (३१ मात्रा)। तुअ नमित सुरेशा, नरनागेशा, रजतनगेशा, भगति भरा। भवभयहरनेशा, सुखभरनेशा, जै जै जै शिवरमनिवरा ॥१॥
पद्धरि छन्द (मात्रा १६ लध्वन्त)। जय शुभ चिदातम देत एव । निरदोष सुगुन यह सहज टेव ॥ जय भ्रमतमभंजन।
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भारतंड। भविभवदधितारनको तरंड ॥२॥ जय गरभजनममंडित जिनेश । जय छायक समकित बुद्ध भेस ॥ चौथै किय सातो प्रकृति छीन । चौ अनंतानु मिथ्यात तीन ॥ ३ ॥ सातय किय तीनो आयु नाश। फिर नवें अंश नवमे विलास ॥ तिनमाहिं प्रकृति छत्तीस चूर। याभांति कियौ तुम ज्ञानपूर ॥ ४ ॥ पहिले मह सोलह कह प्रजाल। निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचाल ॥ हनि थानगृद्धिको सकल कुव्व । नर तिर्यग्गति गत्यानुपुव्व ॥ ५॥ इक वे ते चौ इंद्रीय जात । थावर आतप उद्योत घात ॥ सूच्छम साधारन एम चूर। पुनि दुतिय अंश वसु करयो दूर ॥ ६ ॥ चौ प्रत्याप्रत्याख्यान चार । तीजे सु नपुंसकवेद टार ॥ चौथे तियवेद विनाश कीन। पांचै हास्यादिक छहो छीन ॥ ७॥ नरवेद छठे छय नियत धीर । सातय संज्वलन क्रोधचीर ॥ आठवें संज्वलन मानभान । नवमे माया संज्वलन हान ॥ ८॥ इमि घात नवें दशमें पधार । संज्वलनलोभ तित हू विदार ।। पुनि द्वादशके द्वयअंशमाहिं । सोरह चकचूर कियो जिनाहिं ॥ ६॥ निद्रा प्रचला इक भागमाहिं । दुति अंश चतुर्दश नाश जाहिं ।। शानावरनी पन दरश चार । अरि अंतराय पांचों प्रहार ॥१०॥ इमि छय वेशठ केवल उपाय। धरमोपदेश दीन्हो जिनाय ॥नवकेवललब्धि विराजमान ।जय तेरमगुनथिति गुन अमान ॥११॥ गत चौदहमे है भाग तत्र । छव कीन बहत्तर तेरहत्र ॥ वेदनी असाताको विनाश । औदारि विक्रियाहार नाश ॥ १२॥ तैजस्यकारमानो मिलाय । तन पंचपंच बंधन विलाय॥ संघात
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पंच घाते महंत । त्रय आंगोपांग सहित भनंत ॥ १३ ॥ संठान संहनन छय छहेव । रसवरन पंच वसु फरस भेव ॥ जुगगंध देवगति सहित पुन्छ । पुनि अगुरु लघु उस्वास दुव्य ॥१४॥ परउपघातक सुविहाय नाम । जुत अशुभगमन प्रत्येक खाम ॥ अपरज थिर अथिर अशुभसुमेव । दुरभाग सुसुर दुस्सुर अमेव ॥ १५ ॥ अन आदर और अजस्य कित्त । निरमान नीच गोतौ विचित्त ॥ ये प्रथम बहत्तर दिय खपाय। तब दूजेमें तेरह नशाय ॥ १६ ॥ पहले साताबेदनी जाय । नरआयु मनुपगतिको नशाय ॥मानुपगत्यानु सु प्रवीय । पंचेंद्रिय जात प्रकृति विधीय ॥ १७ ॥ त्रसवादर परजापति सुभाग । आदरजुत उत्तम गोतपाग ॥ जस कीरत तीरथ प्रकृत जुक्त। ए तेरह छय करि भये मुक्त ॥ १८ ॥ जय गुन अनंत अविकार धार । वरनत गनधर नहिं लहत पार ॥ सम्मेदशेल सुरपति नमंत । तव मुकतथान अनुपम लसंत ॥ वृदावन बंदत प्रीतलाय । मम उरमै तिष्ठा हे जिनाय ॥ २० ॥
__ घत्तानंद। जय जय जिनस्वामी, त्रिभुवन नामी, मल्ल विमलकल्यानकरा॥ भवदंदविदारन आनंदकारन, अविकुमोदनिशिईश वरा ॥ २१॥
ॐ ही श्रीमल्लिनाथ जिनेन्द्राय महायं निर्वपामीनि स्वाहा ॥
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शिरिणी।
जजे हैं जो पानी दाब अरु भावादि विधिलों।
कर नानाभांती भगति शुति ओ नौति सुधितों ॥ लहे शक्री चक्री सकल सुख सोभाग्य तिनको। तथा मोनं जावे जजत जन जो मल्लिजिनको ॥ २२॥
प्रत्याशीर्वादः पुष्पाजलिं क्षिपेत् । श्रीमुनिसुव्रतनाथपूजा।
मत्तागयन्द।
प्रानत म्बग विहाय लियो जिन, जन्म सुराजगृहीमहँ आई। श्रीसुमित्त पिता जिनके, गुनवान महापवमा जसु माई ॥ वीन धन तनु श्याम छवी, कछ अंक हरी वर वंश बताई। सो मुनिसुव्रतनाथ प्रभू कह, थापतु हों इत प्रीनि लगाई ॥१॥
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पृ .
