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ज्ञानपुर (वाराणसी) विश्वभारती अनुसन्धान परिषद्
| पं० भगवद्दत्त एवं हंसराज
IVEDIC-KOSHA
चैदिक-कोशः
66-60
50-600000
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IT IS A REPRODUCTION OF EARLIER EDITION OF
VEDIC KOŞA
वैदिक कोषः
लेखक हंसराज एवं भगवद्दत्त
विश्वभारती अनुसन्धान परिषद्
ज्ञानपुर (वाराणसी)
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VEDIC KOȘA By HAMSĀRAJA & BHAGAVAD DATTA
The Publication has been brought out with financial assistance from Government of India, Ministry of Human Resource Development.
If any defect is found in this book, please return the copy by V.P.P.to the publisher for exchange free of cost and postage.
ISBN 81-85246-35-1 Reprint : 1992 Price : Rs. 78.00
Published by: VISHVA BHARATI RESEARCH INSTITUTE GYANPUR (VARANASI), U.P., INDIA
Printed at : Ratna Printing Works, Kamaccha, Varanasi
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* ओ३म *
HRSSSSSSSSSSSSSSSSSSSS
वैदिक कोपः
दयानन्दमहाविद्यालयम्थानुसन्धानविभागम्य पुस्तकाध्यक्षेण हंसराजेन संगृहीतः
भगवद्दत्त-कृतया ब्राह्मण-ग्रन्थेतिहास-प्रकाशिकया भूमिकया सहितः ।
प्रथमो भागः अब पचदशमदित ब्राह्मणग्राधान्तर्गवैदिकशब्दानामर्धा निर्वचनानि च, तत्तद्देवतानां विशिष्ट कार्मादीनि, यौनसम्बन्धानि विशवक्तव्यानि, विविधवियानामाचाराणाश्च मूलभू
तान्याणि वचांसि च संगृहीतानि । ऋषिदयानन्दसरस्वतीजन्मशताब्द्यपहारः।
आर्य सम्वत् १९६०८५३०२६ विक्रम सं० १९८२।
सन् १९२६ १०। दयानन्दाब्दः १०१ प्रथम संस्करण
HSSSSSSSSSSSSSSRHI
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OM
VEDIC KOSA
by HAMŠARAJA Librarian, Research Library, D. A. V. College,
LAHORE. WITH AN ELABORATE INTRODUCTION
on the HISTORY OF THE BRĀHMANA LITERATURE
by BHAGAVAD DATTA
VOLUME I. Comprising a concordance of all the etymologies, meanings of Vedic words, attributes of different devatas, scientific and moral passages and other useful material contained
in the 15 printed Brahmanas of the Vedas.
L.DWARKA DASS MEMORIAL VOLUME
First Edition
FEB. 1926.
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* ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव ।
यद्भद्रं तन्न आसुव ।। यजु०॥ * प्राक्कथन *
ग्रन्थारम्भ का इतिहास । कालेज में अध्ययन करते समय में ऋषि दयानन्द सरखती प्रणीत वेद-भाष्य का खाध्याय किया करता था। श्री स्वामी जी महाराज अपने वेद-व्याख्यान में स्थल स्थल पर ब्राह्मणग्रन्थों के प्रमाणों को उद्धृत करते हैं। इन्हीं प्रमाणों के बल पर उन्होंने वेद-मन्त्रों के अनेक सार-गर्मित अर्थ दर्शाए हैं । मरे मन में अनेक वार यह कामना उठता थी कि अखिल ज्ञात ब्राह्मण-ग्रन्थों के ऐसे ही वाक्यों का यदि अकारादि-क्रम से संग्रह हो जाय, तो वेदाभ्यासियों को बड़ी सुगमता होगी । पुनः सन् १९१६ में मैं निरूत का पाठ किया करता था। निरुत में
इति ह विज्ञायते । इति ब्राह्मणम् । कह कर कई स्थलों पर ब्राह्मणग्रन्थान्तर्गत वैदिक-शब्दों का निर्वचन भी दिया हुआ है । उस निर्वचन से वेदार्थ में बड़ी सहायता मिलती है। उस से यह बात हृदयंगम हुई कि ब्राह्मण-ग्रन्थों में आये हुए वैदिक-पदों के निर्वचन का भी अकारादि कम से संग्रह होना चाहिये ।
सन् १९१७ में ऋषि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापन ' भाग प्रथम छापते समय मेरा ध्यान उनके एक पत्र* की ओर आकृष्ट हुआ । उस में लिखा है
___" निघण्ट सूचीपत्र के सहित तुम्हारे पास भेज दिया है । और निरुक्त तथा ब्राह्मणों के प्रसिद्ध शब्दों की संक्षिप्त सूची भी बनाकर भेजेंगे सो निघण्टु की सूची के अन्त में छपवाना । ” ।
* देखो-ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन भाग प्रथम, पत्र (४४) ।
+ मैंने इस ग्रन्थ का अन्वेषण किया । मुझे इसका पता न लगा । हां, मार्च सन् १९२१ में पण्डित रामगोपाल शास्त्री ने अजमेर समाजोत्सव से आकर मुझे सूचित किया कि उन्होंने श्रीस्वामी जी के कागजों के एक बण्डल में इस ग्रन्थ को खोज लिया है।
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सन् १९१८ में पं० हंसराज इस पुस्तकालय के पुस्तकाध्यक्ष बने । मैंने ब्राह्मण-ग्रन्थों में से पूर्वोक्त दोनों प्रकार के वाक्यों का संग्रह करने के सम्बन्ध में उन से बात की । वे मुझे ही कार्य भार लेने के लिये कहते थे । अन्त को हम दोनों एक निश्चय पर पहुंच गये । तदनुसार पं० हंसराज ने सन् १९१८ के अन्त में संग्रह का काम आरम्भ कर दिया । तब से वे यह काम करते ही आये हैं । उन के इस अविश्रान्त परिश्रम का फल अब वैदिक विद्वानों के सम्मुख उपस्थित किया जाता है । मैं भी समय २ पर उनके कार्य का निरीक्षण करता रहा हूं। मुझे सदा ही अत्यन्त प्रसन्नता होती थी, जब मैं उनके संग्रह में प्रायः सब ही आवश्यक शब्दों को आया हुआ पाता था ।
पर इतने बड़े काम में त्रुटियों का होना बहुत साधारण बात है । हमें स्वयं इसकी अनेक नदियों का ज्ञान है । पर धनाभाव में हम इससे अधिक अच्छा काम नहीं कर सकते थे ।
ु
ग्रन्थनाम ।
हम ने इस संग्रह का नाम वैदिककोष रखा है । सम्भव है अनेक विद्वान् प्रश्न करें कि यह वेदान्तर्गत प्रत्येक शब्द का कोष तो है नहीं, पुन: इसका ऐसा नाम क्यों ? हमारा विचार है कि जैसे यास्कीय-निघण्टु वैदिककोष कहा जाता है, वैसे यह बृहत्संग्रह भी वैदिककोष कहला सकता है । विशेषता इस में यह है कि इस में निर्वचनादि का संग्रह होनेसे यह निम्नादि का भी मूल कहा जा सकता है । कोषार्थ प्रयुक्त ब्राह्मण-ग्रन्थों के नाम ।
अब तक जितने ब्राह्मण ग्रन्थ मुद्रित हो चुके हैं, उनसे ही कोष के इस प्रथम-भाग की रचना हुई है । उनके नामादि और संस्करण जो समय २ गये निम्नलिखित हैं ।
परवर्त
ऋग्वेदीय ब्राह्मण । (१) क - ऐतरेय ब्राह्मणम् -Martin Haug द्वारा गवर्नमेण्ट द्वारा प्रकाशित । सन् १८६३ | Vol. I.
ख- ऐतरेय ब्राह्मणम् – सायणभाष्य समेतम् । सत्यव्रत सामश्रमा द्वारा सम्पादित | Asiatic Society of Bengal. Calcutta. सम्ब १९५२-१९६२. Vol. I-IV.
ग- ऐतरेय ब्राह्मणम् ।
सम्पादित । मुम्बई
Das Aitareya Brahmana सम्पादक
Theodor Aufrecht. Bom सन् १८७९ ।
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घ-ऐतरेय ब्राह्मणम-सायणमान्य समेतम् । सम्पादक-काशीनाथ शास्त्री
आनन्दाश्रम पूना । सन् १८९६ । Vol. I. II. (२) क-कौषीतकि ब्राह्मणम्-सम्पादक-B. Lindner. Jena. सन् १८८७ ख-शाङ्कायन ब्राह्मणम–सम्पादक-गुलाबराय बजेशंकर आनन्दाश्रम पूना । सन १९११ ।
यजुर्वेदीय ब्राह्मण । (३) क-शतपथ ब्राह्मणम्...माध्यन्दिनीयम् । सम्पादक A. Weher.
Reprint. लाइपज़िग । सन् १९२४ । ख-शतपथ ब्राह्मणम-मा यन्दिर्नायम् । अजमेर संवत् १९५९ । ग-शतपथ ब्राह्मणम्-सायणभाष्य सहितम् काण्ड १-३,५-७,९ सम्पा
दक सत्यव्रत सामश्रमी । सन् १९०३.१९११ । Asiatic Society of
Bengal, Calcutta. Vols. 1-VII. (४) क-तैत्तिरीय ब्राह्मणम-सायणभाष्य सहितम् सम्पादक राजेन्द्रलाल मित्र ।
Asiatic Society of Bengal, Calcutta. सन् १८५९-१८९० ॥
'ols. I-III. ख-तैत्तिरीय ब्राह्मणम–सायणभाष्य सहितम् । सम्पादक-नारायण शास्त्री।
भाग १-३ । आनन्दाश्रम पूना । सन् १८९९ । ग-तैत्तिरीय ब्राह्मणम्-भट्टभास्कर भाष्ययुतम् । सम्पादक-महादेव शास्त्री तथा श्रीनिवासाचार्य । सन् १९०८-१९२१ । मैसूर :
सामवेदीय ब्राह्मण । (५) ताण्ड्यमहाब्राह्मणम-सायणभाष्य सहितम् । सम्पादक-आनन्दचन्द्र
वेदान्तवागीश Asiatic Society of Bongal, Calent ta. सन् १८७० । (६) (७) क-दैवतब्राह्मणम्-तथा षाविशयाह्मणम्-सायणभाष्य साहतम्
सम्पादक जीवानन्द विद्यासागर, कलकत्ता । सन् १८८१ । ख-षडविंशब्राह्मणम-विज्ञापनभाष्य सहितम | सम्पादक-H. F.
Eelsingh:. लाईडन । सन् १९०८ । ग-पड्विंशब्राह्मणम्-सायणभाष्य सहितम् । प्रथमः प्रपाठकः ।
सम्पादक Kurt Klemm. Gutersloh. सन् १८९४ ।
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(८) क-मन्त्रब्राह्मणम-सम्पादक सत्यव्रत-सामश्रमी । संवत् १९४७ ।
कलकत्ता। ख-मन्त्रब्राह्मणम-प्रथमः प्रपाठकः । सम्पादक Heinrich Stonner.
Halle. सन् १९०१ । (९) संहितोपनिषद ब्राह्मणम-भाष्यसहितम् । सम्पादक-A. C. Burnell.
मंगलोर । सन् १८७७ । (१०) आर्षेय ब्राह्मणम-सम्पादक A. C. Burnell. मंगलोर । सन् १८७६॥ (११) वंशब्राह्मणम–सायणभाष्य सहितम् । सम्पादक-सत्यव्रत सामश्रमी ।
कलकत्ता । संवत् १९४९ ।। (१२) क-सामविधानब्राह्मणम्-सायणभाष्य सहितम् । सम्पादक-सत्यव्रत
सामश्रमी । कलकत्ता । संवत् १९५१ । ख-सामविधानब्राह्मणम-सायणभाष्य सहितम् । सम्पादक A. C.
Burnell. लण्डन । सन् १८७३ । (१३) जैमिनि उपनिषद ब्राह्मणम-सम्पादक-Hanns Octel. देव
नागरी संस्करण । लाहौर । सन् १९२१ । (१४) जैमिनि आर्षेय ब्राह्मणम्-सम्पादक-A. C. Burnell. मगलोर । सन् १८७८ ।
अथर्ववेदीय ब्राह्मण । (१५) क-गोपथ ब्राह्मणम्-सम्पादक-हरचन्द्र विद्याभूषण । कलकत्ता ।
सन् १८७० । ख-गोपथ बाह्मणम-सम्पादक-Dr. Dieuke Gaastra. लाईडन
सन् १९१९ । कोष में संग्रह किये हुए वाक्यों का विषय ।
__ जैसा पूर्व कहा जा चुका है, इस कोष में ब्राह्मणान्तर्गत वैदिक-पदों का निर्वचन तथा अर्थ तो मुख्यतया एकत्र किया ही गया है, पर इसके अतिरिक्त वैदिक देवताओं के गुण, कर्म, स्वरूपादि के सम्बन्धी वाक्यः अनेक उपयोगी वैज्ञानिक वाक्यः तथा यज्ञसम्बन्धी विशेष बातें, वा अन्वेषणोपयोगी अनेक प्रकार के वाक्य भी गंगत निगे गये हैं।
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कोषान्तर्गत वाक्य क्रम । वाक्यों के संग्रह होजाने पर उनको क्रम देने का काम बज कठिन था । बहुत विचारानन्तर यही निश्चित किया गया कि यदि किसी शब्द का निर्वचन ब्राह्मण ग्रन्थों में विद्यमान है, तो वह आरम्भ में धरना चाहिये । अन्ततः ऐसा किया भी गया है । तत्पश्चात् अनेक सदृश वा समानार्थ वाक्य एकत्र रखे गये हैं । यह शैली ब्राह्मण-ग्रन्थों के भावी सम्पादकों के लिये बड़ी उपयोगी होगी, एक ही दृष्टि से उन्हें तुल्य-वाक्यों वा भ्रष्टपाठों का ज्ञान होजायगा ।
माडर्न रीव्यू अकतूबर सन् १९२४ में हमारे कोष की समालोचना करते हुए पं० विधुशेखर भट्टाचार्य ने लिखा था कि 'ये वाक्य भी अकारादि क्रम से देने चाहिये थे ।' यह प्रस्ताव सर्वथा अनुचित प्रतीत होता है । हमारा पूर्व-प्रदर्शित अभिप्राय इससे पूर्णतया सिद्ध नहीं होता था । हमारे सामने यह विचार आया था, परन्तु अतिउपयोगी न होने से इसको कार्य में नहीं लाया गया ।
कोष के सम्बन्ध में इतना लिखने के उपरान्त ब्राह्मणों के इतिहास सम्बन्ध में भी ब्राह्मणों की भूमिका रूप में कुछ लिखना आवश्यक है ।
अनुसन्धान विभाग दयानन्द ऐंगलों वैदिक कालेज, लाहौर ।।
२० अगस्त १९२५
भगवद्दत्त
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भूमिका ।
ब्राह्मण-ग्रन्थों का इतिहास ।
(१) सङ्कलन काल
ब्राह्मण ग्रन्थों की मौलिक सामग्री प्राचीनतम कालों से चली आई है । शतपथ १०|६|५|९||१४|७|३|२८ || वा बृहदारण्यक ४१६ | ३ || ६ |५|४|| के वंश ब्राह्मणों के अनुसार ब्राह्मण - वाक्यों का आदि- प्रवचनकर्ता ब्रह्मा = स्वयम्भु ब्रह्म हुआ है। प्रजापति*, मन्वादि। महर्षियों ने भी अनेक ब्राह्मण - वाक्यों का प्रवचन किया था । ऐसे ही अन्य ऋषि लोग भी समय २ पर इन ब्राह्मणों के अनेक पाठों का प्रवचन करते आये हैं । इन सब का संकलन महाभारत-काल अर्थात् द्वापर के अन्त या कलि के आरम्भ में भगवान् कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास वा उनके शिष्य प्रशिष्यों ने किया था । इसमें प्रमाण भी है । शतपथादि ब्राह्मणों में अनेक स्थलों पर उन ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम पाये जाते हैं, जो महाभारत काल से कुछ ही पहिले के थे । देखो—
तेन हैतेन भरतो दौः षन्तिरीजे...
तदेतद् गाथयाभिगीतम्
अष्टसप्ततिं भरतो दौः षन्तिर्यमुनामनु ।
गङ्गायां वृत्रने वनात् पञ्चपञ्चाशतः हयान् ॥ इति ॥ ११ ॥ शकुन्तला नाडपित्यप्सरा भरतं दक्षे ॥ १३ ॥
* आधानं ब्राह्मणं प्रजापतेः । इष्टिब्राह्मणानि प्रजापतेः ||
चारायणीय मन्त्राषध्यायः ९, ११ ॥
+ आपो वा इदं निरमृजन् । स मनुरेवोदशिष्यत ।
स एता मिष्टिमपश्यत्तामाहरत्तयायजत
काठक सं० ११ | २ || तथा देखो तै० सं० ३ | १ | ९ | ३० ॥
•
•
महाभारत काल से हमारा अभिप्राय महाभारत युद्ध के लगभग १०० वर्ष पूर्व और १०० वर्ष उत्तर का है । महाभारत युद्ध विक्रम संवत् से ३००० वर्ष से कुछ
पूर्व हुआ था ।
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महदद्य भरतस्य न पूर्वे नापरे जनाः । दिवं मर्त्य इव बाहुभ्यां नोदापुः पञ्चमानवाः ॥ इति ॥१४॥
शतपथ १३१५१४॥ तथा च
एतेन ह वा ऐंद्रेण महाभिषेकेण दीर्घतमा मामतेयो भरतं दौष्यन्तिमभिषिषच । .........."तदप्येते श्लोका अभिगीताः । हिरण्येन परीवृतान् कृष्णान् शुक्लदतो मृगान् । मष्णारे भरतो ऽददाच्छतं बद्धानि सप्त च ॥ भरतस्यैष दौष्यन्तेरग्निः साचिगुणे चितः । यस्मिन्त्सहस्रं ब्राह्मणा बदशो गावि भेजिरे ।। अष्टासप्ततिं भरतो दौष्यन्तियमुनामनु । गङ्गायां पुत्रने ऽबनात् पचपश्चाशतं हयान् ।। त्रयस्त्रिंशच्छतं राजा ऽश्वान् बध्वाय मध्यान् । दौष्यन्तिरत्यगाद्राज्ञो मायां मायावत्तरः ।। महाकर्म भरतस्य न पूर्वे नापरे जनाः । दिवं मर्त्य इव हस्ताभ्यां नोदापुः पञ्च मानवाः ॥ इति
ऐतरेय बा. ८१२३॥ इन गाथाओं यक्षगाथाओं श्लोकों में वर्तमान दौष्यन्ति भरत और शकुन्तला नाम स्पष्ट महाभारत काल से कुछ ही पहले होने वाले व्यक्तियों के हैं । अतः शतपथादि ब्राह्मण महाभारत-काल में ही संकलित हुए, ऐसा मानना युक्तियुक्त है ।
प्रश्न-(क) ये सब नाम यौगिक होने से अपने धात्वर्थ मात्र का निर्देश करते हैं । (ख) दुःभ्यन्त, भरत, शकुन्तला आदि नाम व्यक्ति-वाची नहीं है, प्रत्युत जातिवाची
* एतरेय ८॥ २३ जिसे श्लोक कहता है शतपथ १३१ ५। ४। १४॥ उसे गाथा कहता है, और जैमिनीय १ । २५८ ॥ जिसे श्लोक कहता है, ऐतरेय ३४३ ॥ उसे ही यक्षगाथा कहता है। अतएव श्लोक गाथा और यक्षगाथा, यह तीनों शब्द पर्याय ही हैं।
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हैं । जैसे गौ, अश्व, पुरुष, हस्ति आदि नाम जातिवाची हैं, ऐसे ही अनेक कल्पों में होने वाले दुष्यन्त, भरत आदिकों के लिये, यह भी जातिवाची नाम हैं । अतएव ऐसे नामों के ब्राह्मणों में आने से ब्राह्मण-ग्रन्थ महाभारत कालीन नहीं कहे जा
सकते |
उत्तर
(क) जो यज्ञगाधायें हमने प्रमाणार्थ उद्धृत की हैं, वे सब पौरुषेय हैं । उनके पौरुषेय होने में जो प्रमाण हैं, वे आगे "क्या ब्राह्मण वेद हैं" इस प्रकरण में दिये जायेंगे | अतः पौरुषेय वाक्यों को " श्रतिसामान्यमात्र" मान कर अर्थ करना कल्पनामात्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं । मन्त्र -संहिताओं में जो नियम चरितार्थ होते हैं वे मनुष्य रचित ग्रन्थों में नहीं हो सकते । (ख) दुःष्यन्त, भरत ज शब्दों को हम जातिवाची भी नहीं मान सकते। क्योंकि वहां भी वही पौरुषेय की आपत्ति आयेगी । जिन नवीन मीमांसकों ने "वेदों" में विश्वामित्र आदि शब्दों को जातिवाची माना हैं, उन्होंने भी अपौरुषेय वेदा में ही माना है । और हम तो उनकी इस कल्पना को भी निराधार ही मानते हैं ।
--
८
प्रश्न-
- अनेक लोग निम्नलिखित गाथास्थ नामों को भी महाभारत कालीन ही मानते हैं, क्या यह सत्य हैं ?
एतेन हेन्द्रोतो दैवापः शौनकः जनमेजयं पारिक्षतं
॥ १ ॥
याजयां चकार तदेतद्गाथयाभिगतिम् -
..
आसन्दीवति धान्याद: रुक्मिण: हरितस्रजम् । अवनादश्वर सारंग देवेभ्यो जनमेजयः ॥ इति ॥ २ ॥
शतपथ १३/५/४ ॥
तथा च
एतेन ह वा ऐंद्रेण महाभिषेकेण तुरः कावषेयो* जनमेजयं पारिक्षितमभिषिषेच । .... तदेषाभि यज्ञगाथा गीयतेआसंदीवति धान्यादं रुक्मिणं हरितस्रजम् ।
अश्वं बबंध सारंग देवेभ्यो जनमेजयः ॥ इति
ऐतरेय ८|२१||
* इसी तुरः कावषेय का उल्लेख शतपथ ९ | ४ | ३ | १५ || मैं है |
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उत्तर ----- यद्यपि महाभारत काल में भी पाण्डवों की सन्तति में “पारिक्षित जनमेजय" था, तथापि यह व्यक्ति उससे पूर्वकालीन प्रतीत होता है । देखो महाभारत*, शान्तिपर्व अध्याय १४९ में कहा है--- भीष्म उवाच-.
अत्र ते वर्तयिष्यामि पुराणमृषिसंस्तुतम् । इन्द्रोतः शौनको विप्रो यदाह जनमेजयम् ॥ २ ॥
आसीद्राजा महावीर्यः पारिक्षिजनमेजयः । तथा अध्याय २१
एवमुका तु राजानमिन्द्रोतो जनमेजयम् । याजयामास विधिवत् वाजिमेधेन शौनकः॥३८॥ यहाँ भीष्म महाराज युधिष्ठिर को कह रहे हैं कि“महावीर्यवान् राजा पारिक्षित जनमेजय हुआ था ।"
अतः ब्राह्मणान्तर्गत गाथास्थ ‘पारिक्षित जनमेजय'। महाभारत-काल से कुछ पहले हो चुका था।
प्रश्न-अथर्ववेद २० । १२७ । ७-१० ॥ में महाराज परिक्षिा का वर्णन है । उसे कौरव्य भी कहा है । पं० भगवान दास पाठक भी अपने ग्रन्थ HinduAryan Astronomy and Antiquity of Aryan Race (सन् १९२०) पृ० ४६ पर अथर्ववेद के महाभारतोत्तर कालीन होने में यह एक युक्ति देते हैं । तो क्या वस्तुतः यह बात ठीक है ? ।
उत्तर-अथर्ववेद के जिस सूक्त में परिक्षित् शब्द आया है वह कुन्ताप सूक्तों में से पहला है । कुन्ताप सूक्त अथर्व संहितान्तर्गत नहीं हैं । इन सूक्तों का पदपाठ भी नहीं है । अनुक्रमणिका में इन्हें खिल कहा है। इन सूक्तों में परिक्षित् शब्द के आजाने से सारी संहिता महाभारतोत्तर-कालीन नहीं कही जा सकती | और वस्तुतः
*महाभारत के सब प्रमाण कुम्भघोण के संस्करण से दिये गये हैं । यद्यपि महाभारत के सब संस्करण प्रक्षेपों से भरे हुए हैं, तथापि हमने अपने दिए हुए प्रमाणों की तुलना दूसरे संस्करणों से करके प्रमाण का कुछ २ निश्चित रूप ही उपस्थित किया है।
___+गोपथ ब्राह्मण पूर्वभाग २ ॥ ५ ॥ में जिस जनमेजय पारीक्षित का वर्णन आया है, वह भी यही व्यक्ति प्रतीत होता है।
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इन मन्त्रों में भी परिक्षित् आदि पदों का अर्थ संवत्सर तथा आग्ने ही है । देखो ऐ० ब्रा० ६ । ३२ ॥ और गो. उ. ६ । १२ ॥ यहां किसी राजा आदि का वर्णन नहीं है। विस्तरभय से मन्त्रार्थ नहीं किये गये।
ब्राह्मण-ग्रन्थों के महाभारत-कालीन* होने में और भी प्रमाण देखो | (क) महाभारत आदिपर्व अध्याय ६४ में लिखा हैब्रह्मणो ब्राह्मणानां च तथानुग्रहकाङ्क्षया । विव्यास वेदान् यस्मात् स तस्माद्वयास इति स्मृतः ॥१३०॥ वेदानध्यापयामास महाभारतपञ्चमान् । सुमन्तुं जैमिनि पैलं शुकं चैव खमात्मजम् ॥ १३१ ॥ प्रभुर्वरिष्ठो वरदो वैशंपायनमेव च ।
संहितास्तैः पृथक्त्वेन भारतस्य प्रकाशिताः ॥ १३२ ॥ . अर्थात् वेदव्यास के सुमन्तु, जैमिनि, वैशंपायन, पैल चार शिष्य थे । इन्हीं चारों को उन्हों ने मुख्यत. से वेदादि पढ़ाये । वैशंपायन को ही चरक कहते हैं । काशिकावृत्ति ४ । ३ । १०४ ॥ में लिखा है
वैशंपायनान्तेवासिनो नव । . . . . . . चरक इति वैशंपायनस्याख्या । तत् संबन्धन सर्वे तदन्तेवासिनश्वरका इत्युच्यन्ते ।
*महाशय L. A. Waddell अपने पुस्तक Indo-Sumerian Seals Deciphered (सन् १९२५) पृ० ३ पर महाभारत-युद्ध का काल बताते हुए सब पाश्चात्य लेखकों को मात कर गये हैं। वे लिखते हैं. . . . . . . . . . . . at the time of the Mahabharata War about 650 B. C., was the Bharat Khattiyo (क्षत्रिय) King Dhritarashtra, . . . यह लिखते समय वे उस भारतीय ऐतिह्य को भूल गये हैं, जिस पर अपने पुस्तक के अन्य स्थलों में वे बड़ी श्रद्धा दिखाते हैं। क्या उन्हें इतना भी स्मरण नहीं रहा कि धृतराष्ट्र तो गौतम बुद्ध के काल से सैकड़ों ही नहीं, सहस्रों वर्ष पूर्व हुआ था । समस्त भारतीय राज-वंशावलियां इस बात का अकाट्य प्रमाण हैं।
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पुनः महाभाय ४ । ३ । १०४ ॥ पर पतञ्जलि मुनि लिखता हैवैशंपायनान्तेवासी कठः । कठान्तेवासी खाडायनः । वैशंपायनान्तेवासी कलापी। यह शिष्य-परम्परा निम्नलिखित प्रकार से सुस्पष्ट होजायगी ।
वैशंपायन(चरक)
खाडायन
(१) आलम्बि
(८) कठ
(१९) कलापी (२) पलंग (३) कमल (४) ऋचाम
रिद्र तुम्बरु उल्क छगलिन् (५) आरुणि (६) ताण्ड्यक (७) श्यामायन
इन में से १-३ प्राच्य; ४-६ उर्दाच्य और ७-९ माध्यम हैं । देखो महाभाष्य ४ । २ । १३८ । और काशिकावृत्ति ४ । ३ | १०४॥+ पूर्वोक्त नामों में से
(१) हारिद्रविणः । (२) तौम्बुरविणः।
(३) आरुणिनः। ये तीन महाभाष्य ४।२।१०४॥ में ब्राह्मण-ग्रन्थ प्रवचनकर्ता कहे गये हैं। अतः यह निर्विवाद है कि साम्प्रतिक सब ब्राह्मण-ग्रन्थ महाभारत-काल में ही संगृहीत हुए।
___*पं. श्रीपाद कृष्ण बेल्वल्कर ने जो Four Unpublished Upanisadic Texts (सन् १९२५) में छागलेयोपनिषद् छापा है। वह इसी काष का प्रवचन प्रतीत होता है। इस उपनिषद् के आर्ष होने में कोई सन्देह नहीं । पाणिनि सूत्र "छगलिनो ढिनुक्" ४ । ३ । १०९ ।। में इसी ऋषि के प्रोक्त-ब्राह्मण का वर्णन है।
+ वायुपुराण पू० ६० । ७-९ ॥ में इस से स्वल्पभेद है।
+ यही हारिद्रविक हैं जिनकी संहिता वा ब्राह्मण का प्रमाण निरुक्त १० ॥५॥ में ऐसे दिया है-"यदरोर्दात् तद्रुद्रस्य रुद्रत्वम्” इति हारिद्रविकम् ॥
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प्रश्न-सुमन्तु, जैमिनि, वैशंपायन, पैल किसी पहले युग वाले व्यास के शिष्य थे | वे पाराशर्य व्यास के शिष्य न थे, अतः यही ब्राह्मण-ग्रन्थ महाभारत से बहुत पहले काल के हैं।
___उत्तर-ऐसी निराधार कल्पना मत करो । यह आर्येतिहास के विरुद्ध है । देखो महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ३३५ में कहा है
विविक्त पर्वततटे पाराशर्यो महातपाः। वेदानध्यापयामास व्यासः शिष्यान् महातपाः ॥ २६ ॥ सुमन्तुं च महाभागं वैशंपायनमेव च । जैमिनि च महाप्राज्ञ पैलं चापि तपस्विनम् ॥ २७ ॥
यहां स्पष्ट ही कहा है कि ये सुमन्त्वााद पाराशर्य व्यास के शिष्य थे । और क्या ये सब ब्राह्मण-ग्रन्थों के प्रवचनकर्ता थे, अतः ब्राह्मण-ग्रन्थ द्वापरान्त में ही एकत्र किये गये थे ।
(ख) याज्ञवल्क्य मा महाभारत-कालीन ही है । महाभारत सभापर्व, अध्याय ४ में लिखा है--
बको दाल्भ्यः स्थूलशिराः कृष्णद्वैपायनः शुकः । सुमन्तुजैमिनिः पैलो व्यासशिष्यास्तथा वयम् ॥ १७॥ तित्तिरिाज्ञवल्क्यश्च ससुतो रोमहर्षणः ।
अर्थात् ये सब महाशय ऋषि महाराज युधिष्ठिर की सभा को सुशोभित कर रहे थे।
शतपथ बा० याज्ञवल्क्य-प्रोक्त है । उसके विषय में काशिकावृत्ति ४।३।१०५!! पर लिखा है---
ब्राह्मणेषु तावत्-भाल्लविनः । शाट्यायनिनः । ऐतरेयिणः । • • • पुराणप्रोक्तेष्विति किम् । याज्ञवल्कानि ब्राह्मणानि । . . . . . । याज्ञवल्क्यादयो ऽचिरकाला इत्याख्यानेषु वार्ता ।
जयादित्य का यह लेख महाभाष्य से विरुद्ध है । हम अपने "ऋग्वेद पर व्याख्यान" पृ० ५८ पर यह बता चुके हैं । जयादित्य के सन्देह का कारण कोई प्राचीन “आख्यान" है । परन्तु उससे जयादित्य का आभप्राय सिद्ध नहीं होता । ब्राह्मण ग्रन्थों के अवान्तर भागों को भी बाहाण कहते हैं। शतपथ ब्राह्मण के अनेक
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अवान्तर ब्राह्मण अत्यन्त प्राचीन हैं । वे ब्राह्मण प्रजापति आदि ऋषियों ने कहे थे । उनकी अपेक्षा याज्ञवल्क्य प्रोक्त ब्राह्मण नवीन हैं । आख्यानान्तर्गत लेख का अभिप्राय समग्र शतपथ ब्राह्मण से नहीं, प्रत्युत उसके अवान्तर ब्राह्मणों से है। शतपथ ब्राह्मण का प्रवचन तो तभी हुआ था जब कि भाल्लवि, शाट्यायन और ऐतरेय आदि ब्राह्मणों का प्रवचन हुआ था । इन में से ऐतरेय ब्राह्मण का प्रवचनकर्ता महिदास सुमन्तु आदि से कुछ उत्तरकालीन है । देखो आश्वलायन गृह्यसूत्र ३।४।४॥ यहां ऐतरेय आदि सुमन्तु आदि से उत्तर गण वाले होने से उत्तर कालीन हैं । भगवान् याज्ञवल्क्य इन्हीं का सहकारी है । अतः याज्ञवल्क्य और तत्प्रोन शतपथ ब्राह्मण भी महाभारत-कालीन ही है ।
प्रश्न--इस पक्ष को स्वीकार करने में एक भारी आपत्ति है । उसकी उपेक्षा भी नहीं हो सकती । तदनुसार शतपथ ब्राह्मण महाभारत-काल का तो क्या, उस से लाखों वर्ष पुराना अर्थात् अत्यन्त प्राचीन है। महाभारत शान्तिपर्व अध्याय ३१५ में कहा हैभीष्म उवाच
अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम् । याज्ञवल्क्य स्य संवादं जनकस्य च भारत ॥३॥ याज्ञवल्क्यमृषिश्रेष्ठं दैवरातिर्महायशः । पप्रच्छ जनको राजा प्रश्न प्रश्नविदांवरः ॥ ४ ॥
तथा अध्याय ३२३याज्ञवल्क्य उवाच
यथार्षेणेह विधिना चरताऽवमतेन ह । मयाऽऽदित्यादवाप्तानि यज॑षि मिथिलाधिप ॥२॥
सूर्यस्य चानुभावेन प्रवृत्तोऽहं नराधिप ॥ २२ ॥ कर्तु शतपथं चेदमपूर्वं च कृतं मया । यथाभिलषितं मार्ग तथा तच्चोपपादितम् ॥ २३ ॥
अर्थात् शतपथ ब्राह्मण के प्रवचनकर्ता भगवान् याज्ञवल्क्य का संवाद दैवराति जनक से हुआ था । वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड, सर्ग ७१* में लिखा है
असीरामपुर संस्करण, सन् १८०६, सर्ग ५८ ॥
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सुकेतोरपि धर्मात्मा देवरातो महाबलः । देवरातस्य राजर्षेबृहद्रथ इति स्मृतः ॥ ६ ॥
अर्थात् देवराति बृहद्रथ जनक था । यह जनक सीता के पिता महाराज सीरध्वज जनक से भी बहुत प्रार्चान हुआ है। इसी के साथ शतपथ के प्रवचन-कती याज्ञवल्क्य का संवाद हुआ, अतः शतपथ ब्राह्मण अति प्राचीन-काल का ग्रन्थ है।
उत्तर---ऐसा भ्रम मत करो । दैवराति जनक अनेक हो सकते हैं । महाभारत-काल में भी तो एक प्रसिद्ध जनक था। उसी से वैयासकि शुक का संवाद हुआ । दैवराति जनक वही या उस से कुछ ही पूर्वकालीन होसकता है, क्योंकि महाभारत में इसी प्रकरण की समाप्ति पर भीष्म जी कहते हैं कि याज्ञवल्क्य और दैवराति जनक के संवाद का तथ्य उन्होंने स्वयं देवराति जनक से प्राप्त किया था। भीष्म उवाचएतन्मयाऽऽप्तं जनकात् पुरस्तात्
तेनापि चाप्तं नृप याज्ञवल्क्यात् । ज्ञातं विशिष्टं न तथा हि यज्ञा __ ज्ञानेन दुर्ग तरते न यज्ञैः ।। १०९॥
शान्तिपर्व, अ० ३२३ ॥ शान्तिपर्व के उपदेश के समय भीष्म जी का आयु २०० वर्ष से कुछ कम ही था । इस गणनानुसार दैवराति जनक महामगरत-युद्ध से १५० वर्ष के अन्दर २ ही होसकता है । अतएव शतपथ ब्राह्मण भी महाभारत काल में ही प्रोक्त' हुआ था, इस में अणुमात्र भी सन्देह नहीं।
(ग) शतपथ ब्राह्मण और उसका प्रवचन-कर्ता याज्ञवल्क्य महाभारत कालीन ही हैं, और किसी पहले युग के नहीं, इस में शतपथान्तर्गत एक और भी साक्ष्य है । देखो
अथ पृषदाज्यं तदु ह चरकाध्वर्यवः पृषदाज्यमेवाग्रे ऽभिधारयन्ति प्राणः पृषदाज्यमिति वदन्तस्तदु ह याज्ञवल्क्यं चरकाध्वर्युरनुव्याजहार ॥
शतपथ ३ । ८ । २ । २४ ॥ ता उ ह चरकाः । नानैव मन्त्राभ्यां जुह्वति प्राणोदानौ
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वा ऽस्यैतौ नानावी? प्राणोदानौ कुर्म इति वदन्तस्तदु तथा न कुर्यात् ।
शतपथ ४ । १ । २ । १९ ॥ यदि तं चरकेभ्यो वा यतो वानुब्रुवीत ॥
शतपथ ४ । २ । ४ । १ ॥ तदु ह चरकाध्वर्यवो विगृह्णन्ति ।
शतपथ ४ | २ | ३ | १५ ॥ प्राजापत्यं चरका आलभन्ते ॥
शतपथ ६ । २ । २ । १॥ इति ह माह माहित्थिर्य चरकाः प्राजापत्ये पशावाहुरिति
शतपथ ६ । २।।। १० ॥ तदु ह चरकाध्वर्यवः ॥
शतपथ ८ | १ । ३ । ७ ॥ इत्यादि स्थलों में जो “चरक" अथवा "चरकाध्वयु" कहे गये हैं, वे सब वैशंपायन-शिष्य हैं । हम पूर्व प्रदर्शित कर चुके हैं कि चरक-वैशपायन महाभारतकालीन था, अतः उसका वा उसके शिष्यों का उल्लेख करने वाला ग्रन्थ महाभारतकाल से पहले का नहीं हो सकता । वह महाभारत काल का ही है।
(घ) याज्ञवल्क्य और शतपथ ब्रा० के महाभारत-कालीन होने में एक और प्रमाण भी है
महाराज जनक की सभा में याज्ञवल्क्य का ऋषियों के साथ जो महान् संवाद हुआ था, उसका वर्णन शतपथ काण्ड ११-१४ में है । ऋषियों में एक विदग्ध शाकल्य ११ । ४ । ६ । ३ ॥ था। याज्ञवल्क्य के एक प्रश्न का उत्तर न देने से उसकी मूर्धा गिर गई १४ । ५। ७ । २८ ॥ यह शाकल्य ऋग्वेद का प्रसिद्ध आचार्य हुआ है । यही पदकारों में सर्वश्रेष्ठ था ! इसका पूरा नाम देवमित्र शाकल्य
*देखो वायुपुराण पू० अध्याय ६२ब्रह्महत्या तु यैवीर्णा चरणाच्चरकाः स्मृताः। वैशंपायनशिष्यास्ते चरकाः समुदाहृताः॥२३॥ वायुपुराण, पू० ६० । ६३ ॥ “पदवित्तमः"।
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था | ब्रह्मवाहसुत याज्ञवल्क्य (वायुपुराण, पूर्वार्ध ६१४१ ।।) के साथ इसका जो वाद हुआ था, उसका उल्लेख वायुपुराण पूर्वार्ध अध्याय ६० श्लोक ३२-६० में भी है । वायुपुराण के पूर्वार्ध अध्याय ६० के अनुसार इस देवमित्र शाकल्य (विदग्ध ) के पूर्वोत्तर कुछ ऋग्वेदीय आचार्यों की गुरुपरम्परा का चित्र निम्नलिखित है ।
पैल (ऋग्वेदाध्यापक)
इन्द्रप्रमति
बाप्कल
मार्कण्डेय
। अग्निमाठर पाराशर याज्ञवल्क्य
सत्यश्रवाः
सत्यहित
सत्यश्रिय
देवमित्रशाकल्य रथान्तर बाष्काले भरद्वाज
मुद्गल गोलक खालीय मत्स्य शैशिरी
पैल के शिष्य प्रशष्य होने से ये शाकल्य आदि आचार्य महाभारत-कालीन हो हैं । इन में से शाकल्य का विस्तृत वर्णन शतपथ में मिलता है । और शतपथ के प्रवचन कर्ता याज्ञवल्क्य के साथ इसका संवाद. भी हुआ था, अतः याज्ञवल्क्य और शतपथ दोनों महाभारत-कालान हैं।
___ इस विषय में और भी अनेक प्रमाण दिये जा सकते हैं, पर विद्वानों के लिये इतने ही पर्याप्त होंगे।
___ (ङ) ब्राह्मण ग्रन्थों का संकलन महाभारत काल में हुआ, इस में एक और प्रमाण है । काठक संहिता १० ॥ ६ ॥ के आरम्भ का यह वचन है
नैमिष्या वै सत्रमासत त उत्थाय सप्तविंशतिं कुरुपञ्चालेषु वत्सतरानवन्वत तान्बको दाल्भिरब्रवीयमेवैतान् विभजध्वमिममहं धृतराष्ट्रं वैचित्रवीर्यं गमिष्यामि ।
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इसी कथा का उद्देख महाभारत शल्य पर्व अध्याय ४१ में हैययौ राजंस्ततो रामो बकस्याश्रममन्तिकात् । यत्र तेपे तपस्तीनं दाल्भ्यो बक इति श्रुतिः ॥ ३२ ॥ नथा अध्याय ४२ मेंयत्र दाल्भ्यो बको राजन्पश्वर्थ सुमहातपाः । जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्र कोपसमन्वितः ॥ १॥
तानब्रवीद्धको दाल्भ्यो विभजध्वं पशूनिति ॥५॥
इस से निश्चय होता है कि काठक संहिता में विचित्रवीर्य के पुत्र धृतराष्ट्र का वर्णन है । वह भी लगभग महाभारत-कालीन ही था । उसका उल्लेख करने वाली संहिता और तदुपरान्त प्रवचन होने वाला ब्राह्मण अवश्य महाभारत काल के हैं ।
प्रश्न-धृतराष्ट्र वैचित्रवीर्य कोई पुराकाल का राजा होसकता है । उसी का यहां वर्णन है।
उत्तर-यह कल्पना असत्य है । काठक संहिता में धृतराष्ट्र वैचित्रवीर्य के साथ जिस ऋषि "बको दाल्भ्य" *का कथन है, वह महाराज युधिष्ठिर के समय में विद्यमान था । देखो महाभारत वनपर्व, अध्याय २६
अथाब्रवीद्वको दाल्भ्यो धर्मराज युधिष्टिरम् ।
सन्ध्यां कौन्तेयमासीनमृषिभिः परिवारितम् ॥ ५॥ इत्यादि । और मनु के
ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वात् दीर्घमायुरवाप्नुयुः । ४।९४ ॥
इस वचन के अनुसार यद्यपि ऋषि जन दीर्घजीवी थे, तथापि उनका आयु १०० वर्ष से लेकर ३०० या ४०० वर्ष तक ही होता था । यदि इस से अधिक आयु होता तो भगवान् पतअलि यह क्यों लिखता
* सम्भवतः यही बको दाल्भ्य छान्दोग्य उपनिषद् १॥ १२ ॥ १ ॥ में स्मरण किया गया है । इसी बकोदाल्भ्य का वर्णन जै० उपनिषद् ब्राह्मण १।९ । ३ ॥ ४। ७१२ ॥ में भी है। । अपि हि भूयासि शतावर्षेम्बः पुरुषो जीवति ।
शतपथ १।९।३ । १९ ॥
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किं पुनरद्यत्वे यः सर्वथा चिरं जीवति स वर्षशतं जीवति ।
__ (महाभाष्य कीलहान सं० प्रथम भाग पृ. ५) और भगवान् कात्यायन यह क्यों लिखतासहस्रसंवत्सरममनुष्याणामसम्भवात* ॥ १३८ ॥ नादर्शनात् ॥ १४३॥
श्रौतसूत्र अध्याय ॥ अर्थात् मनुष्य का सामान्य आयु १०० वर्ष ही श्रुति आदि में दिखाई देता है । इसलिये जब बको दाल्भ्य युधिष्ठिर कालीन है, तो इसी बको दाल्भ्य का युधिष्ठिर के पूर्वज धृतराष्ट्र वैचित्रवीर्य से वार्तालाप हुआ था । अतः उसकी कथा का प्रसंग कठसंहिता में आजाने से कठब्राह्मण धृतराष्ट्र के कुछ पीछे अर्थात् महाभारत-काल में संकलित हुआ। हम कह चुके हैं कि सब ब्राह्मण ग्रन्थों का सङ्कलन एक समय में हुआ था। अतः यदि कठब्राह्मण महाभारत कालीन हो, तो दूसरे ब्राह्मण भी उसी काल में संगृहीत हुए।
(च) आरण्यक ग्रन्थ या तो ब्राह्मणों के विभाग हैं, या उन के साथ के ही ग्रन्थ हैं । तैत्तिरीय आरण्यक, तैत्तिरीय ब्राह्मण का साथी ग्रन्थ है । इस में १।९।२ ॥ पर पाराशर्य व्यास का एक मत उद्धृत किया है । तैत्तिरीय आरण्यक का प्रवक्ता तित्तिरिरी भी महाभारत कालीन था, अतः तित्तिरि का प्रवचन होने वा पाराशर्य व्यास का कथन करने से तैत्तिरीय आदि ब्राह्मण वा आरण्यक महाभारत कालीन ही हैं।
(छ) भगवान् जैमिनि सामवेद की जैमिनि संहिता का प्रवक्ता हे । यही जैमिनि पाराशर्य व्यास का प्रिय शिष्य था । इसे ही वेदव्यास ने साम शाखाओं का सबसे पहले पाठ पढ़ाया। इसी ने तलवकार-जौमिनि ब्राह्मण का प्रवचन किया था । पाराशय व्यास शिष्य होने से यह महाभारत-कालीन है और इसका प्रवचन किया हुआ
यहां मनुष्य शब्द का प्रयोग देव के मुकाबले में है। देवी सृष्टि में तो कल्प पर्यन्त ही यज्ञ होरहा है। मनुष्य में ऋषियों की गणना भी है। मीमांसासूत्र ६।७। ३१-४० ॥ का भी यही अभिप्राय है।
+ इसी तित्तिरि का उल्लेख अष्टाध्यायी ४ । ३ । १०२ ॥
तित्तिरिवरतन्तुखण्डिकोखाच्छण् । में है । इसी के कहे हुए किन्हीं श्लोकविषेशों के सम्बन्ध में पतमाले ४ । २ । ६६ ।। पर कहना है—तिचिरिणा प्रोक्ताः श्लोका इति ।
* देखो सामविधान ब्राह्मणम्-व्यासः पाराशर्यो जैमिनये । ३ । ९ । ३ ॥
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ब्राह्मण भी महाभारत कालीन ही है । जैमिनि ब्राह्मण में भी अनेक नाम ऐसे हैं जो केवल महाभारत कालीन ही हैं | विस्तरभय से यहां नहीं दिये गए । विद्वान् लोग उन्हें स्वयं देखलें।
इन्हीं भगवान् जमिनि ने मीमांसा शास्त्र भी बनाया था । इसी कारण जैमिनि ब्राह्मण के कई हस्तलेखों के प्रारम्भ में प्राचीन परम्परागत ऐतियका द्योतक यह श्लोक विद्यमान है
उअहारागमाम्भोधेर्यो धर्मामृतमञ्जसा । न्यायनिर्मथ्य भगवान् स प्रसीदतु जैमिनिः॥
प्रश्न-इलैण्ड के प्रसिद्ध संस्कृतज्ञ आर्थर बैरीडेल काथ अपने पुस्तक 'The Karma Mimansa (सन् १९२१) पृ ४---५ पर लिखते हैं
A Jaimini is credited with the authorship of a Sranta and a Grhya Sutra, and the name occurs in lists of doubt. ful anthenticity in Asvalayana and Sankhayana Grhya Sutras; a Jaiminiya Samhita and a Jaiminiya Brahmana of the Sama Veda are extant
It is, then, il plausible conclusion that the Mimansa Sutrar does not. date after 2010 A. D., but that it is probably not much earlier. . . . . . . . . . . . . . . .
उनके इस लेख के भावानुसार( १ ) जैमिनि ब्राह्मण का प्रवत्ता जैमिनि, मीमांसा सूत्रों का प्रणेता नहीं। ( २ ) मीमांसा सूत्र ईसा की पहली या दूसरी शताब्दी में ही बने थे । इत्यादि क्या कीथ महाशय का यह सब भाव सत्य है ?
उत्तर--कीथ महाशय का यह कथन सत्य तो क्या, सत्य से कोसों दूर है। क्योंकि
(१) जैमिनि ब्राह्मण के अनेक हस्तलेखों के आरम्भ में आने वाला जो लोक हम पूर्व उद्धृत कर चुके हैं, वह परम्परागत ऐति का स्पष्ट द्योतक है । और आर्यावर्त के पण्डित आज तक अविच्छिन्न रूप से इसे मानते आये हैं कि तलवकार ब्राह्मण का प्रवक्ता, भगवान् वेदव्यास का शिष्य जैमिनि ही मीमांसा सूत्रों का प्रणेता था | कीथ साहेब के भ्रम का कारण यह है कि वे मीमांसा सूत्रों को ईसा की पहली व दूसरी शताब्दी में रचा गया मानते हैं ।
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(२) मामांसा सूत्र ईसा से सैंकड़ों वर्ष पहले विद्यमान थे । शङ्कर, वेदान्त. सूत्र ३ । ३ । ५३ ॥ के प्रमाण से कीथ स्वयं मानता है कि भगवान उपवर्ष ने मामांसा सूत्रों पर भाष्य लिखा । शङ्कर ही नहीं कौशिक सूत्र पद्धतिकार आथर्वणिक केशव भी मामांसा भाष्यकार उपवर्ष का स्मरण करता है
उपवर्षाचार्येणोक्तं । मीमांसायां स्मृतिपादे कल्पसूत्राधिकरणे ............इति भगवानुपवर्षाचार्येण ()प्रतिपादितं ।
( कौशिकसूत्र, पृ० ३०७) यह भगवान् उपवर्ष पाणिनि से पहले हो चुका था । कथासरित्सागर आदि के अनुसार तो यह पाणिनि का गुरु वा गुरुभ्राता था । उपवर्ष पाणिनि से पूर्व हो चुका था, इस में एक और भी प्रमाण है । राजशेखर (नवम शताब्दी ) अपनी काव्यमीमांसा पृ० ५५ में लिखता है
श्रूयते च पाटलिपुत्रे शास्त्रकारपरीक्षाअत्रोपवर्षवर्षाविह पाणिनिपिङ्गलाविह व्याडिः । बररुचिपतञ्जली इह परीक्षिताः ख्यातिमुपजग्मुः ।।
इस श्लोक में सारे शास्त्रकारों के नाम काल-क्रम से ही आये हैं पतञ्जलि से पहले वररुचि, और उससे कुछ पहले होने वाले वा साथी पाणिनि और पिङ्गल* थे। इनसे कुछ पहले वर्ष, और उपवर्ष थे । यही उपवर्ष शास्त्रकार है। इसी ने मामांसा सूत्रों पर आदि भाष्य लिखा था ।
प्रश्न-यह उपवर्ष कोई और शास्त्रकार होगा।
उत्तर---यदि यह कोई और शास्त्रकार है, तो इस के शास्त्र का कोई उद्धरण कोई पता, कोई चिन्ह चक्र बताओ । जब तुम यह बता ही नहीं सकते, तो ऐसी अलीकतम कल्पनाओं से परे रही ।
प्रश्न-राजशेखरप्रदर्शित श्लोक में आने वाले नाम काल-क्रमानुसार नहीं हैं। . उत्तर-ऐमे ही पूर्व पक्षों से तुम्हारा हठ और दुराग्रह सिद्ध होता है । जब शेष सब नाम काल-क्रमानुसार है, तो पहले दो नामों के ऐसा होने में क्या सन्देह है ? और जब आद्यन्त आर्य ऐतिध भी यही मानता है, तो तुम्हारे इस कहने से क्या ? योरूप में तुम पण्डित बने रहो । आर्यावत्तीय विद्वान् तुम्हारा कुछ सम्मान न करेंगे।
* आचार्य पिझल पाणिनि का कनिष्ठ भ्राता था । देखो ! मेरा लेख, मासिक पत्र आर्य, आषाढ ११२२ पृ. २६-२९, लाहौर ।
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इस प्रकार जब मामासा सूत्रों का भाष्यकार ही इतना पुराना है, तो मूल सूत्र क्यों नवीन होंगे? हम पाणिाने को कलियुग की लग भग दूसरी शताब्दी में मानते हैं।*
पाश्चात्य लेखक विक्रम से चार शताब्दी पहले मानते हैं । अतः पाश्चात्यों के अनुसार भी जैमिनि सूत्र विक्रम की पांचवीं शताब्दी से पहले होना चाहिये । इस से यह स्पष्ट होगया कि कीथ का लेख भ्रमपूर्ण है और व्यास शिष्य जैमिनि ही मीमांसा मूत्र का कर्ता वा तलवकार ब्राह्मण का प्रवना है ! इस लिये दो तलवकारादि ब्राह्मण महाभारत कालीन हैं।
(ज) छान्दोग्य उपनिषद्, छान्दोग्य-ताण्ड्य ब्राह्मण का अन्तिम भाग ही है । छान्दोग्य-उपनिषद् ३ | १६ । ६ ॥ में कहा है
एतद्ध स्म वै तद्विद्वानाह महिदास ऐतरेयः ।...... । स ह षोडशे वर्षशतमजीवत् ।
यही महिदास ऐतरेय, ऐतरेय ब्राह्मण का प्रवचनकर्ता है । आश्वलायन गृह्य सूत्र ३ । ४ । ४ ॥ में भी इसी का उल्लेख है ।। महिदास ऐतरेय व्यास और शौनक तथा आश्वलायन के बीच में आता है । पाणिनीय सूत्र---
शौनकादिभ्यश्छन्दसि ॥ ४ । ३ । १०६ ॥ से हम जानते हैं कि शौनक किसी शाखा वा ब्राह्मण का प्रवचनकर्ता है । सम्भवतः
* प्रश्न-पाटलिपुत्र बहुत पुराना नगर नहीं है । इस महाराज अजातशत्रु (विक्रम से लगभग ५०० वर्ष पूर्व ) ने बसाया था । जब यह नगर ही बहुत पुराना नहीं, तो उसमें परीक्षा देने वाले शास्त्रकार पाणिनि आदि कैसे कलियुग की दूसरी शताब्दी में हो सकते हैं ?
उत्तर-यथापे पाटलिपुत्र नवीन नगर है, तथापि मगध देश में इससे पहले गिरिव्रज राजधानी थी । गिरिव्रज के सम्राट ही पहले शास्त्रकारों की परीक्षा कराया करते थे । राजशेखर के काल में पाटलिपुत्र नाम प्रसिद्ध हो चुका था, अतः उस ने यही लिख दिया । राजशेखर का वास्तविक अभिप्राय सम्राट् से है, नगर से नहीं, यह उसके पूर्वापर प्रकरण को देखने से स्पष्ट हो जाता है।
। पूर्वोत ( पृ० १९ ) वाक्य में कीथ साहेब आश्वलायन गृह्यसूत्र की इन सूचियों को प्रक्षिप्त सा मानते हैं । ऐतरेय आरण्यक पृ० १७ ( सन् १९०९ ) के प्रथम टिप्पण में भी वे इन सूचियों को “सम्भवतः नया" मानते हैं। स्वप्रयोजन सिद्ध होता न देख कर ही, वे ऐसा मानने पर बाधित हुए हैं, अन्यथा इन वाक्यों के अन्यान्तर्गत होने में कई सन्देह नहीं ।
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यह शाखा आथर्वणों की थी |* आश्वलायन इसी शौनक का शिष्य था | शौनक शिष्य होने से ही आश्वलायन अपने श्रीतसूत्र वा गृह्यसूत्र के अन्त में
नमः शौनकाय । नमः शौनकाय ॥ लिखता है।
शाखा प्रवर्तक होने से भगवान् शौनक व्यास का समीपवर्ती ही है । अतएव महिदास ऐतरेय भी कृष्ण-द्वैपायन व्यास से अनतिदर है। इस माहेदास ऐतरेय का प्रवचन होने से ऐतरेय ब्राह्मण महाभारत-कालीन है । और इसी महिदास का उल्लेख करने से छान्दोग्य उपनिषद् वा ब्राह्मण भी महाभारत कालीन हैं । हां, उपनिषद भाग कुछ पीछे का भी हो सकता है । याज्ञवल्क्यादि ऋषियों ने एक दिन में ही तो सारा ब्राह्मण नहीं कह दिया था । इन के प्रवचन में कई कई वर्ष लगे होंगे। इस से प्रतीत होता है कि ताण्डय आदि ऋषि जब छान्दोग्यादि उपनिषदों का प्रवचन अभी कर रहे थे, तो महिदास ऐतरेय का देहान्त होचुका था। महिदास इन दुसरे ऋषियों की अपेक्षा कुछ कम ही जिया ।
जैमिनि उपनिषद. ब्राह्मण ४ । २ । ११ ॥ के निम्नलिखित वाक्य की भी यही संगाते है
एतद्ध तद्विद्वान् ब्राह्मण उवाच माहिदास ऐतरेयः। ......। स ह षोडशशतं वर्षाणि जिजीव ।
ऐतरेय आरण्यक ऐतरेय ब्राह्मण का ही अन्तिम भाग है । उस में भी महि. दास ऐतरेय का नाम आया है
एतद्ध स्म वै तद्विद्वानाह महिदास ऐतरेयः।२।१।८॥ इससे हमारा पूर्वोक्त कथन ही सिद्ध होता है।
* शौनक का शिष्य आश्वलायन, प्रधानतया ऋग्वेदी है । शौनक ने आप भी अनेक ऋग्वेद सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे थे । इस से यह सन्देह न होना चाहिये कि उसने आथर्वण शाखा का प्रवचन कैसे किया । महाभारत काल के आचार्य किसी शाखाविशेष से हा सम्बद्ध न रहते थे । शौनिक-शिष्य कात्यायन ने चारों ही वेदों पर अपने ग्रन्थ लिखे हैं।
+ देखो षड्गुरुशिष्य कृत सर्वानुक्रमणी वृत्ति की भूमिकाशौनकस्य तु शिष्योऽभूत् भगवानाश्वलायनः ।
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प्रश्न-इसी आरण्यकस्थ वाक्य के अनुवाद ( पृ० २१० टिप्पणी २ ) के एक नोट में कीथ महाशय लिखते हैं
This mention is enongla till prove that Mahidasa did not write the Aranyaka. But it is quite probable that he was the redactor of the Brahmuna, in its form of forty chapters."
क्या उनका अभिप्राय विश्वसनीय है।
उत्तर-कीथ साहेब का यह लेख सर्वथा भ्रमपूर्ण है । सब विद्वान् इस विषय में सहमत हैं कि शतपथ ब्राह्मण का प्रवचन याज्ञवल्क्य ने ही वि" था । जब उसी शतपथ ब्राह्मण मेंतदु होवाच याज्ञवल्क्यः ।
१।३।४।२१।।२।३11२१॥
२।४ । ३ । २ ॥१२ । ४ । १ । १०॥ इति ह स्माह याज्ञवल्क्यः ।
३1३।३।१०॥ स होवाच याज्ञवल्क्यः ।
१२ ।६।३।२।। इन लेखों के आने से किसी विद्वान् को शतपथ ब्राह्मण के याज्ञवल्क्य प्रोक्त होने में सन्देह नहीं हुआ, तो ऐतरेय आरण्यक में महिदास का नाम आ जाने से कीथ को सन्देह न होना चाहिये था । अनेकों पाश्चाल लेखक ऐसी ही भ्रममूलक कल्पनाएं कर के बहुत लोगों को भ्रम में डालते वा स्वयं संशय में पड़े रहते हैं । और यदि यह कहो कि ग्रन्थ-कर्ता स्वयं अपने को “विद्वान्” कैसे कह सकता है, तो इतना शब्द उसके किसी समीपवर्ती शिष्य ने धर दिया है, ऐसा मानने में कोई हानि नहीं।
प्रश्न----छान्दोग्य उपनिषद् के वाक्य का अर्थ ११६ वर्ष नहीं, प्रत्युत १६०० वर्ष है। तदनुसार महिदास ऐतरेय १६०० वर्ष जीवित रहा । न जाने उसने ऐतरेय ब्राह्मण का प्रवचन इतने लम्बे जीवन के किस भाग में किया । अतः उस के प्रवचन किये हुए ब्राह्मण को महाभारत कालीन मानना उचित नहीं । मनु १।८३॥ पर भाष्य करते हुए मेधातिपि लिखता है
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ननु “स ह षोडशं वर्षशतमजीवत्" इति परममायुर्वेदे भूयते ।
इस का अभिप्राय १६०० वर्ष प्रतीत होता है । महामहोपाध्याय पं० गङ्गानाथ झा मेधातिथिभाध्य के अङ्गरेजी अनुवाद में लिखते हैं
___ "But we find the highest age described as 16t)) years, in the Chhandogya Upanisad (3:16. 71. where it is said the lived for sixteen hundred years."
राजेन्द्रलाल मित्र भी ऐतरेय आरण्यक के Introduction पृ० ३ के नोट में छान्दोग्य के वाक्य का अर्थ 'for sixteen hundred years' करते हैं ।
इतने बड़े २ विद्वानों का अर्थ कैसे अशुद्ध हो सकता है ?
उत्तर-"षोडश वर्षशतं" का अर्थ ११६ वर्ष ही है। पं० गङ्गानाथ झा नं अनुवाद में भूल की है। वही भूल राजेन्द्रलाल मित्र ने दिखाई है । मेधातिथि का अभिप्राय भी पं० गङ्गानाथ झा वाला नहीं है । वहां अर्थ तो लिया ही नहीं | यह कल्पना झा महाशय की अपना ही है । छान्दोग्य के उपस्थित वाक्य का अर्थ सब प्राचीन आचार्यों ने भी ११६ वर्ष ही किया है । देखो--
षोडशोत्तरवर्षशतम्-शङ्कर । षोडषाधिकं वर्षशतम्-रामानुज । षोडशोत्तरं शतम्-मध्व ।
मैक्समूलर का भी यही अर्थ है । जैमिनि उपनिषद् ब्राह्मण में Haunt 0ertel ने मी ११६ वर्ष ही अर्थ किया है। बहुत खेंच तान करके १६०० अर्थ यदि कर भी लें तो एक और आपत्ति आ पड़ती है। छान्दोग्य के इस प्रकरण में पुरुष को यशरूप मान कर उसे सवना से तुलना दी है | तानों सवनों के कुल वर्ष भी २४+४४+४८=११६ ही बनते हैं । अतः १६०० वर्ष अर्थ प्रकरणानुकूल भी नहीं झा महाशय यही नहीं, अन्यत्र भी ऐसे ही अर्थ करते हैं । मेधातिथि के शाखाभेट्निरूपक--
एक शतमध्वऍणां। वाक्य का अर्थ "a hundred Recensions'' करते हैं । परन्तु समस्त आर्य वाङ्मय में ऐसे वाक्य का अर्थ १०१ ही लिया गया है। अतः ऐसे अनुवादों के लिये शा. महाशय को ही साधुवाद । उन की भूल से हम. १.१६ से १६०० का असम्भव अर्थ नहीं मान सकते ।
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(झ) सामाविधान ब्राह्मण ३ । ९ । ३ ।। में एक वंश कहा है । वह निम्नलिखित प्रकार से हैं---
(१) प्रजापति
(२) बृहस्पति
(३) नारद
(४) विष्वक्सेन
(५) व्यास पाराशर्य
(६) जैमिनि
(७) पापिण्ड्य
(८) पाराशायण
(१) बादरायण
(१०) ताण्डि (११) शाट्यायनि इन्हीं अन्तिम दो व्यक्तियों ने ताण्ड्य और शाट्यायन ब्राह्मणों का प्रवचन किया था । ये आचार्य पाराशर्य व्यास से कुछ ही पीछे के हैं । अतः इनके कहे हुए ब्राह्मणग्रन्थ भी महाभारत कालीन ही हैं । सम्भवतः शतपथ ६ । १ । २ । २५ ॥ में
अथ ह स्माह ताण्ड्यः । जिस ताण्ड्य का कथन है, वह इसी का सम्बन्धी है ।
(ञ) पं. अभयकुमार गुह ने सन् १९२१ में एक ग्रन्थ लिखा था । नाम है उसका Jivatman in the Brahma Sutras. इस ग्रन्थ में एक विषय का बड़ा अच्छा प्रतिपादन है । गुह महाशय ने यह सिद्ध कर दिया है कि कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास और बादरायण एक ही व्यक्ति थे। हम इस विषय में गुह की युक्तियों से पूरे सहमत हैं । वेदान्तसूत्र, वेदव्यास का अन्तिम ग्रन्थ प्रतीत होता है । वेदान्त सूत्रों में उपनिषदों, आरण्यकों, ब्राह्मणों और मन्त्र संहिताओं का स्पष्ट कथन किया गया है
देखो१-ईक्षतेर्ना शब्दम् । १।१।५॥
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२-श्रुतत्वाच्च । १ । १ । ११ ॥ ३-मान्त्रवर्णिकमेव च गीयते । १।१ । १५॥ ४-अन्तर्याम्यधिदैवादिषु तद्धर्मव्यपदेशात् ।।२।१८॥ ५-शारीरश्चोभयेऽपि हि भेदेनैनमधीयते । १ ।२।२० ॥ ६-आमनन्ति चैनमस्मिन् । १ । २ । ३२ ॥ ७-परात तच्छ्रुतेः । २ । ३ । ४१ ॥ ८-अग्न्यादिगतिश्रुतेरिति चेन्न भाक्तत्वात् । ३।१।४॥ ९-पुरुषविद्यायामिव चेतरेषामनाम्नानात् । ३।३।२४॥ १०-शब्दश्चातोऽकामकारे । ३।४ । ३१ ॥
___ इन सूत्रों में छान्दोग्य उप०, श्वेताश्वतर उप०, तेत्तिरीय उप०, बृहदारण्यक उप०, काण्व और माध्यन्दिन शतपथ ब्रा०, जाबाल उप०, कोषीतकि उप०, बृहदारण्यक उप०, ताण्डी और पैङ्गी ब्राह्मण, तथा काठक संहिता की श्रुतियों का क्रमशः वर्णन है।
हम कह चुके हैं कि व्यास और उन के शिष्य प्रशियों ने ही ब्राह्मणों का सङ्कलन आरम्भ किया था । वेदान्त सूत्रा में इन सब के प्रमाण आ जाने से यह निश्चय होता है कि व्यास जी के जीवन काल में ही यह सङ्कलन समाप्त हो चुका था । वेदान्त पूत्र भगवान् व्यास का अन्तिम ग्रन्थ प्रतीत होता है । इस प्रकार भी यही निश्चय होता है कि ब्राह्मण ग्रन्थ महाभारत काल में ही सङ्कलित हुए।
प्रश्न-वेदान्त सूत्र ३ | ४ | ३० ॥ ३ । ४ । ३८ ॥ इत्याद में मनुस्मृति का उल्लेख है । मनुस्मृति तो बहुत नया ग्रन्थ है । पाश्रात्य लेखक इसे ईसा का प्रथम शताब्दी के समीप का मानते हैं । मनु का उल्लेख करने से वंदान्तसूत्र भी बहुत नीन हैं । ऐसे सूत्रों के साक्ष्य के आधार पर ब्राह्मण-ग्रन्थों का काल निश्चय करना क्या भूल नहीं है।
उत्तर-मनुस्मृति के कुछ श्लोक अवश्य नवीन हैं, परन्तु मूल ग्रन्थ महाभारत से सहस्रों वर्ष पूर्व का है । इस लिये ऐसी कल्पनाऐं निरर्थक हैं।
( ट ) महाभारत आदि पर्व अध्याय ६३ में कहा है
प्रतीपस्तु खलु शैव्यामुपयेमे सुनन्दी नाम । तस्यां त्रीन पुत्रानुत्पादयामास । देवापिं शन्तनुं बालकिं चेति । ४७॥
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प्रतीप के इस सिरे पुत्र बाहलीक का वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता हैतदु ह बल्हिकः प्रातिपीयः शुश्राव कौरव्यो राजा।
१२।९।३।३॥ यह व्यक्ति महाभारत कालीन ही है, और इसका उल्लेख करने से शतपथ भी लगभग उसी काल का हैं ।
प्रश्न-और तो सब बातें उचित प्रतीत होती हैं, पर वाल्मीकि रामायण में एक ऐसा स्थल है जो ब्राह्मण ग्रन्थों को महाभारत कालीन मानने नहीं देता। दाशरथि राम का काल महाभारत से लाखों वर्ष पहले का है । कठ, कालाप और तैत्तिराय आदि लोग जब राम के काल में थे, तो ये ब्राह्मण ग्रन्थ जो इन्हीं ऋषियों का प्रवचन हैं, महाभारत काल के कैसे हो सकते हैं । देखो रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ३२ ( दाक्षिणात्य संस्करण ) में क्या लिखा है
कौसल्यां च य आशीभिर्भक्तः पर्युपतिष्ठति । आचार्यस्तैत्तिरीयाणामभिरूपश्च वेदवित् ॥ १५ ॥ पशुकाभिश्च सर्वाभिर्गवां दशशतेन च । ये च मे कठकालापा बहवो दण्डमाण्वाः ॥ १८ ॥
उत्तर--ये श्लोक अवश्यमेव प्रक्षिप्त है । वङ्गीय वाल्मकि रामायण सर्ग ३२ में ये ऐसे हैं
सुहृन्मां परया भक्तया य उपास्ते तु देवलः । आचार्यस्तैत्तिरीयाणां तमानय यतव्रतम् ॥ १७ ॥ ये च मे वन्दिनः सन्ति ये चापि परिचारकाः । सर्वांस्तर्पय कामैस्तान् समाहूयाशु लक्ष्मण ॥ २० ॥
और पश्चिमोत्तरीय वाल्मीकि रामायण सर्ग ३५ में यह श्लोक ऐसे वैं । सुहृन्मां परया भक्तया य उपास्ते सदैव सः । आचार्यस्तौत्तिरीयाणां तमानय यतव्रतम् ॥ १७ ॥ ये च मे वन्दिनः सन्ति ये. चान्ये परिचारिकाः। सर्वास्तपर्य कामैस्तान् समाहूयाशु लक्ष्मण ॥ २०॥ इन दो श्लोकों में से पहला श्लोक तीनों पाठों में कुछ २ मिलता है। परन्तु
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लाहौर संस्करण के सर्वोत्तम कोष में यह नहीं है । और दूसरा श्लोक केवल दाक्षिणत्य पाठ में ही है । उस के स्थान में दूसरे दोनों पाठ कुछ और ही लिखते हैं। इस का प्रक्षिप्त होना निर्विवाद है। पहला श्लोक और उस में “तैत्तिरीयाणां" पाठ किसी कृष्ण-यजुर्वेद-भक्त दाक्षिणात्य का मिलाया हुआ प्रतीत होता है । महाभारत और महाभाष्य के प्रमाण सं* हम बता चुके हैं कि ब्राह्मणकार तित्तिरि और कठ आदि आचार्य महाभारत काल में ही थे, अतः उन को राम के काल में कहने वाला श्लोक किसी इतिहासानभिन्न व्यात्ति का मिलाया हुआ है।
प्रश्न-हम तो ब्राह्मण-ग्रन्थों को बहुत पुराना समझते थे, पुराना ही नहीं, काल की राष्ट से वेदों के समीपतम समझते थे । आर्यों का इतिहास महाभारत-काल से भी लाखों वर्ष पहले का है । वेद भी तभी से चल आये हैं । यदि ब्राह्मण-ग्रन्थ महाभारत काल के हैं, तो इन लाखों वर्षों में अग्रा-बुद्धि रखने वाले ब्रह्मवर्चस्वी, सर्वविद्यावित् ऋषियों ने क्या कोई भी ग्रन्थ न बनाये थे।
उत्तर-हम ने कब कहा है कि ब्राह्मण-ग्रन्थों की सब सामग्री महाभारत काल ही में बनी । इस के विपरीत हम कह चुके हैं कि ब्रह्मा के काल से ही ब्राह्मण वावयों का प्रवचन होना आरम्भ हो गया था । वह प्रवचन इन लाखों वर्ष पर्यन्त होता रहा । तदनन्तर महाभारत काल में कुछ नया प्रवचन हुआ । और सब प्रवचन का आद्यन्त संग्रह करके महाभारत कालीन ऋषियों ने ये साम्प्रतिक ब्राह्मण-ग्रन्थ बनाये।
महाभारत के पूर्व लाखों वर्षों तक इन ब्राह्मण-ग्रन्थों की मौलिक सामग्री का ही केवल प्रवचन नहीं हुआ, प्रत्युत आर्य ऋषि मुनि सब ही विद्याओं के ग्रन्थ बनाते रहे हैं । इस में प्रमाण भी देखो । न्याय भाष्यकार महामुनि वात्स्यायन न्याय सूत्र ४ । १ । ६२ ॥ पर भाष्य करते हुए किसी ब्राह्मण-ग्रन्थ का यह प्रमाण देते हैं
प्रमाणेन खलु ब्राह्मणेनेतिहासपुराणस्य प्रामाण्यमभ्यनुज्ञायते । ते वा खल्वेते अथर्वाङ्गिरस एतदितिहासपुराणमभ्यवदन् ............य एव मन्त्रब्राह्मणस्य द्रष्टारः प्रवक्तारश्च ते खल्वितिहासपुराणस्य धर्मशास्त्रस्य चेति ।
*जब तित्तिरि ही वैशंपायन का प्रशिष्य है तो नैत्तिरीय लोग राम-काल में केसे हो सकते हैं । देखो काण्डानुक्रमणिका
वैशम्पायनो यास्कायैतां प्राह पैङ्गये । यास्कस्तित्तिरये प्राह उखाय प्राह तित्तिरिः ॥१५॥
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पुनः सूत्र २ । २ । ६७ ॥ पर लिखते हैं
य एवाप्ता वेदार्थानां द्रष्टारः प्रवक्तारश्च त एवायुर्वेदप्रभृतीनामिति ।
किसी विलुप्त ब्राह्मण, वा वात्स्यायन के इस लेख से स्पष्ट प्रतीत होता है कि महाभारत-काल से बहुत पहले, आदि सृष्टि अर्थात् अथर्वाङ्गिरस ऋषियों के काल से ही, तथा मन्त्रार्थद्रष्टा ऋषियों के काल में भी ये ग्रन्थ विद्यमान थे।
१-इतिहास २-पुराण-सृष्ट्युत्पत्ति आदि विषयक बातें । ३-धर्म शास्त्र-मानवादि । ४-आयुर्वेद
शतपथ ब्राह्मण ११ । ५। ६ । ८ ॥ में जो निम्नलिखित वाक्य हैं, उस के अनुसार इन ब्राह्मण-ग्रन्थों के सङ्कलन से पहले ये ग्रन्थ भी विद्यमान थे ।
यदनुशासनानि विद्या वाकोवाक्यमितिहासपुराणं गाथा नाराशस्यः ।
अर्थात्५-अनुशासन ग्रन्थ ६-वाकोवाक्य , ७-गाथा , ८-नाराशंसी , तथा शतपथ १४ । ६ । १०॥ ६॥ के अनुसार
इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि ।
९-उपनिषद् ( मौलिक उपनिषद् ) १०-श्लोक-ग्रन्थ ११-सूत्र ग्रन्थ १२-अनुव्याख्यान १३-व्याख्यान तथा छान्दोग्य उपनिषद् ७ । २ ॥ के अनुसार---- इतिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं ब्रह्मविद्यां भूतविद्या क्षत्र
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विद्यां नक्षत्रविद्यां सर्पदेवजनविद्यामेतद्भगवोऽध्येमि ।
१४- भूत विद्या
१५ - क्षत्र विद्या
१६ - नक्षत्र विद्या
१७ - सर्पदेवजनादि विद्या
३०
और मुण्डकोपनिषद् १ । ५ के प्रमाण से --
शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तम् छन्दो ज्योतिषम् इति ।
१८ - शिक्षा
१९- कल्प
२०- व्याकरण
२१ - निरुक्त
२२ - छन्दः शास्त्र
२३- ज्योतिष
तथा तैत्तिरीयारण्यक २ । ९ । के अनुसार
ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथा नाराशं
सीरिति ।
२४ - ब्राह्मण ( मौलिक ब्राह्मण ) ।
भाकवि को हम बहुत प्राचीन मानते हैं । कई विद्वान् उसे नवीन भी मानते हैं । पर एक बात निश्चित है । कोई विद्वान् नाटककार, और फिर भास जैसा कवि अपने पात्र के मुख से असमयोचित शब्द नहीं निकलवा सकता । प्रतिमा नाटक में जो वाक्य रावण के मुख से कहाया गया है वह महाभारत काल से सहस्रों वर्ष पहले का इतिहास बताता है । तदनुसार
रावणः – “ ... काश्यपगोत्रोऽस्मि साङ्गोपाङ्गं वेदमधीये, मानवीयं धर्मशास्त्रं, माहेश्वरं योगशास्त्रं, बार्हस्पत्यमर्थशास्त्रं, मेधातिथे न्यायशास्त्र, प्राचेतसं श्राद्धकल्पं च । प्रतिमा नाटक पृ० ७९
-
२५-उपाङ्ग ग्रन्थ
२६ - माहेश्वर योगशास्त्र
२७ - बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र
२८ - न्याय शास्त्र मेधातिथि विरचित
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२१-पाचेतस श्राद्ध कल्प
वाल्मीकि रामायण निश्चय ही महाभारत से बहुत पहले काल का ग्रन्थ है । अतः --
३०-वाल्मीकि रामायण* ---इत्यादि ।
कहां तक गिनाव महाभारत काल से सहस्रों लाखों वर्ष पहले आर्यों के वाङ्मय में प्रायः सब ही विद्याओं के ग्रन्थ थे । आर्यों में जब कोई
नाविद्वान् ।
*महाशय हेमचन्द्र राय चौधुरी अपन ग्रन्थ Political listory of Ancient India (सन् १९२३) में लिखते हैं-but large portions of which ( Ramayana etc.), in the opinions of competent crities, belong to the post-Bimbasurian period. The present Ramayana not only mentions Budiha Tathagat ( II. 109.3.4) etc. P. iii.
चौधुरी महाशय जैसे विद्वानों को इतनी शीघ्रता से सम्मति न देनी चाहिये था । रामायण के कुछ श्लोक प्रक्षिप्त तो अवश्य हैं, पर रामायण का अधिकांश भाग ऐसा नहीं । न ही रामायण महाभारत काल से पीछे का ग्रन्थ है । जो श्लोकयथा हि चोरः स तथा हि बुद्धः तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि :
उन्हों ने प्रमाणरूपेण उद्धृत किया है, वह वङ्ग शाखीय वा पश्चिमोत्तर रामायणों में नहीं है । देखो दोना रामायणों का अयोध्याकाण्ड, क्रमशः सर्ग ११८ और १२२ ।
ऐसे ही चौधुरी महाशय पृ० ११ पर रामायण अयोध्याकाण्ड (II.61.42) का प्रमाण “जनमेजय" के विषय में देते हैं।
यां गतिं सगरः शैव्यो दिलीपो जनमेजयः ।
यह श्लोक भी दोनों अन्य शाखाओं में नहीं मिलता । देखो क्रमशः सर्ग ६६ और ७० ।
विना पूरा प्रमाण देखे, इसी प्रकार सम्मतियां बना लेना विद्वानों को उचित नहीं है।
वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड ६ ॥ ८॥ छान्दोग्य उपनिषद् ५ । ११ ॥ ५ ॥ महाभारत शान्तिपर्व ७७ ॥ ९ ॥
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३२
अविद्वान् ही न था, तो पुनः विद्या सम्बन्धी ग्रन्थों का क्या कहना । अतः ऐसा प्रश्न निरर्थक है।
प्रश्न-इन ब्राह्मणों की भाषा वदों के बहुत समीप है। अतः प्राह्मणों से पहले लौकक भाषा में ग्रन्थों का होना एक असम्भव बात है।
उत्तर—यह भी तुम्हारे मिथ्या भ्रम का ही कारण है। पश्चिम के कुछ विद्वानों के दर्शाये हुए असत्य-भाषा विज्ञान (Philology) को सत्य मानकर पढ़ने से ही ऐसे सारहांन प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं । लो इसका उत्तर सुनो । ब्राह्मणग्रन्थों में अनेकों ऐसी गाथायं और श्लोक हैं. जो सर्वथा लोकभाषा में हैं । उसके कुछ उदाहरण देखो
तदेष श्लोकोऽभ्युक्तःतद्वै स प्राणोऽभवन् महाभूत्वा प्रजापतिः । भुजो भुजिष्या वित्वैतद् यत् प्राणान् प्राणयत् पुरि ।।
शतपथ ७ । ५। १ । २१ ॥ तदेष श्लोको भवतिअन्तरं मृत्योरमृतं मृत्यावमृतमाहितम् ।। मृत्युर्विवस्वन्तं वस्ते मृत्योरात्मा विवस्वति ।।
शतपथ १० ।५।२।४॥ तथा अन्य श्लोकों के लिये देखो शतपथ
१० | ५ | २ | १८ ॥ १० । ५। ४ | १६ ॥ ११ । ३ । १। ५, ६ ॥ ११ । ५। ४ । १२ ॥ ११ । ५ । ५ । १२ ॥ १२ । ३ । २ । ७, ८ ॥ इत्यादि तेरहवें और चौदहवे काण्ड में भी बहुत से श्लोक हैं | गाथाओं के कुछ उदाहरण हम पृष्ठ ६-७ पर देचुके हैं । ऐसे ही अन्य ब्राह्मणों में भी श्लोक आदि पाये जाते हैं । ये सब श्लोक वा गाथाएं भाषा अर्थात् लोकभाषा में ही हैं । और ऊपर भी हम बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र आदि नाम के जो ग्रन्थ गिना चुके हैं, वे भी सब लोकभाषा में ही हैं । इस से ज्ञात होता है कि प्रवचन की भाषा के साथ ही साथ, लोकभाषा भी सदा से विद्यमान रही है। अधिक विचार करने पर विद्वान् लोग स्वयं इसी विचार पर पहुंच जावेंगे |
___* इस अर्थशास्त्र के कई लम्ब २ उद्धरण विश्वरूपाचार्य प्रणीत याज्ञवल्क्यस्मृति की बालक्रीडा टीका में पाये जाते हैं।
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शङ्कर बालकृष्ण दीक्षित ने ज्योतिष शास्त्र का इतिहास मराठी भाषा में लिखा है । उस में उन्होंने ब्राह्मण-ग्रन्थों के काल निरूपण का भी यत्न किया है । शतपथ ब्राह्मण २ | १ | २ | ३ || मे ऐसा पाठ है
एता (कृत्तिकाः ) ह वै प्राच्यै दिशो न च्यवन्ते | सर्वाणि ह वा अन्यानि नक्षत्राणि प्राच्यै दिशश्च्यवन्ते ||
इस पाठ में कहा है कि नक्षत्रसंसार में कभी ऐसी अवस्था थी, जब कि कृत्तिका नक्षत्र को छोड़ कर शेष सब नक्षत्र प्राची दिशा में जाते थे । दीक्षित महाशय ने ज्योतिष के अनुसार गणना कर के यह दिखाया है कि ऐसी अवस्था अनेक वार हो चुकी होगी । परन्तु अन्तिम दशा जो इस समय से पहले हो चुकी है विक्रम से लगभग ३००० वर्ष पहले हुई थी । शतपथ आदि ब्राह्मणों में इसी का उल्लेख है । अतः शतपथादि ब्राह्मण अवश्य ही इतने पुराने हैं । जो परिणाम हमने ऐतिहासिक दृष्टि से निकाला है, वही परिणाम दीक्षित महाशय ने ज्योतिष की गणनाओं से निकाला है । ब्राह्मण ग्रन्थों में और भी ऐसे अनेक पाठ हैं, जिन्हें यदि ज्योतिष की दृष्टि से देखा जांब, तो हम इसी परिणाम पर पहुंचाते हैं । अतएव ब्राह्मण-ग्रन्थों का सङ्कलन महाभारत काल में हुआ, ऐसा कहना निर्विवाद है ।
पाश्चात्य लेखकों में से रोथ, वेबर, मैक्समूलर, मैकडानल, ब्लूमफील्ड कीथ आदि सज्जनों ने भी ब्राह्मणों के काल पर लेख लिखे हैं । उन सब लेखों का आधार उन की निज की कल्पनायें हैं । कल्पनाएं प्रमाण नहीं हुआ करतीं । इस लिये हम ने उन सबको उपेक्षा-दृष्टि से देखा है । हमारा सारा कथन आर्य ऐतिह्य के अनुकूल है । ऐतिह्य को त्याग कर कल्पना का आधार लेना पाश्चात्यों को ही प्रिय है । विद्वान् इसकी अवहेलना ही करते हैं ।
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ब्राह्मण-ग्रन्थ ब्रह्मा के काल से बनने आरम्भ हुए और उन का अन्तिम संग्रह महाभारत काल में हुआ, इस विषय में भगवान् दयानन्द सरस्वती स्वामी की भी यही सम्मति हैं । वे ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के भाग्यकरणशङ्कासमाधानादिविषय के आरम्भ में लिखते हैं
यानि पूर्वैर्देवैर्विद्धर्ब्रह्माणमारभ्य याज्ञवल्क्य - वात्स्यायन जैमिन्यन्तैर्ऋऋषिभिश्चैतरेय - शतपथादीनि भाष्याणि रचितान्यासन् ।
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(२) क्या ब्राह्मण वेद हैं ? शबर, पितृभूति, शक्कर, कुमारिल, विश्वरूप, मेधातिथि, कर्क, वाचस्पतिमिश्र, रामानुज, उव्वट, सायण प्रभृति सवहीं बड़े २ आचार्य मन्त्र ब्राह्मण दोनों को वेद मानते आये हैं । गत ३००० वर्ष में आर्यावर्त के किसी विद्वान् को इस बात का सन्देह नहीं हुआ कि ब्राह्मण ग्रन्थ वेद नहीं हैं । इतने काल से आर्यों के हृदयों में ब्राह्मणों की श्रुतियों का उतना ही मान रहा है, जितना संहिताओं के मन्त्रों का । आर्यों के समस्त श्रौतकर्म इन दोनों को तुल्य मान कर ही होते चले आये हैं ।
__यह सब कुछ ही था, पर इस बीसवीं शताब्दी विक्रम में दयानन्द सरस्वती ने इन सब के विरुद्ध इस बात का प्रकाश किया कि ब्राह्मण-ग्रन्थ वेद नहीं हैं । वे ऋषिप्रोक्त हैं, ईश्वरोक्त नहीं । इत्यादि । दयानन्द सरस्वती ने स्वपक्ष पोषणार्थ अनेक युक्तियां दीं। वे युक्तियां इस बात को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त ही हैं । उन के विरुद्ध जो उचित पूर्वपक्ष उठाया गया है, हम उसका उत्तर तो दें ही गे, पर कुछ एक सर्वथैव नये प्रमाण भी प्रस्तुत करते हैं । इन प्रमाणों से ब्राह्मणों का अनीश्वरोक्त होना सिद्ध होजायगा । अन्त में हम यह भी बतावेंगे कि इतने बड़े २ पुराने आचार्यों को इस बात में क्यों भ्रम होगया । लो अब प्रमाणों के बल को देखो, और सत्य को ग्रहण करो।
(क) गोपथ ब्राह्मण पू० २ । १० ॥ में कहा है--
एवमिमे सर्वे वेदा निर्मिताः सकल्पाः सरहस्या:* सब्राह्मणा:* सोपनिषत्काः सेतिहासाः सान्वाख्यानाः सपुराणाः सस्वराः ससंस्काराः सनिरुक्ताः सानुशासनाः सानुमानाः सवाकोवाक्याः ।
यहां ब्राह्मणकार स्वयं कह रहे हैं कि (१) कल्प (२) रहस्य (३) ब्राह्मण (४) उपानषत् (५) इतिहास (६) अन्वाख्यान (७) पुराण (८) स्वर- (ग्रन्थ ) (९) संस्कार (ग्रन्थ) (१०) निरुक्त (११) अनुशासन (१२) अनुमार्जन और (१३) वाकोवाक्य आदि ग्रन्थ वेद नहीं हैं । जब ब्राह्मणकार स्वयं इन्हें वेद नहीं मानते, तो फिर हम क्यों इन्हें वेद माने ।
* प्रतीत होता है, इन साम्प्रतिक ब्राह्मणों से पहले, रहस्य अर्थात् आरण्यकादि और उपनिषद् ब्राह्मणों का भाग नहीं थे।
प्रातिशाख्यादि।
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(ख) परम विद्वान, वेदविद् भगवान् मनु अपने धर्मशास्त्र में कहते हैंउपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः । सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्य प्रचक्षते ।। २ । १४० ॥
इस श्लोक में रहस्य शब्द आया है । "रहस्य" शब्द आरण्यक अथवा उपनिषद् का द्योतक है । उपनिषद् और आरण्यक आजकल ब्राह्मणों का भागमात्र हैं । मनु इनका वेद से पृथङ् निर्देश करते हैं । अतएव मनु जी की दृष्टि में ब्राह्मण वेद नहीं हैं ।
मेधातिथिप्रभृति मनु के टीकाकार स्वपक्ष में इस आपत्ति को देख कर अनेक कल्पनाएं उठाते हैं, पर वे सब कल्पनाएं ऐसी ही हैं जो किसी असत्य पक्ष को छिपा तो सकती हैं, हटा नहीं सकतीं ।
प्रश्न -- महामोहविद्रावण के लिखाने वाले राममिश्र शास्त्री आदि तथा उस का लिखकर प्रकाशित करने वाला मोहनलाल स्वग्रन्थ के प्रथम प्रबोध में कहता हैं“तथा हि षष्ठेऽध्याये मनुः
एताश्चान्याश्च सेवेत दीक्षा विप्रो वने वसन् । विविधाश्रपनिषदीरात्मसंसिद्धये श्रुतीः ॥ २९॥
अत्र “औपनिषदीः श्रुतीः" इत्युक्तया उपनिषदां श्रुतिशब्दवाच्यत्वं श्रुतिशब्दस्य वेदान्नायपदपयत्वम् । यथाह मनुरेव ---
श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः । २ ॥ १० ॥
अतएव -
दशलक्षणकं धर्ममनुतिष्ठन् समाहितः । वेदान्तं विधिवच्छ्रुत्वा संन्यसेदनृणो द्विजः ।। ६ । ९४ ॥
इत्यादि मानवशास्त्रे वेदान्तपदेनोपनिषदां परिग्रहः । " इति
उत्तर – जिस ब्राह्मण को पूर्वपक्षी वेद मानता है, जब वही ब्राह्मण रहस्य, उपनिषद् और ब्राह्मण को वेद नहीं मानता, तो मनुजी उसके विरुद्ध कैसे कह सकते हैं। और मनुजी के अपने लेख में भी परस्पर विरोध नहीं होना चाहिये । अत एव मनुं अध्याय २ के श्लोक ८-१५ तक का यही समन्वय है कि स्मृति के प्रतिपक्ष में: श्रुति
* वेदान्ताचार्य मोहनलाल के मित्र वा अध्यापक श्री पूज्य स्वा० अच्युतानन्दजी ने यह त हम से कही थी ।
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और वेद शब्द यहां प्रयुक्त हुए हैं । स्मृति वेद के उतनी समीप नहीं जितने कि ब्राह्मण उपनिषद् आदि । वेदव्याख्यान होने से, ये वेद के बहुत समीप हैं । इसी लिये इन्हें वेद वा श्रुति कहा गया है। फिर भी उपनिषद् को उतना ऊँचा पद नहीं दिया | स्पष्ट मनु कह रहा है कि "औपनिषदीः श्रुती : " । श्रुति शब्द का सर्वत्र वेदार्थ है भी नहीं । महाभारत आदि ग्रन्थों में लौकिक ऐतिह्य को भी श्रुति कहा है। देखोयत्र तेपे तपस्तीव्रं दाल्भ्यां बक इति श्रुतिः ॥
शल्यपर्व ४१ | ३२ ॥
इसी प्रकार उपनिषद् में होने वाली परम्परा से सुनी हुई सच्चाई को "आँप - निषदी श्रुती: कहा है । जो ऐसा न मानोगे, तो मनु में परस्पर विरोध आने से मनु का ही प्रमाण न रहेगा । और मनु ६ । ९४ ॥ में जो " वेदान्त" शब्द आया है, तो वहां “अन्त” का अर्थ समीप ही है । अतएव हमारे सिद्धान्त में कोई आपत्ति नहीं आती । (ग) महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि भी कहते हैं
सप्तद्वीपा वसुमती । त्रयो लोकाः । चत्वारो वेदाः । साङ्गाः सरहस्याः । १ । १ । १ ।
(कीलहान सं० पु० )
यहां पर पतञ्जलि भी रहस्य अर्थात् उपनिषद् को वेदों से पृथक मानता है। जब उपनिषत् आदि ब्राह्मण भाग वेदों से पृथक् हैं और वेद नहीं हैं, तो ब्राह्मण ग्रन्थों को वेद मानना अज्ञान ही है ।
प्रश्न - महाभाग्य में तो
वेदे खल्वपि - " पयोव्रतो ब्राह्मणो यवागूवतो राजन्य
आमिक्षावतो वैश्यः" इत्युच्यते । १ । १ । १ ॥
-
(कील० सं० पु० ८ )
पुनः
वेदशब्दा अप्येवमभिवदन्तियोऽग्निष्टोमेन यजते य उ चैनमेवं वेद । योऽग्निं नाचिकेतं चिनुते य उ चैनमेवं वेद
( कील० सं० पृ० १० )
* तैत्तिरीय बा० ३ | १४ | ८ | ५ || इत्यादि ।
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तथा--- वंदे ऽपि
य एवं विश्वसृजः सत्त्राण्यध्यास्त इति तेषामनुकुर्वस्तद्वत् सत्त्राण्यध्यासीत सोऽप्यभ्युदयेन युज्यते ॥
( कील० सं० पृ. २०) इत्यादि पाठ है । ये पाठ ब्राह्मणों में ही मिलते है । इन से स्पष्ट हो जाता है कि पतञ्जलि मुनि ब्राह्मणों को वेद मानते थे ।
उत्तर-ब्राह्मणों की भाषा वह नहीं, जो मन्त्रों का भाषा है । न ही ब्राह्मणां की भाषा सर्वथा लौकिक है । ब्राह्मणों की भाषा प्रवचन की भाषा है । ब्राह्मण वेद. च्याख्यान हैं । वेद-व्याख्यान होन से तथा प्रवचन की भाषा में होने से ही इन्हें वेद के अत्यन्त साप माना जाता है। जिस प्रकार से इस समय भी हम कल्पों को वैदिक तो मानते हैं पर साक्षात् ईश्वरप्रांत वेद नहीं, वैसे ही प्राचीन लोग भी ब्राह्मणों को वैदिक तथा औपचारिक दृष्टि से वेद कह देते थे।
___ महाभाष्य के प्रस्तुत वाक्य में भी पतञ्जलि का यही अभिप्राय है । पतञ्जलि इस से पूर्व कात्यायन का वाक्य पढ़ता है----
यथा लौकिकवैदिकेषु ।
इसी पर चलते २ वह लोक के प्रतिपक्ष में ब्राह्मणों को वेदवत् मानकर उन का प्रमाण उद्धृत करता है । इस में और कोई बात नहीं । महाभाप्य में अन्यत्र भी ऐसा ही समझना।
* सायण आदि पूर्वपक्षी लोग भी ऐसा ही मानते हैं
तत्र शतपथब्राह्मणस्य मन्त्रव्याख्यानरूपत्वाद् व्याख्येयमन्त्रप्रतिपादकः संहिताग्रन्थः पूर्वभावित्वात् प्रथमो भवति ।
___ काण्वसंहिता भाग्यम् पृ० ८ । तथा च
यद्यपि मन्त्रब्राह्मणात्मको वेदस्तथापि ब्राह्मणस्य मन्त्रव्याख्यानरूपत्वान्मन्त्रा एवादी समानाताः ।
तैत्तिरीयसंहिता भाष्यम् पृ० ७ । आनन्दाश्रम सं० ॥
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(घ) ऐतरेय ब्राह्मण ७ ॥ १८ ॥ में लिखा है* -- ओमित्यूचः प्रतिगर एवं तथेति गाथायाः। ओमिति वै दैवं, तथेति मानुषम् । पुनः काठक साहता १४ । ५ !! में कहा है--- अनृतं हि गाथानृतं नाराशंसी।
और शंतपथब्राह्मण १।१। । ४ ॥ में कहा हैअनृतं मनुष्याः ।
इस से निश्चय होता है कि जो बात पूर्वोक्त ऐतरेय ब्रा० के प्रमाण से स्पष्ट होती है, वही सिद्धान्त काठक संहिता से प्रकाशित किया गया है । ऐतरेय ब्रा० में
*श्रौतसूत्रों में भी यही बात कही गयी है । आश्वलायन श्रौतसूत्र ९ । ३ ॥ में कहा है
ओमित्यचः प्रतिगर एवं तथेति गाथायाः । ओमिति वै दैवं तथेति मानुषम् ॥
शाङ्खायन श्रौतसूत्र में अनेक गाथाओं को उद्धृत करके १५ । २७ ॥ में कहा है
तदेतच्छौनाशेपमाख्यानं पर शतपथमपरिमितम् ।
......हिरण्यकशिपावासीनः प्रतिगृणाति ओमित्यूचः प्रतिगरः । एवं तथेति गाथायाः । ओमिति वै दैवं तथेति मानुषम्।।
कात्यायन श्रौतसूत्र अध्याय १५ में कहा हैशौनःशेषश्च प्रेष्यति ॥ १५४ ॥ ओ३मित्यूचां प्रतिगरस्तथेति गाथानाम् ॥ १५६ ॥ आपस्तम्ब श्रौतसूत्र १८ । १९ ॥ में लिखा हैशौनः शेपमाख्यायते । ऋचो गाथामिश्राः परःशताः परःसहस्रा वा ॥१०॥ हिरण्यकूर्चयोस्तिष्ठनध्वर्युः प्रतिगृणाति ॥ १२॥ ओमित्यूचः प्रतिगरः । तथेति गाथायाः ॥ १३ ॥
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कहा गया है कि अमुक यश में बैठ कर गाथा के उत्तर में ' तथा ' कहे । यहाँ ' तथा ' मानुष हैं, यह स्वयं ब्राह्मण में स्वीकार किया गया है । ऋचः के प्रतिपक्ष में गाथा का उल्लेख स्पष्ट करता है कि जहां ऋचा देवी = ईश्वरीय है, वहां गाथा मनुष्यक्ति है । शतपथ ब्रा कहता है कि मनुष्य अनृतरूप हैं, और काठक संहिता ने कहा है कि गाथा और नाराशंसी भी अनृत हैं, अर्थात् मानवीय हैं ।
पृष्ठ ८ पंक्ति ५ में हम ने जो प्रतिज्ञा की थी पूर्वोक्त प्रमाणों से वह सिद्ध हो गई, अर्थात् गाथाएं पौरुषेय हैं । यही पौरुषेय गाथाएं ब्राह्मण-ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर उद्धृत की गई हैं । देखा-
शतपथ १३ | ५ | ४ | २, ३, ६, ७, ९, ११ ॥ इत्यादि ।
ये गाथाएं सर्वथैव लौकिक भाषा में ही हैं। जिन प्रन्थों में लौकिक भाषा वाली पौरुषेय गाथाएं पाई जावें और पाई हो न जाएं किन्तु उद्धृत की गई हों, वे ग्रन्थ वेद अर्थात् ईश्वरीय नहीं हो सकते । ब्राह्मण-ग्रन्थों में यह पाई जाती हैं, अतएव ब्राह्मणग्रन्थ वेद नहीं । यदि ब्राह्मण-मन्थों को वेद मानागे, तो ब्राह्मणोद्धृत “अनृत” गाथाएं ईश्वरकृत माननी पड़ेगी । यह ब्राह्मण के ही विरुद्ध है । ब्राह्मण तो गाथाओं को मनुयकृत कह रहा है, फिर ब्राह्मण को वेद मानना अपने ही अज्ञान का प्रकाश करना है। (ङ) तैत्तिरीय ब्राह्मण १ । ३ । २ । ६ ॥ में कहा है
यद् ब्रह्मणः शमलमासीत् सा गाथा नाराशस्यभवत् । अर्थ — जो वेद का मल था वह गाथा, नाराशंसी बन गया ।
इस हीनोपमा से भी गाथा, नाराशंसी आदि को ब्रह्म अर्थात् वेद के तुल्य नहीं माना गया ।
(च) तैत्तिरीयारण्यक २९ ॥ और आश्वलायनगृह्यसूत्र ३ । ३ । १-३ ॥ में क्रमश: कहा हैं
ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणनि कल्पान् गाथा नाराशंसीः । यद् ब्राह्मणानि कल्पान् गाथा नाराशंसीरितिहासपुराणानीति ।।
यहां इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा, नाराशंसी को ब्राह्मणों का विशेषण माना | त्राह्मणपद संझी और इतिहासादि उसकी संज्ञा हैं । इस वाक्य से यही प्रतीत है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में प्राचीन इतिहासों, पुराणों (जगदुत्पत्ति सम्बन्धी बातों), कल्पों, गाथाओं और नाराशंसी आदि का ही संग्रह है । ये कल्प आदि भी मनुष्य प्रणीत ही थे, अतः ब्राह्मण-ग्रन्थ जो उनका संग्रहमात्र हैं, ईश्वरोत नहीं हो सकते ।
प्रश्न - निरुक्त अध्याय ४, खण्ड ६ में कहा है
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तत्र ब्रह्मेतिहासामिश्रमृमिश्रं गाथामिश्रं भवति ।
यहां कहा है कि वेद में इतिहास और गाथा आदि मिश्रित हैं। इस से क्या यह सिद्ध नहीं होता कि वेद भी मनु-य-राचत है, तथा वंद और ब्राह्मण में कोई भेद नहीं।
उत्तर--नहीं, इस से यह सिद्ध नहीं होता । यहां “तत्र" पद के साथ निरुत्तस्थ पूर्व वाक्य से “सून." पद का अनुवृत्ति आती है । इसका अभिप्राय यह है कि ऋग्वेद के “उस सूक्त (१ । १. 1) में ब्रह्म अर्थात् वेद में ही कुछ मन्त्र ऐसे हैं, जो नित्य इतिहास को कहते हैं, और कुछ मन्त्र ऐसे हैं जिन की पारिभाषिकी संज्ञा गाथा है । गाथा उन्हें इस लिये कहते हैं कि गाथारूप में आलङ्कारिक तौर पर उन में कुछ तथ्यों का वर्णन है।
प्रश्न- या तो गाथाएं लौकिक हो सकती है, या बंद की ऋचाओं को ही गाथा कहा जा सकता है । हम गाथा को दोनों प्रकार का कैसे मान सकते हैं ।
उत्तर—जैसे श्लोक शब्द साधारण श्लोक के लिये भी प्रयुक्त होता है, और वेदमन्त्रों के लिये भी प्रयुक्त हो जाता है, वैसे ही गाथा शब्द का भी द्वयर्थक प्रयोग है । शतपथ ब्रा० १४ । ७ । २ । ११, १२, १३ ॥ में निम्नलिखित याजुष मन्त्र को श्लोक कहा गया है--
अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते । ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्या रताः ॥४०।९।।
और साधारण श्लोकों को भी शतपथ में ही श्लोक कहा गया है, ऐसा हम पृष्ठ ३२ पर लिख चुके हैं।
गाथाएं लौकिक है, इसका ब्राह्मणान्तर्गत प्रमाण हम पहले कह आए हैं । अब दूसरे आचार्यों के प्रमाण सुनो । याज्ञवल्क्यस्मृति का टीकाकार आचार्य विश्वरूप १ । ४५ ॥ श्लोक पर लिखता है
'नाराशंस्यः पौरुषेय्यो यज्ञगाथाः । गाथा आत्मवादश्लोकाः । पुरुषकृत एव गाथा इत्यन्ये ।' मेधातिथि मनु ९ । ४२ ॥ पर लिखता हैगाथाशब्दो वृत्तविशेषवचनः। परम्परागताः श्लोकाः॥ वाल्मीकि रामायण पश्चिमोत्तर शाखा अयोध्याकाण्ड अध्याय २५ में कहा हैअपि चेयं पुरागीता गाथा सर्वत्र विश्रुता । मनुना मानवेन्द्रेण तां श्रुत्वा मे वचः कुरु ॥११॥
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गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः । कामचारप्रवृत्तस्य न कार्य ब्रुवतो वचः ॥ १२ ॥* इससे स्पष्ट होता है कि पुरुषकृत श्लोकों को गाथा कहते हैं ।
काठक गृह्यसूत्र २५ । २३ ॥ तथा पारस्कर गृह्यसूत्र १ । ७ । २ ॥ से म्पष्ट होता है कि मन्त्रों को भी गाथा कहा गया है । ऐतरेय ब्रा० ६ । ३२ ॥ में आथर्वण २० । १२८ । १२० || आदि कुन्ताप ऋचाओं को गाथा कहा है।
अतएव हमारा कथन सब प्रमाणों से परिपुष्ट ही है।
प्रश्न—आश्वलायन श्रौतसूत्र का टीकाकार नारायण तो सब गाथाओं को ऋचा ही मानता है । आश्वलायन श्रौतसूत्र ५ । ६ ॥ में आई हुई एक यज्ञगाथा का वह इस प्रकार अर्थ करता है
गाथाशब्देन ब्राह्मणगता ऋच उच्यन्ते । यज्ञार्था गाथा यज्ञगाथा।
आश्वलायन गृह्यसूत्र ३।३१॥ पर वृत्ति लिखते समय वह फिर कहता हैगाथा नाम ऋग्विशेषाः । क्या इन प्रकरणों में उसका ऐसा कथन सत्य है ?
उत्तर-जब नारायण टीका लिख रहा था, तो उसके हृदय में हमारे वाला सत्य पक्ष अवश्य उपस्थित हुआ होगा । उसी से भयभीत होकर ही उसने यह लिख दिया। जब ब्राह्मण स्वयं ऐसी गाथाओं को मानवी कहता है तो नारायण के कहने का कौन प्रमाण करेगा । नारायण वाली भूल ही सायण ने तैत्तिरीय आरण्यक २ । ९॥ के भाष्य में की है, जब वह "गाथाः मन्त्रविशेषाः" कहता है । यहाँ तो "यद् ब्राह्मणानि" कह कर शेष इतिहास, गाथा आदि को उनका विशेषण माना है । अतः मानवी गाथा ही अभिप्रेत हैं |
प्रश्न---इस पूर्वोक्त “यद ब्राह्मणानि" वाक्य के संज्ञासंज्ञिभाव-युक्त अर्थ करने में क्या प्रमाण है।
* वङ्गशाखा, अध्याय २२ ॥ पाठान्तर-कामकार० । पञ्चतन्त्र, पूर्णभद्र के पाठ में यह श्लोक ऐसे हैगुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः । उत्पथप्रतिपन्नस्य दण्डो भवति शासनम् ॥१।१६९ ॥ यही लोक महाभारत में कुछ पाठान्तर से आया है।
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उत्तर-आश्रलायन गृह्यसूत्र में इससे पूर्व ऋगादि चारों वेदों के साथ 'यद' शब्द पढ़ा है । वैसे ही “यद" शब्द "ब्राह्मणानि" पद के साथ भी पढ़ा है। अन्य इतिहास आदि के साथ “यद्" शब्द नहीं पढ़ा । इससे ज्ञात होता है कि सत्रकार की दृष्टि में इतिहासादि ब्राह्मणान्तर्गत बातों का नाम भी माना जाता था । इस लिंय इस स्थान में इतिहासादि को स्वतन्त्र न मानकर उन्हें ब्राह्मणों की संज्ञा बना दिया है ।
प्रश्न-ब्राह्मणों की इतिहासादि, संज्ञा में क्या कोई और भी प्रमाण है ।
उत्तर--हम पहले प्रकरण में लिख चुके हैं कि ब्राह्मण ग्रन्थों में ऋषियों वा अन्य जनों के नाम लेख पूर्वक उन के इतिहासादि कहे हैं। ब्राह्मणों में उतने ही नहीं, और भी सहस्रा ऐसे ही स्थल हैं । देखो
अथ ह याज्ञवल्क्यस्य द्वे भार्ये बभूवतुः । मैत्रेयी च कात्यायनी च ।
शतपथ १४ । ७।३।१॥ तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ।
तैत्तिरीय ब्रा० ३ । ११ । ८ । १४ ॥ इत्यादि । इन वाक्यों का इतिहास से भिन्न अर्थ हो भी नहीं सकता। और निश्चय ही इन लोगों से पहले ये ग्रन्थ भी न थे । अतएव इतिहासादि युन होने से ही इन ब्राह्मणों की भी इतिहासादि संज्ञा अवश्य है।
प्रश्न-~-अनेक मन्त्रों में भी तो ऐसा ही इतिहास है। पुनः मन्त्रसंहिताओं की इतिहास संज्ञा क्यों नहीं मानते।
उत्तर--मन्त्रों में सामान्य इतिहास है । निनादि आर्ष शास्त्रों में जो बहुधा तत्रेतिहासमाचक्षते । २ । १० ॥ इत्यतिहासिकाः । २ । १६॥ ऐसा कहा गया है, तो इसका अभिप्राय भी नित्य सामान्य इतिहास से है । हां, कहीं २ मन्त्रार्थ में तो नहीं, पर मन्त्र के तत्त्व को स्पष्ट करने के लिए लौकिक इतिहास भी कहा गया है। मध्यम-कालीन साधारण भाष्यकारों ने इन लेखों का अभिप्राय न समझ कर वेदार्थ को दूषित किया है । मन्त्रों के पद यौगिक वा योगरूढ हैं। ऐसा ही सब वेदवित् मानते आये हैं | भगवान् जौमिनि कहते हैं
परं तु श्रुतिसामान्यमात्रम् । १।३१॥ अर्थात् मन्त्रान्तर्गत सब नाम सामान्य हैं , परन्तु ब्राह्मणादिकों में एसी बात
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नहीं है । ब्राह्मणों में तो ऋषियों की वंशावलियां दी हैं । पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि का इतिहास है। अतएव ब्राह्मणों की इतिहासादि भी संज्ञा है, और ब्राह्मण वेद नहीं। (छ) ब्राह्मणों की इतिहासादि संज्ञा में और भी प्रमाण देखो । महर्षि गोतमः कहते हैंस्तुतिर्निन्दा परकृतिः पुराकल्प इत्यर्थवादः।
२। १ । ६४ ॥ पुराकल्प शब्द पर भाथ्यकर्ता वात्स्यायन लिखता हैऐतिह्यसमाचरितो विधिः पुराकल्प' इति ।
तस्माद्वा एतेन ब्राह्मणा बहिष्पवमानं सामस्तोममस्तौषन्। योनेर्यशं प्रतनवामहा इत्येवमादिः ।
अर्थात् ऐतिश अर्थात् इतिहासयुक्त कथन पुराकल्प कहाता है । वात्स्यायन पुराकल्प के उदाहरण में किसी ब्राह्मणपाठ को ही उद्धृत करता है। यहां प्रकृत विषय भी शब्द विशेष परीक्षा प्रकण में ब्राह्मण-वाक्य-विभाग का चल रहा है । अतएव जब वात्स्यायन आदि मुनि ब्राह्मणों में स्वयं इतिहास को मानते हैं तो हम यदि उन को इतिहास भी एक संज्ञा मान लें, तो इस में क्या दोष है।
प्रश्न-जब अनेक ऋषि मुनि मन्त्र ब्राह्मणों को वेद मानते आए हैं, तो फिर तुम ऐसी आपत्तियां उठा के क्या सिद्ध करना चाहते हो । देखो
___ * वंश आदि वर्णन पुराण का एक अंग है । यह ब्राह्मणों में प्रायः मिलता है। इसी लिये पुराण शब्द कहीं २ ब्राह्मणों का विशेषण है।
+ गोतम साधारण अन्धकार नहीं, प्रत्युत ऋषि है । अतएव महाभारत-काल का वा उस से भी बहुत पहले का है। वात्स्यायन २ । १ । ५७ ।। सूत्र पर स्वयं कहता है
तस्येति शब्दविशेषमेवाधिकुरुते भगवानृषिः ।
पाश्चात्य लेखक वा उन के कतिपय एतद्देशीय शिष्य जो गोतम-सूत्रों को ईसा की प्रथम शताब्दी के समीप का मानते हैं, तो यह उनकी सरासर भूल है। ईसा से सहस्रों वर्ष पहले तो न्याय भाष्यकार वात्स्यायन ही हो चुका था।
* तुलना करो महाभाष्य ( कील० सं० भाग १ पृ० ५) पुराकल्प एतदासीत्-संस्कारोत्तरकालं ब्राह्मणा व्याकरणं स्माधीयते।
तुलना करो वाक्यपदीय टीका १ । १५६ ।। श्रूयते हि पुराकल्पे ।
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मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् ।
आपस्तम्ब श्रौत्र सूत्र २४ । १ । ३१ ॥ सत्याषाढ श्रौतसूत्र ।। ।। ७ ॥ कात्यायन परिशिष्ट प्रतिज्ञासूत्र | बोधायन गृह्यसूत्र २ । ६ । ३ ॥
तथा--
मन्त्रब्राह्मणं वेद इत्याचक्षते ।
बांधायनगृह्यसूत्र २ । ६ | २ ||
पुनः
आम्नायः पुनमन्त्राश्च ब्राह्मणानि च ।
___कौशिक सूत्र : । ३ ॥ इत्यादि आर्ष प्रमाणों के होते हुए कौन यह कहने का साहस कर सकता है कि ब्राह्मण वेद नहीं हैं।
उत्तर- श्रौतसूत्रों का जन्मदाता जब ब्राह्मण स्वयं कह चुका है कि वह वंद नहीं, तो कल्पसूत्रों के इन स्मार्त प्रमाणों का क्या मूल्य हो सकता है । जैमिनि मुनि मीमांसा दर्शन के स्मृतिपाद* में बलपूर्वक कहते हैं कि कल्पसूत्र स्मार्त हैं । उनका उतना ही प्रमाण है, जितना स्मृति का | स्मृति परतः प्रमाण है । उसकी अपेक्षा परतः प्रमाण होते हुए भी ब्राह्मण सहस्रों गुणा अधिक प्रमाण है । नहीं नहीं, वेदव्याख्यान होने से अत्यन्त पूज्य है । वे ऋषि जो इन ब्राह्मणों का प्रवचन कर चुके थे, कदापि इनके विरुद्ध प्रतिज्ञा नहीं कर सकते । इस लिये जब कुछ एक आचार्यों ने मन्त्र ब्राह्मण को वेद कहा है, तो वह औपचारिक भाव से ही हैं । जैसे आयुर्वेद, धनुर्वेद आद वेद ०.हाते हैं, और जैसे तन्त्रों की उक्तियों को भी मन्त्र कहा गया है, पुनः जैसे शतपथ १३ | ४ । ३ । १२, १३ ॥ में
इतिहासो वेदः। पुराणं वेदः।
इत्यादि, इन सबको औपचारिक भाव से बंद कहा गया है, वैसे ही आपस्तम्बादि श्रौतसूत्रों में यह औपचारिक लक्षण है । और यह भी तो अभी निश्रय नहीं कि बोधायनादि सूत्रों में यह वाक्य उन्हीं ऋषियों का है अथवा परम्परा में आने वाले उनके शिष्य प्रशिष्यों का ।
प्रश्न-ब्राह्मण तो स्वयं इतिहास और पुराण को अपन से पृथक् मानता है। फिर इतिहास और पुराण ब्राह्मणों की संज्ञा कैसे हो सकती है । देखो वात्स्यायन न्यायभाष्य में क्या कहता है
* १ । ३ । ११-१४ ।।
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___ प्रमाणेन खलु ब्राह्मणनेतिहासपुराणस्य प्रामाण्यमभ्यनुज्ञायते । ४ । १ । ६२॥
अर्थात् प्रमाणरूप ब्राह्मण से इतिहास और पुराण की प्रामाणिकता ज्ञात होती है।
फिर शतपथ ब्रा० १३ । ४ । ३ । १२, १३ ॥ में कहा हैअथाष्टमेहन् । 'किंचिदितिहासमाचक्षीत ।
अथ नवमेऽहन् । 'तानुपदिशति पुराणं वेदः सोऽयमिति किंचित् पुराणमाचक्षीत ।
उत्तर-हम ने कब कहा है कि इन ब्राह्मणों से पूर्व कोई इतिहास और पुराण न थे । प्रत्युत हम तो पृ० २९ पर स्वयं अनेक प्रमाणों से इन का अस्तित्व स्वीकार कर चुके हैं । इन्हीं की बहुत सी सामग्री का प्रवचन की भाषा में इन ब्राह्मणों म समावेश किया गया है । इसी कारण इन ब्राह्मणों की इतिहासादि भी संज्ञा है। और इसी कारण पुराण शब्द अनक स्थलों में विशेषणरूप से ब्राह्मणों का द्योतक बना ।
यास्काचार्य ने निरक्त ३ | १८ || में--- पुराणं कस्माद् । पुरा नवं भवति ।
पुराने अथवा पुराण का यह निर्वचन किया है कि."प्रथम होते समय नया हो ।" ऐसी वार्ताएं बाह्मणों में सर्वत्र पाई जाती हैं । इस लिये भी पुराण का लक्षण ब्राह्मण में चरितार्थ हो जाता है । मन्त्रों में सब सामान्य वर्णन है। अतः ब्राह्मण आदि वंद नहीं हो सकते । मन्त्रसहिताएं ही वेद हैं ।
(ज) भगवान् पाणिनि ने अपन अष्टक में ये मूत्र कहे हैंदृष्टं साम । ४ । २ । ७॥ तेन प्रोक्तम् । ४ । ३ । १०१॥ पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु । ४ । ३ । १०५ ॥ उपज्ञाते । ४ । ३ । ११५ ॥ कृते ग्रन्थे । ४।३।११६ ॥ इनका अभिप्राय यह है कि१-मन्त्र दृष्ट हैं। २-शाखाएं ( मृल बंदों को छोड़ कर ), ब्राह्मण और कल्प प्रोक्त हैं।
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३-पाणिनि आदि के ग्रन्थ स्फूर्ति से प्रकट हुए हैं। ४-साधारण ग्रन्थ कांट छांट के बनाये जाते हैं ।
यहां भी ब्राह्मणों को मन्त्रों जैसा ऊंचा पद नहीं दिया गया । मन्त्र दृष्ट हैं और ब्राह्मण प्रोन हैं । आज तक किसी विद्वान् ने ब्राह्मणां की ऋषि आदि अनुक्रमणी नहीं सुनी । हां संहिताओं की ऋषि अनुक्रमणी तो होती है । और जो संहिताएं शाखा नाम में व्यवहृत होती हैं, तथा जिन में ब्राह्मण भाग सम्मिलित हैं, उन की अनुक्रमणिकाओं में भी ब्राह्मण भागों के ऋषि नहीं दिये । हां प्रजापति को सब ब्राह्मणों का ऋषि तो कहा है, अर्थात प्रजापति परमात्मा ने ही वेदार्थ सुझाया। तनिक विचारो जो चारायणीय संहिता का आर्षाध्याय है, उस मन्त्राषीध्याय कहते हैं । उस में ब्राह्मण भाग के एक दो सामान्य ऋषि तो कहे गये हैं, पर वसे ब्राह्मण भाग के ऋषि नहीं दिये गये । स्थानक १८ से आग उस में ऐसा पाठ है
ब्राह्मणाः प्रजापतेः । ब्राह्मणपठितान् मन्त्रानथोदाहरिष्यामः।
यहां सामान्यरूप से ब्राह्मणों का प्रजापति ऋषि कहकर ब्राह्मणान्तर्गत मन्त्रों के तो ऋषि दिये हैं, पर ब्राह्मणों का कोई ऋषि नहीं दिया । प्रजापति नाम परमात्मा के आतिरिक्त ऋषिविशेष का भी है । वह ब्रह्मा का समीपवती ही था । कहीं २ ब्रह्मा का नाम ही प्रजापति है । वही ब्राह्मणों का आदि प्रवचनकर्ता है । ब्राह्मणरूप में वेदव्याख्यान करने से ही उसे कहीं २ ब्राह्मणों का ऋषि कहा गया है । जहां और दो चार स्थलों में ब्राह्मणों के ऋषि कहे गये हैं, वे भी इसी गौण भाव से कहे गये हैं।
प्रश्न-वात्स्यायनमुनि तो स्पष्ट ही ब्राह्मणों के भी काष मानते हैं । वहां उन्हों ने गौण मुख्य भाव भी नहीं कहा । फिर तुम्हारा पक्ष कैसे माना जावे । देखो वात्स्यायन का लेख--
य एव मन्त्रब्राह्मणस्य द्रष्टारः प्रवक्तारश्च ते खल्वितिहासपुराणस्य धर्मशास्त्रस्य चेति । ४ । १।६२ ॥
उत्तर-यदि तुम वात्स्यायन भाष्य को आर्ष रीति से पढ़े होते तो कभी ऐसा प्रश्न न करते । वात्स्यायन तो स्पष्ट ही हमारा पक्ष कह रहा है । सूत्र २ । २ । ६७ पर वह लिखता है
य एवाप्ता वेदार्थानां द्रष्टारः।
अतएव दोनों वाक्यों की तुलना से "ब्राह्मणस्य द्रष्टारः" का अर्थ “वंदार्थानां द्रष्टारः" ही है । हम प्राह्मणों को वेदव्याख्यान कह ही चुके हैं । हां, उस व्याख्यान
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के साथ २ ऋषियों ने इतिहास, पुराणादि का भी प्रवचन कर दिया है। निरुक्त में भी कहा है---
ऋषेर्दृष्टार्थस्य प्रीतिर्भवत्याख्यानसंयुक्ता १०|१०||१०|४६ इत्याख्यानम् ११।१९ ।। ११।२५ ।। ११।३४ ।।
इस का भी यही अभिप्राय हैं कि जब वेदार्थ इतिहासादि से संयुक्त कहा जाता है, तो वह प्रिय और रुचिकर लगता है । अस्तु ! यदि ब्राह्मणों को भी वेद मानोगे तो उनका अर्थ किन ग्रन्थों में बताओगे । मन्त्रार्थ तो ब्राह्मण में विद्यमान है, पर ब्राह्मणार्थ कहीं नहीं । अतः मन्त्र ही वेद है, और ब्राह्मण उनका व्याख्यानमात्र है |
ऋषियों को वेदार्थ का ज्ञान तो परमात्मा ने ही कराया । तब ऋषियों ने उस अर्थ को आख्यानादि के साथ प्रवचन की भाषा में कहा । वही वेदार्थ ब्राह्मण हुआ | इसी लिये वात्स्यायन ने वेदार्थद्रष्टा कह कर सारी बात को खोल दिया है ।
और भी जहां कहीं आर्ष ग्रन्थों में ब्राह्मण वाक्यों के साथ “अपश्यत् " आदि क्रियापद लगा कर उनका देखना कहा है, तो वहां भी पूर्वोक्त भाव से ही कहा है । वेदार्थरूप ब्राह्मणों के उन भावों को ही ऋषियों ने मन्त्रों में देखा था । तत्र प्रवचन की भाषा में ऋषियों ने उन तथ्यों को कहा । ब्राह्मण वाक्य जैसे के तैसे देखे नहीं गये । मूल मन्त्र ही नित्य-आनुपूत्र के साथ देखे गये हैं । इसी अभिप्राय से निरुक्त २|११|| में निम्नलिखित ब्राह्मण वाक्य उद्धृत हैं
तद् यदनांस्तपस्यमानान् ब्रह्म स्वयम्भ्वभ्यानर्षत ऋषयो Sभवंस्तदृषीणामृषित्त्वम् । इति विज्ञायते ।
ब्रह्म नाम वेद अर्थात् मन्त्रों का ही है । इसी ब्रह्म का ब्रह्मा आदि द्वारा व्याख्यान होने से ब्राह्मण नाम पड़ा। अतएव ब्रह्म को तो ऋषियों ने स्पष्ट देखा, ब्राह्मणों को वैसे नहीं | जैसा हम पूर्व कह चुके हैं, ब्राह्मणों का भावमात्र देखा गया था । इस
* यह मीमांसादि सर्व शास्त्रकारों का मत है ब्राह्मण तो क्या साधारण शाखाओं में नित्य आनुपूर्वी नहीं है । इस लिये ये वेद कैसे हो सकते हैं । शाखा आदिकों में आनुपूर्वी अनित्य है, इसका प्रमाण महाभाष्य ४ | ३|१०१ || पर देखोयद्यप्यर्थो नित्यो या त्वसौ वर्णानुपूर्वी सानित्या | तद्भेदाश्चैतद्भवति काठकं कालापकं मौदकं पैप्पलादकमिति ॥ + तुलना करो तैत्तिरीयारण्यक २ | ९ ||
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म प्रमाण भी है । गोपथ ब्राह्मण पू० १ । १२ ॥ में कहा है
स एतं त्रिवृतं सप्ततन्तुमेकविंशतिसंस्थं यज्ञमपश्यत् ।
यहाँ यज्ञ का दखना कहा है । यज्ञ क्रिया है । इस क्रिया का भाव ऋषियों ने मन्त्रों में देखा । वैसे ही ब्राह्मण वाक्यों का भाव भी उन्हों ने जाना था । पुनः जैस महाभाष्य आदि में
पश्यति त्वाचार्यः । (कील० सं० भाग १ पृ० २४)
सैकड़ों वार ऐसा पाठ श्रद्धा से कहा गया है, वैसे ही कहीं २ अर्थवादरूप से ब्राह्मणों के लिये “श” धातु का प्रयोग हुआ है ।
प्रश्न-महामाहावेद्रावण का कर्ता कहता है
किञ्च परमर्षिर्गोतमो वेदप्रामाण्यनिरूपणावसरे स्थूणानि खननन्यायेन वेदनामाण्यं द्रढयितुमेवाऽऽशशङ्के “तदप्रामाण्यमनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः।" तस्य वेदस्याप्रामाण्यमनृतव्यामतपुनरुक्तदोषेभ्यः तत्रानृतं यथा “पुत्रकामः पुत्रष्टया यजत्" अनुष्ठितायामपि चेष्टौ न युज्यन्ते पुरुषाः पुरिति द्रष्टार्थस्यास्य वाक्यस्याऽप्रामाण्ये "ऽग्रिहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम” इत्यदृष्टार्थकस्य वाक्यस्य प्रामाण्ये कथमाश्वासः । अत्र हि सूत्रस्थतत्पदन पराम्रष्टुमिष्टस्य वेदस्याऽप्रामाण्यमाशङ्कमानः “अमिहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम" इति ब्राह्मणस्याप्रामाण्यं दर्शयामास गोतमः । याद नाम ब्राह्मणं न वेदस्तहि वंदाप्रामाण्यसाधनावसरे ब्राह्मणस्याप्रामाण्यप्रदर्शन कर्णस्पर्श काटचालनायितं स्यात् । न हि प्रेक्षावान् 'मैत्रवाक्यं न विश्वसिही' ति कश्चन बोधयश्चत्रवाक्यस्य मिथ्यात्व प्रसाधयेत तदवश्यं ब्राह्मणं वेद इति परमषिरनुमन्यत इति । नच सूत्रस्थतत्पदन परमर्षिाभिप्रेति निर्देष्टम् “आमिहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम' इति ब्राह्मणवाक्यम् । आपतु यत्किञ्चिदन्यदेव संहितावाक्यमिति सर्व सिकताकृपायितमिति वाच्यम् ।*
"तदप्रामाण्यम् ," इस न्याय सूत्र से वेद का प्रमाण सिद्ध करने के लिये पूर्व पक्ष किया है । उस पर भाष्यकार महर्षि वात्स्यायन जी ने ब्राह्मण पुस्तकों के उदाहरण दिए हैं । इससे न्यायकर्ता महार्षे का आभिप्राय प्रसिद्ध है कि ब्राह्मण पुस्तक भी वेद ही है क्योंकि वेद का प्रमाण सिद्ध करने में अन्य का उदाहरण देना नहीं बन
* ऋषि दयानन्द सरस्वती ने गोतम के प्रमाण से ब्राह्मणों का वेद न होना सिद्ध किया था। उसका यह उत्तर मोहनलाल ने लिखा | इसका उचित, पर पुनरुनदोष-पूर्ण उत्तर भीमसेन ने आयीसद्धान्त चैत्र संवत् १९४५ भाग १, अङ्क ११, पृ. १६६, १६७ पर दिया । उसी उत्तर को कुछ काट कर, हम ने यहां धरा है।
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सकता इस पर हम पूछते हैं कि महामोहविषार्णव का जी ! कहिये तो सही न्यायदर्शन में यह कौन प्रकरण है ? क्या आपने इसको वेदप्रामाण्य परीक्षा प्रकरण समझा है ? वा अन्य कोई । यदि वेद परीक्षा प्रकरण समझा है तो कहिये कि वेद परीक्षा प्रकरण के होने में क्या नियम है ? तत् शब्द से पूर्व प्रतिपादित विषय लेना यह तो सब आपों का सिद्धान्त हो है पर आप कहिये कि “ तद् प्रामाण्यम् ० " इस सूत्र से पहिले वेदशब्द किस सूत्र में पढ़ा है ? जो तत् शब्द से लेना चाहिये । ___... इन लोगों ने विश्वनाथ भट्टाचार्य कृत न्यासूत्र की वृत्ति भी नहीं देखी ? जो प्रकरण का नाम तो मालूम हो जाता । ... विश्वनाथ ने इस प्रकरण का नाम "शब्दविशेषपरीक्षा" प्रकरण रक्खा है । सो न्यायभाष्य के अनुकूल है ।* और भाष्यकार वात्स्यायन ऋषि ने भी लिखा है कि "तस्य शब्दस्य प्रमाणत्वं न सम्भवति" उस पूर्वोक्त शब्द का प्रमाण मानना ठीक नहीं है अर्थात् उक्त सूत्र में तत् शब्द करके शब्दप्रमाण का आकर्षण करना चाहिये, और पूर्व से शब्दपरीक्षा का प्रसङ्ग भी चला ही आता है। यद्यपि शब्द प्रमाणान्तर्गत वेद भी आता है इसी लिये हम यह प्रतिज्ञा नहीं करते कि शब्द विशेष परीक्षा कहन में वेद की परीक्षा न आवेगी परन्तु यह प्रतिज्ञा अवश्य करते हैं कि शब्द विशेष परीक्षा में केवल मूलवेद ही लिये जावें और ब्राह्मणादि न लिये जावें यह कोई सिद्ध नहीं कर सकता क्योंकि शब्द सामान्य में हम लोगों के विश्वास योग्य व्यवहार के शब्द भी आ सकते हैं और शब्द विशेष कहने से श्रुति स्मृति ही ली जावेंगी । इस में भी मूल वेद सूर्य के समान स्वतः प्रकाश स्वरूप है उस की परीक्षा करना सर्वाश में ठाक नहीं । जैसे सूर्य को देखने के लिये द्वितीय सूर्य्य वा दीपकादि की अपेक्षा नहीं होती वैसे किसी अन्य प्रमाण से वेद की परीक्षा करना नहीं बनता । इसी कारण शब्द विशेष परीक्षा में महर्षि वात्स्यायन जी ने विशेष कर ब्राह्मण भागों के उदाहरण दिये हैं । जो कुछ वेद परीक्षा हो सकती है तो वेद से ही हो सकती है । और बड़ा भारी आश्चर्य तो यह है कि महामोहविषार्णवकर्ता जिन न्यायकर्ता महर्षि के प्रमाण से अपने पक्ष को सिद्ध करना चाहते हैं उन्हीं ऋषि के उसी प्रमाण से इन का पक्ष खण्डित होता है किन्तु सिद्ध कुछ भी नहीं होता । सूत्रकार और भाष्यकार ऋषियों ने “ तद प्रामाण्यम् ० ' इस सूत्र से पूर्व कहीं भी वेद शब्द का नाम नहीं लिया । इसी से इस सूत में तत् शब्द से वेद का परामर्श नहीं किया किन्तु शब्द का परामर्श किया । और ऋषि लोग ऐसा अप्रसङ्ग वर्णन इन लोगों के तुल्य
* वात्स्यायन भाष्य के भी अनेक छपे ग्रन्थों में इस प्रकरण को "शब्दविशेष परीक्षा प्रक..ग ही लिखा है । भ०दत्त ।
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क्यों करें ? क्योंकि ऋषियों में पक्षपातादि दोष नहीं होते हैं । ऋषि लोगों ने कहीं २ वेद विचार प्रकरण में ब्राह्मण पुस्तकों के वाक्य भी रक्खे हैं सो व्याख्यान व्याख्येय का तादात्म्य सम्बन्ध मान के "" तदेव सूत्रं विगृहीतं व्याख्यानं भवति " कहा है अर्थात् व्याख्येय मूल पुस्तक में जो पद हैं उन्हीं को लौट पौट कर वा उपयोगी अन्य पद लगा कर अन्वित कर देना व्याख्यान कहाता है । इस कारण ब्राह्मण वाक्य वेद विचार प्रकरण में लेना अनुचित नहीं अथवा ब्राह्मण वाक्यों को वेद के तुल्य मानकर उदाहरण देना बन सकता है । "छन्दोवत् सूत्राणि भवन्ति” इस के अनुसार जब व्याकरणादि के सूत्रों में वेद के तुल्य कार्य होते हैं तो वेद के अति निकटवर्त्ती ब्राह्मणों में वेद तुल्य कार्य होवें तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं है । यदि वेद में जैसे कार्य होते हैं वैसे ब्राह्मणों में होने से उनको मूल वेद मान लिया जावे और मनुष्य बुद्धिरचित न माना जावे तो सूत्रादि को भी ऋषि रचित न मानना चाहिये क्योंकि वहां भी छन्दोवत् कार्य होते हैं तो उनको भी वेद मान लिया जावे ? जब ऐसा नहीं होता तो ब्राह्मण भी मूल वेद नहीं होसकते और ब्राह्मण का मनुष्यबुद्धिरचित होना उन्हीं के पद वाक्यों की रचना से सिद्ध हो जाता है किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं ।" इति ।
इसके आगे सूत्र २ । १ । ६१ ॥ में जो वात्स्यायन का लेख है, उससे भी ब्राह्मण-ग्रन्थों का वेद न होना ही सिद्ध होता है । वात्स्यायन कहता हैंप्रमाणं शब्दः । यथा लोके । विभागश्च ब्राह्मणवाक्यानां त्रिविधः ।
अर्थात् - शब्द - प्रमाण मानना ही पड़ेगा । जैसे व्यवहार में शब्द प्रमाण माने विना काम नहीं चलता, वैसे ही आप्तों के उपदेश को भी प्रमाण मानना चाहिये । और जैसे व्यवहार में त्रिविध वाक्य विभाग है, वैसे ही ब्राह्मणों में भी है । जैसे व्यवहार में पुराकल्प आदि हैं, वैसे ही ब्राह्मणों में भी हैं । परन्तु श्रुति सामान्य हैं । इसके विपरीत ब्राह्मण में इतिहास है । अतएव इतिहासादि होने से ब्राह्मणों के शब्द मन्त्रों की अपेक्षा लौकिक ही हैं। इस लिये ब्राह्मण वेद नहीं |
प्रश्न – मोहनलाल कहता है पूर्वोक्त वाक्य का भाव ऐसे कहना चाहिये“प्रमाणं शब्दो यथा लोके" इति सादृश्यार्थक यथापदघटितं ब्रूते च तथेति । लोके यथा शब्दप्रमाणं तथा वेदेपीत्यध्याहार्यम् । वेदे ब्राह्मणरूपे ब्राह्मणसंज्ञकानां वाक्यानां विभागस्त्रिविधः इत्यर्थस्य तात्पर्यविषयत्वात् । "
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उत्तर --
- यह भी मोहनलाल की भूल ही है । यहां "लोक" शब्द लौकिक प्रन्थों के लिये प्रयुक्त नहीं हुआ । प्रत्युत व्यवहार में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के लिये हुआ है | अतः तथा के साथ वेद पद का अध्याहार निरर्थक ही है । और २ । १ । ६५ ।। सूत्र पर जो वात्स्यायन लिखता है
यथा लौकिके वाक्ये विभागेनार्थग्रहणात प्रमाणत्वमेवं वेदवाक्यानामपि विभागेनार्थग्रहणात् प्रमाणत्वं भवितुमर्हतीति ।
इसका यही अभिप्राय है कि यद्यपि वात्स्यायन ने “ वेदवाक्यानाम् ” पद के आगे "ब्राह्मण" पद नहीं पढ़ा, तथापि यहां औपचारिक भाव से ही वेद शब्द का प्रयोग हुआ है । औपचारिक भाव से इतना कह देने से ही ब्राह्मण वेद नहीं माने जासकते । प्रश्न - तुम्हारे पास क्या प्रमाण है कि यहां वेद शब्द का प्रयोग औपचारिक भाव से है
।
उत्तर - वात्स्यायन आदि मुनि जो वेद, ब्राह्मण को जानते थे, वे उनके विरुद्ध नहीं कह सकते थे। हम सिद्ध कर चुके हैं कि ब्राह्मण अपने को वेद से भिन्न वा मनुष्यकृत बताता है। पुनः वात्स्यायन इसके विरुद्ध कैसे समझ सकते थे । अतः उनका प्रयोग औपचारिक ही है । ब्राह्मण ग्रन्थों के वेद न होने में और भी प्रमाण देखो । (झ) शतपथ ब्राह्मण १४ | ६ | १० | ६ ॥ में कहा है
ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो ऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि वाचैव सम्राट् प्रजायन्ते ।
लग भग ऐसा ही पाठ शतपथ १४ । ५ । ४ । १० ॥ में भी आता है । यहां सूत्रादिवत् उपनिषदों को स्पष्ट वेदों से पृथक् माना है । जब ब्राह्मणकार स्वयं ब्राह्मण विभागों अर्थात् उपनिषदों को वेद नहीं मानते, तो फिर ब्राह्मण ग्रन्थ वेद कैसे हो सकते हैं । *
* आर्ष ग्रन्थों का तो क्या कहना, उस स्मृति में भी जो याज्ञवल्क्य के नाम मढ़ी जाती हैं, इसी विचार के चिन्ह पाये जाते हैं। देखो अध्याय ३यतो वेदाः पुराणं च विद्योपनिषदस्तथा ।
-
श्लोकाः सूत्राणि भाष्याणि यत्किञ्चिद्वाभयं क्वचित् ।। १८१ ।। बेचारा विश्वरूप इस आपत्ति को देख कर कहता है
उपनि प्रदां पृथग्वचनं वेदभागान्तरस्य तादर्ध्यप्रदर्शनार्थम् ।
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प्रश्न-सनातनधर्मोद्धार का कर्ता नकछेदराम खण्ड २ पृ०५३० पर लिखता है
__“जहां केवल मन्त्रों को कहना होता है वहां केवल ऋक् आदि शब्दों ही का प्रयोग होता है जैसे 'अहे बुभिय' इत्यादि मन्त्रों में और जहां मन्त्र और ब्राह्मण के समुदाय को कहना होता है वहां केवल ऋक् आदि शब्द का प्रयोग नहीं होता किन्तु ऋग्वेद आदि शब्दों ही का प्रयोग होता है जैसे ‘एवं वा अरे.' इत्यादि पूर्वोक्त ब्राह्मण वाक्य में ।"
क्या यह लेख उचित है।
उत्तर-ऐसे लेख प्रकट करते हैं कि लेखक वैदिक वाङ्मय से अपरिचित ही है। मध्यम-कालीन मीमांसकों के कुछ भ्रमोत्पादक लेख पढ़ कर ही उसने ऐसा लिख दिया है । नकछेदराम ने जो प्रमाण ‘एवं वा अरे' शतपथ से उद्धृत किया है, उसे ही नहीं देखा | वहां भी तो ऋग्वेदादि से उपनिषदों को पृथक् कहा है। काशी के पाण्डत ने अपने दिये प्रमाण को ही जब पूरा नहीं विचारा, तो और वह क्या लिखेगा।
ऋक् पद मन्त्रों के लिये आवे, और ऋग्वेदादि मन्त्र ब्राह्मण के समुदाय के लिये वर्ते जावें, ऐसा कोई नियम नहीं । ये दोनों शब्द मन्त्रसंहिता के लिये ही प्रयुक्त होते रहे हैं । इसमें प्राचीन ब्राह्मणों के प्रमाणों को देखो। शतपथ ब्राह्मण १३ | ४ | ३ ॥ की अनेकों कण्डिकाओं में क्रमशः कहा हैतानुपदिशति-ऋचो वेदः....... 'ऋचाए सूक्तं व्याचक्षण ॥३॥ तानुपदिशति-यजूषि वेदः यजुषामनुवाकं व्याचक्षण ॥६॥ तानुपदिशति-आथर्वणो वेदः 'अथर्वणामेकं पर्व व्याचक्षण ॥७॥ तानुपदिशति-सामानि वेदः ‘साम्नां दशतं ब्रूयात् ॥ १४ ॥
अब विचारन की वार्ता है, कि यहां वेद शब्द केवल ऋगादि के लिये ही प्रयुक्त हुआ है । ऋगादि मन्त्र हैं। और ऋग्वेदीय आदि ब्राह्मणों में सून आदि अवान्तर विभाग है भी नहीं । इस लिये ऋग्वेदादि शब्द भी मन्त्र संहिताओं के लिये ही वर्ते गये हैं, ब्राह्मणों के लिये नहीं, ऐसा मानना ही युक्तियुक्त है।
शतपथ के इसी प्रकरण की ८, ९, १० कण्डिकाओं में जो अङ्गिरसो वेद, सर्पविद्या वेद, देवजनविद्या वेद, संक्षाएं हैं, तो यह अथर्ववेद के अवान्तर विभागों के ही नाम हैं। इन सब में 'पर्व' विद्यमान हैं। शेष मायावेद, इतिहासावेद, पुराण वेद, परम्परा से आने वाले संग्रहमात्र हैं । ये पूरे प्रन्धरूप में नहीं हैं । अथवा इनका अवान्तर विभाग नहीं है । इसी लिये इनके साथ कहा है
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कांचिन्मायां कुर्यात् । ११ ॥ कंचिदितिहासमाचक्षीत । १२॥ किञ्चित् पुराणमाचक्षीत । १३॥
इन तीनों के साथ, जैसा हम पूर्व कह चुके हैं, वेदपद का औपचारिक प्रयोग है । इससे आगे १५वीं कण्डिका में कहा है
आचष्टे सर्वान् वेदान् ।
अर्थात् सब वेद कहे । यहां ब्राह्मणों का स्वरूप भी कथन नहीं किया गया, और वास्तविक तथा औपचारिक भाव से वेद भी कह दिये । इस लिये ज्ञात होता है कि याज्ञवल्क्य आदि ऋषि स्वप्न में भी ब्राह्मणों को वेद न मानते थे ।
इसी प्रस्तुत विषय में, हमारे सिद्धान्त को पुष्ट करने वाले और भी प्रमाण देखो । प्रायः सारे ही ब्राह्मणों में प्रजापति अर्थात् परमात्मा से वेद के प्रकाशित होने के सम्बन्ध में कुछ वाक्य आये हैं । कतिपय ब्राह्मणों के वे वाक्य नीचे दिये जाते हैं
"स एतानि त्रीणि ज्योतीष्यभ्यतप्यत सो ऽग्नेरेव! ऽसृजत वायोर्यजूंष्यादित्यात् सामानि । स एतां त्रयीं विद्यामभ्यतप्यत ।। अथैतस्या एव त्रय्यै विद्यायै तेजोरसं प्रावृहत् । एतेषामेव वेदानां भिषज्याय स भूरित्यचां प्रावृहत् । कौ० ६ । १०॥
स इमानि त्रीणि ज्योतीष्यभितताप । तेभ्यस्तप्तभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्ताग्रेऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः ॥ ३ ॥ स इमांस्त्रीन् वेदानभितताप । तेभ्यस्तप्तभ्यस्त्रीणि शुक्राण्यजायन्त भूरित्यग्वेदात् ॥ ४ ॥ श० ११ । ५। ८॥
__स एतास्तिस्रो देवता अभ्यतपत् । तासां तप्यमानानां रसान् प्राबृहत् । अमेत्रचो वायोर्यजूषि सामान्यादित्यात् ॥२॥ स एतां त्रयीं विद्यामभ्यतपत् । तस्यास्तप्यमानाया रसान् प्राबृहत् । भूरित्यग्भ्यः ॥३॥छान्दोग्य उ० ४ । १७ ॥
इस विषय के और भी ब्राह्मण वाक्य दिये जा सकते हैं, पर इतनों से ही यथेष्ट अभिप्राय निकल पड़ता है। यहां ऋचः ओर ऋग्वेद शब्द पर्यायवाची ही है । 'भू' ल्याइति ऋचाओं से उत्पन्न हुई अथवा ऋग्वेद से, इस कहने में कोई भेद
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नहीं । ऋक्, यजु और साम, इन तीनों का समूह त्रयी विद्या है। इन्हीं को शतपथ के प्रमाण में ऋग्वद, यजुर्वेद आर सामवेद कहा है । इसी से स्पष्ट है कि ऋक् आदि सन्द ऋग्वेदादि के पर्यायवाची हैं।
प्रश्न-तीनों प्रमाणों को समता में रखना उचित नहीं। शतपथ में मन्त्र ब्राह्मण समुदाय का कथन है और कौषीताक आदि में मन्त्रमात्र का ।
उत्तर-ऐसा निमूल कल्पना निरर्थक है । जब इस प्रकरण में एक सामान्य विषय का कथन है, और पूर्व प्रदर्शित संगात भी एक ही है, तो तुम्हारी बात को कोई विद्वान् न मानगा । और ब्राह्मण-ग्रन्थ तो आदि सृष्टि में प्रकट भी नहीं हुए। वे काल, काल पर बनते चले आये हैं । उनका सङ्कलन महाभारत काल में हुआ है। यह ब्राह्मण-ग्रन्थ समग्ररूप से बहुत पुराने नहीं हैं । अतः आदि सृष्टि के काल के कथन में वेद शब्द से ब्राह्मण का भी अभिप्राय लना अनुचित ही नहीं, सरासर खेचतान है । जब इन प्रकरणों में वेद शब्द से ब्राह्मण नहीं लिया गया, तो अन्यत्र भी आर्ष वाङ्मय में ऐसा ही समझना ।
प्रश्न-कठ आदि ब्राह्मणों को नवीन नहीं समझना चाहिये । मीमांसा सूत्र १ । १ । २८ ॥ पर शबर ने ब्राह्मणों के प्रमाण देकर, आगे सूत्र ३०-३२ तक यही सिद्ध किया है कि ब्राह्मणादि भी अपौरुषेय हैं । सूत्र ३० पर वह किसी पुराने शास्त्र का प्रमाण ऐसे धरता है
स्मयते च-वैशम्पायनः सर्वशाखाध्यायी । कठः पुनरिमां केवला शाखामध्यापयां बभूव, इति ।
अर्थात् कठादि शाखा वा ब्राह्मण कठादि ऋषियों से पहले भी विद्यमान थे ।
उत्तर-शबरस्वामि ने मीमांसा, तर्कपाद के इस वद-अपौरुषेयता आधिकरण में जो अनेक उदाहरण दिये हैं, वे उचित नहीं हैं। शबर तो ब्राह्मणों को वेद मानता था । अतः उसन ऐसे उदाहरण दे दिये । अन्यथा ऐसे सब उदाहरण मन्त्रों से देने चाहिये थे।
___ कठशाखा वा प्राह्मण, वैशम्पायन के समीप भले ही हों, पर व्यास से पहले नहीं थे | आदि सृष्टि में ब्राह्मण तो क्या, शाखायें वा उनका सामग्री भी नहीं थी तब तो मूल मन्त्र संहिनाएं ही थीं। इस विषय का प्रमाण आगे दिया जाता है । उस
* देखो साबर मीमांसाभाष्य मन्त्राश्च ब्रामणश्च वेदः ।२।१॥३३॥
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से यह भी सिद्ध होगा कि मन्त्र समूह ही वेद हैं, ब्राह्मण आदि नहीं | *
गोपथ ब्राह्मण पू० १ । ५ ॥ में कहा हैयान् मन्त्रानपश्यत् स आथर्वणो वेदो ऽभवत् ।
क्या इस से बढ़ के और स्पष्ठ प्रमाण की भी आवश्यकता है। यहां सारा सिद्धान्त विवाद से ऊपर कर दिया गया है । मन्त्र समूह का ही नाम वेद है, और वहीं आदि सृष्टि में प्रकाशित हुआ | वही अपौरुषेय है। उसकी आनुपूर्वी नित्य है । शेष शाखायें कृत तो नहीं, पर आनुपूर्वी अनित होने से प्रोक्त हैं |
प्रश्न--चरणव्यूह कण्डिका द्वितीय में यह क्या लिखा है कि मन्त्र ब्राह्मण वेद है। देखो
त्रिगुणं पठयते यत्र मन्त्रब्राह्मणयोःसह । यजुर्वेदः स विज्ञेयः शेषाः शाखान्तराः स्मृताः ॥
उत्तर–साम्प्रतिक दशा में चरणव्यूह कोई विश्वसनीय ग्रन्थ नहीं हैं । इस के आठ नौ भेद तो हम ने ही देखे हैं । वैबर साहब का चरणव्यूह और, काशी का छपा और । हस्तलिखितो के भेद का तो कहना ही क्या । ऐसी अवस्था में कौन कह सकता है कि मूल ग्रन्थ कितना था । और यह श्लोक तो किसी तैत्तिरीयसाखा-भक्त का मिलाया हुआ प्रतीत होता है ।
चरणव्यूह का टीकाकार महिदास इस श्लोक को ऐसे पढ़ता हैमन्त्रंब्राह्मणयोर्वेदः त्रिगुणं यत्र पठ्यते । यजुर्वेदः स विज्ञेय अन्ये शाखान्तराः स्मृताः ।।
* यद्यपि बौद्ध ग्रन्था का हम सांग प्रमाण नहीं करत, तो भी महावस्तु में "ब्राह्मणवेदेषु" पद बहुत स्पष्ट है । इससे ज्ञात होता है कि बौद्ध विद्वानी को जो परम्परा विदित थी, तदनुसार ब्राह्मण वेद नहीं थे । देखो
__ तस्य राज्ञो पुरोहितो ब्रह्मायुः नाम त्रयाणां वेदानां पारगो सनिघण्ठकैटभानां इतिहासपंचमानां अक्षरपदव्याकरणे अनल्पको। सोऽयमाचार्यः कुशलो ब्रामणवेदेषु पि शास्त्रषु दानसंविभागशीलो दश कुशलकर्मपथां समादाय वर्तति ।
भाग २ | पृष्ठ ७७ । पंक्ति ८-११ । महावस्तु में ऐसा ही प्रयोग कई स्थलों पर आया है।
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जहां मूल में पूर्वोद्धत श्लोक छपा है वहां उस ने उसकी व्याख्या भी नहीं की। उस से बहुत आग यह श्लोक स्वयं लिख कर वह टीका करता है । इस से भी मूल पाठ में श्लोक का प्रक्षिप्त होना पाया जाता है । श्लोक का अर्थ करके अन्त में महिंदास लिखता है
एतादृशपठनं शाखाया अध्ययनं [ यत्र ] स यजुर्वेदः । तच तैत्तिरीयशाखायामेवास्ति ।
इसी लिये हम ने कहा था कि यह श्लोक किसी तत्तिरांय-शाखा-भक्त का मिलाया हुआ प्रतीत होता है ।
(ब ) ब्राह्मण ग्रन्थों के ऋषि प्रोक्त होने में और भी प्रमाण है । मीमांसा सूत्र १२ । ३ । १७ ॥ ऐसे पढ़ा गया है
मन्त्रोपदेशो वा न भाषिकस्य प्रायोपपत्तेर्भाषिकश्रुतिः । इसी के भाग्य में शबर कहता हैभाषास्वरो ब्राह्मणे प्रवृत्तः ।
जब ब्राह्मण का स्वर ही भाषा स्वर अर्थात् लोकिक स्वर है, तो वह ईश्वर प्रोक्त कैसे हो सकता है । यह बात शिक्षा ग्रन्था वा भाषिक सूत्र से सिद्ध होती है । विस्तरभय से अधिक नहीं लिखा गया । सत्यव्रत सामश्रमी जी ने त्रयी परिचय में इसे भले प्रकार लिखा है।
(ट) ब्राह्मणादि ग्रन्थों में मन्त्रों की प्रकेि धर के "इति" कह कर न केवल मन्त्रों का व्याख्यान ही किया है, प्रत्युत उन के ऋषि देवता आदि भी दिये हैं । ब्राह्मणों के प्रमाणों से हम वेदों का आदि सृष्टि में होना कह चुके हैं। मन्त्रार्थ द्रष्टा ऋषि उस से बहुत पीछे हुए हैं । उनका उल्लेख करने वाले ग्रन्थ उस से भी पीछे के होंगे। इन मन्त्रार्थ द्रष्टा ऋषि विशेषों के नामों का सामान्यार्थ हो भी नहीं सकता । अतः ब्राह्मणादि ग्रन्थ बहुत नये और ऋषि-प्रोक्त ही हैं । इस के उदाहारण काठक संहिता में देखो
महि त्रीणामवो ऽस्तु । ( का० सं० ७ । २॥) इत्येष प्राजापत्यस्त्रिचः । ७॥९॥
स वामदेव उख्यमनिमविभस्तमवैक्षत स एतत् सूक्तमपश्यत् कृणुष्व पाजः प्रसितिं न पृथ्वीम्, इति । का० सं० १०॥५॥
इत्यादि।
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ऐसे ही अष्टाध्यायी आदि अन्य ग्रन्थों में भी ब्राह्मणों को वेद नहीं माना । इस के उदाहरण हम ने पाणिनीय सूत्रों से पहले दे दिये हैं । पूर्वपक्षियों के अष्टाध्यायीस्थ प्रमाण इतने निर्बल हैं कि विद्वान् स्वयं उन का उत्तर दे सकते हैं ।
इस सारे लेख से यह ज्ञात हो चुका है, कि मन्त्र संहिताएं ही वेद हैं । वही अपौरुषेय हैं । महाभारतोत्तर-काल में एक याचिक काल आया । उस में ब्राह्मणों का अत्यन्त उपयोग होने वा अति मान होने से, ब्राह्मणों को औपचारिक दृष्टि से वेद कहा. गया । * समय के व्यतीत होने पर शबर आदि नवीन आचार्यों ने उस औपचारिक भाव को भुला कर इन्हें वेद ही कहना आरम्भ कर दिया । इस लिये जनसाधारण भी इन्हें वेद समझने लग पड़े । बस यही सारी भूल का कारण था । ऋषि दयानन्द सरस्वत्ती ने यह भूल देखी और इसी लिये अनेक युक्ति प्रमाणों के अनन्तर अपनी ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के " वेदसंज्ञाविचार विषय" में यह लिखा
इत्यादि बहुभिः प्रमाणैर्मन्त्राणामेव वेदसंज्ञा न ब्राह्मणग्रन्थानामिति सिद्धम् ।
* गौतम धर्मसूत्र का टीकाकार मस्करीयत्र चाम्नायो विदध्यात् । १ । ५१ ।। सूत्र पर टीका करते हुए कहता है
अथवा - आम्नायशब्देन मनुरुच्यते ।
अर्थात् आम्नाय शब्द से मनुस्मृति का भी ग्रहण हो सकता है। जब आम्नाय पद किसी धर्मशास्त्री की दृष्टि में अपने मूल - मनुस्मृति के लिये उपचार से प्रयुक्त हो सकता है, तो याशिकों की दृष्टि में यज्ञक्रियाप्रधान ग्रन्थों के लिये उपचार से वेद्र शब्द प्रयुक्त होगया, इस में अणुमात्र भी आश्चर्य नहीं ।
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(३) ब्राह्मण और वेदार्थ ।
निरुक्त और निघण्टु का आधार ब्राह्मण हैं ।
निरुक्त सब से पुराना ग्रन्थ है, जो इस समय मिलता है, और जिस में वेदार्थ का विस्तृत निदर्शन है । 'यह ऋग्वेदीय लोगों के पठितव्य दश ग्रन्थों में से एक है ।' दाक्षिणात्य ऋग्वेदाध्यायी इस समय भी इस का पाठ करते हैं । इस निरुक्त से पहले भी ऐसे ही अनेक निरुक्त ग्रन्थ थे, पर वे अब लुप्तप्रायः हैं । * निरुक्त का मूलनिघण्टु है । निरुक्त और निघण्टु दोनों यास्क -प्रणीत हैं । निघण्टु प्राचीन वैदिक कोषों का नमूना है । इस निघण्टु से पहले और भी अनेकों निघण्टु थे । निरुक्त ७ | १३ | में यास्क स्वयं उनका स्वरूप कथन करता है
1
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अथाताभिधानैः संयुज्य हविश्वोदयति – इन्द्राय वृत्रघ्ने । इन्द्राय वृतुरे | इन्द्रायाँहोमुचे, इति । तान्यप्येके समानन्ति । भूयांसि तु समाम्नानात् । यत्त संविज्ञानभूतं स्यात् प्राधान्यस्तुति तत् समाने ।
अर्थात् - 'कई एक आचार्य ऐसा समाम्नाय करते हैं। जो प्रधान स्तुतिवाला ( अनि आदि ) देवता - नाम है, उसका मैं समानाय करता हूं ।'
कौत्सव्य प्रणीत निरुक्त-निघण्टु भी जो आथर्वण परिशिष्टों में से एक है, पुराने निघण्टु-ग्रन्थों का ही नमूना मात्र है ।
यास्कीय निघण्टु और इस आथर्वण निघण्टुं के देखने से निश्चय होजाता है कि प्राचीन निघण्टु ग्रन्थों का आधार प्रधानतया ब्राह्मण ही थे । निघण्टु-पठित अर्थो और ब्राह्मणान्तर्गत अर्थों की निम्नलिखित तुलनात्मक सूची से यह बात बहुत ही स्पष्ट होजायगी ।
पता निघण्टु
१|१४|| अत्यः अश्व
३|१७|| अध्वरः यज्ञ
५८
ब्राह्मण
अत्योऽसि (अश्व) अध्वरो वै यशः
* G. Oppert के सूची पत्र II. 610 पर दक्षिण में किसी घर में उपमन्यु कृत निरुक्त का अस्तित्व बताया गया है ।
+ देखो मेरा लेख, मासिक पत्र ज्योति वैशाख सं० १९७७, लाहौर ।
* इसका देवनागरी संस्करण आर्ष ग्रन्थावली, लाहौर में छप चुका है।
पता
तै० ३|८|९|१||
श० १|४|१|३८ ॥
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पता निघण्टु ब्राह्मण १।१२।। अन्नम् उदक अनं वा ऽआपः १॥१०॥ अभ्रम् मेघ अभ्राद् वृष्टिः २। ७॥ अर्कः अन्न अन्नमर्कः ३। ४॥ अस्तम् गृह गृहा वाऽस्तम् १११४॥ अर्वा अश्व (अश्व वं ) अर्वाऽसि २१११॥ अदितिः गौ अदितिर्हि गौः १। १॥ , पृथिवी इयं वै पृथिव्यदितिः २१११॥ , वाक् वाग्वा अदितिः १११०॥ अद्रिः मेघ गिरिर्वाऽआद्रिः ५। ५॥ अभीशवः रश्मि अभाशवो वै रश्मयः ११११।। अनुष्टुप् वाक् वाग्वा अनुष्टुप् । १२॥ ३॥ अमृतम् हिरण्य अमृतं वै हिरण्यम् २| ७|| आयुः अन्न अन्नमु वाऽआयुः २। ७|| इषम् अन्न अनं वा इषम् २॥ १॥ इडा पृथिवी इयं (पृथिवी) वा इडा २। ७|| इडा अन अन्नं वा इला २॥११॥ इडा गौ गौर्वाऽइडा ३१३०॥ उवीं पृथिवी यथेयं पृथिव्युवी २) ७॥ ऊ अन्न अन्नं वा ऊर्गुदुम्बरः ११११॥ ऋक्
वागेवर्चः ३११०॥ ऋतम् सत्य
सत्यं वाऽकतम् २॥ ९॥ ओजः बल ओजः सहः ३॥ ६॥ कम् सुख मुखं वै कम् १३ ७|| क्षपा रात्रि रात्रयः क्षपाः २॥ १॥ क्षामा पृथिवी इमे वै धावापृथिवी थावाक्षामा ३| ३|| गमीरः महान् गमीरमिमं महान्तमिमं ११११॥ गीः वाक् वाग्वै गीः १॥ २॥ चन्द्रम् हिरण्य चन्द्र हिरण्यम् ॥ ३॥ जन्तवः मनुष्य मनुष्या बै जन्तवः
पता श० १३१८१९॥ श० ५३/५/१७॥ श० १११११४॥ श० २१५।२।२९॥ ता०३१७१॥ श० २।३।४३४॥ श० १११/४/५॥ श० ६/५/२२०॥ श० ७/५/२११८॥ श० ५।४।३।१४॥ श० ११३१२१६॥ श० ९/४/४/५॥ श० ९/२/३१६॥ कौ० २८॥५॥ कौ० ९२॥ ऐ० ८॥२६॥ श० ३।३।११४॥ श० २१११४२८॥ श० ३।२।१॥३३॥ २०४१६७११॥ श०७३।११२३॥ कौ० ३.५॥ गो० उ०६।३॥ ऐ० ११३॥ श०६७/२३॥ श० २।९।४।५॥ श० २।२।५॥ तै० ११७६३॥ २०७३।१३२॥
वाक्
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पता निघण्टु ब्राह्मण
पता ३॥ ४॥ दुर्याः गृह गृहा वै दुर्याः
श० ११११२।२२॥ ११११॥ धिषणा वाक् वाग्वै धिषणा
श०६५/४/५॥ १४१७॥ धेनुः वाक् वाग्वै धेनुः
ता. १८१९/२१॥ २॥ ७॥ नमः अन्न अन्नं नमः
श० ६।३।१।१७॥ २३|| नरः मनुष्य मनुष्या वें नरः
श० ७/५/२/३९॥ १॥ १॥ नितिः पृथिवी इयं (पृथिवी ) वै निति : श० ५२३॥३॥ २॥१०॥ नृम्पम् धन नृम्णानि " धनानि
श० १४/२॥२॥३०॥ १११२॥ पर्यः उदक आपो हि पयः
कौ० ५/४॥ २॥ ७॥ पयः अन्न पय एवान्नम्
श० २।५।१॥६॥ १११२॥ पवित्रम् उदक पवित्र वा ऽआपः
श० १११११११॥ २॥ ७॥ पितुः अन्न अन्नं वै पितुः
श० ११९/२/२०॥ ३॥ १॥ पुरु बहु पुरुदस्मः बहुदानः
श० ४/५/२॥१२॥ १॥ १॥ पूषा पृथिवी इयं वै पृथिवी पूषा
श० २।५।४|७|| २११७॥ पृतना संग्राम युधो वै पृतना
श० ५/२४॥१६॥ १॥ ३॥ पृथिवी अन्तरिक्ष इयं (पृथिवी) अन्तरिक्षम ऐ० ३॥३१॥ २॥ २॥ प्रजा अपत्य प्रजा वै तोका
श० ७/५/२॥३९॥ प्रजा वै सूनुः
श० ७११११२७॥ ३२१७" प्रजापतिः यज्ञ । यज्ञः प्रजापत्तिः
श० १११६।३।९॥ ३१२का प्रलम् पुराण प्रत्न सनातन
श० ६४|४|१७॥ २॥२०॥ परतुः वज्र वज्रो वै परशुः
श० ३।६।४।१०॥ ३११७|| मखः यज्ञ यज्ञो वै मखः
तै० ३।२८॥३॥ ३. ६॥ मयः सुख यद्वै शिवं तन्मयः तै० २१२।५।५॥ १॥ ५॥ मरीचिपाः रश्मि ये रश्मयस्ते देवा मरोचिपाः श० ४।१।१।२५॥ । १॥ मही पृथिवी इयं (पृथिवी) एव मही जै० उ० ३/४/७॥ २। ७॥ रसा अब रसेनान्नेन
श० ७२।२।१०॥ १।१२॥ रसः उदक रसो वाऽआपः
स० ३।३।३११८॥ २॥१२॥ रेतः उदक आपो हि रेतः
ता० ८७९॥ ३३०रोदसी चावापृथिवी यावापृथिवी वै रौदसा ऐ० २१४१॥ ॥ श्री वाजः अन अन्नं वै वाजः
श. ५/१४/३||
.
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अश्व
उदक
अश्व
पता निघण्टु ब्राह्मण
पता २॥ ९॥ वाजः
वायं वै वाजः
श. ३३१४७॥ १११४|| वाजी
वाजिनी ह्यश्वाः
श. ५/१४/१५॥ ३।१७॥ विष्णुः
विष्णुवै यज्ञः
ऐ० १११५॥ २॥ ९॥ शवः
चलं वै शवः
श० ७३।११२९॥ ॥१२॥ शुक्रम्
शुक्रा ह्यापः
तै० १७६३॥ १।१२॥ सत्यम्
आपो हि वै सत्यम् । श. ७४|११६॥ १११४॥ सप्तिः
(अश्व त्वं) सप्तिरसि ता. ११७/१॥ ११११॥ सरस्वती वाक् वाग्वै सरस्वती
श० २५/४६॥ १११२॥ सर्वम् उदक आप एव सर्वम्
गो० पू० ५।१५॥ २। ९॥ सहः बल बलं वै सहः
श० ६।६।२११४|| १। ६॥ हरितः दिशा दिशो वै हरितः
श० २।५।१५। इत्यादि । इस छोटी सी भूमिका में विस्तरमय से अधिक शब्दों के अर्थों की तुलना नहीं की जा सकती । हमारे कोष को ध्यानपूर्वक देखने से विद्वज्जन स्वयं सारी तुलना कर सकेंगें । हमने इस सूची में अधिकांश प्रमाण शतपथ से ही दिये हैं। कोष की सहायता से शेष ब्राह्मणों में से भी बहुत से ऐसे ही वाक्य मिल जायेंगे। यदि सैंकड़ों ब्राह्मण ग्रन्थ लुप्त न होजाते तो आज भी निघण्टु के प्रायः सारे ही नाम उन में से निकाले जा सकते थे। यही अवस्था निरुक्त की है। निरुक्त में तो यास्क स्वयं
इति ब्राह्मणम् । इति ह विज्ञायते ।
कह कर अपने अर्थ की पुष्टि ब्राह्मण वाक्यों से करता है । इस लिये हम निश्चयात्मक रूप से कह सकते हैं कि यास्कीय निरुक्त, निघण्टु का प्रधानतया मूल ब्राह्मण ग्रन्थ ही हैं।
इस कोष में अनेक पदों के वे अर्थ भी हैं, जो कि इस निघण्टु या निरुक्त में नहीं मिलते । हो सकता है, उन्हें और निघण्टुकारों ने एकत्र किया हो । फिर भी जैसा यास्कःने कहा है
भूयांसि तु समाननात् ७१३॥
उन प्राचीनों से भी कई रह गये हों । हमारे इस कोष में उन सब के हो संग्रह का प्रयत्न किया गया है।
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ब्राह्मण- प्रदर्शित इन वैदिक शब्दों के अर्थो का क्या आधार है ।
ब्राह्मण ग्रन्थों ने इन में से बहुत से अर्थ साक्षात् मन्त्रों से लिये हैं । समाधिस्थ ऋषियों के निष्कलंक मनों में बहुत सा अर्थ परमात्मा की कृपा से भी प्राप्त हुआ है । वह भी इन्हीं ब्राह्मणों में बन्द है । ऋषि-प्रोक्त वा परतः प्रमाण होते हुए 1 मी वेदार्थ का परम तत्व इन्हीं ब्राह्मणों से जाना जा सकता हैं । ऐसा ही आर्यावर्त के सब विद्वान् मानते आये हैं । हां, नवीन पाश्चात्य लेखक इस के विपरीत कहते हैं । हम पहले उन्हीं की प्रतिज्ञा का निराकरण करेंगे । बोडन का वयोवृद्ध संस्कृताध्यापक आर्थर एनर्थानि मैकडानल लिखता है*
The investigation of the Brahmans has shown that. being mainly concerned with speculatian on the nature of sacrifice, they were already far removed from the spirit of the composers of the Vedic hymns, and contain very little capable of throwing light on the original sense of those hymns. They only give occasional explanations of the sense of the Mantras and these explanations are often very fanciful. How completely they can misunderstand the meaning intended by the seers appears sufficiently from the following two examples. The Satapatha Brahmana (vii. 4, 1, 9 ) in referring to the refrain of Rv. X. 121. कस्मै देवाय हविषा विधेम
L
'to what god should we offer worship with oblation. says 'Ka is Prajapati : to him let us offer oblation. Another Brahmana passage, in explaining the epithet ' golden-handed ' ( हिरण्य - पाणि) as applied to the sun. remarks that the sun had lost his hand and had got instead one of gold. Quite apart from the linguistic evidence. such interpretations show that there was already a considerable gap between the period of the Brahmanas and that of the Mantras..
Bhandarkar commemoration Volume Poona 1917.
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इस लेख में किसी न किसी प्रकार से जो प्रतिज्ञायें की गई हैं, हम उन्हें पृथक् २ [गनग |
१ - पाश्चात्य लेखकों ने ब्राह्मणों में अन्वेषण किया है ।
२ - ब्राह्मणों का प्रधान विषय यज्ञ = sacrifice के स्वरूप की कल्पना करना है ।
३——-वैदिक-सूक्तों के कर्ताओं के भाव से ब्राह्मण बहुत परे हटे हुए हैं ।
४- -- वेदों के मूलार्थ पर प्रकाश डालने योग्य सामग्री का ब्राह्मणों में अभाव ही है ।
'५ – ब्राह्मणों में कहीं २ ही मन्त्रों के भाव का व्याख्यान है ।
६ - यह व्याख्यान प्रायः अत्यन्त काल्पनिक होते हैं ।
७----
- ऋषियों को जो अर्थ अभिप्रेत था, ब्राह्मण उन से सर्वथैव उलटा अर्थ समझते हैं । इस के स्पष्ट करने वाले दो उदाहरण निम्नलिखित हैं(क) कस्मै देवाय हविषा विधेम |
इतना ऋचा का भाग ऋग्वेद १० । १२१ ॥ में वार २ आता है | उस का अर्थ है
'हम किस देव की हवि से पूजा करें ।'
इसका शतपथ ७ | ४ | १ | ९ || में विचित्र व्याख्यान है, अर्थात् क ही प्रजापति है, उसे हम अपनी हवि दें ।
(ख) एक और ब्राह्मण में हिरण्यपाणि सुवर्ण हाथ वाला शब्द आया है । वहां उसे सूर्य पर लगाया गया है, तथा कहा है कि सूर्य का हाथ नष्ट होगया था, उस के स्थान में उसे एक सोने का हाथ मिल गया । ८ -- भाषा सम्बन्धी साक्ष्य को पृथक् रखकर भी ऐसे व्याख्यान बताते हैं कि
ब्राह्मण - काल से मन्त्र काल का बड़ा अन्तर हो चुका था ।
अब अध्यापक मैकडानल के कथन की परीक्षा होती है । १ – मार्टिन हॉग, आफरेखट, लिण्डनर, वैबर, बर्नल, अर्टल, डयूक गसटर आदि ने ऐतरेय आदि ब्राह्मणों के अच्छे संस्करण निकाले हैं, इस में कोई सन्देह नहीं । इन के लिये हम उनका धन्यवाद करते | परन्तु उन्होंने या शतपथानुवादक एगलिङ्ग वा तैत्तिरीय संहिता अनुवादक बै० काथ ने ब्राह्मणों में कोई सन्तोषजनक अन्वेषण किया है, ऐसा मानना हास्यास्पद बनना हैं । आधुनिक कैमिस्टरी का विज्ञान नष्ट
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होने पर यदि कोई थोड़ी सी आङ्गल भाषा जानने वाला किसी बृहत् कैमिस्टरी के ग्रन्थ में लैड-चेम्बर-विधि (Lead-chamber-method) से गन्धक के तेजाब के तय्यार होने का वर्णन पढ़े और उस विधि को उस ने कभी देखा सुना न हो । न ही उसने कभी गन्धक वा गन्धकामल देखा हो, तो निःसन्देह वह उस सारे वर्णन को मूों का कथन समझेगा । स्वाभिमान में वह अपनी भूल कदापि स्वीकार न करेगा । ऐसे ही विना यज्ञादि क्रिया के सीखे, और विना भूमण्डलस्थ सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रगण, विद्युत आकाश, मेघ, वायु, अग्नि, जल आदि सब स्थूल पदार्थों का ज्ञान किये, जो भी अनधिकारी ब्राह्मणों का पाठ करेगा वह इन्हें मूर्ख लीला समझेगा, प्रमत्तगीत कहेगा । जैसा कि मैक्समूलर अपने प्राचीन संस्कृत साहित्य के इतिहास पृ० ३८९ पर लिखता है
The Brahmanas represent no doubt a most interesting phase in the history of the Indian mind, but judged by themselves, as literary productions, they are most disappointing. No one would have supposed that at so early a period, and in so primitive a state of society, there could have risen up a literature which for pedantry and downright absurdity can hardly be matched anywhere. There is no lack of striking thoughts, of bold expressions, of sound reasoning, and curious traditions in these collections. But these are only like the fragments of a 'torso' like precious.gems, set in brass and lead. The general character of these works is marked by shallow and insipid grandiloquence, by priestly conceit, and antiquarion pedantry. It is most important to the historian that he should know how soon the fresh and healthy growth of a nation can be blighted by priesteraft and superstition. It is most inportant that we should know that nations are liable to these epidemios in their youth as well as in their dotage. These works deserve to be studied as the physician studies the twaddle of idiots, and the raving of madmen*
* मैकस मूलर यहां वैसी भाषा का ही प्रकाश करता है, जैसी मतान्ध व्याक्त वर्ता करते हैं।
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हम यह नहीं कहते कि हम नामों सनस्त अर्थों को समझ गये हैं,परन्तु हम यह जानते हैं कि जब आर्यावर्तयि सायण प्रशांत भी इन के अर्थ का पूरा नहीं समझे, तो पाश्चात्य लोग भला क्या समझ हांगे । ब्राह्मणों में स्थल स्थल पर रूपकालंकार की कथायें भरी पड़ी है । देखो शतपथ १ । ७॥ ४ ॥ में कहा है
प्रजापति ह वै स्वां दुहितरमभिदध्यौ । दिवं वोषसं वा मिथुन्येनया स्यामिति ता सम्बभूव ॥१॥....." स वै यज्ञ एव प्रजापतिः ॥४॥ * इस प्रकरण में प्रजापति नाम सूर्य का है। ब्राह्मणग्रन्थ स्वयं कहते हैंयो ह्येव सविता स प्रजापतिः । श० १२।३।५।१।। प्रजापतिर्वै सविता । ता० १६।५।१७॥ प्रजापतिर्वै सुपर्णो गरुत्मानेष सविता । श० १०।२।७४॥ अर्थात् सविता = सूर्य = आदित्य हा प्रजापाते है।
यह प्रजापति हा यन्त्र है। यह बात पूर्वोत्त चतुर्थ कण्डिका में कही है। अन्यत्र भी ब्राह्मणग्रन्थ ऐसा ही कहते हैं । देखो
यज्ञ उवै प्रजापतिः । कौ० १०॥१॥ प्रजापतिर्वै यज्ञः। तै० १।३।१०।१०॥
अर्थात् यक्ष प्रजापति है । यह यश ही सूर्य हैयज्ञ एव सविता । गो० पू० १॥३३॥ स यः स यज्ञो ऽसौ स आदित्यः । श० १४।१।१॥६॥
सविता को यज्ञ इस लिये कहा है कि इसी विष्णु सूर्य में हमारे सौर जगत् के सारे अमिहोत्रादि महाकार्य हो रहे हैं।
इसी सविता = प्रजापति की दिव् = प्रकाश और उषा कन्या समान हैं । यही सविता प्रजापति अन्य देवों का जनक है। क्योंकि--
सविता वै देवानां प्रसविता । श० ॥१॥३॥६॥ कहा है, कि मावता परमात्मा और यह सूर्य देवों का उत्पादक है । ऐसा
* तुलना करो ऐ. ३३॥ तां० ८१२११०॥
गलिङ्ग इस का अर्थ Impeller करता है । यह युक्त अर्थ नहीं।
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ही तैत्तिरीय ब्राह्मण २।२।९।५-८॥ में कहा है
सः (प्रजापतिः) मुखाद्देवानसृजत । ___अर्थात् उस प्रजापति = परमात्मा ने मुख = मुख्य आमेय परमाणुओं से देवों को उत्पन किया । और आधिदैविक प्रकरण में इसी का यह अर्थ हैं कि सूर्य के ही प्रभाव से सब आग्नेय परमाणु एकत्र हुए और भिन्न २ देवों के रूप में प्रकट हुए ।
निरुक्त ३८॥ में भी किसी प्राचीन ब्राह्मण का पाठ इसी अभिप्राय से धरा
गया है
'सोर्देवानसृजत तत् सुराणां सुरत्वम् । असोरसुरानसृजत तदसुराणामसुरत्वम्' इति विज्ञायते ।
__ अर्थात् प्रकाशमय परमाणुओं से देवों को रचा और अन्धकार युक्त परमाणुओं से असुरों को रचा।
काठक संहिता ९।११॥ में भी ऐसा ही कहा है
अह्ना देवानसृजत ते शुक्लं वर्णमपुष्यन् । रान्या सुराँस्ते कृष्णा अभवन् ।
* शतपथ ११।१।६।७॥ में कहा है। सः (प्रजापतिः) आस्येनैव देवानसृजत । यहां आस्येन तृतीयान्त प्रयोग है । एगलिङ्ग इसका अनुवाद करता है
By ( the breath of ) his mouth he created the gods.
यह अनुवाद ठीक नहीं। प्राणों से देवों की उत्पत्ति हमारे देखने में कहीं नहीं आई । प्रत्युत दो चार स्थलों में प्राण स्वयं देव तो कहे गये हैं
तस्मात् प्राणा देवाः । श० ७॥५॥१॥२२॥
अन्यत्र प्राण असुर ही हैं। प्राणों की उत्पत्ति प्रायः तम के परमाणुओं से कही गई है। यहां हेत्वर्थ में तृतीया का यही अभिप्राय है कि प्रकरणाभिप्रेत देवों की उत्पत्ति में सूक्ष्म अनि के परमाणु ही मुख्य कारण हैं। तृतीया के अर्थ के साथ २ पश्चमी का अर्थ भी ले लेना चाहिये, क्योंकि
स (प्रजापतिः) आनिमेव मुखाजनयां चक्रे । श० शशा॥ ऐसे सब स्थलों में पञ्चमी से भी अभिप्राय स्पष्ट होता है।
अर्थ--उस प्रजापति = परमात्मा ने इस भौतिक अमि को मुख्य प्रकाशमय परमाणुओं से बनाया ।
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समान पिता होने से ये दिल् और उषा इन देवों की बहन-समान हैं । इसी सारे रहस्य का अन्य गम्भीर आशयों के साथ इन शातपथीय कण्डिकाओं में रूपकालङ्कार* के रूप में वर्णन है।
इस सारी कथा का विशेष वर्णन ऋषि दयानन्द प्रणीत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्य विषय में देखो । भट्ट कुमारलस्वामिकृत तन्त्रवार्तिक ५। ३ । ७ || में भी ऐसा ही मात्र लिखा है-- ___प्रजापतिस्तावत् प्रजापालनाधिकारादादित्य एवोच्यते । स चारुणोदयवेलायामुषसमुद्यन्नभ्यैत् । सा तदागमनादेवोपजायत इति तदुहितृत्वेन व्यपदिश्यते । तस्यां चारुणकिरणाख्यबीजनिक्षेपात् स्त्रीपुरुषयोगवदुपचारः ।।
*रूपकालकार से जड़ जगत् की जो कथाएं वेद और ब्राह्मणादि ग्रन्थों में वर्णन की गई हैं, उन के सब अंश आर्यजनों में अनुकरणीय नहीं हैं । ये रूपकालकार तो प्रायः आधिदैविक तथ्यों को बताने के लिये ही कहे गये हैं । जैसे देखो शतपथ १।३।१।१५|| आदि में कहा है
इयं पृथिव्यदितिः सेयं देवानां पत्नी।
कि यह पृथिवी देवों की पत्नी है । तो क्या अनेक मनुष्यों की एक पनी हो सकता है । नहीं, नहीं। ब्राह्मणों में स्वयं कहा है
नकस्यै बहवः सहपतयः। ऐ०३।२३॥
न हैकस्या बहवः सहपतयः। गो० उ०३।२०॥
एक स्त्री के एक काल में अनेक पति नहीं होते । ( भिन्न कालों में नियोग के रूप से होसकते हैं। ऐसे ही प्रजापति का अपनी कन्या के साथ सम्बन्ध जड़ जगत् की वार्ता है, आर्यों की सभ्यता का चिह नहीं।
भट्ट कुमारिलखामि के ऐसे यथार्थ अर्थ पर मैक्समूलर विस्मित होता है । वह अपने प्राचीन संस्कृत साहित्य के इतिहास पृ० ५२९ पर कहता है
Sometimes, however, we feel surprised at the precision with which even such modern writers as Kumarila are able to read the true meaning of their mythology.
मैक्समूलर को यह बात नहीं कि इस कथा का वास्तविक अर्थ शतपथ माह्मण में ही अन्यत्र खोल दिया गया है
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अब इस प्रकरण के सायणादि एतदेशीय तथा एगलिशादि विदेशियों के भाग्य वा अनुवाद देखो । किसी स्थान में भी इस रूपकालंकार को यज्ञ सविता म घटा कर स्पष्ट नहीं किया गया। विना मर्म वा भाव को समझे समझाये अनुवाद मात्र कर देना पर्याप्त नहीं । और जिस अनुवाद से समझ कुछ न आये, उस में अशाद्धया भी तो कम नहीं हो सकती । अतः हमारा यही कहना है कि ब्राह्मणों का अन्वेषण तो अभी आरम्भ भी नहीं हुआ। पाश्चात्य जो यह समझते हैं कि वे इन में अन्वेषण कर चुके हैं, वे भूल से ही ऐसा कहते हैं । यदि सब निष्पक्ष होकर हमारे लेख पर ध्यान देंगे, तो वे स्वयं भी ऐसा मान जायंगे।
___जिस प्रकार पूर्वोक्त शातपाय प्रकरण की चतुर्थ कण्डिका में प्रजापति का अर्थ खोला गया है, वैसे ही अन्यत्र भी भिन्न २ प्रकरणों के अन्त में कुछ सकेत आते हैं । जब तक उन सङ्केतों का पूर्व स्थलों में आकर्षण करके अर्थ न घटाया जावेगा, तब तक अर्थ समझना असम्भव होगा । इस लिये सब पक्षपात छोड़ कर पहले इन ग्रन्थों का अर्थ समझना चाहिये । तदनन्तर कोई सम्मति निर्धारित होसकती है । और जो पश्चिमीय लोग वा सायणानुयायी अभिमान वा भूल से समझ बैठे हैं, कि वे अर्थ जान चुके हैं, उन्हें यह हठ छोड़ना ही पड़ेगा। २-ब्राह्मणों का प्रधान विषय यज्ञ के स्वरूप की कल्पना
करना है। २-आर्य लोग यज्ञ को sacrifice नहीं समझते ।
यह तो इस शब्द का पौराणिक काल का अत्यन्त संकुचित और भ्रान्तिप्रद अर्थ है । इसे ही पाश्चात्यों ने स्वीकार किया है । अतः इन शब्दों के एसे पूर्वकल्पित (preconceived) अर्थों को लेकर जब व ब्राह्मणा का पाठ करते हैं, तो उन्हें ब्राह्मण समझ ही नहीं आ सकते । किसी ग्रन्थ का क्षुद्र शब्दार्थ वे भले ही करलें, पर समझना उन से बहुत दूर है । देखो आङ्गलभाषा में एक प्रासद्ध वाक्य है
स (प्रजापतिः संवत्सरः वायुः) आदित्येन दिवं मिथुन समभवत् । ६।१।२।४॥
ग्रिफिय का हठ है कि वह अपने ऋग्वेदानुवाद में इस कथा सम्बन्धी मन्त्रों का व्याख्यान उचित स्थल में न करक, उन्हें अश्लल समझ परिशिष्ट में लैटिन भाषा में उनका अनुवाद करता है | ग्रिफिथ का कथन निरर्थक ही है कि
The whole passage is difficult and obscure. *देखा गुरुदत्त लेखावली पृ० ८८१ ( Works of Pt. Guru Datta.)
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"I want to answer the call of nature."
इस का शब्दार्थ होगा-"मैं प्रकृति के बुलाने का उत्तर देना चाहता हूं ।" परन्तु सब जानते हैं कि शब्दार्थ होते हुए भी यह अनुवाद भाव से बहुत दूर है । ऐसे ही अनुवाद इन पाश्रात्यों ने वेद, ब्राह्मणादि ग्रन्थों के किये हैं। तदनुसार ही ये यज्ञ को sacrifice समझ बैठे हैं ।
यज्ञ शब्द के अर्थ बड़े विस्तृत हैं । इस कोष में यज्ञ शब्द देखो। उन विस्तृत अर्थों में जो यज्ञ का स्वरूप है, उस का वर्णन करते हुए ही ब्राह्मणों में अद्भुत विज्ञान
और सृष्टि-चक्र का वर्णन किया है । उस को न समझ कर ही पाश्चात्य लोग ब्राह्मणों में अपनी पूर्वकाल्पत (preconceivel) sacrifice ढूंढते रहते हैं । ३-वैदिक सूक्तों के कर्ताओं के भाव से ब्राह्मण बहुत परे
हटे हुए है। प्रथम तो हम यह कहंग, कि वैदिक सूक्तों के कर्ता नहीं हैं । जो इन के कर्ता मानते है, उन की युनियां का खण्डन हम अपन ऋग्वेद पर व्याख्यान पृ० ४५ -७६ पर कर चुके हैं। पूर्वपक्षियों ने हमार लेख पर कोई आपत्ति नहीं उठाई । इस लिये अभी इस पर और न लिखेंगे । हां, दूसरे पक्ष का उत्तर अवश्य दगे । ब्राह्मणों का भाव मन्त्रों से बहुत परे हटा हुआ नहीं है, प्रत्युत ब्राह्मण तो मन्त्रा के साक्षात् अर्थ का दर्शन कराते हैं ।
कल्पविद्या और नित्य शब्दार्थसम्बन्ध विद्या से अपरिचित होने के कारण पाश्चात्याकं मनमें भय पड़ गया है कि एक शब्द का एक ही अर्थ सर्वत्र लेना चाहिये । अर्थ बने या न बने, वे उसी एक अर्थ से सर्वत्र काम चलाना चाहते हैं । ब्राह्मणों में एक २ शब्द के अनक अर्थ देखकर वे घबरा जात है । यह सत्य है कि
बहुभक्तिवादीनि हि ब्राह्मणानि । निरुक्त ७ । २॥ 'ब्राह्मणग्रन्थ गुणों की सदृशता का बहुविभाग करके अनक शब्दों को पर्याय बनाते हैं,' पर स्मरण रहे कि इस गुणा का सदृशता का विभाग किये बिना कभी काम चल ही नहीं सकता । वैदभाषा तो क्या, संसारस्थ लौकिक भाषाओं में भी बहुधा गुणों की सदशता का विभाग करने से ही पर्याय बन हैं । वेद में स्वयं विशेष्य विशेषण की राति से इस गुण विभाग के करन का प्रकार आरम्भ किया गया है। देखोत्वं महीमवनिम् ।
ऋ० ४।१९।६॥ उवा पृथ्वी।
ऋ० १११८५/७॥
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७०
उर्वी पृथ्वी।
ऋ०६७।१॥ उवौं पृथ्वीम् ।
३० ७३८।२॥ पृथिवि भूतमुर्वी ।
ऋ०६।६८१४॥ उनत्ति भूमि पृथिवीमुत द्यां । ऋ० ५।८५।४॥ भूमि पृथिवीम् ।
अ० १२॥१७॥ यथेयं पृथिवी मही दाधार । ऋ० १०६०॥९॥ पृथिवीं मातरं महीम् ।
तै०ब्रा० २।४।६।८॥ शुक्राय भानवे ।
ऋ०७४|१|| सूर्यस्य हरितः।
ऋ० ५।२९।५॥ इन्द्रं मघवानमेन ।
ऋ० ७।२८५॥ तोकाय तनयाय ।
ऋ. ६।१॥१२॥ अद्भिरः।
ऋ०६।४॥६॥ आ मही रोदसी पृण ।
ऋ० ९/४१॥५॥ मही अपारे रजसी।
ऋ० ९।६८॥३॥ रोदसी मही।
ऋ० ९।१८॥५॥ बृहती मही।
ऋ० ९/५/६॥ अत्यं न वाजिनम् ।
ऋ० १२१२९/२॥ अश्वं न वाजिनम् ।
ऋ० ७७१॥ अत्यं न सप्ति ।
" ३॥२२॥१॥ तरसे बलाय।
" ३॥१८॥३॥ निघण्टु ११११॥ में वाक् के ५७ नाम आये हैं। उन में धारा, मन्द्रा, सरस्वती, जिह्वा, ऋक, अनुष्टुप् आदि नाम पढ़े गये हैं। इन में से कुछ ब्राह्मणों में भी इसी अर्थ में मिलते हैं। पहले चार नाम तो विशेष्य विशेषण भाव से स्पष्ट ही वेद में इन अथों में मिल जाते हैं । यथामन्द्रया सोम धारया।
ऋ० ९।६।१॥ अत्र मन्द्रा गिरो देवयन्तीरुपस्थुः। , ७१८॥३॥
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७१
मन्द्रया देव जिह्वया ।
५।२६।१॥
यं याचाम्यहं वाचा सरस्वत्या ।
५|७|५||
**
अब रहे ऋक् और श्लोक (दि शब्द । इनके विषय में मैकडानल महाशय ने भी स्वसंदेह प्रकट किया है । 'भण्डारकर कमेमोरेशन वाल्यूम' वाले अपने लेख में वे लिखते हैं “Thus among the synonyms of vae 'speech' appear such words as sloka, nivid. re. gatha, anustubh which denote different kinds of verses or compositions and can never have been employed to express the simple meaning of 'speech." अर्थात् यह शब्द रचनाविशेष के लिये आ सकते हैं, साधारण वाक् के लिये नहीं । अब हम देखेंगे कि वेद वा शाखा प्रन्थों में, निघण्टु वा ब्राह्मणों में आये हुए ये शब्द इन अर्थों में मिलते हैं या नहीं ।
ऋचा गिरा मरुतो देव्यदिते । ऋचं वाचं प्रपद्ये ।
ऋचो गिरः सुष्टुतयः ।
ऋचं गाथां ब्रह्म परं जिगांसन ।
99
ऋ० ८|२७|५||
य० ३६।१॥
ऋ० ९१।१२।।
कौ० सू० १३५७९
इन प्रमाणों में ऋक् शब्द वाकू के विशेषणों में आया है । अतः इसका वागर्थ होना सन्देह से परे है ।
श्लोक शब्द रचना-विशेष के लिये तो आतां है, पर वाणी के लिये भी ऋग्वेद में वर्ता गया है, इस में कोई सन्देह नहीं । देखो यजुर्वेद में एक मन्त्र हैं"विभाहि । श्रोत्रम्मे श्लोकय । १४ । ८॥
चक्षुर्म
अर्थात् — मेरे नेत्रों को प्रकाशित और कर्ण को श्रवणयुक्त कर ।
यहां श्लोकय क्रियापद स्पष्ट करता है, कि लोक शब्द रचनाविशेष के
लिये ही नहीं आता, प्रत्युत साधारण वाणी = शब्द = श्रवण के सम्बन्ध में भी आता है।
पुनः ऋग्वेदीय मन्त्र भी यही स्पष्ट करते हैं
--
ऋतस्य लोको बधिरा ततर्द कर्णाः |४| २३ |९ ॥
अर्थात् - सत्य की वाणी बधिर कानों का नाश करती है । मिमीहि लोकमास्ये | १|३८|१४||
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प्रैते वदन्तु पू वयं वदाम ग्रावभ्यो वाचं वदता वदयः । यदद्रयः पर्वताः साकमाशयः श्लोकं घोषं भरथेन्द्राय सोमिनः॥
१०। ९४ । १॥ इस आन्तम मन्त्र में तो श्लोक और घोष को विशेष्य विशेषण बना कर सारा विवाद मिटा दिया है । अर्था । श्लाक, घोष अथवा वाणी का पर्याय है । शेष शब्द भी वेद में ही वाणी के अर्थों में मिल जाते हैं ।
हमारे इस लेख से यह न समझना चाहिये कि मन्द्रा, धारा, जिह्वा, सरस्वती, और ऋगादि शब्द ओर अर्थों में नहीं आ सकते । वेदों में शब्दों के यौगिक होने से प्रकरणानुकूल ही अर्थ होता है। वह अर्थ मूलतः धातु सम्बन्ध से एक वा अनेक प्रकार का है । पर उन सब में वह योगरूढ बनते समय प्रकरणवश कुछ ही अर्थों में रह गया है । वे सब अर्थ भाथ्यकर्ता के ध्यान में रहने चाहियें । जो जहां संगत हो वह उसे वहीं लगावे |
हमारे पूर्वोक्त कथन पर पाश्चात्य लोग कई तर्क करेंगे । अतः उन के सब तकों के उत्तर के लिो हम एक ऐसे शब्द पर विचार करना चाहते हैं। जिस से सारे ऐसे तकों का अन्त हो जावे । और वह विचार यह भी सिद्ध कर दें कि ब्राह्मणार्थ वेद का यथार्थ अर्थ है वह वेद से बहुत परे हटा हुआ नहीं, ऐसा शब्द अध्वर है।
निघण्टु ३।१७॥ में अध्वर को यक्ष का पर्याय कहा गया है। शतपथादि ब्राह्मणों में भी बहुधा ऐसा कथन मिलता है। देखो इस कोष में अवर शब्द । ब्राह्मणों ने क्यों यह पर्याय बनाया, इसका कारण वेद के अन्दर ही मिलता है । ऋग्वेद में आया है--
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।।१।४॥
अर्थात्-हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् जिस हिंसादि दोष राहत यज्ञ को आप सर्वत्र सर्वोपरि होकर विराजते हो ।
यहां अध्वर शब्द यज्ञ का विशेषण है । विशेषण होने से यही शब्द अन्यत्र यज्ञवाची बन गया है।
प्रश्न-क्या सारे ही विशेषण पर्याय बन जाते है।
उत्तर--नहीं | जिन विशेष्य, विशेषणों के गुण की.विशेष समानता होजावे, वे ही पर्याय बनते हैं।
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अब देखो पाश्रात्य लोग इसी बात से भयभीत होकर इस मन्त्र के अर्थ में कैसी कल्पना करते हैं।
१-हर्मन ओल्डनबर्ग S. B. E. vol. XLVI, Hymms to Agni, पृ. १ पर लिखता है
Agni, whatever sacrifice and worship' thou encompassest on every side,
___Note 1. 'Worship' is a very inadequate translation of अध्वर, which is nearly a synonym of यज्ञ.. . . . . . . . Prof. Max Muller writes: 'I accept the native explanation अ-ध्वर, without a law, perfect whole, holy.' ___२-ग्रिफिथ अपने वेदानुवाद में लिखता है
Agni, the perfect sacrifice which thou encompassest about.
३-आर्थर एननि मैकडानल अपनी Vedic Reader पृ० ६ पर लिखता है
O Agni, the worship and sacrifice that thou encompassest on every side, 794 374424-again coordination with च; the former has a wider sense-worship (prayer and offering); the latter-sacrificial act.
यहां ओल्डनबर्ग और प्रायः उसी की प्रतिध्वनि करने वाला मैकडानल च का अध्याहार करते हैं । वे दोनों इस स्थान में अध्वर और यज्ञ को विशेष्य विशेषण नहीं मानते।
ग्रिफिथ महाशय भारत में रहे । वे काशीस्थ पण्डितों से सहायता भी लेते थे। इसी लिये उन्हें पाश्चात्य पद्धति सर्वत्र रुचिकर नहीं लगी । वे अध्वर को यहाँ विशेषण ही मानते हैं । मैक्समूलरवत् वे इसका अर्थ perfect = पूर्ण करते हैं।
ग्रिफिथ महाशय के सम्बन्ध में हम इतना ही कहेंगे कि जैसे इस अध्वर विशेषण को अन्य स्थलों* में वे यसवाची ही मान कर अर्थ करते हैं, वैसे यदि अन्य विशेष्य विशेषणों में से प्रकरणानुकूल कुछ विशेषणों को उन के विशेष्यों का पर्याय ही मान लेते, तो इस में क्या आपत्ति थी। यदि हमारी बात जो सर्वथैव युक्तियुक्त है
*३० २।१८॥ १।१४।११॥ इत्यादि ।
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वीकार की जाव, तो ब्राह्मणान्तर्गत वेदार्थ की कितनी सत्यता प्रकाशित होती है। देखो निम्नलिखित स्थल
अश्मानं चित्स्वर्य१ पर्वतं गिरिम् । ऋ० ५।५६।४॥ मैक्समूलर*-the rocky mountain (cloud) ग्रिफिथ-the rocky mountain. पर्वतो गिरिः । ऋ० ११३७७॥ मैक्समूलर-the gnarled cloud, यदद्रयः पर्वताः । ऋ० १०९४॥१॥ शतपथ में कहा हैगिरिर्वा अद्रिः ।७।५।२।१८॥ तथा ऋग्वेद में कहा हैवराहं तिरो अद्रिमस्ता ॥२६११७॥
ग्रिफिथ-... . the wild boar, shooting through the mountain.
अतः निघण्टु १।१०॥ में भी कहा हैअद्रिः । पर्वतः+ । गिरिः। वराहः। इति मेघनामानि ।
इस लिये इनको पर्याय मानने में ग्रिफिथ को आपत्ति न माननी चाहिये थी। तथा य.दे ऋग्वेद में
इन्द्रेण वायुना । १ । १४ । १० ॥
एष इन्द्राय वायवे स्वर्जित्परि षिच्यते ।९।२७॥२॥ ऐसे मत्र आजावें, जिनमें निश्चय ही इन्द्र को वायु का विशेषण बनाया गया है, तो कई स्थलों म इन्द्र का अर्थ वायु भी होसकता है। ब्राह्मण में भी यही कहा है
यो वै वायुः स इन्द्रो य इन्द्रः स वायुः । श०४।१।३।१९।। * S. B. E. वैदिक हिम्स पृ० ३३७ ।
* यदि मैकडानल अपनी Vedic Reader ११८५/१०॥ में पर्वतम् का मूल में ही mountain की अपेक्षा cloud-मेघ अर्थ करता और टिप्पण में cloud mountain लिखने का कष्ट न उठाता, तो उसका अनुवाद, इस अंश में युक्त होजाता।
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७५
अयं वा इन्द्रो यो ऽयं पवते । श० १४।२।२६॥ अब रहे ओल्डनबर्ग और मैकडानल । ये दोनों परस्पर पूर्ण सहमत नहीं ।
ओल्डनबर्ग यज्ञ का sacrifice और अध्वर का worship अर्थ करता है। इस के विपरीत मैकडानल यज्ञ का worship और अध्वर का sacrifice अर्थ करता हैं। खिन्नमना ओल्डनबर्ग धीमी स्वर से इन दोनों को पर्याय भी मानता है । यदि वह पर्याय न मानता, तो भारी आपत्ति से बच भी न सकता । इसी लिये आगे चल कर वह अर्थ पलटता है।
सत्यधर्माणमध्वरे । ऋ० १।१२।७।। whose ordinances for the sacrifice are true. आनिर्यज्ञस्याध्वरस्य चेतति । ऋ० १११२८॥४॥ Agni watches sacrifice and service.* यज्ञानामध्वरश्रियम् । ऋ० ११४४॥३॥ the beautifierf of sacrifices. अब रहे, हमारे पूर्वपक्षी मैकडानल महाशय । ये श्रीमान् यज्ञ का worship
और अध्वर का sacrifice अर्थ मानते हैं । पर इन का भी इस से काम नहीं चला । देखो यज्ञस्य देवमृत्विजाम् ।।१।१॥ the divine ministrant of the sacrifice. यज्ञैः विधेम । ऋ० २।३५ । १२ ॥ we offer worship with sacrifices. यज्ञस्य हि स्थ ऋत्विजा । ऋ० ८।३८ । १॥ ye two (Indra-Agni) are ministrants of the sacrifice. I इन मन्त्रों में इन्हें यज्ञ का sacrifice ही अर्थ मानना पड़ा। अब यदि ब्राह्मण ने
अध्वरो वै यज्ञः। श०१।२।४।५॥ * यह अनुवाद मावशून्य है।
+ अध्वरश्रियम्, द्वितीयान्तपद है। क्या इसका यह अर्थ पाश्चात्यों की शोभा बढ़ाता है।
* यह मन्त्रभाग मैकडानल ने ऋ० १।१।१॥ के टिप्पण में उद्धृत किया है।
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कहा, तो ब्राह्मण तो स्वयं वेद के अनुकूल और समीप हैं, न कि दूर ।
. बात वस्तुतः यह है कि वेदों के शब्द यौगिक वा योगरूढ हैं। इसीलिये विशेष्य, विशेषण की रीति से विशेषण धात्वर्थ मात्र ही देता है। वहीं विशेषण दूसरे स्थान पर स्वयं नाम अर्थात् योगरूढ बन जाता है। श्राह्मणों में इसी अभिप्राय से वैदिक शब्दों के अर्थ कहे हैं । अनित्येतिहासप्रिय पाश्चात्यों को यह अच्छा नहीं लगता, अतः उन्हाने विना ब्राह्मणों के समझे उन्हें वेदार्थ से परे हटा हुआ कहा है । उपनिषद् में यथार्थ कहा है_ यथोणेनाभिः सृजते गृह्णते च । मुण्डक १ । ७॥
पहले पाश्चात्यों ने दो, अढ़ाई सहस्र वर्ष पुरातन भाषाओं के अधूरे भाषाविज्ञान को बना लिया, फिर उसे लाखों वर्ष पुरानी ब्राह्मण-भाषा वा नित्य वेदभाषा से समता में रख कर सब को एक संग तोला । जब उनका स्वप्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ, तो स्वयं ही ब्राह्मणादि ग्रन्थों को स्वल्प मूल्यवान् कह दिया | अहो ! आश्चर्य इस निराधार कल्पना पर । आप ही एक सिद्धान्त बनाया और स्वयं उसे सत्य मान लिया । फिर और सब कुछ तो अशुद्ध होना ही था । ४-वेदों के मूलार्थ पर प्रकाश डालने योग्य सामग्री का ब्राह्मणों
में अभाव ही है। ५-ब्राह्मणों में कहीं २ ही मन्त्रों के भाव का व्याख्यान है। ६-यह व्रगख्यान प्रायः अत्यन्त काल्पनिक होते हैं।
__४-पश्चिम में रोथ, वैबर, मैक्समूलर, ओल्डनवर्ग, गैलनर, बिटने, मैकडाल प्रभृति ने जो अनुवाद वेदार्थ के नाम से छापे हैं, वे वेदार्थ तो है नहीं, उन के अपने मनों की कल्पनाएं अवश्य हैं । जब उनको वेदार्थ का पता ही नहीं लगा, तो वे उसकी तुलना ब्राह्मणान्तर्गत वेदार्थ से कैसे कर सकते हैं।
अपने 'ऋग्वेद पर व्याख्यान' पृ०६३ पर हमने सर्वानुक्रमणी के आधार पर तीन ऋषि-कुलों के पांच २ नाम वंश-क्रम से लिखे थे। उन में से एक वंशावली यह है
ब्रह्मा
वसिष्ठ
शक्ति
पराशर
व्यास
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इन पांचों में से पहले चार तो अनेक ऋग्वेदीय सूक्तों के द्रष्टा हैं। और अन्तिम व्यास जी सब शाखाओं ( चारों वेदों को छोड़ कर ) और ब्राह्मणों के प्रधान प्रवक्ता हैं | इन्हीं व्यास जी के समकालान याज्ञवल्क्य आदि हैं । ये भी ब्राह्मणों के प्रवक्ता हैं । ऐसा हम ब्राह्मणों के सङ्ककलन-काल प्रकरण में स्पष्ट कर चुके हैं। इस विषय के और प्रमाण निम्नलिखित हैं
__ (क) शतपथ ब्राह्मण ११ । ६ । २ | १ ॥ में कहा है---
जनको ह वै वैदेहो ब्राह्मणैर्धावयद्भिः समाजगाम श्वेतकेतुनारुणेयेन, सोमशुष्मेण सात्ययज्ञिना याज्ञवल्क्येन | तान् होवाच-कथं कथमग्निहोत्रं जुहुथ-इति ।
इस से स्पष्ट नात होता है कि(१) जनक। (२) श्वेतकेतु आरुणेय । (३) सोमशुष्म सात्ययनि* | और (४) याज्ञवल्क्य समकालीन थे। यही परिणाम और प्रकार से भी निकलता है।
(ख) शतपथ ब्राह्मण १४ । ९ । ३ । १५-२० ॥ में निम्नलिखित वाक्य से आरम्भ करके एक गुरु-शिष्य परम्परा दी है--
त हैतमुद्दालक आरुणिः वाजसनेयाय याज्ञवल्क्यायान्तेवासिन उक्त्वोवाच
इस परम्परा का चित्र नीचे दिया जाता है
१-उद्दालक आरुणि
२-वाजसनेय याज्ञवल्क्य
(४)
३–मधुक पैङ्ग्य।
(६) * सम्भवतः इसी सात्ययन्नि का उल्लेख शतपथ १३ । ५ । ३ ॥ ९ ॥ में है
तदु होवाच सात्ययक्षिः। * सम्भवतः यही पेय शतपथादि ब्राह्मणों में उद्धृत हैं। देखो शतपथ १२ । ३ । १। ८ ॥ तथा मधुक नाम से इसी का उल्लेख को० १९।९॥ में है
पतद्ध स्म वै तद्विद्वानाह. पैङ्ग्यः । यह जानते हुए पेङग्य बोला ।
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४-चूड भागवित्ति
(७)
५-जानकि आयस्थूण
. ६--सत्यकाम जाबाल
७-अनेक अन्तेवासी
संख्या (२) का श्वेतकेतु आरुणेय संख्या (५) के उद्दालक आरुणि का पुत्र है । अतः वह याज्ञवल्क्य का गुरु-पुत्र होने से भ्राता* ही है।
(ग) इस में प्रमाण छान्दोग्य उपनिषद् का है.----
श्वेतकेतुर्हारुणेय आस । तर पितोवाच...।६।१।१॥ उद्दालको हारुणिः श्वेतकेतुं पुत्रमुवाच । ६ । ८।१॥
(घ) जनक की महती सभा में गुरु उद्दालको भी शिष्य याज्ञवल्क्य से प्रश्न पृछता हैअथ हेनमुद्दालक आरुणिः पप्रच्छ याज्ञवल्क्याश०१४।६।७।१॥
(ङ) संख्या (९) का सत्यकाम जाबाल' ही जनक को कुछ उपदेश दे गया था । उसी उपदेश को याज्ञवल्क्य जनक से सुन रहा है
अब्रवीन्मे सत्यकामो जाबालः । शतपथ १४।६।१०।१४॥ (च) इसी संख्या (९) वाले सत्यकाम जाबाल का एक गुरुस (सत्यकामो जाबालः) ह हारिद्रुमतं गौतममेत्योवाच ।
छां० उ० ४।४॥३॥ * याज्ञवल्क्य के समान यह भी संन्यासी होगया था। देखो जाबाल उपनिषद् -
परमहंसानाम संवर्तक-आरुणिःश्वतकेतुः ॥६॥ इसी उद्दालक को चित्र गार्यायाणि ने स्वयज्ञार्थ वरा थाचित्रो ह वै गाायणिर्यक्ष्यमाण आरुणिं ववे । स ह पुत्रं श्वतकेतुं प्रजिगाय याजयेति । कौषीतकि उप० २१॥ इसी का पिता अरुण औपवाश था । देखो शतपथ १४।९।४।३३।। तथाऐतद्ध स्म वा आहारुण औपवेशिः । मै० सं० १।४।१०॥३६॥४॥ + इसी का कथन शतपथ १३।५।३।१॥ में किया गया हैइति ह स्माह सत्यकामो जाबालः ।
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(१०) हारिद्रुमत गौतम था। (छ) श्वेतकेतु आरणेय ही (११) पश्चालाधिपति प्रवाहण जैबलि के समीप गया ५।
श्वेतकेतुर्हारुणेयः पञ्चालाना समितिमेयाय । तरह प्रवाहणो जैबलिरुवाच । छा० उ० ५।३।१।।*
लगभग ऐसा ही पाठ बृहदारण्यक ६।२।१॥ में भी है । (ज) यही श्वेतकेतु जब ब्रह्मचारी था, तब
(१२) अश्विद्वय ने इसकी चिकित्सा की थी । देखा विश्वरूपाचार्य कृत बालक्रीडा टीका ९॥३२॥ पर चरकों का पाठ
तथा च चरकाः पठन्ति
श्वेतकेतुं हारुणेयं ब्रह्मचर्य चरन्तं किलासो जग्राह । तमश्विनावूचतुः। 'मधुमांसौ किल ते भैषज्यम्' इति ।
(स) संख्या (११) वाले प्रवाहण जैबाल का, (१३) शिलक शालावत्य, और
(१४) चैकितायन दाल्भ्य से परस्पर संवाद हुआ था । क्योंकि बृहदारण्यक में निम्नलिखित वाक्य से आरम्भ कर के उन का संवाद कहा है
त्रयो होडीथे कुशला बभूवुः । शिलकः शालावत्यः । चकितायनो दाल्भ्यः । प्रवाहणो जैवलिः । ६।२।३॥
(अ) संख्या (१४) वाले चकितायन का भ्राता (१५) बको दाल्भ्य प्रतीत होता है । (ट) इस बक दाल्भ्य तथा (१६) ग्लाव मैत्रेय उल्लेख छान्दोग्य उपनिषद् में है
अथात शौव उद्गीथः । तद्ध बको दाल्भ्यो ग्लावोवा मैत्रेयः स्वाध्यायमुहबाज । १।१२।१॥
(ठ) इन्हीं (१४) और (१५) सख्या वाले दोनों व्यक्तियों का भ्राता * तुलना करो शतपथ १४ । ९ । १ । १ ॥ + इसी व्यक्ति का कथन छा० उ० १८१॥ में किया गया है।
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(१७) केशी दार्य प्रतीत होता है। केशी ह दाभ्यो दीक्षितो निषसाद । कौ० ७ । ४ ।। (ड) इसी केशी दार्य को (१८) केशी सात्यकामिः ने उपदेश दिया था । (ढ) इसी केशी दार्य ने (१९) षण्डिक औद्भाारे को पराभूत किया था । (ण) संख्या (५) वाले उद्दालक आणि का विचार(२०) शौनक स्वेदायन से हुआ था । देखा
उद्दालको हारुणिः...। हन्तैनं ब्रह्मोद्यमाह्वयामहा इति । केन वीरेणेति । स्वदायनेनेति । शौनको ह स्वंदायन आस ।
__ शतपथ ११।४।१।१॥ (त) इसी उद्दालक आरुणि के समीप(२१) शोचेय प्राचीनयोग्य आया थाशौचेयो ह प्राचीनयोग्यः । उद्दालकमारुणिमाजगाम ।
श० ११ । ५। ३ । १॥ (थ) इसी उद्दालक के समीप (२२) प्राति कौशाम्बेय कौसुराबन्दि ने ब्रह्मचर्य वास किया था
प्रोतिर्ह कौशाम्बेयः । कौसुरुबिन्दिरुद्दालक आरुणौ ब्रह्मचयमुवास । श० १२।२।२।१३।।
(द) इस प्रोति कोसुरुबिन्दि का पिता
(२३) कुसुरुबिन्द। उद्दालक का पुत्र वा शिष्य ही था । क्योंकि तैत्तिरीय संहिता में निम्नलिखित वाक्य मिलता है
कुसुरुबिन्द औद्दालकिरकामयत । ७।२।२॥ (ध) इसी उद्दालक आरुणि के समीप
* दालभ्य और दाभ्यं में कोई भेद नहीं है। देशविशेषों में ग्रन्थों के लिखे जाने के कारण ही यह ल् और र का भेद हो गया है।
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(२४) प्राचीनशाल औपमन्यव । (२५) सत्ययज्ञ* पौलुषि । (२६) इन्द्रद्युम्न भाल्लवेय । (२७) जन शार्कराक्ष्य ।
(२८) बुडिल आश्वतराश्वि ।। ये पांच महाश्रोत्रिय गये थे। क्योंकि छान्दोग्य उपनिषद् में लिखा है
प्राचीनशाल औपमन्यवः सत्ययज्ञः पौलुपिरिन्द्रद्युम्नो भाल्लवयो जनः शार्कराक्ष्यो बुडिल आश्वतराश्विः ॥१॥ ते ह संवादयां चक्रुरुद्दालको वै भगवन्तोऽयमारुणिः संप्रतीभमात्मानं वश्वानरमभ्येति ॥२॥५॥११॥ (न) इन पांचों को साथ लेकर उद्दालक आरुणि
(२९)* महाराज अश्वपति के समीप गये थे-- तान् होवाचाश्वपतिर्वै भगवन्तोऽयं कैकेयः संप्रतीममात्मानं वैश्वानरमध्येति । छा० उ० ५.११॥४॥
अब कहां तक लिखें । सैकड़ों और नाम भी लिखे जा सकते हैं। ये उनास * संख्या (३) वाला सोमशुष्म इसी सत्ययन का पुत्र प्रतीत होता है । + इसी का संख्या (१) वाले जनक से संवाद हुआ था । देखोएतद्ध वै तजनको वैदेहो बुडिलमाश्वतराश्विमुवाच । श . १४।८।१५। ११ ॥ * इन में से कुछ नाम पारजिटर ने अपने ग्रन्थ A.I.II. Tradition पृ. ३२७ और ३२८ पर दिये हैं । $उदाहरणार्थ (३०) हिरण्मय शकुन ( कौ० ७ । ४ ॥) (३१) आसोलो वाणिवृद्ध (३२) इटन् काव्य । (३३) शिखण्डी याशसेन । " (३४) गौश्र । ( कौ० १९ । ९) मधुक से वार्तालाप करने से। . (३५) उपकोसल कामलायन । छां. उप. ४ । १० १॥ सत्यकाम जाबाल
का शिष्य होने से ।
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महाश्रोत्रिय, सत्यवक्ता महाशय लगभग समकालीन थे । इन्हीं से दो, चार, छ: पीढी पहले अनेक वैदिक ऋषि हो चुके थे । इन ऋषियों द्वारा वेदार्थ का प्रचार निरन्तर होता रहता था | और दो चार पीढियों में वह अर्थ भूल भी नहीं सकता था । विशेषतः जब परम्परा अविच्छिन्न थी। ऐसी अवस्था में जो पाश्चात्य घर बैठे ही मन्त्रोंका अनृत अर्थ करके अपने को वेदज्ञ मानते हैं और ब्राह्मणादि-ग्रन्थों के अर्थ को अनर्थ समझते हैं, वे भ्रम से ही अपने बहुमूल्य जीवनों को यथार्थ वेदार्थ से वश्चित कर रहे हैं।
हम पहले भी पृ० २८, २९ पर कह चुके हैं कि मौलिक ब्राह्मणों के प्रवक्ता ही वेदार्थ के द्रष्टा होते रहे हैं । वही मौलिक ब्राह्मण इन ब्राह्मणों में महाभारत-काल में समाविष्ट किये गये । अतः इन्हीं ब्राह्मणों के अन्दर वेदों के मूलार्थ को प्रकाश करने वाली सामग्री विद्यमान है । इन में कहीं २ ही मन्त्रोंके भावों का व्याख्यान नहीं, प्रत्युत सारा ब्राह्मण-वाङ्मय ही मन्त्रार्थ प्रकाशक है । ब्राह्मणों में अल्पाभ्यास के कारण ही पाश्चात्यों ने इन के ठीक अभिप्राय को नहीं समझा । इतने लेख से ही मैकडानल की तीसरी, चौथी और पांचवी प्रतिज्ञा का उत्तर समझ लेना।
६-यह व्याख्यान प्रायः काल्पनिक होते हैं । श्राह्मणों के व्याख्यान यथार्थ हैं, यह तो ब्राह्मण और वेद के गम्भीरपाठ से ही ज्ञात हो सकता है । हां, उदाहरण मात्र हम अश्विन् शब्द को लेते हैं।
पूर्वपक्ष (क) मैकडानल अपनी Vedic Mythology पृ० ५३ (सन् १८९८) पर लिखता है
"As to the physical basis of the Acvins tlie language: of the Rsis' is so vague that they themselves do not seem to have understood what phenomenon these deities represented."
(ख) मैकडानल ने अपनी Vedic Reader. पृ० १२८ पर भी ऐसा ही लिखा है । यही महाशय पृ० १२९ पर पुनः लिखते हैं
“The physical basis of the Asvins has been a puzzle ___ *एफ० इ. पारजिटर महाशय अपने ग्रन्थ Ancient Indian Historical Tradition (सन् १९२२) में महाभारत-काल को ईसा से लगभग १००० वर्ष पूर्व ही मानते हैं । यह उनकी सरासर खेंचतान है। इसका सविस्तर उत्तर हम अन्यत्र देने का विचार रखते हैं।
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from the time of the earliest interpreters before Yaska, who offered varions explanations, while modern scholars alsu lave suggested several theories. The two most prohable are that the Asvins represented either the morning twilight, is half light and lialf dark, or the morning and the evening star.'
(ग) घाटे महाशय अपने Lectures on Rigveda पृ० १७३-१७४ पर लिखते हैं
"But these theories (awn and the spring) cannot fully explain all the details connected with these legends."
(घ) वेद में अश्विन और नासत्य विशेष्य विशेषण भाव से प्रायः एकार्थ वाची आते हैं । यथा १२३४|७|| में नासत्या....' अश्विना । इसी भाव से जब वेदमन्त्रों पर देवता लिखे जाते हैं तो कई आचार्य नासत्यौ लिख देते हैं और कोई अश्विनौ देवते । उदाहरणार्थ ऋ० १११५॥ ११॥ के देवते बृहद्देवता में नासत्यौ हैं और ऋषि दयानन्द के भाष्य में अश्विनौ ।
___ इसी नासत्य शब्द पर लिखते हुए श्री अरविन्द घोष अपने आर्य के “प्रथम" वर्ष के पृ० ५३१ पर लिखते हैं---
. “Nasatya is supposed by some to be a patronymie, the old grammarians ingeniously fabricated for it the sense of "true not talse" but I take it from nas' tv move. .... They show that the Aevins are twin divine powers whose special function is to perfect the nervous or vital being in man in the sense of action and enjoyment. But they are also prowers of truth, of intelligent action, of right enjoyment."
___Barth आदि फ़ैश्च लेखकों ने भी अन्य पश्चिमीय विद्वानों के समान ही लिखा है।
उत्तर पक्ष मैकडानल ने अपने अज्ञान के छिपाने की अच्छी विधि निकाली है, जब वह कहता है कि वैदिक ऋषि अश्विद्वय के आधिदैविक अर्थों को स्वयं भी न समझे हुए प्रतीत होते है । वैदिक ऋषि तो क्या, यास्क प्रभृति शास्त्रकार और उनकी कृपा से
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हम भी अश्विय के वास्तविक आधिदैविक अर्थों को जानते हैं। ऋग्वेद में स्वयं अश्विन शब्द के धातु का निर्देश है
पूर्वीरश्नन्तावश्विना । ८ । ५ । ३१ ।।
अर्थात् - अश्नन्तौ अश्विनौ व्यापनशील अश्विद्वय । इसी व्युत्पत्ति को ध्यान में रख कर शतपथ में कहा गया है
अश्विनाविमे ही सर्वमाश्वाताम् । ४ । १ । १६ ॥
इस व्युत्पत्ति बताने के अनन्तर हम कहना चाहते हैं कि - अश्विद्वय का जो अर्थ निरुक्त और बृहद्देवता में कहा गया है, वही ब्रह्मणों और शाखाओं में भी मिलता है । निरुक्त में व्युत्पत्ति भी वेद और ब्राह्मण वाली ही कही गई है । देखो
अश्विनौ यद् व्यश्नुवाते सर्वं रसेनान्यो ज्योतिषान्यः तत्कावश्विनौ । द्यावापृथिव्यौ इत्येके । सूर्याचन्द्रमसौ इत्येके । राजानौ पुण्यकृतौ
अहोरात्रौ इत्येके । इत्यैतिहासिकाः ॥ नि० १२ । १ ।।
नासत्यौ चाश्विनौ । सत्यावेव नासत्यौ, इत्यार्णवाभः । सत्यस्य प्रणेतारौ, इत्याग्रायणः । नासिकाप्रभवौ
बभूवतुरिति वा ।।
नि० ६ । १३ ।।
और्णवाभो द्वचे त्वस्मिन्न् अश्विनौ मन्यते स्तुतौ ॥ १२५ ॥
८
सूर्याचन्द्रमसौ तौ हि प्राणापानौ च तौ स्मृतौ । अहोरात्रौ च तावेव स्यातां तावेव रोदसी ॥ १२६ ॥ अश्नुवाते हि तौ लोकान् ज्योतिषा च रसने च । पृथक्पृथक् च चरतो दक्षिणेनोत्तरेण च ॥ १२७ ॥
बृ० अध्याय ७ ॥ यही पूर्वोक्त भाव ब्राह्मणों और शाखाओं में मिलते हैं । द्यावापृथिवी वा अश्विनौ । काठक सं० १३ । ५ ॥ इमे ह वै द्यापृथिवी प्रत्यक्षमश्विनौ । श० ४। १ । ५ । १६ ।।
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अहोरात्रे वा अश्विनौ । मै० सं०३।४ । ४ ॥ तथा ऋग्वेद में कहा हैऋता । १।४६ । १४ ॥ ऋतावृधा । १ । ४७।१॥
अर्थात् अश्विद्धय = नासत्य, सत्य स्वरूप हैं । वे ही सत्य से बढ़ने वा बढ़ाने वाले भी हैं।
यास्क ने नासत्यों को नासिकाप्रभव इस लिये लिखा है कि उस का अभिप्राय प्राणापान से है । ये प्राणापान नासिका से ही उत्पन्न होते हैं।
ब्राह्मणों में अश्विद्वय को अध्वर्दू भी कहा हैअश्विनावध्वयू । श० १।१।२। १७॥
और क्योंकि राष्ट्ररूप महायज्ञ के अर्ध्वयू सभाध्यक्ष वा सेनाध्यक्ष भी होते हैं, अतः निरुक्त में अश्विद्वय का अर्थ पुण्यशील दो राजे भी कहा है । ऋग्वंद १०३९।१९॥ में तो स्पष्ट ही राजानौ अश्विद्वय का विशेषण है।
। ये सारे अर्थ एक ही भाव को कह रहे हैं । वह भाव है व्यापनशीलता का। यदि ये सारे अर्थ न माने जावें, तो अनेक मन्त्रों का अर्थ खुलता ही नहीं।
इस से भले प्रकार ज्ञात होता है कि ब्राह्मणान्तर्गत, मन्त्र, और उनके पदों का व्याख्यान अत्यन्त युक्त है । यास्क ने भी वही व्याख्यान स्वीकार कर लिया है । जो पाश्चात्य यास्क के, और ब्राह्मण के व्याख्यानों को काल्पनिक कहते हैं, उन्हें वेद समझ ही नहीं आया ।
७-ऋषियों को जो अर्थ अभिप्रेत था, ब्राह्मण उन से
सर्वथैव उलटा अर्थ समझते हैं । जैसेकस्मै देवाय हविषा विधेम । हिरण्यपाणि का अर्थ ब्राह्मणों में विचित्र है।
७-अब मैकडानल महाशय उदाहरण-विशेषों से ब्राह्मणों के विचित्र अर्थ का प्रदर्शन कराते हैं । अतः हम उन के इस कथन की परीक्षा करते हैं।
कः का प्रजापति अर्थ ब्राह्मणों में ही नहीं किया गया, प्रत्युत मैत्रायणी आदि शाखाओं के ब्राह्मणपाठों में भी किया गया है । जैसे
कन्त्वाय कायो यद्वै तदरुणगृहीताभ्यः कमभवत्तस्मात्कायः।
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प्रजापति कः। प्रजापति, ताः प्रजा वरुणेनाग्राहयद्यत्काय आत्मन एवैना वरुणान्मुञ्चति । मै० सं० १ । १० । १० ॥
कन्त्वाय कायो यद्वा आभ्यस्तद्वरुणगृहीताभ्यः। कमभवत्तस्मात्कायः । प्रजापतिर्वै ताः प्रजा वरुणेनाग्राहयत्प्रजापतिः कः। आत्मनैवैना वरुणान्मुश्चति । काठक सं० ३६ । ५ ॥
पूर्वोद्धृत वाक्यों में प्रजापति का नाम क इस लिये कहा गया है कि यह सुखस्वरूप है । क का अर्थ सुख है, ऐसा मानने में किसी पाश्रात्य को भी सन्देह नहीं होना चाहिये । ऋग्वेद में जो--
नाकः । १० । १२१ । ५॥ पद आता है, उस के स्वरूप पर विचार करने से निश्चय होता है कि क का अर्थ सुख है।
__ अब कई एक एसा कहते हैं कि यदि कस्मै का अर्थ सुखस्वरूपाय प्रजापतये किया जाय तो व्याकरण बाधा डालता है । सर्वनानः स्मै ॥ अष्टा० ७।१।२७॥ स्मै प्रत्यय सर्वनामों के साथ ही लगता है, अतः कस्मै पद सर्वनाम है, नाम नहीं ।*
ये महाशय नहीं जानते कि वेद में लौकिक व्याकरण के नियम काम नहीं देते । देखो विश्व पद सर्वनाम है। परन्तु ऋग्वेद में
विश्वाय । १ । ५० । १॥ विश्वात् । १ । १८९ । ६ ॥ विश्वे । ४ । ५६ । ४॥
इसी शब्द के ये तीन रूप नाम-प्रत्ययान्त आये है। इतना ही नहीं, ऋग्वेद में नाम भी सर्वनाम प्रत्ययान्त आये हैं । जैसे ऋ० ११०८॥१०॥
* मैक्समूलर इस विषय में एक लम्बा लेख लिखता है देखोVerlic Hymns Part I. 1891. P. 11-13.
मैकडानल A Vedic Grammar for students, 120b. में यही स्वीकार करता है । यदि उसे हमारे इस सारे कथन का ध्यान आ गया होता तो वह अवश्य कोई और कल्पना उपस्थित करता ।
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यदिन्द्राग्नी परमस्यां पृथिव्यां मध्यमस्यामवमस्यामुत स्थः ।
इस मन्त्र में-परमस्याम् । मध्यमस्याम् । अवमस्याम् । इन नामवाची पदों के साथ सर्वनाम प्रत्यय हैं, अत: प्रजापतिवाचक क के साथ यदि स्मै प्रत्यय आ जाय और ब्राह्मणादि उसको नाम मान कर अर्थ करें, तो यह अनुचित नहीं, प्रत्युत उचिततम है । पाश्चात्य वेदार्थ को भ्रष्ट करना चाहते हैं। उन का अभिप्राय यही है कि संसार वेद का गौरवयुक्त अर्थ जान ही न सके । अतः वे वेद का यथासम्भव ऐसा अर्थ चाहते हैं, जिस से यही बात हो कि आर्यों को वेदमन्त्रों से परब्रह्म का भी ज्ञान नहीं होसका । वे सदा प्रश्न ही करते रहे, कि "हम किस देव की हवि से पूजा करें ।" दो चार अल्पपठित भारतीय उन की बातें सुन कर भले ही यह कह दें कि ब्राह्मणों में कस्मै का अशुद्ध अर्थ किया गया है वरन् आर्य विद्वान् ऐसे आक्षेपों पर हँस छोड़ने की अपेक्षा और क्या कह सकते हैं ।
भाष्यकार पतञ्जलि मुनि
कस्येत । ४ । २ । २५ ॥ सूत्र पर व्याख्या करते हुए इस आक्षेप का और ही समाधान करते हैं । वह भी देखने योग्य है
सर्वस्य हि सर्वनाम संज्ञा क्रियते । सर्वश्च प्रजापतिः । प्रजापतिश्च कः।
लिखा तो बहुत कुछ जा सकता है, परन्तु विद्वान् इतने से ही जान सकते हैं कि ब्राह्मणार्थ को दूषित कहने वाले पाश्रात्य जन स्वयमेव वेद विद्या में अल्पश्रुत हैं।
(ख) इस के अनन्तर मेकडानल महाशय हिरण्यपाणि शब्द और उस के ब्राह्मणान्तर्गत अर्थ पर विचार करते हैं ।
हम कहते हैं, कि उन्हों ने हिरण्यपाणि शब्द ही क्यों लिया । वे त्रिशीर्ष त्वाष्ट्र, दध्यङ् आथर्वण, रुद्र आदि कोई शब्द भी ले लेते । इन में से प्रत्येक शब्द के साथ ब्राह्मण में कोई न कोई कथा अलङ्काररूप से कही गई है । हम भी इन सारी कथाओं का समुचित अर्थ अभी तक नहीं समझ सके । परन्तु हम यह नहीं कहते कि यल करने पर भी इन के अन्दर से कोई गम्भीर आधिदैविक तत्व न निकलेगा । अतः हम पूर्ववत् अपने पाश्चात्य मित्रों से यही प्रार्थना करेंगे, कि वे इन ग्रन्थों का अर्थ समझने में हमारा साथ दें, न कि समझने के स्थान में इन की ओर उपेक्षा दृष्टि करें।
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८-भाषा सम्बन्धी साक्ष्य को पृथक् रखकर भी ऐसे व्याख्यान बताते हैं कि ब्राह्मण-काल से मन्त्र काल का बडा अन्तर होचुका था।
८-चारों वेदों का प्रकाश आदि सृष्टि में ऋषि-जनों के हृदय में हुआ । उन्हीं दिनों से ब्रह्मा आदि महर्षियों ने ब्राह्मणों का प्रवचन आरम्भ कर दिया । वही प्रवचन कुल परम्परा वा गुरुपरम्परा में सुरक्षित रहा । उस के साथ नवीन प्रवचन भी समय २ पर होता रहा । यह सारा प्रवचन महाभारतकाल में इन ब्राह्मणों के रूप में सङ्कलित हुआ । यह सारी परम्परा अनवच्छिन्न थी । अतः काल की दृष्टि से, ब्राह्मणों का कुछ अंश तो मन्त्रों की अपेक्षा नवीन होसकता है, सब नहीं । और जो महाशय भाषा के साक्ष्य पर बहुत बल देते रहते हैं, उन्होंने ब्राह्मणान्तर्गत यज्ञगा. थायें नहीं देखीं । यदि देखीं भी हैं, तो उन पर ध्यान नहीं दिया । ये सब गाथायें सर्वथैव लौकिक भाषा में हैं। ऐसा हम पूर्व दिखा भी चुके हैं। वही ऋषि ब्राह्मणों का प्रवचन करते थे, और वही धर्मशास्त्रादि का भी ।* अतः भाषा के साक्ष्य पर कोई बात सिद्ध नहीं की जा सकती। जिन पाश्चात्यों ने सुविस्तृत आर्ष वाङ्मय का दीर्घ अभ्यास नहीं किया, वे अपने कल्पित भाषा-विज्ञान पर निरर्थक बहुत बल देते रहते हैं। इससे वे कुछ निर्णीत नहीं कर सकते । भाषा तो विषयानुसार भी भिन्न २ प्रकार की होसकती है । अतः मैकडानल साहेब की आठवीं प्रतिज्ञा भी निर्मूल है । अधिक लिखने से क्या । हमारे पूर्व लेख में भी इसका अच्छा खण्डन होचुका है । फलतः हम सुदृढ रूप से कह सकते हैं कि ब्राह्मण प्रदर्शित वेदार्थ ही हमें वेद के यथार्थ तत्त्वों तक पंहुचा सकता है । अतः ब्राह्मण कहता है यथतथा ब्राह्मणम् । श० १२।५।२।४॥ एतदर्थ ऋषि दयानन्द सरस्वती ने अपने वेदभाष्य के विज्ञापन में कहा था
___"इदं वेदभाष्यमपूर्व भवति । कुतः । महाविदुषामार्याणां पूर्वजानां यथावद्वेदार्थविदामाप्तानामात्मकामानां धर्मात्मनां सर्वलोकोपकारबुद्धीनां श्रोत्रियाणां ब्रह्मनिष्ठानां परमयोगिनां ब्रह्मादिव्यासपर्य्यतानां मुन्यूषीणामेषां कृतीना सनातनानां वेदानानामैतरेयशतपथसामगोपथब्राह्मणपूर्वमीमांसादिशास्त्रोपवेदोपनिषच्छाखान्तरमूलवेदादिसत्यशास्त्राणां वचनप्रमाणसंग्रह लेखयोजनेन प्रत्यक्षादिप्रमाणयुनथा च सहैव रच्यते यतः।" ___ * विस्तरार्थ D. A. V. College U. Magazine, Feb. 1925 में देखो हमारा लेख-"Classical Sanskrit is as old as the Brahmanas."
+ माषा सम्बन्धी साक्ष्य पर Dr. R. Zimmermann का लेख A Second Selection of Hymns from the Rigveda, 1922 pp. cxxxII(xxsVIII पर देखने योग्य है ।
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लुप्त वा अप्रकाशित ब्राह्मण-ग्रन्थ । ब्राह्मण ग्रन्थों के पाठ के लिये यह आवश्यक है कि हम इस वाङ्मय के अधिक से अधिक ग्रन्थों का परिचय करें । प्राचीन काल से लेकर बौद्ध-काल तक सहस्रों ब्राह्मण ग्रन्थ विद्यमान थे, इस में अणुमात्र भी सन्देह नहीं। इस समय जो पन्द्रह ब्राह्मण-ग्रन्थ छप चुके हैं, उन के नाम हम प्राकथन में लिख चुके हैं। इन के आतारक्त जिन लुप्त ब्राह्मणों का उल्लेख संस्कृत-साहित्य में मिलता है, उन का नाम हम नीचे देते हैं । सम्भव है, इस सूची में से कुछ नाम रह गये हों। जिन विद्वानों को ऐसा पता कहीं मिले, वे कृपया हमें सूचित करें ।
वे ब्राह्मण जिन के हस्तलेख मिल चुके है। (१) काण्वीय शतपथ ब्राह्मण ( यजुर्वेदीय ) । यह अब लाहौर में ही छप रहा है।
(२) जैमिनीय ब्राह्मणम्-तलवकार ब्राह्मणं वा । (सामवेदीय ) इस का संस्करण हमारे हां पं०वंद व्यास एम० ए० कर रहे हैं।
अप्राप्त परन्तु साहित्य में उद्धत ब्राह्मण । (१) चरक ब्राह्मण । ( यजुर्वेदीय ) विश्वरूपाचार्यकृत बालक्रांडा टीका में उद्धृत । भाग प्रथम पृ० ४८, ८० । भाग द्वितीय पृ० ८६ । भाग २, पृ० ८७ पर लिखा है
तथा अग्नीषोमीयब्राह्मणे चरकाणाम् । याजुष चरक शाखा का यह प्रधान ब्राह्मण था । इस के आरण्यक का एक प्राचीन हस्तलेख (सं० १७५ ) हमारे पुस्तकालय में है । यह आधकांश में सप्त प्रपाठकात्मक मैन्युपनिषद् से मिलता है।
(२) श्वेताश्वतरब्राह्मण । ( यजुर्वेदीय ) बालक्रीडा टीका भाग १, पृ० ८ पर उद्धृत । श्वेताश्वतरोपनिषद् इसी के आरण्यक का भाग प्रतीत होता है ।
(३) काठक ब्राह्मण । ( यजुर्वेदीय ) तैत्तिरीय ब्राह्मण के छुछ अन्तिम भागों को भी कठ वा काठक ब्राह्मण कहते हैं । परन्तु यह काठक ब्रा० उस से मिन है। यह चरकों के द्वादश अवान्तर विभागों में से एक है। इस के आरण्यक का कुछ भाग हस्तलिखित रूप में योरुप के कुछ पुस्तकालयों में विद्यमान है । श्रीनगर कश्मीर में एक ब्राह्मण ने हम से कहा था कि इसका हस्तलेख मिल सकता है । एफ० ओ० श्रेडर सम्पादित, "माईनर उपनिषद्स्" प्रथम भाग पृ०३१-४२ तक जो
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कठश्रुत्युपनिषत् छपा है, वह इसी ब्राह्मण का कोई अन्तिम भाग अथवा खिल प्रतीत होता है । उस के वचनों को यतिधर्म संग्रह का कर्ता विश्वेश्वर सरस्वती आनन्दाश्रम पूना के संस्करण (सन् १९०९ ) के पृ० २२ पं० २६, पृ० ७६ पं० ९ आदि पर काठक ब्राह्मण के नाम से भी उद्धृत करता है ।
( ४ ) मैत्रायणी ब्राह्मण । (यजुर्वेदीय ) बौधायन श्रौतसूत्र ३० | ८ || में उद्धृत | नासिक के वृद्ध से वृद्ध मैत्रायणी शाखा अध्येतृ ब्राह्मणों ने कहा था कि उन्हें इस के अस्तित्व का कोई ज्ञान नहीं रहा । उनके कथनानुसार उन की संहिता में ही ब्राह्मण सम्मिलित है । परन्तु पूर्वोक्त बौधायन श्रौत का प्रमाण मुद्रित ग्रन्थ में नहीं मिला । इसलिये ब्राह्मण पृथक् ही रहा होगा । मैत्रायणी उपनिषद् का अस्तित्व भी इस ब्राह्मण का होना बता रहा है। फिर भी पूरा निर्णय होने के लिये मैत्रा० संहिता का पुनः छपना आवश्यक है । बड़ोदा के सूचीपत्र ( सन् १९२५ ) सं० ७९ में कहा गया है कि उनका हस्तलेख मुद्रित मै० सं० से कुछ भिन्न है । बालकड़ा भाग २ पृ० २७ पं० ३ पर एक श्रुति उद्धृत है । उसी श्रुति को विश्वेश्वर यतिधर्मसंग्रह पृ० ७६ पर मैत्रा० श्रुति के नाम से उद्धृत करता है ।
( ५ ) भाल्लवि ब्राह्मण । बृहद्देवता ५ | २३ || भाषिक सूत्र ३ | १५ || नारद शिक्षा १ | १३ || महाभाष्य ४ । २ । १०४ ॥ में इस का मत वा नाम कहा है।
(६) जाबाल ब्राह्मण । (यजुर्वेदीय ) जाबाल श्रुति का एक लम्बा उद्धरण बालक्रीडा भाग २, पृ० ९४, ९५ पर उद्धृत है। यह सम्भवतः ब्राह्मण का पाठ होगा । बृहज्जाबालोपनिषद् नवीन है, परन्तु जाबाल उप० प्राचीन प्रतीत हो है । इस शाखा का एक गृह्य ( जाबालि गृह्य ) गौतम धर्मसूत्र के मस्करी भाष्य के पृ० २६७, ३८९ पर उद्धृत है 1
( ७ ) पैद्री ब्राह्मण । इसका ही दूसरा नाम पैङ्गय ब्रा० वा पैङ्गायनि ब्रा० भी है । यह आपस्तम्ब श्रौत ५ | १८ | ८ || ५ | २९ | ४ || में उद्धृत है आचार्य शङ्करस्वामी भी इसे शारीरिक सूत्र भाष्य में उद्धृत करते हैं । पैंगी कल्प का उल्लेख महाभाष्य ४ । २ । ६६ ॥ पर है |
1
(८) शाट्यायन ब्राह्मण । (सामवेदीय ? ) आपस्तम्ब श्रौत १० । १२ | १३, १४ || २१ | १६ | ४, १८ ॥ पुष्पसूत्र ८ । ८ । १८४ ॥ में उद्धृत है। सायण अपने ऋग्वेद भाष्य और ताण्ड्य ब्राह्मण भाष्य म इसे बहुत उद्धृत करता है । इसी का कल्प बालक्रीडा भाग १, पृ० ३८ पर उद्धृत है 1
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( ९ ) कंकति ब्राह्मण । आपस्तम्ब श्रौत १४ । २० । ४ ॥ पर उद्धत है। महाभाष्य ४ । २ । ६६ ।। कीलहान सं० पृ० २८६, पं० १२ पर कांकताः प्रयोग है । इस से भी कंकति शाखा के अस्तित्व का पता लगता है।
(१०) सौलभ ब्राह्मण । महाभाष्य ४ । २ । ६६ ॥ ४ । ३ । १०५ ॥ पर इसका उल्लेख है।
(११) कालबवि ब्राह्मण । (सामवेदीय ) आपस्तम्ब श्रौत २०।९।९॥ पर उद्धृत है । पुष्पसूत्र प्रपाठक ८ । ८ । २८४ ॥ पर भी यह उद्धृत है।।
(१२) शैलालि ब्राह्मण । आपस्तम्ब श्रौत ६।४।७॥ पर उद्धृत है । (१३ ) रौताकै बाह्मण !* गोभिलगृह्य सूत्र ३।२५।पर उद्धृत है।
(१४) खाण्डिकेय ब्राह्मण । ( यजुर्वेदीय ) भाषिकसूत्र ३ । २६ ॥ पर उद्धृत है।
(१५) औखेय ब्राह्मण । ( यजुर्वेदीय ) भाषिक सूत्र ३ | २६ ।। पर उद्धृत है।
( १६ ) हारिद्रविक ब्राह्मण । ( १७) तुम्बरु ब्राह्मण ।
(१८) आरुणेय ब्राह्मण । ये अन्तिम तीनों ब्राह्मण महाभाष्य ४ । ३ । १०४ ॥ पर उल्लिखित हैं।
हमारा दृढ़ विश्वास है कि यन करने पर इन में से भी कुछ ब्राह्मणों के हस्तलेख अभी प्राप्त होसकते हैं। यदि कहीं से धन मिल जावे, तो उन के खोजने के लिये यत्न किया जा सकता है।
५-मुद्रित ब्राह्मणों में भ्रष्टपाठ। मुद्रित ब्राह्मणों में भ्रष्टपाठ पर्याप्त हैं । गोपथ के योरुपीय संस्कर्ता ने यद्यपि बहुत परिश्रम से लाईडन संस्करण छापा है तो भी अभी तक उस में अशुद्धियों की कमी वहीं । तुलना करो गोपथ उ०३ । ३ ॥ से ऐ० ३ । ७ ॥ की इत्यादि ।
ऐ० ३ । ११ ॥ में एक पाठ हैसौर्या वा एता देवता यनिविदः। यहाँ देवता के स्थान में देवतया पाठ ब्राह्मण शैली के आधिक समीप है।
• क्या धर्मस्कन्ध ब्रा०, अन्तर्यामी बा०, दिवाकीर्त्य ब्रा०, धिष्णय या०, शिंशुमार या०, आदि के समान यह भी किसी ब्राह्मण का अवान्तर विभाग तो नहीं है।
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कीथ महाशय ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया । देखो निम्नलिखित ब्राह्मणपाठ
ऐन्द्रो वै देवतया क्षत्रियो भवति । ऐ०७।१३॥ आगेयो वै देवतया क्षत्रियो दीक्षितो भवति । ऐ० ७॥२४॥ प्राजापत्यो ह्येष देवतया यद् द्रोणकलशः । तां० ६।५।६।। पुनः ऐतरेय ७ । ११ ॥ में एक पाठ है । यां पर्यस्तमियादभ्युदियादिति सा तिथिः। इसी का दूसरा रूपान्तर कौषीतकि ३ । १ ॥ में ऐसे हैयां पर्यस्तमयमुत्सदिति सा स्थितिः ।
इस सम्बन्ध में ऋग्वेदीय ब्राह्मणों के अनुवाद में कीथ का टिप्पण २, पृ० २९७ पर देखने योग्य है । हम अपनी सम्मति अभी नहीं दे सकते । गोपथ और कौषीतकि में समान प्रकरण में क्रमशः एक पाठ है
अमृतं वै प्रणवः । उ० ३ । ११॥ अमृतं वै प्राणः । ११ । ४ ॥
यहां कौषीतकि का पाठ ठीक प्रतीत होता है । ऐसे ही इन दोनों ब्राह्मणों में एक और पाठ है
अप्सु वै मरुतः शिताः । कौ० ५। ४॥ अप्सु वै मरुतः श्रितः । गो० उ० १ । २२ ॥
र दोनों स्थलों में श्रिताः पाठ युक्त प्रतीत होता है । कीथ महाशय ने यहां कोई टिप्पणी नहीं दी । पुनरपि
अयस्मयेन चरुणा तृतीयामाहुति जुहोति । आयस्यो वै प्रजाः । श० १३ । ३ । ४ । ५॥
अयस्मयेन कमण्डलुना तृतीयाम् । आहुति जुहोति । आयास्यो वै प्रजाः। तै० ब्रा० ३।९।११। ४ ॥
यहां तै० प्रा० के पाठ में आयास्यः पाठ निश्चय ही चिरकाल से अशुद्ध हो गया है। मट्ट मास्कर और सायण दोनों ही अशुद्ध पाठ को मानकर अर्थ में एक क्लिष्ट कल्पना करते हैं । अर्थात् अयास्य ऋषि से उत्पन्न की गई प्रजायें हैं। यहां भयास्य ऋषि का कोई प्रकरण ही नहीं । शतपथ स्पष्ट करता है कि प्रजायें
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(आयस्यः ) अर्थात् आयसी = लोह सम्बन्धी हैं । प्रकरण भी दोनों स्थलों में पूर्व पठित अयस्मय पद से लोह विषयक ही है । शतपथ में
विश एतद्रूपं यदयः । १३ । २।२ । १९ ॥ से पहले यह कह ही दिया गया है कि विश्=प्रजा लोहरूप है । अब न जानें भास्कर, सायण आदिकों ने तुलनात्मक विधि से क्यों लाभ नहीं उठाया, और भ्रष्ट पाठ को ही स्वीकार कर लिया।
___ हमारे इस कोष से ऐसे और भी स्थल स्पष्ट होंगे । विज्ञ पाठक उन सब से लाभ उठावें ।
। ब्राह्मणों में प्रक्षेप। ब्राह्मण परतः प्रमाण हैं, ऐसा हम पूर्व सिद्ध कर चुके हैं । जिस प्रकार ब्राह्मणों के अनेक पाठ भ्रष्ट होगये हैं, वैसे ही कुछ पाठ उड़ गये हों, अथवा नये मिल गये हों, इस में अणुमात्र भी सन्देह नहीं । परन्तु प्रक्षेपोंके जानने के लिये अभी भारी अनुसन्धान की आवश्यकता है । इसी लिये कई प्रकरणों को वेदानुकूल न मानते हुए भी उनका कोष में समावेश किया गया है।
कोष में अभी कई त्रुटियां रह गई हैं, जिन्हें हम स्वयं जानते हैं । परन्तु समयाभाव तथा धनाभाव से इस से अच्छा काम नहीं होसकता था। विद्वान् महाशय उन भूलों को ध्यान में न रख कर इस के उपयोगी अंशों से लाभ उठावें, और वैदिक अनुसन्धान में आगे बढ़ें ! इन शब्दों के साथ हम कोष के इस प्रथम भाग को विद्वानों की भेंट करते हैं।
कोष के द्वितीय भाग में वेद की तैत्तिरीय, काठक आदि शाखा, जैमिनीय और काण्वीय शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय आदि आरण्यक, आपस्तम्बादि श्रौतसूत्र, यास्क तथा कौत्सव्यक्त निरुक्त और उपनिषदादि वैदिक ग्रन्थों से इसी प्रकार का संग्रह होगा । पाठक उस की प्रतीक्षा करें ।
अलमतिविस्तरेण वेदानुसन्धानपरेषु ॥ माघ शुदि १० शनि, वि० सं० १९८२
भगवदत्त
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संकेत सूची ऐतरेय%ऐ०। कौषीतकि-कौ०। शतपथ =श तैत्तिरीय = तै। ताण्डय-तां। पड्विंश=१०। जैमिनीय (तलवकार ) उपनिषद् ब्रा० = जै० उ०। मंत्र-मं०। आर्षेय = आ०। ( जैमिनीय ) आर्षेय =जै० आ० । संहितोपनिषद् ड्रा०सं० । वंशवं०। सामविधान=सा। देवताध्याय =दे। गोपथ पूर्वभाग=गो० पू०। गोपथ उत्तरभाग गो० उ० । ऋग्वद%ऋ०। यजुर्वेद यजु०।
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वैदिक कोषः
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ओ३म्
वैदिककोषः प्रथमो भागः
(अ) अकूधीच्यः प्राणो वा अकूधीच्यः । कौ०८ । ५॥ अक्षरपङ्क्तयः प्राणापानौ वा अक्षरपङ्क्तयः । कौ० १६ ॥ ८ ॥
, पशवो वा अक्षरपङ्क्तयः । कौ०१६।८॥ अक्षरपङ्क्तिः सुमत्पद्वग्द (सु, मत्, पद्, वग्, दे) इत्येव वै यज्ञोऽक्ष
रपंक्तिः । ऐ०२ ॥ २४ ॥ अक्षरपङ्क्तिश्छन्दः ( यजुः १५ । ४) असौ वै लोकोऽक्षरपङ्क्तिश्छन्दः।
श० ८।५।२।४॥ अक्षरम् तद्यदक्षरत्तस्मादक्षरम् । श०६।१ । ३। ६ ॥ , यदक्षरदेव तस्मादक्षरम् । जै० उ०१।२४।१॥
यद्वेवाक्षरं नाक्षीयत तस्मादक्षयम् । अक्षयं ह वै नामैतत्। तदक्षरमिति परोक्षमाचक्षते। जै० उ०१। २४ । २॥ कतमत्तदक्षरमिति । यत्क्षरनाऽक्षीयतेति । इन्द्र इति ।
जै० उ०१।४३ । ८॥ , अक्षरेणैव यज्ञस्य छिद्रमपिदधाति । तां०८।६।१३॥
, विराजो वा एतद्रूपं यदक्षरम् । तां० ८॥ ६ ॥ १४ ॥ अक्षर्या अक्षर्यया (स्वर्ग लोकं ) ऋषयोनुनाजानन् । तां• ८५७॥ अक्षि यदेतन्मण्डलं तपति यश्चैष रुक्म इदं तच्छक्लमक्षन्नथ यदे
तदार्चर्दीप्यते यश्चैतत्पुष्करपर्णमिदं तत्कृष्णमक्षन्नथ य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषो यश्चैष हिरण्मयः पुरुषोऽयमेव स योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषः । श० १०।५।२।७॥
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[अग्निः अक्षि स एष एवेन्द्रः । योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषोऽथेयमिन्द्राणी
(योऽयसव्येऽक्षन्पुरुषः)। श. १०। ५ । २।९॥ " (योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषः) तस्यैतन्मिथुनं योऽयसव्येऽक्षन्पु.
रुषः। श०१०। ५ । २।८॥ अक्षितिः श्रद्धैव सकृदिष्टस्याक्षितिः स यः श्रद्दधानो यजते तस्येष्टं
न क्षीयते । कौ० ७॥४॥ , पुरुषो वाऽअक्षितिःश० १४ । ४।३।७॥ , आपोऽक्षितिर्या इमा एषु लोकेषु याश्चेमा अध्यात्मन् ।
कौ०७।४॥ अग्नयः चत्वारो ह वाऽअग्नयः । आहित उद्धृतः प्रहृतो विहतः।
श० ११।८।२।१॥ , ते वाऽएते प्राणा एव यद् ( आहवनीयर्गाहपत्यान्वाहार्य
पचनाख्याः ) अग्नयः।०२।२।२। १८ ॥ अग्नापूरणी स आग्नापोष्णमेकादशकपालं पुरोडाशं निर्वपति । श०
५।२।५ । ५ ॥ अग्नाविष्णू अग्नाविष्णू वै देवानामन्तभाजौ। कौ० १६ ॥ ८ ॥ , आग्नावैष्णवमेकादशकपालं पुरोडाशं निर्वपति। श०३।
१।३।१॥५।२।३।६॥ अग्निः स यदस्य सर्वस्याग्रमसृज्यत तस्मानिरग्रिह वै तमग्नि
रित्याचक्षते परोऽक्षम् । श०६।१।१। ११ ॥ ,, तद्वाऽएनमेतदने देवानां (प्रजापतिः) अजनयत । तस्मा
दग्निरग्रिह वै नामैतद्यदग्निरिति । श० २।२।४।२॥ ,, यद्वेवाह स्वर्णधर्मः स्वाहा स्वार्कः स्वाहेत्यस्यैवैतानि (धर्मः, __ अर्कः, शुक्रः, ज्योतिः, सूर्यः) अग्नेर्नामानि । श० ९।४।
२।२५॥ तान्येतान्यष्टौ ( रुद्रः, सर्वः = शर्वः, पशुपतिः, उग्रः, अशनिः, भवः, महान्देवः,ईशानः) अग्निरूपाणि । कुमारो नवमः । श. ६।१।३। १८ ॥ आग्निर्वै स देवस्तस्यैतानि नामानि, शर्व इति यथा प्राच्या आचक्षते भव इति यथा वाहीकाः पशूनां पती रुद्रोऽनिरिति।
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भग्निः ]
अग्निः तान्यस्याशान्तान्येवेतराणि नामान्यग्निरित्येव शान्ततमम् ।
श० १ । ७ । ३ । ८ ॥
यो वै रुद्रः सोऽग्निः । श ० ५। २ । ४ । १३ ॥ अग्निर्वाsअर्कः
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( ३ )
: । श०२ । ५ । १ । ४ । १० । ६।२।५ ॥ अयं वाऽअग्निरर्कः । श०८ । ६ । २ । १९ ।। ९ । ४ । २ । १८ ॥ अग्निवी अरुषः । तै० ३ १९ । ४ । १ ॥
अग्निर्वै पशूनामी । श० ४ | ३ | ४ | ११ ॥ asएते सर्वे पशवो यदग्निः । श० ६ । २ । १ । १२ ॥ अग्निष यत्पशवः । श० ६ । २ । १ । १२ ॥ पशुरेष यदग्निः श० ६ । ४ ।
१ । २ ॥
३ । २ । १७ ॥
७ । २ ।
अग्निर्हि देवानां पशुः । ऐ० १ । १५ ॥ ते देवा अब्रुवन्पशुर्वाऽअग्निः । श० ६ । ३ अग्निर्वै देवानामवमेो विष्णुः परमः । ऐ० १
१ ॥
अग्निर्वै देवानामवराय विष्णुः परार्ध्यः । कौ० ७ । १ ॥ अग्निर्वै यशस्याव राय विष्णुः परार्ध्यः । १ ॥ ५ । १ । ३।६॥
श० ३
। १ । ३
एते वै यशस्यान्त्ये तन्वौ यदग्निश्च विष्णुश्च । ऐ० १ । १ ॥
अग्निर्वै देवानां वसिष्ठः । ऐ० १ । २८ ॥
४ । ३० ॥ ७ ।
। १ । २२ ॥
शिर एवाग्निः । श० १० । १ । २ । ५ ॥
शिर एतद्यशस्य यदग्निः । श० ९ । २ । ३ । ३१ ।।
अग्निर्वै योनिर्यशस्य । श० १ । ५ । २ । ११, १४ ॥ ३ । १
३ । २८ ।। ११ । १ । २।२ ॥
अग्निर्वै यज्ञमुखम् । तै० १ । ६ । १ । ६ ॥
1
अग्निः सर्वा देवताः । ऐ० २ । ३ ॥ तै० १ । ४ । ४ । १० ॥
अग्निर्वै सर्वा देवताः । ऐ० १ । १ ॥ श० १ । ६ । २ । ८ ॥ ३ । १ । ३ । १ ।। तां० ९ । ४ । ५ ।। १८ । १ | ८ || ५० ३ । ७ ॥ गो० उ० १ । १२, १६ ॥
सर्वदेवत्योऽग्निः । श० ६ । १ । २ । २८ ॥
अग्नेर्षा एताः सर्वास्तन्वो यदेता (वाय्वादयः) देवताः । ऐ०३ | ४ ॥ अग्निर्वै सर्वेषां देवानामात्मा । श० १४ । ३ । २ । ५ ।।
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[ अग्निः अग्निः सर्वेषामु हैष देवानामात्मा यदग्निः। श०। ७।४।१ । २५ ॥९
, आत्मैवाग्निः । श०६।७।१।२० ॥१०।१ । २।४ ॥ ,, आत्मा वाऽअग्निः। श०७।३।१ । २॥ ।, प्रजापतिर्देवताः सृजमानः । अग्निमेव देवतानां प्रथममसृजत ।
तै०२।१ । ६।४॥ सः (प्रजापतिः) अग्निमब्रवीत्वं घे मे ज्येष्ठः पुत्राणामसि । त्वम्प्रथमो वृणीष्वेति । सः (अग्निः ) अब्रवीन्मन्द्रं सानो वृणे ऽन्नाद्यमिति । जै० १० १।५१ । ५-६॥ अग्निमुखा वै देवताः । तां २५ । १४।४॥ अग्निना वै मुखेन देवा असुरानुक्थेभ्यो निर्जनुः । ऐ.
