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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . / / कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः / / / / अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः / / / / गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः / / / / योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः / / / / चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः / / आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक :1 जी जैन आराधना महावीर कोबा. 2 अमृतं तु विद्या तु श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websit: www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org आचार्यश्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - 380007 (079)26582355 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। सिवर्षिप्रणीता। नमो निर्नाशिताशेषमहामोहहिमालये। लोकालोकामलालोकभावते परमात्मने // 1 // नमो विशुद्धधर्माय स्वरूपपरिपूर्तये / नमो विकारविस्तारगोचरातीत मूर्तये // 2 // नमो भुवनसंतापिरागकेसरिदारिणे / प्रशमामृतहप्ताय नाभेयाय महात्मने // 3 // नमो देषगजेन्द्रारिकुम्भनिर्भेदकारिणे / अजितादिजिनस्तोमसिंहाय विमलात्मने // 4 // नमो दलितदोषाय मिथ्यादर्शनसूदिने / मकरध्वजनाशाय वौराय विगतद्विषे // 5 // अथवा // अन्तरङ्ग महामैन्यं समस्तजनतापकम् / दलितं लौलया येन केनचित्तं नमाम्यहम् // 6 // समस्तवस्तुविस्तारविचारापारगोचरम् / वो जैनेश्वरं वन्दे सूदिताखिलकलापम् // 7 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / मुखेन्दोरंशभिर्याप्तं या बिभर्नि विकखरम् / करे पद्ममचिन्येन धान्ना तां नौमि देवताम् // 8 // परोपदेशप्रवणो मादृशोऽपि प्रजायते / यत्प्रभावान्नमस्तेभ्यः सद्गुरुभ्यो विशेषतः // 6 // इत्थं कृतनमस्कारः शान्त विघ्नविनायकः / विवक्षितार्थप्रस्ताव रचयिष्ये निराकुलः // 10 // दहातिदुर्लभं प्राप्य मानुष्यं भव्यजन्तुना / ततः कुलादिसामग्रौमासाद्य शुभकर्मणा // 11 // हेयं हानोचितं सर्व कर्त्तव्यं करणोचितम् / शाध्यं लायोचितं वस्तु श्रोतव्यं श्रवणोचितम् // 12 // यत् किञ्चिच्चित्तमालिन्यकारणं मोक्षवारणम् / मनोवाक्कायकर्मेह हेयं तत्वहितैषिणा // 13 // हारनौहारगोचौरकुन्देन्दुविशदं मनः / कृतं यत् कुरुते कर्म कर्त्तव्यं तन्मनीषिणा // 14 // लाघनीयः पुनर्नित्यं विशद्धेनान्तरात्मना / त्रिलोकनाथस्तद्धी ये च तत्र व्यवस्थिताः // 15 // श्रोतव्यं भावतः मारं श्रद्धासशुद्धबुद्धिना / निःशेषदोषमोषाय वचः सर्वज्ञभाषितम् // 16 // तदत्र प्रस्तुतं तावत्तदेव जगते हितम् / श्रोतव्यमिति मंचिन्त्य वचः सर्वज्ञभाषितम् // 17 // ततस्तदनुसारेण महामोहादिसूदनौ / निर्दिष्टभवविस्तारा कथेयमभिधास्यते // 18 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। तथाहि // पञ्चाश्रवमहादोषा षौकाणां च पञ्चकम् / महामोहयुतानां च कषायाणां चतुष्टयम् // 18 // मिथ्यात्वरागद्वेषादिरूपं यच्चान्तरं बलम् / तदोषावेदकं सर्व वचः सर्वज्ञभाषितम् // 20 // तथा // ज्ञानदर्शनचारित्रसंतोषप्रशमात्मकम् / तपःसंयमसत्यादिभटकोटिसमाकुलम् // 21 // यच्चान्तरं बलं तस्य गुणसंभारगौरवम् / वर्णयत्येव जैनेन्द्रं वचनं हि पदे पदे // 22 // तथा॥ एकेन्द्रियादिभेदेन दुःखरूपमनन्तकम् / भवप्रपञ्चं जैनन्द्रं वचनं कथयत्यलम् // 23 // अतस्तां भित्तिमाश्रित्य मादृशेनापि जल्पितम् / वाक्यं जैनेन्द्रसिद्धान्तनिष्यन्द इति भाव्यताम् // 24 // अर्थ कामं च धर्म च तथा संकीर्णरूपताम् / आश्रित्य वर्त्तते लोके कथा तावच्चतुर्विधा // 25 // मामादिधातवादादिकृष्यादिप्रतिपादिका / अर्थोपादानपरमा कथार्थस्य प्रकीर्तिता // 26 // मा क्लिष्टचित्तहेतुत्वात्यापमंबन्धकारिका / * तेन दुर्गतिवर्त्तन्याः प्रापणे प्रवणा मता // 27 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। कामोपादानगर्भार्था वयोदाक्षिण्यसूचिका / अनुरागेङ्गिताद्युत्था कथा कामस्य वर्णिता // 28 // मा मलीममकामेषु रागोत्कर्षविधायिका / विपर्यासकरौ तेन हेतुभूतैव दुर्गः // 28 // दयादानक्षमाद्येषु धर्माङ्गेषु प्रतिष्ठिता / धर्मापादेयतागर्भा बुधैर्धर्मकथोच्यते // 30 // मा शुद्धचित्तहेतुत्वात्पुण्यकर्मविनिर्जरे / विधत्ते तेन विज्ञेया कारणं नाकमोक्षयोः // 31 // त्रिवर्गसाधनोपायप्रतिपादनतत्परा / यानेकरसमारार्था मा संकीर्णकथोच्यते // 32 // चित्राभिप्रायहेतुत्वादनेकफलदायिका / विदग्धताविधाने च मा हेतुरिव वर्तते // 33 // श्रोतारोऽपि चतुर्भेदास्तामा मन्तीह मानवाः / तेषां संक्षेपतो वक्ष्ये लक्षणं तन्निबोधत // 34 // मायाशोकभयक्रोधलोभमोहमदान्विताः / ये वाञ्छन्ति कथामाथी ताममास्ते नराधमाः // 35 // थे रागग्रस्तमनमो विवेकविकला नराः / कथामिच्छन्ति कामम्य राजमास्ते विमध्यमाः // 36 // मोक्षकांकतानेन चेतसाभिलषन्ति थे / शुद्धां धर्मकथामेव सात्विकास्ते नरोत्तमाः // 20 // ये लोकदयमापेक्षाः किञ्चित्मत्त्वयुता नराः / कथामिच्छन्ति संकीणों ज्ञेयास्ते वरमध्यमाः // 38 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। तत्रैवं स्थिते // रजस्तमोनुगाः सत्त्वाः खयमेवार्थकामयोः / रज्यन्ते धर्मशास्तारमवधय निवारकम् // 38 // रागद्वेषमहामोहरूपं तेषां शिखित्रयम् / अर्थकामकथासर्पिराहुत्या वर्द्धते परम् // 40 // केकायितं मयूराणां यथोत्कण्टकवर्द्धनम् / पापेषु वर्द्धितोत्साहा कथा कामार्थयोस्तथा // 41 // कथां कामार्थयोस्तस्मान्न कुर्वीत कदाचन / कः पते क्षारनिक्षेपं विदधीत विचक्षणः // 42 // परोपकारशीलेन कर्त्तव्यं तन्मनीषिणा / हितं समस्तजन्तुभ्यो येनेह स्थादमुत्र च // 43 // तेन यद्यपि लोकानामिष्टा कामार्थयोः कथा / तथापि विदुषा त्याज्या येन पर्यन्तदारुणा // 44 // तदेतदवगम्य // इहामुत्र च जन्तूनां सर्वेषाममृतोपमाम् / शुद्धां धर्मकथां धन्याः कुवति हितकाम्यया // 4 // आक्षेपकारौँ मत्वा संकीर्णमपि सत्कथाम् / मार्गावतारकारित्वात् केचिदिच्छन्ति सूरयः // 46 // किलात्र यो यथा जन्तुः शक्यते बोधभाजनम् / कत्तुं तथैव तद्दोध्ये विधेयो हितकारिभिः // 4 // नचादौ मुग्धबुद्धौनां धर्मो मनसि भासते / कामार्थकथनात्तेन तेषामाक्षिप्यते मनः // 48 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / पाक्षिप्तास्ते ततः शक्या धर्म ग्राहयितुं नराः / विक्षेपदारतस्तेन संकीर्णा सत्कथोच्यते // 46 // तस्मादेषा कथा द्धधर्मस्यैव विधास्यते / भजन्ती तद्गुणापेक्षां क्वचित्संकीर्णरूपताम् // 5 // संस्कृता प्राकृता चेति भाषे प्राधान्यमहतः / तत्रापि संस्कृता तावदुर्विदग्धहदि स्थिता // 51 // बालानामपि सद्बोधकारिणौ कर्णपेशला / तथापि प्राकृता भाषा न तेषामपि भासते // 52 // उपाये मति कर्त्तव्यं सर्वेषां चित्तरञ्जनम् / अतस्तदनुरोधेन संस्कृतेयं करिष्यते // 53 // न चेयमतिगूढार्था न दौर्धेर्वाक्यदण्डकैः / न चाप्रसिद्धपर्यायैस्तेन सर्वजनोचिता // 54 // कथाशरीरमेतस्या नाम्नैव प्रतिपादितम् / भवप्रपञ्चो व्याजेन यतोऽस्यामुपमीयते // 55 // यतोऽनुभूयमानोऽपि परोक्ष इव लक्ष्यते / अयं संसार विस्तारस्ततो व्याख्यानमहर्ति // 56 // अथवा // भ्रान्तिव्यामोहनाशाय स्मृतिबीजप्रबोधनम् / कथार्थसंग्रहं कृत्वा शरीरमिदमुच्यते // 5 // दिविधेयं कथा तावदन्तरङ्गा तथेतरा / शरीरमन्तरङ्गायास्तत्रेदमभिधीयते // 5 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। प्रस्तावास्तावदष्टाच विधास्यन्ते परिस्फटाः / प्रत्येक तेषु वक्रव्यो योऽर्थस्तं मे निबोधत // 56 // प्रस्तावे प्रथमे तावन्निबद्धवा येन हेतुना / इयं कथा मयेदृक्षा स हेतुः प्रतिपाद्यते // 6 // द्वितीये भव्यपुरुषो मानुष्यं प्राप्य सुन्दरम् / यथात्महितजिज्ञासुः समासाद्य सदागमम् // 61 // तदन्तिकस्यः संमारिजीवस्य चरितं यथा / श्रुत्वाग्रहौतमंकेताव्याजात्तेनैव सूचितम् // 62 // तिर्यगवक्रव्यताबद्धं मार्द्ध प्रज्ञाविशालया। विचारयति निःशेषं तदिदं प्रतिपाद्यते // 6 // कुलकम् // तथा बतौयप्रस्तावे हिंसाक्रोधवशानुगः / स्पर्शनेन्द्रियमूढश्च यथा दुःखैर्विबाधितः // 64 // संमारिजौवः संसारे भ्रष्टो मानुष्यजन्मतः / इदं संसारिजौवस्य सुखेनैव निवेद्यते // 65 // युग्मम् // पुनशतर्थप्रस्तावे मानजिबानतेषु भोः / रकः संसारिजीवोऽसौ यथा दुःखैः प्रपौडितः // 66 // भूयवानन्तममारमपारं दुःखपूरितः / यथा धान्त इदं सर्व मविशेष निगद्यते // 6 // युग्मम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्रस्तावे पञ्चमे त्वत्र विपाकः स्तेयमाययोः / उकः संसारिजीवेन तथा प्राणेन्द्रियस्य च // 68 // तथात्र षष्ठप्रस्तावे लोभमैथुनचक्षुषाम् / विपाको वर्ण्यते तेन योऽनुभूतः पुरात्मना / ' 68 // युग्मम् // प्रस्तावे सप्तमे सर्व महामोहविजृम्भितम् / परिग्रहस्य श्रोत्रेण सहितस्येह वर्णितम् // 70 // किंतु // बतौयात्मप्तमं यावदत्र प्रस्तावपञ्चके / नस्थ संसारिजौवस्य यहत्तान्तकदम्बकम् // 7 // तत्किञ्चित्तस्य संपन्नं किंचिदन्यैर्निवेदितम् / तथापि तत्प्रतीतत्वात्मवें तस्येति वर्णितम् // 72 // युग्मम् // अष्टमे मौलितं सर्व प्रस्तावे पूर्वसूचितम् / तेन संसारजौवेन विहितं चात्मने हितम् // 73 // नव संसारिजीवस्य वृत्तं भवविरञ्जनम् / आकर्ण्य भव्यपुरुषः प्रबुद्ध इति कथ्यते // 74 // तथा संसारिजौवेन भूयो भूयः प्रचोदिता / बुद्धवाग्रहीतसंकेता कृच्छ्रेणातिनिवेद्यते // 7 // श्रासाद्य निर्मलाचार्य केवलालोकभास्करम् / समस्तोऽप्यात्मवृत्तान्तः पृष्टः शिष्टोऽवधारितः // 7 // .. For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। तथा मदागमादुच्चैर्भूयो भूयः स्थिरौलतः / संजातावधिना तेन ततोऽयं प्रतिपादितः // 77 // अन्यच्च // दहान्तरङ्गालोकानां ज्ञानं जल्यो गमागमम् / विवाहो बन्धुतेत्यादि सर्वलोकस्थितिः कृता // 78 // मा च दुष्टा न विज्ञेया यतोऽपेक्ष्य गुणान्तरम् / उपमादारतः सर्वा बोधार्थ मा निवेदिता // 6 // यतः // प्रत्यक्षानुभवामिद्धं युक्तिो यन्त्र दुष्यति / सत्कल्पितोपमानं तमिद्धवान्तेऽप्युपलभ्यते // 8 // तथाहि यथावश्यके // माक्षेपं मुद्गशैलस्य पुष्कलावर्नकस्य च / स्पर्धा सर्पाश्च कोपाद्या नागदत्तकथानके // 81 // तथा॥ पिण्डैषणायां मस्येन कथितं निजचेष्टितम् / उत्तराध्ययनेम्वेवं मंदिष्टं शुष्कपचकैः // 82 अतस्तदनुसारेण सर्वं यदभिधास्यते / प्रत्रापि युनियुक्त तद्विज्ञेयमुपमा यतः // 8 // तदेतदन्तराङ्गायाः शरीरं प्रतिपादितम् / बहिरङ्गकथायास्तु शरीरमिदमुच्यते // 84 // पूर्व विदेहे सन्मेरोः मुकच्छविजयप्रभुः / क्षेमपुयीं समुद्भूतश्वक्रवर्त्यनुसुन्दरः // 85 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / स च स्वायुष्कपर्यन्ते निजदेशदिदृक्षया / विनिर्गतो विस्तासेन प्राप्तः शंखपुरेऽन्यदा // 86 // तत्र चित्तरणोद्याने मनोनन्दननामके / जेने ममन्तभद्राख्याः सूरयो भवने स्थिताः // 87 // प्रभूच तत्समीपस्था महाभद्रा प्रवर्तिनौ / तथा सुललिता नाम राजपुत्रौ सुमुग्धिका // 88 // तथान्यः पौण्डरीकाख्यः ममोपे राजदारकः / श्रामौत्ममन्तभद्राणं तदा संसश्च पुष्कला // 86 // ततश्च // कृतभरिमहापापं दृष्ट्वा तं चक्रवर्त्तिनम् / जानालोकेन ते धौराः सूरयः प्राहुरीदृशम् // 6 // यस्य कोलाहलो लोके श्रूयते नौयतेऽधुना / संसारिजीवनामायं तस्करो वध्यधामनि // 1 // एतत्मरेर्वचः श्रुत्वा महाभद्रा व्यचिन्तयत् / कश्चिन्नरकगाम्येष जौवो योऽवर्णि मूरिभिः // 2 // ततः मा करुणोपेता तत्समीपमुपागता / तद्दर्शनाच्च संजातं ज्ञानं तस्य स्वगोचरम् // 63 // ततो विज्ञाय वृत्तान्तं तस्कराकारधारकः / भूत्वा वैक्रियलब्यासौ तया सार्दू समागतः // 64 // ततः मा राजपुत्रौ तं पप्रच्छ विहितादरम्। अमेषचौर्यवृत्तान्तं मोऽप्युक्तस्तेन सूरिणा // 65 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / भवप्रपञ्चमात्मौयं तस्या बोधविधित्मया / उपमाद्वारतः प्राह तौवं संवेगकारणम् // 66 // श्रुत्वा च तं प्रबुद्धोऽसौ लघुकर्मतया स्वयम् / पौण्डरौकः क्षणादेव प्रसंगश्रवणादपि // 7 // सा पुनः कथितेऽप्युच्चैः प्राचीनमलदोषतः / अबुध्यमाना तेनैव भूयो भूयः प्रचोदिता // 18 // अथ कृच्छ्रेण माप्येवं प्रबद्धवा विहितं ततः / म(रेवात्मनः पथ्यं गतानि च शिवालयम् // 66 // कथाशरीरमेतच्च धारणौयं खमानसे / प्रस्तावे चाष्टमे सर्वमिदं व्यकोभविष्यति // 10 // एवं स्थिते // यतः सर्वज्ञसिद्धान्तवचनामृतमागरात् / निष्यन्दबिन्दुभृतेयमाकृष्टा परमार्थतः // 1 // ततो दुर्जनवर्गोऽस्याः श्रवणं नाप्नुमईति / कालकूटविषं नैव युज्यतेऽमृतबिन्दुना // 2 // अतो दुर्जनवर्गस्य नेह दोषविचारणम् / .. क्रियते पापकारिण्या पापानां कथयाप्यलम् // 3 // ... स्तुतोऽपि दुर्जनः काव्ये दोषमेव प्रकाशयेत् / . निन्दितस्तु विशेषेण युकातोऽस्थावधारणा // 4 // अथवा // निन्दायामात्मदौर्जन्यं स्तवेऽप्यनृतभाषणम् / भवेदुर्जनवर्गस्य ततो युकापकर्णना // 5 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / ततोऽस्यालघुकर्माण: चौरनौरधिसंनिभाः / गम्भौरहदया भव्याः मन्जनाः श्रवणोचिताः // 6 // तेषामपि न कर्त्तव्या निन्दा नापि प्रशंसनम् / मौनमेव परं श्रेयस्तत्रेदं हन्त कारणम् // 7 // नचिन्दाया महापापमनन्तगुणशालिनाम् / स्तवोऽपि दुष्करस्तेषां मादृशेडबुद्धिभिः // 8 // किंच // अस्तुता अपि ते काव्ये पश्यन्ति गुणमन्जमा / दोषामाच्छादयन्त्येवं प्रकृतिः मा महात्मनाम // 6 // अतस्तेषां स्तवेनालं केवलं ते महाधियः / अभ्यर्थनौयाः श्रवणे तेनेदमभिधीयते // 10 // भो भव्याः समनोभूय कर्णं दत्वा निबोधत / चयं मदनुरोधेन वक्ष्यमाणं मया क्षणम् // 11 // अनन्तजनसंपूर्णमस्ति लोके सनातनम् / अदृष्टमूलपर्यन्तं नाम किंचिन्महापुरम् // 12 // नच कीदृशम् // अधोत्तुङ्गमनोहारिमौधपद्धतिसंकुलम् / अलन्धमूलपर्यन्तं हट्टमार्गविराजितम् // 13 // अपारै रिविस्तारै नापण्यैः प्रपूरितम् / पण्यानां मूल्यभूताभिराकोण रत्नकोटिभिः // 14 // विचित्रचित्रविन्यामैर्धाजते देवमन्दिरः / प्राक्षिप्तवालहृदयनिश्चलौक्वतलोचनैः // 15 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / वाचालबालसंघातैलमत्कलकलाकुलम् / अलंध्यतङ्गप्राकारवलयेन विवेष्टितम् // 16 // अलब्धमध्यगम्भौरं वेदिकाजलदुर्गमम् / विलमल्लोलकल्लोलैः मरोभिः कृतविस्मयम् // 17 // घोरान्धकूपसंघातेः शत्रूणां त्रामहेतुभिः / समंतादुपगढं च प्राकाराभ्यर्णवर्त्तिभिः // 18 // भ्रमभ्रमरज्ज्ञकारतारसंगीतसुन्दरः / नानापुष्यफलाकोणीति चामरकाननैः // 16 // अनेकाश्चर्यभूयिष्ठं तच्चमत्कारकारणम् / अदृष्टमूलपर्यन्तमौदृशं हि महापुरम् // 20 // तत्र निष्पण्यको नाम कश्चिद्रक्डो महोदरः / निर्णष्टबन्धदर्बुद्धिरर्थपौरषवर्जितः // 21 // क्षुधाक्षामतनुर्भिक्षामादाय घटकपरम् / पर्यटत्यनिशं दौनो निन्द्यमानो रहे ग्टहे // 22 // अनाथो भूमिशयनष्ट पार्श्वत्रिकः परम् / धूलोधूमरमर्वाङ्गश्चौरिकाजालमालितः // 23 // दुन्तिडिम्भसंघातैस्ताडयभानः क्षणे क्षणे / यष्टिमुष्टिमहालोष्टप्रहारैर्जर्जरोकतः // 24 // सर्वाङ्गीणमहाघाततापानुगतचेतनः / हा मातस्त्रायतामित्थं देन्यविक्रोशविक्लवः // 25 // मोन्मादः मञ्चरः कुष्टौ सपामः शूल पीडितः / निलयः सर्वरोगाणं वेदनावेगविकलः // 26 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपश्चा कथा। गौतोष्णदंशमशकक्षुत्पिपामाद्युपद्रवैः / बाध्यमानो महाघोरनारकोपमवेदनः // 27 // कपास्पदं मतां दृष्टो हास्यस्थानं समानिनाम् / बालानां क्रौडनावासो दृष्टान्तः पापकर्मणाम् // 28 // अन्येऽपि बहवः सन्ति रोरास्तत्र महापुरे। केवलं तादृशः प्रायो नास्ति निर्भाग्यशेखरः // 28 // तस्य तस्य ग्टहे लश्ये भिक्षामित्यादि चिन्तयन् / ध्यानमापूरयन् रौद्रं विकल्पाकुलमानमः // 30 // म किंचिन्नैव लभते केवलं परिताम्यति / कदनलेशमात्रं तु राज्यवत्प्राप्य तुष्यति // 31 // अवज्ञया जनैर्दत्तं भुञानस्तत्कदन्नकम् / जनादपि विभेत्युच्चैरयमेतद्द्यहोव्थति // 32 // बप्तिस्तेनापि नैवास्य बुभुक्षा वर्द्धते परम् / जौर्यत्तत्पौडयत्येनं कृत्वा वातविसूचिकाम् // 33 // अन्यच्च सर्वरोगाणां निदानं तदुदाहृतम् / तदेव पूर्वरोगाणामभिवृद्धिकरं परम् // 34 // म च तन्मन्यते चार वराकोनान्यदौलते / सुखादुभोजनाखादो न स्वप्रेऽप्यस्य गोचरः // 35 // उच्चावचेषु गेहेषु नानाकारासु वौथिषु / बडगस्तत्पुरं तेन भ्रान्तमश्रान्तचेतमा // 36 // एवं पर्यटतस्तस्य महापापहतात्मनः / मजायते कियान् कालो दुःखयस्तस्य संघितः // 30 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। अथ तत्र पुरे राजा सुस्थितो नाम विश्रुतः / समस्तसत्त्वसंघस्य खभावादतिवत्सलः // 38 // अटाव्यमानोऽसौ रक्ङः संप्राप्तस्तस्य मन्दिरम् / स्वकर्मविवरो नाम तत्रास्ते द्वारपालकः // 36 // म द्वारपालस्तं रोरं दृष्ट्वातिकरुणास्पदम् / प्रावेशयत् कपालुत्वादपूर्व राज्यमन्दिरम् // 4 // तच कीदृशम् // रत्नराशिप्रभाज्वालैस्तमोबाधाविवर्जितम् / रणनानपुराद्युत्थभूषणरावसुन्दरम् // 41 // देवपट्टांशकोल्लो चलोलमौक्तिकमालिकम् / ताम्बललालिताशेषलोकवक्रमनोहरम // 42 // विचित्रभक्रिविन्यासैर्गन्धोद्धरसुवर्णकैः / पाकीणं प्राङ्गणं माल्यैः कलालिकुलगीतिभिः // 43 // विलेपनविमर्दन कर्दमौकृतभूमिकम् / प्रहष्टमत्त्वमंदोहवादितानन्दमर्दलम् // 44 // अन्तर्वजन्महातेजःप्रस्नयोभूतशत्रुभिः / बहिःप्रशान्तव्यापारै राजवृन्दरधिष्ठितम् // 45 // माक्षात्भूतजगच्चेष्टेः प्रज्ञावज्ञातवैरिकैः / समस्तनौतिशास्त्रज्ञैर्मन्त्रिभिः परिपूरितम् // 46 // पुरः परेतभर्तारं येऽभिवौक्ष्य रणाङ्गणे / न क्षम्यन्ति महायोधास्तैरसंख्यैर्निषेवितम् // 4 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / कोटीकोटौः पुराणं ये पालयन्ति निराकुलाः / यामकरानसंख्यांश्च व्याप्तं तादृनियुक्तकः // 48 // येऽत्यन्तवत्सला भतुर्गाढं विक्रममालिनः / पाकीर्णं तादृगैरन्तः सूरिभिस्तलवर्गिकैः // 48 // प्रमत्तप्रमदालोकनिवारणपरायणैः। निवृत्तविषयासंगै राजते स्थविराजनैः // 50 // अनेकभटसंघातैराकीर्ण तत्ममंततः / ससदिस्लामिनौमानिर्जितामरधामकम् // 51 // कलकण्हैः प्रयोगज्ञैर्गायद्भिर्गायनैः परैः / वौणवेणु रवोन्मित्रैः श्रोचानन्दविधायकम् // 19 // विचित्रचित्रविन्यासैश्चित्ताक्षेपविधायिभिः / मद्रपैरतिसौन्दर्यानिश्चलौलतलोचनम् // 53 // चन्दनागरुकर्पूरमृगनाभिपुरःमरैः / पतिगन्धोद्धरैर्द्रयैर्घाणमोदनकारणम् // 54 // कोमलांशकवल्या दिललनालोकयोगतः / स्पर्शप्रमुदिताशेषतद्योग्यजनन्दकम् // 55 // मनःप्रौतिसमुत्पादकारणै रमनोत्मवैः / स्वस्थौभृताखिलप्राणिसंघातं भोजनैः परैः // 56 // समस्तेन्द्रियनिर्वाणकारणं वौक्ष्य तत्त्वतः / सरकङश्चिन्तयत्येवं किमेतदिति विस्मितः // 5 // मोन्मादत्वान्न जानाति विशेषं तस्य तत्त्वतः / तथापि हृदयाकूते स्फुरितं लब्धचेतमः // 58 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / पदिदं दृश्यते राजभवनं मततोत्सवम् / द्वारपालप्रमादेन न मया दृष्टपूर्वकम् // 56 // अहं हि बहुशः पूर्वमस्य द्वारि परिभ्रमन् / द्वारपालमहापापैः प्राप्तः प्राप्तो निराकृतः // 6 // सत्यं निष्पण्यकोऽस्मौ ति येनेदं देवदुर्लभम् / न दृष्टं प्राग् न चोपायो दर्शनार्थं मया कृतः // 61 // कदाचिनैव मे पूर्व मोहोपहतचेतसः / जिज्ञासामात्रमप्यासीत् कीदृशं राजमन्दिरम् // 12 // निर्भाग्यस्यापि कृपया चित्ताह्नादविधायकम् / अयं मे परमो बन्धुर्यनेदं दर्शितं मम // 63 // एते धन्यतमा लोकाः सर्वदन्दविवर्जिताः / प्रद्दष्टचित्ता मोदन्ते सततं येऽत्र मन्दिरे // 64 // यावत्म चिन्तयत्येवं द्रमको लब्धचेतनः / तावद्यत्तत्र संपन्नं तदिदानौं निबोधत // 65 // प्रासादशिखरे रम्ये सप्तमे भूमिकातले / तत्रास्ते लीलयासौनः स राजा परमेश्वरः // 66 // अधस्तादर्ति तत्सर्वं नानाव्यापारमञ्जमा / नगरं मततानन्दं समन्तादवलोकयन् // 6 // म किञ्चिन्नगरे तत्र बहिच खलु वर्त्तते / वस्तु यन्न भवेदृष्टीचरस्तस्य पश्यतः // 68 // अतः प्रविष्टं तं रोरं गाढबीभत्सदर्शनम् / महारोगभराकान्तं शिष्टानां करुणास्पदम् // 66 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। कारुण्यादिव राजेन्द्रः स महात्मामलेक्षणः / खदृष्टिदृष्टिपातेन पूतपापमिवाकरोत् // 7 // धर्मबोधकरो नाम महानमनियुक्तकः / म राजदृष्टिं तां तत्र पतन्तौं निरवर्णयत् // 71 // अथासौ चिन्तयत्येव तदा माकूतमानमः / किमेतदमृतं नाम मांप्रतं दृश्यते मया // 72 // थस्य दृष्टिं विशेषेण ददाति परमेश्वरः / तूर्णं त्रिभुवनस्यापि स राजा जायते नरः // 73 // अयं तु द्रमको दौनो रोगग्रस्तशरौरकः / अलक्ष्मौभाजनं मूढो जगदुद्वेगकारणम् // 74 // पालोच्यमानोऽपि कथं पौर्वापर्येण युज्यते / नदस्योपरि पातोऽयं स दृष्टेः पारमेश्वरः // 75 // इं ज्ञातमेष एवात्र हेतुरस्य निरीक्षणे / खकर्मविवरणत्र यस्मादेष प्रवेशितः // 76 // खकर्मविवरश्चायं नापरीक्षितकारकः / तेनायं राजराजेन सम्यग्दृश्या विलोकितः // 77 // अन्यच्च पक्षपातोऽत्र भवने यस्य जायने / परमेश्वरपादानां म प्रियवं प्रपद्यते // 78 // अयं च नेत्ररोगेण नितरां परिपौडितः / एतद्दिदृक्षयात्यर्थमुन्मिषत्येव लोचने // 79 // दर्शनादस्य महसा गाढवौभत्मदर्शनम् / प्रमोदाददनं मन्ये लभते दर्शनीयताम् // 8 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / रोमाञ्चयति चाङ्गानि धूलोधमरितान्ययम् / सतोऽनुरागो जातोऽस्य भवने तेन वीक्ष्यते // 81 // नदयं द्रमकाकारं बिभ्राणोऽप्यधुना स्फुटम् / राजावलोकनादेव वस्तुत्वं प्रतिपत्स्यते // 8 // इत्याकलय्य तस्थामौ करुणाप्रवणोऽभवत् / मत्यं तच्छ्रयते लोके यथा राजा तथा प्रजाः // 8 // प्रथादरवशात्तूर्णं तस्य मूलमुपागमत् / एह्येहि दीयते तुभ्यमित्येवं तमवोचत // 84 // कदर्थनार्थमायाताः पचालनाः सुदारुणाः / दुर्दान्तडिम्भा ये तस्य दृष्ट्वा तं ते पलायिताः // 8 // भिक्षाचरोचिते देशे स तं नौवा प्रयत्नतः / धर्मबोधकरस्तस्मै दानाय जनमादिशत् // 86 // अथास्ति तद्दया नाम दुहिता तस्य सुन्दरा / मा तवचनमाकर्ण्य संभ्रमेण समुत्थिता // 8 // समस्तगदनिर्णाशि वर्गांजःपुष्टिबर्द्धनम् / सुगन्धि सुरमं खिग्धं देवैरप्यतिदुर्लभम् // 88 // महाकल्याणकं नाम परमानं मनोहरम् / मा तदादाय वेगेन तत्समीपमुपागता // 86 // इतश्च नौयमानोऽसौ द्रमकः पर्यचिन्तयत् / तुच्छाभिप्रायवशतः शंकयाकुलमानमः // 6 // पदयं मां समाहृय पुरुषो नयति स्वयम् / भिवार्थ किल नैवैतत् सुन्दरं मम भामते // 616 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / भिक्षायाः पूरितप्रायमिदं हि घटकर्परम् / तदेष विजने नौवा नूनमुद्दालयिष्यति // 62 // तत् किं नश्यामि महमा भक्षयाम्युपविश्य वा / न कार्य भिक्षयेत्युक्का यदा गच्छामि सत्वरम् // 3 // इत्यनेकविकत्यैश्च भयं तस्य विवर्द्धते / तशाचैव जानौते क्वाहं यातः क च स्थितः // 4 // गाढमूभिभूतत्वात्मरक्षानिमित्तकम् / रौद्रध्यानं समापूर्य मौलिते तेन लोचने // 65 // समस्तेन्द्रियवृत्तीनां व्यापारोपरतेः क्षणात् / नासौ चेतयते किंचित् कारवनष्टचेतनः // 66 // ग्टहाणेति च जन्त्यन्तौं भूयोभूयः ममाकुलाम् / ततोऽसौ द्रमकोऽपुण्यो न जानात्येव कन्यकाम् // 7 // सर्वरोगकरं तुच्छ कदन्नं न भविष्यति / / इति ध्यानेन नष्टात्मा तां सुधां नावबुध्यते // 18 // प्रत्यक्षं तमसंभाव्यं वृत्तान्तं वौच्य विस्मितः / म तदा चिन्तयत्येवं महानमनियुक्तकः // 86 // किमेष द्रमकश्चारु दीयमानमपि स्फुटम् / परमान्नं न ग्लाति ददात्यपि च नोत्तरम् // 20 0 // विट्राणवदनोऽत्यन्तं निमोलितविलोचनः / हृतसर्वस्ववन्मोहात् संजातः काष्टकौलवत् // 1 // तदयं नोचितो मन्ये परमानस्य पापभाक् / यदा नास्य वराकस्य दोकोऽयमुपलभ्यते // 2 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। अयं हि रोगजालेन बहिरन्तश्च वेष्टितः / वेदनाविकलो मन्ये न हि जानाति किंचन // 3 // अन्यथा कथमेतत्स्यात् कदन्नलवलम्पटः / अमृताखादमप्येष न ग्टलीयात्मचेतनः // 4 // तदयं निर्गदो हन्त केनोपायेन जायते / श्रा ज्ञातं विद्यते चारु मम तद् भेषजत्रयम् // 5 // यत्तावद्विमलालोकं नाम मे परमाञ्जनम् / समस्तनेत्ररोगाणां तदपाकरणक्षमम् // 6 // सूक्ष्मव्यवहितातीतभाविभावविलोकने / परमं कारणं मन्ये प्रयुक्तं तद्विधानतः // 7 // तत्त्वप्रीतिकरं नाम यच्च तीर्थादकं परम् / विद्यते मम तत्सर्वरोगतानवकारणम् // 8 // विशेषात्पुनरुन्मादसूदनं तदुदाइतम् / दृढं च पटुदृष्टित्वे कारणं वर्णितं बुधैः // 6 // महाकल्याणकं नाम यच्चैतदुपढौकितम् / परमानमिदं सर्वगदनिर्मूलनक्षमम् // 10 // प्रयुज्यमानं विधिना वर्णं पुष्टिं तिं बलम् / मनःप्रसादमौर्जित्यं वयःस्तंभं सौर्यताम् // 11 // तथाजरामरत्वं च कुर्यादेतन संशयः / नातः परतरं मन्ये लोकेऽपि परमौषधम् // 12 // तदेनममुना सम्यक् क्रयणापि तपखिनम् / व्याधिभ्यो मोचयामौति चित्ते तेनावधारितम् // 13 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवाप्रपञ्चा कथा / ततः शलाकामादाय विन्यस्याये तदञ्जनम् / तस्य धनयतो नौवामञ्जिते तेन लोचने // 14 // प्रसादकत्वाच्छीतत्वादचिन्त्यगुणयोगतः / तदनन्तरमेवास्य चेतना पुनरागता // 15 // क्षणादुन्मौलितं चक्षुर्विनष्टा व तद्गदाः / मनागाहादितश्चित्ते किमेतदिति मन्यते // 16 // तथापि च तदाकूतं भिक्षारक्षणलक्षणम् / पूर्वावेधवभाञ्चैव सम्यगस्य निवर्त्तते // 17 // विजनं वर्त्तते हन्त लास्यत्येनां व्यचिन्तयत् / नष्टुकामो दिगन्तेषु दृष्टिं धत्ते पुनः पुनः // 18 // प्रथाञ्चनवशाहदा पुरः संजातचेतनम् / तं रोरं मधुरैर्वाक्यैर्धर्मबोधकरोऽब्रवीत् // 18 // पिवेदमुदकं भद्र तापोपशमकारणम् / येन ते स्वस्थता सम्यक् शरीरस्योपजायते // 20 // म तु शंकाकुलाकूतः किमनेन भविष्यति / न जान इति मूढात्मा नोदकं पातमिच्छति // 21 // कपापरौतचित्तेन हितत्वात्तदनिच्छतः / बलाद्विवृत्य वदनं मलिलं तस्य गालितम् // 22 // सौतममृतास्वादं चित्ताबादकरं परम्। नौरमौरितमंतापं पीत्वा खस्य वाभवत् // 23 // महप्रायमहोन्मादो जातान्यगदतानवः / पणाविगतदार्तिस्ततोऽसौ समपद्यत // 24 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। सुप्रसनेन्द्रियग्रामः खस्थेनेवान्तरात्मना / मोऽचिन्तयदिदं चित्त किंचिदिमलचेतनः // 25 // महामोहहतेनाहो नरोऽयमतिवत्सलः / मया महात्मा पापेन वञ्चकत्वेन कल्पितः // 26 // ममाञ्चनप्रयोगेण विहितापदुदृष्टिता। अनेन तोयपानेन जनिता स्वस्थता परा ॥२७॥तस्मान्महोपकारोति किमस्योपकृतं मया / / महानुभावतां मुक्का नान्यदस्य प्रवर्तकम् // 28 // एवं चिन्तयतोऽप्यस्य मूर्छा तत्र कदनके / गाढं भावितचित्तवान कथंचिन्निवर्त्तते // 26 // अथ तभोजने दृष्टिं पातयन्तं मुहुर्मुहुः / विदित्वा तदभिप्रायमितरस्तमभाषत // 30 // अरे द्रमक दुर्बुद्धे किमिदं नावबुध्यसे / यदेषा कन्यका तुभ्यं परमानं प्रयच्छति // 31 // भवन्ति रोराः प्रायेण बहवोऽन्येऽपि पापिनः / त्वत्समो नास्ति निर्भाग्यो मयैतत्परिनिश्चितम् // 15 // यस्खं कदवलाम्पट्यात्मुधाकारमिदं मया / दाप्यमानं न ग्रहामि परमाबमनाकुलः // 33 // अन्येऽस्मात्सद्मनो बाह्याः सत्त्वास्तिष्ठन्ति दुःखिताः / तेषु नैवादरोऽस्माकं न ते राज्ञावलोकिताः // 24 // यतस्वं भवनं दृष्ट्वा मनागाल्हादितो हदि / तवोपरि नरेन्द्रस्य दयातोऽस्तौति गम्यते // 25 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्रिये प्रियं सदा कुर्युः स्वामिनः सेवका इति / यो न्यायस्तद्दिधानार्थ वयं त्वयि दयालवः // 36 // अमूढलक्ष्यो राजायं नापात्रे कुरुते मतिम् / अवष्टम्भः किलास्माकं स त्वया क्तिथोकृतः // 37 // . इदं हि मधुराखादं सर्वव्याधिनिबर्हणम् / नादत्मे त्वं कथं तुच्छे कदन्ने बद्धमानमः // 38 // अतस्त्यजेदं दुर्बुद्ध ग्रहाणेदं विशेषतः / यत्प्रभावादिमे पश्य मोदन्ते समजन्तवः // 36 // ततः संजातविश्वासस्तथा विभूतनिर्णयः / तत्त्यागवचनाद्दौनस्तं प्रतोदमवोचत // 40 // यदेतद्गदितं नाथैस्तत्सत्यं मम भासते / किंतु विज्ञापयाम्येकं वचनं तनिबोधत // 41 // यदिदं भोजनं नाथ वर्त्तते कर्परोदरे / प्राणेभ्योऽपि विशेषेण स्वभावादतिवल्लभम् // 42 // उपार्जितं च क्लेशेन काले निर्वाहक तथा / इदं तु तावकं नाहं जानामि मम कौदृशम् // 43 // तदिदं नैव मोकव्यं मया खामिन् कथंचन / यदि देयं सहानेन दापयस्व स्वभोजनम् // 44 // दूतरस्तु तदाकी मनसा पर्यचिन्तयत् / पश्यताचिन्यसामर्थ्य महामोहविजम्भितम् // 45 // यदयं द्रमको मोहात्सर्वव्याधिकरे रतः / अस्मिन् कदन के नैतत्तृणाय मम मन्यते // 46 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। तथापि किंचिद्भूयोऽपि शिक्षयामि तपखिनम् / यदि मोहो विलौयेत स्थादस्मै हितमुत्तमम् // 47 // इत्याकलय्य तेनोक्तं भद्र किं नावगच्छसि / एतन्निमित्तकाः सर्वे रोगास्तव शरीरके // 48 // एतद्विभक्षितं मर्वैः सर्वदोषप्रकोपनम् / जायते नितरां तेन त्यक्तव्यं शुद्धबुद्धिभिः // 46 // तवापि भासते भद्र विपर्यासादिदं हृदि / यदि खादं पुनर्वत्मि मामकानस्य तत्त्वतः // 50 // ततस्वं वार्यमाणोऽपि त्यजस्येवेदमात्मना / को नामामृतमाखाद्य विषमापातुमिच्छति // 51 // अन्यच्चाञ्जनसामर्थ्यं माहात्म्यं सलिलस्य च / किं न दृष्टं त्वया येन मदचो नानुतिष्ठसि // 52 // यच्चोक्तमर्जितं क्लेशादिदं मुञ्चामि नो ततः / तत्रापि अयतां सौम्य मोहं हित्वा त्वयाधुना // 53 // येनेवोपार्जितं क्लेशात् क्लेशरूपं च वर्त्तते / क्लेशस्य च पुनर्हेतुस्तेनैवेदं विमुच्यते // 54 // यच्चोक्तं न त्यजामौदं काले निर्वाहकं यतः / तत्राण्याकर्ण्यतां तावत्त्यत्वा तत्र विपर्ययम् // 55 // अनन्तदुःखसंतानहेतुर्निर्वाहि यद्यपि / एतद्धि किं त्वया स्थेयं दुःखग्रस्तेन सर्वदा // 56 // इदं तु तावकं नाहं जानामि मम कीदृशम् / यदकं तत्र विश्रब्धो वक्ष्यमाणं मया श्रण // 5 // 9 वद्याप / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / लोशं विना सदाकालं प्रयच्छामि यथेच्छया / परमानमिदं तुभ्यं ग्रहाण त्वमनाकुलः // 58 // समूलकाषं कशति सर्वव्याधौनिदं हि ते / तुष्टिं पुष्टिं बलं वर्ण वौर्यादौन् वर्द्धयत्यपि // 58 // किं वानेनाक्षयो भूत्वा मततानन्दपूरितः / यथायमास्ते राजेन्द्रः स्थास्यस्येतद्वलात्तथा // 6 // ततो मुञ्चाग्रहं भद्र त्यजेदं रोगकारणम् / ग्टहाणेदं महानन्दकारणं परमौषधम् // 11 // म प्राह त्यतमात्रेऽस्मिन् म्रियेऽहं स्नेहविभ्रमात् / भट्टारक ततो देहि सत्यस्मिन्मे स्वभेषजम् // 62 // ततो विज्ञाय निर्बन्धमितरः पर्यकल्पयत् / नैवास्य शिक्षणोपायो विद्यते ऽन्योऽधुना स्फुटम् // 63 // ततोऽत्र विद्यमानेऽपि दीयतामिदमौषधम् / पश्चाविज्ञातसद्भावः स्वयमेव विहास्थति // 6 // इत्याकरलय्य तेनोको ग्राह्यतां भद्र सांप्रतम् / परमानमिदं सद्यो ग्टहीत्वा चोपयुज्यताम् // 65 // एवं भवतु तेनोके मंज्ञिता तेन तद्दया / दत्तं तया ग्टहीत्वा तत्तेन तत्रैव भक्षितम् // 66 // ततस्तदुपयोगेन बुभुक्षा शान्तिमागता / नष्टा दूव गदबाता येऽस्य सर्वाङ्गसंभवाः // 6 // यासावञ्जनसंपाद्या या च मा मलिलोद्भवा / सुखासिका क्षणात्तस्य मानन्तगुणतां गता // 68 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / अथ प्रादुर्भवद्भक्तिर्नष्टाशंकः प्रमोदितः / .. स तं प्रत्याह नान्योऽस्ति नाथो मे भवतो विना // 18 // यतोऽनुपकृतैरेव भवद्भिर्भाग्यवर्जितः / अहं सर्वाधमोऽप्येवमेतावदनुकंपितः // 7 // इतरः प्राह यद्येवमुपविश्य क्षणं त्वया / श्रूयतां यदहं वच्मि श्रुत्वा तच्च समाचर // 71 // अथोपविष्टे विश्रब्धं तस्मिन्स प्राह चारुभिः / मनः प्रह्लादयंस्तस्य वचोभिहितकाम्यया // 72 // यदभ्यधायि भवता नाथोऽन्यो नास्ति मेऽधुना / तन्त्र वाच्यं यतः स्वामौ तव वर्या नृपोत्तमः // 73 // अयं हि भगवान्नाथो भुवनेऽपि चराचरे / विशेषतः पुनर्यऽत्र भवने सन्ति जन्तवः // 74 // येऽस्य किंकरतां यान्ति नराः कल्याणभागिनः / तेषामल्येन कालेन भुवनं किंकरायते // 75 // येऽत्यन्तपापिनः सत्त्वा येनैव सुखभाजनम् / ते वराका नरेन्द्रस्य नामाप्यस्य न जानते // 76 // ये भाविभद्रा दृश्यन्ते सदनेऽस्य महात्मनः / तेषां स्वकर्मविवरो ददात्यत्र प्रवेशकम् // 77 // वस्तुतः प्रतिपद्यन्ते तेऽमुं नास्त्यत्र संशयः / विशेषाज्जानते मुग्धाः पश्चात्ते कथितं मया // 78 // तदेष नाथस्ते भद्र जात एव नरेश्वरः / यतः प्रभृति पस्येऽस्मिन् प्रविष्टस्त्वं सुपुण्यतः // 78 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 28 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / केवलं तु विशेषेण महचस्तः प्रपद्यताम् / यावज्जौवमयं नाथो भवता शुद्धतमा // 8 // विशेषतः पुनर्येऽस्य गुणस्तानवभोक्ष्यसे / यथा यथा गदा देहे यास्यन्ति तव तानवम् // 81 // अयं च तानवोपायोऽमौषां नाशे च कारणम् / भेषजत्रितयस्यास्य परिभोगः क्षणे क्षणे // 82 // तत्सौम्य स्थौ यतामत्र भवने मुक्तसंशयम् / त्वया त्रयमिदं युक्त्या भुञ्जानेन प्रतिक्षणम् // 83 // ततस्त्वं दलिताशेषरोगबातो नरेश्वरम् / विशेषतः समाराध्य भवितासि नृपोत्तमः // 84 // इयं च तद्दया तुभ्यं दास्यत्येतद्दिने दिने / किमत्र बहनोलेन भोक्तव्यं भेषजत्रयम् // 85 // ततः प्राह्लादितः स्वान्ते वचनैस्तस्य कोमलैः / खाकूतमुररीकृत्य स एवं द्रमकोऽब्रवीत् // 86 // इदं नाद्यापि शक्नोमि पापस्त्यक्त कदन्नकम् / अन्यत्तु यन्मया किंचित् कर्त्तव्यं तत्समादिश // 8 // तच्छ्रुत्वा स्फुरितं चित्ते धार्मबोधकरे तदा / भुंच्चेदं चयमित्युक्तः किमेवं बत भाषते // 88 // श्रा ज्ञातमेष तुच्छत्वादेवं चिन्तयते हदि / भोजमत्याजनार्थो मे सर्वोऽयं विस्तरो गिराम् // 86 // क्लिष्टचिनो जगत्सर्वं मन्यते दुष्टमानमम् / शुद्धाभिमंधयः सर्वं शुद्धचित्तं विजानते // 0 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / ततो विहस्य तेनोक्तं माभेषौर्भद्र किंचन / नाधुना त्याजयामौदमनमेधि निराकुलः // 11 // अहमत्याजयं पूर्व तवैव हितकाम्यया / यदि नो रोचते तुभ्यं तुष्णोंभावोऽत्र मे मतः // 42 // यचैतदुपदिष्टं ते प्राक्कर्त्तव्यतया मया / तदत्र भवता किंचित् किं सम्यगवधारितम् // 63 // सोऽब्रवीनैव तन्नाथ किंचित्मलक्षितं मया / केवलं पेशलालापेस्तावकर्मादितो हृदि // 4 // अज्ञातपरमार्थापि सतां नूनं सरखतौ / चेतोऽतिसुन्दरत्वेन प्रौणयत्येव देहिनाम् // 65 // अन्यत्र चेतसो न्यासे नयने तव संमुखे / विशत्येकेन कर्णेन वचो यातौतरण मे // 86 // यच्चात्र मनसो नाथ वैधुर्य मम कारणम् / तत्मांप्रतं भयापायात् कथयामि निराकुलः // 6 // यदा ह्याकारितः पूर्वं भवद्भिः करुणापरैः / अहमनप्रदानार्थं तदा मे हृदि वर्त्तते // 18 // लास्यत्येष क्वचित्रौत्वा मामकं भोजनं नरः / तदाकूतवशागाढं ध्यात्वा चेतनतां गतः // 66 // यदा प्रबोधितः पश्चादञ्जनेन सुवमलैः / प्रम भवद्भिश्चिन्तितं वर्णं नश्यामौति तदा मया // 30 // यदा तु तोयपानेन शौतौ कृत्य वपुर्मम / कृतं मभाषणं नाथै स्तदा विशंभमागतः // 1 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / चिन्तितं च मया योऽयं ममैवमुपकारकः / स महाभूतिसंपन्नः कथं स्यादन्नहारकः // 2 // विमुञ्चेदं ग्रहाणेदं यदा नाथैः प्रजल्पितम् / तदा किं करवाणौति चित्तेनाकुलतां गतः // 3 // नैष तावत्वयं लाति त्याजयत्येव केवलम् / त्यक्त नैतच्च शक्नोमि किं वदामि तदुत्तरम् // 4 // सत्यस्मिन् देहि मे भोज्यमित्युक्ते दापितं त्वया / तदाखादात्पुनर्जातं ममायमतिवत्सलः // 5 // तत् किमस्य वचः कुर्वन् मुञ्चामौदं स्वभोजनम् / मरिथ्थे न तु मुक्तेऽस्मिन् मूर्छयाकुलशेतनः // 6 // अयं वक्ति हि तत्त्वेन शक्तोऽस्यस्य न मोचने / अहो व्यसनमापन्नं ममेदमतिदुस्तरम् // 7 // एवमाकुलचित्तस्य यन्नाथैबहुभाषितम् / तन्मे भूतघटस्येव लुठित्वा पार्श्वतो गतम् // 8 // नाधुना त्याजयामौति भवद्भिर्जातमानमः / इदानों पुनरादिष्टे मनाग जातो निराकुलः // 6 // तद् ब्रत मांप्रतं नाथाः कर्त्तव्यं पापकर्मणा / यन्मयेदृशचित्तेन येनाहमवधारये // 10 // तदाकर्ण्य दयायेन यदुक्तं प्राक् ममामतः / मविस्तरतरं तस्मै तत्पुनः प्रतिपादितम् // 11 // ततोऽञ्जनजलान्नानां नरेन्द्रस्य विशेषतः / प्रायोऽज्ञातगुणं ज्ञात्वा तं प्रतोदमभाषत // 12 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। अहं तात नरेन्द्रेण प्रागादिष्टो यथा त्वया / योग्येभ्य एव दातव्यं मदीयं भेषजत्रयम् // 13 // अयोग्यदत्तं नैवैतदुपकार प्रकल्पयेत् / प्रत्युतानर्थसंतानं विदधाति विशेषतः // 14 // मया पृष्टं तदा नाथ कथं ज्ञास्यामि तानहम् / ततः प्रत्युतवान् राजा तेषामाख्यामि लक्षणम् // 15 // ये तावदस्य नाद्यापि रोगिणो योग्यतां गताः / खकर्मविवरस्तेषां न ग्टहेऽत्र प्रवेशकः // 16 // मोऽप्यादिष्टो मया पूर्व ये योग्या भेषजत्रये / प्रवेशनीयास्ते नान्ये भवनेऽत्र त्वया नराः // 17 // प्रविष्टा अपि ते दृष्ट्वा मोदन्ते नैव मद्ग्रहम् / तेषां न मामिका दृष्टिविशेषेण निरौक्षिका // 18 // ते ह्यन्यद्वारपालेन स्युः कथंचित्प्रवेशिताः / त्वयापि लिङ्गतो ज्ञात्वा वर्जनौयाः प्रयत्नतः // 18 // ये मन्मन्दिरमालोक्य जायन्ते इष्टचेतनाः / रोगिणो भाविभद्रत्वानिरीक्षेऽहं विशेषतः // 20 // स्वकर्मविवरानौता ये मया च विलोकिताः / ते ज्ञेयास्त्रितयस्यास्थ पात्रभूतास्त्वया नराः // 21 // तेषां तु निकषस्थानमिदमेवौषधत्रयम् / प्रयुज्यमानं स्वगुणैः संग्रहेतरकारकम् // 22 // येभ्योऽदो रोचते चित्ते प्रयुक्तं गुणकारकम् / अक्लेशतो विशेषेण ते सुसाध्याः प्रकीर्तिताः // 23 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपभितिभवप्रपञ्चा कथा / m ये नादितः प्रपद्यन्ते बलाद्येषां विगाल्यते / कालरूपेण ते ज्ञेयाः कृच्छ्रमाध्याखयानुगाः // 24 // येभ्यो न रोचतेऽत्यर्थं न कामति नियोजितम् / देष्टारो दायकेऽप्यस्य ते समाध्या नराधमाः // 25 // तदेतद्राजराजेन मम यत्संप्रदायितम् / तेन ते कृच्छ्रमाध्यत्वं लक्षणेन विभाव्यते // 26 // अन्यच्च ये प्रपद्यन्ते भवतोऽमुं नरेश्वरम् / यावज्जौवं विशेषेण नाथं निःशंकमानमाः // 2 // अचिन्यवौर्यसंपूर्ण निःशेषगदबहिणी। तेषामेव गुणं धत्ते मदीया भेषजक्रिया // 28 // अतस्त्वं प्रतिपद्यख नाथत्वेन नृपोत्तमम् / भावसारं महात्मानो भक्तिग्राह्या यतः स्मृताः // 28 // अनन्तास्तात रोगा" भनितोऽमुं नृपोत्तमम् / प्रपद्य स्वामिभावेन हृष्टा जाताः कृतक्रियाः // 30 // बलिनस्तावका रोगा अपथ्ये लम्पटं मनः / महायनं विना नात्र लक्षते गदमक्षयः // 31 // तदत्म प्रयतो भूत्वा कृत्वा खं निश्चलं मनः / स्थित्वा निराकुलोऽत्रैव वितते राजमन्दिरे // 32 // श्रादाय कन्यकाहस्तात्प्रयुञ्जानः क्षणे क्षणे / भेषजत्रयमेतत्त्वं कुरुवारोग्यमात्मनः // 33 // ततस्तथेति भावेन ग्रहोतं तेन तद्वचः / तेनापि तद्दया तस्य विहिता परिचारिका // 34 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / ततः कृत्वैकदेशेन भिक्षापात्रमनारतम् / तदेव पालयन कालं कियन्तमपि स स्थितः // 35 // ददाति तद्दया तस्मै वितयं तदहर्निशम् / कदन्ने मूर्छितस्यास्य केवलं तत्र नादरः // 36 // प्रायेण बहु भुलेऽसौ तन्मोहेन कुभोजनम् / यत्पुनस्त दयादत्तं तबजत्युपदंशताम् // 37 // अञ्जनं च तथा प्राको निधत्ते नेत्रयोः क्वचित् / नच्च तीर्थोदकं पातुं तवचस्तः प्रवर्तते // 38 // महाकल्याणकं दत्तं संभ्रमेण त्वया बहु / भुक्ताल्पं हेलया शेषं कपरे निदधाति सः // 36 // तत्मांनिध्यगुणात्तच तस्यानं संप्रवर्द्धते / अदतोऽहर्निशं तस्मानिष्ठां नैव प्रपद्यते // 4 // ततो गाढतरं तुष्टो वृद्धिं दृष्ट्वा स्वभोजने / नचासौ तद्विजानौते यन्माहात्म्येन वर्द्धते // 41 // केवलं तत्र ग्रद्धात्मा त्रितये शिथिलादरः / जानबपि न जानाति कालं नयति मोहितः // 42 // अहर्निशमपथ्यं तनुजानः कुचिमानतः / पितयेऽनादरावादी न रोगोच्छेदभाजनम् // 43 // तावन्माण भुकेन किन्तु तस्य गुणो महान् / सतस्त्रयेण ते रोगा प्रानौता तेन याप्यताम् // 44 // तथाप्यात्मजताभावादुचणत्वादपथ्यतः। कचिदिकारमात्मीयं दधर्यन्ति शरीरके // 45 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / क्वचिच्छलं कचिद्दाहः कचिन्मी कचिज्ज्वरः / क्वचिच्छर्दिः क्वचिन्नाचं क्वचिद्हत्पार्श्ववेदना // 46 // कचिदुन्मादसन्तापः पथ्ये क्वचिदरोचकः / ने रोगैर्विक्रियापनैः शरीरस्य प्रजायते // 4 // कदाचित्तद्दया दृष्ट्वा तं विकारैरुपहतम् / पाक्रन्दन्तं कृपोपेता संचिन्येत्यमभाषत // 48 // कथितं तात तातेन यदनं तव वल्लभम् / एतबिमित्तकाः सर्वे रोगास्तवशरीरके // 46 // तथापि दृष्टवृत्तान्ता माभूदाकुलता तव / नक्षयन्तं दृष्ट्वापि भवन्तं नैव वारये // 5 // परमस्खास्य हेतौ ते शैथिल्यं भेषजत्रये / एतत्तु रोचते तुभ्यं सर्वसत्तापकारणम् // 51 // अधुना क्रन्दतो नास्ति हेतुः स्वास्थ्यस्य कारकः / अपथ्येऽत्यर्थं मकानां न लगत्येव भेषजम् // 52 // अपवादो ममाप्यच यतस्ते परिचारिका / प्रत्यहं न च शक्नोमि का स्वास्थ्यं तवाधुना // 53 // इतरः प्राह यद्येवं वारणीयस्वयासुतः / अभिलाषातिरेकेण न त्यतुं स्वयमुत्महे // 54 // कदापित्त्वत्प्रभावेन स्तोकस्तोकं विमुञ्चतः / सर्वत्यागेऽपि भक्तिम कदनस्य भविष्यति // 55 // साधु साधूदितं भद्र युक्रमेतद्भवादृशाम् / इत्युक्वाधिकमअन्तं मा कदवं न्यवारयत् // 56 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। ततस्तत्परिहारेण रोगा यान्यस्य नानवम् / न जायतेऽधिका पौडा लगत्यङ्गे च भेषजम् // 50 // केवलं मा यदाभ्यणे तदा पथ्येन तिष्ठति / अपथ्यमल्पमन्नाति जायते तेन याप्यता // 58 // यदा तु मा विदूरस्था लापव्यात्तत्कदम्बकम् / भूरि निर्भषजं मोऽत्ति तेनाजीर्णन पौद्यते // 5 // इतश्च तद्दया तेन धर्मबोधकरण मा / प्रागेवाशेषलोकस्य पालकत्वे नियोजिता // 6 // मानन्तमत्त्वमहातव्यापारकरणोद्यता / तन्मले कचिदेवास्ते शेषकालं समुत्कलः // 61 // अपथ्यभक्षणामकः म केनचिदवारितः / विकारैर्बाध्यते भूयस्ते दरास्ते च मेण्टकाः // 6 // कदाचित्पौडितो दृष्टो धर्मबोधकरण मः / सोऽवादीत् किमिदं भद्र म चाशेषं न्यवेदयत् // 6 // दयं हि तद्दया नित्यं न मत्पाऽवतिष्ठते / तवैकल्याञ्च मे रागाः प्रभवन्ति विशेषतः // 6 // तस्मान्नाथास्तथा यूयं कुरुष्वं यत्नमुत्तमम् / यथा पौडा न मे देहे स्वप्नान्तेऽप्युपनायते // 15 // म प्राह वत्म ते पौडा जायतेऽपथ्यसेवनात् / इयं तु तद्दया व्यग्रा कर्मान्तरनियोगतः // 6 // या वारणं विधत्ते ते सदैवापथ्यमन्नतः / पदि स्यात्तादृशौ काचित् क्रियते परिचारिका // 6 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / केवलं वमनात्मजः पथ्यसेवापराङ्मुखः / कदनभक्षणोद्युक्तस्तस्य किं करवाणि ते // 6 // इतरवाह मामैवं नाथावदत सांप्रतम् / नेवाहं युग्मदादेशं लस्यामि कथञ्चन // 68 // तदाकर्ण्य मनाग् ध्यात्वा क्षणमात्रमवोचत / धर्मबोधकरस्तस्मै हितायोद्यतमानसः // 70 // अस्ति मे वचनायत्ता सद्बुद्धिर्नाम दारिका / तो ते करोमि निर्धयां विशेषपरिचारिकाम् // 71 // मा हि संनिहिता नित्यं पथ्यापथ्यविवेचिका / तुभ्यमेव मया दत्ता माकार्षाश्चित्तवैक्लवम् // 72 // केवलं मा विशेषज्ञा वैपरीत्यविधायिनाम् / अनादरवतां पुंसां नोपकाराय वर्तते // 73 // यदि तेऽस्ति सुखाकाङ्क्षा दुःखेभ्यो यदि ते भयम् / ततः मा वति यत्किञ्चित् कत्तुं युक्तं तदेव ते // 74 // एष एव ममादेशो यत्तदादेशवर्त्तनम् / / तस्यै न रोचते यस्तु नैव मह्यं स रोचते // 7 // अनेकाक्षष्ययुक्तापि तद्दया क्वचिदेत्य ते। प्रतिजागरणं भट्र करिष्यत्यन्तरान्तरा // 76 // केवलं परमार्थस्ते कथ्यते हितकाम्यया / मबुद्धौ मततं यत्नः कर्त्तव्यः सुखमिच्छता // 77 // ये मूढाः सम्यगाराध्य सप्रसादां न कुर्वते / एनां तेषां न राजेन्द्रो नाहं नान्यः प्रमौदति // 78 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। 'प्रप्रसादहता नित्यं जायन्ते दुःखभाजनम् / ते यतोऽन्यो न खोकेऽपि हेतरस्ति सुखप्रदः // 16 // स्वाधीना वर्तते यस्मादरस्था मद्विधादयः / तवेयं सुखहेतत्वे तस्मादाराद्धमर्हसि // 8 // एवं भवतु तेनोने कता मा परिचारिका / ततः प्रति निश्चिन्तो धर्मबोधकरोऽभवत् // 81 // यावदास्ते दिनान्येषा कतिचित्तस्य पार्श्वगा। तावद्यत्तत्र संपन्नं तदिदानौं निबोधत // 52 // अतिलौल्येन यः पूर्वं खादबपि न हृप्यति / कदन्न भूरि नैवात्ति तस्य चिन्तापि तड़ता // 8 // पूर्वाभ्यासात् क्वचिङ्गु केवलं तृप्तिकारणम् / जायते न च तत्खास्यं विहन्याद् रद्दयभावतः // 84 // योऽकार्योदुपरोधेन महता भेषजत्रयम् / स्वयं तस्य बलात्तस्मिन् अभिलाषोऽभिवर्द्धते // 85 // अहित ग्टह्यभावेन हिते चाभिनिवेशतः / यत्तदा तस्य संपन्न तच्चैतदभिधीयते // 86 // बाधन्ते नैव ते रोगाः शरीरं जाततानवाः / यापि पौडा भवेत् क्वापि सापि शीघ्रं निवर्त्तते // 8 // विज्ञातच सुखाखादो नष्टा बीभत्मरूपता / गाढं च वर्तते तोषः स्वस्थत्वात्तस्य चेतसि // 88 // अन्यदात्यन्तहष्टेन मनसा रहमि स्थितः / मबुह्या माईमेवं स जल्पति स्म निराकुसः // 86 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उमितिभवप्रपञ्चा कथा / भने किमिदमाश्चर्य शरीरं मम वर्तते / एतदुःखाकर पूर्वं यत्मुखाकरतां गतम् // 6 // मा प्राह जातमेतत्ते मम्यक्पथ्यनिषेवणात् / समस्तदोषमूलेऽस्मिन्नहिते लौल्यवर्जनात् // 61 // मत्सान्निध्याच ते भद्र भुञानस्य कदन्नकम् / प्रागभ्यासवशाचित्ते लज्जात्यर्थं प्रजायते // 2 // सन्जया तस्य सम्भोगोऽकार्यरूपः प्रकाशते / ततश्च ग्रह्ययोगेन कामचारो निवर्त्तते // 63 // ततस्तमुक्कमप्यङ्गे नात्यर्थं रोगवर्द्धनम् / तेनैषा हादसंवेद्या जाता तव सुखासिका // 4 // इतरवाह यद्येवं सर्वथापि त्यजाम्यहम् / अदः कदन्न मे येन जायते सुखमुत्तमम् // 65 // मा त्वाह युज्यते किन्तु सम्यगालोच्य मंत्यज / माभूत्ते खेहदोषेण प्रागिवाकुलता पुनः // 66 // यदि त्यक पुनस्तेऽत्र खेहाबन्धोऽनुवर्तते / ततोऽत्यागो वरः कस्मात् खेहोऽस्मिनोगवर्धकः // 6 // अत्याल्पमनतोऽप्येत षजचयसेवनात् / मांप्रतं याप्यता तेऽस्ति मापि चात्यन्तदुलभा // 8 // सर्वत्यागं पुनः कृत्वा यत्स्यात्तदभिलाषुकः / याप्यतामपि नाप्नोति म महामोहदोषतः // 66 // तदेतत्सम्यगालोय यदि चेतसि भामते / ततोऽस्य सर्वथा त्यागो युज्यते कर्तमुत्तमैः // 4.. // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / सबुद्धेस्तवचः श्रुत्वा मनाम् दोलायितं मनः / नस्य किं करवाणौति नास्ति सम्यग विनिश्चयः // 1 // अन्यदा परिभुज्योच्चैर्महाकल्याणकं बड़। तत् कदन्नं ततस्तेन प्राशितं लीलया किल // 2 // ततः मदनवप्नत्वात् सद्बुद्धेः मविधानतः ! ततश्च तैर्गुणैश्चित्ते तदानौं प्रतिभासते // 3 // अहो कुथितमत्यर्थं लज्जनौयं मलाविलम् / बीभत्सं विरसं निन्धं सर्वदोषौधभाजनम् // 4 // इदं मे भोजनं मोहस्तथापि न निवर्तते / नैतत्त्यागादृते मन्ये निय॑यं सुखमाप्यते // 5 // त्यतऽपि पूर्वलौल्येन कदाचिन्मे मतिर्भवेत् / मबुद्या सापि दुःखौघकारिणति निवेदितम् // 6 // प्रत्यके दुःखजलधौ सर्वदा स्थयमनसा / नदच किं करोमौति पापोऽहं मत्त्ववर्जितः // 7 // अथवा॥ किमेतैः क्रियते मोहादालजालविचिन्तनः / मुञ्चामि सर्वथापौदं यद्भाव्यं तद्भविष्यति // 8 // यदा किमत्र यद्भाव्यं न भवत्येव मे स्मतिः / को नाम राज्यमासाद्य मरेच्चण्डालरूपताम् // 6 // एवं निश्चिता तेनोका सद्बुद्धिः चालयख मे। भद्रे भाजनमेतत्त्वं हित्वा सर्वकदन्नकम् // 1 . // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपचा कथा। तयोतं पृच्छयतां तावद्धर्मबोधकरस्त्वया / कालेन विक्रियां याति सम्यगालोच्य यत् कृतम् // 11 // ततः सहैव सबुद्ध्या धर्मबोधकरान्तिके | गत्वा सर्वोऽपि वृत्तान्तस्तेन तस्मै निवेदितः // 12 // साधु माधु कतं भद्र धर्मबोधकरोऽब्रवीत् / केवलं निश्चयः कार्थी येन नो यामि हास्थताम् // 13 // मोऽवादौत् किमिदं नाथो भूयो भूयो विकथ्यते / एष मे निश्चयस्तस्मिन्बमनोऽपि प्रवर्तते // 14 // ततोऽशेषजनैः मार्द्ध पर्यालाच विचक्षणः / अत्याजयत्स तत्पात्रं सब्जलेः पर्यशोधयत् // 15 // महाकल्याणकस्याच्चैस्तत्पुनः पर्यपूरयत् / प्रमोदातिशयात्तत्र दिने वृद्धिमकारयत् // 16 // धर्मबोधकरोइष्टस्तद्दया प्रमदोद्धरा।। मबुद्धिर्वद्भुितानन्दा मुदितं राजमन्दिरम् // 17 // प्रवृत्तश्च जने वादो योऽयं राज्ञावलोकितः / धर्मबोधकरस्येष्टस्तद्दयापरिपालितः // 18 // मबुद्ध्याधिष्ठितो नित्यमपथ्यत्यागकारकः / भेषजत्रयसेवित्वाद्रो गोधैर्मुक्रकल्पकः // 16 // स नो निष्पुण्यकः किन्तु महात्मेष सपुण्यकः / ततस्तदेव संजातं नामास्येति सपुण्यकः // 20 // कुतः पुण्यविहीनानां सामग्री भवतीदृशौ। जन्मदारियभाग् नैव चक्रवर्तित्वभाजनम् // 21 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। सद्बुद्धिस्तद्दयायोगात्तिष्ठते राजमन्दिरे / ततः प्रभृति यत्तस्य संपन्नं तन्निबोधत // 22 // ----- अपथ्याभावतो नास्ति पीडा देहे परिस्फुटा / कचित्समाल्पकाला च यदि स्यात्पूर्वदोषजा // 23 // ततः स्वयं गताकासो लोकव्यापारशून्यधीः / विधत्ते विमलालोकं नेत्रयोरञ्जनं सदा // 24 // तत्त्वप्रौतिकरं तोयं पिबत्यश्रान्तमानमः / महाकल्याणकं भुत तत्सदन्नमनारतम् // 25 // ततो बलं तिः स्वास्थ्यं कान्तिरोजः प्रसन्नता / बुद्धिपाटवमचाणां वर्द्धते ऽस्य प्रतिक्षणम् // 26 // नाद्यापि सम्यगारोग्यं बहुत्वाद्रोगमन्ततः / जायते केवलं देहे विशेषो दृश्यते महान् // 27 // यः प्रेतभूतः प्रागासौगाढं बीभत्मदर्शनः / म तावदेष संपन्नो मानुषाकारधारकः // 28 // ये रोरभावे भावाः प्रागभ्यस्तास्ते न सन्ततम् / तुच्छता क्लौबता लौल्यं शोकमोहभ्रमादयः // 26 // त्रयोपभोगात्ते सर्वे नष्टप्रायतया तदा / न बाधका मनाग् जातास्तेनासौ स्फीतमानमः // 3 // अन्यदात्यन्तहष्टात्मा सद्बुद्धिं परिपृच्छति / भने त्रयमिदं लब्धं मयैतत् केन कर्मणा // 31 // तयोक्तं तात लभ्यन्ते सर्वेऽर्था दत्तपूर्वकाः / इति वार्ताजने तेन दत्तमेतत् कचित्त्वया // 32 // 6 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। ततः सञ्चिन्तयत्येवं वितीर्णं यदि लभ्यते / इदं मकलकल्याणकारणं भेषजत्रयम् // 33 // इदानी चारुपात्रेभ्यः प्रयच्छामि विशेषतः / पुनर्जन्मान्तरे येन संपद्यतेदमक्षयम् // 34 // तस्य चायमवष्टम्भो राजराजावलोकितः / धर्मबोधकरस्येष्टस्तद्दयापरिपूजितः // 35 // साधितः सर्वलोकेन सद्बुद्धेर्गाढवल्लभः / अहं सपुण्य कस्तेन लोके वर्ते किलोत्तमः // 36 // ततश्च / यदि मां कश्चिदागत्य प्रार्थयिष्यति मानवः / नदास्थामौति मन्वानो दित्सुरप्येष तिष्ठति // 37 // अत्यन्तं निर्गुणोऽप्यत्र महद्भिः कृतगौरवः / नूनं संजायते गर्यो यथायं द्रमकाधमः // 38 // तत्र ये मन्दिरे लोकास्ते सर्व चयभोजनाः / तबलादेव निश्चिन्ताः संजाताः परमेश्वराः // 38 // प्रविष्टमात्रा विद्यन्ते तादृशा येऽपि निःस्वकाः / तेऽन्येभ्य एव तद् भूरि लभन्ते भेषजत्रयम् // 40 // ततो न कश्चित्तन्मले तदर्थमुपतिष्ठते / स दिक्षु निक्षिपंश्चक्षुर्याचमानं प्रतीक्षते // 41 // स्थित्वापि कालं भूयांसमलब्धप्रार्थकस्ततः / मबुद्धिं पुनरप्येष तदर्थं परिपृच्छति // 42 // मा प्राह भद्र निर्गत्य घोषणापूर्वकं त्वया / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्ताव दौयतां यदि ग्रहीयुः केचित्स्यादतिसुन्दरम् // 43 // ततोऽसौ घोषयत्युचैर्मदीयं भेषजत्रयम् / लोका ग्टलीत ग्टहीत स्टहे तस्मिन्बटाट्यते // 44 // ततः पूकुर्वतस्तस्माद्रलीयुरतितुच्छकाः / ये तत्र तद्विधाः केचिदन्येषां तु हृदि स्थितम् // 45 // अहो प्राग् दृष्टदारिद्र्यो रोरोऽयं मत्ततां गतः / राजवर्णवणेनास्मान् ग्राहयत्यात्मभेषजम् // 46 // ततः केचिद्धमन्त्युच्चैः केचिदुत्प्रासयन्ति तम् / अन्ये पराङ्मुखौभय तिष्ठन्ति विगतादराः // 4 // अथ तं तादृशं वीक्ष्य दानोत्माहविबाधकम् / जनव्यापारमागत्य सद्बुद्धेः कथयत्यमौ // 48 // ग्टक्षन्ति द्रमका भद्रे न टक्षन्ति महाजनाः / ममेच्छा यदि सर्वेषामेतेषामुपयुज्यते // 46 // पर्यालोचे दृढं पटवौ वर्तमे विमलेक्षणे / तदच हेतुर्वियेत ग्राहणोऽस्य महात्मनाम् // 50 // तदाकर्ण्य महाकार्ये नियुक्ताहमनेन भोः / चिन्तयन्ती महाध्यानं प्रविष्टा सा विचक्षणा // 51 // अथ निश्चित्य गर्भार्थं कायस्थेत्थममाषत / एक एवात्र हेतुः स्थाद् ग्राहणे सर्वश्रयः // 52 // राजाजिरे विधायेदं. काष्ठपाश्यां जनाकुले / वस्तुत्रयं. विशालायां तिष्ठ विश्रन्धमानमः // 53 // स्वयमेव यहीव्यन्ति शून्यं दृष्ट्वा तदर्थिनः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 98 उपमितिभवप्रयचा कथा / सारन्तो रोरभावं हि त्वत्कारात्ते न रखते // 54 // श्रादद्यात् कश्चिदेकोऽपि यदि तत्सगुणो नरः / तेन स्यात्तारितो मन्ये यत एतदुदाहृतम् // 55 // किञ्चिज्ञानमयं पात्रं किञ्चित्याचं तपोमयम् / आगमिष्यति तत्पात्रं यत्पात्रं तारयिष्यति // 56 // ततोऽसौ वर्द्धितानन्दस्तस्या वचनकौशलैः / विधत्ते तत्तथैवेति तत्रेदमभिधीयते // 5 // प्रयुक्तं तादृशेनापि ये ग्रहीष्यन्ति मानवाः / ते भविष्यन्ति नौरोगा यत्रयं तत्र कारणम् // 5 // अन्यञ्च / यावदर्थं निसृष्टत्वाद् ग्रहणे तदनुग्रहात् / अनुकम्पापरस्तत्र सर्वस्तू लातुमहर्ति // 56 // एष तावत्समासेन दृष्टान्तः प्रतिपादितः / अधुनोपनयं यूयं कथ्यमानं निबोधत // 6 // अदृष्टमूलपर्यन्तं यदत्र कथितं पुरम् / मोऽयं संसारविस्तारोऽदृष्टपारः प्रतीयताम् // 61 // महामोहहतोऽनन्तदुःखाघ्रातो विपुण्यकः / पूर्व मदीयजीवोऽयं स रोर इति ग्राह्यताम् // 62 // भिक्षाधारतया ख्यातं यत्तस्य घटकर्परम् / तदायुर्गुणदोषाणामाश्रयस्तद्विवर्त्तते // 63 // डिम्भाः कुतीर्थका ग्राह्या वेदना क्लिष्टचित्तता / रोगा रागादयो ज्ञेया अजीर्ण कर्मसञ्चयः // 6 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / 45 भोगाः पुत्रकलत्राद्या यच्च संसारकारणम् / तज्जौवग्टद्धिहेतुत्वात् कदन्नमभिधीयते // 65 // यश्चासौ सुस्थितो नाम महाराजः प्रकाशितः / जानौत परमात्मानं सर्वज्ञं तं जिनेश्वरम् // 66 // यच्च तज्जनितानन्दं गदितं राजमन्दिरम् / अनन्तभूतिमंपन्नं तज्ज्ञेयं जिनशासनम् // 6 // स्वकर्मविवरो नाम यः प्रोक्को द्वारपालकः / श्रात्मौयकर्मविच्छेदो यथार्थोऽमाबुदाहृतः // 68 // ये चान्ये सूचितास्तत्र द्वारपालप्रवेशकाः / ते मोहाज्ञानलोभाद्या विज्ञेयास्तत्वचिन्तकः // 66 // प्राचार्यास्तत्र राजान उपाध्यायाः सुमन्त्रिण: / गौतार्थवृषभा योद्धा गणचिन्तानियुक्तकाः // 70 // मामान्यभिक्षवः सर्वे विज्ञेया मूलवर्गिकाः / आर्यास्तु तत्र सद्गेहे प्रशान्ताः स्थविरा जनाः // 71 // भटौघाः श्राद्धमतातास्तद्रक्षाबद्धमानमाः / ज्ञेया विलासनौमत्वा भकास्तत्प्रमदागणाः // 72 // शब्दादिविषयानन्दवर्णनं पुनरत्र यत् / तदेवमर्थ सद्धर्माज्जायन्ते तेऽपि सन्दराः // 73 // धर्मबोधकरो ज्ञेयः सूरिया मत्प्रबोधकः / तद्दया तस्य या जाता ममोपरि महाकपा // 74 // ज्ञानमञ्जनमुद्दिष्टं सम्यक्त्वं जलमुच्यते / चारित्रमत्र विज्ञेयं परमानं मनीषिभिः // 75 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। मबुद्धिः शोभना बुद्धिः सन्मार्ग या प्रवर्त्तिका / काष्ठपात्री त्रयाकारा वक्ष्यमाणा कथोच्यते // 6 // एषा समामतस्तावत् कृता सामान्ययोजना। विशेषयोजनाव्यक्त गद्येनोदाहरिष्यते // 477 // तत्रेह तावत्तत्वविदुषामेष मार्गो यदुत तेषां कल्याणाभिनिवेशितया निष्ययोजनो विकल्पो न चेतसि विवर्त्तते। अथ कदाचिदभावितावस्थायां विवर्त्तत तथापि ते न निर्णिमित्तं भाषन्ते / प्रथ कदाचिदतत्वज्ञजनान्तर्गततया भाषेरन् तथापि न निईतकं चेष्टन्ने यदि पुनस्ते निष्कारणं चेष्टेरन् ततोऽतत्वज्ञजनमार्थादविशिष्टतया तत्वविद्वत्ता विशौर्यंत तस्मात्तत्ववेदिप्वात्मनोन्तर्भावमभिवषता सकलकालं सर्वण स्वविकल्पजल्पाचरणानां मार्थकत्वं यत्नतः परिचिन्तनौयम्। त दिनां च पुरतः कीर्तनीयम् ते हि निरर्थकेश्वष्यात्मविकल्पजल्पव्यापारेषु मार्थकत्वबुद्धिं कुर्वन्तमनुकम्पया वारयेयुरिति / श्रतो मयापि वप्रवृत्तेः मार्थकत्वमावेदयते मामुपमितिभवप्रपञ्चाभिधानां कथामारधुकामेन कथानकं दृष्टान्तद्वारेण निवेदितं तदेतद्यद्यवधारितं भो भव्यास्ततो मदनुरोधेन विहाय विक्षेपान्तरमस्थ दान्तिकमर्थमाकर्णयत / तत्र यत्तावददृष्टमूलपर्यन्तं नाम नगरमनेकजनाकुलं सदास्थायुकमाख्यातं मोऽयमनादिनिधनोऽविच्छिन्नरूपोऽनन्तजन्तु व्रातपूरितः संसारो द्रष्टव्यः / तथाहि / युज्यतेऽस्य नगरस्य नगरता कल्पयितुं यतोऽत्र धवलग्टहायन्ते देवलोकादिस्थानानि / हट्टमार्गायन्ते परापरजन्मपद्धतयः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। विविधपण्यायन्ते नानाकारसुखदुःखानि / तदनुरूपमूल्यायन्ते बहविधपुण्यापुण्यानि / विचित्रचित्रोज्ज्वलदेवकुलायन्ते सुगतकणभक्षाक्षपादकपिलादिप्रणौतकुमतानि / पौर्वापर्यपर्यालोचनविकलमुग्धजनचित्ताक्षेपकारितया महर्षप्रबलकलकलोपेतदुद्दन्तिबालकजापायन्ते। क्रोधादयः कषायाः सकलविवेकिमहालोकचित्तोद्वेगहेतुतया तुङ्गप्राकारायन्ते / महामोहलंध्यतया वेष्टकतया च महापरिखायते रागद्देषात्मिका हृष्णा / विषयजलदुष्यूरतथाऽतिगमौरतया च विस्तीर्णमहासरायन्ते शहादयो विषयाः। प्रबलजलकल्लोलाकुलतया विपर्यस्तजनशकुनाधारतया च गम्भौरान्धकूपायन्ते प्रियविप्रयोगानिष्टसंयोगस्वजनमरणधनहरणादयो भावाः। बामहेतुतया अदृष्टमूलतया च विशालारामकाननायन्ते जन्तदेहाः। हृषीकमनश्चञ्चरौकनिलयनकारणतया स्वकर्मविविधविटपिकुसुमफलभरपूरिततया चेति / / . ___ यस्तु तत्र नगरे निष्पुण्यको नाम द्रमकः कथितः मोऽत्र संसारनगरे सर्वज्ञशासनप्राप्तेः पूर्वं पुण्यरहिततया यथार्थाभिधानों मदीयजीवो द्रष्टव्यः / यथामौ द्रमको महोदरः तथायमपि जीवो विषयकदशनदुध्यरत्वान्महोदरः / यथाऽसौ द्रमकः प्रलौनबन्धुवर्गस्तथायमपि जीवोऽनादौ भवभ्रमणे केवलो जायते केवलो म्रियते केवलश्च स्वकर्मपरिणतिढौकितं सुखदुःखमनुभवति / इत्यतो नास्य परमार्थतः कश्चिद्वन्धुरस्ति / यथाऽसौ रोरो दुष्टबुद्धिस्तथायमपि जीवोऽतिविपर्यस्तो यतोऽनन्तदुःखहेतून् विषयानासाद्य परितव्यति परमार्थशवन् कषायान् बन्धूनिव सेवते / परमार्थतोऽन्धत्वमपि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / मिथ्यात्वं पटुदृष्टिरूपतया ग्टलाति। नरकपातहेतभूतामप्यविरतिं प्रमोदकारणमाकल यति / अनेकानर्थमार्थप्रवर्तकमपि प्रमादकदम्बकमत्यन्तस्निग्धमित्रवृन्दमिव पश्यति। धर्मधनहारितया चरटकल्पानपि दुष्टमनोवाकाययोगान् पुत्रानिव बहुधनार्जनशीलान् मन्यते / निबिडबन्धनोपमानमपि पुत्रकलत्रधनकनकादौनाल्हादातिरेकहेवन् पर्याखोचयतीति / यथाऽसौ द्रमको दारियोपहतस्तथायमपि जौवः सद्धर्मवराटिकामात्रेणापि शून्यत्वाद्दारिद्र्याक्रान्तमूर्तिः। यथासौ रोरः पौरुषविकलस्तथायमपि जीवः खकर्महेतूच्छेदवौयविकलतया पुरुषकाररहितो विज्ञेयः। यथाऽसौ द्रमकः क्षुत्क्षामशरीरस्तथायमपि जीवः सकलकालं विषयबुभुक्षानिरत्तेरत्यन्तकर्षितशरोरो ज्ञातव्यः / यथाऽसौ रोरोऽ नाथः कथितस्तथायमपि जौवः सर्वज्ञरूपनाथाप्रतिपत्तेरनाथो द्रष्टव्यः / यथाऽसौ द्रमको भूमिशयनेन गाढं दृष्टपार्श्वत्रिकः प्रतिपादितस्तथायमपि जौवः मदातिपरुषपापभूमिविलोटनेन नितरां दलितसमस्ताङ्गोपाङ्गो द्रष्टव्यः / यथासौ द्रमको धूलिधूसरसर्वाङ्गो दर्शितस्तथायमपि जौवो बध्यमानपापपरमाणुधूलिधूमरसमस्तशरोरो विज्ञेयः। यथासौ रोरचौरिकाजालमालितो गदितस्तथायमपि जौवो मोहकलालक्षणाभिलघुचेलपताकाभिः समन्तात्परिकरितमूर्तिरतौवबौभत्मदर्शनो वर्त्तते। यथामौ द्रमको निन्द्यमानो दौनचाख्यातस्तथायमपि जीवोऽवासविवेकैनिन्द्यते मद्भिः भयशोकादिक्लिष्टकर्मपरिपूर्णतया चात्यन्तदौनो विज्ञेयः। यथाचामौ तत्र नगरेऽनवरतं ग्टहे रहे भिक्षां पर्यटतीत्युक्तस्तथायमपि जीवः संसार For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / नगरेऽपरापरजन्यलक्षणेषु उच्चावचेषु गेहेषु विषयकदनाशापाशवशीकतोऽनारतं भ्रमतौति / यत्पुनस्तस्य भिक्षाधारं घटखर्परमाख्यातं तदस्य जीवद्रमकस्यायुष्कं विज्ञेयं यतस्तदेव तदुपभोग्यस्य विषयकदन्नादेश्चारित्रमहाकल्याणकादेवाश्रयो वर्त्तते / यतश्च तदेव ग्टहीत्वा भूयोभूयोऽस्मिन् संसारनगरेऽयं जीवः पर्यटतौति / ये तु तस्य द्रमकस्य दुर्दान्तडिम्भसंघाता यष्टिमुष्टिमहालोष्ट्र प्रहारैः क्षणे क्षणे ताउयन्तः शरीरं जर्जरयन्तीति निदर्शितास्तेऽस्य जीवस्य कुविकल्पास्तत्संपादकाः कुतर्कग्रन्यास्तत्प्रणेतारो वा कुतौर्थिका विज्ञेयाः। ते हि यदा यदाऽमुं जौवं वराकं पश्यन्ति तदा तदा कुहेतुशतमुद्गरघातपातेरस्य तत्वाभिमुखरूपं शरीरं जर्जरयन्ति / ततश्च तर्जर्जरित शरीरोऽयं जीवो न जानौते कार्याकार्यविचारं न लक्षयति भक्ष्याभक्ष्यविशेषं न कलयति पेयापेयस्वरूपं नावबुध्यते हेयोपादेयविभागं नावगच्छति स्वपरयोर्गुणदोषनिमित्तमिति ततोऽमौ कुतर्कानचित्तश्चिन्तयति नास्ति परलोको न विद्यते कुशलाकुशलकर्मणां फलं न संभवति खल्वयमात्मा नोपपद्यते सर्वज्ञः न घटते तदपदिष्टो मोक्षमार्ग इति। ततोऽसावतत्वाभिनिविष्टचित्तो हिनस्ति प्राणिनो भाषतेऽलोकमादत्ते परधनं रमते मैथुने परदारेष वा ग्टह्णाति परिग्रहं न करोति चेच्छापरिमाणं भक्षयति मांसमास्वादयति मद्यं न ग्लाति मदुपदेशं प्रकाशयति कुमार्ग निन्दति वन्दनीयान् वन्दत्यवन्दनीयान् गच्छति स्वपरयोगुणदोषनिमित्तमिति वदति परावर्णवादमाचरति समस्तपातकानौति। ततो बध्नाति निविडं भूरिकर्मजालं पतत्येष जीवो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / नरकेषु। तत्र च पतितः पच्यते कुंभीपाकेन विपाद्यते क्रकचपाटनेन भारोते वज्रकण्टकाकुलामु शाल्मलीषु पाय्यते मन्दंशकैर्मुखं विवृत्त्य कलकलायमानं तप्तं वपु भक्ष्यते निजमांसानि भृज्यतेऽत्यन्तमन्तप्तधानेषु तार्यते पूयवसारुधिरक्लेदमूत्रान्त्रकल्नुषां वैतरणौं विद्यतेऽसिपत्रवनेषु वपापभरप्रेरितः परमाधार्मिकसुरैरिति / तथा समस्तपुद्गलराशिभक्षणाऽपि नोपशाम्यति बुभुक्षा / निःशेषजलधिपानेऽपि नापगच्छति तर्षः। अभिभूयते गौतवेदनया कदर्शाते तापातिरेकेण तथोदीरयन्ति च तदन्यनारका नानाकाराणि दुःखानि / ततश्चायं जीवो गाढतापानुगतो हा मातर्हा नाथास्त्रायध्वं त्रायध्वमिति विक्लवमाक्रोशति न चास्य तत्र गात्रबायकः कश्चिद्विद्यते / ___ कथञ्चिदुत्तीर्णोऽपि नरकाद्विबाध्यते तिर्यक्षु वर्त्तमानः। कथं / वाह्यते भारं कुश्यते लकुटादिभिः विद्यन्तेऽस्य कर्णपुच्छादयः खाद्यते कृमिजालैः महते बुभुक्षां म्रियते पिपामया तुद्यते नानाकारयातनाभिरिति। ___ ततः कथञ्चिदवाप्तमनुय्यभावोऽप्येष जौवः पौद्यत एव दुःखैः / कथं तदुच्यते / क्लेशयन्येनं रोगबाताः जर्जरयन्ति जराविकाराः दोदूयन्ते दुर्जनाः विकलयन्तौष्टवियोगाः परिदेवन्य निष्टसंप्रयोगा: विसंस्थुलयन्ति धनहरणानि श्राकुलयन्ति खजनमरणानि विकलঅনিন নাম্বলানীনি। तथा / कथञ्चिलब्धविबुधजन्माप्येष जौवो ग्रस्यत एव नानाबेदनाभिः / तथा हि। श्राज्ञाप्यते विवशः शक्रादिभिः खिद्यते For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रसावः / परोत्कर्षदर्शनेन जौर्यते प्राग्भवकृतप्रमादस्मरणेन दन्दह्यतेऽखाधौनामरसुन्दरौप्रार्थनेन शल्यते तनिदानचिन्तनेन निन्द्यते महर्द्धिकदेवन्देन विलपत्त्यात्मनश्चवनदर्शनेन श्राक्रन्दति गाढप्राप्तासन्नमृत्युः पतति समस्ताशचिनिदाने गर्भकलमल इति / //___ एवं स्थिते। यद्रमकं वर्णयताऽभ्यधायि यदुत सर्वाङ्गिणमहाघाततापानुगतचेतनः हा मातस्त्रायतामित्थं दैन्यविक्रोश विक्लव इति / तदस्यापि जीवस्य तुल्यमेव द्रष्टव्यम् / तस्मादस्याः सर्वस्या महानर्थपरम्परायाश्चात्मगताः कुविकल्पास्तत्सम्यादकाः कुदर्शनग्रन्थास्तत्प्रणेतारश्च कुतौर्थिकाः कारणमिति। यत्तन्मादादयस्तस्य द्रमकस्य रोगा निर्दिष्टास्तस्य जीवस्य महामोहादयो विज्ञेयाः / तत्र मोहो मिथ्यात्वं तदुन्माद व वर्त्तते समस्ताकार्यप्रवृत्तिहेतुतया ज्वर व रोगः सर्वाङ्गीणमहातापनिमित्ततया शूलमिव द्वेषो गाढहृदयवेदनाकारणतया पामेव कामस्तौबविषयाभिलाषकण्डकारितया गलत्कुष्ठमिव भयशोकारतिसम्पाद्यं दैन्यम् / जनजगुप्मातुतया चित्तोगविधायितया च नेत्ररोग द्वाज्ञानं विवेकदृष्टिविघातनिमित्ततया जलोदरमिव प्रमादः मदनुष्ठानोत्माहघातकतयेति / ततश्चायं जौवो मिथ्यात्वादिभिरेतैर्भावरोगैविहलौकृतो न किञ्चिच्चेतयते / ततश्च यदेतत् साम्प्रतमेव न जानौते भक्ष्याभक्ष्यमित्याद्यनध्यवसायरूपं महातमः प्रतिपादितम् / ये च नास्ति परलोक इत्यादयो विपर्यासविकल्पाः प्रतिपादितास्तेऽस्य दयस्थाप्युत्पत्तौ बाह्याः कुतर्कग्रन्थादयः सहकारिकारणभावनोत्पादकाः / एते तु रागद्वेषमोहादय श्रान्तरा उपादान For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रयचा कथा। कारणभावेन जनकास्तस्मात्पूर्वोक्ता सर्वानर्थपरम्परा परमार्थती गाढतरमेतघ्नन्यापि विज्ञेया / किञ्च कुशास्त्रसंस्कारादयः कादाचित्का एते तु रागादयस्तदुत्पादने सकलकालभाविनः / अन्यच्च / कुदर्शनश्रवणादयो भवन्तोऽपि भवेयुर्वानर्थपरंपराकारणं न वेति व्यभिचारिणः / एते तु रागादयो भवन्तोऽवश्यतया महानर्थगर्तपातं कुर्वन्येव नास्त्यत्र व्यभिचारो यतस्तैरभिभूतोऽयं जौवः प्रविशति महातमोऽज्ञानरूपं विधत्ते नानाविधविपर्यामविकल्पान् अनुतिष्ठति कदनुष्ठानशतानि मञ्चिनोति गुरुतरकर्मभारं ततस्तत्परिणत्या क्वचिन्जायते सुरेषु क्वचिदुत्पद्यते मानुषेषु क्वचिदामादयति पशुभावं क्वचित्पतति महानरकेषु / ततश्च / तदेव प्राक्प्रतिपादितखरूपं महादुःखमन्तानमनवरतमरघट्टघटौयन्त्रन्यायेनानन्त शोऽनुभवद्वारेण परावर्त्तयतौति / एवञ्च स्थिते यत्तद्रमकवर्णने प्रत्यपादि यदुत शौतोषणदंशमशकक्षुत्पिपासाद्युपद्रवैर्वाध्यमानो महाघोरनरकोपमवेदन इति / तदत्र जौवरोरे समर्मलतरं मन्तव्यमिति / अत एव च यदुक्तं धदुतासौ द्रमकः / कपास्पदं सतां दृष्टो हास्यस्थानं स मानिनाम् / बालानां क्रौडनावामो दृष्टान्तः पापकर्मणाम् // तदत्रापि जौवे सकलं योजनीयम् / तथाहि / मततमसातमंनिपातग्रस्तोऽयं जौवो दृश्यमानोऽत्यन्तमात्मभूतप्रशमसुखरमानां भगवतां सत्माधूनां भवत्येव कृपास्थानं क्लिश्यमानेषु सकलकालं करुणाभावनाभावितचित्तत्वात्तेषां तथा मानिनामिव वीररसवशेन तपश्चरणकरणोद्यतमतौनां मरागसंयतानां भवत्येवायं जौवो हास्य For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / 53 स्थानं धर्माख्यपुरुषार्थमाधनविकलम्स कीदृशी खल्वस्य पुरुषतेति तेषामनादरदृष्टेः / तथा / बालानां मिथ्यात्वाध्यातचेतसां तथाविधलोकानां