ॐ ह्री श्रीमुनिसुव्रतजिन ! अत्र अवता अवतर । संवौषट् ॥ ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ॥ ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वपट् ॥
आष्टक गीतिका-उज्जल सुजल जिमि जस तिहारौ, कनक झारीमें भरों। जरमरन जामन हरन कारन, धार तुमपदतर करों॥ शिवसाथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनिगुन माल हैं। तसु चरन आनंदभरन तारन, तरन विरद विशाल हैं ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ भवतापघायक शॉतिदायक, मलय हरि घसि ढिग धरों। गुनगाय शीस नमाय प्रजन, विघनताप सबै हरों॥शिवा२॥ ॐ हीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥ तंदुल अग्वंडित दमक शशिसम, गमक जुत थारी भरों।
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पद अखयदायक मुकतिनायक, जानि पद पूजा करों ॥ शि० ॥३॥
ॐ ही श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।। बेला चमेली रायबेली, केतकी करनासरों। जगजीत मनमथहरन लखि प्रभु, तुम निकट ढेरी करों ॥शि० ॥४॥
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ पकवान विविध मनोज्ञ पावन, सरस मृदुगुन विस्तरों।
सो लेय तुम पदतर धरत ही, छुधा डोइनको हरों॥शि०॥५॥ ___ॐ हीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय क्षुद्रारोगनिवारणाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ दीपक अमोलिक रतन मनिमय, तथा पावनघृत भरों।
सो तिमिरमोनविनाश आतमभास कारन ज्वै धरों ॥शि०॥६॥ ___ॐ हीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय मोहन्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ करपूर चंदन चूरभूर, सुगंध पावको धरों। तसु जरत जरत समस्त पातक सार निजसुखकों भरों शिं०॥७॥
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___ॐ हीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निवपामीति स्वाहा ॥ श्रीफल अनार सु आम आदिक पक्कफल अति विस्तरों। सो मोक्ष फलके हेतु लेकर, तुम चरनआर्गे धरों शि०॥८॥ ___ॐ हीं श्रीमुनिसुयतजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८॥ जलगंध आदि मिलाय आठों, दरब अरघ सजों बरों। पूजौं चरनरज भगतिजुग, जाते जगत सागर तरों शिक्षा ___ॐ हीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अनर्ग्यपदप्राप्तये अर्घ निवपामीति स्वाहा ॥
पंचकल्याणक ।
तोटक। तिथि दोयज सावन श्याम भयो । गरभागममंगल मोद थयो । हरिवंद सची पितुमातु जजे। हम पूजत ज्यौं अघओघ भजे ॥१॥ ___ॐ ह्रीं श्रावणकृष्णद्वितीयायां गर्भमङ्गलप्राप्ताय श्रीमुनिसुवतजिनेन्द्राय अर्घ नि० । वयसाख वदो दशमी वरनी । जनमें तिहिं द्यौस त्रिलोकधनी ॥
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सुरमन्दिर ध्याय पुरन्दरने। मुनिसुव्रतनाथ हमें सरने ॥२॥
ॐ हीं वैशाखकृष्णदशम्यां जन्ममङ्गलप्राप्ताय श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अर्ध नि०॥ तप दुद्धर श्रीधरने गहियो । वसयाखबदी दशमी कहियो॥ निरुपाधि समाधि सुध्यावत हैं। हम पूजत भक्ति बढ़ावत हैं ॥३॥ ___ॐ ही वैशाखकृष्णदशम्यां तपङ्गलप्राप्ताय श्रीमुनिसुवतजिनेन्द्राय अर्ध नि०॥ वरकेवलज्ञान उद्योत किया । नवमी वयसाखवदी सुखिया ॥ धनि मोहनिशाभनि मोखमगा। हम पूजि चहैं भवसिन्धु थगा। ___ॐ हीं वेशासकृष्णनवम्यां केवलज्ञानमङ्गलप्राप्ताय श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अध्यं ॥नि०॥ वदि वारस्त फागुन मोच्छ गये। तिहुँ लोक शिरोमनि सिद्ध भये। सु अनंत गुनाकर विघ्न हरी । हम पूजत हैं मनमोद भरी॥ ____ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णद्वादश्यां मोक्षमङ्गलप्राप्ताय मुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥
जयमाला। दोहा-मुनिगननायक मुक्तिपति, सूक्तव्रताकरयुक्त।
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भुक्तमुक्त दातार लखि, वदों तनमन उक्त ॥१॥
तोटक। जय केवलभान अमान धर्ग । मुनिस्वच्छसरोजविकासकरं ॥भवसंकट भंजन लायक है। मुनिसुव्रत सुव्रतदायक हैं ॥ २॥ धनधातव नंदवदीप्त भन । भविबोधत्रषातुरमेघधनं ॥ नित मंगलवृद चधायक है । मुनिसुव्रत सुव्रतदायक हैं ॥३॥ गरभादिक मंगलसार धरे । जगजीवनके दुखदंद हरे ॥ सब तत्वप्रकाशन वायक हैं। मुनिसुव्रत सुव्रतदायक हैं ॥४॥ शिवमारगमंडन तत्वकह्यो । गुनसार जगत्रय शर्म लह्यो ॥ रुज रागरु दोष मिटायक हैं। मुनिसुव्रत सुव्रतदायक हैं ॥ ५॥ समवस्रनमें सुरनार सही। गुनगावत नावत भालमही अरु नाचत भक्ति बढाय कहै । मुनिसुव्रत सुवृतदायक हैं ॥६॥ पगनूपुरकी धुनि होत भने । झननं झननं झननं झननं ॥ सुरलेत अनेक रमायक हैं । मुनिसुव्रत सुवृतदायक हैं ॥७॥ घननं घनन घन घंट बनें । तननं तननं तनतान सजें ॥ द्रिमद्री मिरदंग बजायक हैं । मुनिसुव्रत सुवृतदायक हैं ॥ ८॥ छिनमे लघु औ छिन थूल बनें । जुत हावविभाव विलासपने ॥ मुखतें पुनि यो गुनगायक हैं। मुनिसुव्रत सुव्रतदायक हैं ॥६॥ धृगता धृगता पगपावत हैं सननं सननं सुनचावत हैं । अति आनंदको पुनि पायक हैं। मुनिसुव्रत सुवृतदायक है ॥१०॥ अपने भवको फल लेत सही। शुम भावनितें सब पाप दही ॥ नित ते सुखको सब पायक