६।१४॥ ,, तस्माद्देवा अग्निमुखा अन्नमदन्ति श०७।१।२।४॥ , अग्नि देवानां मुखम् । कौ०३।६॥ ५। ५॥ तां०६।१।
६॥ गो० उ०१।२३ ॥
अग्नि देवानां मुखं सुहृदयतमः । ऐ० ७ । १६॥ , अग्निर्वे देवतानां मुखं प्रजनयिता स प्रजापतिः । श० ३।
९।१।६॥ अग्निर्वै देवयोनिः । ऐ०१ । २२ ॥२॥३॥
अग्नि देवानां मृदुहृदयतमः । श० १ । ६ । २ । १०॥ , अग्नि देवानामन्नादः । तै० ३ । १।४।१॥ ,, स यो हैवमेतमग्निमन्नादं वेदान्नादो हैव भवति । श० २।२।
, अन्नादोऽग्निः । श०२।१।४।२८ ॥२।२।४।१॥ , (प्रजापतेर्या ) अन्नादा ( तनूः ) तदग्निः । ऐ० ५ । २५ ॥ , अग्नौ हि सर्वाभ्यो देवताभ्यो जुह्वति श० १।६।२।८॥ , अग्निर्देवानां जठरम् । तै० ५। ७ । १२ । ३॥ ,, सर्व वाऽइदमग्नेरन्नम् । श० १०।१।४।१३ ॥ ,, अग्निर्वै सर्वमाद्यम् । तां० २५ । ९ । ३॥ ,, एष उ ह वाव देवानाम्महाशनतमो यदग्निः । जै० उ० २
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अग्निः ] आग्निः सर्वतो मुखोऽयमग्निः। यतो होव कुतश्चानावभ्यादधति तत
एव प्रदहति तेनैष सर्वतोमुखस्तेनान्नादः । श० २ । ६ ।
,, अग्निरन्नादोऽनपतिः । तै० २।५।७।३॥
अन्नादो वा एषोऽन्नपतिर्यदाग्निः । ऐ०१८॥ एष ( अग्निः ) हि वाजानां पतिः । ऐ० २ ॥ ५ ॥ अग्निा अन्नानां शमयिता । कौ०६।१४॥ अग्निः प्रजानां प्रजनयिता । तै० १।७।२।३॥ अग्निर्वै मिथुनस्य कर्ता प्रजनयिता। श०३।४।३।४ ॥ अग्निर्वै रेतोधा। तै० २।१ । २ । ११ ॥३।७।३।७॥ प्रजननं वा अग्निः । तै० १।३।१।४॥
इयं (पृथिवी) ह्यग्निः । श०६।१।२।१४॥६।१।१।२६॥ ,, इयं ( पृथिवी) वाऽअग्निः । श०७।३।१ । २२॥ ,, अयं वै (पृथिवी-) लोकोऽग्निः । श० १४।९।१।१४ ॥ ,, अयं वा अग्निलोकः । श०१।९।२।१३॥
संवत्सर एषोऽग्निः। श०६।७।१।१८॥ ,. संवत्सरोऽग्निः । श०६।३।१।२५ ॥
संवत्सर एवाग्निः। श० १०।४।५।२॥ __ अग्निमें वाचि श्रितः । तै०३।१०। ८।४॥ वागेवाग्निः। श०३।२।२।१३॥ सा या सा वागासीत्सोऽग्निरभवत् । जै० उ० ३।२।१॥
अग्नेस्तेजसेन्द्रस्येन्द्रियेण सूर्यस्य वर्चसा तां०१।३।५॥ , तेजो वाऽअग्निः । श० २।५।४।८॥३।९।१। १९॥
तै०३।९।५।२॥
अग्निर्वै ज्योती रक्षोहा । श०७।४।१ । ३४ ॥ , ते ( देवाः) ऽविदुः। अयं ( अग्निः) चै नो विरक्षस्तमः।
श०३।४।३।८॥ , अग्निर्हि रक्षसामपहन्ता । श० १।२।१ । ६,९॥१।२।
२।१३।। , अग्निर्वै रक्षसामपहन्ता । कौ० ८।४ ॥ १० ॥ ३ ॥
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[ अग्निः अग्निः अग्निरु सर्वेषां पाप्मनामपहन्ता । श० ७ । ३।२।१६ ॥ , अग्निवै पाप्मनोऽपहन्ता। श०२।३।३।१३॥ , तपो वाऽअग्निः । श० ३।४।३।२॥ ,, तपो मे तेजो मेऽनम्मे वाङ्मे । तन्मे त्वयि ( अग्नौ)। जै०
उ०३ । २० । १६ ॥ ,, अग्निरेवैनं गार्हपत्येनावति । तै० १ । ७।६।६॥
अग्निरेवैनं गृहपतीनां सुवते । तै०१।७।४।१॥ __ अग्निर्वै देवानां व्रतपतिः। श० १ । १।१।२॥३।२।
२।२२॥
अग्नि देवानां यष्टा । ३।३।७।६॥ , अग्नि देवानां होता। ऐ०१।२८ ॥३।१४॥ , अग्निर्होता पश्चहोतृणाम् । तै०३।१२।।।२॥ , तस्य ( यशस्य ) अग्निहोताऽऽसीत् । गो० पू० १ । १३ ॥ , उभयं वाऽएतदग्निर्देवाना होता च दूतश्च । श० १।४।
५।४॥ , स (अग्निः ) हि देवानां दूत आसीत् । श० १।४।१।३४॥ ,, अग्निरेव देवानां दूत आस । श० ३।५।१।२१ ॥
अथ योऽग्निर्मृत्युस्सः। जै० उ०१।२५। ८॥ सो (अग्निः = मृत्युः ) ऽपामन्नम् ॥ श० १४ । ६ । २। १०॥
पुरुषोऽग्निः । श. १०।४।१।६॥ , पुरुषो वाऽग्निः । श० १४।९।१ । १५॥
योषा वा ऽअग्निः । श०१४।९।१।१६ ॥
योषा वाऽआपो वृषाग्निः । श०१।१।१ । १८ ॥ .. योषा वाऽआपः । वृषाग्निः । श० २।१।१।४॥
योषा वै वेदिवृषाग्निः । श०१।२।२।१५ ॥ , अग्निरु सर्वे कामाः । श०१० । २।४।१॥
मन एवाग्निः । श०१०।१।२।३॥ प्राणो वा अग्निः । श०९।।१।६८॥
वीर्य वा अग्निः । तै० १।७।२।२॥ गो० उ०६ । ७॥ ,, गायत्रछन्दाग्निः । तां०७।८।४॥
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।
अग्निः ] अग्निः गायत्रछन्दा अग्निः । तां०१६ । ५। १९ ॥ , अग्निवै गायत्री । श०३।४।१।१९ ॥ , गायत्री वा अग्निः । श०१।८।२।१३। , यो वा अत्राग्निर्गायत्रीस निदानेन। श०१।८।२।१५॥ , यस्माद्वायत्रमुखः प्रथमः (त्रिरात्रः) तस्मादूवाऽग्निर्दीदाय।
तां०१०।५।२॥ , अग्निर्ह वाव राजन् गायत्रीमुखम् । जै० उ० ४।८।२॥ , एष उ ह वाव देवानां नेदिष्ठःमुपचयों यदग्निः । जै० उ०२।
१४ । १॥ ,, अग्नि देवानां नेदिष्ठः । श०१।६।२।११॥
अग्निब्रह्माग्निर्यशः । श० ३।२।२ । ७॥ .. अयं वाऽअग्निब्रह्म च क्षत्रं च । श०६।६।३ । १५॥
अग्निरेव ब्रह्म । श० १०।४।१। ५ ॥ , ब्रह्म वा अग्निः । कौ०९ । १,५॥ १२॥ ८॥ श.२।५।४।
८॥५। ३) ५ । ३२ ॥ तै० ३।९।१६। ३॥
ब्रह्माग्निः । श० १ । ३।३ । १९ ॥ , मुखातदग्नेर्यद् ब्रह्म । श०६।१।१।१०॥ ,, ब्रह्म वा आग्निः क्षत्रं सोमः । कौ० ९ । ५॥ ,, पर्जन्यो वाऽअग्निः । श० १४।९।१।१३॥
अग्निर्वा ऽअहः । श० ३।४।४।१५॥ ", अशिष्टो वग्निस्तस्मादाहाशीतमेति । श०१।९।२ । २० ॥ , दिशोऽग्निः । श०६।२।२।३४॥ .. अग्निई वै ब्रह्मणो वत्सः । जै० उ०२।१३।१॥
अग्नि स्वर्गस्य लोकस्याधिपतिः । ऐ०३ । ४२ ॥
अग्निर्देवतानां (सत्)। तां०४।८।१०॥ , आयुर्वाऽअग्निः । श० ६ । ७।३।७॥ विदेवग्निर्नभोनामाग्ने ऽअङ्गिर आयुना नाम्नेहीति । श०
३।५।१ । ३२॥ , अग्निर्वाऽआयुष्मानायुष ईष्टे । श० १३ । ८।४।८॥
अग्निमतिथि जमानाम् । तै०२।४।३।६॥
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[अग्निः अग्निः सर्वेषां वा एष (अग्निः) भूतानामतिथिः । श०६। ७।
३।११॥ , अग्निर्वै पथोऽतिवोढा । श० १३ । ८।४।६॥ , अग्निर्वाव पवित्रम् । तै०३।३।७।१०॥
अग्निवै देवतानामनीकम् । श०५।३।१।१।। अग्नि देवानां गोपाः । ऐ०१ । २८॥ अग्निर्वसुभिरुदक्रामत् । ऐ. १ । २४॥
त्रिवृदग्निः । श०६।३।१। २५ ॥ ,, त्रिवृद्धा अग्निरङ्गारा अर्चिधूम इाते । कौ० २८॥ ५॥ ,, द्यौर्वा अस्य (अग्नेः) परमं जन्म । श०९।२।३। ३९ ॥ , अग्निर्वै दाता । श०५।२।५।२॥
अग्निरमाद्यस्य प्रदाता । तां० १७ ।९।२॥ स्वाहाग्नये कव्यवाहनाय । मं० २।३।२॥ , अग्नि हिमस्य भेषजम् । तै०३।९।५।४॥ . अग्निर्वा अश्वमेधस्य योनिरायतनम्। तै०३९।२१।२,३॥
आग्नेयो वा अजः । गो० उ०३ । १९॥ , (प्रजापतिः) आग्नेयम (आलिप्सत)। श०६।२।११५॥
आग्नेयो वा ऽअनड्वान् । श०७।३।२।१६।१३।।४।६॥ , (हेऽग्ने ) चित्रोऽसीति सर्वणि हि चित्राण्याग्निः। श०
६।१।३।२०॥ , अग्ने महां आसि ब्राह्मण भारत। कौ० ३ । २ ॥ श०१।४।
२।२॥ तै०३।५।३।१॥ , आदित्यो वाऽअस्य (अग्नेः ) दिवि वर्चः । श०७।१।१।
२३ ॥ ( यजुः० ११ । ३१) असौ वाऽआदित्य एषोऽग्निः । श० ६ । ४।१।१॥ ६।४।३।९,१०॥
अग्निर्ह वा अबन्धुः । जै० उ०३।६।७॥ __ अग्नि देवानामद्धातमाम् । श०१।६।२।९॥ , एषा ह वास्य (अग्नेः) सहस्रं भरता यदेनं एक सन्तं __ बहुधा विहरन्ति । ऐ० १ । २८ ।। , एष वै देवाननुविद्वान्यदग्निः (अग्ने नय० यजुः०४०।१६)
श०१।५।१।६।।
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अग्निः ]
अग्निः अग्नेव एषा तनूः । यदोषधयः । तै० ३।२।५।७॥ अमृतो ह्यग्निस्तस्मादाहादन्धायविति । श० १ । ९ । २ । २० ॥ इमे वै लोका एषोऽग्निः । श० ६ । ७ । १ । १६ ॥ ७ । ३ । १ । १३ ।।
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आग्नेयं क्रतुमन्वाह तदिमं (भू-) लोकमाप्नोति । कौ० ११ ।
२ ।। १८ । २ ॥
अग्ने पृथिवीपते । तै० ३ । ११ । ४ । १ ॥
अयं वाव लोकोऽग्निश्चितः । श० १० । १ । २ । २ ॥ अग्निरासे पृथिव्याथं श्रितः । अन्तरिक्षस्य प्रतिष्ठा । तै० ३ । ११ । १ । ७ ॥
युनज्मि ते पृथिवीमग्निना सह । तां० १ । २ । १ ॥ अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निरिति तदिमं (भू) लोकं लोकानामाप्रोति प्रातःसवनं यज्ञस्य । कौ० १४ । १ ॥
अग्नेर्वै प्रातः सवनम् । कौ० १२ | ६ || १४ | ५ || २८ | ५ || ददा इति ह वा अयमग्निदप्यते । जै० उ० ३ । ६ । २ ॥ दीदावाग्निर्वैश्वानरः । तां १३ | ११ | २३ ॥
1
I
तं (अग्नि) नैव हस्ताभ्यां स्पृशेन्न पादाभ्यां न दण्डेन । जै० उ० २ । १४ । ३ ॥
स (अग्निः ) एताः ( पवमान पावकशुच्याख्याः) तिस्रः (आमीय(ः) तनूरेषु लोकेषु (= पृथिव्यन्तरिक्षयलोकेषु यथाक्रमं ) वित्यधत्त । श० २ । २ । १ । १४ ॥
अग्निर्देवेभ्यो निलायत । आखूरूपं कृत्वा स पृथिवीं प्राविशत् । तै० १ । १ । ३ । ३॥
अग्निर्देवेभ्यो निलायत । अश्वो रूपं कृत्वा सोऽश्वत्थे संवत्सरमतिष्ठत् । तै० १ । १ । ३ ।९ ॥
अग्निर्वा अर्वा । तै० १ । ३ । ६ ।
रोहितो हाग्नेरश्वः । श० ६ | ६ | ३ | ४॥
1811
तदेभ्यः ( देवेभ्योऽग्निः ) स्विष्टमकरोत्तस्मात् (अग्नये ) स्विटकृत इति ( क्रियते ) । श १ | ७ | ३|९॥
आहुतयो वाऽअस्य (अग्नेः ) प्रियं धाम । श० २ | ३ | ४ | २४ ॥
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[अग्निर्नाचिकेतः (१० ) अमिः अग्नेः पूर्बाहुतिः। तै० २।१।७।१॥ ,, त्रयोदशाग्नेश्चिातपुरीषाणि । श०९।३।३।९॥ , यद्वै शुष्क यज्ञस्य तदाग्नेयम् । श०३।२।३।९ ।। ,, मरुतोऽद्भिरग्निमतमयन् । तस्य तान्तस्य हृदयमाच्छिन्दन
साऽशनिरभवत् । तै०१।१।३।१२ ॥ ,, . तस्मादग्नये सायॐ हूयते सूर्याय प्रातः । ते० ३ । १ ।
२।६॥ । पञ्चचितिकोऽग्निः । श०६।३।१।२५।८।६।३।१२॥ , सप्तचितिकोऽग्निःश०६।६।१।१४।९।१।१।२६॥
आग्नेय एककपालः (पुरोडाशः)। तां० २१ । १०।२३ ॥ , आग्नेयोऽष्टकपालः पुरोडाशो भवति । श०२।५।१।८॥ , तस्मादनूचानमाहुराग्निकल्प इति । २०६।१।१।१० ॥ " स यद्वश्वदेवेन यजते । अग्निरेव तहिं भवत्यग्नेरेव सायुज्य
सलोकतां जयति । २०२।६।४।८॥ अग्निः कामः अग्नि कामो देवानामीश्वरः । कौ० १९ । २ ॥ अग्निः पवमानः पशवो वा अग्निः पवमानः । तै०१।१।६।२॥ अग्निः पावकः आपो वा अग्निः पावकः । ते० १।१।६।२॥ अग्निः शुचिः असो वा आदित्योऽग्निः शुचिः । तै० १ । १।६।२॥ अग्निः सुपमिद् वायुर्वा अग्निः सुषमिद्वायुर्हि स्वयमात्मानं समिन्धे
स्वयमिदं सर्व यदिदं किञ्च । ऐ०२ । ३४ ॥ अग्निः स्विष्टकृत् रुद्रोऽग्निः स्विष्टकृत् । तै० ३ । ९ । ११ । ३, ४॥ अग्निचित्या सर्व वा अग्निचित्या । कौ० १९ । ५, ७॥ भनिरनीकवान् असौ वा आदित्योऽग्निरनीकवान् । तै०१।६।
भग्निरपनगृहः इयं (पृथिवी) वा अग्निरपन्नगृहः । तै०३।३।
९।८। अग्नि चिकेतः संवत्सरो वा अग्निर्नाचिकेतः । तै० ३ । ११ । १०
। २, ४॥ हिरण्यं वा अग्नेनाचिकेतस्यायतनं प्रतिष्ठा । तै०३ । ११ । ७।३॥
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अग्निष्टोमः] अग्निर्नाचिकेतः हिरण्यं वा अग्ने चिकेतस्य शरीरम् । तै० ३।
११ । ७।३॥ अयं वाव यः ( वायुः ) पवते । सोऽग्निर्नाचिकेतः।
तै०३ । ११ । ७।१॥ अग्निवैश्वानरः संवत्सरोऽग्निर्वैश्वानरः । ऐ०३।४१ ॥
( यजुः १४ । ७) संवत्सरो वाऽअग्निर्वैश्वानरः । श. ६।६।१।२० ॥ ८।२।२।८॥ इयं वै पृथिव्यग्निर्वैश्वानरः । श० ३।८।५।४॥ इयं ( पृथिवी ) वा अग्निर्वैश्वानरः । तै०३। ८।६। २॥३।९।१७।३॥ एष वा अग्निर्वैश्वानरः। यद् ब्राह्मणः। तै०२।१।४।५॥ तद् ( हिरण्यं ) आत्मन्नेव हृद्ययेग्नौ वैश्वानरे (= "जाठराग्नौ” इति सायणः) प्रास्यात् । तै०३।११।
८॥७॥ अग्निष्टुत् ज्योतिष्टोमेनाग्निष्टुता यज्ञविभ्रष्टो यजेत । तां०१७।८।१॥
योऽपूत इव स्यादग्निष्टुता यजेताग्निनैवास्य पाप्मानमपहत्य त्रिवृता तेजो ब्रह्मवर्चसं दधाति । तां०१७।५।३॥ सप्तदशेनाग्निष्टुतानाधकामो यजेत । तां०१७।९।१॥ तेन ( अग्निष्टुता ) एनं ( इन्द्रं) अयाजयत्तेनास्य (इन्द्रस्य) अश्लीलां (= पापां) वाचमपाहन् । तां० १७ ।
अग्निष्टोमः सवाएषोग्निरेव यदग्निष्टोमस्तयदस्तुवंस्तस्मादग्निस्तो
मस्तमग्निस्तोमं संतमग्निष्टोममित्याचक्षते। ऐ.३।४३ ॥ अग्निरग्निष्टोमः । ऐ०३ । ४१ ॥ अग्निर्वाऽअग्निष्टोमः । श०३।९।३।३२॥ यो वा एष ( सूर्यः)तपत्येषोऽग्निष्टोम एष साह्नः । ऐ० ३।४४॥ यो ह वा एष (सूर्यः) तपत्येषोऽग्निष्टोम एष साह्नः । गो० उ०४।१०॥ कनीनिके अग्निष्टोमौ । तां० १० । ४।२॥ ब्रह्म वा अग्निष्टोमः । कौ० २१ ॥ ५ ॥
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[ अग्निष्ठा
( १२ ) अग्निष्टोमः ब्रह्मवर्चसं वा अग्निष्टोमः । तै० २।७।१।१॥
आत्मा वा अग्निष्टोमः । तां० १९ । । । ११ ॥ वीर्य वा अग्निष्टोमः । तां०४।५। २१ ॥ प्रतिष्ठा वा अग्निष्टोमः । कौ० २५ । १४ ॥ त्रिवृदग्निष्टोमः । ष०३।९॥ पुरुषसंमितो वाऽअग्निष्ठोमः । श०३।९।३।३२॥ ज्योतिर्वा अग्निष्टोमः । कौ० २५ । ९॥ ज्योतिवी एषोऽग्निष्टोमो ज्योतिष्मन्तं पुण्यं लोकञ्जयति य एवं विद्वानेतेन यजते । तां० १९ । ११ । ११ ॥ एषा वाव यज्ञस्य मात्रा यदग्निष्टोमः । तां० २०।११।८॥ स वा एष संवत्सर एव यदग्निष्टोमश्चतुर्विशत्यर्धमासो वै संवत्सरश्चतुर्विंशतिरग्निष्टोमस्य स्तुतशस्त्राणि, तं यथा समुद्रं स्रोत्या एवं सर्वे यशक्रतवोऽपियति ।
अग्निष्टोमो वै संवत्सरः। ऐ०४।१२।। द्वादशाग्निष्टोमस्य स्तोत्राणि । तै० १।२।२।१॥ तां०४।२।१२॥ ज्येष्ठयज्ञो वा एष यदग्निष्टोमः । तां० ६ । ३ । ८ ॥ एष वाव यज्ञः ( = "मुख्यो यज्ञः" इति सायणः ) यदग्निप्टोमः, एकस्मा अन्यो यज्ञः कामायाहियते सर्वेभ्योऽग्निटोमः । तां०६।३।१-२॥ अग्निष्टोमो वै यज्ञानां मुखम् ॥ कौ० १९ । ८॥ यज्ञमुखं वा अग्निष्टोमः । तै० १ । ८।७।१॥ तां. १८।८।१॥ अग्निष्टोमेन वै देवा इमं लोकं ( भूलोकं) अभ्यजयन् । तां० ९।२।९॥२०।१।३॥ इममेव लोक पशुबन्धेनाभिजयति । अथो अग्निष्टोमेन । तै०३।११। ५। ६॥
एष वै यज्ञः स्वग्र्यो यदग्निष्टोमः । तां०४।२।११ ॥ अग्निष्ठा यजमानो वाऽअग्निष्ठा । श०३।७।१ । १३ ॥
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( १३ )
अग्निहोत्रम्] अग्निहोत्रम् ( गौः) अग्नेर्हतादजनीति । तदग्निहोत्रस्याग्निहोत्र
त्वम् । तै० २।१।६।३॥
मुखं वाऽएतयशानां यदग्निहोत्रम् । श०१४।३।१।२९ ॥ , एतद्वै जरामर्य सत्त्रं यदग्निहोत्रं जरया वा धेवा
स्मान्मुच्यन्ते मृत्युना वा। श० १२। ४।१।१॥ तस्मादपत्नीकोऽप्यग्निहोत्रमाहरेत् । ऐ०७।९॥ . सायंप्रातहग्निहोत्राहुती जुह्वति । श० १०।१ । ५ ॥२॥ ( अग्निहोत्रं ) पय एवेति ॥ यत्पयो न स्यात् । केन जुहुया इति व्रीहियवाभ्यामिति यव्रीहियवौ न स्यातां केन जुहुया इति या अन्या ओषधय इति यदन्या ओषधयो न स्युः केन जुहुया इति या आरण्या ओषधय इति यदारण्या ओषधयो न स्युः केन जुहुया इति वानस्पत्येनेति यद्वानस्पत्यं न स्यात्केन जुहुया इत्यद्भिरिति यदापो न स्युः केन जुहुया इति ॥ स होवाच । न वाऽइह तर्हि किं चनासीदथैतदह्यतैव सत्यॐ श्रद्धायामिति । श०
११ । ३।१।२-४॥ , दुग्धेन सायं प्रातरग्निहोत्रं जुहुयात् । कौ ४॥ १४॥
यवाग्वैव सायंप्रातरग्निहोत्रं जुहुयात् । कौ०४।१४॥ वत्सो वा अग्निहोत्रस्य प्रायणम् । अग्निहोत्रं यज्ञा
नाम् । तै०२।१।५ । १॥ , असस्थितो वा एष यक्षः । यदग्निहोत्रम् । तै० २।
१।४।९॥ गौर्वा अग्निहोत्रम् । तै०२।१।६।३॥ सर्वाभ्यो वा एषं देवताभ्यो जुहोति योऽग्निहोत्रं जुहोति । तै०२।१।८।३॥ किन्देवत्यमग्निहोत्रमिति । वैश्वदेवमिति व्रयात् । तै०२।
१।४।६॥ , प्राजापत्यमग्निहोत्रम् । श० १२।४।२।१॥
सूर्यो ह वाऽअग्निहोत्रम् । श० २।३।१।१॥ प्राण एवाग्निहोत्रम् । श० ११ । ३।१।८॥
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...
नाह
[ अग्नीषोमो ( १४ ) अग्निहोत्रम् रेतो वा एतद्वाजिनमाहिताग्नेः । यदग्निहोत्रम् । तै० ३ ।
७।३।६॥ ,, इयं (पृथिवी) एवाग्निहोत्रस्थाली । श० १२।४।१।११॥ , स यो हैवं विद्वानग्निहोत्रं च जुहोति दर्शपूर्णमासाभ्यां
च यजते मासि मासि हैवास्याश्वमेधेनेष्टं भवति । श० ११ । २।५ । ५॥ स्वयं वाऽ एतद्यदग्निहोत्रम् । श० १२ । ४।२।७॥ नार्ह वाऽएषा स्वर्या । यदग्निहोत्रं तस्याऽएतस्यै नावः स्वा या आहवनीयश्चैव गार्हपत्यश्च नौमण्डे ऽअथैष
एव नावाजो यत्क्षीरहोता । श० २।३।३।१५ ॥ अग्निहोत्री ( गौः ) वाघधा ऽएतस्याग्निहोत्रस्याग्निहोत्री। श०११।
३।१।१॥ द्यौर्वाऽएतस्याग्निहोत्रस्याग्निहोत्री । श० १२ । ४।१ । ११॥
इयं (पृथिवी) वा अग्निहोत्री । तै०१।४।३।१॥ अग्नीत् यशमुखं वा अग्नीत् । गो० उ०३।१८॥
,, अग्नीत्पत्नीषु रेतो धत्ते । गो० उ० ४।५ ॥ अग्नीषोमो प्राणापानावग्नीषोमौ । ऐ०१।८॥
चक्षुषी अग्नीषोमौ । ऐ० १।८॥ यच्छुक्लं तदाग्नेयं यत्कृष्णं तत्सौम्यं यदि वेतरथा यदेव कृष्णं तदाग्नेयं यच्छुक्लं तत्सौम्यं (रूपं) यदेव वीक्षते तदाग्नेय रूप शुष्क इव हि वीक्षमाणस्याक्षिणी भवतः शुष्कमिव ह्याग्नेयं यदेव स्वपिति तत्सौम्य रूपमा ऽश्व हि सुषुपुषो ऽक्षिणी भवत आर्द्र इव हि सोमः । श. १।६।३।४१॥।
द्वयं वा इदं न तृतीयमस्ति । आद्र चैध शुष्कं च यच्छ___ कं तदाग्नेयं यदा तत्सौम्यम् । श० १।६।३। २३॥ सूर्य एवाग्नेयः । चन्द्रमाः सौम्योऽ हरेवाग्नेय रात्रिः सौम्या य एवापूर्यते ऽर्द्धमासः स आग्नेयो योऽपक्षीयते स सौम्यः । श० १ । ६।३ । २४ ॥
,
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अङ्गिराः] अग्नीषोमौ अहोरात्रे या अग्नीषोमौ । कौ०१०।३॥ , अग्नीषोमीयमेकादशकपालं पुरोडाशं निर्वपति । श० ५।
२।३।७॥ अग्नीषोमाभ्यां वा इन्द्रो वृत्रमहन्निति। तै०१।६।१।६॥ अग्नीषोपौ वै देवानां मुखम् । गो० उ० १ । २०॥ तस्माद्यस्यै कस्यै च देवतायै इविनिर्वपन्ति तत्पुरस्ता
दाज्यभागावग्नीषोमाभ्यां यजन्ति । श०१।६।३।१९॥ , अथ यदग्नीषोमो प्रथमो देवतानां यजति दार्शणैर्णमा.
सिके वा एते देवते । कौ• ५। २ ॥ अग्रेगुवः (यजु. १ 1 १२) ताः (आपः) यत् समुद्रं गच्छन्ति तेनाग्रे
गुवः (उच्यन्ते) । श०१।१।३ । ७॥ अग्रेपुवः (यजु० १ । १२) ताः (आपः) यत् प्रथमः सोमस्य राज्ञो
भक्षयन्ति तेनाग्रेपुवः (उच्यन्ते) । श०१ ।
१।३।७॥ अङ्क छन्दः (यजु० १५। ५) आपो वाऽअङ्काङ्क छन्दः । श० ८।५।२।६ अकुपं छन्दः यजु०१५। ४)आपो वाऽअकुपं छन्दः। श०८।।२।४॥ अङ्गानि न वै सकृदेवाग्रे सर्वः संभवत्येकैकं वा अङ्गं संभवतः संभ
वतीति । ऐ०६।३१॥ न ह वै सकृदेवाने सर्व सम्भवति, एकैकं वा अङ्गं सम्भवतः
सम्भवति । गो० उ० ६ । ९॥ , अष्टावङ्गानि ।।०९।२।२।६॥ अङ्गिरसः येऽगारा आसंस्तेऽगिरसोऽभवन् । ऐ०३। ३४ ॥
अङ्गारेभ्योऽङ्गिरसः (समभवन् )। श०४।५।१।८॥ , येऽङ्गिरसः स रसः। गो० पू०३४॥
, तस्मादङ्गिरसोऽधीयान ऊर्ध्वस्तिष्ठति । गो० पू० १ । २ ॥ अङ्गिरसामनुक्रीः एतेन या अङ्गिरस आदित्यानाप्नुवन् । तां० १६ ।
१४।२॥ अङ्गिराः तंवरुणं मृत्युमभ्यश्राम्यदभ्यतपत्लमतपत्तस्य श्रान्तस्य तप्त
स्य संतप्तस्य सर्वेभ्योऽङ्गेभ्यो रसोऽक्षरत् सोऽङ्गरसोऽभवत्तं
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[अजः
वा एतमङ्गरसं सन्तमङ्गिरा इत्याचक्षते । परोक्षेण परोक्ष
प्रिया इव हि देवा भवान्त प्रत्यक्षद्विषः । गो० पू०१।७॥ आङ्गिराः (ऋ० ६ । १६ । ११) अङ्गिरा उ ह्यग्निः । श० १।४।१।
२५ ॥ (=अग्निः) अग्नि पुरीष्यमङ्गिरस्वदच्छेम इत्यग्निं पशव्य
मग्निवदच्छेम इत्येतत् । श०६।३।३।३॥ ,, (यजु०११ । ४५) अङ्गिरा वाऽअग्निः । श०६।४।४।४॥
प्राणो वा अङ्गिराः । श०६ । १।२।२८॥६।५।२।३,४॥ अच्छावाकः ऐन्द्राग्नोऽछावाकः। श०३।६।२ । १३॥
मिथुनं वा अच्छावाक ऐन्द्रानो ह्यच्छावाकः । श०४। ३।१।३॥ वीर्यवान्वा एष वचो यदच्छावाकः । गो० उ० ५ । १५ ॥ प्रतिष्ठा वा अच्छावाकः । कौ० ३० । ९॥ ऐन्द्रावैष्णवमच्छावाकस्योक्थं भवति । गो. उ०४। १४॥५॥ १०॥
रैवतमच्छावाकस्य । कौ० २५ । ११ ॥ , भरद्वाजादच्छावाकः (न प्रच्यवते)। गो० उ०३। २३ ।। अच्छिद्रम् (साम) यद्वा एतस्य (अष्टमस्य) अश्छिद्रमासीत्तद्देवा
अच्छिद्रेणाप्यौहस्तदछिद्रस्याछिद्रत्वम् । तां.
१४ । ९ । ३६ ॥ अच्छिद्रं पवित्रम् (यजु०१ । १२) यो वाऽअयं ( वायुः) पवत ऽएषो
ऽच्छिद्रं पवित्रम् । श०१।१।३।६॥ अलौ वा आदित्योऽच्छिद्रं पवित्रम् । तै० ३।२।
५। २॥ अच्युतः (=अग्निः ) ते (देवाः) यातूनभिह्वयमाना अथाग्निमायत
नान्नाच्यावयंस्तस्मादग्निरच्युतः।श०१।६।१।६॥ अज एकपात् तसूर्य देवमजमेकपादम् .. । तै० ३ । १ । २।८॥ मजः अथ यः कपाले रसो लिप्त आसीत्सो ऽजो ऽभवत् । श०६।
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( १७ ) अञ्जयो वाघतः ] अजः अथ यः स कपाले रसो लिप्त आसीदेष सो ऽजः। श० ६ ।
३।१ । २८॥ , तस्याक्षिभ्यामेव तेजोऽस्रवत् । सोऽजः पशुरभवधूम्रः। श०
१२।७।१।२॥ ". (प्रजापतिः) वाचोऽजम् (निरमिमीत)। श०७।।२।६॥ , वाग्वाऽअजः । श०७।४।२।२२ । ,, आग्नेयो वाऽअजः । श०६।४।४।२५॥ गो० उ०३ । १९ ॥ " ब्रह्म वा ऽअजः । श०६।४।४।१५॥ , ब्राह्मणं (अनु) अजः । श०६।४।४। १२ ॥ , अजोग्नीषोमीयः। तां०२२ । १४ । ११ । , एष एतेषां पशूनां प्रयुक्ततमो यदजः । ऐ०२॥ ८ ॥ , अजेहि सर्वेषां पशूना७रूपम् । श०६।५।१।४॥ अजर्षभः प्रजापतिर्वाऽएष यदजर्षभः । श०५।२।१।२४ ॥ अजस्त्रः ( यजुः १२ । १८) अग्निरजनः । श०६।७।४।३॥ अजा आजा ह वै नामैषा यदजैतया ह्येनं ( लोम) अन्तत आजति
तामेतत्परोऽक्षमजेत्याचक्षते । श०३।३ । ३ । ९॥ , प्रजापतेर्वे शोकादजा (6) समभवन् । श०६।५।४।१६ ॥ , यज्ञस्य शीर्षछिन्नस्य शुगुदक्रामत्ततोऽजा समभवत् । श०१४।
१।२ । १३ ।। , तपसी ह वाऽषा प्रजापतेः सम्भूता यदजा तस्मादाह तप
सस्तनूरसीति । श०३।३।। ३। ८ ॥
आग्नेयी वा एषा यदजा । ते० ३ । ७।३।१॥ , अजा ह स ओषधीरत्ति । श०६।५।४।१६॥ , सा (अजा) यत् त्रिः संवत्सरस्य विजायते तेन परमः पशः
श०३।३।३।८॥ अजावयः तस्मादेताः ( अजावयः) त्रिः संवत्सरस्य विजायमाना
द्वौ त्रीनिति जनयन्ति । श०४।५।५।६॥ भञ्जयो वाघतः ( यजुः ११ । ४२) रश्मयो वाऽएतस्य ( आदित्यस्य)
अञ्जयो वाघतः। श०६।४।३।१०॥ , छंदांसि या अंजयो वाघतस्तैरेतहेवान् यजमाना
विड्यंते मम यज्ञमागच्छत मम यज्ञामिति । ऐ०२।२॥
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[ अतिथिः अञ्जलिः दश वाऽअञ्जलेरंगुलयः। श०९।१।१।३९॥
,, तस्मादु हैतद् भीतोऽञ्जलिं करोति । श०९।१।१।३९॥ अञ्जस्कीयाः एतेन वै नमी साप्यो वैदेहो राजाअसा स्वर्ग लोकमैद
असागामति तदञ्जस्कीयानामञ्जस्कीयत्वम् । तां० २५ ।
अतिग्रहाः अष्टावतिग्रहाः (अपानः, रसः, नाम, रूपम् , शब्दः, कामः
कर्म, स्पर्शः)। श० १४।६।२।१॥ अतिग्राह्याः ( ग्रहाः ) ते (अग्नीन्द्रसूर्याः) एतानतिग्राह्यान्दहशु
स्तानत्यगृहत तद्यदेनानत्यगृहत तस्मादतिग्राह्या नाम । श०४।५।४।२॥ ( ग्रहाः ) देवा वै यदन्यै ग्रहैर्यज्ञस्य नावारुन्धत तदति. ग्रारितिगृह्यायारुन्धत । तदतिग्राहाणामतिग्राह्यत्वम् ।
तै०१।३।३।१॥ अतिच्छन्दः उदरमतिच्छन्दाः पशवो वै छन्दास्यन्नं पशव उदरं
वाऽअन्नमत्युदरहि वाऽअन्नमत्ति तस्मादोदरमन्नं प्राप्नोत्यथ तज्जग्धं यातयामरूपं भवति तद्यदेषा पशू
छन्दास्यत्ति तस्मादतिच्छन्दा अत्तिच्छन्दः ह वै तामतिच्छन्दा इत्याचक्षते परोऽक्षम् । श० ८।६। २। १३॥ ( ऋक् ) अति वा एषा (ऋक् ) अन्यानि उन्दासि यदतिछन्दाः । तां. ५ । । ११ ॥ छन्दसां वै यो रसोऽत्यक्षरत्सोऽतिछंदसमभ्यत्यक्षरत्तदतिछंदसोऽतिछंदस्त्वम् । ऐ०४।३॥ अतिच्छन्दो वै छन्दसामायतनम् । गो० पू० ५।४॥ वर्म वा एषा छन्दसायद तिच्छन्दाः। तै०१।७।९।६॥ एषा वै सर्वाणि छन्दासि यदतिच्छन्दाः। श.३। ३।२।२२ ॥ ४।४। । ७॥ अतिच्छन्दावै सर्वाणि छन्दासि । तै०१।७।९।६॥
इमे वै लोका अतिछन्दाः । तां०४।९।२॥ अतिथिः यथा राज्ञे वा ब्राह्मणाय वा महाक्ष वा महाजं वा पचेत् ।
(पश्यत-धसिष्ठधर्मसूत्रम् ४।८॥ याज्ञवल्क्य स्मृ०१। १०९) श०३।४।१।२॥
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अत्यायुपात्रम् ] भतिथिः अतिथिदुरोणसत् । श०५।४।३।२२ । भतिथिदुरोणसत् एष (सूर्यः) वा अतिथिर्दुरोण सत् । ऐ०४।२०॥ भतिपुरुषः य आदित्ये सोऽतिपुरुषः । जै० उ० १ । २७ । २ ॥ अतिमानः तस्मानातिमन्येत पराभवस्य हैतन्मुखं यदतिमानः। श०
५।१।१।१॥११ । १।८।१॥ अतिरानः भूतं पूर्वोऽतिरालो भविष्य दुत्तरः पृथिवी पूर्वोऽतिरात्रो
द्यौरुत्तरोऽग्निः पूर्वोऽतिरात्र आदित्य उत्तरः प्राणः पूर्वो
ऽतिरात्र उदान उत्तरः । तां० १०।४।१॥ ,, चक्षुषी अतिरात्रौ । तां०१०।४।२॥
( यज्ञः) संवत्सरस्य वा एतौ दंष्ट्रौ यदतिरात्रौ तयोर्न स्वप्तव्यं संवत्सरस्थ दंष्टयोरात्मानन्दपिदधानीति । तां० १०।४।३॥
प्रतिष्ठा वाऽअतिरात्रः । श०५। ५ । ३।५॥ ,, स्वरतिरात्रेण (अभिजयति) तै०३ । १२ । ५। ७॥
,, (देवाः) अतिरानेणामुं(धुलोकमभ्यजयन् ) तां०९।२॥ ९॥ अतिवादः श्रीर्वा अतिवादः । गो० उ०६।१३॥
, अतिवादेन वैदेवा असुरानत्युद्याथैनानत्यायन् ।ऐ०६॥३३॥ भतूर्ती होता अयं वा अग्निरतूर्तो होते ह न कश्चन तिर्यचं तरति ।
ऐ०२। ३४॥ .. न घेत (अग्निं ) रक्षासि तरन्ति तस्मादाहातों
होतेति । श०।१।४।२।१२॥ 'भत्ता स वै यः सोऽत्ताग्निरेव सः । श. १०।६।२।२॥
प्राणो वा अत्ता तस्यान्नमेवाहितयः। श०१०।६।२।४॥ वास्यः (हे ऽश्व त्वं ) अत्योति । तां० १।७।१॥
(यजुः २२ । १९) तस्मादश्वः पशूनत्येति तस्मादश्वः पशूनां
श्रेष्टयं गच्छति । श०१३।१।६।१॥ E, (= अश्वः) अत्योऽसीत्याह । तस्मादश्वः सर्वान् पशूनत्येति
तस्मादश्वः सर्वेषां पशूना श्रेष्ठयं गच्छति।०३।८।९।१॥ उपायुपात्रम् यदाहात्यायुपात्रमित्यति ह्येतदन्यानि पात्राणि यत्
द्रोणकलशो देवपात्रं द्रोणकलशः । तां० ६।५।७॥
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[ अदाभ्यः
( २० )
अतिः तद्वैतद्देवाः । रेतः ( वाचः सकाशात्पतितं गर्भ) चर्मन्वा यस्मिन्वा बभ्रुस्तद्ध स्म पृच्छन्त्यलेव त्या ३ दिति ततोऽत्रिः सम्बभूव श० १ । ४ । ५ । १३ ।। वागेवात्रिर्वांचा हान्नमद्यतेऽत्तिर्ह वै नामैतद्यदत्रिरिति । श० १४ । ५ । २।२॥
अत्रिणः अत्रिणो वै रक्षार्थसि । प० ३ । १ ॥ पाप्मानोऽत्रिणः । ष० ३ | १ ॥
रक्षांसि वै पाप्मत्रिणः । ऐ० २ । २ ॥
अथनिधनम् ( साम ) ( देवाः ) ब्रह्मवर्श्वसमथनिधनेनावारुन्धत । तां● १० । १२ । ३ ॥
अथर्ववेदः तानथर्वण ऋषीनाथर्वणांश्चार्षेयानभ्यश्राम्यदभ्यतपत् समतपत् तेभ्यः श्रान्तेभ्यस्तप्तेभ्यः सन्तप्तेभ्यो यान् मन्त्रानपश्यत् स आथर्वणो वेदोऽभवत् । गो० पू० १ । ५ ॥ शन्नो देवीरभिष्टय इत्येवमादिं कृत्वा अथर्ववेदमधीयते । गो० पू० १ । २९ ॥
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अथर्वणां चन्द्रमा देवतं तदेव ज्योतिः सर्वाणि छन्दांस्यापः स्थानम् । गो० पू० १ । २९ ॥ येऽथर्वाणस्तद्वेषजम् । गो० पू० ३ । ४ ॥
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अथर्वणामङ्गिरसां प्रतीची ( दिक् ) । तै०३ । १२ । ९ । १ ॥ अथर्वा तद्यद्व्रवीदथावङेनमेतास्वेवाप्स्वन्विच्छेति तदथर्वाऽभवत् तदथर्वणोऽथर्वत्वम् । गो० पू० १ । ४ ॥
(यजुः ११ । ३२) - प्राणो वाऽअथर्वा । श० ६ । ४ । २ । १ ॥ प्राणोऽथर्वा । श० ६ । ४ । २ । २ ॥
अथर्वाङ्गिरसः अथर्वणामेकं पर्वव्याचक्षाण इवानुद्रवेत् । श० १३ ।
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95
23
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33
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४।३।७ ॥
अङ्गिरसामेकं पर्वव्याचक्षाण इवानुद्रवेत् । श० १३ | ४१३।८॥
मेद आहुतयो ह वाऽपता देवानाम् । यदथर्वाङ्गिरसः । श० ११ | ५ | ६।७॥
अदाभ्यः ( ग्रहः ) ते ( देवाः) ऊचुः । अभाम वाडएनान् (असुरान् ) इति तस्माददाभ्यो न वै ( असुराः) नोऽदभन्निति तस्माददाभ्यो वाग्वाऽअदाभ्यः । श० ११ । ५ । ९ । ५ ॥
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( २१ ) अधिदेवनम् ] अदारमृत् (साम) दिवोदासं वै भरद्वाजपुरोहितन्नाना जनाः पर्य्ययत
न्त स उपासीददृषे गातुम्मे विन्देति तस्माएतेन साना गातुमविन्दगातुविद्वाएतत्सामानेन दारे नासृन्मति तददारसृतोऽदारसृत्वं विन्दते गातुन्न दारे धावत्यदारसृता तुष्टुवानः तां० १५। ३।७॥
भरद्वाजस्यादारसृद्भवति । तां० १५ । ३ । ६॥ अदितिः सर्व वाऽअत्तीति तददितेरदितित्वम् । श०१०। ६ । ५।५॥ , (यजुः १३ । १८) इयं (पृथिवी ) वाऽअदितिरिय हीद
सर्व ददते । श० ७ । ४ । २।७॥ ,, इयं (पृथिवी ) वा अदितिः। कौ० ७।६॥ तै० १।१।
६।५॥ गो० उ० १ । २५ ॥ , इयं (पृथिवी ) चै देव्यदितिः । तै० १ । ४ । ३ । १ ॥ , इयं (पृथिवी) ह्यदितिः । ऐ० १॥ ८॥ ,, इय (पृथिवी ) ह्येवादितिः । श०३।२।३।६॥
इयं वै पृथिव्यदितिः । श० १।१।४।५ ॥ २।२।१। १९ ॥३।३।१।४॥ इयं वै पृथिव्यदितिः सेयं देवानां पत्नी । श०५।३। १।४॥ ( यजुः ३८ । २) अदितिहि गौः । श०१४।२।१।७॥ अदितिर्हि गौः। श०२।३।४।३४ ॥ मा गामनागामदितिं वधिष्ट । मं० २।८।१५ ॥ वाग्वाऽअदितिः। श०६।५।२।२० ॥
अदितिरस्यु पयशीष्र्णी (वाक्) इति । श०३।२।४।१६॥ , आदित्या ( आदितेरुत्पन्नाः) वा इमाः प्रजाः । तां०१३ ।
९।५॥ १८ । ८ । १२॥ अद्रिः ( यजुः १३ । ४२) गिरिर्वाऽअद्रिः । श० ७।५।२।१८॥ अद्रिमाः एष (सूर्यः) वा अद्रिजाः। ऐ०४।२०॥ अधरौष्ठः अयं वै (भू.) लोकोऽधरौष्ठः । कौ ३।७॥ अधिदेवनम् अधिदेवनं वाऽअग्निस्तस्यैतेऽअङ्गारा यदक्षाः । श०५ ।
३।१।१०॥
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[ अनड्वान्
( २२ ) अधिपतिः (यजुः १४ । ९)प्रजापतिर्वाऽअधिपतिः।श०८।२।३।१२॥ अध्य॰डम् ( साम) (देवाः) प्रतिष्ठाध्यद्धेडन व्यजयन्त । तां०
१०। १२ । ४॥ अध्यर्धः (वायुः) यदयमेक एव पवतेऽथ कथमध्य इति यदस्मिन्निद
सर्वमध्यात्तिनाध्य इति। श. १४।६।२।१०॥ अध्रिगुः आध्रिगुर्वै देवानां शमिता । ऐ० २। ७॥ अध्वरः देघान्ह वै यज्ञेन यजमानान्त्सपत्ना असुरा दुधूर्षाञ्चकः
1 = हिंसितुमिच्छां कृतवन्तः) ते दुधूर्पन्त एव न शेकुधूषितुं
ते परा बभूवुस्तस्माद्यशोऽध्वरो नाम । श०१।४।१ । ४०॥ ,, (ऋ०३। २७ । ४॥) अध्वरो व यज्ञः । श०१।४।१ ।
३८,३९॥ ,, अध्वरो चै यज्ञः। श०१।२।४।५॥१।४।५।३।
२।३।४।१०॥३।५।३।१७॥३।९।२।११ ॥ , प्राणोऽध्वरः । श०७।३।१। ५॥
, रसोऽध्वरः । श०७।३।१।६॥ अध्वर्युः पूर्वार्धा वै यज्ञस्याध्वर्युर्जघनार्धः पत्नी। श०१।९।२।३॥ ,, प्रतिष्ठा वा एषा यज्ञस्य यदध्वर्युः। ते० ३।३।८।१०॥ __ वायुर्वा अध्वर्युरधिदैवं प्राणोऽध्यात्मम् । गो० पू० ४।॥
वह्निरध्वर्युः । तै०१ । १।६।१० ॥ ,, मनोऽध्वर्युः । श०१।५।१।२१ ॥
मनो वाऽअध्वर्युः । श० १२ । १।१।५॥ चक्षुरध्वर्युः । कौ०१७ । ७॥ राज्यं वा अध्वर्युः । तै०३।८।५।१॥
प्राणोदानौ वाऽअध्व! । श०५ । ५ । १ । ११ ॥ अनः भूमा वा अनः । श०१।१ ।२।६॥
यज्ञो वाऽअनः । श०१।१ । २ । ७॥३।९।३।३॥ अनड्वान् अग्निरेष यदनवान् । श० ७।३।२।१॥ , आग्नेयो वाऽअनड्वान् । श०७।३।२।१६ ॥ १३ ।
८।४।६॥ , वह्निर्वा अनड्वान् । तै०१ । १ । ६।१०॥ १।८।२।५॥
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( २३ )
अनीकम्] अनदा पुरुषः कोऽनद्धा पुरुष इति न देवान्न पितृन्न मनुष्यानिति ।
ऐ० ७॥९॥ एष ह वाऽ अनद्धापुरुषो यो न देवानवति न पितृन्न
मनुष्यान् । श०६।३।१। २४॥ अनी अनी प्रेहीति । असपत्नेन प्रेहीत्येवैतदाह । श०३।।२३॥ अनश्नन्सांगमनः अथ य एष सभायामग्निः । एष एवानश्नन्सांगम
नस्तद्यदेतमनशित्वेवोपसंगच्छंते तस्मादेषोऽनश्नन् ।
श० २।३।२।३॥ अनात्मा अनात्मा हि मर्त्यः । श०२।२।२।८॥ अनादृष्टं छन्दः (यजुः १४ ।९) विराड्वाऽअनाधृष्टं छन्दः । श०८।
२।४।४॥ अनादृष्टा (प्रजापतेस्तनूविशेषः) अयं वा अग्निरनाधृष्टः । कौ० २७॥५॥ अनाधृष्या (प्रजापतेस्तनूविशेषः) अनाधृष्या तदग्निः । ऐ० ५। २५ ॥
असावादित्योऽनाधृष्यः। कौ०२७।५॥ अनाप्ता (प्रजापतेस्तनूविशेषः ) अनाप्ता तत्पृथिवी । ऐ०५।२५ ॥
इयं वै पृथिव्यनाप्ता । कौ० २७ । ५ ॥ अनाप्या (प्रजापतेस्तनूविशेषः) अनाप्या तयोः । पे० ५ ॥ २५ ॥
असौ द्यौरनाप्या । कौ० २७ ॥ ५ ॥ अनाशकः ( = अनशनम् ) एतद्वै सर्व तपो यदनाशकस्तस्मादुपवसथे
नाश्नीयात् । श०९।५।१।६॥ अनिरुक्तम् अनिरुक्त हि मनोऽनिरुक्त ह्येतद्यत्तष्णीम् । श०१।
४।४।५॥ , सवाऽअनिरुक्तम्।श०१।३।५।१०॥ १।४।१।२१॥
२.२।१।३॥१०।१ । ३ । ११ ॥ , अपरिमितं वाऽअनिरुक्तम् । श०५।४।४। १३ ॥ अनिरुक्तः अनिरुक्तो ह्येष (अन्तरिक्ष.) लोकः । श०१।४।१।२६॥ अनिलया (प्रजापतेस्तनूविशेषः) अनिलया तद्वायुन ह्येष कदाचनेलयति
ऐ०५ । २५ ॥ अनिलया तद्वायुन ह्येष इलयति ।
कौ०२७।५॥ अमीकम् सेनाया वै सेनानीरनीकम् । श० ५ । ३।१।१॥
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[ अनुरूपः
( २४ )
अनुख्याता आदित्योऽनुख्याता । तै० ३ । ७ । ५। ४॥
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आदित्यो वा अनुख्याता । गो० उ० २ । १९ ॥ ४ । ९ ॥ अनुपानीयाः एताभिर्वा इन्द्रस्तृतीयसवनमन्वपिबत् तदनुपानीयानामनुपानीयात्वम् । ऐ० ३ । ३८ ॥
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अनुमतिः इयं ( पृथिवी ) वाऽअनुमतिः स यस्तत्कर्म शक्नोति कर्तुं यचिकीर्षतीय हास्मै तदनुमन्यते । श० ५|२| ३ | ४ | इयं (पृथिवी ) वा अनुमतिः । इयमेवास्मै राज्यमनुमन्यते । तै० १ । ६ । १ । ४-५ ।।
इयं (पृथिवी ) वा अनुमतिः । तै० १ । ६ । १ । १ ॥ या पूर्वा पौर्णमासी सानुमतिः । ऐ० ७ । ११ ॥ प० ४ ॥ ६ ॥ गो० उ० १ । १० ॥
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यानुमतिः सा गायत्री । ऐ० ३ । ४७, ४८ ॥
अनुमत्यै हविरष्टकपालं पुरोडाशं निर्वपति । श०५ । २।३।२ ॥
अनुम्लोचन्ती (अप्सराः) (यजुः १५ | १७ ) " प्रम्लोचन्ती " शब्द पश्यत । अनुयाजा तद्यत्तासु सर्वास्विष्टासु ( देवतासु ) अथैतत्पश्चेवानुयजति तस्मादनुयाजाः नाम । श० १ । ८ । २ । ७ ॥ छन्दांसि वाऽ अनुयाजाः । श० १ । ८ । २ । ८, १४ ॥ छन्दार्थस्यनुयाजाः | ० ३ । ९ । ३ । ८ ॥ छन्दांसि ह्यनुयाजाः । श० १ । ३ ।२।९॥ पशवो वाऽअनुयाजाः । श० ३ । ८ । ४ । ८॥ रेतोधेयमनुयाजाः । कौ० १० । ३ ॥ प्रजानुयाजाः । ऐ० १ । ११ ॥
ये ( प्राणाः ) अवाञ्श्ञ्चस्ते ऽनुयाजाः । ऐ० १ । १७ ॥ अपाना अनुयाजाः । कौ०७ ॥ १ ॥ १० ॥ ३ ॥ श० ११ । २ । ७।२७ ॥ अशनिरेव प्रथमोऽनुयाजः । हावुनिर्द्वितीय उल्कुषी तृतीयः । श० ११ । २ । ७ । २१ ॥
न वाऽअत्र देवतास्त्यनुयाजेषु । श० १ । ८ । २ । १५ ॥
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अनुरूपः स योऽयं ( पुरुषः ) चक्षुष्येषोऽनुरूपो नाम । अन्वङ् ह्येष
सर्वाणि रूपाणि । जै० उ० १ । २७ । ४॥
पूर्वमु चैव तद्रूपमपरेण रूपेणानुवदति यत्पूर्वं रूपमपरेण
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अनुतु रूपेणानुवदति तदनुरूपस्यानुरूपत्वमनुरूप एनं पुत्रो जायते य एवं वेद । तां०१२।१।५॥१२।७।७॥
१३।१।९॥ १३।७।७॥ अनुरूपः प्रजा अनुरूपः । गो० उ०३ । २१,२२ ॥
प्रजा वा अनुरूपः। ऐ०३ । २४॥ ,, प्रजाऽनुरूपः। ऐ०३।२३॥ कौ० १५ । ४ ॥ २२ ॥ ८॥
जै० उ०३।४।३॥ , अग्निरनुरूपः। जै० उ०३।४।२॥ अनुवत्सरः वायुरनुवत्सरः। तां०१७।१३।१७॥ते०१।४।१०।१॥ अनुवषट्कारः संस्थानुवषट्कारः। कौ० २३ । ५, ८ ॥ १६ । १, २॥
गो० उ०३।७॥ ,, संस्था वा एषा यदनुवषट्कारः।०२।२८॥३२॥ अनुवाक्या हृयाति वा अनुवाक्यया । श०१।७।२। १७ ॥
,, . असौ ( धुलोकः ) ह्यनुवाक्या । ।०१।४।२।१८॥
, असौ ( द्यौः) वा अनुवाक्या । श० १।७।२।११ ॥ अनुष्टुक् (छन्दः) वाग्वा अनुष्टुक् । तै०३।३।१०।३॥
, प्रतिष्ठा वा अनुष्टुक् । त०३।३।९।१॥ अनुष्टुप् (छन्दः) अनुष्टुबनुस्तोभनात् । दे० ३।७॥
अन्वस्तौदिति हि ब्राह्मणम् । द० ३ । ८॥ यस्याष्टौ ता अनुष्टुभम् । को०९।२॥ द्वात्रिंशदक्षराऽनुष्टुप् । कौ० २६ । १ ॥ तै० १ । ७।५ । ५॥ तां१०।३।१३॥ अनुष्टुम्मित्रस्य पत्नी। गो० उ०२।९॥ गायत्री सायानुष्टुप् । कौ०१०।५॥१४॥२॥ २८ ॥ वागवासी प्रथमानुष्टुप् । कौ० १५ । ३॥ १६॥४॥ वागनुष्टुप् । कौ०५।६॥ ७॥ ९ ॥ २६ । १॥ २७ ॥ ७ ॥ श. १०।३।१।१॥ ते० १८।८।२॥ तां०५।७।१॥ (यजुः १५ । ५)-घागनुष्टुप्छन्दः। श०८।५।२।५ ॥ वागनुष्टुप् सर्वाणि छन्दासि । तै० १ । ७।५ । ५॥ वाग्ध्यनुष्टुप् । श०३।१।४।२॥ वाग्वा अनुष्टुप् । ऐ०१ । २८ ॥ ३ । १२ ॥ ६॥३६॥ श०१।३।२।१६॥८।७।२।६॥ गो. उ०६ । १६॥
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[ भनूपन्ध्या अमुष्टुप् अनुष्टुब्भि छन्दसां योनिः । तां० ११ । । । १७ ॥
ज्यैष्ठयं वा अनुष्टुप् । तां०८।७।३॥८।१०।१०॥ परमं वाऽएतच्छन्दो यदनुष्टुप् । श० १३।३।३।१॥
अन्तो वा अनुष्टुप् छन्दसाम् । तां० १९ । १२।८॥ , तस्मादानुष्टुभं छन्दासि नानुव्यूहन्ति । तां०६।१।११॥ , अनुष्टुप् छन्दसाम् (पतमादित्यमानशे)। तां०४।६।७॥
इयं (पृथिवी) वाऽअनुष्टुप् । श०१।३।२।१६॥ तां०८७।२॥ पादावनुष्टुप् । ष०२३॥ प्रजापतिर्वा अनुष्टुप् । तां०४।८।९॥ आनुष्टुभो वै प्रजापतिः । तां०४।५।७॥ आनुष्टुभः प्रजापतिः । तै०३।३।२।१॥ यस्य ते (प्रजापतेः) ऽहं (अनुष्टुप्) स्वं छोऽस्मि । ऐ०३। १३॥ अनुष्टुप् सोमस्यच्छन्दः । कौ० १५ । २॥ १६ ॥ ३॥ विश्वेदेवा अनुष्टुभं समभरन् । जै• उ०१।१८।७॥ आनुष्टुभो राजन्यः । तै० १।८।८।२॥
तां० १८।८।१४॥ , आनुष्टुभो वाऽअश्वः । श० १३।२।२।१९ ॥
आपो वा अनुष्टुप् । कौ० १४ । ४॥ अनुष्टुप् च वै सप्तदश्च समभवताम् । तां० १०।२।४॥ आनुष्टुभी वै वृष्टिः । तां० १२। ८।८॥ आनुष्टुभी वै रात्रिः। ऐ०४।६॥ अनुष्टुबुदीची (दिक्)। श०८।३।१।१२॥ आनुष्टुभैषा (उत्तरा) दिक् । श० १३।२।२।१९ ॥
सत्यानृते वा अनुष्टुप् । तै०१।७।१०।४॥ , आनुष्टुभं वै चतुर्थमहः । को० २२ । ७,८॥ , सक्थ्यावनुष्टुभः । श०८।६।२।९॥ अनूकम् बृहतीछन्दो बृहस्पतिदेवतानूकम् । श० १०।३।२॥३॥ भवन्ध्या चतुर्थमेवैतत्सवनं यवनूबन्ध्या तस्मादच्युता भवति ।
कौ०१८ । ११ ॥
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( २७ )
अन्तरिक्षम् ] मनराधाः (नक्षत्रम् ) अन्वेषामरात्समेति । तदनूराधाः । तै.
१।५।२।८॥ ( नक्षत्रियस्य प्रजापतेः) प्रतिष्ठाऽनूराधाः । तै०१५।२।२॥ मित्रस्यानूराधाः । तै० १।५।१।३॥
३।१।२।१॥ अनृतम् अमेध्यो वै पुरुषो यदनृतं वदति । तेन पूतिरन्तरतः।
श०१ । १।।१॥३।१।२ । १०॥ , अनृते खलु वै क्रियमाणे वरुणो गृह्वाति । तै०१ । ७।२।६॥ , तस्मादु हेतच आसक्त्यनृतं वदत्यूष हवेव पिस्यत्याग्य इव
भवति परा ह त्वेवान्ततो भवति । श०९।५।१।१७॥ , एतवाचश्छिद्रं यदनृतम् । तां०८।६।१३॥ , अनृतं ( वा एतत्) यदा तपति वर्षति । तै०१७।।३॥ ,, सत्यमेव देवा अनृतं मनुष्याः । श० १।१।१।४॥
१।१।२।१७॥३।३।२।२॥ अन्तः अन्तो वै क्षयः। कौ०८।१॥
, अन्तो वै पासोन्त उर्दकः। गो० उ०३।१६॥४॥४॥४॥१८॥ अन्तःसदसम् या इमा (पुरुषस्य) अन्तर्देवतास्तेऽन्तःसदसम् ।
कौ० १७। ७॥ अन्तक: एष (संवत्सरः) हि मानामहोरात्राभ्यामायुषोऽन्तं गच्छ
त्यथ नियन्ते तस्मादेष एवान्तकः स यो हैतमन्तकं मृत्यु,
संवत्सरं वेद । श. १०।४ । ३ । २॥ अन्तरिक्षम् तद्यदस्मिन्निदं सर्वमन्तस्तस्मादन्तर्यक्षम् । अन्तर्यक्ष
हवै नामैतत् । तदन्तरिक्षमिति परोक्षमाचक्षते । जै० उ०१।२०।४॥ अन्तरेव वा इदमिति तदन्तरिक्षस्यान्तरिक्षत्वम् । तां०२०।१४।२॥ सह हैवेमावग्रेलोकावासतुस्तयोवियतोर्योऽन्तरेणाकाश आसीत्तदन्तरिक्षमभवदीक्ष हैतन्नाम ततः पुरान्तरा वादमीक्षमभूदिति तस्मादन्तरिक्षम् । श० ७। १ ।
२।२३॥ , अन्तरिक्षायतना हि प्रजा । तां० ४।८।१३ ॥
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[ अन्तरिक्षम् ( २ ) अन्तरिक्षम् अन्तरिक्षं वै सर्वेषां देवानामायतनम् । श०१५। ३।२।६॥
वैश्वदेवोऽयमन्तरा लोकः (= अन्तरिक्षम्) । जै० उ० १। ३७। ४॥ मध्यं वाऽअन्तरिक्षम् । श०७।५।१।२६ ॥ अबलिष्ट (अवरिष्ट इति पाठान्तरम् ) इव वा अयम्मध्यमो लोकः । तां०७।३।१८॥ अनिरुक्तो ह्येष (अन्तरिक्ष-)लोकः । श० १।४। १।२६ ॥ तस्मादेषां लोकानामन्तरिक्षलोकस्तनिष्ठः । श० ७ । १।२। २०॥ छिद्रमिवेदमन्तरिक्षम् । तां०३।१०।२॥२१ । ७।३॥ सन्धिरस्यन्तरिक्षाय त्वांतरिक्षं जिन्व (आकाशःसन्धिः। तै० उप०१।३।१) । तां०१।९ । ४॥ एतेन (अन्तरिक्षण) इमौ लोकौ (= द्यावापृथिव्यौ) विष्कन्धौ । जै० उ०१।२०।३॥ अन्तरिक्षण हीमे द्यावापृथिवी विष्टब्धे । श०१।२।१।१६।। ऊधर्वा अन्तरिक्ष (द्यावापृथिव्याख्यौ) स्तनावभितो नेन (पृथिवीरूपेण स्तन) वा एष देवेभ्यो दुग्धेऽमुना (धुलोकरूपेण स्तनेन) प्रजाभ्यः । तां० २४ । १।६॥ अन्तरिक्षेणेद सर्व पूर्णम् । तां० १५ । १२ । ५ ॥ महद्धीदमन्तरिक्षम् । कौ० २६ ॥ ११ ॥ अन्तरिक्षंवाअवर सधस्थम् । श०९।२।३1३९॥ अन्तरिक्षं वाऽअपासधस्थम् । श०७।५।२।५७॥ ( असुराः) रजतां (पुरी) अन्तरिक्षम् (अकुर्वत)। ऐ०१ । २३ ।। ( असुराः ) रजतां (पुरी) अन्तरिक्षलोके ( अकुर्वत)। कौ० ८। ८ ॥ रजता ( पुरी ) अन्तरिक्षम् । गो० उ०२।७॥ अयम्म आकाशः स मे त्वयि ( अन्तरिक्षे) । जै० उ० ३ । २१ । १४॥
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( २९ )
भन्धः ] अन्तरिक्षम् यान्येव बभ्रूणीव हरीणि ( लोमानि) तान्यन्तरिक्षस्य
रूपम् । श०३।२।१।३॥ अन्तरिक्षं पृथिव्याम् (प्रतिष्ठितम् ) । ऐ०३।६।।
० उ०३।२॥ अन्तरिक्षमस्यग्नौ श्रितम् । वायोः प्रतिष्ठा । तै०३ । ११ । १॥ ८॥ वायुनान्तरिक्षेण वयोभिस्तेनैष लोकस्त्रिवृद्योऽयमंतरा। तां०१०।१।१॥ य एवायम्पवते ( वायुः ) एतदेवान्तरिक्षम् । जै० उ० १।२०।२॥ अथ यत्कपालमासीत्तदन्तरिक्षमभवत् । श० ६।१। २।२॥ ( देवाः ) अन्तरिक्षं पशुमद्भिः (य१रभ्यजयन्)। तां० १७। १३।१८॥ अथ द्वितीययाऽऽ वृतेदमेवाऽन्तरिक्षं जयति यदुचान्तरिक्षे। तदेतैश्चैनं छन्दोभिस्समद्धयति यान्यभिसम्भवति । एतां चास्मै दक्षिणाम्प्रयच्छति यामभिजायते ।
जै० उ०३ । ११ । ६॥ अन्तर्यामः(ग्रहः) तघदस्यैषो (उदानः ) ऽन्तरात्मन्यतो यद्वेनेनेमाः
प्रजा यतास्तस्मादन्तर्यामोनाम । श०४।१।२।२॥ (यज्ञस्य) उदान एवान्तर्यामः ।०४।१।१।१॥ अन्तर्यामोऽपान एव । कौ० १२ । ४॥ असो (द्यौः) एवान्तर्यामः । श०४।१ । २ । २७ ॥ अन्तर्यामपात्रमेवान्ववयः प्रजायन्ते । श०४।५।
५ । ३॥ अन्तर्यामी वेत्थ नु त्वं काप्य तमन्तर्यामिणं य इमं च लोकं परं च
लोक सर्वाणि च भूतान्यन्तरो यमयतीति । श. १४ ।
६।७।३॥ अधिः (-स) (यजुः १६ । ४७॥) अधिसस्पतऽइति सोमस्यपतs
इत्येतत् । श०९।१।१ । २४ ॥ अहव्यों अन्धः । तां० १२ । ३।३॥ अन्धो रात्रिः । तां०९ । १।७॥
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[ अन्नम् अन्धाहिः यत्तेजनं सोऽन्धाहिः। ऐ०३।२६ ॥ अन्नपत्नी (प्रजापतेस्तनूविशेषः ) अन्नपनी तदादित्यः । ऐ०५।२५ ॥
असौ (धौः) अनपत्नी । कौ०२७।५॥ अन्नम् अर्को वै देवानामन्नम् । श० १२० ८।१।२॥ तै० १।१ । ८।५॥
अन्नं वै देवा अर्क इति वदन्ति । तां० १५ । ३ । २३ ॥ अन्नं वा अर्कः । तां०५ १ । ९॥ १४ । ११ । ९॥ १५ ॥ ३॥ ३४ ॥ गो० उ०४।२॥ अन्नमर्कः । श०९।१।१।४॥ अन्नं वैवाजः । तां०१३।९।१३, २१ ।। १५ । ११ । १२ ॥ १८।६।८॥ त्रेधा विहित ह्यन्नम् । श० ८।५।३।३॥ त्रिवृद्धयन्नम् । श०३।२।१ । १२॥३।७।१।२० ॥ त्रिवृद्धाऽअन्नं कृषिवृष्टिीजम् । श०८।६।२।२॥ विरूपं (= नानारूपम् ) अन्नम् । तां० १४ : ९।८॥ पातं ह्यन्नम् । तां०५।२।७॥ सप्त वा अन्नानि । तै०१।३।८।१।। सर्वम्वेतदनं यद्दधिमधुघृतम् । श०९ । २ । १ । ११ ॥ एतदु परममन्नं यद्दधिमधुघृतम् । श०९।२।१।१२।। यदुवाऽआत्मसंमितमन्नं तवति तन हिनस्ति यद्भयो हिनस्ति तद्यत्कनीयो न तदवति । श०७।५।१ । १४॥ ९।२।२।२॥ अरत्निमात्राद्धयन्नमद्यते। श०७।५।१।१३।१०।२। २।७॥ द्विः संवत्सरस्यान्नं पच्यते । श०६।५।४।९॥ शान्तिर्वा अन्नम् । ऐ०५ । २७ ॥७॥ ३॥ अन्नं वै सर्वेषां भूतानामात्मा । गो० उ० १ ॥ ३ ॥ वैश्वदेवं वा अन्नम् । तै०१।६।१।१०॥
अन्नं वाऽआयतनम् । श०६।२।१॥ १४ ॥ , अन्नजीवनहदि सर्वम् । श० ७।५।१। २०॥
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( ३१ ) अन्याहार्यपचनः] अमम् अन्नं प्राणमन्नमपानमाहुः। अन्नं मृत्यु तमु जीवातुमाहुः ।
अन्नं ब्रह्माणो जरसं वदन्ति । अन्नमाहुः प्रजननं प्रजानाम्। ०२८।८।३॥ अन्नमेव ग्रहः। अनेन हीद, सर्व गृहीतम् । श० ४।६। ५ ॥ ४॥ तस्मात्प्राणोऽनेन गृहीतो यो धेवान्नमत्ति स प्राणिति । श०७।५ । १ । १६॥ तस्मात्प्राणेनान्नं गृहीतं यो ह्येव प्राणिति सोऽनमत्ति श० ७।५ । १ । १७ ।। अन्नं प्राणः । तै०३।२।३ । ४ ।। अन्नाहे प्राणः । श०३।८।४। ८ ॥ ४।३।४ । २५ ।। ताः (प्रजाः ) अन्नादव सम्भवन्ति तस्मान्नमेव प्रजाः । श० २ । ५ । १।६।। अनं पशवः । ऐ०५ । १९ ॥ रेतो वा अन्नम् । गो० पू०३ । २३ ।। अन्नमु श्रीः । श.८।६।२।१॥ अन्नं वै ब्रह्मणः पुरोधा । तां० २२ । ८ । ६ ।। १३ । ९ । २७॥ १४ । ९ । ३८॥ अन्नमशीतयः । श०९।१ । १ । २१ ।। अन्नमशीतिः । श०८।५ । २॥ १७ ॥
अन्न वै चन्द्रमाः । तै०३।२।३।४॥ ,, अन्नं वाऽअपां पाथः । श०७।५ । २। ६०॥ अन्नादः अन्नादोऽग्निः । ।०२।१।४।२८।२।२।४।१।। अमादा ( प्रमापतेस्तनूविशेषः ) अन्नदा तदग्निः । ऐ०५ । २५ ।। भन्नादी (प्रजापतेस्तनूविशेषः) इयं (पृथिवी) वा अन्नादी ।
__ कौ० २७ । ५ ॥ अन्वाहार्यः तद्यदेतद्धीनं यशस्यान्वाहरति तस्मादन्वाहार्यों नाम ।
श० ११ । १।८।६।। भन्बाहाय॑पचनः (अग्निः) पुत्रोऽस्वाहार्यपचनः । ऐ० ८।२४ ॥
व्यानोऽस्वाहार्यपचनः । श० २।२।२। १८।।
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[ अपां योनिः
( ३२ )
अन्वाहार्य्यपचनः (अग्निः ) दम इत्यन्वाहार्यपचनः । जै० उ० ४ ।
२६ । १५ ।।
अथैष भ्रातृव्यदेवत्यो यदन्वाहार्य पचनः । श०२ । ३ । २।६॥
अन्तरिक्षलोको वा अन्वाहार्यपचनः । ष० १ । ५ ।।
अन्वितिः ( यजुः १५ | ६ ) अन्नमन्वितिः । श० ८ । ४ | ३ | ३ ॥ अपभया ( प्रजापतेस्तनू विशेष: ) अपभया तन्मृत्युः सर्वे ह्येतस्माद्वीभाय । ऐ० ५ । २५ ॥
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अपभया तन्मृत्युर्नत्येष बिभेति । कौ० २७ । ५ ।। अपभरणी : ( नक्षत्रम् ) अपसरणीष्वपावहन् । तै० १ । ५ । २ । ९॥ यमस्यापभरणीः । तै० १ । ५ । १ । ५ ॥ ३ ।
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१ । २ । ११ ॥
अपरपक्षः प्रस्तुतं विष्टुतं सुतासुन्वतीति । एतावनुवाकावपरपक्षस्याहोरात्राणां नामधेयानि । तै०३ । १० । । १० । २ ॥ अपराजिता दिक् ते ( देवासुराः) उदीच्यां प्राच्यां दिश्ययतन्त में ततो न पराजयन्त सैषा दिगपराजिता । ऐ० १ । १४ ॥
अपराह्नः भगस्यापराह्नः । तै० | १ | ५ | ३ | ३ ॥
अपरिमितम् अपरिमितं भव्यम् । ऐ०४॥६॥ अपरोधोऽनपरुद्धः ( = प्राणः ) एष (प्राणः) ह्यन्यमपरुणद्धि नैतमन्यः । जै० उ०२ । ४ । ८ ॥
अपक्षयः ( यजुः १३ । ५३ ) चक्षुर्वाऽअपां क्षयस्तत्र हि सर्वदैवापः क्षियन्ति । श० ७ । ५ । २ । ५४ ।। अपां ज्योतिः ( यजुः १३ | ५३ ) विद्युद्वा ऽअपां ज्योतिः । श० ७ । ५ ।
२ । ४९ ॥
अपां पाथः ( यजुः १३ । ५३ ) अन्नं वा अपां पाथः । श ० ७ । ५ । २ । ६० ॥
अपां पुरीषम् (यजुः १३ । ५३ ) सिकता वा अपां पुरषिम् । श० ७ । ५ । २ । ५९ ॥ अपां भस्म (यजुः १३ । ५३) अभ्रं वा ऽपां भस्म । श०७ । ३ । २ । ४८ ।। अपां योनिः ( यजुः १३ । ५३ ) समुद्रो वा अपां योनिः । श० ७ ।
५ । २ । ५८ ॥
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अपामार्गः] अपां सदनम् ( यजु० १३।५३) द्यौर्वाऽअपार्थ सदनं दिविह्यापः सन्नाः।
श०७।५।२। ५६॥ अपां सधस्थम् ( यजु, १३ । ५३) अंतरिक्षं वाऽअपा सधस्थम् ।
श०७।५।२। ५७ ॥ अपां सधिः श्रोत्रं वा अपा सधिः । श०७।५।२।५५॥ अपान: अपानो वा एतवान् (आगमनविशिष्टत्वादाकारोपसर्ग
वानिति सायणः)। श०१।४।३।३॥
अन्तर्वापानः । तां०७। ६।१४ ॥ , अपानेन हि गन्धाअिघ्रति । श०१४।६।२।२॥
तस्माद्वहु किंच किंचाऽपानेन जिघ्रति । जै० उ०१।६०। ५॥
अन्तर्यामोऽपान एव । कौ० १२॥ ४ ॥ , अपानेन हि मनुष्या अन्नमदन्ति । श०१० । १।४।१२॥
अग्निरपानः । जै० उ० ४ । २२। ९॥ अपाना अनुयाजाः । कौ०७।१ ।। १०।३ ॥ श. ११ । २ । ७।२७॥ घोषीव ह्ययमपानः । ष०२।२॥ (प्रजापतिः) अपानादन्तरिक्षलोकं (प्रावृहत्)। कौ०६।१०॥ (अयास्य आङ्गिरसः) अपानेन मनुष्यान्मनुष्यलोके ( अदधात्.) । जै० उ०२।८।३॥ चत्वार ऋतुभिरिति ( यजन्ति.) अपानमेव तद्यजमाने दधति। कौ० १३।९॥ अपानः प्रत्याश्रावितम् । तै० २ । १ । ५ । ९॥ तं (पशुं संज्ञतं ) प्रतीचीदिगपानेत्यनुप्राणदपानमेवास्मिस्त.
वदधात् । श० ११ । ८ । ३।६॥ पापः अपापो ( देवानां) निग्रभीता। ऐ०२।७॥ अपामयनम् (यजु. १३। ५३) इयं (पृथिवी) वाऽअपामयनमस्या
ह्यापो यन्ति । श०७।५ । २।५०॥ अपामार्गः अपामार्गरपमुजते । श० १३ ! ८।४।४॥ , अथापामार्गहोम जुहोति । अपामार्ग देवा दिक्षु नाष्ट्रा
रक्षास्वपामृजत ते व्यजयन्त। श०५।२।४।१४ ॥ " यदपामार्गहोमोभवतिरक्षसामपहत्य । तै०१।७।१।८॥ , प्रतीचीमफलो वा अपामार्गः। श०५।२।४।२०॥
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[ अप्सराः
( ३४ )
अपामेम (यजु० १३ | ५३) वायुर्वा अपामेम यदा ह्येवैष इतश्चेतश्च वात्यथापो यन्ति । श०७ । ५ । २ । ४६ ॥ अपामो (यजु० १३ । ५३) ओषधयो वाऽअपामोश यत्र ह्याप उन्दन्त्यस्तिष्ठन्ति तदोषधयो जायन्ते । श० ७ । ५ । २ । ४७ ॥
अशिर्वराणि (छन्दांसि ) अपिशर्वर्या अनुस्मसीत्यब्रवन्नपिशर्वराणि खलु वा एतानि छंदांसीति ह स्माहैतानि हन्द्रिं रात्रेस्तमसो मृत्योर्बिभ्यतमत्यपारयंस्तदपिशर्वराणामपिर्शर्वरत्वम् । ऐ०
४ । ५ ॥ तद्यदपिशर्वर्या अपिस्मसीत्यब्रवंस्तदपि - शर्वराणामपिशर्वरत्वं शर्वराणि खलु ६ वा अस्यैतानि छन्दांसीति ह स्माद्वैतानि ह वा इन्द्रं रात्र्यास्तमसो मृत्योरभिपत्यावारयंस्तदपिशर्वराणामपिशर्वरत्वम् ।
गो० उ०५ । १ ॥ द्वादशस्तोत्राण्यपिशर्वराणि । ऐ० ४ । ६ ॥ अपूपः इन्द्रियमपूपः । ऐ० २ । २४ ॥
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अपूर्वा (प्रजापतेस्तनूविशेष: ) अपूर्वा तन्मनः । ऐ० ५ | २५ ॥
कौ०
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१०२७ । ५ ॥
अप्तोर्यामः यद् (विष्णुः पशून् ) आमोत् । तदप्तोर्यामस्याप्तोर्यामत्वम् । तै०
० २ । ७ । १४ । २ ॥
असोर्यामा ताः ( प्रजाः) यदापवायच्छदतो वा अतोर्यामा |
गो० उ०५ । ९ ॥
यं कामङ्कामयते तमेतेनाप्नोति । तदप्तोर्थ्यानोऽतोय्यमत्वम् । तां० २०।३।४-५ ॥ अप्रतिष्टष्या (प्रजापतेस्तनूविशेषः) अप्रतिधृष्या तदादित्यः । ऐ० ५ । २५ ॥
अप्सराः गन्ध इत्यप्सरसः ( उपासते ) । श० १० | ५ | २ | २० ॥ किं नु तेऽस्मासु ( अप्सरस्सु ) इति । हसो मे क्रीडा मे मिथुनम्मे । जै० उ० ३ । २५ । ८ ॥
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अभिजित् ] अप्सराः सोमो वैष्णवो राजेत्याह तस्याप्सरसो विशस्ता इमा
आसत इति युवतयः शोभना उपसमेता भवन्ति ता उपदिशत्यङ्गिरसो वेदः सोऽयमिति । श० १३ । ४।३।८॥ (यजु० १८ । ३८) तस्य (अग्नेः) ओषधयोऽसरसः ।
श०९।४।१।७॥ (यजु० १८ । ३९) तस्य (सूर्यस्य) मरीचयोऽपसरसः।
श०९।४।१।८॥ (यजु. १८ । ४०) तस्थ (चन्द्रमसः) नक्षत्राण्यप्सरसः ।
श०९।४।१ । ९॥ १८ । ४१) तस्य (वातस्य) आपोऽपसरसः।
श०९।४।१।१०॥ (यजु० १८ । ४२) तस्य ( यशस्य ) दाक्षिणा अप्सरसः।
श०९।४।१ । ११॥ , (यजु० १८ । ४३) तस्य (मनसः) ऋक्सामान्यप्सरसः ।
श०९।४।१ । १२॥ भब्जाः एप (सूर्यः) वा अब्जा अभ्यो वा एष प्रातरुदेत्यपः
सायं प्रविशति । ऐ० ४।२०॥ अभयम् (यजु०१२।४८) स्वर्गो वै लोकोऽभयम् । श० १२।८।१।२२।। अभिचारः नैन शतम् । नाभिचरितमागच्छति य एवं वेद ।
तै०३।१२। ५ । १॥ भभिजित् (नक्षत्रम् ) देवासुराः संयत्ता आसन् । ते देवास्तस्मिन्न:
क्षत्रेऽभ्य जयन् । यदभ्यजयन् तदभिजितो ऽभिजिस्वम् । तै०१।५ । २ । ३-४ ॥ यस्मिन्ब्रह्माभ्यजयत् सर्वमेतत् । अमुञ्च लोकमिदमू च सर्वम् । तन्नो नक्षत्रमभिजिद्विजित्य श्रियं दधात्वहणीयमानम् । तै० ३। १। २।५॥ अभिजिन्नाम नक्षत्रमुपरिष्टादषाढानामवस्ता
च्छोणायै । ते. १।५।२।३॥ अभिजित् (यज्ञः) अभिजिता वै देवा अभ्यजयन्निमांस्त्रील्लोकान् ।
कौ०२४।१॥
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[ अभिलयः अभिजित् ( यज्ञः ) अभिजिता धै देवा इमान् लोकानभ्यजयन् ।
तां० २२।८।४॥ अभिजिता वै देवा असुरानिमान् लोकानभ्यजयन् । तां० २०।८।१॥ सो (इन्द्रः) ऽकामयत यन्मेऽनभिजितं तदभिजयेयमिति स एतमभिजितमपश्यत्सेनानभिजितमभ्यजयत् । तां०१६।४।६॥ यदभिजिद्भवत्यनभिजितस्याभिजित्यै । तां० १६ । ४ । ७॥ अग्निरेवाभिजिदग्निहींदं सर्वमभ्यजयत् । कौ०२४।१॥ अंथ यदभिजितमुपयन्ति । आग्निमेव देवता यजन्ते । श०१२। १।३।१२ ॥ स वा अभिजिदमयसामा सर्वस्तोमो भवति । कौ० ३४ । १॥
एकाहो वा अभिजित् । कौ० २५ । २॥ अभितष्टीयम् (सूक्तम् ) प्रजापतिवी अभितष्टीयम् । कौ० २९।७।। भभितृण्णवत्यः (ऋचः) इन्द्रो वै प्रातःसवने न व्यजयत स एता.
भिरेव माध्यन्दिनं सवनमभ्यतृणधदभ्यतणत्तस्मादेता अभितृण्णवत्यो भवन्ति । ऐ०६।११॥ तद्यदेताभिः (इन्द्रः) माध्यन्दिनं सवनमभ्यतृणत्तस्मादेता अभितृण्णवत्यो भवन्ति ।
गो० उ०२॥२१॥ अभिद्यवः (३० ३ । २७ ! १ ) अर्द्धमासा वाऽ अभिद्यवः । श०१।
४।१।९॥
मासादेवा अभिद्यवः। गो० पू०५।२३॥ अभिनिधनम् (साम) अभिनिधनेन वा इन्द्रो वृत्राय वजं प्राहरत्त
मस्तृणुतस्तृणुते भ्रातृव्यमभिनिधनेन तुष्टुवा
नः। तां०१४।४।५॥ भाभिप्लयः (पंडहः) (आदित्याः) स्वर्ग लोकमभ्यप्लवन्त यदभ्यप्लवन्त
तस्मादभिप्लवः । गो० पू०४ । २३ ॥
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अमीवतः ] अभिप्लवः (पाहा) तऽआदित्याः । चतुर्भिस्तोमैश्चतुर्मिः पृष्ठलघुभिः
सामाभिः स्वर्ग लोकमभ्यवन्त यदभ्यप्लवन्त तस्मादभिप्लवाः । श० १२ । २।२।१०॥ यद्वेष षडहः पुनः पुनरभिप्लवते तस्मादभिप्लवो नाम । कौ०२१ । ६॥ ते (देवाः) एतेनाभिप्लवेनामिप्लुत्य मु.युं पाप्मानमपहत्य ब्रह्मणः सलोकतां सायुज्यमापुः ।
कौ० २१ । १॥ ,, (= परिप्लवः) तद्यदभिप्लवमुपयन्ति संवत्सरमेव तद्यजमानाः
समारोहन्ति । कौ० २० ॥१॥ इमे वै लोका अभिप्लवाः । श० १२।२।२।१॥ पिता वा अभिप्लवः पुत्रःपृष्ठयः। गो० पू०४।१७॥ श्रीर्वा अभिप्लवाः । को०२१ । ५॥
पशवो वा अभिप्लवाः । कौ० २१ ॥ ५ ॥ अभिभूतयः उन्दासि वा अभिभूतयः । तां०९।४।७॥ अभिमातिः [यजु० ९ । ३७ ॥ ३८ ॥ ८॥] सपनो वाऽअमिमातिः।
श०३।९।४।९॥५। २।४।१६ ॥२४ ।२।
२।८॥ अभिमातिपाद: [बहुवचने [यजु. १२ । ११३] संवृष्णान्यभिमातिषाह
इति सरेतासि पाप्मसह इत्येतत् । श० ७ ।
अभिषेकः शीर्षतो चाऽअभिपिच्यमानोऽभिषिच्यते । श० ९।३।
अभीवरी (यजु० २८ । ६) सेना घ। अभीत्वरी । कौ० २८ ॥ ५॥ अभीवतः (ब्रह्मसाम) अभीवर्तन वै देघाः स्वर्ग लोकमभ्यवर्तन्त ।
तां०४।३।२॥ अभीवर्सेन वै देवा असुरानभ्यवर्तन्त यदभीवों ब्रह्मसाम भवति वाव्यस्याभिवृत्यै । तां.८।२८॥
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[ अमावास्या ( ३८ ) अभीवतः (ब्रह्मसाम) वृषा वा एष रेतोधा यदीवतः। तां०४।३।८॥
अभीवों ब्रह्मासाम भवत्येकाक्षराणिधनः
प्रतिष्ठायै । तां० १५ । १० । ११ ॥ भभीवतः सविंशः (यजु० १४ । २३) संवत्सरोवाऽ अभीवतः सविछ
शस्तस्य द्वादशमासा सप्तऽर्तवः संवत्सर एवाभीवर्तः सविछशस्तयत्तमाहाभीवर्त इति संवत्सरो हि सवाणि भूतान्य
भिवर्तते। श०८।४।१ । १५ ॥ अभ्रम् भथ यद्यभ्रं स्यादेतद्धा अस्य तद्रूपं येन प्रजा बिभर्ति ।
कौ० १८॥४॥ , अग्ने धूमो जायते धूमादभ्रमभ्रावृष्टिः। श०५।३।१७॥ , अभ्रं वा अपां भस्म । श०७।५।२।४८॥ , (वसोर्धाराय) अभ्रमूधः । श०९।३।३।१५॥ भभ्रातृव्या (प्रजापतेस्तनूविशेषः) अभ्रातृव्या तत्संवत्सरः । ऐ० ५।
२५ ।। कौ० । २७ । ५ ॥ अभिः वाग्वाऽअभिः । श०६।४।१ । ५ ॥
, वज्रो वा अभ्रिः । श०३। ५।४।२॥६।३।१।३९ ॥ अमतिः ( ऋ० ३ । ८ । २) अशनाया वै पाप्मा ऽमतिः। ऐ०२।२॥
, (यजुः १७ । ५४) अशनाया वाऽअमतिः । श० ९।२। ३ । ८॥ अमावास्या तं ( चन्द्रमसं) देवा इन्द्रज्येष्ठाः सोमपाश्चासोमपाश्च
यथा पितरं पितामहं प्रपितामहं वा वृद्धं प्रलयमुपगच्छमानं व्याधिगतं मरिष्यतीति वा तां रात्रि वसन्ते तदमावास्याया अमावास्यात्वम् । प०४।६॥ स यत्रैष (चन्द्रमाः ) एता रात्रि न पुरस्तान पश्चादहशे तदिमं लोकमागच्छति स इहैवापश्चौषधीश्च प्रविशति स वै देवानां वस्वन्न घेणं तथदेष एता७ रात्रिमिहामा वसति तस्मादमावास्या नाम । श०१। ६।४।५॥ ते देवा अववन् । अमा ( = सह ) _ नोऽद्य वसुः (इन्द्रः) वसति योनःप्रावत्सीदिति। श०१।६।४।३॥
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( ३९ )
अमृतम् ]
अमावास्या इन्द्रो वृत्रं हत्वा असुरान् पराभाव्य । सोऽमावास्यां प्रत्यागच्छत् । तै० १ । ३ । १० । १ ॥
चन्द्रमा अमावास्यां रात्रिमादित्यम्प्रविशत्या दित्योऽग्निम् । जै० ० उ० १ । ३३ | ६ ॥
तस्य (संवत्सरस्य) एतद्) द्वारं यदमावास्या । चन्द्रमा एव द्वारपिधानः । श० ११ । १ । १ । १ ॥
ब्रह्म वै पौर्णमासी क्षत्रममावास्या । कौ० ४ । ८ ॥ कामो वा अमावास्या । तै० ३ । १ । ५ । १५ ।।
ऐन्द्राग्न ं ह्यमावास्य हविर्भवति । श० १ | ८ | ३ | ४ ॥ सानाय्यभाजना वाऽअमावास्या । श० २|४|४| २० ॥
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अमृतम् अमृतान्मृत्युः ( निवर्तते ) । श० १० | २ | ६ | १९ ॥ एतद्वै मनुष्यस्यामृतत्वं यत्सर्वमायुरेति । श ० ९ । ५ । १ । १० ॥ एतद्वाव मनुष्यस्यामृतत्वं यत्सर्वमायुरेति । त० २२ । १२ । २ ॥ २३ । १२ । ३॥
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य एव शतं वर्षाणि यो वा भूयांसि जीवति स हैवैतदमृतमाप्नोति । श० १० । २ । ६ । ८ ॥
वै प्राणाः । श०९ | ३ | ३ | १३ |
अमृतमु
अमृतं वै प्राणाः । गो० उ० १ । १३ ॥
अमृतं वै प्राणः ( प्राण इत्यस्य स्थाने " प्रणवः " गो० उ०
३ | ११ ) । कौ० ११ । ४ ॥ १४ ॥ २ ॥
अमृतं हि प्राणः । श० १० । १ । ४।२॥ प्राणो वाऽ अमृतम् । श० १४ । ४ । ४ । ३॥ अमृतमापः । गो० उ० । १ । ३ ॥
अमृतत्वं वा आपः । कौ० १२ । १ ॥
अमृता ह्यापः । तै० १ । ७ । ६ । ३ ॥
यद्भेषजं तदमृतं यवमृतं तद्ब्रह्म । गो० पू० ३ । ४ ॥ अमृत ह्येतदमृतेन क्रीणाति यत्सोमं हिरण्येन । श० ३ । ३ । ३ । ·६ ॥
अमृतं हिरण्यम् । तै० १ । ७ । ६ । ३ ॥ १ । ७ । ८ । १ ॥ अमृतं हिरण्यममृतमेष ( आदित्यः) । श० ६ । ७ । १ । २ ॥ आदित्योऽमृतम् । श० १० | १ | ६ | १६ ॥
अग्निरमृतम् । श० १० । २ । ६ । १७ ।।
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[ असा अमृतम् अमृतमेभ्यः (विश्वसभ्यः ) उदगायत् । सहस्रः परि
वत्सरान् । तै० ३। १२।९।३॥ अमृतः ( यजु० ११ । ५) प्रजापतिर्वाऽअमृतः।।०६।३।१।१७ ॥
ते (देवाः) होचुः (हे मृत्यो) नातोऽपरः कश्चन सह शरीरेणामृतोऽसधदैव त्वमेतं भाग हरासाऽ अथ व्यावृत्य' शरीरेणामृतोऽसद्यो ऽमृतोऽसद्विधया वा कर्मणा वेति यदै तस्ववन्विद्यया वा कर्मणा वेत्येषा हैव सा विद्या यदग्निरेतदु हैव तत्कर्म यदग्निः ।
श०१०।४।३।९॥ अमृतस्य पुत्राः ( यजुः० ११ । १५) प्रजापतिाऽअमृतस्तस्य विश्वे देवाः
पुत्राः । श०६।३।१।१७॥ अमेध्यम् अस्ति वै पुरुषस्यामेध्यं यत्रास्यापो नोपतिष्ठन्ते केशश्म
श्रीच या अस्य नखेषुचापोनोपतिष्ठन्ते तत्केशश्मश्रु च वरते नखानि च निकृन्तते मेध्यो भूत्वा दीक्षा इति
। श०३।१।२।२॥ , अस्ति वै पत्न्या अमेध्यं यदवाचीनं नाभेः। श० १।३।
अमेमिः ( यजु० ३८ । १४ ) अमेन्यस्मे नृम्णानि धारयेत्यक्रध्यन्नो
धनानि धास्येत्येवैतदाह । श० । १४ ।
२२॥ ३०॥ अम्बयः (२० १ । २३ । १६ ) आपो वा अम्बयः। कौ० १२ । ३ ॥ अम्बिका शरद्वा अस्य (रुद्रस्य) अम्बिका स्वसा। तै० १ । ६।
१०।४॥ अम्भासि अयं वै (भू-)लोकोऽम्भासि। तस्य वसवोऽधिपतयः ।
ता । ।१८।१॥ अपा (प्रजापतिः) अश्मनो ऽयः ( असृजत)। श० ६।१।३।५॥
दिशो वा अयस्मय्यः (सूच्यः)। तै०३।९।६।५॥ , अस्य वै (भू.)लोकस्य रूपमयस्मय्यः (सूपर)।०३।
९।६। ५.॥ , (असुराः ) अयस्मयोमेव (पुरी) अस्मिल्लोके (चक्रिरे) । २०
३।४।४।३॥
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अरावाणः ] अयः विश एतद् रूपं यदयः । श०१३।२।२।१९ ॥ अयनामि तदाहुः कस्मादयनानीति गमनान्येव भवन्ति कामस्य
कामस्य स्वर्गस्य च लोकस्य । कौ० ६ । १५ ।। अयवाः (यजुः० १४ । २६) (अपरपक्षा हीद सर्व) अयुवते । श०
८।४।२।११॥ " अपरपक्षा अयवाः श० ८।४।२।११॥ , योऽसुराणाम् (अर्धमासः = कृष्णपक्षः) सोऽयवा न हि तेना
सुरा अयुषत( = "समसृज्यन्त" इति सायणः )। श०१ ।
७।२।२५ ॥ ,, अथोऽहतरथाहुः। य एव देवानाम् ( अर्धमासः = शुक्लपक्षः)
आसीत्सो ऽयवा न हि तमसुरा अयुवत । श०१७।२।२६ ।। भयाट् (यजुः० ३८ । १०) विश्वान्देवानयाडिहेति सर्वान्देवानयाक्षी
दिहेषैतदाह । श० १४ । २।२।१६ ॥ अयास्यः ते (असुराः ) अब्रुवन्नयं वा आस्य इति । यदब्रवन्नयं
वा आस्य इति तस्मादयमास्यः । अयमास्यो ह वै नामैषः । तमयास्य इति परोक्षमाचक्षते । जै० उ० २।८।७॥ स एष एवाऽयास्यः (= अन्नाद्यम्) | आस्ये धीयते । तस्मादयास्यः । यद्धवा( ऽयम् ) आस्ये रमते तस्माद्वेवाऽया
स्यः । जै० उ०२।११। ८॥ , कनु सोऽभूद्यो न इत्थमसक्तेत्ययमास्ये ऽन्तरिति सोऽया
स्यः। श०१४।४।१।९॥ , स प्राणो वा अयास्यः । जै० उ०२।८।८॥ अयास्य आशिरसः "आङ्गिरसः" शब्द पश्यत । अरणी देवरथो वा अरणी। को०२।६॥ अरण्येऽनूच्यः ( पुरोडाशः) वाग्वाऽ अरण्येऽनूच्यः। श० ९ । ३।
२।४॥ अरनिः बाहुर्वाऽअरनिः । श०६।३।१।३३॥६।७।१।१४॥
१४।१।२।६॥ अररु: अररहेकै नामासुररक्षसमास तं देवा अस्याः (पृथिव्याः)
अपानत ।।०१।२।४।१७॥ , भ्रातृव्यो वा अररुत०३।२।९।४॥ भरावाणः अरावाणो वापते येऽनृतमभिशंसन्ति। सां०६।१०।७॥
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[ अर्कः
( ४२ )
अरिष्टनेमिः (यजुः १५ । ८ ) “तार्क्ष्यः” शब्द पश्यत ।
अरिष्टनेमिः पृतनाज आशुः ( ऋ० १० १७८ | १ ॥ ) एष ( तार्क्ष्यः वायुः ) वा अरिष्टनेमिः पृतनाजिदाशुः । ऐ०४ । २० ॥ अरिष्टम् ( साम ) अनेन ( अरिष्टेन साम्ना ) नारिषामेति तदरिए - स्यारिष्टत्वम् । तां० १२ | ५ | २३ ||
देवाश्च वा असुराश्चास्पर्द्धन्त यं देवानामघ्नन्न स समभवद्यमसुराणार्थं संसो ऽभवन्ते देवास्तपोऽतप्यन्त त एतदरिष्टमपश्य स्ततो यं देवानामन्नत् ( अघ्न्नन् ? ) ससो ऽभवद्यमसुराणान्न स समभवत् । तां० १२ । ५ । २३ ॥
अरीः प्रजा वा अरीः । श०.३ । ९ । ४ । २१ ॥
अरुणदूर्वा : एप वै सोमस्य न्यङ्गो यदरुणदुर्वाः । श० ४ | ५ | १० | ५ || अरुषः अग्निर्वा अरुषः । तै०३ । ९ । ४ । १ ॥ अर्कः अन्नं वै देवा अर्क इति वदन्ति । तां० १५ । ३ । २३ ॥
अर्को वै देवानामन्नम् । श० १२ । ८ । १ । २ ॥ तै० १ । १ । ८॥५॥
अन्नं वा अर्कः । तां०५ । १ । १ । १४ । ११ । ९ । १५ | ३ | ३४ ॥ . गो० उ०४ । २॥
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अन्नमर्कः हः । श० ९ । १ । १ । ४ ॥
आदित्यो वाऽअर्कः । श० १० । ६ । २ । ६ ॥
अव चक्षुस्तदसौ सूर्य्यः । तै० १ । १ । ७ । २ ॥ स एष एवार्को य एष (सूर्यः) तपतेि । अयं वा ऽअग्निरर्कः । श० ८ । ६ । २ ।
श० १० । ४ । १ । २२ ॥
१९ ।। ९ । ४ । २ । १८ ॥
अग्निर्वाऽअर्कः । श० २ | ५ | १ | ४ || १० | ६ | २ । ५ ॥
स एषोऽग्निरक यत्पुरुषः । श० १० | ३ | ४|५॥
आपो वाऽअर्कः । श० १० | ६ | ५ | २ ॥
प्राणो वाऽ अर्कः । श० १० । ४ । १ । २३ ।। १० । ६ । २ । ७॥ प्राणापानौ वा एतौ देवानाम् । यदर्काश्वमेधौ । तै० ३ ।९। २१ । ३ ॥
ओजो बलं वा एतौ देवानाम् । यदर्काश्वमेधौ । तै० ३ । ९ । २१ । ३ ॥
बेत्थार्कमिति पुरुषं हैव तदुवाच । वेत्थार्कपर्णेऽइति कर्णौ
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( ४३ )
अर्णवः ] देव तदुवाच वेत्थार्कपुष्पे ऽइत्यक्षिणी हैव तदुवाच वेत्थाफकोश्याविति नासिकै हैव तदुवाच वेत्थार्कसमुद्ावित्योष्ठी हैव तदुवाच वेत्थाधाना इति दन्तान्हैव तदुवाच वेत्थार्काष्ठीलामिति जिह्वार्थ हैव तदुवाच वेत्थार्कमूलमि
त्यन्न हैव तदुवाच । श०१०। ३।४।१॥ अर्कः (सामविशेषः) दीर्घतमसोऽर्को भवति । तां० १५ । ३।३४॥ अर्कपुष्पम् (साम) अन्नं वै देवा अर्क इति वदन्ति रसमस्य पुष्प.
मिति सरसमेवान्नाद्यमवरुन्धेऽर्कपुष्पेण तुष्टुवानः
तां० १५।३। २३ ॥ अर्काश्वमेधौ ओजो बलं वा एतौ देवानाम् । यदर्काश्वमेधौ । तै०
३।९। २२ । ३॥ . , प्राणापानौ वा एतौ देवानाम् । यदर्काश्वमेधौ। तै०
३।९।२१ । ३॥ अर्थम् अर्चते वै मे कमभूदिति तदेवार्यस्यार्कत्वम् । श०१०।६॥५॥१॥ ,, स एष एवार्कः। यमेतमत्राग्निमाहरान्ति तस्यैतदन्नं क्यं यो
ऽयममिश्चितस्तदय॑ यजुष्टः । श० १०।४।१।४॥ , तस्य ( अर्कस्य - सूर्यस्य ) एतदन्नं क्यमेष चन्द्रमास्तदर्य
यजुष्टः । श० १०। ४ । १ । २२ ॥ अर्जुनः अर्जुनो ह वै नामेन्द्रः । पाण्डव अर्जुनोऽपि इन्द्रपुत्रत्वेन प्र
सिद्धः-कुम्भघोणस्थमध्वविलासपुस्तकालयाधिपतिना प्र. काशिते महाभारत आदिपर्वणि अ० ६३ श्लो. ६५) श.
२।१।२।११ ॥ , अर्जुनो ह वै नामेन्द्रो यदस्य गुह्यं नाम । श०५।४। ३७॥ अर्जुनानि (पुष्पाणि ) ( सोमस्य ह्रियमाणस्य ) यानि पुष्पाण्यवा
शीयन्त तान्यर्जुनानि । तां० ८।४।१॥ ,, यदि सोमं न विन्देयुः पूतीकानभिषणयर्य
दिन पूतीकानर्जुनानि ।तां०९ ! ५। ३ ॥ इन्द्रो वृत्रमह स्तस्य यो नस्तः सोमः सम.
धावत्तानि बभ्रतूलान्यर्जुनानि। तां०९।५।७॥ मर्णवः (यजु० १३ । ५३) प्राणो वा अर्णयः । श०७।५ । २ । ५१॥
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[ अर्वावसुः
(४४ ) अर्द्धमासाः पवित्रं पवयिष्यन्त्सहस्वान्त्सहीयानरुणोऽरुणरजा इति ।
एते ऽनुवाका अर्द्धमासानाच, मासानाश्च नामधेयानि । तै०३।१०।१०।३॥ किं नु तेऽस्मासु ( अर्धमासेषु) इति । इमानि क्षुद्राणि पर्वाणि । जै० उ०३।२३। ४॥ देवाश्च वाऽअसुराश्च । उभये प्राजापत्या प्रजापतेः पितु.
यमुपेयुरेतावेवार्धमासौ (= शुक्लकृष्णपक्षी) । श.१।
७।२। २२॥ अर्द्धर्चः प्रतिष्ठा वा अर्द्धर्चः । गो० उ०५ । १०॥ अर्बुदम् वाग्वा अर्बुदम् । तै० ३।८ । १६ । ३ ॥ भर्यमा यो वा अर्यमा । तै०२।३ । ५ । ४ ॥ ___ अर्यमति तमाहुर्यो ददाति । तै० १।१।२।४॥
ततो वै स (अर्यमा) पशुमानभवत् । तै० ३।१।४।९॥ ___ एषा वा ऊर्धा बृहस्पतेर्दिक्तदेष उपरिष्टादर्यम्णः पन्थाः ।
श० ५। ५ । १ । १२॥ अर्वा ( = अश्वः ) यच्छ्वयदरासीत् । तस्मादा नाम । तै०३।
९।२१ । २॥ , (हेऽश्व त्वं ) अवासि । तां०१ । ७ । १॥ श०१३।१।६।
१॥ तै०३।८।९।२॥ ., अग्निवा अर्वा । तै०१।३।६। ४॥ ,, अर्वा (भूत्वा) असुरान् (अवहत् )। श०१०।६।४।१।। ,, पुमा सो ऽर्वन्तः । श०३।३।४।७॥ अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नः अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुनः इदंतच्छि
रः । श० १४ । ५।२।५॥ अग्विसुः (= पर्जन्यः, यजु०१५। १२). अथ यदर्वाग्वसुरित्याहातो (पर्ज
न्यात् ) हर्वाग्वसु वृष्टिरन्न प्रजाभ्यः प्रदीयते । श०८।
६।१। २० ॥ , अर्वाग्वसुर्ह वै देवानां ब्रह्मा पराग्वसुरसुराणाम् । गो.
उ०१ । १॥ अर्वावसुः अर्वावसुर्ह वै देवानां ब्रह्मा । कौ०६।१३॥
" अर्वावसुर्वै नाम देवाना होता। श०१ । ५ । १।२४॥
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( ४५ ) अवान्तरदिशः ] भलम्मः ( पारिजानतः = परिजानतः पुत्रः ) तम् (ऋषयः) अब्रवन्
कोन्वयं कस्मा अलमित्यलन्नु वै महामिति (सामाब्रवीत्)
तदलम्मस्यालम्मत्वम् । तां० १३ । १०।८॥ अवकाशाः प्राणा वाऽअवकाशाः।कौ०८।६॥ श०१४।१।४।१॥
प्राणा अवकाशाः । श० १४ । २।२।१॥ अवकाः अथ ( आपः) यदवन्नवाङ्नः कमगादिति तो अवाका
अभवन्नवाक्का ह वै ता अवका इत्याचक्षते परोऽक्षम् ।
श०९।१।२।२२॥ , आपो वा अवकाः । श० ७।५।१।११ ॥ ८।३।२।
तस्मादवका अपामनुपजीवनीयतमा यातयामन्यो हि ताः ।
श०९।१।२।२४॥ भवदानम् स येन देवेभ्य ऋणं जायते । तदेनांस्तदवदयते यद्यज
तेऽथ यदग्नौ जुहोति तदेनांस्तदवदयते तस्माद्यत्कि
उचाग्नौ जुह्वति तदवदानं नाम । श०१ । ७।२ । ६॥ अवभृथः तद्यदपोऽभ्यवहरन्ति तस्मादवभृथः । श०४।४।५।१॥
योहवाऽअयमपामावर्तः स हावभृथःस हैष वरुणस्य पुत्रो वा भ्राता वा । श०१२।९।२।४॥ वरुण्यो वाऽअवभृथः । श०४।४।५ । १०॥
समुद्रोऽवभृथः । तै० २। १।५।२॥ भवरं सधस्थम् ( यजु० १७ । ७५) अन्तरिक्ष वाऽअवर सधस्थम् ।
श०९।२।३।३९॥ अवरोधाः ( न्यग्रोधस्य ) तेषां चमसानां रसोऽवात्तऽवरोधा अभ
वन्नथ य ऊर्ध्वस्तानि फलानि । ऐ०७।३१॥ अवसानम् प्रतिष्ठा वा अवसानम् । कौ० ११ ॥ ५ ॥ गो० उ०३।११।। अवस्युः ( यजुः ३८ । ७ ) अयं वाऽ अवस्युरशिमिदो योऽयं (वातः)
पवते । श०१४ । २।२। ५ ॥ अवस्यूर्दुवस्वान् ( यजु० १८ । ४५) अयं वैलोकोऽवस्यूर्दुवस्वान् । श०
९।४।२।७॥ भवाङ्प्राणः किं छन्दः । का देवता योऽयमवाड् प्राण इति यज्ञायः
शियं छन्दो वैश्वानरो देवता । श. १०।३।२।८॥ भवान्तरदिशः सर्वत इव हीमा अवान्तरदिशः। श० २।६।१ । ११॥
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अभ्यः
( ४६ )
बाव: इयं ( पृथिवी ) वाऽ अविरियं हीमाः सर्वाः प्रजा अवति ।
श० ६ । १ । १ । ३३ ।।
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अन्तर्याम पात्रमेवान्ववयः प्रजायन्ते । श० ४ । ५ । ५ । ३ ॥ अव्ययम् सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु । वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम् । गो० पू० १ । २६ ।।
अशनिः मरुतोऽद्भिरग्निमतमयन् । तस्य तान्तस्य हृदयमाच्छिन्दन् साऽशनिरभवत् । तै० १ । १ । ३ । १२ ।
विद्युद्वाऽअशनिः । श० ६ । १ । ३ । १४ ।।
( प्रजापतिः ) श्रोत्रादविम् (निरमिमीत) | श०७ | ५ | २ | ६॥ नालिकाभ्यामेवास्य वीर्यमस्त्रवत् । सोऽविः पशुरभवन्मेषः । श० १२ । ७ । १ । ३ ।।
वारुणी च हि त्वाष्ट्री चाविः । श० ७ । ५ । २ । २० ।। तस्मादेताः ( अजावयः ) त्रिः संवत्लरस्य विजायमाना द्वौ त्रीनिति जनयन्ति । श० ४ । ५ । ५ । ६ ॥
यदशनिरिन्द्रस्तेन । कौ० ६ ॥ ९ ॥
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अशस्तिः पाप्मा वाऽ अशस्तिः । श० ६ । ३ । २ । ७ ॥
अशिमिदः ( यजु० ३८ | ७ ) अयं वाऽ अवस्युरशिभिदो योऽयं (वातः) पवते । श० १४ । २ । २ । ५ ।।
अशीतिः अन्नमशीतिः । श० ८ । ४ । २ । १७ ।।
अन्नमशीतयः । श० ९ । १ । १ । २१ ।।
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अश्मा अथ यदथु संक्षरितमासीत्सोऽश्मा पृनिरभवदश्रुर्ह वै तमश्मे
त्याचक्षते परोऽलम् | श० ६ । १ । २ । ३॥
शर्कराया अश्मानम् ( असृजत ) तस्माच्छर्कराश्मैवान्ततो भवति । श० ६ । १ । ३ । ५ ॥
स्थिरो वाऽ अश्मा । श० १ । १ । २ । ५ ॥
अश्मा पृश्निः अथ यदक्षु संक्षरितमासीत्सो ऽइमा पृश्निरभवदई वै तमस्मेत्याचक्षते परोऽक्षम् । श० ६ । १ । २ । ३ ॥
असो वा आदित्यो ऽश्मा पृश्निः । श२९ । २ । ३ । १४ ॥ अथः प्रजापतेरक्ष्य श्वयत् । तत्परापतत्ततोऽश्वः समभवद्यदश्वयत्तद
श्वस्याश्वत्वम् । श० १३ । ३ । १ । १ ॥
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( ४७ )
अभ्वः ]
अश्वः प्रजापतेरक्ष्यश्वयत् । तत्परापतत् तदश्वोऽभवत् तद्श्वस्याश्वत्वम् । तै० ० १ । १ । ५ । ४ ॥
प्रजापतेर्धा अक्ष्यश्वयत्तत्परापतत्तदश्वोऽभवत्तदश्वस्याश्वत्वं
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तद्देवा अश्वमेधेन प्रत्यदधुः । तां० २१ । ४ । २ ॥
( प्रजापतिः ) चक्षुवा ऽश्वम् ( निरमिमीत ) । श० ७ । ५ । २।६॥
वरुणो ह वै सोमस्य राज्ञोऽमीवाक्षि प्रतिपिपेष तदश्वयत्ततोऽश्वः समभवत्तद्यच्छ्वयथात्समभवत्तस्मादश्वो नाम । श० ४ । २ । १ । ११
तान् ( असुरान् ) अश्वा भूत्वा ( देवाः ) पद्भियात यदश्वा भूत्वा पङ्गिरपाघ्नत तदश्वानामश्वत्वमश्नुते यद्यत्कामयते य एवं वेद । ऐ० ५ | १ ॥
यदश्रु
अथ
चक्षते परोऽक्षम् । श० ६ । १ । १ । ११ ॥
द्वै
तदश्रु संक्षारतमासीदेष सोऽश्वः । श० ६ । ३ । १ । २८ ॥
संक्षरितमासीत्सोऽथुरभवदथुर्ह वै तमश्व इत्या
अप्सुजा उ वाऽ अश्वः । श० ७ । ५ । २ । १८ ॥ अप्सुयोनिर्वा अश्वः । तै०३ | ८ | ४ | ३ ॥ ३ । ८ । १९ । २ ॥ ३।८।२०१४ ॥
अद्भयो ह वाऽअग्रेऽश्वः सम्बभूव सोऽद्भयः सम्भवन्न सर्वः समभवदसों हि वै समभवत्तस्मान्न सर्वैः पद्भिः प्रतितिष्ठत्येकैकमेव पादमुदच्य तिष्ठति । श० ५ | १ | ४ | ५ ॥ अभ्वोस्यत्यासि मयोसि हयोसि वाज्यसि सप्तिरस्यवासि वृषासि । तां० १ । ७ । १ ॥
( हे ऽश्व त्वं ) अव्वसि । तां १ । ७ । १ ॥ श० १३ | १ । ६ । १ ॥ तै० ३ | ८ | ९ । २ ॥
अत्योऽसीत्याह । तस्मादश्वः सर्वान् पशूनत्येति । तै०
०३।
८ । ९ । १ ॥
तस्मादश्वः सर्वेषां पशूना श्रेष्ठयं गच्छति । तै० ३ | ८|९ | १॥ तस्मादश्वः पशूनां जविष्ठः । ऐ० ५ । १॥
आशुः सप्तिरित्याह । अश्व एवं जवं दधाति । तस्मात्पुराशुरश्वो Sजायत । तै० ३ । ८ । १३ । २ ॥
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[अश्वः अश्वः अश्वः पशूनां त्विषिमान् हरखितमः । तै०३।८।७।३॥ , अश्वः पशूनामाशुः सारसारितमः । तै०३।८।७।२॥ , तस्मादश्वः पशूनामाशिष्ठः। श०१३।१।२॥७॥ ,, अश्वः पशूनां यशखितमः। श० १३ । १ ।२।८॥ तै०३।
८।७।२॥ ,, तस्मादु हैतदश्वः पशूनां भगितमः । श०६।३।३।१३॥
परमोऽश्वः पशूनाम् । श० १३।३।३।१॥
अन्तो वा अश्वः पशूनाम् । तां० २१ । ४।६॥ , अश्वः पशूनामपचिततमः । तै०३।८।७।२॥ ,, तस्मादश्वः पशूनामोजस्वितमः । श०१३ । १ । २।६॥ ,, अश्वः पशूनामोजिष्ठा बलिष्ठः । तै०३।८।७।१॥ , तस्मादश्वः पशूनां वीर्यवत्तमः । श०१३ । १ । २।५ ॥ ,, अश्वः पशूनामन्नादो वीर्यावत्तमः । तै०३। ८ । ७।१॥ ,, वीर्य वा अश्वः । श०२।१ । ४ । २३, २४ ॥ , क्षत्रं वा ऽअन्वश्वः । श०६।४।४ । १२॥ ., क्षत्रं वाऽ अश्वो विडितरे पशवः । श०१३।२।१ । १५ ।। ... यजमानो वा अश्वः । तै०३।९।१७।४,५॥ .. वज्रो वाऽ अश्वः । श०४।३।४।२७ ॥६।३।३। १२॥ , वज्रोऽश्वः । श० १३।१।२।९॥ ., वजी वा एषः । यदश्वः । तै०१।१।५। ५॥ ., वज्री वा अश्वः प्राजापत्यः । तै०३।८।४।२॥ ,, इन्द्रो वा अश्वः । कौ० १५ । ४॥ ,, असौ वा आदित्योऽश्वः । तै०३।९।२३।२॥ , असौ वाऽआदित्य एषो (शुक्लः) ऽश्वः । श०७।३।२।१०॥ .. तस्मा (आयास्यायोद्गात्रे ) अमुमादित्यमश्व श्वेतं कृत्वा
(आदित्याः ) दक्षिणामानयन् । तां० १६ । १२ । ४॥ तेऽङ्गिरस आदित्येभ्य अमुमादित्यमश्व श्वेतं भूतं दक्षिणा
मनयन् । तै० ३ । ९ । २१ । १॥ , ते (मादित्याः) अश्वं श्वेतं दक्षिणां निन्युरेतमेव य एष (सूर्यः)
तपति । कौ० ३०।६॥ ... तस्य (सौर्यस्य हविषः) अश्वः श्वेतो दक्षिणा । तदेतस्य रूपं
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अश्वः ] क्रियते य एष ( सूर्यः ) तपति यद्यश्व श्वेतं न विन्देदपि गौ
रेव श्वतः स्यात् । श०२।६।३।९॥ अश्वः अथ योऽसौ ( सूर्यः ) तपती/३ एषो ऽश्वः श्वेतो रूपं कृत्वा
ऽश्वाभिधान्यपिहितेनात्मना प्रतिचक्राम । ऐ०६ । ३५ ॥ , अग्निा अश्वः श्वेतः । श०३।६।२।५॥ , अग्निरेष यदश्वः । श६।३।३।२२ ॥
सोऽग्निरश्वो भूत्वा प्रथमः प्रजिगाय । गो० उ० ४।११ ।।। अश्वो न देववाहनः (ऋ०३ । २७ । १४) इति । अश्वो ह वा
ऽएप (अग्निः) भूत्वा देवेभ्यो यज्ञं वहति। श०१।४।१।३०॥ , यस्मात्प्रजापतिरालब्धोऽश्वोऽभवत् । तस्मादश्वो नाम । तै०
३९ । २१ । ४॥३।९।२२ । १, २ ॥ ,, प्राजापत्यो वा अश्वः । श०६।५।३।९॥ तै०३।८।२२॥३॥
३।९। १६ । १॥ , प्राजापत्योऽश्वः । श०१३।१।१।१॥ तै०१।१।५ । ५ ॥
३।२।२।१॥ ., सौर्यो वा अश्वः। गो० उ०३। १९ ॥ , वारुणो हि देवतयाऽश्वः । तै०१ । ७।२।६॥ , वारुणो वा अश्वः । तै०२।२।५ । ३॥ ३।८।२०।३॥
३।९।१६।१॥ ,, वारुणो ह्यश्वः । श०७।५।२।१८॥ , वैश्वदेवो वा अश्वः । श०१३ । २।५ । ४॥ तै०३।९।२।
४॥३।९।११ । १॥ ,, अश्वे वै सर्वा देवता अन्वायत्ताः। तै०३।८।७।३॥ , अश्वश्चतुखिशः । तै०२।७।१।३॥ ,, अश्वश्चतुत्रिशो दक्षिणानाम् । तां० १७ । ११ । ३॥
अश्वो ( भूत्वा ) मनुष्यान् (अवहत्)। श० १०।६।४।१॥ , अपूतो वाऽएषोऽमेध्यो यदश्वः । श०१३।१।१।१॥ ,, तस्मादश्वत्रिभिः (पद्भिः) तिष्ठस्तिष्ठति । श० १३१२१७॥६॥ ,, तस्मादश्वः शुक्ल उदुष्टमुख इवाथो ह दुरक्षो भावुकंः। श०७।
३। ।१४॥
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1 अश्वमेधः
( ५० )
अश्वः रश्मिना वा अश्वो यत ईश्वरो वा अश्वोऽयतोऽधृतोऽप्रतिष्ठितः परां परावतं गन्तोः । श० १३ । ३ । ३ । ५ ॥
ईश्वरो वा अश्वः प्रमुक्तः परां परावतं गन्तोः । तै० ३ । ८ । ९।३ ॥ ३१६ । १२ । २ । ३ । ९ । १३ । २ ॥
अश्वतरी अश्वतरीरथेनाग्निर। जिमधावत्तासां प्राजमानो योनिमकूल्यत्तस्मात्ता न विजायन्ते । ऐ० ४ । ९ ॥
अश्वत्थः प्रजापतिर्देवेभ्यो निलायत । अश्वो रूपं कृत्वा । सोऽश्वत्थे संवत्सरमतिष्ठत् । तदश्वत्थस्याश्वत्थत्वम् । तै० ३ । ८ । १२ । २ ॥
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अश्वमेधः ततोऽश्वः समभवद्यदश्वत्तन्मेध्यमभूदिति तदेवाश्वमेधस्याश्वमेधत्वम् । श० १० । ६ । ५ । ७ ॥ असावादित्योऽश्वमेधः । श० ९ । ४ । २ । १८ ॥
असौ वा ऽआदित्य एकविशः सोऽश्वमेधः । श० १३ । ५ । १।५ ॥
एष वाऽअश्वमेधो य एष ( सूर्यः ) तपति । श० १० । ६।
५। ८॥
एष एवाश्वमेधो यश्चन्द्रमाः । श० ११ । २ । ५ । १ । राष्ट्रमश्वमेधः । श० १३ । २ । २ । १६ ॥
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अग्निर्देवेभ्यो निलायत । अश्वो रूपं कृत्वा । सोऽश्वत्थे संवत्सरमतिष्ठत् । तदश्वत्थस्याश्वत्थत्वम् । तै० १ १ ३ ९ ॥ त्वच एवास्यापचितिरस्रवत्सोऽश्वत्थो वनस्पतिरभवत् । श० १२ । ७ । १।९॥
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तेजसो या एष वनस्पतिरजायत यदश्वत्थः । ऐ०७ । ३२ ॥ साम्राज्यं वा एतद्वनस्पतीनाम् ( यदश्वत्थः ) । ऐ० ७ । ३२ ॥ ८ । १६ ॥
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आश्वत्थं ( पात्रं ) भवति । तेन वैश्योऽभिषिञ्चति स यदेवादोऽश्वत्थे तिष्ठत इन्द्रो मरुत उपामन्त्रयत । श० ५ । ३ । ५ । १४ ।।
आश्वत्थेन ( पात्रेण ) वैश्यः ( अभिषिञ्चति ) तै०१ । ७ ।
८।७ ॥
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अश्वमेधः ] अश्वमेधः राष्ट्र वा अश्वमेधः। श० १३ । १।६।३॥ तै०३।८।
९॥४॥३।९।४।५॥
श्री राष्टमश्वमेधः। श० १३।२।९।२॥ ३।९।७।१ , यजमानो वाऽअश्वमेधः । श०१३।२।२।१॥
राजा वाऽएष यक्षानां यदश्वमेधः । श० १३ । २।२।१॥ वृषभ एष यशानां यदश्वमेधः। श०१३।१।२॥२॥ ऋषभ एष यज्ञानाम् । यदश्वमेधः।०३।।३।३। अश्वमेधे सर्वा देवता अन्वायत्ताः । श०१३।१।२।९। प्राणापानौ वा एतौ देवानाम् । यदर्काश्वमेधौ । तै०३।९। २१ । ३॥ ओजो बलं वा एतौ देवानाम् । यदर्काश्वमेधौ । तै०३। ९।२१ । ३॥ एष (अश्वमेधः) वै ब्रह्मवर्चसी नाम यक्षः। तै०३।९। १९।३॥ एष (अश्वमेधः) वै तेजस्वी नाम यक्षः। तै०३।९।१९।३॥ एष (अश्वमेधः) वा अतिव्याधी नाम यसः । तै०३। ९। १९ । ३॥ एष (अश्वमेधः) वा ऊर्जस्वानाम यक्षः। तै:३।९।१९।१॥ एष (अश्वमेधः) वै प्रतिष्ठितो नाम यशः।०३।९।१९॥२॥ एष (अश्वमेधः) वै लप्तो नाम यज्ञः। तै०३।९।१९।३॥ एष (अश्वमेधः) वै दी? नाम यशः।०३।९।१९।३॥ एष (अश्वमेधः)बै विधृतो नाम यज्ञः। तै०३१९।१९।२।। एष (अश्वमेधः) वै व्यावृत्तो नाम यक्षः। तै०३।९।१९।२॥ एष (अश्वमेधः) वै पयस्वान्नाम यक्षः।०३।९।१९।१॥ एष (अश्वमेधः) वैविभूर्नाम यज्ञः। तै०३।९।१९।१॥ एष (अश्वमेधः) वै प्रभूर्नाम यशः । तै०३।९।१९।१॥ प्रजापति सर्वङ्करोति योऽश्वमेधेन यजते । तां २१ । ४।२॥ तरति सर्व पाप्मानं तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेधेन यजते। श०१३ । ३।१।१॥
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अश्विनौ ] अश्वमेधः योऽश्वमेधेन यजते । देवानामेषायनेनैति। तै० ३१९ ।
२२।३॥ तेजसा वा एष ब्रह्मवर्चसेन व्युध्यते । योऽश्वमेधेन यजते। तै०३।९।५।१॥ स यो हैवं विद्वानग्निहोत्रं च जुहोति दर्शपूर्णमासाभ्यां च यजते मासि मासि हैवास्याश्वमेधेनेष्टं भवति । श० ११ ।
२ ५। ५॥ , निरायत्याश्वस्य शिश्नं महिण्युपस्थे निधत्ते वृषा वाजी
रेतोधा रेतो दधात्विति । श० १३।५।२।२॥ अश्वयुजौ ( नक्षत्रम् ) अश्वयुजोरयुञ्जत । तै०१।५।२।९॥
, अश्विनोरश्वयुजौ। तै०१।५।१।५॥३।१।२।१०॥ अश्वस्तोमीयम् अश्वस्य वा आलब्धस्य मेध उदक्रामत् । तदश्वस्तो
मीयमभवत् । तै०३।९।१२ । १॥ , अश्वो वा अश्वस्तोमीयम् । तै०३।९।१२।३।
मेधोऽश्वस्तोमीयम् । तै०३।९ । १२ । १ ॥ अश्ववालाः यज्ञो ह देवेभ्यो ऽपचक्राम सोऽश्वो भूत्वा पराङाधवर्त
तस्य देवा अनुहाय वालानभिपेदुस्तानालुलुपुस्ताना. लुप्य सार्द्ध संन्यासुस्तत पता ओषधयः समभवन्
यदश्ववालाः । श०३।४।१।१७॥ अश्विनौ इमे ह वै द्यावापृथिवी प्रत्यक्षमश्विनाविमे हीद सर्वमा
इनुवातां पुष्कररजावित्यग्निरेवास्यै (पृथिव्यै) पुष्करमा
दित्योऽमुष्य (दिवे )। श०४।१ । ५ । १६॥ ,, श्रोत्रेअश्विनौ । श० १२ । १।१।१३॥ ,, नासिकेअश्विनौ । श० १२।९।१।१४ ॥ , तद्यौ हवाऽस्मौ पुरुषाविवाक्ष्योः। एतावेवाश्विनौ। श०१५।
९।१। १२॥ , अश्विनावध्व! | ऐ० १ । १८ ॥ श०१।१।२।१७॥३॥
९।४।३॥ तै०३।२।२।१॥ गो० उ०२।६॥ अश्विनौ वै देवानां भिषजौ। ऐ०१॥ १८ ॥ कौ० १८ । १॥
ते०१।७।३: ५ ॥ गो० उ०२।६॥ ५। १०॥ , मुख्यो वाऽअश्विनौ ( यज्ञस्य) । श०४।१।५ । १९॥ , श्येताविव ह्यश्विनौ । श०५ । ५।४।१॥
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( ५३ )
अष्ट ]
अश्विनौ सयोनी वा अश्विनौ । श० ५ । ३ । १ । ८ ॥ अश्विनाविव रूपेण ( भूयासम् ) । मं० २ । ४ । १४ ॥ आश्विनं द्विकपालं पुरोडाशं निर्वपति । श०५ | ३ | १ | ८ ॥ आश्विनो द्विकषालः ( पुरोडाशः ) । तां० २१ वसन्तग्रीष्मावेवाश्विनाभ्याम् ( अवरुन्धे ) |
| १० | २३ | श० १२ ।
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इममेव लोकमाश्विनेन ( अवरुन्धे ) | श० १२ / ८ / २ / ३२ ॥ आश्विनमन्वाह तदमुं लोकं ( दिवं ) आप्नोति । कौ० ११ ।
२ । १८ । २ ॥
अषाढा (इष्टका ) ( देवाः ) तां (इष्टकां) उपधायासुरान्त्सपत्नान् यदसहन्त तस्मादषाढा |
भ्रातृव्यानस्मात्सर्व्वस्मादसहन्त
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६ । २ । ३४ ॥
अश्विभ्याम्धानाः । तै० १ | ५ | ११ | ३॥
अथ यदेनं (अग्नि) द्वाभ्यां बाहुभ्यां द्वाभ्यामरणीभ्यां मन्थन्ति द्वौ वा अश्विनौ तदस्याश्विनं रूपम् । ऐ० ३ | ४ ॥ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे । अश्विनोर्बाहुभ्याम् । तै०२ | ६ । ५ । २ ॥
गर्दभरथेनाश्विना उदजयताम् । ऐ० ४ । ९ तदश्विना उदजयतां रासभेन । कौ० १८ । १ ॥
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श०७ । ४ । २ । ३३ ॥
एते सर्वे प्राणा यदषाढा । श० ७ । ४ । २ । ३६ ॥
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अषाढा ( नक्षत्रम् ) यन्नासहन्त । तदषाढाः ।
ग्रीवा अषाढा । श०७ । ५ । १ । ३५ ।।
इयं ( पृथिवी) वाऽअषाढा । श० ६ । ५ । ३ । १ ॥ ७ । ४।
२ । ३२ ।। ८ । ५ । ४।२॥
वागषाढा । श० ६ | ५ | ३ | ४ ॥ ७ । ५ । १ । ७॥
वाग्वाऽअषाढा श० ७ । ४ । २ । ३४ ॥ ८ । ५ । ४ । १ ॥
०१।५।२।८ ॥
अपां पूर्वाषाढाः । तै० १ | ५ | १ | ४ ॥ ३ । १ । २ । ३॥ विश्वेषां देवानामुत्तराः ( अषाढाः ) । तै० १ । ५ । १ । ४ ॥ ३ । १ । २ । ४॥
यदष्टाभिः (ऋग्भिः) अवारुन्धताष्टाभिराश्नुवत तदष्टानामष्टत्वम् । ऐ० १ । १२ ॥
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[ असुरः
( ५४ )
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अष्टका प्राजापत्यमेतदहर्यदष्टका । श० ६ | २ | २ | २३ ॥ पर्वैतत्संवत्सरस्य यदष्टका | श० ६ । २ । २ । २४ ॥ अष्टरातः अष्टरात्रेण वै देवाः सर्वमाश्नुवत । तां २२ । ११ । ६ ॥ अष्टाचत्वारिंशः : ( स्तोमः) अन्तो वा अष्टाचत्वारिंशः । तां० ३ । १२ । २ ॥ "विवर्तोऽष्टाचत्वारिंशः " शब्दं पश्यत ॥
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अष्टादशः ( स्तोमः ) पश्य " प्रतूर्तिरष्टादशः ।
अष्टादर्शनः संवत्सरस्य वा एषा प्रतिमा । यदष्टादशिनः । द्वादशमासाः पञ्चर्त्तवः । संवत्सरोऽष्टादशः । तै०३।९।१।१-२॥
असत् मृत्युर्वाऽअसत् । श० १४ । ४ । १ । ३१ ॥
तदाहुः किं तदसदासीदित्कृषयो वाव तऽग्रेऽसदासीत् । श० । ६ । १ । १ । १ ॥
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अथ यदसत्सर्क् सा वाक् सोऽपानः । जै० उ० १ | ५३।२ ॥ असन्पांसवः अथ यदेतद्भस्मोद्धृत्य परावपन्त्येष एवासन्पार्थसवः । श०२ । ३ । २ । ३ ॥
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असमरथः ( यजुः १५ । १७ ) पश्य " रथप्रोतः ।
असितग्रीवः ( यजुः २३ | १३ ) अग्निर्वाऽअसितग्रीवः । श० १३ | १ | ७ । २ ॥
असिः वज्रो वाऽअसः । श० ३ । ८ । २
१२ ॥
असुः तस्या एतस्यै वाचः प्राणा एवाऽसुः । एषु हीदं सर्वमस्तेति । जै० उ० १ । ४० । ७ ॥
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प्राणो वाऽअसुः । श० ६ | ६ | २ | ६॥
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असुरः तेनासुनासुरानसृजत । तदसुराणामसुरत्वम् । तै०२ । ३।
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८॥२॥
त्वमग्ने रुद्रो असुरो महो दिवः । तै० ३ । ११ । २ । १ ॥ असितो धान्वो राजेत्याह तस्यासुरा विशस्तऽहम आसत Sइति कुसीदिन उपसमेता भवन्ति तानुपदिशति मायावेदः सोऽयमिति । श० १३ | ४ | ३ | ११ ॥
दिवा देवानसृजत नक्तमसुरान् यद्दिवा देवानसृजत तहेवानां देवत्वं यदसूर्य्यं तदसुराणामसुरत्वम् । ष० ४ । १॥ वाश्च वा असुराश्च । उभये प्राजापत्याः प्रजापतेः पितुर्दायमुनेयुरेतावेवार्धमासौ ( = शुक्लकृष्णपक्षौ ) । श० १ । ७ ।
२ । २२ ॥
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(५५ )
अस्थि ] असुरः देवाश्च वा असुराश्च प्रजापतेयाः पुत्रा आसन् । तां० १८ ।
१।२॥ तेऽ सुरा भूयालो बलीयास (प्रजापतेः पुत्राः) आसन् ।
तां० १८।१।२॥ __ कनीयस्विन इव वै तर्हि (युद्धसमये) देवा आसन भय
स्विनोऽसुराः। तां० १२ । १३ । ३१ ॥ , कानीयसा एव देवा ज्यायसा असुराः। श०१४।४।१।१॥
(असुराः) स्वेष्वेवास्येषु जुह्वतश्चेरुः। श० ११ । १।८।१॥
मायेत्यसुराः ( उपासते)। श० १० । ५। २ । २०॥ ,, असुरमायया । कौ० २३ । ४॥
आसुरी माया स्वधया कृतासीति प्राणो वाऽअसुस्तस्यैषा माया स्वधया कृता । श०६।६।२।६। (प्रजापतिः) तेभ्यः (असुरेभ्यः) तमश्च मायां च प्रददौ ।
श०।२।४।२।५ ॥ , अहर्वै देवा अश्रयन्त रात्रीमसुराः । ऐ०४१ ५ ॥
अहः देवा आश्रयन्त रात्रीमसुराः । गो० उ०५ । १॥ ( असुराः प्रजापतिमब्रवन् ) दयध्वमिति न आत्थेति । श०१४ । ८।२।४॥ योऽपक्षीयते तं ( अर्धमासं) असुराः उपायन् । श० १।७।
२। २२॥ , असुरा वा एषु लोकेष्वासस्तान्देवा ऊर्द्धसभनेन (सामना)
एभ्यो लोकेभ्यः प्राणुदन्त । तां ९।२।११॥ तनोऽसुरा एषु लोकेषु पुरश्चक्रिरेऽयस्मयीमेवास्मिल्लोके रजतामन्तरिक्षे हरिणीं (= सुवर्णमयीं) दिवि । श०३।
४।४।३॥ , अर्वा ( भूत्वा ) असुरान् ( अवहत्) । श०१०।६।४।१॥ असुरम् मनो वा असुरम् । तद्धयसुषु रमते । जै० उ०३।३५ ॥३॥ भस्तम् गृहा वा अस्तम् । श०२।५ । २।२९ । मास्थि न झर्वस्थार्तिकचन वर्षीयोऽस्थ्यस्ति । श० ८।७।२।१७॥ , षष्टिश्च ह वै त्रीणि च शतानि पुरुषस्यास्थीनि । श० १०।
१।४।१२॥
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[अहुरः अस्थि सप्त च ह वै शतानि विंशतिश्च संवत्सरस्याहानि च रात्र- यश्चेत्येतावन्त एव पुरुषस्यास्थीनि च मजानश्चेत्यत्र तत्समम् । गो० पू०५।५॥
अस्थि वा एतत् । यत्समिधः । तै० १ । १ । २।४॥ अस्मयुः अग्निं भरन्तमस्मयुमित्यग्निं भरन्तमस्मत्प्रेषितमित्येतत् ।
श०६।३।२। ३ ॥ अनीवयः (यजु० १४ । १८) अन्नमस्रीवयस्तद्यदेषु लोकेष्वन्नं तद.
स्त्रीवयोऽथो यदेभ्यो लोकेभ्योऽन्न स्रवति तदनीवयः ।
श०८।३।३।५ ॥ अहः यजमानदेवत्यं वा अहः । भ्रातृव्यदेवत्या रात्रिः। तै० २।२।
६।४॥ ,, ऐन्द्रमहः । तै०१।१।४।३।१ । ५ । ३।४ ॥ , मैत्रं वा अहः । तै०१। ७।१०।१ ॥ ,, स यदादित्य उदेति । एतामेव तत्सुवर्णा कुशीमनुसमेति ।
तै० १।५।१०। ७॥ ,, अहरेव सुवर्णा (कुशी ) अभवत् । तै० १।५ । १०। ७ ॥ अहल्या ( इन्द्र !) अहल्यायै जाति । श०३।३।४।१८॥ ष.
१।१॥ (तैत्तिरीयारण्य के १ । १२ । ४॥ लाट्यायनीत
सूत्रे १।३।१॥) ,, अहल्याया ह मैत्रेय्याः ( इन्द्रः) जार आस । १०१।१॥ अहिर्बुध्न्यः एष ह वा अहिर्बुध्न्यो यदग्निर्गार्हपत्यः । ऐ०३ । ३६ ॥
, अग्नि, अहिर्बुध्न्यः । कौ० १६ । ७॥ अहीनम् सर्वान् लोकानहीनेन (अभिजयति)। तै०३।१२।५।७॥ र अहीनानि ह वा एतान्यहानि न ह्येषु किंचन हीयते । ऐ०
६।१८॥ भहुतादः ( देवाः यजुः १७ । १३) अहुतादो हि प्राणाः। श० ९।
२।१।१४॥ अथैता (प्रजाः) अहुतादो यद्राजन्यो वैश्यः शूद्रः। ऐ०
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,
भारः अदुर ददं ते परिददामि । मं० १ । ६ । २१ ॥
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( ५७ )
आकूपारम् ] अहेडमानः (यजु० १८|४९ ) अहेडमानो वरुणेह बोधीत्यक्रुध्यन्नो वरुणे बोधीत्येतत् । श० ९ । ४ । २ । १७ ॥
·
अहोरात्रे स ( प्रजापतिः ) एतमतिरात्रमपश्यन्तमाहरत्तेनाहोरात्रे प्राजनयत् । तां• ४ । १ । १४ ॥
अहोरात्रे वा अश्वस्य मेध्यस्य लोमनी । तै० २३ । १ ॥
पते ह वै संवत्सरस्य चक्रे यदहोरात्रे । ऐ० ५ । ३• ॥ अहोरात्रे परिवेष्ट्री । श० ११ । २ । ७ । ५॥
तमस्मा अक्षितिमहोरात्रे पुनर्दत्तः । जै० उ० ३ । २२ । ८ ॥ मृत्योर्ह वा एतौ व्राजबाहू यदहोरात्रे | कौ० २ । ९ ॥ अहोरात्राणीष्टकाः (संवत्सरस्य) । तै० ३ | ११ | १० ॥ ४ ॥
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( आ )
आ ( =अर्वाक् ) – प्रेति ( " " इति ) वै प्राण एति ('आ' इति ) उदानः । ३० १।४।१।५ ॥
प्रेति पशवो वितिष्ठन्तऽपति समावर्तन्ते । श० १।
४। १ । ६ ॥
पत्यपानस्तदसौ ( - ) लोकः । जै० उ०२ । ९ ।
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प्रेति वै रेतः सिच्यतऽपति प्रजायंत । श० १ । ४ । १।६॥ आकाशः—स यस्ल आकाश आदित्य एव सः । एतस्मिन् ह्युदिते
सर्वमिदमाकाशते । जै० उ० १ । २५ | २ ॥
स यस्स आकाश इन्द्र एव सः । जै० उ० १ । २८ । २ ॥ १ । ३१ । १ । १ । ३२ । ५ ।।
आकूपारम् ( साम ) – आ तृ. न इन्द्र भुमन्तमित्याकृपारम् | तां० ९ । २ । १३ ॥
अकूपारो वा एतेन कश्यपो जेमान महिमानमगच्छज्जेमानम्महिमानं गच्छत्याकृपारेण तुष्टुवानः । तां० १५ । ५ । ३० ॥ अकूपाराङ्गिरस्यासीत्तस्या यथा गोधायास्त्वगेवं त्वगासीतामेतेन विः सान्नेन्द्रः पूत्वा सूर्य्यत्यच समकरोद्वाव सा तर्ह्यकामयत यत्कामा एतेन साम्ना स्तुवते स एभ्यः कामः समुध्यते । तां० ९ । २ । १४ ॥
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[ आग्रयणः
( ५८ ) आक्षारम् (साम)-एभ्यो वै लोकेभ्यो रसोऽपाक्रामत्तं प्रजापति
राक्षारेणाक्षारयद्यदाक्षारयत्तदाक्षारस्याक्षारत्वम् । तां. ११ ।। ५ । १०॥ तस्माद्यः पुरा पुण्यो भूत्वा पश्चात् पापीयान् स्यादाक्षारं ब्रह्मसाम कुर्वीतात्मन्येवेन्द्रियं वीर्य्य रसमाक्षारयति ।
तां० ११ । ५ । ११॥ , ते देवा असुरान् कामदुघाभ्य आक्षारणानुदन्त नुदते
भ्रातृव्यं कामदुघाभ्य आक्षारेण तुष्टुवानः। तां०११।५।९॥ खुः आखुस्ते (रुद्रस्य) पशुः । श० २।६। २ । १० ॥ तै.
१।६।१०।२॥ आगा: तद्यास्तिन आगा इम एव ते लोकाः । जै० उ०१।२०॥७॥ आगीतानि अथ यानि त्रीण्यागीतान्यग्निर्वायुरसावादित्य एतान्या
गीतानि । जै० उ० १ । २० । ८॥ आगूः आगूर्वजः । ऐ० २ । २८ ॥ आग्नीध्रः आग्नीधे झधारयंत यदाग्नीधेऽधारयन्त तदाग्नीध्रस्यानी
ध्रत्वम् । ऐ०२।३६॥ " द्यावापृथिव्यो वाऽएष यदाग्नीध्रः । श० १ । ८।१।४१ ॥ आग्नीध्रम् अन्तरिक्षमाग्नीध्रम् । तै०२।१।५।१॥
, अन्तरिक्षं वाऽआग्नीध्रम् । श०९।२।३।१५ ॥ आग्नीध्रीयः बाहूऽएवास्य ( यशस्य) आग्नीध्रीयश्च मार्जालीयश्च ।
श०३।५।३।४॥ आग्नेयम् (साम )अग्निः सृष्टो नोददीप्यत तं प्रजापतिरेतेन साम्रो
पाधमत् स उददीप्यत दीप्तिश्च वा एतत्साम ब्रह्मवर्चसञ्च दीप्तिश्चैवैतेन ब्रह्मवर्चसञ्चावरुन्धे । तां० १३ । ३ । २२॥
त्रिणिधनमानेयं भवति प्रतिष्ठायै । तां० १३।३।२१ ।। आग्नेयी (आगा) सा या मन्द्रा साऽऽयी (आगा) । तया प्रातस्स
वनस्योद्रेयम् । जै० उ०१। ३७ । २॥ आग्रयण: यां वाऽअमूंग्रावाणमाददानो वाचं यच्छत्यत्र वै साग्रेऽव.
दत्तद्यत्सात्राग्रेऽवदत्तस्मादाग्रयणोनामाश०४।२।२।६॥ , आत्माग्रयणः । श०४।४।१।५॥ , आरमा वा आग्रयणः । श०४।१।२॥५॥४।५।४।६॥
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आचमनम् ] भाग्यणम् अप्रथमिव हीदम् (आग्रयणाख्यं हतिः)। श० २।४।
३ । १३ ॥ संवत्सराद्वा एतदधिप्रजायते यदाग्रयणम् । गो० उ० १ । १७ ॥ आग्रयणेनानायकामो यजेत । कौ० ४ । १२॥ एतेन वै देवाः । यज्ञेनेष्ट्वोभयीनामोषधीनां याश्च मनुष्या उपजीवन्ति याश्च पशवः कृत्यामिव त्वद्विषमिव त्वदपजघ्नुस्तत आश्नन्मनुष्या आलिशन्त पशवः । श०
२।४।३।११॥ आग्लागृधः-तं वा एतमाग्लाहतं संतमाग्लागृथ इत्याचक्षते परोक्षेण
परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति प्रत्यक्षद्विषः । य एष ब्राह्मणो गायनोवा नर्तनो वाभवति तमाग्लागृध इत्या
चक्षते । गो० पू० २१ २१ ।। आधार:-शिरो वा एतद्यक्षस्य यदाधारः । तै०३।३।७।१०॥
प्राण आधारः।०३।३।७।९॥ आङ्गिरसः-सोऽयास्य आङ्गिरसः। अङ्गाना हि रसः प्राणो वाऽ
अङ्गानाथरसः । श०१४।४।१ । २१ ॥ आङ्गिरसोऽङ्गाना हि रसः । श०१४।४।१।९॥ स एष एवाऽऽङ्गिरसः ( अन्नाद्यम् ) । अतो हीमान्यनानि रसं लअन्ते । तस्मादाङ्गिरसः । यद्वेवैषामङ्गानां रसस्त
स्माद्ववाऽऽङ्गिरसः। जै० उ०२। ११ । ९॥ आङ्गिरसम् (साम)-चतुर्णिधनमाङ्गिरसं भवति चतूरात्रस्य धृत्यै।
तां०१२। ९ । १८॥ आशिरलो वेदः-तानङ्गिरस ऋषीनाङ्गिरसांश्चार्षेयानभ्यश्राम्यदभ्यत
पत्समतपत्तेभ्यः श्रान्तेभ्यस्ततेभ्यः सन्तप्तेभ्यो यान् मन्त्रानपश्यत्स आङ्गिरसो वेदोऽभवत् । गो० पू०
१।८॥ आचमनम् तद्विद्वासः श्रोत्रियाः। अशिष्यन्त आचामन्त्यशित्वा
चामन्त्येतमेव तदनमनग्नं कुर्वन्तो मन्यन्ते । श० १४ ।
९।२।१५ ॥ , तद्यथा भोक्ष्यमाणोऽप एव प्रथममाचामयेदप उपरिष्टात् ।
गो० पू०२१९॥
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[ आज्यम्
( ६० )
आचार्य्याः संस्थानाध्यायिन आचार्याः पूर्वे बभूवुः श्रवणादेव प्रतिपद्यन्ते न कारणं पृच्छन्ति । गो० पू० १ । २७ ॥ आच्छच्छन्दः (यजु० १५ | ४५ ॥ ) अन्नं वाऽआच्छच्छन्दः । श० ८ । ५ । १ । ३, ४ ॥
आजिगम् (माम ) आजिगं भवत्याजिजित्यायै । तां० १५ । ९ । ६॥ आजिज्ञासेन्याः ( ऋच: ) आजिज्ञासेन्याभिर्वै देवा असुरानाज्ञायाथैनानत्यायन् । ऐ० ६ । ३३ ॥ आजिशान्यामिई वै देवा असुरानाज्ञायाथैनानत्यायन् । गो० उ० ६ | १३ ॥
अथाजिज्ञासेन्याः शंसतीहेत्थ प्रागपागुदागधरागिति । गो० उ० ६ । १३ ।। भाज्यदोहानि ( सामानि ) एतैर्वै सामभिः प्रजापतिरिमान् लोकान् सर्वान् कामान् दुग्ध यदाच्यादुग्ध तदाच्यादोहानामाच्या दोहत्वम् । तां० २१ । २ । ५ ।।
ज्येष्ठसामानि वा एतानि ( आज्यदोहानि ) श्रेष्ठसामानि प्रजापतिसामानि । तां० २१ । २ । ३॥
आज्यपाः ( देवाः ) प्रयाजानुयाजा वै देवा आज्यपाः । श० १।५ । ३ । २३ । १ । १ । १ । १० ॥
भाज्य भागः वायव्य आज्यभागः । तै० ३ । ९ । १७ । ४, ५ ॥
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चक्षुषी ह वा एते यज्ञस्य यदाज्यभागौ । श० १ । ६ । ३ । ३८ ॥
चक्षुषी वाऽपते यशस्य यदाज्यभागौ । श० ११ । ७ । ४ । २ । १४ । २ । २ । ५२ ।।
चक्षुर्वा आज्यभागौ । कौ० ३ । ५ ॥
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अ. ज्यम् महिष्यभ्यनक्ति । तेजो वा आज्यम् । तै० ३ । ९ । ४ । ६॥
तेजो वा आज्यम् । तां० १२ । १० । १८ ॥
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तेज आज्यम् । तै० १ | ६ | ३ | ४ ॥ २ । १ । ५ । ५ ॥ २ । ७ । १ । ४ ॥
अग्नेर्वा एतद्रूपम् | यदाज्यम् । तै० ३ । ८ । १४ । २ ॥
देवलोको वा आज्यम् | कौ० १६ । ५॥
एतद्वै देवानां प्रियतमं धाम (यजु० १ । ३१ ) यदाज्यम् ।
श० १ । ३ । २ । १७ ॥
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आज्यम् ] आज्यम् एतद्वे देवानां प्रियं धाम यदाज्यम् । श०१३।३।६।२॥ ,, आज्यम् (=विलीनं सर्पिः) वै देवानां सुरभि । ऐ०१।३॥ ,, एषा हि विश्वेषां देवानां तनूः यदाज्यम् । तै०३।३।४।६॥ ,, एतद्वै जुष्टं देवानां यदाज्यम् । श०१ । ७।२।१०॥
पतछै संवत्सरस्य स्वं पयः यदाज्यम् । श०१।५।३।५॥
रस आज्यम् । श०३ । ७।१।१३ ॥ ,, आज्य हवाऽअनमोर्यावापृथिव्योःप्रत्यक्षरसः। श०
४।३।१०॥ पशव आज्यम् । तै०१।६।३।४॥ यो वा आज्यम् । तै०३।३।४।१॥ यजमानो वा आज्यम् । तै०३।३।४।४॥ वजो ह्याज्यम् । श०१।३।२।१७ ॥ वो वाऽआज्यं वज्रेणैवैतद्रक्षासि नाष्ट्रा अपहन्ति । श०७।४।१।३४॥ वो वा 5 आज्यं तद्वजेणैवैतन्नाण्ट्रारक्षास्यवबाधते । श०३।६।४।१५॥ वजो वा आज्यम् । कौ०१३।७॥ श०१।५। ३।४॥ ३।३।१।३।३।४।३।११॥ तै०३।८ । १५ । १॥ काम आज्यम् । तै०३।१।४।१५ ॥३।१ । ५ । १५ ॥ सत्यमाज्यम् । श० ११।३।२।१॥ प्राणो वा आज्यम् । तै०३।८।१५। २.३॥ रेतो वाऽआज्यम् । श० १।९।२ । ७ ॥३।६।४ । १५ ॥ ६:३।३।१८॥ रेत आज्यम् । श०१।३।१ । १८॥१।५ । ३ । १६॥ तै० ३।८।२।३॥ छन्दासि वा आज्यम् । ते० ३।३। ५ । ३॥
अयातयाम ह्याज्यम् । श०१।५ । ३ । २५ ॥ , त्रैष्टुभमयनं भवत्योजस्कामस्याथकारणिधनमाज्यनामुमि
लोक उपतिष्ठते । तां० १३ । ४ । १० ॥ ईश्वरो वा एषोऽन्धो भवितोः । यश्चक्षुषाज्यमवेक्षते । निमील्यावक्षेत । तै०३।३।। २ ॥
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[ आत्मा आज्यानि (शस्त्राणि, स्तोत्राणि ) आज्येन वै देवाः सर्वान् कामान
जयन्त्सर्वममृतत्वम् । कौ० १४ । १॥ ते वै प्रातराज्यैरेवाजयंत आयन् यदाज्यैरेवाजयंत आयंस्तदाज्यानामाज्यत्वम् । ऐ०२।३६ ॥ ते (देवाः) आजिमायन्यदाजिमायॐ स्तदाज्यानामाज्यत्वम् । तां०७।२।१॥ नहा इंदं षड्विधमाज्यं तूष्णींजपस्तूष्णींशंसः पुरोरुक्सू
क्तमुक्थवीर्य याज्यति । कौ० १४ । १॥ ,, आत्मा वै यजमानस्याज्यम् । कौ० १४ । ४ ॥
वागेवाज्यम् । कौ० २८ । ९॥ , सर्वाणि स्वराण्याज्यानि (स्तोत्राणि) । तां०७ । २।५ ॥ आञ्जनम् तेजो वा एतदक्ष्योर्यदाञ्जनम् । ऐ०१।३॥ तपवाः (आपः) तेजश्च ह वै ब्रह्मवर्चसं चाऽऽतपवा आपः।
ऐ०८।८। भातानः यज्ञो वाऽआतानः । श०३।८।२।२॥ आतिथ्यम् शिरो वा एतद्यक्षस्य यदातिथ्यम् । ऐ० १ । १७, २५ ॥
को०८।१॥ , अथ यदातिथ्येन यजन्ते । विष्णुमेव देवतां यजन्ते । श०
१२।१ । ३।४॥ आतीषादीयम् (साम)-- आयुर्वा आतीषादीयमायुषोऽवरुध्यै । तां०
१२' ११ । १५ ॥ आरमा आत्मा हृदये (श्रितः)। तै०३।१०।८।९॥
आत्मा वै तनूः । श०६।७।२।६॥ मध्यतो ह्ययमात्मा । श०६।२।२॥ १३ ॥ ८।१।४।३॥ आत्मनो ह्येवाध्यङ्गानि प्ररोहन्ति : श०८।७ । २॥ १५ ॥ आत्मनो वाऽइमानि सर्वाण्यङ्गानि प्रभवन्ति । श०४।२।
२॥५॥ ,, सप्तपुरुषो ह्ययं पुरुषो यञ्चत्वार आत्मा त्रयः पक्षपुच्छानि ।
श०६।१ । १।६।। , चतुर्विधोायमात्मा । श. ७।१ । १ । १८॥
(=शरीरम् ) पाङक्त इतर आत्मा लोमत्वङ्मासमस्थि मजा । तां. ५ । १ । ४॥
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( ६३. )
आत्मा ] आरमा षडङ्गोऽयमात्मा षड्विधः । कौ० २०१३॥ , स पश्वविश आत्मा । श०१०।१।२।८॥
तस्मादितर आत्मा मेद्यति च कृश्यति च । तां०५।१।७॥
आत्माहि प्रथमः सम्भवतःसम्भवति । श०१०।१।२।४॥ , आत्मा ह्येवाग्रे सम्भवतः सम्भवति । श०७।१।१ । २१ ॥
आत्मा ह्येवाग्ने सम्भवतः सम्भवत्यथ दक्षिणं पक्षमथ पुच्छमधात्तरम् । श०८।७।२।१३॥ (शरीरम् ) तस्मादिमान्यन्वञ्चिच तिर्यश्चि चात्मनस्थीनि । श०८।७।२।१०॥ भूमोऽरषोऽङ्गानां यदात्मा । श. ६।६।१।१०॥ सर्व ७ ह्ययमात्मा । श०४।२।२।१॥ ( = शरीरम्) तस्मादय सर्व एवात्मोष्णस्तद्वैतदेव जीविष्यतश्च मरिष्यतश्च विज्ञानमुष्ण एव जीविष्यञ्छीतो मरिष्यन् । श०८।७।२।११॥ ( =शरीरम् ) त त्सवं आत्मा वाचमप्येति वाङ्मयो भवति । को०२१७॥ एतन्मयो वाऽअयमात्मा वाङ्मयो मनोमय प्राणमयः । श. १४।४।३।१०॥ बाह्यो ह्यात्मा । श०६।६।२।१६ ॥ आत्मा यजमानः । कौ०१७। ७ ॥ गो० उ० ।५।४॥ आत्मैवोखा । श०६।५।३।४।६।६।२।१५ ॥ अविनाशी वाऽअरेऽयमात्मानुच्छित्तिधर्मा । श० १४।७। ३। १५ ॥ यथा व्रीहिर्वा यवो वा श्यामाको वा श्यामाकतण्डुलो वैवमयमन्तरात्मन्पुरुषो हिरण्मयो यथा ज्योतिरधृममेवं ज्यायान्दिवो ज्यायानाकाशाज्यायानस्यै पृथिव्य ज्यायान्ल्सवे. भ्यो भृतेभ्य स प्राणस्यात्मेष मऽआत्मैतमित आत्मानं प्रेत्याभिसम्भविप्यामीति यस्य स्यादद्धा न विचिकित्सास्तीति । श०१०। ६।३।२॥ अथ यो हैवैतमग्नि सावित्रं वेद । स एवास्माल्लोकात्प्रेत्य । आत्मानं वेद । अयमहमस्मीति । तै० ३।१०।११।१॥ आत्मनो वाऽअरे दर्शनेज श्रवणेन मत्या विज्ञानेने सर्व पिदितम् । श० १४ । ५ । ४।५॥
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[मादिः
( ६४ ) आस्मा यश्चायमध्यात्म शारीरस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमे
व स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मदर्छ सर्वम् । श०१४।
आलेयी ( = मृतगर्भा रजस्वलेति सायणः ) तस्मादप्यानेय्या यो.
षिता (सह सम्भाषणादि कुर्वन् पुरुषः) एनखी (भवति)।
श०१।४।५ । १३॥ आथर्वणम् (साम) आथर्वणं लोककामाय ब्रह्म साम कुर्यात् ।
तां०८।२।५॥ आथर्वणो वा एतल्लोककामाः सामापश्यले स्तेनाम] लोकमपश्यन् यदेतत्साम भवति स्वर्गस्य लोकस्य प्रजात्य । तां०८।२।६॥ चतुर्णिधनमाथर्वणं भवति चतूरात्रस्य धृत्यै । तां० १२ । ९॥ ८॥ भेषजं वा आथर्वणानि । तां० १२ । ९।१०॥ भेषजं वै देवानामथर्वाणो ( अथर्वणा ऋषिणा हा मन्त्राः)
भेषज्यायैवारिष्टयै । तां० १६ । १० । १०।। आदाराः यत्र वाऽएनं (विष्णुंघर्श ) इन्द्र ओजसा पर्यगृहात्तदस्य
परिगृहीतस्य रसो व्यझरत्स पूयन्निवाशेतसोऽब्रवीदादीयेव बत मऽएष रसोऽस्ताषीदिति तस्मादादारा अथ यत्पू. यन्निवाशेत तस्मात्पूतीकास्तस्मादग्नावाहुतिरिवाभ्याहिता ज्वलन्ति तस्मादु सुरभयो यज्ञस्य हि रसात्सम्भूताः । श० १४ । १ । २। १२ ॥ यत्र वै यज्ञस्य शिरोऽच्छिद्यत तस्य यो रसो व्यप्रष्यत्तत
आदाराः समभवन् । श०४।५।१०।४॥ , गायत्रीय सोममाहरत् तस्य योऽशुः परापतत् त आ.
. दारा अभवन् । तै० १।४ । ७ । ५-६॥ भादिः (साम ) इन्द्र आदिः । जै० उ०१ । ५८ । ९॥ , आसंगवमादिः । जै० उ० १ । १२ । ४॥ , इम एव लोका आदिः । जै० उ० १ । १९ । २॥ ,, (प्रजापतिः ) आदि वयोभ्यः (प्रायच्छत् ) । जै० उ०१।
११ । ७॥
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मादित्यः आदिः (साम) अथ यत्प्रतीच्यां दिशि तत्सर्वमादिनाप्नोति । जै० उ०१।
मादित्यः यदसुराणां लोकानादत्त । तस्मादादित्यो नाम । तै०३।
९।२१ । २॥ तेषां (नक्षत्राणां ) एष ( आदित्यः ) उद्यन्नेव वीर्य क्षत्रमादत्त तस्मादावित्यो नाम । श०२।१।२।१८ ॥ तस्य यत् (प्रजापतेः ) रेतसः प्रथममुददीप्यत तदसावादित्योऽभवत् । ऐ०३ । ३४ ॥ तस्य ( प्रजापतेः ) शोचत आदिन्यो मूनोंऽसृज्यत । तां० ६। ५। १॥ तत् (छिन्नं विष्णोशिशरः) पतित्वासावादित्योऽभवत् । श० १४ । १ । १ । १० ॥ आदित्यो वा अर्कः । श०१०।६।२।६॥ पर्जन्य आदित्यः । गो० पू०४।३॥ ज्योतिः शुक्रमसौ ( आदित्यः ) । ऐ० ७ । १२॥ (हे आदित्य त्वं ) व्युषि सविता भवस्युदेष्यन् विष्णुरु धन्पुरुष उदितो बृहस्पतिरभिप्रयन्मघवेन्द्रो वैकुण्ठो माध्यन्दिने भगोऽपराल उग्रो देवो लोहितायनस्तमिते यमो भवसि ॥ अनसु सोमो राजानिशायाम्पितृराजस्स्वप्ने मनुध्यान्प्रविशसि पयसा पशून् । विरात्रे भवो भवस्यपररात्रेऽडिरा अग्निहोत्रवेलायाम्भृगुः । जै० उ० ४।५।१-३॥ स वा एप इन्द्रो वैध उद्यन् भवति सषितोदितो मित्रस्सं. गयकाल इन्द्रो वैकुण्ठो मध्यन्दिने समावर्त्तमानश्शर्व उग्रो देवो लोहितायन् प्रजापतिरेव संवेशेऽस्तमितः । जै० उ०४।१०।१०॥ असो वाऽआदित्योऽश्मा पृश्निः । श०९ । २।३ । १४॥ अप्रतिधृष्या ( = प्रजापतेस्तनूविशेषः ) तदादित्यः । ऐ०५।२५॥ एष ( आदित्यः ) वा अब्जा अभ्यो वा एष प्रातरुदत्यपः
सायं प्रविशति । ऐ०४ । २० ॥ , मसौ वा आदित्य एषो अश्वः । श०६।३।१ । २९ ।
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5 आदित्यः ( ६६ ) भादित्यः आदित्यस्त्रिपात्तस्येमे लोकाः पादाः । गो० पू० २ ।
२१८(९)॥ अथ यत्तश्चक्षुराहत् स आदित्योऽभवत् । जै० उ० २।२।३॥ चक्षुरादित्यः । श०३।२।२।१३॥ आदित्यो वा उद्गाताऽधिर्दवं चक्षुरध्यात्मम् । गो०पू०४॥३॥ किं नु ते मयि (आदित्ये) इति । ओजो मे बलम्म चक्षुमें । जै० उ०३।२७।८॥ प्राण आदित्यः । तां०१६ । १३ । २॥ अथैष वाव यशः य एष ( आदित्यः) तपति । श० १४ । १।१ । ३२॥ एष (आदित्यः) वै यशः । श०६।१ । २।३॥ आदित्योऽलि दिवि श्रितः । चन्द्रमसः प्रतिष्ठा। ते० ३। ११ । १ ।११।। एष ( आदित्यः) स्वर्गो लोकः। तै०३।८।१० । ३ ॥ ३।८।१७। २॥३।८।२०।२॥ ( आदित्यलोकं प्रशंसति-) तदैव्यं क्षत्रम् । सा श्रीः । तध्नस्य विष्टपम् । तत्स्वाराज्यमुच्यते । तै०३ । ८ । १०।३॥ देवलोको वा आदित्यः । कौ० ५। ७॥ गो० उ०१ । २५ ॥ आदित्य एषां भूतानामधिपतिः। ऐ०७॥ २० ॥ अलावादित्यः शिरः प्रजानाम् । तै०१।२।३।३ ॥ सर्वतोमुखो वा असावांदित्य एष वाऽाद सर्व निर्धयति यदिदं किञ्च पुण्यति तेनैष सर्वतोमुखस्तेनानादः । श०२।६।३।१४॥ आदित्यो वा उदाता । गो० पू०२।२४॥
आदित्य उद्गीथः । जै० उ०१ । ३३ ॥ ५॥ , आदित्य उदयनीयः । श०३।२।३।६॥ ,, . असी वा आदित्य एकाकी चरति । तै० ३।९।।४।।
आदित्यस्त्वेव सर्वऽऋतवः । यदैवोदेत्यथ वसन्तो यदा संगवोऽथ ग्रीष्मो यदा मध्यन्दिनोऽथ वर्षा यशपराहोऽथ परवदेवास्तमेत्यथ हेमन्तः । २० २।२।३।९॥
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आदित्वा आदित्यः त्रिह वा एष (मघवा = इन्द्रः = आदित्यः) एतस्या मुहूर्त
स्येमाम्पृथिवीं समन्तः पर्येति । जै० उ०१।४४।९॥ एष ह वा अह्नां विचेता याऽसौ ( सूर्यः) तपति । गो० उ०६।१४॥ एष ( आदित्यः) ह वा अह्नां विचेतयिता । ऐ०६॥ ३५ ॥ असो वाऽ आदित्यः पाप्मनो ऽपहन्ता। श०१३।८।
स वा एष ( आदित्यः) न कदाचनास्तमयति नीदयति । तद्यनं पश्चादस्तमयतीति मन्यन्ते अह्न एव तदन्तं गत्वाथात्मानं विपर्यस्यतेहरेवाधस्ताकृणुते रात्री परस्तात् । गो० उ०४ । १०॥ स वा एष ( आदित्यः) न कदाचनास्तमेति नोदेति तं यदस्त मेतीति मन्यतेऽह्न एव तदन्तमित्वाऽथात्मानं विप. यस्यते रात्रिमेवावस्तात कुरुतेऽहः परस्तादथ यदेनं प्रातरुदेतीति मन्यते रात्ररेव तदन्तभित्वाथात्मानं विपर्यस्यते ऽहरेवावस्तात्कुरुते रात्रि परस्तात्स वा एष न कदाचन निम्रोचति । ऐ०३।४४॥ तस्य ( अस्य-आदित्यस्य ) एतदन्नं क्यमेष चन्द्रमास्तदय यजुष्टः । श० १०।४।१ । २२॥ प्राङ् चार्वाङ् चादित्यस्तपति । तां० १२ । १० । ६ ॥ यस्मादायत्रोत्तमस्तृतीयः (त्रिरात्रः) तस्मादादित्य. स्तपति । तां०१०। ५ । २॥ सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः । जै० उ०१।४।५ ॥ स एष (आदित्यः) एकशतविधस्तस्य रश्मयः शत विधा एष एवैकशततमो य एष तपति । श०१०।२।४।३॥ षष्टिश्च ह वै त्रीणि च शतान्यादित्यस्य रश्मयः । श. १०।५।४।४॥ षष्टिश्व ह वै त्रीणि च शतान्यादित्यं नाव्याः समन्तं परि. 'यन्ति । श०१०। ४।१४॥ शतयोजने ह वा एष (आदित्यः) इतस्तपति । को.८३॥ (सावित्रमनि) स (भरद्वाजः) विदित्वा । अमृतो
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[ भादित्याः
भूत्वा। स्वर्ग लोकमियाय । आदित्यस्य सायुज्यम् ।
.३।१०।११।॥ आदित्यग्रहः सवनततिर्वा आदित्यग्रहः । कौ०१६ । १ ॥ ___ , अथेष सरसो ग्रहो यदादित्यग्रहः । कौ० १६ ॥ १ ॥
आदित्यश्वरः विडेष आदित्यश्चरुः । श०६।६।१।७॥ आदित्यस्य पदम् एतद्वा आदित्यस्य पदं यभूमिः । गो० पू० २।१८। आदित्याः अष्टौ ह वै पुत्रा अदितेः । यांस्त्वेतदेवा आदित्या इत्या
चक्षते सप्त ह वै तेऽविकृत हाटमं जनयांचकार मार्तण्डम् । श०३।१।३।३॥ तदभ्यनूक्ता । अष्टी पुत्रासो अदितेर्ये जातास्तन्वं परिदेवा उपप्रैत् सप्तभिः परा मार्तण्डमारयदिति । तां०२४॥ १२।५-६ ॥ एताभिर्वा आदित्या द्वंद्वमा नुवन्मित्रश्च वरुणश्च धाता चार्यमा चा शश्च भगश्चेन्द्रश्च विवस्वांश्च । तां० २४ । १२।४॥ कतमऽआदित्या इति । द्वादश मासाः संवत्सरस्यैता. दित्या एते हीद सर्वमाददाना यन्ति ते यदिद, सर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति । श० ११ । ६।३।८॥ सप्तादित्याः । तां०२३ । १५ । ३ ॥ भूमोऽएष देवानां यदादित्याः । श०६।६।१।८॥ प्राणा वा आदित्याः । प्राणा हीदं सर्वमाददते। जै० उ०४।
घृतभाजना ह्यादित्याः : श०६।६।१ । ११ ॥ आदित्यास्त्वा जागतेन छन्दसा संमृजन्तु । तां०१।२।७।। वर्षाभिर्ऋतुनादित्याः स्तोमे सप्तदशे स्तुतं वैरूपेण विशौतसा । २०२।६। १९ । १-२ ॥ सर्व वाऽआदित्याः । श० ५। ५।२।१०॥ आदित्या वै प्रजाः। तै०१।८।८।१॥ एते खलु वादित्या यहाह्मणाः । तै० १ ।१ । ९ । ८ ॥ पशव आदित्याः । तां०२३ । १५॥ ४॥ सा वा आदित्याः । तां० २५ । १५ । ४॥
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मापा ] आदित्यो गर्भः (यजु० १३ | ४३) आदित्यो वाऽएष गर्भो यत्पुरुषः ।
श०७।५।२।१७॥ आधीतयजूंषि तद्यदस्यता आत्मन्देवता आधीता भवन्ति तस्मादा
धीतयजूषि नाम । श०३।१।४ । १४ ॥ ततो यानि त्रीणि स्रवेण जुहोति । तान्याधीतयजू,.
पीत्याचक्षते । श० ३ । १ । ४ । २ ॥ आनन्स्यम् प्रजापतिरकामयतानन्त्यमश्नूयेति । गो० पू०५ ॥ ८॥ आनूपम् ( साम)- एतेन वै वध्रयश्व आनूपः पशूनां भूमानमाश्नुत
पशूनां भूमानमश्नुत आनूपन तुष्टुवानः । तां०१३।३।
भान्धीगवम् ( साम)- अथैतदान्धीगवमन्धीगुव्वा एतत्पशुकामः सा
मापश्यत्तेन सहस्रं पशूनसृजत यदेतत्साम भवति पशू
नां पुष्टयै । तां०८।५ । १२ ॥ भापः तद्यात् (ब्रह्म) आभिर्वा अहमिदं सर्वमास्यामि यदिदं
किंचंति तस्मादापोऽभवंस्तदपामप्त्वमामोति धै स सर्वान्
कामान् यान् कामयते । गो० पू०१॥२॥ , सेव सर्वमामोद्यदिदं किं च यदाप्नोत्तस्मादापः । श०६।
,, अद्भिर्वाऽहद सर्वमाप्तम् । श० १।१।१। १४ ॥२ । १।
१।४॥४।५।७। ७ ॥ ,, आपो ह वाऽइदमग्रे सलिलमेवास । ता अकामयन्त कथं नु
प्रजायमहीति । श०१२ । १।६।१॥ , अश्मनो ह्यापः प्रभवन्ति । श०९।१।१।४॥
तस्मात्पुरुषात्तप्तादापो जायन्ते । श०६ । १ । ३।१॥ , ता वाऽरताः (सारस्वतीः, ऊर्मी, स्यन्दमानाः, अपयतीः,
समुद्रियाः,निवेष्याः, स्थावराः, आतपवाः वशन्तीः ,कृप्या , अण्वाः, मधव्याः, गोरुल्ब्याः, पयस्याः, घृतात्मिका)
सप्तदशापः सम्भरति । श०५। ३।४ । २२ ॥ ,, प्राणा वा आपः।०३।२।५।२॥ तां०९।९।४॥ " आपो व प्राणाः । २०३।८।२।४॥ " प्राणो शापः । जै० उ०३।१०।९॥
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[ आपः
( ७० ) आपः तस्मादिमा उभयत्रापः प्राणेषु चात्मंश्च । श० ७ ।२।
४।१०॥
अमृतं वाऽआपः । श०१।९।३॥ ७॥४।४।३।१५ ॥ ., अमृतत्वं वा आपः । कौ० १२।१॥
अमृता ह्यापः । श०३।९।४।१६॥ , अमृतं वा एतदस्मिन् लोके यदापः । ऐ०८।२० ॥ ,, आपो वाऽउत्सः (उत्सा -यजु० १२ । १९) । श० ६।७।
४।४॥ आपो ऽक्षितिर्या इमा एषु लोकेषु याश्चेमा अध्यात्मन् । कौ० ७।४॥ शान्तिरापः । श० १ ।२।२। ११ ॥१ । ७।४।९, १७ ॥
१।९।३।२,४॥२।६।२॥१८॥३।३।१।७॥ ,, शान्तिा आपः । ऐ०७।५॥ ,, आपो हि शान्तिः । तां०८।७।८॥
शान्तिर्वै भेषजमापः । को. ३ । ६, ७, ८, ९॥ गो० उ० १ । २५ ॥ आपो ह वाऽओषधीना रसः ।।०३।६।१।७॥ रसो वाऽआपः । श०३।३।३।१८॥३।९।४।७॥ आपो वै सर्वस्य शान्तिः प्रतिष्ठा । ष०३।१॥ आपो वा ऽअस्य सर्वस्य प्रतिष्ठा । श० ४।५।२।१४॥६। ८।२।२॥ १२ । ५।२।१४॥ आपः सत्ये (प्रतिष्ठिताः)। ऐ०३।६॥ गो० उ०३।२॥ श्रद्धा वा आपः । तै०३।२।४।१ ॥ मेध्या वा आपः । श०१।१ । १ । १॥३।१।२।१०॥ मेध्या वाऽएता आपो भवन्ति या आतपति वर्षन्ति ! श०५ । ३।४।१३। पवित्रं वाऽआपः । श०१।१।१।१॥३।१।२।२०॥ आपो वै क्षीररसा आसन् । तां०१३।४।८॥ ऊवी आपो रसः । कौ० १२॥ १ ॥ अन्नं वा आपः। श०२।१।१ । ३॥ ७ । ४ । २३७॥८।
२।३।६॥ तै०३।८।२।१॥३।८।१७। ५॥ ., अन्नमापः । कौ० १२ । ३, ८॥
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आपः ] r: आपोऽनम् । ऐ०६।३०॥
तधास्ता आपोऽनं तत् । जै० उ०१।२५।९॥ तद्यत्तदनमापस्ताः । जै० उ० १ । २९ । ५॥ आपो व रक्षोनीः । तै०३।२।३।१२॥३।१।४।२॥३। २।९।१४॥ (इन्द्रः ) एताभिः ( अद्भिः ) ह्येनं (वृत्र) अहन् । श० १।१। ३।८॥ वज्रो वाऽआपः । श० १ । १ । १ । १७॥३।१।२।६॥७॥ ५।२।४१ ॥ तै०३।२।४ । २॥ वीर्य का आपः । श. ५। ३।४।१॥
आपो वा अर्कः । श०१०।६। ५ । २॥ तथा भोक्ष्यमाणे:ऽर पर प्रथममाचामयेदप उपरिष्टात् । गो. पू० २।९॥ मरुतोऽद्भिरग्निमतमयन् । तस्य तान्तस्य हृदयमाच्छिन्दन सा ऽशनिरभवत् । तै० १।१।३ । १२ ॥ अप्सुयोनिर्वाऽ अश्वः । श० १३ । २ । २। १९ ॥ तै०३1८। ४।३॥ ३ । ८ । १९ । २॥ ३।८।२०। ४॥ अद्भयो ह वाऽअग्रेऽश्वः सम्बभूव सोऽद्भ्यः सम्भवन्नसर्वः समभवदसों हि वै समभवत्तस्मान्न सर्वेः पद्भिः प्रतितिष्ठत्येफैकमेव पादमुदच्य तिष्ठति । श० ५। १ । ५ । ५॥ आपो वा अवकाः । श० ७ । ५। १ । ११ ॥ ८।३।२।
यदापोऽसौ ( द्यौः) तत् । श० १४ । १।२।९॥ देव्यो ह्यापः । श०१।१।३।७॥ यज्ञो वा आपः । को०१२ । १ ॥श० १।१।१ । १२ ॥ तै. ३।२।४।१॥ आपो वै यज्ञः। ऐ० २ । २०॥ आपो हि यक्षः। श०३।१।४। १५ ॥ आपो रेतः । श० ३।८।४ । ११ ॥३।८।५।१॥ रेतो वा आपः । ऐ०१।३॥ पायो पा पते पदापः। ऐ० १।८॥
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[ आमानम्:
( ७२ ) भापः तेजश्व ह वै ब्रह्मवर्वसं चातपवा आपः । ऐ०८।८॥ ,, आपो वै सवा देवताः। ऐ०२।१६ ॥ कौ० ११।४।०३।
२।४।३।३।३।४।५।३।७।३।४॥३।९ । ७१५॥
आपो वै सर्वे कामाः । श० १०। ५।४।१५ ॥ .. आपो वै सर्वे देवाः । श०१० ।५।४।१४॥
आपो वै देवानां प्रियं धाम । तै० ३।२।४।२॥ सौम्या ह्यापः । ऐ०१।७॥ तस्मात्प्रतीच्योऽप्यापो बयः स्यन्दन्त, सौम्या ह्यापः । ऐ.
वरुणाय वै सुषुवाणस्य भो ऽपाक्रामत्स धापतद् भृगुस्तु. तीयमभवच्छायन्तीयं तृतीयमपस्तृतीयं प्राविशत् । तां.
१८।९।१॥ , आपो वरुणस्य पन्य आसन् । ते.१।।।३।८।। ., अग्निना वाऽआपः सुपत्न्यः । श०६।८।२।३॥
अस्ति वै चतुर्थी देवलोक आपः । कौ० १८॥२॥ अप्सु पृथिवी (प्रतिष्ठिता)। ज० उ०१ । १०।२॥ आपः स्थ समुद्र श्रिताः । पृथिव्याः प्रतिष्ठा । तै० ३ । ११ ।
,, प्रातःसवनरूपा वापः । कौ० १२ । ३॥
अथ यद्यपः शूद्राणां स भक्षः । ऐ०७।२९॥ , योषा वा आपो वृषाग्निः । श०१।१ । १।१८॥२।१।१॥४॥ बापश्चन्द्राः ( यजु. १२ । १०२) मनुष्या वाऽआपश्चन्द्राः । श० ७॥
३।१।२०॥ आपूणस्व (यजु० १७ । ७९) आपृणस्वेत्याप्रजायस्वेत्येतत् ।।०९।
२।३।४४॥ आप्रयाः त (आप्त्याः ) इन्द्रेण सह चेरुः । श०१।२।३।२॥ , ततः (="निष्ठीवनलक्षणवीर्य्यधारणात् ताभ्यो ऽन्यः
सकाशात्" इति सायणः) आप्त्याः सम्बभूवुखितो द्वितः
एकतः । श०१।२।३।१॥ भामानम् तेऽन्तरेण चात्वालोत्करा उपनिष्कामन्ति तद्धि यक्षस्य
तीर्थमामानं नाम । कौ०१८॥९॥
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आमहीयवम् ] माप्रियः (व:) तवामीणाति तस्मादानियोनामा कौ० १०॥३॥
, आप्रीभिराप्नुवन् । तदाप्रीणामामित्वम् । तै० २।२।
, तद्यदेनं ( पशुं) एताभिराप्रीमिरामीणात्तस्मादाप्रियो
नाम । श० ११ । ८।३।५ ॥ यदेतान्याप्रिय आज्यानि भवन्त्यात्मानमेवैतैरामीणाति ।
तां० १५ । ८।२॥१६।५।२३ ॥ , प्राणा वा आप्रियः । कौ० १८ । १२ ॥ , तेजो वै ब्रह्मवर्चसमाप्रियः । ऐ० ३।४॥ आभीकम् (साम ) आभीक भवत्यभिक्रान्त्यै । तां० १५ । ९ । ८॥ , अरिसस्तपस्तेपानाः शुवमशोचस्त एतत्सामापश्य
स्तानभीकेऽभ्यवर्षत्तेन शुचमशमयन्त यदभीके ऽभ्यवर्ष
तस्मादाभीकम् । तां०१५। ९ । ९ ॥ आभूतिः (= प्राणः ) प्राणं वा अनु प्रजाः पशव आभवन्ति । जै.
उ०२।४।४॥ भामयावी (= रोगी) एतस्य ( यज्ञस्य ) एवैकविशमग्निष्टोम
साम कृत्वामयाविनं याजयेत् । तां० १६ । १३ । १॥ अप वा एतस्मादन्नाचं कामति य आमयावी । तां० १६ ।
प्राणैरेष व्यध्यते य आमयावी। तां० १६ । १३ । २॥ आमयाविनं याजयेत् । प्राणा वा एतमतिपवन्ते य आमयावी यतीबसोमेन यजते पिहित्या एवाछिद्रताय । तां० १८।५। ११ ॥
अप्रतिष्ठितो वा एष य आमयावी । तां १६ । १३ । ४॥ मामहीयवम् (साम) ताः (प्रजाः प्रजापतिना) सृष्टा अमहीयन्त
यदमहीयन्त तस्मादामहीयवम् । तां०७।५।१ ।। प्रजापतिरकामयत बहुस्यां प्रजायेयेति स शोचन्नमहीयमानः (= अपूज्यमान इति सायणः ) अतिष्ठत्स एतदामहीयवं ( साम) अपश्यत्तनेमाः प्रजा असृजत । तां०७।५।१॥ प्रजानाञ्च वा एषा सृष्टिः पापवसीयसश्च विधृतिर्यदामहीयषम् । तां०७।५।४॥
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[ आयास्यम्
७)
आमहीयम् (साम) आमहीयवं भवति क्लृप्तिश्वान्नाद्यश्व समानं वदन्तीषु क्रियत इदमित्थमसदिति । तां० ११ । ११ । ७ ॥ आमदीयवं भवति क्लुविश्व (नाद्यश्च क्लृप्तिश्चैवैतेनान्नाद्यञ्चाभ्युत्तिष्ठन्ति । तां० १५ । ९ । ५ ॥
आमाद् (यजु० १ । १७ ) अयं ( अग्निः ) वाऽआमाद्येनेदं मनुष्याः पक्त्वाश्नन्ति । श० १ । २ । १ । ४॥
आमिक्षा आण्डस्य वा एतद्रूपं यदामिक्षा । तै० १ । ६ । २ । ४ ॥ वैश्वदेव्यामिक्षा भवति । तै० १ । ६ । २ । ५ । १ । ७ । १० । १ ॥
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आयतनम् मनो वाऽआयतनम् । श० १४ । ९ । २ । ५ ॥ आयतिः प्राणो वा आयतिः । गो० उ० २ । ३ ॥ आयास्त्रम् (साम) - अयास्यो वा आङ्गिरस आदित्यानां दीक्षिता
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नामन्नमाश्नात् स व्यभ्रशत स एतान्यायास्यान्यपश्यतैरात्मानं समश्रीणाद्विभ्रष्टमिव वै सप्तममहय्यदेत - त्साम भवत्यहरेव तेन संश्रीणाति । तां० १४ । ३ ।
२२ ।।
( आदित्याः ) तस्मा ( अय । स्यायोगाले ) अमुमादित्यमश्वं श्वेतं कृत्वा दक्षिणामानयस्तं प्रतिगृह्य व्यभ्रथंशत स एतान्यायास्यान्यपश्यत्तैरात्मानं समश्रीणात् । तां० १६ । १२ । ४ ॥
अयास्यो वा आङ्गिरस आदित्यानां दीक्षितानामन्नमा नातं शुगार्थत्स तपोऽतप्यत स पते आयास्ये अपश्यताभ्यां शुचमपाहता पशुचर्थहत आयास्याभ्यां तुष्टुवानः । तां० ११ | ८ | १० ॥
यदायास्यानि भवन्ति भेषजायैव शान्त्यै । तां० १६ । १२ । ५ ॥
आयास्यम्भवति तिरश्चीननिधनं प्रतिष्ठायै । तां० १४ । ३ । २१ ॥
अन्नाद्यं वाव तदेभ्यो लोकेभ्योऽपाक्रामत्तवास्य आयास्याभ्यामच्याववत् व्याक्यत्यन्नाद्यमायास्याभ्यां तुष्टुवानः । तां ११ | ८ | १२ ॥
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( ७५ ) आरम्भणीपम् आयास्यम् (साम) एभ्यो वै लोकेभ्यो वृष्टिरपाकामत्तामयास्य आयास्या
भ्यामच्यावयत् च्यावयति वृष्टिमायास्याभ्यां तुष्टुवानः।
तां० ११ । ८।११॥ आयुः ( एकाहः)--आयुषा देवा असुरानायुवतायुते भ्रातृव्यं य
एवं वेद । तां०१६ । ३।२॥ आयुः उर्वशी वाऽअप्सराः पुरूरवः पतिरथ यत्तस्मान्मिथुनादजायत
तदायुः । श० ३।४।१। २२॥
वरुण एवायुः। श०४।१।४।१०॥ ,, (यजु०.१२ । ६५) अग्निर्वाऽआयुः । ।०६।७।३।७॥७॥
२।१ । १५॥ ,, अनि आयुष्मानायुष ईष्टे । श०१३।।४८॥
संवत्सर आयुः । श०४।१।४।१०।४।२।४।४॥ , यशो चा आयुः । तां० ६।४।४॥
असौ लोक ( = दुलोकः) आयुः। ऐ०४।१५ ॥ असावुत्तमः (लोकःखर्लोकः) आयुः (स्तोमः)। तां०४।
१।७॥ , अन्नमु वाऽआयुः। श०९।२।३।१६॥ ,, आयुर्वी उद्गाता । आयुः क्षत्तसंगृहीतारः। तै० ३।८।५।४॥
प्राणो वा आयुः । ऐ० २॥ ३८॥ , यो वै प्राणः स आयुः । श०५।२।४।१०॥ , आयुर्वा उष्णिक । ऐ०१।१॥ ,, स यो हैवं विद्वान्त्सायम्प्रातराशी भवति सर्व हैवायुरेति।
, य एवं विद्वान्स्यान मृण्मये भुजीत। तथा हास्यायुर्न रिष्येत
तेजश्व । आं० १।१॥ मायुतम् आयुतं ( = ईषद्विलीनं सर्पिः) पितृणाम् (सुरभि )। ऐ०
नायुवः (अप्सरसः, यजु० १८।३९) आयुवाना इव हि मरीचयः
प्लवन्ते । श०९।४।१। । भारम्भणीयम् (अहः)-तं चतुर्विशेनारमन्ते तदारम्मणीयस्यारम्भ.
णीयस्वम् । कौ० १९ । ३॥
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[ आश्लेषा आरम्भणीयम् (अहः) चतुर्विशमेतदहरुपयंत्यारम्भणीयमेतेन वैमंघरस
रमारभंत । एतेन स्तोमांश्च छन्दांसि चैतेन सर्वा देवता अनारब्धं वै तच्छंदोऽनारब्धा सादेवता यदेतस्मिन्नहनि नारभंते तदारम्भणीयस्यारम्भणीयत्वम् ऐ०४॥१२॥ वागवारम्भणीयमहर्वाचा ह्यारभन्ते यद्यदारभन्ते । श.
१२।२।४।१॥ आर्विज्यम् अमानुष इव वाऽएतलवाते यदार्षिज्ये प्रवृतः । श०१।
९।१ । २९ ॥ आनंदानुः (यजु० १८ । ४५)-एष (वायुः) ह्या वदाति । श०९।
४।२।५॥ आर्द्रा ( नक्षत्रविशेषः)-आर्द्रया रुद्रः प्रथमान पति । तै०३।१।
आर्भवम् श्रोत्रमार्भवम् । कौ० १६ ॥ ४॥ आर्षभम् (साम)-अभि त्वा वृषभासुत इत्यार्षभं क्षत्रसाम क्षत्रम
वैतेन भवति । तां०९।२। १५ ॥ भावपनं महत् अयं वै ( भू-)लोक आवपनं महत् । तै०३।९।
आशा 'आशा वा इदमग्र आसीद्भविष्यदेव । जै० उ०४। २२॥१॥ आशापालाः शतं वै तल्प्या राजपुत्रा आशापालाः । श०१३।१।
,, अथैते देवाः (आशापालाः) आप्याः साध्या अन्याध्या
मरुतः। श० १३ । ४।२।१६ ॥ आशु (साम)-अहर्वा एतदव्लीयत तहेवा आशुनाभ्यधिम्य स्त
दाशोराशुत्वम् । तां० १४।९।१०॥ , आशु भार्गवं भवति । तां०१४।९।९॥ आश्रावणम् स यदाधावयति । यक्षमेवैतदनुमन्वयत आ नः शृणूप
न आवर्तखेति । श०१।५।२।७॥ , यो वा आश्रावणम् । श० १।४।१।१ ॥११ ९॥ आश्रावितम् प्राणो वा अग्निहोत्रस्याऽऽधावितम् । तै० २।१।५।१॥ आश्लेषाः (नक्षत्रविशेषः)-सर्माणमाश्लेषाः । तै० १ ।।१।२॥
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आसन्दी भाश्वम् (साम)-अश्वो वै भूत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत स
प्रजायत बहुरभवत्प्रजायते बहुर्भवत्याश्वेन तुष्टुवानः ।
ता० ११ । ३।५॥ भाश्वसूक्तम् (साम)-गौषूक्तिश्चाश्वसूक्तिश्च बहुप्रतिगृह्य गरगिराव
मन्येतां तावते सामनी अपश्यतां ताभ्यां गरनिरनाताम्।
तां० १९ । ४ । १० ॥ आश्विनः (ग्रहः) श्रोत्रमाश्विनः । कौ० १३ । ५॥ ., श्रोत्रं चात्मा चाश्विनः । ऐ० २ । २६ ॥ भाधिनम् (शस्त्रम्) यदश्विना उदजयतामश्विनावाश्नुवातां तस्मा.
देतदाश्विनमित्याचक्षते । ऐ०४।८॥ तेषां (देवानां) अश्विनौ प्रथमावधावतान्तावन्ववदन् सह नोऽस्त्विति । तावव्रताङ्किनो ततः स्यादिति यत्कामयेथे इत्यब्रुषस्तावतामस्मद्देवत्यमिदमुक्थमुच्याता इति
तस्मादाश्विनमुच्यते । तां०९।१ । ३६ ॥ , द्वाभ्यां ह्याश्विनमित्याख्यायते । कौ० १८ । ५ ॥ भाष्कारणिधनम् (साम)-आष्कारणिधनं काण्वं प्रतिष्ठाकामाय ब्रह्मा
साम कुर्यात् । तां०८।२।१॥ आष्टादंष्ट्र ( सामनी)-अष्टादशेष्ट्रो वैरूपोऽपुत्रोऽप्रजा अजीर्य्यत्स
इमान् लोकाविचिछिदिवां अमन्यत स एते जरसि सामनी अपश्यत्तयोरप्रयोगादविभेत् सेोऽब्रवीधनवद्योमे सा. मभ्या स्तवाता इति । तां० ८।९ । २१ ॥
आष्टादष्ट्रे ऋद्धिकामाय कुर्यात् । तां० ८ । ९ । २० ॥ भासजनम् आदित्य आसञ्जनमादित्ये हीमे लोका दिग्मिरासक्ताः ।
श०६। ७।१।१७॥ चन्द्रमा आसञ्जनं चन्द्रमसि हाय संवत्सर ऋतुभिरा
सक्तः । श०६ । ७।१।१९॥ , अन्नमासञ्जनमन्ने ह्ययमात्मा पाणैरासक्तः। श०६।७ ।
भासन्दी सैषा (आसन्दी) खादिरी वितृणा भवति । श० ५। ४।
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[ आहवनीयः
( ७८ )
आसन्दी इयं ( पृथिवी ) वाऽआसन्द्यस्यां हीदं सर्वमासन्नम् । श० ६ । ७ । १ । १२ ॥
आसितम् (साम) - असितो वा एतेन दैवलस्त्रयाणां लोकानां दृष्टिमपश्यत् त्रयाणाङ्कामानामवरुध्या आसितं क्रियते । तां १४ । ११ । १९ ॥
आस्कनाहुतिः अथ यस्याज्यमनुत्पूतं स्कन्दत्यसौ वा अस्कन्नानामाहुतिः । ष० ४ । १ ॥
आहवनीयः (अग्नि: ) द्यौराहवनीयः । श० ८ | ६ | ३ | १४ ॥ यद्वाऽआहवनीयमुपतिष्ठते । दिवं तदुपतिष्ठते । श० २ । ३ । ४ । ३६ ।।
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एष वै स यज्ञः । येन तद्देवा दिवमुपोदक्रामन्नेष आह्नवनीयोऽथ य इहाद्दीयत स गाईपत्यस्तस्मादेतं (आहवनीयं) गार्हपत्यात्प्राञ्चमुद्धरन्ति । श० १ । ७ । ३ । २२ ॥
यज्ञेो वा आहवनीयः स्वर्गो लोकः । ऐ० ५ । २४, २६ ॥ स्वर्गो वै लोक आहवनीयः । ष० १ । ५ ॥ तै० १ । ६ । ३॥६॥
देवयोनिर्वाऽएष यदाहवनीयः । श० १२ । ९ । ३ । १० ॥ इन्द्रो ह्याहवनीयः । श० २ । ६ । १ । ३८ ॥
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तस्य (राज्ञः) पुरोहित एवाहवनीयो भवति । ऐ०८ | २४ ॥ शम इत्याहवनीयः । जै० उ० ४ । २६ । १५ ॥ प्राणोदानावेवाहवनीयश्च गार्हपत्यश्च । श० २ । २ । २ । १८ ॥
यज्ञ आहवनीयः । श० १ । ७ । ३ । २६ ॥ यजमान आहवनीयः । तै० ३ । ३ । ७ । २ ॥
एतदायतनो यजमानो यदाहवनीयः । तां० १२ । १० । १६ । यजमानदेवत्यो वा आहवनीयः । तै० १ । ६ । ५ । ३ ।। यद्वा आहवनीयमुपतिष्ठते। पशूंस्तद्याचते । श० २ । ३ ।
४ । ३२ ॥
योनिर्वै पशूनामाहवनीयः । कौ० १८ । ६ ॥ गो० उ०४ ॥६॥ आहवनीयो वा आहुतीनां प्रतिष्ठा । श० २ । ४ । ३ । १० ॥ सामवेदादाहवनीयः ( अजायत ) । प० ४ । १ ।।
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( ७९ )
इडा माहवनीयः शिरो यशस्याहवनीयः पूर्वो ऽों वै शिरः पूर्वार्धमेवैत.
द्यक्षस्य कल्पयति । श०१।३।३।१२॥ आहवनीयो वै यशस्य शिरः । श० ६।।२।१॥
(पुरुषस्य ) मुखमेवाहवनीयः । कौ० १७॥ ७॥ , मुखमेवास्य (यशस्य) आहवनीयः।।०३।५।३।३॥ आहावः वागाहावः । ऐ०४।२१ ।।
, ब्रह्म वा आहावः। ऐ०२।३३॥ माहितानिः देवान्वाऽएष उपावर्तते य आहिताग्निर्भवति । श०३।
४।२। ११ ।। २।६।१ । ३७॥ माहुतिः तद्यदायति तस्मादाहुति म । श० ११ । २।२।६॥
आहतयो वै नामैता यदाहुतय एताभिवै देवान् यजमानो हृयति तदाहुतीनामाहुतित्वम् । ऐ० १।२॥ तस्मिनग्नौ यत्किचाभ्यादधत्याहितय एवास्य ता आहितयो ह वै ता आहुतय इत्याचक्षते परोऽक्षम् । श० १०॥६॥२॥
माझंसानि वा ऽआहुतयः । श०९।२।३।४६ ॥ , न ह वै ता आहुतयो देवानगच्छन्ति या अवषट्कृता वा
(5) स्वाहाकृता भवन्ति । कौ० १२॥ ४॥
(इ) द् ( यजु०३८ । १४) वृष्टथै तदाह यदाहेष पिन्वस्वेति । श० १४ ।
२।२।२७ ॥ भः (बहु ३०)-अनं वा इडः । ऐ०२॥४॥६॥ १५ ॥
प्रजा वाऽड्डः । श०१।५।४।३॥ वर्षा वा इड इति हि वर्षा इडा यदिदं क्षुद्र सरीसृपं प्रीष्महेमन्ताभ्यानित्यक्तं भवति तद्वर्षा ईडितमिवान्नमिच्छमानं चरति तस्माद्वर्षा इडः । श०१।५ । ३ ॥ ११ ॥ बडो यजति पर्षी एव वर्षाभिर्हीडितमन्नाद्यमुत्तिष्ठति । को
३॥४॥ का इयं (पृथिवी) वा इडा । कौ०९। २॥ । गौषांशडा। श०३।३।१।४॥
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[ इतरा गिरः इडा या वा सा (इडा-) सीगौवै सासीत् ।।०१। ८।१।२४ ॥ ,, (यजु० ३८ । २)-इडाहि गौः । श०२ । ३।४।३४॥ १४।
२।१।७॥ , (यजु०१२ ! ५१) पशवो वा इडा। कौ०३१७॥५॥ ७ ॥ २९ ।
३॥ श० १।८।१ । २२॥७।१।१।२७॥ ष०२।२॥ तां ७।३। १५ ॥ १४। ५। ३१ ॥ गो० उ०१। २५ ॥ तै०१।६।
६।६॥ ऐ० २।९, १०,३०॥ ,, (=पशवः )-अथेडां पशून्ल मवद्यति । श०१।७।४।९॥ ,, अन्नं पशव इडा । कौ० १३ । ६॥ ., अन्नं वा इळा । ऐ०८।२६ ॥ कौ०३।७।। ,, श्रद्धेडा । श० ११ । २ । ७ । २० ।। ,, उत मैत्रावरुणी ( इडा) इति । यदेव ( इडा ) मित्रावरुणाभ्या
समगच्छत । श० १।८।१ । २७ ॥ ,, यदेवास्यै (इडायै ) घृतं पदे समतिष्ठत तस्मादाह घृतपदी
(इडा) इति । श०१।८।१।२६ ॥ ,, इडा वै मानवी यज्ञानूकाशिन्यासीत् । तै० १।१ । ४ । ४ ।। ,, सा (मनोर्दुहिता) एषा निदानेन यदिडा । श०१। ८।१।
११ ॥ एतद्ध वै मनुर्बिभयांचकार । इदं वै मे तनिष्ठं यशस्य यदिय.
मिडा पाकयज्ञिया। श०१।८।१।१६॥ ,, मनुह्येतामग्रेऽजनयत तस्मादाह मानवी ( इडा ) इति । श० १ ।
८।१ । २६ ॥ , सा ( इडा) वै पञ्चावत्ता भवति । श०१।८।१ । १२ ॥ इडादध: ( यज्ञः)-स एष (इडाद्धः ) पशुकामस्यान्नाद्यकामस्य
यक्षः । को०४।५॥ इडाना, संक्षारः (सामविशेषः )-पशव इडाना संक्षारः । तां.
१६ । ११ ॥ ७॥ हुण्डवे (द्वि० व.)-इमाऽउ लोकाविण्ड्वे । श०६। ७।१। २६॥
, अहोरात्रेऽइण्ड्वे । श० ६ । ७।१॥ २५ ॥ हतरा गिरः (ऋ०६ । १६ । १६)-आसुर्या ह वा इतरा गिर। ऐ०
३।४९॥
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१ ८१ )
इन्द्रः ] इदावत्सरः चन्द्रमा इदावत्सरः । तां० १७ । १३ । १७ ॥
, चन्द्रमा वा इदावत्सरः । तै०१।४।१०।१॥ इध्मः इन्धे ह वा एतदध्वर्युः। इध्मेनाग्नि तस्मादिध्मो नाम । श०
, वनस्पतय इध्माः । ऐ०५ । २८॥ , वनस्पतय इध्मः । तै०२।१।५।२॥ , आत्मा वा इध्मः । तै०३।२।१०।३॥ इन्दुः ( यजु० १३ । ४३)-सोमो वाऽहन्दुः । श०२।३।३।२३ ॥
७।५।२।१९॥ , सोमो वै राजेन्दुः । ऐ० १ । २९ । इन्द्रः इन्धो वै नामैष योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्तं वाऽएतमिन्ध
सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोऽक्षेणेव । श० १४ । ६ । ११ । २ ॥ , अस्मिन्वा इदमिन्द्रियं प्रत्यस्थादिति । तदिन्द्रस्येन्द्रत्वम् । तै०
२।२।१०।४॥ , तस्य (क्षत्रियस्य) ह दीक्षमाणस्येंद्र एवेंद्रियमादत्ते । ऐ०
७। २३॥
इन्द्रस्येद्रियेणाभिषिंचामि । ऐ०८।७॥ ,, इन्द्रस्यन्द्रियेण ( त्वाभिषिश्वामि)। श०५।४।२।२॥ , (देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे) इन्द्रस्येन्द्रियेण । तै०२।६।
इन्द्रस्येन्द्रियेण । तां० १ । ३।५॥ ,, इन्द्रियं ( आत्मन्धत्ते) ऐन्द्रेण (पशुना) । तै०१।३।४।३॥ , इन्द्रमच्छसुता इम इतीन्द्रियस्य वीर्यस्यावरूध्यै । तां० ११ ।
१०।४॥ (यजु० ३८ । १६)-मधु हुतमिन्द्रतमेऽअग्नाविति मधु हुत
मिन्द्रियतमेऽग्नावित्येवैतदाह । श० १४ । २ । २।४॥ , ( = इन्द्रियवान् ) सखाय इन्द्रमूतयऽइतीन्द्रियवन्तमूतयः
इत्येतत् । श० ६ । ३।२।४॥ , इन्द्रः ( एवैनं) इन्द्रियेण (अवति)। तै० १ । ७।६।६॥ , इन्द्रस्य त्वेन्द्रियेण व्रतपते व्रतेनादधामि।०१।१।४।। , दधात्विन्द्र इन्द्रियम् । तां० १।३।५ ॥ " मयीदमिन्द्र इन्द्रियं दधातु । श० १ । ८।१ । ४२ ॥
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( २ ) इन्द्रः ('इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति
वा' इति पाणिनीयाष्टाध्याय्याम् ५। २ १९३॥ 'इन्द्र आत्मा' इति
काशिकायाम् ) , युक्ता ह्यस्य ( इन्द्रस्य ) हरयः शतादशेति । सहलं हैत आ
दित्यस्य रश्मयः (इन्द्रः- आदित्यः)। जै० उ०१।४४।५॥ , इन्द्र इति होतमाचक्षते य एष (सूर्यः) तपति । ।०४।६॥
७। ११ ॥ , एष वै शुक्रो य एष (सूर्यः) तपत्येष (सूर्यः) उ एवेन्द्रः ।।
४।५।५ । ७॥४।५।९।४॥ स यस्स इन्द्र एष एव स य एष (सूर्य्यः) एव तपति । जै० उ०१।२८।२।१ । ३२।५ । अथ यः स इन्द्रोऽसौ स आदित्यः । श०८।५।३।२॥ एष वाऽइन्द्रो य एष (सूर्यः) तपति। श० २।३।४।
१२ ॥३।४।२। १५ ।। ,, एष एवेन्द्रः । य एष (सूर्यः) तपति । श०१।६।४।१८॥ , (इन्द्रः सूर्य इति सायणः । तां० १४ । २।५ भाष्ये ।) , स यस्स आकाश इन्द्र एव सः। जै० उ० १ । २८ । २॥१।
३१ । १॥१।३२।॥ ,, अथ यत्रतत्प्रदीप्तो भवति। उचैर्धूमः परमया जूत्या बल्बलीति
तर्हि हैष (अग्निः ) भवतीन्द्रः । श०२।३।२।११॥ " इन्द्रो वागित्यु वाऽआहुः । श०१।४।५।४॥ , तस्मादाहुरिन्द्रो वागिति । श०११ । १।६।१८॥ , अथ य इन्द्रस्सा वाक् । जै० उ०१। ३३ । २॥ ,, वाग्वा इन्द्रः । कौ० २१७॥१३ ॥ ,, वागिन्द्रः। श०८।७।२।६॥ ,, (यजु०३८ । ८) अयं वाऽइन्द्रो योऽयं (वातः) पवते । श०
१४ । २।२।६॥ " यो वै वायुः स इन्द्रो य इन्द्रःस वायुः । श०४।१।३।१९।। ,, सर्व वाऽइदमिन्द्राय तस्थानमास यदिदं किंचापि योऽयं
(वायुः) पवते । श०३।९।४।१४ ॥ ,, स एष एवेन्द्रः। योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषोऽथेयमिन्द्राणी (योs
यसव्येऽक्षन्पुरुषः) । श० १०।५।२।९॥
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इन्द्रः ] इन्द्रः योऽयं चक्षुषि पुरुष एष इन्द्रः। जै० उ०१।४३ ॥१०॥ , ततः प्राणोऽजायत स (प्राणः) इन्द्रः। श०१४।४।३।१९।। " प्राण एवेन्द्र: । श०१२।९।१।१४॥ " प्राण इन्द्रः । श०६।१।२।२८॥ ,, स योऽयं मध्ये प्राणः । एष एवेन्द्रस्तानेष प्राणान्मध्यत इन्द्रि
येणैन्छ यदन्छ तस्मादिन्ध इन्धो ह वै तमिन्द्र इत्याचक्षते
परोऽक्षम् । श०६।१।१।२॥ , हदयमेवेन्द्रः । श०१२।९।१ । १५ ॥ , यन्मनः स इन्द्रः । गो० उ०४।११ ॥ " मन एवेन्द्रः । श० १२ । ९।१।१३ ॥
रुकम एवेन्द्रः । श० १०।४।१।६॥ ,, एष वा पतीन्द्रो यो यजते । तै०१।३।६।३॥ , इन्द्रो वै यजमानः । श०२।१। २॥ ११ ॥ ४ । ५ । ४ । ८ ॥
५।१।३।४॥ , एष वाऽअनेन्द्रो भवति यद्यजमानः । श०३।३।३।१०॥ , यजमानो वै स्वे यज्ञऽइन्द्रः । श०८।५।३।८॥
द्वयेन वाऽएष इन्द्रो भवति यञ्च क्षत्रियो यदु च यजमानः । श०५।३।५।२७॥
ऐन्द्रो धै राजन्यः । तै० ३। ८ । २३ । २॥ , इन्द्रः क्षत्रम् । श०१०।४।१।५॥ ,, क्षत्रं वा इन्द्रः । कौ० १२॥ ८॥ तै०३ । ९ । १६ । ३॥ श०
२०५।२। २७ ॥२।५।४।८॥ ३।९। १ । १६ ॥ ४।
३।३।६॥ , अश्वरथेनेन्द्र आजिमधावत्तस्मात्स उच्चै?ष उपब्दिमान्क्ष
प्रस्य रूपम् । ऐ०४।९ ॥ अथ या घोषिण्युपब्दिमती सैन्द्री ( आगा)। तया माध्यन्दि
नस्योरेयम् । जै० उ०१।३७।३॥ ,, अथ यदुर्घोष स्तनयन्यवधा कुर्वन्निव दहति यस्माद्भूतानि
विजन्ते तदस्य ( अग्नेः) ऐन्द्र रूपम् । ऐ०३।४॥ ,, यदशनिरिन्द्रस्तेन । कौ०६।९॥ , स्तनयित्नुरेवेन्द्रः । श० ११ । ६।३।९॥
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[ इन्द्रः
( ८४ )
इन्द्रः तस्मादाहेन्द्रो ब्रह्मेति । कौ० ६ । १४ ॥
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यत्परं भाः प्रजापतिर्वा स इन्द्रो वा । श० २ । ३ । १ । ७ ॥ देवलोको वा इन्द्रः । कौ० १६ ॥ ८ ॥
इन्द्रो बलं बलपतिः । श० ११ | ४ | ३ | १२ ॥ तै०२ । ५ ।
७:४॥
इन्द्रो मे बले श्रितः । तै० ३ | १० | ८ | ८ ॥
I
वीर्य्यं वा इन्द्रः । तां० ९ । ७ । ५, ८ ॥ गो० उ० ६ । ७ ॥
वीर्य्यमिन्द्रः । तैं ० १० १।७।२।२ ॥
इन्द्रियं वीर्यमिन्द्रः । श०२ | ५ | ४ | ८ ॥
इन्द्रियं वै वीर्यमिन्द्रः । श० ३ । ९ | १ | १५ || ५ | ४ | ३ | १८ ॥
शिश्नमिन्द्रः । श० १२ । ९ । १ । १६ ॥
रेत इन्द्रः । श० १२ । ९ । १ । १७ ।।
वृषा वा इन्द्रः । कौ० २० । ३ ॥
अर्जुनो ह वै नामेन्द्रः ( महाभारतस्य कुम्भघोणसंस्करणे 'पाण्डवः' अर्जुनोऽपि इन्द्रपुत्रत्वेन प्रसिद्धः - आदिपर्वणि अ० ६३ लो० ६५ ॥ ) । श०२ । १ । २ । ११ ॥
अर्जुनो ह वै नामेन्द्रो यदस्य गुह्यं नाम । श० ५ । ४ । ३ । ७ ॥ एष एवेन्द्रः । यदाहवनीयः । श० २ । ३ । २ । २ ।
इन्द्रो ह्याहवनीयः । श० २ । ६ । १ । ३८ ॥
स यस्स इन्द्रस्सामैव तत् । जै० उ० १ । ३१ । १ ॥ ऋचश्च सामानि चेन्द्रः (स्वभागरूपेणाभजत ) । ६।७।३ ॥
सः (इन्द्रः ) अब्रवीदुग्रं सानो वृणे श्रियमिति । जै० उ० १ । ५१ ॥ ५ ॥
श० ४ ।
इन्द्र एष यदुङ्गाता । जै० उ० १ । २२ । २॥
स यः स इन्द्रः । एष सोऽप्रतिरथः । श०९ । २ । ३ । ५॥ इन्द्र आसीत्सीरपतिः शतक्रतुः । तै०२ ।४। ८।७॥
स प्रजापतिरिन्द्रं ज्येष्ठं पुत्रमपन्यधत्त नेदेनमसुरा बलीयां - सोऽहनन्निति । तै० १ । ५ । ९ । १ ॥
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ते ( देवाः ) होचुः । इन्द्रो वै नो वीर्यवत्तमः । श० ४ | ६ । ३ ॥
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इन्द्रः स (इन्द्रः) एतमिन्द्राय ज्येष्ठायै ( = ज्येष्ठानक्षत्राय) पुरोडा
शमेकादशकपालं निरवपन्महाबीहीणां । ततो वै स ज्यैष्ठयं
देवानामभ्यजयत् । तै०३।१।५।२॥ ,, इन्द्रः (एषैनं) ज्येष्ठानां (सुवते)। तै०१। ७।४।१॥ ,, सो (प्रजापतिः) ऽकामयतेन्द्रो मे प्रजाया श्रेष्ठः स्यादिति
तामस्मै स्त्र प्रत्यमुञ्चत्ततो वा इन्द्राय प्रजाः श्रष्ठयायातिष्ठन्त
तच्छिल्पं पश्यन्त्यः । तां०१६। ४।३॥ , इन्द्रः खलु वै श्रेष्ठो देवतानामुपदेशनात् । तै०२।३।१।३॥ है इन्द्रः सो देवता इन्द्रश्रेष्ठा देवाः । श०३।४।२।२॥ , अथ यदिन्द्रे सर्वे देवास्तस्थानाः । तस्मादाहुरिन्द्रः सर्वा
देवता इन्द्र श्रेष्ठा देवा इति । श०१।६।३ । २२॥ , ततो वा इन्द्रो देवानामधिपतिरभवत् । तै०२।२।१०।३॥ , सो (इन्द्रः) ऽग्रं देवतानां पर्यत् । अगच्छत् स्वाराज्यम् । तै०
१।३।२।२॥ , स (इन्द्रः) वै देवानां वसुर्वीरो ह्येषाम् । श०१।६।४।२॥ , इन्द्रो धै देवानामोजिष्ठो बलिष्ठः सहिष्ठः सत्तमः पारयिष्णु
तमः। ऐ०७। १६ ॥ ८।१२ ॥ ॥ इन्द्रो वै देवानामोजिष्ठो बलिष्ठः । कौ०६।१४ ॥ गो. उ.
१।३॥ , इन्द्रौजसां पते । तै० ३ । ११ । ४।२॥ , इन्द्रो मृधां विहन्ता । कौ० ४।१॥ - इन्द्रायाथहोमुचे । तै० १।७।३।७॥
इन्द्राय सुत्राम्णे । तै० १ । ७।३।७॥ वृद्धानामिन्द्रः प्रदापयिता । तै०१।७।२।३।। मोकासारी हैवैषामिन्द्रो भवति यथा गौः प्रज्ञातं गोष्ठम् । गो० उ०६।४॥ मोकासारी वा इन्द्रः । ऐ० ६ । १७, २२॥ गो० उ०५।१५॥
इन्द्रो वै त्रिशिरसं त्वाष्टमहन् । तां० १७।५।१॥ 5 इन्द्रो वृत्र हत्वा देवताभिश्चेन्द्रियेण च व्यार्धत् । तै०१।
इन्द्रो मरुद्भिः (व्यद्रवत्)। श०३।४।२।१॥ इन्द्रो रुद्रैः (उदक्रामत्)। ऐ०१। २४ ॥
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इन्द्रः इन्द्रस्य पुरोडाशः । श०४।२।५।२२॥ ,, यदिन्द्रोऽपिबच्छचीभिः । तै०१।४।२।३॥ , इन्द्रो यज्ञस्य नेता। श०४।१।२।१५ ॥ , तदाहुः किन्देवत्यो यज्ञ इति । ऐन्द्र इति वयात् । गो० उ०
३। २३ ॥ ,, इन्द्रो यज्ञस्यात्मेन्द्रो देवता । श०९।५।१।३३॥ ,, ऐन्द्रो वै यज्ञः। ऐ०६। ११॥ ,, ऐन्द्रो हि यज्ञक्रतुः । कौ०५। ५॥ २८ । २.३॥ ,, इन्द्रो यज्ञस्य देवता । ऐ० ५। ३४॥ ६ ॥ ९ ॥ श० २।१ ।
२।११।। ,, इन्द्रो वै यक्षस्य देवता । श० १।४।१ । ३३ ।। १ । ४ । ५ ।
४॥२।३।४।३८ ॥ न ह वा इन्द्रः कंचन भ्रातृव्यम्पश्यते । जै० उ० १ । ४५।६।।
ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी। ऐ०२।२४ ॥ ते०१।६।३।९॥ , इन्द्रस्य वै हरी बृहद्रथन्तरे। तां०९।४।८॥
सेनेन्द्रस्य पत्नी । गो० उ०२।९॥ यत्साकमेधैर्यजतऽइन्द्र एव तर्हि भवतीन्द्रस्यैव सायुज्य सलोकतां जयति । श०२।६।४।८॥
ऐन्द्रा वै पशवः । ऐ० ६ । २५ ॥ , एतद्वा इन्द्रस्य रूपं यदृषमः । श०२ ५। ३ । १८ ॥ ,, (प्रजापतिः)ऐन्द्रमृषभ ( आलिप्सत)। श०६। २११ । ५ ॥
ऐन्द्रमृषभ सेन्द्रत्वाय (आलभते)। तै०१।८।५।६॥ , स ह्येन्द्रो यदृषभः । श० ५।३।१।३॥ , इन्द्रो वा अश्वः । कौ० १५॥ ४॥
ऐन्द्रं माध्यन्दिनम् । गो० उ०१। २३॥ , ऐन्द्रो मध्यन्दिनः । कौ० ५। ५ ॥ २२:७॥
ऐन्द्रो वै मध्यन्दिनः। ऐ०६ । ३०॥ ऐन्द्रो वै माध्यन्दिनः । गो० उ०६।९॥
मध्यस्थो वा इन्द्रः। कौ० ५।४॥ है (अन्तरिक्षस्थानः-) इन्द्रो ज्योतिज्योतिरिन्द्रइति तदन्तरिक्ष
लोकं लोकानमामोति माध्यन्दिनं सवनं यशस्य । कौ०१४।१।।
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इन्द्रामिस्तोमः] इन्द्रः स (इन्द्रः) एतं माहेन्द्र ग्रहमबत माध्यन्दिनं सवनानां निके
वल्यमुक्थानां त्रिष्टुभं छन्दसां पृष्ठं सानाम् । ऐ०३ । २१ ।। , ऋभवो वा इन्द्रस्य प्रियं धाम । तां०१४।२।५॥ , ऐन्द्रं वै सुत्यमहः । कौ०४।४॥
(प्रजापतिः) अग्निहोत्रेण दर्शपूर्णमासाभ्यामिन्द्रमसृजत । कौ०६॥ १५ ॥
ऐन्द्र एकादशकपालः (पुरोडाशः) । तां० २१ । १० । २३ ॥ , ऐन्द्रमेकादशकपालं पुरोडाशं निर्वपति । श०५ । ३।१।३॥ , हेमन्तशिशिरावेन्द्राभ्याम् (अवरुन्धे)। श० १२ ।।
, दिवमैन्द्रेण ( अवरुन्धे)। श० १२।८।२। ३२॥ , अथेन्द्राय ज्येष्ठाय । हायनानां चरुं निर्वपति । श०५।३।
३।६॥ , यबै किंचन पीतवत्पदं तदैन्द्रं रूपम् । ऐ०६।१०॥ , यत् (अक्ष्योः ) शुक्लं तदैन्द्रम् । श० १२ । ९ । १ । १२ । , इन्द्रघोषस्त्वा वसुभिः पुरस्तात्पातु । श०३।५।२।४॥ इन्दतुरीयम् स इन्द्रस्तुरीयमभवत् । यदिन्द्रस्तुरीयमभवत् । तदिन्द्र
तुरीयस्येन्द्रतुरीयत्वम् । तै० १ । ७ । १।३।। इन्द्रनिहवः मन इन्द्रनिहवः । कौ० १५ । ३॥ इन्द्रशत्रुः अथ ( त्वष्टा) यदब्रवीदिन्द्रशत्रवर्द्धस्वेति तस्मादु हैन
मिन्द्र एव जघानाथ यद्ध शश्वदवक्ष्यदिन्द्रस्य शत्रपई.
स्वेति शश्वदु हस एवेन्द्रमहनिष्यत् । श० १।६।३१०॥ इन्द्रस्तोमः ( क्रतुः ) एतेन वा इन्द्रोऽत्यन्या देवता अभवदत्यन्याः
प्रजा भवति य एवं वेद । तां० १९ । १६ । २॥ इन्द्रामिस्तोमः ( क्रतुः ) अधैष इन्द्राग्न्योः स्तोम एतेन वा इन्द्रानी
अत्यन्या देवता अभवतामत्यन्याः प्रजा भवति य एवं वेद । तां० १९ । १७ ॥१॥ पुरोधा-( = राजपौरोहित्यमिति सायणः । कामो (इन्द्राग्निस्तोमेन ) यजेत । तां० १९ । १७ । ७॥
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[ इन्द्रामी इन्द्राग्नी प्राणोदानौ वाऽइन्द्राग्नी । ० २।५ । ३।८॥ , इन्द्राग्नी हि प्राणोदानीश० ४।३।१ । २२ ।।
प्राणापानौ वा इन्द्राग्नी । गोड-२ । १॥ प्राणापानौ वा एतौ देवानां यदिन्द्राग्नी। तै०१।६।४।३।। बलं वै तेज इन्द्राग्नी । गो. उ०१ । २२ ॥ ब्रह्मक्षत्रे वा इन्द्राग्नी । कौ० १२॥ ८॥ अमृत इन्द्राग्नी । श०.१०।४।१।६॥ इन्द्राग्नी व देवानामयातयामानी । तै० १।१ । ६।५॥ १।२।५।१॥ इन्द्राग्नी व देवानां मुखम् । कौ०४ । १४ ॥ तस्मादाहुरिन्द्राग्नीऽएव देवाना श्रेष्ठाविति । श०१३॥ इन्द्राग्नी व देवानामोजस्वितमौ । श० १३ । १ ।२॥ ६ ॥ इन्द्राग्नी वै देवानामोजिष्ठौ । तां० २४ । १७ । ३ ॥ष०३७॥ इन्द्राग्नी इव बलेन ( भूयासम् ) । मं० २।४।१४॥
ओजो बलं वा एतौ देवानां यदिन्द्राग्नी । तै०१।६।४॥४॥ ___इन्द्राग्नी वै देवानामोजिष्ठा बलिष्ठौ सहिष्ठी सत्तमौ पार
यिष्णुतमौ । ऐ०२।३६॥ इन्द्राग्नी वै देवानामोजिष्ठौ बलिष्ठी । तै०३।८।७।१॥ एताभिर्वा इन्द्राग्नी अत्यन्या देवता अभवताम् । तां० २४। १७।२॥
इन्द्राग्नी वै विश्वेदेवाः । श० १०। ४।१।९॥ , इन्द्राग्नी वै सर्वे देवाः। कौ० १२ । ६ ॥ १६ । ११ ॥ श.
६।१।२।२८॥ इन्द्राग्नी वा इदछ सर्वम् । श०४।२।२ । १४॥ अस्ति वै छन्दसा देवतेन्द्राग्नी । श०१।८।२।१६ ॥ प्रतिष्ठे वा इन्द्राग्नी । को०३।६।। ५ । ४॥ क्षत्रं वा इन्द्राग्नी । श०२।४।२।६॥ ज्योतिरिन्द्राग्नी । श० १० । ४।१।६॥ ऐन्द्राग्नं वै सामतस्तृतीयं सवनम् । कौ०४।४॥ तस्मादैन्द्रानो द्वादशकपालः पुरोडाशो भवति । श. १ ।
६.४।३॥ , ऐन्द्राग्नो द्वादशकपालः पुरोडाशो भवति।।०२।२।॥
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षम् ] इन्द्रानी ऐन्द्राग्नानि हक्थानि । श०४।२।५।१४॥४।६।३।३॥ , दर्शपूर्णमासयोर्वे देवते स्त इन्द्राग्नीऽएव । श० २।४।
४।१७॥ इन्द्राणी इन्द्राणी हवाऽ इन्द्रस्य प्रिया पत्नी तस्या उष्णीषो विश्व
रूपतमः। श० १४ । २ ।१।८॥ , स एष एवेन्द्रः। योऽयं दक्षिणेऽशन्पुरुषोऽथेयमिन्द्राणी
(योऽयसव्येऽक्षन्पुरुषः)। श०१०।५।२।९॥ इम्ब्रामरतो ऐन्द्रामारुता उमाणः । तां.२१ । १४ । १२ ॥ इन्द्राशुनासीरः संवत्सरो वा इन्द्राशुनासीरः । तै०१।७।६।१॥
इन्द्राय शुनासीराय (शुनो वायुः सीर आदित्य इति सायणः-तै० २।५ । ८।२ भाष्ये) पुरोडाशं द्वादश
कपाल निर्वपति । तै०१ । ७।१।१॥ इम्निपं वृहत् ( यजु० ३८ । २७ ) एतद्वाऽइन्द्रियं बृहद्य एष (सूर्यः)
तपति । श०१४।३।१।३१॥ इन्द्रियावान् वीर्यवानित्येवैतदाह यदाहेन्द्रियावानिति । श०३।९।
३। २५ ॥ , वीर्यवत इत्येवैतदाह यदाहेन्दोरिन्द्रियावत इति । श०
४।४।२।१२॥ इन्नो मघवा विरप्शी इयं (पृथिवी) वा इन्द्रो मघवा विरप्शी । ऐ०
इन्वकाः (मृगशीर्षसंघगतास्तारकाः) सोमस्येन्वकाः। तै० १।५।११॥ इरज्यन् (यजु० १२ । १०९) (=दीप्यमानः) इरज्यन्नने प्रथयस्व जन्तु
भिरिति । मनुष्या वै जन्तवो दीप्यमानोऽने प्रथस्व मनुष्यै.
रित्येतत् । श०७।३।१॥ ३२॥ इरा रा पत्नी विश्वसृजाम् । तै०३।१२।९।५॥ इछान्दम् (साम) इरान्नं वा एतत् । तां०५ । ३।२॥
, एतद्वै साक्षादन्नं यदिलान्दम् । तां०५। ३।२॥ इलवर्दः संवत्सरो वा इलुवर्दः । तै०३।८।२०। ५॥ इषः (यजु० २१ । ४७) प्रजा वाइषः। श० १ । ७।३।१४ ॥४।
१।२। १५ ॥ इषम् (R० ७ । ६६ । ९) अयं वै लोक इषमिति । ऐ०६।७॥ " अन्नं वा इषम् । कौ० २८ । ५ ॥
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[ इष्टि
( ९० )
इषइचोर्जेश्च एतावेव शारदौ ( मासौ ) स यच्छरव्यूस ओषधयः पच्यन्ते तेनो हैताविषश्चोर्जश्च । श० ४ । ३ । १ । १७ ॥ इषिरः ( यजु० १८ । ४० ) इषिर इति । क्षिप्र इत्येतत् । श० ९ । ४ । १ । १० ॥
इषीकाः अमृतं वा इषीकाः । तै० ३ | ८ | ४ | ३ ॥
आयुर्वा इषीकाः । तै० ३ | ८ | ४ | ३ ॥
"
इषुः वीर्ये वाऽइषुः । श० ६ | ५ | २ | १० ॥
रुद्रस्य हीषुः । श० २ । ६ । २ । ३ ॥
तस्मादिषुहतो वा दण्डहतो वा दशमीं ( रात्रि ) नैर्दश्यं (- दुःखनिवृत्ति ) गच्छति । तां० २२ | १४ | ३ ॥ इषोवृधीयम् (साम) मेथी ( = गवां बन्धने निखातस्थानं) वा इषोषुधीयम् । तां० १३ । ९ । १७ ॥
पशवो वा इषोवृधीयम् । तां० १३ । ९ । ९ ॥
29
इष्कर्ता (यजु० १२ । ११० ) इष्कर्त्तारमध्वरस्य प्रचेतसमिति । अध्वरो वै यज्ञः । प्रकल्पयितारं यशस्य प्रचेतसमित्येतत् । श० ७ । ३ । १ । ३३ ॥
इष्टका तद्यदिष्टात्समभवंस्तस्मादिष्टकाः । श० ६ । १ । २ । २२ ॥ यदिष्ट्वापश्यत्तस्मादिष्टका | श० ६ । ३ । १ । २ ॥ तद्यदिष्ट्वा पशुनापश्यत् । तस्मादिष्टकाः । श० ६ । २ । १ । १० ॥
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99
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अस्थीष्टका | श० ८ । १ । ४ । ५ || ८ | ७ | ४ | १९ ॥ अहोरात्राणि वाऽइष्टकाः । श० ९ । १ । २ । १८ ॥
33
इष्टः इष्टुर्गो वा ऋत्विजामध्वर्युः । तै० १ । ४ । ६।४॥ इष्टापूर्तम् अयजतेत्यददादिति ब्राह्मणो गायतीष्टापूर्त वै ब्राह्मणस्य । श० १३ | १ | ५ | ६ ॥
इष्टिः यज्ञो वै देवेभ्य उदकामत्तमिष्टिभिः प्रेषमैच्छत्यदिष्टिभिः प्रैषमैच्छंस्तदिष्टीनामिष्टित्वम् । ऐ० १ । २ ॥
एष्ठयो ह वै नाम ता इष्टय इत्याचक्षते परोक्षेण । परोक्षमिया इव हि देवाः । तै० १ । ५ । ९ । १ । ३ । १२ । २ । १ । ३ ।
।
१२ । ४ । १ ॥
18
तद्यदस्माऽइष्टे कमभवत्तस्माद्वेवेष्टकाः । श० ६ । १ । २।२३॥ अस्थीनि वाऽ इष्टकाः । श० ८ । ७ । २ । १० ॥
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( ९१ )
शानः ] इष्टिः ( देवाः) तं (इन्द्रं ) इष्टिभिरन्वैच्छन् । तमिष्टिमिरन्याविन्द - न् । तविष्टीनामिष्टित्वम् । तै० १ । ५ ।९।२॥ , तं (स्वर्ग लोकं) इष्टिभिरन्वैच्छत् । तमिष्टिभिरन्वविन्दत् ।
तदिष्टीनामिष्टित्वम् । तै०३।१२।२।१॥३। १२ । ४।१॥ , (प्रजापतिः) तं (अश्वमेधं) इष्टिभिरन्वैच्छत् । तमिष्टि
मिरन्धविन्दत् । तविष्टीनामिष्टित्वम् । तै० ३।९। १३॥ १॥ शानिधनम् ( साम ) ( देवाः ) अस्मिन्नेव लोक इहनिधनेन प्रत्यति
ठन् । तां० १० । १२ । ३ ॥ इहेरम् ( साम) (देवाः) अस्मिन्नेव लोक इहेडेन प्रत्यतिष्ठन् ।
तां०१०। १२ । ४॥ इहेह अयं पे लोक इहेह । ऐ०४।३०॥ ईरेन्यः वाग्घीदछ सर्वमीट्टे वाचेदछ सर्वमीडितम् । श०१।४।
३।५॥ , मनुष्या वाऽईडेन्याः । श० १।५।२।३॥ , (ऋ०३।२७ । १३) ईडेन्यो ह्येषः (अग्निः )। श०१ ।
४।१।२९ ॥ , वाग्वाऽ ईडेन्या । श० १।४।३।५॥ न्यः (यजु० १७ । ५५) ईड्य इति यशिय इत्येतत् । श०९ । २।
ईनिधनम् ( साम) अन्तरिक्षमीनिधनम् । तां० २१ । २।७॥
(देवाः) अमृतत्वमीनिधनेनागच्छन् । तां.१०।
१२॥ ३॥ ईशानः आदित्यो वाऽईशान आदित्यो ह्यस्य सर्वस्येष्टे । २०६ ।
१।३।१७॥ ,, एतान्यष्टौ (रुद्रः, सर्वः = शर्वः, पशुपतिः, उग्रः, अशनिः,
भवः, महान्देवा, ईशानः) अग्निरूपाणि । कुमारो नवमः ।
श०६।१।३।१८॥ , ईशानो मे मन्यौ श्रितः। तै०३।१०।८।९॥ " सहस (असुः) ईशानो नाम । स दशधा भवति । स एष
पतस्य (आदित्यस्य) रश्मिरसुभूत्वा सर्वास्वासु प्रजासु प्रत्यवस्थितः ।.उ०१।२९ । ३,४॥
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[ उक्थम्
( ९२ ) ईशानः दक्षिणतो वासीशानो भूतो वासि । जै० उ०३ । २१ । २॥ , यदीशानोऽग्नं तेन । कौ०६ । ८॥
(उ) उपयम् प्राण उऽ एवोक्तस्यान्नमेव थं तदुक्थमृक्तः। श० १० ।
४।१।२३॥ , एष (अग्निः) उऽएवोक्तस्यैतदनं ५ तदुक्थमुक्तः । श०
१०।४।१।४॥ अग्निर्वाऽउक्तस्याहुतय एव थम् । श० १०।६।२८॥ आदित्यो वा उक । तस्य चन्द्रमा एव थम् । श० १० ।
६।२।९॥ , प्राणो वाऽक्तस्यानमेव थम् । श०१०।६।२।१०॥
(देवाः सोमं ) उक्थैरुदस्थापयन् । तदुक्थानामुक्थत्यम् । तै०२।२।८।७॥ (वागिति) एतदेषां (नानां) उक्थमतो हि सर्वाणि नामान्युत्तिष्ठन्ति | श० १४ । ४।४।१॥ घागुक्थम् । ष०१।५॥ अन्नमुक्यांनि । कौ० ११ । ८ ॥ १७ । ७॥ प्रजा वा उक्थानि । ते०१।८।७।२॥ पशव उक्थानि । ऐ०४।१, १२॥ गो० उ० ६।७॥ ते. १।८।७।२॥ पशवो वा उक्थानि । कौ०२८ । १० ॥ २९ ॥ ८॥ प० ।। ११॥ तै०१।२।२।२॥ तां०४ १५ । १८ ॥ १६ । १० ।
२॥ १९ । ६।३॥ , विदुक्थानि । तां०१८।८।६॥ १९ । १६॥ ६॥ , ऐन्द्रामानि सक्थानि । २०४।२।५।१४॥४।६।३३॥
(देवाः) अन्तरिक्षमुक्थेन ( अभ्यजयन् )। ता०९ । २।९॥ " (देवाः) उक्थैरन्तरिक्षं (लोकमभ्यजयन् ) । तां० २०।
,, अपच्छिदिव वा एतद्यक्षकाण्डं यदुक्थानि । तां०११ । ११ ।
२॥१३।६।२॥ १४।६।१॥
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उबारनम् ] उक्थम् यदुक्थानि भवन्त्यनुसन्तत्या एव । तां० १८१८।६॥ उक्यः (क्रतुः) उक्थः षोडशिमान् भवति । तां० १९ । ६।३॥ उपभ्यम् अन्नं वा उक्थ्य म् । गो० पू०४।२०॥
, पशष उक्थ्यानि । कौ० २१ । ५ ॥
, अन्तरिक्षमुक्थ्ये न ( अभिजयति ) । तै०३। १२ । ५। ७॥ उक्थ्यं वचः यक्षियं वै कर्मोक्थ्यं वचः। ऐ० १ । २९ ॥ उक्थ्यः अन्नं वाऽउक्थ्यः । श० १२ । २।२।७॥ रक्षा ऐन्द्रामारुता उक्षाणः । तां० १ । १४ । १२ ॥ उखा एतद्वै देवा एतेन कर्मणैतयावृतेमाल्लोकानुदखनन् प्रदुदखनं.
स्तस्मादुत्खोखा ह वै तामुखेत्याचक्षते परोऽक्षम् । श०६।
७।१ । २३॥ ,, आत्मैवोखा । श०६।५।३।४॥६।६।२।१५ ॥
शिर एतद्यस्य यदुखा। श० ६। ५ । ३।८।६।५।
, उदरमुखा । श०७।५।१।३८।। , योनिर्वाऽउखा। श०७।५।२।२॥ इमे चैलोका उखा। श०६।५।२।१७ ॥६।७।१।२२॥
७।५। १ । २७ ॥ ,, प्राजापत्यमेतत्कर्म यदुखा। श०६।२।२।२३॥ ,, पर्वैतदग्नेर्यदुखा । ६ । २।२।२४ ॥ उख्यः (यजु. १४। १) अयं वाऽग्निरुख्यः । श०८।२।१।४॥ सनं वचः अशनायापिपासे ह वा उग्रं वचः।०१।५।९।६॥ उमः वायुवाऽउग्रः । श०६।१।३।१३॥ , एतान्यष्टौ ( रुद्रः, सर्वः =शर्वः, पशुपतिः, उग्रः, अशानः,
भवः, महान्देवः, ईशानः) अग्निरूपाणि । कुमारो नवमः ।
श०६।१।३ : १८ ॥ उमो देवः यदुनो देव ओषधयो वनस्पतयस्तेन । को० ६।५॥ सरचाटनम् हरितालेन गोहृदयशोणितेन चेत्युत्तरेण सन्नयेद्यं द्वि
प्यात्प्रमहिष्ठीयेनास्य शय्यामवकिरदगारं च भस्मना नैकप्रामे बसति । सा०२।६।६॥
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[ उत्सेधः
( ९४ )
उत् उदिति सोऽसावादित्यः । जै० उ० २।९।८ ॥
उत्तरं सधस्थम् ( यजु० १५ । ५४ ॥ १७ । ७३ ) द्यौर्वाऽउत्तरं सधस्थम् । श० ८ | ६ । ३ । २३ ॥ ९ । २ । ३ । ३५ n
उत्तरः तेषु हि वा एष एतदध्याहितस्तपति स वा एष ( सूर्य : ) उत्तरोऽस्मात्सर्वस्माद्भूताद्भविष्यतः सर्वमेवेदमतिरोचते यदिदं किंच । ऐ० ४ । १८ ॥
( यजु० ३८ | २४ ) अयं वै ( भू--) लोकोऽङ्ग्य उत्तरः । १४ । ३ । १ । २८ ॥
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उत्तर आधारः शिरो वै यज्ञस्योत्तर आधारः । श० १ । ४ । ५ । ५ ॥ उत्तरनाभिः वाग्वाऽउत्तरनाभिः । श० १४ | ३ | १ | १६ ॥ उत्तरवेदिः नासिका ६ वा ऽएषा यज्ञस्य यदुत्तरवेदिः । अथ यदेनामुत्तरां वेदेरुपकिरति तस्मादुत्तरवेदिनम । श० ३ । ५ ॥ १ । १२ ।।
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द्यौरुत्तरवेदिः । श० ७ । ३ । १ । २७ ॥ योनिर्वाऽउत्तरवेदिः । श०७ । ३ । १ । २८ ॥ योषा वाऽउत्तरवेदिः । श० ३ । ५ । १ । ३३ ॥ पशवो वा उत्तरवेदिः । तै० १ । ६ । ४ । ३ ॥ खल उत्तरवेदिः । तां० १६ | १३ | ७ ॥
"
उत्तरा देवयज्या यस्य हि प्रजा भवत्यमुं लोकमात्मनैत्यथास्मिलोके प्रजा यजते तस्मात्प्रजोत्तरा देवयज्या । श० १ । ८ । १ । ३१ ।। उत्तरोष्ठः असौ लोक उत्तरोष्ठः । कौ० ३ । ७ ॥
न भगीरसः इयं ( पृथिवी ) वा उत्तान आङ्गिरसः । तै० २ । ३ । २।५ ॥ २।३।४।६॥
उत्थानम् यततो यज्ञस्योहथं गत्वोत्तिष्ठन्ति तदुत्थानम् । श० ४।६।८।६॥
1
इत्सः ( यजु० १२ । १९ ) आपो वाऽउत्सः । श० ६ । ७ । ४ । ४ ॥ : ( सामविशेषः ) उत्सेधेन वै देवाः पशुनुदशेधन् । तां० १५ । ९ । ११ ॥
श०
उत्सेधनिषेधौ ब्रह्म सामनी भवत उत्सेधेनैवास्मै पशूनुत्सिभ्य निषेधेन परिगृह्णाति । तां० १९ । ७ । ४ ॥
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उदीचा विक] उदयनीयम् अथ यदत्रावभृथादुदत्य यजते तस्मादेतदुदयनीयम् ।
श०४।५।१।२॥ , घागुदयनीयम् । फो०७॥९॥
प्राणोदानावेव यत्प्रायणीयोदयनीये । कौ० ७।५॥ उदयनीयः (यागः) आदित्य उदयनीयः । श. ३।२३।६॥
, उदान उदयनीयः । ऐ० १ १७॥ उदरम् उदरमेकविशः । विशतिवी अन्तरुदंरे कुन्तापान्युदरमे
कविशम् । श०१२।२।४ । १२॥ ., उदरमुखा । श०७।५।१।३८॥ . उदरं वाऽ उपयमन्युदरेण हीद सर्वमन्नाद्यमुपयतम् ।
श०१४।२।१ । १७ ॥ उदकः रसो वा उदर्कः । कौ० ११ । ५ ॥ उदानः उदानो यन्तर्यामो ऽमु (दिवं) ह्येव लोकमुदनन्नभ्युद
निति । श०४।१।२।२७ ॥
(यज्ञस्य) उदान एवान्तर्यामः । श०४।१।१।१॥ ,, तद्यदस्यैषो (उदान:) ऽन्तरात्मन्यतो यद्वेनेनेमाः प्रजा
यतास्तस्मादन्तामो नाम । श०४।१।२।२॥ , उदान उदयनीयः। ऐ०१।७॥
उदस्त इव ह्ययमुदानः । प० २।२॥ तं (संक्षप्तं पशुं) उदीची दिगुदानेत्यनुप्राण दुदानमेवास्मि. स्तददधात् । श० ११ । ८।३।६॥
चन्द्रमा उदानः । जै० उ०४।२२। ९ ॥ ,, उदानो पैत्रिककुप्छन्दः । श०८ । ५। २।४॥
, उदानो वै नियुतः। श०६।२।२।६॥ उदीची दिक् एषा (उदीची) वै मनुष्याणां दिक् । ते. १।६।९।७॥
उदीची हि मनुष्याणां दिक् । श० १।२।५ । १७॥१। ७।१।१२॥ उदीचीमावृत्य दोग्धि मनुष्यलोकमव तेन जयति । तै० २।१।८।१॥३।२।१ । ३॥ तस्मान्मानुषऽउदीचीनवशामेव शालां वा विमितं या मिन्धन्ति । श०३।१।१ । ७॥
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[ उदीची विक ( ९६ ) उदीची दिक् एषा ( उर्दाची ) वै देवमनुष्याणार्थ शान्ता दिक् । तै०
२।१।३।५॥ उत्तरा ह वै सोमो राजा । ऐ०१।८॥ यदुत्तरतो वासि सोमो राजा भृतो वासि। जै० उ०३। २१ । २॥ उदीचीनदशं वै तत्पावत्रं भवति येन तत्सोमराजान. ७ सम्पावयन्ति । श०१।७।१।१३॥ उत्तरार्धे जुहोत्येषा (उदीची) घेतस्य देवस्य (रुद्रस्य) दिक् । श०१।७।३।२०॥ एषा (उदीची)ोतस्य देवस्य (रुद्रस्य) दिक् । श० २।६।२।७॥ एषा ( उदीची) वै रुद्रस्य दिक् । तै०१।७।८।६॥ यदुदश्चः परेत्य त्र्यम्बकैश्चरन्ति रुद्रमेव तत्स्वायां दिशि प्रीणन्ति । कौ० ५। ७॥ एषा ( उत्तरा = उदीची) हि दिक् स्विष्टकृतः। श०२ । ३।१।२३॥ एषा ( उत्तरा) वै वरुणस्य दिक् । तै० ३। ८ । २०॥४॥ उदीची दिक् । मित्रावरुणो देवता । तै० ३ । ११ । ।।२॥ मित्रावरुणौ त्वोत्तरतः परिधत्तां ध्रवेण धर्मणा विश्व स्यारिष्टयै ( यजु० ११ । ३)। श०१।३।४।४॥ नक्षत्राणां वा एषा दिग्यदुदीची। ष०३।१॥ सानामुदीची महती दिगुच्यते । तै०३।१२।९।१॥ उदीच्युद्गातुः (दिक् )। श० १३ । ।४।२४ ॥ अयास्येनाऽऽङ्गिरसेन (उद्गात्रा) मनुष्या उत्तरतः (अपि. त्वमेषिरे)। जै० उ०२।७।२॥ तस्मादुद्वाता वृत उत्तरतो निवेशनं लिप्सेत । जै० उ० २।८।२॥ उदीचीमेव दिशम् । पथ्यया स्वस्त्या प्राजानन् । श० ३। २।३।१५॥ सा (पथ्या स्वस्तिः) उदीची दिशं प्राजानात् । कौ०
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( ९७ )
उदीची दिक] उदीची दिक् उदीचीमारोह । अनुष्टुप्त्वावतु वैराज सामैकवि
श स्तोमः शरहतुः फलं द्रविणम् । श० ५।४।१।६॥ मित्रावरुणनेप्रेभ्यो वा मरुनेत्रेभ्यो देवेभ्य उत्तरास
यः स्वाहा । श०५।२।४।५॥ विश्व त्वा देवा उत्तरतोऽभिषिञ्चन्त्वानुष्टुभेन छन्दसा। सै०२।७।१५। ५॥ अथैनं (इन्द्र) उदीच्यां दिशि विश्वे देवा......अभ्यषिचन्......वैराज्याय । ऐ०८।१४॥ विश्वकर्मा त्वादित्यैरुत्तरतः पातु । श० ३।५।२।७ ॥ तस्मादुत्तरतः पश्चादयं भूयिष्ठं पवमानः (वायुः ) पवते सवितृप्रसूतो ह्येष एतत्पवते । ऐ०१।७॥ (वायुः) यदुत्तरतो वाति । सवितैव भूत्वोत्तरतो वाति । ते०२।३।९॥ ७॥ (हे देवा यूयं ) सवित्रोदीची (दिशं प्रजानाथ )। ऐ०
स हानिरुवाच । ( असुराः) उदञ्चो वै नः पलाय्य मुच्यन्त इति । श०१।२।४।१०॥ प्रथैतस्यामुदि (दी)च्यान्दिशि भूयिष्ठं विद्योतते। ष०२॥४॥ तस्मादेतस्यां (उदीच्यां) दिशि प्रजाः अशनायुकाः । श० ७ । ३११।२३ ॥ तस्मादेतस्यां (उदीच्यां ) दिश्येतौ पशू ( अश्वश्चाविश्च) भूयिष्ठौ। श०७।५।२।१५॥ अथ यदुदीच्यां दिशि तत्सर्वमुद्गीथेनाप्नोति । जै० उ० १।३१।६॥ उत्तरत आयतनो वै होता। तै०३।९।५।२॥ उदीच्येव यशः । गो पू०५ ॥ १५ ॥ शमीमयं (शडू) उत्तरतः, श मेऽसदिति । श. १३ । ८ ।
तस्मादेतस्यामुदीन्यां दिशि ये के च परेण हिमवन्तं जनपदा उत्तरकुरव उत्तरमद्रा इति वैराज्यायैव तेऽभि
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[ उदुम्बरः
(५८) पिच्यन्ते विराडित्येनानभिषिक्तानाचक्षते। ऐ० ८।१४॥ उदीची दिक् तस्मादुदीच्यां दिशि प्रशातता वागुचत उदश्च उ
एव यन्ति वाचं शिक्षितुं यो वा तत आगच्छति तस्य वा शुश्रूषन्त इति । कौ० ७ । ६ ॥ उदीचीमेव दिशम् । पथ्यया स्वस्त्या प्राजानंस्तस्माद
त्तराहि वाग्वदतिं कुरुपश्चालना । श.३२।३।१५॥ उदीची प्राची दिक्) एतस्याह ( उदीच्यां प्राच्यां ) दिशि स्वर्ग
स्य लोकस्य द्वारम् । श०६।६।२४॥ एषा होभयेषां देवमनुष्याणां दिग्यदुदीची प्राची।
श६ । ४।४ । २२॥ उदुब्रह्मीयम् ( सूक्तम् ) ऋतवो वा उदुब्रह्मीयम् । कौ० २९ । ६॥ उदुम्बरः स (प्रजापतिः) अब्रवीत् अयं वाव मा सर्वस्मात्पाप्मन उदभा
दिति यदवीदुदभार्षीन्मेति तस्मादुदुम्भर उदुम्भरो ह
वै तमुदुम्बर इत्याचक्षते परोऽक्षम् । श०७।५।१ । २२ ॥ ,, अथास्य (प्रजापतेः) इन्द्र ओज आदायोदबुदकामत्स
उदुम्बरो ऽभवत् । श० ७।४।१ । ३९ ॥ ,, औदुम्बरं (यूपम्) अन्नाद्यकामस्य । ष० ४।४॥ " औदुम्बरेण रम्जन्यः ( अभिषिञ्चति ) । ऊर्जमेवास्मिन्नन्नाचं
दधाति । तै०१। ७ । ८।७।। , ऊर्वा अन्नाधमुदुम्बरः । ऐ०५ । २४॥८।८,९ ॥ कौ० २५ ।
१५ ॥ २७॥ ६॥ , ऊर्वा उदुम्बरः । ते०१ । १।३। १०॥ तां० ५।५।२॥ , अन्नं वाऽ ऊर्गुदुम्बरःश०३।२।१।३३॥ ३३॥४॥२७॥ , ऊर्वा अन्नमुदुम्बरः । ०१ । २। ६ । ५॥
ऊर्गुदुम्बरः । तां० ६ । ४ । ११ ॥ १६ । ६ । ४ ॥ ,, प्रजापति देवेभ्य ऊर्ज व्यभजत्तप्त उदुम्बरः समभवत् ।
तां०६।४।१॥ यद्वैतद्देवा इषमूर्ज व्यभजन्त तत उदुम्बरः समभवत्तस्मास
त्रिः संवत्सरस्य पच्यते । ऐ० ५। २४॥ , ते ह सर्व एव वनस्पतयो ऽसुरानभ्युपेयुरुदुम्बरो हैव देवान्न
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( हह)
जहौ ते देवा असुरान् जित्वा तेषां वनस्पतीनवृञ्जत ।
श० ६ । ६ । ३।२ ॥
उदुम्बर: गृहपतिरौदुम्बरीं धारयति गृहपतिर्ध्व ऊर्जा यन्तोर्जमे वैभ्यो यछति । तां ४ । ९ । १५ ॥
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उद्गाता सूर्य उगाता । गो० पू० १ । १३ ॥
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मासेभ्य एवास्योर्गस्त्रवत्स उदुम्बरोऽभवत् । श०१२|७|१|९|| ऊर्जा वा एषोऽनाद्याद्वनस्पतिरजायत यदुदुम्बरः । ऐ०७|३२|| तद्येषु वनस्पतिपूग्य रस आसीदुदुम्बरे तमदधुस्तयैतदूर्जा सर्वान्वनस्पतीन्प्रति पच्यते तस्मात्स सर्वदार्द्रः सर्वदा क्षीरी तदेतत्सर्वमन्नं यदुदुम्बरः सर्वे वनस्पतयः ।
श० ६ । ६ । ३ । ३ ॥
अथो सर्वs पते वनस्पतयो यदुदुम्बरः । श० ७ । ५ । १ । १५ ॥ भौज्यं वा एतद्वनस्पतीनां (यदुदुस्वरः) । ऐ०७३२ || ८ | १६॥
प्राजापत्यो वा उदुम्बरः । तां० ६ । ४ । १ ॥
प्राजापत्य उदुम्बरः । श० ४ । ६ । १ । ३ ॥
उद्गाता ]
आदित्यो वा उद्गाताऽधिदैवं चक्षुरध्यात्मम् । गो० पू० ४ | ३ ॥ सौर्य उगाता । तां० १८ ।९।८ ॥
पर्जन्यो वाऽ उद्गाता । श० १२ । १ । १ । ३ ॥
वर्षा उद्गाता तस्माद्यदा बलवद्वर्षति साम्न इवोपब्दिः क्रियते ।
श०११/२/७/३२ ॥
प्राण उद्गाता । कौ० १७ । ७ ॥ गो० उ० ५ ॥ ४ ॥
ते य एवेमे मुख्याः प्राणा एत एवोद्गातारश्चोपगातारश्च । जे० उ० १ | २२ | ५ ॥
देवानां वै षडुङ्गातार आसन् वाक् च मनश्च चक्षुश्च श्रोत्रं चाडपानश्च प्राणश्च । जै० उ०२ । १ । १ ।
एतद्वा उद्ग। तृणा हस्तकाय्यं यत्पवित्रस्य विग्रहणम् । तां० ६ । ६ । १२ ।।
अनभिजिता वा एषोद्गातृणां दिग्यत्प्राची । तां० ६ । ५ । २० ॥ तस्मादुद्वाता वृत उत्तरतो निवेशनं लिप्सेत । जे० उ० २ ।
६ । २ ॥
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[ उद्गीथः
(१००) उदाता अयास्येनाऽऽङ्गिरसेन (उदात्रा दीक्षामहा इति) मनुष्या उत्सरतः
(आगच्छन् । जै० उ०२।७॥२॥
उदीच्युद्गातुः ( दिक् ) । श०१३।५।४।२४॥ .. एष वै यजमानस्य प्रजापतियदुद्गाता । तां०७।१०।१६॥ , प्रजापतिर्वाऽउद्गाता । श०४।३।२ ॥
प्राजापत्य उदाता। तां०६।४।१॥६।५।१८।। ,, उद्गातव यशः । गो० पू०५।१५॥ उद्गीथ: सोऽसावादित्यरस एष एव उदग्निरेव गी चन्द्रमा एव थम् ।
सामान्येव उद्दच एव गी यजूपयेव शमित्यधिदेवतम् । अथाध्यात्मम् । प्राण एव उद्वागेव गी मन एव यम् । स एषो
ऽधेिदवतं चाऽध्यात्म चोदीथः । जै० उ०१। ५७। ७-८॥ ,, प्राणो वावोद्वाग्गी स उद्वीथः । जै० उ०४।२३।२॥
एषः (प्राण:) उ वाऽउद्गीथः । प्राणो बाऽउत्प्राणेन हीद सर्वमुत्तब्धं वागेव गीथोच्च गीथा चेति स उदीथः। श०१४। ४।१।२५ ॥ एष वशी दीप्तान उद्गीथो यत्प्राणः। जै० उ०२।४।१॥ (प्रजापतिः) प्राणमुद्गीथम् (अकरोत)। जै० उ० ६ १३ ५॥ आदित्य उद्गीथः । जै० उ०१। ३३ । ५॥ प्रजापतिरुद्गीथः । तै०३। ८।२२॥ ३॥ ( प्रजापतिः ) सामान्युद्गीथम् (अकरोत् )। जै००१ ॥१३॥ ऋतव उद्गीथः ।०३।१॥ वर्षा उद्गीथः । ष०३।१॥ (प्रजापतिः ) वर्षामुद्गीथम् (अकरोत् ) । ००११२७॥ (प्रजापतिः) स्तनयित्नुमुद्गीथम् (अकरोत् )। जै० उ०१।
माध्यन्दिन उद्गीथः । जै०१।१२।४॥ ,, सोमवृहस्पती उद्गीथः । जै० उ०१। ५८।९॥
एष (वायुः) वै सोमस्योगीयो यत्पवते । तां०६ । ६ । १८ ॥ पुरुषो होद्गीथः । जै० उ०४ । ९ । १ पुरुष उद्गीथः । जै० उ०१।३३।९॥
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( १०१ )
उद्गीथ: मांसमुद्गीथः । जै० उ० १ | ३६ | ६ ॥
29
17
".
१ । ११ । ८ ॥
अथ यदुदीच्यां दिशि तत्सर्वमुद्रीथेनाप्नोति । जे० उ० १ । ३१ । ६ ॥
उद्भिद (:) यदुद्भिदा यजते बलमेवास्मै (यजमानाय विच्यावयति । तां० १९ । ७ । ३॥
उदेशीयम् (साम) पृष्ठानि वा असृज्यन्त तेषां यत्तेजो रसो ऽत्यरिच्यत तदेवाः समभरस्तदुद्व १७ शीयमभवत् । तां०
""
श्रद्धा, यशो, दक्षिणा एष उद्गीथः । जै० उ० १ । १९ । २ ॥
( प्रजापतिः ) उद्गीथं देवेभ्योऽमृतम् ( प्रायच्छत् ) । जै० उ०
"5
८।९।७ ॥
उज्र : अन्तरिक्ष
ह्येष उद्धिः । श० ६ १६ । २ । ४ ॥
उप इयं (पृथिवी) वाऽउप । द्वयेनेयमुप यद्धीदं किंच जायतेऽस्यां तदुपजायतेऽथ यन्त्र्यृछत्यस्यामेव तदुपोप्यते । श० २।३२४९ ॥
उप वै रथन्तरम् ( 'उपशब्दसम्बद्धं हि रथन्तरपृष्ठं ज्योतिष्टोमे” इति सायणः) । तां० १६ | ५ | १४ ॥
"
उपद्रवः |
उपगातारः तस्माद्दु चतुर एवोपगातृन् कुर्वीत । जै० उ० १ | २२ | ६ ॥ आर्त्तवा उपगातारः । तै० ३ । १२ । ९॥४॥
"
८ १९१६ ॥
सर्वेषां वा एतत्पृष्ठानां तेजो यदुद्वशीयम् । तां०
तय एवेमे मुख्याः प्राणा एत एवोद्गातारश्चोपगातारश्च । जै० उ० १ । २२ । ५ ॥
उपगुः (सौश्रवसः) उपगुर्वे सौश्रवसः कुत्सस्यौरवस्य पुरोहित आसीत् । तां० १४ । ६ । ८ ॥
उपदीकाः इमा वै वम्रयो यदुपदीकाः । श० १४ । १ । १ । ८ ॥ उपदेशनवन्तः (स्तोमाः) प्राणो में त्रिवृदर्द्धमासः पञ्चदशः संवत्सरः सप्तदश आदित्य एकविश एते वै स्तोमा उपदेशनयन्तः । तां० ६ । २ । २ ॥
उपद्रवः विश्वे देवा उपद्रवः । जै० उ० १ । ६८ । ९ ॥
( प्रजापतिः) उपद्रवं गन्धर्वाप्सरोभ्यः (प्रायच्छत्) । जै० उ० १ । १२ । १ ॥
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[उपश्रोता
(१०२) उपद्रवः आपः प्रजा ओषधय एष उपद्रवः । जै० उ०१।१६।२॥
, यदुपास्तमयं लोहितायति स उपद्रवः । जै०उ०१ । १२॥ ४॥
, अथ यदन्तरिक्ष तत्सर्वमुपद्रवेणाप्नोति । जै० उ०१।३१।८॥ उपद्रष्टा अग्निी उपद्रष्टा । गो० उ०४।९॥ तै० ३ । ७।५।४॥
., ब्राह्मणो वा उपद्रष्टा । गो० उ०२।१९ ॥ उपभृत् अथेदमन्तरितमुपभृत् । श०१।३।२।४॥ ,, अन्तरिक्षमुपभृत् । तै०३।३।१।२॥३।३।६११॥ ,, भ्रातृव्यदेवत्योपभृत् । तै०३।३।५।४।३।३ । ७ ॥
, सावित्र्युपभृत् । तै०३।३।७।६॥ , उपभृत्सव्यः (हस्तः) । तै०३।३।१।५॥
, अत्तव जुहूराद्य उपभृत् । श०१।३।२।११॥ उपयजः यद्यजन्तमुपयजति तस्मादुपयजो नाम । श०३।८।४।१०॥ उपयमनी उदरं वाऽउपयमन्युदरेण हीद सर्वमन्नाधमुपयतम् । १०
१४।२।१।१७ ॥ . अन्तरिक्ष वाऽ उपयमन्यन्तरिक्षण हीद७ सर्वमुपयतम् ।
श० १४।२।१।१७॥ उपयाम (ग्रहः)इयं (पृथिवी ) वाऽ उपयाम इयं वाऽइदमन्नाद्यमुपयच्छति
पशुभ्यो मनुष्येभ्यो वनस्पतिभ्यः । श०४।१।२।८॥ उपवसथः यदहरस्य श्वो ऽग्न्याधेय स्यात् । दिवैवानीयान्मनो ह ये
देवा मनुष्यस्याजानन्ति तेऽस्यैतच्छोऽग्न्याधेयं विदुस्तेऽस्य विश्वे देवा गृहानागच्छन्ति तेऽस्य गृहेपूपवसन्ति स उपवसथः । श०२।१।४।१॥ ते (विश्वे देवाः) एतद्धविः प्रविशन्ति तऽएतासु धसतीव.
रीषूपवसन्ति स उपवसथः । श०३।९।२।७॥ उपवाकाः यछ्लेष्मणस्ता उपवाकाः (अभवन्)। २०१२ । ७।१।३॥ उपवेषः उपेव वाऽएनेनैतद्वेवेष्टि तस्मादुपवेषो नाम। श० ११२।१॥३॥ , परिवेषो वा एष वनस्पतीनाम् । यदुपवेषः ! तै०३।३।११।१॥
, धृष्टिा उपवेषः । तै०३।३। ११ । २॥ उपश्रोता वायुर्वा उपश्रोता | गो० उ० २॥ १९ ॥४।९॥ तै०३।
७।५।४॥
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(१०३ ।
उपांशुः] उपसदः ते (देवाः) एताभिरुपसद्भिपासीदस्तद्यदुपासीदस्तस्मादुप
सदो नाम । श०३।४।४।४॥ ,, ऋतव उपसदः । श० १०।२।५।७॥ " मासा उपसदः । श०१०।२।५।६॥ , अर्धमासा उपसदः । श० १०।२।५।५ ॥
अहोरात्राणि वाऽ उपसदः । श०१०।२।५! ४॥ इमे लोका उपसदः । श०१० ।२। ५। ८॥ एतदु ह यज्ञे तपः । यदुपसदस्तपो वाऽ उपसदः । श० १०॥
२।५।३॥ , तपो पसदः। श०३।६।२१ ११ ॥ , ग्रीवा वै यज्ञस्योपसदः । श. ३।४।४।१॥
(यशस्थ) ग्रीवा उपसदः । ऐ० १ । २५ ॥ पताभिर्वे देवा उपसद्भिः । पुरःप्राभिन्द निमालोकान् प्राज.