कथञ्चिदवातविषयसुखलवानां भवत्येवायं पापिष्ठजीवः क्रीडनावासो दृश्यन्ते हि धनगौद्धरचित्तैस्तथाविधकर्मकरादयो नानाप्रकारं विडम्ब्यमानाः / तथा पापकर्मणां फलप्ररूपणावसरे भवत्येवं विधो जीवो दृष्टान्तः। तथा हि / भगवन्तः पापकार्माणि दर्शयन्तो भव्यजन्तनां संवेगजननार्थमौदृशजीवानेव दृष्टान्तयन्तीति। यत्पुनरवाचि यदुत। अन्येऽपि बहवः सन्ति रोरास्तत्र महापुरे / केवलं तादृशः प्रायो नास्ति निर्भाग्यशेखरः // तदेतदात्मीयजीवस्यात्यन्तविपरीतचारितामनुभवताभिहितं मया / योऽयं मदीयजीवोऽधरितजात्यन्धभावोऽस्य महामोहोऽपहस्तितनरकतापोऽस्य रागः / उपमागोचरातीतोऽस्य परेषु द्वेषः / अपहमितवैश्वानरोऽस्य क्रोधो लघकतमहाशैलराजोऽस्य मानो विनिर्जितभुजगवनितागतिरस्य माया दर्शितस्वयम्भरमणमागरलघुभावोऽस्य लोभः स्वप्नपिपासाकारमस्य विषयलाम्पश्यं भगवद्धर्मप्राप्तेः प्रागामौत्स्वसंवेदनसिद्धमेतत् / अहमेवं तर्कयामि नैवमुल्वणदोषताप्रायोऽन्यजीवानां यथा चैतत्मोपपत्तिकं भवति तथोत्तरत्र प्रतिबोधावसरे विस्तरेणाभिधास्यामः / यत्ततं यथा सौ रोरस्तत्रादृष्टमूलपर्यन्ते नगरे प्रतिभवनं भिक्षामटन्नेवं चिन्तयति / यदुत अमुकस्य देवदत्तस्य बन्धुमित्रस्य जिनदत्तस्य च ग्टहेऽहं स्निग्धां स्पृष्टां बहौं, सुसंस्कृतां भिक्षां लस्ये ताञ्चाई For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / वर्णमादाय यथान्ये द्रमका न पश्यन्ति तथैकान्ते यास्यामि / तत्र कियतीमपि भोक्ष्ये शेषामन्यदिनार्थं स्थापयिष्यामि। ते तु द्रमकाः कदाचित्कुतश्चिनिमित्तान्मां लब्धलाभं ज्ञास्यन्ति ततश्चागत्य याचमाना मामुपद्रवयिष्यन्ति। ततश्च नियमाणेनापि मया न दातव्या मा तेभ्यः / ततस्ते बलामोटिकया ग्रहीय्यन्ति / ततोऽहं तैः सह योद्धं प्रारस्ये। ततस्ते मां यष्टिमुष्टिलोष्ट्रादिभिस्तायिव्यन्ति / ततोऽहं महामुद्रमादाय तानेकैकं चूर्णयिष्यामि क यान्ति दृष्टास्ते मया पापा इत्येवमलोकविकल्पजालमालाकुलीकृतमानसः केवलं प्रतिक्षणं रौद्रध्यानमापूरयिष्यति न पुनरसौ वराकः प्रतिग्टहमटायमानोऽपि किञ्चिद्भोजनजातमासादयति / प्रत्युत हृदयखेदमात्मनोऽनन्तगुणं विधत्ते। अथ कथञ्चिद्देववशात्कदनलेशमात्रमाप्नोति तदा महाराज्याभिषेकमिवामाद्य हर्षातिरेकान्जगदप्यात्मनोऽधस्तान्मन्यते / तदेतत्सर्वमत्राऽपि जौवे योजनीयम् / तत्रास्य संसारेऽहर्निशं पर्यटतो य एते शदादयो विषया यच्चैतहन्धुवर्गधनकनकादिकं यच्चान्यदपि क्रीड़ाविकथादिकं संसारकारणं तद्धिहेततया रागादिभावरोगकारणत्वात् कर्मसञ्चयरूपमहाजौर्णनिमित्तलाच कदन्नं विजेयं ततश्चायमपि महामोहग्रस्तो जीवश्चिन्तयति। यदुत परिणेय्याम्यहमनल्पयोषितः ताश्च रूपेण पराजेयन्ति त्रिभुवनं सौभाग्येनाभिमुखयिष्यन्ति मकरध्वज विलासैः क्षोभयिष्यन्ति मुनिहृदयानि कलाभिरुपहमिष्यन्ति रहस्पति विज्ञानेन रञ्जयिष्यन्ति अतिदुर्विदग्धजनचित्तानौति / तासां चाहं भविष्यामि सुतरां हृदयवलभः न सहिच्यन्ते ताः पर For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। पुरुषगन्धमपि न लंघयिष्यन्ति मम कदाचिदाज्ञां करिष्यन्ति मे मततं चित्तानन्दातिरेक प्रसादयिष्यन्ति मां दर्शितकृत्रिमकोपविकारं विधास्यन्ति कामोत्कोचकरणबहूनि चाटुशतानि प्रकटयिष्यन्तौंगिताकारैम हृदयसनावं हरिष्यन्ति नानाविकारविब्बोकममानसं हनिष्यन्ति मामनवरतं ता: परस्परेर्यया माभिलाषं कटाचविक्षेपैरिति / तथा भविष्यति मे विनीतो दक्षः शुचिः सुवेषोऽवमरज्ञो हृदयग्राही मय्यनुरक्तः समस्तोपचारकुशलः शौर्योदार्यसम्पन्नः मकलकलाकौशलोपेतः प्रतिपत्तिनिपुणोऽपहसित शक्रपरिकरः परिकर इति / तथा / भविष्यन्ति मे निजयशःशुभ्रसुधाधबलतया खचित्तमनिभा अत्युच्चतया च हिमगिरिमकामा विचित्रचित्रोज्वला वितानमालोपशोभिता: शालभञ्जिकाद्यनेकनयनानन्दकारिरूपरचनाकलिता बहुविधशाला विमाला नानाप्रकारप्रकोष्ठविन्यामा अतिविस्तीर्णानेकाकारस्थानमण्डपपरिकरिताः समंतान्महाप्राकारपरिचिप्ता अपहमितविबुधाधिपावामाः सप्तभूमिकादयो भूयांमः प्रामादाः / तथा करिष्यन्ति मे भवने सततं प्रकाश मरकतेन्द्रनौलमहानौलकतनपद्मरागवज्रवैदूर्येन्दुकान्तसूर्यकान्तचडामणिपुष्परागादिरत्नराशयः / तथा विराजिष्यन्ते मम मन्दिरे समन्तात्पौतोद्योतमादर्शयन्तो हाटककूटाः / तथा भविष्यन्ति मम मदनेऽनन्ततया हरिणधान्यकुप्यादिकमनास्थास्थानम् / तथा नन्दयिष्यन्ति मे हृदयं मुकुटाङ्गदकुण्डलपालम्बादयो भूषणविशेषाः / तथा जनयिष्यन्ति मे चित्तरतिं चौनांकपट्टांशुकदेवांशुकप्रमतयो वस्त्र विस्ताराः / तथा वर्द्धयिष्यन्ति मे मानसानन्दं मणि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / कनकविचित्रभकिमण्डितराजतक्रीडापर्वतककलितानि दीर्घिकागुञालिकायन्त्रवा पिकाद्यनेकविधजलाशयमनोहराणि बकुलपुबागनागाशोकचम्पकप्रभृतिविविधविटपिजातिविस्ताराणि पञ्चवर्णगन्धबन्धुरकुसुमभरानम्रशाखापर्यन्तानि कुमुदकोकनदादिजलरुहचारूणि भ्रमभङ्गझङ्कारमारतारोपगौतानि प्रासादसमीपवर्तीनि लोलोपवनानि प्रमोदयिष्यन्ति मां निर्जितदिनकरस्यन्दनमौन्दर्या रथसङ्घाताः / हर्षयिष्यन्ति मामपहस्तितसुराधिपहरितमाहात्म्यानां वरकरि कोटयः / तोषयिष्यन्ति मामधरितविबुधपतिहरिरया हयकोटिकोटयः / समुल्लासयिष्यन्ति मे मनसि प्रमदातिरेक पुरतो धावन्तोऽनुरक्ता अपरपराकरणपटवः परस्परमविभिन्नचेतसो न चात्त्यन्तसंहतासङ्ख्यातीता: पदातिसङ्घाताः / रचयिष्यन्ति मे प्रतिदिनं प्रणतिलालसानि राजवृन्दानि किरीटमणिमरीचिजालैश्चरणारविन्दम् / भविष्याम्यहं भूरिभूमिमण्डलाधिपतिः / तन्त्रयिष्यन्ति मे ममस्त कार्याणि प्रज्ञावज्ञातसुरमन्त्रिणोऽमात्यमहत्तमाः / तदिदं सुसंस्कृतभिक्षालाभेच्छातुल्यं विज्ञेयम् / पुनश्च चिन्तयति / ततोऽहमतिमद्धतया निश्चिन्ततया च परिपूर्णसमग्रसामग्रीकः करिष्यामि विधिना कुटौप्रावेशिक रमायनं ततस्तदुपयोगात् संपत्स्यते मे वलोपलितखालित्यव्यङ्गादिविकलं जरामरणविकाररहितं देवकुमाराधिकतरद्युतिवितानं निःशेषविषयोपभोगभाजनं महाप्राणं शरीरम् / तदिदं लब्धभिक्षस्यैकान्तगमनमनोरथसममवगन्तव्यम् / भूयश्च मन्यते। ततोऽहमतिप्रमुदितचेता गम्भौररतिसागरावगाढस्तेन ललनाकलापेन साढू ललमानः खल्वेवं करिष्ये। For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। यदत क्वचिदनवरतप्रवृत्तमदनरमपरवशोऽनारतसुरतविनोदेन स्पर्शनेन्द्रियं प्रौणयिष्ये / क्वचिद्रमनेन्द्रियोत्सवद्वारेण स्वस्थौलताशोषहषोकवर्गान्मनोजरमानास्वादयिव्ये / कचिदतिसुरभिकर्पूरानुविद्धमलयजकमौरजकुरङ्गमदादिविलेपनद्यारेण च पञ्चसुगन्धिकतांवलास्वादनव्याजेन चाहं घ्राणेन्द्रियं तर्पयिथ्थे / क्वचिदनारतताडितमरुजध्वनिमनाथममरसुन्दरी विभ्रमललनालोकसम्पादितमनेकाकारकरणाङ्गहारमनोहरं प्रेक्षणकमोक्षमाणश्चक्षुरिन्द्रियानन्दं विधास्थे / क्वचित्कलकण्ठत प्रयोगविशारदजनप्रयुक्तं वेणुवीणाम्मृदङ्गकाकलौगीतादिस्वनमाकर्णयन् श्रोत्रेन्द्रियमाल्हादयिय्ये / क्वचित्युनरखिलकलाकलापकौशस्लो पेतैः समानवयोभिः समर्पितहृदयसर्वस्वैः शौर्यौदार्यवीर्यवरपहसितमकरध्वजसौन्दर्यमित्रवर्ग: मार्दू नानाविधक्रीडाविलामै रममाणः समग्रेन्द्रियग्राममाल्हादातिरेकमास्कन्दयिष्यामोति / तदिदमेकान्तेभिक्षाभक्षणाकांक्षामदृशमवसेयम् / चिन्तयति च ततो मामेवं निरतिशयसुखानुभवद्वारेण तिष्ठतो भूयांसं कालं समुत्पत्स्यन्ते सुरकुमाराकारधारकाणि रिपुसुन्दरोड्दयदाहदायकानि च समाल्हादितसमस्तबन्धवर्गप्रणयिजननानाप्रकृतीनि मत्प्रतिबिम्बकसंकाशानि सुतशतानि / ततोऽहं सम्पूर्णशेषमनोरथविस्तारः प्रत्त्यस्तमितप्रत्त्यहसमूहोऽनन्तकालं यथेष्टचेष्टया विचरिष्यामि / मोऽयं भूरिदिनार्थं स्थापनमनोरथ दूव वर्तते / यत्पुनरालोचयति / यदुत। अथ कदाचित्तं तथाभूतं मामकौनं संपत्प्रकर्ष शेषनृपतयः श्रोष्यन्ति / ततस्ते मत्सराभातचेतसः सर्वेऽपि संभूय मधि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 57 उपमितिभवप्रपचा कथा। षयेष्पप्लवं विधास्यन्ति / ततोऽहं तेषामुपरि चतुरङ्ग सेनया विक्षेपेण थास्यामि ततस्ते स्वबलावलेपवन मया सह सङ्ग्रामं करिष्यन्ति / ततो भविष्यति प्रभूतकालिको महारणविमईः / ततस्ते परस्परं संहततया भूरिसाधनतया च मनाग् मामाक्रमिष्यन्ति ततोऽहमभिबर्द्धितक्रोधबन्धतया प्रादुर्भूतप्रबलरणोत्साहस्तानेकैकं सबलं चर्णयिष्ये / नास्ति समस्तानामपि पातालेऽपि प्रविष्टानां मया बद्धवानां मोक्ष इति / तदिदं रोररणाकाण्डविद्धरसमानमवबोद्धव्यम् / भूथश्च भावयति / ततोऽहमवजितममस्तपृथिवीभाविराजवृन्दत्वानश्ये चक्रवर्तिराज्यमहाभिषेकम् / ततो नास्ति वस्तु तत्रिभुवने यन्मे न सम्पत्स्यत इति / एवमेष जीवो राजपुत्राद्यवस्थायां वर्तमानो बहुमो निष्ययोजनविकल्पपरम्परयात्मानमाकुलयति / ततश्च / रौद्रध्यानमापूरयति ततो बध्नाति निबिडं कर्म ततः पतति महानरकेषु न चेह तथापि खिद्यमानोऽपि पूर्वापार्जितपुण्यविकल: स्वहृदयतापं विमुच्यापरं कञ्चनार्थमामादयति / तदनेनैतल्लक्षणैयं यदा खल्वेष जीवो नरपतिसुताद्यवस्थायामतिविमालचित्ततया किल्लापकर्णिततुच्छवस्तुगोचरमनोरथो सहदर्थप्रार्थकतथा खबुध्यैव महाभिप्रायस्तदापि विदिनप्रशमामृताखादनसुखरमानां विज्ञातविषयविपाकदारुणभावानां मिद्धिवधूमम्बन्धबद्धाध्यवसायानां भगवतां मत्माधूनां क्षुद्रमकप्रायः प्रतिभामते / किम्पुनः शेषास्ववस्थाखिति / तथा हि / द्विजातिवणिजकाभौरान्त्यजा दिभावेषु वर्तमानोऽयं जौवोऽदृष्टतत्वमार्गा वराकस्तुच्छाभिप्रायतया क्वचिदिवाणामपि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / 56 क्षुद्रग्रामाणां लाभं चक्रवर्तित्वं मन्यते / क्वचित् क्षेत्रखण्डमात्रप्रभुत्वमपि महामण्डलिकत्वमाकलयति / क्वचिज्जारकुलटामप्यमरसुन्दरौं कल्पयति। कचिद्देशविरूपमप्यात्मानं मकरध्वजं चिन्तयति / क्वचिन्मातङ्गपाटकाकारमप्यात्मपरिजनं शक्रपरिवारमिव पश्यति / क्वचिट्ट विपास्य त्रिचतुराणां महस्राणां शतानां विंशतीनां रूपकाणामपि लाभ कोटीश्वरत्वमवगच्छति / क्वचित्पञ्चषाणामपि धान्यद्रोणानामुत्पत्तिं धनदविभवतल्या लक्षयति / क्वचित्वकुटुम्बभरणमपि महाराज्यमवबुध्यते / क्वचिदुष्यरोदरदरौपूर्णमपि महोत्मवाकारं जानौते / कचिभिक्षावाप्तिमपि जौवितावाप्तिं निश्चिनोति / क्वचिदन्यं शब्दादिविषयोपभोगनिरतमुद्दौक्ष्य राजादिकं शक्रोऽयं देवोऽयं पन्द्योऽयं पुण्यभागयं महात्मायं पुरुषो यदि ममाप्येवं सम्पद्यन्ते विषयास्ततोऽहमप्येवं वितमामौति चिन्तयन्परिताम्यति / तथाविधाकूतविडम्बितच तदर्थङ्करोति भूभुजां सेवा पर्युपास्ते तान् सर्वदा दर्शयति विनयं वदत्त्यनुकूलं शोकाक्रान्तोऽपि हसति तेषु हमत्सु सञ्जातजातखपुत्रहर्षप्रकर्षाऽपि रोदिति तेषु रुदत्सु निजशवनपि स्तौति तदभिमतान् स्वपरमसुहृदोऽपि निन्दति तद्दिषो धावति पुरतो रात्रिंदिवं मईयति खिन्नदेहोऽपि तच्चरणान् हालयत्यशचिस्थानानि विधत्ते तदचनात्मर्वजघन्यकर्माणि प्रविशति कृतान्तवदनकुहर दुव रणमुखे ममपयति करवाला दिघातानामात्महृदयं वियते धनकामोऽपूर्णकाम एव वराकः। तथा प्रारभते कृषौं खिद्यते सर्वमहोरात्रं वाहयति हलं अनुभवत्यटव्यां पशुभावं विमईयति नानाप्रकारान् For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्राणिनः परितप्यते वृष्ट्यभावेन बाध्यते बौजनाशन तथा विधत्ते वाणिज्यं भाषतेऽलोकं मुष्णाति विश्रब्धमुग्धलोकान याति देशान्तरेषु महेत शोतवेदनां क्षमते तापमन्तापं तितिक्षते बुभुक्षां न गणयति पिपामांमनुभवति त्रामायामादौनि दुःखशतानि प्रविशति महारौद्रसमुद्रे प्रलोयते यानपात्रभङ्गेन भवति भक्ष्यं जनवराणां तथा भ्रमति गिरिकन्दरोदरेषु भास्कन्दत्यसुरविवराणि निभालयति रसकूपिकाः भक्ष्यते तदा रक्षराक्षः तथाऽवलम्बते महामाहसं याति रात्रौ स्मशानेषु वहति मृतकलेवराणि विक्रोणाति महामांसं माधयति विकलवेतालं निपात्यते तेन कुपितेन / तथाऽभ्यस्यति खन्यवादं निरौक्ष्यते निधानलक्षणानि तुष्यति तदर्शनेन ददाति रात्रौ तद्ग्रहणार्थं भूतबलिं दूयते तदङ्गारमतभाजनवौक्षणेन / तथानुशौलयति धातुवादं समुपचरति नरेन्द्र वृन्दं ग्टहाति तदुपदेशं मौलयति मूलनालानि समाहरति धातमृत्तिकाः ममुपढौकयति पारदं क्लिनाते तम्य जारणचारणमारणकरणेन धमते रात्रिन्दिवं पूत्करोति प्रतिक्षणं हृष्यति पौतश्वेत क्रिययोर्लेश मिद्धौ खादत्यहर्निशमा शामोदकान् व्ययौकरोति तदर्थं शेषमपि धनलवं मार्यते दःमाधितकर्मविभ्रमेण / तथा विषयोपभोगसम्पत्तये धनार्थमेव चायं जीवः कुरुते चौर्य रमते द्यूतमाराधयति यक्षिणों परिजपति मन्त्रान् गणयति ज्योतिषौं प्रयुके निमित्तं आवर्जयति लोकहृदयं अभ्यस्यति सकलं कलाकलापं किं बह तनास्ति यन्न करोति तन विद्यते यन्त्र वदति तन्न सम्भवति यन्न चिन्तयति न च तथाप्ययमनवरतमितश्चेतच For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / तदर्थ बंभ्रम्यमाण: प्रागविहितपुण्यशन्यः समभिलषितार्थस्य तिलतुषत्रिभागमात्रमपि प्राप्नोति केवलं स्वचित्तसन्तापमातरौद्रध्याने गुरुतरकर्मभारं तवारेण दुर्गतिं चात्मनोऽभिवर्द्धयतौति यदि पुनः कथञ्चित्पूर्वविहितपुण्यलवः स्यात् ततोऽयं जीवस्तदुदयेन धनसहस्रादिकं वा अभिमतभायां वा खशरीरसन्दर्य वा विनौतपरिजनं वा धान्यसञ्चयं वा कतिचिद्ग्रामप्रभुत्वं वा राज्यादिकं वा प्राप्नुयादपि। ततश्च / यथाऽसौ द्रमकः कदनलेशमात्रलाभातुष्टस्तथायमपि जीवो माद्यति हृदये मदसन्निपातग्रस्तहृदयश्च नाकर्णयति विज्ञापनानि न पश्यति शेषलोकं न नामयति ग्रीवां न भाषते प्रगुणवचनैः अकाण्ड एव निमौलयति चक्षुषो अपमानयति गुरुसंहतिमपि अतोऽयमेवं विधतुच्छाभिप्रायहतस्वरूपो जीवो जानादिरत्नभरपरिपूर्णतया परमेश्वराणां भगवतां मुनिपुङ्गवानां क्षुद्रद्रमकेभ्योप्यधमतमः कथं न प्रतिभामते / यदा पशुभावे नरकेषु वा वर्ततेऽयं जौवस्तदा विशेषतो द्रमकोपमामतिलंघयति यतो विवेकधनानां महर्षीणां य एते किल शक्रादयो देवा महर्द्धयो महाद्युतयो निरुपचरितशहादिविषयोपभोगभाजनं द्राघौयःस्थितिकास्तेऽपि यदि सम्यकदर्शनरत्नविकलाः स्युस्तदा महादारित्र्यभराक्रान्तमूर्तयो विद्युल्लताविलसितचटुलजीविताच प्रतिभामन्ते किं पुनः शेषाः मंमारोदरविवरवर्त्तिनो जन्तव इति / यथा चामौ द्रमकोऽवज्ञया जनैर्दत्तं तत्कदन्नं भुञ्जानः शक्रादपि शकते यदतायं ममैतदद्दालयिष्यति। तथायमपि जौवो महामोहोपहतस्तट्रविणकलत्रादिक कथञ्चित्तावता लेशजालेनोपार्जितं यदानुभवति तदा विभेति For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तस्करेभ्यः चस्थति नरपतिभ्यः कम्पते भयेन दायादेभ्यः उदिजते याचकेभ्यः किं बहुनात्र जल्पितेनात्यन्तनि:स्पहमुनिपुङ्गवेभ्योऽपि शङ्कते / यदुतैते महता वचनरचनाटोपेन मां प्रतार्य नूनमेतद्ग्रहोतुमिच्छन्ति तथाविधगाढमूच्छाविषाभिभूतचित्तश्चिन्तयत्येवं हन्त धक्ष्यते ममैतट्रविणजातं चित्रभानुना लावयिष्यते वा सलिलप्रवाहेन हरिष्यते वा चौरादिभिः श्रतः सुरक्षितं करोमि ततोऽसहायः शोषजनाविश्रम्भितया राबावुत्थाय खनत्यतिदूरं भूतलं निधत्ते तत्तत्र निभृतसञ्चारः पुनः पूरयित्वा गत्तं कुरुते समं भूतलं विकिरति तस्योपरि धलिकचवरादिकं सम्पादयति किलालक्ष्यं खाकूतेन मा पुनर्न ज्ञास्यामि खदेशमिति विधत्ते विविधानि चिहानि प्रयोजनान्तरेण तद्देशेन मञ्चरन्तमपरं जनं मुहुर्मुहुर्निभालयति कथञ्चित्तद्देशे यान्तौं तदृष्टिं शाइते श्रा ज्ञातमेतेनातो मूर्छादन्दह्यमानमानमो न लभते रात्रौ निद्रां पुनरुत्थाय तत्पदेशात्तत्खनति निधत्ते च प्रदेशान्तरं निरीक्षते पुनःपुनर्दिगन्तरेषु सभयं निक्षिपश्चक्षुः / यदुत मां कश्चिट्टच्यतौति व्यापारान्तरमपि स केवलं कायेन करोति चेतस्तु तत्प्रतिबन्धबन्धनबद्धं ततः स्थानादन्यत्र पदमपि न चलतीति। अथ कथञ्चित्तथाविधयत्नगतैरपि तेन रक्ष्यमाणमपरो लक्षयेत् ग्रहीयाच्च ततोऽमावकाण्डवज्रपातनिर्दलितशरीर व हा तात हा मातीं भ्रातरिति विक्लवमाराध्यमानः सकलविवेकिलोकं करुणापरौतचित्ततां प्रापयति / अतिमूर्छाव्याघ्राघ्रातचेतनो म्रियते वा। तदिदं धनलवप्रतिबद्धचेतोतौनां विलसितमुपदर्शितम् / तथा ग्रहिणीप्रतिबन्धग्रहग्टहीतवि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / ग्रहोऽपौशिल्यक्तिद्यमानमानसः खल्वेष जौवस्तस्याः परवीक्षणरक्षणाक्षणिकः मन्न नि:मरति गेहात् / न खपिति रजन्यां त्यजति मातापितरौ शिथिल्लयति बन्धुवर्गान् न ददाति परमसुझ्दोऽपि स्वग्टहे ढौ कम् / अवधीरयति धर्मकार्याणि न गणयति लोकवचनीयतां केवलं तस्या एव मुखमनवरतमौक्षमाणस्तामेव च परमाममूर्त्तिमिव योगी निवृत्ताशेषव्यापारो ध्यायन्नेवास्ते / तस्य च यदेव मा कुरुते तत्सुन्दरं यदेव सा भाषते तदेवानन्दकारि यत्मा चिन्तयति तदेवेशिताकारैर्विज्ञायासौ सम्पादनाया, मन्यते / एवञ्चाकलयति मोहविडम्बितेन मनसा / यदुतेयं ममानुरक्ता हितकारिणौ न चान्येदृशी मौन्ददार्यमौभाग्यादिगुणकलापकलिता जगति विद्यते / अथ कदाचित्तां मातेति भगिनौति देवतेत्यपि मन्यमानः परो वौच्यते ततोऽसौ मोहात् क्रध्यतीव विकलौभवतीव मूर्छतीव म्रियत व किं करोमौति न जानौते / श्रथ सा वियुज्यते म्रियते वा ततोऽसावप्याक्रन्दति परिदेवते म्रियते वा अथ सा कथञ्चिद्दुःशीलतया परपुरुषचा रिणौ स्यात् परपुरुषा वा बलात्तां समाक्रम्य ग्टलीयुः / ततोऽसौ महामोहविकलो यावनीवं हृदयदाहेन जीर्यते प्राणैर्वा वियुज्यते दुःखासिकातिरेकेणेति / तदैवमेकैकवस्तुप्रतिबन्धबद्धहृदयोऽयं जीवो दुःखपरम्परामामादयति / तथापि / विपर्यस्ततया तद्रक्षणप्रवणमनाः सर्वथा शङ्कते ममेदमयं हरिष्यतीति। यथा च तस्य रोरस्य तेन कदनेनोदरपूरपूरितस्यापि न टप्तिः संपद्यते / प्रत्युत प्रतिक्षणं सुतरां वुभुक्षाभिवर्धत इत्युक्तम् / तथास्थापि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / जौवस्थानेन धनविषयकलत्रादिना कदनप्रायेण पूर्यमाणस्यापि नाभिलाषविच्छेदः किन्तर्हि गाढतरमभिबर्द्धते तत्तर्षः / तथाहि यदि कथञ्चिविणशतं सम्पद्यते ततः सहस्रमभिवाञ्छति / अथ तदपि मञ्जायते ततो लक्षमाकांक्षति तत्मम्पत्तावपि कोटीमभिलषति तल्लाभे राज्यं प्रार्थयति / अथ राजा जायते ततश्चक्रवर्तीत्वं मृगयते तत्सम्भवेऽपि विबुधत्वमन्विच्छति / अथ देवत्वमप्यास्कन्देत्ततः शक्रत्वमन्वेषयते। अथेन्द्रतामपि लभते ततोप्युत्तरोत्तरकल्पाधिपतित्वपिपामापर्यामितचेतमो नास्येवास्य जीवस्य मनोरथपरिपूर्तिः / यथा हि गाढयौमे ममन्ताद्दवदाहतापि तशरीरस्य पिपासाभिभूतचेतनस्य मूर्च्छया पतितस्य कस्यचित्यथिकस्य तत्रैव स्वप्नदर्शने सुबहन्यपि प्रबलकल्लोलमालाकुलानि महाजलाशयकदम्बकानि पीयमानान्यपि न तर्षापकर्षकं भनागपि सम्पादयन्ति / तथास्थापि जीवस्य धनविषया दौनि / तथाह्यनादौ संसारे विपरिवर्त्तमानेनानन्तशःप्राप्तपूर्वादेव भवेषु निरुपचरितशब्दाद्युपभोगाः प्रामादितान्यनन्तानर्धेयरत्नकूटानि विलमितं खण्डितरतिविभ्रमैः मह विलासिनौसाथैः क्रीडितं त्रिभुवनातिशायिनीभिर्नानाक्रौडाभिः / तथाप्ययं जौवो महाबुभुक्षाहामोदर व शेषदिनभुक्तवृत्तान्तं न किञ्चिज्जानाति ! केवलं तदभिलाषेण शुष्यतीति / यत्ततं यदुत तत्कदनं तेन द्रमकेन लौल्येन भुक्तं जौर्यति जौर्यमाणं पुनर्वातविचिकां विधाय तं रोरं पौडयतौति / तदेवं योजनौयम् / यदा रागादिपरीतचित्तोऽयं नौवो धनविषयकलत्रादिकं कदन्नकल्यं खौकरोति तदास्य कर्मसञ्च For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / 65 यलक्षणमजीर्ण सम्पद्यते / ततश्च / यदा यदुदयद्वारेण जौर्यति तदा नारकतिर्यनरामरभवश्रमणलक्षणां वातविषूचिकां विधायेनं जौवं नितरां तत्कदर्थयति / यथा च तत्कदलं तस्य सर्वरोगाणां निदानं पूर्वोत्पनरोगाणां चाभिवृद्धिकारणामत्यर्थमभिहितं तथेदमपि रागग्रस्तचित्तेनानेन जीवेनोपभुज्यमानं विषयादिकं महामोहादिलक्षणानां प्रागुपवर्णितानां समस्तरोगाणां भविष्यतां कारणं पूर्वनिवर्णितानां पुनर भिवृद्धिहेतुभूतं वर्तते / यथा च स रोरस्तदेव कुभोजनं चारु मन्यते सुखादभोजनाखादं तु खनान्नेऽपि वराको नोपलभत इत्युक्रम् / तथायमपि जीवो महामोहग्रस्तचेतोवृत्तितया यदिदमशेषदोषराशिदूषितमुपवर्णित स्थित्या विषयधनादिकं तदेवातिसुन्दरमात्महितञ्च चेतमि कल्पयति यत्पुनः पारमार्थिक स्वाधौननिरतिशयानन्दसन्दोहदायकं महाकल्याणभूतसच्चारित्ररूपं परमान्नं तदयं वराको महामोहनिद्रातिरोहितसद्विवेकलोचनयुगलो न कदाचिदामादयति / तथा हि यद्ययमनादौ भवभ्रमणे पूर्वमेव तत् क्वचिदलस्यत ततोऽशेषलेशराशिच्छेदलक्षणमोक्षावाप्तिनयन्तं कालं यावत्संसारगहने पर्यटिव्यततश्चायमद्यापि वंभ्रमी ति। ततो नानेन मदौयजीवेन सच्चरणरूपं मनोजनं प्रागवानमिति निश्चीयते / यत्पुनरभ्यधायि / यथा तददृष्टमूलपर्यन्तं नगरमुच्चावचेषु गेहेषु चिकचतुष्कचत्वरादिषु नानारूपासु च रथ्यास पर्यटतोऽनवरतमश्रान्तचेतसाऽनेन रोरेणानन्तशः परावर्तितमिति। तदपि सर्वमत्र ममानं विज्ञेयं यतोऽमुनापि जौवेनानादितया कालस्य भ्रमतानन्तपुद्गलपरावर्ताः पर्यन्तं नौताः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / यथा च तस्य भ्रमतो द्रमकस्य तत्र नगरे न ज्ञायते कियान् कालो लंधित इत्युक्तं तथा जीवभवभ्रमणकालकलनमपि न प्रतीतिगोचरचारितामनुभवति निरादितया तत्परिच्छेदस्य कर्तुमशतरिति / तदेवमत्र संसारनगरोदरे मदीयजौवरोरोऽयं कुविकल्पकुतर्ककुतीर्थिकलक्षणैर्दुर्दान्तडिम्भसंघातैस्तत्वाभिमुख्यरूपे शरौरे विपर्याससंपादनलक्षणया ताडनया प्रतिक्षणं ताडयमाने महामोहादिरागबातग्रस्तशरीरस्तदशेन नरकादियातनास्थानेषु महावेदनोदयदलितस्वरूपोऽत एव विवेकविमलौभूतचेतमां कपास्थानं पौर्वापर्यपर्यालोचनविकलान्तःकरणतया तत्वावबोधविप्रकृष्टोऽत एव प्रायः सर्वजौवेभ्यो जघन्यतमोऽत एव धनविषयादिरूपकदनदुराशापाशवशौकतः कथंचित्तल्नेशलाभतुष्टोऽपि तेनालप्तचेतास्तदुपार्जनवर्द्धनसंरक्षणप्रतिबद्धान्तःकरणस्तद्वारेण व ग्टहौतनिबिडगुरुतराष्टप्रकारकर्मभाररूपानिष्ठितापथ्यपाथेयस्तदुपभोगद्वारेण विवर्द्धमानरागादिरोगगणपौडितस्तथापि विपर्यस्तचित्ततया तदेवानवरतं भुञ्जानोऽप्राप्तमच्चारित्ररूपपरमानास्वादोऽरघट्टघटीयन्त्रन्यायेनानन्तपुङलपरावर्तनसमस्तयोनिस्थानास्कन्दनद्वारेण पर्यटित इति / अधुना पुनरस्य यत्सम्पन्न तदभिधीयते / इह च। त्रिकालविषयतयाऽस्य व्यतिकरस्य विवक्षया समस्तकालाभिधायिभिरपि प्रत्यरत्र मर्वत्राऽपि कथाप्रबन्धे निर्देश: मङ्गतो द्रष्टव्यः। यतो विवक्षया कारकवत्कालोऽपि वस्तुस्थित्यैकस्वरूपेऽपि वस्तुनि नानारूपः प्रयुक्तो दृष्टोऽभीष्टश्च शवविदाम् / यथा योऽयं मार्गो गन्तव्यः प्रापाटलिपुत्रात् तत्र कूपोऽभूदभवञ्च बभूव भविष्यति भवितेति वा एते सर्वपि कालनिर्देया एकस्मिन्नपि कूपाख्ये For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। 7 वस्तुनि विवक्षावशेन साधवो भवन्तीत्यलमप्रस्तुतविस्तरेणेति / तत्र योऽसौ तत्स्वभावतया समस्तभूतसंघातात्यन्त वत्सल हदयः प्रख्यातकीर्तिस्त हिमनगरे सुस्थिताभिधानो महानरेन्द्रो दर्शितः स दूह परमात्मा जिनेश्वरो भगवान् मर्वज्ञो विज्ञेयः / स एव हि प्रलोनागेधले शराशितयानन्तज्ञानदर्शनवार्यतया निरूपचरितस्वाधौननिरतिशयानन्तानन्दमन्दोहस्वरूपतया च परमार्थेन सुस्थिती भवितुमर्हति न शेषा अविद्या दिकेशराशिवावर्त्तिनोऽतिदुःस्थिनत्वात्लेषाम् / स एव च भगवान् समस्तभूतसंघातस्यापि सूक्ष्मरक्षपोपदेशदायितयाक्षेपमोक्षप्रापणप्रवणप्रवचनार्थप्रणेत्तया च स्वभावेनैवातिवत्मलहृदयः / स एव च प्रख्यातकौतिः निःशेषामरनरविसरनायकैः पुरुहूतचक्रवादिभिः / यतः स एव प्रशस्तमनोवाकायव्यापरपरायणैरनवरतमभिष्टयते / अत एव चासावेवाविकलं महाराजशब्दमुद्दोद्धमर्हति / यथा च स रोरः पर्यटस्तस्य मन्दिरद्वारं कथञ्चित्प्राप्तः। तत्र च स्वकर्मविवरो नाम द्वारपालस्तिष्ठति तेन च कृपालुतया तच राजभवने प्रवेशित इत्युनाम् / तदेवमिह योजनौयम् / तत्र यदास्य औवस्थानादिमता यथाप्रवृत्तमंज्ञेन करणेन कथञ्चिद् घर्षणघूर्णनन्यायेनायकवर्जितानां सप्तानां कर्मप्रकृतीनां स्थितैः समस्ता अपि मागरोपमकोटौकोटयः पर्यन्तवर्त्तिनौमेकां मागरोपमकोटौकोटिं विहाय क्षयमुपगता भवन्ति / तस्या अपि कियन्माचं होणं तदाऽयं जौवस्तस्यात्मनृपतेः सम्बन्धि यदेतदाचारादिदृष्टिवादपर्यन्तद्वादशाङ्गपरमागमरूपं तदाधारभूतचतुर्वर्णश्रमणमंघलक्षणं वा मन्दिरं तस्य द्वारि प्राप्तोऽभिधीयते / तब च For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्रवेशनप्रवण: स्वस्थात्मौयस्य कर्मणो विवरो विच्छेदः स्वकर्मविवरः म एव यथार्थाभिधानो द्वारपालो भवितुमर्हति / अन्येऽपि रागदेषमोहादयस्तत्र द्वारपाला विद्यन्ते केवलं तेऽस्य जीवस्य प्रतिबन्धका न पुनस्तत्र प्रवेशकाः / तथा हामन्तवाराः प्राप्तः प्राप्नोऽयं जौवस्तैर्निराक्रियते / यद्यपि क्वचिदवसरे तत्र तेऽपि प्रवेशयन्येनं तथापि तैः प्रवेशिता न परमार्थतः प्रवेशितो भवति रागद्वेषमोहाचाकुलितचित्ता यद्यपि पतिश्रावकादिचिहाः कचिद्भवन्ति तथापि ते सर्वज्ञशासनभवनाद्वहि ता द्रष्टव्या इत्युक्तं भवति / ततश्चायं जौवस्तेन स्वकमविवरद्वारपालेन तावती भुवं प्राप्तो ग्रन्थिभेदद्वारेण सर्वज्ञशासनमन्दिरे प्रवेशित इति युक्तमभिधीयते / यथा च तेन कथानकोकेन तद्राजभवनमदृष्टपूर्वमनन्तविभूतिसंपन्नं राजामात्यमहायोधनियुक्तकतलवर्गिकैरधिष्ठितं स्यविराजनमनाथं सुभटसंघाताकोणे विलमबिलासनौसाथै निरुपचरितशब्दादिविशयोपभोगविमर्दसुन्दरं सततोत्सवं दृष्टं तथानेनापि जीवेन वज्रवदुर्भदोऽभिन्नपूर्वश्च संसारे य: क्लिष्टकर्मग्रन्थिस्त दद्वारेण स्वकर्मविवरप्रवेशितेनेदं सर्वज्ञशासनमन्दिरं तथाभूतविप्रेषषामेव मकलमवलोक्यते / तथा हि / दृश्यन्तेऽत्र मौनौन्द्रे प्रवचनेऽपास्ताज्ञानतम:पटनप्रसरा विविधरत्ननिकराकारधारका विलमदमस्तालोकप्रकाशितभुवनभवनोदरा ज्ञानविशेषाः / तथा विराजन्तेऽत्र भागवते प्रवचने सम्पादितमुनिपुङ्गवशरीरशोभनतया मनोहरमणिरचितविभूषणविशदाकारतां दधानाः खल्वामर्शोषध्यादयो मान िविशेषाः। तथा कुर्वन्तिसुजनहृदयाहेपमत्र जिनमतेऽतिसुन्दरतया विचित्र For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / वस्त्र विस्ताराकारबहुविधतपोविशेषाः / तथा जनयन्ति चित्तालादातिरेकमत्र पारमेश्वरे मते लोलोज्वलांशकोल्लोचावलम्बिमौकिकावचूलरूपतामाबिभ्राणो रचनामौन्दर्ययोगितयाचरण करणरूपा मूलोत्तरगुणाः। तथाविधेऽज जैनेन्द्रदर्शने वर्तमानानां धन्यानां वक्त्रसौष्टवगन्धोत्कर्षचित्तानन्दातिरेकमुदारताम्बूलसन्निभं सत्यवचनम् / तथा व्याप्नुवन्नि स्वमौरभोत्कर्षण दिचक्रवालमत्र भागवते मते मुनिमधुकरनिकरप्रमोदहेतुतया विचित्रभक्तिविन्यासप्रथिततया मनोहारिकुसुमप्रचयाकारधारकाण्यष्टादशशौलाङ्गसहत्राणि / तथा निर्वापयति मिथ्यात्वकषायसन्तापानुगतानि भव्यमत्वशरीराणि गोशौर्षचन्दनादिविलेपनमन्दोहदेश्यतां दधानमत्र पारमेश्वरदर्शने सम्यग् दर्शनं यतश्चात्र सर्वज्ञोपज्ञे मज्ज्ञानदर्शनचारित्रप्रधाने प्रवचने वर्तन्ते ये जीवास्तैर्महाभागधेयः स्थगितो नरकान्धकूपः / भमस्तिर्थरगतिचारकावासः / निर्दलितनि कुमानुषत्वदुःखानि / विमर्दिनाः कुदेवत्वमानमसन्तापाः / प्रलयं नौतो मिथ्यात्ववेतालः / निष्यन्दौकता रागादिशत्रवः / जरितप्रायं कर्म नियाजौर्णम् / अपकर्णिता जराविकाराः / अपहस्तितं मृत्युभयम् / करतलवत्तौ नि संपादितानि खर्गापवर्गसुखानि / अथवाऽवधौरितानि तेर्भगवन्मतस्यैौ वैः संसारिकसुखानि / ग्रहोतो हेयबुध्या समस्तोऽपि भवप्रपञ्चः / कृतं मोकतानमन्तःकरणम् / म च तेषां परमपदप्राप्तिं प्रति व्यभिचाराशङ्का / न छुपाय उपेयव्यभिचारौ / उपायश्चाप्रतिहतक्रिकः परमपदप्राप्तेः भज्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मको मार्गः / स च प्राप्तोऽस्माभिरिति / मनाते च For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तल्लाभे तेषामिति निश्चिता बुद्धिर्नास्त्यतः परं प्राप्तव्यमित्याकलय्य विहितं प्रतिपूर्णमनोरथं चेतः / अत एव तेषां पारमेश्वरमतवर्त्तिनो जन्तूनां नास्त्येव शोको न विद्यते दैन्यं प्रलोनमौत्सुक्यं व्यपगतो रतिविकारः जुगुप्मनौया जुगुप्मा असम्भवी चित्तोद्देगः अतिदूरवर्तिनी तृष्णा समूलकाषंकषितः मन्त्राम: किन्तर्हि तेषां मनमि वर्तते धीरता कृतास्पदा गम्भीरता अतिप्रबलमौदायें निरतिशयोऽवष्टम्मः स्वाभाविकप्रशमसुखामृतानवरतावादनजनितचितोत्सवानां च तेषां प्रबलरागकलाविकलानामपि प्रवर्द्धते रतिप्रकर्षः विनिहतमदगदानामपि विवर्त्तते चेतसि हर्षः समवासी चन्दनकल्पानामपि न ममावत्यानन्दविच्छेदः / ततश्च जैनेन्द्र शासनस्थायिनो भव्यसत्वाः स्वाभाविक हर्षप्रकर्षामोदितहृदयतया गायन्ति प्रतिक्षणं पञ्चप्रकारखाध्यायकरपाव्याजेन नृत्यन्याचार्यादिदशविधवैय्यावृत्त्यानुष्ठानद्वारेण वल्गन्ति जिनजन्माभिषेकसमवसरणपूजनयात्रादिसम्पादनव्यापारपरतया उल्टाष्टसिंहनादादौनि चित्तानन्दकार्याणि दर्शयन्ति परप्रवादिनिराकरणचातुर्यमाबिभ्राणाः / क्वचिदवसरे आनन्दमईलमन्दोहान् वादयन्येव भगवतामवतरणजन्मदीक्षाज्ञाननिर्वाणलक्षणेषु पञ्चसु महाकल्याणकालेषु / तस्मादिदं मौनीन्द्र प्रवचनं सततानन्दं प्रलौनाशेषसन्तापं न चानेन जौवेन क्वचिदपौदं प्राप्त पूर्व भावसारतया भवभ्रमणमझावादेवेदं निश्चीयते / भावसारमेतलाभे हि प्रागेव मोक्षप्राप्तिः संपद्येत तदनेन यत्तद्राजभवनस्य कथानकोक्तस्य सविशेषणद्वयमकारि / यदुतादृष्टपूर्वमनन्तविभूतिमम्पन्नमिति। तदस्यापि सर्वज्ञशासनमन्दिरस्य दर्शितम् / साम्पातं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / यदुनं राजामात्यमहायोधनियुक्तकतलवर्गिकरधिष्ठितमिति तदस्थापि विशेषणं निदर्श्यते // तवेह भगवच्छासनमन्दिरे राजानः सूरयो विज्ञेयाः / त एव हि यतोऽन्तर्बलता महातपस्तेजमा प्रलयोभूतरागादिशत्रुवर्गा बहिश्च प्रशान्तव्यापारतया जगदानन्दहेतवः / त एव गणरत्नपरिपूर्णलोकमध्ये प्रभुत्वयोगितया निरुपचरितराजशब्दवाच्याः / तथा मन्त्रिणोऽत्रोपाध्याया द्रष्टव्याः / यतस्ते विदितवीतरागागममारतया माक्षाभूतसमस्तभुवनव्यापाराः प्रज्ञयावज्ञातरागादिवैरिकसंघा राहस्थिकग्रन्थेषु कौशलशालितया समस्तनौतिशास्त्रज्ञा इत्युच्यन्ते / त एव च सुबुद्धिविभवपरितुलितभुवनतया अविकलममात्य शब्दमुदहन्तो राजन्ते / तथा महायोधाः खल्वत्र गोतार्थवृषभा दृश्याः / यतस्ते सत्त्वभावनाभावितचित्ततया न क्षुभ्यन्ति देविकाद्युपसर्गेषु न बिभ्यति घोरपरौषहेभ्यः / किम्बहुना। वैवस्वतमङ्काशमपि परसुपद्रवकारिणं पुरोऽभिवौक्ष्य न त्रासमुपगच्छन्ति / अत एव ते गच्छकुलगणसंघानां द्रव्यक्षेत्रकालोपपत्तिमनानां परंपराकरणद्वारेण निस्तारकारिण इति हेतोर्महायोधाः प्रोच्यन्ते / नियुक्तकाः पुनरत्र गणचिन्तका ग्राह्याः / त एव यतो बालवृद्धम्लानप्राघूर्णकाद्यनेकाकारासहिष्णुपरिपाल्यपुरुषसमाकुलाः कुलगणसंघरूपाः पुरकोटीकोटौगच्छरूपांश्चासङ्ख्यग्रामाकरान् गौतार्थतयोत्सर्गापवादयोः स्थानविनियोगनिपुणाः प्रासुकैषणीयभनपानभेषज्योपकरणोपायसंपादनद्वारेण सकलकालं निराकुला: पालयितुं क्षमाः / त एव चाविपरीतस्थित्या प्राचार्यनियोगकारितया नियुक्तकध्वनिनाभिधेया भवितुमर्हन्ति / तलवर्गिकाः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उमितिभवप्रपञ्चा कथा / पुनरचजैनेन्द्रशासनभवने सामान्यभिक्षवो जातव्याः / यतस्ते दत्तावघानाः संपादयन्याचार्यादेशं कुर्वन्धुपाध्यायाज्ञां विदधति गौतार्थवृषभविनयं न लङ्घयति गणचिन्तकप्रयुनामयंदा नियोजयन्धात्मानं गच्छकुलगणसङ्घप्रयोजनेषु स्वजीवितव्यव्ययेनापि निर्वहन्ति तेषामेव गच्छादौनामभिवाद्यपायव्यतिकरेषु / अत एव ते शूरताभकताविनीततास्वभावादलं तलवर्गिकशब्दवाच्याः / यतश्चेदं मौनौन्द्रशासनभवनमनुज्ञातं सूरोणां चिन्त्यते / सदपाध्यायै रक्ष्यते / गौतार्थवृषभैः परिपुष्टिं नौयते। गणचिन्तकैर्विहितनिश्चिन्तसमस्तव्यापार सामान्यसाधुभिरतस्तैरनधिष्ठितमित्युच्यते / साम्प्रतं यदुक्तंस्थविराजनमनाथमिति / तदत्रापि जिनमङ्घमदने योजनीयम् / तत्रेह स्थविरा जनाः खल्वार्या लोका मन्तव्याः / तथा हि / ते तत्र राजमन्दरे प्रमत्तप्रमदालोकनिवारणपरायणा निवृत्तविषयामङ्गाश्च व्यावर्णिताः। एतच्चोभयमपि निरुपचरितमार्यलोकानामेव घटामाटोकते / यतस्त एव धर्मकार्यषु प्रमादपरतन्त्रतया मौदन्तं श्रवणोपासकललनालोकमात्मीयशिथिकावर्ग च परोपकारकरणव्यमनितया भगवदागमाभिहितं महानिर्जराकारणं माधर्मिकवात्सल्यं चानुपालयन्तः स्मारणवारणचोदनादानद्वारेण कापथप्रस्थितमनवरतं निवारयन्ति मन्मार्ग चावतारयन्ति / त एव च विदितविषयविषविषमविपाकतया विषयेभ्यो निवृत्तचित्ताः सन्तो रमन्ते संयमे कौडन्ति तपोविशेष विधानः रज्यन्ते नारतखाध्यायकरणे न सेवन्ते प्रमादवन्दं समाचरन्ति निर्विचारमाचार्यादेशमिति / यच्चोकम् सभटमंघाताकीर्ण तद्राजभवनमिति / तेऽत्र For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। भगवच्छामने सुभटसंघाताः श्रमणोपासकसमूहा द्रष्टव्याः / यतस्त एव समस्तमपौदं व्याप्नुवन्यतिप्रचुरतया / तथा यसंख्येया विद्यन्ते देवेषु संख्येयाः सन्ति मनुजेषु भरिप्रकाराः सङ्गीतास्ते तिर्यचु बहवः मन्ति नरकेविति / त एव शौर्योदार्यगाम्भीर्ययोगितया भगवच्छामनप्रत्यनौकानां मिथ्यात्वात्मसत्त्वरूपाणां योधसंघातानामुच्चाटनचातुर्य बिभ्राणा निरुपचरितप्रवृत्तिनिमित्तं सुभटशब्द खोकुर्वते / यतश्चैते सदा ध्यायन्ति सर्वज्ञमहाराज समाराधयन्ति सूरिराजवृन्दानि ममाचरन्त्यपाध्यायामात्योपदेशं प्रवर्तन्ते गौतार्थवृषभमहायोधवचनेन सर्वधर्मकार्येषु वितरन्ति विधिना मदात्मानुग्रहधिया नियुक्तस्थानीयेभ्यः माधुवर्गापग्रहनिरतेभ्यो गणचिन्तकेभ्यो वस्त्रपात्रभनपानभेषजासनसंसारकवसत्यादिकं नमस्कुर्वन्ति विशुद्धमनोवाकायैस्तलवर्गिककल्पमध्यदौचितादिभेदभिन्नं सकलमपि सामान्यसाधुजनं वंदन्ते भक्तिभर निर्भरहदयाः स्थविराजनस्थानीयमार्यालोकं प्रोत्साहयन्ति समस्तधर्मकार्येषु विलासिनौसार्थस्थानीयं श्राविकाजनमनुशौलयन्ति मकलकालं जिनजन्माभिषेकनन्दौश्वरवरदीपजिनयात्रामर्त्यलोकपर्वस्वाचादिलक्षणानि। तत्र जिनशासनसदने नित्यनैमित्तिकानि। किं बुद्धनोलेन / ते हि भावतः सर्वज्ञशासनं विमुच्य नान्यत्किञ्चित्पश्यन्ति नाकर्णयन्ति न जानन्ति न श्रद्दधते न रोचयन्ति नानुपालयन्ति किन्तर्हि तदेव मकलकल्याणकारणं मन्यन्त इति / अतोऽतिभक्रितया सर्वज्ञमहाराजादौनामभिप्रेता इति कृत्वा तस्यैव मन्दिरस्य मध्यवासिनो विनौतमहर्द्धिकमहाकुटुम्बिककल्पास्ते द्रष्टव्याः। अन्यादृशां कुतस्तत्र 10 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 80 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / भवने वाम इति / तथा यदुक्तं विजस दिला मिनीमार्थ तन्त्रपतिग्रहमिति / तदत्रापि मौनीन्द्रदर्शने दर्शनीयं तह विलमधिलामिनीमार्थाः सम्यग्दर्शनधरणाणुव्रतचरणजिनमाधुभक्तिकरणपरायणतया विलासवन्यः श्राविका लोकसंघाता विजेयाः / यतश्च ता अपि श्रमणोपामिकाः श्रमणोपासकवत् मर्वजमहाराजाद्याराधनप्रवणान्तःकरणाः सत्यं कुर्वन्ति सदाजाभ्यास वासयन्ति दृढतरमात्मानं दर्शनेन धारयन्त्यणव्रतानि ग्टहन्ति गुणव्रतानि अभ्यस्यन्ति शिक्षापदानि समाचरन्ति तपोविशेषान् रमन्ते स्वाध्यायकरणे वितरन्ति माधुवर्गाय स्वानुग्रहकरमुपग्रहदानं हव्यन्ति गुरुपादवन्दनेन तव्यन्ति सुमाधुनमस्करणेन मोदन्ते साध्वौधर्मकथासु पश्यन्ति सुबन्धवर्गादधिकतरं माधर्मिकजनमुद्विजन्ते माधर्मिकविकलादेशवासेन न प्रौयन्तेऽसंविभागितभोगेन संसारसागरादुत्तीर्णप्रायमात्मानं मन्यन्ते भगवद्धर्मसेवनेनेति / तस्मात्ता अपि तस्य मौनीन्द्रप्रवचनमन्दिरस्य मध्ये पूजोपकरणाकारास्तेषामेव श्रमणोपासकानां प्रतिबड़ा मुत्कला वा निवमन्ति / याः पुनरेवंविधा न स्यस्ता यद्यपि कथञ्चित्तन्मध्याध्यासिनो दृश्येरन् तथापि परमार्थतस्ततो बहि भूता विज्ञेयाः / भावग्राह्यं हौदं भागवतशासनभवनं नात्र बहिश्छायया प्रविष्टः परमार्थतः प्रविष्टो भवतीति विज्ञेयं तथा यथा तद्राजभवनं निरुपचरितशब्दादिविषयोपभोगविमईसन्दरं तथेदमपि विज्ञेयम् / तथा हि। सर्वेऽपि देवेन्द्रास्तावदेतन्मध्यपातिनो वर्त्तन्ते। ये चान्येऽपि महर्द्धिकामरसंघातास्तेऽपि प्रायो म भगवन्मतभवनाइहि ता भवितुमर्हन्ति / ततथ। तथाविध For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / विबुधाधारभूतस्याम्य निरुपचरितशब्दादिविषयोपभोगविमईसुन्दरता न दुरुपपादा / तदर्णनेन चैतालक्षणीयं यदुत भोगास्तावत्युएयोदयेन संपद्यन्ते किन्तु तदेव पुण्यं द्विविधं पापानुबन्धि पुण्यानुबन्धि च। तत्र ये पुण्यानुबन्धिपुण्योदयसम्पाद्याः शब्दाद्युपभोगास्त एव सुसंस्कृतमनोहरपथ्यान्नवत्सुन्दरविपाकतया निरुपचरितशब्दादिभोगवाच्यतां प्रतिपद्यन्ते / ते हि भुज्यमानाः स्फीततरमाशयं संपादयन्ति ततशोदाराभिप्रायोऽसौ पुरुषो न तेषु प्रतिबन्ध विधत्ते / ततशासौ तान् भुञ्जानोऽपि निरभिष्वङ्गतया प्राग्बद्धपापपरमाणु मञ्चयं शिथिलयन्ति पुनश्चाभिनवं शुभतरविपाकं प्रागपुण्यभारमात्मन्याधत्ते स चोदयप्राप्तो भवविरागसम्पादनद्वारेण सुखपरम्परयोत्तरक्रमेण मोक्षकारणत्वं प्रतिपद्यत इति हेतोः सुन्दर विपाकास्तेऽभिधीयन्ते / ये तु पापानुबन्धिपुण्योदयजनिताः शब्दादिविषयानुभवास्ते सद्योघातिविषोपदिग्धमोदकवद्दारुणपरिणामतया तत्वतो भोगा एव नोच्यन्ते यतरते मरुमरीचिकाजलकल्लोला व तदुपभोगार्थ धावतः पुरुषस्य विफलश्रमसम्पादनेन गाढतरं हृष्णामभिवर्द्धयन्ति न तु संपद्यन्ते / कथञ्चित्सम्प्राप्ता अपि ते भुज्यमानाः क्लिष्टमाशयं जनयन्ति / ततश्च / तुच्छाभिप्रायोऽसौ पुरुषोऽन्धीभूतबुद्धिस्तेषु नितरां प्रतिबन्धं विधत्ते / ततस्तान् कतिपयदिवमभाविनो भुञानस्तत्सम्पादकं प्रागुपनिबद्धं पुण्यलवं व्यवकलयति / पुनश्चोदयगुरुतरपापभरमात्मन्याधत्ते / ततश्च तेनोदेयप्राप्तेनानन्तदुःखजलचराकुलं संसारसागरमनन्तकालं स जीवः परावर्त्तते / तेन ते पापानुबन्धिपुण्यसम्पाद्याः शब्दादयो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / दारुणपरिणमा इत्यभिधीयन्ते। येषां तु संमारोदर विवरवर्त्तिनां जन्तुमंघातानामवण्यतया ये शब्दादिविषयोपभोगाः सुन्दरपरिणामास्ते नियमतो भगवच्छासनमन्दिरादुकन्यायेन न बहि ता वर्त्तन्ते। तस्मादन्यैरपि प्रेक्षापूर्वकारिभिराक्षेपेण मोक्षप्रापकेऽत्र भगवन्मन्दिरे भावतः स्थेयम् / अत्र स्थितानामनुषङ्गत एव तेऽपि सुन्दरतया भोगादयः संपद्यन्ते न तेषामपि सम्पादकोऽन्यो हेतुरित्युक्तं भवति / अत एव चेदं परमेश्वरदर्शनमदनमप्रतिपातिसुखपरम्पराकारणतया सततोत्सवमभिधीयते / तदेवं यथा यावधिशेषणकलापयुक्तं च तद्राजमन्दिरं तेन कथानकोतनावलोकितं तथा तावद्विशेषणकलापोपेतमेवानेनापिजीवेनेदं सर्वजशासनमदनमवलोक्येति स्थितम् / यथा च स कथानकोकः मततानन्दं तद्राजभवनमुपलभ्य किमेतदिति विस्मितश्चिन्त यति न चासौ सोन्माइतथा तद्विशेषगुणांस्तत्वतो जानातीत्युतम् / तथायमपि जौवः मर्वजशामनं सञ्जातकर्मविवरः कथञ्चिदुपलभ्य किमेतदिति जिज्ञासते न चायं मिथ्यात्वांशेरुन्मादकल्पैरनुवर्त्तमानैस्तस्यामवस्थायामस्य जिनमतस्येमे विशेषगुणास्तांस्तत्वतो जानौते / यथा च तस्य कथानकोतस्य तात्पर्यवशेन लब्धचेतमः सतो हृदयाकूतैः परिस्फुरितं घदुत यदेतद्राजमन्दिरं सकलाश्चर्यधामास्य खकर्मविवरद्वारपालस्य प्रसादेन मयाधुना दृश्यते / लग्नं नूनमेतन मया कदाचित्पूर्व दृष्टम्। प्राप्तोऽहमस्य द्वारदेशे बहुशः पूर्व केवलं मम मन्दभाग्यतया येऽन्ये द्वारपालाः पापप्रकृतयस्तत्राभूवंस्तैरहं प्राप्तः प्राप्तः कदर्थयित्वा निआंटित इति / तदेतत्सर्वं जौवेऽपि समानम् / तथा हि / भव्यस्य For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। प्रत्यासन्नभविष्यद्रस्य कथञ्चिदुपलभ्य सर्वज्ञशासनमविदिततद्गुणविशेषस्यापि मार्गानुसारितया भवत्येवंविधोऽभिप्रायः। यदुतात्यद्भुतमिदमहद्दर्शनं यतोऽच तिष्ठन्ति ये लोकास्ते सर्वेऽपि सुहृद व वान्धवा वैकप्रयोजना व समर्पितहृदया इवैकात्मका दव परस्परं वर्त्तन्ते। तथामृतप्ता दव निरुदेगा इव निरौत्सुक्या इव सोत्साहा व परिपूर्णमनोरथा दव समस्तजन्तुसंघातहितोद्यतचेतसच सकलकालं दृश्यन्ते / तस्मात्मन्दरमिदमद्य मया विज्ञातं न पूर्व विमर्शाभावात् / अन्यच्चायं जीवोऽनन्तवाराग्रन्थिप्रदेशं थावत्प्राप्तो न चाऽनेन तझेदद्वारेण क्वचिदपि सर्वज्ञशासनमवलोकितं यतो रागद्वेषमोहादिभिः क्रूरदारपालकल्यै यो भूयो निरस्त इत्येतावतांगेनेदमुपदर्शितं न पुनस्तस्यामवस्थायाममुं विभागमद्याप्ययं जीवो जानौते चिन्तयति वा / यथा च। तस्य कथानकोक्तस्य पर्यातोचनपरायणवृत्तेः मतः पुनरिदं परिस्फुरितं यदुत येन मया पूर्वमिदं नयनानन्दकारि राजसदनं न दृष्टं न वास्य दर्शनार्थं कश्चिदुपायः प्राविहितः मोऽहं मत्यं निष्पुण्यक एव / कीदृशं राजमन्दिरमिति जिज्ञासामात्रमपि ममाऽधन्यस्य कदाचिदपि पूर्व नामौत् / थेन चानेन महात्मना वकर्माविवरद्वारपालेन कपापरीतचेतमा भाग्यकलाविकलस्यापि ममेदं दर्शितं मोऽयं मे परमबन्धुभूतो वर्त्तते / एते च धन्यतमा जना येऽच राजमन्दिरे मदा निःशेषद्वन्दरहिताः प्रमुदितचेतसोऽवतिष्ठन्ते तदेतदपि समस्तमत्र जौवे योजनीयम् / तथा हि / शुभध्यानविशुध्यमानाध्यवसायस्यास्यापि जीवस्य विवर्त्तते चेतमीदं सर्व सर्वजदर्शनगोचरं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 7 . उपमितिभवप्रयचा कथा / क्वचिदवमरे समवसरणदर्शनेन वा जिनस्नात्रविलोकनेन वा वौतरागबिम्बनिरीक्षणेन वा शान्ततपखिजनसाचात्करणेन वा सुश्रावकसङ्गतेन वा तदनुष्ठानप्रतिभासेन वा द्रावितमिथ्यात्वतया मृदूभूतभावस्य तथा युपपद्यते / तदा तद्विचारणास्य प्रौतिः / शोचति प्रागविचारकमात्मानम् / ग्टह्णाति मार्गादेशकम् / बन्धुबुद्ध्या बहु मन्यते सद्धर्मनिरतिचित्तांश्चान्यलोकान् सद्भावमयेति तदियता प्रपञ्चेन लघुकर्मणः सन्मार्गाभ्यर्णवर्त्तिनोऽभिन्नकर्मग्रन्थैभित्रकर्मग्रन्थैर्वा पुरस्कृतसम्यग्दर्शनस्य कियन्तमपि कालं भद्रकभावे वर्तमानस्यास्य जौवस्य यो व्यतिकरो भवति स व्यावर्णितः / तदनन्तरमिदानों सकलकल्याणाक्षेपकारणभूतां परमेश्वरावलोकनां प्राप्नुवतोऽस्य यः प्रपद्यते तत्र योऽसौ कथानकोको रोरो सन्धचेतनो यावदित्यं विप्रकोणे चिन्तयति तावद् वृत्तान्तान्तरमपरं महाराजावलोकनक्षणमापतितम् / तथेहापि यदायं जीवः सञ्चातखकर्मालाघवतया सन्मार्गाभिमुखो भट्रकभावे वर्त्तते तदाऽस्य योग्यतया परमात्मावलोकनक्षणोऽयमपरो वृत्तान्तः संपत्स्यते / तत्र / योऽसौ सुन्दरे प्रामादशिखरे सप्तमे भूमिकातले निविष्टमूर्तिरधस्तादर्तमानं तददृष्टमूलपर्यन्तं नगरं समस्तं समस्तव्यापारकलापोपेतं सकलकालं समन्तानिरीक्ष्यमाणस्तस्मादहिरपि मर्वचाप्रतिहतदर्शनशक्रिः सततानन्दो लीलया ललमानो महानरेन्द्रो दर्शितः / स इह निष्कलावस्थायां वर्तमानः परमात्मा भगवान् सर्वज्ञो विज्ञेयः / स एव यतो मर्त्यलोकापेक्षया या उपर्युपरिस्थायिन्यो भूमिकाकल्पाः सप्तरज्जवः तदात्मको यो लोकप्रासादस्त For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / 76 च्छिखरे वर्त्तते / म एव हि परमेश्वरो युगपदमुं समस्तसंसारविस्तारं विचित्रनगरव्यापाराकारमलोकाकाशञ्च तइहिर्भागकल्प केवलालोकेन करतलगतामलकन्यायेनावलोकयति / स एव चानन्तवीर्यसुखपरिपूर्णतया मततानन्दो सौजया ललते नापरो भवगर्तमध्यपतितजन्तुलौलाललनस्य परमार्थतो विडम्बनारूपत्वात् / यथा च स कथानकोतस्तेन महाराजेन महारोगभराक्रान्ततया गाढवीभत्सदर्शन इति कृत्वा करुणया विशेषेणावलोकित इत्युक्तम् / तदचैव द्रष्टव्यम् / यदायमात्मा निजभव्यतादिपरिपाकवशादेतावौं कोटिमध्यारूढो भवति तदास्य भवत्येव भगवदनुग्रहः न तयतिरेकेण यतो मार्गानुसारिता संपद्यते / तदनुग्रहेणैव भवति भावतो भगवति बहुमानो नान्यथा। स्वकर्मक्षयोपशमादीनां शेषहेवनामप्रधानत्वात् / ततोऽयमात्मा तस्यामवस्थायां वर्तमानोऽमुमर्थमाकलय्य भगवता विशेषेणावलोकित इत्युच्यते / स एव परमेश्वरोऽचिन्त्यशक्तियुक्तया परमार्थकरणेकतानतया चास्य जीवस्य मोक्षमार्गप्रवृत्तेः परमो हेतुरित्युक्तं भवति। समस्तजगदनुग्रहप्रवहणं हि भावतो निष्कलमपि रूपमिति परिभावनौयं केवलं तथापि तज्जौवभव्यतां कर्मकालखभावनियत्यादिकं च सहकारिकारणकलापमवेक्ष्य जगदनुग्रहे व्याप्रियते तेन न यौगपद्येन समस्तप्राणिनां संसारोत्तार इत्यालोचनीयमेतदागमानुमारेणेति / तस्माद्भवत्येव भाविकल्याणस्य भद्रकभावे वर्तमानस्यास्य जीवस्य भगवदवलोकना / यथा च तां महाराजदृष्टिं तत्र रोरे निपतन्तौं धर्मबोधकराभिधानो महानसनियुक्तो निरौचितवानि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / त्युक्त तथा परमेश्वरावलोकनां मजीवे भवतौं धर्मबोधकरणशौलो धर्मबोधकर इति यथार्थाभिधानो मन्मार्गापदेशकः सूरिः स निरीक्षते स्म / तथा हि / सयानबलेन विमलीभूतात्मानःपरहितैकनिरतचित्ता भगवन्तो ये योगिनः पश्यन्येव देशकालव्यवहितानामपि जन्तूनां छद्मस्थावस्थायामपि वर्तमाना दत्तोपयोगा भगवदवलोकनाया योग्यतां पुरोवर्तिनां पुनः प्राणिनां भगवदागमपरिकर्मितमतयोऽपि योग्यतां लक्षयन्ति तिष्ठन्तु विशिष्टज्ञाना इति / ये च मम मदुपदेशदायिनो भगवन्तः सूरयस्ते विशिष्टज्ञाना एव यतः कालव्यवहितैरनागतमेव तैतिः समस्तोऽपि मदीयवृत्तान्तः स्वसंवेदनसंसिद्धमेतदस्माकमिति / यत्पुनस्तेन धर्मबोधकरण माकूतमानसेन मता तदनन्तरं चिन्तितं यदुत किमेतदाश्चर्य मयाधुना दृश्यते यतोऽयं सुस्थितो महानरेन्द्रो पस्योपरि विशेषेण दृष्टिं पातयति म पुरुषस्त्रिभुवनस्यापि द्रागेव प्रभुः सञ्जायत इति सुप्रसिद्धमेतत् / अयं पुनर्योऽधुनास्य राज्ञो दृष्टे!चरचारितामनुभवत्रुपक्षच्यते स द्रमको दैन्योपहतो रोगग्रस्तदेहोऽलक्ष्मीभाजनभूतो मोहोपहतात्मातिबीभत्सदर्शनो जगदुद्वेगहेतुस्तत्कथं समस्तदोषराशेरस्य परमेश्वरदृष्टिपातेन मार्दू सम्बन्धः पौर्वापर्यण विचार्यमाणो न युज्यते न कदाचनापि दौर्घतरदौर्गत्यभाजिनां गेहेषु अनर्घयरत्नदृष्टयो निपतितमुत्महन्ते / तत्कथमेतदिति विस्मयातिरेकाकुलं चेतः / तदिदं सर्वमत्रापि जीवविषयं मद्धर्माचार्यचेतसि वर्तमानं योजनीयम् / तथा हि / यदाऽयं जौवो नितरां गुरुकर्मतया प्रागवस्थायां समाचरति सम For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / स्तपातकानि भाषते निःशेषासभ्यालोकवचनानि न मुच्यतेऽनवरतं रौद्रध्यानेन म एव चाकाण्ड एव कुतश्चिनिमित्ताच्छुभसमाचार दुव सत्यप्रियंवद इव प्रशान्तचित्त व पुनर्लक्ष्यते तदा भवत्येव पौर्वापर्यपर्यालोचनचतुराणां विवेकिनां मनसि वितर्को यदुत न तावत्मुन्दरा मनोवाक्कायप्रवृत्तिः सद्धर्मसाधिका भगवदनुग्रहव्यतिरेकेण कस्यचित्संपद्यते अयं चेह भव एवातिक्लिष्टमनोवाक्कायप्रमरोऽवधारितोऽस्माभिः / तदिदं पूर्वापरविरुद्धमिव प्रतिभासते / यतः कथमेवंविधपापोपहतमत्वे भगवदवलोकना प्रवर्त्तते / सा हि प्रवर्त्तमाना जीवस्य मोक्षसम्पादकत्वेन त्रिभुवननाथत्वमक्षेपेण जनयति। तस्मान्नात्र तस्याः सम्भवो लक्ष्यते / यतश्चास्य सुन्दरमनोवाकायप्रवृत्तिलेशो दृश्यते ततोऽन्यथानुपपत्या भगवदवलोकनायाः सद्भावोऽत्र निश्चीयते। तदिदमवलब्धं सन्देहविच्छेदकारणम् / अस्माकं मनो दोलायते किमिदमाश्चर्यमित्याकूते / यथा च / तेन तात्पयेण पर्यालोचयता महानमनियुक्तकेन पश्चानिश्चितम् / यदुत सम्भवतोऽस्य द्रमकस्य दे कारणे महानरेन्द्रावलोकनायास्तेन युक्तियुक्त एवास्य परमेश्वरस्य पारमेश्वरो दृष्टिपातस्तत्र / यस्मादेष सुपरीक्षितकारिण स्वकर्मविवरेण द्वारपाले नात्र भवने प्रवेशितः तेनोचित एवायं विशेषदृष्टरित्येकं कारणं यथा यस्यैतद्भवनमालोक्य नरस्य मनःप्रमादो जायते स महानरेन्द्रस्यात्यन्तवल्लभ इति प्रागेव विनिश्चितमिदं मया संजातश्चास्य मन:प्रमादो लक्ष्यते यतो नेत्ररोगपीडाभराक्रान्ते अपि लोचने भवनदिदृपया प्रतिक्षणमयमुन्मौलयति तद्दर्शनेन वीभत्मदर्शनमप्यस्य वदनं सहसा प्रसाद For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / सम्पत्तेर्दर्शनीयतामामादयति धूलिधूमराणि चास्य सर्वाङ्गोपाङ्गानि पुलकोद्भेदभानि दृश्यन्ते। न चैतदन्तर्विवर्त्तमानहर्षव्यतिरेकेण संपद्यते तस्मादिदमस्य नृपभवनपक्षपातलक्षणं परमेश्वरावलोकनाया द्वितीयं कारणमिति। तदेतत्सर्वं सद्धर्माचार्या अपि जौवविषयं पर्यालोचयन्तः परिकयन्त्येव / तथा हि। यो जीवो हेतुभिलक्ष्यते यथा संजातकर्मविवरोऽयं तथा भगवच्छासनमुपलभ्य यस्य प्रादुर्भवति मनःप्रसादः म च भगवन् लक्ष्यते प्रतिक्षणं नेत्रोन्मीलनकल्पया जीवादिपदार्थजिज्ञासया विभाव्यते प्रवचनार्थलवाधिगमे विकसितवदनकल्येन संवेगदर्शनेन मिश्चीयते च धलिधसरिताङ्गोपाङरोमाञ्चाकारण सदनुष्ठानले शप्रवृत्तिविलोकनेन तस्य जीवस्य सम्पन्ना भगवदवलोकनेति निर्गीयते / तस्मादिहापि निश्चयकारणे तदस्त्येव हेतुइयं यदुत मञ्जातकर्म विवरता भगवच्छामनपक्षपातश्चेति / यथा च तेन महानसनियुक्तकेन द्रमकगोचरमेतचिन्तितं यदुत यद्यपौदानौमेष रोराकारमाविभर्ति तथापि महानरेन्द्रावलोकनादेवोत्तरोत्तरक्रमेण संभवत्कल्याणपरम्परः कालान्तरे वस्तुत्वं प्रतिपत्स्यते खल्वेष नास्त्यत्र सन्देह इति। तथा मद्धर्मगुरवोऽपि परमात्मावलोकनां जौवे विनिश्चित्य तस्य भविष्यद्भद्रतां विगतसन्देहाः स्वहृदये स्थापयन्येव / यथाचामौ महानसननियुक्तकस्तत्र द्रमके महानरेन्द्रावलोकनां निर्णेय तदनुवृत्तिवन करुणप्रवण: सम्पन्नः / तथा जौवेपि परमात्मावलोकनामाकलय्य सद्धर्मगुरवस्तदाराधनपरायणतयैव करुणाप्रवणमानमाः सञ्चायन्ते / तदनुकम्पया तैरपि भगवानाराधितो भवतीत्यर्थः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। यत्पुनरभ्यधायि / यथाऽसौ रमवतीपतिः शीघ्रं तत्समौपमादरवशेनागच्छत् गत्वा चैह्येहि भद्र दौयते तुभ्यं भिक्षेत्येवं रोरमाकारितवानिति / तदेवमिह योजनौयं यदास्य जीवस्य पूर्वानन्यायेनानादौ संमारे पर्यटतः परिपक्का भव्यता शौणप्रायं क्लिष्टकर्म स्तोकमास्ते तच्छेषं तेनापि दत्तं रन्ध्र प्राप्ता मनुजभवादिसामग्री दृष्टं सर्वज्ञशासनं संजाता तत्र सुन्दरबुद्धिः प्रवृत्ता मनाक् पदार्थजिज्ञासा समुत्पन्नाकुशलकर्मलेशबुद्धिः / अथ चानुवर्तन्तेऽद्यापि पापकलाः तदेवंविधे भद्रकभावे वर्तमानस्य मञातायां भगवदवलोकनायां सद्धर्माचार्याः प्रादुर्भुततीव्रकरुणपरिणामाः सन्मार्गावतारणार्थं योग्यतां निचित्य भावतोऽभिमुखौभवन्ति तदेतत्तेषां तत्ममौपगमनमभिधीयते मञ्जातप्रमादाश्च कथयन्ति ते तस्मै यथा भद्राकृत्रिमोयं लोकोऽनादिनिधनः काल: शाश्वतरूपोऽयमात्मा कर्मजनितोऽस्य भवप्रपञ्चः तच्चानादिसम्बद्धं प्रवाहेण मिथ्यात्वादयस्तस्य हेतवः / तत्पुनर्दिविधं कर्म कुशलरूपमकुशलरूपं च। यत्तत्र कुशलरूपं तत्पुण्यं धर्मश्चोच्यते / यत्पुनरकुशलरूपं तत्यापमधर्मश्वाभिधीयते / पुण्योदयजनितः सुखानुभवः पापोदयसंपाद्यो दुःखानुभवः / तयोरेव पुण्यपापयोरनन्तभेदभिन्नेन तारतम्येन संपद्यते खल्वेषोऽधममध्यमोत्तमाद्यनन्तभेदवर्तितया विचित्ररूपः संसार विस्तार इति / ततश्चैवं विधं सद्धर्माचार्यवचनमाकर्णयतोऽस्य जीवस्य ते पूर्वमनादिकुवामनाजनिताः कुविकल्पाः प्रवर्त्तन्ते स्म / यदुताण्डसमुद्भूतमेतत्त्रिभुवनं यदि चेश्वरनिर्मितं वा ब्रह्मादिकृतं वा प्रकृतिविकारात्मकं वा यदि वा प्रतिक्षणविनश्वरं वा पञ्चस्कन्धा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपश्चा कथा / हमकोऽयं जीवः पञ्चभूतात्मको वा विज्ञानमात्रं चेदं सर्वं शून्यरूपं वा न विद्यते वा कर्म महेश्वरवशादिदं म। नानारूपं वर्तत इत्यादयस्ते सर्वेऽपि भौममहायोधदर्शनासंग्रामशिरसि प्रत्यनौककातरनरा व निवर्तन्ते / ततश्चायं तदा जौवो मन्यते यदेते महात्मानो मह्यं कथयन्ति तत्सर्वमुपपद्यते मत्तोऽधिकतरं परौचितुं वस्तुतत्वमेत एव जानन्ति / ततश्च पदुकं कथानकं कथयता यदुत कदर्थनार्थमायाताः पश्चालमाः सुदारुणाः / दुर्दान्तडिम्भा ये तस्य दृष्ट्वा तं ते पलायिता इति // तदपि योजितं विज्ञेयम् / यतः कुविकल्पा एव दुर्दान्तडिम्भास्त एव जौवं कदर्थयन्ति तबित्तिश्च सुगुरुसम्पर्कणेति तदेवमपगतेषु सकलेषु कुविकल्पेषु यदायं जौवः मद्धर्मगुरूणां तबचनाकर्णनस्पृहया मनागभिमुखो भवति तदा ते परहितकरणकव्यमनितया सन्मार्गदेशनां कुर्वाणा: खल्वेवमाचक्षते यदुताकर्णय भो भद्र संसारे पर्यटतोऽस्य जीवस्य धर्म एवातिवत्मल हृदयः पिता धर्म एव गाढस्नेहबन्धुरा जनयित्री धर्म एवाभिन्नपदयाभिप्रायो भाता धर्म एव सदैकस्नेहरमवशा भगिनी धर्म एव समस्तसुखखनौभूतानुरका गुणवतौ भार्या धर्म एव विश्वासस्थानमेकरसमनुकूलं सकलकलाकलापकुशलं मित्रं धर्म एव सुरकुमाराकारधारकश्चि'तानन्दातिरेक हेतुस्तनयः धर्म एव शीलसौन्दर्यगुणलब्धजयपताकाकुलोचतिनिमित्तभूता दुहिता धर्म एवाऽव्यभिचारी बन्धुवर्ग: धर्म एव विनीतः परिकरः धर्म एव नरेश्वरता धर्म एव चक्रवर्त्तित्वं धर्म एव विबुधभावः धर्म एवामरेश्वरता धर्म एव वजाकारो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम. प्रस्तावः / लावण्यापकर्णितभुवनो जरामरणविकारविकलः कायः धर्म एव समस्त शास्त्रार्थशुभशब्दग्रहणचतुरं श्रोत्रं धर्म एव भुवनालोकनक्षमे कल्याणदर्शने स्लोचने धर्म एव मनःप्रमोदहेतवोऽनथैया रत्नराशयः धर्म एव चित्तावादविधायिनो विषघातनाद्यष्टगुणोपेताः कनककूटाः धर्म एव परनिराकरणदचं चतुरङ्गं बलं धर्म एवानन्तरतिसागरावगाहनहेतुभूतानि विलासस्थानानि / किं बहुना जल्पितेन धर्म एवैको निर्विघ्नानन्तसुखपरंपराकारणं नापरं किचिदपीत्येवं च कथयति मधुरभाषिणि भगवति धर्मसूरौ भगवत्यस्य जीवस्य मनाग् चित्ताक्षेपः तदशेन विस्कारयतीक्षणयुगलं दर्शयति वदनप्रसन्नतां त्यजति विकथादौनि विचेपान्तराणि क्वचिद्भावितहदयो विधत्ते मस्मितं वत्रकुहरं ददाति नखस्फोटिका ततो भगवन्तः सूरयो मनाग् प्रविष्टरसं तमाकलय्येत्थमभिदधते। यदुत मौम्य स धर्मश्चतुर्विधो भवति। तद्यथा दानमयः शौलमयस्तपोमयो भावनामयश्चेति / अतो यदि भवतोऽस्ति सुखाकाङ्क्षा ततोऽयमनुष्ठातुं चतुर्विधोऽपि युज्यते। भवता दीयतां सुपाचेभ्यो यथाशक्त्या दानं क्रियतां समस्तपापेभ्यो वा स्थलपापेभ्यो वा प्राणातिपातादा मृषावादादा चौर्यकरणादा परदारगमनाद्वा अपरिमितग्रहणादा रात्रिभोजनादा मद्यपानादा मांसभक्षणाद्दा मजीवफलावादनादा मित्रद्रोहादा गुर्वङ्गनागमनाहा अन्यस्माद्दाशक्यपरिहारानिवृत्तिः तथा विधीयतां यथाशक्ति कश्चित्तपोविशेषः भाव्यतामनवरतं शुभभावना भवता येन ते संपद्यन्ते निःसंशयमिहामुत्र च सकलकल्याणानौति / तदनेन यत्तदुक्तमासीत्कथानकं यथा महानमनि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपश्चा कथा / युक्तकस्तं रोरं समालय भिक्षाचरोचिते भूभागे स्थापितवान् / ततस्त निनादानाथं परिजनमादिष्टवान्। तदनन्तरं तद्दया नाम तदुहिता मा परमान्नमादायातिसुन्दरं त्वरया तद्दानार्थमुपस्थितेति तत्सर्वं योजितं विज्ञेयम् / तथा हौह धमगुणवर्णनं जीवस्याकारणकल्पं विज्ञेयं तच्चित्ताक्षेपो भिक्षाचरोचितभूभागस्थापनतुल्यो द्रष्टव्यः धर्मभेदवर्णनं परिजनादेशसम्मतं मन्तव्यं तस्यैव गुरोर्या जौवस्थोपरि कृपा सैव तद्दया नाम्नौ दुहिता विज्ञेया। चतुर्विधधर्मानुष्ठानकारणं सुन्दरपरमान्नग्रहणममानं विज्ञेयं तच्च सद्धर्माचार्यानुकम्पयैव जौवं प्रत्युपढौकयति नापरो हेतुरिति विजेयम् / यत्पुनरभिहितं यदुताकारणसमनन्तरं तं तथाभूतमत्यादरमालोक्य स रोरश्चिन्तयति स्म यथा मामन्यदा भिक्षां प्रार्थयमानमपि लोका निराकुर्वन्ति तिरस्कारपूर्व वा किञ्चिद्ददति / अधुना पुनरेष: सुवेषो नरेन्द्राकारः पुरुषः स्वयमागत्य मामाकारयति भिक्षा ते दीयत इति च मामुपप्रलोभयति तकिमिदमाश्चर्य ततस्तुच्छाभिप्रायवोन पर्यालोचयतस्तस्य चेतसि परिस्फुरितं हन्त नैवैतत्सुन्दरं मम प्रतिभामते मन्मौषणार्थः खल्वेष प्रारम्भो यतो मृतप्रायमिदं भिक्षाया भाजनं मामकौनं तदेष विजने नौला मां निश्चितमेतदुद्दालयिष्यति / एवञ्च स्थिते किं मयाधुना विधेयं किमित एव स्थानात् सहसा नण्यामि उतोपविश्य तावअक्षयामौदं भाजनस्थं भोजनं पाहोखिन्न कार्य मम भिक्षयेति प्रतिषेधं विधाय पदमपि न चलामि किं वा वञ्चयित्वैनं पुरुषं कुत्रचित् सत्वरं प्रविशामि कथं कुर्वतो ममास्मान्मोचो भविष्यतीति For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम प्रस्तावः। न जाने यावदेवं निष्ठितकुविकल्पमालाकुलचेताश्चिन्तयति तावत्तस्य प्रवर्त्तते प्रबलं भयं प्रसप्पति तृष्णा शुष्यति हृदयं विकलौभवत्यन्तरात्मा स्तब्धातिरेकाभिभूतचित्तवृत्तेः संरक्षणानुबन्धि प्रादुर्भुतं महारौद्रध्यानं निरुद्धः करुणाग्रामप्रसरः मौलिते विलोचने नष्टा चेतना न जानौते क्वाहं नौतः कुत्र वा स्थितः केवलं निखात काष्ठकोल वोर्डाकारोऽवतिष्ठते सा तु तद्दया रहाणेदं भोजनमिति भूयो भूयः समाकुला व्याहरति स्म / तथापि स निष्पएयको द्रमकः मर्वरोगकरं तुच्छ यत्तदात्मीयं कदशनं तत्संरक्षणानुबन्धेन नष्टावा तां कन्यकां समस्तरोगहरामृतास्वादपरमानदानार्थं व्याहरन्तौं वराको नावबुध्यते तदिदं समस्तं जीवेऽपि समानमवगन्तव्यम् / तथा हि। यदाऽस्य हितचिकोर्षया भगवन्तः सद्धर्मगुरवो विस्तरेण धर्मगुणानुपवर्य पुनश्चतुर्विधधर्मानुष्ठानमुपदिश्यन्ति तदाऽयं जीवो मिथ्याज्ञानमहातमःकाचपटलतिमिरकामलावलेपलुप्तविवेकलोचनयुगलदौधितिप्रमरोऽनादिभवाभ्यस्तमहामिथ्यात्वोन्मादमन्तापविधुरितहृदयः प्रबलचारित्रमोहनौयरोगकदम्बकविहलचेतनस्तत्र विषयधनकलत्रादिकया गाढमूर्द्धयाभिभूतचित्तवृत्तिः सन्ने चिन्तयति यावदहं पूर्व धर्माधर्मविचारपर्यषणां नाकर्ष तावदेते श्रमणाः क्वचिदुपलभ्यमाना अपि न मम वार्तामपि पृष्ठवन्तो यद्यपि कथञ्चित् क्वचिदवसरे मां धर्मगोचरं किञ्चिद् ब्रूयः तथाप्यनादरेण वचनं वा हे वा इदानौं पुनर्मी धर्माधर्मजिज्ञासापरमवगम्य गतोयमस्माकमादेशगोचरमति मत्वा स्वगलतालुशोषमवगणय्योच्चैर्ध्वनिना महता वचनरचनाटोपेन स्वयमपृष्ट For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ce उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / एवष लोकप्रकाशः श्रमणो मम पुरतो धर्मगुणानुपवर्णयति मांचाक्षिप्तचित्तमुपलभ्य दानं दापयति शीलं ग्राहयति तपश्चारयति भावनां भावयति तदियतोऽकाण्ड एव स्फुटाटोपस्यास्य हन्त को गर्भार्थः अज्ञातमस्ति मे सुन्दरकलत्रमङ्ग्रहः विद्यते नानाकारो द्रविणनिचयः सम्भवति भूरिरूपो धान्यप्रागभारः समस्ति सम्पूर्ण चतुष्यदकुप्यादिकं ननं तज्ज्ञातमेतेन तदेषोऽत्र तात्पर्यार्थी यदुत दीक्षा ते दीयते रजस्ते पात्यते बौजदाहस्ते क्रियते कुरु लिङ्गपूरणं विधेहि गुरुपादपूजनम् निवेदय स्खकलत्रखधनकनकादिकं समस्तमर्वस्वं गुरुपादेभ्यः। पुनस्तैरनुज्ञातमनुभवितेतस्त्वमेवं विदधानः पिण्डपातेन शिवीभविष्यमौत्येवं वचनरचनया विप्रतार्य शैवाचार्य व मामेष श्रमणको मुमुषिषति यदि वा भूरिफलं सुवर्णदानं महोदयं गोदानमक्षय्यं पृथिवौदानं अतुलं पूर्त्तधर्मकरणमनन्तगुणं वेदपारगे दानं यदि पुनर्विज्ञायमाना निर्गतवत्सखरमुखा सचेला कनकश्टङ्गी रत्नमण्डिता मोपचारा दिजेभ्यो दीयते ततश्चतुरुदधिमेखला सग्रामनगराकरा मलकानना पृथिवी तेन दत्ता भवति मा चाक्षय्यफला संपद्यत इत्येवं मुग्धजनवञ्चनपरैः कूटश्लोकरचितग्रन्थैमी विप्रलभ्य दिजातिरिव नूनमेष श्रमणो मे द्रविणजातं जिहीर्षति / अथ वा / कारय रमणीयतरान् विहारान् वासय तेषु बहुश्रुतान् पूजय मंचं प्रयच्छ भिक्षुभ्यो दक्षिणां मौलय सङ्घसम्बन्धिनि कोशे स्वीयं द्रविणजातं निक्षिप सङ्घसम्बन्धिन्येव कोष्ठागारे स्वधान्यसञ्चयं समर्पय सङ्घसम्बन्धिन्यामेव संज्ञातौ स्वकीयं चतुष्पदवर्ग भव For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / बुद्धधर्मसङ्घरारणः एवं ते कुर्वतोऽचिराद् बुद्धपदं भविष्यतीत्येवं वाचालविरचितमायाजालेनात्मीयशास्त्रसन्दर्भण रक्कभिक्षुरिव मां विसंवाद्य निश्चितमेष श्रमणो मदोयमर्वस्वं लातुमभिकाङ्क्षति / यहा। क्रियतां सङ्घभक्तं भोज्यन्तामृषयो दौयन्तां सुन्दरखाद्यानि उपनौयन्तां मुखक्षेपणानि दानमेव ग्रहस्यस्य परमो धर्मः तत एव संपाद्यते संसारोत्तार इत्येवं मामुपप्रलोभ्य स्वशरीरपोषणपरो दिगम्बर व मदीयधनमेष श्रमणो निर्वाहयिष्यति। अन्यथा कथमेवंविधोऽस्य ममोपरि प्रपञ्चकथनरूपोऽत्यादरः स्यात्तदिदमिह तत्वं तावदेवैते सुन्दराः श्रमणा यावन्नोपलभ्यन्ते यावच्चैतेषां न वशवर्तिभिर्भूयते वशवतिनं पुनर्मुग्धजनं श्रद्धालुमवगम्यैते मायाविनो नाना वचनरचनया विप्रतार्य मदीयपर्वखमपहरन्ति नात्यत्र सन्देहः / ततो मयाऽधुनानेन श्रमणेन प्रारब्धेन सता किं विधेयमित्यालोचयामि। किमदत्तप्रतिवचनः समुत्थाय गच्छामि। उत नास्त्येव धर्मानुष्ठानकरणे मम शक्तिरिति दीपयामि। आहोखिधौरहरणादिभिः प्रलोनं मे द्रव्यजातं नास्त्येवाधुना किञ्चिन्न दौयते पात्रेभ्य इत्येवं प्रत्युत्तरयामि। उताहो न कार्य मे तावकधर्मानुष्ठानेन न पुनर्मह्यं किञ्चिद्भवता कथनीयमित्येवमेनं श्रमणं निराकरोमि किं वा प्रकाण्डकथनजनितक्रोधसूचिकां भृकुटिं जनयामीति। न जाने कथमेष श्रमणो मदचनप्रवणमना निवास्मादुरध्यवसायान्मम मोक्षं दास्यतौति। न पुनरमौ वराको गाढमूढात्मतया खल्वेतलक्षयति यथै ते भगवन्तः सद्धर्माचार्या विदिततुषमुष्टि निःसारसंमारगर्भार्था अतुलसन्तोषामृतप्तान्तःकरणा अवगत 12 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / विषयविषविषमविपाका मोक्षकाङ्क्षकतानेन रेतसा सर्वत्र समवृक्ततयाऽत्यन्तनिःस्पृहतया च सन्मार्गोपदेशदाने प्रवर्त्तमानाः मन्तो म देवेन्द्रद्रमकयो विशेष लक्षयन्ति न महर्द्धिविबुधनिर्द्धनपुरुषयोर्विभागं कल्पयन्ति न चक्रेश्वररोरयोरन्तरं दर्शयन्ति नोदारपरमेश्वरकृपणनरयोरादरानादराभ्यां प्रवर्त्तन्ते समानमेषां चेतसि विवर्त्तते परमैश्वर्थं दारिद्र्येण तुल्या महाहरनराशयो जरठपाषाणनिकरण सदृशा उत्तप्तहाटककूटा लोष्टपूगेन सदृशा हिरण्यस्तोमा धूलिपुञ्जेन मनिभो धान्यनिचयः क्षारराशेस्तुल्यं चतुष्पदकुप्यादिकं निःमारकचवरेण न विशेषो निर्जितरतिरूपाभिरपि ललितललनाभिः सह जरत्काष्ठस्तम्भानामिति / एवञ्च स्थिते। नेतेषां परहितकरणकव्यसनितां विमुच्यापरसदुपदेशदाने प्रवर्त्तमानानां कारणमुपलभ्यते / यतः स्वार्थसम्पादनमपि परमार्थतः स्वाध्यायध्यानतपश्चरणकरणादिना द्वारान्तरेणैव सम्पद्यत एव / न तदर्थमप्येतेषामच प्रवृत्तिः / दुरापास्तावकाशा लाभादिका शेषाकाङ्क्षा। न चैतदेषकोऽन्ध्यान्धीकृतबुद्धिर्जानौते। ततोऽयं जीवोऽनवगतमगुरूदाराशयोऽत्यन्ततुच्छवचित्तदुष्टताऽनुमानेन तश्चित्तमपि तथारूपं परिकलयन् महामोहवशेन तानत्वदर्शनैः शैवदिजातिभौ रक्तभिचुदिगम्बरादिभिस्तुल्यान् कल्पयति / सम्भवन्ति च भिन्नकर्मग्रन्थेरपि दर्शनमोहनौयपुञ्जत्रयकरणेन यथा पुनर्मिथ्यात्वपुञ्जे वर्त्ततेऽयं जौवस्तदैवंविधाः कुविकल्पा इति / ततश्च। तैराकुलौकृतहृदयस्यास्य जीवस्य पुनः प्रसर्पति मिथ्यात्वविषं ततस्तदशगोऽयं जीवः शिथिलपति मौनीन्द्रदर्शनपक्षपातं विमुञ्चति पदार्थ जिज्ञासामवधौरयति For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। मद्धर्मनिरतं जनं बहुमन्यते निर्विचारकलोकं प्रमादयति प्राग् प्रवृत्तं सत्कर्त्तव्यलेशं परित्यजति भद्रकभावं रज्यते नितरां विषयेषु पश्यति तत्त्वबुड्या तत्माधनं धनकनकादिकं ग्टलाति तथोपदिशन्तं गुरूं वञ्चकबुद्ध्या नाकर्णयति तद्वचनं भाषते धर्मावर्णवादान् उद्घट्टयति धर्मगुरूणां मर्मस्थानानि लगति प्रतीपं कूटवादेन निराक्रियते पदे पदे गुरुभिः / ततश्चासौ चिन्तयति सुरचितग्रन्थप्रपञ्चा एते श्रमणा न निराक मादृशैः पार्यन्ते ततो मामलोकविकल्पजालेन विप्रतार्य पुनः करिष्यन्त्येते मायावितथात्मभक्ष्यस्थानमतो दूरत एव मयैते वर्जनौयाः स्वग्रहादारणीया दृष्टा अपि न सम्भाषणीया नामापि न सोढव्यमेतेषामित्येवं कदन्नकल्पधनविषयकलत्रादिके मूर्च्छितहृदयस्तत्संरक्षणप्रवणोऽयं जीवः सदुपदेशदायकान् महामोहवशगो वञ्चकत्वेन कल्पयन् रौद्रध्यानमापूरयति ततो नष्टविवेकचेतनतः मद्धर्माचार्यैरुभंकारनिखातकाष्ठकौलककल्यो लक्ष्यते / अत्र एव च तेषां सम्बधिन्या दयया दीयमानं तदानौं सुन्दरपरमात्रकल्पं सदनुष्ठानोपदेशं बराकोऽयं जीवो न जानौते न चेतःपरं विवेकिनां विस्मयकरमस्ति / यदेष जीवो महानरकगर्भपातहेतौ धनविषयादिके ग्टद्धात्मानन्तसुखमोक्षाक्षेपकारणं सदनुष्ठानं मद्गुरुदयोपनौतमवधीरयति / यथा च तेन महानस नियुक्तकेन तत्तथाभूतमसंभाव्यं व्यतिकरमवलोक्य चिन्तितं यदुत किं पुनरेष रोरो दीयमानमादरेणेदं परमानं न ग्टहाति नूनमयमस्य पापोपहतात्मतया न योग्य इति / तदत्रापि तुस्थं विज्ञेयम् / तथा हि। सद्गुरूणामपि तं तथा विधं विस्तरधषि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 62 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / देशनयाऽन्यथा वा विनष्टभट्रकभावं विपरीतचारिणं जीवमुपलभ्य भवत्येवम्मतो भावो यदुत न भाजनमेषोऽकल्याणभाजनतया भगवद्धर्मस्य नोचितो कुगतिगामितया सुगतिगमनस्य न परिकर्मणोयो दुर्दलकल्पतया सद्धर्मचेतमा ततोऽत्र मोहोपहतचेतमि विफलो मे परिश्रम इति। यथा च पुनर्विमृशता तेन रसवतीपतिना निश्चित यदुत नास्य वराकस्यायं दोषः यतो बहिरन्तश्चायं रोगजालेन परिवेष्टित इति कृत्वा वेदनाविहलो न किञ्चिच्चेतयति। यदि पुनरेष नौरोगः स्यात् ततो योऽयं कदन्नलवलाभेनापि तुष्यति मोऽमृतास्वादमेतत्परमानं दयीमानं कथन्न ग्रहीयादिति / तदेतदाचार्य स्थापि पर्यालोचयतो मनमि वर्त्तत एवेति। यदुत / यदेष जीवो ग्ध्यति विषयादिषु गच्छति कुमार्गेण नादत्ते दीयमानं मदुपदेशं नेषोऽस्य वराकस्य दोषः किं तर्हि मिथ्यात्वादीनां भावरोगाणां तैर्विसंस्थुलचेतनोऽयं न किञ्चिन्जानौते यदि पुनरेष तद्विकलः स्यात् तत्कथमात्मनो हितं विमुच्यात्माहिते प्रवतेत / यच्च तेन महानसनियुक्न पर्यचिन्ति / यथा कथं पुनरेष रोरो नौरोगः स्यात् ततो मनसि निरूपयता तेन पुनः पर्यकत्यि। श्रये विद्यत एवास्य रोगनिराकरणोपायः। यतोऽस्ति मम चारुभेषजवतयं तद्यथा एकं तावदिमलालोकं नाम परमाञ्जनं तद्विधानेन प्रयुज्यमानं समस्तनेत्ररोगानाशयति सूक्ष्मव्यवहितातौतभाविभावविलोकनदक्षं चक्षुः संपादयति / तथा द्वितीयं तत्त्वप्रीतिकरं नाम सत्तार्थादक तत् पुनर्विधिना खाद्यमानं समस्तगदवाततानवं विधत्ते। दृष्टश्चाविपरीतार्थग्रहणचतुरतां कुरुते विशेषतः पुनरुन्मादमुद्दल For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / यति हतौयं पुनरेतदेव कन्यकोपनीतं महाकल्याणकं नाम परमानमेतत्पुनः सम्यङ् निषेयमानं निःशेषरोगगणं समूलकाषं कषति / तथा पुष्टिं जनयति तिं वर्द्धयति बलमुज्वलयति वर्णमुत्कर्षचति मनःप्रमादं संपादयति वयस्तंभं विधत्ते सवौर्यतां करोति पौर्जित्यं प्रवणयति किम्बहुना अजरामरत्वमपि निःसन्देहमेतत्मनिधापयति तस्मादनेनौषधत्रयेण सम्यगुपक्रम्यैनं तपखिनं व्याधिभ्यो मोचयामौति तेन मनमि सिद्धान्तः स्थापितः। तदेतत्सद्धर्माचार्योऽपि जौवगोचरं समस्तं चिन्तयत्येव / तथा हि। यदा निश्चितं तेन प्राक्प्रवृत्तिदर्शनेन यथा भव्योऽयं जौव. केवलं प्रबलकर्मकलाकुलितचेताः सन्मार्गात्परिभ्रष्टस्तदा भवति गुरोरयमभिप्रायः यथा कथं पुनरेषोऽस्माट्रोगस्थानौयात् कर्मजालन्मोच्यते पर्यालोचयतश्च तात्पर्यपर्याकुलेन चेतमा सुदूरमपि गत्वा पुनरेतदेव ज्ञानदर्शनचारित्ररूपत्रयं भेषभत्रयकल्पं तन्मोचनोपायः प्रतिभासते नापरः। तत्रेह ज्ञानमञ्जनं विज्ञेयं तदेव परिस्फुटदर्शितया विमलालोकमुच्यते तदेव च नयनगदसन्दोहकल्पमज्ञानमुन्मूलयति तदेव च भूतभवद्भाविभावस्वभावाविर्भावनचतुरं जीवस्य विवेकचक्षुः संपादयति दर्शनं पुनः सत्तीर्थोदकं बोद्धव्यं तदेव जौवादिपदार्थगोचरश्रद्धानहेतुतया तत्वौतिकरमभिधीयते / यतश्च तदुदयसमये सर्वकर्मणामन्तःसागरोपमकोटौ कोटिमात्रमवतिष्ठते समुत्पन्नं पुनः प्रतिक्षणं तत्तानि तनूकुरुते तेन समस्तगदतानवकारकं कर्मणा मिह रोगकन्त्यत्वात् तदेव दृष्टिप्रख्यस्य ज्ञानस्य यथावस्थितार्थग्रहण चातुर्यमाधत्ते। तदेव च महोन्माददेश्वं मिथ्यात्वमुद्दलयतौति / चारित्रं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। पुनरत्र परमानमवगन्तव्यं तस्यैव मदनुष्ठानं धर्मः सामयिकं विरतिरित्यादयः पर्यायाः। तदेव मोचलक्षणमहाकल्याण व्यवहितकारणतया महाकल्याणकमिति गीयते / तदेव च रागादिमहाव्याधिकदम्बकं समूलघातं हन्ति / तदेव च वर्णपुष्टिष्टतिबलमनःप्रसादौर्जित्यवयःस्तंभमवौर्यतातुल्यानात्मगुणान् समस्तानाविर्भावयति। तथाहि / तज्जौवे वर्तमान प्रभावो धैर्यस्य कारणमौदार्यस्याकरो गांभीर्यस्य शरीरं प्रशमस्य स्वरूपं वैराग्यस्यातुलहेतुर्योत्कर्षस्य आश्रयो निईन्दतायाः कुलमन्दिरं चित्तनिर्वाणस्य उत्पत्तिभूमिर्दयादिगुणरत्नानां किं चानेन यत्तदनन्तज्ञानदर्शनवौर्यानन्दपरिपूर्णमक्षयमन्यायमव्याबाधं धाम तदपि तत्सम्पाद्यमेवेलि अतोऽजरामरत्वमपि तज्जनयतीत्युच्यते / तस्मादेनमनेन ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयेण सम्यगुपक्रम्य जौवं क्लिष्टकर्मकलाजालान्मोचयामोति सद्धर्मगुरुरपि चित्तेऽवधारयति / ततो यथा तेन रमवतीपतिना शलाकाग्रे तदञ्जनं विन्यस्य तस्य द्रमकस्य गाढमाधनयतो ग्रोवामञ्जिते लोचने तदनन्तरमेव तेन प्रल्हादकतया शीततयाऽचिन्यगुणयोगितया चाचनस्य पुनश्चेतना लब्धा ततश्चोभौलितं चक्षुः प्रशान्ता मनाङ नेत्रबाधा विस्मितेन च तेन किमेतदितिचिन्तितम् / तदवं योजनीयं यदाऽयं जौवः प्रथमं प्रतिपद्य भद्रकभावं रोचयित्वा भगवच्छामनं नमस्कृत्त्याइदिम्बानि पर्युपास्य साधुलोकं विधाय धर्मपदार्थजिज्ञासां कृत्वा दानादिप्रवृत्तिमुत्पाद्य धर्मगुरूणामात्मविषयां पाचबुद्धिं पुनः क्लिट कर्मोदयेन विस्तरधर्मदेशनादिकं किञ्चिनिमित्तमासाद्य परिभ्रष्टपरिणामो भवति। ततश्च न गच्छति For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। 