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हैं । मुनिसुव्रत सुवृतदायक हैं ॥११॥ इन आदि समाज अनेक तहां । कहि कौन सकै जु विभेद यहां ॥धन श्रीजिनचंद सुधायक हैं। मुनिसुव्रत सुवृतदायक हैं ॥१२॥ पुनि देशविहार कियौ जिनने । वृष अम्रतवृष्टि कियो तुमने ॥ हमको तुमरी शरनायक है। मुनिसुव्रत सुवृतदायक हैं ॥ १३ ॥ हम पै करुना करि देव अवै। शिवराज समाज सुदेहु सबै ॥ जिमि होहु सुखाश्रमनायक हैं। मुनिसुव्रत सुव्रतदायक हैं ॥१४॥ भवि बृन्दतनी विनती जु यही । मुझ देहु अभैपद राज सही॥ हम आनि गही शरनायक हैं । मुनिसुव्रत सुव्रतदायक हैं ॥१५॥
घत्तानंद। जय गुनगनधारी, शिवहितकारी, शुद्धबुद्ध चिद्रू पपती। परमानंददायक, दाससहायक, मुनिसुव्रत जयवंत जती ॥१६॥
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय महाधं निर्वपामाति स्वाहा ॥ दोहा-श्रीमुनिसुव्रतके चरन, जो पूजै अभिनंद। सो सुरनर सुख भोगिकें, पावै सुहजानंद ॥१७॥
इत्याशीर्वादः परिपुष्पाञ्जलि क्षिपेत्।
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श्रीनमिनाथपूजा। रोड़क---श्रीनमिनाथजिनेन्द्र नमों विजयारथनंदन।
विख्यादेवी मातु सहज सब पापनिकंदन ॥ अपराजित तजि जये मिथुलपुर वर आनंदन ।
तिन्हें सु थापों यहां विधाकरिके पदबंदन ॥१॥ ॐ हीं श्रीनमिनाथ जिनेन्द्र ! अब अवतर अवतर । संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अब मम सन्निहितो भव भव । वषट् ।
अष्टक।
द्रुतविलम्बित। सुरनदीजल उज्जल पावनं । कनकभृग भरों मनभावनं ॥ जजतु हौं नमिके गुनगायके । जुगपदांबुज प्रीति लगायकें ॥१॥
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____७० हा श्रानामनाजिनेन्द्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जलंनिवपामीति स्वाहा ॥ हरिमलै मिलि केशरसों घसों। जगतनाथ भवातपको नसों॥ जजतु हौं नमिके गुनगायकें । जुपगदांबुज प्रीति लगायकें ॥२॥ ___ ॐ हीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥ गुलकके सम सुंदर तंदुलं । धरत पुंजसु भुंजत संकुलं । जजतु हौं नसिके गुनगायके। जुगपांदबुज प्रीति लगायकै ॥ ३॥
ॐ हीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदसम्प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ कमल केतुकी बेलि सुहावनी। समरसूल समस्त नशावनी ॥ जजतु हौं नमिके गुनगायकें । जुगपदांबुज प्रीति लगायक ॥४॥
ॐ ह्रीं श्रीनमिनार्थाजनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ शशि सुधासम मोदक मोदनं । प्रबल दुष्ट छुधामद खोदनं ॥ | जजतु हौं नमिके गुनगायकें । जुगपदाबुज प्रीति लगायके ॥५॥
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___ॐ हीं श्रीनमिनाथ जिनेन्द्राय क्षुद्रोगनिवारणाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ शुधि घृताश्रित दीपक जोइया। असममोह महातम खोइया। जजतु हौं नमिके गुनगायके । जुगपदबुांज प्रीति लगायकें ॥६॥ ___ॐ ली श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारबिनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ A अमरजिल्लविपं दशगंधको। दहत दाहत कर्म कबँधको ॥
जजतु हौं नमिके गुनगायकें । जुगपदाम्बुज प्रीति लगायकें ॥७॥ ___ॐ ही श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ फलसुपर मनोहर पावने । सकल विनसमूह नशावने ॥ जजतु हों नमिके गुनगायके । जुगपदांबुज प्रीतिलगायकें ॥८॥ ___ॐ ही श्रीनमिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ जलफलादि मिलाय मनोहरं । अरघ धारत ही भय भी हरं ॥ जजतु हौं नमिके गुनगायकें । जुगपदांबुज प्रीति लगायके ॥ ६ ॥
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ॐ हीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनयंपदप्राप्तये अर्धं नि० ॥६॥
पञ्चकल्याणक । गरभागम मंगलचारा । जुग आसिन श्याम उदारा ॥ हरिहर्षि जजे पितुमातो । हम पूजें त्रिभुवन-ताता ॥ १ ॥ ___ॐ हीं आखिनकृष्णद्वितीयायां गर्भावतरणमंगलप्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अयं जनमोत्सव श्याम असादा । दशमीदिन आनँद बाढ़ा॥ हरि मंदर पूजे जाई । हम पूजें मनवचकाई ॥२॥ ___ॐ हीं श्रीआपाढकृष्णादशम्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० तप दुद्धर श्रीधरधारा । दशमीकलि षाढ़ उदारा॥ निज आतमरसझर लायौ। हम पूजत आनंद पायौ ॥३॥ ___ ॐ हीं आपाढ़ कृष्णदशम्यां तपकल्याणप्राप्ताय श्रीनमिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि०