यन् । श०३।४।४।५॥ ., वज्रा चाऽ उपसदः । श०१०।२।५।२। ,, जितयो वै नामता यदुपसदः। ऐ०१ । २४॥ , ता (उपसदः वा आज्यहविपो भवन्ति । श० ३।४।४। ६॥ , वा एतां देवाः समस्कुर्वत यदुपसदस्तस्याः अग्निरनीक
मासीत् सोमः शल्यो विष्णुस्तेजनं वरुणः पर्णानि ऐ०१॥२५॥ उपहव्यः (एकाहः) ते देवाः प्रजापतिमुपाधावन् स एतमुपहव्यमपश्यत् ।
तां०-१८ । १।२॥ इन्द्रो यतीन् सालावृकेयेभ्यः प्रायच्छत्तमश्लीला वागभ्यवदत् स प्रजापतिमुपाधावत्तस्मा एतमुपहव्यं प्रायच्छत्तं विश्वे देवा उपाह्वयन्त, यदुपाह्वयन्त तस्मा
दुपहव्यः । तां० १८ । १ ॥९॥ उपहितम् पागुपहितम् । श०६।१ । २।१५ ॥
, अङ्गान्युपहितम् । श०६।१।२।१५॥ उपांशु अनिरुक्तं वाऽ उपा७शु । श०१।३।५ । १० ॥
, स यदुपाशु तत्प्राजापत्य रूपम् । श०१।६।३। २७॥ उपांशुः (प्रह) प्राणो ह वाऽ अस्य (यज्ञस्य) । उपाशुः । श०४।
१।१।१॥
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[उल्बम
(१०४) उपांशुः (गहः) अथवा उपांशुः प्राण एव । कौ०।१२।४॥ , यशमुख वा उपाशुः । श०५ । २।४।१७॥
इयं (पृथिवी) ह वाऽउपाशुः । श०४१।२।२७॥ , उपांशुपात्रमेवान्वजाःप्रजायन्ते ।।०४।५१५॥२॥ उपांशुयाज: क्षत्रमुपाशुयाजः । श० ११ ।२।७। १५ ॥ उपांशुसवनः आत्मा वा उपांशुसवनः । ऐ०२।२१॥
(यज्ञस्य) आत्मोपा७शुसवनः । श०४।१।२।२५ ॥ (यशस्य) व्यान उपाय शुसवनः । श०४।१।१।१॥ व्यानो झुपा ५शुसवनः । श०४।१।२।२७॥
अन्तरिक्षमेवोपाशुसवनः । श०४।१।२।२७ ॥ उपांश्वन्तर्यामी (गहौ। प्राणापाना उपांश्चन्तर्यामी। ऐ०२।२१ ॥
प्राणापानौ वा उपांश्वन्तर्यामी । कौ० ११ । ८॥
वय इव ह वै यज्ञो विधीयते तस्योपा श्वन्तयोमावेव पक्षावात्मोपा शुसवनः । श०४।१।
२। २५ ॥ उरः तस्मा उरुरभवत् । तदुरस उरस्त्वम् । जै० उ०४।२४।२॥ ,, उरः सप्तदशः (स्तोमः) । अष्टावन्ये जत्रवो ऽटावन्या उरः सप्तद.
शम् । श० १२ । २।४।११ ॥ , उरत्रिष्टुपु । प०२।३॥ , उरस्त्रिष्टुभः । श०८।६।२।७॥ ,, उरः सान्तपनीया (इष्टिः) उरसा हि समिव तप्यते । श० ११ ।
५।२।४॥ उर्वी यथेयं पृथिव्युव्र्येवमुरुभूयासम् । श०२।१।४।२८॥ उलूखलम् (प्रजापतिरब्रवीत) उरु मे करदिति तस्मादुरुकरमुरुकर
ह वै तदुलूखलमित्याचक्षते परोऽक्षम् । श० ७ । ५ ॥११ २२॥ , अन्तरिक्षं वाऽ उलूखलम् । श०७।५।१।२६॥
, योनिरुलूखलम्......शिश्नं मुसलम् । श०७।५।१।३८॥ उल्बम् उल्वं घृतम् । श०६।६।२।१५ ॥ , उल्यं वाऽ ऊषाः । श०७।३।१।११।।
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( १०५ )
उषासानक्ता] उल्बम् उल्पमूषाः | २०७।१।१।८॥ उशन् उशन्नुशन्तमिति प्रियः प्रियमित्येवैतदाह । श० ३ ३ । ३॥०॥
, वायुर्या उशन् । सां०७ । ५। १९ ॥ उशना: (काव्यः) उशनसा काव्येन (उद्गात्रा) असुराः पश्चात् (आ
गच्छन्)। जै० उ०२।७।२॥ , उशना वै काव्यो ऽसुराणां पुरोहित आसीत् तां.
७।५।२०॥ उशीनरा: स्मादस्यां ध्रुवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि ये के कुरु
पञ्चालानां राजानः सवशोशीनराणां राज्यायैव ते ऽगि
षिच्यन्ते राजेत्येनानभिषिक्तानाचक्षते । ऐ० ८।१४॥ उषा: रात्रिर्वा उषाः। ते ३।८।१६।४॥ , योषाः सा राका। ऐ० ३।४८॥ , भूतानां पतिगृहपतिरासीदुषाः पत्नी । श०६।१ । ३ । ७॥
तानीमानि भूतानि च भूतानां च पतिः संवत्सरऽ उपसि रेतो सिञ्चत्स संवत्सरे कुमारो ऽजायत सोऽरोदीतू... यदरोदीतू तस्माद्द्रः । श०६।१।३।८-१०॥ प्रजापति स्वां दुहितरमभ्यध्यायद्दिवमित्यन्य आहुरुषसमित्यन्ये । ऐ०३ । ३३॥ प्रजापतिह 4 स्वां दुहितरमभिदध्यौ। दिवं वोषसंवा मिथुन्येनया स्यामिति ता सम्बभूव । श०१ । ७।४।१॥ प्रजापतिरुषसमध्येत् स्वां दुहितरं तस्य रेतः परापतत्तदस्यां न्यषिच्यत तदश्रीणादिदं मे मा दुषदिति तत्सदकरोत् पशूनेव। तां०८ ॥ २॥१०॥ तान् दीक्षितांस्तपानान् (अग्निवाय्वादित्यचन्द्रमसः) उषाः प्रा. जापत्या ऽप्सरोरुगं कृत्वा पुरस्तात्प्रत्युदैत्तस्यामेषां मनः समपतत्ते रेलो ऽसिञ्चन्त ते प्रजापतिं पितरमत्याब्रवन्नेतो वा प्रसिचामा इदं नो मामुया भूदिति । कौ०६ । १ ॥
गोभिररुणरुषा आजिमधातू । ऐ०४।९॥ ॥ उषस्थमन्वाह तदन्तरिक्षलोकमाप्नोति । कौ० ११ । २॥ १८॥२॥ उषामानक्ता अहोरात्र वा उषालानता । ऐ०२।४॥
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[ ऊर्फ
( १०६ ) उरिणक् छन्दः) उष्णिगुत्स्नानात् स्निह्यतेर्वा कान्तिकर्मणोऽपि वोष्णी
पिणो वेत्यौप मकम् । दे० ३।४॥ यस्य सप्त ता उष्णिहम् । को०९, २॥ अष्टाविंशत्यक्षरोष्णिक् । क.० २६ । १॥ औष्हिो वै पुरुषः । ऐ०४।३।। आयुर्वा उष्णिक । ऐ०१ । ५॥ ग्रीवा उष्णिहः । श०८।६।२ । ११ ॥ चक्षुरुष्णिक । श०१०।३।१।१॥ पशवो वा उष्णिक । तां०८।१०।४॥ अजाविकमेवोष्णिक । कौ० १२॥ २॥
यजमानच्छन्दसमेवोष्णिक । कौ० १७ । २ ॥ उष्णिककुभौ प्राणा वा उष्णिककुभौ । तां० ८।५।५॥
नासिके वा एते यज्ञस्य यदुष्णिककुभौ । तां० ८१५॥ ४॥ उष्णिककुब्भ्यां वा इन्द्रो वृत्राय वजं प्राहरत् ककुभि पराक्रमतोष्णिहा प्राहरत् । तां०८।५।२॥
(ऊ) ऊति: ऊतयः खलु वै ता नाम याभिर्देवा यजमानस्य हवमायन्ति ।
ये व पंथानो याः स्त्रतयस्ता वा ऊतयस्त उ एवैतत्स्वगंयाणा
यजमानस्य भवन्ति । ऐ०१।२॥ ,, ऊनातिरिक्तानि (शरीरस्य ) न्यूनाक्षरी छन्द आपो देवतोना
तिरिक्तानि । श० १० । ३ । २ । १३ ॥ ऊमा: ऊमा वै पितरः प्रातःसवन ऊर्वा माध्यन्दिने काव्यास्तृतीय
सवने (ऊमाः = ऋतुविशेषः, तैत्तिरीयसंहितायाम् ४।४।७।
२॥५। ३ । ११ । ३॥ सायणभाष्यमपि द्रष्टव्यम्)। ऐ८७ । ३४॥ ऊरू अनुष्टुप्छन्दो विश्वे देवा देवतोस । श० १० । ३।२।६॥ उर्क ऊर्जदधाथामिति रसं दधाथामित्येवैतदाह । श०३।६।४।१८॥ ,, ऊर्वै रसः । श०५।१।२। = ॥ ,, रसवतीरित्येवैतदाह यदाहोर्जस्वतीरिति । श०५।३।४।३॥ , ऊर्जे त्वेति ( यजु० १॥ ३० ॥) यो वृष्टादूम्रसो जायते तस्मै
तदाह । श० १।२।२।६ ॥
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।
( १०७ ) ऊर्ध्वा (दिक्) ] ऊ ऊर्वा पापो रसः। कौ० १२॥ १॥ ,, ( यजु. १८ । ४१) आपो वाऽ ऊर्जा ऽद्भयो ह्यूर्जायते । श०९।
४।१।१०॥ , यद्वतद्देवा इषमूर्ज व्यभजन्त तत उदुम्बरः समभवत् । ऐ०
५।२४॥ प्रजापतिर्देवेभ्य ऊज व्यभजत्तत उदुम्बरः समभवत् । तां०
६।४।१॥ ,, ऊर्गिति देवाः ( उपासते)। श०१०।५।२।२० ॥ ,, औदुम्बरेण राजन्यः (अभिषिञ्चति ) । उर्जमेवास्मिन्ननाय ___ दधाति । तै० १ । ७।८ । ७ ॥ ,, ऊर्वा उदुम्बरः । तै० ।।१।३।१०॥ तां०५।।२॥ ,, ऊर्गुदुम्बरः। तां०६।४।११ ॥ १६।६।४॥ ,, अन्नं वाऽ ऊर्गुदुम्बरः । श०३।२।१।३३॥३।३।४।२७॥ । ऊ अन्नमुदुम्बरः । तै० १।२।६।५॥ ,, ऊर्वा अन्नाचमुदुम्बरः। ऐ० ५। २४ ॥ ६॥ कौ० २५ ।
२५ ॥ २७ ॥ ६॥ ,, ऊर्वा मुजाः । ते. ३। ।१।१॥ , ऊग्विराद । तै०१।२।२।२॥ ऊर्जम् अन्नमूर्जम् । कौ० २८ । ५ ॥ ऊणनाभिः ये ( कालकजाख्या असुराः ) ऽवाकीर्यन्त । त ऊर्णनाभयो
___ऽभवन् ( मैत्रायणीसंहिता १।६।६॥ काठकसंहिता ।
१॥ इत्यपि द्रष्टव्यम् )। तै० १११।२।५॥ ऊर्णायुः (यजु०१३ । ५०) इममूर्णायुमित्यूर्णावलमित्येतत् । श०७।५।
२।३५॥ ऊसझनम् (साम) असुरा वा एषु लोकेष्वास ५ स्तान्देवा ऊर्द्धसमने
नभ्यो लोकेभ्यः प्राणुदन्त । तां०४।२।११॥ ऊ.डम् (साम) (देवाः) अU (स्वर्ग लोकं) ऊद्धेडेन (अभ्यजयन् )।
तां० १० । १२ । ४॥ ऊर्धा (दिक्) एषोर्खा बृहस्पतेर्दिगित्येबाहुः । श०५।१।१।४॥
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[ ऊषाः
(१०८) ऊर्ध्वा (दिक्) अर्थतन्दन्तरिक्षम् (= ऊर्धा दिक) एषा हि दिग् वृह.
स्पतेः । श०२।३।४।३६ ॥ एषा वा ऊर्ध्वा बृहस्पतेर्दिक्तदेष उपरिष्टादर्यम्णः पन्थाः। श० ५।५।१।१२॥ ऊ र्धा दिक् । बृहस्पतिर्देवता । तै० ३।११। ५।३॥ बृहस्पतिस्त्वोपरिष्टादभिषिञ्चतु पांक्तेन छन्दसा । तै० २।७।१५ । । । ऊर्धामारोह । पंक्तिस्त्वावतु शाक्चररैवते सामनी त्रिणवत्रयस्त्रि-शौ स्तोमौ हेमन्तशिशिरावृतू घों द्रविणमिति । श०५।४।१॥ ७ ॥ पंक्तिरूवर्धा दिक् । श० - ।३।१।१२॥ यदुपरिष्टादववासि प्रजापतिर्भूतो विवासि। जै० उ० ३ । २१ । २॥ सोमनेत्रेभ्यो देवेभ्य उपरिसद्भयो दुषस्वद्भयः स्वाहा । श०५।२।४।५॥ अथैनं (इन्द्र) ऊर्ध्वायां दिशि मरुतश्चाङ्गिरसश्च देवाः... ......अभ्यषिश्चन् ........पारमेष्टयाय माहाराज्यायाऽ धिपत्याय स्वावश्यायाऽऽतिष्ठाय। ऐ० - । १४॥ ऊर्ध्वामेव दिशं अदित्या प्राजाननियं (पृथिवी) वाड
अदितिस्तस्मादस्यामूर्धा प्रोषधयो जायन्तऽ ऊर्धा घनस्पतयः । श० ३।२।३ । १६ ॥ सा (अदितिः) ऊवां दिशं प्राजानात् । कौ० ७॥६॥
स्वयैवोर्धा दिक। ऐ०१। - ॥ ऊर्वाः (पितरः) ऊमा वै पितरः प्रातः सवन ऊर्वा माध्यन्दिने काव्या.
रतृतीयसबने । ऐ०७।३४॥ ऊषाः तस्मात्पशव्यमूषरम् (स्थान) इत्याहुः। श०२।१।१।६॥ ,, संज्ञान होतत्पशूनां यदूषाः । तै० ।।१।३।२॥ , पशवो वाऽ ऊषाः । श०५।२।१।१६॥ ., पशष ऊषा: श०७।१।१।६॥७।३।११८॥
ऊषो हि पोष।ऐ४।२७॥
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( १०६ )
ऊषाः पुष्टिर्वा एषा प्रजननं यदूषाः । तै०
रेतो वाs ऊषाः प्रजननम् । श०
एते हि साक्षादन्नं
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,, उल्बमूषाः । श० ७ । १ । १ ।८ ॥
से ( ऊषा ) sमुतः ( द्युलोकात् ) श्रागता श्रस्यां पृथिव्यां प्रतिष्ठितास्तमनयोर्द्यावापृथिव्यो रसं मन्यन्ते । श० २।१।१२८ ॥
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(ऋ)
ऋक् अथेमानि प्रजापति ऋक्पदानि शरीराणि सञ्चित्या ऽभ्यर्चत् । यदभ्यर्चत्ता एवर्चो ऽभवन् । जै० उ० १ । १५ । ६ ॥
( यजु० १३ । ३६ ) प्राणो वाऽ ऋक् प्राणेन ह्यर्चति । श० ७ ।
५ । २ । १२ ॥
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१ । १ । ३ । १ ॥
१३ । ८ । १ । १४ ॥
यदूषाः । तै० १ । ३ । ७।६॥
उल्लं वाऽ ऊषाः श० ७ । ३ । १ । ११ ॥
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ब्रह्म वा ऋक् । कौ० ७ । १० ॥
वागृक् । जै० ० उ० ४ । २३ ॥ ४ ॥
वागित्युक् । जै० उ० १।६।२ ॥
सा । जै० उ०१ । २५ । ८ ॥
वागेवश्च सामानि च
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मन एव यजुषि । २०४ | ६ |
७।५ ॥
ऋप्रथन्तरम् | तां० ७ । ६ । १७ ॥
अमृतं घा ऋक् । कौ० ७ । १० ॥
अस्थि वा ऋकू । श० ७ । ५ । २ । २५ ।।
अस्थि घृक् । श० १ । ६ । ३ । २६, ३० ॥
ऋक् शतपदी । ष० १ । ४ ॥
तस्य (दक्षिणनेत्रस्य) यच्छुक्कं तदृचां रूपम् । जै० उ०४।२४|१२ ॥ ऋक्सामयोर्हेते (शुक्लकृष्णे ) रूपे । श० ६ । ७ । १ । ७ ॥
एतावद्वाव साम यावान् स्वरः । ऋग्वा एषर्ते स्वराद्भवतीति । जै० उ० १ । २१ । ६ ॥
ऋधि साम गीयते । श० ८ । १ । ३ । ३॥
साम वा ऋचः पतिः । श२६ । १ । ३ । ५ ॥
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[ ऋग्यजुषी
( ११०) ऋक पय श्राहुतयो ह वाऽ एता देवानाम् । यदृचः। श०११।५।६।४॥ , श्रोमित्यचः प्रतिगर एवं तथेति गाथाया ओमिति वै दैवं
तथेति मानुषम् । ऐ०७।१८ ॥ ., ऋग्भ्यो जातं वैश्यं वर्णमाहुः । ते० ३।१२।६।२॥
ऋचां प्राची महती दिगुच्यते । ऋग्भिः पूर्वाह्न दिवि देय ईयते । तै०३।१२।।१॥ ऋग्भ्यो जाता सर्वशो मूर्तिमाहुः । तै० ३ । १२ । ।१॥ स (प्रजापतिः ) ऋचैवाशंसद्यजुषा प्राचरत् सानोगायत् । कौ०६ । १०॥
उक्थमिति वह्वचाः ( उपासते )। श. १०।५।२ । २० ॥ ,, महदुक्थमृचाम् (समुद्रः)। श६।।२। १२ ॥ , यदेतन्मण्डलं ( आदित्यः ) तपति । तन्महदुक्थं ता ऋचः स
ऋचां लोकः । श० १०।५।२।१॥
(श्रादित्यस्य) मण्डलमेवार्चः । श० १०।५।१।५॥ ,, वीर्य वै देवतऽर्चः । श. १।७।२।२० ॥ , तद्वै माध्यन्दिने च सवने तृतीयसवने च नहॊ ऽपराधोऽस्ति ।
जै० उ०१।१६ । ५॥ ,, अथ यदनचे देवतासु प्रातःसवनं गायति तेन स्वर्ग लोकमेति ।
जै० उ० १।१६।५॥ ऋक्षाः सप्तर्षीनु ह स्म वै पुरा इत्याचक्षते । श० २।१।२।४॥ ऋक्सामे ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी । ऐ०२।२४ ॥ तै०१।६।३।६॥
क्सामे वे हरी श०४।४।३।६॥ ऋक्सामे वै सारस्वताबुत्सी । तै०१।४।४।६॥ ऋक्सामानि वा एष्टयः (अप्सरसः, यजु० १८ । ४३) ऋक्सामै ह्याशासतऽ इति नो ऽस्त्वित्थं नो ऽस्त्विति । श०
है।४।१।१२॥ ग्यजुषी (= अमानुषी वाक् ) स (ब्रह्मा ) यदि पुरा मानुषी वाचं
व्याहरेत् । तत्रो वैष्णवीमृयं वा यजुर्वा जपेद्यज्ञो वै विष्णुस्तद्यशं पुनरारभते तस्यों हैषा प्रायश्चित्तिः । श० १७.४॥२०॥
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( १११ ) ऋतनिधनम् ] ऋग्वेदः अग्निमीले पुरोहितं यशस्यदेवमृत्विजं। होतारं रत्नधातम
मित्येवमादिं कृत्वा ऋग्वेदमधीयते । गो० पू० १ । २६ ।। स ऋचो व्यौहत् । द्वादश बृहती सहस्राणि ( १२००.४३६ =४३२००० अक्षराणि) एतावत्यो हों याः प्रजापतिसृष्टाः। श०१०।४।२।२३ ॥ मनुर्वैवस्वतो राजेत्याह । तस्य मनुष्या विशः.....ऋचो वेदः..."ऋचा सूक्तं व्याचक्षाण इवानुद्रवेत् । श० १३ । ४। ३।३॥ धागेवर्वेदः । श० १४।४।३ । १२ ॥
ऋग्वेदागार्हपत्यः (अजायत ) । प० ४ । १ ।। ,, भूरित्यग्भ्योक्षरत् सो ऽयं ( पृथिवी-)लोको ऽभवत् । ष.
१।५॥ स ( प्रजापतिः) भूरित्येवर्वेदस्य रसमादत्त । सेयं पृथिव्यभवत् । तस्य यो रसः प्राणेदत् सोऽग्निरभवद्रसस्य रसः । जै० उ०१।१।३ ॥ ऋचामग्निवतं तदेव ज्योतिर्गायत्रं छन्दः पृथिवी स्थानम् । गो० पू०१।२६॥ अग्नेर्ऋग्वेदः (अजायत)। श० ११ । ५। - । ३॥
अयं (भू. )लोक ऋग्वेदः । प० १ । ५ ॥ ,, इममेव लोकं ( पृथिवीं) ऋचा जयति । श०४।६।७।२॥
ऋक्संमिता वा इमे लोका अयं लोकः पूर्वो ऽर्थों ऽसौ लोक
उत्तगेऽथ यदर्धर्चावन्तरेण तदिदमन्तरिक्षम् । कौ० ११ ११॥ ,, ऋग्वेदो वै भर्गः । श. १२।३।४।॥ ., ऋग्वेद एव भर्गः । गो० पू०५। १५॥ ऋजुः (यजु० ३७ । १०) असौ वै लोक ऋजुः सत्य जुः सत्यमेष
य ए (सूर्यः) तपति । श० १४।१।२।२३॥ ऋणम् ऋण ७ ह जायते यो स्ति । स जायमान एव देवेभ्य
ऋषिभ्यः पितृभ्यो मनुष्येभ्यः । श०१।६।२।१॥ ऋतजाः ऋतजा इत्येष ( सूर्यः) वै सत्यजाः । ऐ० ४।२०॥ ऋतनिधनम् अयं ( भूलोकः ) एवर्तनिधनम् । तां० २१ । २।७॥
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[नवः ऋतम् (यजु० १२११०५॥३८.२०॥) सत्यं वा ऋतम् । श०७॥३॥
१। २३ ॥ १४ । ३।१।१८ ॥ तै०३।।३।४॥ ( यजु०१२। १४ ) ऋतमिति सत्यमित्येतत् । श० ६। ७।३।११॥
तमित्येष ( सूर्यः) वै सत्यम् । ऐ० ४ । २० ॥ अग्निर्वा ऋतम् । तै०२।१।११ । १॥ ऋतमेव परमेष्ठि । तै०१५।५।१॥ चतुर्वा ऋतंतस्माद्यतरो विवदमानयोराहाहमनुष्ठया चक्षुषादर्श मिति तस्य श्रद्दधति । ऐ० २।४० ॥ मनो वा ऋतम् । जै० उ० ३ । ३६ । ५॥ ब्रह्म वाऽ ऋतम् । श० ४।१।४।१०॥ श्रोमित्येतदेवाक्षरमृतम् । जै० उ०३।३६॥ ५ ॥ (यजु० ११ । ४७) अयवाऽ अग्निर्ऋतमसावादित्यः सत्यं यदिवासावृतमय( अग्निः ) सत्यमुभयम्वेतदयमग्निः ।
श.६।४।४।१०।। , ऋतेनैवैन स्वर्ग लोकं गमयन्ति । तां० १८ ।२।। ऋतवः द्वौ द्वौ हि मासावृतुः । तां० १० । १२ ॥
, द्वौ हि मोसावृतुः। श०७। ४।२।२९ ॥ , (ऋतु:-चतवारोमोसाः) विंशति शतं वा ऋतोरहानि। कौर
११। ७ ॥
प्रयो वाऽ ऋतवः संवत्सरस्याश०३।४.४।१७॥११:५४११ ॥ , पश्चातवः । तां १२ । ४।८१३।२।६॥ , पश्च वाऽ ऋतवः । श०२।२।३। १४ ॥ , पश्वर्त्तवः संवत्सरस्य । श०६।५।२।१६ ॥३।१।४।२०॥ ., पश्च वा ऋतवः संवत्सरस्य । श०३।१।४।५॥ , पश्चर्तवो हेमन्तशिशिरयोः समासेन । ऐ. १।१॥ , षड्वा ऋतवः । गो० उ० १।२४ ॥ , षडा ऋतव संवत्सरस्य । श. १ । २ ५। १२ ॥ ,, वसन्तो ग्रीष्मो वर्षाः, ते देवा ऋतवः । शरद्धेमन्त शिशिरस्ते
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( २१३ )
ऋतषः] पितरः (अतवः)। श०२।१।३।१॥ ऋतवः याषड् विभूतय ऋतषस्ते । जै० उ०१ । २१ । १॥ , तधानि तानि भूतानि ऋतवस्ते । श०६।१।३। - ॥ , सप्तऽर्तवः । श०६।५। २।८ ॥ , सप्त छतषः । श०६।३।१।१६ ॥ १, सप्तऽर्तवः संवत्सरः। श०६।६।१ । १४॥ ७।३।२।६॥
६।१।१।२६॥ , तस्मादेकैकस्मिन्नृतौ सर्वेषामृतूना रूपम् । श०८1७।१।४॥ , अग्नयो पाऽ ऋतवः । श०६।२।१।३६ ॥ , ऋतधो हते यदेताश्चितयः ।।०६।२।१।३६॥
तव उपसदः। श० १०।२।५।७ ॥ , तव उद्गीथः । ष०३।१॥ ॥ तवो वा उदुब्रह्मीयम् (सूक्तम् ) । कौ० २९ । ६ ॥ , ऋतवो वै देवाः। श०७।२।४।२६ ॥ ., ऋतबो वे सोमस्य राज्ञो राजभ्रातरोयथा मनुष्यस्य।ऐ०१।१३॥ , ऋतषो ह वै प्रयाजाः । तस्मात्पञ्च भवन्ति पञ्च ख़्तवः ।
श०१।५।३।१ ॥
ऋतषो वै प्रयाजाः। कौ० ३।४॥ , ऋतवो हि प्रयाजाः। श०१।३।२।। ,, ऋतवो चे प्रयाजानुयाजाः। कौ० १॥ ४ ॥ , ऋतवो वै पृष्ठानि । तै०३।६।६।१॥ श०१३। ३।२।१॥
अतवः पितरः। कौ० ५। ७॥ श० २।४।२।२४ ॥ २।६।
१।४॥ गो० उ०१।२४॥६॥१५॥ , ऋतव एव प्र वो वाजाः । गो० पू०५।२३॥
ऋतषो वाव होत्राः । गो० उ० ६।६॥ , तवो होत्राशंसिनः । कौ० २६ ॥ ८ ॥ , सदस्या ऋतगे ऽभवन् । तै०३।१२।६।४॥ , ऋतधोबै दिशः प्रजननः । गो० उ०६॥ १२ ॥ , ऋतवो वै विश्वे देवाः (यजु. १२ । ६१) । श ७।१।१।४३॥
ऋतवो वै बाजिनः । कौ०५।२॥ श० २। ४।४।२२ ॥ गो० उ०१॥ २० ॥
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ऋतसद्
( ११४ )
ऋतवः ऋतवः शिक्यमृतुभिर्हि संवत्सरः शक्नोति स्थानं यच्छक्रोति तस्माच्छिक्यम् । श० ६ । ७ । १ । १८ ॥
ऋषभो वा एष ऋतूनाम् । यत्संवत्सरः । तस्य त्रयोदशा मासो विष्टपम् । तै० ३ | ८ | ३।३ ॥
सेयं वागृतुषु प्रतिष्ठिता वदति । श० ७ । ४ । २ । ३७ ॥ तस्माद्यथर्त्वादित्यस्तपति । तां० १० । ७।५ ॥ तस्माद्यथर्तु वायुः पवते । तां० १० । ६ । २ ॥ तस्माद्यथर्वोषधयः पच्यन्ते । तां० १० । ६ । १ ॥
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३।४।७॥
यो वै प्रियतs ऋतवोह तस्मै व्युह्यन्ते । श० ६ । ७ । १ । ११॥ ऋतुसंधिषु हि व्याधिर्जायते । कौ० ५ | १॥
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" ऋतुसन्धिषु वै व्याधिर्जायते । गो० उ० १ । १६ ॥
किं नु ते ऽस्मासु (ऋतुषु) इति । इमानि ज्यार्यासि पर्वाणि । जै०
० उ० ३।०४।४॥
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7
ऋतवो वा इद सर्वमन्नाद्यं पचन्ति । श० ४ । ३ । ३ । १२ ॥ ऋतवः समिद्धाः प्रजाश्च प्रजनयन्त्योषधीश्च पचन्ति । श० १ ।
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मुखं वा एतदृतूनां यद्वसन्तः । ते ० १ । १ । २ । ६-७ ॥
अन्त ऋतूना हेमन्तः । श० १ | ५ | ३ | १३ ॥
ॠतव्या: (इष्टकाः) ऋतव एते यद्दतव्याः । श० ८ । ७ । १ । १ ॥
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अग्निष्टोम उकथ्यो ऽग्नितुः प्रजापतिः संवत्सर इति । एते नुवाका यशक्रतूनाश्चर्तनाञ्च संवत्सरस्य च नामधेयानि 1 तै० ३ । १० । १० ॥ ४ ॥
संवत्सरो वाs ऋतव्याः । श० ८ । ६ । १ । ४ ॥ ८ । ७ । १ । १ ॥
क्षत्रं वाs ऋतव्या विश इमा इतरा इष्टकाः । श०८ । ७ । १ । २ ।।
इमे वै लोका ऋतव्याः । श० ८ । ७ । १ । १२ ॥ ककुदमृतव्ये (इष्टके) । श० ७ । ५ । १ । ३६ ॥
ऋतसद् (यजु० १२ । १४) ऋतसदिति सत्यसदित्येतत् । श० ६ ।
७ । ३ । ११ ।।
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ऋषभः ]
( ११५ ) ऋतसद् ऋतसदित्येष (सूर्यः) वै सत्यसत् । ऐ० ४ । २० ॥ ऋतस्य योनि: (यजु० ११ । ६) यशो वा ऋतस्य योनिः । श० १ । ३ । ४ । १६ ॥
ऋसुपात्रम ऋतुपात्रमेवान्वेकशर्फ प्रजायते । श० ४ | ५ | ६ | ८ ॥ ऋतुप्रैषाः वाग्वा ऋतुप्रैषाः । गो० उ० ६ । १० ॥ ऋतुयाजाः ऋतवो वा ऋतुयाजाः । गो० उ०३ ॥ ७ ॥ प्राणा वा ऋतुयाजाः । ऐ० २ । २६ ॥ गो० उ० ३ । ७ ॥
कौ० १३ ॥ ६ ॥
ऋत्विजः स (प्रजापतिः) श्रात्मन्नृत्वम् (ऋत्वं = ऋतौ ऋतुकाले भवङ्गर्भस्य कारणं बीजमिति सायणः) अपश्यत्तत ऋत्विजो ऽसृजत यद्दत्वादसृजत तदृत्विजामृत्विक्त्वम् । तां० १० । ३ । १ ॥
ॠतव ऋत्विजः । श० ११ । २ । ७ । २ ॥
ऋत्विजो हैव देवयजनम् । २ ३ । १ । १ । ५ ॥
एत एव सरधो मधुकृतो यहत्विजः । श० ३ । ४ । ३ । १४ ॥ ऋत्विजो वै महिषाः (यजु० १६ । ३२ ) । श ० १२ । १।२॥
८ ।
आत्मा वै यशस्य यजमानो ऽङ्गान्युत्विजः । श०६ | ५|२| १६ ॥ ऋद्धिः अग्निमुखा वृद्धिः । तै० ३ । ३ । ८ । ६ ॥
भवः प्रजापतिर्वै पित ऋभून्मयन्त्सतो मर्त्यान् कृत्वा तृतीयसवन आभजत् । ऐ० ६ । १२ ॥
ऋभवो वा इन्द्रस्य प्रियं धाम । तां० १४ । २ । ५ ॥
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शारदेन चुना देवा एकविशे ( स्तोमे) ऋभवः स्तुतं वैराजेन श्रिया श्रियम् । हविरिन्द्रे वयो दधुः । तै० २ । ६ । १९ । २ ॥ (ऋभवो रश्मय इति सायणभाध्ये) । तां० ६४ । २ । ५ ॥ ऋषभः ऋषभो वा पशूनामधिपतिः । तां० १६ । १२ । ३ ॥
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ऋषभो वै पशूनां प्रजापतिः । श०५ | २ | ५ | १७ ॥ ऐन्द्रमृषभ सेन्द्रत्वाय ( श्रालभते । तै० १ | ८ | ५ | ६॥ ऋषभमिन्द्राय सुत्राम् श्रालभते । श० ५ । ५ । ४ । १ ॥ रु. होन्द्रो यहषभः । श० ५ । ३ । १ । ३॥
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एकविंशः ( ११६ ) ऋषभः वृषा (=घर्षणशीलः-रेतःसिक) वा ऋषभो योषा सुब्रह्मण्या।
ऐ०६॥३॥ ., बीय्यं वा ऋषभः । तां० १८ । ९ । १४ ।। ऋषयः ते यत्पुरास्मात्सर्वस्मादिदमिच्छन्तः श्रमेण तपसारिषंस्तस्मा
दृषयः । श० ६।१।१।१॥
यो वै शातो ऽनूचानः स ऋषिरायः । श०४।३।४।१६॥ ,, एते वै विप्रा यदृषयः । श० १।४।२।७॥
अथ यदेवानुब्रवीत । तेनर्षिभ्य ऋणं जायते तव्येभ्य एत. करोत्यषीणानिधिगोप इति ह्यनूचानमाहुः। श०१। ७।२।३॥ प्राणा ऋषयः । श०७।२।३।५ ॥
प्राणा उ वा ऋषयः । श०८।४।१।५॥ १, ( यजु०१५ । १०) प्राणा वा ऋषयः। श०६।१।१।१॥
।६।११।१४।५।२।५॥ ऐ०२।२७॥
(ए) एक: प्रजपतिर्वा एकः। ते० ३। - । १६ ॥१॥ एकत्रिकः (यज्ञविशेषः) अथैष एकत्रिकः प्रजापतेरुद्भित् । एतेन वै
प्रजापतिरेषां लोकानामुद भिनत् । तां०१६।१६।
एकत्रिंशः (स्तीमः) "क्रतुरेकत्रिशः ” इत्येतं शब्दं पश्यत। एकपातिन्यः (ऋचः) प्राणो ऽपानो व्यान इति तिन एकपातिन्यः । कौ०
१५॥३॥ १६॥ ४॥ एकपाद् वायुरेकपात्तस्याकाशं पादः । गो० पू०२।। एकविंशः (स्तोमः) एकविंशो वै चतुष्टोमः स्तोमानां परमः। कौ० ११ ।
६॥१४। ५॥ १६॥ ७॥ प्रतिष्ठकविंशः । ऐ० ८।४॥ तां०१६। १३॥४॥ २०।१०।१॥ प्रतिष्ठा वा एकविशः स्तोमानाम् । तां०३।७।२॥ ५।१।१७॥६।१।११॥ एकषिशो वै स्तोमानां प्रतिष्ठा। श०१३।५।१।७॥
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( ११७ )
एकविंशः ]
एकविंशः (स्तोमः) एकविंश एव ( स्तोमः) सर्वम् । गो० पू० ५ । १५ ॥ एकविशो वै स्वर्गो लोकः । श० १० | ५|४|६ ॥ एक विशो वा इतः स्वर्गो लोकः । तै० ३ । १२ । ५ । ७ ॥ एकविंशो वा एष य एष (सूर्य्यः) तपति । कौ० २५ ॥ १ ॥ वैकवि शो य एष ( सूर्यः ) तपति । श०५ । ५।३।४ ॥
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एकविशो वा भुवनस्यादित्यः । तां० ४।६।३॥ एक विशो ह्येष (आदित्य) । श० ६ । ७ । १।२ ॥ सौ वा आदित्य एकविशः । तै० १ । ५ । १० । ६ ॥ ३ । १२ । ५ । ८ ॥ तां० ६ । २ । २ ॥ द्वादश वै मासाः संवत्सरस्य पश्ञ्चर्त्तवस्त्रयो लोकास्तद्विशतिरेषऽ एवैकविशो य एष (सूर्यः) तपति । सैषा गतिरेषा प्रतिष्ठा । श० १ । ३ । ५ । ११ आदित्य एवैकविंशस्यायतनं द्वादश मासाः पञ्चर्त्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविंशः । तां० १० । १ । १० ॥
द्वादश मासाः पञ्चर्त्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविंशः । तां० ४ । ६ । ४ ॥
एकविंशो वै प्रजापतिर्द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोका सावादित्य एकविंशः । ऐ० १ । ३० ॥ एकविंशो वै पुरुषः । तै० ०३ । ३ । ७ । १ ॥
एकविंशोऽयं पुरुषो दश हस्त्या अङ्गुलयो दश पाद्या श्रात्मैकविंशः । ऐ० १ । १६ ॥
एकविंशो वै पुरुषो दश हस्त्या अङ्गुलयो दश पाधा आत्मैकविंशः । श० १३ | ५ | १ | ६॥
क्षत्रं वा एकविंशः । तां० १८ । १।५॥
१० । ६ । १६ ।
क्षत्र मेकविशः । तां० २ । १६ । ४ ॥ विड् वा एकविंशः । तै० १ | ८ | ८ | ५ ॥ शौद्रो वर्ण एकविंशः । ऐ० ८ | ४ ॥
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[एकाष्टका
(१९८) एकविंशः (स्तोमः) पश्चदशश्चैकविंशश्च वाहतो तो गौश्चाविश्वावसुज्ये.
तां तस्मात्तो बाहतं प्राचीन भाम्कुरुतः। तां०१०।
तं (एकविंशस्तोम) उ देवतल्प इत्याहुः । ता० १०। १।१२।। एकविशो ऽग्निष्टोमः। तां०१६ । १३॥४॥ तान् ( पशन ) विष्णुरेकषिशेन स्तोमेनाप्नोत् ।ते.
२।७।१४।२॥ यदेकवि शो यदेवास्य (यजमानस्य) पदोरष्ठीपतोर
पूतं तत्तनापयन्ति (? अपहन्ति)। तां० १७।५।६॥ एकवीरः एको ह तु सन्धीरो वीर्यवान् भवति । जै० उ० २ ६ ॥
, एको ह्येष वीरो यत्प्राणः । जै० उ०२।५।१॥ एकशफम् पशवी वा एकशफम् । तै० ३।३।११।४॥
, श्रीर्वा एकशफम् । तै० ३।६।।२॥ एकस्तोमः यदिममाहुरेकस्तोम इत्ययमेव योऽयम्पवते ( वायुः)। जै०
उ०३।४।१२॥ एकातिथिः एष (सूर्यः) ह वै स एकातिथिः स एष जुह्वत्सु वसति ।
ऐ०५।३०॥ एकादशिनी प्रजापति कादशिनी । श० १३ । ६।१।६॥
एष वै सम्प्रति स्वर्गों लोको यदेकादशिनी । श० १३ ।
२।५।२॥ , एकादशिनी वाऽ इद सर्वम् । श. १३।६।१।६॥
प्रजा वै पशव एकादशिनी । श०१३।२।५।२॥
३।९।२।३॥ एकाष्टका (= माघक्रप्णाष्टमी' इति सायण:) एषा वै संवत्सरस्थ पनी
यदेकाष्टका । तां०५।६।२॥ संवत्सरस्थ या पत्नी (एकाष्टकारूपा) सा नो अस्तु सुमाली (अथर्व०३।१०।२)। मं० २।२।१६॥ संवत्सरस्य प्रतिमा यां (एकाएकारूपां) वा रात्रि यजामहे । मं०२।२।१८॥
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( ११६ )
पेन्द्रामम् ] एकाहः प्रतिष्ठा वा एकाहः। ऐ०६।८॥ कौ० २४ । २॥ २५ ॥ ११ ॥
२७।२॥२६ । ५॥ , ज्योतिर्वा एकाहः । कौ० २५ । ३॥ एन: निरुक्तं वाऽ एनः कनीयो भवति सत्य हि भवति । श०२।
५।२।२०॥ ,, तस्मादयात्रेय्या (सुतगर्भया रजस्वलया) योषिता (सह
सम्भाषणादि कुर्वन् पुरुषः) एनस्वी (भवति)। श० शा॥१३॥ एवयामरुत् (एक्यामरुदास्यर्षिणा दृष्टं सूक्तम् ) प्रतिष्ठा पा एषया
__ मरुत् । ऐ०६।३०॥ गो. उ०६८,६॥ , यद्यवयामरुतं ( एवयामरुतस्यान्तराय), प्रतिष्ठाया एनं
( यजमानं ) च्यावयेहैव्यै च मानुष्यै च । ऐ०५ । १५ ॥ एटयः (अप्सरसः, यजु. १८ । ४३ ) ऋक्सामानि वाऽपष्टय
अक्सामै शासतऽ इति नो ऽस्त्वित्थं नो ऽस्त्विति ।
श०६।४।१। १२॥ एवश्छन्दः ( यजु० १५ । ४) भयं वै (पृथिवी-)लोक एवश्छन्दः। श०
।५।२॥३॥
ऐकाहिक सवनम् एते वै शान्ते क्लप्ने प्रतिष्ठिते सवने यदेकाहिके। ऐ०
१॥ ऐकाहिका: (होत्राः) एता वै शान्ताः कृप्ता होत्रा यदेकाहिकाः । ऐ०
। ४॥ ऐडम् (साम) (देवाः प्रतिष्ठामिडाभिरैडेनावारुन्धत । तां०१०॥१२॥४॥ ऐठतम् (साम) इन्वा एतेन काव्यो ऽअसा स्वर्ग लोकमपश्यत् स्वर्गस्य
लोकस्यानुण्यात्यै स्वर्गालोकान च्यवते तुष्टुवानः ।
तां०१४।६।१६॥ ऐतसप्रलापः प्रायुर्षा ऐतशप्रलापः। ऐ०६ । ३३॥ एन्द्रवायषः (प्रहः) वाक् च प्राणश्चन्द्रवायवः। ऐ०२।२६॥ ऐन्द्राग्नम् (भाज्यस्तोत्रम्) इयं वामस्य मन्मन इत्येन्द्राग्नम् । ता० १२।।
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[ श्रोम्
( १२० )
ऐशिग्म् (साम) ऐशिरं भवति प्रजातिर्वा ऐशिराणि प्रजायते बहुर्भवत्यैशिरेण तुष्टुवानः । तां० १४ | ११ | २० || ( श्रो)
ओक: गृहा वा ओोकः । ऐ० ८ । २६ ॥
श्रजः श्रोजः सहः सह श्रोजः । कौ० ३ ।५॥
वज्रो वाऽ श्रोजः । श० ८ । ४ । १ । २० ॥
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ततो ऽस्मिन् (इन्द्रे) एतदोज श्रास । श० ४ । ६ । ४ । ४ ॥ श्रजस्त्रिणवः (यजु० १४ । २३) संवत्सरो वा श्रजस्त्रिणवस्तस्य चतुविशतिरर्धमासा द्वे अहोरात्रे संवसर एवौजस्त्रिणवस्तद्यन्तमाहौज इति संवत्सरो हि सर्वेषां भूतानामोजस्थितमः।
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श० ८ ।४ । १ । २० ॥
प्रोदनः परमेष्ठी वा एषः । यदोदनः । तै० १ । ७ । १० ६ ॥ प्रजापतिर्वाऽ श्रोदनः । श० १३ । ३ । ६ । ७ ॥ तै० ३ । ६ ।
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२।३ ॥ ३।६ । १८ । २ ॥
रेतो वा ओदनः । श० १३ । १ । १ । ४ ॥ तै० ३ | ८ | २ | ४॥ ओम् ( ओङ्कारस्य ) को धातुरित्या पृधातुरवतिमप्येके रूपसामान्यादर्थ सामान्यन्नेदीयस्तस्मादापेरोङ्कारः सर्वमाप्नोतीत्यर्थः । गो० पू० १ । २६ ॥
को विकारी व्यवते । प्रसारणमानोतेराकारपकारौ विकार्यावादित ओङ्कारो विक्रियते । द्वितीयो मकार एवं द्विवर्ण एकाक्षर श्रोमित्योङ्कारो निर्वृत्तः । गो० पू० १ । २६ ॥
ते ( देवाः ) श्रोङ्कारं ब्रह्मणः पुत्रं ज्येष्ठं ददृशुः । गो० पू० १ । २३॥ लातव्यो गोत्रो, ब्रह्मणः पुत्रो, गायत्रं छन्दः, शुक्लो वर्णः, पुंसो वत्सो रुद्रो देवता ओङ्कारो वेदानाम् । गो० पू० १ । २५ ॥ तासामभिपीडितानां ( व्याहृतीनां ) रसः प्राणेदत् । तदेतद क्षरमभवदोमिति यदेतद् । जै० उ० १ । २३ । ७ ॥
तानि (भूर्भुवः स्वः' ) शुक्राण्यभ्यतपत्तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रयो वर्णा अजायन्ताकार उकारो मकार इति तानेकधा समभरन्तदेतदो३मिति । ऐ० ५ । ३२ ॥
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( १२१ )
प्रोम् ] श्रोम् अथैकस्यैवाऽक्षरस्य रसं ( प्रजापतिः) नाऽशक्नोदादातुम् ।
ओमित्येतस्यैव । सेयं वागभवत् । ओमेव नामैषा । तस्य उप्राण
एव रसः । जै० उ०१।१ । ६,७॥ .. प्रोमिति वै साम । जै. उ.१।६।२॥ , प्रोमिति मनः । जै० उ०१।६।२॥ , प्रोमित्यथर्वणां शुक्रम् । गो० पू०२।२४ ॥ , प्रोमितीन्द्रः। जै० उ० १।६।२॥
ओमित्यसौ यो ऽसौ ( सूर्यः ) तपति । ऐ० ५। ३२ ॥ , हन्तेति चन्द्रमा श्रोमित्यादित्यः । जै० उ०३।६।२॥
ओमिति वै स्वर्गो लोकः । ऐ० ५। ३२ ॥ , ओमित्येतदेवाक्षरमृतम्। जै० उ० ३ । ३६॥ ५ ॥
तदेतत्सत्यमक्षरं यदोमिति । तस्मिन्नापः प्रतिष्टिताः। जै० उ०
१।१०। २॥ , तस्मादोइमित्येव प्रतिगृणीयात्तद्धि सत्यं तद्देवा विदुः। श.
४।३।२। १३ ॥ ,, प्रोमित्य॒चः प्रतिगर एवं तथेति गाथाया श्रोमिति वै दैवं तथेति
मानुषम् । ऐ० ७ । १८ ॥ , यद्वै नेत्यच्योमिति तत् । श०१।४।१।३०॥ ,, एतद्ध वा (ओमिति ) अक्षरं वेदानां त्रिविष्टपम्। जै. उ०
३। १९ । ७॥ एतत् (प्रोमिति) एवाक्षरं प्रयी विद्या । जै० उ० १ । १८ । १०॥ स ( ब्रह्मा ) ओमित्येतदक्षरमपश्यद् द्विवर्णश्चतुर्मानं सर्वव्यापि
सर्वविभ्वयातयाम ब्रह्म । गो० पू०१ । १६ ॥ ., एष ओमित्यक्षरम्) उ ह घाव सरसः। जै० उ०१।८।५,११॥ " यथा सूच्या पलाशानि सन्तृष्णानि स्युरेवमेतेन (मोमिति)
अक्षरणेमे लोकास्सन्तृष्णाः ! जै० उ० १ । १० । ३ ॥ , तदेततरं (ोङ्कारं )ब्राह्मणो यं काममिच्छेत् त्रिरात्रोपोषितः ।
प्राङ्मुखो वाग्यतो बर्हिष्युपविश्य सहस्रकृत्व आवर्तयेत् सिद्धन्त्यस्यार्थाः सर्वकर्माणि च । गो० पू० १ । २२ ॥
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[मोषधय
( १२२) प्रोम एवमेवैवं विद्वान् श्रोमित्येतदेवाक्षरं समारुह्य यददो ऽमृतं
तपति तत्प्रपद्य ततो मृत्युना पाप्मना व्यावर्तते । जै० उ०१।
१८ । ११॥ प्रणवशब्दमपि पश्यत॥ भोषधयः (प्रजापतिः) तां (आहुतिम् ) व्यौतत् ( =अनावत्यजत्)
प्रोषं धयेति तत प्रोषधयः समभवंस्तस्मादोषधयो नाम श० २।२।४।५॥ प्रजापतेविसस्तस्य यानि लोमान्यशीयन्त ता इमा मोषधयो ऽभवन् । श०७ । ४।२।११ ॥ दुय्यो वा ओषधयः पुष्पेभ्यो ऽन्याः फलं गृह्णन्ति । मूलेभ्यो ऽन्याः । तै०३।।१७।४॥ उभय्यो ( ओषधयः ) ऽस्मै स्वदिताः पच्यन्ते ऽकृष्टपच्याध
कृष्टपच्याश्च । तां०६।६।६॥ ,, ततोऽसुरा उभयीरोषधीर्याश्च मनुष्या उपजीवन्ति याच पशवः
कृत्यदेव त्वद्विषेणेव त्वत्प्रलिलिपुरतैवं चिदेवानभिभवेमेति ततो न मनुष्या आशुर्न पशव प्रालिलिशिरे ता हेमाः प्रजा मनाशकेन नोत्पराबभूवुः" ते ( देवाः ) होचुर्हन्तेदमासाम् (ोषधीनाम् ) अपजिघांसामेति केनेति यज्ञेनैवेति । श० २।४।३।२-३॥ एतद्धतासाथै (ओषधीनां) समृद्धर्थ रूपं यत्पुष्पवत्यः पिप्पलाः। श०६।४।४।१७॥ वाग्देवत्यं साम वाचो मनो देवता मनसः पशवः पशूनामो. षधय ओषधीनामापः । तदेतदद्भयो जातं सामाऽप्सु प्रति
ष्ठितमिति । जै० उ०१। ५६ । १४॥ ., भापोह वाऽ ओषधीना रसः। श० ३।६।१।७॥ . , . अपामोषधयः ( रसः । ओषधीनां पुष्पाणि ( रसः) पुष्पाणां
फलानि (रस:) ।श० १४।६।४।१॥ तस्मादोषधयः केवल्यः खादिता न धिन्वन्त्योषधय उहापा रसस्तस्मादापः पीताः केवल्यो न धिन्वन्ति यदेवोभय्यः
समृष्टा भवन्त्यथैव धिन्वन्ति । श०३।६।१।७॥ , मोषधय उ हापा रसः। श० ३।६।१।७॥
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( १२३ )
ओषधयः] प्रोषधयः एष ह वै सर्वासामोषधीनां रसो यत्पयः। कौ०२।१॥ , तस्मादक्षिणतो ऽ ओषधयः पच्यमाना आयन्त्याग्नेय्यो यो.
षधयः। ऐ०१।७॥ ,, अग्ने एषा तनूः। यदोषधयः । तै ३।२।५।७॥
यदुनो देव भोषधयो वनस्पतयस्तेन । कौ०६।५॥
ओषधयो वै पशुपतिस्तस्माचदा पशव मोषधीलभन्ते ऽथ
पतीय न्त । श०६।१।३।१२॥ , प्रोषधयो वै मुदः (अप्सरसः, यजु०१८ । ३८) प्रोषधि
भिहीदछ सर्व मोदते । श०६।४।१७॥ , ओषधयो वहिः । ऐ०५ । २८॥ श० १।३।३।६॥ १।
८।२॥११॥१। ।२। २६ ॥ तै०२।१।५।१॥ मोषधयः खलु वै वाजः। तै०१।३।७।१॥ मोषधयो मधुमतीः । ते ३।२। - ॥२॥ रसो वा एष ओषधिवनस्पतिष यन्मधुः। ऐ० - । २०॥
ओषधीनां वाऽ एष परमो रसो यन्मधु । श०११।५।४।१० सौम्या पोषधयः। श० १२।१।१।२॥ सोम प्रोषधीनामधिराजः। गो० उ०१।१७॥ सोमो वै राजौषधीनाम् । को०४।१२॥ तै०३।।१७।१॥ या ओषधीः सोमराज्ञीः । मं० २।। ३, ४ ॥ औषधो हि सोमो राजा । ऐ०३।४० ॥ (प्रजापतिः) विष्णोरध्योषधीरसृजत । तै०२।३।२।४॥
प्रोषधिलोको वै पितरः। श० १३ । ।१।२०॥ , जगत्यः ( यजु० १ । २१) श्रोषधयः। श०१।२।२।२॥
सप्त ग्राम्या ओषधयः सप्तारण्याः । तै०१।३।।१॥ वर्षवृद्धो वा प्रोषधयः। तै०३।२।२।५॥३।२।५।१०॥
मोषधयो वै देवानां पत्न्यः । श०६।५।४।४॥ , तस्माच्छरदमोषधयो ऽभिसंपच्यन्ते । तां० २१ । १५॥३॥
शरदिह खलु वै भूयिष्ठा भोषधयः पच्यन्ते । जै० उ०१। ३५ । ५॥
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[ौशनम्
( १२४) प्रोषधयः सैनान्यं वा एतदोषधीनां यद्यवाः। ऐ० ८।१६॥
, साम्राज्यं वा ऐतदोषधीनां यन्महाव्रीहयः। ऐ०८।१६॥ ओषधिवनस्पतयः ओषधिवनस्पतयो मे लोमसु श्रिताः।०३।१०।
८।७॥
(ो ) औक्षणोल्धे ( सामनी ) उदणोरन्ध्रो बा एताभ्याङ्काभ्यो ऽअसा स्वर्ग
लोकमपश्यत् स्वर्गस्य लोकस्यानुल्यात्यै स्वर्गा
लोकान्न च्यवते तुष्टुवानः। तां०१३। ६।१६॥ औदलम् ( साम ) उदको वा एतेन वैश्वामित्रःप्रजापतिं भूमानमगच्छत्
प्रजायते बहुर्भवत्यौदलेन तुष्टुवानः। तां० १४ । ११ ।
३३ ।। औद्मभणानि ( हवींषि ) श्रौदनभणैदेवा आत्मानमस्माल्लोकात्स्वर्ग
लोकमभ्युदगृह्णत यदुदगृह्णत तस्मादौनभ
णानि । श०६६।१।१२॥ और्णायवम् ( साम ) अङ्गिरसो वै सत्रमासत तेषामाप्तः स्पृतः स्वर्गो
लोक आसीत् पन्थानन्तु देवयानन्न प्राजानस्ते. षाङ्कल्याण आङ्गिरसो ऽध्यायमुदव्रजन् स ऊर्णायुङ्गन्धर्वमप्लरसाम्मध्ये प्रेयमाणमुपैसईयामिति यो यामभ्यदिशत्सनमकामयत तमभ्यवदत्कल्याणा३ इत्याप्तो वै वः स्पृतः स्वर्गो लोकः पन्थानन्तु देवयानन्न प्रजानीथेद, साम स्वयं तेन स्तुत्वा स्वर्ग लोकमेष्यथ मा तु घोचोहम
दर्शमिति । तां० १२ । ११ । १०॥ औशमम् (साम) वायुर्वा उशस्तस्यैतदोशनम् । तां ७।५।१६ ॥
उशना वै काव्यो ऽसुराणां पुरोहित आसीत्तं देवाः कामदुधाभिरुपामन्त्रयन्त तस्मा एतान्यौशनानि प्रायच्छन् । तां०७।५।२०॥ उशना वै काव्यो :कामयत यावानितरेषां क.व्यानां लोक स्तावन्त स्पृणुयामिति स तपो ऽतप्यत स
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( १२५ ) करवरथन्तरम् ] एतदोशनमपश्यत्तेन तावन्तं लोकमस्पृणोद्यावानितरेषां काव्यानामासीत्तद्वाव स तहकामयत कामसनि
स.मौशनं काममेवैतेनावरुन्धे । तां० १४ । १२॥५॥ औशनम् (साम) रश्मी वा एतौ यज्ञस्य यदौशनकावे ( सामनी)। तां०
८।५।१६॥ कामदुघा वा औशनानि । तां०७। ५ । २० ॥ प्राणा वा औशनम् । तां०७।५।१७॥
कः स प्रजापतिरब्रवीदथ कोहमिति यदेवैतदवोच इत्यब्रवीत्ततो वै
को नाम प्रजापतिरभवत्को चै नाम प्रजापतिः । ऐ०३ । २१ ॥ ,, को हि प्रजापतिः । श०६।२।२।५॥ , को वै प्रजापतिः। पो० उ०६।३॥ ,, ( यजु० ११ १ ३६ ।। १२ । १०२ ॥) प्रजापति कः । ऐ० २ ।
३८ ।।६।२१॥ कौ० ५।४॥ २४ । ४, ५,६॥ तां०७1८।३॥ श०६।४।३।४॥ ७।३।१।०॥ तै०२।२।५।५॥
जै० उ०३।२।१०॥ गो० उ०१।२२॥ ,, प्राणो वाव कः । जै० उ०४ । २३ । ४॥ , काय एककपालः पुरोडाशो भवति । श०२:५।२।१३।। ककुप् (छन्दः) ककुप् च कुब्जश्च कुजतेोजतेर्वा । दे० ३।६॥
ककुप ककुद्रूपिणीत्यौपमिकम् । दे० ३।५॥ उष्णिककुभ्यां वा इन्द्रो वृत्राय वज्रं प्राहरककुभि पराक्रमतोणिहा प्राहरत् । तां० ८।५।२॥ (यजु० १५ । ४)प्राणो वै ककुप्छन्दः।श० ।५।२॥४॥ कीकसा ककुभः । श० ८।६।२।१०॥ पुरुषो वै ककुप। तां०८।१०।६॥ १३। ६।४॥
१६ । ११ । ७॥ १६ ॥ ३४॥२०।४।३॥ करवरथन्तरम् (माम) तेजो वा एतद्रथन्तरस्य यत्करवरथन्तरम् । तां०
१४ । ३।१६॥ पशवो वै करवरथन्तरम् तां० १८ । ४।६॥
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कर्म
(१२६) कः (माया) इयं (पृथिवी) कद्रूः। श०३।६।२।२॥ कनीनकः शुष्णो दानवः प्रत्यङ् पतित्वा मनुष्याणामक्षीणि प्रविवेश स
एष कनीनकः कुमारक इव परिभासते । श०३।१।३१११॥ कपिजल: (पक्षिविशेषः) स यत्सोमपानं (विश्वरूपस्य मुखम्) भास ।
ततः कपिजलः समभवत्तस्मात्स बभ्रक इव बभ्ररिव हि सोमो राजा। श०१।६।३।३॥
५। ५।४।४॥ कंवै प्रजापतिः। श० २।५।२।१३॥ , अन्नं वै कम् । ऐ०६॥ २१ ॥ गो० उ०६।३॥ , सुखं वै कम् । गो० उ०६॥३॥ , अथो सुखस्यैवैतन्नामधेयं कमिति । कौ०५॥४॥ ,, अथो सुखस्य वा एतन्नामधेयङ्कमिति । गो० उ० १॥२२॥ कयाशुभीयम् (साम) यत् कयाशुभीयं शस्यते शान्त्या एष। तां० २१ ।
१४॥६॥
अगस्त्यस्य कयाशुभीय शस्यम्। तां०६।४।१७॥ करम्बा: (-आज्यमिश्रिताः सक्तवः) विश्वेषां वा एतद्देवाना रूपम् ।
यत्करम्बाः । तै०३।८।१४।४॥ करम्म (=यवपिष्टमाज्यसंयुतमिति सायणः) पूष्णः करम्भः । तै०१।
५। ११ । ३ ॥ श० ४ । २।५।२२॥ , तस्मादाहुरदन्तकः पूषा करम्भभाग इति । कौ०६।१३॥ , ते देवाः सभ्य भाषाभ्य आज्ये करंभं निरवपन् । तान्
(असुरान् ) एताभिरेव देवताभिरुपानयन् । ते० ३।१।४।। करीराणि कं मुख) वै प्रजापतिः प्रजाभ्यः करीरैरकुरुत। श०२।
५।२। ११ ॥ , सौम्यानि वै करीराणि । तै०१।६।४।५॥ करीषम् पुरीष्य इति वै तमाहुर्यः श्रियं गच्छति समान वै पुरीषं च
करीषं च । श०२।१।१।७॥ कर्कन्धु यत्स्नेहस्तत्कन्धु । श० १२ । ७।१।४॥ कर्णकाः पशवो वै कर्णकाः । श०६।२।३।४०॥ कर्म यज्ञो वै कर्म । श०१।१।२।१॥
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( १२७ )
कविः1 में पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेनेति । श०१४।६।
२।१४॥ , बीर्य वै कर्म श० ११॥ ५।४।५॥ , कोणि धियः (पश्यत-ऋ०३ । ६२ । १० सायणभाष्यम् )।
गो० पू०१ । ३२ ॥ भस्मिन्यामे वृषण्वसूऽ ( यजु० ११ । १३) इत्यस्मिन्कर्मणि
वृषण्वसूऽ इत्येतत् (यामः-कर्म)। श० ६।३।२।३॥ , यो वाव कर्म करोति स एव तस्योपचारं वेद । २०६।५। " ४।१७॥ कलविङ्कः (पक्षिविरेषः) अथ यत्सुरापाणं (विश्वरूपस्य मुखम् ) आस ।
ततः कलविङ्कः समभवत्तस्मात्सोभिमाधक इव पदत्यभिमाद्यन्निव हि सुरां पीत्वा वदति।
श०१।६।३।४॥ ५।५।४।५।। कलश: यस्य कलश उपदस्थति कलशमेवास्योपदस्यन्तं प्राणो
नूपदस्यति । तां०६।६।१॥ कलिः (युगम् ) कलिः शयानो भवति । ऐ०७।१५ ।। ,, अथ ये पञ्च (स्तोमाः) कलिः सः । तै० १।५।११।१॥
एष वाऽ अयानभिभूर्यत्कलिरेष हि सर्वानयानभिभवति ।
श. ५।४।४।६॥ कल्पाः प्राणावै कल्पाः । श०६।३।३ । १२ ॥ कल्याण: ( आङ्गिरसः) तेषां (अङ्गिरसां) कल्याण प्राङ्गिरसोऽध्याय
मुव्रजन् स ऊर्णायुङ्गन्धर्वमप्सरसाम्मध्ये प्रेसयमाणमुपैत् । तां १२ । ११ । १०॥ (स्वर्गाल्लोकात् अहीयत कल्याणो ऽनृतं हि
सोऽवदत् । तां० १२ । ११ । ११॥ कल्याणी (प्रजापतेस्तनूविशेषः ) कल्याणी तत्पशवः । ऐ० ५ ॥ २५॥
कौ० २७ । ५॥ कविः ये वा अनूचानास्ते करयः । ऐ० २१ २, ३८॥ ,, पते वै कवयो यहषयः । श. १।४।२। । , (ऋ०३ । ३८।१ । ये वै ते न ऋषयः पूर्व प्रेतास्ते वै कवयः।
ऐ०६ । २०॥
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[ कार्मर्यः
( १२८ ) कविः ये ह वा अनेन पूर्व प्रेतास्ते वै कवयः । गो० उ०६॥२॥ ,, शुश्रुवाछमो वै कवयः । ते० ३।२।२।३॥ , (यजु० १२ । ६७) ये विद्वा सस्ते कवयः । श०७।२।२॥४॥ , (यजु. १२।२) असो वाऽ आदित्यः कविः । श०६७।४॥ काक्षीवतम् ( साम ) कक्षीवान्वा एतेनौशिजः प्रजाति भूमानयगच्छर
प्रजायते बहुर्भवति काक्षीवतेन तुष्टवानः । तां०
१४।११ । १७॥ काएवम् ( साम ) वयम त्वा तदिदा इति कारवम् । तां०३।२।५॥
, एतेन वै कण्व इन्द्रस्य सांविद्यमगच्छत् । तां०६।२।६॥ कापिवनो द्विरातः एतेन वै कपिवनो भौवायन इष्टा रूक्षतामगच्छत् ।
अरूक्षो भवति य एवं विद्वानेतेन यजते।तां०२०।१३।४-५॥ कामः कामो हि दाता काम: प्रतिगृहीता । तै०२।२।५।६॥
समुद्र इव हि कामः । नैव हि कामस्थान्तोऽस्ति न समुद्रस्य ।
तै०२।२।५।६ ॥ , श्रद्धा कामस्य मातरं हविषा वद्धयामसि । तै० २। = = 1 कामधरणम् पशवः कामघरणम् । श०७।१।१।८ ॥ कामप्रम् अमृतं वै कामप्रम् । श० १०।२।६।४।। कार्णश्रवसम् (साम) कर्णश्रवा वा एतदाङ्गिरसः पशुकामः सामापश्यत्तेन
सहस्रं पश्नसृजत यदेतत्साम भवति पशूनां पुष्टयै । तां० १३ । ११ । १४॥ कार्णश्रवसं भवति शृण्वन्ति तुष्टुवानम् । तां०
१३।११।१३॥ कात्तियशम् (साम) अप पाप्मान हते कार्त्तयशेन तुष्टुवानः । तां०१४ ।
५। २३ ॥ कार्णायसम् लोहायसेन कार्णायसम् ( संदध्यात्)। जै० उ० ३ ।
कार्मर्यः यत्र वै देवा अग्रे पशुमालेभिरे तदुदीचः कृष्यमाणस्यावाङ
मेधः पपात स एप वनस्पतिरजायत तद्यत्कृष्यमाणस्थावाङ पतत्तस्मोकामः । श०३।८।२१ १७ ॥ प्रजापतेथिस्रस्तस्याग्निस्तेज श्रादाय दक्षिणाकर्षसोऽत्रोदरमद्यत्कृष्ट्वोदरमत्तस्मात्कार्मर्यः । श०७।४।१ । ३६ ॥
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( १२६ ) कालेयम् (साम्) ] कार्य: देवा ह वाऽ एतं वनस्पतिषु गक्षोनं ददृशुर्यत्कार्मर्य्यम्
. (भद्रपर्णीति सायणः)। श० ३।४।१ । १६ ॥ , ते (देवाः) एत रक्षोहणं वनस्पतिमपश्यन्कार्मर्यम् । श०
७।४।१।३७॥ कालकाः (असुराः) कालका वै नामासुरा आसन् । ते सुवर्गाय
लोकायाग्निमचिन्वन्त। पुरुष इष्टकामुपादधात्पुरुष इष्टकां । स इन्द्रो ब्राह्मणो ब्रुवाण इष्टकामुपाधत्त । एषा मे चित्रा नामेति। ते सुवर्गलोकमाप्रारोहन् । स इन्द्र इष्टकामावृहत् । ते ऽवाकीर्यन्त । ये ऽवाकीर्यन्त । त ऊर्णनाभयो ऽभवन् । द्वावुदपततां तौ दिव्यौ श्वानावभवताम् ( कालकाजा वा असरा इष्टका अचिन्वत दिवमारोक्ष्यामा इति तानिन्द्रो ब्राह्मणो ब्रुवाण उपत्स एतामिष्टकामप्युपाधत्त प्रथमा इव दिवमाक्रमन्ताथ स तामावृहत्ते ऽसुराः पापीयांसो भवन्तो ऽपाभ्रंशन्त या उत्तमा प्रास्तां तौ यमश्वा अभवतां ये ऽधरे त ऊर्णावाभयः । -मैत्रायणीसंहितायाम् १ । ६ । ६ ॥ कालकाजा वै नामासुरा श्रासंस्त इष्टका अचिन्वत तदिन्द्र इष्टकामप्युपाधत्त तेषां मिथुनौ दिवमाक्रमेतां ततस्तामावृहत्ते ऽवाकीर्यन्त ता एतौ दिव्यौ श्वानौ । -कठसंहितायाम् = । १॥ [अहमिन्द्रः] पृथिव्यां कालकाजान् [अतृणम्हिंसितवान् ] ॥ -शङ्करानन्दोयटीकायुतायां कौपीतकिब्राह्मणोपनिषदि ३ । १ ॥) । ते. १।१।
२।४-६॥ कालयम् ( साम) (देवाः) तेन ( कालेयेन साना ) एनान् ( असुरान् )
एभ्यो लोकेभ्यो ऽकालयन्त यदकालयन्त तस्मात्का. लेयम् । तां०८।३।१॥ यत्कालेयं भवति तृतीयसवनम्य सन्तन्यै । तां० । ३।५॥
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[ कुमारः
( १३० )
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कालय (शाम) कालेयमल्लावा कलाम भवति । ० १५ | १० | १४ ॥ पशवः कालेयम् । तां० ११ | ४| १० | १५ | १० | १५ ॥ कादम् ( साम ) अभिप्रियाणि पवत इति कावं प्राजापत्यं साम ॥ प्रजा वै प्रियाणि पशवः प्रियाणि प्रजायामेव पशुषु प्रतितिष्ठिति । तां० ८ । ५ । १४-१५ ।।
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रश्मी वा एतौ यज्ञस्य यदौशनकावे । तां० ८ | ५ | १६ ॥ विन्दते लोकं कावेन तुष्टुवानः । तां० ११ | ५ | २५ ॥ काव्यं छन्दः ( यजु० १५ । ४ ) त्रयी वै विद्या काव्यं छन्दः । श० ८ । ५।२।४ ॥
काव्याः ( पितरः ) ऊमा वै पितरः प्रातःसवनऊर्जा माध्यन्दिने काव्यास्तृतीयसवने । ऐ० ७ । ३४ ॥
काष्ठा सुवर्गो वै लोकः काष्ठा । तै० १ । ३ । ६५॥ किम्पुरुषः अथैनमुत्क्रांतमेधं ( पुरुषं देवाः ) अत्यार्जन्त स किम्पुरुषः ( = किन्नरो वानरजातीय इति सायणः) श्रभवत् । ऐ० २ । ८ ॥ किम्पुरुषो वै मयुः (यजु० १३ । ४७ ) [ अमरकोषे, स्वर्गवर्गे, श्लो०७४] । ० ७ । ५ । २ । ३२ ॥
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किरिका: (यजु० १६ | ४६ ) नमो वः किरिकेभ्य इति । एते हीद सर्वं कुर्वन्ति । ०६ । १ । १ । २३ ॥ किल्विषस्तृत एष (सोमः) उ एव किल्विषस्पृत् । ऐ० १ । १३ ॥ कुत्स: (औरवः) उपगुर्वै सौश्रवसः कुत्सस्यौरवस्य पुरोहित आसीत् । तां० १४ | ६ | ८ ॥
कुनखी यद्धस्तेन मूलं) छिन्यान् । कुनखिनीः प्रजाः स्युः । तै० ३ । २ । ६ । १० ॥
कुन्ताया: कुयं ह वै नाम कुत्सितं भवति तद्यचपति तस्मात्कुन्तापाः, तत्कुन्तापानां कुन्तापत्वम् । गो० उ० ६ । १२ ॥
कुबेरः कुबेरो वैश्रवणो राजेत्याह तस्य रक्षार्थसि विशः । श० १३ । ४ । ३ । १० ॥ ( ऐषं–शाङ्खायनश्रौतसूत्रम् १६ । २ । १६-१७) कुमारः एतान्यष्टौ ( रुद्रः, सर्वः = शर्वः, पशुपतिः, उग्रः, अशनिः, भवः, महान्देवः, ईशानः ) श्रग्निरूपाणि । कुमारो नवमः (कुमार:= रुद्रपुत्रोऽग्निपुत्रश्च - अमरकोषे १ । १ । ४२-४३ ॥ महभारते,
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कुमारः]
( १३१) वनपर्व० २२५ । १५-१६ ॥ कुमार:-अग्निः ऋ०५।२।१ सायणभाष्ये । अस्य सूक्तस्य देवता-अग्निः। ऋषिः--कुमार आत्रेयः ॥ ऋ० १० । १३५ इत्यस्य सूक्तस्य देवता यमः। ऋषिः--कुमारो यामायनः । पश्यत कठोपनिषदि नाचिकेतोपाख्यानम् -यमः कुमाराय [ कठ० १ । २] नचिकेतसे नाचिकेताख्यम् 'अग्नि" [ कठ १ । १८ ॥२।१०] प्रोवाच ॥ तथा तै०३।११।८।१५॥ ऋ०७।१०९, १०२ इत्यनयाः सूक्त योर्दयता पर्जन्यः । ऋषिः-कुमार आग्नेयः ॥ वत्सः (=कु. मारः ?) वैधुताग्निरिति सायण:-ऋ०७ । १०१ । १ भाष्ये ।। कुमारः स्कन्दः पाएमातुरः कार्तिकेयः-अमरकोषे१।१। ४१-४३ ॥ कृत्तिकानक्षत्रस्य देवता--अग्निः, तस्मिन् षट् तारा भवन्ति ॥ षट् कुमारा:-षड् ऋतवः--महाभारत, आदिपर्व० ३ । १४४ ॥ स्कन्दः वालग्रहविशेषः-सुश्रुते, उत्तरतंत्र २७ । २--३॥ स्कन्दः सनत्कुमार:--छान्दोग्योपनिषदि । २६ ॥ १॥ महाभारत, शल्यपर्व० ४६ । ६८ ॥ ब्रह्मसूत्रस्य शांकरभाष्ये ३॥३॥३२॥ पारस्करगृह्यसूत्रे ११६२४-कुमारस्थ शुनकस्य माता सरमा शुनी, पिता सीसरः, भ्रातरौ श्यामशबस्ती ॥ स्कन्दस्य माता पूतना-महाभारते वनपर्व० २३०
२७ ॥)। श६।१।३।१८॥ कुमारः तानीमानि भूतानि (=षतवः ) च भूतानां च पतिः संव.
सरऽ उपसि रेनो ऽसिश्चन्त संवत्सरे कुमारो ऽजायत सो ऽरोदीत् ।...' यदरोदीत् तस्मात् ( स कुमारः) रुद्रः । श.
६।१।३।०-१०॥ ,, तस्मात्कुमारं जातं घृतं वैवाने प्रतिलेहयन्ति स्तनं धानुधा
पयन्ति । श. १४।४।३।४॥ , कुमारे सद्योजात एनो न ( भवति )। तां० १८ । १ । २४॥ . संवत्सर एव कुमार उत्तिष्ठासति । श० ११ । १।६।५॥ ,, तस्मादु संवत्सरऽ एव कुमारो व्याजिहोति । श० २१ । १
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[. कुरुपाञ्चालाः
( १३२ )
कुमारः तस्मात्संवत्सर वेलायां प्रजाः (= शिशवः) वाचं प्रवदन्ति । श०
७ । ४ । २ । ३८ ॥
तस्मादेकाक्षरद्वयक्षराण्येव प्रथमं वदन्कुमारो वदति । श० ११ ।
"
१।६।४॥
कुमारी कुमारी रूपं ( गच्छति ) । गो० पू० २ । २ ॥
एतदु हैवोवाच कुमारी गन्धर्वगृहीता । ऐ० ५ । २६ ॥
एतदेव कुमारी गन्धर्वगृहीतोवाच । कौ० २।६॥
तस्य ( पतञ्जलस्य काव्यस्य ) श्रासीद् दुहिता गन्धर्व गृहीता । श० १४ । ६ । ३११ ॥
कुम्च्या ( कुंव्या ? ) (=वध्यर्थवादात्मकं ब्राह्मणवाक्यमिति सायणः ) स्वाध्यायो ऽध्येतव्यस्तस्मादप्यूचं वा यजुर्षा साम वा गाथां वा कुंव्यां वाभिव्याहरेद्र व्रतस्याव्यवच्छेदाय ( सायणकृतैतरेयारण्यकभाष्ये २ । ३ | ६: - श्राचारशिक्षारूपा ' कुम्ब्या' । तद्यथा ब्रह्मचार्यस्यापो ऽशान कर्म कुरु दिवा मा स्वासीरित्यादिः ) । श० १९ । ५ । ७ । १० ॥
कुरवः तस्मादेतस्यामुदीच्यां दिशि ये के च परेण हिमवन्तं जनपदा उत्तरकुरव उत्तरमद्रा इति वैराज्यायैष ते ऽभिषिच्यन्ते विराराडित्येनानभिषिक्तानाचक्षते । ऐ० ८ । १४॥
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कुरुक्षेत्रम् ते देवा अब्रुवन्नेतावती वाव प्रजापतेर्व्वेदियवत् कुरुक्षेश्रभिति । तां० २५ । १३ १३ ॥
तस्मादाहुः कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनमिति । श० १४ । १ । १ ।२ ॥
कुरुपञ्चालाः तस्माज्जघन्ये नैदाघे प्रत्यञ्चः कुरुपञ्चाला यन्ति । तै०
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८ ।४।२ ॥
तस्माच्छिशिरे कुरुपञ्चालाः प्राञ्चो यन्ति । तै० १ । ६ । ४ । १ ॥
तस्मादस्यां धवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि ये के च कुरुपञ्चालानां राजानः स्वशोशीनराणां राज्यायैव ते मिरिच्यन्ते राजेत्येनानविधानाचक्षते । ऐ ८ । १४ ॥
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( १३३ )
कूर्मः कुरुपश्चाला: उदीचीमेव दिशम् । पथ्यया स्वस्त्या प्रजानंस्तस्मादत्रा
त्तराहि वाग्वदति कुरुपञ्चालत्रा। श०३।२।३॥ १५॥ कुलायः (क्रतुः) अथैष इन्द्राग्न्योः कुलायः प्रजाकामो वा पशुकामो
वा यजेत । तां०१६ । १५ । १॥ प्रजा वै कुलायम्पशवः कुलायम् । तां० २।३।२॥ प्रजा वै कुलायं पशवः कुलायं गृहाः कुलायं कुलाय
मेव भवति । तां० १६ । १५ । १॥ कुवलम् यदश्रुभ्यः (तेजो ऽस्रवत् ) तत्कुवलम् ( अभवत् )। श०१२ ।
७।१।२॥ कुशा: आपो हि कुशाः । श० ११३।११३॥ कुसुरुविन्दो दशरात्रः यः कामयत वहु स्यां (पुत्रपौत्रद्वारा स्वयमेव
बहुविधः स्यामिति सायणः) इति स एतेन यजेत । तां० २२ । १५ । २ ॥ एतेन वै कुसुरुविन्द बहालकिरिष्टा भूमानमा.
श्नुत । तां०२२ । १५११० ॥ कुहूः योत्तरा ( अमावास्या ) सा कुहूः। ऐ०७।११ ॥ ,, योत्तरा अमावास्या सा कुहूः । गो० उ० १ । १० ॥ष०४॥ ६ ॥ , या कुहूः सानुष्टुप् । ऐ० ३।४७, ४८ ॥ कूर्मः स यत्कूर्मो नाम । एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत
यदसृजताकरोत्तद्यदकरोत्तस्मात्कूर्मः कश्यपो वै कूर्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्य इति । श० ७ । ५।१।५॥ ता(पृथिवीं) संक्लिश्याप्सु प्राविध्यत्तस्यै यः परा सो
ऽत्यक्षरत्ल कूमो ऽभवत् । श०६।१।१।१२॥ , यो धै स एषां लोकानामप्सु प्रविद्धानां पराङ्सो ऽत्यतरत्स एष
कूर्मः । श० ७।५।१।१॥ , रेसोबै कूर्मः । श०७।५।१११॥ , स य स कूर्मो ऽसौ स आदित्यः । श० ६ । ५। १॥ ६॥ ७॥
,, प्राणो वै कूर्मः प्राणो हीमाः सर्वाः प्रजाः करोति । श०७।५।
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कृमकुं:
( १३४ ) कूर्मः घावापृथिव्या हि कुर्मः । श०७।५। १ । १०॥
, शिरः कूर्मः। श०७।५।१।३५ ॥ कृतम् (युगम्) ये वै चत्वारः स्तोमाः कृतं तत् । तै० १ । ५ । ११॥ १ ॥
, कृतं संपद्यते चरन् । ऐ०७ । १५ ॥ कृत्तिकाः (नक्षत्रम) मुखं वा एतन्नक्षत्राणां यत्कृत्तिकाः। ते० १।१।
२॥१॥ एतद्वा अग्नेर्नक्षत्रं यत् कृत्तिकाः । तै० १।१।२। १॥ १।५।१।१॥३।१।१।१॥ एता वा अग्निनक्षत्रं यत्कृत्तिकाः । श.२।१.। २।१॥ पुर एताः (कृत्तिका उद्यन्ति ) । अग्निर्वाऽ एतासां (कृत्तिकानां) मिथुनम् । श. २ । १।२।५ ॥ अग्नये स्वाहा कृत्तिकाभ्यः स्वाहा । (कृत्ति केति सप्तानां नक्षत्रमूर्तीनां साधारणं नाम । अम्बादुलादीनि विशेषनामानीति सायणः ) अम्बायै स्वाहा दुलायै स्वाहा । नितल्यै स्वाहा भ्रयन्त्यै स्वाहा । मेघयन्त्यै स्वाहा वर्षयन्त्यै स्वाहा । चुपुणीकायै स्वाहेति । ते ३।१।४।१॥ एकं वे त्रीणि । चत्वारीति वा अन्यानि नक्षत्राएयथैता एव भूयिष्ठा यकृत्तिकाः। श०२१।२।२॥ एता (कृत्तिकाः) ह वै प्राच्य दिशो न च्यवन्ते। सर्वाणि ह वा अन्यानि नक्षत्राणि प्राच्य दिशश्य
बन्ते । श० २।१।२।३॥ कृत्यधीवासः अन्तरिक्षस्य (रूपं) कृत्यधीवासः । तै० ३ । ६।२०।२॥ कृत्या यदा वै कृत्यामुत्खनन्त्यथ सालसा मोघा भवति तथोऽएवैष
एतद्ययस्मा प्रत्र कश्चिद् द्विषन् भ्रातृव्यः कृत्यां बलगान्नि
खनति तानेवैतदुत्किरति । श० ३ । ५।४।३॥ कमुकः (="धनुष उपादानभूतः सारवान् वृक्षविशेषः" इति सायण:)
तस्मात्स स्वादूरसो हि तस्मादु लोहितो ऽचिहि स एगो ऽग्नि रेव यकृमुकः । श०६।६।२।११॥
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(१३५ ) कृष्णाजिनम् ] कपिः अन्नं वै कृषिः । श०७।२।२।६॥ , अष्टौ ग एताः ( गायत्रीत्रिष्टबाद्या इति सायणः ) कामदुधा
भासरतासामेका समशीर्दीत सा कृषिरभवहध्यते ऽस्मै कृषौ
य एवं वेद । तां० ११ ॥ ५ ॥ ८॥ , सर्वदेवत्या धे कृषिः । श०७॥२॥२॥१२॥ कृष्णः कृपणो हैतदाङ्गिरसो ब्राह्मणाच्छंसीयायै तृतीयसवनं ददर्श
(ततद घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोत्कोवाच... ।
छांदोग्योपनिषदि ३।१७। ६॥)। कौ०३०।९॥ कृष्णः शकुनिः अनृत स्त्री शुद्रः श्वा कृष्णः शदुनिस्तानि न प्रेक्षेत ।
श०१४।१।१ । ३१॥ कृष्णम (रूपम) पार्तम्वेतद्रूपं यत्कृष्णम् । श०८।७।२।१६ ॥ , तद्धि वारुणं यत् कृष्णम् । श०५।२।५।१७॥
अथ यत्कृपणं तदपां रूपमन्नस्य मनसो यजुषः । जै.
उ: १ । २९ ॥ ६ ॥ कृष्णाविषाणा यो सा योनिः सा कृपणविषाणा । श०३।२।१।२८ ॥ कृष्णाजिनम ब्रह्म वै कृष्णाजिनम् । कौ०४।१॥
ब्रह्मणो वा एतद्रयं यत्कृष्णाजिनम् । तै०२।७।१।४॥ ब्रह्मणो वा एतहक्सामयो रूपं यत्कृष्णाजिनम् । ते० २।
(यजमानः) कृष्णाजिने ऽध्यभिषिच्यत एतद् (कृष्णाजिनं) व प्रत्यक्षं ब्रह्मवर्चसम् । तां०१७ । ११ । - ॥ स (ब्रह्मचारी) यन्मृगाजिनानि यस्ते तेन तदू ब्रह्मवर्चसमवरन्धे । गो०पू०२॥२॥ कृष्णाजिनं ये सुकृतस्य योनिः (यजु० ११ । ३५)। श०६। ४।१६॥ कृष्णजिन होतृपदनम् (यजु० ११ । ३६) । श०६।४। २।७॥ तस्य (अग्नेः ) एष स्वी लोको यत्कृष्णाजिनम् । श०६। ४।२।६॥ यं (पृथिवी) वै कृष्णाजिनम् । श० ६।४।१।९॥
,
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[कौल्मलवर्हिषम ( १३६ ) कृष्णाजिनम् यशो वै कृष्णाजिनम् । श०६१४ । १ । ६॥
यज्ञो हि कृष्णाजिनम् । श०३।२।१।॥ यज्ञो हि कृष्णः ( मृगः ) स यः स यशस्तत्कृष्णाजिनम् ( "कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः। स शेयो यशियो देशो म्लेच्छदेशस्त्वतः परः” ॥ मनुस्मृती २।
२३॥)। श०३।२।१।२८॥ कृष्णा व्रीहयः स (इन्द्रः) एतं वरुणाय शतभिषजे भेषजेभ्यः पुरोडाशं
दशकपालं निरवपत् कृष्णानां ब्रीहीणाम्। ततो वै स
दृढो ऽशिथिलो ऽभवत् । तै०३।१।५।६॥ कृष्णा शुक्लवत्सा ( गौः) रात्रि कृष्णा शुक्लवत्सा तस्या असावादित्यो
। वत्सः । श०६।२।३।३०॥ केतः अन्नं केतः । श० ६।३। १ । १६ ॥ केशवः न वाऽ एष स्त्री न पुमान् यत्केशवः पुरुषो यदह पुमांस्तेन न
खो यदु केशवस्तेन (उ) न पुमान् । श०५। १। २। १४॥
५।४।१।२॥ कोसला: (=कोसलदेशः) सैषा (सदानीरा नदी) अप्येतर्हि कोसलवि.
देहानां मर्यादा । श०१।४।१। १७ ॥ कौत्सम् (साम) कुत्सश्च लुशश्चेन्द्र व्यह्वयेता स इन्द्रः कुत्समुपावर्तत
त शतेन वार्डीभिराण्डयोरबध्नात्तं लुशो ऽभ्यवदत् प्रमुच्यस्व परि कुत्सादिहागहि किमु त्वावानाएडयोद्ध आसाता इति ताः संच्छिद्य प्राद्रवत्स एतत् कुत्सः सामापश्यत्तेनैनमन्ववदत्स उपावर्त्तत । तां०६।२।२२॥ एतेन वै कुत्सो ऽन्धसो विपानमपश्यत् स ह स्म वै सुरादतिनोपवसथं धावयत्युभयस्यानाद्यस्यावरुध्य कौसं क्रियते । तां०१४ । १२ । २६॥ इन्द्र सुतेषु सोमेष्विति कौत्सम् । तां०६।२।२१ ॥
यदेतत्साम भवति सेन्द्रत्वाय । तां०६।२ । २३ ॥ कौल्मलवहिषम् ( साम ) कुल्मलवहिर्वा एतेन प्रजापति भूमानमगच्छत्
प्रजायते बहुर्भवति कौल्मलवर्हिषेण तुष्टुवानः। तां०१५। ३।२१ ॥
पर
यदतत्ता
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( १३७ )
क्रोधः] कौशिक: मथ यरसुवर्णरजताभ्यां कुशीभ्यां परिगृहीत आसीत्।सास्य
(आदित्यरूपस्य चात्वालस्य ) कौशिकता। तै १।५।
१०।२॥ कौषीतकिः एतेन च (स्तोमेन) शमनीचीमेढ़ा अयजन्त तेषां कुषीतकः
सामश्रवसो गृहपतिरासीत्तान् लुशाकपिः खार्गलिरनुव्याहरदवाकीर्षत कनीयासौ स्तोमावुपागुरिति तस्मा. कौषीतकोनान कश्चनातीव जिहीते (अतीवाश्रयो न गच्छ
तीति सायणः) यशावकीर्ण हि । तां० १७ । ४ । ३ ॥ क्रतुः स यदेव मनसा कामयतऽ इदं मे स्यादिदं कुर्वीयेति स एव
क्रतुः। श०४।१।४।१॥ . ,, (यजु०४।३१॥) तुर्मनोजवः । श० ३।३।४।७॥ " इत्सु ह्ययं क्रतुमनोजवः प्रविष्टः । श० ३।३।४।७॥ , 'क्रतुं दक्षं वरुण संशिशाधि' ( ऋ० ८ । ४२ । ३) इति वीर्य
प्रज्ञानं धरुण संशिशाधीति (क्रतुः-वीर्यम्)। ऐ०१ । १३॥ ., मित्र एव क्रतुः । श०४।१।४।१॥ क्रतुरेकत्रिशः (यजु० १४ । २३) संवत्सरो वाव क्रतुरेकत्रिशस्त
स्य चतुर्विशतिरर्धमासाः षड्तवः संवत्सर एव ऋतुरेकत्रिशस्तयत्तमाह क्रतुरिति संवत्सरो हि सर्वाणि
भूतानि करोति । श०८।४।१।२१॥ क्रतुस्थला ( यजु० १५ । १५) “पुञ्जिकस्थला" शब्दं पश्यत् । कमुकः एषा वा अग्नेः प्रिया तनूर्यत् क्रमुकः । तै० १।४।७।३॥ कयः अथ यत्क्रयेण चरन्ति । सोममेव देवतां यजन्ते । श० १२।१।
३।३॥ क्रव्याद् (अमिः, यत्नु० १ । १७ ) अथ येन पुरुषं दहन्ति सक्रव्याद् ।
श०१।२।१।४॥ क्रिवयः (बहुवचने) क्रिवय इति ह वै पुरा पञ्चालानाचक्षते। श० १३ ।
५।४।७॥ क्रूरम् (यजु० १ । २८) सलामो वै करम् । श० १।२।५।१६॥ .. क्रोधः अथ य एने (श्रद्धाऽश्रद्धे) सो ऽन्तरेण पुरुषः। कृष्णः पिङ्गातो
दण्डपाणिरस्थात्क्रोधो चै सो ऽभूत् । श० ११ । ६। १ । १३ ॥
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[क्षत्रम् , क्षत्रियः (१३८ ) क्रोधः वराहं क्रोधः (गच्छति)। गो० पू०२।२॥ क्रोशम् (साम) एतेन वा इन्द्रः इन्द्रकोशे विश्वामित्रजमदग्नी इमा गाय
इत्यक्रोशत् पशूनामवरुध्यै क्रोशं क्रियते । तां० १३ ।
५।१५॥ क्रौश्चम् (साम) कुष्यमहरविन्ददेष्यमिव वैषष्ठमहरहरेवैतेन विन्दन्ति ।
तां०१३ । । । ११ ॥ १३ । ११ । २०॥ रज्जुः क्रौञ्चम् । तां० १३ । । । १७ ॥ वाग्वै क्रौञ्चम् । तां० ११ । १० । १६ ॥ स ( बृहस्पतिः प्रजापति ) अब्रवीत्क्रौञ्चं साम्रो पृणे
ब्रह्मवर्चसमिति । जै० उ०१। ५१ । १२ ॥ क्लोमा क्लोमा वरुणः । श० १२ १६ । १ । १५ ॥ क्षत्ता प्रसविता वै क्षत्ता । श०५।३।१।७।। क्षत्रम्, क्षत्रियः प्राणो हि वै क्षत्रंत्रायते हैनं प्राणः क्षणितोःप्र क्षत्रमात्र
माप्नोति क्षत्रस्य सायुज्यॐ सलोकतां जयति य एवं वेद । श० १४।८।१४।४॥ क्षत्रं राजन्यः। ऐ०८।६॥श०५।१।५।३॥ १३ । १।५।३॥ क्षत्रस्य वाऽ एतद्रूपं यद्राजन्यः । श० १३।१।५।३॥ प्रोजः क्षत्रं वीर्य राजन्यः । ऐ०८।२,३,४॥ क्षत्रं हि राष्ट्रम् । ऐ०७॥ २२ ॥ आदित्यो वै दैवं तत्रमादित्य एषां भूतानामधिपतिः। ऐ०७॥ २०॥ क्षत्रं वा एतदारण्यानां पशूनां यव्याघ्रः । ऐ०८।६॥ क्षत्रं वा एतद्वनस्पतीनां यन्यग्रोधः ।ऐ०७।३१॥
। १६॥ क्षत्रं वा एतदोषधीनां यद बीहयः। ऐ० ८ ॥१६॥ क्षत्रं वा एतदोषधीनां यहा । ऐ० ८ । ८ ॥
क्षत्रं वै पयः । श. १२।७।३ । ८ ॥ " तत्रस्यैतद्रूपं यद्धिरण्यम् । श० १३।२।२॥ १७ ॥
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( १३६ )
क्षत्रम्, क्षत्रियः ]
चत्रम्, चत्रिय: ब्रह्मणो वै रूपमहः क्षत्रस्य रात्रिः । तै० ३ | हा
१४ । ३ ॥
क्षत्रस्य वा एतद्रूपं यद्वात्रिः । श० १३ । १ । ५ । ५ ॥
क्षत्रं पञ्चदशः (स्तोमः) । ऐ० ८ । ४ ॥
क्षत्रं हि ग्रीष्मः | श० २ । १ । ३ । ५ ॥
श्रयं वा श्रग्निर्ब्रह्म च क्षत्रं च । श० ६ । ६ । ३ । १५ ।।
ब्रह्म वा श्रग्निः क्षत्रं सोमः । कौ० ९ ॥ ५ ॥
क्षत्रं सोमः । ऐ० २ । ३८ ॥
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कौ०७ | १० | १० | ५ ॥
१२ ॥ ८ ॥
क्षत्रं वै सोमः । श० ३ | ४ | १ | १० | ३ | ६ | ३ | ३, ७ ॥ ५।३।५।८ ॥
( यजु० १४ । ६ ) प्रजापतिर्वै क्षत्रम् । श० ८ । २ । ३ । ११ ॥
मित्रः क्षत्रं क्षत्रपतिः । तै २ ।५ । ७ । ४ ॥ ० ११ । ४ । ३ । ११ ॥
क्षत्रं वरुणः । कौ० ७ | १० | १२ | ८ ॥ श ० ४ । १ । ४ । १ ॥ गो० उ० ६ । ७ ॥
क्षत्रं वै वरुणः । श० २ । ५ । २ । ६, ३४ ॥
क्षत्रं वाऽ इन्द्रः । कौ० १२ । ८ ॥ तै० ३ । ६ । १६ । ३ ॥ श०२ । ५ । २ । २७ ।। २ । ५ |४ | ६ || ३ |६| १ । १६ ॥ ४ । ३ । ३ । ६
क्षत्रमिन्द्रः क्षत्रियेषु ह पशवो ऽभविष्यन् । श० ४ । ४ । १ । १८ ॥
तस्मादु क्षत्रियो भूयिष्ठं हि पशूनामीष्टे । गो० उ० ६।७ ॥
क्षत्रं वै वैश्वानरः । श० ६ । ६ । १ । ७ ॥ ६।३। १ । १३ ॥
यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रो वरुणः सोमो रुद्रः पर्जन्यो यमो मृत्युरीशान इति क्षत्रात्परं नास्ति तस्माब्राह्मणः क्षत्रियमधस्तादुपास्ते राजसूये । श० १४ ।
४ । २ । २३ ॥
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[क्षत्रम् क्षत्रियः (१४० ) क्षत्रम् , क्षत्रियः क्षत्रं वै स्विष्टकृत् । श० १२ । ।३।१६ ॥
क्षत्रं त्रिष्टुप् । कौ० ३।५ ॥ श० ३।४।१।१०॥ ब्रह्म हि पूर्व क्षत्रात् । तां० ११।१।२॥ सैषा क्षत्रस्य योनिर्यब्रह्म । श० १४।४।२।२३ ॥ ब्रहणः क्षत्रं निम्मितम् । तै०२।।18॥ तद्यत्र ब्रह्मणः क्षत्रं वशमेति तद्राष्ट्र समृद्धं तद्वीरवदाहास्मिन् वीरो जायते । ऐ०।६॥ अभिगन्तैव ब्रह्म कर्ता क्षत्रियः । श०४।१।४।१॥ एतद्ध त्वेवानवक्तप्तं यत्क्षत्रियो ऽब्राह्मणो भवति तस्मादु क्षत्रियेण कर्म करिष्यमाणेनोपसर्तव्य एव ब्राह्मणः । श०४।१।४।६॥ क्षत्रं वै होता। ऐ०६ । २१॥ गो० उ०६।३॥ क्षत्रं माध्यन्दिनं सवनम् । कौ० १६॥ ४ ॥ भुव इति ( प्रजापतिः) क्षत्रम् (अजनयत)। श०२। १।४।१२॥ यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्थोनिम् । ते० ३ । १२ । । ।२॥ क्षत्रं वै साम । श० १२ । ।३ । २३ ॥ गो० उ० ५।७॥ क्षत्रं वै स्तोत्रम् । १०१।४॥ क्षत्रं वै लोकम्पृणा ( इष्टका) विश इमा इतराइष्टकाः। श०८।७।२।२॥ क्षत्रं वै लोकम्पृणा (इष्टका)। २०।४।३।५॥ क्षत्रमुपाशुयाजः । श० ११ । २।७। १५ ॥ क्षत्रं वै प्रस्तरः । श०१।३।४।१०। यस्तान्तवं वस्ते क्षत्रं वर्द्धते न ब्रह्म । गो० पू०।२।४ ॥ ब्रह्म वै पौर्णमासी क्षत्रममावास्या। कौ०४ ।। एतानि क्षत्रस्यायुधानि यदश्वरथः कवच इषुधन्य । ऐ०७। १९ ॥ अन्नं वै क्षत्रियस्य विट् । श०३।३।२।। तस्मान कदा चन ब्राह्मणश्च क्षत्रियश्च वैश्य च शुद्ध च पश्चादन्धितः । श०६।४।४।१३॥
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( १४१ )
खदिर: 1
क्षेत्रम् क्षत्रियः तस्मात्क्षत्रियं प्रथमं यन्तमितरे त्रयो वर्णाः पश्चादनुयन्ति । श० ६ । ४ । ४ । १३ ॥
तस्मादु क्षत्रियमायन्तमिमाः प्रजा विशः प्रत्यवरोहन्ति तमधस्तादुपासते । श० ३ । ६ । ३ । ७॥ क्षत्रियो ऽजनि विश्वस्य भूतस्याधिपतिरजनि विशामत्ता ऽजन्यमित्राणां हन्ता ऽजनि ब्राह्मणानां गोप्ता ऽजनीति । ऐ० ८ । १७ ॥
एतद्वै परार्ध्यमन्नाद्यं यत्क्षत्रियः । कौ० २५ । १५ ॥ निरुक्तमिव हि क्षत्रम् । श० ६ । ३ । १ । १५ ॥ अपरिमितो वै क्षत्रियः । ऐ० ८ | २० ॥
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क्षत्रं बृहत् (साम) । ऐ० ८ । १,२ ॥
यत्सुरा भवति क्षत्ररूपं तदथो अन्नस्य रसः । ऐ० ८ । ८॥ अथास्य (क्षत्रियस्य) एष स्वो भक्षो न्यग्रोधस्यावरोधाश्च फलानि चौदुम्बराण्याश्वत्थानि साक्षाण्यभिषुणुयासानि भक्षयेत्सोऽस्य स्वो भक्षः । ऐ०७ । ३० ॥ राजन्यशब्दमपि पश्यत ॥
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क्षपा रात्रयः क्षपाः । ऐ० १ । १३ ।।
क्षयः अन्तो वै क्षयः । कौ० ८ । १ ॥
क्षयो वै देवाः । गो० उ० २ । १३ ॥
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चित्रम् यद्वै क्षिप्रं तत्तूर्त्तम् । श० ६ । ३ । २ । २॥
सुमा (इषुः ) अथ ययापैव राप्नोति सा तृतीया सासौ द्यौः सेषा तुमा
नाम । श० ५ १३ । ५ । २६ ।।
क्षुरोनजश्छन्दः (यजु० १५ । ४ ) सौ वा श्रादित्यः तुरो भ्रजश्छन्दः । श० ८।५।२।४ ॥
क्षेत्रम् इयं वै क्षेत्रं पृथिधी | कौ० ३० | ११ ॥ गो० उ०५ । १० ॥
(ख)
खदिरः खदिरेण ह सोममाचखाद । तस्मात्खदिरो यदेनेनाखिदत् । श० ३ । ६ । २ । १२ ॥
अस्थिभ्य एवास्य (प्रजापतेः) खदिरः समभवत् । तस्मात्स दारुणो बहुसारः । श० १३ । ४ । ४ । ६ ॥
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[गन्धर्वाः
(१४२) खदिरः खादिरं (यूपं करोति ) बलकामस्य । ५० ४।४॥ , षट् खादिराः (यूपाः)। तेजसो ऽवरुध्थे । तै०३।८।२०।१॥ ,, खादिरं ( यूपं कुर्वीत ) स्वर्गकामः । कौ० १० ॥१॥ खम छिद्रं खमित्युक्तम् । गो० उ० २।५ ॥ खलः खल उत्तरवेदिः। तां० १६ । १३॥ ७ ॥ खादः अन्तौ वै खादः । ऐ० ५। १२॥ खिलम् यद्वा उर्वरयोरसंभिन्नं भवति खिलमिति ('खिल इति' इति
शातपथः पाठः ) वै तदाचक्षते । कौ० ३०। ८ ॥ श० ।३।
४। १ ॥ गण्डूपदः यानि नावामि ते गण्डूपदाः (अभवन्)। ऐ० ३ । २६ ॥ गतनिधनम् (साम) गतनिधनं वाभ्रवं भवति गत्यै। तां० १५ ॥३॥१२॥
घभ्रुर्वा एतेन कौम्भ्यो ऽअसा स्वर्ग लोकमपश्यत् स्वर्गस्य लोकस्यानुख्यात्यै स्वर्गालोकान च्यवते
तुष्टुवानः। तां० १५ १३ । १३ ॥ गन्धः सोमो गन्धाय । तां० १।३।६॥ सा०३।८।१॥
, सोम इव गन्धेन (भूयासम्)। मं० २।४ । १४ ॥ गन्धर्वा: वरुण आदित्यो राजेत्याह तस्य गन्धर्वा विशस्तऽ इमा
आसतइति युवानः शोभना उपसमेता भवन्ति तानुपदिशत्यथर्वाणो वेदः सो ऽयमिति। ( पश्यत-शांखायनौत. सूत्रम् १६ ॥ २८॥ श्राश्वलायनश्रौतसूत्रम् १०।७।३॥)।
श०१३।४।३ । ७॥ , गन्धो मे मोदो मे प्रमोदो मे । तन्मे युष्मासु ( गन्धर्षेषु)। जै०
उ०३।२५।४॥ , गन्धेन च वै रूपेण च गन्धर्वाप्सरसश्चरन्ति । श०६।४।
१॥४॥ रूपमिति गन्धर्वाः (उपासते)। श० १० । ५। २ । २० ॥ योषिकामा वै गन्धर्वाः । श० ३ । २। ४।३ ॥३।६।
३।२०॥ , स्त्रीकामा वै गन्धर्वाः । ऐ० १॥ २७ ॥ , त (गन्धर्षाः) उ ह स्त्रीकामाः। कौ० १२ । ३॥
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( १४३ )
गभीरः] गन्धर्वाः तस्य ( पतञ्जलस्य काप्यस्य ) आसीहिता गन्धर्वगृहीता।
श०१४ । ६।३।१॥ एतदेव कुमारी गन्धर्वगृहीतोवाच । कौ० २।३॥ एतदु हैवोवाच कुमारी गन्धर्वगृहीता। ऐ०५ ॥ २६ ॥ तमेते गन्धर्वाः सोमरक्षा जुगुपुरिमे धिष्ण्या इमा होत्राः। श०३।६।२।६॥ (यजु०१८।४१) वातो गन्धर्वः। श०६।४।१।१०॥
प्राणो वै गन्धर्वः । जै० उ० ३ । ३६ ॥ ३ ॥ , (यजु०१८।४३) मनो गन्धर्वः। श०६।४।१।१२॥
( यजु०१८।४२) यशो गन्धर्वः। श०९।४।१।११ ॥ , (यजु०१८।३८) श्रग्निर्ह गन्धर्वः । श०६।४।१।७॥ ,, (यजु० १८।४० ) चन्द्रमा गन्धर्वः। श०६।४।१।। , (यजु०१८ । ३६) सूर्यो गन्धर्वः। श०६।४।१।८॥ ,. असो वाऽश्रादित्यो दिव्यो गन्धर्वः। श०६।३।१।१६।। ,, (यजु०६।७) गन्धर्वाः सप्तविशतिः (गन्धर्वाःमक्ष
प्राणि-इति सायणो महीधरश्च )। श०५।१।४।८॥ ,, (अश्वो) वाजी (भूत्वा) गन्धर्वान् (अवहत)। श० १०॥
६।४।१॥ गन्धर्वाप्सरसः अथो गन्धेन च वै रूपेण च गन्धर्वाप्सरसश्चरन्ति ।
श०४।४।१।४ ॥ (प्रजापतिः) उपद्रवं गन्धर्वाप्सरोभ्यः (प्रायच्छत् ।। जै० उ०१ । १२ । १॥ गन्धर्वाप्सरसो वै मनुष्यस्य प्रजाया वा प्रजस्ताया
वेशते । तां० १६।३।२॥ गभ: ( यजु० २३ । २२) विड़े गभः । श० १३ । २।।६॥ तै०३।
६।७।३, ५॥ गभरितः पाणी वै गभस्ती । श०४।१।१।६॥ गभीरः (=महान् ) गभीरमिममध्वरं कृधीति । अध्वरो वै यज्ञो
महान्तमिमं यज्ञं कृधीत्येवैतदाह । श०३।६।४।५॥
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[गर्भः
गयः स यदाह गयो ऽसीति सोमं वा एतदाहैष ह वै चन्द्रमा भूत्वा
सवाल्लोकान्गच्छति तद्यद्गच्छति तस्माद्यस्सद्यस्य गयत्वम् ।
गो० पू० ५। १४ ॥ , प्राणा वै गया। श०१४। ८।१५। ७॥ गयरफान: प्रतरण: ( ऋ० १।६१ । १६) गयस्फानः प्रतरणः सुधीर
इति गवां नः स्फावयिता प्रतारयितैधीत्याह । ऐ०१॥
गतः पितृदेवत्यो वै गतः । श०५।२।१।७॥
, पुरुषो गर्तः । श०५।४।१।१५ ॥ गर्दभः तस्मात्स (गर्दभः) द्विरेता घाजी । ऐ०४।३॥ , अथ यदासाः पासव (1) पर्यशिष्यन्त । ततो गर्दभः सम
भवत्तस्माद्यत्र पामुलं भवति गर्दभस्थानमिव वतेत्याहुः ।
२०४।५।१।६॥ गर्भः एष वै गर्भो देवानां (यजु० ३७ । १४॥) य एष (सूर्यः) तपत्येष
हीदछ सर्व गृह्णात्येतेनेदर्थ सर्व गृभीतम् । श० १४।१॥४२॥ ,, (यजु०२३ । १६) प्रजा व पशवो गर्भः। श०१३।२।८1५॥
तै० ३।६।६।४॥ बस्मात्पराञ्चो गर्भाः सम्भवन्ति प्रत्यश्वःप्रजायन्ते । तां०१५ ।
५।१६॥ , वायव्या गर्भाः। तै०३।१।१७।५॥
पुरुष उ गर्भः । जै० उ० ३।३६ ॥ ३॥ इन्द्रियं वै गर्भः। ते १। - ।३।३॥ विषुरूपा इव हि गर्भाः । श०४।५।२ । १२ ।।
न्यकाकुलय इव हि गर्भाः । श०३।२।१।६॥ ,, उत्तानेव वै योनिर्गमें विभर्ति । श०३।२।१।२६॥ , प्रावृता वै गर्भाः उल्धेनेव जरायुणे । श० ३।२।१।१६ ॥ , यश वै गर्भः समृद्धो भवति प्रजनेन वै स तर्हि प्रत्यकृति।
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(१४५)
गायत्रम् श०४।५।२।३॥ गर्भः यदा वै गर्भः समृदो भवत्यथ दशमास्यः । श०४।५।२।४॥ , षण्मास्या वा अन्तमा गर्भा जाता जीवन्ति । श० ।५।
, गर्भः समित् । श०६।६।२। १५ ॥ , संवत्सरो धाव गर्भाः पञ्चविएशः ( यजु०१४ । २३) तस्य
चतुर्विशतिरर्धमासाः संवत्सर एव गर्भाः पञ्चविशस्तधत्तमाह गर्भा इति संवत्सरोह त्रयोदशो मासो गर्भो भूत्व
तिन्प्रविशति । श०८।४।१ । १६ ॥ गवाशी: गवाशोजगती। तां० १२।१।२॥ गवंधुकाः यज्ञस्य शीर्षच्छिन्नस्य रसो व्यक्षरत्तत एता ओषधयो
( गवेधुकाः ) जक्षिरे । श०१४ । १ ।२।१६ ॥ , यत्र वै सा देवता ( रुद्रः ) विसस्ताशयत्ततो गवेधुकाः
समभवन्त्स्वे नैवैनम् (रुद्रम्) एतद्भागेन स्वेन रसेन श्रीणाति
(यजमानः)। श०६।१।१।८॥ , रौद्रो गावेधुकश्वरः । श०५।२।४।११, १३ ॥ मातुः गातुं वित्त्वेति यज्ञं वित्त्वेत्येवैतदाह । श० १।६।२।२८॥
४।४।४।१३॥ गातुविदः गातुषिदो हि देवाः । श०४।४।४ । १३॥ गाथा यबह्मणः शमलमासीत् सा गाथा नाराशस्यभवत् । तै०१॥
३॥२॥६॥ , ओमित्युचः प्रतिगर एवं तथेति गाथाया प्रोमिति वै दैवं तथेति
मानुषम् । ऐ०७॥ १८ ॥ गानम् तस्मादु गायतां ना ऽश्नीयात् । मलेन होते जीवन्ति । जै० उ०
१।५७ । १ ॥ गायत्रपार्वम् (साम) महर्वा एतदलीयत तद्देवा गायत्रपान सम
तन्वस्तस्मादायत्रपार्श्वम् । तां० १४।६।
२६॥ गायत्रम् (सगम) तमेतदेव ( गायत्रं) साम गायनत्रायत । यद्रायन्नत्रायत
तद्वायत्रस्य गायत्रत्वम् । जै० उ० ३ । ३।४॥
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[ गायत्री
( १४६ )
गायत्रम् (साम) तस्य ( महाव्रतस्य ) गायत्र शिरः । तां० १६ ।
११ । ११ ॥
इमे वै लोका गायत्रम् ( साम ) । तां० ७ । १ । १ ॥ गायत्री (छन्दः ) सा हैषा (गायत्री) गयांस्तत्रे । प्राणा वै गयास्तत्प्राणां
स्तत्रे तद्यद्रयांस्तत्रे तस्माद्गायत्री नाम । श० १४ । ८ । १५ ।७ ॥
गायत्री गायतेः स्तुतिकर्म्मणः । दे० ३ । २ ॥ गायतो मुखादुदपतदिति ह ब्राह्मणम् । दे० ३ | ३॥ सेय सर्वा कृत्स्ना मन्यमानागायद्यद्मायत्तस्मादियं (पृथिवी ) गायत्री । श० ६ । १ । १ । १५ ॥ या वैसा गायत्र्यासीदियं वै सा पृथिवी । श० १ । ४ । १ । ३४ ॥
इयमेव (पृथिवी) गायत्री । जै० उ०१ । ६५ । ३॥ इयं (पृथिवी ) वै गायत्री । तां० ७ । ३ । ११ ॥ १४ । १ । ४ ॥
सा वै गायत्रीयं (पृथिवी) । श० १ । ७ । २ । १५ ॥ atest ars इयं ( पृथिवी ) । श० ४ । ३ । ४ । ६ ॥ ५।२।३।५
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पृथिव्यां विष्णुर्व्यक्रर्थस्त । गायत्रेण छन्दसा ततो निर्भको यो ऽस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः । श० १ । है । ३ । १० ।।
गायत्रो ऽयं (भू-) लोकः । कौ० ८६ ॥ अयमेव (भूलोकः) गायत्री । तां० ७ । ३ । ६ ॥ गायत्रे ऽस्मिँल्लोके गायत्रो ऽयमग्निरध्यूढः । कौ०
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१४ ॥ ३ ॥
प्राणो गायत्री प्रजननम् । तां० १६ । १४ । ५ ॥ १६ ॥ १६ । ७ ।। १९ । ५ । ६ ।। ६६ । ७ ॥ ७ ॥
प्राणो गायत्रं (साम) । तां० ७ ११ । ६ ॥ ७ । ३७ ॥ तत्प्राणो वै गायत्रम् । जै० १० उ० १ । ३७ ॥ ७ ॥
प्राणो वै गायत्र्यः । कौ० १५ ॥ २ ॥
१६ ॥ ३ ॥ १७२ ॥
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( १४७ )
गायत्री ]
गायत्री (छन्दः) प्राणो वै गायत्री । श० ६ । ४ । २ । ५ ॥ ष०३ | ७ ॥ प्राणो गायत्री । श० ६ । २ । १ । २४ ॥ ६।६।२। ७ ।। १० । ३ । १ । १ ॥ तां० ७ । ३ । ८ ॥ १६ ॥ ३६॥
यो वै स प्राण एषा सा गायत्री । श० ७ । ५ । १ । २१ ॥
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गायत्री वै प्रासः । श० १ । ३ । ५ । १५ ॥
गायत्र उ वै प्राणः । कौ० ८ | ५ ॥ तै० ३ । ३ । ५।३
गायत्रः प्राणः । तां० २० | १६ | ५ ॥
अग्निर्षे गायत्री । श० ३ | ४ | १ | १६ ॥ ३।६।
४ । १० । ६ । ६।२।७ ॥
गायत्री वाऽ श्रग्निः । श० १ । ६ । २ । १३ ॥ गायत्रो वा श्रभिः । कौ० १ । १ । ३ । २ ॥६१२॥ १६ ॥ ४ ॥ तै० १ । १ । ५ । ३ ॥
अग्निर्गापत्रः । श० १६ । १ । १ । १५ ॥ गायत्रछन्दा ह्यग्निः । तां० ७ । ८ । ४ ॥ गायत्रमग्नेश्छन्दः । कौ० १० | ५ || १४ | २ || २८।५ ॥ गायत्रं वाऽ अग्नेश्छन्दः । श० १ । ३ । ५।४ ॥ गायत्र छन्दा श्रग्निः । तां० १६ । ५ । १६ ॥
यो वा त्राग्नर्गायत्री स निदानेन । श० १ । ८ । २ । १५ ॥
गायत्रो वै ब्राह्मणः । ऐ० १ । २८ ॥
गायत्रनृन्दा वै ब्राह्मणः । तै० १ । १ । ६ । ६ ॥ ब्रह्म हि गायत्री । तां० ११ । ११ ॥ ६ ॥
ब्रह्म उ गायत्री । जै० उ० १ । १ । ८ ॥ 1
ब्रह्म वै गायत्री । ऐ०४ । ११ ॥ कौ० ३ । ५ ॥
1
ब्रह्म गायत्री । श० १ । ३ । ५ । ४ ॥
ब्रह्म गायत्री क्षत्रं त्रिष्टुप् । श० १ । ३ । ५ । ५ ॥ गायत्री ब्रह्मवर्चसम् तै० ५।१।९॥
२ । ७ । ३ । ३ | तां०
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[गायत्री
( १४८ ) गायत्री (छन्दः) तेजो वै ब्रह्मवर्चसं गायत्री। ऐ०१।५, २८ ॥ गो.
उ०५॥५॥ तेजो ब्रह्मवर्चसं गायत्री । कौ० १७।२, ६॥ तां० १५।१८॥ तेजो वै गायत्री छन्दसाम् । तांक १५ । १०।६॥ तेजो वै गायत्री । गो००५॥३॥ तै०३।६।
तेजसा वै गायत्री प्रथम विरात्रं वाधार पदैद्वितीयमक्षरैस्तृतीयम् । तां० १०।५।३॥ ज्योतिर्वं गायत्री छन्दसाम् । तां० १३ । ७।२॥ ज्योतिर्वै गायत्री । कौ० १७॥६॥ दविद्युतती वै गायत्री। तां० १२।१।२॥ गायत्र्येव भर्गः। गो० पू०५। १५ ॥ एते वाव छन्दसां वीर्यवत्तमे यदायत्री च त्रिष्टुप या तां० २० । १६ । - ॥ घीयं वै गायत्री । तां०७।३।१३॥ वीर्य गायत्री श०१।३।५।४॥१।४।१।१७॥ यातयामान्यन्यानि छन्दास्ययातयामा गायत्री। तां०१३ । १०॥१॥ शिरो गायत्री। ष०२॥३॥ शिरो गायत्र्यः। श• ।६।२।३॥ गायत्रहि शिरः । श०।६।२।६॥ गायत्री छन्दो ऽग्निर्देवता शिरः। श० १० । ३ । २।१॥ मुखमेव गायत्री । कौ० ११ । २॥ मुखं गायत्री । तां. ७।३।७ ॥ १४।५।२८॥ १६ । ११ । ४॥ गायत्री छन्दसां (मुखम् )। तां०६।१।६॥ अग्निर्ह वाष राजन गायत्रीमुखम् । जै० उ० ४। F२॥
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(१४६)
गायत्री] गायत्री (छन्दः) यस्माद्वायत्रमुखः प्रथमः (त्रिरात्रः) तस्माद्वों
ऽग्निर्दीदाय । तां० १०॥ ५ ॥२॥ त्रिपदा गायत्री । तां० १०॥ ५॥४॥ ता वा एता गायत्र्यो यत्रिपदाः। ता० १६ । ११ ।
त्रिवृ? गायत्र्यास्तेजः। तां० १०॥५॥४॥ मष्टाक्षरा गायत्रो। ऐ०२।१७ ॥ ३ ॥१२॥ कौ० ४।२१६।४॥ तै० १।१।५।३॥ तां०६। ३।१३ ॥ जै० उ०१।१।८॥ गो० पू०४।२४॥ गो० उ०३।१०॥ अष्टाक्षरावै गायत्री। श०१।४।१।३६ ॥ नषादरा वै गायत्र्यष्टौ तानि यान्यन्वाह प्रणवो नवमः । श०३।४।१ । १५ ॥ चतुर्विशत्यतरा वें गायत्री । ऐ०३।३६॥ श० ३।५।१।१०॥ चतुर्षिशत्यक्षरा गायत्री कौ० १२॥ ३ ॥जै० उ० १।१७॥२॥ गायत्री वै प्राची दिक् । श०८।३।१।१२ ॥ प्राचीमारोह गायत्री त्वावतु रथन्तर साम त्रिवृ. स्तोमो वसन्त ऋतुर्ब्रह्म द्रविणम् । श० ५।४। १॥३॥ वसवस्त्वा पुरस्तादभिषिश्चन्तु गायत्रेण छन्दसा। तै०२।७।१५। ५॥ बसवरत्वा गायत्रेण छन्दसा संमृजन्तु । त० १। २॥७॥ घसवो गायत्री समभरन् । जै० उ०१।१८॥४॥ गायत्री वसूनां पत्नी । गो० उ०२॥६॥ गायत्रं साम । जै० उ०१।१।८॥ गायत्रं वै रथन्तरम् । ०५।१।१५॥ गायत्रं वै रथन्तरंगायत्रछन्दः। तां० १५॥ १०॥६॥
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[गायत्री
( १५०) गायत्री (छन्दः) गायत्री वै रथन्तरस्य योनिः। तां० १५ । १०। ५॥
या हि का च गायत्री सा रेवती। तां० १६।५।२७॥ गायत्री वै रेवती। तां०१६ । ५।१६ ॥ गायत्रः सप्तदशस्तोमः । तां०५।१।१५॥ गायत्रीमात्रो वै स्तोमः । कौ० १६ । गायत्रो मैत्रावरुणः । तां०५।१।१५ ॥ पूर्वाधों व यज्ञस्य गायत्री श०३।५।१।१०॥ ३।६।४।२०॥ यज्ञो वै गायत्री। श०४।२।४।२० ॥ गायत्रो यशः । गो० पू० ४ । २४॥ गायत्रं वै प्रातःसवनम् । ऐ०६। २,8॥ष०१। ४॥ तां०६।३।११॥ गायत्रम्प्रातस्सवनम् । जै० उ०४।२।२॥ गायत्रं हि प्रातःसवनम् । गो० उ०३।१६ ॥ गायत्रो वै पुरुषः। ऐ०४॥३॥ गायत्राः पशवः । तै०३।२।१।१॥ एतद्धि ( गायत्री-) छन्दः आशिष्ठम् । श० -। २३18॥ इमे वे लोका गायत्री। तां०१५। १०।। गायत्र्या वै देवा इमान् लोकान् व्याप्नुवन् ।तां०१६।
एषा वै गायत्री पक्षिणी चष्मती ज्योतिष्मती भास्वती यद द्वादशाहस्तस्य याषभितो ऽतिरात्री तौ पक्षी यावन्तराग्निष्टोमौते चक्षुषी येऽष्टौ मध्य उक्थ्याः स आत्मा। ऐ०४।२३ ॥ तकै कनिष्ठं छन्दः सद् गायत्रती प्रथमा छन्दसा युज्यते तदु तद्वीर्येणैव यच्छयेनो भूत्वा दिवः सोममाहरत् । श०१।।२।१०॥ यद्वायत्री श्वेनो भूत्वा दिवः सोममाहरसेन सा श्येनः । श०३।४।१।१२ ॥
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( १५१ ) गार्हपत्यः] गायत्री (छन्दः ) तृतीयस्यामितो दिवि सोम आसीत् । तं गायत्र्या
हरत् । तै० १।१।३।१०॥३।२।१।१॥ सा गायत्री समिद्धान्यानि छन्दासि समिन्धे । श०१।३।४।६॥ गायत्री वाव सर्वाणि छन्दासि । तां ॥४॥४॥ सा गायत्री गाथया ऽपुनोता। जै०उ०१ । ५७॥१॥ या धौः सा ऽनुमतिः सो एव गायत्री। ऐ०३।४॥
गायत्र्यावै देवाः पाप्मानं शमलमपानत। ऐ०२।१७ ॥ गारम् (साम) इदं वसो सुतमन्ध इति गारमेतेन वै गर इन्द्रमप्रीणा
त्प्रीत एवास्यैतेनेन्द्रो भवति । तां०६।२।१६ ॥ गाईपत्यः (अग्निः) ऋग्वेदागर्हपत्यः (अजायत)।०४।१॥
गृहा वै गार्हपत्यः । श०१।१।१।१६।१।। ३।१८॥२।४।१।७॥४।६।४।२॥ जाया गार्हपत्यः। ऐ०८।२४॥ प्रजापति गार्हपत्यः। कौ० २७।४॥ अथैष एव गार्हपत्यो यमो राजा । श०२।३। २॥२॥ अन्नं वै गार्हपत्यः । श०।६।३।५॥ कर्मेति गार्हपत्यः । जै० उ० ४ । २६ ॥ १५ ॥ भयं वै (भू-लोको गार्हपत्यः। श०७।१।१। ६॥८।६।३।१४॥ष०१।५॥ यद्रार्हपत्यं (उपतिष्ठते) पृथिवीं तद् ( उपतिष्ठते)। श०२।३।४।३६ ॥ प्राणोदानावेवाहनोयश्च गार्हपत्यश्च । श. २।२। २॥१०॥ अपणो वै गाईपत्यः। कौ०२॥१॥ यजमानदेवत्यो वै गार्हपत्यः । श०२।३।२।६॥ पदार्हपत्यं ( उपतिष्ठते) पुरुषांस्तवाचते । श०२। ३।४।३२॥ य इहाहीयत स गार्हपत्यः। श०१।७।३।२२॥ गार्हपत्यो या अग्नेयोनिः । तै०१।४।७।४॥
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[गृहपतिः
(१५२ ) गार्हपत्या चितिः योनि गार्हपत्या चितिः। श०७।१।१।८॥८।
६।३। । गिरश्छन्दः (यजु० १५। ५) अन्नं वै गिरश्छन्दः। श०८।५।२।५॥ गिरिः तस्य (वृत्रस्य ) एतच्छरीरं यद्रियो यदश्मानः । श० ३।४।
३॥ १३ ॥३।३।४।२॥४।२।५।१५ ॥ गिर्वा इन्द्रो वै गिर्वा । श०३।६।१ । २४ ॥ गीः (यजु० १२ । ६८) वाग्वै गीः। श०७।२।२।५॥ ,, विशो गिरः। श० ३।६।१ । २४॥ गुग्गुलु तस्य (अग्नेः) यन्मार्थसमासीत्तद गुग्गुरुवभवत् । तां०
२४॥ १३ ॥ ५॥ ("गुल्गुलु" शब्दमपि पश्यत) गुदः प्राणो वै गुदः । श०३।८।४।३॥ गुग्गुलु मास हैवास्य (अग्नेः) गुल्गुलु । श० ३।५।२।१६॥
("गुग्गुलु" शब्दमपि पश्यत) गर्दः (सामविशेषः) गौपायनानां वै सत्रमासीनानां किरातकुल्यावसुर
माये अन्तःपरिध्यसून प्राकिरतान्ते ऽग्ने त्वन्नो अन्तम इत्यग्निमुपासीदछस्तेनासूनस्पृण्वस्तद्वाव ते तबकामयंत कामसनि साम गूईः काम
मेवैतेनावरुन्धे । तां०१३।१२।५॥ गृभीत: (यजु० १७ ॥ ५४) गृभीत इति धारित इत्येतत्। श०६।२।
३६॥ गृहपतिः असावेव गृहपतिर्यो ऽसौ (सूर्यः) तपत्येष (सूर्यः) हि
गृहाणां पतिस्तस्यर्तव एव गृहाः। कौ० २७ ॥ ५ ॥ , असौ वै गृहपतिर्यो ऽसौ (सूर्यः) तपत्येष (सूर्यः) पतिर्भ
तो गृहाः। ऐ० ५। २५॥ अयं वै (पृथिवी-)लोको गृहपतिः। श०१२। १।१।१॥ गो०पू०४।१॥ अथ यदग्निं गृहपतिमन्ततो यजति । कौ० ३॥8॥ अग्निहपतिरिति हैक बाहुः सोऽस्य लोकस्य (पृथिव्याः)
गृहपतिः । ऐ०५।२५॥ , तप आसीद् गृहपतिः। तै० ३ । १२ । ६।३॥
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( १५३ )
गोपाः ]
गृहपतिः वायुर्गृहपतिरिति हैक श्राहुः सोऽन्तरिक्षस्य लोकस्य गृहपतिः । ऐ० ५ | २५ ॥
गृहमेधीयः पुष्टिक वा एतद्यद् गृहमेधीयः । कौ० ५ ॥ ५ ॥ पुष्टिकर्म्म वै गृहमेधीयः । गो० उ० । १ । २३ ॥ गृहाः गृहा वै प्रतिष्ठा । श० १ । १ । १ । १९ ॥। ४ । १ । ७ ॥
""
" गृहा वै प्रतिष्ठा सूक्तम् । ऐ० ३ । २४ ॥
गृह वै सूक्तम् । गो० उ० ३ | २१; २२ ॥
""
ॐ गृहाः सूक्तम् । ऐ० ३ । २३ ॥
" गृहा वै दुर्याः । ऐ० १ | १३ || श० १ । १ । २ । २२ ।। ३ । ३ ।
४ । ३० ॥
ऋतवो गृहाः । ऐ० ५ । २५ ॥
"
गोऽयुषी ( स्तोमो ) अथ यङ्गोऽआयुषी उपयन्ति । मित्रावरुणावेव
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१ । ९ । ३ । १६ ॥ २ ॥
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गोजाः एष (सूर्य्यः) वै गोजाः । ऐ० ४ । २० ॥
गोधूमाः यत्पक्ष्मभ्यः ( तेजो ऽस्रवत् ) ते गांधूमाः ( अभवन् ) । श०
१२ । ७ । १ । २ ॥
सो ऽयं ( पुरुष ) अवगते वै पुरुषस्यौंधपीनां नेदिष्ठतमां गोधूमास्तेषां न त्वगस्ति । श०५ | २ | १|६॥
गोपा: (यजु० ३७ | १७) एष वै गोपा य एष ( सूर्यः ) तपत्येष द सर्व गोपायति । श० १४ । १ । ४ । ६ ॥ प्राणो ये गोपाः । स हीदं सर्वमनिपद्यमानो गोपायति । जै० उ० ३ | ३७ ॥ २ ॥ (०१ । ८९ । १ ॥ ) इन्द्रो वै गोपाः । fo ६ । १० ॥ गो० उ० २ । २० ॥
देवते यजन्ते । श० १२ । १ । ३ । १६ ।। प्राणापानौ वे गोआयुषी । कौ० २६ । २ ॥ द्यावापृथिवी वै गोआयुषी । कौ० २६ । २ ॥ अहोरात्रे वै मोआयुषी । कौ० २६ । २ ॥
यदेवेदं द्वितीयमहर्यश्व तृतीयमेते वा उ गोआयुषी । कौ० २६ । २ ॥
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[गौः
(१५४) गोपाः (ऋ५२।६ । २) अग्निर्वे देवानां गोपाः(= गोप्ता)। ऐ०१ ॥ २८॥ गोमृगः पशवो वै गोमृगः । तै०३।६।११।३॥ गोटोमातिरात्रः (क्रतुः) गवा ( गोष्टोमातिरात्रेण) वै देवा असुरानेभ्यो
लोकेभ्योनुदन्त । तां०२०। ७।१॥ गोसवः (क्रतुः) अथैष गोसवः स्वाराज्यो यज्ञः ! तां० १६।१३।१॥ गौः इमे वै लोका गौर्यद्धि किं च गच्छतीमांस्तल्लोकान् गच्छति ।
६।१।२।३४॥ , इमे लोका गौः। श०६।५।२।१७॥ , अयम्मध्यमो (लोकः अन्तरिक्षम्) गौः । ता० ४॥ १७ ॥ ,, अन्तरिक्षं गौः। ऐ०४।१५॥ " गावो वा आदित्याः। ऐ०४।१७ ॥ , अन्नमु गौः। श०७।५।२।१९ ॥ , अन्नं वै गौः। ते० ३१९ । ८।३॥ ,, अन्नहि गौः। श०४।३।४।२५॥ जै० उ०३।३।१३॥ , यशो ोवेयं ( गौः) नो छुते गोर्यज्ञस्तायते इन ह्येवेयं (गौः)
यदि किं चानं गौरव तदिति । श०२।२।४।१३॥ , यज्ञो वै गौः। ते० ३।९।८।॥ ,, (प्रजापतिः)प्राणानाम् (निरमिमीत)। श०७।५।२।६॥ ,, प्राणी हि गौः। श०४।३।४।२५॥ , इन्दियं वै वीर्य गावः । श०५।४।३।१०॥ , मुखादेवास्य बलमत्रवत् । स गौः पशुरभवषभः । श० १२।
७॥१॥४॥ , इडे रन्ते हव्ये काम्ये चन्द्रे ज्योते ऽदिति सरस्वति महि विश्रुति ।
एता तेऽन्ये (देवत्रा) नामानि । श०४।५।८।१०॥ , इडा हि गौः । ।०२।३।४।३४ ॥१४।२।११७॥ , सरस्वती (यजु०३८॥ २) हि गौः । श० १४।२।१।७॥ , मह्य इति हवाऽ एतासामेक नाम यद्वाम् । श०१।२।१।
२२॥३।१।३।६॥ " या गोः सा सिनीवाली सो एव जगती। ऐ०३।४८ ॥ " विराड् (यजु०१३ ४३) वै गौः । श० ७।५।२।१६॥
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(१५५) गौः विराजो वा एतद्रपं यद्गौः। तां०४।६।३॥ , गौर्वे सार्पराज्ञी । कौ० २७॥ ४ ॥ ,, साहस्रो वाऽ एष शतधार उत्सः (यजु०१३ । ४९) यगौः । श०
७।५।२।३४॥ , स हैष सोमो ऽजस्रो ( यजु०१३ । ४३) यद्गौः। श०७।५।
२।१९॥ , गौर्वे नचः । तै० ३ । ३।५ ॥४॥ ,, गौहिं देवानां मनोता । ऐ०२।१० ॥ ,, गौर्व देवानां मनोता। कौ०१०।६॥ , वैश्वदेवी वै गौः । गो० उ० ३ । १६ ॥ ,, माता रुद्राणां दुहिता वसूना, स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट । म०२।
८।१५ ॥ , यदौस्तेन रौद्री । श०५।२।४।१३॥ ,, रौद्री गोः। तै०२।२।५।२॥ ,, आग्नेयो वै गौः । श०७।५।२।१६॥ , गौर्वाऽ इदछ सर्व विभर्ति । श०३।१।२:१४॥ महांस्त्वेव गोहिमेत्यध्वर्युः (आह) ॥ गोर्वे प्रतिधुक् । तस्यै शृतं तस्यै शरस्तस्यै दधि तस्यै मस्तु तस्याऽ पातञ्चनं तस्यै नवनीतं तस्यै घृतं तस्याऽ आमिक्षा तस्यै घाजिनम् । श०३ । ३
३॥२॥ , मनुष्याणा घेतासु (गोषु क्षीरदध्यादिविषयाः) कामाः
प्रविष्टाः । श०२।३।४। ३४॥ ,, सर्वस्य वै गावः प्रेमाणं सर्वस्य चारुतां गताः । ऐ०४।१७॥ , अपशवो वा एते । यदजावयश्चारण्याश्च । एते वै सर्वे
पशवः । यद्व्या इति । तै०३।६।६।२॥ ,, नेते सर्वे पशवो यदजावयश्चारण्याश्चैते वै सर्वे पशवो यदव्या
इति । श. १३।३।२॥३॥ ,, तस्मादादुर्गाव: पुरुषस्थ रूपमिति । श० १२।६।१।४॥
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[ गौरीवितम्
( १५६) गौः नो हान्ते गार्नग्नः स्यात् । वेद ह गौरहमस्य त्वचं बिभर्मीति सा
विभ्यती त्रसति त्वचं मऽ प्रादास्यतऽ इति तस्मादु गावः सु. वाससमुपैव निश्रयन्ते । श०३।१।२।१७॥ सा या बभूः पिङ्गाक्षी ( गौः ) । सा सोमक्रयण्यथ या रोहिणी सा वानी यामिद राजा संग्राम जित्वोदाकुरुते ऽथ या रोहिणी श्येताक्षी सा पितृदेवत्या यामिदं पितृभ्यो प्रन्ति । श०
३।३।१।१४॥ , षट्त्रिंशदवदाना गौः । गो० पू० ३११८॥४॥१२॥ , तस्मादु संवत्सरऽ एव स्त्री वा गौर्षा वडवा वा पिजायते । श.
११।१।६।२॥ ,, आग्रयणपात्रमुक्थ्यपात्रमादित्यपात्रमेतान्येषानु गावः प्रजा
यन्ते । श० ४।५।५। । , गां चाजं च दक्षिणत एतस्यां तहिश्येतौ पशू दधाति तस्मादे.
तस्यां दिश्येतौ पशू भूयिष्ठौ । श०७।५।२।१६ ॥ (धेनुशन्द
मपि पश्यत) गौः (एकाहः) यद्वै तदेवा असुरानेभ्यो लोकेभ्यो गोषय ( गुप्तां.
स्तिरोहितान् कुर्वनिति सायणः)स्तगोर्गोत्वम् । तां० १६।२।३॥ गवा वै देवा असुरानेभ्यो लोकेभ्यो ऽनुदन्तैभ्यो लोकेभ्यो
भ्रातृव्यन्नुदते य एवं वेद । तां०१६।२।२॥ गौवम् ( साम ) अग्निरकामयतान्नादः स्यामिति स तपोऽतप्यत
स एतद्गौशवमपश्यत्तेनानादो ऽभवद्यदन्नं वित्वा (वित्त्वा) गई पदगङ्गयत्तगौङ्गवस्य गौङ्गयत्वम् । ता० १४।३।१६॥
अन्नाद्यस्यावरुध्यै गौङ्गवं क्रियते । तां०१४।३।१६॥ गौतमम् (साम) स्वर्गाल्लोकान च्यवते (गौतमेन साना) तुष्टुवानः।
तां० ११ । ५॥ २२॥ गौरीवितम् (साम) गौरीवितिः (ऋषिविशेषः) वा एतच्छाक्तयो ब्रह्मणो
ऽतिरिक्तमपश्यत्तद् गौरीवितमभवत् । तां० ११।५। १४॥ १२ । १३ । १०॥
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( १५७)
ग्रहः ] गौरीवितम् (साम) अतिरिक्तं गौरीवितम् । ता० १८।६।१६॥
अतिरिक्तं वै गौरिवीतम् । तै० ११४।५।२॥ देवा वै वाचं व्यभजन्त तस्याः (घाचः) यो रसोऽत्यरिच्यत तगौरीवितमभवत् । तां ५।७।१॥ ब्रह्म यद्देदाव्यकुवत ततो यदतिरिच्यत तद्गौरीवितमभवत् । तां०६।२३॥ प्रव इन्द्राय मादनमिति गौरीवितम् । तां० ६॥ २॥२॥ वृषा वा एतद्वाजिसाम ( गौरीवितम् )। वृषभो रेतोधा अध स्तुवन्ति श्वः प्रजायते । तां०११॥५॥ १६॥ एतद्वै यज्ञस्य श्वस्तनं यद्गौरीवितम् । तां०५७।५॥ १५।४।७॥
तेजो वै ब्रह्मवर्चसं गौरीवीतम् । ऐ० ४॥२॥ गौषूक्तम् (साम ) गौषक्तिश्चाश्वसूक्तिश्च बहु प्रतिगृह्य गरगिरावमन्येतां
ताप्ते सामनी अपश्यतां ताभ्यां गरभिरघ्नाताम् ।
तां०१६।४।१०॥ ग्नाः छन्दा७सि वै ग्नाश्छन्दोभिर्हि स्वर्ग लोकं गच्छन्ति । श०६।
५।४।७॥ प्रन्थिः वरुण्यो वै प्रन्थिः । श०१।३।१।१६ ॥
, घरुण्यो हि प्रन्थिः । श०५।२।५।१७॥ गृहः यद् गृह्णाति तस्माद्रहः । श०१०।१।१।५॥ ,, अथ ग्रहाम्गृह्णाति । श०४।५।६।३॥ , तं (सोम) अनन् । तस्य यशो व्यगृह्णत । ते ग्रहा अभवन् । त
हाणां प्रहत्वम् । तै० २।२।।६॥ , तवदेनं पायंगृह्णत तस्माद्रहा नाम । श०४।१।३॥५॥ ,, (प्रजापतिः) तौ ( दर्शपूर्णमासौ) प्रहेणागृह्णात् । तदहस्य प्रह
स्वम् । तै० २।२।२।१॥ , यद्वित्तं (यज्ञ) ग्रहैय॑गृह्णत तद्हाणां ग्रहत्वम् । ऐ० ३।६॥ , सान् पुरस्तात् पवित्रस्य व्यगृह्णात् ते पहा प्रभवन् । तबहाणा
प्रहत्वम् । तै०१।४।१।१॥
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[प्रावाणः
(१५८) गह: ते (देवाः) सोममन्वविन्दन् । तमनन् । तस्य यथाभिज्ञायं त
नूर्व्यगृह्णत । ते ग्रहा अभवन् । तनहानां ग्रहत्वम् । तै० १॥३॥१॥२॥ ,, एष वै ग्रहः । य एष (सूर्यः) तपति येनेमाः सर्वाः प्रजा गृही.
ताः।श०४।६।५।१॥ अष्टौ ग्रहाः (प्राणः, जिह्वा, वाक्, चतुः, श्रोत्रम्, मनः, हस्तौ,
त्वक् )। श०१४।६।२।१॥ ,, प्राणा वै ग्रहाः । श०४।२।४।१३ ॥ ४।५।६।३॥ , अन्नमेव ग्रहः। अन्नेन हीद सवं गृहीतम् । श०४॥ ६ ॥४॥ ,, नामैव ग्रहः। नाम्ना हीद सर्व गृहीतम् । श०४ ६।५।३॥ , वागेव ग्रहः । वाचाहीद सर्व गृहोतम् । श०४।६।५।२॥ ,, अङ्गानि वै ग्रहाः । श०४।५ ।११ ॥ , साम ग्रहः । श० ४।२।३१७॥ प्रामणी: वैश्यो वै ग्रामणीः । श० ५।३।१।६॥ प्रावस्तोत्रीया मनो वै प्रावस्तोत्रीया । ऐ०६।२॥ प्रावाण: ( यजु०३८ । १५) प्राणाचे प्रावाणः। श०१४ ॥२॥२॥३३॥
वज्रो वै ग्रावा । श० ११ । ५।६।७॥ पशवो वै ग्रावाणः । तां०६।६।१३॥ विडै ग्रावानः । तां०६ । ६।१॥ विशो ग्रावाणः। श०३।६।३।३॥ जागता वै प्रावाणः । कौ० २६ । १॥ बाहता ग्रावाणः । श०१२।।२॥१४॥ मारुता (=मरुद्देवत्याः)वै प्रावाणः तां०६।।१४॥ विद्वासो हि ग्रावाणः । श०३।६। ३।१४॥ यदि ग्रावापिशोर्यते पशुभिर्यजमानो व्य. ध्यते । तां०६।६।१३॥ यं द्विष्याद्विमुखान् ग्रान्नः कृत्वेदमहममुष्यायणममुष्याः पुत्रममुष्या विशो ऽमुष्मादन्नाधानिकहामीति निकहेविश
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श्रीवा: ग्रीवा उष्णिहः । श० ८ । ६ । २ । ११ ॥
, उष्णिक् छन्दः सविता देवता श्रीवाः । श० १० । ३ । २ । २ ॥
( यशस्य ) श्रीवा उपसदः । ऐ० १ । २५ ॥
ग्रीवा वै यज्ञस्योपसदः । श० ३ | ४ | ४ | १॥
श्रीषाः पञ्चदशः । चतुर्दश वा एतासां करुकराणि वीय्यं पञ्चदशं तस्मादेताभिररावीभिः सतीभिर्गुरुं भारं हरति । श० १२ । २ । ४ । १० ॥
प्रीयाः पञ्चदशश्चतुर्दश ह्येवैतस्यां करूकराणि भवन्ति वीर्यं पञ्चदशम् । तस्मादाभिररावीभिः सतीभिर्गुरु भारं हरति । गो० पू० ५ । ३ ॥
ग्रीष्मः (ऋतुः) एतौ ( शुक्रश्च शुचिश्च ) एव प्रैष्मी ( मासौ ) ल यदेतयोर्बलिष्ठं तपति तेनो हैतौ शुक्रश्च शुचिश्च । श०
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( १५६ )
ग्रीष्मः ]
एवैनमन्नाद्यन्निरूहति । तां० ६ | ६ | २ ॥
४ । ३ । १ । १५ ॥
तस्य ( वायोः ) रथस्वनश्च रथेचित्रश्च ( यजु० १५ । १५ ) सेनानीग्रामण्याविति श्रेष्मौ तावृतू । श० ८ । ६ । १ । १७ ॥
I
अनिरुक्त ऋतूनां ग्रीष्मः | जै० उ० १ । ३५ । ३ ॥ यत्स्तनयति तद् ग्रीष्मस्य ( रूपम् ) । श० २२|३|८|| ग्रीष्म एव महः । गो० पू० ५ । १५ ॥
ग्रीष्मेण देवा ऋतुना रुद्राः पञ्चदशे यशसा बलम् । हविरिन्द्रे वयो दधुः
१६ । १ ॥
तस्मात्क्षत्रियो ग्रीष्मः श्रदधीत क्षत्रं हि ग्रीष्मः ।
स्तुतम् | बृहता
। तै० २ । ६ ।
श० २ । १ । ३ । ५ ॥
ग्रीष्मो वै राजन्यस्यर्तुः । तै० १ । १ । २ । ७ ॥
( राजन्यस्य ) ग्रीष्म ऋतुः । तां० ६ । ११६ ॥
ग्रीष्मः ( संवत्सरस्य ) दक्षिणः पक्षः । तै० ३ । ११ ।
१० ॥३॥
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[धृतम् भीष्मः
( १६०) ग्रीष्मो ऽध्वर्युस्तप्त इष वै ग्रीष्मस्तप्तमिवाध्वर्युनिष्कामति । श०११ । २।७॥ ३२॥ तनुनपातं यजति ग्रीष्ममेव, ग्रीष्मो हि तन्वं तपति। कौ०३।४॥ ग्रीष्मो वै तनूनपाद ग्रीष्मो ह्यासां प्राजानां तनूस्तपति। श०१।५।३।१०॥ षड्रैिन्द्रैः ( पशुभिः ) ग्रीष्मे ( यजते )। श० १३ । ५। ४।२८॥ (प्रजापतिः) ग्रीष्मम्प्रस्तावं (अकारोत्) । जै० उ० १।१२।७॥ प्रीष्मः प्रस्तावः।०३।१॥
धर्मः तद्यद (छिन्नं विष्णोशिशरः) घृङित्यपतत्तस्माद् धर्मः । श.
१४।१।१।१०॥ ,, अस्य (अग्नेः ) एवैतानि ( धर्मः, अर्कः, शुक्रः, ज्योतिः, सूर्यः)
नामानि । श०६।४।२।२५ ॥ .. अग्निर्वै धर्मः। श०११।६।२।२॥ .. तप्त इव वै धर्मः। श०१४।३।१॥३३॥
आदित्यो वै धर्मः । श० ११ । ६।२।२॥ ,, ( यजु०१८ । ५०) असो वाऽ प्रादित्यो धर्मः । श०६।४।
२।१६ ॥
असौ वै धर्मो यो ऽसौ ( सूर्यः) तपति । कौ०२॥१॥ ... एष वै धर्मो य एष ( सूर्यः) तपति । श०१४ । १।३ । १७ ॥
, देवमिथुनं वा एतद् यद् धर्मः। गो० उ०२।६॥ ,, तदेतद्देवमिथुनं यद् धर्मः स यो धर्मस्तच्छिश्नम् । ऐ०१॥२२॥ घृतम घृतं (=घनीभूतं सर्पिः) मनुष्याणाम् (सुरभि)। ऐ०१॥३॥ , अन्नस्य घृतमेव रसस्तेजः। मं. २।६।१५। , तेजो पा एतत्पशूनां यद् घृतम् । ऐ० ८ । २०॥ .. आग्नेयं वै धृतम् । श०७।४।१।४१॥६॥२॥२३॥
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( १६१ ) घोरः (आङ्गिरसः)] घृतम् एतबा अग्नेः प्रियं धाम यदू घृतम् । तै०१।१।।।६॥१॥
४।४।४॥ , घृतभाजना ह्यादित्याः। श०६।६।१ । ११॥ " घृतं देवानां फाण्टं मनुष्याणाम् । श०३।१।३।। ., घृतं वै देवा वगं कृत्वा सोममनन् । गो० उ०१४॥ , देवव्रतं वै घृतम् । तां०१८।२।६॥
बहुदेवत्यं वै घृतम् । कौ०२० ॥४॥ ,, सर्वदेवत्यं वै घृतम् । कौ० २१ ॥ ४॥ , (यजु०१७ । ७६), रेतोवै घृतम्। श०६।२।३।४४॥
रेतःसिक्कि घृतम् । कौ० १६॥ ५॥ , उल्खं घृतम् । श०६।६।२ । १५ ॥ , घृतमन्तरिक्षस्य (रूपम्)। श०७।५।१।३॥ " एतद्वै प्रत्यक्षाद्यक्षरूपं यद् घृतम् । श० १२ । ८॥२॥ १५ ॥
, तबै सुपूतं यं घृतेनापुनन् । श०३। १।२।११॥ पृतश्च्युतः (बहुवचने) पशवो वै घृतश्च्युतः। तां०६।१।१७ ॥ प्रताची (अप्सराः, यजु० १७ । ५६) "विश्वाची" शब्दमपि पश्यत । " (धृतमश्चति प्रामोतोति घृताचीति सायणः) घृताच्यसि जुहू
नांना (यजु० ११॥ ६॥)। श०१।३।४।१४॥ , घृताच्यस्युपभृतामा । श०१।३।४।१४॥ ॥ धृताच्यसि ध्रुषा नाम्ना । श० १ । ३।४।१४॥ , (यजु०१५ । १८) घग्घृताची । श० ८।६।१।१६॥ , (यजु० १७ । ५8) स विश्वाचीरभिचष्टे घृताचीरिति सचस्वै.
तवेदीश्चाह (घृताची-बुक ) । श०.६।२।३ । १७ ॥ घोर: (पाङ्गिरस:) त प्रादित्या (भग्नि) ऊचुरथास्माकमद्य मुत्या तेषां
नस्त्वमेव होतासि बृहस्पतिमायास्य उदाता घोर मागिरसोऽध्वर्युरिति (तबैतद्धार प्राकिरसः कृष्णायदेवकीपुत्रायोक्तोवाच.......-छान्दोग्योपनिषदि ३।१७।६)। को० ३०।६॥ घोर आनिरसोऽध्वय्युः। (सोमस्य वैष्णवस्य मा. किरसोधेदोघेदःसोऽयमितिघोरं निगदेत-शालायन
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( १६२) श्रौतसूत्रे १६ । २॥१२॥ तथैव-आश्वलायनश्रौतसूत्रे १०।७।४॥)। कौ० ३० । ६॥
चम् वज़ोवै चक्रम् । तै०१।४।४।१०।। बन्नुः चक्षुर्वा श्रुतं तस्माधतरो विषदमानयोराहाहमनुष्ठया चक्षुषा
दर्शमिति तस्य धधति । ऐ०२॥४०॥ , सत्यं वै धनुः सत्य हि चै चक्षुस्तस्माद्यदिवानी द्वौ विषद
मानावेयातामहमदर्शमहमश्रौषमिति य एष ब्यावहमदर्शमिति
तस्माऽ एष श्रध्यामा श०१।३।१।२७॥ , एतख मनुष्येषु सत्यं निहितं यश्चक्षुः। ऐ०१।६॥ , पतके मनुष्येषु सत्यं यचतुः । गो० उ०२।२३ ॥ , सत्यं वै चनुः । श० ४।२।१।१६ ॥ , चतुबै सत्यम् । तै० ३।३।५।२॥ , वनिवित् । जै० उ०३।४।३॥ , तस्मादेकं सचढेधा । ऐ०२॥ ३२॥
त्रिवृद्ध चतुः शुक्रं कृष्णं लोहितमिति । कौ० ३।५॥ , तस्माद विमपं चक्षुः कृष्णमन्यच्छुकमन्यत् । ष०२१२॥ ,, चक्षुईदये (थितम् )। तै० ३।१०।- 1५॥
शश्वर रेतसः सिक्तस्य चतुषी एव प्रथमे सम्भवतः । श० ४।२।१।२८॥ चक्षुः पुरुषस्य प्रथम सम्भवतः सम्भवति । ऐ०३ ॥२॥ चक्षुर्वं रुक् । श०६।३।३ । ११॥
चक्ष विचक्षणं चक्षषा हि विपश्यति । कौ०७।३ ॥ , चतुर्वै विचक्षणं वि होनेन पश्यतीति । ऐ०१।६॥ , यश्चक्षुः स बृहस्पतिः। गो० उ०४।११ ॥
चक्षुर्वै जमदग्निषिः ( यजु० १३ १५६) यदेनेन जगत्पश्य
त्यथो मनुते तस्माचक्षर्जमदग्निषिः । श०८।१।२ । ३ ।। ,, चक्षुषी वै रौहिणी ( पुरोडाशौ)। श० १४ । २।१।५॥ , चतुर्मैत्रावरुणः । कौ० १३॥ ५॥ " चतुश्च मनश्च मैत्रावरुणः । ऐ०२॥ २६ ॥
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(१६३)
चतुर्थम् ] चतुः चक्षुरध्वर्युः । गो० उ०५।४॥ , चतुर्वं यास्याध्वर्युः। श०१४।६।१।६॥ , चक्षुरवोद्वाता । गो० पू०२ । १० (११) । , चक्षुब्रह्मा । तै०२।१।५।९॥ " चतुर्वे ब्रह्म । श०१४।६।१०।८॥ , चक्षुर्ब्रह्म । गो०पू०२।१० (११) ॥
चतुर्देवः । गो० पू० २। १० (११) ॥
यद्वै चक्षुस्तद्धिरण्यम् । गो० पू० २।२१ ॥ , सूर्यो मे चक्षुषि श्रितः। ते० ३।१०। । ५ ॥
चक्षुरादित्यः। जै० उ०३।२।७॥ , तत्तचक्षुरादित्यस्सः । जै० उ०१।२८।७॥ ,, यत्तश्चक्षुरसौ स आदित्यः । श० १० । ३। ३ । ७॥ , अर्कश्चक्षुस्तदसौ सूर्यः । तै०१।१।७१२॥ ,, चक्षुर्वाऽ अपां क्षयस्तत्र हि सर्वदैवापः क्षियन्ति । श० ७ ।
५।२।५४॥ , चतुरेव चरणं चक्षुषा मयमात्मा चरति । श०१०।३।५॥७॥ , चतुरुणिक । श० १० । ३।१।१॥ ., श्रेष्टुभं चक्षुः । तां० २० । १६ ॥ ५ ॥ , चतुर्वे प्रतिष्ठा । श०१४।६।२१३॥ , चतुर्वाव सानो ऽपचितिः । जै० उ०१। ३६।५॥ , चतुर्यशः । श०१२।३।४।१०॥ , चतुरेव यशः । गो० पू० ५। १५ ॥ चतुःसूक्तिः । यजु०३८ । २०) एष वै चतुःसक्तिर्य एष (सूर्यः) तपति
दिशो होतस्य सकयः । श० १४।३।
१।१७॥ बतुरुत्तराणि छन्दांसि पशवो वै चतुरुत्तराणि छन्दासि। तां० ।।
४।६॥ सतुषम् यत चतुर्थ तत्तुरीयम् । श०४।१।३। १४ ॥ ५।२।४।
१३ ॥ १४।।१५। ४॥
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चतुर्होता]
(१६४) चतुर्थमहः वैराज हि चतुर्थमहः । को० २६ ॥ ५॥
, आनुष्टुभमेतदहर्यचतुर्थम् । ता० १२ । । - ॥१२॥६॥६॥ , जनबद्वा एतदर्यचतुर्थमन्त्रायलनयति विराजजनयत्येकवि
शस्तोमानयति । तां० १२।७।६॥ १२।८।२॥
प्रायतमिव बै चतुर्थमहः । तां० १२।१०।१॥ चतुर्थी चितिः यह एष चतुर्थी चितिः। श० - १७।४।१५ ॥ , यध्वं मध्यादवाचीनं प्रीभ्यस्तचतुर्थी चितिः । श०
।७।४।२१॥ चतुर्विशः (स्तोमः) चतुर्विश एव स्तोमो भवति तेजसे ब्रह्मवर्ष.
साय । तां०१५ । ११ । १६ ॥ तेजश्चतुर्विश स्तोमानाम् । तां० १५ । १०।६ ॥ चतुर्विशो वै संवत्सरो ऽन्नं पञ्चविशम् । तां० ४।२।५ ॥
" योनिश्चतुर्विशः "शब्दमपि पश्यत। चतुर्विशम् ( अहः ) चतुर्विशः स्तोमो भवति तचतुर्विशस्य चतुर्षिशत्वं
चतुर्विशतिर्वा अर्धमासाः । अर्धमासश एव तत्सं
वत्सरमारभन्ते । ऐ०४ । १२ ॥ , मुखं वा एतत्संवत्सरस्थ यश्चतुर्विशम् । कौ०१६॥ चतुर्होता तस्मै (ब्रह्मणे) चतुर्थ इतः प्रत्यशृणोत् । स चतुईतो
ऽभवत् । चतुईतो ह वै नामैषः । तं वा एतं चतुईत सन्तं चतुोंतेत्याचक्षते परोक्षण परोक्षप्रिया इव हि देवाः । ते. २।३ । ११ ॥४॥ यदेवेषु चतुर्धा होतारः । तेन चतु:तारः। तस्माचतुर्हातार
उच्यन्ते । तचतुझेतृणां चतुझेतृत्वम् । तै०२।३।१।१॥ , एतद्वै देवानां परमं गुणं ब्रह्म यचतु:तारः । ० २।२।
१।४।२।२।६।३॥ , ब्रह्मवै चतुहोतारः। तै०३।१२।५।१॥ , देवानामेव तपक्षियं गुछ नाम यचतुहौंतारः।ऐ०५॥ २३ ॥
प्रजापति चतुर्होता । तै०२।३।३।५॥ ॥ इन्द्रो वै चतु)ता । ०२।३।१।३॥
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( १६५ )
चतुर्होता सोमो वै चतुर्होता । तै० २ । ३ । १ । १ ॥
याम् । तै० ३ | १२ | ५ | १ ॥
पृथिवी होता सोमश्चतुर्होतॄणां होता । तै० २ । ३ । ५ । ६ ॥ सोमवतुर्होत्रा । तै० २ | २ | ६ |४॥ यशो वै चतुर्होता । तै० २ । २ । ६ । २ ॥
1
दर्श पूर्णमासी चतुर्होतुः (निदानम् ) । तै०२ । २ । ११ । ६ ॥ या इदं किञ्च । तत्सर्वं चतुर्होतारः । २ । ३ । ५ । ५ ॥
19
चतुष्टोमः यच्चतुष्टया देवाश्चतुर्भिः स्तोमैरस्तुवंस्तस्माच्चतुः स्तोमस्तं चतुःस्तोमं संतं चतुष्टोममित्याचक्षते । ऐ० ३ । ४३ ॥ प्रतिष्ठा चतुष्टोमः । श० ८ | १ | ४ | २६ ॥ प्रतिष्ठा वै चतुष्टोमः । तां० ६ । ३ । १६ ॥ परमश्वतुष्टोमः स्तोमानाम् । श० १३ । ३ । ३ । १ ॥ अन्तश्चतुष्टोम स्तोमानाम् । तां० २१ । ४ । ६ ॥
सरघा वा अश्वस्य लक्ध्याबृहत्तद्देवाश्चतुष्टोमेन प्रत्यदधुर्य्यश्रतुष्टोमो भवत्यश्वस्य सर्वत्वाय । तां० २१ । ४ । ४॥ "धनं चतुष्टोमः” शब्दमपि पश्यत ।
1
चतुष्पथम् एतख वा अस्य (रुद्रस्य) जान्धितं प्रज्ञातमवसानं यचतुष्पथम् । श० २ । ६ । २ । ७ ॥
चतुष्पाद् चतुष्पादः पशवः । गो० उ० १।४ ॥ ३ । १६ ॥ तै० २ । १।३।५ ॥
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चतुष्पादाः पशवः । तां० ३ । ८ । ३ ॥
तपादा वै पशवः । ऐ० २ | १८ || ३ | ३१ ॥ ५३ ॥
५ । १७ ॥ ५ । १६ ॥
चतुष्टया २८ । १० ॥ २६ ॥ ८ ॥
तस्माद् द्विपाचतुष्पादमन्ति । तै० २ । १ । ३ ।६ ॥ ३।६। १२ । ३ ॥
चतुस्त्रिणः (स्तोमः ) तस्य चतुस्त्रियो ऽग्निष्टोमः प्रजापतिश्चतुस्त्रिभं शो देवतानाम् । तां० २२ । ७ ॥ ५ ॥ अभ्यश्चतुस्त्रिंशो दक्षिणानां प्रजापतिश्चतुखि
12
चतुस्त्रिशः ]
वै पशवो ऽथो
'चतुष्पादाः | कौ०
० १६ । ३, ११ ॥
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[चन्द्रमाः
शोदेवतनाम् । तो०१७ ॥ ११ ॥३॥
__ "अनस्य विष्टपंचतुर्विशः" इत्येतं शब्दमपि पश्यत॥ चन्द्रः असौ वै चन्द्रः पशुस्तं देवाः पौर्णमास्यामालभन्ते । श०६।
२।२।१७॥ , असौ वै चन्द्रः प्रजापतिः। श०६।२।२।१६॥ . ,, चन्द्र एव सविता । जै० उ०४ । २७ । १३ ॥ ,, चन्द्र हिरण्यम् । ते. १।७।६।३॥ , चन्द्र ोतञ्चन्द्रेण क्रीणाति यत्सोम, हिरण्येन (चन्द्र:=
सोमा, चन्द्रं-हिरण्यम्)। श०.३।३।३।६॥ , चन्द्रा ह्यापः । तै०१।७।६।३॥ चन्द्रमाः स (इन्द्रः) चन्द्रं म माहरेति प्रालपत्। तश्चन्द्रमसश्चन्द्रमस्त्वम्।
तै०२।२।१०।३॥ , चन्द्रमा वै मा मासः । तस्मान्मत्याह । भा इति हैतत्परोक्षणेष
जै० उ०३।१२।६॥ सोमो वै चन्द्रमाः । कौ०१६ । ५॥ तै०१।४।१०।७॥ श०१२ । १।१।२॥ चन्द्रमा उ वै सोमः । श०६।५।१।१॥ सोमो राजा चन्द्रमाः। श०१०।४।२।१॥ असो वै सोमो राजा विचक्षणश्चन्द्रमाः । कौ० ४।४॥
- एतद्वै देवसोमं यश्चन्द्रमाः। ऐ०७।११।।
चन्द्रमा वा अस्य (सोमस्य) दिवि श्रव उत्तमम् (यजु०१२। ११३ ॥) श०७।३।१।४६ ॥ यदुद्रश्चन्द्रमास्तेन । कौ०६।७॥ (प्रजापतिः)तं ( रुद्रं ) अनधीन्महान्देवो ऽसीति । तघदस्य तमामाकरोचन्द्रमास्तद्रूपमभवत्प्रजापतिः चन्द्रमाः प्रजा. पतिर्वै महान्देवः । श०६।१।३। १६॥ (इन्द्रः) तं (वृत्रं) द्वेधान्वभिनत्तस्य यत्सौम्यं न्यक्तमास तं चन्द्रमसं चकाराथ यदस्यासुर्यमास तेनेमा:प्रजा उदरेणाविध्यत्। श०१।६।३।१७॥
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(१६७ )
चन्द्रमा
चन्द्रमा: अर्थेष एव पुत्रो यश्चन्द्रमाः।०१।६।४। १३, १८॥
, चन्द्रमा एव मन्थी। श०४।२।१।१॥ .. चन्द्रमा वै घरेण्यम्। जै० उ०४।२८।१॥ ,, चन्द्रमा द्विपासस्य पूर्वपक्षापरपक्षी पादौ । गो० पू०२ ॥
चन्द्रमा बै पञ्चदशः । एष हि पञ्चदश्यामपक्षीयते पश्चदश्यामापूर्यते । ते० १ । ५। १०।५॥ अथो चन्द्रमा वै भान्तः पञ्चदशः स च पञ्चदशाहान्यापूर्यते पञ्चदशापक्षीयते तधत्तमाह भान्त इति भाति हि चन्द्रमाः। श० ।४।१।१०॥
षोडशकलो वै चन्द्रमाः । ष०४।६॥ , एतद देवसत्यं यचन्द्रमाः । कौ० ३।१॥ , चन्द्रमाः पुनरमुः। तै०२।५।७।३॥ , चन्द्रमा बै जायते पुनः । ०३।।५।४॥
मनो मे रेतो मे प्रजा मे पुनस्सम्भूतिमें तन्मे त्वयि (चन्द्रमसि)। जै० उ०३।२७ । १४॥ नक्षत्राणि स्थ चन्द्रमसि श्रितानि । संवत्सरस्य प्रतिष्ठा । ते. ३।११।१।१३॥ चन्द्रमा अस्यादित्ये धितः । नक्षत्राणां प्रतिष्ठा । तै० ३ ॥ ११ ॥
[सूर्यरश्मिः (यजु०१८ । ४०) चन्द्रमाः] सूर्यस्येव हि चन्द्र
मसो रश्मयः । श०६।४।१।९॥ ,, चन्द्रमा एव सविता । गो० पू०१॥ ३३ ॥ , चन्द्रमा मे मनसि थितः। ते ३।१०।। ५ ॥
तपसन्मनश्चन्द्रमास्सः। जै० उ०१।२८।५॥ , मथ यत्तन्मन पासीत् स चन्द्रमा अभवत् । जै० उ०२।
२॥
यसम्मन एष स चन्द्रमाः ।श०१०।३।३।७॥ ,, मनश्चन्द्रमाः। जै० उ०३।२६॥ ,, एष थे (चन्द्रमाः) रेतः। श०६।१।२।४॥ ,, स (चन्द्रमाः) वै देवानां वस्वन्न टेषाम् । श०॥६५॥
२
॥
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[चन्द्रमाः
( १६८) चन्द्रमाः अन्नमु चन्द्रमाः। श०।३।३।११।। ,, मनमुवै चन्द्रमाः।जै० उ०१।३।४॥ , तस्य (अर्कस्य सूर्यस्य) एतदनं क्यमेष चद्रमास्तदर्य
यजुष्टः । श०१०।४।१।२२ ॥ चन्द्रमा खेतस्यान्नं य एष (सूर्यः) तपति । श०४।६।
७॥१२॥ , चन्द्रमा वै प्राणः। जै० उ०४।२२ ॥११॥
असौ वै चन्द्रः प्रजापतिः। श०६।३।२।१६ ॥ प्रजापति चन्द्रमाः। श०६।१।३ । १६ ॥ चन्द्रमा वै धाता । ष०४।६॥ चन्द्रमा एव धाता च विधाता च । गो० उ०१।१०॥ चन्द्रमा वै ब्रह्म । ऐ०२॥४१॥ चन्द्रमा वै ब्रह्मा । श०१२।१।१।२॥ गो० पू०३ । २४ ॥ चन्द्रमा ब्रह्मा (आसीत्)। गो०पू०१।१३॥ चन्द्रमा वै ब्रह्माऽधिदैवं मनो ध्यात्मम् । गो० पू०४॥२॥ चन्द्रमा वै ब्रह्मा कृष्णः ( यजु० २३ । १३) । श० १३।२।। ७॥७॥ यददश्चन्द्रमसि कृष्णं पृथिव्या हदय धितम् । मं०१। ५॥१३॥ स यदस्यै पृथिव्याः अनामृतं देवयजनमासीत्तचन्द्रमसि
न्यदधत तदेतश्चन्द्रमसि कृष्णम् । श०१।२।५ । १८ ॥ , यदस्याः (पृथिव्याः) यहीयमासीत्तदमुज्यां (विधि) अदधात् ।
तददश्चन्द्रमसि कृष्णम् । तै०१।१।३।३॥ एतद्वा इयम् (भूमिः) अमुष्यां (दिवि) देवयजनमदधायदेतब. न्द्रमसि कृष्णमिव । ऐ०४।२७ ॥ , चन्द्रमा एव (संवत्सरस्य) द्वारपिधानः । श० ११।१।
" रात्रि चन्द्रमा श०१२।४।४.७॥ , चन्द्रमा उदानः जै० उ०४।२२।
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( १६६) चातुर्मास्यानि । चन्द्रमाः अमावास्यायां सः (चन्द्रमाः ) अस्य (सूर्यस्य ) व्यावं
(=विवृतं मुखमिति सायण) आपद्यते । (सूर्यः) तं (चन्द्रमसं) प्रसित्वोदेति । स ( चन्द्रमाः) न पुरस्तान
पश्चाहरशे। श०१।६।४।१८-१९॥ ,, चन्द्रमा वा अमावास्यायामादित्यमनुप्रविशति । ऐ० - २८॥
अथेष चन्द्रमा दक्षिणेनैति । १० २।४ ॥ तस्मादिमौ सूर्याचन्द्रमसौ प्रत्यञ्चौ यन्तौ सर्व एष पश्यति ।
श०४।२।१।१८॥ , चन्द्रमा मनुष्यलोकः । जै० उ०३।१३ । १२ ॥ , वाग्ध चन्द्रमा भूत्वोपरिष्टात्तस्थौ । श० -।१।२।७॥
वागिति चन्द्रमाः । जै० उ० ३।१३।१२॥
हन्तेति चन्द्रमा प्रोमित्यादित्यः । जै० उ०३।६।२॥ , चन्द्रमा चै हिकारः । जै. उ० १.३॥४॥ , चन्द्रमा एष विकारः। जै० उ०१।३३।५॥
चन्द्रमाः प्रतिहारः । जै० उ०१। ३६ ॥ ९ ॥ ॥ चन्द्रमा के यज्ञायशियं यो हि कश्च यज्ञं संतिष्ठत एतमेव
तस्याहुतीना रसोऽप्येति तद्यदेतं यशोयशो ऽप्येति तस्मा
चन्द्रमा यज्ञायशियम् । श०६।१।२।३६ ॥ , चन्द्रमा वै भर्गः । जै० उ०४।२८॥२॥ , वायुरोपश्चन्द्रमा इत्येते भृगवः । गो०पू०२१- (8)॥ , वृधैि पृष्ठा चन्द्रमसमनुप्रविशति । ऐ० ८ ॥२८॥ , चन्द्रमा एव सर्वम् ।गो० पु०५। १५ ॥ चरणम् चतुरेव चरखं चक्षुषा ह्ययमात्मा घरति । श० १०॥३॥५७॥ " आदित्य एव चरणं यदा होवैष उदेत्यथेद सर्व चरति ।
२०१०।३।५।३॥ चरन् वायुर्वं चरन् । तै०३।६।४।१॥ चरः मोदनो हिचरुः। श०४।४।२।१॥ चातुर्मास्यानि भैषज्ययक्षा वा एते यश्चातुर्मास्यानि तस्मातुसंधिषु
. प्रयुज्यन्त ऋतुसंधिषु हि व्याधिर्जायते। फौ०५।१॥ , भयो भैषज्ययक्षा का एते यचातुर्मास्यानि । तस्मातु
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[चित्पतिः
(१७०) सन्धिषु प्रयुज्यन्त ऋतुसन्धिषु वै व्याधिर्जायते । गो०
उ०१।१४॥ चातुर्मास्यानि विराजो वा एषा विक्रान्तिर्यचातुर्मास्यानि। तै० १ ।
४।६।५॥ स वा एष प्रजापतिश्चतुर्विशो यचातुर्मास्यानि । गो० उ०१॥२६॥ उत्सनयज्ञ इव वाऽ एष यश्चातुर्मास्यानि । श०२।५। २॥४८॥२।६।२।१६ ॥ चातुर्मास्थानि पञ्चहोतुः (निदानम् )। तै० २।२।११६॥
व चातुर्मास्यानि । गो० उ०१।२६॥ अज्ञय्यर्थ ह वै सुकृतं चातुर्मास्ययाजिनो भवति । श०२।६।३।१॥ स परममेव स्थानं परमां गतिं गच्छति चातुर्मास्ययाजी। श०२।६।४। । देवानां वा एष आनीतो यश्चातुर्मास्ययाजी । तै० १।
५।६।७॥ चास्वाल: अग्निरेष यश्चात्वालः। श० ७१।२३६॥हा॥१९४२॥
, एष वाव स समुद्रः। यश्चात्वालः । ते०१।५।१०।१॥ चिकित्वान ( यजु०११। ३५) चिकित्वानिति विद्वानित्येतत् । श०६।
४।२।६॥ चितिः यह तयमाना अपश्यंस्तस्माश्चितयः । श०६।२।२।६॥ ,, तद्यत्पञ्च चितीश्चिनोत्येताभिरेवैनं तत्तनूभिश्चिनोति यश्चि.
नोति तस्माश्चितयः। श०६।१२।१७ ॥ , पञ्च ोते ऽनयो यदेताश्चितयः। श०६।२।१।१६॥ , पञ्च तन्वो व्यन सन्त लोम त्वङ् मा समस्थि मजा ता
एवैताः पञ्च चितयः । श० ६।१।२।१७॥ , ऋतवो हैते यदेताश्चितयः। श० ६।२।१।३६ ॥ , सप्तयोनी ( यजु० १७। ७६) इति चितीरेतदाह । श०६।२।
३।४४॥ चित्पतिः प्रजापतिः चित्पतिः । श०३।१।३।२२॥
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( १७१ )
चित्य: चेतव्यो ह्यासीत्तस्माश्चित्यः । श० ६ । १ । २ । १६ ॥
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चेतव्यो हास्य भवति तस्माद्वेव चित्यः । श० ६ । १ । २ । १६॥ चित्रम् सर्वाणि हि चित्राण्यग्निः । श०७ । ४ । १ । २४ ॥ चित्रा (नक्षत्रम् ) ते ह देवाः समेत्योचुः । चित्रं वाऽ अभूम यऽ इयतः सपत्नानधिष्प्रेति तद्वै वित्रायै चित्रात्वं चित्रं ह भवति हन्ति सपत्नान्हन्ति द्विषन्तं भ्रातृव्यं य एवं विद्वाँश्चित्रायामाधत्ते तस्मादेतत्क्षत्रिय एव नक्षत्रमुपेर्लेजिघांसती ह्येष सपत्नान्वीव जिगीषते । श०२।१।२ । १७ ॥ चित्रा शिरः ( नक्षत्रियस्य प्रजापतेः ) । तै० | १ |
५।२।२ ॥
इन्द्रस्य चित्रा ( ''इन्द्रः = त्वष्टा" इति सायणः - - तै० १ । ५ । १ । ५ भाष्ये ) । तै० १ । ५ । १ । ३ ॥ त्वष्टा नक्षत्रमभ्येति चित्राम् । तै० ३ । १ । १ । ६ ॥ चक्षुर्वा एतत्संवत्सरस्य यच्चित्रापूर्णमासः । तां० ५ । ६ । ११ ॥
चित्रावसुः रात्रिर्वै चित्रावसुः सा हीय संगृह्येव चित्राणि वसति ।
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श०२।३।४ । २२ ॥
चूड यदु वा अतिरिक्तं चूडः सः । श० ८ । ६ । १ । १४ ॥ चकितानः ( यजु० १५/४१ ) " सत्पतिश्चेकितानः " इत्येतं शब्दं पश्यत ॥ चैत्ररथ द्विरात्र: एतेन वै चित्ररथं कापेया श्रयाजय स्तमेकाकिनमनाद्यस्याध्यक्षमकुर्व्वस्तस्मश्चित्ररथीनामेकः क्षत्रपतिर्जा
च्यावनम् ]
यते तुलम् इव द्वितीयः । तां० २० । १२ ।५ ॥ च्यवनः व्यवनो वै दाधीचो ऽश्विनोः प्रिय आसीत्सो ऽजीर्य्यमेतेन ( बीजेन ) साम्नाप्सु व्यैकयतान्तं पुनर्युधानमकुरुताम् । तां १४ । ६ । १० ॥
सा ( सुकन्या ) होवाच । हे ऽश्विनौ ) पति ( च्यवनं ) नु मे पुनर्भुवाणं कुरुतम् । श० ४ । १ । ५ । ११ ॥
व्यावनम् ( साम ) एभ्यो वै लोकेभ्यो वृष्टिरपाक्रामत्तां प्रजापतिश्च्यावनेमाच्यावयद्यदुष्यावयसकरूयावनस्य व्यावनत्व
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[छन्दांसि
( १७२) उच्यावयति वृष्टिऽच्यावनेन तुष्टुवानः। तां० १३ ।
च्यावनम् (साम ) प्रजापति च्यावनं प्रजायते बदुर्भवति च्यावनेन
तुष्टुवानः । तां०१३।५।१२ ॥ , प्रजापतिः च्यावनम् । तां० १६ । ३।६॥
(छ) छदिश्छन्दः (यजु० १४ । ६) अतिच्छन्दा वै छदिश्छन्दः सा हि
सर्वाणि छन्दासि छादयति । श० ८।२।४।५॥ " (यजु०१५। ५) अन्तरिक्षं वै छदिश्छन्दः । श०८।५।
छन्दस्यम् अनंया एकञ्छन्दस्यमभोकं भूतेभ्यश्छदयति । मं०२।
छन्दांसि छन्दांसि छन्दयतीति वा । दे०३।१६॥ , तान्यस्मै ( प्रजापतये) अच्छदयंस्तानि यदस्माऽ अच्छ
दयंस्तस्माच्छंदासि । श० ।५।२।१॥ ( देवाः ) तं ( सोमं) छन्दोभिरसुवन्त तच्छन्दसां छन्दस्त्वम् । तै०२।२।।७॥ न वा एकेनाक्षरेण छन्दांसि वियंति न द्वाभ्याम् । ऐ०१६॥ २॥३७॥ नातराच्छन्दो व्यत्येकस्मान द्वाभ्यां न स्तोत्रियया स्तोमः । श०१२।२।३।३॥ न होनाक्षरेणान्यच्छन्दो भवति नो द्वाभ्याम् । कौ० २७११॥ छन्दाति वा अस्य सप्त धाम प्रियाणि (यजु० १७ । ७६) श०६।२।३।४४॥ सप्त वै छन्दांसि । कौ०१४।५॥ १७ ॥२॥
सप्त छन्दासि । श०९।५।।८॥ , छन्दासि वै हारियोजना (ग्रहः)। श० ४।४।३।२॥
छन्दासि वै संवेश उपवेशः। तै० १।४।६।४॥ , छन्दासि व्रजो गोस्थानः। तै०३।२।६।३॥
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( १७३ )
छन्दांसि छंदांसि छन्दालि वै वाजिनः । गो० उ० १ ॥ २० ॥ तै० १।६।
३ ॥ पशवो चै छन्दासि । श० ७।५ । २॥ ४२ ॥ -।३। १।१२॥ पशवश्छन्दांसि । ऐ० ४ । २१ ॥ कौ० ११ । ५ ॥ तां० १६ । ५। ११ ॥
पशवो वै देवानां छन्दासि । श०४।४।३।१॥ ,, पशवो धै देवानां छन्दासि तद्यथेदं पशवो युक्ता मनुष्येभ्यो
पहन्त्येवं छन्दाथेसि युक्तानि देवेभ्यो यज्ञं वहन्ति । श० १।८।२८॥ छन्दासि वै दिशः । श० ८।३।१।१२ ॥ ४।५।
१। ३६ ॥ , रसोबै छन्दासि । श०७।३।१।३७॥
इन्द्रियं वीर्य छन्दासि । तां०६।६।२६ ॥ , प्राणा वै छन्दांसि । कौ०७॥ ६ ॥ ११ ॥ ८॥१७॥२॥
छन्दांसि | दैवानि पवित्राणि । तां०६।६।६॥ छन्दासि देव्यः । श०६।५।१।३६ ॥ छन्दांसि वैदेविकाः । कौ०१६।७॥ छन्दांसि वै साध्या देवास्ते ऽग्रे ऽमिनानिमयजन्त ते स्वर्ग लोकमायन् । ऐ० १ ॥१६॥ छन्दासि वे देवाः प्रातर्यावाणः । २०३।।३।। छन्दासि वै देवा धयोनाधाः ( यजु०१४।७॥) छन्दो. भिहीद, सर्व वयुनं नडम् । श० - १२॥२८॥ छन्दासि वै माश्छन्दोभिर्हि स्वर्ग लोकं गच्छन्ति । श० ६।५।४।७॥ देवा वै छन्दास्यब्रुवन् युष्माभिः स्वर्ग लोकमयामेति ।
तां०७।४।२॥ , सधैं छन्दोभिरिष्ठा देवाः स्वर्ग लोकमजयन् । ऐ०११॥
यातयामानि वै देवैश्छन्दासि छन्दोभिर्हि देवाः स्वर्ग लोक समाश्वत । श०३।६।३।१०॥
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[ छन्दोमाः
( १७४ )
कंदांसि छन्दोभिर्वै देवा श्रादित्य१७ स्वर्ग लोकमहरन् । तां० १२ ।
१० ॥ ६ ॥
छन्दोभिर्हि स्वर्ग लोकं गच्छन्ति । श० ६ । ५ । ४ । ७ ॥ प्राजापतेर्वा एतान्यंगानि यच्छन्दांसि । ऐ०२ । १८ ॥
यानि क्षुद्राणि छन्दासि तानि मरुताम् । तां० १७ ।
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बृहती वाव छन्दसां स्वराट् । तां० १० | ३ |८ ॥
स्वाराज्यं छन्दसां बृहती । त० ६४ । ६ । ३॥
श्रीर्वे यशश्छन्दसां बृहती । ऐ०१ । ५ ॥
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छन्दांसि सावित्री । गो० पू० १ । ३३ ॥ जै० उ० ४६२७|७|| पञ्चच्छन्दांसि रात्रौ शंसत्यनुष्टुभं गायत्रीमुष्णिहं त्रिष्टुभं जगतीमित्येतानि वै गत्रिच्छन्दांसि । कौ० ३० १.११ ॥ छन्दोमा ( स्तोमविशेषाः ) तद्यच्छन्दोभिर्मितास्तस्माच्छन्दोमाः । कौ०
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१ ३ ॥
एकाक्षरं वै देवानामवमं छन्द श्रासीत्सप्ताक्षरं परमन्नधाक्षरमसुराणामवमं छन्द आसीत् पञ्चदशाक्षरं परमम् । तां० १२ । १३ । २७ ॥ छन्दासि समिद्धानि देवेभ्यो यज्ञं वहन्ति । श० १ । ३ । ४ । ६ ॥
हिरण्ययीमिति हिरण्मयी होषा वा छन्दोमयी । श०६।३। १ ४१ ॥
हिरण्यममृतानि छन्दा १०सि : २० ६ । ३ । १ । ४२ ॥ छन्दासि वै लोमानि । श० ६ । ४ । १ । ६ ॥ ६। ७ । १ । ६ ॥ ६ | ३ | ४ । १० ॥
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२६ ॥ ७ ॥
श्रस्तोमा वा एते य छन्दोमाः । तां० ३ | ही ३ ॥ पशवो हि छन्दोमाः । त ० ० । १ । २१ ॥ पशवश्छन्दोमाः । ऐ० ५ । १६, १७, १८, १६ ॥ तां० १४ । ७ । ६ ॥
पशवो वै छन्दोमाः । कौ० २६, ६, १२, १६, १७ ॥ ० ३ । ८ । २ ॥
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( १७५ )
छाया ] होमा: ( स्तोमविशेषाः) तान् ( छन्दोमान् ) उ पुष्टिरित्याहुः । तां०
१०॥१॥ २१॥ अभ्याघात्यसामानो हि छन्दोमाः। तां० १४ । 81३०॥ किंछन्दसश्छन्दोमा इति पुरुषश्छन्दस इति ब्रूयात् । तां० १४ । ५।२६ ॥ १४ । ११ । ३५ ॥ १५ ॥ ५ ॥ ३२॥ किंछन्दसश्छन्दोमा इत्येतव्छन्दसो यदेता अक्षरपङ्गय इति ब्रूयात् । तां० १४ । ११ । ५॥ १५॥ ५॥५॥ तम इव वा एतान्यहानि यच्छन्दोमास्तेभ्य एतेन ( भासेन ) साना विवासयति । तां० १४ । ११ । १५ ॥ नाथविन्दून्येतान्यहानि यत् छन्दोमा नाथमेवैतैर्दिवन्दते । ता० १४ । ११ । २३॥ उग्रगाधमिव वा एतद्यच्छन्दोमास्तद्यथाद उग्रगाधे व्यतिषज्य गाहन्त एवमेवैतद्रूपे व्यतिषजति छन्दोमानामसंव्याथाय । तांक १४।८।४, ८ ॥ १५ । २।६,६॥ छन्दांस्येव छन्दोमानामायतनम् । तां० १०। १ । १६ ॥ अथ यच्छन्दोमानुपयन्ति । इमानेव लोकान्देवता यजन्ते । श० १२ । १।३।१६ ॥ अयं (भू-)लोकः प्रथमश्छन्दोमो ऽन्तरिक्षलोको द्वितीयो ऽसौ (-)लोक उत्तमः ।
कौ० २६ ॥ ११ ॥ छाया मृत्युर्वं तमश्लाया। ऐ०७॥ १२ ॥
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[जगती
( १७६ )
जगत् सर्व वा इदमात्मा जगत् । श०४।५।६।। जगती (छन्दः) जगती गततमं छन्दोजजगतिर्भवति क्षिप्रगतिब्रज्मला
कुर्वन्नसृजतेति हि ब्राह्मणम् । दे० ३ । १७ ॥ तदिन सवं जगदस्यां तेनेयं जगती । श०१।।
इयं (पृथिवी)वै जगत्यस्या हीद सर्व जगत्। श०६।२।१।२६॥६१२।२।३२॥ इयं (पृथिवी ) चै जगती । श०१२ । ।२॥२०॥ जगती हीयम् (पृथिवी ) । श० २।२।१ । २०॥ या सिनीवाली सा जगती । ऐ०३।४७॥ या गौः सा सिनीवाली सो एव जगती । ऐ०३।४८॥ ब्रह्म ह वै जगतो । गो० उ०५।५॥ (यजु०१।२१) जगत्य ओषधयः।श०१।२।२२॥ पशवो वै जगतो। गो. उ०५।५। पशवो जगती । कौ०१६।२॥ १७ ॥२,६॥ १६ ॥ ६॥ ष०२।१॥श ३।४।१।१३॥ =1३।३।३॥ तै० ३।२१ ।२॥ जागता वै पशत्रः। ऐ० १। ५, २१, २८ ॥ ३ ॥१८॥ ४॥३॥५॥६॥ जागताः पशवः । कौ० ३०।२॥ १०३।७ ॥ गो. उ०४।१६॥ जगती वै छन्दसां परमं पोषं पुष्टा । तां०११ १०४॥ जागतो ऽश्वः प्राजापत्यः । तै० ३। ।।४॥ जागतो वै वैश्यः । ऐ०१।२८ ॥ जगतीछन्दा वै वैश्यः । तै०१।१।।७॥ ता वा एता जगत्यो यद् द्वादशाक्षराणि पदानि । तto १६।११। १०॥ यस्य द्वादश ता जगतीम् । कौ ।।२॥
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( १७७)
जगती] जगती (छन्दः) द्वादशाक्षरपदा जगती । १०२।१॥
द्वादशाक्षरा जगती । तां०६।३।१३ ॥ द्वादशाक्षरावे जगती ।ऐ० ३ । १२॥ गो० उ०३ । १०॥ तै० ३।. १२॥२॥ श० ४।१।१ । १२ ॥ ६। २ १।२६॥ अष्टाचत्वारिशदक्षरा वै जगती । श० ६।२। २॥ ३३ ॥ भ्रष्टाचत्वारि शवक्षरा जगती। तै०३।।८।४॥ जै० उ०४।२॥ ८ ॥ जगती सर्वाणि छन्दासि । श०६।३।१।३०॥ जगती प्रतीची (दिक्)। श०८।३।१।१२॥ प्रतीचीमारोह । जगती त्वावतु वैरूप साम सप्तदशस्तोमो वर्षा ऋतुर्विड् द्रविणम् । श० ५।४। १।५॥
आदित्यास्त्वा पश्चादभिषिञ्चन्तु जागतेन छन्दसा । ते १।७।१५। ५॥ आदित्या जगतीं समभरन् । जै० उ०१।१८।६॥ जगत्यादित्यानां पत्नी । गो० उ०२।६ ॥ असौ जगती । जै० उ० १ ॥ ५५ ॥३॥ जागतो ऽसौ (धु-)लोकः । कौ० ८।६॥ सानामादित्यो देवतं तदेव ज्योतिर्जागतंच्छन्दो चौः स्थानम् । गो० पू०१।२६॥ जागते ऽमुध्मिल्लोके जागतो ऽसावादित्यो ऽध्यूढः । कौ०१४।३॥ जागतो वा एष य एष ( सूर्यः ) तपति । कौ० २५ ।
श्रेष्टब्जागतो वा आदित्यः। तां०४।६।२३॥ जगती छन्द प्रादित्यो देवता श्रोणी। श० १०।३। २।६॥ श्रोणी जगत्यः । श० ।६।२।८ ॥
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अनित्रम् ]
( १७ ) जगती (छन्दः) अनूकं जगत्यः । श०।६।२।३॥
यो ऽयमवाङ प्राण एष जगती । श०१०।३।१।१॥ गवाशीजगती। तां०१२।१।२॥ मध्यं जगती। प० २।३॥ बलंवैषीय जगती । कौ०११ । २॥ बलं वीर्यमुपरिष्टाजगती । कौ० ११ । २॥ रैभ्या जगती ( अपुनीत )। जै० उ०१ । ५७ ॥ १ ॥ जागतं धोत्रम् । तां०२० । १६ ॥ ५॥ जागतमुवै तृतीयसबनम् । गो० उ०२॥२२॥ जागतं वै तृतीयसवनम् । ऐ०६।२, १२ ॥ जागतं हि तृतीयसवनम् । कौ० १६ ॥ १ ॥ १०१। ४॥ तां०६।३।११॥ गो० उ०४।१८॥ जागता वै प्राधाणः । कौ० २६ ॥१॥
जगत्येव यशः । गो०पू०५। १५ ॥ जठरम् ( यजु० १२ । ४७ ) मध्यं वै जठरम् । श०७।१।१।२२॥ जनकल्पा: प्रजा वै जनकल्पाः । ऐ०६।३२॥ जनको वैदेहः जमको ह वैदेहः । अहोरात्रैः समाजगाम । ०३।१० ।
जन समाहिरसं वेदमभ्यश्राम्यदभ्यतपत्समतपसस्माच्छान्तासता
सन्तप्ताजनदिति बैतमक्षरं व्यभवत् । गो०पू०१८॥ , जनदित्यक्षिरसाम् (शुक्रम् ) । गो० ३०२२४ ॥ अनिः ( यजु० ११ । ६१) नक्षत्राणि वै जनयो ये हि जनाः पुण्यकृतः
स्वर्ग लोकं यन्ति तेषामेतानि ज्योतीषि। श०६।५।४।। , (यजु०१२ । ३५) आपो वै जनयो ऽद्भ्यो हीदछ सर्व जायते।
श०६।।२॥३॥ अनित्रम् ( यजु० १४ । २४) विड्बै जनित्रम् । श०८।४।२।५॥
वसिष्ठोषा एते (जनित्रे)पुत्रहतः सामनी अपश्यत् स प्रजया पशुभिः प्राजायत । तां०१६।३१८॥
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( १७६ )
जातवेदस्याः ]
जनित्रम् (साम) वसिष्ठस्य जनित्रं प्रजाकामाय ब्रह्मलाम कुर्य्यात् ।
तां०८।२।३ ॥
अन्तवः ( यजु० १२ । १०६ ) मनुष्या वै जन्तवः । श० ७ । ३ । १ । ३२॥ जन्यानि ( ऋ० ४ । ५० । ७) सपना वै द्विषन्तो भ्रातृव्या जन्यानि । ऐ० ८ | २६ ॥
जपः ब्रह्म वै जपः । कौ० ३ । ७ ॥
जमदग्नि: ( यजु० १३ । ५६ ) चक्षुर्वै जमदग्निर्ऋऋषिर्य देनेन जगत्पश्यस्यथो मनुते तस्माच्चक्षुर्जमदग्निर्ऋषिः । श० ८ । १।२।३॥ प्रजापतिर्वै जमदग्निः । श० १३ । २ । २ । १४ ॥
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जराबोधीयम् ( साम ) जराबोधीथं भवत्यन्नाद्यस्यावरुध्यै । तां० १४ ।
५ । २७ ॥
अन्नं वै जराबोधीयम् । तां० १४ । ५ | २८ ॥
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जरायु शणा जरायु । श० ६ । ६ । २ । १५ ॥ जरिता (०४ । १७ । २०) यजमानो जरिता । ऐ० ३ | ३८ ॥ जतिला: उभयम्वेतदन्नं यजर्तिला यश्च ग्राम्यं यश्चारण्यं यदह तिलास्तेन प्राम्यं यदष्टे पच्यन्ते तेनारण्यम् । श० ६ । १ । १।३॥
जर्भुराण: ( यजु० ११ । २४ ) नाभिमृशे तम्बा जर्भुराण इति न ह्येत्रो ( श्रग्निः ) ऽभिमृशे तन्वा दीप्यमानो भवति । श० ६ । ३ ।
३ । २० ॥
जयः वीयं वै जयः । श०१३ | ४ । २ । २॥
जहूनुः जइवृचोषन्तो (= 'जहोः पुत्रा ऋचीवशामकाः' इति सायणः) माहिंसन्त स विश्वामित्रो जाहवो राजैतम् ( चतूरात्रम् ) अपश्यत् स राष्ट्रमभवद राष्ट्रमितरे । तां० २१ । १२ । २ ॥
अधीयत देवरातो रिक्थयोरुभयोर्ऋषिः । जहूनां चाऽऽधि
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पत्ये देवे वेदे च गाथिनाम् । ऐ०७ । १८ ॥
जागरितम् ज्योतिर्षे जागरितम् । कौ० १७ ॥ ६ ॥
जातः कुमारः यथा कुमाराय वा जाताय बत्लाय वा स्तनमपिदध्यात् । श०२ । २ । १ । १ ॥
जावेदस्याः (ऋचः
) स्वस्त्ययनं वै जातवेदस्याः । ऐ० ४ | ३० ॥
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[ जाया
( १८० )
जातवेदाः सो ऽब्रवीजाता वै प्रजा श्रनेनाविदमिति यदब्रवीजात्ता वै प्रजा अनेनाविदमिति तज्जातवेदस्यमभवत्तज्जातवेदसो जातवेदस्त्वम् । ऐ० ३ | ३६ ॥
प्राणो वै जातवेदाः स हि जातानां वेद । ऐ० २ । ३६ ॥ तद्यज्जातं जातं विन्दते तस्माज्जातवेदाः । श० ९।५। १ । ६८ ॥
वायुर्वै जातवेदा वायुहीदं सर्वं करोति यदिदं किं । पे०
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२ । ३४ ॥
जामदग्न्यः ( ऋचः ) सर्वरूपा वै जामदग्न्यः सर्वसमृद्धाः । ऐ० ४ । २६ ॥
जायमानः शीर्षतो वै मुखतो जायमानो जायते । श० ६ । ५ । २ । २ ॥ जाया पतिर्जायां प्रविशति गर्भो भूत्वा स मातरं तस्यां पुनर्नवो भूत्वा दशमे मासि जायते तज्जाया जाया भवति यदस्यां जायते पुनः । ऐ० ७ । १३ ॥
,, तद्यदब्रवीत् (ब्रह्म) श्रभिर्वा श्रहमिदं सर्वं जनयिष्यामि यदिदं किञ्चेति तस्माज्जाया अभवंस्तज्जायानां जायात्वं यचासु पुरुषो जायते । गो० पू० १ । २ ॥
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अध ह वा एष श्रात्मनो यज्जाया तस्माद्यावज्जायां न विन्दते नैव तावत्प्रजायते ऽसर्वो हि तावद् भवत्यथ यदैव जायां विन्दते ऽथ प्रजायते, तर्हि हि सर्वो भवति सर्व एतां गतिं गच्छानीति तस्माज्जायामामन्त्रयते । श० ५ । २ । १ । १० ।। य एवं वेद, श्रभि द्वितीयां जायामश्नुते । तै० १ । ३ । १० । ३॥ तस्मादेकस्य बहयो जाया भवन्ति न हैकस्या बहवः सहपतयः । गो० उ० ३ । २० ॥
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तस्मादेकस्य बह्रयो जाया भवन्ति नैकस्यै बहवः सहपतयः । ऐ० ३ । २३ ॥
तस्मादप्येकस्य पुंसो बह्रयो जाया भवन्ति । श० ६ । ४ । १६॥ ,, तस्मादपि स्वया जायया तिर इवैव विवरिषति । शु० ६ । ४ ।
४ । १६ ॥
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( १८१ )
ज्योतिः ]
जाया तस्माज्जायाया श्रन्ते नाश्नीयाद्वीर्यवान्हास्माज्जायते वीर्यवन्तमु
ह सा जनयति यस्या अन्ते नाश्नाति । श० १० । ५ । २ । ६ ॥
जाया गार्हपत्यः (अग्नि) । ऐ० ८ । २४ ॥
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जितम् श्रन्तो वै जितम् । ऐ०५ | १२, २१ ॥
जिन्द ( यजु० १६ | ३३ ) ( = प्रीणीहि ) जिन्व यजमानं मदेनेति तेन प्रीणीहि यजमानं मदेनेत्येवैतदाह । श०
जिल्हा जिल्हा सरस्वती । श०
१२ । ६ । १ । १४ ॥
जिद्वैव शम्या । श० १ । २ । १ । १७ ।।
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जीमूत: ( प्रजापतिः) जीमूतान् प्रस्तावम् ( अकरोत् ) । जै० उ० १ ।
१३ । १ ॥
जुम्बकः वरुणो वै जुम्बकः । श० १३ । ३ । ६ |५ ॥ तै० ३।६। १५ । ३॥
जुषाण : ब्रह्म वै जुषाणः । कौ० ३ । ५ ॥
जुहूः असौ (द्यौः) वै जुहूः । तै० ३ । ३ । १ । १ । ३ । ३ । ६ । ११ ॥ तस्यासावेव द्यौर्जुहूः । श० १ । ३ । २ । ४ ॥
यजमानदेवत्या वै जुहूः । तै०३ | ३ | ५ | ४ ॥ ३।३।७।
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१२ । ८ । १ । ४ ॥
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६ ॥ ३।३।९।७ ॥
अतैव जुहूराद्य उपभृत् । श० १ । ३ । २ । ११ ॥
जुहूर्दक्षिणो हस्तः । तै० ० ३ । ३ । १ । ५ ॥
आग्नेयी वै जुहूः । तै० ३ । ३ । ७।६ ॥
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जू: (यजु० ४ । १७) जूरसीत्येतद्ध वा अस्याः ( वाचः ) एकं नाम । श० ३ । २।४ । ११ ॥
ज्येष्ठघ्नी (ज्येष्ठा नक्षत्रम्) ज्येष्ठमेषामवधिष्मेति । तज्ज्येष्ठघ्नी । तै० १ । ५।२।८ ॥
ज्येष्ठा (नच्चत्रम्) इन्द्रो ज्येष्ठामनु नक्षत्रमेति । तै० ३ । १ । २ । १ ॥ ज्योतिः (यजु० १८ | ५० ) श्रयमग्निर्ज्योतिः । श० ६ । ४ । २ । २२ ॥ अस्य (अग्ने) एवैतानि (धर्म, अर्कः,
क्षत्रं वै जुहूविंश इतराः स्रुचः । श० १ । ३ । ४ । १५ ॥
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[ ज्योतिष्टोमः
( १८२ )
शुक्रः, ज्योतिः, सूर्यः ) नामानि । श० है ।
४ । २ । २५ ॥
ज्योतिः (यजु०१८ | ५० ) सुधर्गो वै लोको ज्योतिः । तै० १।२।
२।२॥
अयमेव (भूलोकः) ज्योतिः । तां २ ४ । १ ॥७॥ श्रयं वै ( पृथिवी ) लोको ज्योतिः । पे०
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४ । १५ ॥
इयं (पृथिवी) वै ज्योतिः । तां० १६।१।७ ॥ ज्योतिरेष य एष ( सूर्य : ) तपति । कौ० २५ । ३, ६ ॥
ज्योतिस्तेन सूर्य
असौ ( सूर्यः ) या नातिशंसति । ऐ० ४ । १०, ६५ ॥ अहज्योतिः । श० १० । २ । ६ । १६ ।। ज्योतिर्हिरण्यम् । गो० पू० २ । २१ ॥ ज्योतिर्हि हिरण्यम् । श० ४ । ३ । ४ । २१ ॥ ज्योतिर्वै हिरण्यम् । सां० ६ । ६ । १० ॥ १८ । ७ । ८ ॥ तै० १ । ४ । ४ । १ ॥ श ६।७।१।२ ॥ ७ । ४ । १ । १५ ॥ गो० ! उ०५ ॥ ८ ॥ ज्योतिर्वै शुक्रं हिरण्यम् । ऐ.०७ । १२ ॥ सं ज्योतिषाभूमेति सं देवैरभूमेत्येवैतदाह । २० १ । ६ । ३ । १४ ॥
६ । ३ । २ । १४ ॥
ज्योतिष्टोमः अथ यदेनमूर्ध्व संतं ज्योतिर्भूतमस्तुषं स्तस्माज्ज्योतिः - स्तोमस्तं ज्योतिः स्तोमं संतं ज्योतिष्टोममित्याच्चक्षते ऐ० ३ | ४३ ॥ किज्योतिष्टोमस्य ज्योतिष्टोम त्वमित्याहुर्विराज सस्तुतः सम्पद्यते विराड् वै छन्दसां ज्योतिः । त०६।३।३६४
ज्योतिरमृतम् । श० १४ । ४ । १ । ३२ ।। ( यजु० १४ । १७ ) प्राणो वै ज्योतिः । श
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(१३) तनूनप्ता शाक ज्यातिष्टोमा य? तज्ज्योतिरभवत्सत् ज्योतिषो ज्योतिष्टम् (ज्योतिः=
ज्योतिष्टोमा )। तां० १६ । १।१ ॥ तस्माद्यो विराज स्तोमः सम्पद्यते तं ज्योतिष्टोमो ऽग्निष्टोम इत्याचक्षते । तां १०।२।२॥ एष वाव प्रथमो यज्ञानां य एतेनानिष्वाथान्येन यजते कर्तपत्मेष तजीयते वा प्रवा मीयते। ता० १६॥ १ ॥२॥ स्वा .पा एते स्तोमा यत् ज्योतिर्भवति (ज्योतिःज्योतिष्टोमः ) ज्योतिरेषास्मै ( यजमानाय ) स पुरस्ता
सरति । तां० १६ । ३ । ७ ॥ ज्योतिष्मन्तः पन्थान: देवयाना धै ज्योतिष्मन्तः पन्थानाऐ०३।३८ ॥
तण्डुलाः वसूनां वा एतद्रूपम् । यत्तण्डुलाः। ते० ३।४।३॥ ततुरिः उपहतेडा ततुरिरिति । तदेनां प्रत्यक्षमुपह्वयते ततुरिरिति
सर्वोषा पाप्मानं तरति तस्मादाह ततुरिरिति । श०१।
।१।२२॥ तथा तथेति वायुः पवते । जै० उ०३।६।२॥ तनुः ( यजु० १२ । १०५ ॥ १३॥४७॥) आत्मा वै तनूः । श०६।७।
२।६॥७।३।१ । २३ ॥७।५।२।३२ ॥ सनूनपाच्छाकर: यो वाऽ अयं (वायुः) पषते एष तनूनपाच्छाकर सो
ऽयं प्रजानामुपद्रष्टा प्रविष्टस्ताविमो प्राणोदानी। श०
३।४।२।५॥ सनूनपात् प्राणो वै तनूनपात् स हि सन्वः पाति । ऐ०२॥४॥
प्रीमो वै तनूनपाद प्रीष्मो खासा प्रजानां तनूस्तपति । २०
१।५।३।१०॥ , तनूनपातं यजति प्रीष्ममेव प्रीष्मो हि तन्वं वपति । की०
३।४॥
, रेतो वै तनूनपात् । २०१।५।४।२॥ तनूनप्ता शाकरः यो वा अयं (वायुः) पषतऽ एष तनूनमा शाकरः।
२०३।४।२।११॥
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[तमः
( १८४) तन्तुः प्रजा वैतन्तुः। ऐ० ३ । ११, ३८ ॥ तन्त्रायी ( यजु० ३८ । १२) एष वै तन्त्रायी य एष ( सूर्यः) तपत्येष
हीमाँल्लोकांस्तन्त्रमिवानुसंचरति । श.
१४।२।२।२२॥ तन्द्र छन्दः (यजु० १४ । ॥१५॥५) पंक्तिर्वै तन्द्र छन्दः । श. ८ ।।
४।३॥।५।२१६॥ तप: असो वा प्रादित्यस्तपः । श०८।७।१।५ ॥ , तपः स्विष्टकृत् । श० ११ । २।७।१८।। , तपो वाऽग्निः । श.३।४।३।२॥ , तपो मे तेजो मे ऽनम्मे वाङ् मे । तन्मे त्ययि (अग्नौ)। जै० उ०
३।२० । १६॥
तेजोऽसि तपसि श्रितम् । समुद्रस्य प्रतिष्ठा । तै० ३।११।१॥३॥ ., ब्रह्म तपसि (प्रतिष्टितम् )। ऐ०३।६॥ गो० उ०३।२॥ ., तपो ऽसि लोके श्रितम् । तेजसः प्रतिष्ठा । तै० ३।११।१ । २॥ ,, तप आसीद् गृहपतिः । ० ३।१२।६।३॥ ,, एतद्वै तपो यो दीक्षित्वा पयोव्रतोऽसत् । श०६।५।१।८॥
, तपो दीक्षा श०३।४।३।२॥ , प्रमाणसाश्यनुबते तपस्व्यनुवाऽ इति श०१४।१।१।२६ ॥ , तस्मात्तप्यमानस्य भूयसी कीर्तिर्भवति भूयो यशः । जै० उ०
, तपसाचे लोकं जयन्ति । श०३।४।४।२७॥ तपः, तयस्यः ( मासौ ) एतौ ( तपश्च तपस्यश्च ) एव शौशिरी (मासौ)
स यदेतयोबलिष्ठं श्यायति तेनो हैतौ तपश्च
तपस्यश्च । श०४।३।१।१६ ॥ · तपो नवदशः ( यजुः १४ । २३) संवत्सरो धाष तपो नवदशस्तस्य
द्वादश मासाः षड़तवः संवत्सर एव तपो नवदशस्तयत्तमाह तप इति संवत्सरो हि सर्वाणि तपति। श० ८।
४।१।१४ ॥ वमः कृष्णमिष हितमः । तां०६।६।१०॥
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( १८५)
तित्तिरिः] तमः कृष्णं वे तमः। श०५।३।२।२॥ , मृत्यु तमः । श०१४।४।१॥ ३२ ॥ गो० उ०५।१॥ , मृत्युर्वे तमश्छाया। ऐ०७।१२॥ ., पाप्मा बैतमः । श० १२।६।२८॥ तरः स्तोमो वै तरः। तां० ११।४।५ ॥ १५ । १०।४॥ ,, स्तोमोवै देवेषु तरो नामासीतातां०८।३।३॥ तरुता ( ऋ० १० । १७८ | १) एष (तार्यः वायुः) वै रूहावांस्तस्तैष
हीमाल्लोकान्सद्यस्तरति । ऐ०४ । २०॥ तल्पः मानगे वै तल्पः । ते०२।२।५।३॥ तानूनप्त्रम् ते यवरुणस्य राशो गृहे तनूः सन्यदधत तत्तानून त्रमभ.
वत्सत्तानूनप्त्रस्य तानूनप्त्रत्वम् । ऐ० १ ।२४ ॥ यत्तन्वः समवाद्यन्त तत्तानूनप्त्रस्य तानूनप्त्रत्वम् । गो०
उ०२१२॥ तारकम् सलिलं वा इदमन्तः (=अन्तरिक्षे) श्रासीत् । यदतरन्
तत्तारकाणां तारकत्वम् । तै० १।५।२।५॥ तार्यः वायुर्वं तार्यः। कौ०३०। ५ ॥ , अयं वै ताक्ष्यों यो ऽयं ( वायुः) पवते, एष स्वर्गस्य लोक
स्याभिवोढा । ऐ० ४।२०॥ ,, (यजु०१५ । १८) तस्य ( यशस्य ) ताय॑श्चारिष्टनेमिश्च
सेनानीग्रामण्याविति शारदौ तावृतू । श० ८।६।१ ॥१६॥ , तादयों पश्यतो राजेत्याह तस्य वयांसि विशः......पुराणं
वेद । श० १३।४।३।१३ ॥ , स्वस्त्ययनं च तार्यः (=तायंदेवताकमंत्रः)। ऐ०४।२४॥ तापम् यज्ञो वै तार्यम् । तै० १।३।७।१॥३।६।२०। १ ॥
, अस्य वै ( भू-) लोकस्य रूपं तार्ण्यम् । तै०३।६।२०।२॥ तित्तिरिः अथ यदन्यस्मा अशनाय ( विश्वरूपस्य मुखम्) आस ।
ततस्तित्तिरिः समभवत्सस्मात्स विश्वरूपतम इव, सन्त्येव घृतस्तोका इव त्वन्मधुस्तोका इव त्वत्पर्णेष्वाश्चुतिता एवर रूपमिव हि स तेन (मुखेन ) अशनमावयत् । श० १।६।३। ५॥५।५।४।६॥
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[तुरायणयक्षः (१८६) तिथिः यां पर्यस्तमियादम्युदियादिति सा तिथिः (१ स्थिति:-'यो
पर्यस्तमयमुत्सदिति सा स्थितिः' इति कौ०३१)। ऐ०७॥११॥ तिष्यः ( नक्षत्रम् ) बृहस्पतेस्तिष्यः। ते०१।५।१।२॥ ३॥११॥५॥ , स (बृहस्पतिः) पतं वृहस्पतये तिष्याय नैवारं
चळं पयसि निरवपत् । तै०३।१।४।६॥ तिस्रो देव्यः प्राणो वा अपानो व्यानस्तिस्रो देव्यः। ऐ० २।४॥ तीबसोमः ( एकाहः ) छिद्र इव वा एष यॐ सोमो ऽतिपवते यत्तीन
सोमेन यजते पिहित्या एवाछिद्रतायै । तां०१८ । ५॥४॥ विड्वा एतमतिपर्वते यो राजावरुध्यते यत्तीनसोमेन यजते पिहित्या एवाछिद्रतायै । ता० १८ ।
ग्रामो वा एतमतिपवते यो ऽलं प्रामाय सन् प्रामन्न विन्दते यत्तीसोमेन यजते पिहित्या पवाछिद्रतायै । तां०१८ । ५ ॥ प्रजा वा एतमतिपवते यो पुलं प्रजायाः सन् प्रजान्न विन्दते यत्तीसोमेन यजते पिहित्या एवाछिद्रतायै । तां०१८।५।६॥ पशवो वा एतमतिपयन्ते यो ऽलं पशुभ्यः सन् पशुत्र विन्दते यत्तीसोमेन यजते पिहित्या एवाछिद्रतायै । ठां०१८।५।१०॥ मामयाविनं याजयेत् प्राणापा पतमतिपषन्ते य भामयावी यत्सीप्रसोमेन यजते पिहित्या एषा
छिद्रताय । तां०१८ । ५। ११ ॥ तीर्थम् - तीर्थेन हि प्रतरन्ति तद्यथा समुद्रं तीर्थेन प्रतरेयुः । गो० पू० , तद्यत्मायणीयमतिरात्रमुपयन्ति यथा तीर्थेन समुद्रं प्रस्नायुस्ता
रक्तत् । श०१२।२।१।१॥ तुथः ब्रह्म वें तुथः । श०४।३।४।१५ ॥ तुरायणयज्ञः स एष स्वर्गकामस्य यज्ञः। कौ०४।११ ॥
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( १८७) तृतीयसवनम्] तुरीयम् यद्ध चतुर्थ तत्तुरीयम् । श०४।१।३ । १४ ॥ ५। २।४।
१३ ॥ १४। ।१५।४॥ तुला तुलाया ह वाऽ अमुष्कॅिल्लोकऽ प्रादधति यतरधस्यति
तदन्वेष्यति यदि साधु वासाधु वेति। श० ११ । २।७।३३ ॥ तूर्णिः सर्वाष पाप्मानं तरति तस्मादाह तूर्णिहव्यवाडिति ।
श०१।४।२।१२॥ , घायुर्वे तूर्णिायुहीदं सर्व सद्यस्तरति यदिदं किंच । ऐ०२। तूर्तम् य क्षिप्रं तत्तूर्तम् । श० ६।३।२।२॥ तूष्णीशंसः मूलं वा एतद्यक्षस्य यत्तूष्णींशंसः । ऐ०२॥ ३२॥
, चक्षुर्वा एतयज्ञस्य यत्तूष्णींशंसः । ऐ०२॥ ३२ ॥ , चक्षुषि वा एतानि सपनानां यत्तूष्णींशंसः। ऐ० २ ॥ ३२ ॥
, तूष्णींसारोवा एष यत्तूष्णींशंसः। ऐ०२ ॥ ३१ ॥ हषः अन्तरिक्षदेवत्यस्तुचो भवति । तां०१२।१।८॥ , इमे हि लोकास्तृचः । तां०२।१।४॥ २॥२॥१॥२॥
३।५॥ तृतीयं रजा ( यजु० १२ । २०) द्यौः तृतीय रजः । श० ६।७। द्वतीयमहः उनद्वा एतदहर्य्यतृतीयम् । तां० १३।३।२॥ ., उवा एतत् त्रिवदहर्यत् तृतीयम् । तां० १२॥ ५ ॥२॥
बहुदेवत्यं तृतीयमहः । कौ० २० ॥४॥ अन्तरिक्षदेवत्यमेतदहर्य्यतृतीयम् । तां० १२।१।। १२।२।७ ॥ १२॥ ३ ॥ १६ ॥ १२ ॥ ५ ॥ जागतमेतदहर्य्यतृतीयम् । तां० १२॥ ७॥३॥ उस्तमिव बै तृतीयमहः । तां० १२॥ ४॥४॥
मन्तो पे तृतीयमहः । ता०।१२।५।४॥ , अन्तस्तृतीयमहः । को० २२ । ५, ६॥ तृतीयसवनम् मद्धि तृतीयसवनम् । कौ०१६ । १, २, ३, ४ ॥ गो०
उ०४।१६, १७॥ ., मन तृतीयसवनम् । ऐ०४।४॥
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[तृतीयसवनम् तृतीयसवनम् मकै तृतीयसवनस्य रूपम्। ऐ०३।२६ ॥
मदद्वद् वै रसवत्तृतीयसवनम् । तां० ११ । ५।१॥ ११ १०।२॥१२॥६॥३॥ अथैतनिर्धातशुक्रं यत्तृतीयसवनम् । श. ४।३।३। १६ ॥४।३।५।१७ ॥ धोतरसं वै तृतीयसवनम् । ऐ०६।१२॥ धीतरसंवा एतत्सवनं यत्तृतीयसवनम् । कौ १६॥१॥ ३०।१॥ गो० उ०४ । १८ ॥ विश्वेषां देवानां तृतीयसपनम् । कौ० १४ । ५ ॥
विश्वे देवा द्वादशकपालेन तृतीयसपने (मादित्यमभिषज्यन्) । तै०१।५।११ ॥ ३ ॥ वैश्वदेवं वै तृतीयसवनम् । ऐ० ६ । १५ ॥ श०१।७। ३।१६ ॥४।४।१।११॥ जै० उ०१।३७।४।। तया (वैश्वदेव्याऽऽगया) तृतीयसघनस्योदगेयम्। जे० उ०१।३७॥४॥ तृतीयसवनं वै स्विष्टकृत् । श०१।७।३।१६ ॥ मादित्यं हि तृतीयसघनम् । तां०६।७।७॥ प्रथेमं विष्णु यज्ञं त्रेधा व्यभजन्त । यसवः प्रातःसषन रुद्रा माव्यन्दिन सवनमादित्यास्तृतीयसवनम् । श. १४।१।१।१५॥ मादित्यानां तृतीयसवनम् । कौ० १६।१॥३०॥१॥ श०४।३।५।१॥ धौर्वं तृतीयसवनम् । श०१२। ।२।१०॥ असौ बै (घु-)लोकस्तृतीयसपनम् । गो० उ०४।१८ ॥ विदवसु वै सृतीयसवनम् । त० ८।३।६॥ जागतं हि तृतीयलवनम् । कौ० १६ ॥१॥ष०१॥ ४॥ तां०६।३। ११ ।। गो० उ०४।१८॥ विट तृतीयसवनम् । कौ० १६॥ ४॥ चित्रषत् तृतीयसवनम् । तां०१८।६।७॥
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( २=६ )
तैरश्वयम् (साम) ]
तृतीयसवनम् अस्तंयन्तं (सूर्य) तृतीय सघनेन ( ईप्सन्ति ) । कौ०
१८ ॥ ६ ॥
काव्याः (पितरः) तृतीयसवने । ऐ० ७ । ३४ ॥ (पुरुषस्य) ये ऽवाञ्चः (प्राणाः) तत्तृतीयसवनम् | कौ०
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तृतीया चितिः मध्यमेव तृतीया चितिः । श० ८ । ७ । ४ । २१ ॥ द्यौरेव तृतीया चितिः । श० ८ | ७|४|१४ ॥
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तेजः तेजो वाऽ अभिः | २० २ | ६ |४ | ६ || ३ || १ | १६ ॥ तै०
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३ । ३ । ४ । ३ । ३ । ६।५।२ ॥
तपो मे तेजो मे ऽन्नम्मे वाङ् मे । तन्मे त्वयि (अग्नौ ) । जै० उ० ३ । २० । १६ ।।
तेजोऽसि तपसि श्रितम् । समुद्रस्य प्रतिष्ठा । तै० ३ । ११ । १३॥
समुद्रोऽसि तेजसि श्रितः । तै० ३ । ११ । १ । ४ ॥
तेजो वै वायुः । तै०३।२।६।१॥
तेज एव श्रद्धा । श ० ११ । ३ । १ । १ ॥
( यजु० १ । ३१ ) तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि ( श्राज्य ! ) । श०
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२५ । १२ ॥
चतुर्विशेकविंशौ ( स्तोमी) तृतीयसवनम् (वहतः ) । तां० १६ । १० । ५॥
१ । ३ । १ । २८ ॥
तेज भाज्यम् ।
तेजो हिरण्यम् । तै १०३ । १२ । ५ । १२ ॥
तेजो वै हिरण्यम् । तै० १ | ८ | ६| १ ॥
13
तेजनी (= अश्वरुधिरस्य धारयित्रीति सायणः ) पाप्मा वै तेजनी । तै०३८।
१६।२ ॥
तै० ३।३।४।३ ॥ ३।३।६।३ ॥
तैरश्वयम ( सम्म ) अङ्गिरसः स्वर्ग लोकं यन्तो रक्षार्थस्यन्वसचन्त तान्येतेन तिरश्व्याङ्गिरसस्तिर्य्यङ पर्य्यवैद्यत्तिर्य्यङ
पर्य्यवैत्तस्मात्तैरश्च्यं पाप्मा घाव स तानसचत तन्तैरश्येनापानतापपाप्मान तुष्टुवामः । तां १२ । ६ । १२ ॥
हते तैरश्च्येन
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[ त्रयस्त्रिश
( १६० )
तॊकम् ( यजु०१३ | ५२ ॥ ) प्रजा वै तोकम् । श० ७ । ५ । १ । ३६ ॥ तौरश्रवसे ( सामनी ) तुरश्रवसश्च वै पारावतानाञ्च समौ ससुतावास्तान्तत एते तुरश्रवाः सामनी अपश्यत्ताभ्यामस्मा इन्द्रः शल्मलिनां यमुनाया हव्यं विरायहचत्तौरश्रवसे भवतो हव्यमेवैषां ( यजमानानां विद्विषाणामिति सायणः ) वृते । तां० ६ । ४ ॥ १० ॥
त्रपु सीसेन त्रपु ( सन्दध्यात् ) । गो० पू० १ । १४ ॥ ,, रजतेन त्रपु ( सन्दध्यात् ) । जै० उ० ३ । १७ । ३ ॥
" त्रपुणा लोहायसम् ( सन्दध्यात् ) । जै० उ० ३ । १७ । ३ ।। त्रयत्रिंश: ( स्तोम : ) त्रयस्त्रिशो वै स्तोमानामधिपतिः । तां० ६ ।
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२।७॥
वै
एष
समृद्धः स्तोमो यत् त्रयस्त्रिकुशः । तांο
१५ । १२ । ६ ।
ज्योतित्र्यत्रिंशः स्त/मानाम् । तां १३ ।७।२ ॥ त्रयस्त्रिकुशः स्तामानां (सत्) । तां० ४।८।१० सत् (= उत्कृष्टमिति सायण: ) त्रयत्रिशः स्तोमा नाम् । तां० १५ | १२ । २ ।।
अन्तो वै त्रयस्त्रिकुशः परमो वै त्रयस्त्रिंश स्तोमानाम् । तो० ३।३।२ ॥
धर्म वै त्रयस्त्रिशः । तां० १६ । १० । १० ॥ तम् (त्रयस्त्रिंशं स्तोमं ) उ नाक इत्याहुः । तांο १० । १ । १८ ।।
देवता एव त्रयस्त्रि शस्यायतनम् | तां० १० । १ । १६ ॥
अनुकं त्रयस्त्रिशः । द्वात्रिंशद्वाऽ एतस्य करूकरारायनूकं त्रयस्त्रिंशम् । श० १२ । २ । ४ । १४॥ संवत्सरो वाष ' प्रतिष्ठा त्रयस्त्रिंशः' ( यजु० १४ । २३ ) तस्य चतुर्विंशतिरर्धमासाः पडतवो अहोरात्रे संवत्सर एव प्रतिष्ठा त्रयस्त्रिंशस्त
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( १६१ )
त्रयी विद्या ]
धत्तमाह प्रतिष्ठेति संवत्सरो हि सर्वेषां भूतानां प्रतिष्ठा । श० ८ । ४ । १ । २२ ॥
त्रयस्त्रिंशः (स्मः) त्रयस्त्रिंश एव स्तोमो भवति प्रतिष्ठायै । तां० ६५ | १२ | ८ ॥
त्रयी विद्या अथाह | स्तोमश्च यजुश्वऽऋक् च साम च बृहश्च रथन्तरं वेति त्रयी है। विद्यान्नं वै त्रयी विद्या । श० ६ । ३ ।
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३ । ९४ ।।
जयी वै विद्या । ऋचो यजुषि सामानि । श०४ । ६ । ७ ॥ १ ॥
सेवा त्रयी विद्या ( = ऋक्सामयजूंषि) यशः । श० १ । १।४।३॥
भूर्भुवस्स्वरिति सा त्रयी विद्या । जै० उ०२।९ ॥ ७ ॥ एवमेवैता । भूर्भुवः स्वरिति ) व्याहृतयत्रय्यै विद्यायै संषियः । कौ० ६ । १२ ॥
I
स (प्रजापतिः) श्रान्तस्तेपानो ब्रह्मैव प्रथममसृजत त्रयीमेष विद्याम् । श० ६ । १ । १ । ८ ॥
तद्यत्तत्सत्यम् । श्रयी सा विद्या । श० ६ । ५ । १ । १८ ॥ rita विद्या काव्यं छन्दः । श० ८ । ५ । २॥४॥
त्रयी विद्या निर्वपणम् । श०७ । ५ । २ । ५२ ॥
तस्य ( एकविंशसाम्नः ) त्रय्येव विद्या हिङ्कारः । जै० उ०
१ । १६ । २ ।।
मनसो वै समुद्राद्वाचाभ्रपा देवास्त्रयीं विद्यां निरखनन् | श० ७ ।५ । २ । ५२ ॥
सेवा त्रयी विद्या सौम्ये ऽध्वरे प्रयुज्यते । श०४ । ६ । ७ ॥ १ ॥
त्रय्यां घाव विद्याया सर्वाणि भूतानि । श० १० । ४ । २ । २२ ॥
प्रजापतिकाय्या विद्यया सहापः प्राविशत् । श० ६ । ३ । १ । १० ॥ ( 'वेदाः' इत्येतं शब्दमपि पश्यत )
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[f: (mg:)
( १६२ )
त्रयोविंश: ( स्तोमः ) " सम्भरणस्त्रयोविंशः इत्येतं शब्दं पश्यत । त्रिककुत ( पर्वतः ) यत्र वाऽ इन्द्रो वृ॒त्रमहंस्तस्य यदयासीत्तं गिरिं त्रिककुदमकरोत् । श० ३ । १ । ३ । १२ ॥
त्रिककु'छन्दः ( यजु० १५ । ४ ) उदानो वै त्रिककुप्छन्दः । श० ८।५।
२ ।४ ॥
त्रिव: ( स्तोमः ) वज्रस्त्रिणवः । श० ८ | ४ | १ | २० ॥ प० ३ | ४ ॥ वज्रो वै त्रिणवः । श० १३ । ४ । ४ । १ ॥ तां० ३ |
१ । २ ॥
1
यत्तिणवो (भवति) वज्रं भ्रातृव्याय प्रहरति । तां० १६ । १८ । ३ ॥
इमे वै लोकास्त्रिवः | तां० ६ । २ । ३ ॥ १६ ॥ १० ॥ ६ ॥
पार्श्वे त्रिणवः । त्रयोदशान्याः पशवस्त्रयोदशान्याः प. त्रिवे । श० १२ । २ । ४ । १३ ॥
त्रिवृदेव त्रिरणवस्यायतनम् | तां० १० । १ । १३ ॥ तं (त्रिणवस्तोमं ) पुष्टिरित्याहुस्त्रिवृध्येचैष पुएः । तां० १० । १ । १५ ॥
त्रिवृश्च त्रिणवश्च रथन्तरौ तावजश्चाश्वश्चान्वसृज्येतां तस्तात्तौ राधन्तरं प्राचीनं प्रधूनुतः । तां० १० ।
२।५ ॥
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"नोज स्त्रिणवः " शब्दमपि पश्यत ।
त्रिणिधनम् (साम) एतेन वै माध्यन्दिन सवनं प्रतिष्ठितं यत्तिणिधनम् । तां० ७ । ३ । २ ॥ द्यौस्त्रिणिधनम् । तां० २१ । २ । ७ ॥
त्रिपाद् श्रादित्यस्त्रिपात्तस्येमे लोकाः पादाः । गो० पू० २ | = ॥ त्रिपुरम् तस्मादु हैतत्पुरां परम रूपं यत्ति पुग्म् । श०६।३।३।२५ ॥ त्रिरात्रः (ऋतुः ) इमे लोकास्त्रिरात्रः । तां० १६ । ६१ । ४ ।। २१ । ७ ॥२॥ मूर्द्धा वा एष दिवो यस्तृतीयस्त्रिरात्रः । तां० १४ ।
२|२॥
अन्तस्त्रिरात्रो यज्ञानाम् । तां० २१।४।६॥
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( १९३) त्रिवृत् (स्तोमः) 1 विगत्रः (क्रतुः ) तस्याः (शबल्याः) त्रिरात्रो वत्सः । तां० २१ ।
३।१॥ वाग्वै त्रिरात्रः । तां० २० । १५ ॥२॥ तद्यथा अदो मनौ ( ? मणौ ) सूत्रमोतमेवमेषु लोकेषु त्रिरात्र श्रोतः, शोभते ऽस्य मुख य एवं वेद । तां०
२० । १६ ॥ ६॥ त्रिवृत (स्तोमः) घायुर्वाऽ आशुस्त्रिवृत्स एषु त्रिषु लोकेषु वर्तते । श०
।४।१।६॥ तान् (पशन ) अग्निस्त्रिवृता स्तोमेन नाप्नोत् । तै. २।७।१४।१॥ त्रिवृदग्निः । श०६ । ३।१।२५ ॥ अग्नि त्रिवृत् । तै० १ । ५ । १०।४॥ त्रिवृद्धा अग्निरङ्गारा अर्चिधुम इति । कौ० २८1५॥ तेजो वै त्रिवृत् । ता०२।१७ ॥ २ ॥ तेजो वै स्तोमानां त्रिवृत् । ऐ० ॥४॥ तेजो चै त्रिवृद् ब्रह्मवर्थसम् । तां० १७॥ ६ ॥ ३॥ २०॥ १०॥१॥ त्रिदेव स्तोमो भवति तेजसे ब्रह्मवर्चसाय । तां० ११।११७॥ ब्रह्मवर्चसं त्रिवृत् । तै०२।७।१।१॥ त्रिवृदेष भर्गः । गो० पू०५ । १५ ॥ ब्रह्मवै स्तोमानां त्रिवृत् । ऐ०८।४॥ ब्रह्म वै त्रिवृत् । तां० २।१६ । ४॥ १६ ॥ १७ ॥ ३॥ २३ । ७॥५॥ शिर एव त्रिवृत् । गो० ५० ५। ३॥ तस्मात् त्रिवृत् स्तोमानां मुखम् । तां०६।१।६॥ मुखं पै त्रिवृत्स्तोमानाम् । तां० १७ । ३।२॥ यत्तिवृद्भवति यदेवास्य ( यजमानस्य) मुखतोऽपूतं तत्तेनापहन्ति । तां० १७।५।६॥ प्राणौ पैत्रिवृत् । तां० २२॥६३६८१५ ॥
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{त्रिष्टुप
( १६४ ) त्रिवृत (स्तोमः) प्राणा वै त्रिवृत् । तां० २।१५। ३ ॥३।६।३॥
प्राणा वै त्रिवृत् स्तोमानां प्रतिष्ठा । ता०६।३।४ ॥ एष (प्रिवृत् ) हि स्तोमानामाशिष्ठः । श० ८।४। १।६॥ त्रिवृद्वै स्तोमानां क्षेपिष्टः । १०३ ॥ तां० १७ । १२।३॥ वजो वै त्रिवृत् । ष०३। ३,४॥ त्रिवृद्धहिर्भवति । तै०१।६।३।१॥ वसन्तेन ना देवा वसवस्त्रिवृता स्तुतम् । रथन्तरण तेजसा । हविरिन्द्रे धयो दधुः । तै० २।६।१६।१॥ निवृच्च त्रिणवश्च राथन्तरौ तावजश्चाश्वश्चान्वसृज्येतां
तस्मात्तौराथन्तरं प्राचीनं प्रधूनुतः। तां०१०।२१५॥ त्रिश्रेणि: ( अमिः ) त्रिश्रेणिरितिच्छन्दांस्येव श्रेणीरकुरत। ऐ० ३।३९॥ विषत्या: त्रिषत्या हि देवाः । ष०१।१॥ तै० ३।२।३।८॥ त्रिष्टुक् ( छन्दः) इन्द्रियं वै त्रिष्टुक् । तै० ३।३।६।॥ त्रिष्टुप् (छन्दः) त्रिष्टुप् स्तोभ इत्युत्तरपदा का तु त्रिता स्थात्तीर्णतमं
छन्दो भवति । दे०३।१४, १५॥ त्रिवृद्धजस्तस्य स्तोभमिवेत्यौपमिकम् । दे० ३ । १६ ॥ वजस्तेन यत्त्रिष्टुप् । ऐ० २।१६॥ वज्रस्त्रिष्टुप् । कौ०७।२॥ श०३।६।४।२१ ॥ त्रैष्टुभो वज्रः । गो० उ०१।१८ ॥ त्रिष्टुबिन्द्रस्य वज्रः । ऐ०२।२॥ त्रैष्टभ इन्द्रः । कौ०३।२॥२३ । ७ ॥ इन्द्रस्त्रिष्टुप् । श०६।६।२।७॥ ऐन्द्रं त्रैष्टुभं माध्यन्दिनं सवनम् । गो० उ. ४।४॥ ऐन्द्रं हि त्रैष्टभ माध्यन्दिनं सवनम् । कौ० २६ । २॥ त्रैष्टुभं वै माध्यन्दिनं सवनम् । ऐ०६॥ ११ ॥ त्रैष्टुभं माध्यन्दिनं सवनम् । १० १॥४॥ एते गाव छन्दसां वीर्यवत्तमे यदायत्री च त्रिष्टुप् च । तां०२०।१६।॥
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( १६५ )
त्रिष्टुप् ]
त्रिष्टुप् (छंदः) षीय्यं वै त्रिष्टुप् । ऐ० १ । २१ ॥ ४ । ३, ११ ॥ ६ ॥ १५ ॥
प० ३ । ७ ॥
बलं वै वीय्यं त्रिष्टुप् । कौ० ७ । २ ॥ ८ १२ ॥ ११ । २ ।। १६ । १ ॥ गो० उ०५ । ५ ॥
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बलं वीर्य्यं पुरस्तातिष्टुप् । कौ० ११ । २ ॥
श्रोजो वा इन्द्रियं वीर्यं त्रिष्टुप् । ऐ०१५, २८॥
६ । २ ॥
इन्द्रियं वै वीर्यं त्रिष्टुप् । तै० १ । ७ । ६ । ८ ॥ इन्द्रियं वै त्रिष्टुप् । तै० १ १ ७ । ६ । २ ॥ उरस्त्रिष्टुप् । ६० २ । ३ ॥
उरस्त्रिष्टुभः । श० ८ । ६ । २ । ७ ॥ वृषा त्रिष्टुप् । कौ० २० ॥३॥ त्रिष्टुप्छन्दा वै राजन्यः । तै० १ । त्रैष्टुभो वै राजन्यः । ऐ० १ । २८ ॥
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। ६ । ६ ॥
= | २ ॥
( राजन्यस्य । त्रिष्टुप् छन्दः । तां ६ | १ | ८ ॥ क्षत्रस्यैवैतच्छन्दो यत्त्रिष्टुप् । कौ० १० ॥ ५ ॥
क्षत्रं वै त्रिष्टुप् । कौ० ७ । १० ॥
ब्रह्म गायत्री क्षत्रं त्रिष्टुप् । श० १ । ३ । ५ । ५ ॥ क्षत्रं त्रिष्टुप् । कौ० ३ | ५ ॥ श० ३ । ४ । १ । १० ॥ अथैतदधीतरसं शुक्रियं छन्दो यत्तिष्टुप् । ऐ० ६ । १२ ।। त्रिष्टुबेव महः । गो० पू० ५ । १५ ॥
या राका सा त्रिष्टुप् । ऐ० ३ | ४७, ४८ ॥ त्रिष्टुम्भीयम् पृथिवी ) । श०२ । २ । १ । २० ॥ वैष्टुभो हि वायुः । श० ८ । ७ । ३ । १२ ।।
त्रैष्टुभे ऽन्तरिक्षलोके त्रैष्टुभो वायुरध्यूढः । कौ० १४ | ३ || यजुषां वायुर्देवतं तदेव ज्योतिस्त्रैष्टुभं छन्दोऽन्तरिक्ष स्थानम् । गो० पू० १ । २६ ॥
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त्रैष्टुभो म्तरिक्षलोकः । कौ० ८६ ॥ भैष्टुभमन्तरिक्षम् । श०८ | ३ | ४ | ११ ॥ अन्तरिक्षं त्रिष्टुप् । जै० उ० १ । ५ ५ । ३ ॥
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[त्रिष्टुप
( १९६ ) त्रिष्टुप् (छंदः) अन्तरिक्षम वै त्रिष्टुप् । श०१ । । ।२।१२॥
अन्तरिक्ष विष्णुर्व्यस्त त्रैष्टुभेन छन्दसा ततो निर्भक्तो यो ऽस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः । श० १। है।३।१०॥ त्रिष्टुबसौ (धौः)। श०१।७।२।१५ ॥ असावुत्तमः ( लोकः धुलोकः ) त्रिष्टुप् । तः०७। ३ ॥ त्रैष्टुभो वा एष य एष ( सूर्यः) तपति । कौ० २५॥४॥ श्रेष्टुब्जागतो वा प्रादित्यः । तां०४। ६ । २३ ॥ त्रैष्टुभाः पशवः। कौ० ।१॥१०॥२॥ अपानत्रिष्टुप् । तां०७॥३ ॥ यऽ एवायं प्रजननः प्राण एष त्रिष्टुप् । श० १०।३। १।१॥ त्रैष्टुभं चक्षुः। तां० २० । १६ । ५॥ आत्मा वै त्रिष्टुप् । श०६।४।२॥६॥ आत्मा त्रिष्टुप् । श० ६।२।१। २४ ॥ ६।६। २॥ ७॥ प्रात्मा त्रिष्टुभः । श०।६।२।३॥ त्रैष्टुभः पञ्चदशस्तोमः । तां०५।१।१४॥ एतदै बृहतः स्वमायतनं यत्त्रिष्टुप् । तां०४।४।१०। श्रेष्टुमं वै बृहत् । तां०५।१।१४॥ त्रैष्टुभो ब्राह्मणाच्छसी । तां०५।१।१४ ॥ नारासँस्या त्रिष्टुप् (अपुनीत)। जै० उ० १ । ५७॥१॥ त्रिष्टुब्दक्षिणा ( दिक् ) । श० ८ । ३।१ । १२ ॥ त्रिष्टु द्राणां पत्नी । गो० उ०२३॥ रुद्रास्त्रिष्टुभं समभरन् । जै० उ०१।१८।५॥ यस्यैकादश तास्त्रिष्टुभम् । कौ०४।२॥ एकादशाक्षरावै त्रिष्टुप । कौ०३।२॥१०॥२॥ तां. ६।३ । १३ ॥ ऐ०३ । १२॥ १२॥ श०१। ३।५।५. तै०३।१२।१॥ गो० उ० १११८॥३॥१०॥
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( १६७ )
स्व] त्रिष्टुप् (दः) चतुश्चत्वारिशदक्षरा वै त्रिष्टुप् । श० ८ ।५।
१।११॥ , चतुश्चत्वारिंशदक्षरा त्रिष्टुप् । कौ० १६॥ ७॥ जै० उ०
४।२।५॥ श्रीणि रोचनानि सवनानि वै त्रीणि रोचनानि । श० - । ७।३। २१ ॥ त्रेता (युगम्) उत्तिष्ठस्ता भवति । ऐ०७ । १५ ॥ ककुभम् ( साम) ताथस्त्रिककुबधिनिधाया चरत्स एतत्सामापश्य
द्यस्त्रिककुबपश्यत्तस्मात्त्रैककुभम् । तां०८।१४॥ त्रैककुभं पशुकामाय ब्रह्मसाम कुर्य्यात् "त्वमङ्ग प्रश१७सिष" इत्येतासु। तां०८।१।३॥ त्रिवीयं धा एतत्साम त्रीन्द्रियमैन्द्रय ऋच ऐन्द्र सामन्द्रेति निधनमिन्द्रिय एव वीर्ये प्रतितिष्ठति । तां०८।१।७॥ प्रोजस्येव तद्वीये प्रतितिष्ठत्योजो वीयं त्रैककुभम् ।
तां० १५। ६ । ५॥ त्रैतम् ( साम) नाथविन्दु (त्रैतं) साम विन्दते नाथम् (=याचितफल.
मिति सायणः)। तां०१४ । ११ ॥ २३ ॥
घेतं भवति प्रतिष्ठायै । तां० १४ । ११ । ११ ॥ अंशोकम् (साम) त्रैशोकं ज्योगामयाविने ब्रह्मसाम कुर्य्यात् । तां०८।
१ ॥ इमे वै लोकाः सहासस्ते ऽशोच छस्तेषामिन्द्र एतेन साना शुचमपहन्यत्त्रयाणां शोचतामपाहस्तस्मास्त्रैशोकम् । तां० ८।१।६॥ अप पाप्मान हते त्रैशोकेन तुष्टुवानः । तां०१२ ।
१०।२२॥ यनीकः (अमिः) व्यनीक इति सवनान्येवानीकानि । ऐ. ३ । ३६॥ त्र्यम्बकः अम्बिका ह वै नामास्य (रुद्रस्य) स्वसा, तयास्यैष सह भाग
स्तद्यदस्यैष स्त्रिया सह भागस्तस्मात् त्र्यम्बकाः पुरोडाशाह)
नाम श० २।६।२६ स्वक् स्वक् प्रस्तावः । जै० उ०१॥ ३६॥ ६॥
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( १६८ )
त्व
त्वक्सूददोहाः । श० ८ | १ | ४|५ ॥
त्वष्टा वाग्वै त्वष्टा वाग्धीदं सर्वं ताष्टीव । ऐ० २ । ४ ॥
[ त्वाष्ट्रीसाम
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त्वष्टृर्ह वै पुत्रः । त्रिशीर्षा षडक्ष श्रास तस्य त्रीण्येव मुखान्यासुस्तद्यदेवंरूप आस तस्माद्विश्वरूपो नाम । श० १ । ६ । ३ । १ ॥ ५।५।४।२ ॥
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, त्वाष्ट्रं दशकपालं पुरोडाशं निर्वपति । श० ५ | ४ | ५ | ८ ॥ (श्रीः) त्वाष्ट्रं दशकपालं पुरोडाशं ( अपश्यत् ) । श० ११ । ४ । ३५॥
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(ऋ० १ । १२ । ६) इन्द्रो वै त्वष्टा । ऐ० ६ । १० ॥
त्वष्टा वै पशूनामष्टे । श० ३ । ७ । ३ । ११ ॥
त्वष्टुर्हि पशवः । श० ३ । ८ । ३ । ११ ॥
त्वष्टा पशूनां मिथुनाना रूपकृद्रूपपतिः । तै०२|५|७|४|| रूपकृत् । तै० ३ । ८ । ११ । २ ॥
त्वष्टा वै पशूनां मिथुनाना
त्वष्टा वै पशूनां रूपाणां विकर्त्ता । ० ६ । १० । ३ ॥
त्वष्टा हि रूपाणि विकरोति । तै० २ । ७ । २ । १ ॥ त्वाष्ट्राणि वै रूपाणि । श० २ । २ । ३ । ४ ॥
त्वष्टा वै रूपाणामीशे । तै० १ । ४ । ७ । १ ॥
त्वष्टा वै रूपाणामीष्टे । श० ५ । ४ । ५ । ८ ॥
त्वष्टा रूपेण । तै० १ | ८ | १ | २ ॥
त्वष्टा (श्रियः) रूपाणि (आदत्त) । श० ११ । ४ । ३ । ३ ।।
त्वष्टा वै रेतः सिक्तं विकरोति । कौ० ३ । ६ ॥
त्वष्टा 'वै सिकथं रेतो विकरोति । श० १ । ६ । २ । १० ॥ ३।
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७ १२ । ८॥ ४ । ४ । २ । १६ ।।
रेतः सिक्तर्वै त्वाष्ट्रः । कौ० १६ ॥ ६ ॥
त्वष्टः समिधां पते । तै० ३ । ११ । ४ । १ ।
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( प्रजापतिः) त्वाष्ट्रमवि (श्रलिप्सत) | श० ६ । २ । १ । ५. ॥
वारुणी च हि त्वाष्ट्री चाविः । श० ७ । ५ । २ । २० ॥
त्वाष्ट्रं वडवमालभेत प्रजकामः । गो० उ०२ । १॥
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त्वाष्ट्रीसाम इन्द्रं वा श्रक्ष्यामयिणं भूतानि नास्वापयस्तमेतेन त्वष्ट्रur searपयस्तद्वाव तास्तर्ह्यकामयन्त ॥ काम
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। १६६ )
दक्षिणा] सनि साम त्वाष्ट्रीसाम काममेवैतेनावरुन्धे । तां० १२ ।
५।१६-२०॥ स्वाष्टीसाम इन्द्रो वृत्रादिभ्यद्गां प्राविशत्तं त्वाष्ट्रयो ऽवअनयामेति
तमेतैः समाभिरजनयजायामहा इति वै सत्रमासते
जायन्त एव । तां० १२ । ५ २१॥ वेष वचः एनश्च वैरहत्यञ्च त्वेषं वचः । तै १।५।।६॥ स्वेष: ( यजु० १२ । ४८ ) (=महान् ) त्वेषः स भानुरर्णवो नृचक्षा
इति महान्त्स भानुरर्णवो नृचक्षा इत्येतत् । श. ७।१।१।२३ ॥
दक्षः दक्षो ह वै पार्वतिरेतेन यज्ञेनेष्वा सर्वान् कामानाप ।कौ० ४।४॥ , स (प्रजापतिः) वै दक्षो नाम । श० २।४।४।२॥ , 'ऋतुं दक्षं वरुण संशिशाधि' (ऋ० । ४२ । ३) इति धीय
प्रज्ञानं वरुण संशिशाधीति । ऐ०१।१३॥ ,, ( यजु०६४।३) (वीर्यम् ) स्वैर्दवैर्दक्षपितेह सीदेति ।
स्वेन वीर्येणेह सीदेत्येतत् । श० ८।२।१।६॥ , अथ यदस्मै तत्समृध्यते स दक्षः। श०४।१।४।१॥ " घरुणो दक्षः। श०४।१।४।१॥ दक्षणिधनम् (साम) (प्रजापतिः) तासु (प्रजासु) एतेन (दक्षणिधनेन )
__ साना दक्षायत्योजो वीर्यमदधाद्यदेतत्साम भव
त्योज एव वीर्य्यमात्मन्धत्त । तां० १४॥ ५ ॥१३॥ दक्षिण: (अर्द्धः) दक्षिणो वा अर्द्ध श्रात्मनो (शरीरस्य) वीर्यवत्तरः ।
तां०५।१।१३ ॥ दक्षिणा तं (यशं) देवा दक्षिणाभिरदक्षयंस्तद्यदेनं (यशं) दक्षिणा
भिरदक्षयरतस्माइक्षिणा नाम। श० २।२।२।२॥ ४।३।४।२॥ तघदक्षिणाभिर्य दक्षयति तस्माद्दक्षिणा नाम ।
कौ० १५ ॥ १॥ , दक्षिणा वै यज्ञानां पुरोगषी । ऐ०६।३५ ॥
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[ दक्षिणा दिक (२०० ) दक्षिणा एषा ह वै यज्ञस्य पुरोगवी यक्षिणा। गो० उ०
६॥ १४॥ शुभो वा एता यज्ञस्य यदक्षिणाः। तां०१६ । ११४॥ श्लेष्म वा एतद्यज्ञस्त्र यदक्षिणा। तां० १६।१।१३॥ यज्ञोऽदक्षिणो रिष्यति तस्मादाहुर्दातव्यैव यशे दक्षिणा भवत्यल्पिकापि । ऐ०६।३५ ॥ तस्मानादक्षिणेन हविषा यजेत । श०१।२।३।४॥ नादक्षिण हविः स्यादिति ह्याहुः । श०११ । १। ३ । ७॥ ११ ॥ १।४।४॥ तस्मादृत्विग्भ्य एव दक्षिणा दद्यानानुत्विग्भ्यः । श०४।३।४।५॥ अर्धा ह स्म वै पुरा ब्रह्मणे दक्षिणा नयन्तीति । अर्धा इतरेभ्य ऋत्विग्भ्यः । जै० उ०३ । १७ । ५ ॥ तस्मादात्रेयाय प्रथमदक्षिणा यज्ञे दीयन्ते । गो० पू०२।१७॥ चतस्रो वै दक्षिणाः । हिरण्यं गौर्वासो ऽश्वः । श० ४।३।४।७॥ अन्नं दक्षिणा । ऐ०६।३॥ दक्षिणा वै स्तावाः (अप्सरसः, यजु० १८ । ४२) दक्षिणाभिर्हि यज्ञ स्तूयते ऽथो यो वै कश्च दक्षिणां ददाति स्तूगतऽ एव सः । श०६।४।१।११।। दक्षिणाः सावित्री । गो० पू० १॥ ३३ ॥ दक्षिणासु त्वेव न संवदितव्य संवादेनैवविजो ऽलोका इति । श०६।५।२।१६॥ यन्माध्यन्दिने सवने दक्षिणा नीयन्ते स्वर्ग एतेन
लोके हिरण्यं हस्ते भवति । गो० उ०३ । १७ ॥ दक्षिणा दिक् पितृणां वा एषा दिग्यदक्षिणा । ष०३।१॥
एषा वै ( दक्षिणा) दिक् पितृणाम् । श०१।२।५।१७ ॥ दक्षिणासंस्थो वै पितृयशः । कौ० ५। ७॥ गो० उ०१॥ २५॥
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( २०१ )
दक्षिणा दिक् ]
दक्षिणा दिक् दक्षिणत उपसृजति । पितृलोकमेव तेन जयति । तै०
२ । १ । ६ । १ ॥
मनोजवास्त्वा पितृभिर्दक्षिणतः पातु । श० ३|५|२२६॥ बम्माऽऽद्विषेण ( उद्गात्रा दीक्षामहा इति ) पितरो दक्षिणतः ( श्रागच्छन् ) । जै० उ०२ । ७ । २ ॥ घोरा वा एषा दिग्दक्षिणा शान्ता इतराः । गो० पू० २ । १६ ॥
किदेवतो ऽस्या दक्षिणाया दिश्यसीति । यमदेवत इति । श० १४ । ६ । ६ । २२ ॥
यमनेभ्यो देवेभ्यो दक्षिणासद्भयः स्वाहा । श०५ | २ |
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४।५ ॥
अथैनं (इन्द्र) दक्षिणस्यां दिशि रुद्रा देवाः. बिश्चन्...... भौज्याय । ऐ० ८ १४ ॥ रुद्रास्त्वा दक्षिणतो ऽभिषिञ्चन्तु त्रैष्टुभेन छन्दसा । तै० २ । ७ । १५ । ५ ॥
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(वायुः) यद्दक्षिणतो वाति । मातरिश्वैष भूत्वा दक्षिणतो वाति । तै० २ । ३।६।५॥
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तस्मादेव ( वायुः) दक्षिणैव भूयिष्ठं वाति । श० ८ । १ । १ । ७ । ८ । ६ । १ । १७ ॥
दक्षिणतो वासीशानो भूतो वासि । जै० उ० ३ । २१ । २|| तं ( संशप्तं पशुं ) दक्षिणा दिग्व्यानेत्यनुप्राणपानमेवास्मिँस्तददधात् । श० ११ | ८ | ३ | ६ ॥ दक्षिणा दिक् । इन्द्रो देवता । तै० ३ । ११ । ५ । १ ॥ अथ दक्षिणं परिदधाति । इन्द्रस्य बाहुरसि दक्षिणो विश्वस्यारिष्ट्य (यजु० ११ । ३ ) । श० १ । ३ । ४ । ३ ॥ अतो हीन्द्रस्तिष्ठन्दक्षिणतो नाष्ट्रा रक्षार्थस्यपाहन् ।
श० १।४।५ । ३ ॥
एतद्वै देवा अभियुर्यद्वै नो यज्ञं दक्षिणतो रक्षार्थसि नाष्ट्रा न हन्युरिति । श० ७ । ४ । १ । ३७ ॥
वृत्रशङ्कं दक्षिणतो ऽधस्यैवानत्ययाय । २०१३ २८|४|१||
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[दधि
(२०२) दक्षिणा कि दक्षिणामेव दिश सोमेन प्राजानन् । श० ३।२।३.१७ , स (सोमः) दक्षिण दिशं प्राजानात् । कौ० ७॥ ६ ॥
(हे देवा यूयं) अग्निना दक्षिणां (दिशं प्रजानाथ)। ऐ. १॥ ७॥ दक्षिणा (दिक् ) ब्रह्मणः । श०१३ । ५।४।२४ ॥ दक्षिणामारोह त्रिष्टुप्त्वावतु बृहत्साम पञ्चदश स्तोमो ग्रीष्म ऋतुः क्षत्रं द्रविणम् । श०५।४।१।४॥ दक्षिणामाहुर्यजुषामपाराम् । ते० ३।१२।।१॥ त्रिष्टुब्दक्षिणा ( दिक् )। श०८।३।१ । १२ ॥ तस्मादेतस्यां (दक्षिणस्यां ) दिश्येतौ पशू (गौश्चाजश्च) भूयिष्ठौ । श०७।५।२।१६ ॥ दक्षिणैव (दिक) सर्वम् । गो० पू०५।१५ ।। तस्मादेतस्यां दक्षिणस्यां दिशि ये के च सत्वतां राजानो भौज्यायैव ते ऽभिषिच्यन्ते भोजत्येनानभिषिक्तानाच.
क्षते। ऐ० । १४ ॥ दक्षिणाग्निः यजुर्वेदाइक्षिणाग्निः (अजायत)।०४।१॥
., भ्रातृव्यदेवत्यो दक्षिणः (अग्निः) । तै० १ । ६ । ५ ॥४॥ दण्डः (दण्डः) मुखसंमितो भवति । श०३।२।१।३४॥ , घजो वै दण्डो विरतस्तायै । श०३।२।१। ३२ ॥ , तस्मादिषुहतो वा दण्डहतो वा दशमी (रात्रि) नैर्दश्यं
(=दुःखनिवृत्ति) गच्छति । तां० २२ । १४ । ३॥ दषि (इन्द्रः) यदधीचिनोति मेति तस्मादधि । श० १।६।४।। , ऐन्द्रं वै दधि । श०७।४।१।४२॥ , अथ यदनडुबै घहलायाऽ ऐन्द्रं दधि भवति स इन्द्रस्य चतुर्थी
भागः। श०५।२।४।१३॥ , इन्द्रियं वै दधि । तै०२।१।५।६॥ ,, इन्द्रियं वा एतदस्मिन् लोके यहधि । ऐ० ८।१६ ॥ , दधि हैवास्य लोकस्य रूपम् । श०७।५।१।३॥ ॥ अथ यदि दधि (प्राहरेत्) वैश्यानां स भक्षः। ऐ०७ ॥ २६ ॥ " ऊर्वा अन्नाद्य दधि । तै०२।७।२।२॥
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दधि सोमो वै दधि । कौ० ८६ ॥
सरस्वत्यै दधि । श० ४ । २ । ५ । २२ ॥
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दधिक्रा (ऋक् ) देवपवित्रं वै दधिक्रा । ऐ० ६ । ३६ ॥
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अन्नं वै दधिका । गो० उ० ६ । १६ ॥
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दध्यङ्: इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः । जघान नवतीर्नघ ।
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० १ | ५ | ६ | १ ॥
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(यजु० ११ । ३३) वाग्वै दध्यङ्ङ्काथर्वणः । श०६ । ४ । २।३ ॥ दनायु:, दनुः श्रथ (वृत्रः) यदपात्समभवत्तस्मादहिस्तं दनुश्च दनायुश्च मातेव च पितेव च परिजगृहतुस्तस्माद्दानव इत्याहुः । श० १ । ६ । ३ । ६ ॥
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( २०३ )
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दन्ताः यस्मादधरे (दन्ताः) एवाग्रे जायन्ते ऽथोत्तरे यस्मादणीयां - स एवाधरे प्रथीयास उत्तरे यस्माद्दंष्ट्रा वर्षीया सो यस्मात्समा एव जम्भ्याः । श० ११ । ४ । १ । ५ ॥ दन्दशूकाः नैते क्रिमयो नाक्रिमयो यद्दन्दशूकाः । श० ५ । ४ । १ । २ ॥ लोहिता इव हि दन्दशकाः । श० ५ । ४ । १११॥ दर्भस्तम्बः श्रग्मिवान् वै दर्भस्तम्बः । तै०२ । २ । १ । ५ ।। ३ । ७।३।३ ॥ दर्भाः उभयम्वेतदन्नं यद्दर्भा श्रापश्च होता श्रोषधयश्च या वै वृत्राद् बीभत्समाना आपो धन्व दृभन्त्य उदायंस्ते दर्भा अभवन्य भन्त्य उदायंस्तस्मादर्भास्ता हैताः शुद्धा मेध्या आपो वृत्राभिप्रक्षरिता यद्दर्भा यदु दर्भास्तेनौषधयः । श० ७ । २ । ३ । २ ॥
ते ( दर्भाः ) हि शुद्धा मेध्याः । श०७ । ३ । १ । ३ ।। ६।२। १।१२ ॥
मेध्या वै दर्भाः । श० ३ । १ । ३ । १८ ।। ५ । २।११६ ॥
आपो दर्भाः । श० २ । २ । ३ । ११ ॥
आपो वै दर्भाः । तै० ३ । ३ । २ । १ ॥
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दुर्भाः ]
दध्यङ् वा श्राङ्गिरसो देवानां पुरोधानीय श्रासीत् । तां० १२ ।
८ । ६ ॥
अपां वा पततेजो वर्चः । दद्दर्भाः । तै० २ । ७ । ६ । ५ ॥
पवित्रं वै दर्भाः । श० ३ । १ । ३ । १८ ॥ तै० १ । ३ । ७ । १ ॥
३ । ६ । २ । ३ ॥
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[ दशहोता
( २०४) दर्शपूर्णमासौ एष वै पूर्णमाः। य एष (सूर्यः) तपत्यहरहोवैष पूर्णो
ऽथैष एव दर्शो यच्चन्द्रमा ददृश इव द्वेषः। अथोऽस्तरथाहुः । एष एव पूर्णमा यश्चन्द्रमा एतस्य छनु पूरणं पौर्णमासीत्याचक्षते ऽथैष एव दर्शो य एष (सूर्यः) तपति ददृश इव ह्येषः। श० ११ । २।४।१-२॥ सवृत(? समृत-यज्ञो वा एष यहर्शपूर्णमासी । गो० उ०२॥२४॥ दर्शपूर्णमासौ वा अश्वस्य मध्यस्य पदे। तै० ३।९। २३ ॥१॥ स यो हैवं विद्वानग्निहोत्रं च जुहोति दर्शपूर्णमासाम्या च यजते मासिं मासि हैवास्याश्वमेधेनेष्टं भवति । श०
११ । २।५।५॥ दविद्युतती दविद्युतती वै गायत्री । तां० १२ । १ । २॥ शपेयः अथ यहशमे ऽहन्प्रसूतो भवति तस्मादशपेयो ऽथो यहश दशै
कैकं चमसमनु प्रसृता भवन्ति तस्माद्वेव दशपेयः। श०५।
४।५।३॥ दशममहः अथ यहशममहरूपयन्ति । संवत्सरमेव देवतां यजन्ते। श०
१२।१।३।२०॥
श्री दशममहः । ऐ० ५॥ २२॥ ,, मितमेतदेवकर्म यहशममहः । कौ २७ ॥१॥ , प्रतिष्ठा दशममहः। कौ०२७।२॥ २६ । ५॥
, अन्तो घा एष यज्ञस्य यदशममहः। तै० २।२।६।१॥ दशरात्रः अथ यहशरात्रमुपयन्ति । विश्वानेव देवान्देवतां यजन्ते । श०
१२।१।३।१७॥ दश वीराः ( यजु० १६ । ४८ ॥) प्राणा वै दश वीराः । श० १२।।
१॥२२॥ दशहोता तस्मै (ब्रह्मणे) दशम हूतः प्रत्यशृणोत्। स दशहूतोऽभवत् ।
दशहूतो ह वै नामैषः । तं वा एतं दशहूत, सन्तं दशहोते त्याचक्षते परोक्षण, परोक्षप्रिया इव हि देवाः । तै० २।३। ११।१॥
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(२०५ )
दिवा] दशहोता वाचस्पतिहोता दशहोतृणाम् । ते ३। १२ । ५।१॥ ', प्रजापतिः दशहोतणा, होता । तै० २।३।५।६॥ र प्रजापतिः दशहोता । ते. २ । २।१।१॥२।२।३।
२॥२॥२॥ ८ ॥ ५॥२।२।।३॥ ,, यशोवै दशहोता । तै० २।२।१।६॥ ,, अग्निहोत्रं वै दशहोतुर्निदानम् । तै० २।२।११ । ६॥ दशाहानि विराड् वा एषा समृद्धा यह शाहानि । तां० ४।८।६॥ दस्थुः त एते ऽन्ध्राः पुण्ड्राः शबराः पुलिन्दा मूतिबा इत्युदन्त्या बहवो
वैश्वामित्रा दस्यूनां भूयिष्ठाः । ऐ०७ । १८ ॥ दाक्षायणयज्ञः ( इष्ठिः ) दक्षो ह वै पार्वतिरेतेन यशेनेष्वा सर्वान् कामा
नाप । कौ०४।४॥ स (प्रजापतिः) वै दक्षो नाम । तद्यदेनेन सो ऽ ऽयजत तस्मादाक्षायणयक्षो नामोतैममेके
घसिष्ठयक्ष इत्याचक्षते । श० २।४।४।२॥ दाता भग्नि दाता स एवास्मै यज्ञं ददाति । कौ०४।२॥ दारु कार्णायसेन दारु ( संदध्यात् )। जै० उ०३ । १७ । ३ ।।
, दारु च चर्म च श्लेष्मणा (संदध्यात् )। जै० उ० ३ । १७ ॥ ३॥ दारुपात्रम् अग्निवद्वै दारुपात्रम् । ते० ३ । २ । ३ । ८॥ दावसुनिधनम् ( साम ) आशिषमेवास्मा एतेनाशास्ते । तां० १५ । ५॥१३॥ दाशस्पत्यम् (साम) यां वै गां प्रशासन्ति दशस्पत्येति तां प्रश
सन्त्वहरेवैतेन प्रशसन्ति । तां० १३ । ५ । २७ ।। दाश्वान ( यजु० । १२ । १०६ ॥ १३ । ५२ ॥) यजमानो वै दाश्वान् ।
श०२।३।४।३८,४०॥ ७ । ३।१।२६ ॥ ७॥
५।२।३६॥ दिनिधनम् ( देवाः) अन्तरिक्षं दिनिधनेन ( अभ्यजयन् )। तां०
१०।१२।३॥ दिषवः इषवो वै दिद्यवः । श०५।४।२।२॥ दिव ऊधः ( यजु० १२ । २०) आपो दिव ऊधः । श०६।७।४।५॥ दिवा व्युष्टि विवा, ध्येयास्मै वासयति । ता० ८।१ ॥१३॥
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दिशः]
( २०६) दिचाकीय॑म् ( अहः) शिरो वै दिवाकीर्त्यम् । ता. २४।१४।४॥२५॥८॥ दिवाकीानि ( सामानि) रश्मयो वै दिवाकीानि । ऐ०४।१६॥ तै०
११.२।४।२॥ रश्मयो वा एत आदित्यस्य यहिवाकीानि । तां०४।६।१३॥ स्वर्भानुर्वा पासुर श्रादित्यन्तमसाविध्यत्तस्य
देवा दिवाकीत्यैस्तमोपाघ्नन् । ता० ४.६१३३ दिवि श्रव उत्तमम् ( यजु० १२ । ११३ ) चन्द्रमा वा अस्य (सोमस्य )
दिवि श्रव उत्तमम् । श०७।
३।१।४६॥ दिवोऽर्ण: ( यजु० १२ । ४६) आपो वाऽ अस्य ( अग्नेः ) दिवोऽर्णः ।
श०७।१।१।२४॥ दिव्यं नभः पापो वै दिव्यं नमः । श० ३ । - । ५। ३ ॥ दिव्यं रोचनम् असौ धाऽ आदित्यो दिव्य रोचनम् । श२ ६।२।
१।२६॥ दिव्यानि धामानि ( यजु० ११ । ५ : इमे वे लोका दिव्यानि धामानि ।
श०६।३।१ । १७॥ दिव्यो गन्धर्वः ( यजु० ११ । ७ ) असो वाऽ आदित्यो दिव्यो गन्धर्वः।
श०६।३।१।१६ ॥ दिव्यौ श्वानौ (, कालकजाख्यानामसुराणांमध्ये ) द्वावुदपततां । तो
दिव्यो श्वानावभवताम् । ( पश्यत-मैत्रायणीसंहितां १ ।
६।६। काठकसंहितां।१॥)। तै १।१।२।५-६॥ दिशः पञ्च वै दिशः । श० ५।४।४।६॥ ,, पञ्च वा इमा दिशश्चतस्रस्तिरश्च एको । ऐ०६।३२॥ ,, तद्या अमुष्मादादित्यादर्वाच्यः पञ्च दिशस्ता नाकसदः । श०।
६।१।१४॥ ,, याः (अमुष्मादादित्यात् ) पराच्यः ( पञ्च दिशः) ता: पञ्च
चूडाः । श० = ।६।१।१४॥ , सप्त दिशः । श०६।५।२।। ,, दिशः सप्तहोत्राः ( यजु० १३ । ५)। श० ७ । ४ । १ । २० ॥
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( २०७)
दिशः। दिश: नव दिशः। श०६।३।१ । २१ ॥ ६ ।।२।१०॥ , दश दिशः। श०६।३।१।२१ ॥ ४।२।१३॥ , दिशो वैसनाकः स्वगों लोकः। श०८।६।१।४॥ ,, स्वर्गो हि लोको दिशः। श०८1१।२।४॥ , ता वा एता देव्यः । दिशो हताः। श०९।५।१ । ३६ ॥ , दिशोऽग्निः । श०६।२।२।३४॥६।३।१।२१ ॥६। ।
२।१०॥ ,, 'विश्वे त्वा देवा वैश्वानराः कृण्वन्त्वानुष्टुभेन छन्दसाङ्गिरस्वत्
( ध्रुषासि दिशो ऽसि'-यजु० ११ । ५८ ) इति दिशो हैतद्यजुरेतद्वे विश्वे देवा वैश्वानरा एषु लोकेषूखायामेतेन चतुर्थेन
यजुषा दिशो ऽदधुः। श०६।५।२॥६॥ , ता ( दिशः ) उ एव विश्वे देवाः । जै० उ० २।२।४॥२॥
" स (प्रजापतिः ) विश्वान्देवानसृजत तान्दिथुपादधात् । श०६।
१।२।६॥ , वायुर्दिशा यथा गर्भः। श.१४।।४।२१॥ , दिशो लोगेष्टकाः । श०७।३।१।१३, २७॥ , दिशो वै हरितः । श०२।५।१।५॥ , दिशः शिक्यं दिग्भि मे लोकाः शक्नुवन्ति स्थातुं यच्छक्नु
पन्ति तस्माच्छिक्यम् । श०६।७।१।१६ ॥
ऋतवो वै दिशः प्रजननः । गो० उ०६।१२॥ . , दिशो मे श्रोत्र धिताः । तै०३।१०।८।६॥ , अथ यत्तच्छोत्रमासीत्ता इमा दिशो ऽभवन् । जै० उ०२।
२॥४॥ , तद्यत्तच्छ्रोत्रं दिशस्ताः । जै० उ० १ । २८18 ॥ , यत्तच्छोत्रं दिश एव तत् । श०१०।३।३।७॥
श्रोत्रं दिशः । जै. उ० ३।२।८॥ दिशो वै श्रोत्रं दिशः पर रजः । श०७।५।२।२० ॥ , दिशो वै लोहमय्यः (सूच्यः)। श० १३ । २।१०।३॥ , दिशो वा अयस्मय्यः (सूच्यः) । ते० ३।६।६।५।।
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[ दीक्षा
( २०८ )
दिश: श्रवान्तरदिशो रजताः (सूच्यः) । श० १३ । २ । १० । ३ ॥ ,, अवान्तरदिशा रजताः (सूच्यः) । तै० ३।६।६।५।
दिशो वा स्य (सूर्यस्य) बुध्न्या उपमा विष्ठाः ( यजु० १३ । ३) । श० ७ । ४ । १ । १४ ॥
छन्दासि वै दिशः । श० ८३|१| १२|||५|१|३९ ॥
दिशो वै विष्टारपङ्किश्छन्दः ( यजु० १५ । ४ ) ॥ श० ८ । ५ ।
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दिशः परिधानीया । जै० उ० ३ । ४ । २ ॥
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,, दिशो वै प्राणः । जै ० उ० ४ । २२ । ११ ॥
दिशः समानः । जै० उ० ४ । २२ । ६ ॥
दिशां वा एतत्साम यद्वैरूपम् । तां० १२ । ४।७ ॥
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अपरिमिता हि दिशः । श० ६ । ५ । २ । ७ ॥
तद्वेदेवा इमाँलोकानुखां कृत्वा दिग्भिरदह दिग्भिः पर्यतन्वन् । श० ६ । ६ । २ । ११ ।।
दीचा फाल्गुने दीक्षेरन् । तां० ५ | ६ | ७ ॥
या वै दीक्षा सा निषत् । तत्सत्रं तस्मादेनानास दित्याहुः । श० ४ । ६ । ६ । १ ॥
प्राणा दीक्षा । श० १३ । १ । ७ । २ ।। तै० ३ | ८ | १० १२ ॥
वाग्दीक्षा | तया प्राणो दीक्षया दीक्षितः । तै० ३ । ७ । ७ । ७ ॥ वाग्दीक्षा | कौ० ७ । १ ॥
श्रापो दीक्षा । तया वरुणो राजा दीक्षया दीक्षितः । तै० ३ ॥ ७ ।७।६॥
दिशो दीक्षा । तया चन्द्रमा दीक्षया दीक्षितः । तै० ३।७।। ७ ॥६॥
पृथिवी दीक्षा । तयाग्निदक्षया दीक्षितः । तै० ३।७।७।
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२ । ४ ॥
दिशो वै परिभूश्छन्द: ( बजु० १५ ॥ ४ ॥ ) । श० ६ | ५ |
२ । ३ ॥
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दिशः परिधयः । तै० २ । १ । ५ । २ ॥ ऐ० ५ ॥ २८ ॥
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४-५ ॥
अन्तरिक्षं दीक्षा | तया वायुदक्षया दीक्षितः । तै० ३७७५ ॥
1
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( २०६)
दीक्षितः दीक्षा धौर्दीक्षा । तयादित्यो दीक्षया दीक्षितः । तै०३।७।७।५॥ , मोषधयो दीक्षा । तया सोमो राजा दीक्षया दीक्षितः । ०३।
७।७।६-७॥ . अतं वाव दीक्षा सत्यं दीक्षा । ऐ. १ ॥६॥ , सत्ये व दीक्षा प्रतिष्ठिता भवति । श. १४ । ६ ।। २४ ॥ , एतद्दीक्षायै (रूपं) यच्छा । श०१२। ।२।४॥ ., तपो दीक्षा । श०३।४।३।२॥ , प्रजापतिरकामयताश्वमेधेन यजेयेति । स तपो ऽतप्यत । तस्य
तेपानस्य । सप्तात्मनो देवता उदक्रामन् । सा दोक्षाभवत् । ते.