65 चैत्यालये नालोयते साधूपाश्रये न वन्दते दृष्टमपि साधुलोकं नामन्त्रयति श्रावकजनं निवारयति खग्टहे दानादिप्रवृत्तिं पलायते दूरदृष्टेभ्योऽपि धर्मगुरुभ्यः विधत्ते पृष्ठतस्तदवर्णवादादिकं ततस्तं तथाभूतं नष्टविवेकचेतनमवगम्य गुरवः स्वबुद्धिशलाकायां तत्प्रतिबोधोपायाञ्जनं निदधते / कथं बहि म्यादौ कथञ्चिदकाण्डदृष्टस्य कुर्वन्ति प्रियसंभाषणं दर्शयन्ति हितबुद्धिं प्रख्यापयन्याञसभावमुत्पादयस्यविप्रतारकप्रत्ययं पुरुषविशेषं तद्भावं चोपलक्ष्य वदन्ति च भद्र किं नागम्यते साधूपाश्रये किन्न विधीयते भवतात्महितं किं विफलौक्रियते मनुष्यभवः किन्न विज्ञायते शुभाशुभविशेषः किमेत्यनुभूयते पशुभावो भवता वयं हि भवत एवेदं पथ्यमिति भूयोभ्योऽभिदध्महे तदिदं सर्व शलाकाञ्जनस्थापनकल्यं विज्ञेयं मज्ञानहेतुतया कारणकार्योपचारादिति। तदेतदाकर्ण्य ततोऽसावष्टोत्तराणि विरचयन्नेवं ब्रूयात् भो भो श्रमणा गाढमक्षणिकोऽहं न मरति मे भगवत्समीपमागच्छतो निर्व्यापाराणां हि धर्मचिन्ता भवति मादृशां पुनरन्यत्र गतानां मौदति कुटुम्बादिकं न प्रवर्त्तते सहेतिकतव्यतेति न वहति वाणिज्यं न संपद्यते राजसेवा विस्तरयति कृषिकर्मादिकमिति / तदेतत्समस्त शिरोधननमभिधीयते / ततस्तद्वचनमाकपर्य करुणापरौतहृदयाः सद्धर्मगुरवो यास्यत्येष वराकोऽकृतपुण्यकर्मा दुर्गतिमित्यतो नोपेक्षणीयः इत्यालोच्येत्थमाचदौरन् वत्स यद्यप्येवं तथापि मदनुरोधेन क्रियतां यदहं वच्मि / तद्वचनमेकं द्रष्टव्यास्त्वयाहोरात्रमध्येऽवश्यं तयोपाश्रयमागत्य सकृत्साभव इति / ग्टह्यतामभिग्रहो नान्यदहं किञ्चिदपि भवन्तं भणि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। ध्यामि। ततोऽसौ का गतिः प्रतिप्रवेशे पतित इत्यालोच्य तमभिग्रह ग्टलौयात्। तदिदं सद्गुरुवचनप्रतिपत्तिकरणं प्राग्वालोचनाञ्जनपातनतुल्यं बोद्धव्यं ततस्तत्प्रभृति तदुपाश्रयं गच्छतः प्रतिदिनं सुमाधुसंपर्कण तेषां निष्कृत्रिमानुष्ठानदर्शनेन निहतादिगुणानालोकयतो निजपापपरमाणुदलनेन च तम्य याविवेककला संपद्येत सा नष्टा सती चेतना पुनरागता इत्यभिधीयते। यत्त / भूयो भूयो धर्मपदार्थजिज्ञासनं तन्नयनोन्मौलनकल्यं विज्ञेयं यस्तु प्रतिक्षणमज्ञानविलयः स नेत्ररोगबाधोपशमतुल्यो मन्तव्यः / यः पुनधिसद्भावे मनाक् चित्ततोषः स विस्मयाकारोऽवगन्तव्यः। यथा च तावति व्यतिकरे सम्पन्नेऽपि यत्तस्य द्रमकस्य तद्भिक्षारक्षणलक्षणमाकूतं बहुकालाभ्यास्ताभिनिवेशनप्रवर्त्तमानं न निःशेषतयाद्यापि निवर्तते। तशीभूतचित्तश्च तं पुरुषं तवाहितया पुनः पुनः शकते ततो नष्टमभिलषति तदिहापि सम्भवतीत्यवगन्तव्यम्। तथा हि / यावदेषोऽद्यापि जीवः प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्या भिव्यकिलक्षणे नाधिगमजसम्यग्दर्शनमाप्नोति तावद्व्यवहारतः श्रुतमात्रप्राप्तावपि वल्पविवेकतयास्यात्र धनविषयकलचादिके कदन्नकल्ये परमार्थबुद्धिर्न व्यावर्त्तते तदभिभूतचेतनश्च स्वचित्तानुमानेना तिनिःस्पह . हृदयानपि मुनिपुङ्गवान्मामेते प्रत्यासन्नवर्त्तिनं किञ्चिन्मगयिष्यन्त इत्येवं मुहुर्मुहुराशङ्कते ततस्तैः मह गाढपरिचयं परिजिहीर्षन तत्समीपे चिरं तिष्ठतौति / यत्युनरभिहितं यदुत स महानमनियुक्तकस्तं द्रमकमञ्चनमाहात्म्येन संजातचेतनमुपलभ्याभिहितवान् भद्र पिबेदमुदकं येन ते स्वस्थाता सम्पद्यते स तु न जानेऽनेन For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / पौतेन मम किं संपत्स्यत इति शङ्काकुलाकूतस्तत्समस्ततापोपशमकारणमपि तत्त्वप्रीतिकरं तोयं न पातुमिच्छति स्म। ततस्तेन कृपापरीतचित्तेन वलात्कारेणपि हितं विधेयमिति मत्वा स्वसामर्थन मुखमुद्दाय तस्य तत्मलिलं गालितं ततस्तदाखादनसमनन्तरं तस्य महोन्मादो नष्ट व शेषरोगास्तानवं गता व दाहार्तिरुपशान्ता चेति कृत्वा स्वस्थचित्त इवामौ विभाज्यते स्म तदिदं जौवेऽपि समानमवगन्तव्यम् / तत्र यदा ग्टहीतक्षणं सुमाधपाश्रयमागच्छन्तं तत्सङ्घद्देन संपन्नद्रव्यश्रुतमात्रतया मञ्जातविवेकलवं विशिष्टतत्त्वश्रद्धानविकलं धनविषयादिषु परमार्थदर्शिनं तन्मईया सुमाधूनपि तन्मार्गणतया शङ्कमानमत एवं प्रबन्धधर्मकथाकर्णनं परिहरन्तमेनं जीवमुपलभन्ते धर्मसूरयः / तदा तेषां दयालुतया भवेदभिसन्धिः यद्येष विशिष्टतरगुणभाजनं संपद्यते ततस्ते क्वचित्समीपवर्तिनं तमवगम्य तस्या कर्णयतोऽन्यं जनमुद्दिश्य सम्यग्दर्शनगुणान् वर्णयन्ति तस्य च दुर्लभतां प्रख्यापयन्ति तदङ्गीकुर्वतां वर्गापवर्गादिकं फलमुपदर्शयन्ति इह लोकेऽपि परमचित्तनिर्वाणकारणतां तस्य सूचयन्ति तदेतत्सर्वं सञ्चातचैतन्यस्योदकनिमन्त्रणकल्पं विज्ञेयं ततोऽसौ तद्धर्मगुरुवचनं निशम्य दोलायमानबुद्धिरेवं चिन्तयेदेष श्रमणो वहस्यात्मीयसम्यग्दर्शनस्य राणजातमुपवर्णयति केवलं यदीदमहमगौकरिव्ये ततो मामात्मवशवर्त्तिनमवबुद्ध्य धनाबादिकं प्रार्थयिष्यति ततः किं प्रयोजनं ममानेनादृष्टाशयादृष्टत्यागलक्षणेनात्मवञ्चनेनेति विचिन्त्याकर्णश्रुतं हवा तन्नाङ्गीकुरुते तदिदमुदकनिमन्त्रितस्य तत्पानानिच्छासमान 13 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। मवबोद्धव्यम् / ततो धर्मगुरवश्चिन्तयन्ति कः पुनर्बोधोपायोऽस्य भविष्यतीति / ततः पर्यालोचयन्तः निजहृदये विनिश्चित्यैवं बिदधते। क्वचिदवसरे तं माधपाश्रयमागामुकमवगम्य जनान्तरोद्देशेनाग्रिमतरां प्रारम्भते मार्गदेशनां यदुत भो भो लोका विमुच्य विक्षेपान्तरमाकर्णयत यूयम् / इह चत्वारः पुरुषार्था भवन्ति तद्यथा अर्थः कामो धर्मो मोक्षश्चेति। तत्रार्थ एव प्रधानः पुरुषार्थ इति केचिन्मन्यन्ते। अत्रान्तरे स श्रागच्छेत्ततस्तस्याकर्णयतो वदन्ति गुरवः / तथा हि। अर्थनिचयकलितः पुरुषो लोके जराजौर्णशरीरोऽपि उन्मत्तपञ्चविंशतिकतरुणनराकारः प्रतीयते / अतिकातरहृदयोऽपि महासमरसङ्घदृनियूं ढसाहमोऽतुलबलपराक्रम इति गौयते। सिद्धमानकापाठमात्रशक्तिविकलबुद्धिरपि समस्त शास्त्रार्थावगाहनचतुरमतिरिति बन्दिभिः पयते / कुरूपतया नितरामदर्शनीयोऽपि चाटुकरणपरायणैः सेवकनरैरवजितमकरकेतुरिति हेतुभिः स्थाप्यते। अविद्यमानप्रभावगन्धोऽपि समस्तवस्तुमाधनप्रवण - प्रभावोऽयमिति सर्वत्र तद्धनलुब्धबुद्धिभिः प्रकाश्यते। जघन्यघटदासिकातनयोऽपि प्रख्यातोनतमहावंशप्रसूतोऽयमिति प्रणयिजनैः स्तूयते। पासप्तमकुलबन्धुतासम्बन्धविकलोऽपि परमबन्धुबुड्याध्यारोपणसमस्तलोकैर्टह्यते तदिदं समस्तमर्थस्य भगवतो विलमितम् / किञ्च / समाने पुरुषत्वे समरंख्यावयवाः पुरुषा यदेते दृश्यन्ते लोके यदुत एके दायकाः अन्ये तु याचकाः तथैके नरपतयोऽन्ये पदातयः तथैके निरतिशयशब्दायुपभोगभाजनमन्ये तु दुष्परोदरदरौपूरणकरणेऽप्यशक्ताः तथैके पोषका अन्ये पोय्या इत्यादयो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / EE निःशेषविशेषा निजमनावासद्भावाभ्यामर्थनैव संपाद्यन्ते तस्मादर्थ एव प्रधानः पुरुषार्थः / अत एवोच्यते // अर्थाख्यः पुरुषार्थाऽयं प्रधानः प्रतिभामते / तणादपि लघु लोके धिगर्थरहितं नरम् // तदेतदाचार्यवदनविनिर्गतमर्थवर्णनमनुश्रुत्य म जौवश्चिन्तयेत् अये शोभनः प्रस्तावः प्रारब्धः कथयितं ततोऽवहितः श्टणुयात् श्टण्वन् बुध्येत बुध्यमानः स्वबोधसूचनार्थ गौवां चालयेत् लोचने विस्फारयेत् वदनं विकाशयेत् चारु चारूतमिति शनैः शनैरभिदयात् / ततस्तैर्लिङ्गः संजातमस्यश्रवणातहलमिति भगवन्तो धर्मगुरवस्तं लक्षयेयुः। ततः सादरतरं पुनस्ते ब्रूयुः भो भो लोकाः काम एव प्रधानः पुरुषार्थ इत्यन्ये मन्यन्ते / तथा हि। न खलु ललितललनावदनकमलमकरन्दास्वादनचतुरचञ्चरौकताचरणमन्तरेण पुरुषः परमार्थतः पुरुषतां खौकुरुते / किं चार्थनिचयस्य कलाकौशल्यस्य धर्मार्जनस्य जन्मनश्च काम एव वस्तुतः परमं फलम् / कामविकलैः पुनः किमेतैः सुन्दरैरपि क्रियते / अन्यच्च / कामासेवनप्रवणचेतमां पुरुषाणां तत्सम्पादका धनकनककलत्रादयो योग्यतया खत एवोपतिष्ठन्ते संपद्यन्ते भोगिनां भोगा इति गोपालबालाबलादीनां सुप्रसिद्धमिदम्। अपिच // स्मितं न लक्षण वचो न कोटिभिन कोटिलः सविलाममौचितम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / अवाप्यते ऽन्यैरदयोपगृहनं न कोटिकोटयापि तदस्ति कामिनाम् // अतः किन्न पर्याप्तं तेषां तस्मात्काम एव प्रधानः पुरुषार्थः / अत एवाभिहितम् // कामाख्यः पुरुषार्थाऽयं प्राधान्येनैव गौयते / नौरसं काष्ठकल्पं हि धिक्कामविकलं नरम् // तदेतदाकर्य म जीवो हर्षप्रकर्षण वहृदयादयुत्कलितः प्रकाशमेवं ब्रूयात् माधु माधुदितं भट्टारकैः बहोः कालादद्य सुन्दरं याख्यानमारब्धं यद्येवं दिने दिने कथयथ ततो वयमक्षणिका अपि सन्तोऽवहितचित्ततयाकर्णयाम इति / तदेतद्धर्मगुरुभिः खसामर्थन तस्य जीवस्य मुखमुद्दाटितमित्यवगन्तव्यम् / एवं च वदति तस्मिन् जौवे धर्मगुरूणामिदं मनसि वर्त्तते। यदुत पश्यनाहो महामोहविजंभितं यदेते तदुपहताः प्राणिनः प्रसङ्गकथितयोरप्यर्थकामकथयो रज्यन्ते न पुनर्यनतोऽपि कथ्यमानायां धर्मकथायाम्। तथा हौहास्माभिरर्थकामप्रतिबद्धचेतमा जुद्रप्राणिनामभिप्रायो वर्णितः / अयं तु वराकस्तत्रेव सुन्दरताबुद्धिं विधत्ते / तथाप्यस्य श्रवणाभिमुखीकरणेन सफलोऽस्मत्परिश्रमः सर्वथा मच्चिन्तितप्रतिबोधोपायबीजेन मुक्तोऽङ्करो भविष्यत्यस्य मार्गावतार इत्येवं खचेतस्यवधार्य तैरभिधीयते। भद्र वयं यथावस्थितवस्तुस्वरूपप्रकाशनं कुर्म एव नालोकं जल्पितुं जानौमः / ततोऽसौ प्रत्यायितचित्ततया बयादेवमेतद्भगवन्नास्त्यत्र सन्देहः गुरवोऽभिदध्युः यद्येवं भद्र तत्किमवधारितं भवतार्थकामयोर्माहात्म्यं मोऽभिदधौत For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / 101 बाढमवधारितं ततो गुरवो वदेयुः सौम्यते चत्वारः पुरुषार्थाः कथयितुं प्रक्रान्ताः तत्रैव द्वयोः स्वरूपमभिहितमधुना हतौथस्याभिधीयते तदप्येकचित्तेन भवताकर्णनीयं स वदेदेष दत्तावधानोऽस्मि कथयन्तु भगवन्तः। ततो गुरवो ब्रूयुः / भो लोका धर्म एव प्रधानः पुरुषार्थ इत्यन्ये मन्यन्ते। तथा हि। तुल्ये जीवत्वे किमित्येके पुरुषाः कुलक्रमागतद्रविणोपचितेषु गुरुतरचित्तानन्दसन्दर्भधाम निःशेषजगदभ्यहितेषु कुलेषुपजायन्ते किमिति चान्ये पुरुषा एव धनगन्धसम्बन्धविकलेषु समस्तदुःखभरभाजनेषु सर्वजननिन्दनीयेषु कुलेषत्पद्यन्ते। तथा किमित्येकजननौजनकतया सहोदरयोर्यमलयोश्च द्वयोः पुरुषयोरेष विशेषो दृश्यते यदुतैकस्तयोर्मध्ये रूपेण मौनकेतनायते प्रशान्ततया मुनिजनायते बद्धिविभवेनाभयकुमारायते गंभौरतया चौरनोरेश्वरायते स्थिरतया सुमेरुशिखरायते शौर्यण धनञ्जयायते धनेन धनदायते दानेन कर्णायते नौरोगतया वज्रशरीरायते प्रमुदितचित्ततया महर्द्धिविबुधायते। ततश्चैवं निःशेषगुणकलाकलापकलितोऽसौ सकलजननयनमनोनन्दनो भवति। द्वितीयः पुनर्बोभत्मदशर्नतया भुवनमुद्देजयति दुष्टचेष्टतया मातापितरावपि सन्तापयति मूर्ख खरतया पृथ्वौं विजयते तुच्छतयार्कशाल्मलौलमतिशते चपलतया वानरलौलां विडम्बयति कातरतया मूषककदम्बकमधरयति निर्द्धनतया रोराकारमाबिभर्ति कृपणतया ढक्वजातीयानतिलव यति महारोगभराक्रान्ततया विक्लवं क्रन्दमानो जगतोऽप्यात्मनि कारुण्यमुत्पादयति दैन्योदेगशोकायुपहतचित्ततया घोरमहानरकाकारं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / सन्तापं खौकुस्ते ततश्चैनं समस्तदोषभाजनतया लोकैः पापिष्ठोऽदृष्टोऽयमिति निन्द्यते। अन्यच // दयोः पुरुषयोरनुपहतमत्वबुद्धिपौरुषपराक्रमयोनिःशेषविशेषेस्तुल्यकश्योरर्थोपार्जनार्थं प्रवर्त्तमानयोः किमित्येको यद्यदारभते कृर्षि पाशुपाल्यं वाणिज्यं राजोपसेवामन्यदा तदर्थं कर्म तत्तत्मफलतामुपगच्छति। इतरस्य पुनस्तदेव कर्म न केवलं विफलं संपद्यते किन्तहि पूर्वपुरुषोपार्जितमपि धनलवं वैपरीत्यापत्या प्रत्युत निःशेषयति। अन्यच्चेदमपि चिन्तनौयं यदुत इयोरेव पुरुषयोनिरूपचरिताः पञ्चप्रकाराः शब्दादिविषयाः क्वचिदुपनमन्ते तत्र तयोरेकः प्रबलशक्तिः प्रवर्द्धमानप्रीतिस्ताननवरतमनुभवति / द्वितीयस्य पुनरकाण्ड एव किमिति कार्पण्यरोगादिकं कारणमुत्पद्यते येन वाञ्छन्नपि तानेव भोक्तुं न शक्नोतीति / न ह्येवंविधानां विशेषाणां जौवेषु जायमानानां परिदृष्टं किञ्चित्कारणमुपलक्ष्यते न चाकारणं किञ्चिद्भवितुमर्हति यदि पुनरकारणा एवंविधा विशेषा भवेयुः ततः सर्वदा भवेयुः यथाकाशं न वा कदाचिद्भवेयुर्यथाशशविषाणादयो यतश्चैते क्वचिद्भवन्ति कचिन्न भवन्ति तस्मान्नेते निष्कारणा इति गम्यते / अत्रान्तरे ग्रहौतार्थः स जीवो ब्रूयात् भगवन् किं पुनरेतेषामुत्पादकं कारणं ततो धर्मगुरवो वदेयुः भद्राकर्णय समस्तानामपि जीवगतानां सुन्दरविशेषाणां धर्म एवान्तरङ्गं कारणं भवति। स एव हि भगवानेनं जौवं सुकुलेषत्पादयति निःशेषगुणमन्दिरतां नयति समस्तानुष्ठानान्यस्य सफलयति उपनतभोगा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / 103 ननवरतं भोजयति अन्यांश्च समस्तशभविशेषान् संपादयति तथा सर्वेषामपि जौवगतानामशोभनविशेषाणामधर्म एवान्तरङ्ग कारणं स एव हि दुरन्तोऽमुं जौवं दुष्कूलेषत्पादयति निःशेषदोषनिवासतां प्रापयति सर्वव्यवसायानस्य विफलयति उपनतभोगोपभोगविघ्नभूतं शक्तिवैकल्यं जनयति अपरांश्चामनोज्ञाननन्तान् विशेषानस्य जौवस्थाधत्ते तस्माद्यदलेनैताः समस्तसम्पदः स एव धर्मः प्रधानः पुरुषार्थः अर्थकामौ हि वाञ्छतामपि पुरुषाणां न धर्मव्यतिरेकेण संपद्यते धर्मवतां पुनरतर्कितौ स्वत एवोपनमेते। अतोऽर्थकामार्थिभिः पुरुषैः परमार्थतो धर्म एवोपादातं युक्तास्तस्मात्म एवं प्रधान इति यद्यप्यनन्त ज्ञानदर्शनवीर्यानन्दात्मकजीवस्वरूपावस्थानलक्षणचतुर्थोऽपि मोक्षरूपः पुरुषार्थी निःशेषक्लेशराशिविच्छेदरूपतया खाभाविकखाधौनानन्दात्मकतया च प्रधान एव तथापि तस्य धर्मकार्यत्वात् तत्प्राधान्यवर्णनेनापि परमार्थभूतः सत्सम्पादको धर्म एव प्रधानः पुरुषार्थ इति दर्शितं भवति / तथा चाभ्यधायि भगवता धनदो धनार्थिनां धर्मः कामार्थिनां सर्वकामदो धर्म एवापवर्गस्य परम्पर्येण साधक इति / नातः प्रधानतरं किञ्चिदस्तीत्युच्यते। धर्माख्यः पुरुषार्थाऽयं प्रधान इति गम्यते / पापग्रस्तं पशोस्तुल्यं धिग् धर्मरहितं नरम् // तदिदमाकर्ण्य म जीवोऽभिदधौत भगवन्तौ तावदर्थकामौ माक्षादुपलभ्येते योऽयं पुनर्भगवद्भिर्धर्मो वर्णितः स नास्माभिः क्वचिदृष्टः। ततो निदर्श्यतामस्य यत्स्वरूपमिति / ततो धर्मस्तुरिराचचौत / भद्र मोहान्धाः खल्वेनं न पश्यन्ति विवेकिनां पुनः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्रत्यक्ष एव धर्मः। तथा हि। सामान्येन तावद्धर्मस्य वौष्येव रूपाणि द्रष्टव्यानि भवन्ति / तद्यथा। कारणं स्वभावः कार्यं च / तत्र मदनुष्ठानं धर्मस्य कारणं तद् दृश्यत एव। स्वभावः पुनईिविधः माश्रवोऽनावश्च। तत्र साश्रवो जौवे शुभपरमाणपचयरूपः / अनाश्रवस्तु पूर्वोपचितकर्मपरमाणु विलयमावलक्षणः / स एष द्विविधोऽपि धर्मस्वभावो योगिभिर्दृश्यते अस्मादृशैरप्यनुमानेन दृश्यत एव / कार्य पुनर्धर्मस्य यावन्तो जीवगताः सुन्दरविशेषास्तेऽपि प्रतिप्राणिप्रसिद्धतया परिस्फुटतरं दृश्यन्त एव / तदिदं कारणस्वभावकार्यरूपत्रयं पश्यता धर्मस्य किं न दृष्टं भवता येनोच्यते न दृष्टो मया धर्म इति। यस्मादेतदेव तृतीयं धर्मध्वनिनाभिधीयते केवलमेष विशेषो यदुत मदनुष्ठानं कारणे कार्योपचाराद्धर्म इत्युच्यते / यथा तन्दुलान् वर्षति पर्जन्य इति। स्वभावस्तु यः माश्रवो निगदितः स पुण्यानुबन्धिपुण्यरूपो विज्ञेयः। यः पुनरनाश्रवः स निर्जरात्मको मन्तव्यः / स एष द्विविधोऽपि स्वभावो निरुपचरितः साचाद्धर्म एवाभिधीयते / यत्त्वमौ जीववर्तिनः समस्ता अपि सुन्दर विशेषास्ते कार्ये कारणोपचाराद्धर्मशब्देन गौयन्ते यथा ममेदं शरीरं पुराणं कर्मति / ततः पुनरेष जीवो ब्रूयात् भगवनत्र चये कतमत्पुनः पुरुषेणोपादेयं भवति / ततो धर्मगुरुरभिदधीत / भद्र मदनुष्ठानमेव तस्यैवेतरदयसम्पादकत्वात् / म ब्रूयात् / किं पुनस्तत्मदनुष्ठानम् / ततः मद्धमसूरयोऽभिदधौरन् / सौम्य माधुधर्मों सहिधर्मश्च / तस्य पुनर्दिविधस्थापि मूलं सम्यग्दर्शनम् / ततोऽयं जीवो वदेत् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। 105 भगवन्नुपदिष्टमामौदेतत्सम्यग्दर्शनं प्राग्भवता किन्तु तदा मया नावधारितं तदधुना कथयत किमस्य स्वरूपमिति। ततः मझेपेण प्रथमावस्थोचितमस्य पुरतो धर्मगुरवः सम्यग्दर्शनस्वरूपं वर्णयेयुः / यथा भद्र यो रागद्वेषमोक्षादिरहितोऽनन्तज्ञानदर्शनवीर्यानन्दात्मकः ममस्तजगदनुग्रहप्रवण: मकलनिष्कलरूपः परमात्मा म एव परमार्थतो देव इति बध्या तस्योपरियद्भकिकरणं तथा तेनैव भाषिता ये जौवा जीवपुण्यपापाश्रवसंवरनिर्जरा बन्धमोक्षाख्या नवपदार्थास्ते अवितथा एवेति या प्रतिपत्तिस्तथा तदुपदिष्टे ज्ञान * दर्शनचारित्रात्मके मोक्षमार्ग ये प्रवर्तन्ते माधवस्त एव गुरवो वन्दनीया इति या बुद्धिस्तत्सम्यग्दर्शनं तत्पुनर्जी वे वर्तमानं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिकाभिव्यक्तिलक्षणोर्बाह्यस्लिङ्गोक्ष्यते तथा तदजीकृत्य जीवेन मत्त्वगुणाधिक क्लिग्यमाना विनथेषु मैत्रौप्रमोदकारुण्यमाध्यस्यानि समाचरणोयानि भवन्ति तथा स्थिरता भगवदायतनसेवा प्रागमकुशलता भकिः प्रवचनप्रभावना इत्येते पञ्चभावाः सम्यग्दर्शनं दोपयन्ति / तथा शङ्काकासाविचिकित्सापरपाषण्डप्रशंसामंस्तवचैते तु तदेवं दूषयन्ति तदेष मकलकल्याणावहो दर्शनमोहनौयकर्मक्षयोपशमादिनाविर्भूतः स्वल्वात्मपरिणाम एव विशुद्धसम्यग्दर्शनमभिधीयते / एवञ्च कथयता भगवता धर्मसूरिणा सम्यक्प्रत्यायितमानसम्तदनुभावादेव विलौनक्लिष्टकर्ममलः सो ऽयं जीवः सम्यग्दर्शनं प्रतिपद्येत / ततश्चैतत्सत्तीर्थोद कमिव तत्त्वप्रीतिकरं धर्मगुरुभिर्बलागालितमित्यवमेयं यतश्च तत्प्रति तत्प्रतिपत्तौ मिथ्यात्वं यदौर्णमासीत् तत्वोणं यत्युनरनुदोर्ण तदुपशान्तावत्यां For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / गतं केवलं तदपि प्रदेशानुभवेनानुभूयते तदेव चात्र महोन्मादस्तस्मात्म नष्टप्रायो नैकान्ते नाद्यापि नष्ट इति बोद्धव्यं यतश्च सम्यग्दर्शनलाभे समस्तान्यपि भेषकर्माणि तनुतां गच्छन्ति तान्येव च गदभूतानि / अतोऽयं जौवस्तत्प्राप्तौ संजातान्यगदतानव इत्युयते। यतश्चराचरजन्तुसंधातदुःखदाहदलनत्वादत्यन्तशीतः सम्यग्ददर्शनपरिणामोऽयमतस्तत्सम्पत्तावयं जीवो विगतदाहार्तिः स्वस्थमानमो लक्षत इति। यथा च तेन रोरेण स्वस्थौभूतचेतमा चिन्तितं यदुतायं पुरुषो ममात्यन्तवत्सलो महानुभावस्तथापि मया मोहोपहतेन पूर्ववञ्चकोऽयं हरिष्यत्यनेन प्रपञ्चेन मामकं भोजनमिति कस्पितस्ततो धिङमां दुष्टचिन्तकम्। तथा हि / यद्ययं हितोद्यतमतिर्न स्यात् ततः किमित्यञ्जनप्रयोगेण मम पटदृष्टिता विहितवान् किमिति वा तोयपानेन स्वस्थतां संपादितवान् न चायं मत्तः कथञ्चिदुपकारमपेक्षते किं तर्हि महानुभावतैवैकास्य प्रवर्त्तिकेत्युक्तं तदेतज्जौवोऽपि संजातसम्यग्दर्शन: मनाचार्यगोचरं चिन्तयत्येव / तथा हि। यथावस्थितार्थदर्शितया तदायं जीवो विमुञ्चति रौद्रतां रहयति मदान्धतां परित्यजति कौटिल्पातिरेकं विजहाति गाढलोभिष्टतां शिथिल्लयति रागप्रकर्ष न विधने देषोत्कर्षः अपचिपति महामोहदोषम्। ततोऽस्य जीवस्य प्रमोदति मानसं विमलौभवत्यन्तरात्मा विवर्द्धते मतिपाटवं निवर्त्तते धनकनककलचादिभ्यः परमार्थबुद्धिः संजायते जौवादितत्वेवभिनिवेश: तनूभवन्ति निःशेषदोषाः ततोऽयं जीवो विजानौते परगुणविशेष लक्षयति खकौयदोषभातमनुस्मरति प्राचौनामात्मावस्थामवबुध्यते तत्काल For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / भाविनं गुरुविहितप्रयत्नमवगच्छति तन्माहात्म्यजनितामात्मयोग्यता ततो यो जौवो मादृशः प्रागत्यन्तक्लिष्टपरिणमतया धर्मगुर्वादिविषयेऽप्यनेककुविकल्पकरणपरोऽभूत् स तदा लधविवेकश्चिन्तयति यदुताहो मे पापिष्ठता अहो मे महामोहान्धता अहो मे निर्भाग्यता अहो मे कार्पण्यातिरेकः अहो ममाविचारकत्वं येन मयात्यन्ततुच्छधनस्लवादिप्रतिबद्धवान्तःकरणेन मता य एते भगवन्तः सर्वदा परहितकरणनिरतमतयो निर्दोषसन्तोषपोषितवपुषो मोक्षमुखलक्षणानि धनधनार्जनमवणान्तःकरणास्तषमुष्टिनिःमारसंमारविस्तारदर्शिनः स्वशरौरपञ्जरेऽपि ममत्वबुद्धिरहिता मदीयधर्मगुरुप्रभृतयः माधवः किं ते हरियन्ति ममानेन धर्मकथादिप्रपञ्चेन शठतया मां विप्रतार्य नूनमेते धनकनकादिकमिति प्रागनेकशः परिकल्पिताः / ततो धिङ् मामधमाधमदुष्टविकल्पकमिति / यदि घेते भगवन्तो मां प्रति परमोपकारकरणपरायण न स्यस्ततः किमिति सुगतिनगरगमनसम्बन्धबन्धुरमव्यभिचारिणं मार्गमादेशयन्तः सम्यग्ज्ञानदानव्याजेन महानरकवर्तनौप्रवृत्तचेतोवृत्तिं मां निवारयन्ति स्म किमिति वा विपर्यासपर्यामितचेतसो मे सम्यग्दर्शनसम्पादनदारेण निजशेमुथ्था निःशेषदोषमोषविशेषं विशेषतो विदधति स्म। न चैते निस्पहतातिशयेन समलोष्टहाटकाः परहिताचरणव्यमनितया प्रवर्त्तमानाः कदाचिदुपकार्यात्मकामात् कधित्प्रत्युपकारमपेक्षन्ते। न चैतेषां परमोपकारकारिणां भगवतां मादृशः खजौवितव्ययेनापि प्रत्युपकारः कत्तुं पार्यते प्रास्तां धमधानादिनेति / तावदेष जौतस्तदा संजातसम्यग्भावः पूर्वविहित For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 108 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / खकोयदुश्चरितानुस्मरणेन पश्चात्तापमनुभवति सन्मार्गदायिनां च गुरूणामुपरि विपरीतमकां विरहयति तदानेनैतदुक्तं भवति / दये खल्वमौ कुविकल्पा: प्राणिनो भवन्ति / तद्यथैके कुशास्त्रश्रवणवासनाजनिताः / यदुताण्डसमुद्भूतमेतत्त्रिभुवनं ब्रह्मादिकृतं प्रकृतिविकारात्मकं क्षणविनश्वरं विज्ञानमात्र शून्यरूपं वा इत्यादयस्ते ह्याभिसंस्कारिका इत्युच्यन्ते। तथान्ये सुखमभिलषन्तो दुःखं द्विषन्तो द्रविणादिषु परमार्थबुद्ध्यवमायिनोऽत एव तत्संरक्षणप्रवणचेतमोऽदृष्टतत्त्वमार्गस्थास्य जीवस्य प्रवर्तन्ते यैरेष जीवोऽशकनौयानि शकते अचिन्तनीयानि चिन्तयति प्रभाषितव्यानि भाषते अनाचरणौयानि समाचरति। ते तु कुविकल्याः सहजा इत्यभिधीयन्ते तत्राभिसंस्कारिकाः प्रथमसुगुरुसंपर्कप्रभावादेव कदाचिनिवर्त्तरन्नेते पुनः सहजा यावदेष जौवो मिथ्यालोपत्तबुद्धिस्तावन्न कथञ्चिनिवर्तन्ते। यदि परमधिगमजसम्यग्दर्शनमेव प्रादुर्भुतमेतानिवर्त्तयतौति / यत्पुनरभिहितं यदुत तस्य द्रमकस्थ तस्मिन्नञ्जनमलिलदायके पुरुषे सजातविश्रंभस्थापि महोपकारितां चिन्तयतस्तथापि तत्रात्मौये कदनके यात्यन्तमूळ मा गाढं भावितत्वान्न कथञ्चिन्निवर्तत इति / तदेतज्नौवेऽपि योजनौयम् / तथाहि / यद्यपि क्षयोपशमगतं ज्ञानावरणं दर्शनमोहनौयं च ममुत्पन्न मम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शनं च। अतएव निवृत्ता भवप्रपञ्चगोचरा तत्त्वबुद्धिः संजातो जौवादितत्त्वाभिनिवेश: ग्रहीताः परमोपकारकारितया सम्यग्ज्ञानदर्शनदायिनो भगवन्तः सद्धर्मगुरवः। तथाप्यस्य जीवस्य यावत्ते समुदौणे कषायद्वादशकं यावच्च प्रबलमद्यापि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। 106 नो कषायनवकं तावदनादिभवाभ्यामवासनापाटवपरायत्ततया प्रवर्त्तमानामेतेषु धनविषयकलत्रादिषु कदन्नकल्पेषु मूळमेष जीवो न निवारयितुं पारयति यतोऽस्य जीवस्य कुशास्त्रश्रवणसंस्कारजा महाण्डममुद्भूतं त्रिभुवनमेतदित्यादयो मोहवितर्काः प्रवर्तन्ते। ये च महजा अपि धनादिषु परमार्थदर्शितया तत्संरक्षणगोचरा अशङ्कनौयेष्वपि गुर्वादिषु शङ्काकारिणो मिथ्यादर्शनोदयप्रभवाः कदभिप्रायाः प्रादुर्भवन्ति ते मरुमरीचिकावत्रचुम्बिन व जलकल्लोलमालाप्रतिभामिनो मिथ्याज्ञानविशेषाः। तत्प्रत्यनौकार्थीपस्थापकेन प्रमाणान्तरेण बाध्यमानाः सम्यग्दर्शनोत्पत्तिकाले निवतन्ते। यः पुनरेष धनविषयादिषु मूलिक्षणो मोहः सोऽपूर्वरूपो यतोऽयं दिमोह दूव तत्त्वधियापि मार्द्धमव्याहत एवास्ते / अनेन हि मोहितोऽयं जौवो जाननपि सकलं कुशाग्रलमजललवतरलं न जानौते / पश्यन्नपि धनहरणस्वजनमरणादिकं न पश्यतोव। पटुप्रजोऽपि जडबुद्धिरिव चेष्टते। समस्तशास्त्रार्थविशारदोऽपि महामूर्खचूडामणिरिव वर्तते / ततश्चास्य जीवस्य प्रतिभाति मुक्कलचारिता रोचते तस्मै यथेष्टचेष्टा विभेत्ययं व्रतनियमनियन्त्रणायाः किम्वनोकेन न शक्नोत्ययं जौवस्तदा काकमांसभक्षणादपि निवृत्तिं विधातुमिति / एवं च स्थिते यत्तदुक्तं यदुत रोरं मूर्छातिरेकेण पुनः पुनः स्वभोजनभाजने दृष्टिं पातयन्तमुपलभ्य स धर्मबोधकराभिधानो रसवतीपतिस्तस्याभिप्रायमवगम्य मनाक् सपरुषमित्थमभिहितवान् अरे द्रमक दुर्बुद्धे केयं भवतो विपरौतचारिता किमितीदं परमानं कन्यकया प्रयत्नेनापि दीयमानं त्वं नावबुद्ध्यसे For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 110 उपमितिभवप्रयचा कथा / भवन्त्यन्येऽपि पापिनो रोराः केवलं भवता मदृशोऽन्यो निर्भाग्यो नास्तौति मे वितर्कः / यस्त्वमत्र तुच्छे कदन्नके प्रतिबद्धचित्तः सन्नमृतास्वादमेतन्मया दाप्यमानमपि परमानं न ग्टहाति। अन्यच्च / यतस्त्वमत्र भवने प्रविष्टस्तथेदं दृष्ट्वा मनागाल्हादितः परमेश्वरेण चावलोकितः तेन कारणेन भवन्तं प्रत्यादरोऽस्माकं ये पुनरस्मात्सद्मनो बहिर्वर्तन्ते जन्तवो ये चेदं विलोक्यमानं मोदन्ते ये च राजराजेन न निरीक्षितास्तेषां वयं न वार्तामपि पृच्छामो वयं हि सेवकधर्ममनुवर्त्तमानाय एव कश्चिन्महानृपतेर्वल्लभस्तचैव वालन्यमाचरामः / श्रयं चास्माकमवष्टंभोऽभत्किस्लामूढलक्ष्योऽयं राजा न कदाचनापात्रे मतिं कुरुते यावता मोऽप्यस्मदवष्टंभोऽधुना भवता विपरीतचारिणा वितथ व सम्पादितः / तदिदमवगम्य त्यजेदं वैपरौत्यं हित्वेदं कदन्नं ग्रहाणेदं परमान्नं यन्महात्म्येनेते पग्य सर्वत्र सद्मनि वर्तमाना जन्तवोऽमृतहप्ता इव मोदन्त इति एतदपि समस्तमत्र जीवव्यतिकरे सुगुरुराचरत्येव / तथाहि / यदायं जन्तुराविर्भूतज्ञानदर्शनोऽपि कर्मपरतन्त्रतया न स्तोकमात्रमपि विरतिं प्रतिपद्यते तदासु तथाभूतं विषयेषु गाढं मूर्छितचित्ततयाभिरममाणमुपलभ्य मद्धर्मगुरूणां भवत्येवंविधोऽभिसन्धिः। यदुत केयमस्यात्मवैरिता किमित्ययं रत्नदीपप्राप्तनिर्भाग्यपुरुष दवानिर्घयरत्नराशिसदृशानि प्रतनियमाचरणान्यवधौर्य जरत्कारशकलकल्पेषु विषयेषु प्रतिबन्धं विधत्ते। ततस्ते गुरवः प्रादुर्भुतप्रणयकोपा व तं प्रमादपरं जीवमित्थमाचक्षते / अयि ज्ञानदर्शनविदूषक केयं भवतोऽनात्मजता किमिति प्रतिक्षणमस्माना For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / रारथ्यमानान् भवान्न लक्षयति दृष्टा बहवो ऽस्माभिरन्येप्यकल्याणभाजनभूताः प्राणिनः केवलं तेषामपि मध्ये पोखरायितं भवता यतस्त्वं जानन्नपि भगवद्वचनं श्रद्दधानोऽपि जौवादिपदार्थमार्थं विद्यमानेऽपि मादृशे प्रोत्साहके लक्षयन्नपौदृशसामय्याः सुदुर्लभतां भावयन्नपि संसारदुरन्ततां परिकलयन्नपि कर्मदारुणतां बुद्दयमानोऽपि रोगादिरौद्रतां तथापि समस्तानर्थमार्थप्रवर्तकेषु कतिपयदिवसवर्तिषु तुषमुष्टिनिःमारेषु विषयेषु सततं रज्यसे न पुनरस्माभिरनर्थगर्त्तपातिनं भवन्तमवगम्य दययोपदिश्यमानामेनां सकलक्लेशदोषविरेककारिणौँ भागवतौं समस्तपापविरतिं भवानवहेलथापि विलोकयति अन्यच्चैतदपि न लक्षितं भवता यदर्थमेषोऽस्माकं भवन्तं प्रति महानादरः तदाकर्ण्य अत्रापि यत्कारणं यतस्त्वं सज्ञानदर्शनयुक्तया सर्वज्ञशासनाभ्यन्तरभूतो वर्त्तसे। यतश्च प्रथमावसरेऽपि भगवन्मतमवलोक्य जातस्ते प्रमोदः / तद्दर्शनेन च लक्षितास्माभिस्त्वयि भवन्तौ परमात्मावलोकना ततो वयं भगवदनुग्टहीतोयमिति कृत्वा तवोपर्यादरवन्तः। युज्यते च भगवदनुचराणां तदभिमतेषु पक्षपातः कर्तुम् / ये तु जीवाः सर्वज्ञशासनमन्दिरमद्यापि नावगाहन्ते कथञ्चित्प्रविष्टा अपि तत्र न तद्दर्शनेन हृष्यन्ति अत एव च परमात्मावलोकनाया बहिर्भूता लक्ष्यन्ते तांस्तथाभूताननन्तानपि जीवान् पश्यन्तोपि च यदुदासीनभावं भजामहे नोचितास्ते खल्वादरकरणस्य / अयं चेयन्तं कालं यावदवष्टंभोऽस्माकमासीत्। किलामुनोपायेन योग्याः सन्मार्गावतरणस्येति निश्चीयते / ते न कदाचन व्यभिचरन्ति यावता भवता For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 112 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / ऽयमनेकसत्त्वेषु सुनिश्चितोऽप्यस्माभिरूपायो विपरौतमाचरता व्यभिचारितो वर्तते / ततो भो दुर्मते मैवं विधेहि कुरुवाधुनापि यदहं वच्मि परित्यजेदं दौःशौल्यं विहाय दुर्गतिपुरीवर्तनौकल्पामविरतिमुररौकुरु निईन्दानन्दमन्दोहदायिकां सर्वज्ञोपज्ञां ज्ञानदर्शनयोः फलभूतां विरतिमितरथा परमार्थतो ज्ञानदर्शने अपि निष्फले संपत्स्येते। दूयं हि भागवतौ ग्रहौता सम्यक्पाल्यमाना सकलकल्याणपरम्परां संपादयति / यदि वा तिष्ठन्तु तावत् पारलौकिलकल्याणानि किं न पश्यति भवानिदानौमेवैते भगवदुक्कविरतिरतचित्ताः सुमाधवो यदनन्तामृतरमहप्ता व स्वस्थाः मदा मानसेनावेदयितारो विषयाभिलाषजनितानां कामविकलतयौत्मक्यप्रियविरहवेदनानामनभिज्ञातारो लोभमूलानां निष्कषायतया धनार्जनरक्षणनाशदुःखानां वन्दनौयास्त्रिभुवनस्य संमारसागरादुत्तीर्णमेवात्मानं मन्यमानाः मदा मोदन्ते / तदेवं भूतगुणेयं विरतिः किमात्मवैरितया नादौयते भवतेति। तदेतद्धर्मगुरुवचनमाकर्ण्य यथासौ द्रमकस्ता स्मिन्पूरुषे संजाताविश्वासोऽपि तथाविर्भूतनिर्णयोऽपि यथात्यन्तहितकारो ममायं पुरुष इति / तथापि तस्य कदन्नस्य त्याजनवचनेन विहलीभूतो दैन्यमालम्ब्येत्थमभिहितवान्। यदुत यदेतद्गदितं नाथैस्तत्ममस्तमवितथं प्रतिभाति मे चेतसि / केवलमेकं वचनं विज्ञापयामि तदाकर्णयत यूयं यदेतन्मां भोजनं त्याजयन्ति भवन्तस्तत्प्राणेभ्योऽप्यभौष्टतमं नाहमेतद्विरहे क्षणमपि जौवामि महता च क्लेशेन मयेदमुपार्जितं किं च कालान्तरेऽपि निर्वाहकं ममैतद्भवदीयस्य पुनर्भोजनस्य For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / न जानेऽहं स्वरूपं किं चानेन ममैकदिनभाविनेति। तत्किमच बहुना जल्पितेन एष मे निश्चयो नैवेदं भोजनं मोक्रव्यं यदि विद्यमानेऽप्यस्मिन्नात्मीयं भवद्भिर्भोजनं दातुं युक्तं ततो दीयतामितरथा विनैव तेन मरिष्यतीति / तथायमपि जीवः कर्मपरतन्त्रतयाविद्यमानचरणपरिणामस्मद्धर्मगुरूणामग्रतः समस्तमपौदृशं जल्पत्येव प्रत्येव तदास्य गुरुषु विश्रभः सञ्जातो ज्ञानदर्शनलाभेन संप्रत्ययः। तथापि न निवर्तते धनादिभ्यो गाढमूर्छा धर्मगुरवश्वारि ग्राहयन्तस्तत्त्यागं कारयन्ति / ततोऽस्य जीवस्य संजायते दैन्यं ततोऽयं ब्रूते सत्यमेतत्सर्वं यदाज्ञापयन्ति भगवन्तः / किन्तु श्रूयतां भवनिरेका मदीया विज्ञप्तिका रद्धोऽयमात्मा मदीयो गाढं धनविषयादिषु न शक्यते तेभ्यः कथञ्चिनिवर्त्तयितुं म्रियेऽहं त्यागे नूनमेतेषाम् / महता च क्लेशन मयते समुपार्जितास्तत्कथमहमेतानकाण्ड एव मुञ्चामि। किं च। मादृशाः प्रमादिनो न युग्माभिरुपदिष्टाया विरते: स्वरूपमवबुध्यन्ते / किन्तर्हि मादृशामिदमेव कालान्तरेऽपि धनविषयादिकं चित्ताभिरतिकारणं युभदौयं पुनरनुष्ठानं राधावेधकल्पं किं तेन मादृशां भगवतामप्यस्थन एवायं निर्बन्धः / तथाहि। महतापि प्रयत्नेन तत्त्वे शिष्टेऽपि पण्डितैः / प्रकृति यान्ति भूतानि प्रयासस्तेषु निष्फलः // 1 // अथैवमपि स्थिते भगवतामायहः ततो दौयतामेतेषु धनविषयादिषु विद्यमानेषु यदि देयमात्मीयं चारित्रमितरथा पर्याप्तं ममानेनेति। ततश्चैवं वदति सत्यस्मिन् जोवे यथा तेन रसवती For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 114 उपमितिभवप्रयच्चा कथा / पतिना तं द्रमकं परमात्रग्रहणपराङ्मुखमवलोक्य चिन्तितं यदुत पश्यताहो मोहमामर्थं यदेष रोरः सर्वव्याधिकरेऽत्र कदनके सक्रबुद्धिर्मामकं परमान्नमवधौरयति निश्चितं च प्रागेव मया यथा नास्य वराकस्यायं दोषः किं तर्हि चित्तवैधुर्यकारिणां रोगाणाम् / श्रतः पुनरेनं शिक्षयामि विशेषेण वराकं यद्ययं प्रत्यागतचित्तः परमानमिदं ग्रहीयात् ततोऽस्य महानुपकारः संपद्ये तेति। तथा सद्धर्मगुरवोऽपि चिन्तयन्ति यदुतापूर्वरूपोऽयमस्य जीवस्याहो महामोहः यदायमनन्तदुःखहेतौ रागादिभावरोगवृद्धिकरेऽस्मिविषयधनादिके विनिविष्टबुद्धिर्जाननपि भगवदचनमजानान व श्रद्दधानोऽपि जीवादितत्त्वमश्रद्दधान व न मयोपदिश्यमानां निःशेषक्लेशविच्छेदकारिका विरतिमुररीकुरुते। यदि वा नास्यायं तपखिनो दोषः किन्तर्हि कर्मणमिति। तान्येवेनं जीवं विसंस्थुलयन्ति / अतो नास्माभिरेतत्प्रतिबोधनप्रवृत्तरस्थाविधेयतामुपलभ्य निर्वेदः कार्यः / तथाहि / अनेकशः कृता कुर्याद्देशना जीवयोग्यताम् / यथा स्वस्थानमाधत्ते शिलायामपि मृट्वटः // 1 // यः संमारगतं जन्तुं बोधयेज्जिनदेशिते / धर्मे हितकरस्तस्मानान्यो जगति विद्यते // 2 // विरतिः परमो धर्मः मा चेन्मत्तोऽस्य जायते / ततः प्रयत्नसाफल्यं किं न लब्धं मया भवेत् // 3 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। महान्तमर्थमाश्रित्य यो विधत्ते परिश्रमम् / तमिद्धौ तस्य तोषः स्यादमिद्धौ वौरचेष्टितम् // 4 // तस्मात्सर्वप्रयत्नेन पुनः प्रत्याय्य पेशस्तैः / वचनैधियाम्येनं गुरुश्चित्तेऽवधारयेत् // 5 // ततो यथा तेन सूपकारेण तस्मै भिक्षाचराय निवेदताः पुनर्विशेषतः कदन्नदोषा उपपादिता तस्य युक्रितस्त्याज्यरूपता दूषितं कालान्तरे तदभिप्रेतं तस्य निर्वाहकत्वं प्रशंमितमात्मौर्य परमानं प्रकटितं तस्य सर्वदा दानं समुत्पादितो महाप्रभावाचनमलिलदायकत्वनिदर्शनेनात्मविश्रभातिरेको ऽभिहितश्चासौ द्रमकः किं बनानेन मुञ्चेदं स्वभोजनं ग्रहाणेदममृतकल्पं मदीयमन्त्रमिति / तथा मद्धर्मसूरयोऽपि सर्वं कुर्वन्ति / तथाहि / तेऽपि जीवाय निवेदयन्ति धनविषयकलवादे रागादिहेतुतां दीपयन्ति कर्मसञ्चयकारणतां प्रकाशयन्ति दुरन्तानन्तसंसारनिमित्ततां वदन्ति च यथा भद्र यत एव क्लेगेनापाय॑न्ते खल्वेते धनविषयादयः क्लेशन चानुभूयन्ते पुनश्चागामिनः क्लेशस्य कारणभावं भजन्ते / अत एवेते परित्यागमर्हन्ति / अन्यच / भद्र तवाप्येते मोहविपर्यामितचेतसि सुन्दरबुद्धिं जनयन्ति यदि पुनस्वं चारित्ररममाखादयसि ततोऽस्माभिरनुक एव नैतेभ्यो मनागपि स्पृहसे को हि मकर्णकोऽमृतं विहाय विषमभिस्तषति यत्पुनरम्मदीयोपदेशसंपाद्यस्य चारिचपरिणामस्य कादाचित्कत्वेनानिर्वाहकत्वं धनविषयकलचादेस्तु प्रकृतिभावगमनेन सदा भावितया च निर्वाह For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रयञ्चा कथा / कत्वं मन्यसे तदपि मा मंस्थाः यतो धनादयोऽपि धर्मरहितानां न मकलकालभाविनो भवन्ति भवन्तोऽपि न प्रेक्षापूर्वकारिणा निर्वाहकतयाजी कर्तव्या न हि समस्तरोगप्रकोपनहेतुरपथ्यान्न सकलकालभावुकमपि निर्वाहकमित्युच्यते मर्वानर्थमार्थप्रवत्तकाश्चैते धनादयः तस्मान्नैतेषु सुन्दरा निर्वाहकत्वबुद्धिः न चेयं प्रकतिजीवस्य यतोऽनन्त ज्ञानदर्शनवौर्यानन्दरूपोऽयं जीवः / अयं तु धनविषयादिषु प्रतिबन्धोऽस्य जीवस्य कर्ममलजनितो विभ्रम इति तत्त्ववेदिनो मन्यन्ते। अत एव चारित्रपरिणामोऽपि तावत्कादाचित्को यावज्जीववौर्य नोल्लमति तदुल्लासे पुनः स एव निर्बाहको भवितुमर्हतीत्यतो विदुषा तत्रैव यत्नो विधेयः / तबलेनैव महापुरुषा अपहस्तयन्ति परौषहोपसर्गान् अवधीरयन्ति धनादिकं निर्दलयन्ति रागादिगणं उन्मलयन्ति कर्मजालं तरन्ति संसारसागरं तिष्ठन्ति मततानन्देऽनन्तकालं शिवधाम्नौति। किं च / मत्संपादितेन ज्ञानेन किं न जनितस्तवाज्ञानतमोविलयः किं वा दर्शनेन नापास्तो विपर्यासवेतालो येन मदचनेऽप्यविश्रब्धबुद्धिरिव विकल्प कुरुषे तस्माद्भद्र विमुच्येदं भववर्द्धनं धनादिकमङ्गोकुरु मम दययोपनौतमेतच्चारित्रं येन संपद्यते ते निःशेषक्लेशराशिविच्छेदः प्राप्नोषि च शाश्वतं स्थानमिति। ततो यथा महाप्रयत्नेनापि ब्रुवाणे तस्मिन् रसवतोपतावितरेणाभिहितं यदुत न मयेदं खभोजनं मोक्तव्यं यद्यत्र सत्येव दीयते ततो दीयतामात्मभोजनमिति / तथायमपि जीवः सद्धर्मगुरुभिरेवं भूयो भूयोऽभिधीयमानोऽपि गलिरिव बलौवर्दः पादप्रसारिकामवलम्ब्येत्थमाचचौत / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। भगवन्नाहं धनविषयादिकं कथञ्चन मोक् पारयामि यद्यत्र विद्यमानेऽपि भवति किञ्चिच्चारित्रं तन्मे दीयतामिति। ततो यथा विज्ञाय तस्य रोरस्याग्रहविशेषं स सूरिश्चिन्तयति स्म नास्येदानीमन्यः शिक्षणोपायोऽस्ति ततोऽस्मिन् सत्येव दीयतां पश्चाज्ञातमदीयानगुणः स्वयमेवैतत्कदन्नमेष विहास्यति। एवं च विचिन्त्य दापितं तत्तेन भुक्नमितरेण तदुपयोगेन शान्ता बुभुक्षा तनूभूता रोगाः प्रवर्द्धितमञ्जनसस्लिक्षजनितादधिकतरं सुखं जातो मनःप्रसादः प्रादुर्भुता तदायके तत्र पुरुषे भक्तिः अभिहितश्चासौ तेन यथा भवानेव मे नाथो येनाहं भाग्यविकलोऽप्येवमनुकम्पित इति / तथा धर्मगुरवोऽप्येवं बद्धवाग्रहत्वेनामुञ्चति धनविषयादिकमत्र जौवे परिकलयन्ति न शक्यते तावदयमिदानौं सर्वविरतिं ग्राहयितुं तदेवं स्थिते देशविरतिस्तावदस्मै दौयतां तत्पालनेनोपलब्धगुणविशेषः स्वयमेव सर्वसङ्गपरित्यागं करिष्यतीत्याकलय्य तथैव कुर्वन्ति तदनेनैतदुक्तं भवति। अयमत्र क्रमः प्ररूप्य प्रथमं प्रयत्नतः सर्वविरतिं ततः सर्वथा तत्करणपराङ्मुखमुपलभ्य जीवं देशविरतिः प्ररूपणीया देया वा प्रथमं पुनर्देशविरतिप्ररूपणे क्रियमाणे तस्यामेव प्रतिबन्ध विदध्यादयं जीवः माधोश्च सूत्मप्राणातिपातादावनुमतिः स्यादिति ततस्तस्या देशविरतेः पालनं परमानलेशभक्षणतुल्यं विज्ञेयं तदुपयोगेनैवास्य जीवस्य प्रशाम्यति मनाग विषयाकाङ्क्षालक्षणा बुभुक्षा तनूभवन्ति रागादयो भावरोगाः प्रवर्द्धते ज्ञानदर्शनसंपादितात् समर्गलतरं स्वाभाविकखास्यरूपं प्रशमसुखं संजायते For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / सद्भावनया मनःप्रसादः प्रादुर्भवति तद्दायकेषु गुरुषु परमोपकारिणो ममैत इति भावयतो भक्तिः अभिधत्ते च तानेष जौवस्तदानौम् / यदुत यूयमेव मे नाथा येरहमेवं दुर्दारुकल्पतया गाढमकर्मण्योऽपि स्वसामर्थन कर्मण्यतां प्राप्य गुणभाजनतां नौत इति / ततस्तदनन्तरं यथा तेन सूदेन तं वनौपकमुपवेश्य मधुरवचनस्तस्य मनःप्रल्हादयता वर्णिता महाराजगुणा दर्शितश्चात्मनोऽपि नत्यभावः ग्राहितः मोऽपि विशेषतस्तदनुचरत्वं समुत्पादितं तस्य महानृपतेरेव विशेषगुणेषु कुतूहलं कथितस्तत्परिज्ञानहेतुळधितनुभावः प्रकाशितं तस्यापि कारणं भेषजत्रयं ममादिष्टः प्रतिक्षणं तस्य परिभोगः दौपितं तत्परिभोगबलेन महानरेन्द्राराधनं प्रतिपादितं महानरेन्द्राराधकानां तत्ममानमेव महाराज्यमिति / सथा धर्मगुरवोऽपि ज्ञानदर्शनसंपन्न प्रतिपन्नदेशविरतिमप्येनं जीवमुपलभ्य विशिष्टतरस्थैर्यसम्पादनार्थं समस्तमेतदाचरन्त्येव / / तथाहि। ते तं प्रत्येवं ब्रूयुः यथा भट्र यदुक्तं भवता यदुत यूयमेव मे नाथा इति युक्तमेतद्भवादृशां किन्तु माधारणं नैवं वक्तव्यं यतो भवतोऽस्माकं च परमात्मा सर्वज्ञ एव भगवान् परमो नाथः स एव हि चराचरस्यास्य त्रिभुवनस्य पालकतया नाथो भवितुमर्हति विशेषतः पुनर्य तत्प्रणोतेऽत्र ज्ञानदर्शनचारित्रप्रधाने दर्शने वर्तन्ते जन्तवस्तेषाममौ नाथः / अस्यैव किङ्करभावं प्रतिपद्य महात्मानः केवलराज्यामादनेन भुवनमप्पात्मकिङ्करं कुर्वन्ति / ये पुनः पापिष्ठाः प्राणिनस्तेऽस्य भगवतो नामापि न जानते / भाविभद्रा एव सत्त्वाः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / 116 स्वकर्मविवरेणास्य दर्शनमासादयन्ति / यतश्च त्वमेतावतौं कोटिमध्यारूढोऽतस्त्वया प्रतिपन्न एव भावतो भगवान् / केवलं तारतम्यभेदेन मङ्ख्यातीतानि तस्य प्रतिपत्तिस्थानानि तेन विशेषप्रतिपत्तिनिमित्तमेषोऽस्माकं यत्नः यतः सामान्येन जानतेऽप्येनं भगवन्तं जन्तवः / सुगुरुसम्प्रदायमन्तेरण न विशेषतो जानते तदेवं ते गुरवस्तस्य जीवस्य पुरतो भगवद्गुणान् वर्णयन्ति तथात्मानमपि तत्किङ्करं दर्शयन्ति तं च जीवं विशेषतो भगवन्तं नाथतया ग्राहयन्ति भगवद्विशेषगुणेषु तस्य कौतुकमुत्पादयन्ति तज्ज्ञानोपायभूतं रागादिभवरोगतानवं कथयन्ति तस्यापि कारणं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपचयं दीपयन्ति तस्य च प्रतिक्षणमासेवनमुपदिशन्ति तदासेवनेन भगवदाराधनं निवेदयन्ति भगवदाराधनेन परमपदप्राप्तिं महाराज्यावाप्तिकल्पां प्रतिपादयन्ति / एवमपि कथयति हितकारिणि ग्टहौतगुणस्थिरताविधायिनि भगवति धर्मसूरौ यथाऽसौ वनौपकः सूपकारवचनमवगम्यात्मीयाकूतवशेनेत्यमभिहितवान् / यथा नाथाः किम्बद्धनोकेन न शक्नोम्यहं कथञ्चनेदं कदवं मोमिति / तथायमपि जीवश्चारित्रमोहनौयेन कर्मण विव्हली भूतबुद्धिरेवं चिन्तयत् / अये यदेवं महता प्रबन्धेन पुनः पुनरेतें भगवन्तो मम धर्मदेशनां कुर्वन्ति तन्नूनं मां धनविषयकलत्रादिकमेतदेते त्याजयन्ति न चाहं त्यक्तुं शक्नोमि तत्कथयाम्येषां सद्भावं येन निष्कारणं भूयो भूयो भगवन्तःस्खगलतालुशोषमेते विदधते ततस्तथैव स जीव: स्वाभिप्रायं गुरुभ्यः कथयेदिति / ततो यथा तेन रमवतोपतिना चिन्तितं न मयायं स्यभोजनत्यागं कारितः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। किन्तीदं भेषजत्रयमासेवस्खेत्युक्तस्तत्किमेवमेष भाषते / अये खाभिप्रायविडाम्बितोऽयं जानौते मदीयानत्याजननिमित्तमेतत् समस्तं वागाडम्बरमिति। ततो विहस्य तेनोक्तं भद्र निराकुलो भव नाधुना भवन्तं किञ्चित्त्याजयामि तवैव पथ्यमेतत्त्वजनमितिकृत्वा वयं ब्रूमो यदि पुनर्भवते रोचते ततोऽत्रार्थ अतः प्रभृति वृष्णौमाशिष्यामहे यत्युनरेतदनन्तरमेव तव पुरतोऽस्माभिर्महाराजगुणवर्णनादिकं विहितं कर्त्तव्यतया च तव किञ्चित्समादिष्टं तत्त्वया किं किञ्चिदवधारितं वा न वेति / तथा धर्मगुरवोऽपि सर्वमिदं चिन्तयन्ति वदन्ति च तच्च स्पष्टतरमिति स्ववुध्यैव योजनौयं ततो यथाऽसौ वनौपकोऽवादीत् यथा नाथ न मया किंञ्चिदत्र भवत्कथितमुपलक्षितं तथापि तावकैः कोमलालापैरुलमितो मनाग मनसि प्रमोदः निवेदितश्च तेन वनौपकेन नाधुना किञ्चित्त्याजयामौदं भवन्तं भोजनमिति सूदवचनश्रवणनष्टभयाकूतेन मता स्वचेतसो वैधुर्यकारणभूतस्तस्य सूदस्य समक्षमादितः प्रभृति समस्तोऽप्यात्मवृत्तान्तः अभिहितश्चासौ सूपकारो यदुतैवं स्थिते यन्मया विधेयं तदाज्ञापयन्तु नाथा येनाधुनावधारयामौति / तथात्रापि विदिततचित्ता यदा धर्मगुरवो वदन्ति / यदुत न वयं भवन्तमशक्नुवन्तं सर्वसङ्गत्यागं कारयामः केवलं यदिदं भवतः स्थिरीकरणार्थ मनेको भगवद्गणवर्णनादिकं वयं कुर्मः / यच्च सम्यग्दर्शनज्ञानादेशचारित्राणामङ्गोकतानामेव भवता मातत्यमनुपालनादिकमुपदिशामः। तदत्र भवान् किञ्चिदवधारयति वा न वेति। तदा वदत्येवं जौवो भगवन्नाहं सम्यक्किञ्चिदवधारयामि / तथापि यौमाकोण For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। 121 पेशलवचनैर्मो दितचित्तो यदा यदा कथयन्ति भगवन्तस्तदा तदा शून्यहृदयोऽपि विस्फारितेक्षण: किल बध्यमान वेत्याकर्णयस्तिष्ठामि कुतः पुनर्मादृशां विशिष्टतत्त्वाभिनिवेशो यतोऽहं महतापि प्रयत्नेन तत्त्वमार्ग व्याचक्षाणेषु भगवत्म सुप्त व मत्त वोन्मत्त दुव मन्मूर्छनज व शोकापन्न व मूर्छित व सर्वथा शून्यहृदयो न किञ्चिलक्षयामि यच्च मे चेतसो वैसंस्थल्यकारणं तदाकर्णयन्तु भगवन्तः / ततः मंजातपश्चात्तापोऽयं जीवो गुरुसमदं गईते खदुश्चरितानि जुगुप्मते स्वदुष्टभाषितानि प्रकटयति पूर्वकालभाविनः ममस्तानपि कुविकन्यान् निवेदयत्यादितः प्रभृति निःशेषमात्मवृत्तान्तमिति। वदति च जानाम्यहं भगवन्तो मम हितकरणालालमाः मन्ती बहुमो निन्दन्ति विषयादिकं वर्णयन्ति मङ्गत्यागं प्रशंसन्ति तत्रस्थानां प्रशामसुखातिरेकं श्लाघन्ते तत्कार्यभूतं परमपदं तथापि कर्मपरतन्त्रतयाहं भवितबहुमाहिषदधिवृन्ताकसंघात व निद्रां पीतामन्तपूततीव्रविष व विव्हलतां धनविषयादिष्वनादिभवाभ्यामवशेन भवन्तौं मूछों न कथञ्चिन्निवारयितुं पारयामि। तया च विहलीभूतचेतमो मे भगवतां सम्बन्धिनौ धर्मदेशना महानिट्रावष्टब्धहृदयस्येव पुरुषस्य प्रतिबोधकनरोच्चारितां शब्दपरंपरां समाकर्णयतोऽपि गाढसुद्धेगकारिणीव प्रतिभासते / अथ च / तस्या माधुर्यं गाम्भीर्यमुदारतां परिणामसुन्दरतां च पर्यालोचयतः पुनरन्तरान्तरा चित्तालादोऽपि संपद्यते। एतदपि पूर्वोक्तं यद् भगवद्भिरभ्यधायि यदुत नाशक्नुवन्तं भवन्तं वयं मङ्गत्यागं कारयाम इति / ततो मया नष्टभयवैधुर्येण भगवतां पुरतः कथयितुं 16 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 121 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / शकितमितरथा यदा यदा भगवन्तो देशनायां प्रवर्त्तन्ते स्म तदा तदा मम चेतषि विकल्पः प्रादुरभूत् / श्रये स्वयं निस्पृहास्तावदेते केवलं मां धनविषयादिकं त्याजयन्ति न चाहं हातुं शक्नोमि नदेष व्यर्थकः प्रयासोऽमौषामित्येवं चिन्तयन्नपि भयातिरेकान खाकूतमपि प्रकटथितं पारितवानिति / तदेवं स्थिते यन्मया विधेयमेवंविधशक्किना तत्र भगवन्तः प्रमाणमिति। ततो यथासौ पौरोगवस्तस्मै वनौपकाय पुनः प्रपञ्चतो निवेद्य प्राचीनमशेषमर्थं ततः खकौयभेषजत्रयस्य योग्यायोग्यविभागं पूर्व महानरेन्द्रसंप्रदायितमाचचचे। तं चोवाच यथा भद्र साध्यस्वमतो महायनमन्तरेण न रोगोपनमस्ते दृश्यते तस्मादचैव राजमन्दिरे प्रयतो भूत्वा ध्यायननवरतमेनं समस्तगदोद्दसनवमवीर्यातिशयं महाराजेन्द्रं भेषजत्रयोपभोगं चाहर्निशं कुर्वाणस्तिष्ठ / इयं च तद्दया तव परिचारिका ततः प्रतिपत्रं समस्तं तेन स्थितः कियन्तमपि कालं विधायैकदेशे तद्भिताभाजनमनारतं तदेव पालयनिति तदिदम योजनीयम् / यदायं जीव: प्रागुतन्यायेन निवेद्य स्वाभिप्रायं गुरुभ्यः पुनरूपदेशे याचते तदा ते तदनुकम्पया पूर्वाकिं पुनरपि समस्तं प्रतिपाद्य पश्चात्तस्य व्युत्पादनार्थं येनायं कालान्तरेणापि न व्यभिचरतौति धर्मसामय्याः सुदुर्लभतां दर्शयन्तो रागादौनां च भावरोगाणामतिप्रबलतां ख्यापयन्तः स्वातन्त्रापरिजिहौर्षया चात्मनः सांजसमित्यमाचक्षते यथा भद्र यादृशी मामयो भवतः संपन्ना नाधन्यानामौदृशौ कथञ्चन संपद्यते न हि वयमपात्रे प्रयास कुर्मी यतो भागवतीयमाज्ञा योग्येभ्य एव For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावा। प्रथमः प्रस्तावः। 123 जौवेभ्यो ज्ञानदर्शनचारिचाणि देयानि नायोग्येभ्यः अयोग्यदत्तानि हितानि न स्वार्थमंसाधकानि संजायन्ते प्रत्युत वैपरौत्यापत्त्यानर्थसन्ततिं वर्द्धयन्ति। तथा चोकम् / धर्मानुष्ठानवैतथ्यात्प्रत्यपायो महान् भवेत् / रौ दुःखौघजनको दुःप्रयुकादिवौषधात् // 1 // जातं चास्माभिर्भगवदादिष्टं मुगुरुपारम्पर्यात् जातं भगवत्प्रसादादेव तदुचितानुचितानां जीवानां लक्षणं एतान्येव हि ज्ञानदर्शनपारिचाणि भगवता तेषां जीवानां सङ्ग्रहपरिच्छेदकारकाणि प्रतिपादितानि तत्र येषामाद्यावस्थायामपि कथ्यमानानि तानि प्रौति जनयन्ति तत्सेविनश्चान्ये प्रतिभासन्ते ये च सुखेनैव तानि प्रतिपद्यन्ने येषां मेव्यमानानि च द्रागेव विशेषं दर्शयन्ति ते लघुकर्माण: प्रत्यामन्त्रमोक्षाः सुदारुवद्रूपनिर्माणस्थ तेषां योग्यास्तथा भावरोगोच्छेदं प्रति सुसाध्यास्ते विज्ञेयाः। येषां पुनराधावसरे प्रतिपद्यमानानि तानि न प्रतिभान्ति तदनुष्ठानपरायणांश्चान्यान् चेऽवधीरयन्ति महुरुविहितमहाप्रयत्नेन च ये प्रतिबुध्यन्ते / तथा मेव्यमानानि तानि येषां कालक्षेपेण विशेषं दर्शयन्ति पुनः पुनरतिचारकानिश्चयेन ते गुरुकर्माणो यवहितमोक्षा मध्यमदारुवद्र्पनिर्माणस्य सद्गुरुपरिगौलनया ते योग्यतां प्रतिपद्यन्ते / तथा भावरोगोपशम प्रति ते कच्छ्रमाथा मन्तव्याः / येभ्यः पुनरेतानि निवेद्यमानानि न कथञ्चन रोचन्ते प्रयत्नशतैरपि संपाचमानानि येषु न क्रमन्ते तदुपदेष्टारमपि प्रत्युत ये दिषन्ति ते For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 124 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। महापापा अभव्या श्रत एवैकान्तेन तेषामयोग्याः / तथा भाव व्याधिनिबर्हणं प्रत्यसाध्यास्तेऽवगन्तव्या इति / तदिदं सौम्य यद् भगवत्पादप्रसादेनास्माभिलक्षणमवधारितमनेन लक्षणेन यथा त्वमात्मखरूपं कथयसि यथा च वयं भवत्वरूपं लक्षयामः तथा त्वं परिशीलनागम्यः कृच्छ्रसाध्ये वर्त्तसे एवं च स्थिते न भवतो महाप्रयत्नव्यतिरेकेण रागादिरोगोपशममुपलभामहे तस्मादत्म यद्यद्यापि न भवतः सर्वमङ्गत्यागशक्तिर्विद्यते ततोऽत्र वितते भागवते प्रवचने कृत्वा भावतोऽविचलमवस्थानं विहायाशेषकाङ्क्षाविशेषान् भगवन्तमेवाचिन्यवीर्यातिशयपरिपूर्णतया निःशेषदोषशोषणमहिष्णुमनवरतं चेतसि गाढभक्त्या व्यवस्थापयन् देशविरत एवावतिष्ठख केवलमनवरतमेतदेव ज्ञानदर्शनचारित्ररूपचयमुत्तरोत्तरक्रमेण विशिष्टं विशिष्टतरं विशिष्टतमं भवता यत्नेनासेवनीयमेवमाचरतस्तेन भविष्यति रागादिरोगोपशमो नान्यथेति / या यमौदृशौ मदुपदेशदाने प्रवर्त्तमानानां भगवतां सद्धर्मगुरूणामस्य जौवस्थोपरि दया सेवाअस्य परमार्थतः परिपालनक्षमा परिचारिका विज्ञेया। ततोऽयं जौवः प्रतिपद्यते तदानौं तहुरुवचनं करोति यावन्नौवं मयैतदेवं कर्त्तव्यमिति निश्चयं तिष्ठति देशविरतः कियन्तमपि कालमत्र भगवन्मतमन्दिरे पालयति धनविषयकुटुम्बाद्याधारभूतं भिक्षापात्रकल्पं जीवितव्यं तस्मिन्नवसरे। एवं च तिष्ठतस्तस्य यो वृत्तान्तः मोऽधुना प्रतिपाद्यते। तत्र यदुक्रम् / यदुत मा तद्दया ददाति तस्मै तत्रितयमहर्निशं केवलं तत्र कदन्ने मूर्छितस्य वनौपकस्य म तस्मिन्बादर इति। तदिहापि तुल्यमेवा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। 125 वमेयम् / तथा हि। गुरोः सम्बन्धिनौ दया सम्पादयत्येवास्य जीवस्यानारतं विशेषतो ज्ञानादौनि। तथापि कर्मपरतन्त्रतया धनादिषु मूर्छितचित्तोऽयं न तानि सम्यग् बहु मन्यते / अन्यच्च / यथासौ कथानकोको मोहवशेन तत् कुभोजनं भूरि भुते तद्दयादत्तं पुनः परमानमुपदंशकल्यं कल्पयति। तथायमपि जीवो महामोहाभातमानमो धनोपार्जनविषयोपभोगादिषु गाढमाद्रीयते गुरुदययोपनौतं तु ब्रतनियमादिकमनादरेणान्तरान्तरा सेवते वा न वा। यथासौ तद्दयोपरोधेन तदञ्जनं क्वचिदेव नेत्रयोर्निधत्ते तथायमपि जीवः सद्गुरुभिरनुकम्पया प्रेर्यमाणोऽपि यदि परं तदनुरोधेनैव प्रवर्त्तते तथा ज्ञानमभ्यस्थति तदपि क्वचिदेव न सर्वदा यथा चासौ तत्तौAदकं पातुं तवचनेनैव प्रवर्त्तते तथायमपि जौवः प्रमादपरायत्ततयानुकम्पापरगुरुचोदनयैव सम्यग्दर्शनमुत्तरोत्तरविशेषैरुद्दीपयति न खोत्साहेनेति। यत्तु विशेषेण पुनरभिहितं यथा म वनौपकः संभ्रमेण तद्दयया भूरि वितीर्णं तत्परमानं स्तोकं भुक्ता शेषमनादरेण स्वभाजने विधत्ते तत्सानिध्येन तत्कदनमभिवर्द्धते ततस्तभक्षयतोऽपि दिवानिशं न निष्ठां याति ततोऽसौ तस्यति न च जानौते कस्येदं माहात्म्यं केवलं तच ग्टद्धात्मा भेषजत्रयस्य परिभोगं शिथिलयन् कालं नयति। तथा चापथ्यभोजिनस्तस्य ते रोगा नोच्छिद्यन्ते केवलं यदन्तरान्तरा तद्दयोपरोधेन तत्परमानादिकमसौ मनाग प्राशयति तावन्मात्रेण ते रोगा याप्यावस्थां गतास्तिष्ठन्ति यदा पुनरनात्मजतया भृशतर For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 126 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। मपथ्यं सेवते तदा ते रोगाः क्वचिदात्मीयं विकारं दर्शयन्तः शूलदाहमूर्छारोचकादौनि जनयन्ति ततस्तैरमौ बाध्यत इति / तदत्रापि जौवे समानमवबोद्धव्यम् / __ तथा हि। यथा कचिदवसरे चातुर्मासकादौ दयापरौतचित्ता गुरवोऽस्य जीवस्य पुरतो विशिष्टतरविरतियाहणार्थमणवतविधि विस्फारयन्ति तदाप्ययं जीवः प्रबलचारित्रावरणतया मन्दवौ-- लामस्तोत्रसंवेगेन कानिचिदेव व्रतानि ग्टलाति तदिदं बहोर्दत्तस्य स्तोकभक्षणमभिधीयते। कानिचित्पुनव्रतानि दयापरौतगुरूपरोधेन मनसोऽनभिप्रेतान्यव्यङ्गीकरोति मोऽयं शेषस्य भोजने निक्षेपो द्रष्टव्यः / तच बताङ्गीकरणं मन्दसंवेगेनापि क्रियमाणमनुषङ्गत एव विषयधनादौन्यत्र भवे भवान्तरे वाभिवर्द्धयति तदिदं परमानमन्निधानेनेतरस्थाभिवर्द्धनमभिहितम् / ते च तत्प्रभावसंपन्ना विषयादयो दृढकारणतयानवरतं भुनानस्थाप्यस्य जीवस्य न निष्ठां प्रतिपद्यन्ते। ततोऽयं जौवः सुरनरभवेषु वर्तमानस्तां तथाभूतामात्मविभूतिमुपलभ्य हर्षमुबहति। न चायं वराको लक्ष्यति यथैते धनविषयादयो धर्ममाहात्म्येन ममोपनमन्ते तत्किमत्र हर्षण स एव भगवान् धर्मः कत्तुं युक्त इति ततोऽयमलक्षितमभावस्तेषु विषयादिषु प्रतिबद्धचित्तो ज्ञानदर्शनदेशचारिचाणि शिथिलयति। केवलं जाननप्यजानान व मोहदोषेण निरर्थकं कालमतिवाहयति / एवं चास्य वर्तमानस्य द्रविणदिषु प्रतिबद्धमानमस्य धर्मानुष्ठाने मन्दादरस्य भूयसापि कालेन रागादयो भावरोगा नैव संविद्यन्ते किं तु तावतापि सदनुष्ठानेन गुरूपरोधतो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। 127 मन्दमवेगतयापि विधीयमानेनैतावान् गुण: संपद्यते / यदुत ते भावरोगा याप्यतां नौयन्त इति / य - - - रयं बीवोऽनात्मज्ञतया गाढतरं विषयधनादिषु ग्रद्धिं विधत्ते ततश्चादने भूरिपरिग्रहं समारभते महाजालकल्प वाणिज्यं समाचरति कृष्यादिकं विधापयति तथाविधानन्यांश्च मदारंभान् तदा ते रागादयो भावरोगाः प्रबलमहकारिकारणकलापमासाद्य नानाकारान् विकारान् दर्शयन्येव नानादरविहितमनुष्ठानमात्र तत्र चाणम् / ततथायं जीवः क्वचित्यौडयते काण्डशूलकल्पया धनव्ययचिन्तया क्वचिद्दन्दह्यते परेझंदाईन क्वचिन्मुमूर्षुरिव मूमिनुभवति सर्वखहरणेन कचिदाध्यते कामज्वरसन्तापेन कचिच्छादिमिव कार्यते बलादुत्तमर्पोर्टहीतधननिर्यातनां क्वचिज्जाद्यमिव संपद्यते जानतोऽप्यस्यैवंविधा प्रवृत्तिरिति प्रवादेन चोकमध्ये मूर्खत्वं कचित्ताम्यति हत्पार्श्ववेदनातुल्यया इष्टवियोगानिष्टसम्प्रयोगादिपौडया कचित्प्रभवति प्रमत्तस्य पुनरपि मिथ्यात्वोन्मादमन्तापः क्वचिद्भवति मदनुष्ठानलक्षणे पथ्ये भृशतरमरोचकः तदेवमेवंविधैर्विकारस्तावतों कोटिमध्यारूढोऽपि खल्वेष जीवोऽपथ्यसेवनासको बाध्यत इति / ततस्तदनन्तरं यदवाचि यदुत स वनोपकस्तथा विकारैरुपहतो दृष्टस्तद्दयया ततोऽपथ्यभोजितामधिकृत्योपलब्धस्तया तेनोनं नाहमभिलाषातिरेकेण खयमेतत्परिहर्तुमुत्महे ततोऽमुतोऽपथ्यसेवनाद्वारणयोऽहं भवत्या प्रतिपन्न तथा ततस्तद्वचनकरणेन जातस्तस्य मनाग विशेषः केवलं मा यदाऽभ्यर्ण तदैवामौ तदपथ्यं परिहरति नान्यदा सा चानेकसत्त्वप्रतिजागरणाकुलेति न सर्वदा तत्मन्निधौ For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 128 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / भवति / ततोऽसौ मुत्कलोऽपथ्यमासेवमानः पुनरपि विकारैः पौद्यत एव / तदेतदप्यत्र जीवव्यतिकरे मदृशं वर्त्तते केवलं गुरोर्या जौवस्योपरि दया मैव प्राधान्यात्पार्थक्येन कौं विवक्षिता / ततश्चायं परमार्थस्ते गुरवो दयापरौतचित्ताः प्रमादिनमेनं जौवमुपलभ्यानेकपौडापर्याकुलतया क्रन्दन्तमेवमुपालभन्ते यथा भोः कथितमेवेदं प्रागेव भवतो न दुर्लभाः खलु विषयासक्नचित्तैर्मनः सन्तापाः। न दूरवर्त्तिन्यो धनार्जनरक्षणप्रवणानां नाना व्यापदः / तथापि भवतस्तत्रैव गाढतरं प्रतिबन्धः। यत्पुनरेतदशेषक्लेशराशिमहाऽजीर्णविरेककारितया परमस्वास्थकारणं ज्ञानदर्शनचारिचत्रयं तदनादरेणावलोकयसि त्वं तदत्र किं कुर्मी वयं यदि किञ्चिद् बमस्ततो भवानाकुलौभवति ततो दृष्टवृत्तान्ता वयं भवन्तमनेकोपट्रवैरुपद्र्यमानं पश्यन्तोऽपि हृष्णौमाम्मेह न पुनराकुलताभयाभवन्तममार्ग प्रस्थितमपि वारयामः / श्रादरवतामेव पुंसां विरुद्धकर्माणि परिहरतां ज्ञानदर्शनदेशचारित्राण्यनुतिष्ठतां तानि विकारनिवारणयालं नानादरवताम् / यदा चास्माकं पश्यतामपि वं रागादिरोगैरभिभूयसे तदा भवद्गुरव इति कृत्वा वयमप्युपालंभभाजनं लोके भविष्याम इति / मोऽयं तद्दयाविहितस्तदुपालंभ इत्युच्यते। ततोऽयं जौवो गुरूनभिदधीत भगवन्ननादिभवाभ्यस्ततया मां मोहयन्ति मे हृष्णालौल्यादयो भावाः ततस्तदशगोऽहं न सदारंभपरिग्रहं जाननपि तद्दोषविपाकं मोक्नु शक्नोमि। ततो भगवद्भिर्नाहमुपेक्षणीयो निवारणीयो यत्नतोऽसत्प्रवृत्तिं कुर्वाण: कदाचिद्भवन्माहात्म्येनैव मे स्तोकस्तोकां For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। दोषविरतिं कुर्वतः परिणतिविशेषेण सर्वदोषत्यागेऽपि सक्रिः संपत्स्यत इति / ततः प्रतिपद्यन्ते तद्वचनं गुरवः / चोदयन्ति प्रमाद्यन्तं क्वचिदवसरे संपद्यते प्राक् प्रवृत्तिपौडोपशमः तद्वचनकरणेन प्रवर्द्धन्ते ज्ञानादयो गुणास्तत्प्रसादेन मोऽयं तद्दयावचनकरणेन मनागारोग्यलक्षण: संजातो विशेष इत्युच्यते / केवलमयं जीवो विशिष्टपरिज्ञानविकलतया यदैव ते चोदयन्ति तदैव स्वहितमनुचेष्टते तचोदनाभावे पुनः शिथिलयति सत्कर्तव्यं प्रवर्तते निर्भर भूयो सदारंभपरिग्रहकरणे। ततश्चोलपन्ति रागादयो जनयन्ति मनःशरीरविविधबाधाः। ततस्तदवस्यैव विहलतेति तेषां तु भगवतां गुरूणाम् / यथायं प्रस्तुतजीवः मच्चोदनादानदारेण परिपाल्यस्तथा बहवोऽन्येऽपि तथाविधा विद्यन्ते। मतच समस्तानुग्रहप्रवणास्ते कदाचिदेव विवचितजीवचोदनामाचरन्ति शेषकालं तु मुकलतया वाहितमनुतिष्ठन्तमेतं न कश्चिद्वारयति। ततशायमनन्तरोनोऽनर्थः संपद्यत इति। मोऽयं तद्दयामबिधानविरक्षादपथ्यसेवनेन पुना रोगविकाराविर्भाव इत्यभिधीयते। ततो यथा पुनस्तेन द्रमकेण तस्मै सूदाय स्ववृसान्तं निवेद्येदमभिहितं यदुत नाथास्तथा यतध्वं यथा न मे स्वप्नान्तेऽपि पौडा जायते ततस्तेनोकम् / इयं तद्दया व्यग्रतया न सम्यक् तवापथ्यनिवारणं विधत्ते ततः करोम्यनां निळयां तव परिचारिकां केवलं तद्वचनकारिणा भवता भाव्यं ततः प्रतिपन्नं तत्तेन दत्ता तस्मै निःसाधारणा मबुद्धिर्नामपरिचारिका सूदेन / ततस्तगुणेन निवृत्तं तस्यापथ्यलाम्पयं ततस्तनूभूता रोगा निवृत्तप्रायास्तधिकाराः संपन्ना मनाम् शरीरे 17 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / सुखामिका वर्द्धितश्चानन्द इति तथैष व्यतिकरो जोवेऽपि समानो वर्त्तते / तथा हि। यथा धावन्नन्धो भित्तिस्तम्भादौ लब्धास्कोटो वेदनाविहलस्तामास्कोटवेदनां परस्मै कथयति। तथायमपि जौवो यदा गुरुनिवारिताचरणेन दृष्टापायत्वात् संजातप्रत्ययो भवति तदा तानेकप्रकारानपायान् गुरुभ्यो निवेदयति। यदुत भगवनहं यदा युभनिवारणया न ग्रामि स्तेनाहृतं न करोमि विरुद्धराजातिक्रम नाचरामि वेश्यादिगमनं नानुतिष्ठामि तथाविधमन्यदपि धर्मलोकविरुद्धं न रज्यामि महारंभपरिग्रहयोः तदा मां लोकः माधुतया रक्षाति मयि विश्रंभं विधत्ते लाघां चाचरति तथा न जानामि शरीरायामजनितं दुःख संपद्यते हृदयस्वास्थ्यं धर्मश्चैवं तिष्ठतां सुगतिप्रापको भवतीति भावनया भवति चित्तानन्द इति। यदा तु युभन्निवारणा न भवति भवन्तौ वा तामनपेक्ष्य निबन्धतया न जानन्ति मां गुरव इत्यभिप्रायेण धनमूर्छनया ग्टहामि स्तेनाहतादिकं विषयलौल्येन गच्छामि वेश्यादिकं समाचरामि तादृशमन्यदपि भगवनिवारितं तदा लोकादश्लाघां राजकुलात्सर्वस्वहरणं शरीरखेदं मनस्तापभपरांश समस्ताननानिह लोक एव प्राप्नोमि। पापंच दुर्गतिगर्त्तपातहेतुरेवं वर्तमानानां भवतीति चिन्तया दन्दह्यमानहृदयः क्षणमपि सुखं न लभेऽहमिति / तस्मानाथास्तथा कुरुध्वं यूयं यथाहमनवरतं युग्मदचनाचरणमन्नाहेन सततमेतस्मादनर्थशरजानाद्रक्षितो भवामीति। ततस्तदाकर्ण्य गुरवो ब्रूयुः भद्र For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। 