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सित मगसिरग्यारस चूरे । चवघाति भये गुनपूरे॥ समवस्रत केवलधारी।तुमकों नित नौति हमारी॥४॥ ___ ॐ हीं श्रीमार्गशीर्षशुक्ल कादश्यां केवलज्ञानमंगलप्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० वयसाख चतुर्दशि.श्यामा।हनि शेष वरी शिववामा ॥ सम्मेदथकी भगवंता। हम पूजै सुगुन अनंता ॥५॥ ॐ हीं वैशाखकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ
जयमाला। दोहा---आयु सहस दशवर्षकी, हेमवरन तनसार ॥ धनुप पंचदश तंग तन, महिमा अपरंपार ॥१॥ जै जै जै नमिनाथ कृपाला । अरिकुलगहनदहनदवज्वाला ॥ जै जै धरमपयोधर श्रीरा। जय भवभंजन गुनगंभीरा ॥२॥जै जै परमानंद गुनधारी। विश्वविलोकन जनहितफारी ॥ अशरनशग्न उदार जिनेशा । जैजे समवशरन आवेशा ॥ ३॥जै जै केवलज्ञान
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प्रकाशी । जै चतुरानन हनि भवफांसी ॥ त्रिभुवनहित उद्यमवंता । जै जै जै जै नमि भगवंता॥४॥जै तुम सप्ततत्त्व दरशायो । तास सुनत भवि निजरस पायो॥ एक शुद्र अनुभवनिज भाखे। दोविधि राग दोप छै आखे ॥५॥ श्रेणी है नय वै धर्म । दों प्रमाण आगमगुन शमं ॥ तीनलोक त्रयजोग तिकालं। सल्ल पल्ल त्रय वात बलाल ॥६॥ चार बंध संज्ञागति ध्यानं । आराधन निछेप चउ दानं ॥ पंचलन्धि आचार प्रमादं । बंधहेतु पैताले सादं ॥ ७॥ गोलक पंचभाव शिव भौने । छहो दरव सम्यक अनुकौनें ॥ हानिवृद्धि तप समय समेता। सप्तभंगवानीके नेता ॥ ८॥ संजम समुद्घात भय सारा । आठ करम मद सिधगुनधारा ॥ नवों लवधि नवतत्त्व प्रकाशे। नोकपाय हरि तूप हुलाशे ॥ ६॥ दशों वन्ध के मूल नशाये । यों इन आदि सकल दरशाये ॥ फेर विहरि जगजन उद्धारे । जै जै ज्ञान दरश अविकारे ॥१०॥ औ वीरज जै सूच्छमवंता। जै अवगाहन गुन वरनंता । जैजै अगुरु लघू निरवाधा। इन गुनजुत तुम शिवसुख साधा ॥ ११ ॥ ताकौं कहतथके गनधारी तौ को समरथ कहै प्रचारी ॥ तातें मैं अब शरने आया । भवदुख मेटि देहु शिवराया ॥१२॥ वार वार यह अरज हमारी। हे त्रिपुरारी हे शिवकारी॥ परपरनतिको वेगि मिटावो । सहजानंदसरूपमिटावो ॥ १३॥ वृन्दावन जांचत शिरनाई। तुम मम उर निवसौ जिनराई ॥ जबलों शिव नहिं पावों सारा । तवलों यही मनोरथ म्हारा ॥१४॥
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घत्तानन्द।
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जयजय नमिनाथं, हौ शिवसाथ, औ अनाथके नाथ सदं। तातें शिरनायौ, भगति बढ़ायौ, चिहन चिन्ह शतपत्र पदं ॥ १५ ॥ ___ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय महाघ निर्वपामीति स्वाहा ॥ व दोहा-श्री नमिनाथतने जुगल, चरन जजें जो जीव ।
सो सुरनरसुख भोगवर, होवै शिवतिय पीव ॥ १६ ॥
इत्याशीर्वादः परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । श्रीनेमिनाथपूजा।
छन्द लक्ष्मी, तथा अर्द्धलक्ष्मीधरा । जैति जै जैति जै जैति जै नेमकी, धर्म अवतारदातार श्यौचैनकी। श्रीशिवानंद भौफंद निकन्द ध्यावे, जिन्हें इन्द्र नागेन्द्र ओ मैनकी। पर्मकल्यानके देनहारे तुम्हीं, देव हो एव तातें करौं ऐनकी।
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थापि हो वार त्रै शुद्ध उच्चार त्रै, शुद्धताधार भोपारक लेनकी ॥१॥
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिन ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ।। अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् ।
अष्टक। दाता मोच्छके श्रीनेमिनाथ जिनराय, दाता० टेक॥ निगमनदी कुश प्राशुक लीनौं, कंचनभृग भराय । मनवचतनतें धार देत ही, सकल कलंक नशाय ॥ दाता मोच्छके, श्रीनेमिनाथ जिनराय, दाता ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जन्ममृत्युविनाशाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ हरिचन्दनजुत कदलीनंदन, ककुमसंग घसाय । विघनतापनाशनके कारन, जजौं तिहारे पाय ॥ दाता०॥२॥ ॐ हीं श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥ पुण्यराशि तुमजस सम उज्जल, तंदुल शुद्ध मँगाय । अखय सौख्य भोगनके कारन, पुंज थरों गुनगाय॥दा॥३॥
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ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्याहा ॥ पुंडरीकतृणन्द्र मको आदिक, सुमन सुगंधितलाय । दर्पकमनमथभंजनकारन जजहुं चरन लवलाय ॥दा.॥४॥ ॐ हीं श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ घेवर बावर खाजे साजे, ताजे, तुरित मँगाय । क्षुधावेदनी नाश करनको, जजहुँ चरन उमगाय॥ दाता०॥५॥ ॐ हीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वामीति स्वाहा ॥ कनकदीपनवनीत पूरकर, उज्जल जोति जगाय । तिमिरमोहनाशक तुमकोंलखि, जजहुंचरन हुलसाय॥दा०॥६॥ ॐ हीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ दशविध गंध मँगाय मनोहर, गुंजत अलिगन आय ।