३।८।१०।१॥ , दीपा सोमस्य राज्ञः पत्नी। गो. उ०२।६॥ रीक्षितः सबै धीक्षते । वाचे हि धीतते यज्ञाय हि धीक्षते यशो हि
पागधीक्षितो हवै नामैतद्यदीक्षित इति । श० ३।२।
२॥३०॥ ,, कस्य स्विद्ध तोदीक्षित इत्याचक्षते श्रेष्ठां धियं तियतीति ।
गो० पू० ३।१६॥ , नह वै दीतितोऽग्निहोत्रं जुहुयान पौर्णमासेन यज्ञेन यजेत
... न मिथुनं चरेत्... कृष्णाजिनं वसीत कुरीरं धारयेन्मुष्टी कुर्यादङ्गुष्टप्रभृतयस्तित्र उच्छ्येन्मृगशृङ्गे गृह्णीयात्तेन कषेत । गो० पू०३ ॥२१॥ अथ न दीक्षितः काष्ठेन वा नखेन पा कण्डूयेत । श०३ । २।१।३१॥ तस्माद्दीक्षितः कृष्णविषाणयैव कण्डूयेत नान्येन कृष्णविषा.
णायाः। श०३।२।१ । ३१ ॥ ,, नैनं (दीक्षितं) अन्यत्र चरन्तमभ्यस्तमियात् । न स्वपन्त
मन्युदियात् । श० ३।२।२।२७ ॥ भय यहीक्षितः। भवत्यं वा व्याहरति क्रुध्यति धा तन्मिथ्या
करोति । श०३।२।२।२४॥ ,, सयः सत्यं वदति स दीक्षितः। कौ०७।३॥
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। दीक्षितः
( २१०) दीचितः अथ य एतमेतहीक्षयन्ति तदू द्वितीयम्घ्रियते । धपन्ति
केशशमधूणि । निकृन्तन्ति नखान् । प्रत्यञ्जन्त्यङ्गानि । प्रत्यचत्यङ्गलीः । अपवृतोऽपवेष्ठित श्रास्ते । न जुहोति । न यजते । न योषितं चरति । अमानुषर्षी वाचं वदति मृतस्य वावैष तदा रूपम्भवति । जै० उ०३।६।४॥ यहादु ह वा एष पुनर्जायते यो दीक्षते। ऐ०७। २२ ॥ एवं वाऽ एष यक्ष सम्भरति यो दीक्षते । श० ३ । २। २३॥ यदह दीक्षते तद्विष्णुर्भवति । श०३।२।१।१७ ॥ उभयं वाऽ एषोऽत्र भवति यो दीक्षते विष्णुश्च यजमानश्च ।
श०३।२।१।१७॥ , यद्वै दीक्षन्ते । अग्नाविष्णू एव देवते यजन्ते । श० १२।१।
अमीषोमो वाऽ एतमन्तर्जम्भऽ प्रावधाते यो दीतते । श. ३।३।४।२१ ॥३।६।३।१६॥ हविर्षाऽ एष देवानां यो दीक्षते तदेनमन्तर्जम्भऽ प्रादधाते तत्पशुनात्मानं निष्कीणीते । श०३।३।४।२१ ॥ उद्भपीते वाऽ एषो ऽस्माल्लोकाद्देवलोकमभि यो दीक्षते । श०३।१।४।१॥ देवान्वाऽ एष उपोत्क्रामति यो दीक्षते । श०३।१।१।१॥ देवान्वा एष उपायर्तते यो दीक्षते स देवानामेको भवति । श०३।१।१।८,६॥ देवगर्भो वा एष यद्दीक्षितः । कौ० ७॥२॥ गर्भो वा एष भवति यो दीक्षते छन्दासि प्रविशति तस्मान्न्यनाङ्गलिरिव भवति । श० ३।२।१।६ ॥ गर्भो ( यशस्य ) दीक्षितः । श. ३।१।३ । २८ ॥ स ( क्षत्रियः) ह दोक्षमाण एव ब्राह्मणतामभ्युपैति । ऐ० ७।२३॥ तस्मादपि (दीक्षितं) राजन्यं घा वैश्यं या ब्राह्मण इत्येव ब्रूयाद् ब्राह्मणो दि जायते वो यहाजायते । श० ३२॥१॥४०॥
,
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(२११)
दुष्टरः] दीक्षितः सिषासवो (="लुब्धकामाः फलार्थिनः" इति सायणः) वा
एते यहीक्षिताः। ऐ०६॥ ७॥ दीक्षितस्यैव प्राचीनवशा (शाला) नादीक्षितस्य । श.
३।१।१।७॥ . (अथर्व० ११ । ५। ६॥) एष (आदित्यः ) दीक्षितः । गो०
पू०२११॥ ,, यो वै दीक्षितानां पापं कीर्त्तयति तृतीयं (अंशम् ) एषार्थ
स पाप्मनो हरत्यन्नोदस्तृतीयं पिपीलिकास्तृतीयम् । ता०
५।६।१०॥ दोषतम (ऋ०३।२७।१५) चतुर्वे दीदयेव । श०१।४।३।७॥ दीप्यमानः "वि पाजसा पृथुना शोशुचानः" ( यजु० ११ । ४६) इति ।
वि पाजसा पृथुना दीप्यमान इत्येतत् ( शोशुचानः दीप्य
मानः)। श० ६।४।४।२२॥ दीर्घम् ( साम ) आयुर्वै दीर्घम् । तां० १३ । ११ । १२ ॥ दीर्घश्मश्रुः (अथव० ११ । ५ । ६ ) एष (आदित्यः) दीर्घश्मश्रुः । गो०
पू०२।१॥ दुन्दुभिः परमा वा एषा वाग्या दुन्दुभौ । तै०१।३।६।२-३॥ , एषा वै परमा वाग्या सप्तदशानां दुन्दुभीनाम् । श०५।१।
दुरः वृष्टिवै दुरः। ऐ०२॥४॥ दुराध्यः ये पै स्तेना रिपवस्ते दुराध्यः । ता० ४।७।५ ॥ दुरोणसत् ( यजु० १२ । १४) दुरोणसदिति विषमसदित्येतत् । श०
६.७:३।११॥ दुर्याः गृहा वै दुर्याः। ऐ०११ १३ ॥ श० १।१।२।२२॥ ३।३।
४॥३०॥ दुवस्यत ( यजु० १२ । ३० ) समिधानिं दुवस्यतेति । समिधानि नम.
स्यतेत्येतत् । श०६।८।१।६॥ दुश्चीरतम् वृजिनमनृतं दुश्चरितम् । ते. ३।३।७।१० ॥ दुष्टर: दुष्टरस्तरभरातीरिति दुस्तरो धेष रक्षोभिर्नाष्ट्राभिः । श० ५।
२।४।१६॥
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[ देवता
( २१२ )
दूरोहः सौ वै दूरोहो यो ऽसौ (सूर्य्यः) तपति । ऐ० ४ ॥ २० ॥ दृरोहणम् ( यजु० १५ | ५ ) असौ वा श्रादित्यो दूरोहणं छन्दः । श
८।५।२।६ ॥
स्वर्गो वै लोको दूरोहणम् । ऐ० ४ । २०, २१ ॥
दूर्वा स ( प्रजापति: ) अब्रवीत् । श्रयं (प्राण:' बाव माधूर्वीदिति यदवधूर्वीन्मेति तस्माद् धूर्वा, धूगं ह वै तां दूर्वेत्याचक्षते परोऽक्षम् | श० ७ । ४ । २ । १२ ॥
क्षत्रं वा एतदोषधीनां यद् दूर्वा । ऐ० ८८ ॥
तदेतत्क्षत्रं प्राणो ह्येष रसो ( यद् दूर्वा ) लोमान्यन्या श्रोषधयः, एतां (दूर्वा ) उपदधत्सर्वा श्रोषधीरुपदधाति । श०७ । ४ । । १२ ॥
दूर्वेष्टका प्राणो दूर्वेष्टका | श० ७ । ४ । २ । २० ॥
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पशवो वै दूर्वेष्टका । श० ७ । ४ । २ । १०, १६ ॥
बा (इषुः स यया प्रथमया (इष्वा) समर्पणेन पराभिनत्ति सैका सेयं पृथिवी सैषा दबा नाम । श० ५ । ३ । ५ । २६ ॥
दृशान: ( यजु० ११ | २३ ) व्यचिष्टमन्नैरभसं दृशानमित्यवकाशवन्तमन्नैरन्नादं दीप्यमानमित्येतत् । श० ६ ।
دو
دو
३ । ३ । १६ ।।
दृषदुपले हनू एव दृषदुपले । श० १ । २ । १ । १७ ॥
देव क्षेत्रम् देवक्षेत्रं वा पते भ्यारोहन्ति ये स्वर्णिधनमुपयन्ति । तां
५। ७ । ८ ॥
देवता यां वै देवतामृगभ्यनूक्ता यां यजुः सैव देवता सक्स देवता तद्यजुः । श० ६ | ५ | १ | २ ॥ ७ । ५ । १ । ४ ॥
त्रयस्त्रिशद् देवताः । तां० ४ । ४ । १२ ॥
अग्निर्वै देवानामवमो विष्णुः परमस्तदन्तरेण सर्वा अभ्या देवताः । ऐ० १ । १ ।
आपो वै सoaf देवताः । ऐ० २ । १६ ॥ कौ० ११ । ४ ॥ तै० ३।२।४।३॥ ३ | ३ | ४|५|| ३ | ७ | ३ | ४ | ३ |६| ७५ ॥
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। २१३ )
देवलोकः] देवता अथो खल्बाहुर्यस्यै वाव कस्यै च देवतायै पशुरालभ्यते सैष
मेधपतिरिति । ऐ०२।६॥ ,, देवतैय मेधपतिरिति । कौ०१०॥ ४ ॥"देवाः" शब्दमपि पश्यत । देवपात्रम् देवपात्रं वाऽ एष यदग्निः । श०१।४।२।१३ ॥
देवपात्रं द्रोणकलशः। तां०६।५।७॥ , देवपात्रं वषट्कारः। गो० उ०३।१॥ , देवपात्रं वा एतद्विषट्कारः । ऐ०३१५ ॥
देवपात्रं वा एष यद्वषट्कारः । श०१ । ७।२।१३।। देवयजनम् भौमं देवयजनम् । गो० पू०२ । १४॥ , देवयजनं वै घरं पृथिव्यै । ऐ०१।१३॥
ऋत्विजो देवजयनम्। गो० पू०२।१४ ॥ , श्रद्धा देवयजनम् । गो० ३०२ । १४ ॥
, प्रात्मा देवयजनम् । गो० पू०२। १४॥ देवयान: देवयाना वै ज्योतिष्मन्तः पन्थानः । ऐ० ३ ॥ ३८ ॥ ,, प्रयो वै देवयाना पन्थानः । गो. उ०१।१॥ ,, ये चत्वारः पथयो देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवी वियन्ति ।
मं०२।१।१०॥ , यमादुरर्यम्नः पन्था इत्येष वाव देवयानः पन्थाः। तां० २५।
१२॥ ३ ॥ देवयोनिः अग्नि देवयोनिः। ऐ० १ । २२ । २।३॥ देवरथः इयं ( पृथिवी ) वै देवरथः । तां०७।७।१४॥ , देवरथो वै रथन्तरम् । तां०७। ७ । १३ ॥ , देवरथो वा एष यद्यशः । कौ०७।७॥ ऐ० २ । ३७ ॥ ., देवरथो वा अग्नयः । कौ० ५1१०॥ देवरातः (=शुनःशेपः) नेति होवाच विश्वामित्रो देवा वा इमं महम
रासतेति स ह देवरातो वैश्वामित्र श्रास । ऐ०
७।१७॥ देवलोकः प्रयो वै देवलोकाः । गो० उ०१।१॥ ,, सप्त वै देवलोकाः । ऐ०१।१७॥ , सप्त देवलोकाः । ।०६।५।२ ॥
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[देवस्थानम्
( २१४ )
देवलोकः चतस्त्रो दिशस्त्रय इमे लोका एते वै सप्त देवलोकाः । श
१० । २ । ४ । ४।
एकविंशतिर्वै देवलोकाः । द्वादशमासाः पञ्चर्त्तवः । श्रय इमे लोकाः । श्रसावदित्य एकविंशः । तै० ३ | ८ | १० |
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३ ॥ ३ । ६ । ७ । २ । ३ | ८ | २० | २ ॥
वेदिर्वै देवलोकः । श० ८ । ६ । ३ । ६ ॥ देवलोको वा एष यद्विषुवान् । तां० ४ । ६।२॥ उत्तरो वै देवलोकः । श० १२ । ७ । ३ । ७ ॥
देवलोको वा इन्द्रः । कौ० १६ ॥ ८ ॥
देवलोको वा श्रादित्यः । कौ० ५ । ७ ॥ गो० उ० १ । २५ ॥ श्रादित्य एव देवलोकः । जै० उ० ३ | १३ | १२ ॥
विद्यया देवलोक : ( जय्यः ) । श० १४ । ४ । ३ । २४ ॥ दवमं देववर्म वा एतद्यत्प्रयाजाश्वानुयाजाश्च । ऐ० १ । २६ ॥
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देववाहनः (ऋ० ३ । २७ । १४) मनो वै देववाहनं मनो हीदं मनस्विनं भूयिष्ठं वनीवाह्यते । श० १ । ४ । ३ । ६ ॥
देवविशः मरुतो ह वै देवविशो ऽन्तरिक्षभाजना ईश्वराः। कौ० ७। देवसत्यम् एतद्वै देवसत्यं यच्चन्द्रमाः । कौ० ३ । १ ॥ देवसंस्फानः आदित्यो वै देवसंस्फानः । गो० उ० ४ । ६ ॥ देवसवः यो वै सोमेन सूयते । स देवसवः । यः पशुना सूयते स देवसवः । तै० २ । ७ । ५ । १ ॥
देवसुरभीणि अग्निर्वै देवानाथं हौत्रमुपैष्यञ्शरीरमधूनुत तस्य यन्मार्थसमासीत्तद् गुग्गुल्वभवद्यत् स्नाव तत्सुगन्धितेजनं (= तृण विशेष इति सायण: ) यदस्थि तत् पीतुदार्येतानि वै देवसुरभीणि । तां० २४ । १३ । ५ ॥
दवसू: पता ह वै देवता: सवस्येशते । तस्माद्देवस्वो नाम तदेनमेता एव देवताः सुवते ताभिः सूतः श्वः सूयते । श०५ । ३ । ३ । १३ ॥
देवसोमम् एतद्वै देवसोमं यचन्द्रमाः । ऐ० ७ । ११
देवस्थानम् ( साम ) वरुणाय देवता राज्याय नातिष्ठन्त स एतदेवस्था नमपश्यत्ततो वै तास्तस्मै । राज्यायातिष्ठन्त तिष्ठन्ते
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(२१५ )
देवाः ऽस्मै समाना: श्रेष्टपाय । क्षत्रस्येवास्य प्रकाशो
भवति य एवं वेद । तां० १५ । ३ । ३०-३१ ॥ देवस्थानम् (साम) देवस्थानेन वै देवाः स्वर्ग लोके प्रत्यतिष्ठन् । तां०
१५ । ३।२६ ॥
देवस्थानं भवति प्रतिष्ठायै । तां १५ । ३ । २८ ॥ देवा अपाव्याः प्राणा वै देवा पाव्याः । ते० ३ । ८ । १७ । ५ ॥ देवा अभिद्यव: मासा देवा अभिधवः । गो० पू०५।२३ ॥ दवा प्राज्यपा: प्रयाजानुयाजा वै देवा प्राज्यापाः । श०१ । ४।२।
१७ ॥१।७।३।११॥ देवा पाशापाला: शतं वै तल्प्या राजपुत्रा देवा पाशापालाः । तै०३।
018 ३॥ देवाः दिवा वै नोऽभूदिति । तदू देवानां देवत्वम् । ० २।२।६ ॥ , दिवा देवानसृजत नतमसुरान् यहिवा देवानसृजत तद् देवानां
देवत्वम् । ष०४।१॥ , तस्मै मनुष्यान्ससृजानाय ( प्रजापतये) दिवा (=दिवसः)
देवत्रा (धोतनशील इति सायणः ) अभवत् । तदनु देवान
सृजत । तद् देवानां देवत्वम् । तै०२।३।।३॥ , तदू देवानां देवत्वं यदू दिवमभिपधासृज्यन्त । श० ११ ।१।
६७॥ तदेव देवानां देवत्वं यदस्मै ससृजानाय दिवेवास। श० ११ ।
१।६।७॥ , मा ह वाऽ अग्रे देवा आसुः। स यदैव ते संवत्सरमापुरथा
मृता भासुःश० ११।१।२। १२ ॥ , मा हवाऽ अप्रे देवा पासुः । स यदैव ते ब्रह्मणापुरथामृता
आसुः। श० ११ ।२।३।६ ॥ , (यथा वै मनुष्या एवं देवा अग्र आसन्......त एतं चतुर्वि.
शतिरात्रमपश्यन्ताहरन्तेनायजन्त ततो वै तेऽवति पाप्मानं मृत्युमपहत्य दैवी सदमगच्छन्-तैत्तिरीयसंहितायाम्
७।४।२।१॥) , एतेन 2 (अष्टराण) देवा देवत्यमगच्छन् । देवत्वं गच्छति य
एवं वेद । वां० २२।११।२-३॥
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[ देवाः
( ११६) देवा: उभये ह वाऽ इदमने सहासुर्देवाश्च मनुष्याश्च । श०२ । ३ ।
४।४॥ , उभयम्वैतत् प्रजापतिर्यश्च देवा यञ्च मनुष्याः । श०६ । ।
१॥४॥ , प्राचीनप्रजनना वै देवाः प्रतोचीनप्रजनन्ना मनुष्याः । श. ७ ।
४।२।४०॥ , प्राची हि देवानां दिक् । श०१।२। ५ । १७ ॥
देवानां वा एषा दिग्यत्प्राची । १०३ ॥ १॥ यद्वै मनुष्याणां प्रत्यक्षन्तद् देवानां परोक्षमथ यन्मनुष्याणां
परोक्षन्त देवानां प्रत्यक्षम् । तां २२ । १० । ३ ॥ ,, तस्मै । चन्द्रमसे ) ह स्म पूर्वाहे देवा प्रशनमभिहरन्ति मध्य
दिने मनुष्याऽ अपराह्ने पितरः। श. १।६।३ । १२ ॥ , द्राधीयो हि देवारा हसीया मनुष्यायुषम् । श० ७।३।
१।१०॥ , देवानां वै विधामनु मनुष्याः । श० ६।७।४।६॥ ९।१।
, स (सूर्यः) यत्रोदडावर्त्तते । देवेषु तर्हि भवति देवांस्तवभि
गोपायत्यथ यत्र दक्षिणावर्त्तते पितृषु तर्हि भवति पितृस्तहप.
भिगोपायति । श.२।१।३।३ ॥ , देवाश्च वा असुराश्च प्रजापतेयाः पुत्रा आसन् । तां०१।
१॥२॥ , उभये वा एते प्रजापतेरध्यसृजन्त । देवाश्चासुराश्च । तै०१।
४।१।१॥ , सः (प्रजापतिः)......अकामयत प्रजायेयेति । स तपोऽतप्यत । . सोऽन्तर्वानभवत् । स जघनादसुरानसृजत......स मुखाद्देवान.
सृजत । तै०२।२।।५-८ ॥ ,, सः (प्रजापतिः) आस्थेनैव देवानस्जत......तस्मै ससृजानाय
दिवेवास। ...... अथ यो ऽयमवाक् प्राणः, तेनासुरानस्जत ।
......तस्मै ससुजानाय तम वास । श०११ । १।६।७-८॥ , (प्रजापतेः) कनीयासः (पुत्राः) देवाः । तां० १८।१।२॥
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(१७)
देवाः देवाः कानीयसा एव देवा ज्यायसा असुराः । श० १४ । ४।
११॥ ,, कनीयस्विन इव वै तर्हि ( युद्धसमये ) देवा श्रासन भूयस्विनी
ऽसुराः । तां० १२ । १३ । ३१ ॥ ते देवाश्चक्रमचरञ्छालम् (=चक्रव्यतिरिक्तं साधनमिति सायणः, तत्साधना) असुरा श्रासन् । श०६।८।१।१॥ एकातरं देवानामवमं छन्द पासीत्सप्ताक्षरं परमन्नवाक्षरम सुराणामवमं छन्द पासीत् पञ्चदशाक्षरं परमम् । तां० १२ ।
। उत्तरायतों वै देवा पाहुतिमजुहवुः । प्रवाचोमसुगः। तै०२।
१।४।१॥ " देवानां वै यज्ञरक्षा स्यजिधालन् । तां० १४११२७ ॥ , प्रया देवाः । वसवो रुद्रा आदित्याः। श०४।३।५।१॥ , पते वै प्रया देवा यसवो रुद्रा आदित्याः । श० १।३ । ४। १२॥१।५।१। १७ ॥
१ ३ ॥ कतमे ते प्रयो देवा इति । इम एव त्रयो लोका पषु हीमे सर्वे देवा इति कतमौ व द्वौ देवाधित्यन्नं चैव प्राणश्चेति कतमोऽध्यर्ध इति योऽयं पवत इति कतम एको देव इति प्राण इति । श०११। ६।३।१०॥
(देवता) प्रयस्त्रिशदू देवताः । ता०४।४।११ ॥ , प्रयलिशद्वै देवताः । तै०१।२।२।५॥ १ । - ।।
१॥२।७।१।३-४॥ ,, प्रयस्त्रिंश सर्वा देवताः । कौ० ॥६॥ ,, अयलिश देवाः प्रजापतिश्चतुस्रिशः । श० १२२६६१।३७ ॥ ।, प्रयविद् देवताः प्रजापतिश्चतुखिशः । तां० १०।१।
१६ ॥ १२।१३ ॥ २४॥ , अष्टौ बसवः । एकादश रुद्रा द्वादशादित्या इमेऽ एव धावा -
पृथिवी व्यखिश्यो प्रयबिश देवाः प्रजापतिश्चतुविशः । श०४।५।७१२॥ , देवता पाव त्रयषियोऽष्टौ घसष एकादश रुद्रा द्वादशा.
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[देवाः
(२१८) दित्याः प्रजापतिश्च वषटकारच ! ता०६।३।५॥ देवाः (प्रयस्त्रिंशत्-) अष्टौ बसव एकादश रुद्रा द्वादशादित्या
प्रजापतिश्च वषट्कारश्च । ऐ०२।१८, ३७ ॥३२२ ॥ ,, अष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशादित्या धाग्द्वात्रिंशी स्वरस्खय
खिशस्त्रयस्त्रिंशद् देवाः । गो० उ०२ । १३ ॥ , प्रयस्त्रिंशद्वै देवाः सोमपात्रयस्त्रिंशदलोमपा अष्टौ घसव एका
दश रुद्रा द्वादशादित्याः प्रजापतिश्च वषटकारश्चैते देवाः सोमपा एकादश प्रयाजा एकादशानुयाजा एकादशोपयाजा एते ऽसोमपाः पशुभाजनाः । ऐ०२ । १८ ॥ अखिशद्वै सोमपा देवता याः सोमाहुतोरन्वायत्सा अष्टौ घसव एकादश रुद्रा द्वादशादित्या इन्द्रो द्वात्रिंशः प्रजापतिस्त्रयलि. शस्त्रयस्त्रिंशत्पशुभाजनाः। कौ० १२॥ ६॥ कतमे ते ( देवाः) त्रयनिशदित्यष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशादित्यास्तऽ एकत्रिशदिन्द्रश्चैव प्रजापतिश्च । २०
११।६।३।५॥ ,, कतमे ते ( देवाः) प्रयश्च त्री च शता प्रयश्च त्री च सहस्रति ॥
स ( याज्ञवल्क्यः ) होवाच । महिमान एवैषां । देवानां) पते प्रयस्त्रिशत्त्वेव देवा इति । श० ११ । ६।३।४-५॥ पश्चधा वै देवा व्युत्क्रामन् अनिर्वसुभिः, सोमो रुद्रः, इन्द्रो मरुनि, धरुण मादित्यैः, वृहस्पतिश्चैिर्देवैः। गो० उ०२॥२॥ तस्य वा एतस्य वाससः। अग्नेः पर्यासो भवति वायोरनुछादो नीविः पितृणा सणां प्रघातो विश्वेषां देवानां तन्तव भारोका नक्षत्रणामेव हि वाऽ एतत्सर्वे देवा अन्वायत्ताः।
श.३।१।२।१॥ , अनिर्वायुरादित्य एतानि हतानि. देवाना दयानि ( यजु०
१६। ४६)। श०६।११। २३ ॥ ,, अग्नि देवानामवमो विष्णुः परमस्तदन्तरण सर्वा अन्या
देवताः। ऐ०११॥ , तघदेतस्मिन्नाके स्वर्ग लोके देवा असीदस्तस्माद्देवा नाकसदः ।
श०८।६।१।१॥
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(२१६)
देवाः ] देवाः पौर्व सर्वेषां देवानामायतनम् । श०१४।३।२।८॥ , पृथिवी वै सर्वेषां देवानामायतनम् । श० १४ । ३।२।४॥ , देवगृहाचे नक्षत्राणि । ते १।५।२।६॥ , नरोघे देवानां ग्रामः । तां०६।६।२॥ , स यदेव यजेत । तेन देवेभ्य भणं जायते तद्धयेभ्य एतत्करोति
यदेनान्यजते यदेभ्यो जुहोति । श०१।७।२।२॥ , देवा यज्ञियाः। श०१।५।२।३॥ , दिवं तृतीयं देवान्यशो ऽगात् । ऐ०७ ॥ ५ ॥ , यह उ देवानामात्मा । श० ८।६।१।१० ॥ , यहोवे देवानामात्मा। श०६।३।२।७॥ . सर्वेषां पाऽ एष भूताना सर्वेषां देवानामात्मा यद्यक्षः । श०
१४ । ३।२।१॥
एतद्वै देवानामपराजितमायतनं यद्यशः । तै० ३।३।७।७॥ , यक्ष उ देवानामन्नम् । श०८।१२।१०॥ , ततो देवा यज्ञोपवीतिनो भूत्वा दक्षिणं जान्धाच्योपासीदन् (प्रजापतिः) तान् ( देवान्) अप्रवीद् यशो वो ऽसममृतत्वं
व ऊर्वः सुय्यों वो ज्योतिरिति । श०२।४।२।१॥ , किं नु ते ऽस्मासु ( देवेषु ) इति । अमृतमिति । जै० उ०३।
२६ । ८ ॥ ,, ऊर्गिति देवाः ( उपासते)।श०१०।५।२।२० ॥ , साम देवानामनम् । तां०६।४।१३॥ , एतद्वै देवानां परममन्नं यत्लोमः । एतन्मनुष्याणां यत्सुरा।
तै०१।३।३।२-३॥ , एष सोमो राजा देवानामानं यचद्रमा । श०१।६।४।
५॥२।४।२।७॥११।१।४।४॥ , हविर्व देवांना सोमः । श० ३१५।३।२॥
एतदै देवानां परममन्नं यत्रीवाराः । तै०१३।६।। इता (हविः-) प्रदानादि देवा उपजीवन्ति । श०१ । २ ।
५।२४॥ , उभये देवमनुस्याः पशनुपजीवन्ति । श०६।४।४।२२॥
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देवाः ]
( २२० )
देवा: तस्यै ( वाचे) द्वौ स्तनौ देवा उपजीवन्ति स्वाहाकार च
वषट्कारं च । श० १४ । ८ । ६ । १ ॥
जीवं वै देवाना हविरमृतममृतानाम् । श० १ । २ । १ । २० ॥ एकं वा एतद्देवानामहः यत्संवत्सरः । तै० ३ । ६ । २२ । १ ॥ संवत्सरो वै देवानां गृहपतिः । तां० १० । ३।६॥
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संवत्सरो वै देवानां जन्म । श० ८ । ७ । ३ । २१ ॥ संवत्सरः खलु वै देवानां पूः । तै० १ । ७ । ७५ ॥
स (यस्य श्रङ्गिरसः) प्राणेन देवान् देवलोके ऽदधात् । जै०
० उ०२ । ८ । ३ ॥
.
प्राणेन वै देवा श्रन्नमदन्ति । श्रग्निरु देवानां प्राणः । श० १० । १ । ४ । १२ ।।
गातुविदो हि देवाः । श० ४ । ४ । ४ । १३ ॥
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,, देवानां वा एतद्यशियं गुह्यं नाम यश्चतुर्होतारः । ऐ० ५ | २३ ॥
अन्तु त्वा महतो विश्ववेदस इति युञ्जन्तु त्वा देवा इत्येवैतदाह
( मरुतः = देवाः - श्रमरकोषे ३ । ३ । ५८ ) । श० ५ । १ । ४ । ६ ॥
देवा महिमानः (यजु० ३१ । १६ ) । श० १० । २ । २ । २ ॥
न ह वा अनार्षेयस्य देवा हविरक्षन्ति । कौ० ३ ।२ ॥
I
न हि देवा श्रहुतस्याश्नन्ति । तै० १ | ६ | ६ | ४ ॥
न ह वा श्रव्रतस्य देवा हविरक्षन्ति । ऐ० ७ । ११ ॥ कौ० ३ ॥ १ ॥
सूर्यो वै सर्वेषां देवानामात्मा । श० १४ । ३ । २।६॥
यशो वै स्वः (यजु० १ । ११ ) श्रहर्देवाः सूर्य्यः । श० १ । १ । २ । २१ ॥
देवा वै स्वः । श० १ । ६ । ३ । १४ ।।
अहरेव देवाः । श० २ । १ । ३ । १ ॥
अहर्वे देवा श्रश्रयन्त रात्रीमसुराः । ऐ० ४ । ५ ॥
हर्वै देवा आश्रयन्त रात्रीमसुराः । गो० उ० ५ । १ ॥
1
देवा वै नृचक्षसः (यजु० १४ । २४ ॥ ) । श० ८ । ४ । २ । ५ ॥
श्रमृता देवाः । श० २ । १ । ३ । ४ ॥
देवा वै मृत्योरविभयुस्ते प्रजापतिमुपाधावस्तेभ्य एतेन
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( २२१ )
देवाः ] नवरात्रेणामृतत्वं प्रायच्छत् । तां० २२ । १२ । १॥ देवा: देवा वै सर्पाः । तेषामियॐ (पृथिवी ) राशी । ते० २।२।
६ । २॥ , विप्रा विप्रस्य ( यजु० ११ । ४ ) इति प्रजापति विप्रो देवा
विप्राः । श०६।३।१।१६ ॥ ,, स ह स न मनुष्यो य एवं विहेवाना हैव स एकः । श०१०।
३।५।१३॥ , अथ हैते मनुष्यदेवा ये ब्राह्मणाः। ष०१।१॥ ,, एते वे देवा अहुतादो यद् ब्राह्मणाः । गो० उ०१॥ ६ ॥ ,, ब्राह्मणो वै सर्वा देवताः । तै०१।४।४२, ४॥ ,, आहुतिभिरेव देघान्प्रीणाति दक्षिणाभिर्मनुष्यदेवान्ब्राह्मणांछु
भ्रषुषो ऽनूचानान् । श० २।२।२।६॥ , या वै देवाः । अहेव देवा भथ ये ब्राह्मणाः शुश्रुवा,सो
ऽनूचानास्ते मनुष्यदेवाः । श०२।२।२।६॥४।३।४।४॥ , विद्वासो हि देवाः (देवः-सुरः विबुधः-अमरकोषे १।१।
७॥ विबुधः पण्डितः-वैजयन्तीकोषेत्रयक्षरकांडे पुँल्लिङ्गाध्याये श्लो० ६६ ॥ मेदिनीकोषे धान्तवर्गे श्लो० ३६ ॥)। श० ३।७। ३।१०॥ धर्म इन्द्रो राजेत्याह तस्य देवो विशस्तऽ इम पासत इति श्रोत्रिया अप्रतिग्राहका उपसमेता भवन्ति तानुपदिशति सामानि वेदः सो ऽयमिति ( अयमेव भावः-शालायनश्रौतसूत्रे १६ । २ । २८-३० ॥ आश्वलायनश्रौतसूत्रे १०।७18)। श० १३ । ४।३।१४॥ ( यजु० १२ । ७५ ) ऋतवो वै देवाः। श०७।२।४।२६॥
घसन्तो ग्रीष्मो वर्षाः। ते देवा तवः श०२।१।३।१॥ , तस्मात्प्राणा देवाः । श०७।५।१।२१॥ ,, प्राणा देवाः । श०६।३।१।१५॥ ,. चतुर्देवः। गो० पू०२।१० (११)॥ , मनो देवः । गो० पू०२ । १० ॥ ,, मनोवै देववाहनं मनो हीदं मनस्विनं भूयिष्ठं वनीवायते ।
श० १।४।३।६
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[देवाः
( २२२) देवाः वाक् च वै मनश्च देवानां मिथुनम् । ऐ०५।२३ ॥ , वागेव देवाः। श०१४।४।३।१३॥ , वाग्देवः । गो० पू०२॥१०॥ , वाग्वै देवानां पुरानमास । तै०१।३।५।१॥ ,, वागिति सर्वे देवाः । जै० उ०१।६।२॥ , घायुर्वं देवः । जै० उ०३।४।८॥ " सा या पूर्वाहुतिः । ते देवाः। श०२।३।२।१६॥ , अहः पूर्वाहे देवाः । श०२।१।३।१॥ , तस्मै (वृत्राय ) ह स्म पूर्वाहे देघाः । अशनमभिहरन्ति । २०
१।६।३।१२॥ , य एवापूर्यते ऽर्धमासः स देवाः। श०२।१।३।१॥ , य एवापूर्य्यते तं (अर्धमासं) देवा उपायन् । श० १ । ७।
२।२२॥ ,. अर्धमासे देवा इज्यन्ते । तै०१।४।६।१॥ , देवाश्च वा असुराश्च । उभये प्राजापत्याः प्रजापतेः पितुय
मुपेयुरेतावेवार्धमासौ ( शुक्लकृष्णपक्षौ)। श०१।७।२।२२॥
यशो देवाः। श०२।१।४।६॥ , तस्माद् ( देवाः) यशः । श०३।४।२।। , देवा वै यशस्कामाः सत्रमासत । तो०७।५।६॥ , ते (देवाः ) प्रासत | श्रियं गच्छेम यशः स्यामानादा:
स्यामेति । श०१४।१।१।३॥ , श्रीदेवाः । श.२।१।४। । , सर्वे वै देवास्त्विषिमन्तो हरस्विनः । तै० ३।।७।३॥ ., तिर इव वै देवा मनुष्येभ्यः । श. ३।१।१ ॥३३॥
४।६॥
परोऽतं वै देवाः । श०३।१।३।२५ ॥ ., परोऽक्षकामा हि देवा। श०६।१।१।२॥७।४।१।१०॥ ,, परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति प्रत्यक्षद्विषः । गोपू०२ ॥२१॥ , यह किं च देवाः कुर्वते स्तोमेनैव तत्कुर्वते यहोवे स्तोमो
यझेनैव तत्कुर्वते । श० -।४।३।२॥
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(२२३ )
देवाः ] देवाः मनोहवै देवा मनुष्यस्याजानन्ति । श०२।१।४।१॥२। . ४।१।११॥ , ममो देवा मनुष्यस्याजानन्ति । श०३।४।२।६॥ " (देवाः प्रजापतिमयन् ) शम्यतेति न प्रात्येति । श० १४ ।
।२॥२॥ , जाप्रति देवाः । श०२।१४।७॥ , नवे देवाः स्वपन्ति । श० ३।२।२।२२ ॥ , यो वै देवानां पथैति स ऋतस्य पथैति । श०४।३।४।१६॥ , एकह देवा वतं चरन्ति सत्यमेव । श०३।४।२८ ॥ एकहबै देवा व्रतं चरन्ति यत्सत्यं तस्मादु सत्यमेव वदेत् ।
श० १४।१।१।३३॥ " सत्यमेव देवा अनृतं मनुष्याः । श०१।१।१।४ ॥१।१।
५। १७ ॥३।३।२।२॥३।६।४।१॥ , सत्यसंहिता पै देवाः । ऐ० १॥६॥ ,, सत्यमया उ देवाः। कौ०२॥८॥
शैशिरेण ना देवाः । त्रयलिशे ऽमृत स्तुतं सत्येन रेवतीः क्षत्रम् । हविरिन्द्र पयो दधुः। तै० २।६।१६।२॥
विषत्या हि देवाः । ष०१।१॥ तै०३।२।३८॥ , अपहतपाप्मानो देवाः । श०२।१।३।४॥ , अथ देवाः । अन्यो ऽन्यस्मिन्नेव जुह्नतश्चेरुस्तेभ्यः प्रजापति
रात्मानं प्रददौ । श. ५।१।१।२ ॥ १९ ॥ १॥ ८॥२॥ ते देवाः प्रजापतिमेवाभ्ययजन्त । अन्योऽन्यस्यासन्नसुरा मजुहवुः । ...."प्रजापतिर्देवानुपावर्तत । गो० उ० १।७॥ अथ देवा ऊध्वं पृष्ठेभ्यो ऽपश्यन् । त उपपक्षावग्रे ऽवपन्त । अथ श्मभूणि । अथ केशान् । ततस्ते ऽभवन् । सुवर्ग लोकमा. यन् । यस्यैवं धपन्ति । भवत्यात्मना । अथो सुवर्ग लोकमेति ।
तै०१।५।६।२॥ , देवा वै छन्दास्यग्रुपन् युप्माभिः स्वर्ग लोकमयामेति । तां०
७।४।२॥
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[ देवाः
( २२४ ) देवाः छन्दोभिर्हि देवाः स्वर्ग लोकं समाश्नुवतः । श० ३।९।३।१०॥ ,, सर्वैर्वे छन्दोभिरिष्ठा देवाः स्वर्ग लोकमजयन् । ऐ०१।६॥ ,, यझेन वै देवा दिवमुपोदकामन् । श० १।७।३ । १ ॥ ,, ( यक्षेन वै देवाः सुवर्ग लोकमायन् । तैत्तिरीयसंहितायाम् ६ ।
३।४।७॥ पशुना वै देवाः सुवर्ग लोकमायन् । तै. सं.
६।३।१०।२॥) , यशेन वै तद्देवा यशम्यजन्त यदग्निना ऽग्निमयजन्त ते स्वर्ग
लोकमायन् । ऐ०१ । १६ ॥ तं (अनि) देवा रोहिण्यामादयत ततो वै ते सर्वानोहानरोहन्।
है०१।१।२१२॥ ,. धानन्दात्मानो हैव सर्व देवाः । श. १०।३।५।१३॥ ,, इन्द्रो वै देवानामोजिष्ठो बलिष्टः। कौ०६ । १४ ॥ गो० उ०
., इन्द्रानी वै देवनामोजिष्टौ । तां० २४ । १७ । ३॥ १० ३।७॥ . इन्द्राग्नी वै सर्व देवाः । को० १२॥ ६॥ १६ ॥ ११ ॥ श०६ । १ ।
२१२८॥ हव्यवाहनो वै (अग्निः ) देवानाम् । श०२।६।१।३० ॥
अभिर्वे देवानां होता। ऐ०१ । २८ ॥ ३ । १५ ॥ , अग्निरेव देवानां दूत मास । श०३।५।१।२१ ॥ . वरुणो वै देवाना राजा । श. १२ । ८।३। १०॥ , तस्मादाहुर्विष्णुर्देवाना श्रेष्ठ इति । श० १४।१।१।५ ॥ ,, रुद्रो वै ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च देवानाम् । कौ० २५ । १३ ॥
विश्व वै देवा देवानां यशस्वितमाः । तै० ३। ८1७१२॥
श. १३।१।२।०॥ , इयं पृथिव्यदितिः सेयं देवानां पनी । श. १।३।१ । १५,
१७॥५।३।१।४॥ , ओषधयो वै देवानां पत्न्यः । श०६।५।४।४॥ ,, देवाननु वयाऽस्योषधयो पनस्पतयः । श.१।५।२।४॥ " भविमुह वै देवानां ब्रह्मा ! कौ० ६ । १३ ॥ , अग्विसुर्ह वै देवानां ब्रह्मा पराग्वसुरसुराणाम् । गो०3०११॥
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देवाः
( २२५) देवाः वृहस्पतिह व देवानां ब्रह्मा । कौ० ६॥ १३ ॥ , वृहस्पति देवानां ब्रह्मा । श० १।७।४।२१ ॥ ४।६।
, वृहस्पतिर्वा माङ्गिरसो देवानां ब्रह्मा । गो० उ०१।१॥ , बृहस्पति देवानां पुरोहितः । ऐ० । २६ ॥ , बृहस्पति देवानामुद्राता । तां. ६।५ । ५ ॥ " तं ( शर्थातं [ ? शांति ] मानवं ) देवा वृहस्पपिनोद्गात्रा
दीक्षामहा इति पुरस्तादागच्छन् । जै० उ०२।७।२॥ ,, मरुतो वै देवानां विशः। ऐ० १।६॥ तां०६।१०। १० ॥
१८।१ । १४॥ , अधिगुवापापश्च । उभौ देवाना शमितारी। ते० ३।६।
६।४॥ , घृतं वै देवानां फाण्टं मनुष्याणाम् । श० ३ । १।३। - ॥ ,, घृतं वै देवा घनं कृत्वा सोममनन् । गो० उ०२।४॥ , देवव्रतं चै घृतम् । तां०१८ ॥२॥६॥
( गुग्गुलु, सुगन्धितेजनम्, पीतुदारु चेति । एतानि वै देव
सुरभीणि । तां० २४।१३।५॥ , देवानां या एतद्रूपं यत्सतवः । श०१३।२।१।३॥
देवानां वाऽ एतद्रूपं यद्धिरण्यम् । श० १२ । ८ । १.। १५ ।। तद्धि देवानां यच्छतम् । श० ३ । ।३। ७॥ श्तकामा इव हि देवाः । तै० ३।२।८ । १२ ॥
तं च देवाना हवि शृतम् । श०३।२।२ । १०॥ कृतिकाः प्रथमं । विशाखे उत्तमे। तानि देवनक्षत्राणि । तै०
१।५।२॥ ७॥ , देवक्षेत्र वा एतद्यषष्ठमहः । ऐ०५।६॥
देवक्षेत्रं च षष्ठमहः । गो० उ०६।१०॥ . ,, सर्वदेवत्यं षष्ठमहः । कौ०२१ ॥ ४॥
देवायतनं षष्ठमहः । कौ २३ । ५॥ , गृहा ये देवानां द्वादशाहः । तां०१०।५।१६ ॥ ,, यो भूत्वा देवानवहत् । श०१०।६।४।१॥ , मेषतायतनानि कम्पन्ते दैवतप्रतिमा हसन्ति रुदन्ति नृत्यन्ति
स्फुटन्ति खिचन्त्युन्मीलन्ति निमीलन्ति । ष०५ । १० ॥
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[ देवातिथम्
( २२६) देवाः प्रातर्यावाणः एते वाव देवा प्रातर्यावाणो यदमिरुषा अश्विनी ।
ऐ० २।१५॥ , छन्दासि वैदेवाः प्रातर्यावाणः। श. ३।९।३।८॥ देवा द्रविणोदाः ( यजु० १२ । २) प्राणा वै देवा द्रविणोदाः । श० ६ ।
७।२।॥ देवा धिष्ण्याः ( यजु० १२ । ४६ ) प्राणा वै देवा धिष्ण्यास्ते हि सर्षा
घिय इष्णन्ति । श०७ । १ । १।२४॥ देवा मरीचिपाः तस्य ( सूर्यस्य ) ये रश्मयस्ते देवा मरीचिपाः । श.
४।१।१ । २५ ॥ देवा वयोनाधाः ( यजु० १४ । ७ ) प्राणा वै देवा वयोनाधा प्राणहीद
सर्व वयुनं नरमथो छन्दासि वै देवा वयोनाधाश्छन्दोभिहींद सर्व
घयुनं नद्धम् । श०८।२।२। - ॥ देवाव्यम् ( यजु० ११८) देवाव्यमिति यो देवानदित्येतत् । श०६ ।
३।१।२०॥ देविका प्राणो वा अपानो व्यानस्तिम्रो देव्यः । ऐ०२॥ ४ ॥ , अथैष कः प्रजापतिस्तद्यदेव्यश्च कश्च तस्मादेविकाः, पश्च
भवन्ति पञ्च हि दिशः । श० ६।५।१ । ३९ ॥ , ता वा एता देव्यः । दिशो होता (देव्या= दश दिश:-हरि
वंशपुराणे २५॥ ६ ॥) । श०६।५।१ । ३९ ॥ , छन्दांसि वै देविकाः।कौ० १९ । ७ ॥ , छन्दासि देव्यः । श०९ । ५।१।३९ ॥
अन्तरिक्ष देवी । जै० ३०३।४।८।। देवी “ देविकाः" शब्दं पश्यत । दैर्घश्रवसम् ( साम ) दीर्घश्रवा वै राजन्य ऋषियोगपरुखो ऽशनाय -
श्वरन् स एतदैर्घश्रवसमपश्यत्तन सर्वाभ्यो दिग्भ्यो ऽन्नाद्यमवारुन्ध सर्वाभ्यो दिभ्यो ऽन्नाद्यमधरुन्ध
दैर्घश्रवसेन तुष्टुवानः। तां० १५ । ३ । २५ ॥ देवातियम ( साम) देवातिथिः सपुत्रो ऽशनायश्चरन्नरण्य उा
रूण्यविन्दत्तान्येतेन सानोपासीदत्ता अस्मै गाव:
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( २२७ ) द्यावापृथिव्यौ ] पृश्नयो भूत्वोदतिष्ठन् यदेतत्साम भवति पशूनां
पुष्टयै । तां०९।२। १९ ॥ देवातियम् ( साम) आत्वेता निषीदतेति देवातिथम् । तां०९।२।१८॥ दैवानि पवित्राणि छन्दांसि वै देवानि पवित्राणि । तां०६।६।६॥ दैवी सभा तं वागेव भूत्वा ऽग्निः प्राविशन्मनो भूत्वा चन्द्रमाश्चक्षुभूत्वा
ऽऽदित्यश्नोत्रम्भूत्वा दिशः प्राणो भूत्वा वायुः ॥ एषा वै देवी परिषदेवी सभा देवी संसत । जै० उ० २ । ११ ।
१२-१३॥ देवोदासम् ( साम ) अयन्स इन्द्र मोम इति दैवोदासम् । ता० ९ ।
२१ ॥ देव्या अध्वर्यवः घत्सा वै दैव्या अध्वर्यवः । श०१।८।१ । २७ ॥ दैव्यो होतारः देव्या वाऽ एते होतारो यत्परिधयो ऽनयो हि । श०१।
८।३। १०,२१॥
प्राणापानौ धै दैव्या होतारा (=होतारौ)। ऐ० २।४॥ देभ्यो विशः दैव्यो वाऽ एता विशो यत्पशवः । श०३ । ७।३।९॥ दोह: " सूददोहाः" शब्दं पश्यत ।। पावाक्षामा ( यजु०१२ । . ) इमे वै द्यावापृथिवी धावाक्षामा । श.
६।७।२।३॥ पावापृथिवीयम् ( सूक्तम् ) चक्षुषी द्यावापृथिवीयम् । कौ०१६ ॥ ४॥ पावापृथिव्यौ इमे वै धावापृथिवी रोदसी ( यजु. ११॥ ४३ ॥ १२ ।
१०७॥)। श०६।४।४।२॥ ६।७।३।२।। ७ । ३।१।३०॥ इमे ( द्यावापृथिव्यौ ) ह वाव रोदसी । जै० उ० १ । ३२।४॥ द्यावापृथिवी धैरोदसी । ऐ० २।४१॥ (रोदसी) यदरोदीत् (प्रजापतिः) तदनयोः (धावाप्रथिन्योः ) रोदस्त्वम् । तै०२।२।९।४॥ ( वायो) मेनका च सहजन्या (यजु०१५ । १६) चाप्सरसाविति दिक् चोपदिशा चेति ह स्माह माहिथिरिमे तु ते धावापृथिवी । श० ८।६।१।१७॥
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[चावापृथिव्यौ ( २२८ ) बावा पृथिव्यौ इमौ वै लोकौ (= द्यावापृथिव्यौ) शैहिणौ (पुरोडाशौ)।
श०१४।२।११४॥ इमे ( "द्यावापृथिव्यौं” इति सायणः ) वै हरी विपक्षसा ( यजु० २३ । ६)।०३।९।४।२॥ इमे धै द्यावापृथिवी परीशासौ । श० १४ । २।१।१६॥ द्यावापृथिवी वै गोआयुषी । कौ० २६ । २॥ इमे वै द्यावापृथिवी' द्यावाक्षामा (यजु० १२।२॥)। श०६।७।२।३॥ उपहूते द्यावापृथिवी पूर्वजेतावरी देवी देवपुत्रे इति । तदिमे धावापृथिवीऽउपह्वयते ययोरिद, सर्वमधि । श०१।८।१।२६॥ इमौ वै लोकौ रेतःसिचाविमौ खेव लोकौ रेत सिञ्चत इतो वाऽ अयं (लोक) ऊर्ध्वछ रेतः सिञ्चति धूम सामुत्र वृष्टिर्भवति तामसावमुतो वृष्टिं तदिमा अन्तरेण प्रजायन्ते । श०७।४।२।२२॥ यदा वै द्यावापृथिवी सञ्जानाथेऽअथ वर्षति । श० १। ८।३।१२॥ ( यजु०३८ । १५) प्राणोदानौ वै द्यावापृथिवी । श० १४ । ३।२।३६ ॥ इमे हि द्यावापृथिवी प्राणोदानौ । श०४।३।१।२२॥ द्यावापृथिवी वै मित्रावरुणयोः प्रियं धाम । तां० १४ । २॥४॥ धावापृथिवी वैदेवानां हविर्धाने आस्ताम् । ऐ०१२६॥ घावापृथिवी वै सस्यसाधयित्र्यौ। कौ०४।१४ ॥ द्यावापृथिव्योर्वा एष गर्भो यत्सोमो राजा । ऐ०१।२६ ॥ धावापृथिवी वै प्रतिष्ठे। ऐ०४।१०॥ प्रतिष्ठे वैधावापृथिवी। कौ०३ |||२॥ १॥ प्रतिष्ठे वै घावापृथिव्यौ । गो. उ०१।२० ॥ घावापूथिव्य एककपालः पुरोडाशो भवति । श०२। ५।१।१७॥
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( २२६ )
पी: ]
तान मारुतः यो वा श्रयं ( वायुः ) पवतऽ एष तानो मारुतः । श०
३ । ६ । १ । १६ ॥
तानो मारुतस्तेषां ( देवानां व्रात्यानामिति सायणः ) गृहपतिरासीत् । तां० १७ । १ । ७ ॥ द्युमत्तमा (यजु० २७ । ११ ) घुमत्तमेति वीर्यवत्तमेत्येतत् । श० ६ । २ । १ । ३२ ।।
अतदिवया अद इति तद्दिवो दिवत्वम् । तां० २० | १४ | २ ॥ अथ यत्कपालमासीत्सा द्यौरभवत् । श० ६ । १ । २ । ३ ॥
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" ( प्रजापतिः ) व्यानादमुं ( - - ) लोकम् ( प्रावृहत ) । कौ० ६ । १० ॥
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.
४ | ३ ॥
(असुराः) हरिणां दिवम् ( अकुर्वत ) । ऐ० १ । २३ ॥ हरिणी (= सुवर्णमयी) द्यौः । गो० उ०२ । ७ ॥
हरिणीव हि द्यौः । श० १४ । १ । ३ । २९ ॥
सौ (द्यौः ) हरिणी । तै० १।८ । ९ । १ ॥
दिवो (रूपं ) हरिण्यः ( सूच्यः ) । तै० ३ । ९ । ६ । ५ ॥ दिवो (रूपं ) हिरण्यकशिपु । तै० ३ । ९ । २० ॥ २ ॥
( यजु० १२ । १८ ) प्राणो वै दिवः । श० ६ । ७ । ४ । ३ ॥
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( असुराः) हरिणी ( पुरं ) हादो दिवि चक्रिरे । कौ० ८ | = ॥ ( असुराः) हरिणी ( पुरीम् ) दिवि ( चक्रिरे ) । श० ३ | ४ |
प्राणो ऽसौ (धु-) लोकः । श० १४ । ४ । ३ । ११ ॥
असौ ( द्यौः ) जगती । जै० उ० १ । ५५ । ३ ॥
जागतो ऽसौ (धु-) लोकः । कौ० ८ । ९ ॥
दिवि विष्णुर्व्यक्रस्त जानतेन छन्दसा ततो निर्भको यो ऽस्मा
द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः | श० १ । ९ । ३ । १० ॥
असौ बै (-) लोको ऽक्षरन्तिश्छन्दः (यजु० १५ । ४) । श०
८।५।२।४ ॥
असौ वै (-) लोको विष्पर्धाश्छन्दः ( यजु० १५ १५ ) । श० ८ । ५ । २ । ६ ॥
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[ द्यौः
(२३०) यौः द्यौः शम्भूश्छन्दः (यजु० १५ ॥ ४॥)। श०८।५।२।३॥ ,, त्रिष्टुबसौ (द्यौः)। श०१।७।२ । १५॥ ,, असावुत्तमः ( लोकः धुलोकः) त्रिष्टुप् । तां० ७॥ ३ ॥ ९॥ , या द्यौः सा ऽनुमतिः सो एव गायत्री । ऐ० ३ । ४८॥ ,, असो वै (धु-) लोको बृहच्छन्दः (यजु०१५। ५)। श०८।
५।२॥५॥ ,, उपहूत बृहत्सह दिवा । तै० ३।५।८।१ ॥ श० १।८।
१।१६॥
द्यौर्वृहत् । तां० १६ । १०। ८॥ , द्यौर्व वृहद् । श०६।१२।३७ ॥ , बृहद्धयसौ (धौः)। श०१।७।२।१७ ॥ , असौ (धु-) लोको बृहत् । ऐ०८॥२॥ ,, असौ (धौः) बृहत् । कौ०३।५॥ तै० १।४।६।२॥ तां०७ ।
६.१७॥
असौ (द्यौः) एवान्तर्यामः । श०४।१।२।२७ ॥ ,, असौ ( द्यौः) विश्वकर्मा । तै० ३।२।३।७॥ ,, अयं वै (पृथिवी-) लोको मित्रो ऽसौ(धुलोकः) वरुणः श० १२।
६।२।१२॥ ,, द्यावापृथिवी वै मित्रावरुणयोः प्रियं धाम । तां०१४।२।४॥ , एष वा अतिष्ठा वैश्वानरः ( यद् द्यौः)। श०१०।६।१।६॥ ., असौ वै (धु-) लोकः समुद्रो नभस्वान् (यजु०१८।४५)। श०
।४।२॥५॥ ,, अदो वै ब्रनस्य विष्टपं (ऋ० | ६६७) यत्र (विधि) असो
(सूर्यः) तपति । कौ० १७॥ ३॥ ,, वागिति धौः। जै० उ०४।२२ ॥ ११॥ ,, मूर्धा त्वाऽएष वैश्वानरस्य (यद् द्यौः )। श० १०।६।१।।। ,, धौर्महदुक्थम् । श०१०।१।२।२॥ ,, यत (अग्नेः) शुचि (रूपं ) तदिवि (न्यधस) ।श ०२।२।
१।१४॥
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( २३१ )
धाः ] औः यानि शुक्लानि (लोमानि) तानि दिवो रूपम् । श०३।१।१।३॥ , (यदि वेतरथा) यान्येव कृष्णानि (लोमानि) तानि दिवो रूपम् ।
श०३।२।१॥३॥ ,, धौर्वा अस्य ( अग्ने ) परमं जन्म । श०६।२।३ । ३६ ॥ , धौः सावित्री । गो० पू० १ । ३३ ॥ जै० उ०४।२७ ॥ ११ ॥ , असौ वै (धु-) लोक स्वराट् (यजुर १३ । २४) । श० ७।
४।२।२३॥ । ,, स सुवरिति व्याहरत् । स दिवमसृजत । अग्निष्टोममुक्थ्यमति
रात्रमृचः। ते २।२।४।३॥ , स्वरित्यसौ (धु-) लोकः । श० ८ । ७।४।५ ॥ , प्रसौ ( धु-) लोकः स्वः । ऐ०६ । ७ ॥ ,, (प्रजापतिः । स्वरित्येव सामवेदस्य रसमादत्त । सो ऽसौ धौर
भवत् । तस्य यो रसः प्राणेदत् स आदित्योऽभवद्रसस्य रसः ।
जै० उ०१।१।५॥ ,, ( सूर्यो धुस्थान:- ) सूर्यो ज्योतिज्योतिः सूर्य इति तदमुं बोर्फ
(=धुलोक) लोकानामाप्नोति तृतीयसवनं यशस्य । कौ० १४॥ २॥ ,, घोर्वे तृतीयसवनम् । श० १२ । ।२।१०॥ ,, असौ वै (घु-) लोकस्तृतीयसवनम् । गो० उ०४।१८ ॥ ,, सानामादित्यो देवतं तदेव ज्योतिर्जागतंच्छन्दो द्यौः स्थानम् ।
गो० पू०१॥ २६ ॥ , आदित्येन दिवा नक्षत्रैस्तनासौ लोकत्रिवृत् । तां० १०।१।१॥ , चौरसि पायो धिता। आदित्यस्य प्रतिष्ठा । ते० ३।११।१।१० ॥ ,, वायुरस्यन्तरिक्ष श्रितः। दिकः प्रतिष्ठा । तै०३।११।१।६॥ , धौरन्तरिक्ष प्रतिष्ठिता । ऐ०३।६ ॥ गो० उ०३/२॥ ,, यानि पुण्डरीकाणि तानि दिवो रूपम् । श०५।४।५।१४॥ , साम या असौ (धु-) लोकः । ऋगयम् (भूलोकः)। तां०४॥३॥५॥ , दिवमय साना (जयति । श०४।६।७।२॥ , असौ (धौ:) वै जुहूः । तै०३।३।१।१॥३।३।६।११॥ ,, असौ (घु-) लोक उत्तरौष्ठः। कौ० ३ । ७ ॥ , धौर्धाऽ उत्तर सधस्थम् (यजु०१५ । ५४ ॥ १७ । ७३ ॥)। श०
८ ।३।२३॥६।२।३।३५॥
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[ द्यौः
( २३२ )
द्यौ धौरुतरवेदिः । श०७ | ३ | १ | २७ ॥
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द्यौर्वा अपा सदनं दिवि ह्यापः सन्नाः । श०७ । ५ । २ । ५६ ॥ , यदापो ऽसौ (द्यौः) तत् । श० १४ । १ । २ । ९॥
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वर्षतु ते द्यौरिति (यजु० १ । २५) । श० १ । २ । ४ । १६ ॥
तस्यै वा एतस्यै वसोर्धाराय । द्यौरेवात्मा । श०९ । ३ । ३ । १५ ॥
किं नु ते मयि (दिवि) इति । तृप्तिरिति । जै० उ०३ । २६ । ४ ॥
"
" तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः । तै० २ । ७ । १६।३ ॥
२ । ८
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६ । ५ ॥ ३ । ७ । ५ । ४-५ ।। ३ । ७ । ६ । १५ ।। असौ (द्यौः) पिता । तै० ३ । ८ । ९ । १ ॥ श० १३ । १ । ६ । १ ॥
, उपहूतो धौष्पिता । श० १ । ८ । १ । ४२ ॥
द्यौर्यशः । श० १२ १ ३ । ४ । ७ ॥
द्यौरेव यशः । गो० पू० ५ । १५ ॥
ata सर्वेषां देवानामायतनम् | श० १४ । ३ । २ । ८ ॥
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द्यौरेव तृतीया चितिः । श० ८ । ७ । ४ । १४ ॥
ata तृतीय रजः (यजु० १२ । २० ॥ ) । श० ६ । ७ । ४ । ५ ॥ अथ तृतीयाssवृताऽनुमेव लोकं (दिवं) जयति यदुचाऽमुष्मिँलोके । तदेतया चैनं श्रद्धया समधयति ययैवैनमेतच्छ्रद्धयाऽग्नाचम्यादधति समयमितो भविष्यतीति । एतं चास्मै लोकम्प्रच्छति यमभिजायते । जै० उ०३ । ११ । ७ ॥
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द्यौर्हविर्धानम् । तै० २ । १ । ५ । १ ॥ चौरसूक्तम् | जै० उ०
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०३०३ । ४ । २ ॥
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आपो वै द्यौः । श० ६ । ४ । १ । ९ ॥
द्यौर्वै वृष्टिः पूर्वचित्तिः । श० १३ | २ | ६ | १४ || तै०३ | ९|५|२|| ३ । ३ । ९ । ४ ॥ ३६|५|२-३॥
दृष्टिवै द्यौः । तै० ३ । २ । ६ । ३ ॥
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।
*पेन्द्र सौ (-) लोक: । जै०ड० १ । ३७ । ३ ॥ चौरिन्द्रेण गर्भिणी | श० १४ । ६ । ४ । २१ ॥
पन्द्री द्यौः । तां १५ ॥ ४ ॥८॥
द्यौर्ब्राह्मणी । जै० उ० ३।४।१॥
प्रजापति स्वां दुहितरमभ्यध्यायद्दिवमित्यन्य आडुरुषसमित्यन्ये ।
ऐ० ३ । ३३ ॥
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( २३३) द्रोणकलश:] औः प्रजापति वै स्वां दुहितरमभिदध्यौ । दिवं पोषसं वा मिथुन्य
नया स्यामिति सा सम्बभूव । श० १ । ७।४।१॥ ,, असौ (घलोकः) भविष्यत् । तै० ३ । ८ । १८ ॥६॥ , सर्वेणात्मनातिमारिष्यसि क्षिप्रेऽमुं लोकं (घलोक) एष्यसीति
(पलोकगमनम-मरणम्) । ।०१।४।३।२१ ॥ ,, अप्रतिष्ठितो दरिद्रः क्षिप्रे ऽमुं (धु-लोकमष्यसि । श०१। ६ ।
१।१८॥ , (देवाः) अमुं (घलोक) बहिर्णिधनेन ( अभ्यजयन् )। तां० १० ।
१२।३॥ ,, चौर्लोक धुलोकं शस्यया (जयति)। श० १४ । ६।१।९॥ चौतानम् ( साम) धुतानो मारुतस्तेषां (देवानां प्रात्यानामिति सायणः)
गृहपतिरासीत्त एतेन स्तोमेनायजन्त ते सर्व
आर्नुवन् यदेतत्साम भवत्यध्या एव । ता० १७ । द्रप्सः ( यजु० १३ । ५) असो वा आदित्यो द्रप्सः । श० ७।४।
१॥२०॥ , स्तोको वै द्रप्सः। गो० उ० २ । १२ ॥ द्रवदिडम् (साम) इमं वाव देवा लोक द्रवदिडेनाभ्यजयन् । तां० १० ।
१२॥४॥ प्रविणोदाः ( यजु० ११ । २१) द्रविणोदा इति द्रविण वेभ्यो ददाति ।
श०६।३।३।१३॥ इष्टा अग्निा द्रष्टा । गो० उ०२।१९ ॥ द्रु बमस्पतयो वै छ । तै०१।३।९।१॥ द्रोणकलश: देवपात्रं द्रोणकलश: । तां०६।५७॥
प्राजापत्यो शेष देवतया यद् द्रोणकलशः । तां. ६ ।
प्राजपस्यो द्रोणकलशः। ता०६।५।१८ ॥ प्रजापति द्रोणकलशः । श० ४।३।१।६॥ ४।५।
यहोवै द्रोणकलश: ।०४।५।८।५॥
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(विदेवत्याः ( २३४ ) द्रोणकलश; राष्ट्र द्रोणकलशः । तां०६।६।१॥
, प्राणा वै द्रोणकलशः । तां०६।५।१५ ॥ , यस्य कामयेदसुर्यमस्य यज्ञं कुय्यां वाचं धृञ्जीयेति
द्रोणकलशं प्रोहन्बाहुभ्यामक्षमुपस्पृशेत् । तां०६।५।१५॥ द्वंद्वम् वै वीर्यम् । कौ० ८ । ७॥ श०१४।१।३।१॥ द्वादश रात्रयः संवत्सरस्य प्रतिमा वै द्वादश रात्रयः। तै० १ ।११६ ।
७॥१।१।९।१०।। द्वादशाहः तन्त्र वा एतद्वितायते यदेष द्वादशाहस्तस्यैते मयूखा यदाय
व्यसंव्याथाय । तां०१०।५।६॥ ओको वै देवानां द्वादशाहो यथा वै मनुष्या इमं लोकमाविष्टा एवं देवता द्वादशाहमाविष्टा देवतावताह वा एतेन
यजते य एवं विद्वान् द्वादशाहेन यजते । तां० १०।५।१५॥ , वाग द्वादशाहः । तां ११ ।१०।१९ ॥ १२।५।१३॥
गृहा वै देवानां द्वादशाहः । तां० १०।५ । १६ ॥ " षट्त्रिंशदहो वा एष यद् द्वादशाहः । ऐ०४।२४॥ , बृहत्या वा एतदयनं यद् द्वादशाहः । ऐ० ४ । २४ ॥ , ज्येष्ठयज्ञो वा एष यद द्वादशाहः । ऐ०४।२५ ॥
, प्रजापतियज्ञो वा एष यद् द्वादशाहः । ऐ०४ । २५ ॥ द्वापरः ( युगम् ) सजिहानस्तु द्वापरः। ऐ०७॥ १५ ॥ वा ॐशः ( स्तोमः ) " वर्गों द्वाविंशः" शब्दं पश्यत द्वितीयः द्वितीयवान् हि वीर्यवान् । श०३ । ७ । ३ । ८॥ द्वितीयमहः क्षत्रं द्वितीयम् (अहः) । तां० ११ । ११ । ९॥ , वृषण्वद्वा एतदैन्द्र श्रेष्टुभमहर्यत् द्वितीयम् । तां० ११ । ६
३॥ ११॥ ८ ॥ ., पद्म द्वितीयमहः । तां० ११ । ६।४॥ द्वितीया चितिः यदूर्व प्रतिष्ठायाऽ अवाचीनं मध्यात् । तद् द्वितीया
चितिः । श० ८।७।४।२० ॥ , अन्तरिक्षमेव द्वितीया चितिः। श० ८।७।४।१३॥ द्विदेवत्याः (ग्रहाः) (यजमानस्य) प्राणाः द्विदेवत्याः । कौ० १३॥५,६॥
प्राणा वै द्विदेवत्याः। ऐ०२।२८ ॥
:
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( २३५ )
द्विपदा : (ऋचः) पुरुषो द्विपदाः । तै० ३ । ६ । १२ । ३ ॥ द्विपद द्विपाद्वाऽ अयं पुरुषः । श० २ | ३ | ४ | ३३ ॥
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द्विप्रतिष्ठः द्विप्रतिष्ठः पुरुषः । गो०पू० ४ । २४ ॥ गो० उ०६ | १२ ॥ द्विप्रतिष्ठः (पुरुषः) । तै० ३ । ९ । १२ । ३ ॥
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द्विप्रतिष्ठो वै पुरुषः । ऐ० २ | १८ || २ | ३१ ॥ ५ । ३ । ६ । २ ॥ द्वियजु: ( इष्टका ) श्रोणी द्वियजुः । श० ७ । ५ । १ । ३५ ।। यजमानो वे द्वियजुः । श० ७ । ४ । २ । १६, २४ ॥
fars: व्युष्टिर्वा एव द्विरात्रः । तै० १ । ८ । १० । ३ ॥ द्वैगतम् ( साम ) द्विगद्वा एतेन भांगवो द्विः स्वर्ग लोकमगच्छदागत्य पुनरगच्छद् द्वयोः कामयोरवरुध्यै द्वैगतं क्रियते । तां० १४ । ९ । ३२ ॥
द्वयुदासम् (साम) द्वयुदासं भवति स्वर्गस्य वा एतौ लोकस्यावस्सानदेशौ पूर्वेणैव पूर्व्वमहः संस्थापयन्त्युत्तरेणोतरमहरभ्यतिवदन्ति । तां० ५ । ७ । ४ ॥ (ध)
धनम् अन्यस्मे नुम्णानि धारयेत्यक्रुध्यन्नो धनानि धारयेत्येवैतदाह । (नृम्णानि धनानि ) । श० १४ । २ । २ । ३० ॥
इहैव रातयः सन्तु ' ( यजु० ३८ । १३ ) इतीहैव नो धनानि सन्त्वित्येवैतदाह ( रातयः = धनानि ) । श० १४ । २ । २ । ३६ ॥ राष्ट्राणि वै धनानि । ऐ० ८ । २६ ॥
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द्विपाद्वै पुरुषः । ऐ०४ | ३ ॥ ५ । १७,१६,२१ ॥ गो०पू०४।२४ ॥ गो०० ६ । १२ ॥ तै० ३ । ९ । १२ । ३ ॥ द्विपाद्यजमानः । कौ० १६ । ११ ॥ तां० ४ । ४ । ११ ॥ तै० । १ ।
७/४/४ ॥
चन्द्रमा द्विपात्तस्य पूर्वपक्षापरपक्षौ पादौ । गो० पू० २ | ८ ॥ तस्माद् द्विपाच्चतुष्पाद मन्ति । तै० २ । १ । ३ ।९॥
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धरुणः ]
तस्माद्धिरण्यं कनिष्ठं धनानाम् । तै० ३ । ११ । ६ । ७ ॥
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धनुः वार्धनं वै धनुः । श० ५ | ३ | ५ | २७ ॥
धरणः धरुणो मातरं धयनित्यग्निमेवैतत्पृथिवीं धयन्तमाह । श० ४ ।
६। ६।६ ॥
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[धाता
( २३६) धरुणः ( यजु०१४ । २३) असावेवादित्यो धरुण एकवि शस्तच
त्तमाह धरुण इति यदा होवेषो ऽस्तमेत्यथेदॐ सर्व घियते ।
श०८।४।१।१२॥ धरुणा ( यजु० १३ । १६ ) प्रतिष्ठा वै धरुणम् । श०७।४।२।५॥ धम् ( यजु० १४ । २३) वायुर्वाव धर्ष चतुष्टोमः स प्राभिश्चतस्.
भिर्दिग्भिः स्तुते । श० -।४।१।२६ ॥ , प्रतिष्ठा वै धर्मम् । श० ८।४।१।२६॥ धर्म धर्म ( साम ) भवति धर्मस्य धृत्यै। तां० १४। ११ । ३४ ॥ ,, वरुणः ( एवैनं ) धर्मपतीनाम् (सुवते)। तै०१।७।४।२॥ ,, वरुण धर्मणां पते । तै०३।११।४।१॥ धर्मः ( यजु०३८ । १४) एष धर्मो य एष (सूर्यः) तपत्येष हीद सर्व
धारयत्येतेनेद, सर्व धृतम् । श० १४।२।२।२६ ॥ ,, यो वै स धर्मः सत्यं वै तत्तस्मात्सत्यं वदन्तमाहुर्धर्म पदतीति
धर्म वा पदन्त, सत्यं वदतीति । श०१४।४।२।२६ ॥ ,, तस्मासात्परं नास्ति । श०१४।४।२।२३ ॥ , धर्मो हैनं (ब्रह्मचारिणं ) गुप्तो गोपायति (धर्मो रक्षति रक्षितः
मनुस्मृतौ । १५॥)। गो० पू० २।४॥ , धर्मो वा अधिपतिः। तै० ३।।। १६ । २॥ ,, धर्मो मनुष्यः । गो० उ० २।१३ ॥ ,घ ह्यापः । श०११।१।६।२४॥ पवित्राणि प्राणा वैधवित्राणि । १४ । ३।१।२१ ॥ धाता यत् (प्रजापतिर्दिा प्रतिष्ठायेदछ सर्व ) दधनिदधदतिष्ठत्त.
स्माखाता। श०६।५।१।३५॥ , प्रजापतिर्धाता। श०६।५।१।३८॥ , सयः स धातासौ स मादित्या 1 श०६।५।१।३७॥ ॥ यः सूर्यः स धाता स उ एव वषट्कारः। ऐ०३।४८॥ , यो धाता स वषट्कारः। ऐ०३।४७ ॥ , अग्निर्वे धाता । ते. ३।३।१०।२॥ , मृत्युस्तषखाता । तै०३।१२।६।६॥ , चन्द्रमा धाता।०४।॥
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( २३७ )
धाय्या] धाता चन्द्रमा एव धाता च विधाता च । गो० उ०१।१०॥ , इयं ( पृथिवी) धै धाता । ते० ३। - । २३ । ३॥ , संवत्सरो वै धाता। तै० १।७। २।१॥ ।, धाता षड्ढोतृणा होता । तै०२।३।५।६॥ ,, धाता षड्ढोता । तै० २।३।१।१॥ , धाता षड्ढोत्रा । तै०२।२। ४॥ .. धात्रः षट्कपालः (पुरोडाशः)। तां० २१ । १० ॥ २३ ॥ धानाः नक्षत्राणां वा एतद्रूपम् । यद्धानाः । तै० ३1८।१४।५॥ , अहोरात्राणां वा एतद्रूपं यद्यानाः । श० १३।२।१।४॥ ,, पशवो वै धानाः । कौ० १८ । ६॥ गो० उ०४।६॥ , होर्धानाः । श०४।२।५ । २२ ॥ धान्यम् धान्यमसि धिनुहि देवानिति (यजु.१।२०) धान्य हि
देवाधिनपवित्यु हि हघियते । श०१।२।१।१८ ॥ , दश प्राम्याणि धान्यानि भवन्ति । व्रीहियवास्तिलमाषा
अणुप्रियंगयो गोधूमाश्च मसूराश्च खल्वाश्च खलकुलाश्च । श०
१४।६।३।२२॥ धामच्छद् वाग्धामच्छदू । श०१०।१।३।१० ॥ भाग्या ( क् ) यत्र यत्र वै देवा यज्ञस्य छिद्रं निरजानंस्तद्धाय्याभिर
पिवधुस्तद्धाय्यानां धाय्यात्वम् । ऐ०३।१८॥ थाय्याभिर्वे प्रजापतिरिमाँलोकानधयचं यं काममकामयत । ऐ०३ । १८ ॥ पत्नी धाय्या । ऐ० ३ ॥ २३ ॥ गो० उ० ३।२१, २२ ॥ पत्नी वै धाय्या । ऐ० ३ । २४॥ महिषी धाय्या। कौ० १५॥४॥ प्राणो वै धाय्या। कौ० १५॥४॥ प्राणो धाय्या । जै० उ०३।४।३॥ वायुर्धाय्या। जै० उ०३।४।२॥ तद्धके । पुरस्ताद् धाय्ये दधत्यन्नं धाय्ये, मुखत इदमभायं दध्म इति वदन्तस्तदु तथा न कुर्यात् । श०१॥
४।१ । ३७ ॥ , स्यूमहैतवक्षस्य यशाय्याः । ऐ० ३ ॥ १॥
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[धूमः
( २३८ ) धारका धारका ह वै नामबैतया ह वै प्रजापतिः प्रजा धारयाश्चकार ।
श०११ । ६।२।१०॥ धारा तद्यब्रवीत् ( ब्रह्म ) श्राभिर्वा अहमिदं सवं धारयिष्यामि
यदिदं किचेति तस्मात् धारा अभवंस्तद्धाराणां धारात्वं यच्चासु
ध्रियते । गो० पू०१।२॥ धियः प्राणा धियः । श०६।३।१।१३ ॥ , कम्मीणि धियः ( ऋ० ३।६२। १० सायणभाष्यं पश्यत)।
गो० पू०१ ॥३२॥ धिषणा ( यजु० ११ । ६१) वाग्वै धिषणा। श०६।५।४।५॥ ,, विद्या वै धिषणा । तै० ३।२।२।२॥
, अन्तो वै धिषणा । ऐ०५।२॥ धिष्ण्या: एतानि ( स्वानः, भ्राजः, अवारिः, बम्भारिः, हस्तः,
सुहस्तः, कृशानुः) वै धिष्ण्यानां नामानि । श० ३ । ३।
धूः तेन पुरुषेणासुरानधूर्वन् यदधूर्वस्तद्धरां धूस्त्वम् । ष० २।३॥ 3 प्राणा वै धुरः । तां०१४।६।१८॥
(प्रजापतिः तेभ्यः (देवेभ्यः ) एतान् धुरः प्राणान्प्रायच्छन्मनः प्रथममथ प्राणमथ चतुरथ श्रोत्रमथ वाचं ताभ्यः पञ्चभ्यो धूर्य:
पुरुषञ्च पशूश्च निरभिमोत । ष० २।३॥ , अग्निर्हि वै धूः । श०१।१।२६॥ .. ( यजु०१८ ) एष वेधुर्यो ऽग्निः ।०३।२।४।३॥ । अग्निर्वाऽ एष धुर्यः (=युगस्य धुरि भव इति सायणः)। श०१। - १।२।१०॥ धूमः " दिव्य सुपर्ण वयसा बृहन्तम् " ( यजु० १३ । ५१ ) इति दिव्यो वाऽ एष (अग्निः) सुपर्णो वयसोबृहन्धूमेन (धयः-धूमः)।
श०६।४।४।३॥ , पृथु तिरश्वा वयसा बृहन्तम्" ( यजु० २१ । २३ ) इति
पृथुर्वाऽ एष (अग्निः ) तिर्यङ वयसो वृहन्धूमेन पयः धूम.)।
श०६।३।३।१६ ॥ .धूमो वाऽ अस्य (अग्नेः) श्रवो वयः ( यजु० १२ । १०६) स
निममुमिझोके (श्रावयति ) । श०७।३।१ । २६ ॥
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नवा]
( २३६) धृतवतः एष (राजा) च श्रोत्रियश्चैतौ ह वै छौ मनुष्येषु धृतवती।
श०५।४।४।५॥ धति: क्षेमो वै धृतिः । श० १३ । १ । ४।३॥ धना ( यजु० १३ । ३८) अन्नं वै धेनाः । श०७। ५। २ । ११ ॥ ,, धेना बृहस्पतेः पत्नी । गो. उ०२।६॥ धेनु: आपो वै धेनव आपो हीदं सर्वं हिन्वन्ति । कौ० १२।१॥ . ., माता धेनुः । श०२।२।१।२१॥५।३।१।४॥ , इयं ( पृथिवी ) वै धेनुः । श० १२।६।२ । ११ ॥ ,, वाग्वै धेनुः । तां० १८।६।२१॥ गो० पू०२।२१ ॥ ,, वाचमेव तद्देवा धेनुमकुर्वत । श०६।१।२।१७ ॥ ., वाचं धेनुमुपासीत । श० १४ । ८।६।१॥ ,, स धेन्वै चानडुहश्च ( मांसं ?) नाश्नीयाद्धेन्वनडुहो वाऽ इद ____ सर्व विभृतः। श०३ । १।२ । २१ ॥ , तदुहोवाच याज्ञवल्क्यो ऽश्नाम्येवाहं (धेन्वनडुहोमांसम् ?) असलं चेद्भवतोति ( पश्यत-का० श्रौ० सू०७ । ५३ ॥ भस्योपरि याशिकदेवकृता टीकाऽपि द्रष्टव्या ॥ इदं ब्राह्मणवाक्यं धर्मविरुद्धम् । अथवा केनचिदत्र प्रक्षिप्तं स्यात् ) । श० ३ । १।२।२१॥
"गौर" शब्दमपि पश्यत ॥ ध्रुवः ( प्रहः ) तथदेतं (असुराः) न शेकुरुधन्तुं तस्माद् ध्रुवो नाम ।
श०४।२।४।१६॥ ध्रुवम् यद्धै स्थिरं यत्प्रतिष्ठितं तद् ध्रुवम् । श० ८।२।१।४॥
, ध्रुवा सीदेति स्थिरा सीदेत्येतत् । श० ६।१।२।२८ ॥ ध्रुवा यश्चतुर्बुवायां गृह्णात्यनुष्टुभे तद् गृह्णाति............इयं (पृथिवी)
पाऽ अनुष्टुषस्यै वाऽ इदछ सर्व प्रभवति तस्मादु ध्रुवाया एव सर्वो यज्ञः प्रभवति । (ध्रुवापृथिवी-यादवप्रकाशकृते वैजयन्तीकोषे यक्षरकाण्डे नानालिङ्गध्याये श्लो०४४) । श०१।
३ । २ । १६ ॥ , इयं (पृथिवी) एव ध्रुया (ध्रुवा=स्थिरा-अचला-पृथिवी॥
अमरकोषे २।१।२॥)। श०१।३।२।४॥
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[ नक्षत्राणि
ध्रुवा पृथिवी ध्रुवा । तै० ३ ।
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आत्मैव ध्रुवा ( यशस्य ) । श० १ । ४ । ५ । ५ ॥
श्रात्मैव वा तद्वts आत्मन एवेमानि सर्वाण्यङ्गानि प्रभवन्ति तस्मादु वाया एव सर्वो यज्ञः प्रभवति । श० १ । ३ । २ । २ ॥ ध्रुवा दिक् (=" मध्यदेशः " इति सायणः ) श्रथैनं (इंद्र) अस्यां वायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि साध्यवाऽऽपत्याश्च देवाः ... .. अभ्यषिञ्चन् ....... राज्याय ( सायणकृते ऽथर्ववेदभाष्ये ३ । २७ । ५-ध्रुवा दिकू = अधो दिक् ) । ऐ० ८ । १४ ॥ तस्मादस्यां ध्रुवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि ये के च कुरुपञ्चालानां राजानः सवशोशीनराणां राज्यायैव ते ऽभिषिच्यन्ते राजेत्येनानभिषिक्तानाचक्षते । ऐ० ८ | १४ ॥
इयं दिक् (ध्रुवा दिक् = "अधरा दिक्" इति सायणः) । अदितिः (= “भूमिः” इति सायणः ) देवता । तै० ३ ।
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यजमानो वै भ्रुषा । श० १ | ८ | १ | ३९ ॥
आत्मा वा । तै० ३ । ३ । १ । ५ ।। ३ । ३ । ७ । १० ॥
( २४० )
३ । १ । २ ॥ ३ । ३ । ६ । ११ ॥
न ( = इव) वियत्सूर्यो न रोचते बृहद्भा इति (यजु० १२ । ३४) वियत्सूर्य इव रोचते बृहद्भा इत्येतत् । श० ६ । ६ । १ । १४ ॥
(ऋ० १ । ३६ । १३) “ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविते" ति यद्वै देवानां नेति तदेषामो३मिति तिष्ठ देव इव सवितेत्येव । ऐ०२ । २ ॥ द्वै त्यृच्यमिति तत् । श० १ । ४ । १ । ३० ॥
1
नक्तोषासा (यजु० १२ । २) अहोरात्रे वै नकोषासा श० ६ | ७ | २|३॥ नक्षत्राणि नवा इमानि क्षत्राण्यभूवन्निति । तन्नक्षत्राणां नक्षत्रत्वम् । तै०२|७ | १८ | ३ ॥
ते ह देवा ऊचुः । यानि वै तानि क्षत्राण्यभूषण वै तानि क्षत्राण्यभूवन्निति । तद्वे नक्षत्राणां नक्षत्रत्वम् । श० १ । २ । २ । १६ ॥
33
११ ।५ । ३ ॥
किदेवतो ऽस्यां ध्रुवायां दिश्यसीति । अग्निदेवत इति । श० १४ । ६ । ६ । २५ ॥
(12)
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( २४१ )
नक्षत्राणे ]
नचत्राणि यो वा इह यजते । अमु स लोकं नक्षते । तनक्षत्राणां नक्ष
त्वम् । तै० १ | ५ | २ ।५ ॥
नक्षत्राणां नक्षत्रत्वं यन क्षियन्ति । गो० उ० १ ॥ ८ ॥ (भेकुरो ऽप्तरसः । यजु० १८ । ४० ) भाकुर यो ह नामैते भाऊ हि नक्षत्राणि कुर्वन्ति । श० ६ । ४ । १ । ६ ॥ नक्षत्राणि वै जनयो ये हि जनाः पुण्यकृतः स्वर्गं लोकं यन्ति तेषामेतानि ज्योती षि । श० ६ | ५ | ४ | ८ ||
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नक्षत्राणि वैरोचना दिवि (यजु० २३ । ५) । तै० ३ | ६| ४ | २ ॥ अथ यन्नक्षत्राणीत्याख्यायते तल्लोकम्पृणा (इष्टका) । श० १०।
५ । ४ । ५ ॥
नक्षत्राणां वा एतद्रूपं यलाजाः । श० १३ । २ ।
१ । ५ ॥ नक्षत्राणां वा एतद्रूपम् । द्धानाः । तै० ३ । ८ । १४ । ५ ॥
तानि (पुण्डरीकाणि) नक्षत्राणार्थं रूपम् । श०५ | ४ | ५ | १४||
देवगृहा वै नक्षत्राणि । तै० १ | ५ | २ | ६ ||
I
1
यानि वा पृथिव्याश्चित्राणि तानि नक्षत्राणि । तै० १५२६ ॥ यथैवासी सूर्य एवम् (नक्षत्रम् ), तेषाम् (नक्षत्राणाम् ) ए (सूर्य्यः ) उद्यन्नेव वीय्यं क्षत्रमादन्त । श० २१ २ १८ ॥ ज्योतिर्वै नक्षत्राणि । कौ० २७ । ६ ॥
I
शतिर्न क्षत्राणि । तां० २३ । २३ । ३ ॥
सप्तवि
तानि षाऽ पतानि सप्तविंशतिर्नक्षत्राणि सप्तविंशतिः सप्तविंशतिर्होपनक्षत्राण्येकैकं नक्षत्रमनूपतिष्ठन्ते । श०
१०।५।४।५ ॥
ब्राह्मणो वा अष्टाविंशी नक्षत्राणाम् । तै० १ | ५| ३ | ४ || यावन्त्येतानि नक्षत्राणि तावन्तो लोमगर्ता यावन्तो लोमगर्तास्तावन्तः सहस्रसंवत्सरस्य मुहूर्ताः । श०१० । ४ । ४ । २ ॥ कृत्तिकाः प्रथमं । विशाखे उत्तमं । तानि देवनक्षत्राणि । तै० १।५।२।७ ॥
1
यानि देवनक्षत्राणि तानि दक्षिणेन परियन्ति । तै०१ |५|२|७||
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[नभा, नभस्यः
(२४२) नक्षत्राणि एकं वे त्रीणि । चत्वारीति पाउ भन्यानि नक्षत्राण्यथैता एवं
भूयिष्ठा यत्कृत्तिकाः। श०२।१।२।२॥ , अनुराधाःप्रथमम् । अपभरणीरुत्तमम् । तानि यमनक्षत्राणि ।
तै०१।५।२।७॥ यानि यमनक्षत्राणि तान्युत्तरेण (परियन्ति)। तै १।५। २। ७-८॥ तस्मात्सोमो राजा सर्वाणि नक्षत्राण्युपैति । १०३। १२ ॥ नक्षत्राणि स्थ चन्द्रमसि श्रितानि । संवत्सरस्य प्रतिष्ठा । ते० ३।११।१।१३॥ . संवत्सरो ऽसि नक्षत्रेषु धितः । ऋतूनां प्रतिष्ठा। ते० ३। ११ । १ । १४॥
(नक्षत्राणि) संवत्सरस्य प्रतिष्ठा । तै० ३ । ११ । १ । १३ ॥ , नक्षत्राणां वा एषा दिग्यदुदोची । ष०३।१॥
यान्येव देवनक्षत्राणि । तेषु कुर्वीत यत्कारी स्यात् । पुण्याह एव कुरुते । तै०१।५।२। । यत् पुण्यं नक्षत्र । तद्वषट्कुर्वीतोपव्युषं । यदा वै सूर्य उदेति । अथ नक्षत्रं नैति । यावति तत्र सूर्यो गच्छेत् । यत्र जघन्यं पश्येत् । तावति कुति । यत्कारी स्यात् । पुण्याह एव
कुरुते । तै० १।५।२॥१॥ नचिकेता: उशन् ह वै वाजश्रयसः सर्ववेदसन्ददौ । तस्य ह नचिकेता
नाम पुत्र आस । ते० ३ । ११ । ८।१॥(काठकोपनिषदि १ ।
१।१॥ महाभारते, अनुशासनपर्वणि, भ०७१ ॥ ) नडः (=नलः) अथैष एव नडो नैषिधो (?षयो) यदन्वाहार्यपचनः ।
श०२।३।२।२॥ नदी तस्माया एतासां नदीनां पिबन्ति रिप्रतरा शपनतरा पाहनस्य.
वादितरा भवन्ति । श०६।३।१ । २४ ॥ नदीपतिः अपां धाऽ एष पतिर्यश्रदीपतिः । श०५।३।४।१०॥ मपुंसकम् यद्विधुता तेन नपुसकम् । १० १॥ २॥ नभः, नभस्यः (यजु०७।३०॥ १४ । १५ ॥) एतौ ( नभश्च नभस्यश्च)
एव वार्षिको ( मासौ ) अमुतो वै दियो वर्षति तेनो हैतौ नभश्च नभस्यश्च । श०४।३।१।१६ ॥
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( २४३ )
नमुचिः ]
नमः, नमस्यः विदेदमिर्नभो नामाग्ने श्रङ्गिर श्रायुना नास्नेहि ( यजु० ५ ।९ ॥ ) इति । श० ३ । ५ । १ । ३२ ॥
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३ । ८ । १८ । १ ॥
नभसस्पतिः वायुर्वै नभसस्पतिः । गो० उ० ४ । ६ ॥ अनिर्वै नभसस्पतिः । गो० उ० ४ । ६ ॥
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नमः (यजु ० ११ | ५ ) अन्नं नमः । श० ६ । यशो वै नमः । श० २ । ४ । २ । २४ ॥ है । १ । १ । १६ ॥
( यजु० १३ । ८ ) यज्ञो वै नमः । श० ७ । ४ । १ । ३० ॥
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,, तस्मादु ह नायज्ञियं ब्रूयान्नमस्तऽ इति यथा हैनं (अयज्ञियं ) ब्रूयाद्यज्ञस्त इति तादृक्तत् । श० ७ । ४ । १ । ३० ॥
नमस्यः ( ऋ०३ । २७ । १३ ) नमस्यो ह्येषः (अग्निः ) | श० १।४ ।
१ । २६ ।।
पितरो नमस्याः । श० १।५।२।३ ॥
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नमुचि: ( असुर: ) ' अपां फेनेन नमुचे (:) शिर इन्द्रोदवर्तयः, विश्वा यक्ष जय (:) स्पृधः' (ऋ० ८ । १४ । १३ ) इति पाप्मा वै नमुचिः । श० १२ । ७ । ३ । ४ ॥ इन्द्रस्येन्द्रियमन्नस्य रस सोमस्य भक्षयं सुरयासुरो नमुचिरहरत्सो ( इन्द्र: ) ऽश्विनौ च सरस्वती खोपाधावच्छेपानो ऽस्मि नमुचये न त्वा दिवा न नक्कथं हनानि न दण्डेन धन्वना न पृथेन न मुष्टिना न शुष्केण नार्द्रेणाथ मS इदमहार्षीदिदि म आजिद्दीर्षथेति ॥ ते ( अश्विनौ सरस्वती च ) अब्रुवन् । अस्तु नो ऽत्राप्यथाहरामेति सह न पतदथाहरतेस्वीदिति ॥ तावश्विनौ व सरस्वती च । अप फेनं वज्रमसिञ्चन शुष्को नाई इति तेनेन्द्रो ममुचेरासुरस्य व्युष्टायां रात्रावनुदितः श्रादित्ये न दिवा न नक्तमिति शिर उद्वासयत् । श० १२ । ७ । ३ । १-३ ॥
अन्तरिक्षं वै नभांसि । तस्य रुद्रा श्रधिपतयः । तै०
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३ । १ ।
श० २ ।
१७ ॥
६ । १ । ४२ ॥
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[नरः
( २४४) नमुचिः ( असुरः) युष सुराममश्विना नमुचापासुरे सचा । विपि.
पाना शुभस्पती इन्द्रं कर्मस्वायतम् (ऋ० १० । १३१ । ४॥ यजु०१०। ३३ ।। ) इत्याधाव्याहाश्विनी सरस्वतीमिन्द्र सुत्रामाणं यजेति । श०५।५। ४।२५ ॥ " यमश्विना नमुचेरासुरादधि" (यजु० १६ । ३४) इत्यश्विनौ हतं (सोमं ) नमुचेरध्याहरता "सर. स्वत्यमुनोदिन्द्रियाय" इति... | श० १२ । ।१॥३॥ ( नमुचिः) तस्य ( इन्द्रस्य ) एतयैव सुरयेन्द्रियं वीर्य सोमपीथमनाचमहरत्ल ह न्यर्णः शिश्ये । श० १२ । ७।१।१०॥ तस्य ( नमुचेः) शीश्छिम्ने लोहितमिधः सोमो ऽतिष्ठत् । श० १२ । ७।३।४।। (नमुचिरुवाच-) न मा शुष्केण नाट्टैण हनः । न दिवा न नकमिति । स एतमपां फेनमसिश्चत् । न पा एष शुष्को नाद्रो व्युष्टासीत् । अनुदितः सूर्य: । नवा एतद्विधा । न नक्तं । तस्य ( नमुचेः) एत. स्मिलोके । अपां फेनेन शिर उदधर्तयत् । तै०१। ७।१।६-७॥ इन्द्रश्च धै नमुचिश्चासुरः समदधातान्न नौ नक्कान विवाहमन्त्राण न शुष्केणेति तस्य व्युष्टायामनुदित प्रादित्ये ऽपां फेनेन शिरो ऽछिनत् ।ता १२ ।
नमुचिर्ह वै नामासुर पास तमिन्द्रो निषिव्याध तस्य पदा शिरो ऽभितष्टौ स यदभिष्ठित उदयाघात स उच्चस्तस्य पदा शिरः प्रचिच्छेद ततो रक्षा
समभवत् । श०५।४।१।। मर: ( यजु०१३ । ५२ ) मनुष्या वै नरः। श०७:५। २ । ३६ ॥ , मनुष्या नरम । श०६।७।३।११ ॥ , पुमांसो नरः खियो नार्यः। ऐ०३ । ३४ ॥
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( २४५)
नाक:] नरः प्रजा नरः। ऐ०२।४॥६।२७, ३२ ॥श०१।५।१।२०॥
१।।२। १२॥ गो० उ०६ ॥ , नरो देवानां प्रामः । तां० ६ । ।२॥ नरकः दश पुरुषे स्वर्गनरकाणि तान्येनं स्वर्ग गतानि स्वर्ग गमयन्ति
नरकं गतामि नरकं गमयन्ति । जै० उ० ४ । २५ । ६॥ ,, मनो नरको पाङ्ग नरकः प्राणो नरकचतुर्नरकश्श्रोत्रं नरकस्त्व
नरको हस्तौ नरको गुदं नरक्रश्शिश्नं नरकः पादौ नरकः । १०
उ०४।२६।१॥ नराशंस: मनुष्या घे नराशसः । तै० २।७।५।२॥ " प्रजा वै नरो वाक् शंसः। ऐ०२।४ । ६ । २७, ३२ ॥ गो०
उ०६।०॥ , प्रजा बैनरस्ता अन्तरिक्षमनु वावद्यमानाः प्रजाश्चरन्ति यह
पदति शसतीति वै तदाहुस्तस्मादन्तरितं नराशसः ।
श०१।।२।१२ ॥ , अन्तरिक्षं चै नराशसः । श०१। ८।२।१२॥ नराशंसपङ्क्तिः छिनाराशंसं प्रातःसवनं द्विनाराशंसं माध्यन्दिनं सधनं
सकृनाराशंसं तृतीयसवनमेष यज्ञो नराशंसप
ङ्क्तिः । ऐ०२।२४॥ नल: " नडः " शब्दं पश्यत । नवदशः ( स्तोमः , “तपो नवदशः " शब्दं पश्यत ।
, यन्नवदशः प्रजननं तेन (अवरुन्धे)। तां० १६।
१८।३॥
मवनीतम् नवनीतं गर्भाणाम् (सुरभि)। ऐ०१।३॥ नवरात्रः (प्रजापतिः) तेभ्यः ( देवेभ्यः) एतेन नवराणामृतत्वं प्राय.
च्छत् । तां० २२॥ १२ ॥१॥ मवाहः नवाहोवै संवत्सरस्य प्रतिमा। ष०३।१२॥ नाकः तम् । अनिशं स्तोमं ) उ नाक इस्याहुन हि प्रजापतिः कस्मै
चनाकम् (प्रकम् = दुःखहेतुरिति सायणः )। तां०१०।१।१०॥ ,, न हि तत्र गताय कस्मै चनाकं मवति । श०।४।१॥२४॥ , न ता जग्मुषेक्चिनाकम् । तां० २१ । । । ४॥
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[नाभिः
( २४६) नाकः नाक रोहति स्वर्गमेव तल्लोक रोहति । तां० १८१७॥१०॥ " ( यजु० १२।२॥ ) स्वर्गो वै लोको नाकः । श० ६।३।३।
१४॥६।७।२।४॥ नाकः षट्त्रिंश: (यजु० १४ । २३) संवत्सरो वाव नाकः पत्रिशस्त
स्य चतुर्विशतिरर्धमासा द्वादश मासास्तद्यत्तमाह नाक इति न हि तत्र गताय कस्मै चनाकं भवति । श.
८।४।१।२४॥ नाकः स्वर्गो लोकः दिशो वै स नाकः स्वर्गो लोकः । श० - । ६।१४॥ नाक्रसदः ( इष्टका ) तद्यदेतस्मिन्नाके स्वर्गे लोके देवा असीदस्तस्मारे
वा नाकसदः । श०८।६।१।१॥ प्रात्भा वै नाकसदः । श०८।६।१। ११, १३ ॥ या इमे चत्वार विजो गृहपतिपश्चमास्ते नाकसदः । श० ।६।१।११॥ तथा अमुषमादादित्यादर्वाच्यः पश्चदिशस्ता नाक.
सदः । श००।६।१।१४।। नामदम् (साम) सो (वृत्र इन्द्रेण) ऽभिहतो व्यनवद्यद् व्यनदसमानद
सामाऽभवत्तन्नानदस्य नानवत्वम् । ऐ०४।२॥ इन्द्रः प्रजापतिमुपाधाव वृत्रहनानीति तस्माएतामनुष्टुभमपहरसं प्रायच्छत्तया नास्तृणुत यदस्तृतो व्यनदत्तनानदस्य नानदत्वम् । तां०१२॥ १३ ॥४॥ अभ्रातृव्यं वा एतद् भ्रातृव्यहा साम यन्नानदम् । ऐ०
भाभानेदिष्ठः रेतो वै नाभानेदिष्टः। ऐ०६ । २७ ॥ गो००६। ॥ नाभानेदिष्ठम् (सूक्तम्) स एष सहस्रसनिमंत्रो यनाभानेदिष्ठम् । ऐ०
५। १४॥ यदि नामानेदिष्ठं रेतो ऽस्यांतरिया ।ऐ० ५।१५।।
रेतो हि नाभानेदिष्ठीयम् । तां० २०।६।२॥ नाभिः प्राणो वा अयं सत्राभेरिति तस्मानाभिस्तनाभेर्नाभित्वम् । ऐ. १॥२०॥
..............(नाभिः) दशमी प्राणानाम् । त० ।
नव प्राणा...
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( २४७ )
नारी] नाभिः नाभिवघ्ना (भासदी) भवति । पत्र (नाभिप्रदेशे) वाऽ अन्नं
प्रतितिष्ठति......अत्रोऽएव रेतस प्राशयः । श०३।३।४।२८ ॥ , एव हैष गुदः प्राणः समन्तं नाभि पर्यक्नः । श० ८ । १ ।
मध्यं वै नाभिर्मध्यमभयम् । श०१।१।२।२३ ॥ एतद्वै पशोर्मेध्यतरं यदुपरिनाभि पुरीषसहिततरं यदवा नाभः । श०६।७।१।१०॥ यद्वै प्राणस्यामृतमूवं तन्नाभेरुर्वैः प्राणैरुञ्चरत्यथ यन्मत्यं
पराक्तन्नाभिमत्येति । श०६।७।१ । ११॥ नाम तस्णत्पुत्रस्य जातस्य नाम कुर्यात्पाप्मानमेवास्य तदपहत्यपि
द्वितीयमपि तृतीयमभिपूर्वमेवास्य तत्पाप्मानमपहन्ति । श०
६।१।३।६॥ ,, राध्नोति हैव य एवं विद्वान्वितीयं नाम कुरुते। श० ३।६।
२॥ २४॥ नारायणः पुरुषो ह नारायणो ऽकामयत । अतितिष्ठेय सर्वाणि भू.
तान्यहमेवेद सर्व० स्यामिति स एतं पुरुषमेधं पश्चरात्रं यशक्रतुमपश्यत्तमाहरसेनायजत तेनेष्वात्यतिष्टत्सर्वाणि भू. तानीदॐ सर्वमभवदतितिष्ठति सर्वाणि भूतानीदछ सर्व भवति य एवं विद्वान् पुरुषमेधेन यजते यो वैतदेयं वेद । (पञ्चरात्रम्-वैष्णवग्रन्थविशेषः ॥ विष्णु नारायण:-अमर
कोषे १ । १ । १८ ॥)। श० १३ । ६।१।१॥ , पुरुषं ह वै नारायणं प्रजापतिरुवाच । गो० पू० ५। १६॥
श० १२ । ३।४।१ ॥ नाराशंसम् अथैतन्मृद्धिव छन्दः शिथिरं यन्नाराशंसम् । ऐ०६।१६ ॥ ,, विकृतिः नाराशंसं किमिव च वै किमिव च रेतो वि.
क्रियते तसदा विकृतं प्रजातं भवति । ऐ०६।१६॥ नाराशंसी यड्रह्मणः शमलमासीत् सा गाथा नाराशस्यभवत् । तै.
१।३।२।६॥ नारी पुमांसो वै नरः खियो नार्य। ऐ०३ । ३४॥
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[ निधनम्
( २४ )
नार्मेधसम् (साम) नृमेधसमाङ्गिरस सत्रमासीन
श्वभिरभ्याह्वयन्
सो ऽग्निमुपाधावत्पाहि नो अग्न एकयेति तं वैश्वानरः पर्युदतिष्ठत्ततो वै स प्रत्यतिष्ठत्ततो गातुमविन्दत । तां० ८ | = | २२ ॥
नासिका नासिकेऽउ वै प्राणस्य पन्थाः । श० १२ । ६ । १ । १४ ॥ मध्यमेतत्प्राणानां यन्नासिके । श० १३ । ४ । ४१६॥ नासिके वा एते यज्ञस्य यदुष्णिक्ककुभौ । तां०८ | ५ | ४ ॥ निकायश्छन्दः (यजु०१५ । ५) वायुर्वै निकायश्छन्दः । ०६५ २५ ॥ निगदः ऊर्वै रसो निगदः । कौ० १२ । १ ॥
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निप्राभ्याः तद्यदेना उरसि इन्द्रः) न्यगृह्णीत तस्मान्निग्राभ्या नाम । श० ३। ६ । ४ । १५
निचाय्य ( =ष्ट्रा) अग्नेज्योतिर्निचाय्येत्यग्नेज्र्ज्योतिर्हष्ट्रेत्येतत् । श० ६ | ३ । १ । १३, ४१ ॥
निचत् (छन्दः) निवृनिपूर्वस्य नृतेः । दे० ३ । २० ॥
निदाघः निदाघे वा नि नो ऽयं धीयाताऽइति । श० १३ | ८ | १ । ४ ॥ निधन कामम्. (साम) अथैतग्निधन कामं स्सर्वेषां कामानामवरुध्यै । तां० १२ । ९ । १२ ॥
निधनम् (साम) अनायतनं वा एतत्साम यदनिधनम् । तां ५ | २५॥ अथ यदस्यां दिशि (= पृथिव्यां ) या देवता ये मनुष्या ये पशवो यदन्नाद्यं तत्सर्वं निधनेनाप्नोति । जै० उ० १ ३१ । ६ ॥
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अस्तमितः ( श्रादित्यः ) एव निधनम् । जै० उ० १ १२ । ४ ॥
चन्द्रमा नक्षत्राणि पितर ऐतनिधनम् । जै० उ० १ । १६ । २ ।
(प्रजापतिः) निधनम्पितृभ्यः ( प्रायच्छत् ) । जै० उ० १ । १२ । २ ॥
अमावास्या निधनम् । ष० ३ । १ ॥
प्रजापतिरेव निधनम् । जै० उ० १ । ५८ । ६ ॥ (प्रजापतिः) हेमन्तं निधनं । अकरोत् ) । जै० उ० १ । १२ । ७ ॥
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( २५६)
नितिः] निधनम् (साम) हेमन्तो निधनम् । ष०३।१॥ " (प्रजापतिः) छन्दो निधनम् (अकरोत्)। जै. उ०१।
१३ ॥ ३॥ (प्रजापतिः) श्रोत्रं निधनम् (अकरोत्)। जै० उ० १ । १३ ॥ ५॥
(प्रजापतिः) वृष्टिं निधनम् ( अकरोत् )। जै०उ०१ । १३ । १॥ ,, विश एव निधनम् । जै० उ०१ । ३६ । ६ ॥ " मजा निधनम् । जै० उ०१। ३६ ॥ ६॥ , वीयं वै निधनम् । तां०७ । ३ । १३ ॥
, प्रतिष्ठा वै निधनम् । कौ० २७ । ६॥ २६ ॥ ३॥ निधा पाशा वै निधा। ऐ०३ । १६॥ निधिः प्रथिवी होष निधिः। श०६ । ५।२।३॥ निनदः बलं निनदः । गो० उ०६ । १२॥ निमेष: निमेषो वपदारः। तै० २।१।५।६॥ नियुतः पशवो वै नियुतः । तां०४।६। ११ ॥ श०४।४।१।१७॥
, उदानो बै नियुतः। श०६।२।२।६॥ निरुक्तम् (गानम्) एतबै गायत्रस्य करं यन्निरुक्तम् (गानम् )। तां०
७।१।उच्चैर्निरुक्तमनुबयादेतद्ध वा एकं वाचो ऽनन्ववसितं पाप्मना यनिरुक्तं तस्मानिरुक्तमनुनयाद्यजमानस्यैव पाप्मनो ऽपहत्यै। कौ०११ ।१॥ परिमितं वै निरुक्तम् ॥श०५।४।४।१३॥
निरुक्ता हि वाङ् निरुक्तो हि मन्त्रः । श०१॥४॥४६॥ निर्गतिः इयं (पृथिवी) वै नितिरियं वै तं निरर्पयति यो निर्मच्छ.
ति । श०७।२।१।११॥ , इयं (पृथिवी) नितिः । श०५।२।३।३॥
इयं (पृथिवी) निर्गतिः । तै०१।६।१।१॥ निर्वत्यै मूलवर्हणी (मूलनक्षत्रमिति सायणः)। तै० १ ।
५।१।४॥ (३।१।२।३॥) , पापमा नितिः । श०७।३।१।१॥
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,
[निष्केवल्यम् ( २५० ) नितिः घोरा वै नितिः ।।०७।२।१।११ ॥
.. तिग्मतेजा वै निर्ऋतिः । श० ७।२।१।१०॥ , कृष्णा वै निऋतिः । श०७।२।१।७॥
नैर्ऋतो वै पाशः । श०७।२।१।१५ ॥ नैर्मता वै तुषाः । श०७।२।१।७॥
निर्धतेर्वा एतन्मुखं यद्वयांसि यच्छकुनयः। ऐ०२। १५ ॥ , या वाऽ अपुत्रा पत्नी सा नितिगृहीता । श०५।३।१।१३॥ निविदः निविद्भिर्त्यवेदयन्तन्निविदा निवित्त्वम् । तै०२।२।८।५॥ ,, (देयाः) निविद्भिर्यवेदयन् । श०३।४।३।२८ ॥
तं (यशं) वित्त्वा निविद्भिन्यवेदयन्यद्वित्वा निविद्भिर्यवेद
यंस्तनिविदा निवित्त्वम् । ऐ०३।६॥ , अथो अन्नं निविद इत्याहुः । कौ० १५ । ३, ४॥
प्राणा वै निविदः । कौ० १५ । ३,४॥ स्वर्गस्य हैष लोकस्य रोहो यन्निविद् । ऐ० ३॥ १६ ॥ सौर्या वा एता देवता यनिविदः । ऐ०३।११॥ आदित्या निवित् । जै० उ० ३।४।२॥ अथ वै निविदसावेव यो ऽसौ (सूर्यः) तपत्येष हीदं सर्व निवेदयन्नति । कौ०१४।१॥ चक्षुर्निधित् । जै० उ०३।४।३॥
यदन्तरात्मरतन्नियित् । कौ०१५ । ३॥ गो० उ०३।२१-२२ ॥ ,, गर्भा वा एत उक्थानां यनिविदः। ऐ०३।१०॥ , पेशा वा पत उक्थानां यन्निविदः। ऐ०३।१०॥
, क्षत्रं निविद् । ऐ०२ । ३३ ॥ ३।१६॥ निषधः (सामधिशेषः) निषेधन (वै दवाः पशून्) पर्यगृहणन् । तां०१५॥
उत्सेधनिषेधौ ब्रह्मसामनी भवत उत्सेधेनवास्म पशूनुत्सिध्य निषेधेन परिगृह्णाति । तां० १९ ।
७।४॥ निकवल्यम् (शस्त्रम्) निष्केवल्यं बह्वयो देवताः प्राच्यः शरयन्ते बह्वय
ऊर्ध्वाः,अथैतदिन्द्रस्यैव निष्केवल्यं तनिष्केवल्यस्य निष्केवल्यत्वम् । कौ० १५॥ ४॥
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( २५१ )
नृम्णम् ] निष्केवल्यम्(शस्त्रम्)आत्मा यजमानस्य निष्केवल्यम् । ऐ०८॥२॥ निष्ट्या ( नक्षत्रम् ) निष्ट्या हृदयम् (नक्षत्रियस्य प्रजापतेः)। तै० १ ।
५।२॥२॥ (="स्वातिः" इति सायणः) वायोनिष्टया । तै० १ । ५।१।३॥३।१।१।१०॥ यां कामयेत दुहितरं प्रिया स्यादिति । तानिष्ट्यायां दद्यात् । (पत्युः) प्रियैव भवति । नैव तु (पितुगु
हं) पुनरागच्छति । तै०१।५।२।३॥ निवः (सामविशेष:) ऋषयो वा इन्द्रं प्रत्यक्षनापश्यन् स वसिष्ठोऽका
मयत कथमिन्द्रं प्रत्यतं पश्येयमिति स एतन्निहवमपश्यत्ततो वै स इन्द्र प्रत्यक्षमपश्यत् । तां० १५ । ५॥ २४॥ सेन्द्रं वा एतत्साम यदेतत्साम भवति सेन्द्रत्थाय । तां०१५ । ५। २४ ॥
मिहयो भवत्यनाद्यस्यावरुष्य । तां० १५।५ २२।। निहवानं छन्दः एतद्वै निह्नवानं छन्दो यन्न शंसिषमिति । तां०८।६१२॥ नीवाराः स (बृहस्पतिः) नीवाराग्निरवृणीत् । तन्नीवाराणां नीवारत्वम्।
तै०१।३।६ । ७॥ अथ बृहस्पतये वाचे । नैषारं चरुं निर्वपति । श० ५। ३ ।
३।५
॥
स (बृहस्पतिः) एतं बृहस्पतये तिष्याय नैवारं चरु पयसि निरवपस् । तै०३।१।४।६॥ पतझै देवानां परममन्नं यनीवाराः । ते १।३।६। - ॥
एते ब्रह्मणा पच्यन्ते यनीवारा। श०५।१ । ४।१४॥ ,, एते वै ब्रह्मणा पच्यन्ते यन्नीवागःश०५।३।३।५॥ नचक्षा: (यजु०१२।२०) प्रजापति नृचक्षा। श०६।७।४।५॥
,, (यजु०१४ । २४) देवा व नृचक्षसः। श०८।४।२।५॥ नृम्णम् (यजु० ३८ । १४) अमेन्यस्मे मुम्णानि धारयेत्यक्रुध्यन्नो धनानि
धारयस्येवैतदाह । (नृम्णानिधनानि)। श० १४॥२॥२॥३०॥ " अन्नं वै नम्णम् । कौ०२७॥ ५ ॥
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[न्यग्रोध:
( २५२) नृमणा (यजु० १२ । १८) प्रजापति नृमणा । श०६।७।४।३,५॥ नृवाहसा (यजु० २३ । ६) अहोरात्रे वै नवाहसा (नृवाहसो)।०३।
९।४।३॥ नृषद् (यजु० १२ । १४) प्राणो वै नृषन्मनुष्या नरस्तधो ऽयं मनुष्येषु
प्राणोऽग्निस्तमेतदाह । श०६।७।३।११॥ , (यजु०१७। १२) प्राणो वै नृषद् । श०९।२।१।८॥ ,, एष (सूर्यः) वै नृषत् । ऐ०४।२० ॥ नेष्टा पत्नीभाजनं वै नेष्टा । ऐ०६।३॥ गो० उ०४।५॥
1. अग्निहि देवानां पात्नीवतो नेटर्तिधाम् । कौ० २८।३।। नैपातिथम् (ब्रह्मसाम) सामाःययत् स्वर्गाय युज्यते स्वर्गाल्लोकान्न ध्य
वते तुष्टुवानः। तां० १४।१०।५॥ नैमिशीयाः एतेन (द्वादशसंवत्सराख्येन सत्रेण) धै नैमिशीयाः सर्वा
मृद्धिमार्नुवन् । तां० २५ ॥ ६ ॥ ४॥ नैषादः एतद्वा अवरायमनाचं यत्रैषादः । कौ०.२५ । १५ ॥ नौधसम् (साम) देवा वै ब्रह्म व्यभजन्त तान्नोधाः काक्षीवत आगच्छते
ऽब्रुवन्नृषिन आगस्तस्मै ब्रह्म ददामेति तस्मा एतत्साम प्रायच्छन्योधसे प्रायछ स्तरमानौधसम् । तां०७।१०। १० ॥ बृहदध्येतत्परोक्ष यौधसम्। तां०७।१०।८॥ ब्रह्म वै नौधसम् । तां०७ । १०।१०॥ ११ । ४।९॥ ब्रह्मवर्चसकाम एतेन (नौसेन) स्तुधीत । तां० ७।
१०।११॥ न्यग्रोधः ते यन्न्यश्चो ऽरोईस्तस्मान्य रोहति न्यनोहो न्यग्रोहो वे
माम तम्प्रोहं सन्सं म्यग्रोध इत्याचक्षते । ऐ०७।३०॥ न्यञ्चो न्यग्रोधा रोहन्ति । श०१३।२।७।३॥ अधि देवा यज्ञनेष्टा स्वर्ग लोकमायस्तंत्रतांश्चमसाम्म्युजरत न्यग्रोधा अभयन् न्युजमा इति हाप्येमानेतााचक्षते कुरुक्षेत्र तेह प्रथमजा न्यग्रोधानां तेभ्यो हाम्ये ऽधिजासाः। ऐ० ७॥३०॥ अस्थिभ्य एवास्य स्वधानवरस न्यग्रोधो ऽभवत् । शा० १२।
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( २५३ )
पङ्किः ] न्यग्रोधः तेषां चमसानां रसो ऽवङित्ते (न्यग्रोधस्य) ऽवरोधा अभ
वन्नथ य ऊर्ध्वस्तानि फलानि ऐ० ७ ॥ ३१ ॥
परोक्षमिव ह वा एष सोमो राजा यन्न्यग्रोधः । ऐ० ७॥३१॥ , क्षत्रं वा एतद्वनस्पतीनां यन्यग्रोधः। ऐ० ७।३१॥ ८॥ १६ ॥
नयमोधेन जन्यः (अभिषिञ्चति)। मित्राण्येवास्मै कल्पयति।
०१।७। ८।७॥ न्यर्बुदम् यो बै बाचो भूमा । तन्न्यर्बुदम् । तै० ३ । ८ । १६ । ३॥ न्युजः "न्यग्रोधः" शब्दं पश्यत । म्यूनः भलं म्यू खः । को०२२।६,८॥ २५ ॥ १३ ॥ ३०॥५॥ " मन न्यूँखः । ऐ०५।३॥ ६। २९, ३०, ३६॥ गो० उ०
६।८,१२॥
पक्षिणः ये बै विद्वा सस्ते पक्षिणो ये ऽविद्वासस्ते ऽपक्षात्रि
वृत्पशवशाषेष स्तोमो पक्षौ कृत्वा स्वर्ग लोकं प्रयन्ति । सां०
१४।१।१३॥ पचौ वृहद्रथम्सरे छन्दो चावापृथिवी देवते पक्षौ । श० १०। ३ ।
२॥४॥ पङ्क्तिः (छन्दः ) पङ्किः पचिनी पञ्चपदा । ३० ३॥ १३ ॥
पञ्चपदा पङ्किः । ऐ०५।१८,१६, २१ ।। ६ । २०॥ कौ०१। ३,४॥ ११।२॥१३॥२॥श०९।२। ३।४१॥ तां० १२।१।६ ॥ गो० पू०४ । २४॥ गो००४।४॥ अथ या पङ्क्षिपश्चपदा सप्तदशाक्षरी सधैयर्यजमानं स्वर्ग लोकमभिवहन्ती विद्यात्... गो० पू०३।८॥ पश्चाक्षरा पङ्गिः । तै० २।७।१०।२॥ यस्य दश ताः पडिम् । कौ०६।२॥ चत्वारिंशदक्षरा पड्डिा। कौ० १७ ॥३॥ पंक्तिर्विष्णोः पत्ती । गो० उ०२।। पणिन्दो मरुतो देवता डीवन्तौ । २०१०।३। २॥१०॥
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[पतिः पक्तिः (छन्दः) पडि
( २५४) तन्द्रं छन्दः । श०८।२।४।३ ॥८
।
पृथुरिव वै पङ्किः । श० १२ । २।४।६ ॥ गो० पू० ५॥४॥ पक्षौ पड्यः । श०८।६।२।३, १२॥ श्रोत्रं पनि । श०१०।३।१।१ ॥ पडिलर्धा ( दिक् )।श ८।३।१।१२॥ पाइ ह्यन्त्रम् (अश्यं खाध चोप्यं लेां पेयमिति सायणः)। तां०५।२।७॥ पाङ्गमन्नम् । तां० १२।१।॥ पडि; अन्नम् । ऐ०६॥ २० ॥ अन्नं व पङ्किः । गो० उ०६ । २॥ प्रतिष्ठा वै पङ्किः । कौ० ११ । ३ ॥ १७ ॥ ३ ॥ पाङ्ग इतर आत्मा लोम त्वङ् मा समस्थि मजा। तां०५।१।४॥ पाङ्गो ऽयं पुरुषः पंचधा विहितो लोमानि त्वङ् मांसमस्थि मज्जा । ऐ०२।१४ ॥ ६ । २९ ॥ पाङ्कः पुरुषः । कौ० १३ । २॥ तां० २।४।२॥ गो० उ०४।७॥ यजमानच्छन्दसं पतिः। कौ० १७ । २॥ पाङ्गः पशुः। श०१।५।२।१६॥ पाडाः पशवः। ऐ० ३॥ २३ ॥४।३॥ ५।४, ६, १८, १९ ॥ कौ० १३ । २॥ ते० १।६।३।२॥ तां० २।४।२॥ गो० उ०३।२०॥४।७।। पांक्तो यज्ञः। श. १।५।२ । १६ ॥ गो० पू० ४। २४॥ गो० उ०२।३॥३॥ २०॥४।४, ७॥ पाडो वै यः । ऐ० १ । ५ ॥३।२३ ॥ ५॥४, १८,१९॥ कौ० १।३,४॥२॥१॥ १३॥ २ ॥ तै०१।३।३।१॥ तां०६ । ७॥ १२॥ पाहि पञ्चममहः । कौ० २६ ॥ ५॥
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( २५५ )
पश्चदशः] पञ्च चूडाः ( इष्टका: ) होत्राः पञ्च चूडा। श० ८।६।१।११ ॥
याः (अमुष्मादादित्यातू) पराच्यः (पञ्च दिशः) ताः पञ्च चूडाः। श०८।६।१।१४॥ मिथुनं पञ्च चूडाः । श०८।६।१।१२।।
प्रजा पञ्च चूडाः । श०८।६।१।१३॥ पश्च जना: देवमनुष्याणां गन्धर्वाप्सरसां सर्पाणां च पितृणां चैतेषां
वा एतत्पश्चजनानामुक्थम् (यद्वैश्वदेवम् )।ऐ०३।३१॥ विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना इति । ये देवा असुरेभ्यः पूर्वे पञ्च जना आसन् य एवासावादित्ये पुरुषो यश्चन्द्रमसि यो विद्युति यो ऽप्सु यो ऽयमक्षन्नन्तरेष एव ते । तदेषा
(अदितिः ) एव । जै० उ०१ । ४१ । ७॥ पञ्चदशः ( स्तोमः) क्षत्रं वा एतदहरभिनिर्वदति यत्पञ्चदशम् । तां०
११ । ११ । ८॥ क्षत्रं पञ्चदशः । ऐ० ८।४॥ तां० १६ । १७ । ३॥ तरमाद्राजन्यस्य पञ्चदश स्तोमः । तां०६।१।८॥ तान् ( पशून् ) इन्द्रः पश्चदशेन स्तोमेन नाप्नोत् । ते २।७।१४।२॥ ग्रीष्मेण देवा ऋतुना रुद्राः पञ्चदशे स्तुतम् । वृहता यशसा बलम् । हविरिन्द्रे वयो दधुः । तै० २।६। १९ । १॥ ओजो वा इन्द्रियं वीर्य पञ्चदशः । ऐ० ८।३, ४ ॥ आजो वीर्य पञ्चदशः । तां० ११ । ६ । ११ ॥ ११ ॥ ११ । १४ ॥ २०।१०।१॥ तं (पञ्चदशं स्तोमं ) वोजो बलमित्याहुः। तां०१०।
वीर्य पञ्चदशः । ऐ०८।४॥ श्रेष्टुभः पञ्चदशस्तोमः । तां०५।१।१४ ॥ पश्चदशो वे वज्रः।को०७।२॥ १५ ॥ ४॥ष०३। ४॥०२।२।७।२॥ तां० २।४।२॥श०१। ३।५।७॥३।६।४।२५॥
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[पश्चच्याहतयः ( २५६ ) पञ्चदशः (स्तोमः) पश्चदशो हिबज्रः । श०४।३।३.१४॥
वजो वे पञ्चदशः । तां०१६।२।५॥ पञ्चदश एव महः । गो०पू०५।१५॥ चन्द्रमा वै पञ्चदशः । एष हि पञ्चदश्यामपक्षीयते पञ्चदश्यामापूर्यते । तै०१।५।१०।५॥ अर्द्रमास: पञ्चदशः । तां०६।२।२॥ अर्द्धमास एव पश्चदशस्यायतनम् । तां० १० । १।४॥ यत्पश्चदशो यदेवास्य ( यजमानस्य ) उरस्तो बाह्रोरपूतं तत्तेनापहन्ति । तां० १७।५।६॥ ग्रीवाः पञ्चदशश्चतुर्दश वितस्यां करूफराणि भवन्ति वीर्य पञ्चदशम् । गो० पू०५।३॥ प्राणो वै त्रिवृदात्मा पञ्चदशः । तां०१६।११।३॥ पञ्चदशश्चैकविंशश्च बाँतौ तौ गौश्चाविश्वान्वसृज्यतां तस्मात्तौ बार्हतं प्राचीन भास्कुरुतः । तां०
पश्चबिल: सद्यत्पश्च हवी७षि भवन्ति तेषां पञ्च बिलानि तस्माचरुः
पञ्चबिलो नाम | श०५।५।१।१॥ पश्चममहः पाझं हि पश्चममहः । कौ०२९ । ५॥ , पशवः पञ्चममहः । कौ० २३ । ४ ॥
, विषुवान्वे पञ्चममहः । तां० १३।४। १६ ॥ १३ । ५।१०॥ पञ्चमी चिति: यजमान एव पञ्चमी चितिः । श० - । ७ । ४ । १६ ॥
, प्रीवा एव पञ्चमी चितिः। श० ८।७।४।२१॥ पञ्चविंशः (स्तोमः) एतेन वै गौराङ्गिरसः संर्व पाप्मानमतरत्सर्वं पाप्म
नन्तरत्येतेन स्तोमेन तुष्टुवानः । तi० १६। ७ । ७॥ चतुर्विशी चै संवत्सरो ऽनं पश्चविशम् । तां०४।१०।५॥
"गर्भाः पञ्चविंशः" शब्दमपि पश्यत । पञ्च व्याहृतयः ता वा एताः पञ्च व्याहृतयो भवन्त्यो श्रावयास्तु श्रीष
ड्यज ये यजामहे वौषडिति । श० १।५।२।१६॥
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( २५७ )
पतिः ] पञ्च व्याहृतयःओ श्रावयेति वै देवाः । विराजमभ्याजुहुवुरस्तु औष
डिति वत्समुपावासृजन यजेत्युदजयन्ये यजामहऽ इत्युपासीदन्वषट्कारेणैव विराजमदुहतेयं (पृथिवी) बै विराडस्यै वाऽ एष दोहः । श०१।५।२।२० ॥ ओ श्रावयेति वै देवाः । पुरोवात ससृजिरे ऽस्तु औषडित्यभ्राणि समप्लावयन्यजेति विद्युतं ये यजामह इति स्तनयित्नुं वषट्कारेणेव प्रावर्षयन् । श०१।५।
२॥१८॥ पञ्चहोता तस्मै (ब्रह्मणे) पञ्चम हूतः प्रत्यणोत् । स पश्चहूतो
ऽभवत् पञ्चहूतो ह वै नमिषः । तं वा एतं पश्चहूत सन्तं पञ्चहोतेत्याचक्षते परोक्षप्रिया इछ हि देवाः। त० २।३। ११ । ३-४॥
संवत्सरो वै पश्चहोता । तै० २।२।३॥६॥ , अतिः पञ्चहोत्रा । ०२।२।८।४॥ , अग्निः पञ्चहोता । तै०२।३।१।१॥
अग्निः पञ्चहोतृणा होता । तै०२।३।५।६॥ , सुषगर्यो वै पञ्चहोता । तै० २ ।।८।२॥
चातुर्मास्यानि पश्चहोतुः (निदानम्)। तै०२।२।११। धा पञ्चालाः क्रिषय इति ह वै पुरा पश्चालानाचक्षते । श० १३ । ५।
" तस्मादस्या ध्रुवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि ये के च
कुरुपक्षालानां राजानः सवशोशीनराणां राज्यायैव ते
ऽभिषिच्यन्ते राजेत्येनानभिषिक्तानाचक्षते । ऐ० ८।१४ ॥ पताः पतनिष श्रेष्वनेम्वति रथमुदीक्षते। पतङ्ग इत्याचक्षते । जै.
उ०३।३५ । २॥ , (ऋ० १० । १७७ । १) प्राणो चै पतन । कौ० ८।।जे.
उ०३।३५ । २॥३॥ ३६॥ २॥ पतिः तस्मादेकस्य बयो जाया भवन्ति नैकस्यै बहवः सहपतयः ।
ऐ०३।२३ ॥ , तम्मादेकस्य बहयो जाया भवन्ति न हेफस्या बहवः सहपतयः।
गो० उ०३।२०॥
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[ पथ्या स्वस्तिः ( २५८ ) पत्नी श्रियै वाऽ एतद्पं यत्पत्न्यः । श० १३ । २।६। ७ ॥ ., श्रिया वा एतद्रपम् । यत्पत्न्यः । तै०३। ।४।७-८॥ , गृहा वै पल्यै प्रतिष्ठा । श०३।३।१।१०॥ ,, गार्हपत्यभाजो वै पत्न्यः । कौ०३।६॥ , अयशो वा एषः । योऽपत्नीकः । तै०२।२।२।६॥
तस्मादपत्नीको ऽप्यग्निहोत्रमाहरेत् । ऐ०७।६॥ ,, अथो अर्यो वा एष प्रात्मनः। यत्पत्नी । तै०३।३।३।५॥ ,. जघना? वा एष यज्ञस्य यत्पत्नी । श०१।३।१।१२॥२॥
५।२।२६॥३।८।२२॥ , पूर्वाधों वै यज्ञस्याध्वर्युर्जघनार्धः पत्नी । श०१।९।२।३ ॥ , पत्नी धाय्या। गो० उ०३ । २१, २२ ॥ ऐ०३।२३ ॥ ,, पत्नी स्थाली । तै० २।१।३।१ ॥ ,, पत्नीभाजनं वै नेष्टा । ऐ०६।३॥ गो० उ०४।५॥ .. अन्तभाजो वै पत्न्यः । कौ०१६ । ७॥ , चतलो जायाः (=पल्य:) उपकप्ता भवन्ति । महिषी वावाता
परिवृक्ता पालागली । श० १३ । ४।१।८॥ , सा (सुकन्या) होवाच यस्मै मां पिता ऽदाम्नवाहं तं जीवन्तर
हास्यामीति । श०४।१।५।९॥
("जाया," "योषा," "स्त्री" इत्येतानपि शब्दान् पश्यत) पथिकृत् अग्नि पथिकृत् । कौ० ४ । ३ ॥
, अग्नि पथः कर्ता । श० ११ । १।५।६॥ पथ्या स्वस्तिः वाग्वै पथ्या स्वस्तिः । कौ०७।६ ॥ श०३।२।३।८॥
४।५।१॥४॥ वाघ्येषा (पथ्या स्वस्तिः ) निदानेन । श० ३।२।३।१५॥ सा (पथ्या स्वस्तिः) उदीची दिशं प्राजानात् । कौ०
उदीचीमेव दिशम् । पथ्यया वस्त्या प्राजानंस्तस्मादत्रीसराहि वाग्वदति कुरुपश्चालना । श० ३।२।३।१५॥ (हे देवा! यूयं) मयैव (पथ्यया) प्राची दिशं प्रजानाथ।
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( २५६ )
पयः] पथ्या स्वस्तिः यत्पथ्यां (अदिति) यजति तस्मादसौ ( आदित्यः)पुर
उदति पश्चाऽस्तमेति पथ्यां ह्येषो ऽनुसंचरति । ऐ० १।७॥
पथ्या पूष्णः पत्नी । गो० उ० २।६॥ पदनिधनम् ( साम) इमं वाव देवा लोकं पदनिधनेनाभ्यजयन् । तां
१०।१२ ॥ ३॥ पदपङ्क्तिश्छन्दः ( यजु० १५ । ४) अत्यं वै लोकः पदपश्छिन्दः । श०
८।५।२।४॥ पदम् आत्मा वै पदम् । कौ० २३ ॥ ६॥ पदस्तोभः (सामविशेष:) पदोरुत्तममपश्यत्तत्पदस्तोभस्य पदस्तोभत्वम् ।
तां० १३ । ५। २४ ॥ इन्द्रो वृत्राय वज्रमुदयछत्तं षोडशभिर्भोगै: पर्य्यभुजत्स एतं पदस्तोभमपश्यत्तेनापावेष्टयदपवेष्टयन्निव गायत् पाप्मनो ऽपहत्यै । तां०१३।
५।२२॥ पद्या ( विराट् ) पद्यया वै देवाः स्वर्ग लोकमायन् । तां०८।५। ७॥ पयः यत्पयस्तद्रतः। गो० उ०२।६।। ,, पयो हि रेतः। श०६।५।१। ५६ ॥ ,, रेतः पयः। शं० १२।४।१।७॥ ,, ( अग्निः ) तां ( गां) सम्बभूव तस्या (गवि) रेतः प्रासिञ्च
त्तत्पयो ऽभवत् । श०२।२।४।१५॥ तस्मात्प्रथमदुग्धं ( पयः ) उष्णं भवत्यग्नेहि रेतः । श० २।२।
४। १५॥ ,, समानजन्म वै पयश्च हिरण्यश्चोभय ह्यग्निरेतसम् । श० ३ ।
२।४।८॥ ,, क्षत्रं वै पयः । श० १२।७।३। ८ ॥ , ( यज्ञस्य) प्राणः पयः । श०६।५।४।१५।।२।३। ३२॥ , अन्तर्हितमिव वा एतद्यत्पयः। तां०६।६।३॥ , (यजु० १२।११३॥) रसो वै पयः। श० ४।४।४। - ॥ ७॥
३।१।४६॥
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[ परमं व्योम
( २६० )
पया: आपो हि पयः । कौ०५ ॥ ४ ॥ गो० उ० १ । २२ ।।
अपामेष ओषधीना रसो यत्पयः । श० १२ । ८ । २ । १३ ॥ एष ह वै सर्वासामोषधीनां रसो यत्पयः । कौ० २ । १ ॥
पयो वा ओषधयः । तै० ३ । ७ । १ । ५, ६, ७, ८ ॥
सोमः पयः । श० १२ । ७ । ३ । १३ ॥
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४।६ ॥
वैश्वदेवं हि पयः । गो० उ० १ । १७ ॥ पितृदेवत्यं पयः । कौ० १० ॥ ६ ॥
वायव्यं पयो भवति । श० २ । ६ । ३ । ६ ॥
स (वनस्पतिः ) उ वै पयोभाजनः । कौ० १० । ६ ॥
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पयया यदस्मात् ( प्रजापतेः ) तद्वेतः परापतदेषा सा पयस्या मैत्रा
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वरुणी । श० ६ । ५ । १ । ५६ ॥
मैत्रावरुणी पवस्या | श० २ । ४ । ४ । १४ ॥
मैत्रावरुणी पयस्या भवति । श० ५ । ५ । १ । १ ।। मित्रावरुणयोः पयस्या । श० ४ । २ । ५ । २२ ॥
एतद्वै मित्रावरुणयोः स्वं हविर्यत्पयस्या । कौ० १८ । १२ ॥ संस्थितायां चोदवसानीयायां मैत्रावरुण्या पयस्यया यजेत तस्या उक्तं ब्राह्मणं नैतयानिष्ट्वाग्निचिन्मैथुनं चरेतेति । कौ०
१९ । ७ ॥
योषा पयस्या रेतो वाजिनम् । श० २ । ४ । ४ । २१ ॥ २ । ५ । १ । १६ ॥
परं रजः (यजु० १३ । ४४ ) श्रोत्रं वै पर रजो दिशो ने श्रोत्रं दिशः परं रजः । श० ७ | ५ | २ । २० ॥
परमं व्योम ( यजु० १३ । ४२, ४४ ) इमे वै लोकाः परमं व्योम । श०
७ । ५ । २ । १८९, २०॥
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सौय्यै पयः । तै० ३ । ९ । १७ । ४ ॥
जागतमयनं भवति पशुकामस्येडानिधनं पयसामुष्मिँलोक
उपतिष्ठते । तां० १३ । ४ । १० ॥
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ऐन्द्रं पयः । गो० उ० १ । २२ ॥
तद्यदेवात्र पयस्तम्मित्रस्य, सोम एव वरुणस्य । श० ४ । १ ।
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( २६१ )
पराणि परमपुरुषः यो विद्युति स परमपुरुषः । जै० उ०१।२७ ॥२॥ परमम अन्तो वै परमम् । ऐ०५।२१॥ परमा परावत् अनुष्टुप वै परमा परावत् । ऐ०३।१५ ॥ परमेष्टी ( यजु०१४।९) आपो वै प्रजापतिः परमेष्ठी ता हि परमे स्थाने
तिष्ठन्ति । श०८।२।३।१३॥ ,, तत एतं परमेष्ठी प्राजापत्यो यज्ञमपश्यद्यदर्शपूर्णमासौ ताभ्या
मयजत......स आपो ऽभवत...... परमाद्वाऽ एतत्स्थानाद्वर्षति
यद्दिवस्तस्मात्परमेष्ठी नाम । श० ११ । १।६।१६ ॥ ,, अयं वा इदं परमो ऽभूदिति । तत्परमेष्ठिनः परमेष्ठित्वम् ।
ते २।२।१०।५॥
परमेष्ठी वा एषः । यदोदनः । तै० १ । ७।१०॥६॥ , ऋतमेव परमेष्ठि । तै०१।५।५।१॥ ,, परमेष्ठी खाराज्यम् । परमेष्ठितां गच्छति य एवं वेद । तां०
१९ । १३ । ३, ४॥ २२॥ १८ । ४,५॥ , प्रजापति विघस्तं देवता आदाय व्युदक्रामस्तस्य (प्रजापतेः)
परमेष्ठी शिर आदायोत्क्रम्यातिष्ठत् । श० ८।७।३।१५॥ परशुः धनो वै परशुः । श०३।६।४।१०॥ पराक: (त्रिरात्रः) यद्वा एतस्याकन्तदस्य पराक् तत् पराक्तस्य परा
कत्वम् । तां० २१ । ८।३॥ परावैतेन स्वर्ग लोकमाक्रमते । तां० २१॥ ८॥२॥ पराकेण वै देवाः स्वर्ग लोकमायन् । स्वर्गकामो
यजेत । तां० २१ । । ।२॥ पराग्वसुः अग्विमुई बै देवानां ब्रह्मा पराग्वसुरसुराणाम् । गो० उ०
(“ परावसुः" शब्दमपि पश्यत ) पराणि (परःसामाख्यान्यहानि ) परैः देवा आदित्यं सुवर्ग लोकमपारयन्
यदपारयन् तत् पराणां परत्वम् । तै० १।२।४।३॥ परैर्वे देवा आदित्य स्वर्ग लोकमपारयन्यदपारयस्तत्पराणां परत्वम् ।
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[परिमादः
( २६२ ) ( "स्पराणि" शब्दमपि पश्यत )। तां०
४।५।३॥ परावतः ( ऋ० १०। ६३ । १ ) अन्तो वै परावतः।ऐ०५।२॥ कौ०
२२॥ ५॥२३ । ७॥ परावसुः परावसुर्ह वै नामासुराणा होता । श० १।५।१।२३॥
("पराग्वसुः" शब्दमपि पश्यत ) परिक्षित् अग्निीमाः प्रजा परिक्षेत्यग्निं हीमाः प्रजाः परिक्षियन्ति । ऐ०
., अग्निर्व परिक्षित् । ऐ०६। ३२ ॥ गो० उ०६।१२॥ , संवत्सरो वै परिक्षित संवत्सरो हीदं सर्व परिक्षियतीति ।
गो० उ०६ । १२॥ ,, संवत्सरो वै परिक्षित् । ऐ०६॥ ३२॥ परिचरा यजमान: परिचरा । तां०३।१।३॥३।३।२॥ ३।८।
३॥३॥ १२ ॥ ३॥ परितस्थुषः इमे वै लोकाः परितस्थुषः । तै०३।१।४।२॥ परिधयः परिधीन परिदधाति । श०१।३ । ३ । १३.॥ ,, दिशः परिधयः। ऐ० ५। २८ ॥ तै०२।१।५।२॥ , इमे वै लोकाः परिधयः । तै० ३।८।१८ ॥४॥
, गुप्त्यै वा अभितः परिधयो भवन्ति । श०१।३।४।८ ॥ परिधानीया दिशः परिधानीया । जै० उ०३।४।२॥
, श्रोत्रम्परिधानीया । जै० उ०३।४।३॥ , प्रतिष्ठा परिधानीया । कौ० १५ । ३॥ १६ ॥ ४॥
, प्रतिष्ठा वै परिधानीया । गो० उ०३।२१, २२॥ परिपतिः मनो वै परिपतिः । गो० उ० २।३॥ परिप्लवम् देवचक्रं वा एतत्परिप्लवम् । कौ० २०।१॥ परिभूश्छन्दः ( यजु० १५ । ४) दिशो वै परिभूश्छन्दः। श० ८।५।
२।३॥ परिमरः यो ह वै ब्रह्मणः परिमरं वेद पर्येनं द्विषन्तो भ्रातृव्याः परि
सपत्ना म्रियन्ते । ऐ० ८ । २८ ॥ परिमादः (बहुवचने) त्वक् च वा एतल्लोम च महाव्रतस्य यत्परिमादः।
तां०५।६।११ ॥
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( २६३ )
परिवत्सरः सूर्यः परिवत्सरः । तां० १७ । १३ ॥ १७ ॥ आदित्यः परिवत्सरः । तै० १ । ४ । १० । १॥ परिवत्सरो वलिवर्दः । तै० ३ | ८ | २० | ५ ॥ परिवाप: ( =लाजा इति सायणः) भारत्यै परिवापः । तै० १ । ५ ।
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११ । २ ॥
प्रश्नमेव परिवापः । ऐ० २ । २४ ॥
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परिवृक्ती (= परिवृक्ता ) या वा अपुत्रा पत्नी सा परिवृत्ती ( परिवृक्ती ) । श०५ । ३ । १ । १३ ॥
सुवरिति परिवृक्ती । तै० ३ । ९ । ४ । ५ ॥
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परिश्रित योनिर्वै परिश्रितः । श० ७ । १ । १ । १२ ॥
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परीशासी ]
परिश्रिद्भिरेवास्य रात्रीराप्नोति । श० १० । ४ । ३ । १२ ॥ परिचित एव श्रीस्तद्धि रात्रीणा” रूपम् । श० १० । २ । ६ । १७ ॥
अस्थीन्येव श्रीस्तद्धि परिश्रिता१७ रूपम् । श० १० । २। ६ । १८ ॥
अस्थीनि वै परिश्रितः । श० ७ । १ । १ । १५ ॥ लोमानि वै परिश्रितः । श० ६ । १ । १ । १० ॥
तस्य ( अस्य लोकस्य ) आप एव परिचितः । श० १०।५। ४ । १ ॥
आपः परिक्षितः । श० ७ । १ । १ । १३ ।। ६ । २ । १।२० ॥ आपो वै परिचितः । श० ६ | ४ | ३ | ६ ॥
परिष्टुब्धेडम् ( साम ) ( देवाः ) अन्तरिक्षं परिष्टुब्धेडेन ( अभ्यजयन् ) । तां०.१० । १२ । ४ ॥
परिष्टोभन्ती परिष्टोभन्ती त्रिष्टुप् । तां० ११ । १ । २ ॥
परिसारकम् तस्माद्धाप्येतर्हि परिसारकमित्याचक्षते यदेनं सरस्वती समंतं परिससार | ऐ० २ । १६ ॥
परिस्रुत शिश्नादेवास्य रसो ऽस्नुवत्सा परिनदभवत् । श० १२ । ७ ।
१।७ ॥
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नैष सोमो न सुरा यत् परित् । श० ५ । १ । २ । १४ ॥ परीशासौ इमे वै द्यावापृथिवीं परीशासौ । श० १४ । २ । १ । १६॥
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[ पर्णः
( २६४ )
परुच्छेपः असुरीन्द्रं प्रत्यक्रमत पर्वन्पर्वन्मुष्कान्कृत्वा तामिन्द्रः प्रतिजिगीषन्पवन्पर्वञ्छेपांस्यकुरुत । कौ० I २३ ॥ ४ ॥
इन्द्र उ वै परुच्छेपः । कौ० २३ | ४ ॥
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परो रजाः एष वाव स परो रजा इति होवाच । य एष (सूर्यः) तपति । तै० ३ | १० | ९ ॥ ४ ॥
पर्जन्य: ( अर्वाग्वसुः = पर्जन्यः, यजु० १५ । १९ ) अथ यदर्वाग्वसुरित्याहातो ( पर्जन्यात्) हार्वाग्वसु वृष्टिरनं प्रजाभ्यः प्रदीयते ।
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श० ८ । ६ । १ । २० ॥
पर्जन्यो मे मूर्ध्नि श्रितः । तै० ३ | १० |८|८ ॥
पर्जन्यो वा उद्गाता । श० १२ । १ । १ । ३॥
क्रन्दतीव हि पर्जन्यः । श० ६ । ७ । ३।२॥
पर्जन्यः सदस्यः । गो० पू० १ । १३ ॥
पर्जन्यः ( संवत्सरस्य ) वसोर्धारा । तै० ३ | ११ | १० | ३॥ तान् ( देवान् ) आदित्यः पर्जन्यः पुरोबलाको भूत्वा ऽभिप्रेत्तान् दृष्ट्या ऽशन्या विद्युता ऽहन् । ष० १ । २ ॥
पर्जन्यो वै भवः पर्जन्याद्धीद
सर्वे भवति । ० ६ | १ |
३ । १५ ।।
पर्जन्यो वा अग्निः । श० १४ । ६ । १ । १३ ॥ पभिः पर्जन्यैर्वा मारुतैर्वा ( पशुभिः ) वर्षासु ( यजते ) ।
श० १३ । ५ । ४ । २८ ॥
तौ ( अनड्वाहौ ) यदि कृष्णौ स्यातामन्यतरो या कृष्णस्तत्र विद्याद्वर्विष्यत्यैष्मः पर्जन्यो वृष्टिमान् भविष्यतीति । श० ३ | ३ । ४ । ११ ॥
पर्णः (= पलाशः) तस्य ( सोमस्य ) पर्णमच्छिद्यत तत्पर्णो भवत् तत्प र्णस्य पर्णत्वम् । तै०१ । १ । ३ । १० । ३ । २।१।१॥ तृतीयस्यामितो दिषि सोम आसीत् । तं गायत्र्याहरत् । तस्य पर्णमच्छिद्यत । तत्परार्णो ऽभवत् । तत्पराणस्य पर्णत्वम् । तै० १ । १ । ३ । १० ॥ ३ । २। १ । १ ॥
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( २६५ )
पलाशः] पणः (=पलाशः) यत्र वै गायत्री सोममच्छापतत्तदस्याऽ प्राहरन्त्याs
अपादस्ताभ्यायत्य पर्ण प्रचिच्छेद गायत्र्यै वा सोमस्य वाराशस्तत्पतित्वा पर्णो ऽभवत्तस्मात्पर्णो नाम।
गायत्रो वै पर्णः । तै० ३।२।१११॥ सोमो वै पर्णः। श०६।५।१।१॥ ब्रह्म वै परर्णः । तै०१।७।१।६॥३।२।१ । १ ॥ देवा वै ब्रह्मन्नवदन्त । तत्पर्ण उपाटणोत् । सुश्रवा वै नाम । ते० १।१।३।११॥ देवानां ब्रह्मवादं वदतां यत् । उपाणोः सुश्रवा वै श्रुतोऽसि। ततो मामाविशतु ब्रह्मवर्चसम् । तै० १ । २।१।६॥ परार्णमयेनाध्वर्युरभिषिञ्चति.। तै० १ । ७ । ८ । ७ ॥
("पलाशः" शब्दमपि पश्यत ) पर्यायः यत्पर्यायः पर्यायमनुदन्त तत्पर्यायाणां पायत्वम् । ऐ०
, यत्पर्यायैः पर्य्यायमनुदन्त तस्मात्पर्यायाः तत्पर्य्यायाणां
पायत्वम् । गो० उ०५।१ ॥ ., (देवाः ) तान् (असुरान् ) समन्तं पर्यायं प्राणुदन्त यत्प
व्यं प्राणुदन्त तत्पर्यायाणां पर्यायत्वम् । तां०६।१।३॥ पर्यासः प्रतिष्ठा वै पासाः। कौ० २५ : १५ ॥ पर्शवः ( बहुवचने ) तस्मादिमा उभयत्र पर्शवो बद्धाः कीकसासु च
जत्रुषु च । श० -1.६।२।१०॥
पर्शव उ ह वै पक्रयः । कौ०१०। ४॥ , पर्शवो बृहत्यः। श० ८।६।२।१०॥ पलाशः मासेभ्य एवास्य (प्रजापतेः) पलाशः समभवत् तस्मात्स
बहुरस लोहितरसः । श० १३।४।४।१०॥ सर्वेषां वा एष वनस्पतीनां योनियंत्पलाशः। ऐ०२।१॥
तेजो बै ब्रह्मवर्चसं वनस्पतीनां पलाशः। ऐ०२॥१॥ , पालाशं (यूपं कुर्वीत ) ब्रह्मवर्चसकामः। कौ० १०।१॥ , ब्रह्म वै पलाशस्य पलाशम् (=पर्णम् ) । श०२।६।२।८॥
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[पशषः
(२६६) पलाश: ब्रह्म वै पलाशः । श०१। ३।३ । १६ ॥ ५।२।४।१८ ॥
६।६।३।७॥ ,, पालाशं (शङ्क) पुरस्ताद, ब्रह्म वै पलाशः । श०१३ । ।
४।१॥
सोमो वै पलाशः । कौ०२॥२॥श०६।६।३।७।। ,, पालाशं (यूपं ) पुष्टिकामस्य (करोति)।०४।४॥
("पर्णः" शब्दमपि पश्यत) पवमानः यो वा अग्निःस पवमानस्तदप्येतदृष्टिणोक्तमग्निऋषिः पवमान
इति । ऐ०२। ३७ ॥ प्राणो वै पवमानः । श०२।२।१।६॥ अयं वायुः पवमानः । श०२।५।१५॥ (घायुः) यत्पश्चाद्वाति । पवमान एव भूत्वा पश्चाद्वाति । ते. २।३।६।६॥ तस्मादुत्तरतः पश्चादयं ( वायुः) भूयिष्ठं पवते सवितृप्रसूतो होष एतत्पवते । ऐ. १ । ७॥
आत्मा वै यज्ञस्य पवमानः । तां०७ । ३ । ७॥
सोमो वे पवमानः । श० २।२।३ । २२ ॥ , माध्यन्दिनस्य पवमानः ( स्वयं: )। तां०७।४।१॥ , पवमानोक्थं वा एतद्यद्वैश्वदेवम् (शस्त्रम्)। कौ० १६ । ३॥ पत्रिम् पवित्रं वैदर्भाः। श०३।१ । ३। १८ ॥ तै० १।३।७।
१॥३।८।२।३॥ पवित्रं वा प्रापः। श०१।१।१।१॥३।१।२।१०॥ अग्निर्वाव पवित्रम् । तै० ३।३।७।१०॥ ( यजु० १ । १२) अयं वै पवित्रं यो ऽयं ( वायुः ) पवते ।
श०१।१।३।२॥ १।७।१।१२।। .., पवित्रं वै वायु । तै ३।२।५।११॥ , प्राणापानौ पवित्रे। तै०३।३।४।४॥३।३।६।७॥
प्राणोदानी पवित्रे । श० १।८।१।४४ ॥ पशषः (अग्निः) एतान्पश्च पशूनपश्यत् । पुरुषमश्वं गामधिमजं
यदपश्यत्तस्मादेते पशवः । श०६।२।१।२॥ , (प्रजापतिः) तेषु (पशुषु) एतं (अग्नि) अपश्यत्तस्माद्वेवते
पशषः। श०६।२।१।४॥
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( २६७ )
पशव.] पशवः अग्निधै पशुनामीष्टे । श०४।३।४।११॥ , तऽ एते सर्वे पशवो यदग्निः । श०६।२।१॥ १२ ॥ , आग्नेयो वाव सर्वः पशुः। ऐ० २।६॥ ,, आग्नेयाः पशवः । तै०१।१।४।३॥ , अग्निीष यत्पशवः । श०६।२।१।१२॥ , अग्निरेष यत्पशवः । श०६।३।२।६॥ , पशुरेष यदग्निः । श०६।४।१।२ ॥७।२।४।३० ॥७॥
३।२।१७॥
ते देवा अनुषन्पशुओऽ अग्नि । श० ६।३।१।२२॥ , अग्निर्हि देवानां पशुः । ऐ० १ । १५ ॥ , योनिर्धे पशूनामाहवनीयः (अग्निः)। कौ० १८ । ६ ॥ गो० उ०
४।६॥ ,, रौद्राचे पशवः । श०६।३।२।७॥ , रुद्रः (एचैनं राजानं ) पशूनां ( सुबते)।ते. १।७।४।१॥ , रुद्र ! पशूनां पते । तै०३।११।४।२॥ , रुद्र हि नाति पशषः । श०३।२।४।२० ॥ , ततो वै स (अर्यमा) पशुमानभवत् । तै०३।१।४। । , एताभिः ( एकोनविंशतिभी रात्रिभिः) वायुरारण्यानां पशूनामा
धिपत्यमाश्नुत । तां०२३ । १३ । २॥
ते (पशवः) अनुषन्धायु अस्माकमीशे। जै० उ०१।५२॥ ४॥ , घायुप्रणेत्रावै पशवः । श०४।४।१।१५॥ ,, ते वायुश्च पशवश्चाब्रुषभिरक्तं साम्रो वृणीमहे पशव्यमिति । जै.
उ०१। ५२॥ ४ ॥
त्वष्टा वै पशनामीष्टे । २०३।७।३।११॥ , त्वष्टा पशूनां मिथुनाना रूपकृद्र्पपतिः।०२।५।७।४॥ " त्वष्टुर्हि पशवः । श० ३। ।३।११॥ .. पशवो वै सषिता । श०३।२।३।११॥ , अन्तरिक्षदेवत्याः खलु वै पशषः । तै० ३।२।१।३॥ , पशवो वै वैश्वदेवम् (शलम्)। कौ० १६॥ ३॥ ,, दैव्यो वाऽ पता विशो यत्पशषः। श०३।७।३18
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[पशवः
( २६८ )
पशवः सप्त ग्राम्याः पशवः सप्तारण्याः । श० ३।८।४।१६ ॥६।
५।२।८॥ ,, अस्मै वै लोकाय ग्राम्याः पशव पालभ्यन्ते । अमुष्मा आरण्याः।
तै०३।४।३।१॥ नानारूपा ग्राम्याः पशवः । तां०६८।१२॥
विश्वरूपं वै पशूना रूपम् । तां० ५।४।६॥ , सप्त ग्राम्याः पशवः । तां०.२।७।८॥२।१४।२॥३।३।२॥
सप्त हि ग्राम्याः पशवः । श०६।३।१।२०॥ सप्त वै ग्राम्याः पशवः (अजा ऽश्वो गौर्महिषी घराहो हस्त्यश्वतरी च ॥ अथवा-अजाविकं गवाश्वं च गर्दभोष्ट्रनरस्तथा)। ऐ०२॥ १७॥ एकरूपा मारण्याः पशवः ( गोमायुगौमृगो गवय उष्ट्रः शरभो हस्ती मर्कट इति सप्त संख्याका इति सायणः ) । तां० ६।
अपशवो वा पते । यदजावयश्चारण्यांश्च । एते वै सर्वे पशवः।
यदव्या इति । तै०३।४।६।२॥ है अपशवो वा एते । यदारण्याः । तै०३।३।३।३॥ ,, यो ह त्वाव (?) पशवो ऽमेध्याः । दुर्वराह ऐडकः श्वा । श०
१२।४।१।४॥ तस्मादश्वः पशूनां यशस्वितमः । श० १३ । १।२।८॥ तै०
३।८ । ७।२॥ । पशवो वे घृतश्च्यु तः । तां०४।१।१७ ॥
पशवो वै हविष्मन्तः (ऋ०३।२७ । १)। श०१।४।१।६॥
पशवो वै हविष्पङ्किः । कौ० १३ । २॥ ,, हविर्हि पशवः । ऐ०५॥ ६॥
सर्वासाहि देवताना हविः पशुः। श०३।।३।१४॥ , पशवः सोमो राजा । तै०१।४।७।६॥ ,, पशवो हि सोम इति । श० १२ । ७।२।२॥ ,, पशुवै प्रत्यक्ष सोमः । श०५।१।३।७ ।। ,, सोम एवंष प्रत्यक्षं यत्पशुः । कौ० १२ ॥ ६ ॥
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( २६६ )
पशवः पशवः पशवो वै हरिश्रियः। तां०१५। ३।१०॥ , श्री पशवः । तां० १३ । २।२॥ , श्रीर्हि पशवः । श० १।८।१।३६ ॥ , पशवो यशः । श०१२।।३।१॥ गो० उ०५।६॥
एष वाव सुवीरो यस्य पशवः। तां०१३।१।४॥ तस्माद्यस्य पशवो भवन्त्यपैव स पाप्मान हते । श० ८। २।३।१४॥ पशवो वै महस्तस्माद्यस्यैते बहवो भवन्ति भूयिष्ठमस्य कुले
महीयन्ते । श० ११ । ८।१।३॥ ,, यो वै पशूनां भूमानङ्गच्छति स स्वाराज्यं गच्छति । तां० २४।
,, शान्तिः पशवः । तां०४।५।१८ ॥ ४ । ६ । ११॥५॥३॥१२॥ , इन्द्रियं वै वीर्य रसः पशवः । तां० १३ । ७ । ४॥ ., पशवो वै वसु । तां०७।१०। १७ ॥१३॥ ११॥ २॥
पशवो वसु । श०३।७।३।११, १३ ॥
पशवो वै रयिः । त०१।४।४।९॥ , पशवो वैराया। श०३।३।१।८॥४।१।२।१५॥ , पशवो वै रायस्पोषः । श०३।४।१।१३ ॥
पुष्टिः पशवः । श०३।१।४।६॥
पौष्णाः पशवः । श०५।२।५।६॥ , पूषा घे पशूनामीष्टे । श०१३।३।८।२ ॥ , पूषा पशुभि (अवति)। तै०१।७।६।६॥३।१।५।१२॥ , पशवो वै पूषा । श०३।१।४।९ ॥ ३।६।१।१०॥५॥
३।५।८,३५॥ तै०३।८।११।२॥ तां० १८।१।१६॥ , पशवो वै पूषा ( यजु० २२ । २०)। श० १३ । १।८।६॥ , पशवो हि पूषा । श०५।२।५।८॥ ,, पशवः पूषा। ऐ०२।२४॥ तां० २३ । १६ । ५॥ " साहलाः पशवः। कौ० २१ । ५॥ " पशवः सहसम् । तां० १६ । १०। १२॥
कल्याणी (प्रजापतेस्तनूः) तत्पशवः । ऐ०५ । २५ ॥ कौ० २७।५॥
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[पशवः
( २७०) पशवः एषा वै प्रजापतेः पशुष्ठा तनूर्यच्छिपिविष्टः । तां०१८॥६॥२६॥ ,, पशव शिपिः । तै०१।३।८।५॥ , पशवो वै मरुतः । ऐ० ३॥ १९॥ , पशुवै मेधः। ऐ०२।६॥ ,, वाजो वै पशवः । ऐ० ५। ८॥
पशवो वै वाजिनम् । तै०१।६।३।१०॥ अन्नं पशवः । श०६।२।१।१५।।७।५।२॥ ४२ ॥ अन्नं वै पशयः। श०६।८।२।७॥
पशुर्वाऽ अन्नम् । श०५।१।३।७॥ , पशवो वाऽ अन्नम् । श०४।६।९।१॥
पशवो ह्यन्नम् । श०३।२।१ । १२ ।। अन्नमु पशोर्मा सम् । श०७।५।२।४२॥ पशवो वै धानाः । गो० उ०४।६॥ कौ० १८ ॥ ६ ॥ पशवो वा इडा। को०३ । ७॥ ५। ७॥२९ । ३॥ श०१।। १। १२॥ ७।१।१।२७ ॥ ष०२।२॥ तां० ७।३।१५॥ १४।५। ३१ ॥ गो. उ०१।२५ ॥ तै० १।६।६।६॥ऐ० २।९, १०, ३०॥
तस्मादाहुः प्राणाः पशवः । श०७।५।२६॥ , प्राणाः पशवः। तै०३।२।८॥8॥ , स (प्रजापतिः) प्राणेभ्य एवाधि पशूनिरमिमीत । श०७।
५।२।६॥ ,, गृहा हि पशवः श०१।८।२।१४॥ ,, पशवो वा उत्तरवेदिः । तै०१।६।४।३॥ , पशवो वै चतुरुत्तराणि छन्दासि । ता०४।४।६॥ .. हविर्वाऽ एष देवानां यो दीक्षसे तदेनमन्तजंम्भऽ आदधाते तत्
(अग्नीषोमीयेण) पशुनात्मानं निष्क्रीणाति । श०३।३।४ । २१ ॥ ,, आत्मा वै पशुः।कौ० १२ । ७॥ , यजमानः पशुः । तै०२।१।५।२॥२।२।।२॥ ,, वज्रो वै पशवः । श० ६।४।४।६॥८।२।३।१४॥ , पशवो वै प्रावाणः । तां०६।९।१३ ॥
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(२७१ )
पशवः] पशवः पशवो वा उक्थानि । कौ० २८॥ १०॥ २९ ॥ ८॥ तै०१।२।
२॥२॥ष०३।११॥ तां०४।५।१८ ॥१९।६।३॥ , पशवो वा उक्यानि पशवो विश्वं ज्योतिः । तां०१६ । १०॥२॥ ,, पशव उक्थानि । ऐ०४।१, १२ ॥ गो० उ०६॥ ७ ॥ तै० १ ।
।७।२॥ कौ० २१ । , पशव ऊषाः । श०७।१।१।६॥ ७।३।१।८॥
पशवो वा ऊषाः । श० ५। २।१।१६ ॥ , संज्ञान हतत्पशूनां यदूषाः। है०१ । १ । ३ । २॥
पशवो वै नियुतः । तां० ४१६ । ११ ॥ श० ४।४।१।१७॥ " प्रजा पशवः सूक्तम् । को०१४।४ ॥ " स्तोमो हि पशुः । तां०५।१०।८॥ ,, पशवो पै सप्तदशः । तां० १६ । १०।७ ॥ " पशवो वै समीषन्ती (विष्टुतिः)। तां० ३ । ११ ॥ ४ ॥ , (प्रजापतिः) खरिति पशून् (अजनयत)। श०२।१।४।१३।। " संवत्सरं पशवो ऽनु प्रजायन्ते । तां० १८ । ४।११ ॥ , न ह या अनृषभाः पशवः प्रजायन्ते । तां०१३ । ५।१८॥१३ ।
१० । ११ ।। १५ । ३ । १७ ॥ ,, तस्मात् पशोजायमानादापः पुरस्ताद्यन्ति । त०२।२।९।३॥ , तस्माजातं पुत्रं पशवोऽभिहिर्वन्ति । तां० १२ । १० । १४॥ " (पशुभ्यः प्रजापतिः) हिङ्कनरम्प्रायच्छत् । जै० उ० १ । ११ । ५॥ ,, (प्रजापतिः)प्रतिभरमारण्येभ्यः पशुभ्यः (प्रायच्छतू)। जै०
उ०१॥ ११ ॥९॥ ,, पशवो वै प्रतिहा । तां. ६ । ७ । १५ ॥
हुम्बो इति पशुकामस्य । बो इति ह पशवो वाश्यन्ते । जै० उ० ३।१३।२॥ पशवः स्वरः। गो० उ०३।२२॥४।२॥ 'पशवो वै स्वरा । ऐ०३ । २४ ॥ ,, पशवो वै बृहद्रथन्तरे । तां०७।७।१॥ ,, पशवो वै श्यैतम् (साम)। तां०७ । १० । १३ ॥ , पशुकाम एतेन ( श्यतेन साना ) स्तुवीत! ता० ७ । १० । १४॥
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[ पशवः
( २७२ )
पशवः पशवो वै वामदेव्यम् ( साम ) | तां० ४ । ८ । १५ ॥ ७ । ६ ।
६ ॥। ११ । ४ । ८ ।। १४ । ६ । २४ ॥
वामं हि पशवः । ऐ० ५ । ६ ॥
पशवो वै वारवन्तीयम् ( साम ) । तां० ५ | ३ | १२ ||
( विष्णुः पशून् ) वारवन्तीयेन ( साना ) अवारयत । तै० २ ।
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७ । १४ । २ ॥
पशवो वै वैरूपम् ( साम ) । तां० १४ । ६ ॥ ८ ॥
पशवो वै लोम ( साम ) | तां० १३ । ११ । ११ ॥
पशवो वै रौरवम् ( साम ) । तां० ७ । ५ । ८ ॥
पशवो ऽन्नाद्यं यज्ञायज्ञीयम् ( साम ) | तां० १५ । ९ । १२ ॥
पशवो वै यण्वम् ( साम ) | तां० १३ । ३ । ६ ॥
पशवो वै श्रद्धयं (साम ) पशूनामवरुध्यै । तां० १५ । ५ । ३४ ॥ पशवः सदोविशीयम् (ब्रह्मसाम ) | तां० १८ । ४ । ६ ॥ पशवो वै सुरूपं (साम) पशूनामवरुध्ये | तां० १४ । ११ । ११॥
पशव: कालेयम् (साम) | तां० ११ । ४ । १० ।। १५ । १० । १५॥ पशून् मह्यमित्यत्रवीत् (इन्द्र) रायोवाजस्तस्मा एतेन रायोवाजीयेन (साम्ना) पशून् प्रायच्छत् पशुकाम एंतन स्तुवीत पशुमान् भवति । तां १३ । ४ । १७ ।।
पशवो वै रयिष्टम ( साम ) | तां० १४ । ११ । ३१ ॥
पशवः शक्कर्थ्यः । तां० १३ । १ । ३ ॥
पशवो वै शक्कर्यः । तां० १३ | ४ | १३ || १३ | ५ | १८ ॥
पशवो वै शक्करीः । तै० १ । ७ । ५ । ४ ॥
पशवः शक्करी | तां० १६ । ७ । ६ ॥
पशवो वै रेवत्यो मधुप्रियम | तां० १३ । ७ । ३ ॥
पशवो वै रेवत्यः । तां० १३ | १० | ११ ॥
पशवो वै रेवत्यः । तां० १३ । ७ । ३ ।। १३ । ६ । २५ ॥
रेवन्तो हि पशवः । श० २ | ३ | ४ | २६ ॥
रेवन्तं हि पशवस्तस्मादाह रेवती रमध्यम ( यजु० ६ | ८ ) इति । श० ३ । ७ । ३ । १३ ॥
कतमो यज्ञ इति पशव इति । श० ११ | ३ | ३ | ६ ॥
पशवो हि यज्ञः । श० ३ । १ । ४ । ६ ॥
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पशवः पावः पशवो मशः । श०३।२।३॥ ११ ॥ " पशवो वै बर्हिः । ऐ०२॥४॥ , पशवो वै यूपमुच्छ्रयन्ति । श०३।७।२।४॥ ,, पशवश्छन्दोमाः। ऐ०५।१६, १७,१८,१९ ॥ तां०१४।७।६॥ , पशवो वै छन्दाऽसि । श०७।५।२।४२॥ ८॥३।१।१२॥
पशवश्छन्दांसि । ऐ०४।२१ ॥ कौ० ११ । ५॥ तां० १६ ।
पाङका वे पशवः । श०१।८।१।१२॥ , पाइनः पशवः । ऐ०३।२३॥४।३ ॥ ५॥४, ६, १८, १९ ॥
कौ०१३।२॥ १।६।३।२॥ तां० २।४।२॥ गो.
उ०३।२०॥४॥७॥ " पाडू पशुः । श०१।५।२।१६ ॥३।१।४।२०॥ , गायत्राः पशवः । तै०३।२।१।१॥ " श्रेष्टभाः पशवः । को०८।१॥ १० ॥२॥
पशवो जगती । कौ०१६।२॥१७ । २,६॥ १६॥६" . २॥ १॥श०३।४।१।१३॥1३1३।३॥०३।२।८॥२॥
जागताः पशवः। कौ०३०॥२॥ष०३१७॥ गो० उ०४।१६॥ , पशवो वृहती। को०१७॥२॥२९॥३॥ष०३।१०॥ , पशवो वै वृहती। तां० १६ । १२ ॥
बाहताः पशवः। ऐ०४।३॥५॥६॥ कौ० २३।१॥२६॥३॥ तै०१।४।५।५॥श०१३।४।३। १५ ॥ पशवो वा उष्णिक । तां०८।१०।४॥
पशवो वालखिल्याः । तां० २०।६।२॥ , पशवो था अक्षरपट्टयः। कौ०१६॥ ८॥ ,, पशवः पृष्ठ्यानि । कौ०२११५॥
पशव प्रगाथः। ऐ०३।१९, २३, २४॥६॥ २४ ॥ गो० उ०३।
२१, २२॥ ४ ॥२॥ , पशवो वै प्रगाथः । कौ० १५।४॥१८॥२॥ , पशवो वै प्रयाजाः। कौ० ३।४॥ , पशवः परिमादः। श० १०॥१॥२॥ ८ ॥
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[पशवः
( २७४ ) पशवः अथ यस्रचि परिशिनष्टि ते पशवः । श०२।३।२।१६॥ " पशवो वै पुरीषम् ( यजु० १३ । ३१॥)। श० १।२।५।
१७॥६।३।१।३८ ॥ ७।५।१।९॥ ,, पशवः पुरीषम् । श०८।७।४।१२॥ ,, पशवो वै वयासि । श०९।३।३॥ ७॥ , वपुर्हि पशवः। ऐ०५।६॥
तस्मादुपक्षुद्राः पशवः । तां०१३।४।५॥
अष्टाशफार पशवः। तां०१५।१।८॥ , तस्मादू योपशाः (=
द्विङ्गा इति सायणः) पशः। तां०१३॥
षोडशकला वै पशवः । श० १२।८।३।१३॥ १३॥ ३॥६॥५॥ षोडशकलाः पशवः (शिरो प्रीवा मध्यदेहः पुछमिति चत्वाNङ्गानि च चत्वारः पादाः प्रष्टौ शफा इत्येवं षोडशसंख्याका इति सायणः)। तां०३।१२।२॥१९।६।२॥ तस्मादसंश्लिष्टा (खेच्छाचारिण इति सायणः) पशवः ।
तां० १३ । ४।६ ॥ , एतद्वै पशूनां भूयिष्ठ रूपं यद्रोहितम् । तां० १६ । ६।२॥ , तस्मादुभयतः प्राणाः पशवःतां०७।३।२८॥ , त्रिरहः पशवः प्रेरते । प्रातः संग सायम् । ते०१।४।६।२॥ " त्रिवृ? पशुः पिता माता पुत्रो ऽथो गर्भ उल्वं जरायु । श० ८ ।
६।२।२॥ , तस्माद्यदा वर्षत्यथ पशय: प्रतितिष्ठन्ति । श०।२३॥ , (सः) चक्षुरेव पशूनामादत्त । तस्मादेते चाकश्यमाना इवैव न
जानम्त्पथ यदेवोपजिघ्रन्स्यथ जानन्ति । श० ११।८।३।१०।। , वाचा पशून्दाधार तस्माद्वाचा सिखा वाचाहूता आयन्ति तस्मादु
नाम जानते । तां०१०।३।१३॥ , मनुष्याननु पशवः । श०१५॥२॥४॥ , वाग्देवत्यै साम वाचो मनो देवता मनसा पशवः पशूनामोषधय
औषधीनामाप: । तदतरद्रयो जति सामाऽप्सु प्रतिष्ठितमिति । जै० उ१। ५६।१४॥
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( २७९)
पशुपति पशवः है (पशु) देवा अब्रुवन्नहि स्वर्ग वै त्वा लोक गमयिष्यामः ।
ऐ०२।६ ॥ प्रातः पशुमालभन्ते तस्य वपया प्रचरन्ति । तां०५।१०।६॥ , प्रातः पशूनालभन्ते । श० ३ । ७।२।४॥ , अथेतत्पशु नन्ति यत्संज्ञपयन्ति । श०३८।२।४ ॥
यत्पशु संज्ञपयन्ति विशासति तत्तं नन्ति । श० २।२।२।। १॥ ११ ॥ १।२।१॥ , पविशतिरस्य (पशोः) वङ्कया। ३।६।६।३॥ , खादिधा वै देवेषु पशष आसन्' मदिष्पा असुरेषु । तां ।
तस्मादद्यमानाः पच्यमानाः पशवी नक्षीयन्ते । श०७।५।
२।२॥ , तस्मादुमये देवमनुष्याः पशनुपजीवन्ति । श० ६।४।४।२२॥ " पुरुषः पशूनाम् (अधिपतिः)। तां०६।२१७॥ , तथा हवा अस्मिलोके मनुष्याः पशूनचन्ति यथैभिभुआत
एवमेवामुग्मिलोके पशवो मनुष्यानश्नन्त्येवमेभिर्भुजते । कौ०
.. सर्व पशुभिर्विन्दते । तां० १३।१।३॥
. विश्व हि पशुभिर्विन्दते । तां०१३। १ । ७ ॥ पशुपतिः ओषधयो घे पशुपतिस्तस्माघदा पशव ओषधीलभन्ते ऽथ
पत्तीयन्ति । २०६।१।३। १२ ॥ " एतान्यष्टौ (रुद्रः, सर्वः-शर्वः, पशुपतिः, उन:, अशनि, भवः,
महान्देवा, ईशानः) अग्निरूपाणि । कुमारो नवमः । श. ६ । १।३।१८॥ अग्नि स देवस्तस्यैतानि नामानि, शर्व इति यथा प्राच्या आचक्षते भव इति यथा वाहीकाः पशूनां पती रुद्रोऽग्निरिति । श०१।७।३। - ॥ अग्निर्वे पशूनामीटे । श०४ । ३।४।११ ॥ देवं वा एतं (पशुपति) मृगयुरिति वदन्ति ("मृगव्याधः"
शब्दमपि पश्यत)तां०१४।४।१०।। , यत्पशुपतिर्घायुस्तेन । कौ० ६ । ४॥
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[पात्राणि
( २७६ ) पशुबन्धः इममेव (भू-लोकं पशुधन्धेनाभिजयति । अथो अग्निष्टो.
मेन । ते० ३।१२।५।६॥ स यत्पशुबन्धेन यजते । आत्मानमेधैतनिक्रीणीते । श० ११ । ७॥१३॥ पशुबन्धः षड्ढोतुः (निदानम् )। तै० २।२। ११ । ६ ॥ षट्सु षट्सु (मासेषु) पशुबन्धयाजी ( अश्नाति)। श
१०।१।५।४॥ .. उभय सौत्रामणीष्टिश्व पशुबन्धश्च । स० १२।७।२।२१॥
अथेषाज्याहुतिर्यद्धविर्यको यत्पशुः (=पनुयज्ञः) । श० १।
७।२।१०॥ पशुमान् (पशुपतिः) स (रुद्रः) एतमेव परमवृणीत पशूनामाधिपत्यं
तदस्यतत्पशुमनाम । ऐ०३।३३॥ पश्यतः असो वा आदित्यः पश्यतः । एष एव तदजायत । एतेन हि
__ पश्यति । जै० उ०१ ५६॥६॥ पसः (यजु०२३ । २२)राष्ट्र पसः। श० १३।२।।६॥ तै० ३।९।७४॥ पस्याः विशो वै पस्त्याः । श०५ । ३।५।१६ ॥ श० ५।४।४।५॥ पाकयज्ञ: सायप्रात)मौ स्थाजीपाको नवश्च यः । बलिश्च पितृयज्ञ
वाटका सप्तमः पशुरित्येते पाकयज्ञाः । गो० पू०५॥ २३ ॥ " पशव्यो हि पाकयशः । श० २।३।१।२१॥ पाचजन्यः (यजु०१८ । ६७)(ये ऽग्नयः पाञ्चजन्याः%)ये केचानयः
पञ्चचितिकाः । ।०९।५।१। ५३ ॥ पाथि: पाणी वै गभस्ती। श०४।१।१।६॥ पातु ( यजु.५।११) इन्द्रघोषस्त्वा वसुभिः पुरस्तात्पात्वितीन्द्रघो
परत्वा वसुभिः पुरस्तादोपायत्वित्येवैतदाह । श०३।५।२॥४॥ पानीवतः ( प्रहः) रेतःसिक्ति पानीवतग्रहः । कौ० १६ । ६ ॥
, रेती वै पानीवतः । गो० उ०४।५॥ ऐ०६।३॥
, अग्निहि देवानां पानीवतो नेटविजाम् । कौ०२८॥३॥ पात्राणि कति पात्राणि यज्ञ वहन्तीति प्रयोदशेति ब्रूयातू......, (प्रजा
पतिः) प्राणापानाभ्यामेवोपाश्वन्तर्यामी निरमिमीत । व्यानादुपाशुसवनं । वाच ऐन्द्रायवं । दक्षतुभ्यां
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(२७७)
पाप्मा ] मत्रावरुणं । श्रोत्रादाश्विनं । चक्षुषः शुक्रामन्थिनौ । आत्मन आग्रयणं । अङ्गभ्य उपथ्यं । आयुषो ध्रुवं । प्रतिष्ठाया ऋतु
पात्र । तै०१।५।४।१,२॥ पात्राणि द्वंद्वं पात्राण्युदाहरति शूर्प चाग्निहोत्रहवीं च स्फयं च
कपालानि च शम्यां च कृष्णाजिनं चोलूखलमुसले दृषदुपले
तहश । श०१।१।१।२२ ॥ पाथ्यो वृषा (यजु०११। ३४) मनो वै पाथ्यो वृषा । श० ६।४।
२॥४॥ पादः प्रतिष्ठा वै पादः। श० १३ । ।३।८॥ पान्तम् (ऋ० ८ । ६२ । १॥) अहः पान्तम् । तां०६।१।७॥ पापम् (कर्म) तद्यथा श्व: प्रेष्यन् पापात्कर्मणो जुगुप्सेतैवमेवाहरहः
पापात्मणो जुगुप्सताकालात् । जै० उ० ४।२५ ॥ ४ ॥ पाप्मा पाप्मा वाऽ अशस्तिः (यजु०११ । १५) । श०६।३।२।७॥ , पाप्मा वै सपतः। श०८।५।१।६॥ , पाप्मा वृषः। श०११।१।५।७॥१३।४।१।१३॥ " पुत्रहणं पुरंदरमिति ( यजु० ११ । ३३) पाप्मा वै वृत्रः पाप्म
हनं पुरंदरमिति (वृत्रापाप्मा)। श०६।४।२।३॥ , सथैवतघजमानः पौर्णमासेनैव वृत्रं पाप्मान हत्वापहत पाप्मै
तत्कारभते (वृत्र:=पाप्मा)। श०६।२।२।१६॥ , प्रने त्वं तरा मृधः (यजु०११ । ७२) इत्यग्ने त्वं तर सर्वान्पा
मन इत्येतत् । श०६।६।३।४॥ " पाप्मा वै मृघः (यजु०११।१८)।श०६।३।३।८॥ " वरुणो वा एतं गृह्णाति यः पाप्मना गृहीतो भवति । श० १२॥
७।२।१७॥ , अङ्गे अङ्गे थे पुरुषस्य पाप्मोपश्लिष्टः । ते० ३।८।१७१४॥ • भ्रमोवै पाप्मा। श०६।३।३।७॥ , विवेव (दिवसा इव पुण्यरूपेण तेजसा युक्ता इति सायणः)
पहतपाप्मानः । तम इव ानपहतपापमानः । ऐ०४।२५॥ " श्रियं पाप्मा (निवर्तते)। श० १०।२।६।१६॥ , स यथाहिस्त्वचो निर्मुच्येतैव सर्वस्मात्पाप्मनो निर्मुच्यते ।
श०४।४।५।२३ ॥ (प्रश्नोपनिषदि ५। ५॥)
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[पावकः
(२७८ ) पाप्मा ते देवा यथेषीकां मुशाद्विबहेदेव सर्वस्मात्पामनो व्यवृहन् ।
श०४।३।३ । १६ ॥ ( कठोपनिषदि २।३।१७) , तद्यथाहिर्जीर्णायास्त्वचो निर्मुच्येत इषीका वा मुजात । एवं हैवैते सर्वस्मात्पाप्मनः सम्प्रमुच्यन्ते ये शाकलां जुह्वति । गो०
उ०४।६॥ पारमेष्ट्यम् अथैनं ( इन्द्रं ) ऊर्ध्वायां दिशि मरुतश्चाङ्गिरसश्च देवा....
अभ्यषिश्चन्.........पारमेष्ठन्याय माहाराज्यायाऽऽधिपत्याय
स्वावश्यायाऽऽतिष्ठाय । ऐ०८।१४ ॥ पारिप्लवम् ( आख्यानम् ) तद्यत्पुनः पुनः (संवत्सरं ) परिप्लवते तस्मा
त्पारिप्लवम् । श० १३ । ४ । ३ । १५ ॥ पारुच्छेपम् रोहितं वै नमितच्छन्दो यत्पारुच्छेपम् । गो० उ०६।१०॥ , एजेन (पारुच्छेपेन) ह वा इन्द्रः सप्त खाल्लोकानारोहत् ।
गो० उ०६।१०॥ पार्थम् ( साम) एतेन वै पृथी (श०५।३।५।४॥ पृथुः १) धैम्य
उभयेषां पशूनामाधिपत्यमाभुतोभयेषां पशूनामाधि.
पत्यमश्रुते पार्थना तुष्टवानः । तां०१३।५।२०।। पार्थानि (हवींषि) संवत्सरो वै पार्थानि । श०६।३।४।१८ ॥ पाथुरश्मम् ( साम ) क्षत्रम्मह्यमित्यब्रवीत् (इन्द्र) पृथुरश्मिस्तस्मा पतेन
पार्थरश्मन क्षत्रं प्रायच्छत, क्षत्रकाम एतेन स्तुवीत क्षत्रस्येवास्य प्रकाशो भवति । तां० १३।४ । १७ ॥ पाथुरश्म राजन्याय ब्रह्मसाम कुर्यात् । तां०
१३।४।१८॥ पालागल: (दूतः) प्रयो धै पालागलो ऽध्यानं वै प्रहित पति । शक
पावकः ( यजु०१७ । ९) यशिव शान्त तत्पावकम् । श० ।।
१।२। ३०॥ , यत् ( अग्ने) पावकं (रूपम् ) तदन्तरिक्ष (न्यधत्त)। श०
२।२।१।१४॥ , अझं वै पावकम् । श०२।२।१ ॥
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(२७६ )
पितरः] पावमा यः ( ऋच: ) पवित्रं वै पावमान्यः । कौ० ८।५ ॥ ३०॥ ८॥
गो० उ०६।१६ ॥ पावीरवी वाग्वै सरस्वती पावीरवी । ऐ०३। ३७ ॥ पाश: घारुणो व पाशः । तै० ३।३।१०।१॥ श०६।७।३।८॥
,, नैऋतो वै पाशः । श०७।२।१।१५ ॥ पाठौहम् ( साम ) पष्ठवाड् वा एतेनारसश्चतुर्थस्याह्नो वाचं वदन्ती
मुपाशृणोत्स होवागिति निधनमुपैसदस्याभ्युदितं
तदहरवसत् । तां० १२ । ५।११॥ पितरः सो (प्रजापतिः) ऽसुरान् सष्टवा पितेवामन्यत । तदनु पितृनस
जत ! तत्पितृणां पितृत्वम् । तै० २।३।।२॥ , अग्निमुखा एव तत्पितृलोकाजीवलोकमभ्यायन्ति । श० १३ ।
८।४।६॥ .. मनुष्याचे जागरितं पितरः सुप्तम् । श०१२।३।२।१॥ , रात्रिः पितरः। श०२।१।३।१॥
तत्तमसः पितृलोकादादित्यं ज्योतिरभ्यायन्ति । श० १३ । ८ ।
,, तिर इय ये पितरो मनुष्येभ्यः । श०२।४।२।२१॥
तिर इव चै पितरः। श०२।६।१ । १९ ॥ १३॥ ८॥३२॥ ,, अन्तर्हितो हि पितृलोको मनुष्यलोकात् । तै० १।६।८।६॥ , मध इव हि पितृलोकः । श० १४।६।१।१०॥ __ अवान्तरदिशो वै पितरः । श० १।८।१।४० ॥ २।६।
१। १०, ११॥ , उभे दिशावन्तरेण विदधाति प्राची च दक्षिणां चैतस्याह
विशि पितृलोकस्य द्वारम् । श०१३।८।१।५॥ , दक्षिणावृद्धि पितृणाम् । ०१।६।८।५॥ , पितृणां वा एषा दिग्यहक्षिणा । ष०३।१॥ , बम्बेनाऽऽजद्विषेण ( उदात्रा दीक्षामहा इति ) पितरो दक्षिणतः
(भागच्छन् )। जै० उ०२।७।२॥ . , दक्षिणासंस्थो पित्यशा। कौ०५॥७॥गी. उ०१॥ २५ ॥
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[पितरः
(२८०) फ्तिरः स (सूर्यः) यत्रोदावर्तते। देवेषु तर्हि भवति देवांस्तर्वामि
गोपायत्यथ यत्र दक्षिणावर्तते पितृषु तर्हि भवति पितृस्तीभिगो
पायति । श०२।१।३।३॥ , मनोजवास्त्वा पितृभिदक्षिणतः पातु । श०३।५।२।६॥
अथैनं (प्रजापति) पितरः । प्राचीनावीतिनः सव्यं जाम्वाच्योपासीदस्तान् (प्रजापतिः ) अब्रवीम्मासि वो ऽशन स्वधा वो मनोजवो वश्चन्द्रमा वो ज्योतिरिति । ।०२।४।
२।२॥
मासि पितृभ्यः क्रियते । तै०१।४।६।१॥ , तृतीये हि लोके पितरः । तां०९।८।५॥
तृतीये वा इतो लोके पितरः । तै०१।३।१०।५॥१।।
८।७॥ , अन्तरिक्ष तृतीय पितृन्यज्ञोऽगात् । ऐ०७१५॥ ,, पितरो नमस्याः । श०१।५।२॥३॥ , यानग्निरव दहन्त्स्वदयति ते पितरोऽग्निज्वात्ताः । श०२।६।
१।७॥ ये वा अयज्वानो गृहमेधिनः । ते पितरोऽग्निवात्ताः । ते०१॥ ६।९।६॥
अर्द्धमासा वै पितरोऽग्निष्वात्ताः । तै०१।६।८।३॥ .. अथ पितृभ्यो ऽग्निष्वात्तेभ्यः। निवान्याय दुग्धे सकृदपमाथत
एकशलाकया मन्थो भवति । श०१।६।१।६॥ अथ ये दसेन पक्केन लोकं जयन्ति ते पितरो बर्हिषदः । श०२।
६।१।७॥ , ये वै यज्वानः । ते पितरो बर्हिषदः । तै०१।६।९।६॥ , मासा वै पितरो बर्हिषदः । ते १।६। ८ ।३॥ ३।३।
६॥४॥ पितृभ्यो बर्हिषद्भयः। अन्वाहार्यपचने धानाः कुर्वन्ति ततोऽर्धाः पिषन्त्यर्धा इत्येव धाना अपिष्टा भवन्ति ता धानाः पितृभ्यो बर्हिषद्भयः। श०२।६।१५॥
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( २८१ )
पितरः ]
पितरः तद्ये सोमेनेजानाः । ते पितरः सोमवन्तः । श०२ । ६।१।७॥ स पितृभ्यः सोमवद्भ्यः । षट्कपालं पुरोडाशं निर्वपति । श०
२।६।१।४ ॥
सोमयाजा हि पितरः । तै० १ | ६ | ६ |५ ॥
इन्दय इव हि पितरः । मन इव । तां० ६ । है । १६-२० ॥
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पितृदेवत्यः सोमः । श० ३ । २ । ३ । १७ ॥
पितृलोकः सोमः । कौ० १६ ॥ ५ ॥
पितृदेवत्यो वै सोमः । श०२।४ । २ । १२ ॥ ४ । ४ । २ ॥२॥ स्वाहा सोमाय पितृमते । मं० २ । ३ । १ ॥
सोमाय वा पितृमते ( षट्कपालं पुरोडाशं निर्वपति ) । श० २।६।१।४ ॥
संवत्सरो वै सोमः पितृमान् । तै० १ । ६ । ६ । २ ॥ १।६। €1411
ओषधिलोको वै पितरः । श० १३ । ८ । १ । २० ॥ षड् वाs ऋतवः पितरः । श० ६ । ४ । ३॥ ८ ॥
1
ऋतवः पितरः । कौ० ५ | ७ ॥ श० २ । ४ । २ । २४ ॥ २ । ६ । १ । ४ ॥ गो० उ० १ । २४ ॥। ६ । १५ ॥
तषो वै पितरः । श० २ । ६ । १।३२ ॥
यहतवः पितरः प्रजापतिं पितरं पितृयशेनायजन्त तत्पितुयशस्य पितृयज्ञत्वम् । तै० १ । ४ । १० । ८ ॥ शरखेमन्तः शिशिरस्ते ( ऋतवः ) पितरः । श० २ । १ । ३॥१॥
31
ऋतवः खलु वै देवाः पितरः । ऋतूनेव देवान् पितॄन् प्रीणाति । तान् प्रीतान् । मनुष्याः पितरो ऽनु प्रपिपते । तै० १ । ३ । १०१५॥
यमो बैवस्वतो राजेत्याह तस्य पितरो विशस्त इमऽ घालतऽ इति स्थावरा उपसमेता भवन्ति तानुपदिशति यजुषि वेदः सो ऽयमिति ( भाश्वलायन श्रौतसूत्रे १० । ७ । २ ॥ शाङ्खायनश्रौतसूत्रे १६ । २ । ४-६ ॥ ) । श० १३ । ४ । ३ । ६ ॥ ," क्षत्रं वै यमो विशः पितरः । श० ७ । १ । १ । ४ ॥
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(पितरः
( २८२) पितरः पितृलोको यमः। कौ०१६ ॥ ८॥ , (प्रजापतिः) निधनम्पितृभ्यः (प्रायच्छत ) तस्मादु ते निध
नसंस्थाः । जै० उ०१।१२।२॥ यानेवैषां तस्मिन्त्संग्रामे ऽनंस्तापितृयज्ञेन समरयन्त पितरो वै तऽ आसंस्तस्मात्पितृयज्ञो नाम । श०२।६।१।१॥
यः ( अर्धमासः ) अपक्षीयते स पितरः। श०२।१।३।१॥ , अपत्नयभाजो वै पितरः। कौ०५।६॥ ,, अपराहः पितरः । श०२।१।३।१॥
तस्मै ( चन्द्रमसे ) ह स्म पूर्वाह्न देवा अशनमभिहरन्ति मध्यन्दिने मनुष्याऽ अपराहे पितरः । श०१।६।३।१२॥ अपराहभाजो वै पितरस्तस्मादपराहे पितृयज्ञेन चरन्ति । गो० उ०१। २४॥
अन्तभाजो वै पितरः । कौ०१६। ८ ॥ , यदि नानाति पितृदेवत्यो भवति । श० ११ ११।७।२॥ ,, माः पितरः। श०२।१।३।४॥
अनपहतपाप्मानः पितर। श०२।१।३।४॥ , पितृलोकः पितरः । कौ०५।७॥ गो उ०१।२५॥ पितृदेवत्यो वै कूपः खातः । श० ३।६।१ । १३ ॥ ३।७। १।६॥ पितृदेवत्या वै नीविः। श०२।४।२।२४॥२।६।१।४२॥ अथ या रोहिणी श्येताती ( गौः) सा पितृदेवत्या यामिदं पितृभ्यो नन्ति । श०३।३।१।१४ ॥ अथ यध्वर्युः पितृभ्यो निपृणाति, जीवानेव तत् वितृननु
मनुष्याः पितरो ऽनुपवहन्ति । गो० उ०१ । २५ ॥ , पितृणां मघाः (नक्षत्रम्) । तै० १।५।१।२ ॥ ३।१।
पितरः प्रजापतिः । गो० उ०६।१५॥ , मनः पितरः। श०१४।४।३।१३ ॥
गृहाणा ह पितर ईशते । श०२।४।२।२४॥ , गृहाणा हि पितर ईशते । श०२।६।१।४२ ।।
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( २८३ )
पितरा युवाना] पितरः सर्वतः पितरः । श०२।६।१।११ ॥
, सकृदु खेव पराञ्चः पितरः । श०२।४।२।४॥४।४।२।३॥ ,, सहदिव वै पितरः । कौ० ५। ६॥१०॥४॥ , पराञ्च उ वै पितरः। कौ० ५।६॥ , हीका हि पितरः । तै०१।३।१०॥६॥१।६।९।७ ॥ " हरणभागा हि पितरः। ते १।३।१०।७॥
ऊष्मभागा हि पितरः। ते १।३।१०।६॥ " देवा वा एते पितरः । कौ०५।६॥ " देवा वा एते पितरः। गो० उ०१। २४ ॥ , विष्टकृतो वै पितरः। गो० ३०१ ॥ २५ ॥ , त्रया वै पितरः (सोमवन्तः, बर्हिपदः, अग्निष्वात्ताः) । श० ।
५।४।२८॥१४।१।३।२४॥ ,, ऊमा वै पितरः प्रातःसवन ऊर्वा माध्यन्दिने काव्यास्तृतीय
सवने (ऊमाः=ऋतुविशेषः, तैत्तिरीयसंहितायाम् ४।४।७। २॥५।३।११।३॥ सायणभाष्ये ऽपि)। ऐ०७।३४॥ एतद्ध वै पितरो मनुष्यलोकाऽ आभक्ता भवन्ति यदेषां प्रजा भवति । श०१३ । ८।१।६ ॥ ( अयास्य आङ्गिरसः) व्यानेन पितॄन् पितृलोके ( अदधात् )।
जै० उ०२।८।३॥ , कव्यवाहनः (वाऽ अग्निः) पितृणाम् । श०२।६।१।३०।।
अथ यदेव प्रजामिच्छेत् । तेन पितृभ्यऽ ऋणं जायते तद्धयेभ्यः एतत्करोति यदेषा सन्तताव्यवच्छिन्ना प्रजा भवति । श०१।
७।२।४॥ ,, यत्पीतत्वं तत्पितगाम् । ष०४।१॥ ,, खधाकारो हि पितृणाम् । तै०१।६।९।५॥३।३।६।४॥ ,, खधो वै पितृणामन्नम् । श०१३। ८।१।४॥ ,, स्वधाकारं पितरा ( उपजीवन्ति )। श० १४ । ८।६।१॥
" कर्मणा पितृलोकः ( जय्यः । श. १४।४।३।२४॥ पितरा युवाना ( यजु० १५ । ५३) बाक च वै मनश्च पितरा युवाना।
श०८।६।३।२२ ॥
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[पिताम्
(२४) पिता प्राणो वै पिता । ऐ०२ ॥३८॥ ,, (यजु० ३७ । २०) एष वे पिता य एष (सूर्य) तपति । श०
१४।१।४।१५॥ ., सा(सुकन्या) होवाच यस्मै मां पितादात्रैवाहं तं (पति)
जीवन्त हास्यामीति ।।०४।१।५।। पिता वैश्वानरः संवत्सरो वे पिता वैश्वानरः प्रजापतिः। श० १।।
पितुः ( यजु०२ । २०॥ १२ । ६५ ॥) अन्नं वै पितुः । श०१।९।
२॥ २०॥ ७।२।१।१५॥ , पर्थव पितुं मे गोपायेत्याह । अन्नमेवैतेन स्पृणोति । तै०१।१।
१०।४॥ " अन्नं वै पितु। ऐ०१।१३॥ ". दक्षिणा वै पितु । ऐ०१।१३ ॥ पितुपणि: पितुषणिरित्यन्नं वै पितु दक्षिणा वै पितु तामेनेन (सोमेन)
सनोत्यभसनिर्मवैनं (सोम) सत्करोति । ऐ० १ । १३ ॥ पितृमान्पैतमत्यः यो वै ज्ञातो ज्ञातकुलीनः स पितृमान्पैतृमत्यः । श०
४।३।४।१६ ॥ पिन्वन्स्यपीया (ऋक्) तद्यदेव वृत्रं हतमापी व्यायन् यत्प्रापिन्वंस्तस्मा
पिन्वन्स्यपीया। कौ० १५ ॥ ३ ॥ पिन्वन्त्यपो मरुतः सुदानव इति पिन्वन्त्यपीयापो
वै पिन्वन्त्यपीया । कौ० १५ ॥ ३ ॥ पिपीलिकमध्या ( अनुष्टुप् ) इन्द्रो वृत्रं हत्वा नास्तृषीति मन्यमानां परां
परावतमगच्छत् स एतां (पिपीलिकमध्यां) अनुष्टुमं व्यौहत्तम्मध्ये व्ययासर्पदिग्द्रगृहे वा एषोभये यजते ऽभय उत्तिष्ठति य एवं विद्वानेतासु (पिपीलिकमध्यासु) स्तुते । तां० १५ । ११ ॥६॥
पिपीलिकामध्येत्यौपमिकम् । दे०३।१०॥ पिपीलिका पिपीलिका पेलतेर्गतिकर्मणः। दे० ३।९॥ पिप्ताम् ( यजु० १३ । ३२) पिपृतां नो भरीमभिरिति बिभृतां नो
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( २८५ )
पुत्रः] भरीमभिरित्येतत् । श०७।५।१।१०॥ पिलिप्पिला श्रीवं पिलिप्पिला। तै० ३।९।५।३॥ श० १३ । २ ।
पिशङ्गिला रात्रि पिशङ्गिला । ते० ३ । ९ । ५।३॥
, अहोरात्र 4 पिशंगिले। श० १३।२।६ । १७ ॥ पिशाबः अथ यः कामयेत पिशाचान् गुणीभूतान पश्ययमिति...... ।
सा० वि० ३।७।३॥ पीतुदारु (="उदुम्बर इति केचिद्दवदारुरन्ये” इति सायणः) (अग्ने)
यदस्थि तत्पीतुदारु । तां० २४ । १३ । ५॥ ,, शरीर देवास्य (अग्ने) पीतुदारु । श०३।५।२।१५॥ , अथ (प्रजापतेः)यदापोमयं तेज आसीत् । यो गन्धा स सार्ध
समवहुत्य चक्षुष्ट उदभिनत्म एष वनस्पतिरभवत्पीतुदारुस्तस्मात्स सुरभिर्गन्धाद्धि समभवत्तस्मादु ज्वलनस्तेजसो
हि समभवत् । श०१३।४।४।७॥ पुभिजकस्थला ( यजु०१५ । १५) (अग्ने:) पुजिकस्थला चक्रतु
स्थला चाप्सरसाविति दिक् चोपदिशा चेति ह स्माह
माहित्थिा सेना च तु ते समितिश्च । ।०८।६।१।१६ ॥ पुण्डरीकम अहिरस: सुवर्ग लोकं यन्तः । अप्सु दीक्षातपसी प्रावेश
__ यन् । तत्पुण्डरीकमभवत् । तै०१ । ८ । २११॥ ___ यानि पुण्डरीकाणि तानि दिवो रूपम् । तानि नक्षत्राणा)
रूपम् । श०५।४।५।१४ ॥ , "पुष्करम्" शब्दमपि पश्यत । पुण्यं कर्म पुण्यं कर्म सुकृतस्य लोकः। तै०३।३।१०।२॥ , ये हि जनाः पुण्यकृतः स्वर्गलोक यन्ति तेषामेतानि (नक्षत्राणि)
ज्योती षि । श० ६ ५।४।८॥ पुत्रः पुन्नाम नश्कमनेकशततारं तस्मात् प्राति पुत्रस्तत्पुत्रस्य पुत्त
त्वम् । गो० पू०१।२॥ , पुत्रो वै वीरः ( यजु०४।२३)। श०३।३।१।१२॥ ... आत्मासि पुत्र मा मृथाः स जीव शरदः शतम्।मं०१।५।१८॥ , पुत्रो हि हदयम् । त०२।२।७॥४॥
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[पुरश्चरणम्
(२८६ ) पुत्रः नापुत्रस्य लोको ऽस्ति । ऐ०७। १३ ।। , तस्मादुत्तरवयसे पुत्रान्पितोपजीवत्युप हवाऽ एनं पूर्ववयसे
पुत्रा जीवन्ति । श० १२।२।३।४॥ ,, उप ह वा एनं पूर्व वयसि पुत्राः पितरमुपजीवन्त्युपोत्तमे वयसि
पुत्रान् पितोपजीवति । गो० पू०४ । १७ ॥ ,, अनुरूप एनं पुत्रो जायते य एवं वेद । तां० ११।६।५.॥
, प्रतिरूपो हैवास्य ( यजमानस्य ) प्रजायामाजायते नाप्रतिरूप____ स्तस्मात्प्रतिरूपमनुरूपं कुर्वन्ति । गो० उ० ३ । २२ ॥ पुन:पदम् प्राणाः पुनःपदम् । कौ २३ ॥ ६ ॥ पुनःस्तोमः ( ऋतुः) यो बहुप्रतिगृह्य गरगीरिव मन्यते स एतेन ( पुन:
स्तोमेन ) यजेत । तां० १६ । ४।२॥ पुनर्जन्म ते यऽ एवमेतद्विदुः । ये वैतत्कर्म कुर्वते मृत्वा पुनः सम्भवन्ति
ते सम्भवन्त एवामृतत्वमभिसम्भवन्त्यथ यऽ एवं न विदुर्ये वैतत्कर्म न कुर्वते मृत्वा पुनः सम्भवन्ति त एतस्य (मृत्योः)
एवान्नं पुनः पुनलेवन्ति । श० १०।४।३ । १०॥ पुनर्वसू ( नक्षत्रविशेषः ) अदित्यै पुनर्वसू । तै० १।५।१।१॥ , एवा न देव्यदितिरना । विश्वस्य भी जगतः प्रतिष्टा।
पुनर्वसू हविषा वर्धयन्ती। तै० ३।१।१।४॥ पश्चितिः तद्यञ्चित सन्तं पुनश्चिनोति तस्मात्पुनश्चितिः । श० ।
६।३।१३॥ पुमान् वीय्यं पुमान् । श० २।५।२। ३६ ॥ पुरः ( यजु०१३ । ५४॥) अग्नि पुरस्तद्यत्तमाह पुर इति प्राञ्च
ह्मग्निमुद्धरन्ति प्राश्चमुपचरन्ति । श० ८।१।१४॥ ,, अग्निरेव पुरः । श० १० । ३।५।३॥ ,, मन एव पुरः। मनो हि प्रथम प्राणानाम् । श० १०।३।५।७॥ पुरन्धिर्थोपा ( यजु० २२ । २२) पुरन्धिर्योषेति । योषित्येव रूपं दधोति
तस्मादूपिणी युवतिः प्रिया भावुका । श० १३ । १।६।६॥ पुरश्चरणम् “पुरः" "चरणम्” चेत्येतौ शब्दावपि पश्यत । , अर्थतं विष्णु यशम् । एतैर्यजुर्भिः पुर इवैव बिभ्रति तस्मा.
ब्युरश्चरणं नाम । श०४।६।७।४॥
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( २८७)
पुरुषः] पुरश्चरणम् तद्वाऽ एतदेव पुरश्चरणम् । य एष (सूर्यः)तपति । श०४।
६।७।२१॥ पुरीषम् अन्नं पुरोषम् । श०८।१।४।५॥८।७।३।२॥ " अन्नं च पुरीषम् । श०८ । ५।४।४॥८।६।१।२१ ॥
१४।३।१।२३ ॥ , मासं पुरीषम् । श० ८ । ७।४।१६॥
माणसं वै पुरीषम् । श. ८।६।२।१४ ॥८।७।३।१॥ पुरीष्य इति वै तमाहुर्यः श्रियं गच्छति समानं वै परीषं च करीपं च । श०२।१।१ । ७ ॥ स एष प्राण एव यत्पुरीषम् । श० -।७।३।६॥
पुरोषं घाऽ इयम् (पृथिवी)। श० १२।५।२५।। , ऐन्द्र हि पुरीषम् । श०८।७।३। ७॥ ,, प्रथ यत्परीष स इन्द्रः । श० १०।४।१।७॥ , दक्षिणाः पुरोषम् । श०८।७।४।१५॥ ,, देवाः पुरोषम् । श० ८।७।४।१७॥ ,, नक्षत्राणि पुरीषम् । श० ८।७।४।१४॥
बयासि परीषम् । श. - । ७।४।१३॥ , प्रजा पुरोषम् : श०८।७।४।१६॥ , प्रजा पशवः पुरोषम् । तै०३।२।८।६॥३।२।। १२ ॥
( यजु० १३ । ३१ ) पशवो वै पुरीषम् । श०७।५।१। ।
१।२।५।१७॥६।३।१ । ३८ ॥ , पशवः पुरीषम् । श० - । ७।४।१२॥ , गोष्ठः पुरीषम् । तां०१३।४।१३॥ " पुरोतत्पुरोषम् । श० - । ५।४।६॥ पुरीष्यापरीष्य इति वै तमाहुर्यः श्रियं गच्छति । श०२।१।१।७॥ पुरुरस्मः बहुदान इति हैतधदाह पुरुदस्म इति । श०४।५।२।१२ ॥ पुरुषः सघाउ अयं पुरुषः सर्वासु पूर्षु पुरिशयः । श० १४ । ५ ।
५.१८॥ , इमे बै लोका पूरयमेव पुरुषो यो ऽयं ( वायुः) पवते सो ऽस्यां
पुरि शेते तस्मात्पुरुषः । श० १३ । ६ । २।१॥
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[ पुरुषः
( २८८ ) पुरुषः प्राण एष स पुरि शेते सं पुरि शेत इति पुरिशयं सन्तं प्राणं
पुरुष इत्याचक्षते । गो० पू० १ । ३६ ॥ स यत् पूर्वो ऽस्मात् । सर्वस्मात्सर्वान्पाप्मन औषत्तस्मात्पुरुषः । श० १४ । ४।२।२॥ अथ यः पुरुषस्स प्राणास्तत्साम तद्ब्रह्म तदमृतम् । जै० उ०१ ।
२५ । १०॥ , पुरुषो वाऽ अक्षितिः । श. १४।४।३।७॥ , पुरुषो वै सहस्त्रस्य प्रतिमा ( यजु० १३ । ४१)। श० ७।५।
२।१७॥ ,, (प्रजापतिः) मनसः पुरुषम् ( निरमिमीत ) । श० ७।५।
२।६॥ ,, प्राजापत्यो वे पुरुषः । ० २।२।५ । ३॥ , पुरुषो वै प्रजापतेर्नेदिष्टम् । श०४।३।४।३ ॥ , पुरुषः प्रजापतिः । श६।२।१।२३ ॥ ७।१।१।३७ ॥ , पुरुषो हि प्रजापतिः । श०७।४।१ । १५॥ ,, वैष्णवाः पुरुषाः। श०५।२।५।२।।
(प्रजापतिः) वैश्वकर्मणं पुरुषं (आलिप्सत)। श० ६।२। १॥ ५॥ सौम्यो वै देवतया पुरुषः । तै०१।७।।३॥ पुरुष प्रथममालभते । पुरुषो हि प्रथमः पशूनाम् । श०६।२।
पुरुषः पशूनाम् ( अधिपतिः )। तां०६ । २ । ७॥ , पशवः पुरुषः । तै० ३।३।८।२॥
पुरुषस्तेन यज्ञो यदेनं पुरुषस्तनुत एष वै तायमानो यावानेव पुरुषस्तावान् विधीयते तस्मात् पुरुषो यशः । श. १।३।
२॥१॥ , पुरुषो यज्ञः । श० ३।१।४।२३ ॥ , पुरुषो वै यज्ञः । कौ० ६७ । ७ ॥ २५ ॥ १२॥ 18॥श०१॥
३।२।१॥३।५।३।१॥ तै० ३ । ।२३।१॥ गो० पू० ४ २४॥ गा० उ०६ । १२॥
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( २८६)
पुरुषः] पुरुषः पुरुषो वै यक्षः। तस्य यानि चतुर्विंशतिर्वर्षाणि तत्प्रातःसव
नम् ।...अथ यानि चतुश्चत्वारिंशतं वर्षाणि तन्माध्यन्दिनं सघनम् ...अथ यान्यष्टाचत्वारिंशतं वर्षाणि तत्तृतीयसवनम् ।...स (महिदास ऐतरेयः) षोडश शतं(२४+४४+४=११६) वर्षाणि जिजीव । ( एवं छांदोग्योपनिषदि ३ । १६॥ १-७)। जै० उ० ४।२।१-११ ॥ पुरुषो वै यज्ञस्तेनेदं सर्व मितम् (तैत्तिरीयसंहितायाम् ५।२ ५।१:-यशेन वै पुरुषः सम्मितः॥)। श० १०।२।१।२॥
पुरुषसम्मितो यज्ञः। श०३।१।४।२३ ॥ , अपाङ्गर्भः पुरुषः स यज्ञः । गो० पू०१ । ३६॥ , पुरुष उद्रीथः । जै० उ०१॥ ३३॥६॥ , पुरुषो होगीथः । जै० उ० ४।६।१॥ , पुरुषो ऽग्निः । श० १०।४।१ । ६॥
पुरुषो वाऽ अग्निः । श०१४।९।१ । १५॥
पुरुषो पै समुद्रः। जै० उ० ३।३५ । ५॥ , पुरुषः सुपर्णः ( यजु० १३ । १६)। श०७।४।२।५।। , पुरुषो वाव संवत्सरः। गो०पू०५। ३, ५ ॥ , पुरुषो वै संवत्सरः । श० १२।२।४।१ ॥
पुरुष एव सविता । जै० उ०४ । २७ । १७॥ .. पुरुषो घाव होता । गो० उ०।६।६॥
पुरुष एव षष्ठमहः। कौ० २३॥ ४॥ , अथैष एव पुरुषो यो ऽयं चक्षुषि । जै० उ०१॥ २७ ॥२॥ , पुरुष हवे नारायणं प्रजापतिरुवाच । गो० पू० ५। ११ ॥ श०
१२ । ३।४।१॥
षोडशकलो वै पुरुषः । ते० १७।५। ५ ॥ श० ११।१।६। - ३६॥ जै. उ०३ । ३४।१॥
सप्तदशो वै पुरुषो दश प्राणाश्चत्वार्यङ्गान्यात्मा पञ्चदशो ग्रीवा
षोडश्यः शिरः सप्तदशम् । श० ६।२।२।६ ॥ , अको ह्ययं पुरुषः । श० १४ । ७ । १। १७॥ , काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तथाकतुर्भवति
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[पुरुषः
( २६० ) यथाक्रतुभर्वति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते । श०
१४ । ७।२।७॥ पुरुषः अथ खलु क्रतुमयो ऽयं पुरुषः स यात्क्रतुरयमस्माल्लोकात्प्रेत्ये
वक्रतुर्हामुं लोकं प्रेत्याभिसम्भवति । श. १०।६।३।१॥ व्याममात्रो वै पुरुषः । श० ७।१।१ । ३७ ॥
द्विप्रतिष्टो वै पुरुषः। ऐ०२।१८॥३॥ ३१ ॥५।३ ॥६॥२॥ ,, द्विप्रतिष्ठः पुरुषः । गो०ए०४।२४॥ गो० उ०६।१२॥
द्विप्रतिष्ठः (पुरुषः । ते०३।३।१२।३॥ , द्विपाद्वै पुरुषः। ऐ०४।३॥५। १७, १६, २१॥ गो० पू० ४।
२४॥ गो० उ०६।१२॥ तै० ३।६।१२। ३॥ , पुरुषो वै ककुप् । तां० = ।१०।६ ॥१३ । ६।४॥ १६ । ११ ।
७॥ १४ । ३।४।२०।४।३॥ , वैराजो वै पुरुषः । तां०२।७।८॥१६।४।५॥ तै०३।।
८।२॥ , गायत्रो वै पुरुषः । ऐ०४।३॥
औष्णिहो वै पुरुषः। ऐ०४।३॥ पांक्तः पुरुषः । कौ०१३ ॥२॥ तां०२।४।२॥ गो०७४।७॥ पाश्रो ऽयं पुरुषः पंचधा विहितो लोमानि त्वङ् मांसमस्थि मज्जा । ऐ०२॥१४॥६॥ २६॥ पाङ्गो ह्ययं पुरुषः पञ्चधा विहितो लोमानि त्वगस्थि मजा
मस्तिष्कम् । गा० उ०६।६। - ॥ , पाङ्को वै पुरुषो लोम त्वङ् मा समस्थि मजा । श० १०।२।
३।५॥ , त्वङ् मास स्नायवस्थि मजा । एतमेव तत्पश्चधा विहित. मात्मानं वरुणपाशान्मुञ्चति ( यजमानः पुरुषः) । तै०१।
५।६।७ ॥ , षड्विधो वै पुरुषः षडङ्गः। ऐ०२। ३६ ॥ , सप्तपुरुषो ह्ययं पुरुषो यञ्चत्वार आत्मा त्रयः पक्षपुच्छानि । श०
६।१।१।६॥ , एतावन्तः ( ७२०) एव पुरुषस्यास्थीनि च मज्जानश्च......,
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( २६१ )
पुरुषः एतावन्तः (१४४०)एव पुरुषस्य स्थुरामांसानि......,एतावन्त:(२८८०) एव नावा बन्ध्याः ......,एतावन्तः (१०८०० ) एव
पुरुषस्य पेशशमरा: । गो० पू० ५। ५॥ पुरुषः अवछितो ह वै पुरुषः। तस्मादस्य यत्रैव क्वच कुशो वा यद्वा
विकृन्तति तत एव लोहितमुत्पतति तस्मिन्नेतां त्वचमदधुर्वास एव तस्मान्नान्यः पुरुषावासो बिभयंता ह्यस्मिंस्त्वचमधुस्तस्मादु सुवासा एव बुभूषेत्वया त्वचा समृध्याऽ इति तस्मादप्यश्लील सुवाससं दिदृक्षन्ते खया हि त्वचा समृद्धो
भवति । श०३।१।२।१६॥ " द्वे वै पुरुषकपाले । कौ० ३०।४॥ , विदलसहित इव धै पुरुषस्तद्धापि स्यूमेव मध्ये शीर्थों
विज्ञायते । ऐ०४ । २२ ॥ , विशो वै पुरुषो दश हि हस्त्या अङ्गुल्यो दश पाद्याः। तां०
२३ । १४।५॥ " चतुर्विशो वै पुरुषो दश हस्त्या अङ्गलयो दश पाद्याश्चत्वार्य
ङ्गानि । श०६।२।१। २३ ॥ ,, एतावान्पुरुषो यदात्मा प्रजा जाया । तां० ३।४।३ ॥ ३।
१३। ३ ॥ ,, शतायुर्वै पुरुषः। कौ० ११ ॥ ७॥ ,, शतायुर्वे पुरुषः शतपर्वा शतवीर्यः शतेन्द्रिय उप य एकशततमः
स आत्मा । कौ० १८ ॥१०॥ ,, शतायुर्वं पुरुषः शतपर्दा शतवीर्यः शतेन्द्रिय उप यैकशततमी
( ऋक् ) स यजमानलोकः । कौ० २५ ॥ ७॥ , शतायुर्वे पुरुषः शतवीर्य्यः । ते. ३। ८ । १५ । ३॥ ३॥ ८ ॥
१६॥ २ ॥ तां०५। ६ । १३ ॥ .. शतायुः पुरुषः शतवीर्यः । आत्मैकशतः । २०१।७।६।४। ., शतायुः पुरुषः शतेन्द्रियः। तै० १।३।७।७॥१।७।६।
२॥ १।७।८।२॥१।७।१०। ६ ॥ , शनायुर्वं पुरुषः शतवीर्यः शतेन्द्रियः। ऐ०२।१७॥४।१९॥
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[ पुरोडाशः
( २६२) पुरुषः सो ऽय (पुरुषः ) शतायुः शततेजाः शतवीर्यः । श० ४।
३।४।३॥ , शतायुर्वाऽ अयं पुरुषः शततेजाः शतवीर्य्यः । श० ५।४।
१।१३॥ , अपि हि भूयासि शताद्वर्षेभ्यः पुरुषो जीवति । श० १।
९।३।२६॥ , यद्वै पुरुषवान्कर्म चिकीर्षति शक्नोति वै तत्कर्तुम् । श० ५।
२।५।४॥ __ " अनद्धा पुरुषः" शब्दमपि पश्यत । पुरुषमेधः तस्य ( पुरुषम्य वायोः) यदेषु लोकेष्वन्नं तदस्यान्नं मेध
स्तद्यदस्यैतदन्नं मेधस्तस्मात्पुरुषमेधो ऽथो यदस्मिन्मध्यान्पुरुषानालभते तस्माद्वेव पुरुषमेध: (शाखायनश्रौतसूत्रे १६ । १०।६॥ १६ । १२ । १७, २१ ॥ वैतानसूत्रे ३७ । १५, १६, १८, १६, २३-२६ ॥)। श०१३।६।२।१॥ अश्वमेधात्पुरुषमेधः । गो० पू० ५। ७ ॥ इमे वै लोका पुरुषमेधः । श० १३ । ६।१।६॥ सर्व पुरुषमेधः । श० १३ । ६ । १।६ ॥ पुरुषं वै देवाः पशुमालभन्त तस्मादालब्धान्मध उदकामत्सो ऽश्वं प्राविशत् । ऐ०२।८॥ सा (प्रजापतिः) पुरुषमेधेनेष्ट्वा विराडिति नामाधत्त । गो० पू०५॥ ८॥ पुरुषो ह नारायणोऽकामयत । अतितिष्ठेय सर्वाणि भूता. न्यहमेवेदर सर्वछ स्यामिति स एतं पुरुषमेधं पञ्चरात्रं यशकतुमपश्यत्तमाहात्तेनायजत तेनेष्वात्यतिष्ठत्सर्वाणि भूतानीद७ सर्वमभवदतितिष्ठति सर्वाणि भूतानीद, सर्व भवति य एवं विद्वान् पुरुषमधेन यजते यो वैतदेवं वेद ।
श०१३।६।१।१॥ पुरोडाशः सः ( कूर्मरूपेणाच्छन्नः पुरोडाशः ) वा एभ्यः (मनुष्येभ्यः)
तत्पुरोऽदशयत् । य एभ्यो यशं प्रारोचयत्तस्मात्पुरोद'शः पुरोदाशो ह वै मामैतद्यत्पुरोडाश इति । श० १।६।२।५।।
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( २६३)
पुरोरुक् पुरोडाश: पुरो वा एतान्देवा अक्रत यत्पुरोडाशस्तत्पुरोडाशानां पुरो
डाशत्वम् । ऐ०२।२३॥ यजमानो वै पुरोडाशः । तै० ३।२।८।६॥३।३।।७॥
आत्मा वै यजमानस्य पुरोडाशाः। कौ० १३ । ५, ६॥ " पशोर्वे प्रतिमा पुरोडाशः । तै० ३।२।८1८॥ , पशुह वा एष आलभ्यते यत्पुरोडाशः । श०१ । २।३१५॥
स वा एष पशुरेवालभ्यते यत्पुरोडाशस्तस्य यानि किंशारूणि तानि रोमाणि ये तुषाः सा त्वग्ये फलीकरणास्तदए. ग्यत्पिष्ट किसास्तन्मांसं यत्किंचित्कं सारं तदस्थि सर्वेषां घा एष पशूना मेधेन यजते यः पुरोडाशेन यजते । ऐ० २१॥ पशवो वै पुरोडाशाः। तां० २१ ।१०।१०॥ तै०१।८।
मेधो वा एष पशूनां यत्पुरोडाशः । कौ०१०॥५॥ ततिर्व यज्ञस्य पुरोडाशः। कौ०१०। ५॥ शिरो ह वाऽ एतद्यक्षस्य यत्पुरोडाशः । श० १।२।१।२॥ तस्य ( यज्ञस्य) एतच्छिर।। यत्पुरोडाशः । तै० ३।२। ८।३॥
मस्तिष्को वै पुरोडाशः । तै०३।२।८१७॥ , विडुत्तरः पुरोडाशः । श० ११ । २।७।१६॥ " आग्नेयः पुरोडाशो भवति । श० २।४।४।१२॥
इन्द्रस्य पुरोडाशः । श०४।२।५। २२ ॥ पुरोधाता पृथिवी पुरोधाता । ऐ० ८।२७ ॥ ., अन्तरिक्षं पुरोधाता। ऐ०८।२७ ।।
, धोः पुरोधाता । ऐ०८ ॥२७॥ पुरोऽनुवाक्या ( ऋक् ) प्राण एव पुरोऽनुवाक्या । श० १४ । ६ ।
१। १२॥ पृथिवीलोकमेव पुरोऽनुवाक्यया (जयति)।
श०१४।६।१।६॥ पुरोरुक् ( देवाः ) पुरोरुग्भिः प्रारोचयन् । श० ३ । ९ । ३ । २८ ।।
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[ पुष्करपर्णम् ( २६४) पुरोरुक् तं ( यज्ञ ) पुरोरुग्भिः प्रारोचयन्यत्पुरोरुग्भिः प्रारोचंयस्तत्पु.
रोरुचां पुरोरुक्तम् । ऐ० ३।४॥ " अथ वै पुरोरुगसावेव यो ऽसौ (सूर्य) तपत्येष हि पुरस्तां
द्रोचते । कौ० १४।४॥ , अथ वै पुरोरुगात्मैव । कौ० १४ । ४॥ " अथ व पुरोरुक् प्राण एव । कौ०१४।४॥ ,, वीर्य्य वै पुरोरुक् । श० ४।४।२।११॥
, पुरोरुग्वे वाक् ॥ कौ०१४।५॥ पुरोवातः सः (प्रजापतिः) पुरोवातमेव हिङ्कारमकरोत् । जै० म०१।
१२॥६॥ पुरोहितः न ह वा अपुरोहितस्य राज्ञो देवा अन्नमदन्ति तस्माद्राजा ___ यक्ष्यमाणो ब्राह्मणं पुरो दधीत । ऐ० ८।२४॥
आदित्यो वाव पुरोहितः । ऐ० ८ । २७ ।। वायुर्वाव पुरोहितः। ऐ०८।२७॥ अग्निर्घाव पुरोहितः । ऐ० ८।२७ ॥ अग्निर्वा एष वैश्वानरः पञ्चमेनिर्यत्पुरोहितः । ऐ० ८।२५ ॥ अग्निर्वा एष वैश्वानरः पञ्चमेनियंत्पुरोहितस्तस्य वाच्येवैका मेनिर्भवति पादयोरेका त्वच्येका हृदय एकोपस्थ एका ताभिर्व्वलन्तीभिर्दीप्यमानाभिरुपोदेति राजानम् । ऐ० ८।२४॥ अथ यदस्य ( राज्ञः ) अनिरुद्धो वेश्मसु (पुरोहितः ) वसति तेनास्य तां शमयति या ऽस्योपस्थे मेनिर्भवति । ऐ०६ । २४ ॥
अर्धात्मो ह वा एष क्षत्रयिस्य यत्पुरोहितः। ऐ० ७ । २६ ॥ पुष्करपर्णम् आप: पुष्करपर्णम् । श० ६।४।१।६॥ १०।५।
,
आ
प्रापो वै पुष्करपर्णम् । श०६।४।२।२ ॥ ७।३।१। ९॥७।४।१।८॥ द्यौः पुष्करपर्णम् । श०६।४।१।९॥ इयं (पृथिवी) व पुष्करपर्णम् । श० ७।४।१।१२॥ प्रतिष्ठा व पुष्करपर्णम् । श०७।४।१।१२॥ वाक पुष्करपर्णम् । श० ६ । ४।१।७॥
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( २६५ )
[पूर्णम् पुष्करपर्णम् योनिर्व पुष्करपर्णम् । श० ६।४।१।७॥६।४।३।
.६॥८।६।३।७॥ पुष्करम् इन्द्रो वृत्र हत्वा नास्तृषीति मन्यमानो ऽपः प्राषिशत्ता
अब्रवीद्विभेमि वै पुरं मे कुरुतेति स यो ऽपा रस आसीत्तमूर्ख समुदौहंस्तामस्मै पुरमकुर्वस्तधदस्मै पुरमकुर्वस्तस्मात्पूष्करं पूष्कर ह वै तत्पुष्करमित्याचक्षते परोऽक्षम् । श. ७।४।१।१३॥ ब्रह्म ह वै ब्रह्माणं पुष्करे ससृजे । गो० पू० १ ॥ १६ ॥ , (=पुण्डरीकम) इन्द्रो वृत्रमहंस्तस्येयं (पृथिवी) चित्राण्यु
पैद्रूपाण्यसौ (द्यौः) नक्षत्राणामवकाशेन पुण्डरीकञ्जायते यत् पुष्करनजं प्रतिमुश्चते वृत्रस्यैव तद्रूपं क्षत्रम् प्रतिमुञ्चते (Compare वैदिकनिघटु १ । ३-पुष्करम् अन्तरिक्षम् )।
न. १८।६।६॥ , आपो वै पुष्करम् । श०६।४।२।२॥७।४।१।८॥ पुष्टिः सरस्वती पुष्टिः पुष्टिपली । तै० २।५।७।४॥
,, सरखती पुष्टिं ( पुष्टिः) पुष्टिपतिः । श०११।४।३।१६॥ पू: आत्मा (=शरीरं) वै पूः । श०७।५।१।२१ ॥ , लेखा हि पुरः । श०६।३।३।२५ ॥ , ते देवाः प्रतिबुध्याग्निमयीः पुरत्रिपुरं पर्यास्यन्त । ऐ०२॥ ११ ॥ पूतभृत् वैश्वदेवो वै पूतभृत् । श० ४।४।१ । १२ ॥ पूतीका: गायत्री सोममहरत्तस्या अनुविसृज्य सोममरक्षिः पर्णमच्छि
नत्तस्य योगशुः परापतत्स पूतीको ऽभवत्तस्मिन् देवा ऊतिमविन्दन्नूतीको वा एष यत्पूतीकानभिषुण्वन्त्यतिमेवास्मै
विन्दन्ति । तां०३।५।४॥ , तस्य (सोमस्य ) ये ह्रियमाणस्या७शवः परापतस्ते
पूतीका अभवन् । तां० ८।४।१॥ यदि सोम न विन्देयुः पूतीकानभिषुणुयुर्यदिन पूतीकान -
नानि । तां०६।५ । ३ ॥ ,, "आदाराः " शब्दमपि पश्यत । पूर्ण सर्व वै पूर्णम् । श०४।२।२।२॥५।२।३।१॥
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[पूषा
( २६६ ) पूर्णम सर्व वै तद्यत्पूर्णम् । श०४।२।३।२॥
, सर्वमेतद्यत्पूर्णम् । श०९।२।३।४३॥ पूर्णाहुति: इयं (पृथिवी ) वै पूर्णाहुतिः । श० १३ । १।८।८ ॥ ते.
३।८।१०।५॥ ___सर्व वै पूर्णाहुतिः । तै०३।८।१०।५॥ पूर्वचित्तिः द्यौर्वे वृष्टिः पूर्वचित्तिः । ते० ३।६।५।२ ॥ श० १३ ।
२।६।१४॥ पूर्वपक्षः सज्ञानं विज्ञानं दर्शादृष्टेति । एतावनुषाको पूर्वपक्षस्याहोत्राणां
नामधेयामि । तै० ३।१०।१०।२॥ पूर्वमहः ब्रह्म वै पूर्वमहः । तां० ११ । ११ । ९॥ पूर्ववाट न्याहवनीयो गार्हपत्यमकामयत । नि गार्हपत्य आहवनीयं ।
तौ विभाजं नाशक्नोत् । सो ऽ६ : पूव्ववाड् भूत्वा । प्राच पूर्वमुदवहत् । तत्पूर्ववाहः पूर्ववाट्त्वम् । तै० १ ।१।
पूर्वाहुतिः अने पूर्वाहुतिः । तै०२।१।७।१॥ ,, एष वा अग्निहोत्रस्य स्थाणुः । यत्पूर्बाहुतिः। तै०२।१।
४।३॥ पूषा स शौद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं (पृथिवी ) वै पूषेय हीद
सर्व पुष्यति यदिदं किं च । श० १४ । ४।२।२५॥ ,, इयं वै पृथिवी पूषा । श० २।५।४।७॥३।२।४।१६॥ ,, इयं ( पृथिवी) वै पूषा ।।०६।३।२८॥१३।२।२।६॥
१३।४।१।१४ ॥ तै० १ । ७।२।५॥ " (यजु०३८ । ३,१५ ) अयं वै पूषा यो ऽयं ( वाता) पवतः एष
ही सर्व पुष्यति । श०१४।२।१।६॥ १४।२।२।३२॥ , पूष्णः पोषेण महं दीर्घायुत्वाय शतशारदाय शत शरभ्य
आयुषे वर्चसे । तै० १।२।१ । १९ ॥ , पूषा ऽपोषयत् । तै० १।६।२।२॥ , पुष्टिवै पूषा । तै०२।७।२।१॥ श०३।१।४।९॥ ,,, असौ वै पूषा यो ऽसो (सूर्यः) तपति । कौ० ५। २॥ गो० उ०
१।२०॥
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35.
।
पूषा ( अग्ने !) त्वं पूषा विधतः पासि नु त्मना । तै०३ । ११ अन्नं वै पुत्रा । कौ० १२ । ८ ॥ ते० १ । ७ । ३ । ६ २३ । २ ॥
॥
"
,, पशवः पुत्रा । ऐ०२ । २४ ॥ तां० २३ । १६ । ५ ॥
पशवी हि पूषा । श०५ | २ | ५ | ८ ॥
"
,, ( यजु० २१ । २० ) पशवो वै पूषा । श० १३ | १ | = | ६ ॥
" पशवो वै पूषा ।
श० ३ । १ । ४ । ६ ॥ ३ । ९ । १ । १० ।। ५ ।
३ । ५ । ८, ३५ ॥ तै० ३ | ८ | ११ | २ || तां० १८ । १ । १६॥
पौष्णाः पशवः । श० ५ | २ | ५ | ६ ॥
""
" पूषा वै पशूनामीटे | श० १३ | ३ | ८|२ ॥
,, चूषा पशुभिः (अघति ) । तै०१ | ७ | ६ | ६ || ३ | १ | ५ | १२ ॥ पूष्णो रेवती (नक्षत्रम् ) । गावः परस्ताद्वत्सा भवस्तात् । तै० १ ।
५।१।५॥
पूत्रा रेवत्यन्वेति पन्थाम । ते० ३ । १ । २ । ९॥
33
,, पूत्रा विशां विपतिः । तै० २ । ५ । ७ । ४ ॥
99
39
प्रजननं वे पूषा । श० ५ | २ | ५ | ८ ॥
31
,, पूषा वै पथीनामधिपतिः । श० १३ । ४ । १ । १४ ॥
यस्य (दोषस्येति सायणः ) भिषक् । तै० ३ । ६ । १७ । २ ॥
पूषा
2, पूषा ( श्रियः ) भगम् ( आदत्त । श० ११ । ४ । ३ । ३ ॥
" पूषा भगं भगपतिः । श० ११.१ ४ । ३ । १५ ॥
99
31
(634)
"
39
"
पूषा ]
"
२ । १॥
३१८ |
पथ्या पूष्णः पत्नी । गो० उ०२ । ६ ॥
योगा वै सरस्वती वृषा पूषा । श० २ । ५ । १ । ११ ॥
पूषा भागदुधो ऽशनं पाणिभ्यामुपनिधाता । श० १ । १ । २ । १७॥
पूषा वै देवानां भागवुधः । श० ५ | ३ | १।९॥
पुत्रा भागदुधः । श० ३ । ६ । ४ । ३॥
(देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे ) पूष्णो हस्ताभ्याम् । तै०२ । ६ । ५।२॥
तस्य ( पूष्णः ) दन्तान्परोबाप तस्मादाहुरदन्तकः पूषा करम्भभाग इति । कौ० ६ । १३ ॥
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[पृथिवी
(२६८) पूषा तस्मावाहुरदन्तका पूषेति । श०१७।४।७॥ , तस्मादाहुरदन्तकः पूषा पिष्टभाजन इति । गो० उ०१२॥ " तस्माद्यं पूष्णे चरुं कुर्वन्ति प्रपिष्टानामेव कुर्वन्ति यथादन्तकायै
वम् । श०१।७।४।७॥ , पूष्णः करम्भः (=यवपिष्टमाज्यसंयुतमिति सायणः ) । ते. १।
५। ११ । ३॥ श०४।२।५। २२ ॥ , स हि पौष्णो यच्छयामः ( गौः ) । श०५।२।५। ८॥ ,, अग्नापौष्णमेकादशकपालं पुरोडाशं निर्वपति । श० ५। २।
५।५। पृतना युधो वै पृतनाश०५।२।४।१६ ॥ पृतन्युः (=पाप्पा, यजु० १५। ५१) अधस्पदं कृणुतां ये पृतन्यव
इत्यधस्पदं कुरुता सर्वान्पाप्मन इत्येतत् । श०८।६।
३। २०॥ पृथिवी ता (भूमि) अप्रथयत्सा पृथिव्यभवत् । श०६।१।१ । १५॥
६।१।३।७॥ " स (प्रजापतिः) वराहो रूपं कृत्योपन्यमजत् । स पृथिवीमध
आर्छस् तस्या उपहत्योदमजत् तत्पुष्करपणे प्रथयत् तत्पृथिव्यै पृथिवित्वम् । ०१।१।३।६-७॥ इयती ह वाऽ इयमले पृथिव्यास प्रादेशमात्री तामेभूष इति घराह उजघान सो ऽस्याः (पृथिव्याः) पतिः प्रजापतिः।श० १४।१।२।११॥ अश्या ह वाऽ इयं (पृथिवी) भूत्वा मनुमुवाह सो ऽस्याः पतिः
प्रजापतिः । श० १४ । १।३ । २५ ॥ " प्राजापत्यो धा अयं (भू-) लोकः । तै०१।३।७।५॥ ,, इयं (पृथिवी) यमी । श०७।२।१।१०॥ गो० उ०४।८॥ , यमो ह वाऽ अस्याः (पृथिव्याः ) अवसानस्येप्टे । श०७।१।।
१॥३॥ , आग्नेयी पृथिवी । तां० १५।४।८॥ , पृथिव्यग्नेः पत्नी। गो० उ०२।९॥ " सेयं (पृथिवी) देवानां पत्नी । श०१।३।१।१५. १७ ॥
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( २६8 )
पृथिवी ] पृथिवी इयं (पृथिवी) ह्यग्निः । श० ६।१।१।१४ ॥ ६ ।१।
२॥२६॥ , इयं (पृथिवी) वाऽ अग्निः । श० ७।३।१।२२॥ ,, अयं वाऽ अग्निर्लोकः। श० १।६।२। १३ ॥ , अयं वै (पृथिवी-) लोको ऽग्निः । श. १४।६१ । १४ ॥ , आग्नेयो ऽयं (पृथिवी-) लोकः। जै० उ०१ । ३७।२॥ . " आग्निगर्भा पृथिवी । श०१४।९।४।२१ ॥ , सा ( अदितिः पृथिवी ) अग्निं गर्भे विभर्तु । श० ६।५।
१।११॥ " इयं वै पृथिव्यदितिः । श०२।२।१।१६॥३।३।१। । , इयं (पृथिवी) वा अदितिः । गो० उ०१।२५ ॥ , इयं (पृथिवी ) वाऽ अदितिर्मही ( यजु० ११ । ५६ ) ।श०६।
५।१।१०॥ , इयं (पृथिवी ) एव मही। जै० उ०३।४।७॥ , पृथिवीं मातरं महीम् । त० २।४।६।८॥ , उपहूता पृथिवी माता । श. १।।१।४१॥ ,, इयं (पृथिवी) वै माता । ते०३।८।९।१॥ श० १३।१ ।
" "नमो मात्र प्रथिन्यै” ( यजु०६।२२)। श० ५ १२।
, तन्माता पृथिवी तपिता द्यौः । तै० २।७।१६ । ३ ॥ २॥ ८॥
६।५॥३।७।५।४-५ ।। ३ । ७।६। १५ ॥ " मातेव या इयं (पृथिवी) मनुष्यान्बिभर्ति । श० ५।३।१।४॥ , धेनुरिव वाऽ इयं (पृथिवी) मनुष्येभ्यः सर्वान्कामान्दुहे माता
धेनुर्मातेव वाऽ इयं (पृथिवी) मनुष्यान्बिभर्ति । श० २।२।
१।२१ ॥ " इयं (पृथिवी ) वै धेनुः। श०१२।६।२।११॥ ,, इयं (पृथिवी) वै विश्वायुः । तै०३।२।३१७॥
(=विश्वधायाः) अस्या (पृथिव्यां ) हीद सहितम् । श०७।४।२।७॥
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[ पृथिवी
( ३०० )
पृथिवी इयं ( पृथिवी ) वै देव्यदितिर्विश्वरूपीं । तै० १।७।६।७ ॥ इयं ( पृथिवी ) वै पृश्निः । तै० १ । ४ । १।५ ॥
इयं ( पृथिवी ) वै वशा पृश्निः । श० १ । ८ । ३ । १५ ॥
इयं ( पृथिवी ) वे वशा पृश्निर्यदिदमस्यां मूलि चामूलं चाश्नाद्यं प्रतिष्ठितं तेनेयं वशा पृश्निः । श० ५ । १ । ३ । ३ ॥
इयं ( पृथिवी) वा अग्निहोत्री ( गौ: ) । तै०१ । ४ । ३ । १ ॥
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33
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महिषी हीयम् (पृथिवी ) । श० ६ । ५ । ३ । १ ॥
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" इंय ( पृथिवी ) वा अविरि हीमाः सर्वाः प्रजा भवति । शं०
६ । १ । २ । ३३ ॥
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इयं वै पृथिवी देवी देवयजनीं । श० ३ । २ । २ । २० ॥ पृथिवी वै सर्वेषां देवानामायतनम् । श० १४ । ३ । २ । ४ ॥ , भूरिति वाऽ अयं ( पृथिवी ) लोकः । श० ८ | ७ | ४|५ ॥ भूः (यजु० १३ | १८ ) हीयम् (पृथिवी ) । श०७ । ४ । २ । ७॥ स भूरिति व्याहरत् । स भूमिमसृजत । अग्निहोत्रं दर्शपूर्णमा सौ यजुषि । तै० २ । २ । ४ । २ ॥
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स (प्रजापति ) भूरित्येवग्वेदस्य रसमादन्त । सेयं पृथिव्य भवत् । तस्य यो, रसः प्राणेदत् सो ऽग्निरभवद्रसस्य रसः । जै० उ० १ । १ । ३॥
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अयं (भू- ) लोक ॠग्वेद । प० १ ५ ॥
भूरित्युग्भ्यो क्षरत् सो ऽयं ( पृथिवी ) लोको ऽभवत् ।
१।५॥
भूमि: ( यजु० १३ । १८ ) हीयम् (पृथिवी )
२।७ ॥
१०
इयं ( पृथिवी ) वै भूमिरस्यां वै स भवति यो भवति । श० ७ । २ । १ । ११ ॥
भयं वै ( पृथिवी-) लोको भूतम् । तै० ३ । ८ । १८ । ५ ॥
इयं वै पृथिवी भूतस्य प्रथमजा ( यजु० ३७ ॥ ४ ) | श० १४ | १ । २ । १० ॥
इमे ( पृथिवी ) उ वा एषां लोकानां प्रथमासुज्यत । ० ६ । ५ । ३ । १ ॥
१० ७ १४ ।
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( ३०१)
पृथिवी] पृथिवी इयं ( पृथिवी ) वै निर्ऋतिः । श० ५।२।३।३॥ तै० १।
, इयं (पृथिवी) कद्रूः। श०३।६।२।२॥ ,, 'इयं (पृथिवी ) वै सार्पराज्ञीयं हि सर्पतो राशी । कौ०२७।४॥ , इयं (पृथिवी) वै सार्पराज्ञी । तां०४।९।६॥ , इयं वै पृथिवी सर्पराज्ञी । श० २।१।४ । ३० ॥ ४।६।
६।१७।। , इयं (पृथिवी ) वै सर्पराज्ञीयं हि सर्पतो राज्ञी। ऐ० ५। २३॥
तै० १।४।६।६॥ ,, देवा वै सर्पाः । तेषामिय (पृथिवी) राशी । तै०२।२।६।२॥
अयं वै (पृथिवी-) लोकः सुक्षितिः (यजु० ३७ । १०) अस्मिन्हि लोके सर्वाणि भूतानि क्षियन्ति । श० १४ । १ ।
२।२४॥ , इयं (पृथिवी ) धै सरघा । तै० ३।१०।१०।१॥ , अयं 4 (पृथिवी-) लोको मित्रो ऽसौ (युलोका ) वरुणः।
श० १२।६।२। १२ ॥
चावापृथिवी वै मित्रावरुणयो प्रियं धाम | तां०१४।२।४॥ ,, इयं (पृथिवी ) वामभृत् । श०७।४।२।३५ ।।
इयं (पृथिवी) वै वरिष्ठा संवत् (यजु० ११ । १२)। श०६। ३।२।२॥
प्रय वै पृथिवी-) लोकोऽवस्यूटुवस्वान् । श०९।४।२।७॥ , भयं वै ( पृथिवी-) लोको भद्रः। ऐ० १ । १३ ॥
अयं लोको बर्दिः (ऋ०६।१६ । १०)। श. १।४।१।२४॥ , अयं वै (पृथिवी-) लोको बर्हिः । श० १।८।२।११ ॥१॥
६।३।२९ ॥ इयं (पृथिवी ) वै सत्या वर्षणीधृदन (ऋ०४।१७।२०)।
ऐ०३।३८॥ " इयं (पृथिवी ) एव सत्यमियछ विषां लोकानामद्धातमाम् ।
श०७।४।१। । , अयं वै (पृथिवी-) लोको विशाल छन्दः ( यजु०१५। ५)।
।०८।५।२६॥
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[पृथिवी
( ३०२) पृथिवी अयं वै ( पृथिवी-) लोको रथन्तरं छन्दः ( यजु०१५।५)।
श० ८1५।२। ५॥ , इयं वै पृथिवी रथन्तरम् । ऐ० ८।१॥ , इयं ( पृथिवी ) वै रथन्तरम् । कौ० ३।५ ॥ १०२।२॥ ते.
१।४।६।२॥ तां०६।८।१५ ॥ १५ । १०।१५ ॥ श०५। ५।३।५॥ ९॥ १।२ । ३६ ॥
अयं वै ( पृथिवी-) लोको रथन्तरम् । ऐ० ।३॥ " रथन्तरहीयम् (पृथिवी)। श०१ । ७।२।१७॥
उपहूत रथन्तर सह पृथिव्या । श०१।८।१ । १६ ॥ ते.
३। ५ । ।१॥ ,, राथन्तरो वा अयं (पृथिवी-) लोकः । तै० १ । १।८।१॥ , अयं वै (पृथिवी-) लोक एवश्छन्दः ( यजु. १५१४)। श०
८।५।२।३॥ , अयं वै (पृथिवी-) लोको विराट ( यजु० १३ । २४)। श०
७ । ४।२।२३॥ , इयं (पृथिवी) वै विराट । श० १२। ६।१।४० ॥ गो० उ०
" बिराड़ ढीयम् (पृथिवी)। श०२।२।१।२०॥ , इयं (पृथिवी) वै धाता । तै०३। - । २३ । ३॥ , इयं (पृथिवी ) वै सविता । श. १३।१।४।२॥ तै०३।
६।१३ ॥ २॥ १. पृथिवी सावित्री । जै० उ०४ । २७॥१॥ गो० पू०१। ३३ ॥ , इयं (पृथिवीं)वैमाहिनम् ( ऋ०४।१७।२०)। ऐ०३।३८॥ , एष वे प्रतिष्ठा वैश्वानरः ( यत्पृथिवी)। श० १०।६।१।४॥ , इयं (पृथिवी) वै वैश्वानरः । श० १३ । ३।८।३॥ , पादौ त्वाऽएतौ वैश्वानरस्य ( यत्पृथिवी) । श. १०।६।
१॥४॥ , पृथिवी वेदिः । ऐ०५॥ २८ ॥ तै० ३।३।६।२॥ .. इय (पृथिवी) वै वेदिः । श०७ । ३।१।१५॥७॥५॥२॥३१॥ , एतावती के पथिवी । यावती वेदि .३।२।९।१२॥
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पृथिवी ] पृथिवी तस्मावाहुर्यावती वेदिस्तावती पृथिवीति । श०१।२।५।७॥ ,, यावती वै वेदिस्तावती पृथिवी । श० ३ । ७।२।१॥ ., यावती वै वेदिस्तावतीयम्पृथिवी । जै० उ०१।५। ५ ॥ ,, वेदि। परो ऽन्तः पृथिव्याः । तै० ३।६।५।५॥ ,, तस्याः (पृथिव्याः) एतत्परिमितं रूपं यदन्तर्वेद्यथेष भूमा
ऽपरिमितो यो बहिर्वेदि । ऐ० ८।५॥ , इयं (पृथिवी ) धै खयमातृण्णा ( इष्टका)। श० ७ । ४ ।
२।१॥ , इयं (पृथिवी) वै श्रीः । ऐ०८॥५॥ " श्रीर्वाऽ इयं (पृथिवी ) तस्माद्यो ऽस्यै भूयिष्ठं विन्दते स एव
श्रेष्ठो भवति । श० ११ । १ । ६ । २३ ॥ , तस्माद्यो ऽस्य ( पृथिव्यै) भूयिष्ठं लमते स एव श्रेष्ठो भवति ।
श० १२।६।१।४॥ , तस्य पुथिवी सदः । तै०२।१।५।१॥ , यम्मृदियं (पृथिवी ) सत् । श० १४।१।२।६॥ , इयं ( पृथिवी ) वै वल्मीकवपा। श० ६।३ । ३ । ५ ॥
श्रोत्र यतत्पृथिव्या यवल्मीकः । तै० १।१ । ३॥ ४॥ ॥ इयं (पृथिवी) याज्या। श०१।७।२। ११ ॥ ., इय (प्रथिवी) हि याज्या। श०१।४।२।१६ ॥ , घागिति पृथिवी । जै० उ० ४ । २२ । ११ ॥ , इयं (पृथिवी ) चे वाक् । श०४।६।।१६॥ ,, बागेवायं (पृथिवी-) लोकः । श० १४ । ४।३ । ११ ॥ , इयं (पृथिवी) वै धागदो ( अन्तरिक्षम् ) मनः। ऐ० ५। ३३॥ , पृथिवी भुवा (ध्रुवा=स्थिरा-अचला=पृथिवी ॥ श्रमरकोषे
२।१ । २ ।०३।३।१।२॥३।३।६।११ ॥ इयं (पृथिवी) एव ध्रुवा । ( ध्रुवापृथिवी-वैजयन्तीकोषे द्वपक्षरकांडे नानालिङ्गाध्याये श्लोक ४४॥) । श० १ । ३ ।
२।४॥ ,, इयं ( पृथिवी ) धै जगत्यस्याथ हीद सर्व जगत् । श६ ।
२।१। २६ ॥६।२।२ । ३२ ॥
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[पृथिवी
( ३०४ ) पृथिवी जगती हीयम् ( पृथिवी)। श०२।२।१ । २०॥ " इयं ( पृथिवी ) वै गायत्री । तां०७।३। ११ ॥ १४ । १।४॥ " गायत्रो ऽयं ( भू-) लोकः । कौ ८ ॥ , गायत्री वाऽ इयं पृथिवी । श०४।३।४। ५।२।३।५॥ ,, इयं (पृथिवी) घा धनुष्टुप् । श० १।३।२।१६ ॥ त०।
७॥२॥ , या पथिवी सा कुहू। सो एवानुषप् । ऐ०३।४८॥
त्रिष्टुभीयम् (पृथिवी ) । श० २।२।१ । २० ।। " इयं (पथिवी) वाऽ अनुमतिः । श० ५।२।३।४॥ ते० १।
६ । १ । १,४॥ ,, इयं (पृथिवी ) चा उत्तान आङ्गीरसः। तै० २।३।२।५॥
२।३।४।६॥ , स यया प्रथमया (इण्या ) समर्पणेन पराभिनत्ति सैका सेयं
पथिवी सैषा इबा नाम । श०५।३।५।२६॥ इयं (पृथिवी) घाऽ अषाढा । श० ६।५।३।१॥७।४।
२। ३२ ॥ ।५।४।२॥ , यथेयं पथिव्युव्र्येवमुलंयासम् । श० २।१।४।२८॥ ,, इयं (पृथिवी) वै पुषा । ते. १।७।२।५॥ श०६।३।२।
॥१३।२।२।६॥१३।४।१।१४॥ , भयं (भूलोकः) एवर्तनिधनम् । तां० २१ । २।७॥ " इयं (पृथिवी ) वाऽ उपयाम इयं धाऽ इदमन्त्राधमुपयच्छति
पशुभ्यो मनुष्येभ्योधनस्पतिभ्यः । श०४।१।२।॥ ,, इय (पृथिवी) ह वाऽ उपाशुः । श० ४।१।२।२७।। , इयं ( पृथिवी) एव स्त.त्रियः । जै० उ०३।४।२॥ ,, इयं वै क्षेत्रं पृथिवी । कौ० ३० । ११ ॥ गो० उ० ५। १० ॥ , इयं (पृथिवी ) वै देवरथः । तां०७।७। १४ ॥ , अयमेव ( भू-) लोको ज्योतिः । ऐ० ४। १५ ॥ , इयं वै (पृथिवी) ज्योतिः । तां० १६ । १।७॥ , अयं वै (पृथिवी-) लोको भर्गः । श०१२ । ३ । ४ । ७॥ , पशिग्येच भर्गः । गो० पृ०५॥ १५ ॥
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( ३०५ )
पृथिवी] पृथिवी भयं वै (पृथिवी-) लोको गृहपतिः । श० १२ । १।१।१॥
गो०पू०४।१॥ , अयं वै (भू-) लोको गार्हपत्यः । श० ७।१।१।६ ॥ ।
६।३।१४ ॥ष०१।५॥ , इयं (पृथिवी) वै पूर्णाहुतिः। तै०३।।१०।५॥ श० १३ ।
११ ॥ . सर्व वा इयम् (पृथिवी)। श०४।२।२।१ ॥ ,, इयं वै प्रथिवी प्रतिष्ठा । श०१।९।१।२६ ॥१।५।३।११॥ , इयं (पृथिवी) वाऽ अस्य सर्वस्य प्रतिष्ठा। श. ४ । ५ ।
२।१५॥ , प्रतिष्ठा वा अयं लोकः । कौ०६।४॥ १४ । ३ ॥ , इयं (पथिवी) खलु वै प्रतिष्ठा । ऐ.८॥ १ ॥ , सेयं ( पृथिवी) प्रतिष्ठा । श०२।२।१।१६ ॥
पृथिव्यामिमे लोकाः (प्रतिष्ठिताः )। जै० उ०१ । १०।२॥ ,, इयं (प्रथिवी) वै स्वर्गस्य लोकस्य प्रतिष्ठा । गो० उ०६।२॥ ,, अन्तरिक्षं प्रथिव्यां (प्रतिष्ठितम् )। ऐ०३।६॥गो० उ० ३॥ २॥ , इयं (पृथिवी) अन्तरिक्षम् (पृथिवी-अन्तरिक्षम्-वैदिकनि
घण्टौ १।३)। ऐ० ३ । ३१ ॥ ,, त्रिवृद्धोयम् (पृथिवो)। श०६।५ । ३ । २॥ .. अभिना पृथिव्यौषधिभिस्तेनायं (पृथिवी-) लोकनिवृत् ।
तां० १०।१।१॥
प्रजातिर्वा भयं लोकः । कौ०१४।३॥ ,, योनिऽयम् (पृथिवी)।श०१२।४।१।७॥ ,, इयं वै प्रतिष्ठा जनूरासां प्रजानाम् । श.३।६।३।२॥ , नाम मे शरोरम्मे प्रतिष्ठा मे। तन्मे त्वयि ( पृथिव्याम् ) । जै.