131 यदेतत्परप्रत्ययेनाकार्यवर्जनं कादाचित्कनेतत् केवलं तथापि क्रियमाणस्य तस्येतरस्य च दृष्ट एव भवता विशेषः / वयं चानेकसत्वोपकारकरणव्यग्रा न मदा मनिहिता भवन्तं वारयितुं पारयामः / एवं च स्थिते न यावद्भवतः स्वकीया सद्धिः मंपना तावदेषास्मन्निवारिताचरणनिबन्धनानर्थपरम्परा भवन्तौ न विनिवर्तते मझुद्धिरेव हि परप्रत्ययमनपेक्ष्य स्वप्रत्ययेनैव जौवमकार्यान्निवारयति। ततो मुच्यते ऽनर्थेभ्य इति / ततोऽयं जौवो ब्रूयात् / नाथाः मापि भवत्प्रसादादेव यदि परं मम संपत्स्यते नान्यथा। ततो गुरवोऽभिदध्यः भद्र दीयते मधुद्धिः वचनाथत्ता हि मा मादृशां वर्त्तते केवलं दौयमानापि मा पुण्यभाजामेव जन्तूनां सम्यक् परिणमति नेतरेषां यतः पुण्यभाज एव तस्थामादरवन्तो जायन्ते नापरे तदभावभाविनो हि देहिनां मर्वनाः तदायत्तान्येव सकलकल्याणानि तस्यामेव च ये महात्मानो यतन्ते / त एव भगवन्तं सर्वज्ञमाराधयन्ति नेतरे तत्संपादनार्थ: कल्वेष मादृशां वचनप्रपञ्चः / सद्बुद्धिविकलानां हि पुरुषाणां व्यवहारतः संजातान्यपि ज्ञानादौनि नासंजातेभ्यो विशिष्यन्ते खकार्याकरणात् / किंबहुनोक्रेन मडुद्धिविकल: पुरुषो न पशूनतिशेते तस्माद्यदि तेऽस्ति सुखाकाङ्क्षा दुःखेभ्यो वा यदि विभेषि ततोऽस्यामस्माभिदौयमानायां सद्दद्धौ यत्नो विधेयः / तस्यां हि यत्नवता समाराधितं वचनं बहुमतो भुवनभर्ता परितोषिता वयमङ्गोकृतं लोकोत्तरयानं परित्यक्ता लोकसंज्ञा समासेविता धर्मचारिता समुत्तारितो भवोदधिरात्मा भवतेति / ततो भगवतां सद्धर्मगुरूणामेवंविधवचोऽमृत For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। प्रवाहप्रवादितादयोऽयं जीवस्तद्वचनं तथेति प्रतिपद्यते। ततस्ते तस्मै दधुरुपदेशं यदुत मौम्येदमेवात्र परमगुह्यं सम्यगवधारणौयं भवता यदुत यावदेष जौवो विपर्यासवशेन दुःखात्मकेषु धनविषयादिषु सुखाध्यारोपं विधत्ते सुखात्मकेषु वैराग्यतपःसंयमादिषु दुःखाध्यारोपं कुरुते तावदेवास्य दुखसम्बन्धः / यदा पुनरनेन विदितं भवति विषयेषु प्रवृत्तिर्दुःखं धनाद्याकाहानिवृत्तिः सुखं तदायमशेषेच्छाविच्छेदेन निराकुस्ततया स्वाभाविकमुखाविर्भावात् सततानन्दो भवति / अन्यच्च / भवतोऽयं परमार्थः कथ्यते यथा यथायं पुरुषो निःस्पृही भवति तथा तथास्य पाचतया सकलाः संपदः संपद्यन्ते। यथा यथा संपदभिलाषौ भवति तथा तथा तदयोग्यतामिव निश्चित्य तास्ततो गाढतरं दूरीभवन्ति / तदिदं निचित्य भवता मर्वत्र सांसारिकपदार्थसाथै नास्था विधेया। ततस्ते स्वप्नदशाथामपि पौडागन्धोऽपि मनःशरीरयो व संपत्स्यत इति / ततोऽयं जौवस्तमुपदेशममृतमिव ग्टौयात् / ततस्ते धर्मगुरवः संपना मढद्धिरस्येति कृत्वा नेदानीमेषोऽन्यथा भविष्यतीति तं प्रति निश्चिन्ता भवेयुरिति / नतः प्रादुर्भुतमइद्धिरयं जीवो यद्यपि श्रावकावस्थायां वर्तमानः कुरुते विषयोपभोगमादत्ते धनादिकं तथापि यस्तत्राभिव्वङ्गोऽटप्तिकारणभूतः स न भवति ततो ज्ञानदर्शनदेशचारित्रेषु प्रतिबद्धवान्तःकरणस्य तस्य ते द्रविणभोगादयो यावन्त एव संपद्यन्ते तावन्त एव मन्तोषमुत्पादयन्ति / ततोऽयं मधुद्धिप्रभावादेव नदानौं यथा ज्ञानादिषु यतते न तथा धनादिषु ततोऽपूर्वा न वर्द्धन्ने रागादयः तनूप्रभवन्ति प्राचौनाः / तथा पूर्वोपचितकर्मपरिणतिवशेन For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / 133 यद्यपि क्वचिदवमरे काचिच्छरौरमनमोर्बाधा संपद्यते तथापि मा निरनुबन्धतया न चिरमवतिष्ठते ततो जानौते तदायं जौवामन्तोषामन्तोषयोर्गुणदोषविशेषं संजायते चोत्तरगुणस्कन्दनेन चित्तप्रमोद इति / ततो यथा तेन वनोपकेन तया महुध्या परिचारिकया मह पसंशोचितं भने किनिमित्तः खल्वेष मम देहचेतमोः प्रमोदः / तथा च कदवलौल्यवर्जनं भेषजयासेवनं च तस्य कारणमाख्यातं नत्र युनिश्चोपन्यस्ता तदिहापि समाममेव / तथा हि। मद्यध्यैव सह पालोचयनेष जीवो लक्षयति / यदुत यदेतत्वाभाविकं देहमनोनिवृत्तिरूपं सुखमाविर्भूतं ममास्य निबन्धनं विषयादिवभिष्वङ्गत्यागो ज्ञानाद्याचरणं च / तथा हि। प्रागभ्यामवशेन विषयादिषु प्रवर्त्तमानोऽप्येष जौवः सदुद्धिकलितः सन्नेवं भावयति न युक्रमौदृशं विधातुं मादृशां ततो द्धिविकलतया निवर्त्तते चेतमोऽनुबन्धः ततः संपद्यते प्रशमसुखामिकेत्ययमच युक्तरूपन्यासो विज्ञेय इति / ततो यदुपलब्धखरसेन तेन रोरेण तस्याः परिचारिकायाः पुरतोऽभिहितं यदुत भद्रे सर्वथाधुना मुचामौदं कदनं येनात्यन्तिकमेतत्सुखं मे संपद्यत इति / तयोर्क चार्विदं केवलं सम्यगालोच्य मुच्यतां भवता यतस्तेऽत्यन्तवल्लभमेतद् ततो यदि मुक्रेऽपि तवात्र स्नेहबन्धोऽनुवर्त्तते तदरतरमस्या त्यांग एव यतस्तोवलौल्यविकलतया भुञानस्थापौदं भेषजत्रयासेवनगुणेनाधना याप्यता ते विद्यते मापि चात्यन्तदुर्लभा यदि पुनरस्य सर्वत्यागं विधाय त्वमेतहोचरं स्मरणमपि करिष्यसि ततो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 134 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / रोगा भूयोऽपि कोपं यास्यन्ति तद्वचनमाकर्ण्य तस्य दोलायिता बुद्धिः किं करवाणौति न संजातो मनमि निश्चय इति तदिदमत्रापि जौवे तुल्यं वर्त्तते। ____यथा हि। यदायं सांसारिकार्थेषु चित्तानुबन्धबोटनेन जानाद्याचरणे दृढमनुशकतया ग्टहस्थावस्थायामपि वर्त्तमानो विज्ञातसंतोषसुखस्वरूपो भवति तदास्याविच्छिन्नप्रशमसुखवाञ्छया प्रादुर्भवत्येव सर्वमङ्गत्यागबुद्धिः पालोचयति चात्मोयमबुध्या मार्दू यदुत किमहमस्य विधाने ममार्थो न वेति / तत: सहद्धिप्रसादादेवेदमेष लक्षयत्येव यथानादिभवाभ्यासवशेन स्वरसप्रवृत्तिरेष जीवो विषयादिषु ततो यदि निःशेषदोषनित्तिलक्षणां भागवतोमपि दौचामुररीकृत्य पुनरयं तामनादिरूढकर्मजनितां प्रकृतिमनुवर्तमानो विषयादिस्एहयाप्यात्मानं विडम्बयिष्यति / ततोऽस्यादित एव तदनङ्गीकरणं श्रेयस्करं यतस्तोत्राभिष्वङ्गरहितो विषयादिषु वर्त्तमानो ग्रहस्थोऽपि द्रव्यस्तवं ज्ञानाद्याचरणप्रधानं कुर्वाण: कर्माजीर्णजरणेन रागादिभावरोगतनुतानधिकृत्य याप्यतां लभते न चेयमप्यनादौ भवभ्रमणे क्वचिदवाप्नपूर्वानेन जोवेनातोऽत्यन्तदुर्लभेयं यदि तु प्रव्रज्यां प्रतिपद्य पुनर्विषयाद्यभिलाषं विधत्ते ततः प्रतिज्ञाताकरणेन वृहत्तरचित्तमंनोगप्राप्तेगुरुतररागाधुटेकेण तामपि थाप्यतां न लभते ततो यावदेवं निरूपयत्ययं जीवः तावदस्य चारित्रमोहनीयकमांशेरनुवर्त्तमानैर्विधरिता सती पूर्व प्रवृत्तापि सर्वसङ्गत्यागबुद्धिः पुनःलायते ततः संपद्यते वौर्यहानिः ततोऽवलम्बने खल्वयमेवंविधानि कदालम्बनानि / यदुत सौदति For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / 135 तावदधुना ममेदं कुटुम्बकं मन्मुखनिरीक्षकं चेदं न वर्त्तते मदिरहे। अतः कथमकाण्ड एव मुञ्चामि यदि वाद्यष्यसंजातबलोऽयं तनयः अपरिणितेयं दुहिता प्रोषितभर्तकेयं भगिनी मृतपतिका वा अतः पालनोया ममेयं तथा नाद्यापि ग्टहधुर्धरणक्षमोऽयं भ्राता जराजर्जरितारौराविमौ मातापितरौ खेहकातरौ च गर्भवतीयं भार्या दृढ़मनुरक्तहृदया च न जीवति मदिरहिता। अतः कथमेवं विसंस्थलं परित्यजामि यदि वा विद्यते मे भूरिधननिचयः मन्ति बहवोऽधमाः। अस्ति च सुपरीक्षितभनि यान् परिकरो बन्धवर्गश्च तदयं पोथ्यो मे वर्तते तस्मादुबाह्यद्रविणं लोकेभ्यः कृत्वा बन्धुपरिकराधीनं विधाय धर्मद्वारेण धनविनियोगमनुज्ञातः खरभसेन मर्वैर्मातापित्रादिभिर्विहिताशेषग्टहस्थकृत्य एव दीक्षामगीकरिये किमनेनाकाण्डविड्वरेणेति / अन्यच्च / यदिदं प्रव्रजनं नाम साक्षादाहुभ्यां तरणमेतत् वयंभूरमपास्य वर्त्तते प्रतिस्रोतोगमनमेतगङ्गायाः चर्वणमेतदयोयवानां भक्षणमेतदयोगोलकानां भरणमेतत्सूक्ष्मपवनेन कम्बलमुत्कोल्याः भेदनमेतत् शिरमा सुरगिरेः मानग्रहणमेतत्कुशाग्रेण नौरनिधेः नयनमेतदबिन्दुपातं धावता योजनशतं तैलापूर्णपाया ताउनमेतत् सव्यापसव्यभ्रमणशीलाष्ट चक्रविवरगामिना शिलीमुखेन वामलोचने पुचिकायाः भ्रमणमेतदनपेक्षितपादपातं निशातकरवालधारायामिति यतोऽत्र परिमोढव्याः परिषहाः निराकर्त्तव्या दिव्याधुपमर्गाः विधातव्या ममस्तपापयोगनिवृत्तिः वोढव्यो यावकथं सुरगिरिगुरुः शीलभारो वर्तयितव्यः सकलकारखं माधकर्या For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 136 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / वर्त्तनयात्मा निष्टप्तव्यो विकष्टतपोभिर्देवः स्वात्मौभावमानितव्यः संयमः समुनगलयितव्या रागादयो निरोद्धव्यो हार्दतमप्रमरः। किंबहुना। निहन्तव्योऽप्रमत्तचित्तेहिमहावेताल इति मृदुशयनाहारलालितपालितं च मामकं शरीरं तथापरिकर्मितमद्यापि चित्तं तवैतावतः प्रायेण महाभारस्योरहने सामर्थ्यम् / अथ वैतदप्यस्ति न यावत्सकलबन्दविच्छेदबारेण भागवतो दीक्षाभ्युपगता न तावत्मम्पूणें प्रशमसुखमशेषक्लेशवित्रोटलक्षणो वा मोक्षोऽवाप्यत इति। न जानौमः किं कुर्महे ततोऽयमेवं जीवो ऽनवाप्तकर्त्तव्यनिर्णयः सन्देहदोलारूढहृदयः कियन्तमपि कालं चिन्तयन्नेवावतिष्ठते / ततो यदुक्तं यदुतान्यदा तेन वनोपकेन महाकल्याणकापूर्णादरेण तत्कदन्नं लौशया कथञ्चित्प्राशितं ततस्तृप्युत्तरकालं भुकवात्तस्य यथावस्थितैरेव गुणैः कुथितत्वविरमत्वनिन्द्यत्वादिभिश्चेतसि प्रतिभातं ततः संजातोऽस्य तस्योपरि व्यलौकीभावः ततस्त्यायमेवेदं मयेति सिद्धान्तीकृत्य खमनमा तत्त्यागार्थमादिष्टा मडुद्धिः / तयाभिहितं धर्मबोधकरण साढ़ें पर्यालोच्य मुच्यतामेतदिति / ततस्तदन्तिके गत्वा निवेदितः स्वाभिप्रायो वनौपकेन तेनापि निकाचनापूर्वं त्याजितोऽसौ तत्कदन्नं चालितं विमलजलैस्तद्भाजनं पूरितं परमान्नेन विहितस्तद्दिने महोत्सवः जातं जनप्रवादवगेन तस्य वनौपकस्याभिधानं सपुण्यक इति। तदिदं वृत्तान्तान्तरमस्थापि नौवस्य दोलायमानबुद्धस्तथा ग्टहस्थावस्थायां वर्तमानस्य क्वचिसंभवतीत्यवगन्तव्यम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। तथा हि / यदायं जीवो विदितप्रशमसुखाखादो भवति भवप्रपञ्चाविरक्तचित्तस्तथापि केनचिदालम्बनेन ग्रहमधिवसति तदा करोत्येव विशिष्टतरं तपोनियमाभ्यास स एष परमानाभ्यवहारोऽभिधीयते / यत्तु तस्यामवस्थायामनादरेणार्थोपार्जनं कामासेवनं वा तल्लोलया कदशनप्राशन मिति विज्ञेयम् / ___ ततो यदा भार्या वा व्यलोकमाचरेत् पुत्रो वा दुर्विनौततां कुर्यात् दुहिता वा विनयमतिलंघयेत् भगिनौ वा विपरीतचारितामनुचेष्टेत भ्राता वा धर्मद्वारेण धनव्ययं विधीयमानं न बहु मन्यते जननौजनकौ वा सहकर्त्तव्येषु शिथिलोऽयमिति जनसमक्षमाकोशेतां वन्धुवर्गो वा व्यभिचारं भजेत परिकरो वाज्ञां प्रतिकूलयेत् स्वदेहो वातिलालितपालितोऽपि खलजनवट्रोगादिकं विकारमादर्शयेत् धननिचयो वा अकाण्ड एवं विद्युल्लताविलसित मनुविदध्यात् तदास्य जीवस्य परमानवतस्येव कृभोजनमेष समस्तोऽपि संसारविस्तरः सुतरां यथावस्थितस्वरूपेण मनसि प्रतिभासयेत् / ततस्तदायं विविकेन चेतमा प्रादुर्भुतसंवेगस्मन्नैवं भावयेत् / अये यदर्थमहं विज्ञातपरमार्थोऽपि खकार्यमवधौर्य मदनमधिवमामि तदास्य खजनधनादेरेवंविधः परिणामः तथापि ममापर्यालोचितकारिणो नास्योपरिखेहमोहः प्रवर्त्तमानो निवर्त्तते / नूनमविद्याविलसितमेवेदं यदीदृशेऽप्यत्र चेतमः प्रतिबन्धः तत्किमर्थमनर्थव्यामूढहृदयः खल्वरमात्मानं वच्चयामि। तस्मानमुञ्चामौदं सकलं जम्बालकल्यं कोशिकाकारकौटस्येवात्मबन्धनमात्रफलं बहिरन्तरङ्गसङ्गकदम्बकं यद्यपि यदा यदा पर्यालोच्यते तदा तदा विषय 18 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 938 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / खेहकलाकुलितचेतसि दुष्करोऽस्य त्यागः प्रतिभासते। तथापि त्याव्यमेवेदं मया पश्चाद्यद्भाव्यं तद्भविष्यति / अथवा किमत्र यद्भाव्यं न भविष्यत्येव मे किञ्चित्परित्यकऽस्मिन्नसुन्दरं किन्तईि निरुपमश्चित्तप्रमोद एव संजनियते। ततो यावदेष जीवोऽत्र परिग्रहकईमे गज व निममोऽवमौदति तावदेवास्यायमतिदुस्त्यजः प्रतिभासते पदा पुनरयमेतस्माबिर्गतो भवति तदायं जीवः मति विवेके नास्य धनविषयादेः संमुखमपि निरीक्षते को हि नाम मकर्णको लोके महाराज्याभिषेकमामाद्य पुनश्चाण्डालभावमात्मनोऽभिलषेत् / तदेवमेष जीवस्त्यतव्यमेवेदं मया नास्ति त्यजतः कशिदपाय इति स्थितपक्षं करोति। ततश्च पुनः सद्बुध्या पर्यालोचयन्ने निश्चिनुते / यदुत प्रष्टव्या मयात्र प्रयोजने मद्धर्मगुरवः / ततो गत्ला तत्ममोपे तेभ्यः सविनयं वाकूतं निवेदयति ततस्ते तमुपरहयन्ति माधु भद्र सन्दरस्तेऽध्यवमायः केवलं महापुरुषचुलोऽयं मार्गः त्रासहेतुः कातरमराणं ततोऽत्र प्रवर्तितकामेन भवता गाढमवलम्बनौयं धैर्य न खलु विशिष्टचित्तावष्टंभविकलाः पुमांसोऽस्य पर्यन्तगामिनः संपद्यन्ते मेचं निकाचना विज्ञेया ततोऽयं जौवस्तगुरुवचनं तथेति भावतः प्रतिपद्यते / ततो गुरवः सम्यक् परौक्ष्य मनिहितगीतार्थश्च माई पर्यालोच योग्यतामेनं प्रव्राजयेयुरिति / ततश्च समस्तमङ्गत्यागकारणं कदन्नत्याजनतुल्यं वर्तते / श्राजन्मालोचनादापनपुरम्मरं प्रायश्चित्तेन तन्नौवितव्यस्य विशोधनं विमलजलै जनक्षालनकल्यं विज्ञेयम् / चारित्रारोपणं तु तस्यैव परमानपूरणसदृशमवगन्तव्यमिति / भवति च महुरूपदेशप्रसादादेवास्य जीवस्य दौक्षाग्रहणकाले भव्यप्र For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। 139 मोदहेतश्चैत्यमंघादिपूजाप्रधानोऽन्येषामपि सन्मार्गप्रवृत्तिकारणभूतो महानुस्तव इति / तथा संजायते गुरूणामपि समुत्तारितोऽस्माभिरयं संसारकान्तारादिति भावनया चित्तपरितोषः। ततः प्रवर्द्धते तेषामस्योपरि गुरुतरा दया तत्प्रमादादेवास्य जीवस्य विमलतरीभवति सद्बुद्धिः ततस्तादृशमदनुष्ठानविलोकनेन लोकतो वर्णवादोत्पत्तिः संपद्यते प्रवचनोझामना। ततश्चेद तेन समानं विज्ञेयं यदवाचि कथानके / यदुत / धर्मबोधकरो हृष्टस्तद्दयाप्रमदोद्धरा। सहुद्धिर्वद्भुितानन्दा मुदितं राजमन्दिरम् // ततोऽङ्गीकृतमन्दराकारविरतिमहाभारमेनं जौवं तदा साधन्ते भक्तिभरनिर्भरतया रोमाञ्चाञ्चितवपुषो भव्यलोकाः / यदुत धन्यः कृतार्थोऽयं सुलब्धमस्य महात्मनो जन्म यस्यास्य सत्प्रवृत्तिदर्शनेन निशौयते मंजाता भगवदालोकना संपन्नः सद्धर्मसूरिपादप्रसादः तत एवाविर्भूता सुन्दरबुद्धिः ततः कृतोऽनेन वहिरन्तरङ्गमङ्गत्याग: स्वीकृतं ज्ञानादित्रयं निर्दलितप्राया रागादयः महापुण्यवतामेष व्यतिकरः संभवति। ततोऽयं जौवः सपुण्यक इति जनैस्तदा सयुक्तिकमभिधीयत इति / ततस्तदनन्तरं यदुक्तं यथा तस्य वनौपकस्यापथ्याभावेनास्ति परिस्पुटा देहे रोगपौडा यदि स्यात्पूर्वदोषजा क्वचिदवसरे मापि सूक्ष्मा भवति तथा झटिति निवर्त्तते तच्च चारुभेषजत्रयमनवरतमासेवते ततस्तस्य तिबलादीनि बर्द्धन्ने केवलं बहुवाट्रोगमन्ततेर्नाद्यापि नौरोगो भवति विशेषस्तु महान् संपन्नः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 140 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तथा हि। यः प्रेतभूतः प्रागामीडाढं बौभत्मदर्शनः / न तावदेष संपन्नो मानुषाकारधारकः / / तदत्रापि जौवे तुल्यं वर्तते / तथा हि / भावमारं परिमुझटहादिदन्दस्यास्य कारणभावान भवत्येवाभिव्यक्ता काचिट्रागादिबाधा। अथ कथंचित् प्रागुपचितकर्मोदयवशेन संजायते तथापि मा सूक्ष्मैव भवति न चिरकालमवतिष्ठते ततोऽयं लोकव्यापारादिनिरपेक्षोऽनवरतं वाचनाप्रच्छनापरावर्त्तनानुप्रेक्षाधर्मकथालक्षणपञ्चप्रकारस्वाध्यायविधानद्वारेण ज्ञानमभिवर्द्धयति प्रवचनोन्नतिकरशास्त्राभ्यासादिना सम्यग्दर्शनं स्थिरतां लंभयति विशि तरतपोनियमाद्यनुशीलनया चारित्रमपि सात्म्यौयभावं नर्यात तदिदं भावतो भेषजत्रयमेवनमभिधीयते / ततस्तत्परिणत्या प्रादभवन्येवास्थ धौष्टतिस्मृतिबलाधानादयो गुणविशेषाः केवलमनेकभवोपात्तकर्मप्रचयप्रभवा भूयांसः खलु रागादयो भावरोगाः / ततो नायमद्यापि नौरोग: संपद्यते किं तु रोगता न च विशेषो रहत्तमः संजातः / तथा हि। योऽयं जीवो गाढमनार्यकार्याचरणरतिः खसंवेदनेन प्रागनुभूतः सोऽधुना धर्माचरणोन प्रौतिमनुभवन्ननुभूयत इति / ततो यथा भेषजचयोपभोगमाहात्म्येनैव रोरकालाभ्यस्ततच्छताक्लोवतालौल्यशोकमोहभ्रमादौन भावान् विरहय्य स वनोपको मनागदारचित्तः संपन्न इत्युक्तं तथायमपि जीवो ज्ञानाद्यभ्यासप्रभावेनैवानादिकालपरिचितानपि तुच्छतादिभावानवधौर्यकिञ्चिन्माचं स्पोतमानम इव संजात इत्युक्तमिति लक्ष्यते। यत्युन For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / 141 रभिहितं यदुत तेन वनोपकेन मा सद्बुद्धिः पृष्ठा हृष्टेन यथा भने केन कर्मणा मयैतझेषजत्रयमवाप्तं तयोक्तं स्वयं दत्तमेवात्र लोके लभ्यते तदेतज्जन्मान्तरे क्वचिद्दत्तपूर्वं त्वयेति। ततस्तेन चिन्तितं यदि दत्तं लभ्यते ततः पुनरपि महता यत्नेन सत्पात्रेभ्यः प्रयच्छामि येनेदं मकलकल्याण हेतुभूतं जन्मान्तरेऽपि ममाक्षय्यं संपद्यत इति / तदिदमत्रापि जीवे ममानं वर्त्तते / तथा हि / ज्ञानदर्शनचारित्राचरणजनितं प्रशमानन्दं वेदयमानोऽयं जीवः सद्बुद्धिप्रसादादेवेदमाकलयति / यदुत यदिदं ज्ञानादित्रयमशेषकल्याणपरम्परासंपादकमतिदुर्लभमपि मया कथंचिदवाप्तं नेदं प्राचीनाशुभाचरणयतिरेकेण घटते तदस्यानुगुणं विहितं मया प्रागपि किंचिदवदातं कर्म येनेदमामादितमिति ततश्यमाविर्भवत्यस्य चिन्ता / यदुत कथं पुनरेतत्सकलकास्लमविच्छेदेन मया लस्यते ततोऽयमेतदानमेवास्य लाभकारणं निश्चिनुते ततोऽवधारयत्येवं प्रयच्छामोदमधुना यथाशक्ति सत्पात्रेभ्यो येन संपद्यते मे समौ हितमिद्धिरिति / यथा चामौ द्रमकस्तथा चिन्तयन्नपि महाराजाद्यभिमतोऽहमित्यवले पेनेदं मन्यते / यदुत यदि मां कश्चिदागत्य प्रार्थयिष्यति ततोऽहं दास्यामि नेतरथेत्यभिप्रायेण च दित्सुरपि याचकं प्रतीक्षमाणश्चिरकालमवतिष्ठते स्म तत्र च मन्दिरे ये लोकास्तेषां तद्भेषजत्रयं चारुतरमस्त्येव / येऽपि तत्र तत्कालप्रविष्टतया तेन विकलास्त एव तद्भरि लभन्ते। ततोऽसौ वनौपको दिशो निभालयन्नास्ते न कश्चित्तज्जिक्षया तत्समीपमुपतिष्ठत इति। तथायमपि जीवश्चिन्तयति / यदुत विद्यते मे भगवदव For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 142 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / लोकना बहुमतोऽहं धर्ममूरिपादानां नूनमनवरतमनुवर्तते ममोपरि मदनुग्रहप्रवणा तद्दया ममुन्मौलिता मे मनमि लेशतः सद्बुद्धिः श्लाघितोऽहं समस्तलोकैस्तद्वारेण ततः सपुण्यतया किल लोकोत्तमो वर्तेऽहमिति / अतो मिथ्याभिमानं वितनुते भवति चात्यन्तनिर्गुणस्थापि जन्तोमहद्भिः कृतगौरवस्य चेतमि गर्वातिरेकोऽत्र चेदमेवोदाहरणम्। अन्यथा कथमयं जौवः समस्तजघन्यतामात्मनो विस्मृत्येत्थं प्रगल्भते ततोऽयं भावयति यदि मां विनयपुरस्सरं कश्चिदर्थितया ज्ञानादिखरूपं प्रश्नयिष्यति ततोऽह तत्तस्मै प्रतिपादयिष्यामि नापरथा। ततस्तादृशाकूतविडम्बितोऽयं भृयांममपि कानमवतिष्ठमानोऽत्र मौनौन्द्रप्रवचनेन कथंचित्ताथाविधं प्रयच्छकमासादयति यतोऽत्र भावतो वर्तन्ते ये जीवास्ते स्वत एव ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयं सुन्दरतरमा बिभ्रते नैवंविधसम्बन्धिनमुपदेशमुपेक्षन्ते यद्यप्यधुनैव लब्धकर्मविवराः मन्मार्गाभिमुखचित्तवृत्तयोऽद्यापि विशिष्टज्ञानादिरहिता विद्यन्तेऽत्र केचिज्जीवास्तेऽप्यमुख्य प्रस्तुतजीवस्य सम्मुखमपि निरौचन्ते यतोऽत्र भगवन्मते विद्यन्ते भूरितमा महामतयः मद्दोधादिविधानपटवोऽन्य एव महात्मानो येभ्यस्ते प्राणिनस्तज्ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयमपरिक्लेशेन यथेच्छया प्राप्नुवन्ति ततोऽयं जीवोऽनामादिततदर्थो व्यर्थकमात्मगुणोत्सेकमनुवर्तमानश्चिरमप्यामौत् न कथञ्चन स्वार्थं पुष्णीयादिति / ततस्तदनन्तरं यथा तेन मपुण्यकेन मा सद्बुद्धिस्तद्दानोपायं परिपृष्टा तया चोक्तं भद्र निर्गत्य घोषणापूर्वकं भवता दीयतामिति / ततोऽसौ तत्र राजकुले घोषयन्नुच्चैःशब्देन / यदुत मदीयं भेषजत्रयं भो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः। 143 लोका लात लातेत्येवं पर्यटितः। ततस्तस्मात्यकुर्वतः केचित्तथाविधास्तुच्छप्रकृतयो ग्टहीतवन्तोऽन्येषां पुनर्महतां महास्यप्रायः प्रतिभासते स्म। होलितश्चानेकाकारं ततो निवेदितस्तेन सद्बुद्धेवृत्तान्तः तयाभिहितं भद्र भवतो रोरभावं स्मरन्तः खल्वेते लोका भद्रमनादरेणावलोकयन्ति तेन न ग्रन्ति भवता दीयमानं ततो यदि भद्रस्य समस्तजनगाहणाभिलाषः ततोऽयं तदुपायो मामेक श्वेतसि परिस्फुरति / यदुत निधायेदं भेषजत्रयं विशालायां काष्ठपायां ततस्तां महाराजसदनाजिरे यच प्रदेश समस्तजनाः पश्यन्ति तस्मिन् विमुच्य ततो विश्रब्धमानमोऽवतिष्ठव का ते चिन्ता यतोऽज्ञातखामिभावाः साधारणमेतदिति बुद्ध्या तथाकृतं. सर्वेऽपि ग्रहोप्यन्ति किं वा तेन योकोऽपि सगुणः पुरुषादद्यात् ततो भविष्यति ते मनोरथपूर्तिरिति / ततस्तथैव कृतं समस्तं तत्तेनेति तथायमपि जीवोऽनामादितज्ञानादिनिक्षेपपात्रः सद्बुद्धिपर्यालोचादेवेदं जानौते। यदुत न मौनमालम्बमानैः परेषां ज्ञानाद्याधानं विधातुं पार्यते न च ज्ञानादिमंपादनं विहायान्यः परमार्थतः परोपकारः संभवति / अवाप्तसन्मार्गेण च पुरुषेण जन्मान्तरेऽपि तस्या विच्छेदनमभिलषता परोपकारकरणपरेण. भवितव्यं तस्यैव पुरुषगुणोत्कर्षाविर्भावकत्वात् / यतः परोपकारः सम्यक् क्रियमाणो धौरतामभिवर्द्धयति दीनतामपकर्षति उदारचित्ततां विधत्ते प्रात्मभरितां मोचयति चेतोवैमल्यं वितनुते प्रभुत्वमाविर्भावयति ततोऽसौ प्रादुर्भूतवीर्याल्लामः प्रणटरजोमोहः परोपकारकरणपरः पुरुषो जन्मान्तरेश्वप्युत्तरोत्तरक्रमेण चारुतरं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 144 उयमितिभवप्रपञ्चा कथा / सन्मार्गविशेषमासादयति न पुनस्ततः प्रतिपततीति तदिदमवेत्य स्वयमुपेत्यापि ज्ञानादिस्वरूपप्रकाशने यथाशक्ति प्रवर्त्तितव्यं न पराभ्यर्थनमपेक्षणीयमिति ततोऽयं जौवोऽत्र भगवन्मते वर्तमानो देशकालाद्यपेक्षयापरापरस्थानेषु परिभ्रमन् महता प्रपञ्चन कुरुते भवेभ्यो ज्ञानदर्शनचारित्ररूपमार्गप्रतिपादनं सेयं घोषणा विज्ञेया / ततस्तथा कथयतोऽस्मात् प्रस्तुतजीवाद्ये मन्दतरमतयस्ते तदुपदिष्टानि ज्ञानादौनि कदाचिद् ग्टलीयुः ये पुनर्महामतयस्तेषामेष दोषपुञ्जतां प्राकनौनामस्थानुस्मरतां हास्यप्रायः प्रतिभासते होलोचितश्च तेषामयं जौवः / यत्तु न होलयन्ति स तेषामेव गुणो न पुनरस्येति / ततोऽयं चिन्तयति कथं पुनरयं ज्ञानाद्युपदेशः सर्वानुग्राहको भविष्यतीति / ततः सद्बुद्धिबलादेवेदं लक्षयति। यदुत न साचान्मया दीयमानोऽयममौषां समस्तलोकानामुपादेयतां प्रतिपद्यते। तस्मादेवं करिश्थे। यदुत यान्येतानि ज्ञानदर्शनचारिचाणि भगवन्मतमारभूतानि प्रतिपाद्यानि वर्त्तन्ते तान्येकस्यां ग्रन्थपद्धतौ ज्ञेयश्रद्धेयानुष्टयार्थविरेचने विषयविषयिणोरभेदोपचारधारेण व्यवस्थाप्य ततस्तां ग्रन्थपद्धतिमत्र मौनीन्द्रे प्रवचने भव्यजनसमक्षं मुत्कस्तां मुञ्चामि ततस्तस्यां वर्तमानानि तानि समस्तजनादेयानि भविष्यन्ति / किं च / यद्यकस्यापि जन्तोस्तानि भावतः परिणमेयुः ततस्तत्कषुर्म किं न पर्याप्तमिति। तदिदमवधार्यानेन जौवेनेयमुपमितिभवप्रपञ्चानाम कथा यथार्थाभिधाना प्रकृष्टशदार्थविकलतया सुवर्णपाच्यादि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमः प्रस्तावः / 145 व्यवच्छेदेन काष्ठपाचीस्थानौयाभिहितज्ञानदर्शनचारित्रभेषजत्रयातथैव विधास्यते / तत्रैवं स्थिते भो भव्याः श्रूयतां भवद्भिरियमभ्यर्थना। यथा तेनापि रोरेण तथा प्रयुक्तं तद्भेषजत्रयमुपादाय ये रोगिणः सम्यगुपभुञ्जते ते नौरोगतामास्कन्दन्ति युज्यते च तत्तेषां ग्रहीतुं तस्य ग्रहणे रोरोपकारसंपत्तेः। तथा मादृशापि भगवदवलोकनयावाप्तमगुरुपादप्रसादेन तदनुभावाविर्भूतमबुद्धितया यदस्यां कथायां विरचयिष्यते ज्ञानादित्रयं तल्लास्यन्ति ये जीवास्तेषां तट्रागादिभावरोगनिबर्हणं संपत्स्थत एव न खलु वर्गुणदोषाबुपेक्ष्यवाच्याः पदार्थाः खार्थमाधने प्रवर्त्तन्ते। तथा हि। यद्यपि स्वयं वुभुक्षाक्षामः पुरुषः स्वामिसंबन्धिनमाहार विशेषं तदादेशेनैव तदुचितपरिजनाय प्रकटयन् भोजनायोत्सङ्गे कलयति तथाप्यमावाहारविशेषस्तं परिजनं तर्पयत्येव न वक्तृदोषेण स्वरूपं विरहयति तथेहापि योजनौयम् / तथा हि। स्वयं ज्ञानाद्यपरिपूर्णनापि मया भगवदागमानुसारेण निवेदितानि ज्ञानादौ नि ये भव्यसत्वा ग्रहौव्यन्ति तेषां रागादिबुभुक्षोपशमेन स्वास्थ्यं करियन्त्येव स्वरूपं हि तत्तेषामिति / किं च / यद्यपि भगवत्सिद्धान्तमध्यमध्यासौनमेकैकं पदमाकर्ण्यमाणं भावतः सकलं रागादिरोगजालं समुन्मूलयितुं पटिष्टमेव स्वाधीनं च तदाकर्णनं भवतां तथा यद्यपि चिरन्तनमहापुरुषोपनिबद्धकथाप्रबन्धश्रवणेनापि मद्भावनया क्रियमाणेन रागादित्रोटनं सुन्दरतरं संभवत्येव तथाप्यमुनोपायेन संसारसागरं तरितकामे मयि परम 18 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 146 उपमितिभवप्रयच्चा कथा / करुणेकरमाः मन्तः प्रस्तुतकथाप्रबन्धमपि मर्वेऽपि भवन्तः श्रोतमईतौति। तदेवमेतत्कथानकं प्रायः प्रतिपदमुपनौतं यत्पुनरन्तरान्तरा किञ्चिन्नोपनौतं तस्याप्यनेनैवानुसारेण खबुद्दौवोपनयः कार्यः। भवत्येव रहौतसङ्केतानामुपमानदर्शनादुपमेयप्रतीतिरत एवेदं कथानकमादावस्यैवार्थस्य दर्शनार्थमुपन्यस्तं यतोऽस्यां कथायां. न भविष्यति प्रायेण निरूपनयः पदोपन्यामस्ततोऽत्रशिक्षितानां सुखेनैव तदवगतिर्भविष्यतीत्यलमतिविस्तरेणेति / इह हि जौवमपेक्ष्य मया निजं यदिदमुक्तमदः सकले जने / लगति संभवमात्रतया त्वहो गदितमात्मनि चार विचार्यताम् // निन्दात्मनः प्रवचने परमः प्रभावो रागादिदोषगणदौथ्यमनिष्टता च / प्राकर्मणामतिबहुश्च भवप्रपञ्चः प्रख्यापितं सकलमेतदिहाद्यपौठे // संसारेऽत्र निरादिके विचरता जौवेन दुःखाकरे जैनेन्द्रं मतमाष्य दुर्लभतरं ज्ञानादिरत्नत्रयम् / लब्धे तत्र विवेकिनादरवता भाव्यं सदा वर्द्धते तस्यैवाद्य कथानकेन भवतामित्येतदावेदितम् // इत्युपमितिभवप्रपञ्चायां कथायां पीठबन्धो नाम प्रथमः प्रस्तावः समाप्तः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ 147 ] अथ दितीयः प्रस्तावः। अस्तौह लोके सुमेरुरिवाकालप्रतिष्ठा नौरनिधिरिव महासत्वसेविता कल्याणपरंपरेव मनोरथपूरणौ जिनप्रणीतप्रव्रज्येव सत्यरुषप्रमोदहेतुः समरादित्यकथैवानेकवृत्तान्ता निर्जितत्रिभुवनेव लब्धलाघा सुमाधुक्रियेवापुण्यरतिदुर्लभा मनुजगति म नगरौ। मा च कौदृशौ उत्पत्तिभूमिधर्मस्य मन्दिरमर्थस्य प्रभवः कामस्थ कारणं मोक्षस्य स्थानं महोत्सवाना मिति। यस्यामुत्तुंगानि विशालानि विचित्रकनकरत्नभित्तिविचित्राणि अतिमनोहारितया परमदेवाया मितानि मेरुरूपाणि देवकुलानि। यस्यां चानेकाद्भुतवस्तुस्थानभूतत्वेनापहमितामरनिवासाः चितिप्रतिष्ठिताद्यनेकपुरकलिता भरतादिवर्षरूपाः पाटकाः। प्रत्युञ्चतया कुलशैलाकाराः पाटकपरिक्षेपाः। यस्थाश्च मध्यभागवतॊ दौर्घतराकारो विजयरूपावपणपंक्तिभिर्विराजितो महापुरुषकदम्बकसंकुलः शुभाशुभमूल्यानुरूपपण्यलाभहेतर्महाविदेहरूपो विपणिमार्गः। यस्याश्च निरुद्धचन्द्रादित्यादिगतिप्रसरतयातीतः परचक्रलंघनायामानुषोत्तरपर्वताकारः प्राकारः। तस्मात्परतो यस्यां विस्तीर्णगंभौरा समुद्ररूपा परिखा। यस्यां च मदा विबुधाध्यासितानि भद्रशालवनादिरूपाणि नानाकाननानि / यस्यां च बहुविधजन्तुसंघातजलपूरवाहिन्यो महानदीरूपा महारथ्याः। यस्यां च समस्तरथ्यावताराधारभूतौ लवणकालोदसमुद्ररूपौ दावेव महाराजमार्गौ। यस्यां च महाराजमार्गप्रविभक्तानि जंबुद्वौपधातकीखण्डपुष्करवरदौपार्द्धरूपाणि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 148 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / वसन्ति त्रौण्येव पाटकमण्डलानि। यस्यां च लोकसुखहेतवः समुचितस्थानस्थायिनः कल्पद्रुमरूपा भूयांसः स्थानान्तरोयनृपतय इति। अपि च / तस्याः कः कोटिजिहोऽपि गुणसंभारगौरवम् / शको वर्णयितुं लोके नगर्याः किमु मादृशः / / यस्यां तौर्थकृतोऽनन्ताश्चक्रिकेशवशौरिणः / संजाताः संजनिष्यन्ते जायन्तेऽद्यापि केचन // या चेह सर्वशास्त्रेषु लोके लोकोत्तरेऽपि च / अनन्तगुणसंपूर्ण दुर्लभत्वेन गौयते // उच्चावचेषु स्थानेषु हिण्डित्वा श्रान्तजन्तवः / प्राप्ताः खेदविनोदेन लभन्ते यत्र निर्दतिम् // विनीताः शुचयो दचा यस्यां धन्यतमा नराः / न धर्ममपहायान्यनूनं चेतसि कुर्वते // यस्यां नार्यः मदानार्यकार्यवर्जनतत्पराः / पुण्यभाजः सदा धर्म जैनेन्द्रं पर्युपासते // किंवात्र बहुनोतन वस्तु नास्ति जगत्त्रये। तस्यां निवसतां सम्यक् पुंसां यन्नोपपद्यते // मा हि रत्नाकरैः पूर्णा मा विद्याभूमिरुत्तमा / मा मनोनयनानन्दा मा दुःखौघविनाशिका / / माखिलाश्चर्यभूयिष्टा सा विशेषसमन्विता / मा मुनीन्द्रसमाकीर्णा सा सुश्रावकभूषिता // मा जिनेन्द्राभिषेकादितोषिताखिलभव्यका / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः / मापवर्गाय भव्यानां मा संसाराय पापिनाम् // जौवोऽजौवस्तथा पुण्यपापाद्याः सन्ति नेति वा / अयं विचारः प्रायेण तस्यामेव विशेषतः // यस्तस्यामपि संप्राप्तो नगयों पुरुषाधमः / न युज्यते गुणेोकः सोऽधन्य इति गण्यते // नां विमुच्य न लोकेऽपि स्थानमस्तौह मानवाः / संपूर्ण यत्र जायेत पुरुषार्थचतुष्टयम् // 13 // तस्यां च मनुजगतौ नगर्यामतुलबलपराक्रमः खवीर्याक्रान्तभुवनत्रयः शक्रादिभिरप्रतिहतशक्तिप्रसरः कर्मपरिणामो नाम महानरेन्द्रः। यो नीतिशास्त्रमुसंध्य प्रतापैकरम: मदा / हणतुल्यं जगत्सर्वं विलोकयति हेलया // निर्दयो निरनुक्रोश: सर्वावस्थासु देहिनाम् / म चण्डशासनो दण्डं पातयत्यनपेक्षया // म च केलिप्रियो दुष्टो लोभादिभटवेष्टितः / नाटकेषु परां काष्ठां प्राप्तोऽत्यन्तं विचक्षण: // नास्ति मलो जगत्यन्यो ममेति मदविहलः / स राजोपट्रवं कुर्वन्नधनायति कस्यचित् // ततो हास्यपरो लोकान् नानाकारैविडम्बनैः / सर्वान्विडम्बयबुच्चैर्नाटयत्यात्मनाग्रतः // तेऽपि लोका महान्तोऽपि प्रतापमसहिष्णवः / तस्य यद्यदसौ वक्ति तत्तत्मवें प्रकुर्वते // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। ततथ। कांचितारकरूपेणक्रोशन्तो वेदनातुरान् / नर्त्तयत्यात्मनः प्रौति मन्यमानो मुहुर्मुहुः // यथा यथा महादुःखैर्विवलांस्तानुदौक्षते / तथा तथा मनस्युच्चैरुल्लसत्येष तोषतः // कांश्चिद्दोद्धरो भूत्वा स इत्थं बत भाषते / भयविहलचित्तत्वादाज्ञानिर्देशकारकान् // अरे रे तिर्यगाकारं ग्टहीत्वा रंगभूमिषु / कुरुध्वं नाटकं वर्णं मम चित्तममोदकम् // ततश्च / काकरामभमार्जारमूषकाकारधारकाः / सिंहचित्रकशार्दूलम्मृगवेषविडम्बकाः // गजोष्ट्राश्वबलौवर्दकपोतश्येनरूपिणः / युकापिपीलिकाकोटमत्कुणाकारधारिणः // अनन्तरूपास्तिर्यञ्चो भूत्वा तच्चित्तमोदनम् / ते नाटकं महाहास्थकारणं नाटयन्ति वै // कुलवामनमूकान्धवृद्धबाधिर्यसंगतः। तथान्यमानुषैः पाचैर्नाटकं नाटयत्यमौ / / ईर्ष्याशोकभयग्रस्तैर्देववेषविडम्बकैः / विहितं नाटकं दृष्ट्वा स तुष्टो बत जायते / / तथा यथेष्टचेष्टोऽसौ पुनस्तानेव सुन्दरैः / श्राकारै-जयत्युच्चैलॊकाबाटककाम्यया // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः। 151 विडम्ब्यमानास्ते तेन प्राणिनः प्रभविष्णना / त्रातारमात्मनः कंचिन्न लभन्ते कदाचन // स हि विज्ञापनातीतः स्वतन्त्रो यच्चिकोर्षति / तत्करोत्येव केनापि न निषिद्धो निवर्तते // ततश्च / क्वचिदिष्टवियोगात्ते क्वचित्संगमसुन्दरम् / क्वचिद्रोगभराक्रान्तं क्वचिद्दारिद्र्यदूषितम् // क्वचिदापगतानेकसत्त्वसंघातदारुणम् / क्वचित्संपत्ममुद्भूतमहानन्दमनोहरम् // विलंध्य कुलमर्यादां प्रधानकुलपुत्रकैः / अनार्यकार्यकारित्वात् क्वचिद्दर्शित विस्मयम् // क्वचिदनुरक्तभर्तारं मुञ्चभिः कुलटागणैः / नौचगामिभिराश्चर्य दधानं सुकुलोद्तैः // क्वचित्कृतचमत्कारं नृत्यद्भिहस्यहेतुभिः / खागमोत्तीर्णकर्त्तव्यामनपाखण्डमण्डलैः // तदेवंविधवृत्तान्तप्रतिबद्धमनाकुलम् / संसारनाटकं चित्रं नाटयत्येष लीलया // रागद्देषाभिधानौ दो मुरजौ तत्र नाटके / दुष्टाभिसन्धिनामा तु तयोरास्फालको मतः // मानक्रोधादिनामानो गायनाः कलकण्ठकाः / महामोहाभिधानस्तु सूत्रधारः प्रवर्तकः / रागाभिलाषसंज्ञोऽत्र नान्दीमङ्गलपाठकः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / अनेकविब्बोककरः कामनामा विदूषकः // कृष्णादिलेश्यानामानो वर्णकाः पात्रमण्डनाः / योनिः प्रविश्यत्याचाणां नेपथ्यं व्यवधायकम् // भयादिसंज्ञा विज्ञेयाः कंशिकास्तत्र नाटके / लोकाकाशोदरा नाम विशाला रङ्गभूमिका // पुद्गलास्कन्धनामानः शेषोपस्करसंचयाः / इत्यं ममग्रसामग्रीयुक्ने नाटकपेटके // नानापाचपरावृत्त्या मर्वलोकविडम्बिनम् / अपरापररूपेण कुर्वाणोऽसौ प्रमोदते // कंचात्र बहुनोकेन नास्ति तदस्त किञ्चन / यदमौ मनमोऽभीष्टं न करोति महानृपः // तस्य चैवंभूतस्य त्रिगण्डगलितवनहस्तिन व सर्वत्रास्खलितप्रसरतया यथेष्टचेष्टया विचरतो यथाभिरुचितकारिणः कर्मपरिणाममहानृपतेः समस्तान्तःपुरकुलतिलकभृता ऋतुलक्ष्मौणामिव शरलक्ष्मौः भरलक्ष्मीणामिव कुमुदिनौ कुमुदिनौनामिव कमलिनी कमलिनौनामिव कलहंसिका कलहंसिकानामिव राजहंमिका बहीनां नियतियदृच्छाप्रमतौनां देवीनां मध्ये निजरूपलावण्यवर्णविज्ञानविलासबासादिभिर्गुणैरमणीयत्वेन प्रधानतमा कालपरिणतिर्नाम महादेवौ। सा च तस्य नृपतेर्जी वितमिवात्यन्तवल्लभा श्रात्मौयचित्तवृत्तिरिव सर्वकार्येषु यत्कृतप्रमाणा सुमन्त्रिमंहतिरिव स्वयमपि किञ्चित्कुर्वता तेन प्रष्टव्या। सुमित्रसन्ततिरिव विश्वासस्थानं किं बहुना तदायत्तं हि तस्य सकलमधिराज्य For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्ताव। मिति / अतएव चन्द्रिकामिव शशधरो रतिमिव मकरध्वनी वनौमिव केशवः पार्वतीमिव चिनयनस्तां कालपरिणतिं महादेवौं सकर्मपरिणामो महानरेश्वरो विरहकातरतया न कदाघिदेकाकिनौं विरहयति / किं तईि सर्वत्र गच्छस्तिष्ठंशात्ममन्निहितां धारयति / सापि च दृढमनुरक्ता भर्तरि न तदननं प्रतिकूलयति। परस्परानुकूलतया हि दम्पत्योः प्रेम निरन्तरं संपद्यते नान्यथा। ततस्तथा वर्तमानयोस्तयोर्गाढं निरूढमागतम्। प्रेमाविच्छिना तद्विचलनाशंका। ततशासौ कालपरिणतिगुरुतथा महाराजप्रसादस्योन्मादकारितया यौवनस्य तुच्छतया स्त्रोदयस्य चञ्चलतया तत्वभावानां कुहलतया तथाविधविडबनस्य सर्वत्र सधप्रमराहं प्रभवामौति मन्यमाना युक्ता सुषमदुःषमादिभिः शरीरभूताभिः प्रियसखौभिः परिवेष्टिता समयावखिका मुहर्त्तप्रहरदिनाहोरात्रपक्षमासर्चयनसंवत्सरयुगपल्योपमसागरोपमावसर्पिण्यपमर्पिणीपुद्गलपरावर्त्तादिना परिकरेण विविधकार्यकरणक्षमास्मि लोकेऽहमिति संजातोत्सेकास्मिन्नेव कर्मपरिपाममहाराजप्रवर्त्तिते चित्र संसारनाटके तस्यैव राज्ञो निकटोपविष्टा मतो माहंकारमेवं निमन्त्रयति। यदुत यान्येतानि योनिजवनिकाव्यवहितानि पात्राणि तिष्ठन्ति मदचनेन निर्गच्छन्तु मौनमेतानि निर्गतानि उस्तरुदितव्यापाराणि ग्टहन्तु मातुःस्तनं पुनधूलोधूमराणि रंगन्तु भूमौ पुनलुंठमानानि पदे पदे परिवजन्तु चरणाभ्याम् / कुर्वन्तु मूत्रपुरौषविमर्दनबीभत्समात्मानम् / पुनरतिक्रान्तबालभावानि धारयन्तु कुमारताम् / क्रौडन्तु नाना 20 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 150 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / विधक्रीडाविब्बोकैः। श्रभ्यस्यन्तु मकलकलाकलापकौशस्वम् / पुनरतिलंघितकुमारभावान्यध्यासयन्तु तरुणतां दर्शयन्तु मन्मथगुरूपदेशानुसारेण सकलविवेकिलोकहास्यकारिणोऽनपेक्षितनिजकुनकलंकाद्यपायान् कटाक्षविक्षेपादिमाराम् नानाकारविलासलासविशेषानिति / प्रवर्तन्तां पारदार्या दिवनार्यकार्येषु / पुनरपगततारुण्यानि स्वीकुर्वन्तु मध्यमवयस्ताम् / प्रकटयन्तु सत्त्वबुद्धिपौरुषपराक्रमप्रकर्षम् / पुनरतिवाहितमध्यमवयोभावानि संश्रयन्तु जराजोर्णताम् / दर्शयन्तु वनोपलिनाङ्गभङ्गकरणविकलत्वमलजंबाला विलशरोरताम्। समाचरन्तु विपरीतखभावताम् / पुनर्व्यवखितसकलजीवितभावानि देहत्यागेन नाटयन्तु मृतरूपताम् / ततः पुनः प्रविशन्तु योनिजवनिकाभ्यन्तरे। अनुभवन्तु तत्र गर्भकलमलान्तर्गतानि विविधदुःखम् / पुनश्च निर्गच्छन्तु रूपान्तरमुपादाय कुर्वन्त्वैवमनन्तवाराः प्रवेशनिर्गमनम् / तदेवं मा कातपरिणतिर्महादेवौ तेषां संसारनाटकान्तर्गतानां समस्तपात्राणामवस्थितरूपेण क्षणद्वयमप्यासितुं न ददाति किं तईि क्षणे क्षणे वराकाणि तान्यपरापररूपेण परावर्त्तयति / किं च तेषां नृत्यतां यान्युपकरणानि पुगलस्कंधनामानि पूर्वमाख्यातानि तान्यप्यतिचपलखभावतया मात्मनः प्रभुत्वं दर्शयन्तौ क्षणे क्षणे अपरापररूपं भाजयति। तानि च पात्राणि किं क्रियते तत्र राजाप्यस्या वणवत्तौ न चान्योऽस्तिकश्चिदात्मनो मोचनोपाय इति विचिन्य निर्गतिकानि सन्ति / यथा यथा मा कालपरिणतिराज्ञापयति तथा तथा नानाकारमात्मानं विडम्बयतीति / किं च। कर्मपरिणामादपि सकाशात्मा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः। काक्षपरिणतिरात्मन्यधिकतरं प्रभुत्वमावेदयत्येव स्वचरितैः। तथाहि। कर्मपरिणामस्य संमारनाटकान्तर्भूतजन्तुमन्तानापरापररूपकरणगोचर एव प्रभावः / तस्याः पुनः कालपरिणतेः संसारनाटकव्यतिकरातौतरूपेष्वपि नितिनगरौनिवासिलोकेषु चणे क्षणे अपरापरावस्थाकरण चातुर्य समस्येवेत्यतः सा संजातोत्मेकातिरेका किंन कुर्यादिति / तदेवमनवरतप्रवृत्तेन परमाद्भुतभूतेन तेन नाटकेन तयोर्देवौनृपयोर्विलोकितेन संपद्यते मनः प्रमोदः / तदर्शनमेव तौ स्वराज्यफलमवबुध्येते इति / तयोश्च तिष्ठतोरेवमन्यदा रहमि स्थिता / सहर्ष वौक्ष्य राजानं मा देवी तमवोचत / भुक्तं यनाथ भोक्तव्यं पीतं यत्पेयमञ्जसा / मानितं यन्मया मान्यं माभिमानं च जीवितम् // नास्त्येव तत्सुखं लोके यस्य नाखादितो रमः / प्राप्तं समस्तकल्याणं प्रमाद्देवपादयोः / / दृष्टं द्रष्टव्यमप्यत्र लोके यन्नाथ सुन्दरम् / किन्तु पुचमुखं देव मया नाद्यापि वौचितम् // यदि तद्देवपादानां प्रसादादेव जायते / ततो मे जीवितं श्लाघ्यमन्यथा जीवितं वृथा / नरपतिरुवाच / माधु साधुदितं देवि रोचते मह्यमप्यदः / समदुःखसुखो देव्या वर्तऽहं सर्वकर्मस // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / न विषादोऽत्र कर्त्तव्यो देव्या यस्मात्प्रयोजने / प्रावयोरेकचित्तत्वं यत्र तज्जायते ध्रुवम् // कालपरिणतिरवार। चारु चारूदितं नायैर्विहितो मदनुग्रहः / भविष्यतीत्थमेवेदं बद्धो ग्रन्थिरयं मया // अानन्दजलपूर्णची भर्तुर्वाक्येन तेन मा / ततः संजातवियम्भा सतोषा समपद्यत // अन्यदा पश्चिमे यामे रजन्याः शयनं गता। खप्ने कमलपत्राची दृष्ट्वैवं सा व्यबुध्यत // वदनेन प्रविष्टो मे जठरे निर्गतस्ततः / नौतः केनापि मित्रेण नरः सर्वाङ्गसुन्दरः / / ततो हर्षविषादाद्यं वहन्ती रसमुत्थिता / तं स्वप्नं नरनाथाय माचचक्षे विचक्षणा || नरपतिरुवाच / खप्नस्यास्य फलं देवि मम चेतमि भासते / भविष्यत्युत्तमः पुत्रस्तवानन्दविधायकः // केवलं न चिरं गेहे तावके स भविष्यति / धर्मसूरिवचोबुद्धः स्वार्थसिद्धिं करिष्यति / कासपरिणतिरुवाच / जायतां पुत्रकस्तावत्पर्याप्तं तावतैव मे / करोतु रोचते तस्मै यत्तदेव ततः परम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः / सतथाविरभूगर्भस्तं वहन्या प्रमोदतः / अथ मासे हतीयेऽस्याः संजातोऽयं मनोरथः // अभयं सर्वसत्त्वेभ्यः सर्वार्थिभ्यो धनं तथा / ज्ञानं च ज्ञानशून्येभ्यश्चेद्यच्छामि यथेच्छया / तथाविधविकल्पंतं निवेद्य वरभूभुजे / संपूर्णच्छा ततो जाता कृत्वेष्टं तदनुज्ञया // अथ संपूर्णकालेन मुहूर्त सुन्दरेऽनघा / मा दारकं शुभं सूता सर्वलक्षणसंयुतम् // ततः ससम्भ्रममुपगम्य निवेदितं दारकस्य जन्म नरपतये प्रियनिवेदिकाभिधानया दामदारिकया दत्तं च तेनाल्हादातिरेकसंपाद्यमनाख्येयमवस्थान्तरमनुभवता तस्यैव मनोरथाधिकं पारितोषिकं दानम्। दत्तवानन्दपुलको दसुन्दरं देहं दधानेन महत्तमानामादेशः। यदुत भो भो महत्तमाः देवीपुत्रजन्माभ्युदयमुद्दिश्य घोषणापूर्वकं ददध्वमनपेचितमारामारविचाराणि महादानानि / पूजयत गुरुजनम् / समानयत परिजनम् / पूरयत प्रणयिजनम् / मोचयत बन्धनागारम् / वादयतानन्दमईलमन्दोहम् / नृत्यत यथेष्टमुद्दामतया। पिबत पानम् / सेवध्वं दयिताजनम् / मा रशीत शुल्कम् / मुञ्चत दण्डम् / श्राश्वासयत भौतलोकम् / वसन्तु सुखस्थचित्ताः समस्ता जनाः / नास्तिकस्यचिदपराधगन्धोऽपौति / ततो यदाज्ञापयति देव इति विनयनतोत्तमाङ्गः प्रतिपद्य संपादितं तद्राजशासनं महत्तमैः / निर्वर्तितोऽशेषजनचमत्कारकारौ जन्मदिनमहोत्सवः / प्रतिष्ठापितं समुचिते For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 958 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / काले दारकस्य नरनाथेन खचित्तेनैवं पर्यालोच्य यतोऽस्य गर्भावतारकाले जननौ सर्वाङ्गसन्दरं नरं वदनेन प्रविशन्तं दृष्टवतो ततोऽस्य भवतु भव्यपुरुष इति नाम / ततस्तदाकी देवी राजानमुवाच देवाहमपि पुत्रकस्य किंचिन्नाम कर्त्तमभिलषामि तदनुजानातु देव इति / नृपतिराह। देवि कः कल्याणेषु विरोधोऽभिधीयतां ममौहितमिति / ततस्तयोकं यतोऽत्र गर्भस्थे मम कुशलकर्मकरणपक्षपातिनौ मतिरभूत्ततोऽस्य भवतु सुमतिरित्यभिधानम् / ततो ऽहो चौरे खण्डक्षेपकल्पमेतद्देवौकौशलेन संपन्नं यद्भव्यपुरुषस्य मतः सुमतिरित्यभिधानान्तरमिति ब्रुवाण: परितोषमुपागतो राजा विशिष्टतरं नामकरणमहोत्सवं कारयामास / दूतश्चास्ति तस्यामेव मनुजगतो नगर्यामग्टहीतसङ्केता नाम ब्राह्मणौ / मा जनवादेन नरपतिपुत्रजन्मनामकरणवृत्तान्तमवगम्य मखौं प्रत्याह / प्रियमखि प्रज्ञाविशाले पश्य यच्छ्रयते महाश्चर्य लोके यथा कालपरिणतिर्महादेवी भव्यपुरुषनामानं दारकं प्रसूतेति / ततः प्रज्ञा विशालयो प्रियमखि किमत्राश्चर्यम् / अग्टहीतसङ्केताह / यतो मयावधारितमासीत् किलेष कर्मपरिणाममहाराजो निवौंजः स्वरूपेण / इयमपि कालपरिणतिर्महादेवौ वन्ध्येति / इदानौं पुनरनथोरपि पुत्रोत्पत्तिः श्रूयत इति महदार्यम् / प्रज्ञाविशालाह। अयि मुग्धे मत्यमग्टहौतमकेतासि यतो न विज्ञातस्त्वया परमार्थः / अयं हि राजा अविवेकादिभिमन्त्रिभिरतिबद्धबीज इति माभूद्दर्जनचक्षुर्दोष इति कृत्वा निर्बोज इति प्रकाशितो लोके / इयमपि महादेव्यनन्तापत्यजनयित्री तथापि दुर्जनचक्षुर्दोषभयादेव तैरेव For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः। 158 मन्त्रिभिर्वन्ध्येति लोके प्रख्याप्येत / तथाहि / यावन्तः क्वचित्केचिज्जन्तवो जायन्ते तेषां सर्वेषामेतावेव देवीनृपो परमवीर्ययुक्ततथा परमार्थतया जननौजनको / अन्यच्च / किन दृष्टं श्रुतं वा क्वचिदपि प्रियसख्या अनयोर्नाटकं पश्यतोर्यन्माहात्म्यम् / यदुत राजा समस्तपात्राणि यथेच्छया नारकतिर्य नरामरगतिलक्षणसंसारान्तर्गतानेकयोनिलक्षप्रभवजन्तुरूपेण नाटयति / महादेवी पुनस्तेषामेव महाराजजनितनानारूपाणां समस्तपात्राणां गर्भावस्थितबालकुमारतरुणमध्यमजराजौर्णमृतगर्भप्रविष्टनिक्रान्तादिरूपाण्यनन्तवाराः कारयतौति / अग्टहीतसङ्केताह / प्रियमखि श्रुतमेतन्मया किन्तु यदि नाम कर्मपरिणामस्य राज्ञः समस्तपात्रपरावर्तने सामर्थ्य कालपरिणतेर्वा महादेव्यास्तेषामेवापरापरावस्थाकरणशक्तिः तत्किमेतावतैवानयोर्जननौजनकत्वं संभवति / प्रज्ञाविशालाह / अयि प्रियवयस्येऽत्यन्तमुग्धामि यतो गौरपौहार्द्धकथितमवबुध्यते त्वं पुनः परिस्फुटमपि कथ्यमानं न जानौषे / यतः संमार एवात्र परमार्थतो नाटकम् / तस्य च यौ जनकावेतौ परमार्थतः सर्वस्य जननौजनकाविति / अग्टहीतसङ्केताह / प्रियसखि यदि समस्तजगज्जननौजनकयोरपि देवीनृपयोदव्या वन्ध्यात्वं नृपस्य निर्बोजत्वं दुर्जनचक्षुदोषभयादविवेकादिभिमन्त्रिभिः प्रख्यापितं लोके तत्किमित्यधुनायं भव्यपुरुषोऽनयोः पुचतया महोत्सवकलकलेन प्रकाशित इति / प्रज्ञाविशालाह / समाकर्णयास्य प्रकाशने यत्कारणम् / प्रत्य For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / स्यामेव नगयों शुद्धमत्यवादी समस्तमत्त्वसवातहितकारौ सर्वभावस्वभाववेदी अनयोश्च कास्लपरिणतिकर्मपरिणामयोर्दैवौनृपयोः ममस्तरहस्यस्थानेष्वत्यन्तभेदज्ञः सदागमो नाम परमपुरुषः। अस्ति च तेन मार्द्ध मम घटना / सचान्यदा दृष्टो मया सहर्षः / पृष्टी निर्बन्धेन हर्षकारणम् / तनोक्तम् / श्राकर्णय भट्रे यदि कुइलम् / येयं कालपरिणतिर्महादेवी अनया रहसि विज्ञापितो राजा यदुत निर्विवाहमनेनात्मनोऽलोकवन्ध्याप्रवादेन / यतोऽहमनन्तापत्यापि दुर्जनचक्षुर्दोषभयादविवेकादिभिर्मन्त्रिभिर्वन्ध्येति प्रख्यापिता लोके ममैवापत्यान्यन्यजनापत्यतया गौयन्ते। मोऽयं खेदजनिमित्तेन गाटकत्यागन्यायः / तदिदं वन्ध्याभावलक्षणं ममायश:कलझं क्षालयितुमर्हति देवः / ततो नपेणोकम् / देवि ममापि निर्वाजतथा समानमेतत् केवलं धौरा भव / लन्धो मया अयशः पहचालनोपायः। देव्याह / कतमोऽसौ / प्रभुराह / देव्यस्यामेव मनुजगतौ महाराजधान्यां वर्त्तमानया भवत्या मन्त्रिमण्डलवचनमनपेक्ष्य प्रकाश्यते प्रधानपुत्रस्य जन्म / क्रियते महानन्दकलकलः / ततश्चिरकालरूढमप्यावयोर्निबौं जववन्ध्याभावलक्षणमयमकलकं चालितं भविष्यतीति / ततः सतोषया प्रतिपन्न महाराजवचनं देव्या कृतं च यथालोचितं ताभ्याम् / ततः प्रज्ञाविशाले योऽयं भव्यपुरुषो जातः स ममात्यन्तवल्लभः / अस्य जन्मनाहमात्मानं सफलमवगच्छामौत्यतो हर्षमुपागत इति / ततो मयोकम् / शोभनं ते हर्षकारणम् / ततोऽयमनेन कारणेन भव्यपुरुषो देवीनपपुचतया प्रकाशित इति / अग्टहीतसङ्केतयोक्तम् / माधु वयस्ये For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः। साधु सुन्दरमाख्यातं भवत्या नाशितो मे सन्देहः / यथा च त्वत्समीपमुपगच्छन्या मया हट्टमार्गे समाकर्णितो लोकप्रवादस्तथा देवौनृपयोः क्षालितमेवायश:कलङ्कमवगच्छामि / प्रज्ञाविशालयोक्रम् / किमाकर्णितं प्रियसख्या / तयोक्तम् / दृष्टो मया तत्र बहुलोकमध्ये सुन्दराकारः पुरुषः स च सविनयं पृष्टः पौरमहत्तमैः। भगवन् य एष राजदारको जातः स कीदृग्गुणो भविय्यतीति। तेनोक्तम् / भद्राः श्टणुता समन्तगुणभारभाजनमेष वर्द्धमानः कालक्रमेण भविष्यतीत्यतो न शक्यन्तेऽस्य सर्व गुणाः कथयितुम् / कथिता अपि न पार्यन्तेऽवधारयितुम् / तथापि लेशोद्देशतः कथयामि / भविष्यत्यष निदर्शनं रूपस्य निलयो यौवनस्य मन्दिरं लावण्यस्य दृष्टान्तः प्रश्रयस्य निकेतनमौदार्यस्थ निधिविनयस्य सदनं गाम्भीर्यस्य श्रालयो विज्ञानस्य आकरो दाक्षिण्यस्य उत्पत्तिभूमिर्दाक्षस्य इयत्तापरिच्छेदः स्थैर्यस्य प्रत्यादेशगोचरो लन्नायाः उदाहरणं विषयप्रागल्भ्यस्य सङ्गत तिस्मृतिश्रद्धाविविदिषादिसुन्दरोणामिति / अन्यच्चानेकभवाभ्यस्तकुशलकर्मतया बालकालेऽपि प्रवर्त्तमानोऽयं न भविष्यति केलिप्रियः दर्शयिष्यति जने वत्सलतां ममाचरिष्यति गुरुविनयं प्रकटयिष्यति धर्मानुरागं न करिथति लोलतां विषयेषु विजेष्यते कामक्रोधादिकमान्तरमरिषड्वर्ग नन्दयिष्यति भवतां चित्तानौति। ततस्तदाकर्ण्य सभयं महर्षं च दिशो निरौक्षमाणैस्तैरभिहितमहो विषमशीलतया समस्तजन विडम्बनाहेतुभूतयापि कालपरिणत्या कर्मपरिणामेन चेदमेकं सुन्दरमाचरितम् / यदाभ्यामस्यां सकलदेशविख्यातायां मनु 21 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 162 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / जगतो नगर्यामेष भव्यपुरुषः सुमतिर्जनितः / चालितान्येतज्जननेनाभ्यामात्मनः समस्तदुश्चरितान्यपुत्रत्वायशश्चेति / तदिदं समस्तमवहितचित्तया मयाकर्णितं तत एव संजातो मे मनसि वितर्कः कथं पुनरनपत्यतया प्रसिद्धयोर्दैवौनृपयोः पुत्रोत्पत्तिः। को वैष पुरुषः सर्वज्ञ व भविष्यत्कालभाविनौं राजदारकवक्रव्यतां समस्तां कथयतीति। ततश्चिन्तितं मया प्रियसखौमेतद्द्वयमपि प्रश्नयिव्यामि। कुशला हि मा सर्ववृत्तान्तानां तत्रापनौतो भवत्याः प्रथमः सन्देहः सांप्रतं मे द्वितीयमपनयतु भवती। प्रज्ञाविशालयोकम् / वयस्वे कार्यद्वारेणाहमगच्छामि म एव मम परिचितः परमपुरुषः सदागमनामा तदाचक्षाणोऽवलोकितो भवत्या। यतः म एवातीतानागतवर्तमानकालभाविनो भावान् करतलगतामलकमिव प्रतिपादयितुं पटिष्टो नापरः। यतो विद्यन्तेऽस्यां मनुजगतौ नग-मन्येऽपि तादृशा अभिनिबोधावधिमन:पर्यायकेवलनामानश्चत्वारः परमपुरुषाः केवलं न तेषां परप्रतिपादनशकिरस्ति / मूका हि ते चत्वारोऽपि स्वरूपेण / तेषामपि स्वरूपं सत्पुरुषचेष्टितमवलम्बमानः परगुणप्रकाशनव्यसनितया लोकसमक्षमेष एव सदागमो भगवानुत्कीर्तयति। अग्टहीतमङ्केतयो कम् / वयस्ये किं पुनः कारणमेष राजदारकोऽस्य सदागमस्यात्यन्तवल्लभः। किं चैतज्जन्मनात्मानमयं सफलमवगच्छतौति श्रोतुमिच्छामि / प्रज्ञाविशालयोक्तम् / एष हि महापुरुषतया सततं परोपकारकरणपरायण: समस्तजन्तुभ्यो हितमाचरत्येव / केवलमेते पापिष्ठाः प्राणिनो नास्य वचने वर्तन्ते ते हि न लक्षयन्ति वराका यदस्य For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः / 163 भगवतो माहात्म्यम् / ततस्तेभ्यो हितमुपदिशन्तमप्येनं सदागमं केचिद् दूषयन्ति केचिदपकर्णयन्ति केचिदुपहसन्ति केचिदुपदिष्टाकरणशक्तिमात्मानो दौपयन्ति केचित्तद्वचनादूरत एव वस्यन्ति केचित्तं प्रतारकधिया शंकन्ते केचित्तचनमादित एव नावबुध्यन्ते केचित्तद्वचनं श्रुतमपि न रोचयन्ति केचित्तट्रोचितमपि नानुतिष्ठन्ति केचिदनुष्ठानमधिकृतमपि पुनः शिथिलयन्ति ततश्चैवं स्थितेनास्य सम्यक संपद्यते परोपकारकरणलक्षणा समौहितमिद्धिः / ततोऽयमनया सततं प्राणिनामपाबतया गाढमुद्धेजितः भवत्येव हि गुरूणामपि निष्फलतया कुपात्रगोचरो महाप्रयासचित्तखेदहेतुरयं तु राजदारको भव्यपुरुष इति पात्रभूतोऽस्य प्रतिभासते / भव्यपुरुषः मन्नपि यदि दुम्मतिः स्यात् नतो न पात्रतां लभेत / अयं तु राजदारको यतः सुमतिरतः पात्रभूत एवेति कृत्वामुख्य सदागमस्यात्यन्तवल्लभः / / अन्यच्चायं मदागमो मन्यते यतोऽस्य दारकस्यैवंरूपतया जनकत्वादेव सुन्दरः कर्मपरिणामः / जननीत्वादेव चानुकूला कालपरिणतिः / ततोऽयं विमुक्तबालभावः सुन्दरतथा निजखभावस्य प्रत्यासन्नतया कल्याणपारम्पर्य्यस्य प्रमोदहेतुतयैवंविधपुरुषाणां मद्दर्शनमस्यामुपलभ्य नियमेनास्थ भविष्यति मनस्येवंविधो वितर्कः / यथा सुन्दरेयं मनुजगतिनगरी यस्यामेष सदागमः परमपुरुषः प्रतिवमति / ममाप्यस्ति प्रायेण योग्यता काचित्तथाविधा यया तेन सह मौलकः संपन्नः / ततोऽमुं परमपुरुषं विनयेनाराध्यास्य सम्बन्धि ज्ञानमभ्यस्यामि / ततोऽनुकूलत्वाज्जननौजन For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 160 उपमितिभवप्रयच्चा कथा / कयोस्ताभ्यां ममर्पितो भविष्यति ममैष शिष्यः / ततोऽहमस्य संक्रामितमिजज्ञानः कृतकृत्यो भविष्यामौति बुध्यायं सदागमोऽस्य समतेर्भव्यपुरुषस्य जन्मना मफलमात्मानमवगच्छतौति। अत एव मंजातपरितोषतया जनसमक्षं राजदारकगुणानेष वर्णयति / अग्ट तसङ्केतयोक्तम्। प्रियमखि किंपुनरस्य भगवतः मदागमस्य माहात्यं यदेते पापिष्ठमत्वा नावबुध्यन्ते / अनवबुध्यमानाश्च नास्य वचने वर्तन्ते इति। प्रज्ञाविशालयोनं वयस्ये समाकर्णय। य एव सर्वत्रानिवारितशक्तिप्रसरः कर्मपरिणामी महाराजो यथेष्टचेष्टया मंसारनाटकमावर्त्तयमानः सततमौश्वरान् दरिद्रयति सुभगान् दुर्भगयति सुरूपान् कुरूपयति पण्डितान्मर्खयति शूरान् क्लौबयति मानिनो दौनयति तिरश्चो नारकायति नारकान्मनुय्ययति मनुव्यान्देवयति देवान् पशुभावमानयति नरेन्द्रमपि कौटयति चक्रवर्त्तिनमपि ट्रमकयति दरिद्रादौनेश्वरादिभावान् प्रापयति किम्बहुना यथेष्टं भावपरिवर्तनं विदधानो न क्वचित्पतिहन्यते / अयमप्यस्य भगवतः सदागमस्य संबन्धिनोऽभिधानादपि बिभेति गन्धादपि पलायते / तथाहि / तावदेष कर्मपरिणाम एतान्समस्तलोकान्संसारनाटकविडम्बनया विडम्बयति / यावदयं सदागमो भगवान् हुंकारयति। यदि पुनरेष इंकारयेत्ततो भयातिरेकस्रस्तसमस्तगात्रो महासमरसंघट्टे कातरनर इव प्राणान् स्वयमेव ममस्तानपि मुश्चेत् / मोचिताश्चानेनामुमादनन्ताः प्राणिनः / अग्टहीतसङ्केतयोक्तम् / ते किमिति न दृश्यन्ते / प्रज्ञाविशालाह / अस्ति कर्मपरिणाममहाराजभुक्तरतिक्रान्ता नितिर्नाम महानगरौ / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दितीयः प्रस्तावः। ततस्ते सदागमहङ्कारेण कर्मपरिणाममप्रभवन्तमात्मन्युपलभ्य मोचिता वयं मदागमेनेति मत्वा कर्मपरिणमशिरसि पाददानदारेणोडौय तस्यां गच्छन्ति / गताश्च तस्यां सकस्लकालं समस्तोपद्रवत्रासरहिताः परमसुखिनस्तिष्ठन्ति / तेन कारणेन ते नेह दृश्यन्ते / अग्टहीतसङ्केतयोक्तम् / यद्येवं किमित्येष सर्वलोकान मोचयति / कदर्थिता ह्येते वराकाः / सर्वेऽप्यनेनातिविषमशीलतया कर्मपरिणामराजेन तन्न युक्तमस्य महापुरुषशेखरस्य मत्यामेवंविधशको तत्कदर्थनस्थोपेक्षणमिति / प्रज्ञाविशालाह / सत्यमेतत्केवलं प्रकतिरियमस्य भगवतः मदागमस्य / यया वचनविपरीतकारिषु कुपाचेव्वधोरणां विधत्ते / ततस्तेनावधी रिताः सन्तो नाथरहिता इति मत्वा गाढतरं कर्मपरिणामराजेन कदर्थ्यन्ते। ये तु पात्रभूततयास्य निर्देशकारिणो भवन्ति तामेव खां प्रकृतिमनुवर्तमानः कर्मपरिणामकदर्थनायाः सर्वथायं मोचयति / येऽपि लोका भगवतोऽस्य मदागमस्योपरि भक्तिमन्तोऽप्यस्य सम्बन्धिवचनं तथाविधशक्निविकक्षतया संपूर्णमनुष्ठातं न भवन्ति किं तर्हि तन्मध्याहड़तमं बहुतरं बहुस्तोकं स्तोकतरं स्तोकतमं वा कुर्वन्ति भकिमात्रकं वास्योपरि विदधति / नाममात्र वास्य ग्टहन्ति। यदि वा येऽस्य भगवतः संबन्धिनि वचने वर्तन्ते महात्मानस्तेषामुपरि धन्याः कृतार्थाः पुष्यभाजः सुस्तब्धजन्मान एत इत्यादि वचनलिङ्गगम्यं पक्षपातं कुर्वन्ति। यदास्य भगवतो ऽभिधामात्रमप्यजानानाः प्रकृत्यैव ये भद्रका भवन्ति / ततय मार्गानुमारिसदन्धन्यायेनानाभोगतोऽप्यस्य वचनानुसारेण वर्तन्ते तानय्येवंविधाननल्पविकल्पान् लोका For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / नेव कर्मपरिणामो महानरेन्द्रो यद्यपि संसारनाटके कियन्तमपि कालं नाटयति नथापि मदागमस्थाभिप्रेता एत इति मत्वा नाधमपात्रभावं नारकतिर्थमानुषकदमररूपं तेषां विधत्ते / किंतर्हि केषांचिदनुत्तरसुररूपं दर्शयति / केषाञ्चिद् ग्रैवेयकामराकारं प्रकटयति / केषाञ्चिदुपरितनकल्पोपपन्नदेवरूपतां जनयति / केषाञ्चिदधस्तनकल्पोत्पत्रमहर्द्धिलेखकरणिं कारयति / केषाञ्चिदभुवि भूरूपतां लक्षयति। केषाञ्चिच्चक्रवर्तिमहामण्डलिकादिप्रधानपुरुषभावं भावयति / सर्वथा प्रधानपात्ररूपतां विहाय न कदाचिद्रूपान्तरेण ताबर्तयति / तत्पर्याप्तमेतावतास्य भगवतः सदागमस्य माहात्म्येन / यदेवंविधसामर्थ्ययुकोऽप्येष कर्मपरिणामो महानृपतिरेतद्भयाक्रान्तहृदयः खल्वेवं वर्त्तते / अन्यच्च कथ्यते तुभ्यं कौतुकं यदि विद्यते / रूपं सदागमस्यास्य तद् बुध्यस्ख मृगेक्षणे // एष एव जगन्नाथो वत्सलः परमार्थतः / एष एव जगत्त्राणमेष एव सुबान्धवः // एष एव विपदः पततामवलम्बनम् / एष एव भवाटव्यामटतां मार्गदेशकः // एष एव महावैद्यः सर्वव्याधिनिबर्हणः / एष एव गदोच्छेदकारणं परमौषधम् / / एष एव जगद्दीपः सर्ववस्तुप्रकाशकः / प्रमादराक्षमात्तर्णमेष एव विमोचकः // एषोऽविरतिजम्बालकल्मषचालनक्षमः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः। एष एव च योगानां दुष्टानां वरणोद्यतः // शद्वादिचर टाक्रान्ते हृतधर्मधने जने / समर्था भगवानेष नान्यस्तस्य विमोचने // एष एव महाघोरनरकोद्धरणक्षमः / पश्रुत्वदुःखसंघातात्त्रायकोऽप्येष देहिनाम् // एष एवं कुमानुय्यदुःखविच्छेदकारणम् / एष एव कुदेवत्वमनःसन्तापनाशकः // अज्ञानतरुविच्छेदे एष एव कुठारकः / एष एव महानिद्राद्रावणः प्रतिबोधकः // एष स्वाभाविकानन्दकारणत्वेन गोयते / मातामातोदयोत्पाद्य मिथ्याबुद्धिविधनकः // एष एव गरुक्रोधवझिविध्यापने जलम् / एष एव महामानपर्वतोद्दलने पविः // एष मायामहाव्याघ्रीघातने सरभायते / एष एव महालोभनौरदैः शोषणानिलः // एष हास्यविकारस्य गाढं प्रशमनक्षमः / एष मोहोदयोत्पाद्यां रतिं निर्नाशयत्यलम् // एष एवार्त्तिग्रस्ते जनेऽस्मिन्नम्तायते / एष एव भयोद्धान्तमत्त्वसंरक्षणक्षमः // एष शोकभराक्रान्तं संधौरयति देहिनम् / एष एव जुगुप्मादिविकारं शमयत्यनम् // एष कामपिशाचस्य दृढमुच्चाटने पटुः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। एष एव च मार्तण्डो मिथ्यात्वध्वान्तसूदनः // एष एव चतुर्भदजीवितोच्छेदकारणम् / यतो जीवं ततोऽतोते नयत्येष शिवालये // शुभेतरेण या नाम्ना कृता लोकविडम्बना / छिन्ते तामेष लोकानामनङ्ग स्थानदानतः // सर्वोत्तमत्वं भक्तानां विधायाक्षयमव्ययम् / एष एव छिनत्युच्चैनौं चैर्गोत्रविडम्बनाम् // एष एव च दानादिशक्तिसन्दोहकारणम् / एष एव महावौर्ययोगहेतुरुदाहृतः // अन्यच्च ये महापापा निर्भाग्याः पुरुषाधमाः / न ते मदागमस्यास्य नामापि बहु मन्यते / / ततस्तेन नरेन्द्रेण ते पूर्वोक्तविधानतः / संसारनाटकेनोः कदान्ते निरन्तरम् // य एव भाविकल्याणा: पुण्यभाजो नरोत्तमाः / ते सदागमनिर्देशं कुर्वन्ति महदादरात् // ततोऽपकर्ण्य राजानं ते विडम्बनकारिणम् / संसारनाटकान्मुक्ता मोदन्ते निर्वृतौ गताः // राजभुक्तौ वसन्तोऽपि राजानं बातुल्यकम् / सदागमप्रसादेन मन्यन्ते ते निराकुलाः // किंवात्र बहुनोनेन नास्ति तवस्तु किंचन / मदागमेऽस्मिन् भक्तानां सुन्दरं यन जायते // तदेतदस्य माहात्म्यं किंचिलेगेन वर्णितम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः। 68 विशेषतः पुनः कोऽस्य गुणानां वर्णनक्षमः // ततः प्रज्ञाविशालाया वाक्यमाकर्ण्य विस्मिता / हृदये चिन्तयत्येवं मा मन्देहमुपागता // यदिदं प्रियसख्या मे विहितं गुणवर्णनम् / यदि मत्यमिदं तेन नास्ति तुल्यस्ततोऽपरः // अतः पश्यामि तं तावत्करोमि खं विनिश्चयम् / परप्रत्ययतो ज्ञाते न सन्देहो निवर्तते // ततश्चैवं विचिन्त्य तया अग्टहीतसङ्केतयाभिहिता प्रज्ञाविशाला / प्रियमखि सुनिश्चितं सत्यवादिनीमपि भवतीमधुनाहमनेन सदागमस्यासम्भावनौयगुणवर्णनेनानर्गलभाषिणैमिव परिकल्पयामि / भवन्ति च मे मनसि विकन्याः किल परिचितमिति कृत्वा एषा वर्णयति / अन्यथा कथं कर्मपरिणामो महानरेन्द्रः कुतथिद्दिभियात् / कथं वैकत्र पुरुषे एतावान् गुणसंघातः संभाव्येत / न च प्रियसखौ कदाचन मां विप्रलम्भयति। ततः सन्देहापत्र दोलायते मे मन अतस्तमात्मपरिचितं परमपुरुषं विशेपतो दर्शथितुमर्हति मे भवती / प्रज्ञाविशालाह / सुन्दरमेतदभिप्रेतमेव मे हृदयस्या भिगमनोयो द्रष्टव्य एवामौ भगवान् / ततो गते द्वे अपि तन्मलम् / दृष्टय ताभ्यां तस्य महाविजयरूपावपणपतिभिर्विराजितस्थानेकमहापुरुषाकोर्णस्य महाविदेहरूपस्य विपणिमार्गस्य मध्ये वर्तमान. प्रधानजनपरिकरितो भूतभवद्भविष्यद्भावस्वभावाविर्भावनं कुर्वाणो भगवान् सदागमः / ततः प्रत्यासन्नौभूय प्रणम्य तच्चरणयगलमुप 22 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 170 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / विष्टे ते तनिकटे / तदाकतिदर्शनादेव संबहुमानं मुहुर्मुहुर्विलोकनादग्टहीतसङ्केतायाः प्रनष्ट व मन्देहो वर्द्धितचित्तानन्दः ममुत्पन्नो विश्रम्भो मतात्मनः कृतार्थता तद्दर्शनेनेति / ततः प्रज्ञाविशाला प्रत्यभिहितमनया / अपि च। धन्यामि त्वं महाभागे सुन्दरं तव जीवितम् / यस्याः परिचयोऽनेन पुरुषेण महात्मना // अहं तु मन्दभाग्यासं वञ्चितासं पुरा यया / न दृष्टोऽयं महाभागः पुरुषः पूतकल्मषः // नाधन्याः प्राप्नुवन्तौमं भगवन्तं सदागमम् / निर्लक्षणनरो नैव चिन्तामणिमवाप्नुते // संजाता पूतपापाहमधुना मृगलोचने / तव प्रसादादृष्वेमं महाभागं मदागमम् // त्वया कमलपत्राधि येऽस्य संवर्णिता गुणाः / ते तथैव मया सर्वे दर्शनादेव निश्चिताः // नाहं विशेषतोऽद्यापि वेद्मास्य गुणगौरवम् / नात्यन्यः पुरुषोऽनेन तुल्य एतत्तु लक्षये // श्रामोन्मे मन्दभाग्यायाः पुरेमं प्रति संशयः / गुपोषु दर्शनादेव मांप्रतं प्रलयं गतः // निगूढचरितासि त्वं सत्यं सद्भाववर्जिता / यया न दर्शितः पूर्वं ममेषः पुरुषोत्तमः // तत्मांप्रतं मयाप्यस्य भवत्या मह सुन्दरि / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः / 11 दिने दिने ममागत्य कर्त्तव्या पर्युपासना // गणाः स्वरूपमाचारं चित्ताराधनमुच्चकैः / त्वयास्य मर्व चार्वणि ज्ञातं कालेन भूयमा / अतो ममापि तत्म निवेद्यं वल्गुभाषिणि / येनाहमेनमाराध्य भवामि तव सन्निभा // ततः प्रज्ञाविशालाह चारुचारूदितं प्रिये / यद्येवं कुरुषे हन्त मफलो मे परिश्रमः // अहो विशेषविज्ञानमहो वचनकौशलम् / अहो कृतज्ञता गुवौं तवेयं चारुलोचने // सङ्केताभावतो भने न जानौषे मदागमम् / तथापि परमार्थेन योग्यता तव विद्यते / एवं च कुर्वतो नित्यं मया मा विचारणम् / अज्ञातपरमार्थापि ज्ञाततत्त्वा भविष्यसि // ततः संजाततोषे ते नमस्कृत्य मदागमम् / प्रियसख्यौ गते तावत्स्वस्थानं तच वासरे // एवं दिने दिने मख्योः कुर्वत्त्योः सेवनां तयोः / सदागमस्य गच्छन्ति दिनानि किल लीलया // अथान्यदा विशालाक्षी प्रोका मा तेन धीमता / प्रज्ञाविशाला मानन्दं पुरुषेण महात्मना // एष सर्वगुणाधारो भवत्या स्नेहनिर्भरः / बालकालात्समारभ्य कर्त्तयो राजदारकः // गत्वा राजकुलं भद्रे विधाय दृढसङ्गतम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 272 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। श्रावळ जननौचित्तं धात्री भव कथञ्चन / त्वयि मंजातविम्भो येनायं राजदारकः / सुखं विवर्द्धमानोऽपि प्रयाति मम वश्यताम् / ततो निक्षिप्य निःशेषमात्मीयं ज्ञानकौशलम् / सुपात्रेत्र भविष्यामि कृतकृत्योऽहमञ्जमा // ततो यदादिशत्यार्य इत्युका नतमस्तका // प्रज्ञाविशाला तदाक्यमनुतस्थौ कृतादरा // अथामौ भव्यपुरुषस्तां धात्रौं प्राप्य सुन्दराम / लालमानः सुखेनास्ते देववद्दिवि लिलया // क्रमात्मवर्द्धमानोऽसौ कल्पपादपमंनिभः / संजातः सर्वलोकानां लोचनानन्ददायकः // ये ते सदागमेनोचै विनो वर्णिता गुणाः / आविर्भूताः समस्तास्ते कौमारे तस्य तिष्ठतः // ततः परिचयं कत्तुं तया प्रज्ञाविशालया / नौतः मदागमाभ्यर्ण मोऽन्यदा राजदारकः // म च तं वीक्ष्य पुण्यात्मा महाभागं सदागमम् / भाविभद्रतया धन्यः परं हर्षमुपागतः // ततः प्रणम्य मङ्गल्या निषलोऽसौ तदन्तिके / आकर्णितं मनोहारि तदाक्यमम्मृतोपमम् // श्रावर्जितो गुणस्तस्य शशाङ्ककरनिर्मलैः / स भव्यपुरुषश्चित्ते ततश्चेदमचिन्तयत् // अस्याहो वाक्यमाधुर्यमहो रूपमहो गुणाः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दियीयः प्रस्तावः / 173 अहो मे धन्यता येन नरोऽयमवलोकितः // धन्येयं नगरी यस्यां वमत्येष मदागमः / संजातः पूतपापोऽहं दर्शनादस्य धीमतः // नूनमेष भवद्भूतभाविभावविभावनम् / भावतो भगवानुचैः करोत्येषा मदागमः // तदेष मदुपाध्यायो यदि संपद्यते मम / ततोऽहमस्य नेदिष्टो ग्टहामि मकलाः कलाः // ततः प्रज्ञाविशालायास्तेनाकूतं निवेदितम् / जनौजनकयोर्गत्वा तयापि कथितं वचः // प्रादुर्भूतस्तयोस्तोषः प्रविधाय महोत्सवम् / ततः समर्पितस्ताभ्यां मोऽन्यदा शुभवासरे // कथम् / कृतकौतुकसत्कारः परिपूज्य सदागमम् / स भव्यपुरुषस्तस्य शिस्यत्वेन निवेदितः // सिताम्बरधरो धीरः सितभूषणभूषितः / सितपुष्यभरापूर्ण: मितचन्दनचर्चितः // ततो महाप्रमोदेन विनयेन विनेयताम् / प्रपन्नस्तस्य पुण्यात्मा कलाग्रहणकाम्यया // ततो दिने दिने याति म पार्श्व तस्य धीमतः / मदागमस्य जिज्ञासुः माद्धं प्रज्ञाविशालया / अन्यदा हट्टमार्गेऽसौ लीलयास्ते सदागमः / स भव्यपुरुषोऽभ्यर्ण युक्तः प्रज्ञाविशालया // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / म भूरिनरमवातपरिवारितविग्रहः / अशेषभावमद्भावं वदन्नास्ते मदागमः // प्रथाटहौतमङ्केता मख्याः पार्श्व समागता / नत्वा सदागमं मापि निषषणा शुद्धभूतले // पृष्टा प्रियमखौवार्ता मानितो राजदारकः / स्थिता मदागममुखं पश्यन्तौ स्तिमितेक्षणा // इतश्चैककाल मेवैकस्यां दिशि ममुल्लमितो वा कलकल: / श्रूयते निरसविषमडिण्डिमध्वनिः / समाकर्ण्यते दुर्दान्तलोककृतोट्टहामः / ततः पातिता तदभिमुखा ममम्तपर्षदा दृष्टिः / यावदिलिप्तसमस्तगाची भस्मना चर्चितो गैरिक हस्तकः खचितस्तणमषौपुण्डकैर्विनाटितो ललमानया कणवौरमुण्डमालया विडम्बितो वक्षस्थले घर्णमानया शरावमालया धारितातपत्रो जर पिटकखण्डेन बद्धलोनी गलेकदेशे आरोपितो रामभे वेष्टितः समन्ताद्राजपुरुषैः निन्द्यमानो लोकेन प्रकम्पमानशरौरः तरलतारमितश्चैतश्चातिकातरया भयोद्भ्रान्तहृदयो दशापि दिशो निरौचमाणो नातिदूरादेव दृष्टः संसारिजीवनामा तस्करः / तं च दृष्ट्वा मंजाता प्रज्ञा विशालायाः करुणा। चिन्तितमनया यदि परमस्य वराकस्यामुभात् सदागमात्मकाशात् त्राणं नान्यस्मात्कृतश्चित्ततो गता तदभिमुखम् / दर्शितोऽस्मै यत्नेन मदागमो ऽभिहितं च / भद्रामुं भगवन्तं शरणं प्रतिपद्यस्खेति। म च मदागममुपलभ्य महमा संजाताश्वास व किञ्चिच्चिन्तयननाख्येयमवस्थान्तरं वेदयमानः / पश्यतामेव लोकानां निमौलिताः पतितो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः / 175 धरणोतले / स्थितः कियन्तमपि का निश्चलः / किमेतदिति विस्मिता नागरिकाः / लब्धा कथञ्चिच्चेतना ततः ममुत्थाय सदागममुद्दिश्यामौ त्रायध्वं नाथास्त्रायध्वमिति महता शब्देन पूकृतवान् / ततो माभैषोरभयमभयं तवेत्याश्वासितोऽसौ सदागमेन / ततस्तदाकणं प्रपन्नोऽयं मदागमम्य शरणम् / अङ्गीकृतश्चानेनातो न गोचरोऽधुना राजगासनस्येति विचिन्य विदितमदागममाहात्म्या: सभया: प्रत्यक्पदैरुपसृताः कम्पमानास्ते राजपुरुषाः स्थिता दूरदेशे। ततो विश्रब्धीभूतो मनाक् संसारिजौवः पृष्टोऽग्टहीतसङ्केतया / भद्र कतमेन व्यतिकरण ग्टहीतस्त्वमेभिः कृतान्तमदृशै राजपुरुषैरिति / ___ मोऽवोचदलमनेन व्यतिकरण / अनाख्येयः खल्वेष व्यतिकरः / यदि वा जानन्येवामुं व्यतिकरं भगवन्तः सदागमनाथाः किमाख्यातेन / सदागमेनोकम् / भट्र महत्कुठूहलमस्या अतस्तदपनोदार्थ कथयतु भवान् को दोषः / समारिजौवेनोतं यदाज्ञापयन्ति नाथाः। केवलं जनसमक्षमात्मविडम्बना कथयितुं न पारयामि / ततो विविक्रमादिशन्तु नाथा इति / ततः सदागमेन विलोकिता परिषत् स्थिता गत्वा दूरदेशे। प्रज्ञा विशालाप्युत्तिष्ठन्तौ वमप्याकर्णयखेति भणित्वा धारिता सदागमेन / तस्याश्च निकटवत्तौंमदागमवचनेनैव भव्यपुरुषोऽपि स्थित एव / ततस्तेषां चतुर्णामपि पुरतः केवलमग्टहीतसङ्केतामुद्दिश्य प्रजन्त्पितोऽसौ संसारिजीवः / अस्तौह लोके श्राकालप्रतिष्ठमनन्तजनाकुलमसंव्यवहारं नाम नगरम् / तत्र सर्वस्मिन्नेव नगरेऽनादिवनस्पतिनामानः कुलपुत्रकाः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 176 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्रतिवमन्ति / तस्मिंश्चास्यैव कर्मपरिणामस्य महानरेन्द्रस्य संबन्धिनावत्यन्ताबोधतोत्रमोहोदयनामानौ मकलकालस्थायिनौ बलाधिकृतमहत्तमौ प्रतिवसतः / ताभ्यां चात्यन्ताबोधतोत्रमोहोदयाभ्यां तत्र नगरे यावन्तो लोकास्ते सर्वेऽपि कर्मपरिणाममहाराजादेनैव सुप्ता वास्पष्टचैतन्यतया मत्ता व कार्याकार्यविचार शून्यतया मूर्छिता दूव परस्पर लोलीभूततया मृता दुव लक्ष्यमाणविशिष्टचेष्टाविकलतया निगोदाभिधानेस्वपवरकेषु निक्षिप्य संपिण्डिताः मकलकालं धार्यन्ते / अत एव च ते लोका गाढमम्मूढतया न किञ्चिच्चेतयन्ति / न भाषन्ते / न विशिष्टं चेष्टन्ते / नापि ते छिद्यन्ते / न भिद्यन्ते न दह्यन्ते / न लाव्यन्ते / न कुय्यन्ते / न प्रतिघातमापद्यन्ते / न व्यको वेदनामनुभवन्ति। नाप्यन्यं कंचन लोकव्यवहारं कुर्वन्ति / इदमेव च कारणमुररीकृत्य तनगरमसंव्यवहारमिति नाम्ना गौयते / तत्र नगरे संभारिजौवनामाहं वास्तव्यः कुटुम्बिकोऽभूवम् / गतश्च तत्र वमतो ममानन्तः कालः / अन्यदा दत्ता स्थाने तौबमोहोदयमहत्तमे तनिकटवर्त्तिनि चात्यन्तताबोधबलाधिकृते प्रविष्टा समुद्रवौचिरिव मौक्तिकनिकरवाहिनौ प्राट्काललक्ष्मौरिव समुन्नतपयोधरा मलयमेखलेव चन्दनगन्धधारिणौ वसन्तश्रौरिव रुचिरपत्रतिलकाभरणा तत्परिणतिर्नाम प्रतीहारी। तया चावनित लन्यस्तजानुहस्तमस्तकया विधाय प्रणामं विरचितकरपुटमुकुलया विज्ञापितं देवैष सुग्टहीतनामधेयस्य देवस्य कर्मपरिणामस्य संबन्धी तत्रियोगो नाम दूतो देवदर्शनमभिलषन् For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः / 177 प्रतीहारभूमौ तिष्ठति तदेवमवस्थिते देवः प्रमाणमिति। ततो निरीक्षितं तौबमोहोदयेन समभ्रममत्यन्ताबोधवदनम् / म प्राह / शीघ्रं प्रवेशयत् तं भवती। ततो यदाज्ञापयति देव इत्यभिधाय प्रवेशितः प्रतिहार्या तनियोगः / तेनापि मविनयमुपसृत्य प्रणतो महत्तमो बलाधिकृतश्चाभिनन्दितस्ताभ्यां दापितमासनम् / उपविष्टोऽसौ कृतोचिता प्रतिपत्तिः / ततो विमुच्यामनं बध्वा करमुकुलं कृत्वा ललाटतटे तौबमोहोदयेनोक्तम् / अपि कुशलं देवपादानां महादेव्याः शेषपरिजनस्य च / तत्रियोगेनोक्तम् / सुष्टु कुशलम् / तौबमोहोदयेनोक्तम् / अनुग्रहोयमस्माकं यदव भवतः प्रेषणेनानुस्मृता वयं देवपादरित्यतः कथय यदागमनप्रयोजनमिति / तनियोगेनोक्तम् / कोऽन्यो भवन्तं विहाय देवपादानामनुग्रहाहः / श्रागमनप्रयोजनं पुनरिदम् / अस्ति तावद्विदितैव भवतां विशेषेण माननीया प्रष्टव्या मर्वप्रयोजनेषु अलकनीयवाक्या अचिन्यमाहात्या च भगवती लोकस्थिति म देवपादानां महत्तमभगिनौ। तस्याश्च तुष्टैर्देवपादैः सकलकालमेषोऽधिकारो वितीर्णः / यथास्ति तावदेषोऽस्माकं सर्वदा परिपन्थौ कथञ्चिदुन्मूलयितुमशक्यः सदागमः परमशत्रुः / ततोऽयमस्मद्दलमभिभूय क्वचिदान्तरान्तरा लब्धप्रसरतयास्मदीयभुक्तर्निस्मारयति कांश्चिमोकान् / स्थापयति चास्माकमगम्यायां नितो नगर्याम् / एवं च स्थिते विरलोभविव्यत्येष कालेन लोकः। ततः प्रकटौकरिष्यत्यस्माकमयशस्तन्न सुन्दरमेतत् / अतो भगवति लोकस्थिते त्वयेदं विधेयम् / अस्ति 23 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 178 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / ममाविचलितरूपमेतदेव प्रयोजनमपेक्ष्य संरक्षणीयमसंव्यवहारं नाम नगरम् / ततो यावन्तः सदागमेन मोचिताः मन्तो मदौयभुक्नेनिर्गत्य नितिनगयों गच्छन्ति लोकास्तावन्त एव भगवत्या तस्मादसंव्यवहारनगरादानीय मदीयशेषस्थानेषु प्रचारणीयाः / ततः प्रचुरलोकतया सर्वस्थानानां सदागममोचितानां न कश्चिद्वार्तामपि प्रश्नयिष्यति / यतो न भवत्यस्माकं छायानानिरिति / ततो महाप्रसाद इति कृत्वा प्रतिपन्नः सोऽधिकारो लोकस्थित्या। अहं च यद्यपि देवपादोपजीवी तथापि विशेषतो लोकस्थितेः प्रतिबद्धः। अतएव तद्वारेण तन्नियोग इति प्रसिद्धोऽहं लोके / मोचिताच कियन्तोऽपि मांप्रतं सदागमेन लोकाः। ततोऽहं भगवत्या लोकस्थित्या युभन्मूलं तावतां लोकानामानयनायेह प्रहित इति / एतदाकर्य भवन्तः प्रमाणम् / ततो यदाज्ञापयति भगवतौति प्रतिपन्नं तच्छासनं महत्तमेन बलाधिकृतेन च / ततो महत्तमेनोक्तम् / भद्र तन्नियोग तावदुत्तिष्ठ दर्शयामो भद्रस्थासंव्यवहारनगरलोकप्रमाणम् / येन गतः सन् निवेदयसि त्वं देवपादेभ्यः। कालान्तरेऽपि येन न भवति तेषां लोकविरलोभवनचिन्ता। तन्नियोगेनोक्तं यदाज्ञापयत्यार्यः / ततः समुत्थितास्त्रयोऽपि नगरं निरीक्षितम् / दर्शिता: समुत्थितकरेण पर्यटता तौबमोहोदयेनासंख्येया गोलकनामानः प्रामादास्तन्नियोगस्य / तन्मध्यवर्त्तिनश्वासख्येया एव दर्शिता निगोदनामानोऽपवरकाः / तेच विवद्भिः माधारणरौराणौत्यभिधीयन्ते। तदन्तर्भूताश्च दर्शिता अनन्ता लोकाः। ततो विस्मितस्तन्नियोग उको महत्तमेन भद्र दृष्टं नगरप्रमाणम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः / स प्राह। सुष्टु दृष्टम्। ततः सहस्ततालमट्टहासेन विहस्य तीव्रमोहोदयनोकम् / पश्यत विमूढतां मदागमस्य / स हि किल सुग्रहौतनामधेयस्य देवस्य कर्मपरिणामस्य मंबन्धिनं लोकं निर्वाहयितुमभिलषति। न जानौते वराकस्तत्प्रमाणम्। तथा ह्यत्र नगरे तावदसंख्येयाः प्रासादास्तेषु प्रत्येकमसंख्येया एवापवरकाः / तेषु चैकैकस्मिन्ननन्तलोकाः प्रतिवमन्ति। अनादिरूढश्चास्य सदागमस्यायं लोकनिर्वाहणाग्रहरूपो ग्रहः / तथापि तेनेयता कालेन निर्वाहयता यावन्तोऽत्रैकस्मिन्नपवरके लोकास्तेषामनन्तभोगमा निर्वाहितम्। ततः केयं देवपादानां लोकविरलोभवनचिन्ता। तन्नियोगेनोक्तम् / सत्यमेतदस्त्येव चायं देवस्याप्यवष्टम्भः / विशेषतः पुनयुभवचनमेतदहं कथयिव्यामि / अन्यच्चोक्तं भगवत्या लोकस्थित्या यथा न भवता कालक्षेपः कार्यः / तत्संपाद्यतां शीघ्रं तदादेश इति / ततः स्थितावुत्मारके महत्तमबलाधिकृतौ। महत्तमेनोक्तम् / केऽत्र प्रस्थापना योग्या इति। अत्यन्ताबोधः प्राह / आर्य किमत्र बहुनालोचितेन ज्ञाप्यतामेष व्यतिकरो नागरलोकानाम् / दौयतां पटहकः। क्रियतां घोषण। यथा देवकर्मपरिणामादेशेन कियद्भिरपि लोकरितःस्थानात्तदीयशेषस्थानेषु गन्तव्यम् / अतो येषामस्ति भवतां तत्र गमनोत्साहस्ते खयमेव प्रवर्त्तन्तामिति / ततोऽनुकूलतया शेषस्थानानामुत्संङ्कलिता वयमिति च मत्वा भूयांसो लोकाः स्वयमेव प्रवर्तिव्यन्ते / ततो विशेषतो नेयलोकसंख्यां दृष्ट्वा तन्नियोगं तेषां मध्याद्येऽस्मभ्यं रोचिय्यन्ते तानेव तावत्संख्यान् प्रहिय्याम इति। महत्तमेनोक्तम्। भद्र For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1. उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। खयमपि परिहितस्य भक्रि न जानौषे त्वम् / यतोऽमौभि.