दशोंबंध जारनके कारन, खेवों तुमढिग लाय ॥ दा० ॥७॥ ॐ हीं श्रोनेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ सुरसवरन रसनामनभावन, पावन फल सु मॅगाय ।
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मोक्षमहाफल कारन पूजों,हे जिनवर तुमपाय॥ दाता.॥८॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ जलफलआदि साज शुचि लीने, आठों दरज मिलाय। अष्टमछितिके राज करनकों, जजोअंग वसुनाय ॥ दाता॥६॥ ॐ ह्री श्रोनेमिनाथ जिनेन्द्राय अयंपदप्राप्तये अघ निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
पञ्चकल्याणक । सित कातिक छटु अमंदा। गरभागमआनंदकंदा॥
शचि सेय सिवापद आई। हम पूजतमनवचकाई ॥१॥ ॐ हीं कार्तिक शुक्लपष्ठयां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि०॥ सित सावन छटु अमंदा । जनमें त्रिभुवनके चंदा॥ पितु समुद महासुख पायो। हम पूजत विधन नशायो॥२॥ ॐ ही श्रावणशुक्लपष्ठयां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि०॥ तजि राजमती ब्रतलीनों। सितसावन छ प्रवीनों॥ शिवनारि तबै हरवाई । हम पूजै पद शिरनाई ॥३॥
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ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लपष्ठयां तपकल्याणकप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अधं नि० सित आसिन एकम चूरे। चारों घाती अति कूरे॥
लहि केवल महिमा सारा । हम पूजै अष्टप्रकारा ॥४॥ ॐ हीं आश्विन शुक्लप्रतिपदि केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० सितषाढ़ अष्टमी चूरे। चारों अघातिया कूरे। शिव उर्जयंततें पाई। हम पूजै ध्यान लगाई ॥५॥ ॐ हीं आषाढशुक्लाष्टम्यां मोक्षमंगल प्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घं नि०
जयमाला दोहा---श्याम छबी तन चाप दश, उन्नत गुननिधिधाम । शंख चिह्नपदमें निरखि, पुनि पुनि करों प्रनाम ॥१॥
पद्धरी छंद (१६ मात्रा लण्वन्त)। 'जै जै जे नेमि जिनिंद चंद । पितु समुद देन आनंदकंद ॥ शिवमात कुमुदमनमोददाय । भविवृन्द चकोर सुखी कराय ॥२॥ जय देव अपूरव मारतंड । तुम कीन ब्रह्मसुत सहस BI खंड ॥ शिवतियमुखजलजविकाशनेश । नहिं रही सृष्टिमे तम अशेश ॥३॥भचि भीत कोक ॥ कीनो अशोक । शिवमग दरशायो शर्मथोक ॥ जै जै जै जै तुम गुनगंभीर। तुम आगम
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निपुन पुनीत धीर ॥ ४॥ तुम केवलजोति विराजमान । जै जै जै जै कलानिधान ॥ तुम समवसरनमें तच्चमेद। दरशायो जातें नशत खेद ॥५॥ तित तुमको हरि आनंधार । पूजत भगतीजुत बहु प्रकार ॥ पुनि प्राद्यपद्यमय सुजस गाय । जै बल अनंत गुनवंतराय ॥६॥ जय शिवशंकर ब्रह्मा महेश । जय बुद्ध विधाता विश्णुप ॥ जय कुमतिमतंगनको मृगेंद्र। जय मदनध्वांतको रवि जिनेन्द्र ॥ ७॥ जय कृपासिंधु अविरुद्ध वुद्ध । जय रिद्धसिद्ध दाता प्रबुद्ध ॥ जय जगजनमनरंजन महान । जय भवसागरमहं सुष्टु यान ॥ ८॥ तुव भगति करै ते धन्य जीव । ते पावें दिव शिवपद सदीव ॥ तुमरो गुन देव विविधप्रकार । गावत नित किन्नरकी जु नार ॥ ६॥ वर भगतिमाहिं लवलीन होय । नाचें ताथेइ थेइ थेइवहोय ॥ तुम फरुणासागर सृष्टिपाल । अव मोकों नेगि करो निहाल ॥ १०॥ मैं दुख अनंत वसुकरमजोग । भोगे सदीव नहिं और रोग ।। तुमको जगमे जान्यों दयाल। हो वीतराग गुनरतनमाल ॥ ११ ॥ ताते शरना अव गही आय । प्रभु करो वेगि मेरी सहाय ॥ यह विघन करम मम खंडखंड । मनवांछितकारज मंडमंड ॥ १२॥ संसारकष्ट चकचूर चूर । सहजानंद मम उर पूर पूर ॥ निज पर प्रकाशवुधि देह देह । तजिके विलंब सुधि लेह लेह ॥ १२॥ हम जांचत है यह बार वार । भवसागरतें मो तार तार ॥ नहिं सह्यो जात यह जगत दुःख । ताते विनवों हे सुगुनमुक्ख ॥ १४ ॥ घत्तानंद-श्रीनेमिकुमारं जितमदमारं, शीलागारं, सुखकारं, ।
भवभयहरतारं,शिवकरतारं, दातारं धर्माधारं ॥ १५॥
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ॐ हीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय महाघ निर्वपामीति स्वाहा ॥ मालिनी---सुख, धन,जस, सिद्धि पुत्रपौत्रादि वृद्धि । सकल मनसि सिद्धि होतु हे ताहि रिद्धि ॥ जजतहरपधारी नेमिको जो अगारी। अनुक्रम अरिजारी सो वरे मोच्छ नारी ॥१६॥ इत्याशीर्वादः ।