उ०३।२०।८॥
पृथिवी मे शरीरे श्रिता । तै०३।१०।।७॥ , पृथिवी वा अन्नानां शमयित्री। की०६।१४॥ " न्यं (पृथिवी) वा (प्रजापतेः) अन्नादो ( तनू)। कौ०
२७ ॥ ५॥
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[ पृथिवी
( ३०६ )
पृथिवी पृथिवी शेष निधिः । श० ६ । ५ । २ । ३॥
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पृथिवी होता चतुर्होतृणाम् । तै० ३ | १२ | ५ | १ ॥
यानि कृष्णानि ( लोमानि ) तान्यस्यै ( पृथिव्यै रूपम् ) । श० ३ । २ । १ । ३७
( यदि वेतरथा ) यानि शुक्लानि ( लोमानि ) तान्यस्यै (पृथिव्यै रूपम् ) । श० ३ । २ । १ । ३ ।
यानि बिसानि तान्यस्यै पृथिव्यै रूपम् । श० ५ । ४ । ५ । १४ ॥ दधि हैवास्य ( भू- ) लोकस्य रूपम् । श० ७।५ । १ । ३ ॥ इयं ( पृथिवी ) उ वै यज्ञो ऽस्या हि यशस्तायते । श० ६ । ४ । १ । ६ ॥
" हविशेवेँ देवा इमं ( पृथिवी) लोकमभ्यजयन् । त
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"
अयं वै लोको दक्षिणं हविर्धानम् | कौ० ६ । ४ ॥
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छायं चै ( पृथिवी - ) लोकः प्रातः सवनम् । श० १२ । ६ । २ । ८ ॥ गो० उ० ३ । १६ ॥
अयमेव (भू - ) लोकः प्रथमा चितिः । श० ८ | ७ । ४ । १२॥ (असुराः) अयस्मयीं ( पुरं ) अस्मिन् (पृथिवीलोके ऽकुर्वत ) । कौ० ८८ ॥
ते (असुराः) वा अयस्मयीमेवेमां ( पृथिवीं ) अकुर्वत । पे०
१ । २३ ॥
अयस्मयी पृथिवी । गो० उ०२ । ७ ॥
अस्य वै (भू - ) लोकस्य रूपमयस्मय्यः ( सूच्यः ) । तै० ३। ९।६।५ ॥
रजतैव हीयं पृथिवी । श० १४ । १ । ३ । १४ ॥
इयं ( पृथिवी ) वै रजता । तै० १ । ८ । ६ । १ ॥
१७ । १३ । १८ ॥
इयं ( पृथिवी ) वाऽ उप । द्वयेनेयमुप यद्धीदं किं च जायते ऽस्यां तदुपजायते ऽथ यन्म्यद्यत्यस्यामेव तदुपोष्यते । श० २। ३ । ४ । ६ ॥
परिमण्डलः (= गोलाकार : ) उ वाऽ अयं (पृथिवी - ) लोक: श० ७ । १ । १ । ३७ ॥
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( ३०७ )
पृषदाज्यम्] पृथिवी अथ यत्कपालमासीत्सा पृथिव्यभवत् । श०६।१।१।११।। , समुद्रोहीमा ( पृथिवीं ) अभितः पिन्वते । श०७।४।१।६॥ , पृथिव्यप्सु ( प्रतिष्ठिता)। ऐ०३।६॥ गो० उ०३।२॥ , प्रथिवयस्यप्सु श्रिता । अग्ने प्रतिष्ठा । तै०३।११।१।६॥ " तस्य प्रथमयाऽऽवृतेममेव लोकं जयति यदु चास्मिँल्लोके ।
तदेतेन चैनम्प्राणेन समर्धयति यमभिसम्भवत्येतां चाऽस्मा
माशाम्प्रयच्छति यामभिजायते । जै० उ०३।११।५॥ , असुराणां वा इयं ( पृथिवी) अग्र आसीत् । ते. ३।२।३।६॥ , तिस्रो वाऽ इमाः पृथिव्य इयमहका छेऽमस्या परे । श० ५।
१।५।२१॥ पृथी, पृथिः, पृथुः पृथिईन्यः । अभ्यषिच्यत । तै०१।७।७।४॥
पृथुई चै धैन्यो मनुष्यणां प्रथमो ऽभिषिषि । श०५। ३।५।४॥ एतेन (पार्थेन साना ) वे पृथी वैन्य उभयेषां पशना. माधिपत्यमाश्नुत । तां० १३ । ५। २० ॥ तच पृथुर्चेन्यो दिव्यान् वात्यान् पप्रच्छ । जै० उ० १।
१०॥९॥ १।३४।६॥१॥४५॥१॥ पृथु (१०६ । १६ । १२) भदो (घुस्थानं-घुलोकः)वै पृथु यस्मि.
देवा।।श०१।४।१।२७ ॥ पृथुकाः रुद्राणां या एतद्रूपम् । यत्पृथुकाः । तै० ३।८।१४।३॥ पृथु वाय्यम् (०६।१६ । १२) श्रोत्रं प्रथु भ्रषाय्यम् । श्रोत्रण
हीदमुरु पृथु शृणोति । श०१।४।३।४॥ पृश्नि अन्नं घे देवा पृनीति वदन्ति । तां० १२ । १०॥ २४ ॥ , अन्नं च पृश्नि । श० - १७॥ ३ ॥ २१ ॥ तै० २।२।६।१॥ , इयं ( पृथिवी ) धै पृश्निः । तै०१।४।१।५॥ पृषदाज्यम् भन्न हि पृषवाज्यम् । श० ३ । । ४।८॥
, प्राणो हि पृषदाज्यम् । श०३८ ।४।८॥ , प्राणः पृषदाज्यम् । श०३।।३। , पयः पृषदाज्यम् । श०३।।४।८॥ , पशवो पृषदाज्यम् । तै०१।६।३।२॥
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[पौरुमदम्
( ३०० ) पृष्टयः पृष्टयो वै रेतःसिचौ । श०७।५।१।१३॥ ।६।२।७॥
, उरो वै प्रति पृष्टयः । श० = । ६।२।७॥ पृष्ठानि पृष्ठैवै देवाः स्वर्ग लोकमस्पृक्षन् । कौ० २४ । ८॥
पृष्ठानि वा असूज्यन्त तैर्देवाः स्वर्ग लोकमायन् । तां० ७ ।
७।१७॥ , स्वर्गो लोकः पृष्ठानि । तां० १६ । १५ ॥६॥ ,, तदाहु नालोकानि पष्ठानि । तां० १६ । १५। ६॥ , एतानि खलु वै सामानि यत्पृष्ठानि । तै०१ । = I = |३॥
स्वराणि पृष्ठानि भवन्ति । कौ० २४ । ८ ॥
सर्वाणि हि पृष्टानीन्द्रस्य निष्केवल्यानि । तां ७ । = । ५ ॥ ,, पिता वै वामदेव्यं पुत्राः पृष्ठानि । तां०७।६।१॥ , आत्मा वे पृष्ठानि । को०२५ । १२॥ तां०२२।६।४॥ ,, ऋतवो वै पृष्ठानि । श०१३।३।२।१॥ तै० ३।६।६।१॥ , सप्त पृष्ठानि । श०६।५।२।८ ॥ , अन्नं पशवः पृष्ठानि । तां०१६ । १५ । ८ ॥ , अन्नं पृष्ठानि । तां०१६।।४॥ , वीयं वै पृष्ठानि । तां०४।।७॥ १८।
तेजो ब्रह्मवर्चसं पृष्ठानि । तां० १६ । १५ । ७ ।। .. श्रीर्वे पृष्ठानि । ऐ०६।५॥ गो० उ०५।११ ॥ प्रयः अन्वश्च इवाङ्गिरसः। सर्वे स्तोमैः सर्वैः पृष्ठैर्गुरुभिः सामभिः
स्वर्ग लोकमस्पृशन्यदस्पृशंस्तस्मात्पृष्ठ्यः । श० १२ । २।
२॥ ११ ॥ , (आशिरसाः ) सर्वैः पृष्ट्यैः स्वर्ग लोकमभ्यस्पृशन्त यदभ्यस्पृ.
शन्त तस्मात्स्पृश्यस्तं वा एतं स्पृश्यं सन्तं पृष्ट्य इत्याचक्षते
परोक्षग्गु । गो० पू०४।२३॥ ,, पिता वा अभिप्लवेः पुत्रः पृष्ठ्यः । गो० पू०४ । १७ ॥ पृष्ठ्याने श्रीः पृष्ठ्यानि | कौ० २१ । ॥
, पशवः पृष्ठ्यानि । कौ० २१ । ५॥ पौरुमद्रम् ( साम ) देवाश्च वासुराश्चास्पर्धन्त ते देवा असुराणां
पौरुमद्देन पुरो ऽमजयन्यत् पुरो ऽमजयरतस्मात्पौरुमद्रम् । तां० १२। ३ । १४ ॥
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( ३०६ ) पौरमद्गम् ( साम ) महर्वा एतदलीयमानं तद्रक्षास्यसचन्त तस्मा
हेवाः पौरुमद्दन रक्षास्यपाननप पाप्मान हते
पौरुमद्देन तुष्टुवानः । तां० १२ । ३ । १३ ॥ पौरुहन्मनम् ( साम ) पुरुहन्मा वा एतेन वैखानसो ऽअसा स्वर्ग लोक
मपश्यत् स्वर्गस्य लोकस्यानुख्यात्यै स्वर्गाल्लोकान्न
व्यवते तुष्टवान: । तां०१४।३।२६॥ पौर्णमासम् ( हविः ) सवृत ( ? समृत-) यशो वा एष यहर्शपूर्णमासी।
गो० उ०२।२४॥ यात्रघ्नं वै पौर्णमासं ( हविः) । इन्द्रो होतेन वृत्रमहन् । श०१।६।४।१२॥ तथैवैतद्यजमानः पौर्णमासेनैव वृत्रं पाप्मान हत्वापहतपाप्मैतत्कर्मारभते । श०६।२।२।१६॥ अग्नीषोमीय हि पौर्णमास हविर्भवति । श० १।८।३ । २ ॥ अथैष क्लप्तः प्रतिष्ठितो यज्ञो यत्पौर्णमासम् । श० २।५।२।४८॥२।६।२।१४॥ प्रतिष्ठा वै पौर्णमासम् । कौ० ५। ८॥१८॥ १४ ॥ गो० उ०१ । २६॥
पौर्णमासः सरस्वान् । गो० उ०१ । १२॥ पौर्णमासी ( रात्रिः) असौ वै चन्द्रः पशुस्तं देवाः पौर्णमास्यामालभन्ते।
श०६।२।२।१७ ॥... ब्रह्म वै पौर्णमासी क्षत्रममावास्या। कौ०४॥ कामो वै पौर्णमासी । तै० ३।१ । ४ । १५ ॥
पौर्णमास्यः प्रतिहारः। प०३।१॥ पोकलम ( साम ) अथैतत्पौष्कलमेतेन वै प्रजापतिः पुष्कलान्पशून
सृजत तेषु रूपम् दधायदेतत्साम भवति पशुष्वेव
रूपं दधाति । तां० ८।५।६ ॥ H(=पराक) प्रेति वै प्राण एति ('आ' इति) उदानः । श० १।४।
१।५॥ प्राणो वै प्र प्राणं हीमानि सर्वाणि भूतान्यनुप्रयंति । ऐ० २।४०॥
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[ प्रचेताः
( ३१० )
प्र (= पराक्) तद्यत्प्रेति तत्प्राणस्तदयं (भू-) लोकः । जै० उ०२ । ६ । ४ ॥ प्राणो वै प्रवान् । श० १ । ४ । ३ । ३ ॥
प्रेति पशवो वितिष्ठन्तऽ पति समावर्तन्ते । श० १ १४ ।
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प्रङगम् ( उक्थम् ) ता अमुतो safच्यो देवतास्तृतीयसवनात्प्रातःसवनमभिप्रायुञ्जत तद्यदभिप्रायुञ्जत तत्प्रउगस्य प्रउगत्वम् । कौ० १४ । ५ ॥
ग्रहोक्थं वा एतद्यत्प्रउगम् । ऐ० ३ । १ ॥ तदेतत्पवमानोक्थमेव यत्प्रउगम् । कौ० १४ ॥ ४ ॥ प्राणानां वा एतदुक्थं यत्प्रउगम् । ऐ० ३ | ३ ॥
प्राणाः प्रउगम् । कौ० १४ । ४ ॥ २८ ॥ ६॥ तस्मादू बहूव्यो देवताः प्रउगे शस्यन्ते । कौ० १४ । ५ ।। २८ । ६ ॥
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श्रातिच्छन्दसः प्रउगः | कौ० २३ । ६ ॥
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प्रगाः ये दश प्रगा इम एव ते दश प्राणाः । जै० उ० १ । २१ । ३ ॥ प्रगाथः प्राणापानौ वै बार्हतः प्रगाथः । कौ० १५ । ४ । १८ । २ ॥ पशवो वै प्रगाथः । कौ० १५ ॥ ४ ॥ १८ ॥ २ ॥
पशवः प्रगाथः । ऐ० ३ । १६, २३, २४ ॥ ६ ॥ २४ ॥ गो० उ० ३ । २१, २२ ॥ ४ ॥ २ ॥
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१ । ६ ॥
प्रेति वै रेतः सच्यतऽ एति प्रजायते । श० १ । ४ । १ । ६॥ अन्तरिक्षं वै प्रांतरिक्ष हीमानि सर्वाणि भूतान्यनुप्रयंति । ऐ० २ । ४० ॥
प्रवद्वै प्रथमस्याह्नो रूपम् | कौ० २० | २ ॥
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अन्तरिक्षम्प्रगाथः । जै० उ० ३ । ४ । २ ॥
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मनः प्रगाथः । जै० उ० ३ । ४ । ३ ॥
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प्रच च एतद्वै सर्वं स्वस्त्ययनं यत्प्र च च । ऐ० ३ । २६ ॥
प्रचेताः प्रचेतास्त्वा रुद्रैः पश्चात्पातु । श२ ३ । ५ । २ । ५ ॥
प्रच्छच्छन्दः ( यजु० १५ । ५) अन्नं प्रच्छच्छन्दः । श० ६ ५ ।२।४ ॥
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( ३११ )
पूजा: ]
प्रजननः प्राणः किं छन्दः । का देवता यस्मादिदं प्राणाद्रेतः सिच्यतऽ इत्यतिच्छन्दाश्छन्दः प्रजापतिर्देवता । श० १० । ३ ।
२।७॥
प्रजननम् संवत्सरो वै प्रजननम् । गो० पू० २ । १५ ॥ अग्निः : प्रजननम् । गो० पू० २ । १५ ॥
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प्रजाः यज्ञाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते । श० ४ । ४ । २ । ६ ॥
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99 प्रजा शस्त्रम् । २०५।२।२ । २० ॥
प्रजा पशवः सूक्तम् । कौ० १४ । ४ ॥
प्रजा वा उक्थानि । तै० १ | ८ | ७ | २ ॥
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यज्ञं वाऽ अनु प्रजाः । श० १ । ८ । ३ । २७ ॥
प्रजा वै तोकम् (यजु० १३ । ५२ ॥ ) । श० ७ । ५ । २ । ३६ ॥ प्रना वै सूनुः ( यजु० १२ । ५१ ) । श० ७ । १ । १ । १७ ॥ तन्तुः । ऐ० ३ | ११, ३८ ॥
प्रजा
प्रजा वा अपतुरित्याहुः । गो० उ० ५ | ६ ॥
प्रजा वै विश्वज्योतिः । श० ६ । ५ । ३ । ५ ।। ७ । ४ । २ । २६ ॥ ६।३।२।२ ॥
प्रजा वाऽ श्ररीः ( यजु० ६ । ३६ ) । श० ३ । ६ । ४ । २१ ॥
प्रजा वाऽ इषः । श० १ । ७ । ३ । १४ । ४ । १ । २ । १५ ॥
प्रजा वै भूतानि । श० २ ।४ । २ । १ । ३ । ५ । २ । १३ ॥ ४ ।
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५ । ३ । १ ॥
प्रजा वै बर्हिः । कौ० ५ | ७ || १८ |
१० || तै० १ | ६ | ३ | १०॥ श० १।५।३ । १६ ॥ २ । ६ । १ । २३, ४४ || ४|४|१५| १४ ॥ गो० उ० १ । २४ ॥
प्रजानुरूपः । ऐ० ३ । २३ ॥ कौ० १५ | ४ || २२ | ८ ॥ जै० उ० ३।४।३॥
प्रजाः सतो बृहती । गो० उ० ६ | ८ ॥
तस्मात्पश्चाद्वरीयसः प्रजननादिमाः प्रजाः प्रजायन्ते । श० ३ ।
५ । १ । ११ ॥
न्यूनाद्वाऽ इमाः प्रजाः प्रजायन्ते । श० ११ । १ । २ । ४ ॥ तस्मात्प्रजा दशमासो गर्भ भृत्वैकादशमनु प्रजायन्ते तस्माद
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[ प्रजापतिः
१३॥
ग्रजाः संवत्सरं हि प्रजाः पशवो ऽनु प्रजायन्ते । तां० १० । १ । ६ ॥ एष वै प्रजनयिता यन्मुष्करः । श० ३ । ७ । २ । ८ ॥ श्रर्द्धमासशो हि प्रजाः पशव श्रोजो बलं पुष्यन्ति । तां० १० । १ ॥६॥
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प्रजाति: रेतो वै प्रजातिः । श० २४ । ६।२।६॥
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त्रिवृद्धि प्रजातिः पिता माता पुत्रो ऽधो गर्भ उल्लं जरायु ।
श० ६।५।३ । ५ ॥
प्रजापति: तद्यदब्रवीत् (ब्रह्मा ) - प्रजापतेः प्रजाः सृष्ट्वा पालयस्वेति तस्मात्प्रजापतिरभवत् तत्प्रजापतेः प्रजापतित्वम् । गो० पू० १।४ ॥
एष वै प्रजापतिः । यदग्निः । तै० १ । १ । ५ । ५ ॥ प्रजापतिरेषो ऽग्निः । श० ६ । ५ । ३ । ७ ॥ ६ | ८ | १॥४॥ प्रजापतिर्वाऽ श्रग्निः । श०२ । ३ । ३ । १८ ॥
प्रजापतिरग्निः । श० ६ । २ । १ । २३, ३० ॥ ६ ।५ । ३ । ६ ॥ ७।२।२ । १७ ॥
देवतानां मुखं प्रजनयिता स प्रजापतिः । श० २ ।
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( ३९२ )
द्वादशनाभ्यर्तिहरन्ति द्वादशेन हि परिगृहीताः । तां० ६ |
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यस्य हि प्रजा भवत्येक शात्मना भवत्यथोत दशधा प्रजया हविष्क्रियते । श० १ १८ । १ । ३४ ॥
यस्य हि प्रजा भवत्यमुं लोकमात्मनैत्यथास्मि लोके प्रजा यजते तस्मात्प्रजोत्तरा देवयज्या | २० १ | ८ | १ | ३१ ॥ श्रदित्या ( =अदितेरुत्पन्नाः ) वा इमाः प्रजाः । तां० १८ । ८ । १२ ॥
द्वय्यो ह वा इदम मजा आसुः । श्रादित्याश्चैवाङ्गिरसश्च । श० ३।५ । १ । १३ ॥
वैश्वदेव्यो वै प्रजाः । तै० १ । ६ । २ । ५ ॥ १ । ७ । १० । २ ॥ आयस्यो वै प्रजाः । श० १३ । ३ । ४ । ५ ॥ श्रायास्यो ( ? श्रायस्यः ) वै प्रजाः । तै०
१० ३ । ६ । ११ । ४ ॥
श्राद्या हीमाः प्रजा विशः । श० ४ । २ । १ । १७ ॥
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५ |१| ८ ॥ ३ । ६ । १ । ६ ॥
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( ३१३ )
पूजापतिः ]
प्रजापतिः स यः स प्रजापतिर्व्यस्रंसत । श्रयमेव स यो ऽयमग्निवीयते ऽथ या अस्मात्ताः प्रजा मध्यत उदक्रामन्नेतास्ता वैश्वदेव्य इष्टकाः । श० ८ । २ । २ । ६ ॥
यो ह खलु घाव प्रजापतिः स उ चेवेन्द्रः । तै०१ | २|२| ५||
एष प्रजापतिर्यहृदयम् । श० १४ । ८ । ४ १ १ ॥
यः प्रजापतिस्तन्मनः । जै० उ०१ । ३३ । २ ॥ प्रजापतिर्वै मनः । कौ० १० | १ || २६ । ३॥ सा०१ । १ । १ ॥ तै०
० ३ । ७ । १ । २ ॥ श० ४ । १ । १ । २२ ॥ प्रजापतिर्वै मनश्छन्दः (यजु० १५ । ४) । श० ८ | ५ | २|२|| मन इव हि प्रजापतिः । तै० २ । २ । १ ॥२॥
अपूर्वा (प्रजापतेस्तनूविशेषः ) तन्मनः । ऐ० ५ । २५ ॥ कौ० २७ । ५ ॥
वाग्वै प्रजापतिः । श० ५ | १ | ५ | ६ || १३ | ४ | १ | १५ ॥ वाग्वि प्रजापतिः । श० १ । ६ । ३ । २७ ॥ तै० ० १ | ३ | ४ | ५ ॥
प्रजापतिर्हि वाकू । वाग्वा अस्य ( प्रजापतेः ) स्वो महिमा | श० २।२।४। ४ ॥ १ । ४ । २ । १७ ( अग्ने ? ) ॥
प्रजापतिर्वा इदमेक आसीत्तस्य वागेव स्वमासीद्वागू द्वितीया स ऐक्षतेमामेव वाचं विसृजा इयं घा इदयं सर्व, विभषन्त्येष्यतीति स वाचं व्यसृजत ( काठकसंहितायाम् १२ । ५ ॥ २७ । १३ – प्रजापतिर्वा इदमासीत्तस्य वागू द्वितीयासीतामिथुनं समभवत्सा गर्ममधत्त सास्मादपाक्रामत्सेमाः प्रजा असृजत सा प्रजापतिमेव पुनः प्राविशत् ) । तां० २० । १४ । २ ॥
(प्रजापतिः) वाचमयच्छत्स संवत्सरस्य परस्ताद्वयाहरद द्वादशकृत्वः । ऐ० २ । ३३ ॥
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स (प्रजापतिः) संवत्सरे व्याजिहीर्षत् । श० ११ । १ । ६।३ ॥ प्रजापतिर्वै वाक्पतिः (यजु० ४ । ४) । श० ३ । १ । ३ । २२ ॥ प्रजापतिर्वै वाचस्पतिः । श० ५ । १ । १ । १६ ।।
स (प्रजापतिः) हैषं षोडशधा ऽऽत्मानं विकृत्य सार्धं समेत् । जै० ज० १ । ४ । ७ ॥
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[प्रजापतिः
( ३१४) प्रजापतिः तद्वै लोमेति द्वेऽ अक्षरे । त्वगिति द्वे ऽसृगिति द्वे मेद इति
द्वे मार्थसमिति द्वे नावेति द्वेऽ अस्थीति द्वे मज्जेति द्वे तार षोडश कला अथ य एतदन्तरे प्राणः सञ्चरति स एव सप्तदशः प्रजापतिः । श०१०।४।१।१७॥ तस्माऽ एतस्मै सप्तदशाय प्रजापतये । एतत्सप्तदशमन्न समस्कुर्वन्य एष सौम्योध्वरो ऽथ या अस्य ताः षोडश कला एते ते षोडशविजः। श०१०।४।१ । १६ ॥
षोडशकलः प्रजापतिः । श०७।२।२।१७ ॥ , स एष संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकलः । श० १४ । ४।
३।२२। प्रजापति सप्तदशः । तां० २।१०। ५॥ १७ । ६।४॥ गो० उ०२ । १३ ॥५। - ॥ तै०१।५।१०।६॥ सप्तदशो वै प्रजापतिः। ऐ० १ । १६ ॥४।२६ ॥ कौ० । २॥ १०।६ ॥ १६ ४ ॥ श०.१।५।२।१७॥ ५। १ २॥ ११ ॥ गो० उ०१।१६॥ सप्तदशः प्रजापतिः । तै०१।३।३।२॥ द्वादश धै मासा: संघरसरस्य पश्चर्तव एष एव प्रजापतिः सप्तदशः । श० १।३।५। १० ॥ सप्तदशो वै प्रजापतिर्द्वादशमासाः पंचर्तयो हेमन्तशिशिरयोः समासेन तावान्त्संवत्सरा संवत्सरः प्रजापतिः । ऐ० ११ १॥ संवत्सरो वै प्रजापतिरेकशतविधः। तस्याहोरात्राण्यर्धमासा मासा ऋतव षष्टिर्मासस्याहोरात्राणि मासि वै संवत्सरस्याहोरात्राण्याप्यन्ते चतुर्विशतिरर्धमासस्त्रयोदश मासालय ऋतयस्ता शतविधाःसंवत्सर एवैकशततमी विधा । श० १०।२।६।१ ॥ प्रजापतेह वै प्रजाः ससृानस्य पर्वाणि विसन सुः सबै संवत्सर एवं प्रजापतिस्तस्यैतानि पर्वाण्यहोरात्रयो सन्धी पौर्णमासी चामावास्या चऽ मुखानि । स विसस्तैः । न शशाक सहातुं तमेतेहविर्यसंवा अभिषज्यन्नग्निहोत्रेणेपाहोरात्रयोः सन्धी तत्प,भिषज्यस्तत्समधुः पौर्णमास्येन
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( ३१५ )
प्रजापतिः । चैवमावास्येन च पौर्णमासीं चामावास्यां च तत्पर्वाभिषज्यंस्तत्समदधुञ्चतुर्मास्यैरेव तुमुखानि तत्पर्वाभिषज्यंस्तस त्समदधुः । श० १ । ६ । ३ । ३५, ३६ ॥
प्रजापति: ( प्रजापतिः प्रजाः सृष्टा सर्वमाजिमित्वा व्यस्स्रंसत । श० ६ । १ । २ । १२ ॥
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प्रजापतिं विस्रस्तं देवता आदाय व्युदक्रामंस्तस्य ( प्रजापतेः ) परमेष्ठी शिर प्रदायोत्क्रम्यातिष्ठत् । श० ८ । ७ । ३ । १५ ॥ तत एतं परमेष्ठी प्राजापत्यो ( = आपः ) यज्ञमपश्यद्यद्दर्शपूर्णमासौ । श० ११ । १ । ६ । १६ ।।
संवत्सरो वै पिता वैश्वानरः प्रजापतिः । श० १।५ । १ । १६॥ स (संवत्सरः ) एव प्रजापतिस्तस्य मासा एव सहदीक्षिणः । तां० १० । ३ । ६॥
संवत्सरो वै प्रजापतिः । श० २ । ३ । ३ । १८ ॥ ३ । २।२। ४ ॥ ५ । १ । २ ।९ ॥
संवत्सरः प्रजापतिः । ऐ० २ । १७ ॥ तां० १६ । ४ । १२ ॥ गो० उ० ३।८ ॥
प्रजापतिः संवत्सरः । ऐ० ४ । २५. ॥
स एष प्रजापतिरेव संवत्सरः । कौ० ६ । १५ ॥ संवत्सरो यज्ञः प्रजापतिः । श० २।२।२।४॥
एष वै प्रत्यक्षं यज्ञो यत्प्रजापतिः । श० ४।३।४।३॥
स वै यज्ञ एव प्रजापतिः । श० १ । ७ । ४ । ४ ॥
यज्ञ उत्रे प्रजापतिः । कौ० १० | १ || १३ | १ || २५ | ११ ॥
२६ । ३ ॥ तै० ३ । ३ । ७।३॥
यशः प्रजापतिः । श० ११ । ६ । ३।६॥ प्रजापतिर्यज्ञः । ऐ० २ । १७ ॥ ४ । २६ ॥ १३ ॥ १ । ६ । २ । १७ ।। ३ । २ । २ । ४ ॥ तै० १ ॥ गो० उ० ३ | ८ ॥ ४ । १२ ॥ ६ ॥ १ ॥
प्रजापतिर्वै यज्ञः । गो० उ० २ । १८ ॥ तै० १ । ३ । १० । १० ॥
प्राजापत्यो यज्ञः । तै०३ । ७ । १ । २॥
प्रजापतिरश्वमेधः । श० १३ । २ । २ । १३ | १३ |४| १ । १५ ॥
श० १ । १ । १ ।
३ । २।३।
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[ प्रजापतिः
( ३१६ )
प्रजापतिः एष ह प्रजानां प्रजापतिर्यद्विश्वजित् । गो० पू० ५ । १० ॥ प्रजापतिर्विश्वजित् । कौ० २५ । ११, १२, १५ ॥
यो ह्येव सविता स प्रजापतिः । श० १२ । ३ । ५ । १ । गो० पू० ५ । २२ ।।
प्रजापतिर्वै सविता | तां० १६ | ५ | १७ ॥ प्रजापतिः सविता भूत्वा प्रजा असृजत । तै० १ । ६ । ४ । १॥ प्राण हि प्रजापतिः प्रजापतिं वेद सर्वमनु (प्रजायते) । श० ४ । ५ । ५ । १३ ॥
अथ यस्स प्राण आसीत्स प्रजापतिरभवत् । जै० उ० २ २ ६ ॥
प्राणा उ वै प्रजापतिः । श० ८ । ४ । १४ ॥
प्राणः प्रजापतिः । श० ६ | ३ | १ | ९॥
अथ य पतदन्तरेण प्राणः संचरति स एव सप्तदशः प्रजा
पतिः । श० १० । ४ । १ । १७ ।।
तस्मादु प्रजापतिः प्राणः ।
श० ७ । ५ । १ । २१ ।। प्राजापत्यः प्राणः । तै० ३ । ३ । ७ । २ ॥
अन्न वाS अयं प्रजापतिः । श० ७ । १ । २ । ४ ॥
प्रश्नं वै प्रजापतिः । श० ५ । १ । ३ । ७ ॥
वायु ऐ०४।२६ ॥
स यो ऽयं ( वायुः ) पघते स एष एव प्रजापतिः । जै० उ० १ । ३४ । ३ ।
अर्धं ह प्रजापतेर्वायुरधं प्रजापतिः । श० ६ । २ । २ । ११ ॥ एतद्वै प्रजापतेः प्रत्यक्षं रूपं यद्वायुः । कौ० १६ । २ ॥
स एष वायुः प्रजापतिरस्मित्रष्टुभे ऽन्तरिक्षे समन्तं पर्यनः । श० ८ | ३ | ४ | १५ ॥
प्रजापतिः प्रणेता । तै०२ । ५ । ७ । ३ ॥
प्रजापतिर्वै भूतः 1 तै० २।१।६।३ ॥ प्रजापतिर्बन्धुः । तै० ३ । ७ । ५ । ५ ॥ प्रजापतिरूनातिरिक्तयोः प्रतिष्ठा । ऐ० ५ | २४ ॥
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प्रजापतिस्तदुक्तमृषिणा पवमानः प्रजापतिरिति ।
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[ पूजापतिः ( ३१ ) प्रजापतिः प्रजापति व्योमा ( यजु० १४ । २३)।०८।४।१।११॥
प्रजापति सुपर्णो गरुत्मान् ( ऋ० १० । १४९ । ३)। श० १०।२।२१४॥ प्रजापति मूर्धा ( यजु० १४६)। श० - २।३।१०॥ वयुनाविदित्यष (प्रजापतिः) हीदं वयुनमविन्दत् । श०६। ३।१।१६ ॥ प्रजापतिव युञ्जानः ( यजु० ११ । १)स मन तस्म कमेगा ऽयुङ्क | श०६।३।१।१२ ॥ प्रजापति विष्टम्भः (यजु०१४।६)। श०८।२।३।१२॥ प्रजापतिर्वा ओदनः । श०१३।३।६।७॥तै० ३।८। २।३ ॥३।६।१८।२॥ प्रजापतेर्वा एतद्रूपम् । यत्सक्तवः । ते०३।८।१४। ५॥ प्रजापतिः स्वरः।०३।७॥ प्रजापतिः स्वरसामानः। कौ०२४।४,५,६॥ प्राजापत्यं वै वामदेव्यम् । तां०४।। १५ ॥ ११।४।८॥ प्रजनन वै वामदेव्यम् (साम)। श०५।१।३ । १२ ॥ प्रजापतिर्वै वामदेव्यम् (साम)। श० १३ । ३ । ३।४॥ यच्छयैतेन (साना) हिडुरोति प्रजापतिरेव भूत्वा प्रजा अभिजिघ्रति । तां०७।१०। १६ ॥ प्रजापतिर्वै हिङ्कारः। तां०६।८।५॥ सर्वाणि छन्दासि प्रजापतिः । श० ६।२।१॥ ३० ॥ प्रजापतेर्वा एतान्यङ्गानि यच्छन्दांसि । ऐ०२।१८ ॥ पाङ्ग प्रजापतिः । श. १०।४।२।२३ ॥ आनुष्टुभः प्रजापतिः।०३।३।२।१॥ अतिच्छन्दा वै प्रजापतिः । कौ०२३ । ४,८॥
प्रजापतेर्वा एतदुक्थं यत्प्रातरनुवाकः । ऐ०२। १७ ॥ " प्रजापतिर्वै प्रातरनुवाकः । कौ० ११ । ७ ॥ २५ ॥ १०॥
प्राजापत्यं वै षष्ठमहः । कौ० २३॥ ८॥ २५ । ११, १५ ॥ प्रजापतियज्ञो वा एष यद् द्वादशाहः । ऐ०४।२५॥ अथास्य (प्रजापतेः) इन्द्र ओज आदायोदकुश्कामरस उदुम्बरी ऽभवत् । श०७।४।१। ३६ ॥
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(३१६)
पूजापतिः प्रजापतिः प्राजापत्यो वा उदुम्बरः । तां० ६।४।१॥ ,, प्राजापत्य उदुम्बरः। श०४।६।१।३ ॥
प्राजापत्यो ऽश्वः । श० १३ । १।१।१॥ तै० १।१।५। ५॥३।२।२।१॥ प्राजापत्यो वाऽ अश्व: । श० ६।५।३।९ ॥ तै० ३।८। २२।३ ॥३।६।१६। १॥ प्रजापतिरालब्धो ऽश्वो ऽभवत् । तै० ३।९ । २१ । १॥३। है। २२। १, २॥ प्रजापतेरुत्तरा (आहुतिः)। तै०२।१।७।१॥ प्राजापत्यमेतत्कर्म यदुखा । श०६।२।२।२३॥ निष्ट्या ( नक्षत्रं ) हृदयम् (नक्षत्रियस्य प्रजापतेः) । तै० १।५।२॥२॥ स यदुपाशु तत्प्राजापत्य रूपम् । श०१।६।३।२७॥ तस्मात् पत्किच प्राजापत्यं यशे क्रियतऽ उपाश्वेव तक्रियत -ऽहव्यवाढि वाक प्रजापतयः आसीत् । श० १ । ४ । ५। १२ ॥ स (प्रजापतिः) तूष्णीं मनसा ध्यायत्तस्य यन्मनस्यासीत्तदू बृहत्समभवत् । तां०७।६।१॥ (प्रजापति) श्रोत्रादविम् ( निरमिमीत )। श० ७ । ५ । २॥६॥ (यो ऽयं चक्षुषि पुरुषा) एष प्रजापतिः । जै० उ०१।४३॥
१०॥४।२४ । १३ ॥ , प्रजापतिः सदस्यः । गो० उ० ५ ॥ ४॥
प्रजापतिर्वाऽ उदाता । श०४।३।२॥३॥ एष पै यजमानस्य प्रजापतिर्यदुद्गाता। तां०७।१०।१६॥ प्राजापत्य उदाता | ai०६।४।१॥ ६ । ५।१८ ॥ प्रजापतिरुद्रीथः । तै०३८ । २१ । ३ ॥ अथर्वा वै प्रजापतिः । गो० पू० १।४॥ एष धै प्रजापतेः प्रत्यक्षतमां यद्राजन्यस्तस्मादेका सन्बहूनामीष्टे यशव चतुरक्षर प्रजापतिश्चतुरक्षरो राजन्यः । श० ५।१। ५।१४॥
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[प्रजापतिः
( ३२०) प्रजापतिः सत्यहि प्रजापतिः । श० ४।२।१।२६ ॥
प्रजापति गार्हपत्यः । कौ० २७ । ४॥ प्रजापतेर्वा एतौ स्तनौ यद् घृतश्च्युनिधनञ्च ( साम ) मधुश्च्युन्निधनञ्च (साम), यज्ञो वै प्रजापतिस्तमेताभ्यां दुग्धे यङ्कनमडून्मयत तन्दुग्धे । तां० १३ । ११ । १८ ॥ घृतश्च 2 मधु च प्रजापतिरासीत् । ते०३।३।४।१॥ प्रजापतिात्मा । श०६।२।२।१२॥ आत्मा ह्ययं प्रजापतिः । श० ४।६।१।१॥११ । ५।
आत्मा वै प्रजापतिः । श०४।५।९।२॥ पुरुषः प्रजापतिः । श०६।२।१। २३ ॥ ७।१।१। ३७॥ पुरुषो हि प्रजापतिः । श०७।४।१ । १५ ॥ प्राजापत्यो वै पुरुषः । ते० २।२।५ । ३ ॥ पुरुषो वै प्रजापतेनेदिष्ठम् । श. ४।३।४।३॥५।१।
,
एष उ एव प्रजापतियों यजते । ऐ० २। १८ ॥ __ यजमानो होव स्वे यज्ञे प्रजापतिः । श०१।६।१।२०॥
पितरः प्रजापतिः । गो० उ० ६ । १५॥ , अशुवै नाम प्रहः स प्रजापतिः । श०४।१।१ । २॥
प्रजापीतर्वाऽ एष यद शुः ( प्रहः )। श०४।६।१।१॥ प्रजापतिह वा एष यदछशुः (ग्रहः) । श० ११ । ५।
ऋषभो वै पशूनां प्रजापतिः । श० ५।२।५ । १७ ॥
प्रजननं प्रजापतिः। श०५।१।३।१०॥ ". स प्रजापतिरब्रवीदथ कोहमिति यदेवैतदवोच इत्यत्रवीत्ततो
वै को नाम प्रजापतिरभवत्को वै नाम प्रजापतिः । ऐ० ३। २१॥ को हि प्रजापतिः। श०६ । २।२।५।।
को वै प्रजापतिः । मो० उ० ६ ॥ ३॥ .. प्रजापतिर्वे कः । ऐ० ३१ ३८॥६२१ ॥ को० ५।४॥
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( ३२१ )
प्रजापतिः] २४।४, ५,९॥ तां० ७।८।३॥ श० ६।४।३।४॥ ७।३।१।२०॥ तै० २।२।५। ५ ॥ जै० उ०३।२।
१०॥ गो० उ०१।२२ ॥ प्रजापतिः फं ये प्रजापतिः । श० २।५।२।१३॥
प्रजापतिर्वे भरतः (यजु० १२ । ३४) स हीदछ सर्व बिभर्ति | श० ५। ८।१।१४॥ स (प्रजापतिः) उ वाव भुवनस्य गोपा । जै० उ० ३। २।११॥ प्रजापति बृहदुक्षः। श०४।४।१।१४॥ प्रजापति बृहन्विपश्चित् (यजु० ११ । ४) ।श०६।३।
विप्रा विप्रस्य (यजु० ११ । ४) इति प्रजापति विप्रो देवा विप्राः । श०६।३।१।१६॥ प्रजापति नृमणा (यजु० १२॥ १८ ॥) | श०६।७। ४।३,५॥ प्रजापतिर्षे नृचक्षाः ( यजु०१२ । २०॥) । श० ६।७।
प्रजापतिर्धाता। श०६।५।१।३८॥ प्रजापति जमदग्निः । श०१३।२।२।१४॥ भूतो वै प्रजापतिः। तै० ३ । ७।१ । ३ ॥३।७।२।१॥ प्रजापति चतुर्होता । तै०२।२।३।५ ॥ प्रजापति दशहोता । तै० २।२।१।१॥२।२।३।२॥
२।२।८।५॥२।२।६।३ ॥ , प्रजापति दशहोतणा होता । तै०२।३।५।६॥
प्रजापतिर्फे द्रोणकलश।। श० ४।३।१।६ ॥ ४।५। ५। ११॥ प्राजापत्यो ह्येष देवतया यद् द्रोणकलशः। तां०६।५।६॥ प्रजापतिरेव निधनम् । जै० उ० १ । ५८ ॥ ६॥
प्रजापतिर्वै क्षत्रम् । श० ।२।३। ११ ॥ ,, प्रजापतिर्फे चित्पलिः । श०३।१।३।२२ ॥
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(प्रजापतिः
( ३२२ ) प्रजापतिः इमे लोकाः प्रजापतिः। श०७।५।१।२७ ॥ , प्रजापतिर्वाऽ प्रतीमान् ( त्रीन् ) लोकांश्चतुर्थः । श० ४।
६।१।४॥ द्यावापृथिवी हि प्रजापतिः। श०५।१।५।२६ ॥ प्राजापत्यो दाऽ अयं ( भू- ) लोकः । तै० १ । ३ । ७ ॥५॥ प्रजापति पृथिव्यै जनिता । श. ७।३।१। २० ॥ सप्तविधो वाऽ अग्रे प्रजापतिग्सृज्यत । श० १०।२।३।१८॥ स एव पुरुषो प्रजापतिरभवत् । सलपुरुषो ह्ययं पुरुषः (प्रजापतिः ) यश्चत्वार आत्मा त्रय: पक्षपुच्छानि । श०६। १ । १।५-६॥ यान्वै तान्त्सप्त पुरुषान् । एकं पुरुषमकुर्वन्त्स प्रजापतिरभयत् । श० १०।२।२।१॥ एक उ वै प्रजापतिः । कौ० २९ ॥ ७॥ प्रजापतिर्वा एकः । तै०३।८।१६ । १॥ एको वै प्रजापतिः। तां० १६ । १६ । ४॥ प्रजापतिर्वा इदमेक आसीत् । तां०१६।१।१॥ प्रजापति वा इदमप्र एक एवास । श०२।२।४।१॥ प्रजापतिर्वा इदमन आसीदेक एव। श०७।५।२६॥ प्रजापति, इदमेक एवान आस । सो ऽकामयत प्रजायेय भूयान्त्स्यामिति । ऐ०२। ३३ ।।। प्रजापतिर्वा इदमेक असीतू सोकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति । तां०४।१।४॥ प्रजापतिर्वावेदमन आसीत् । सो ऽकामयत बहुस्स्याम्प्रजा. येय भूमान गच्छेयमिति । जै० उ०१ । ४६ ।१॥ प्रजापतिरकामयत बहु स्याम प्रजायेयेति। तां०६।१।१॥ ६ । ५ । १॥ ७।५।१॥ ७।६।१॥ १०।३।१॥ स (प्रजापतिः) तूष्णी मनसाध्यायसस्य यन्मनस्यासीत्तद वृहत्समभवत् । स आदीधीत गर्भो के मे ऽयमन्तहिंतस्तं वाचा प्रजनया इति । स वाचं व्यसृजत (मैत्रायणीसंहितायाम् ४।२।१:-स मनसात्मानमध्यायत् सो ऽन्तर्वाणभबतू)। तां०७।६।१-३॥
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( ३१३)
पूजापतिः] प्रजापतिः सा(प्रजापतिः) ....... अकामयत प्रजायेयेति । स तपो
ऽतप्यत । सो ऽन्तर्वानभवत् । स जघनादसुरानसृजत...... स मुखाद्देवानसृजत । ते २।२।९।५-८॥ स (प्रजापतिः) आस्येनैव देवानसृजत...."तस्मै समृ. जानाय दिवेवास । ...... "अथ यो ऽयमवाङ्प्राणः, तेना. सुरानसृजत। .." तस्मै ससृजानाय तम इवास । श० ११।१।६।७-८॥ उभये वा एते प्रजापतेरसृजन्त । देवाश्चासुराश्च । तै०
,
देवाश्च वा असुराश्च । उभये प्राजापत्याः प्रजापतेः पितु.
यमुपेयुरेताधेवार्धमासौ (=शुक्लकृष्णपक्षौ)। श० १। ७।२।२२॥ देवाश्च वाऽ असुराश्च । उभये प्राजापत्या: पस्पृधिरे । श. १।५।४।६॥ तस्य (प्रजापतेः) विश्वे देवाः पुत्राः । श०६।३।१।१७॥ प्रजापतिः सर्वा देवताः। ते० ३।३।७।३॥ प्रजापतिमु वाऽ अनु सर्वे देवाः । श० १३ । ५।३ । ३ ॥ उभयम्धेतत्प्रजापतिर्यश्च देवा यश्च मनुष्या: । श० ६।। १।४॥ प्रजापते त्वं निधिपाः पुराणः । देवानां पिता जनिता प्रजा. नाम् । पतिर्विश्वस्य जगतः परस्पाः । तै० २१८।१।३॥ स एष (प्रजापतिः) पिता पुत्रः । यदषो (प्रजापतिः) ऽग्निमसृजत तेनैषो ऽग्नेः पिता यदेतमग्निः समदधात्तेनंतस्याग्निः पिता यदेष देवानसृजत तेनेष देवानां पिता यदेतं देवाः समदधुस्तेनैतस्य देवाः पितरः । श०६।१।२।२६॥ सः (प्रजापतिः ) अग्निमब्रवीत्त्वं वै मे ज्येष्ठः पुत्राणामसि । जै० उ०१। ५१ । ५ मातेव च पितेव च प्रजापतिः । श०५।१।५।२६ ॥ रूपं वै प्रजापतिः...नाम वै प्रजापतः । ते०२।२।७।१॥ सर्वमु वेद प्रजापतिः । श०५।१।१।४॥
,
,, , ,
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[प्रजापतिः
( ३२४) प्रजापतिः सर्वमु हीदं प्रजापतिः। श० १०।२।३।१८ ॥
, सर्वहि प्रजापतिः । श०१३।६।१।६॥ ,, सबै वै प्रजापतिः । श० १।३। ५। १० ॥ ४।५।७।
२॥ गो० उ०१।२६॥ कौ०६।१५ ॥ २५॥ १२॥ प्रजापतिरेव सर्वम् । कौ०६ । १५॥ २५ ॥ १२ ॥ अपरिमितो वै प्रजापतिः। ऐ०२।१७॥६ । २॥ अपरिमित उ वै प्रजापतिः । कौ० ११ । ७॥ अपरिमितो हि प्रजापतिः । गो० उ०१।७॥ उभयम्बेतत्प्रजापतिनिरुक्तश्चानिरुक्तश्च परिमितचापरिमितश्च तद्या यजुष्कृतायै करोति यदेवास्य निरुक्तं परिमित
रूपं सदस्य तेन संस्करोत्यथ या अयजुष्कृतायै यदेवास्यानिरुक्तमपरिमित रूपं तदस्य तेन संस्करोति । श० ६ ।
सा (प्रजापतिः) अब्रवीद निरुझ सानो पृणे स्वय॑मिति । जै० उ०१। ५३।६॥ सा(प्रजापतिः) ऐक्षत यनिरुक्तमाहरिष्याम्यसुरा मे यह हनिष्यन्तीति सो ऽनिरिक्तम् (=परोक्षम ) आहरत् । तां०
१८।१।३॥ ___ अनिरुक्तो वै प्रजापतिः । ऐ०६ । १०॥ तै०१।३।८।५॥
श०१।१।१।१३ ॥ ६।२।२।२१ ॥ तां०१४।६।८॥ अनिरुक्त उ वै प्रजापतिः । कौ० २३।२,६॥२६ । ७॥ तां०
तदाहुः । किन्देवत्यान्याज्यानीति प्राजापत्यानीति ह ब्रूयाद
निरुक्तोवै प्रजापतिरनिरुक्तान्याज्यानि । श०१।६।१।२०॥ , . प्रजापति देवानामन्नादो वीर्यवान् । तै० ३।८।७।१॥
प्रजापति 4 देवानां वीर्यवत्तमः । श०१३।१।२।५॥ अथ यत्परं भा(सूर्यस्य) प्रजापतिर्वा सः । श०१।। ३।१०॥
यत्परं भाः प्रजापतिर्वा स इन्द्रो वा । श०२।३।१।७॥ ,, प्रजापतिर्वा अमृतः । श०६।३।१।१७ ॥
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( ३२५)
पूजापतिः] प्रजापतिः यावान्दै प्रजापतिर्दध्वरतावास्तिर्य्यङ् । तां० १८ ।
प्रजापतिश्चतुस्त्रिशो देवतानाम् । तां० १७ । ११ । ३॥ २२ । ७।५॥ त्रयस्त्रिशद्ध देवताः । प्रजापतिश्चतुस्त्रिशः। तै०१। ८।७। १ ॥२।७।१।३-४॥ पूर्ण इव हि प्रजापतिः । तै० २।२।१।२॥ प्रजापतिर्हि स्वाराज्यम् । तां० १९ । १३ । ३ ॥२२॥ १८॥४॥ अन्तो घे प्रजापतिः । श० ५। १ । ३ । १३ ॥ प्राजापत्यो वै वल्मीकः । तै० ३।७।२।१॥ तदेता वाऽ प्रस्य (प्रजापतेः ) ताः पञ्च मास्तन्व आसं. लोम त्वङ् मांसमस्थि मजाथैता अमृता मनो वाक प्राणश्चक्षुः श्रोत्रम् । श० १०।१।३।४॥ . (प्रजापते क्षत्रियस्य ) ऊरू विशाख्ने (नक्षत्रविशेषः) । ०१।५।२।२॥ हस्ता (नक्षत्रम् ) एवास्य ( नक्षत्रियस्य प्रजापतेः) हस्तः । ०१।५।२।२॥ प्रजापतेर्वा एतदुदरं यत्सदः । ता० ६।४।११ ॥ प्रजापतेर्वा एतानि श्मश्रूणि यद्वेदः । तै०३।३।६।११॥ प्राजापत्यो वेदः (=दर्भमुष्टिः )। तै० ३।३।२।१॥ प्राजापत्यो वै वेदः । ते० ३।३ । ७।२॥ ३।३। ८।६॥ तस्य (प्रजापते) यः श्लेष्मासीत्स सार्ध समवद्रुत्य मध्यतो मस्त उदभिनत्स एष वनस्पतिरभवद्रज्जुदालस्तस्मात्स श्लेष्मणः श्लेष्मणो हि समभवत् । श०१३।४।४।६॥ प्रजापतेर्वाऽ एतेऽ अन्धसी यत्सोमश्च सुरा च । श०५।१। २। १०॥ स ( प्रजापतिः) सर्वाणि भूतानि पृष्ट्वा रिरिचान इव मेने स मृत्योर्बिभयांचकार । २०१०।४।२।२॥ तदभ्यमृशदस्त्वित्यस्तु भूयो ऽस्तु इत्येव तदब्रवीत् (प्रजापतिः) ततो ब्रह्मैव प्रथममसृज्यत त्रय्येव विद्या । श० ६ ।१।
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[ पूजापतिः प्रजापतिः प्रजापतिः प्रजा असृजत ता अस्मै श्रेष्ठ्याय नातिष्ठन्त स
आसान्दिशां प्रजानाञ्च रसं प्रबृय साजं कृत्वा प्रत्यमुश्चत ततो ऽस्मै प्रजाः श्रेष्ठयायातिष्ठन्त । तां० १६ । ४।१॥ ताः (प्रजाः) अस्मात् (प्रजापते) सृष्टा अपाक्रामस्तासान्दिविसद्भम्यादद इति प्राणानादत्त ता एनं प्राणेष्वात्तेषु पुनरुपावर्तन्त । तां०७।५।२॥ प्रजापतिः पशूनसृजत ते ऽस्मात्सृष्टा अपाक्रामस्तानेतेन (श्यैतेन) सान्नाभिव्याहरत्ते ऽस्मा अतिष्ठन्त । तां०७ । १०। १३ ॥
(रुद्रः) तं (प्रजापतिम् ) अभ्यायल्याविध्यत् । ऐ० ३।३३॥ , त(प्रजापति ) रुद्रो ऽभ्यायत्य विव्याध । श० १।७।
प्रजापते रोहिणी (नक्षत्रम्)। तै०१।५।१।१॥ या (प्रजापतेर्दुहिता) रोहित (रक्तवर्णा मृगी) सा रोहिणी ( अभूत् )। ऐ०३ । ३३ ॥ रोहिणी देव्युदगात् पुरस्तात्......वर्द्धयन्ती । तै०३।११।२॥ विराद सृष्टा प्रजापतेः । ऊर्ध्वारोद्रोहिणी। योनिरः प्रति. ष्ठितिः । ते १।२।२।२७ ॥ स (प्रजापती रुद्रेण) विद्धः ऊर्ध्व उदप्रपतत्तमेतं मृगः (मृगशीर्षनक्षत्रम् ) इत्याचक्षते । ऐ० ३ । ३३ ॥ एतद्वै प्रजापतेः शिरो यन्मृगशीर्षम् । श० २।१।२।८॥ स (प्रजापतिः ) पुरुषमधे नेष्वा विराडिति नामावत्त । गो. पू.५ ॥ प्रजापतिर्वराजम् ( साम)। त०१६ । ५ । १७॥ वाजपेययाजी वाव प्रजापतिमानो त तां १८।६।४॥ प्रजापति स्वां दुहितरमभ्यध्यायदिवमित्यन्य आहुरुपसमित्यन्ये । ऐ०३ । ३३॥ प्रजापति वै स्वां दुहितरमभिदध्यौ । दिवं वोषसं वा मिथुन्येनया स्यामिति ता सम्पभूध । २०१।७।४।१॥
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( ३२७ )
पूतिगर प्रजापतिः प्रजापतिरुषसमध्येत् स्वां दुहितरं,तस्य रेतः परापतत्तदस्यां
न्यषिच्यत तदश्रीणादिद मे मादुषदिति तत्सदकरोत्पशूनेय । तां०८ ।२।१०॥ यदस्मात् (प्रजापतेः ) तद्रतः परापतदेषा पयस्या मैत्रावरुणी। श०६।५।११५६॥ तान् ( अग्निवाय्यादित्यचन्द्रमसः) दीक्षितांस्तेपानानुषाः प्राजापत्या ऽप्सरोरूपं कृत्वा पुरस्तात्प्रत्युदैत्तस्यामेषां मनः समपतते रेतोऽसिञ्चन्त ते प्रजापतिं पितरमेत्याब्रुवन् रेतो वा असिंचामहा इदं नो मामुया भूदिति । कौ०६।१॥ सा ( सीता सावित्री) ह पितरं प्रजापतिमुपससार । त होवाच । नमस्ते अस्तु भगवः। तै०२।३।१०।१॥ प्रजापति सोमाय राशे दुहितरं प्रायच्छत्सूर्या सावित्रीम् ।
ऐ० ४।७॥ प्रणवः प्रणवेनैव सानो रूपमुपगच्छत्यो३म् ओश्मित्येतेनो हास्यैष सर्व
एव ससामा यज्ञो भवति । श० १।४।१।१॥ यच्छुद्धं प्रणयं कुर्वन्ति तदस्य (भू-) लोकस्य रूपं यन्मका
रान्तं तदमुष्य ( धुलोकस्य)। कौ०१४ । ३॥ , अमृतं वै प्रणवः । गो० उ० ३ । ११ ॥ ("प्रणवः" इत्यस्य
स्थाने " प्राणः" इति-कौ० ११ । ४॥) , ब्रह्म वै प्रणवः। कौ० ११ । ४॥ , ब्रह्म ह वै प्रणवः । गो० उ० ३। ११ ।। (“ ओम्" शब्दमपि
पश्यत) प्रणीता: ( प्राप: ) यदापः प्राणयंस्तस्मादापः प्रणीतास्तत्प्रणीतानां
प्रणीतात्यम् । श०१२।६।३।८॥ प्रणीयज्ञानाम् वायु प्रणीर्यशानां यदा हि प्राणित्यथ यशो ऽथाग्निहो
प्रम् । ऐ०२।३४॥ प्रतरण : ( ऋ० ११६१ । १६ ) (प्रतरणः=) प्रतारयिता । ऐ०१।१३॥ प्रतिगरः गृणाति ह वाऽ एतद्धोता यच्छ सति। तस्मा एतद् गृणते
प्रत्यवाध्वर्युरागृणाति तस्मात्प्रतिगरो नाम । श० ४।३। २।१॥
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[प्रतिष्ठा त्रयस्त्रिंशः ( ३२८ ) प्रतिगरः मदो वै प्रतिगरः । श०४।३।२।५॥ प्रतिग्रहः यो बहु प्रतिगृह्य गरगीरिव मन्यते स एतेन (पुनःस्तोमेन)
यजेत । तां० १६।४।२॥ प्रतिप्रस्थाता कृतानुकर एव प्रतिप्रस्थाता । श० २।५।२। ३४॥ प्रतिमा ( यजु. १४ । १८ ) असौ वै लोकः प्रतिमेष ह्यन्तरिक्षलोके
प्रतिमित इव । श०८।३।३।५॥ प्रतिरवा: ( यजु० ३८ । १५) प्राणा वै प्रतिरवाः प्राणान्हीद, सर्व
प्रतिरतम् । श०१४ । २।२। ३४॥ प्रतिराध: प्रतिराधेन वै देवा असुरान्प्रतिराध्याथैनानत्यायन् । ऐ०
६। ३३॥
ता वै प्रतिरोधः प्रत्यरा वन तत्प्रतिराधैः प्रत्यरानुषन् । तस्मात्प्रतिराधास्तत्प्रतिराधानां प्रतिराधत्वम् । गो० उ०
प्रतिरूपः य आदित्ये (पुरुषः ) स प्रतिरूपः । प्रत्यङ् शेष सर्वाणि
रूपाणि । जै० उ०१।२७॥ ५॥ प्रतिष्ठा (=पादः) द्विपदो छन्दो विष्णुर्देवता प्रतिष्ठे (=पादौ)।
श०१०।३।२।११॥ , इयं वै पृथिवी प्रतिष्ठा । श० १।६।१।२६ ॥ १।।।
३।११॥ गृहा ये प्रतिष्ठा । श० १।९।३ । १८ ॥ याश्चतस्रः प्रतिष्ठा इमा एव ताश्चतसो दिशः । जै० उ०
१।२१ । २॥ , चक्षुर्व प्रतिष्ठा । श० १४।४।२।३॥
प्रतिष्ठा वै स्विष्टकृतू । कों०३।८॥ऐ०२।१०॥ ,, प्रतिष्ठा वै स्वाहाकृतयः। ऐ०२।४॥
,, प्रतिष्ठा वा अवसानम् । कौ० ११ । ५॥ गो० उ०३।११॥ प्रतिष्ठा चरित्रम् ( यजु० १४। १२॥ १५ । ६४ ॥) इमऽ उ लोकार
प्रतिष्ठा चरित्रम् । श०८/३॥॥१०॥८।७।३। १९ ॥ प्रतिष्ठा त्रयस्त्रिंशः ( यजु०१४ । २३) संवत्सरो वाव प्रतिष्ठा प्रयस्त्रि
शस्तस्य चतुर्विशतिरघमासाः षड़सवो ऽ
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श० ८ । ४ । १ । २२ ॥
प्रतिसरा: (यजु० १३ । ९-१३ एते पञ्च मंत्राः प्रतिसराख्याः) राक्षोघ्ना वै प्रतिसराः । श० ७ । ४ । १ । ३३ ॥
प्रतिहत्ती व्यानः प्रतिहर्त्ता । कौ० १७ ॥ ७ ॥ गो० उ० ५। ४॥
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प्रतिहार: अश्विनौ प्रतिहारः । जै० उ० १ । ५८।६ ॥ चन्द्रमाः प्रतिहारः । जै० उ० १ | ३६ | ६ ॥
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पूतिहार: ]
अहोरात्रे संवत्सर एव प्रतिष्ठा त्रयस्त्रिंशस्तद्यतमाह प्रतिष्ठेति संवत्सरो हि सर्वेषां भूतानां प्रतिष्ठा ।
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पशवो वै प्रतिहर्त्ता । तां० ६ | ७ | ६५ ॥
रौद्रो वै प्रतिहर्त्ता । गो० उ० ३ । १६ ॥
भविष्यत्प्रति चाहरत् ( = प्रतिहर्ता ऽऽसीत् ) । तै० ३ । १२ ।
( प्रजापतिः ) शरदम्प्रतिहारम् ( अकरोत् ) । जै० उ०१ ।
१२ । ७॥
शरत्प्रतिहारः । ष० ३ । १ ॥
पौर्णमास्यः प्रतिहारः । ष० ३ । १ ॥
( प्रजापतिः) विद्युतम्प्रतिहारम् ( अकरोत् ) । जै० उ० १ ।
१३ । १ ॥
अपराह्नः प्रतिहारः । जै० उ० १ । १२ । ४ ॥
( प्रजापतिः) स्तोमम्प्रतिहारम् ( अकरोत् ) । जै० उ० १ । १३ । ३ ॥
( प्रजापतिः ) चक्षुः प्रतिहारं ( अकरोत् ) । जै० उ० १ । १३ । ५ ॥
अस्थि प्रतिहारः । जै० उ० १ । ३६ । ६ ॥
( प्रजापतिः ) प्रतिहारमारण्येभ्यः पशुभ्यः ( प्रायच्छत् ) । जै० उ० १ । ११ ॥६॥
दिशो ऽवान्तरदिश आकाश एष प्रतिहारः । जै० उ० १ । १६ ४२ ॥
अथ यदमुष्यां दिशि ( दिवि ) तत्सर्वम्प्रतिहारेणाप्नोति । जै० उ० १ । ३१ ॥ ७ ॥
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[प्रतीची दिक् (३३०) प्रतीकम् मुखं प्रतीकम् । श० १४।४।३।७॥ प्रतीची दिक् मनुष्याणां वा एषा दिग्यत्प्रतीची। ष०३ ॥१॥
प्रतीच्यध्वर्योः (दिक ) । श०१३ । ५।४।२४ ॥ यत्पश्चाद्वासि वरुणो राजा भूतो वासि (प्रतीची दिए वरुणोऽधिपतिः पृदाकुः (=सर्पविशेषः ) रक्षिता-अथर्वघेदे ।। २७ । ३ ॥) । जै० उ० ३ ॥ २१ ॥२॥ या प्रतीची (दिक ) सा सर्पाणाम् । श०३।१।१।७॥ प्रतीची दिक । सोमो देवता । तै०३।११।५।२॥ (हे देवा यूयं ) सोमेन प्रतीची (दिशं प्रजानाथ)। ऐ० १।७॥ (वायु) यत्पश्चाद्वाति पवमान एव भूत्वा पश्चाद्वाति । ०२।३।९।६॥ स ( सविता) प्रतीची दिशं प्राजानात् । कौ०७।६॥ प्रतीचीमेव दिश७ सवित्रा प्राजानन् । श० ३।३।
तस्मादुत्तरतः पश्चादयं भूयिष्ठ पवमानः (वायु) पवते सवितृप्रसूता ह्येष एतत्पवते । ऐ०१॥ ७ ॥ अथैनं ( इन्द्रं ) प्रतीच्या दिश्यादित्या देवाः...अभ्यषिश्चन् ...स्वाराज्याय । ऐ० ८।१४॥ आदित्यास्त्वा पश्चादभिषिञ्चन्तु जागतेन छन्दसा । तै० २।७।१५। ५॥ जगती प्रतीची दिक् । श० ८।३।१ । १२ ।। प्रतीचीमारोह । जगती त्वावतु वैरूप साम सप्तदशस्तोमो वर्षा ऋतुर्विड् द्रविणम् । श०५।४।१।५॥ विश्वदेवनेत्रेभ्यो देवेभ्यः पश्चात्सद्भयः स्वाहा । श०५। २।४।५॥ अथर्वणामगिरसा प्रतीची (दिक )। तै० ३ । १२ ।
उशनसा काव्येन ( उदाधा दीक्षामहा रति ) प्रमुराः
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( ३३१ )
प्रथमा चितिः ]
पश्चात् ( आगच्छन् ) । जै० उ० २ । ७ । २ ॥ पूतीची दिक् तस्मादु ह न प्रतीचीन शिराः शयीत । नेद्देवानभिप्रसार्य शयाऽ इति । श० ३ । १ । १ । ७ ॥
वारणं (शङ्कं ) पश्चादत्रं मे वारयाताऽ इति । श० १३ । ८।४।१ ॥
प्रतीच्येव महः । गो० पू० ५ | १५ ॥
तस्माद्धेदं प्रत्यश्चि दीर्घारण्यानि भवन्ति । ऐ० ३ | ४४ ॥ गो० उ० ४ । १० ॥
तस्मादेतस्यां प्रतीच्यां दिशि ये के च नीच्यानां राजानो ये sपाच्यानां स्वाराज्यायैव ते ऽभिषिच्यन्ते स्वराडित्येनानभिषिक्तानाचक्षते । ऐ० ८ । १४ ॥
प्रतीचीनेडमू (खाम) पराचीभिर्वा अन्याभिरिडाभीरेतो दधदेत्यथैतत्प्रतीचीनेडङ्काशीतं प्रजात्यै । तां० १५ । ५ । १६॥ प्रतूर्तम् ( यजु० ११ । १२ ) यद्वै क्षिप्रं तत्तूर्तमथ यत्क्षिप्रात्क्षेपीयस्त प्रतूर्तम् । श० ६ । ३।२।२॥
प्रतूर्तिरष्टादश: ( यजु०९४ । २ । ३) संवत्सरो वाव प्रतूर्तिरष्टादशस्तस्य द्वादश मासाः पञ्चतवः संवत्सर एव प्रतूर्तिरष्टादशस्तद्यतमाह प्रतूर्तिरिति संवत्सरो हि सर्वाणि भूतानि प्रतिरति । श० ८ । ४ । १ । १३ ॥
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प्रतून् (यजु० ११ । १५ ) ( =त्वरमाण:) प्रतूर्वनेद्यवक्रामन्नशस्तीरिति पाप्मा वा प्रशस्तिस्त्वरमाण एह्यवक्रामन् पाप्मानमित्येत् ।
श० ६ । ३ । २ । ७ ॥
प्रत्नम् (यजु० ११ । ४८ ) ( = सनातनम् ) अयं वो गर्भ ऋत्वियः प्रत्नं सवस्थमासददित्ययं वो गर्भ ऋतव्यः सनातनं सधस्थमासददित्येतत् । श० ६ । ४ । ४ । १७ ॥
प्रत्यक्षम् प्रत्यक्षं वै तद्यत्पश्यति । श० ६ । २ । १ । ६ ॥
प्रत्याश्रावणम् अथ यत्प्रत्याश्रावयति यशऽ एवैतदुपावर्त्तते ऽस्तु तथेति । श० १।५।२।७ ॥
प्रत्याश्रावितम् अपानः प्रत्याश्रावितम् । तै० २ । १ । ५ । ६ ॥ प्रथमा चितिः अयमेव (भू-) लोकः प्रथमा चितिः । श०८ । ७ । ४ । १२॥
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प्रयाजाः
( ३३२ ) प्रथमा चितिः यैवेयं प्रतिष्ठा यश्चायमवाङ प्राणस्तत्प्रथमा चितिः। श०
।७।४।१६।। प्रदरः प्रहादो वै कायाधवः । विरोचनं खं पुत्रमुदास्यत् । स प्रदरो
ऽभवत् । तस्मात्प्रदरादुदकं ना ऽऽचामेत् । तै०१।५ । १० । ७॥ प्रदाता इन्द्रो वै प्रदाता स एवास्मै यज्ञं प्रयच्छति । कौ०४।२॥ प्रदाव्यः एष ह वा अग्निर्वैश्वानरो यत्प्रदाव्यः । गो० उ०४।॥ प्रपोथाः (सोमस्य हियमाणस्य) यत्प्राग्रोथत्ते प्रमोथा: । तां० ८।
४।१॥ प्रभूतिः (=प्राणः) प्राणं वा अनु प्रजा पशवः प्रभवन्ति । जै० उ०३।
प्रमंहिष्ठीयम् ( साम)प्रमा७हिष्ठीयेन वाइन्द्रो वृत्राय वज्रं प्रावर्त्तयत्तमस्त.
गुत । तां० १२।६।६॥ प्रमा ( यजु० १४ । १८ ) अन्तरिक्षलोको वै प्रमान्तरितलोको यस्मा
लोकात्प्रमित इव । श० ८।३।३५ ॥ प्रमायुकः एष ह वै प्रमायुको यो ऽन्धो वा बधिरो वा। श० १२।२।
२।४ ॥ गो० पू० ४ । २०॥ प्रम्लोचन्ती (यजु० १५ । १७) ( आदित्यस्य) प्रम्लोचन्ती चानुम्लो
चन्ती चाप्सरसाविति दिक् चोपदिशा चेति ह स्माहमाहि. स्थिरहोरात्रे तु ते, ते हि प्रच म्लोचतो ऽनु च म्लोचतः ।
श० ८।६।१ । १८॥ प्रयाजाः ततो देवाः । अर्चन्तः श्राम्यन्तश्चेरुस्तऽ एतान्प्रयाजान् दहशु
स्तैरयजन्त तैर्ऋतून्त्संवत्सरं प्राजयन्नृतुभ्यः संवत्सरात्सपनानन्तरायस्तस्मात्प्रजयाः, प्रजया ह वै नामैतद्यत्प्रयाजा इति ।
श०१।५।३।३॥ , ते ( प्रयाजा) वाऽ प्राज्यहविषो भवन्ति । श० १।५
३।४॥ " ऋतवो ह वै प्रयाजाः । तस्मात्पश्च (प्रयाजा) भवन्ति पञ्च
घृतवः। ०१।५।३।१॥ , ऋतवो हि प्रयाजाः । श०१।३।२।८॥ , ऋतवो वै प्रयाजा कौ०३४॥
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( ३३३ )
प्रवर्यः] प्रयाजा: प्रयाजा प्राञ्चो हूयन्ते तद्धि प्राणरूपम् । श० ११ ।२।
७। २७॥ " य इमे शीर्षन्प्राणास्ते प्रयाजाः। ऐ०१ । १७॥ , प्राणा वै प्रयाजाः। ऐ०१ । ११ । फौ०७ । १ ॥ १।३॥
श०११ । २।७।२७॥ ,, रेतासिच्यं वै प्रयाजाः । कौ० १० । ३॥
" पशवो वै प्रयाजाः। कौ० ३।४॥ प्रयाजानुयाजा: प्राणा वै प्रयाजानुयाजाः। श०१४ [२।२।५१ ॥
ऋतवो वै प्रयाजानुयाजाः। कौ०१।४॥ प्रयाजानुयाजा वै देवा आज्यपा: । श०१।४।२।१७॥
१।७।३।११ ॥ प्रवतः शश्वतीरपः संवत्सरो वै प्रवतः शश्वतीरपः । तां०४।७। ६ ॥ प्रवर्यः अथ यत् प्रावृज्यत तस्मात्प्रवर्ग्यः । श०१४।१।१।१०॥ , तं न सर्वस्माऽ इव प्रवृज्यातू । सर्व वै प्रवर्यः ।. श०१४ ।
२।२।४६ ॥ , सस्य ( मखस्य-विष्णोः ) धनुरालिर्धा पतित्वा शिरो
छिनत्स प्रवर्यो ऽभवत् । तां०७ ॥ ५॥ ६ ॥ इमे वै लोकाः प्रवर्ग्यः । श० १४ । ३।२।२३॥
अनिर्वायुरादित्यस्तदेते प्रवाः । ।०९।२।१ । २१ ॥ " एता बै देवताः प्रवर्ग्यः । अग्निर्वायुरादित्यः । श० १४ । ३ ।
२।२४॥ एष (आदित्यः) उ प्रवर्ग्यः । श०१४।१।१।२७ ॥ आदित्यः प्रवर्यः। श० १०।२।५।४॥ अथ यत्प्रवर्येण यजन्ते । आदित्यमेव देवतां यजन्ते । श० १२। १।३।५॥ एष (वायु:) उ प्रवर्यः । श०१४।२।१।६॥ संवत्सरो वै प्रवर्ग्यः । श० १४ । ३ । २ । २२ ॥ अग्निहोत्रं वै प्रवर्ग्यः ।। श० १४ । ३ । २।२६ ॥ यजमानो वै प्रवर्यः । शं०१४।३।२।२५ ॥ शिरः प्रवर्यः । श०३।४।४।१॥ १४ । ३।१।५॥१४ । ३।१।१६॥
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[ पूस्ताव:
( ३३४ )
प्रवर्ग्यः शिर एतद्यशस्य यत्प्रवयैः । श० ६ । २ । १ । २२ ॥
शिरो ६ वा एतद्यज्ञस्य यत्प्रवग्यैः । गो० उ० २ । ६ ॥ सम्राट् प्रवर्ग्यः । श० १४ । १ । ३ । १२ ॥ ('धर्मः' शब्दमपि पश्यत )
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प्रवह्निका: ( ऋचः ) प्रवह्निकाभिर्वै देवा असुरान्प्रवहयानानत्यायन् । ऐ० ६ । ३३ ॥
तद्यथाभिर्ह वै देवा असुराणां रसान् प्रववृहुस्तस्मात्प्रवह्निकाः । तत्प्रवह्निकानां प्रवह्नकात्वम् । गो० उ० ६ । १३ ॥
प्र वा वाजाः ऋतव एव प्र वो वाजाः । गो० पू०५ | २३ ॥
प्रष्टिवाही प्रष्टिवाही वै देवरथः । तै० १ | ३ | ३ | ४ || १ | ७।६।१ ॥ प्रस्तरः अयं वै स्तुपः (= ऊर्ध्वबद्ध केशसंघातात्मक इति सायणः )
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प्रस्ताव : मुखं हि साम्नः प्रस्तावः । तां० १२ । १० । ७ ॥
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प्रस्तरः । श० १।३।३।७, १२ ॥। १ । ३ । ४ । १० ॥
यशो वै प्रस्तरः । श० ३ । ४ । ३ । १६ ॥
यजमानो वै प्रस्तरः । ऐ० २ । ३ ॥ श ० १ । ८ । १ । ४४ ॥ १ । ८ । ३ । ११, १४, १६ ॥ तै० ३ । ३ । ६ । ७, ८ ॥ ३ । ३ । हा २, ३ ॥ तां० ६ । ७ । १७ ॥
क्षत्रं वै प्रस्तरः । श० १ । ३ । ४ । १० ॥
अग्निर्वायुरसावादित्य एष प्रस्तावः । जै० उ० १ । १६ । २ ॥ अर्धोदितः ( आदित्यः ) प्रस्तावः । जै० उ० १ । १२ । ४ ॥ अग्निः प्रस्तावः । जै० उ० । ३३ । ५ ॥
ग्रीष्मः प्रस्तावः । ष० ३ । १ ॥
(प्रजापतिः) ग्रीष्म प्रस्तावम् (अकरोत् ) । जै० उ० १ । १२ । ७॥ भर्द्धमासाः प्रस्तावः । ५० ३ । १ ॥
( प्रजापतिः ) जीमूतान् प्रस्तावम् ( अकरोत् ) । जै० उ० १ । १३ । १ ॥
त्वक् प्रस्तावः । जै० उ० १ । ३६ । ६ ॥
( चक्षुषः ) कृष्णं प्रस्तावः । जै० उ० १ । ३४ । १ ॥
मण्डलम्प्रस्तावः । जै० उ० १ । ३३ । ९॥
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( ३३५ )
पूस्ताव: अनिरुक्तो वै प्रस्तावः । जै० उ० १ । ३५ । ३ ॥
( प्रजापतिः ) ऋचः प्रस्तावम् ( अकरोत् ) । जै० उ० १। १३ । ३ ॥
( प्रजापतिः ) वाचं प्रस्तावम् ( अकरोत् ) । जै० उ० १ । १३ । ५ ॥
( प्रजापतिः) प्रस्तावम्मनुष्येभ्यः ( प्रायच्छत् ) । जै० उ० १ । ११ । ६ ॥
यह दिक्षणायां दिशि तत्सर्वं प्रस्तावनाप्नोति । जै० उ० १ । ३१ ॥ ४ ॥
प्रस्तोता अपानः प्रस्तोता । कौ० १७ । ७ ॥ गो० उ० ५।४ ॥ प्रहादः प्रहादो वै कायाधवः । विरोचनं खं पुत्रमुदास्यत् । स प्रदरो ऽभवत् । तै० १ । ५ । १० । ७ ॥
प्रहादो ह वै कायाधवो विरोचनं खं पुत्रमपन्यधत्त । नेदेनं देवा अहनन्निति । तै० १ । ५ । ९ । १ ॥
I
पाची दिक् प्राचीमेव दिशम् । अग्निना प्राजानन् । श० ३ । २ । ३ । १६ ॥ स (अग्नि) प्राचीं दिशं प्राजानात् । कौ० ७ । ६ ॥
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प्राची दिक् ]
प्राची हि दिगग्नेः । श० ६ | ३ | ३ |२॥
प्राची दिक । अग्निर्देवता । तै० ३ । ११ । ५ । १ ॥ अग्निनेत्रेभ्यो देवेभ्यः पुरःसद्भयः स्वाहा । श० ५। २ । ४ । ५ ॥ यत्पुरस्ताद्वासीन्द्रो राजा भूतो वासि । जै० उ० ३ । २१ । २ ॥ (हे देवा ! यूयं ) मयैव ( पथ्यया) प्राचीं दिशं प्रजानाथ । ऐ० १ । ७ ॥
यत्पध्यां (=अदितिं) यजति तस्मादसौ (आदित्य) पुर उदेति पश्चाऽस्तमेति पथ्यां ह्येषो ऽनुसंचरति । ऐ० १ । ७ ॥ प्राचोमावर्त्तयति । देवलोकमेव तेन जयति । तै०२ । १ । ८ । १ । ३ । २ । १ । ३ ॥
पुरस्ताद्वै देवाः प्रत्यञ्चो मनुष्यानभ्युपावृत्तास्तस्मात्तेभ्यः प्राङ् तिष्ठन्जुहोति । श० २ । ६ । १ । ११ ॥
प्राची हि देवानां दिक । श० १ । २ । ५ । १७ ॥
देवानां वा एषा दिग्यत्प्राची । ष० ३ ॥१॥
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[प्राची दिक प्राची दिक् अथैनं (इन्द्र) प्राच्यां दिशि वसवो देवा....अभ्यषिञ्चन्...
साम्राज्याय । ऐ०८ । १४॥ वसवस्त्वा पुरस्तादभिषिञ्चन्तु गायत्रेण छन्दसा । तै० २। ७। १५ । ५॥ प्राचीमारोह गायत्री त्वायतु रथन्तर साम त्रिवृत्स्नोमो वसन्त ऋतुर्ब्रह्म द्रषिणम् । श० ५।४।१।३॥ गायत्री वै प्राची दिक । श० ८।३।१ । १२ ॥ स (वायुः) युत्पुरस्ताद्वाति । प्राण एव भूत्वा पुरस्ताद्वाति । तस्मात्पुरस्ताद्वान्तं सर्वाः प्रजाः प्रतिनन्दन्ति । तै० २।३। ६।४-५ ॥ अनभिजिता वा एषोद्गातृणां दिग्यत् प्राची। तां०६।५।२०॥ तं (शर्यातं [ ? शर्याति ] मानव ) देवा बृहस्पतिनोगाथा दीक्षामहा इति पुरस्तादागच्छन् । जे० उ०२।७।२॥ तस्य सान इयमेव प्राची दिग्घिङ्कारः । जै० उ० १॥३१॥२॥ प्राची दिग्धोतुः । श०१३।५।४।२४॥ ऋचां प्राची महती दिगुच्यते । तै०३ । १२।६।१॥ प्राञ्चो ऽन्य ऋत्विज मात्विज्यं कुर्वन्ति तस्मादेषा दिशा वीर्यवत्तमैता हि भूयिष्ठाः प्रीणन्ति । तां०६।४।१४ ॥ तेजो वै ब्रह्मवचंसं प्राची दिक । ऐ०१॥ ८ ॥ पालाशं ( श९) पुरस्तादू, ब्रह्म वै पलाशः। श०१३। ८ । ४।१॥ तस्मादिमाः प्रजाः प्राच्यः सर्पन्ति । श० ११ । १।६ । २१॥ दीक्षितस्यैव प्राचीनवशा (शाला) नादीक्षितस्याश०३। १।१।७॥ प्राच्येव भर्गः । गो० पू० ५। १५॥ तस्माद्धेदं प्राच्यो ग्रामता बहुलाविष्टाः। ऐ०३ । ४४॥ गो० उ०४। १०॥ तस्मादेतस्यां प्राच्यां दिशिये के च प्राच्यानां राजानःसाम्राज्यायैव ते ऽभिषिच्यन्ते सम्राडिस्येनानभिषिक्तानाचक्षते । ऐ००।१४॥
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( ३३७ )
प्राणः प्राजापत्यो यज्ञःप्राजापत्येनैव यज्ञेन यजते कामप्रेण । अपुनार (=पुन
मरणरहितामवस्थाम् ) एव गच्छति । तै० ३।६॥
२२।४॥ पागा: यव प्राणेनानमात्मन्प्रणयते नत्प्राणस्य प्राणत्वम् । श. १२ ।
४।१।१४॥ , प्रेति ('प्र' इति ) वै प्राण एति ('पा' इति ) उदानः । श.
१।४।१।५॥ ,, उद्यन्नु खलु वा मादित्यः सर्वाणि भूतानि प्रणयति तस्मादेनं
प्राण इत्याचक्षते । ऐ० ५। ३१ ॥ , तदसौ वा मादित्यः प्राणः। जै० उ०४।२२ ॥ ९॥ , आदित्यो वै प्राणः । जै० उ०४।२२।११॥ " उद्यत इव हायं प्राणः। ष०२।२॥ , प्राणो वाऽ अर्क: । श० १०।४।१।२३ ॥१०।६।२।७॥
प्राणो वै सविता । ऐ०१।१६ ॥ , प्राणो हवाऽ अस्य सविता । श०४।४।१।५॥
प्राण एव सविता । श० १२।९।१ । १६ ॥ गो० पू० १॥ ३३ ॥ ,, प्राणो वे सावित्रग्रहः । कौ०१६ । २॥ , प्राणः सोमः । श०७।३।१।२॥
प्राणः ( यज्ञस्य) सोमः । कौ०६।६ ॥
प्राणो हि सोमः। तां०९।६।१, ५ ॥ , प्राणी वे सोमः । श० ७ । ३ । १ । ४५ ॥ , चन्द्रमा घे प्राणः । जै० उ०४।२२। ११ । , प्राणो पाऽ अग्निः । श०२।२॥ २॥ १५ ॥४।५।१।६८॥ , सदग्नि प्राणः । जै० उ०४ । २२ । ११ ॥ " प्राणा अनिः । श०६।३।१।२१ ।। ६ । ८।२।१०॥ " ते धाऽ एते प्राणा एव यदू (आहवनीयगार्हपत्यान्वाहार्यपचना
ख्याः ) अग्नयः । श०२।२।२।१८ ॥ " प्राणो ऽमृतं तवचने रूपम् । श०१०।२।६।१८॥ " अमृतमु वै प्राणाश०६।१।२१३२॥ , प्रायो बै जानलेवाः स हि जानानां वेद ऐ०२।३९ ॥
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[ प्राणः
( ३३८ )
प्राणः वायुर्वे प्राणः । कौ० ८ । ४ ॥ जै० उ० ४ । २२ । ११ ॥
वायुर्हि प्राणः । ऐ० २ । २६ ॥ ३ । २ ॥ प्राणो हि वायुः । तां० ४ । ६ । ८ ॥ प्राणो वै वायुः । कौ० ५ | ८ ॥
१३ ॥ ५ ॥
४ । १ । १५ ।। ६ । २ । २ । ६ ॥
गो० उ० १ । २६ ॥
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प्राणा उ वा वायुः । श० ८ | ४ | १ | ८ ॥
यः स प्राणो ऽयमेव स वायुर्यो ऽयं पवते । श० १० | ३ | ३।७॥
यस्स प्राणो वायुस्सः । जै० उ० १ । २६ । १॥
स। ऽयं ( वायुः ) पुरुषे ऽन्तः प्रविष्टस्त्रेवा विहितः प्राण,
उदानो
व्यान इति । श० ३ । १ । २ । २० ॥
स (वायुः ) यत्पुरस्ताद्वाति प्राण एव भूत्वा पुरस्ताद्वाति । तै० २।३।९।४
-: ॥
वायुर्मे प्राणे श्रितः । तै० ३ । १० । ८ । ४ ॥
प्राणापानौ मे श्रुतमे । तन्मे त्वयि ( वायौ ) । जै० उ० ३ |
३० ॥ ५ ॥ श० ४ ॥
२१ । १० ॥
विच्छन्दारछन्दो वायुर्देवता प्राणाः । श० १० | ३ | २ | १२ | यो वै प्राणः स वातः । श० ६ । २ । ४।९॥
प्राणो वै वातः । श० १ । १ । २ । १४ ॥
प्राणा वै वातहोमाः । श० ९ । ४ । २ । १० ।
प्राणो मातरिश्वा । ऐ० २ । ३८ ॥
प्राणा वै मारुताः । श० ९ । ३ । १ । ७ ॥ प्राणो वै मरुतः स्वापयः । ऐ० ३ । १६ ॥ प्राणो वनस्पतिः । कौ० १२ । ७ ॥
प्राणो वै वनस्पतिः । ऐ० २ । ४, १० ॥
यः प्राणः स वरुणः । गो० उ० ४ । ११ ॥
कतमे रुद्रा इति । दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मेकादशः । श० ११ । ६ । ३ । ७ ।।
प्राणा वै रुद्राः । प्राणा हीदं सर्वं रोदयन्ति । जै० उ० ४ २ । ६ ॥
प्राणा वै वसवः । तै०३ |२| ३ | ३ | ३।२।६।२॥
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( ३३६ )
प्राणः] पाण: प्राणा वै वसवः। प्राणा हीदं सर्व वखाददते । जै० उ०४।
, प्राणो वै मित्रः (यजु० ११ । ५३ ॥ १४ ॥२४)। श०.६ । ५ ।।
५॥८।४।२।६॥ १२।३।२।१२॥ , प्राणो धै हरिः स हि हरति । कौ १७ । १॥ , प्राणा साध्या देवाः ( यजु०३१ ।१६) तऽ एतं (प्रजापति)
अग्रऽ एवमसाधयम् । श०१०।२।२।३॥ प्राणा वै देवा द्रविणोदा ( यजु० १२ । २॥)। श०६। ७
२३॥ , प्राणा वै देवा धिण्यास्ते हि सर्वा धिय इष्णन्ति । श०.७
१।१।२४॥ , प्रणा धियः । श०६।३।१ । १३॥ . " प्राणा चै देवा धयोनाधाः (यजु. १४ । ७॥) प्राणहीर्द
सर्वे षयुनं नशम् । श० ८।२१२१८॥ , प्राणा वै देवा अपाव्याः ।०३।८।१७।५॥
तस्मात्प्राणा देवाः । श०७J५।१।२१ ॥ , प्राणा देवाः । श०६।३।१।१५॥
प्राणा वै विश्वे देवाः ( यजु० ३८ । १५)। श० १४ । २।
२॥ ३७॥ , प्राणा वा ऋषयः ( यजु०१५ । १०॥)। ऐ० २१ २७॥ श०.
६।१।१।१॥८।६।१।५।१४।५।२॥५॥ " प्राणा उ वा ऋषयः ।श०८।४।१।५ ॥ " प्राणा ऋषयः। २०७।२।३।५॥ , प्राणो वे वसिष्ठ ऋषिः ( यजु० १३ । ५४ )। श०८।१
, तदन्नं वै विश्वम्प्राणो मित्रम् । जे० उ०३।३।६॥ , प्राणा वालविल्या:। कौ० ३०१८॥ऐ०६।२६॥ ,, प्राणा वै वालखिल्याः । ऐ० ६ । २८ ॥ गो० उ०६ - ॥ , यदि वालखिल्या(ऋचः) प्राणानस्यांतरियातू । ए०५।१५॥
वा मात्रादु हेमे प्राणा अप्तम्भिन्नास्ते यद्वालमात्रादसम्भिन्नास्तस्माद्वालखिल्या श.८।३।४।१॥
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1 प्राणः
( ३४० )
प्रायः वालमात्रा उ हमें प्राणा असंभिन्नास्तद्यद सभिन्नास्तस्माद्वाल
खिल्याः । कौ० ३० ॥ ८ ॥
प्राणो वाऽ ऋक् प्राणेन ह्यर्चति । श० ७ । ५ । २ । १२ ॥
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प्राण एव यजुः । श० १० । ३ । ५॥४॥
प्राणो वै यजुः प्राणे ही मानि सर्वाणि भूतानि युज्यन्ते । श०
१४ | ८ | १४ |२॥
प्राणा वै गयाः । श०१४ | ८ | १६ | ७ ॥
प्राणा वै
प्राणा रश्मयः । तै० ३ । २ । ५ । २ ॥ सुरभयः । तैं •
०३।६।७।५ ॥
प्राणो वै वयः (ऋ० ३ । २९ । ८ ) ऐ० १ । २८ ॥ प्राणापानौ वा अक्षरपङ्कयः । कौ० १६ | ८ ॥
प्राणो वै हिंत प्राणां हि सर्वेभ्यो भूतभ्यो हितः । श० ६ । १
२ । १४ ॥
प्राणो व होता । ऐ० ६ । ८, १४ ॥ गो० उ० ५ । १४ ॥
अथ वे हविष्यङ्गिः प्राण एव । कौ०
१३ । २ ॥
प्राणा एव सप्तमी चितिः । श० ८ । ७ । ४ । २१ ॥
प्राया सत्यम् । श० १४ । ५ । १ । २३ ॥
प्राणो महाव्रतम् | श० १० | १ | २ | ३ ॥
प्राणा 'वै महिषाः ( यजु० १२ । २० ) । श० ६ । ७ । ४ । ५ ॥
प्राण एव महान् । श० १० । ४ । १ । २३ ।।
प्राणा एव महः । गो० पू० ५ । १५ ।।
प्राणो महः । श० १२ । ३ । ४ । १० ॥
प्राणो वै संवत्सरः । तां० ५ । १० । ३॥
प्राणा वै सजाताः प्राणैर्हि सह जायते । श० १ । ६ । १ । १५ ॥ प्राणा वै सीताः । श० ७ । २ । ३ । ३ ॥
प्राणो वै सिन्धुश्छन्दः ( यजु० १५ । ४ ) । श० ८ | ५ |२| ४ ॥ एष ( यो ऽयं दक्षिणे ऽक्षन्पुरुषो मृत्युनामा सः) उ एव प्राणः । एष हीमाः सर्वाः प्रजाः प्रणयति तस्यैते प्राणाः स्वाः स यदा स्वपित्यथैनमेते प्राणाः स्वा अपियन्ति तस्मात्स्वाप्ययः स्वाप्ययो वैत स्वप्न इत्याचक्षते परोऽक्षम् । श० १० | ५ | २ । ६४॥
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( ३४९ )
प्राणः
प्राणः सर्वे ह वाऽ एते स्वपतो ऽपक्रामन्ति प्राण एव न । श० ३ | श
२ । २३ ॥
तदाहुः को ऽस्वप्तुमर्हति यद्वाव प्राणो जागार तदेव जागरितमिति । तां० १० ॥ ४॥४॥
19
प्राणो वै स्वयमातृष्णा ( इष्टका ) प्राणो ह्येवैतत्स्वयमात्मन आतॄन्ते । श० ७ । ४ । २ । २ ॥
" प्राणो वै स्वयमातृष्णा ( इष्टका ) । श० ८ । ७ । २ । ११ ॥
प्राणा वै स्वाशिरः | तां० १४ । ११ ॥ ९ ॥
प्राणा वै वामम् । श० ७ । ४ । २ ३५. ।।
प्राणो वा अस्य ( यजमानस्य ) सा रम्या तनूः । श० ७ । ४ । १ । १६ ॥
प्राणो वै युवा सुवासाः ( ऋ० ३ । ८ । ४ ) । ऐ० २१२ ॥ यो ऽयमनिरुक्तः प्राणः स सुरूपकृत्नुः । कौ० १६ ॥ ४ ॥ प्राणो वै सुसन्दृक् । तै० ०१ । ६ । ६ । ६ ॥
प्राणो वै सुशर्मा सुप्रतिष्ठानः । श० ४ । ४ । १ । १४ ॥ प्राणो वै सूददोहाः । श० ७ । १ । १ । २६ ॥
प्राणः सूददोहाः । श० ७ । १ । १
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१५ ।। ७ । ३ । १ । ४५ ॥
प्राणः स्रुवः । श० । ६ । ३ । १ । ८ ।।
प्राणो वै स्रुषः । तै० ३ । ३ । १ । ५ ॥
I
प्राण एव स्रुवः सो ऽयं प्राणः सर्वाण्यङ्गान्यनुत्रञ्चरति । तस्मादु
स्रुवः सर्वा अनु स्रुचः सञ्चरति । श० १ । ३ ।२।३॥
प्राणाः शिक्यं प्राणैर्ह्ययमात्मा शक्नोति स्थातुं यच्छक्नोति तस्माच्छिक्यम् । श० ६ । ७ । १ । २० ॥
प्राणा वै शाकलाः । श० १४ । २ । २ । ३१ ॥
शणाः शाकलाः । श० १४ । २ । २ । ५१ ।।
प्राणाः शिल्पानि । कौ० २५ | १२, १३ ॥
प्राणो वै मधु (यजु० ३७ । १३ ) | श० १४ । १ । ३ । ३० ॥ प्राणो वैरं प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि रतानि । श० १४ ।
८ । १३ । ३ ॥
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[प्राणः
( ३४२) प्राणः प्राणा वै दश वीराः ( यजु. १६ । ४८॥) । श० १२।।
१।२२ ॥ , प्राणो वै दिवः । श०६।७।४।३॥ , प्राणा वै प्रहा: । श०४।२१४।१३॥ ४।५।९।३॥ . ",, प्राणो वै ज्योतिः ( यजु० १४ । १७)। श० ८।३।२।१४॥ ,, प्राणो वै विश्वज्योतिः (इष्टका)। श० ७।४।२।२८॥८॥
३।२।४॥ ८ । ७।१।२२ ॥ , प्राणो व हिरण्यम् । श०७।५।२८॥ , प्राणो वै रुक ( यजु०१३ । ३९) प्राणेन हि रोचते । श०७ ।
५।२।१२॥ , प्राणो वाव कः । जै० उ०४।२३।४॥ , प्राणो हि प्रजापतिः । श०४।५।५।१३॥ ,, प्राणा उ प्रजापतिः । श०८।४।१।४॥
प्राणः प्रजापतिः। श०६।३।१।९॥ " तस्मादु प्रजापतिः प्राणः । श०७।५।१।२१ ॥ " भथ यस्स प्राण आसीत्स प्रजापतिरभवत् । जै० उ०२।२।६॥
अथ य एतदन्तरेण प्राणः संचरति स एव सप्तदशः प्रजापतिः। श०१०।४।१।१७॥
प्राजापत्यः प्राणः। तै०३।३।७।२॥ , प्राणों के कर्मः प्राणो हीमाः सर्वाः प्रजाः करोति । श० ७ ।
प्राणो हि वै क्षत्रं प्रायते हैनं प्राण क्षणितोः । श० १४ । ।
१४।४॥ , प्राणो वै तनूनपात् स हि तन्वं पाति । ऐ०२॥४॥ , प्राणो वै गोपारास हीदं सर्वमनिपद्यमानो गोंपायति । जै०
उ० ३। ३७ ॥२॥ ,, प्राणो वै पिता। ऐ० २।३८ ॥ , प्राणो वै नृषद् ( यजु० १२॥ १४॥ १७ । १२॥)। श०६ । ७ ।
३।११।९।२।१८॥ , तस्या एतस्यै वाचा प्राणा एवाऽसुः। जै० उ०१।४।७॥
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( ३४३ )
प्राणः] प्राणः प्राणो वा असुः। श०६।६।२।६॥ , प्राणो वाऽ अङ्गिराः । श० ६।५।२।३, ४ ॥ " प्राणा इन्द्रियाणि । तां०२।१४। २॥ २२।४।३॥ ,. (=मुखाद्यवयवाः); स ( सोमः ) अस्य (इन्द्रस्य) विष्वव
प्राणेभ्यो दुद्राव मुखा वास्य न दुद्रावाथ सर्वेभ्यो ऽन्येभ्यः प्राणेभ्यो ऽद्रवत् । श० १।६।३।७॥ प्राणो वै समश्चनप्रसारणं यस्मिन्वाऽ अङ्गे प्राणो भवति तत्सं
चाश्चति प्रच सारयति । श० ८।१।४।१०॥ , प्राणो वाऽ अर्णवः ( यजु०१३ । ५३॥)। श०७।५।२।२२॥ , अनहि प्राणाः । श०४।३।४।२५ ॥ , अन्न हि प्राणः। श० २।२।१।६॥ , अन्नं प्राणः। कौ०२५ । १३ ॥ , प्राणो वे भक्षः । श० ४।२।१।२९॥ " प्राणो वै सखा भक्षः । श० १।८।१।२३ ॥
प्राण एष स पुरि शेते सं पुरि शेत इति पुरिशयं सन्तं प्राणं पुरुष इत्याचक्षते । गो० पू०१।३६॥ प्राणो वे पतङ्गा ( ऋ०१०।१७७।१॥)। कौ०८॥४॥
उ०३।३५ । २॥३।३६ । २॥ , प्राणां वै प्रतिरवाः ( यजु०३८ । १५) प्राणान्हीद सर्व प्रति
रतम् । श० १४।२।२।३४॥ , (प्रजापतिः) प्राणमुद्गीथम् ( अकरोत्)। जै० उ०१।१३॥५॥
एष वशी दीप्तान उद्गीथो यत्प्राणः । जै० उ० २।४।१॥ , प्राणो वै यज्ञस्योद्राता। श०१४।६।१।। , प्राण उदाता । कौ० १७॥ ७॥ गो० उ०५॥४॥
ते य एवेमे मुख्याः प्राणा एत एवोद्रातारचोपगातारश्च । जै. उ०१ । २२ ॥ ५॥
प्राणः सामवेदः । श०१४।४।३।१२॥ , स यः प्राणस्तत्साम । जै० उ०१।२५ । १०॥ , तस्मात्प्राण एव साम । जै० उ०३।१।१८॥ , प्राणो वै साम गणे हीमानि सर्वाणि भूतानि सम्यश्चि । श०
१४।८।१४ । ३॥
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प्राण
( ३४४) पाणः प्राणा वै सामानि । श०६।१।२। ३२॥
, प्राणो वाव साम्नस्सुवर्णम् । जै० उ० १ । ३६।४॥ ,, प्राणो वै वामदेव्यम् । श०६।१।२॥ ३८ ॥ , प्राणो वै हिङ्कारः । श०४।२।२।११ ॥ प्राणो हि वै हिङ्कारस्तस्मादपिगृह्य नासिके न हिडन्तु शक्नोति । श. १।४।१।२॥ प्राणो वै स्वरः । तां० २४ । ११ । ६॥
प्राणः स्वरः । तां०७ । १ । १०॥ १७ ॥ १२॥२॥ , प्राणाः स्वरसामानः । तां० २४।४।४॥ २५ । १।८॥ , प्राणो वै स्तवः । कौ०८।३ ॥ ,, प्राणा वै स्तोमाः । श० ८।४।१।३॥ .. प्राणो वै वषट्कारः। श०४।२।१।२९॥ , प्राणा वै स्वाहाकुतयः । कौ० १०॥५॥ , प्राणो ऽसौ (धु-) लोकः । श० १४।४।३।११॥
प्राणो भरतः । ऐ० २।२४ ॥ , एष ( अग्निः) उ वाऽ इमाः प्रजाःप्राणो भूत्वा बिभर्ति तस्मा
द्वेवाह भरतवदिति । श०१।५।१।८॥ (-भूतिः) प्राणं वा अनु प्रजाः पशवो भवन्ति । ज० उ०२। ४।७॥ (-प्रभूतिः) प्राणं वा अनु प्रजाः पशवः प्रभवन्ति । जै० उ० २।४।६॥ प्राणा उ ह वाव राजन् मनुष्यस्य सम्भूतिरेवेति । जै० उ०४। ७।४॥
प्राणं वा अनु प्रजाः पशवरसम्भवन्ति । ज० उ०२।४।५॥ , प्राणा वै ब्रह्म । ते० ३।२।८ । ८ ॥ , प्राणा उवै ब्रह्म । श०८।४।१।३॥ , प्राणो वै ब्रह्म । श०१४।६।१०।२॥ जै० उ०।३।३।२॥
प्राणो वै सम्राट् ! परमं ब्रह्म । श. १४ । ६।१०।३॥ " प्राणो वै ब्रह्म पूर्व्यम् ( यजु० ११ । ५.)। श०६।३।१।१७॥ 1, प्राथा वै हत्यः। ऐ०३ । १४ ॥
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१८ । ६ । २६ ॥
( ३४५ ) प्राणः प्राणो बृहत् । तां० ७ । ६ । १४, १७ ॥ एष ( प्राणः) उ एव बृहस्पतिः । श० एव ( प्राणः ) उऽ पत्र ब्रह्मणस्पतिः । वाग्वै ब्रह्म तस्या एव पतिस्तस्मादु ह ब्रह्मणस्पतिः । श० १४ । ४ । १ । २३ ॥
१४ । ४ । १ । २२ ॥
प्राणो वै वाचस्पतिः । श० ४ । १ । १ । ६ ॥
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प्राणो वाचस्पतिः ( यजु० ११ । ७ ) । श० ६ । ३ । १ । १६ ॥ वाग्वा इदं कर्म प्राणो वाचस्पतिः ( यजु० ३० । १) । श० ६ |
३ । १ । १६ ॥
नमो वाचे प्राणपत्न्यै स्वाहा । प० २ । ६ ॥
वाफ़ च वै प्राणश्च मिथुनम् । श० १ । ४ । १।२ ॥
तस्मात्सर्वे प्राणा वाचि प्रतिष्ठिताः । श० १२ । ८ । २ । २५ ॥ तस्याः ( वाचः ) उ प्राण एव रसः । जै० उ० १ । १ । ७ ॥ या प्राणेष्वापो भवन्ति तावद्वाचा वदति । श० ५।३। ५ । १६ ।।
प्राणा वा आपः । तै०३ |२| ५ | २ ॥ तां० ६ । ९ ॥ ४ ॥ साह वागुवाच । ( हे प्राण ! ) या अहं वसिष्ठास्मि त्वं तद्वसिष्ठो ऽसीति । श० १४ । ९ । २ । १४ ॥
तयोः (सदसतोः ) यत् सत् तत्साम तन्मनस्स प्राणः । जै० ५० १ । ५३ । २ ॥
अर्द्धभाग्वै ममः प्राणानाम् । ब० १ | ५ |
मनो वै प्राणानामधिपतिर्मनसि हि सर्वे प्राणाः प्रतिष्ठिताः । श० ६४ । ३ । २ । ३ ॥
मनसि वै सर्वे प्राणाः प्रतिष्ठिताः । श०७ | ५ | २६॥
प्राणदेवत्यो वै ब्रह्मा । प० २ । ६ ॥
प्राणा से
भुजः । श० ७ । ५ । १ । २१ ॥
प्राणा वा ऋतुयाजाः । ऐ० २ । २६ ॥ कौ० १३ | ६ ॥ गो० उ०
३।७ ॥
प्राणो वै धाय्या । कौ० १५ ॥ ४ ॥
प्राणो धाय्या । जै० उ० ३ । ४ । ३ ॥
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" दिशो वे प्रायाः । जै० उ० ४ । २२ । ११ ॥
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( ३४६ )
[ प्राण: प्राणः प्राणा वै
धुरः । तां० १४ । ९ । १८ ॥
प्राणा वा अवकाशाः । कौ० ८ । ६ ॥ श० १४ | १ | ४ | १ ॥
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प्राणा अवकाशाः । श० १४ । २ । २ । ५१ ।।
प्राणा दीक्षा । तै० ३ | ८ | १० | २ ॥ श० १३ | ११७ ॥ २ ॥
प्राणो वै ककुप्छन्दः । श० ८ | ५|२| ४ ॥
प्राणा वा उष्णिक्ककुभौ । तां ८ | ५ | ६ ॥
प्राणो वै गायत्री । श० ६ । ४ । २ । ५ ॥ ष० ३ ॥ ७ ॥
प्राणो गायत्री । श० ६ । २ । १ । २४ ॥। ६ । ६ । २ । ७ ॥ १० ॥
३ । १ । १ ।। तां० ७ । ३ । ८ । १६ । ३ । ६ ॥
प्राणो वै गायत्र्यः । कौ० १५ | २ | १६ | ३ || १७ | २॥
तत्प्राणो वै गायत्रम् ( साम ) । जै० उ० १ । ३७ ॥ ७ ॥ प्राणा वै धवित्राणि । श० १४ । ३ । १ । २१ ॥
प्राणो वा प्रकूत्रीच्यः । कौ० ८ । ५ ॥
प्राणा वै प्रावाणः (यजु० ३८ । १५ ) । श०-१४ । २ । २ । ३३॥ स एषोऽश्मा ऽऽखणं यत्प्राणः । स यथा अश्मानमायणमुत्वा लोष्टो विध्वंसत एवमेव स विध्वंसते य एवं विद्वांसमुपवदति । ज० उ० १ । ६० । ७-८ ॥
य इमे शीर्षन्प्राणास्ते प्रयाजाः । ऐ० १ । १७ ॥
प्रयाजाः प्राञ्चो हूयन्ते तद्धि प्राणरूपम् । श० ११ । २ । ७ ॥ २७ ॥ प्राणा वै प्रयाजाः । ऐ० १ । ११ ॥ कौ० ७।१ ॥ १० ॥३॥ श० ११ । २ । ७ । २७ ।।
प्राणा वै प्रयाजानुयाजाः । श० १४ । २ । २ । ५१ ॥ प्राणो वै प्रायणीयः ( यागः ) । ऐ० १ । ७ ॥
प्राणः सर्व ऋत्विजः । मे० ६ । १४ ॥
प्राणाः पशवः । तै० ३ । २।६।६ ॥
प्राणो मनुष्याः । श०
प्राणो वे पवमानः ।
१४ । ४ । ३ । १३ ॥
०२ । २ । १ । ६ ॥
प्र. यो वै माध्यन्दिनः पवमानः । श० १४ । ३ । १ । २९ ॥
( पुरुषस्य ) ये वाचः ( प्राणाः ) ततृतीयसवनम् । कौ
२५ । १२ ।।
प्राणा वै यशो वीर्यम् । श० १० । ६ । ५ । ६ ॥
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(३४७ )
प्राणः] प्रायः प्राणायशः । श०।१४।५।२।५॥ " अय यत्प्राणा अभयन्त तस्मादु प्राणा धियः । श० ६।१।
१।४॥ " प्राणा द्विदेवत्याः । ऐ०२।२८॥ , प्राणाद्रिदेवत्याः । कौ० १३ । ५, ६ ॥ " प्राणो ह वाऽ अस्य ( यज्ञस्य ) उपाशुः । श०४।१।१।१॥ " अथवा उपांशुः प्राण एव । कौ० १२॥ ४॥ , प्रायो छुपा शुरिमा (पृथिवीं) व प्राणानभिप्राणिति ।
श०४।१।२।२७ ॥ " उपाश्वायतनो बै प्राणः । श०१०।३।५।१५ ।। , प्राणा वै त्रिवृत् । ता०२।१५।३॥३॥६॥३॥ , विद्ध मणः।०३।२।३।३॥ ., जय इमे पुरुषे प्राणा। श०१।३।५।१३॥ " सपा भयं श्रेधा विहितः प्राणा, प्राणो ऽपानो व्यान इति ।
कौ०१३।६॥ .. यो वै प्राणाप्राण उदानो व्यानः । श०६।४।२।५।६।
४।२।१०।। , प्राणो वा अपानो ज्यानस्तिस्रो देव्यः । ऐ०२।४॥ .. पाधा विहितो वाऽभयर्थ शीर्षन्प्राणो मनो वाक् प्राणश्चक्षुः
भोत्रम् ।।०४।२।२।५॥ ,, पस्तुनेति यजन्ति प्राणमेव तयजमाने दधति । कौ० १३ ॥ ९ ॥ , परवा इमे शीर्षन्प्राणा श०१२।६।१।६ ॥ १४।१।
३॥३२॥ , पढि प्राणE IN०६।७।१।२०॥ , सप्त शिरसि प्राणा: । तां०३।१४ । २॥ २२।४।३।। , सप्तशीर्षन्प्राणाः। श०४।५।२८॥ , सप्त वेशीषमाणाः। ऐ०१।१७ ॥ तै०१।२।३१३॥ , भटौप्राणा०९।२।२।६॥ ,, मरमाणा | श० ६।३।१।२१ ।। ६।८।२।१० ॥ ता०
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[प्राणः
। ३४८) प्राणः नव वै प्राणाः । ऐ०४।१६ ॥ गो० पू० ४।६॥ कौ० ७ ।
१०॥ष०३।१२॥ तां०४।५।२१ ॥ १४।७।६॥ , नव वै प्राणाः सप्त शीर्षनवाञ्चौ छौ । श०६।४।२।५॥ ८ ।
४।३।७॥ ,, नवेम पुरुषे प्राणा: । श०१।५।२।५॥ , नव वै पुरुषे प्राणा नाभिदशमी । तै० १।३।७।४॥२।
२।१।७॥
नव प्राणा:.......(नाभिः) दशमी प्राणानाम् । तां०६। ८।३॥ , दश प्राणाः । श०६।३।१।२१ ॥ ,, दशेमे प्राणाः । कौ०२8 । ८॥ , दश वै पुरुषे प्राणाः । गो० उ०६।२॥ , दश वाऽ इमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशो यस्मिनेते प्राणाः
प्रतिष्ठिताः । श०३।८।१।३॥
द्वादशेमे पुरुषे प्राणा: । गो० पू० ५।५॥ , त्रयोदशेमे पुरुषे प्राणाः । गो० पू०५।५॥ ,, प्रयोदशेमे पुरुषे प्राणा नाभिस्त्रयोदशी । श० १२।३।२।२॥ ., एतावन्तः ( त्रीणि च शतानि षष्टिश्च ) एव पुरुषस्य प्राणाः।
गो० पू० ५। ५॥ एकपुत्र इति चैकितानेयः । एको खेवैष पुत्रो यत्प्राणः ॥ स उ एव द्विपुत्र इति । द्वौ हि प्राणापानौ ॥ स उ एव त्रिपुत्र इति । त्रयो हि प्राणो ऽपानो व्यानः ॥ स उ एव चतुष्पुत्र इति । चत्वारो हि प्राणो ऽपानो व्यानस्समानः ॥ स उ एव पञ्चपुत्र इति । पञ्च हि प्राणो ऽपानो व्यानस्समानो ऽवानः ॥ स उ एव षट्पुत्र इति । षढि प्राणोऽपानो व्यानस्समानो ऽवान उदानः ॥ सउ एव सप्तपुत्र इति सप्त हीमे शीर्षण्या प्राणाः ॥ स उ एव नवपुत्र इति सप्त हि शीर्षण्याः प्राणा द्वाववाचौ ॥ स उ एव दशपुत्र इति । सप्त शीर्षण्या प्राणा द्वाववाचौ नाभ्यां दशमः॥ स उ एव बहुपुत्र इति । एतस्य हीयं सर्वाःप्रजाः (१)। जै. उ० २।५।२-११॥ को हितद्वेद यावन्त इमे ऽन्तरात्मन्प्राणाश०७।२।२।२०॥
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( ३४६)
प्राणः ] प्राण: बहुधा होवष निविष्टो यत्प्राणः । जै० उ०३।२।१३ ॥ " तस्मात्सर्वे प्राणाः प्राणोदानयोरेव प्रतिष्ठिताः । श०१२।।
.. न घाउ अस्थिषु प्राणोऽस्ति । श० ७।१।१।१५॥ , प्राणो वै हृदयमतो ह्ययमूर्ध्वः प्राणः संचरति । श० ३! ८ ।
., प्राणो हृदये (श्रितः)।०३।१०।।५।।
तस्मादयमात्मन्प्राणो मध्यतः । २०७।३।१ । २॥ , नासिकेऽउ वै प्राणस्य पन्थाः । श०१२।६।१ । १४॥ , वहिहि प्राणः । तां० ७।६।१४ ॥ " तं (पशुसंशप्तं ) प्राची दिक। प्राणेत्यनुप्राणत्प्राणमेवास्मिस्त.
ददधात् । श०११ । ८।३।६॥ ,, पुरस्तात्प्रत्यक प्राणो धीयते । श०७।५।१७॥ ,, प्राणो हि प्रियः प्रजानाम् । प्राण इव प्रियः प्रजानां भवति । य
एवं वेद । त० २।३। । ५ ॥ , प्राणो वै ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च । श०१४।।२।१॥ " तं (प्राणं) पाप्मा ना ऽन्यसृज्यत । न ह्येतेन प्राणेन पापं वदति
म पापं ध्यायति न पापम्पश्यति न पापं शृणोति न पापं गन्धमपानिति । तेनाऽपहत्य मृत्युमपहत्य पाप्मानं (देवाः) स्वर्ग लोकमायन् । जै० उ०२।१।१९-२० ॥
प्राणा वै समिधः । ऐ० २।४॥ श० १।५।४। १ ॥ , प्राणा वे समिधः ( यजु०१७ । ७९) प्राणा ह्येत समिन्धते ।
श०९।२।३।४४ ॥ ,, प्राणे ययं पुरुषः समिद्ध: । श०१।५।४।१॥ , यदु थे प्राणो ऽङ्ग नाभिप्राप्नोति शुष्यति धावतन लायति धा।
श० ८।७।२। १४ ॥ ,, यत्रायं पुरुषो म्रियता उदस्मात्प्राणा: कामन्त्याहो नेति, नेति
होवाच याज्ञवल्क्यो ऽत्रैव (प्राणा:) समवनीयन्ते । श०१४।
६।२।१२॥ , प्रादेशमात्रं हीम आत्मनो ऽभि प्राणा । कौ०२।२॥
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[प्राणापानी
( ३५०) प्राणः प्राणो वै प्रवान् । श०१।४।३।३॥ " (प्रजापतिः ) प्राणादेवेमं लोक (पृथिवीं) प्रावृहत् । कौ०
" लेखासु हीमे प्राणाः। श० ७ । २।२ । १८ ॥ " आयत इव ह्ययमवाङ्प्राणः । ष०२।२॥
शिरो वै प्राणानां योनिः । श०७।५।१। २२ ।। , प्राणो हि रेतसा धिकर्ता । श०१३।३।।१॥ " प्राणो रेतः । ऐ०२१.३८ ॥ " अध्रुवं वै तद्यत्प्राणः । श०१०।२।६। १९ ॥ प्राणभृत: ( इष्टकाः) अनं प्राणभृदन्नहि प्राणान्यिमति । श० ८।
___ अङ्गानि प्राणभृन्त्यङ्गानि हि प्राणान्धिप्रति । श०
८।१।३।१॥ प्राणापानौ शत शतानि पुरुषा समेनाष्टौ शता यन्मितं तदन्ति ।
अहोरात्राभ्यां पुरुषः समेन तावत्कृत्वः प्राणिति चाप चानितीति । श० १२।३।२।८॥ प्राणापानौ पवित्रे । तै०३।३।४।४॥३।३।६।७॥ प्राणापानौ मित्रावरुणौ । ते० ३।३।६।६॥ तां०६।१०। ५। ।८।१६ ॥ मित्रावरुणौ ( एवैनं ) प्राणापानाभ्याम् (प्रयतः)।०१। ७।६।६॥ प्राणापानावेवाधर्म्य । गो० पू०२।१०॥ प्राणापानौ देवः । गो० पू०३।१०॥ प्राणापानौ ब्रह्म । गो० पू० २। १० (११) ॥ प्राणापानौ वै बृहद्रथन्तरे । तां०७।६ । १२ ॥ प्राणापानौ वा एतौ देवानाम् । यदाश्वमेधौ । ते० ३।। २१॥३॥ प्राणापाना उपांश्वन्तर्यामी ( प्रही)। ऐ०२।२१ ॥ प्राणापानौ वा उपांश्वन्तर्यामौ ( प्रहौ)। कौ० ११॥ ८॥ १२।४॥
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( ३५१) प्रातःसवनम् । प्राणापानौ प्राणापानौ धै गो आयुषी। कौ० २६ ॥२॥
, प्राणापानावेव यत्प्रायणीयोदयनीये । कौ०७॥५॥ , प्राणापानौ वै दैव्या होता। ऐ०२॥४॥
प्राणापानौ वा अक्षरपङ्कयः । कौ० १६ ॥ ८ ॥ , प्राणाप्रानौ वै बाहंतः प्रगाथः । कौ० १५॥ ४ ॥१८॥२॥ , पाक च वै प्राणापानौ च वषट्कारः । ऐ० ३। ८ ॥ , वाक च ह वै प्राणापानौ च वषट्कारा । गो० उ० ३।६॥ प्रायोदानो सो ऽयं ( वायुः) पुरुषे ऽन्तः प्रविष्टः प्राङ् च प्रत्यक च
ताविमौ प्राणोदानी । श० १ ।१।३।२ ॥ १।८। ३।१२॥ ते (पवित्रे-यजु०१ । १२)वै द्वे भवतः। ...."ताविमौ प्राणोदानौ (श्वासप्रश्वासौ रुधिरादिनां शोधकावित्यर्थः)। श०१।१।३।२॥ प्राणोदानौ पवित्रे । श०१।।१।४४॥
इमे हि चावापृथिवी प्राणोदानौ। श०४।३।१२२॥ , प्राणोदानौ धावापृथिवी। स०१४।२।२।३६ ॥
प्राणोदानौ मित्रावरुणौ । श०३।२।२।१३॥ प्राणोदानी चै मित्रावरुणौ ।। श०१॥ ८॥३॥ १२ ॥३॥
६।१।१६ ॥ ५।३।५। ३४॥81५। १। ५६ ॥ " प्राणोदानी वाऽ अध्व! । श० ५। ५।१। ११ ॥
प्राणोदानावेव यत्प्रायणीयोदयनीये । कौ०७॥५॥ " प्राणोदानावेवाहवनीयश्च गार्हपत्यश्च । श०२।२।२।१८॥ , प्राणोदानाऽ उबै रेता सिक्तं विकुरुतः । श० ९।५।
प्रातः देवस्य सवितुः प्रातःप्रसवः प्राणः । ते० १।५।३।१॥ प्रातःसवमम् अग्ने प्रातःसवनम् । कौ०१२। ६ ॥ १४५ ॥२८॥५॥
प्राय प्रातस्सघनम् । जै० उ०१ । ३७ ॥१॥ , वसूनां वै प्रातासवनम् । कौ० १६ ॥१॥ ३० ॥१॥
बसूनामेव प्रातःसवनम् । श०४।३।५।१॥ त (मादित्य) वसवो ऽणकपालेन (पुरोडाशेन ) प्रातःसबने ऽभिषज्यन् ।०१।५।११॥३॥
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प्रांतर्यावाण
( ३५२ ) प्रातःसवनम् अथेमं विष्णु यशं त्रेधा व्यभजन्त । वसवः प्रात:सवन
रुद्रा माध्यन्दिन सवनमादित्यास्तृतीयसवनम् । श० १४।१।१ । १५॥ गायत्रं हि प्रात.सवनम् । गो० उ०३।१६॥ गायत्रं वै प्रातःसवनम् । ए०६ । २, ६ ।। प० १।४॥ तां०६।३।११ ॥ अयं वै लोकः ( पृथिवी ) प्रातासवनम् । श० १२ । ८ । २। - ॥ गो. उ० ३1 १६ ॥ तस्य (पुरुषस्य ) य ऊर्धाः प्राणास्तत्प्रातःसवनम् । कौ० २५ । १२ ॥ ब्रह्म व प्रातःसवनम् । कौ०१६ । ४ ॥ त्रिवृत्पश्चदशी ( स्तोमौ) प्रातःसवनम् (वहतः) । तां० १६ । १० । ५ ॥ अनिरुक्तं प्रातःप्तवनम् । तां०१८ । ६॥ ७॥ पीतवटै प्रातःसयनम् । ऐ०४।४॥ व्युद्धं वा एतदपशव्यं यत्प्रातःसवनमनिड हि । तां० ६।९।२३॥ ऊमा वै पितरः प्रातालवने । ऐ०७ । ३४॥ एकच्छन्दः प्रात:सवनम् । ष०१।३॥
उद्यन्तं ( सूर्यमीप्सन्ति ) प्रातःसवनेन । कौ० १८ १९ ॥ प्रातरनुवाकः प्रातर्व स (प्रजापतिः) तं देवेभ्यो ऽन्वनवीयत्प्रातरन्य
ब्रवीत्तत्प्रातरनुवाकस्य प्रातरनुवाकत्वम् । ऐ०२।१५॥ यदेवनं प्रातरन्धाह तत्प्रातरनुवाकस्य प्रातरनुघाकत्वम् । कौ०११ । १ ।। सर्व प्रातरनुवाका । कौ० ११ ॥ ७ ॥ प्रजापति प्रातरनुवाका । कौ० ११ । ७ ॥ २५ ॥ १०॥ प्रजापतेर्वा एतदुक्थं यत्प्रातरनुवाकः । ऐ० २॥ १७ ॥ वाक प्रातरनुवाकः। कौ०११ । - ॥
शिरो वा एतद्यज्ञस्य यत्प्रातरनुघाकः । ऐ०२।२१ ॥ प्रातर्यावाणः एते वाव देवा प्रातर्यावाणो यदमिरुषा अश्विनौ । ऐ०
२।१५॥
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( ३५३ )
प्रियङ्गवः ]
प्रायणीयः (यागः ) स्वर्ग वा एतेन लोकमुपप्रयंति यत् प्रायणीयस्तत्प्रायणीयस्य प्रायणीयत्वम् । ऐ० १ ७ ॥ आदित्य एव प्रायणीयो भवति । श० ३ । २ । ३ । ६ ॥ अथ यत् प्रायणीयेन यजन्ते । अदितिमेव देवतां यजन्ते । श० १२ । १ । ३ । २ ।।
प्राणो वै प्रायणीयः । ऐ० १ । ७ ॥
प्रायणीयम् (ग्रहः ) प्रायणीयेन वा अह्ना देवाः स्वर्ग लोकं प्रायन्यत् प्रायस्तत् प्रायणीयस्य प्रायणीयत्वम् । तां० ४ । २।२॥
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प्राणापानावेव यत्प्रायणीयोदयनीये । कौ० ७ । ५ ॥
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प्राथणीयोदयनीयौ ( यशस्य ) बाहू प्रायणीयोदयनीयौ । श० ३।२।
३ । २० ॥
यदमुत्र राजानं प्रेष्यन्नुपप्रेष्यन्यजते । तस्मात्प्रायणीयं नाम । श० ४ | ५ | ११२ ॥ Prg प्रायणीयमहः । तां० १० । ५ । ४॥ त्रिवृत्मायणीयमहः । तां० १० | ५ | ४ ॥
प्रावित्रम् यज्ञो वै प्रावित्रम् । श० ११५ । २ । १ ॥
प्रावृट् तस्मात्प्रावृषि सर्वा वाचो वदन्ति । तै० १ | ८ | ४ | २ ॥ प्राशित्रम लोकः प्राशिश्रम् । श० ११ । २ । ७ । १६ ।।
प्रासहा सेमा वा इन्द्रस्य प्रिया जाया बावाता प्रासहा नाम । ऐ० ३ । २२ ॥
ब्रह्म प्रायणीयमहः । तां० ११ । ४ । ६, ६ ॥ ततिर्वै यज्ञस्य प्रायणीयम् । कौ० ७ ॥ ६ ॥
सेना ह नाम पृथिवी (= विस्तीर्णेति सायण: ) धनञ्जया विश्वव्यचा अदितिः सूर्यत्व । इन्द्राणी देवी प्रासहा ददाना । तै० २ । ४ । २ । ७ ॥
इन्द्रो वै प्रासहस्पतिस्तुविष्मान् । ऐ० ३ । २२ ॥
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प्रियङ्गवः प्रियङ्गतण्डुलैर्जुहोति । प्रियाङ्गा ह वे नामेते । पतेर्वे देवा अभ्वस्याङ्गानि समदधुः । तै० ३ । ८ । ६४ । ६ ॥
स (रुद्रः) एतं रुद्रायाऽऽर्द्राय मैयङ्गवं चरुं पयसि निरषपत् । ततो वै स पशुमानभवत् । तै० ३ । १ । ४ १४॥
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[ फल्गुन्यः
( ३५४ )
प्रियङ्गवः भौज्यं वा एतदोषधीनां यत्प्रियङ्गवः । ऐ० ८ । १६ ॥ प्रियम् प्रजा वै प्रियाणि पशवः प्रियाणि । तां० ८ | ५ | १५ ॥ प्रेति: ( यजु० १५ | ६ ) अनं प्रेतिः । श० ८ | ५ | ३ | ३ ॥ प्रेषाः यज्ञो वै देवेभ्य उदक्रामत्तं प्रैषैः प्रेषमैच्छन् तत्प्रेषाणां प्रेषत्वम् ।
ऐ० ३ । ६ ॥
तं देवाः प्रैषैः प्रेषं (प्रकृष्टं सोमस्यान्वेषणमिति सायण ) ऐच्छन् । तत्प्रेषाणां प्रैषत्वम् । तै० २ । २ । ६ । ९ ॥
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., ( देवाः ) प्रैषैरेव प्रेषमै छन् । श० ३ । ९ । ३ । २८ ॥ बार्हता वै प्रेषाः । श० १२ | ८ | २ | १४ ॥
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१॥
प्रोक्षणय: ( बहुवचने ) दिव्या आपः प्रोक्षणयः । तै० २ । १ । ५ प्रोचणी आपः प्रोक्षण्यः । ऐ० ५ | २८ ॥
प्रोष्ठपदाः ( नक्षत्रम् ) ( देवाः ) प्रोष्ठपदेषूदयच्छन्त ( स्वकीयान्यायुधान्यसुरयोधनायोद्यतवन्तः) । तै० १० १।५।२।९ ॥ अभियस्योत्तरे ( प्रोष्ठपदाः) । तै० १।५।१। ५ ॥ ३ । १ । २॥९॥
अजस्यैकपदः पूर्व्वे प्रोष्ठपदाः । तै० १ । ५ । १ । ५ ।। ३ । १ । २ । ८ ॥
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प्लवः तस्यावाङ मेधः पपात । स एष वनस्पतिरजायतं तं देवाः प्रापश्यंस्तस्मात्प्रख्यः प्रख्यो हे वै नमितद्यत्लक्षः । श० ३ १८। ३ । १२ ॥
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स्वाराज्यं च ह वा एतद्वैराज्यं च वनस्पतीनाम् (यत्प्लुक्षः) । ऐ० ७ । ३२ ।। ८ । १६ ॥
यशसो वा एष वनस्पतिरजायत यत्प्लुक्षः । ऐ० ७ । ३२ ॥ प्लव: ( सामविशेष: ) यत्प्लवो भवति स्वर्गस्य लोकस्य समष्टये | तां० १४ । ५ । १७ ॥
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प्रेस (प्रेट्स: ) प्रेङ्खमारा होता शंसति महस एव तद्रूपं क्रियते । तां० ५ | ५ | ६ ॥
महो वै प्लेङ्खः । तै० १ । २ । ६ । ६ ॥
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फल्गुन्यः ( नक्षत्रम् ) अर्जुन्यो वै नामैतास्ता एतत्परोऽक्षमाचक्षते फल्गुम्य इति । श० २ । १ । २ । ११ ॥
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( ३५५ )
फाल्गुनानि ]
फल्गुन्य: (नक्षत्रम् ) भर्यम्णो वा एतन्नक्षत्रं यत्पूर्वे फल्गुनी । तै० १ । १ । २ । ४ ॥ १ । ५ । १ । २ । ३ । १ । १ । ८ ॥ भगस्य वा एतन्नक्षत्रं यदुत्तरे फल्गुनी । तै० १ । १ । २ । ४ ॥ १ । ५ । १ । २ । ३ । १ । १ । ८ ॥ पता वाऽ इन्द्रनक्षत्रं यत्फल्गुन्यः । श० २ । १ । २ । ११ ॥
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मुखमुत्तरे फल्गू पुच्छं पूर्वे । कौ० ५ । १
मुखै (संवत्सरस्य ) उत्तरे फल्गुन्यौ पुच्छं पूर्वे । गो० उ० १ । १२ ॥
एषा वै जघन्या रात्रिः संवत्सरस्य यत्पूर्वे फल्गुनी । है० १ । १ । २ । ९ ॥
मनुष्याणाम् । श० ३ | १|३ | ६ ॥
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एष वै प्रथमा रात्रिः संवत्सरस्य यदुत्तरे फल्गुनी । तै० १ । १ । २ । ९॥
फाण्टम् फाट फाल्गुनानि (हैमन्तानि तृणानि )
एषा ह संवत्सरस्य प्रथमा रात्रिर्यत्फाल्गुनी पौर्णमासी योत्तरषोत्तमा या पूर्वा मुखत एव तत्संबसरमारभते । श० ६ । २ । २ । १८ ॥
मुखं वा एतत्संवत्सरस्य यत्फाल्गुनी पौर्णमासी । कौ० ४।४ ॥ ५ । १ ।। तां० ५ । ९ । ८ ॥ गो० उ० १ । १९ ॥
इन्द्रो वृत्रमहन् तस्य वल्कः परा ऽपतत् तानि फाल्गुनान्यभवन् । तै० १० १ १४ । ७ ।६ ॥
द्वयानि वै फाल्गुनानि । लोहितपुष्पाणि चारुणपुष्पाणि च स यान्यरुणपुष्पाणि फाल्गुनानि तान्यभिषुणुयादेष वै सोमस्य भ्यङ्गो यदरुणपुष्पाणि । श०४ | ५ । १० । २ ॥ पशवो वै फाल्गुनानि । तैः १ । ४ ।
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७ ॥ ६ ॥
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[बलम्
(३५६ ) फेनः स (फेनः ) यदोपहन्यते मृदेव भवति । २०६।१।३।३॥ ('नमुचिः' शब्दमपि पश्यत )
(ब) बदरम् यत्सीहा तद् बदरम् ( अभवत् )।श० १२।७।१।३॥ बभ्रः ( यजु० १२ । ७५) सोमो वै बभ्रः । श०७।२।१।२६ ॥ बम्बः (भाजद्विषः ) बम्बेनाऽऽजद्विषेण (उदात्रा दीक्षामहा इति)
पितरो दक्षिणतः (आमच्छन् ) । जै० उ० २।
७॥२॥ बर्हिः प्रजा वे बहिः । कौ० ५।७ ॥ १८ । १० ॥ तै०१।६।३।१०॥
श०१।५।३।१६ ॥ २।६।१।१३, ४४ ॥४।४।५। १४॥ गो० उ०१।२४ ॥
पशवो वै बर्हिः। ऐ०२॥४॥ , ओषधयो बर्हिः। ऐ०५।२८॥श० १।३।३।६॥१८॥
२।११।१।९।२।२६ ॥ तै०२।१।५।१॥ , (ऋ०६ । १६ । १०) अयं लोको बर्हिः । श०१।४।१।२४॥ " अयं वै लोको बहिः । श०१।।२।११।१।४।२१२६॥ , बहिर्यजति शरदमेव, शरदिहि बहिष्ठा ओषधयो भवन्ति । को
३॥४॥ शरई बर्हिरिति हि शरद बहिर्या इमा ओषधयो प्रीमहेमन्ताभ्यां नित्यक्ता भवन्ति ता वर्षा वर्द्धन्ते ताः शरदि बर्हिषो रूपं
प्रस्तीर्णाः शेरे तस्माच्छरद् बर्हिः । श० १।५।३ । १२॥ ,, क्षत्रं वै प्रस्तरो विश इतरं बर्हिः । श०१।३।४।१०॥ , भूमा वै बर्हिः । श०१।५।४।४॥ बर्हिषदः ( पितरः ) मासा वै पितरो बर्हिषदः । ते० १।६।८।३॥ बलभिद् ( क्रतुः) यद् बलभिदा ( यजते ) बलमेवास्मै भिनत्ति । तां०
१९ । ७॥३॥ बलम् बलं वै सहः । श०६।६।२।१४॥ , बलं वै शवः ( यजु०१२। १०६ ॥ १८ ॥५१) । श०७॥३॥
१॥ २६ ॥९।४।४।३॥
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( ३५७ ) बलम् बलं हरये (श्रितम्) । ते० ३ । १०। ८ ॥ , इन्द्रो बलं बलपतिः । श० ११।४।३।११ ॥ १. २।५।
७।४॥ बलिवर्दः परिवत्सरो बलिवर्दः । ० ३ । ८।२०। ५॥ बहिष्पवमानः ( स्तोत्रम् ) मुखं वा एतद्यक्षस्य यदू बहिष्पवमानः। ऐ०
२।२२ ॥ बहिष्पवमानेन वै यज्ञः (अग्निष्टोमाइतिसायणः)
सृज्यते । तां०६।६।२२ ॥ बहिप्पवमान्यः (स्तोत्रीयाः) खियो बहिष्पवमान्यः । तां०६।८।५॥ बहु अन्तो वै बहु । ऐ०५।२१५ ॥ बादरायण: विष्वक्सेनो व्यासाय पाराशर्याय व्यासः पाराशों जैमि
नये जैमिनिः पौष्पिण्ड्याय पौष्पिण्ड्या पाराशर्यायणाव पाराशर्यायणो बादरायणाय बादरायणस्ताण्डिशाट्याय
निभ्यां ताण्डिशाट्यायनिनौ बहुभ्यः। सा०वि० ३।३।३॥ वाईदुक्थम् ( साम; बृहदुक्थो वा एतेन वायो ऽनस्य पुरोधामाग
छद वै ब्रह्मणः पुरोधानाधस्यावरुभ्यै। तां०
१४।६।३०॥ बाईद्विरम् ( साम ) ब्रह्मवर्चसम्महमित्यप्रवीत् (इन्द्र) वृहद्विरिस्तस्मा
एतेन बाईद्विरेण ब्रह्मवर्चसं प्रायच्छदू ब्रह्मवर्चस. काम पतेन स्तुवीस ब्रह्मवर्चसी भवति । तां०१३ ।
४।१७॥ , बाह दिरं ब्राह्मणाय (कुर्यात)। तां०१३।४।१८॥ माहुः बाहुs अरनिः । श० ६।३।१ । ३३ ॥६।७।१।१५ ॥
१४।१।२।६। , पञ्चदशौ हि बाहू । श० ८।४।४।६॥ , वीर्य वा एतद्राजन्यस्य यदूबाहू। श०५।४।१।१७॥
तस्मादु बाहुर्षाय्यों (राजन्यः) बाहुभ्याहि खातां०६।
तस्माद्राजा बाहुबली भावुकः । श०१३।२।२॥५॥ " बाहूबै मित्रावरुणौ । श. ५।४।१।१५ ॥ , बाहू वै अचौ । श०७।४।१ । ३६ ॥
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[ बृहत्
( ३५८ )
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बाहू (="आर्द्रा नक्षत्रम्" इति सायण: ) रुद्रस्य बाहू । तै० १ । ५ । १ । १ ॥ बिल्वः अथ (प्रजापतेः) यत्कुन्तापमासीत् । यो मज्जा स साधक समवद्रुत्य श्रोत्रत उदभिनत्स एष वनस्पतिरभवद्विल्वस्तस्मात्तस्यान्तरतः सर्वमेव फलमाद्यं भवति तस्मादु हारिद्र इव भाति । श० १३ | ४ | ४१८॥
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5.
बैल्वं (यूपं ) ब्रह्मवर्चसकामस्य (करोति ) । ० ४ । ४ ॥ बेल्वा : (यूपाः) भवन्ति । ब्रह्मवर्चसस्यावरुद्ध्य । तै० ३ |
षड् ८ । २० ॥ १ ॥
निसानि यानि बिसानि तान्यस्यै पृथिव्यै रूपम् । श० ५ | ४| ५ | १४ ॥ बुद्धि: बृहस्पतिरिव बुद्धया ( मूयासम् ) । मं० २ । ४ । १४ ॥ बुधः महीन्दीक्षार्थं सौमायनो (=सोमपुत्रः ) बुधो यवुदयच्छदनन्दत्सर्वमामोन्मम्मां से मेदोधा इति । तां० २४ । १८ । ६ ॥ बुझ्या उपमा विष्ठा: (यजु०१३ | ३) दिशो वाऽ अस्य (सूर्यस्य) बुध्न्या उपमा विष्ठाः । श० ७ । ४ । १ । १४ ॥
बृहच्छन्दः ( यजु० १५ ।५ ), असौ वै (चु-)लोको बृहच्छन्दः । श० ६।५।२।५ ॥
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बैल्वं (यूपं कुर्वीत ) अन्नाद्यकामः । कौ० १० ॥ १ ॥ बिल्वं ज्योतिरिति वा आचक्षते । ऐ० २ ॥ १ ॥
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बृहच्छोचा: उदानो वै बृहच्छोचाः । श० १ । ४ । ३ । ३ ॥
बृहज्ज्योतिः असौ वा आदित्यो बृहज्ज्योतिः । श० ६ । ३ । १ । १५ ॥ बृहत (साम) बृहन्मय्र्य्या ६६ १० स ज्योगन्तरभूदिति तद् बृहतो बृहत्स्त्वम् । तां० ७ । ६ । ५ ॥
त्वामिद्धि हवामहे [ ऋ० ६ । ४६ । १ ] इत्यस्यामृच्युत्पनं साम बृहत् इति 'ऐ० ४ । १३' भाष्ये सायणः) ॥
साम वै बृहत् । तां० ७ । ६ । १७ ।।
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भारद्वाजं वै बृहत् । ऐ० ८ । ३ ॥
बृहता वा इन्द्रो वृत्राय वज्रं प्राहरन्तस्य तेजः परापतत्तत्सौभरमभवत् । तां० ८ १६ १६ ॥
बृहतो ह्येतत्तेजो यत्सौभरम् । सां० ८ । ८ । १० ॥ सौभरं भवति बृहतस्तेजः । तां० १२ । १२ । ७ ॥
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( ३५९ )
बृहत् (साम) वयक्षरं बृहत् । ते० २ । १ । ५ । ७ ॥
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बृहद्धि पूर्व रथन्तरात् । तां० ११ । १ । ४॥ यस्वं तद्रथन्तरं यद्दीर्घे तद् बृहत् । कौ० ३।५ ॥ यद् बृहत्तदैवतम् | ऐ० ४ । १३ ॥
बृहदेतत्परोक्षं यद्वैरूपम् (साम) | तां० १२ । ८ । ४ ॥ यद् बृहत्त राजम् (साम) । ऐ० ४ । १३ ॥
अन्तो बृहत्साम्नाम् । तां १६ । १२ । ८ ॥
श्रेष्ठयं वै बृहत् । ऐ० ८ । २ ॥
ज्यैष्ठयं वे बृहत् । ऐ० = १२ ॥
यथा वै पुत्रो ज्येष्ठ एवं बृहत्प्रजापतेः । तां० ७ । ६ । ॥ ऊर्द्धमिव हि बृहत् । तां० ८ । ६ । ११ ॥
बृहत् ]
बृहद् । श०९ । १ । २ । ३७ ॥
द्यौर्बृहत् । तां० १६ । १० । ८ ॥
बृहद्धयसौ ( द्यौः ) । श० १ । ७ । २ । १७ ॥
असौ ( द्यौः ) बृहत् । कौ० ३ । ५ ॥ तै० १ । ४ । ६ । २ ॥ तां० ७ । ६ । १७ ॥
असौ (-) लोको बृहत् । ऐ० ८ | २ ॥
उपहतं बृहत्सह दिवा । तै० ३ | ५ | ६ | १ ॥
८ । १ । १६ ॥
स्वर्गो लोको बृहत् । तां० १६ । ५ । ६५ ॥
बृहद्वै सुवर्गो लोकः । तै० १।२।२।४ ॥ तां० ६ । १ । ३१ ॥ बृहता वै देवाः स्वर्ग लोकमायन् । तां० १८ | २ | ८ ॥ आदित्यो बृहत् । ऐ० ५ । ३० ॥
प्राणो बृहत् । तां० ७ । ६ । १४, १७ || १८ | ६ | २६ ॥ क्षत्रं बृहत् । ऐ० ८ । १,२ ॥
मनो वै बृहत् । तां० ७ । ६ । १७ ।।
मनो बृहत् । ऐ० ४ । २८ ॥
श० १ ।
स (प्रजापतिः) तूष्णीं मनसा ध्यायत्तस्य यन्मनस्यासीस बृहत्समभवत् । तां० ७ । ६ । १ ॥
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वृहती
( ३६०) बृहत (साम) वर्म वै बृहत् । तां० ११।६।४॥
ऐवै वृहत् । सां०७।६।१७॥ वृहविराट् । तै० १।४।४।६॥ एतद्वै बृहतः स्वमायतनं यत्त्रिष्टुप् । तां० ४।४।१०॥ त्रैष्टुभं वै बृहत् । तां० ५। १ । १४॥ स बृहदसजत तत्स्तनयित्नो?षोन्वसृज्यत । तां०७। -१०॥
महर्हितम् । ऐ० ५। ३०॥ बहती (छन्दः) वृहती वृहतेर्वृद्धिकर्मणः । दे० ३ । ११ ॥
वृहती मर्या ययेमान् लोकान् व्यापामेति तद् हत्या वृहत्त्वम् । तां०७।४।३॥ यस्य नव ता वृहतीम् । कौ०६।२॥
शिदक्षरा वृहती । श० -।३।३ । ॥ ते. ३।६।१२।१॥ तां० १०॥ ३।६॥ गो० पू०॥१२॥ त्रिंशदक्षरा वै बृहती। ऐ०४।२४॥ ७ ॥१॥ श० ३।५।१।६॥ ता वा एता वृहत्यो यत् षटूत्रिशदक्षराः । तां०१६ । १२।१०॥ एतया हि देवा इमाँल्लोकानाचवत ते वै दशभिरेवाक्षररिम लोकमाश्नुवत दशभिरन्तरिक्षं दशभिर्दिवं च. तुर्भिश्चतम्रो दिशो द्वाभ्यामेवास्मिल्लोके प्रत्यतिष्ठस्तस्मादेतां वृहतीत्याचक्षते । ऐ०४।२४॥ पञ्चदशकविंशश्च बाहतो तो गौश्चाविश्धान्षसज्येतां तस्मात्तो बाहतं प्राचीन भास्कुरुतः । तां० १०॥२॥ ६॥ गोऽश्वमेव हि वृहती । कौ० ११ । २॥ पशवो बहती। कौ०१७।२॥ २६ ॥ ३॥ष०३॥ १०॥ पशवो वै वृहती। तां०१६ । १२॥६॥ पाहताः पशवः । ऐ०४।३॥ ५॥६॥ कौ० २३॥ १॥ २६।३॥ ०१।४।५।५॥ श० १३॥ ४॥३॥१५॥ वृहती वाव छन्दसां खराट् । तां०१०।३। ॥
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( ३६१ )
बृहती (छन्दः ) स्वराज्यं छन्दसां बृहती | तां० २४ । ६ । ३ ॥ श्री बृहती । कौ० २८ ॥ ७ ॥ २६ ॥ ५ ॥
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श्री यशश्छन्दसां बृहती । ऐ० १ । ५ ॥
बृहत्यां वा असावादित्यः श्रियां प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठितस्तपति । गो० उ० ५ । ७ ॥
बातो वा एत्र य एष (सूर्यः) तपति । कौ० १५ | आ २५ ॥ ४ ॥ गो० उ० ३ । २० ॥
बृहती स्वर्गो लोकः । श० १० | ५ | ४ | ६ ॥ बृहत्यामधि खर्गो लोकः प्रतिष्ठितः । श० १३ । ५ ।
४ । २८ ॥
बातो वा असौ (स्वर्गः ) लोकः । तै० १ । १ । ८२॥ बाईतो वै स्वर्गो लोकः । गो० पू० ४ । १२ ॥
बार्हताः स्वर्ग लोकाः । ऐ० ७ । १ ॥
बृहत्या वै देवाः स्वर्ग लोकमायनू । तां० १६ । १२ । ७ ॥ पवमानस्य बृहती ( स्वर्ग्य ) । तां० ७ । ४ । १ ॥
अयं मध्यमो ( लोक = अन्तरिक्षं ) बृहती | सां० ७ । ३।६ ॥
बृहती हि संवत्सरः । श० ६ । ४ । २ । १० ॥ वाग्वै बृहती । श० १४ । ४ । १ । २२ ॥
यहस्यै वाचो वृहत्यै पतिस्तस्माद् बृहस्पतिः । जै० उ० २।२।५॥
मनो बृहती । श० १० । ३ । १ । १ ॥
प्राणा वै बृहत्यः । ऐ० ३ । १४.
ध्यानो बृहती । तां० ७ । ३ । ८ ॥
बृहती ]
आत्मा वै बृहती । पे० ६ । २८ ॥ गो० उ० ६ ॥ ८ ॥ बात हि माध्यन्दिनं सवनम् । तां० ९ । ७।७ ॥
बार्हता व प्रैषा बाता प्रावाणः । श० १२ । ८ | २ | १४|| बृहत्या वा एतदयनं यद् द्वादशाहः । ऐ० ४ । २४ ॥ एतद्वै रथन्तरस्य स्वमायतनं यद् बृहती । तां० ४ ।
४ । १० ॥
·
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[ बृहन्
( ३६२ )
बृहती (छन्द: ) बृहत्यां भूयिष्ठानि सामानि भवन्ति । तां० ७ | ३ | १६|| सा बृहत्यभवत्तयेमान् लोकान् ( देवाः ) व्याप्नुवन् । तां० ७ । ४ । २ ॥
एषा
वै प्रतिष्ठिता बृहती या पुनःपदा || तां० १७ ।
ور
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१ । १३ ॥
पर्शवो बृहत्यः । श० ८ । ६ । २ । १० ॥ बृहदुचः प्रजापतिर्वै बृहदुक्षः । श० ४ । ४ । १ । १४ ॥ बृहद्धाः सुवर्गो वै लोको बृहद्भाः । तै० ३ । ३ । ७ । € ॥
बृहद्रथन्तरे ( सामनी ) अनडवाहौ वा एतौ देवयानौ यजमानस्य यद् बृहद्रथन्तरे । तां० १२ । ४ । १४ ॥ बृहद्रथन्तरे छन्दो द्यावापृथिवी देवते पक्षौ । श० १० । ३ । २ । ४ ॥
एते वै यज्ञस्य नाव संपारिण्यौ यद् बृहद्रथन्तरे ताभ्यामेव तत्संवत्सरं तरन्ति । ऐ० ४ । १३ ॥ पादौ वै बृहद्रथन्तरे शिर एतद् (आरम्भणीयम् ) अहः । ऐ० ४ । १३ ॥
पक्षौ वै बृहद्रथन्तरे शिर एतदू (आरम्भणीयम् ) अहः । ऐ० ४ । १३ ॥
बृहद्रथन्तरे ( महाव्रतस्य ) पक्षौ | तां० १६ ११ । ११ ॥
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उभे बृहद्रथन्तरे भवतस्तद्धि स्वाराज्यम् । तां० १९ । १३ । ५ ।।
पशवो वै बृहद्रथन्तरे । तां० ७ । ७ । १ ॥ प्राणापानौ वै बृहद्रथन्तरे । तां० ७ | ६ | १२ ॥ ज्योगामयाविने उभे (बृहद्रथन्तरे ) कुर्य्यादपक्रान्तौ वा एतस्य प्राणापानौ यस्य ज्योगामयति प्राणापानावेवास्मिन्दधाति । तां० ७ । ६ । १२ ॥
बृहदय: अश्वो मै बृहद्वयः । तै० ३ | ६| ५ | ३ || श० १३ । २ । ६ । १५ ।।
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वृहन् एष ते शुक्रो य एष ( सूर्यः ) तपत्येष उपव बृहन् । श० ४ । ५।६।६ ॥
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( ३६३)
बृस्पतिः बहन्विपश्चित् ( यजु० ११ । ४) प्रजापति बृहन्धिपश्चित् । श०. ६ ।
३।१।१६॥ बृहस्पतिः वाग्वै वृहती तस्या एष पतिस्तस्मादु बृहस्पतिः । २०१४ ।
४।१ । २२ ॥ , यदस्य वाचो हत्यै पतिस्तस्माद् वृहस्पतिः । जै० उ०२।
२।५॥ वृहस्पतिः ( एवैनं ) वायां ( सुबते )। तै० १।७।४।१॥ अथ वृहस्पतये वाचे । नधारं चरं निर्बपति । श० ५। ३ ।
ये ( प्रजापते रेतपिण्डा दग्धाः सन्तः । तारा आसस्ते ऽगिरसो ऽभवन्यदङ्गाराः पुनरवशान्ता उददीप्यन्त तदू वृहस्पतिरभवत् । ऐ०३।३४॥ ल (बृहस्पतिः) एतं वृहस्पतये तिघ्याय नेवारं च पयसि निरवपत् । ततो वै स ब्रह्मवर्षस्यभवत् । ०३।१।४।६॥ पृहस्पतेस्तियः (नक्षत्रविशेषः) । ते. ११५।१।२॥ ३।१।१।५॥ ( यजु० ३८10) अयं वै गृहस्पतियों ऽयं (वायुः) पवते । श०१४।२।२। १०॥ एष (प्राणः) उ एष बृहस्पतिः । श०१४।४।१ । २२॥ प्रथ यस्सो ऽपान आसीत्स वृहस्पतिरभवत् । जै० उ०२। २।५॥ यचक्षुः स वृहस्पतिः । गो० उ०४ । ११ ॥
युन हि वृहस्पतिः । श०३।१।४।१६ ॥ , वृहस्पतिरिव दुद्धचा (भूयासम्)। मं० २।४।१४ ॥
वृहस्पतिर्वे सर्व ब्रह्म । गो० उ०१ । ३. ४ ॥ , ब्रह्म वै वृहस्पतिः । ऐ०१।१३ ॥ १ । १९ ॥२॥३८॥४।
११॥ कौ०७।१०॥ १२॥ ८॥१८॥२॥श०३।१।४। १५॥३।९।१ । ११॥ जै० उ० १। ३७ ॥६॥ ब्रह्म बहस्पतिः । गो० उ०६॥७॥ ब्रह्म पै देवानां परस्पतिः । तै० १।३।८।४॥१।।
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[ बृहस्पतिः
( ३६४ )
I
बृहस्पतिः बृहस्पतिर्ब्रह्म ब्रह्मपतिः । तै० २।५।७।४ ॥ बृहस्पते ब्रह्मणस्पते । तै० ३ । ११ । ४ । २ ॥
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बृहस्पतिर्वै देवानां ब्रह्मा । श० १।७।४।२१ ॥ ४६॥ ६ ॥ ७ ॥
बृहस्पतिर्ह वे देवानां ब्रह्मा । कौ० ६ । १३ ॥
बृहस्पतिर्वा प्राङ्गिरसो देवानां ब्रह्मा । गो० उ० १ । १ ॥ ते ऽङ्गिरस श्रादित्येभ्यः प्रजिष्युः श्वः सुत्या नो याजयत न इति तेषां हानिर्दूत आसत आदित्या ऊचुरथास्माकमद्य सुत्या तेषां नस्त्वमेव ( अग्ने !) होतासि, बृहस्पतिर्ब्रह्मा ऽयास्य उद्गाता, घोर श्रङ्गिरसो ऽध्वर्युरिति । कौ० ३० ॥६॥ बृहस्पतिर्वै देवानामुद्गाता । तां० ६ । ५ । ५ ॥
तं (शर्यातं [ ? शर्यातिं ] मानवं ) देवा बृहस्पतिनोद्रात्रा दीक्षामहा इति पुरस्तादागच्छन् । जै० उ०२ । ७ । २ ॥ बृहस्पतिः पुर एता । तै०२ । ५ । ७ । ३ ॥ बृहस्पतिव देवानां पुरोहितः । ऐ० ८ । २६ ॥ धेना बृहस्पतेः पत्नी । गो० उ०२ । ६ ॥ बृहस्पतिर्विश्वैर्देवैः ( उदक्रामत् ) । ऐ० १ । २४ ॥ यजमानदेवत्यो वै बृहस्पतिः । तै० १ । ८ । ३ । १ ॥ बार्हस्पत्यो वा एष देवतया यो वाजपेयेन यजते । तै० १ । ३ । ६ । ६-६ ॥
I
बार्हस्पत्यष्टकपालः (पुरोडाशः ) । तां० २१ । १० । २३ ॥ एषा वा ऊर्ध्वा बृहस्पतेर्दिक । श० ५ । ५ । १ । १२ ॥ बृहस्पतिः ( श्रियः ) ब्रह्मवर्चसम् ( आदत ) | श० ११ । ४।३।३ ॥
सः (बृहस्पतिः प्रजापति ) श्रब्रवीत्क्रौ सानो वृणे ब्रह्मवर्चसमिति | जै० उ० १ । ५१ । १२ ॥
/
बृहस्पतेर्मध्यन्दिनः । तै० १० १।५।३।२॥ मित्राबृहस्पती वै यज्ञपथः । श० ५ । ३ । २ । ४॥
शंयुर्ह वै बार्हस्पत्यः सर्वान् यशास्मयांचकार । कौ० ३ ॥ ८ ॥
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( ३६५.)
बह्म ] बृहस्पतिः शंयुह वै बार्हस्पत्यो ऽअसा यशस्य सस्थां विदांचकार स . देवलोकमपीयाय । तत्तदन्तर्हितमिव मनुष्येभ्य आस ।
श०१।४।१।२४॥ बृहस्पतिसवः स एष बृहस्पतिसवो, बृहस्पतिरकामयत देवानां पुरोधां
(= पौरोहित्यं ) गच्छेयमिति स एतेनायजत स देवानां
पुरोधामगच्छत् । तां० १७ । ११ । ४ ॥ बेकुरा तस्यै (वाचे ) जुहुयाद् बेकुरा नामासि । तां०६।७।६॥ अनः असो वा प्रादित्यो प्रश्नः । ते० ३।६।४।१॥ बध्नस्य विष्टरम् ( ऋ० ८ । ६६ । ७) (= द्योः), अदो वै ब्रनस्य विष्ट
यत्रासौ ( सूर्यः ) तपति । कौ० १७ ॥ ३ ॥ , स्वर्गो वै लोको बध्नस्य विष्टपम् । ऐ०४।४॥ अध्नस्य विष्टपं चतुर्विंशः (यजु०१४ । २३) संवत्सरो वाव बनस्य विष्ट
चतुनिशस्तस्य . चतुर्विशतिरर्धमासाः सप्तऽर्तयो के अहोरात्रे संवत्सर एव अनस्य विष्टपं चतुधि शस्तद्यत्तमाह व्रध्नस्य विष्टपमिति स्वाराज्यं वै बधस्य विष्टप, स्वाराज्यं
चतुमिशः । श० ।४।१।२३ ॥ अध्नो रुष: ( यजु० २५। ५) असो वाऽश्रादित्यो बध्नोऽरुषःश०१३ ।
ब्रह्म ( वागिति) एतदेषां (नानां) ब्रह्मतद्धि सर्वाणि नामानि बिभर्ति।
श० १४ । ४।४।१॥ , वाग्बल । गो०पू०२।१० (११)। ., वाग्वै ब्रह्म । ऐ०६।३॥ श०२।१।४।१०॥ १४। ४।। " २३॥ १४।६।१०।५॥ ,, धाग्धि ब्रह्म । ऐ०२।१५ ॥ ४ । २१ ॥ ,, वागिति तब्रह्म । जै० उ०२।।। ६ ॥ ,, सा या सा वाग्नीष तत् । जै० उ०२।१३ ॥ २॥ , ब्रह्म वैगचः परमं व्योम।०३।४।५।५॥ , तस्यै वाचः सत्यमेव ब्रह्म । श०२।१।४।१०॥ , सत्यं ब्रह्म । श० १४ । - । ५।१ ॥
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[ बल
( ३६६ )
बह्म ब्रह्म वाऽ ऋतम् । श० ४ । १ । ४ । १० ॥ मनो ब्रह्म । गो० पू० २ । १० ( ११ ) ॥ मनोवै
ष०
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सम्राट् ! परमं ब्रह्म । श
१४ । ६ । १० । १२ ॥
'श्रोत्रं वै ब्रह्म श्रोत्रेण हि ब्रह्म शृणोति श्रोत्रे ब्रह्म प्रतिष्ठितम् ।
ऐ०२ । ४० ॥
ब्रह्म वै गायत्री । ऐ० ४ । ११ ॥ कौ० ३ । ५ ॥
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" . ब्रह्म हि गायत्री । ० ११ । ११ । ६ ॥
" ब्रह्म गायत्री । श० ४ । ४ । १ । १८ ॥
ब्रह्मवै प्रणवः । कौ० ११ । ४ ॥
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सम्राट् ! परमं ब्रह्म । श० १४ । ६ ।
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" ब्रह्म ह वै प्रणवः । गो० उ०. ३ । ११ ॥
भूरिति वै प्रजापतिः ब्रह्माजनयत । श० २ । १ । ४ ! १२ ॥
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,, स ( प्रजापतिः ) भ्रान्तस्तपानो ब्रह्मैव प्रथममसृजत त्रयीभेव
हृदयं वै सम्राट् ! परमं ब्रह्म । श० १४ । ६ । १० । १८ ॥ चक्षुर्ब्रह्म | गो २ । १० ( ११ ) ॥ पू० चक्षवै ब्रह्म । श० १४ । ६ । १० । ८ ॥ श्रोत्र वै
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हुर्ब्रह्मास्य सर्वस्य प्रथमजमिति । श० ६ । १ । १ । १० ॥ ,, ब्रह्म वा ऋक् । कौ० ७ । १० ॥
5. ब्रह्म वै मन्त्रः । श० ७ । १ । १ । ५ ।।
,, ब्रह्म ( = मन्त्र इति सायणः ) हि देवान् प्रच्यावयति । श० ३ । ३ ।
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१ । ५ ॥
१० । १५ ॥
४ । १७ ॥
वेदो ब्रह्म ।
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( = वेदा: ) सताक्षरं वै ब्रह्मर्गित्येकाक्षरं यजुरिति द्वे सामेति द्वेऽथ यदतो ऽन्यद् ब्रह्मेव तद्, द्वयक्षरं वै ब्रह्म तदेतत्सर्व
विद्याम् | श० ६ । १ । १ । ६ ॥
ततः (प्रजापतिः) ब्रह्मैव प्रथममसृज्यत त्रय्येव विद्या तस्मादा
जै ० उ०४ । २५ । ३॥
सप्ताक्षरं ब्रह्म । श० १० । २ । ४ । ६॥
एतद्वे यजुः ( उर्वन्तरिक्षमन्वेमीति ) ब्रह्म रक्षोहा । श० ४ । १ । १ । २० ॥
ब्रह्म वै प्रजापतिः । श० १३ । ६ । २ । ६ ॥
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ब्रह्म ब्रह्म वै बृहस्पतिः। कौ०७।१०॥१२॥ - ॥ १।२॥ ऐ०१।
१३ ॥ १ । १६ ॥ २॥ ३८ ॥ ४ ॥ ११ ॥ श० ३।१।४।१५ ॥
३।४।१।११॥ जै० उ०१॥ ३७॥ ६॥ ,, ब्रह्म बृहस्पतिः । गो० उ०६।७॥ ,, ब्रह्म वै देवानां वृहस्पतिः । तै०१।३। ।४।१। ।६।४॥ ., बृहस्पति सर्व ब्रह्म । गो० उ०१। ३, ४ ॥ ., बृहस्पतिर्ब्रह्म ब्रह्मपतिः। तै० २।५।७।४॥ ,, ब्रह्म वै ब्रह्मणस्पतिः । कौ० ८।५॥४।५॥ तां०१६।५।८ ॥ । ब्रह्म ब्रह्मा ऽभवत्स्वयम् । तै० ३ । १२ । । ।३॥ , ब्रह्म ह वै ब्राह्मसं पुष्करे ससृजे । गो० पू०१ । १६ ॥ , चन्द्रमा वै ब्रह्म । ऐ०२ । ४१ ॥ ,, आदित्यो वै ब्रह्म । जै० उ० ३।४।॥
( यजु०१३ । ३) असौ घाऽ श्रादित्यो ब्रह्म । श० ७।४।१।
१४ ॥ १४।१।३।३॥ ,, ब्रह्मानिः। श०१।३।३ । १६ ॥ , ब्रह्म वा अनिः । कौ०६।१,५॥ १२॥ - ॥ श० २।५।४।
८॥५।३।५। ३२ ॥ तै० ३।६।१६ ॥ ३॥ " ब्रह्म निःश १।५।१।११ ॥ ,, अग्निरु वै ब्रह्म । श० - ।५।१।१२॥ , अग्निरेव ब्रह्म । श० १०।४।१।५॥ , ( यजु०१७।१४) अयमग्निब्रह्म । श०६।२।१।१५ ॥ , अग्निहं वै ब्रह्मणो वत्सः । जै० उ०२।१३ ॥ १॥ ,, ब्रह्म घमिस्तस्मादाह ब्राह्मणेति । श०१।४।२।२॥ , मुख होतदनयंदू ब्रह्म । श०६।१।१।१०॥ ,, अथ यत्रैतदङ्गाराश्चाकाश्यन्तऽ इव । तर्हि हैष (अग्निः) भवति
ब्रह्म । श०२।३।२।१३ ॥ , अयं वाऽ अग्निब्रह्म च क्षत्रं च । श०६।६।३ । १५ ॥ , अमिब्रह्मानिर्यशाश०३।२।२।७॥ ,, ब्रह्म वै यमः । ऐ०७।२३ ॥ , ब्रह्म हि यक्षः। श०५।३।१।४॥
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[ ब्रह्म
( ३६८) ब्रह्म ब्रह्म यक्षः । श० ३।१।४।१५ ॥ , तस्मादपि (दीक्षितं) राजन्यं वा वैश्यं वा ब्राह्मण इत्येव ध्याद
ब्रह्मणो हि जायते यो यज्ञाज्जायते । श०३।२।१।४॥ , ब्रह्म वै वाजपेयः।०१।३।२।४ ॥ ,, अयं वै ब्रह्म यो ऽयं ( वायुः ) पवते । ऐ०८।२८ ॥ ,, प्राणो वै सम्राट् ! परमं ब्रह्म । श. १४।६।१० ॥ ३ ॥ , तद्यद्वै ब्रह्म स प्राणः । जै० उ०१ । ३३ । २॥
प्राणा वै ब्रह्म । तै० ३।२।८।८॥ प्राणो वै ब्रह्म । श०१४।६।१०।२॥ जै० उ०३ ॥ ३८ ॥ २॥ , प्राणा उवै ब्रह्म । श० -४।१।३॥ , प्राणापानौ ब्रह्म । गो० पू०२।१०। (११)। ,, ब्रह्म हि पूवं क्षत्रात् । तां० ११ । १।२॥ , सैषा क्षत्रस्य योनिय ब्रह्म । श० १४।४।२।२३ ॥ , ब्रह्मणः क्षत्रं निम्मितम् । ते २ । = IIEI
तद्यत्र वै ब्रह्मणः क्षत्रं वशमेति तद्राष्ट्र समृद्धं तद्वीरवदाहास्मिन्
वीरो जायते । ऐ० ८ ॥ .. अभिगन्तव ब्रह्म कर्ता क्षत्रियः । श०४।१।४।१॥ , ब्रह्म वै ब्राह्मणः । तै० ३।४।१४।३॥श०१३ । १।५।३॥ " ब्रह्म हि ब्राह्मणः । श०५।१।५।२॥ ,, ब्रह्मणो. वा एतद्रूपं यहाह्मणः। श० १३ । १।५।२॥ , ब्रह्म हि वसन्तः (ऋतुः)। श०२।१।३।५॥ , ब्रह्म वै रथन्तरम् । ऐ० । १, २॥ तां० ११ । ४।६॥ , विद्युद्धयेव ब्रह्म । श० १४ । ८।७।१॥ , ब्रह्मैव मित्रः। श०४।१।४।१॥ , ब्रह्म हि मित्रः । श०४।१।४।१०॥५। ३।२।४॥ , ब्रह्म वै पर्णः । ते. १।७।१।६॥३।२।१।१॥ , देवानां ब्रह्मवादं घदतां यत् । उपाशृणोः ( हे पर्ण ! त्वम् )
सुश्रवा वै श्रुतोसि । तने मामाविशतु ब्रह्मवर्चसम् । ते० १। २।१।६॥
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बल ] ब्रह्म प्रम वै पलाशः। श. १।३। ३ । १६ ॥५।२१४। २८ ॥ ६।
६।३।७॥ ., ब्रह्म वै पौर्णमासी क्षत्रममावास्या । कौः ४।॥ , यदमृतं तब्रह्म । गो० पू० ३।४॥ , अथ यद्रह्म तदमृतम् । जै. उ०१॥ २५ ॥ १०॥ ,, अभयं वै ब्रह्माभयहि वै ब्रह्म भवति य एवं वेद । श. १४ ।
७।२।३१॥ ,, ब्रह्म वै भूतानां ज्येष्ठ तेन को ऽहंति स्पर्द्धितुम् । तै० २।।
।१०॥ , तस्मादाब्रोव देवाना श्रेष्ठमिति । श०-४।१।३.॥ ,, तदेतद् ब्रह्म यशश्श्रिया परिवृढम् । ब्रह्म ह तु सन् यशसा श्रिया
परिवृढो भवति य एवं वेद । जै० उ०४।२४ । ११ । , षोडशकलं वै ब्रह्म । जै० उ० ३ । ३-1 ॥ ,, सचाऽसचाऽसच सच वाक् च मनश्च [ मनश्च ] पाक् च चक्षश्च
श्रोत्रं च श्रोत्रं च चक्षश्च श्रद्धा च तपश्च तपश्च श्रद्धा च तानि षोडश । षोडशकलम्ब्रह्म । स य एवमेतत्षोडशकलम्ब्रह्म बंद तमेवैतत्वोडशकलम्ब्रह्माप्येति । जै. उ०४।२५ । १-२॥
कतम एको देव इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते । श०१४।६।३।१०॥ ,, ब्रह्म देवानजनयत् । तै २ । - । - । ९ ॥ , ब्रह्मणो वै रूपमहः क्षत्रस्य रात्रिः। तै० ३।६ । १४ । ३ ॥ ., ब्रह्मणो वाऽ एतद्रूपं यदहः । श० १३ । १।५।४। ,, द्वे वै ब्रह्मणो रूपे मूतं चैवामूर्तश्च । श. १४ । ५ । ३।१॥ ,, तदेतन्मूर्तम् । ब्रह्मणो रूपम् ) यदन्यद्वायोश्चान्तरिक्षाश्च । श०
१४।५।३।२॥ , इदमेव मूतं (ब्रह्मणो रूपम् ) यदन्यत्प्राणाञ्च यश्चायमन्तरात्मना
काशः । श. १४ । ५ । ३।६॥ ,, अथामूर्तम् (ब्रह्मणो रूपम् ।। वायुश्चान्तरिक्षं च । श० १४ ।
५।३।४॥ , प्रथामूर्तम् (ब्रह्मणो रूपम् ) । प्राणश्च यश्चायमन्तराकाशः ।
२०१४।५।३। ।
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[ब्रह्मचारी
(३७०) ब्रह्म प्रदेव सर्वम् । गो० पू०५ । १५ ।। ., तस्मादाहुब्रह्मणा द्यावापृथिवी विष्टब्धेऽइति । श० -।४।१३॥ ,, तद् (ब्रह्म ) इदमन्तरिक्षम् । जै० उ० २।६।६॥ ,, ब्रह्म वै त्रिवृत् । तां० २।१६ ४ ॥ १९ । १७ । ३ ॥ २३ । ७।
५॥ जै. उ०३।४।.११ ॥ , ब्रह्म तपसि (प्रतिष्ठितम् ) । ऐ०३।६॥ गो० उ०३।२॥ , (हे राजन् ) त्वं ब्रह्मासीतीतर। (ऋत्विक् ) प्रत्याह वरुणोऽसि
सत्यौजा इति । श. ५।४।४।१०॥ , स होवाच गार्ग्यः। यश्चायमात्मनि (शरीरे) पुरुषः एतमेवाह
ब्रह्मोपासऽ इति स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा आत्मन्वीतिवाऽ अहमेतभुपासऽ इति। श०१४ । ५॥१॥ १३॥ ('बाह्मणः'
शब्दमपि पश्यत) ब्रह्मचर्यम् तस्मा एतत्प्रोवाचाष्टाचत्वारिंशद्वर्ष सर्ववेदब्रह्मचर्य. तच्च
तु. वेदेषु व्यूह्य द्वादश वर्ष ब्रह्मचर्य द्वादश वर्षाण्यवरार्थमपि
स्तायंश्चरेद्यथाशक्तयपरम् । गो० पू० २।५॥ ब्रह्मवारी अथ हैतदेवानां परिपूतं यद्ब्रह्मचारी । गो० पू०२।७॥
स (ब्रह्मवारी ) यन्मृगाजिनानि वस्ते......स यदहरहराचार्याय कर्म करोति......स यत्सुषुप्सुनिद्रा निनयति. स यत्क्रुखोपाचान कंचन हिनस्ति पुरुषात्पुरुषात्पापीयानिव मन्यमानः......अथाद्भिः श्लाघमानो न मायात्.........तां (कुमारी) नग्नां नोदीक्षेतेति वेति वा मुखं विपरिधापयेत् ......तासां (ओषधीनां) पुण्यं गन्धं प्रच्छिद्य नोपजियेत्। गो० पू० २ ॥२॥ ब्रह्मचारी भेक्षं चरति । सं०५॥ स (ब्रह्मचारी ) एवं विद्वान्यस्या एव भूयिष्ठ श्लाघेत तां भिक्षतेत्याहुस्तल्लोक्यमिति स ( ब्रह्मचारी ) यचन्यां भिक्षितव्यां न विन्देदपि स्वामेवाचार्यायां भिक्षेताथो स्वां मातरं नैन (ब्रह्मचारिणं ) सप्तमी (रात्रिी) अभिक्षितातीयासमवं विद्वासमेव चरन्त सर्वे घेदा आविशन्ति यथा ह वाऽ अग्निः समिद्धो रोचता एवह वै स नात्या रोचते या एवं विद्वा ब्रह्मचर्य चरति। श० ११ । ३ । ३ । ७ ॥
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( ३७१ ) ब्रह्मचारी वृह्मचारी सप्तमी नातिनयेत्सप्तमीमतिनयन्न ब्रह्मचारी भवति, समि
द्भक्षे सप्तरात्रमचरितवान् ब्रह्मचारी पुनरुपनेयो भवति । गो० पू०२।६॥ (ब्रह्मचार।) महीभूत्वा भिक्षते य एवास्य मृत्यौ पादस्तमेव तेन परिक्रीणाति तथं संस्कृत्यात्मन्धत्ते । श० ११ । ३ ।
ब्रह्म वै मृत्यवे प्रजाः प्रायच्छत् । तस्मै ब्रह्मचारिणमेव न प्रायच्छत्सो (मृत्युः ) ऽब्रवीदस्तु मह्यमप्येतस्मिन्भाग इति यामेव रात्रि समिधं नाहराताऽ इति तस्माद्यां रात्रि ब्रह्मचारी समिधं नाहरत्यायुष एव तामवदाय वसति तस्माद्रह्मचारी समिधमाहरेनेदायुषो ऽधदाय वसानीति | श० ११ । ३।३।१॥ ब्रह्म ह वै प्रजा मृत्यवे सम्मायच्छतु, ब्रह्मचारिणमेव म सम्प्रददौ, स होवाचास्यामस्मिन्निति किमिति या रात्री समिधमनाहस्य वसेत्तामायुषो ऽवरुन्धीयेति, तस्माद्रह्मचार्यहरहा समिध आहत्य सायं प्रातरग्निं परिचरेत् । गो० पू० २।६॥ (ब्रह्मचारी)न श्मशानमातिष्ठेतू. स चेदभितिष्ठेदुदकं हस्त कृत्वा । गो० पू०२।७॥ (ब्रह्मचारी) अध एवासीत, अधः शयीत, अधस्तिष्ठेदधी प्रजेदेवं ह स्म तत्पूर्वे ब्राह्मणा ब्रह्मचर्य चरन्ति । गी० पू० २।४॥ ( ब्रह्मचारी ) नोपरिशायी स्यान गायनो , नर्सनो न सरणो म निष्ठीवेत् । गो० पू०२।७॥ सदाहुः । न ब्रह्मचारी सन्मध्वनीयादोषधीनां वाऽ एष परमो रसो यन्मधु नेदनाद्यस्यान्तं गच्छानीत्यथ ह स्माह श्वेतकेतुरारुणेयो ब्रह्मचारी सन्मध्वश्रंखय्यै वा एतद्विद्यायै शिष्ठं यन्मधु...यथा ह वा ऋचं वा यजुर्वा साम वाभि. व्याहरेत्ताहत एवं विद्वान्ब्रह्मचारी सन्मध्वभाति तस्माद् कममेवाभीयात् । श० ११ । ५।४।१८॥
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,
[ बह्मवेदः
( ३७२) ब्रह्मचारी तस्मादुत ब्रह्मचारी मधु नाऽश्रीयावदस्य प्लाव इति । कामं
ह त्वाचार्यदत्तमश्नीयात् । जै० उ० ११ ५४।१॥ तस्माब्रह्मचारिण आचार्य गोपार्यान्त । गृहान्पशून्नेनो
ऽपहरानिति । श. ३।६।२।१५ ॥ , प्रथ (प्राचार्य:) अस्मै ( ब्रह्मचारिणे) सावित्रीमन्वाह ।
श०२१ । ५।४।६॥ , पञ्च ह वा एते ब्रह्मचारिण्यमयो धीयन्ते द्वौ पृथग्यस्तयोंमुखे
हृदय उपस्थ एव पञ्चमः । गो० पू० २।४॥ ब्रह्मणस्पतिः एष (प्राणा) उडएर ब्रह्मणस्पतिः । वाग्वै ब्रह्म तस्या
एष पतिस्तस्मादु ह ब्रह्मणस्पतिः । श०१४।४।१।२३॥ (यजु० ३७ । ७) एष वै ब्रह्मणस्पतिर्य एष (सूर्यः) तपति । श० १४।१।२।१५ ॥ बृहस्पते ब्रह्मणस्पते । तै०३।११। ४ । २॥
ब्रह्म वै ब्रह्मणस्पतिः । कौ०८॥ ५॥ ९॥ ५॥ तां० १६॥५॥८॥ " श्रोत्र ब्राह्मणस्पत्यः (प्रगाथः )। कौ० १५ ॥३॥ ब्रह्मणो वरस: अग्निर्ह वै ब्रह्मणो वत्सः। जै० उ०२।१३।१॥ ब्रह्म पूर्व्यम् (यजु० ११ । ५)प्राणो वै ब्रह्म पूर्ण्यम्। श०६।३।१।१७॥ बह्मयज्ञ: स्वाध्यायो वै बह्मयज्ञः । श०११ । ५।६।२॥ , तस्य वा एतस्य ब्रह्मयक्षस्य वागेव जुहूर्मन उपभृश्चक्षुर्धवा
मेधा व सत्यमवभृथः स्वर्गो लोक उदयनम् । श० ११ । ५।६।३॥ तस्य पाऽ एतस्य ब्रह्मयज्ञस्य चत्वारो वषट्कारा यहातो पाति यद्विद्योतते यत्स्तनयति यदवस्फूर्जति तस्मादेवंविद्वाते वाति विद्योतमाने स्तनयत्यवस्फूर्जत्यधीयीतैष यषट्काराणा मच्छम्बटाराय । श०११।५।६। ६॥ (आप० धर्मसूत्रे । १ ।
४। १२ ॥ मनु० २।१०६ ॥) 'स्वाध्यायः शब्दमपि पश्यत ॥ ब्रह्मवर्चसम हुम्भा इति ब्रह्मवर्चसकामस्य । भातीव हि ब्रह्मवर्चसम् ।
जै००३।१३।१।। , ब्रह्मवर्चसं वै रथन्तरम् । ते. २।७॥११॥ ब्रह्मवदः ब्रह्मवेदः ( = अथर्ववेदः) एव सर्वम् । गो० पू० ५। १५ ॥ ('अथर्ववेदः' शब्दमपि पश्यत)।
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बूला
( ३७३) ब्रह्महत्या एष ह वै साक्षान्मृत्युर्यब्रह्महत्या। श०१३।३।५॥३॥ ब्रह्मा यमेवामं अय्यै विद्यायै तेजो रसं प्रावृहत्तेन ब्रह्मा ब्रह्मा भवति ।
कौ०६ । ११ ॥ ,, अथ केन ब्रह्मत्वं क्रियत इति त्रय्या विधयेति । ऐ. ५॥३३॥ ,. अथ कन यूह्मत्वं ( क्रियते ) इत्यनया (ऋग्यजुःसामाख्यया)
त्रय्या विद्ययेति । यात् । श० ११ । ५।८।७॥ , तस्माद्यो ब्रह्मनिष्ठः स्यात्तं ब्रह्माणं कुर्वीत | गां० उ० १॥३॥ , एष ह वै विद्वान्त्सर्वविद् ब्रह्मा यद् भृग्वाङ्गिरोविद् (प्रथर्व
वेदविद् ) । गो० पू०२ । १८ ॥ ५ ॥ ११ ॥ यज्ञस्य हैष भिषग्यद् ब्रह्मा यज्ञायैव तद्भेषजं कृत्वा हरति । ऐ०
५। ३४॥ , ब्रह्मा पाऽ ऋत्विजां भिषक्तमः । श० १।७।४।१९।। १४ ।
२।२।१६।। ,, स ( ब्रह्मा ) यदत ऊर्ध्वमसस्थितं यस्य तदभिगोपायति ।
श०१।७।४।१०॥ ,, बृह्मा वै यमस्य दक्षिणत आस्ते ऽभिगोप्ता । श. १७।४।१।। , ब्रह्मा हि यशं दक्षिणतो ऽभिगोपायति । श ५।४।३।२६ ॥ ,, ब्रह्मा वै यज्ञस्य दक्षिणत आस्ते ब्रह्मा यज्ञं दक्षिणतो गोपायति ।
श०।१५। ६।१।३८॥ ,, दक्षिणत आयतनो वै ब्रह्मा । तै०३।९।५।१ । , तस्मात्स (प्रामा) तूष्णीमास्ते । जै० उ०३।१६।२॥ , ब्रह्मा वा ऋस्विजामनिरुक्तः । तां० १८ ॥ १ ॥ २३ ॥ , बृहस्पतिई वे देवानां ब्रह्मा । कौ०६ । १३ ॥ , बार्हस्पत्यो ब्रह्मा । श०१३।२।६।६॥ , बार्हस्पत्यो वे ब्रह्मा । त०३।६।५॥१॥ , अविमुह वै देवानां ब्रह्मा । कौ०६ । १३ ॥ , अर्वाग्वसुई वे देवाना ब्रह्मा पराग्यसुरसुराणाम् । गो०उ०१॥१॥ , शरमा तस्माचदा सस्यं पच्यते ब्रह्मण्यत्यः प्रजा इत्याहुः।
श०.११।२।७।३२॥ , चन्द्रमा ब्रह्मा (मासीत)। गी० पू०१ । १३॥
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[ब्राह्मण
( ३७४ ) ब्रह्मा चन्द्रमा वै ब्रह्मा । श० १२।१।१।२॥ गो० पू० २।२४ ॥ ,, चन्द्रमा वै ब्रह्मा ऽधिदैवं मनोऽध्यात्मम् । गो०पू०४।२॥ , तस्य (पुरुषस्य) मन एव ब्रह्मा । कौ०१७॥ ७॥ , मन एव ब्रह्मा । गो० पू०२।१०॥ गो० उ० ५।४॥ , मनो ब्रह्मा । गो० पू०२।१० (११)॥ , मनो वै यक्षस्य ब्रह्मा । श० १४ । ६।१।७॥ , हृदयं (वै यज्ञस्य) ब्रह्मा । श० १२ । ८।२।२३॥ , चक्षुब्रह्मा । तै०२।१।५ ॥ ,. अग्निवं ब्रह्मा । ष०१।१॥ , बलं वै ब्रह्मा । तै० ३। ८1५।२॥
ब्रह्म ब्रह्मा ऽभवत्स्वयम् । तै ३ । १२ । ६।३॥ ,, ब्रह्म ह वै ब्रह्माणं पुष्करे ससृजे । गो० पू० १ । १६ ॥ , या सा प्रथमा (ओडूगरस्य) मात्रा ब्रह्मदेवत्या रक्ता धर्णेन यस्तां
ध्यायत नित्यं स गच्छेद्रामं पदम् । गो० पू०१ । २५ ॥
प्रजापति ब्रह्मा । गो० उ०५। ८॥ , प्राजापत्यो ब्रह्मा । तै० ३।३।८।३॥ , प्राजापत्यो वै ब्रह्मा । गो० उ०३।१८॥
प्राणदेवत्यो वै ब्रह्मा।०२।६॥ । ततो ब्रह्मा जनक: (वैदेहः) आस । श०११।६।२।१०॥ ब्रह्मा कृष्ण: (यजु० २३ । १३) चन्द्रमा वै ब्रह्मा कृष्णः । श० १३।
२।७।७॥ ब्राह्मणः ब्राह्मणो वै सर्वा देवताः। तै०१।४।४।२, ४ ॥
एते वै देवा मातादो यदू ब्राह्मणाः । गो० उ०१।६॥ , एता वै प्रजा हुतादो यदू ब्राह्मणाः। ऐ०७॥ १६ ॥ , अथ हैते मनुष्यदेवा ये बाह्मणाः । ष. १।१॥ ('देवा'
शब्दमपि पश्यत) दैव्यो वै वर्णो ब्राह्मणः । ते०१।२।६।७॥
आहुतिर्वा एषा यहाह्मणस्य मुखम् । तां० १६ । ६।१४ ॥ - आग्नेयो ब्राह्मणः । तां०१५ । ४।८॥ , आग्नेयों व ब्राह्मणः । लै०२।७।३ । १ ॥
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( ३७५ )
बाह्मणः] बाह्मण: एष वा प्रग्निःश्वानरः । यद्राह्मणः। ते०३।७।३।३॥
एष ह वै सान्तपनोऽग्निर्यद् ब्राह्मणो यस्य गर्भाधानपुंसवनसीमन्तोन्नयनजातकमनामकरणनिष्क्रमणानप्राशनगोदानचूडाकरणोपनयनाप्लवनाग्निहोत्रवतचर्यादीनि कृतानि भव
न्ति स सान्तपनः । गो० पू०२ । २३ ॥ " अग्ने महाँ असि ब्राह्मण भारत । कौ० ३।२॥श०१।४।
२।२॥ तै०३।५।३।१॥ ब्रह्मगो वाऽ एतद्रूपं यद् ब्राह्मणः । श०१३ । १।५।२॥ ब्रह्म व ब्राह्मणः । ते०३18। १४ । २॥ श०१३।१।५।३॥
ब्रह्म हि ब्राह्मणः । श. ५।१।५ । २ ॥ ___ एष वो ऽमो राजा सोमो उस्माकं बाह्मणाना राजा ( यज०
१०।१८) इति ... तस्माद बाह्मणो नाद्यः सोमराजा हि भवति । श०५।४।२।३॥ . सौमराजानो ब्राह्मगाः । तै०१।७।४।२॥ १।७।६।७॥ सौम्यो हि ब्राह्मणः । ०२।७।३।१॥ सोमो वै ब्राह्मणः । तां० २३ । १६ । ५॥ स यदि सोम, ब्राह्मणानां स भक्षी ब्राह्मणांस्तेन भक्षण जिन्विष्यसि ब्राह्मणकल्पस्ते प्रजायामाजनिष्यत आदाय्यापाय्यावसायी यथाकामप्रयाप्यो यदा पेक्ष त्रयाय पापं भवति ब्राह्मणकल्पो ऽस्य प्रजायामाजायत इश्वरो हाऽस्माद् द्वितीयो वा तृतीयो वा ब्राह्मगतामभ्युपैतोः स ब्रह्मबन्धवे न जिज्यू. षितः । ऐ०७ । २६ ॥ अशिव इव पाऽ एष भक्षो यत्सुरा ब्राह्मणस्य । श० १२ ।
स (पत्रियः) ह दीक्षमाण एव ब्राह्मगतामभ्युपैति । ऐ० ७। २३ ॥ तस्मादपि (दीक्षित) राजन्यं वा वैश्य वा ब्राह्मण इत्येव ध्याद् ब्रह्मणो हि जायते यो यशाजायते । श०३॥ २॥ १॥४०॥ य उवै कश्च यजते ब्राह्मगीभूयेवैव यजते । २० १३ । ४ । १॥३॥
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[बाह्मणः
( ३७६ ) ब्राह्मणः तस्माद् ब्राह्मणो नैव गायेन्न नृत्येन्माग्लागृधः स्यात् । गो०
पू०१। २१ ॥ तरयेव ब्राह्मणेनेष्टव्यं यब्रह्मवचसी स्यादिति । श०१ । ६।३।१६॥ यो वै ब्राह्मणानामनूचानतम स एषां वीर्यवत्तमः । श०४। ६।६ । ५ ॥ इदं वयस्मिन्वसति ब्राह्मणो वा राजा वा श्रेयान्मनुष्यो न्वेव तमेव नार्हति वक्तुमिदं मे त्वं गोपाय प्राहं वत्स्यामीति । श०२।४।१।१०॥ तस्माद्राह्मणं प्रथमं यन्तमितरे त्रयो वर्णाः पश्चादनुयन्ति । श०६।४।४।१३॥ तस्मान्न कदाचन ब्राह्मणश्च क्षत्रियश्च वैश्यं च शुद्धं च पश्चादन्वितः। श०६।४।४।१३ ॥ यो वै राजा ब्राह्मणादयलीयानमित्रेभ्यो वै स बलीन्या भवति । श०५।४।४।१५ ॥ प्रतिलोमं तद्यद्राह्मणः क्षत्रियमुपेयात् । श० १४।५। १।१५॥
तत्तदवक्लप्तमेव । यद् ब्राह्मणो ऽगजन्यः स्याद्यधु राजानं __ लभेत संमृद्धं तत् । श०४।१।४।६॥ , तस्मादेष ब्राह्मणयज्ञ एव यत्सौत्रामणी । श०१२।६।१।१॥
इष्टापूर्त वै ब्राह्मणस्य । ते० ३।९ । १४ । ३ ॥ श०१३ । १।५।६॥ . यच उवाच ब्राह्मणस्यैव तृप्तिमनु तृप्येयमिति । श०१। ७।३।२८॥ एतानि वै ब्रह्मण आयुधानि यद्यज्ञायुधानि । ऐ. ७ । १९ ॥ तस्य ब्राह्मणस्यानग्निकस्य नैव देवं दद्यान्न पित्र्यं न चास्य खाध्यायाशिषो न यज्ञ प्राशिषः स्वर्गङ्गमा भवन्ति । गो० पू०२।२३॥ सर्वस्यैष न वेद यो वाह्मणः सन्नश्वमेधस्य न वेद, सो ऽबाझणः । श०१३।४।२।१७॥
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(३७७)
बाह्मणी ] जाह्मणः यहाणा ( यामणनक्षत्रम् ) एव रोहिणी । तस्मादेव ।
सै०३।७।६।४॥ ब्राह्मणो वा अष्टाविशो नक्षत्राणाम् । ते० १ १ ५।३॥ ४॥ गायत्रों वै बाह्मणः । ऐ० १ ॥ २८ ॥ गायत्रछन्दा वै ब्राह्मणः । तै०१।१।६।६॥ तस्माद् ब्राह्मणो मुखेन वीर्य्यडरोति मुखतो हि सृष्टः । तां० ६।१।६॥
ब्राह्मणो मनुष्याणां (मुखम् )। तां०६।१।६॥ , अस्य सर्वस्य बाह्मणो मुखम् । श० ३।४।१।१४॥
घालणो वा उपद्रष्टा । गो० उ०२ ॥ १६ ॥ ,, ब्राह्मणो वै प्रजानामुपद्रष्टा । तै०२।२।१। ३, ५॥ , बामणो हि रक्षसामपहन्ता श०१।१।४।६ ॥१॥२॥१॥
१।३।४।१३॥ वसन्तो वै बाह्मणस्यतुः। तै०१।१।३।६॥ श० १३ । तस्माद् ब्राह्मणो वसन्तऽ आदधीत बूल हि वसन्तः (ऋतु:) । श०२।१३।५॥
सामवेदोघाह्मणानां प्रसूतिः। ते० ३।१२।९।२॥ , बाईद्विरं (साम) बामणाय (कुर्यात् )। तां० १३॥ ४ ॥१८॥
धामणेषुह पशवो ऽभविष्यन् । श०४।४।१।१८॥ ('बूम'
शब्दमपि पश्यत) ब्राह्मणासी ऐन्द्राबाईस्पत्य याह्मणाच्छसिन उक्थं भवति । गो० उ०
४।१४,१६॥ ऐन्द्रो बामणाच्छंसी । तै० ११७।६।१॥श०९।४।३१७ भारमा थे बामणाच्छंसी । कौ० २८ । ॥
रूपं धामणाच्छंसिनः । कौ० २५ ॥ ११ ॥
धसिष्ठाब्राह्मणाच्छंसी ( न प्रच्यवते)। गो० उ०३ ॥२३॥ , बेष्टुभो ब्राह्मणाच्छ सी। तां०५।१।१४ ॥ बामणी पौक्षिणी । जै० उ०३। ४।४॥
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[भरतः
। ३७८ )
(भ) भक्षः प्राणो वै भक्षः। श०४।२।१ । २९ ॥ भग: (यजु०११ । ७) यज्ञो भगः। श०६।३।१।१६॥ .. तस्य (भगस्य) चक्षुः परापतत्तस्मादाहुरन्धो वैभग इति । गो.
उ०१।२॥ , तस्य (भगस्य) अक्षिणी निर्जघान तस्मादाहुरन्धो भग इति ।
कौ०६। १३॥ ,, तस्मादाहुरन्धो भग इति । श० १ । ७।४। ६ ॥ " भगस्य वा एतन्नक्षत्रं यदुत्तरे फल्गुनी। तै०१।१। २।४॥
१।५।१।१॥३।१।१ ॥ भद्रः (अथर्व०७ । ९ । १) अयं वै लोको भद्रः । ऐ० १ । १३ ॥ भद्रम् ( यजु० १९ । ११) अन्नं वै भद्रम् । तै०१।३।३।६॥ ,, भद्रमेभ्यो ऽभूदिति कल्याणमेचैतन्मानुष्यै घाचो धदति । श०
४।६।९। १९ ॥ भद्रम (साम) गोतमस्य भद्रं (साम) भवति । तां० १३ । १२॥ ६॥
आशिषमेवारमा ( यजमानाय ) एतेन ( भद्रेण साम्ना)
प्राशास्ते । तां०१३ । १२१७॥ ., एतेन वै गोतमो जेमानं महिमानमगच्छत् तस्माद्ये च
पराश्चोगोतमाये चार्वाश्चस्त उभये गोतम ऋषयो ब्रुवते।
तां०१३ । १२ । ॥ भद्रा (प्रजापतेस्तनूविशेष:) भद्रा तत्सोमः। ऐ०५॥ २५ ॥ कौ०२१५॥ भरतः (यजु० १२ । ३४) प्रजापति भरतः, स हीदॐ सर्व विभर्ति ।
श०६।।१।१४॥ , स हैष (सूर्यः) भर्ता । श०४।६।७।२१॥
अग्निर्वे भरतः स वै देवेभ्यो हव्यं भरति । कौ० ३।२॥ एष (अग्निः) हि देवेभ्यो हव्य भरति तस्माद्भरतोऽग्निरित्याग
श०१।४।२।२॥१।५।१।८॥ ,, एष (अग्निः) उ वाऽहमाः प्रजाः प्राणो भूत्वा विभर्ति तस्माद्धे.
वाह भरतवदिति । श० १।५।१ ॥ .! प्राणो भरता। ऐ०२ ॥ २४ ॥
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( ३७६ )
भर्गः भरतः (दोषन्तिः) तस्मादु भरतो दोषन्तिः समन्तं सर्वतः पृथिवीं
· जयन्परीयायाश्वैरु च मेध्यैगैजे । ऐ. - । २३॥ ,, अष्टासप्तति भरतो दौष्षन्तिर्यमुनामनु। गङ्गायां वृत्रघ्ने (बध्ना
त्पश्चपश्चाशतं हयान् । ऐ०८ । २३ ॥ श० १३ । ५ । ४ । ११ ।। , शकुन्तला नाडपित्यप्सरा भरतं दधे परः सहस्रानिन्द्राया.
श्वान्मध्यान्य आहरद्विजित्य पृथिवी सर्वामिति। २०१३ ॥ ५॥
४। १३ ॥ , शतानीकः समन्तासु मेध्य सात्राजितो हयम् । पादत्त यज्ञ
काशीनां भरतः सत्वतामिव । श० १३ । ५। ४ । २१ ॥ भरताः ततो वै वसिष्ठपुरोहिता भरताः प्राजायन्त । तां०१५1५१२४ , तस्माखाप्येतर्हि भरताः सत्वनां ( ? सत्वतां ) वित्ति प्रयन्ति
तुरीये हैव संग्रहीतारो वदन्ते ('भरत' शब्दमपि पश्येत) ।
ऐ०२ ॥ २५ ॥ , तस्माद्धदं भरतानां पशवः सायंगोष्ठाः सम्तो मध्यन्दिने संग
विनीमायति । ऐ० ३ । १८॥ भरद्वाजा ( यजु०१३ । ५५) मनोबै भरद्वाज ऋषिरनं जो यो वै
मनो विभर्ति सोऽनं वाजं भरति तस्मान्मनो भरद्वाज ऋषिः। । श०८।१।१।६॥ भरद्वाजस्य वाजभृद्वाजकर्मीयं वा ( साम) । आर्षेय वा० १।१।१।२।२॥ भरद्वाजो चै त्रिभिरायुभिब्रह्मचर्यमुवास । त ह जीर्ण स्थविर शयानमिन्द्र उपव्रज्योवाच । 'अनन्ता वै वेदाः ।
तै०३।१०।११।३॥ भगः अयं वै । पृथिवी-) लोको भर्गः । श० १२ । ३ । ४ । ७ ॥ , पृथिव्येष भर्गः । गो. पू. ५। १५ ॥ , भूग्वेदो वै भर्गः। श० १२ । ३।४।६॥ .. ऋग्वेद एव भर्गः । गो० पू०५। १५ ॥ , होतैव भगः । गो० पू० ५। १५ ॥ , प्रनिर्वे भर्गः। श० १२ । ३।४।॥ जै० उ०४।२८।२॥ , अग्निरेव भर्गः । गो०पू० ५। १५ ॥
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[भानुः
(३०) भर्गः वसष एव भर्गः । गो० पू०५॥ १५ ॥ , बाग्वै भर्गः। श०१२ । ३।४।१०॥ , वागेव भर्गः । गो० पू०५।१५॥ , बसन्त एष भर्ग: । गो० पू०५।१५ ॥ , गायत्र्येव भर्ग: । गो० पू०५। १५ ॥
प्राच्येव भर्गः। गो० पू०५। १५ ॥ ,. आदित्यो वै भर्गः। जै० उ०४ । २८ । २ ॥ ,, चन्द्रमा वै भर्गः । जै. उ०४।२८।२॥ " (ऋ० ३। ६२ । १०) भर्गो देवस्य कवयो ऽनमाहुः । गो०
पू०१। ३२॥ ,, वीर्य वै भर्ग एष विष्णुर्यक्षः । श० ५।४।५।१॥
, त्रिवृदेष भर्गः । गो० पू०५॥ १५ ॥ भवः पर्जन्यो वैभवः पर्जन्याचीद सर्व भवति । श०६।१।३।१५॥ , यद्रव मापस्तेन (भवः जन्म-अमरकोषे ३ कांडे,२०५ श्लोके ॥
जन्म-माप:-वैदिकनिघंटो १ । १२ ॥)। को०६॥२॥ , अग्निवै स देवस्तस्यैतानि नामानि, शर्व इति यथा प्राच्या
माचक्षते भव इति यथा वाहीका: पशूनां पती रुद्रो ऽग्निरिति ।
२०१।७।३।८॥ ,, एतान्यष्टौ ( रुद्रः, सर्वः-शर्वः, पशुपतिः, उप्रः, प्रशमिः, भधा,
महान्देवः, ईशानः ) अग्निरूपाणि । कुमारो नवमः । श० ६ ।
१।३।१८ ॥ भविष्यत् असौ (लोकः) भविष्यत् । तै० ३।८।१८।६॥
, भविष्यत्प्रति चाहरत् (प्रतिहर्ता ऽऽसीत् )। तै०३ । १२ । .8३॥ भव्यम् परिमितं वै भूतमपरिमितं भव्यम् । ऐ०४।६॥ भाः असो वा आदित्यो भा इति । जै० उ०।१।४।१॥ ,, श्री भाः। जै० उ०१।४।१॥ भानुः प्रजनेण भानुना दीयतमित्यजत्रेणार्चिषा दीप्यमानमित्येतत् ।
श०६।४।१।२॥
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( ३६१)
भुवः] भान्तः पञ्चदशः (यजु० १४ । २३) धजो वै भान्तो वजः पञ्चदशो ऽथो
चन्द्रमा वै भान्तः पञ्चदशः स च पञ्चदशाहान्यापूर्यते पञ्चदशापक्षीयते तद्यत्तमाह भान्त इति भाति हि
चन्द्रमाः । श० -।४।१।१०॥ भारः (यनु० २३ । २६) श्री राष्ट्रस्य भारः। श०१३ । २।३।३॥ ,, राष्ट्र वै भारः । तै०३।६।७॥१॥ भारतः एष (अग्नि:)उ घाऽ इमाः प्रजाः प्राणो भूत्वा बिभर्ति तस्मा
द्वेषाह भारतेति । श०१।४।२।२॥ " अग्ने महाँ भसि बाह्मण भारत । कौ०३।२। ॥ श० १।४।
२॥२॥ तै०३ । ५।३।१॥ भारती भारत्यै परिवापः (= लाजा इति सायणः )। तै०१।५।११।२॥ भार्गवम् (साम) प्रवद्भार्गवं भवति । प्रपता (साना ) वै देवाः स्वर्ग
लोकं प्रायन्नुव्रतोदायन् । ता० १४ । ३ । २३, २४ ॥ भासम् (साम) स्वर्भानुर्वा भासुरमादित्यं तमसाविध्यत् स न व्यरोचत
तस्यानि लेन तमोऽपाहन् स व्यरोचत यद्वै तद्भा
अभवत्तदासस्य भासत्वम् । तां०१४। ११ । १४ ॥ ... भासं भवति भाति तुष्टुवानः । तां०१४ । ११ । १२॥ भुजः प्राणाचे भुजः । श०७।५।१।२१॥ भुजिघ्या: अन्नं भुजिष्याः । श०७।५।१ । २१ ॥ भुज्युः (यजु० १८ । ४२) यशो वै भुज्युर्यशो हि सर्वाणि भूतानि भुन
क्ति । श०६।४।१ । ११ ॥ भुरण्युः (यजु० १५ । ५१) भुरण्युरिति भर्तेत्येतत् । श०८।६।३।२० ॥ , (यजु०१३ । ४३) भुरण्युमिति भारमित्येतत् । श०७
५।२।१६।। भुवः ( यजु० १३ । ५४ ) अग्निवं भुवो ऽनहींद सर्व भवति । श०
८।१।१।४॥ , भुव इत्यन्तरिक्षलोकः । श०।७।४।५ ॥ ,, स भुव इति व्याहरत् । सो ऽन्तरिक्षमसृजत । चातुर्मास्यानि
सामानि । तै० २।२।४।२-३॥ " भुवरिति यजुर्योक्षरत् सो ऽन्तरिक्षलोको ऽभवत् । ष०१॥५॥
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भूतम्
( ३८२) भुवः (प्रजापतिः) भुव इत्येव यजुर्वेदस्य रसमादत्त । तदिदमन्त
रिक्षमभवत् । तस्थ यो रसः प्राणेदत् स वायुरभवद्रसस्य
रसः। जै० उ०१।१।४ ॥ , भुव इति (प्रजापतिः) क्षत्रम् ( अजनयत ) । श० २।१।
४।१२॥ ,, भुव इति ( प्रजापतिः ) प्रजाम् ( अजनयत ) । श० २।१।
भुवनपतिः ( यजु० ११ । २ ॥) एतानि व तेषामग्नीनां नामानि
यद्भवपतिर्भुवनपतिर्भूतानां पतिः । श०१।३।३।१७॥ भुवनम् यज्ञो वै भुवनम् । तै० ३।३।७। ५॥
, यज्ञो वै भुवनस्य नाभिः । तै० ३। । ५। ५॥ भुवनस्य गोपाः स ( प्रजापतिः ) उ वाव भुवनस्य गोपाः । जै० उ०
भुवपतिः ( यजु० ११ । २) एतानि वै तेषामग्नीनां नामानि यद्भव
पतिर्भुवनपतिर्भूतानां पतिः । श० १।३।३ । १७ ॥ भुवस्पतिः प्रच्यवस्व भुवस्पतऽ इति भुवनाना ह्येष ( सोमः) पतिः।
श०३।३।४।१४॥ भूः ( यजु० १३ । १८) भूहीयम् (पृथिवी ) । श० ७।४।२।७॥ , स (प्रजापतिः) भूरित्येवर्वेदस्य रसमादत्त । सेयं पृथिव्यभ
वत् । तस्य यो रसा प्राणेदत् सो ऽग्निरभवद्रसस्य रसः । जै०
उ०१।१।३॥ , भूरित्यग्भ्योतरत् सो ऽयं (पृथिवी-) लोकोऽभवत् । ष०१।५॥ , स भूरिति व्याहरत् । स भूमिमसृजत । अग्निहोत्र दर्शपूर्णमासी
यजूषि । तै०२।२।४।२॥ , भूरिति वाऽ अयं ( पृथिवी-) लोकः । श०८।७।४।५॥ , भूरिति वै प्रजापतिः ब्रह्माजनयत । श०२।१।४। १२॥ ,, भूरिति वै प्रजापतिः । आत्मानमजनयत । श० २।१।४।१३ ॥ भूतः प्रजापति भूतः । तै०२।१।१३॥ भूतम् अयं वै (पृथिवी-लोको भूतम् । ते० ३१ ।१८।५॥ , भूत ह प्रस्तोतेषां (विश्वसृजाम् ) आसीत् । तै० ३ । १२ ।
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( ३८३)
भूमिः ] भूतम् परिमितं वै भूतमपरिमितं भव्यम् । ऐ०४।६॥ भूतवान् ( भूतपतिः रुद्रः) तेषां (देवानाम् ) या एव घोरतमास्तन्व
आसंस्ता एकधा समभरंस्ताः संभृता एष देवो ( रुद्रः) ऽभवत्तदस्यैतद्भूतवन्नाम, भवति वै स यो ऽस्यैतदेवं नाम घेद ।
ऐ०३।३३॥ भूतस्य प्रथमजा ( यजु० ३७ । ४) इथं वै पृथिवी भूतस्य प्रथमजा ।
श० १४।१।२।१०॥ भूतानां पतिः ( यजु० ११ । २ ॥) एतानि वै तेषामग्नीनां नामानि
। यद्भवपतिर्भुवनपतिर्भूतानां पतिः । श०१।३।३।१७॥
भूतानां पतिर्गृहपतिरासीदुषाः पत्नी । श० ६।१।
यः स भूतानां पतिः सत्वसरः सः । श०६।१।३।८॥ भतानि प्रजा वै भूतानि । श०२।४।२।१॥३।५।२।१३ ॥४॥
५।३।१॥ , तद्यानि तानि भूतानि ऋतवस्ते । श० ६ । १।३१८॥ भूतिः (=प्राण:) प्राणं वा अनु प्रजाः पशवो भवन्ति । जै० उ०२।
४।७॥ भूतेच्छदः ( ऋचः ) तयदेतान् ( असुरान् । इमे देवाः सर्वेभ्यो भूतेभ्यो
ऽछादयंस्तस्माद् भूतेछदस्त भूनेछदां भूतेछदत्वम् । गो० उ०
, तेषां वै देवा असुराणां भूतेछद्भिरेव भूतं छादयित्वा ऽथैना
नत्यायन् । ऐ०६ । ३६॥ ,' इमे वै लोका भूतेछदः । गो० उ०६।१४॥ भूमा श्रीवै भूमा । श०३।१।१।१२॥ " पुष्टि भूमा । तै० ३।६।८।३ ॥ , भूमाघे सहलम् । श०३।३।३।। ,, अजावी आलभते भूने । तै०३।६।।३॥ भूमिः अभूदिव वा इदमिति तद्भूमेभूमित्वम् । तां० २० ॥ १४ ॥१॥ " अभूखा इदमिति तद्भूम्य भूमित्वम् । तै०१।१।३।७॥ , अभूबा इयं प्रतिष्ठेति । तद्भमिरभवत् । श०६।१।१।१५॥
६।१।३।७॥
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[ भौज्यम्
( ३८४ )
भूमि: इयं ( पृथिवीं ) वै भूभिरस्यां वै स भवति यो भवति । श०७ । २। १ । ११ ॥
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( यजु० १३ । १८ ) भूमिर्होयम् (पृथिवी) । श० ७ । ४ । २ । ७ ॥ भूरिज: भरणाद् भूरिज उच्यते । दे० ३ । २१ ॥ भूर्भुवरस्वः भूर्भुवस्स्वरिति सा त्रयी विद्या । जै० उ० २ । ९ । ७ ॥ एता वै व्याहृतयः (=भूर्भुवस्स्वरिति ) सर्वप्रायश्चित्तयः । जै० उ० ३ । १७ ॥ ३ ॥
भृगुः ताभ्यः श्रान्ताभ्यस्तप्ताभ्यः संतप्ताभ्यो ( अद्भ्यः ) यद्रेत आसीतदभृज्यत यदभृज्यत तस्माद् भृगुः समभवत् तद् भृगोर्मृगुत्वम् । गो० पू० १ ३॥
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तस्य ( प्रजापतेः ) यदू रेतसः प्रथमं मुददीप्यत तदसावादियो ऽभवद्यद् द्वितीयमासीत्तद्भृगुरभवत्तं वरुणो न्यगृह्णीत तस्मात्स भृगुर्वारुणिः । ऐ०३ | ३४ ॥
भृग्वङ्गिरसः अथाङ्गारैरभ्यूहति । भृगूणामङ्गिरसां तपसा तप्यध्वम् ( यजु० १ । १८ ) इत्येतद्वै तेजिष्ठं तेजो यद्भग्वङ्गिरसाम् |
श० १ । २ । १ । १३ ॥
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वायुरापश्चन्द्रमा इत्येते भृगवः । गो० पू० २ । ८ (१) ॥ वरुणस्य वै सुषुवाणस्य भर्गो ऽपाक्रामत्स वापतद्भृगुस्तृतीयमभवच्छ्रायन्तीयं ( साम ) तृतीयमपस्तृतीयं प्राविशत् । त १८।६।१ ॥
एत भूयिष्ठं ब्रह्म यद् भृग्वंगिरसः । गो० पू० ३ | ४ ॥
भेकुरयः ( अप्सरसः, यजु० १८ । ४० ) ( = नक्षत्राणि) भाकुरयो ह नामते भां हि नक्षत्राणि कुर्वन्ति । श० ६ । ४ । १ । ६ ॥ भेषजम् यद् भेषजं तदमृतम् । गो० पू० ३ | ४ ॥
शान्तिर्वै भेषजमापः । कौ० ३ । ६७, ८, ९ ॥ गो० उ० १ । २५ ॥
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भौज्यम् तस्मादेतस्यां दक्षिणस्यां दिशि ये के च सत्यतां राजानो भौन्यायैव ते ऽभिषिच्यन्ते भोजत्येनानभिषिक्तानाचक्षते । ऐ० ८ । १४ ॥
अथैनं (इन्द्र) दक्षिणस्यां दिशि रुद्रां देवाः... अभ्यषिञ्चन्... भौज्याय । पे० ८ । १४ ॥
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( ३८५.)
मघवान् ]
भौज्यम् ऊर्जी वा एपो ऽन्नाद्याद्वनस्पतिरजायत यदुदुम्बरो भौज्यं वा एतद्वनस्पतीनाम् । ऐ० ७ । ३२ ॥
प्रजश्छन्दः ( यजु० १५ । ५) अग्निर्वे भ्रजश्छन्दः । श०८ । ५ । २ । ५॥ भ्राजः अनेजसा ( त्वाभिषिञ्चामीति ) । श० ६ । ४ । २ । २ ॥
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ततो ऽस्मिन् (सूर्ये) एतद् भ्राज ग्रास । श० ४ | ५ | ४ | ५ ॥ भ्राट् भ्राजं गच्छेति सोमो वै भ्राट् । श० ३ ।२।४।६॥ भ्रातृव्यः भ्रातृव्यो वा अररुः । तै० ३ । २ । ६१४॥
इमं देवाः | असपनं सुवध्वमितीमं देवा अभ्रातृव्यं सुबध्वमित्येवैतदाह । श० ७ । ४ । २ । ३॥
त्वयायं वृत्रं बधेदिति (यजु० १० । ८ ) त्वयायं द्विषन्तं भ्रातृव्यं बधेदित्येवैतदाह ( वृत्रः = भ्रातृव्यः ) । श० ५ । ३ । ५। २८ ।।
स यो भ्रातृव्यवान्त्स्यात्स सौत्रामण्या यजेत । श० १२ । ७।३।४ ॥
भूमहत्या अमृत्युर्वा अन्यो भ्रूणहत्याया इत्याहुः । भ्रूणहत्या वाव मृत्युरिति । तै० ३ | हे | १५ | २ ॥
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मयः मख इत्येतद्यज्ञनामधेयं छिद्रप्रतिषेधसामर्थ्यात्, छिद्रं खमित्युकं तस्य मति प्रतिषेधः । मा यज्ञं छिद्रं करिष्यतीति । गो० ३०२ ।५ ॥
यज्ञो वै मखः । तै० ३ |२| ८ | ३ || तां० ७ । ५ । ६ ॥ श० ६ | ५ | २ | १ ॥
स उ एव मखः स विष्णुः । श० १४ । १ । १ । १३ ॥
( यजु० ३७ । ११ ) एष वै मखां य एष ( सूर्यः ) तपति । श० १४ । १·१३ । ५ ॥
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("विष्णु" शब्दमपि पश्यत )
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मघवान् स उ एव मखः स विष्णुः । तत इन्द्रो मखवानभवन्मखवान्ह
ये से मघवानित्याचक्षते परोऽक्षम् । श० १४ । १ । १ । १३ ॥ " इन्द्रो वै मघवान् । श० ४ । १ । २ । १५, १६ ॥
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[मधु
( ३८६) मघाः ( नक्षत्रविशेषः) पितृणां मघाः। ते १।५।१।२॥ ३।१।
१६॥ मज्जा हारिद्र इव हि मज्जा । श०१३।४।४ ॥ , षष्टिश्च ह वै त्रीणि च शतानि पुरुषस्य मजानः । श० १०॥
५।४।१२॥ ,, मजा यजुः । श०।१।४।५॥
मजानोज्योतिस्तद्धि यजुष्मतीना, रूपम् । श० १०।२।
६।१८॥ मण्डूकः एतद्वै यत्रैतं प्राणा ऋषयोप्रे ऽनि समस्कुस्तमद्भिरवो
झस्ता आपः समस्कन्दस्ते मण्डूका अभधन् । श०९।१।
२॥२१॥ , तस्मान्मण्डूका पशूनामनुपजीवनीयतमो यातयामा हि सः।
श०६।१।२।२४ ॥ मतिः ( यजु० १३ । ५८ ) धाग्वै मतिर्वाचा ही सर्व मनुते । २०
८।१।२।७॥ मत्स्यः मत्स्या सामदो राजेत्याह तस्योदकेचरा विशस्त इम आसता
इति मत्स्याश्च मत्स्यहनश्धोपसमेता भवन्ति तानुपदिशतीति.
हासो घेदः सोऽयमिति । श० १३ । ४।३। १२ ॥ मदः यो वाऽ ऋचि मदो या सामनसो वै सः । श०४ । ३।२।५॥ मदिन्तमः ( यजु०६ । २७) मदिन्तम इति स्वादिष्ठ इत्यवतदाह । श०
३।६।३। २५ ॥ मद्राः तस्मादेतस्यामुदीच्यां दिशिये के च परेण हिमवन्तं जनपदा
उत्तरकुरव उत्तरमद्रा इति वैराज्यायव ते ऽभिषिच्यन्ते घिरा
डित्येनानभिषिक्तानाचक्षते । ऐ०८।१४ ॥ मधु ( यजु०३७ । १३) प्राणो वै मधु । श०१४।१।३।३०॥ " ( यजु०११ । ३८) रसोई मधु । श० ६।४।३।२ ॥ ७॥
५।१।४॥ , भपो देवा मधुमतीरगृभ्णन्नित्यपो देवा रसवतीरगृहन्नित्येवे।
तदाह । श० ५। ३।४।३॥ , औषधीनां वाऽ एष परमो रसो यन्मधु । श०४।५।४।१८॥
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( ३८७ )
मधुरसो वा एष ओषधिवनस्पतिषु यन्मधु । ऐ० ८ । २० ॥
" तस्मादुत स्त्रियो मधु नाश्नन्ति पुत्राणामिदं व्रतं चराम इति वदन्ती । जे० उ० १ । ५५ । १ ॥
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४ । १८ ॥
" यथा ह वाऽ ऋचं वा यजुर्वा साम वाभिव्याहरेत्तारक्तद्य एवं विद्वान्ब्रह्मचारी सन्मध्वश्नाति । श० ११ । ५ । ४ । १८ ॥
। १५ ॥
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एतद्वै प्रत्यक्षात्सोमरूपं यन्मधु | श० १२ । ८ा
अन्नं वै मधु | तां० ११ । १० । ३ ॥
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परमं वा एतदन्नाद्यं यन्मधु | तां० १३ । ११ । १७ ॥
महत्यै वा एतद्देवतायै रूपम् । यन्मधु । तै० ३ । ६ । १४ । २ ॥
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,, मध्वमुष्य ( स्वर्गस्य लोकस्य रूपम् ) । श० ७ | ५ | १ | ३ ॥ ,, गायत्रमयनं भवति ब्रह्मवर्चसकामस्य स्वर्णिधनम्मधुनामुमिलोक उपतिष्ठते । तां० १३ । ४ । १० ॥
सर्वे वा इदं मधु यदिदं किं च । श० ३ । ७ । १ । ११ ॥ १४ ॥ १ । ३ । १३ ॥
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(एक आहु) न ब्रह्म त्राी सन्मध्वनीयादोषधीनां वा एव परमो रसो यन्मधु नेदन्नाद्यस्यान्तं गच्छानीति । श० ११ । ५ ।
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मधुसारघम् ]
मधु: ( मास: ) एतौ (मधुश्च माधवश्च ) एव वासन्तिक (मास) स यवसन्तऽ ओषधयो जायन्ते वनस्पतयः पच्यन्ते तेनो हैतौ मधुश्च माधवश्च । श० ४ | ३ | १ | १४ ॥ मधुकृतः या एताः पूर्वपक्षापरपक्षयो रात्रयः । ता मधुकृतः । तै० १० । १० । १ ॥
१० ३।
मधुदेव्यम एतद्वै मधुवैव्यं यदाज्यम् । ऐ० २ । २॥ मधुपर्क: एष वारण्यानां रसः । कौ० ४ । १२ ॥
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मधुप्रियम् पशवो वै रेवत्यो मधुप्रियम् । तां० १३ । ७ । ३ ॥ मधुमती ओषधयो मधुमतीः । तै० ३ । २ । ८ । २॥
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मधुवृषा: (पूर्वपक्षापरपक्षयोः ) यान्वहानि ते मधुनुषाः । तै० ३ ।
१० ॥ १० ॥ १ ॥ मधुसारघम यशो ह वै मधुसारधम् । श० ३ । । । ३ । १३ ॥
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[मनः
(३८ मध्यन्दिन: आत्मा मध्यन्दिनः । कौ० २५ । १२ ।। २८ ॥ ९ ॥
प्रात्मा यजमानस्य मध्यन्दिनः ।ऐ०३ । १८ ॥ ,, मध्यन्दिनो मनुष्याणाम् । श०२।४।२।८॥ , मध्यन्दिने मनुष्याः (वृत्रायाशनमभिहरन्ति) । श०१।
६।३। १२॥ , वृहस्पतेमध्यन्दिनः । तै०१।५।३।२॥ मध्यम (यजु०२३ । २६) श्रीधै राष्ट्रस्य मध्यम् । श०१३।२।९।
४॥. ३।६।७।१॥ " प्रजा व पशवो मध्यम् । श०१।६।१।१७॥ " त्रिष्टुप् छन्द इन्द्रो देवता मध्यम् । श० १० । ३ । २।५॥ मध्यमा चितिः अन्तरिक्ष वै मध्यमा चितिः। श० - । ७।२।१८॥
, उदरं मध्यमा चितिः । श० ८ । ७।२।१८ ॥ मनः ममो वृहत् । तां०७।६ । १७॥ ,, मनो गृहत् । ऐ०४।२८॥ " मनो वृहती। श. १०।३।१।१॥ , मनो ब्रह्म । गो० पू०२।१० (११)॥ ष०१५॥ , मनोधै सम्राट् ! परमं ब्रह्म । श. १४।६।१०। १५ ॥
मन एव ब्रह्मा । गो० पू०२।१०॥ गो० उ०५॥४॥ , मनो ब्रह्मा । गो० पू०२।१०(११) । , मनोधै यज्ञस्य ब्रह्मा । श० १४ । ६।१।७॥ .. तस्य (पुरुषस्य) मन एव ब्रह्मा । कौ०१७ ॥ ७॥
मनो होता । तै०२।१।५।९ ॥ .. मनोबै यज्ञस्य मैत्रावरुणः । ऐ०२।५, २६, २८ ॥ , मनोवै पाथ्यो वृषा (यजु० ११ । ३४॥)। श०६।४।२॥ .. मनोवै परिपतिः । गो० उ०२।३॥
तदेता वाऽ अस्य (प्रजापते.) ताः पञ्च मास्तन्ध आसंलोम त्वङ्मांसमस्थि मजाथैता अमृता मनो षाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रम्।
श०१०।१।३।४॥ ,, अपूर्वा (प्रजापतेस्तनूविशेषः) तन्मनः । ऐ०५ ॥ २५॥ को.
२७/५॥
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( ३६ )
मनः मन इव हि प्रजापतिः । तै० २ । २ । १ । २ ।
यः प्रजापस्तिन्मनः । जै० उ० १ । ३३ । २ ॥
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प्रजापतिर्वै मनः । कौ० १० | १ ॥ २६ ॥ ३ ॥ घ० ४| १| १| २२ |
मनो वै प्रजापतिः । तै० ३ ।
७ ।
१।२ ॥
मनो हि प्रजापतिः । सा० १
। १ । १ ॥
मन एव सर्वम् । गो० पू० ५ । १५ ॥
मनो वै भरद्वाज ऋषिनं वाजो यो वै
मनो विभति सो ऽनं
वाजं भरति तस्मान्मनो भरद्वाज ऋषिः ( यजु० १३ । ५५ ) ।
श० ८ । १ । १ । १
मनो ऽन्तरिक्षलोकः । श० १४ । ४ । ३ । ११ ॥
मनः पितरः । श० १४ | ४ | ३ | १३ ॥
मनोह वायुर्भूत्वा दक्षिणतस्तस्थौ । श० ८ । १ । १ । ७ ॥
न वै वातात् किञ्चनाशीयो ऽस्ति न मनसः किञ्चनाशीयो ऽस्ति
मनः ]
तस्मादाह वातो वा मनो वेति । श० ५ । १ । ४ । ६ ॥
मन एवाग्निः । श० १० । १ । २ । ३ ॥
मनो ह वा अस्य सविता
श० ४ । ४ । १ । ७ ॥
मन एव सविता । गो० पू० १ । ३३ ॥ जै० उ० ४ । २७ । १५ ॥
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मनो वै सविता । श० ६ । ३ । १ । १३, १५ ॥
मनः सावित्रम् | कौ० १६ । ४ ॥
यन्मनः स इन्द्रः । गो० उ०४ । ११ ॥
मनः प्रगाथः । जै० उ० ३ | ४ | ३ ॥
मन एव वत्सः । श० ११ । ३ । १ । १ ॥
ममो ह बा अंशुः ( ग्रह: ) । श० ११ । ५ । ६ । २ ॥
मनो वा ऋतम् । जै० उ० ३ | ३६ | ५ ॥
मनो वै सरखान् । श० ७ । ५ । १ । ३१ । ११ । २ । ४ । ६ ॥
स एष इदः कामानाम्पूर्णो यन्मनः । जै० उ० १ । ५८ । ३ ॥
ममो वै समुद्रः (यजु० १३ । ५३ ) । श० ७ । ५ । २ । ५२ । मनो वे समुद्रउम्यः ( यजु० १५ । ४ ) । श० ८।५।२।४ ॥ वाग्वै समुद्रो मनः समुद्रस्य वक्षुः । तां० ६ । ४ । ७ ॥
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[मनः
(३६०) मनः तस्य (मनसः) एषा कुल्या यद्वा । जै० उ० १।५८ ॥३॥
, मनो वै ग्रावस्तोत्रीया । ऐ०६।२॥ ,, कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धा ऽश्रद्धा धृतिरधृतिहींी.
भीरित्येतत्सर्वे मन एव । श०१४।४।३।६ ॥
नेव हि सन्मनो नेवासत् । 'श० १०।५।३।२॥ , अनिरुक्त हि मनो ऽनिरुक्त ह्येतद्यत्तूष्णीम् । श० १।४।
४।५॥ अपरिमिततामिव हि मनः परिमिततरेव हि वाक । श०१।
४।४।७॥ ,, मनो वा एतद्यदपरिमितम् । कौ० २६ । ३ ॥ , अनन्तं वै मनः । श०१४।६।१।११॥ , मनो देवः । गो०पू०२।१०॥ , वृषा हि मनः । २०१।४।४।३॥ ,, वाक च वै मनश्च देवानां मिथुनम् । ऐ० ५। २३॥ , वागिति मनः । जै० उ०४।२२ । ११ ॥ , पाक च वै मनश्च हविर्धाने । कौ०९।३॥ । मनो हि पूर्व वाचो यदि मनसाभिगच्छति तहाचा वदति ।
तां०११। १।३॥
वाग्वै मनसो हसीयसी । श०१।४।४।७॥ .. वाचो मनी देवता मनसः पशवः । जै० उ०१।५।१४॥ , इय ( पृथिवी) वै वागदो ( अन्तरिक्षम् ) मनः । ऐ०५ । ३३ ॥
अलग्ल(न)मिव ह वै वाग्धदेवन्मनो न स्यात्तस्मादाह धृता मनसेति । श०३।२।४।११॥ न हयुक्तेन मनसा किं चन सम्प्रति शक्नोति कर्तुम् । श० ६ । ३।१।१४॥ अन्यत्रमना अभूव नादर्शमन्यत्रमना अभूवं नाऔषमिति मनसा शेव पश्यति मनसा शृणोति । श०१४। ४।३।।
अर्धभाग्वै मनः प्राणानाम् । ष०१॥ ५॥ ,, मनसि वै सर्वे प्राणाः प्रतिष्ठिताः । श०७।५।२।६॥ . , मनो वै प्राणानामधिपतिर्मनसि हि सर्वे प्राणाः प्रतिष्ठिताः।
श०१४।३।३।३॥
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( ३६१ )
मनुः] मनः मनी यजमानस्य ( रूपम् )श१२ । ८।२।४॥ " मनसा वा इदछ सवमाप्तम् । श० १।७।४।२२ ५।
४।३।९॥ , असंप्रेषितं वा इदं मनः । ऐ०६।२॥ , मनो हृदये (श्रितम् ) । ते०३।१०। ८।६ ॥ , कस्मिन्नु मन प्रतिष्ठितं भवतीति हृदय इति । २०१४ । ६ ।
९।२ ॥ , मनास ह्ययमात्मा प्रतिष्ठितः। श०६ । ७।१ । २१ ॥ , वागेवर्चश्व सामानि च मन एव यजूश्रषि । श० ४।६।
, अथ यन्मनो यजुष्टत् । जै० उ०१।२५।४॥ , मनो वै यजुः। श०७।३।१।४०॥ , मनो यजुर्वेदः । श०१४ । ४ । ३ । १२ ॥ , मनो अध्वर्युः । श० १।५।१।२१ ॥ ,, मनो वाव सानश्श्रीः । जै० उ०१।३६।२॥ ,, तयोः (सदसतो) यत् सत् तत्साम सन्मनस्स प्राणा। जै०
उ०१॥ ५३॥ २॥ .. स (प्रजापति।) मन एव हिकारमकरोत् । जै उ०१ । १३ ॥ ५॥ " चन्द्रमा मे मनसि स्थितः । ०३।१०।८।५॥ " मनश्चन्द्रमा । जै० उ०३।२।६॥ ,, तधत्तन्मनचन्द्रमास्सःजै० उ०१। २८1५॥
यसम्मन एष स चन्द्रमा: । श०१०।३।३।७॥ , मनोव देववाहनं मनो हीदं मनखिनं भूयिष्ठं वनीवाह्यते । श०
., अथ यत्कृष्णं तदपा रूपमन्त्रस्य मनसो यजुषः। जै० उ०१।
२५ ॥६॥ मनश्छन्दः ( यजु० १५ । ४) प्रजापति मनश्छन्दः । श० ८ । ५।
मनुः प्रजापति मनुः स होदछ सर्वममनुत । श० ६।६।१।१६॥ , (यजु० ३७ । १२) अा ह वाऽ इयं (पृथिवी) भूत्वा मनु.
मुखाह सो ऽस्याः पतिः प्रजापतिः। श०१४।१।३।२५ ॥
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[ मनुष्याः
( ३६२ )
मनु: (यजु १५ । ४९ ) ये विद्वासस्ते मनवः । श० ८|६|
३ । १८ ॥
प्रायुर्वै मनुः । कौ० २६ । १७ ॥
मनुः
य एवं मनुष्याणां मनुष्यत्वं वेद । मनस्येव भवति । नैन (= मननशक्तिरिति सायणः ) जहाति । तै० २ । ३ । ६ । ३ ॥ ” (= मनुष्यः ) अग्निर्होता मनुवृतो ऽयं ( अग्निः ) हि सर्वतो मनुष्यैर्वृतः । ऐ० २ | ३४ ॥
मनुर्वैवस्वतो राजेत्याह । तस्य मनुष्या विशः । श० १३ | ४ |
३ ॥३॥
मनोर्य
इत्यु वाऽ आहुः । श० १ । ५ । १ । ७ ॥
मनुर्ह वा अग्रे यशेनेजे तदनुकृत्येमाः प्रजा यजन्ते । श० १ । ५ । १।७ ॥
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(मनुमत्स्यकथा -- ) तस्य ( मनोः ) प्रथनेनिजानस्य मत्स्यः पाणीऽग्रापेदे । स हास्मै वाचमुवाद । विभृहि मा पारयिष्यामि श्वेति कस्मान्मा पारयिष्यसीत्यौध इमाः सर्वाः प्रजा निर्वोढा ततस्त्वा पारयितास्मीति । श० १ । ८ । १ । १--२ ॥ सा ( मनोर्दुहिता ) एषा निदानेन यदिडा । श० १ । ८ । १ । ११ ।। ( 'इडा' शब्दमपि पश्यत )
मनुर्वे यत्किञ्चावदसद्वेषजम्भेषजतायै । तां० २३ | १६ | ७ ॥ अथैतन्मनुवं मिथुनमपश्यत् । स इमश्रूण्यग्रे ऽवपत । अथोंपपक्षौ । अथ केशान् । ततो वै स प्राजायत । प्रजया पशुभिः । यस्यैवं वपन्ति । प्र प्रजया पशुभिर्मिथुनेर्जायते । ते० १ । ५ ।
६।३॥
मनुष्यलोकः सो ऽयं मनुष्यलोकः पुत्रेणैव जय्यो नान्येन कर्मणा । श०
१४ । ४ । ३ । २४ ॥
उदीचीमावृत्य दोग्धि मनुष्यलोकमेव तेन जयति । तै० २। १ । ८ । १ । ३ । २ । १ । ३॥
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मनुष्यसवः य दृष्ट्या सूयते स मनुष्यसवः । तै० २ । ७ । ५ । १ ॥ मनुष्याः स (प्रजापतिः) पितृन्त्सृष्ट्वा मनस्येत् । तदनु मनुष्यानसृजत । तन्मनुष्याणां मनुष्यत्वम् । य एवं मनुष्याणां मनुष्यरथं
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( ३६३ )
मनुष्याः ] वेद । मनस्येव भवति । नैनं मनुः (=मननशक्तिरिति
सायणा) जहाति । तै० २। ३ । - । ३॥ मनुभ्याः पुरुषो (=मनुष्या) व प्रजापतेनेदिष्ठम् ।।०२।५।१।१॥
उभयम्वतत् प्रजापतिर्यश्च देवा यश्च मनुष्याः । श० ६ । ८॥१४॥ उभये ह वाऽ इदमने सहासुर्देवाश्च मनुप्याश्च । श० २। ३।४।४॥ देवानां वै विधामनु मनुष्याः । श० ६।७।४।१॥६। १।१।१६॥ मनुष्याननु पशवः, देवाननु वयांस्योषधयो वनस्पतयः । श० १।५।२।४॥ द्राधीयो हि देवायुष इसीयो मनुष्यायुषम् । श०७। ३।१।१०॥ उभये देवमनुप्याः पशूनुपजीवन्ति । श०६।४।४।२२॥ एतद्वै देवानां परममन्नं यत्सोमः। एतन्मनुष्याणां यत्सुरा। तै०१।३।३। ३॥ सत्यमेव देवा अनृतं मनुष्याः । श० १।१।१।४।। १।२।१७॥३।३।२।२॥३।१।४।१॥
अनृतसंहिता वै मनुष्या इति । १० १॥ ६॥ .. , मनुषैवस्वतो राजेत्याह तस्य मनुष्या विशस्त इमऽ आसनर
इत्यश्रोत्रिया गृहमेधिन उपसमेता भवन्ति तानुपदिशन्यचो वेदः । श०१३।४।३।३॥ मनुप्या व जन्तवः । श० ७।३।१ । ३२॥ विरहो मनुष्येभ्य उपहियते प्रातश्च मायञ्च । १०१। ४।६।२॥ अथैनं (प्रजापति) मनुष्याः। प्रावृता उपस्थं कृत्वोपासीदस्तान् ( प्रजापतिः ) अब्रवीत् सायम्प्रातर्वो ऽशनं प्रजा वो मृत्युर्यो ऽग्निवो ज्योतिरिति । श०२।४।२।३॥ नैव देवाः (प्रजापतेराशाम ) प्रतिकामन्ति । न पितरो न पशवो मनुष्या एवंके ऽतिकामन्ति तस्माद्यो मनुष्याणां
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[ मनुष्याः
( ३६४) मेद्यत्यशुभे मेद्यति विहर्च्छति हिन छयनाय चन भवत्यनृतथे हि कृत्वा मेद्यति तस्मादु सायम्प्रातराश्येव स्यात् स यो हैवं विद्वान् सायम्प्रातराशी भवति सर्व हैवायुरेति । श०
२।४।२।६॥ मनु याः फाण्टं मनुष्याणाम् । श०३।१।३।८॥
हन्तकारं मनुष्याः (उपजीवन्ति ) श०१४।।।१॥ , रयिरिति मनुष्याः (उपासते)। श०१०।५।२।२०॥
मध्यन्दिनो मनुष्याणाम् । श० २।४।२।८॥ तस्मै (वृत्राय ) ह स्म पूर्वाह्न देवा प्रशनमभिहरन्ति मध्यन्दिने मनुष्याऽ अपराहे पितरः । श०१।६।३।१२॥ (अस्य भूलोकस्य) मनुष्या यजुष्मत्यः (इष्टकाः) । श०.
मनुष्याणां वा एषा दिग्यत्प्रतीची।०३।१॥ प्राचीनप्रजनना वै देवाः प्रतीचीनप्रजनना मनुष्या: । श० ७।४।२।४०॥ एषा ( उदीची ) वै देवमनुष्याणा शान्ता दिक । ते० २।
उदीची हि मनुष्याणां दिक् । श०१।२।५ । १७॥१. ७।१।१२॥ एषा ( उदीची ) वै मनुष्याणां दिक् । तै० १ । ६।९।७ ॥ उदीचीमावृत्य दोग्धि मनुष्यलोकमेघ तेन जयति । ते० २। १।८।१॥३।२।१।३॥ तस्मान्मानुषऽ उदीचीनवशामेव शालां वा विमितं वा मिन्वन्ति । २०३।१।१।७॥ अथ योत्तरा ( आहुतिः ) ते मनुष्याः । श०३।३।२।१६॥ (मनुष्याः प्रजापतिमब्रुवन्--) दत्तेति न आत्थेति । श०१४ ।
।२।३॥ अथ यदेव वास्येत । तेन मनुष्येभ्य ऋणं जायते तद्धयेभ्य एतत्करोति यदेनान्बासयते यदेभ्यो ऽशनं ददाति । श०१। ७।२।५॥
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( ३६५ )
मन्विद्धः ] मनुष्याः ( प्रजापतिः ) प्रस्तावम्मनुष्येभ्यः ( प्रायच्छत् ) । जै० उ० १ । ११ । ६ ॥
मनोजवाः मनोजवास्त्वा पितृभिर्दक्षिणतः पातु । श० ३ | ५ | १ | ६ ॥ मनोता तिपो वै देवानां मनोतास्तासु हि तेषां मनांस्योतानि वाग्वं देवानां मनोता तस्यां हि तेषां मनांस्योतानि गौर्हि देवानां मनोता तस्यां हि तेषां मनांस्योतानि, अनिर्वै देवानां मनोता तस्मिन्हि तेषां मनांस्योतान्यग्निः सर्वा मनोता अनौ मनोताः सगच्छन्ते । ऐ० २ । १० ॥
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मन्त्रः वाग्वै मन्त्रः । श० ६ । ४ । १ । ७ ॥
वाग्धि मन्त्रः । श० १ । ४ । ४ । ११. ॥
ब्रह्म वे मन्त्रः । श० ७ । १ । १ । ५ ।।
यांश्च ग्रामे यांश्चारण्ये जपन्ति मन्त्रान् नानार्थान् बहुधा
जनासः... । गौ० पू० ५ | २५ ॥
मन्त्रकृत् एष वाव पिता यो मन्त्रकृत् । तां० १३ । ३ । २४ ॥
मन्थावलः ( जीवविशेष: ) यानि पर्णानि ते मन्थावलाः ( प्रभवन् ) । ऐ० ३ । २६ ॥
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अग्निर्वै देवानां मनोता तस्मिन् ह्येषां मनांस्योतानि भवन्ति । १० ॥ ६ ॥
अग्निः सर्वा मनोता । कौ० १० | ६ ||
वाग्वै देवानां मनोता | को० १० ॥ ६ ॥
गौर्वे देवानां मनोता । कौ० १० । ६ ॥
मन्थी अत्तैव शुक्र आद्यो मन्थी । श० ४ । २ । १ । ३॥
आद्य वै मन्थी । श०५ । ४ । ४ । २१ ॥
चन्द्रमा एव मन्थी । श० ४ । २ । १ । १ ॥
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मन्दस्व ( यजु० १२ । १०८ ) मन्दस्व धीतिभिर्हित इति दीप्यस्व धीतिभिर्हित इत्येतत् । श० ७ । ३ । १ । ३१ ॥
मन्युः पशू वा एष मन्युः । यद्वराहः । तै० १ । ७ १६ ॥ ४ ॥ वराहं क्रोधः ( गच्छति ) । गो० पू० २ |२॥
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मन्विद्ध: ( अम: ) इमे ( अग्नि ) हि मनुष्या इन्धते । ऐ० २ | ३४ ॥ मनुर्खेतमऽ ऐन्द्र तस्मादाह मन्बिद्ध इति । श० १ । ४।२।५ ॥
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[ मरुतः
( ३६६ )
मयः यद्वै शिवं तन्मयः । तै० २ । २ । ५ । ५ ॥
( हे ऽश्व ! त्वं ) मयो ऽसि । तां १ । ७ । १ ॥
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मयन्दम् ( यजु० १४ । ६ ) यद्वाऽ अनिरुक्तं तन्मयन्दम् । श० = १२ ३ । ११ ॥
मयुः ( यजु० १३ | ४७ ) किम्पुरुषो वै मयुः ( अमरकांपे कां० १ स्वर्गवर्ग लो०७४ ) | श० ७ | ५ | २ । ३२ ॥
मरीचिः एता वा ग्रापः स्वराजां यन्मरीचयः । श० ५ | ३ | ४ | २१ ॥ यः कपाल रसो लिप्त आसीत्ता मरीचयो ऽभवन् । श० ६ | १ । २ । २ ॥
मरुतः मरुती रश्मयः nio १४ । १२ । ९ ॥
ये ते मारुताः (पुरोडाशाः ) रश्मयस्ते । श० ९ । ३ । १ । २५ ॥ गुञ्जन्तु त्वा मरुतो विश्ववेदस इति गुञ्जन्तु त्वा देवा इत्यंवनदाह ( मरुतः देवाः - अमरकोषे ३ । ३ । ५८ ) । श० ५ । १ । ४६ ॥
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गणशो हि महतः । ० १९ । १४ । २ ॥
मरुतो गणानां पतयः । तै० ३ | ११ | ४|२ ॥
सम हि मारुतो गणः । श० २ । ५
१ । १३ ॥
सप्त वै मारुतो गणः । श० ५ । ४ । ३ । १७ ॥
सप्त गणा वै मरुतः । तै० १ । ६ । २ । ३ । २ । ७ । २ । २ ॥
८०-
सप्त सप्त हि मारुता गणाः ( ७X७= ४९ -- यजु० १७ । ८५ ॥ ३६ ॥ ७ ॥ ) । श० ६ । ३ । १ । २५ ॥
मारुतः सप्तकपालः ( पुरोडाशः ) । तां० २१ । १० । २३ ।।
मारुतस्तु सप्तकपालः ( पुरोडाशः ) । श० २ । ६ । १ । १२ ॥ मारुतथं सप्तकपालं पुरोडाशं निर्वपति । श० ५ । ३ । १ । ६ ॥ मरुतो वै देवानां भूयिष्ठाः । तां० १४ । १२ | ६ || २१ | १४ | ३ ॥ मरुतो हि देवानां भूयिष्ठाः । तै० २ । ७ । १० ॥ १ ॥
मरुतो ह वै देवविशो ऽन्तरिक्षभाजना ईश्वराः । कौ० ७ । ८ ॥
विज्ञो वै मरुतो देवविशः । २ । ५ । १ । १२ ॥
मरुतां वै देवानां विशः । ऐ० ११६ ॥ तां० ६ । १० । १० ॥ १८ । १ । १४ ॥
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(३१७ )
मरतः] मरुतः आहुतादो वै देवानां मरुतो विट् । श०४।५।२।१६॥ , घिड्वै मरुतः । तै०१।८।३।३॥ २७॥२॥२॥
विशो मरुतः । श०२।५।२।६, २७॥४।३।३।६॥ , विशो मरुतः । श०३।६।१।१७ ॥ ,, मारुतो हि वैश्यः । तै०२।७।२।२॥
कीनाशाः (=कृषो कम्मकरा इति सायणः) आसन्मरुतः सुवानवा (सुष्टु दातार इति सायणः)। तै० २।४।८॥७॥
पशवो वै मरुतः । ए०३।१६॥ ,, अन्नं वै मरुतः । तै०१।७।३।५॥१।७।५।२॥१।७।
७।३ ॥ , प्राणा वै मारुताः। श०६।३।१।७॥ , मारुता वै प्रावाणः । सां०९।६।१४॥ , मरुतो वै देवानामपराजितमायतनम् । तै०१।४।६।२॥ ,, अप्सु वै मरुतः शिताः ( ? श्रिताः)। कौ० ५॥४॥ ,, अप्सु वै मरुतः श्रितः (श्रिताः)। गो० उ०१।२२॥ .. आपो वै मरुतः । ऐ०६ । ३०॥ कौ० १२॥ ८॥ , मरुतो ऽद्भिरग्निमतमयन् । तस्य तान्तस्य हृदयमाच्छिन्दन सा
ऽशनिरभवत् । तै० १ । १ । ३ । १२ ॥ , मरुतो वै वर्षस्येशते । श०६।१।२।५॥ , षडभिः पार्जन्यैर्वा मारुतैर्वा (पशुभिः ) वर्षासु ( यजते)।
श० १३ । ५।४।२८॥ , इन्द्रस्य वै मरुतः। कौ०५।४, ५ ॥ ,, अथैनं (इन्द्रं ) ऊर्धायां दिशि मरुतश्चाङ्गिरसश्च देवाः......
अभ्यषिञ्चन्...पारमेष्ठयाय माहाराज्यायाऽऽधिपत्याय खाव
श्यायाऽऽतिष्ठाय । ऐ०८।१४॥ ,, हेमन्तेनाना देवा मरुतस्त्रिणवे (स्तोमे ) स्तुतं बलेन शक्करी
सहः । हविरिन्द्र वयो दधुः। ते०२।६।१९ । २॥ ., मारुत्यो वत्सतर्य्यः । तां० २१ । १४ । १२ ॥ ,, पश्छिन्दो मरुतो देवता ष्ठीवन्तौ । श० १०।३।२।१०॥ ,, मरुत्स्तोमो वा एषः (षोडशः स्तोमः)। तां० १७।१।३॥
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[ महः
(३६८) मरुतः क्रीडिनः मरुतो ह वै क्रीडिनो वृत्र हनिष्यन्तमिन्द्रमागतं
तमभितः परि चिक्रीडुर्महयन्तः । श०२।५।३॥ २०॥ ते (मरुतः ) एनं (इन्द्रं) अध्यक्रीडन् तत्क्रीडिनां क्रीडित्वम् । तै०१।६।७।५ ॥ इन्द्रस्य वै मरुतः क्रीडिनः। कौ०५ ॥ ५ ॥
इन्द्रो वै मरुतः क्रीडिनः । गो० उ०१ । २३ ॥ मरुतः सान्तपनाः मरुतो ह वै सांतपना मध्यन्दिने वृत्र सन्तेपुर
स संतप्तो ऽनन्नेव प्राणन्परिदीर्णः शिश्ये । श०
२।५।३।३॥ ,, इन्द्रो वै मरुतः सान्तपनाः । गो० उ०१।२३॥ मरुतः स्वतवसः घोरा वै मरुतः खतवसः। कौ० ५।२ ॥ गो० उ०
१।२०॥ मरुतः स्वापयः प्राणो वै मरुतः स्वापयः । ऐ०३।१६ ॥ महत्वतीयग्रहः सवनततिः मरुत्वतीयग्रहः । कौ० १५ ॥१॥ मरुत्वतीयम् ( शस्त्रम् ) पवमानोक्थं वा एतद्यन्मरुत्वतीयम् । ऐ० ८।
१॥ कौ०१५।२॥ , तदेतद्वानमेवोक्थं यन्मरुत्वतीयमेतेन हेन्द्रो
वृत्रमहन् । कौ० १५ । २॥ तदेतत्पृतनाजिदेव सूक्तं यन्मरुत्वतीयमेतेन
हेन्द्रः पृतना अजयत् । कौ० १५ । ३॥ मरुत्स्तोमः अथैष मरुत्स्तोम एतेन वै मरुतो ऽपरिमितां पुष्टिमपुष्यन्त्र
परिमितां पुष्टिं पुष्यति य एवं वेद । तां० १९ । १४ । १॥ मर्त्यः अनात्मा हि मर्त्यः । श०२।२।२॥ ८॥ भसूस्यानि (धान्यविशेषः) सर्वासां वा एतद्देवताना रूपम् । यन्मसू.
स्यानि । तै०३।८।१४।६॥ महः पशवो वै महस्तस्माद्यस्यैते बहवो भवन्ति भूयिष्ठमस्य कुले
महीयन्ते । श०११ । ८।१।३॥ ,, यज्ञो वै देवानां महः । श०१।।१।११ ॥ , अध्वर्युरेव महः । गो० पू०.५।१५ ॥ " यजुर्वेदो महः । श०१२ । ३।४।९॥
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( ३६६ )
महान् महः यजुर्वेद एव महः । गो० पू०५॥ १५ ॥ ,, अन्तरिक्षलोको महः । श० १२।३।४।७॥ , अन्तरिक्ष एव मदः । गो० उ०५।१५ ॥ , वायुमंहः । श० १२।३।४।८॥ ,, वायुरेव महः । गोपू०५ । १५ ॥ , प्राणो महः । श० १२।३।४।१०॥ 1, प्राणा एघ महः । गो० पू०५ ॥ १५ ॥ , प्रतीच्येव महः । गो० पू० ५। १५ ।। , सुवर्गों वै लोको महः । ते० ३॥ ८ ॥ १८॥५॥
असो वै ( स्वर्गो) लोको महासि । तस्यादित्या अधिपतयः।
तै०३।८।१८।२॥ , रुद्रा एव महः । गो० पू० ५। १५ ॥
प्रीम एष महः । गो० पू०५।१५॥ , त्रिष्टुषेय महः । गो० पू०५।१५ ॥ ,, पंचदश एव महः । गो० पू० ५। १५ ॥ महत महद्वा अन्तरिक्षम् । ऐ०५।१८, १९ ।।
, अन्तो वै महत् । ऐ०५।२,१२॥ महदुक्थम् अशीतिभिर्हि महदुक्थमाख्यायते । श०१०।१।२।६॥
, महदुक्थमृचाम् (समुद्रः)। श०९।५।२॥ १२ ॥ ,, सर्वा हैता ऋचो यन्महदुक्थम् । श० १०।१।१।५॥
१०।४।१।१३॥ यदेतन्मण्डलं ( सूर्यः ) तपति । तन्मह दुक्थं ता ऋचः स ऋचां लोका।श० १०।५।२।१॥
धौमहदुक्थम् । श०१०।१।२।२॥ " आत्मा महदुक्थम् । श०१०।१।२।५॥
वाङ्महदुक्थम् । श०१०।१।२।३॥ महविक अश्वस्य वा आलब्धस्य महिमोदकामत् । स महत्विजः
प्राविशत् । तन्महत्विजां महत्विक्त्वम् । ते० ३।।२।४॥ महादिवाकीय॑म् एतद प्रत्यक्ष साम यन्महादिवाकीर्त्यम् । कौ० २५ ॥॥ महान् प्रजापतिर्वाव महान् । तां०४।१०।२॥
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[महावीरः
(४०० ) महान् अग्नि महान् । जै० उ०३।४।७॥
" एष ( अग्नि) एव महान् । श०१०।४।१।४॥ ,, प्राण एव महान् । श० १०।४।१ । २३ ॥ महान् देवः एतान्यष्टौ (रुद्रः, सर्वः शर्वः, पशुपतिः, उग्रः, प्रशनिः,
भवः, महान्देवः, ईशानः) अग्निरूपाणि । कुमारी नवमः । श०६।१।३।१८॥ (-रुद्रः) स एषो ऽटनामाष्टधा विहितो महान्देवः। कौ० ६।९॥ (अपमूर्तिः=महादेवा-रुद्रः-अमरकोषे काण्डे १, स्वर्गवेग। श्लो० ३७ ॥) (प्रजापतिः) तं (रुद्रं) अब्रवीन्महान्दवो ऽसीति । तद्यदस्य तन्नामाकरोश्चन्द्रमास्तद्रूपमभवत्प्रजापति चन्द्रमा प्रजापतिर्वै महान्देवः । श० ६ । १।३ । १६ । यन्महान्देव आदित्यस्तेन । कौ०६॥ ६ ॥ एष ह वै महान्देवो यद्यशः । गो० पू०२।१६॥ 'पशुपतिः, 'पशुमान्,' 'भूतवान्,' 'रुद्रः,' इत्येतानपि
शब्दान् पश्यत । महानाम्न्यः (ऋचः); इन्द्रो वा एताभिर्महानात्मानं निरमिमीत तस्मा
न्महानाम्न्यः । ऐ०५॥ ७॥ महानाम्नीभिर्वा इन्द्रो वृत्रमहन् । कौ० २३ । २॥ (वृत्रवध समय) महान् घोष आसीत् तन्महानाम्न्यः (शक्कर्य्यः)। तां०१३।४।१॥
वज्रो वै महानाम्न्यः । ष०३ ॥ ११॥ , अथो इमे वै लोका महानाम्न्य इमे महान्तः। ऐ०५। ७॥ महायज्ञाः पश्चव महायज्ञाः । तान्येव महासत्राणि भूतयशो मनुष्य
- यशः पितृयज्ञो देवयज्ञो ब्रह्मयज्ञ इति । श० ११॥ ५॥ ६॥ १ ॥ महावीरा ते देवा अब्रुवन् । महान्बत नो वीरो ऽपादिति तस्मान्महा
वीरः। श०१४।१।१।११।। , स एष महावीरो मध्यन्दिनोत्सर्गः । कौ०८।७॥ " शिरो वा एतद्यास्य यन्महावीरः । कौ० ८।३॥
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( ४०१ ) महानतम् ] महावीरः असो वे महावीरो यो ऽसौ (सूर्यः) तपति । कौ० ८।३,
७॥ ('धर्मः' शब्दमपि पश्यत) मारिवामित्रम् (साम) पाप्मान हत्वा यदमहीयन्त तत् महावै.
श्वामित्रस्य महावैश्वामित्रत्वम् । तां० १३ ।
६। १२ ॥ महाडम्मम् (साम) महावैष्टम्भ ब्रह्मलाम भवत्यनाथस्यावरूध्यै ।
ता० १२ । ४ । १९॥ महान्याहतपः स तान् पंच वेदान् (सर्पवेदं पिशाचवेदमसुरवेदमि
तिहासवेदं पुराणवेदमिति) अभ्यश्राम्यदभ्यतपत्समतपत्तेभ्यः श्रान्तभ्यस्तप्तेभ्यः सन्तप्तेभ्यः पञ्च महान्याहतीनिरमिमीत वृधत् करद् गुहन् महत् तदिति । गो० पू०१।१०॥ कि सर्वप्रायश्चित्तिमिति महाव्याहतीरेव मघवनिति ।
प०१॥६॥ महानतम् महन्म- व्रतं यदिममधिन्वीदिति तन्महावतस्य महाब
तत्वम् । ता०४।१०।१॥ तं देवा भूताना रसं तेजः सम्भृत्य तेनैनं (प्रजापति) मभिषज्यन् महानववर्तीति । तन्महावतस्य महावतत्वम्। ते०१।२।६।१॥ महद् व्रतमिति। तन्महावतस्य महानतत्वम् । ते०१।२।
महतो व्रतमिति । तम्महावतस्य महावतत्वम् । ते०१।
प्रजापतिर्वाव महास्तस्यैतद् व्रतमन्नमेव । ता० ।। १०।२॥ मथ यन्महावतमुपयन्ति । प्रजापतिमेव देवतां यजन्ते । श०१२।१।३।२१॥ एष (अग्निः) एव महास्तस्यैतदनं व्रतं तन्महाबत सा. मतः । २०१०।४।१।४॥
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[महि
( ४०२ ) महामतम् प्राण एव महांस्तस्यानमेव प्रतं तन्महावत सामतः ।
श०१०।४।१।२३॥ प्राणो महावतम् । श०१०।१।२।३॥ सर्वाणि तानि सामानि यन्महावतम् । श० १.।१। १।५॥ अथ यदेतदर्चिीप्यते तन्महावतं तानि सामानि स साम्नां लोकः । श०१०।५।२।१॥ महावत साम्नाम् (समुद्रः)। श०९। ५।२।१२॥ वृहद्रथन्तरे ( महावतस्य ) पक्षौ । तां० १६ । ११ । ११ ॥ वामदेव्यमात्मा ( महावतस्य)। तां० १६ । ११ । ११ ॥ यशायशीय (साम ) ह्येव महातस्य पुच्छम् । तां० ५।
यशायशीयं (साम) पुछम् ( महामतस्य)। तां० १६ । ११ । ११॥
मन्तरिक्ष महावतम् । श०१०।१।२।२॥ __ अत्येतदन्यान्यहाम्यहऱ्यान्महानतम् । तां० ५। २ । १९ ॥ " भन्तो महानतम् । तां० ५। ६ । १२॥ महामतीयः (महा) महद्वाऽदं व्रतमभूयेनाय समहास्तति तस्मा.
महाव्रतीयो नाम । श०४।६।४।२॥ महामीहयः साम्राज्यं वा एतदोषधीनां यन्महावीहयः। ऐ० ८ ॥१६॥ महाहविः महाहविषा ह वै देवा वृत्रं जन्नुः । श०२।५।४।१॥
, महाविहाँता सतहोतृणाम् । ते० ३ । १२ । ५।२॥ महिमा ( पशु०३।१६) देवा महिमानः । श०१० ।२।२।२॥ ..., ( यजु. ।।६) यशो वै महिमा । श०६।३।१।१८॥
" राजा महिमा श०१३।२।११।२॥ तै०३।९।१०। । मादकः ( यशु. १२ । १०५ ) अग्निर्वे महिषः स हीदं जातो महा
सर्वमैष्णात् । श०७।३।१।२३ ॥ , (यजु. १२ ) अग्नि महिषः। श० ७।३।१।३४॥ , (ब. १२।२०)प्राणावै महिषाः । श०६।७।४।५॥ " (बह ९।३२) ऋत्विजो बैं महिषाः। श० १२ ! ८.१.२॥
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ही (बजु० ११ । ५६ ) इयं ( पृथिवी ) वाऽ अदितिर्मही । श० ६ ।
५ । १ । १० ॥
इयं ( पृथिवी ) एव मही । जै० उ० ३ । ४ । ७ ॥
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पृथिवीं मातरं महीम् । तै०२ । ४ । ६ ॥ ८ ॥
( बजु० १ । २० ) मह्य इति ६ वाऽ पतासामेकं नाम यद्भवाम् ।
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श० १ । २ । १ । २२ ॥ ३ । १ । ३ । ९ ॥
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महेन्द्र यन्महानिन्द्रोऽभवन्तन्महेन्द्रस्य महेन्द्रत्वम् । ऐ० ३ । २१ ॥
इन्द्रो वा एष पुरा वृत्रस्य वधावथ वृत्रएं हत्वा यथा महाराजो विजिग्यान एवं महेन्द्र। ऽभवत् । श० १ । ६ । ४ । २१ ॥ २।५।४।९॥ ४ । ३ । ३ । १७ ॥
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( ४०३ )
मासम् ]
यैव प्रथमा वित्ता ( भार्य्या) सा महिषी । श० ६ | ५ | ३ | १ ॥
महिषी हीयं ( पृथिवी ) । श० ६ | ५ | ३|१॥
महिषी हि वाक् । श० ६ | ५ | ३ | ४ ॥
महाः (शकर) महत्या मकरोत्तन्मह्वयाः । तां० १३ । ४ । १ ॥ ( बजु० १४ । १८ ॥ ) अयं वै ( पृथिवी - ) लोको मायं हि लोकां मित इव । श० ८ । ३ । ३ । ५ ॥
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महिषी धाय्या | कौ० १५ ॥ ४ ॥
भूरिति महिषी । तै०
सम् पतदु ह वै परममन्नाद्यं यन्मासम् । श० ११ । ७ । १ । " अन्नमुपशोर्मासम् । श० ७ । ५ । २ । ४२ ॥
मास वै पुरीषम् । श० ८ | ६ | २ | १४ || ८ | ७ | ३ | १॥
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३ । ९ । ४।५ ॥
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मासं पुरीषम् । श० ८ | ७ | ४ | १९ ॥
मालं सादनम् । श० ८ । १ । ४ । ५ ॥
मासयति ह वै जुड़तो यजमानस्याग्नयः । श० ११ । ७ । १।२ ॥
मासीति वा आहिताग्नेरनयः । गो० उ० २ । १ ॥ ('अग्नयो मांसकामाच इत्यपि श्रूयते श्रुतिः' इति नीलकण्ठीयटीकायुते महाभारते धनपर्वणि अ० २०८ ० ११ ॥ कुम्भघोणसंस्करणें-म० २१२१० ॥ मनु ४ । २७-२८ ॥
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[माध्यम्दिनं सवनम् ( ४०४ ) मासम् (माहोदनिकस्य रक्षणकर्ता ) न मा समभीयात् । न लिय.
मुपेयात् । यन्मासमनीयात्। यत्तियमुपेयात् । निवार्य: स्यात् । नैनमाग्निरुपनमेत् । तै० १ । १ । ९ । ७-८ ॥ ( यजमानः) अहतं वसानो ऽवभृथादुवैति चतुरो मासो न मासमनाति, न नियमुपैति । तां०१७। १३ । ६, ११, १४॥ " ममासाश्यनुते तपस्व्यनुप्रवाऽ इति । श०१४।।। १ ।
माः चन्द्रमा वै मा मासः । जै० उ०३ । १२ । ६ ॥ माषः माघे वा मा नो ऽघं भूदिति । श०१३। ८ : १ । ४॥ मातरिया प्राणो मातरिश्वा । ऐ०२१३८ । , अयं वै वायुर्मातरिश्वा योऽयं पयते। श० ६ । ४ । ३१४॥
अथ यदक्षिणतो वाति । मातरिश्वैष भूत्वा दक्षिणतो वांति । तै० २।३।९।५॥ सर्व दिशो ऽनुविवाति । सर्वा विशो ऽनुसंवातीनि ।
स वा एष मातरिश्वैष । तै० २ । ३ । ९ । ६॥ , अन्तरिक्षं वै मातरिश्वनो धर्मः । तै०३।२।३।२॥ माता न हि माता पुत्र हिनस्ति न पुत्रो मातरम् । श० ५।२ ।
१।१८॥ मात्रा यदेव मिमीते तस्मान्मात्रा । श०३।९।४।८॥ माषवः (मासः ) एतौ (मधुश्च माधवश्व) एव वासन्तिकौ (मासी)
स यद्वसन्तऽ ओषधयो जायन्ते वनस्पतयः पच्यन्ते तेनो
हैती मधुश्च माधषश्च । श०४।३।१ । १४ ॥ मापुग्छन्दसम् (साम ) इद गन्धोजसेति माधुच्छन्दस प्रजापते.
र्वा एषा तनूरयातयानी प्रयुज्यते । तां०९।२।१७। , माधुच्छन्दसं भवति सामायवत् स्वर्गाय युज्यते
स्वर्गाल्लोकान्न च्यवते तुष्टुवानः । तां० ११ । ९।६॥ माध्यन्दिनं सवनम् रुद्राणां माध्यन्दिनं सवनम् । कौ० १६ । १ ॥
३० । १॥ श०४।३।५।१॥ रुद्रा एकादशकपालेन माध्यन्दिने सक्ने ( अमि. पज्पन्)।०१।५ । ११ । ३॥
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। ४०५ ) माध्यन्दिनं सपनम् ] माध्याग्दिनं सवनम् अथेम विष्णुं यहं त्रेधा व्यभजन्त । वसषः प्रात:
सघन रुद्रा माध्यन्दिन सवनमादित्यास्तृती. यसवनम् । श०१४।१।१ । १५ ॥ ऊर्वाः (पितरः) माध्यन्दिने (सवन)। ऐ० ॥३४॥ मरुत्वद्धि माध्यन्दिन सवनम् । तां०९।७। २॥१३ । ९ ॥२॥ इन्द्रस्य माध्यन्दिनं सवनम् । कौ० १४।५॥ ऐन्द्रं वै माध्यन्दिनं सवनम् । जै० उ० १ । ३७।३॥ पतद्वाऽ इन्द्रस्य निष्केवल्य सयनं यन्माध्यन्दिन सवनं तेन वृत्रमजिघांत्तन यनिगीषत । श०४।३। ।६॥ एन्द्रं त्रैष्टुभं माध्यन्दिनं सवनम् । गो० उ०४॥४॥ ऐन्द्रं हि त्रैष्टुभं माध्यन्दिनं सवनम् । को० २९ ॥२॥ त्रैष्टुभं वै माध्यन्दिनं सवनम् । ऐ० ६ ॥ ११ ॥ श्रेष्टुभं माध्यन्दिनं सवनम् । १० १।४॥ . अन्तरिक्षलोको माध्यन्दिनं सवनम् । गो० उ० ४।४॥ अन्तरिक्षं वै माध्यन्दिन सवनम् । श० १२ । ८।२।९॥ क्षत्रं माध्यन्दिनं सवनम् । कौ० १६ । ४ ॥ स्वर्गों पे लोको माध्यन्दिनं सवनम् । गो० उ. ३॥ १७॥ एतकै यज्ञस्य स्वयं यन्माध्यन्दिन सवनम् । तां०७।४।१॥ साध्या वै नाम देवा आसस्ते ऽवछिद्य वतीयसवनम्माध्यन्दिनेन सवनेन सहस्वर्गलोकमायन् । तां० ८॥ ३ ॥ ५॥ ८॥४॥९॥ मध्ये सन्तं (सूर्ण्यमीपखन्ति ) माध्यन्दिनेन सब नेन कौ० १८।९॥
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{ माजालीयः ( ४०६ ) माध्याग्दिनं सबनम् सप्तदशपञ्चविशी (स्तोमो) माध्यदिन सब.