कर्न कदाचिदृष्टं स्थानान्तरम्। श्रतो न जानन्ति तत्वरूपमपि किम्पुनस्तस्यानुकूलताम् / अनादिप्रवाहेण चात्रैव वसन्तो रतिमुपगता: खल्वेते। तथा नादिमम्बन्धेनैव रूढस्नेहाः परस्परं नेच्छन्ति वियोगम्। तथा हि। पश्यतु भद्रो येऽत्र लोका एकैकस्मिन्नपवरके वर्तन्ते तेऽतिस्निग्धतयात्मनो गाढं सम्बन्धमुपदर्शयन्तः समकमुच्छ्रसन्ति / समकं निःश्वसन्ति। समकमाहारयन्ति। समकं निारयन्ति। एकस्मिन्त्रियमाणे सर्व नियन्ते / एकस्मिन् जीवति सर्वेऽपि जीवन्ति / तत्कथमेते स्थानान्तरगुणज्ञानरहिता एवंविधप्रेमबवात्मानश्च खयमेव प्रवर्तिष्यन्ते / तस्मादपरः कश्चित्प्रस्थानोचितलोकपरिज्ञानोपायश्चित्यतां भवतेति। ततः पर्याकुलौभूतो बलाधिकृतः किमत्र विधेयमिति। इतश्चास्ति भवितव्यता नाम मम भार्या मा च शाटिकाबद्धः सुभटो वर्त्तते / यतोऽहं नाममात्रेणेव तस्या भर्त्तति प्रसिद्धः। परमार्थतः पुनः सैव भगवती मदौयग्टहस्य शेषलोकग्रहाणां च सम्बन्धिनौं समस्तामपि कर्त्तव्यतां तन्त्रयति / यतः मा अचिन्यमाहात्म्यतया स्वयमभिलषितमर्थं घटयन्तौ नापेक्ष्यतेऽन्यसम्बन्धिनं पुरुषकारं महायतया। न विचारयति पुरुषानुकूलप्रतिकूलभावम्। न गणयत्यवसरम्। न निरूपयत्यापगतम् / न निवार्यते सुरगुरुगापि बुद्धिविभवेन / न प्रतिस्खल्यते विबुधपतिनापि पराक्रमेण / नोपलभ्यते योगिभिरपि तस्याः प्रतिविधानोपायोऽत्यन्तममम्भावनौयमप्यर्थं मा भगवती स्वकरतलवर्त्तिनमिव लीलया संपादयति। नक्षयति च प्रत्येकं समस्तलोकानां यस्य यदा यत्र यथा यावद्यच्च For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः / 181 प्रयोजनं कर्त्तव्यं ततस्तस्य तदा तत्र तथैव तावत्तदेव प्रयोजन रचयन्ती न त्रिभुवनेनापि निवारयितुं पार्यते / किं च यदि शक्रचक्रवर्त्यादीनामपि कथ्यते यथा भद्रिका भवतामुपरि भवितव्यतेति। ततस्तेऽपि तुष्यन्ति हृदये दर्शयन्ति मुखप्रसादं विस्फारयन्ति विलोचने ददति कथकाय पारितोषिकं कुर्वन्यात्मनि बहुमानं कारयन्ति महोत्सवं वादयन्यानन्ददुन्दुभिं चिन्तयन्यात्मनः कृतकृत्यतां मन्यन्ते सफलं जन्मेति। किं पुनः शेषलोका इति। अथ तेषामपि शकचक्रवर्त्यादौनां कथ्यते यथा न भद्रिका भवतामुपरि भवितव्यते ति। ततस्ते कम्पन्ते भयातिरेकेण / प्रतिपद्यन्ते दौनताम् / कुर्वन्ति क्षणेन कृष्णमुखम् / निमौलयन्ति वीक्षणे रुष्यन्ति कथकाय / समाध्यास्यन्ते चिन्तया / ग्टह्यन्ते रणरणकेन / परित्यजन्ति शोकातिरेकेणेतिकर्तव्यताम् / बालोचयन्ति तत्प्रसादार्थमनेकोपायान् / किं बहुना। न लभन्ते तस्यामनुष्ठायां मनागपि चित्तनिर्वृतिम् / कथमेषापि पुनः प्रगुणीभविष्यतीत्युद्धेगेन / किं पुनः मामान्यजना इति / मा पुनर्भगवती यदात्मने रोचते तदेव विधत्ते। न परं विज्ञापयन्तं विलपन्तं प्रतिकुर्वन्तं वापेक्षते / अहमपि तनयोधान्तचित्तो यदेव मा किञ्चित्कुरुते यथेष्टया चेष्टया तदेव बहु मन्यमानस्तस्याः पतिरपि कर्मकर इव जय देवि जय देवौति ब्रुवाणस्तिष्ठामि / , अपि च / ... मा सर्वत्र कृतोद्योगा मा ज्ञातभुवनोचिता / मा जागर्ति प्रसुप्तेषु मा सर्वस्य निरूपिका // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 182 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / मा केवलं जगत्पत्रं विचरन्ती निराकुला / न कुतश्चिदिभेत्युच्चैमत्तावइंधहस्तिनौ // मा कर्मपरिणमेन महाराजेन पूजिता / यतोऽनुवर्त्तयत्येव तामेषोऽपि प्रयोजने // तथान्येऽपि महात्मानः कुर्वन्ति खं प्रयोजनम् / यान्तोऽनुकूलतां तस्या यत एतदुदाहतम् // बुद्धिरुत्पद्यते तादृग् व्यवसायश्च तादृशः / सहायास्तादृशाश्चैव यादृशौ भवितव्यता // तस्याश्च मदौयग्टहिण्या भवितव्यतायाः सम्बन्धिनमेनं गुणसन्दोहं जानात्येव सोऽत्यन्ताबोधो बलाधिकृतः / ततस्तस्य तदा पर्यालोचयतश्चेतमि परिस्फुरितम् / अये किमहमेवं मत्यभ्युपाये चिन्तयात्मानमाकुलयामि / यतो जानात्येव सा संसारिजीवपत्नी भवितव्यता येऽत्र प्रस्थापनोचिता लोकास्तेषां स्वरूपमिति। अतस्तामेवाहय पृच्छामि / ततः कथितस्तोत्रमोहोदयाय तेन स्वाभिप्रायः सुन्दरमेतदिति बहुमतं तस्यापि तस्या श्राकारणम् / ततः प्रहितः पुरुषः समाहृता भवितव्यता / समागता वेगेन प्रवेशिता प्रतिहार्या / महाप्रभावेयं सर्वापि स्त्री किल देवतेति विचिन्य कृतं तस्याः पादपतनं वाचिकं महत्तमबलाधिकृताभ्याम् / अभिनन्दितौ तौ तयाशीर्वादेन / दापितमासनं उपविष्टा भवितव्यता। ततो बलाधिकृताभिमुखं महत्तमेन चालिता भूलता। ततस्तेन कथयितमारब्धस्तस्यैत नियोगप्रतिकरः। ततो हसितं तया। म प्राह / भद्रे किमेतत् / भवितव्यताह / न किं चित् / बलाधि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः। 183 कृतेनोक तत्किमकाण्डे हसितम् / भवितव्यताह / अतएव यतो न किञ्चिदिदम् / बलाधिकृतेनोक्तम् / कथं भवितव्यताह मत्यमत्यन्ताबोधोऽसि यस्त्वमेनमपि व्यतिकरं मह्यं कथयसि / कृतोद्योगाहमेवंविधेष व्यतिकरेषु / लक्षयाम्यनन्तकालभाविनोऽपि सर्वव्यतिकरानहम् / किं पुनः सांप्रतिकान् / अतो निष्पयोजनवान्न किञ्चिदेतत्त्वदीयकथनं ममेति / अत्यन्ताबोधःप्राह / सत्यमिदम् / विस्मृतं मे तावकं माहात्म्यं मोढव्योऽयमेकोममापराधो भवत्या। अन्यच्च प्रस्थापय त्वमेव यत्र प्रस्थापनोचिता लोकाः / किं नो व्यापारेण / भवितव्यतयोक्तम् / एकस्तावदेष एव मदीयो भर्ता प्रस्थापनयोग्यः तथाऽन्ये च ये तज्जातीयाः / बलाधिकृतेनोक्तम् / बमेव जानौषे तत्किमत्रोकेन / ततो निर्गता भवितव्यता अागता मम समौपे कथितो व्यतिकरः / मयोक्तं यद्देवी जानौते / ततः समुच्चलितोऽहमन्ये च मज्जातीयास्तवियोगाभिप्रेतसङ्ख्यानुसारेण / उको च भवितव्यतया महत्तमबलाधिकृतौ / यदुत मया युवाभ्यां चामौभिः सह यातव्यम् / यतो भटदेवता नारोति न मोक्रव्यो मया संमारिजीवो यतश्चास्ति युवयोरपि प्रतिजागरणौयमेकाक्षनिवासं नाम नगरम् / तत्रामौभिलीकः प्रथमं गन्तव्यम् / अतो यज्यते युवाभ्यां महेवामौषां तत्रासितं नान्यथा / ततो यनवती जानौत इत्यभिधाय प्रतिपनं तवचनं महत्तमबलाधिकृताभ्याम् / प्रवृत्ताः सर्वऽपि समागतास्तदेकाक्षनिवासं नगरम् / तत्र च नगरे महान्तः पञ्च पाटका विद्यन्ते / ततोऽहमेकं पाटकं कराग्रेण दर्शयता तौबमोहोदयेनाभिहितः / भद्र संसारिजौव For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 184 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तिष्ठ बमत्र पाटके / यतोऽयं पाटकोऽसंव्यवहारनगरेण बहुतरं तुल्यो वर्तते। ततो भविष्यत्यत्र तिष्ठतो तिरिति / तथाहि / यथा तचासंव्यवहारनगरे गोलकाभिधानानां प्रामादानां मध्यवर्त्तिनो ये निगोदाभिधाना अपवरकास्तेषु ये लोकाः प्रत्येकमनन्ताः संपीण्डिता: खेहानुबन्धेन प्रतिवमन्ति अत्रापि पाटके बहुतमा लोकास्तथैव प्रतिवमन्ति / केवलमसंव्यवहारनगरसम्बन्धिनो न क्वचिल्लोकव्यवहारेऽवतरन्तौति असंव्यावहारिका उच्यन्ते / ते हि यदि परं ययमिव भगवत्या लोकस्थितेरादेशेन महदेवान्यस्थानेषु गच्छन्ति नान्यथा / एते एतेन पुनरस्य पाटकस्य संबन्धिनोलोकाः कुर्वन्ति लोकव्यवहारम् / समाचरन्ति शेषस्थानेषु गमागमं तेन सांव्यवहारिक इत्यभिधीयन्ते / तथा तेषामसंव्यवहारनगरसंबन्धिनामनादिवनस्पतय इति सर्वेषामपि मामान्याभिधानम् / एतत्याटकसम्बन्धिनां तु वनस्पतय इत्येतावान् विशेषः / तथा प्रत्येकचारिणोऽपि प्रामादापवरकन्यायरहिता मुत्कवचारेणात्र विद्यन्ते तेऽसंख्येया लोकाः / ततस्तिष्ठ लमत्र पूर्वपरिचितनगरममान एवायं पाटकस्तवेति / ततो मयोक्तं यदाज्ञापयति देवः / ततः स्थापितोऽहमेकस्मिन्नपवरके शेषलोकास्तु केनचिन्मदीयविधानेनैव स्थापितास्तचैव पाटके केचिन्मुल्कलचारेण / केचित्पुनौताः पाटकान्तरेविति / ततोऽहं तत्र साधारणशरीरनाम्नि भने अपवरके पूर्वोक्किस्थित्यैव सुप्त इव मत्त व मूर्छित व मृत इवानन्तलोकः संपिण्डितैस्तैः ममकमुच्छूमन समकं निःश्वमन् ममकमाहारयन् समकं निरियन् स्थितोऽनन्त For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः। 185 कालमिति / अन्यदा कर्मपरिणममहाराजादेशो नैवानुमतो महत्तमबलाधिकृताभ्यां निःसारितस्ततोऽपवरकन्यायाद् भवितव्यतया धारितस्तचैव पाटके पुनरसंख्यकालं प्रत्येकचारितयेति / दूतश्च पूर्वमेव कर्मपरिणाममहाराजेन परिपृच्छय लोकस्थितिं ममालोच्य सह कालपरिणत्या ज्ञापयित्वा नियतियदृच्छादौनामनुमते भवितव्यतायाः / अपेक्ष्य विचित्राकारं लोकखभावमात्मीयसामर्थप्रभवैः परमाणुभिर्निष्पादिताः सर्वार्थकारिण्य एकभववेद्यसंज्ञाः प्रधानगुडिकाः / समर्पिता भवितव्यतायाः। मा चाभिहिता तेन / यथा भने समस्तलोकव्यापारकरणोद्यता वं श्रान्तासि समस्तचोकानां क्षणे क्षणे नानाविधसुखदुःखादिकार्याणि संपादयन्तौ ततो ग्रहाणामूर्गडिकाः। ततस्त्रया तामामेकैकस्य सत्वस्य जीर्णयां जीर्णायामेकैकस्यां गुडिकायामन्या दातव्या। ततः संपादयत्येताः स्वयमेव विविधमप्येकत्र जन्मवासके वमत्सु प्रत्येकं सत्त्वेष तवेष्टं सर्वं प्रयोजनमिति भविष्यति ते निराकुलता / ततः प्रतिपन्नं भवितव्यतया तद्राजशासनम्। विधत्ते च सकलकालं समस्तमत्त्वानां तथैव मा तं गुडिकाप्रयोगम् / ततोऽहं यदा तत्रासंव्यवहारनगरेऽभूवं तदा मम जोर्णायां जोर्णायामपरां मा गुडिकां दत्तवती। केवलं मूत्ममेव मे रूपमेकाकारं सर्वदा तत्प्रयोगेण विहितवती / तत्र पुनरेकाचनिवामनगरे समागता तौबमोहोदयात्यन्ताबोधयोः कुतूहलमिव दर्शयन्तौ। तेन गुडिकाप्रयोगेण ममानेकाकारं स्वरूपं प्रकटयति स्म। यतः कृतोऽहं तत्र पाटके वर्तमानः कचिदवमरे सूक्ष्मरूपः / 21 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 16 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। तचापि कचित्प्रर्याप्तकरूपः कचिदपर्याप्तकरूपः / तथा कचिवमरे विहितोऽहं बादराकारः। तत्रापि कचित्प्रर्याप्तकरूपः क्वाचदपर्याप्तकरूपः। तथा बादरः मन् क्वचिदपवरकवर्ती क्वचित्प्रत्येकचारी। अत्रापि कचिद१राकारधारकः / क्वचित्कन्दरूपः। क्वचिन्मूलभाजौ। कचित्त्वक्वारौ। क्वचित्स्कन्धवत्तौ / क्वचिच्छाखाचरः / क्वचित्प्रशाखागतः / क्वचित्प्रवालसंचरिष्णुः। क्वचित्पत्राकारः। क्वचित्पुष्यसंस्थः / क्वचित्फलात्मकः। कचिद्दोजखभावः। तथा क्वचिन्मलबौजः। कचिदयबीजः / क्वचित्यर्वबीजः / क्वचित् स्कन्धबौजः / क्वचिद्दोजरुहः / कचित्मम्मळनजः। तथा कचिचाकारः। कचिद्गुल्मरूपः / क्वचिलतात्मकः। कचिदलोखभावः / कचिद्धरितात्मक इति / तथारूपेण च वर्तमानं मामुपलभ्यान्यग्रामनगरसम्बन्धिनो लोकाः कम्पमानं भवितव्यतायाः समक्षमेव छिन्दन्ति भिन्दन्ति दलन्ति पिंषन्ति मोटयन्ति खुञ्चयन्ति तक्ष्णुवन्ति दहन्ति नानाकदर्थनाभिः कदर्थयन्ति तथापि भवितव्यता तत्रोपेक्षां कुरुते / / ततोऽतिवाहिते तथाविधदुःखैरनन्तकाले जीर्णायां पर्यवसानकालदत्तायां गुडिकायां दत्ता भवितव्यतया ममान्या गुडिका / तत्प्रभावागतोहं द्वितीयपाटके तत्र पार्थिवसंजया लोकाः प्रतिवमन्ति / ततोऽहमपि तेषां मध्ये संपन्नः पार्थिवः / विडम्बितस्तत्र भवितव्यतथापरापरएडिकादानदारेण सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्रकरूपतया कृष्णनौलश्वेतपीतलोहितवर्णादिरूपतया मिकतोपललवणहरितालमनःशिलाञ्जनशुद्धपथिव्याद्याकारतया चासंख्येयं कालं तितिचितानि च तत्र पाटके वसता मया भेदनदलनचूर्णन For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दितीयः प्रस्तावः / 187 खण्डनदहजादौनि दुःखानि। ततः पर्यन्तराडिकाजरणावसाने दत्ता भवितव्यतया ममान्या गुडिका गतोऽहं तन्माहात्म्येन हतीये पाटके / तत्र चाप्याभिधानाः कुटुम्बिनः प्रतिवसन्ति / ततो ममापि तत्र गतस्य संपन्नमाप्यरूपम् / विगोपितस्तत्राप्यहं जीर्णायां जीर्णयामपरापरां गुडिकां दत्त्वारूपान्तरं संपादयन्या भवितव्यतया असंख्येयमेव कालम् / तथाहि / कृतोऽहमवश्यायहिममहिकाहरतनुशद्धोदकाधनेकभेदरूपो रूपरसगन्धस्पर्शभेदेन विचित्राकारस्तया। मोढानि च तत्र पाटके वर्तमानेन मया शीतोष्णक्षारक्षत्राद्यनेकशस्त्रसंपाधानि नानादुःखानि / ततस्तत्काञ्चपर्यन्ते जीर्णायामन्यगुडिकायां दत्ता ममापरा गुडिका भवितव्यतया / गतोऽहं तत्तेजमा चतुर्थे पाटके तत्राप्यसंख्येयास्तेजस्कायनामानो ब्राह्मणाः प्रतिवमन्ति / ततोऽहमपि तेषां मध्ये भाखरो वर्णन उष्णः स्पर्णेन दाहात्मकः कायेन शुचिरूपः स्थानेन संपन्नस्तेजस्कायो ब्राह्मणः / प्रवृत्तश्च मम तत्र वसतो ज्वालागारमुर्मुराचिरलातशुद्धानि विद्युदुल्कामनिप्रमतयो व्यपदेशाः / जातानि विध्यापनादितो नानादुःखानि / स्थितः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकरूपतया विवर्त्तमानोऽसंख्येयं कालम् / दत्ता च तदन्ते ममापरा गुडिका पयर्न्तगुडिका जरणावसाने भवितव्यतया / गतोऽहं तदुपयोगेन पञ्चमपाटके / तराप्यसंख्येया वायवौथाभिधानाः चचियाः प्रतिवमन्ति / ततोऽहमपि तत्र गत उष्णशीतः स्पर्शन अलक्ष्यश्चक्षुमतां रूपेण पताकाकारः संस्थानेन संजातो वायवीयः क्षत्रियः / पाहतच तत्र वर्तमानोऽहमुत्कलि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 188 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। कावातो मण्डलिकावातो गुञ्जावातो झज्ञावातः संवर्तकवातो घनवातस्तनुवातः शुद्धवात इत्यादिभिरभिधानः / समुद्भूतानि तत्र मे शस्त्राभिघातनिरोधादीनि नानादुःखानि / विनाटितस्तत्रापि सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकाकाररूपतयाघूर्णमानोऽसंख्येयं कालं भवितव्यतया / दूतस्तदवमाने जाते पर्यन्तगुडिकाजरणे दत्त्वापरां गुडिकां पुनर्नोतोऽहं प्रथमपाटके भवितव्यतया / स्थितस्तत्र पुनरनन्तं कालम् / ततः पुनरपरापरएडिकाप्रयोगेणैव प्रापितो द्वितीयादिपाटकेषु / स्थितश्चैकैकस्मिन्त्रसंख्येयं कालम् / ततश्चानेन प्रकारेण तस्मिवेकाचनिवासे नगरे कारितोऽहमनन्तवाराः ममस्तपाटकपर्यटनविडम्बनं तौबमोहोदयात्यन्तावोधयोः समदं भवितव्यतया / अन्यदा मनाक् प्रसन्नचित्तयाऽभिहितं यथार्यपुत्र स्थितो भूयांसं कालं त्वमत्र नगरे ततोऽपनयामि भवतः स्थानाजौर्णम् / नयामि भवन्तं नगरान्तरे। मयोकं यदाज्ञापयति देवी। तत्र प्रयुक्रा गुडिका भवितव्यतया। दूतश्चास्ति विकलामनिवासं नाम नगरम् / तत्र च त्रयप्रधानपाटका विद्यन्ते / तस्य नगरस्य परिपालकः कर्मपरिणाममहाराजनियुक्त एवोन्मार्गोपदेशो नाम महत्तमः / तस्य च माया नाम रहिणौ। ततोऽहं गुडिकामाहात्म्येन प्राप्तस्तत्र प्रथमे पाटके। तस्मिंश्च सप्तकुलकोटिलक्षवर्त्तिनोऽसंख्येया दिहषीकाभिधानाः कुचपुत्रकाः प्रतिवसन्ति / ततोऽहमपि संपन्नस्तेषां मध्ये विहषौकः / ततो ऽपगता मे मा सुप्तमत्तमृच्छितमृतरूपता। जातो मनागभिव्यक्त चैतन्यः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः / ततश्च / कृतोऽहं गुडिकादानद्वारेणैव ततस्तया / कृमिरूपोऽशचिस्थाने महापापः स्वभार्यया // मूत्रान्त्रक्लेदजम्बालपूरिते जठरे स्थितम् / मां पश्यन्ती विशालाक्षी ततः मा परितुष्यति // कदाचित्मारमेयादिदुर्गन्धित्रणकोटरे / मामन्यकृमिजालेन संयुतं वीक्ष्य मोदते // वापघसरायेषु लोलमानं सुदुःखितम् / मां दृष्ट्वा कृमिभावेन तुष्टाभूद्भवितव्यता // जलकाभावमापाद्य गुडिकादानतस्तथा / ममत्थं चाकरोदुःखं इसन्तौ सह मायया // माये पश्य मदीयस्य भर्तुः सामर्थ्यमौदृशम् / . बमुन्मार्गापदेशेन भर्चात्मा येन गर्विता // . क्षुधाती वारके चिप्तस्ततो निर्गत्य मत्पतिः / निःशेषं कर्षयत्येष व्रणारिं वौर्ययोगतः // अन्यच्च त्यागमामर्थ्यं पश्य भत्तुर्ममेदृशम् / यदेष रक्रसर्वस्खं ददते हस्तधारिणे // ततोऽग्टहीतसङ्केते भद्रे भार्या विडम्बितः / उपहासेन तेनाहं द्विगुणं दुःखमागतः // पुनश्च गुडिकां दत्त्वा कृत्वा शंखं महोदधौ / मामेषा शांखिकैछिवं रटन्तं वीक्ष्य तुष्यति // तदेवं पाटके तत्र वर्तमानः खभार्यया / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 160 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / अपरापररूपेण संख्यातीतं विडम्बित; // अन्यदा पुनर्यथेष्टचेष्टयैव प्रयुक्ता भवितव्यतया ममान्यगुडिका। नौतोऽहं मत्सामर्थन दितीये पाटके। तत्र चाष्टकुलकोटिलवस्थायिनोऽसंख्येयास्त्रिकरणनामानो रहपतयोऽधिवसन्ति / ततोऽहमपि तेषां मध्ये संपन्न स्त्रिकरणो ग्रहपतिः / ततश्च / यूकामत्कुणमत्कोटकुंथुरूपविवर्त्तिनम् / पिपीलिकादिरूपं च कृत्वा मां भवितव्यता // पर्यटन्तं बुभुक्षा- पिथ्यमाणं च बालकैः / दग्धं दृष्ट्वा तथा तोषादानन्दमवगाहते // तदेवं पाट के तत्र गुडिकादानपूर्वकम् / असंख्यवाराः पापोऽहं कारितो नैकरूपताम् // अथान्यदा पुनर्दत्ता गुडिका मे ऽवहेलया। हतीये पाटके नौतस्तयैवोचितहेलया // कोटिलचकुलानां च वसन्ति नव तत्र थे। असंख्यास्तेषु विद्यन्ते चतुरक्षाः कुटुम्बिनः // ततोऽहमपि संजातश्चतरचः कुटुम्बिकः / पतङ्गमक्षिकादंशवृश्चिकाकारधारकः // मोढानि तत्र दुःखानि नानाकाराणि तिष्ठता / निर्विवेकजनादिभ्यो मर्दनादिविधानतः // जौर्ण जीर्ण पुनर्दत्ता गुडिकामपरापराम् / असंख्यरूपैस्तत्रापि पाटके माटितस्तया // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः / भूयो भूयश्च तेष्वेव पाटकेषु विवर्त्तनम् / संख्यातीतानि वर्षाणां सहस्राणि विधापितः // एवं च स्थिते / कचित्पर्याप्तरूपेण तथापर्याप्तरूपकः / तेषु त्रिवपि पत्न्याऽहं पाटकेषु विनाटितः // .. अथान्यदा प्रहृष्टेन चेतमा भवितव्यता। ज्ञात्वा तदुचितं कालं ततः सेत्थदमभाषत / आर्यपुत्र भवन्तं किं नयामि नगरान्तरम् / विकलाक्षनिवासेऽत्र नगरे नास्ति ते तिः // मयोकं देवि यत्तुभ्यं रोचते तद्विधीयताम् / किमच बहुना त्वं मे प्रमाणं सर्वकर्मस // ततो जीणीं मम ज्ञात्वा गुडिकामन्तवर्तिनीम् / नगरान्तरयानाय प्रयुक्ता गुडिका तया // अथोन्मार्गापदेशस्य प्रतिजागरणे स्थितम् / पञ्चाक्षपशुसंस्थानं नामास्ति नगरं परम् // तत्र मा त्रिपञ्चाशत्कोटीलक्षप्रमाणके / वमन्ति कुलसंघाते लोकाः पञ्चाक्षनामकाः // जलस्थलनभश्चराः स्पष्टचैतन्यसंयुताः / संजिनस्तेऽभिधीयन्ते गर्भजा इति वा बुधैः // ये पुनस्तत्र विद्यन्ते स्पष्टचैतन्यवर्जिताः / অগ্নিল রনি জ্ঞানাৰ স্বচ্ছলতা লা: ततोऽहं तेषु संभातः स्पष्टचैतन्यवर्जितः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 182 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। पञ्चाक्षो नाम विख्यातो गुडिकायाः प्रभावतः / रटत्युच्चैर्विना कार्य दर्दुराकारधारकः / केलिप्रियतया तत्र भार्ययाहं विनाटितः // तत्र च सन्मूर्छनजमध्ये / रूपैरेवममांख्येयैर्धमयित्वा ततस्तया / विहितो गर्भजाकारधारकोऽहं महेलया / ततश्च जलचरेषु वर्तमानः / ग्टहीतो धीवरैस्तत्र बिधाणो मत्स्यरूपताम् / छेदपाकादिभिर्दुःखं प्रापितोऽहं सहस्रशः // तथा चतुष्पदस्थलचरेषु वर्तमानस्य / .. शशसूकरमारङ्गरूपमाबिभ्रतो मम / व्याधैर्भित्वा शरैर्गात्रं कृता नाना विकतनाः // तथा भुजपरिसरःपरिसर्पषु वर्त्तमानेन / गोधाहिनकुलादीनां रूपं धारयता चिरम् / अन्योन्यभक्षणद् दुःखं प्राप्तं क्रूरतया मया // तथा / काकोलकादिरूपाणां पक्षिणां मध्यचारिणम् / संख्यातीतानि दुःखानि मोढानि सुचिरं मया // असंख्यजनसङ्कीर्णं तदेवं तत्र पत्तने / जलस्थलनभचारी मंजातोऽहं कुले कुले // अन्यच्च तस्मिन् पञ्चाक्षपशुसंस्थाने नगरे। मताष्टवारारूपाणि नैरन्तर्यण कारितः / नौतस्ततोऽन्यस्थानेषु तत्रानौतः पुनस्तया // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः। 163 एवं च स्थिते / शेषेषु सर्वस्थानेषु गत्वा गत्वान्तरान्तरा / मया तत्र पुरेऽनन्ताः कृता रूपविडम्बनाः // कालतस्तु / स्थितश्च नैरन्तर्येण परं पल्योपमत्रयम् / अहं तत्र पुरे किं चित्माधिकं पूर्वकोटिभिः / / अमंजिमंजिरूपेण पर्याप्तरभेदतः / तदेवं नगरे तत्र नानाकारैर्विडम्बितः // अन्यदा कुरङ्गरूपः संपादितोऽहं भवितव्यतया / स्थितो यूथमध्ये तरलिततारं भयेन निरीक्षमाणो दशापि दिश उत्प्लवमानस्तरुशिखराणौतश्चेतश्च पर्यटामि। यावदेकेन लुब्धककुमाकरण कलध्वनिना प्रारब्धं गौतम् / ततस्तेनाचितं मृगयूथम् / परित्यकमुत्प्लवनं / निरुद्धा चेष्टा / निश्चलौकृतानि लोचनानि / निवत्तः शेषेन्द्रियव्यापारः / संजातः कर्णन्द्रियमात्रनिमनोऽन्तरात्मा / ततो निष्पन्दमन्दीभूतं तत्तादृशं हरिणयथमवलोक्याभ्यर्णीभूतो व्याधः / प्रगुणीकृतं कोदण्डम् / मन्धितस्तत्र शिलीमुखः / बद्धमालौढं स्थानकम् / ईषदाकुञ्चिता कन्धरा / समाकृष्टो बाण: कर्णान्तं यावत् / ततो मुक्तेन तेनारामागे वर्तमानोऽहं निर्भिद्य पातितो भूतले / अचान्तरे जौर्ण मे पूर्वदत्ता गुडिका / ततो जीर्णायां तस्यां हरिणभवनिबन्धनभूतायामेकभववेद्यायां गुडिकायां दत्ता ममान्या गुडिका भवितव्यतया। संपन्नस्तन्माहात्म्येनाहं करिवररूपः / वर्द्धितः कालक्रमेण संजातो यथाधिपतिः / ततः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 164 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / स्वभावसुन्दरेषु नलवनेषु अभीष्टतमेषु मल्लकौकिसलयेषु अत्यन्तकमनीयेषु वनविभागेषु परिकरितः करेणुकान्देन चित्तानन्दसन्दोहसागरमवगाहमानो यथेष्टचेष्टया विचरामि / यावदेकदाकाण्ड एव संत्रस्तं तत्करियथम् / नश्यन्ति श्वापदानि / श्रूयते वेणुस्फोटरवः / प्रसर्पितं धूमवितानम् / ततः किमेतदिति निरीक्षितो मया पश्चाद्भूभागः / यावनिकटौभूतो ज्वालामालाकुलो दवानलस्ततः प्रादुर्भुतं मे मरणभयम् / परित्यक्त पौरुषम् / अङ्गौलतं दैन्यम् / समाश्रिता प्रात्मम्भरिता। व्यपगतोऽहङ्कारः। परित्यतं यूथम् / पलायितो टहौवैकां दिशम् / गतः स्तोकं भूभागम् / तत्र चासोचिरन्ननग्रामपशुसंबन्धी विशाल: शुष्कोऽन्धः कूपः / स च तटवर्तिहणव्यवहिततया भयाकुलतया च न लक्षितो मया धावता वेगेन। ततः प्रविष्टौ मम तवायपादौ / तभिरालम्बतया पर्यस्तः पश्चाद्भागः / ततः पतितोऽहमुत्तानशरीरस्तत्रान्धकूपे / संचूर्णितो गात्रभारेण मूर्छितः क्षणमा लब्धा कथंचिचेतना यावन्न चालयितुं शक्नोमि शरीरं प्रादुर्भूता च सर्वागौणा तौबवेदना ततः संजातो मे पश्चात्तापः। चिन्तितं च मया / यथेदृशमेव बुध्यते मादृशानाम्। ये प्रतिपन्नम्त्यभावं चिरकालपरिचितमुपकारकमापनिमग्रमनुरक्तमात्मवर्ग परित्यज्य कृतघ्नतया कुक्षिभरितामुररीकुर्वन्तः पलायन्ते। अहो मे निर्लज्जताद्यापि किल यथाधिपतिशब्दो रूढः / तत्किमनेनाधुना खचेष्टितानुरूपमेवेदं मम संपन्नमतो न मया मनसि खेदो विधेयः / ततोऽनया भावनया प्रतिपन्नं मया मनाङ् माध्यस्थम् / तितिक्षिता For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः। भवन्तौ तौवापि वेदना / स्थितस्तदवस्थः सप्तराचं यावत् / अत्रानरे तुष्टा ममोपरि भवितव्यता / ततस्तयाभिहितम् / मावार्यपुत्र साधु शोभनस्तेऽध्यवमायः / तितिक्षितं भवता परमं दुःखम्। तुष्टाहमिदानौं भवतो ऽनेन चेष्टितेन नयामि भवन्तं नगरान्तरे। मयाभिहितम् / यदाज्ञापयति देवी। ततो दर्शितस्तया सुन्दराकारः पुरुषः / अभिहितश्चायं यथार्यपुत्र तुष्टया मयायमधुना भवतः महायो निरूपितः पुण्योदयो नाम पुरुषस्तदनेन मह भवता गन्तव्यम् / मयाभिहितं यदाज्ञापयति देवौ / अत्रान्तरे जीर्णा मे पूर्वदत्ता गुडिका / ततः प्रयुक्तान्यागुडिका भवितव्यतया / अभिहितं च तया / यथार्यपुत्र तव गतस्थायं पुण्योदयस्ते प्रच्छन्नरूपः सहोदरः महचरश्च भविष्यतीति / एवं च वदति संसारिजौवे भव्य पुरुषः प्रज्ञाविशालायाः कर्णाभ्यर्ण स्थित्वेदमाह / यथाम्ब कोऽयं पुरुषः किं वानेन कथयितमारब्धम् / कानि चामूनि असंव्यवहारादौनि नगराणि का चेयं गुडिका / यैकैकवासके प्रयुका मतौ नानाविधरूपाणि कारयति / विविधसुखदुःखादिकार्याणि दर्शयति / कथं वा पुरुषस्येयन्तं कालमेकस्यावस्थितिः / कथं चासंभावनौयानि मनुव्यस्थ सतः कृमिपिपीलिकारूपाणि जायेरन् / तदिदं सकलमपूर्वालजालकल्पमस्य तस्करस्य चरितं मम प्रतिभासते तत्कथयाम्बिके कोऽस्य भावार्थ इति / प्रज्ञा विशालयोक्तम् / वत्स यदस्येदानौंतनं विशेषरूपमुपलभ्यते तन्नानेन कथितम् / किं तर्हि मामान्यरूपेण संसारिजौवनामायं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 166 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। पुरुषोऽतस्तदेवानेनात्माभिधानमाख्यातमनेन चात्मचरितम् / सर्वमिदं घटमानकमेव निवेदयितुं प्रक्रान्तम् / तथाहि / असांव्यवहारिकजीवराशिरत्रासंव्यवहारनगरम् / एकेन्द्रियजातयः पञ्चापि पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपास्तेषां स्थानं एकाक्षनिवासम्। विकलेन्द्रियाणां द्वौन्द्रियत्रौन्द्रियचतुरिन्द्रियलक्षणानां स्थानं विकलाक्षनिवासम्। पञ्चेन्द्रियं तिरश्चां निलयः पञ्चाक्षपएसंस्थानम् / एकजन्मप्रायोग्यं कर्म प्रकृतिजालमेकभववेद्या गुडिकेत्युच्यते / तदुदयेन भवन्येव नानाविधरूपाणि / संपद्यन्ते एव विविधसुखदुःखानि कार्याणि / अजरामरश्चायं परुषः / ततो युक्रमेवास्यानन्तमपि कालमवस्थानं संसारिजौवस्य चात्र भद्र भवत्येव कृमिपिपीलिकादिरूपाणि / किमत्राश्चर्यमथवा मुग्धबुद्धिरद्यापि वत्मो न जानौते यदस्य स्वरूपम् / वत्म न संभवत्येव भवनोदरे तत्संविधानकम्। यदस्य संसारिजीवस्य संबन्धिना चरितेनावतरति। तद्वत्स निवेदयतु तावदेषः सर्वं यथावृत्तम्। पश्चात्तवाहमस्य भावार्थं निराकुला कथयिष्यामि / भव्यपुरुषेणोक्तम् / यदाज्ञापयत्यम्बेति / उत्पत्तिस्तावदस्यां भवति नियमतो वर्यमानुय्यभूमौ भव्यस्थ प्राणभाजः समयपरिणतेः कर्मणश्च प्रभावात् / एतञ्चाख्यातमत्र प्रथममनुततस्तस्य बोधार्थमित्थं प्रक्रान्तोऽयं समस्तः कथयितमतलो जीवसंमारचारः // सच मदागमवाक्यमपेक्ष्य भो जडजनाय च तेन निवेद्यते / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयः प्रस्तावः। बुधजनेन विचारपरायण स्तदनु भव्यजनः प्रतिबुध्यते // प्रस्तावेऽत्र निवेदितं तदतलं संसारविस्फूर्जितं धन्यानामिदमाकलय्य विरतिः संसारतो जायते / येषां त्वेष भवो विमूढमनमां भोः सुन्दरो भामते ते नूनं पशवो न सन्ति मनुजाः कार्येण मन्यामहे / इत्युपमितभवप्रपञ्चायां कथायां संसारिजीव चरिते तिर्यगगतिवर्णनो नाम द्वितीयः प्रस्तावः // 2 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तृतीयः प्रस्तावः। भवप्रपञ्चस्तिर्यचु वर्तमानस्य देहिनः / एष प्रोक्तो मनुष्यत्वे यस्यात्तदधुनोच्यते // संमारिजौव उवाच / नतोऽहं भट्रेऽग्टहीतसङ्केते ममाखादितैकभववेद्यगुडिकः प्रवृत्तो गन्तुम्। इतशास्त्यस्यामेव मनुजगतौ नगयीं भरताभिधानः पाटकः। तस्य च विशेषकभूतमस्ति जयस्थलं नाम नगरम। तत्र च महानपतिगुणसंपदालिङ्गितमूर्तिः पद्मो नाम राजा। तस्य च रतिरिव मकरकेतनस्य नन्दा नाम प्रधानदेवौ। ततोऽहं तस्याः कुक्षौ प्रवेशितो भवितव्यतया स्थितस्तत्रोचितकालम् / निर्गतः सह पुण्योदयेन दृष्टो नन्दया संपन्नस्तस्थाः पुत्रो मम जात इत्यभिमानो निवेदितः प्रमोदकुम्भाभिधानेन दासदारकेण नरपतये / प्रादुर्भुतः सुतो मे इति समुत्पन्नस्तस्थाप्यनुशयः / हर्षविशेषादुलमितो गात्रेषु पुलको दः / दापितं निवेदकदारकाथ पारितोषिकम् / ममादिष्टो मज्जन्ममहोत्सवः / ततो दीयन्ते महादानानि। मुच्यन्ते बन्धनानि / पूज्यन्ते नगरदेवताः। क्रियन्ते हट्टद्दारशोभाः। शोध्यन्ते राजमार्गाः। आहन्यन्ते श्रानन्दभेर्यः। श्रागच्छन्ति विशेषोज्वलनेपथ्या राजकुले नागरकलोकाः / विधीयन्ते तदुपचाराः। प्रयुज्यन्ते समाचाराः। श्रास्फाल्यन्ते बर्यसंघाताः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतौयः प्रस्तावः / 169 गौयन्ते धवलमङ्गलानि / नृत्यन्ति ललनालोकाः मह कञ्चुकिवामनकुमादिभिर्नरेन्द्रवृन्देनेति / ततश्चैवं वृत्ते जन्ममहानन्दे अप्तिक्रान्ते मासे तिरोधाय संसारिजीव इत्यभिधानं प्रतिष्ठित मे नन्दिवर्द्धन इति नाम / जातो ममाप्यहमनयोः पुत्र इत्यभिमानः। ततो जनयत्रानन्दं जननौजनकयोः पञ्चभिर्धात्रीभिललितः संपबोऽहं त्रिवार्षिकः / मम चासंव्यवहारनगरादारभ्य सकलं कालं दिविधः परिकरोऽनुवर्त्तते / तद्यथा / अन्तरङ्गो बहिरङ्गश्च / तत्रान्तरङ्गपरिकरमध्येऽस्ति ममाविवेकिता नाम ब्राह्मणजातीया धात्री सापि प्रसूता मजन्मदिने जातो दारकः प्रतिष्ठितं तस्य नाम वैश्वानर इति / स चादित एवारभ्यानभिव्यक्तरूपतयामौदेव। केवलमधुनाभिव्यकरूपः संपन्नः। ततो मयासौ मह धारयन् वैरकलहाभिधानौ विषमविस्तीर्णौ चरणौ दधानः परिस्थलकठिनहखेास्तेयाऽभिधाने जंघे समुदहन्ननुशयानुपशमनामानौ विषमप्रतिष्ठितावूरू विधाण: पैशुन्यमंज्ञकमेकपाचनतं कटितटं दर्शयन् परमद्घिट्टननामकं वक्त्रं विषमं लम्बमुदरं कलितोन्तस्तापनामकेनातिसङ्कटेनोरःस्थलेन युक्तः क्षारमत्मरमंज्ञाभ्यां विषमपरिहस्वाभ्यां बाहुभ्यां विराजमानः करतारूपया वक्रया सुदीर्घया च शिरोधरया विडम्व्यमानोऽसभ्यभाषणादिरूपैर्वर्जितदन्तच्छदैविरलविरलैमहद्भिर्दशनैर्विगोप्यमानश्चण्डत्वामहनत्वनामकाभ्यां शुषिरमात्ररूपाभ्यां कर्णाभ्यामुपहास्यस्थानं ताममभावसंज्ञया स्थानमात्रेण लक्ष्यमाणयातिचिपटया नासिकया बिद्भासुरताम् / रौद्रत्वनृशंसत्वसंज्ञाभ्यामतिरकतया For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 200 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / गुञ्जार्द्धसंनिभाभ्यां वर्तुलाभ्यां लोचनाभ्यां विनाद्यमानोऽनार्याचरणसंज्ञकेन महता त्रिकोणेन शिरमा यथार्थोकुर्वाणो वैश्वानरतां परोपतापसंज्ञकेनातिपिङ्गलतया ज्वालाकलापकल्पेन केशभारेण दृष्टो वैश्वानरो ब्राह्मणदारक इति / ततोऽनादिपरिचयादाविर्भूतो मम तस्योपरि स्नेहः होतो मित्रबुड्या न लक्षिता परमार्थशत्रुरूपता। अविवेकितापुत्रोऽयमिति संपन्नास्योपरि गाढमन्तरङ्गपरिजनतया हितकारी ममायमिति बुद्धिः। ततो लक्षितस्तेन मदीयो भावः। अये करोत्येष ममोपरि राजपुत्रः प्रौतिं तदेनमुपसर्पामि / ततः समागतो निकटे समालिङ्गितोऽहं दर्शितः स्नेहभावः प्ररूढश्चावयोः प्रणयः लग्ना मैत्री / ततो यत्र यत्र क्वचिदहं संचरामि ग्टहे बहिश्च तत्र तत्र नासौ क्षणमपि मुञ्चतौति / ततो रुष्टो निजचित्तमध्ये ममोपरि पुण्योदयो वैश्वानरेण मह मैत्रीकरणेन / चिन्तितं च तेन / अये मम रिपुरेष वैश्वनरस्तथाप्येवमविशेषज्ञोऽयं नन्दिवर्द्धनो येन मामनुरक्कमवधौर्यानेन समस्तदोषराशिरूपेणात्मनोऽपि परमार्थवैरिणा मह मैत्रौं करोति / अथवा किमत्राश्चर्य न वक्षयन्येव मूढाः पापमित्रस्वरूपम् / मावबुध्यन्ते तत्मङ्गते१रन्तताम् / न बहु मन्यन्ते तत्मङ्गनिवारक मदुपदेष्टारम् / परित्यजन्ति तलते सन्मित्राणि / प्रतिपद्यन्ते तदशेन कुमार्गम् / ते हि यदि परं धावन्तोऽन्धा व कुडयादौ गाढं स्फोटलाभेन पापमित्रमङ्गानिवर्तन्ते। न परोपदेशेनेति। मूढचायं नन्दिवर्द्धनकुमारो योऽनेनापि मह माङ्गत्यं विधत्ते। तत्किं ममानेन For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 201 निवारितेन / निर्दिष्टश्चाहमस्य भवितव्यतया / महचरत्वेनावर्जितश्वाहमनेन करिरूपतायां वर्तमानेन वेदनासमुहातेऽपि निश्चलतया माध्यस्थभावनया / तस्मादेव नन्दिवर्द्धनकुमारः पापमित्रमङ्गतिपरोऽपि नाकाण्ड एव मम तावन्मोक शुक्र इति पर्यालोच्यासौ पुण्योदयो रुष्टोऽपि मम पार्श्व तदा प्रच्छन्नरूपतया मदा तिष्ठत्येव / जात्याश्चान्येऽपि वहिरङ्गा मम बहवो वयस्याः / ततस्तैः मार्द्धमनेकक्रीडाभिः क्रीडन्नहं प्रवर्द्धितं प्रवृत्तः / प्रस्तुते च क्रौडने मत्तो महत्तमा अपि डिम्भाः प्रधान कुलजा अपि पराक्रमवन्तोऽपि मां वैश्वानराधिष्ठितमवलोक्य भयेन कम्पन्ते गच्छन्ति च मम प्रणतिं कुर्वन्ति चाटुकर्माणि प्रतिपद्यन्ते पदातिभावं धावन्ति पुरतो न प्रतिकूलयन्ति मदचनम् / किं बना / लिखितादपि मत्तो बिभ्यतीति / तस्य च सर्वस्यापि व्यतिकरस्या चिन्त्यमाहात्म्यतया प्रच्छन्नरूपोऽपि पुण्योदयः कारणम् / मम तु महामोहवशात्तदा चेतसि परिस्फुरितम् / यदुत तदेते वृहत्तमा अपि डिम्भा ममैवं कुर्वाणा वर्तन्ते सोऽयमस्य वरमित्रस्य वैश्वानरस्य गुण: / यतोऽयं मन्निहितः / सन्नात्मौयमामर्थ्येन वर्द्धयति मम तेजस्विताम् / करोत्युत्माहम् / प्रोज्वलयति बलम् / संपादयत्योजः। स्थिरीकरोति मनः। जनयति धौरताम् / विधत्ते शौण्डीरताम् / किंबहुना। समस्तपुरुषगुणर्मामेष योजयति / ततोऽनया भावनया संजातो वल्लभतरो मे वैश्वानरः / ततः संजातोऽहमटवार्षिकः / समुत्पन्ना पद्मनृपते श्चिन्ता ग्राह्यतामधुना कुमारः कला इति / ततो निरूपितः प्रशस्तदिवमः / समाहृतः 26 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 202 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्रधानः कसाचार्यः / पूजितोऽसौ विधिना / कृतमुचितकरणोयम्। समर्पितोऽहं तस्य पिचा महतादरेणेति। समर्पिताच मदीयभ्रातरोऽन्येऽपि बहवो राजदारकाः प्रागेव तस्य कलाचार्यस्य / ततस्तैः मार्द्धमहं प्रवृत्तः कलाग्रहणं कर्तुम् / ततः संपूर्णतया मापकरणानां गुरुतया तातोत्साहनस्य हिततया कलाचार्यस्य निश्चिनतया कुमारभावस्य सन्निहिततया पुण्योदयस्थोत्कटतया क्षयोपशमस्थानुकूलतया तदा भवितव्यताया अनन्यहृदयतया मया ग्टहीतप्रायः स्वल्पकालेनैव मकलोऽपि कलाकलापः / केवलमतिवल्लभतया सदा मन्निहितोऽसौ वैश्वानरः सनिमित्तमनिमित्तं वा करोति मम समालिङ्गमम् / ततस्तेन समालिङ्गितोऽहं न स्मरामि गुरूपदेशम् / न गणयामि कुलकलङ्कम् / न बिभेमि तातमनःखेदस्य / न लक्ष्यामि परमार्थम् / न जानाम्यात्मनोऽन्तस्तापम् / न वेद्मि कलाभ्यामनिरर्थकत्वम् / किन्तु त मेव वैश्वानरमेकं प्रियं कृत्वा तदुपदेशेन गलत्स्वेद बिन्दुरनौकृतलोचनो भुनभृकुटिः करोमि समस्तदारकैः मह कलहं विदधामि सर्वेषां मोद्धाटनम् / उच्चारयाम्यसत्यवचनानि / न क्षमे तेषां मध्यस्थमपि वचनम् / ताडयामि प्रत्येकं यथा सन्निहितेन फलकादिना। ततस्ते सर्वेऽपि वैश्वानरालिङ्गितं मामवलोक्य भयेन वस्तमानमाः सन्तो वदन्यनुकूलं कुर्वन्ति चाटूनि पाराधयन्ति मां पादपतनैः / किं बहुना / मदीयगन्धेनापि ते वीर्यवन्तोऽपि राजदारका नागदमनौहतप्रतापा दूव विषधरा न स्वतन्त्र श्रेष्टन्ते / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 203 ततस्ते समुदिनाः कम्पमाना बन्धनागारगता इव महादुःखेन जननौजनकानुरोधेन कलाग्रहणं कुर्वन्तः कालं नयन्ति / न कथथन्ति तं व्यतिकरं कलाचार्याय मा भृत्सर्वेषां प्रलय इति भावनया / तथापि नित्यमन्निहितत्वालक्षयत्येव तन्मामकं चेष्टितं सकलं कलाचार्यः / केवलं दारकेषु दृष्टविपाकतया भयेन वस्तहदयोऽसावपि न मम संमुखमपि शिक्षणार्थं निरीक्षिते / यदि पुनरन्यव्यपदेशेनापि मां प्रत्येष किञ्चिद् ब्रूयात्ततोऽहमेनमपि कलाचार्यमाक्रोशामि ताडयामि च / ततोऽमावपि मम राजदारकववर्त्तते / ततो महामोहदोषेण मया चिन्तितम् / अहो मे वरमित्रस्य माहात्म्यातिशयः / अहो हितकारिता। अहो कौशलम् / अहो वत्सलता। अहो स्थिरानुरागः / यदेषसमालिङ्गानदारेण मम मौर्यतां संपाद्य मामेवं सर्वत्राप्रतिहताशं जनयति / न च मां क्षणमपि मुञ्चतौति। तदेष मे परमो बन्धुरेष परमं शरीरमेष मे सर्वस्वमेष मे जीवितमेष एव मे परं तवमिति / अनेन रहितः पुरुषोऽकिंचित्करतया राणपुरुषान विशिष्यते / ततश्चैवंविधभावनया संजातो मम वैश्वानरस्योपरिस्थिरतानुरागः / अन्यदा रहसि प्रवृत्ते तेन सह विषम्भजल्ये मयाभिहितं वरमित्र किमनेन बहुना जल्पितेन युभदायता मम प्राणास्तदेते भवता यथेष्टं नियोजनौया इति / ततश्चिन्तितं वैश्वानरेण अये सफलो मे परिश्रमो यदेष मम वशवत्तौं वर्त्तते / दर्शितोऽनेनैवं वदता निर्भरोऽनुरागः / अनुरकाश्य प्राणिनः समाकर्णयन्ति वचनम् / टपहन्ति निर्विकल्पम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 204 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्रवर्तन्ते तत्र भावेन / संपादयन्ति क्रियण / तदिदमत्र प्राप्तकालमिति विचिन्त्य तेनाभिहितं कुमार। एवमेतत्कः खल्वत्र सन्देहः / यच्च ग्टहौतहृदयमद्भावानामपि मादृशां पुरतः कुमारोऽप्येवं मन्त्रयति / महाप्रमादोऽत्र कारणम्। म हि हर्षात्कर्षाजातार्थमपि वाक्यं बलाझाणयति / तत्किमनेन करोमि कुमारस्थाहमक्षयान प्राणान्। एष एवमेतन्नियोगो मयाभिहितम् / कथं तेनोनं जानाम्यहं किंचिद्रमायनम् / मयाभिहितं करोतु वरवयस्थः / तेनोक्र यदाज्ञापयति कुमारः। ततः कृतानि तेन क्रूरचित्ताभिधानानि वटकानि समुपनौतानि मे रहसि वर्तमानस्य / अभिहितश्चाहं कुमार एतानि मदौयसामर्थ्यप्रभवानि वर्तन्ते वटकानि / कुर्वन्त्युपयुज्यमानानि वौर्यात्कर्षसंपादनेन पुरुषस्य मवें यथेष्टं दौर्घतरं चायुकम् / तस्माद् ग्टहाण त्वमेतानि / अत्रान्तरे लघुध्वनिना कक्षान्तरस्थितेन केनाप्यभिहितम् / भविष्यति नवाभिमते स्थाने कोऽत्र सन्देहः / न श्रुतं तन्मया / श्रुतं वैश्वानरेण / ततः संपत्स्यते मम समौहितम् / यास्थत्येष वटकोपयोगेन महानरके / भविष्यति तत्र गतस्थास्य दौर्घमायकम् / कथमन्यथैवं विधः शब्दो महानरक एव ममाभिहितं स्थानमिति भावनया तुष्टोऽसौ चित्तेन / मयामिहितं किं न संपद्यते मे भवादृशि वरमित्रेऽनुकूले / तदाकर्ण्य द्विगुणतरं परितुष्टोऽसौ समर्पितानि वटकानि ग्टहौतानि मया / अभिहितं च तेन कुमारायमपरो मम प्रसादो विधेयः कुमारेण यदुत For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 205 मयावमरे संज्ञिते न निर्विकल्पमतेषां मध्यादेकं वटकं भवितव्यं कुमारेणेति / मयाभिहितं किमत्र प्रार्थनया। निवेदित एवायमात्मा वरमित्रस्य / वैश्वानरेणाभिहितम् / महाप्रसादोऽनुग्रहोतोऽहं कुमारेणेति / इतश्च तातेन सर्वत्र विश्वसनीयो नियुक्तो राजवल्लभो दारकः। यदुत अरे विदुर समादिष्टो मया कुमारः। यथानन्यमनस्केन भवता कलाग्रहणं विधेयम् / अहमपि न द्रष्टव्योऽहमेव भवन्तमागत्य द्रक्ष्यामि / तदेवं स्थिते मम राज्यकार्यव्याकुलतया कदाचित्तत्समौपे गमनं न संपद्येत ततो भवता प्रतिदिनं कुमारशरीरवार्ता मम संपादनौया विदुरेणोकम् यदाज्ञापयति देवः ततः संपादयता तेन तद्राजशासनं लक्षितः स सर्वाऽपि मदीयो राजदारककलाचार्यकदर्थनव्यतिकरः / तथापि मनःक्षतिभयेन कियन्तमपि कालं न कथितोऽसौ ताताय अतिभरमवलोक्य निवेदितोऽन्यदा ततश्चिन्तितं तातेन नैष विदुरस्तावदमत्यं भाषते। न चापि कुमारः प्रायेणैवंविधमाचरति तत्किमत्र तत्वं भविष्यतौति न जानीमहे / यदि च कलाचार्यस्यापि कदर्थनं विधत्ते कुमारो निष्पन्नं ततः कलाग्रहणप्रयोजनमिति चिन्तया समुदिनोऽभूत्तातश्चित्तेन पुनश्चिन्तितमनेनेदम् / अत्र प्राप्तकालं पृच्छामि तावत्कलाचार्यमेव यथावस्थितम् / ततो निश्चित्य वृत्तान्तं तन्निवारणोपाये यत्नं करिष्यामि ततः प्रेषितस्तदाकारणाय सबहुमानं विदुरः समागतः कलाचार्यः / अभ्युत्थितस्तातेन दापितमामनं विहिता परिचर्या ततस्तदनुज्ञातविष्टरोपविष्टेन तातेनाभिहितं ार्य बुद्धिसमुद्र अपि ममुत्सर्पति कलाग्रहणं कुमाराणाम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 206 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तेनाभिहितं देव बाढमुत्सर्पति यमदनुभावेन तातेनाभिहितं किं परिणताः काश्चिनन्दिवर्द्धनकुमारस्य कलाः कलाचार्यणाभिहितं सुष्ट परिणताः देव निष्पन्न एव कलासु नन्दिवर्द्धनकुमारः / तथाहि / खौकतमनेन समस्तमपि लिपिज्ञानं स्वयं पृष्ठमिव गणितं उत्पादितमिवात्मना व्याकरणं त्रीभूतमस्य ज्योतिष मात्मौभूतमष्टाङ्गमहानिमित्तं व्याख्यातमन्येभ्यश्छन्दोऽनेन अभ्यस्तं नत्तं शिक्षितं गेयं प्रणयिनीवास्य हस्तशिक्षा वयस्येव धनुर्वेदः मित्रमिव वैद्यकं निर्देशकारोव धातुवादः अनुचराणीव नरलक्षणादीनि श्राधेयविक्रयानि पत्रच्छेद्यादौनि। किंबहुना नास्ति मा काचित्कला या कुमारमासाद्य न प्राप्ता परां काष्ठामिति / ततः प्रादुर्भवदानन्दोदकपरिपूरितनयनयुगलेनाभिहितं तातेन आर्य एवमेतत् किमत्राश्चर्यम् किं वार्य कृतोद्योगे न संपद्यते कुमारस्य धन्यः कुमारो यस्य युमादृशा गुरवः बुद्धिसमुद्रेणोक्त देव मामैवमादिश केऽत्र वयं यमदनुभावोऽयं तातेनाभिहितं आर्य किमनेनोपचारवचमा युमत्प्रसादेनैवास्मदानन्दसन्दर्भदायिकां संप्राप्तः कुमारः सकलगुणभाजनताम् / बुद्धिसमुद्रेणोक्तं यद्येवं ततो देवकर्तव्येषु नियुक्तरनुचरैर्न वञ्चनीयाः खामिन इति पर्यालोचनया किंचिद्देवं विज्ञापयितुमिच्छामि तच्च युक्तमयुक्तं वा चन्तुमर्हति देवो यतो यथार्थं मनोहरं च दुर्लभं वचनम् / तातेनाभिहितं वदत्वार्यः यथावस्थितवचने कोऽवमरोऽक्षमाया: बुद्धिसमुद्रेणोक्त यद्येवं ततो यदादिष्टं देवेन यथा सकलगुणभाजनता संप्राप्तः कुमार इति तथैव स्वाभाविकं कुमारस्य स्वरूपं प्रतीत्य नास्यत्र For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 207 सन्देहः किन्तु सकलमपि कुमारस्य गुणसन्दोहं कलङ्केनेव शशधरं कण्टकेनेव तामरमं कार्पण्येनेव वित्तनिचयं नैर्लज्येनेव स्त्रीजनं भौरुत्वेनेव पुरुषवर्ग परोपतापेनेव धर्म वैश्वानरसंपर्कण दूषितमहमवगच्छामि। यतः मकलस्यापि कलाकलापकौशलस्य प्रशमोऽलङ्करणम् / एष तु वैश्वानरपापमित्रतया सन्निहितः मन्त्रात्मौयसामर्थन तं प्रशमं कुमारस्य नाशयति / कुमारस्तु महामोहवशात्परमार्थवैरिणमप्येनं वैश्वानरं परमोपकारिणमाकलयति तदनेनेदृशेन पापमित्रेण यस्य प्रतिहतं जानमारं प्रणमामृतं कुमारस्य तस्य निष्फलो गुणप्राग्भार इति / ततस्तदाकर्ण्य तातो वजाहत व ग्टहीतो महादुःखेन ततस्ताते नाभिहितं भद्र वेदक परित्यजेदं चन्दनरससेकशीतलं तालवन्तं न मामेष बहिस्तापो बाधते गच्छ समाङ्क्षय कुमारं येनापनयामि तस्य पापमित्रसंसर्गवारणेन दुःमहमात्मनोऽन्तस्तापमिति / ततो विमुच्य तालवृन्तं क्षितिनिहितजानुकरमस्तकेन वेदकेनाभिहितं यदाज्ञापयति देवः किन्तु महाप्रयोजनमपेक्ष्य भविस्थाम्यहमस्थापितमहत्तमः ततो न तत्र देवेन कोपः करणीयः / तातेनाभिहितं भद्र हितभाषिणि कः कोपावसरो वदतु विवक्षितं भद्रः। वेदकेनाभिहितं देव यद्येवं ततः कुमारपरिचयादेवावधारितमिदं मा यदुतायं वैश्वानरोऽन्तरङ्गभूतः कुमारस्य वयस्यो न शक्योऽधुना केनाप्यपसारयितुं ग्टहीतः कुमारेणात्यर्थ हितबन्धुबुध्या For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / न शक्नोति तदिरहे क्षणमप्यासितुं कुमारः यतो न लभते तिं ग्टह्यते रणरणकेन मन्यते लणतुल्यमनेन रहितमात्मनम् / ___ ततो यद्यप्ययं कुमारो वैश्वानरसंसर्गत्यागं प्रति किंचिदुच्यते ततोऽहमेवं तर्कयामि महान्तमुद्धेगं कुर्यात् आत्मघातादिकं वा विदयात् अन्यद्वा किंचिदकाण्डविड्वरमनर्थान्तरं संपादयेदित्यतो नात्रार्थ किंचिद्वक्त कुमारमर्हति देवः / बुद्धिममुद्रेणोक्र देव सत्यमेव सर्वमिदं यदावेदितं वेद केन / तथाहि। वयमपि कुमारस्य पापमित्रसंबन्धवारणे गाढमुद्युक्ताः सकलकालमास्महे चिन्तितं चास्माभिः यद्ययं कुमारोऽनेन वैश्वानरपापमित्रेण वियुज्येत ततः सत्यं नन्दिबर्द्धनः स्थात् केवलमौदृशं कथंचिदनयोर्गाढनिरूढं प्रेम येन न शक्यतेऽधुना कुमारोऽनर्थभौरतया वियोजनं विधातुमित्यतोऽशक्यानुष्ठानरूपं कुमारस्य वैश्वानरेण मह मैत्रीवारणमिति मन्यामहे। तातेनाभिहितमार्य कः पुनरत्रोपायो भविष्यति / बुद्धिसमुद्रेणोक्तम्। अतिगहनमेतत् / वयमपि न जानौमो विदुरेणाभिहितम् / देव श्रूयतेऽत्र कश्चिदतीतानागतवर्त्तमानपदार्थवेदी समागतो जिनमतज्ञो नाम सिद्धपुत्रो महानैमित्तिकः म कदाचिदत्रोपायं लक्षयति / तातेनाभिहितं साध्वभिहितं भद्र माधु शौघ्र समाहयतां म भवता विदुरेणाभिहितं यदाज्ञापयति दव इति / निर्गतो विदुरः समागतो नैमित्तिकेन मह स्तोकवेलकया दृष्टो नैमित्तिकस्तातेन तुष्टश्चेतमा दापितमासनं कृतमुचितकरणौयं कथितो व्यतिकरः / ततो बुद्धिनाडौसंचारेण निरूप्य तेनाभिहितं महाराज न विद्यतेऽत्रान्यः कश्चिदुपायः। एक For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीयः प्रस्तावः / 206 एवात्र परमुपायो विद्यते दुर्लभश्चासौ प्रायेण / तातेनाभिहितं कीदृशः स इति कथयनार्यः। जिनमतज्ञेनाभिहितं महाराजाकर्णय / अस्ति रहितं सर्वोपद्रवैर्निवासस्थानं समस्तगुणानां कारणं कल्याणपरंपराया दुर्लभं मन्दभागधेयश्चित्तसौन्दर्य नाम नगरम्। तथाहि / वसतां तत्र लोकानां नगरे पुण्यकर्मणाम् / रागादिचरटाः सर्वे जायन्ते नैव बाधकाः // यतश्च क्षुत्पिपासाद्या बाधन्ते तत्र नो जनम् / ततस्तदुच्यते धौरैः सर्वोपद्रववर्जितम् // ज्ञानादिभाजनं लोकस्तदशेनैव जायते / कलाकलापकौशल्यं न ततोऽन्यत्र विद्यते / भवन्यौदार्यगाम्भौर्यधैर्यवीर्यादयो गुणाः / वसतां तत्र तत्सर्वगुणस्थानमतो मतम् // यतश्च वसतां तत्र धन्यानां संप्रवर्तते / उत्तरोत्तरभावेन विशिष्टा सुखपद्धतिः // न च संपद्यते तस्याः प्रतिपातः कदाचन / कल्याणपद्धतेहेतरतस्तनगरं मतम् // सर्वोपद्रवनिमुक्त समस्तगुणभूषितम् / कल्याणपद्धतेर्हेतुर्यत एव च तत्पुरम् // अतएव मदानन्दं तत्मपुण्यनिषेवितम् / नगरं चित्तसौन्दर्यं मन्दभाग्यैः सुदुर्लभम् // मत्र च नगरेऽस्ति हितकारी सर्वलोकानां कृतोद्योगो दुष्ट 27 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 21. उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। निग्रहे दत्तावधानः शिष्टपरिपालने परिपूर्ण: कोशदण्डसमुदयेन शुभपरिणामो नाम राजा / यतोऽसौ सर्वलोकानां चित्तसन्तापवारकः / तथा संपर्कमात्रेण महानन्दविधायकः // सदनुष्ठानमार्गेऽपि जन्तूनां स प्रवर्तकः / अतो वौरजनैलॊके हितकारी निगद्यते // रागद्वेषमहामोहक्रोधलोभमदभ्रमाः / कामाशोकदैन्याद्या ये चान्ये दुःखहेतवः // दुष्टचेष्टतया नित्यं लोकसन्तापकारिणः / तेषामुद्दलनं राजा म कुर्वन्नवतिष्ठते // ज्ञानवैराग्यसंतोषत्यागसौजन्यलक्षणाः / ये चान्ये जनताल्हादकारिणः शिष्टसंमताः // तेषां स राजा सततं परिपालनतत्परः / अस्ति निःशेषकर्त्तव्यव्यापारविमुखः सदा // धौधतिम्मतिसंवेगशमाद्यैः परिपूर्यते / भाण्डागारं यतस्तस्य गुणरत्नैः प्रतिक्षणम् // दण्डश्च वर्द्धते तस्य चतुर्भेदबलात्मकः / शौलाङ्गलक्षणनित्यं रथदन्तिहयादिभिः // दुष्टानां निग्रहामनः शिष्टानां परिपालकः / कोशदण्डसमृद्धश्च तेनासौ गौयते नृपः // तस्य च शुभपरिणामस्य राज्ञो ग्टहीतजयपताका शरीरसौन्दर्यण विनिर्जितभुवनत्रयकलाकलापकौशलेनापहसितरतिवि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 211 भ्रमा विलासविस्तरेणाधरितारुन्धतीमहात्म्यातिशया निजपतिभक्तितया निष्प्रकम्पता नाम महादेवी / एकत्र सर्वायत्नेन कृतालङ्कारचर्चनम् / सुरासुरनरस्त्रैणं यस्यालोकेऽतिसुन्दरम् // क्षोभार्थं मुनिसंघस्य कदाचिदुपतिष्ठते / अन्यस्यां दिशि संस्थाप्य मा देवी निष्पकम्पता // श्रामक्तिर्मुनिचित्तानां तस्यामेवोपजायते / अतः शरीरसौन्दर्यात्मा ग्टहीतपताकिका // रुनेन्द्रोपेन्द्रचन्द्राद्याः कलाकौशलशालिनः / ये चान्ये लोकविख्याता विद्यन्ते भुवनत्रये // लोभकामादिभिः सर्वे जितास्ते भावशत्रुभिः / न कौशलमतस्तेषां विद्यते परमार्थतः // तस्यास्तु देव्यास्तत्किंचित्कौशलं येन लौलया / तान्पराजयते तेन साभिभूतजगत्त्रया / रतेर्विलासाः कामस्य केवलं तोषहेतवः / मुनयस्तु पुनस्तेषां न वार्तामपि जानते // तस्याः सकाः पुनर्देव्या व्रतनिर्वाहणादयः / विचामा मुनिलोकस्य मानसाक्षेपकारिणः // अतोपहसिता सत्यं स्खविलासै रतिस्तया / यथा च भर्तुर्भका मा तयेदानौं निगद्यते // श्रापनिमनभर्तारं प्रक्राम्य निजजीवितम् / निर्वाहयति वीर्यण तेनामौ भर्त्तवत्सला For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा अरुन्धती पुनर्नैव पत्युः संरक्षणक्षमा / निष्पकम्पतया तस्मात् भर्तृभकतया जिता // किंचेह बहनोक्न राज्ञः कार्यप्रसाधनो। तस्य राज्ये परं मारा सा देवी निष्पकम्पता // तयोश्च निष्पकम्पता शुभपरिणामयोर्दैवीनृपयोरस्ति प्रकर्षः सुन्दराणामुत्पत्तिभूमिराश्चर्याणां मञ्जूषा गुणरत्नराणे: वपुर्वैलचएयेन मुनौनामपि मनोहारिणौ शान्तिर्नाम दुहिता / यतः मा मततानन्ददायिनी पर्युपामिता / स्मरणेनापि निःशेषदोषमोषविधायनी // निरोचते विशालाक्षी यबरं किल खोलया। पण्डितः स महात्मेति कृत्वा गाढं प्रशस्यते // आलिङ्गनं पुनस्तस्थामन्यो यो लस्यते नरः / स सर्वनरवर्गस्य चक्रवर्ती भविष्यति // अतथारुतरं तस्या नान्या जगति विद्यते / प्रकर्षसन्दराण मा विवद्भिस्तेन गौयते // सयानकेवलज्ञानमहर्द्धिशमादयः / लोकानामङ्गता भावा ये चमत्कारकारिणः // ते भवन्ति भविष्यन्ति भूताथानन्तशो यतः / तत्प्रसादेन सत्वानां तामाराधयतां सदा // उत्पत्तिभूमिः मा तस्मादाश्चर्याणामुदाहता / यथा च रत्नमञ्जूषा तथेदानौं निबोधत // दानशीलतपोज्ञानकुलरूपपराक्रमाः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टयीयः प्रस्तावः / 213 सत्यशौचार्जवालोभवौर्येश्वर्यादयो गुणाः // ये केचित्सुन्दरा लोके वर्तन्ते रनरूपिणः / शान्तिरेवहि सर्वेषां तेषामाधारतां गता // तेनासौ रत्नमञ्षा विद्वद्भिः परिकीर्तिता / चान्तिहीना गुणाः सर्वे न शोभन्ते निराश्रयाः // अथवा / शान्तिरेव महादानं शान्तिरेव महातपः / / शान्तिरेव महाज्ञानं चान्तिरेव महादमः / चान्तिरेव महाशीलं चान्तिरेव महाकुलम् // . क्षान्तिरेव महावीर्य चान्तिरेव पराक्रमः / शान्तिरेव च मन्तोषः शान्तिरिन्द्रियनिग्रहः // चान्तिरेव महाशौचं क्षान्तिरेव महादया / क्षान्तिरेव महारूपं शान्तिरेव महाबलम् // ' शान्तिरेव महैश्वर्य शान्तिधैर्यमुदाहता / चान्तिरेव परं ब्रह्म सत्यं चान्तिःप्रकीर्तिता // चान्तिरेव परा मुक्तिः शान्तिः सर्वार्थसाधिका / शान्तिरेव जगदन्द्या चान्तिरेव जगद्धिता // / शान्तिरेव जगज्ज्येष्ठा शान्तिः कल्याणदायिका / चान्तिरेव जगत्पूज्या शान्तिः परममङ्गलम् // शान्तिरेवौषधं चारु मर्वव्याधिनिबर्हणम् / शान्तिरेवारिनिर्नाशं चतुरङ्गं महाबलम् // किंचात्र बहुनोक्रेन क्षान्तौ सवें प्रतिष्ठितम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / अतएव तु मा कन्या मुनिलोकमनोहरा // कुर्यादीदृशरूपायां को न चित्तं सचेतनः / अन्यच्च / यस्य चित्तं ममारोहेदिलमन्तौ खलीलया / मा कन्या धन्यतां प्राप्य सोऽपि तद्रपतां ब्रजेत् // अतः सम्यग्गणाकांक्षी कः सकण न तां हृदि / कुर्यात्कन्यां सदाकालं सर्वकामसमर्पिकाम् // एवं च स्थिते / मा गुणोत्कर्षयोगेन कन्या सर्वाङ्गसुन्दरा / अस्य वैश्वानरस्योः प्रतिपक्षतया स्थिता // तस्या दर्शनमात्रेण भौतभौतः सुविकलः / एष वैश्वानरो मन्ये दूरतः प्रपलायते // निःशेषदोषपुञ्जोऽयं मा कन्या गुणमन्दिरम् / साक्षादग्निरयं पापः मा पुनर्हिमगौतला // महावस्थानमेवं हि नानयोर्विद्यते क्वचित् / विरोधभावात्तेनैवमस्माभिरभिधीयते // यदेष कन्यां तां धन्यां कुमारः परिणश्यति / अनेन पापमित्रेण तदा मैत्रौं विहास्थति // अत्रान्तरे चिन्तितं विदुरेण अये अनेन जिनमतज्ञेन नैमित्ति केनेदमभिहितं यथा चित्तमौन्दर्य यः शुभपरिणामः तस्य या निष्पकम्पता तजनिता या चान्तिः मैवामुं नन्दिवर्द्धनकुमारस्थानेन For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 215 पापमित्रेण वैश्वानरेण सह संसर्ग निवारयितुं समर्था नान्यस्तत्रिवारणे कश्चिदुपाय इति तत्सर्वमनेन युक्तमुकम् / अथवा किमत्राशयं न हि जिनमतज्ञः कदाचिदयुक्त भाषते ततस्तन्निमित्तकवचनमाकर्ण्य तातेनावलोकितं पार्श्ववर्त्तिनो मतिधनस्य महामन्त्रिणो वदनम् / स्थितोऽसौ प्रव्हतरोऽभिहितस्तातेन आर्य मतिधन श्रुतमेतद्भवता मतिधनेनाभिहितं देव श्रुतं तातेनाभिहितं ार्य यद्येवं ततो महदिदं मम चित्तोद्देगकारणं यद्येष विशिष्टजनस्पहणीयोऽपि कुमारस्य गुणकलापः पापमित्रसम्बन्धदूषितो निष्फल: संपन्न इति तद्गच्छ शौघं प्रेषय चित्तसौन्दर्य वचनविन्यामकुशलान् प्रधानमहत्तमान् ग्राहय तद्देशासम्भवौनि प्राभूतानि इति। उपदिश गच्छतां तेषां निरन्तरसम्बन्धकरणपटन्युपचारवचनानि याचय कुमारार्थं शुभपरिणाम शान्तिदारिकामिति / मतिधनेनाभिहितं यदाज्ञापयति देव इति निर्गन्तुं प्रवृत्तो मतिधनः जिनमतज्ञेनाभिहितं महाराज अलमनेनारम्भेण न खल्वेवंविधगमनयोग्यं तन्नगरं तातेनाभिहितं ार्य कथं जिनमतज्ञेनाभिहितं महाराज समस्तान्येवात्र लोके नगरराजभार्यापुत्रमित्रादौ नि वस्तूनि द्विविधानि भवन्ति तद्यथान्तरङ्गाणि बहिरङ्गाणि च तत्र बहिरङ्गेष्वेव वस्तुषु भवादृशां गमनाज्ञापनादिव्यापारी नान्तरङ्गेषु एतच्च नगरं राजा तत्पनी दुहिता च सर्वमन्तरङ्गं वर्तते तब युज्यते तत्र महत्तमप्रेषणं तातेनाभिहितं ार्य कः पुनस्तत्र प्रभवति जिनमतज्ञेनाभिहितं योऽन्तरङ्ग एव राजा तातेनाभिहितं आर्य कः पुनरसौ जिनमतज्ञेनाभिषितं महाराज For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 216 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / कर्मपरिणामः तस्य हि शुभपरिणामस्य कर्मपरिणामेनैव भटभुक्त्या दत्तं तन्नगरम् / अतस्तदायत्तोऽसौ वर्त्तते तातेनाभिहितं आर्य किं भवत्यसौ कर्मपरिणामो मादृशामभ्यर्थनाविषयो जिनमतज्ञेनाभिहितं महाराज नैतदेवं स हि यथेष्टकारी प्रायेण नापेक्षते सत्पुरुषाभ्यर्थनां म रज्यते सदुपचारवचनेन न ग्टह्यते परोपरोधेन नानुकम्पते दृष्ट्वाप्यापगतं जनं केवलममावपि कार्य विदधानः पृच्छति महत्तमभगिनौं लोकस्थितिं पर्यालोचयति स्वभार्या कालपरिणतिं कथयत्यात्मीयमहत्तमाय स्वभावाय / अनुवर्तते नन्दिवर्द्धनकुमारस्य समस्तभवान्तरानुयायिनौं प्रच्छन्नरूपां भायाँ भवितव्यतां बिभेति कियन्माचं नन्दिवर्द्धनकुमारवीर्यादपि स्वप्रवृत्तौ। ततश्चैवंविधमन्तरङ्गपरिजनं स्वसंभावनया सन्मान्य एष कर्मपरिणाममहाराजः कार्यं कुर्वाणो न बहिरङ्गलोकं रटन्तमपि गणयति किंतर्हि यदात्मने रोचते तदेव विधत्ते तस्मानायमभ्यर्थनोचितः किंतु यदास्य प्रतिभासिष्यते तदा स्वयमेव कुमाराय दापयिष्यति शुभपरिणामेन शान्तिदारिकामिति / तातेमाभिहितं आर्य हतास्तर्हि वयं यतो न ज्ञायते कदा चित्तस्य प्रतिभासिष्यते अस्मिंश्चानपमारिते पापमित्रे कुमारस्य समस्तगुणविफलतया न किंचिदस्माकं जौवतीति कला जिनमतज्ञेनाभिहितं महाराजालं विषादेन किमत्र क्रियते यदौदृशमेवेदं प्रयोजनमिति / तथाहि नरः प्रमादौ शक्येऽर्थ स्थादुपालम्भभाजनम् / अशक्यवस्तुविषये पुरुषो नापराध्यति // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीय प्रस्तावः। 217 अपि च / योऽशक्येर्थे प्रवर्तत अनपेक्ष्य बलाबलम् / श्रात्मनश्च परेषां च म हास्यः स्यादिपश्चिताम् // तदचैवं स्थिते कार्य यद्भविष्यत्तया परम् / भवतां त्यक्तचिन्तानामामितुं युज्यते ध्रुवम् // अन्यच्च कथ्यते किं चिच्चेतसः स्वास्थ्यकारणम् / निरालम्बनतामेत्य माभूदैन्यं भवादृशाम् // तातेनाभिहितं आर्य साधूक्तं समाश्वासिता वयमनेन भवता पश्चिमवचनेन तत्कथय किं तदस्माकं चेतमः स्वास्थ्यकारणमिति जिनमतज्ञेनाभिहितं महाराज अख्त्यस्य कुमारस्य प्रच्छन्नरूपः पुण्योदयो नाम वयस्यः स यावदस्य पार्श्ववर्ती तावदेष वैश्वानरः पापमित्रतया यं यमन) कुमारस्य संपादयिष्यति स मोऽस्य प्रत्युतार्थरूपतया पर्यवस्यतौति तदाकर्ण्य मनाक् स्वस्थौभूतस्तातः। अचान्तरे दिनकरमम्बरतलस्य मध्यभागमारूढं निवेदयनाडिकाछेदप्रहतपटहनादानुसारी समुत्थितः शाखशब्दः / पठितं कालनिवेदकेन / न क्रोधात्तेजसो वृद्धिः किं तु मध्यस्थभावतः / दर्शयविति लोकानां सूर्यो मध्यस्थतां गतः / / तातेनाभिहितमये मध्यान्हसमयो वर्तते ततः समुत्थातव्यमिदानौमिति कृत्वा विसर्जितो राजलोकः पूजितौ कलाचार्य नैमित्तिको प्रस्थापितौ म बड़मानं ततो नैमित्तिकवचनादशक्यानुष्ठानमेतदिति जातनिर्णयेनापि तातेन मोहततथापत्यवेहस्य 28 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 218 उपमितिभवप्रपच्चा कथा / समादिष्टो विदुरः / यदुत परीक्षितव्यो भवता कुमाराभिप्रायः किं शक्यतेऽस्मात्यापमित्राद्वियोजयितं कुमारो न वेति। विदुरेणभिहितं यदाज्ञापयति देवः। ततः समुत्थितस्तातः कृतं दिवमोचितं कर्त्तव्यं द्वितीयदिने समागतो मम समीपे विदुरो विहितप्रणामो निषषणो मदन्तिके पृष्टो मया भद्र ह्यः किनागतोऽसि विदुरेण चिन्तितं श्रये समादिष्टस्तावदहं देवेन यथा लक्षयितव्यो भवता कुमाराभिप्रायः ततोऽहमस्मै यत् तत्माधुभ्यः सकाशादाकर्णितमासोन्मया दुर्जनसंसर्गदोषप्रतिपादकमुदाहरणं तत्कथयामि ततो विज्ञास्यते खल्वेतदीयोऽभिसन्धिरित्येवं विचिन्य विदुरेणाभिहितम् / कुमार किंचिदाक्षिण्यमभून्मयाभिहितं कीदृशं विदुरेमाभिहितं कथानकमाकर्णितं मथाभिहितं वर्णय कीदृशं तत्कथानकं विदुरेणाभिहितं वर्णयामि केवलमवहितेन श्रोतव्यं कुमारण मयाभिहितम् एष दत्तावधानोऽस्मि विदुरेणाभिहितं अस्त्यस्यामेव मनुजगतौ नगर्यामस्मिन्नेव भरताभिधाने पाटके चितिप्रतिष्ठितं नाम नगरं तत्रास्ति वौर्यनिधानभूतः कर्मविलासो नाम राजा तस्य च दे अग्रमहिथ्यौ शुभसुन्दरी अकुशलमाला च तत्र शुभसुन्दर्याः पुत्रोऽस्ति मनौषो नाम / बालोऽकुशलमालायास्तौच मनौषिबालौ संप्राप्तकुमारभावौ नानाकारेषु काननादिषु क्रौडास्ममनुभवन्तौ यथेष्टचेष्टया विचरतः / अन्यदा खदेहाभिधाने कानने नातिदूरादेव दृष्टस्ताभ्यां कश्चित्पुरुषः। स च तयोः पश्यतोरेव समारूढस्तच्छ्रयाभिधानं बल्मौकं निबद्धस्तेन मूर्द्धनामकतरुणाखायां पाशको निमितः शिरोधरायां प्रवाहितश्चात्मा ततो मा माइसं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 218 मा साहसमिति वदन्तौ प्राप्तौ ससंभ्रमं तत्ममोपं कुमारौ छिन्त्रः पाशको बालेन ततः संमोहविहलो भनलोचनश्च पतितोऽसौ पुरुषो भूतले समाल्हादितो वायुदानेन कुमाराभ्यां लब्धा चेतना उन्मौलिते लोचने निरीक्षिता दिशो दृष्टौ कुमारौ अभिहितस्ताभ्यां भद्र किमेतदधमपुरुषोचितं भवता व्यवसितं किं वा भट्रस्येदृशाध्यवसायस्थ कारणमिति कथयतु भद्रो यद्यनाख्येयं न भवति। ततो दीर्घदौर्घ निश्वस्य पुरुषेणाभिहितम्। अलमस्मदीयकथया न सुन्दरमनुष्ठितं भद्राभ्यां यदहमात्मदुःखानलं निर्वापयितुकामो भवद्भ्यां धारितः तदधुनापि न कर्त्तव्यो मे विघ्न इति ब्रुवाणः समुत्थितः पुनरात्मानमुल्लम्ब यितममौ पुरुषो धृतो बालेन अभिहितश्च। भद्रकथय तावदस्माकमुपरोधेन ववृत्तान्तं ततो यद्यलब्धप्रतीकारः स्था ततो यदुचितं तत्कुर्याः। पुरुषेणाभिहितं यदि निर्बन्धस्ततः श्रूयतां श्रासौन्मम शरौरमिव सर्वस्खमिव जौवितमिव हृदयमिव द्वितीयं भवजन्तु म मित्रं स चातिस्नेहनिर्भरतया न क्षणमात्रमपि मां विरहयति किं तईि मकलकालं मामेव लालयति पालयति पृच्छति च मां क्षणे क्षणे। यदुत भट्र स्पर्शन किं तुभ्यं रोचते ततो यद्यदहं वदामि तत्तदसौ भवजन्तुर्मम वयस्यो वत्मलतया संपादयति न कदाचिन्मत्प्रतिकूलं विधत्ते। अन्यदा मम मन्दभाग्यतया दृष्टस्तेन मदागमो नाम पुरुषः / पर्यालोचितं .