श्रीपार्श्वनाथपूजा। प्रानतदेवलोकतें आये, बामादे उर जगदाधार। अश्वसेन सुतनुत हरिहर हरि, अंक हरिततन सुखदातार ॥ जरतनाग जुगबोधि दियो जिहि, भुवनेसुरपद परमउदार । ऐसे पारसको तजि आरस, थापि सुधारस हेत विचार ॥१॥ ___ॐ हीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । अन तिष्ठ तिष्ठ । 3. 3ः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
अष्टक। सुरदीरधिकोकनकुंभ भरों। तव पादपद्मतर धार करों॥
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सुखदाय पाय यह सेवत हौं । प्रभुपार्श्व सार्श्वगुन बेवत हौं ॥१॥
ॐ ही जन्ममृत्युविनाशनाय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्रभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ हरिगंध कुकुम कपूर घलौं । हरिचिह्नहेरि अरचोंसुरसौं॥सु० ॥२॥
ॐ ह्री भवतापविनाशनाय श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र भ्यश्चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥ हिमहीरनीरजसमानशुचं । वरपुंज तंदुल तवाय मुचं॥ सु०॥३॥ ___ॐ ह्रीं अक्षयपदप्राप्तये श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्रभ्यो अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ कमलादिपुष्प धनुपुष्प धरी । सदभजत ढिग पुंज करी ॥सु०॥४॥ ___ ॐ ह्रीं कामवाणविध्वंसनाय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र भ्यः पुष्पं निपामीति स्वाहा ॥ चरु नव्यगव्य रससार करों धरि पादपद्मतर मोद भरों।सु०॥५॥
ॐ ह्री क्षुद्रोगनिवारणाय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र यो नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ मनिदीपजोत जगमग्ग मई। दिगधारतें स्वपरबोध ठई॥सु०॥६॥ ____ॐ हीं मोहान्धकारविनाशनाय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्रभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ दशगंध खेय मनमाचत है। वह धूमधममिसिनाचत है।मु०॥७॥
ॐ हीं अष्ठकर्मदहनाय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र भ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ फलपक्व शुद्ध रसजुक्त लिया। पदकंज पूजत हौं खोलि हिया॥सु०॥
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ॐ हीं मोक्षफलप्राप्तये श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र भ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा ।। जलआदि साजिसब द्रव्य लिया। कनथार घारनुतनृत्य किया ।सु० ॐ मी अनध्यपदप्राप्तये श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्रभ्यो अर्घ निर्वपामीति साहा ॥
पञ्चकल्याणक। पक्ष वैशाखकी श्याम दूजी भनों । गर्भकल्यानकोद्यौस सोहीगनों॥ देवदेवेन्द्र श्रीमातु सेव सदा । मैं जजों नित्य ज्यों विघ्न होवै बिदा ॥ ..ॐ ही वेशाग्यकृष्णद्वितीयायां गर्भागममंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अधू नि० पोपकी श्याम एकादशीकोस्व जी। जन्म लीनों जगन्नाथ धर्म ध्वजी॥ नाक नागेन्द्र नागेन्द्र पूजिया। मैं जजों ध्यायके भक्त धारोहिया॥ ____ ही पौषकृष्णेकादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ नि० कृष्णएकादशी पौपकी पावनी । राजकों त्याग वैराग धास्यो वनी॥ ध्यानचिद्र पकोध्याय साता मई। आपको मैं जजों भक्ति भावे लई॥ ___ॐ ही पोपटष्णकादम्यां नपोमंगलमण्डिताय श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ नि०॥ जनकी चौथि श्यामामहाभावनी।तादिना घातिया घातिशोभावनी॥
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बाह्य आभ्यन्तरें छन्द लक्ष्मीधरा । जैति सर्वज्ञ मैं पादसेवा करा ॥ ____ॐ ह्री चैत्रकृष्णचतुर्थ्या केवलज्ञानमडलप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० सप्तमीशुद्ध शोभै महासावनी । तादिना मोच्छपायो महापावनी ॥ शैलसम्मेदतें सिद्धराजा भये । आपकों पूजते सिद्धकाजा ठये ॥ ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लसप्तम्यां मोक्षमङ्गलपण्डिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्धं नि०
जयमाला। दोहा-पाशपर्म गुनराश है, पाशकर्म हरतार ।
पाशशर्म निजवास यो, पाशधर्म धरतार ॥ १॥ नगरबनारसि जन्मलिय, वंश इख्याक महान ।
आयु वरण शततुंग तन, हस्त सुनौ परमान ॥२॥ जय श्रीधर श्रीकर श्रीजिनेश । तुव गुन गन फणिगावत अशेश ॥ जय जय जय आनंदकंद चंद । जय जय भविपंकजको दिनंद ॥३॥ जय जय शिवतियवल्लम महेश । जय ब्रह्मा शिवशंकर गनेश ॥ जय खच्छचिदंग अनंगजीत । तुव ध्यावत मुनिगन सुहृदमीत ॥४॥ जय गरभागममंडित महंत । जगजनमनमोदन परम संत ॥ जय जनममहोच्छव सुखधार ।