नम् (वहतः)। ता० १६ । १० । ५॥ बाजवन्माध्यन्दिन सवनम् । तां०१८।६।७॥ एतेन वै माध्यन्दिन सवनं प्रतिष्ठितं यत्त्रिणिधनम् । तां०७।३।२॥
बाईतं हि माध्यन्दिनं सत्रनम् । ना० ९।७। ७ ॥ माध्यन्दिनः पवमानः प्राणो वै माध्यन्दिनः पवमानः । श० १४ । ३ ।
विच्छन्दा माध्यन्दिनः पवमानः । प०१३॥ मामवम् ( साम ) एतेन वै मनुः प्रजाति भूमानमगच्छत्प्रजायते
बहुर्भवति मानवन तुष्टुवानः । तां० १३ ॥३॥१॥ मानुषम् यदब्रुवन्मेदं प्रजापते रेतो दुषदिति तन्मादुषमभवत्तन्मा
दुषस्य मानुषत्वं मादुषं ह वै नामैतद्यन्मानुषं तन्मादुषं सम्मानुषमित्याचक्षते (इदं मे मादुषत् । तां०८।२।१०)।
ऐ०३ । ३३ ॥ मामहामः ( यजु० १७ । ५५) यजमानो वे मामहानः । श०९।२।
३।९॥ मारणम् त्रिरात्रोपोषितः कृष्णचतुर्दश्या शवावतारमाहत्य चतुष्पथे
बाधकामध्ममुपसमाधाय बैतिकेन सुवेण सर्वपतैलेनाहुतिसहस्रं जुहुयात्सम्मील्येन यत्र वृश्चशब्दः स्यात्तत्र पुरुषः शूलहस्त उत्तिष्ठति तं यादमुजहीति हन्त्येनम् । सा० ३ ।
माइतो मरुतां गणः ( यजु. १८ । ४५) अन्तरिक्षलोको वै मारुतो
. मरुतां गणः । श० ९ । ४।२।६॥ मार्गीयवम् ( साम ) देवं वा एतं (पशुपति ) मृगयुरिति वदन्त्येतेन
(मार्गीयवेण ) वै स उभयेषां पशूनामाधिपत्यमाश्नुतोमयेषां पशूनामाधिपत्यमश्नुते मार्गी
यवेण तुष्टुवानः । तां० १४।९।१२॥ माजातीयः (पुरुषस्य) पाहूमार्जातीयवानीधीषमा को० १७ ॥ ७ ॥
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मासा] माजांधीयः बाहुएषास्य ( यज्ञस्य ) आग्नीध्रीयश्च मार्जालीयच । श.
३।५।३।४।। , यामेन माआलीयमुपतिष्ठन्ते पितृलोकमेव तजयन्ति । तां०
मार्तण्डः ( अदितिः) अविकृत हाष्टमं ( पुत्रं ) जनयाञ्चकार
मार्तण्ड संदेघो हैवास यावानेवोधस्तावांस्तियङ् पुरुष
संमित इत्यु हैकऽ आहुः । श०३।१।३ ३॥ , तदभ्यनूक्ता । ( पश्यत ऋ० १० । ७२ । ८-) अष्टौ पुत्रासो
अदितेय जातास्तन्वं परिदेवाँ उपौत् सप्तभिः परा मात- ण्डमास्यदिति । तां० २४ । १२ । ५-६ ॥
ये (मार्तण्डं) उ ह तद्विचक्रः (देवा आदित्याः), स विवस्वा
नादित्यस्तस्येमाः प्रजाः । श० ३।१। ३।४॥ माषाः तदुह स्माहापि बकुर्वाष्र्णो माषान्मे पचत न वा पतेषा
हविहन्तीति । ।०१।१।१ । १० ॥ मासाः मासाः (संवत्सरस्य) कर्मकाराः । तै० ३।११ । १०॥ ३ ॥ ,, मासा वै रश्मयः । तां०१४ । १२ ॥ ९॥ ,, माला हवी श्रषि । श० ११ । २। ७ । ३॥
यव्या मासाः। श०१।७।२।२६॥ मासा वै देवा अभिधवः। गो० पू०५।२३॥ मासा वै पितरो बर्हिषदः । तै० १।६। ८ ॥३॥ ३ ॥ ३१६४ मासा उपसदः । श० १०।२।५।६॥ उदाना मासाः। तां० ५। १० ॥ ३ ॥ पवित्र पवयिष्यन्त्सहस्वान्सहीनारुणो ऽरुणरजा इति । एते
नुवाका अर्घमासानाञ्च मासानाच नामधेयानि । तै• ३। १०। १० । ३॥ किं नु ते ऽस्मासु (मासेषु) इति । इमानि स्थूलानि पर्वाणि । जै.२०३।२३।८॥
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[मित्रः
( ४०८ ) माहाराज्यम् अथैनं (इन्द्र) ऊर्धायां दिशि मरुतभागिरसश्च देवाः...
अभ्यषिचन्......... पारमेष्ठयाय माहाराज्यायाऽऽधि.
पत्याय स्वावश्यायाऽऽतिष्ठाय । ऐ० ८ ॥१४॥ माहिनम् इयं (पृथिवी) वै माहिनम् । ऐ० ३ । ३८ ॥ मित्रः सर्वस्य होव मित्रो मित्रम् । श० ५। ३।२।७॥ ,, मित्रः (एवैनं) सत्यानां (सुवते) । तै० १ । ७।४।१॥ , मित्र! सत्यानामाधिपते । तै०३।११।४।१॥ ,, ब्रह्मैव मित्रः ।।०४।१ । ४।१॥
ब्रह्म हि मित्रः । श०४।१।४।१०॥ ५। ३।२४॥ , मित्रः क्षत्रं क्षत्रपतिः । श० ११ । ४।३।११॥ तै० २।५।
७।४॥ , मित्रः (श्रियः) क्षत्रम् (आदत्त)। श० ११ । ४।३।३॥ ॥ अथ यत्रतत्प्रतितरामिव तिरश्चीवार्चिः संशाम्यतो भवति तर्हि
हैष (अनिः) भवति मित्रः । श०२।३।२। १२ ॥ ,, तं यद् घोरसंस्पर्श सन्तं (अमिं) मित्रकत्येवोपासते तदस्य
मैत्रं रूपम् । ऐ० ३।४॥ ,, (यजु०१५। ५३ ॥ १४ । २४ ॥) प्राणो वै मित्रः । श०६।
५।१।५॥ ४।२।६॥ १२।९।२।१२॥ ,ते हमे लोका मित्रगुप्तास्तस्मादेषां लोकानां न किशन मीयते।
श०६।५।४।१४॥ (यजु० १११६४) अयं वै वायुर्मित्रो यो ऽयं पवते । श० ६।५।
४।१४॥ , मित्रस्य सङ्गवः (कालविशेषः) । तै० १ । ५ । ३।१॥ , अहम्मित्रः । तां० २५॥ १० ॥१०॥ ., महा मित्रः । ऐ०४।१०॥ ,, मैत्रं वा आहः। तै०१।७।१०।१॥ , वरुण्या वाऽ पता ओषधयोयाःकृष्टे जायन्ते ऽथते मैत्रा यमा
म्बाः । २०५।३।३। ८॥ वरुण्या वाऽ एषा (शाखा) या परशुवृषणाथैषा मैत्री (शाखा) या स्वयम्प्रशीर्णा । श०५।३।२५॥
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( ४०६ )
मित्रावदणौ ]
मित्र: वरुण्यो वा एष यो ऽग्निना भृतो ऽथैष मैत्रो य ऊष्मणा
भूतः । श०५।३।२।८ ॥
वरुण्यं वाऽ एतद्यन्मथितं ( आज्यं ) अथैतन्मैत्रं यत्स्वयमुदितम् । श० ५ । ३।२।६॥
मैत्रो वै दक्षिणः । वरुणः सभ्यः । तै० १ । ७ । १० । १ ॥
तद्यदेवात्र पयस्तन्मित्रस्य, सोम एव वरुणस्य । श० ४ । १ ।
४९॥
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मित्रम् प्राणो मित्रम् | जै० उ० ३ । ३ । ६ ॥
मित्राबृहस्पती मित्राबृहस्पती वै यज्ञपथः । श० ५ । ३ । २ । ४ ॥
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faureent प्राणापानी मित्रावरुणौ । तां० ६ । १० । ५ ॥ ९।८। १६ ॥ तै० ३ | ३ | ६९ ॥
( यजु० १४ । २४ ) प्राणो वै मित्रो ऽपानो वरुणः । श० ८।४।२।६ ॥ १२ । ९ । २ । १२ ॥
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यः (अर्द्धमासः) आपूर्यते स मित्रः । तां० २५ | १० | १० ॥
यो ( अर्धमासः ) ऽपक्षीयते स मित्रः । श० २ । ४ । ४ ।
99
१८ ॥
यद्वाऽ ईजानस्य स्विष्टं भवति मित्रो ऽस्य तद् गृहाति । श० ४।५।१।६ ॥
मित्रेणैव यशस्य स्विष्टः शमयति । तै० १ । २।५।३ ॥
मैत्रो नवकपालः (पुरोडाशः ) । तां० २९ | १० | २३ ॥
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मित्रावरुणौ ( एवैनं ) प्राणापानाभ्याम् (भवतः ) । तै० १/७/६।६ ॥
प्राणोदानौ वै मित्रावरुणौ । श० १ । ८ । ३ । १२ ॥ ३ । ६ । १ । १६ ॥ ५ । ३ । ५ । ३४ ॥ ९ । ५ । १ । ५६ ॥ प्राणोदानौ मित्रावरुणौ । श० ३ । २ । २ । १३ ॥ अहोरात्रौ वै मित्रावरुणौ । तां० २५ । १० । १० ॥ अइर्वै मित्रो रात्रिर्वरुणः । ऐ० ४ । १० ॥ भर्द्धमासी (शुरुकृष्णपक्षी) वे मित्रावरुणी । तां० २५ ।
१० । १० ॥
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[मिथुनम् मित्रावरुणौ भथैतावेवार्धमासौ मित्रावरुणौ, य एवापूर्यते स वरुणो
योऽपक्षीयते स मित्रः । श०२।४।४।१८॥ बाह वै मित्रावरुणौ । श० ५।४।१।२५ ॥ अयं वै ( पृथिवी-) लोको मित्रो ऽसौ (घुलोका ) वरुणः। श०१२ । ९।२। १२ ॥ धावापृथिवी वै मित्रावरुणयोः प्रियं धाम | तां० १४ । २४॥ गोसंस्तवौ वै मित्रावरुणौ । कौ० १८ । १३ । अथ यद्रोऽआयुषी (स्तोमो) उपयन्ति । मित्रावरुणा. वेव देवते यजन्ते । श० १२ । १ । ३ । १६ ॥ अथ ( अग्निः ) यदुश्च हृष्यति नि च दृष्यति तदस्य मैत्रावरुणं रूपम् । ऐ० ३।४॥ एतद्वै मित्रावरुणयोः स्वं हविर्यत्पयस्या। कौ० १८ ॥१२॥ मैत्रावरुणी पयस्या । श० २।४।४।१४॥५।५।
मैत्रावरुणी वा अनूबन्ध्या । कौ० ४।४ ॥ यदा न कश्चन रसः पर्यशिष्यत तत एषा मैत्रावरुणी घशा समभवत्तस्मादेषा न प्रजायते। श०४।५।१॥९॥ सा हि मैत्रावरुणी यवशा। श०५।५।१ । ११ ॥ उदीची दिक् । मित्रावरुणो देवता । तै० ३ । ११ । ५२॥ मित्रावरुणो त्योत्तरतः परिधत्तां ध्रुवेण धर्मणा विश्वस्यारिष्टथै ( यजु० ११ ॥३)। श०१।३।४।४॥ मित्रावरुणनेत्रेभ्यो वा मरुन्नेत्रेभ्यो वा देवेभ्य उत्तरास.
यः स्वाहा । श०५।२।४।५॥ " मित्रावरुणो त्वा वृष्श्यावताम् (यजु०२ । १६) । श०
१।८।३ । १२॥ षभिमत्रावरुणैः (पशुभिः) शरदि (यजते) । श०
१३ । । ४ । २८ ॥ . मिडनम् इंदं वै मिथुनम् । १३ । ५० ॥ श० ११।१। २॥६॥
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माता
( ४११ ) मिथुनम् तस्मायः कश्च मिथुनमुपति गन्धं चैव स रूपं कामयते ।
श०९।४।१।४॥ , तद्यथा हैवेदं मानुषस्य मिथुनस्यान्तं गत्वा संविद इव भव.
ति । श० १०।५।२।११ ॥ __, व्यखं वाऽ एतन्मिथुनं यदन्यः पश्यति । श० ४।६७ ॥९॥
, मिथुनं वै पशवः । ऐ०४।२१ ॥ ५। १६, १७,१८१९॥ मिमिक्षताम् ( यजु० १३ । ३२) इमं यज्ञं मिमिक्षतामितीमं यहमवता
मित्येतत् । श० ७।५।१।१०॥ मुखम् मुखं प्रतीकम् । श०१४ । ४।३।७॥ मुम्जः अग्निर्देवेभ्य उदक्रामत्त मुझं प्राविशत्तस्मात्स सुषिरः । श०
६।३।१२६॥ ,, सैषा योनिरग्नेयन्मुञ्जः । श०६।३।१ । २६ ॥ ,, योनिरेषाग्नेर्यन्मुखः। श०६।६।१।२३॥ ., योनिमुनाः । श०६।६।२।१५ ॥ ., यशिया हि मुजाः । श०१२। ८।३।६॥ , अर्वा मुखाः । तै० ३ । ८।१।१॥ मुदः ( अप्सरसः, यजु० १८ । ३८ ) ओषधयो वै मुदं ओषधिभिहीदछ
सर्व मोदते । श०९।४।१।७॥ मुम्पयनयशः स एष सर्वकामस्य यशः । कौ०४।१०॥ मुष्करः (पशुः) प्रजननं वै मुष्करः । श० ५।१।३।१०॥ मुष्टिः (यजु० २३ । २५) राष्ट्र मुष्टिः । श० १३।२।९।७॥ तै०
३।९।७। ५॥ मुसबम् योनिरुलूखलम्......शिश्नं मुसलम्। श० ७ । ५।१ । ३८ ॥ मुहर्ताः स (प्रजापतिः) पञ्चदशाहो रूपाण्यपश्यदात्मनस्तन्बो मुहर्ता
लोकम्पृणाः पश्चदशैव रास्तयन्मुहु प्रायन्ते तस्मान्मुहर्ता। श. १०।४।२।१८॥ लोकम्पृणाभिः (इष्टकाभिः) मुहूर्तान (आमोति)। श० १० । ४।३। १२॥ अथ यत्क्षुद्राः सन्त इमाँलोकानापूरयन्ति तस्मात् (मार्शः) लोकम्पणाः (इएका)। श०१०।४।२।१८ ॥
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[मृत मुहूर्ताः चित्रः केतुर्शता प्रदाता सविता प्रसविताभिशस्तानुमन्तेति
ऐत ऽनुवाका मुहर्तानां नामधेयानि । तै० ३ । १० । ५० ॥३॥ सी (प. ५। ५) प्रजापति मूर्धा। श० ८।२।३।१०॥ , एष वै मूर्धा य एष (सूर्यः) तपति । श० १३ । ४।१।१३ ॥ , मूर्दा हृदये (श्रितः) । तै० ३ । १० ॥ ८॥९॥ ,, स यो ह तत्राश्नीयाद्वा भक्षयेद्वा मूर्घा हास्य विपतेत् । श.
३।६।१।२३॥ , मूर्धास्य विपतेघ एनमुपवल्हेतेति । श० ११ । ४।१।९॥ ,, मूर्द्धा ते व्यपतिष्यत् । ते० ३ । १० । ९ । ५ ॥ मूलबर्हणी (=मूलनक्षत्रम्) मूलमेषामवृक्षामेति । तन्मूलवर्हणी । ते.
१।५।२८॥ , नित्यै मुलवहणी । तै०१।५।१।४॥३।१।२।३॥ मृगयुः देवं वा एतं ( पशुपति) मृगयुरिति वदन्ति । सां० १४ । ९ ।
१२ ॥ 'मृगव्याधः' शब्दमपि पश्यत । मृगव्याधः (=Dog-star) य उ एव मृगव्याधः स (रुद्रः) उ एव सः
(मृगव्याध एकादशरुद्रेष्वन्यतमः-नीलकण्ठीयटीकायुते महाभारत आदिपर्वणि अध्याये ६६, श्लो० २॥)।ऐ०३ ।
३३ ॥ 'मृगयुः' शब्दमपि पश्यत । सगशीर्षम् (नक्षत्रम्) एतद्वै प्रजापतेः शिरो यन्मृगशीर्षम् । श०२॥
१।२।८॥ , स (प्रजापती रुद्रण) विद्ध ऊर्य उदप्रपतत्समेतं मृगः
(मृगशीर्षनक्षत्रम्) इत्याचक्षते । ऐ० ३॥ ३३॥ , सोमो राजा मृगशीर्षेण आगन् । तै०३।१।१।२॥ , स (सोमः) एत सोमाय मृगशीर्षाय श्यामाकं च पयास
निरवपत् । ततो वै स ओषधीना राज्यमभ्यजयत् ।
तै०३।१।४।३॥ सत् स (फेनः) यदोपहन्यते मृदेव भवति । श०६।१।३।३॥ " सम्पदिषं तत् (पृथिवी)। श० १४।१।२।९॥
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मतुः स समुद्रावमुच्यत स मुच्युरभवत्तं वा एतं मुच्यु सन्तं मृत्यु
रित्याचक्षते परोक्षेण परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति प्रत्या मद्विषः । गो० पू० १ ॥ ७॥ एष वै मृत्युर्यत्संवत्सरः । एष हि मानामहोरात्राभ्यामायुः क्षिणोत्यथ नियन्ते । श० १०।४।३।१॥ एष एव मृत्युः । य एष (सूर्यः) तपति । श० २ । ३ । ३।७॥
स एष (आदित्यः) मृत्युः । श० १० ।५।१।४ ॥ ,, स एष एव मृत्युः । य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषः । श०१०।
५।२।३॥ स एष एव मृत्युः । य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषो यश्चाय दक्षिण ऽक्षन्पुरुषस्तस्य हैतस्य हृदये पादावतिहतौ तौ हैतवाच्छिद्योतकामति स यदोत्क्रामत्यथ हैतत्पुरुषो म्रियते । श०
१०।५।२।१३।। ,, अनि मृत्युः । कौ० १३ । ३॥ श०१५। ६।२।१०॥ , यो ऽग्निमृत्युस्सः । जै० उ० १॥ २५॥ ८॥२॥ १३ ॥ २॥ ,, सो (अग्नि-मृत्युः ) ऽपामन्नम् । श०१४ । ६।२।१०॥
अथैत एव मृत्यवो यदग्निवायुरादित्यश्चन्द्रमाः ॥ ते ह पुरुष
जायमानमेव मृत्युपाशैरभिदधति । जै० उ० ४ । ९ । १२ ॥ , मृत्युस्तदभवद्धाता । शमितोयो विशांपतिः । ते० ३ । १२ ।
, मृत्युः शमिता। तां० २५ । १८ ॥४॥ , एको वा अमुष्मिल्लोके मृत्युः। अशनया मृत्युरेव । तै० ३ ।
९।१५। १-२॥ , अशनाया हि मृत्युः । श०१०।६।५।१॥ , अमृत्युर्वा अन्यो भ्रूणहत्याया इत्याहुः । ग्रूणहत्या वाव
मृत्युरिति । ते• ३१९ । १५ ॥२॥ तस्य (अनेर्वैश्वानरस्य) एष घोषो भवति यमेतत्कर्णावपि धाय शृणोति स यदोत्कमिष्य भवति नैतं घोषवं शृणोति । श०१४ । ८।१०।१॥
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[मेवपतिः (ste ) मृत्युः मृत्युबै तमः । श. १४ । ४।१ । ३२॥ गो. उ०५।१॥ , मृत्युबै तमश्छाया । ऐ०७ ॥ १२॥ " अमृतान्मृत्युः (निवर्तते) । श०१०।२।६। १९ ॥ मृधः (यजु० ॥ ७२)अग्न त्वं तरा मृध इत्यने त्वं तर साम्पाप्मन
इत्येतत् । श०६।६।३।४॥ ,, (यजु० ११ । १८) पाप्मा वै मृधः । श० ६ । ३ । ३१ ८॥ मेसला सा (मेखला) वै शाणी भवति । श०३।२।१।११॥ , तथोऽएवैष एतां (मेखला) मध्यत भात्मन ऊर्ज घस समाति
तया समाप्नोति । श. ३।२।१।१०॥ मेदः मेदो वै मेधः । श० ३।८।४।६॥ मेषः (यजु० १३ । ४७) (=अन्नं) मेधोयत्यत्रायत्येतत् । श० ७ । ५ । २
३२॥ , पुरुषं वै देवाः पशुमालमन्त तस्मादालब्धान्मेध उदाक्रामत्सो
ऽश्वं प्राविशत्......ते ऽश्वमालभन्त......ते गामालभन्त... स (मेधो देवैः) अनुगतो वोहिरभवत् । ऐ०२॥ ८॥ पुरुष ह वै देवाः । अग्रे पशुमालेभिरे तस्यालब्धस्य मेधो उपचक्राम सो ऽश्वं प्रविवेश ते ऽश्वमालभन्त......ते गामा. लभन्त ......ते ऽविमालभन्त......ते ऽजमालभन्त......ता. विमो व्रीहियो (मेधः) । श०१।२।३। ६,७॥ (देवाः) तं (मेधम् ) खनन्त इवान्वीषुस्तमन्वविन्दंस्ताविमौ व्रीहियवौ । श०१।२।३ । ७॥ सर्वेषां वाऽ एष पशूनां मेघो यहीहिययौ । श० ३॥ ८॥३१॥
मेदो वै मेधः। श० ३।८।४।६॥ , पशुवै मेधः । ऐ०२।६H , मेघो वा एष पशूनां यत्पुरोडाशः । कौ० १०॥ ५ ॥ , मेधो वा आज्यम् । तै० ३ । ९ । १२ । १ ॥ मेधपतिः यजमानो मेधपतिः। ऐ०२॥६॥ , यजमानो वै मेधपतिः । कौ० १० १४॥ , देवव मेषपत्तिरिति । कौ० १०॥ ४॥
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( ४१५ )
मैधातिथम् ]
मेधपतिः अथो खल्वातुर्यस्यै वाघ कस्यै च देवतायै पशुरालभ्यते सैव मेधपतिरिति । ऐ० २ । ६ ॥
neer मेध्या वा आपः । श० १ । १ । १ । १ । ३ । १ । २ । १० ।। मेनका (यजु० १५ । १६) (वायोः) मेनका च सहजन्या चाप्सरसाविति दिकू चोपदिशा चेति ह स्माद्द माहित्थिरिमे तु ते द्यावापृथिवी । श० ८ । ६ । १ । १७ ॥ वृषणश्वस्य ह मेनस्य मेनका नाम दुहिता स तार्थं द्वेन्द्रचकमे । ष० १ । १॥
मेनि: (क्रोधरूपा शक्तिरिति ऐ० ८ । २४ भाष्ये सायणः) अमेन्यस्मे नृम्णानि धारय' (यजु० ३८ । १४ ) इत्यकुध्यने। धनानि धारयेत्येवैतदाह । श० १४ । २ । २ । ३० ॥
ता वा एता अङ्गिरसां जामयो यन्मेनयः । गो०पू० १।९ ॥
31
मेषः स हि प्रत्यक्षं वरुणस्य पशुर्यम्मेषः । श० २ | ५ | २ | १६ ॥ सारस्वतं मेषम् (आलभते । तै० १ | ८ | ५/६ ॥
मैत्रावरुणः (ऋत्विग्विशेषः) प्रणेता वा एष होत्रकाणां यन्मैत्रावरुणः ।
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ऐ० ६ | ६ ॥ गो० उ० ५ । १२ ।।
यतो वै मैत्रावरुणः । कौ० १३ । २ ॥
मनो वै यशस्य मैत्रावरुणः । ऐ० २ । ५, २६, २८ ॥
मनो (वे यशस्य) मैत्रावरुणः । श० १२ । ८।२।२३॥ वक्षुच मनश्च मैत्रावरुणः । ऐ० २ । २६ ॥
चक्षु मैत्रावरुणः । कौ० १२ ।५ ॥
गायत्रो ने मैत्रावरुणः । तां० ५ । १ । १५॥ तस्मान्मैत्रावरुणो वामदेवान्न प्रच्यवते । गो०३०३ । २३ ॥ वामदेव्यं मैत्रावरुणसाम भवति । श० १३ | ३ | ३ | ४ ॥ शाकरं (पृष्ठं) मैत्रावरुणस्य । कौ० २५ । ११ ॥
पेद्रावरुणं मैत्रावरुणस्योक्थं भवति । गो० उ०४ । १४ ॥
21
मैधातिथम् (साम) एतेन वै मेधातिथिः काण्वो विभिन्दुका ड्यूनीर्गा उदसृजत पशूनामवरुध्यै मैघातिथं क्रियते । तां
१५ । १० । ११ ॥
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[पजमानः म्छः ते ऽसुरा आसवचसो हे ऽलवो हे ऽलव इति (हैलो हैल इति'
इति काण्वशाखीयशतपथपाठः-See footuote No. 3. in the Taqu translated by Prof. Eggeling. 'हेलयो हेलय इति' इति महाभाष्ये १ । १ प्रथमालिके) वद. न्तः परायभूवुः ॥ तत्रैतामपि वाचमूदुः उपजिज्ञास्यास म्लेच्छस्तस्मान्न ब्राह्मणो म्लेच्छेदसुर्या हैषा वाक् । श०३। २१ । २३-२४ ॥
यकृत् यकृत् सविता । श० १२ । ९ । १ । १५ ॥ यक्षः यक्षमिव चक्षुषः प्रियो वो भूयासम् । मं०१ । ७ । १४ ॥ यजत्रम् यजत्रमिति यझियमित्येतत् । श० ६।६।३।६॥ पजमानः यद्यजते तघजमानः । श० ३।२।१ । १७ ॥ , एष उ एव प्रजापतियों यजते । ऐ०२।१८॥
यजमानो ह्येव स्वे यो प्रजापतिः । श० १।६।१।२०॥ इन्द्रो वै यजमानः । श०२।१।२ । ११ ॥ ४।।। ८॥५।१।३।४॥ यजमानो मेघपतिः। ऐ०२।६॥ यजमानो वै मेघपतिः । कौ० १०॥ ४ ॥ यजमानो हि यशपतिः । श०४।२।२।१०॥ यजमानो वै यज्ञपतिः (यजु०१।२)।०१।१।२। १२॥ १।२।२।८॥१।७।१।११॥ यजमानो ऽग्निः । श०६।३।३। २१ ॥६।५।१।८॥ ७।४।१।२१ ।। ९ ।२।३।३३॥ स उऽपय यजमानस्तस्मादाग्नेयो भवति । श०३।६।
आहवनीयभाग्यजमानः । कौ० ३१९॥ मनो यजमानस्य ( रूपम् )। श० १२ । ८ । २।४।। यजमानो वै दाश्वान् (यजु० १२ । १०६ ॥ १३ ॥ ५२)। श० २।३।४ । ३८, ४० ॥ ७।३।१ । २९ ॥ ७ ॥५॥
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यजमानः] यजमानः यजमामो वै मामहानः (यजु० १७ । ५५)। श०९।२।
३।६॥ ,, यजमानो वै सुम्नयुः (ऋ०३।२७।१)। श०१।४।
१ । २१॥ यजमानो वै हव्यदातिः (ऋ० ६।१६ । १०) । श० १।४। १।२४॥ यजमानः पशुः । तै० २११ । ५ । २ ॥ २ । २ । ८ ॥ ६ ॥ यजमानो वै यूपः । ऐ० २ । ३ ॥ श० १३ । २ । ६।६ ॥ पप वै यजमानो यपः । ते०१।३।७।३॥ यजमानो वाऽ एप निदानेन यापः । श०३।७।१।११॥ यजमानदेवत्यो वै यूपः । तै० ३।६।५।२॥ यजमानो में प्रस्तरः । ए०२।३ ।। श०१।८।१।४४॥ १।८।३।११, १४, १६॥ तै०३।३।६। ७, ८॥३। ३।९।२,३॥ तां०६।७।१७ ॥ यजमानो यशः । श०१३। २।२।१॥ यजमानो व यशः । ऐ०१। २८॥ आत्मा के यशस्य यजमानो ऽङ्गान्युत्विजः। श० ।।
संवत्सरो यजमानः । श० ११ । २।७। ३२॥
एष वै यजमानो यत्सोमः । तै० १।३।३।५॥ __ यजमानो वाऽ अग्निष्ठा। श०३।७।१।१६॥
यजमानो हि सूक्तम् । ऐ०६।६ ॥ यजमानः नचः । तै० ३।३।६।३॥ यजमानदेवत्या वपा । तै० ३ । ९ । १० । १ ॥ यजमानच्छन्दसमेवोष्णिक । कौ० १७ ॥२॥ यजमानच्छन्दसं पंक्तिः । को० १७ ॥ २ ॥ यजमानच्छन्दसं द्विपदा ( ऋक् )। कौ० १७ । २ ॥ यजमानो वैद्वियजुः (इष्टका)। श०७।४।२ । १६,२४ ॥ ( यजमानः) महतं क्सानो ऽवभृथादुदैति चतुरो मासो नमसमभाति न स्त्रियमुरीति। तां०१६।१३।६, ११, १४॥
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[यहुर्वेदः
(५८) पजमानः यां वै काश्च यहs ऋत्विजऽ आशिषमाशासते यजमान
स्यैव सा । श०१६ । १।२१ ॥ स्वङ्मास स्नायवस्थि मज्जा । एतमेष तत्पश्चधा विहितमात्मानं वरुणपाशान्मुश्चति ( यजमानः) । तै०१! ५। ६ । ७॥ सह सर्वतनूरेव यजमानो ऽमुस्मिलोके सम्भवति य एवं
विद्वानिष्क्रीत्या यजते । श० ११ । १ । ८।६॥ यजमानभागः यजमानो वै यजमानभागः । ऐ०७ । २६ ॥
, यज्ञो वै यजमानभागः। ऐ०७ । २६ ॥ पजुर्वेदः यजो ह वै नामैतद्यद्यजुरिति । श० ४।६। ७ । १३॥ , एष (वायुः ) हि यन्नेवेद सर्व जनयत्येतं यन्तमिदमनु
प्रजायते तस्माद्वायुरेव यजुः ॥ अयमेवाकाशो जूः । यदिदमन्तरिक्षमेत ह्याकाशमनु जवते तदेतद्यजुर्वायुश्चान्त.
रिक्षं च यच जूश्च तस्माद्यजुः । श० १०।३।५।२॥ " ......यजुरित्येष (पुरुषः) हीद सर्व युनक्ति । श०१०। ५ ।
२॥२०॥ प्राणो वै यजुः प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि युज्यन्ते । श० १४ । ८।१४।२॥ प्राण एव यजुः । श० १० । ३।५ । ४ ॥ इषे त्वोर्जे त्वा वायवस्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु भेष्ठ. तमाय कर्मण इत्येवमादिं कृत्वा यजुर्वेदमधीयते । गो पू०१ । २९॥
मष्टौ (वृहतीसहस्राणि-~-८०००४३६-२८८००० अक्षराणि) . यजुषाम् । श०१०।४।२।२४॥ , व्युद्धमु वाऽ एतद्यज्ञस्य । यदयजुष्केण क्रियते । श० १३ ।
१।२।१॥ (प्रजापतिः ) यजुर्यो ऽधि विष्णुम् ( असृजत )। तै० २।
३।२।४॥ ., यजूषि विष्णु (स्वभागरूपेणाभजत )|10 ४।६।
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यजुर्वेदः] पडदः आज्याहुतयो ह वाऽ एता देवानाम् । यद्यपि । श० ११ ।
५।६।५॥ " अन्नमेव यजुः। श०१०।३।५।६॥ ,, (सूर्यः) यजुर्वेद तिष्ठति मध्ये अह्नः । तै०३ । १२ ॥ ९ ॥ १ ॥ :, (आदित्यस्थः ) पुरुषो यजूषि । श०१०। ५। १ । ५॥
आदिन्यानीमानि शुक्लानि यजूषि वाजसनेयेन यात्रवल्क्येनाल्यायन्ते । श०१४ । । । ४ । ३३ ॥ आदित्यानीमानि यथ्षीत्याहुः । श० ४।४।५ । १९ ॥ अथ य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषः सोडग्निस्तानि यजूऽपि स यजुषां लोकः । श. १०। ५। २ । १॥
अग्निर्यजुषाम् (समुद्रः)। श०९।५।२।१२॥ , मनो ऽध्वर्युः (=यजुर्वित्विक् ) । श०१।५ । १ । २१ ॥
अथ यन्मनो यजुष्टत् । जै० उ०१।२५। ६॥ , मनो यजुर्वेदः। श० १४ । ४।३ । १२॥
मन एव यजूषि । श० ४। ६ । ७ । ५ ॥
मनो वै यजुः। श०७।३।१।४०॥ , वागेवर्चश्व सामानि च। मन एव यजूषि । श० ४।
६ । ७।५॥ .. (प्रजापतिः ) भुव इत्येव यजुर्वेदस्य रसमादत्त । तदिदमन्त.
रिक्षमभवत् । तस्य यो रसः प्राणेदत् स वायुरभवद्रसस्य रसः। जै० उ०१।१।४॥ भुवरिति यजुर्योक्षरत् सो ऽन्तरिक्षलोको ऽभवत् । ष.१॥५॥ यजुषां वायुर्देवतं तदेव ज्योतिस्त्रैष्टुभं छन्दो ऽन्तरिक्षं स्था
नम् । गो० पू०१ । २९ ॥ , वायोर्यजुर्वेदः ( अजायत )। श० ११ । ५। ८ । ३ ॥
अन्तरिक्ष वै यजुषामायतनम् । गो० पू० २ । २४ ॥ , अन्तरिक्षलोको यजुर्वेदः । १० १ । ५ ॥ ,, अन्तरिक्ष यजुषा ( जयति ) । श० ४ । ६ । ७ । २॥ ,, जुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् । तै० ३ । १२ । ६ । २॥ , दक्षिणां (दिशं) आर्यजुषामपाराम् । तै०३ । १२ । ६।१॥
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[यक्षः
( ४२० ) यजुर्वेदः सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत् । तै०३ । १२ । ९ । १ ॥
यजुर्वेदो महः । श०१२। ३।४।९॥
यजुर्वेद एव महः । गो० पू० ५। १५ ॥ , अद्धा वै तद्यद्यजुः। श० १३।८।२।७॥
तस्माद्यजूधषि निरुक्तानि सन्त्यनिरुक्तानि। श०४ । ६ । ७ । १७॥ मज्जा यजुः । श० ८।१ । ४ । ५॥ (दक्षिणनेत्रस्य) यदेव ताम्रमिव बभ्ररिव तयजुषाम् (रूपम्)।
जै० उ०४।२४ । १२॥ ,, अथ यत्कृष्णं तदपां रूपमन्नस्य मनसो यजुषः । जै० उ० १॥
२५ । ९.॥ , स ( प्रजापतिः) यजूंष्येव हिङ्कारमकरोत् । जै० उ० १ ।
१३॥ ३॥ तस्य ( यमस्य ) पितरो विशः....."यजूषि वेदः ........
यजुषामनुवाकं व्याचक्षाण स्वानुद्रवेत् । श०१३।४।३॥६॥ , बही वै यजुःष्वाशीः । श०१।२।१ । ७ ॥ ३।५।२।
११॥ ३।६। १ । १७ ॥ मनु मस्यः (इष्टका:) यजुष्मतीभिरहान्यर्घमासान्मासानृतून(आमोति)।
श०१०। ४ । ३ । १२ ॥ , अन्नं वै यजुष्मत्य इष्टकाः । श०८॥ ७ २॥ ८ ॥ , यजुष्मत्यो ज्योतिस्तद्धया रूपम् । श०१०।६१७॥
मजानो ज्योतिस्तद्धि यजुष्मतीनाई रूपम् । श० १० ।
२।६।१८॥ , (अस्य लोकस्य) मनुष्या यजुष्मत्यः। श०१०। ५।४।१॥ पशः स (सोमः ) तायमानो जायते स यन्जायते तस्माद्यो यो
वै नामैतद्यद्यम इति । श०३।६। ४ । २३ ॥ , प्राणः (यज्ञस्य) सोमः। कौ०९ । ६॥ ,, अध्वरो वै यज्ञः। श०१।२।४ । ५॥ १।४।१।३८-३९॥
१ । ४ । ५ । ३॥२। ३ । ४ । १० ॥ ३।५।३। १७ ॥३॥ ९।२।११॥
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( ४२१ )
यः ] यज्ञः यज्ञो वै मखः । श०६ ।।२।१॥ तै० ३ । २ । ८।३॥
सां०७।५।६॥ ., मख इत्येतद्यज्ञनामधेयम् । गो० उ०२॥५॥ , यज्ञो वै नमः ( यजु० १३ । ८ ॥)। श०७।४।१ । ३०॥ , यज्ञो वै नमः । श०२।४।२ । २४ ॥२।६।१। ४२॥९
१ । १ । १६ ॥ ,, यज्ञो वै स्वाहाकारः । श०३।१।३।२७ ॥ ., यशो वै भुज्युः ( यजु० १८ । ४२) यो हि सर्वाणि भूतानि
भुनक्ति । श०६।४।१ । ११॥ , यज्ञो भगः ( यजु० ११ । ७)। श०६।३।१।१९॥ ,, गातुं वित्त्वेति यज्ञं वित्त्वेत्येवैतदाह । ( गातु: यशः)। श० १ ।
९।२।२८॥४।४।४ । १३ ॥ ,, यज्ञो वाऽ ऋतस्य योनिः (यजु० ११ । ६)। श०१।३।४।१६॥ .. यो ह वै मधुसारधम् । श०३। ४ । ३ । १३ ॥ , यो वै महिमा ( यजु० ११ । ६)। श०६।३।१॥ १८॥ ,,. यज्ञो वै देवानां महः । श० १।९।१ । १६ ॥ , एष ह वै महान्देवो यद्यशः । गो० पू० २॥ १६ ॥ , यज्ञो वै बृहन्विपश्चित् । श० ३१५। ३ । १२ ॥ ,, यशो वा अर्यमा ! तै०२। ३ । ५ । ४ ॥ ,, यो वै तार्ण्यम् । तै० १ । ३ । ७ । १॥ ३ । ९ । २० । १॥ , यज्ञो वै वसुः (यजु० १। २)। श०१।७।१। ९, १४ ॥ " यज्ञो विवसुः। तां० १५ । १० । ४॥ , यज्ञो धै विदवसुः । तां० ११ । ४ । ५॥ , यज्ञो ऽसुरेषु विदद्वसुः। तां० ८।३।३॥ ,, यत्संयनुः ( यजु० १५ । १८) इत्याह यहि संयन्तीतीदं
वस्विति । श० ८।६।१ । १६ ॥ , यज्ञो वै सुतर्मा नौः कृष्णाजिनं वै सुतर्मा नौर्वाग्वै सुतर्मा नौः।
ऐ०१।१३॥ , यज्ञो वै स्वः ( यजु० १ । ११ ) अहर्देवाः सूर्यः। श० १ ! १ ।
२॥ २१ ॥
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। यस
( ४२२ ) यशः यज्ञो वै सुन्नम् (यजु० १२ । ६७, १११ ) । श० ७ । २ । २ ।
४॥७।३।१।३४॥ , यज्ञो वै श्रेष्ठतम कर्म (यजु.१।१)। श०१।७।१।५॥ , यशो हि श्रेष्ठतम कर्म । ते० ३।२।१।४ ॥ ,, यशो वै विद् ( यजु०३८ । १९ )। श०१४ । ३ । १ । ९॥ ,, यज्ञो वै विशो यशे हि सर्वाणि भूतानि विष्टानि । श० ८।७।
३। २१ ॥ " ब्रह्म यज्ञः। श०३।१।४।१५ ॥ • ब्रह्म हि यज्ञः । श० ५। ३।२।४॥ ,, ब्रह्म वै यज्ञः। ऐ०७। २२ ।। , सैषात्रया विद्या (ऋक्सामयजूंषि) यशः । श० १।१।४।३॥ ,, एष वै प्रत्यक्षं यज्ञो यत्प्रजापतिः । श० ४ । ३ । ४ । ३॥ , यनः प्रजापतिः । श० ११ । ६ । ३ । ९ ।। ,, यज्ञ उ वै प्रजापतिः । कौ० १० । १॥ १३॥ १॥ २५॥ ११ ॥
२६ । ३॥ तै० ३ । ३ । ७ । ३ ॥
स वै यक्ष एवं प्रजापतिः। श. १ । ७।४।४॥ ,, प्रजापतिर्यशः। ऐ०२।१७ ॥ ४ । २६ ॥ श० १ १ । १ । १३ ॥
१।५।२।१७ ॥३।२।२।४॥ तै०३।२।३।१॥ गो०
उ० ३ । ८॥ ४॥ १२॥ ६ । १॥ , प्रजापतिर्वै यज्ञः। गो० उ०२॥ १८॥ तै०१।३।१०।१०॥ , प्राजापत्यो यज्ञः । तै०३ । ७।१।२॥ " इन्द्रो यज्ञस्यात्मा । श०९ । ५।१।३३॥ , इन्द्रोयक्षस्य देवता।ऐ०५।३४॥ ६ ॥९॥ श० २।१।२ । ११॥ , इन्द्रो वै यक्षस्य देवता। श० १ । ४ । १ । ३३ ॥ १।४।५।
४॥२।३।४। ३८॥ ,, तदाहुः किन्देवत्यो यज्ञ इति । ऐन्द्र इति ब्रूयात् । गो० उ०३।२३॥ " एते वै यस्यान्त्ये तन्वौ यदग्निश्च विष्णुश्च । ऐ० १।१॥ ,, विष्णुर्यक्षः । गो० उ०१ । १२ ॥ तै० ३ । ३ । ७ । ६॥ ,, यो वै विष्णुः स यज्ञः । श०५।२।३।६॥ " स यः स विष्णुर्यशः सः। स यः स यशो ऽसौ स आदित्यः । .. श०१४ । १।१।६॥
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(
५२१
)
यद्या
साः विष्णुर्वै यमः। ऐ०१ । १५ ॥
यज्ञो विष्णुः । तां० १३ । ३।२॥ गो० उ० ६ ॥ ७ ॥ , पवित्र स्थो वैष्णव्यो' ( यजु०१।१२) इति यज्ञो वै विष्णुर्य
लिये स्थ इत्येवैतदाह । श०१।१।३।१॥ , यहोवै विष्णुः (यजु०२२ । २०)। श०१३।१।८1८॥ , यो वै विष्णुः । कौ० ४ । २॥ १८ । ८, १४ ॥ तां०९ . ६ ।
१०॥ श०१।१।२।१३॥ ३।२।१। ३८॥ गो० उ०४।
६॥ तै०१।२।५।१॥ , यहोवै विष्णुः शिपिविष्टः । तां० ९॥ ७ ॥ १० ॥ , विष्णवे हि गृहाति यो यज्ञाय (हविः) गृहाति । श.३।४।
, अथेमं विष्णुं यशं त्रेधा व्यभजन्त । वसवः प्रातःसवन रुद्रा
माध्यन्दिनथे सवनमादित्यास्तृतीयसवनम् । श० १४११।६।१५॥ , तद्यनेन ( यज्ञेन विष्णुना ) इमाचे सर्वा (पृथिवीं ) सम
विन्दन्त तस्माद्वेदिर्नाम । श० १।२।५। ७॥ ॥ तं (य) वेद्यामन्वविन्दन् । ऐ० ३ ॥९॥ , यज्ञो वैष्णुवारुणः । कौ०१६।८॥ " मित्रावृहस्पती वै यक्षपथः । श० ५। ३।२।४॥ , यज्ञो वै देवेभ्यो ऽपाक्रामत्स सुपर्णरूपं कृत्वावरत् तं देवा एतैः
(सौपणैः ) सामभिरारभन्त । तां०१४ । ३ । १०॥ , घय इव ह वै यो विधीयते तस्योपाश्वन्तर्यामावेव पक्षा
पास्मोपा,शुसवनः । श०४।१।२।२५॥ , यक्षमुखं धाऽ उपाशुः । श०५।२।४।१७॥ , देवा यक्षियाः।०१।५।२।३॥ ,, एत? देवानामपराजितमायतनं यद्यशः । ते० ३ । ३।७।७॥ . सर्वेषां वाऽ एष भूताना सर्वेषां देवानामात्मा ययाः। श०१४॥
३।२।१॥ , यह उ देवानामात्मा । श०८।६।१।१०॥ , यो बै देवानामात्मा । श०९।३।२।७॥ " (प्रजापतिदेवानब्रवीत्-) यसो पोऽनम् । श० २।४।२।१॥
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( ४२४ ) यज्ञः यज्ञ उ देवानामभम् । श०८।१।२।१०॥ ,, देवरथो वा एष यद्यशः । ऐ० २ । ३७॥ कौ० ७।७॥ ,, एते वै यक्षमवन्ति ये ब्राह्मणाः शुश्रुवाउंसो ऽनूचाना एते
होनं तन्वतः एतऽ एनं जनयन्ति । श०१।८।१॥२८॥ , एतैहात्र (यशे) उभयैरों भवति यद्देवैश्च ब्राह्मणैश्च । श० ३ ।
३।४।२०॥ ,, स हैष यन उवाच । नग्नताया वै विभेमीति का ते ऽनग्नतेत्य
भित एव मा परिस्तृणीयुरिति तस्मादेतदग्निमभितः परिस्तणन्ति तृष्णाया वै विभेमीति का ते तृप्तिरिति ब्राह्मणस्यैव तृप्तिमनुतृप्येयमिति तस्मात्सस्थिते यज्ञे ब्राह्मणं तर्पयितवै
श्रूयाद्यशमेवैतत्तप्र्पयति । श० १ । ७।३ । २८ ॥ ,, यद्वै यज्ञस्य न्यूनं प्रजननमस्य तदथ यदातरिक्तं पशव्यमस्य
तदथ यत्सकसुकश्रियाऽ अस्य तदथ यत्सम्पन्न स्वय॑मस्य तत् । श०११।४।४।८॥ त्रिवृद्धि यज्ञः। श०१।१।४।२३॥ १।२ । ५। १४ ॥३॥
२।१। ३२॥ , त्रिवृत्प्रायणा हि यशास्त्रिवृदुदयनाः । श० २।३ । ४ । १७ ॥ , ते वै पश्चान्यद् भूत्वा पञ्चान्यद् भूत्वा कल्पेतामाहावश्व हिंकारश्च प्रस्तावश्च प्रथमा च ऋगुद्गीथश्च मध्यमा च प्रतिहारश्चोत्तमा च निधनश्च वषट्कारश्च ते यत्पश्चान्यद्भूत्वा पश्चान्यद्भूत्वा कल्पेतां तस्मादाहुः पाङ्क्तो यज्ञः पाङ्क्ताः पशव इति ।
ऐ० ३॥ २३ ॥ गो० उ०३ । २०॥ , पातो यशः । श० १ । ५। २ । १६ ॥ ३ । १ । ४ । २०॥ गो०
पू०४।२४॥ गो० उ०२।३॥३॥ २०॥४।४, ७॥ , पातो वै यज्ञः । ऐ० १।५ ॥ ३ । २३॥ ५।४, १८, १९ ॥
कौ० १ । ३, ४ ॥२॥१॥ १३॥ २॥ तै०१।३।३।१॥
श०१।१।२।१६ ॥ तां०६ । ७ । १२॥ ,, यो वा आश्रावणम् । श०१ ।।१।१॥१।८।३।९॥ ,, एष वै यो यदग्निः । श० २।१।४।१० ॥ , अग्निर्यशः । श० ३। २।। २ । ७॥
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( ४२५ ) पशः अनिरु वै यशः । श०५ । २ । ३ । ६॥
, अग्निवै यक्षः । श० ३।४। ३ । १९ ॥ तां० ११ : ५।२॥ , अनि योनियशस्य । श०१।५।२ । ११, १४॥३।१।३। ___२८॥ ११ ॥ १।२।२॥ " शिर एतद्यज्ञस्य यदग्निः । श०९।२। ३ । ३१ ।। , अग्निर्वै यज्ञमुखम् । तै० १।६।१ । ८॥ ,, एष हि यज्ञस्य सुक्रतुः (ऋ० ११ १२ । १) यदग्निः । श०१।
, वाग्धि यज्ञः। श०१।५।२।७॥ ३।१।४।२॥ ,, वाग्वै यज्ञः । ऐ०५।२४॥ श०१।१।२।२॥३।१।३
२७ ॥ ३।२।२।३॥ ,, वागु वै यज्ञः। श०१।१।४।११॥ , वाग्यज्ञस्य (रूपम्) श० १२ । ८।२।४॥ , अयं वै यहो योऽयं (वायु) पवते । ऐ० ५। ३३ ॥ श०१।९।
२।२८॥२।१।४।२१॥४।४।४।१३ ॥११॥ १।२।३॥ , अयं वाव यसो यो ऽयं (वायुः) पवते । जै० उ०३।१६ ॥ १॥ ,, अयमु वैयः (वायु) पवते स यज्ञः । गो० पू०३।२॥४॥१॥ , वातो वै यमः। श०३।१।३।२६॥ , संवत्सरो यज्ञः प्रजापतिः। श० २।२।२॥४॥ " संवत्सरो यमः । श० ११ ॥ २॥ ७ ॥१॥
संवत्सरसंमितो वै यमः पञ्च वाऽ ऋतवः संवत्सरस्य तं पश्चभिरामोति तस्मात्पञ्च जुहोति । श० ३ । १।४।५॥ , यज्ञ एव सविता । गो० पू०१।३३॥ जै० उ०४।२७॥ ७॥ " स यः स यो ऽसौ स आदित्यः । श० १४ । १।१।६॥ , यज्ञो वै यजमानभागः । ऐ० ७॥ २६ ॥ , यजमानो वै यज्ञः। ऐ०१।२८॥ ., यजमानो यहः । श०१३।२।२।१॥ " आत्मावैयक्षस्य यजमानो ऽनान्यत्विजः। श०९।५।२१६॥ , भात्मा बै यहः । २०६।२।१।७॥
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[ यशः
( ४२६ )
यज्ञः पुरुषो वै यज्ञस्तस्य शिर एव हविर्धाने मुखमाहवनीय उदरं सदो ऽन्नमुक्थानि बाहू मार्जालयिश्वाऽऽग्नीश्रीयश्च या इमा अन्तर्देवतास्ते अन्तःसदसं धिष्ण्या प्रतिष्ठा गाईपत्यव्रतश्रवणाविति । कौ० १७ ॥ ७ ॥
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पुरुषो वै यज्ञस्तस्य शिर एव हविर्धानं मुखमाहवनीयः उदरं सदः, अन्तरुक्थानि, बाहू मार्जालीयश्चाग्नीधीयश्च, या इमा देवतास्तेऽन्तः सदसँ धिष्ण्याः, प्रतिष्ठे गाईपत्यव्रतश्रपणाविति । गो० उ०५ ॥ ४ ॥
पुरुषो वै यज्ञः । कौ० १७ | ७ || २५ | १२ ॥ २८ ॥ ९ ॥ श० १ । ३ । २ । १ ॥ ३ । ५ | ३ | १ ॥ तै० ३ | ८ | २३ | १ ॥ जै० उ०
४ । २ । १ ॥ गो० पू० ४ । २४ ॥ गो० उ० ६ । १२ ॥
पुरुषो यज्ञः । श० ३ । १ । ४ । २३ ॥
स (पुरुषः) यशः । गो० पू० १ । ३९ ॥
पुरुषो वै यज्ञस्तेनेदं सबै मितम् ( तैत्तिरीय संहितायाम् ५। २ । ५ । १: - यशेन वै पुरुषः सम्मितः ॥ ) । श० १० । २ । १।२ ॥
पुरुषसम्मितो यशः । श० ३ । १ । ४ । २३ ॥
पशवो यज्ञः । श० ३ । २ । ३ । ११ ॥
पशवो हि यशः । श० ३ । १ । ४ । ९॥
कतमो यश इति पशव इति । श० ११ । ६ । ३ । ९ ॥
शतोन्मानो वै यज्ञः । श० १२ । ७ । २ । १३ ॥
यशो वै भुवनज्येष्ठः । कौ० २५ । ११ ॥
यज्ञो वै यशो वै
नाभिः । तै०
भुवनस्य तै० भुवनम् ।
यशो वा अनः । श० १ । १ । २ । ७ ॥ ३ । ३ । ३ । ३ ॥
आपो वै यशः । ऐ० २ | २० || श० ३।८।५।१॥
यशो वाऽ आपः । कौ० १२ । १ ॥ श० १ । १ । १ । १२ ॥ तै०
० ३।९।५ । ५ ॥
१०३ । ३ । ७।५ ॥
३।२।४। १ ॥ अद्भिर्यज्ञः प्रणीयमानः प्राङ् तायते । तस्मादाचमनीयं पूर्वमाहारयति । गो० पू० १ । ३९ ॥
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( ४२७ )
यहा] H: ऋतरक्षा यज्ञः। ऐ० २।७॥ , परोऽक्षं यज्ञः। श०३।१।३। २५॥ , भजातो ह वै तावत्पुरुषो यावन्न यजतेस यधेनैव जायते । जै.
उ०३।१४। ८॥ , तन्न सर्व वाभिप्रपयेत ब्राह्मणो वैव राजन्यो वा वैश्यो वा
ते हि यशियाः । श०३।१।१।९॥
अयज्ञो वा एषः। यो ऽपत्नीकः । तै०२।२।२।६॥ " पूर्वार्धो वै यज्ञस्याध्वर्युर्जघनार्धः पत्नी । श० १।९।२।३।। , जघना? वाऽ एष यक्षस्य यत्पत्नी । श०१ । ३ । १ । १२॥
२।५।२।२९ ॥३। ८।२।२॥ ,, अथ त्रीणि वै यक्षस्येन्द्रियाणि । अध्वर्युहोता ब्रह्मा । तै०१।
८।६।६॥ ॥ मनोर्यशऽ इत्यु वाऽ आहुः । श० १ । ५ : १ ॥ ७ ॥ , मनुई वाऽ अग्रे यक्षेनेजे तदनुकृत्यमाः प्रजा यजन्ते । श०१।
५।१।७॥ , ज्येष्ठयशो वा एष यद् द्वादशाहः । ऐ०४ । २५ ॥ ,, यर्श वा अनु प्रजाः । श०१।८।३।२७॥ , यज्ञाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते । श०४।४।२।९ ॥ ,, रेतो वाऽ अत्र यशः । श०७। ३ । २ । ९ ॥ , (यज्ञस्य) प्राणो धूमः । श०६।।३।८ ॥ , एतच्छिरो यशस्व यद्विषुवान् । कौ०२६।१॥ " शिरो वै यज्ञस्यातिथ्यम् । बाहू प्रायणीयोदयनीयौ । श० ३ ।
२।३।२०॥ ,, शिरो वा एतद्यक्षस्य यदातिथ्यम् ।ऐ० ।। १७,२५ ॥ कौ० ८॥१॥ , शिरो वै यमस्याहवनीयः पूर्वो ऽधो वैशिरः पूर्वाधमेवैतद्यज्ञस्य
कल्पयति । श० १ । ३। ३ । १२ ॥ , एतद्वै यज्ञस्य शिरो यम्मन्त्रवान्ब्रह्मौदनः। गो० पू० २ । १६ ॥ ,, शिरोघे यास्योत्तर आघारः। श०१।४।५।५॥३।७।
" उत्तरत उपचारोहियाः । श०८।६।१।१९ ॥
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[यज्ञ.
(४२८. ) यज्ञः चक्षुषी वाऽ एते यशस्य यदाज्यभागौ । श० ११।७।४।२॥
१४।२।२।५२॥ " एतबै प्रत्यक्षाधक्षरूपं यद् घृतम् । श० १२। ८।२।१५॥ ,, मृगधर्मा (=पलायनशीलः ) वै यज्ञः। तां० ६ । ७ । १०॥ , यज्ञो वै मैत्रावरुणः। कौ० १३ ॥२॥ " मनो (वै यज्ञस्य) मैत्रावरुणः।श० १२। ८।२।२३॥ , मनो वै यज्ञस्य मैत्रावरुणः। ऐ० २।५, २६, २८॥ , विराड् वै यज्ञःश०१।१।१ । २२ ॥ श०२।३।१।१८॥
४।४।५॥ १९ ॥ ,, वैराजो यज्ञः । गो० पू० ४ । २४ ॥ गो० उ०६ । १५ ॥ , यदु ह किं च देवाः कुर्वते स्तोमेनैव तत्कुर्वते यज्ञो वै स्तोमो
यक्षेनैव तत्कुर्वते । श० ८।४।३।२॥ , नासामा यज्ञो ऽस्ति । ।०१।४।१।१॥ ,, एते वै यज्ञा वागन्ता ये यशायज्ञीयान्ताः । तां०८।६ । १३ ॥ , श्रायन्तीयं यज्ञविभ्रष्टाय ब्रह्मसाम कुर्यात् । तां० ८।२।९॥ , यज्ञस्य शीर्षच्छिन्नस्य (रसो व्यक्षरत्स) पितृनगच्छत् ।
श०१४।२।२।११॥ (विष्णुशब्दमपि पश्यत) , दक्षिणतो वै देवानां यज्ञं रक्षास्यजिघांसन् । गो० उ० १॥१८॥
२।१६॥ , रक्षासि यझं न हि स्युरिति । श०१।८।१।१६ ॥ , देवानां वै यज्ञ रक्षास्यजिघासन् । तां० १४ । १२ । ७॥ , हलति वाऽ एष यो यशपथादेत्येति वाऽ एष यशपथाघदयोक्ष
यान्यनेन प्रसजत्ययशियान्वा एतद्यक्षेन प्रसजति शुद्रांस्त्व
धांस्त्वत् ॥ श० ५। ३।२।४॥ ,, यद्वै यक्षस्यान्यूनातिरिक्तं तच्छिवम् । श० ११ । २।३।९ ॥ , यद्वै यज्ञस्यान्यूनातिरिक्त तस्विष्टम् । श० ११ । २।३ । ६ ॥ , विष्णुर्वै यक्षस्य दुरिष्टं पाति । ऐ० ३ । ३८ ॥ ७॥५॥ " यबै यशस्य दुरिष्टं तवरुणो गृहाति । तां०१३।२।४॥ १५।
१।३॥ , वरुणेन (यास्प) दुरि ( शमयत्ति )। ते० १।२।५।३॥
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यहा
( ४२९ ) स्प (जानस्य) दुरिष्टं भवति वरुणो ऽस्य तद् गृहाति । श०४।५।१।६॥ , बरणः (यज्ञस्य ) स्विष्टम् ( पाति )। ऐ० ३ । ३८ ॥७।५ ॥ , भक्षरेणैव यशस्य छिद्रमपिदधाति । तां०८।६।१३ ॥ , यहो यशस्य प्रायश्चितिः। ऐ०७॥४॥ । यद्यो ऽभिरूपं तत्समृद्धम् । कौ० ९ । ६ ॥ गो० उ० ४ । १८ ॥ , पतद्वै यज्ञस्य समृद्धं यद्रूपसमृद्धं यत्कर्म क्रियमाणमृगभिव
दति । ऐ०१।४, १३, १६, १७॥ , व्यखमु वाऽ एतद्यक्षस्य । यदयजुष्कण क्रियते । श०.१३ । १ ।
२।१॥ , व्यूद्धं वै तद्यज्ञस्य यन्मानुषम् । श० १ । ४।१।३५॥ १।
४।३।३५॥१।८।१।२९।।३।२।२।१५॥ ३ । ३।४। ३१॥ , स एतं त्रिवृतं सप्ततन्तुमेकविंशतिसंस्थं यज्ञमपश्यत् । गो
पू०१ । १२॥ , सप्त सुत्याः सप्त च पाकयज्ञाः हविर्यशाः सप्ततथैकविंशतिः । सर्वे ते यशा अङ्गिरसो ऽपियन्ति नूतना यानृषयो सृजन्ति ये च सृष्टाः पुराणैः । गो० पू० ५। २५ ॥ अथातो यज्ञक्रमा अग्न्याधेयमग्न्याधेयात्पूर्णाहुतिः पूर्णाहुतेरग्निहोत्रमग्निहोत्रादर्शपूर्णमासौ दर्शपूर्णमासाभ्यामाप्रयणमाप्रयणाचातुर्मास्यानि चातुर्मास्येभ्यः पशुबन्धः पशुबन्धादग्निटोमो ऽग्निष्टोमाद्राजसूयो राजसूयावाजपेयो वाजपेयादश्वमेधो ऽश्वमेधात्पुरुषमेघः पुरुषमेधात्सर्वमेधः सर्वमेधाइक्षिणाघन्तो दक्षिणावद्भयो ऽदक्षिणा अदक्षिणाः सहस्रदक्षिणे प्रत्यतिष्ठस्ते या एते यशक्रमाः । गो० पू० ५। ७॥ , अग्निष्टोम उक्थ्यो ऽग्निर्ऋतुः प्रजापतिः संवत्सर इति । एते ऽनु
वाका यज्ञक्रतूनाश्चतूंनाञ्च संवत्सरस्य च नामधेयानि । तै०३।
१०। १० । ४॥ ,, हबीषि ह वा आत्मा यज्ञस्य । श०१।६।३। ३९॥ , आहुतिर्हि यज्ञः। श०३।१।४।१॥
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[यहः
(४३० । यज्ञः वनस्पतयो हि यहिया न हि मनुष्या यजेरन् यवनस्पतयो न
स्युः । श०३।२।२।९॥ यदि पालाशान् (परिधीन) न विन्देत् । अथोऽअपि वैककता स्युर्यदि वैकङ्कतान्न विन्देदथोऽअपि कार्मयमयाः स्युर्यदि का. मर्यमयान विन्देदथोऽअपि वैल्वाः स्युरथो वादिरा अथोऽऔ
दुम्बरा एते हि वृक्षा यशियाः । श० १ । ३।३ । २० ॥ ,, तस्मादेष (विकङ्कतः) यशियो यज्ञपात्रीयो वृक्षः । श० २।२।
४।१०॥ ,, यशो विकङ्कतः। श० १४ । १।२।५॥ ,, कुलायमिव होतद्य क्रियते यत्पैतुदारवाः परिधयो गुग्गुल
र्णास्तुकाः सुगंधितेजनानीति । ऐ० १ । २८ ॥
स यः श्रधानो यजते तस्येष्ठं न क्षीयते । कौ० ७ । ४ ॥ ., यज्ञो वा अवति । तां०६।४।५॥ , इतःप्रदाना वै वृष्टिरितो ह्यग्निर्वृष्टिं वनुते स (अनिः) एतैः (घृत-स्तोकैरेतान्त्स्तोकान् वनुते तऽ एते स्तोका वर्षन्ति । श०३।८ । २ । २२ । ततो ऽसुरा उभयीरोषधीर्याश्च मनुष्या उपजीवन्ति याश्व पशवः कृत्ययेव त्वद्विषेणेव त्वत्प्रलिलिपुरुतैवं चिद्देवानभिभषेमेति ततो न मनुष्या आशुन पशव आलिलिशिरे ता हेमाः प्रजा भनाशकेन नोत्पराबभूवुः...ते ( देवाः) होचुर्हन्तेदमालामपजिघांसामेति केनेति यझेनैवेति । श० २।४।३।२-३॥ एतेन वै देवाः । (आप्रयणाख्येन) यक्षेनेष्ट्रोभयानामोषधीनां याश्च मनुष्या उपजीवन्ति याश्च पशवः कृत्यामिव त्वद्विषमिव त्वदपजन्नुस्तत आनन्मनुष्या आलिशन्त पशवः। श०२।४।
, भैषज्ययज्ञा वा एते यश्चातुर्मास्यानि तस्माहतुसंधिषु प्रयुज्यंत
ऋतुसंधिषु वै व्याधिर्जायते । गो० उ० १ । १९ ॥ , भैपज्यपक्षा वा एते यचातुर्मास्यानि तस्माहतुसंधिषु प्रयुज्यन्त
ऋतुसंधिषु हि व्याधिर्जायते । कौ०५।१॥
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( ४३१ ) यायनीयम् ] पः एष ह वै यजमानस्यामुहिमलोकऽ आत्मा भवति यद्यमः सह - सर्वतनूरेव यजमानो ऽमुष्मिल्लोके सम्भवति य एवं विद्वानि.
क्रीत्या यजते । श० ११ ॥ १॥ ८॥६॥ , योन वै देवा दिवमुपोवक्रामन् । श०१।७॥ ३ ॥१॥ ,, स्वर्गों के लोको यज्ञः। कौ०१४।१॥ ., (यशेन वै देवाः सुवर्ग लोकमायन्-तैत्तिरीयसंहितायाम् ६ ।
३।४।७॥) ,, यझेन वै तहेवा यज्ञमयजन्त यदग्निना ऽग्निमयजन्त ते स्वर्ग __लोकमायन् । ऐ०१।१६॥ पशपतिः यजमानो हि यज्ञपतिः। श० ४।२।२।१०॥ , (यजु०१।२॥) यजमानो वै यज्ञपतिः । श०१।१।
२।१२॥ १।२।२। ८॥१।७।१ । ११ ॥ , वत्सा उ वै यज्ञपति वर्धन्ति यस्य ह्येते भूयिष्ठा भवन्ति
स हि यक्षपतिर्वर्धते । श० १॥ ८॥ १ ॥ २८ ॥ पज्ञावशीयम् (साम ) योनि यक्षायझीयमेतस्माद्वै योनेः प्रजापति
यशमसृजत यद्यशं यज्ञमस्जत तस्माद्यज्ञायझीयम्। तां०८।६।३॥ चन्द्रमा वै पक्षायझियं यो हि कत्र यशः सतिष्ठतs एतमेव तस्याहुतीना रसोऽप्योति तद्यदेतं यो यज्ञो ऽप्येति तस्माचन्द्रमा यज्ञायशियम् । श० ९ ।। २।३९ । देवा वै ब्रह्म व्यभजन्त तस्य यो रसो ऽत्यरिच्यत तद्यार:यझीयमभवत् । तां०८।६।१॥ एषा प्रत्यक्षमनुष्टुब्यवशायझीयम् । तां०१५।९।१५॥ यशायशीय ह्येव महावतस्य पुच्छम् । तां० ५ । १। १८ ॥ यहायहीयं पुछम् ( महाव्रतस्य )। तां० १६।११।११॥ भतिशयं वै द्विपदा यशायज्ञीयम् । तां०५।१ । १९ ॥ वाचो रसो यज्ञायचीयम् । तां० १८ । ५ । २१ ॥ १८ ॥ ११ । ३ ।।
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[यतिः
( ४३२ ) यज्ञायज्ञीयम् वाग्यज्ञायझीयम् । तां०५।३।७॥ ११ । ५। २८॥
एते वै यक्षा वागन्ता ये यज्ञायशीयान्ताः। तां०८। ६।१३॥ एषा वै शिशुमारी यशपथे ऽप्यस्ता यज्ञायशीयं यद्विरागिरेत्याहात्मानं तदुद्गाता गिरति । तां० ८।६।९॥ पशवो ऽन्नाधं यज्ञायझीयम् । तां० १५ । ९ । १२ ॥ पन्था वै यज्ञायशीयम् । तां०४।२। २१ ॥ कथमिव यज्ञायशीयनेयमित्याहुर्यथा ऽनड्वान् प्रना
वयमाण इत्थमिव चेत्थमिव चेति । तां०८।७।४॥ ,, स्वर्गो वै लोको यज्ञायशियम् । श० ६ । ४ । ४ । १० ॥ यण्वम् (साम ) पशवो वै यण्वम् । तां० १३ । ३।६॥ यतिः इन्द्रो यतीन् सालावृकेयेभ्यः प्रायच्छत्तमश्लीला वागभ्यवद.
स्लो ऽशुद्धो ऽमन्यत स एतच्छुद्धाशुद्धीयमपश्यत्तेनाशुद्धयत् (इन्द्रो यतीन्सालावृकेभ्यः प्रायच्छत्तान्दाक्षिणत उत्तरवेद्या आदन्-तैत्तिरीयसंहितायाम् ६।२।७।५॥)। तां० १४। ११ । २८॥ इन्द्रो यतीन सालावृकेयेभ्यः प्रायच्छत्तमश्लीला वागभ्यवदत्सो ऽशुद्धो ऽमन्यत स एते शुद्धाशुद्धीये ( सामनी) अपश्यत्ताभ्वामशुद्धयत् । तां० १९ । ४ । ७ ॥ इन्द्रो यतीन् सालावृकेयेभ्यः प्रायच्छत्समश्लीला वागभ्यवदत्ल प्रजापतिमुपाधावत्तस्मा एतमुपहव्यं प्रायच्छत् । तां०१८ ।
, इन्द्रो यतीन् सालावृकयेभ्यः प्रायच्छत्तेषां त्रय उदशिष्यन्त
पृथुरश्मिव॒हद्गिरी रायोवाजः । तां० १३। ४ । १७ ॥ ,, इन्द्रो यतीन् सालावृकेभ्यः प्रायच्छत्तेषां प्रय उदशिष्यन्त
रायोवाजो बृहगिरिः पृथुरश्मिः । तां० ८ ॥ १ ॥ ४ ॥ , (इन्द्रः) यतीन्सालावृकेभ्यः प्रादात् [ (अहमिन्द्रः ) यतीन्
सालावृकेभ्यः प्रायच्छम्-शङ्करानन्दीयटीकायुतायां कौषी. तकिब्राह्मणोपनिषदि ३ ॥ १ ॥]। ऐ०७ ॥ २८॥
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( ४३३ )
यमी] . तिः (मेघः । इति सायणः-ऋ० १०। ७२ । ७ भाष्ये ) प्राविडीयम् ( साम) ब्रह्मयशसं वा एतानि सामान्यूचा श्रोत्री.
याणि ब्रह्मयशसी भवति यद्वाहिष्ठीयेन तुष्टुवानः ।
तां० १५ । ५।२६॥ बम्ता (२०३।३।३) अपानो वै यंता ऽपानेन ह्ययं यतः प्राणो
न पराङ् भवति । ऐ०२॥४०॥ , वायुर्वं यंता वायुना हीदं यतमन्तरिक्षं न समृच्छति । ऐ०२॥
४१॥ पमः ( यजु० ३७ । ११) एष वै यमो य एष ( सूर्यः) तपत्येष हीद
ॐ सर्व यमयत्येतेनेथ सवै यतम् । श०१४।१।३।४॥ , अथैष एव गार्हपत्यो यमो राजा । श० २ ! ३ . २ । २॥ ,, अग्निर्वाव यमः । गो० उ०४।८।। , (यजु०१२।६३ ) अग्निवै यम इयं (पृथिवी ) यम्याम्या ही.
व सर्व यतम् । श०७ । २। १ । १० ॥ , यमो ह वाऽ अस्याः (पृथिव्याः) अवसानस्येष्टे । श०७।
१।१।३॥ ., ( यजु० ३८ ॥ ९॥) अयं वै यमो यो ऽ (वायुः) पवते ।
श०१४।२।२॥ ११॥ , यमः पन्था । तै० २।५। ७।३॥ , ( यमाय ) दण्डपाणये स्वाहा । ष.५।४॥ , यामं शुकं हरितमालभेत । गो० उ०२॥ १ ॥ ,, क्षत्रं वै यमो विशः पितरः । श०७।१।१॥ ४॥ ,, यमो वैवस्वतो राजेत्याह तस्य पितरो विशः। श०१३ । ४।
३।६॥ , पितृलोको यमः । कौ० १६ ॥ ८॥ ,, किंदेवतोस्यां दक्षिणायां दिश्यसीति । यमदेवत इति । श०१४ ।
६।९ । २२॥ ,, अनुराधाः प्रथमं अपभरणीरुत्तमं तानि यमनक्षत्राणि । तै०१॥
५१२॥७॥ यमी इयं (पृथिवी) यमी । श०७।२।१।१०॥ गो० उ०४।।॥
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[ यवाः
( ४३४ )
ययुः ययुर्नामासीत्याह । एतद्वा अश्वस्य प्रियं नामधेयम् । तै० ३ ।
८।९।२ ॥
यवाः ततो देवेभ्यः सर्वा एवौषधय ईयुर्यवा हैवैभ्यो नेयुः । तद्वै देवा अस्पृण्वत । त एतैः सर्वाः सपत्नानामोषधीरयुवत । यदयुवत तस्माद्यवा नाम । श० ३ । ६ । १ । ८-९ ॥ निर्व्वरुणत्वाय (= वरुणकृतबाधपरिहार राय ' इति सायणः ) एव यवाः । तां० १८ । ९ । १७ ।।
वरुण्यो यवः । श० ४ । २ । १ । ११ ॥
वरुण्यो ह वा अग्रे यवः । श० २ । ५।२।१ ॥
99
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:
वारुणं यवमयं चरुं निर्वपति । तै० १ । ७ । २ । ६ ॥
वारुणो यवमयश्चरुः । श० ९ । २ । ४ । ११ ॥
तस्य (सोमस्य ) अश्रु प्रास्कन्दत्ततो यवः समभवन् । श०४ । २ । १ । ११ ॥
स यः सर्वासामोषधीना रस आसीत्तं यवेष्वदधुस्तस्माarters ओषधयो ग्लायन्ति तदेते मोदमाना वर्द्धन्ते । श० ३ । ६ । १ । १० ॥
सैनान्यं वा एतदोषधीनां यद्यवाः । ऐ० ८ । १६ ॥
( देवाः ) तं ( मेघम् ) खनन्त इवान्वीषुस्तमन्वविन्दस्ता विमौ व्रीहियवौ । श० १ । २ । ३ । ७ ॥
सर्वेषां वा एष पशूनां मेधो यद् व्रीहियवौ । श० ३ | ४ | ३ | १ ॥ ( यजु० २३ | ३० ) विड् वै यवः । श० १३ । २ । ९ । ८॥
राष्ट्रं यवः । तै० ३ | ९।७।२ ॥
अथ ये फेनास्ते यवाः । श० १२ । ७ । १ । ४ ॥
( यजु० १४ । २६ ) ते ( पूर्वपक्षा ) हीदं सर्व युधते । श० ८।
४ । २ । ११ ॥
स यो देवानाम् (अर्धमासः = शुक्लपक्षः ) आसीत् । स यवा युवत ( = " समसृज्यन्त इति" सायणः) हि तेन देवाः । श० १ । ७ । २ । २५ ॥
( अथोs इतरथाहुः ) यो ऽसुराणाम् (अर्धनासः = कृष्णपक्षः ) स वायुक्त हि तं देवाः । श० १ । ७ । २ । २६ ॥
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( ४३५ )
यशः] पवाः ( यजु० १४ । २६) पूर्वपक्षा वै यवाः । श० ८।४।२।११ ॥ यविष्ठः ( यजु०.१३ । ५२ ) एतद्धास्य (अग्नेः) प्रियं धाम पद्यविष्ठ
इति यद्वै जात इद सर्वमयुवत तस्माद्यविष्ठः । श०७ ।
५।२।३८॥ यविष्ठ्यः (ऋ० ६ । ६ । ११) यविष्ठो (-युवतम इति सायणः)
ह्यग्निः । श०१।४।१।२६ ॥ मम्बाः यन्या मालाः । श० १ ॥ ७ । २ । २६ ॥ यशः सामवेद एव यशः । गो० पू०५ । १५ ॥ ,, सामवेदो यशः । श०१२।३।४।९॥ ,, उद्गातैव यशः । गो० पू० । १५ ॥ , आदित्यो यशः । श० १२ । ३ । ४।८॥ ,, आदित्य एव यशः । गो० पू० ५। १५ ॥ ,, चक्षुर्यशः । श० १२ । ३।४।१०॥
चक्षुरेव यशः । गो० पू० ५। १५॥ , प्राणा चे यशः । श०१४। ५ । २१५॥ , धौर्यशः। श०१२।३।४।७॥ ,, धौरव यशः। गो० पू० ५। १५॥ ,, वर्षा एव यशः । गो० पू०५ । १५ ॥ ,, जगत्येव यशः । गो० पू० ५ । १५ ॥ , सप्तदशः (स्तोमः) एव यशः। गो० पू०५ । १५ ॥ , उद्दीच्येव यशः । गो० पू० ५। १५ ॥ " पशवो यशः । श०१२। ८।३।१॥ , (ऋ० १० । ७२ । १०॥) यशो वै सोमो राजा। ऐ० १।
, यशो वै सोमः। श०४।२।४।६॥ , सोमो वै यशः । तै०२।२८।८॥ ,, यश उवै सोमो राजामाद्यम् । कौ० ।।६॥ ,, यशो हि सुरा । श० १२॥ ७।३।१४॥ , यशो वै हिरण्यम् । ऐ०७।१८॥
...
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[युजानः यशः यशो देवाः । श०२।१।४।९॥
" तस्माद् (देवाः) यशः । श० ३। ४।२।८॥ याज्या इयर्थ (पृथिवी) हि याज्या । श०१।४।२।१९ ॥ , इयं (पृथिवी) याज्या। श०१।७।२।११॥ , अन्तरिक्षलोकं याज्यया ( जयति)। श०१४।६।१।९॥ , कृष्टि याज्या विद्युदेव विद्युद्धीदं वृष्टिमन्नाधं संप्रयच्छति ।
ऐ०२१४१॥ , अन्नं वै याज्या गो० उ०३।२२॥६॥८॥ , अनं याज्या। कौ० १५ । ३॥१६॥ ४॥ गो० उ०३।२१ ॥
अपानो याज्या । श०१४। ६ । १ । १२ ॥
आसीनो याज्यां यजति । श०१।४।२।१६ ॥ , प्रयच्छति (हविः) याज्यया । श०१।७।२।१७ ॥ , प्रत्ति याज्या पुण्यैव लक्ष्मीः । ऐ० २।४० ॥ पातुः (=यो ऽयं दक्षिणे ऽक्षन्पुरुषः) एतेन हीद सर्वे गतम् ।
श०१०।५।२।२० ॥ यामः ( यजु० ।। १३) अस्मिन्यामे वृषण्वसू ऽरत्यस्मिन्कर्मणि
वृषण्वसूऽ इत्येतत् । श०६।३।२।३॥ पामम् ( साम) एतेन वै यमो ऽनपजय्यममुष्य लोकस्याधिपत्यमा
श्नुत । तां० ११ । १० । २१ ॥ , एतेन वै यमी यम स्वर्ग लोकमगमयत् स्वर्गस्य लोक.
स्यानुख्यात्यै स्वर्गात् लोकान्न व्यवते तुष्टुवानः । तां० ११॥
१० । २२ ॥ यामि ( गजु० १८ । ४९) तत्स्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमान इति तत्त्वा - याचे ब्रह्मणा वन्दमान इत्येतत्तदाशास्ते । ( अथापि वर्णलोपो
भवति तत्त्वा यामीति-निरुक्ते २।१)। श० ९. । ४।२।१७ ॥ याविहोत्रम् यवा च हि वाऽ अयवा यवेतीवाथ येनैतेषा होता
भवति तद्याविहोत्रमित्याचिक्षते । ।०१।७।२।२६ ॥ युक्तिः ( महीनस्य ) तद्यश्चतुर्विशे ऽहन्युज्यंते सा युक्तिः। ऐ०६॥२३॥ युआनः ( यजु० ११।१)प्रजापति युआनः स मन एतस्मै कर्मणे
ऽयुक्त । श० ६ । ३ . १ । १२॥
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( ४३७ )
युद्धम् नाराजकस्य युद्धमस्ति । तै० १ । ५ । ९ । १ ॥
युद्धं वै राजन्यस्य । तै० ३ । ९ । १४ । ४ ॥
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युद्धं वै राजन्यस्य वीर्यम् । श० १३ । १ । ५।६॥ युधाजित इन्द्रो वै युधाजित् । त० ७ । ५ । १४ ॥
युवा सुवासाः ( ऋ० ३ । ८ । यून साम वै यूनर्व्वा । यूपः (देवाः) तं वै ( यज्ञं) यूपेनैवायोपयंस्तद्यूपस्य यूपत्वम् ।
४ ) प्राणो वै युवा सुवासाः । ऐ०२|२॥ ० ६ । ४ । ८ ॥
ऐ० २ । १ ॥
" (देवा) यदनेन ( यूपेन यज्ञं ) अयोपयंस्तस्मातृपो नाम । श० १ । ६ । २ । १ । ३ । १ । ४ । ३ । ३ । २ । २ । २॥ " तस्माद्यूप एव पशुमालभन्ते नर्ते यूपात्कदाचन । श० ३ | ७ । ३ ।२ ॥
परावे वै यूपमुच्छ्रयन्ति । श० ३ । ७ । २ । ४ ॥ गर्तवान्यूपोऽतीक्ष्णाग्रो भवति । श० ५ । २ । १ । ७ ॥ अष्टाश्रिर्यूपो भवति । श० ५ । २ । १ । ५ ॥ सप्तदशारनिर्यूपो भवति । तै० १ । ३ । ७ । २ ॥ खादिरो यूपो भवति । श० ३ । ६ । १ । १२ ॥
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" स्तुप एवास्य ( यज्ञस्य ) यूपः । श० ३ | ४ | ३ | ४ ॥
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" यूप स्थाणुः । श० ३ | ६ | २ | ५ ॥
खलेवाली यूपो भवत्येतया हि त रसमुत्कृषन्ति । तां० १६ । १३॥ ८ ॥
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यूपः ]
वैष्णवो हि यूपः । श० ३ । ६ । ४ । १ ॥
असो वा अस्य ( अग्निहोत्रस्य कर्तुः ) आदित्यो यूपः
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ऐ० ५ । २८ ॥
आदित्यो यूपः । तै० २।१।५।२ ॥
जो यूपः । श० ३ । ६ । ४ । १६ ॥
वज्रो वा एष यधूपः । कौ० १० । १ ॥ ऐ० २ । १, ३ ॥ ०
४।४॥
जो वै यूपशकलः । श० ३ | ८ | १ | ५ ॥
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[ योषा
( ४३८ ) यूपः (चतु विभक्तस्य वज्रस्थ ) यूपस्तृतीयं (तृतीयोऽशः) वा
यावद्वा । श०१।२।४।१॥ ,, एष वै यजमानो यचूपः । तै०१।३।७।३॥ ,, यजमानो वै यूपः । ऐ०२ । ३ ॥ श०१३।२।६।९॥ .. यजमानदेवत्यो वै यूपः। तै०३।९।५।२॥
, यजमानो वाऽ एष निदानेन यद्यूपः । श०३ । ७।१ । ११ ॥ योगः यद्योक्तम् । स योगः । तै० ३।३।३।३॥ योगक्षेमः यद्योक्तुं स योगः । यदास्ते स क्षेमः । योगक्षेमस्य क्लुप्त्यै ।
तै०३।३।३।३॥ योनिः योनिरुलूखलम्.........शिश्नं मुसलम् । श०७।।। १ । ३८॥
, योनिर्वाऽ उखा । श०७।५।२।२॥ ., योनिर्वाऽ उत्तरवेदिः । श०७।३।१।२८ ।। ,, योनिर्वै गार्हपत्या चितिः। श०७।१।१।८॥ ८ ॥ ६॥ ३८॥ ,.. योनिरेव वरुणः । श० १२ । ९।१ । १७॥ , योनि पुष्करपर्णम् । श०६।४।१।७॥ , योनिर्मुजाः । श०६।६।२।१५ ॥ , परिमण्डला हि योनिः । श०७।१।१ । ३७ ॥ .. अन्धमिव वै तमो योनिः । जै० उ०३।९।२॥ ,, मासेन वाऽ उदरं च योनिश्च सहिते । श० ८।६।
२॥१४॥ योनिश्चतुर्विशः ( यजु० १४ । २३ ) संवत्सरो वाव योनिश्चतुर्विछ.
शस्तस्य चतुर्विशतिरर्धमासास्तद्यत्तमाह योनिरिति संवत्सरो हि सर्वेषां भूतानां योनिः । श० ८।
४।१।१८॥ योषा योषा वाऽ इयं वाग्यदेनं न युवति । श०३।२।१।२२॥ ,, योषा हि वाक् । श० १ । ४।४।४॥ ,, वागिति स्त्री (=योषा)। जै० उ०४।२२ ॥ ११ ॥ , योषा वै वेदिः । श०१।३।३१८॥ , योषा वै वोदर्वृषाग्निः । श०१।२।५ । १५ ॥
योषा पाऽ अग्निः । श०१४।९।१।१६ ॥ " योषा हिसक! श०१।४।४।४॥
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( ४३९ ) यौधाजयम् ] पोषा योषा वै सम्वृषा नवः । श० १ । ३।१।९॥ .. योषा वै पत्नी । ।०१।३ । १ । १८ ॥ , न वै योषा कंचन हिनस्ति । श०६।३।१ । ३९॥ " तस्मात्पुमान्दक्षिणतो योषामुपशेते । जै० उ०१।३।३॥ , दक्षिणतो वै वृषा योषामुपशेते । श०६।३।१।३०॥
७।५।१।६॥ , अरनिमात्राद्धि वृषा योषामुपशेते । श०६।३।१ । ३० ॥
, पश्चाद्वै परीत्य वृषा योषामधिद्रवति तस्या रेतः सिञ्चति ।
श०१।४।४।२३॥ रक्षासि योषितमनुसचन्ते तदुत रक्षास्येव रत आद.
धति । श० ३ । २।१॥ ४०॥ , तस्माद्यदा योषा रेतो धत्ते ऽथ पयो धत्ते। श०७।११।४४॥ , पुरन्धिर्योषा (यजु० २२ । २२) इति । योषित्येव रूपं दधाति
तस्मादूपिणी युवतिः प्रिया भावुका।श० १३ । १।९।६॥ " पुरन्धिर्योत्याह । योषित्येव रूपं दधाति । तस्मात्री युवतिः प्रिया भावुका । तै ३॥ ८॥ १३ ॥ २ ॥ एवंमिव हि योषां प्रशसन्ति पृथुश्रोणिर्विमृष्टान्तरार्थसा मध्ये संप्रात्येति । श० १ । २।५ । १६ ॥ पश्चादरीयसी पृथुश्रोणिरित वै योषां प्रशंसन्ति । श० ३।
५।१ । ११ ॥ " योषा वै सिनीवाली (वजु० ११.५६) एतदु वै योषायै समृद्ध
रूपं यत् सुकपही सुकुरीरा स्वौपशा । श०६ ।। ११०॥ " ('जाया, 'पत्नी,' 'स्त्री' इत्येतानपि शब्दान् पश्यत)। पौकाश्चम् (साम) युक्ताश्वो वा आङ्गिरसः शिशु जातौ विपर्यहर
तस्मान्मन्त्रोपाक्रामत्स तपो ऽतप्यत स एतद्योक्ताश्वमप. श्य मन्त्र उपावर्तत तद्वाव स ताकामयत कामसनि
साम योक्ताश्वं काममेवैतेनावरुन्धे । तां० ११ । ८।८॥ धाजयम् ( साम) युधा मर्या अजैष्मेति तस्माद्यौधाजयम् । तांक
७।५।१५॥ इन्द्रो वै युधाजित्तस्यैतद्यौधाजयम् । तां. ७ । ।१४॥
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[रक्षांसि
( ४४० ) यौधाजयम् वज्रो वै यौधाजयम् । तां०७। ५ । १२ ।।
रक्षासि देवान्ह वै यझेन यजमानांस्तानसुररक्षसानि ररक्षुर्न यक्ष्यध्य
इति तद्यदरक्षस्तस्माद्रक्षासि । श०१।१।१ । १६ ॥ देवान्ह वाऽ अग्नी ( गार्हपत्यायनीयौ) आधास्यमानान् । तानसुररक्षसानि ररक्षुनाऽग्निर्जनिष्यते नाऽनी आधास्यध्वड इति तद्यदरक्षस्तस्माद्रक्षांसि । श०२।१।४।१५ ॥ रक्षासि यज्ञं न हि स्युरिति । श. १।८।१।१६ ॥ एतद्व देवा अबिभयुर्यदै नो यज्ञं दक्षिणतो रक्षार्थसि नाष्ट्रा न हन्युरिति । श०७।४।१। ३७ ॥ अता हीन्द्रस्तिष्ठन्दक्षिणतो नाष्ट्रा रनास्यपाहन् । श० १।४।५।३॥ दक्षिणतो वै देवानां यज्ञं रक्षांस्यजिघांसन् । गो० उ०१॥१८॥
तुषैः फलीकरणैर्देवा हविर्यक्षेभ्यो रक्षांसि निरभजन्नता महायज्ञात्स यदना रक्षः संसृजतादित्याह रक्षांस्येव तत्स्वेन भागधेयेन यज्ञानिरवदयते । ऐ०२॥ ७॥ ततो देवा सर्वे यज्ञ संवृज्याथ यत्पापिष्ठं यक्षस्य भागधेयमासीत्तेनैनान् (असुरान्-रक्षांसि) निरभजनना ( रुधिरेण) पशोः, फलीकरणैर्ह विर्यशात् सुनिर्भक्ता असन् । श०१।। २॥ ३५॥ असृग्भाजनानि ह वै रक्षांसि । कौ० १० । ४ ॥ रक्षा भागो ऽसि (यजु० ६ । १६ ) इति रक्षसा ह्येष भागो यदसक । श०३ । ८।२। १४॥ रक्षसां हि स भागः (अस्प्रूप.)। श०१।६।२ ३५ ॥ रक्षासि योषितमनुसचन्ते तदुत रक्षास्येव रेत आद. धति । श०३।२।१।४०॥
तिर इवैतद्यद्रक्षांसि । ऐ०२।७॥ , अमूलं वाऽ इदमुभयतः परिच्छिन्न रक्षोऽन्तरिक्षमनुचरति।
श०३।१।३॥ १३॥
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( ४४१ )
रक्षांसि रक्षासि अग्निहि रक्षसामपहन्ता । श० १ । २।१।६, ६॥ १।२।
२।१३॥ , अनि रक्षसामपहन्ता कौ०८॥ ४॥ १० ॥ ३ ॥ , अग्नि ज्योती रक्षोहा । श० ७ । ४ । १ । ३४ ॥
ते (देवाः) ऽविदुः । अयं ( अग्निः ) वै नो विरक्षस्तमः । श० ३।४।३।८॥ अनेर्वा एतद्रेतो यद्धिरण्यं नाष्ट्राणा रक्षसामपहत्यै । श० १४।१।३।२९ ॥ सूर्यो हि नाष्ट्राणा रक्षसामपहन्ता । श० १।३।४।८॥ (इन्द्रः) तत् (रक्षः) सीसेनावजघान । तस्मात्सीसं मृदु सतजव हि । श०५।४।१।१०॥ ते (देवाः ) एत रक्षोहणं वनस्पतिमपश्यन्कार्मर्य्यम् । श०७।४।१।३७॥ देवा ह वाऽ एतं वनस्पतिषु राक्षानं दरशुर्यत्कार्मय॑म् (भद्रपर्णाति सायणः) । श० ३।४।१।१६॥ यदपामार्गहोमो भवति रक्षसामपहत्यै । तै०१।७।१।८॥ अपामार्गबै देवा दिक्षु नाष्ट्रा रक्षास्यपामृजत । श०५। २।४।१४॥ ब्राह्मणो हि रक्षसामपहन्ता। श०१।१।४।६॥ साम हि नाष्ट्राणा रक्षसामपहन्ता । श०४।४।५।६॥ १४।३।१।१०॥ अङ्गिरसः स्वर्ग लोकं यतो रक्षास्यन्वसचन्त तान्येतेन हरिवो ऽपाहन्त यदेतत्साम भवति रक्षसामपहत्यै । तां०८।
स यां वै हप्तो वदति यामुन्मत्तः सा वै राक्षसी वाक् । ऐ०३।७॥ आपो वै रमोनी । तै०३।२। ३ ॥ १२ ॥ ३।२।४।२॥ ३।२।३ । १४॥ अथोदकयतोत्तानेन पात्रेण (पात्रस्थं दधिमिश्रितं क्षीरं) अपिदधाति । नेदेनदुपरिष्टान्नाष्ट्रा रक्षार्थस्यवमृशानिति
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[ रज्जुः
वनो वाऽ आपस्तद्वजेणैवैतन्नाष्ट्रा रक्षास्यतो ऽपहन्ति ।
(रक्षांसि-Germs in the air ?) श० १।७।१।२० ॥ रक्षासि कुबेरो वैश्रवणो राजेत्याह तस्य रक्षासि विशस्तानीमा
भ्यासतऽ इति सलगाः पापकृत उपसमेता भवन्ति तानुपदि. शति देवजनविद्या वेदः सो ऽयमिति देवजनविपाया एकं पर्ष व्याचक्षाण इवानुद्रवेत् ( एवं-शाहायनश्रौतसूत्रे १६ । २। १६-१८॥ आश्व० श्री. सू०१०।७।६॥)। श०१३।४।
३।१०॥ रजतम् एतत् ( रजतं ) रात्रिरूपम् । ऐ० ७ । १२॥
अथ यदस्तमेति ( आदित्यः ) । एतामेव तद्रजतां कुशीमनु. सविशति । (रजता कुशी-रात्रिः)।०१।५।१०। ७॥ रजता (कुशी ) रात्रिः ( अभवत् )। तै०१।५ । १०। ७ ॥ रजतैव हीयं पृथिवी । श० १४।१।३।१४॥ इयं (पृथिवी) वै रजता । तै० १।८।९।१॥ अवान्तरदिशा रजताः । तै० ३ । । । ६ ॥ ५॥ अवान्तरदिशो रजताः ( सूच्यः)। श० १३ । २ । १० । ३॥ अन्तरिक्षस्य (रूपं रजताः (सूच्यः)। तै० ३।६।६।५॥ (असुराः) रजतां (पुरी) अन्तरिक्षे (चक्रिरे)। श०३।४।
सुवर्णेन रजतम् ( संदध्यात्) । ( एवं छान्दोग्योपनिषदि
४।१७। ७) । जै० उ०३ । १७ । ३॥ गो० पू०१।१४॥ , रजतेन वपु (संदध्यात् )। (एवं छान्दोग्योपनिषदि ४।१७
७)। जै० उ०३ । १७ । ३ ॥ , . रजतेन लोहम् (सन्दध्यात् )। गो० पू०१॥ १४॥ रजासि इमे वै लोका रजासि (यजु० ११ । ६)। श० ६।३।
१।१८॥ , धौ तृतीय रजः । श०६।७।४।५॥ रज्जः वरुण्या (="वरुणपाशात्मिका" इति सायणः) रज्जुः। श०१॥
,
वरुण्या वाऽ एषा यद्रज्जुः । श० ३।२।४।१८॥३।
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( ४४३ )
.
रः वरुण्या वै यज्ञे रज्जुः । श० ६ । ४ । ३ । ८॥ रज्जुः तस्य ( प्रजापतेः ) यः श्लेष्मासीत्स सार्ध समबद्रुत्य मध्यतो नस्त उदभिनत्स एष वनस्पतिरभवद्वज्जुदालस्तस्मात्स श्लेष्मणः लष्मणो हि समभवत् । ४ । ६ ॥
२० १३ | ४ |
रखधा ( यजु० ३८ | ५ ) यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्र इति यो धनानां दाता वसुविपणाय इत्येवैतदाह । श० १४ । २ । १ । १५ । रथः तं वा एतं रसं सन्तं रथ इत्याचक्षते । गो० पू० २ । २१ ॥ रसंतम ह वै तद्रथन्तरमित्याचक्षते परोऽक्षम् । श० ९ । १. २ । ३६ ॥
तस्माद्रथः पर्युतो दर्शनीयतमो भवति । श० १३ ।२ । ७ । ८॥ वज्रो वै रथः । तै० १ । ३ । ६ । १ । ३ । १२ । ५ । ६ ॥
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यावद्वा । श० १ । २ । ४ । १ ॥
असौ वा आदित्य एष रथः । श० ९ । ४ । १ । १५ ।। वैश्वानरो वै देवतया रथः । तै०२ । २ । ५ । ४ ॥
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रथगृहसः (यजु० १५ | १५ ) तस्य ( अग्नेः ) रथगृत्सश्च रथौजाइच सेनानीग्रामण्याविति वासन्तिकौ तावृतू । श० ८ | ६ | १ । १६ ॥
रथन्तरम् ( साम ) रसंतम ह वै तद्रथन्तरमित्याचक्षते परोऽक्षम् । श० ६ । १ । २ । ३६ ॥
रथमः क्षेप्लातारीदिति तद्रथन्तरस्य रथन्तरत्वम् । तां० ७ । ६ : ४ ॥
स (प्रजापतिः) रथन्तरमसृजत तद्रथस्य घोषो ऽन्वसृज्यत । तां० ७ । ८ । ६ ॥
( अभि त्वा शूर नोनुमः [ ऋ० ७ । ३२ । २२ ] इत्यस्यामृत्र्युत्पन्नं साम रथन्तरम् - ऐ० ४ । १३ सायण माध्ये )
( यजु० १५ । ५ ) अयं वै ( पृथिवी - ) लोको रथन्तरं छन्दः । श० ८।५।२।५॥
इयं वै पृथिवी रथन्तरम् । ऐ० ८ । १ ॥
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रा० ५ १ | ४ | ३ ॥
:
( चतुर्द्धाविभक्तस्य वज्रस्य ) रथस्तृतीयं (= तृतीयोऽशः ) वा
रथतर ]
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[रथन्तरम् रथन्तरम् इयं (पृथिवी ) वै रथन्तरम् । कौ० ३।५॥ १०२।२॥
तै०१।४।६।२॥ तां०६ । ८ । १८॥ १५ । १०।१५॥ श०५।५।३।५॥ ९ ॥ १।२ । ३६॥ अयं वै (पृथिवी-) लोको रथन्तरम् । ऐ०८।२॥ राथन्तरो वा अयं ( भू-) लोकः । तै० १।१ । ८ ॥१॥ रथन्तर हीयम् (पृथिवी)। श०१।७।२।१७॥ उपहूत रथन्तर सह पृथिव्या । तै०३।५।८।१॥ श० १।८।१ । १९ ॥ वाग्वै रथन्तरम् । ऐ०४।२८॥ वाग्रथन्तरम् । तां०७।६।१७ ॥ . ब्रह्मवर्चसं वै रथन्तरम् । तै० २। ७ । १ : १॥
ब्रह्म वै रथन्तरम् । ऐ० ८। १, २ ॥ तां० ११ । ४।६ ॥ , ऋग्रथन्तरम् । तां० ७।६ । १७ ॥
अपानो रथन्तरम् । तां० ७! ६ । १४. १७ ॥
यस्वं तद्रथन्तरं यदीर्घ तद् बृहत् । कौ० ३।४ ॥ ,, देवरथो वै रथन्तरम् । तां० ७ । ७ । १३ ॥ , अन्नं वै रथन्तरम् । ऐ०८।१॥
राथन्तरी वै रात्री । ऐ०५। ३०॥
गायत्री वै रथन्तरस्य योनिः । तां० १५ । १० । ५॥ , गायत्रं वै रथन्तरम् । तां०५।१ । १५ ॥
गायत्रं वै रथन्तरं गायत्रछन्दः । तां०१५ । १०।९ ॥ एतद्वै रथन्तरस्य स्वमायतनं यद् बृहती। तां०४।४।१० अग्निर्वै रथन्तरम् । ऐ०५। ३० ॥ उप वै रथन्तरम् ( "उपशब्दसम्बद्धं हि रथन्तरपृष्ठ ज्यो. तिष्टोमे" इति सायणः)। तां० १६ । ५ । १४ ॥ ऐड रथन्तरम् । तां०७। ६ । १७ ॥ त्रिवृव त्रिणवश्च राथन्तरौ तावजवाश्वश्चान्वलज्येतां
तस्मात्ती राथन्तरं प्राचीनं प्रधूनुतः । तां० १० । २।५॥ " चतुरक्षर रथन्तरम् । तै० २ । १।५।७॥ , प्रजननं वै रथन्तरम् । तां०७।७।१६ ॥
यद्रथन्तरं तच्छाकरम । ऐ०४।१३ ॥
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रयि] रथन्तरम् रथन्तरमेतत्परोक्षं यच्छक्कर्यः । तां० १३ । २ । ८ ॥ , यह रथन्तरं तद्वैरूपम् (साम)। ऐ०४।१३॥
रथन्तरमेतत्परोक्षं यवैरूपम् (साम।। तां० १२ ! २ । ५ ६॥ , रथन्तर ह्येतत्परोक्षं यछयैतम् ( यच्छयैतं साम)। तां०
७।१०।८॥ ( सामवेद उवाच-) रथंतरं नाम मे सामाघोरञ्चारश्च । गो० पू०२।१८॥ वसन्तेन ना देवा वसवत्रिवृता स्तुतम् । रथन्तरेण तेजसा। हविरिन्द्र वयो दधुः । तै० २। ६ । १६ । १ ॥
तेजो ग्थन्तर, सानाम् । तां० १५ । १० । ६ ॥ ,, रथन्तर सानाम् (प्रतिष्ठा )। तां० ९॥ ३॥ ४ ॥
॥ रथन्तरं वै सम्राट् । तै० १।४।४।६ ॥ रथप्रोतः ( यजु० १५। ७) तस्य (आदित्यस्य) रथप्रोतश्वासमरथ
श्व सेनानीग्रामण्याविति वार्षिको तावृतू । श० ८ । ६ ।
१ । १८॥ रथस्वनः, रथेचित्रः ( यजु० १५ । १५) तस्य ( वायोः) रथस्वनश्च
रथेचित्रश्च सेनानीग्रामण्याविति ग्रैष्मी तावृतू।
श० ८। ६ । १ । १७॥ रयोजाः ( यजु. १५ । १५) तस्य ( अग्नेः) रथगृत्लश्च रथौजाश्च
सेनानीग्रामण्याविति वासन्तिको तावृतू । श० ८ । ६ ।
रमसः ( यजु० ११ । २३ ) व्यचिष्ठमन्नै रभसं दृशानमित्यवकाशवन्त.
मन्त्रैरनादं दीप्यमानमित्येतत् । श०६।३।३। १९ ॥ रम् प्राणो वैरं प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि रतानि । श० १४ । ८ ।
१३।३॥ रम्या तनूः प्राणो वाऽ अस्य ( यजमानस्य) सा रम्या तनूः । श०७ ।
रयिः रयिरिति मनुष्याः ( उपासते )। श० १०।५।२।२०॥
, वीर्य वै रयिः । श० १३ । ४ । २ । १३ ॥ ,, पुष्टं वै रयिः । श० २।३ । ४ । १३॥ , पशषो बै रथिः । तै०१।४।४।६॥
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[रश्मयः
(४४६ ) रयिः एष वै रयिर्वैश्वानरः (=आपः ) । श० १०।६।१ । ५॥ ,, रयि, सोमो रविपतिर्दधातु । तै० २ । ८ । १ ६ ॥ रयिष्ठम् ( साम) पशवो वै रयिष्ठं पशूनामवरुध्यै । तां० १४ ।
रश्मयः अथ यः कपाले रसो लिप्त आसीत्ते रश्मयो ऽभवन् । श०६ ।
१।२।३॥ युक्ता मस्य ( इन्द्रस्य ) हरयः शतादशेति ( ऋ० ६ । ४७ । १८)। सहस्त्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः (हरया-रश्मयः)।
जै० उ०१।४४ । ५॥ ,, अभीशवो वै रश्मयः। श० ५।४।३। १४ ॥
रश्मयो हास्य (सूर्यस्य) विश्वे देवाः । श०३ । ९ । २। ६,१२॥ तस्य ( सूर्यस्य ) ये रश्मयस्ते विश्वे देवाः। श० ।। ३ । १।२६॥ एते धै विश्वे देवा रश्मयः । श० २ । ३ । १ । ७ ॥
एते वै रश्नयो विश्वे देवाः । श० १२ । ४ । ४।६॥ , तस्य ( सूर्यस्य ) ये रश्मयस्ते सुकतः। श०१।। ३१०॥ , रश्मय एव हिङ्कारः। जै. उ. १ । ३३ । २॥
रश्मयो वाव होत्राः । गो० उ०६।६ ॥ रश्मयो वै दिवाकी नि ( सामानि ) । तै०१।२।४।२॥ रश्मयो वा एत आदित्यस्य यदिवाकी|नि । तां० ४।
तस्य ( सूर्यस्य ) ये रश्मयस्ते देवा मरीचिपाः । श०४।१ ।
मासा वै रश्मयो मरुतो रश्मयः । तां० १४ । १२ ॥ ९ ॥ ये ते मारुताः (पुगेडाशाः) रश्मयस्ते । श० ९ । ३। १ । २५ ॥ (यजु०४।६॥) अन्न रश्मिः । श०८।५।३।३॥ प्राणा रश्मयः। तै० ३।२।५।२॥ (यजु० १ । १२) एते वाऽ उत्पवितारो यत्सूर्यस्य रश्मयः। श०१।१।३। । एते वै पवितारो यत्सूर्यस्य रश्मयः । श०३।१ । ३ । २२ ॥
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( ४४७ )
राजभ्यः ]
. रश्मयः तद्यदेकैकस्य रश्मेद्वौ द्वौ वर्णौ भवतः । गो० उ० ६ | ६ ॥ ( सविता ) रश्मिभिर्वर्ष ( समदधात् ) । गो० पू० १ । ३६ ॥ रसः रसो वै मधु । श० ६ | ४ | ३ |२॥ ७ १५ । १ । ४ ॥
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भपो देवा मधुमतीरगृभ्णन्नित्ययो देवा रसवर्ती रगृह्णन्नित्येवेंतदाह ( मधु = रसः ) । श० ५ | ३ | ४ | ३ ॥
स्वधायै त्वेति रसाय त्वेत्येवैतदाह ( स्वधा = रसः ) | श० ५ / ४।३।७ ॥
रसो वाऽ आपः । श० ३ | ३ | ३ | १८ || ३ | ३ | ४ । ७ ॥
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रहस्युः ( देवमलिम्लुङ् ) तान् ( वैखानसानुषीन् ) रहस्युर्देवमलिम्लुङ् मुनिमरणे ऽमारयत् । तां० १४ । ४ । ७ ॥
राका योत्तरा ( पौर्णमासी) सा राका | ऐ० ७ | ११ || ५० ४ ॥ ६ ॥ गो० उ०१ । १० ॥
योषाः सा राका | ऐ० ३ | ४८ ॥
"
" या राका सा त्रिष्टुप् । ऐ० ३ । ४७, ४८ ॥
राजनम् (लाम ) एतद्वै साक्षादनं यद्राजनं पञ्चविधं भवतेि पा ह्यनम् । तां० ५। २ । ७ ॥
राजभ्यः एष वै प्रजापतेः प्रत्यक्षतमां यद्राजन्यस्तस्मादेकः सम्बहूनामीडे यद्वेव चतुरक्षरः प्रजापतिश्चतुरक्षरो राजन्यः । श०
५ । १ । ५ । १४ ॥
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तस्मादु वाडुवीयों ( राजन्यः ) बाहुभ्यां हि सृष्टः | तां० ६ । १ । ८ ॥
क्षत्रं राजन्यः । ऐ० ८ | ६ ॥ श० १३ | १ | ५१३ ॥
क्षत्रस्य वाऽ एतद्रूपं यद्राजन्यः । श० १३ । १ । ५ । ३ ॥ ओजः क्षत्रं वीर्य्यं राजन्यः । ऐ० ८ । २, ३, ४ ॥
वृषा वै राजन्यः | तां० ६ । १० । ६ ॥
युद्धं वै राजन्यस्य वीर्यम् । श० १३ । १ । ५ । ६॥
युद्धं वै राजन्यस्य । तै०३ । ९ । १४ । ४ ॥
तस्माद्राजन्यस्य पञ्चदश स्तोमस्त्रिष्टुप् छन्द इन्द्रो देवता
ग्रीष्म ऋतुः । ० ६ । १ । ८॥
त्रिष्टुप छन्दा वै
राजन्यः । तै० १ । १ । ९ । ६ ॥
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[राजा
(४४८ ) राजन्यः आनुष्टुभो राजम्यः । तै० १ । ८। ८। २॥ तां० १८ ।
८॥ १४॥ ऐन्द्रो वै राजन्यः । तै० ३ । ८ । २३ । २ ॥
ऐन्द्रो राजन्यः । तां० १५ । ४।८॥ , औदुम्बरेण राजन्यः अभिपिश्चति । तै० १।७। ८ । ७ ॥ , पाथुरश्मश्राजन्याय ब्रह्मलाम कुर्वीत । तां०१३।४। १८॥
तस्मादपि (दीक्षितं ) राजन्यं वा वैश्यं वा ब्राह्मण इत्येव ब्रूयात् ब्रह्मणो हि जायते यो यशाजायते । श० ३ । २ ।
१ । ४० ॥ (क्षत्रशब्दमपि पश्यत ) राजसूयः ( यज्ञ ) राजा वै राजसूयनेष्ठः भवति । श०५ । १ । १ ।
१२ ॥९ । ३।४। ८॥ , स राजसूयेनेष्ठा राजेति नामाधत्त । गो० पू० ५। ८ ॥
राज्ञ एव राजसूयम् । श० ५। १ । १ । १२॥ , यो राजसूयः । स वरुणसवः। तै०२।७।६।१॥ , वरुणसवो वा एष यद्राजसूयम् । श०५।३।४।१२॥
॥ तस्माद्रासूपेनेजानः सर्वमायुरेति । तै० १ । ७ । ७। ५॥ राजा स राजसूयेनेष्वा राजेति नामाधत्त । गो० पू० ५। ८ ॥ ,, राजा वै राजसूयेनेष्टुा भवति ।।०५।१ । १ । १२॥ ६।३।४८॥ . , राक्ष एव राजसूयम् । श०५।१ । १ । १२॥ ,, यो वै राजा ब्राह्मणादबलीयानमित्रेभ्यो वै स बलीयान् भवति ।
श०५।४।४।१५ ॥ ,, तस्माद्राजा बाहुबली भावुकः । श० १३ । २।२।५॥ ,, तस्माद्राजोरुबली भावुकः। श० १३ । २।२। ८ ॥ ,, राजानो वै राष्ट्रभृतस्ते हि राष्ट्राणि बिभ्रति । श० ९।४।
१।१॥ ,, नाऽराजकस्य युद्धमस्ति । तै०१।५।९।१॥ ,, तद्यथा महाराजः पुरस्तात्सैनानीकानि प्रत्युद्यामयं पन्धानमा
न्वियात् । को०५१५॥ ,, यथा राक्ष आगतायोदकमाहरेत् । श०३।३।४।३१॥ , तस्माद्राजादण्डयः ['तत्र राजा भवेद्दण्ड्यः (!) सहस्त्रमिति
धारणा' इति मनु० ८ । ३३६ ॥ ] । श० ५।४।४।७॥
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( ४४९ )
रात्रिः ]
1
राजा राजा महिमा । तै० ३ । ९ । १० । १ ॥ श० १३ | २ | ११ | २ ॥ राज्यम् अथैनं (इन्द्र) अस्यां ध्रुवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि . अभ्यषिञ्चन्.
साध्याश्चाऽऽप्त्याश्च देवाः
ऐ० ८ । १४ ॥
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अवरथं हि राज्यं परं साम्राज्यम् । श० ५ । । १ । १३ ॥ शतब: ( बजु० ३८ | १३ ) इहैव रातयः सन्त्वितीहैव नो धनानि सन्त्वित्येवैतदाह ( रातयः - धनानि ) । श० १४ ।२।२।२६॥
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रात्रिः अन्धो रात्रिः ( अन्धः - ऋ० ८ । ९२ । १ ॥ ) । तां० ९ । १।७॥
तमः पाप्मा रात्रिः । कौ० १९ । ६, ९ ॥ गो० उ० ५ । ३ ॥
तम इव हि रात्रिर्मृत्युरिव । ऐ० ४ । ५ ॥
मृत्योस्तम इव हि रात्रिः । गो० उ०५ । १ ॥
रात्रिर्व्वरुणः । ऐ० ४ । १० ॥ तां० २५ | १० | १० ॥
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• राज्याय ।
*****.
वारुणी रात्रिः । तै० १ । ७ । १० । १ ॥
।
सगरा रात्रिः ( सगरः = ऋतुविशेषः - तैत्तिरीय संहितायां ४ । ४ । ७ । २ । ५ । ३ । ११ । ३ ॥ सायणभाष्ये ऽपि ) । श० १ । ७ । २ । २६॥
अहर्वै शबलो रात्रिः श्यामः । कौ० २ । ६ ॥
रात्रिरेव श्रीः श्रियार्थं द्वैतद्रात्र्या सर्वाणि भूतानि संवसन्ति । श० १० | २ | ६ | १६ |
रात्रिर्वै व्युष्टिः । श० १३ । २ । १ । ६ ॥
रात्रिः सावित्री । गो० पू० १ । ३३ ॥
रात्रिर्वै कृष्णा शुक्लवत्सा तस्या असावादित्यो वत्सः । श० ६ ।
२ । ३ । ३० ॥
रात्रिर्वात्प्रम् (सूक्तम् ) । श० ६ । ७ । ४ । १२ ॥ अहोरात्रे वात्सप्रभू ( सूक्तम् ) । श० ६ । ७ । ४ । १० ॥
रात्रि पिशङ्गिला । तै० ३ । ९ । ५ । ३ ॥
रात्रयः क्षपाः । ऐ० १ । १३ ॥
रात्रिर्वै संयच्छन्दः ( यजु० १५ । ५ ) । श० ८ । ५ । २ । ५ ॥ रजता ( कुशी ) रात्रिः ( अभवत् ) । तै० १ । ५ । १० । ७ ।।
अथ यदस्तमेति ( आदित्यः) । एतामेव तद्रजतां कुशीमनुरुं वेशति ( रजता कुशी=रात्रिः ) । तै० १ । ५ । १० । ७ ॥
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[राष्ट्रम्
(४५० ) रात्रिः एतत्( रजतं । रात्रिरूपम् । ऐ०७।१२॥ , सोमो रात्रिः । श०३।४।४।१५ ॥ , क्षेमो रात्रिः । श०१३।१।४।३॥ , ब्रह्मणो वै रूपमहः क्षत्रस्य रात्रिः । तै०३।६।१४।३॥ ,, यजमानदेवत्यं वा अहः । भ्रातृव्यदेवत्या रात्रिः । तै०२।२।
६।४॥ आग्नेयी वै रात्रिः । तै०१।१।४।२॥१।५।३।४॥२॥
१।२।७॥ , राथन्तरी वै रात्री। ऐ० ५।३०॥ ,, पञ्चच्छन्दांसि रात्रौ शंसत्यनुष्टुभं गायत्रीमुष्णिहं त्रिष्टुभं
जगतीमित्येतानि वै रात्रिच्छन्दांसि । कौ० ३० । ११ ॥ रात्रिः (=रात्रिपायः) एषा वा अग्निष्टोमस्य सम्मा यद्रात्रिः। द्वादश
स्तोत्राण्यग्निष्टोमो द्वादशस्तोत्राणि रात्रिः । तां. ६ । । २३-२४॥ एषा वा उक्थस्य सम्मा यद्रात्रिः (=सन्धिस्तोत्राणि)। त्रीण्युक्थानि, ( अग्निरुषा अश्विनाविति) त्रिदेवत्यः सन्धिः ।
तां०९।१।२५-२६ ॥ रामः ( मार्गवेयः ) रामो हास मार्गवेयो ऽनूचानः श्यापर्णीयः । ऐ०
७।२७॥ रायः पशवो वै रायः। श० ३ । ३ । १ । ८॥४।१।२।१५ ॥ रायस्पोषः पशवो वै रायस्पोषः। श०३।४।१।१३॥
,, भूमा वै रायस्पोषः । श० ३।५।२।१२॥ रायोवाजीयम् ( साम) योवाजीयं वैश्याय ( कुर्यात् )। तां० १३ ।
४. १८॥ पशून् संयमित्यब्रवीत् (इन्द्रं ) रायोवाजस्तस्मा एतेन रायोवाजीयेन पशून् प्रायच्छत् । पशुकाम एतेन स्तुवीत
पशुमान् भवति । तां० १३ । ४।१७ ॥ राष्ट्रभृतः ( हवींषि ) राजानी वै राष्ट्रभृतस्तेहि राष्ट्राणि बिभ्रति। श०
९।४।१।१॥ राष्ट्रम् ( यजु० १३ | 1) श्री राष्ट्रम् । श० ६।७।३।७॥
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रुक्] राष्ट्रम् श्रीवै राष्ट्रस्य मध्यम् । तै० ३।९।७।१॥ श० १३।२ ।
९॥४॥ " श्रीवै राष्ट्रमश्वमेधः । श०१३।२।९।२॥ तै० ३।९।
७।१॥ , राष्ट्रं वाऽ अश्वमेघः। श० १३ । १।६ । ३॥ तै० ३।।
९।४॥ , राष्ट्र सानाय्यम् ( हविः) । श० ११ । २।७।१७॥
अष्टौ वै वीराराष्ट्र समुद्यच्छन्ति राजभ्राता च राजपुत्रश्च पुरोहितश्च महिषी च सूतश्च ग्रामणी च क्षत्ता च संग्रहीता चैते थे वीरा राष्ट्र समुद्यच्छन्त्येतेष्वेवाध्यभिषिच्यते ।
तां० १९ ।१।४॥ , क्षत्रं हि राष्ट्रम् । ऐ०७ । २२ ॥ , राष्ट्रं पसः ( यजु० २३ । २२ ॥) । तै० ३।९।७।४॥ श.
१३।२।९।६॥ , राष्ट्रं मुष्टिः (यजु० २३ । २४ ) । श० १३ । २ । ९ । ७ ॥ तै.
३।६।७।५॥
राष्ट्र हरिणः ( यजु० २३ । ३०)। श०१३।२।९।८॥ " राष्ट्राणि वै विशः। ऐ०८।२६ ॥ , राष्ट्र सप्तदशः ( स्तोमः) । तै०१।८।८।५॥ , सविता राष्ट्र, राष्ट्रपतिः। श० ११ । ४ । ३ । १४ ॥ तै० २!
५॥७॥४॥ राष्ट्री वाग्वै राष्ट्री । ऐ०१॥९॥
समः यदरसदिव स रासभो ऽभवत् । श०६।१।१।११॥ ., यत्तदरसदिवैष रासभः । श०६।३।१।२८॥
, वैश्यं च शद्धं चानु रासभः । श०६।४।४।१२॥ राखा हिरो (हिरम् मेखला' इति सायणः ) चै राना (="रशना"
इति सायणः)। श०१।३।१।१५॥ रिपम् तदमेभ्यरिप्रं तत् । श० ३।१।२।११॥
(यजु० १८१४८॥ रुक-दीप्तिः) अमृतत्वं वै रुक् । श०९।। २॥१४॥
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[ रुद्रः
( ४५२ )
रुक् अमृतं वै रुक् । श० ७ । ४ । २ । २१ ॥
( यजु० १३ | ३९ ) प्राणो वै रुक् प्राणेन हि रोचते । श० ७ ।
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रुक्मः असौ वाs आदित्य एष रुक्म एष हीमाः सर्वाः प्रजा अतिरोचते रोचो ह वै त रुक्म इत्याचक्षते परोऽक्षम् । श० ७ ।
४ । १ । १० ॥
आदित्यस्य (रूपं ) रुक्मः । तै० ३ । ९ । २० ॥ २ ॥
असौ वrs आदित्य एष रुक्मः । श० ६.७११।३॥
तस्य ( अश्वस्य श्वेतस्य) रुषमः पुरस्ताद्भवति । तदेतस्य रूपं क्रियते य एष ( आदित्यः ) तपति । श० ३ । ५ । १ । २० ॥
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५ । २ । १२ ॥
चक्षुर्वै रुक् । श० ६ | ३ | ३ | ११ ॥
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सत्यं द्वैतद्यद्रुक्मः ।
श० ६ । ७ । १ । १–२॥
रुजा ( इषुः ) अथ यया विद्धः शयित्वा जीवाते वा म्रियते वा सा सैषा रुजा नाम । श० ५। ३ । ५ । २९ ॥
द्वितीया तदिदमन्तरिक्ष
रुद्रः यदरोदीत्तस्माद्रुद्रः । श० ६ । १ । ३ । १० ॥
अग्निर्वै रुद्रः । श०५ | ३ | १ : १० ॥ ६ ॥ १ । ३ । १० ॥
• तद्यत्तत्सत्यम् । असौ स आदित्यः ।
प्रजातिस्तेजो वीर्य रुक्मः । श० ६ । ७।१।९॥
रुक्मो वै समुद्रः (यजु० १३ । १६ ) । श० ७ । ४ । २ । ५ ॥
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( त्वमग्ने रुद्रः. ऋ० २ । १ । ६ ॥ )
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रुद्रो ऽग्निः । तां० १२ । ४ । २४ ॥
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यो वै रुद्रः सो ऽग्निः । श० ५ | २ । ४ । १३ ॥
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,, एष रुद्रः । यदग्निः । तै० १ । १ । ५ । ८-९ ।। १ । १ । ६ ॥६॥ १ । १ । ८ । ४ ॥ १ । ४ । ३ । ६ ॥
*****
तान्यान्यष्टौ (रुद्रः सर्वः = शर्वः, पशुपतिः, उग्रः, अशनि:, भवः, मद्दान्देवः, ईशानः ) अग्निरूपाणि कुमारो नवमः (रुद्र:शिवः = अष्टमूर्त्तिः - अमरकोषे १ । १ । ३६ ॥ कुमारः =स्कन्दः = रुद्रपुत्रो ऽग्निपुत्रश्च - अमरकोषे १ । १ । ४२-४३ ॥ महाभारते, वनपर्वणि २२५ । १५-१९ ) । श० ६ । १ । ३ । १८ ॥
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रुद्रा मा अनिर्वै स देवस्तस्यैतानि नामानि, शर्व इति यथा प्राच्या आच
सते भव इति यथा वाहीकाः पशूनां पती रुद्रो ऽनिरिति । श.
१।७।३॥८॥ , अथोऽभारण्येवेव पशुषु रुद्रस्य हेतिं दधाति (हेतिम् रुद्रस्य
आयुधम् ॥ रुद्रः अग्निः ॥ अमरकोषे १ । १ । ६०-हेतिः अने. th: || Monier-Williams' Sanscrit-English Diotion. 'ary-हेति:-agni's weapon, flame eto., etc.)। श० १२ ।
७।३। २०॥ ,, अथ यत्रैतत्प्रथम समियो भवति । धूप्यतऽ इव तर्हि हैष (अ.
निः) भवति रुद्रः। श०२।३।२।९॥ , रुद्र पशूनां पते । तै०३।११।४।२॥ " रुद्रः ( एवैनं राजानं ) पशूनां ( सुवते)। तै०१।७।४।१॥ , रुद्रहि नाति पशवः। श०३।२।४।२०॥ , रौद्रा वै पशवः । श०६।३।२।७॥ , रौद्री वै गौः । तै० २।२।५।२॥ " यद्गौस्तेन रौद्री । श०५।२।४।१३। । यद्रश्चन्द्रमास्तेन । कौ० ६ ॥ ७॥ , यझेन वै देवाः। दिवमुपोदकामनथ यो ऽयं देवः (रुद्रः) पशना.
भीष्टे स इहाहीयत तस्माद्वास्तव्य इत्याहुस्तिो हि तदहीयत ।
श०१।७।३।१॥ " वास्तव्यो वाऽ एष देवः (रुद्रः) । श० ५। २।४। १३ ॥ ५। ३।
३।७॥ , य उ एव मृगव्याधः (=3Dog-ster ) स (रुद्रः) उ एव स
(मृगव्याध एकादशरुद्रेवन्यतमः-नीलकण्ठीयटीकायुते महा.
भारते, आदिपर्वणि, अभ्याये ६६, श्लो० २-३)। ऐ० ३॥ ३३॥ , रुद्रो वै विष्टकृत् । कौ० ३।४, ६ ॥ ॥ रुद्रः खिष्टकृत् । श० १३ । ३ । ४, ३॥ , रुद्रियः (=हद्रदेवत्यः) विष्टकृत् (यागः) । श०१।७।३।२१ ॥ , रुद्रो वै ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च देवानाम् । कौ० २५ । १३॥ .
घोरो वै रुदः । कौ० १६ ॥७॥
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[ रुद्रः
( ४५४ )
रुद्रः रुद्रोह वा एष देवानाम शान्तः सश्चितो भवति तमेवैतच्छमयाते ।
कौ ०
"
( रुद्रस्य ) यो एवेत्रिकाण्डा सो एवेषुत्रिकाण्डा ( त्रिशूलीशिवः = रुद्रः - इति वाचस्पत्यकोषे ) । पे० ३ । ३३ ॥
" शूलपाणये ( रुद्राय ) स्वाहा । ष० ५ । ११ ॥
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१० १९ ॥ ४ ॥
,,
( शतरुद्रियहोमे ) अर्कपत्रेण जुहोति । श० ६ । १ । १ । ४,९ ॥
"
" एतस्य वै देवस्य ( रुद्रस्य ) आशयादर्कः समभवत्स्वेनैवैनम् ( रुद्रम् ) एतद्भागेन स्वेन रसेन प्रीणाति ( यजमानः ) । श० ९।१।१।९॥
"
( शतरुद्रियहोमे ) गवेधुकासक्तुभिर्जुहोति । यत्र वै सा देवता ( = रुद्रः ) विनस्ताशयसतो गवेधुकाः समभवन्त्स्वेनैवैनम् ( रुद्रम् ) एतद्भागेन स्वेन रसेन प्रीणाति ( यजमानः ) । २० ९ । १ । १ ॥ ८ ॥
रौद्रो गावेधुकश्चरुः । श० ५ । २ । ४ । ११, १३ ॥
स ( रुद्रः ) पतथं रुद्रायाऽऽद्रयै प्रेयङ्गवं चरुं पयसि निरवपत् । ततो वै स पशुमानभवत् । तै० ३ । १ । ४॥४॥ प्रजापतिर्वै रुद्रं यज्ञान्निरभजत् ("देवा वै यशामुद्रमन्तरायन्"इति तैतिरीयसंहितायाम् २ | ६ | ८ | ३ || 'दक्षः (प्रजापतिः) उवाच - सव्र्वेष्वेव हि यज्ञेषु न भागः परिकल्पितः । न मन्त्रा भार्यया सार्द्धं शङ्करस्येति नेज्यते " इति कूर्मपुराणे पूर्वभागे, अध्याये १५, श्लो० ८ ॥ ) । गो० उ० १ । २ ॥
अम्बिका ह वै नामास्य ( रुद्रस्य ) स्वसा । श० २ । ६ । २ । ९ ॥ १ । ६ । १० ।
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शरद्वा अस्य ( रुद्रस्य ) अम्बिका स्वसा । तै०
४ ॥ (परिशिष्टभागे " अम्बिका" शब्दमपि पश्यत )
आखुस्ते ( रुद्रस्य ) पशुः ( आखुयानः = गणेशः = रुद्र पुत्र : - वैजयन्ती कोषे, स्वर्गकाण्डे आदिदेवाध्याये, लो० ५४ ॥ ) | श० २। ६ । २ । १० ॥ तै० १ । ६ । १० । २ ॥
उच्छेषणभागों वै रुद्रः । तै० १ । ७ । ८ । ५॥
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( रुद्रः ) तं ( प्रजापतिम् ) अभ्यायत्याविध्यत् । ऐ० ३ | ३३ ॥ " त ( प्रजापतिम् ) रुद्रो ऽभ्यायस्य विव्याध । श० १ । ७ । ३ ३ ॥
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( ४५५ )
रुद्राः ]
रुद्रः ल ( रुद्रः ) यशमभ्यायम्याविध्यत् । ( स यज्ञमविध्यत् - इति तैतिरीय संहितायाम् २ | ६ | ८ | ३ || ) | गो० उ० १ । २ ॥ तद्यदुदितात्समभवंस्तस्नाद्रुद्राः सो ऽय शतशीर्षा रुद्रः सहस्राक्षः शतेषुधिरधिज्यधन्वा प्रतिहितायी भीषयमाणों ऽतिष्ठदन्नमिच्छमानस्तस्माद्देवा अविभयुः । श०९ । १ । १ । ६ ॥ एषा ( उदीची) वै रुद्रस्य दिक् । तै० १ | ७ | ८ | ६ ॥
एषा ( उदीची) ह्येतस्य देवस्य ( रुद्रस्य ) त्रिकू । श० २ । ६।२।७॥
उत्तरार्धे जुहोत्येषा ह्येतस्य देवस्य ( रुद्रस्य ) दिक् । श० १ | ७ । ३ । २० ॥
" यदुदञ्चः प्रेत्य त्र्यम्बकैश्चरन्ति रुद्रमेव तत्स्वायां दिशि प्रीणन्ति कौ० ५ । ७ ॥
" रुद्रस्य बाहू (= "आर्द्रा नक्षत्रम्" इति सायणः ) । तै० १ । ५। १ । १ ॥
रौद्रो वै प्रतिहर्त्ता । गो० उ० ३ । १६ ॥
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" एतद्ध वाऽ अस्य ( रुद्रस्य ) जान्धितं प्रज्ञातमवसानं यच्चतुष्पथम् । श० २ । ६।२।७ ॥
'पशुपतिः', 'पशुमान्', 'भूतवान्', 'महान्देवः' इत्येतानपि शब्दान् पश्यत ।
रुद्राः तद्यद्रुदितात्समभवंस्तस्माद्रुद्राः । श० ९ । १ । १ । ६ ॥
प्राणा वै रुद्राः । प्राणा हीदं सर्व रोदयन्ति । जै०उ० ४।२।६॥ कतमे रुद्रा इति । दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशस्ते यदस्मामर्त्याच्छरीरादुत्कामन्त्यथ रोदयन्ति तद्यद्रोदयन्ति तस्मामुद्रा इति । श० ११ । ६ । ३ । ७ ॥
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( मृगव्याधंश्च सर्पश्च निर्ऋतिश्च महायशाः । अजैकपादहिर्बुधन्यः पिनाकी च परंतपः ॥ दहनो ऽथेश्वरश्चैव कपाली च महाद्युतिः । स्थाणुर्भगश्च भगवान् रुद्रा एकादश स्मृताः- इति नीलकण्ठीयटीकायुते महाभारत आदिपर्वणि, ६६ । २-३ ॥ ) " रुद्रा एकादशकपालेन माध्यन्दिने सबने ( अभिषज्यन् ) । तै० १ | ५ | ११ | ३ ॥
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रित
(४५६ ) रुद्राः रुद्राणां माध्यन्दिनं सवनम् । कौ० १६ । १॥ ३० ॥१॥ श०
४।३।५।१॥ , अथेमं विष्णुं यक्षं प्रेधा व्यभजन्त । वसवः प्रातःसवन
रुद्रा माध्यन्दिन, सवनमादित्यास्तृतीयसवनम् । श० १४ ।
त्रिष्टुबुद्राणां पत्नी । गो० उ०२।६॥ " रुद्रास्त्रिष्टुभ समभरन् । जै० उ०१।१८।५॥ , रुद्रास्त्वा त्रैष्टुमेन छन्दसा संमृजन्तु । तां०१।२।७ ॥ ,, रुद्रास्त्वा दक्षिणतो ऽभिषिञ्चन्तु त्रैष्टुमेन छन्दसा। तै० २।
७।१५ । ५॥ , अथैनं ( इन्द्रं) दक्षिणस्यां दिशि रुद्रा देवाः..... अभ्यषि.
चन्"भौज्याय । ऐ०८।१४॥ , ग्रीष्मेण देवा ऋतुना रुद्राः पञ्चदशे स्तुतम् । वृहता यशसा
बलम् । हविरिन्द्रे वयो दधुः । तै० २। ६ । १९ । १॥ , रुद्रा एव महः । गो० पू० ५। १५ ॥ ,, वसवो वै रुद्रा आदित्याः सस्रावभागाः।०३।३।९। ७॥ , सोमो रुद्रः (व्यद्रवत् )। श० ३।४।२।१॥ , रुद्राणां वा एतद्रपम् । यत्पृथुकाः। तै०३८:१४॥ ३॥ रूपम् अन्नं वै रूपम् । श० ६ । २।१ । १२॥ , कुमारी रूपं (गच्छति)। गो० पू०२॥२॥ , योषित्येव रूपं दधाति । श०१३।१।९।६॥ तै० ३।८।
१३।२॥ ला अग्निवे रूरः। तां०७।५।१०॥ १२।४ । २४॥ तेः रेतः पुरुषस्य प्रथम सम्भवतः सम्भवति । ऐ०३१२॥ , रेतो हदये (श्रितम् )। तै०३।१०।८।७॥ " अवाग्वै नाभे रेतः । श०६।७।१॥९॥ , नाभिदना ( आसन्दी) भवति । अत्र (नामिप्रदेशे) वा अनं . प्रतितिष्ठति..."मत्रोऽएव रेतस आशयः । श० ३१३१४॥२८॥ , रेतो वै नाभानेदिष्ठः । ऐ०६ । २७ ॥ गो० ७० ६॥ ८॥
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रेतः रेतो वै वृष्ण्य म् (पजु० १२ । ११२)। श०७।३।१।४। " सोमो वै वृष्णो अश्वस्य रेतः। तै० ३।९।५।५॥ , रेतः सोमः। श०३।३।२।१॥३।३।५।२८॥३ ॥
३।११॥ तै०२।७।४।१॥ कौ० १३ ॥ ७॥ , रेतो वै सोमः । श०१।९।२।६॥ २॥ ५ ॥ १९॥३॥
।५।२॥ , सोमो रेतो ऽदधात् । तै०१।६।२।२॥१।७।२।३,४॥
१। ।१।२॥ , आपो रेतः प्रजननम् । ते० ३।३।१०।३॥ ,, आपो मे रेतसि धिताः । तै० ३।१०।८।६॥ , आपो हिरेतः। तां०८।७।९॥ , रेतो वा आपः। ऐ०१॥३॥ " यत्पयस्तद्रेतः। गो० उ०२।६॥ , पयो हि रेतः। श०९।।।१।५६ ॥ ,, रेतः पयः । श०१२। ४।१।७॥ , रेतो वे घृतम् (यजु० १७ । ७९)। श०९।३।३।४४॥
आज्यशब्दमपि पश्यत ॥
रेत माज्यम् । श०१।३। १ । १८॥ (घृतशब्दमपि पयश्त) ,, एतद्रेतः। यदाज्यम् । तै० १ ।१।९।४॥ , रेतो वाऽ ओदनः । श० १३।१।१।४ ॥ तै० ३॥ ८॥१४॥ ,, रेतो वा अन्नम् । गो० पू० ३ ॥२३॥ , प्राणो रेतः। ऐ०२॥ ३८ ॥ , रेतो तनूनपादा श०१।५।४।२॥ , रेतो हिरण्यम् । तै० ३।८।२॥४॥ " घागुहिरेता। श०१।५।२।७॥ " वातः ।०१।७।२।२१। " शुलं वैरेता। ऐ०२।१४॥ , योषा पपस्या रेतो वाजिनम् शि.२।४।४।२।१५।
, रेतो वाजिनम् ।।१।६।
१०॥
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(४५८ । रेतः रेतःसिक्तिर्वै पानीवतप्रहः । कौ० १६ । ६॥ , रेतो वै पानीवतः (ग्रहः)। ऐ०६ । ३॥ गो० उ०४।५॥ , रेतो वा अच्छिद्रम् । ऐ० २ । ३८॥ , सौर्य रेतः । तै०३।६।१७।५॥ , द्रप्सीव हि रेतः। श०११।४।१।१५॥ " त्रिवृद्धि रेतः । तां०८।७।१४॥ , पञ्चविशहि रेतः । श०७।३।१।४३॥
रेतो वाऽ अत्र यक्षः। श०७।३।२।९॥ , संवत्सरे संवत्सरे वै रेतःसिक्तिर्जायते । कौ०१६ । ६॥ , यस्मात्कुमारस्य रेतः सिक्तं न सम्भवति यस्मादस्य मध्यमे वयसि सम्भवति यस्मादस्य पुनरुत्तमे वयास न सम्भवति ।
श०११।४।१।७॥ ,, कामातॊ वै रेतः सिञ्चति । गो० उ० ६ ॥ १५ ॥ ,, आण्डौ घे रेतःसिचौ, यस्य ह्याण्डौ भवतः स एव रेतः
सिञ्चति । श०७।४।२।२४ ॥
पृष्टयो वै रेतासिचौ। श०७।५।१।१३॥ ८।६।२।७॥ , दक्षिणतो हि रेतः सिच्यते।तां०८।७।१०॥ १२। १० । १२ ॥ , दक्षिणतो वाऽ उदग्योनौ रेतः सिच्यते। श०६।४।२।१०॥ ,, आनुतुन्नाद्धि रेतो धीयते। तां० १२ । १०।११ ॥ " हिंकृताछि रेतो धीयते । तां०८।७।१३॥ , उपाशुवै रेतः सिच्यते । श०९।३।१२॥ , उपांश्विव वै रेतसः सिक्तिः । ऐ०३ ॥ ३८ ॥ , यदा वै स्त्रियै च पुर्वासश्च संतप्यते ऽथ रेतः सिच्यते । श.
३।५।३।१६॥ , अन्ततो हि रेतो धीयते । श०६।५।।५६॥ , यद्वै रेतसो योनिमतिरिच्यते ऽमुया तवत्यथ यन्न्यून व्यूखं
तदेतद्वै रेतसः समृद्धं यत्सम बिलम् । २०६।३।३।२६॥ , वायु रेतसां विकर्ता । २०१३1३।८।१॥ , प्राणो हिरेतसां विकर्ता। श०१३।३।। " प्राणोदानाऽ उ वै रेतःसिक्तं षिकुरुतः । श०९।५।१।६ , रेतो वै प्रजातिः । श०१४।९।२१६॥
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रेभी] रेतः उभयतः परिगृहीतं वै रेतः प्रजायते । श०२।३।१।३३॥ रेतासिची (इटके) पृष्ठयो वै रेतःसिची। श० ७।५।१ । १३ ॥
८।६।२।७॥ आण्डौ वै रेतासिचौ, यस्य ह्याण्डौ भवतः स
एव रेतः सिञ्चति । श०७।४।२ । २४ ॥ रेवती ( नक्षत्रम् ) रेवत्यामरवन्त । तै०१।५ । २॥९॥ , पूणो रेवती। गावः परस्ताद्वत्सा अवस्तात् । ते.१।।
, पूषा रेवत्यन्वेति पन्थाम् । ते०३।१।२।९॥ रेवत्यः ( रैवतं साम) स (प्रजापतिः) रेवतीरस्जत तद्रवां घोषो
ऽन्धखज्यत (रेवतीनः सधमादे [ ऋ० १।३०।१३] इत्यस्यां गीयमानं रैवतं साम-इति ऐ०४।१३ भाप्ये सायणः)। तां०७॥ ८॥१३॥
ज्योती रेवती सानाम् । तां० १३।७।२॥ , यद् यहचद्रवतम् । ऐ०४ । १३ ॥ ., गायत्री कै रेवती। तां०१६।५ । १९ ॥
या हिकाच गायत्री सा रेवती। तां० १६ । ५। २७॥ , रेवत्यो मातरः। तां० १३ । । । १७॥ , रेवतीनारसो यद्वारवन्तीयम् । तां० १३ । १० ।५॥ " (या. १।२१) रेवत्य आपः । श०१।२।२।२॥
आपो वै रेवतीः । ०३।२।८।२॥ आपो वै रेवात्यः। तां०७।९।२० ॥१३।९।१६॥
अपां वा एष रसो यद्रवत्यः । तां० १३ । १०॥५॥ " (यजु०६॥ ८॥) रेवन्तो हि पशवस्तस्मादाह रेवती रमभ्व.
मिति । श०१।७।३।१३॥ पशवो वै रेवत्यः । तां० १३ । ७।३।१३।९।२५ ॥
पशवो वै रैवत्यः । तां० १३ । १० । ११ ॥ , वाग्वै रेवती । श०३।८।१।१२॥ , रेवत्यः सर्वाः देवताः। ऐ०२।१६ ॥ रैमी (ऋक् ) रेभन्तो वै देवाश्चर्षयश्च स्वर्ग लोकमायन् । गो० ३०॥
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[रोहिणी
( ४३० ) रोचनः ( यजु० ११ ॥ ४९) रोचनो ह नामैष लोको यौष (सूर्यः)
एतत्तपति । श०७।१।१।२४॥ , (यजु० २३॥ ५ ॥) नक्षत्राणि वै रोचना दिवि । ०३।
रोदसी बदरोदक्षत् (प्रजापतिः) तदनयोः (धावापृथिव्योः ) रोद
स्त्व म् । तै० २।२।९।४॥ , (यजु० ११ । ४३ ॥१२ । १०७ ॥) इमे वैद्यावापृथिवी रोदसी।
श०६।४।४।२॥६।७।३।२॥ ७।३।१।३०॥ , इमे (द्यावापृथिव्यौ)हवाव रोदसी। जै० उ०१।१२।४॥ , यावापृथिवी वैरोदसी। ऐ०२।४१॥ रोहः ( यजु०१३ । ५१ ) स्वर्गोवै लोको रोहः । श०७।५।२।३६॥ रोहिणी (नक्षत्रम् ) सा (विराट् ) तत ऊर्धारोहत्। सा रोहिण्य.
भवत् । तद्रोहिण्यै रोहिणित्वम् । तै०१।१।१०। ६॥ विराट् सृष्टा प्रजापतेः। ऊर्ध्वारोहद्रोहिणी। योनिरः
प्रतिष्ठितिः । तै०१।२।२ । २७ ॥ . यमु हैव तत्पशवो मनुष्येषु काममरोहस्तमु हैव पशुषु
काम रोहति य एवं विद्वानोहिण्यां (अग्नी) आधते। श०२।१।२।७॥ प्रजापती रोहिण्यामग्निमजत तं देवा रोहिण्यामावत ततो बै ते सर्वानोहानरोहन तद्रोहिण्यै रोहिणित्वम् । तै. १।१।२।२॥ ता अस्य (प्रजापतेः) प्रजाः सृष्टा एकरूपा उपस्तम्धास्तस्थू रोहिण्य इवैव त, रोहिण्यै रोहिणीस्वम् । श०२।१।
या (प्रजापतेर्दुहिता) रोहित् (रक्तवर्णा मृगी) सा रोहिणी ( अभूत् ) । ऐ०३ । ३३॥ प्रजापते रोहिणी । तै० १।५।१।१॥ रोहिणी देव्युदगात् पुरस्तात्..."प्रजापति हविषा
वर्द्धयन्ती । तै०३।१।१।२॥ , इन्द्रस्व रोहिणी (ज्येष्ठानक्षत्रमिति सायणः) । तै०१।
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( ४६१ )
लक्ष्मी ]
रोहिणी आत्मा वै प्रजा पशवो रोहिणी । श० ११ । १ । १ । ७ ॥
यद् ब्राह्मणः (=ब्राह्मणनक्षत्रम् ) एव रोहिणी । तस्मादेव । तै० २ । ७।६।४ ॥
39
रोहितकुलीयम् (साम) पतेन वै विश्वामित्रो रोहिताभ्यां रोहितकूल आजिमजयत् । तां० १४ । ३ । १२ ॥
विश्वामित्रो भरतानां मनस्वत्यायात् सौदन्तिभिर्नाम जनतयांशं प्रास्यतेमाम्मां यूयं वस्निकाञ्जयायेमानि मह्यं यूयं पूरयाय यदीमाविद रोहितावश्मचितं कूलमुद्वद्दात इति स एते सामनी अपश्यत्ताभ्यां युक्त्वा प्रासेधत्स उदजयत् । तां० १४ | ३ | १३ ॥ रोहितकुलीयं भवत्याजिजित्यायै । तां० १४ । ३ । ११ ॥
1
रोहितम् ( छन्दः ) रोहितं वै नामैतच्छन्दो यत्पारुच्छेपमेतेन वा इन्द्रः सप्त स्वर्गलोकानरोहत् । ऐ० ५ । १० ॥
रौरवम् (साम) ते ( असुराः) प्रत्युष्यमाणा अरवन्त यद्रवन्त तस्माद्रौरवम् । तां० ७ । ५ । ११ ॥
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38
रोहिणी (पुरोडाशौ ) अग्निश्च ह वा आदित्यश्च रौहिणावेतास्याथ हि देवताभ्यां यजमानाः स्वर्ग लोक रोहन्ति । श० १४ ।
"
"
अग्निर्वै वरस्तस्यैतद्रौरवम् । तां० ७ । ४ । १० ॥
पशवो वै रौरवम् । तांं ७ । ५ । ८ ॥
२।११२ ॥
अहोरात्रे वै रोहिणी | श० १४ । २ । १ । ३ ॥
इमौ वै लोकौ ( द्यावापृथिव्यौ ) रोहिणी । रा० १४ । २ ।
१।४ ॥
चक्षुषी वै रोहिणौ । श० १४ । २ । १ । ५ ॥
( ल )
लक्षणम् यद्वै नास्ति तदलक्षणम् । श० ७ । २ । १।७॥
लक्ष्मीः तस्माद्यस्य मुखे लक्ष्म भवति तं पुण्यलक्ष्मीक इत्याचक्षते ।
३०८ । ४ । ४ । ११ ॥
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[ लोक्स्पृणाः
( ४६२ )
लक्ष्मीः तस्माद्यस्य दक्षिणतो लक्ष्म भवति तं पुण्यलक्ष्मीक इस्पाचक्षते । श० ८ ।४ । ४ । ११ ॥
तस्माद्यस्य सर्वतो लक्ष्म भवति तं पुण्यलक्ष्मीक इत्याचक्षते । श० ६ । ५ | ४ | ३ ॥
लवणम् लवणेन सुवर्णं सन्दध्यात् । गो० पू० १ । १४ ॥ जै० ४० ३ । १७ । ३ ॥
लाजाः आदित्यानां वा एतद्रूपम् । यल्लाजाः । तै० ३ । ८ । १४ । ४ ॥ नक्षत्राणां वा एतद्रूपं यल्लाजाः । श० १३ । २ । १।५ ॥ कातव्यः लातव्यो गोत्रो, ब्रह्मणः पुत्रः ( ओङ्कारः ) । गो० पू० १ ।
33
२५ ॥
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"
स्वाहा वै सत्यसम्भूता ब्रह्मणो दुहिता ब्रह्मप्रकृता लातव्यसगोत्रा त्रीण्यक्षराण्येकं पदं त्रयो वर्णाः शुक्लः पद्मः सुवर्ण इति । ष० ४ । ७॥
एतद्ध स्म वा आह कुशाम्बः स्वायवो ब्रह्मा लातव्यः कथं स्विदद्य शिशुमारी यशपथे ऽप्यस्ता रिष्यति । तां० ८ | ६ | ६ कामगायनः स्वाहा वै सत्यसम्भूता ब्रह्मणा प्रकृता लामगायन सगोत्रा द्वे अक्षरे एकं पदं त्रयश्च वर्णाः शुक्लः पद्मः सुवर्ण इति ( लातव्यशब्दमपि पश्यत ) । गो० पू० ३ । १६ ॥
39
aar (इष्टिकाः ) ( =मुहूर्ता:) अथ यत्क्षुद्राः सन्त इमाँ लोकानापूरयन्ति तस्मात् (मुहूर्ता:) लोकस्पृणाः । श० १० । ४ । २ । १८ ॥
लोकम्पृणाभिर्मुहूर्तान् ( आप्नोति ) । श० १० ।
४ । ३ । १२ ।।
असो वा आदित्यो लोकम्पृणैष हीमांल्लोकान्पूरयति । श० ८ । ७ । २ । १॥
असौ वा आदित्यो लोकम्पृणा । श० ८ ।५।
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34
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22
४॥५॥
इन्द्रो लोकम्पृणा । श० ८ । ७ । २ । ६ ॥ आत्मा लोकम्पृणा । श० ८ | ७ |२| ८ ॥ वाग्वै लोकम्पृणा । श० ८ । ७ । २ । ७ ॥
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( ४६३ )
लोकाः] कोकापणाः (इष्टिकाः) क्षत्रं वै लोकम्पृणा । श० ६।४।३।।
क्षत्रं वै लोकम्पृणा विश इमा इतरा इष्टकाः। श०८।७।२।२॥ अथ यन्नक्षत्राणायाख्यायते तल्लोकम्पृणा ।
श०१०।५।४।५॥ होकाः त्रय इमे लोकाः। तां० १६ । १६ । ४॥ ,, प्रयोहीमे लोकाः । तां०७।१।१॥ , त्रयो वा इमे लोकाः । श०१।२।४।२०॥ , एता वै (भूर्भुवः स्वरिति ) व्याहृतय इमे (पृथिव्यादयः)
लोकाः । तै० २।२।४।३॥ , त्रयो वाव लोकाः। मनुष्यलोकः पितृलोको देवलोक इति ।
श०१४।४ । ३ । २४॥ , उत्तर एषां लोकानां ज्यायान् । तां० १६ । १० ॥३॥ , इमे वै (प्रयः) लोका दिव्यानि धामानि । श०६।३।
१।१७॥ , इमे वै ( पृथिवी, अन्तरिक्षं द्योश्चेति त्रयः) लोका रजासि
( यजु० ११ । ६)। श०६।३। १ । १८ ॥ , इमे वै लोका विश्वा समानि ( यजु० १२ । १३) । श० ६।
७।३।१०॥ , स यः स वैश्वानरः । इमे स लोका इयमेव पृथिवी विश्वममिनरो ऽन्तरिक्षमेव विश्वं वायुनरो धौरेव विश्वमादित्यो
नरः । ।०६।३।१।३॥ , इमे लोकास्विरानः। तां०१६ । ११।४॥२१ । ७ । २॥ ,, इमेधै लोकास्त्रिणवः (स्तोमः)। तां०६।२।३ ॥१९ ।१०। .
६॥ , इमे वे लोका उखा । श०६।५।२।१७॥६७।१ । २२ ॥
७।५।१।२७॥ ., इमे बैलोका उपसदः । श० १०।२/15 , इमे वै (यो ) लोका भूतेछ । मो० उ० ६.१४॥
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[लोमेष्टकाः ( ४६४ ) लोकाः इमऽ उ लोकाः प्रतिष्ठा चरित्रम् (यजु० १४ । १२ ॥ १५ ॥
६४॥)। श० ८।३।१।१०॥८।७।३।१६ ॥ ,, इमे वै लोकाः सरिरम् (यजु० १३ । ४९ ॥ १५ । ५२ ॥)।
२०७।५।२।३४॥८।६।३।२१ ॥ " तदाहुः किं तत्सहस्रम् (क्र. ६ । ६९ । ८) इतीमे लोका
इमे वेदा अथो वागिति श्रूयात् । ऐ० ६ । १५ ॥ , इमे वै लोकाः सर्पास्ते हानेन सर्वेण सर्पन्ति यदि किं च ।
श०७।४।१।१५ ॥ , इमे लोकाः सुरुवः (यजु०१३ । ३)। श०७।४।१।१४ ॥ " इमे वे लोकाः स्रुचः ।तै०३।३।१।२॥३।३।९।२॥ , इमे वै लोकाः स्वयमातृण्णाः । श०७।४।२ ॥ , इमे वै लोकाः सरसामानः। ऐ०४।१६ ॥ ,, इमे वै लोकाः सतश्च योनिरसतश्च ( यजु० १३ । ३) यव
हस्ति यश्च न तदेभ्य एव लोकेभ्यो जायते । श०७।४।१। १४॥ . इमे वै लोका विष्णोर्विक्रमणं विष्णोर्विक्रान्तं विष्णोः क्रान्तम्।
श० ५।४।२।६॥ , स (विष्णुः) इमॉल्लोकान्विचक्रमे ऽथो वेदानथो वाचम् । । ऐ०६ । १५ ॥ , इमऽ उ लोकाः संवत्सरः । श०८।२।१ । १७ ॥ , एतऽ उवाच लोका यदहोरात्राण्यर्धमासा मासा ऋतषः संव.
त्सरः । श० १० । २।६।७॥ , ते हेमे लोका मित्रगुप्ताः । श०६।५।४।१४॥ , सह प्रजापतिरीक्षांचके। कथं विमे (प्रयो) लोका भुवाःप्रति.
पिता स्युरिति स एभिश्चैव पर्वतर्नवाभिधेमाम् (पृथिवीम्) अहहयोभिश्च मरीचिभिश्चान्तरिक्ष, जीमूतैश्च नक्षत्रैश्च दिवम् । श० ११ । ८।१।२॥ , यावन्त इमे लोका जास्सावन्तस्तीर्य (तिर्यश्चः) ।
तां०१८।६।। कोगेटका दिशी लोगेष्टका ७१३।१।१३॥ २७ ॥
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( ४६५ )
वज्रः ]
कोम (साम ) भरद्वाजस्य लोम ( साम ) भवति । तां० १३ ।
११ । ११ ॥
तदु (लोमसाम ) दीर्घमित्याहुः | तां० १३ । ११ । १२ ॥ पशवो वै लोम साम ) | तां० १३ । ११ । ११ ॥ कोमानि लोमानि हृदये ( श्रितानि ) । तै० ३ । १० । ८ । ८ ॥ छन्दासं वै लोमानि । श० ६ । ४ । १ । ६ ॥ ६।७।१ । ६ ॥ ९ । ३ । ४ । १० ॥
ओषधिवनस्पतयो मे लोमसु श्रिताः । तै० ३ । १० । ८ । ७ ॥ लोमैव हिङ्कारः । जै० उ० १ । ३६ । ६ ॥
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कोहम् रजतेन लोहम् ( सन्दध्यात् ) । गो० पू० १ । १४ ॥ लोहेन सीसम् (सन्दध्यात् ) । गो० पू० । १ । १४ ॥
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"
दिशो वै लोहमय्यः ( सूच्यः ) । श० १३ । १ । १० । ३ ॥ कोहायसम् त्रपुणा लोहायसम् ( संदध्यात् ) । जै० उ० ३ । १७ । ३ ॥ लोहिततूलानि ( अर्जुनानि ) ( इन्द्रो वृत्रमहंस्तस्य ) यो वपाया उत्लिन्नायाः ( सोमः समधावत् ) तानि लोहिततूलानि । तां० ९।५।७ ॥
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39
( व )
वक्रयः (=वकाणि पार्श्वस्थीनि ) षड्विंशतिरस्य (पशोः ) वङ्क्रयः । तै० ३ | ६ | ६ | ३॥
पर्शष उ ह वै वक्रयः । कौ० १० १० ॥ ४ ॥
39
बज्रः वज्रो वाऽ अनिः । श० ३ । ५ । ४ । २ || ६ | ३ | १ | ३९ ॥
वज्रो वै परशुः । श० ३ । ६ । ४ । १० ॥
वज्रः शासः । श० ३ । ५ । १ । ५ ॥
त्रिवृद्वै वज्रः । कौ० ३।२॥
33
( देवाः ) एतं त्रिः समृद्धं वज्रमपश्यन्नाप इति तत्प्रथमं वज्ररूपं सरस्वतीति तद् द्वितीयं वज्ररूपं पञ्चदशर्च भवति तत्तृतीयं वज्ररूपमेतेन वै देवाखिः समृद्धेन वज्रेणैभ्यो लोकेभ्यो ऽसुराननुदन्त । कौ० १२ । २ ॥
वज्रो वा आपः । श० १ । १ । १ । १७ ॥ १ । ७ । १ । २० ॥ ३ । १।२ । ६ ॥ ७ । ३ । २ । ४१ ॥ तै० ३ । २ । ४ ।
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[बजा
( ४६६ ) वनः पञ्चदशः (स्तोमः) वै वजः। श० १।३।५।७॥३।६।४।
२५॥ कौ०७।२॥ १५ ॥ ४॥ष०३।४॥ तै०२।२।७।२॥
तां०२।४।२॥ , पञो वै भान्तो ( यजु० १४ । २३) वजः पञ्चदशः ( यजु० १४ ।
२३)। श०८।४।१।१०॥ ,, इन्द्रो ह यत्र वृत्राय वजं प्रजहार । स प्रहतश्चतुर्धा ऽभवत्तस्य
स्फयस्तृतीयं वा यावा यूपस्तृतीयं वा यावद्वा रथस्तृतीय वा यावद्वाथ यत्र प्राहरत्तच्छकलो ऽशीर्यत स पतित्वा शरो ऽभवत्तस्माच्छरो नाम यदशीर्यतैवमु स चतुर्धा वनोऽभवत् ।
श०१।२।४।१॥ ,, वनो वै स्फयः । तै०१।७।१०।५॥३।२।९ । १० ॥३॥
२।१०।१॥ श०१।२।५।२०।३।३।१।५॥५।४।
४। १५ ॥ " वजो वै शरः । श० ३।१।३।१३॥ ३।२।१ । १३ ॥ , वज्रो यूपः । श० ३।६।४।१९॥ , वज्रो वा एष यद्यपः । कौ०१०।१॥ ऐ०२।१, ३॥ष०४॥४॥ , वज्रो वै यूपशकलः । श०३।८।१।५॥ , वज़ो वै रथः । तै०१।३।६।१॥३। १३ । ५।६॥ श०५ ।
१।४।३॥ , वज्रो वै विकङ्कतः। श०५।२।४।१८॥ ,, वज्रो वै पशवः । श०६।४।४।६ ॥ ८॥२ ३ । १४ ॥ ,, वजो वाऽ अश्वः । ।०४।३।४।२७ ॥ ६ । ३।३।१२॥ , वज्रो वै चक्रम् । तै०१।४।४।१०॥ ,, वज्रो वै ग्रावा । श० ११ । ५।९।७॥ . वज्रो वाऽ आज्यम् । श० १।४।४।४॥ , वज्रस्तेन यदपोनप्त्रीया वनस्तेन यत्रिष्टुम्वनस्तेन यद्वाक् ।
ऐ०२।१६ ॥ ,, वजो वै त्रिष्टुप् । श०७।४।२।२४॥ " बज एव वाक् । ऐ० २॥ २१ ॥ ,, वाग्धि वजः । ऐ०४।२॥
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( ४६७ )
वडवा] पनः वज़ो वै वषट्रारः। ऐ० ३।८ ॥ कौ० ३।५॥ श०१ । ३।३ ।
१४ ॥ गो० उ०३।१, ५॥ , वनो वा एष यद्वषट्रारः। ऐ० ३ । ६ ॥ ,, वो वै हिङ्कारः। कौ० ३ । २ ॥ ११ ॥ १ ॥ , हिङ्कारेण घणाऽस्माल्लोकादसुराननुदत। जै० उ०२।८।३॥ , बज्रो वै महानाम्न्यः (ऋचः) । ष०३ । ११ ॥ , वज्रो वै सामिधेन्यः । कौ. ३।२,३॥७॥ २॥ , वजो वै वैश्वानरीयम् (सूक्तम् ) । ऐ०३।१४ ॥ ,, घजो वै यौधाजयम् (साम)। तां०७।५ । १२ ॥ ,, शाकरो वज्रः । तै० २।१ । ५। ११ ॥ , वज्रा वाऽ उपसदः । श०१०।२।५।२॥ , वज्रो वै त्रिणवः ( स्तोमः) । तां० ३।१ । २॥ ,, आनुष्टुभो वा एष वज्रो यत्षोडशी (शस्त्रम्) . कौ० १७॥१॥ ,, वज्रो वा एष यत्षोडशी । ऐ०४।१॥ ,, वज्रः षोडशी । ष०३।११ ॥ ,, वज्रो वै षोडशी। गो० उ०२।१३॥ तां० १२ । १३ । १४॥
१९ । ६।३॥ , संवत्सरो वज्रः। श०३।६।४।१९॥ ,, संवत्सरो हि वजः। श०३।४।४।१५॥ , वीर्य वज्रः । श०१।३।५।७॥ ,, वीर्य वै वज्रः। श०७।३।१ । १९॥ ,, वो वाऽ ओजः । श० ८।४।१।२०॥ , अष्टाधि वजः ऐ०२।१॥ , पुरो गुरुरिष हि वजः। तां० ८।५।२॥ , एवमेव वै वजः साधुर्यदारम्भणतो ऽणीयान् प्रहरणतः स्थवी
यान् । प० ३।४॥ ., दक्षिणत उद्यामो हि वजः।।०८।५।१।१३॥ ,, वजेणैवैतद्रक्षासि नाष्ट्रा अपहन्ति । श०७।४।१।३४॥ परवा तसादु संवत्सरऽ एक स्त्री वा गौर्वा बख्वा वा विजारते।
श०११।१।६।२॥
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[वपनम् वस्सः वत्सा वै दैव्या अध्वर्यवः । श०१।८।१।२७ ॥ " मन एव वत्सः । श०११ । ३।१।१॥ , अयमेव वत्सो यो ऽयं (वायुः) पवते । श० १२ । ४।१।११॥ , अमिह वै ब्रह्मणो वत्सः । जै० उ०२।१३।१॥ , बत्सा उ वै यक्षपतिं वर्धन्ति यस्य येते भूयिष्ठा भवन्ति स हि
यज्ञपतिर्वर्धते । श०१।८।१।२८॥ बस्सतरी मारुत्यो वत्सतर्यः । तां० २१ । १४ । १२ ॥ बदति यद्वै वदति शसतीति वै तदाहुः । ।०१। ८ । २॥ १२॥ वधकाः ये वधकास्ते ऽन्तरिक्षस्य रूपम् । श०५।४।५।१४॥ वनस्पतयः वनस्पतयो वैदू । तै० १।३।९।१॥
, यदुनो देव ओषधयो वनस्पतयस्तेन । कौ० ६ ॥ ५॥ , भोज्यं वा एतवनस्पतीनां ( यदुदुम्बरः)। ऐ०७ ॥ ३३॥
८॥१६॥ अथो सर्वऽ पते वनस्पतयो यदुदुम्बरः । श०७ । । । १॥१५॥ तेजोहवाऽएतद्वनस्पतीनां यद्वाथाशकलस्तस्माचदा बाया. शकलमपतक्ष्णुवन्त्यथ शुष्यन्ति । श०३।७।१८॥ घनस्पतयो हि यक्षिया न हि मनुष्या यजेरन् यवनस्पतयो
न स्युः। श०३।२।२९॥ बनस्पतिः अग्नि वनस्पतिः। कौ० १०॥६॥
, प्राणो वनस्पतिः। कौ०१२॥ ७॥ , प्राणो वै वनस्पतिः । ऐ०२।४, १०॥
, स (वनस्पतिः) उवै पयोमाजनः । कौ० १०॥ ६ ॥ बन्दारु (पजु० १२ । ४२) वन्दारुष्टे तन्वं वन्देऽअग्न इति वन्दिता
ते ऽहं तन्वं वन्दे मऽ इत्येतत् । ।०६।८।२।६॥ अपमम् तेऽसुरा ऊर्ध्वं पृष्ठेभ्यो नाऽपश्यन् । ते केशानप्रेऽवपन्त । अथ
श्मश्रूणि । अथोपपक्षी। ततस्ते ऽवाश्व आयन् । पराभवन् । यस्यैवं वपन्ति । अवाडेति । अथो परैव भवति।०१।५।
६।१-२॥ " अर्थतन्मनुर्पाने मिथुनमपश्यत् । स श्मभूण्यप्रेऽवपत । अथो.
पपक्षौ । अथ केशान् । ततो वैस प्राजायत। प्रजया पशुभिः।
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वयांसि] वपनम् यस्यैवं वपन्ति । प्र प्रजया पशुभिर्मिथुनर्जायते । तै० १।
, अथ देवा ऊचे पृष्ठभ्यो ऽपश्यन् । त उपपक्षावप्रे ऽवपन्त ।
अथ श्मभूणि । अथ केशान् । ततस्ते ऽभवन् । सुवर्ग लोकमायन्। यस्यैवं षपन्ति । भवत्यात्मना। अथो सुवर्ग लोकमेति ।
०१।५।६।२॥ बपा शुक्ला वपा। ऐ०२११४॥ " आत्मा धपा । कौ० १० ।५॥ " यजमानदेवत्या वै वपा । तै०३।९।१०।१॥ , हुत्वा वपामेवाने ऽभिधारयति । श० ३। ८।२ । २४॥ ,, प्रातः पशुमालभन्ते तस्य वपया प्रचरन्ति । तां०५।१०।९॥ बपापणी कार्मर्यमय्यो वपाश्रपण्यौ भवतः ।श०३।८।२।१७॥ वपुः वपुर्हि पशवः । ऐ०५।६॥ बनयः इमा वै वनयो यदुपदीकाः । श०१४।१।१॥ ८॥ वयः (१०३ । २९ । ८) प्राणो वै वयः। ऐ० १ । २८॥ " "पृथु तिरश्वा वयसा बृहन्तम्" (यजु० ११ । २३) इति
पृथुर्वा एष (अग्निः) तिर्य वयसो बृहन्धूमेन (वय धूमः)। श०६।३।३। १९॥ (यजु० १२ । १०६) धूमो वाऽ अस्य ( अग्नेः) श्रवो वयः स निममुष्मिालोके श्रावयति । श०७।३।१ । २९ ॥ "दिव्य सुपर्ण वयसा बृहन्तम्" (यजु० १८॥ ५१) इति दिव्यो वाऽ एष (अग्निः) सुपर्णो वयसोबृहन्धूमेन (वयः धूमः)।
श०९।४।४।३॥ अपरछन्दः (यजु० १५।५) अन्नं वै वयश्छन्दः । श०८।५।२।६। वयस्कृष्छन्दः (यजु०१५।५) अग्निर्वे वयस्कृच्छन्दः । श०८।५।२।६॥ क्यासि अथ यवनु संक्षरितमासीत्तानि वयास्यभवन् ।श०६।१॥२२॥ , तायो पश्यतः राजेत्याह तस्य षयासि विशः ....."
पुराणं वेदः । श०१३ । ४।३।१३॥ , उरस एवास्य (इन्द्रस्य) हदयास्विषिरसवत्स श्येनो ऽपाठि.
हाभवश्यसा राजा । श० १२ । ७।१।६॥
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[ वराहः
( ४७० )
जयसि एतद्वै वयसामाजिष्ठं बलिष्ठं यच्छयेनः । श० ३ | ३ | ४ | १५ ॥
स ( श्येनः ) हि वयसामाशिष्ठः । तां० १३ । १० । १४ ॥
श्येनो वै वयसां क्षेपिष्ठः । ष० ३ | ८ ॥
पशवो वै वयांसि । श० ९ । ३ । ३ । ७ ॥
निर्ऋतेर्वा एतन्मुखं यद्वयांसि यच्छकुनयः । ऐ० २ । १५ ॥ निर्णामौ हि वयसः पक्षयोर्भवतो वितृतीये वितृतीये हि वयसः पक्षयोर्निर्णामौ भवतो ऽन्तरे वितृतीये ऽन्तरे हि वितृतीये वयसः पक्षयोर्निर्णामौ भवतः । श० १० | २| १ | ५ ॥ देवाननु वयां स्योषधयो वनस्पतयः । श० १ । ५ । २ । ४ ॥ वयुनाविद् (यजु० ११ | ४ ) वयुनाविदित्येष (प्रजापतिः) हीदं वयुनमविदन्त् । श० ६ । ३ । १ । १६ ॥
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वरः सर्वं वै वरः । श० २ । २ । १ | ४ || ५ | २ | ३ | १ || १३ | ४ । १ । १०॥ आत्मा हि वरः । तै० ३ । १२ । ५ । ७ ॥
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वरणः (वृक्षविशेषः) वारणं (शकुं ) पश्चादधं मे वारयाताऽ इति । श० १३ | ८ | ४ । १ ॥
तस्माद्वरणो भिषज्य एतेन हि देवा आत्मानमत्रायन्त तस्मात् (वरणवृक्षस्याग्न्युपशमनहेतुत्वात् ) ब्राह्मणो वारणेन ( वरणविकारेण पात्रेण ) न पिबेद् वैश्वानरभेच्छमया इति । तां० ५ ।
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३ । १०-११ ॥
वरसद् एष (सूर्यः) वै वरसद् वरं वा एतत्सन्ननां यस्मिन्नेष आसन्नस्तपति । ऐ० ४ । २० ॥
बराहः अग्नौ ह वै देवा धृतकुम्भं प्रवेशयांचक्रुस्ततो वराहः सम्बभूव तस्माद्वराहो मेदुरो घृताद्धि सम्भूतस्तस्माद्वराहे गावः संजानते स्वमेवैतद्रसमभिसंजानते । श० ५ । ४ । ३ । १९ ॥ पशूनां वा एष मन्युः । यद्वराहः । तै० १ । ७ । ९ ॥ ४ ॥ वराहं क्रोधः (गच्छति ) । गो० पू० २ । २ ॥
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तां (प्रादेशमात्र पृथिवीं ) एमूष इति वराह उज्जघान सो Sस्याः (पृथिव्याः ) पतिः प्रजापतिः । श० १४ । १ । २ । ११ ॥ स (प्रजापतिः) वै वराहो रूपं कृत्वा उपन्यमज्जत् । तै० १ ।
१।३।६॥
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( ४७१ )
वरुणः ]
वरिषश्छन्दः ( यजु० १५ । ४ ) अन्तरिक्षं वै वरिवखन्दः । श० ८
५।२।३॥
वरिष्ठा संवत् (यजु० ११ । १२ ) इयं ( पृथिवी ) वै वरिष्ठा संक्त् । श० ६ । ३ ।२।२ ॥
वरुणः ( आपः ) यश्च कृत्वा ऽतिष्ठस्तद्वरणो ऽभवत्तं वा एतं वरणं सन्तं वरुण इत्याचक्षते परोक्षेण । परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति प्रत्यक्षद्विपः । गो० पू० १ । ७ ॥
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वरुणो वै जुम्बकः ( यजु० २५ । ९ ) । श० १३ । ३ । ६ । ५ ॥ तै० ३ । ९ । १५ । ३॥
रात्रिर्वरुणः । ऐ० ४ । १० ॥ तां० २५ १० | १० ॥ वारुणी रात्रिः । तै० १ ७ । १० । १ ॥
।
यः प्राणः स वरुणः । गो० उ० ४ । ११ ॥
यो वै वरुणः सो ऽग्निः । श० ५ । २ । ४ । १३ ॥
यो वा अग्निः स वरुणस्तदप्येतदृषिणोकं त्वमग्ने वरुणो
जायसे यदिति । ऐ० ६ । २६ ॥
अथ यत्रैतत्प्रदीप्ततरो भवति । तर्हि हैष ( अग्निः ) भवति वरुणः । श० २ । ३ । २ । १० ॥
स यदग्निर्घोरसंस्पर्शस्तदस्य वारुणं रूपम् । ऐ० ३ | ४ ॥ वरुण्यो वा एष यो ऽग्निना तो ऽथैष मैत्रो य ऊष्मणा श्वतः । श० ५ । ३ । २ । ८ ॥
यः (अर्द्धमासः ) अपक्षीयते स वरुणः। तां० २५ | १० | १०॥ यः (अर्धमासः) एवापूर्यते स वरुणः । श० २ । ४ । ४ । १८ ॥ क्लोमा वरुणः । श० १२ । ९ । १ । १५ ।
श्रीवै वरुणः । कौ० १८ । ९ ॥
वरुणः ( श्रियः ) साम्राज्यम् (आदत्त) । श० ११ । ४ । ३ । ३॥ द्यावापृथिवी वै मित्रावरुणयोः प्रियं धाम । तां० १४ । २ । ४ ॥ अयं वै (पृथिवी ) लोको मित्रो ऽसौ (चुलोकः ) वरुणः ।
श० १२ । ९ । २ । १२ ॥
स्पानो वरुणः । श० १२ । ९ । १ । १६ ॥
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[वरुणः
( ४७२ ) वरुणः (यजु० १४ । २४) अपानो वरुणः । श० ८।४।२।६॥
१२।९।२।१२॥ , योनिरेव वरुणः । श०१२।९।१।१७॥ , वरुणो दक्षः। श०४।१।४।१॥
वरुण एव सविता । जै० उ०४। २७ ॥३॥
स वा एषो (सूर्यः)ऽपः प्रविश्य वरुणो भवति । कौ०१८।। _वरुण आदित्यैः (उदक्रामत्)। ऐ०१॥ २४॥
वरुण आदित्यैः (व्यद्रवत्)। श० ३।४।२।१॥ संवत्सरो वरुणः । श० ४।४।५।१८॥ संवत्सरो हि वरुणः। श० ४।१।४।१०॥ क्षत्रं वरुणः । कौ०७।१०॥ १२ ॥ ८॥ श०४।१।४।१॥ गो० उ०६।७॥ क्षत्रं वै वरुणः । श०२।५।२।६, ३४ ॥ क्षत्रस्य राजा वरुणोऽधिराजः । नक्षत्राणां शतभिषग्वसिष्टः। तै०३।१।२।७॥ इन्द्रस्य (= "वरुणस्य"इति सायणः) शतभिषछ (नक्षत्रम्)। तै०१।५।१।५॥
इन्द्र उवै वरुणः स उ वै पयोभाजनः । कौ० ५।४॥ ,, इन्द्रो वै वरुणः स उ वै पयोभाजनः । गो० उ० १॥ २२ ॥ , तद्यदेवात्र पयस्तन्मित्रस्य सोम एव वरुणस्य । श० ४।
१।४।१॥ वारुणं यवमयं चरुं निर्वपति । ते०१।७।२।६॥
वारुणो यवमयश्वरुः । श०५।२।४। ११ ॥ , वरुण्यो ह वाऽ अग्रे यवः । श०२।५।२।१॥
वरुण्यो यवः । ।०४।३।१।११ ॥ निवरुणत्वाय (= "वरुणकृतवाधपरिहाराय" इति सायणः) एव यवाः। त०१८।९।१७॥ (उपसहेवतारूपाया इषोः) वरुणः पर्णानि । ऐ०१।२५ ॥ यत्पश्चाद्वासि वरुणो राजा भूतो वासि (प्रतीची दिग् वरुणो
ऽधिपतिः -अथर्ववेदे ३ । २७ । ३)। जै० उ०३ । २१ ॥२॥ ॥ एषा ( उत्तरा) वै वरुणस्य दिछ । ते ३।८।२०। ४॥
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( ४७३ )
घरुणः] पणः य? यज्ञस्य दुरिष्टं तद्वरुणो गृह्णाति । तां० १३ । २ । ४॥
१५ । १।३॥ यस्य (ईजानस्य ) दुरिष्टं भवनि वरुणो ऽस्य तद् गृहाति ।
०४।५।१।६॥ वरुणेन ( यज्ञस्य ) दुरिष्टं (शमयति)। तै०१।२।५।३॥ वरुणः ( यज्ञस्य) स्विष्टम् (पाति)।ऐ०३। ३८ ॥ ७॥५॥ सत्यानृते वरुणः। तै०१।७।१०।४॥ अनृते खलु वै क्रियमाणे वरुणो गृहाति । तै०१।७।२।६॥ वरुणो वा एतं गृह्णाति यः पाप्मना गृहीतो भवति । श० १२। ७ । २ । १७॥ वरुण्यं वाऽ एतत्त्री करोति यदन्यस्य सत्यन्येन चरति । श० २।५।२ । २०॥ (अनडही वहला) यत्नी सती वहस्यधर्मेण, तदस्यै वारुण रूपम् । २०५।२।४।१३ ॥ वरुण ! धर्मणां पते । ते० ३।११।४।१॥ वरुण (एवैनं) धर्मपतीनां (सुवते)। तै०१।७।४।२॥
वरुणो वाऽ आर्पयिता । श०५।३।४।३१॥ , सवो वै देवानां वरुणः । श०५।३।१।५॥
वरुणो ऽनपतिः । श० १२ । ७।२।२०॥ वरुणः सम्रा सन्नाट्पतिः । तै० २।५।७।३॥ श० ११ । ४।३।१०॥ वरुणो वै देवाना राजा । श० १२।८।३।१०॥ विरार वरुणस्य पत्ती । गो० उ०२।९॥ अथ यदप्सु वरुणं यजति स्व एवैनं तदायतने प्रीणाति । कौ०
।४॥ अपसु वै वरुणः। ते०१।६। ५। ६ ॥ तस्य (प्रजापतेः ) यद् रेतसः प्रथममुददीप्यत तदसावादित्यो ऽभवद्यद् द्वितीयमासीत्तद् भृगुरभवत्तं वरुणो न्यगृहीत
तस्मात्स भृगुबारुणिः । ऐ०३। ३४॥ , वरुणस्य वै सुषुवाणस्य भगों ऽपाक्रामस्स धापतद् भृगुस्त.
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[वरुणः
( ४७४ ) तीयमभवच्छ्रायन्तीयं तृतीयमपस्तृतीयं प्राविशत् । तां०
१८.९.१॥ घरुणः यो ह वाऽ अयमपामावतः स हावभृथः स हैष वरुणस्य पुत्रो
वा भ्राता वा । श०१२।६।२।४॥
वरुण्यो वाऽ अवभृथः। श०४।४।५।१०॥ , एता वाऽ अपां वरुणगृहीता याः स्यन्दमानानां न स्यन्दन्ते।
श०४।४।५।१०॥ वरुण्या वाऽ एता आपो भवन्ति याः स्यन्दमानानां न स्यन्दन्ते । श०५।३।४।१२॥ वरुणस्य वा अभिषिच्यमानस्याप इन्द्रियं वीर्य निरनन् । त.
सुवर्ण हिरण्यमभवत् । तै० १। ८ । । । १ ॥ , वरुण्यो वै ग्रन्थिः । श०१।३।१।१६॥
वरुण्यो हि ग्रन्थिः । श०५।२।५।१७॥ वरुण्या वाऽ एषा यद्रज्जुः । श०३।२।४।१८॥३॥ ७॥४॥१ वरुण्या वै यज्ञे रज्जुः। श०६।४।३।८॥ वरुण्या (='वरुणपाशात्मिका' इति सायणः) रज्जुः । श०१।३।१ । १४॥ वारुणो वै पाशः । तै० ३ । ३ । १० । १॥श०६।७।३।८॥ अथेयमेव वारुण्यागा ऽगीता । जै० उ०१ । ५२ ॥ ९ ॥ वारुण एककपालः पुरोडाशो भवति । श०४।४।५।१५॥ ( श्रीः) वारुणं दशकपालं पुरोडाशं (अपश्यत्)। श० ११ । ४।३।१॥ वारुणो दशकपालः ( पुगेडाशः)। तां० २१ । १० । २३॥ स ( इन्द्रः) एतं वरुणाय शतभिषजे भेषजेभ्यः पुरोडाशं दशकपालं निरवपत् कृष्णानां वीहीणाम् । तै०३।१।५।९॥ तद्धि वारुणं यत्कृष्णं (वासः)। श०५।२।५।१७॥ वरुणस्य सायम् कालः) आसवो ऽपानः । तै०१।५।३।१॥ खलतेर्षिक्लिधस्य शुक्लस्य पिङ्गाक्षस्य मूर्खन जुहोति एतबै वरुणस्य रूपम् । तै० ३ । ९ । १५ । ३॥
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( ४७५ ) वरुणप्रधासाः] बरुणः शुक्लस्य खलतेर्विक्लिधस्य पिङ्गाक्षस्य मूर्धनि जुहोत्येतद्वै
वरुणस्य रूपम् । श० १३ । ३।६ । ५॥ वारुणो वा अश्वः । तै० २।२।५। ३॥ ३।८।२०।३॥
वरुणो ह वै सोमस्य राझो ऽभीवाक्षि प्रतिपिपेष तदश्वयत्ततो ऽश्वः समभवत् । श०४।२।१।११॥ (प्रजापतिः) वारुणमश्वं (आलिप्सत)। श०६।२।१।५॥ स हि वारुणो यदश्वः । श० ५। ३ । १।५॥
एष वै प्रत्यक्षं वरुणस्य पशुर्यन्मेषः । श० २।५।२।१६ ॥ , वारुणी च हि त्वाष्ट्री चाविः । श० ७ । ५।२।२० ॥ , यशो वै वैष्णुवारुणः। कौ०१६ । ८॥ ,, . वरुणसवो वाऽ एष यद्राजसूयम् । श० ५। ३।४।१२॥ , यो राजसूयः । स वरुणसवः । तै० २।७।६।१॥
मैत्रो वै दक्षिणः । वारुणः सव्यः । तै० १ । ७ । १० १॥ घरुण्या वाऽ एता ओषधयो याः कृष्टे जायन्ते ऽथैते मैत्रायन्ना
म्याः । श०५।३।३।८॥ " वरुण्या वाऽ एषा (शाखा) या परशुवृक्णाथैषा मैत्री (शाखा)
या खयम्प्रशर्णाि । श० ५। ३।२।५॥ वरुण्यं वाऽ एतद्यन्मथितं (आज्यं) अर्थतन्त्रं यत्स्वयमुदितम् । श० ५।३।। ६॥
एतद्वाऽ अवरुण्यं यन्मैत्रम् । श० ३ । २।४ । १८॥ , स (वरुणः) अब्रवीद्यहो न कश्चनाऽवृत तदहम्परिहरिष्य
इति । किमिति । अपध्वान्तं साम्रो वृणे ऽपशव्यमिति ।
जै० उ०१। ५२ ॥ ८॥ बरुणप्रषासाः तद्यन्येव (प्रजापतिना सृष्टाः प्रजाः) वरुणस्य यवान्
प्रादस्तस्मादरुणप्रघाला नाम । श० २।।२।१॥ यदादित्यो वरुणराजानं वरुणप्रघासरयजत। तबरुण प्रघासानां वरुणप्रघासत्वम् । तै० १।४।१०।६॥ वरुणघाल प्रजापतिः । प्रजा वरुणपाशात्प्रामुचता अस्यानमीवा अकिल्विषाः प्रजा: प्राजायन्त [ श०२। ५।३।१॥
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[वर्षाः
( ४७६ ) वरुणप्रघासाः अयमेव दक्षिण उरुवरुणप्रघासाः। श० ११ । ५।२।
, यवरुणप्रघासैर्यजते वरुण एव तर्हि भवति वरुणस्यैव
सायुज्य सलोकतां जयति । श०२।६।४।८॥ वरुणसाम एतेन वै वरुणो राज्यमाधिपत्यमगच्छद्राज्यमाधिपत्यं
गच्छति वरुणसाना तुष्टुवानः । तां० १३ । ९ । २३ ॥ वस्त्रयः अहोरात्राणि वै वरूत्रयोऽहोरात्रैहीद सर्व वृतम् । श०६।
५।४।६॥ वरेण्यम् अग्निर्वै वरेण्यम् । जै० उ०४ । २८ ॥ १॥
, आपो वै वरेण्यम् । जै० उ० ४ । २८ । १॥
, चन्द्रमा वै वरेण्यम् । जै० उ० ४ । २८ । १॥ वर्षः सूर्यस्य वच॑सा । तां०१।३।५॥१। ७।३॥ , सूर्यस्य वर्चसा (त्वाभिषिश्वामीति )। श० ५।४।२।२॥ , ततो ऽस्मिन् ( अग्नौ) एतद्वर्व आस । श०४।५।४।३॥ , वर्को वाऽ एतद्यद्धिरण्यम् । श०३।२।४।९॥ ,, वर्गों वै हिरण्यम् । तै० १ । ८।९।१॥ ,, यद्वै वर्चस्वी कर्म चिकीर्षति शक्नोति वै तत्कर्तुम् । श०५ ।
२।५ । १२॥ वों द्वाविंशः ( यजु. १४ । २३) संवत्सरो वाव वर्गों द्वाविछशस्तस्य द्वादशमासाः सप्तऽर्तवो द्वेऽअहोरात्रे संवत्सर एव वों द्वावि-शस्तद्यत्तमाह वर्च इति संवत्सरो हि सर्वेषां
भूतानां वर्चस्वितमः । श०८।४।१।१६ ॥ वर्णाः चत्वारो वै वर्णाः । ब्राह्मणो राजन्यो वैश्यः शूद्रः । श० ५।।
४.९॥ वर्षाः (ऋतुः) यद्वर्षति तद्वर्षाणाम् (रूपम्)। श० २।२।३॥ ८॥ , तस्य ( आदित्यस्य) रथप्रोतश्चासमरथश्च (यजु० १५।१७)
सेनानीग्रामण्याविति वार्षिको तावृतू । श०८।६।११८॥ , यदा वै वर्षाः पिन्वन्ते ऽथैनाः सर्वे देवा सर्वाणि भूतान्युप.
जीवन्ति । श० १४।३।३।२२ ॥ , मल्लो वै वर्षस्येशते । श०९।१।२१॥
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। ४७७ )
au] वर्षा: षभिः पार्जन्यैर्वा मारुतैर्वा (पशुभिः) वर्षासु (यजते)।
श०१३ । ५। ४ । २८ ।। , वर्ष सावित्री । गो० पू० १ १ ३३॥ , वर्षा वै सर्व ऋतवः । श०२।२।३।७॥ , वर्षा ह त्वेव सर्वेषामृतूना रूपम् । श० २ । २। ३ । ७॥ , वर्षाः पुच्छम् (संवत्सरस्य)। तै०३ । ११ । १० । ४॥ , वर्षा उत्तरः (पक्षः संवत्सरस्य)। तै०३ । ११ । १०।३॥ , वर्षा एव यशः । गो० पू०५।१५॥ ,, वर्षा उदाता तस्माद्यदा बलवद्वर्षति साम्न इवोपब्दिः क्रियते ।
श०११ । २।७। ३२॥ ,, (प्रजापतिः) वर्षामुद्गीथम् ( अकरोत्) । जै० उ०१ । १२ । ७ , वर्षा उद्गीथः । ष०३ । १॥ , वर्षाशरदौ सारस्वताभ्याम् (अवरुन्धे)। श० १२ । ८।२।३४॥ , वर्षाभिर्ऋतुनादित्याः स्तोमे सप्तदशे स्तुतं वैरूपेण विशौजसा ।
तै०२।६। १६ । १-२॥ , वर्षा ह्यस्य (वैश्यस्य ) ऋतुः । तां०६ । १ । १०॥ ,, तस्माद्वैश्यो वर्षास्वादधीत । विड्ढि वर्षाः । (वृष्टिशब्दमपि
पश्यत)। श०२।१।३ । ५ ॥ ,, श्रोत्र येतत् पृथिव्या यवल्मीकः। तै०१।१।३।४॥ . ऊर्ज वा एत रसं पृथिव्या उपदीका उद्विहन्ति यवल्मीकम् । मनीत०१।१।३।४॥
, प्राजापत्यो वै वल्मीकः । ते०३।७।२।१॥ वल्मीकवपा इयं (पृथिवी) वै वल्मीकवपा । श०६।३।३।५॥ पशा यशमस्रवत्सा वशा ऽभवत्तस्मात्सा हविरिव । ऐ० ३ । २६ ॥ ,, यदा न कश्चन रसः पशिष्यत तत एषा मैत्रावरुणी वशा
समभवत्तस्मादेषा न प्रजायते रसाद्धि रेतः सम्भवति रेतसः पशवस्तद्यदन्ततः समभवत्तस्मादन्तं यज्ञस्यानुवर्तते । श०
४।५।१।९॥ " सा हि मैत्रावरुणी यवशा। श०५।५।१।१९॥ , वशामनूबन्ध्यामालभते । श० २।४।४।१४॥
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[वषट्कारः
( ४७८ ) वशा वशामालभन्ते । तामालभ्य संज्ञपयन्ति संज्ञप्याह वपामुत्खि.
देत्युत्खिद्य वपामनुमर्श गर्भमष्टवै ब्रूयात्स यदि न विन्दन्ति किमाद्रियेरन् यधु विन्दति तत्र प्रायश्चित्तिः क्रियते ।
श०४।५।२।१॥ , इयं (पृथिवी) वै वशा पृश्निः । श० १ । ८।३।१५ ॥ ,, इयं (पृथिवी) वै वशा पृश्निदिदमस्यां मूलि चामूलं चान्नाचं
प्रतिष्ठितं तेनेयं वशा पृश्निः । ०५। १। ३ । ३ ॥ वशीकरणम् ( भूतवशीकरणात् ) पञ्च हास्य कार्षापणा भवन्ति
व्ययकृताश्च पुनरायन्ति मूलमशून्यं कुर्यात् । सा०वि०
(वशीकृताः) जम्भकाः भूतविशेषाः) हास्य सार्व.. कामिका भवन्ति । सा०वि०३।७:५॥ तेन (द्रव्येण) अनुलिम्पेदवांशं (लिङ्ग) च नि त्वा नक्ष्य विश्पत इत्येतेनास्य वेशस्थाः (=वेश्याः) प्रवजिता: (पतिकुलान्निर्गताः स्वैराचारिण्यः) च वश्या भवन्ति ।
सा० वि०२।६।४॥ वषट्कारः स वै पौगिति करोोते । वाग्वै वषट्कारो वातो रेत
एवैतसिञ्चति षडित्य॒तवो वै षट् तहतुष्वेवैतद्रेतः सिच्यते तहतवो रेतः सिक्तमिमाः प्रजाः प्रजनयन्ति तस्मादेषं वषट्करोति । श० १ । ७ । २ । २१ ॥ वाक् च वै प्राणापानौ च वषट्कारः । ऐ० ३॥ ८॥ वाक् च ह वै प्राणापानौ च वषट्कारः। गो० उ०३।६॥ तस्यै (वाचे) द्वौ स्तनौ देवा उपजीवन्ति स्वाहाकारं च वषट्कारं च । श० १४। ८।९।१॥ प्राणो वै वषट्कारः। श०४।२।१ । २९ ॥ एष एव वषट्कारो य एष (सूर्यः) तपति । श०१।७। २॥ ११ ॥ एष वं वषट्कारो य एष (सूर्यः) तपति । श० ११ । २ । २।५॥
यः सूर्यः स धाता स उ एव वषट्कारः । ऐ० ३।४८॥ , यो धाता स वषट्कारा । ऐ० ३ । ४७ ॥
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( ४७२ )
वषट्कारः निमेषो वषट्कारः । तै० २ । १ । ५.९ ॥
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वसन्तः ]
श्रयो वै वषट्कारा वज्रो धामच्छद्रितः । ऐ० ३ । ७ ॥ श्रयो वै वषट्कारा वज्रो धामच्छद्रितः । स यदेवोश्चैर्बलं वषट्करोति स वज्रः... अथ यः समः संततो निर्माणच्छत्स्व धामच्छत् .. अथ येनैव षट् पराप्नोति स रिक्तः । गो० उ०३ । ३ ॥
वज्रो वै वषट्कारः । ऐ० ३ । ८ ॥ कौ० ३ । ५ ॥ श० १ । ३ । ३ । १४ ।। गो० उ० ३ । १,५ ॥
वज्रो वा एष यद्वषट्कारो यं द्विष्यात्तं ध्यायेद्वषट्करिष्यंस्तस्मिन्नेव तं वज्रमास्थापयति । ऐ० ३ ॥ ६ ॥
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.........
देवेषुर्वा एषा यद्वषट्कारः । तां० ८ । १ । २ ॥ देवपात्रं वाऽ एष यद्वषट्कारः । श० १ । ७ । २ । १३ ॥ देवपात्रं वा एतद्यद्वषट्कारः । ऐ० ३ । ५ ॥ देवपात्रं वै वषट्कारः । गो० उ०
॥ १ ॥
ऐ० ३ | ८ ॥
तस्य वाऽ एतस्य ब्रह्मयज्ञस्य चत्वारो वषट्कारा यद्वातो वाति यद्विद्योतते यत्स्तनयति यदवस्फूर्जति तस्मादेवंविद्वाते वाति विद्योतमाने स्तनयत्यवस्फूर्जत्यधीयीतैव वषट्काराणामच्छम्केदकाराय । श० ११ | ५ | ६।९ ॥ वषट्कारो हैष परोऽक्षं यद्वेटकारः । श०९ | ३ | ३ | १४ ॥ वसतीवर्यः (आपः ) तदासु विश्वान्देवान्संवेशयत्येते वै वसतां वरं तस्माद्वसतीवर्षो नाम । श० ३ । ९ । २ । १६ ॥
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एते एव वषट्कारस्य प्रियतमे तनू यदोजश्च सहश्च । कौ० ३ । ५ ॥
ओजश्च ह वै सहश्च
वषट्कारस्य प्रियतमे तम्वौ ।
वसन्तः (ऋतुः ) एतौ (मधुश्च नाधवश्च ) एव वासन्तिको ( मासौ ) स यद्वसन्तऽ ओषधयो जायन्ते वनस्पतयः पच्यन्ते तेनो हैतौ मधुश्च माधवश्च । श०४ ३ । १ । १४ ॥
तस्य (अग्नेः ) रथगृत्सश्च रथौजाश्च (यजु० १५।१५) सेनानीग्रामण्याविति वासन्तिको तावृतू । श० ८ । ६ । १ । १६ ॥
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[वसवः
( ४८० ) वसन्तः यदेव पुरस्ताद्वाति तद्वसन्तस्य रूपम्। श०२१२॥ ३ ॥ ८॥ , तस्य (संवत्सरस्य) वसन्त एव द्वार हेमन्तो द्वारं तं
वाऽएत संवत्सर स्वर्ग लोकं प्रपद्यते । श०१।६।१।१९॥ मुखं वा एतहतूनां यद्वसन्तः । तै०१।१।२।६-७॥ तस्य (संवत्सरस्य) वसन्तः शिरः । तै०३ । ११ ।१०।२॥ ऊर्वै वसन्तः। ऐ०४।२६॥ वसन्त आग्नीध्रस्तस्माद्वसन्ते दावाश्चरान्त तयग्निरूपम् । श० ११ । २।७ । ३२ ॥ वसन्तः समिद्धो ऽन्यानृतून्सामन्धे । श० १।३।४।७॥ वसन्तो वै समित् । शं० १ । ५। ३।९॥ समिधो यजति वसन्तमेव वसन्ते वा इदं सर्व समिध्यते । कौ०३४॥ वसन्तो हिङ्कारः । ष० ३।१॥ स (प्रजापतिः) वसन्तमेव हिकारमकरोत् । जै० उ० १। १२ ॥७॥ षभिराग्नेयः (पशुभिः) वसन्ते (यजते )। श० १३ । ५। ४।२८ ॥ वसन्तेन ना देवा वसस्त्रिवृतास्तुतम्।रथन्तरेण तेजसा । हविरिन्द्रे वयो दधुः। तै० २।६ । १९ । १॥
वसन्त एव भर्गः । गो० पू० ५ । १५ ॥ , वसन्तोवै ब्राह्मणस्यतुः। तै०१।१।२॥६॥श०१३।४।१।३॥ , तस्माब्राह्मणो वसन्तऽ आदधीत ब्रह्म हि वसन्तः । श० २।
वसवः कतमे वसव इति । अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादि
त्यिश्च द्योश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चैते वसव एते हीद सर्व वासयन्ते ते यदिदसर्व वासयन्ते तस्माद्वसव इति ।।०११। ६।३।६॥ प्राणा वै वसवः । प्राणा हीदं सर्व वस्वाददते । जै० उ०४ ।
२॥३॥ , प्राणा वै वसवः । तै०३२।३।३॥३।२।५।२॥
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( ४८१ )
वसिष्ठः बसवः गायत्री वसूनां पत्नी । गो० उ० २ ! ९ ॥ " वसवस्त्वा गायत्रेण छन्दसा संमृजन्तु । तां० १ । २।७॥ , घसवो गायत्री समभरन् । जै० उ० १ । १८ । ४॥ ,, वसवस्त्वा पुरस्तादभिषिञ्चन्तु गायत्रेण छन्दसा । तै० २।
७। १५ । ५॥ अथैनं (इन्द्र) प्राच्यां दिशि वसवो देवाः......अभ्यषिञ्चन्... साम्राज्याय । ऐ०८।१४॥ अग्निर्वसुभिरुदकामत् । ऐ० १ । २४ ॥ वसव एव भर्गः । गो० पू० ५ । १५ ॥ वसूनामेव प्रातःसवनम् । श० ४।३।५।१॥ वसूनां वै प्रातःसवनम् । कौ० १६ । १ ॥ ३० ॥ २ ॥ अथेमं विष्णुं यज्ञं त्रेधा व्यभजन्त । वसवः प्रातःसवन रुद्रा माध्यन्दिन सवनमादित्यास्तृतीयसवनम् । श० १४ । १।१।१५॥ तं ( आदित्यं) वसवो ऽष्टकपालेन ( पुरोडाशेन ) प्रातःसवने ऽभिषज्यन् । तै० १ । ५ । ११ । ३॥ वसन्तेन ना देवा वसवस्त्रिवृतास्तुतम् । रथन्तरेण तेजसा ।
हविरिन्द्रे वयो दधुः । तै० २।६। १९ । १॥ , वसूनां वा एतद्रूपम् । यत्तण्डुलाः । तै० ३।८।१४ । ३ ॥ ,, वसवो वै रुद्रा आदित्या सत्रावभागाः।तै० ३१३१९१७ ।। , वसूना श्रविष्ठाः (नक्षत्रम् ) । तै० १।५।१ । ५॥
अष्टौ देवा वसवः सोम्यासः । चतस्रो देवीरजराः श्रविष्ठाः । ते यशं पान्तु रजसः पुरस्तात् । संवत्सरीणममृत, स्वस्ति ।
तै०३।१।२।६॥ 'सा परमं वा एतदन्नाद्यं यद्वसा । श० १२ । ८ । ३ । १२॥ 'सिष्ठः ( यजु• १३ । ५४ ) यद्वै नु श्रेष्ठस्तेन वसिष्टोऽथो यद्वस्तृतमो
वसति तेनोऽएव वसिष्ठः । श० ८।१।१।६॥ ,, येन वै श्रेष्ठस्तेन वसिष्ठः (हिङ्कारः) गो० उ० ३।६॥ , ष (प्रजापतिः) वै वसिष्ठः (=सर्वश्रेष्ठ इति सायणः)।
श०२।४।४।२॥
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[वसोर्धारा ( ४८२ ) वसिष्ठः प्रजापतिर्वै वसिष्ठः । कौ० २५ । २ ।। २६ । १५ ॥ ,, (यजु० १३ । ५४) प्राणो वै वसिष्ठ ऋषिः । श०८।१।१।६॥ , सा ह वागुवाच । (हे प्राण) यद्वाऽ अहं वसिष्ठास्मि त्वं
तद्वसिष्ठो ऽसीति । श० १४।९।२।१४॥ (ऋ० २।६ | १) अग्नि देवानां वसिष्ठः। ऐ०१ । २८ ॥ वसिष्ठो वा एतं (इन्द्रक्रतुन्न आभरेति प्रगाथं) पुत्रहतो (नीलकंठीयटीकायुते महाभारते, आदिपर्वणि, अ० १७६) ऽपश्यत् ल प्रजया पशुभिः प्राजायत ।तां०४।७।३॥८२४॥ वसिष्ठस्य जनित्रे (सामनी ) भवतो वसिष्ठोवा एते पुत्रहतः
सामनी अपश्यत् स प्रजया पशुभिःप्राजायत।तां० १९।३।८॥ , ततो वै वसिष्ठपुरोहिताभरताः प्राजायन्त। तां० १५।५।२४॥ वसिष्ठयज्ञः “दाक्षायणयज्ञः" शब्दं पश्यत॥ वसिष्ठा वाग्वै वसिष्ठा । श०१४।९।२।२॥ वसु पशवो वसु । श०३।७। ३ । ११, १३॥ ,, पशवो वै वसु । तां० ७ । १० । १७ ॥ १३ । ११ । २॥ वसुः (यजु. १।२) यज्ञो वै वसुः। श०१।७।१।६, १४॥
" स एषो ( अग्निः) ऽत्र वसुः । श०९।३।२।१॥ ,, वसुरन्तरिक्षसत् (यजु० १२ । १४) । श०५१४।३ । २५॥ वसुरन्तरिक्षसत् (यजु० १२ । १४) वायुर्वै वसुरन्तरिक्षसत् । श० ६ ।
७ । ३ । ११ ॥ , एष (सूर्यः) वै वसुरन्तरिक्षसद् । ऐ० ४ । २० ॥ वसुधेयः इन्द्रो वसुधेयः। श० १।८।२ । १६ ॥ वसुवनिः अग्निर्वे वसुवनिः । श.१।८।२।१६॥ वसोर्धारा अत्रैव सर्वो ऽग्निः संस्कृतः स एषोत्र वसुस्तस्मै देवा एतां
धारां प्रागृहंस्तयैनमप्रीणस्तद्यदेतस्मै वसवः एतां धारां प्रागृहंस्तस्मादेनां वसोधरित्याचक्षते।श०९।३।२।१॥ तद्यदेषा वसुमयी धारा तस्मादनां वसोर्धारेत्याचक्षते। श०९। ३।२।४॥ अग्नाविष्णू इति वसोधारायाः (रूपम् )। तै० ३॥ १॥९॥९॥ तस्यै वाऽ एतस्यै वसोर्धारायै । धौरवात्मा । श० ९। ३।३।१५॥
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(४८३ )
वाक् बसोधीरा ( वसोर्धारायै ) अभ्रमूधः। श० ९ । ३ । ३ । १५ ॥
, (वसोधीरायै) विद्युत्स्तनः । श०९।३।३। १५॥ बहिः वहिर्वा अनवान् । तै० १ १।६।१०॥ १। ८।२।५॥ पाः यदवृणोत्तस्माद्वाः (जलम्) । श०६।१।१।९॥ पाक वाग्वै गीः (यजु०१२। ६८)। श०७।२।२।५॥ " वाग्वै धेनुः । गो० पू० २१ २१ ॥ तां० १८।९।२१ ॥ ,, वाचं धेनुमुपासीत । तस्याश्चत्वार स्तनाः स्वाहाकारो वष
ट्कारो हन्तकारः स्वधाकारस्तस्यै द्वौ स्तनो देवा उपजीवन्ति स्वाहाकारं च वषट्कारं च हन्तकारं मनुष्याः स्वधाकारं पित
रस्तस्याः प्राण ऋषमो मनो वत्सः । श०१४। ८ । ९ । १॥ ., वाग्वै शबली (= 'कामधेनुः' इति सायणः)। तां० २१ । ३।१॥ ,, वाक् सरस्वती। श० ७ । ५ । १ । ३१ ॥ ११ । २ । ४ । ६ ॥
१२ । ९।१ । १३ ॥ , वाक्तु सरस्वती । ऐ०३ : १॥ , वागेव सरस्वती । ऐ० २।२४॥६.७॥ , वाग्घि सरस्वती। ऐ०३।२॥ , वाग्वै सरस्वती। कौ० ५। २॥ १२॥ ८॥ १४ । ४ ॥ तां०६।
७। ७॥१६। ५। १६ ॥ श० २ । ५।४।६॥३।९।१।
७॥ तै०१ । ३।४।५॥३।८।११ । २॥ गो० उ० १॥२०॥ , वाग्वै सरस्वती पावीरवी । ऐ० ३। ३७ ॥ , सरस्वती वाचमदधात् । तै० १।६।२।२॥ , अथ यत्स्फूर्जयन्वाचमिव वदन्दहति तदस्य ( अग्नेः ) सार
स्वतं रूपम् । ऐ०३ । ४ ॥ , सा ( वाक् ) ऊोदातनोद्यथापां धारा संततैवम् ( सरस्वती
[नदी]-वाक् ॥ सरस्वतीशब्दं पश्यत )। तां० २० । १४॥ २॥ , वाग्वै समुद्रः।०७।७।९॥ , वाग्वै समुद्रो मनः समुद्रस्य चक्षुः। तां०६।४।७॥ , बाग्वै समुद्रो (ऋ०४।५८/१) न वै वाक्क्षीयते न समुद्र
क्षीय। ऐ०५।१६॥ ,, बाग्वैसरिन्द्रा (यजु०११।)।०८।५।२।४॥
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[ वाक्
(४८४ ) वाक् वाग्वै सरिरम् ( यजु० १३ । ५३ )। श० ७ । ५।२। ५३ ॥ ,, वाग्वै सोमक्रयणी (गौः) निदानेन । श०३।२।४।१०, १५॥ ,, वाग्वाऽ एषा निदानेन यत्साहस्री ( गौः ) तस्या एतत् सहस्रं
वाचः प्रजातन् । श०४। ५। ८।४॥ , तदाहुः किं तत्सहस्रम् (ऋ०६। ६९ । ८) इतीमे लोका इमे
वेदा अथो वागिति ब्रूयात् । ऐ०६ । १५ ॥ ,, वाग्वै सिनीवाली ( यजु०११ । ५५ ) । श०६।५।१।६॥ ,, वाक् सावित्री । गो० पू० १ । ३३ ॥ जै० उ० ४ । २७ । १५ ॥ ,, वाग्वै सार्पराज्ञी । कौ० २७ । ४॥ , वागव सुपर्णी ( माया)। श० ३।६।२।२॥ ,, वाग्वाव शतपदी प० १॥ ४॥ ,, वाग्वै रेवती । श० ३ । ८ । १ । १२ ॥ , वागषाढा । श०६।५ । ३।४॥ ७॥ ५॥१॥ ७ ॥ " वाग्वाऽ अषाढा । श०७।४।२। ३४॥८।५।४।१। , वाग्वै पथ्या स्वस्तिः । कौ० ७ । ६॥ श० ३।२।३। ८॥४॥
५।१।४॥ , वाग्ध्येषा (पथ्या स्वस्तिः ) । श० ३।२।३। १५ ॥ ,, जूरसि (यजु० ४ । १७), (जूः) इत्येतत् ह वा अस्याः (वाचः)
एकं नाम | श०३।२।४।११॥ , तस्यै (वाचे) जुहुयाद् बेकुरा नामासि । तां०६।७।६॥ , वाग्वै धिषणा (यजु० ११ । ६१) । श०६।५।४।५॥ ,, वाग्वै तिः (यजु०१३ । ५८) वाचा हदी सर्व मनुते ।
श०८।१।२।७॥ " वाग्व बृहती। श०१४।४।१। २२॥ , यदस्यै वाचो बृहत्यै पतिस्तस्माद् बृहस्पतिः । जै० उ० २।
२।५॥ , बृहस्पतिः (पवैनं) वाचां (सुवते) । ते०१।७।४।१॥ ,, अथ बृहस्पतये घाचे । नेवारं वरु निर्वपति । श० ५।३।३।५॥ , वाग्वै राष्ट्री । ऐ० १ ॥ १६ ॥ ,, इयं (पृथिवी) वै वागदो (अन्तरिक्षम) ममः। ऐ० ५। ३३ ॥ , इयं (पृथिवी) वै वाक् । श० ४।६।९।१६ ॥
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। ४८५ )
वाक्] वाक् वागिति पृथिवी । जै० उ० ४ । २२ ॥ ११ ॥ , वागेवाय (पृथिवी-) लोकः । श०१४। ४ । ३। ११ ॥ , वागित्यन्तरिक्षम् । जै० उ०४ । २२ । ११ ॥ ,, वागिति द्यौः। जै० उ०४।२२। ११॥ , वाग्वै लोकम्पृणा (इष्टका)। श०८।७।२।७॥ , वाग्वै विराट् । श० ३।५।१ । ३४ ॥ , वाग्वै विश्वामित्रः । कौ० १० । ५ ॥ १५ ॥ १ ॥ २९ ॥ ३ ॥
वाग्वै विश्वकर्मऽर्षिः ( यजु० १३ । ५८) वाचा हीदछ सर्व कृतम् । श०८।१।२।६ ॥ वागेव सश्रस्तुप्छन्दः (यजु० १५ । ५) । श.८।५।२।५॥ वाग्वा अनुष्टुप् । ऐ०१। २८ ॥ ३ । १५॥ ६।३६ ॥ श०१।
३।२।१६॥ ८।७।२।६॥ गो. उ०६।१६॥ , वागनुष्टुप् । कौ० ५। ६ ॥७।९ ॥ २६ ॥ १॥ २७ । ७॥ श०
१०।३।१।१॥ तै० १।८।८।२॥ तां० ५ ! ७॥१॥ ,, महिषी हि वाक् । श०६।५।३।४॥ 5. वागित्यक् । जै० उ०१।९।२॥ , वागृक । जै० उ० ४ । २३ । ४ ॥ ,, सा या सा वौगृक् सा । जै० उ० १ ! २५ ॥ ८ ॥ , वागेवऽग्वेदः । श०१४।४।३।१२॥ ,, वागेवऽर्वश्च सामानि च । मन एव यजूषि । श०४।६।
वाग्ब्रह्म । गो० पू० २।१० (११)॥ ,, वाग्घि ब्रह्म । ऐ०२॥ १५ ॥ ४।२१ ॥ ,, वाग्वै ब्रह्म । ऐ०६।३॥ श० २।१।४।१०॥ १४।४।१।
२३ ॥ १४ । ६ । १० ।५॥ , वागिति तद् ब्रह्म । जै० उ०२१९।६॥ , सा या सा वाग्ब्रह्मैव तत् । जै० उ०२।१३।२॥ , ब्रह्मैव वाचः परमं व्योम । ते० ३।९।५ । ५ ॥ " वाग्वै ब्रह्म च सुब्रम चेति । ऐ०६।३॥ , वाग्वै सुब्रह्मण्या। ऐ०६।३॥ " वागुक्थम् । ष०१।५॥
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[वार वाक् वाग्धि शस्त्रम् । ऐ० ३ । ४४ ॥ ,, वाक् शंसः । ऐ० २।४॥ ६ । २७, ३२ ॥ गो० उ०६ । ८ ॥ " वाग्वै रथन्तरम् । ऐ०४ । २८॥ " वाग्रथन्तरम् । तां०७।६।१७॥ , वाग्वै त्वष्टा वाग्धीदं सर्वे ताष्टीव । ऐ०२।४॥ , वाग्वै दध्यङ्ङाथर्वणः ( यजु० ११ । ३३॥ )। श०६।४।
,, वाग्वा अर्बुदम् । तै०३६ ८१६ ॥ ३॥ ,, वाग्वै भर्गः । श० १२।३।४।१० ॥ , वागेव भर्गः । गो० पू० ५। १५ ॥ ., वाग्वा उत्तरनाभिः । श० १४।३।१। १६ ॥ " वागुदयनीयम् । कौ०७ ॥ ९ ॥ " वाग्वामभृत् । श०७ । ४।२।३५ ॥ ,. वाग्वै शर्म (ऋ०३।१३।४)। ऐ०२। ४० ॥ , वाग्वै स्त्रक् । श०६ । ३।१॥ ८॥ , वागेवादाभ्यः (ग्रहः) । श० ११ । ।६।१॥ , वाग्वै सीतासमरः । श०७ । २ । ३ । ३ ॥ , वागितिं श्रोत्रम् । जै० उ० ४ । २२ । ११ ॥ , वाग्वा इन्द्रः। कौ०२।७॥१३॥५॥ , वाग्ध्यैन्द्री । ऐ०२।२६ ॥ , एतद्ध वा इन्द्राग्न्योः प्रियं धाम यद्वागिति । ऐ०६ । ७॥ गो०
उ०५।१३॥ ,, अनिमें वाचि श्रितः। तै० ३।१०। ८॥४॥ ,, सा या सा वागग्निस्सः । जै० उ०१।२८।३॥ , साया सावागासीत्सो ऽग्निरभवत् । जै० उ०२।२।१॥ ,, या वाक् सो ऽग्निः । गो० उ०४।११॥ , बागेवानिः । श०३।२।२।१३॥ , वाग्वा अग्निः । श०६।१।२।२८॥ जै० उ०३।२।५॥ , तपो मे तेजो में उनम्मेवाड़मे। तो त्वयि (अपनी)। जै० उ.
३।२०।१६॥ , बाग्वां अस्य ( अग्नेः १) स्वो महिमा ||२|१७॥
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( ४८७ )
वा] माद वाग्वाऽ अस्य (प्रजापतेः) स्वो महिमा। श० २।२।४।४॥ , प्रजापतिर्वा इदमेक आसीत्तस्य वागेव स्वमासीद्वाग द्वितीया
स पेक्षतेमामेव वाचं विसृजा इयं वा इद, सर्व विभवन्त्येष्यतीति स वाचं व्यसृजत (काठकसंहितायाम् १२ । ५ ॥ २७। १:-प्रजापतिर्वा इदमासीत्तस्य वाग् द्वितीयासीत्तास्मिथुनं समभवत्सा गर्भमधत्त सास्मादपाक्रामत्लेमाः प्रजा असृजत
सा प्रजापतिमेव पुनःप्राविशत्) । तां० २० १४ । २॥ ,, प्रजापतिर्हि वाक् । तै०१।३।४।५॥ , वाग्धि प्रजापतिः। श०१।६।३। २७ ॥ ,, वाग्वै प्रजापतिः । श० ५। १।५।६॥ १३ । ४।१। १५ ॥ , प्रजापतिर्वै वाक्पतिः । (वाचस्पतिशब्दमपि पश्यत् )। श.
३।१।३।२२॥ ,, तदेता वाऽ अस्य (प्रजापतेः ) ताः पञ्च मास्तन्व आसं
लोम त्वङ् मांसमस्थि मज्जाथैता अमृता मनो वाक् प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रम् । श०१०।१। ३।४॥ , ( यजु० ३० । १) वाग्वाऽ इदं कर्म प्राणो वाचस्पतिः । श०६।
३।१ । १९ ॥ ,, नमो वाचे प्राणपत्न्यै स्वाहा । ष०२।९॥ , वाक् च वै प्राणश्च मिथुनम् । श०१।४।१।२॥ ,, साहवागुवाच । ( हे प्राण !) यद्वाऽ अहं वसिष्ठास्मि त्वं
तसिष्ठो ऽसीति । श० १४ । ६ २ । १४ ॥ ., वाग्वातस्य पत्नी । गो० उ० २।९॥ , वाग्वै वायुः। तै० १।८।८।१॥ तां० १८। ८ । ७॥ ,, तस्मात्सर्वे प्राणा वाचि प्रतिष्ठिताः । श० १२ । ८ । २ । २५ ॥ ., तस्याः ( वाचः) उ प्राण एव रसः । जै० उ०१।१ । ७॥ ,, यावर प्राणेष्वापो भवन्ति तावद्वाचा वदति । श०५।३।
,, वाक् च वै मनश्च देवानां मिथुनम् । ऐ०५ ॥ २३ ॥ , तस्य (मनसः) एषा कुल्या यद्वा । जै० उ० १ । १८ । ३ ॥ , वाग्देवत्यं साम वाचो मनो देवता । जै० उ० १४६ । १४ ॥
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[वाक्
( ४८८ ) वाक् वाग्वै मनसो ह्रसीयसी । श० १।४।४।७ ॥ , अपरिमिततरमिव हि मनःपरिमिततरेव हि वाक । श०१४॥७॥ , मनो ह पूर्व वाचो यद्धि मनसाभिगच्छति तद्वाचा वदति ।
तां० १।१।१।३॥ , अलग्ल(न)मिव ह वै वाग्वदेद्यन्मनो न स्यात्तस्मादाह धृता
मनसेति । श०३।२।४। ११॥ " वागिति मनः । जै० उ०४ । २२ । ११ ॥ ,, वाक् च वै मनश्च हविर्धाने । कौ० ९॥३॥ ,, युनज्मि वाच सह सूरयेण । तां० १।२।१॥ ,, सा या सा वागसौ स आदित्यः । श० १०।५।१।४॥ ,, वागिति चन्द्रमाः । जै० उ०३।१३ । १२ ॥ ,, वाग्घ चन्द्रमा भूत्वोपरिष्टात्तस्थौ । श० ८।१ । २।७॥ ,, वाग्वै देवानां मनोता । ऐ०२।१०॥ कौ०१०। ६॥ ,, वाग्यज्ञस्य (रूपन)। श०१२। ८।२।४॥ ,, वाग्घि यज्ञः । श०१।५।२।७॥ ३।१।४।२॥ , वाग्वै यज्ञः। ऐ०५ । २४॥ श० १।१।२।२॥३।१।३।
२७॥ ३।२।२।३॥ . वागु वै यक्षः। श०१ । ११४ । ११ ॥ ,, वाचो रसो यशायज्ञीयम् (साम) । तां. १८१३ । २१ ॥ १८ ।
,, वाग्यशायझीयम् । साम)। तां०५।३ । ७॥ ११ । । । २८ ॥ , वाग्वैरूपम् (साम)। तां०१६। ५ । १६ ॥ , वाग्यज्ञस्य होता । ऐ० २।५, २८॥ " वाग्वै यज्ञस्य होता। श०१२। ८।२।२३ ॥ १४ । ६।१५॥ ,, वाग्धोता । श०१।५।१ । २१ ॥ गो० उ०५।४॥ , वागेव होता । गो० पू० २ । १०॥ गो० उ०३।८॥ ,, वाग्वै होता ( यजु०१३ । ७)। कौ० १३ । ९॥१७॥७॥ , वाग्धोता षड्ढोतृणाम् । तै ३ । १२ । ५ । २॥ ,, अग्नि होताधिदेवतं वागध्यात्मम् । श०१२।१।१।४॥ गो०
पू०४।४॥ " वाग्वै हविष्कृत् । श०१।१।४।११ ॥
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(४८९ )
वाक्] . वाक् उद्गातारो वै वाचे भागधेयं कुर्वन्ति । तां० ६ । ७ । ५ ॥ ., वाक् सर्व ऋत्विजः । गो० उ० ३ । ८॥ ,, वाचा पशून्दाधार तस्त्रावाचा सिद्धा वाचास्ता आयन्ति
तस्मादु नाम जानते । तां० १० । ३ । १३ ।। ,, ज्यावृद्ध वाक् । तां० १०।४।६ ९॥ ,, त्रेधा विहिता हि वाग्-ऋचो यजूषि सामानि । श० ६।
५।३।४॥ ,, सा वाऽ एषा वाक् त्रेधा विहिता। ऋचो यजूषि सामानि ।
श०१०।४।५।२॥ ,. वागिति सर्वे देवाः । जै० उ० १ । ९ । २॥ , वागेव देवाः । श० १४।४।३।१३॥ , वाग्देवः । गो०पू०२।१०॥ , वज्र एव वाक् । ऐ०२।२१॥ , वाग्घि वजः। ऐ०४।१॥ , वज्रस्तेन यद्वाक् । ऐ० २ । १६ ॥ , वाक् च ह वै प्राणापानौ च वषट्कारः । गो० उ०३।६॥ , वाक् च वै प्राणापानौ च वषट्कारः । ऐ० ३।८॥ , वाग्वै वषट्कारो वातः । श०१।७।२।२१ ॥ ,, वागु हि रेतः। श० १ । ५ । २ । ७॥
शीणों हीयमधिवाग्वदति । श०१।४।४।११ ॥ ,, वाग्वृदये (श्रिता)। तै० ३ । १०। ८।४॥ , तदेतत्तुरीयं वाचो निरुक्तं यन्मनुष्या वदन्त्यथैतत्तुरीयं वाचो
ऽनिरुक्तं यत्पशवो वदन्त्यथैतत्तुरीयं वाचो ऽनिरुक्तं यद्वयासि वदन्त्यथैतत्तुरीयं वाचो ऽनिरुक्तं यदिदं क्षुद्र सरीसृपं
वदति । श०४।१।३।१६ ॥ , वाग्वै देवानां पुरान्नमास । तै० १।३।५।१॥ ,, वाग्वै वाजस्य प्रसवः । तै०१।३।२।५॥ ., वाग्योनिः । ऐ० २॥ ३८ ॥ ,, उदीचीमेव दिशम् । पथ्यया स्वस्त्या प्राजानंस्तस्मादत्रोत्तराहि
वाग्वदति कुरुपचालत्रा। श०३।२।३।१५ ॥
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[ वाक्पतिः
( ४९० )
वाक् तस्मादुदीच्यां दिशि प्रज्ञाततरा वागुवत उदञ्च उ एव यन्ति वाचं शिक्षितुं यो वा तत आगच्छति तस्य वा शुश्रूषन्त इति । कौ०
१०७ । ६ ॥
अयातयाम्नी वा इयं वाकूं । श० ४ । ५ | ८ | ३ ॥
31
" वागु सबै भेषजम् । श० ७ । २ । ४ । २८ ॥
प्रादेशमात्र हीदमभि वाग्वदति श० ६ । ३ । १ । ३३ ॥ सेयं वागृतुषु प्रतिष्ठिता वदति । श० ७ । ४ । २ । ३७ ॥ तस्मात्संवत्सर वेलायां प्रजाः (= शिशवः ) वाचं प्रवदन्ति ।
3.
"
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93
" वाक् संवत्सरः । तां० १० । १२ । ७ ॥
सर्वा वाचं पुरुषो वदति । तां० १३ । १२ । ३॥
" तां वनस्पतयश्चतुर्द्धा वाचं विम्यदधुर्दुन्दुभौ वीणयामक्षे तूणवे तस्मादेषा वदिष्षा वल्गुतमा वाग्या वनस्पतीनां देवानां ह्येषा वागासीत् । तां० ६ | ५ | १३ ॥
परमा वा एषा वाग्या दुन्दुभौ । तै० १ । ३ । ६ । २–३ ॥
"
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د.
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श० ७ । ४ । २ । ३८ ॥
स (प्रजापतिः ) वाचमयच्छत्स संवत्सरस्य परस्ताळ्याहरद् द्वादशकृत्वः । ऐ० २ । ३३ ॥
""
एष वै परमा वाग्या सप्तदशानां दुन्दुभीनाम् । श० ५१ ५६ ॥ एतद्वाचश्छिद्रं यदनृतम् । तां० ८ । ६ । १३ ॥
वाचो वा एतौ स्तनौ ( यदधिके द्वे अक्षरे ) । सत्यानृते वाव ते । गो०
० उ०४ । १९ ॥
वाचो वाव तौ स्तनौ सत्यानृते वाव ते । ऐ०४ । १ ॥
॥
एतद्वै वाचो जितं यद्ददामीत्याह । ऐ० ८ एकाक्षरा वै वाक् | तां० ४ | ३ | ३॥
योषा हि वाक् । श० १ । ४ । ४ । ४ ॥
योषा वाऽ इयं वाग्यदेनं न युविता । श० ३ । २ । १ । २२ ।।
वागिति स्त्री । जै० उ० ४ । २२ । ११ ॥
1
वाकोवाक्यम् यद्ध वाऽ अयं वाकोवाक्यमधीते क्षीरोदनमा सौदनौ हैव तौ । श० ११ । ५ । ७ १५ ॥
वाक्पतिः (यजु० ४ । ४)प्रजापतिर्वै वाक्पतिः । श० ३ । १ । ३ । २२ ॥
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वाजपेयम् ] वाचः साम निष्किरीयाः सत्रमासत ते तृतीयमहर्न प्राजानस्ताने
तत्साम गायमाना वागुपालवत् तेन तृतीयमहः प्राजान. स्ते ऽनुवाभियं वाव नस्तृतीयमहरदीदृशदिति तृतीयस्यै
वैषाहो दृष्टिः। तां०१२ ५। १४ ॥ वाचस्पतिः (यजु० ११ । ७) प्राणो वाचस्पतिः । श०६।३।१ । १९॥
प्राणो वै वाचस्पतिः। श०४।१।१।६। , प्रजापतिर्वै वाचस्पतिः (वाक्पतिशब्दमपि पश्यत)। श०
५।१।१।१६ ॥
वाचस्पति होता दशहातृणाम् । तै० ३ । १२ । ५। १॥ वाचो ऽप्रम् श्री वाचो ऽग्रम । ता० ६ । ६ । १२ ॥
.. मुखं वा एतत्संवत्सरस्य यद्वाचोग्रम् । तां० ४ । २ । १७॥ वाजः अन्नं वै जाजः । त०१।३।६।२, ६॥ १।३।८।५॥ श०
५।१।४।३॥ ६।३।२।४॥ तां० १३।६।१३, २१॥ १५। ११ । १२॥ १८॥६॥८॥ अन्नं वाजः । श०५।१।१ । १६ ॥ ८।१।१।१॥
(ऋ०३ । २७ । १) अन्नं वै वाजाः । श०१।४।१।९॥ ,, वीर्य वै वाजाः । श०३।३।४। ७॥ , ओषधयः खलु वाजः । ते० १ । ३।७।१॥
वाजो वै पशवः । ऐ०५॥८॥ ,, वाजो बै स्वर्गो बोकः । तां १८१७॥१२॥गो० उ०५।८॥
, वाग्बै वाजस्य प्रसवः । तै०१।३।२।५॥ वाजजित् (साम) वाजजिद्भवतिः सर्वस्याप्त्यै सर्वस्य जित्यै । तां०
१३।९।२०॥ तां०१५। ११ । १२॥ वाजदावर्यः (बहुवचने; सामविशेषः) उत्सो वाजदावर्यः। तां०१३॥९॥१७॥ वाजपतिः एष (अग्निः) हि वाजानां पतिः। ऐ० २।५॥ वाजपेयम् (यज्ञविशेषः) अनं वाऽ एष रजयति यो वाजपेयेन यजते
उसपेयर हबै नामैतघद्वाजपेयम् । श०५।१।३।३॥ प्रजापतिरकामयत वाजमाप्नुयाथ स्वर्ग लोकमिति स एतं वाजपेयमपश्यद्वाजपेयो वा एक वाजमेवैतेन स्वर्ग ष
(१) लोकमामोति । तां०१७।७।१॥ , बाज्येवैनं (सोम) पीत्वा भवति । ते०१।३।२॥४॥
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[वाजी
( ४९२ ) वाजपेयम् वाज ह्येतेन (वाजपेयेन) देवा ऐप्सन् । तै०१ । ३ । २॥३॥
बार्हस्पत्यो वा एष देवतया यो वाजपेयेन यजते । ते० १।३।६। ८-९॥
वाजपेययाजी वाव प्रजापतिमाप्नोति । तां० १८।६।४॥ , यो वै वाजपेयः। स सम्राट्सवः । तै०१।७।६।१॥
सम्राडाजपेयेन (इष्ट्रा भवति)। श०५।१।१ । १३॥९ । ३।४॥ ८॥
स वाजपेयेनेष्ट्वा सम्राडिति नामाधत्त । गो० पू० ५। ८ ॥ , स वा एष ब्राह्मणस्य चैव राजन्यस्य च यशः । तं वा एतं
वाजपेय इत्याहुः । तै० १ । ३ । २।३॥
सोमो वै वाजपेयः । तै० १ । ३ । २ । ३ ॥ , अन्नं वै वाजपेयः । तै० १ । ३ ।। ४ ।। , ब्रह्म वै वाजपेयः । तै० १ । ३ । २ । ४॥
, वाजपेयो वा एष य एष (सूर्यः) तपति । गो० उ० ५। ८ ॥ वाजिनम् (ऋ० १० । ७२ । १०) इन्द्रियं वै वीर्य वाजिनम् । ए० ११.३॥
,, योषा पयस्या रेतो वाजिनम् । श० २।४। ४ । २१ ॥ २।
,, रेतो वाजिनम् । तै० १।६।३।१०॥
पशवो वै वाजिनम् । तै० १ । ६ । ३ । १०॥ वाजी यत्सद्यो वाजान्त्समजयत् । तस्माद्वाजी नाम । तै०३।९।
२१ । २॥ ., (हे ऽश्व त्वं) वाज्यसि । तां० १ । ७।१॥ ,, वाजिनो ह्यश्वाः । श०५।१।४।१५ ॥ ,, (अश्वो) वाजी (भूत्वा) गन्धर्वान् (अवहत्) । श० १०६॥४॥१॥
देवाश्वा वै वाजिनः । कौ० ५। २॥ देवाश्वा वै वाजिनो ऽत्र देवाः साश्वा अभीष्टाः प्रीता भवन्ति ।
गो० उ०१॥ २०॥ ,, अग्निर्वायुः सूर्यः। ते वै वाजिनः। तै०१।६।३।९॥ " आदित्यो वाजी । तै०१।३।६।४॥ ॥ इन्द्रो वै.वाजी । ऐ० ३ । १८ ॥
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वात्सप्रम् ] वाजी पशवो वै वाजिनः । गो० उ०१ । २० ॥ , ऋतवो वै वाजिनः । कौ० ५।२॥ श०२।४।४।२२॥
गो० उ०१॥२०॥ ,, छन्दासि वै वाजिनः । गो० उ० १ ॥ २० ॥ तै० १ । ६।३।९॥
" उक्थ्या वाजिनः । गो० उ० १ ॥ २२ ॥ वाजी देवजूतः (ऋ० १० । १७८ । १) एष (तार्क्ष्यः वायुः) वै वाजी
देवजूतः। ऐ०४।१०॥ वाण: (-महावीणा) (वाणः) शततन्त्रीको भवति । तां० ५। ६ । १३॥ ,, अन्तो वै वाणः (वाद्यानाम्)। तां० ५। ६ । १२ ॥ १४ । ७।८॥ वातः (यजु० १५ । ६२) वातो हि वायुः । श० ८ । ७।३।१२ ॥ ,, यो वै प्राणः स वातः । श० ५।२।४।९॥ ., प्राणो वै वातः। श. १।१।२।१४॥ ,, (-विश्वव्यचा:-यजु. १८ । ४१) एष (वातः) हीद सर्व
व्यचः करोति । श०९।४।१ । १० ॥ . न वै वातात् किञ्चनाशीयो ऽस्ति न मनसः किश्चनाशीयो
ऽस्ति तस्मादाह वातो वा मनो वेति । श० ५। १ । ४१८॥ ,, वातो वै यज्ञः । श०३।।३।२६॥ ,, युक्तो वातोन्तरिक्षेण ते सह । तां०१।२।१।। , वाग्वातस्य पत्नी। गो० उ०२१९॥ ,, तस्मादेषोऽर्वाचीनमेव वातः पवते। श०८।७।३।९॥ वातहोमाः वायुर्वातहोमाः । श०९।४।२।१॥
., प्राण। वै वातहोमाः । श०९।४।२।१०॥ वातापिः इन्द्र उ वै वातापिःस हि वातमाप्ता शरीराण्यहन्प्रतिप्रैति ।
को०२७॥४॥ वारसमम् (साम) वत्सनी लन्दनः श्रद्धानाविन्दत स तपो ऽतप्यत
स एतद्वात्सप्रमपश्यत्स श्रद्धामविन्दन श्रद्धां विन्दामहा
इति वै सत्रमासते विन्दते श्रद्धाम् । तां० १२ । ११ । २५ ॥ , यवेव वत्सं स्पृशति तस्माद्वात्सप्रम् सूक्तम् । कौ०२।४॥ , रात्रिर्वात्सप्रम् । श०६।७।४।१२॥
अहोरात्र वात्सप्रम् । श०६।७।४।१०॥
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[वामदेव्यम् ( ४९४ ) वास्सप्रम् स हैष दाक्षायणहस्तः । यद्वात्सप्रं तस्माद्यं जातं कामयेत
सर्वमायुरियादिलि वात्सप्रणैनमभिमृशेत्तदस्मै जाताया
युष्यं करोति । श०६।७।४।२॥ , प्रतितिष्ठति वात्सप्रेण तुष्टुवानः । तां० १२ । ११ । २४ ॥ " प्रतिष्ठा वै वात्सपम् । श०६ । ७ । ४ । १५ ॥
, देवमवसानं यद्वात्सप्रम् । श०६।८।१ । ३ ॥ वात्सम् (साम) वात्सेन (साम्रा) वत्सो (अग्निं) व्यत् (="प्राविशत्"
इति सायणः) मैधातिथेन मेधातिथिस्तस्य (वत्सस्य) न लोम च नौषत्तद्वाव स तहकामयत, कामसनि साम वात्सं,
काममेवैतेनावरुन्धे । तां०१४।६।६॥ वामः यं वै गां यमश्वं यं पुरुषं प्रशसन्ति वाम हात तं प्रश.
सन्ति । तां० १३ । ३ । १६ ॥ वामदेव्यम् (कया नश्चिन आ भवत्-ऋ० ४ । ३१ । १-३ ॥) तो (मित्रा.
वरुणौ। अबृतां वाम मा इदं देवेष्वाजनीति तस्माद्वामदेव्यम् (साम) । तां० ७ । ८।१॥ पिता वै वामदेव्यं पुत्राः पृष्ठानि । तां० ७।९।१॥ वामदेव्यं वै साना सत् । तां०४।८।१०॥ सत् ( = उत्कृष्टमिति सायणः) वै वामदेव्य सानाम् । तां०१५॥ १२ ॥२॥ वामदेव्यमात्मा (महाव्रतस्य)। तां० १६ । ११ । ११ ॥ शान्तिर्वै वामदेव्यम् । तै०१।१।८।२॥ शान्तिर्वै भेषजं वामदेव्यम् । कौ० २७॥ २ ॥ २९ । ३,४ ॥ सर्वदेवत्यं वै वामदेव्यम् । तां०७८ ॥२॥ प्राजापत्यं वै वामदेव्यम् । तां०४॥ ८॥ १५ ॥ ११ । ४।८॥ प्रजापतिर्वै वामदेव्यम् । श० १३।३।३।४॥ प्रजननं वै वामदेव्यम् । श०५।१।३ । १२॥ वामदेव्यं मैत्रावरुणसाम भवति । श० १३ । ३।३।४॥ प्राणो वै वामदेव्यम् । श०९।१।२। ३८॥ पशवो वै वामदेव्यम् । तां० ४।८।१५॥ ७।९।९॥ ११।४।८॥१४।९।२४॥
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( ४९५ )
वायुः ]
नामदेव्यम् इदं वा वामदेव्यं यजमानलो को ऽमृतलोकः स्वर्गो लोकः । ऐ० ३ | ४६ ॥
उपहृतं वामदेव्य सहान्तरिक्षेण । श० १ । ८ । १ । १६ ॥ अन्तरिक्षं वै वामदेव्यम् । तै० १ । १ । ८ । २ ॥ २ । १ । ५ । ७ ॥ तां० १५ । १२ । ५ ।।
वामनः वामनो ह विष्णुरास । श० १ । २ । ५।५ ॥
स हि वैष्णवो यद्वामनः
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13
वामभृत् इयं ( पृथिवी ) वामभृत् । श० ७ । ४ । २ । ३५ ॥ वाग्वामभृत् ' श० ७ । ४ । २ । ३५ ॥
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वामम् प्राणा वै वामम् । श० ७ । ४ । २ । ३५ ॥
वामं हि पशवः । ऐ० ५ ॥ ६ ॥
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वाम् ( साम ) ( वानं ) सामार्षेयेण प्रशस्तं यं वै गां यमश्वं यं पुरुषं प्रशंसन्ति वाम इति तं प्रशंसन्ति । तां० १३ । ३ । १९ ॥
वायुः अयं वै वायुर्यो ऽयं पवते । श० २ । ६ । ३ । ७ ॥
अयं वै वायुर्यो ऽयं पवतs एष वा इद सर्वे विविनक्ति यदिदं किञ्च विविच्यते । श० १ । १ । ४ । २२ ॥
वातो (यजु० १५ | ६२ ) हि वायुः । श० ८ । ७ । ३ । १२ ॥ वायुर्वात होमाः । श० ९ । ४ । २ । १ ॥
वायुर्वा उशन् | तां० ७ | ५ | १९ ।। वायुरनुवत्सरः । तां० १७ । १३ । १७ ॥
तै० १ । ४ । १० । १ ॥ वायुर्वै निकाय छन्दः (यजु० १५ । ५) । श० ८ । ५ । २ । ५ ॥
अयं वाऽ अवस्युरशिमिदो यो ऽयं (वायुः ) पवते । श० १४ ।
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५.
( गौः ) । श० ५ | २ | ५ | ४ ॥
वैष्णवो वामनः ( पशुः ) । श० १३ । २ । २ । १॥
वैष्णवं वामनं (पशुम् ) आलभन्ते । तै० १ । २ । ५ । १ ॥
२।२।५ ॥
वायुर्वै देवः । जै० उ०३ | ४ । ८ ॥
1
अयं वै ब्रह्म यो ऽयं ( वायुः ) पवते । ऐ० ८ | २८ ॥
अयं वै बृहस्पतिः (यजु० ३८ । ८ ) यो ऽयं ( वायुः ) पवते ।
श० १४ । २ । २ । १० ॥
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[पायुः
( ४९६ ) वायुः अयं वै पवित्रं ( यजु० १ । १२) यो ऽयं ( वायुः) पर्वते ।
श० १।१।३।२॥ १।७।१ । १२ ॥ , पवित्रं वै वायुः । तै०३।२।५।११ ।। " अयं वायुः पवमानः । श०२ । ५। १ । ५॥ , (वायुः) यत्पश्चाद्वाति । पवमान एव भूत्वा पश्चाद्वाति ।
तै० २।३।९। ६ ॥ ,, वायुह्येव प्रजापतिस्तदुक्तमृषिणा पवमानः प्रजापतिरिति।
ऐ०४ । २६ ॥ , स यो ऽयं ( वायुः) पवते स एष एव प्रजापतिः । जै० उ०१।
३४।३॥ , स एष वायुः प्रजापतिरस्मिस्त्रैष्टुभे ऽन्तरिक्षे समन्तं पर्यनः।
श०८।३।४।१५॥ , एतद्वै प्रजापतेः प्रत्यक्ष रूपं यद्वायुः । कौ० १९ । २॥ , अर्ध ह प्रजापतेर्वायुरर्ध प्रजापतिः । श० ६ । २ । २ । ११ ॥ ,, यो वै वायुःस इन्द्रो य इन्द्रः स वायुः। श०४।१।३।१९ ॥ ,, अयं वै वायुमित्रो ( यजु० ११ । ६४) यो ऽयं पवते । श०६।
५।४।१४॥ अयं वै यमो ( यजु० ३८ । ६ ) यो ऽयं (वायुः ) पवते । श० १४ । २।२।११॥ वायुर्वै यंता (३० ३ । १३ । ३) वायुना हीदं यतमन्तरिक्ष न समृच्छति । ऐ० २।४१ ॥
अयं वै वायुर्मातरिश्वा यो ऽयं पवते । श०६।४।३।४॥ ,, (वायुः) यदक्षिणतो वाति । मातरिश्वैव भूत्वा दक्षिणतो
वाति । तै०२।३।९।५॥ , वायुर्वै जातवेदा वायुहीदं सर्व करोति यदिदं किंच । ऐ०२॥३४॥ , वायु, अग्नेः स्वो महिमा । कौ०३।३॥ ,, तेजो वै वायुः । तै०३।२।९।१॥ , भयं वै पूषा (यजु० ३८ । ३, १५) यो ऽयं (वायुः) पवतऽ एष
हीद सर्व पुष्यति। श०१४।२।१।९१४।२।२।३२॥ , यो वाऽ अयं पवतऽ एष धुतानो मारुतः । श०३।६ । १ ॥१६॥
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एप (वायुः ) हि सर्वेषां भूतानामाशिष्ठः । श० ८ । ४ । १
९ ॥
वायुर्वे तूर्णिया युर्देवेभ्यो हव्यं वहति । ए० २ । ३४ ॥
19
वायुर्वै तूर्णिर्व युहीदं सर्वं सद्यस्तरति यादेदं किं । ऐ० २।३४ ॥ , वायुः सप्तिः । तै० १ । ३ । ६ । ५ ॥
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( ४९७ )
वायुः ]
यो वा अयं ( वायुः ) पवत एवं तनूनपाच्छाकरः सो ऽयं प्रजानामुपद्रष्टा प्रविष्टस्ताविमौ प्राणोदानौ । श० ३ | ४ | २|५ ॥ यो वाऽ अयं (वायुः) पवतऽ एवं तनूनप्ता शाकरः । श०
29.
३ । ४ । २ । ११ ॥
वायुर्वै ताक्ष्यैः । कौ० ३० ॥ ५ ॥
अयं वै ताक्ष्यों यो ऽयं (वायुः) पवते एवं स्वर्गस्थ लोकस्याभिवोढा । ऐ०४ | २० ॥
एष (ताः = वायुः) वै सहावांस्तता (ऋ० १० । १७८ । १ ) एष हीमाल्लोकान्तद्यस्तरति । ऐ० ४ । २० ॥
वायुवis आशुस्त्रिवृत्स एष त्रिषु लोकेषु वर्तते । श ० ८४॥ ६ ॥ ९ ॥
वायुर्वै देवानामाशुः सारसारितमः । तै० ३ | ८ | ७ १ १ ॥
वायुर्वे देवानामाशिष्ठः । श० १३ । १ । २ । ७ ॥
( वायो !) त्वं वै नः (देव नाम् । आशिष्ठो डासे । श० ४ १ ३ | ३ ||
वायुर्वै चरन् । तै० ३ । ९ । ४ । १ ॥
अयं वै सरिरः (यजु०३८ । ७) यो ऽयं (वायुः) पवत एतस्माद्वै सरिरात् सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि सहेरते । श० १४ । २ ।
२।३॥
अयं समुद्रः (यजु० ३८ | ७) यो ऽयं (वायुः) पवतऽ एतस्माद्वै समुद्रात्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि समुद्रवन्ति । श०
१४।२।२।२ ॥
य एवायं (वायुः) पवत एष एव स समुद्र एतं हि संद्रवन्तं सर्वाणि भूतान्यनुद्रवन्ति । जे० उ० १ । २५ ॥ ४ ॥
अयं वै साधुः (यजु० ३७ । १०) यो ऽयं ( वायुः ) पवत एप हम लोकान्सद्धो ऽनुपवते । श० १४ । १ । २ । २३ ॥
वायुरेव सविता । गो० पू० १ । ३३ ॥ जै० उ० ४ । २७ । '५ ॥ अयं वै सविता (यजु० ३८ । ८) यो ऽयं
(वायुः) पवते । श
१४ । २ । २ । ९ ॥
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[वायुः
( ४९८ ) बायुः (वायुः) यदुत्तरतो वाति । सवितैव भूत्वोत्तरतो वाति ।
तै० २।३।९। ७॥ ,, तस्मादुत्तरतः पश्चादयं भूयिष्ठं पवमानः (वायुः) पवते
सवितप्रसूतो ह्येष एतत्पवते । ऐ० १ ॥ ७ ॥
वायुर्वै वसुरन्तरिक्षसत् (यजु० १२ । १४)। श०६।७।३।११॥ ,, अयमेव वत्लो यो ऽयं (वायुः)पवते ' श०१२ । ४।१।११॥
यो ऽयं वायुः पवतऽ ए सोमः । श० ७ । ३।१।१॥ ,, एष (वायुः) वै सोमस्योद्गीथा यत्पवते । तां०६।६।१८ ॥ ,, अयं वै वायुर्विश्वकर्मा (यजु० १३ । ५५ ॥ १५ । १६) यो ऽयं
पवतऽ एष हीद सर्व करोति । श०८।१।१।७॥८।६।१।१७।।
एष वै पृथग्वा वैश्वानरः (यद्वायुः)। श. १० । ६ । १ ७ ॥ ,, प्राणस्त्वाऽरष वैश्वानरस्य (यदायुः) । श०१०।६।१ । ७॥ ,, वायुर्वं मध्यमा विश्वज्योतिः (इष्टका)। श० ८।३।२।१॥
वायुर्वै विकर्णी (इष्टका)। श० ८ १७ । ३ । २.॥
तस्माद्वायुरेव साम । जै० उ०३।१ । १२ ॥ , अयमेव स्रवो यो ऽयं ( वायुः ) पवते । श. १।३।२५ ॥ , वायुर्वै स्तोता । तै० ३१९।४।४॥ श०१३।२।६।२॥ , वायुरेव हिङ्कारः। जै० उ०१।३६ । ९ ॥ १ ॥ ५८॥९॥ , वायुरेकपात्तस्याकाशं पादः । गो० पू०२।८॥ " वायुर्धारया । जै० उ० ३।४।२॥ ., वायुरापश्चन्द्रमा इत्येते भृगवः । गो० पू०२ । । (९) ॥ .. यस्स प्राणो वायुस्सः । जै० उ० १ । २९ ॥१॥ , प्राणा उघा वायुः । श० ८।४।१।॥ ,, वायुर्वं प्राणः । कौ० ८॥ ४ ॥ जै० उ० ४ । २२ ॥ ११ ॥ , वायुर्हि प्राणः । ऐ०२।२६॥३२॥ ., प्राणो हि वायुः। तां०४।६।८॥ ,, प्रागो वै वायुः । कौ० ५।८॥ १३ ॥ ५॥ ३० ॥ ५॥ श०४॥
४।१।१५॥६।२।२।६॥ गो० उ०१॥ २६॥ , यः स प्राणोऽयमेव स वायुयों ऽयं पवते। श० १०॥३ ॥७॥ , प्राणो वै वायव्या (ऋक्) । कौ०१६ । ३, ४॥
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( ४९९ )
वायुः] बातुः वायुमें प्राणे श्रितः। तै०३।१०।८।४॥ , प्राणापानौ मे श्रुतम्मे । तन्मे त्वाय (वायौ)। जै० उ०३ २१ ॥१०॥ ,, स (वायुः) यत्पुरस्ताद्वाति । प्राण एव भूत्वा पुरस्ताद्वाति ।
तस्मात्पुरस्ताद्वान्तं सर्वाः प्रजाः प्रतिनन्दन्ति । तै०२।३।
९।४-५॥ , वायु प्रणोर्यशानां यदा हि प्राणित्यथ यशो ऽथाग्निहोत्रम् ।
ऐ०२॥ ३४॥ , वायुप्रणेत्रा वै पशवः । श० ४।४।१ ॥ १५ ॥ , यत्पशुपतिर्वायुस्तेन । को० ६॥ ४॥ , ते (पशवः) अब्रुवन्वायुवी अस्माकमीशे। जै० उ० १ । ५२ ॥४॥ , एताभिः (एकोनविंशतिभी रात्रिभिः) वायुरारण्यानां पशुनामा
धिपत्यमाश्नुत । तां० २३ । १३ । २ ॥ ,, वायुर्वाऽ उग्रः । श०६।१।३।१३॥ " वायुवि पुरोहितः । ऐ० ८ । २७ ॥ 1, वायुषी उपश्रोता गो० उ०२॥ १९॥४॥९॥तै०३१७॥५॥४॥ " वायुरेष महः । गो० पू०५।१५॥ " वायुमेहः । श० १२ । ३।४।८॥ ,, मनो ह वायुभूत्वा दक्षिणतस्तस्थौ । श० ८ । १।१ । ७॥ , इमे वै (त्रयो) लोका पूरयमेव पुरुषो यो ऽयं (वायुः) पवते
सो ऽस्यां पुरि शेते तस्मात्पुरुषः । श०१३। ६ । २ । १॥ ,, अयं वै यज्ञो यो ऽयं (वायुः) पवते । ऐ० ५। ३३॥ श०१।
९।२।२८॥२।१।४।११॥४।४।४।१३॥११॥१॥२॥३॥ ,, अयं वाव यज्ञो योऽयं (वायुः) पवते। जै० उ० ३ । १६ ॥ १॥ , अयमुवे यः ( वायुः) पवते स यक्षः। गो० पू० ३।२॥४॥१॥ ,,' वाग्वै वायुः। तै०१।८।८।१॥ तां०१८।८। ७ ॥ , वायुर्वै रेतसां विकर्ता । श० १३ । ३।।१॥ , वायुचे पयसः प्रदापयिता । तै०३।७।१।५॥ ,, वाई सर्वेषां देवानामात्मा । श० १४ । ३ । २॥ ७॥
सर्वेषामु हैष देवानामात्मा यद्वायुः। श०९।१।२।३८॥
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[ वायुः
( ५०० ) वायुः एकाह वाव कृत्स्ना देवता ऽर्धदेवता एवा ऽन्याः । अयमेव
(वायुः) यो ऽयम्पवते । जै० उ०३।१।१॥ ,, द्यौरसिवायौ श्रिता। तै० ३ । ११ । १।१०॥ ,, वायुरस्यन्तरिक्षे श्रितः। दिवः प्रतिष्ठा । ते० ३ । ११।१।९॥ , वायुर्वै नभसस्पतिः । गो० उ० ४ ॥ ९ ॥ ,, वायुर्वा अन्तरिक्षस्याध्यक्षाः । तै० ३।२।१ ॥ ३ ॥ , (प्रजापतिः) भुव इत्येव यजुर्वेदस्य रममादत्त । तदिदमन्तरिक्षमभवत् । तस्य यो रसः प्राणेदत् स वायुरभवद्रसस्य
रसः। जै० उ० १ । १ । ४॥ ., वायुर्दिशां यथा गर्भः । श० १४ १९ । ४ । २१ ॥ , वायुरेव यजुः । श० १०।३।५।२॥ , वायोयजुर्वेदः (अजायत) । श० ११ । ५।८।३॥ ,, यजुषां वायुर्देवतं तदेव ज्योतिस्त्रष्टुभं छन्दो ऽन्तरिक्ष स्थानम् ।
गो० पू०१॥ २९॥ , त्रैष्टुभो हि वायुः । श०८।७। ३ । १२ ॥ " वायुरध्वर्युः । गो० पू० १॥ १३॥ " वायुर्वा अध्वर्युः । गो० पू० २ ॥ २४ ॥ , वायुर्वी एतं (आदित्य) देवतानामानशे । तां० ४ । ६।७॥ , तदसावादित्य इमाल्लोकान्त्सूत्रे समावयते तद्यत्तत्सूत्रं वायुः
सः । श० ८।७ । ३। १० ॥ , एष वा अपा७ रसो यो ऽयं पयते स एष (वायुः ) सूर्ये
समाहितः सूर्यात्पवते । श०५।१।२। ७॥ अयं वै वायुर्यो ऽयं पवतऽ एष वाऽ इद सर्व प्रप्याययति यदिदं किंच वर्षत्येष वाऽ एतासां (गवां) प्रप्याययिता। श०१। ७।१।३॥
अयं वै वर्षस्येष्टे यो ऽयं ( वायुः) पवते । श० १ । ८ । ३ । १२॥ ,, तस्माद्यां दिशं वायुरेति तां दिशं वृष्टिरन्वेति । श० ८ । २।
यस्माद्गायत्रमध्यो द्वितीयः (त्रिरात्रः) तस्मात्तिर्यङ् वायुः पवते । तां०१०।५।२॥
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( ५०१ )
वारवन्तीयम् ]
बाबुः तस्मादेष (वायुः) दक्षिणैव भूयिष्ठं वाति । श०८ । १ । १ । ७ ॥
८ । ६ । १ । १७ ॥
शुक्लो हि वायुः । श० ६ । २ । २ । ७ ॥
तथेति वायुः पवते । जै० उ० ३ | ६ | २ ॥
अनिरुको हि वायुः । श० ८ | ७ | ३ | १२ |
शान्तिर्हि वायुः । तां० ४ । ६ । ९ ॥
वायोर्निष्ट्या (= "स्वातिः" इति सायणः) । तै०१ । ५ । १ । ३ ॥ ३ । १ । १ । १० ॥
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( वायोः) मेनका व सहजन्या (यजु० १५ | १६) चाप्सरसाविति दिक् चोपदिशा चेति ह स्माह माहित्थिरिमे तु ते द्यावापृथिवी । श० ८ । ६ । १ । १७ ॥
तस्य (वायोः ) रथस्वनश्च रथेवित्रश्न ( यजु० १५ । १५ ) सेनानीग्रामण्याविति प्रेष्मौ तावृतू । श० ८ । ६ । १ । १७ ॥ तम् (वायु) एताः पञ्च देवताः परिम्रियन्ते विद्युद्रष्टिश्चन्द्रमा आदित्यो ऽग्निः । ऐ० ८ | २८ ॥
सोऽयं (वायुः) पुरुषे ऽन्तः प्रविष्टस्त्रेधा विहितः प्राण उदानो व्यान इति । श० ३ । १ । २ । २० ॥
दारवतीयम् (साम) अग्निर्वा इदं वैश्वानरो दहनैत्तस्माद्देवा अभियुस्तं वरणशाखया ऽवारयन्त यदवारयन्त तस्माद्वारवन्तीयम् । तां० ५।३।९॥
सो (अग्निः ) ऽश्वो वारो भूत्वा पराजेत् । तं वारवन्तीयेनावारयत । तद्वारवन्तीयस्य वारवन्तीयत्वम् । तै० १ । १ । ६ । ३ ॥
31
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79
यदवारयन् (= देवा आदित्यस्याधः पातं निवारितवन्तः ) तद्वारवन्तीयस्य वारवन्तीयत्वम् । तै० १ । ५ । १२ । १ ॥ (विष्णुः पशून् ) वारवन्ती येनावारयत । तै०२ । ७ । १४ |२॥ पशवो वै वारवन्तीयम् | तां० ५ | ३ | १२ | वारवन्तीयमग्निष्टोमसाम कार्य्यं यज्ञस्यैव छिद्रं वारयते ! तां० ९ । ६ । ११ ॥
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[वालखिल्याः ( ५०२ ) वारवन्तीयम् वारवन्तीयमग्निष्टोमसाम कार्यामिन्द्रियस्य वीर्य्यस्य परि.
गृहीत्यै । तां०९।५।९।। वारवन्तीयमाग्निष्टोमसाम भवतीन्द्रियस्य वीर्यस्य परिगृहीत्यै । तां० १८।६।१६ ॥ केशिने वा एतद्दाल्भ्याय सामाविरभवत् । तां०
१३।१०।८॥ , रेवतीनाथं रसो यद्वारवन्तीयम् । तां० १३ ॥ १० ॥५॥ वार्चन्ने सामनी ऐयाहा इति वा इन्द्रो वृत्रमहन्नैयादोहो वेति न्यगृहा
द्वान्ने सामनी वीर्यवती । ओज एवैताभ्यां वीर्यमव
रुन्धे । तां. ११ । ११ । १२, १३ ॥ बार्शम् ( साम) वृशो वैजानस्त्रयरुणस्य त्रैधात्वस्यैश्वाकस्य पुरोहित
आसीत्स ऐक्ष्वाको ऽधावयत् ब्राह्मणकुमार रथेन व्यछिनल पुरोहितमब्रवीत्तव मा पुरोधायामिदमी
गुपागादिति तमेतेन साना समैरयत्तद्वाव स तरी. कामयत, कामसनि साम वार्श, काममेवैतेनावरुन्धे।
तां० १३ । ३ । १२॥ चालसिल्या: (चः) यद्वा उर्वरयोरसंमिन्नं भवति खिलमिति वै
तदाचक्षते वालमात्रा उ हेमे प्राणा असंभिभास्तचद. संमिन्नास्तस्माद्वालखिल्याः। कौ० ३०। ८॥ प्राणा वै वालखिल्याः प्राणानेवैतदुपदधाति ता यद्वालखिल्या नाम यहाड उर्वरयोरसम्भिनं भवति खिल इति वै तदावक्षते वालमात्रादु हेमे प्राणा असम्भिन्नास्ते यद्वालमात्रादसम्भिशास्तस्माद्वालाविल्याः । श० ८।३।४।१॥ प्राणा वालखिल्याः। ऐ०६ । २६ ॥ कौ० ३०। ८ ॥ प्राणा वै वालखिल्याः । ऐ०६।२८ ॥ गो० उ०६॥ ८॥ यदि वालखिल्याः प्राणानस्यांतरियात् । ऐ०५॥ १५ ॥ पशवो वालखिल्या: । तां० २०।९।२॥ प्रगाथा वै वालखिल्याः । ऐ०६।२८॥ ऐन्द्रयो वालखिल्याः (ऋचः) । ऐ० ६ । २६ ॥
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५०३ )
विंशतिः] बाबाता (पत्नी) भुव इति वावाता । तै०३।९।४।५॥ बासः रूपं वा एतत्पुरुषस्य यद्वासः । श०१३।४।१।१५॥
, तस्मादु सुवासा एव बुभूषेत् । श०३।१।२।१६॥ ., ओषधयो वै वासः । श० १।३।१।१४॥ , सर्वदेवत्य वै वासः। ते०१।१।६। ११ ॥ १।३।७।३॥ ,, सौम्य हि देवतया वासः। तै०१।६।१।११ ॥२।२।५।२॥
तस्य वा एतस्य वाससः। अग्नेः पर्यासो भवति वायोरन. छादो नीविः पितृणा सणां प्रघातो विश्वेषां देवानां तन्तव आरोका नक्षत्राणामेव हि वाऽ एतत्सर्वे देवा अन्वा. यत्ताः । श०३।१।२। १८ ॥
त्वग्धि वासः । श०४।३।४।२६॥ ,, तद्वै निष्पेष्टव ब्रूयाद्यदवास्य ( वाससः ) अत्रामेध्या (स्त्री)
कृणत्ति ( =Spins ) वा वयति वा तदस्य ( वाससः) मेध्य.
मसदिति । श० ३ । १ ।२ । १९ ॥ वासिष्ठम् (साम ) वसिष्ठो वा एतेन वडवः स्तुत्वाञ्जसा स्वर्ग लोक
मपश्यत् स्वर्गस्य लोकस्यानुख्यात्यै स्वर्गालोकान च्यवते
तुष्टुवानः । तां० ११ । ८ । १४॥ वास्तव्यः (रुद्रः) यशेन वै देवाः। दिवमुपोदकामनथ यो ऽयं देवः
(रुद्रः) पशूनामीष्ट स इहाहीयत तस्माद्वास्तव्य इत्याहुवास्तौ हि तदहीयत । श०१। ७।३।१॥ वास्तव्यो वाऽ एष (रुद्रः) देवः । श०५।२।४।१३ ॥
५।३।३। ७॥ वास्तु वास्तु हि तयक्षस्य यद्धृतेषु हविःषु ( अवशिष्यते)। श.
, वास्त्वनुष्टुब्वास्तु स्विष्टकृत् । श०१।७।३।१८॥ , पेसुकं वैवास्तु पिस्यति ह प्रजया पशुभिर्यस्यैवं विदुषो ऽनुष्धभौ
भवतः । श०१।७।३।१८ ॥ , अवीयं वै वास्तु । श० १ । ७।३।१७॥ वि अन्नं वै व्यने हीमानि सर्वाणि भूतानि विष्टानि । श०१४।८।१३॥३॥ विंशतिः प्रजापतेर्विसस्तादाप आयंस्तास्वितास्वविशद्यदषिशत्तस्मा.
विधेशतिः । श०७।५।२५॥
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[विदद्वसुः
( ५०४ ) विककृतः (वृक्षविशेषः) प्रजापति- प्रथमामाहुतिमजुहोत्स हुत्वा यत्र
न्यमृष्ट ततो बिकङ्कतः समभवत् । श० ६।६।३।१॥
स (प्रजापतिः) हुत्वा न्यमृष्ट । ततो विकतः समभवत्तस्मादेष यशिया यज्ञपात्रीयो वृक्षः । ।०२।२।४।१०॥
यशो विकङ्कतः । श० १४ । १।२।५॥ ., अग्नेसृष्टस्य यतः। विकङ्कतं भा आच्छत् । तै० ११॥३॥१२॥
यत्ते सृष्टस्य यतः । विकङ्कतं भा आर्छजातवेदः । ते० १२।१।७॥
सैषा प्रथमाहुतियद्विकङ्कतः । श०६।६।३।१॥ , वज्रो वै विकङ्कतः । श० ५।२।४ । १८॥ विकर्णी (इष्टका) वायुर्वै विकर्णी । श० ८ । ७ । ३ । ९ ॥
,, आयुर्वै विकर्णी। श० ८ । ७ । ३ । ११ ॥ विषनः (क्रतुः) इन्द्रमदेव्यो माया असचन्त स प्रजापतिमुपाधावत्त.
स्मा एतं विघनं प्रायच्छत्तन सर्वा मृधो व्यहत यस्यहत तद्विघनस्य विघनत्वम् । तां० १९ । १९ । १॥ इन्द्रो ऽकामयत पाप्मानं भ्रातृव्य विहन्यामिति स एतं विध. नमपश्यत्तेन पाप्मानं भ्रातव्यं व्यहन् वि पाप्मानं भ्रातृव्यं हते य एवं वेद । तां० १९ । १८ । २॥ (इन्द्र.) तं (विधन) आहरत् । तेनायजत । तेनैवासा (विशां) त सस्तम्भं व्यहन् । तद्विधनस्य विघनत्वम् । तै० २।
७। १८ ॥१॥ विचक्षणम् चक्षु विचक्षणं वि होनेन पश्यतीति । ऐ० १॥ ६॥
, चक्षुर्वै विचक्षणं चक्षुषा हि विपश्यति । कौ०७॥३॥ वितस्तिः हस्तो वितस्तिः । श०१०।२।२।८॥ वित्तम् एतावान्खलु वै पुरुषो यावदस्य वित्तम् । तै० १।४।७।७॥ विदद्वसुः यशो ऽसुरेषु विदद्वसुः । ता० ८।३।३॥
, यो वै विदद्वसुः । तां० ११ । ४।५॥ है यज्ञो विदद्वसुः। तां०१५। १०।४॥ ,, विदद्वसु वै तृतीरपवनम् । तां० ८।३।६ ॥
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। ५०५ )
विद्युत् ] विदामः (यजु० ।। ३६) विदान इति विद्वानित्येतत् । श० ६।४।२।७॥ विदेहाः सैषा (सदानीरा नदी ) अप्येतर्हि कोसलविदेहानां मर्यादा ।
श०१।४।१।१७॥ विधा विद्या वै धिषणा । तै०३।२।२।२॥ , विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाA I तवाऽहमस्मि त्वं मा पालयस्वाउनहते मानिने नैव मा दा गोपाय मा श्रेयसे ते ऽहमस्मीति वि. द्यया सह म्रियेत न विद्यामूषरे वपेद् ब्रह्मचारी धनदायी मेधावी श्रोत्रियः प्रियो विद्यया वा विद्यां यः प्राह तानि तीर्थानि षण्ममेति (निरुक्ते अ० २ खं०४॥ मनुस्मृतौ २।११२-११.)। संहितो० ख०३॥ विद्यया देवलोकः (जय्यः) देवलोको वै लोकाना श्रेष्ठस्तस्मा.