च मह तेन किंचिदेकन्ते भवजन्तुना भावितचित्तेन / इष्ट दूव लक्ष्यते ततस्तत्कालादारभ्य शिथिलीभूतो ममोपरि खेहबन्धः / न करोति तथा लालनां म दर्शयत्यात्मबुद्धिं न प्रवर्तते मदुपदेशेन न मम वार्तामपि प्रनयति For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 220 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्रत्युत मां वैरिकमेव मन्यते दर्शयति विप्रियाणि सकलं प्रतिकूलमासेवते ततो मया चिन्तित हा इन्त किमेतत् न मया किंचिदस्य व्यलोकमाचरितं किमित्ययमकाण्ड एव भवजन्तुः षष्ठिकापरावर्तित वान्यथा संवृत्तः / हा हतोऽस्मि मन्दभाग्य इत्यारारव्यमानो वजाहत व पिष्ट व हृतमर्वस्व दुव शोकभराक्रान्तमूर्तिः प्राप्तोऽहं दुःखातिरेकं लक्षितं च कथंचित्पर्यालोचयता मया अये सर्वोऽप्ययं सदागमपर्यालोचजनितोऽनर्थव्यतिकरो विप्रतारितोऽयं मम वयस्योऽनेन पापेन म चोन्मूलयबिव मम हृदयं पुनः पुनस्तेन सदागमेन मह रहसि पर्यालोचयति तं निवारणार्थं रटन्तमपि मां नाकर्णयति यथा यथा च भवजन्तोः सदागमपर्यालोचः सुतरां परिणमति तथा तथा मामेष नितरां शिथिलयति ततः प्रवर्द्धते मे गाढतरं दुःखं अन्यदा दृढतरं पर्यालोच्य मदागमेन मह किंचिदेकान्ते चोटितो मया मह संबन्धः सर्वथैव भवजन्तुना परिछिन्नोऽहं चित्तेन त्यकानि मम वल्लभानि मदचनेनैव ग्टहौतानि यानि पूर्व कोमललीगण्डपिधानादिसनाथानि शयनानि विरहितानि हंसपक्ष्मादिपूरितान्यासनानि मुक्कानि वृहतिकापावाररल्लिकाचौनांशकपटांशुकादौनि कोमलवस्त्राणि प्रत्याख्यातानि मम सुखदायौनि शीतोष्णतप्रतिकूलतथा सेव्यानि कस्तूरिकागुरुचन्दनादौनि विलेपनानि वर्जितः सर्वथा ममाहादातिरेकसंपादकः कोमलतनुलताकलितो ललनासंघातस्ततः प्रभृति म भवजन्तुः करोति केशोत्पाटनं शेते कठिनभूमौ धारयति भरौरे मलं परिधत्ते जरचौवराणि वर्जयति दूरतः स्त्रौगात्रसङ्ग For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 221 कथंचिदापने तस्मिन्करोति प्रायश्चित्तं सहते माघमासे गोतं टण्हाति ज्येष्ठाषाढयोरातपं सर्वथा परमवैरिक व यद्यत्किंचिन्मे प्रतिकूलं तत्मर्वमाचरति ततो मया चिन्तितं परित्यक्तस्तावत्सर्वथाहमनेन ग्टहीतश्च शत्रुबुया तथाप्यामरणान्ताः प्रणयाः सज्जनानामिति वृद्धवादः / ततो यद्यप्ययमनेन सदागमपापमित्रेण विप्रतारितो मामेवं कदर्थयति तथाप्यकाण्ड एव न मया मोक्तव्यो यतो भद्रकोऽयं ममात्मीयप्रकृत्या लक्षितो बहुना कालेन कृतानि भूयांसि ममानुकूलानि सदागममेलकजनितोऽयमस्य विपर्यासः / तत्कदाचिदपगच्छत्येष कालेन ततो भविष्यति ममोपरि पूर्ववदस्य स्नेहभावः / एवं पर्यालोच्य व्यवस्थितोऽहं बहिष्क्रतोऽपि तेन भवजन्तुना तस्यैव सम्बन्धिनि शरीराभिधाने प्रासादे महादुःखानुभवेन कालमुदीक्षमाणो दुराशापाशावपाशितः सन् कियन्तमपि कालमिति / अन्यदा सदागमवचनमनुवर्तमानस्तिर स्वात्य मां पुरुषक्रियया निष्कास्य ततोऽपि प्रासादात्परमाधार्मिक व निघृणतथा मामाक्रन्दन्तं तमवगणय्य रुष्ट इव तत्र यास्यामि यत्र भवन्तं लोचनाभ्यां न द्रक्ष्यामौत्यभिधाय गतः कुत्रचित्म चेदानौं निईतौ नगयों प्राप्त: श्रूयते मा च मादृशामगम्या नगरौ ततो मया चिन्तितं किमधुनापि मम प्रियमित्रपरिभूतेन तदिरहितेनाजागलस्तनकल्पेन जौवितेन ततश्चेदमध्यवसितमिति / बालेनाभिहितं साधु स्पर्शन माधु स्थाने भवतो व्यवसायः दुःसहं हि प्रियमित्रपरिभवदुःखं तद्विरहसन्तापश्च न शक्यतेऽन्यथा यापयितुम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 222 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तथाहि / न शक्यः सहजात्सोढुं क्षमिणापि पराभवः / कतकेन हि निर्मुकः पाषाणोऽपि प्रलोयते // मानिनां मित्रविरहे जीवितं नैव युज्यते / इदं हि नश्यता तुणे वासरेण निवेदितम् // अहो ते मित्रवत्सलता अहो ते स्थिरानुरागः अहो कृतज्ञता अहो माहसं अहो निर्मिथ्यभावतेति भवजन्तोः पुनरहो क्षणरक्तविरक्तता अहो ते कृतघ्नता अहो अलौकिकलं अहो मूढता अहो खरहृदयत्वं अहो अनार्यानुष्ठानप्रवृत्तिरिति केवलमेवमपि स्थिते ब्रवौम्यहमत्र किंचित्तदाकर्णयत भद्रः / स्पर्शनेनाभिहितं वदतु निर्विकल्पमार्यः / बालेनाभिहितम्। अलब्धप्रतीकाराणामभिमानावलम्विनाम् / खेहैकबद्धकक्षाणां युक्रमेतद्भवादृशाम् // तथापि मदनुग्रहेण धारणौया भद्रेण प्राणा इतरथा ममापौयमेव गतिः रञ्जितोऽहमनेन भवतो निष्कृत्रिममित्रवात्सल्येन दाक्षिण्यमहोदधयश्च सत्पुरुषा भवन्ति सत्पुरुषश्च भट्रकार्यतो गम्येत / अतः कर्त्तव्यमेवैतत् निर्विचारं ममाकं वचनं भद्रेण। यद्यपि चूतमनोरथा न चिञ्चिनिकया पूर्यन्ते तथापि मदनुकम्पया भवता मत्मबन्ध एव भवजन्तुविरहदुःखप्रतीकारबुड्या मन्तव्यः / स्पर्शनेनाभिहितम् / माधु आर्य माधु धारिता एव भवतानुपकृतवत्मलेनातिखिग्धवचनामृतसेकेनानेन स्वयमेव विलीयमाना मदीयप्राणाः। किमत्र वक्तव्यं नष्टौ मेऽधुना शोकसन्तापौ विस्मारित इव भवता For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 223 भवजन्तुः शौतलीभूतं नयमयुगलं श्राङ्गादितं चित्तं निर्वापितं मे शरीरं भवद्दर्शनेन किं बहुना त्वमेवाधुना भवजन्तुरिति ततः संजातस्तयोर्निरन्तरं खेहभावः / मनौषिणा चिन्तितं न खलु सहजोऽनुरक्तो वयस्यः केनचित्प्रेक्षापूर्वकारिण पुरुषेण निर्दोषस्यज्यते। न च सदागमो निर्दोष कदाचित्त्याजयति / स हि गाढं पर्यालोचितकारौ श्रुतमस्माभिः / तदत्र कारणेन भवितव्यं न सुन्दरः खल्वेष स्पर्शनः प्रायेण तदनेन मह मैत्रौं कुर्वता विरूपमाचरितं बालेन एवं चिन्तयन्नेव मनौषी संभाषितः स्पर्शनेन कृतं मनौषिणापि लोकयात्रानुरोधेन संभाषणं संजाता तेनापि सह बहिश्छायया मैत्री स्पर्शनस्य / प्रविष्टाः सर्वेऽपि नगरे संप्राप्ता राजभवनं दृष्टो दत्तास्थानः कर्मविलासः मह महादेवीभ्यां कृतं पादपतनं जननीजनकानाम् / आनन्दितास्तैराशौर्वादेन दापितान्यासनानि नोपविष्ठास्तेषु निषणा भूतले दर्शितः स्पर्शनः कथितस्तदृत्तान्तः प्रकाशितश्चात्मनश्च तेन सह मैत्रीभावः कुमाराभ्यां परितुष्टः कर्मविलास: चिन्तितमनेन मम तावदपथ्यसेवनमिव व्याधेरुपचयहेतुरेष स्पर्शन: दृष्ट एव मयानेकशः पूर्वं तत्सुन्दरमेतत्संपवं यदनेन महानयोमैत्री संजातेति केवलं प्रकृतिरियं ममानादिरूढा वर्त्तते / यदुत योऽस्यानुकूलस्तस्य मया प्रतिकूलेन भवितव्यं यः पुनरस्थ प्रतिकूलो मिरभिष्वङ्गतया तस्य मया सुन्दरं वर्त्तितव्यं यः पुनरेकान्ततस्त्यजति म मयापि सर्वथा मोक्रव्य एव तदेवं स्थिते निरीक्ष्य निरीक्ष्य कुमारयोरेनं प्रतिचेष्टितं यथोचितं करिष्यामौति विचिक्याभिहितं कर्मविलामेन वलौ सुन्दरमनुष्ठितं भवड्यां यदेष For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 224 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / स्पर्शनः प्राणत्यागं विदधानो धारितो मैत्रीकरणेन पुनः सुन्दरतरं चौरं खण्डयोगतुल्यों हि वत्मयोरनयोः साढे संबन्धः / अकुशलमालया चिन्तितं अहो मे धन्यता भविष्यत्येतत्संबन्धेन मम यथार्थं नाम यो ह्यस्य स्पर्शनस्थानुकूलः स ममात्यन्तवल्लभः स एव च मां वर्द्धयति पालयति मदौयस्नेहफलं चानुभवति नेतरः बहुशोऽनुभूतपूर्वमेतन्या एष मदीयस्त नुरेनं प्रति मुखरागण गाढमनुकूलो लक्ष्यते / ततो भविष्यति मनोरथपूर्त्तिरिति विचिन्य तया बालं प्रत्यभिहितं वत्म सुन्दरमनुष्ठितं अवियोगो भवतु भवतः सुमित्रेणेति शुभसुन्दा चिन्तितं न सुन्दरः खल्वेष मम तनयस्य पापमित्रसम्बन्धः रिपुरेष परमार्थन कारणमनर्थपरम्परायाः शत्रुरयं ममापि महजो वर्तते कदर्थिताहमनेन बहुशः पूर्वं नास्त्येव मयास्य च महावस्थानं केवलमेतावानच चित्तसन्धारणाहेतुः यदेष मदीयपुत्रोऽमुं प्रति मुखच्छायया दृष्टिविकारेण च विरक्त व लक्ष्यते ततो न प्रभविष्यति प्रायेण ममायं पापो थदि वा न ज्ञायते किं भविष्यति विषमः खल्वेष दुरात्मा इत्याद्यनेकविकल्पमालाकुलमानसापि गंभौरतया मौनेनैव स्थिता शुभसुन्दरौ। अचान्तरे संजातो मध्यानः उपसंहृतमास्थानं गताः सर्वेऽपि स्वस्थानेषु तद्दिनादारभ्य प्रवर्द्धते बालस्य स्पर्शनेन सह स्नेहावन्धः चकितस्तिछति सर्वथा मनीषी न गच्छति विशंभं स्पर्शनस्तु सदा सन्निहिततया कुमारयोरन्तर्बहिश्च न पाश्वं मुञ्चति ततः पर्यटन्ति ते सहिता एव नानास्थानेषु कौडन्ति विविधकौडाभिस्ततो मनौषिणा चिन्तितं कीदृशमनेन स्पर्शनेन सह विचरतां सर्वत्राविश्रब्धचित्तानां For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 225 सुखं न चैष तावदद्यापि सम्यग् लक्ष्यते कीदृशस्वरूप इति न चाज्ञातपरमार्थैरेष निर्धारयितुं संग्टहीत वा पार्यते / तदिदमत्र प्राप्तकालं गवेषयामि तावदस्य मूलशुद्धिं ततो विज्ञाय यथोचितमाचरिष्यामौति स्थापितः सिद्धान्तस्ततः समाहतो रहसि बोधो नामाङ्गरक्षः / अभिहितश्चासौ भद्र ममास्य स्पर्शनस्योपरि महानविश्रंभः तदस्य मूलशुद्धिं सम्यगवबुध्य शीघ्रमावेदय। बोधेनाभिहितं यदाज्ञापयति कुमार इति निर्गतो बोधः / ततोऽभ्यस्तसमस्तदेशभाषाकौशलो बहुविधवेषविरचनाचतुरः खामिकार्यबद्धकक्षो लब्धलक्ष्योऽनुपलक्ष्यश्च प्रहितस्तेनात्मौयः प्रभावो नाम पुरुषः प्रणिधिः श्रादिष्टश्चासौ प्रस्तुतप्रयोजनं ततो विविधदेशेषु कियन्तमपि कालं पर्यव्य समागतः मोऽन्यदा प्रविष्टो बोधसमीपे विहितप्रणामो निषलो भूतले बोधेनापि विधायोचितां प्रतिपत्तिमभिहितोऽसौ भद्र वर्णयात्मीयवृत्तान्तम् / प्रभावः प्राह यदाज्ञापयति देवः / अस्ति तावदहमितो निर्गत्य गतो बहिरङ्गेषु नानादेशेषु न लब्धो मया तत्र प्रस्तुत प्रवृत्तिगन्धोऽपि / ततो गतोऽहमन्तरङ्गेषु जनपदेषु तत्र च दृष्टमेकत्र मया भिल्लपल्लीकल्पमाकीर्णं समन्ताकामादिचरटैर्निवास: पापिष्ठलोकानामाकरो मिथ्याभिमानस्य हेतुरकल्याणपरम्परायाः अवष्टब्धं सततं विततेन तममा रहितं प्रकाशलेगेनापि राजमचित्तं नाम नगरम् / तत्र च चूडामणिश्चरटचक्रम्य कारणं समस्तपापवृत्तीनां वज्रपातः कुशलमार्गगिरेः दुर्जयः शक्रादौनामतुलबलपराक्रमो रागकेसरौ नाम नरेन्द्रः / तस्य च चिन्तकः सर्वप्रयोजनानां अप्रतिहताज्ञः समस्तस्थानेषु For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 226 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / निपुलो जगद्दशीकरणे कृताभ्यामो जन्तुविमोहने पटबुद्धिः पापनौतिमार्गेषु अनपेक्षः स्वकार्यप्रवृत्तौ परोपदेशानां निक्षिप्तसमस्तराज्यभारो विषयाभिलाषो नामामात्यः। ततस्तस्मिन्नगरे याव दहं राजकुलस्याभ्यर्णभूभागे प्राप्तस्तावदकाण्ड एव समुल्लसितोबहलः कोलाहलो निर्गच्छति घोषयता बन्दिवन्देन प्रख्यापितमाहात्म्या लोल्या दिनरेन्द्राधिष्ठिता मिथ्याभिनिवेशादयो भूयांसः स्यन्दनाः पूरयन्ति गलगर्जितेन दिगन्तराणि राजमार्गमवतरन्तो ममत्वादयः करिवराः चलिता हेषारवेष बधिरयन्तो दिक्चक्रवालं अज्ञानादयो वरवाजिनो विराजन्ते ग्रहौतनानायुधा रणशौण्डौरतया वलामानाः पुरतो धावन्तश्चापलादयोऽसंख्येयाः पदातयः। ततः कन्दर्पप्रयाणकपटहशब्दाकर्णनसमनन्तरं खरपवनप्रेरितमेघजालमिव क्षणमात्रेणैव विलासध्वजमालाकुलं विब्बोकशंखकाहलाध्वनिपूरितदिगन्तरं मौलितमपरिमितं बलं ततस्तदवलोक्य मया चिन्तितं श्रये किमेतत् गन्तुमिव प्रवृत्तः कचिदयं राजा लक्ष्यते तत्किमस्य गमनप्रयोजनमिति यावद्वितर्काकुल स्तिठामि तावदृष्टो मया पर्यन्तदारुणः स्वरूपेणादर्शकः संसारवैचित्र्यस्थ बोधको विदुषां निर्वदभूमिर्विवेकिनामविज्ञातस्वरूपो निर्विवेकस्तस्यैव विषयाभिलाषस्य मन्त्रिण: संबन्धी विपाको नाम पुरुषः / ततः प्रियसंभाषणपूर्वकं पृष्टोऽसौ मया भद्र कथय किमस्य नरेन्द्रस्य प्रस्थानकारणं कुतूहलं मे विपाकेनाभिहित पार्य यद्येवं ततः समाकर्णय पूर्वमिह क्वचिदवसरे सुग्रहीतनामधेयेन देवेन रागकेसरिणाभिहितोऽमात्यो यदुत आर्य विषयाभिलाष तथा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 227 कथंचिद्विधेहि यथा मम समस्तमपि जगत् किङ्करतां प्रतिपद्यते मन्त्रिण भिहितं यदाज्ञापयति देवः / ततो नान्यः कश्चिदस्य राजादिष्टप्रयोजनस्य निर्वर्तनक्षम इति मनसि पर्यालोच्य किं वात्रान्येन साधनेन बहुना क्लेशितेन साधयिष्यन्येतान्येवाचियवौर्यतया प्रस्तुतप्रयोजनमिति संजातावष्टंभेन मन्त्रिणा गाढमनुरकभकानि विविधस्थानेषु नि ढसाहमानि खामिनि मृत्यतया लब्धजयपताकानि जनहृदयाक्षेपकरणपटूनि प्रत्यादेशः शूराणां प्रकर्षश्चटुलानां निकषभूमिः परवञ्चनचतुराणं परमकाष्ठा माहसिकानां निदर्शनं दुन्तिानां श्रात्मौयान्येव स्पर्शनादौनि पञ्च ग्रहौतानि मानुषाणि प्रहितानि जगदशौकरणार्थं ततो मया चिन्तितम् / श्रये लब्धं स्पर्शनस्य तावन्मूलोत्थानं विपाकेनाभिहितं ततो वितते जगति विचरनिस्तैर्वशौकृतप्रायं भुवनं वर्तते ग्राहितप्रायं रागकेसरिण: किङ्करतां केवलं महासस्यममुदायानामिति विशेष व तेषामुपद्रवकारौ समुत्थितः / श्रूयते किल कश्चित् सन्तोषो नाम चरटो निर्वाहिताश्च तान्यभिभूय किल कियन्तोऽपि लोकास्तेन प्रवेशिताश्च देवभुक्तरतिक्रान्तायां निस्तौ नगर्यामिति च श्रूयते ततो मया चिन्तितं व्यभिचरति मनागयमी यतोऽस्माकं समक्षमेव मनौषिबालयोः स्पर्शनेन निस्तौ नगयों भवजन्तोर्गमनं सदागमबलेनाख्यातं अयं तु स्पर्शनादौन्यभिभूय सन्तोषेण निर्वाहिता लोकाः स्थापिताश्च निवृतौ नगर्यामिति कथयति / तत्कथमेतदथवा किमनयाकाण्डपर्यालोचनयावहितस्तावदाकर्णयाम्यम्य वचनं पश्चाद्विचारयिष्यामि विपाकेनाभि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 228 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / हितं ततोऽयमाप्तलोकश्रुतेराकर्णितोऽद्य देवेन रागकेसरिणा स्पर्शनाद्यभिभवव्यतिकरः / ततोऽतिदुःसहमश्रुतपूर्व च खपदातिपरिभववचनमाकर्ण्य कोपानलजनितरतलोचनयुगलेन विषमस्फुरिताधरण करालभृकुटिमणकुण्डलीकृतललाटपट्टेनाबद्धनिरन्तरखेदबिन्दुना निर्दयकराभिहितधरणौपृष्ठेन प्रलयज्वलनभास्वरं रूपमाबिभ्रतामर्षवशपरिस्वलद्वचनेन देवेन रागकेसरिणाज्ञापितः परिजनः / अरे वरितास्ताडयत प्रयाणकपटहं सज्जौकुरुत चतुरङ्ग बलम्। परिजनेनाभिहितं यदाज्ञापयति देवः / ततस्तथा देवमायास्यमानमवलोक्य विषयाभिलाषेणाभिहितं देव अलमावेगन कियानसौ वराकः सन्तोषस्थानमादरस्य न खल केसरी लोलादलितत्रिगण्डगलितवरकरिनिकरो हरिणं व्यापाद्यतयोद्दिश्यायस्तचित्तो भवति देवेनाभिहितं सखे सत्यमिदं केवलं युग्ममानुषकदर्थनां कुर्वता दृढमुद्देजितास्तेन पापेन सन्तोषेण न खलु तमनुन्मल्य मम मनसः सुखासिका संपद्यते / मन्त्रिणाभिहितं देव स्तोकमेतत् मुच्यतां संरम्भः। ततस्तद्वचनेन मनाक् स्वस्थौभूतो देवः कृतमरोषं गमनोचितं स्थापित: पुरतः स्नेहसलिलपूर्ण: प्रेमाबन्धाख्यः कनककलश: उद्योषितः केलिजल्पनामको जय जय शाब्दः गौतानि चाटुवचनादौनि मङ्गलानि प्रहतं रतिकलहनामकमुद्दामातोद्यद्वन्दं निर्वतितान्यङ्गरागभूषणादौनि समस्तकौतकानि प्रवृत्तो रथावरोहणार्थं देवः / अत्रान्तरे स्मृतमनेन श्रये न दृष्टो नाप्यदृष्टोऽद्यापि मया तातः / अहो मे प्रमत्तता अहो मे दुर्विनौतता अहो मे तुच्छत्वेन खल्पप्रयोजनेऽपि पर्याकुलता यत्तात For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतौयः प्रस्तावः / 226 पादवन्दनमपि विस्मृतमिति / ततो निवृत्त्य चलितस्तदर्शनार्थं देवो मयाभिहितं भद्र कः पुनरस्य तातस्ततो विपाकेनाभिहितं आर्य अतिमुग्धोऽमि यतस्त्वमेतावदपि न जानौषे यतोऽस्य देवस्य रागकेसरिणो बालाबलादीनामपि सुप्रतीतोऽनेकाडतका भुवनत्रयप्रकटनाभिधानो महामोहो जनकः / तथा हि / महामोहो जगत्वं भ्रामयत्येष लोलया / प्राक्रादयो जगन्नाथा यस्य किङ्करतां गताः // अन्येषां लंघयन्तीह शौर्याविष्टंभतो नराः / अज्ञानं तु जगत्यत्र महामोहस्य केचन // वेदान्तवादिसिद्धान्ते परामात्मा यथा किल / चराचरस्य जगतो व्यापकत्वन गौयते // महामोहस्तथैवात्र खवौर्यण जगत्त्रये / द्वेषाद्यशेषलोकानां व्यापकः समुदाहृतः // तत एव प्रवर्त्तन्ते यान्ति तत्र पुनर्लयम् / सर्व जीवाः परे पुंसि यथा वेदान्तवादिनाम् // महामोहात्प्रवर्त्तन्ते तथा सर्व महादयः / लौयन्तेऽपि च तत्रैव परमात्मा स वर्त्तते // . अन्यच्च / यज्ज्ञातपरमार्थोऽपि बुध्वा सन्तोषजं सुखम् / इन्द्रियैर्बाध्यते जन्तुर्महामोहोऽत्र कारणम् // अधीत्य सर्वशास्त्राणि नराः पण्डितमानिनः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / विषयेषु रताः सोऽयं महामोहो विज़ुभते // जैनेन्द्रमततत्त्वज्ञाः कषायवशवर्तिनः / जायन्ते यवरा लोके तन्महामोहशासनम् // अवाप्य मानुषं जन्म लब्धा जेनं च शासनम् / यत्तिष्ठन्ति ग्टहामता महामोहोऽत्र कारणम् // विश्रब्धं निजभर्तारं परित्यज्य कुलस्त्रियः / परेषु यत्प्रवर्त्तन्ते महामोहस्य तत्फलम् // विलंध्य च महामोहः स्ववौर्यण निराकुलः / कांश्चिदिडम्बयत्युच्चैर्यतिभावस्थितानपि // मनुष्यलोके पाताले तथा देवालयेष्वपि / विलसत्येष महामोहो गन्धहस्ती यथेच्छया // सर्वथा मित्रभावेन गाढं विश्रब्धचेतसाम् / कुर्वन्ति वचनं यच्च महामोहोऽत्र कारणम् // विलंध्य कुलमर्यादा पारदार्यऽपि यन्त्रराः / वर्त्तन्ते विलसत्येष महामोहमहानृपः // यत एव समुत्पन्ना जाताश्च गुणभाजनम् / प्रतिकूला गुरोस्तस्य वशे येऽस्य नराधमाः // अनार्याणि तथान्यानि यानि कार्याणि कहिचित् / चौर्यादौनि विलासेन तेषामेष प्रवर्तकः // इत्थं प्रभूतवृत्तान्तः परिपाल्य जगत्त्रयम् / वृद्धोऽहमधुना युतं किं ममेति विचिन्त्य च // पार्थस्थितोऽपि शक्नोमि वीर्येण परिरक्षितुम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 231 जगत्तेन वपुत्राय राज्यं यच्छामि सांप्रतम् // रागकेसरिणो दत्त्वा ततो राज्यं विचक्षणः / महामोहोऽधुना मोऽयं शेते निश्चिन्ततां गतः // तथापीदं जगत्सर्व प्रभावेन महात्मनः / तस्यैव वर्त्तते नूनं कोऽन्यः स्यादस्य पालकः // तदेषोऽद्भुतकर्त्तव्यः प्रसिद्धोऽपि जगत्त्रये / महामोहनरेन्द्रस्ते कथं प्रष्टव्यतां गतः // ततो मयाभिहितं भद्र न कर्त्तव्योऽत्र भवता कोपः पथिकः खल्वहं श्रुतश्च मयापि महामोहः पूर्व सामान्येन न पुनर्विशेषतो रागकेसरिजनकतया तदधुनापनौतं ममाज्ञानं भद्रेण / तदुत्तरवृत्तान्तमय्याख्यातुमर्हति भद्रः विपाकेनाभिहितं ततो गतो देवः शौघ्रं जनकपादमूलं दृष्टोऽनेन तमःसंज्ञकेन लम्बमानेन भ्रयुगुलेन अविद्याभिधानया प्रकम्पमानया गात्रयध्या जराजौर्णकायस्तष्णाभिधानायां वेदिकायां विपर्यासनाम्नि विष्टरे महत्युपविष्टो महामोहः / ततः क्षितितलविन्यस्तहस्तमस्तकेन कृतं देवेन पादपतनं अभिनन्दितो महामोहेन निषौदतश्च भूतले देवस्य दापितं महामोहेनासनं उपविष्टस्तत्र जनकसंधमवचनेन देवः / पृष्टा शरीरकुशलवार्ता निवेदितश्च प्रस्तुतव्यतिकरः / ततो महामोहेनाभिहितं पुत्र ममाधुना जरचौवरस्येव पश्चिमी भावो वर्त्तते / ततो मदीयशरीरस्य पामापरिगतमूर्तरिव करभस्य यद्वाह्यते तत्मारं ततो न युक्तं मयि तिष्ठति भवतः प्रस्थानं कत्तुं तिष्ठ त्वं विपुलं राज्यं विदधानो निराकुलचित्तोऽहमेव प्रस्तुतप्रयोजनं साधयिष्यामौति / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 232 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / देवेन कर्णे पिधायाभिहितं तात मा मैवं वोचः शान्तं पापं प्रतिहतममङ्गलं अनन्तकल्पस्थायि भवतु यौमाकं शरीरं न खल युश्मदीयशरीरनिराबाधामात्रपरितोषिणि किङ्करजनेऽस्मिन्नेवमाज्ञापयितुमर्हति तातः / तत्किमनेन बहुना गच्छाम्यहं अनुजानीत ययम्। महामोहः प्राह / जात मया तावगन्तव्यमेव भवतस्तु केवलमवस्थानेऽनुज्ञा इत्यभिधायोत्थितो महामोहः / ततो विज्ञाय निर्बन्ध देवेनाभिहितं तात यद्येवं ततोऽहमपि तातपादानुचरो भविष्यामि न प्रतिवचनीयस्तातेन / महामोहः प्राह / जात एवं भवतु न खलु वयमपि भवन्तं मोक्तुं क्षणमपि पारयामः केवलं गुरुतया प्रयोजनस्यैवं मन्त्रितमस्माभिस्तदधुनासुन्दरमिदं जातेन जल्पितं देवेनाभिहितं महाप्रसादस्ततस्तातोऽपि प्रस्थित इति ज्ञापितं समस्तनरेन्द्राणं देवेन प्रवर्तितं निःशेषं विशेषतो बलं ततः स्वयमेव महामोहनरेन्द्रो देवो रागकेसरी विषयाभिलाषादयः सर्वे मन्त्रिमहत्तमाः सर्वबलेन सन्तोषे चरटस्योपरि निग्रहेण चलिता इति वात्तैया क्षुभितमेतत् समन्ताट्राजसचित्तं नगरम् / ममुल्लसितोऽयं बहलः कलकलः तदिदं भद्र अस्य नरेन्द्रस्य प्रस्थानप्रयोजनमिति एतच्चातिकुवहलिनं भवन्तमालोक्य मया निवेदितं इतरथातित्वरया मम वचनमात्रोच्चारणेऽपि नावमरोऽस्ति यतो ममाग्रानौके नियमः मयाभिहितं आर्य किमत्र वक्रव्यं परोपकारकरणव्यग्रा एव सत्पुरुषा भवन्ति / ते हि परे प्रियं कर्तुमुद्यताः शिथिलयन्ति स्वप्रयोजनं कुर्वन्ति स्वभुजोपार्जितद्रव्यव्ययं विषहन्ते विविधदुःखानि न गणयन्यात्मापदं ददति मस्तकं प्रक्रामन्ति प्राणान् For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 233 परप्रयोजनमेव हि ते स्वप्रयोजनं मन्यन्ते ततश्चैवंविधेर्मदौयवचनेमनसि परितुष्टो नामयित्वा मदभिमुखमौषदुत्तमाकं व्रजाम्यहमधुना इत्यभिधाय च कृतप्रणामो मया गतो विपाकः / मया चिन्तितं साधितप्रायं मयाधुना राजकार्यं यतः स्पर्शनस्य मूलशद्धिमुपलभ्य भवतागन्तव्यमेतावानेव मम राजादेशः। तत्र यावन्तोऽनेन विपाकेन स्पर्शनादौनां गुणा वर्णितास्ते सर्व तत्र स्पर्शने घटन्ते ममानुभवसिद्धमेतत् तस्मादेतदुपवर्णितमानुषपञ्चकस्याद्योऽसौ भविष्यति / लब्धा मया तस्य मूलशुद्धिः केवलमेकं मन्तोषव्यतिकरमद्यापि नावगछामि / एतावद्वितर्कयामि सदागमानुचर एवायं कश्चिद्भविष्यति अन्यथा पूर्वापरविरुद्धमेतत्स्यात्। अथवा किमनेन गच्छामि तावत् खामिपादमूलं निवेदयामि यथोपलब्धवृत्तान्तं ततो देव एवात्र यथोचित विज्ञास्यतीत्यालोच्य समागतोऽहमेतदाकर्ण्य देवः प्रमाणमिति / बोधेनाभिहितं माधु प्रभाव साधु सुन्दरमनुष्ठितं भवता ततः सहैव प्रभावेण प्रविष्टो बोधः कुमारसमीपं कृतप्रणामेन च निवेदितः कुमाराय समस्तोऽपि प्रभावानौतवा वृत्तान्तः परितुष्टो मनौषो पूजितः प्रभावः पृष्टोऽन्यदा मनीषिणा स्पर्शनः / यदुत भद्र किं भवतः सदागमेनैव तेन भवजन्तुना सुमित्रेण सह विरहः संपादितः उत तत्र कश्चिदन्योऽप्यासौदिति। स्पर्शनेनाभिहितं आर्य आसीत् केवलमलं तत्कथया न खल्वहं भयविहलतया तस्य क्रूरकर्मणो नामाप्युच्चारयितुं शक्नोमि / म हि सदागमस्तस्य केवलं भवजन्तोरुपेदभं ददाति मत्कदर्थनविषयम् स तु तस्यैवानुचरः क्रूरकर्मा नानायातनाभिः साक्षान्मां कदर्थयति भवजन्तुं मत्तो विमु 30 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 234 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा खयति तेनैव चाहं शरीरप्रासादानिःमारितो भवजन्तुश्च निवृत्ती नगयों प्रापितः स एव तत्र कारणं पुरुषः सदागमस्य केवलमुपदेशदाने व्यापारो मनीषिणाभिहितं भद्र किं तस्याभिधानं स्पर्शनः प्राह कथितमिदमार्यस्य मया नाहं भयाकुलतया तदभिधानमुच्चारयामि / अत एव पूर्वमपि मया न युमाकं तदाख्यातं किं चातिपापिष्ठोऽसौ ततोऽलं नामग्रहणेन पापिष्ठजनकथा हि क्रियमाणा पापं वर्द्धयति यशो दूषयति लाघवमाधत्ते मनो विप्नावयति धर्मबुद्धिं ध्वंमयतीति / मनीषिणाभिहितं तथापि महत्कुलहलं तदभिधानश्रवणेऽस्माकं न चास्मदभ्यर्ण वर्तमानेन भवता तनयं विधातव्यं न च नामग्रहणमात्रेण किंचित्पापं न ह्यमिरित्युक्ने मुखदाहः संपद्यते / ततो विज्ञाय निबन्धं तरलिततारं दशापि दिशोऽवलोकयता स्पर्शनेनाभिहितं आर्य यद्येवं ततः सन्तोष इति तस्य दुर्नामकस्य नाम मनौषिणा चिन्तितं सम्यगुपलब्धा मूलशुद्धिरस्य स्पर्शनस्य प्रभावेण यतः सन्तोषव्यतिकर एवैकस्तत्राघटमानक प्रासीत् सोऽप्यधुना घटितः सम्यङ्मया पूर्व वितर्कितं यथा न सुन्दरः खल्वेष स्पर्शनः प्रायेणेति यतो विषयाभिलाषप्रयुक्तोऽयं लोकवञ्चनप्रवण: पर्यटति तदशोभन एवायं तथापि प्रतिपनोऽयं मया मित्रतया दर्शितो बहिश्छायया स्नेहभावः क्रीडितमेकत्र बहुकालं तस्मान्न युक्तोऽकाण्ड एव परित्यक्तुं केवलं विज्ञातस्वरूपेणास्य मयाधुना सुतरां न कर्त्तव्यो विशंभो नाचरितव्यमस्यानुकूलं न समर्पणौयमात्मस्वरूपं न निवेदनौयं गुह्यं नापि दर्शनीयो बहिर्भावो विषमप्रकृतिरेष वर्त्तते For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 235 ततोऽनेन सह यापनया बर्तितव्यं पूर्वस्थित्यैव पर्यटितव्यं सर्वत्र महितेन कर्त्तव्यं चात्मीयप्रयोजनबोधकमस्य वचनं केवलमभिष्वशोऽस्योपरि न कार्यो मया यावदस्य सर्वथा परित्यागावसरो भवति एवं वर्तमानस्य मे न भविष्यत्येष बोधक इति / स्थापितो मनौषिण स्वचेतसि सिद्धान्तः / ततः पूर्वस्थित्यैव विलसन्ति ते स्पर्शनमनौषिबाला नानास्थानेषु व्रजन्ति दिनानि अन्यदा स्पर्शनेन कृतो जल्पप्रस्तावोऽभिहितं च तेन अरे किमत्र लोके सारं किं वा सर्व जन्तवोऽभिलषन्ति / बालेनाभिहितं वयस्य किमत्र ज्ञातव्यं सुप्रसिद्धमिदं स्पर्शनः प्राह कथय किं तत् बालो जगाद वयस्य सुखं स्पर्शनः प्राह तत् किमिति तदेव सदा न सेव्यते बालेनाभिहितं कस्तस्य सेवनोपायः स्पर्मानेनोक्तं अहम् / बालो जगाद कथं स्पर्शनः प्राह अस्ति मे योगशनिः तयाहं प्राणिनां शरीरमनुप्रविश्य बहिरन्तश्च क्वच्चिलौनस्तिष्ठामि ततश्च ते यदि भक्तिपुरःसरं मामेव ध्यायन्ति कोमलललितस्पर्शनसंबन्धं कुर्वन्ति ततो निरुपमं सुखं लभन्ते तेनाहं सुखसेवनस्थोपायो मनीषिणा चिन्तितं अये रचितोऽनेनावयोर्वञ्चनप्रपञ्चो बालेनाभिहितं वयस्य तत्किमियन्तं कालं नावेदितमिदमस्माकं अहो वञ्चिता वयमघन्याः सत्यप्येवंविधे सुखोपाये तदनासेवनेन अहो ते गंभीरता यदेवंविधामपि योगशक्तिमात्मनो न प्रकटयसि तदिदानीमपि कुरु प्रसादं दर्शय कुतूहलं व्यापारय योगशक्तिं भवावयोः सुखमेवन हेतुरिति / ततः किं क्रियतामेतदिति दृष्टिविकारेणैव दर्शयता माकूतेन निरौचितं मनीषिणो वदनं स्पर्शनेन। ततः पश्यामि किं तावत् करोतौति For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 236 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / मञ्चिन्त्य मनीषिणाभिहितं वयस्य क्रियतां बालभाशितं कोऽत्र विरोधः ततः स्पर्शनेन विरचितं पद्मासनं स्थिरीकृतः कायः परित्यक्तो बहिर्विक्षेपः निश्चलीकृता दृष्टिः समर्पिता नासिकाग्रे निबद्धं हृत्पौण्डरौके मानसं ता धारणा संजाता तत्प्रत्ययैकतानता समापूरितं ध्यानं निरुद्धाः करणवृत्तयः आविर्भूतः खरूपशून्य वार्थनिर्भामः संजातः समाधिः विहितोऽन्तर्धानहेतुः संयमः कृतमन्तर्धानं अनुप्रविष्टो मनौषिबालयोः शरीरं अधिष्ठितः खाभिहितप्रेदशः विस्मितौ मनौषिबालौ प्रवृत्ता द्वयोरपि कोमलस्पर्शच्छा ततो वालो मृदूनि शयनानि सुखान्यामनानि कोमलानि वसनानि अस्थिमांसत्वग्रोमसुखदायौनि संवाहनानि ललितललनानामनवरतसुरतानि शत्रुविपर्यस्तवीर्याणि सुखस्पर्शविलेपनानि अन्यानि चोदतनस्नानादौनि स्पर्शनप्रियाणि ग्टद्धो मूर्छितः मततमासेवते तच्च शयनादिकं भस्मकव्याधिरिव भनपानं स्पर्शनः समस्तमुपभुंक्त बालस्य तु गायव्याधिविहलोभूतचित्तस्य सन्तोषखरूपखास्यविकलतया पामाकण्डयनमिव परमार्थतस्तद्दुःखकारणमेव तथाप्यमौ विपर्यासवशेन तदुपभोगे सति चिन्तयति अहो मे सुखं अहो मे परमानन्दः / ततो मिथ्याभावनया परमसुखसन्दर्भनिर्भरः किलाहमिति वृथा निमौलिताक्षोऽनाख्येयं रमान्तरमवगाहते / मनीषौ पुनर्मदुस्पर्शच्छायां प्रवर्त्तमानायामेवं भावयति अये स्पर्शनजनितोऽयं मम विकारो न स्वाभाविकः परमरिपुश्चायं मम वर्त्तते सुनिणे तमिदं मया / ततः कथमयं सुखहेतुर्भविष्यतीति मत्वा तदनुकूलं न किंचिदाचरति / अथ For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 237 कथंचित्प्रतिपन्नोऽयं मित्रतयानुवर्त्तनीयस्तावदिति भावनया कालयापनां कुर्वाणस्तदनुकूलमपि किंचिदाचरति / तथापि तस्य लौल्यरोगविकलतया मन्तोषामृतस्वस्थौभूतमानसस्य रोगरहितशरीरस्येव सुपथ्यानं तच्छयनादिकमुपभुज्यमानं सुखमेवोत्पादयति / तथापि नामौ तत्राभिष्वङ्गं विधत्ते ततो न भवत्यागामिनोऽपि दुःखस्य बन्धः श्रन्यदा प्रकटौभूतः स्पर्शनः अभिहितोऽनेन बालः अपि वयस्य मदौयपरिश्रमस्यास्ति किंचित्फलं संपन्नस्ते कश्चिदुपकारः / बालः प्राह / सखेऽनुग्टहौतोऽस्मि दर्शितो ममाऽचिन्याल्हादसंपादनेन भवता साक्षात्वर्गः / अथवा किमत्राश्चर्य परार्थमेव निर्मितस्त्वमसि विधात्रा / तथा हि / परार्थमेव जायन्ते लोके नूनं भवादृशाः / मादृशानां तु संभूतिस्त्वत्प्रसादेन सार्थका // इदं हि तेषां मौजन्यं यत्स्वभावेन सर्वदा / परेषां सुखहेतुत्वं प्रपद्यन्ते नरोत्तमाः // स्पर्शनेन चिन्तितं श्रये संपन्नम्तावदेष मे नियभिचारः किङ्करः प्रतिपद्यते मयादिष्टमेष कृष्णं श्वेतं श्वेतं कृष्णमिति निर्विचारं एवं विचित्य स्पर्शनेनाभिहितं वयस्य यतैव नः प्रयोजनं चरितार्थोऽहमिदानौं भवदुपकारसंपत्त्येति / / ततो मनौषिसमीपमुपगम्याभिहिमनेन सखे किं मार्थकः भवतोऽर्थसंपादनेन मदीयः प्रयास उत नेति मनौषिणोनं भद्र किमत्रोच्यतां अनाख्येयस्तावकोऽतिशयः स्पर्शनेन चिन्तितं श्रये For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / साभिप्रायकमेतद् दुष्टः खल्वेष मनौषौ न शक्यते मादृशै रचयितुं लक्षितोऽहमनेन स्वरूपतः प्रायेण तस्मात्सलज्न एव तावदास्तां नात्र बहुविकत्थनं श्रेयस्करमिति विचिन्य धर्ततया कृता स्पर्शनेन काकलौ न दर्शितो मुखविकारोऽपि स्थितो मौनेनेति / दूतश्च बालेनापि स्वमातुरकुशलमाचायाः कथितः समस्तोऽपि रभसेन यो योगशक्तिपुरःसरं सुखसंपादनसामर्थ्यलक्षण: स्पर्शनव्यतिकरः / अकुशलमालोवाच / जात सूचितमिदमादावेव मया यथा सुन्दरस्तवानेन वरमित्रेण मार्द्ध संबन्धः हेतुः सुखपरंपरायाः किं चास्ति ममापौदृशौ योगशनिरिति दर्शयिष्याम्यहमपि जातस्य कुतूहलं बालस्तूवाच यद्येवं ततो बडतरमम्बायाः प्रसादेनास्माभिरद्यापि द्रष्टव्यम् / अकुशलमालोवाच तत्कथनौयं भवता यदा प्रयुज्यते योगशक्तिरिति / दूतश्च मनौषिणापि स्वमातुः शुभसुन्दर्या निवेदितः सर्वोऽपि स्पर्शनवृत्तान्तः तयाभिहितं वत्म न चारुस्तवानेन पापमित्रेण मह संसर्गः कारणमेष दुःखपद्धत्तेः मनीषिणाभिहितं सत्यमेतत् केवलं न कर्त्तव्यमत्र भयमम्बया लक्षितो मयायं स्वरूपेण नाहमस्य यत्नवतोऽपि वञ्चनागोचरः केवलमस्य परित्यागकालं प्रतिपालयामि / यतः प्रतिपन्नोऽयं मया मित्रतया नाकाण्ड एव हातुं युक्तः / शुभसुन्दर्युवाच जात सुन्दरमिदमनुष्ठितं भवता अहो ते लोकज्ञता अहो प्रतिपन्नवात्सल्यं अहो नौतिपरता अहो गंभीरता अहो स्थैर्यातिरेकः / तथा हि। For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 236 नाकाण्ड एव मुञ्चन्ति सदोषमपि सज्जनाः / प्रतिपन ग्रहस्थायौ तत्रोदाहरणं जिनः // प्रतिपनमकाले तु सदोषमपि यस्त्यजेत् / स निन्द्यः स्यात्सतां मध्ये तत्रामौ स्वार्थमाधकः // यस्तु मूढतया काले प्राप्तेऽपि न परित्यजेत् / मदोषं लभते तस्मात् स्वक्षयं नात्र संशयः // हेयबुद्ध्या ग्रहोतेऽपि ततो वस्तुनि बुद्धिमान् / तत्त्यागावसरापेक्षौ प्रशंमां लब्धुमर्हति // कर्मविलासराजस्तु महादेवीभ्यां सकाशात्तं कुमारव्यतिकरमाकर्ण परितुष्टो मनौषिणो रुष्टो बलस्य चित्तमध्ये बालेनापि ततः प्रभृति गाढतरं कोमलशयनसुरताद्यासेवनानि स्पर्शनप्रियाणि दिवानिशमाचरता परित्यको राजकुमारोचितः शेषव्यापारः परिहृतं गुरुदेवपादवन्दनं विमुक्त कलाग्रहणं शिथिलौकता लन्ना अङ्गीकृतः पशुधर्मः ततोऽसौ न गणयति लोकवचनीयतां न रक्षति कुलकलङ्क न जानौते खस्खोपहास्यतां नोपेक्षते कुशलपक्षं न ग्रहाति सुदुपदेशान् केवलं यत्र कुत्रचित् नारीसङ्गमाशनमन्यदा किञ्चित्कोमलमुपलभते तत्र तत्राविचार्य तत्स्वरूपं लौल्यातिरेकेण प्रवर्त्तत एव / ततो मनौषो संजातकरुणस्तं शिक्षयति स्पर्शनस्य मूलशुद्धिमाचष्टे वञ्चकोऽयमिति दीपयति भ्रातर्नास्य विश्वमनीयं परमरिपुरेष स्पर्शन इति तं बालं पुनः पुनश्चोदयति। बालः प्राह मनौषिन्नलमनेनादृष्टार्थन प्रलापेन य एष मे वरवयस्योऽनन्तागाधसुखसागरावगाहने हेतुः म एव ते परमरिपुरिति For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 240 उपमितिभवप्रयचा कथा / कैषा भाषा / मनौषिणा चिन्तितं मूढः खल्वेष न शक्यते निवारयितुमतोऽलमेतन्निवारणेन स्वरक्षणे मया यत्नो विधेयः / तथा हि। अकार्यवारणोद्युको मूढे यः परिखिद्यते / वाखिस्तरो वृथा तस्य भस्मन्याज्याहुतिर्यथा // नोपदेशशतेनापि मूढोऽकार्यानिवर्त्यते / शीतांशुग्रमनात्केन राहुर्वाक्यैर्निवारितः // अकार्य दुर्विनौतेषु प्रवृत्तेषु ततः सदा / न किंचिदुपदेष्टव्यं सता कार्यावधीरणा // इत्यालोच्य स्वयं चित्ते हित्वा बालस्य शिक्षणम् / खकार्यकरणोद्युक्तो मनीषी मौनमाश्रितः // इतश्च तस्यैव कर्मविलासस्य राज्ञोऽस्ति सामान्यरूपा नाम देवी तस्याश्चाभौष्टतमोऽस्ति मध्यमबुद्धिर्नाम दारको वल्लभतमो मनौषिबालयोः क्रीडितस्ताभ्यां मह भूयांसं कालं म च प्रयोजनवशाद्राजादेशेनैव देशान्तरं गत श्रासीत् तदानीमागतः। दृष्टौ मनौषिवाली सह स्पर्शनेन श्रालिङ्गितस्ताभ्यां स्पर्शनेन ततः मकौतुकेन मध्यमबुद्धिना कर्णाभ्यर्ण निधाय वदनं पृष्टो बालः क एष इति निवेदितो बालेनास्थ यथा स्पर्शननामायमचिन्यप्रभावोऽस्मत्महचर इति। मध्यमबुद्धिरुवाच कथं ततः कथितो बालेन सर्वोऽपि व्यतिकरः संजातो मध्यमबुद्धेरपि स्पर्शनस्थोपरि स्नेहभावः बालेनाभिहितं भद्र स्पर्शन दर्शयास्य खकौयं माहात्म्यं स्पर्शनः प्राह एष दर्शयामि / ततः प्रयुक्ता योगशक्तिः कृतमन्तर्धान अधिष्ठितं मध्य For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 241 मबुद्धेः शरीरं विस्मितो मध्यमबुद्धिः प्रवृत्ता कोमलस्पर्शच्छा उपभुक्रानि ललितशयनसुरतादीनि संजातश्चित्ताल्हादः प्रौणितो मध्यमबुद्धिः प्रकटौभृतः स्पर्शनः पृष्टं स्वप्रयासमाफल्यमनुग्टद्दौतोऽहं भवतेति निवेदितं मरभसेन मध्यमबुद्धिना। ततः पात्रीभृतोऽयमपि न दूरयायौ वर्त्तत इति विचिन्तितं स्पर्शनेन। मनोषिणा चिन्तितं वशौक्लितप्रायोऽयमपि मध्यमबुद्धिरनेन पापेन स्पर्शनेनातो यापेदशं ग्टहाति ततः शिक्षयाम्येनं माभूदस्य मुग्धतया वराकस्य वञ्चनमिति / ततो रहसि मध्यमबुद्धिरभिहितो मनौषिणा / भट्र न भद्रकोऽयं स्पर्शनो विषयाभिलाषः प्रयुक्तोऽयं लोकानां वञ्चकः पर्यटति / मध्यमबुद्धिरुवाच कथं ततः कथिता मनीषिणा बोधप्रभावोपलब्धा समस्तापि तस्य स्पर्शनस्य मूलशुद्धिः। मध्यमबुद्धिना चिन्तितं खानुभवसिद्धा मम तावदस्य स्पर्शनस्य संबन्धिनौ वत्सलता अचिन्यप्रभावता सुखहेतुता च श्रयमपि च मनौषौ नायुकभाषी तन्न जानोमः किमत्र तत्त्वं किं वा वयमेवंस्थिते कुर्म इति / अथवा किमनेन चिन्तितेन तावदम्बां पृच्छामि तदुपदिष्टमाचरिष्यामौति विचिन्त्य गतः सामान्यरूपायाः समीपं कृतं पादपतनं अभिनन्दितस्तया निविष्टः चितितले निवेदितो व्यतिकरः सामान्यरूपयोक्तं वत्स तावत्त्वयाधुना स्पर्शनमनौषिणोईयोरपि वचनमनुवर्त्तयतोभयाविरोधेन मध्यस्थतयैव स्थातं युक्त कालान्तरे पुनर्य एव बलवत्तरः पक्षः स्थात् स एवाश्रयणीयः / तथा हि। संशयापन्नचित्तेन भिन्ने कार्यदये मता। 31 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 242 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / कार्य: कालविलम्बोऽत्र दृष्टान्तो मिथुनदयम् // मध्यमबुद्धिस्वाच / अम्ब किं तन्मिथुनद्वयं सामान्यरूपयोत पुत्राकर्णय। अस्ति तथाविधं नाम नगरं तत्र ऋजुर्नाम राजा तस्य प्रगुणा नाम महादेवी तयोर्मकरध्वजाकारो मुग्धो नाम तनयः तस्य च रतिमन्निभा अकुटिला नाम भार्या ततस्तयोर्मुग्धाकुटिलयोरन्योन्यबद्धानुरागयोर्विषयसुखमनुभवतोर्बजति कालः। अन्यदा वसन्तसमये उपरितनप्रासादभूमिकावासभवने व्यवस्थितः प्रभाते उत्थितो मुग्धकुमारो मनोहरविविधविकसितकुसुमवनराजिराजितं ग्रहोपवनमुपलभ्य संजातक्रीडाभिलाषो भार्यामुवाच देवि अतिरमणैयेयमुपवनौः तदुत्तिष्ठ गच्छावः कुसुमोच्चयनिमित्तं पानयाव एनां अकुटिलयाभिहितं यदाज्ञापयत्यार्यपुत्रः ततो ग्रहोत्वा मणिखचिके कनकसूर्पिके गते ग्रहोपवनं प्रारब्धः कुसुमोच्चयो मुग्धः प्राह देवि पश्यावस्तावत्कः कनकमर्पिकां झटिति पूरयति ब्रज त्वमन्यस्यां दिशि अहमत्वस्यां व्रजामौति अकुटिलयाभिहितं एवं भवतु गतौ कुसुमोच्चयं कुर्वाणौ परस्परं दर्शनपथातौतयागहनान्तरयोः। अत्रान्तरे कथंचित्तं प्रदेशमायातं व्यन्तरदेवमिथुनकं कालज्ञो देवो विचक्षणा दिवी तेन च गगनतले विचरतावलोकितं तन्मानुषमिथुनं ततोऽचिन्यतया कर्मपरिणतेरतिसुन्दरतया तस्य मानुषमिथुनस्थापर्यालोचितकारितया मन्मथस्य मदनजननतया मधुमासस्यातिरमणैयतया प्रदेशस्य केलिबहलतया व्यन्तरभावस्या तिचपलतयेन्द्रियाणां दुर्निवारतया विषयाभिलाषस्थातिचटलचारितया मनोवृत्तेस्तथाभवितव्यतया च तस्य वस्तुनः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 243 कालज्ञस्याभूदकुटिलायां तोवोऽनुरागः तथैव च मुग्धस्योपरि विचक्षणायाः। ततः किलैनां वञ्चयामौति बुद्ध्या कालज्ञेनाभिहिता विचक्षणा / देवि व्रज त्वमग्रतः तावद्यावदहमितो राजग्टहोपवनादेवार्चन निमित्तं कतिचित्कुसुमान्यादायागच्छामि सा तु मुग्धहृदयतया स्थिता मौनेन गतोऽकुटिलाभिमुखं कालज्ञोऽवतीर्ण घनतरगहने श्रदर्शनीभूतो विचक्षणायाश्चिन्तितमनेन श्रये किं पुनः कारणमाश्रित्येदं मिथुनं परस्परतो दवीयोदेशवर्त्ति वर्त्तते / ततः प्रयुक्तमनेन विभङ्गज्ञानं लक्षितं तयोर्दूरोभवनकारणं ततोऽयमेवात्रोपाय इति विचिन्त्य कृतमनेन देवशक्त्यात्मनो वैक्रियं मुग्धरूपं निर्वर्त्तिता कनकसूर्पिका मृता कुसुमानां गतोऽकुटिलासमोपं ससंभ्रममाह च जितामि प्रिये जितासि ततः कथमार्यपुत्री झटित्येवायातो जिताहमपि विलक्षौभूता मनागकुटिला कालज्ञेनाभिहितं प्रियेऽलं विषादेन स्वल्पमिदं कारणं केवलं निर्वर्त्तितोऽधुना कुसुमोच्चयो व्रजावोऽमुग्मिन्नुपवनविभूषणे कदलौलताटहे प्रतिपनमनया ततो गत्वा कृतमाभ्यां तत्र पल्लवशयनीयम् / इतश्च विचक्षणया चिन्तितं अये गतस्तावदेष कालज्ञः ततो यावदयं नागच्छति यावच्चेयं नारी दूरे वर्त्तते तावदवतीर्य मानयाम्येनं रतिवियुक्तमकरकेतनाकारं तरुणं करोम्यात्मनो जन्मनः माफल्यं लक्षितश्चानयापि विभङ्गज्ञानेनैव तयोर्दूरीभवनहेतुस्ततो विधायाकुटिलारूपं कुसुममृतकनकसूर्पिका गता मुग्धसमौपम् / श्राह च जितोऽस्थार्यपुत्र जितोऽसि / ततः ससंभ्रमं तां निरौप्य मुग्धः प्राह प्रिये सुष्टु जितः किमधुना क्रियतां विचक्षणयोक्तं यदहं वदामि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 244 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / मुग्धः प्राह किं तत् विचक्षणाह व्रजामो लताभवनं मानयामो विशेषतः सदुपवनश्रियं प्रतिपन्नमनेन ततो गत्वा तौ विचक्षणमुग्धौ तत्रैव कदलौलताग्रहके दृष्टं तन्मिथुनं निरीक्षितं विस्मिताभ्यां परस्पराभिमुखं मिथुनाभ्यां न दृष्टस्तिलतुषत्रिभागमात्रेऽपि खेतरयोर्विशेषः मुग्धेन चिन्तितम् / अये भगवतीनां वनदेवतानां प्रमादेन द्विगुणोऽहं संपन्नो देवी च तदिदं महदभ्युदयकारणं तं निवेदयामौदं ताताय ततो निवेद्य स्वाभिप्रायमितरेषां गच्छामस्तावतातसमौपम् / इत्यभिधायोत्थितो मुग्धः चलितं चतुष्टयमपि प्रविष्ठं ऋजुराजास्थाने। तदिलोक्य विस्मितो राजा महादेवी परिकरश्च किमेतदिति पृष्टो मुग्धः स प्राह वनदेवताप्रमादः ऋजुराह कथं ततः कथितो मुग्धेन व्यतिकरः ऋजुना चिन्तितम्। अहो मे धन्यता अहो मे देवतानुग्रहः ततो हर्षातिरेकेण समादिष्टस्तेनाकालमहोत्सवो नगरे दापितानि महादानानि विधापितानि नगरदेवतापूजनानि स्वयं च राजा राजमण्डलमध्यस्थः प्राह एकेन सुतेन सुतदयं वध्वा जातमथो वधूदयं खादतपिबताथ सज्जना गायत वादयताथ नृत्यत ततः प्रगुणापि महादेवौ एतदेव नरेन्द्रोतमनुवदन्ती वादितानन्दमईलसन्दोहबधिरितदिगन्ता विहितो_भुजा नर्त्तितुं प्रवृत्ता द्विगुणाहं संपन्नेति गता हर्षमकुटिला प्रनृत्ताः शेषान्तःपुरिकाः प्रमुदितं नगरं वृत्तो रहता विमर्दैन महानन्द इति / केलिप्रियतया दृष्टः कालज्ञः केवलं चिन्तितमनेन का पुनरेषा द्वितीया योषित् संजातेति उपयुक्तोजाने ज्ञातमनेन अवैषा मदौयभार्या विचक्षणेति ततः संजातः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 245 क्रोधः चिन्तितमनेन मारयाम्येनं दुराचारं पुरुषम् / एषा पुनरमरतया न शक्यते मारयितुं तथाप्येवं पौडयामि यथा न पुनः परपुरुषगन्धमपि प्रार्थयते एवं कृतनिश्चयस्याप्यस्य कालज्ञस्य तथाभवितव्यतया प्रवृत्तार्थपर्यालोचना स्फुरितं चित्ते यथा न सम्यग् चिन्तितमिदं मया / न पौडनीया तावद्विचक्षण यतोऽहमपि न शुद्धाचारो ममापि ममानोऽयं दोषः मारणमपि मुग्धस्य न युक्तं यतो मारितेऽस्मिन्नन्यथाभावं विज्ञाय न भजते मामकुटिला विरज्यते सुतरां विचक्षणा तत्किमकुटिलां ग्रहोवादृष्टखकलत्रधर्षण: इतोऽपक्रमामि एतदपि नास्ति यतोऽकाण्डप्रस्थानेन स्वाभाविकोऽयमिति लक्षितविकारा कदाचिदकुटिला मां न भजते तया रहितस्य पुनर्गमनमनर्थकमेव तस्मादौाधम्म परित्यज्य कालविलम्ब एवात्र श्रेयानिति / विचक्षणयापि चिन्तित मये स एवायं मदौयभर्ती कालज्ञोऽनेन रूपेण स्थितः कुतोऽन्यस्यात्र संभव इति ततः कथमस्य पुरतःपरपुरुषेण सह तिष्ठामौति संजातलज्जा / अयमन्यां भजत इति समुत्पन्नादुःशकमेवं स्थिते स्थातमित्याविर्भूतकुलभावागताया अपि न काचिदर्थसिद्धिरिति स्थानेनात्मानं तोषयन्तौ न चान्या गतिरस्तौति निरालम्बा मापि यद्भविष्यत्तया कालविलम्बमेवाश्रित्य तत्रैव स्थिता। तत्प्रमत्यदर्शितवैक्रियौ परित्यक्ताधर्मो देवमायया समस्तमानुषकर्त्तव्यान्याचरन्तौ प्रत्येकं दयं भजमानौ स्थितौ विचक्षणकालज्ञौ प्रभूतकालम् / अन्यदा मोहविलयाभिधाने कानने सातिशयज्ञानादिरत्नाकरो बहुशिष्यपरिकरः समागतः प्रतिबोधको नामाचार्यः / निवेदितो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 246 उपमितिभवप्रयचा कथा / नरेन्द्रायोद्यानपालेन तनः सपौरजनो निर्गतस्तद्दन्दनार्थं राजा / भगवतोऽपि देवैर्विरचितं कनककमलं दृष्टस्तत्रोपविष्टस्तेभ्यो धर्ममाचक्षाणो भगवानरपतिना शिलातलविलुलितमौलिना वन्दितं तत्पादारविन्दं शेषमुनयश्चाभिनन्दिताः कर्मविटपिपाटनपटिष्टनिठुरकुठारायमाणेन धर्मलाभाशीर्वादेन भगवता शेषयतिभिश्च उपविष्टो भूतले / कालज्ञादयोऽपि प्रयुज्य ममस्तं वन्दनादिविनयं यथास्थानमुपविष्टाः प्रस्तुता भगवता विशेषतो धर्मदेशना दर्शिता भवनिर्गुणता वर्णिताः कर्मबन्धहेतवः निन्दितः संमारचारकावासः स्लाघितो मोक्षमार्गः ख्यापितः शिवसुखातिशयः कथिता विषयाभिष्वङ्गस्य भवभ्रमणहेतुभिवसुखप्रतिरोधिका दुरन्तता ततस्तद्भगववचनामृतमाकर्ण विचक्षणाकालजयोर्विदलितं मोहजालमाविभूतः सम्यग्दर्शनपरिणामः समुज्वलित: कर्मेन्धनदहनप्रवण: सुदुचरितपश्चात्तापानलः। अत्रान्तरे तयोः गरौराभ्यां निर्गतै रक्तकृष्णैः परमाणुभिर्घटितरौरा बीभत्मा दर्शनेन भौषणा स्वरूपेण उद्देगहेतुर्विवेकिनां एका स्त्री भगवतः प्रतापं सोढुमक्षमा निर्गत्य पर्षदः पश्चान्मुखौ स्थिता दूरवर्त्तिनि भूभागे स्थिता पश्चात्तापार्टीछतहदयतयागताश्रुमलिलौ समकमेव विचक्षणाकालज्ञौ पतितौ भगवचरणयोः / कालज्ञेनाभिहितं भगवनधमाधमोऽहं येन मया विप्रतारिता स्वभार्या श्राचरितं पारदार्य द्रुग्धः सरलहृदयो मुग्धो जनितो नरेन्द्रमहादेव्यादौनां व्यलोकसुतव्यामोहः वञ्चितोऽयं परमार्थनात्मा तस्य ममैवंविधपापकर्मणः कथं शुद्धिर्भविष्यतौति / विचक्षणयोत ममापि कथं यतः समाचरितं पापिष्ठया मयापौदं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 297 सर्व किं वा निवेद्यते दिव्यज्ञानस्य प्रत्यक्षमेवेदं समस्तं भगवतः / भगवानाह / भद्रौ न कर्त्तव्यो युवाभ्यां विषादो न भट्रयोर्दोषोऽयं निर्मलं भवतोः स्वरूपं तावाहतुः कस्य पुनर्दोषोऽयं भगवानाह येयं युग्मच्छरौरानिर्गत्य दूरे स्थिता नारौ तस्याः। तावाहतुः भगवन् किन्नामिकेयं भगवताभिहितं भट्रौ भोगष्णेयमभिधीयते विचक्षणाकालज्ञाभ्यामभिहितं भगवन् कथं पुनरियमेवंविधदोषहेतुः भगवताभिहितं भद्रौ श्रूयताम् / रजनौव तमिस्रस्य भोगणेव सर्वदा / रागादिदोषवृन्दस्य सर्वस्यैषा प्रवर्तिका // येषामेषा भवेद्देहे प्राणिनां पापचेष्टिता / तेषामकार्येषु मतिः प्रमभं संप्रवर्तते // तणकाष्ठेर्यथा वहिर्जलपूरैर्यथोदधिः / तथा न हप्यत्येषापि भोगेरासेवितैरपि // यो मूढः शमयत्येनां किल शब्दादिभोगतः / जले निशीथिनीनाथं म हस्तेन जिक्षति // मोहादेनां प्रियां कृत्वा भोगढष्णां नराधमाः / मंमारसागरे घोरे पर्यटन्ति निरन्तके // सदोषेयमिति ज्ञात्वा ये पुनः पुरुषोत्तमाः / खदेहगेहानिःमार्य चित्तद्वारं निरन्धते // ते मापद्रवैर्मुक्ताः प्रलौनाशेषकल्मषाः / श्रात्मानं निर्मलौकृत्य प्रयान्ति परमं पदम् // ये नया रहिताः मन्तस्ते वन्द्या भुवनचये / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / वशे गताः पुनर्यऽस्याः साधुभिस्ते विगर्हिताः // अनुकूला भवन्यस्या ये मोहादधमा नराः / तेषामेषा प्रकृत्यैव दुःखसागरदायिका // प्रतिकूला भवन्यस्था ये पुनः पुरुषोत्तमाः / तेषामेषा प्रकृत्यैव सुखसन्दोहकारिका // तावन्मोक्षं नरो देष्टि संसारं बहु मन्यते / पापिष्ठभोगहष्णेयं यावच्चित्ते विवर्त्तते // यदा पुनर्विलायेत कथंचित्पुण्यकर्मणाम् / एषो भवस्तदा सर्वी धूलिरूपः प्रकाशते // तावचाशुचिपुञ्जेषु योषिदङ्गेषु मूढधौः / कुन्देन्दीवरचन्द्रादि कल्पनां प्रतिपद्यते // यावदेषा शरीरस्था वर्तते भोगटष्णिका / तदभावे मनस्तेषु न स्वप्नेऽपि प्रवर्तते // समाने पुरुषत्वे च पर किङ्करतां गताः / निन्द्यं यत्कर्म कुर्वन्ति भोगहष्णात्र कारणम् // येषां पुनरियं देहानिर्गता सुमहात्मनाम् / निर्द्धना अपि ते धौराः शक्रादेरपि नायकाः // किंचित्तामससंमित्रै राजसैः परमाणुभिः / निर्वन्तिशरौरेयं गौता तन्त्रान्तरेष्वपि // तदेषा भवतो पापा पापकर्मप्रवर्तिका। श्रतोऽस्था एव दोषोऽयं विद्यते नैव भद्रयोः // स्वरूपेण मदा भद्रौ निर्मलौ परमार्थतः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 26 246 एषैव सर्वदोषाणां कारणत्वेन मंस्थिता // इह स्थात्मशक्रिष्ठा एषा दूरस्थिताधुना / भवन्तौ मत्समौपाच निर्गच्छन्तौ प्रतीयते // विचक्षणाकालज्ञाभ्यामभिहितं भगवन् कदा पुनरस्याः सकाशादावयोमर्माक्षः भगवानाह भद्रौ नेह भवेऽद्यापि भवयामियं सर्वथा व्यतुं न शक्या केवलमस्य निर्दलने महामुद्गरायमाणं प्रादुर्भुतं भवतोः सम्यग्दर्शनं तदुद्दीपनौयं पुनः पुनः सुगुरुसंनिकर्षण नाचरणीयमस्या भोगष्णाया अनुकूलं लचयितव्यो मनसि विवर्त्तमानोऽस्या सम्बन्धी विकारः निराकरणीयोऽसौ प्रतिपक्षभावनया ततः प्रतिक्षणं तनुतां गच्छतो न भविष्यतीयं शरौरेऽपि वर्तमाना भवतोर्वाधिका भवान्तरे पुनरस्थाः सर्वथा त्यागसमर्थो भविष्यतो भवन्ताविति / तदाकर्ण्य ततो महाप्रमाद इति वदन्तौ विचक्षणकालज्ञौ पतितौ भगवञ्चरणयोः ततोऽमुं व्यतिकरमालोक्य श्रुत्वा च भगवद्वचनं ऋजुप्रगुणामुग्धाकुटिलानामपि प्रादुर्भूतः पश्चात्तापेन मह विशुद्धाध्यवसायः ऋजुप्रगुणाभ्यां चिन्तितमहो अलौकसुतवधद्विगुणतव्यामोहेन निरर्थकं विडम्बितं विहिता सुतवघ्योरुन्मार्गप्रवृत्तिरावाभ्यामिति। मुग्धेन चिन्तितं श्रहो कृतं मया परस्त्रीगमनेन कुलस्य दूषणं अकुटिलया चिन्तितं बत संजातं गोलखण्डनमिति। ततश्चतुर्णमपि स्थितमेतञ्चित्ते / पदुत निवेदयाम एवंस्थितमेवेदं भगवतां एत एवास्थ दुश्चरितस्य प्रतिविधानमुपदेच्यन्ति / अत्रान्तरे चतुर्णामपि शरौरेभ्यो निर्गतैः परमाणुभिघंटितशरीरं शक्लं वर्णन परिगतं तेजमाल्हादकं लोचनानां प्रौणक 32 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 250 उपमितिभवप्रपश्चा कथा / चेतमामुपलभ्यमानं मया रचितानि मया रचितानि यूयमिति ब्रुवाणमेकं डिम्मरूपं महर्षे भगवन्मुखमौक्ष्यमाणं स्थितं मर्वेषां पुरतः तावत्तदनुमार्गणैव कृष्णं वर्णन बीभत्समाकारेण उद्वेगहेतुः प्राणिनां तथैव निर्गतं द्वितीयं डिम्मरूपं तस्माच्च तदाकाररूपधरमेव क्लिष्टतरं प्रकृत्त्या संजातमन्यदपि हतौयं डिम्मरूपं तच्च वर्द्धितमारब्धं ततः शक्लडिम्मरूपेण मस्तके हस्ततलप्रहारं दत्त्वा तदर्द्धमानं निवार्य प्रकृत्त्या धारितं निर्गते च भगवदनुग्रहात् वे अपि ते कृष्णे डिम्भरूपे ततो भगवताभिहितं भो भद्राणि यद्भवद्भिश्चिन्तितं यथा कतमस्माभिविपरीताचरणमिति न तच भवद्भिविषादो विधेयः यतो न भवतामेष दोषो निर्मलानि यूयं स्वरूपेण तैरभिहितं भगवन् कस्य पुनरेष दोषो भगवानाह यदिदं शुक्लानन्तरं भवछरौरेभ्यो निर्गतं कृष्णवर्णं उिम्भरूपमस्यायं दोषः तान्याहुः भगवन् किनामकमिदं भगवतीकमज्ञानमिदमुच्यते तैरतं भगवन् यदिदमेतस्मादज्ञानात्प्रादुर्भुतं द्वितीयं कृष्णडिम्मरूपमनेन च शुक्लरूपेणास्फोव्य वर्द्धमानं धारितमेतत्किन्नामकं भगवानाह पापमिदं तान्याहुरस्य शुक्लडिम्भरूपस्य तर्हि किमभिधानं भगवतोतं प्रार्जवमिदभिधीयते ततस्तान्याहुः भगवन् कीदृशमिदमज्ञानं कथं चेदं पापमेतस्माब्वातं किमिति चानेनार्जवेनेदं विवईमानं धारितमिति सर्वे विस्तरतः श्रोतुमिच्छामो भगवामाह यद्येवं ततः समाकर्णयत ययम्। यन्नावदिदमज्ञानं घुमद्देवादिनिर्गतम् / एतदेव समस्तस्य दोषवृन्दस्य कारणम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 251 अनेन वर्तमानेन शरीरे जन्तवो यतः / कार्याकार्य न जानन्ति गम्यागम्यं च तत्त्वतः // भक्ष्याभक्ष्यं न बुध्यन्ते पेयापेयं च सर्वथा / अन्धा व कुमार्गेण प्रवर्तन्ते ततः परम् // ततो निबोध्य घोराणि कर्माण्यवतसम्बलाः / भवमार्ग निरन्तेऽत्र पर्यटन्ति सुदुःखिताः // अज्ञानमेव सर्वेषां रागादीनां प्रवर्तकम् / खकार्य भोगष्णापि यतोऽज्ञानमपेक्षते // अज्ञानविरहेणैव भोगतृष्णा निवर्त्तते / कथंचित्मप्रवृत्तापि झटित्येव निवर्त्तते // सर्वज्ञः सर्वदर्णी व निर्मलोऽयं स्वरूपतः / अज्ञानमलिनो यात्मा पाषाणान विशेष्यते // याः काश्चिदेव मर्येषु निर्वाणे च विभूतयः / अज्ञानेनैव ताः सर्वा हृताः सन्मार्गरोधिना // अज्ञानं नरको घोरस्तमोरूपतया मतम् / अज्ञानमेव दारिद्र्यमज्ञानं परमो रिपुः // अज्ञानं रोगसंघातो जराप्यज्ञानमुथते। अज्ञानं विपदः सर्वा प्रज्ञानं मरणं मतम् // अज्ञानविरहेणेष घोरसंसारसागरः / अत्रापि वमतां पुंसां बाधकः प्रतिभासते // याः काश्चिदनवस्थाः स्युर्याश्चोन्मार्गप्रवृत्तयः / यच्चासमंजसं किंचिदज्ञानं तत्र कारणम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 252 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। त एव हि प्रवर्त्तन्ते पापकर्मसु जन्तवः / प्रकाशाच्छादकं येषामेतञ्चेतमि वर्तते // येषां पुनरिदं चित्तायन्यानां विनिवर्त्तते / भौमतान्तरात्मानस्ते सदाचारवर्तिनः // वन्द्यास्त्रिभुवनस्यापि भूत्वा भावितमानमाः / अशेषकल्मषोन्मुक्ता गच्छन्ति परमं पदम् // एतच्चाज्ञानमत्रार्थ सर्वेषां भवतां ममम् / संजातं तेन दोषोऽयमस्यैव न भवादृशाम् // डिभरूपमनेनैव द्वितीयं पापनामकम् / सर्वत्र जन्यते तस्मादत्रापि जनितं किल // एतद्धि सर्वदुःखानां कारणं वर्णितं बुधैः / उद्धेगमागरे घोरे हठादेतत्प्रवर्तकम् // मूलं संक्लेशजालस्य पापमेतदुदाहृतम् / न कर्त्तव्यमतः प्राज्ञैः सर्वं यत्पापकारणम् // हिंसानृतादयः पञ्च तत्त्वाश्रद्धानमेव च / क्रोधादयश्च चत्वार इति पापस्य हेतवः // वर्जनीयाः प्रयत्नेन तस्मादेते मनौषिणा। ततो न जायते पापं तस्मान्नो दुःखसंभवः // युश्माकं पुनरज्ञानाज्जातं पापमिदं यतः / अज्ञानमेव सर्वेषां हिंसादौनां प्रवर्तकम् // वर्द्धमानमिदं पापमार्जवेन निवारितम् / यदत्र कारणं सम्यक् कथ्यमानं निबोधत // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 253 आर्जवं हि स्वरूपेण शुद्धाशयकरं परम् / वर्द्धमानमतः पापं वारयत्येव देहिनाम् // एतच्चार्जवमत्रार्थ सर्वेषां वर्त्तते समम् / अज्ञानजनितं पापं युग्माकममुना जितम् // रक्षितानि मया यूयमत एव मुहुर्मुहुः / महर्षमेतदाचष्टे डिभरूपं स्मिताननम् // धन्यानामार्जवं येषामेतच्चेतसि वर्तते / अज्ञानादाचरन्तोऽपि पापं ते खल्पपापकाः // यदा पुनर्विजानन्ति ते शुद्धं मार्गमंजमा / तदा विधूय कर्माणि चेष्टन्ते मोक्षवमनि // श्राजौवनं ततो धन्यास्ते शुभ्रौभूतमानसाः / निर्मलाचारविस्ताराः पारं गच्छन्ति संसृतेः // तदेवंविधभावानां भद्राणां बुध्यतेऽधुना / अज्ञानपापे निर्द्धय सम्यग्धर्मनिषेवणम् // उपादेयो हि संसारे धर्म एव बुधैः सदा / विशुद्धो मुक्तये सर्वं यतोऽन्यदुःखकारणम् // अनित्यः प्रियसंयोग हे शोकवत्सलः / अनित्यं यौवनं चापि कुत्सिताचरणास्पदम् // अनित्याः संपदस्तौबक्लेशवर्गसमुद्भवाः / अनित्यं जीवितं चेह सर्वभावनिबन्धनम् // पुनर्जन्म पुनर्मत्यु/नादिस्थानसंश्रयः / पुनः पुनश्च यदतः सुखमत्र न विद्यते // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 254 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। प्रकृत्या सुन्दरं ह्येवं संसारे सर्वमेव यत् / अतोऽत्र वद किं युका क्वचिदास्था विवेकिनाम् // मुक्का धर्म जगद्वन्द्यमकलङ्कं सनातनम् / परार्थसाधकं धौरैः सेवितं शौलशालिभिः / ततो भागवतं वाक्यं श्रुत्वेदममृतोपमम् / संमारवासात्तैः सर्वैः खं खं चित्तं निवर्तितम् // राजाह क्रियते सर्वं यदादिष्टं महात्मना / प्रगुणाह महाराज किमद्यापि विलम्ब्यते // चारु चारूदितं तात सम्यगम्ब प्रजल्पितम् / युक्रमेतदनुष्ठानं मुग्धेनैव प्रभाषितम् // हर्षीत्फुल्लमरोजाची तथापि गुरुलज्जया / तदुक्तं बहु मचाना वधर्मीनेन संस्थिता / ततः पतितानि चत्वार्यपि भगवचरणयोः ऋजुराजेनोक्तं वत्स संपादयामो यदादिष्टं भगवता / भगवानाह उचितमिदं भवादृशभव्यानां ततः पृष्टो भगवाननेन प्रशस्तदिनं राज्ञा भगवतोतं अद्यैव शुयतीति ततस्तत्रस्थेनैव नरेन्द्रेण दापितानि महादानानि कारितानि देवपूजनानि स्थापितः शुभाचाराभिधानः स्वतनयो राज्ये राज्ये जनितो नागरिकजनानां चित्तानन्द इति / ततो निवर्त्य कर्त्तव्यं प्रव्रज्याकरणेचितम् / गुरुणार्पितमदावं दौचितं च चतुष्टयम् // ततस्ते हष्णरूपे दे डिम्भे वर्ण पलायिते / शुक्लरूपं पुनस्तेषां प्रविष्टं तनुषु क्षणत् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 255 कालज्ञेन ततश्चित्ते मभार्येण विचिन्तितम् / पण्याहो धन्यतामोषां सुलब्धं जन्मजीवितम् / एतैर्भागवती दौक्षा यैः प्राप्ता पुण्यकर्मभिः // दुरन्तोऽप्यधुना मन्ये तेस्तौणऽयं भवोदधिः / चारित्ररत्नादेतस्मात्समारोत्तारकारणात् // वयं तु देवभावेन व्यर्थकेनात्र वञ्चितः / अथ वा। मिथ्यात्वोद्दलनं यस्मादस्माभिरपि सांप्रतम् / दुर्लभं भवकोटौभिः प्राप्तं सम्यक्तमुत्तमम् // श्रतोऽस्ति धन्यता काचिदमाकमपि सर्वथा / नरो दारिद्र्यभाङ् नैव लभते रत्नपुञ्जकम् // ततः सहर्षी तो सूरः प्रणम्य चरणइयम् / तेनानुशिष्टौ स्वस्थानं संप्राप्तौ देवदम्पती / / प्रविष्टा भोगष्णापि शरीरे गच्छतोस्तयोः / शुद्धसम्यक्त्वमाहात्म्यात् केवलं मा न बाधिका // विचक्षणाह कालज्ञमन्यदा रहमि स्थिता / आर्यपुत्र यदा दृष्ट्वा त्वयाहं कृतवञ्चना // तदा किं चिन्तितं मोऽपि स्वाभिप्रायं न्यवेदयत् / विचक्षणह मत्यस्त्वं कालज्ञ इति गौयसे / तेनापि पृष्टा मोवाच पर्यालोचं तदाननम् / कालज्ञः प्राह सत्येव त्वमप्यत्र विचक्षणा // थतः कालविलम्बेन क्रियमाणेन वल्लभे / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 256 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / भोगा भुक्रा: स्थिता प्रोतिर्जातं नाकाण्डविड्वरम् // प्राप्तो धर्मो नृपादौनामुपकारः कृतो महान् / ततः कालविलम्बोऽयं फलितोऽत्यर्थमावयोः // विचक्षणह कोवात्र सन्देहो नाथ वस्तुनि / किं वा न जायते चारु पर्यालोचितकारिणम् // ततः प्रौतिसमायुतौ संजातौ देवदम्पती / मद्धर्मलाभादात्मानं मन्यमानौ कृतार्थकम् // इदं पुत्र मया तुभ्यं कथितं मिथुनदयम् / मंदिग्धेऽर्थे विलम्बेन कालस्य गुणभाजनम् // ततश्च / मंदिग्धेऽर्थे विधातव्या भवता कालयापना / पश्चाद् बहुगुणं यच्च तदेवाङ्गौकरिय्यते / मध्यमबुद्धिराह यथाज्ञापयत्यम्बा / ततो मनोषिणो वाक्यं स्मरतो नास्य जायते / प्रोतिबन्धो दृढं तत्र स्पर्शने भाववरिणि // बालालापैः पुनस्तत्र स्नेहबुद्धिः प्रवर्त्तते / दोलायमानोऽसौ चित्ते कुरुते कालयापनाम् // दूतश्च तेन बालेन सा प्रोता जननी निजा। अम्ब संदर्शयात्मीयं योगशक्रिबलं मम // तयोक्तं दर्शयाम्येषा पुत्र वं संमुखो भव / ततः सा ध्यानमापूर्य प्रविष्टा तच्छरौरके // श्रथाकुशलमालायां प्रवेशानन्तरं पुनः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 257 स बालः स्पर्शनेनापि गाढं हर्षादधिष्ठितः // ततः शरीरे तौ तस्य वर्तमानौ क्षणे क्षणे / अभिलाषं मृदुस्पर्श कुरुतस्तोत्रवेदनाम् // परित्यक्तान्यकर्त्तव्यस्तावन्मात्रपरायणः / स बालः सुरतादीनि दिवा रात्रौ च सेवते // कुविन्दडोम्बमातङ्गजातौयाखपि तदशः / अतिलौल्येन मूढात्मा ललनासु प्रवर्तते // ततोऽकर्त्तव्यनिरतं सत्कर्त्तव्यपराङ्मुखम् / तं बालं सकलो लोकः पापिष्ठ इति निन्दति // अज्ञोऽयं गतलज्जोऽयं निर्भाग्यः कुलदूषणः / स एव निन्द्यमानोऽपि मन्यते निजचेतसि // स्पर्शनाम्बाप्रसादेन ममास्ति सुखसागरः / लोको यह कि तहक्नु किमेतज्जल्पचिन्तया // अथाकुशलमालापि निर्गत्य परिपृच्छति / कौदृशौ मामको जाता योगशनिविभाति ते // स प्राहानुग्रहौतोऽस्मि निर्विकल्पोऽहमम्बया / सुखसागरमध्येऽत्र यथाहं संप्रवेशितः // अन्यच्चाम्ब त्वया नित्यं मदनुग्रहकाम्यया / न मोक्रव्यं शरीरं मे यावज्जीवं खतेजमा // अथाकुशलमालाह यत्तुभ्यं वत्स रोचते / तदेव सततं कायं मया मुस्कान्यचेष्टया // खाधीनां तां निरीक्ष्यैवं बालेन परिचिन्तितम् / 33 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / स्पर्शनोऽपि ममायत्तः सामग्रौ सर्वमाधिका / अहो मे धन्यता लोके नास्त्यतो बत मादृशः / ततोऽसौ गाढहष्टात्मा खानुरूपं विचेष्टते // अथ निन्दापरे लोके स्नेहविहलमानसः / लोकापवादभौरुत्वान्मध्यबुद्धिः प्रभाषते // बालेन युज्यते कर्तुं तव लोकविरुद्धकम् / अगम्यागमनं निन्द्य सपापं कुलदूषणम् // स प्राह विप्रलब्धोऽसि नूनं मित्र मनीषिणा / वर्ग विवर्त्तमानं मां नेक्षसे कथमन्यथा // ये मूढा जातिदोषेण कोमलं लसनादिकम् / नेच्छन्ति ते महारत्नं मुञ्चन्ति स्थानदोषतः / / तदाकर्ण्य ततश्चित्ते कृतं मध्यमबुद्धिना / नैष प्रज्ञापनायोग्यो व्यर्थो मे वाक्परिश्रमः // एवं च तिष्ठतां तेषां बालमध्यमनौषिणाम् / अथान्यदा समायातो वमन्तो कृतमन्मथः // संजाताः काननाभोगाः सुमनोभरपूरिताः / भ्रमवमरझङ्कारतारगौतमनोहराः // कामिनौहदयानन्ददायक प्रियसविधौ / विजम्भते वनान्तेषु काककोकिलकूजितम् // प्रोत्फुल्लकिंशकाग्रेषु पुष्यभारोऽतिरिक्तकः / वियोगदलितस्त्रीणां पिशितप्रकरायते // मञ्जयः सहकाराणामामोदितदिगन्तराः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 256 हृष्टा वसन्तराजेन धलिकौडां प्रकुर्वते // देवकिन्नरमम्वन्धिमिथनैः कथिता वने / भ्रमेण नाकान्मर्त्यस्य तदानौं रमणीयता // वल्लो निर्भरीभूत्वा बद्धा दोला रहे रहे / मदनोद्दीपनमदः प्रवृत्तो मलयानिलः / / अथेदृशे वमन्तेऽसौ सह मध्यमबुद्धिना / कौडाथै निर्गतो बालः कामकालप्रमोदितः // जनन्या देहवर्त्तिन्या संयुक्तः स्पर्शनेन च / गतो लीलाधरं नाम मोद्यानं नन्दनोपमम् // तस्यास्ति मध्यभूभागे शुभ्रश्टङ्गो महालयः / जनतामयनानन्दः प्रामादस्तगतोरणः // कामिनौवदयाल्हादकारको रतिवत्सलः / जनैः प्रतिष्ठितस्तत्र देवो मकरकेतनः // इतश्च तस्य देवस्य पूजामत्कारकारणम् / तिथिक्रमेण संजाता दिने तत्र त्रयोदशौ / कन्यकावरलाभाथ वध्वः सौभाग्यवद्धये / दुर्भगास्तु पतिप्रेममोहेन हतमानमाः // मोहान्धाः कामिनोऽभीष्टयोषित्सम्बन्धमिद्धये / रहौतार्चनिकाः कामपूजनार्थं समागताः // ततो बालो महारोलं तत्राकर्ण्य मविस्मयः / प्रविष्टः कामसदनं सह मध्यमबुद्धिना // दृष्टस्तत्र रते थः प्रणतो भक्तिपूर्वकम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / पूजितश्च प्रयत्नेन संस्तुतो गुणकोर्ननैः // अथ प्रदक्षिणां तस्य ददानो देवसद्मनः / बालो ददर्श पार्श्वस्थं गुप्तस्थाने व्यवस्थितम् // तस्यैव रतिनाथस्य देवस्य कृतकौतुकम् / संवामभवनं रम्यं मन्दमन्दप्रकाशकम् // कुतूहलवशेनाथ दारि संस्थाप्य मध्यमम् / मध्ये प्रविष्टः सहसा स बालस्तस्य सद्मनः // अथ तत्र सुविस्तौणी सपर्यकां मलिकाम् / मृदूपधानसंपन्नां कोमलामलचेलिकाम् // सुप्तेन रतियुक्तेन क्रान्तमध्यां मनोभुवा / स ददर्श महाशय्यां देवानामपि दुर्लभाम् // ततो मन्दप्रकाशत्वात् संवासभवनस्य सः / किमेतदिति संचिन्त्य शय्यां पस्पर्श बालकः // इतश्चेतश्च हस्तेन स्पृशता सुचिरं मुदा / ततो विभावितानेन शय्यैषा मकरध्वजौ // विचिन्तितं च तत्स्पर्धकौमल्यहतचेतसा / अहो कोमलता मन्ये नान्यत्र भवतोदृशौ // ततः शरीरवर्त्तिन्या जनन्या स्पर्शनेन च / प्रेर्यमाण: खकीयेन चापलेन च दूषितः / म बालश्चिन्तयत्येवमानयामि यथेच्छया / एनां कोमलिकां शय्यां सुधार क्षणमात्रकम् // देवः सप्तोऽत्र मदनो रतियुक्तो न चिन्तितम्। For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / अपायो देवशय्यायां सुप्तस्येति न भावितम् // दृष्टस्य लाघवं लोकैरिति नैव नमस्कृतम् / विज्ञातं नेति संपत्ये हास्यो मध्यमबुद्धितः // अनालोच्यायति मोहात् केवलं सुप्त एव सः / पारुह्य शय्यां तां दिव्यां कृतं बालविचेष्टितम् // ततस्तस्यां विशालायां शय्यायां बद्धमानमः / दूतश्चेतश्च कुर्वाण: सर्वाङ्गाणि पुनः पुनः // अहो सुखमहो स्पर्शस्तथाहो धन्यता मम / चिन्तयनिति शय्यायां लुठमानः स तिष्ठति / / इतश्च नगरे तत्र बहिरङ्गो नृपोत्तमः / अन्योऽप्यस्ति महातेजाः प्रख्यातः शत्रुमर्दनः // तस्यास्ति पद्मपत्राची प्राणेभ्योऽपि सुवल्लभा // प्रधानकुलसंभूता देवी मदनकन्दली / ग्राहितार्चनिका सा च परिवारण संयुता // श्रायाता तत्र सदने कामदेवस्य पूजिका / देवकोष्ठस्थितं सा च संपूज्य मकरध्वजम् // संवामभवनस्थस्य प्रविष्टा तस्य पूजिका / प्रविशन्नौमुदीच्यामौ तां स्त्रीति कृतनिश्चयः // लज्जाभयाभ्यां निश्चेष्टो बाल: काष्ठमिव स्थितः / ततो मन्दप्रकाशे मा भवने मृगलोचना // हस्तस्पर्शन शय्यायां देवमर्चयते किल / चन्दनेन च कुर्वन्या रतिकामविलेपनम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 262 उपमितिभवप्रपश्चा कथा। स बालः सर्वगात्रेषु स्पृष्टः कोमलपाणिना / ततोऽकुशलमालाया वशेन स्पर्शनस्य च // म बालश्चिन्तयत्येवं विपर्यामितमानसः / यादृशोऽयं मृदुस्पर्शो हस्तस्यास्यानुभूयते // नानुभूतो मया तादृग् जन्मन्यपि कदाचन / अहो मयान्यस्पर्शष सौन्दर्य कल्पितं वृथा // नातः परतरं मन्ये त्रिलोकेऽप्यस्ति कोमलम् / इतश्च कामदेवस्य परिचयां विधाय मा / स्वस्थानं प्रगता काले राज्ञो मदनकन्दली। ततोऽसौ बालः कथं ममेयं स्त्री संपत्स्यत इति चिन्तया विकलौभृतहदयोऽनाख्येयमन्तस्तापातिरेकं वेदयमानो विस्मृतात्मा तस्यामेव भय्यायां मुञ्चन् उष्णोष्णान् दौर्घदौर्घान् निःश्वामान् मूर्छित व मूक व मत्त व इतसर्वस्व व तप्तशिलायां नितिप्रमत्स्यक व इतश्चेतश्च परिवर्त्तमानो विचेष्टते ततो द्वारे वर्त्तमानेन मध्यमबुद्धिना चिन्तितं श्रये किमेत्येष बालोऽस्मात् संवासभवनादियतापि कालेन न निर्गच्छतौति किं वा करोतौति प्रविश्य तावनिरूपयामि। ततः प्रविष्टो मध्यमवुद्धिलक्षिता हस्तस्पर्शन कामशय्या इतमस्यापि हृदयं तत्कोमलतया ततो दिमलीभूतदृष्टिना तेन दृष्टः शय्यैकदेशे विचेष्टमानस्तदवस्थो बालश्चिन्तितमनेन अहो किमनेनेदमकार्यमाचरितं न युक्तं देवशय्यायामधिरोहणं न खलु रतिरूपविभ्रमापि गर्यङ्गना सतां गम्या भवति तथेयं शय्या सुखदापि देवप्रतिमाधिष्ठितेति कृत्वा केवलं वन्दनीया न पुनरु For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 263 पभोगमहतीति ततश्चोत्थापितोऽनेन बालो यावन किञ्चिज्जल्पति मध्यमबुद्धिराह अहो अकार्यमिदं न युक्र देवशय्यायामधिरोहणमित्यादि तथापि न दत्तमुत्तरं बालेन। अत्रान्तरे प्रविष्टस्तदेवकुलाधिष्ठायको व्यन्तरो बद्धस्तेनाकाशबन्धेः बालः पतितो भूतले समुत्पादितास्य मर्वाङ्गीणा तौबवेदना ततो मुमूर्षन्तमुपलभ्य कृतो मध्यमबुद्धिना हाहारवः ततः किमेतदिति संभ्रमेण चलितो देवकुलात्तदभिमुखं लोको निःमारितो व्यन्तरेण वामभवनाद् बहिऔलो महास्फोटेन चिप्तो भूतले भननयनः कण्ठगतप्राणोऽसौ दृष्टो लोकेन तदनुमार्गेण दौनमनस्को निर्गतो मध्यमबुद्धिः किमेतदिति पृष्टोऽसौ जनेन लज्जया न किंचिज्जल्पितमनेन ततोऽवतौर्य कंचित्पुरुषं व्यन्तरेण कथितो जनेभ्यस्तदीयव्यतिकरः ततो देवापथ्यकारौति पापिष्ठोऽयमिति धिक्का रितोऽसौ बालो मकरध्वजभक्तैः कुलदूषणोऽयमस्माकं विषतरुरिव संपन्न इति गर्हितः स्वजातीयैः अनुभवतु पापकर्मणः फलमिदानौमित्याक्रोशितः सामान्यलोकैः कियदेतदममौचितकारिणां समस्तानर्थभाजनत्वात् तेषामित्यपकर्णितो विवेकिलोकैः ततोऽसौ व्यन्तरः कृतविकृतरूपः मन्नाह चूर्णनीयोऽयं दुरात्मा भवतां पुरतो मयाधुना बाल इति ततः कृतहाहारवः प्रमौदत प्रमौदत भट्टारको ददातु भानप्राणभिचामिति ब्रुवाणः पतितो व्यन्तराधिष्ठितपुरुषपादयोर्मध्यमबुद्धिस्तत्करुणापरीतचेतसा लोकेनाप्यभिहितो व्यन्तरो यदुत भट्टारक मुच्यतामेकवारं तावदेष न पुनः करिष्यतीति / ततो मध्यमवद्धिकरुणया लोकोपरोधेन च मुक्तोऽसौ व्यन्तरेण बालो लब्धा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 264 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / चेतना मुत्कलौभूतं शरीरं निःमारितस्वर्ण देवकुलात् मध्यमबद्धिना नौतः कृच्छ्रण स्वभवनं ज्ञातोऽयं व्यतिकरः परिकरात्कर्मविलासेन चिन्तितमनेन कियदेतदद्यापि मयि प्रतिकूले बालस्य यद्भविष्यति तन्त्र लक्षयन्येते लोकाः ततोऽभिहितः कर्मविलासेन परिकरः किमस्माकं दुर्विनौतचिन्तया नोचितः मोऽनु गास्ते न वोढव्यस्तदीयः केनापि व्यापारः परिकरणोतं यदाज्ञापयति देव इति / पृष्टोऽसौ मध्यमबुद्धिना बालः। भ्रातर्न किञ्चित्तेऽधुना शरीरके बाधते बालेनाभिहितं न शरीरके केवलं प्रवर्द्धते ममान्तस्तापो मध्यमबुद्धिराह जानामि किनिमित्तोऽयं ततो वामगौलतया कामस्य बालः प्राह न जानामि केवलं दारस्थेन भवता तत्र संवामभवनेऽभिप्रविशन्तो गच्छन्ती वा किं विलोकिता काचित्रारौ न वा मध्यमबुद्धिराह विलोकिता बालेनोक्तं तत्किं लक्षिता कासाविति भवता मध्यमबुद्धिराह सुष्टु लक्षिता मा हि शत्रुमर्दनस्य राज्ञो भाया मदनकन्दलौत्युच्यते तदाकर्ण्य कथं सा मादृशामिति चिन्तया दौर्घदौर्घतरं निःश्वमितं बालेन तदर्थी खल्वयमिति लक्षितो मध्यमबुद्धिना चिन्तितमनेन तत्रापि स्थाने तावदस्थायमभिनिवेशो जनयत्येवं मा मदनकन्दलौ सुन्दरतरातिशयेन स्वगोचरमभिलषितं यतो द्वारशाखालग्नेन मयाप्यतिसङ्कटतया कामसंवासभवनद्वारस्य निर्गच्छन्त्यास्तस्या मदनकन्दल्याः संवेदितोऽङ्गस्य स्पो न तादृशः प्रायेणान्यवस्तुनः स्पर्शो भुवने विद्यते दोलायितं ममापि तदभिसरणगोचरं मनस्तदानौमासीत् किंतु न युझं कुलजानां परस्त्रीगमनं तस्मानिवारयाम्येनमपि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 265 यदि निवर्त्तते मदचनेन ततः स बालं प्रत्याह किमद्याप्यविद्या भवतः किं न दृष्टमिदानीमेव फलमविनयस्य भवता किमधुनैव विस्मतं यत्कण्ठगतप्राणः कथंचिन्मोचितस्त्वं मया दुर्विनयकुपितात् भगदतो मकरध्वजात् ततो निवर्तस्वास्मादुरध्यवसायात् नयनविषं नागशिरोरत्नशूचिकल्या हि मा मदनकन्दली तां प्रार्थयतस्ते केवलं भस्मीभाव एव न पुनः काचिदर्थसिद्धिः बालेन चिन्तितं अये लक्षितोऽहमनेन तत्किमधुनाभिप्रायगोपनेन ततस्तेनोक्तं यद्येवं ततः किं ब्रूषे मोचितस्वं मया न पुन—षे यथा गाढतरं मारित इति यतस्तेन कामेन युग्मदचनेन मां मुचता केवलं मे शारीरवेदनामात्रमपसारितं हृदये पुनर्निक्षिप्तो वितर्कपरंपरारूपः प्रज्वलितखदिराङ्गारराशिस्तेन ममेदं दह्यते समन्ताच्छरीरं यद्यहं कामबन्धनकाल एवामरिय्यं नैतावन्तमन्तस्ता पमन्वभविश्यं ततो भवता मोचयता मलुत महानयमनर्घः संपादित इति नाधुना ममैनाममृतसेकायमानां मदनकन्दली विरहय्यान्यथास्यान्तस्तापस्योपशमः किंबहुनात्र अल्पितेनेति / ततो लक्षितो मध्यमबुद्धिनास्या निवर्त्तको निर्बन्धः स्थितोऽमो दूष्णीभावेन / अत्रान्तरे गतोऽस्तं मविता बालहृदयादिव ममुल्ल मितं तमःपटलं लंधितः प्रथमः प्रदोषः नि:संचारोभूतो लोकः ततोऽविचार्य कार्याकार्य समुत्थितो बालो निर्गतः स्वकीयभवनात् अवतीर्णा राजमार्ग प्रवृत्तः शत्रुमर्दनराजकुला भिमुखं गन्तुं गतः कियन्तमपि भूभागमितश्च स्नेहवशेन किमस्य संपत्स्यत इति चिन्तया निर्गतस्तदनुमार्गण मध्यमबुद्धिः। दृष्टो बालेन गच्छता कश्चित्यरुषः / तेन चास्फोट्यबद्धोऽसौ मयरबन्धेन For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 266 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा कूजितं बालेन प्राप्तः प्राप्त इति बाण: प्राप्त व मध्यमबुद्धिः / ततः समुत्पाद्य बालं पश्यत एव मध्यमबुद्धेः समुत्पतितः पुरुषोऽम्बरतलमारटतच बालस्य स्थगितं वदनं प्रवृत्तः पश्चिमाभिमुखो गन्तु ततो मध्यमबुद्धिरपि अरे रे दुष्ट विद्याधर क्व यासि ग्रहोवा मदीयभ्रातरमिति / चाडौं मुञ्चन्नाकृष्टखङ्गः प्रस्थितो भूमौ तदनुमार्गेण निर्गतो नगरात् अदर्शनीभूतः पुरुषो निराभौभूतो मध्यमबुद्धिः / तथापि बालस्नेहानुबन्धेन किल क्वचिन्मोच्यतौतिवुद्ध्या नासौ धावन्नुपरमति धावत् एव लंघिता रजनौ ततोऽनुपानत्कतया विद्धोऽनेककण्टककोलकैः परिगतः श्रमेण क्षामो बुभुक्षया पौडितः पिपासया विव्हलः शोकेन अध्यामितो दैन्येन अनेकंग्रामनगरेषु पृच्छन् वाती भ्रान्तोऽमौ मप्ताहोरात्र तत्रापि प्राप्तः कुशस्यलं नाम नगरं स्थितस्तस्य बहिर्भागे दृष्टोऽनेन जीर्णान्धकूपः ततः किं ममाधुना भ्राहविकलेन जीवितेनेति प्रक्षिपाम्यत्रात्मानमिति संचिन्त्य बद्धा मध्यमबुद्धिना निर्वालगमनार्थमात्मगलके शिला दृष्टं तनन्दननाम्ना राजपुरुषेण ततो मा साहस मा माहममिति ब्रुवाण: प्राप्तोऽसौ तत्समीपं धारितः कूपतटोपान्तवत्तौं मुञ्चन्नात्मानं मध्यमबुद्धिरनेन विमोचितः शिलां निवेशितो भूतले पृष्टश्च भद्र किमितौदमधमपुरुषोचितं भवता व्यवसितं ततः कथितोऽनेन बालवियोगव्यतिकरः / नन्दनेनाभिहितं भद्र यद्येवं ततो मा विषादं कार्षीः भविष्यति मात्रा मार्दू प्रायेण मौलको मध्यमबुद्धिराह कथं नन्दनेनोनं समाकर्णय अख्यत्र नगरेऽस्माकं खामी हरिश्चन्द्रो नाम राजा स च प्रतिक्षणमुपद्यते For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टयौयः प्रस्तावः / 260 विषयमाठरशंखादिभिः प्रात्यन्तिकैर्मण्डलहरैर्नृपतिभिः। दूतश्चास्ति रतिकेलि म विद्याधरः परममित्रम् / अन्यदा समागतेन शचूपट्टतमवलोक्य देवं तेनाभिहितं ददामि तुभ्यमहं करविद्यां यत्प्रभावेण त्वमेतैर्न परिभूयसे देवेनाभिहितं अनुग्रहो मे ततः कारयित्वा पाएमासिका पूर्वसेवामितो दिनादष्टमे दिने नौतः क्वचितेन देवो हरिश्चन्द्रः कारितो विद्यासाधनमानौतो दितीयदिने सह पुरुषेण कृता तस्य पुरुषस्य मांसरुधिरेण होमक्रिया सप्तदिनानि विद्यायाः पश्चात्सेवामुक्तोऽसावधुना पुरुषः स एव प्रायस्ते भ्राता भविष्यतीति मे वितर्कः / स च ममैव समर्पितो ऽधुना देवेन। मध्यमबुद्धिराह भद्र यद्येवं ततो यद्यस्ति ममोपरि दया भवतस्ततस्तमानय तावदिहैव पुरुषं येनाहं प्रत्यभिजानामौति ततश्चैवं करोमौत्यभिधाय गतो नन्दनः ममायातः समुत्पाद्य ग्रहौत्वा बालं दृष्टोऽस्थिमात्रावशेष उच्छासनिःश्वासोपलक्ष्यमाणजीवितो निरुद्धवाक्प्रसरो मध्यमबुद्धिना बालः प्रत्यभिज्ञात: कृच्छ्रेण / अभिहितो नन्दनः भद्र स एवायं मम भ्रातेति सत्यं नन्दनस्वमसि / अनुग्रहौतोऽहं भवता / नन्दनः प्राह / भट्र राजद्रौह्यमिदं भवत्करुणया मयाध्यवमितम्। अन्यच्चाधुना गतेन मया किलाकर्णितं यथा किल रात्रौ राजा पुनस्तर्पयिष्यति रुधिरेण विद्यां भविश्यत्यनेन पुरुषेण प्रयोजनमिति तदिदमवगम्य मम यद्भवति तद्भवतु भवभ्यां तु वर्णमपक्रमितव्यं ततो यदाज्ञापयति भट्रो रक्षपणेयश्च यत्तेन भद्रेणात्मेत्यभिधाय समुत्याटितो बालः प्रवृत्तो गन्तुं मध्यमबुद्धिः / ततो भयविधुरहदयो धावनहनि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 268 उपमितिभवप्रयचा कथा / वेगेन क्वचित्प्रेदशे बालं पाययबुदकं समाल्हादयन् वायुना प्रौणयन्नशनादिरसेनागणयन्त्रात्मनः शरौरपौडॉ महता क्लेशजालेन प्राप्तः खस्थानं मध्यमबुद्धिः / गतानि कतिचिद्दिनानि जातो मनाक् मबलो बालः पृष्टो मध्यमबुद्धिना भ्रातः किं भवतानुभूतं स प्राह इतस्तावदुत्क्षिप्तोऽहं बवा भवतः पश्यत एव गगनाचारिणा नौतः कृतान्तपुराकारमतिभीषणतयेकं श्मशानं दृष्टस्तत्र प्रचलिङ्गारभूताग्निकुण्डपार्श्ववत्ती मया पुरुषः ततस्तंप्रति तेजाम्बरचरेणाभिहितं महाराज मिळू ते समौ हितं लब्धोऽयं मया प्रस्तुत विद्यामिढेरुचितः मलक्षण: पुरुषः / दूतरेणोतं महाप्रसादः ततोऽभिहितो नभश्चरेण म पुरुषः यदुतैकैकस्मिन् विद्याजापपर्यन्ते मया दत्ताहुतिरनौ भवता प्रक्षेप्नव्या प्रतिपन्नमनेन प्रारब्धो जापः / ततो विद्याधरेणाकृष्टा यमजिहेवातितीक्ष्णा भाखराकारा शस्त्रिमा तया चोकर्त्तिता मदीयपृष्ठात्तेन दीर्घा मांसपेशी निष्पोद्य तत एव प्रदेशात् निर्गालितं रुधिरं मृतश्चलकः। अत्रान्तरे समाप्तमितरस्यैकं विद्यापरावर्त्तनं समर्पिता विद्याधरेण मा रुधिरमांममयो तस्याहुतिः प्रतिक्षिप्ता तेनाग्निकुण्डे। पुनः प्रारब्धी जायः ततवं सोऽम्वरचरो मदीयं शरीरं परापरप्रदेशान्नरकपाल व नारकस्यारटतो मे मांसपेशीमुत्कर्त्तयति तं प्रदेशं निष्पौद्य रुधिरं निर्गालयति तस्य चुलुकं मृत्वा माधकायाहुतये ददाति स च विद्यापरावर्तनसमाप्तौ ग्रहोत्वा हुताशने प्रक्षिपति। ततो वेदनाविहलो मूर्च्छया पतितोऽई भूतले विद्याधरस्तु प्रगुणशरोरतया हृष्ठो निष्करणो गाढतरं मां विकर्त्तयति / अत्रान्तरेऽट्टहानैर्हसितमिव प्रलयमेधे For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 269 गुलगुलितमिक समुद्रेण प्रचलितेव पृथिवी रसितं दीप्तेिजिहाभिः शिवाभिः प्रवृत्तं च विशतरूपर्वतालैः निपतितं रुधिरवर्षं ततश्वेवंविधेषु रौद्रेषु विभीषिका विशेषेषु सस्वप्यक्षुभितचित्तस्य राज्ञोऽभिमुखौभूता मा क्रूरविद्या समाप्त जापस्याष्टशतं ततः सिद्धाहं भवत इति वदन्तौ प्रकटौभूता विद्या प्रणता साधकेन प्रविष्टा तच्छरौरे ततः समुत्कर्शितगरीरं निष्पौडितरुधिरबीभत्सं करुणमारटन्तं मामुपलभ्य स राजा मयि जातसदयः कृतोऽनेन दन्तमौत्कारः ततो वारितोऽसौ विद्याधरेणा भिहितं च तेन राजनेष एवास्या विद्यायाः कल्यो यदुत न कर्त्तव्यास्योपरि दया ततो विद्याधरेण लिप्तं मे केनचिनेपेन शरीरं ततोऽहं समन्ताद्दन्दह्यमान व तौवदन्हिना चूर्यमान व वज्रेण पोद्यमान इव यन्त्रण प्रविष्टो वेदनाप्रकर्ष तथापि सुबद्धं न गतमेतन्मे हतजीवितं संजातं मे क्षणेन तेन ले पेन दवदग्धस्थाणुकल्यं शरीरं समुत्पाटितस्ताभ्यां नौतस्तत्र नगरे खादितश्च खयंभुनिमित्तमाम्लभोजनं शून्यं मे शरीरं ततो भूयस्तेनैव विधिना मदीयमांसं रुधिराहुतिभिस्तेन राज्ञा दत्तमष्टगतमष्टशतं विद्याया जापस्य सप्तदिनानौति दृष्टश्च तदवस्थोऽहं भवता तदिदं भ्रातर्मयानुभूतं स्थितं च मम हृदये यदुत न प्रायेण नरकेऽप्येवंविधो दुःखविन्यासो यादृशो मयानुभूत इति। मध्यमबुद्धिराह हा भात!