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भविसारंगको जलधर उदार ॥५॥ हरिगिरिवरपर अभिषेक कीन । झट तांडव निरत अरंभदीन ॥ बाजन बाजत अनहद अपार । को पार लहत वरनत अवार ॥६॥द्गमदूम द्वमगम द्वम दूम मृदंग। घघनन नननन घंटा अभंग ॥छमछम छमछम छम छुद्रघंटा टमटम टमटमटकोर तंट ॥ ७॥ झननन झननन नूपुर झकोर । तननन तननन नन तानशोर ॥ सनननन ननननन गगनमाहिं । फिरिफिरिफिरिफिरिफिरिकी लहांहिं॥ ताथेइ थेइ थेइ थेइ धरत पाव । चटपट अटपट झट त्रिदशराव ॥ करिके सहस्र करको पसार । बहुभांति दिखावत भाव प्यार ॥६॥ निजभगति प्रगट जित करत इंद्र । ताको क्या कहिं सकि हैं कविंद्र ।। जहँ रंगभूमि गिरिराज पर्म । अरु सभा ईश तुम देव शर्म ॥१०॥ अरु नाचत मघवा भगतिरूप । बाजे किन्नर बजत भनूप ॥ सो देखत ही छवि बनत वृ'द । मुखसो केसे बरनै अमंद ॥१॥ धनघड़ी सोय धन देव आप। धन तीर्थंकर प्रकृती प्रताप ॥ हम तुमको देखत नयनद्वार । मनु आज भये भवसिंधु पार ॥१२॥ पुनिपिता सौपि हरि स्वर्गजाय । तुम सुखसमाज भोग्यौ जिनाय ॥ फिर तपधरि केवल शानपाय । धरमोपदेश दे शिवसिधाय ॥१३॥ हम सरनागत आये भवार । हे कृपासिंधु गुन अमलधार ॥ मो मनमें तिष्ठहु सदाकाल । जबलों न लहों शिवपुर रसाल ॥१४॥ निरवान थान सम्मेद जाय । “वृदावन' बंदत शीसनाय ॥ तुम ही हो सब दुखवंद हर्न । तातें पकरी यह चर्नशन ॥१५॥ जयजय सुखसागर, त्रिभुवन आगर, सुजस उजागर, पार्श्वपती॥ वृन्दावन ध्यावत, पूजरचावत, शिवथलपावत, शर्म अति ॥ १६ ॥
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ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय महाधंनिर्वपामीति स्वाहा ॥ फवित्त..पारसनाथ अनाथनिके हित, दारिदगिरिकों वज्रसमान ।
सुखसागरवर्द्धनको शशिसम, दवकषायको मेघमहान। तिनको पूजै जो भविप्रानी, पाठ पढ़ अति आनंद आन। सो पावै मनवांछित सुख सब, और लहै अनुक्रमनिरवान ॥ १७॥
___ इत्याशीर्वादः परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।।
স্বীশ্বালালিঙ্গা।
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मत्तगयंद-श्रीमतवीर हरै भवपीर, भरै सुखसीर अनाकुलताई। केहरिअंक अरीकरदक, नये हरिपंकतिमौलि सुआई॥ मैं तुमको इत थापतु हौं प्रभु, भक्ति समेत हिये हरखाई। हे करुणाधनधाकर देव, इहां अब तिष्ठहु शीघ्रहि आई॥
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ॥१॥ अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ॥२॥ अन मम सन्निहितो भव भव । वपट् ॥ ३॥
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छंद अष्टपदी (यानतरायफ़त नंदीश्वराष्टकादिक अनेक रागोंमें भी बने हैं)। नीरोदधिसम शुचि नीर, कंचनमृग भरों।
प्रभु वेग हरो भवपीर, यातें धार करों॥ श्रीवीरमहा अतिवीर सन्मतिनायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर सन्सतिदायक हो ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
मलयागिरचंदनसार, केसरसंग घसा।
प्रभु भव आताप निवार, पूजत हिय हुलसा ॥श्री०॥२॥ ॐ ती श्रीमहावीरजिनेन्द्राय भवनापविनाशनाय गंदनं निर्वपामीति० ॥२॥
तंदुलसित शशिसम शुद्ध, लीनों थार भारी।
तसु पंज धरों अविरुद्ध, पावों शिवनगरी ॥श्री०॥३॥ ॐ ही श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपशाप्तये अशतान् निर्वपामीति०॥३॥
सुरतरुके सुमन समेत, सुमन सुमनप्यारे ।
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सो मनमथभंजनहेत, पूजों पद थारे श्री०॥४॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति० ॥४॥
रसरज्जत सज्जत सद्य, मज्जत थार भरी।
पद जज्जत रज्जत अद्य, भज्जत भूख अरी ॥श्री०॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति० ॥५॥
तमखंडित मंडितनेह, दीपक जोवत हों॥
तुम पदतर हे सुखगेह, भ्रमतम खोवत हों॥ श्री०॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति० ॥६॥
हरिचंदन अगर कपूर, चूर सुगन्ध करा।
तुम पदतर खेवत भूरि, आठों कम जरा ॥ श्री०॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति० ॥७॥
रितुफल कलवजित लाय, कंचनथार भरा।
शिव फलहित हे जिनराय, तुमढिग भेट धरा श्री॥८॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८॥
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जलफल वसु सजि हिमथार, तनमनमोद धरों।
गुण गाऊं भवदधितार, पूजत पाप हरों ॥श्री०॥६॥ ॐ हीं श्रीगईमानजिनेन्द्राय अनर्यपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
पंचकल्याणक । मोहि राखा हो, सरना, श्रीवर्द्ध मान जिनरायजी, मोहि राखो०॥ गरभ साढसित छट लियो थिति, त्रिशला उर अघहरना। सुर सुरपति तित सेव करयो नित, मैं पूजों भवतरना ।मोहिरा०॥ ____ॐ ही आपाढशुरुषष्ठयां गर्भमद्गलमण्डिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अभ्यं नि० ॥ जनम चतसित तेरसके दिन, कुंडलपुर कनवरना। सुर्रागर सुरगुरु पूज रचायो, में पूजों भवहरला ॥ मोहिरा० ॥२॥ ॐ ही नेत्रशुलप्रयोदश्यां जन्ममगलप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ नि० मगसिर असित मनोहर दशमी, ता दिन तप आचरना। नृप कुमारघर पारन कीनों, मैं पूजों तुम चरना ॥ मोहिरा०॥ ॐ ही मार्गशीर्षरुष्णदशम्यां तपोगालमण्डिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ नि०