विद्यां प्रशासन्ति । २०१४।४।३।२४ ॥ विद्युत् (प्रजापतिः) तान् ( देवान् ) व्यद्यत् (=पाप्मनः सकाशाद् "वि.
योगितवान्" इति सायणः) । यद्यद्यत् । तस्माद्विद्युत् । तै० ३ । १० । ९ । १॥ विद्युब्रह्मेत्याहुः । विदानाद्विाद्विद्यत्येन सर्वस्मात्पाप्मनो य
एवं वेद विद्युब्रह्मेति विद्युद्धयेव ब्रह्म । श० १४ । ८ । ७।१॥ , विद्यद्वाऽ अशानः । श०६।१।३।१४॥ , विद्यत्सावित्री । जै० उ०४।२७ ॥ विद्युदेव सविता । गो० पू० १ । ३३ ॥
अथैतस्यामुदीच्यान्दिशि भूयिष्ठं विद्योतते । १०२ ॥ ४॥ , वृष्टिवै याज्या विद्युदेव, विद्युद्धीदं वृष्टिमन्नाद्यं सम्प्रयच्छति ।
ऐ०२। ४१ ॥ वृष्टिवै विराट् तस्या एते घोरे तन्वौ विधुध द्वादुनिश्च । श०
१२। ८।३ । ११॥ , विद्युदाऽ अपां ज्योतिः ( यजु०१३ । ५३) । श० ७ । ५।
२॥४९॥ , (वलो(राय) विद्युत्स्तनः । श6 | ३३११५॥ , यो विधुति (पुरुषा) स सर्वरूपः। सर्षाणि लेतस्मिा रूपाणि।
जै० २०१।२७।६॥
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[विराट
( ५०६ ) विद्वांसः ये वै विद्वासस्ते पक्षिणो ये ऽविद्वातस्ते ऽपक्षाखि
वृत्पञ्चदशावेव स्तोमो पक्षौ कृत्वा स्वर्ग लोकं प्रयन्ति ।
तां० १४ । १ । १३॥ , विद्वासो हि देवाः । श० ३।७।३।१०॥ विधर्म (साम) विधर्म भवति धर्मस्य विधृत्यै । तां० १५ । ५ । ३१॥ विधाः (यजु० १४ । ७) आपो वै विधा अद्भिहीदछ सर्व विहितम् ।
श०.८।२।२।८। विधाता चन्द्रमा एव धाता च विधाता च । गो० उ०१।१०॥ विभूती (द्विवचने) तस्मात् (द्वे तृणे) तिरश्ची निदधाति तस्माद्वव
_ (अनयोः) विधृती (इति) नाम । श. १।३।४।१०॥ विपश्चित् यज्ञो वै बृहन्विपश्चित् । श० ३।५। ३ । १२॥ विप्रः (यजु० ११ । ४) विप्रा विप्रस्यति प्रजापति वै विप्रो देवा विधा।
श०६।३।१:१६॥ ,, एते वै विप्रा यदृषयः। श०१ । ४।२।७॥ विभावसुः ( यजु. १२ । १०६ ) (=प्रभूवसुः) महि भ्राजन्ते अर्चयो
विभावसविति मंहतो भ्राजन्ते ऽर्चयः प्रभूवसवित्येतत् ।
श०७।३।१।२९॥ विभुनयः याष्षड्विभूतय ऋतवस्ते। जै० उ० १॥ २१ ॥ ५ ॥ निदः (=विमदेन दृष्टं सूक्तम् । ऋ० १० । २१ ॥) विमदन चै देवा
असुरान्व्यमदन् । कौ० २२ ॥ ६ ॥ विमुक्तिः (अहीनस्य) अथ यत्पुरस्तादुदयनीयस्यातिरात्रस्य विमुच्यन्ते
सा विमुक्तिः। ऐ०६ ॥ २३ ॥ वियच्छन्दः (यजु० १५। ५) अहवै वियच्छन्दः। श० ८।५।२।५१ विराट् (छन्दः) विराद् विरमणाद्विराजलवा । दे० ३ । १२ ॥ ,, वृष्टिवै विराट् तस्या पते घोरे तन्वौ विद्युध द्वादुनिश्च । श.
१२।८।३ । ११॥ " विराडग्निः । श० ६ ।२।२।३४॥६।३।१।२१ ॥६॥
८।२।१२।९।१।१।३१॥ , वाग्दै विराट् । श०-३।५।१ । ३४॥ , विराढीयम् (पृथिवी) । २०२।२।१ । २०॥
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( ५०७ )
विराट] विराट् इयं (पृथिवी) वै विराट् । श०१२।६।१ । ४० ॥ गो०उ०६॥२॥ , (यजु० १३ । २४) अयं वै ( पृथिवी- ) लोको विराट् । श०
७।४।२।२३ ॥ , (यजु० १३ । ४३) विराळे गौः । श०७।५।२।१९ ॥ ,, एषावै स्तनवती विराड्यङ्कामङ्कामयते तमेतां दुग्धे ("तस्या
थ कामधुग्धेनुर्वसिष्ठस्य महात्मनः । उक्ता कामान्प्रयच्छति सा कामान्दुयते सदा॥" इति नीलकंठीयटीकायुते महाभारत आदिपर्वणि १७५ । ६॥ 'विश्वरूपी' 'शबली' इत्येतौ शब्दा
वपि पश्यत)। तां० २० । १।५॥ , अन्नं विराट् । कौ० ९।६१२ ॥ ३॥ तै० १।६।३।४॥
१।८।२।२॥ तां०४।८।४॥ , अन्नं विराट् तस्माद्यस्यैवेह भूयिष्ठमन्नं भवति स एव भूयिष्ठं
लोके विराजति तद्विराजो विराट्त्वम् । ऐ०१।५॥ ,, अन्नं वै विराट् । श०७।५।२ । १९ ॥ ऐ०१।५॥४॥ १२॥
५। १९ ॥ ६ ॥ २०॥ , अन्नं वै श्रीविराट् । गो० पू०५।४॥ गो० उ०१।१९ ॥ , श्रीविराडनाधम् । कौ०१।१॥२॥३॥१२।२॥ १५ ॥
श्रीवै विराह यशो ऽन्नाद्यम् । गो० पू० ५। २०॥ गो० उ०
एतद्वै कलमन्नाधं यद्विराट् । कौ० १४ । २ ॥ ,, विराडमाद्यम् । ऐ० ४ । १६ ॥८॥४॥ , विराट् । तै०१।२।२।२॥ , वैराजी; आपः । कौ० १२ ॥ ३॥ , वैराजो वै पुरुषः। तां०२।७। ८॥१९ । ४।५॥ तै० ।।
९।८।२॥ , विराड् वै यमः । श०१ । १ । १ । २२ ॥ २ १ ३ । १ । १८ ॥
४।४।५। १९॥ , वैराजों यज्ञः । गो० पू०४ । २४॥ गो० उ०६॥ १५ ॥ , विराइ वा अग्निष्टोमः । कौ०१५।२॥ , वैराजः सोमः । कौ० ।। ६॥ श०३।३।२।१७॥३!
९।४।१६ ॥
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[विराद
( ५०८ ) विराट् विराड् वरुणस्य पत्नी । गो० उ० २।९॥ ,, अथेतद्वामे ऽक्षणि पुरुषरूपम् । एषास्य (दक्षिणे ऽक्षणि वर्त
मानस्येन्द्राख्यस्य पुरुषस्य) पत्नी विराट् ! श० १४६११॥३॥ , सा (विराद ) तत ऊध्वारोहत् । सा रोहिण्यभवत्। तै०
१ । १ । १०॥६॥ , विराट् सृष्टा प्रजापतेः। ऊर्ध्वारोहद्रोहिणी। योनिरग्नेः प्रतिष्ठि
तिः। तै०१।२।२।२७॥ ,, सर्वदेवत्यं वा एतच्छन्दो यद्विराट् । श०१३।४।६।१३ ॥ , सत् (उत्कृष्टमिति सायणः) विराट् छन्दसाम्। तां०१५।१२।२।
विराट् छन्दसां (सत्) । तां० ४ । ८ । १०॥ , विराड् वै छन्दसां ज्योतिः तां०६।३।६॥ , विराढि छन्दसा ज्योतिः । तां. १०।२।२॥
विराजो वा एतद्रूपं यदक्षरम् । तां० ८ । ६ । १४ ॥ ,, दशाक्षरा वै विराट् । श०१।१।१।२२॥ ,, दशाक्षरा विराट् । ऐ०६।२० ॥ गो० पू०४ । २४ ॥ गो० उ०
१।१८॥६१२, १५॥ तां०३।१३। ३॥ ,, दशदशिनी विराट् । कौ० २।३॥ १७ । ३॥ १६ । ५, ७॥ ,, दश च ह वै चतुर्विराजो ऽक्षराणि । गो० पू०५। २०॥ , त्रिंशदक्षरा वै विराट् । ऐ०४।१६॥ ८॥ ४॥श०३।५।१।७॥ त्रिशदक्षरा विराट् । तै० ३ । ८ । १० । ४ ॥ तां० १० । ३ । १२॥ तै०१।६।३।४॥
सा विराट् त्रयस्त्रिंशदक्षरा भवति । ऐ०२:३७ ॥ ,, त्रयस्त्रिंशदक्षरा वै विराट् । कौ० १४ । २॥ १८ ॥ ५ ॥ श०
३।५ । १।८॥ , एषा वे परमा विराट यश्चत्वारिशदात्रयः पङ्क्तिः परमा
विराट् । तां० २४ । १० । २ ॥ ,, सहस्राक्षरा वै परमा विराट् । तां० २५।९।४॥ , विराड़ वाऽ अनाधृष्टं छन्दः । यजु०१४।९) श० ८।२।४।४॥ ,, स (प्रजापतिः) पुरुषमेधेनेष्ट्वा विराडिति नामाधत्त । गो०
पू०५। ८॥
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( ५०९ )
विशः] विराट् वृद्विराद । तै०१।४।४।९॥ विरोचनः प्रह्लादो ह वै कायाधवो विरोचन स्वं पुत्रमपन्यधत्त ।
नेदेनं देवा अहनन्निति । तै०१।५।९।१॥ ,, प्रह्लादो वै कायाधवः विरोचनं स्वं पुत्रमुदास्यत् । स
प्रदरो ऽभवत् । तै० १।५।१०। ७॥ विलम्पसापर्णम् ( साम ) यदन्तरात्मा पक्षौ विलम्बते तस्माद्विलम्ब
सौपर्णम् । तां०१४।९। २०॥ विवधश्छन्नः (यजु० १५/५) अन्तरिक्षं वै विवधश्छन्दः । श०
८1५।२१५॥ विवर्तो ऽष्टाचत्वारिंशः ( यजु० १४ । २३) संवत्सरो वाव विवतॊ ऽष्टा
चत्वारिशस्तस्य षडविशतिरर्धमासास्त्रयोदश मासाः सप्तऽर्तवो द्वे अहोरात्रे तद्यत्तमाह विवर्त इति संवत्सराद्धि सर्वाणि भूतानि विवर्तन्ते।
श०८।४।१ । २५ ॥ विवलं छन्दः (यजु० १४ । ९) एकपदावै विवलं छन्दः । श० ८।२।।
विवस्वान् असो वाऽ आदित्यो विवस्वानेष ह्यहोरात्रे विवस्ते तमेष
वस्ते सर्वतो ह्येनेन परिवृतः। श०१० ।५।२।४॥ , विवस्वन्नादित्यैष ते सोमपीथः । श०४।३।५।१८ ॥ ,, (देवा आदित्याः) यं ( मार्तण्डं ) उ ह तद्विचक्रुः, स
विवस्वानादित्यस्तस्येमाः प्रजाः । श०३।१ । ३।४॥ विवाहः तस्मादु समानादेव पुरुषादत्ता (=भर्ता) चाद्यः (भार्थ्या)
च जायतेऽइदई हि चतुर्थे पुरुषे तृतीये सङ्गच्छामहऽ इति
विदेवं दीव्यमाना जात्याऽआसते । श० १ । ८ । ३ । ६ ॥ , सा (सुकन्या) होवाच यस्मै मां पितादावाहं तं जीवन्त.
हास्यामीति । श.४।१ । ५ ॥२॥ विशः यज्ञो वै विशो यज्ञ हि सर्वाणि भूतानि विष्टानि । श० ८ । ७ ।
। (यजु०३८ । १९) यज्ञो वै विद । श० १४ । ३ । १ ॥९॥ , विडुक्थानि । तां०१८ । ८ । ६॥ १२ ।।६।६॥ ., विद् शस्त्रम् । ष०१।४॥
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[ विशः
( ५१० )
विश: विट् सूक्तम् । ऐ० २ । ३३ || ३ | १२ ॥
विशो ग्रावाणः । श० ३ । ९ । ३ । ३ ॥ विडे ग्रावानः । तां० ६ ॥ ६१ ॥
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विशो चै सूच्यः । श० १३ । २ । १० । २ ॥
विशो होत्राशंसिनः । ऐ० ६ । २१ ॥
विट् सप्तदशः । तां० १८ । १० । ९ ॥
विड् वै सप्तदशः | तां० २ । ७ । ५ ॥ २ । १० । ४ ॥
विशः सप्तदशः । ऐ० ८ । ४ ॥
वर्षाभिर्ऋतुनादित्याः स्तोमे सप्तदशे स्तुतं वैरूपेण विशौजसा ।
तै० २ । ६ । १६ । १–२॥
राष्ट्राणि वै विशः । ऐ०
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" विद् सुरा । श० १२ । ७ । ३ । ८ ॥
आद्या हीमाः प्रजा विशः । श० ४ । २ । १ । १७ ॥
अन्नं वै विशः । श० ४ | ३ | ३ | १२ || ५ | १ | ३ | ३ || ६ |
७।३।७ ॥
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विड् वै गभः । श० १३ । २ । ९ । ६ ॥ विद्वै शकुन्तिका (यजु० २३ । २२) । श०
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तै० ३ । ९ । ७ । ३॥
विद्वै हरिणी । तै० ३ । ९ । ७ । २ ॥
विशो विश्वे देवाः । श० २ | ४ | ३ | ६ ॥ ३ । २ । १ । १६ ॥
विशो वै विश्वे देवाः । श० ५ । ५ । १ । १० ॥
विशो वै पस्त्याः । श० ५ । ३ । ५ ।
३ । ९ । ७ । ३५ ॥
१३ । २ । ९ । ६ ॥
८ । २६ ॥
१९ ॥ ५ । ४ । ४ । ५ ॥
गो० उ० ६ । ३ ॥
अन्नं विशः । श० २ । १ । ३ । ८ ॥
अन्नं वै क्षत्रियस्य विट् । श० ३ । ३ । २ । ८ ॥
तस्माद्राष्ट्री विशं घातुकः । श० १३ । २ । ९ । ६ ॥ तस्माद्राष्ट्री विशमन्ति । श० १३ । २ । ९ । ८॥
दैव्यो वा एता विशो यत्पशवः । श० ३ । ७ । ३ । ६ ॥ अपरजना ह वै विशो ऽदेवीः । गो० उ० ६ । १६ ॥
क्षत्रं वै प्रस्तरो विश इतरं बर्हिः । श० १ । ३ । ४ । १० ॥ तस्माद् ब्रह्म च क्षत्रं च विशि प्रतिष्ठिते । श० ११ । २ । ७ । १६ ॥
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विश्वकर्मा] विशः स्वरिति (प्रजापतिः) विशम् (अजनयत)। श० २ । १।४।१२॥ ,, स विशमसृजत यान्येतानि देवजातानि गणश आख्यायन्ते
वसवो रुद्रा आदित्या विश्वे देवा मरुत इति । श०१४ाबा२।२४॥ , पूषा विशां विट्पतिः। तै०२।। ७१४॥ , तस्याः (विशः ) राजा गर्भः । तां०२।७।५ ॥ , आहुतादो वै विशः । श०२।५। २ । २४॥ , भूमो वै विट् । श० ३।६।१ । १७ ॥ •, अनिरुक्तेव हि विद् । श०९।३।१।१५ ॥ विशाखे ( =नक्षत्रविशेषः ) इन्द्राग्नियोर्विशाखे । ते० १।५।१ । ३॥ , नक्षत्राणामधिपत्नी विशाख । धेष्टाविन्द्राग्नी भुवनस्य गोपौ।
तै० ३।१।१ । ११ ॥ , (प्रजापते क्षत्रियस्य ) ऊरू विशाखे । तै०१।५।२।२॥ विशालं छन्दः (यजु० १५ । ५) अयं चै ( पृथिवी- )लोको विशालं
छन्दः । श० ८।५।२।६ ॥ , ( यजु०१४ । ९) द्विपदा वै विशालं छन्दः । श० ८ ।
२।४।२॥ विशोविशीयम् (साम) अग्निरकामयत विशो विशो ऽतिथिः स्यां विशो
विश आतिथ्यमश्नुवीयेति स तपो ऽतप्यत स एत. द्विशोविशीयमपश्यत्तेन विशो विशो ऽतिथिरभवत् विशो विश आतिथ्यमाश्नुत विशो विशा जतिथिभवति विशो विश शातिथ्यमश्नुते विशोविशीयेन तुष्टुवानः ।
तां० १४ । ११ । ३७ ॥ विश्वकर्मा अथो विश्वकर्मणे । विश्वं वै तेषां कर्म कृतं सर्व जितं
भवति ये संवत्सरमासते । श०४।६।४।५॥ , (यजु० १३१५८) वाग्वै विश्वकर्मऽर्षिाचा हीद सर्व
कृतम् । श०८।१।२।९ ॥ ( यजु० १३ । १६ ॥ १४ । ५, ९) प्रजापति विश्वकर्मा। श० ७।४।२।५॥ ८।२।१।१०॥ ८।२।३ । १३ ॥
संवत्सरो विश्वकर्मा । प्रे०४।२२॥ , असौ नै विश्वकर्मा यो ऽसौ (सूर्य) तपति । कौ ५१५॥
गो० उ०१।२३॥
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[ विश्वजित्
( ५१२ )
विश्वकर्मा विश्वकर्मा त्वादित्यैरुत्तरतः पातु । श० ३ । ५ । २ १७ ॥ असौ (द्यौः) विश्वकर्मा । तै०३ । २ । ३ । ७ ॥
तस्य ( इन्द्रस्य ) असौ ( - )लोको नाभिजित आसीत्तं (इन्द्रः) विश्वकर्मा भूत्वाभ्यजयत् 1 तै० १० १ । २ । ३ । ३॥ इन्द्रो वै वृत्रं हत्वा विश्वकर्मा भवप्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्रा विश्वकर्मा ऽभवत् । ऐ० ४ । २२ ॥
विश्वकर्मायमग्निः । श०९ । २ । २ । २ || ६ | ५ | १ | ४२ ॥ ( यजु० १३ | ५५ || १५ | १६ ) अयं वै वायुर्विश्वकर्मा यो ऽयं पवत एष ही सर्व करोति । श० ८ । १ । १ ७ ॥
८ ! ६ । १ । १७ ॥ वैश्वकर्मण एककपालः पुरोडाशो भवति विश्वं वा एतत्कर्म कृत सर्वजितं देव (नाप्रासीत्सक मेवै रोजानानां विजिग्यानानाम् । श०२ । ५ । ४ । १० ।।
( प्रजापतिः) वैश्वकर्मणं पुरुषं ( आलिप्त ) । श० ६ । २ । १ । ५ ॥
विश्वजित (यज्ञ) (देवाः) विश्वजिता विश्वमजयन् । ० २२८|५॥ विश्वजिता वै प्रजापतिः सर्वाः प्रजा अजनयत्सर्वमुदजयन्तस्माद्विश्वजित् । कौ० २५ | १३ ॥
एष ह प्रजानां प्रजापतिर्यद्विश्वजित् । गो० पू० ५ । १० ॥ प्रजापतिर्विश्वाजेत् । कौ० २९ । ११, १२, १५ ॥
ततो वा इदमिन्द्रो विश्वमजयद्यद्विश्वमजयत्तस्माद्विश्वजित् । तां० १६ । ४ । ५ ।
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इन्द्रो विश्वजिदिन्द्रो हीदं सर्वं विश्वमजयत् । कौ० २४ ॥ १ ॥ अथ यद्विश्वजितमुपयन्ति । इन्द्रमेव देवतां यजन्ते । श १२ । १ । ३ । १५ ॥
सर्वे विश्वजित् । कौ० २५ । १४ ॥
सर्व वै विश्वजित् । श० १० । २ । ५ । १६ ॥
स वा एष विश्वजिद्यः सहस्रसंवत्सरस्य प्रतिमा ग्रा०
पू० ५ । १० ॥
एकाहो वै विश्वजित् । कौ० २५ । ११
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( ५१३ ) विश्वरूपः ] विश्वजित् स कृत्स्नो विश्वजिद्यो ऽतिरात्रः । को० २५ । १४ ॥
, चक्रीवान्वः एष (विश्वजित् यज्ञः कामाय । तां०१६। १५॥४॥ विश्वज्योतिः ( उक्थ्यः साहस्त्र एकाहः) पशवो वा उक्थानि पशवो
विश्वं ज्योतिर्विश्व एव ज्योती पशुषु प्रतितिष्ठति । तांक १६।१०।२॥ ( इष्टका ) एता ह्येव देवताः ( अग्निः, वायुः, आदित्यः) विश्वं ज्योतिः । श०६।३।३।४।६।५।३।३॥
अग्निवै प्रथमा विश्वज्योतिः। श०७।४।२।२५ ॥ वायुर्वं मध्यमा विश्वज्योतिः । श० ८।३।२।१ ॥ प्राणो वै विश्वज्योतिः। श० ७॥ ४ । २ । २८ ॥ ८ । ३ । २।४॥ ८। ७।१।२२ ॥ प्रजा वै विश्वज्योतिः। श०७।४।२। २६ ॥ ८।३।
प्रजा वै विश्वज्योतिः प्रजा ह्येव विश्वं ज्योतिः। श०६।
। कीकसा विश्वज्योतिः। श० ७।५।१३५ ॥ विश्वधायाः ( यजु० १३ । १८ ) (पृथिवी) अस्या, हीद सर्व
हितम् । श०७।४।२।७॥ , वृष्टिवै विश्वधायाः। तै०३।२।३।२॥ विश्वप्रीः ( अनुवाकः ) सप्त ते अग्ने समिधः सप्त जिह्वा इति विश्वप्रीः ।
तै०३। ११ । ९ । ९॥ विश्वम् यद्वै विश्व सर्व तत् । श० ३ । १ । २॥ ११ ॥
, तदनं वै विश्वम्प्राणो मित्रम् । जै० उ०३।३।६॥ विश्वरूपः त्वष्टुर्ह वै पुत्रः । त्रिशीर्षा षडक्ष आस तस्य त्रीण्येव मुखा.
न्यासुस्तद्यदेवरूप आस तस्माद्विश्वरूपो नाम । श० १ ।
७।३।१॥ ५। ५।४।२॥ ,
तस्य (विश्वरूपस्य ) सोमपानमेवैकं मुखमास । सुरापाणमेकमन्यस्माऽ अशनायैकं तमिन्द्रो दिद्वेष तस्य तानि शीर्षाणि प्रचिच्छेद । श० १ । ६ । ३ । २॥ स ( इन्द्रः) यत्र त्रिशीर्षाणं स्वाष्ट्र विश्वरूपं जघान । श० १।२।३।२।।
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[विश्वराजा ( ५१४ ) विश्वरूपी (कामधेनुः ) इयं ( पृथिवी) वै देव्यदितिर्विश्वरूपी
(विश्वरूपाधेनुः कामदुधा मे अस्तु-अथर्व० ४। ३४ ॥ ८॥ विश्वरूपा धेनुः कामदुधा ऽस्येका-अथर्व० ९ । ५ । १० ॥ पश्चिमा वारुणी दिक्च धार्यते वै सुभद्रया । महानुभावया नित्यं मातले विश्वरूपया ॥ सर्वकामदुधा नामधेनुर्धार यंत दिशम् । उत्तरां मातले धा तथैलविलसंशिताम् ॥ इति महाभारते उद्योगपर्वणि १०२ । ९-१०॥ अथर्ववेदे १२ । १ । ६१ ॥ पृथिवीसूक्ते-त्वमस्यावपनी जनानामदितिः कामदुधा पप्रथाना....'अत्र पृथिवी-कामदुधा )। तै०१।७।६। ७ ॥ 'शबली' 'विराट्' इत्येतावपि शब्दो
पश्यत ॥ विश्वव्यचाः (यजु० १३ । ५६ ॥ १५ । १७) असो वाऽ आदित्यो विश्व
व्यचा यदा होवैष उदेत्यर्थदर्छ सर्व व्यचो भवति। श०८।
१।२।१॥ ८।६।१।१८॥ . ( अजु. १८। ४१ ॥ वात: ॥ ) एष ( वातः ) हीद सर्व
व्यचः करोति । श०९।४।१।१०॥
अन्तरिक्ष विश्वव्यचाः । तै० ३।२।३।७॥ विश्वसृजः एतेन (सहस्रसंवत्सरसत्रेण) विश्वसृज इदं विश्वम सृजन्त ।
यद्विश्वमसृजन्त। तस्माद्विश्वसृजः (='तपः' 'ब्रह्म' 'सत्यम्' इत्येवमादयः)। तै०३।१२। । । ८ ॥ यधिश्वमसूजन्त तस्माद्विश्वसृजः ('तपः' 'ब्रह्म' 'इरा' 'अमृतम्' इत्येवमादयः) । तां० २५ । १८ ॥२॥ ( विश्वसृजो दश-अथर्व० ११ । ९ । ४ ॥ मनुस्मृतौ । ३४-३५:-अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् । पतीन्प्रजानामसज महर्षीनादितो दश । मरीचिमव्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलह क्रतुम् । प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च ॥) सत्य ह होतेषामासीत् यद्विश्वसृज आसत । ते० ३। १२।९।३॥
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( ५१५ ) विश्वे देवाः विश्वाची (अप्सराः नेदिः । यजु० १७ । ५९) विश्वाचीरभिचष्टे घृताची
रिति चश्चैतद्वेदीश्चाह । श०९।२।३ । १७ ॥ , (यजु० १५ । १८) वेदिरेव विश्वाची। श०८।६।१॥१९॥ विश्वानि धामानि ( यजु० ४ । ३४ ) अङ्गानि वै विश्वानि धामानि ।
श०३।३।४।१४॥ विश्वामित्रः विश्वस्य ह वै मित्रं विश्वामित्र आस विश्वं हास्मै
मित्रं भवति य एवं वेद । ऐ०६१२०, २१ ॥ (यजु० १३ । ५७ ) श्रोनं वै विश्वामित्र ऋषिर्यदेनेन सर्वतः शृणोत्यथो यदस्मे सर्वतो मित्रं भवति तस्माच्छ्रोत्रं विश्वामित्र ऋषिः । श० ८।१।२१६॥ तदन्नं वै विश्वम्प्राणो मित्रम् । जै० उ० ३ । ३ ! ६॥ वाग्वै विश्वामित्रः । कौ०१०। ५ ॥ १५ ॥ १ ॥ २६ । ३॥ जन्हुचीवन्तो (? ='जह्नोः पुत्रा ऋचीवन्नामाकाः' इति सायणः ) राष्ट्र आहिंसन्त स विश्वामित्रो जाह्नवो राजैतम् (चतूरात्रम् ) अपश्यत् स राष्ट्रमभवदराष्ट्रभितरे।
तां० २१ ॥ १२ ॥ २॥ विश्वायुः इयं (पृथिवी ) वै विश्वायुः । ० ३।२।३।७॥ विश्वा समानि ( यजु. १२ । १३) इमे वैलोका विश्वा सद्मानि । मा०
६।७।३।१०॥ वित्र देवाः एते वै सर्वे देवा यद्विश्वे देवाः । कौ०४॥ १४॥ ५॥२॥ . एते वै विश्वे देवा यत्सर्वे देवाः। गो० उ० १ ॥ २० ॥ . यदस्मिन्विश्वे देवा असीदस्तस्मात्सदो नाम तऽ उऽएवा
स्मिन्नेते ब्राह्मणा विश्वगोत्राः सीदन्ति ! श.३।५।३। ५ ॥३।६।१।१॥ रश्मयो बस्य (सूर्यस्य ) विश्वे देवाः। श० ३।९।२।
तस्य (सूर्यस्य ) ये रश्मयस्ते विश्वे देवाः । ।०४।३। १।२६॥ एते वै विश्वे देवा रश्मयः । श०२।३।१।७॥ पते वै रक्ष्मयो विश्वे देवाः०१३।४।४।६॥
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[ विश्वे देवाः
( ५१६ )
विश्वे देवाः प्राणा वै विश्वे देवाः ( यजु० ३८ | १५ ) | श० १४ । २ ।
२ । ३७ ॥
ऋतवो वै विश्वे देवाः (यजु० १२ । ६२ ) । श० ७ । १ ।
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१ | ४३ ॥
इन्द्राग्नी वै विश्वे देवाः । श० २ । ४. ४ । १३ ॥
इद्वाग्नी हि विश्वे देवाः । श० ३ । ९ । २ । १४ ॥
अथ यदेनं ( अग्निम् ) एकं सन्तं बहुधा विहरन्ति तदस्य वैश्वदेवं रूपम् । ऐ० ३ | ४ ॥
श्रोत्रं विश्वे देवाः । श० ३ । २ । २ । १३ ॥
ता ( दिशः) उ एवं विश्वे देवाः । जै० उ०२।२ । ४ ॥ २ । ११ । ५ ।।
स (प्रजापतिः) विश्वान्देवानसृजत तान्दिक्षूपादधात् ! श० ६ : १ । २ । ९ ॥
'विश्वे त्वा देवा वैश्वानराः कृण्वन्त्वानुष्टुभेन छन्दसाङ्गि रस्वत् ( ध्रुवासि दिशोसि' यजु० ११ । ५८) इति दिशो हैतजुरेतद्वै विश्वे देवा वैश्वानरा एषु लोकेषूखायामेतेन चतुर्थेन यजुषादिशो ऽदधुः । श० ६ | ५ | २ | ६ | विश्वे त्वा देवा वैश्वानरा धूपयन्त्वानुष्टुभेन छन्दसाङ्गिरस्वत् (यजु० ११ । ६० ) | श० ६ । ५ । ३ । १० ॥ विश्वे देवा उपद्रवः । जै० उ० १ । ५८ । ९ ॥ वैश्वदेवो वै पूतभृत् । श० ४ । ४ । १ । १२ ॥
तस्य ( प्रजापतेः) विश्व देवाः पुत्राः । श० ६।३।१ । १७ ॥ वैश्वदेवो हि वैश्यः । तै०२ । ७ । २ । २ ॥
विडु विश्व देवाः । श० १० । ४ । १।९ 11
विशां विश्वे देवाः । श०१४ | ३ | ६ ॥ ३ । ९ । १ । १६ ॥ विशो वै विश्वे देवः १ ० ५ । ५ । १ । १० ॥ वेश्वदेव्यो वै प्रजाः । तै० १ । ६ । २ । ५ ॥ १ । ७ । १० १२|| तान् ( पशून् ) विश्वे देवाः सप्तदशेन स्तोमेन नाप्नुवन् । तै० २ । ७ । १४ । २ ॥
- पशवो वै वैश्वदेवम् ( शस्त्रम् ) । कौ० १६ । ३ ॥
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( ५१७ ) विश्वे देवाः] विश्वे देवाः वैश्वदेवो वाऽ अश्वः । श० १३ । २ । ५। ४ ॥ तै० ३।९।
२४॥३।९ ११ ॥१॥ वैश्वदेवी वै गौः । गो० उ०३ । १९ ॥ वैश्वदेवं वा अन्नम् । तै०१।६। १ । १० ॥ विश्वेषां वा एतद्देवाना, रूपम् । यत्करम्याः। तै० ३।८। १४।४॥ सर्वमिदं विश्वे देवाः । श०३१९।१।१४॥४।४।१।९,१८॥ सर्व वै विश्वे देवाः । श. १ ! ७। ४ । २२ ॥३।९।१। १३॥४।२।२।३॥५।५।२।१०॥ विश्व देवा एव सर्वम् । गो० पू०५।१५॥ अनन्ता विश्वे देवाः । श०१४।। १ । ११॥ विश्व वै देवा देवानां यशस्वितमाः । श०१३ : १।२।८॥ ते ३।८।७।२॥ बृहस्पतिर्विश्वैर्देवैः (उदक्रामत्) । ऐ.१ । २४ ॥ वैश्वदेवानि हाङ्गानि । ऐ०३।२॥ ते ( विश्वे देवाः ) अब्रुवन्यैश्वदेवं सानो वृणीमहे प्रजनन· मिति । ० उ. २ ५२ । २ ॥ वैश्वदेवौ वाऽ अम्भृणावतो हि देवेभ्य उन्नयन्त्यतो मनुष्येभ्यो ऽतः पितृभ्यः । श०४।५।६।३॥ अथ यद्दशरात्रमुपयन्ति। विश्वानव देवान्देवतां यजन्ते । श० १२ । १ । ३ । १७ ॥ वैश्वदेवो द्वादशकपालः (पुरोडाशः)। तां०२१ । १०।२३ ॥ विश्व देवा द्वादशकपालेन तृतीयसवने (आदित्यमाभिष. ज्यन्) । तै० १५ ॥ ११ ॥ ३॥ वैश्वदेवं वै तृतीयसवनम् । ऐ०.६ । १५ ॥ श०१।७।३। १६ ॥४।४।१ । ११ ॥ जै० उ० ११.३।४॥ अथ यां वीवयन्निव प्रथयन्निव गायति सा वैश्वदेवी (आगा) । तया एतीयसवनस्योद्नेयम् । जै० उ०१॥ ३७॥४॥ अथैनं (इन्द्र) उदीच्यां दिशि विशेदेवाः ......अभ्याषिचन् धराज्याय । ऐ० ८ । १५॥
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[विष्णुः
( ५१८ ) विश्वे देवाः विश्वे त्वा देवा उत्तरतो ऽभिषिञ्चन्त्वानुष्टुभेन छन्दसा।
तै०२।७।१५। ५॥ विश्वदेवनेत्रेभ्यो देवेभ्यः पश्चात्सद्भन्यः स्वाहा । श०५।
२।४।५॥ विषम् यवमात्रं वै वियस्य न हिनस्ति । गो० उ० १ ॥ ३ ॥ विषुवान् देवलोको वा एष यद्विषुवान् । ता० ४।६।२॥
विषुवान्यै पश्चममहः । तां० १३ । ४ । १६ ॥ १३ । ५॥१०॥ ... आत्मा वा एष संवत्सरस्य यहि षुवान् । तां०४।७।१॥
आत्मा व संवत्सरस्य विषुवानङ्गानि मासाः । श० १२ । २।३।६॥ आत्मा वै सवत्सरस्य विषुवानङ्गानि पक्षौ (दक्षिणः पक्ष उत्तरः पक्षश्च ) । गो० पू०४।१८ ॥
एतच्छिरो यज्ञस्य यद्विषुवान् । कौ० २६ । १ ॥ , अथ यद्विषुवन्तमुपयन्ति । आदित्यमेव देवतां यजन्ते । श०
१२ । १ । ३ । १४॥ विष्टम्भः (यजु० १४ । ९) प्रजापति विष्टम्भः । श० ८।२।३ । १२॥ विष्टारपङ्क्तिश्छन्दः ( यजु० १५। ४ ) दिशो वै विष्टारपङ्क्तिश्छन्दः ।
श०८1५।२१४॥ विष्णुः तद्यदेवेदं क्रीतो विशतीव तदु हास्य (सोमस्य) वैष्णवं रूपम्।
कौ०८॥२॥ ,, यो वै विष्णुः स यज्ञः। श० ५।२।३।६ ॥ ,, विष्णुर्यज्ञः । गो० उ०१ । १२॥ तै०३।३।७।६॥ , विष्णुवै यज्ञः। ऐ०१।१५ ॥ ,, 'पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ' ( यजु० १ । १३) इति यही वै विष्णुर्य
शिये स्थ इत्येवैतदाह । श०१।१।३।१॥ , (यजु० २२ । २०) यज्ञो वै विष्णुः । श०१३ । १। ८1॥ । यो वै विष्णुः । कौ० ४ । २॥ १८ । ८, १४॥ तां० २ । ६।१०॥
श० १।१२।१३॥ ३।२।१॥ ३९॥ गो० उ०४॥६॥
तै०१।२।। ., यशो वै विष्णु शिपिविष्टः । ता है । ७।१०॥
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विष्णुः] विष्णुः यशो वै वैष्णुवारुणः। कौ० १६ । ८ ॥ ,, यो विष्णुः । श. १।६।३।९॥ तां०१३।३।२॥ गो०
उ०६ । ७॥ , विष्णवे हि गृह्णाति यो यज्ञाय (हविः) गृह्णाति। श०३।४।१.१४॥ ,, अथेमं विष्णुं यज्ञं श्रेधा व्यभजन्त । वसवः प्रातःसवन
रुद्रा माध्यन्दिन सवनमादित्यास्तृतीयसवनम् । श०१४ ।
१।१॥ १५ ॥ , (आदित्यः)स यः स विष्णुर्यज्ञः स । स यः स यशो ऽसौ स
आदित्यः । श० १४ । १ । १।६॥ ,, स उ एव मखः स विष्णुः । श० १४ । १।१।१३ ॥ ,, (प्रजापतिः) यजुभ्यो ऽधि विष्णुं ( असृजत )। तद्विष्णुं यश
आर्छत् । तं (विष्णु) आलभत । विष्णोरध्योषधीरसृजत ।
तै० २।३।२।४॥ , यजूषि विष्णुः (स्वभागरूपेणाभजत)। श०४।६।७।३॥ , यो वै विष्णुः सोमः सः । श०३।३।४।२१॥ ३॥ ६ ॥ ३॥ १९ ॥ " जुष्टा विष्णव इति । जुष्टा सोमायेत्येवैतदाह (विष्णुः लोमः)
। श०३।२।४ । १२॥ , यत्तदन्नमेष स विष्णुर्देवता । श० ७।५।१ । २१ ॥ ,, वीर्य विष्णुः । तै० १॥ ७ ॥ २ ॥ २ ॥ , प्रादेशमात्रोवैगर्भो विष्णुः। श०६।५।२।८॥६।६।२।१२॥
७।५।१ । १४ ॥ आग्निर्वाऽ अहः सोमो रात्रिरथ यदन्तरेण ( अह्नो रात्रेश्च यो ऽन्तरालः कालः) तद्विष्णुः । श०३।४।४।१५ ॥ यदह दीक्षते तद्विष्णुर्भवति । श० ३।२।१। १७ ॥ विष्णुः सर्वा देवताः । ऐ०१।१॥
तस्मादाहुर्विष्णुवाना श्रेष्ठ इति । श० १४ । १।१।५॥ , अग्निर्वे देवानामवमो विष्णुः परमः । ऐ० १ ॥ १॥ , अन्तो विष्णुदैवतानाम् । तां० २१ । ४ । ६॥ ,, अग्नि देवानामवरायो विष्णुः परायः । कौ० ७ ॥१॥ , अग्निर्वे यज्ञस्यावरार्यो विष्णुः परायः । श०५।२।३।६॥ , एते चै यस्यान्त्ये तन्वौ यदग्निश्च विष्णुश्च । ऐ०१।१॥
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[ विष्णुः
( ५२० )
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विष्णुः अग्नाविष्णू वै देवानामन्तभाजौ । कौ० १६ ॥ ८ ॥ आग्नावैष्णवमेकादशकपालं पुरोडाशं निर्वपति । श० ३ । १ ।
३ । १ ॥ ५ । २ । ३ । ६ ॥
यज्ञो विष्णुः स देवेभ्य इमां विक्रान्ति विचक्रमे यैषामियं विक्रान्तिरिदमेव प्रथमेन पदेन पस्पाराथेदमन्तरिक्षं द्वितीयेन दिवमुत्तमेन । श० १ । ९ । ३ । ९
यज्ञो वै विष्णुः स देवेभ्य इमां विक्रान्ति विचक्रमे यैषामियं विक्रान्तिरिदमेव प्रथमेन पदेन पस्पाराथेदमन्तरिक्षं द्वितीयेन दिवमुत्तमताम्वेवैष एतस्मै विष्णुर्यज्ञो विक्रान्ति विक्रमते । श० १ । १ । २ । १३ ॥
इमे वै लोक विष्णोर्विक्रमणं विष्णोर्विक्रान्तं विष्णोः क्रान्तम् । श० ५ । ४ । २ । ६ ॥
स (विष्णुः ) इमाँलो कान्विचक्रमे ऽथो वेदानथो वाचम् । ऐ० ६ । १५ ॥
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वामनो ह विष्णुरास (विष्णुपुराणे ३ । १ । ४२-४३ :- मन्वन्तरे तु संप्राप्ते तथा वैवस्वते द्विज । वामनः कश्यपाद्विष्णुरदित्यां संबभूव ह ॥ त्रिभिः क्रमैरिमाँल्लोकाञ्जित्वा येन महात्मना । पुरन्दराय त्रैलोक्यं दत्तं निहतकंटकम् ॥ ) | श० १ । २ । ५ । ५ ॥
स हि वैष्णवो यद्वामनः ( गौः ) । श० ५ । २ । ५ । ४ ॥ वैष्णवं वामनं (पशु) आलभन्ते । तै० १ । २ । ५ । १ ॥
वैष्णवो वामनः (पशुः ) । श० १३ । २ । २ ।९॥ चक्रपाणये ( विष्णवे ) स्वाहा । प० ५ । १० ॥
विष्णुवै देवानां द्वारपः । ऐ० १ । ३० ॥ विष्णवाशानां पते । तै० ३ । ११ । ४ । १ ॥
तस्य (विष्णोः ) उपपरासृत्य । ( वम्रयः ) ज्यामपिजस्तस्यां छिन्नायां धनुराम्य विष्फुरन्थ्यौ विष्णोः शिरः प्रचिच्छिदतुः (विष्णोर्हयग्रीवावतारकथा :- देवीभागावते १।५ । १९, २५, २६, ३०, ४२ ॥ १ । ६ । ८-९ ॥ हयशिरा विष्णुः - नीलकंठीयटीकायुते महाभारते शान्तिपर्वणि, ३४७ । ४८ ॥ ) | श १४ । १ । १ । ९ ॥
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( ५२१ )
विष्णुः] विष्णुः तस्य (मखस्य-विष्णोः) धनुरानिर्दा पतित्वा शिरोऽछिन
त्स प्रवर्यो ऽभवत् । तां० ७ । ५। ६॥ ,, ( वध्यङ्काथर्वणः ) तौ ( अश्विनौ ) ह (छिन्नस्य विष्णुशिरसः
पुनःसन्धानविद्याऽध्यापनार्थ) उपनिन्ये तो यदोपनिन्ये ऽथास्य ( दधीच आथर्वणस्य ) शिरश्छित्वान्यत्रापनिदधतुरथाश्वस्य
शिर आहृत्य तद्धास्य प्रतिदधतुः। श० १४ । १।१ । २४॥ .. विष्णुर्वे यज्ञस्य दुरिष्टं पाति । ऐ०३।३८॥७॥ ५ ॥ , पहिर्विष्णोः पत्नी। गो० उ०२।९॥ ,, शृण्वन्ति श्रोणाममृतस्य गोपां।......महीं देवीं विष्णुपत्नीमजू
र्याम् । तै० ३।१ । २ । ५-६ ॥ , विष्णोः श्रोणा ( =श्रवण नक्षत्रमिति सायणः )। तै० १।५।
१।४॥ ,, यच्छ्रोत्रं स विष्णुः । गो. उ०४ । ११ ॥
वैष्णवाः पुरुषाः। श०५।२।५।२॥ , वैष्णवो हि यूपः । श० ३।६।४।१॥ ,, वैष्णवत्रिकपालः (पुरोडाशः)। तां० २१ । १० । २३ ॥ .. अथ यद्वैष्णवः। त्रिकपालो वा पुरोडाशो भवति चरुर्वा ।
श० ।२।५।४॥ ,. तान् (पशून ) विष्णुरेकविशेशेन स्तोमेनाप्नोत् । तै० २ ।
७।१४। । , ( उपसहेवतारूपाया इषोः ) विष्णुस्तेजनम् । ऐ० १ । २५ ॥ , तथैवैतद्यजमानो विष्णुर्भूत्वमाल्लोकान् क्रमते । स यः स
विष्णुर्यज्ञः सः। श० ६ । ७।२।१०-११ ॥ तधदेनेन ( यक्षेन विष्णुना ) इमाथे सर्वार्थ (पृथिवीं) सम
विन्दन्त तस्माद्वोदिन म । श० १ ।२।५।७॥ ,, यन्वेवान विष्णुमन्वविन्दस्तस्माद्वेदिर्नाम । श०१॥२॥५॥१०॥ , वैष्णव हि हविर्धानम् । श० ३।५।३। १५ ॥ ,, या सा द्वितीया (ओङ्कारस्य) मात्रा विष्णुदेवत्या कृष्णा
वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद्वैष्णवं पदम् । गो० पू० १।२५॥
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[ वृकः
( ५२२ )
विष्णुक्रमाः एतद्वै देवा विष्णुर्भूत्वे मांल्लोकानक्रमन्त यद्विष्णुर्भूत्वा
क्रमन्त तस्माद् विष्णुक्रमाः । श० ६ । ७ । २ । १० ॥ तद्वाऽ अहोरात्रेऽएव विष्णुक्रमा भवन्ति । श० ६ ।
७ । ४ । १० ॥
अहर्वे विष्णुक्रमाः । श० ६ । ७ । ४ । १२ ॥
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विपश्छन्दः (यजु० १५ । ५) असौ वै (-) लोको विष्पर्धा छन्दः ।
२०८।५।२।६॥
वियम् (सूक्तम् ) जमदग्नेश्च वा ऋषीणाञ्च सोमौ ससुतावास्तां तत एतज्जमदग्निर्विहव्यमपश्यत्तमिन्द्र उपावर्तत यद्विव्यं होता शंसतीन्द्रमेवैषां ते तां० ६ । ४ । १४ ॥ बीइम् (साम) च्यवनो वै दाधीचो ऽश्विनोः प्रिय आसीत्मो जीर्य्यसमेतेन साम्नाप्सु व्यैङ्कयतान्तं पुनर्युवानमकुरुतां तद्वाव तौ (अश्विन) तकामयेतां कामसनि साम वीऊं काममेवैतेनावरुन्धे : तां० १४ । ६ । १० ॥
वीणा श्रियै वाऽ एतद्रूपं यद्वीणा । श० १३ | १ | ५ | १ ॥
श्रिया वा एतद्रूपम् । यद्वीणा । तै०३ । ९ । १४ । १ ॥
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श्रीति: (यजु० ११ । ४६) अग्न आयाहि वीतयऽ इत्यषितवऽ इत्ये
तत् । श० ६ । ४ । ४ । ९ ॥
वीरः (4 जु० ४ । २३) पुत्रो वै वीरः ।
श० ३ । ३ । १ । १२ ॥
( वीरता - यजु० ७ । १२) अता हि वीरः । श० ४ । २ । १ । ९॥
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प्राणा वै दश वीराः (यजु० १० १९ । ४८) । श० १२ । ८ । १ । २२ ॥ वीर्यम् वीय्यं विष्णुः । तै० १ । ७ । २ । २ ॥
वीर्य वा इन्द्रः । त० ९ । ७ । ५, ८ ॥ गो० उ० ६ | ७ ॥
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यदा वै पुरुषः श्रियं गच्छति वीणास्मै वाद्यते । श १३|१|५|१ ||
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वीर्य वा अग्निः । तै० १ । ७ । २ । २ ॥ गो० उ० ६ । ७ ॥
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वीर्य्य षोडशी । श० १२ । २ । २ । ७ ॥
इन्द्रियं वीर्य्य षोडशी । तो० २१ । ५ । ६ ॥
इन्द्रियं वै वीर्य्यं वाजिनम् (ऋ० १० । ७२ । १०) । ऐ० ११९३ ॥ वीर्ये त्रिष्टुप् । श० ७ | ४ | ३ | २४ ॥
तिष्ठन्वै वीर्यवत्तरः । श० ६ । ६ । २ । १ म
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वृकः अथ यत्कर्णाभ्यामद्रवत्ततो वृकः समभवत् । श० २२५|४|१०॥
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( ५२३ )
वृत्रः] का मूत्रादेवास्योजो ऽस्रवत् । स वृको ऽभवदारण्याणां (-नां)पशू: - नां जूतिः । श० १२।७।१।८॥ वृक्षस्याप्रम् श्री वृक्षस्याग्रम् । नै०३।९।७।४॥ पत्रः वृत्रो ह वा इद- सर्व वृत्वा शिश्य । यदिदमन्तरेण द्यावा
पृथिवी स यदि सर्व वृत्वा शिश्ये तस्माद् वृत्रो नाम । श०
१।१।३।४॥ ,, स यद्वर्तमानः समभवत् । तस्माद् वृत्रः। श.१।६।३।९॥ , तथैवैतद्यजमानः पौर्णमासेनैव वृत्रं पाप्मान हत्वापहतपा
मैतत्कारभते । श०६।२।२।१९ ॥ ,, पाप्मा वै वृतः। श० ११ । १ । ५। ७॥ १३।४।१ । १३॥ ,, (यजु० ११ । ३३) वृत्रहणं पुरंदरमिति पाप्मा वै वृत्रः पापमहनं
पुरन्दरमित्येतत् । श०६।४।२।३॥ ,, इन्द्रो वै वृत्रहा। कौ० ४।३॥ ,, वृत्रशकुं दक्षिणतो ऽघस्यैवानत्ययाय । श० १३ ।८।४।१॥ ,, (यजु० १०। ८) त्वयायं वृत्रं षधेदिति त्वयायं द्विषन्तं भ्रातृव्यं
बधेदित्येवैतदाह। श० ५ । ३ । ५। २८ ॥ यदिमाः प्रजा अशनमिछन्ते ऽस्माऽएवैतद् वृत्रायोदराय बलि हरन्ति । श०१ । ६ । ३ । १७ ॥ (इन्द्रः) तं (वृत्रं ) वेधान्वभिनत्तस्य यत्सौम्यं न्यक्तमास तं चन्द्रमसं चकाराथ यदस्यासुर्यमास तेनेमाः प्रजा उदरेणाधि
ध्यत् । श०१।६।३। १७॥ ,. वृत्रो पै सोम आसीत् । श०३।४।३ । १३ ॥३॥९॥ ४॥२॥
४।२।५।१५॥
अथैष एव वृत्रो यचन्द्रमाः । श० १।६।४ । १३, १८ ॥ । थानं वै पौर्णमासं ( हविः) । इन्द्रो घेतेन वृत्रमहन्नथैतदेव वृत्रहत्यं यदामावास्यं ( हविः) वृत्र यस्माऽ एतजनुषा
आप्यायनमकुर्वन् । श०१।६।४।१२॥ , महानानीभि इन्द्रो वृत्रमहन् । कौ०२३ २॥ .. (इन्द्रः) एतामिः (अनिः ) खेनं (वृत्र) महान् । श०१ । १॥३८॥
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[वृषभः
( ५२४ )
वृत्रः वृत्रतुरः (यजु० ६ । ३४) इति वृत्रं ह्येताः ( आपः ) अघ्नन् ।
शः ३ । ९ । ४ । १६ ॥
आपो ह वै वृत्रं जघ्नु स्तेन वेतद्वीर्येणापः स्यन्दन्ते ।
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मरुतो ह वै क्रीडिनो वृत्रं हनिष्यन्तमिन्द्रमागतं तमभितः परिचिक्रोडुर्महयन्तः । श० २ | ५ | ३ | ३० ॥
सयो हैवमेतं वृत्रमन्नादं वेदान्नादो हैव भवति । श० १ : ६ । ३ । १७ ॥
वृत्रन्नः या रोहिणी (गौः) सा वार्त्रघ्नी यामिद राजा संग्रामं जित्वोदाकुरुते । श० ३ । ३ । १ । १४ ॥
वार्त्रघ्नं वै धनुः । श० ५ | ३ | ५ | १७ ||
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वृत्रतुरः (यजु० ६ । ३४) वृत्रतुर इति वृत्र थं होता ( आपः ) अघ्नन् । श० ३ । ६ । ४ । १६ ॥
३ । ६ । ४ । १४ ॥
महाहविषा ह वै देवा वृत्रं जघ्नुः । श० २ । ५ । ४ः १ ॥ तैर्वै (साकमेधैः ) देवाः वृत्रपघ्नन्नेतैर्वैव व्यजयन्त येयमेषां विजितिस्ताम् । श० २ । ५ । ३ । १ ॥
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श०
( वृत्रस्य वधसमये) महान् घोष आसीत् । तां० १३ । ४ । १ ॥ अथ (वृत्रः) यदपात्समभवत्तस्मादहिस्तं दनुश्च दनायुश्च मा तेव च पितेव च परिजगृहतुस्तस्माद्दानव इत्याहुः । श० १ ६ । ३ । ९ ॥
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तस्य (वृत्रस्य) एतच्छरीरं यद्विरयो यदश्मानः । श० ३ | ४ | ३ । १३ ।। ३ । ९ |४| २ || ४। २ । ५ । १५ ।।
वृत्रस्य ह्येष कनीनकः ( यदाञ्जनम् ) । श० ३ । १ । ३ । १५ ॥ मरुतो ह वै सांतपना मध्यन्दिने वृत्र संतेषुः स संतप्तो ऽननेव प्राणन्परिदीर्णः शिश्ये । श० २ । ५ । ३ । ३ ॥
वृषः वृषो ऽग्निः समिध्यते (ऋ० ३ । २७ । १४) । श० १ । ४ । १ । २९ ॥ वृषभः (ऋ० २ | १२ | १२) वृषभ इति । एष (आदित्यः) ह्येवाऽऽसाप्रजानामृषभः । जै० उ० १ । २९ । ८ ॥
स एष (आदित्यः) सप्तरश्मिवृषभस्तुविष्मान् (ऋ० २ । १२ । १२) । जै० उ० १ । २८ । २ ॥
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वृष्टिः । पृषा (यजु० ३८ । २२) एष वै वृषा हरिर्य एष (मूर्यः) तपति । श०
१४ । ३।१।२६॥ ,, इन्द्रो वै वृषा । तां । ९ । ४ । ३ ॥ ॥ इन्द्रो वृषा ! श०१।४।१।३३॥ , समग्निरिध्यते वृषा (ऋ०३ २७ । १३) । श०१४।१ २०.॥ .. योषा वै वेदिर्वृषाग्निः । श० १ । २।५ । १५ ॥ ,, वृषा हि मनः । ।०१।४।४।३॥ ,, योषा वै ऋग्वृषा सुवः । श० १।३ । १ ॥ ९ ॥ " वृषा हि वः । श०१।४।४।३॥ , वृषा वै राजन्यः । तां ।।१०।९॥ .. हे ऽश्व त्वं ) वृषासि । तां० १।७ । १॥ .. आण्डाभ्यास हि वृषा पिन्वत । श. १४ । ३ : १ । २२॥ ,, पादै परीत्य वृषा योषामाधि द्रवति तस्या रतः सिञ्चति ।
श०२।४।४।२३॥ ,, वृषा हिङ्कारः । गो० पू०३ ॥ २३ ॥ वृषाकपिः तद्यकम्पयमानो रेतो वर्षति तस्माद्वषाकपिः, तद्वषाकपे
वृषाकपित्वम् । गो० उ० ६ । १२॥ आदित्यो वै वृषाकपिः । गो० उ०६।१२॥
आत्मा वै वृषाकपिः ऐ० ६ । २९ ॥ गो० उ० ६।८॥ , (होता) यदि वृषाकपिम् (वृषाकपिदृष्टम् ऋ० १० । ८६ ।
१-५३ एतत्सूक्तमन्तरियात्-लोपयेत्तदानीम् ) आत्मानम् ( =" मध्यदेहम्” इतिसायणः) अस्य (यजमानस्य)
अन्तरियात् । ऐ० ५। १५॥ वृष्टिः । प्रजापतिः) तं (पाप्मानं । अवृश्चत् । यदवृश्चत्। तस्मावृष्टिः।
तै० ३।१०। । , (सविता) रश्मिभिर्वर्षे (समदधात् ) । गो० पू०१ । ३६ ॥ ,, वृष्टिवै याज्या विद्युदेव विद्युद्धीदं वृष्टिमन्त्राचं संप्रयच्छति ।
ऐ०२॥४१॥ , वृष्टि विराट् तस्या एते घोरे तन्वौ विद्युच्च हादुनिश्च ।
श० १२।८।३ । ११ ॥
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वेतसः
( ५२६ ) वृष्टिः तौ (अनड्वाही ) यदि कृष्णौ स्यातामन्यतरो वा कृष्णस्तत्र
विद्यार्षिष्यत्यैषमः पर्जन्योवृष्टिमान्भविष्यतीत्येतदु विज्ञानम्।
श० ३।३।४। ११ ॥ ,, अन्नं वृष्टिः । गो० पू० ४।४।५॥ ., वृष्टिवै विश्वधायाः। तै०३ । २।३।२॥ , अयं वै वर्षस्येष्टे यो ऽयं (वायुः) पक्ते । श० १ । ८ । ३ । १२ ॥ ., तस्माद्यां दिशं वायुरेति तां दिशं वृष्टिरन्वेति। श० ८।२।३।५॥ ,, मित्रावरुणो त्वा वृष्ट्यावताम् ( यजु०२ । १६)।०१।८।
३ । १२ ॥ इतःप्रदाना वै वृष्टिरितो ह्यग्निवृष्टिं वनुते स एतैः (घृत-) स्तोंकैरेतानस्ताकान् वनुते तऽ एते स्तोका वर्षन्ति । श० ३।
८।२।२२ ॥ , अर्वाचीनाग्रा ('अवाचीनामा' इति भास्करसम्मतः पाठः) हि
वृष्टिः । तै०३१३११/३॥ “वर्षाः" इत्येतमपि शब्दं पश्यत । ., वृष्टिः सम्माजनानि । तै० ३१ ३।१।२ ॥ ,, यदा वै द्यावापृथिवी सञ्जानाथेऽअथ वर्षति ।श०९।८:३॥ १२॥ ... वृष्टि वृष्ट्वा चन्द्रमसमनुप्रविशति । ऐ० ८ ॥ २८॥ वृष्टिवनिः ( यजु० ३८।६) सूर्यस्य ह वाऽ एको रश्मिष्टिवनिर्नाम
येनमाः सर्वाः प्रजा बिभर्ति । श० १४ । २।१।२१॥ वृष्ण्यम् ( यजु. १२। ११२) रेतो वै वृष्ण्यम् । श० ७।३।१।४६ ॥ वेटकारः वषट्कारो हैष परोऽक्षं य द्वेदकारः । श० ६ । ३ । ३ । १४ ॥ वेणुः सैषा योनिरग्नेय द्वेणुः । श०६ । ३ । १३१॥ ,, अग्निदेवेभ्य उदकामल वेणुं प्राविशत्तस्मात्स सुषिरः । श.
वेतसः ताः ( आपः ) प्रजापतिमब्रुवन् । यदै नः कमभूदवाक्तदगादिति
सो ऽब्रवीदेष व एतस्य वनस्पतिर्वेत्त्विति वेतु संवेतु सो ऽह वैतं वेतस इत्याचक्षते परोऽक्षम् । श०९।१।२ । २२॥
अप्सुयोनिर्व वेतसः। श०१२ । ८।३।१५॥ , अप्सुजा वेतसः। श०१३ । २।२।१९ ॥ ,, अप्सुजो वेतसः । तै० ३ । ८ । ४ । ३ ॥३।८। १९ ।
२॥३।८। २०॥४॥
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वेदाः] वेतसः तस्मावतमो वनस्पतीनामनुपजीवनीयतमो यातयामा हि सः।
श०९।१।२।२४॥ बेदः ( -दर्भमुष्टिः) प्राजापत्यो वेदः । तै० ३ । ३।२।१॥ ., प्राजापत्यो वै वेदः । ते. ३।३।७।२॥३।३।८।९॥ , प्रजापते; एतानि श्मशूणि यद्वेदः । तै० ३ । ३ । ९ । ११ । ., योषा वै वेदिषा बंदः । श०१।९।२ । २१, २४ ॥ ,, वृषा वै वेदो योषा पत्नी। कौ० ३।९॥ वेदाः स इमानि त्रीणि ज्योतीष्यमितताप । तेभ्यस्ततेभ्यस्त्रयो
वेदा अजायन्ताग्नेक्रग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः ।
श० ११ । ५। ८॥३॥ ,, चत्वारो वा इमे वेदा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो ब्रह्मवेद इति ।
गो पू० २॥ १६ ॥ ., चत्वारो ऽस्यै ( स्वाहायै ) वंदाः शरीर षडङ्गान्यनानि ।
प०४।७॥ .. ते सर्वे प्रयो वेदाः । दश न महस्राण्यष्टौ च शतान्यशीतीनां
(१०८००४८० = ८६४००० अक्षराणि) अभवन् । श० १०।
४।२।२५॥ ,, एवमिम सर्वे वदा निर्मिताः सकल्पाः सरहस्याः सब्राह्मणाः
सोपनिषत्काः सेतिहासाः सान्व्याख्यानाः सपुराणाः सस्वराः ससंस्काराः सनिरुक्ताः सानुशासनाः सानुमार्जनाः सवाको
पाक्याः । गो० पू० । १०॥ ,, वेदो ब्रह्म । जै० उ०४।२५।३॥ ,, वेदा एव सविता । गो० पू० १ । ३३ ॥ ., तदाहुः किं तत्सहस्रम् (ऋ०६।६।९।८) इतीमे लोका इमे
वेदा अयी वागिति श्रूयात् । ऐ०६।१५ ॥ , (इन्द्रो भरद्वाजमुवाच-) अनन्ता बै वेदाः। तै०३।१०।
,, मथो सर्वेषां वा एष वेदानां रसो यत् साम । श० १२ । ८।
३।२३॥ गो० उ०५।७॥
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[ वेदिः .
( ०२८ )
वेदाः सो ऽपहतपाप्मानन्तां श्रियमश्नुते य एवं वेद यश्चैवं विद्वानेव - मेतां वेदानां मातरं सावित्रीं सम्पदमुपनिषदमुपास्ते । गो० पू० १ । ३९ ।
एतानि ह वै वेदानामन्तःश्लेषणानि यदेता ( भूर्भुवः स्वरिति ) व्याहृतयः | २०५ । ३३ ॥
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नावेदविन्मनुते तं बृहन्तम् । तै० ३ । १२ । ९ । ७ ॥
( " त्रयी विद्या" शब्दमपि पश्यत )
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वेदिः तं ( यज्ञं ) वेद्यामन्वविन्दन् यद्यामन्वविन्दस्तद्वेदेवैदित्वम् ।
ऐ० ३ ।९ ॥
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यन्न्वेवात्र विष्णुमन्वविन्दंस्तस्माद्वेदिर्नाम | श० १ । २।५।१० ॥ तद्यदेनेन ( यज्ञेन विष्णुना । इमां सर्वा ( पृथिवीं ) सम. विन्दन्त तस्माद्वेदिनी । श० १ । २ । ५ । ७ ॥
वेदिदेवेभ्यो ऽनिलायत । तां वेदेनान्वविन्दन् । तै० ३ | ३ | ९ । १० ॥
पृथिवो वेदिः । ऐ० ५ | २८ ॥ तै० ३ | ३ | ६ । २,८ ॥
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इयं ( पृथिवी ) वै वेदिः । श० ७ । ३ । १ । १५ ।। ७ । ५ । २ । ३१ ॥
। १२ ॥
एतावती वै पृथिवी । यावती वेदिः । तै० ३ । २ । ९ यावत वै वेदस्तावती पृथिवी । श० ३ । ७ । २ । १ ॥ तस्मादाहुर्यावती वेदस्तावती पृथिवीति । श० १ । २ । ५। ७ ॥ यावत वै वेदितवतीयम्पृथिवी । जै० उ० १ । ५ । ५ ॥
तस्याः ( पृथिव्याः ) एतत्परिमितं रूपं यदन्तर्वेद्यथैष भूमा परिमितो यो बहिर्वेदि । ऐ० ८ |५ ॥
वेदि परो ऽन्तः पृथिव्याः । तै ३ | ३ | ५ | ५ ॥
उर्वरा वेदिर्भवत्येतत् ( स्थानं ) वा अस्याः ( पृथिव्याः ) वीर्यवत्तमम् । तां० १६ । १३ । ६ ॥
वेदिवै देवलोकः । श० ८ । ६ । ३ । ६ ॥
वेदिर्वै सलिलम् । श० ३ । ६ । २ । ५
वेदिरेव विश्वाची ( अप्सराः । यजु० १५ | १८ ) । श० ८ । ६ ।
१ । १६ ॥
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( ५२९ ) वैखानसाः] वेदिः स विश्वाचीरभिचष्टे घृताचीः ( यजु० १७ । ५९ ) इति सच
श्वैतवेदीचाह ( विश्वाची वेदिः । घृताची-सक्) । श०९ । २।३ । १७ ॥ योषा वै वेदिः । श० १ । ३।३। ८ ॥ , योषा वै वेदिर्वषा वेदः ( दर्भमुष्टिः)। श०१।६।२ । २१, २४ ॥ ,, योषा वै वेदिषाग्निः । श०१।२।५ । १५ ॥ ,, सा वै ( वेदिः ) पश्चाद्वरीयसी स्यात् । मध्ये सर्थ बारिता पुनः
पुरस्तादुर्वी । श० १ । २।५ । १६ ॥ ,, व्याममात्री ( वेदिः ) पश्चात्स्यादित्याहुः । एतावान्वै पुरुषः
पुरुषसम्मिता हि व्यरनिः प्राची। श०१।२।५।१४॥ ,, तस्मात्यंगुला वेदिः स्यात् । श० १ । २ । ५ । ९ ॥ ,, (वेदिः) चतुरंगुलं खया । तै० ३ । २ । ९ । ११॥ , सा वै ( वेदिः) प्राक्प्रवणा स्यात् । श० १।२। ५ ॥ १७॥ ., अथो (वेदिः) उदक्प्रवणा। श०१।२।५ । १७॥ वेधाः (ऋ० ८ । ४३ । ११) इन्द्रो वै वेधाः। ऐ०६ । १० ॥ गो० उ०
२। २०॥ वेनः (ऋ० १० । १२३ । १) अयं वै वेनो ऽस्माद्वा ऊर्ध्वा अन्ये प्राणा
वेनन्त्यवाञ्चोऽन्ये तस्माद्वेनः (=नाभिः, प्राणः?)। ऐ०१:२०॥ ( यजु० १३ । ३) असावादित्यो वेनो यदै प्रजिजनिषमाणो
ऽवेनत्तस्माद्वेनः। श०७।४।१ । १४ ॥ ., (ऋ० १० । १२३ । 1 ) इन्द्र उ वै वेनः । कौ०८।५ ॥
, आत्मा वै वेनः । कौ० ८ ॥५॥ बेषः वेषाय वामिति वेवेष्टीव हि यज्ञम् । श० १ । १।२ ॥ १ ॥ वैखानसम् (साम) (इन्द्रः) तान् (मृतान् वैखानसानृषीन्) एतेन
( वैखानसाख्येन ) साना समैरयत् ( =पुनः प्राणैस्तान् समयोजयदिति सायणः) तद्वाव सतहकामयत कामसनि
साम वैखानसं काममेवैतेनावरुन्धे । तां० १४ । ४।७॥ वैखानसाः (ऋषयः) वैखानसा वा ऋषय इन्द्रस्य प्रिया आसस्तान्
रहस्युर्देषमलिम्लुङ् मुनिमरणेऽमारयत् । तां० १४॥ ४॥ ७॥
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बैरूपम्
( ५३० )
बैतहव्यम् (साम) वीतहव्यः श्रायसो ज्योग्निरुद्ध एतत्सामापश्यत्सो ऽवगच्छत्प्रत्यतिष्ठदवगच्छति प्रतितिष्ठत्येतेन तुष्टुवानः ।
तां० ९ । १ । ९ ॥
"पान्तमावो अन्धसः " ( ऋ० ८ ९२ । १ ) इति वैतहव्यम् । तां० ९ । २ । १ ।
वैदम्बितानि ( सामानि ) विदन्वान्वै भार्गव इन्द्रस्य प्रत्यहं स्तं शुगार्थत् स तपोऽतप्यत स एतानि वैदन्वितान्यपश्यन्तैः शुचमपाहता पशुवं हते वैदन्वितैस्तुष्टुवानः । तां० १३ । ११ । १० ॥
वैयश्वम् ( साम ) व्यभ्वो वा एतेनाङ्गिरसो ऽअसा स्वर्ग लोकमपश्यत् स्वर्गस्य लोकस्यानुख्यात्या एतत्पृष्ठानामन्ततः क्रियते । तां० १४ । १० । ९ ॥
वैराजम् (साम) (पिवा सोममिन्द्र मन्दतु त्वा [ ऋ० ७ | २२ । १] इत्यस्यामृच्युत्पन्नं वैराजं साम- इति ऐ० ४।१३ भाष्ये सायणः) स वैराजमसृजत तदग्नेर्घोषो ऽन्वसृज्यत । तां०७ । ८ । ११ ॥ यद् बृहत्तद्वैराजम् । ऐ० ४ । १३ ॥
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प्रजापतिर्वैराजम् । तां० १६ | ५ | १७ ॥ वैराज्यम् अथैनं (इन्द्रं) उदीच्यां दिशि विश्वे देवाः.
.... वैराज्याय । ऐ० ८ । १४ ॥
.... अभ्यषिञ्चन्
यशसो वा एष वनस्पतिरजायत यत्प्लक्षः स्वाराज्यं च ह वा एतद्वैराज्यं च वनस्पतीनाम् । ऐ० ७ । ३२ ॥ तस्मादेतस्यामुदीच्यां दिशि ये के च परेण हिमवन्तं जनपदा उत्तरकुरव उत्तरमद्रा इति वैराज्यायैव ते ऽभिषिच्यन्ते विराडित्येनानभिषिकानाचक्षते । ऐ० ८ । १४ ॥
वैरूपम् (साम) देवा वै तृतीयेनाह्ना स्वर्ग लोकमायस्तानसुरा रक्षांस्यन्ववारयन्त ते विरूपा भवत विरूपा भवतेति भवंत आयंस्ते यद्विरूपा भवत विरूपा भवतेति भवंत आयंस्तद्वै रूपं सामाऽभवद्वैरूपस्य वैरूपत्वम् । ऐ० ५ । १ ॥
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( यद् द्याव इन्द्र ते शतम् [ऋ० ८।७० | ५] इत्यस्यामृच्युत्पन्नं रूपं साम - इति ऐ० ४ । १३ भाष्ये सायणः )
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वैश्यः ] रूपम् यद्वै रथन्तरं तदैरूपम् । ऐ० ४ । १३ ॥
रथन्तरमेतत्परोक्षं यद्वैरूपम् । तां० १२ । २।५,९॥ , बृहदेतत्परोक्षं यद्वैरूपम् । तां० १२ । ८।४॥ , वाग्वैरूपम् । तां० १६ । ५। १६॥ " पशवो वै वैरूपम् । तां० १४ । २ । ८॥ , दिशां वा एतत्साम यद्वैरूपम् । तां० १२ । ४ । ७ ॥
वर्षाभिर्ऋतुनादित्याः स्तोमे सप्तदशेस्तुतं वैरूपेण विशौजसा!
तै०२।६। १९ । १-२॥ , आदित्यास्त्वा जागतेन छन्दसा सप्तदशेन स्तोमेन वैरूपेण
सानाऽऽरोहन्तु तानन्तारोहामि स्वाराज्याय । ऐ० ८ । १२॥
(ऐ०८।१७ अपि पश्यत) वैश्यः वैश्यो वै पुष्यतीव । कौ० २५। १५ ॥ , वैश्यो वै ग्रामणीः । श०५।३।१।६॥ ,, जगतीछन्दा वै वैश्यः । तै०१।१।९।७॥ , जागतो वै वैश्यः । ऐ० १ । २८ ॥ , वैश्वदेवो हि वैश्यः । तै० २।७।२।२॥ , विधु विश्वे देवाः । श०१०।४।१।९॥ , शरद्वै वैश्यस्यर्तुः । तै० १ । १।२।७॥ , तस्मादु बहुपशुर्वैश्वदेवो हि जागतो (वैश्यः) वर्षा ह्यस्य
(वैश्यस्य) ऋतुस्तस्माद् ब्राह्मणस्य च राजन्यस्य चाधो ऽधरी
हि सृष्टः । तां०६।१।१०॥ , तस्माद्वैश्यो वर्षास्वादधीत विड्ढि वर्षाः । श० २।१।३.५॥ " तस्माद्धैशीपुत्रं नाभिषिञ्चति । श०१३।२।९। ८॥ , अथ यदि दधि, वैश्यानां स भक्षो वैश्यांस्तेन भक्षेण जिन्विष्यसि
वैश्यकल्पस्ते प्रजायामाजनिष्यते ऽन्यस्य बलिकृदन्यस्याऽऽद्यो यथाकामज्येयो यदा वै क्षत्रियाय पापं भवति वैश्यकल्पो ऽस्य प्रजायामाजायत ईश्वरो हास्माद् द्वितीयो वा तृतीयो वा वैश्य
तामभ्युपैतोः स वैश्यतया जिज्यूषितः । ऐ०७॥ २६ ॥ , तस्मादपि (दीक्षितं) राजन्यं वा वैश्यं वा ब्राह्मण इत्येव याद्
ब्रह्मगो हि जायते यो यशाजायते । श०.३।२।१।१०॥ , वैश्यं च शद्रं चानु रासभः । श०६।४।४॥
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[वैश्वानरः
( ५३२ ) वैश्यः मारुतो हि वैश्यः । तै० २ । ७ । २।२॥ ,, एतद्वै वैश्यस्य समृद्धं (= समृद्धिरितिसायणः ) यत् पशवः ।
तां० १८ । ४।६॥ , विवै यवः । श० १३।२।९। ८ ॥ ,. ऋग्भ्यो जातं वैश्यं वर्णमाहुः । तै० ३।१२।२।२॥ ,, विद् तृतीयसवनम् । कौ० १६ । ४॥ , रायोवाजीयं ( साम ) वैश्याय (कुर्यात् )। तां० १३ । ४ ।
वैश्वदेवम् (पर्व) यद्विश्वे देवाः समयजन्त तद्वैश्वदेवस्य वैश्वदेष
त्वम् । तै०१।४।१०। ५॥ , प्रजापतिर्वै वैश्वदेवम् । कौ० ५ ॥१॥ " ( शस्त्रम् ) पांचजन्यं वा एतदुक्थं यद्वैश्वदेवम् । ऐ० ३॥३१॥ ,, पवमानोक्थं वा एतद्यवैश्वदेवम् । कौ० १६ । ३ ॥ ,, पशवो वै वैश्वदेवम् । कौ० १६ ॥ ३॥ वैश्वमनसम् ( साम ) विश्वमनसं वा ऋषिमध्यायमुदब्रजित रक्षो
ऽगृहात् । तां० १५ । ५। २०॥ , अपपाप्मान हते वैश्वमनसेन तुष्टुवानः । तां० १५ ।
। २०॥
वैश्वानरः स यः स वैश्वानरः । इमे स लोका झ्यमेव पृथिवी विश्व
मग्निर्नरो ऽन्तरिक्षमेव विश्वं वायुनरो द्यौरेव विश्वमादि
त्यो नरः । श० ६ । ३ । १ । ३ ॥ , इयं ( पृथिवी) वै वैश्वानरः । श० १३ । ३।८।३ ॥
एष वै प्रतिष्ठा वैश्वानरः (यत्पृथिवी)। श०१०।६।१।४॥ पादौ त्वाऽएतौ वैश्वानरस्य ( यत्पृथिवी ) । श० १० । ६ ।
१।४॥ , एष वै रयिर्वैश्वानरः ( यदापः)। श०१०।६।१।५॥
वस्तिस्त्वाऽएष वैश्वानरस्य ( यदापः )। श० १०। ६ ।
१।५॥ " एष वै बहुलो वैश्वानर ( यदाकाशः)। श० १०॥ ६ ॥
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( ५३३ ) वैश्वानरः] वैश्वानरः आत्मा त्वाऽएष वैश्वानरस्य ( यदाकाशः)। श० १० ।
, एष वै पृथग्वा वैश्वानरः (यद्वायुः)। श०१०।६।१।७॥
प्राणस्त्वाऽएष वैश्वानस्स्य यद्वायुः । श०१०।६।१।७॥ ,, असौ वै वैश्वानरो यो ऽसौ (आदित्यः) तपति । कौ०४।
३॥ १९ ॥ २॥ स यः स वैश्वानरः । असौ स आदित्यः । श०९ । ३ । १। २५॥ (सूर्य:) वैश्वानरो रश्मिभिर्मा पुनातु । तै० १ ४। ८॥३॥
एष वै सुततेजा वैश्वानरः (यदादित्यः) । श० १०६।१८॥ , चक्षुस्त्वाऽएतद्वैश्वानरस्य ( यदादित्यः) । श० १०।६।
१।८॥
एष वाऽ अतिष्ठा वैश्वानरः (यद द्यौः)। श० १०६.१९॥ , मूर्धा त्वाऽ एष वैश्वानरस्य ( यद् द्यौः) । श० १०।६।१।९॥ , स एषो ऽग्निर्वैश्वानरो यत्पुरुषः । श०१०।६।१ । ११ ॥
अयमनिर्वैश्वानरो यो ऽयमन्तः पुरुष येनेदमन्नं पच्यते यदिदमद्यते तस्यैष घोषो भवति यमेतत्कर्णावपिधाय शृणोति स यदोक्रमिष्यन्भवति नैतं घोष शृणोति । श० १४। ८।१०।१॥ वैश्वानर इति वा अग्नेः प्रियं धामः । तां० १४ । २ । ३॥ वैश्वानरो वै सर्वे ऽग्नयः । श०६।२।१।३५॥ ६।६।
, संवत्सरो ऽग्निर्वैश्वानरः । ऐ० ३ । ४१ ॥
संवत्सरो वा अग्निश्वानरः । तै० १ । ७।२।५॥ श०६। ६।१।२०॥ संवत्सरो वैश्वानरः । श० ५। २।५।१५ ॥६।२।१। ३६॥६।६।१।५॥७ ३।१ । ३५ ॥ ९।३।१।१॥ संवत्सरो वै वैश्वानरः । श० ४।२।४।४॥५॥२॥
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[व्याघ्रः वैश्वानरः संवत्सरो वै पिता वैश्वानरः प्रजापतिः। श० १।५।१॥१६॥
, वैश्वानरं द्वादशकपालं पुरोडाशं निर्वपति । श० ५।२।५।१३॥ , वैश्वानरं द्वादशकपालं (पुरेडाशं) निर्वपति । तै०१७॥२॥५॥
वैश्वानरोद्वादशकपालः (पुरोडाशः)। श०६।६ । १।५॥ विश्वे त्वा देवा वैश्वानराः कृण्वन्त्वानुष्टुभेन छन्दसालि
रस्वत् (यजु० ११ । ५८) । श०६।५।२।६॥ ,, विश्वे त्वा देवा वैश्वानरा धूपयन्त्वानुष्टुभेन छन्दसाङ्गिर
स्वत् ( यजु० ११ । ६०)। श०६ । ५। ३ । १०॥ शिर एव वैश्वानरः । श०६।६।१।९॥ शिरोवै वैश्वानरः । श०९।३।१। ७॥ क्षत्रं वै वैश्वानरः। श०६।६।१।७॥९। ३ । १ । १३ ॥
वैश्वानरो वै देवतया रथः । तै० २।२।५ । ४ ॥ , वज्रो वै वैश्वानरीयम् (सूक्तम् )। ऐ० ३ ॥ १४॥ वैष्टम्भम् (साम ) अहर्वा एतत् (तृतीयम् ) अलीयत तद्देवा वैष्टम्भ
- यष्टभ्नुवशेस्तद्वैष्टम्भस्य वैष्टम्भत्वम् । तां० १२ । ३ । १० ॥ वौषट् असौ (आदित्यः) वाव वावृतवः षट् । ऐ० ३ । ६॥ गो० उ०
३।२॥ , वौषडिति वौगिति वाऽ एष ( अग्निः) षडितीदछ षचितिक.
मन्त्रम् । श०१०।४।१ । ३ ॥ ग्यचश्छन्दः (यजु. १५। ४) असो वाऽ आदित्यो व्यचश्छन्दः । श०
८।५।२।३॥ ज्यचस्वत् (यजु० ११।३०) व्यचस्वती संवलाथामित्यवकाशवती सं.
वसाथामित्येतत् । श०६।४।१।१०॥ व्यचिष्ठः (यजु० ११ । २३ ) व्यचिष्ठमन्त्रैरभसं दृशानमित्यवकाशवन्त
मनरन्नादं दीप्यमानमित्येतत् । श०६।३।३।१९॥ ग्यच्यमानः (यजु० १३ । ४९) =उपजीव्यमानः)व्यच्यमान सरिरस्य
मध्य ऽइतीमे वै लोकाः सरिरमुपजीव्यमानमेषु लोकेष्वि
त्येतत् । श०७।५।२ । ३४॥ व्यथा ( आतिः) अनात्य त्वेत्येवैतदाह यदाहाव्यथायै त्येति । श०५ !
४।३।७॥ ग्याः क्षत्रं वा एतदारण्यानां पशूनां यत्याघ्रः । ऐ०।६॥
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( ५३५ )
व्याहतया] ग्याघ्रः ऊवध्यादेवास्य मन्युरस्रवत्स व्याघ्रो ऽभवदारण्यानां पशूना
राजा । श० १२ । ७।१।८॥ ग्याधिः ऋतुसंधिषु हि व्याधिर्जायते । कौ०५।१॥
., ऋतुसन्धिषु वै व्याधिर्जायते । गो० उ०१। १९ ॥ ज्यानः व्यानो ह्यपाशुसवनो ऽन्तरिक्ष होव व्यनन्नभिव्यनिति ।
श०४।१।२।२७॥ , (यशस्य) व्यान उपाशुसवनः । श०४।१।१।१॥ , व्यानो वरुणः । श० १२ । ९ । १ । १६ ।।
व्यानः प्रतिहा । कौ० १७ । ७ ॥ गो० उ० ५। ४॥ ,, व्यानो बृहती । तां०७।३। ८ ॥ ,, आपो व्यानः । जै० उ०४।२२। ९॥ ,, (प्रजापतिः) व्यानादमुं (धु-) लोकम् (प्रावृहत् । कौ० ६.१०॥
(तं संज्ञप्तं पशुं) दक्षिणा दिग्व्यानेत्यनुप्राणद्वयानमेवास्मिँस्तददधात् । श० ११ । ८।३।६॥ द्वितुनेति ( यजन्ति ) उपरियाद्वयानमेव तद्यजमाने दधति ।
कौ० १३ । ९ ॥ , निक्रीडित इव ह्ययं व्यानः । ष०२॥२॥
, व्यानः शस्या (ऋक्) । श० १४ । ६।१।१२॥ ज्यानट (यजु. १२११०२) =असृजत) यो वा दिव सत्यधर्मा व्यान
डिति यो वा दिव सत्यधर्मासृजतेत्येतत् । श० ७।३।१।२०॥ ग्याहृतयः एतानि ह वै वेदानामन्तःश्लेषणानि यदेता (भूर्भुवः स्व
रिति) व्याहतयः। ऐ० ५। ३३॥ एवमेवता ( भूर्भुवः स्वरिति ) व्याहृतयस्त्रय्यै विद्यायै संश्लेषिण्यः । कौ०६ । १२॥ सैषा सर्वप्रायश्चित्तियदेता व्याहृतयः। ऐ० ५। ३३ ॥ एता वै व्याहृतयः (भूर्भुवस्स्वरिति) सर्वप्रायश्चित्तयः । जै० उ० ३ । १७ ॥३॥ एता वै ( भूर्भुवः स्वरिति ) व्याहृतयः इमें लोकाः । तै०
२।२।४।३॥ .. ता वा एताः पंच व्याहृतयो भवन्त्यो श्रावयास्तु श्रौषज्यज
ये यजामहे वौषडिति । गो० पू० ५ । २१ ॥
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[ मात्याः
( ५३६ )
व्याहृतयः ता एता व्याहृतयः । प्रेत्येति वागिति भूर्भुवः स्वरित्युदिति
(प्र, आ, वाक्, भूर्भुवस्स्वः, उत्) । जै० उ० २ ।९।३॥ सर्वाप्तिर्वा एषा यदेता व्याहृतयः । ऐ० ८ । ७ ॥
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व्युष्टिः व्युष्टिर्वै दिवा, व्येवास्मै वासयति । तां० ८ । १ । १३ ॥ व्युष्टिवर्धा एष द्विरात्रो व्यवास्तै ( यजमानाय ) वासयति । तां० १८ । ११ । ११ ॥
अहर्व्युष्टिः । तै० ३ । ८ । १६ । ४ ॥
रात्रिर्वै व्युष्टिः । श० १३ । २ । १ । ६ ॥
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व्योमसद् एष (सूर्य्यः ) वै व्योमसद् व्योम वा एतत् सद्मनां यस्मिनेय आसन्नस्तपति । ऐ०४ । २० ॥
व्योमा (यजु० १४ | २३) व्योमा हि संवत्सरः । श० ८ । ४ । १ । ११ ॥ प्रजापतिर्वै व्योमा । श० ८ । ४ । १ । ११ ॥
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व्रजो गोस्थानः छन्दार्थं सि वै व्रजो गोस्थानः । तै०३ । २ । ९ । ३ ॥ व्रतपतिः अग्निर्वै देवानां व्रतपतिः । गो० उ० १ । १४ ॥ व्रतभृत् आग्नर्वै देवानां व्रतभृत् । गो० उ० १ । १५ ॥
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व्रतम् ( यजु॰ १३ । ३३ ) अन्नं वै व्रतम् । श० ७ । ५ । १ । २५ ॥
तां० २२ । ४ । ५ ॥
अन्नं व्रतम् । तां० २३ । २७ । २ ॥
अन्नं हि व्रतम् । श० ६ । ६ । ४ । ५ ॥
तदु हाषाढः सावयसो ऽनशनमेव व्रतं मेने । श० १ । १ । १ । ७ ॥ एतत्खलु वै व्रतस्य रूपं यत्सत्यम् । श० १२ । ८ । २ । ४ ॥ संवत्सरो वै व्रतं तस्य वसन्त ऋतुर्मुखं ग्रीष्मश्च वर्षाश्च पक्षी शरन्मध्यं हेमन्तः पुच्छम् । तां० २१ । १५ । २ ॥ " वीर्य वै व्रतम् । श० १३ । ४ । १ । १५ ॥
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अमानुष इव वाऽ एतद्भवति यद् व्रतमुपैति । श० १ १ ९ | ३ | २३॥ न ह वा अव्रतस्य देवा हविरश्नन्ति । ऐ० ७ । ११ ॥ कौ० ३ । १ ॥
त्रातः विषम इव वै व्रातः (= वात्यसमुदायः इति सायणः ) । तां १७ । १ । ५ ११ ॥
प्रास्याः 'बोडशस्तोमः' शब्द पश्यत ।
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( ५३७ ) शक्वर्यः ] मोहयः मज्जभ्य एवास्य भक्षः सोमपीथो ऽस्रवत्ते बहियो ऽभवन् ।
श० १२ । ७।१।९॥ , स ( मेधो देवैः ) अनुगतो बीहिरभवत् । ऐ० २ । ८ ॥
( देवाः ) तं ( मेधम् ) खनन्त इवान्वीषुस्तमन्वविन्दस्ता
विमौ ग्रीहियो । श०१।२।३।७॥ , सर्वेषां वा एष पशूनां मेधो यद् वीहियवौ । श०३।८।
" क्षत्रं वा एतदोषधीनां यद व्रीहयः । ऐ० ८ । १६ ॥
शंयुः शंयुह वै बार्हस्पत्यः सर्वान् यज्ञाऊ छमयांवकार तस्माच्छं.
योर्वाकमाह । कौ० ३।८॥ ., शंयह वै वाहस्पत्यो ऽञ्जसा यशस्य सस्थ विदांचकार स
देवलोकमपीयाय । तत्तदन्तर्हितमिव मनुष्येभ्य आस । श.
१। ६ । १ । २४॥ शंयोर्वाकः शंयुह वै बार्हस्पत्यः सर्वान् यज्ञाञ्छमयांचकार तस्माच्छं
राकमाह । कौ०३। ८ ॥
प्रतिष्ठा वै शंयोर्वाकः । कौ०३। ८॥ , प्रतिष्ठा शम्योर्वाकः । श०११ । २ । ७ । २६॥ शंसः वाक् शंसः । ऐ०२॥४॥ ६ । २७, ३२ ॥ गो० उ०६। ८ ॥ शंसति यद्वै वदति शसतीति वै तदाहुः । श०१। ८।२।१२॥ शकुन्तला शकुन्तला नाडपित्यप्सरा भरतं दधे परः सहस्रानिन्द्रा
याश्वान्मध्यान्य आहरद्विजित्य पृथिवी सर्वामिति ।
श० १३।५।४। १३॥ शकुन्तिका (यजु• २३ । २२) विट्टै शकुन्तिका । श०१३।२।६।६॥
तै०३१९:७।३॥ शकर्यः (कचः ) यदिमाल्लोकान्प्रजापतिः सृष्टेदं सर्वमशक्नोद्यदिदं
किंच तच्छक्कों ऽभवंस्तच्छक्करीणां शकरीत्वम् । ऐ० ५।७॥ इन्द्रः प्रजापतिमुपाधावद् वृत्र हनानीति तस्मा एतच्छ. न्दोभ्य इन्द्रियं वीर्य्य निर्माय प्रायछदेतेन शक्नुहीति तच्छ. करीणा शकरीत्वम् । तां० १३ । ४।१॥
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[ शतपदी
( ५३८ ) शाकर्त्यः एताभिर्वा इन्द्रो वृत्रमशकद्धन्तुं तद्यदाभित्रमशकद्धन्तुं त.
स्माच्छक्वर्यः। कौ० २३ । २॥ , एताभिः (भुरिग्भिः शक्करीभिः) वा इन्द्रो वृत्रमहन् क्षिप्रं वा
एताभिः पाप्मान हन्ति क्षिप्रं वसीयान् भवति । तां० १२ । १३ । २३॥ पशवः शक्कर्यः । तां० १३।१।३॥ पशवो वै शक्कर्यः। तां०१३।४।१३ ॥ १३ ॥ ५ ॥ १८ ॥ पशवो वै शक्करीः। तै० १ । ७।५।४॥ पशवः शकरी । तां०१२ । ७।६॥ श्रीः शक्कर्यः । तां०१३।२।२॥ शाकरो वज्रः । तै०२।१।५।११ ॥ वज्रः शक्वर्यः । तां० १२ । १३ । १४ ॥ रथन्तरमेतत्परोक्षं यच्छक्चर्य्यः । तां० १३ । २।८॥
ब्रह्म शक्कर्यः । तां० १६ । ५ । १८॥ ___ सप्तपदा वै तेषां ( छन्दसां ) परार्ध्या शकरी । श० ३ ।
९।२।१७॥ ,, सप्तपदा शक्करी । तै०२।१ । ५। ११ ॥ तां० १६ । ७।६॥ ,, स (प्रजापतिः) शक्करीरसृजत तदपाघोषो ऽन्वसृज्यत
('शाकरम्' शब्दमपि पश्यत )। तां० ७।८।१२॥ कु (साम ) तद् ( शङ्क साम ) उ सीदन्तीयमित्याहुः । तां० ११ ।
१०।१२॥ , शङ्कु भवत्यह्नो धृत्यै यद्वा अधृत शङ्खना तहाधार । तां० ११ ।
१०।११॥ शणाः यत्र वा प्रजापतिरजायत गर्भो भूत्वैतस्माद्यज्ञातस्य यनेदिष्ठ
मुल्बमासीत्ते शणास्तस्मात्ते पूतयो भवन्ति । श०३ । ।
१।११॥ " शणा जरायु । श०६।६।२।१५ ॥ शतक्रतुः इन्द्र आसीत्सीरपतिः शतक्रतुः । तै० २।४।१७॥ शतपदी वाग्वाव शतपदी । १०१।४॥ , ऋक् शतपदी । १०१।४॥
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( ५३९ )
शम् शतभिषक (नक्षत्रम् ) यच्छतमभिषज्यन् । तच्छतभिषक् । तै०१।
५।२।९॥ क्षत्रस्य राजा वरुणो ऽधिराजः। नक्षत्राणां शतभिषग्वसिष्ठः। तै० ३।१।२॥ ७॥ इन्द्रस्य (वरुणस्येति सायणः) शतभिषक् । तै०१।५।
पातम् एषा वाव यज्ञस्य मात्रा यच्छतम् । तां० २० । १५ । १२ ॥ शतरुद्रीयम् तद्यदेत शतशीर्षाण रुद्रमेतेनाशमयंस्तस्माच्छत
शीर्षरुद्रशमनीय शतशीर्षरुद्रशमनीय ह वै तच्छत. रुद्रियमित्याचक्षते परोऽक्षम् । श० ९ । १ । १।७॥ ते ( देवाः)ऽब्रुवन् । अन्नमस्मै (रुद्राय ) सम्भराम ते नैन शमयामेति तस्माऽ एतदन्न समभरज्छान्तदेवत्यं तेनैनमशमयंस्तद्यदेतं देवमेतेनाशमयंस्तस्माच्छान्तदेवत्यर्थ शान्तदेवत्य ह वै तच्छतरुद्रियमित्याचक्षते परोऽक्षम् । श०९।१।१।२॥ त्वमग्ने रुद्र इति शतरुद्रीयस्य रूपम् । ते०३ । ११ ।
९।९॥ , अहोरात्रे (संवत्सरस्य ) शतरुद्रीयम् । तै० ३ । ११ ।
१०।३॥ शबलः महर्वै शबलो रात्रिः श्यामः ( अथर्ववेदे, कां०८, सू० १,
मं०९:-श्यामश्च त्वा मा शबलश्च प्रेषितौ यमस्य यौ पथि
रक्षी श्वानो......)। कौ०२।९॥ शबली वाग्वै शबली (="कामधेनुः" इति सायणः । वाल्मीकीयरा.
मायणे बालकाण्डे ५३ । १:--एवमुक्ता वसिष्ठेन शबला शत्रुसूदन । विदधे कामधुक्कामान्यस्य यस्यप्सितं यथा ॥) तस्यास्त्रिरात्रो वत्सस्त्रिरात्रो वा एतां प्रदापयति ॥ तद्य एवं वेद तस्मा एषा ऽप्रत्ता दुग्धे ('विश्वरूपी' पृश्निः' 'विराट'
इत्येतानपि शम्दान् पश्यत )। तां० २१ । ३।१-२॥ शम् ताभ्यः श्रान्ताभ्यस्तप्ताभ्यः संतप्ताभ्यः ( वृधदादिभ्यः पंचमहा- व्यारतिभ्यः) शमित्यूर्वमक्षरमुदकामत्स य इच्छेत्सर्वाभि
रेताभिरावद्भिश्च परावद्भिश्च कुर्वीयेत्येतयैव तन्महाव्याहत्या
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[ शरद
( ५४० ) कुर्वीत । गो० पू०१॥ ११ ॥ शमनीचामेढ़ाणां स्तोमः अथैष शमनीचामेदाणा स्तोमो ये ज्येष्ठाः
सन्तो व्रात्यां प्रवसेयुस्त एतेन यजेरन् ।
तां०१७।४।१॥ शमिता अध्रिगुश्चापापश्च । उभौ देवानाथ शमितारौ। तै० ३।६।
६।४॥ , मृत्युस्तदभवद्धाता । शमितोग्रा विशां पतिः । तै० ३ । १२ ।
मृत्युः शमिता । तां० २५ । १८ । ४ ॥ शमी ( वृक्षः ) प्रजापतिरग्निमसृजत सो ऽबिभेत्प्र माधक्ष्यतीति त
शम्याशमयत् । तच्छम्यै शमित्वम् । तै० १।१ । ३ । ११ ॥ , तद्यदेत शम्याशमयंस्तस्माच्छमी । श०९।२ । ३ । ३७ ॥ ,, शमीमयं ( शङ्क) उत्तरतः, शं मे ऽसदिति । श० १३ । ८ ।
४।१॥ , शं वै प्रजापतिः प्रजाभ्यः शमीपलाशैरकुरुत । श० २।५।
२। १२॥ ,, ययाते सृष्टस्याग्नेः। हेतिमशमयत्प्रजापतिः। तामिमामप्रदाहाय
शमी शान्त्यै हराम्यहम् । तै० १ । २ । १ । ६-७॥ शम्भूर न्दः ( यजु० १५ । ४ ) द्यौर्वै शम्भूश्छन्दः । श० ८।५।२३॥ शम्या जिह्वव शम्या । श० १।२ । १ । १७ ॥ शरः अथ (इन्द्रः) यत्र ( वज्र) प्राहरत्तच्छकलो ऽशीर्य्यत स
पतित्वा शरो ऽभवत्तस्माच्छरो नाम यदशीर्यत । श०१।
२।४।१॥ , वनो वै शरः । श० ३ । १ । ३ । १३ ॥ ३।२।१ । १३ । शरद् ( ऋतुः ) शरद्वै बहिरिति हि शरदर्हिया इमा ओषधयो ग्रीष्म
हेमन्ताभ्यां नित्यक्ता भवन्ति ता वर्षा वर्द्धन्ते ताः शरदि बर्हिषो रूपं प्रस्तीर्णाः शेरे तस्माच्छरदर्हिः । श० १ । ५ । ३।१२॥ बहिर्यजति शरदमेव शरदि हि बर्हिष्ठा ओषधयो भवन्ति । कौ० ३।४॥
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( ५४१ )
शर्म] शरद् शरदि ह खलु वै भूयिष्ठा ओषधयः पच्यन्ते । जै० उ० १ ।
३५ । ५॥ ,, तस्माच्छरदमोषधयो ऽभिसंपच्यन्ते । तां० २१ । १५ । ३॥ ,, स्वधा वै शरद् । श० १३। ८।१।४ ॥ ,, शरत्प्रतिहारः । ष० ३। १॥
( प्रजापतिः) शरदम्प्रतिहारम् ( अकरोत्)। जै० उ० १ ।
१२॥ ७॥ , शरद्वै वैश्यस्यर्तुः । ते० १ । १ । २ । ७ ॥
शरद्वा अस्य (रुद्रस्य ) अम्बिका स्वला ( परिशिष्टभागे 'अम्बिका' शब्दमपि पश्यत ) । तै० १ ६ । १० । ४॥ , शरदुत्तरः पक्षः (संवत्सरस्य )। तै० । ३ । ११ । १०१४॥ ,, शरत्पुच्छम् ( संवत्सरस्य ।। तै०३। ११ । १०।३॥ ,, यद्विद्योतते तच्छरदः ( रूपम् )। श०२।२।३।८॥ ,, षभिमत्रावरुणैः । पशुभिः) शरदि ( यजत)। श० १३ ।
५। ४ । २८॥
वर्ष शरद सारस्वताभ्याम् ( अवरुन्धे)। श० १२।८।२।३४॥ १, शरब्रह्मा तस्माद्यदा सस्यं पच्यते ब्रह्मण्वत्यः प्रजा इत्याहुः ।
श० ११ । २।७ । ३२ ॥ ., शरदेव सर्वम् । गो० पू० ५। १५ ॥ शरीरम् अथ यत्सर्वमस्मिन्नश्रयन्त तस्मादु शरीरम् । श०६ । १ ।
१।४॥ ,, अशरीरं वै रेतो ऽशरीरा वपा यद्वै लोहितं यन्मांसं तच्छरी.
रम् । ऐ०२।१४॥ , शरीरं हृदये (श्रितम् ) । तै० ३।१०।८ । ७ ॥ शर्कराः तां ( पृथिवीं ) शर्कराभिरदृहत् शं वै नो ऽभूदिति तच्छ.
कराणा शर्करत्वम् । तै०१।१।३ । ७ ॥ ,, सिकताभ्यः शर्करामसृजत ! श०६ । १।३।५ ॥ . ,, शर्कराया अश्मानम् ( असृजत) तस्माच्छकराश्मैवान्ततो
भवति । श०६।१ । ३ । ५॥ शर्म चर्म वाऽ एतत्कृष्णस्य (मृगस्य ) तन्मानुष, शर्म देवत्रा ।
श०३।२।१।८॥
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[ शाकरम्
( ५४२ )
शर्म (ऋ० ३ | १३ | ४ ) वाग्वै शर्म । ऐ०२ । ४० ॥
( ऋ० ३ | १३ | ४ ) अग्निर्वै शर्माण्यन्नाद्यानि यच्छति । ऐ० २ । ४१ ॥
शर्वः यच्छa sग्निस्तेन । कौ० ६ । ३ ॥
अग्निर्वै स देवस्तस्यैतानि नामानि, शर्व इति यथा प्राच्या आचक्षते भव इति यथा वाहीकाः, पशूनां पती रुद्रो ऽग्निरिति । श० १ । ७ । ३ । ८॥
आपो वै सर्वः (= शर्वः = रुद्रः ) अद्भ्यो दीद सर्व जायते । श० ६ । १ । ३ । ११ ॥
भवः,
एतान्यष्टौ ( रुद्रः, सर्वः = शर्वः, पशुपतिः, उग्रः, अशनिः, महान्देवः, ईशानः ) अग्निरूपाणि । कुमारो नवमः । श० ६ । १ । ३ । १८ ।।
शम्मलिः शल्मलिर्वनस्पतीनां वर्षिष्टं वर्धते । श० २३ । २ । ७ ॥ ४ ॥ शल्यकः 'तस्याः (गायत्र्याः) अनु विसृज्य कृशानुः सोमपालः सव्यस्य पदो नखमच्छिदत्तच्छल्यको ऽभवत्तस्मात्स नखमिव । ऐ० ३ । २६ ॥
शवः (स्) (यजु० १२ । १०६ || १८ | ५१) बलं वै शवः । श० ७ ॥ ३ ॥ १ । २९ ॥ ९ । ४ । ४ । ३ ॥
शस्त्रम् तद्यदेनच्छ्यति तस्माच्छत्रं नाम । श० ४ । ३ । २ । ३ ॥
विद् शस्त्रम् । प० १ । ४॥
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99
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99
प्रजा शस्त्रम् । २०५।२।२ । २० ॥
वाग्धि शस्त्रम् । ऐ० ३ | ४४ ॥
"
शस्या (ऋक् ) द्यौर्लोक (द्युलोकं शस्यया (जयति) | श० १४ | ६ |
१॥९॥
39
व्यानः शस्या । श० १४ । ६ । १ । १२ ॥
33
शाकलम् (साम) एतेन वै शकलः पञ्चमे ऽह्नि प्रत्यतिष्ठत् प्रतितिष्ठति शाकलेन तुष्टुवानः । तां० १३ । ३ । १० ॥
शाकलाः प्राणा वै शाकलाः । श० १४ । २ । २ । ३१ ॥
प्राणाः शाकलाः । श० १४ । २ । २ । ५१ ॥
"
शाक्षरम् (साम) (प्रोष्वस्मै पुरोरथम् [ ऋ० १० । १३३ । १] इत्यस्यां गीयमानं शाकरं साम - ऐ० ४ । १३ भाष्ये सायणः)
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। ५४३ )
शिपिविष्टः] शाकरम् शाकर मैत्रावरुणस्य । कौ० २५ ॥ ११ ॥
, यद्रथन्तरं तच्छाकरम् ('शकर्य' शब्दमपि पश्यत) ।
शान्तिः शान्तिरापः । श० १।२।२ । ११ ॥ १ । ७।४ । ९, १७ ॥
१।६।३:२,४॥२।६।२।१८॥३।३१।७॥ शापः नैन शप्तम् । नाभिचरितमागच्छति य एवं वेद । ते०३।
१२॥ ५ ॥ १॥ शाम्मदम् (साम) शम्मद्वा एतेनाङ्गिरसो ऽअसा स्वर्ग लोकमपश्यत्
स्वर्गस्य लोकस्यानुख्यात्यै स्वर्गाल्लोकान्न च्यवते तुष्टुवानः।
तां० १५।५।११॥ शार्करम् (साम) स (शर्करः शिशुमारर्षिः) एतत् सामापश्यत्तेनापो न
समाश्नुत तद्वाव स तीकामयत कामसनि साम शार्करं
काममेवैतेनावरूधे । तां० १४।५।१५॥ शार्दूलः मृत्योर्वा एष वर्णः । यच्छार्दूलः । तै० १ । ७ । ८ ॥१॥ शाला यथा शालायै पक्षसी मध्यम वशमभिसमायच्छन्ति । तै०
१।२।३।१॥ शासः वजः शासः । श०३।८।१।॥
, असिं वै शास इत्याचक्षते । श०३।८।१।४॥ शिक्यम् विशः शिक्यं दिग्मिीमे लोकाः शक्नुवन्ति स्थातुं यच्छ
क्नुवन्ति तस्माच्छिक्यम् । श० ६ । ७।१ ! १६ ॥ ऋतवः शिक्यमृतुभिर्हि संवत्सरः शक्नोति स्थातुं यच्छक्कोति
तस्माच्छिक्यम् । श०६। ७ । १।१८॥ , प्राणाः शिक्यं प्राणैर्षयमात्मा शक्नोति स्थातुं यच्छक्कोति
तस्माच्छिक्यम् । श० ६।७।१ । २०॥ शिपिः पशवः शिपिः । ते०१।३।८।५॥ शिपिविष्टः यमुत्सीत्तमपाराप्सीत्तच्छिपितमिव यज्ञाय भवति त
स्माच्छिपिविष्टायेति । श०११ ।१।४।४॥ एषा वै प्रजापतेः पशुष्ठा तनूर्यच्छिपिविष्टः (एषा वै प्रजापतेः पशुष्ठास्तनूर्या शिपिविष्टवती-काठकसंहिता.
याम् १४॥ १०॥)। तां०१८।६।२६॥ . यो वै विष्णुः शिपिविष्टः। तां०९ । ७।१०३.
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[शिरः शिरः यच्छ्रिय समुदौहंस्तस्माच्छिरस्तस्मिन्नेतस्मिन्प्राणा अश्र.
यन्त तस्माद्ववैतच्छिरः । श०६।१।१।४॥ शिरो वै प्राणानां योनिः । श० ७ । ५ । १ । २२॥ ,, प्राणो ऽग्निः शीर्षम् । कौ०८॥ १ ॥ , गायत्रीछन्दो ऽग्निर्देवता शिरः । श०१०।३।२।१॥ , गायत्र हि शिरः । शः ८।६।२।६॥
शिरस्सूक्तम् । जै० उ०३।४ । ३ ॥ विधातु हि शिर इति । तै० ३।३ । ७१ ११ ॥ , त्रिवृद्धि शिरः । श० ८ । ४।४।४॥८।६।२१६॥ , त्रिवृद्धयेव शिरो लोम त्वगस्थि । तां० ५। १३॥ शिर एवास्य त्रिवृत् । तस्मात्तत्त्रिविधं भवति त्वगस्थि
मस्तिष्कः । श०१२ । २।४।९॥ ., त्रिवृतं ह्येव शिरो भवति त्वगस्थि मजा मस्तिष्कम् । गो.
पू०५॥३॥ ,, शिरो वा अग्रे सम्भवतः सम्भवति चतुर्दा विहितं चै शिरः
प्राणश्चक्षुः श्रोत्रं वाग् । तां० २२ । ९॥ ४॥ शिरो हि प्रथमं जायमानस्य जायते । श० ८।२।४। १८ ॥
१०।१।२।५॥ , शीर्षतो वाऽ अग्रे जायमानो जायते । श० ३।४ । १ । १९ ॥ , यस्माच्छीर्षण्येवाग्रे पलितो भवति । श०११।४।१।६॥ , द्विकपाल हि शिरः । श० १०।५।४।१२॥
तस्मादष्टाकपालं पुरुषस्य शिरः। तै० ३।२।७।४॥ प्रादेशमात्रमिव हि शिरः। श० ७।५।१।२३॥ १४।१।
२॥ १७॥ , मध्ये संगृहीतमिव हि शिरः । श० १४ । १ । २ । १७ ॥ ., तस्माच्छि!ङ्गानि मेद्यन्ति नानुमेद्यति न कृश्यन्त्यनुरुश्यति ।
तां० ५। १ । ६॥ , अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नः । इदं तच्छिरः । २०१४।५।२।५॥ , शिर एतद्यज्ञस्य यदुखा । श०६।५ । ३ । ८ ॥ ६॥१५॥ ,, शिर एव षष्ठी चितिः । श० ८। ७ । ४ । २१ ॥ ,, श्रीः (=उत्कृष्टं वस्तु) वै शिरः । श. १ । ४ । ५ ॥ ५ ॥ २ । १ ।
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शुक्रः २।८॥४।२।४।२०॥ शिल्पानि (शस्त्राणि) प्राणाः शिल्पानि । कौ० २५ ! १२, १३ ॥ __ आत्मसंस्कृतिर्वाव शिल्पानि छन्दोमयं वा एतैर्यजमान आ
त्मानं संस्कुरुते । ऐ० ६ । २७ ।। , आत्मसंस्कृतिर्वै शिल्पानि । गो० उ०६।७ ॥
यद्वै प्रतिरूपं तच्छिल्पम् । श०३।२।१।५॥ विवृद्वै शिल्प नृत्यं गीतं वादितमिति । कौ० २९ ॥ ५॥ तौ वा एताविन्द्रस्तोमो ( अभिजिद्विश्वजितौ ) वीर्यवन्तो
शिल्पं वा एतौ नाम स्तोमावास्ताम् । तां० १६ । ४।८॥ शिवः (यजु० १२ । १७) शिव शिव इति शमयत्येवैनं (अग्निम्)
एतदहिसाये तथो हैष (अग्निः) इमांल्लोकाञ्छान्तो न हिनः
स्ति (शिवः रुद्रः शान्तो ऽग्निः)। श० ६ । ७ । ३ । १५ ॥ शिशिरः षड्भिरैन्द्राबार्हस्पत्यैः ( पशुभिः ) शिशिरे ( यजते )। श०
१३।५।४।२८॥ शिशुः अयं वाव शिशुर्यो ऽयं मध्यमः प्राणः । श० १४।५।२॥२॥ शिश्नम् शिश्नं वै शोचिषकेश (ऋ० ३ । २७ । ४)शिश्न हीद
शिश्निनं भूयिष्ठ शोचयति। श० १ । ४ । ३।९॥ , वृत्तमिव हि शिश्नम् । श०७।५।१ । ३८ ॥ , योनिरुलूखलम् .....शिश्नं मुसलम् । श०७ । । । १। ३८॥ शीतम् ( यजु० २३ । २६) क्षेमो वै राष्ट्रस्य शीतम् । श० १३ । २।
९ ॥ शीतो वातः क्षेमो वै राष्ट्रस्य शीतो वातः। तै० ३:९ । ७।२॥ शुकः यामं शुकं हरितमालभेत । गो० उ०२।१॥ शुक्रः ( यजु० १८ । ५० ) असो वा आदित्यः शुक्रः। श० ९ । ४ । २ ।
२१ ॥ तां० १५ । ५। ६ ॥ ,, एष वै शुक्रो य एष (आदित्यः) तपति । श० ४।३।१।२६॥
४।३।३ । १७॥ , एष वै शुको य एष (आदित्यः) तपत्येष उऽएव बृहन् । श०
४।५।६ । ६॥ , तऽ एष एव शुक्रो य एष (आदित्यः) तपति तद्यदेष तपति
तेनैष शुक्रः । श०४।२।१।१॥
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(शुद्धाशुद्धीयम् शुक्रः तत्र ह्यादित्यः शुक्रश्चरति । गो० पू०२।६ ॥ , अस्य ( अग्नेः) एवैतनि (धर्मः, अर्कः, शुक्रः, ज्योतिः, सूर्यः)
नामानि । श०९।४।२।२५॥ , अत्ता व शुक्रः (ग्रहः) । श०५।४।४।२०॥ , अतैव शुक आद्यो मन्थी (ग्रहः)। श०४।२।१।३॥ ,, शुक्रः (=निर्मल इति सायणः) सोमः । ता० ६ । ६ । ९ ॥
(श० ३।३।३ । ६ अपि पश्यत) ,, एतौ (शुक्रश्च शुचिश्च ) एव गृष्मो ( मासौ) स यदेतयो
लिष्ठं तपति तेनो हैतो शुक्रश्च शुचिश्च । श०४।३।१।१५। शुक्रपात्रम् शुक्रपात्रमेवानु मनुष्या जायन्ते । श०४।५।५। ७॥ शुक्रम् ज्योतिः शुक्रमसौ ( आदित्यः)। ऐ०७ । १२ ॥ , शुक्र हिरण्यम् । ते०१।७।६।३॥ ,, ज्योतिर्वै शुक्रं हिरण्यम् । ऐ०७॥ १२॥ , शुक्र ह्येतच्छुक्रेण क्रोणाति यत्सोम, हिरण्येन । श०३।३।
३।६॥ ( यजु १ । ३१ ) तेजो ऽसि शुक्रमस्यमृतमसि ( आज्य !) ।
श०१।३।१।२८॥ । शुक्रा ह्यापः। तै०१।७।६।३॥ ,, सत्यं वै शुक्रम् । श० ३ । ९ । ३ । २५ ॥ शुक्लम् तद्यच्छुक्लं तद्वाबो रूपमृचो ऽग्ने मृत्योः । जै० उ०१ ॥ २५॥ ८॥ शुचिः एतौ (शुक्रश्च शुचिश्च ) एव त्रैष्मौ (मासौ) स यदेतयोबलिष्ठं
तपति तेनो हैतौ शुक्रश्च शुचिश्च । श०४।३।१।१५ ॥ ,, यत् ( अग्नेः ) शुचि ( रूपम् ) तदिवि ( न्यधत्त ) । श०२ ।
२।१।१४॥ ,, वीर्य वैशुचि यद्वाऽ अस्य ( अग्नेः) एतदुज्ज्वलत्येतदस्य वीर्य
शुचि । श० २।२।१॥ ८॥ शुद्धाशुद्धीयम् (साम) इन्द्रो यतीन् सालावृकेयेभ्यः प्रायच्छत्तमश्लीला
वागभ्यवदत्सो ऽशुद्धो ऽमन्यत स एतच्छुद्धाशुद्धीयमपश्यत्तेनाशुध्यच्छुध्यति शुद्धाशुद्धीयेन तुष्टुवानः । तां० १४ । ११ । २८॥
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( ५४७ )
शुद्रः] नम् यदै समृद्धं तच्छुनम् । श०७।२।२।९॥
या वै दवाना श्रीरासीत् साकमेधैरीजानानां तच्छुनम् ।
श०२।६।३।२॥ एनस्कर्णस्तोमः एतेन वै शुनस्कर्णो वाष्किहो ऽयजत तस्माच्छुन
स्कर्णस्तोम इत्याख्यायते । तां० १७ । १२॥ ६ ॥ यः कामयेतानामयतामुं लोकमियामिति स एतेन यजेत । तां० १७ । १२॥ १॥ प्राणानेवास्य ( यजमानस्थ ) बहिर्णिरादधाति ( स यः जमानः ) ताजक (तस्मिन्नेव काले ) प्रमीयते । नां. १७ । १२ । २॥ भार्भवपवमाने स्तूयमान औदुम्ब- दक्षिणा प्रावृतो (वेष्टितसर्वदेहः) निपद्यते तदेव (तदानीमेव ) संग
च्छते (म्रियते इति सायणः)। तां० १७ । १२ ॥ ५ ॥ शुनासीरः अथ यस्माच्छुनासीर्येण यजेत । यावै देवाना, श्रीरासीत्
साकमेधैरीजानानां विजिग्यानानां तच्छुनमथ यः संवत्सरस्य प्रजितस्य रस आसीत्तत्सीरम् । श०२।६।३।२॥
संवत्सरो वै शुनासीरः । गो० उ० १ । २६ । । , शान्तिर्वै भेषजं शुनासीरौ। कौ० ५। ८॥ ,, शुनासीर्यों बादशकपालः पुरोडाशो भवति । श०२१६।
३।५॥ शुष्णः ( दानवः ) शुष्णो दानवः प्रत्यङ् पतित्वा मनुष्याणामक्षीणि
प्रविवेश स एष कनीनकः कुमारक इव परिभासते। श०३ ।
१।३।११ ॥ शूदः स पत्त एव प्रतिष्ठाया एकविधेशमसृजत तमनुष्टुप् छन्दो
ऽन्वसृज्यत न काचन देवता शूदो मनुष्यस्तरमाच्छूद्र उत बहुपशुरयझियो विदेवो हि, न हि तं काचन देवतान्धसूज्यत
तस्मात्पादावनज्यनातिवर्द्धते पत्तो हि सृष्टः । तां०६।१।११॥ , अयक्षियान्वा एतद्यक्षेन प्रसजति शुद्रांस्त्वद्यांस्त्वत् । श०५।
३।२।४॥ " थ यद्यपः शुदाणां स भक्षः शूद्रांस्तेन भक्षेण जिन्विष्यसि
शूद्रकल्पस्ते प्रजायामाजनिष्यते ऽन्यस्य प्रेष्यः कामोत्याप्यो
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[शोशुचानः ( ५४८ )
यथाकामवध्यो, यदा वै क्षत्रियाय पापं भवति शूद्रकल्पो ऽस्य प्रजायामाजायत ईश्वरो हास्माद द्वितीयो वा तृतीयो वा शूद्र
तामभ्युपैतोः स शूद्रतया जिज्यूपितः। ऐ०७।२६ ॥ शूद्रः असतो वा एष सम्भूतः । यच्छद्रः। तै०३।२।३।९॥ ,, अनृत स्त्री शूद्रः श्वा कृष्णः शकुनिस्तानि न प्रेक्षेत । श०
१४ । १ । १ । ३१ ॥ ,, असुर्य्यः शूद्रः । ते०१।२। ७॥ ., तपो वै शूद्रः । श०१३।६।२॥१०॥ ,, वैश्यं च शूद्रं चानु रासभः । ।०६।४।४।१२॥ ,, तस्मात्पुरस्तात्प्रत्यञ्चः शुद्रा अवस्यन्ति । तै०३।३।११।२॥ ,, म शीद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं ( पृथिवी ) वै पूपा । १० १४ ।
४।२।२५॥ शृणवद "श्रवद्व इन्द्रः शृण्वद्वो ऽग्निः" ( यजु० २८ । ६) शृणोतु व
इन्द्रः शृणोत्वग्निरित्याशिषमेव तद्वदते । कौ० २८ ॥ ६॥ शृतम् अथ यदेन (इन्द्र देवाः ) शृतेनैवाश्रयंस्तस्माच्छृतम् । श०
१।६।४।८॥ शैशवम् (साम) शिशर्वा आङ्गिरसो मन्त्रकता मन्त्रकृदासीत् स
पितृन पुत्रका इत्यामन्त्रयत तंपितरोऽन्नधर्मकरोषि यो नः पितृन् सतः पुत्रका इत्यामन्त्रयस इति सो ऽब्रवीदहं वाव पिता ऽस्मि यो मन्त्रकृदस्मीति ते देवेष्वपृच्छन्त ते देवा अघुवनेष वाव पिता यो मन्त्रकृदिति तद्वैस उदजयदुजयति शैशवेन तुष्टुवानः । (मनुस्मृतौ अ०२। श्लो. १५१ ॥
तन्त्रवात्तिके १।३।१०॥)। तां०१३ । ३ । २४॥ शोचिष्केशः (ऋ०३।२७।४) शिश्नं वै शोचिषकेश शिश्न हीद
शिश्निनं भूयिष्ठ शोचयति । श० १ । ४।३।९॥ शोचींषि (यजु० २७ । ११)=अचौषि) ऊर्धा शुक्रा शोचीप्यग्नेरि
त्यू नि ह्येतस्य (अग्नेः) शुक्राणि शोची व्य/षि
भवन्ति । श०६।२।१ । ३२॥ शोशुचानः (यजु० ११ । ४६) (=दीप्यमानः ) विपाजसा पृथुना शोगु.
चान इति । विपाजसा पृथुना दीप्यमान इत्यतत् । श. ६:४।४ । २१॥
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श्यामाका: शोक्तम् ( साम ) शक्तिर्वा एतेनाङ्गिरसो ऽअसा स्वर्ग लोकमपश्यत्
स्वर्गस्य लोकस्यानुख्यात्यै स्वर्गाल्लोकान्न च्यवते तुष्टुवानः।
तां० १२ । ५ । १६ ॥ शोनकय ज्ञः स एष (शोनकयज्ञः ) तुस्तूर्ष माणस्य यज्ञः । कौ०४।७॥ माष्टम् ( साम) नुष्टिा एतेनाङ्गिरसो ऽञ्जसा स्वर्ग लोकपपश्यत्
स्वर्गस्य लोकस्यानुख्यात्यै स्वर्गात् लोकान्न च्यवते तुष्टुवानः।
तां०१३ । ११ । २२॥ ,, अग्नेवा एतत् (श्नौष्टं) वैश्वानरस्य साम । तां० १३।११।२३ ॥ इमशानम् अथास्मै श्मशानं कुर्वन्ति गृहान्वा प्रज्ञानं वा यो वे कश्च
म्रियते स शवस्तस्माऽ एतदन्नं करोति तस्माच्छवान शवानः ह वै तच्छ्मशानमित्याचक्षते परोक्ष इम शा उ हैव नाम पितॄणामत्तारस्ते हाऽमुष्मिल्लोके ऽकत. श्मशानस्य साधुकृत्यामुपदम्भयन्ति तेभ्य एतदन्नं करोति तम्माच्छ्मशान श्मशान ह वै तच्छ्मशानमित्याचक्षते
परोऽभम् । श० १३ । ८ । १ । १॥ श्यामः द्वे वै श्यामस्य (पशोः) रूपेः शुक्लं चैव लोम कृष्णं च । श०
५।१।३।९॥५।२।५। ८॥ , स पौष्णो यच्छयामः (पशुः) । २०५।२।५।८॥ , अहवै शबलोरात्रिः श्यामः(शबलशब्दमपि पश्यत)। कौ०२।९॥ श्यामाका: लोमभ्य एवास्य चित्तमम्रवत् । ते श्यामाका अभवन् ।
श० १२ । ७।१।९॥ तासां (ओषधीनां) एष उद्धारो यच्छयामाकः । गो० उ० १।१७॥ सौम्यं श्यामाकं चरुं निर्वपति । तै० १ । ६।१ । ११॥ अथ सोमायं वनस्पतये श्यामाकं चरुं निर्वपति । श० ५।३।३। ४॥ स (सोमः) एत सोमाय मृगशीर्षाय श्यामाकं चरुं पयसि निरवपत् । ततो वै स ओषधीना राज्यमभ्यजयत् । तै०३।१।४।३॥ एते वै सोमस्यौषधीनां प्रत्यक्षतमां यच्छ्यामाकाः । श० ५।३।३।४॥
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( ५५० )
श्यावाश्वम् ( साम ) श्यावाश्वमार्वनानस सत्रमासीनं धन्वोदवहन् स एतत्सामापश्यत्तेन वृष्टिमसृजत ततो वै स प्रत्यतिष्ठततो गातुमविन्दत गातुविद्वा एतत्साम । तां० ८५९ ॥ श्येनः यदाह श्येनो ऽसीति सोमं वा एतदा है ह वा अग्निर्भूत्वा Sस्मिल्लोके संश्यायति । तद्यत्संश्यायति तस्माच्छयेनस्तच्छयेनस्य श्येनत्वम् । गो० पू० ५ । १२ ॥
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उरस एवास्य (इन्द्रस्य) हृदयात्त्विषिरस्रवत्स श्येनो ऽपाष्टिहाभवद्वयसां राजा । श० १२ । ७ । १ । ६ ॥
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श्यैतम् (साम) इयैतेन श्येती कुरुते । तै० १ । १ । ८ । ३ ॥
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ते ( प्रजापतिना ऽभिव्याहृताः पशवः) शेत्या अभवन् यच्छेत्या अभवंस्तस्माच्छयैतम् । तां० ७ । १० । १३ ॥
पशुकाम एतन (इयैतेन साम्ना) स्तुवीत । तां० ७ । १० । १४ ॥ पशवो वै श्यैतम् । तां० ७ । १० । १३ ॥
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रथन्तरं ह्येतत्परोक्षं यछयैतम् (यच्छ चैतम्) । तां०७|१०:८ ॥ श्रद्धा श्रद्धा पत्नी सत्यं यजमानः । ऐ० ७ । १० ॥
श्रद्धां कामस्य मातरं हविषा वर्द्धयामसि । तै० २ | ८ | ८ | ८ ॥ एतद्दीक्षायै ( रूपं ) यच्छ्रद्धा । श० १२ । ८ । २ । ४ ॥
तेज एव श्रद्धा । श० ११ । ३ । १ । १ ॥
श्रद्धैव सकृदिष्टस्याक्षितिः स यः श्रद्दधानो यजते तस्येष्टं न क्षीयते । कौ० ७ । ४॥
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स ( इयेनः ) हि वयसामाशिष्ठः । तां० १३ । १० । १४ ॥
श्येनो वै वयसां क्षेपिष्ठः । ष० ३ | ८ ॥
एतद्वै वयसामोजिष्ठं बलिष्ठं यच्छयेनः । श० ३ | ३ | ४ | १५ ॥
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,, श्रद्धा वा आपः । तै० ३ । २ । ४ । १ ॥
श्रद्धा वै सूर्यस्य दुहिता ( यजु० १९ । ४ ) । श० १२ । ७ । ३ । ११ ॥
श्रवद् श्रवद्व इन्द्रः शृण्वद्वाग्निरिति ( यजु०२८ । ६) शृणोतु वै इन्द्रः शृणोत्वग्निरित्याशिषमेव तद्वदते । कौ० २८ । ६ ॥
श्रविष्टाः ( नक्षत्रम्) यदशृणोत् तच्छ्रविष्ठाः (= धनिष्ठा इति सायणः) । तै०१ । ५ । १ । ९॥
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( ५.१ )
श्रीः] श्रविष्टाः वसूना श्रविष्ठाः । ते. १।५।१॥ ५ ॥ " अष्टौ देवा वसवः सोम्यासः। चतस्रो देवीरजराः श्रविष्ठाः ।
ने यज्ञं पान्तु रजसः पुरस्तात् । संवत्सरीणममृत स्व.
स्ति । तै० ३ । १ ।२।६॥ भयो वयः (यजु० १२ । १०६) धूमो वाऽ अस्य ( अग्नेः) श्रवो वयः स
ह्येनममुमिलाके स्रावयति । (श्रावयति )। श०७।३।
१। २९ ॥ भायन्तीयम् (ब्रह्मसाम ) यद् ( देवाः सूर्य सप्तसु छन्दःसु) अश्रयन् ।
तच्छायन्तीयस्य श्रायन्तीयत्वम् । तै०१।५।१२।१॥ प्रजापतिः प्रजा असृजत स दुग्धो शिरचानो ऽमन्यत स एतच्छ्रायन्तीयमपश्यत्तेनात्मानं समश्रीणात्प्रजया पशुभिरिन्द्रियेण । तां०९।६।७॥ वरुणस्य वै सुषुत्राणस्य भर्गो ऽपाकामत्स त्रेधापतद् भृगुस्तृत यमभवच्छ्रायन्तीयं तृतीयमपस्तृतीयं प्राविशत् । नां० १८।९।१॥ यच्छ्रायन्तीयं ब्रह्मसाम भवति पुनरेवात्मान सश्री. णाति । तां० १८ ॥ ११ ॥ १ ॥ यच्छायन्तीयं ब्रह्मसाम भवति श्रीणाति चैवैन, ( यज्ञविभ्रष्टं ) सच करोति । तां० ८।२। ११ ॥ श्रायन्तीयं यज्ञविभ्रष्टाय ब्रह्मसाम कुर्यात् । तां०८ ।
२०॥ , श्री. श्रायन्तीयम् । तां० १५ । ४ । ५ ॥ श्रीः अथ यत्प्राणा अश्रयन्त तस्मादु प्राणाः श्रियः। श०६।१।१।४॥ ,, इयं (पृथिवी ) वै श्रीः । ऐ० ८॥५॥ , तस्याः (श्रियः) अग्निरन्नाद्यमादत्त । सोमो राज्यं वरुणः साम्राज्यं मित्रः क्षत्रमिन्द्रो पलं बृहस्पतिर्ब्रह्मवर्चस सविता राष्ट्र पूषा भगर्छ सरस्वती पुष्टिं त्वष्टा रूपाणि । श० ११ ।
४।३।३॥ , श्रीर्वा एकशफम् (अश्वाश्वतरगर्दभरूपम् ) । तै० ३।९।
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[ श्रेष्ठतमं कर्म
( ५५२ )
श्रीः श्रीवै पशवः श्रीः शक्कर्यः । तां० १३ । २ । २ ॥
श्री श्रायन्तीयम् ( साम ) । तां० १४ । ४ । ५ ॥ श्रीः पृष्ठ्यानि । कौ० २१ ॥ ५ ॥
श्रियै वा एतद्रूपं यद्वीणा । श० १३ । १ । ५ । १ ॥ यदा वै श्रियं गच्छति वीणास्मै वाद्यते । श० १३ । १ ।
पुरुषः
५ । १ ।
श्री स्वरः । श० ११ । ४ । २ । १० ॥
रात्रिरेव श्रीः श्रियां द्वैतद्राज्यार्थं सर्वाणि भूतानि संवसन्ति ।
श० १० । २ । ६ । १६ ॥
श्री राष्ट्रम् | श० ६ । ७ । ३ । ७ ॥
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श्री
राष्ट्रस्य भारः । श० १३ । २ । ९ । ३ ॥
श्री राष्ट्रस्याग्रम् । श० १३ । २ । ९ । ७ ॥
श्रीर्वै पिलिप्पिला । श० १३ | २ | ६ | १६ || तै० ३।९ | ५ | ३ || श्रीर्वै वरुणः । कौ० १८ ।९ ॥
( सविता ) श्रिया स्त्रियम् (समदधात् ) । गो० पू० १ । ३४ ॥
श्रीदेवाः । श० २ । १।४।९॥
श्रियै पाप्मा ( निवर्तते ) । श० १० २ । ६ । १९ ॥
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बहिधैव वै श्रीः । जै० उ० १ । ४ । ६ ॥
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एकस्था वै श्रीः । कौ० १८ । ९ ॥ २९ ॥ ५॥
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" एकस्ता (? एकस्था ) वै श्रीः । गो० उ० ६ । १३ ॥
श्रद्धयम् ( साम ) प्रजापतिः पशूनसृजत ते ऽस्मात् सृष्टा अपाक्रामjस्तानेतेन साम्ना श्रधिया एहियेत्यन्वह्वयत्त एनमुपावर्त्तन्त यदेतत्साम भवति पशूनामुपावृत्यै। तां० १५ ।
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५। ३५ ।।
पशवो वै श्रद्धयं पशूनामवरुध्यै । तां० १५ । ५ । ३४ ॥
श्रुष्टि: ( यजु० १२ । ६८ ) अन्नं श्रुष्टिः । श० ७ । २ । २ । ५ ॥
श्रेयान् ( अथर्व० ७ । ९ । १ ) तस्मात् ( भूलोकात् ) असावेव (स्वर्गो) लोकः ( श्रेयान् ) । ऐ० १ । १३ ॥
श्रेष्टतमं कर्म (यजु० १ । १ ) यशो हि श्रेष्ठतमं कर्म । तै० ३ । २ ।
१ ॥४॥
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( ५५३ )
इमं कम्मं यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म । श० १ । ७ । १ । ५ ॥
श्रेष्ठो रश्मिः (यजु० २ । २६ ) एष वै श्रेष्ठो रश्मिर्यत्सूर्य्यः । श० १ । ९ । ३ । १६ ॥
लोणा ( =श्रवणनक्षत्रमिति सायणः ) यदश्लोत् । तच्छ्रोणा । तै० १ ।
५।२७८, ६ ॥
शृण्वन्ति श्रोणाममृतस्य गोपां महीं देवीं विष्णुपत्नी मजू र्याम् । तै० ३ । १ । २ । ५–६ ॥
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विष्णोः श्रोणा । तै० १ । ५ । १ । ४ ॥
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श्रोणी जगती छन्द आदित्यो देवता श्रोणी । श० १० । ३ । २ । ६॥
श्रोणी द्वियजुः (इष्टका) । श० ७ | ५ | १ | ३५ ॥
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श्रोत्रम् श्रोत्रं हृदये (श्रितम्) । तै० ३ । १० । ८ । ६ ॥
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श्रौतकक्षम् 1
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श्रोत्रं वै ब्रह्म श्रोत्रेण हि ब्रह्म शृणोति श्रोत्रे ब्रह्म प्रतिष्ठितम् । ऐ० २ । ४० ॥
श्रोत्रं वै सम्राट् ! परमं ब्रह्म । श० १४ । ६ । १० । ११ ॥
श्रोत्रं वा अपां सधिः (यजु० १३ । ५३) । श० ७/५/२/५५|| श्रोत्रं वै पर रजो दिशो वै श्रोत्रं दिशः परं रजः । श०
श्रोत्रं पङ्क्तिः । श० १० । ३ । १ । १ ॥
श्रोत्रं वै सम्पच्छ्रोत्रं हीमे सर्वे वेदा अभिसम्पन्नाः । श० १४ ।
९।२।४ ॥
श्रौतकक्षम् (साम) इन्द्राय मद्वने सुतमिति श्रौतकक्षं क्षत्रलाभ प्रक्षेत्र
मेवैतेन भवति । तां० ९ । २ । ७ ॥
७।१।२।२० ॥
यत्तच्छ्रोत्रं दिश एव तत् । श० १० | ३ | ३ | ७ ॥
तद्य सच्छ्रोत्रं दिशस्ताः | जै० उ० १ । २८ । ६ ॥
श्रोत्रं वै विश्वामित्र ऋषियेदेनेन सर्वतः शृणोत्यथो यदस्मै सर्वतो मित्रं भवति तस्माच्छ्रोत्रं विश्वामित्र ऋषिः (यजु० १३ । ५७) । श० ८ । १ । २ । ६ ॥
श्रोत्रं विश्वे देवाः । श० ३ । २ । २ । १३ ॥
विश्वं हि श्रोत्रम् । श० ७ । ५ । २ । १२ ॥
यच्छ्रोत्रं स विष्णुः । गो० उ० ४ ॥ ११ ॥
वागिति श्रोत्रम् । जै० उ० ४ । २२ । ११ ॥
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[षष्ठमहः
( ५५४ ) लोकानुश्लोको श्लोकानुश्लोकाभ्या* (सामविशेषाभ्यां) हविर्भाने उप
तिष्ठन्ते कीर्तिमेव तज्जयन्ति ( श्लोकः कीर्तिम् यशः । अमरकोशे कां० ३। नानार्थवर्गे। श्लो. २) । तांक
५।४।१०॥ ः न श्वः श्वमुपासीत को हि मनुष्यस्य श्वो वेद । श० २।१।३१९॥ श्वा अनृत. स्त्री शूद्रः श्वा कृष्णः शकुनिस्तानि न प्रेक्षेत । श०
१४ । १।१।३१॥ पात्राः (यजु० ५। ३४) शिवा ह्यापस्तस्मादाह (हे आपो यूयं) श्वात्रा
स्थति (श्वात्राः शिवाः) । श० ३।६।४। १६ ॥
षट्त्रिंशः ( स्तोमः ) "नाकः षट्त्रिंशः” इत्येतं शब्दं पश्यत । षट्पादः अग्निः षट्पादस्तस्य पृथिव्यन्तरिक्ष द्यौराप ओषधिवनस्प.
__ तय इमानि भूतानि पादाः । गो० पू० २।९॥ परमानि (वेदानाम्) चत्वारो ऽस्यै (स्वाहायै) वेदाः शरीर षडला.
न्यङ्गानि । १०४।७॥ ,, तस्मात्कारणं बमो वर्णानामयमिदं भविष्यतीति षडाविद
स्तत्तथा ऽधीमहे । गो० पू०१।२७ ॥ परहः पडहो वा उ सर्वः संवत्सरः । कौ० १९ । १०॥ पढोता तस्मै (ब्रह्मणे) षष्ट हूतः प्रत्यशृणोत् । स पढ्तो ऽभवत्
षड्तो ह वै नामैषः । तं वा एत, षड्दृत सन्तं षद. ढोतेत्याचक्षते परोक्षेण परोक्षप्रिया इव हि देवाः । तै० २। ३।११ । २-३॥
धाता षड्ढोता । तै० २ । ३।१।१॥ " धाता षड्ढोत्रा । तै०२।२।८।४॥ " धाता षड्ढातृणा होता । तै०२।३।५।६॥ , वाग्घोता षड्ढोतृणाम् । तै० ३ । १२ । ५ ॥ २॥
, पशुबन्धः षड्ढोतुः (निदानम्)। तै०२ । २ । ११ ॥६॥ षष्ठमहः देवायतनं वै षष्ठमहः । कौ० २३ । ५॥
" स्वर्गों वै लोकः षष्ठमहः। ऐ० ६। २६, ३६ ॥ गो० उ.
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। ५५५ ) षोडश कलाः ] षष्ठमहः देवक्षेत्रं वा एतद्यषष्ठमहः । ऐ० ५। ६ ॥
, देवक्षेत्रं वै षष्टमहः । गो. उ०६।१०॥ ,, सर्वदेवत्यं षष्ठमहः । कौ० २१ । ४॥ , प्राजापत्यं वै षष्ठमहः । कौ० २३ । ८॥ २५ । ११, १५ ॥ , पुरुष एव षष्ठमहः । कौ०२३।४॥
सर्वरूपं वै षष्ठमहः कौ० २१ ॥ ४॥ २३ ॥ ७॥ " आतिच्छन्दसं वै षष्ठमहः । कौ २३ । ६, ८ ॥ २६ ॥ ५ ॥
, अन्तः षष्ठमहः । कौ० २३ । ७ ॥ २६ ॥ ८ ॥ षष्ठो चितिः स्वर्ग एव लोकः षष्ठी चितिः । श० ८।७।४ । १७ ॥
, शिर एव षष्ठी चितिः । श० ८ । ७ । ४ । २१॥ पोडशः ( स्तोमः ) हीना वा एते हीयन्ते ये व्रात्यां प्रवसन्ति न हि
ब्रह्मचय्यंञ्चरन्ति न कृषिन्न वाणिज्या, षोडशो वा एत
स्तोमः समाप्तुमर्हति । तां०१७ । १।२॥ .. मरुत्स्तोमो वा एषः ( षोडशः स्तोमः )। तां० १७ । १३॥ पोरश कला: षोडशकलं वै ब्रह्म ! जै० उ० ३ । ३८ ॥ ८॥
सञ्चाऽसञ्चाऽसच सच वाक् च मनश्च [ मनश्च | वाक् च चक्षुश्च श्रोत्रं च श्रोत्रंच चक्षुश्च श्रद्धा च तपश्च तपश्च श्रद्धाच तानि षोडश ॥षोडशकलम्ब्रह्म । जै० उ०४।२५ । १-२॥ षोडशकलः प्रजापतिः। श०७।२।२।१७॥ स ( प्रजापतिः ) हैवं षोडशधा ऽऽत्मानं विकृत्य साधं समैत् । जै० उ०१ । ४८ । ७॥ स एष संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकलः । श०१४।४। ३।२२॥ स (प्रजापतिः ) षोडशधा ऽऽत्मानं व्यकुरुत (१) भद्रं ब (२) समाप्तिश्चा (३) ऽऽभूतिश्च (४) सम्भूतिश्च (५) भूतं च (६) सर्व च (७) रूपं चा (८ ऽपरिमितं च (6) श्रीश्च (१०) यशश्व (११) नाम चा (१२) ऽयं च (१३) सजाताभ (१७) पयश्च (१५) महीया च (१६) रसमा जै० उ०१।४६।२॥
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[ षोडशी
( ५५६ )
षोडश कलाः तस्माऽ एतस्मै सप्तदशाय प्रजापतये । एतत्सप्तदशमनं समस्कुर्वन्य एष सौम्योध्वरो ऽथ या अस्य ताः षोडश कला एते ते षोडशऽर्त्विजः । श० १० । ४ । १ । १६ ।।
तस्य ( संवत्सरस्य प्रजापतेः ) रात्रय एव पञ्चदश कला ध्रुवैवास्य षोडशी कला | श० १४ | ४ | ३ | २२ ॥
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षोडशी (यजु० १५ । ३) एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप्त्रैष्टुभमन्तरिक्षं वतस्रो दिशः एष एव वज्रः पञ्चदशस्तस्यासावेवादित्यः षोडशी वज्रस्य भर्त्ता । श० ८ ।५ । १ । १० ॥
असो वै षोडशी यो ऽसौ ( सूर्य्यः ) तपति । कौ० १७ ॥ १ ॥
षोडशकलो वै चन्द्रमाः । ष० ४ । ६ ॥
षोडशकलो वै पुरुषः । श० ११ | १ | ६ | ३६ || तै० १ |
७ । ५ । ५ ॥
यो वै कला मनुष्याणामक्षरं तद्देवानाम् ॥ तद्वै लामेति asअक्षरे । त्वगति द्वेऽअसृगिति द्वे मेद इति द्वे मा समिति द्वे स्त्रावेति द्वेऽअस्थीति द्वे मजेति द्वे ताः षोडश काला अथ य एतदन्तरेण प्राणः संचरति स एव सप्तदशः प्रजापतिः : । श० १० । ४ । १ । १७ ॥
अष्टावेवास्य ( प्रजापतेः ) कलाः सावित्राण्यष्टौ वैश्वकर्मणान्यथ यदेतदन्तरेण कर्म क्रियते स एव सप्तदशः प्रजापतिः । श० १० । ४ । १ । १६ ।।
षोडशकला वै पशवः । श० ११ | ८ | ३ | १३ ॥ १३ ॥ ३ । ६ । ५ ॥
षोडशकलाः पशवः (शिरो ग्रीवा मध्यदेहः पुच्छमिति चत्वार्य्यङ्गानि च चत्वारः पादाः अष्टौ शफा इत्येवं षोडनसंख्याका इति सायणः) । तां० ३ | १३ | २ || १६ | ६|२|| षोडशकलं वा इदं सर्वम् । कौ० ८ । १ ॥ १६ ॥ ४ ॥ १७ । १ ॥ २२ ॥ ६ ॥ ० १३ । २ । २ । १३ ॥
इन्द्रो ड वै षोडशी । श०४ । ५ । ३ । १ ॥
इन्द्रो हि षोडशी । श० ४ । २ । ५ । १४ ॥
इन्द्र उ ने षोडशी | कौ० १७ । १, ४ ॥
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( ५५७ )
संकृति] पोशी ( शस्त्रम् , स्तोत्रम् , ग्रहः ) अथो षोडशं वा एतत्स्तोत्रं षोडशं
शखं तस्मात्षोडशीत्याख्यायते । कौ०१७ ॥१॥ , षोळश स्तोत्राणां षोडश शस्त्राणां घोळशभिरक्षरैरादसे
षोळशभिः प्रणौति घोळशपदानिविदं दधाति तत्वोळशिनः षोळशित्वम् । ऐ०४।१॥ किं षोडशिनः षोडशित्वं षोडश स्तोत्राणि षोडश शस्त्राणि
षोडशभिरक्षरैरादत्ते । गो० उ०४ । १९ ॥ ,, वृषण्वबै पोळशिनो रूपम् । ऐ० ४।४॥
सर्वेभ्यो वा एष सवनेभ्यः सन्निर्मितो यत्षोळशी । ऐ०४॥४॥ सर्वेभ्यो वा एष छन्दोभ्यः सनिर्मितो यषोळशी । ऐ०४।३,४॥ सर्वेभ्यो वा एष लोकेभ्यः सन्निर्मितो यत् पोळशी । ऐ०४ा४॥ त्रिवृद्ध षोडशी । कौ० १७ । ३॥ आनुष्टुभो वै षोडशी। कौ० १७ । २,३॥ आनुष्टुभो वा एष वज्रो यत्षोडशी । कौ० १७ । १॥ वज्रो वा एष यत्षोळशी । ऐ.४।१॥ वज्रो वै षोडशी । तां० १२ । १३ । १४ ॥ १९ । ६।३॥ गो० उ०२ । १३॥ वजः षोडशी। ष०३।११॥ इन्द्रियं वार्य षोडशी । तां० २१ । ५।६॥ वीर्य षोडशी । श. १२।२।२।७॥
अतिरिक्तो वै षोडशी । तां०६।१।५॥ , अपछदिव वा एतयक्षकाण्डं यत् षोडशी (साम) । तां०
१८ । ६ । २३ ॥ , एकविंशायतनो वा एष यत् पोडशी सप्त हि प्रातःसवने
होत्रा वषट् कुर्वन्ति सप्त माध्यन्दिने सपने सप्त तृतीये
सवने । तां० १२॥ १३॥ ८॥ हीवन्ती पङ्क्तिश्छन्दो मरुतो देवता ष्ठीवन्तौ : श० १० १३ । २॥१०॥
(स) संकृति (साम) संकृति भवति स कृत्यै। तां० १५ । ३ । २८ ॥ , महा एतदष्लीयत तहेवा देवस्थाने तिष्ठन्तः संकृतिना
समस्कुर्व स्तर संकृतेः संकृतित्वम् । ता० १५ । ३ । १९ ॥
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[संवत्सरः ( ५५८ ) संक्रोशः ( सामविशेषः , एतेन वा अङ्गिरसः संक्रोशमानाः स्वर्ग लोक... मायन् स्वर्गस्य लोकस्यानुख्यात्यै स्वर्गाल्लोकान्न च्यवते
तुष्टुवानः । तां० १२ । ३। २३॥ संज्ञपनम् यत्पशुॐ संज्ञपयन्ति विशालति तत्तं नन्ति (पश्यत-ऐ०
२।६,७॥ ७।१॥ कौ०१०।४,५ ॥ गो० पू०३।१८॥
गो० उ०२।१॥)। श०२।२।२।१॥ ११ । १ । २॥१॥ " अथैतत्पशुघ्नन्ति यत्संज्ञपयन्ति यद्विशासति । श०३।८।
२॥४॥ , नन्ति वा एतत्पशुम् । यदेन संज्ञपयन्ति । श०१३।२।
८॥२॥ संयच्छंदः ( यजु. १५ । ५) रात्रि संयच्छन्दः । श० ८।५।२।५।। संयद्वसुः ( यजु० १५ । १८) यत्संयद्वसुरित्याह यहि संयन्तीतीदं
वस्विति । श० ८।६।१ । १९ ॥ संयाज्ये प्रतिष्ठे वै संयाज्ये । कौ०७।६ ॥ संवत्सरः स ऐक्षत प्रजापतिः। सर्व वाऽ अत्सारिषं य इमादेवता असू.
क्षीति ससर्वत्सरो ऽभवत् सर्वत्सरो ह वै नामैतद्यत्संवत्सर इति । श० ११ । १ । ६ । १२ ॥ यः स भूतानां पतिः संवत्सरः सः । श०६।१ ।३।८॥ संवत्सरो वै प्रजापतिः। श०२।३।३। १८ ॥३।२।।
४॥५॥ १।२।९॥ । संवत्सरो वै प्रजापतिरेकशतविधः। श०१०।२।६।१॥
संवत्सरः प्रजापतिः। ऐ०१ । १, १३, २८ ॥३॥ १७ ॥ तां० १६ । ४ । १२ ॥ गो० उ०३ । ८ ॥ ६ ॥ १॥ तै० १। ४। १०।१०॥ स (संवत्सरः) एव प्रजापतिस्तस्य मासा एव सहदक्षिणः। तां०१०।३।६॥
सवै संवत्सर एव प्रजापतिः। श०१।६।३।३५ ॥ , प्रजापतिः संवत्सरः । ऐ० ४ । २५ ।।
स एष प्रजापतिरेव संवत्सरः । कौ०६ । १५॥ में संक्स रो यक्षा प्रजापतिः । श०१।२।५।१२।२।२।
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( ५५९ )
संवत्सरः] संवत्सरः संवत्सरो वै यक्षः प्रजापतिः। तस्यैत(द) द्वारं यदमावास्या
चन्द्रमा एव द्वारपिधानः । श० ११ ॥ १।१।१॥ संवत्सरो यशः । श० ११ । २।७।१॥ संवत्सरसंमितो वै यज्ञः पञ्च वाऽ ऋतवः संवत्सरस्य तं
पञ्चभिराप्नोति तस्मात्पञ्च जुहोति । श०३।१।४।५!! , संवत्सरो वै पञ्चहोता । तै०.२ । २ । ३१६॥
संवत्सरो वाव होता। गो० उ०६ । ६ ॥ " संवत्सराव होता । कौ०२९ । ८॥ , संवत्सरो वै धाता । तै० १ । ७॥ २ ॥ १॥ , पुरुषो वं संवत्सरः । श० १२ । २।४।१॥ , पुरुषो वाव संवत्सरः । गो० पू० ५ । ३, ५ ॥ ,, प्राणो वै संवत्सरः । तां० ५ । १० । ३ ॥ , वाक् संवत्सरः । तां० १० । १२ । ७ ॥ , वृहती हि संवत्सरः। श०६।४।२।१०॥
तदाहुस्संवत्सर एव सामेति । जै० उ०१ । ३५ ॥ १ ॥ " संवत्सरः स्वगाकारः। तै०२।१।५।२॥ , अग्निः संवत्सरः । तां०१७। १३ । १७ ॥ ,, अग्निव संवत्सर । तै १।४।१०।१॥ , संवत्सरो ऽग्निः । श०६।३।१ । २५ ॥ ६ । ३।२।१०॥
६।६।१ । १४ ॥ तां १० । १२ । ७ ॥
संवत्सर एवाग्निः । श० १०। ४ ।।२॥ , संवत्सर एषो ऽग्निः । श०६।७।१ । १८ ॥ , संवत्सरो वा अग्निवैश्वानरः। तै०१।७।२।५।०६।
६।१। २०॥
संवत्सरो ऽग्निर्वैश्वानरः । ऐ० ३।४१ ॥ ,, संवत्सरो वैश्वानरः। श० ५। २।५ । १५ ॥ ६ । २।१।
३६ ॥ ६।६।१।५॥ ७।३।१ । ३५ ॥ १।३।१।१॥
संवत्सरो वै वैश्वानरः। श०४।२।४।४॥५।२।५।१४॥ ,, संवत्सरो वै पिता वैश्वानरः पजापतिः । श०१।। १।१६॥ , संवत्सरो वै सोमो राजा (ऋ.४।५३ । ७)। कौ०७।१०॥
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[संवत्सरः ( ५६० ) संवत्सरः संवत्सरो वै सोमः पितृमान् । तै०१।६। ८।२॥१।६।
९॥ ५॥
संवत्सरो वा इन्द्राशुनासीरः । तै० १।७।१।१॥ , इन्द्राय शुनासीराय (संवत्सराय) पुरोडाशं द्वादश
कपालं निर्वपति । तै० १।७।१ । १ ॥
संवत्सरो वै शुनासीरः । गो० उ० १ ॥ २६ ॥ , स यः स संवत्सरो ऽसौस आदित्यः। श०१०।२।४।३॥ , एष वै संवत्लरो य एष ( आदित्यः) तपति । श० १४।१।
१ ॥ २७ ॥ एष वै मृत्युर्यत्संवत्सरः ! एष हि मानामहोरात्राभ्यामायुः
क्षिणोत्यथ नियन्ते । श०१०।४।३।१॥ ,, संवत्सरो विश्वकर्मा । ऐ०४ । २२ ॥ ,, संवत्सरोवरुणः । श०४।४।५।१८॥ , संवत्सरो हि वरुणः । श०४।१।४।१०॥
व्योमा (यजु० १४ । २३) हि संवत्सरः । श०८।४।१।११॥ , सुमेकः संवत्सरः स्वेको ह वै नामैतद्यत्सुमेक इति । श०
१।७।२ । २६॥ संवत्सरोवै समस्तः सहस्रवांस्तोकवानपुष्टिमान् । ऐ० २०३१॥ संवत्सरो वै परिक्षित् , संवत्सरो हीमाः प्रजाः परिक्षेति, संवत्सरं हीमाः प्रजाः परिक्षियन्ति । ऐ० ६ । ३२॥ संवत्सरो वै परिक्षित् संवत्सरो हीदं सर्व परिक्षियतीति ।
गो० उ०६।१२॥ , संवत्सरो वै प्रवतः शश्वतीरपः । ता० ४।७।६॥ ,, संवत्सरो वज्रः। श० ३।६।४।१९ ॥ ,, संवत्प्तरो हि वजः। श० ३।४।४। १५ ॥
संवत्सरो यजमानः । श० ११ । २।७।३२॥ ,, अभ्रातृव्या (प्रजापतेस्तनूविशेषः) तत्संवत्सरः । ऐ०५।
२५ ॥ को०२७।५॥ अनिष्टोम उक्थ्यो ऽग्निर्ऋतुः प्रजापतिः संवत्सर इति । एते ऽनुवाका यज्ञक्रतूनाश्चर्तनाश्च संवत्सरस्य च नामधेयानि । तै०३।१०।१०। ४॥
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संवत्सरा] संवत्सरः संवत्सरो वै देवानां जन्म । श० ८।७।३ । २१ ॥ ,, संवत्सरः खलुबै देवानां पूः । नै० १ ! ७१७ ॥ ५ ॥ , तस्य (संवत्सरस्य । वरन्त एव द्वार हेमन्तो द्वारं तं वाऽ
एत संवत्सर, स्वर्ग लोकं प्रपद्यते । श० १॥ ६।१।१६ ॥ , संवत्सरः सुवर्गो लोकः । तै० २।२।३।६॥ ३९ । २।
२॥ श० ८।४ ।२४॥ ८।६।१।४॥ तां० १८ । २४॥
मध्ये ह संवत्सरस्य स्वर्गो लोकः । श०।७।४।११ ॥ , संवत्सरो वाय नाकः पत्रिशस्तस्य चतुर्विशतिरध.
मासा द्वादश मालास्तयत्तमाह नाक इति न हि तत्र गताय
कस्मैचनाकं भवति । श० ८ । ४ । २ । २४ ॥ " संवत्सरो वै देवानां गृहपतिः। तां० १०.३॥ ६॥ , एकं वा एतद्देवानामहः । यत्संवत्सरः । तै०३।९।२२।२॥ ., सद्यो वै देवानां संवत्सरः । तां०१६ । ६ ११ ॥ ,, हम उ लोकाः संवत्सरः। श०८।२।१।१७।। ., सर्ववै संवत्सरः । श०१।१।१।१६।२ । ७।२:२४ ।।
४।२।२।७॥१०।२।५।१६ ॥ १।१ । २ ॥ १२ ॥ , संवत्सर इद सर्वम् । श. ८ । ७।१।१॥ " संवत्सरो वाऽ ऋतव्याः (इष्टकाः): श०८।६।१४॥
८।७।१।१॥ ,, ऋनवः मंवत्सरः । तै० ३ । ९ । ९ । १ ॥ , ऋषभो वा एष ऋतूनाम् । यत्संवत्सरः । तस्य त्रयोदशो
मासो विष्टपम् । २०३।८।३।३।। , प्रयो वा ऋतवः संवत्सरस्य । श० ३।४।४। १७ ॥ ११ ।
।४।११॥ , त्रेधा विहितो वै संवत्सरः । के० १६ । ३॥ , पञ्चऽर्तवः संवत्सरस्य ! श० १ । ५। २ । १६ ॥३।१।
४।२०॥ ,, षहवाऽ ऋतवः संवत्सरस्य । श०१।२।५ । १२ ॥ ॥ सप्तऽर्तवः संवत्सरः । २०६।६।१।१४॥ ७।३।।
९॥९॥ १।१ । २६॥
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[ संवत्सरः
( ५६२ )
संवत्सरः द्वादश वा वै त्रयोदश वा संवत्लरस्य मासाः । श० २ १ २ ।
३ । २७ ॥ श०५ । ४ । ५ । २३ ॥
संवत्सरस्य प्रतिमा वै द्वादश रात्रयः । तै० १ । १ । ६ । ७ ॥ १ । १ । ६ । १० ॥
त्रयोदश वै मानाः संवत्सरस्य । श० ३ । ६ । ४ । २४ ॥
एतावान्वै संवत्सरो यदेव त्रयोदशो मासस्तत्रैव सर्वः संवत्सर आतो भवति । कौ० १९ । २ ॥
एतावान् संवत् यदेष त्रयोदशो मासस्तदत्रैव सर्वः संवत्सर आप्तो भवति । की० ५ | ८ ॥
स एष संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकलः । श० १४ । ४ ।
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३ । २२ ।।
संवत्सरः सप्तदशः। तां० ६ । २ । २ ॥
तद वै संवत्सरो द्वादश मासाः पञ्चर्तयः । श० ६ |
२।२।८ ॥
संवत्सर एवं मप्तदशस्यायतनं द्वादश मासाः पञ्चर्तव एतदेव सप्तदशस्यायतनम । तां १० । १ । ७ ॥
द्वादश वै मासाः संवत्सरस्य पञ्चतंव एष एव प्रजापतिः सप्तदशः । श० १ | ३ | ५ | १० ॥
सप्तदशो वै प्रजापतिदश मासाः पंचतवो हेमन्तशिशिरयोः समासेन तावान्त्संवत्सरः, संवत्सरः प्रजापतिः । ऐ०१ । १ ।
संवत्सरो वा प्रतूर्तिरष्टाशः (यजु० १४ । २३) तस्य द्वादश मासाः पञ्चर्तवः संवत्सर एव प्रतूर्तिरष्टादशस्तद्यत्तमाह प्रतूर्तिरिति संवत्सरो हि सर्वाणि भूतानि प्रतिरति । श० ८ । ४ । १ । १३ ॥
संवत्सरो वाव तपो नवदशः (यजु० १४ । २३ ॥ ) तस्य द्वादश मासाः षड् ऋतवः संवत्सर एव तपो नवदशस्तद्यत्तमाह तप इति संवत्सरो हि सर्वाणि भूतानि तपति । श० ८ । ४ । १ । १४ ॥
संवत्सरो वाव व द्राविशः (यजु ० १४ । २३) तस्य द्वादश मासाः सप्तऽर्तवो द्वेऽअहोरात्रे संवत्सर एव वच
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( १६३ )
संवत्सरः] द्वाविधेशस्तद्यत्तमाह वर्च इति संवत्सरो हि सर्वेषां भूतानां
वर्चस्विनमः : ०८।१६! संवत्सरः संवत्तरी वाव सम्भरणस्त्रयोविशः ( यजु १४ । २३)
तस्य त्रयोदश मापाः सप्तऽतयो ऽअहोराने संवत्सर एव सम्मरणस्त्रयोधि शस्तद्यत्तमाह सम्भरण इति संवत्सरी हिसर्वाणि भूतानिलम्भृतः ' श० ८।४।।१७॥
चतुर्विशासंवत्सरः । तां०४।१०॥ , चतुर्विशत्यर्धमासो व संवत्सरः । ऐ० ८।४॥ ,, संवत्लगे वाव गर्भाः पञ्चविशस्तस्य चतुर्विशतिरधमा.
साः संवत्सर एव गर्भाः पञ्चविशः । श० ८।४।१।१६॥ ,, संवत्लरा वाव प्रतिष्ठा त्रयस्त्रिशः ' (यजु० १४ । २३)
तस्य चतुर्दिशतिरर्धमासाः षड् ऋतवो द्वेऽअहोगः संव. न्सर एव प्रतिष्टा त्रयस्त्रिशस्तद्यत्तमाह प्रतिष्ठेति संवसरो हि सर्व भूतानां प्रतिष्ठा । श० ८ ! ४ । १ । २२ ॥ संवत्सरा वाव बना विष्ट चतुस्त्रि शस्तस्य चतुर्विथ. शतिरधमासाः सप्तऽतवाद अहोरात्र संवत्सर एव प्रध्नस्य विष्ट चतुस्त्रियशः (यजु, १४ । २३)। श०८।४।१।२३ ।। संवत्सरो वाव विवौ ऽटाचत्वरितः (यजुः १४ . २३) षडिशतिरर्थमासास्त्रये दश मासाः सतऽर्तवोढे अहोरात्र तद्यत्तताह विवर्त इति संवत्सराद्धि सर्वाणि भूतानि विव. तन्ते । श० ८।४।१।२५ ॥ त्रीणि वै पष्टि शतानि संवत्सरस्थाहाम् । को० ११।७॥ श्रीणि च ह वै शतानि षधिश्व संवत्सरस्याहोरात्राणि । मो०
पू०५।१॥ । एतावान्दै संवत्सरो यदहोरात्रे । को० १७१५॥ , विरूपः ( =नानारूपः) संवत्सर । तां० १४ : ९८॥
यस्मादेषा समाना सती षडहविमाकर्नानारूरा तस्माद्विरूपः
संवत्सरः। तां० १०।६।७।। " पडहो वा उ सर्वः संवत्सरः। को० १९ । १०॥ , नवाहो षै संवत्सरस्य प्रतिमा । २०३।१२।
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[संवत्सरः संवत्सरः संवत्सरस्य प्रतिमा यां ( एकाकारूपां) त्वा रात्रिं यजा.
महे । मं० २१ २ १८॥ . संवत्सरस्थ या पत्नी एकाएकारूपा) सा नो अस्तु सु.
मङ्गली ( अर्थव.३।१०।२)। मं० २।२।१६ ॥
एषा वै संवत्सरस्य पत्नी यदेकाष्टका। तां । ५ ॥ ९ ॥ २॥ , मुखं वा एतत्संवत्सरस्य यत्फाल्गुनी पौर्णमासी। कौ०४।
४॥ १॥ तां०५। ९ १ ८ ॥ गो० उ० १ । १९ ॥ ,, मुखं ( संवत्सरस्य ) उत्तर फल्गुन्या पुच्छं पूर्वे । गो० उ०
., एपा ह संवत्सरस्य प्रथमा रात्रिर्यत्फाल्गुनी पौर्णमासी।
श०६ । २।२।१८॥ . एषा वे प्रथमा रात्रिः संवत्सरस्य यदुत्तर फल्गुनी । ०।।
१। २०९। एषा वै जघन्या रात्रिः संवत्सरस्य यत्पूर्व फल्गुनी । ते० १ ।
किं नु ते मयि (संवत्सरे ) इति । अयम्म आत्मा। स (आत्मा) में त्वयि (संवत्सर)। जे० उ०३।२४।८॥
आत्मा वा एष संवत्सरस्य योद्वषुवान् । ता० ४।७।१॥ , आत्मा से संवत्सरस्य विषुवानहानि पक्षी (दक्षिणः पक्ष
उत्तरः पक्षश्च ) । गो० पू० ४ ॥ १८ ॥ आत्मा वै संवत्सरस्य विषुवानङ्गानि मासाः। श० १२ ।
अथ ह वाऽ एष महासुपर्ण एव यवत्सरः। तस्य यान्पु. रस्ताहिषुवतः षण्मासानुपयन्ति सो ऽन्यतः पक्षो ऽथ यान्पडपरिष्टात्सो ऽन्यतर आरना विषुषान् । श० १२:२।
, संवत्सरो वै व्रतं तस्य वसन्त ऋतुर्मुख ग्रीष्मश्च वर्षाच
पक्षौ शरन्भध्य हेमन्तः पुच्छम् । ता० २६ । १५ ॥ २ ॥ तस्य । संवत्सरस्य ) वसन्तःशिरः ! तै० ३ । ११ । १० । २॥ वर्षा उत्तरः ( पक्षा संवत्सरस्य )। ते ३ । ११ ! १० १३ ॥
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संखपः]
संवत्सरः वर्षा पुच्छम् । मंवत्सरस्य )। ते० ३ । १२:१०।४:: .. संवत्पर संवत्सो वै रेतः खितं जायते । ऐ. ४ . १४॥ ,, संवत्र संवत्सरे व रेतःसिक्तिजीयते । कौ० १९ ॥ १॥ ,, संवत्सरो वै प्रजननम् गो० पू० २ ॥ १॥
संवत्सरं हि प्रजाः पशव ऽनुपजायन्ते । नां. १०।१ । ९ ॥ तस्मादु संवत्परऽ एव स्त्री वा गोवी वडवा वा विजायते ।
श० ११ ।।६।२ ॥ .. संवत्सरऽ एव कुमाराव्याजिहोषति । श०१३।।।।३॥ .. तस्मात्मवसावलायां प्रजाः ( शिशवः) वचं प्रवदन्ति ।
श० ७ । ४ । २ । ३८॥ ,, चक्षुर्वा एतत्संवत् परस्य याञ्चत्रापूर्ण मामः । ता०, १९।११ ॥
प्रजापतेह वै प्रजाः मंसृजनस्य पणि विसन सुः । स वै संवत्मरऽ एव प्रजापतिस्तस्यैतानि पर्वाण्यहा. रात्रयोः सन्धी पौर्णमासी चामावास्या चत्तुंमुखानि ' श.
संवत्सरो लि नक्षत्रेषु श्रितः। ऋतूनां प्रतिष्ठा । ते. ३।
११ । १ । १४॥ ,, । नक्षत्राणि ) संवत्सरस्य प्रतिष्ठा । ते० ३ । २१ । १ ।१३।। ., तस्माद हुः संवत्सरः सर्वे कामा इते । श.१०।२१४:१॥
, संवत्सरो वै मर्यस्य शान्तिः । तां । । ८ ॥ १३ ॥ संबंश उपवेशः छन्दासि वै संवेश उपवेशः। ते० १ । ४.६।४।। संशानामि (मामामि ) अथ यस्मातामानि नाम । एतैर्वे साम
भिर्देवा इन्द्रमिन्द्रियाय वीर्याय समश्यन् ! श० १२ । । ।
३॥२६॥ ,अथ कस्मात्संश्यानानि नाम एतैर्वे सामभिवा इन्द्रमि
न्द्रियेण वीर्येण समश्यन् । गो० उ० ५।७ संसपः (देवताः, हवींषि) वरुणस्य सुवुयाणस्य दशधान्द्रयं वीर्य परा.
पतत् । तत्ल साझरनुसमर्पत् । तत्तश्रसृपा ससप्व
म् । तै० १८११॥ , तद्यानमताभिर्देवताभिरनुसमर्पत् । तस्मात्सो नाम!
शः ५1५11.1
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सजाता:
संस्कारः यस्य (ब्राह्मणस्य ) गर्भाधानपुंसवनसीमन्तोनयनजातकर्म
नामकरणनिष्क्रम गानप्राशन गोदानचूडाकरणोपनपनाप्लवनाग्निहोत्रवतचर्यादीनि कृतानि भवन्ति स सान्तपनः ।
गा० पू०३ । २३ । संस्तुप्छन्दः (यजु, १५ । '.) बागेव सस्तुप्छन्दः। श०८।
संस्थाः यास्मत संस्था या एवेतास्सप्त होत्राः प्राविषट्कुर्वन्ति ता
एव ताः । जै० उ०१।२१ ॥ ४॥ संस्थितयषि ( देवाः) यत्समम्थापयंस्तस्मात्मस्थितयजूपि । श.
।।१ । २९ ॥ संस्रवभागाः वसयो वे रुद्रा आदित्या सत्रावभागाः ( 'सनव
भागा'-यजु०२।१८ ॥ विलीनमाज्यं संनव इति मही
धरः) ते० ३।३।९।७॥ सहितः ( यजु० १८ । ३९. ) असो वा आदित्यः सहित एष ह्य हो
रात्र संदधाति । श०९।४।।८॥ संहितम् ( साम ) तहेवाः साहतेन समदधुर्य्यत्समदधुस्तस्मात्संहि.
तम् । तां८।४।९॥ .. सहितं भवति यक्षरणिधनं प्रतिष्ठाय प्रतिष्ठायव सत्र
मासते । तां० ११ । ५।४॥ ,, सहितं भवति यक्षरणिधनं प्रतिष्ठायै । तां०१५ । ११ । ३ ।। सकवः देवानां व एतद्रूपं यत्सक्तवः । श० १३ ॥ २ ॥१॥३॥
" प्रजापतर्वा एताम् । यत्सक्तवः । तै०३।८।१४। ५ ॥ सखा सखायः सप्तपदा अभूम । तै० ३।७।७।११ ॥ सखा भक्षः प्राणो वै सखा भक्षः। श०१ ! ८।१।२३ ॥ सगरा सगरा रात्रिः ( सगरः ऋतुविशेषः-तैत्तिरीयसंहितायां ४:
४। ७ । २॥५।३।११। ३॥ सायणमाष्ये ऽपि )। श. ११
७।२।२६॥ सङ्गवः ( कालविशेषः ) मित्रस्य सङ्गयः। ते. १।५।३।१॥ सजाताः (= 'शातयः" इति सायणः ॥ यजु. १६१७) भूमा वै खजाता।
श०१।२।१।७॥
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( .६७ )
सत्यम् सजाताः प्राणा वै सजाताः प्राणैर्हि सह जायते । श. १ ।।
मजू: ( यजु० १४ । ७) अथैवैतद्यजमान एनाभिदेवताभिः (ऋत्वा.
दिभिः) सयुग्भूत्वैताः प्रजाः प्रजनयति तस्मादु सर्वस्वेव सजः
सजूरित्यनुवर्तते । श० ८।२।२। ७ ॥ सअयम् (साम) ते देवा असुरान् सञ्जयन समजयन् यत्समजय.
स्तस्मान्स अयम्पशूनामवरुध्य सञ्जय क्रियन । तां०१३
सत् तयोः ( सदसतो. ) यत सत् नमाम तन्मनस्स आणः ! जै.
उ० १ । १३ । २॥ ,, सदमृतम् । श०१४।४।१।३१॥ सतमा योनिरसतश्च (यजु० १३ । ३) इमे वै लोकाः सतश्च योनिरसतश्च
यश्च ह्यस्ति यश्च न तदेभ्य एव लोकेभ्यो जायते ।
श०७।४।१।१४॥ खतोहती शिथिलरिव वा एतच्छन्दो यत्मनोबृहती। तां०१५॥१०॥३॥
शिथिलमिव वा एतत् छन्दश्चराचरं यत् सतबृहती। तां० १७। १ । १२॥ सतोवृहत्या वै दवा इमान् लोकान् व्याप्नुवन्निमानेवैताभिल्लोकान् व्याप्नोति । तां० १६ । ११ । ९॥ प्राणाः सताबृहती। ऐ२६।२८ ॥ गो० उ०६।८॥ पशवः सनोबृहती। ऐ०६।२८ ॥ गो० उ०६।८॥
प्रजाः सनोबृहती । गो० उ०६।८॥ सस्पतिश्चेकितानः ( यजु. १५ । ५१) सरपातेश्चेकितान इत्ययमग्निः
सतां पतिश्चेतयमान इत्येतत् । श० ८ । ६ ।
३॥२०॥ सत्यम् तदेतत्यक्ष सत्यमिति स इत्यकमक्षरं तीत्येकमक्षरम म
त्येकमक्षरं प्रथमोत्तने अक्षरे सत्यं मध्यतोऽनृतम् । श०१४ ।
८।६।२॥ ., तद्यत्तत्सत्यम् । त्रयी सा विद्या । श०९।५ । १ ! १८ ॥ ,, सत्यं वा ऋतम् । श०७।३।१।२३ ॥ १४।३।११८॥
तै०३।८।३।४॥
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[सत्यम्
( ५६८ ) सत्यम् ऋतमिति ( यजु. १२ । १४ ) सत्यमित्यतत् । श०६।७
३।११॥ ,, यो वै धर्मः सत्यं वै तत्तस्मात्सत्यं वदन्तमाहुर्धर्म वदतीति
धर्म वा वदन्त सत्यं वदतीति । श० १४ । ४।२।२६ ॥ .. सत्यं वै सुकृतस्य लोकः । तं०३।३।६।११॥ ,, एतत्खलु वै व्रतस्य रूप यत्सत्यम् । श. १२ । ८।२।४॥ ,, एक ह वै देवा व्रतं चरन्ति सत्य नेव । श०३।४।२।८॥ ,, एक ह वै देवा व्रतं चरन्ति यत्सत्य तस्माद् सत्यमेव वदेत्।
श०१४। १ । १ । ३३॥ ,, सत्यसंहिता वै देवाः। ऐ०१।६॥ ., सत्यमया उ देवाः । कौ० २।८॥ , सत्यमेव देवा अनृतं मनुष्याः । श०१।१। ।४ ।१।
२॥ १७ ॥ ३।३।२।२॥३।६।४!१॥ , एव ह वाऽ अस्य जितमनपजय्यमेवं यशो भवति य एवं
विद्वान्त्सत्यं वदति । श० ३ । ४ । २ । ८॥ स यः सत्यं वदति यथानि समिद्धतं घृतेनाभिषिञ्चेदेव है. नर्थ स उद्दीपयति तस्य भूयो भूय एव तंजो भवति श्वः श्वः श्रेयान्भवत्यथ यो ऽनृतं वदात यथान समिद्धं तमुद केना. भिषिश्चेदेव हैन स जासयति तस्य कनायः कनीय एवं तेजोभवति श्वः श्वः पापीयान्भवति तस्मादु सत्यमेव वदेत्। श०२।२।२। १९ ॥ तस्मादु हैतद्य आसक्ति सत्यं वदत्यैषावीरतर इवैव भवत्यनात्यतर-इव स ह त्वेवान्ततो भवति देवा वान्ततो भवन्। श०९।५।१।१६ ॥ ( उहालकः ) तस्मै (प्राचीनयोग्याय ) हैता शोकनगं व्याहतिमुवाच यत्सत्यं तस्मादु सत्यमेव वदेत् । श० ११ । । ।३।
.
., स यः सत्यं वदति स दीक्षितः कौ०७।३॥ ,, सत्ये होव दीक्षा प्रतिष्ठिता भवति । श०१४ । ६ । ९ । २५ ॥ , तस्यै वाचः सत्यमेव ब्रह्म । श०२११।४।१०॥
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सत्याशीः] सत्यम् सत्यं ब्रह्म । श० १४ । ८।५।१॥ ., सत्यं ब्रह्मणि (प्रतिष्ठितम् ) । ऐ० ३ । ६॥ गो० उ० ३।२॥ ,, आपः सत्य (प्रतिष्ठिताः )। ऐ० ३।६॥ गो० उ०३।२॥ ,, तद्यत्तत्सत्यम् आप एव तदापो हि वै सत्यम् । श०७।४।
,, सत्यं वा एतत् । यर्षति । ते १।७।५।३॥ , असावादित्यः सत्यम् । तै०२।१ । ११ । १ ॥ , तद्यत्सत्यम् । अलोस आदित्यः । श०६।७।१।२॥
तद्यतत्सत्यम् । असौ स आदित्यो य एष एतस्मिन्मण्डल
पुरुषः । श०१४। ८ । ६ । ३॥ ,, सत्यमेष य एष (आदित्यः) तपति। श०१४।१।२।२२॥
(यजु० ११।१७) अयं वाऽ अग्नितमसावादित्यः सत्यं यदि वासो ( आदित्यः) ऋतमय ( अग्निः) सत्यमुभयम्वेतद.
यमग्निः । श०६।४।४।१० ॥ ,, सत्यं वै शुक्रम् । श०३।६।३।२२।। ,, सत्यं वै हिरण्यम् । गो० उ०३।१७ ।। .. प्राणा वै सत्यम् । श०१४।५।१ । २३ ॥ .. चक्षु सत्यम् । तै०३।३।५।२॥ " एतद्व मनुष्येषु सत्यं यच्चक्षुः । गो० उ०२।२३॥
इयं (पृथिवी) एव सत्यमिय होवैषां लोकानामद्धातमाम् ।
श०७।४।१।८॥ ,, नामरूपे सत्यम् । श०१४ ४।४।३॥ , श्रद्धा पत्नी सत्यं यजमानः। ऐ०७ ॥१०॥ ,, सत्य ह होतैषामासीत् यद्विश्वसृज आसत। तै०३ । १२
९॥३॥ सत्याचर्षणीदना ( ऋ० ४ । १७ । २० ) इयं (पृथिवी ) वै सत्यावर्ष
णीधदना । ऐ०३। ३८ ॥ सत्यानृते वाचो वा एतौ स्तनौ, सत्यानृते वाव ते (द्व अक्षर)। गो०
उ०४।१९॥ सत्याशीः साम हि सत्याशीः । तां० ११ । १०॥ १० ॥१३ । १२ । ७ ॥
१५।५।१३॥
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[ सदस्यः
( ५७० ) सत्रम् आत्मदक्षिण वै सत्रम् । कौ० १५ ॥ १॥
, आत्मदक्षिणं वा एतद्यत्सत्रम् । तां०४६ ९ । १९ ॥ ,, सर्वान् लोकानहीनेन । अथो सत्रेण (अभिजयति )। तै० ३।
१२।५ । ७॥ सत्रासाहीयम् (साम ) यद्वा असुराणामसोढमासीत्तद्देवाः सत्रासाही
येनासहन्त सत्रैनानलक्ष्महीति तत्सत्रासाहीयस्य सत्रासाहीयत्वम् । तां० १२ । ९ । २१ ॥ सत्रा भ्रातृव्य सहते सत्रासाहीयेन तुष्टुवानः । तां.
१२।१ । १२॥ सत्वन्तः (बहुवचने ) शतानीकः समन्तासु मेध्य सात्राजितो हयम्।
आदत्त यशं काशीनां भरतः सत्वतामिवेति । श० १३।५। ४।२१॥ तस्माद्धाप्येतर्हि भरताः सत्वना ( ? सत्वतां) वित्तिं प्रयन्ति
तुरीये हैव संग्रहीतारो वदन्ते । ऐ०२ । २५ ॥ , तस्मादेतस्यां दक्षिणस्यां दिशि ये के च सत्वतां राजानो
भौज्यायैव ते ऽभिषिच्यन्ते भोजेत्येनानभिषिक्तानाचक्षते ।
ऐ०८।१४॥ सदः यदस्मिन्विश्वे देवा असीदस्तस्मात्सदो नाम तऽ उऽएवासिनेते
गाह्मणा विश्वगोत्राः सीदन्ति । श०३।५।३।५ ॥ ३ । ६ ।
१।१॥ ,, उदरं वै सदः । कौ० ११ । ८॥ ,, उदरमेवास्य ( यज्ञस्य) सदः । श०३।५ । ३ । ५॥ ,, (पुरुषस्य) उदरं सदः । को०१७ ॥ ७॥ , प्रजापतेर्वा एतदुदरं यत्सदः । तां० ६।४ ॥ ११ ॥
तस्मात्सदस्शकसामाभ्यां कुर्वन्त्येन्द्र हि सदः। श० ४।६।
,, ऐन्द्र हि सदः । श० ३।६।१।२२ ॥ , तस्मादुदीचीनवश सदो भवति । श०३।६।१।२३॥ ,, तस्य पृथिवी सदः । तै०२।१।५।१॥ सदस्यः (पुरुषस्य) प्रजातिः सदस्यः। कौ०१७ । ७॥
(पुरुषस्य) प्रजापतिः (? प्रजातिः) सदस्यः। गो० उ०५॥४॥
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( ५७१ )
[सपनः सदस्यः सदस्या ऋतवो ऽभवन् । तै० ३ । १२ । ६।४॥ सदानीरा ( नदी ) सैषा (सदानीरा ) अप्येतर्हि कोसलविदेहानां
मर्यादा । श०१।४।१ । १७ ॥ सदोविशीयम् (ब्रह्मसाम ) पशयः सदोविशीयम् । तां० १८।४।॥ सचःकीः ( एकाहः सामयोगः ) तऽ एतेन सद्यःक्रियाङ्गिरस आदित्यान
याजयन् । श० ३।५।१ । १७ ॥ , अस्माभिः ( अङ्गिरोभिः) एप प्रतिगृहीतो य एष ( सूर्यः)
तपतीति तस्मात्सद्यःक्रियो ऽश्वः श्वतो दक्षिणा । श०३।
५।१।१६ ॥ सधमादः ( यजु० १० । ७) अननिमानिन्य इत्येवैतदाह यदाह सधमाद
इति । श०५ । ३।। १९ ॥ सधस्थः ( यजु• १८ । ५९ ) स्वर्गो वै लोकः सधस्थः । श० ६।५।
१॥४६॥ सनातनः पृणक्षि सानासि क्रतुम् ( यजु० १२ । १०९ ) इति पृणक्षि
सनातनं कतुमित्येतत् । श० ७ । ३ । १ । ३२ ॥ सन्धिः ( स्तोत्रम् ) एषा वा उक्थस्य सम्मा यद्रात्रिः (=सन्धिस्तो.
त्रम् ), त्रीण्युक्थानि. ( अग्निरुषा अश्विनाविति) त्रिदेवत्यः
सन्धिः । तां०९ । १ । २५-२६ ॥ सन्ध्योपासनम् यत्सायश्च प्रातश्च सन्ध्यामुपास्ते..... । ०४।५॥
तस्माद् ब्राह्मणो ऽहोरात्रस्य संयोगे सन्ध्यामुपास्ते स ज्योतिष्याज्योतिषो दर्शनात् सो ऽस्याः कालः । १०
ब्रह्मवादिनो वदन्ति कस्माद् ब्राह्मणः सायमासीनः सन्ध्यामुपास्ते कस्मात्प्रातस्तिष्ठन् । प०४१५ ॥ अथ (सन्ध्यायां) यदपः प्रयुङ्क्ते ता विमुषो वजी भवन्ति ता विपुषा वज्रीभूत्वा ऽसुरानपानन्ति ।
ष०४।५॥ सपनः इमं देवाः । असपत्न सुवध्वमितीमं देवा अभ्रातृव्य सुव.
ध्वमित्येवैतदाह । श० ५।४।२।३॥ , पापमा वै सपत्नः । श०१।५।१।६॥
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सप्तदशः
( ५७२ ) सपनः सपत्नो वाऽ अभिमातिः ( यजुः ९ । ३७ ॥ ३८ : ८ ॥ ) : श०
३।९। ४.९ ॥ ५। २।४ । १६॥ १४ । २।२।८॥ सप्तदशः ( स्तोमः) प्रजापति सप्तदशः। गो० उ० २। १३॥ ५।
८॥ तै० १ । ५।१०।६॥ तां. २।१०। ५ ॥ १७।९।४॥
सप्तदशः प्रजापतिः । तै० १ । ३ । ३॥ २ ॥ , सप्तदशो वै प्रजापतिः। ऐ०१।१६॥ ४ । २६ ॥ कौ०८।
२॥१०।६ ॥ १६ ४॥ श०१ । ५ । २ । १७ ॥ ५। १।२।
१२॥ गो० उ० १ । १९ ॥ ,, सप्तदशो वै प्रजापतिर्द्वादश मासाः पंचतवो हेमन्तशिशिरयोः
समासेन तावान्त पंवत्सरः संवत्सरः प्रजापतिः । ऐ०१ । १॥ द्वादश वै मासाः संवत्सरस्य पञ्चर्तव एष एवं प्रजापतिः सप्तदशः। श.१।३।५।१०॥ संवत्सर एव सप्तदशस्यायतनं द्वादश मासाः पञ्चत्तव एत. देव सप्तदशस्यायतनम् । तां०१०।१। ७ ॥ सप्तदशो वै संवत्सरो द्वादश मासाः पञ्चर्तवः : श०६।
२।२।८॥ , संवत्सरः सप्तदशः । तां०६।२।२॥ , तस्माऽ एतस्मै सप्तदशाय प्रजापतये । एतत्सप्तदशमन्न
समस्कुर्वन्य एष सौम्योध्वरो ऽथ या अस्य ताः षोडश कला एते ते षोडशर्विजः । श०१०। ४ । १ । १६ ॥ तद्वै लोमेति द्वेऽअक्षरे । त्वगिति द्वेऽअसृगिति द्वे मेद इति द्वे माउंसमिति द्वे स्नावेति द्वेऽअस्थीति द्वे मज्जेति द्वे ताः षोडश कला अथ य एतदन्तरेण प्राणः सञ्चरति स एव सप्तदशः प्रजापतिः । श०१०।४।२ । १७ ॥ अन्नं वै सप्तदशः। तां०२।७ । ७ ॥१७ । । । २॥ १९ । ११॥ ४॥ २० । १०११॥२५ । ६।३॥ सतदश ह्यन्नम् ! श० ८।४।४।७॥ प्रजातिः सप्तदशः। ऐ०८।४॥
तं ( सप्तदशस्तोमं ) उ प्रजातिरित्याहुः। तां० १०॥१॥९॥ , सप्तदश एव स्तोमो भवति प्रतिष्ठायै प्रजात्यै । तां० १२ ।
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( ५७३ )
सप्तराईमा सदशः विट् सप्तदशः । तां० १८।१०।९॥ ,, विड् वै सप्तदशः । तां० २।७।५॥२ । १० । ४॥
विशः सप्तदशः । ऐ० ८।४ ॥ ., पशवो वै मतदशः । तां०१६ । १०१ ७ ॥ , तान् ( पशून् ) विश्वे देवाः सतदर्शन स्तोमेन नाप्नुवन् ।
तै० २।७।१४ ॥ २॥ , सप्तदशो वै पुरुषो दश प्राणाश्वत्वार्थङ्गान्यात्मा पञ्चदशो
ग्रीवाः पोडश्यः शिरः सप्तदशम् । श०६।२।२।९॥ उरः सप्तदशः । अष्टावन्ये जत्रवो ऽष्टावन्यऽ उरः सप्तदशम् । मा० १२ । २।४।११ ॥ वर्षाभिर्ऋतुनादित्याः स्तोमे सतदशे स्तुतं वैरूपेण विशौजसा । तै०२।६।१६ ! १-२॥
गायत्रः सप्तदशस्तोमः । तां० ५। १ । १५ ॥ ,, उदरं वा एषः स्तोमानां यत्सप्तदशः । तां.४।५। १५ ॥
राष्ट्र सप्तदशः तै० १ । ८ : ८ । ५ ॥ सनदशः ( स्तोमः ) एव यशः । गा० पू०५।१५ ॥ यत् सप्तदशो यदेवास्य ( यजमानस्य ) मध्यतो ऽपूतं तत्ते.
नापहन्ति । तां०१७।५६॥ , सर्वः सप्तदशो भवति । तां० १७ । ९।४॥ सधाम प्रियाणि (यजु. १७ । ७१) छन्दासि वाऽ अस्य सप्त धाम
प्रियाणि । श.२ | २।३।४४॥ सप्तममहः ततिरेव सप्तममहः। कौ० २६।८॥
. चतुर्विंश सप्तममहः । तां १० । '५।४॥ सप्तमी चितिः अमृतमेव सप्तमी चितिः ! श.८।७।४ । १८ ॥
, प्राणा एव सप्तमी चितिः। श० ८। ७ । ४ । २१ ॥ सप्त योनयः ( अग्नेः, यजु० १७ । ७९ ) सप्त योनीरिति चितीरेतदाह ।
श०९।२।३।४४॥ सतरश्मिः ( ऋ० २ । १२ । १२ ) यस्पप्तरश्मिरिति । सप्त ह्येत आदि.
त्यस्य रश्मयः ( सप्तरराशिमा इन्द्रः आदिन्यः) । जै० उ० १। २६ । ८ ॥
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[ सभेयो युवा ( ५७४ ) सप्तरश्मिः स एष ( आदित्यः ) सप्तरश्मिवृषभस्तुविष्मान् । जै० उ०
१।२८ । २॥ सप्तर्षयः सप्तर्षीनु ह सम वै पुरऽक्षा इत्याचक्षते । श०५॥ १ ॥ १॥४॥
" अमी ह्युत्तराहि सप्तर्षय उद्यन्ति । श० २ । १ । २ । ४ ॥ सप्तहोता तस्मै (ब्रह्मणे ) सप्तम इतः प्रत्यशृणोत् । स सप्तहतो
ऽभवत् । सप्तहूतो ह वै नामैषः । तं वा एत सप्तहत सन्तम् । सप्तहोतेत्याचक्षते परोक्षेण । परोक्षप्रिया इव हि
देवाः। तै०२।३ । ११ । २॥ ,, इन्द्रियं वै सप्तहोता । तै० २।२।८।२॥ ,, इन्द्रः सप्तहोता। तै०२।३।१ । १॥
इन्द्रः सप्तहोत्रा । तै० २।२। ८ ॥ ५ ॥ , सौम्योऽध्वरः सप्तहोतुः (निदानम्)। तै०२।२।११।६॥
" अर्यमा सप्तहोतृणा होता । तै० २।३।५।६॥ सप्त होत्राः (यजु० १३ । ५) दिशः सत होत्राः । श०७।४।१।२०॥ सप्ति. (हे ऽश्व त्वं) सप्तिरसि । तां०१। ७।१॥ , आशुः सप्तिरित्याह । अश्व एव जयं दधाति । तस्मात्पुरासुर
श्वो ऽजायत । तै०३।८।१३। २ ॥ , वायुः सप्तिः । तै०१।३।६।४॥ सफम् (साम) सफेन वै देवा इमान् लोकान् समाप्नुवन् यत् समा.
प्नुवस्तत्सफस्य सफत्वम् । तां० ११ । ५। ६॥ १५ ॥
सन्दम् सब्दमहः (सब्द ऋतुविशेषः, तैत्तिरीयसंहितायाम् ४।४।
७। २॥ ५। ३ । ११ । ३॥ सायणभाष्ये ऽपि) । श०१ । ७।
२॥ २६ ॥ सभासाहः सखा (ऋ० १० । ७१ । १०) एष वै ब्राह्मणानां सभासाहः
सखा यत्सोमो राजा। ऐ० १ । १३॥ सभेयो युवा (यजु० २२ । २२) एष वै सभेयो युवा यः प्रथमवयसी
तस्मात्प्रथमवयसी स्त्रीणां प्रियो भावुकः । श० १३ । १ । ९८॥ यो वै पूर्ववयसी । स सभेयो युवा । तस्माबुवा पुमान् प्रियो भावुकः । तै०३।८।१३ ॥ ३॥
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( ५७५ )
समुद्रः ]
समन्तम् (साम) समन्तेन पशुकामः स्तुवीत पुरोधाकामः समन्तेन स्तुत्रीत । तां० १५ । ४ । ७ ॥
समानः तं ( संशप्तं पशु) ऊर्ध्वा दिक्समानेत्यनुप्राणत्समानमेवास्मिँस्तददधात् । श० ११ । ८ । ३ । ६ ॥
दिशः समानः । जै० उ० ४ । २२ ।९ ॥
निरुक्तानिरुक्त इव हायं समानः । प० १ । २ ॥
39
समिध: (यजु० १७ । ७९) प्राणा वै समिधः प्राणा होतv समिन्धते ।
श०९ । २ । ३ | ४४ ॥
प्राणा वै समिधः । ऐ०२ । ४ ॥ श० । ५ । ४ । १ ॥
यदेनं समयच्छत् तत्समिधः समित्त्वम् । तै० २ | १ | ३/८ ॥ समिधो यजति वसन्तमेव वसन्ते वा इदं सर्वं समिध्यते । कौ० ३ | ४ ॥
वसन्तो वै समित् । श० १ । ५ । ३ । ९ ॥
गर्भः समित् । श० | ६ | ६ । २ । १५ ॥
अस्थीनि वै समिधः । श०९ | २ | ३ | ४६ ॥
समिष्टयजूंषि ( देवाः) यत्समयजंस्तस्मात्समियजूंषि श० ९ ।
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५ । १ । २९ ॥
अथ यस्मात् समिष्टयजुर्नाम | या वाऽ एतेन यज्ञेन देवता यति याभ्य एप यज्ञस्तायते सर्वा वै तत्ताः समिष्टा भवन्ति तद्यत्तासु सर्वासु समिष्टास्वथैतज्जुहोति तस्मात्समिष्टयजुर्नाम । श० १ । ९ । २ । २६ ॥ या वाऽ एतेन यज्ञेन देवता ह्वयति याभ्य एष यज्ञ यज्ञस्तायते सर्वा वै तत्ताः समिष्टा भवन्ति तद्यत्तासु सर्वासु समिप्रास्वथैतानि जुहोति तस्मात्ल मिष्टयजूॐषि नाम ।
२० ४ । ४ । ४ । ३॥
अन समिष्टयजुः । श० ११ । २ । ७ । ३० ॥
अन्तो हि यशस्य समिष्टयजुः । श० ३ । १ । ३।६॥ समिष्टयजूंषि ह्येवान्तो यशस्य । श० ४ । ४ । ५ | २ ॥
समीपती पशवो वै समीषन्ती (विष्टुतिः) | तां० ३ । ११ । ४ ॥
समुद्रः (यजु० ३८ । ७) अयं वै समुद्रो यो ऽयं (वायुः ) पघत एत.
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[समुद्रः
स्माद्वै समुद्रात्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि समुद्रवन्ति । श०
१४ । २।२।२॥ समुद्रः य एवायं (वायुः ) पवत एष एव स समुद्र एतं हि संद्रवन्तं
सर्वाणि भूतान्यनु संद्र वन्ति । जै० उ० १ । २५ । ४ ॥
तद्यत् (आपः) समद्रवन्त तस्मात्समुद्र उच्यते। गो० पू०१॥७॥ ,, तद्वस्तिमभिनत् । स समुद्रो ऽभवत् । तस्मात्समुद्रस्य (जलं)
न पिबन्ति । प्रजननमिव हि मन्यन्ते । तै० २.२१९।२-३॥ , आपो वै समुद्रः । श०३८।४।२१ ॥३।९।३ । २७ ॥
१२।९।२।५॥ समुद्रा वाऽ अपां योनिः । श. ७।५।२ । ५८ ।। समुद्रो वाऽ अभृयः। ते० २।५ । ५ । २ ॥
( यजु० १३ । ५३ ) मनो वै समुद्रः । श० ७ । ५ । २ । ५२ ।। १. वाग्वै समुद्रो मनः समुद्रस्थ चक्षुः । तां०६।४।७॥
(ऋ० ४ । ५८ । ५) वाग्वै समुद्रो न वै वाक् क्षीयते न समुद्रः क्षीयते । ऐ० ५ ॥ १६॥
वाग्वै समुद्रः । ता० ७ । ७ । ९॥ ,, पुरुषो वै समुद्रः। जै० उ०३।३।५॥ __(यजु०१३ । १६) रुक्मा व समुद्रः । श०७।४।२५॥
एष वाव स समुद्रः । यश्चात्वालः । ते०१।५।१०।२॥ तेजो ऽसि तपसि श्रितम् । समुद्रस्य प्रतिष्ठा । तै०३ । ११ । १ । ३॥
समुद्रो ऽसि तेजसि श्रितः । अपां प्रतिपा। ते० ३।११।११४॥ , समुद्र एवात्य ( अश्वस्य मेध्यस्य ) वन्धुः समुद्रो योनिः
( इन्द्रावस्यांच्चैःश्रवसः क्षीरसागरादुत्पत्तिः-महाभारत
आदिपर्वणि, १८ । ३७॥)। श० १०।६।४।१॥ , तस्मादिमं लोकं (पृथिवीं) दक्षिणावृत्तमुद्रः पयति । श०
७।१।१।१३॥ , तस्मादिमाँल्लोकान्दाक्षिणावृत्समुद्रः पयति । श०९।१।३।३॥ ,, तस्मादिमं लोकः (=पृथिवीं) सर्वतः समुद्रः पर्येति । श०
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( ५७७ )
सम्भूतिः] समुद्रः तस्मादिमांल्लोकान्त्सर्वतः समुद्रः पर्येति । श०९।१।२।३॥ समुद्रश्छन्दः (यजु० १५ । ४) मनो वै समुद्रश्छन्दः । श०८।५।२।४॥ समुद्रो नभस्वान् ( यजु• १८ । ४५ ) असौ वै (धु-)लोकः समुद्रो
नभस्वान् । श०९। ४ । २।५ ॥ समृद्धः यो वै ज्ञातो ऽनूचानः स समृद्धः । श०३।६।१।२९ ॥ समृद्धिः तद्वै समृद्धं यस्य कनीयासोभार्याः (=पोष्याः)असन्भूया,
सः पशवः। श० २।३।२।१८ ॥ सम्पद् श्रोत्रं वै सम्पच्छ्रोत्रे हीमे सर्वे वेदा अभिसम्पन्नाः । श० १४ ।
९।२।४॥ सम्पाताः (सूक्तविशेषाः ) सम्रातैवै देवाः स्वर्ग लोकं समपतन् । कौ०
२२॥ १॥ तान् क्षिप्रं समपतद्यक्षिप्रं समपतत्तत्संपातानां संपातत्वम् । ऐ०६।१८॥ एतैर्दै सम्पातैरेत ऋषय इमाल्लोकान्त्समपतंस्तद्यत्समपतंस्तस्मात् सम्पाताः, तत्सम्पातानां सम्पातत्वम् । गो० उ०६।१॥ वामदेवो वा इमाल्लोकानपश्यत्तान्तसंपातैः समपतद्यत्संपातैः समपतत्तत्संपातानां संपातत्वम् । ऐ०४।३० ॥ तान्वा एतान्त्संपातान्विश्वामित्रःप्रथममपश्यत्तान्विश्वामि
त्रेण दृष्टान्वामदेवोऽसृजत । ऐ०६।१८॥ गो० उ०। ६।१ ॥ सम्भरणस्त्रयोविंशः ( यजु० १४ । २३) संवत्सरो वाव सम्भरणत्रयो
विशस्तस्य त्रयोदश मासाः सप्तऽर्तवो द्वेऽअहो
रात्रे संवत्सर एव सम्भरणत्रयोविशस्तद्यत्तमाह सम्भरण इति संवत्सरो हि सर्वाणि भूतानि
सम्भृतः । श० ८।४।१।१७ ॥ सम्भारः स यद्वाऽ इतश्चेतश्च सम्भरति । तत्सम्भाराणा सम्भार•
त्वम् । श०२।१।१।१॥ . तमेतावच्छः समभरन् यत्सम्भाराः । तै०२।२।२।६ ॥ सम्भूतिः (=प्राणः) प्राणं वा अनु प्रजाः पशवरसम्भवन्ति । जै० उ०
२।४।५॥
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[ सरस्वती
( ५७८ )
सम्भूतिः प्राणा उ ह वाव राजन् मनुष्यस्य सम्भूतिरेवेति । जै० उ०
४ ।७।४ ॥
सम्मार्जनानि वृष्टिः सम्मार्जनानि । तै० ३ । ३ । १ । २ ॥ अन्नं सम्मार्जनानि । तै० ३ | ३ | १ | ५ ॥
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सम्राट् स यदाह सम्राडसीति सोमं वा एतदाहैष ह वै वायुर्भूत्वान्तरिक्षलोके सम्राजति तद्यत्सम्राजति तस्मात्सम्राट् तत्सं• म्राजस्य सम्राट्त्वम् । गो० पू० ५ | १३ ||
तस्य यो रसो व्यक्षरतं पाणिभिः सममृजुस्तस्मात्सम्राट् ।
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स वाजपेयेनेष्ट्वा सम्राडिति नामाधत्त । गो० पू० ५/८ ॥ यो वै वाजपेयः । स सम्राट्त्सवः । तै० २ । ७ । ६ । १ ॥ तै० १ । ४ । ४ । ९ ॥
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सम्राट् ।
रथन्तरं वै सरघा इयं ( पृथिवी ) वै सरघा । तै० ३ । १० । १० । १ ॥ सरघां मधुकृतः एतऽ एव सरघो मधुकृतो यदृत्विजः । श० ३ | ४ |
३ । १४ ॥
सरस्वती युवं सुराममश्विना नमुचावासुरे सचा । विपिपाना शुभस्पती इन्द्रं कर्मस्वावतम् (ऋ० १० | १३१ । ४ ॥ यजु० १० | ३३ ॥ ) इत्याश्राव्याहाश्विनौ सरस्वतीमिन्द्रथं सुत्रामाणं यजेति । श० ५ | ५ | ४ | २५ ॥
वाक् सरस्वती । श० ७ । ५ । १ । ३१ ।। ११ । १ । ४ । ६ ॥ १२ । ९ । १ । १३ ॥
वाग्वै सरस्वती । कौ० ५ | २ || १२ | ८ ।। १४ । ४ ॥ तां० ६ । ७ । ७ ।। १६ | ५ | १६ || श० २ | ५ | ४ | ६ || ३ ।९ । १ । ७ ॥ तै० १ । ३ । ४ । ५ ।। ३ । ८ । ११ । २ ॥ गो० उ० १ । २० ॥
वाग्वै सरस्वती पावीरवी । ऐ० ३ । ३७ ॥
वागेव सरस्वती । ऐ० २ । २४ । ६ । ७ ॥
वाग्घि सरस्वती । ऐ० ३ । २ ॥
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श० १४ । १ । १ । ११ ॥
सम्राड् वाजपेयेन (इष्ट्वा भवति । श० ५ । १ । १३ ॥ ९ । ३ | ४ | ६ ॥
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( ५७९ )
सरस्वती वाक्तु सरस्वती । ऐ० ३ | १ ॥
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सरस्वती वाचमदधात् । तै० १ । ६३ । २ । २ ॥
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अथ यत्स्फूर्जयत्वाचमिव वदन्दहति तदस्य (अग्नेः) सारस्वतं रूपम् । ऐ० ३ | ४ ॥
सा (वाक्) ऊर्ध्वदातनोद्यथापां धारा संततैवम् ( सरस्वती [ नदी ] = वाक् ) । तां० २० | १४ । २ ॥
जिहा सरस्वती । श० १२ । ९ । १ । १४ ॥
(यजु० ३८ | २) सरस्वती हि गौः । श०१४ : २ १ १ । ७ ॥ अमावास्या वै सरस्वती । गो० उ० १ । १२ ॥
"नमुचि" शब्दमपि पश्यत ॥
परस्वान् मनो वै सरस्वान् । श० ७ । ५ । १
सरस्वान् ]
सारस्वतं मेत्रम् (आलभते । तै० १ | ८ | ५ | ६ ॥
अविर्मल्हा ( = "गलस्तनयुता" इति सायणः ) सारस्वती ।
२०५ । ५ । ४ । १ ॥
वर्षाशरद सारस्वताभ्याम् (अवरुन्धे) । श०१२ | ८ | २|३४|| योषा वै सरस्वती वृषा पूषा । श० २ । ५ । १ । ११ ॥ सरस्वती ( श्रियः) पुष्टिम् (आदत्त) । श० ११ । ४ । ३ । ३ ॥ सरस्वती पुष्टिः पुष्टिपत्नी | तै०२ | ५ | ७ | ४ ॥ सरस्वती पुष्टि (ष्टिः पुष्टिपतिः । श० ११ । ४ । ३ । १६ ॥ सर्वे (द्वैषाः) सारस्वता अन्नाद्यस्येवावरुद्ध्यै । श० १२ ।
८ । २ । १६ ॥
एषा वा अपां पृष्ठ यत्सरस्वती । तै० १ । ७ । ५ । ५ ॥ ऋक्सामे वै सारस्वतावुत्सौ । तै० १ । ४ । ४ । ९॥
सरस्वत्यै दधि । श० ४ । २ । ५ । २२ ॥
अन्तरिक्षं सारस्वतेन ( अवरुन्धे) । श० १२ | ८ | २ । ३२ ॥ सरस्वतीति तद् द्वितीयं वज्ररूपम् । कौ० १२ । २ ॥
अथ यत् ( अक्ष्योः ) कृष्णं तत्सारस्वतम् । श० १२।९। १ । १२ ॥
स्वर्गो लोकः सरस्वान् । तां० १६ | ५ | १५ ॥ पौर्णमासः सरखान् । गो० उ० १ । १२ ॥
। ३१ || ११ | २ | ४९ ॥
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[सर्पाः
( ५८० ) सरिरः (यजु०३८।७॥) अयं वै सरिरो यो ऽयं (वायुः) पवत एतस्मा
है सरिरात्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि सहेरते । श० १४ ।
२।२।३॥ सरिरम् (यजु० १३ | ४२) आपो वै सरिरम् । श० ७ । ५ । २॥ १८ ॥
(यजु० १३ । ४९ ॥ १५ । ५२) इमे वै लोकाः सरिरम् । श०
७।५।२।३४॥८।६।३।२१ ॥ ,, (यजु०१३ । ५३) वाग्वै सरिरम् । श०७।५ । २।५३ ॥ ., (यजु० १५ । ४) वाग्वै सरिरं छन्दः । श० ८ । ५ । २।४॥
सलिलशब्दमपि पश्यत ।। सपनामानि ('नमो ऽस्तु सर्पेभ्यः... .. यजु० १३ । ६ ॥' इत्याचा मन्त्राः)
ते (देवाः) एतानि सर्पनामान्यपश्यन् । तैरुपातिष्ठन्त तैरस्माऽ इमांल्लोकानस्थापयंस्तैरनमयन्यदनमयंस्तस्मा
सर्पनामानि । श० ७।४।१।२६ ।। सर्पराज्ञी इयं (पृथिवी) वै सर्पराशीयं हि सर्पतो राशी। ऐ० ५। २३ ॥
तै०१।४।६। ६॥ , इयं वै पृथिवी सर्पराजी । श० २।१ । ४ । ३० ॥ ४।६।
९। १७॥ , देवा वै सर्पाः। तेषामिया ( पृथिवी ) राशी । तै० २।२।
६।२॥ सार्पराक्षा ऋग्भिः स्तुवन्ति । अर्बुदः (भर्बुदः) सर्प एताभिभृतां त्वचमपाहत मृतामेवैताभिस्त्वचमानते । तां०९ ।
८७-८॥ सर्पाः इमे वै लोकाः सस्ते हानेन सर्वेण सर्पन्ति यदिदं किं च ।
श०७।४।१।२५॥ देवा वै सः । तेषामिय (पृथिवी) राज्ञी । तै० २।२।६।२॥ अर्बुदः काद्रवेयो राजेत्याह तस्य सर्पा विशः....."सर्पविद्या वेदः...' सर्पविद्याया एकं पर्व व्याचक्षाण इवानुद्रवेत् । श०
१३ । ४ । ३।९॥ ,, ते देवाः सर्पेभ्य आश्रेषाभ्य आज्ये करंभं निरवपन् । तान्
( असुरान् ) एताभिरेव देवताभिरुपानयन् । तै०३।१।४।७॥ , या प्रतीची (दिक्) सा सणाम । श०३।१।१।७॥
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सर्वम् ] सर्पाः रज्जुरिव हि सर्पाः कृपा इव हि सर्पाणामायतनान्यस्ति वै
मनुष्याणां च सर्पाणां च विभ्रातृव्यम् । श०४।४।५।३॥ सर्वः (शर्वः रुद्रः) आपो वै सर्वोऽद्भन्यो हीद सर्व जायते।श०
६।१।३।११॥ , तान्येतान्यष्टौ ( रुद्रः, सर्वः शर्वः, पशुपतिः, उग्रः, अशनिः,
भवः, महान्देवः, ईशानः, अग्निरूपाणि कुमारो नवमः । श.
६।१।३।१८॥ सर्वजित् ( यज्ञः ) सर्वजिता वै देवाः सर्वमजयन् सर्वस्याप्तयै सर्वस्य
जित्यै सर्वभेवतेनाप्नेति सर्वञ्जयति । तां० १६ । ७ । २॥ ,, (देवाः ) सर्वजिता सर्वमजयन् तां० २२ । ८।४॥ सर्वज्योतिः ( यज्ञः ) अथैप सर्वज्योतिः सवस्याप्तिः सर्वस्य जितिः
सर्वमेवैतेनाप्नोति सर्वञ्जयति । तां०१६।९।१॥ , परमो वा एप यज्ञः ( सर्वज्योतिः)। तां० १६ । ९२॥ सर्वम् यदै विश्व सर्व तत् । श०३।१।२।११॥ , सर्व वै तद्यत्तहस्रम् । कौ० ११ ॥ ७ ॥ २५ ॥ १४ ॥ ,, सर्व वै सहस्रम् । श० ४।६। १ । १५ ॥ ६।४।२ । ७ ॥ , षोडशकलं वाऽ इद सर्वम् । श० १३ । २।२ । १३ ॥ कौ०
८।२॥ १६ ॥ ४॥ १७॥ १ ॥ २२॥ ९॥ , प्रजापतिरेव सर्वम् । कौ०६।१५ ॥ २५ ॥ १२ ॥
ब्रह्मैव सर्वम् । गो० पू० ५ ॥ १५ ॥ चन्द्रमा एव सर्वम् । गो० पू० ५ । १५ ॥
मन एव सर्वम् । गो० पू० ५ ॥ १५ ॥ , विश्वे देवा एव सर्वम् । गो० पू०५।१५॥
सर्व वै विश्वे देवाः । श०१।७।४। २२ ॥ ३१९६१ । १३ ॥
४।२।२।३॥ ५। ५१२॥ १० ॥ ,, सर्वमिदं विश्वे देवाः। श०३।९।१ । १४॥४।४।१।९,१८॥ , ब्रह्मवेद ( =अथर्ववेदः ) एव सर्वम् । गो० पू० ५ । १५॥ , आप एव सर्वम् । गो० पू० ५ । १५ ॥ , आपो वाऽ अस्य सर्वस्य प्रतिष्ठा। श०४।५।२।१४॥६।
८।२ । २॥ १२ ॥ ५। २ । १४ ॥ , शरदेव सवम् । गो० पू० ५। १५:!
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[ सर्विशः
( ५८२ ) सर्वम् दक्षिणैव (दिक् ) सर्वम् । गो० पू० ५। १५ ॥ , एकविंश एव (स्तोमः) सर्वम् । गो० पू० ५ । १५॥
अनुष्टुबेव सर्वम् । गो० पू० ५ । १५॥ ,, एतावद्वाऽ इद सर्व यावद्रपं चैव नाम च । श० १११२।३१६॥ , एतावद्वाऽ इदर्थ सर्व यावदिमे च लोका दिशश्च । श०६।
२।२२ ॥ चतुष्टयं वा इदं सर्वम् । कौ० २ । १ ॥ ३ ॥ २॥३॥ ७॥ १९ । ४॥ २८ । ७॥
एतावद्वाऽ इदछ सर्वयावब्रह्म क्षत्रं विद् । श०८।२।२।१४॥ , सर्व वाऽ अनिरुक्तम् । श०१। ३ । ५। १०॥१।४।१।२२॥
२।२।१ :३ ॥ ७।२।२। १४ ॥ १०।१।३। ११ ॥ १२।४।२।१॥
सर्व वाऽ अक्षय्यम् । श०१।६।१ । १९ ॥ ११॥ १।२।१२॥ सर्वमेधः पुरुषमेधात्सर्वमेधः । गो० पू० ५। ७ ॥
, स सर्वमेधेनेष्ट्रा सर्वराडिति नामाधत्त । गो० पू० ५। ८। ,, परमो वाऽ एष यशक्रतूनां यत्प्लवमेधः। श० १३१७॥२॥ सर्वराट् स सर्वमेधेनेष्ट्वा सर्वराडिति नामाधत्त । गो० पू० ५। ८ ॥ सर्वरूपः यो विद्युति (पुरुषः) स सर्वरूपः । सर्वाणि होतास्मन् रूपा
णि । जै० उ०१। २७ । ६॥ सर्वस्तोमो ऽतिरात्रः (क्रतुः ) सर्वस्तोमेनातिरात्रेण बुभूषन्यजेत सर्व
स्याप्त्यै सर्वस्य जित्य सर्वमेवैतेनाप्नोति सर्वञ्जयति।
तां०२०।२।२॥ सलिलम् आपो ह वा इदमग्रे सलिलमेवास । श० ११२१६॥
, आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत् । तै०१ । १ । ३।५॥ ,, आपो वाइदमग्रे महत्सलिलमासीत् । जै० उ०१।१६।१॥ , वेदिर्वै सलिलम् । श० ३।६।२।५॥
सरिरशन्दमपि पश्यत । सवमपतिः पशुरुपवसथे, त्रीणि सवनानि, पशुरनुपन्ध्य इत्येष बै
यज्ञः सवनपंक्तिः । ऐ०२।२४ ॥ सबर्यः ते (आदित्याः ) अब्रुवन् । यन्नो ऽनेष्ट (अश्वम्)। स वयॊ ऽभू.
दिति । तस्मादश्व सवयेत्याह्वयान्त । त०३।६ । २१॥ १॥ सावेंशः ( स्तोमः ) "अभीवर्तः सविंशः" इत्येतं शब्दं पश्यत ।
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सविता]
( ५८३ ) सविता सविता वै देवानां प्रसविता । श० १।१ । २॥ १७ ॥ जै०
उ०३।१८।३॥ , सविता वै प्रसविता । कौ०६।१४॥ , सविता वै प्रसवानामीशे । ऐ० १॥ ३०॥ ७ ॥ १६ ॥ , सविता प्रसवानामीशे । कौ०५।२॥ , एताभिर्वे (रात्रिभिः) सविता सर्वस्य प्रसवमगच्छत् । तां०
२४ । १५।२॥
आदित्य एव सविता । गो० पू० १ । ३३ ॥ जै० उ० ४।२७।११॥ ., असावादित्यो देवः सविता । श०६।३।१ । १८ ॥ , असौ वै सविता यो ऽसौ ( सूर्यः) तपति । कौ० ७॥ ६॥
गो० उ० १॥ २० ॥ , एष वै सविता य एष (सूर्यः ) तपति । श०३।२ । ३॥ १८॥
४।४।१।३॥५॥३।१।७॥ , एष वाव स सावित्रः । य एष (सूर्य्य:) तपति । तै० ३!
१०।९।१५॥ अग्निरेव सविता । जै० उ०४। २७ । १ ॥ गो० पू० १॥३३॥ यो होव सविता स प्रजापतिः । श० १२।३।५ ।१॥ गो०
पू० ५ । २२ ॥ .. प्रजपतिर्व सविता। तां०१६ । ५:१७ ॥ , प्रजापतिः सविता भूत्वा प्रजा असृजत । तै०१।६।४।१॥ ... सविता प्राजनयत् । तै० १।६।२।२॥ , वरुण एव सविता । जै० उ०४ । २७ । ३॥ " विधुदेव सविता । गो० पू० १ । ३३ ॥
स्तनयित्नुरेव सविता । जै० उ० ४ । २७ । ९॥ , वायुरेव सविता । गो० पू० १ । ३३ ॥ जै० उ० ४ । २७ । ५ ॥
(यजु० ३८ । ८) अयं वै सविता यो ऽयं (वायुः ) पवते ।
श०१४।२।२।९॥ ., चन्द्रमा एव सविता । गो० पू०१।३३॥
चन्द्र एव सविता । जै० उ० ४ । २७ । १३॥ . यह एव सविता । गो० पू० १ ३३ ॥ जै० उ०४।२७ १७ ॥
इयं (पृथिवी) वै सविता । श०१३ । १।४।२॥ तै०३। ९।१३।२॥
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[ सविता
( ५८४ )
सविता अब्भ्रमेव सविता । गो० पृ० १ । ३३ ॥ वेदा एव सविता | गो० पू०
1
१ । ३३ ॥
अहरेव सविता । गो० पू० १ । ३३ ॥
1
पुरुष एव सविता | जै० उ० ४ । २७ । १७ ॥ पशवो वै सविता । श० ३ । २ । ३ । ११ ॥ प्राणो वै सविता | ऐ० १ । १९ ॥
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प्राण एव सविता श०
प्राणो ह वा अस्य सविता । श० ४ । ४ । १ । ५ ॥
१२ । ९ । १ । १६ ॥ गो० पू० १ । ३३ ॥
मनो वै सविता । श० ६ । ३ । १ । १३, १५ ॥
1
मन एव सविता । गो० पू० १ । ३३ ॥ जै० उ० ४ । २७ । १५ ॥ मनो ह वा अस्य सविता । श० ४ । ४ । १ । ७ ॥
मनः सावित्रम् | कौ० १६ ॥ ४ ॥
यकृत्सविता । श० १२ । ९ । १ । १५ ।।
सविता ( श्रियः ) राष्ट्रम् ( आदत्त) । श० ११ | ४ | ३ | ३ ॥ सविता राष्ट्र राष्ट्रपतिः । तै० २ । ५ । ७ । ४ ॥ श० ११ । ४ । ३ । ६४ ॥
1
तस्मात् (सविता ) हिरण्यपाणिरिति स्तुतः । कौ० ६ । १३ ॥ गो० उ०
॥ २ ॥
उष्णमेव सविता । गो० पू० १ । ३३ ॥
( सविता ) रश्मिभिर्वर्षे ( समदधात् ) । गो० पू० १ । ३६ ॥ तद्वै सुपूतं यं देवः सवितापुनात् । श० ३ । १ । ३ । २२ ॥ देवस्य सवितुर्हस्तः नक्षत्रम् ) । तै० । ५ । १।३ ॥ दातारमद्य सविता विदेय यो नो हस्ताय ( नक्षत्राय) प्रसुवाति यज्ञम् । तै० ३ । १ । ११९ ॥
स ( सविता ) एतं सवित्रे हस्ताय पुरोडाशं द्वादशकपालं निरवपदाशूनां (= षष्टिदिनैः शीघ्रं पच्यमानानां ) व्रीहीणाम् । ततो वै तस्मै ( सवित्रे ) श्रद्देवा अदधत । सविताभवत् । तै० ३ । १ । ४ । ११ ॥
सावित्रं द्वादशकपालं वाष्टाकपालं वा पुरोडाशं निर्वपति ।
श० | ५ | ३ | १ । ७ ॥
अथ सावित्रः । द्वादशकपालो वाष्ट्राकपालो वा पुरोडाशो भवति । श० २ । ५ । १ । १० ।।
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सहजम्या ] सविता सावित्रः पञ्चकपालः (पुरोडाशः )। तां० २१ । १० । २३ ॥
(वायुः ) यदुत्तरतो वाति । सवितैव भूत्योत्तरतो वाति ।
तै०२।३।। ७॥ ,, (हे देवा यूयं ) सधित्रोदीची (दिशं प्रजानाथ): ऐ०१॥ ७॥
तस्मादुत्तरतः पश्चादयं भूयिष्ठं पवमानः (वायुः ) पवते
सवितृप्रसूतो ह्येष एतत्पवते । ऐ० १ । ७ ॥ , प्रतीचीमेव दिश सवित्रा प्रजानन् । श०३।२।३।१८॥ ,, स ( सविदा ) प्रतीची दिशं प्राजानात् । कौ० ७ । ६॥ ,, सवितृप्रसूतं वा इदमन्नमद्यते । कौ० १२॥ ८॥
सावित्र्युपभृत् । तै० ३।३।७। ६॥ अथ यत्र ह तत्सविता सूर्या प्रायच्छत्सोमाय राज्ञ । कौ०
,, प्रजापति सोमाय राज्ञ दुहितरं प्रायन्छत्सूर्या सावित्रीम् ।
प०४।७॥ सवितुर्वरेण्यम् ( ३० ३ । ६२ । १० ) वेदाश्छन्दांसि सवितुर्वरेण्यम् ।
गो० पू० । ३२॥ समृतः सोम व सवृतः ( ? समृतः-तैत्तिरीयसंहितायां १।६
७।१ ) इति । गो० ७० २ । २४ ॥ १. सवृत( ? समृत-)यज्ञो वा एष यदर्शपूर्णमासी । गो० उ०
२॥२४॥ सहः बलं वै संहः । श०६।६।२ । १३ ॥ ,, ओजः सहः सह ओजः । कौ० ३।५ ॥ , एतौ ( सहश्च सहस्यश्च ) एव हैमन्तिको (मासौ ) स यो
मन्त इमाः प्रजाः सहसेव स्वं वशमुपनयते तनो हैतौ सहश्च
सहस्यश्च । श०४।३।१।१८॥ ,, सहसः स्वजः =उभयतःशिराः सर्प इति सायणः] (अभवत्)।
ऐ०३।२६॥ सहचराणि ( शिल्पानि ) तान्येतानि सहचराणीत्याचक्षते नाभानेदिष्ठं
वालखिल्या वृषाकपिमेवयामरुतम् । ऐ०६।३०॥ सहजम्या ( यजु० १५। १६) (वायोः) मेनका च सहजन्या चाप्स
रसाविति दिक् चोपदिशा चेति ह स्माह माहित्थिरिमे तु ते द्यावापृथिवी । श०८।६।१।१७ ॥
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[सहावांस्तरुता ( ५८६ ) सहस्यः (मासः ) एती (सहश्च सहस्यश्च) एव हैमन्तिकौ (मासी)
स यद्धेमन्त इमाः प्रजाः सहसेव स्वं वशमुपनयते तेनो है।
तो सहश्च सहस्यश्च । श०४।३।१।१८॥ सहस्रम् सर्व वै तद्यत्सहस्रम् । कौ०११। ७ ॥ २५ ॥ १४ ॥
सर्व वै सहस्रम् । श०४।६।१ । १५॥ ६।४।२।७॥
भूमा वै सहस्रम् । श०३।३।३॥८॥ , परम सहस्रम् । तां०१६।९।२॥
(ऋ०६। ६६ । ८) तदाहुः किं तत्सहसमितीमे लोका
इमे वेदा अथो वागिति ब्रूयात् । ऐ० ६ । १५ ॥ , आयुर्वं सहस्रम् । तै०३।८।१५।३॥३।८।१६।२॥
, पशवः सहस्रम् । तां० १६ । १० । १२ ॥ सहनम्भरः एषा ह वाऽ अस्य (अग्नेः) सहस्रम्भरता यदेनमेकं सन्तं
बहुधा विहरन्ति । ऐ० १ । २८ ॥ . सहस्रयोजनम् (यजु० १६ । ५४ ॥ ) अयमग्निः सहस्रयोजनम् । श०
९।१।१।२९॥ एतद्ध परमं दूरं यत्सहस्त्रयोजनम् । श. ९ । १ ।
१।२८॥ सहस्रवर्तनि साम वै सहस्रपर्सनि ( सहस्रवा सामवेदः-इति
पातालमहाभाष्यस्य अ० १ पा. १ प्रथमालिके)।
ष०१४॥ सहसवांस्तोकवापुष्टिमान् ( ० ३ । १३ । ७) संवत्सरो वै समस्तः
सहस्रवांस्तोकवान्पुष्टिमान् । ऐ०२। ४१ ॥
आत्मा वै समस्तः सहस्रवांस्तोकवान्पुष्टि
मान् । ऐ० २।४०॥ सहयस्य प्रतिमा ( यजु० ।।1) पुरुषो वै सहस्रस्य प्रतिमा ।
श०७।५।२।१७॥ सहनियो बाजः ( यजु० १२ । १७) आपो वै सहनियो वाजः । श०
७।१।१।२२॥ सहावांस्तरुता ( ऋ० १० । १७८ । ।) एष (तायः वायुः) वै
सहावांस्तरुतैष हीमाल्लोकान्सचस्तरति । ऐ०४॥२०॥
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सादनम् सामरः मत्स्यः सांमदो राजेत्याह तस्योदकेचरा विशः । श० १३ ।
४।३। १२ ॥ सांवतम् (साम ) देवानां वै यक्ष रक्षार्थस्यजिघासस्तान्यतेन
इन्द्रः संवर्स ( प्रलयमिति सायणः ) उपायपद्यत् संवतमुपायपत्तस्मात् सांवः पाप्मा वाव स तानसचत (तमगृहादिति सायणसम्मतः पाठः) तं सांवत्तेनापान
ताप पाप्मान हते सांवत्तेन तुष्टुवानः तां० १४.१२ ७॥ साकंप्रस्थाय्यः (यज्ञः) तद्यत्साकं संप्रतिष्ठन्ते साकं सम्प्रयजन्ते साकं
भक्षयन्ते तस्मात्साकंप्रस्थाय्यः । कौ० ४।९॥ , स एष श्रेष्ठयकामस्य पौरुषकामस्य यज्ञः । कौ०४॥९॥ साकमश्वम् (साम) ते ( देवाः) ऽग्निम्मुखं कृत्वा साकं (सार्द्ध)
अश्वेन (अश्वरूपेणाग्निना) अभ्यक्रामन् यत्साकमश्वे. नाभ्यक्रामस्तस्मात् साकमश्वम् । तां० ८1८॥४॥ यदग्निरश्वो भूत्वा ऽभ्यत्यद्रवत्तत्माकमश्वं सामाऽभवतत्साकमश्वस्य साकमश्वत्वम् । ऐ०३। ४९ ॥ . यदग्निरश्वो भूत्वा प्रथमः प्रजिगाय तस्मात् साकमश्वम् । गो० उ०४।११ ॥ साकमश्वं भवत्युक्थानामभिजित्या अभिक्रान्त्यै । एतेन ह्यग्र उक्थान्यभ्यजयन्तेनाभ्यक्रामन् ।तां०११।११।५,६॥ प्रजापतिः प्रजा असृजत तान् प्राजायन्त स एतत्सामा पश्यत्ताः (प्रजाः प्रजापतिः) अश्वो भूत्वाभ्यजिघ्रत्ताः
प्राजायन्त प्रजनं वा एतत् साम । तो० २० । ४।५॥ - तत् (साकमश्वम् ) उ धुरा सामेत्याहुः । तां० १५ !
साकमेधाः ऐन्द्रो वा एष यक्षक्रतुर्यत् साकमेधाः। कौ ५ । ५ ॥ गो.
उ०१॥ २३ ॥ , एतैर्वे (साकमेधैः) देवा वृत्रमननेतैव व्यजयन्त येयमेषां
विजितिस्ताम् । श०२।५।३।१॥ सांग्रहणी ( इष्टिः ) सांग्रहण्येष्टया यजते । इमां जनता संगृहानीति ।
तै०३।८।१।१॥ सादनम् माईस सादनम् । श०८।१।४।५॥
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[ सान्नाय्यम्
(५८८ ) साधुः ( यजु, ३७ । १० ) अयं वै साधुर्यो ऽयं ( वायुः ) पयतऽ पष
हीमाल्लोकान्त्सिद्धो ऽनुपवते । श०१४ । १ । २ । २३ । साध्या देवाः ( यजु० ३१ । १६ ) प्राणावै साध्या देवास्तऽ एतं (प्रजा
पतिं ) अग्रऽ एवमसाधयन् । श०१०।२।२।३॥ छन्दांसि वै साध्या देवास्ते ऽग्रे ऽग्निनाग्निमयजन्त ने स्वर्ग लोकमायन् । ऐ०१ । १६ ॥ माध्या वै नाम देवेभ्यो देवाः पूर्व आसस्त एतत् ( शतसंवत्सरं ) मत्रायणमुपाय स्तेनावस्ते सगवःसपु. रुषाः सर्व एव सह स्वर्गलोकमायन तां०२५ ॥ ८॥२॥ साध्या वै नाम देवा आसस्ते ऽवछिद्य तृतीयसव. नम्माध्यन्दिनेन सवनेन सह स्वर्ग लोकमायन् ! तां० ८।३।५॥ ८।४।६॥ साध्याश्च त्वा ऽऽप्त्याश्च देवाः पाक्तेनच्छन्दसा त्रिणवेन स्तोमेन शाक्वरेण साम्ना ऽऽरोहन्तु तानन्वारोहामि राज्याय । ऐ० ८ । १२॥ अथैन (इन्द्र) अस्यां ध्रुवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि साध्याश्चाऽऽप्त्याश्च देवाः......"अभ्यषिश्चन्....रा.
ज्याय । ऐ० ८ ॥ ३४॥ साध्रम् (साम) माधं भवति सिद्धयै । तां० १५ । ५ ॥ २८॥ सान.सेः यजु० १२ । १०९) (=सनातनः) पृणक्षि सानसिं तुमिति
पृणक्षि सनातनं क्रतुामेत्येतत् । श०.७ । ३ । १ । ३२ ॥ सान्तपनीया (इष्टिः) उरः सान्तपनीयोरसा हि समिव तप्यते । श०
११ । ५ । २।४॥ सान्तपनो ऽग्निः एष ह वै सान्तपनो ऽग्निर्यद ब्राह्मणो यस्य गर्भाधान
पुंसवनसीमन्तोन्नयनजातकर्मनामकरणनिष्क्रमणानप्राशनगोदानचूडाकरणोपनयनाप्लवनाग्निहोत्रवतचर्या दीनि कृतानि भवन्ति स सान्तपनः । गो० पू० २ ।
२३॥ सामाग्यम् (हविः) तमोषधिभ्यश्च वनस्पतिभ्यश्च गोभ्यश्च पशुभ्यश्चा
दित्याच ब्रह्म च ब्राह्मणाः सन्नयन्ते तत्सान्नाय्यस्य साना. ध्यत्वम् । ०४।६॥
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( ५८९ )
सामवेदः] सानास्यम् तस्मादप्यसोमयाजी समेव नयेत् । श०१।६।४।११॥
सोमः खलु वै सान्नाय्यम् । तै० ३ १ २।३ । ११ ।। " आमावास्यं वै सान्नाय्यम् । श०२।४।४।१५ ॥ , ऐन्द्र सान्नाय्यम् । श०२१४।४।१२॥
राष्ट्र सान्नाय्यम् । श० ११ । २।७।१७ ।। सामराजम् (साम) साम्राज्यमाधिपत्यं गच्छति सामराज्ञा तुष्टुवानः ।
तां०१५।३।३५॥ सामवेदः ( देवाः सोम) साना समानयन् । तत्साम्नः सामत्वम् । तै०
२।२।८।७॥ ,, स (प्रजापतिः) हैवं षोडशधा ऽऽन्मान विकृत्य सार्धं समैत् ।
तत्साध समैत् तत्साम्नस्सामत्वम् । जै० उ०१।४७॥ नद्यत् समेत्य साम प्राजनयतां तत्लान्नस्सामत्वम् । जै० उ० १ १ ५१ । २॥ ता वा पता देवता अमावास्यां रात्रि संयन्ति । चन्द्रमा अमावास्यां रात्रिमादित्यम्प्रविशत्यादित्यो ऽग्निम् । तद्यत्सं. यन्ति तस्मात्साम । जै० उ०१।३३। ६, ७ ॥ समा उ ह वा अस्मि श्छन्दासि साम्यादिति नत्साम्नः
सामत्वम् । सा० १ । १ । ५ ॥ ,, तद्यदेष (आदित्यः) सर्वोकैस्सप्रस्तस्मादेष ( आदित्यः )
एव साम । जै० उ० १ । १५ । ५ ॥ (तमेतम्पुरुषं) सामोत छन्दोगाः ( उपासत), एतस्मिन् हीदछ सर्व समानम् । श०१०।५।२।२०।।। यो वै भवति यः श्रेष्टतामश्नुते स सामन्भवत्यसामन्य इति हिनिन्दन्ति । ऐ० ३ । २३ ॥ __ सामन्भवति श्रेष्ठतां गच्छति यो वै भवति स सामन्मयत्य
सामन्य इति ह निन्दन्ते । गा० उ०३ । २० ॥ तद्यत्सा चाऽमश्च तत्सामाऽभवत् नत्सानस्लामत्वम् ।
जै० उ०१। ५३ । ५ ॥ , यद्वै तत्ला चामश्च समवदतां तत्सामाभवत्तत्लाम्नः साम.
त्वम् । गो० उ०३। २० ॥
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[ सामवेदः ( ५९० ) सामवेदः यद्वै तत्सा चाऽमश्च समभवतां नत्सामाऽभवत्तत्लान:
सामत्वम् । ऐ०३ । २३॥
सैव नामर्गासीत् । अमो नाम साम । गो० उ० ३ । २०॥ , प्राणो वावामा वाक सा, तत्साम । जै० उ०४।२३।३॥
ऋक् च वा इदमने साम चास्तां सैव नाम ऋगासीदमो नाम
साम । ऐ०३।२३ ॥ , एष (प्राणः) उऽएव साम । वाग्वै सामैष सा चामश्चति त.
लाम्नः सामत्वं यद्वेव समा ग्लुषिणा समो मशकेन समो नागेन सम एभित्रिभिर्लोकः समो ऽनेन सर्वेण तस्मादेव साम । श०१४।४।१।२४॥ प्राणो वै साम प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि सम्यश्चि । श० १०।८।१४।३॥
प्राणा वै सामानि । श० ६।१२ । ३२॥ ,, प्राणः सामवेदः । श०१४।४।३। १२॥
स यः प्राणस्तत्साम । जै० उ० १ । २५ ॥ १०॥ तस्मात्प्राण एव साम । जै० उ०३।१।१८॥ प्राणो वाव साम्नस्सुवर्णम् । जै० उ०१॥ ३९ ॥ ४ ॥ (वागिति ) एतदेषा (नाम्नां ) सामैतद्धि समिभिः समम् । श० १३।४।४।१। तद्यदेतत्सर्व वाचमेवाऽभिसमयति तस्मादागेव साम । जै० उ०१।४०।६॥ एतदु ह वाव साम यद्वा । जै० उ०२।१५। ४॥ वागेवर्चश्च सामानि च मन एव यजूषि । श० ४।६।
७।५॥ , वाग्वाव साम्नः प्रतिष्ठा । जै० उ०१। ३९ । ३॥
वाग्देवत्यं साम, वाचो मनो देवता, मनसः पशवः, पशूनामोषधय ओषधीनामापः । तदेतदद्भयो जातं सामाऽप्सु
प्रतिष्ठितमिति । जै० उ०१ । ५९ । १४ ॥ , दिवमेव साना (जयति)। श०४।६। ७।२।। , स्वगो लोका सामवेदः । ष०१।५॥
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सामवेदः] सामवेदः (प्रजापतिः) स्वरित्येव सामवदस्य रसमादत्त । सो ऽसौ
द्यौरभवत् । तस्य यो रसः प्राणेदत् स आदित्यो ऽभवद्रस. स्य रसः। जै० उ०१।१।५॥ स्वरिति सामभ्यो ऽक्षरत् स्वः स्वर्गलोको ऽभवत् । १० १॥ ५ ॥ साम वा असौ (धु-)लोकः । ऋगयम् ( भूलोकः ) । तां० ४।३।५॥ सानामादित्यो देवतं तदेव ज्योतिर्जागतंछन्दो द्यौः स्थानम् । गो० पू० १ । २९ ॥ सूर्यात्प्तामवेदः (अजायत । श. ११ । ५।८ !३॥
(आदित्यस्य ) अर्चिः सामानि । श० १० । ५। १ । ५ ॥ ,, तस्माद्वायुरेव साम । जै० उ० ३ । १ । १२॥
चत्वारि (बृहतीसहस्राणि-४०००४३६१४४००० अक्ष.
राणि) सानाम् । श० १०।४।२।२४ ॥ __ अग्न आयाहि वीतये गृणानो हव्यदातये । नि होता सत्सि
बर्हिषीत्येवमादिं कृत्वा सामवेदमधीयते । गो० पू०१॥२९॥ साम चै सहस्रवर्सनि ( सहस्रवर्मा सामवेदः-इति पात. अलमहाभाष्यस्य अ० १ पा०१ प्रथमाह्निके )। प०१॥ ४॥ साम वाऽ ऋचः पतिः । श० ८।१।३।५॥ ऋचि साम गीयते । श०८।१।३।३॥ एतावद्वाव साम यावान् स्वरः । ऋग्वा एषतं स्वराव. तीति । जै० उ०१ । २१ ॥ ९॥ तस्य (सानः) वै स्वर एव स्वम् । श०१४।४।१ । २७ ॥ गायन्ति हि साम । श०४।४।५।६॥ न वाऽ अहिकृत्य साम गीयते । श०१।४।१।१॥ मुख हि सानः प्रस्तावः । तां० १२ । १० । ७ ॥ तानि वा एतानि त्रीणि साम्न उद्गीतमनुगीतमागीतम् । तद्यथेदं वयमागायोगायाम एतदुद्गीतम् । अथ यद्यथागीतं तदनुगीतम् । अथ यत्किचेति सान्नस्तदागीतम् । जै० उ०
१। ५५ । १४॥ , पुनरादायं वै सामगाः स्तुपते । कौ० १८ । २॥
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| सामवेदः सामवेदः सर्वेषां वाऽ एप वेदाना रसो यत्साम् । श० १२ । ८ ।
३।२३॥ गो० उ०५।७॥ साम हि नाष्ट्राणा रक्षसामपहन्ता। श०४।४।।६।।
१४।३।१।१०॥ , नासामा यज्ञो ऽस्ति । श०१।४।।१॥
सोमाहुतयो ह वाऽ पता देवानाम् । यत्सामानि । श० ११
तस्मादाहुः सामैवानमिति । सा०१।१।३॥ सो (प्रजापतिः) ऽब्रवीदेकं वाचदमन्नाद्यमसृक्षि सामैव । जै० उ०१ । ११ ॥ ३ ॥
साम देवानामन्नम् । तां०६।४।१३ ॥ , क्षत्रं वै साम । श०१२। ८।३।२३ ॥ गो० उ०। ७ ॥
साम्राज्यं वै साम । श०१२।८।३।२३ ॥ गो० उ० ५।७॥ सामवेद एव यशः । गो० पू०५।१५॥ सामवेदो यशः । श० १२ । ३।४।९॥ तदाहुस्संवत्सर एव सामेति । जै० उ०१ । ३५ । १ ।। सर्व तेजः सामरूप्य ह शश्वत् । तै० ३।१२ । ९ । २ ॥ बन्धुमत्साम । जै० उ०३ । ६ । ७ ॥ (प्रजापतिः ) सामान्युद्गीथम् ( अकरोत् )। जै० उ०१ । १३।३।। ( दक्षिणनेत्रस्य ) यकृष्णं ( रूपं ) तत्साम्नाम् । जै० उ० ४। २४ । १२॥ साम हि सत्याशीः । तां० ११ । १०।१०॥ १३ । १२ । ७ ॥
१५।५ । १३॥ , तयोः ( सदसतोः) यत् सत् तत्साम तन्मनस्स प्राणः।
जै० उ० १। ५३ । २ ॥ ,, मनो वाव सामरधीः । जै० उ०१ : ३९ । २॥
श्रोत्रं वाव साम्नश्रुतिः । जै० उ० १ । ३९ । ६ ॥ , चक्षुर्वाच सान्नी ऽपचितिः । जै० उ० १ ॥ ३९ ॥ ५ ॥
सामवेदो ब्राह्मणानां प्रसूतिः । तै०३। १२ । । ।२॥
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( ५९३ ) साम्राज्यम् ] सामवेदः वामदेव्यं वै साना सत् । तां०४।८।१०॥ , सत् ( उत्कृष्टमिति सायणः ) वै वामदेव्य, सानाम्
ता० १५ । १२ । २॥ " बृहत्यां भूयिष्ठानि सामानि भवन्ति । तां०७।३।१६॥
मन्तो बृहत्लानाम् । तां० १९ । १५ । ८ ॥ ॥ अथ यदेतदर्चिीप्यते तन्महाव्रतं तानि सामानि स सानां
लोकः । श० १०। ५ । २॥ १ ॥
महाव्रत सानाम् (समुद्रः)। श०६।।२।१२॥ , सामवेदेनास्तमये महीयते । तै० ३ । १२ । । । १ ॥
सानामुदीची महती दिगुच्यते । तै० ३ । १२ ।९।॥ धर्म इन्द्रो राजेत्याह तस्य देवा विशः 'सामानि वेदः
....."सानां दशतं (दशति) ब्रूयात् । श०१३।४।३।१४॥ , अक्सामयोहते (शुक्लकृष्णे ) रूपे । श०६।७।१।७ ॥ , सामवेदे ऽथ खिलश्रुतिः ब्रह्मचर्येण चैतस्मादथर्वाङ्गिरसो
ह यो वेद स वेद सर्वमिति । गो० पू० १ । २९ ॥ सामिनी (माद) एता हिवाऽइद, सर्वसमिन्धतऽ एताभिरिद
सर्व समिद्धं तस्मात्सामिधेन्यो नाम । श० ११ । २।
समिन्धे सामिधेनीभिर्होता तस्मात् सामिधेन्यो नाम । श०१ । ३।५।१॥
पञो वै सामिधेन्यः । कौ०३।२,३॥७॥२॥ साम्राज्यम् तस्मादेतस्यां प्राच्यां दिशि ये के च प्राच्यानां राजानः
साम्राज्यायैव ते ऽभिषिच्यन्ते सम्राडित्येनानभिषिक्ता नाचक्षते । ऐ० ८ ॥ १४॥ मथैनं (इन्द्रं ) प्राच्यां दिशि वसवो देवाः ....... "अभ्यविशन"""साम्राज्याय । ऐ०८।१॥ साम्राज्यं वै साम । श० १२।८।३।२३॥ गो० उ०५।७॥ तेजसो वा एष वनस्पतिरजायत यदश्वत्था, साम्राज्य वा एतद्वनस्पतीनाम् । ऐ०७।३२॥
असर हिराज्यं परसाम्राज्यम् । श०५।१।१।१३॥ " साधाय खगों लोकः ।०४।६।२४॥
,
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[सालावृकः
( ५९४ ) सायम् (कालः) वरुणस्य सायमासवो ऽपानः । तै० १।।। ३।१॥ सापराशी इयं (पृथिवी )वै सार्पराज्ञीयं हि सर्पतोराशी। कौ०२७॥४॥ , इयं ( पृथिवी) वै सार्पराज्ञी । तां. ४ । ९ । । । , वाग्वै सार्पराज्ञी । कौ० २७ । ४ ॥
गौवै सार्पराज्ञी । कौ० २७ । ४॥ सार्वसनियज्ञः स एष प्रजातिकामस्य यज्ञः। कौ०४॥ सालावृकः इन्द्रा यतीन सालावृकेभ्यः प्रायच्छत्तग त्रय उदशिष्यन्त
रायोवाजो बृहगिरिः पृथुरश्मिः । नां० ८ । । । ४ ॥ इन्द्रो यतीन सालावृक्रियेभ्यः प्रायच्छत्तषां त्रय उदशिष्य न्त पृथुरश्मिव॒हगिरी रायांवाजः । नां० १३ । ४ । १७ ॥ इन्द्रो यतीन सालावृकयेभ्यः प्रायच्छत्तमश्लीला वागभ्यवदत् स प्रजापतिमुपाधावत्तस्मा एतमुपहव्यं प्रायच्छत् । तां०१८।१।९ ॥ इन्द्रो यतीन् सालावृकयेभ्यः प्रायच्छत्तमश्लीला वाग. भ्यवदत्सो ऽशुद्धो ऽमन्यत स एते शुद्धाशुद्धीये (सामनी) अपश्यत्ताभ्यामशुध्यत् । तां०१९ । ४१७ ॥ इन्द्रो यतीन सालावृकेयेभ्यः प्रायच्छत्तमश्लीला वागभ्य. वदत्सोऽशुद्धोऽमन्यत स एतच्छुद्धाशुद्धीयं ( साम) अप. श्यत्तेनाशुध्यत् (इन्द्रो यतीन्त्सालावृकेभ्यः प्रायच्छत्तान्द. क्षिणत उत्तरवेद्या आदन्-तैत्तिरीयसंहितायाम् ६।२। ७।५॥ अथर्ववेदे २ । २७१५:-तयाहं शत्रून्त्साक्ष इन्द्रः सालावृका इव ॥ ऋ० १०। ७१।३:-त्वमिन्द्र साला. कान्त्सहस्रमासन्दधिष॥) तां० १४ । ११ । २८॥ योन्द्रं देवताः ( यज्ञेषु ) पर्यवृञ्जन् , यतः स इन्द्रः) विश्वरूपं त्वाष्ट्रमभ्यमंस्त वृत्रमस्तृत यतीन्त्सालावृकम्यः प्रा. दादरुमघानवधीद् बृहस्पतेः प्रत्यवधीदिति तन्द्रः सोमपीथेन व्यार्द्धत [तं (प्रतर्दन) हेन्द्र उवाच मामेव विजानी.
ह्येतदेवाहं मनुष्याय हिततमं मन्ये यन्मां विजानीया. त्रिशीर्षाणं त्वाष्ट्रमहनमरुन्मुखान् यतीन् सालावृकेभ्यः प्रायच्छं बड़ी सम्धा अतिक्रम्य दिवि प्रहादीयानतृणमहमन्तरिक्षे पौलोमान् पृथिव्यां कालकाजस्तस्य मे तत्र न
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( ५९५ ) सावित्री] लोम च नामीयत स यो मां ( इन्द्रं ) वेद न ह वै तस्य केन चन कर्मणा लोको मीयते न स्तेयेन न भ्रूणहत्यया न मातृवधन न पितृपंधन नास्य पापं चकृषो मुखानील वेतीति-शङ्करानन्दायटीकायुतायां कौषीतकिब्राह्मणोप.
निषाद ३ । १॥ । ऐ० ७ । २८ ॥ सावित्रः ( अग्निः ) स यदेते देवते अन्तरेण तत्सर्व सीव्यति ।
तस्मात् सावित्रः । ते ३।१०। ११ ७ ॥ , एप वाव स सावित्रः । य एष (सूर्यः) तपति । तै० ३ ।
सावित्रग्रहः प्राणो मावित्रग्रहः की० १६ ५ २ ॥ सावित्री (ऋक । अथ आचार्यः) अस्म (ब्रह्मचारिणे) सावित्रीम.
न्वाह । श० ११ । ५।४ ॥ म्मो ऽपहतपाप्मानन्तां श्रियमश्नुते य एवं वेद यश्चैवं विद्यानवमतां वेदानां मातरं मावित्री संपदमुपनिषदमुपास्ते । गो० पू० १ । ३०.॥
द्यौः सावित्री । गो० पू०१ । ३३ ॥ जै० उ० ४ । २७ । ११ ॥ । अन्तरिक्ष सावित्री । गो० पू०१।३३॥ नक्षत्राणि सावित्री। गा.पू. १ : ३३ ॥ जै० उ०४।२७।१३॥ वाक सावित्री । गो० पू० । ३३ ॥ जै० उ०४ । २७ । १५॥ पृथिवी सावित्री । जै० उ०४।२७ : १॥ गो० पू० १॥३३॥ रात्रिः सावित्री । गो० पू०१ ॥ ३३ ॥ स्तनयित्नुः सावित्री। गो० पू० १ । ३३ ॥ विद्युत्सावित्री । जै० उ० ४ । २७॥ ९ ॥
वर्ष सावित्री । गो० पू० १॥ ३३॥ " आपस्सावित्री । जै० उ० ४ । २७ ॥ ३ ॥
अनं सावित्री । गो० पू० १ । ३३ ॥ दक्षिणाः सावित्री । गो० पू० १ । ३३ ॥ छन्दांसि सावित्री । गो० पू० १ ॥ ३३॥ जै० उ० ४ । २०१७॥ शीतं सावित्री । गो० पू०१ ॥ ३३ ॥ आकाशस्सावित्री । जै० उ० ४ । २७ । ५॥
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(सिनीवाली सावित्री स्त्री सावित्री । जै० उ० ४ । २७॥ १७ ॥ ,, यो वा एतां सावित्रीमेवं वेदाऽपमृत्यं तरति सावित्र्या एवं
सलोकतां जयति । जै० उ० ४ । २८ ॥ ६ ॥ साहनः होता हि साहनः । श० ४।५। ८ । १२ ॥
, साहस्राः पशवः । कौ० २१॥ ५ ॥ साहस्रः शतधार उत्सः ( यजु० १३ । ४९ ) साहस्रो वाऽ एष शतधार
उत्सो यद्गौः । श०७।५।२।३४॥ साहनी (गौः ) व.ग्वाऽ एषा निदानेन यत्साहनी तस्याएतत् सहन
वाचः प्रजातम् । श० ४।५।८।४॥ सिंहः लोहितादेवास्य सहो ऽस्रवत्स सिंहो ऽभवदारण्यानां पशूना.
मीशः। श०१२।७।१।८॥ । स यन्नस्तो ऽद्रवत् । ततः सिंहः समभवत् । श० ५ । ५।४।
सिकताः सा (मृत्) अतप्यत सा सिकता असृजत । श०६।१।
३।४॥
सिकताभ्यः शर्करामसृजत । श०६।१।३।५। । .. वे हि सिकते शुक्ला च कृष्णा च । ।०७।३।१।४३॥
अलंकारो न्वेव सिकता भ्राजन्त इव हि सिकता अग्नेर्वा एतद्वैश्वानरस्य भस्म यत्सिकताः। श०३।५।१॥ ३६॥
अग्नेरेतद्वैश्वानरस्य भस्म यत्तिकताः । श०७।१।१९॥ ,, अग्रेतद्वैश्वानरस्य रेतो यत्सिकताः। श०७।१।१।१०॥ ,, रेतः सिकताः । श०७।१।१॥ ११ ॥ ,, सिकता वा अपां पुरीषम् । श०७।५।२। ५९ ॥ सिनीवाली या पूर्वाऽमावास्या सा सिनीवाली । ऐ०७॥ १९॥ १०४।
६॥ गो० उ०१ । १०॥
(यजु० ११ । ५५) वाग्वै सिनीवाली। श० ६।५।१।९॥ " या गौः सा सिनीवाली सो एव जगती । ऐ०३।४८ ॥
या सिनीवाली सा जगती । ऐ०३ । ४७॥ ( यजु० ११ । ५६ ) योषा वै सिनीवाली । श० ६ । । १।१०॥
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( ५९७ )
सीसम् ]
० १ । १२ । १२ ) तद्यदेतैरिदं सर्वं सितं तस्मात्सिन्धवः ।
जै०
१० उ० १ । २९ । ९ ॥
सिन्धुश्छन्दः ( यजु• १५ । ४ ) प्राणो वै सिन्धुश्छन्दः । श० ८ | ५ |
सिन्धवः
२।४ ॥
सिमाः (= शाकरं साम, महानाम्न्यः ) ( इन्द्रो वृत्रस्य ) सीमानमभिनत्तत्सिमा | तां० १३ । ४ । १ ॥
ता ऊर्ध्वाः सीनो ऽभ्यसृजत यदूर्ध्वाः सीनो ऽभ्यसृजत तत्सिमा अभवंस्तत्सिमानां सिमात्वम् । ऐ० ५ । ७ ॥
मह्यो हि सिमाः । तां० १३ । ५ । ३ ॥
99
सोता बीजाय वा एषा योनिष्क्रियते यत्सीता यथा ह वाऽ अयोनौ रेतः सिश्चेदेवं तद्यदष्टे वपति । श० ७ । २ । २ । ५॥
प्राणा वै सीताः । श० ७ । २ । ३ । ३ ॥
"
""
सा ( सीता सावित्री) ह पितरं प्रजापतिमुपससार त हो - वाच । नमस्ते अस्तु भगवः । तै० २ । ३ । १० । १ ॥ सीतासमरः वाग्वै सीतासमरः । श० ७ । २ । ३।३॥
सीम्सीयम् (=शङ्कुसाम ) एतेन ( सीदन्तीयेन) वै प्रजापतिरूद्ध्व इमान् लोकानसीदद्यद सीदत्तत् सीदन्तीयस्य सीदन्तीयत्वमूर्दध्व इमान् लोकान् सीदति सीदन्तीयेन तुष्टुवानः । तां० ११ । १० । १२ ॥
99
"
सीमा (यजु० १३ । ३) मध्यं वै सीमा । श० ७ । ४ । १ । १४ ॥ सीरपतिः इन्द्र आसीत्सीर पतिः शतक्रतुः । तै० २ । ४ । ४ । ७ ॥ सीरम् सेर हैतद्यत्सीरमिरामेवास्मिन्नेतद्दधाति । श० ७ । २ । २ । २ ॥ सीसम् नाभ्या एवास्य शूषो ऽनवत् । तत्सीसमभवन्नायो न हिरण्यम् । श० १२ । ७ । १ ॥७ ॥
एतदयो न हिरण्यं यत्सीसम् । श० ५ | १ | २ | १४ ॥
31
· लोहेन सीसम् (सन्दध्यात् ) । गो० पू० १ । १४ ॥ (संदध्यात् ) । गो० पू० १ । १४ ॥
सीसेन
39
"
"
तबू ( शङ्कुलाम ) उ सीदन्तीयमित्याहुः । तां० ११ । १० । १२ ॥
( इन्द्रः ) तत् ( रक्षः) सीसेनापजघान । तस्मात्सीसं मृदु सुतजयं हि । श०५ । ४ । १ । १० ।।
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[सुपर्णः
( ५९८ ) सुकीर्तिः (="अप प्राच इत्यादि सूक्तम्" इति सायणः) देवयोनि सुकीर्तिः।
ऐ०६।२९ ॥ गो० उ०1८, १२॥ सुकृतः तस्य सूर्यस्य ये रश्मयस्ते सुकतः । श० १ । ९ । ३॥ १० ॥ सुकृतस्य योनिः ( यजु० ११ ३५ ) कृष्णाजिनं वै सुकृतस्य योनिः । श०
।४।२।६॥ सुकृतस्य लोकः सत्यं वै सुकृतम्यं लोकः । न. ३ । ३ । ६ । ११॥
, पुण्यं कर्म सुरूतस्य लोकः । तै०३।३।१०।२॥ सुक्षितिः ( यजु. ३७ । १० ) अयं वै (पृथिवी-)लोकः सुक्षिति
रस्मिन्हि लोके सर्वाणि भूतानि क्षियन्ति । श० १४॥ १।२।२४॥ अथोऽअग्निवे सुशितिरग्निीवास्मिल्लोके सर्वाणि भूतानि
क्षियति । श० १४ । १ । २ । २४ ॥ सुखम् सुखं वै कम् । गो० उ०६।३॥ , अथो सुखस्य वा एतन्नामवेयङ्कमिति : गो० उ०१ २२ ॥ , अथो सुखस्यैवैतन्नामधेय कमिति । कौ० ५। ४ ॥ सुगन्धितेजनम् (तृणविशेष इति सायणः) (अग्नेः) यत् स्नाव (आसीत्)
तत्सुगन्धितेजनम् ( अभवत् )। तां०२४ । १३ । ५ ॥ , गन्धो हैवास्य ( अग्नेः ) सुगन्धितेजनम् । श०३ ।
५।२।१७॥ सुचरितम् ऋजुकर्म, सत्य सुचरितम् । तै० ३ । ३ । ७ । १० ॥ सुवर्मा नौः यज्ञो वै सुतर्मा नौः कृष्णाजिनं वै सुतर्मा नौर्वाग्वै सुतर्मा
नौः। ऐ० १ । १३॥ सुस्याः अग्निष्टामो ऽत्याग्नष्टोम उपथ्यः षोडशिमांस्ततः। वाजपेयो
तिरात्रश्चाप्तोर्यामात्र सप्तम इत्येते सुत्याः । गो० पू० ५।२३॥ सुनामा ऋषभमिन्द्राय सुत्राम्णऽ आलभते ! श०५।१४।१॥ सुबत्रः (बजु० ३८ । ५) "रत्नधा" इत्येतं शब्दं पश्यत । सुपर्णः वयो ( रक्षी ) वै सुपर्णः । कौ० १८ ॥ ४॥ , अथ ह वाऽ एष महासुपर्ण एव यत्संवत्सरः। तस्य यान्पुर.
स्ताविषुवतः षण्मालानुपयन्ति सो ऽन्यतरः पक्षो ऽथ यापपरिशस्सो ऽन्यतर आत्मा विषुवान् । श० १२ । २।
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सुरा] सुपर्णः ( यजु० १३ । १६) पुरुषः सुपर्णः । श०७ । ४ । २ । ५ ॥ , यज्ञो वै देवेभ्यो ऽपाक्रामत्स सुपर्णरूपं कृत्वाचरत् तं देवा
एतैः ( सौपणैः) सामभिरारभन्त । तां० १४ । ३ । १० ॥ , प्रजापतिर्वै सुपर्णो गरुन्मान् (ऋ. १०। १४९ । ३ )। श.
१०।२।२।४॥ "वीय वै सुपर्णो गरुत्मान् । श०६। ७ । २१६॥ सुपर्णी (माया ) वागेव सुपी । श०३।६।२।२॥ सुब्रह्म असावादित्यः सुब्रह्म । प० । १॥
, वाग्वै ब्रह्म च सुब्रह्म चेति । ऐ०६।३ ॥ सुब्रह्मण्या (=इन्द्राऽऽगच्छ हरिव आगच्छेत्यादे निगदः) ब्रह्म वै सुब्रह्मण्या ।
कौ० २७।६॥ तदाहुः कि सुब्रह्मण्यार्य सुब्रह्मण्यात्वमिति बागेवेति बृयाछाग्वै ब्रह्म च सुब्रह्म चेति । ऐ० ६ । ३ ॥ वाग्वै सुब्रह्मण्या। ऐ०६।३ ॥
ब्रह्मश्री नामैतत्सास यन्सुब्रह्मण्या। प० १ ॥ २ ॥ सुमेकः सुमेकः संवत्सरः स्वेको ह वै नामैन द्यसुमेक इति । श०
सुन्नम् ( साधु ) सुम्ने स्थः सुन्ने मा धत्तमिति साध्व्यौ स्थः साधौ
मा धत्तमित्येवैतदाह । श० १ । ८।३। २७ ।। , प्रजा वै पशवः सुम्नम् । तै० ३ । ३। ६ । ९॥ , (यजु० १२। ६७, १११) यज्ञो वै सुम्नम् । श०७।२।
२।४॥ ७।३।१।३४ ॥ सुम्नयुः ( ऋ० ३ । २७ ! १ ) यजमानो वै सुम्नयुः। श० १।४।
१ । २१ ॥ सुरभयः प्राणा वै सुरभयः। तै० ३।९।७।५॥ सुरा अनृतं पाप्मा तमः सुरा। श. ५।१।२।१०॥५।१।
॥२८॥ , आभमाद्यन्निव हि सुरां पीत्वा वदति । श०१।६।३।४॥
, तस्मात्सुरां पीत्वा रौद्रमनाः । २०१२ । ७।३।२०॥
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[सुशस्तिः । ६०० ) सुरा स्फिगीभ्यामेवास्य भामो ऽस्रवत्सा सुराभवदनस्य रसः ।
श० १२ । ७।१।७॥ , यत्सुरा भवति क्षत्ररूपं तदथो अन्नस्य रसः। ऐ०८1८॥ , अपांच वाऽ एष ओषधीनां च रसो यत्सुरा। श० १२ । ८ ।
१४॥ , अन्नसुरा । तै० १ । ३ । ३।॥ , यदन्नस्य (शमलमासीत् ) सा सुरा ( अभवत् )। तै.
३।२।६ ॥१ । ३।३ । ३, ६ ॥ , प्रजापतेर्वा एतेऽअन्धसी यत्सोमश्च सुरा च । श०५।१।
, एतद्वै देवानां एरममन्नं यत्सोमः। एतन्मनुष्याणां यत्सुरम् ।
तै०१।३।३। ३ ॥ ,, पुमान् वै सोमः स्त्री सुरा । तै० १।३।३ । ४ ॥ , विट् सुरा । श० १२ । ७।३। ८॥ ,, यशो हि सुरा । श०१२ । ७।३।१४ ॥ ,, अशिव इव वाऽ एष भक्षोयत्सुरा ब्राह्मणस्य। श०१२१८ १॥५॥ ,, सुरावान्वाऽ एष बर्हिषद्यो यत्सौत्रामणी। श० १२ । ।
१॥२॥ सुरुचः (यजु. १३:३) इमे लोकाः सुरुचः । श०७।४।१।१४॥ सुरूपकृरनुः यो ऽयमनिरुक्तः प्राणः स सुरूपकृत्नुः। कौ०१६।४॥ सुरूपम् (साम) पशवो वै सुरूपं पशूनामवरुभ्यै । तां०१४।११॥ ११॥
, अन्नं वै सुरूपम् । कौ० १६ ॥ ३॥ सुवर्णम् लवणेन सुवर्ण संदध्यात् । जै० उ०३ । १७ । ३॥ गो० पू०
१।१४॥ , सुवर्णेन रजतम् (संदध्यात्) । जै० उ०३ । १७ । ३॥ गो०
पू०१।१४॥ (एवं छान्दोग्योपनिषदि ४ । १७ । ७i) सुवीरः एष वाव सुवीरो यस्य पशवः । तां० १३।१।४॥ सुशर्मा सुप्रतिष्ठानः प्राणो वै सुशी सुप्रतिष्ठानः। श०४।४।१।१४॥ मुलस्तिः (गजु० १२.८) (-सुष्टुतिः) ऊजों नपाजातवेदः सुश.
स्तिभिरिति । ऊजों नपाजातवेदः सुष्वृतिमिरित्येतत् ।
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( ६०१ )
सददोहाः] सुपस्तिः (पशु० ॥1) ये वोढारस्ते सुशस्तयः।।०६।४।३॥६॥ सुगावाः देवा वै ब्रह्मन्नवदन्त । तत्पर्ण (पलाशः) उपाशृणोत् ।
सुश्रवा वै नाम । तै०१।१।३ । ११ ॥ देवानां ब्रह्मवादं वदतां यत् । उपाशृणोः, (तस्मात्त्वं हे पर्ण) सुश्रवा वै श्रुतो ऽसि । ततो मामाविशतु ब्रह्मवर्चसम् । ते.
१।२।१।६॥ सुषदः ( यजु० ।।४४) पृथुर्मुव सुषदस्त्वमझेः पुरीषवाहण इति
पृथुर्भव सुशीमस्त्वमग्नेः पशव्यवाहन इत्येतत् (सुषदा सुशीमः)। श०६।४।४।३॥
२ ॥ सुषुम्णः ( यजु• १८। ४० ) सुषुम्ण इति सुयक्षिय इत्येतत् । श०९।
४।१।९॥ सुषेणः ( यजु० १५ । १९) तस्य (पर्जन्यस्य ) सेनजिञ्च सुषेणच
सेनानीप्रामण्याविति हैमन्तिको तावृतू । श० ८।६।
१। २०॥ सुसमक् प्राणोघे सुसन्हा । तै०१।६।९।९॥ सूक्तम् यजमानो हि सूक्तम् । ऐ० ६ ॥९॥ , आत्मा सूक्तम् । कौ०१४।४॥ १५ । ३॥ १६॥४॥२३॥ ८॥ , धौरसूक्तम् । जै० उ०३।४।२॥ " शिरस्सूक्तम् । जै० उ०३।४।३॥
गृहाः सूक्तम् । ऐ० ३ । २३ ॥ ,, गृहा चे सूक्तम् । गो० उ०३।२१,२२ ॥ , गृहा वै प्रतिष्ठा सूक्तम् । ऐ० ३ ॥ २४ ॥ " विट् सूक्तम् । ऐ०२॥ ३३ ॥ ३ । १९ ॥ " प्रजा पशवः सूक्तम् । कौ० १४॥ ४॥ सूक्तवाकः संस्था सूक्तवाकः । श०११ । २ । ७। २८ ॥
, प्रतिष्ठा वै सूक्तवाकः । कौ०३।८॥ सूची विशो वै सूच्यः । श० १३ । २।१०।२॥ सूतः सवो वै सूतः। श०५।३।१।५॥ सूददोहाः आपो वै सूदो ऽनं दोहः । श० ८ । ७।३।२१ ॥
॥ माणः सूखदोहाः । ।०७।१।१! १५॥ ७।३।१।१५॥
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- [सूर्यः
( ६०२ ). मुददोहाः प्राणी वै सूददोहाः । श० ७ । १ । १ । २६ ॥ __, त्वक्सूददोहाः । श० ८ । १ । ४ । ४ ॥ सूनुः ( यजु० १२ । ५१ ) प्रजा वै सूनुः । श०७।१ । १ । २७ ॥ सूरः अन्तो वै सूरः (=सूर्य इति सायणः)। नां० १५ । ४ । २॥
१५। ११ । १४ ॥ सूर्यः तं (इन्द्रं देवा अब्रुवन् सुवीर्यो मर्यो यथा गोपायत इति ।
तत्सूर्यस्य सूर्य्यत्व र । तै०२ । २ । १० । ४ ॥ , असौ वै सूर्यो यो ऽसौ तपति । कौ०५। ८॥ गो० उ०१॥ २६ ॥ , एष वै सूर्यो य एष तपति । श०२।६ । ३ । ८ ॥ ,, (यजु०१८।१०) असो वाऽ आदित्यः सूर्यः । श०९।४।
२॥ २३ ॥ ,, एष वै शुक्रो य एष (सूर्यः) तपत्येष उऽएव बृहन् । श० ४।
, एष वाऽ इन्द्रो य एष ( सूर्यः ) तपति। श०२।३ । ४ । १२ ॥
३।४:२ । १५ ॥ ,, असौ वै पूषा यो ऽसौ ( सूर्यः) तपति । गो. उ० १ । २० ॥
कौ०५।२॥ ,, असौ वै सविता यो ऽसौ (सूर्यः) तपति । कौ०७।६॥ गो०
उ०१॥ २० ॥ ., एष वै सविता य एष तपति (सूर्यः) । श०३ । २ । ३ । १८॥
४।४।१।३॥ ५। ३।१।७॥ ,, एष वाव स सावित्रः । य एष (सूर्यः ) तपति । तै० ३ । १० ।
९।१५॥ , यः सूर्यः स धाता स उ एव वपदारः । ऐ०३ । ४८ ॥ , एष एव वषट्कारो य एष (सूर्यः ) तपति । श० १ । ७ ।
२।११॥ , एष वै वषट्कारो य एष (सूर्यः ) तपति । श० ११ । २।
२॥५॥ , एष वै स्वाहाकारो य एष (सूर्यः) तपति । श० १४ । १ ।
३।२६॥
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( ६०३ )
सूर्यः ]
सूर्यः एष वै ब्रह्मणस्पतिः ( यजु० ३७ । ७ ) य एष ( सूर्यः ) तपति ।
श० १४ । १ । २ । १५ ॥
स वा एपो (सूर्यः) ऽपः प्रविश्य वरुणं । भवति । कौ० १८ । ९ ॥ अर्कश्चक्षुस्तदसौ सूर्यः
एष वै मखो (यजु ३७ । १२ ) य एप ( सूर्यः ) तपति ।
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१० १ । १ । ७ । २ ॥
श० १४ । १ । ३ । ५ ॥
एष वै पिता (यजु० ३७ । २० ) य एष ( सूर्यः ) तपति ।
२ । २१ ॥
असौ (सूर्यः ) वाव खर्डकेन सूर्य नातिशंसति । ऐ० ४ । १० ॥ असौ वै विश्वकर्मा यो ऽसौ ( सूर्यः ) तपति । कौ० ५ ।५ ॥ गो० उ०१ । २३ ॥
" एष ( सूर्यः ) वै वरसद् वरं वा एतत्सद्मनां यस्मिन्नेष आसनस्तपति । ऐ० ४ । २० ॥
श० १४ । १ । ४ । १४ ॥
स प ( सूर्यः ) भर्ता । श० ४ । ६ । ७ । २१ ॥
एष वै ग्रहः । य एप ( सूर्यः ) तपति येनेमाः सर्वाः प्रजा गृहीताः । श० ४ । ६।५।
11
एष ( सूर्यः ) वै गांजाः । ऐ०४ | २० |
एष वै गोपाः (यजु० ३७ । १७ ) य एष ( सूर्यः ) तपत्येष सर्व गोपायति । श० १४ । १ । ४ । ९॥
ही
एष वै तन्त्रायी (यजु० ३८ । १२ ॥ ) य एप ( सूर्यः ) तपत्येष ही माँल्लोकांस्तन्त्रमिवानुसंचरति । श० १४ । २ । २ । २२ ॥
अथ चै निविदावेव यो ऽसौ ( सूर्यः ) तपत्येष हीदं सर्व निवेदयन्नेति । कौ० १४ ॥ १ ॥
आदित्यो (=सूर्यः ) निवित् । जै० उ० ३ । ४।२ ॥ सौ वा एता देवता यन्निविदः । ऐ० ३ ॥ ११ ॥
यज्ञो वै स्वः (यजु० १ । ११ ) अहर्देवाः सूर्यः । श० १ । १ ।
एष (सूर्य) वै वसुरन्तरिक्षसद् । ऐ० ४ । २० ॥
एष (सूर्य्यः ) वै व्योमसद् व्योम वा एतत् सद्मनां यस्मिनेष
आसनस्तपति । पे० ४ । २० ॥
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(सूर्यः
(६०४ ) सूर्यः एष ( सूर्यः ) वै नृषत् । ऐ०४।२० ॥ " एष (सूर्यः ) वै होता वेदिषद् (ऋ०४।४० । ५) । ऐ०
४॥२०॥ , असौ वै होता यो ऽसौ (सूर्यः ) तपति । गो० उ०६।६॥ , असौ वै दूरोहो यो ऽसौ (सूर्यः) तपति । ऐ० ४ । २० ॥ ,, असौ वाऽ आदित्यो (सूर्यः) दूरोहणं छन्दः (यजु० १५. ५)।
श० ८।५।२।६॥ , एष वै यमो ( यजु० ३७ । ११ ) य एष (सूर्यः) तपत्येष हीद, ___ सर्व यमयत्येतेनेदछ सर्व यतम् । श० १४ । १ । ३ । ४ ॥ , स एष (सूर्यः । मृत्युः । श०१०।५।१।४॥ ,, एष एव मृत्युः । य एष (सूर्यः) तपति । श० २।३।३।७॥ , सूर्य्यः परिवत्सरः । तां० १७ । १३ । १७॥ , आदित्यः (-सूर्यः) परिवत्सरः । तै०१।४।१०।१॥ ,, असौ वै महावीरो यो ऽसौ ( सूर्यः) तपति । कौ० ८।३, ७॥ ,, एष वैचतुःस्रक्तिर्य एष (सूर्यः) तपति दिशो खेतस्य सूक्तयः।
श० १४ । ३ । १ । १७॥ , अथ वै पुरोरुगसावेव यो ऽसौ ( सूर्यः) तपत्येष हि पुरस्तादो____ बते। कौ० १४ । ४॥ ,, तदाऽ एतदेव पुरश्चरणम् । य एष ( सूर्यः) तपति। श० ४ । . ६।७।२१ ॥ ,, एष वाव स परोरजा इति होवाच । य एष (सूर्यः) तपति ।
ते० ३ । १०।९।४॥ , वाजपेयो वा एष य एष (सूर्यः) तपति । गो० उ०५॥८॥ , अस्य ( अनेः) एवैतानि (धर्मः, अर्कः, शुक्रः, ज्योतिः, सूर्यः)
नामानि । श०९।४।२।२५ ॥ , एष वै गर्भो देवानां (यजु० ३७ । १४ ॥) य एष (सूर्यः) तप. त्येष हीद सर्व गृहात्यंतेनेद सर्व गृभीतम् । श०१४।१।
४॥२॥ ,, असो वाऽ आदित्यो (सूर्य:) बृहज्ज्योतिः। श०६॥ ३॥ १॥ १५ ॥ ,, मसी (सूर्यः) वाव ज्योतिस्तेन सूर्य नातिशंसति । ऐ०४।
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( ६०५ )
सूर्यः सूर्यः ज्योतिरेष य एष (सूर्यः ) तपति । २५ । ३,९॥ , एष वै श्रेष्ठो रश्मिः (यजु० २॥ २६ ॥) यत्सूर्यः । श०१।१।
३।१६ ॥ , यदेतन्मण्डलं (सूर्यः) तपति । तन्महदुक्थं ता ऋचः स
ऋचां लोकः । श० १० ।५।२।१॥ " बाहतो वा एष य एष (सूर्यः) तपति । कौ० १५ । ४॥२५ ।
४॥ गो० उ० ३ । २० ।। , बृहत्यां वा असावादित्यः (=सूर्यः ) श्रियां प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठित.
स्तपति । गो० उ० ५। ७ ॥ ,, जागतो वा एष य एष ( सूर्यः) तपति । कौ० २५ । ४, ७॥ , श्रेष्टुभो पा एष य एष ( सूर्यः ) तपति । कौ० २५ ॥ ४॥ ,, य आदित्यः (सूर्यः ) स्वर एव सः । जै० उ०३।३३।१॥ " स यदाह स्वरो ऽसीति सोमं वा एतदाहैष ह वै सूर्यो भूत्वा
ऽमुष्मिलोके खरति तद्यत्स्वरति तस्मात्स्वरस्तत्स्वरस्य स्वरत्वम् । गो० पू०५।१४॥ , एष वै मूर्धा य एष (सूर्यः ) तपति । श० १३ । ४।१।१३॥ ., (एस्थानः) सूर्यो ?तिज्योतिः सूर्य इति तदमुं लोकं
(=धुलोकं) लोकानामामोति तृतीयसवनं यज्ञस्य ! कौ०
१४।१॥ , (यजु० २० । २१) स्वर्गो वै लोकः सूर्यो ज्योतिरुत्तमम् ।
श० ११ । । ।२।८॥ ., एष ( आदित्यः) स्खों लोकः । तै०३।८।१०।३॥ ३ ।
८॥ १७ ॥२॥३।८।२०।२॥ , अर्कोदितः (आदित्यः सूर्यः) प्रस्तावः । जै० उ०१॥१२॥४॥ , सूर्यो वै सर्वेषां देवानामात्मा । श० १४ । ३।२।९॥ , अथ सूर्यमुदीक्षते । सैषा गतिरेषा प्रतिष्ठा । श० १।। ३॥१५॥ , ते ( देवाः) सूर्य काष्ठाङ्कृत्वाजिमधावन् । तां० ९।१॥ ३५ ॥ , एतदाऽ अनपराखं नक्षत्रं यत्सूर्यः । श०२।१।३। १९ ॥ ,, सूर्यो ऽमेर्योनिरायतनम् । तै०३ । । । २१ । २. ३ ॥ , सूर्यस्य वर्षला । श०५।४।२।२॥ तां०१३ ॥१॥
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[सूर्यः
( ६०६ ) सूर्यः तस्मादग्नये साय५ हयते सूर्याय प्रातः । २०२।१।२।६।। ,, तेषां ( नक्षत्राणां ) पप ( मयः ) उद्यन्नव वीर्य क्षत्रमादत्त ।
श०२।१।२।१८ ॥ ,, स ( सूर्यः ) यत्रोदइडावर्त्तते । देवेषु तहि भवति देवांस्तांभिगोगायन्यथ यत्र दक्षिणावर्त्तते पितृषु तर्हि भवति पितृ
स्तहभिगोपायर्यात । श० २।। । ३ । ३ ॥ ., सूर्यो हि नाष्ट्राणा रक्षसामपहन्ता । श० १।३।४।८॥ , सूर्यो मा दिव्याभ्यो नाष्ट्राभ्यः पातु । तां० १ । ३। २॥ ,, युनजिम याच सह सूर्येण । तां० १।२।१॥ ,, सूर्यो वै प्रजानां चक्षुः । श० १३ । ३।८। ४ ॥ ,, सूया मे चक्षुषि श्रितः । तै० ३ । १० । ८ । ५ ॥ , स्वर्भानुर्ह वाऽ आसुरः । सूर्य तमसा विव्याध स तमसा विद्धो
न व्यरोचत तस्य सोमारुद्रावेवैतत्तमो ऽपाहता स एषो
ऽपहतयापमा तपति । श. ५ । ३ २।२ ॥ ,, स्वर्भानुर्वा आसुर आदित्यन्तमसा ऽविध्यत् । तां०४ । ५ ॥२॥ ,, स्वर्भानुर्या आसुरिः सूर्य्यन्तमसाविध्यत् । गो. उ०३ । १९ ॥ . सूर्यस्य ह व!5 एको रश्मिव॒ष्ट्रिवनिः ( यजु, ३८ ) नाम
येनेमाः सर्वाः प्रजा विभर्ति । श०१४ । २ . १ । २१ ।। , सूर्याय पुरोडाशमककपाल (निर्वपति ) । ऐ०३ । ४८ ॥ , सौर्य एककपालः पुरोडाशो भवति । श० २। ६।३। ८ ॥ , असौ वाय ( सूर्यः ) मर्चयति ( गच्छति ) इव । ऐ० ४। १०॥ , स ( सूर्यः) उद्यन्नेवा (दिवं) अधिद्रवत्यस्तंयनिमां
( पृथिवीं) अधिद्रवति । श०१।७।२। ११ ॥ ., सौर्यो वा अश्वः । गो० उ०३।१६ ॥ ,, अस्माभिः ( अङ्गिरोभिः ) एष प्रतिगृहीतो य एष (सूर्यः )
तपतीति तस्मात्सद्यःक्रियो ऽश्वः श्वेतो दक्षिणा । श०३।
५।१। १९ ॥ ,, श्येत इव ह्येष (सूर्यः) यन्भवति तस्माच्छयेतोऽनवान्दक्षिणा।
श०५।३।१।७॥ । सूर्य उद्गाता । गो० पू० १ । १३ ॥ : सौर्य उदाता । तां० १८।९८॥
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(६०७ )
सोमः सूर्यः सौर्य रतः । ३० ३ । । । १७ । ॥ ,, सूर्यात्सामवेदः ( अजायत )। श० ११ । ५। ८।३॥ ,, एष वाऽ अपा' रसो यो ऽयं ( वायुः) पवते स एष मूर्ये
समाहितः सूर्यात्पवते । श०५।१।२।७॥ ,, आदित्यशब्दमपि पश्यत ॥ सूर्यरश्मिः ( यजु० १८ । ४० ) ( चन्द्रमाः ) सूर्यस्येव हि चन्द्रमसो
रश्मयः । श०९।४।१।९॥ सर्यस्य दुहिता ( यजु० १९ । ४) श्रद्धा वै मूर्यस्य दुहिता। श० १२ ।
७। ३ । ११ ॥ सूर्या अथ यत्र ह तत्सविता सूर्या प्रायच्छन्सोमाय राक्षे । कौ०
१८॥१॥ , प्रजापतिर्वै सोमाय राज्ञे दुहितरं प्रायच्छत्सूर्या सावित्रीम् ।
ऐ०४।७॥ सेमजित् ( यजु० १५ । १९) तस्य (पर्जन्यस्य ) सेनजिश्च सुषेणश्च
___ सेनानीग्रामण्याविति हैमन्तिको तावृतू । श०८ । ६।१ २०॥ सेना सेनेन्द्रस्य पत्नी । गो० उ० २ । ९ ॥ सैम्भुक्षितम् (साम ) सिन्धुक्षिद्वै राजन्यर्षियोगपरुद्धश्चरन् स एतत्सै
न्धुक्षितमपश्यत् सो ऽवागच्छत् प्रत्यतिष्ठदवगच्छति
प्रतितिष्ठति सैन्धुक्षितेन तुष्टवानः । तां० १२ ॥ १२ ॥ ६ ॥ सोमः स्वा वै मऽएषेति तस्मात्सोमो नाम । श. ३।९। ४ । २२ ॥ ., सत्यं ( वै) श्री ज्योतिः सोमः । श०४।१।२।१०। ।
१।५।२८॥ , श्री सोमः । श०४।१।३।६॥ ,, सोमः (श्रियः) राज्यम् ( आदत्त) । श० ११ । ४।३।३॥ , राजा वै सोमः । श० १४ । १ । ३ । १२ ॥ , सोमो राजा राजपतिः । तै० २ । ५। ७ । ३ ॥ , असौ वै सोमो राजा विचक्षणश्चन्द्रमाः । कौ० ४।४॥७॥१०॥
सोमो राजा चन्द्रमाः । श. १०। ४।२।१॥ , चन्द्रमा वै सोमः । कौ० १६ । ५ ॥ तै०१।४।१०। ७ ॥शक
१२ । १।१।२॥
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[सोमः
( ६०८ ) सोमः चन्द्रमा उ वै सोमः। श०६।५।१।१॥ , स यदाह गयो ऽसीति सोम वा एतदाहैष ह वै चन्द्रमा भूत्वा
सर्वाल्लोकान्गच्छति । गो० पू० ५। १४ ॥ , चन्द्रमा वाऽ अस्य (सोमस्य ) दिवि श्रवं उत्तमम् ( यजु०
१२ । ११३॥)। श०७।३।१।४६ ॥ (इन्द्रः ) तं (वृत्रं ) द्वेधा विभिनतस्य यत्सौम्यं न्यक्तमास तं चन्द्रमसं चकाराथ यदस्यासुर्यमास तेनेमाः प्रजा उदरेणा
विध्यत् । श० १। ६ । ३ । १७ ॥ ,, वृत्रो वै सोम आसीत् । श०३।४।३।१३ ॥ ३।९।४।
२॥४।२।५।१५॥ पितृलोकः सोमः । कौ० १६ ॥ ५॥ , पितृदेवत्यो वै सोमः । श०२।४।२।१२॥४।४।२।२॥ , पितृदेवत्यः सोमः । श०३।२।३।१७ ॥ , स्वाहा सोमाय पितृमते । मं०२॥३॥१॥
सौम्यश्चतुष्कपालः ( पुरोडाशः)। तां० २१ । १० । २३ ॥ सोमाय वा पितृमते (षदकपालं पुरोडाशं निर्वपति )। श. २।६। १।४॥ संवत्सरो वै सोमः पितृमान् । तै० १।६।८।२॥१।६।
(ऋ०४ । ५३ । ७ ) संवत्सरो वै सोमो राजा । कौ० ७॥१०॥ ,, ऋतवो वै सोमस्य राझो राजभ्रातरो यथा मनुष्यस्य । ऐ०
१। १३ ॥ , प्रच्यवस्व भुवस्वतऽ इति भुवनाना खेष (सोमः) पतिः।
श० ३।३। ४ । १४ ॥
सोमो हि प्रजापतिः । श०५।१ । ५ ॥ २६ ॥ , सोमो वै प्रजापतिः । श०५।१।३ । ७ ॥ , यह श्येनो ऽसीति सोमं वा एतदाहैष ह या अनिर्भूत्वा
ऽस्मिंल्लोके संश्यायति । तद्यसंश्यायति तस्माच्छपेनस्तच्छघेनस्य श्येनत्वम् । गो० पू० ५ । १२ ॥
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( ६०९ )
सोमः] सोमः सोमो वैष्णवो राजेत्याह तस्याप तरसो विशः । श० १३ । ४ ।
३॥८॥ , यो वै विष्णुः सोमः सः । श०३।३। ४ । २१॥३।६।३ । १९॥ ,, जुष्टा विष्णव इति । जुष्टा सोमायेत्येवैतदाह (विष्णुः सोमः) ।
श०३।२।४ । १२ ॥ , तद्यदेवेदं क्रीतो विशतीव तदु हास्य ( सोमस्य ) वैष्णवं
रूपम् । को०८।२॥ .. सोमो वै पवमानः । श० २।२।३।२२॥ " यो ऽयं वायुः पवतऽ एष सोमः । शा० ७।३।१।१॥ ,, स यदाह सम्राडसीति सोमं वा एतदाहै। ह वै वायुभूत्वा
ऽन्तरिक्षलोके सम्राजति तद्यत्सम्राजति तस्मात् सम्राट
तत्सम्राजस्य सम्राट्त्वम् । गो० पू० ५। १३ ॥ . , एष (वायुः) वै सोमस्योद्गीथो यत्पवते । तां०६।६ । १८ ॥ ,, तस्मात्प्लोम सर्वेभ्यो देवेभ्यो जुह्वति तस्मादाहुः सोमः सर्वा
देवता इति । श०१।६। ३ । २१ ॥ ,, सोमः सर्वा देवताः । ऐ०२।३॥ ,, सोमो वा इन्दुः । श०२।२।३।२३॥ ७ : ५। २ । १९ ॥ ,, सोमो रात्रिः । श०३।४।४।१५ ॥
सोम एव सवृतः (?समृतः-तैत्तिरीयसंहितायाम् १। ६ । ७ ।
१) इति । गो० उ०२।२५ ॥ , सोमो वै चतु)ता । तै० २।३।१ । १ ॥ , सोमो वै पर्णः । श०६।५।१।१॥
सोमो वै पलाशः । कौ० २।२॥ श० ६.६।३।७॥ ,, यदि सोमं न विन्देयुः पूतीकानभिषुणुयुर्यदि न पूतीकानर्जु
नानि । तां० ९ । ५।३॥ , इन्द्रो वृत्रमहस्तस्य यो नस्तः सोमः समधावसानि
बभ्रुतूलान्यर्जुनानि । तां०९। ५ । ७॥ , (सोमस्य ह्रियमाणस्य ) यानि पुष्पाण्यवाशीयन्त तान्यर्जु.
नानि । तां०८।४।१॥ ,, एष वै सोमस्य न्यङ्गो यदरुणदूर्वाः। श० ४ । ५ । १० । ५ ॥ , परोक्षमिव ह वा एष सोमो राजा यन्न्यग्रोधः । ऐ०७॥ ३१ ॥
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[सोमः
( ६१० ) सोमः पशु प्रत्यक्ष सोमः । श० ५ । १ । ३ । ७ ॥ , सोम एवैष प्रत्यक्षं यत्पशुः । कौ० १२ । ६ ॥ , पशवः सोमो. राजा । तै० १।४।७।६॥ ,, पशवो हि सोम इति । श०१२।७।२।२॥
सोमो वै दधि । कौ० ८।६॥ एष (सोमः ) उ एव किल्विषस्पृत् । ऐ०१ । १३॥ स यदाह स्वरो ऽसीति सोम वा एतदाहैष ह वै सूर्यो भूत्वा ऽमुग्मिल्लोके स्वरति तद्यत्स्वरति तम्मात्स्वरस्तत्स्वरस्य स्वरत्वम् ।
गे:० पू० ५। १४॥ , एष वै यजमानो यत्सोमः । तै० १ । ३ । ३ । ५॥ , द्यावापृथिव्यो वा एष गर्भो यत्सोमो राजा । ऐ० १ । २६ ॥ , सोमास्य त्वा धुनेनाभिषिञ्चामीति । श०५।४।२।२॥ ,, भ्राजं गच्छेति सोमो वै भ्राट् । श० ३।२।४।२॥ ,, वर्चः सोमः । श०५।२१।१०, ११॥ ., क्षत्रं सोमः । ऐ०२॥ ३८ ॥ कौ० ७ १ १० ॥ ९ ॥१०॥५॥
१२॥ ८॥ , क्षत्रं वै सोमः । श० ३।४।१।१०॥३।९।३। ३, ७ ॥
५। ३।५। ८॥ , यशो वै सोमः । श० ४ १ २।४।९॥ , यशो ( ऋ० १० । ७२ । १०) वै सोमो राजा। ऐ०१ । १३ ॥ , सोमो वै यशः । तै० २।२।८।८॥
यश उ वे सोमो राजाम्नाद्यम् । कौ० ६ । ६॥ , प्रजापतेाऽ एतेऽअन्धसो यत्लोमश्च सुरा च । श० ५। १। - २।१०॥ .. अनं सोमः । कौ० ९ ६॥ श० ३ । ३।४ २८ ॥ तां०६।
६।१॥ , अन्नं वै सोमः । श०३।६।१। ८ ।। ७ । २।२।११ ॥ ., एतद्व देवानां परममन्नं यत्सोमः । तै०१ । ३।३।२॥ ,, एतद्वै परममन्नाद्यं यत्सोमः । कौ० १३ । ७ ।। , एष वै सोमो राजा देवानामन्नं यच्चन्द्रमाः । श० १।६।४।
५॥२।४।२।७॥ ११ । १।४।४॥
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( ६११ )
सोमः हवि देवानां सोमः । श० ३ । ५ । ३ । २ ॥
उत्तमं वा एतद्धविर्यत्सोमः । श० १२ । ८ । २ । १२ ॥ एषो ह परमाहुत्तिर्यत्सोमाहुतिः । श० ६ । ६ । ३।७ ॥
सोमः खलु वै सान्नाय्यम् ( हविः ) । तै० ३ । २ । ३ । ११ ॥ सोमाहुतयो ह वा एता देवानाम् । यत्सामानि । श० ११ । ५ । ६।६ ॥
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एषा केवल यत्सोमाहुतिः । श० १ । ७ । २ । १० ॥
अथैव कृत्स्ना देवयज्या यत् लौम्यो ऽध्वरः । कौ० १० | ६ ॥
प्राणः सोमः । श० ७ । ३ । १ । २ ॥
प्राणो वै सोमः । श० ७ । ३ । १ । ४५ ॥
प्राणो हि सोमः । तां० ९ । ९ । १,५ ॥
प्राण: ( यज्ञस्य ) सोमः । कौ० ९ । ६ ॥
सोमो वै वाजपेयः । तै० १ । ३ । १ । ३ ॥
I
सोमः ]
एष वा उत्तमः पविर्यत्सोमः । श० ३ । ९ । ४
रेतः सोमः । कौ० १३ । ७ ॥ तै०२ । ७ । ४ । १ ॥ श० ३ । ३ ।
। ५ ॥
२ । १ । ३ । ३ | ४ | १८ || ३ | ४ | ३ | ११ ॥
रेतो वै सोमः । श० १ । ६ । २ । ९ ॥ २।५।१।६ ॥ ३ । ८।५।२ ॥
सोमो रेतोऽधात् । तै०१ । ६ । २ । २ ॥ १ । ७ । २ । ३, ४ ॥ १ । ६ । १ । २॥
सोमो वै वृष्णो अश्वस्य रेतः । तै० ३ । ९ । ५ । ५॥
।
एते सोमांशवः प्रत्नोंऽशुर्यमेतमभिषुण्ण्वन्ति तृप्तोऽशुरापी रसोंशुवहिर्वृषोऽशुर्यवः शुक्रोंऽशुः पयो जीवोंऽशुः पशुरमृतोंऽशुर्हिरण्यमृगंशुर्यजुरंशुः सामांशुरित्येते वा उ दश सामांशवो यदा वा एते सर्वे संगच्छन्ते ऽथ सोमो ऽथ सुतः । कौ० १३ ॥ ४ ॥
सोमस्य वा अभिषूयमाणस्य प्रिया तनूरुदक्रामत् तत्सुवर्णथं हिरण्यमभवत् । तै० १ । ४ । ७ । ४-५ ।।
1
चन्द्रथं होतञ्चन्द्रेण क्रीणाति यत्सोमं हिरण्येन ( चन्द्र:= सोमः, चन्द्र = हिरण्यम् ) । श० ३ | ३ | ३ | ६ ॥
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[ सोमः सोमः शुक्र ोतच्छुक्रेण क्रीणाति यस्तोम हिरण्येन । श० ३ ।
३। ३ । ६॥ , शुक्रः ( =निर्मल इति सायणः ) सोमः । तां०६।६।९॥ ,, स यत् सोमपानं (विश्वरूपस्य मुखं) आस । ततः कपिजलः
समभवत्तस्मात्स वचक इव बभ्रुरिव हि सोमा राजा । श०१।
६।३।३ ॥ ५। ५।४।४॥ , सोमो वै बभ्रुः ( यजु० १२ । ७५)। श० ७।२।४।२६ ॥ , स हि सौम्यो यद्वध्रुः । गौः) । श०५।२।५ । १२॥ , सोमो गन्धाय । तां०१।३।६ ॥ सा० ३।८।१॥ ., सोम इव गन्धेन ( भूयासम् ) 1 मं० २।४।१४॥ ,, रसः सोमः । श० ७।३।१। ३॥ ,, वाज्येवैनं ( सोमं ) पीत्वा भवति । तै०१।३।२।४॥ , भद्रा (प्रजापतेस्तनूविशेषः ) तत्सोमः । ऐ० ५ । २५ ॥ कौ०
२७ । ५॥ , (उपसद्देवतारूपाया इषोः) सोमः शल्यः । ऐ० १ । २५ ॥
तिरो अह्नया हि सोमा भवन्ति । कौ० १८ । ५ ॥३०॥ ११ ॥ , तद्यत्तदमृत सोमः सः । श०६।५।१।८॥
सर्व हि सोमः । श० ५ । ५।४।११॥ ., तस्मात्सोमो राजा सर्वाणि नक्षत्राण्युपैति । ष० ३। १२ ।।
श्येनो भूत्वा (गायत्रीदिवः सोममाहरत् । श० १ । ८ ।
२॥१०॥ ,, यद्गायत्री श्येनो भूत्वा दिवः सोममाहरत्तेन सा श्येनः । श०
३।४।१।१२॥ ,, तृतीयस्यामितो दिवि सोम आसीत् । तं गायत्र्याहरत्। तै०१।
१।३।१०॥३।२।१।१॥ ,, अन्तरिक्षदेवत्यो हि सोमः । गो० उ०२।४॥ ,, गिरिषु हि सोमः । श०३।३।४।७॥ , नन्ति वा एनं (सोमं ) एतद्यदभिषुण्वन्ति । श० ३ । ३।
२।६॥ ., प्रन्ति खलु वा एतत्सोमं यदभिषुण्वन्ति । तै० २।२। ८॥१॥ , सोमो राजा मृगशीर्षण आगन् । तै० ३।१।१ । २॥
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( ६१३ )
सोमः] सोमः स ( सोमः ) एत सोमाय मृगशीर्षाय श्यामाकं चरु पयसि
निरवपत् । ततो वै स ओषधीना राज्यमभ्यजयत् । तै० ३।
१।४।३॥ ,, सौम्यं श्यामाकं चकै निर्वपति । तै० १।६। १ । ११ ॥ ., एते वै सोमस्यौषधीनां प्रत्यक्षतमां यच्छयामाकाः । श०५ ।
३।३।४॥ अथ सोमाय वनस्पतये । श्यामाकं चहं निर्वपति । श०५। ३।३।४॥ तस्य (सोमस्य) अY प्रास्कन्दत्ततो यवः समभवत् । श० ४ । २।१।११॥ सोम वीरुधां पते । तै० ३ । ११ । ४ । १ ॥ औषधो हि सोनो राजौषधिभिस्तं भिषज्यति यं भिषज्यंति सोममेव राजानं क्रोयमाणमनु यानि कानि च भेषजानि तानि सर्वाण्यग्निष्टोममपियति । ऐ०३। ४०॥
सोमो वा अष्टपचस्य राजा । तै० १ ६।१ । ११ ॥ ,, सोम ओषधीनामधिराजः ! गो० उ० १ । १७ ॥
सोमो वै राजौषधीनाम् । कौ० ४ । १२॥ तै०३ । ९ । १७॥१॥
सौम्या ओषधयः । श) १२।१।१ । २॥ ., सोमः ( एवैनं ) वनस्पतीनां (सुवते )। तै०१।७।४।१॥ ,, एष वै ब्राह्मणानां सभासाहः सखा (ऋ० १०। ७१ । १०॥)
यत्सोमो राजा । ऐ० १ । १३॥ ,, सोमराजानो ब्राह्मणाः । ते०१।७।४।१॥१।७।६।७॥ ,, एष वो ऽमी राजा सोमो ऽस्माकं ब्राह्मणाना, राजेति ।
....."तस्माद् ब्राह्मणो नाद्यः सोमराजा हि भवति । श०५।
४।२।३॥ .. ब्राह्मणानां स ( सोमः) भक्षः। ऐ०७॥ २९ ॥ ,, सोमो वै ब्राह्मणः । तां० २३ । १६ । ५ ॥ ,, सौम्यो हि ब्राह्मणः । तै०२।७।३।१॥ ,, तस्य (नमुचेः) शीर्षश्छिन्ने लोहितमिश्रः सोमो ऽतिष्ठत् ।
("नमुचि"शब्दमपि पश्यत) । श०१२।७।३।४॥ , शोभन येतस्य (सोमस्य) वासः । श०३ । ३ । ३।३॥
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[सोमः
( ६१४ ) सोमः सौम्य हि देवतया वासः। तै० १।६।१ । ११॥ २२:
५।२॥ , (हे देवा यूयं सोमेन प्रतीची (दिशं प्रजानाथ)। ऐ०१७ ॥ ,, प्रतीची दिक् । सोमो देवता । तै० ३ । ११ । ५।२॥ , उत्तरा ह वै सोमो राजा । ऐ० १ ॥ ८ ॥ , यदुत्तरतो वासि सोमोराजा भूतो वासि ।जै० उ०३ । २१ । २॥ , उदीचीनदशं वै तत्पवित्रं भवति येन तत्सोम राजान
सम्पावयन्ति । श०१।७।१।१३॥ ,, स ( सोमः) दक्षिणां दिशं प्राजानात् । कौ०७॥ ६॥ , दक्षिणाव दिश सोमेन प्राजानन् । श०३।२।३।१७॥ ,, सौम्यो वै देवतया पुरुषः । तै० १ । ७।८।३॥ , सौम्यो ऽध्वरः सप्तहोतुः (निदानम् )। तै० २ । २ । ११ ॥६॥
यद्वाऽ आई यज्ञस्य तत्सौम्यम् । श० ३।२ । ३ । १० ॥ सोमः पयः । श० १२ । ७ । ३ । १३ ॥ सः ( सोमः ) अब्रवीद्वल्गु सानो वृणे प्रियमिति । जै० उ०
, सोमो रुद्रैः ( व्यद्रवत् ) । श०३।४।२।१॥ ,, आपः सोमः सुतः। श०७।१।१ । २२॥ ,, आपो ह्येतस्य ( सोमस्य ) लोकः । श० ४।४। ५ । २१ ॥ ,, तद्यदेवात्र पयस्तन्मित्रस्य सोम एव वरुणस्य । श०४।१।
४।९॥ ,, वरुणो ह वै सोमस्य राशो ऽभीवाक्षि प्रतिपिपेष तदश्वय.
त्ततो ऽश्वः समभवत् । श० ४ । २ । १ । ११ ।। ,, दीक्षा सोमस्य राज्ञः पत्नी । गो० उ० २ । ९॥ । अथ यत्र ह तत्सविता सूर्या प्रायच्छत्सोमाय राशे । कौ०
१८।१॥ ,, प्रजापति सोमाय राक्षे दुहितरं प्रायच्छत्सूर्या सावित्रीम् ।
ऐ०४ । ७॥ ., महीन्दीक्षा सौमायनो ( =सोमपुत्रः) बुधो यदुदयच्छद.
नन्दत्सर्वमानोन्मन्मा से मेदोधा इति । तां०२४ । १८ । ६ ॥ . पुमान् वै सोमः स्त्री सुरा । तै०१।३३।४॥
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। ६१५ )
सौत्रामणी सोमः रयि सोमो रयिपतिर्दधातु । तै०२ । ८।१।६ ॥ ', वैराजः सोमः । कौ०९ : ६ ॥ श० ३ । ३।२। १७ ॥ ३ । ९ ।
सोमक्रयणी (गौः ) सा या बभ्रुः पिङ्गाक्षी (गौः) सा सोमक्रयणी ।
श०३।३।१।१४॥ ,, वाग्वै सोमक्रयणी निदानेन । श०३।२।४।१०, १५ ॥ सोमपीथः इन्द्रियं सोमपीथः । तै० १ ३ । १० । २॥ सोमयागः संवत्सरे संवत्सरे सोमयाजी ( अश्नाति) ! श० १०।१ ।
५।४॥
(सुत्याशब्दमपि पश्यत) सोमराज्ञी या ओषधीः सोमराशीः । मं० २ । ८ । ३, ४ ॥ सोमवामी स यो वाऽ अलं भूत्यै सन्भूतिं न प्राप्नोति यो वालं पशुभ्यः
सन्पशून विन्दते स सोमवामी । श० १२।७।२।२॥ सोमसाम यथा वा इमा अन्या ओषधय एव सोम आसीत् स
तपो ऽतप्यत स एतत्सामापश्यत्तेन राज्यमाधिपत्यमगच्छद्यशो ऽभवद्राज्यमाधिपत्यङ्गच्छतेि यशो भवति सोम
साम्ना तुष्टुवानः। तां०१२ । ३।९॥ सोमो ऽजनः (यजु० ११ । ४३) स हैष सोमो ऽजस्रो यद्गौः । श०७।
५।२।१६ ॥ सौत्रामणी तावश्विनौ च सरस्वती.च । इन्द्रियं वीर्य नमुचेराहत्य
तदस्मिन्पुनरदधुस्तं पाप्मनो ऽत्रायन्त सुत्रातं बतैनं पाप्मनो ऽत्रास्महीति तद्वाव सौत्रामण्य भवत्तत्सौत्रामण्यै सौत्रामणीत्वम् । श० १२ । ७ । १ । १४ ॥ ते देवा अग्रुवन् । सुत्रातं बतैनमत्रासतामिति तम्मात्सौ. त्रामणी नाम | श०५।५।४।१२। ऐन्द्रो वा एष यज्ञक्रतुर्यत् सौत्रामणी। कौ० १६ । १० ॥
गो० उ०५।७॥ ., ऐन्द्रो वाऽ एष यज्ञो यत्सौत्रामणी । श. १२।८।२ २४॥ , उभय सौत्रामणीष्टिश्च पशुबन्धश्च । श० १२। ७।२।
, देवस्थो वाऽ एषेष्टियत्सौत्रामणी । श०५। ५ । ४ । १४॥
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[ सौमित्रम् ( ६१६ ) सौत्रामणी तस्मादेष ब्राह्मणयश एव यत्लौत्रामणी । श० १२ । ९ ।
सुरावान्वाऽ एष बर्हिषद्यशो यत्सौत्रामणी । श० १२ । ८।१ । २॥ सोमो वै सौत्रामणी । श० १२ । ७ । २।१२॥ पवित्रं वै सौत्रामणी । श० १२ । ८ । १ । ८ ॥ स यो भ्रातृव्यवान्त्स्यात्स सौत्रामण्या यजेत । श० १२ ।
सौपर्णम् (साम ) यज्ञो वै देवेभ्यो ऽपाकामस सुपर्ण रूपं कृत्वा
चरत्तं देवा एतैः सामभिरारभन्ता यज्ञ इव वा एष यच्छन्दोमा यज्ञस्यैवैष आरम्भः । तां० १४ । ३ । १० ॥ सौपर्ण भवति स्वर्गस्य लोकस्य समष्टयै । तां० १४ ।
३।९॥ सौभरम् (साम) ताः (प्रजाः) अब्रुवन् सुभृतन्नो ऽभारिति
तस्मात्सौभरम् । तां०८।८।१६॥ बृहता वा इन्द्रो वृत्राय वज्रं प्राहरत्तस्य तेजः परापतत्त. सौभरमभवत् । तां ८1८ ९॥
बृहतो ह्येतत्तेजो यत्सौभरम् । तां. ८ । ८ । १०॥ , सौभरं भवति बृहतस्तेजः । तां० १२ । १२ । ७॥ , यः स्वर्गकामः स्याद्यः प्रतिष्ठाकामः सौभरेण स्तुवीत
प्र स्वर्ग लोकं जानाति प्रतितिष्ठति । तां०८।८ । १३ ॥ यो वृष्टिकामः स्याद्यो ऽन्नाद्यकामो यः स्वर्गकामः सौभ
रेण स्तुवीत । तां०८।८।१८॥ . सर्वे वै कामाः ( सर्वकामसाधर्म ) सौभरम् । तां० ८।
८॥२०॥ सौमित्रम् ( साम ) सुमित्रः सन् क्रूरमकरित्येनं ( कुत्सं ) वागभ्यव.
दत्त शुगार्थत्स तपो ऽतप्यत स एतत्सौमित्रमपश्यत्तन शुचमपाहताप शुचः हते सौमित्रेण तुष्टुवानः । तां.
१३ । ६।१०॥ , तद्वाव तौ ( इन्द्रश्च सुमित्रः कुत्सश्च)तीकामयेतां काम
सनि साम सौमित्रं काममेवैतेनावरुन्धे । तां० १३ । ६९॥
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[स्तोनिया सोमेधम् (साम ) योगे योगे तवस्तरमिति सौमेध रात्रिषाम . रावेरेव समृद्धयै । तां०९ । २ । २० ॥ सौभवसम् ( साम ) तं (छिन्नशिरस्कं सौश्रवसं) एतेन साना (इन्द्रः)
समैरयत् (सङ्गतावयवमकरोदिति सायणः) सतर्षकामयत कामसनि साम सौश्रवसं काममेवैतेनावलम्धे ।
तां०१४।६।८॥ सौहविषम् ( साम ) सुहविर्वा आङ्गिरसो ऽञ्जसा स्वर्ग लोकमपश्यत्
स्वर्गस्य लोकस्यानुख्यात्यै स्वर्गाल्लोकान्न च्यवते तुष्टु
वानः । तां०१४।५।२५ ॥ , यज्ञायशीयनिधन सौहविषं भवति। तां० १५ । ११ ॥१०॥ सहुतिः अथ यस्याज्यमुत्पूत स्कन्दति सावै स्कन्नानामाहुतिः।
ष०४।१॥ स्तनयित्नुः कतमस्तनयित्नुरित्य निरिति । श. ११। ६ । ३।९ ॥ , स वृहदसृजत तत्स्तनयित्नो?षोन्वसृज्यत । तां० ७।
८।१०॥ n (प्रजापतिः) स्तनयित्नुमुद्गीथ प् ( अकरोत् )। जै० उ०
१।१३ । १॥ , स्तनयित्नुः सावित्री । गो० पू०१। ३३॥
, स्तनयित्नुरेव सविता । जै० उ०४।२७॥ ९॥ स्तवः प्राणा वै स्तवः । कौ० ८ ॥ ३ ॥ स्तावाः ( अप्सरसः, यजु० १८ । ४२ ) दक्षिणा वै स्तावा दक्षिणाभि
यक्ष स्तूयते ऽथो यो वै कश्च दक्षिणां ददाति स्तूयतऽ एव सः
|श० ९।४।१।११ ॥ स्तोकः स्तोको वै द्रप्सः । गो० उ०२ । १२॥ स्तोता वायुर्व स्तोता। श० १३।२।६।२॥ तै०३।६।४॥४॥ स्तोत्रम् क्षत्रं वै स्तोत्रम् । १०१।४॥
, आत्मा वै स्तोत्रम् । श०५ । २२ । २०॥ स्तोत्रियः इयं (पृथिवी ) एव स्तोत्रियः । जै० उ०३।४।२॥ , आत्मैव स्तोत्रियः । जै० उ०३।४।३॥ , आत्मा वै स्तोत्रियः । ऐ० ३ । २३, २४ ॥ ६ ॥ २६॥ की०
१५॥ ४॥ २२ ॥ ८॥ गो० उ० ३ । २२ ॥
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[स्त्री
( ६१८) स्तोत्रियानुरूपौ आत्मा वै स्तोत्रियानुरूपौ । कौ० ३० । ८॥ स्तोभौ यो द्वौ स्तोभावहोरात्रे एव ते । जै० उ०१। २१ । ५॥ स्तोमः सप्त स्तोमाः । श० ९ । ५। २।८॥ ,, त्रिवृत्पञ्चदशः सप्तदश एकविंश एते वै स्तोमानां वीर्य्यव
त्तमाः । तां०६। ३ । १५ ॥ यदु ह किं च देवाः कुर्वते स्तोमेनैव तत्कुर्वते यज्ञो वै स्तोमो यज्ञेनैव तत्कुर्वते । श० ८।४।३।२॥
स्तोमो वै देवेषु तरो नामासीत् । तां० ८ । ३ । ३ ॥ , स्तोमो वै तरः । तां० ११।४।५।। १५ । १०।४॥
स्तोमा वै परमाः स्वर्गा लोकाः । ऐ०४ । १८॥
स्तोमा वै त्रयः स्वर्गा लोकाः । ऐ०४ । १८ ॥ , स्तोमो हि पशुः । तां०५।१०।८॥ ,, अन्नं वै स्तोमाः । श० ९ ! ३ । ३ । ६ ॥ ,: प्राणा वै स्तोमाः । श० ८।४।१।३॥ , वीर्य वै स्तोमाः। तां० २.५।४।२।११।२॥
वारजननं वै स्तोमः । तां० २१ । । । ३ ॥ , गायत्रीमात्रो वै स्तोमः । कौ० १९ ॥ ८॥ , नाक्षराच्छन्दो व्येत्येकस्मान द्वाभ्यां न स्तोत्रियया स्तोमः ।
श० १२ । २।३।३॥ देवा वा आदित्यस्य स्वर्गाल्लोकादवपादादबिभयुस्तमेतैः स्तोमैः सप्तदशैरहहन्यदेते स्तोमा भवन्त्यादित्यस्य धृत्यै।
तां०४।५।६ ॥ स्तोमभागाः स्तोमो वा एतेषां भागः, तत्स्तोमभागानां स्तोमभाग
त्वम् । गो० उ०२।१३॥ . आदित्य स्तोमभागाः। श०८।५।४।२॥ " हृदय स्तोमभागाः । श०८।५।४।३॥
हृदयं वै स्तोमभागाः श० ८।६।२।१५॥ की ( सविता) श्रिया स्त्रियम् ( समदधात् ) । गो० पू०१॥ ३४॥ , स्त्री सावित्री । जै० उ० ४ । २७ । १७ ।। , तस्मादु स्त्री पुसोपमन्त्रिता निपलाशमिवैव वदति । श० ३। २।१। २०॥
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[स्त्री श्री तस्मात्स्त्री पुरुसोपमन्त्रितारकादिवैवाग्रे ऽसूयति । श० ३ ।
२।१ । १९ ॥ , तस्मादु स्त्री पुमास ह्वयतऽ एवोत्तमम् । श०३।२।१।२१॥ , उत्तरत आयतना हि स्त्री । श० ८।४।४ । ११ ॥ , उत्तरतो हि स्त्री पुमा समुपशेते । श० १ । १ । १। २०॥
२।५।२।१७॥४।४।२।१६ ॥ ,, तस्मादु स्त्री पुमास सस्कृते तिष्ठन्तमभ्येति । श० ३।
२।१ । २२॥ , तस्मात्नयन्तर्वनी हरिणी सती श्यावा भवति । तै० २।३। .
८।१॥ , तस्मादु नथनुरात्रम्पत्याविच्छते । ऐ०३१ २२ ॥ , तस्मादिमा मानुष्यस्त्रियस्तिर इवैव पुथलो जिघत्सन्ति श०१॥
९।२॥ १२ ॥ ,, तस्मादु संवत्सरऽ एव स्त्री वा गौर्वा वडवा वा विजायते । श०
११ । १ । ६।२॥ , अनृत स्त्री शुद्धः श्वा कृष्णः शकुनिस्तानि न प्रेक्षेत । श०
१४।१।१।३१ ॥ , तस्मादप्येतर्हि मोघसहिता एव योषाः । श०३।२।४।६॥ , तस्माद्य एव नृत्यति यो गायति तस्मिन्नेवैताः ( योषाः) निमिश्ल
तमा इव । श०३।२।४।६॥ ,, कर्म वाऽ इन्द्रियं वीर्य तदेतदुत्सन्न स्त्रीषु । श० १२ । ७।
२॥११॥ ,, अवीर्या वै स्त्री । श० २।५।२ । ३६ ॥ ,, तद्वाऽ एतत्स्त्रीणां कर्म यदूर्णासूत्रम् । श० १२ । ७।२। ११ ॥ ,, पतयो ह्येव स्त्रिय प्रतिष्ठा । श०२।६।२।१४॥ ,, तस्मास्त्रियः पुसो ऽनुवानो भावुकाः । श० १३ । २।
२॥४॥ , न वै स्त्रियं नन्ति । श० ११ । ४।३।२॥ , यद् वृष्टया यदश्न्या तेन स्त्री। ष०१।२॥ , एतद्वै पल्यै व्रतोपनयनम् (यद्योक्त्रेण संनह्नम् )। तै० ३।३।
३।२॥
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स्फ्यिः
( ६१० ) बी यद्यपि बहाय इव खियः सार्धं यन्ति य एव तास्वपि कुमारक इव पुमान् भवति स एव तत्र प्रथम एत्यनूच्य इतराः । श०१।
३।१।९ ॥ , (मैत्रायणीसंहितायाम् ४ । ६।४ यत्स्थाली रिञ्चन्ति न
दारुमय तस्मात्पुमान्दायादः स्यदायादथ यत्स्थाली परास्यन्ति न दारुमयं तस्मात्रियं जातां परास्यन्ति न पुमार्थसमथ स्त्रिय एवातिरिच्यते ॥ काठकसंहितायाम् २७ । ९:-परा स्थालीमस्यन्ति न वायव्यं तस्मात्रियं जातां परास्यन्ति न पुमाँसम् ॥ यास्कीये निरुक्ते ३ । १ । ४.-तस्मात्पुमान्दायादो ऽदाया
स्त्रीति विज्ञायते तस्मास्त्रियं जातां परास्यन्ति न पुमांसमितिच) ,, न वै स्त्रैण सख्यमस्ति (न वै बैणानि सख्यानि सन्ति ।
ऋ० १० । ९५ । १५)। श० ११ । ।।१।६॥ , वरुण्यं वा एतत्खी करोति यदन्यस्य सत्यन्येन चरति । श०२।
५।२।२० ॥ ,, (मैत्रायणीसंहितायाम्-१ । १० । ११ अनृतं स्यनृतं वा
एषा करोति या पत्युः क्रीता सत्यथान्यैश्चरति ।) , ('जाया', 'पत्नी', 'योषा' इत्येतानपि शब्दान् पश्यत् ) स्थाणुः यूपं स्थाणुः । श०३।६।२।५॥ स्था की पत्नी स्थाली । तै०२।१।३।१॥ स्थितम् अन्तो वै स्थितम् । ऐ० ५। १३, २० ॥ स्नुषा तद्यथैवादः स्नुषा श्वशुरालजमाना निलीयमानैति। ऐ० ३॥२२॥ स्पराणि ( अहानि ) स्परैवै देवा आदित्यं सुवर्ग लोकमस्पारवन् यद
स्पारयन् तत्स्पराणा स्परत्वम् । तै० १ । २।४।३॥ रुपयः खादिर स्फयः। श०३।६।२।१२॥ ,, तस्य (चतुर्द्धा विभक्तस्य वज्रस्य ) स्फयस्तृतीयं (तृतीयों
ऽशः) वा यावा । श०१।२।४।१॥ , वज्रो वै स्फयः । श० १।२।५।२० ॥३।३।१।५॥
५।४।४।१५ ॥ तै०१।७।१०।५॥३।२९।१०" ३।२।१०।१॥
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( ६२१ )
मुकः । स्फ्यः स यत्स्फयमादत्ते । यथैव तदिन्द्रो वृत्राय वज्रमुदयच्छदेव
मेवैष एतं पाप्मने द्विषते भ्रातृव्याय वज्रमुधच्छति तस्माद्वै
स्फयमादत्ते । श० १।२।४ । ३ ॥ स्योनः स्योन : स्योनमिति शिवः शिवमित्येवैतदाह । श० ३।३।
३।१०॥ , स्योनामासीद सुषदामासीदेति शिवार शग्मामासीदेत्ययः
तदाह । श०५।४।४।४।। सर सुग्घृताची ( अप्सराः, यजु० १५ । १८ ) । श० ८।१।
१।१९॥ , स विश्वाचीरभिचष्टे घृताचीः ( यजु० १७ । ५९) इति
सचश्चैतवेदीश्वाह ( विश्वाची [ अप्सराः ] वेदिः। घृताची
[ अप्सराः ]म्रक् ) । श० ९ । २।३। १७ ॥ , योषा हि सक् । श० १ । ४।४।४॥ ,, योषा वै स्रग्वृषा स्रवः । श०१।३।१।९॥ , युजो ह वाऽ गते यशस्य यत्नुचौ । श० १ । ८ । ३ । २७ ॥ " बाहू वै मुचौ । श०७।४।१ । ३६ ॥ " वाग्वै सुक् । श० ६ । ३ । १ । ८॥ , गौः स्रचः । तै० ३।३ । ५।४॥ , यजमानः सूचः । तै० ३।३।६।३॥
इमे वै लोकाः सचः । तै० ३ । ३ । १ । २॥ ३ । ३ । । । २ ॥ अयमेव सुयो यो ऽयं ( वायुः ) पवते । श. १ ॥ ३ ॥ २ ॥ ५॥
प्राणः सुवः । श० ६ । ३ ॥ १ ॥ ८ ॥ , प्राणो वै स्रवः । तै०३।३।१।५॥
प्राण एव नवः । सो ऽयं प्राणः सर्वाण्यङ्गान्यनु सञ्चरति । तस्मादु सुवः सर्वा अनु सुचः सञ्चरति । श० १ । ३ ।
२॥३॥ ., वृषा हि सवः। श०१। ४.४ । ३ ॥ " योषा वै वग्वृषा सुवः । २०१।३।११९॥
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[स्वनः
( ६२२ ) सवः स पालाशे वा स्रवे वैकङ्कते वा। अपामार्गतण्डुलानादत्ते ।
श०५।२।४।१५॥ स्वः स्वरिति सामभ्यो ऽक्षरत् स्वः स्वर्गलोकोऽभवत् । ष०१॥५॥ .. (प्रजापतिः) स्वरित्येव सामवेदस्य रसमादत्त । सो ऽसौ
द्यौरभवत् । तस्य यो रसः प्राणेदत् स आदित्यो ऽभवद्रसस्य
रसः । जै० उ०१।१।५॥ ,, स सुवरिति व्याहरत् । स दिवमसृजत । अग्निष्टोममुक्थ्यमति
रात्रमृचः । तै० २ । २ । ४।३।। ,, असौ (यु-) लोकः स्वः। ऐ०६ । ७ ॥ ,, स्वरित्यसौ (धु-) लोकः । श० ८ । ७।४।५॥ , (यजु०१।११) यज्ञो वै स्वरहर्देवाः सूर्यः । श० १ । १ । २।२१ ॥ , देवा वै स्वः । श०१।९।३ । १४॥ , स्वरिति (प्रजापतिः) विशम् (अजनयत) 1 श०२।१।४।१२॥ ,, स्वरिति ( प्रजापतिः) पशून् (अजनयत) । श०२।२।४ । १३॥ ,, अन्तो वै स्वः । ऐ० ५ । २० ॥ स्वगाकारः संवत्सरः खगाकारः । तै० २।१।५।२॥ स्वजः (=उभयतःशिराः सर्प इति सायणः ) सहसः खजः ( अभवत् )!
ऐ०३ । ३६ ॥ स्वधा स्वधायै त्वेति रसाय त्वेत्येवैतदाह । श० ५।४।३। ७॥
, स्वधाकारो हि पितृणाम् । तै०१।६।९।५ ॥ ३।३।६। ४॥ , स्वधो वै पितॄणामन्नम् । श० १३ । ८ । १ ।। ४ ॥ , स्वधाकारं पितरः ( उपजीवन्ति ) । श० १४।८।९।१॥ ., स्वधा वै शरद् । श० १३ । ८ । १ । ४॥ स्वप्नः तौ (यो ऽयं दक्षिणे ऽक्षन्पुरुषो यश्च सव्ये ऽक्षन्पुरुषः) हृदय
स्याकाशं प्रत्यवेत्य । मिथुनीभवतस्तो यदा मिथुनस्यान्तं
गच्छतो ऽथ हैतत्पुरुषः स्वपिति । श० १० । ५ ! २ ! ११ ॥ ,, तस्मादु ह स्वपन्तं धुरेव न बोधयेत् । श० १० । ५ । २ ॥१२॥
तं ( सुप्तं ) नायतं ( =न सहसा भृशं) बोधयेदित्य हुर्भिष. ज्य हास्मै भवति यमेष (आत्मा) न प्रतिपद्यते । श० १४।७।१।१५॥
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( ६२३ )
स्वरसामानः] स्वमः तस्मादु हैतत्सुषुपुषः श्लेष्मणमिव मुखं भवति । श० १०। ५।
२॥१२॥ , अजगरं स्वप्नः (गच्छति)। गो० पू० २।२॥ ( 'स्वाप्यय'
शब्दमपि पश्यत) स्वयमातृष्णा (इष्टका) प्राणो वै स्वयमातृण्णा प्राणो वितत्स्वयमात्मन
आतृन्ते । श०७।४।२।२॥ प्राणो वै खयमातृण्णा । श० ८।७।२।११ ॥
अन्नं वै स्वयमातृण्णा । श०७। ४।२। १ ।। , इयं (पृथिवी) वै खयमातृण्णा। श०७।४।२।१॥
, इमे वै लोकाः स्वयमातृण्णाः । श०७।४।२।८ ॥ स्वरः स यदाह स्वरो ऽसीति सोमं वा एतदाहैष ह वै सूर्यो भूत्वा
ऽमुष्मिल्लोके स्वरति तद्यत्स्वरति तस्मात्स्वरस्तत्स्वरस्य स्वर
त्वम् । गो० पू० ५ । १४ ।। ,, य आदित्यस्स्वर एव सः। जै० उ०३ । ३३ । १ ॥ ,, प्राणः स्वरः । तां०७।१।१०॥ १७ । १२ । २ ।। ,, प्राणो वै स्वरः । तां० २४ । ११ । ९॥ , पशवः स्वरः । गो० उ.३।२२॥४॥२॥ ,, पशवो वै स्वरः। ऐ०३।२४ ॥ ,, श्रीवै स्वरः । श० ११ । ४।२।१० ॥ ,. प्रजापतिः स्वरः । ष.३।७॥ ,, यथा स्वरेण सर्वाणि व्यञ्जनानि व्याप्तान्यव सर्वान्कामानामोति ___ यश्चैवं वेद । संहितो० ख०२॥ ,, तस्माद्यने स्वरवन्तं दिदृक्षन्तऽ एव । श०१४।४।१।२७॥ ,, अनन्तो वै स्वरः । तां० १७ । १२ । ३॥ स्वरसामानः ( महर्विशेषाः ) इमान्दै लोकान्स्वरसामभिरस्पृण्वंस्तत्स्व
रसानां स्वरसामत्वम् । ऐ०४।१९ ।।.. एतैर्ह वा अत्रय आदित्यं तमसो ऽपस्पृण्वत तद्यदपस्पृ. ण्वत तस्मात्स्वरसामानः । कौ० २४ । ३ ॥ स्वर्भानुर्वा आसुर आदित्यन्तमसा ऽविध्यत्तं देवाः स्वरैरस्पृण्वन्यत् स्वरसामानो भवन्त्यादित्यस्य स्पृत्यै । तां० ४।५।२॥
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[स्वर्गो लोकः ( ६२४ ) स्वरसामानः प्रजापतिः स्वरसामानः। कौ० २४ । ४, ५, ९ ॥
इमे वै लोकाः स्वरसामानः । ऐ०४ । १९॥ स्वो वै लोकः स्वरसाम । कौ०१२ । ५ ॥ आपः स्वरसामानः । कौ०२४।४॥' अथ यत् स्वरसान उपयन्ति । अप एव देवतां यजन्ते । श० १२ । १।३। १३ ।। प्राणाः स्वरसामानः । तां० २४ । १४।४ ॥ २५ । १।८॥ त्रयः स्वरसामानो विश्वजिन्महाव्रतश्चातिरात्रश्च । १०
३ | १२॥ स्वराट् ( यजु० १३ । २४ ) असौ वै ( यु-) लोकः स्वराट् । श० ७ ।
४१२ । २२ ॥ ,, स्वराड्वैतच्छन्दो यत्किञ्च चतुस्त्रिशदक्षरम् । कौ० १७॥१॥ ,, सो ऽश्वमेधेनेष्ट्वा स्वराडिति नामाधत्त । गो० पू० ५। ८ ॥ स्वरुः एतस्माद् (यूपात् ) वाऽ एषो (शकलः ) ऽपछिद्यते तस्यै
तत्स्वमेवारुर्भवति तस्मात्स्वरुर्नाम | श०३।७। १ । २४ ।। स्वर्गो लोकः उपरीव सुवर्गो लोकः । ते० ३ ।२ । १ । ५ ॥ ३ । २।
२।६॥३।२।३।१२॥ , परोवा अस्माल्लोकात्स्वर्गो लोकः। ऐ० ६ । २०॥ गो० उ०
सदिव हि सुवर्गों लोकः । तै०१।६।३।६॥ सकृद्धीतो ऽसौ (स्वर्गः) पराङ् लोकः। तां०६।८।१५॥ पराङ् हीतो ऽसौ (स्वर्गः ) लोकः । तां० ९ । ८ । ६ ॥ पराङिव वै स्वर्गों लोकः । श०१३ । १।३।३॥ प्रतिकूलभिव हीतः स्वर्गो लोकः । तां० ६ । ७ । १०॥ एकविशो वा इतः स्वर्गों लोकः । ते० ३।१२।५।७॥ सहस्रसमितो वै स्वर्गों लोकः । श० १३ । १।३।१॥ सहस्त्रसम्मितः सुवर्गो लोकः। तै०३ । ९।४।६॥३। १२ । ५ ॥८॥ याबद्वै सहस्रनाव उत्तराधरा इत्याहुस्तावदस्मात् लोकात् स्वर्गों लोक इति तस्मादाहुः सहस्रयाजी वा इमान् लो. कान् प्राप्नोति । तां० १६ । ८ । ६ ॥
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( ६२५ ) स्वों लोकःj स्वों लोकः सहस्रावीने वा इतः स्वर्गो लोकः । ऐ० २ । १७ ॥ , चतुश्चत्वारिशदाश्वीनानि सरस्वत्या विनशनात् प्लक्षः
प्रास्रवणस्तावदितः स्वर्गो लोकः सरस्वतीसम्मितेनाध्वना स्वर्ग लोकं यन्ति । तां० २५ । १० । १६॥ अलम्मितः ( =अपरिमितः) ह्यसौ ( स्वर्गो) लोकः। तां०६।८।१४ ॥ अपरिमितो वै स्वर्गों लोकः । ऐ० ६ । २३ । गो० उ० ६ । ५॥ तै० ३। ८ । ६।२। अनन्तो ऽसौ ( स्वर्गः ) लोकः। तां० १७ । १२॥ ३॥ साम्राज्यं वै स्वनी लोकः । तां०४१६ । २४ ॥ स्वर्गो लोकः सरस्वान् । तां० १६ । ५ । १५ ॥ स्तोमा वै परमाः स्वर्गा लोकाः । ऐ० ४ । १८ ॥ स्तोमा वै त्रयः स्वर्गा लोकाः । ऐ० ४ । १८ ॥ स्वों वै लोकः सूर्यो ज्योतिरुत्तमम् (यजु. २० । २१)। श० १२।६।२।८॥ एष ( आदित्यः) स्वर्गों लोकः । ते० ३। ८ । १०॥ ३ ॥ ३।८।१७।२॥३।८।२०।२॥ अहः स्वर्गः । श० १३ । २। १ । ६ ॥ अहवै स्वर्गों लोकः । ऐ०५।२४ ॥ स्वर्गों वै लोको बध्नस्य विष्टपम् । ऐ०४॥४॥ स्वर्गों वै लोको नाकः ( यजु० १२ । २ ॥)। श०६। ३।३।१४ ॥६। ७ । २।४॥ दिशो वै स नाकः स्वर्गो लोकः । श० ८ । ६ । १ । ४॥ स्वर्गो हि लोको दिशः । श०८।१।२।४॥ खो वे लोकः सधस्थः ( यजु० १८ । ५९) । श०९।
अथ यत्परं भाः ( सूर्यास्य) प्रजापतिर्वा स वर्गों व लोकः । श० १।९।३।१०॥ सुवर्गो वै लोको बृहद्भाः । ते० ३।३।७।९॥ सुवों पै लोको महः । तै०३।८।१८।५॥
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[ स्वर्गो लोकः ( १२६ ) स्वगो लोकः असौ वै (स्वर्गो) लोको महाकसि । तस्यादित्या
अधिपतयः । तै० ३।८।१८ । २॥ , अग्निः स्वर्गस्य लोकस्याधिपतिः । ऐ०३ । ४२॥
एष वै स्वर्गों लोको यत्र पशुई संझपयन्ति । श० १३ । ५।२।२॥ स्वर्गो वै लोक आहवनीयः । १०१।५ ॥ तै० १।६। ३।६॥ ओमिति वै स्वर्गो लोकः। ऐ०५ । ३२ ॥ स्वरिति सामभ्यो ऽक्षरत् स्वः स्वर्गलोको ऽभवत् । ष० १ ५ ॥ स्वर्गो लोकः सामवेदः । ष० १।५। इदं वा वामदेव्यं यजमानलोको ऽमृतलोकः स्वर्गो लोकः । ऐ०३।४६॥ स्वर्गो वै लोको यज्ञायशियम् (साम ) । श०९।४। ४।१०॥ बृहदै स्वर्गों लोकः। तै० १। २।२।४॥ तां० ।। १। ३१॥ बृहता ( साम्ना ) वै देवा स्वर्ग लोकमायन् । तां० १८ । २॥८॥ स्वर्गों लोको बृहत् । तां० १६ । ५ । १५ ॥ बाहतो वा असौ (स्वर्गः ) लोकः । तै०१।१।।२॥ बाईतो वै स्वर्गों लोकः । गो० पू०४।१२॥ बाहताः स्वर्गा लोकाः। ऐ०७ ॥ १॥ बृहत्यामधि स्वर्गो लोकः प्रतिष्ठितः। श०१३॥ ५ ॥४॥२८॥ बृहत्या वै देवाः स्वर्ग लोकमावन् । तां०१६ । १२ । ७॥ वृहती स्वर्गों लोकः । श० १०।५।४।६॥ स्वर्गों वै लोकः स्वरसाम । कौ० १२ । ५॥ स्वर्गो वै लोकः षष्ठमहः। ऐ०६। २६, ३६॥ गो०७०
६। १६॥ " स्वर्गः एव लोकः षष्ठी चितिः।०८।७।४।१७॥
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( ६२७ )
स्वर्गो लोकः एकवृद्वै स्वर्गो लोकः । श० १३ । २ । १ । ५ ॥
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स्वर्गो लोकः ]
वाजो वै स्वर्गो लोकः । तां० १८ । ७ । १२ ॥ गो० उ० ५ ॥ ८ ॥
तस्मात् ( भूलोकात् ) असावेव (स्वर्गो) लोकः श्रेयान् ( अथर्व ० ७ । ९ । १ ) । ऐ० १ । १३ ।।
स्वर्गो वै लोको भयम् । श० १२ । ८ । १ । २२ ॥
अमृत सुवर्गो लोकः । तै० १ । ३ । ७ । ७ ॥
अमृतमिव हि स्वर्गो लोकः । तै०१ । ३ । ७ । ५ ॥ स्वर्ग लोको देवो देवता भवति । गो० पू० ४ ८ ॥ स्वर्गो वै लोको दूरोहणम् । ऐ० ४ । २०, २१ ॥ स्वर्गस्य हैष लोकस्य रोहो यन्निविद् । ऐ० ३ । १६ ॥ स्वर्गो वै लोको रोहः ( यजु० १३ । ५१ ) । श० ७ । ५ । २ । ३६ ॥
संवत्सरः सुवर्गो लोकः । तै० २ । २ । ३ । ६ ॥ ३ | ६ | २ । २ ॥ श० ८ | ४ | १ | २४ ॥ ८|६ । १ । ४ ॥ तां० १८ । २ । ४ ॥
मध्ये ह संवत्सरस्य स्वर्गो लोकः । श० ६ । ७ । ४ । ११ ॥ तस्य ( संवत्सरस्य ) वसन्त एव द्वार हेमन्तो द्वारं तं वा एत संवत्सर स्वर्ग लोकं प्रपद्यते । श० १ । ६ । १ । १९ ॥
ता वा एताः पञ्च ( इष्टयः ) स्वर्गस्य लोकस्य द्वारः । अपाद्या अनुवित्तयो नाम । तपः प्रथमां रक्षति । श्रद्धा द्वितीयाम् । सत्यं तृतीयाम् । मनश्चतुर्थीम् । चरणं पश्चमीम् । तै० ३ । १२ । ४ । ७ ॥
ता वा एताः सप्त ( इष्टयः ) स्वर्गस्य लोकस्य द्वारः । दिवः श्येनयो ऽनुवित्तयो नाम । आशा प्रथमां रक्षति । कामो द्वितीयां ब्रह्म तृतीयाम् । यशश्चतुर्थीम् | आपः पञ्चमीम् । अग्निर्बलिमान् षष्टीम् । अनुवित्तिः सप्तमीम् । तै० ३ । १२ । २ । ९ ॥
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[स्वर्गो लोकः ( ६२८ ) स्वर्गो लोकः एतस्या ह (उदीच्यां प्राच्यां ) दिशि स्वर्गस्थ लोकस्य
द्वारम् । श०६।६।२।४॥ वर्गो वै लोको यक्षः । कौ० १४ । १॥ वर्गकामो यजेत । तां०१६। १५ । ५॥ तथा ह यजमानः सर्वमायुरसिंल्लोक एत्यामोत्यमृतत्वमक्षितिं स्वर्ग लोके । कौ० १३ । ५, ६ ॥ १४ ॥ ४॥ ऋतेनैवैन स्वर्ग लोकं गमयन्ति । तां० १८ । ३।९॥ छन्दोभिर्हि स्वर्ग लोकं गच्छन्ति । श० ६।५।४।७॥ सर्व छन्दोभिरिष्टा देवाः स्वर्ग लोकमजयन् । ऐ०१।९॥ छन्दोभिर्वै देवा आदित्य स्वर्ग लोकमहरन । तां० १२ ।
छन्दोभिर्हि देवाः स्वर्ग लोकं समाश्नुवत । श० ३ । ९॥ ३ । १०॥ देवा वै छन्दास्यब्रुवन् युष्माभिः स्वर्ग लोकमयामेति । तां०७।४।२॥ साध्या वै नाम देवा आसस्ते ऽवछिद्य तृतीयसवनम्माध्यन्दिनेन सवनेन सह स्वर्ग लोकमायन् । तां०८।३। ५॥८।४।९॥ देवा वा असुरैर्वजिग्याना ऊर्ध्वाः स्वर्ग लोकमायन् । ऐ०३ ॥ ४२ ॥ देवा वै यशेन श्रमेण तपसाहुतिभिः स्वर्ग लोकमजयन् । ऐ०२।१३॥ ये हि जनाः पुण्यकृतः स्वर्ग लोकं यन्ति तेषामेतानि न. क्षत्राणि ज्योतीपि । श०६।।४।८॥ अक्षैर्यया ( स्वर्ग लोकं ) ऋषयो ऽनुप्राजानन् । तां० ८ । ५। ७॥ पृष्ठेवै देवाः स्वर्ग लोकमस्पृक्षन् । कौ० २४ । ८ ॥ पृष्ठानि वा असृज्यन्त तैर्देवाः स्वर्ग लोकमायन् । तांक . ७ । ७।१७॥ स्वर्गो लोकः पृष्ठानि । तां०१६ १५॥ ६॥
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। ६२९ ) स्वर्गो लोकः] स्वर्गो कोकः स्वर्या वा एते स्तोमा यत् ज्योतिर्भवति ( ज्योतिः=
ज्योतिष्टोमः) । तां० १६ । ३ । ७ ॥ मधुनामुगिन् (स्वर्गे) लोक उपतिष्ठते । तां० १३ । ४। १०॥ मध्वमुष्य (स्वर्गस्य लोकस्य रूपम् ) । श०७।५।१ । ३॥ ( देवाः ) सोमैः ( सोमयागैः) अमुं (स्वर्ग लोकमभ्य. जयन्)। तां० १७ । १३ । १८ ॥ १८।२।१४॥ स्वर्गों वै लोको माध्यन्दिनं सवनम् । गो० उ०३।१७ ॥ एतद्वै यज्ञस्य स्वयं यन्माध्यन्दिन सवनम् ।तां०७ :
अवस्तात्प्रपदनो ह स्वर्गो लोकः। श० ८।६।१।२३॥ एतेन (पारुच्छेपेन रोहिताख्यन छन्दसा) वा इन्द्रः सप्त स्वर्गाल्लोकानरोहत् । ऐ० ५। १०॥ नव स्वर्गा लोकाः । ऐ०४।१६ ॥ १।२।२।१॥ दश स्वर्गा लोकाः। गो० उ०६।२॥ दश पुरुष स्वर्गनरकाणि तान्येनं स्वर्ग गतानि स्वर्ग गमयन्ति नरकं गतानि नरकं गमयन्ति । जै० उ०४। २५ !६॥ इयं (पृथिवी) वै स्वर्गस्य लोकस्य प्रतिष्टा । गो० उ० ६।२॥ न चै मनुष्यः स्वर्ग लोकमञ्जसा वेदाभ्यो वै स्वर्ग लोकमजसा वेद । श० १३ । २।३।१॥ असमायी वैस्वर्गो लोकः कश्चिद्वै स्वर्गे लोके समेतीति। ऐ० ६ । २६, ३६ ।। असमाये ( ? असमायी) वै स्वर्गो लोकः कश्चिद्वै स्वर्ग लोके शमयतीति ( ? समेतीति )। गो० उ० ६ । १६ ॥ य एवं वेद सशरीर एव स्वर्ग लोकमेति । तै० ३ । ११ । ७।३॥ अथ य एवमेतमुक्थस्याऽऽत्मानमात्मन्प्रतिष्ठितं वेद स हैवाऽमुष्मिल्लोके साङ्गस्ततनुस्सस्सम्भवति । जै० उ०
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[ स्वाध्यायः
( ६३० )
स्वर्गो लोकः साध्या वै नाम देवेभ्यो देवाः पूर्वा आसस्त एतत्
( शतसंवत्सरं ) सत्रायणमुप (यस्तेनार्भवस्ते सगवः संपुरुषाः सर्व एव सह स्वर्ग लोकमायन् । तां० २५ ।
८।२॥
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४।४ ॥
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सुवर्गों वै लोकः काष्टा । तै० १ । ३ । ३ । ५ ॥ स्वर्णिधनम् देवक्षेत्रं वा एते ऽभ्यारोहन्ति ये स्वर्णिधनमुपयन्ति ।
०५।७।८ ॥
स्वर्डक्· असौ (सूर्यः) वाव स्वर्ड तेन सूर्य नातिशंसति । ऐ०४. १० । स्वमनुः, स्वर्भानुर्ह वाऽ आसुरः । सूर्य तमसा विव्याध । श० ५ ।
३ ।२।२ ॥
स्वर्भानुर्वा आसुर आदित्यन्तमसा ऽविध्यत् । तां० ४ ।
५।२ ॥
स्वर्भानुव आसुरिः सूय्यैन्तमसा विध्यत् । गो० उ० ३ १९ ॥ स्वर्विद् ( यजु• १७ । १२ ) अयमग्निः स्वर्विद् । श० ९ । २ । १ । ८ ॥ स्वाध्यायः अथातः स्वाध्यायप्रशसा । प्रिये स्वाध्याय प्रवचने भवतो युक्तमना भवत्यपराधीनो ऽहरहरर्थान्त्साधयते सुख स्वपिति परमचिकित्सक आत्मनो भवतीन्द्रियसंयमश्चैकारामता व प्रज्ञा वृद्धिर्यशो लोकपक्तिः । श०११। ५ ॥ ७ ॥ १ ॥
यदि ह वा अध्यभ्यक्तः । अलंकृतः सुहितः सुखे शयने शयानः स्वाध्यायमधीतऽ आ हैव स नखाग्रेभ्यस्तप्यते य एवं विद्वान्त्स्वाध्यायमधीते (मनुस्मृतौ २ । १६७:आ हैव स नखाग्रेभ्यः परमं तप्यते तपः । यः स्रग्व्यपि
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ते (देवाः ) एनं (ऋचामध्ये तारं ) तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण प्राणेन रेतला सर्वात्मना सर्वाभिः पुण्याभिः सम्पद्भिर्घृतकुल्या मधुकुल्याः पितॄन्त्स्वधा अभिवदन्ति (पश्यत - अथर्व० ४ । ३४ । ६ । श० १९ । ५ । ६ । ७ ॥ दुह वा एवंवित्तप (तपस्) तप्यत आ मैथुनात्सर्व हास्य तत्स्वर्गे लोकमभिसम्भवति । श० १० । ४ ।
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( ६३१ )
स्वाहाकारः ] द्विजो ऽधीते स्वाध्यायं शक्तितो ऽन्वहम् ॥ ) । श० ११ ।
५।७।४ ॥
स्वाध्यायः स य एवं विद्वाननुशासनानि विद्या वाकवाक्यमितिहासपुराणं गाथा नाराशंसी रित्यहरहः स्वाध्यायमधीते मध्वाहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति । श० ११ : ५ । ६ ॥ ८ ॥ एव देव तदब्राह्मणो भवति यदह्नः स्वाध्यायं नाधीते तस्मात्स्वाध्यायो ऽध्येतव्यस्तस्मादप्यृचं वा यजुर्वा साम वा गाथां वा कुंत्र्यां वाभिव्याहरेद् व्रतस्याव्यवच्छेदाय । श० ११ । ५ । ७ । १० ॥ ( 'ब्रह्मयज्ञ 'शब्दमपि पश्यत ) ए (यो ऽयं दक्षिणे ऽक्षन्पुरुषां मृत्युनामा सः ) उ एव प्राणः । एष हीमाः सर्वाः प्रजाः प्रणयति तस्यैते प्राणाः स्वाः स यदा स्वपित्यथैनमेते प्राणाः स्वा अपियन्ति तस्मात्स्वाप्ययः स्वाप्ययो ह वै तथं स्वप्न इत्याचक्षते परोऽक्षम् । श० १० | ५ | २ : १४ ॥
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स्वाप्ययः
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स्वाराज्यम् अथैनं ( इन्द्रं ) प्रतीच्यां दिश्यादित्या देवाः • अभ्यषिञ्चन् . स्वाराज्याय । ऐ० ८ । १४ ॥
तस्मादेतस्यां प्रतीच्यां दिशि ये के च नीच्यानां राजानो ये Sपाच्यानां स्वाराज्यायैव ते ऽभिषिच्यन्ते स्वराडित्येनानभिषिक्तानाचक्षते । ऐ० ८ । १४ ॥
यशसो वा एष वनस्पतिरजायत यत्लक्षः स्वाराज्यं व ह वा एतद्वैराज्यं च वनस्पतीनाम् । ऐ० ७ । ३२ ॥
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...
स्वावश्यम् अथैनं (इन्द्र) ऊर्ध्वायां दिशि मरुतश्चाङ्गिरसश्च देवाः . अभ्यषिञ्चन् पारमेष्ठयाय माहाराज्यायाss धिपत्याय स्वावश्यायाऽऽतिष्ठाय । ऐ० ८ । १४ ॥
स्वाशिरः प्राणा वै स्वाशिरः । तां० १४ । ११ । ६ ॥
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स्वाशिरामर्क : (साम विशेषः) अनं वा अर्को ऽन्नाद्यस्यावरुध्यै प्राणा वै स्वाशिरः प्राणानामवरुध्यै । तां० १४ । ११ । ६ ॥
स्वाहाकारः स प्रजापतिर्विदांचकार वो वै मा महिमाहेति स स्वाहे स्वा जुहोतस्मादु स्वाहेत्येव हूयते । श० ११२ । ४ ६ ॥
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[स्विष्टकृत्
( ६३२ ) स्वाहाकारः हेमन्तो वा ऋतूना स्वाहाकारो हेमन्तो हीमाः प्रजाः
स्वं वशमुपनयते । श०१।५।४।५॥ स्वाहा वै सत्यसम्भूता ब्रह्मणो दुहिता ब्रह्मप्रकृता ला. तव्यसगोत्रात्रीण्यक्षराण्येकं पदं त्रयो वर्णाः शुक्लः पन्नः
सुवर्ण इति । ष०४।७॥ ___ स्वाहावै सत्यसम्भूता ब्रह्मणा प्रकृता लामगायनसगोत्रा
द्वे अक्षरे एकं पदं त्रयश्च वर्णाः शुक्ल: पद्मः सुवर्ण इति। गो० पू० ३। १६ ॥ एष वै स्वाहाकारो य एष (सूर्यः) तपति । श० १४ ।
अन्न हि स्वाहाकारः । श०६।६।३।१७ ॥ अन्नं वै स्वाहाकारः। श०९।१।१ । १३॥ तस्यै (वाचे ) द्वौ स्तनौ देवा उपजीवन्ति स्वाहाकारं च वषट्कारं च । श० १४ । ८ । ९।१॥ अनिरुक्तो वै स्वाहाकारः । श०२।२।१।३॥ अहुतमिवैतादस्वाहाकृतम् । श०४।५ । २ । १७ ॥ यज्ञो वै स्वाहाकारः। श०३।१। ३ । २७ ॥
अन्तो वै यज्ञस्य स्वाहाकारः । श०१।५।३। १३ ॥ , अन्तो वै स्वाहाकारः । ऐ०५ । २०॥ स्वाहाकृतयः प्राणा वै स्वाहाकृतयः । कौ०१०।५॥
, प्रतिष्ठा वै स्वाहाकृतयः। ऐ० २ ॥ ४॥ स्वाहाकृतिमान् स्वाहाकृतिमन्तं यजति हेमन्तमेव हेमन्ते वा इदं सर्व
स्वाहाकृतम् । कौ० ३।४॥ स्विष्टकृत् (अग्निः) तदेभ्यः (देवेभ्यो ऽग्निः) खिष्टमकरोत्तस्मात्
( अग्नये) खिष्टकृतऽ इति (क्रियते)। श०११ ७.३॥ ६॥ अग्निर्हि विष्टकृत् । श० १ । । । ३। २३ ॥ अग्निवै स्विष्टकृत् । कौ० १०॥५॥ रुद्रःस्विष्टकृत् । श० १३ । ३।४।३॥
रुद्रो वै स्विष्टकृत् । कौ० ३।४,६॥ .. रुद्रियः (=रुद्रदेवत्यः) स्विष्टकृत् (यागः) । श०१७
३ । २१॥
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( ६३३ )
स्विष्टकृत् क्षत्रं वै स्विष्टकृत् । श० १२ । ८ । ३ । १९ ।।
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स्विष्टम् यद्वै यशस्यान्यूनातिरिक्तं तत्स्विष्टम् । श० ११ । २ । ३ । ९॥ स्वेदः तद्यदब्रवीन्महद्वै यज्ञं सुवेदमविदामह इति तस्मात्सुवेदी ऽभवन्तं वा एतं सुवेदं सन्तं स्वेद इत्याचक्षते । गो० पू० ११ ॥
(ह)
हंसः शुचिषद् (ऋ० ४ । ४० । ५ ) एष ( आदित्यः ) व हंसः शुचि. षद् | ऐ० ४ | २० ॥
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तपः स्विष्टकृत् । श० ११ । २ । ७ १ १८ ॥ अयमेवावाङ् प्राणः स्विष्टकृत् । श० ११ । १ । ६ । ३० ॥ तृतीयसवनं वै स्विष्टकृत् । श० १ । ७ । ३ । १६ ॥
वास्तु स्विष्टकृत् । श० १ । ७ । ३ । १८ ॥
( यजु० १२ । १४ ) असौ वाऽ आदित्यो हंसः शुांचषत् । श० ६ । ७ । ३ । ११ ॥
हन्तकारः हन्तकारं मनुष्याः ( उपजीवन्ति ) । श० १४ | ८ | ६ | १॥ हन्तेति चन्द्रमा ओमित्यादित्यः । जै० उ० ३ । ६ । २ ॥
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हम ( हे ऽश्व त्वं ) हयो ऽसि । तां० १ । ७ । १ ॥
यो भूत्वा देवानवत् । श० १० । ६ । ४ । १ ॥
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हरः ( यजु० १३ | ४१ ) ( = अर्चिः ) परिवृग्धि हरला मामिमस्था इति पर्येनं वृङ्ग्ध्यर्चिषा मैनं हि सीरित्येतत् । ३० ७ । ५ । २ । १७ ॥
वीर्य वै हर इन्द्रो ऽसुराणार्थं सपत्नानां समवृङ्क । श०४।
हरिः ]
वास्तु वाऽ एतद्यज्ञस्य यत्स्विष्टकृत् । श० १। ७ । ३ । १७ ॥ प्रतिष्ठा वै स्विष्टकृत् । ऐ० २ । १० ॥ कौ० ३ ॥ ८ ॥
एषा (उत्तरा= उदीची) हि दिक् स्विष्टकृतः । श० २ । ३ । १ । २३ ॥
15
५ । ३।४ ॥
हरिः प्राणो वै हरिः स हि हरति । कौ० १७ । १ ॥
( = पापहर्ता ( मृत्युः ) इति सायणभाष्ये तै० ३ | १० | ८ | १॥] (यजु० ३८ । २१ ) एष वै वृषा हरिर्य एष (आदित्यः ) तपहि । श० १४ । ३ । १ । २६ ॥
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[हषिर्धानम् ( ६३४ ) हरिः (ऋ०६ । ४७ । १८) युक्ता ह्यस्य (इन्द्रस्य ) हरयश्शताद
शेति सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः। ते ऽस्य युक्तास्तैरिदं सर्व हरति । तद्यदेतैरिदं सर्वं हरति । तस्माधरयः ( रश्मयः)।
जै० उ०१।४४।५॥ हरिकेशाः (यजु. १५। १५) यद्धरिकेश इत्याह हरिरिवं पग्निः ।
श०८।६।१। १६ ।। . हरिणः ( यजु० २३ । ३०) राष्ट्र, हरिणः । श० १३।२।९।८॥ हरिणी ( सूची ) ऊ; हरिण्यः ( सूच्यः ) । तै०३। ९।६ ॥ ५॥
श० १३।२।१०।३॥ , हरिणी ( =सुवर्णमयी) द्यौः। गो० उ० २।७ ॥ ,, असौ (द्यौः) हरिणी । तै०१।८।९।१॥ , दिवो । रूपं ) हरिण्यः (सूच्यः)।०३।६।६।५॥ , हरिणीव हि द्यौः। श०१४।१।३।२६ । , विह वै हरिणी । तै० ३।९। ७।२॥ हरितः दिशो वै हरितः । श०२।५।१।५॥ हरिश्रियः पशवो वै हरिश्रियः । तां० १५।३।१०॥ हरिधीनिधनम् ( साम् ) पशूनामवरुष्य, श्रियश्च हरश्वोपैति तुष्टुवानः।
तां०१५। ३।१०॥ हरी (इन्द्रस्य ) ऋक्सामे वैः हरी । श०४।४।३।६॥ " ऋक्सामे का इन्द्रस्य हरी । ऐ०२॥ २४॥ तै०१।६।३।९॥ , पूर्वपक्षापरपक्षौ वा इन्द्रस्य हरी ताभ्याछ ही सर्व हरति ।
ष०१।१॥ , होर्धानाः । श०४।२।५ । २२॥ हरी विपक्षसी ( यजु० २३ । ६.) इमे ("द्यावापृथिव्यो" इति सायणः)
. वै हरी विपक्षसा। तै०३।९।४।२॥ हवि अक्तहि हविः । श० २।६।२।६॥ , हवी७षि ह वा आत्मा यज्ञस्य । १।६।३। ३६ ॥ , जीवं वै देवाना हविरमृतममृतानाम् । श०१।२।१ । २०॥ ., मासा हवी७षि । श० ११।२।७।३॥ हविर्धानम् अथ यदस्मिन्सोमो भवति हविर्वे देवाना सोमस्तस्मा.
विर्थानं माम। श० ३।५ । ३।२॥ , वैष्णव हि हविर्धानम् । १० ।। १५ ॥
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( ६३५ )
[ विध्यः
विर्भावम् एतद्वै देवानां निष्केवल्यं यद्धविर्धानम् । श० ३ । ६ । ६ ।
२३ ॥
शिर एवास्य ( यशस्य ) हविर्धानम् । श० ३ । ५ । ३ । २ ॥ शिरो वा एतद्यज्ञस्य यद्धविर्धाने । कौ० ११८ ॥ तस्य (पुरुषस्य ) शिर एव हविधीने । कौ० १७ ॥ ७ ॥
1
विधनम् । तै० २ । १ । ५ । १ ॥
११
39
"
धामापृथिवी वै देवानां हविधीने आस्ताम् । ऐ० १ । २९ ॥ वाक् च वै मनश्च हविर्धने । कौ० ९ । ३ ॥
अयं वै लोको दक्षिण हविधानम् । कौ० ९ ॥ ४॥
39
हविर्यज्ञः अकृत्स्नैव वा एषा देवयज्या यद्धविर्यशः । कौ० १० । ६॥ अकृत्स्ना वा एषा देवयज्या यद्धविर्यशः । गो० उ० २ । १७ ॥ अग्न्याधेयमग्निहोत्रं पौर्णमास्यमावास्ये । नवेष्टिश्वातुर्मा स्यानि पशुबन्धो ऽत्र सप्तम इत्येते इविर्यज्ञाः । गो० पू०
99
39
93
93
५ । २३ ॥
चत्वारो ह्येते इविर्यशस्वर्त्विजः । ब्रह्मा होताऽध्वर्युरनीत् । तै० ३ । ३ । ८ । ७-८॥
अथैषाज्याहुतिर्यद्धषिर्यशः । श० १ । ७ । २ । १० ॥
39
afadot] देवा इमं लोकमभ्यजयन् । तां० १७।१३ । १८ ॥ हविष्कृत् वाग्वै हविष्कृत् । श० १ । १ । ४ । ११ ॥
हविष्पक्तिः धानाः करंभः परिवापः पुरोडाशः पयस्येत्येष वै यशो हविष्पंक्तिः । ऐ० २ | २४ ॥
तानि वै पञ्च हवींषि भवन्ति दधि धानाः सकषः पुरोडाशः पयस्येति । कौ० १३ । २ ॥
1
अथ वै हविष्पङ्क्तिः प्राण एव । कौ० १३ ।२ ॥
पशवो वै हविष्पङ्क्तिः । कौ० १३ । २ ॥
.
विष्पात्राणि अर्धमासा हविष्यात्राणि । श० ११ । २ । ७ । ४ ॥
इविष्प्रन्तः (५९० ३ । २७ । १) पशवो वै हविष्मन्तः । श ० १ । ४
१ ।९॥
"
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39
3:
अर्द्धमासा हविष्मन्तः । गो० पू० ५ | २३ ॥
1
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हविष्यः यो व ऊर्मिविष्य इति यो ऊर्मियंशिय इस्तदा । श
। ९ । ३ । २५ ॥
4
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[हाविष्कृतम् । ६३६ ) हम्यवातिः (ऋ० ६ । १६ । १०) यजमानो वै हव्यवातिः । श० १।
४।१।२४॥ हव्यवाद वायुर्वे तूर्णिहव्यवासायुर्देवेभ्यो हव्यं वहति । ऐ०२ । ३४॥
, एष हि हव्यवाडयदग्निः। श०१।४।१। ३९॥ हव्यवाहनः एष हि हव्यवाहनो यदग्निः । श०१।४।१। ३९ ॥ रस्तः हस्तो वितस्तिः । श० १० १२।२।८॥ हस्तः (नक्षत्रम् ) देवस्य सवितुर्हस्तः । तै० १ । ५। १ । ३॥ " दातारमध सविता विदेययो नो हस्ताय प्रसुवाति यक्षम् !
तै०३।१।१।६॥ , हस्त एवास्य (नक्षत्रियस्य प्रजापतेः) हस्तः । तै० १।५।
२॥२॥ स्ती (देवा मादित्याः ) तं (मार्तण्डं) विचक्रर्यथायं पुरुषो विक
तस्तस्य यानि मासानि संकृत्य संन्यासुस्ततो हस्ती समभंवत्तस्मादाहुन हस्तिनं प्रतिगृडीयात्पुरुषाजानो हि हस्तीति ।
श०३।१।३।४॥ हायनाः (= संवत्सरपक्का व्रीहयः) अतिष्ठा वाऽ पता ओषधयो
यद्यायनाः। श०५।३।३।६ ॥ हारायणम् ( साम) इन्द्रस्तजस्कामो हरस्कामस्तपोऽतप्यत स एत.
द्धारायणमपश्यत्तेन तेजो हरो ऽवारुन्ध तेजखी हरखी
भवति हारायणेन तुष्टुवानः । तां० १४ । ९ । ३४ ॥ हरिपोजनः (प्रहः) छन्दासि वै हारियोजनः । श० ४।४ । ३ । २॥ हारिवर्णम् (साम ) हरिवो वा एतत्पशुकामः सामपहारम्
सहस्त्रं पशूनसृजत यदेतत्साम भवति पशूनां पुष्टै (१ पुष्ट्य ) । तां०८।९।४॥ अङ्गिरसः स्वर्ग लोकं यतो रक्षास्यन्वसचन्त तान्ये. तेन हरिवों ऽपाहन्त यदेतत्साम भवति रक्षसामपहत्यै !
तां०८।९।५॥ , अप शुच हते हारिवर्णस्य निधनेन, श्रियश्च हरचोपैति
तुष्टुवानः । तां० १२।६।१०॥ हाविष्कृतम् (साम ) द्वाविष्कृतं भवति प्रतिष्ठायै । तां०.१५ । ५।१७॥
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( ६३७ )
[हिङ्कारः हाविष्मतम् ( साम ) हविष्माश्च वै हविष्कृश्वाङ्गिरसावास्तां द्वितीये.
ऽहनि हविष्मानराधनोनवमेऽहनि हविष्कृत् । तां०११ ।
१०॥९॥ बिहार: हिकारेण वजेणाऽस्मालोकादसुराननुदत । जै० उ० २ ।
८।३॥
वजो वै हिङ्कारः। कौ०३।२॥ ११ ॥ १॥ , शुक्लमेव हिङ्कारः। जै० उ०१। ३४।१॥
वायुरेव हिङ्कारः । जै० उ०१ । ३६ । ९॥१॥ ५८ ॥९॥ स (प्रजापतिः ) पुरोवातमेव हिकारमकरोत् । जै० उ०१।
, प्राणो वै हिङ्कारः । श०४।२।२॥ ११ ॥
प्राणो हि वै हिकारस्तस्मादपिगृह्यनालिके न हिका
शक्नोति । श०१।४।१।२॥ , प्रजापति हिङ्कारः। तां०६।८।५॥
तेभ्यः (पशुभ्यः प्रजापतिः) हिकारम् यच्छत् । जै० उ० १। ११ । ५ ॥ लोमैव हिकारः । जै० उ० १ ३६ । ६॥ स (प्रजापतिः) मन एव हिङ्कारमकरोत् । जै० उ०१। १३ ॥ चन्द्रमा एव हिङ्कारः । जै० उ०१ ॥ ३३ ॥ ५ ॥ चन्द्रमा वै हिकारः । जै० उ० १ ॥ ३ ॥ ४॥ तस्य सान इयमेव प्राची दिग्घिङ्कारः । जै० उ०१॥ ३१॥२॥ यवनुदितः ( आदित्यः) स हिङ्कारः। जै. उ०१ । १२ । ४॥ रश्मय एव हिकारः । जै० उ०१ । ३३ । । । अहोरात्राणि हिङ्कारः।०३।१॥ स (प्रजापतिः) वसन्तमेव हिङ्कारमकरोत् । जै० उ०१॥
१२॥ ७॥ , वसन्तो हिङ्कारः। ष०३।१॥ ., वृषा हिकारः । गो० पू०३।२३ ॥ , स (प्रजापतिः) यजूंष्येव हिङ्कारमकरोत् । जै० उ०१।
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[हिरण्यम्
( ६३८ ) हिकरः तस्य (एकविंशसानः ) अय्येव विद्या हिङ्कारः। ॐ उ.
१। १९| २ ॥ , एष चै साना रसो यद्धिङ्कारः । तां०६ । ८।७॥ हिकृत्य गायति तत्र हि सर्व कृत्स्न साम भवति । श०
९।१।२। ३४॥ , तदेतद्यज्ञस्याग्रे गेयं यद्धिङ्कारः। गो० उ. ३।९॥ , न वाऽ अहिंकृत्य साम गीयते । श०१।४।१।१॥ ,, हिङ्कारो वै गायत्रस्य प्रतिहारः । तां०७।१।४॥ ,, श्रीर्वै सानो हिङ्कारः । जै० उ०१।४।६॥ ., श्रीर्वा एषा प्रजापतिस्साम्रोयद्धिकारः। जै० उ०३।१२॥३॥ , एष वै स्तोमस्य योगो यद्धिङ्कारः । तां० ६ । ८॥ ६॥ ,, येन वै श्रेष्ठस्तेन वसिष्ठः (हिङ्कारः) । गो० उ०३।१॥ हितम् प्राणो वै हितं प्राणो हि सर्वेभ्यो भूतेभ्यो हितः । श० ६ ।
१।२।१४॥ हिमस्य जरायु (यजु० १७ । ५) यद्वै शीतस्य प्रशीतं तद्धिमस्य जरायु।
श०९।१।२।२६ ॥ हिमाः ( यजु. २ । २७ ) शत हिमा इति शतं वर्षाणि जीव्यास.
मित्येवैतदाह । श० १ । ९।३।१६ ॥ हिरः हिरो (हिर"मेखला' इति सायण.) वै रास्ना (="रशना"
इति सायणः) । श० १ । ३।१।१५ ॥ हिरण्यकशिपु दिवो ( रूपं ) हिरण्यकशिपु । तै०३ । ९ । २० । २॥ हिरण्यगर्भः प्रजापतिः हिरण्यगर्मः । श० ६ । २।२।५॥ हिरण्य पाणिः तस्मात् (सविता) हिरण्यपाणिरिति स्तुतः । कौ०
६। १३॥ गो० उ०१॥२॥ हिरण्यम् तद्यदस्य (प्रजापतेः) एतस्या रम्यायां तन्वां देवा अर•
मन्त तस्माद्धिरम्य हिरण्य ह वै तद्धिरण्यामित्याच
क्षते परोऽक्षम् । श०७।४।१ । १६ ॥ ,, (अर्थ०५ । २८ । ६-त्रेधा जातं जन्मनेदं हिरण्यमग्निरकं
प्रियतमं बभूव सोमस्यैकं हिंसितस्य परापतत् । अप्रामेकं वेधसां रेत आहुस्तत् ते हिरण्यं त्रिवृदस्त्वायुषे ॥)
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( ६३९ )
हिरण्यम् हिरण्यम् अग्निह वा अपोऽभिदध्यौ मिथुन्याभिः स्यामिति ताः सम्ब
भूव तासुरंतःप्रालिञ्चत्तद्धिरण्यमभवत्तस्मादेतदाग्नसंकाशममेहि रेतस्तस्मादप्सु विन्दन्त्यप्सु हि प्रासिञ्चत्। श० २ । १।१५॥ ( अग्नेरपत्यमेतद्वै सुवर्णमिति धारणा-महाभारते, अनु० पर्वणि अ० ८५। १४७॥ अ०८६ अपि द्रष्टव्यः) .
आग्नेयं वै हिरण्यम् । तै० ५। २ । ५ । २॥ ,, तस्य ( अग्नेः ) रेतः परापतत् । तद्धिरण्यमभवत् । तै० १।
१।३। ८॥
अग्ने रेतो हिरण्यम् । श० २ । २।३।२८ ॥ ,, अग्नर्वाऽ एतद्रेतो यद्धिरण्यं नाष्ट्राणा रक्षसामपहत्यै ।
श० १४ । १।३ । १९ ॥ समानजन्म वै पयश्च हिरण्यश्चोभय ह्यग्निरेतलम् । श०
३।३।४।८॥ ,, अश्वस्य वा आलब्धस्य रेत उदकामत् । तत्सुवर्ण हिर
ण्यमभवत् । तै०३ : ८।२।४॥ श० १३।१।१।३॥ " रेतो हिरण्यम् । ते० ३ । ८।२।४॥ ,, (प्रजापतिः ) अयसो हिरण्यं ( असृजत ) तस्मादयो बहु.
ध्मात हिरण्यसंकाशमिवैव भवति । श० ६ । १ । ३॥ ५ ॥ , क्षत्रस्यैतद्रूपं यद्धिरण्यम् । श० १३ । २ । २ । १७ ॥ ,, आयु हि हिरण्यम् । श०४।३।४ । २४ ॥ , ( आयुष्यं वर्चस्य रायस्पोषमौद्भिदम् । इदॐ हिरण्यं वर्चस्वज्जैत्रायाविशतादु माम् । यजु० ३४ । ५० ।। नैनं र. क्षांसि न पिशाचाः सहन्ते देवानामोजः प्रथमजं होतत् । यो बिभर्ति दाक्षायणं हिरण्यं स जीवेषु कृणुते दीर्घमायुः ॥२॥ अपां तेजो ज्योतिरोजो बलं च वनस्पतीनामुत वी. र्याणि । इन्द्र इवेन्द्रियाण्यधि धारयामो अस्मिन् तद् दक्ष
माणो बिभ्रद्धिरण्यम् ॥ ३॥ अथर्व० १ । ३५ । २, ३॥ ) ., आयुर्वं हिरण्यम् । ते०१।८।९।१॥ । यहिरण्यं ददाति आयुस्तेन वर्षीया कुरुतेगी० उ०३।१९॥
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[ हिरण्यम्
( ६४० )
हिरण्यम् अमृतमायुर्हिरण्यम् । श० ३ । ८ । २ । २७ ॥ ४ । ५ । २ श
१० ॥ ४ । ६ । १ । ६ ॥
अमृत हिरण्यम् । तै० १ । ७ । ६ । ३ ॥ १ । ७ । ८ । १ ॥
"
श० १० | ४ | १ | ६ || तां० ९ । ९।४॥
,
( यजु० १८ । ५२ ॥ ) अमृतं वै हिरण्यम् । श०९ । ४ । ४ । ५ ॥ तै०१ । ३ । ७।७॥
प्राणो वै हिरण्यम् । श० ७ । ५ । २ । ८ ॥
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चन्द्रं ह्येतश्चन्द्रेण क्रीणाति यत्सोमं हिरण्येन ( चन्द्रः
=सोमः, चन्द्रं = हिरण्यम् ) । श० ३ | ३ | ३|६॥
" शुक्रं हिरण्यम् । तै० १ | ७ | ६ | ३ ॥
शुक्र होतच्छुक्रेण क्रीणाति यत्सोम हिरण्येन । श० ३।३।३।६ ॥
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93
"
सोमस्य वा अभिषूयमाणस्य प्रिया तनूरुदक्रामत् तत्सुवर्णं हिरण्यमभवत् । तै० १ । ४ । ७ । ४-५ ॥
"
वरुणस्य वा अभिषिच्यमानस्याप इन्द्रियं वीर्य निरन्नन् । तत्सुवर्ण हिरण्यमभवत् । तै० ८ ११ । ९ । १॥
वर्षो वै हिरण्यम् । तै० १ । ८ । ९ । १ ॥
1
बच्चों वा एतद्यद्धिरण्यम् । श० ३।२।४।९॥ तेजो हिरण्यम् । तै० ३ | ११ | ५ | १२ ॥
तेजो वै हिरण्यम् । तै ० १ । ८ । ९ । १ ॥
चन्द्रं हिरण्यम् । तै० १ । ७ । ६ । ३ ॥
ज्योतिर्वै शुक्रं हिरण्यम् । ऐ० ७ । १२ ॥
ज्योतिर्हिरण्यम् | गो० पू० २ । २१ ॥
I
ज्योतिर्हि र्हिरण्यम् । श० ४ । ३ । १ । २१ ॥ ज्योतिर्वै हिरण्यम् । तां० ६ | ६ |
१० ||
१८ | ७ | ८ ॥ तै० १ । ४ । ४ । १ ॥ श० ६ । ७ । १ । २ । ७ । ४ । १ । १५ ॥
गो० उ०५ ॥ ८ ॥
यशो वै हिरण्यम् ॥ ए० ७ । १८ ॥
सत्यं वै हिरण्यम् । गो० उ० ३ । १७ ॥
1
देवानां वा एतद्रूपं यद्धिरण्यम् । श० १२ । ८ । १ । १५ ॥
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( १ )
[हदयम् हिरण्यम् पवित्रं वै हिरण्यम् । ते ०१।७।२।६॥ .
, तस्माधिरण्यं कनिष्ठं धनानाम् । तै० ३ । ११ । ८ । ७॥ हुतादः (देवाः ) एता वै प्रजा हुतादो यद् ब्राह्मणाः । ऐ०७। १९॥
, एते वै देवा अहुतादो यद् ब्राह्मणाः । गो० उ० १ ॥ ६ ॥ हुम् बग् हुम् बगिति श्रीकामस्य । बगिति ह श्रियम्पणायन्ति । जै० उ०
३।१३।३॥ हुम्यो दुम्बो इति पशुकामस्य । बो इति र पशवो वाश्यन्ते । जै० उ०
३।१३। २॥ हुम्भा हुम्भा इति ब्रह्मवर्चसकामस्य । भातीव हि ब्रह्मवर्चसम् । जै०
उ०३ । १३ । १॥ हृदयम् तदेतत् त्र्यक्षर हृदयमिति ह इत्येकमक्षरमभिहरन्त्यसमै
स्वाश्चान्ये व य एवं वेद इत्येकमक्षरं ददन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद यमित्येकमक्षरमेति स्वर्ग लोकं य एवं वेद ।
श०१४।८।४।१॥ , तस्मादिदं गुहेव हृदयम् । श० ११ । २।६।५॥ " मूळ हृदये (श्रितः)।०३।१०। ८॥९॥ , आत्मा वै मनो हृदयम् ! श०३।८।३।८॥ , कस्मिन्नु मनः प्रतिष्ठितं भवतीति हृदयऽ इति । श० १४ ।
६।९ । २५ ॥ ,, मनोदये (धितम् ) । तै०३।१०।८।६ ॥ , रेतोदये (श्रितम्) । तै० ३।१०। ८ । ७॥ , भोदये (श्रितम्)। तै०३।१०।८।६॥
वाग्वृदये (श्रिता)।०३।१०। ८॥४॥ , शरीरं हृदये (भितम् ) । तै०३।१०। ८ । ७॥ , हिता नाम नाड्यो द्वासप्ततिःसहस्राणि हृदयात्पुरीततमभिप्र.
तिष्ठन्ते ताभिः प्रत्यवलुप्य पुरीतति शेते । श० १४।५।
१। २१ ॥ , एष प्रजापतिर्यद्धृदयम् । श०१४।८।४।१॥ , हृदयं वै सम्राट् ! परमं ब्रह्म । श०१४ । ६ । १० । २८ ॥ ,, पुत्रो हिरदयम् । तै० २।२।७।४॥ , असो वाऽ आदित्यो हदयम् । श०९।१।३।४०॥
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[हेमन्तः
( ६४२ ) स्दयम् प्राणो वै हृदयमतो ह्ययमूर्ध्वः प्राणः संचरति । श० ३ । ८ !
,, हृत्सु ह्ययं क्रतुर्मनो जवः प्रविष्टः । श० ३ । ३।४।७॥ ,, परिमण्डल हृदयम् । श०९।१।२।४० ॥ , निकले निकले हि हृदयं, दक्षिणे निकले तो हि हृदयं ने.
दीयः । श०६।१। २।४०॥ " श्लक्ष्ण हृदयम् । श०९।१।२।४०॥ ,, हृदयं वै स्तोमभागाः । ।०८।६।२ । १५ ॥
, हृदय स्तोमभागाः । श०८।५।४।३॥ हेक् उपहूतथे हेगिति तच्छरीरमुपह्वयते । श० १।८।१ । २३ ॥ इतिः (=अग्नेरायुधम् ) यया ते सृष्टस्याग्नेः । हेतिमशमयत्प्रजापतिः
....... ( हेतिः ज्वाला-अमरकोशे, नानार्थवर्गे, श्लो० ७० )।
तै०१।२।१।६॥ ., (= रुद्रस्य आयुधम् ) रुद्रस्य हेतिं दधाति । श० १२ । ७।
३। २० ॥ हेमन्तः (ऋतुः ) एतौ (सहश्च सहस्यश्च) एव हैमन्तिकौ (मासौ)
स यद्धेमन्त इमाः प्रजाः सहसेव स्वं वशमुपनयते तेनो हैतो सहश्च सहस्यश्च । श०४।३।१ । १८ ॥ तस्य (पर्जन्यस्य) सेनजिश्व सुषेणश्च सेनानीग्रामण्याविति हैमन्तिकौ तावृतू । श०८।६।१।२०॥ हेमन्तो होता तस्माद्धेमन्वषद्कृताः पशवः सीदन्ति । श० ११ । २ । ७ । ३२॥ हेमन्तो हीमाः प्रजाः स्वं वशमुपनयते। श०१।५।४।
५॥ __ षड्भिरैन्द्रावैष्णवैः ( पशुभिः । हेमन्ते ( यजते ।। श०१३।
३।४।२८॥ " हेमन्तो मध्यम् (संवत्सरस्य )। तै०३।११ । १०।४॥
तस्य (संवत्सरस्य) वसन्त एव द्वार हेमन्तो द्वारं तं . वा एतथे संवत्सर स्वर्ग लोकं प्रपद्यते । श०१।६। १ । १९ ॥
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( ६४३ )
होता] हेमन्तः यद् वृष्ट्वोद्गृह्णाति तद्धेमन्तस्य ( रूपम् ) । २०२।२।
३।८॥ हेमन्तो निधनम् । ष०३।१॥ (प्रजापतिः) हेमन्तं निधनं ( अकरोत् )। जै० उ०१। १२ । ७॥ अन्त ऋतूना, हेमन्तः । श० १ १ ५ । ३ । १३ ॥ हेमन्तो वाऽ ऋतूना स्वाहाकारो हेमन्तो हीमाः प्रजाः स्वं
वशमुपनयते । श०१।५।४।५॥ , स्वाहाकृतिमन्तं यजति हेमन्त मेव. हेमन्त वा इदं सर्व
स्वाहाकृतम् । कौ० २।४ ॥ होता यद्वा स तत्र यथाभाजनं देवता अमुमावदामुमावत्यावाहयति
तदेव होतुझेतृत्वम् । ऐ० १ ॥ २॥
मध्यं वा एतद्यक्षस्य यद्धोता । ते० ३।३।८ १०॥ , आत्मा वै होता। ऐ०६।८॥ कौ० २१ । ८॥ गो० उ०५॥१४॥ , आत्मा वै यज्ञस्य होता । कौ०९।६॥
आग्नेयो होता । तां० १८ ।९।६॥ आग्नेयो चै होता । तै०१।७।६।१॥३।९।५।२॥ श०
१३।२।६।६॥ , (ऋ० ६ । १६ । १०॥ यजु० ११ । ३५ ॥ ) अग्नि होता।
श०१।४।१।२४॥६।४।२।६॥ गो० पू०२॥२४॥
अनिर्वं देवानां होता। ऐ० ११२८ ॥ , तस्याग्रिहोतासीत् । गो० पू० १ ॥ १३॥
अग्नि होता ऽधिदैवं वागध्यात्मम् । श० १२॥ १।१।४॥ गो० पू०४।४॥
वाग्घोता । २०१।५।१ । २१ ॥ गो० उ०५।४॥ , वागेव होता ! गो० पू० २॥ १०॥ गो० उ.३१८॥ , वाग्वै होता ( यजु० १३ । ७)। कौ० १३ ॥९॥ १७ ॥ ७ ॥ , वाग्यज्ञस्य होता । ऐ०२।५, २८॥ , वाग्वै यक्षस्य होता । श० १२॥ ८ ॥२॥ २३॥ १४॥ ६ ॥ ११॥ " वाग्योता षढोतॄणाम् । तै० ३ । १२ ॥ ५॥ २ ॥
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[होत्राशंसिनः ( ६४४ ) होता मनी होता।०२।१।५।९॥ , प्राणो वै होता। ऐ०६। ८, १४ ॥ गो० उ०५।१४ ॥ , असौ वै होता यो ऽसौ (सूर्यः) तपति । गो० उ०६।३ ॥ ,, पुरुषो वाव होता । गो० उ०६ । ६ ॥ , क्षत्रं वै होता । ऐ०६ । २१ ॥ गो० उ०६।३॥ , संवत्सरो वाव होता । गो० उ० ६ । ६ ॥ , संवत्सरो वै होता । कौ० २९ । ८॥ , हेमन्तो होता तस्माद्धेमन्वषताः पशवः सीदन्ति । श.
११ । २ । ७ । ३२॥ ,, होतैव भर्गः । गो० पू० ५। १५ ॥ , होता हि साहस्राः। श०४।। ८ । १२॥ , प्राची दिग्धोतुः । श० १३ ५।४।२४ ॥ , उत्तरत आयातनो (? आयतनो )वै होता । ते० ३।९।५:२॥ होता वेदिषद् (ऋ०। ४० । ५) एष ( सूर्यः) वै होता वेदिषद् ।
ऐ०४। २०॥ (यजु०१२ । १४) अग्निव होता वेदिषत् । ।०६।७।
होतृचमसः आत्मा होतचमसः । ऐ० २।३०॥ होतृपदनम् ( यजु० ।।३५) कृष्णाजिन होतृषदनम् । श०६।
४।२।७॥ होत्रकाः अङ्गानि होत्रकाः । ऐ०६॥ ८॥ गो० उ०५।१४ ॥ होत्राः ऋतवो वाव होत्राः । गो० उ० ६॥ ६ ॥ ,, रश्मयो वाव होत्राः। गो० उ०६।६॥ ,, अनानि वाव होत्राः । गो० उ०६।६॥ होत्राशंसिनः (ऋविजः ) अङ्गानि होत्राशंसिनः। कौ०१७॥ ७ ॥२६ ।
८॥ गो० उ०५।४॥ , विशो होत्राशंसिनः । ऐ०६।२१ ॥ गो० उ०६।३॥ " तो होत्राशंसिनः । कौ० २९ ॥ ८॥
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अंशुः ( ग्रहः ) प्राण एवा
दाभ्यः ( ग्रहः ) । श० ११ । ५ । ९ । २ ॥
मनो ह वाऽ अंशुः ( ग्रहः ) । श० ११ । ५ । ९ । २ ॥ प्रजापतिर्वा एष यदंशुः । श० ४ । ६ । १ । १ ॥ अशुवै नाम ग्रहः स प्रजापतिः । श० ४ प्रजापतिवis एष यदशुः सो ऽध्य आत्मैव । श० ४ । ६ । १ । १ ॥
। १ । ११२ ॥
- यजमानस्य ) एष
प्रजापतिर्ह वा एष यदशुः । सो ऽस्य ( यजमानस्य ) एष आत्मैव । श० १९ । ५ । ९ । १ ॥
अद्माविष्णू अग्नाविष्णू इति वसोधीरायाः । रूप )। तै० ३ । ११ ।
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९॥९॥
अग्निः तेजो वा अग्निः । तै० ३ | ३ | ४ | ३ ॥
ततो ऽस्मिन् (अग्नौ ) एतद्वर्च आस । श० ४ | ५ | ४ | ३ ॥ अनि प्रथमा विश्वज्योतिः ( इष्टका ) | श० ७ । ४ । २ । २५॥ अग्निर्वै भर्गः । श० १२ । ३ । ४ । ८ ॥ जै० उ० ४ । २८ । २ ॥ अग्निरेव भर्गः । गो० पू० ५ । १५ ॥
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अनिर्वै धर्मः । श० ११ । ६ । २ । २ ॥
अग्निर्वा ऋतम् । तै० २ । १ । ११ । १ ॥
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अयं षाऽ अग्निर्ऋतमसावादित्यः सत्यं यदिवासावृतमयं
( अग्निः ) सत्यमुभयम्वेतदयमग्निः । श० ६ । ४ । ४ । १० ॥
अग्निर्वै द्रष्टा । गो० उ० २ । १९ ॥
अग्निवी उपद्रष्टा । गो० उ०४ । ९ ॥ तै० ३ । ७ । ५ । ४ ॥
अग्निर्हि स्विष्टकृत् । श० १ | ५ | ३ | २३ ||
अग्निर्वै स्विष्टकृत् । कौ० १० । ५ ॥
यच्छध ऽग्निस्तेन । कौ० ६ १३ ॥
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" रुद्रो ऽग्निः । तां० १२ । ४ । २४ ॥
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परिशिष्टम्
( अ )
शुरुदानो ऽदाभ्यश्चक्षुरेवाशुः श्रोत्रम -
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[अग्निः अग्निः ( त्वमग्ने रुद्रः... | ऋ०२।१।६॥) " अग्निवें रुद्रः। श०५।३।१ । १०॥६।१।३।१०।। , एष रुद्रः । यदग्निः । तै०१।१।५।८-९ ॥१।१।६।६॥
१।१।८।४॥ १।४।३।६॥ ॥ अथ यत्रतत्प्रथम समिद्धो भवति । धूप्यतऽ एव तर्हि हैष
( अग्निः ) भवति रुद्रः । ज्ञा० २।३।२।९॥ शिवः शिव ( यजु० १२ । १७ ) इंति शमयत्येवैनं ( अग्निम् ) एतदहि लायै तथो हैष ( अग्निः) इमाल्लोकाञ्छान्तो न
हिनस्ति । श०६ । ७।३।१५॥ , संवत्सर एवाग्निः । श० १०१४:५।२॥ , संवत्सरो ऽग्निः । २०६:३ । १ । २५ ॥ ६ । ३ । २ । १० ॥६।
६।१ । १४ ॥ तां० १० । १२ । ७ ॥ , प्रजापतिरेषो ऽग्निः । श० ६।५ । ३ । ७॥ ६।८।१४ ॥ , प्रजापतिरग्निः । श०६।२।१। २३, ३० ॥ ६ । ५। ३ । ६ ॥
७।२।२।१७॥ ,, अग्नि देवतानां मुखं प्रजनयिता स प्रजापतिः । श०२।५। १८॥
अग्निः प्रजननम् । गो० पू० २ । १५॥ , अग्निर्हि देवानां पानीवतः (ग्रहः)। कौ० २८।३॥ ,, विश्वकर्मायमग्निः । श०९।२।२ २॥९।५।१ । ४२॥ , अग्निवैधाता । तै० ३।३।१०।२॥ , ( अग्ने ! ) त्वं पूषा विधतः पासि नु त्मना। तै० ३।११।
२॥१॥ ,, अथ यत्रतत्प्रतितरामिव तिरश्चीवार्चिः संशाम्यतो भवति
तर्हि हैष ( अग्निः ) भवति मित्रः। श० २।३।२।१२॥ . ,, तं यद् घोरसंस्पर्श सन्तं ( अग्निं ) मित्रकृत्येवोपासते तदस्य
(अग्नेः) मैत्रं रूपम् । ऐ०३।४॥ , यो वै वरुणः सो ऽग्निः । श०५।२।४।१३॥ ,, यो वा अग्निः स वरुणस्तदप्येतषिणोक्तं त्वमवरुणोजायसे __ यदिति । ऐ०६॥ २६ ॥
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( ६४७ )
अग्निः ] · अग्निः अथ यत्रतत्प्रदीप्ततरो भवति । तर्हि हैष ( अग्निः ) भवति
वरुणः । श०२।३।२।१०॥ ,, यदग्नि?रसंस्पर्शस्तदस्य वारुणं रूपम् । ऐ०३।४॥ , अथ ( अग्निः) यदुश्च हृष्यति नि च हृष्यति तदस्य मैत्राव
रुणं रूपम् । ऐ० ३।४॥ ,, अग्निरेव सविता । गो० पू० १॥ ३३ ॥ जै० उ०४।२७॥१॥ ,, स एषो ( अग्निः ) ऽत्र वसुः । श० ९ । ३।२।१॥ .. अग्निवै वसुवनिः । श० १ । ८।२। १६ ॥ ., अग्निर्वाव यमः । गो० उ०४।८॥
अग्निर्वै यमः । यजु. १२ । ६३ ) इयं ( पृथिवी) यम्याभ्या
हीदछ सर्व यतम् । श० ७ । २ । १ । १०॥ ,, अग्निर्वै मृत्युः । श०१४।६।२।१०॥ कौ० १३१३॥ " यो ऽग्निमृत्युस्सः । जै० उ०२॥ १३ ॥ २॥ ,, अग्नि नभसस्पतिः । गो० उ०४।९॥ , अग्नि वनस्पतिः। कौ० १०॥६॥ , अङ्गिरसां वा एको ऽग्निः । ऐ०६ । ३४ ॥
अग्निर्वै भरतः स वै देवेभ्यो हव्यं भरति । कौ० ३ । २॥ , एष ( आग्नः ) हि देवेभ्यो हव्यं भरति तस्माद्भरतो ऽग्निरि
त्याहुः । श०१।४।२।२॥ १ ॥ ५। १।८॥ ,, एष (अग्निः ) उ वा इमाः प्रजाः प्राणो भूत्वा विभर्ति तस्माद्वे.
वाह भारतेति । श०१।४।२१२॥ आग्नेयो ब्राह्मणः । तां १५।४।८।।
आग्नेयो वै ब्राह्मणः । तै० २। ७ । ३ । १॥ ,, ब्रह्म ह्यग्निस्तस्मादाह ब्राह्मणेति । श०१।४।२।२॥ " अयमग्निब्रह्म ( यजु०१७।१४)। श०६।२।१। १५॥
अग्निरु वै ब्रह्म । श० ८।५।१ । १२॥ , ब्रह्म ह्यग्निः । श०१।५।१। ११॥ , अथ यतदाराश्चाकाश्यन्तऽ इव । तर्हि हैष (अग्निः भवति
ब्रह्म । श०२।३।२।१३॥ , अग्निर्वै ब्रह्मा । ष०१।१॥ " अनि परिक्षित् । ऐ०६॥ ३२॥ गो० उ०६ । १२ ।
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( ६४८ )
अग्निः
[ अग्निः प्रः यदाह श्येनो ऽसीति सोमं वा एतदाहैष ह वा अग्निर्भूत्वा Sस्मिलोके संश्यायति तस्माच्छयेनस्तच्छयेनस्य श्येनत्वम् । गो० पू० ५ । १२ ॥
सत्पतिश्चेकितानः नः (यजु० १५ १५१ ) इत्ययमग्निः सतां पतिश्चेतयमान इत्येतत् । श० ८ | ६ | ३ | २० ॥ अथोऽग्निर्वै सुक्षितिरग्नियैव स्मिँल्लोके सर्वाणि भूतानि क्षियति । श० १४ । १ । २ । २४ ॥
अयमग्निः स्वर्विद् (यजु० १७ । १२ ) । श० ९ । २ । १ । ८ ॥
अग्निर्वै वयस्कृच्छन्दः ( यजु० १५ । ५ ) । श० ८ । ५२ । ६ ॥
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" अग्निर्वै भ्रजश्छन्दः । श० ८ | ५ | २ । ५ ॥
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अग्निर्वै पथिकृत् । कौ० ४ | ३ ॥
अग्निर्वै पथः कर्ता । श० ११ | १ | ५ | ६ ॥
अग्निर्वै रूरः । तां० ७ । ५ । १० ।। १२ । ४ । २४ ॥
अग्निर्वै महान् । जै० उ० ३ । ४ । ७ ॥
एष (अग्निः ) एव महान् ।
श० १० । ४ । १।४ ॥
अग्निर्वै महिषः (यजु० १२ । १०५, १११ ) | श० ७ । ३ । १ । २३, ३४ ॥
अग्निर्वाs आयुः (यजु० १२ । ६५ ) | श० ६ । ७।३।७ ॥ ७ । २ । १ । १५ ॥
अग्निर्वै भुवोऽग्नेर्ही
सर्व भवति । श० ८ । १ । १ । ४ ॥ एतानि वै तेषामनीनां नामानि यद्भुवपतिर्भुवनपतिर्भूतानां
पतिः । श० १ । ३ । ३ । १७ ॥
अग्निर्हि वै धूः । श० १ । १ । २ । ९ ॥
एष वै धुर्यो ऽग्निः । तै० ३ । २ । ४ । ३॥
अनिर्वाis एष धुर्यः (= युगस्य धुरि भव इति सायणः ) । श० १ । १ । २ । १० ॥
अग्निर्वै दाता स एवास्मै यज्ञं ददाति । कौ० ४ । २ ॥
अग्निर्वाव पुरोहितः । ऐ० ८ २७ ॥
एतद्ध वा इन्द्रानयोः प्रियं धाम यद्वागिति । ऐ० ६ । ७ ॥ गो०
३०५ । १३ ॥
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अनिः ] अग्निः सा या सा वागाग्निस्सः । जै० उ०१॥ २८ ॥ ३॥ , वाग्वा अग्निः। श०६।१।२।२८ ॥ जै० उ०३।२५॥ , या वाक् सो ऽग्निः । गो० उ०४।११॥ , अग्निवै घरेण्यम् । जै० उ०४।२८।१॥ " तस्याः ( श्रियः) अग्निरन्नाद्यमादत्त । श० ११ । ४।३।३॥ " अयमग्निः सहस्रयोजनम् । श०९।१।१।२९ ॥ , अग्निवै रथन्तरम् । ऐ०५ । ३० ॥ , एष हि यस्य सुक्रतुर्यदग्निः । श० १।४।१।३५॥ ,, अग्निः प्रस्तावः । जै० उ०१।३३।५॥ , अयं वाऽ अग्निरुख्यः ( यजु० १४ । १) । श० ८।२।१।४॥ , पर्वतवार्यदुखा । श०६।२।२।२४ ॥ , आग्न होता (ऋ० ६ । १६ । १० ॥ यजु० ११ । ३५) । श०
१।४।१।२४ ॥ ६।४।२।६ ॥ गो० पू० २॥ २४ ॥ ., अग्नि होता वेदिषत् (यजु०१२ । १४)। श० ६ । ७३११॥ , अग्निई होता ऽधिदैवं वागध्यात्मम् । श० १२।१।१।४॥
गो० पू०४।४॥ ते ऽशिरस आदित्येभ्यः प्रजिध्युः श्वः सुत्या नो याजयत न इति तेषां हामित आस त आदित्या ऊचुरथास्माकमध सुत्या तेषां नस्त्वमेव (अग्ने!) होतासि, बृहस्पतिर्ब्रह्मा ऽयास्य
उदाता, घोर आङ्गिरसो अध्वर्युरिति । कौ० ३०॥ ६॥ , अग्निः पश्चहातणा होता । तै०२।३।५।६॥ , अमिः पञ्चहोता । तै० २।३।१।१॥ , आनेयो होता। त० १८।६।९॥ , आमेयो चै होता। तै०१।७।६।१॥३।९।५।२॥ श०
१३ । २।६।९॥ ,, एष हि हव्यवाहनो यदग्निः । श०१।४।१।३९ ॥ " हव्यवाहनो वै ( अग्निः) देवानाम् । श०२।६।१।३०।। , एष हि हव्यवाड्यदग्निः । श०१।४।१ । ३९ ॥ , अग्नि देवानां व्रतभृत् । गो० उ०१॥ १५ ॥ , ममि देवानां व्रतपतिः । गो० उ०१ । १४ ॥ " अमिर देवानां प्राणः । २०१०।१।४।१२॥
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। ६५० )
[अग्निः भग्निः तदग्निः प्राणः । जै० उ० ४ १ २२ । ११ ॥ ., प्राणा अग्निः । श० ६ । ३।१ । २१ ॥६।८।२।१०॥ ,, अग्नि देवानां मनोता । ऐ०२।१०॥ कौ० १०॥६॥ " देवपात्रं वाऽ एर यदग्निः । श०१ । ४ । २ । १३ ॥
देवरथो वा अग्नयः । कौ० ५ ॥१०॥ , अग्निः सा देवताः । श. १।६।३ । २०॥ , एष वै यज्ञो यदग्निः । श०२।१।४।१९ ॥ १. अग्निरु वै यज्ञः। श०५।२।३।६॥ , अग्निवै यशः । श०३।४।३। १९ ।। तां०११ । ५।२॥
यजमानो ऽग्निः । श०६।३।३।२१॥६।५।१:८॥७।
४।१ । २२ ।।९।२।३।३३॥ ,, स उऽएव यजमानस्तस्मादाग्नेयो भवति । श०३।९।१।६॥ " अग्निर्यजुषाम् (समुद्रः)।०६। ५ । २ । १२ ॥ , वृषो ऽग्निः समिध्यते (ऋ०३।२७।१४)। श०१। ४. १ ॥ २९ ॥ ,, समग्निरिध्यते वृषा (ऋ०३:२७ । १३)। श०१।४।१।२९ ।। ,, पृथिव्यग्नेः पत्नी । गो० उ० २॥९॥ , अग्निर्ह वाऽ अपोऽभिदध्यो मिथुन्याभिः स्यामिति ताः लम्बभूव
तासु रेतः प्रासिञ्चत्तद्धिरण्यमभवत्तस्मादेतदग्निसकाशमोर्टि रे स्तिस्मादप्सु विन्दन्त्यप्सु हि (रेतः) प्रालिञ्चत् । श०२।१।
१।५॥ , अभ्यो वा एष (अग्निः) प्रथममाजगाम। श०६।७।४।४॥ , तस्य ( अग्नेः) रेतः परापतत्तद्धिरण्यमभवत् । तै० १।१।
३।८॥
आग्नेयं वै हिरण्यम् । ते० २।२।५।२॥ " अग्ने रेतो हिरण्यम् । श०२२।३। २८ ॥
अग्ने: एतद्रेतो यद्धिरण्यम् ( महाभारते, अनुशासनपर्वणि
८६ ॥ ३३ ॥ )। श० १४।१।३।२९ ॥ , समानजन्म वै पयश्च हिरण्यश्चोभय ह्यग्निरेतसम् । श० ३।
२।४।८॥ , (अग्नेः) यदास्थ ( आसीत् ) तत् पीतुदारु ( अभवत् )।
तां०२४। १३ । ५॥
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अग्निः ]
अग्निः गन्धो हैवास्य (अग्नेः) सुगन्धितेजनम् । श० ३।५।२। १७ ॥ ,, ( अग्नेः) यत्नाव तत्सुगन्धितेजनम् । तां० २४ । १३ । ५॥ , सैषा योनिरग्नेय द्वेणुः । श०६।३।।। ३२ ॥ , अग्निदेवेभ्य उदक्रामत्स वेणुं प्राविशत्तस्मात्स सुषिरः । श०६१
३।१।३१॥ , सैषा योनिरन्मेर्यन्मुञ्जः। श० ६ । ३।१ । २६ ॥
योनिरेषाग्नेर्यन्मुञ्जः । श०६।६।१ । २३ ॥ ,, अग्निर्देवेभ्य उदक्रामत्त मुझं प्राविशत्तस्माल सुषिरः । श०
,, सूर्यो ऽग्नेयोनिरायतनम् । तै० ३।९। २१ । २, ३ ॥ ,, अग्निः षट्मादस्तस्य पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौराप ओषधिवनस्पतय
इमानि भूतानि पादाः : गो० पू० २।६॥ ,, षड्भिराग्नेयः ( पशुभिः) वसन्ते ( यजते )। श. १३ । ५।
४। २८॥ , तस्य (अग्नेः) रथगृत्सश्च रथौजाश्च ( यजु० १५ । १५) सेना
नीग्रामण्याविति वासन्तिको तावृतू । श०८।६।१।१६ ॥ ( अग्नेः ) पुञ्जिकस्थला च क्रतुस्थला ( यजु०१५ । १५॥) चाप्सरसाविति दिक् चोपदिशा चेति ह स्माह माहित्थिः सेना च तु ते समितिश्च । श० ८६।१।१६॥ सप्त ते अग्ने समिधः सप्त जिह्वाः ( यजु० १७ । ७९ ॥) इति (मुण्डकोपनिषदि १।२।५:-काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा ॥ स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः॥ ) । तै० ३ । ११ । २ । ९॥ यया ते सृष्टस्यामेः । हेतिमशमयत्प्रजापतिः ...... ( हेतिः=
अग्नेरायुधम् ) । तै० १ ।२।१।६॥ , वायुर्वी अग्नेः वो महिमा । कौ० ३।३॥ ,, (उपसदेवतारूपाया इषोः)अग्निरनीकम् =मुखमिति सायणः)।
ऐ०१॥ २५ ॥ ., अग्निर्वै गायत्री । श०३।९।४।१०।६।६।२।७॥ , गायत्री छन्दो ऽग्निर्देवता शिरः । श० १० । ३ । २ । १॥
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[ अग्निः
(६५२ ) अग्निः गायत्रो वा अग्निः : कौ० १।१ ॥ ३ ॥ २ ॥९।२॥ १६ ॥ ४॥
तै०१।१।५।३॥ ,, विराडग्निः । २०६।२।२ । ३४ ॥ ६।३।१।२१॥६।८।
२।१२ ॥९।१।१।३१॥ " विराट् सृष्टा प्रजापतेः । ऊर्धारोहद्रोहिणी । योनिरग्नेः प्रति.
ष्ठितिः । तै० १ । २ । २ । २७ ॥ , प्रजापती रोहिण्यामग्निमसृजत तं देवा रोहिण्यामादधत ततो
वै ते सर्वानोहानरोहन् । तै०१।१।२।२॥ , तमु हैव पशुषु काम रोहति य एवं विद्वान् रोहिण्याम् ( अग्नी) आधत्ते । श०२।१।२। ७॥ अग्निश्च ह वा आदित्यश्च रौहिणावेताभ्या हि देवताभ्यां
यजमानाः स्वर्ग लोक रोहन्ति । श७ १४ । २।१।२॥ , अग्निरेष यत्पशवः । श०६।३।२।६॥ , आग्नेयो वाव सर्वः पशुः । ऐ०२॥ ६ ॥ , आग्नेयाः पशवः तै०१:१।४।३॥ , आग्नेयो वा अजः । श०६।४।४।१५॥ , स एषो ऽग्निरेव यत् कृमुकः (वृक्षविशेषः) । श० ६ । ६ ।
२।११॥ , आग्नेयी वै रात्रिः । तै० १।१।४।२॥ १।५।३।४॥२।
१।२।७॥ , आग्नेयं वै प्रातस्सवनम् । जै० उ०१॥ ३७॥२॥ , तान ( पशून ) अग्निनिवृता स्तोमेन नाप्नोत् । तै० २।७।
१४।१॥ 1, आग्नेयः पुरोडाशो भवति । श०२।४।४।१२॥ ,, स ( आग्नः) प्राची दिशं प्राजानात्। कौ० ७ । ६ ॥ ,, प्राची व दिशम् । अग्निना प्राजानन् । श० ३ । २।३।१६॥ , प्राची दिक् । अग्निदेवता । तै०३।११ । ५।१॥ , प्राची हि दिगग्नः । श०६।३।३।२॥ " अग्निनेत्रेभ्यो देवेभ्यः पुरःसङ्ग्यः स्वाहा । श०५।२।४।५॥ " अग्निरेष पुर। श०१०।३।।३॥
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( ६५३ ) अग्निहोत्रम् । अमिः अग्निधैं पुरस्तद्यत्तमाह पुरः (यजु० १३ । १४ ॥) इति प्राश्च
ह्यग्निमुखरन्ति प्राश्चमुपचरन्ति । श० ८।१।१।४॥ ,, अग्नेर्ऋग्वेदः ( अजायत )। श० ११ । ५। ८।३॥ ,, स (प्रजापतिः) भूरित्येवर्वेदस्य रसमादत्त । सेयं पृथिव्य.
भवत् । तस्य यो रसःप्राणेदत् सोऽग्निरभवद्रसस्य रसः। जै० __ उ०१।१।३॥ अग्निचित् शते शते संवत्सरेष्वग्निचित्काममश्नाति कामं न । श०
१०।१।५।४॥ भग्निर्वैश्वानरः संवत्सरो वाऽ अग्निर्वैश्वानरः। ते० १ : ७ । २।५ ॥
अयमग्निर्वैश्वानरो यो ऽयमन्तः पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते यदिदमद्यते, तस्यैष घोषो भवति यमेतत्कर्णावपिधाय शृणोति स यदोत्क्रमिष्यन्भवति नैतं घोष, शृणोति । श०१४।८।१०।१॥ एष वा अग्निर्वैश्वानरः । यद्राह्मणः । तै० ३।७।३।२॥ एष ह वा अग्निर्वैश्वानरो यत्प्रदाव्यः। गो० उ०४॥ ८॥ वैश्वानर इति वा अग्नेः प्रियं धाम । तां० १४ । २।३॥ वैश्वानरो वै सर्वे ऽग्नयः । श०६।२।१ । ३५ ॥ ६॥
अग्नेरेतवैश्वानरस्य रेतो यत्सिकताः। श० ७।१। १।१०॥ अग्नेरेतद्वैश्वानरस्य भस्म यत्सिकताः । श० ७।१। १।९॥ अग्नेर्वा एतद्वैश्वानरस्य भस्म यत्सिकताः। श० ३। ।१।३६ ॥ अग्नेर्वा एतत् वैश्वानरस्य ( नौष्टं ) साम । तां० १३ ।
११ । २३॥ आमिष्टोमः द्वादशस्तोत्राण्यग्निष्टोमः । ता०९।१।२४ ॥
, विराला अरिष्टोमः । कौ० १५ ॥ ५ ॥ भनिष्ठा यजमानो वाऽ अग्निष्ठा । श० ३ । ७।१।१६ ॥ भग्निहोत्रम् अग्निहोत्रं वै दशहोतुर्निदानम् । तै० २ । २ । ११ ॥ ६ ॥
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[ अङ्गिरसः
( ६५४ )
अग्नीषोमो अग्नीषोमीय हि पौर्णमासथं हविर्भवति । श ० १ | द
३॥२॥ अङ्गानि अङ्गानि होत्रकाः । ऐ० ६ | ८
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अङ्गिरसः द्वय्यो ह वा इदमग्रे प्रजा आसुः श० ३ । ५ । १ । १३ ॥
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॥ गो० उ०५ | १४ ||
अङ्गानि वाव होत्राः । गो० उ० ६ । ६ ॥
अङ्गानि होत्राशंसिनः । कौ० १७ । ७ ॥ २६ ॥ ८ ॥ गो० उ०
५ । ४ ॥
अङ्गानि वै विश्वानि धामानि ( यजु० ४ । ३४ ) । श० ३ ।
३ । ४ । १४ ॥
वैश्वदेवानि हाङ्गानि । ऐ०३ ॥ २ ॥
आदित्याश्चैवाङ्गिरसश्च ।
आदित्याश्चाङ्गिरसश्चैतत् सत्रं समदधता दित्यानामेकवि शतिरङ्गिरसां द्वादशाहः । तां० २४ । २ । २॥
तेहादित्याः पूर्वे स्वर्ग लोकं जग्मुः पश्चेवाङ्गिरसः पयां वा वर्षेषु । ऐ० ४ । १७ ॥
( आदित्याः ) स्वर्ग लोकमायन्नहीयन्ताङ्गिरसः । तां० १६ । १२ । १ ।।
अन्वञ्च इवाङ्गिरसः सर्वैः स्तोमैः सर्वैः पृष्टैर्गुरुभिः सामभिः स्वर्ग लोकमस्पृशन् । श० १२ । २ । २ । ११ ॥
अङ्गिरसः स्वर्ग लोकं यतो रक्षार्थस्यन्वसचन्त । तां० ८ | ९॥५॥
त एतेन सद्यः क्रियाङ्गिरस आदित्यानयाजयन् । श० ३ | ५ । १ । १७ ॥
तान् हादित्यानङ्गिरसो याजयाञ्चकुः । गो० उ० ६ । १४ ॥ कर्णश्रवा एतदाङ्गिरसः पशुकामः ( कार्णश्रवसं ) सामापश्यत्तेन सहस्रं पशूनसृजत । ( अष्टौ चाङ्गिरसः पुत्रा वारुणास्ते ऽप्युदाहृताः । बृहस्पतिरुतथ्यश्च पयस्यः शान्तिरेव च ॥ घोरो विरूपः संवर्तः सुधन्वा चाष्टमः स्मृतः ॥ इति महाभारते उद्योगपर्व० ८५ । १३०-१३१ ॥ । तां० १३ । ११ । १४ ॥
अङ्गिरसां वा एको ऽग्निः । ऐ. ६ । ३४ ॥
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( ६५५ }
अजावयः
अङ्गिरसः ते अङ्गिरस आदित्येभ्यः प्रजिघ्युः श्वः सुत्यानो याजयत न इति तेषां हाग्निर्दूत आस त आदित्या ऊचुरथास्माकमद्य सुत्या तेषां नस्त्वमेव ( अग्ने !) होतासि, बृहस्पतिर्ब्रह्म । ऽयास्य उद्गाता, घोर अङ्गिरसो ऽध्वर्युरिति । कौ५ ३० ॥ ६ ॥ तेषां (अङ्गिरसां ) कल्याण आङ्गिरसो ऽध्यायमुदव्रजन् स ऊर्णायुङ्गन्धर्वमप्सरसाम्मध्ये प्रेङ्खयमाणमुपैत् । तां० १२ ।
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११ । १० ॥
अथैनं ( इन्द्रं ) ऊर्ध्वायां दिशि मरुतश्चाङ्गिरसश्च देवाः ... • अभ्यषिञ्चन्. .... पारमेष्ठयाय माहाराज्यायाऽऽधिपत्याय स्वावश्यायाऽऽतिष्ठाय । ऐ० ८ । ६४ ॥
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सोमो वैष्णवो राजेत्याह तस्य । सरसो विशस्ता इमा आसत इति युवतयः शोभना उपसमेता भवन्ति ता उपदिशत्यङ्गिरसो वेदः सोयमित्यङ्गिरसामेकं पर्व व्याचक्षाण इवानुद्रवेत् ( घोरं निगदेत् - शांखायन श्रौतसूत्रे १६ । २ । १२ ।
श० १३ | ४ | ३ | ८ ॥
विदेदग्निर्नभ नामाग्नेऽअङ्गिर आयुना नाम्नेहि (यजु० ५ । ६ ) इति । श० ३ । ५ । १ । ३२ ॥
अज एकपाद् अजस्यैकपदः पूर्वे प्रोष्ठपदाः । तै० १ । ५ । १ । २ ॥
३ । १ । २ । ८ ॥
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एकपदा है भूत्वाजा उच्चक्रमुः । श० ८ । २ । ४ । १ ॥ अजः गां चाजं च दक्षिणत एतस्यां तद्दिश्येतौ पशू दधाति तस्मादेतस्यां दिश्येतौ पशू भूयिष्ठौ श० ७ । ४ । २ । १६ ॥
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ताभ्यामेत यथा ज्ञातिभ्यां वा सखिभ्यां वा सहागताभ्या स
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मानमोदनं पचेदजं वा । श० १ । ६ । ४ ॥३॥
ते ( अजाः ) सुश्रपतरा भवन्ति । श० ५ : ५ । ४ । १ ॥
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अजगर : अजगरं स्वप्नः ( गच्छति ) । गो० पू० २ । २ ॥
अजा सा (अजा) यत्त्रिः संवत्सरस्य विजायते तेन प्रजापतेर्वर्णः ।
श० ३ । ३ । ३ । ८॥
उपांशुपात्रमेवान्वजाः प्रजायन्ते । श० ४ । ५।५।२ ॥
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अजावयः तस्मादु सद्द सतो ऽजाविकस्योभयस्यैवाजाः पूर्वा यन्त्यनूच्यो ऽवयः । श० ३।५।५।४ ॥
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[ अदितिः अजावयः अजावी आलभते भून्ने । तै०३।९।८।३॥
, अजाविकमेवोष्णिक् । कौ० ११ । २ ॥ अतिथिः तद्यथैवादो मनुष्यराज आगते ऽन्यस्मिन्वा ईत्युक्षाणं पा
वेहतं वा क्षदन्ते । ऐ० १ । १५॥ अतिरात्रः स कृत्स्नो विश्वजिद्यो ऽतिरात्रः। कौ० २५ । १४॥ भत्ता आदित्यो वाऽ अत्ता। तस्य चन्द्रमा एवाहितयः : श०१०।६।
२।३।। अथर्ववेदः बरुण आदित्यो राजेत्याह तस्य गन्धर्वा विशस्तऽ इमs
आसतऽ इति युवानः शोभना उपसमेता भवन्ति तानुप. विशत्यथर्वाणो वेदः सोऽयमित्यथर्वणामेकं पर्व व्याचक्षाण इवानुद्रवेत् (भेषजं निगदेत्-शालायनश्रौतसूत्रे १६।२।
९)। श०१३। ४।३।७॥ , ब्रह्मवेद (=अथर्ववेदः) एव सर्वम् । गो० पू० ५। १५ ॥ अथवा अथर्वा वै प्रजापतिः । गो० पू०१।४॥ महाभ्यः ( प्रहः ) वागेवादाभ्यः । श० ११ । ५।९।१॥ " प्राण एवा शुरुदानो ऽदाभ्यश्चक्षुरेवाशुः श्रोत्रमदाभ्यः
(ग्रहः) २०११ । ५।६।२॥ अदितिः इयं ( पृथिवी ) वाऽ अदितिर्मही ( यजु० ११ । ५६ ) । श०
६।५।१ । १०॥ ,, इयं ( पृथिवी ) वै देव्यदितिर्विश्वरूपी । तै०१।७।६।७॥ , अदित्य पुनर्वसू (नक्षत्रविशेषः)। तै० १।५।१।१॥
एवा न देव्यदितिरना । विश्वस्य भी जगतः प्रतिष्ठा । पुनर्वसू हविषा वर्धयन्ती। प्रियं देवानामप्येतु पाथः। तै०३। १।१।४॥ अदितिर्वै प्रजाकामौदनमपचत्तत उच्छिष्टमाश्नात् सा गर्भमधत्त तत आदित्या अजायन्त । गो० पू०२ । १५ ॥ अदितिः पुत्रकामा साध्येभ्यो देवेभ्यो ब्रह्मौदनमपचत् । तस्या उच्छेषणमददुः । तत्प्राश्नात् सा रेतो ऽधत्त । तस्यै धाता चार्यमा चाजायेताम् । ......... मित्रश्च वरुणश्चाजायेताम् । .........अंशश्च भगश्चाजायेताम् । .........इन्द्रश्च विववांश्चाजायेताम् । तै०१।१।९।१-३॥
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अनुष्टुप पारितिः अथ यत् प्रायणीयेन यजन्ते। अदितिमेव देवतां यजन्ते।
श० १२।१।३।२॥ , तस्मादादित्यश्चरुः प्रायणीयो भवत्यादित्य उदयनीयः ।. ऐ०
१।७॥ , ऊ मेव दिशं अदित्या प्राजानन्नियं (पृथिवी) वाऽ अदि.
तिस्तस्मादस्यामूद्धा ओषधयो जायन्तऽ ऊो वनस्पतयः।
श०३।२।३ । १६ ॥ " सा ( अदितिः ) ऊवा दिशं प्राजानात् । कौ० ७॥६॥ मधिगुः अध्रिगुश्चापापश्च । उभौ देवाना शमितारौ। तै०३।६।
६।४॥ मध्वर्युः अश्विनावश्व! । ऐ० १। १८॥ श०१।१।। १७॥
३।९।४।३॥ तै० ३।२।२।१॥ गो० उ०२।६॥
प्राणापानावेवाध्व! । गो० पू० २। १० ॥ . वायुर्वी अध्वर्युः । गो० पू०२।२४॥
वायुरध्वर्युः । गो० पू० १ । १३ ॥ " अध्वर्युरेव महः । गो० पू० ५। १५ ॥ , तमेतमग्निरित्यध्वर्यव उपासते । यजुरिति । श० १०।५।
२॥ २० ॥ ., प्रतीच्यध्वर्योः (दिक्)। श० १३ । । । ४ । २४ ॥
, पर्णमयेनाध्वर्युरभिषिञ्चति । तै० १।७। ८॥ ७॥ मध्वा योजनशो हि मिमाना अध्वानं धावन्ति । श०५।१।५ । १७ ॥ मानहान् (-सूर्यः ) श्येत इव ह्येष ( सूर्यः ) उद्यश्वास्तं च यन्भवति
तस्माच्छयेतो ऽनङ्गान्दक्षिणा। श०५।३।१।७।। अनिरुतम् अनिरुक्तान्याज्यानि । श० १।६।१ । २० ॥ ,, अनिरुक्तो वै प्रजापतिः। श०१।६।१ । २० ॥
, अनिरुक्तो हि वायुः। श०८।७।३।१२॥ अनुमतिः या चौः सा ऽनुमतिः सो एव गायत्री । ऐ० ३ । ४८ ॥ भनुष्टुप् (छन्दः) आनुष्टुभो वै षोडशी । कौ० १७ । २, ३॥ , आनुष्टुभो वा एष वज्रो यषोडशी। कौ०१७।१॥
विश्वे त्वा देवा वैश्वानराः कृण्वन्त्वानुष्टुभेन छन्दसाङ्गिर• स्पत् (यजु० ११ । ५८) । श०६ । ५ । २।६॥
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[ अन्तरिक्षम्
( ६५८ )
अनुष्टुप् विश्वे त्वा देवा वैश्वानरा धूपयन्त्वानुष्टुभेन उम्दा ङ्गिरस्वत् (यजु०११ । ६० ) । श० ६ । ५ । ३ । १० ॥ विश्वे त्वा देवा उत्तरतो ऽभिषिञ्चन्त्वानुष्टुभेन छन्दसा । तै०२ । ७ । ६५ । ५॥
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अनुष्टुबेव सर्वम् | गो० पू० ५ । १५ ॥ अनुबन्ध्या मैत्रावरुणी वा अनुबन्ध्या । कौ० ४ ॥ ४ ॥
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अनूराधा: ( नक्षत्रम् ) अनूराधाः प्रथमम् । अपभरणीरुत्तमं तानि यमनक्षत्राणि । तै० १ । ५ । २ । ७ ॥
अनृतम् अथ यो ऽनृतं वदति यथाग्नि समिद्धं तमुदकेनाभिषिञ्श्चेदेवं हैनं स जासयति तस्य कनीयः कनीय एव तेजो भवति श्वः श्वः पापीयान् भवति तस्मादु सत्यमेव वदेत् । श० २ | २ । २ । १९ ॥
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अन्तरिक्षम् अन्तरिक्षं गौः । ऐ० ४ । १५ ॥
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उदीचीमारोह । अनुष्टुप्त्वावतु । श० ५ । ४ । १:६॥
वास्त्वनुष्टुप् । श० १ । ७ । ३ । १८ ॥
या कुहूः सानुष्टुप् । ऐ० ३ | ४७, ४८ ॥
एषा वै प्रत्यक्षमनुष्टुव्यद्यज्ञायशीयम् (साम) । तां० १५।६।१५ ॥ अनुष्टुम् वै परमा परत्वत् । ऐ० ३ । १५ ॥
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अनृतं हि कृत्वा मेद्यति । श० २ । ४ । २ । ६ ॥
अनृतं स्त्री शूद्रः श्वा कृष्णः शकुनिस्तानि न प्रेक्षेत | श० १४ । १ । १ । ३१ ॥
घृतमन्तरिक्षस्य रूपम् । श० ७ । ५ । १ । ३॥
तद् (ब्रह्म) इदमन्तरिक्षम् | जै० उ०२ । ९ ।६॥ अन्तरिक्षं वै प्र, अन्तरिक्षं हीमानि सर्वाणि भूतान्यनुप्रयन्ति । ऐ० २ । ४१ ॥
अन्तरिक्षलोको वै प्रमा (यजु० १४ । १८) अन्तरिक्षलोको ह्यस्माल्लोकात्प्रमित इव । श० ८ । ३ । ३ । ५ ॥
अन्तरिक्षं यच्छान्तरिक्षं दृहान्तरिक्षं मा हिसीः ' (यजु० १४ । १२) इत्यात्मानं यच्छात्मानं दहात्मानं मा हिंसीरित्येतत् (अन्तरिक्षम् = आत्मा) | श० ८ | ३ | ११९ ॥ इयं (पृथिवी ) अन्तरिक्षम् (पृथिवी = अन्तरिक्षम् - वैदिकनिघण्टौ १ । ३) । ऐ० ३ | ३१ ॥
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( ६५९ )
[ अन्तरिक्षम्
अम्बरिक्षम् अन्तरिक्षमेव विश्वं वायुर्नरः । श० ९ । ३ । १ । ३ ॥ अन्तरिक्षं विश्वव्यचाः । तै० ३ । २ । ३ । ७॥ 'अन्तरिक्षस्य पृष्ठे व्यवस्वतीं प्रथस्वतमि' (यजु० १४ | १२) इत्यन्तरिक्षस्य ह्येतत्पृष्ठं व्यवस्वत्प्रथस्वत् । स० ८ । ३ । १ । ९॥
अन्तरिक्षं सावित्री । गो० पू० १ । ३३ ॥
अन्तरिक्षं वै नमासि । तस्य रुद्रा अधिपतयः । तै० ३ । ८ । १८ । १ ॥
अन्तरिक्षं पुरोधाता । ऐ० ८ । २७ ॥
अन्तरिक्षं नाराशंसः । श० १ । ८ । २ । १२ ॥ अन्तरिक्षमाग्नीधम् । तै०२ | १ | ५ | १ ॥
अन्तरिक्षं वाऽ आग्नीधम् । श० ९ । १ । ३ । १५ ॥
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अन्तरिक्षं वाऽ उपयमन्यन्तरिक्षेण हीद
श० १४ । २ । १ । १७ ॥ अन्तरिक्षमुपभूत् । तै० ३ | ३ | १ | २ ॥ ३ । ३ । ६ । ११ ॥ अन्तरिक्षं वाऽ उलूखलम् । श० ७ । ५ । १ । २६ ॥ अन्तरिक्ष ह्येष उद्धिः । श० ६ । ५ । २ । ४ ॥
सर्वमुपयतम् ।
अथ यया विद्धः शयित्वा जीवति वा म्रियते वा सा द्वितीया (इषुः ) तदिदमन्तरिक्ष सैषा रुजा नाम (इषुः ) ।
श० ५।३।५ । २६ ॥
अन्तरिक्षस्य (रूपं) रजताः (सूच्यः) । तै० ३।९।६।५ ॥ ( असुराः) रजतां ( पुरीं ) अन्तरिक्षे ( चक्रिरे ) ।
श० ३ । ४ । ४ । ३ ॥
अन्तरिक्ष मेवोपांशुसवनः । श० ४ । १ । २ । २७ ॥ अयमन्तरिक्षलोको निरुक्तः सम्ननिरुक्तः । श०४ । ६ ।
७ । १७ ॥
मनो ऽन्तरिक्ष लोकः । श० १४ | ४ | ३ | ११ ॥ इयं ( पृथिवी ) वै वागदो ( अन्तरिक्षम् ) मनः । ऐ०
५ । ३३ ॥
वागित्यन्तरिक्षम् । जै० उ० ४ । २२ । ११ ॥
अन्तरिक्षं देषी । जै० ७० ३ | ४ | ८ ॥
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[ अन्तरिक्षम् ( ६६० ) अन्तरिक्षम् अन्तरिक्षं वै वरिवश्छन्दः (यजु० १५ । ४)। श० ८।५ ।
२॥३॥ अन्तरिक्ष वै विवधच्छन्दः ( यजु० १५ । ५) । श० ८। ५।२।५॥ अन्तरिक्षलोको महः । श० १२ । ३।४। ७॥ अन्तरिक्ष एव महः । गो० पू० ५। १५ ॥ महद्वा अन्तरिक्षम् । ऐ०५।१८, १९ ॥ अन्तरिक्षं महाव्रतम् । श० १० । १ ।२।२॥ अन्तरिक्षं वे तृतीया चितिः । श०८:४।१।१॥ अन्तरिक्षं वै मध्यमा चितिः । श०८।७।२।१८॥ अयं मध्यमो (लोकः अन्तरिक्षं) बृहती । तां०७।३।९॥ अन्तरिक्षलोको माध्यान्दनं सवनम् । गो० उ० ४।४॥ अन्तरिक्षलोको वै माध्यन्दिन सवनम् । श०१२।८ । २॥९॥ अन्तरिक्षम्प्रगाथः । जै० उ०३ । ४ । २॥ अन्तरिक्षं वै वामदेव्यम् ( साम) । तै० १ । १ । ८।२॥ २।१।५। ७॥ तां० १५ । १२ । ५ ॥ उपहूतं वामदेव्य (साम ) सहान्तरिक्षण। श०१।८। १। १९॥ ये वधकास्ते ऽन्तरिक्षस्य रूपम् । श० ५।४।५।१४॥ अन्तरिक्षदेवत्यो हि सोमः । गो० उ०२।४॥ वसुरन्तरिक्षसत् (यजु० १२। १४) । श०५।४।३।२२॥ उषस्यमन्वाह तदन्तरिक्षलोकमाप्नोति । कौ० ११।२। १८॥२॥ ( देवाः ) अन्तरिक्ष दिनिधनेन ( अभ्यजयन् )। तां । १०। १२ । ३॥ अथ यदन्तरिक्षे तत्सर्वमुपद्रवेणामोति । जै० उ०१।३१ ॥ ८॥ अन्तरिक्षं सारस्वतेन (अवरुन्धे)। श०१२।८।२। ३२॥ अन्तरिक्षलोकं याज्यया (जयति )। श० १४ । ६ ।।६॥ (देवाः) अन्तरिक्षमुक्थेन (अभ्यजयन् )।तां०९।२॥९॥ (देवाः) उक्थैरन्तरिक्षं (लोकमभ्यजयन्) । तां० २०११॥३॥
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( ६६१ ) अन्तरिक्षम् ] अन्तरिक्षम् अन्तरिक्षमुक्थ्ये न ( अभिजयति)।०३।१२।५।७॥
अन्तरिक्षं.यजुषा ( जयति ) । श० ४।६। ७ । २॥ अन्तरिक्षलोको यजुर्वेदः । ष०१।५॥ अन्तरिक्षं वै यजुषामायतनम् । गो० पू०२ । २४ ॥ यजुषां वायुर्देव तदेव ज्योतिस्पैष्टुभं छन्दो ऽन्तरिक्षं स्थानम् । गो० पू०१ । २९॥ अन्तरिक्षं त्रिष्टुप । जै० उ० १ । ५५ । ३॥ अन्तरिक्षमु वै त्रिष्टुप् । श० १ । ८.। २ । १२॥ त्रैष्टुनमन्तरिक्षम् । श०८।३।४।११ ॥ त्रैष्टुभो ऽन्तरिक्षलोकः । कौ०८॥९॥ अन्तरिक्ष विष्णुळकस्त श्रेष्टुमेन छन्दसा । श० १॥९॥
(प्रजापतिः) भुव इत्येव यजुर्वेदस्य रसमादत्त । तदिदमन्तरिक्षमभवत् । तस्य यो रसः प्राणेदत् स वायुरभवद्र. सस्य रसः । जै० उ० १ । १।४॥ अयमेवाकाशो जूः । यदिदमन्तरिक्षमेत ह्याकाशमनु जयते तदेतद्यजुर्वायुश्चान्तरिक्षं च । श० १० । ३।५।२॥ भुवरिति यजुर्यो ऽक्षरत् । सो ऽन्तरिक्षलोको ऽभवत् । ष०१५॥ भुव इत्यन्तरिक्षलोकः । श० ८ । ७ । ४।५॥ स भुव इति व्याहरत् । सो ऽन्तरिक्षमजत । चातुर्मास्यानि सामानि । तै०२।२।४।२-३॥ वायुरस्यन्तरिक्षे श्रितः ! दिवः प्रतिष्ठा । तै०३।१:
पौरन्तरिक्षे प्रतिष्ठिता । ऐ०३।६॥ गो० उ०३।२॥ सह प्रजापतिरीक्षांवके । कथं विमे (प्रयो) लोका भ्रुवाः प्रतिष्ठिताः स्युरिति स एभिश्चैव पर्वतैर्नदीभिश्चेमाम् (पृथिवीम् ) अहहहयोभिश्च मरीचिभिश्चान्तरिक्ष जीमूतैश्च नक्षत्रैश्च दिवम् । श० ११ । ८।१।२॥ वायु, अन्तरिक्षस्याध्यक्षाः। तै०३।२।१।३॥ युको वातोन्तरिक्षेण ते सह । तां० १ ॥ २॥१॥
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[अन्नम्
( ६६२ ) अन्तरिक्षम् अन्तरिक्षं वै मातरिश्वनो धर्मः । तै० ३ । २ । ३ । २॥
, अन्तरिक्षलोको वै मारुतो मरुतां गणः । श०९।४।
अन्तरिमदेवत्याः खल वै पशवः । तै०३।२।१।३॥ अन्नम् अन्नं बै प्रजापतिः । श. ५। १।३। ७॥
अन्नं वाऽ अयं प्रजापतिः । श०७।१।२।४॥ " यत्तदन्नमेष स विष्णुदेवता । श०७।५।१ । २१॥
अन्नं वै व्यन्ने (वि, अन्ने ) हीमानि सर्वाणि भूतानि विष्टानि ! श० १४ । ८ । १३ । ३ ॥ अन्नं वै पूषा। कौ० १२ ॥ ८ ॥ तै० १ । ७ । ३।६ ॥ ३॥ ८॥ २३ । २॥ अन्नं वाजः । श०५।१।१।१६॥ ८॥१।१।९॥ अन्नं वै वाजः । तै०१।३।६ । २, ६॥ १।३।८।५ ॥ श० ५।१।४।३॥ ६ । ३।२।४ ॥ अन्नं वै वाजाः (०३ । २७ । १)। श० १।४।१।९॥ अन्नं वै वाजपेयः । तै०१।३।२।४॥ अन्नं नमः ( यजु. ११ । ५)। श०६।३।१।१७ ॥
अन्न हि स्वाहाकारः। श०६।६।३। १७ ।। , अन्नं वै स्वाहाकारः । श०९ । १ । १ । १३ ॥
अन्न श्रुष्टिः (यजु०१२। ६८)। श०७।२।२।५॥ ,, अन्न रश्मिः ( यजु० १५ । ६)। श०८।५।३।३॥ , अन्नं वै नृम्णम् । कौ० २७ ॥ ४॥
भर्गो देवस्य ( ऋ०३ । ६२ । १० ) कवयो ऽनमाहुः । गो० पू०
१। ३२॥ , अन्नं वै भद्रम् ( यजु० १९ । ११) । तै० १ । ३।३।६॥ , (मेधः) मेधाय (यजु० १३ । ४७) इत्यनायेत्येतत् । ।०७।
५।२।३२॥ ,, अन्नं प्रेतिः (यजु०१५। ६)। श० ८।५।३।३॥ , अन्नं वै पितुः (यजु०२ । २० ॥ १२ । ६५॥) । श०१।९।
२॥२०॥७।२।१।१५ ॥
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( ६६३ )
[ अन्नम्
सम् अथर्व पितुं मे गोपायेत्याह । अन्नमेवैतेन स्पृणोति । तै० १ |
१ । १० । ४ ॥
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अनं वै पितु । ऐ० १ । १३ ॥
अन्नं वै देवाः पृनीति वदन्ति । तां० १२ | १० | २४ ॥
अन्नं वै पृश्नि । तै०२ । २ । ६ । १ ॥ श० ८ १ ७ । ३ । २१ ॥
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अम्नं वै रूपम् । श० ६ । २ । १ : १२ ॥
अश्नं वै सुरूपम् | कौ० १६ । ३ ॥
अथ यत्कृष्णं तदपां रूपमन्नस्य मनसो यजुषः । जै० उ० १ ।
२५ ।९ ॥
अन्नं वै वयश्छन्दः ( यजु० १५ । ५) । श०८ | ५ | २ | ६ ॥ अन्नं वै गिरइछन्दः ( यजु० १५ । ५ ) | श० ८ | ५ | २ | ५ | १५ । ५ ) । श०८ | ५ | २ | ४ ॥
अनं प्रच्छच्छन्दः ( यजु०
अनं केतः । श० ६ | ३ | १ | १९ ॥
अनं पुरीषम् । श० ८ । १ । ४ । ५ ।। ८ । ७ । ३ । २ ॥
अन्नं व पुरीषम् । श०
१४ । ३ । १ । २३ ॥
८ | ५ | ४ । ४ ॥ ८ । ६ । १ । २१ ॥
अनं वै कम् । ऐ० ६ | २१ || गो० उ० ६ । ३
तदनं वै विश्वम्प्राणो मित्रम् | जै० उ० ३ | ३।६॥
अन्नं व्रतम् । तां० २३ । २७ । २ ॥
अन्नं हि व्रतम् । श० ६ । ६ । ४ । ५ ॥
अनं वै व्रतम् । तां० २२ । ४ । ५ ॥
० ७ । ५ । १ । २५ ।।
अनं भुजिष्याः । श० ७ : ५ । १ । २१ ॥
अन्नंहि गौः । श० ४ | ३ | ४ | २५ ॥ जै० उ० ३ । ३ । १३ ॥ अन्नं वै गौः । तै० ३ । ९ । ८ । ३ ॥
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अनं पशवः । श० ६ । २ । १ । १५ || ७ | ५ | २ | ४२ ॥
आपो वै सूदो ऽन्नं दोहः । श० ८ । ७ । ३ । २१ ॥
अन्नं सोमः । कौ० ९ । ६ ॥ श० ३ | ३ |४| २८ ॥ तां० ६ |
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६१॥
अन्नं वै सोमः । श० ३ । ९ | १ | ८ ॥ ७ । २ । २ । ११ ॥ एतद्वै परममन्नाद्यं यत्सोमः । कौ० १३ । ७ ॥
।
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[अन्नम्
। ६६४ ) भनम् यश वै सोमो राजानाद्यम् । कौ० ९॥६॥ , एष वै सोमो राजा देवानामन्नं यश्चन्द्रमाः । श०१।६।४।
॥२।४।२।७॥ ११ । १।४।४!! , अन्न सुरा । तै०१। ३ । ३।५ ॥ , अन्नं विशः । श०२।१।३।८ ॥ , अनं वै विशः। श० ४।३।३।१२।५।१।३।३॥६।
७।३।७॥ .. अन्नं वै श्रीविराट । गो० पू० ५।४॥ गो० उ०१ । १९ ॥ , श्रीर्विराडन्नाद्यम् । कौ० १ । १ ॥२॥३॥ १२॥ २॥ , श्री विराड् यशोऽन्नाद्यम् । गो० पू० ॥२०॥ गो० उ० ६.१६॥
विराडनाद्यम् । ऐ०४। १६ ॥ ८ ॥ ४॥
एतद्वै कृत्स्नमन्नाद्यं यद्विराट् । कौ० १४ । २॥ , अनं विराट् । कौ०९ ! ६ ॥ १२॥ ३॥ तै० १।६।३।४॥
१।८।२।२॥ तां०४। ८।४॥ अन्नं विराट् तस्माद्यस्यैवेह भूयिष्ठमन्नं भवति स एव भूयिष्ठ
लोके विराजति तद्विराजो विराट्त्वम् । ऐ० १ । ५ ॥ , अन्नं वै विराट् । ऐ०१।५॥४।११॥५॥ १९ ॥६२० ॥
श०७।५।२।१९ ॥ , अन्नं वै पङ्क्तिः । गो० उ०६।२॥
पङ्क्तिी अन्नम् । ऐ० ६ । २० ॥ पातमन्नम् । तां० १३ । १।९॥ पाङ्क्त पञ्चविधम् ) ह्यन्नम् ( अश्यं खाद्यं चोष्यं लेय पेयमिति सायणः)। तां०५।२ । ७॥ अन्नं पा इडा । ऐ० ८ ॥ २६ ॥ कौ० ३।७॥ मनं वा आपः । श० २।१।१।३॥७।४।२।३७ ॥८॥ २।३।६॥ तै०३।८।२।१॥३।८।१७।४॥
अन्नं वृष्टिः । गो० पू० ४।४, ५॥ , सप्तदश न म् । श०८।४।४।७॥ , मन्नं वै सप्तदशः। तां० २।७।७॥ १७ । ६ । २॥ १९ ।
११ । ४॥२०।१०।१॥२५॥ ६ ॥३॥
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( ६६५ )
मत्रम् भनम् अत्रं सावित्री । गो० पू० १॥ ३३ ॥ , अन्नं वै स्वयमातृण्णा (इष्टका)। श०७।४।२।१॥ " अन्न समिष्टयजुः। श० ११ । २।७।३०॥ ,, अन्नं वै यजुष्मत्य इष्टकाः । श०८।७।२॥८॥
अन्नमेव यजुः। श०१०।३।५।६॥ , अकं याज्या । कौ० १५ । ३॥ १६ । ४॥ गो० उ०३। २१ ॥
अन्नं वै याज्या । गो० उ० ३ । २२ ॥ ६८॥ अथो अन्नं निविद इत्याहुः । कौ० १५ । ३, ४ ॥
अन्नमुक्थानि । कौ० ११ ॥ ८ ॥ १७ ॥ ७॥ , असं वा उक्थ्य म् । गो० पू०४। २०॥
अनं वाऽ उक्थ्यः । श० १२।२।२ । ७॥
अनंबै स्तोमाः । श०६।३।३।६॥ " अगं पृष्ठानि । तां०१६ । ९।४॥ , अनं न्यूजः । कौ० २२ । ६, ८॥२५ । १३ ॥ ३०॥ ५॥
अन्नं वै न्यूजः । ऐ०५ । ३ ॥ ६ । २९, ३०, ३६॥ गो० उ०६। ८, १२॥ तस्मादाहुः सामैवानमिति । सा० १ । १।३॥ साम देवानामन्नम् । तां० ६ । ४ । १३ ॥ सो ( प्रजापतिः )ऽब्रवीदेकं वावेदमन्नाधमसृक्षि सामैव । जै० उ०१।११।३॥ एत साक्षादनं यद्राजनं (साम), पञ्चविधं भवति पातं धनम् । तां०३।२।७॥ अचं वै रथन्तरम् । ऐ०८॥१॥ अ वै मरुतः । ते. १।७।३।५ ॥१:७।५।२॥१॥ ७।७।३॥
अयं वै गार्हपत्यः । श० ८।६।३।५॥ ,, एते हि साक्षादशं यदूषाः । तै०१।३।७।६ ॥ , अजं वाऽ ऊगुदुम्बरः। श०३।२।१।३३॥३।३।४।२७॥
अन्न सम्मार्जनानि । तै० ३।३।१।१॥ नाभिवघ्ना (आसन्दी) भवति । अत्र (नाभिप्रदेशे) वाऽ अने प्रतितिष्ठति .....मनोऽएव रेतस भाशया| |२॥
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( ६६६ ) भवम् वरुणो ऽनपतिः । श० १२ । ७ । २ । २० ॥ , तपो मे तेजो मेऽन्नम्मे वाङ् मे । तन्मे त्वयि ( अग्नौ )। जै०
उ०३।२०। १६ ॥ अनादः प्रजापति देवानामन्नादो वीर्यवान् । तै० ३।८।७।१॥ , स यो हैवमेतं वृत्रमन्नादं वेदान्नादो हैव भवति । श०१।६।
.३॥ १७ ॥ मनायम् औदुम्बरं ( यूपम् ) अन्नाद्यकामस्य । १० ४.४॥ " सर्वे (प्रैषाः ) सारस्वता अन्नाद्यस्यैवावरुद्धयै । श० १२ ।
८।२।१६ ॥ अम्वाहार्यपचनः ( अग्निः ) अथैष एव नडो नैषिधो यदन्वाहार्यपचनः ।
श० २।३।२।२॥ अपभरण्यः (नक्षत्रम् ) अनूराधाः प्रथमम् । अपभरणीरुत्तमं तानि
यमनक्षत्राणि । तै० १।५।२। ७ ॥ अपराह: अपराहः प्रतिहारः । जै० उ० १ । १२ । ४॥ अपानः अपानो वरुणः (यजु० १४ । २४) । श०८।४ । २॥६॥
१२।९।२।१२॥ , वरुणस्य सायम् ( कालः) आसवो ऽपानः । तै० १ । ५।
३।१॥ , अपानः प्रस्तोता। कौ० १७॥ ७॥ गो० उ०५।४॥ ,, अपानस्त्रिष्टुप् । तां०७।३। ८ ॥ , अपानो रथन्तरम् । तां ७।६। १४, १७ ॥ , अपानो याज्या। श० १४।६।१ । १२ ॥ ,, प्रत्यञ्चो ऽनुयाजाः (इयन्ते) तदपानरूपम् । श० ११ ।
२।७।२७॥ , अपानो वै यम्ता ( ऋ० ३। १३ । ३) ऽपानेन धयं यतः
प्राणो न पराङ् भवति । ऐ०२।४० ॥ अपापः अधिगुश्चापापश्च । उभौ देवाना शमितारी। तै०३।६।
६।४॥ अपोनमा वनस्तेन यदपोनप्त्रीया (ऋक् ) । ऐ. २॥ १६ ॥ साप, प्रजा वा अन्तुरित्याहुः । गो००५॥९॥
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( ६६७ ) [ममृतम् भतार्यामा प्रजा वा अनुरित्याहुः । प्रजानां यमन इति । गो० उ०
५।९॥ असराः गन्धेन च वै रूपेण च गन्धर्वाप्सरसश्चरन्ति । श०६।४।
१४॥ अभीशुः अभीशवो वै रश्मयः । श०३।४।३। १४ ॥ अभ्रम् अभ्रमेव सविता । गो पू०१। ३३॥ अमावास्या चन्द्रमा वा अमावास्यायामादित्यमनुप्रावेशति ।ऐ०८।२८॥
अथैतदेव वृत्रहत्यं यदामावास्यं ( हविः) वृत्रास्माऽ एतजनुषऽ आप्यायनमकुर्वन् । श० १।६।४ । १२ ॥ आमावास्यं वै सान्नाय्यम् । श० २।४।४।१५॥
अमावास्या वै सरस्वती । गो० उ०१ । १२॥ ,, तस्मादमावास्यायां नाध्येतव्यं भवति । ष०४।६॥ अमृतः अमृता देवाः । श० २।१।३ । ४॥ अमृतम् अमृतं वाऽ आपः। श०१६ । ३.७॥४।४।३। १५ ॥ ,, तद्यत्सदमृत सोमः सः । श०६।५।१।८॥ ,, अमृतं वै हिरण्यम् (यजु० १८ । ५२ )। श०९।४।४।
५॥ तै०१।३।७। ७॥ ,, अमृत हिरण्यम् । श०१०।४।१।६॥ तां०९।९।४॥ , (यजु० १ । ३१ ) तेजो ऽसि शुक्रमस्थमृतमसि ( आज्य!)।
श०१।३।१। २८ ॥ ,, प्राणो ऽमृतम् । श० १०।२।६।१८॥ ,, अमृतमु वै प्राणाः । श०९।१ । २ । ३२॥
सदमृतम् । श०१४।४।१ । ३१ ॥ ॥ अथ यद् ब्रह्म तदमृतम् । जै० उ०१। २५ । १०॥ , अमृतं वा ऋक् । कौ०७।१०॥ , अमृतं वै रुक् (-दीप्तिः ) । श० ७ । ४।२।२१ ॥ ,, अमृतत्वं वै रुक् ( यजु० १८। ४८)। श०९।४।२।१४॥ , अमृतमेव सप्तमी चितिः। श०८।७।४।१८॥
अमृतमिव हि स्वर्गो लोकः । तै० १ । ३ । ७।५ ॥ किं नु ते ऽस्मासु (देवेषु) इति ॥ अमृतमिति । जै० उ०३। २६॥ ८॥
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(मविः
( ६६८ ) अमेध्यम् तद्यदमेध्य रिप्रं तत् । श०३।१।२।११॥ भस्त्रिका अम्बिका ह वै नामास्य (रुद्रस्य) स्वसा। श० २।६।
२॥९॥ (मैत्रायणीसहितायाम् १।१०। २०:-शरदै रुद्रस्य योनिः स्वसाम्बिका......... ...अम्बी वैली भगनानी तस्मात्त्यम्बकाः ॥ काठकसंहितायाम् ३६ । १४:-शरदै रुद्रस्य स्वसाम्बिका ........ अम्बी वै स्त्री भगानानी तस्मात्त्य
म्बकाः॥) भम्भृणः (पात्रविशेषः, वैश्वदेवौ वाऽ अम्भृणावतो हि देवेभ्य उन्नयन्त्य
तो मनुष्येभ्यो ऽतः पितृभ्यः । श० ४।५।६।३॥ भयः (प्रजापतिः । अयसो हिरण्यं ( असृजत) तस्मादयो बह.
ध्मात हिरण्यसंकाशमिवैव भवति । श०६।१।३।५। भयनम् इयं (पृथिवी) वाऽ अपामयनमस्या यापो यन्ति । श०७।
५।२॥५०॥ भयास्यः (भाङ्गिासः) अयास्य उदाता । ऐ०७।१६॥
ते ऽङ्गिरस आदित्येभ्यः प्रजिष्युः श्वः सुत्या नो याजयत न इति तेषां हाग्नित आस त आदित्या ऊचुरथास्माकमध सुत्या तेषां नस्त्वमेव ( अग्ने ) होतासि बृहस्पतिर्ब्रह्मा ऽया.
स्य उगाता घार आङ्गिरसोऽध्वर्युरिति । कौ० ३०। ६ ॥ " अयास्यनाऽऽङ्गिरसेन (उद्गात्रा दक्षिामहा इति) मनुष्या
उत्तरतः (आगच्छन् । । जै० उ०२ । ७ । २॥ मर्कः अस्य ( अग्नेः) एवैतानि ( धर्मः, अर्क, शुक्रः, ज्योतिः सूर्यः)
नामानि | श०९।४।२। २५ ॥ , एतस्य वै देवस्य (रुद्रस्य) आशयावर्कः समभवत्स्वेनैवैनम्
(रुद्रम् । एतद्भागेन स्वेन रसेन श्रीणाति ( यजमानः) । श०
९।१।१।६॥ मर्षिः अजस्त्रेण भानुना दीद्यतमित्यजनेणार्चिषा दीप्यमानमित्येतत् ।
श०६।४।१।२॥ , "परिग्धि हरसा माभिमस्थाः " (यजु० १३ । ४१) इति
पर्येनं वृनध्यर्चिषा मैन हि सीरित्येतत् (हर:=अर्चिः । २०७।५।२॥१७॥
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६६९)
अवि: ]
मार्च: ( शोचषि = अचषि) "ऊर्ध्वा शुक्रा शोचींष्यग्नेः " ( यजु० २७ । ११) इत्यूर्ध्वानि ह्येतस्य (अग्नेः) शुक्राणि शोचींष्यचींषि भवन्ति । श० ६ | २ | १ | ३२ ॥
अर्जुभ्यः (नक्षत्रम्) अर्जुन्यो वै नामैतास्ता एतत्परोऽक्षमाचक्षते फल्गुन्य इति । श० २ । १ । २ । ११ ॥
अर्द्धमासः अर्द्धमासी (- शुक्लकृष्ण पक्षी) वै मित्रावरुणौ ! तां० २५ १० । १० ॥
अथैतावेवार्धमासौ मित्रावरुणौ य एवापूर्यते स वरुणो
यो पक्षीयते स मित्रः । श० २ । ४ । ४ । १५ ॥ अर्धमासा उपसदः । श० १० । २ । ५ । ५ ॥ अर्द्धमासाः प्रस्तावः । ष० ३ । १ ॥
अर्द्धमासः पञ्चदशः । तां० ६ । २ । २ ॥
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'सर्प
अर्बुदः अर्बुदः काद्रवेयो राजेत्याह तस्य सर्पा विशः सर्पविद्याया एकं पर्व व्याचक्षाण इवानु
विद्या वेदः द्रवेत् ।
अर्थमा अर्थ्यमा सप्तहोतॄणां होता । तै० २ । ३।५।६॥ अर्यम्णो वा पतन्नक्षत्रं यत्पूर्वे फल्गुनी । तै० १ । १ । २ । ४ ॥ १ । ५ । १ । २ । ३ । १ । १ । ८ ॥
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अर्द्धमास एव पञ्चदशस्यायतनम् | तां० १० । १ । ४ ॥ अर्धमासा हविष्यात्राणि । श० ११ । २ । ७ । ४ ॥
अर्धमासा हविष्मन्तः । गो० पू० ५ | २३ ॥
अर्द्धमासशेो हि प्रजाः पशव ओजो बलं पुष्यन्ति । तां १० । १ । ६ ॥
अविः अविर्मल्हा (= "गलस्तनयुता" इति सायणः) सारस्वती । श
५। ५ । ४ । १॥
अश्वं चावि चोत्तरत एतस्यां तद्दिश्येतौ पशू दधाति तस्मा देतस्यां दिश्येतौ पशू भूयिष्ठौ । श० ७ । ५ । २ । १५ ॥
। श० १३ | ४ | ३ |९ ॥
अजावी आलभते भूम्ने । तै० ३ । ९ | ८ | ३ ॥
तस्मादु सह सतो ऽजाविकस्योभयस्यैवाजाः पूर्वा यन्त्यनूच्यो
ऽययः । श० ४ | ५ | ५ | ४ ॥
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[अश्वः
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अशनम् (प्रजापतिः) तान् (मनुष्यान्) अब्रवीत् सायम्प्रातो नं
प्रजा वो मृत्युर्यो ऽग्निर्वी ज्योतिरिति । श० २।४।२।३॥ स यो हैवं विद्वान् सायम्प्रातराशी भवति सर्व हैवायुरेति।
श०२।४।२।६॥ , द्विरहो मनुष्येभ्य उपहियते प्रातश्च सायश्च ।तै० १।४।६।२॥
तस्मै (वृत्राय) ह स्म पूर्वढेि देवा अशनमभिहरन्ति मध्य
न्दिने मनुष्याऽ अपराह्ने पितरः : श०१।६।३ । १२॥ अशमाया एको वा अमुस्मिल्लोके मृत्युः । अशनया मृत्युरेव । तै० ३ ।
९।१५। १-२॥ ,, अशनाया हि मृत्युः । श०१०। ६।५११॥ भशनिः कतमस्तनयित्नुरित्यशनिरिति । श०११ । ६।३।६॥ , एतान्यष्टी (रुद्रः, सर्वः शर्वः, पशुपतिः, उग्रः, अशनिः,भवः,
महान्दवः, ईशानः) अग्निरूपाणि । कुमारो नवमः । श०
६।१।३॥ १८ ॥ अश्मा तस्य (वृत्रस्य) एतच्छरीरं यद्रियो यदश्मानः । श०३।४।
३।१३ ॥३।९।४।२॥४:२।५ १५॥ अश्वः ययुर्नामासीत्याह । एतद्वा अश्वस्य प्रियं नामधेयम् । ते० ३ ।
८।९।२॥ ., अश्वो वै बृहद्यः । तै०३।९।५!३॥ श०१३ । २।६।१५॥ ,, (हे ऽश्व त्वं ) हयो ऽसि । तां. १ । ७ । १ ॥ , (हे ऽश्व त्वं ) सप्तिरसि । तां.१। ७।१॥ , (हे ऽश्व त्वं) वृषासि। तां०१। ७ । १॥ , वाजिनो ह्यश्वाः। श०५।१४। १५ ॥ ,, (अश्वो) वाजी (भूत्वा) गन्धर्वान् (अवहत्) । श० १०।६।
.४।१॥ , (हे ऽश्व त्वं ) वाज्यसि। तां० १ । ७ ॥१॥ , ते ( आदित्याः) अबुवन् । यम् ( अश्वम् ) नोऽनेष्ट । सर्यो
ऽभूदिति । तस्मादश्व सवर्येत्याह्वयन्ति । तै० ३ । ९ । २१ । १ ॥ , समुद्र एवास्य (अश्वस्य मेध्यस्य) वन्धुः समुद्रो योनिः (इन्द्रा
श्वस्योच्चैःश्रवसः क्षीरसागरादुत्पत्तिः-महाभारत आदिपवणि, १८ । ३७) । २०१०।६।४।१॥
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( ६७१ )
[ नष्ट
अधः न वै मनुष्यः स्वर्ग लोकमञ्जसा वेदाश्वो वै स्वर्ग लोकमअसा
वेद | श० १३ । १ । ३ । १ ॥
तस्य ( अश्वस्य श्वतस्य ) रुक्मः पुरस्ताद्भवति । तदेतस्य रूपं क्रियते य एष आदित्यः ) तपति । श० ३ । ५ । १ । २० ॥ जागतो ऽश्वः प्राजापत्यः । तै० ३ | ८ | ८ | ४ ॥
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३।९।९।२।
अभ्वं चावि चोत्तरतः, एतस्यां तद्दिश्येतौ पशू दधाति तस्मादेतस्यां दिश्येतौ पशू भूयिष्ठौ । श० ७ | ५ | २ | १५ ॥
अश्रमेषः प्रजापतिरश्वमे त्रः । श० १३ । २ । २ । १३ ॥ १३ | ४ |
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( प्रजापतिः) वारुणमश्वं ( आलिप्सत ) । श० ६ । २ । १ । ५ ॥
स हि वारुणो यदश्वः । श० ५ । ३ । १ । ५ ॥
सोमो वै वृष्णो अश्वस्य रेतः । तै० ३ । ९१५८५॥
अश्वस्य वा आलब्धस्य रेत उदक्रामत् । तत्सुवर्ण हिरण्यमभवत् । तै० ३ | ८ | २ | ४ ॥ ० १३ । १ । १ :३ ॥
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अश्वमालभते श्री एकशफम् । श्रियमेवावरुन्धे । तै०
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विमौ युव सुरानमश्विना नमुचाचासुरे सचा विपिपाना शुभस्पती इन्द्रं कर्मस्वावतम् (ऋ० १० | १३१ । ४ ॥ यजु० १० । ३३ ॥ ) इत्याश्राव्याहाश्विनौ सरस्वतीमिन्द्र सुत्रामाणं यजेति । श०५ | ५ | ४ | २५ ||
......
१ । १५ ।।
I
अग्निर्वा अश्वमेधस्य योनिरायतनम् । तै०३ । ९ । २१ । २,३ ।। सो ऽश्वमेधेनेष्ट्रा स्वराडिति नामाधत्त । गो० पू० ५ । ८ सर्वस्यैष न वेद यो ब्राह्मणः सन्नश्वमेधस्य न वेद, सो ब्राह्मणः । श० १३ । ४ । २ । १७ ॥
आश्विनं धूम्रमालभते । तै० १ | ८ | ५ | ६ ॥
I
लोद्दितः (अज) आश्विनो भवति । श० ५ । ५ । ४ । १ ॥
सर्वे (प्रैषाः) आश्विना भवन्ति । भैषज्याय । श०१२ | ८ | २ । १६ ॥
"नमुचि" शब्दमपि पश्यत ॥
"
अह अष्टरात्रेण वै देषाः सर्वमनुवत । तां० २२ । ११३ ६ ॥
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[मसुर
( ६७२ मटका संवत्सरस्य प्रतिमां यां (एकाष्टकारूपां) त्वा रात्रि यजामहे ।
मं० २।२।१८॥ , एषा वै संवत्सरस्य पत्नी यदेकाष्टका। ता०५।९।२॥ ,, संवत्सरस्य या पत्नी (एकाष्टकारूपा) सा नो अस्तुसुमङ्गली।
(अथर्व०३।१०।२) । मं० २।२।१६॥ भटरानः एतेन वै अष्टरात्रेण) देवा देवत्वमगच्छन् देवत्वं गच्छति
। य एवं वेद । तां० २२ । ११ । २-३॥ भसत् असद्वाऽ इदमग्रऽ आसीत् । श०६।१।१।१॥ , इदं वा अग्रे नैव किंचनासीत् । न द्यौरासीत् । न पृथिवी ।
नान्तरिक्षम् । तदसदेव सन्मनो ऽकुरुत स्यामिति । ते०२।२।
६।१॥ मसमरथः ( यजु० १५। १७ ) तस्य ( आदित्यस्य ) रथप्रोतश्चासमर
थश्च सेनानीग्रामण्याविति वार्षिकी तावृत् । श०८।६।
१।१८॥ भसिः असिं वै शास इत्याचक्षते । श० ३ । ८।१।४॥ मसितः असितो धान्वो राजेत्याह तस्यासुरा विशः। श० १३ । ४ ।
३।११॥ असुरः उभये वा एते प्रजापतेरध्यसृजन्त । देवाश्चासुराश्च । तै०१।
४१।१॥
सः (प्रजापतिः) ......अकामयत प्रजायेयेति । स तणे ऽत. प्यत । सो ऽन्तर्वानभवत् । स जघनादसुरानसृजत...... स मुखाद्देवानसृजत । तै० २।२।६।५-८॥ स (प्रजापतिः ) आस्येनैष देवानसृजत ...... तस्मै स. सृजानाय दिवेवास। ...... अथ यो ऽयमवा प्राणः, तेनासु. रानसृजत। ...... तस्मै ससृजानाय तम इवास । श० ११। १।६। ७-८॥ ते देवाश्चक्रमचरम्छालम् (-चक्रव्यतिरिक्तं साधनमिति सा.
यणः) असुरा आसन् । श०६ । ८।१।१॥ , ते देवाः प्रजापतिमेवाभ्ययजन्त। अन्योऽन्यस्यासन्नसुरा
महपुर। ...... प्रजापतिर्देषानुपाषर्तत। गो० उ० १०॥
"
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( ६७३ )
महः] भसुरः एकाक्षरं वै देवानामवमं छन्द आसीत्सप्ताक्षरं परमन्त्रवाक्षर.
मसुराणामवमं छन्द आसीत् पञ्चदशाक्षरं परमम् । तां० १२॥ १३ । २७ ॥ ते ऽसुरा ऊर्व पृष्ठेभ्यो ना ऽपश्यन् । ते केशानग्रे ऽवपन्त । अथ श्मणि । अथोपपक्षी । ततस्ते ऽवाच आयन् । पराभवन् । यस्यैवं वपन्ति । अवाति । अथो परैव भवति । तै० १।५। ६ । १-२॥ यशो ऽसुरेषु विदद्वसुः। तां०८।३। ३ ॥ ततोऽसुरा उभयीरोषधीर्याश्च मनुष्या उपजीवन्ति याश्च पशवः कृत्ययेव त्वद्विरेणेव त्वत्प्रलिलियुरुतैवं चिद्देवानभि. भवेमेति ततो न मनुष्या आशुनै पशव आलिलिशिरेता हेमाः प्रजा अनाशकेनोत्पराबभूवुः ...... ते (देवाः) होचुर्हन्तेदमासामपजिघांसामेति केनेति यझेनैवेति । श० २।४।३। २-३॥
ते वा असुरा इमानेव लोकन्पुरो ऽकुर्वत । ऐ०१॥ २३ ॥ , असुराणां वा इयं (पृथिवी) अग्र आसीत् । तै०३।२।९।६॥ " अर्वाग्वसुई वै देवानां ब्रह्मा पराग्वसुरसुराणाम् । गो. उ०
, पराषसुई वै नामासुराणा, होता। श० १ । ५।१ । २३ ॥
उशना वै काव्यो ऽसुराणां पुरोहित आसीत् । तां० ७।५।२०॥ भम रक्षसां भागो ऽसि (यजु०६ । १६) इति रक्षसा होष भागो
यदखा । श०३।८।२। १४ ॥ , स यदना रक्षः संसृजतादित्याह रक्षांस्येव तत्स्वेन भागधेयेन
(असूपेण ) यज्ञानिरवदयते । ऐ० २ । ७॥ मस्थि अस्थीनि वै समिधः । श० ६ । २ । ३ । ४६ ॥ , अस्थीष्टकाः । श०८।१।४।५।८।७।४।१६ ॥ , अस्थि प्रतिहारः। जै० उ०१ । ३६ । ६ ॥ भाः अहमित्रः । तां० २५ । १० । १०॥ , अब मित्रः। ऐ०४ । १०॥ ,, अहरेव सविता । गो० पू० १ ॥ ३३ ॥ ;, यो वै खः (यजु० १.११) अहर्देवाः सूर्यः। श०१।१।२।२॥
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। अहोरात्रे
( ६७४ ) महः अहः स्वर्गः । श० १३।२।१ । ६॥ , अहः स्वर्गो लोकः । ऐ०५। २४॥ , अग्निर्वाऽ अहः सोमो रात्रिः । श०३।४।४ । १५ ॥ ,, यजुषसत्यः ( इष्टकाः ) ज्योतिस्तद्धया रूपम् । श०१०१२।
, अहर्व पान्तम् (ऋ० ८। ९२ । १॥)। तां० २ । १ । ७॥ , अहधै शवलो रात्रिः श्यामः । कौ० २ । ९ ॥ , अहर्युष्टिः । तै० ३।८ । १६ । ४॥ , अहवै वियच्छन्दः (यजु० १५ । ५) । श० ८।५।२।५ ॥ ,, सब्दमहः (सब्दःऋतुविशेषः, तैत्तिरीय लंहितायाम् ४।४।७।
२॥५। ३ । ११ । ३॥ सायणमाप्ये ऽपि )। श०१।७।२।२६॥ ,, ( पूर्वपक्षापरपक्षयोः ) यान्यहानि ते मधुवृषाः । तै० ३ । १०
१०।१॥ ,, अहा विष्णुक्रमाः । श०६।७।४।१२॥ ,, ब्रह्मणो वा एतद् यदहः । श० १३।१।५।४॥ ,, ब्रह्मणो चै रूपमहः क्षत्रस्य रात्रिः। तै० ३। ६ । १४।३॥ ,, अहर्बार्हतम् । ऐ० ५ । ३० ॥ अहिः अथ (वृत्रः) यदपालमभवत्तस्मादहिस्तं दनुश्च दनायुश्च मातेव
च पितेव च परिजगृहतुस्तस्माद्दानव इत्याहुः । श०१।६।
अहिर्बुध्न्यः अहिर्बुनियस्योत्तरे (प्रोष्ठपदाः)। तै० १ । ५। १।॥ अहोरात्रे अहोरात्रे वा उपासानता ! ऐ० २।४॥ , अहोरात्रे वै नक्तोषासा ( यजु० १२ । २॥ ) । श० ६।७।
२।३॥ अहोरात्रे वै गोआयुषी । कौ० २६ । २॥ अहोरात्रे वै नृवाहसा । तै० ३।६।४।३॥ ( आदित्यस्य) प्रम्लोचन्ती चानुम्लोचन्ती चाप्सरसौ (यजु० १५ । १७ ) इति दिक् चोपदिशा चेति ह स्माह माहित्थिरहोरात्रे तु ते, ते हि प्रच म्लोचतो ऽनु च म्लोचतः । श०८।
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। ६७५ )
[आज्यम् अहोराने तद्वाऽ अहोरात्रेऽ एव विष्णुक्रमा भवन्ति । श०६।७।
४।१०॥ ,, अहोरात्रे वात्सप्रम् ( सूक्तम् ) । श६।७। ४।१०॥
यौ द्वौ स्तोभावहोरात्रे एव ते । जै. उ० १ । ११ । ५ ॥ अहोरात्र वै रोहिणी ( पुरोडाशौ )। श. १४ । २।१ । ३ ॥ अहोरात्रौ वै मित्रावरुणौ । तां० २५ । १० । १० ॥ अहोरात्रे वै पिशंगिले । श० १३ । २ । ६ । १७ ।। अहोरात्राणि वा उपसदः । श०१०।२।१४॥ अहोरात्राणि हिङ्कारः । ष. ३।१॥ अहोरात्राणि वे वरूत्रया ऽहाराही सर्व वृता । श०६।
अहोरात्राणां वाऽ एतद्रूपं यद्धानाः । श० १३१२।१ । ४ ॥
(आ) आकाशः आत्मा त्वाऽएष वैश्वानरस्य ( यदाकाशः) । श० १० ।
६।१।६॥ ., एष वै बहुलो वैश्वानरः ( यदाकाशः) । श० १० । ६ ।
, आकाशस्सावित्री । जै० उ०४।२७ । ५॥ भामीघ्रः वसन्त आग्नीध्रस्तस्माद्वसन्तें दावाश्चरान्ति तद्धयनिरूपम् ।
श० ११ । २।७। ३२॥ आमीधीयः ( पुरुषस्य ) बाहू मार्जालीयश्चाग्नीध्रीयश्च । कौ०१७ ॥ ७ ॥ भाज्यम् तेज आज्यम् । तै०३।३।४।३॥३।३।९।३॥ , ( यजु० १ । ३१) तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि (आज्य!)। श०
१।३।१।२८॥ , एतद्रेतः। यदाज्यम्। तै०१।१।९।४॥ , मेधो वा आज्यम् । तै०३।९।१२।१॥ , एतद्वै मधुदैव्यं यदाज्यम् । ऐ०२।२॥
(=विलीनं सर्पिः) तदाहुः । किन्देवत्यान्याज्यानीति प्राजापसानीति ह श्रूयाइनिरुतो वै प्रजापतिरनिरुक्तान्याज्यानि । श०१।६।१।२०॥
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[ भारमा
( ६७६ )
भाज्यम् अथैषाज्याहुतिर्यद्धविर्यज्ञो यत्पशुः (= पशुयज्ञः ) । श० १ |
७ । २ । १० ॥
भाजनम् वृत्रस्य ह्येष कनीनकः ( यदाअनम् ) । श० ३ । १।३ । १५ ॥ भाण्डौ आण्डौ वै रेतः सिचौ, यस्य ह्याण्डौ भवतः स एव रेतः सि. श्ञ्चति । श० ७ । ४ । २ । २४ ॥
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आण्डाभ्यां हि वृषा पिन्वते । श० १४ । ३ । १ । २२ ॥ आतिथ्यम् शिरो वै यज्ञस्यातिथ्यम् । श० ३ । २ । ३ । २० ॥
भातिष्ठम् अथैनं ( इन्द्रं ) ऊर्ध्वायां दिशि मरुतश्वाङ्गिरलश्च देवाः..... अभ्यषिञ्चन्... पारमेष्ठयाय माहाराज्यायाऽऽधिपत्याय स्वावश्यायाssतिष्ठाय । ऐ० ८ । १४ ॥
आमा आत्मा ह्ययं प्रजापतिः । श० ४ । ६ । १ । १ । ११ । ५ । ९ । १ ॥ आत्मा तनूः । श०७ । ३ । १ । २३ ॥ ७ । ५ । २ । ३२ ॥ आत्मा (= शरीरम् ) वै पूः । श० ७ । ५ । १ । २१ ॥ 'अन्तरिक्षं यच्छान्तरिक्षं दृहान्तरिक्षं मा हिंसीः' (यजु० १४ । १२ ) इत्यात्मानं यच्छात्मानं दृहात्मानं मा हिंसीरित्येतत् ( अन्तरिक्षम् = आत्मा ) | श० ८ । ३ । १ ! ६ ॥ आत्मा वै वृषाकपिः । ऐ० ६ । २९ ॥ गो० उ० ६ १ ८ ॥ (होता) यदि वृषाकपिम् (वृषाकपिदृष्टम् -ऋ० १० । ८६ । १ - २३ एतत्सूक्तमन्तरियात्-लोपयेत्तदानीम् ) आत्मानम् ( = मध्य देहमिति सायणः ) अस्य ( यजमानस्य ) अन्तरियात् । ऐ०५ । १५ ॥
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आत्मा वै वेनः (ऋ० १० । १२३ । १ ) । कौ० ८।५ ॥ आत्मा वै समस्तः सहस्रवस्तोकवान् पुष्टिमान् । ऐ०२ । ४० ॥ आत्मा सूक्तम् । कौ० १४ । ४ । १५ । ३ ॥ १६ ॥ ४ ॥ २३ ॥ ८ ॥
आत्मा वै स्तोत्रम् । श० ५ । २ । २ । २० ॥
आत्मैव स्तोत्रियः । जै० उ० ३ | ४ | ३॥
आत्मा वै स्तोत्रियः । कौ० १५ | ४ || २२ | ८ | ऐ० ३ । २३, २४ ॥ ६ ॥ २६ ॥ गो० उ० ३ । २२ ॥
आत्मा वै स्तोत्रियानुरूपौ । कौ० ३० ॥ ८ ॥
आत्मा महदुक्थम् । श० १० । १ । २१५ ॥
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( ६७७ )
आत्मा आत्मा उपांशुसवनः । ऐ० २ । २१ ॥
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आत्मा वै यज्ञस्य होता । कौ० ९ । ६ ॥
आत्मा होतृचमसः । ऐ० २ । ३० ॥
आत्मा वै ब्राह्मणाच्छंसी । कौ० २८ । ९॥
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भादित्यः अलौ वा आदित्यो विवस्वानेष ह्यहोरात्रे विवस्ते तमेष (मृत्युः) वस्ते सर्वतो होनेन परिवृतः । श०१० । ५ । २ । ४ ॥ विवस्वन्नादित्यैष ते सोमपीथः । श० ४ । ३ । ५ । १८ ॥ यं ( मार्तण्डं ) उ ह तद्विचकुः ( देवा आदित्याः, ) स विवस्वानादित्यस्तस्येमाः प्रजाः । श० ३ । १ । ३ । ४ ॥ असौ वाऽ आदित्यः सूर्यः (यजु० १८ । ५० ) । श० ९ । ४। २ । २३ ॥
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आत्मा लोकम्पृणा ( इष्टका ) । श० ८ । ७।२१८॥ आत्मा वै बृहती । ऐ० ६ । २८ ॥ गो० उ० ६ | ८ ॥
आत्मा त्रिष्टुप् । श० ६ । २ । १ ।
२४ । ६ । ६ । २ । ७ ॥
आत्मा वै होता। कौ० २२ । ८ ॥ ऐ० ६ । ८ ॥ गो० उ० ५ ।
आदिस्य ]
असावादित्यो देवः सविता । श० ६ । ३ । १ । १८ ॥ आदित्य एव सविता । गो० पू० १ १ ३३ ॥ जै० उ० ४ । २७ । ११ ॥
धातासौ स आदित्यः । श० ९ । ५ । १ । ३७ ॥
स एष (आदित्यः ) सप्तरश्मिर्वृषभस्तुविष्मान् ( ऋ० २ । १२ । १२ ) । जै० उ० १ । २८ । २ ।
"यस्तप्तरश्मिः” (ऋ० २ । १२ । १२ ) इति । सप्त होत आदित्यस्य रश्मयः । जै० उ० १ । २९ । ८ ॥
"युक्ता हास्य ( इन्द्रस्य ) हरयश्शतादश" (ऋ० ६ / ४७ । १८ ) इति सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः । ते ऽस्य युक्तास्तैरिदं सर्वं हरति । तद्यदेतैरिदं सर्वे हरति । तस्माद्धरयः ( = रश्मयः ) । जै० उ० १ । ४४ । ५ ॥
स यः स विष्णुर्यशः सः । स यः स यक्षो ऽसौ स आदित्यः ( विष्णु. = आदित्यः ) । श० १४ । १ । १ । ६ ॥
एष वै वृषा हरि: (यजु० ३८ | २२ ) य एष ( आदित्यः ) तपति । श० १४ । ३ । १ । २६ ॥
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[ आदित्यः
( ६७८ )
आदित्यः असौ वै वैश्वानरो यो ऽसौ ( आदित्यः ) तपति । कौ० ४ |
३ । १६ । २ ।।
स यः स वैश्वानरः । असौ स आदित्यः । श०९ | ३ | १ । २५ ॥
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चक्षुस्त्वाऽपतद्वैश्वानरस्य ( यदादित्यः ) | श० १०|६|१| ४ || एष वै सुततेजा वैश्वानरः ( यदादित्यः ) । श० १० ।
६ । १६८ ॥
"वृषभः " ( ऋ० २ । १२ । १२ ) इति । एष ( आदित्यः ) ह्येवाऽऽसाम्प्रजानामुषभः । जै० उ० २ । २९ । ८ ।।
आदित्यो बाजी । तै० १ । ३ । ६ । ४ ।
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असौ वा आदित्यो ब्रध्नो ऽरुषः । श० १३ । २ . ६ १॥ असौ वा आदित्यो ब्रघ्नः । तै०३ । ९ । ४ । १ ॥
आदित्यो वै वृषाकपिः । गो० उ० ६ । १२ ॥
असावादित्यो वेनो यद्वै प्रजिजनिषमाणो ऽवेनत्तस्माद्वेनः । श०७ १४ । १ । १४ ॥
सयस कूर्मो ऽसौ ल आदित्यः । श० ७।५।१।६॥ ६ । ५ । १ । ६ ॥
असौ वै षोडशी यो ऽसौ ( आदित्यः ) तपति । कौ० १७ । १ ॥
असावादित्यः षोडशी ( यजु० १५ । ३ ) । श० ८ । ५ । १ । १० ॥
एष ( आदित्यः ) दीक्षितः ( अथर्व० ११९ । ५१६॥ ) । गो० पू० २ । १ ॥
असौ वा आदित्यो दिव्य रोचनम् । श० ६ | २/१,२६ ॥ असौ वा आदित्यो दिव्यो गन्धर्वः (यजु० ११ । ७ ॥ ) । श० ६ । ३ । १ । १९ ॥
असौ वा आदित्यो विश्वव्यचाः (यजु० १३ । ५६ ।। १५ । १७) यदा होवैष उद्देत्यथेद सर्वे व्यत्रो भवति । श० ८ । १ । २ । १ ।। ८ । ६ । १ । १८५ ॥
असौ वाऽ आदित्यो व्यचच्छन्दः (यजु० १५ । ४ ) । श० ८ । ५ । २ । ३ ॥
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( ६७९ )
आदित्यः] भादित्यः असौ वा आदित्यो भा इति । जै० उ० १।४।१॥ , असौ वा आदित्यो हसः शुचिषत् ( यजु० १२ । १४)।
श० ६ । ७ । ३ । ११॥ ,, एष ( आदित्यः) वै हंसः शुचिषद (ऋ.४।१०।५)।
ऐ० ४ । २०॥ असो वा आदित्यस्तपः । श० ८ । ७।१॥ ५॥ ( आदित्यस्थः) पुरुषो यजूषि । श० १० १ ५। १ । ५ ॥ अथ य एष एतस्मिन् ( आदित्य-)मण्डले पुरुषः सो ऽग्निस्तानि यजूषि स यजुषां लोकः । श० १० ।५।२।१॥ असो वा आदित्य एषो ऽग्निः ( यजु० ११ । ३१) । श० ६ । ४।१।१॥६।४।३।९, १०॥ आदित्यो वाऽ अस्य (अग्नेः) दिवि वर्चः। श० ७।१।१।२३॥ अयं वाऽ अग्नितमंसावादित्यः सत्यं यदि वासावृतमय७ ( अग्निः ) सत्यमुभयम्वेतदयमग्निः । श०६ । ४।४।१०॥ एष ( आदित्यः) वै सत्यम् । ऐ०४ । २०॥ सत्यमेष य एष (आदित्यः) तपति।श० १४।१।२।२२॥ असावादित्यः सत्यम् । तै०२।१ । ११ । १॥ तद्यत्तत्सत्यम् । असौ स आदित्यो य एष एतस्मिन्मण्डले
पुरुषः । श० १४ । ८।६। २३ ॥ _ सत्य हैतद्यद्रकमः । ..........तद्यत्तत्सत्यम् । असौ स
आदित्यः । श०६।७।१।१-२॥ । तस्य (अश्वस्य श्वतस्य) रुक्मः पुरस्ताद्भवति । तदेतस्य
रूपं क्रियते य एष ( आदित्यः) तपति। श०३।११।२०॥
असो वाऽ आदित्य एष रुक्मः । श० ६ । ७।१।३॥ , आदित्यस्य (रूपं) रुकमः । तै० ३।९।२०।२॥
असो वाऽ आदित्य एष रुक्म एष हीमाः सर्वाः प्रजा
अतिरोचते । श०७।४।१।१० ॥ ___ आदित्यो वै भर्गः । जै००४।२८ ॥ २ ॥ , आदित्य एव चरणं यदा ह्वैष उदेत्यथेदछ सर्व चरति ।
श० १० । ३। ५। ३॥
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[आदित्यः
( ६८० ) आदित्यः असो वाऽ आदित्यो हृदयम् । श०९ । १ ।२।४० ॥ , असो वाऽ आदित्यो द्रप्सः ( यजु० १३ । ५॥)। श०७ ।
४।१। २०॥ असो वाऽ आदित्यः सहितः ( यजु. १८ । ३९) एष ह्यहोरात्रे संदधाति । श०९।४।१।८॥ असौ वा आदित्य एष रथः । श०९।४।१। १५॥ तस्य (आदित्यस्य) रथप्रोतश्चासमरथश्व (यजु०१५। १७ ) सेनानीग्रामण्याविति वार्षिकौ तावृतू । श० ८ । ६ । २ । १८॥ तद्यदेष ( आदित्यः) सवैलॊकैस्समस्तस्मादेष (मादित्यः) एव साम । जै० उ०१ । १२ । ५ ।। (प्रजापतिः) स्वरित्येव सामवेदस्य रसमादत्त । सो ऽसौ धौरभवत् । तस्यं यो रसः प्राणेदत् स आदित्यो ऽभवद्रसस्य रसः । जै० उ०१।१॥ ५॥ सानामादित्यो देवतं तदेव ज्योतिर्जागतच्छन्दो द्यौः स्थानम् । गो० पू० १ ॥ २६॥ यदनुदितः ( आदित्यः ) स हिङ्कारः। जै० उ० १ । १२॥४॥ असावादित्य स्तोमभागाः । श० ८।५।४।२॥ स यः स यक्षो ऽसौ स आदित्यः । श० १४।१।१।६॥ एष वै संवत्सरो य एष ( आदित्यः) तपति । श० १४।
१।१।२७॥ , स यः स संवत्सरो ऽसौ स आदित्यः । श० १०।२।४।३॥ , आदित्य एव प्रायणीयो भवति । श०३२।३।६॥
तदसौ वा आदित्यः प्राणः । जै० उ० ४ । २२ ॥ ९ ॥ आदित्यो वै प्राणः । जै० उ०४ । २२ । ११॥ उद्यन्नु खलु वा आदित्यः सर्वाणि भूतानि प्रणयति तस्मा. देनं प्राण इत्याचक्षते । ऐ०५ । ३१ ॥
असो वाऽ आदित्यः कविः । श० ६ । ७।२।४ ॥ __ आदित्यो वै धर्मः । श०११ । ६।२।२॥ " असौ वै धर्मों यो ऽसौ (आदित्यः) तपति । कौ०२।१॥
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(६८१ )
आदित्या मादित्यः आदित्यो निवित् । जै० उ०३।४।२॥
, यन्महान्देव आदित्यस्तेन । कौ० ६।६॥ , असो वाऽ आदित्यः शुक्रः ( यजु० १८।५०)। श० ९।
४।२।२१॥ एष वै शुक्रो य एष ( आदित्यः) तपति । श० ४।३। १।२६ ॥ ४।३।३ । १७ ॥ यद्वाऽ एष एव शुक्रो य एष ( आदित्यः ) तपति तद्यदेष
तपति तेनैष शुक्रः । श०४।२।१।१॥ , तत्र ह्यादित्यः शुक्रश्चरति । गो० पू० २ ॥९॥
असो वा आदित्यः शुक्रः । तां० १५ । ५ ॥ ९ ॥ आदित्यो वाव पुगोहतः । ऐ०८ । २७ ॥ आदित्यो वै देवसंस्फानः । गो० उ०४।९॥
असो वा आदित्यो लोकम्पृणा (इष्टका) । श० ८५४॥८॥ ___ असो वाऽ आदित्यो लोकम्पृणैष हीमाल्लोकान्पूरयति । श०
८।७।२।१॥ वायुर्वा एतं ( आदित्यं ) देवतानामानशे। तां०४।६।७॥ तदसावादित्य इमालोकान्त्सूत्रे समावयते तद्यत्तत्सूत्रं वायुः सः । श०८।७।३।१०॥ सा या सा वागसौ स आदित्यः । श० १० ।५।१४॥ आदित्य एव यशः । गो० पू० ५ । १५ ॥ आदित्यो यशः । श०१२।३।४।८॥ आदित्यो यूपः । तै० २।१।५।२॥ असो वा अस्य ( अग्निहोत्रस्य कर्तुः ) आदित्यो यूपः। ऐ० ५। २८॥ अथ यद्विषुवन्तमुपयन्ति । आदित्यमेव देवतां यजन्ते । श० १२ । १।३।१४॥ आदित्यो बृहत् । ऐ० ५। ३०॥ असो वाऽ आदित्यो ब्रह्म ( यजु० १३ । ३) । श०७।४।
१।१४ ॥१४ । १ । ३।३॥ , आदित्यो वै ब्रह्म । जै० उ०३।४।९॥ " असावादित्यः सुब्रह्म । १०१।१॥
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( आदित्याः (६८२ ) मादित्यः हन्तेति चन्द्रमा ओमित्यादित्यः । जै० उ०३ । ६ । २ ।। , ओमित्यादित्यः । ज० उ० ३ । १३ ॥ १२ ॥
ओमित्यसौ यो ऽसौ ( आदित्यः ) तपति । ऐ० ५। ३२॥ यदेतत् ( आदित्य-)मण्डलं तपति । तन्महदुक्थं ता ऋचः स ऋचां लोकः । श० १०।५।२।१॥
( आदित्यस्य ) मण्डलमेवऽर्चः । श० १० । ५। १ । ५॥ , अग्निश्च ह वा आदित्यश्च रौहिणावेताभ्या७हि देवताभ्यां
यजमानाः स्वर्ग लोक रोहन्ति । श०१४।२।१।२॥ छन्दोभिर्वे देवा आदित्य स्वर्ग लोकमहरन् । ता० १२ ।
त्रैष्टुभो वा एष य एष (आदित्यः) तपति । कौ० २५ । ४ ॥ , त्रैष्टुब्जागतो वा आदित्यः । तां०४।६ । २३॥ , जगती छन्द आदित्यो देवता श्रोणी । श० १०।३।२। ६ ॥ , स ( आदित्यः ) उद्यन्नेवामूम् (दिवम् ) अधिद्रवत्यस्तं
यन्निमाम् ( पृथिवीम् ) अधिद्रवति । श० १ । ७ । २ । ११॥ ,, सूर्यशब्दमपि पश्यत ॥ मादित्याः अदितिः पुत्रकामा साध्येभ्यो देवेभ्यो ब्रह्मौदनमपचत् ।
तस्या उच्छेषणमददुः । तत्प्राश्नात् सा रेतो ऽधत्त । तस्यै धाता चार्यमा चाजायेताम् । " मित्रश्च वरुणश्चाजाये. ताम् । ... अंशश्च भगवाजायेताम् । ... इन्द्रश्च विवस्वांश्चाजायेताम् । तै०१।१।९।१-३ ।। अदितिर्वै प्रजाकामौदनमपचत्तत उच्छिष्टमाश्नात् सा गर्भमधत्त तत आदित्या अजायन्त । गो० पू०२ । १५ ॥ (प्रजापते रेतस उत्पन्नं ) यत्तृतीयमदीदेदिव त आदित्या अभवन् । ऐ० ३ । ३४ ॥ द्वय्यो ह वा इदमग्रे प्रजा आसुः। आदित्याश्चैवाङ्गिरसश्च । श०३।५।१।१३॥ विश्वकर्मा त्वादित्यैरुत्तरतः पातु । श० ३ । ५।२।७॥
वरुण आदित्यैः ( उदक्रामत् ) । ऐ०१ । २४॥ , वरुण आदित्यैः (व्यद्रवत् )। श०३।४।२।१॥
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( ६८३ )
आदित्याः] मादित्याः आदित्यास्त्वा पश्चादभिषिञ्चन्तु जागतेन छन्दसा । तै०
२१७ । १५ । ५॥ , अथैनं ( इन्द्रं ) प्रतीच्या दिश्यादित्या देवाः ... अभ्यषि.
चन् ... स्वाराज्याय ! ऐ० ८ । १४ ॥ गावो वा आदित्याः । ऐ० ४ । १७ ॥ आदित्या एव यशः । गो० पू० ५। १५ ॥ आदित्यानीमानि यजूषीत्याहुः । श० ४।४।५।१९॥ आदित्यानीमानि शुक्लानि यजूषि वाजसनेयेन याक्षवल्क्ये नाख्यायन्ते । श. १४ । ९ । ४ । ३३ ॥ आदित्यानां तृतीयसवनम् । कौ० १६ । १॥ ३०।१॥ श० ४।३।५।१ ॥
आदित्यं हि तृतीयसवनम् । तां०९।७।७!! , अथेमं विष्णुं यज्ञं त्रेधा व्यभजन्ते । वसवः प्रातःसवन
रुद्रा माध्यन्दिन सवनमादित्यास्तृतीयसवनम् । श०१४। १।१।१५॥
जगत्यादित्यानां पत्नी । गो० उ०२ । ६ ॥ , आदित्यानां वा एतद्रपम् यल्लाजाः । तै०३।८।१४।४॥
वसवो वै रुद्रा आदित्या सावभागाः । तै०३।३।
९। ७॥ " तान् हादित्यानङ्गिरसो याजयाञ्चकः । गो० उ० ६ । १४ ॥
त एतेन सद्यःक्रियाङ्गिरस आदित्यानयाजयन् । श० ३ । ५।१ । १७॥ आदित्याश्वाङ्गिरसश्चतत् सत्र समदधतादित्यानामेकवि.
शतिरङ्गिरसां द्वादशाहः । तां० २४ । २ । २ ॥ आदित्या वा इत उत्तमां सुवर्ग लोकमायन् । ते वा इतो यन्तं प्रतिनुदन्ते । तै० १ । १ । ९ । ८॥ ( आदित्याः ) स्वर्ग लोकमायनहीयन्ताङ्गिरसः । तां० १६ । १२॥१॥ ते हादित्याः पूर्व स्वर्ग लोकं जग्मुः पश्वाङ्गिरसः षष्टयां
वा वर्षेषु । ऐ०४। १७॥ , तत उ हादित्याः स्वरीयुः । कौ ३०। ६ ॥
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[ आपः
( ६८४ )
आदित्याः तऽ आदित्याः । चतुर्भि स्तोमैश्चतुर्भिः पृप्रैर्लघुभिः सामभिः स्वर्ग लोकमभ्यप्लवन्त । श० १२ । २ । २ । १० ॥
तस्य ( स्वर्गस्य लोकस्य ) आदित्या अधिपतयः । तै० ३ | ८ | १८ | २ ॥
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आधिपत्यम् अथैनं ( इन्द्र ) ऊर्ध्वायां दिशि मरुतश्वाङ्गिरसश्च देवाः ......अभ्यषिञ्चन्पारमेष्टयाय माहाराज्यायाSSधिपत्याय स्वावश्यायाऽऽतिष्ठाय । ऐ । ८ । १४ ॥
आपः आपो वै सरिरम् (यजु० १३ । ४२ ) । श० ७ । ५ । २ । १८ ॥ आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत् । तै० १ । १ । ३ । ५ ॥
आपो वा इदम महत्सलिलमासीत् । जै० उ० १ । ५६ । १ ॥ आपो ह वा इदमग्रे सलिलमेवास । ता ( आपः ) अकामयन्त ( ता आप पेक्षन्त बह्वयः स्याम प्रजायेमहीति । छान्दोग्योपनिषदि ६ । २ । ४ ॥ ) कथन्नु प्रजायेमहीति ता अश्रायस्तास्तपोऽतप्यन्त तासु तपस्तप्यमानासु हिरण्मयमाण्ड* सम्बभूवाजातो ह तर्हि संवत्सर आस तदिदॐ हिरण्मयमाण्डं यावत्संवत्सरस्य वेला तावत्पर्यप्लवत ॥ ततः संवत्सरे पुरुषः समभवत् । स प्रजापतिः ("Accordidg to the writings of the Egyptions, there was a time when neither heaven nor earth existed, and when nothing had being except the boundless primeval water, which was, however, shrouded with thick darkness. [नासदासीनो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्ऋ० १० । १२९ । १ ॥ तम आसीत्तमसा गूढमत्रे ऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ऋ०१० : १२९ । ३ ॥ ]
At length the spirit of the primeval water felt the desire for creative activity, and having uttered the word, the world sprang straightway into being in the form which had already been depicted in the mind of the spirit before he spoke the word which resulted in its creation.
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( ६८५ )
आपः] [सो ऽपो ऽसृजत। वाच एव लोकावागेवास्य सासृज्यत२०६।१।१।९॥ सो ऽकामयत । आभ्यो ऽद्भ्यो ऽधि. प्रजायेयेति सो ऽनया अय्या विद्यया सहापः प्राविशत्तत आण्ड समवर्तत तदभ्यमृशदस्त्वित्यातु भूयो ऽस्त्वित्येव तदब्रवीत्ततो ब्रह्मैव प्रथममसृज्यत त्रय्येव विद्या-श०६।१। १।१० The next act of creation was the forma. tion of a germ, or egg, from which sprang Ra, the Sun-god, within whose shining form was embodied the almighty power of the divine spirit." See " Egyption Ideas of the Future Life” by E. A. Wallis Budge, pages 22 and 23. [Sun=सविता-प्रजापतिः-प्रजापतिर्वै सविता । तां०१६।।।
१७॥] । श० ११ । १। ६ । १-२॥ भापः एष वै रयिर्वैश्वानरः ( यदापः)। श०१०। ६ ॥ १ ॥ ५ ॥ , वस्तिस्त्वाऽएष वैश्वानरस्य (यदापः)। श० १० । ६।१।५॥ , आपो व्यानः । जै० उ०४।२२ । ९ ॥ , शुक्रा ह्यापः । तै० १।७।६।३॥ , चन्द्रा ह्यापः । तै० १।७।६।३॥ ,, आपो वै जनयो (यजु०१२।३५) ऽद्भयो हीदछ सर्व जायते ।
श० ६ । ८।२।३॥ ,, यद्भव आपस्तेन (भवः जन्म-अमरकोष, ३ काण्डे, ननार्थ
वर्ग, २०५ श्लोके ॥ जन्म-आपः-वैदिकनिघण्टौ १ । १२)। कौ० ६ । २॥
आपस्सावित्री । जै० उ०४ । २७ । ३॥ , आपो वै पुष्करम् । श०६।४।२।२॥ ७।४।१।८।। , आपो वै पुष्करपर्णम् । श० ७।३ । १ ॥ ९॥ ,, आपः पुष्करपर्णम् । श.६।४।१।९॥ १०। ५।२।६॥ ,, आपो वै प्रजापतिः परमेष्ठी ( यजु० १४ ॥ ९॥) ता हि परमे
स्थाने तिष्ठन्ति । ।०८।२।३ । १३ ।
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[ आपः
( ६८६ )
आपः स ( परमेष्ठी प्राजापत्यः ) आपो ऽभवत् त्स्थानाद्वर्षति यद्दिवस्तस्मात्परमेष्ठी नाम | ६ ॥ १६ ॥
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आपो हि पयः । कौ० ५ । ४ ॥ गो० उ० १ ॥ २२ ॥
परमाद्वा एत
श० ११ । १ ।
अपामेष ओषधीनां रसो यत्पयः । श० १२ । ६ । २ । १३ ॥ वाग्देवत्यं साम वाचो मनो देवता मनसः पशवः पशूनामोषधय ओषधीनामपः । तदेतदद्भयो जातं सामाऽप्सु प्रतिष्ठितमिति । जै० उ० १ । ५९ । १४ ।।
१३ । ५३) । यत्र ह्याप उन्द
ओषधयो वा अपामोझ ( यजु० न्त्यस्तिष्ठन्ति तदोषधयो जायन्ते । श० ७ । ५ । २ । ४७ ॥ आपो ह्येतस्य ( सोमस्य ) लोकः । श० ४ । ४ । ५ । २१ ॥ आपो हि रेतः । तां० ८ । ७ । ९ ॥
आपो रेतः प्रजननम् । तै० ३ | ३ | १० | ३ ॥
आपो मे रेतसि श्रिताः । ते ३ | १० | ८ | ६ ॥
धर्मो ह्यापः । श० ११ | १ | ६ | २४ ॥
आपः प्रोक्षण्यः । ऐ० ५ | २८ ॥
दिव्या आपः प्रोक्षणयः । तै० २ । १ । ५ । १ ॥
आपो वै सूदो ऽन्नं दोहः । श० ८ । ७ । ३ । २१ ॥
आपः खरसामानः । कौ० २४ । ४ ॥
अथ यत् स्वरसाम्न उपयन्ति । अप एव देवतां यजन्ते । श० १२ । १ । ३ । १३ ॥
रेवत्यः ( यजु० १ । २१ ) आपः । श० १ । २ । २ । २ ॥ आपो वै रेवत्यः । तां० ७ । ९ । २० ॥ १३ । ९ । १६ ॥ आपो वै रेवतीः । तै०३ | २ | ८ | २ ॥
अपां वा एष रसो यद्रेवत्यः । तां० १३
१० । ५ ॥
वज्रो वाऽ आपः । श ० १ । ७ । १ । २० ॥
आप इति तत् प्रथमं वज्ररूपम् । कौ० १२ । २ ॥
आपो ह वै वृत्रं जघ्नुस्तेनैवैत द्वीर्येणापः स्यन्दन्ते । श० ३ १ ९ ६
४ । १४ ॥
वृत्रतुरः ( यजु ० ६ । ३४ ) इति वृत्रं होता: (आपः ) अन्नन् । श० ३ । ६ । ४ । १६ ॥
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( ६८७ )
[ आपः आपः आपो वै विधाः (यजु० १४ । ७) अद्भिहीदछ सर्व विहितम्। . श० ८।२।२।८॥ , आपो वै द्यौः। श०६।४।१।१॥ ,, द्यौर्वाऽ अपा सदनम् ( यजु०१३ । ५३)। श० ७।।
२। ५६ ॥
आपो दिव ऊधः ( यजु० १२॥ २० ॥) । श.६।७।४।५॥ , आपो वै दिव्यं नमः । श०३।८।५।३॥ ,, आपो वै वरेण्यम् । जै० उ०४।२८ ॥ १॥ ,, वायुरापश्चन्द्रमा इत्येते भृावः । गो० पू० २।८ (२.)॥ , आपो वै सर्वः ( =शर्वः रुद्रः) अद्भयो दीद५ सर्व जायते ।
श० ६ । १ । ३ ११ ॥
आप एव सर्वम् । गो० पू० ५। १५ ॥ ,, एष वाऽ अपार रसो यो ऽयं ( वायुः ) पवते । श०५।१।
२।७॥ वायुर्वाऽ अपामेम ( यजु० १३ । ५३ ) यदा हवैष इतश्चेतश्च वात्यथापो यन्ति । श० ७ । ५ । २ । ४६ ॥ अपः श्लाघा (गच्छति ) । गो० पू० २।२॥ स वा एषो (सूर्यः)ऽपः प्रविश्य वरुणो भवति। कौ० १८१९॥ अथ यदप्सु वरुणं यजति स्व एवैन तदायतने प्रीणाति । कौ० ५।४॥ अप्सु वै वरुणः । तै० १ । ६।५।६॥ यो ह वाऽ अयमपामावतः स हावभृथः स हैष वरुणस्य पुत्रो घा भ्राता वा । श० १२ । ९।२।४॥ वरुणस्य वा अभिषिच्यमानस्याप इन्द्रियं वीर्य निरनन् । तत्सुवर्ण हिरण्यमभवत् । तै० १।८।६।१॥ अग्निर्ह वाऽ अपोऽभिदध्यौ मिथुन्याभिः स्यामिति ताः सम्बभूव तासु रेतः प्रासिञ्चत्तद्धिरण्यमभवत्तस्मादेतदग्निसंकाशमग्नेहि रेतस्तस्मादप्सु (हिरण्यं) बिन्दन्त्यप्सु हि (रेतः) प्रासिश्चत् ।
श०२।१।१॥ ५॥ , अदभ्यो वा एष (अग्निः)प्रथममाजगाम । श०६७१४॥॥
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[ आपः
( ६८८ )
आपः आपो वाऽ अस्य (अग्ने) दिवो ऽर्णः । श० ७ । १ । १ । २४ ॥ अन्तरिक्षं वा अपार्थं सधस्थम् (यजु० १३ । ५३) । श० ४ । ५ । २ । ५७ ॥
आपो वै मरुतः । ऐ० ६ । ३० ॥ कौ० १२ । ८ ॥
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अप्सु वै मरुतः श्रितः ( श्रिताः ) । गो० उ० १ । २२ ॥ वै मरुतः शिताः ( ? श्रिताः ) । कौ० ५ । ४ ॥
अप्सु
अथ यत्कृष्णं तदपां रूपमन्नस्य मनसो यजुषः । जे० उ० १ । २५ । ९ ॥
अन्नं वा अपां पाथः ( यजु० १३ । ५३ ) । श० ७ | ५ | २ | ६० ॥ आपो वै सहस्रियो वाजः ( यजु० १२ । ४७ ) । श० ७
। १ ।
१ । २२ ॥
गिरिदुना उ वा आपः । श० ७ । ४ । २ । १८ ॥
वैराजीव आपः । कौ० १२ । ३ ॥
अद्भिर्यज्ञः प्रणीयमानः प्राङ् तायते । तस्मादाचमनीयं पूर्वमा.
हारयति । गो० पू० १ । ३६ ॥
अप्सुयोनिर्वै वेतसः । श० १२ । ८ । ३ । १५ ॥
अप्सुजा वेतसः । श० १३ । २ । २ । १९ ॥
अप्सुजो वेतसः । तै० ३ । ८ । ४ । ३ । ३ । ८ । १९ । २ ॥ ३ ।
८ । २० । ४ ॥
तद्यत्तत्सत्यम् | आप एव तदापो हि वै सत्यम् । श० ७ । ४ । १ । ६ ॥
तदेतत्सत्यमक्षरं यदोमिति । तस्मिन्नापः प्रतिष्ठिताः । जै० उ० १ । १० । २ ॥
पृथिव्यप्सु श्रिता । तै० ३ । ११ । १ । ६ ॥
1
पृथिव्यप्सु ( प्रतिष्ठिता ) । ऐ० ३ । ६ ॥ गो० उ०३ । २ ॥
इयं ( पृथिवी ) वा अपामयनम् (यजु० १३ । ४३ ) अस्यां ह्यापो यन्ति श० ७ | ५ |२| ५० ॥
समुद्रो वा अपां योनिः ( यजु० १३ । ५३ ) । श० ७ । ५ ।
२ । ५८ ॥
समुद्रो ऽसि तेजसि श्रितः । अपां प्रतिष्ठा । तै० ३ | ११ | १/४ ॥
।
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( ६८९ )
मायुः] भापा विधुद्वाऽ अपां ज्योतिः ( यजु० ९३ । ५३) । श०७।५ ।
२।४६॥ , अभ्रं वाऽ अपां भस्म (यजु० १३ । ५३) श०७।५।२।४८॥ " सिकता वा अपां पुरीषम् (यजु० १३ । ५३)। श०७।५ ।
२। ५९॥ , चक्षुषोऽ अपां क्षयः ( यजु० १३ । ५३) तर हि सर्वदेवापः
क्षियन्ति । श०७।५।२॥ ५४॥ ॥ श्रोत्रं वा अपा सधिः (यजु० १३३ ५३) श०७।५।२।५५॥ भापमाः ( देवाः ) साध्याश्च त्वा ऽऽप्त्याश्च देवाः पातनच्छदसा
त्रिणवेन स्तोमेन शाकरण साना रोहन्तु तानन्वारोहामि राज्याय । ऐ०८।१२।। अथैन (इन्द्रं ) अस्यां ध्रुवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि साध्याश्चाऽऽप्त्याश्च देवाः .....अभ्यषिश्चन्......राज्याय ।
ऐ०८।१४॥ भाप्रियः (अचा) तमेताभिराप्रीभिराप्याययन्ति तद्यदाप्याययन्ति
तस्मादाग्रियो नाम । श०३।८।१।२॥ ,, आप्रीभिरामीणाति । ऐ०२।४॥ कौ० १०॥३॥ भामयावी त्रैशोकं ज्योगामयाविने ब्रह्मसाम कुर्यात् । तां० ८.११॥
ज्योगामयाविने उभे (बृहद्रथन्तरे) कुर्यादपक्रान्तो वा एतस्य प्राणापानौ यस्य ज्योगामयति प्राणापानावेवारिस
न्दधाति । तां०७।६। १५ ॥ मायुः भायुबै विकर्णी (इष्टका)। श० ८।७।३।११॥ , भायुबै सहस्रम् । तै०३।८।१५।३ ॥३।८।१६ ॥ २॥ , विवेदमिन भो नामानेऽअहिर आयुना नान्नेहि (यजु०५।९)
इति । श०३।५।१॥ ३२॥ " अमृतमायुर्हिरण्यम् । श० ३।८।२।२७॥ ४।५।२।
१०॥४।६।१।६॥ , आयुर्हि हिरण्यम् । श०४।३।४।२४॥ , बायुबै हिरण्यम् । ते०१।८।६।१॥ , यधिरण्यं वदाति मायुस्तेन वर्षीयः कुरुते । गो० उ० ३.१९॥ .
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[इन्द्रः
(६९० भाति: अनायें त्वेत्येवैतदाह यदाहाव्यथायै वेति ( व्यथा आति)।
२०५।४।३।७॥ माना (नक्षत्रम् ) स (रुद्रः) एत रुद्रायाऽऽयै प्रैया चर्क
पयसि निरवपत् । ततो वै स पशुमानभवत् । तै० ३।१।
४।४॥ मात्राः विष्णवाशानां पते । तै०३।११।४।१॥ भाषीः बही वै यजुःष्वाशीः। श०१।।१।७॥३।५।२।११॥
३।६।१।१७॥ माशुनिवृत् (यजु० १४ । २३) वायुऽऽ आशुत्रिवृत्स एषु त्रिषु लोकेषु
वर्तते । श० ८।४।१।९॥ माहवनीयः ( अग्निः ) आहवनीयभाग्यजमानः । कौ०३।६ ॥ भाहितानिः नो घनाहिताग्नेर्वतचर्यास्ति । श०२।१।४।७॥ माहुतिः से वा आहुती सोमाहुतिरेवान्याज्याहुतिरन्या। श० १।
७।२।१०॥ " आहुतिर्हि यक्षः। श०३।१।४।१॥ इका ऐड रथन्तरम् । तां०७॥ ६ ॥ १७ ॥ इन्द्रः स वा एष (आदित्यः) इन्द्रो वैमृध उद्यन् भवति ..... इन्द्रो
वैकुण्ठो मध्यन्दिने । जै० उ०४।१०।१०॥ , इन्द्रमदेव्यो माया असचन्त स प्रजापतिमुपायावत्तस्मा एतं
वियनं (क्रतुं) प्रायच्छत्तन सर्वा मृधो व्यहत । तां० १९ ।
" इन्द्रो वै मघवान् । श०४।१।२।१५, १६॥ , स उ एव मनः स विष्णुः । तत इन्द्रो मखवानभवन्मखवाद
वैतं मघवानित्याचक्षते परोऽक्षम् । श०१४।१।१।१३॥ , इन्द्रो वसुधेयः। श०१।८।२।१६॥ ,, इन्द्र उ वै वेनः । ( ऋ० १० । १२३ । १)। कौ० ८॥५॥ .. इन्द्रो वै वेधाः (०८। ४३ ॥ ११ ॥)। ऐ०६।१०॥ गो०
उ०२।२०॥ , इन्द्रो हि षोडशी।।०४।२।५।१४॥ ॥ इन्द्रो ह वै षोडशी । श.४।५।३ ।
न्द्र उवै षोडशी । कौर १७ ॥ १,४॥
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( १९१ ) म एतद वा इन्द्राग्न्योः प्रियं धाम यद्वागिति । ऐ०६ । ७ ॥
गो० उ०५।१३॥ , वाग्ध्येन्द्री। ऐ० २॥ २६ ॥ " वाहच प्राणश्वेन्द्रवायवः (प्रहः। इन्द्रःम्याक्षायु-प्राणः)।
ऐ०२।२६॥ अथैतद्वामे ऽक्षणि पुरुषरूपम् । एषास्य (दक्षिणे ऽक्षणि वर्तमानस्य पुरुषस्येन्द्राख्यस्य ) पत्नी विराट् । श० १४ । ६ । ११ ॥ ३॥
इन्द्रो वृषा । श०१।४।१। ३३ ।। , इन्द्रो वै पृषा। तां०९।४।३॥ , इन्द्रो वै वाजी । ऐ०३।१८ ॥ . इन्द्रो वै गोपाः ( ऋ० १। ८६ । १)। ऐ०६।१०॥ गो० उ.
२॥२०॥ ॥ इन्द्र उवै परुच्छेपः । कौ० २३ ॥ ४॥ ., एतेन (पारुच्छेपेन रोहिताख्येन छन्दसा) वा इन्द्रः सप्त
स्वर्गाल्लोकानरोहद । ऐ०५।१०॥ , इन्द्रो वै चतुहोता। तै० २।३।१।३॥ ,, इन्द्रः सप्तहोता । तै० २।३।१।१॥ , इन्द्रः सप्तहोत्रा । तै०२।२।८1५॥ " यन्मनः स इन्द्रः। गो० उ०४। ११ ॥ , इन्द्रो वै प्रदाता स एवास्मै यकं प्रयच्छति । को०४।२॥ , यो खलु वाव प्रजापतिः स उ वेवेन्द्रः । तै०१।२।२॥५॥ , इन्द्रो वै त्वा (०१ । २२ । १ ॥)। ऐ०६।१०॥ , इन्द्र उवै वातापिः स हि वातमाप्त्वा शरीराण्यहन्प्रतिपैति ।
कौ० २७॥ ४॥ , कतमत्तदक्षरमिति । यत्क्षरनाऽक्षीयतेति । इन्द्र इति । जै.
उ०१।४३ ॥ , इन्द्र उबै वरुणः स उ वै पयोमाजनः । कौ०।४॥ , इन्द्रो वै वरुणः स उवै पयोभाजनः । गो० उ०१॥ २२ ॥ , इन्द्रस्य ("वरुणस्य" इति सायणः ) शतभिषक (नक्षत्रम्)।
२०१५
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[न्दः
( ६९२ ) इन्यः इन्द्रो लोकम्पृणा । श०८।७।२।६॥ ,, यत्पुरस्तावासीन्द्रो राजा भूतो वासि । जै० उ० ३ ॥ २१ ॥ २॥ , दक्षिणा दिक् । इन्द्रो देवता । तै० ३ । ११ । ५ । १॥ , अथ यद्विश्वजितमुपयन्ति । इन्द्रमेव देवतां यजन्ते । श०१२।
१।३।१५॥ " इन्द्रो विश्वजिदिन्द्रो हीदं सर्व विश्वमजयत् । कौ० २४ । १ ॥ , ततो वा इदमिन्द्रो विश्वमजयद्यद्विश्वमजयसमाद्विश्वजित् ।
तां० १६ । ४।। , इन्द्रो वै युधाजित् । तां०७।५।१४॥ , वृषणश्वस्य ह मेनस्य मेनका नाम दुहितास ताहेन्द्रश्चकमे ।
१०१।१॥ ,, इन्द्रो वै प्रासहस्पतिस्तुविष्मान् । ऐ० ३ । २२ ॥ , सेना वा इन्द्रस्य प्रिया जाया वावाता प्रासहा नाम । ऐ०३।
२२ ॥ , सेना ह नाम पृथिवी (=विस्तीर्णेति सायणः) धनजया
विश्वव्यचा अदितिः। सूर्यत्वक् । इन्द्राणी देवी प्रासहा
ददाना । तै०२।४।२।७॥ " वैखानसा वा ऋषय इन्द्रस्य प्रिया आसन् । तां० १४। ४।७॥ , इन्द्रो यतीन् सालावृकेयेभ्यः प्रायच्छत्तमश्लीला वागभ्य
वदत्तो ऽशुद्धो. ऽमन्यत स एतच्छुद्धाशुद्धीयमपश्यत्तेनाशुध्यत् (इन्द्रो यतीन्त्सालावृकेभ्यः प्रायच्छत्तान्दाक्षिणत उत्तर. वेद्या आदन्-तैत्तिरीयसंहितायाम् ६।२।७।५ ॥ अथर्ववेदे २ । २७ । ५:-तयाहं शत्रून्त्साक्षे इन्द्रः सालावृकाँ इष॥ ऋ. १०1७३। ३.-त्वमिन्द्र सालावृकान्त्सहस्रमासम्दधिषे॥)।
तां०१४। ११ । २८॥ , इन्द्रो यतीन् सालावृकयेभ्यः प्रायच्छत्तमश्लीला वागभ्यवद रसो ऽशुद्धो ऽमन्यत स एते शुद्धाशुद्धीये (सामनी ) अप.
इयत्ताभ्यामशुध्यत् । तां० १९ । ४।७॥ " यत्रेन्द्रं देवताः ( यज्ञेषु) पर्यवृजन् , (यतः स इन्द्रः) विश्व
अपं स्वाष्ट्रमभ्यमस्त पुत्रमस्तृत यतीसालावृकेभ्यः प्रादा
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दर्मघानवधीद् बृहस्पतेः प्रत्यवधीदिति तत्रन्द्रः सोमपीथेन व्याईत [तं (प्रतर्दनं ) हेन्द्र उवाच मामेव विजानी तदेवाहं मनुष्याय हिततमं मन्ये यन्मां विजानीयात्रिशीर्षाणं त्वाष्ट्रमहनमरुन्मुखान् यतीन् सालावृकेभ्यः प्रायच्छं बह्वीः सन्या अतिक्रम्य दिवि प्रहादीयानतृणमहमन्तरिक्ष पौलोमान् पृथिव्यां कालकाजांस्तस्य मे तत्र न लोम च नामीयत स यो मां (इन्द्रं ) वेद न ह वै तस्य केन चन कर्मणा लोको मीयते न स्तेयेन न भ्रूणहत्यया न मातृबधेन न पिबधेन नास्य पापं चकृषो मुखान्त्रीलं वेतीति-शंकरानन्दीयटोकायुतायां कौषी.
तकिब्राह्मणोपनिषदि ३।१॥] । ऐ०७ । २८॥ एमः कालका वै नामासुरा आसन् । ते सुवर्गाय लोकायाग्निम
चिन्वत । पुरुष इष्टकामुपादधात् पुरुष इष्टकाम् । स इन्द्रो ब्राह्मणो युवाण इष्टकामुपाधत्त । एषा मे चित्रा नामेति । ते सुवर्गलोकमाप्रारोहन् । स इन्द्र इष्टकामवृहत् । ते ऽवाकार्यन्त ये ऽवाकीर्यन्त । त ऊर्णनाभयो ऽभवन् । द्वावुदपतताम् । तो दिव्यौ श्वानावभवताम् (पश्यत-मैत्रायणसंहिता१।६।९॥
काठकसंहिता ८।१)। तै० १ । १ । २।४-६ ॥ ,, इन्द्रो यतीन् सालावृकयेभ्यः प्रायच्छत्तमश्लीला वागभ्यवदत्
स प्रजापतिमुपाधावत्तस्मा एतमुपहन्यं प्रायच्छत् । तां० १८ ।
., इन्द्रो यतीन् सालावृकेभ्य मायच्छत्तेषां त्रय उशिष्यन्त रायो
पाजो वृहद्विरिः पृथुरश्मिः । तां०८।१।४॥ .. इन्द्रो यतीन् सालावृकयेभ्यः प्रायच्छत्तेषां त्रय उदशिष्यन्त
पृथुरश्मिघहद्विरी रायोवाजः । तां० १३ । ४ । १७ ॥ , युवछ सुराममश्विनानमुचावासुरे सचा। विपिपाना शुभस्पती
इन्द्रं कर्मखावतम् (ऋ. १० । १३१ ॥ ४॥ यजु० १०॥४३॥) इत्याश्राव्याहाश्विनौ सरस्वतीमिन्द्र सुत्रामाणं यजेति । श०
५।५।४।२५ ॥ ,, (नमुचिः) तस्य (इन्द्रस्य) एतयैव सुरयेन्द्रियं वीर्य सोम
पीथममायमहरत्स ह न्यर्णः शिश्ये । श० १२ । ७।१।१०॥
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( ६९४ ) इन्द्रः 'अपां फेनेन नमुचे(6) शिर इन्द्रोदवर्तयः' विश्वा पवजय().
स्पृधः ( ऋ० ८। १४ । १३) इति पाप्मावै नमुचिः । श० १२
७।३।४॥ , इन्द्रश्च वै नमुचिश्चासुरः समदधातान्न नौ मरुन दिवाहन
नाट्टैण न शुष्कणेति तस्य व्युष्टायामनुदित आदित्ये ऽपा
फेनेन शिरो ऽछिनत् । तां० १२ । ६ । ८॥ , नमुचिह वै नामासुर आस तमिन्द्रो निविव्याध तस्य पदा शिरो ऽभितष्टौ स यदभिठित उदबाधत स उच्छ्वकस्तस्य पदा
शिरः प्रचिच्छेद ततो रक्षः समभवत् । श०४।४।१।९ ॥ " "नमुचि"शब्दमपि पश्यत ॥ , तं (त्रिशीर्षाणं त्वाष्ट्रं विश्वरूपं) इन्द्रो विशेष तस्य तानि
शीर्षाणि प्रचिच्छेद । श०१।६।३।२॥ , स (इन्द्रः) यत्र त्रिशीर्षाणं त्वाष्ट्रं विश्वरूपं जघान । श०
१।१३।२॥ , इन्द्रो वै वृत्रहा । कौ०४।३॥ ,, महानानीभिर्वा इन्द्रो वृत्रमहन् । कौ० २३ । २॥ , इन्द्रो वा एष पुरा वृत्रस्य वधादथ वृत्र हत्वा यथा महा
जो विजिग्यान एवं महेन्द्रोऽभवत् । श०१।६। ४ । २१॥ ४।३।३।१७॥ , इन्द्रो वै वृत्रं हत्वा विश्वकर्मा ऽभवत् । ऐ० ४ । २२ ॥ " तस्य (इन्द्रस्य) असौ (धु-लोको नाभिजित आली
(इन्द्रः) विश्वकर्मा भूत्वाभ्यजयत् । तै०१।२।३।। , मरुतो ह वै क्रीडिनो वृत्र हनिष्यन्तमिन्द्रमागतं तमाभितः
परिचिक्रीडमहयन्तः । श० २।५।३ । २० , ते (मरुतः) एनं (इन्द्रं ) अध्यकीडन् । तै०१६ । ७१५॥ , इन्द्रो वै मरुतः क्रोडिनः। गो० उ०१।२३॥ , इन्द्रो वै मरुतः सान्तपनाः । गो० उ० १ । २३ ॥ ,, इन्द्रस्य वै मरुतः । कौ० ५।४,५॥ , धर्म इन्द्रो राजेस्याह तस्य देवा विशः । श. १५४१७॥
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। ६९५ ) इन्द्रः एतद्वाऽ इन्द्रस्य निष्केवल्य, सवनं यन्माध्यन्दिन स वनं
तेन वृत्रमजिघांसत्तेन व्यजिगीषत । श०४।३।३।६॥ , ऐन्द्रं वै माध्यन्दिनं सवनम् । जै० उ०१। ३७ । ३॥ , इन्द्रस्य माध्यन्दिनं सवनम् : कौ० १४।५॥ , ऐन्द्रं हि त्रैष्टुभं माध्यन्दिनं सवनम् । कौ० २९॥२॥ . , ऐन्द्रं त्रैष्टुभं माध्यन्दिनं सवनम् । गो० उ०४।४॥
श्रेष्टुभ इन्द्रः। कौ० ३ । २ ॥ २२ ॥ ७॥ , इन्द्रः (श्रियः) बलम् ( आदत्त)। श० ११ । ४। ३।३॥
तान् ( पशून ) इन्द्रः पञ्चदशेन स्तोमेन नाप्नोत् । तै०।२।७।
१४।२॥ ,, ऐन्द्रो राजन्यः । तां०१५।४।८॥ ,, (राजन्यस ) इन्द्रो देवता । तां०६।१॥ ८॥ ,, हरिव आगच्छेति पूर्वपक्षापरपक्षी वा इन्द्रस्य हरी ताभ्या
हीदछ सर्व हराते । १०१।१॥ ऐन्द्री धीः । तां० १४।४।८॥ धौरिन्द्रण गर्भिणी । श० १४ । ९ । ४।२१॥ ऐन्द्र हि पुरीषम् । श०८।७।३ । ७॥ अथ यत्पुरीष स इन्द्रः । श०१०।४।१।७ ॥ ऐन्द्रयो वालखिल्याः (ऋचः)। ऐ०६ । २६ ॥ ऐन्द्रो वा एष यक्षकतुर्यत्साकमेधाः। कौ० ५। १॥ गो० उ०
१॥२३॥ , इन्द्रो ज्येष्ठामनु नक्षत्रमेति । तै० ३ । १ ।२।१॥ ,, इन्द्रस्य रोहिणी (=ज्येष्ठानक्षत्रमिति सायणः) । तै०१।५।।
१।४॥ , एता वाऽ इन्द्रनक्षत्रं यत्फल्गुन्यः । श०२।१।२।११॥ , ऐन्द्र सानाय्यम् ( हविः) । श०२।४।४। १२॥
ऐन्द्रं वै दधि । श०७।४।१।४२ ॥ , ऐन्द्रो ब्राह्मणाच्छंसी । श०९।४ । ३ । ७॥ तै०१।७।६।१॥ ,, ऐन्द्राबाईस्पत्यं ब्राह्मणाच्छंसिन उफ्धं भवति । गो० उ०४।
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[ उक्थ्यो
। ६९६ ) इन्द्रः ऐन्द्रो वाऽ एष यशो यत्सौत्रामणी । श० १२ । ८।२।२४॥ ,, ऐन्द्रो वा एष यज्ञक्रतुर्यत् सौत्रामणी । कौ० १६ । १०॥ गो०
उ०५।७॥ ,, ऋषभमिन्द्राय सुत्रामणऽ आलभते । श. ५।५।४।१॥ ,, तस्मात्सदस्युक्सामाभ्यां कुर्वन्त्यैन्द्र हि सदः। श०४।६।
७।३।। , ऐन्द्र हि सदः । श०३।६।१।२२।। इन्द्राग्नी इन्द्राग्नी वै विश्वे देवाः । श०२।४।४।१३ ॥ ,, इन्द्राग्नी हि विश्वे देवाः । श० २।९।२।१४॥ , नक्षत्राणामधिपत्नी विशाखे । श्रेष्ठाविन्द्राग्नी भुवनस्य गोपी।
तै० ३ । १ । १ । ११ ॥ , इन्द्राग्नियोर्विशाखे (=नक्षत्रविशेषः) । तै० १।५।१।३॥ , एतद्ध वा इन्द्राग्न्योः प्रियं धाम यद्वागिति । ऐ०६।७॥ गो०
उ० ५। १३॥ इन्द्रावृहस्पती षड्भिरैन्द्राबार्हस्पत्यैः (पशुभिः) शिशिरे (यजते, । श.
१३।५।४।२८॥ इन्द्राविष्णू षभिरैन्द्रावैष्णवैः (पशुभिः) हेमन्ते (यजते । श०१३।
५।४।२८॥ इन्द्रियाणि प्राणा इन्द्रियाणि । तां०२११४ । २॥ २२॥ ४॥३॥ , जायमानो ह वै ब्राह्मणः सप्तेन्द्रियाण्यभिजायते ब्रह्मवर्च
सश्च यशश्च स्वप्नं च क्रोधं च श्लाघांच रूपं च पुण्यमेव
गंधं सप्तमम् । गो० पू०५ ॥२॥ इरा ऐरं वै बृहत् । तां०७ । ६ । १७ ॥ इषुः चतुःसंधिहींषुरनीकं शल्यस्तेजनं पर्णानि । ऐ० १ । २५ ॥
, इषंवो वै दिद्यवः । श०५।४।२।२॥ ईशानः या सा तृतीया (ओङ्कारस्य) मात्रैशानदेवत्या कापला वर्णेन
यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेदेशानं पदम् । गो० पू०१।२५। उक्थम् (तमेतम्पुरुष) उक्थमिति बचाः ( उपासते)एष हीव
सर्वमुत्थापयति श०१०। ।। २॥२०॥ कल्यः उक्थ्या वाजिनः । गो० उ०१ । २२॥
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( ६९७ )
उत्तरकुरवः कुरवः " इत्येतं शब्दं पश्यत ।
उत्तरेमद्राः " मद्राः " इत्येतं शब्दं पश्यत ।
उदरम् (इन्द्रः) तं ( वृत्रं ) द्वेधान्यभिनत्तस्य यत्सोम्यं व्यक्तमास तं चन्द्रमसं चकाराथ यदस्या सुय्र्यमास तेनेमाः प्रजा उद रेणाविध्यत् । श० १ । ६ । ३ । १७ ॥
यदिमाः प्रजा अशनमिच्छन्ते ऽस्माऽएवैतद्वृत्रायोदराय बलिं हरन्ति : ० १ । ६ । ३ । १७ ॥
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प्रजापतेर्व्वा एतदुदरं यत्सदः । तां० ६ । ४ । ११ ॥
( पुरुषस्य ) उदरं सदः । कौ० १७ ॥ ७ ॥
उदरमेवास्य ( यज्ञस्य ) सदः । श० ३ | ४ | ३ |५ ॥ उदरं वै सदः । कौ० ११ । ८ ॥
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उदरं मध्यमा चितिः । श० ८ उदान: प्रेति ( 'प्र' इति ) वै प्राण पति
१ । ४ । १।५ ॥
उदानो वै बृहच्छोचाः । श० १ | ४ | ३ | ३॥
उदाना मासाः | तां० ५ । १० । ३ ॥
उपनयनम् एतद्वै पत्न्यै व्रतोपनयनम् ( यद्योक्त्रेण संनहनम् ) । तै०
कुन्तापसूतानि ]
७ । २ । १८ ॥
( 'आ' इति ) उदानः । श०
३।३।३।२ ॥
ऋषिः पते वै कवयो यदृषयः । श० १ । ४ । २ । ८ ॥
ये वै ते न ऋषयः पूर्वे प्रेतास्ते वै कवयः (ऋ० ३ | ३८ । १) । ऐ० ६ । २० ॥
कश्यपः कश्यपो वै कूर्मः । श० ७ । ५ । १ । ५ ॥
कामधेनुः 'विश्वरूपी ' ' शबली ' ' विराट् ' इत्येताञ्छन्दान् पश्यत। कुम्तापम् विशतिर्वा अन्तरुदरे कुन्तापान्युदर मे कविशम् । श० १२ । २ । ४ । १२ ॥
कुन्ताप्रसूतीनि (अथर्ववेदे २० । १२७-१३६ ) अथैतत्कुन्तापं यथाछ न्दसं शंसति सर्वेषामेव कामानामाप्त्यै नाराशंसीः (अथर्ष ०.२० । १२७ । १-३) रैभी: ( अथर्व ० २० | १२७| ४-६ ॥ ) कारव्याः ( अथर्व० २० । १२७ । ११-१४ ) (अद्य०२० । १२८ | २-१६) भूतेछदः
इन्द्र
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[पर्नतः
(अथर्व०२०।१३५। ११-१३॥) पारिक्षितीः (अथर्व० २० । १२७ । ७-१०॥) एतशप्रलापम् ( अथर्व०२०।
१२९ ॥) इति । कौ० ३०।५॥ क्षत्रियः स (क्षत्रियः ) ह दीक्षमाण एव ब्राह्मणतामभ्युपैति । ऐ०७।
२३॥ क्षेमः यदास्ते । स क्षेमः । तै० ३।३।३। ३॥ गर्भः प्रादेशमात्रो वै गर्भो विष्णुः। श० ७।५।१।१४॥ गिरिः गिरिऽ अद्रिः (यजु० १३ | ४२)। श० ७ । । ।२ । १८॥ __, गिरिबुध्ना उ वा आपः । श०७।५।२।१८॥ जाया (तैत्तिरीयसंहितायाम् ६।६। ४। ३. यदेकस्मिन्यूपे छे
रशने परिव्ययति तस्मादेको द्वे जाये विन्दते यन्मेका रशनां द्वयो!पयोः परिव्ययति तस्मान्नैका द्वौ पती विन्दते ।। काठकसंहितायाम्: --२९ ! :-द्वे वे रशने यूपमुच्छ्रित. स्तस्मात्स्त्रियः पुँसो ऽतिरिक्तास्तस्मादुतैको बहीर्जाया वि. न्दते नैका बहून्पतीन् ॥ मैत्रायणीसंहितायाम् ४ । ७।९:तस्मास्त्रियः पुसो ऽतिरिच्यन्ते ऽथ व एकस्य रशने द्वे
एकस्य तस्मास्त्रियं जातां परास्यन्ति न पुमा सम् ॥) तृतीया चितिः अन्तरिक्षं वै तृतीया चितिः । श० ८।४।१।१॥ त्रिष्टुप् (छन्दः) वज्रो व त्रिष्टुप् । श०७।४।२।२४॥
, वीर्य त्रिष्टुप् ! श०७। ४।२।२४॥ वम्बकाः (पुरोडाशाः) " अम्बिका" शब्दं पश्यत ॥) देवयजनी इयं वै पृथिवी देवी देवयजनी । श०३ । २।२।२०॥ देवी इयं वै पृथिवी देवी देवयजनी । श० ३ । २।२ । २० ॥ चौः (प्रजपतिः) जीमूतैश्च नक्षत्रैश्च दिवम् ( अहंहत्)। श० ११)
८।१।२॥ पर्वतः स (प्रजापतिः) एभिश्चैव पर्वतैनंदीभिश्चेमाम् (पृथिवीम् )
अदृहत् । श०११ । ८।१।२॥ (प्रजापतेर्वा एतज्जयेष्ठं तोक यत्पर्वतास्ते पक्षिण आस. छस्ते परापातमासत यत्र यत्राकामयन्ताय कायं (प्रथिवी) तर्हि शिथिरासीतषामिन्द्रः पक्षामछिमत्तेरिमाम् (पृथिवीम् ।
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( ६५९ ) [बहिर्णिधनम् अहहत्-मैत्रायणीसंहितायाम् १ ।१०। १३ ॥ अयमेव
भावः-काठकसंहितायाम् ३६ ॥ ७॥ पृथिवी स (प्रजापतिः) एभिश्चैव पर्वतैर्नदीभिश्चमाम् (पृथिवीम् )
अहहत् (यः पृथिर्धी व्यथमानामहत्-ऋ०२। १२॥
२॥) , पर्वतशग्दमपि पश्यत ॥ पहिनिधनम् ( देवाः) अमुं (धुलोकं) बहिर्णिधनेन ( अभ्यजयन् )।
तां०१०।१२।३॥
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हमारे प्रमुख प्रकाशन
शोध-ग्रन्थ अथर्ववेद का सांस्कृतिक अध्ययन डॉ० कपिलदेव द्विवेदी १२५.०० स्मृतियों में राजनीति और अर्थशास्त्र डॉ० प्रतिमा आर्य
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