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शुकलद वैशाखदिवस अरि, घात चतुक छयकरना । केवललहि भवि भवसरतारे, जजों चरन सुख भरना ॥ मो०॥॥
ॐ हीं वैशाखशुक्ल दशम्यो जनकल्याणप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ नि० कातिक श्याम अमावस शिवत्रिय, पावापुरतें परना। गनफनिबृद जजे तित बहुविधि, मैं पूजों भयहरना ॥ मो० ॥५॥ ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णामावस्यायां मोक्षमङ्गलमण्डिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ नि0
जयमाला।
___छंद हरिगीता २८ मात्रा। गनधर असनिधर, चक्रधर, हरधर गदाधर वरवदा । अरु चापधर विद्यासुधर, तिरसूलधर सेवहिं सदा ॥ दुखहरन आनंदभरन तारन, तरन चरन रसाल है । सुकुमाल गुनमनिमाल उन्नत, भालकी जयमाल हैं ॥१॥ घत्तानन्द--जय त्रिशलानंदन, हरिकृतचंदन, जगदानंद, चंदवरं। भवतापनिकंदन तनकनमंदन, हरितसपंदन, नयन धरं ॥२॥ ___ छंद तोटक । जय केवलभानुकलासदनं । भविकोकविकाशनकंदवनं ॥ जगजीत महारिपु मोहहरं । रजशानद्गा बर चूरकरं ॥ १॥ गर्भादिकमंगलमण्डित हो ॥ जगमाहिं तुमी सत
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पंडित हो। तुम ही भवभावविहंडित हो ॥२॥ हरिवंशसरोजनमो रवि हो। बलवंत महंत तुम ही कवि हो ॥ लहि केवल धर्मप्रकाश कियौ। अवलों सोई मारगराजति यौ॥३॥ पुनि आप तने गुनमाहिं सही। सुर मग्न रहैं जितने सव ही ॥- तिनकी वनिता गुन गावत हैं। लय माननिसों मनभावत हैं ॥४॥ पुनि नाचत रंग उमंग भरी। तुअ भक्तिविषै पग येम धरी ॥ झननं झननं झननं छननं । सुरलेत तहाँ तननं तननं ॥५॥ घननं घननं घनघंट बजे। दूमद्दमन्द मिरदंग सजै॥ गगनोगनगर्भगता सुगता। ततता ततता अतता वितता ॥६॥ धृगतां धृगतां गति वाजत है। सुरताल रसाल जु छाजत है॥ सननं सननं सननं नभमैं । इकरूप अनेक जु धारि भमैं ॥७॥ कइ नारि सु वीन वजावति हैं। तुमरो जस उजल गावति हैं ॥ करतालविषे करताल धरें। सुरताल विशाल जु नाद करें ॥८॥ इन आदि अनेक उछाहभरी। सुरिभक्ति करें प्रभुजी तुमरी ॥ तुमही सब विघ्नविनाशन हो। तुमही निज आनंद भासन हो। तुमही चितचिंतितदायक हौ । जगमाहिं तुमी सब लायक हौ। तुमरे पनमङ्गलमाहिं सही। जिय उत्तम पुन्नलियो सब ही ॥ हमको तुमरी सरनागत है। तुमरे गुनमे मन पागत है ॥ ११ ॥ प्रभु मोहिय आप सदा बसिये। जवलो वसुकर्म नहीं नसिये ॥ तवलो तुम ध्यान हिये वरतो । तवलो श्रुतचिंतन चित्त रतो ॥ २२ ॥ तवलो तब चारित चाहतु हों। तबलो शुभ भाव सुगाहतु हों॥ तवलों सतसंगति नित्त रहौ । तबलों मम संजम चित्त गहौ ॥ १३ ॥ जबलों नहीं नाश करो अरिकों। शिवनारि वरों समता धरिको ॥ यह यो तयलों हमको जिनजी । हम जाचतु हैं इतनी सुनजी ॥१४॥
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धत्तानन्द । श्रीवीरजिनेशा नमितसुरेशा, नागनरेशा भगतिभरा। 'वृदावन ध्यावै विघननशावै, वांछित पावै शर्म वरा ॥१५॥ ॐ ह्रीं श्रीवर्धमानजिनेन्द्राय महाधं निर्वपामीति स्वाहा ॥ दोहा-श्रीसनभतिके जुगलपद, जो पूजै धरि प्रीत। वृदावन सो चतुरनर, लहै मुक्तिनवनीत ॥१६॥
इत्याशीर्वादः परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्।
श्रीसमुच्चयअर्घ । तोटक–सुनिये जिनराज त्रिलोकधनी तुममें जितने गुन हैं तितनी॥ कहि कौन सकै मुखसों सब ही। तिहिं पूजतु हौं गहि अर्घ यही ॥१॥ ___ ॐ ह्रीं श्रीवृपभादि वीरान्तेभ्यो चतुर्विशतिजिनेभ्यः पूणा निर्वपामी स्वाहा॥
फवित्त । रिखवदेवकों आदिअंत, श्रीवरधमान जिनवर सुखकार । तिनके चरनकमलको पूज, जो प्रानी गुनमाल उचार ॥ | ताके पुत्रमित्र धन जोवन, सुखसमाजगुन मिलै अपार ।
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सुरपदभागभोगि चक्री ह, अनुक्रमलहै मोच्छपद सोर ॥२॥
इत्याशीर्वादः। कविनामग्रामादिपरिचय। मनाइरन । काशीजीमें झाशीनाथ नन्हूंजी, अनंतराम, मूलचंद, आढतसुराम आदिजानियौ।सज्जन अनेक तहां धर्मचंदजीको नंद,
दावन अग्रवाल गोल गोती बानियो॥ ताने रचे पाठ पाय मन्नालालको सहाय, वालवुद्धि अनुसार सुनो लरधानियौ । यामें भूलचूक होय ताहि शोध शुद्ध कीज्यो, मोहि अलपज्ञ जानि छिमा उरआनियो|
॥ इति श्रीमविरवृन्दावनकृत श्रीवर्तमानजिनचतुर्विंशति जिनपूजा समाप्त ॥ संगत् महासौ पचहत्तर १८०५ फार्तिककृष्ण अमावस्या गुरुवारको यह पुस्ता पूर्ण भया । लिखितं वृन्दावनेन निजपरोपकारार्थम् ।
यमस्तु । मंगलामस्तु । शुभम्भूयात् ।
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