चितस्त्वमेवं विवधदुःखानां अहो निघृणता विद्याधरस्य अहो रौद्रता विद्यायाः। अत्रान्तरे लोकाचारमनुवर्तमानो वातन्वेषणार्थमागतो मनीषी श्रुतस्तेन द्वारि स्थितेन तथा परिदेवमानो मध्यमबुद्धिः प्रविष्टो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 270 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / ऽभ्यन्तरे कृतेतराभ्यामासनदानादिका प्रतिपत्तिः विहितं संभाषणं ततो मनीषिणाभिहितं मध्यमबुद्धे किमिति त्वं परिदेवयसे मध्यमबुद्धिराह भ्रातरलौकिकमिदं परिदेवनकारणं मनौषिणोतं कथं ततः कथितो मध्यमबुद्धिना समस्तोऽप्युद्यानगमनादिविद्याधरविकर्त्तनपर्यन्तो बालयतिकरः / ततः पूर्वमेव ज्ञातनिःशेषव्यतिकरेणापि मुग्धेनेव विस्मितेक्षणेन समस्तमाकर्ण्य मनीषिणाभिहितं किमौट्टक् संपन्नं बालस्य हा न युतमिदं यदि वा कथितमिदं मया प्रागेवास्य यथा न सुन्दरोऽनेन स्पर्शनेन पापमित्रेण साढ़ें संबन्धः तन्ननितेयमस्यानर्थपरंपरा / तथा हि। हेतुरसावनार्यकार्यमङ्कल्पस्य अनार्यकार्यसङ्कल्ये वर्त्तमानाः प्राणिनः संक्लिष्टतया चित्तस्य प्रबलतया पापोदयस्याप्राप्ताभिप्रेतार्था एव बडिशग्रहणप्रवृत्ता व मस्यका निपतन्यापगहने लभन्ते मरणं न खल्वनुपायतोऽर्थसिद्धिः / अनुपायचा कार्यकार्यसंकल्पः सुखलाभानां म हि क्रियमाणो धैर्य ध्वंसयति विवेक नाशयति चित्तं मलिनयति चिरन्तनपापान्यदौरयति ततः प्राणिनं समस्तानर्थमार्थयोजियति। ततः कुतोऽनार्यसङ्कल्पात् सुखलाभगन्धोउपौति / तस्मादिदं सर्व सुश्चरितविलमितं बालस्य योऽयं मदचनं न विधत्ते किमत्र भवतः परिदेवितेनेति / बालः प्राह / मनौषिनलमनेनासम्बद्धप्रलापेन न खलु सत्पुरुषाणां महार्थमाधनप्रवृत्तानामप्यन्तराले व्यसनं मनो दुःखयति। यदद्यापि तां कमलकोमलतनुलता मदनकन्दलौं प्राप्नोमि ततः कियदेतदुःखं तदाकर्ण्य कालदष्टवदसाध्योऽयं म दूपदेशमन्त्रतन्त्राणामित्याकलय्य For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 271 मनीषिणा ग्टहीतो दक्षिणभुजाग्रे मध्यमबुद्धिरुत्थाप्य ततः स्थानात् प्रवेशितः कक्षान्तरे अभिहितशामौ भ्रातर्योष बालः सत्यं बाल दव नात्महितं जानौते तत्किं भवतास्थ पृष्ठतो विलग्नेन विनष्टव्यम् / मध्यमबुद्धिराह बोधितोऽहमिदानौं भवता योऽयं भवदुपदेशमपि लंघयति तेनालं मम बालेनेति। अन्यचातिलचनौयोऽयं व्यतिकरः तत्किमेष न ज्ञातस्तातेन मनीषिणाभिहितं न केवलेन तर्हि समस्तनगरोपेतेन भद्र केन हि प्रभातं पटकेनाच्छाद्यते / मध्यमबुद्धिराह / कथं ज्ञातो मनौषिणाभिहितं कामदेवभवनवृत्तान्तस्तावद्दहुलोकप्रतीत एव किं तस्य ज्ञास्यते विद्याहरणवृत्तान्तस्तु प्राप्त इति / तदीयहाहारवात् प्रबुद्धास्तदा लोकास्तैर्विज्ञाय नगरे प्रचारितो मध्यमबुद्धिना चिन्तितं ये किलाहं मातुः पुत्रोऽमुं व्यतिकरं गोपयामि यावता गाढतरं प्रकाशः संपन्नः सुप्रच्छन्नमपि हि विहितं प्रयोजनं प्रायः प्रकाशत एव लोके विशेषतः पापं तस्मादुर्बुद्धिरेषा प्राणिनां यया खाचरितं पापं प्रच्छादयन्ति / इदं हि केवलमधिकतरं मोहविलमितं सूचयतीत्येवं विचिन्य ततस्तेनाभिहितं मनीषिन्नमुं वृत्तान्तमुपलभ्य भवता किमाचरितं किं तातेन किमम्बाभ्यां किं वा नगरलोकेनेति श्रोतुमिच्छामि मनीषिणभिहितं भातः समाकर्णय मम तावदुपेक्षा निर्गुणेषु मतामिति भावनथा संजातं बालं प्रति मध्यस्यं तथा क्लिश्यमानेषु दयावन्तः सन्त इति पर्यालोचनया प्रादुर्भूता तवोपरि महती करुणा तथा मुक्तोऽहं पापमित्राभिष्वङ्गजनितानामेवंविधानामपायानामित्याकलनया संजातात्मन्यास्थाबुद्धिर्गणा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 272 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / धिकेषु प्रमोदवन्तो महात्मान इति विमर्शन धन्यः पुण्यभागसौ भवजन्तुः येनायं समस्तानर्थ हेतुः स्पर्शनः पापवयम्यः सर्वथा निराकृत इत्यालोचयतः समुलमितस्तं प्रति हर्षः / तातेन तु केवलमट्टहासेन हसितं मयाभिहितं तात किमेतत् तातेनाभिहितं पुत्र यन्मयि प्रतिकूले संपद्यते तत्संपन्नं बालस्यातो मे हर्षः। हा जात क गतोऽसौति परिदेवितं मामान्यरूपया न सञ्जातो मामकतनयस्यापाय इति हृष्टा चित्तेन मदीयजननी नगरस्य तु सम्पन्नो बालहरणेन प्रमोदः सञ्जाता त्वदीयगमनेन करणा प्रादुर्भूतः खस्थावस्था न दर्शनेन ममोपरि पक्षपातः। मध्यमबुद्धिराह कथमेतलचितं भवता मनौषिणाभिहितं निर्गतोऽहमासीत्तदा नगरे कुलूहलेन भ्रमणिकया ततः श्रुता मया परस्परं जल्पन्तो लोकाः यद्ताहो सुन्दरं संपन्नं यदसौ कलङ्कहेतुर्निजकुलस्य दुष्टोऽन्तःकरणेन वर्जितो मर्यादया बहिर्भूतः सदाचारात् निरतः सततमगम्यगमने अत एवोपतापकरो नगरस्य बालः केनापि महात्मनापहृत इति। अन्येनाभिहितं सुष्टु सुन्दरमेवं तु सुन्दरतरं भवति यद्यसौ छिन्नो भिन्नो व्यापादितश्च श्रूयते यतस्तस्मिन्नेकान्ततः प्रलौने एव पापे नागरिकाणं शौलसंरक्षणं संपत्यते नान्यथा / अन्येनाभिहितं सुन्दरमिदं केवलं यदमौ मध्यमबुद्धिस्तपखौ तस्य पृष्ठतो लग्नः क्लिग्यते तन्न चारु स हि विशिष्टप्रायः प्रतिभामतेऽस्माकं ततोऽपरः प्राह भद्र ये पापवृत्तानां वत्सला भवन्ति तेषां कौशी विशिष्टता न खलु जात्याकनकं श्यामिकया मह संसर्गमर्हति अत एव लभन्ते तवारेणैव दुःखपरंपराम् / अयशश्व लोके किम For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 273 त्राश्चय ये पुनरादित एव पापानुष्ठानाः शुभजनसंपकै रहयन्ति तेषां नैष दोषोऽनुयुज्यते अत्रार्थ अयमेव मनीषौ दृष्टान्तः थोऽयं महात्मा परिहृतपापप्रवणबालवात्मल्यो निष्कलङ्क सुखेन जोवतीति ततस्तं लोकवादमाकर्णयता मयेदं लक्षितमिति मध्यमबुद्धिना चिन्तितमये / दोषेषु वर्त्तमानस्य नरस्याकै जन्मनि / नास्त्येव सुखगन्धोऽपि केवलं दुःखपद्धतिः // स हि दुःखभाराकान्तस्तावता नैव मुच्यते / श्राक्रोशदानतस्तस्य लोकोऽन्यद्वैरिकायते // एक म दुःखैर्निर्दग्धो द्वितीयं निन्दितो जनः / गण्डस्योपरि मंजातः स्फोटो बालस्य दुर्मतेः // जनानां करुणास्थानं जातोऽहं बालमोलकात् / कलितस्तादृशः प्राय: कैश्चित्तत्त्वविचारकैः // दुःखाकरः सतां निन्द्यो ममेदानों विजानतः / तस्मान युक्तः संसर्गो बालेन सह पापिना // गुणषु वर्त्तमानस्य नरस्यानैव जन्मनि / जायन्ते संपदः सर्वा यथास्यैव मनौषिणः // यथा एकलङ्कः सुखौ श्लाघनीयो विपश्चिताम् / बालस्पर्शनसंसर्गभौरुत्वादेष वर्तते // तथापि लोका दोषेषु सततं विहितादराः / गुणेषु शिथिलोत्माहा वर्त्तन्ते पापकर्मणा // तदेवं गुणदोषाणां विशेषं पश्यता मया : 35 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 274 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / गुणेषु यत्नः कर्त्तव्यो य श्रादिष्टो मनौषिणा // ततश्चैवं विचिन्त्यामौ भाषते तं मनीषिणम् / न शकामधुना लोके प्रकाशमटितुं मया // लोका मां प्रश्नयिष्यन्ति बालवृत्तान्तमञ्जमा / अतिलज्जाकरं तं च नाहमाख्यातमुत्महे // अन्यच्च दुर्जना लोकाः श्रुत्वा मेऽन्तःकदर्थनाम् / तदीयां नितरां तुष्टा हमिव्यन्ति विशेषतः // तस्माद्भातर्ममात्रैव स्थात् मद्मनि युज्यते / जनस्य विस्मरत्येतद्यावद्दालविचेष्टितम् / / मनीषिणोकं यत्तुभ्यं रोचते तद्विधीयताम् / केवलं पापमित्रीयः संपो वार्यते मया // ततः कचिदपि बहिरनिर्गच्छंस्तव सदने स्थितो मध्यमवद्धिः गतो मनौषौ खस्थानम्। इतश्च बालशरौरादाविर्भूतः स्यानोऽकुशलमाला च। अकुशलमालयाभिहितं साधु पुत्रक माधु यन्मत्तो जातोऽनुतिष्ठति तदनुष्ठितं भवता यतो निराकृतस्त्वयायमलोकवाचालो मनौषो। स्पर्शनेनाभिहितम् / अम्ब युक्तमेवेदृशमौदृशपुरुषाणामनुष्ठानं दर्शितः खल्वेवमाचरता प्रियमित्रेण मयि निर्भरोऽनुरागः / अथवा किमनेन निर्घटितेनेदानौं त्रयाणामप्यस्माकं भावसारं समस्तदुःखसुखता। ये तु सहदर्थसाधनप्रवृत्तानामप्यन्तराले विघ्ना भवन्ति तान् के गणयन्ति / बालः प्राह / वयमप्येतदेव ब्रूमः केवलमेतत्स मनौषौ न जानाति। स्पर्शनेनाभिहितम्। किं तब तेन सुखविघ्नहेतुरसौ पापकर्मा भवतः। अयं जनोऽम्बाच केवलं ते सुखकारणम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 275 बाल: प्राह / कोऽत्र विकल्पो निःसन्दिग्धमिदं ततः कृतस्ताभ्यां योगशकिव्यापारपूर्वको भूयस्तदीयशरौरे प्रवेशः प्रादुर्भूतं मदनकन्दलौगोचरं भृशतरमौत्सुक्यं प्रवृत्तोऽन्तस्तापः प्रवृत्ता जम्भिका पतितः शयनीय तब चानवरतमुद्वर्तमानेनाङ्गेन तथा विचेष्टमानो दृष्टोऽसौ मध्यमबुद्धिना ममुत्पन्ना करुणा तथापि मनौषिवचनमनुस्मरता न पृष्टो वार्तामपि बालस्तेन। अत्रान्तरेऽस्तं गतो दिनकरः। ततः प्रथमप्रदोष एव निर्गतो बालः / अवधीरितो मध्यमबुद्धिना प्राप्तः शत्रुमर्दनराजकुलं प्रविष्टोऽभ्यन्तरे दृष्टं वासभवनं चलितस्तदभिमुखं ततः प्रचुरतया लोकस्य मान्धकारतया प्रदोषस्य व्यग्रतया प्राहारिकाणां कथंचिदलक्षित एवामौ प्रविष्टो वामभवनं विलोकितस्तन्मध्यभागः प्रकाशितो मणिप्रदीपैः सनाथो महाशियनेन / दूतश्च तस्मिन्नवसरे मा मदनकन्दली तत्रस्यैव वामभवनस्यादूरवर्त्तिन्यां प्रसाधनगालिकायामात्मानं चर्चयन्तौ तिष्ठति। ततस्तछन्यमवलोक्य म बालो बालतयैवारूढः शय्यायाम्। श्राः कोमलेति भावनया समुद्भूतो हर्षः क्षिप्तमुच्छोर्षकप्रावरणं किल तिरथीनो भविष्यति / यावद्विहिताशेषप्रदोषकर्त्तव्यो विमर्जितास्थानिकलोकः कतिचिदाप्त पुरुषपरिकरो .ज्वलत्प्रदीपदर्शितमार्गः समागतः शत्रुमर्दनस्तवारदेश दृष्टः प्रविशन् बालेन ततोऽतितेजखितया शत्रुमर्दनस्य सत्त्वविकलतया हृदयस्य माध्वमहेतुत्वादकार्याचरणस्य प्रतिकूलतया कर्मविलासस्य स्वफलदानोन्मुखतयाकुशलमालायाः स्वविपाकदर्शनतया स्पर्शनस्य भयोत्कर्षन वेपमानगात्रयष्टिर्निपतितो बालो भूतले ततोऽत्युच्चतया पर्यस्य कणकणतया मणिकुट्टिमस्य शिथि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 276 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / लनिःसृष्टतया शरीरस्य समुत्थितो महानास्फोटरवः / किमेतदिति पूर्णतरं प्रविष्टो राजा दृष्टस्तेन कथमयमिह प्रविष्ट इति समुत्पन्नो मनमि वितर्कः। दृष्टमुच्छौर्षके प्रावरणं लक्षितं शय्यारोहणं दुष्टोऽयमिति संजातो निश्चयो मत्कलत्राभिलाषुकोऽयमिति च समुत्पन्नः क्रोधो विज्ञातं तस्य दैन्यं तथाप्यतिदुरात्मा खल्वयमपनयाम्यस्य दुर्विनयमिति बुद्ध्या दत्तो बालपृष्टे निजचरणो राज्ञा पामोटितं पश्चान्मुखं भुजयुगलं बद्धो रारव्यमानस्तत्प्रावरणेनैव पाहतो विभीषणः अभिहितश्चामौ अरे एष पुरुषाधमो भवतात्रैव राजाजिरे यथाहमाकर्णयाम्यस्थ करुणध्वनितं तथा समस्तरजनौं कदर्थनायो विभौषणेनाभिहितं यदाज्ञापयति देवः / ततः ममावष्टस्तेन ग्टहात्त्वारव्यमानो बालो नौतेाऽभ्यर्णराजप्राङ्गणे बद्धो वज्रकण्टकाकुले लोहस्तंभे वोटितः कशाघातैः मिक्तोऽग्निवर्णतेलबिन्दुभिः प्रवेशिता अङ्गुल्यादिव्वयःशलाकाः ततश्चैवंविधेषु नरकाकारेषु दुःखेषु विभौषणनोदीयमाणेषु क्रन्दतो बालस्य लंधिता रजनौ तदाक्रन्दरवेण श्रवणपरयरया च किमेतदिति कुतूहलेन प्रभाते समागतं राजकुले नगरं दृष्टो बालः म एवायं पापिष्ठोऽद्यापि जौवतीत्यादिः प्रवृत्तः परस्परं नागरकाणां बहुविधस्तदाक्रोशजल्पः / तमाकर्णयतः शतगुणीभूतं तत्तस्य दःखं कथितो नागरिकेभ्यो विभीषणेन रात्रिव्यतिकरः ततोऽहो पृष्टतास्थेति गाढतरं प्रविष्टाः सर्वे विज्ञापितो महत्तमै राजा / यदत यो देवपादानामेवमयमपथ्यकारी स तथा क्रियतां यथान्योऽप्येवं न करोतौति। अस्ति च तस्य राज्ञो भगवदर्हदागमावदातबुद्धिः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 277 सुबुद्धिर्नामामात्यः केवलं तेन क्वचिदवसरे वरं प्रार्थितो राजा। घदुत हिंस्रकर्मणि नाहं पर्यालोचनीयो भवता प्रतिपन्नश्च स वरो नरपतिना ततः सुबुद्धिं पर्यालोच्यैव दत्तः शत्रुमर्दनेन राजपुरूषाणां नियमो यद्त कदर्थयित्वा बहुप्रकारमेनं नगरापसदं व्यापादयतेति / तदाकर्ण्य महाराज्यलाभ व जातो जनानां प्रमोदातिशयः / ततः समारोपितो रासभे विडम्ब्यमानः शरावमालया समन्ताचूीमानो यष्टिमुष्टिमहालोष्ट्रप्रहारै रोरूयमाणो विरमध्वनिना तुद्यमानो मनसि कर्णकटुकेराक्रोशवचनैर्महता कलकलेन समस्तेषु त्रिकचतुष्कचत्वरहट्टमार्गादिषु बंभ्रम्यमाणो विगोपितो बालः। ततो विशालतया नगरस्य प्रेक्षणकप्रायत्वात्तस्य भ्रमणेनैवातिक्रान्तं दिनं सन्ध्यायां नौतो वध्यस्थानं उल्लंबितस्तरुणाखायां प्रविष्टो नगरं लोको भवितव्यताविशेषेण तस्य त्रुटितः पाशकः पतितो भूतले गतो मूच्छां स्थितो मृतरूपतया लुप्तो वायुना लब्धा चेतना प्रवृत्तो ग्टहाभिमुखं गन्तुं भूमिकषणेन कूजमानः / अत्रान्तर अग्टहीतसङ्केतयोक्तं हे संसारिजौव तत्र चितिप्रतिष्ठितपुरे प्रथमं भवता वौर्यनिधानभूतः कर्मविलामो नाम राजा निवेदितः / अधुना दशापराधप्रभविष्णुरेष शत्रुमर्दनो निवेद्यते तत्कथमेतदिति / संसारिजीवेनाभिहितं मुग्धे मयापि नन्दिवर्द्धनेन मता पृष्ट एवेदं विदुरस्ततो विदुरेणाभिहितं कुमारकर्मविलामस्तचान्तरङ्गो राजा शत्रमदनस्तु बहिरङ्गः तेन नास्ति विरोधः / यतो बहिरङ्गाणामेव राज्ञां दशापराधप्रभविष्णता भवति बहिरङ्गनगरेषु नेतरेषां ते हि केवलं सुन्दरासुन्दरप्रयोजनानि जनानां प्रच्छन्नरूपा एव मन्तः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 278 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / खवीर्यण निर्वर्त्तयन्ति। तथा हि। कर्मविलासप्रतिकूलताजनितोऽयं बालस्य परमार्थतः सर्वोऽप्यनर्थः संपन्न इति / ततो मयाभिहितं अपगतोऽधुना मे सन्देहः अग्रतः कथय विदुरेणाभिहितम् / ततः कृच्छ्रेणातिक्रान्ते याममात्रे रजन्याः प्राप्तः स्वसदनं बालः दूतश्चाकर्णितः प्रभात एव तदीयवृत्तान्तो मध्यमबुद्धिना। ततो बालखेहलेशस्यानुवर्तमानतया संजातो मनाग् विषादः चिन्तितमनेन हा किमौदृशं संपन्नं बालस्येति पुनपर्यालोचयतः प्रादुर्भूतोऽस्य मनसि प्रमोदः चिन्तितमनेन पश्यताहो मनोषिवचनकरणाकरणयोरिह लोक एवान्तरम् / तथाहि। तदुपदेशवर्त्तिनो मेऽधुना न संपनः क्लेश: नोदौर्णमयशः पूर्वं पुनविपरीतचारिणो द्वयमप्यामौत् बालस्य पुनरकान्ततो मनौषिवचनविपरीताचरणनिरतस्य यत्मपद्यते दुःखसंघाता विज़म्भते जगत्ययशःपटहः संजायते मरणं तत्र किमाश्चर्य तदस्ति ममापि काचिद्धन्यता यया मनौषिवचने बहुमानः संपन्न इति / तथाहि / नैवाभव्यो भवत्यत्र मतां वचनकारकः / पतिः कांकटुकेनैव जाता यत्नशतैरपि // एवं भावयतश्चित्ते बालस्नेहं विमुञ्चतः / प्रमोदपूर्णचित्तस्य लंधित तस्य तद्दिनम् // ततः समागते बाले लोकाचारानुवर्त्तनम् / कुर्वता विहितं तेन तस्य संभाषणं किल // पृष्टश्चाशेषवृत्तान्तं विषादगतबुद्धिना / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / तेनापि कथिता तस्मै बालेनात्मविडम्बना // न शिक्षणस्य योग्योऽयं मत्वा मध्यबुद्धिना / ततस्तदनुरोधेन लतेषत्परिदेवना // ततश्चर्णितमर्वाङ्गो दुःखविव्हलमानसः / तथा राजभयादग्राद् बालस्तत्रैव मंश्रितः // प्रच्छन्नरूपः मततं न निर्गच्छति कुत्रचित् / एवं च तिष्ठतो: कालस्तयोर्भूयान् विलंधितः // अथान्यदा निजविलसिताभिधाने जौणेद्याने गन्धहस्तीव वरकलभवन्देन परिकरितः मातिशयगुणवता निजशिष्यवर्गण प्रवाहः करुणारसस्य संतरणमेतुः संमारसिन्धोः परशस्तष्णालतागहनस्य अशनिर्मानपर्वतोद्दलने मूलमुपशमतरोः मागरः सन्तोषामतस्य तीर्थ मर्दविद्यावताराणां कुलभवनमाचाराणां नाभिः प्रज्ञाचक्रस्य वडवानलो लोभार्णवस्य महामन्त्रः क्रोधभुजङ्गस्य दिवसकरो महामोहान्धकारस्य निकषोपलः शास्त्ररत्नानां दावानलो रागपल्लवदहने अर्गलाबन्धो नरकवाराणां देशकः सत्पथानां निधिः सातिशयज्ञानमणौनामायतनं समस्तगुणानां समवसृतस्तत्र पुरे प्रबोधनरपतिर्नामाचार्यः / इतश्च स्पर्शनं प्रतिकूलचारिणमुपलभ्य मनौषिणं प्रादुरभूत्कर्मविलासस्य तस्योपरि खरतरः पक्षपातः / ततोऽसौ शुभसुन्दरौं प्रत्याह प्रिये लक्षयत्येव तावदिदं भवती यथानादिरूढा प्रकृतिरियं मम वर्त्तते / यदुत योऽस्य स्पर्शनस्थानुकूलस्तस्य मया प्रतिकूलेन भाव्यं प्रतिकूलस्य पुनरनुकूलतया वर्तितव्यं मम च प्रतिकूलमाचरतः सर्वत्राकुशलमालोपकरणं अनु For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 280 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / कूलं विदधतः पुनर्भवती ममोपकरणं वर्त्तते तदेवं स्थिते स्पर्शनानुकूलचारिणो बालस्य दर्शितो मयाकुशलमालाव्यापारणबारेण कश्चिदात्मनः प्रतिकूलताफलविलेशः / अस्य तु मनीषिण: स्पर्शनप्रतिकूलवर्त्तिनो न मयाद्यापि निजानुकूलताफलविशेषो दर्शितो यद्यपि यदिदमस्य स्पर्शने निरभिष्वङ्गतया मृदुशयनसुरतादीन्यनुभवतः संपद्यते सुखम् / यश्चायं ममुलसितो लोकमध्येऽयशःपटहो न च संपन्नः कचिदपायगन्धोऽपि विचरतस्तस्यास्य ममस्तस्य व्यतिकरस्याहमेव भवत्यैवोपकरणभूतया कारणं तथापि मयि सप्रमादे नैतावन्मात्रमेवास्य फलमुचितम् / अतिप्रिये विशिष्टतरफलसंपादनार्थमस्य मनौषिणो यत्नं कुरुष्वेति / शुभसुन्दर्युवाच / साध्वार्यपुत्र साधु सुन्दरमभिहितं देवेन स्थितं ममापौदं हृदये योग्य एव मनीषौ देवप्रसादानां तदेषानुतिष्ठामि यदाज्ञापितं देवेनेत्यभिधाय व्यापारिता शुभसुन्दर्या योगशक्तिः विहितमन्तर्धानं प्रविष्टा गता मनौषिशरौरे प्रादुर्भूतोऽस्य प्रमोदः / सितममृतसेकेनाम्बाशरीरं प्रवृत्ता निजविलमितोद्यानगमनेच्छा प्रस्थितस्तदभिमुखं चिन्तितमनेन कथमेकाको गच्छामि बहुश्च कालो ग्रहप्रविष्टस्य तिष्ठतो मध्यमबुद्धेरतीतो विस्मतोऽधुना लोकस्य बालवृत्तान्तो व्यपगतं तस्य लग्नाकारणम् / अतस्तमपि निजविल सितोद्याने नयामोति विचिन्त्य गतो मनौषो मध्यमबुद्धिसमीपं निवेदितं तस्मै निजाकृतम् / दूतश्च कर्मविलासेन तस्यापि जननी सामान्यरूपा तत्फलविपाकसंपत्तये तथैव प्रोत्साहिता मा ह्यकुशलमालाशुभसुन्दाः माधारणवीर्या विचित्रफलदायिनौ स्वरूपतो वर्तते / ततस्तथाधि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 281 ष्ठितमूतमध्यमबुद्धेरपि प्रवृत्ता तत्र गमनेच्छा बालस्तु भवताप्यवश्यं गन्तव्यमिति वदता वलामोटिकया प्रवर्तितो मध्यमबुद्धिना गतास्त्रयोऽपि निजविलमितोद्याने / अथ नानाविधैस्तत्र विलसन्तः कुतूहलैः / / प्रमोद खरं नाम प्राप्तास्ते जिनमन्दिरम् // तच्च मेरुवदुत्तुङ्गं विशालं माधुचित्तवत् / देवलोकाधिकं मन्ये सौन्दर्यौदार्ययोगतः // युगादिनाथबिम्वेन श्रीमता तद धिष्ठितम् / समन्ताद्दूरप्रोत्तुङ्गप्राकारपरिवेष्टितम् // पुरतो लोकनाथस्य स्तोत्राणि पठतो मुदा / तत्र श्रावकलोकस्य ध्वनिमाकर्ण्य पेशलम् // किमेतदिति संचिन्त्य कौतुकाप्तिमानसाः / प्रविष्टा जैनसदने ते त्रयोऽपि कुमारकाः / / अथ दक्षिणमूर्तिस्थो देवाजिरविभूषण: / विनौतमाधुलोकस्य मध्यवर्ती तपोधनः / / जिनेन्द्रगदितं धर्ममकलङ्क सनातनम् / समारमागरोत्तारमाचक्षणः सुदेहिनाम् // प्रविशद्भिर्महाभागचन्द्रवत्तारकैर्वृतः / प्रबोधनरतिौरः स सूरिस्तैर्विलोकितः // भाविभद्रतया जैनं बिम्ब नत्वा मनीषिण। मूरिः शेषमुनीनां च विहितं पादवन्दनम् // ततस्तदनुरोधेन मनाक् संशद्धबुद्धिना / 36 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 292 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / देवमाधुनमस्कारः कृतो मध्यमबुद्धिना // पापमालवयस्थाभ्यामधिष्ठितशरीरकः / बालोऽकल्याणभाङ नैव कस्यचित्प्रणतिं गतः / / किं तु ग्रामेयकाकारं बिभ्राण: स्तब्धमानमः / मनौषिमध्यमामन्ने मोऽपि गत्वा व्यवस्थितः / / अथ संभाषितास्तेऽपि धर्मलाभपुरःमरम् / गुरुणा कलवाक्येन निषलास्तत्र भूतले // इतश्च सूरिवृत्तान्तः कथञ्चिलोकवार्तया / मन्त्रिणा जिनभनेन श्रुतस्तेन सुबुद्धिना || ततः प्रोत्साहितस्तेन स राजा शत्रुमर्दनः / वन्दनार्थं मुनीन्द्रस्य व्रजाम इति भाषिणाम् // विधूतपापमात्मानं वन्दनेन महात्मनाम् / साधूनां येऽत्र कुर्वन्ति ते धन्यास्ते मनौषिणः // ततो मदनकन्दल्या साईमन्तःपुरेस्तथा / सुबुद्धिवचनाद्राजा निर्गतो मुनिबन्दकः // ततः सर्वं पुरं तत्र नृपे चलति विस्मितम् / सैन्यं च गतमुद्याने कौतुकाकृष्टमानसम् // निपत्य पादयोस्तत्र जिनस्य सबलो नृपः / प्रबोधनरतिं भक्त्या ववन्दे हृष्टमानमः // प्रणम्याशेषसाधूंश्च दत्ताशौर्गुस्साधुभिः / निषलो भूतले राजा विनयाननमस्तकः // सुबुद्धिरपि जैनेन्द्रं पादपद्मकृतानतिः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / निरूपयति सर्वाणि देवकर्माणि यत्नतः // देवपूजनसद्धूपदीपदानादिपूर्वकम् / भनोत्कंठितसर्वाङ्गो भून्यस्तकरजानुकः / दुर्लभं भवकान्तारे जन्तुभिर्जिनवन्दनम् / इति भावनया धन्यो निर्मलीभूतमानमः // श्रानन्दजलपूर्णाक्षः क्षालयन्नात्मकिल्बिषम् / तथा भागवते बिम्बे न्यस्तदृष्टिर्विचक्षण: // शक्रस्तवं शौरः पठित्वा भक्निनिर्भरः / पञ्चांगप्रणिपातान्ते निषणः शुद्धभूतले // परस्परतिरोभूतकरशाखाविनिर्मिताम् / कोशाकारकरः कृत्वा योगमुद्रां समाहितः / ततो भुवननाथस्य स्तोत्राणि कलया गिरा / म तदानौं पठत्येवं तदर्थापितमानसः // नमस्ते जगदानन्द मोक्षमार्गविधायक / जिनेन्द्र विदिताशेष भावमद्भावनायक // प्रलीनाशेषसंसारविस्तार परमेश्वर / नमस्ते वाक्ययातीत चिलोकनरशेखर // भवाब्धिपतितानन्तमत्त्वसंतारकारक / घोरसंमारकान्तारमार्थवाह नमोऽस्तु ते // अनन्तपरमानन्दपूर्णधामव्यवस्थितम् / भवन्तं भक्तितः साक्षात्पश्यतीह जनो जिन // स्तुवतस्तावकं बिम्बमन्यथा कथमौदृशः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्रमोदातिशयश्चित्ते जायते भुवनातिग // पापाणुजनितस्तावत्तापः संसारिचेतसाम् / यावत्तेषां मदानन्दमध्ये नाथ न वर्त्तसे // येषां पुनर्विधत्ते मा नाथ चित्तेषु देहिनाम् / पापाणवः क्षणात्तेषां ध्वंगमायान्ति सर्वथा // ततस्ते द्राविताशेषपापपङ्कतया जनाः / सद्भावामृतमंसिका मोदन्ते नाथ सर्वदा // ते वराका न मुख्यन्तां रागादिचरटैः कथम् / येषां नाथ भवाम्नास्ति तप्तिसानिध्यकारकः // भवन्तमुररीकृत्य नाथ निःशङ्कमानमा / शिवं यतिमदादौनां विधाय गलपादिकाम् // न्यपतिय्यदिदं नाथ जगबरककूपके / अहिंसाहस्तदानेन यदि वं नारिष्यथाः // विलौनसकलक्लेशं निर्विकारं मनोहरम् / शरीरं पश्यतां नाथ तावकौनमदो वरम् // अनन्तवीर्य सर्वज्ञो वीतरागस्त्वमञ्जमा / न भासि यदभव्यानां तत्तेषां पापजम्भितम् // रागद्वेषमहामोहसूचकैर्वोतकल्मष / हास्यहेतिविलामाक्षमालाद्यैौन ते नमः // अनन्तगुणसङ्कीर्ण कियदाच वदिश्यते / तावकस्तवने नाथ जडबुद्धिरयं जनः / सद्भावोऽप्यथवा नाथ भवतैवावबुध्यते / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 285 तदस्य करुणां कृत्वा विधातव्यो भवे भवे // भवोच्छेद करौ नाथ भक्तिरात्मनि निश्चला / संस्तुत्यैवं जगन्नाथमुच्छाय जिनमुद्रया // विधाय वन्दनं भूयः पञ्चाङ्गनमनादिकम् / तदन्ते प्रणिधानं च मुक्का भएतयातिसुन्दरम् // कृत्वा कृतार्थमात्मानं मन्यमानः सुकर्मणा / सूरेः पादयुगं सिंचनानन्दोदकबिन्दुभिः // वन्दनदादशावत्ः म ददौ दोषसूदनम् / कृतमामयिकोऽशेषमाधूनानम्य भक्तितः // अवाप्तधर्मशाभोऽसौ निषण: शुद्धभूतले / पृष्टमूरितनूदन्ते सुबुद्धौ तत्र मन्त्रिणि // अथाचार्या विशेषेण चक्रिरे धर्मदेशनाम् / कथितं भवनैर्गुण्यं वर्णिता कर्महेतवः // प्रख्यापितं च निर्वाणं दर्शितं तस्य कारणम् / ततचामृतममेकचारुणा वचमा मुनेः // जातास्ते जन्तवः सर्व चित्तमन्तापवर्जिताः / अत्रान्तरे। नखांशुविशदं कृत्वा ललाटे करकुड्मलम् / जगाद भारतीमेनां म राना शत्रुमर्दनः // भगवनत्र संसारे नरेण सुखकामिना / किमादेयं प्रयत्नेन सर्वसम्पत्तिकारणम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 286 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / सूरिराह / श्रादेयोऽत्र महाराज धर्मः सर्वज्ञभाषितः / स एव भगवान् सर्वपुरुषार्थप्रसाधकः // सोऽनन्तसुखसंपूर्ण मोक्षे नयति देहिनाम् / अनुषङ्गेण संसारे स हेतुः सुखपद्धतेः / / नरपतिरुवाच यद्येवम् / कस्मात्सर्वे न कुर्वन्ति तं सर्वसुखसाधनम् / धर्म मंसारिणः किं वा क्लिश्यन्ते सुखकाम्यया // सूरिराह / सुखाभिलाषः सुकरो दुष्करोऽमौ नृपोत्तम / यतो जितेन्द्रियग्रामस्तं साधयति मानवः // अनादिभवकान्तारे प्राप्तानि परमं बलम् / दुर्मेधाभिन शक्यन्ते जेतुं तानौन्द्रियाणि वै // तेनैव जन्तवो मूढाः सुखमिच्छन्ति केवलम् / धर्म पुनः सुदूरेण त्यजन्ति सुखकारणम् // नरपतिरुवाच / येषां जयमशतिष्ठाः कत्तं नो पारयन्त्यमौ / धर्मतः प्रपलायन्ते ततो जौवाः सुखैषिणः / / कानि तानौन्द्रियाणौह किंखरूपाणि वा मुने / कथं वा दुर्जयानौति श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः // मुनिरुवाच। स्पर्शनं रसनं त्राणं चक्षुः श्रोत्रं च पञ्चमम् / एतानि तानि राजेन्द्र हषौकाणि प्रचक्षते // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 287 इष्टेः स्पर्शादिभिस्तोषो देषवृद्धिस्तथेतरः / एतत्वरूपमेतेषामिन्द्रियाणां नृपोत्तम // दुर्जयानि यथा तानि कथ्यमानं मयाधुना / दत्तावधानस्तं सर्वमनुश्रुत्यावधारय // अनेकभटमकोण समरे योधयन्ति ये / मत्तमातङ्गसंघातमेतैस्तेऽपि विनिर्जिताः // अङ्गल्यये निधायेदं भुवनं नाटयन्ति ये। शकादयोऽतिशनिष्ठास्तेऽप्यमौभिर्वशौकताः // हिरण्यगर्भवैकुंठमहेश्वरपुरःमराः / एतैर्निराकृताः सन्तः सर्वेऽकिङ्करतां गताः // अधौत्य सर्वशास्त्राणि परमार्थविदो जनाः / एभिर्विधुरिताः सन्तश्चेष्टन्ते बालिशा इव // एतानि हि स्वबौर्यण मसुरासुरमानुषम् / वराकमिव मन्यन्ते सकलं भुवनत्रयम् // दुर्जयानि ततोऽमूनि हृषौकाणि नराधिप / एवं सामान्यतः कृत्वा हृषीकगुणवर्णनम् // ततश्च / ज्ञानातोकेन वृत्तान्तं बोधनार्थं मनीषिणः / सूरिभाषे मद्दन्तदीधितिच्छुरिताधरः // अथवा महाराज। तिष्ठन्तु तावच्छेषाणि दृषौकाणि जगज्जये / स्पर्शनेन्द्रियमेवैकं समर्थ बत वर्त्तते // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 288 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / यतो न शक्यते लोकैर्जेतुमेकैकमप्यदः / लौलया जयतौदं तु भुवनं सचराचरम् // नरपतिरुवाच / भगवंस्तस्य जेतारो नराः किं मन्ति कुत्रचित् / आहोखिनैव विद्यन्ते भुवनेऽपि तथाविधाः // मुनिस्वाच / राजनहि न विद्यन्ते केवलं विरला जनाः / ये चास्य विनिहन्तारस्तत्राकर्णय कारणम् // जघन्यमध्यमोल्लष्टास्तथोस्टष्टतमा गुणैः / चतुर्विधा भवन्तौह पुरुषा भवनोदरे // तथोल्लष्टतमास्तावोरिदं स्पर्शनेन्द्रियम् / अनादिभवसम्बन्धलालितं पालितं प्रियम् // जेनेन्द्रागमसम्पर्का विज्ञाय बहुदोषकम् / ततः सन्तोषमादाय महासत्त्वैर्निराकृतम् // ग्टहस्था अपि ते मन्तो ज्ञाततत्त्वा जिनागमे / स्पर्शनेन्द्रियलौल्येन नाचरन्ति कुचेष्टितम् // यदा पुनर्विशेषेण तिष्ठेत्तेषां जिनागमः / स्पर्शनेन्द्रियसम्बन्ध त्रोटयन्ति तदाखिलम् // यतो दौचां ममादाय निर्मलीमसमानसाः / सन्तोषभावतो धन्या जायन्तेऽत्यन्तनिःस्पृहाः // ततस्ते भवकान्तारनिर्वित्ता वौतकल्मषाः / स्पर्शनप्रतिकूलानि सेवन्ते धौरमानमाः // . For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हतोयः प्रस्तावः। 289 भूमौनयनलोचादिकायक्रमविधानतः / ततः सुखस्यूहां हित्वा जायन्ते ते निराकुशाः // ततः सकलकर्मीशलेगविच्छेदभाजनम् / भूत्वा ते नितिं यान्ति निर्जित्य स्पर्शनेन्द्रियम् // तेनोत्कटतमा राजनिर्दिष्टास्ते विचक्षणैः / ये वमनुतिष्ठन्ति विरलास्ते जगत्त्रये // ततो भागवतं वाक्यमाकयेदं मनौषिणः / अभवेतसि सङ्कल्पस्तदानौं चारुचेतसः // पये भगवता यादृग् वर्णितं स्पर्शनेन्द्रियम् / अत्यन्नविषमं लोके स्पर्शनस्तादृशः परम् // चनो बोधप्रभावेन मम पूर्वं निवेदितः / यथान्तरजनगरे वास्तव्योऽयं महाबलः // तवनं पुरुषयाजसंस्थितं स्पर्शनेन्द्रियम् / अस्मान् प्रतारवत्येतदन्यथा कथमौदृशम् // ततो भगवतादिष्टा ये चोत्कृष्टतमा नराः / कथितः स्पर्मनेमाऽपि भवजन्तुस्तथाविधः // तथापि मां निराहत्य मदागमवलेन म: / गन्तोषाबिदृति प्राप्त इति तेन निवेदितम् // तमाचारपत्र गन्देशः माअतं पुरुषचयं / अलामेवं विजानामि यदन परमाचरम् / पयं हि भगवान् सूरि वनं सचराचरम् / मानापोकेन बानीते सन्देशदलनः परम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 260 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / यावत्म चिन्तयत्येवं माकूतो विस्मितेक्षण: / तावल्लक्षितचित्तेन पृष्टो मध्यमबुद्धिना // .. . कथम् / मनौषिनितरां चित्ते भावितस्वं विलोक्यसे / किमत्र भवता किञ्चित्मतत्वमवधारितम् // मनौषिणोतं किं भ्रातर्भवता किं न लक्षितम् / किमेवं स्फुटवाक्येन कथयत्यपि मन्गुमौ // अनेन हि समादिष्टं यादृशं स्पर्शनेन्द्रियम् / वयस्यस्तावकस्तादृक् स्पर्शनो नात्र संशयः // कथमेतत्ततः पृष्टे पुनर्मध्यमबुद्धिना। पाख्यातं कारणं तेन निःशेषं तु मनौषिणा // बालस्तु पापकर्मत्वात्केवलं वोचते दिशः / . अनादरपरस्तच हितेऽपि वचने गुरोः / अथ राज्ञः समीपस्था पिबन्तौ वचनामृतम् / ... प्राचार्योयं विशालाचौ राज्ञो मदनकन्दलौ // मा दृष्टा तेन बालेन ततोऽस्य इदि मंस्थितम् / ननं मे पदयस्येष्टा मेयं मदनकन्दली // .. यतोऽवदातमेतस्यास्तापनौयसमप्रभम् / गरौरं दर्शनादेव मृदुतां सूचयत्यलम् // रकराजौवमच्छायं विभाति चरणदयम् / अलक्षितमिराजालं कूर्मीबतमनुत्तमम् // विभर्ति तोरपाकारं भवने माकरध्वजे / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हतीयः प्रस्तावः। जंघायुग्मं स्वसौन्दर्यादेतस्यास्तेन राजते / मेखलायाः कशापेन वद्धमन्मथवारणम् / नितम्ब विम्बमेतस्या विशालममृतायते // भारेणैव वशीभूतो विराजितवलित्रयः // एतस्या राजते मध्यो रोमराजिविभूषण: // गंभौरा सम्बनस्येव हृदयं सुमनोहरा। राजते नाभिरतस्याः सत्कामरसकूपिका // वहत्येषा स्तनौ वृत्तौ प्रौवरौ कुंभविभ्रमौ / उत्तुङ्गकठिनौ चारू इदयेन पयोधरौ // अन्यच्च धारयत्येषा सुकुमारं मनोहरम् / पुण्यप्रागभारसम्प्राप्यं रम्यं बाहुलताइयम् // कराभ्यां निर्जितौ मन्ये नूतनी रागसुन्दरौ / एतस्थाचाररूपाभ्यां रकाशोकस्य पल्लवौ // दधत्यां पारिमाण्डत्यं कन्धरायां सुवेधमा / छतं रेखात्रयं मन्ये त्रिलोकजयसूचकम् // अधरो विद्रुमच्छेदसन्निभो भाति पेशलः / राजेते विलमद्दीप्तौ कपोलौ कोमखामलौ // ये कुन्दकचिकाकारा विलसत्किरणोत्कराः / एतस्या वदने दन्ना भान्ति ते भुवनचये // मितासितं मुविस्तीर्ण नायराजिविराजितम् / पम ननितानन्दमेतस्या लोचनदयम् // उत्तुको मासिकावंगो भूखते दीर्घपक्षले / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 262 उपमितिभवप्रपा कषा। पस्या पसाटमनकः कसितंबत राजते / अनुरूपं करोमौति ननं जातः प्रजापतेः / बड़मानो निजे चित्ते कत्लास्थाः अवणवयम् // मालतीकुसुमामोदमोदितालिकुलाकुसः / अस्याः सुखिग्धकुटिलः केशपायो विराजते / एतस्या मन्मथोल्लापानाकर्य श्रुतिपेशलान् / मन्ये खविस्वरत्वेन पब्जिता किल कोकिला // उञ्चित्त्योचित्य यत्सारमेतस्या वरपुङ्गः / धाषा विनिर्मितं रूपमन्यथा कघमौशम् / अतोऽस्थास्तानः स्पर्णा युक एव न संशयः / न जालमृतकुण्डेषु कटुवमवतिहते // एवाप्यभिनषत्येव मां यतोऽर्धनिरौषितः / निरौपते तिलोखाली खिग्धदृष्या मुर्मुः // एवंविधविपर्यासविकल्पाकुलमानसः / म बातोऽलोकसौभाग्यगर्वितो मूढतां गतः // सूरिरुवाच / तदेवं कथितास्तावत्सर्वोत्कृष्टा मया नराः // ददानौमुत्कृष्टानां यत्वरूपं नदुचते // एवं च बदति भगवति सूरौ / चार सूरिणा चार परिचिव मनोविण / श्रोतव्यं भवताऽपौदं मथबुद्धिः प्रचोदितः / सरिरुवाच / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बतौबा प्रसावः। 255 उत्कटा नरा ज्ञेया चैरिदं वनेद्रियम् / भवाप्य मानुषं जन्म शत्रुबुद्यावधारितम् // भाविभद्रतया तेवो परिस्फुरति मानसे / न चैतसुन्दरं हन्त जीवानां स्पर्मनेन्द्रियम् // ततो बोधप्रभावेण समयन्यपि ते नराः / कुर्वन्नोऽग्वेषणं तस्य मूलशद्धिं परिस्फुटाम् // नतो विज्ञाय ते तस्य चोकवञ्चनतां नराः / सर्वच चकिता नैव विश्वसन्ति कदाचन // न चानुकूलचारित्वं भजन्ति विजितस्पतः / ततस्तवनितेदेषि युज्यन्ते विचक्षणः // गरौरखितिमाचार्थमाचरन्तोऽपि तप्रियम् / नत्र सद्धेरभावेन भवति सुखभाजनम् // प्राप्नुवन्ति यमः शुभ्रमिह लोकेऽपि ते नराः / वर्गापवर्गमार्गस्य निकटे तादृशाशयाः // गुरवः केवलं तेषां नाममात्रेण कारणम् / मोचमार्ग प्रवर्तन्ते खत एव हि ते नराः // अन्येषामपि कुर्वन्ति ते सन्मार्गावतारणम् / तदाक्यं ये प्रवर्तन्ते विज्ञाय गुणकारकम् / य पुनर्म प्रपचने तदाक्यं वाशिमा बनाः / तेवामनादरं हत्वा ते तिष्ठन्ति निराकुसाः / कित्येव भवन्येते देवाचार्यतपखिनाम् / पूजामत्कारकरणे रतपिता महाधियः / / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिमवप्रपञ्चा कथा। एवं भाषिणि च भगवति प्रबोधनरतिसूरौ मनीषिणा चिन्तितम्। पदमुत्कष्टानां साधितं चरितं नृणाम् / नचानुभवसिद्धं मे किंचिदात्मनि भामते // मथमबुद्धिमा चिन्तितम् / उत्कृष्टपुंसां यादृचा गुरुणा वर्णिता गुणाः / एते गुणाः परं सर्वे घटन्तेऽत्र मनौषिणि // गुरुरुवाच / तदेवं तावदुत्कृष्टा वर्णिताः पुरुषा मया / अधुना मध्यमानां यत्वरूपं तबिबोधत || मध्यमास्ते नरा शेण चैरिदं स्पर्शनेन्द्रियम् / अवाप्य मानुषं जन्म मध्यबुद्यावधारितम् / स्पर्शनेन्द्रियसम्पाद्ये ते सुखे रद्धमानमाः / पण्डितैरनुशिष्टाच दोसायन्ने खचेतमा / चिन्तयन्ति निजे चित्ते ते दोलायितबुद्धयः / विचित्ररूपे संसारे किमत्र बत कुर्महे // भोगानेके प्रशंसन्ति रमन्ते सुखनिर्भराः अन्ये शान्तान्तरात्मानो निन्दति विगतस्पहाः // तदप कतरो मार्गा मादृशामिह युज्यते / म बरयामोऽन्तचित्तं मन्देहमवगाहते // तस्मात्काखविलम्बोऽत्र युकोऽस्माकं प्रयोजने / नैवैकपथनिक्षेपो विधातमिह युज्यते // एषा व जायते बुद्विर्या तेषां कर्मपद्धतिः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ढतीयः प्रस्तावः / / 285 तत्संकामा नृणां यस्माद् बुद्धिः कर्मानुसारिणे // ततस्ते स्पर्मनाक्षस्य मन्यन्ते सुखहेतुताम् / अनुकूले च वर्तन्ते किं तु नात्यन्तलोलुपाः // ततो लोकविरुद्धानि नाचरन्ति कदाचन / स्पर्शनेन्द्रियसौख्येन नापाथान प्राप्नुवन्यतः // विचक्षणोक बुध्यन्ते विशेष वचमस्य ते / अदृष्टदुःखास्तदाक्यं केवलं नाचरन्ति भोः // मैत्रौं बालिशस्त्रोकेन कुर्वन्ति घनिर्भराम् / सभको तद्विपाकेन रौद्रां दुःखपरंपराम् // अवर्णवादं लोके च प्राप्नुवन्ति न संशयः / संसर्गः पापमोकेन सर्वानर्थकरो यतः // यदा पुनः प्रपद्यन्ते विदुषां वचनामि ते / पाचरन्ति च विज्ञाय तदीयां हितरूपताम् // तदा ते विगताबोधा भवन्ति सुखिनो नराः / , महापुरुषसम्पर्कालभन्ने मार्गमुत्तमम् // पण्डिता व ते नित्यं गुरुदेवतपसिनाम् / बद्धमानपराः मन्तः कुर्वन्धनवन्दमम् // तदिदमाचार्योयं वरनमाकर्ण मध्यमबुद्धिना चिन्तिनम् / य एते सूरिणा प्रोता मध्यमानां गुणगुणाः / खसंवेदनसमिद्धास्ते ममापि खगोररे॥. मनौषिणा चिन्तितम् / यदिदं सूरिणादिष्टं वचनैः सुपरिटैः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 265 उपमितिभवप्रपा कथा / चरितं मध्यमाना तम्मदीये भातरि खितम् // सरिरवाच / नदेवं कथितास्तावअध्यमानां गुणगुणाः / जघन्यनरमम्बन्धि स्वरूपमधुनोच्यते // अघन्यास्त नरा ज्ञेया चैरिदं वर्णनेन्द्रियम् / पवाय मानुषं जन्म बन्धुवुझावधारितम् // परारिरूपतामय न जानन्येव ते खयम् / परेषामिति रुप्यन्ति विदुषां हितभाषिणाम् // सभनेद्रियसम्पाद्ये पामाकण्डूयनोपमे / परमार्थन दुःखेऽपि सुखलेशेऽपि रभवः // वर्गोऽयं परमार्थोऽयं सधोऽयं सुखमागरः / पमाभिरिति मन्यन्ने विपर्यामवशं गताः / ततो सदै नमस्तेषां प्रविसर्पति सर्वतः / विवेकमोषकाविने वर्धन्ते रागरमायः // महत्पथसहावा ध्याध्यन्धौभतस्यः / कुर्वन्नोऽनार्यकार्याणि वार्यले केन ते ततः // धर्मसोकविरहानि निन्दितानि पृथगजनः / कार्यायाचरतां लोकः मधुभावं प्रपद्यते // कुलं चन्द्राएविभदं ते कुर्वन्नि मसोमवम् / पात्मीयचरितैः पापाः प्रयान्ति जनायनाम् / अगम्यगमनासका निर्मर्यादा नराधमाः / पर्कलादपि परं ते बने थान्ति सापवम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतौयः प्रस्तावः / 267 267 दुर्लभः स्त्यादि विषयः कथञ्चिदसदाग्रहः / यदा पुनर्विवर्तत हृदयेऽतिमहाग्रहः // तदा ते यान्ति दुःखानि याश्च लोके विडम्बनाः / प्राप्नुवन्ति न शक्यन्ते ता व्यावर्णयितुं गिरा // केवलं गदितं शक्यमियदेव समामतः / लभन्ते ते नराः सर्वा लोके दुःखविडम्बनाः // प्रकृत्यैव भवन्ये ते गुरुदेवतपस्विनाम् / प्रत्यनौका महापापा निर्भाग्या गुणदूषणः // मन्मार्गपतितं वाक्यमुपदिष्टं हितैषिणा / केनचिन्न प्रपद्यन्ते ते महामोहदूषिताः // ततश्चेदं मुनेर्वाक्य विनिश्चित्य मनीषिणा / विचिन्तितमिदं चित्ते तथा मध्यमबुद्धिना // स्तर्शनेन्द्रियलब्धानां यदेतदपवर्णितम् / नणां वृत्तं जघन्यानां सूरिभिर्विशदाक्षरैः / तदेतत्सकलं बाले प्रतीतं गुटमावयोः / नाप्रतीतं वदन्येते यदि वा वरसूरयः // बालेन तु गुरोर्वाक्यं न मगागपि लक्षितम् / तस्यां मदनकन्दल्यां क्षिप्तचित्तेन पापिना / सूरिरुवाच / तदेवं भो महाराज जघन्यनरचेष्टितम् / निवेदितं मया तुभ्यं तत्रेदमभिधीयते // एते जघन्या भूयांसो भुवने सन्ति मानवाः / 38 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। दूतरे तु यतः स्तोकाः सकलेऽपि जगत्त्रये // स्पर्शनेन्द्रियजेतारो विरला भुवने नराः / तेनास्माभिरिदं पूर्वं भवद्भ्यः प्रतिपादितम् // नरपतिरुवाच / धर्म यतो न कुर्वन्ति स हेतुः प्रतिपादितः / भगवन्नाशितोऽस्माकं भवद्भिः मंगयो महान् // अत्रान्तरे तु सुबुद्धिमन्त्रिणाऽभिहितं / भगवन् य एते जघन्यमध्यमोल्लाष्टोल्लष्टतमरूपतया चतुर्भदाः पुरुषाः पश्चानुपूर्व्या भगवद्भिः स्वरूपतो व्याख्याताः एते किमेवंवरूपाः प्रकृत्यैव भवन्ति पाहोखिदेवंविधस्वरूपजनकमेतेषां किञ्चित्कारणमस्तौति कथयन्तु भगवन्तः। भगवानाह। महामन्त्रिन्नाकर्णय / न तावत्प्राकृतमिदमेतेषां स्वरूपं किं तर्हि कारणजं / तत्र ये तावदुष्टतमाः पुमांसः प्रतिपादिताः ते केवलमुल्टाष्टेभ्यो निष्पन्नवप्रयोजनतया भिद्यन्ते न परमार्थन / यतस्त एवोल्टष्टा यदावाप्य मनुष्यभावं विज्ञाय भवस्वरूपमाकलय्य मोक्षमार्ग तदासेवनेन दलयित्वा कर्मजालं निराकृत्य स्पर्शनेन्द्रियं नितिं प्राप्ता भवन्ति तदोल्लतमा इत्यभिधीयन्ते / निवृतौ च तेषां स्वरूपेणावस्थानं। तामवस्थामपेक्ष्य न किञ्चिजनकमस्ति। तेनोत्कृष्टतमानां पुरुषाणां न कश्चिज्जनको जननी वा। एते पुनर्जघन्यमध्यमोल्टष्टाः पुरुषाः संसारोदरविवरवर्तिनः स्वकर्मविचित्रतया जायन्ते। तस्मात्म एव कर्मविलासस्तेषां जनकः / तच्च कर्म त्रिविधं वर्तते। तद्यथा। शुभमकुशलं सामान्यरूपं च। तत्र या कर्मपद्धतिः भतया सुन्दरौ मा शुभसुन्दरौ मनुष्यत्वेनोल्टष्टानां For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 269 जननी। या पुनरकुशलकर्ममाला (मा) जघन्यमनुष्याणां जननी। या पुनः कुशलाकुशलतया सामान्यस्वरूपा कर्मपद्धतिः मा मध्यमनराणां जनयित्रौ विज्ञयेति // मनीषिणा चिन्तितम् / श्रये न केवलं गुणोवरितेन चैतेऽस्माकमुल्टाष्टमध्यमजघन्याः पुरुषाः समानरूपा भगवद्भिर्व्याख्याताः किं तर्हि जननौजनकव्यतिकरोऽपि अस्माकमेतैः मह तुल्य एव भगवता दर्शितः। तस्मान्ननमेतद्रपरेवास्माभिर्भवितव्यम्। तथाहि / योऽसौ भवजन्तुमी निराकृत्य निर्वृतिं प्राप्त इति स्पर्शनेनास्मभ्यं निवेदितो न तस्य तेन जननी जनको वा कश्चिदाख्यातः। तस्मादत्रष्टतमोऽसाविति निश्चीयते। अस्माकं पुनस्त्रयाणामपि कर्मविलामो जनकः भगवदादिष्टाभिधाना एव जनन्यः / तस्मादिदमत्रावसीयते यदुत जघन्यो बालो मध्यमो मध्यमबुद्धिः उत्टष्टोऽहमिति // सुबुद्धिनाभिहितं / भगवनेतेषामुल्लष्टतमादीनां पुरुषाणां किं मर्वदावस्थितमेव रूपं परावोऽपि भवति / भगवानाह। महामन्त्रिन् उत्स्टीटतमानां तावदवस्थितमेव रूपं न कदाचिदन्यथाभावं ते भजन्ते / इतरेषां पुनरनवस्थितं स्वरूपं यतः कर्मविल्लामायत्ताः खल्वेते वर्तन्ते। विषमगौलचामौ प्रकृत्या कदाचिदुटाटानपि मध्यमयति जघन्ययति वा मध्यमानपि चोल्टष्टयति जघन्ययति वा जघन्यानपि मध्यमयति उत्साष्टयति वा / तस्मादनेन कर्मविलासेन सुक्तानामेवैकरूपता भवति नेतरेषाम् // मनीषिणा चिन्तितम् / एतदपि घटत एवास्मड्यतिकरे। तथाहि। विषमशील एवास्मन्जनको यतः कथितं तेनैव मे यथा मथि प्रतिकूले यदुपपद्यते तत्सम्पन्न बालस्येति। ततश्च यो निजतनयस्यापि प्रतिकूलचारितया For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभव प्रपञ्चा कथा ! एवंविधां दुःखपरंपरां संपादयति स कथमन्येषां धनायिष्यति // सुबुद्धिनाभिहितम् भगवनुष्टष्टतमाः पुरुषाः कस्य माहात्म्येन भवन्ति / गुरुराह न कस्यचिदन्यम्य किं तर्हि खवौर्येण / सुबुद्धिनाभिहितं / कस्तथाविधवार्यलाभोपायः। मुनिराह / भागवतौ भावदीक्षा // मनौषिणा चिन्तितं / अये यद्येवं ततो युज्यते ममोटारतमस्य भवितुं / किमनयाशेषविडम्बनया / ग्टलाम्येनां भगवदादिष्टां भागवती मेव दीक्षामिति // भावतः सञ्जातो मनीषिणश्चरणपरिणामः / मध्यमवुद्धेरप्येवं गुरुमन्त्रिणोः परस्परजल्पमाकर्णयतः मञ्जातश्चरणाभिलाषः। केवलं नाहमेतावतो नैष्टिकानुष्ठानस्य क्षम इति विचिन्तितमेनन / सुबुद्धिनाऽभिहितम् / भदन्त योऽयमम्माभिर्टहिधर्मोऽभिधीयते / एष तादृशवीयस्य किं भवेत्कारणं न वा // गुरुराह / स्यादेष पारंपर्येण तादृशस्यापि कारणम् / वौर्यस्य न पुनः माहादातो मध्यजनोचितः // उल्टायतां करोत्येष माक्षात्मभ्यङ् निषेवितः / ततस्तादृशवीर्यस्य पारंपर्येण साधकः // अमेषक्लेशविच्छेदकारिका भवदारिका / तावद्भागवती दीक्षा दुर्लभैव सुनिर्मला // किं तु श्रावकधर्मोऽपि भवतानवकारकः / अत्यन्तदुर्लभो ज्ञेयो महामात्य भवोदधौ // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतोयः प्रस्तावः। तदेव परमार्थः / उत्तमतां माक्षादौतिशययोगतः / प्रद्रज्या माधयायुबैरेष तु व्यवधानतः // तदाकर्ण्य ततश्चित्ते कृतं मध्यमबुद्धिना / यतो ममेषोऽनुष्ठातुं हिधो जिनोदितः // इतचाकुशलमालया स्पर्शनेन च मध्यवर्तितया विधुरितचित्तवृत्तेलिस्य विवर्धन्ते विपर्यामविकल्पाः / यदताहो अस्या रूपातिशय: अहो सुकुमारता। अन्य वाभिमतोऽहमस्याः यतो विलोकयत्येषा मामद्धांक्षिविक्षपरेतदङ्गमङ्गसुखामृतासे कानुभवनेनाधुना मे मफलं भविष्यति जन्मति // ततश्चैवंविधवितर्कपरपरापर्याकुलोभूतचेतमस्त ग्ध विस्मृतमात्मस्वरूपं जातं मदनकन्दलीग्रहणकतानमन्तःकरणं / ततोऽविचार्य कार्याकार्थमन्ध दुव ग्रहग्टहीत व तस्यामेव मदनकन्दल्यां निसलविन्यस्तनयनमानसः पश्यत एव तावतो जनममुदायम्य शून्यपादपातं तदभिमुखं धावति स्म। ततः किमेतदिति उत्थितो जनहाहारवः / प्राप्तोऽमौ मदनकन्दलीसमीपं। ततः मावेगं क एष इति निरीक्षितोऽसौ नरपतिना। लक्षितं दृष्टिविकारेला लढालतं / म प्रदायं पापो बाल इति प्रत्यभिज्ञातोऽनेन। मञातास्थ कोपारुणा दृष्टिः कृतं भासुरं वदनं / मुको इंकारः। ततो बालम्यादृष्टविपाकतया प्रादुर्भूतभयातिरेकस्य नष्टो मदनचरः प्रत्यागता चेतना ममुत्यन्नं दैन्यं / ततः पश्चान्मुखं नष्टुं प्रवृत्तो यावच्छिथिलोभूतानि सन्धिबन्धनानि विलीयते शरीरं भनो गतिप्रसरः / तथापि कतिचित्पदानि कथञ्चिहत्वा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्रकम्पमानसर्वगात्रः पतितोऽसौ भूतले। अचान्तरे प्रकटीभूतः स्पर्शनो। निर्गतो भगवदवग्रहात् / गतो दूरदेशे। स्थितस्तं प्रतीक्षमाणो। विरतः कलकलो। लज्जितौ मनीषिमध्यमबुद्धी बालचरितेन। ततः कोऽस्यापि वराकस्योपरि कोप इति विचिन्त्य शान्तीभूतो राजा। पृष्टोऽनेनाचार्यो। यदुत भगवन्नलौकिकमिदमस्य पुरुषस्य चेष्टितं अतीतमिव विचारणायाः अश्रद्धेयमनुभूतवृत्तान्तानाम् / तथाहि विमल ज्ञानालोकेन साक्षाभतसमस्तभुवनवृत्तान्तः पश्यत्येव भगवाननेन यत्पूर्वमाचरितमामौत् यच्चेदानीमध्यवमितं। तथापि ममेदमत्र कौतुकं यदुत तत्पूर्वकमस्थाचरणं कदाचिद्विचित्रतयासत्त्वचरितस्थ संभाव्यत। इदमधुनातनं पुनर्महदिन्द्रजालमिव प्रत्यक्षमपि ममाश्रद्धेयं प्रतिभासते / यतो भगवति रागादिविषधरोपशमवैनतेये सनिहितेऽपि कथमतिक्लिष्टजन्तनामप्येवंविधोऽध्यवसायः संभवेदिति। भगवताभिहितं। महाराज न कर्त्तव्योऽत्रातिविस्मयो। यतो नास्य पुरुषस्य तपखिनो दोषोऽयम् / नपतिरुवाच / तर्हि कस्याऽयं दोषः / भगवानुवाच। दृष्टस्त्वयास्य शरौरान्निर्गत्य योऽयं वहिःस्थितः पुरुषः। नृपतिनाभिहितं / मुटु दृष्टः / भगवानाह / यद्येवं ततो ऽस्यैवायं समस्तोऽपि दोषो। यतोऽस्य वशवर्त्तिनानेन पूर्वकमिदं समस्तमाचरितम् / अनेन हि वशीकृताः पुरुषास्तन्नास्त्येव किञ्चिज्जगति पापं यन्नाचरन्ति / तस्मान्नात्र किञ्चिदलौकिक विचारातौतमश्रद्धेयं वा भवद्भिः संभावनीयम् / नरपतिरुवाच / यद्येवं ततः किमित्ययं पुरुषोऽमुं शरीरवर्त्तिनमात्मनोऽनर्थ हेतुमपि धारयति स्म / भगवानाह / न जानात्येष वराकोऽस्य दुःशौलतां / परमरिपुरपि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 303 ग्टहीतोऽयमनेन स्निग्धबन्धबुद्ध्या / नरपतिरुवाच / किमत्र पुनः कारणं / भगवताऽभिहितं / अस्य शरीरे योगशकिदारेण कृतानुप्रवेशा अकुशलमाला नाम जननी / साऽत्र कारणम् // किञ्च / यदिदमतिदुर्जयमधुनैव स्पर्शनेन्द्रियमस्माभिः प्रतिपादितं तद्रप एवायमस्य स्पर्शनाभिधानः पापवयस्थो वर्तते। अयं तु जघन्यपुरुषो बालः। यं च तदभिधानव अकुशल कर्ममालारूपैव जननौ। तदत्र किं न सम्भाव्येत / यच्चोक भगवत्मन्निधानेऽपि कथमेवंविधाध्यवसायप्रादुर्भाव इति तदप्यत एव नाश्चर्थबुद्ध्या ग्राह्य। यतो दिभेदं जन्तूनां कर्म। मोपक्रम निरूपक्रम च। तत्र मोपक्रममेव महापुरुषमनिधानादिना क्षयक्षयोपशमभावं प्रतिपद्यते न निरुपक्रमं / तद्दशगाश्च जन्तवस्तत्ममौ पेऽपि विरूपकर्माचरन्तः केन वार्यन्ते। तथाहि। येषामचिन्यपुण्यप्राग्भारवतां तीर्थकृतामिह जगति गन्धहस्तिनामिव विचरतां विहारपवनगन्धादेव क्षुद्राशेषगजकल्या दुर्भिक्षेतिपरचक्रमारिवैरप्रभृतयः सर्व एवोपट्रवाः समधिकयोजनशतात् दूरत एव भज्यन्ते तेषामपि भगवतां मन्निधाने निरुपक्रमकर्मपाशावपाशिताः चट्रसत्वा न केवलं नोपशाम्यन्ति किं तर्हि तेषामेव भगवतां तीर्थकृतां क्षुद्रोपद्रवकरणे प्रवर्तन्ते। श्रूयन्ते हि तथाविधा भगवतामप्युपसर्गकारिणो गोपसङ्गमकादयः पापकर्माण इति // अन्यच्च / तेषामेव भगवतां देवविरचितसमवसरणानामध्यामितसिंहामनचतुष्टयानां मूर्त्तिमात्रदर्शनादेव प्राणिनां किल विलीयन्ते For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 304 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / रागादयो विदलति कर्मजालं प्रशाम्यन्ति वैरानुबन्धाः विच्छिद्यन्तेऽलोकस्नेहपाशाः प्रलोयते विपरौताभिनिवेशो। यावता तत्रापि केषांचिदभव्यतया निरूपक्रमकर्मघनपटलतिरस्कृतविवेकदीधितिप्रमराणां वा न केवलं पूर्वोकगुणलेश देशोऽपि न मजायते किं तर्हि प्रादुर्भवन्त्येवं विधा भगवन्तमधिकृत्य कुविकन्याः / यद्ताहो सिद्धमत्स्यमिन्द्रजालम् अहो अस्य लोकवञ्चनचातुर्थमहो गाढमूढता लोकानां यदेतेनाप्यलोकवाचालेनालजालरचनाचतुरेण प्रतार्यन्त इति // तदेवंस्थिते महाराज न किञ्चिदिदमत्यद्भुतं यदनेन पुरुषेण मत्मन्निधानेऽप्यवं विधमध्यवसितं / अयमपि हि निरूपक्रमयानयाकुशलमालया स्वदेहवर्त्तिन्या निजजनन्या प्रेर्यमाणोऽमुं स्पर्शनं सहचरमुररीकृत्येवं चेटते। तन्नात्र भवद्भिविस्मयशे विधेयः // सुबुद्धिनाभिहितं। भदंत न किञ्चिदिदमाश्चर्य भगवदागमावदातधियामेवंविध एव निरुपक्रमकर्मपरिणामों नात्र सन्देहः। केवलमिदानौमेव भगवत्पादप्रसादादेव देवः खल्वेवंविधपदार्थेषु पुण्यबुद्धिभविष्यति। तेनैवं भगवन्तं विज्ञापयति // राजा महर्षः प्राह / चार्वभिहितं सखे चारुरहो तेऽवमरभाषिता / ततो राजैव भगवन्तं प्रत्याह। यथ कोऽस्य पुनः पुरुषस्य परिणामो भविष्यति। भगवताभिहितं / दूदानौं तावदेष दृष्टयुष्भत्कोपविपाकतया भयातिरेकग्रस्तह्दयो न किञ्चिच्चेतयते। गतेषु पुनरितो युष्मदादिषु प्रत्युपलधसंज्ञः मन्नेष भृयो ऽप्यधिष्ठास्थत अनेन स्पर्शनेन। ततो युग्मनयादेव कुत्रचिन्निर्देशे यामौत्याकूतेन प्रपलायमानो महता क्लेशेन यास्यत्येष कोल्लाकमनिवेशे। तत्र च कर्मपूरकाभिधानस्य प्रागस्य प्रत्यासन्नभूभागे For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / पथि श्रान्तः पिपामितो दूरत एव द्रक्ष्यति वृहत्तडागं / ततः स्नानपानाथ चलिष्यति तदभिमुखं / दूतश्च पूर्वमेवागमिष्यति तत्र चण्डालमिथुनं। ततश्चण्डालस्तटाकतटवर्तिषु तरुगहनेषु पतत्रिगणमारणप्रवणः सन्नाटटिय्यते / चण्डालो पुनर्विजनमिति कृत्वा स्वानार्थमवतरिष्यति तडागं / ततोऽवतीर्णायां तस्यां प्रास्यत्येष तस्य तौरं। ततोऽमुमुपलभ्य मा मातङ्गी स्पृश्यपुरुषोऽयं कलहयिष्यति मां सरोवरावतारणापराधमुद्दिश्येति भयेन निमंक्ष्यति मलिले / स्थास्यति पद्मखण्डे लौना। श्रयमपि मज्जनार्थमवतीर्थ्यानाभोगेनैव थास्यति तत्समीपं / भविष्यति तया मार्द्धमाश्लेषो। वेदयिय्यते तदङ्गस्पर्श। संजनिष्यते तस्योपरि लाम्पश्यमस्य कथयिष्यति सात्मनश्चण्डालभावं / तथापि करिष्यत्येष तस्याः भरौरग्रहणं बलामोटिकया। विधास्यते सा हाहारवं। तमाकर्ण्य धाविष्यति कुपितचण्डालो। विलोकयिष्यत्येनं तथावस्थितं। प्रज्वलिष्यति नितरां कोपानलेन / संधास्थति कोदण्डे शिलीमुखं / मारयिष्यति च अरे रे दुरात्मनधमपुरुष पुरुषो भवेत्याहय म चण्डाल: कम्पमानमेनमेकप्रहारेण / प्रहरिष्यति म च तं। तदाध्यामितो रौट्रध्यानेनेति मृत्वा च यास्यति नरकेषु / तेभ्योऽप्युद्वृत्तस्ततः कुयोनिषु पुनर्नरकेष्वेवाऽनन्तवारा। एवं दुःखपरम्परया स्थास्यत्यनन्तमपि कालं पतितः समारचक्र / पर्याप्तमौदृश्या दारुणतया / सुबुद्धिनाभिहितं। भदन्त किमेते स्पर्शनाकुशलमाले अस्यैव पुरुषस्य प्रभवतः पाहोश्विदन्येषां प्राणिनां / भगवानाह / महामात्य केवलमत्र पुरुषेऽभिव्यकरूपे खल्वे ते परमार्थतः मर्वषां सक 39 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / संसारिपाणिनां प्रभवत एव / यतो योगिनीयमकुशलमाला योगेश्वरश्चायं स्पर्शनो। योगिनां च भवत्येवेदृशौ शक्तिः यथा क्वचिदभिव्यक्तरूपता क्वचिदनाविर्भूता वर्तते / नृपतिनाभिहितम् / भगवन्ननयोः किमस्मद्रोचरोऽस्ति प्रभावो / भगवानाह बाढमस्ति // ततो राजा मन्त्रिणं प्रत्याह। मखे पापयोरनयोरमर्दितयोः कौदृशौ ममाद्यापि शत्रुमर्दनता। ततो न युक्तं यद्यपि भगवत्ममीपस्थैरेवंविधं जल्पितुं तथापि दुष्टनिग्रहो राज्ञां धर्म इति कृत्वेदमभिधीयते। तदाकर्णयत्वार्यः / सुबुद्धिनाभिहितं / समादिशतु देवो। राज्ञाभिहितमादिष्टमेतत्तावद्भगवता यथैते स्पर्शनाकुशलमाले अनेन पुरुषेण सह यास्यतः। ततो नेदानौं तावदेते वधमर्हतः / केवलं समाज्ञापय त्वमेते। यथा मद्विषयानिर्गत्य युवाभ्यां दूरतोऽपि दूरं गन्तव्यं / मृतेऽप्यस्मिन् पुरुषे नास्माकौनविषये प्रवेष्टव्यमितरथा युवयोरस्माभिः शारौरो दण्डः करिष्यते / अथैवमप्यादिष्टे पुनरेते अस्मादिषये प्रविशेतां ततो भवता निर्विचारं लोहयन्त्रेण पौडनीये। एवमतिदुश्योरारटतोरण्यनयोरुपरि नेषदपि दया विधेया // सुबुद्धिना चिन्तितं / अहो देवस्यानयोरुपर्यावेगातिशयः / यतोऽस्य तदशेन विस्मृतं तदपि हिंस्रकर्मणि न भवन्तं योक्ष्य इति मगोचरं वरप्रदानं / भवतु तथापौदमेव प्रतिबोधकारणं भगवन्तः कल्पयिष्यन्ति / मम त्वाज्ञाप्रतिपत्तिरेव ज्यायसीति विचिन्याभिहितमनेन। यदाज्ञापयति देवः // ततः प्रपन्नोऽसौ तयोराज्ञापनार्थं सूरिणाभिहितं। महाराजालमनयोरेवं ज्ञापनेन / न खल्वेतयोरयमुन्मलनोपायो / यतोऽन्त For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। रङ्गलोकजातीये एते स्पर्शनाकुशलमाले। अन्तरङ्गलोकेषु च न प्रभवन्ति लोहयन्त्रादौनि। अगम्यरूपा हि ते बाह्मशस्त्राणां // नृपतिरुवाच / भदन्त कस्तीनयोरन्यो निर्दलनोपायो भविष्यति / भगवताभिहितं / अप्रमादाभिधानमन्तरङ्गमेव यन्त्रमनयोर्निर्दलनोपायः / तो ते माधवोऽनयोरेव निष्येषणार्थमहर्निशं वायन्ति / नृपतिरुवाच। कानि पुनस्तस्याप्रमादाभिधानस्य यन्त्रस्योपकरणनि। भगवानाह। यान्येत एव माधवः प्रतिक्षणमनुशीलयन्ति / नृपतिरुवाच। कथं / भगवतोतं / समाकर्णय यावज्जीवमेते नाचरन्ति / तनौयसौमपि परपौडां / न भाषन्ते सूक्ष्ममप्यलोकवचनं। न ग्टहन्ति दन्तशोधनमात्रमप्यदत्तं / धारयन्ति नवराप्तिसनाथं ब्रह्मचर्य / वर्जयन्ति निःशेषतया परिग्रहं / न विदधते धर्मापकरणशरीरयोरपि ममत्वबुद्धिं नासेवन्ते रजन्यां चतुर्भदमण्याहारजातं। श्राददते प्रवचनोपवर्णितं समस्तोपधिविशुद्धं संयमयात्रामात्रसिद्धये निरवद्यमाहारादिकं / वर्तन्ते ममितिगुप्तपरिपूरितेनाचरणेन / पराक्रमन्ते विविधाभिग्रहकरणेन। परिहरन्यकल्याणमित्रयोगं। दर्शयन्ति मतामात्मभावं / न लंघयन्ति निजामुचितस्थिति। नापेक्षन्ते लोकमार्ग। मानयन्ति गुरुमंहतिं। चेष्टन्ते तत्तन्त्रतया। श्राकर्णयन्ति भगवदागमं भावयतिमहायत्नेन / अवलम्बते द्रव्यापदादिषु धैर्य / पर्यालोचयन्न्यागमिनमपायं। यतन्ते प्रतिक्षणममपत्नयोगेषु / लक्षयन्ति चित्तविश्रोतसिकां / प्रतिविदधते चानागतमेव तस्याः प्रतिविधानं / निर्मलयन्ति सततमसङ्गताभ्यासरततया मानसं। अभ्यस्यन्ति योगमार्ग। स्थापयन्ति चेतसि परमात्मानं / निबध्नन्ति तत्र धारणां। For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / परित्यजन्ति बहिर्विक्षेपं। कुर्वन्ति तत्प्रत्ययकतानमन्तःकरणम् / यतन्ते योगसिद्धौ / श्रापूरयन्ति शक्लध्यानं / पश्यन्ति देहेन्द्रियादिविविक्रमात्मानं / लभन्ते परमममाधिं / भवन्ति शरीरिणोऽपि सन्तो मुनिसुखभाजनमिति। तदेवमेते महाराजमुनयोऽमूनि परपोडावर्जनादौनि मुनिसुखभाजनत्वपर्यवमानानि तस्याप्रमादनाम्नो यन्त्रस्योपकरणानि प्रतिक्षणमनुशौलयन्ति / ततोऽमूभिरनुशौलितैरत्यर्थं तदृढौभवति यन्त्रं / तदा भूतं च तदनयोः स्पानाकुशलमालयोरपरेषामप्येवंजातीयानामन्तरङ्गभूतानां दुष्टलोकानां निष्पौडने क्षमं संपद्यते। तेन च निःपौड़ितास्तेऽन्तरङ्गलोका न पुनः प्रादुर्भवन्ति / ततो महाराज यद्येतन्निःपौडनाभिलाषोऽस्ति भवतस्तदिदमप्रमादयन्त्रं स्वचेतसि निधाय दृढवौर्ययध्यावष्टभ्य खल्वेते निष्पौडनीये स्वत एव / न मन्त्रिणोऽप्यादेशो देयः / न खलु परेण निष्पौडिते अध्येते परमार्थतो निष्पौडिते भवतः // ___ एवं भगवति नृपतिगोचरमुपदेशं ददाने मनौषिणः कर्मेन्धनदाहौ शुभपरिणामानलो गतोऽभिवृद्धि भगवदचनेन। केवलं पूर्वोत्तरवाक्ययो विषयविभागमनवधारयन् मनाक् ससन्देह इव विरचितकरमुकुलः स भगवन्तं प्रत्याह। भदन्त यासौ भगवद्भिर्भागवतौ भावदौक्षा वौर्योत्कर्षलाभहेतुतया पुरुषस्योत्कृष्टतमलं माधयतीति प्राक्प्रतिपादिता यच्चेदमिदानौं दुष्टान्तरङ्गलोकनिष्यौडनक्षम सौर्यष्टिकमप्रमादयन्त्रं प्रतिपाद्यते अनयोः परस्परं कियान् विशेषः / भगवताभिहितं। भद्र न कियानपि विशेषः / केवलमनयोः शब्दो भिद्यत नार्थः / यतोऽप्रमादयन्त्रमेव परमार्थतो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 306 भागवतौ भावदोक्षेत्यभिधीयते / मनौषिणाभिहितं / ततो दौयतां भगवता मा भागवतौ भावदीक्षा याचितोऽहं तस्याः / भगवानाह। बाढमुचितः सुष्टु दौयते // नृपतिनाभिहितं। भदन्त ममानेकसमरसंघट्टनियूंढसाहमस्थापौदमप्रमादयन्त्रं युग्मदचनतः श्रयमाणमपि दुरनुष्ठेयतया मनमः प्रकम्पमुत्पादयत्येष पुनः कः कुतत्यो महात्मा येनेदं महर्षेण महाराज्यमिव जिगीषुणाभ्युपगतमिति। भगवताभिहितं। महाराज मनौषिनामायमचैव चितिप्रतिष्ठिते वास्तव्यः / राज्ञा चिन्तितमये यदायं पापः पुरुषो मया व्यापादयितुमादिष्टस्तदा लोकः श्लाध्यमानः श्रुत एवासौन्मनीषौ। यदुत रे एकस्मादपि पितुर्जातयोः पश्यतानयोरियान् विशेषः / अस्येदं विचेष्टितं स च तथाभूतो मनौषो महात्मेति / तदेष एव मनौषौ प्रायो भविष्यति / अथवा भगवन्तमेव विशेषतः पृच्छामौति विचिन्याभिहितमनेन / भदन्त कौ पुनरस्थात्र नगरे मातापितरौ का वा ज्ञातय इति / भगवानाह। अस्यस्यैव क्षितिप्रतिष्ठितस्य भोक्ता कर्मविलासो महानरेन्द्रः। मोऽस्य जनकस्तस्यैवायमहिषौ शुभसुन्दरी नाम देवी मा जननी / तस्यैवेयमकुशलमाला भार्या / अयं च पुरुषो वालाभिधानः सुत इति / तथा योऽयं मनीषिणः पार्श्ववर्ती पुरुषः मोऽपि तस्यैव सामान्यरूपाया देव्यास्तनयो मध्यमबुद्धिरभिधीयते / एतावदेवात्रेदं कुटुम्बकं / शेषज्ञातयस्तु देशान्तरेवतः किं तद्दार्त्तया। नृपतिराह / किमस्य नगरस्य कर्मविलामो भोक्ता न पुनरहं। भगवानाह। बाढं। राजोवाच / कथं भगवानाह / ममाकर्णय / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / यतस्तदाज्ञां सर्वेऽपि भौतकम्पितमानसाः / एते नागरिका नैव लंघयन्ति कदाचन // तवापि राज्यहरणे तदाने वा यथेच्छया। शतोऽसौ न तथा तेऽत्र राजन्नाज्ञा प्रकाशते / / परमार्थेन तेनासौ भोकास्येत्यभिधीयते। यतः प्रभुत्वमाज्ञायां प्रभुणं किल गीयते // नरपतिरुवाच / यद्येवं भगवन्नेष कस्माबेहोपलभ्यते / सूरिणभिहितं राजन् समाकर्णय कारणम् / / यतः कर्मविलासोऽयमन्तरङ्गो महानृपः / अतो न दर्शनं याति सर्वदेव भवादृशाम् // अन्तरङ्गा हि ये लोकास्तेषां प्रकृतिरौदृशौ / स्थिताः प्रच्छन्नरूपेण सर्वकार्याणि कुर्वते // केवलं बुद्धिदृश्यैव धीराः पश्यन्ति तान् सदा / आविर्भूता वाभान्ति अन्येषामपि तत्पुरः // न वाव भावना कार्या भवत्यत्र प्रयोजने / म केवलं यतोऽनेन भवानेव पराजितः // किंतु प्रायेण सर्वेऽपि संसारोदरवर्तिनः। खवीर्यण विनिर्जित्य प्रभवोऽपि वशौकताः // नतो ग्टहीततत्त्वेन राजा प्रोकः सुबुद्धिना / देव ज्ञातो मथाप्येष राजा योऽवर्णि सूरिणा / / देवाय कथयिष्यामि रूपमस्य परिस्फुटम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतौयः प्रस्तावः / अहमेव भदन्तैस्तु सर्वमेव निवेदितम् // दूतश्च / विज्ञायावसरं तेन पूर्व संजातबुद्धिना। अचानतशिरखेन प्रोत्रं मध्यमबुद्धिना // योऽमौ भगवतादिष्टः संसारतनुताकरः / ग्रहिधर्मः म मे नाथ दौयतामुचितो यदि // गुरुरुवाच / श्रुत्वा भागवतों दौचां न कत्तुं शक्नुवन्ति ये / तेषां ग्रहस्थधर्मोऽसौ युक्त एव भवादृशाम् // नृपतिरुवाच / भदन्त किंखरूपोऽयं हिधर्मोऽभिधीयते / मूरिराह महाराज समाकर्णय कथ्यते // ततो भगवता वर्णितं परमपदकल्याणपादपनिरुपहतबीज सम्यग्दर्शनं। प्रतिपादितानि संसारतस्कन्दच्छेदतयाचिरेण खर्गापवर्गमार्गसंसर्गकारीण्यणुव्रतगणव्रतशिक्षापदानि / ततः सनाततदावरणीयकर्मक्षयोपशमतया भावतः प्रादुर्भूतसम्यग्दर्शनदेशविरतिपरिणामेन शक्योऽयमस्मादृशामण्यनुष्ठातुं ग्रहस्थधर्म इति संचिन्य नरपतिनाभिहितं / भदन्त क्रियतामेतद्दानेनास्माकमप्यनुग्रहः / भगवानाह। सुष्टु क्रियते। ततो दत्तस्तयोईयोरपि विधिना टहिधर्मो भगवता मनौषिदौक्षादानार्थं पुनरभ्युद्यते भगवति भगवञ्चरणयोर्निपत्य नरपतिरुवाच / भदन्त ग्टहीतैवानेन महात्मना भगवतो भागवती दौति / कृतकृत्य एवायमधुना वर्तते / तथापि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 312 उपमितिभवप्रयचा कथा / वयमेनं मनीषिणमुद्दिश्य किञ्चित्मन्तोषानुरूपमाचरितमिच्छामस्तदनुजानात भगवानिति / तदाकर्ण्य स्थिता भगवन्तस्तूष्णौभावेन / सुबुद्धिनाभिहितं / देव न पृच्छयन्ते द्रव्यस्तवप्रवृत्तिकाले भगवन्तः / अनधिकारो झत्र भगवतां / युक्त एव यथोचितः स्वयमेव द्रव्यस्तवः कत्तुं युभादृशां। केवलमेतेऽपि विहितं तमनुमोदन्ते एव द्रव्यस्तवं / ददति च तगोचरं शेषकालमुपदेशं। यथा कर्तव्योदारपूजा भगवतां / न खलु वित्तस्यान्यच्छुभतरं स्थानमित्यादिवचनसन्दर्भण / तस्मात्स्वत एव कुरुत यथोचितं यूयं। केवलमभ्यर्थयामः कालप्रतीक्षणं प्रति मनौषिणं / नृपतिरवोचदेवं कुर्मः। ततोऽभ्यर्थितः सबहुमानं राजमन्त्रिभ्यां मनीषौ। चिन्तितमनेन / न युक्तः कालविलम्बो धर्मप्रयोजने। तथापि महापुरुषप्रणयभङ्गोऽपि सदष्कर इति मन्यमानेन प्रतिपन्नं तत्समौहितम् / ततस्त्वरयता तेन नरनाथेन तोषतः / व्यापारिता महायोच्चैः मर्व मन्त्रिमहत्तमाः // ततस्तैः क्षणमात्रेण तत्सर्वं जिनमन्दिरम् / विचित्रवस्तु विस्तारैर्विहितं विगतातपम् // कुरङ्गनाभिकामोरमलयोनवरूपया। कर्पूरोन्मिश्रया गार्या तदधस्तादिले पितम् // तथालिकुलमगीतैः पञ्चवर्णैर्मनोहरैः / श्राजानूमेधिभिः पुष्पैः सर्वतः परिपूरितम् / / सौवर्णस्तंभविन्यस्तमणिदर्पणराजितम् / दिव्यवस्वकृतोलोचं बद्धमुकावचलकम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हतीयः प्रस्तावः / 313 मष्टान्धकारमम्बन्ध रत्नोद्योतेः सुनिर्मलैः / विध्वस्ताशेषदुर्गन्धं महष्णागरुधूपतः // देवलोकाधिकामोदं पटवामैर्विमर्पिभिः / लमत्केतकसंघातगन्धेन भुवनातिगम् // लमदिलामिनौलोकप्रारवस्त्रानसाधनम् / एवं विधाय तत्मा प्रस्तुतं देवपूजनम् // अत्रान्तरे। पारिजातकमन्दारनमेरुहरिचन्दनैः / सन्तानकैश्च देवौधास्तथान्यैर्जनजोत्तरैः / पुष्पैर्मत्वा विमानानि द्योतयन्तो नभस्तलम् / ततोल्लष्टरवास्तूर्णमाजग्मुस्ते जिनालयम् // ततः प्रमुदिताशेषलोकलोचनपूजिताः / पूजा जगगुरूणां ते जातानन्दाः प्रचक्रिरे / मुश्लिष्टवर्णविन्यामां पूजामालोक्य तत्वताम् / निश्चताक्षतया लोकास्ते जग्मुर्देवरूपताम् // ततोऽनन्तगुणानन्दपरिपूरितचेतसा / नरेन्द्रेण मलोकेन देवानानन्ध मदिरा // शुभे सुमेरुवत्तुङ्गे मवेद्यां भद्रविष्टरे / निवेश्य विम्बं जैनेन्द्रं विधिनारम्भि मजनम् // सातस्य शुभवस्त्रस्य किरीटाङ्गदधारिणः / गोशौर्षण विलिप्तस्य हारराजितवक्षमः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / कुण्डलोद्भासिगण्डस्य शक्राकारानुकारिणः / बधिःशान्तविकारस्य निर्मलीभूतचेतसः / / महत्तमोऽयमस्माकनेष एव च नायकः / एष एव महाभाग एष एव च पूजितः // येन भागवती दीक्षा दुष्करापि जिक्षिता / एवं प्रभाषमाणेन नरेन्द्रेण मनौषिणः / मत्तौदकसम्पर्णस्तापनीयो मनोहरः / मद्धर्मसारसम्पूर्णमुनिमानममन्निभः // गोशौर्षचन्दनो निमश्रो दिव्यपद्मावृताननः / समन्ताच्चर्चितः शम्भेश्चारुचन्दनहस्तकैः / / संस्थाप्य प्रथमस्त्रात्रे स्नात्रकारतया मुदा / समर्पितोऽभिषेकार्थं दिव्यकुम्भो भवच्छिदः / अानन्दपुलकोझेदं दधानो भक्तिनिर्भरः / जग्राह नृपतिः कुम्भं खयमेव द्वितीयकम् // तथा मध्यमबुद्धिश्च स पुचः स सुलोचनः / कृतौ भुवननाथस्य स्नात्रकारणतत्परौ / चन्द्रोद्योतकटाच्छेन चामरेण विभूषिता / स्थिता त्रिलोकनाथस्य पुरो मदनकन्दलौ / द्वितीया स्थापिता राज्ञा तस्याश्चामरधारिणी। देवी पद्मावतौ नाम तदाकारानुकारिणौ // धूपभाजनमादाय गाढं भावितमानमः / सुबुद्धिर्वर्धितानन्दः स्थितोऽये पिहिताननः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 315 तेनैव राजादिष्टेन शेषकर्मसु मादरम् / ये ये श्रेष्ठतमा लोकास्ते ते सम्यङ् नियोजिताः // यतः / त एव कृतिनो लोके ते जातास्ते समुन्नताः / ते कलालापविज्ञानशा लिनस्ते महाधनाः // ते रूपवन्तस्ते शूराः कुलस्यापि विभूषणाः / ते मर्वगुणसम्पर्णाः श्लाघ्यास्ते भुवनत्रये // किङ्करीकृत शक्रस्य लोकनाथस्य मन्दिरे / येऽत्र किङ्करतां यान्ति नराः कल्याणभागिनः // ततः प्रवृत्तो भगवतोऽभिषेकमहोत्सवः / पूरयन्ति दिकचक्रवालमुद्दामदेवदुन्दुभिनिर्घोषाः / बधिरयन्ति जनकर्णकोटराणि रटत्पटहपाटवप्रतिनादसंमूर्छिता विविधर्यनिनादाः / समुल्लास्यते कणकणकभाणकरवोन्मिश्रः कलकाहलाकलकलः। गोयन्तेऽन्तरान्तरा प्रशमसुखरमास्वादावेदनचतराणि भगवत्साधुगुणसम्बन्धप्रवणानि श्रवणोत्सवकारौणि गौतकानि / पद्यन्ने परिशद्धगम्भौरेण ध्वनिना सर्वज्ञप्रणोतवचनोन्नतिकराणि रागादिविषधरपरममन्त्ररूपाणि भावमारं महास्तोत्राणि / प्रवृत्तानि विविधकरणाङ्गहारहारीणि प्रमोदातिरकसूचकानि महानृत्तानि। तदेवं महता विमर्दन सुरासुरैरिव कनकगिरिशिखरनिर्वर्तिते भगवदभिषेकमङ्गले पूजितेषु सविशेषं भुवनाधिनाथविम्बेषु विहितेषु निःशेषकृत्यविधानेषु वन्दितेषु माधुलोकेषु दत्तेषु महादानेषु सन्मानितेषु विशेषतः माधर्मिकेषु मनीषिणः स्वगेहनयनाय प्रहौकारितो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 316 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / नरपतिना गजः। आरोपितस्तत्र मनीषौ। स्थितोऽस्य स्खयमातपत्रधारकः / घोषितं च नरपतिना हर्षातिरेकरोमाञ्चितवपुषा रहता शब्देन / यदुत भो भोः मामन्ता भो भो मन्त्रिमहत्तमाः समाकर्णयत यूयम् / विभूतिरत्र संसारे नरस्य ननु तत्त्वतः / सत्त्वमेवाविगानेन प्रसिद्धं सर्ववेदिनाम् // ततो यस्याधिकं सत्त्वं नरस्येह प्रकाशते / म शेषनरवर्गस्य प्रभुत्वं कर्तुमईति / / एवं च स्थिते। सत्त्वोत्कर्षस्य माहात्म्यं यदत्रास्य मनीषिणः / तहष्टमेव युभाभिः सर्वैरेव परिस्फुटम् // यत्तद्भगवतादिष्टं मादृशां बासकारणम् / अनेन रभसा यन्त्रं याचितं तन्महात्मना / तदेष यावदस्माकं सदनुग्रहकाम्यया / ग्टहे तिष्ठति तावन्नः स्वामी देवो गुरुः पिता // वयमस्य भवन्तश्च सर्व किङ्करतां गताः / विधूतपापमात्मानं विनयात्करवामहे // ततः समस्तैस्तै रुक्तं प्रमोदोद्धरमानमः। यदादिशति राजेन्द्रः कस्मै तन्नात्र रोचते // अचान्तरेऽतितोषेण देहस्था मा मनीषिणः / विजृम्भिता विशेषेण जननी भसुन्दरी॥ ततः मौकतामाण्य क्षणेन भुवनातिगाम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 317 रराज राजलोकेन परिवारितविग्रहः // करेणुकाधिरूढ़ेन सह मध्यमबुद्धिना / अथावाप पुरद्वारं स्तूयमानः सुबुद्धिना // ततोच्छ्रितपताके च देहशोभामनोरमे। विशेषोज्वलनेपथ्ये हर्षात्ममुखमागते / अथामौ नगरे तत्र मनौषौ तोषनिर्भरैः / एवं नागरकर्लोकः प्रविवेश कृतस्तुतिः // युग्मम् // तद्यथा। धन्योऽयं कृतकृत्योऽयं महात्मायं नरोत्तमः / अस्यैव मफलं जन्म भूषितानेन मेदिनौ / अस्त्येव धन्यतास्माकं येषामेष स्वपत्तने। संजातो न ह्यधन्यानां रत्नपुञ्जेन मौलकः / / ततश्च। कामिनीनयनानन्दं कुर्वाणोऽर्थाभिलाषिणां / ददानश्च महादानं दधानो देवरूपताम् // मद्धम पक्षपातं च देहिनामात्मचेष्टितैः। जनयचनितानन्दो विचचार पुरेऽखिले // ततो महाविमर्दैन सम्प्राप्तो राजमन्दिरम् / रत्नराशिप्रभाजालैः सदा बद्धेन्द्रकार्मुकम् // नत्र चाभेषराजादिलोकसन्मानमानितः / सकामकामिनौवन्दलोललोचनवौचितः // गौतनृत्यप्रबन्धेन मोऽमरालयविभ्रमे / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / देवराजवदास्थानं दत्त्वा निःशङ्कमानमः // ततो विलौनरागोऽपि नृपतेस्तोषवृद्धये / उत्थाय मज्जनस्यानं जगाम गत विमायः // तत्र च गतस्य तस्य / भ्रातः सूनो रिवात्यन्तवल्लभस्य मगौरवम् / कृतं मदनकन्दल्या शरीरपरिमार्जनम् // शेषान्तःपुरनारौ भिळग्राभिः स्नानकर्मणा / रराज पेशलालापचारुभिः परिवारितः // वजेन्द्रनौलवैदुर्यपद्मरागादिरोचिषा। रञ्जिते यन्त्रवापौनां ममन्ज विमले जले // ततो भुजगनि कसूक्ष्माले सुवाससौ। परिधाय गतो देवभवनं सुमनोहरम् // तत्र च। सुबुद्धिसम्बन्धिनि विरचनाचारुतया चित्तनिर्वाणकारिणि जिनमन्दिरे मार्गानुमारितया परमार्थतः मकलकालहृदयवर्तिनोऽपि विशेषतस्त दिन एव प्रबोधनरतिमूरिपादप्रसादोपलब्धस्वरूपस्य मकलनिष्कलावस्थस्य भगवतः परमात्मनो रागद्वेषविषापहरणकरणचतुरमनुस्मृतमहंतः स्वरूपं। ततो निर्गत्य विरलविरलाप्नपरिजनः पूर्वोपकल्पिताशेषभोजनोपकरणमामग्रीमनाथं प्राप्तो भोजनमण्डपं / तत्र च विरचितानेकाकारेचित्तरमनोत्सवकारिणि भक्ष्यपेयाद्याहारविस्तारे नृपतिना स्वयमुपदिश्यमानमभिमतरमास्वादनं तदनुरोधेन विदधानो निरभिष्वङ्गतया For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 316 वर्धमानस्वास्थ्यातिरेको निर्वतयामास भोजनमिति। ततो रहौतपञ्चसुगन्धिकोन्मिश्रताम्बले मलयजमुगनाभिकश्मीरजचोदाङ्गरागे विन्यस्तप्रवरभूषणे दिव्यांशुकाच्छादितशरौरे माल्यविच्छित्तिसौरभाकष्टहृष्टचिञ्चिरौके अध्यासितमहा ईसिंहामने प्रणतासंख्यमहामामन्तकिरौटांशुजालरञ्जितचरणे उद्दामबन्दिस्वयमानयथावस्थितगुणमन्दो हे दत्तास्थाने मनीषिणि हर्षातिरेकनिर्भरो राजा सुबुद्धिं प्रत्याह / मखे युभदनुभावजन्येयमस्मादृशां कल्याणपरम्परा येनोत्साहितोऽहं भवता भगवदन्दनाय / तथा हि / विलोकितो मया नाथो जगदानन्ददायकः / भक्तिनिर्भरचित्तेन वन्दितो भुवनेश्वरः // दृष्टः कल्पद्रुमाकारः म सरिर्वन्दितो मुदा / लब्धो भागवतो धर्मः संमारोच्छेदकारकः / जातश्चेदृशरूपेण नररत्नेन मौलकः / कृतश्चानेन सर्वेषामस्माकं हृदयोत्सवः / अथवा किमत्राश्चर्यम् / महाभागाः प्रजायन्ते परेषां तोषवृद्धये / खकार्यभेतदेवेषां यत्परनौतिकारणम् // तदस्य युक्तमेवेदं विधातुं पुण्यकर्मणः / ममा तमिदं जातं क डोम्बः क तिलाढकम् // तदेवंविधकल्याणमालिका मित्रवत्सल / एवमाचरता नूनं त्वया संपादिता मम // राज्ञो हितकरो मन्त्री सुप्रसिद्धं जगत्त्रये / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 320 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तस्मात्तवैव मन्त्रित्वं यथार्था ते सुबुद्धिता // सुबुद्धिरुवाच। देव मा मैवमादिशत / न खलु देव पुण्यप्राग्मारायत्तजीवितव्येऽत्र किङ्करजनेऽप्येवमतिगौरवमारोपयितुमर्हति देवः / अस्याः संपादने केऽत्र वयं। उचित एव देवः खल्वेवं विधकल्याणपरम्परायाः / नैव हि निर्मलाम्बरतले निशि प्रकाशमाना रुचिरा नक्षत्रपद्धतिः कस्यचिदसम्भावनौयेत्याश्चर्यबुद्धिं जनयति। मनौषिएणभिहितं। महाराज भगवति सप्रमादे कियतीयमद्यापि भवतः कल्याणपरम्परा। भाविदिनीसम्बन्धस्येव गगनतलस्यारुणोद्योतकल्पो हि भवतो भविष्यत्केवलालोकमचिवपरमपदानन्तानन्दसन्दोहसम्बन्धस्य प्राथमकल्पिकः खल्वेष सम्यग्दर्शनजनितः प्रमोदः / नृपतिरुवाच। नाथ महाप्रमादः / कोऽत्र सन्देशः। किं न संपद्यते युभदनुचराणां। ततो मन्त्रिणं प्रत्याह। मखे पश्यामौषामद्य दिनप्रबुद्धवानामपि विवेकातिशयः / सुबुद्धिरुवाच / देव किमत्र चित्रं / मनीषिणः खल्वेते यथार्थमभिधीयन्ते / प्रबुद्धवा एव ह्येवंविधपुरुषा जायन्ते। गुरवः केवलमौदृशां प्रतिबोधे निमित्तमात्रं भवन्ति // __ दूतश्च मनौषिणो राजमन्दिरे प्रवेशावसरे राजानमनुजाप्यादित एव सुबुद्धिना माधर्मिकवात्मल्येन मध्यमबुद्धिनॊत प्रामीदात्मीयमदने। कारितस्तदागमननिमित्तः परमानन्दो दत्तानि महादानानि / ततः सोऽपि निर्वर्तितस्त्रानभोजनताम्बल विलेपनास्लङ्करणनेपथ्यमाल्योपभोगः कर्तव्यः / स्नेहनिर्भरसुबुद्धितत्परिकरनिरुपचरितस्तुतिगर्भपेशलालापममानन्दितहदयः समागतस्तत्रैवास्थाने। कृतो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 321 चितप्रतिपत्तिः ससम्भ्रमं मनौषिणा दापिते तदुपकण्ठमुपविष्टो महति विष्टरे। ततो राजा तमुद्दिश्य सुबुद्धिं प्रत्याह / मखे महोपकायमस्माकं महापुरुषः। सुबुद्धिनाभिहितं / देव कथं / नृपतिराह। ममाकर्णय यतो भगवतोपदिष्टे तस्मिन्नप्रमादयन्त्रे तस्य दुरनुष्ठेयतामालोचयतो मम महाममरे कातरनरस्येव प्रादुर्भूता चित्ते समाकुलता ततोऽहमनेन महात्मना तबावसरे भगवन्तं ग्टहिधर्म याचयता तहणबुड्यत्यादकत्वेन समाश्वासितो। यतो जातो ग्टहिधर्माङ्गौकरणेनापि मे चेतमा महानवष्टम्भः / ततो ममायमेव महोपकारक इति। सुबद्धिनाभिहितं। देव यथा भिधानो मध्यमबुद्धिरेष। ममानशौलव्यसनेषु मख्यमिति च लोकप्रवादः। ततः समानशीलतया युक्तमेवास्य मध्यमजनानां ममाश्वासनं // नृपतिना चिन्तितं / अये ममायं मिथ्याभिमानश्चेतमौयन्तं कालमामौत् किलाहं नरेन्द्रतया पुरुषोत्तमो यावताधुनानेन सुबुद्धिनार्थापत्या गणितोऽहं मध्यमजनलेख्ये। ततो धिमां मिथ्याभिमानिनमित्यथवा वस्तुस्थितिरेषा न मयात्र विषादो विधेयः / तथा हि। गजेन्द्रस्तावदाभाति शूरः मन्त्रासकारकः / यावद्भासुरदंष्ट्राग्रो न सिंह उपलभ्यते // यदा सिंहस्य गन्धोऽपि स्यादाघ्रातः करेणना / जायते कम्पमानोऽसौ तदाहो कातरः करौ // मनौषिणमपेक्ष्यातो युक्ता मे मध्यरूपता। For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 322 उपमितिभवप्रपच्चा कथा। अयं सिंहो महाभागो मादृशाः करिकातराः // तदत्र न विषादो मे कर्तुं युक्तः प्रयोजने। यतो द्वितीयलेखापि मादृगैरपि दुर्लभा // तथा हि। भवेत्सर्वोत्तमस्तावत्पुरुषों यदि पारयेत् / अशको मध्यमोऽपि स्यान्न जघन्यः कदाचन // मिथ्याभिमानो नैवायमेक एवाभवत्पुरा / किं तर्हि बहवोऽन्येऽपि किं वा मे चिन्तया तया // एवं चिन्तयति राजनि सुबुद्धिराह / देव सम्यगवधारितं देवेन यथैष महोपकारक इति। यतो जिनधर्मानुष्ठाने प्रवर्तमानस्यास्य जीवस्य यो निमित्तमात्रमपि भवति न ततोऽन्यः परमोपकारी जगति विद्यते। नृपतिराह। एवमेतन्नात्र मन्देहः / केवलमिदानों मे मनसि वितर्को भगवद्वचनानुस्मरणेनामकृविराकृतोऽपि निर्लज्जब्राह्मण व प्रकरणे पुनः पुनः प्रविशतीति / तदेनमुपनेतुमर्हत्यार्यः। सुबुद्धिराह / कीदृशोऽसौ / नृपतिरुवाच / समाकर्णय स्वसंवेदनसमिद्धमिदमासीत्तदा यदुत तत्र चैत्यभवने प्रविष्टमात्राणामस्माकं शान्तानौव सर्वदन्दानि उच्चाटितेव केनचिद्राज्यकार्यचिन्तापिशाचिका विलौनमिव सकलमोहजालं विभात इव प्रबलरागानलः विध्वस्त व विपरौताभिनिवेशग्रहः निईतममृतसेकसम्पर्कणेव शरीरं सुखसागरावगाढमिव हृदयं क्षणमात्रेणामौत् / यत्पुनर्नमस्कृतभुवननाथस्य प्रणतगुरुचरणस्य वन्दितमुनिन्दस्य भगवदचनामृतमाकर्णयतस्तत्र मे निरुपमं सुखसंवेदन For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 323 मभूत् तत्मकलं वाग्गोचरातौतमिति कृत्वा न शक्यते कथयितुं / तदेवंविधेऽपि तत्र जैनेन्द्रमन्दिरे मनिहितेऽपि तादृशे भगवति गरौ कथयति रागविषशमनं विरागमार्ग नेदीयसि शान्तचित्ते तपखिलोकेऽपि सति तावति जनसमुदये कथं बालस्य तथाविधोऽध्यवमायः सम्पन्न इति। सुबुद्धिनाभिहितं / देव यत्तावदुनं देवेन यथात्र जिनमन्दिरे प्रविष्टमात्रस्य मे क्षणमात्रेणाचिन्तितगुण सन्दोहाविर्भावोऽभूदिति तन्नाश्चर्य / प्रमोद शेखरं हि तद्भवनमभिधौयते हेतुरेव तत्तादृशगुणकलापस्य / यत्पुनरभ्यधायि यथा कथं पुनस्तस्यैवंविधसामय्यामपि पापाचरणेषु प्रवर्तन्त इति / अन्यच्च / भगवदुपदेशादेवाहमेवं तर्कयामि यदुत द्रव्यक्षेत्रकाल भावभवाद्यपेक्षया प्राणिनां शुभाशुभपरिणामा भवन्ति। तदस्य बालस्य क्षेत्रजनितोऽयमशुभपरिणामः / नृपतिराह। ननु गुणाकरस्तज्जैनसदनं / तदेव तत्र क्षेत्र। तत्कथं तदभपरिणामहेतुर्भवेदिति। सुबुद्धिराह। न मन्दिरदोषोऽसौ किं तर्हि उद्यानदोषस्तदुद्यानं तत्र सामान्यक्षेत्रं तच्च हेतुस्तस्य बालस्य तथाविधाध्यवसायस्येति / नृपतिराह / यदि दुष्टाध्यवसायहेतुस्तदुद्यानं ततोऽस्माकं किमिति क्लिष्टचित्तकारणं तन्न सम्पन्न। सुबुद्धिनाभिहितं / देव विचित्रस्वभावं तत्काननं पुरुषादिकमपेक्ष्यानेकाकारकार्यकारकं संपद्यते / अत एव / तबिजविलमितमिति नाम्ना गौयते / प्रकटयत्येव तज्जन्तूनां मविशेषसहकारिकारणकलापैर्निज निज विलसितम् / तथाहि / तस्य बालस्य तेन स्पर्शनेन तया चाकुशलमालया युक्तम्य मदनकन्दलौं प्राप्य तेन तथाविधाध्यवमायः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 324 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / मनौषिमध्यमबुद्धियुभदादौनां पुनर्विशिष्ट पुरुषाणां पुण्यप्राग्भारवतां सूरिपादे प्रमादमासाद्य तेनैव सर्वविरतिदेशविरतिपरिणामादयो भावा जनिताः / यद्यपि चेह सर्वस्वैव कार्यस्योत्पत्तौ द्रव्यक्षेत्रकालस्वभावकर्मनियतिपुरुषकारादयः कारणविशेषा दृष्टादृष्टाः समुदायनैव हेतुभावं भजन्ते नैकः क्वचित्कस्यचित्कारणं तथापि विवक्षयकस्यापि कारणत्वं वक्तुं शक्यत इति। तन्निजविलमितमुद्यानमस्माभिर्नानाविधभावनिबन्धनमभिधीयत इति // नृपतिराह / सखे चारूतमिदमिदानौं यद्भवता तदाभिहितमासीत् भगवतः पुरतो यथाहं देवायास्य कर्मविलासस्य राज्ञः स्वरूपं निवेदयिष्यामि तनिवेदयतु भवानहं श्रोतुमिच्छामि। सुबुद्धिराह / देव यद्येवं ततो विविक्त स्थौयतां देवेन। नृपतिनोक्तमेवं भवतु // ततोऽनुज्ञातौ मनीषिणा समुत्थाथास्थानमण्डपात् प्रविष्टौ कक्षान्तरे राजामात्यौ। सुबुद्धिनाभिहितं / देव अयमत्र परमार्था / ये ते भगवता चत्वारः पुरुषाः प्ररूपिताः तेषामुत्लष्टतमास्तावत्मकलकर्मप्रपञ्चरहिताः सिद्धा अभिधीयन्ते / जघन्यमध्यमोत्कृष्टाः पुनरेत एव बालमध्यमबुद्धिमनीषिणो विज्ञेयाः। अतः कर्मविलामो राजा यो भगवता प्रतिपादितः म एतेषामेवंविधस्वरूपाणां जनको निजनिजकर्मादयो विज्ञेयः / स एव हि यथावर्णितवीर्या नापरः। तस्य च तिस्रः शुभाशुभमिश्ररूपाः परिणतयः / ता एव भगवतामोषां मनौषिबालमध्यमबुद्धीनां शुभसुन्दर्यकुशलमाला सामान्यरूपेति नामभिर्जनन्य इति प्रतिपादिताः ता एव यतोऽमूनौदृशरूपतया जनितवत्यः / नपतिराह / म तहमोषां वयस्यः कोऽभिधीयतां / सुबुद्धिरुवाच / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 325 देव तत् सर्वानर्थकारि स्पर्शनेन्द्रियं विज्ञेयं // नृपतिना चिन्तितं / श्रये मयापौदं भगवता कथ्यमानं सर्वमाकर्णितमामौत् केवलं न सम्यग् विज्ञातं यथानेन / तदस्य सुबुद्धेरेवंविधबोधेन सुसाधुभिः मह चिरपरिचयः कारणं / अहो वचनको शलं भगवतां / कथितमेवातस्तदामोषां मनीषिप्रभृतीनां सम्बन्धि सर्वमन्यव्यपदेशेन चरितं / अथवा किमत्र चित्रं अत एव प्रबोधनरतयस्ते भगवन्तोऽभिधीयन्ते। तदेवं विचिन्त्याभिहितमनेन / मखे पर्याप्तमिदानी विदितोऽस्मा भिरेष वृत्तान्तः। केवलमिदमिदानीमभिधीयते यदुत योष मनीषी विषयानुषङ्गं कियन्तमपि कालं भजेत ततो वयमप्यनेनैव मह दीक्षाग्रहणं कुर्वीमहि / यतः प्रथमदर्शनादारभ्य प्रवर्धते ममास्योपरि स्नेहानुबन्धः / न संचरति विरहकातरतयान्यत्र हृदयं / न निवर्तयातामेतबदनकमलावलोकनालोचने / ततो नास्य विरहे वयं क्षणमप्या मितुमुत्महामहे। न च तथाविधोऽद्यापि अस्माकमाविर्भवति चरणकरणपरिणामः / तदेनं तावदभ्यर्थय प्रणयस्नेहसारं / अनुभावय निरुपचरितशब्दादिभोगान् / प्रकटयास्य पुरतस्तत्वामिभावं। दर्शय वजेन्द्रनीलमहानोलकर्केतनपद्मरागमरकतवैदूर्यचन्द्रकान्तपुष्परागादिमहारत्नपूगान् दर्शयापहमितत्रिदशसुन्दरीलावण्याः कन्यकाः। सर्वथा कथञ्चिदुपप्रलोभय यथा कियन्तमपि कालमस्मत्समौहितमेष मनौषौ निर्विचारं मंपादयति / सुबुद्धिनाभिहितं / यदाज्ञापयति देवः। केवलमत्रार्थ किञ्चिदई विज्ञापयामि। तद्युक्तमयुक्त वा क्षन्तुमर्हति देवो // नृपतिराह। सखे मदुपदेशदानाधिकारिणं भवतां शिष्यकल्पे मय्यप्यल मियता For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / संभ्रमेण / वदतु विवक्षितं निर्विकल्पमार्यः। सुबुद्धिरुवाच / देव यद्येवं ततो यत्तावदुक्तं देवेन यथा ममात्र मनौषिणि गुरुः स्नेहातिरेकः तद्युतमेव / यतः समुचितो महतां गुणिषु पक्षपातः / स हि क्रियमाण: पापाणुपूगं दलयति मदाशयं स्फौतयति सुजनतां जनयति यशो वर्धयति धर्ममुपचिनोति मोक्षयोगतामालक्ष्यतीति / यत्पुनरुक्तं यथा कथञ्चिदुपप्रलोभ्य कियन्तमपि कालमेष धारणीय इति तन्न न्याय्यं प्रत्युतानुचितमाभासते यतो नैवमस्योपरि स्नेहानुबन्धो दर्शितो भवति किं तर्हि प्रत्युत प्रत्यनौकतां संपद्यते। तथाहि / घोरसंसारकान्तारचारनिःमारकाम्यया / प्रवर्तमानं जैनेन्द्रे धर्म जीवजगद्धिते // मनमा वचमा सम्यक्रियया च कृतोद्यमः / प्रोत्मा हयति यस्तस्य म बन्धुः स्नेहनिर्भरः // अलौकस्नेहमोहेन यस्तु तं वारयेन्जनः / स तस्थाहितकारित्वात्परमार्थेन वैरिकः // तस्मान्न वारणीयोऽयं स्वहितोद्यतमानमः / एवमारभतां देव स्नेहोऽत्र विहितो भवेत् // न चैष शक्यते देव कृतैर्यत्नशतैरपि / मनौषौ लोभमानेतुं विषयैर्दिविकैरपि // यतः प्रादुर्भूतोऽस्य महात्मनो विषयविषविपाकावेदनचतुरे भगवदचने सुनिश्चितः प्रबोधः / विस्फुरितं मकलमलकालव्यक्षाल For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 320 नक्षम हृदयसरोवरे विवेकरनं। ममुलमितं यथावस्थितार्थस्वरूपनिरूपणनिपुणं सम्यग्दर्शनं। संजातो निःशेषदोषमोषकरश्चरणपरिणमः / मति च भगवदवलोकनया जीवस्यैवं विधे कल्याणाभिनिवेशकारिणि गुणकदम्बके न रमते विषयेष चित्तं प्रतिभासते हेयत्वबुद्ध्या भवप्रपञ्चः इन्द्रजालयते निःमारतया मकलं जगदिल मितं स्वप्नदर्शनायते क्षणदृष्टनष्टतया जनसमागमः। न निवर्तते प्रलयकालेऽपि कस्यचिदनुरोधेन मोक्षमार्गस्य साधनप्रवण बुद्धिः। तदेवंस्थिते देव अस्थोपप्रलोभनमाचरतामस्माकं केवलं मोहविलमितमाविर्भविष्यति न पुनः काचिदभिप्रेतार्थसिद्धिः / तदनमनेनास्थानारंभेणेति // नृपतिराह। यद्येवं ततः किं पुनरधुना प्राप्तकालं। सुबुद्धिराह / देव निरूप्य दीक्षाग्रहणर्थमस्य प्रशस्तदिनं क्रियतां तदारात् मर्वादरेण महत्तरः प्रमोदः / नृपतिराह। यत्त्वं जानौषे // ततः समाहूतः सिद्धार्थी नाम मांवत्सरः / ममागतस्त्वरया। प्रविष्टोऽभ्यन्तरे। राजा दापितमासनं। कृतमुचितकरणीयं / कथितमाहानप्रयोजनं। ततो निरूप्य निवेदितमनेन यदुतारमाद्दिनानवमे दिने स्यामेव भाविन्या एक्लत्रयोदश्यां शुक्रदिने उत्तरभद्रपदाभिर्योगमुपगते शशधरे वहति शिवयोगे दिनकरोदयातीते सपादे प्रहरद्वये वृषलग्नं सप्तग्रहकं एकान्तनिरवा भविष्यति / तदाश्रीयतामिति अभिहितं राजमन्त्रिणोः / परिपूज्य प्रहितः सांवत्सरः / गतं तद्दिनं / ततो द्वितीयदिनादारभ्य प्रमोद खरे तदन्यजिनायतनेषु च देवानामपि विस्मारितसुरालयमौन्दर्या विधापिता राज्ञा महोत्सवाः। दापितानि वरवरिकाघोषण For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 328 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / पूर्वकं सर्वत्र महादानानि। विहारितो देवेन्द्रवदैरावतविभ्रमजयकरिवरारूढः स्वयं पदातिभावं भजता त्रिकचतुष्कचत्वरादिष सुराकारैर्नागरिकजनैः स्वयमानो निरुपमविलासविस्तारमनुभावयता नरपतिना प्रतिदिनं नगरे मनीषी प्राप्तोऽष्टमवासरः / तत्र च नौतं निखिलजनसन्मानदानार्घमान विनोदेन प्रहरदयं। अत्रान्तरे दिनकराचरितेन मनौषिवचनं सूचयताभिहितं कालनिवेदकेन / नाशयित्वा तमो लोके कृत्वालादं मनखिनाम् / हे लोकाः कथयत्येष भास्करो वोऽधुना स्फुटम् // वर्धमानः प्रतापेन यथाहमुपरि स्थितः / सर्वोऽपि स्वगुणैरेव जनस्योपरि तिष्ठति !! ततस्तदाकर्ण्य राजा सुबुद्धिप्रभृतौनुद्दिश्याह / अये प्रत्यासोदति स्नमवेला / ततः सज्जौकुरुत तूर्णं भगवत्पादमूले गमनमामयौं / सुबुद्धिरुवाच। देव प्रदेव वर्त्तते मनौषिपुण्यपरिपाटीव सर्वा मामग्री। तथाहि / अमौ घणघणारावं कुर्वन्तः कनकोज्वलाः / रथौघाः प्रस्थितास्वर्णमाथुक्कवरवाजिनः / एते संख्यामतिक्रान्ता राजबन्दैरधिष्ठिताः / जौमूता व नागेन्द्रा द्वारे गर्जन्ति मन्थरम् // वर्याश्ववारैः संरुद्धाः कथञ्चिञ्चटुलाननैः / खमापिबन्तोऽमौ देव हया हेषन्ति दर्पिताः // अयं पदातिसंघातः तौरनौरेश्वरोपमः / मत्तः प्रयोजनं ज्ञात्वा सुवेषश्चलितोऽखिलः / / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतोयः प्रस्तावः / 329 रत्नालङ्कारनेपथ्याः सट्रव्यपटलाकुलाः / प्रस्थिता वारनारीणामेते वारा वरेक्षणाः // मनीषिपुण्यसंभाराकष्टास्वर्ण समागताः / एते विबुधसंघाता द्योतयन्ति नभस्तलम् // एष नागरको लोकः कौतुकाचिप्तमानमः / कुरुते हर्षकल्लोलैः मागरक्षोभविभ्रमम् // अथवा / मत्तो विदितवृत्तान्तो मनौषिगुणरंजितः / ज्ञातयुभदभिप्रायः को वात्राप्रगुणो भवेत् // देव तत्माम्प्रतमुत्थातुमर्हथ यूयं / ततः समुत्थितौ मनौषिनरेन्द्रौ निर्गतौ द्वारदेशे। ततो रत्नकिङ्किणीजालभूषिते समारूढ़ः प्रधानस्यन्दने मनीषौ। ततः सुखसुकुमारासनोपविष्टः स्वयं प्रतिपत्रमारथिभावेन सह नरपतिना विलमकिरीटांशरजितोत्तमाङ्गभागो ध्रियमाणेन निजयशोधवलेनातपत्रेण कपोलडोलायमानकुण्डलो धूयमानेन शशधरदीधितिच्छटाच्छेन वरविलामिनीकरवर्तिना चामरप्रकरेण स्थलमुक्ताफलकलापविराजितवक्षःस्थलः पठतातितारमुद्दामबन्दिवृन्देन कटककेयरखचितबाहुदण्डो नृत्यता तोषनिर्भरवरविलासिनीमार्थेन अतिसुरभिताम्बस्लाङ्गरागप्रौणिताशेषेन्द्रियग्रामो बधिरयता दिक्चक्रवालं वरर्यनिर्धाषण विशददिव्यांशकप्रतिपनदेहो गायता मनोहारिकिन्नरसंघन घर्णमानविचित्रवनमालानिचयचर्चितगरौरो मुञ्चता हर्षातिरेकादत्तष्टसिंहनादसन्दर्भ देवसंघेन प्रोणिताशेषप्रणयिजनमनोरथः 42 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 33. उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / माघयता नागरलोकेन तथासुरकुमाराकारधरोऽयमिति सकौतुकाभिः समागतोऽस्माकमयं दृष्टिपथमिति सहर्षाभिरस्मदभिमुखमवलोकयतीति मश्टङ्गाराभिर्मदनरमवशौछतड्दयतया नानाविधविलामाभिर्मामियं तिरोधाय दर्शनलोलतया स्वयमवलोकयतीति परस्परं से• भिर्गुरुजनोऽस्मानेवमवलोकयन्तीः पश्यतीति मलज्जाभिः प्रबजितः किलायं भविष्यतीति मशोकाभिरलं संसारण योऽयमेवंविधैरपि त्यज्यत इति समवेगाभिरेवमनेकरसभावनिर्भर हृदयमुद्दहन्तीभिर्निरीक्ष्यमाणमूर्तिर्वातायनविनिर्गतवदनमहस्राभिः पुरसुन्दरौ भिरभिनन्धमानोऽम्बर विवरवर्तिनौ भिः सुरसुन्दरीभिः सहितो रथान्तरारूढेन खप्रतिबिम्बसबिभेन मध्यमबुद्धिना अनुगम्यमानो रथहरिकरिगतैर्महासामन्तसमूहैर्महता विमर्दन प्राप्तो मनौषौ निजविलसितोद्याने। रथादवतीर्य स्थितः क्षणमात्रं प्रमोदशेखरदारे। परिवेष्टितो राजवृन्देन / इतश्च स्यन्दनारोहणादारभ्य राजा विशेषतस्तदा सत्त्वपरीक्षार्थं मनौषिस्वरूपं दत्तावधानों निरूपयति स्म / यावता तस्य विशुध्यमानाध्यवसायप्रक्षालितमनोमलकलङ्कस्य सत्यपि तादृशे हर्षहेतौ न लक्षितस्तेन तिलतपत्रिभागमात्रोऽपि चेतोविकारः प्रत्युत गाढतरं क्षारमृत्पुटपाकादिभिरिव विचित्रसंसार विलसितदर्शनसमुद्भूतैर्भावनाविशेषैर्निर्मलीभूतं चित्तरत्नं / ततः परस्परानुविद्धतया मनःशरीरयोर्जातमस्य देदीप्यमानं शरीरं। विलोकितं च राज्ञा यावत्तत्तेजमा भिभूतं दिनकरकरनिकरतिरस्कृतमिव तारकानिकुरुम्ब न राजते मनीषिणोऽभ्यर्णवर्ति तद्राजकं / ततस्तदीयगुणप्रकर्षण राज्ञोऽपि विलीनं तद्विबंधक For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 31 कर्मजालं संजातश्चरणपरिणामो निवेदितः सुबुद्धिमध्यमबुद्धिमदनकन्दलीमामन्तादिभ्यो निजोऽभिप्रायः / ततोऽचिन्धमाहात्यतया महापुरुषमनिधानस्य विचित्रतया कर्मक्षयोपशमस्य रञ्जितचित्ततया निष्कृचिममनौषिगुणैः समुल्लसितं सर्वेषां तदा जीववौर्य / ततस्तैरभिहितम्। माधु माधुदितं देव युक्तमेतद्भवादृशाम् / संमारे ह्यत्र निःमारे नान्यच्चारु विवेकिनाम् / / तथा हि। देव यद्यत्र संसारे किंचिस्याद्रामणैयकम् / साध्यं सारमुपादेयं वस्तु सुन्दरमेव वा // ततः किमौदृशाः सन्तः पूज्या युग्मादृशामपि / संसारमेनं मुच्चयुतितत्त्वा महाधियः // ततोऽमूदृशमलोकत्यागादेवावगम्यते / नास्यच किंचित्संसारे सारं चारकमनिभे // श्रतो मनीषिभिस्त्यते देव नैवात्र युज्यते / स्थातुं विज्ञाततत्त्वानां भवे भूरिभयाकरे / अन्यच्च देव सर्वेषामस्माकमपि साम्प्रतम् / दृष्ट्वा मनीषिणचित्तं न चित्तं रमते भवे // यथैवास्य प्रभावेण संजातश्चरणोद्यमः / अस्माकमेष निर्वाहं तथा तेनैव यास्यति // ततोऽस्माननुजानौत संसारोच्छेदकारिणीम् / येन भागवती दीक्षामशीकुर्मः सनिर्मलाम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 332 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। नृपतिरुवाच / अहो विवेको युस्माकमहो गम्भीरचित्तता / अहो वचनविन्यामस्तथाहो सत्त्वमारता // माध्वध्यवसितं भद्रः साधु प्रोत्साहिता वयम् / साधु भो क्षणमात्रेण बोटितं भवपञ्जरम् // एवं मामान्यतस्तावत् सर्वेषामभिनन्दनम् / कृत्वा प्रत्येकमप्याह स राजा हर्षनिर्भरः // तत्र सुबुद्धिं तावदुवाच / सखे विदितसंसारस्वभावेन त्वया ग्रहे। दूयन्तं तिष्ठता कालं वयमेव प्रतीक्षिताः // अन्यथा ते ग्रहे किं वा स्यादवस्थानकारणम् / को नाम राज्यलाभेऽपि भजेचाण्डालरूपताम् // तत्साधु विहितं माधु कृतोऽस्माकमनुग्रहः / एवमाचरता मित्र दर्शिता च सुमित्रता // मध्यमबुद्धिं प्रत्याह। वमादावेव धन्योऽसि यस्य मङ्गो मनीषिणा। नैव कल्पद्रुमोपेतो नरोऽकल्याणमर्हति // अधुना चरितेऽप्यस्य दधानेन मतिं त्वया / खभ्रातर्निर्विशेषैव दर्शिता तुल्यरूपता // तत्साधु विहितं भद्र यः पश्चादपि सुन्दरः / सोऽपि सुन्दर एवेति यतो वृद्धवाः प्रचक्षते // ततो मदनकन्दलौं प्रत्याह / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / सारं च सुकुमारं च देवि काञ्चनपद्मवत् / तावकौनमिदं चित्तं येनाङ्गोकतमौदृशम् // प्रसिद्धा धर्मपत्नौति यत्वं लोकोपचारतः / मम तत्सत्यतां नौतं कर्तव्येन त्वयाधुना // तत्साधु विहितं देवि नात्यत्र भवपञ्जरे। नियन्त्रितानां जौवानां कर्तव्यमपरं वरम् / तथा / यैरभ्युपगता दीक्षा तानन्यानपि भावतः / म राजा मधुरैरेवं वाक्यैरानन्द्य तोषतः // तद्यथा। धन्या यूयं महात्मानः कृतकृत्या नरोत्तमाः / यैरभ्युपगता तूर्णं मद्दौला पारमेश्वरौ // तच्चारु विहितं भद्रा युक्तमेतद्भवादृशाम् / यूयमेव परं लोके निर्मिथ्या मम बान्धवाः // ततश्च / राजचिन्हार्पणाद्राज्ये स्थापयित्वा सुलोचनम् / ततः कृतान्यकर्तव्यः प्रविष्टो जिनमन्दिरे / / तत्र च। विहिताशेषकर्तव्याः पूजयित्वा जगद्गुरुम् / प्राचार्येभ्यो निजाकूतं ते सर्वेऽप्याचचक्षिरे // ततोऽभिनन्दितास्तेऽपि सूरिभिः कलया गिरा। अलं विलम्बितेनात्र संमार इति भाषिणा // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 334 उपमितिभव प्रपञ्चा कथा / ततः प्रवचनोकेन विधिना धूतकल्मषैः / मर्वे ते क्षणमात्रेण दीक्षिता गुरुभिर्जनाः // अथ संवेगवृद्यर्थं कल्पोऽयमिति वा क्षणम् / कता समक्षं लोकस्य सूरिभिर्धर्मदेशना // तद्यथा। अनाद्यनन्तसंभारे जन्ममृत्युभयाकरे। मौनीन्द्रो दुर्लभा सत्त्वैः प्रव्रज्येयं सुनिर्मला // थतः। तावदुःखान्यनन्तानि तावद्रागादिसन्ततिः / प्रभवः कर्मणस्तावत्तावन्जन्मपरम्परा // विपदस्तावदेवतास्तावत्मवी विडम्बना / तावद्दौनानि जल्पन्ति नरा एव पुरो नृणाम् // तावद्दौर्गत्यमद्रावस्तावद्रोगसमुद्भवः / तावदेष बडतोशो घोरसंसारसागरः / / यावनिःशेषमावद्ययोगोपरतिलक्षण / एषा न लभ्यते जीवैः प्रव्रज्यात्यन्तदुर्लभा / प्रसादालोकनाथस्य स्वकर्मविवरेण च / यदा तु सत्त्वैर्लभ्येत प्रव्रज्येयं जिनोदिता // तदा निधूय पापानि यान्ति ते परमां गतिम् / अनन्तानन्दसंपूर्ण निःशेषक्तशवर्जिताम् // ततोऽमौ ये पुरः प्रोक्ताः सर्वेऽपि भवभाविनः / क्षुद्रोपद्रवसंघाता दुरापास्ता भवन्ति ते // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतोयः प्रस्तावः। 325 किंवा दहापि भो भवन्त्येते प्रशमामृतपायिनः // . प्रव्रज्याग्राहिणे जौवा निर्बाधाः सुखपूरिताः / मा च भागवती दौमा युमा भिरधुना स्फुटम् / संप्राप्ता तेन संप्राप्तं यत्प्राप्तव्यं भवोदधौ // केवलं मततं यत्नः प्रमादपरिवर्जितैः / यावन्नौवं विधातव्यो भवद्भिरिदमुच्यते // यतः। नाधन्याः पारमेतस्या गच्छन्ति पुरुषाधमाः / थे तु पारं व्रजन्यस्यास्त एव पुरुषोत्तमाः // ततस्तैः प्रणतः मर्जजल्पे सूरिसंमुखम् / इच्छामोऽनुग्रहं नाथ कुर्मी नाथानुशासनम् // स्थगिताननदेशेन मुखवस्त्रिकया मुदा। पत्रान्तरे इतः प्रश्नः शत्रुमर्दनसाधुना // कथम् / विशालं निर्मलं धौरं गम्भौरं गुरुदक्षिणम् / दयापरौतं निश्चिन्तं देषाभिष्वङ्गवर्जितम् // स्तिमितं जगदानन्दं यदा वाग्गोचरातिगम् / कथमौदृग्मवे चित्तं नाथ यादृङ मनीषिणः // यस्य चेष्टितमालोक्य शिथिलीभूतबन्धनाः / एते सर्वे वयं मुक्का भौमात् संसारचारकात् // गुरुरुवाच / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / पा विज्ञाता त्वयाप्यस्थ जननौ शुभसुन्दरौ / पावन्तस्तत्सुतास्तेषां सर्वेषामौदृशं मनः // ततो ग्टहीततत्त्वोऽपि राजर्षिरिदमब्रवीत् / बोधार्थं मुग्धलोकानां विनयानतमस्तकः // किं तस्याः शुभसुन्दर्या विद्यन्ते बहवः सुताः / अस्माभिश्च पुरा ज्ञातमयमेककपुत्रकः // गुरुरुवाच / बाढं विद्यन्ते / तथाहि / ये ये त्रिभुवनेऽप्यत्र दृश्यन्तेऽनेन यादृशाः / ते सर्वे शुभसुन्दाः पुत्रा नास्त्यत्र संशयः // किं च। ये केचिदुत्तमा लोके सत्वमार्गानुयायिनः / ते पुत्राः शुभसुन्दर्यास्तुल्या ज्ञेया मनौषिणा // राजर्षिरुवाच / यामौ बालस्य जननी भवद्भिरूपवर्णिता / भदन्त बालादन्येऽपि तस्याः किं मन्ति सूनवः / / मूरिणाभिहितं / नितरां सन्ति / तथाहि / ये ये त्रिभुवनेऽप्यत्र जघन्याः क्लिष्टजन्तवः / ते तेऽकुशलमालायाः पुत्रा नास्त्यत्र संशयः / / ते बालसदृशैरेव विज्ञेया दुष्टचेष्टितैः / एतेऽकुशलमालायाः सूनवः सुपरिस्फुटाः // राजर्षिरुवाच / यद्येवं तईि। तस्याः मामान्यरूपायाः किमन्ये मन्ति सूनवः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / BB7 भदन्त किं वा नो मन्ति मध्यबुद्धेः सहोदराः // सूरिणाभिहितं / बहुतमास्ते विद्यन्ते / यतः / ये बालचरिताः केचिन्मनौषिचरिताश्च ये / एतेभ्यो ये परे सत्वाः मर्व तेऽमुख्य सोदराः / / ये केचिच्छबलाचाराः ममा मध्यमबुद्धिना। सुताः मामान्यरूपायास्ते जौवा भुवनोदरे // मकाशादितराभ्यां ते गण्यमाना जगत्त्रये / अनन्तगुणितास्तेन प्रोका भूरितमा मया // राजर्षिरुवाच / भदन्त यद्येवं ततो मम चेतमि परिस्फरति / यथैवं व्यवस्थिते मत्येतदापत्रं यदत। भार्यात्रयेण जनितं जघन्योत्तममध्यमम् / तस्य कर्मविलासस्य जगदेतत्कुटुम्बकम् // सूरिरुवाच / "आर्य नेवात्र सन्देहः सम्यगार्यण लक्षितम् / मार्गानुमारिणी बुद्धिर्भवत्येव भवादृशाम् // तथाहि / जघन्यमध्यमोत्कृष्टाः सर्वयोनिषु जन्तवः // विद्यन्ते केवलं नृत्वे व्यकभावा भवन्ति ते / ततश्च / नरत्वेऽपि विनिर्दिष्टं व्याप्यैवेदं कुटुम्बकम् / यदत्र विदुषा कार्य तदिदानौं निबोधत // त्य क्रव्यं बालचरितं न कार्यस्तत्ममागमः / 43 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पमितिभवप्रपञ्चा कथा / मनौषिचरिते यत्नः कर्तव्यः सुखमिच्छता / यतोऽत्र बहवो जीवाः प्रायो मध्यमबुद्धयः / ते च सम्यगनुष्ठानात् संपद्यन्ते मनीषिणः // एतद्विज्ञाय भो भव्याः सर्वेऽपि गदिता मया। काय मदनुरोधेन वृत्तमस्य मनीषिणः // वर्जनौयश्च यत्नेन पापमित्रैः समागमः / यतः स्पर्शनमम्पर्कात् म बालो निधनं गतः // वर्जनेन पुनस्तस्य मनीषी सपरिस्फुटाम् / लोके शेखरतां प्राप्य जातोऽयं मोक्षमाधकः // कल्याणमित्रः कर्तव्या मैत्री पुंसा हितैषिणा। इहामुत्र च विज्ञेया मा हेतुः सर्वमम्पदाम् // दोषायेह कुसंसर्गः सुसंसर्गा गुणावहः / एतच्च दयमप्यत्र मध्यबुद्धौ प्रतिष्ठितम् // तथा हि। बालः स्पर्शनसंबन्धादेषोऽभूदुःखभाजनम् / युक्तोऽभूत्मतताताद एष एव मनौषिणा // तदिदं भो विनिश्चित्य बहिरङ्गान्तरैः सदा / न कार्या दुर्जनैः मङ्गः कर्तव्यः सुजनैः सह / ततश्च / इदमाकर्ण्य मौनौन्द्रं वचनं सुमनोहरम् / प्रबुद्धा बहवः सत्त्वा जाता धर्मपरायणाः // प्राप्ता देवा निजं स्थानं स्थितो राज्ये सुलोचनः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 336 गतोऽन्यत्र विहाराय मूरिः शिष्यगणैः सह // ततश्च / विहत्य कालं भूयांममागमोक्रेन वर्त्मना / पर्यन्तकाले मंप्राप्ते विधाय मकलं विधिम् // ज्ञानध्यानतपोवौर्यवहिनिर्दग्धकल्मषः / मनौषौ नितिं प्राप्तो हित्वा खं देहपञ्चरम् / / ये तु मध्यममद्यौर्यास्ते तनूभूतकर्मकाः / गता मध्यमबुद्याद्या देवलोकेषु माधवः // बालस्य तु यदादिष्टं भदन्तै विचेष्टितम् / तत्तथैवाखिलं जातं नान्यथा मुनिभाषितम् // // स्पर्शनकथानकं समाप्तम् // विदुर उवाच / कुमार तदिदं मया ह्यः कथानकमाकर्णितमाकर्णयतश्च मम लक्षितं दिनं / तेन युमत्ममोपे नागतोऽस्मि / मयाभिहितं / भद्र सुन्दरमनुष्ठितं / यतोऽतिरमणौयमिदं कथानक बुध्यत एव श्रोतुम् / अहो अत्यन्तदन्तः पापमित्रसम्बन्धी यतस्तस्य बालस्य स्पर्शनमम्पर्कादिहामुत्र च निबिडविडम्बनागर्भा दुःखपरंपरैव केवलं संपन्ना नान्यत्किंचनेति। विदूरेण चिन्तितं / बुद्धस्तावदनेन कथानकतात्पर्यार्थ इति / भविष्यति मे वचनावकाशः // इतश्च तत्रावमरे मत्तो नातिदूरे वर्तते वैश्वानरः / श्रुतं तेन मामकौनं वचनं / चिन्तितमनेन। अये विरूपको नन्दिबर्धनस्योल्लापो / व्युत्पादितप्रायोऽयमनेन विदुरेण। तन्त्र सुन्दर For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 340 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / मिदं वर्तते पृष्टः खल्वेष विद्रो ज्ञापयिष्यत्यस्य मदीयस्वरूपमिति। माशङ्कः संपन्नो वैश्वानरः // विदुरेणाभिहितं। कुमार सत्यमिदं सम्यगवधारितं कुमारेण / अन्यच्च / प्रकृतिरेषा प्रायः प्राणिनां यथा यत्र कुत्रचित्किंचन दृष्टं श्रुतं वा सर्वमात्मविषये योजयन्ति / ततो मयापौदं कथानकमनुश्रुत्य स्व हृदय चिन्तितं / यदुत यदि कुमारस्य कदाचिदपि पापमित्रसम्बन्धो न भवति ततः सुन्दरं मंपद्यते। मयाभिहितं / भद्र किमत्र चिन्तनीयं / नात्येव मे नापि भवियति पापमित्रसम्बन्धगन्धोऽपौति। विदुरः प्राह / वयमप्येतावदेवार्थयामहे। ततः स्थितो मदौयकर्णाभ्यर्ण विदुरः। शनैः शनैरभिहितं चानेन। यदुत केवलमेषोऽपि वैश्वानरो लोकवार्तया दुष्टप्रकृतिः श्रूयते / तदयं मम्यक्परीक्षणीयः कुमारण। मा भूदेष स्पर्शनवहालस्य पापमित्रतया भवतोऽनर्थपरंपराकारण मिति / __निरौक्षते च तस्मिन्नवमरे वैश्वानरः माकूतः सन्नभिमुखो मदौयवदनं / लक्षितोऽहमनेन मुखविकारतस्तैर्विदुरवचनैर्दूयमानः / ततः कृता वैश्वानरेण मां प्रति मा पूर्वमाङ्केतिका संजा। भक्षितं मया क्रूरचित्ताभिधानं तहटकं / ततस्तत्प्रभावान्दो क्षणेन वृद्धोऽन्तस्तापः / अमुलमिताः खेद विन्दवो जातं गुजार्धम निभं शरीरं संपन्नं विषमदष्टोष्ठं भनोग्रभृकुटितरङ्गमतिकरालं वत्रकुहरं। ततो भद्रे अग्टहीतसङ्केते तथा वैश्वानरवटकप्रभावाभिभूतात्मना मया पापकर्मणानाकलय्य तस्य वत्सलतामनालोश हितभाषितमविगणय्य चिरपरिचथं परित्यज्य स्नेहभावमुररीकृत्य दुर्जनतां मर्वथा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बतीयः प्रस्तावः। 301 निष्ठुरवचनैस्तिरस्कृतोऽसौ विदुरः / यदुतारे दुरात्मन् निर्लज्जत्वं मां बालकल्प कल्पयमि तथाचिन्यप्रभावोपेतं परमोपकारकमन्तरङ्गभूतं मे वैश्वानरं तथाविधदुष्टस्पर्शनोपमं मन्यसे / अददानस्य च प्रत्युत्तरं विदुरस्य मया दत्ता कपोलदारणौ चपेटौ / ग्टहीत्वा महत्फलक प्रहरीमारब्धोऽहं / ततो भयातिरेकप्रकम्पमानगात्रयष्टिनष्टो विदुरः। गतस्तातसमीपं / कथितः समस्तोऽपि वृत्तान्तः / ततो निश्चितं स्वमनसि तातेन / यथा न शक्यत एव कथंचिदपि कुमारो वियोजयितुमेतस्माद्वैश्वानरपापमित्रादिति / तदेवं स्थिते यद्भविष्यत्तामेवास्माभिमौनेनैव स्थातुं युक्तमिति स्थापितस्तातेन सिद्धान्तः // ___ इतश्च निःशेषितं मया कलाग्रहणं / ततो गणितं प्रशस्तदिनं / आनीतोऽहं कलाशालायास्तातेनात्मसमीपं। पूजितः कलाचार्या दत्तानि महादानानि कारितो महोत्सवः / अभिनन्दितोऽहं तातेनाम्बाभिः शेषलोकश्च / वितीर्ण मे पृथगावासकः / यथासुखमास्तामेष इति कृत्वा तातेन नियुक्तः परिजनः। समुपहृतानि मे भोगोपभोगोपकरणानि। स्थितोऽहं सरकुमारवल्ललमानः। ततस्त्रिभुवन विलोभनीयोऽमृतरस दूव सागरस्य सकललोकनयनानन्दजननश्चन्द्रोदय दूव प्रदोषस्य बहुरागविकारभङ्गरः सुरचापकलाप व जलधरसमयस्य मकरध्वजायुधभूतः कुसुमप्रसव व कल्पपादस्य अभिव्यज्यमानरागरमणीयः सूर्यादय व कमलवनस्य विविधलास्थविलासयोग्यः कलाप व शिखण्डिनः प्रादुर्भूतो मे यौवनारम्भः / संपन्नमतिरमणीयं शरीरं। विस्तीर्णे For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 300 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। भूतं वक्षःस्थलं / परिपूरितमूरुदण्डवयं अगमत्तनुतां मध्यदेशः / प्राप्तः प्रथिमानं नितम्बभागः। प्रतापवदारूढ़ा रोमराजिः / वैद्यमवाप्ते लोचने / प्रलम्बतामुपागतं भुजयुगलं / यौवनमहायेनैवाधिष्टितोऽहं मकरध्वजेन // दूतश्च स्वभवनात्रिसन्ध्यं व्रजामि स्माई राजकुले गुरूणां पादवन्दकः / ततोऽन्यदागतः प्रभाते। कृतं तातस्याम्बादौनां च पादपतनं / अभिनन्दितस्तैराशीर्वादेन / स्थितस्तत्ममौपे कियन्तमपि क्षणं / समागतः स्वभवने निविष्टो विष्टरे यावदकाण्ड एवोल्लसितो राजकुले बहलः कलकलः। ततः किमेतदित्यलक्षिततनिमित्ततया जातो मे संभ्रमः / प्रस्थितस्तदभिमुखं यावत्तूर्णमागच्छन्नालोकितो मया धवलाभिधानः सबलो बलाधिकृतः / प्राप्तो मदन्तिकं। प्रणतोऽहमनेन। आह च / कुमार देवः ममादिशति / यदुतेतो निर्गतमात्रस्य ते प्रविष्टो मत्समीपे दूतो। निवेदितं च तेन / यथा कुशावर्तपुरात् कनकचूड़राजसूनुः कनकशेखरो नाम राजकुमारो जनकापमानाभिमानावत्समीपमागतो गव्यूतमात्रवर्तिनि मलयनन्दने कानने तिष्ठत्येतदाकर्ण्य देवः प्रमाण मिति। ततोऽहं स्वग्टहागततया प्रत्यामन्त्रबन्धुतया महापुरुषतया च प्रत्युगमनमर्हति कनक शेखरः कुमार इति प्रास्थानस्थायिभ्यो राजवन्देभ्यः प्रख्याप्य एष समुच्चलितः स्वयं तदभिमुखं / कुमारेणापि शीघ्रमागन्तव्यमित्यहं प्रहितो युभदाहानाय / तनूणे प्रस्थातुमर्हति कुमारस्ततो यदाज्ञापयति तात इति ब्रुवाणश्चलितोऽहं सपरिकरों। मौलितस्तातबले पृष्टो मया धवलः / कथमेष कनकशेखरोऽस्माकं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतौयः प्रस्तावः। बन्धुरिति। धवलेनाभिहित / यतो नन्दायाः कनकचूड़ः सहोदरो भवति तेन ते मातुलसूनुरेष भ्रातेति / प्राप्तास्तत्समीपं / कृतं कनकशेखरेण तातस्य पादपतनं / ममालिङ्गितस्तातेन मया च। कृतोचिता प्रतिपत्तिः। प्रवेशितो नगरे महानन्दविमर्दन / अभिहितश्च तातेनाअम्बया च कनकशेखरो। यथा कुमार सुन्दरमनुष्ठितं यदात्मौयवदनकमलदर्शनेन जनितोऽस्माकं मनोरथानामप्यगम्यो महांश्चित्तानन्दः / तदेतदपि कुमारस्य पैलकमेव राज्यं। तस्मान्नात्र कुमारेण तिष्ठता विकल्पो विधेय इति / अभिनन्दितं ताताम्बावचनं कनकशेखरेण / समर्पितस्तातेन मदीयभवनाभ्यर्णवर्ती कनकशेखरस्य महाप्रामादः। स्थितस्तत्रासौ / जातोऽस्य मया सह स्नेहभावः / समुत्पन्नो विश्रम्भः / अन्यदा रहसि पृष्टोऽसौ मया। यदुत मयाकर्णितं। किल जनकापमानाभिमानाद्भवतामिहागमनमभूत्तत्कौदृशो जनकेन भवतोऽपमानो विहित इति श्रोतुमिच्छामि / कनकशेखरणभिहितम् / अाकर्णय। तातेन चतमचर्या जनन्यात्यन्तलालितः / कुशावर्तपुरे तावदहमामं कुमारकः // अन्यदा मित्रवृन्देन युक्तः केलिपरायणः / गतः शमावहं नाम काननं नन्दनोपमम् // तत्र माधचिते देश रक्ताशोकतलस्थितः / दृष्टो मया महाभागः प्रशान्तो मुनिसत्तमः // चौरमागरगम्भौरस्तापनीयगिरिस्थिरः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 344 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / दिवाकरमहातेजाः स्फटिकनिर्मलः // ततः प्रादुर्भवद्भनिरहं गत्वा तदन्तिकम्। प्रणम्य चरणौ तस्य निषमः शुद्धभूतले // वयस्था अपि मे सर्व प्रणिपत्य मुनीश्वरम् / उपविष्टा मदभ्यर्ण विनयानम्रमस्तकाः / / उपसंहृतमद्ध्यानः म माधुर्दत्तनामकः / दत्ताशौर्मधुरैर्वाक्यैः ममस्तान् ममभाषत / तदीयवाक्यप्रौतेन मयोले प्रहचेतमा / भदन्त कीदृशः प्रोक्तो धर्मस्तावकदर्शने // अथ प्रह्लादयबुच्चैर्मनो मे कलया गिरा। धर्ममाख्यत्प्रपञ्चन जैनचन्द्रं स मे मुनिः // तत्रापि प्रथमं तेन साधुधी निवेदितः / ततस्तदनु विस्तार्य रहिधर्मः प्रकाशितः // ततश्च / सम्यग्दर्शनमन्मूलो व्रतस्कन्धो महाफलः / शमादिशाखो ग्रहिणां धर्मः कल्पद्रुमोपमः // ग्टहीतः मवयस्येन गतोऽन्यत्र महामुनिः / धर्म पालयतो मेऽमावन्यदा पुनरागतः // दूतश्च / व्युत्पनबुद्धिः मंजातस्तदाहमपरापरः / श्रावकैः सह संमगें कुर्वाणो धर्मकाम्यया // अथासौ वन्दितो भक्त्या गत्वोद्यान महामुनिः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 345 पृष्टश्चेदं भदन्तेह किं सारं जिनशामने // मुनिरुवाच / अहिंमा ध्यानयोगश्च रागादीनां विनिग्रहः / माधर्मिकानुरागश्च मारमेतज्जिनागमे // मया चिन्तितम्। सर्वारम्भप्रवृत्तानां मादृशां सुपरिस्फुटम् / अहिंमा प्राणिनां तावद्विधातुमतिदुःशका // निष्पकम्पमनःसाध्यो ध्यानयोगोऽपि मादृशाम् / विषया मिषमूढानां दूरादूरतरं गतः // रागादिनिग्रहोऽप्यत्र तत्त्वाभ्यामपरायणैः / अप्रमादपरैः शक्यः कर्तुं पुंभिर्न मादृशैः // माधर्मिकानुरागस्तु यो भदन्नेन साधितः / म कदाचिद्विधीयेत मादृशैरपि जन्तुभिः / तदत्र यत्नः कर्तव्यो यथाशनि मयाधुना / यतः मारमनुष्ठेयं नरेण हितमिच्छता // एवं निश्चित्य चित्तेन वन्दित्वा तं मुनीश्वरम् / प्रवर्धमानमंवेगस्ततोऽहं ग्रहमागतः // इतश्चैकसुतत्वेन जीवितादपि वल्लभः / अहं तातस्य सर्वत्र यथेच्छाकरणक्षमः / / विनयं राजनीतिं च अनुवर्तयता मया / तथापि तातः प्रच्छको प्रार्थितो न तथा गिरा // तद्यथा / 41 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 246 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / करिछेऽहं यथाशक्ति वात्मल्यं जैनधर्मिणाम् / तात तत् कुर्वतो यूयमनुज्ञां दातमईथ // दूतश्च / मत्सङ्गेनैव तातोऽपि भद्रको जिनशासने / ततः सा मामिका तस्य प्रार्थना रुचिरा मता // राज्यं पुत्र तवायत्तमायत्तं तव जीवितम् / खाभिप्रेतमतः कुर्वन्न त्वं मां प्रष्टुमर्हसि // ततोऽहं हर्षपूर्णाङ्गः पतितस्तातपादयोः / महाप्रमाद इत्येवं ब्रुवाण: प्रोतमानमः // ततः प्रभृति सर्वोऽपि यो नमस्कारधारकः / मोऽन्यजोऽपि निजे देशे बन्धुबुद्ध्या मयेक्षितः // भोजनाच्छादनैर्दिव्यैरलङ्कारैः मरत्नकैः / धनेन च यथाकामं भृतः माधर्मिको जनः / अन्यच्च / अर्हतो यो नमस्कारं धत्ते पुण्यधनो जनः / स देश घोषणापूर्वं विहितोऽकरदो मया // माधवः परमात्मानः माध्यः परमदेवताः / गुरवः श्रावका लोका ममेति ख्यापितं मया // जिनेन्द्रशामने भक्तिं यः कश्चित् कुरुते जनः / अानन्दजलपूर्णाक्षस्तमहं बहुशः स्तुवे // यात्रास्नात्रमहोत्सर्ग प्रमोदमुदिताशयाः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / विचरन्ति स्म जैनेन्द्रास्ततः सर्वत्र सज्जनाः // तथाभिनवधर्माणो ये मौनीन्द्रमते स्थिताः / कृता विशेषतस्तेषां मपर्या भावतो मया // ततो मदनुरागेण लोका धर्मपरायणाः / बहतस्तत्र संपना यथा राजा तथा प्रजाः / / अथ तं तादृशं वीक्ष्य प्रमोदं जिनशामने / अमात्यो दुर्मुखो नाम पापः प्रदेषमागतः // ततो रहमि ताताय म दुरात्मा हितः किल / युमभ्यमहमित्येवं प्रख्याप्य ाठमानमः / / इदं न्यवेदयद्देव नैवं राज्यस्य पालना। उच्छृङ्खलौकताः मर्व कुमारेण यतो जनाः // नातिकामन्ति मर्यादां लोका हि करभौरवः / ते मुक्ता मुत्कलाचाराः कमनथें न कुर्वते // राजदण्डभयादेव देव लोको निरङ्कुशः / उन्मार्गप्रस्थितस्तुणं करौव विनिवर्तते // उद्दण्डोऽनार्यकार्येषु वर्तमानः स केवलम् / प्रतापहाने राज्ञोऽपि लाघवं जनयत्यलम् // अन्यच्चात्राधुना भूरिलोको जैनेमते स्थितः / कः कुमारप्रसादार्थो नाश्रयेत्तंमकर्णकः // एवं च। करहीने जने जाते यथेष्ट प्रविचारिणि / कस्यात्र यूयं राजानः किं वा राज्यं विनाज्ञया / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तदिदं यत् कुमारेण देव प्रारम्भ्यलौकिकम् / राजनीतेः समुत्तीर्ण बुध्यते तन्न सुन्दरम् // तातः प्राहार्य यद्येवं स्वयमेवोच्यतां त्वया / कुमारो न वयं तस्य ममखं भाषितुं क्षमाः // ततश्च। नातानुज्ञामवाप्यैवं दुर्मुखो मामभाषत / कुमार नेदृशौ नौतिर्नुपतेर्लोकपालने // यतः / करापौतजगत्मारो महसा व्याप्तभूतलः / राजा दिनकराकारी लोकस्योपरि तिष्ठति // यस्तु प्राकृतलोकस्य वशग: स्थान्महीपतिः / तस्य स्यात्कौदृशं राज्यं को वा न्यायस्तदाज्ञया // राजदण्डभयाभावात्ततो लोका निरङ्कुशाः / दुष्टचेष्टितमार्गेषु प्रवर्तन्ते यथेच्छया / तदेवं स्थिते / पादितः करदण्डाभ्यां यस्तानी शास्ति भूपतिः / तेनैव परमार्थम स कृतो धर्ममम्प्लवः // कुमार तदिदं ज्ञात्वा राजधर्मव्यतिक्रमात् / नालोकधर्मवात्सल्यं युक्तं कर्तु भवादृशाम् // ततः प्रादुर्भवत्कोपविहलोभूतचेतमा / आकारमंवरं कृत्वा मया तं प्रति भाषितम् // श्रार्य युक्तमिदं वनुमेव मां प्रति यद्यहम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 36 346 दुष्टवष्टादिलोकस्य कुयीं सन्मानपूजनम् // ये तु स्वगुणमाहात्म्याद्देवानामपि पूजिताः / तेषां यथेच्छादानेऽपि नैतत्संबध्यते वचः // तथा हि। ये चौर्यपारदार्यादेः सर्वस्माद्दुष्टचेष्टितात् / स्वत एव महात्मानो निरत्ताः सर्वभावतः // तेषां जैनेन्द्रलोकानां दण्डः स्यात् कुत्र कारणे / दण्डबुद्धिर्भवेत्तेषु यस्थामौ दण्डमर्हति // करोऽपि रक्षणीयेषु लोकेषु ननु बुध्यते / तस्थापि नोचिता जैना ये गुणैरेव रक्षिताः // अतः किङ्करता मुत्वा नान्यत्किंचन भूभुजाम् / विधातुं युक्रमेतेषां मेवास्माभिर्विधीयते // येषां नाथो जगन्नाथो भगवांस्तेषु किङ्करः / यः स्याद्राजा स एवात्र राजा शेषास्तु किङ्कराः / एवं चाचरता ब्रूहि राजनौतेर्विलङ्घनम् / किं मया विहितं येन भवानेवं प्रजल्पति / / किं च / अलौकधर्मवात्सल्यं मदीयं वदता त्वया / परिस्फुटौकृतं नूनं दुर्मुखत्वमिहात्मनः // एवं च वदति मयि लक्षितो दुर्मुखेण मदीयोऽभिप्रायः / चिन्तितमनेन / अये अर्हद्दर्शने निर्भरोऽस्यानुरागः। अनिवर्तकश्चित्तप्रमरः / कुपितश्चायं मदीयवचमा / तदलमनेनाधुना गाढ For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 350 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तरमुद्देजितेन / प्रगणीकृत एवात्रार्थ मया राजा। ततः स्वयमेव स्वाभिमतमनुष्ठास्यामि। साम्प्रतं पुनरेनमनुलोमयामोति मंचिन्याभिहितमनेन / माधु कुमार साधु / सुन्दरस्ते मद्धर्मस्थैर्या तिरेकः / मया हि भवतश्चित्तपरोक्षणार्थं सर्वमिदमुपक्रान्तं। ततश्च सुनिश्चितमधुना / यदुत तावकौनं मन / स्थिरतया मेरुशिखरमप्यधरयति / तबेदं मदीयवचनं कुमारेणान्यथा सम्भावनौयं / मयाभिहितम्। आर्य किमत्र वक्तव्यं / अविषयो भवादृशा अन्यथासम्भावनायाः। ततो निर्गतो मत्समौपाद्दर्मुखः / मया चिन्तितं / शठप्रकृतिरेष दुर्मुखः पापात्मा च / तन्त्र विज्ञायते किमयमाचरिष्यति। यतो महताकूतेन प्रथममनेन मन्त्रितं पश्चादतित्वरया कृतमाकारसंवरणम् / अतो निरूपयामस्तावत् / ततः प्रयुक्तो मया प्रणिधिचतुरो नामाप्तदारकः // गतेषु कतिचिद्दिनेषु समागतोऽसौ मत्समीपं / निवेदितमनेन / यथा स्वामिन् तावदितो निर्गतोऽहं विनयेनाराध्य दुर्मुखं संपन्नस्तस्याङ्गरक्षकः / ततो दुर्मुखेण रहसि समाय ममस्तस्थानेभ्यः प्रधानश्रावकानिदमभिहितं / यदुत अरे एष कनकशेखरकुमारोऽलोकधर्मग्रहग्टहीतो राज्यं विनाशयति लनः / ततो युग्मभ्यमितः प्रभृति यदेष किंचित् प्रयच्छति यश्च राजभागमद्भूतो भवतां करस्तवयमपि प्रच्छन्नमेव मम समर्पणणेयं न च कुमाराय निवेदनीयमितरथा नास्ति भवतां जौवितमिति। श्रावकैरुक्तं। यदाज्ञापयति महामात्यः। ततो निर्गतास्ते / मयाभिहितं तास्ते। भद्र अपि ज्ञातमेतत्तातेन। चतुरः प्राह / ज्ञातं / मयोक्तं। कुतः सकाशात्। चतुरेणोतं। तत एव दुर्मुखात्। मया For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 351 भिहितं। ततः किमाचरितं तातेन / चतुरः प्राह / न किंचित् केवलं कृता गजनिमौलिका / ततो मया चिन्तितं / यद्येष दुर्मुखः केवल एव तातस्थानभिप्रेतमिदमकरिष्यत्ततोऽहमदर्शयिष्यमस्य यदौदृशस्या विनयस्य फलं / यदा तु परकृतमनुमतमप्रतिषिद्धमिति न्याथात् तातेनापौदं गजनिमौलिकां कुर्वताभिमतमेव तदा किमत्र कुर्मः। यतो दुष्पतिकारौ मातापितरावित्याख्यातं भगवता। ततो न युक्तं तावत्तातेन सह विग्रहकरणं नापौदमौदृशमिदानौं द्रष्टुं शक्यं / तस्मादितोऽपक्रमणमेव श्रेयः। इत्यालोय कस्यचिदप्यकथयित्वा प्राप्तमित्रवृन्देन महापक्रान्तोऽहं समागतोऽबेति / तदेष मे जनकेनापमानो विहित इति // मयाभिहितं / कुमारसुन्दरमनुष्ठितं भवता / न युक्त एवाभिमानशालिनां पुरुषाणां मानम्नानिकारिभिः महकत्र निवासः / तथाहि / भास्करस्तावदेवास्ते गगने तेजसा निधिः / निर्धूय तिमिरं यावत् कुरुते म जनोत्सवम् / / यदा तु लक्षयत्येष तममोऽपि महोदयम् / तदापरममुद्रादौ गत्वा कालं प्रतीक्षते // ततस्तुष्टो मद्दचनेन कनकशेखरः / तदेवं परस्परप्रीत्या गतं दशराचं। अत्रालरे मद्भवने तिष्ठतोरावयोः समागतो वेदकः / प्रणतिपूर्वकमभिहितमनेन / यदुत कुमारौ देवः समाजापयति। शीघ्रमागन्तव्यं कुमाराभ्यामिति। ततो यदाज्ञापयति तात / इत्यभिधायावां गतौ तातसमीपे यावदतिरभसवशेन तातास्थाना For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 352 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / दुत्थाय गलदानन्दोदकप्रवाहलावितनयनयुगलास्त्रयः प्रधानपुरुषाः समागत्य सपरिकराः पतिताः कनकशेखरचरणयोः। ततः साकूतमये कैते सुमतिवराङ्ग केशरिण इति वदता सस्नेहमूर्धी कृत्य समालिङ्गिताः कनकशेखरेण / मयोक्तं / कुमार क एते। कनकशेखरः प्राह। मदीयजनकमहत्तमा इति। ततः कृतप्रतिपत्तयः ममुपविष्टाः सर्वेऽपि ताताम्यणे / तातः कनकशेखरं प्रत्याह। कुमार एतैस्वदौयजनकामहत्तमैराख्यातं / यथा यतः प्रति कुमारोऽनाख्याय निर्गतो गेहात् तत आरभ्य राजा कनकचूडः परिजनमकाशान दृश्यते कापि कुमार इत्याकर्ण्य सहसा वज्राहत व पिष्ट दूव परायत्त दूव मत्त व मूर्छित इव न किंचिच्चेतयते स्म। देवौ च चूतमञ्जरी प्रविष्टा महामोहं मृतेव स्थिता मुहूर्त / कृतं परिजनेन द्वयोरपि व्यञ्चनचन्दनादिभिराश्वासनं। ततो हा पुत्रक क्व गतोऽमोति प्रलपितुं प्रवृत्तौ तौ देवौनृपौ। ततः परिजनस्यापि समुलमितो महानाक्रन्दरवः मिलितं मन्त्रिमण्डलं। अभिहितमनेन। देव नायमत्रीपायः। ततो मुञ्च विषादं अवलम्बस्व धैर्य क्रियतां यत्नः कुमारान्वेषणे / राजा न तद्वचनं वेदयते स्म / ततश्चतुरेण चिन्तितं / शोकातिरेकेण त्यक्ष्यति देवः प्राणान् / ततो नाधुना ममोपेक्षा कर्तुं युका / ततः पादयोर्निपत्य तेन राज्ञे निवेदितं मकारणं तदीयमपक्रमणं / ततो जीवति कुमार इति कृत्वा प्रत्यागता राज्ञश्चेतना / पृष्टश्चतुरः क्व पुनर्गत: कुमार इति / चतुरेणाभिहितं / न मे किंचिदाख्यातं कुमारेणापक्रमणकारणमिति / चतुरतया मया लक्षितं केवलमेतावद्वितर्कयामि / यद्त जयस्थले For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 353 पिवृष्वसुः ममौपे गतो भविष्यति / वल्लभा हि नन्दा कुमारस्य वत्सलः पद्मराजः / कुमारपरिचयादेवावगतमिदं मया / दूतो निर्गतस्य तत्रैव चित्तनिर्वाणं नान्यत्रेति // ततः माधु चतुर विज्ञातं माध्विति वदता दापितं चतुराय पारितोषिक महादानं राजा / अयमस्थानर्थव्यतिकरस्य हेतुरिति कृत्वा निर्वासितः स्वविषयात्मगोत्रो दुर्मुखः / प्रतिज्ञातं च देवौनृपाभ्यां / यथा यावत् कुमारवदनं मानावावलोकितं तावन्नवावाभ्यामाहारशरीरसंस्कारादिकं करणीयमिति / दूतश्च तत्रैव दिने प्रविष्टो दूतः / तेन च विहितोचितप्रतिपत्तिना निवेदितं कनकचूडाय। यथा देव अस्ति विशाला नाम नगरौ / तस्यां नन्दनो नाम राजा / तस्य च हे भार्य प्रभावती पद्मावती च। तयोश्च यथाक्रमं वे दुहितरौ विमलानना रत्नवतौ च / दूतश्च कनकपुरे प्रभावत्याः सहोदरोऽस्ति प्रभाकरी नाम राजा। तस्य बन्धसुन्दरी नाम भार्या / तस्याश्च विभाकराभिधानस्तनयः। तयोश्च प्रभाकरपद्मावत्योः पूर्वमजातयोरेव विभाकरविमलाननयोः परस्परमभूज्यल्पः। यदुतावयोर्यस्य कस्यचिद्दुहिता जायेत तेनेतरसम्बन्धिने सुताय मा देयेति / अतः पूर्वप्रतिपन्ना मा विमलानना विभाकरस्य / अन्यदा गुणसंभारगर्भनिर्भरं वन्दिभिरुद्धृष्यमाणं श्रुतं तया कनकशेखरकुमारनामकं / ततस्तदाकण्य मा विमलानना कुमारे विजम्भितरागातिरेका निजयथपरिभ्रष्टव हरिणिका सहचर वियुव चक्रवाकिका नाकनिर्वामितेव देवाङ्गनिका मानसमरःसमुत्कण्ठितेव कलहंसिका ग्लहवि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 354 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। रहितेव तकरौ शून्यहृदयतया न वादयति वीणां न विलमति कन्दुकलौलया न विधत्ते पत्रच्छेदादिकं नाभ्यस्थति चित्रादिकलाः न कुरुते शरौरस्थितिं न ददाति कस्यचिद् लापं न लक्ष्यति रात्रिन्दिनं केवलं निष्यन्दमन्दनिश्चललोचना परमयोगिनौव निरालम्बनं किमपि ध्यायन्तौ तिष्ठति / ततः पर्याकुलौभूतः परिकरो न जानौते तादृशविकारस्य कारणं / ततोऽतिवल्लभत्वेन मदा मन्निहितया लक्षितोऽमौ रत्नवत्या विकारहेतुः। यतश्चिन्तितं तया / अये कनकशेखरकुमारनामग्रहणदनन्तरमिदमवस्थान्तरमस्याः संपन्नमतो निश्चितमेतत्तेनैव प्रियभगिन्या मनश्चीरितं / तदिदमत्र प्राप्तकालं / निवेदयाम्येवं स्थितमेव ताताय / येन तात एव तस्य प्रियभगिनौचित्तचौरस्य निग्रहं करोतौति विचिन्त्य निवेदितं तया मवें नन्दननरपतये / चिन्तितमनेन / दत्तैवेयं जनन्या विभाकराय तथापि नान्यथाधुनास्या जीवितमिति कृत्वा प्रेषयामि तस्यैव कनकशेखरस्य स्वयंवरामेनां / यतो नेदृशावस्थायामस्यां युक्तः कालविलम्बः / पश्चादेव विभाकरं संभालथिध्यामः / ततो वत्से धौरा भव मुञ्च विषादं गच्छ कुशावर्त्त कनकशेखरायेति मधुरवचनैरालप्य देवेन सह परिजनेन प्रस्थापिता तत्र विमलानना / रत्नवत्यापि विज्ञापितो दैवः / यथा तात नाहमनया रहिता क्षणमपि जीवितमुत्महे / ततो मयापि यातव्यमित्यनुजानौत यूयं / केवलं न मम कनकशेखरो भर्ता / यतः सापत्न्यं नारीणां महदेव स्नेहत्रोटकारणं / ततो मया तदिष्टस्य वयस्यस्य कस्यचिद्भार्यया भाव्यमिति / देवेनाभिहितं / वत्मे यत्ते For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / रोचते तदेव ममाचर। न खल वत्सा स्वयमेवानुचितमाचरिष्यति। ततो महाप्रमाद इति वदन्तौ प्रवृत्ता रत्नवतौ / ततोऽनवरतप्रयाणकः प्राप्ते ते विमलाननारत्नवत्यौ अद्यास्मिन्नगरे स्थिते बहिरुद्याने / प्रहितोऽहममुमर्थ विज्ञापयितुं देवपादमूलमेतदाकी देवः प्रमाणमिति / ततस्तदूतवचनमाकर्ण्य कनकचूडराजा हर्षविषादपूरितहृदयः कन्यावासकदानार्थं व्यापार्य शूरसेनं बलाधिकृतमस्मान् सुमतिवराङ्ग केसरिण: प्रधानमहत्तमान् प्रत्याह / पश्यताहो परमानन्दकारणमपोदमस्माकं नन्दनराजदुहित्रोरागमनं कुमारविरहानल मर्पिष्प्रक्षेपकत्यतया क्षते क्षारनिषेकतुल्यं प्रतिभासते / तच्छत शौघ्रं ययं जयस्थले / निश्चितमेतत्तत्रैवास्ते कुमारः / निवेदयत पद्मनृपतये मदीयावस्थां कन्यागमनं च / कारणद्वयमवगम्य आहेव्यत्येव कुमारं पद्मराजः / अन्यच्च नन्दिवर्धनकुमारोऽपि पद्मराजमनुज्ञाप्य युग्माभिरानेयो यतः स एवोचितो वरो रत्नवत्याः / ततोऽस्माभिरभिहितं / यदाज्ञापयति देवः / ततश्चेहामुना प्रयोजनेन ममागता वयमिति // तदिदं सर्वमस्मभ्यमेतराख्यातं / तदेवं स्थिते यद्यपि युभद्विरहकातरहृदयतया नेदमस्माभिरभिधातुं शक्यं तथापि महाप्रयोजनमित्याकलय्या भिधीयते / यदुत मा कुरुताधना कालविलम्बं गच्छतातित्वरया कुशावर्त्त जनयतं दावपि युवां कनकचूडराजचित्तानन्दमिति। ततः शोभनमाज्ञापितं तातेन भविष्यत्येव कनकशेखरेण सह ममावियोग इति चिन्तयता मया कनकशेखरेण चाभिहितं / यदाज्ञापयति For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तातः। ततस्तोषनिर्भरेणं तातेन तस्मिन्नेव क्षणे मन्नौकारितं प्रस्थानोचितं चतुरङ्ग बलं / नियुका महत्तमाः / कारिताशेषमाङ्गलिककर्तव्यौ प्रस्थापितावावामिति / प्रवृत्तोऽन्तरङ्गपरिजनमध्ये मया महाभिव्यक्तरूपो वैश्वानरः / पुण्योदयोऽपि प्रवृत्त एव केवलं प्रच्छन्नरूपतया / ततो दत्तं प्रयाणक लवितः कियानपि मार्गः। दतश्च निवासस्थानं दृष्टलोकानां उत्पत्तिभूमिरनर्थवेता लानां द्वारभूतं नरकस्य कारणं भुवनमन्तापस्य तस्करपलिप्रायमस्ति रौद्रचितं नाम नगरम् / तथाहि / उत्कर्तनशिरश्छेदयन्त्रपौडनमारणैः / ये भावाः सत्त्वसङ्घस्य घोराः मन्नापकारिणः // ते लोकास्तत्र वास्तव्या रौद्रचित्तपुरे सदा / तस्मात्तढुष्टलोकानां निवासस्थानमुच्यते // कलहः प्रीतिविच्छेदस्तथा वैरपरम्परा। पिटमासुतादौनां मारणे निरपेक्षता // ये चान्येऽनर्थवेताला लोके मम्भावनातिगाः / ते रौद्रचित्ते सर्वेऽपि संपद्यन्ते न संशयः // उत्पत्तिभूमिस्तत्तेषां पत्तनं तेन गीयते / यथा च नरकद्वारं तथेदानौं निगद्यते // ये मत्त्वा नरकं यान्ति स्वपापभरपूरिताः / ते तत्र प्रथमं तावत्प्रविशन्ति पुराधमे // अतः प्रवेशमार्गत्वात्तस्य निर्मलमानमः। For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतौयः प्रस्तावः / 357 गोतं तबरकरारं रौद्रचित्तपुरं जनेः // ये जौवाः क्लिष्टकर्माणो वास्तव्यास्तत्र पत्तेन / ते स्वयं सततं तौबदुःखग्रम्तशरीरकाः // तथा परेषां जन्तूनां दःखमवातकारिणः / अतो भुवनमन्तापकारणं तदुदाहृतम् // किं वात्र बहुनोतन नास्ति प्रायेण तादृशम् / रौद्रचित्तपुरं यादृग्मुवनेऽपि पुराधमम् // तत्र रौद्रचित्तनगरे मशहपरश्चौराणां परमशत्रु: शिष्टलोकानां विषम गोलः प्रकृत्या विलोपको नौतिमार्गस्य चरटप्रायो दुष्टाभिमन्धिर्नाम राजा। तथा हि। मानोग्रकोपाहङ्कारशाव्यकामादितस्कराः / दष्टाभिमन्धिं सर्वेऽपि नरेन्द्रं पर्युपामते // अतोऽन्तरङ्ग चौराणां तेषां पोषणतत्परः / म राजा गौयते लोकैश्चौरसङ्ग्रहणे रतः // सत्यशौचतपोज्ञानसंयमप्रशमादयः / ये चापरे सदाचाराः शिष्टलोका यशखिनः // दुष्टाभिसन्धिः सर्वेषां तेषामुन्मूलने रतः / अतोऽसौ परमः शत्रुः शिष्टानामिति गीयते // बहौभिर्वर्षकोटौभिर्धर्मध्यानं यदर्जितम् / लोकेन तहहत्येष क्षणमात्रेण दारुणः // न चास्य तोषणोपायो मुग्धलोकैर्विभाव्यते / श्रतो विषमभौलोऽसौ प्रकृत्या प्रतिपाद्यते // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 358 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / सर्वाः मन्त्रौतयस्तावत्प्रवर्तन्ते जगत्त्रये / दुष्टाभिसन्धिों यावत्तामां विघटको भवेत् // प्रादुर्भावे पुनस्तम्य क धर्मः क्व च नौतयः / तेनामौ नौतिमार्गस्य धोरै!तो विलोपकः // तस्य च दुष्टाभिसन्धिनरेन्द्रस्यानभिज्ञा परवेदनानां कुशला पापमार्ग वत्सला चरटबन्दस्यानुरकचित्ता निजे भर्तरि पूतनाकारा निकरुणता नाम महादेवी / तथा हि। दुष्टाभिमन्धिना तेन नानाकारैः कदर्थनैः / चिरं कदर्थितं दीनं लोकमालोक्य मस्मिता // मा निष्करुणता देवौ दुःखं गाढतरं ततः / जनयेत्तस्य नो वेत्ति तेन मा परवेदनाम् // नेत्रोत्पाटशिरच्छेदनासिकाकर्णकर्तनम् / उत्कर्तनं त्वचोऽङ्गस्य खदिरस्येव कुट्टनम् // ये चान्ये जन्तुपौडायाः प्रकारास्तेषु कौशलात् / मा निष्करुणता देवी पापमार्ग विचक्षणा // ये ये भुवनमन्तापकारिणो दुष्टवष्टकाः / रौद्रचित्तपुरे लोकाः मन्ति द्रोहादयः खलाः // ते तेऽतिवल्लभास्तस्यास्ते ते सर्वखनायकाः / श्रतश्चरटवृन्दस्य देवी मात्यन्तवल्लभा // दृष्टाभिसन्धिराजेन्द्रं तं भर्तारं दिवानिशम् / मन्यते परमात्मानं सा शुश्रूषापरायणा // न मुञ्चति च तद्देहं संवाहयति तबलम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। अनुरका निजे पत्यौ मा देवौ तेन वर्ण्यते // तम्याच निष्करूणताया महादेव्या अभिवृद्धि हेतस्तस्य रौद्रचित्तपुरस्य वल्लभा तन्निवासिजनानां विनौता जननौजनकयोरतिभौषणा स्वरूपेण माक्षात्कालकूटमम्युटघटितेव हिंसा नाम दुहिता / तथा हि। यतः प्रभृति मा जाता कन्यका राजमन्दिरे। तत प्रारभ्य तत्सर्वं पुरं ममभिवर्धते // राजा पुष्टतरीभूतो देवौ स्थूलत्वमागता / अतोऽभिवृद्धिहेतु: मा पत्तनस्य सुकन्यका // ईप्रदेषमात्मर्यचण्डत्वाप्रशमादयः / प्रधाना ये जनास्तत्र पुरे विख्यातकीर्तयः // तेषामानन्दजननी सा हिंमा प्रविलोकिता। स्थिता परापरोत्मङ्ग संचरन्ती करात्करे // चुम्ब्यमाना जनेनोचैर्वम्भमौति निजेच्छया / मा तन्निवामिलोकस्य तेनोकात्यन्तवल्लभा // दुष्टाभिसन्धिनृपतेर्वचनं नातिवर्तते / मा निष्करुणतादेव्या वचनेन प्रवर्तते // शुश्रूषातत्परा नित्यं तयोहिंमा सुपुत्रिका। जननौजनकयोस्तेन मा विनौतेति गीयते // भौषणा सा स्वरूपेण यच्चाभिहितमञ्जसा / तदिदानौं मया सम्यकथ्यमानं निबोधत // अपि मा नाममात्रेण त्रासकम्पविधायिका। For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपच्चा कथा / मर्वेषामेव जन्तूनां किं पुनः प्रविलोकिता // माधोमुखेन शिरमा नरकं नयति देहिनः / मा संसारमहावर्तगर्तसंपातकारिका // मा मूलं सर्वपापानां मा धर्मध्वंसकारिणौ / मा हेतुश्चित्ततापानां सा शास्त्रेषु विगर्हिता // किंचेह बहुनोकेन नास्त्येव ननु तादृशौ / लोकेऽपि दारुणाकारा मा हिंसा हन्त यादृशौ // इतश्चास्ति तामसचित्तं नाम नगरं / तत्र महामोहतनयो देषगजेन्द्रो नाम नरेन्द्रः प्रतिवसति / दूतश्च या प्रागाख्याता वैश्वानरस्य जननौ मम धात्री अविवेकिता नाम ब्राह्मणौ मा तस्य द्वेषगजेन्द्रस्य भार्या भवति / मा च केचित्प्रयोजनेन ततस्तामसचित्तानगरागर्भस्थिते मति वैश्वानरे तत्र रौद्रचित्तपुरे समागतामौत् / यादृक् तत्ताममचित्तं नगरं यादृशोऽमौ द्वेषगजेन्द्रो राजा यादृशौ माविवेकिता यच्च तस्यास्तामसचित्तनगराद्रौद्रचित्तपुरं प्रत्यागमनप्रयोजनमेतत् सर्वमुत्तरत्र कथयिष्यामः। केवलं भनेऽग्टहौतमङ्केते न तदास्य व्यतिकरस्याहं गन्धमपि ज्ञातवान् / दूदानौमेवाम्य भगवतः मदागमम्य प्रसादादिदं समस्तं मम प्रत्यक्षौभूतं / तेन तुभ्यं कथयामि / ततः माविवेकिता तत्र रौद्रचित्तपुरे स्थिता कियन्तमपि कालं / जातो दुष्टाभिमन्धिना मह परिचयः / यतो देषगजेन्द्रप्रतिबद्ध एवासौ दुष्टाभिसन्धिश्चरटनरेन्द्रः ततोऽविवेकितायाः किङ्करभूतो वर्तते / ततः माविवेकिता मां मनुजगतौ ममा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / / 361 गतमवगम्य ममोपरि स्नेहवशेनागत्य ततो रौद्रचित्तपुरात् स्थिता मनिहिता। जातोऽस्था मम जन्मदिने वैश्वानरो वृद्धिं गतः क्रमेण / कथितस्तया तस्मै सर्वोऽप्यात्मीयः स्वजनवर्गः / ततस्तस्य वैश्वानरस्य तत्र मार्ग मया मह गच्छतः समुत्पन्नवम्भता बुद्धिः / यदुत नयाम्येनं नन्दिवर्धनकुमारं रौद्रचित्तपुरे। दापयाम्यस्मै दुष्टाभिसन्धिना तां हिंमाकन्यकां / ततस्तया परिणौतया ममैष सर्वप्रयोजनेषु गाढतरं नियभिचारो भविष्यति / ततो विचिन्त्य तेनैवमभिहितोऽहं तत्र गमनाथ / मयोकं / कनकशेखरादयोऽपि गच्छन्तु। वैश्वानरः प्राह। कुमार नामोषां तत्र गमनप्रसरो यतोऽन्तरङ्गं तद्रौद्रचित्तं नगरं / ततो विना परिजनेन मत्सहाय एव कुमारस्तत्र गन्तुमर्हति। ततस्तदाकाहमलङ्घनौयतया तवचनम्य गुरुतया तत्र स्नेहभावस्य अज्ञानोपहततया चित्तस्यानाकलय्य तस्य परमशत्रुतां अपर्यालोच्यात्महिताहितं अदृष्ट्वाप्यागामिनोमनर्थपरंपरां गतो वैश्वानरेण मह रौद्रचित्तपुरे। दृष्टो दुष्टाभिसन्धिः / दापिता वैश्वानरेण मह्यं तेन हिंमा। परिणौता क्रमेण / कृतमुचितकरणौयं // ततः प्रहितो दुष्टाभिसन्धिना महितो हिंमावैश्वानराभ्यां मिलितोऽहं कनकशेखरादिबले। गच्छता मार्ग प्रारब्धः सहर्षण वैश्वानरेण सह जल्पः। यदुत कुमार कृतकृत्योऽहमिदानौं। मयोक्त। कथम् / स प्राह / यदेषा परिणौता कुमारेण हिमा। केवलमेतावदधुनाहं प्रार्थये यद्येषा कुमारस्य मततमनुरका भवति। मयाभिहितं। कः पुनरेवंभवनेऽस्या उपायो भविष्यति / वैश्वानरः 46 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / ततोऽभिहितमनेन। आर्य त्वमेवात्र सर्वाधिकारी क्षमः सर्वेषामुचितकर्तव्यानां। तत्किमेतेरपरमुचितं कर्तव्यं / विमलमतिराह। देव यदेवपादैः कर्तुमारब्धं तदस्माकमेतेषां च सर्वेषामस्य कालस्योचितं कर्तव्यं नापरं / यतः समान एवायं न्यायः सर्वेषां वर्तते / निवेदितान्येव हि भगवता सर्वेषामेव जौवानामेकैकस्य त्रीणि त्रीणि कुटुम्ब कानि। तस्मादेषामप्यस्य कालस्येदमेवोचितं / यदुत प्रथमकुटुम्बकं पोप्यते द्वितीयं हन्यते बतौयं परित्यज्यत इति। नृपतिनाभिहितं। आर्यातिसुन्दरमिदं यद्येतेऽपि प्रतिपद्यन्ते। विमलमतिराह। देव पथ्यमिदमत्यन्तमेतेषां / किमत्र प्रतिपत्तव्यं // ततस्तदाकर्ण्य तत्र परिषदि जौवा बलादेषोऽस्मान् प्रव्राजयतीति भावनया भयोत्कर्षण कम्पिताः कातराः प्रविष्टा गुरुकर्मकाः प्रपलायिता नीचा विकलौभूता विषयटनवः प्रखिन्नाः कुटुम्बा दिप्रतिबद्धबुद्धयः प्रह्लादिता लघुकर्मका अभ्यपगतवन्तस्तद्वचनं धौरचित्ता इति / ततस्तैर्लघुकर्मधौरचित्रभिहितं / यदाज्ञाययति देवस्तदेव क्रियते। कः सकर्णकः सत्यां समग्रमामय्यामेवंविधमार्थावण्यतीति। तदाकर्ण्य हृष्टो राजा / गताः सर्वेऽपि अभ्यर्णवर्तिनि प्रमोदवर्धने चैत्यभवने। स्नापितानि भुवननाथस्य भगवतो विम्बानि / विरचिता मनोहारिणी पूजा। प्रवतितानि महादानानि कारितं बन्धनमोचनादिकं समस्तमुचितकरणीयं / समाहूतः श्रीधराभिधानो नगरानिजतनयः / दत्तं तस्मै राज्यं नरपतिना। प्रत्राजिताः प्रवचनोकेन विधिना सर्वेऽप्युपस्थितलोका भगवता। विहिता भवप्रपञ्चनिर्वेदजननी For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 362 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्राह / मापराधं निरपराधं वा प्राणिनं मारयता कुमारेण न मनागपि धनायितव्यं श्रयमस्थाः / खल्वनुरकोभवनोपायः / मयाभिहितं। किमनयात्यन्तमनुरक्रया भविष्यति / वैश्वानरः प्राह / कुमार मत्तोऽपि महाप्रभावेयं / यतो मयाधिष्ठितः पुरुषोऽतितेजस्वितया परेषां केवलं चासमात्र जनयति अनया पुनहिंसयात्यन्तमनुरक्तयालिङ्गितमूर्तिमहाप्रभावतया दर्शनमात्रादेव जौवितमपि नाशयति / तस्मादभिमुखीकर्तव्येयं कुमारेण / मयाभिहितमेवं करोमि। वैश्वानरेणोक्र। महाप्रसाद इति // ततो मार्गे गच्छन्नहं शशमूकरशरभशम्बरमारङ्गादौनामाटव्यजीवानां शतसहस्राणि मारयामि स्म। ततः प्रहष्टा हिंसा संपन्ना मय्यनुकूला / ततः कम्पन्ते मद्दर्शनेन जौवाः मुञ्चन्ति प्राणानपि केचित् / ततः संजातो मे वैश्वानरकथितहिंसाप्रभावे प्रत्ययः / प्राप्ता वयं कनकचूडविषयाभ्यर्ण। तत्रास्ति विषमकूटो नाम पर्वतः / तस्मिंश्च कनकचूडमण्डलोपद्रवकारिणोऽम्बरौषनामानश्चरटाः प्रतिवमन्ति। ते च कदर्थिताः पूर्वं बहुशः कनकचूडेन / ततः कनकशेखरमागच्छन्तमवगम्य निरुद्धस्तैर्मार्गः। प्रत्यासन्नौभूतमस्मदलं / ततः कलकलं कुर्वन्तः ममुत्थितावरटाः / समालनमायोधनं / ततश्च निपतितशरजालभिन्नेभकुम्भस्थलाभोगनिर्गच्छदच्छाच्छमुक्काफलस्तोमसंपूरिता शेषपौठभूदेशं क्षणात् / तथा विदलितभटमस्तकासंख्यराजीववृन्दानुकारेण रतौधनौरेण दण्डास्त्रमच्छत्रसंघातहंसेन तुल्यं तडागेन संजातमुच्चैर्महायुद्धमस्माकमिति। For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हतीयः प्रस्तावः / ततः ममुदीर्णतया चरटवर्गस्य संजाता: परिभग्नप्रायाः कनकखरादयः / अत्रान्तरे प्रवरसेनाभिधानेन चरटनायकेन माधैं ममापतितं ममायोधनमिति। नतः संजितोऽहं वैश्वानरेण / भक्षितं मया तत्क्रूरचित्ताभिधानं वटकं। ततः प्रवृद्धो मेऽन्तस्तापः। संजातो भृकुटितरङ्गभङ्गुरो ललाटपट्टः। ममाचितं खेदविन्दुनिकरण शरीरं। स च प्रवरसेनोऽत्यन्तकुशलो धनुर्वेदे नियंढमाहमः करवालेऽतिनिपुणः सर्वास्त्रप्रयोगेषु गर्वोद्भुरो विद्याबलेन प्रबलवौर्या देवतानुग्रहेण / तथापि सन्निहितपुण्योदयमाहात्म्यान्मे न लगन्ति स्म तदीयशिलीमुखाः न प्रभवन्ति स्म तदीयशस्त्राणि न वहन्ति म्म तस्य विद्याः अकिञ्चित्करीभृता देवता। मम तु चेतमि परिस्फरितं अहो प्रियमित्रवटकस्य प्रभावातिशयो यदम्य तेजमा ममायं रिपुर्दृष्टिमपि धारयितुं न पारयति। ततो मया तथा वैश्वानरवटकप्रभावाधिष्ठितेन स प्रवरसेनश्चरटनायको विच्छिन्न कार्मुकः प्रतिहतोषान्यशस्वः सन् ग्टहीतचमत्कुर्वद्भाखरकरवालः स्पन्दनादवतीर्य स्थितो भूतले प्रस्थितो मदभिमुखं / अत्रान्तरे पार्श्ववर्तिन्या विलोकितोऽहं हिंमया / जातो गाढतरं रौद्रपरिणमः मुक्तो मया कर्णान्तमाकृष्य निशितोऽर्धचन्द्रः / छिन्नं तेन तस्यागच्छतो मस्तकं। ममुन्नमितोऽस्मइले कलकलः / निपातिता ममोपरि देवैः कुसुमवृष्टिः। वृष्टं सुगन्धोदकं / ममाहता दुन्दुभयः / ममुद्दोषितो जयजयशब्दः। ततो हतनायकत्वादिषणं चरटबलं / अवलम्बितप्रहरणं गतं मे शरणं प्रतिपवं मया। निवृत्तमायोधनं संजातः मन्धिः। प्रतिपन्नः सर्वचरटर्मम भृत्यभावः। For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। मया चिन्तितं। अहो हिंसाया माहात्म्यप्रकर्षः। यदनयापि विलोकितस्य ममैतावानुन्नतिविशेषः संपन्न इति / सम्मानितास्तेऽपि कनकशेखरादिभिः / दत्तं प्रयाणकं / संमाता वयं कुशावर्तपुरे। ममानन्दितः कनकशेखरकुमारागमनेन कनकचूडराजस्तुष्टो मद्दर्शनेन / ततो विधापितस्तेन महोत्सवः पूजितः प्रणयिवर्गः। ततो गणितं विमलाननारत्नवत्योर्विवाहदिनं ममागतं पर्यायेण / कृतमुचितकरणौयं / ततो दौयमानैर्महादानेर्विधीयमान नजनसम्मानर्बहुविधकुलाचारैः संपाद्यमानैरभ्यहितजनोपचारैर्गानवादनपानखादनविमदैन निर्भरीभूते समस्ते कुशावर्तपुरे परिणौता कनकशेखरेण विमलानना मया रत्नवतीति। ततो विहितेषचितकर्तव्येषु निवृत्ते विवाहमहानन्दे गते दिनत्रयेऽदृष्टपूर्वतया कुशावर्त्तस्यातिरमणीयतया तत्प्रदेशानां कुतूहलपरतया यौवनस्य समुत्पन्नतयास्मासु विश्रम्भभावस्य ग्टहीत्वाम्मदनुज्ञां नगरावलोकनाय निर्गते भ्रमणिकया सपरिकरे विमलाननारत्नवत्यौ। ततोऽनेकाश्चर्यदर्शनेनानन्दपूरितहृदये संप्राप्ते ते चूतच्त्तकं नामोद्यानं प्रवृत्ते क्रौडितुम् / वयं तु कनकचूडराजास्याने तदा तिष्ठामः / यावदकाण्ड एव प्रवृत्त: कोलाहल: पूछतं दामचेटौभिः किमेतदिति संभ्रान्तं उत्थितमास्थानं। हते विमलाननारत्नवत्यौ केनचिदिति प्रादुर्भूतः प्रवादः। ततः सन्नद्धमसाबलं लग्नं तदनुमार्गण। ततो मार्गखिन्नतया परमैन्यस्य मोत्माहतयास्मदनौकस्य स्तोकभूभाग एव समवष्टधा परचमूरस्मत्यताकिन्या। श्रुतमस्माभिर्विभाकरनामकं वन्दिभिरुद्धथ्यमाणम् / ततः सर्वै रेव चिन्तितमस्माभिः / अये म एष कनक For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 365 पुरनिवासी प्रभाकरबन्धुसुन्द-स्तनयो विभाकरो यस्मै प्रभावत्या दत्ता विमलानना पूर्वमासौदिति निवेदितं दूतेन। ततश्चैषोऽस्मान् परिभूय हरत्येते वध्वौ दुष्टात्मेति भावयतो मे विहिता वैश्वानरेण संज्ञा। ततो भक्षितं मया क्रूरचित्ताभिधानं वटकं / संजातो भासुरः परिणामः / ततो मयाभिहितं / अरेरे पुरुषाधम विभाकर परदारहरणतस्कर क्व यासि पुरुषो भव पुरुषो भवेति। ततस्तदाकर्ण्य गङ्गाप्रवाह व त्रिभिः स्रोतोमुखैर्वलितमभिमुखं परवलं / प्राविर्भूतास्तदधिष्ठायकास्त्रय एव नायकाः। ततो मया कनकचूडराजेन कनकशेखरेण च त्रिभिरपि योद्धकामैर्यथासंमुखं वृत्तास्ते। इतश्च योऽसौ कन्यागमनसूचनार्थं कनकचूडराजसमोपे समागतः पूर्वमासौबन्दराजदूतः स तत्रावसरे मत्सकाशे वर्तते / ततोऽभिहितोऽमौ मया। अरे विकट जानौषे त्वं कतमाः खल्वेते त्रयो नायकाः / विकटः प्राह / देव सुष्टु जानामि / य एष वामपार्श्वनीकस्य मम्मुखो भवतः एष कलिङ्गाधिपतिः समरसेनो नाम राजा। एतहलेनैव हि प्रारब्धमिदमनेन विभाकरेण / यतो महाबलतया विभाकरपितुः प्रभाकरस्यायं स्वामिभूतो वर्तते। यः पुनरेष मध्यममन्ये वर्ततेऽभिमुखः कनकचूडनरपतेरयं विभाकरस्यैव मातलो वङ्गाधिपतिर्दुमो नाम राजा / यस्लेष दक्षिणभागवर्तिनि बले नायकोऽभिमुखः कनकशेखरस्य मोऽयं विभाकर एव। यावदेवं कथयति विकटः तावत्ममाखनमायोधनं / तच्च कीदृशम् / शरजालतिरस्कृतदृष्टिपथं पथरोधसमाकुलतौबभटम् / भटकोटिविपाटितकुम्भतटं तटविभ्रमहस्तिशरौरचितम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 366 उपमितिभवप्रपश्चा कथा / रचितप्रथितोरुमुहन्तिघटं घटनागतभोरुकृतार्तरवम् / रवपूरितभूधरदिग्विवर वरहेतिनिवारणखिन्ननृपम् // नृपभिन्नमदोद्धरवैरिगणं गए मिद्धनभश्चरघुष्टजयम् / जयलम्पटयोधशतैश्चटुलं चटुलाश्वमहस्र विमर्दकरम् // करसृष्टशरौघविदीर्णरथं रथभङ्गविवर्द्धितबोलबलम् / बलशालिभटेरितसिंहनदं नदभीषणरतनदीप्रवहम् // ततश्चेदृशे प्रवृत्ते महारणे दत्तः परैः कृतभीषणनादः समरभरः / भनमम्मदलं / समुलमितः परबले कलकलः। केवलं न चलिता वयं पदमपि पराभूखं। त्रयोऽपि नायकाः समुत्कटतया निकटोभूताः परे। अचान्तरे पुनः मंज्ञितोऽहं वैश्वानरेण / भक्षितं मया करचित्ताभिधानं वटकं। जातो मे भासुरतरः परिणामः / ततः माक्षेपमाइतो मया समरसेनो वलितोऽसौ ममोपरि मुञ्चन्नम्नवर्ष / केवलं सनिहिततया पुण्योदयस्य न प्रभवन्ति स्म तानि मे शास्त्राणि / ततो विलोकितोऽहं हिंसया। जातो मे दारुणतरो भावः / ततः प्रहिता मया परविदारणचतुरा शक्तिः। विदारितः समरसेनो गतः पञ्चत्वं / भग्नं तहलं / वलितोऽहं द्रमाभिमुखं / म चलम एव योद्धं कनकचूडेन / ततो मयाभिहितो। रे किमत्र भवति हन्तव्ये तातेनयामितेन / न खलु गोमायुकेमरिणोरनुरूपमायोधनं। ततस्त्वमारादागच्छेति / ततो वलितो ममाभिमुखं द्रुमनरेन्द्रः / निरौचितोऽहं हिंसया। ततो दूरादेव निपातितमर्धचन्द्रेण मया तस्योत्तमाङ्ग। भग्न तदीयमेन्यं / विहितो मयि सिद्धविद्याधरादिभिर्जयजयशब्दः। दूतश्च कनकशेखरेणापि सहा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / ___ 360 पतितो योद्धं विभाकरः। शरवर्षछेदानन्तरं मुक्तानि तेन कनकशेखरस्थोपरि आग्नेयपन्नगादौन्यस्त्राणि / निवारितानि वारुणगारुडादिभिः प्रतिशस्त्रैः कनकशेखरेण। ततोऽमिलतासहायः ममवतीर्ण: स्यन्दनादिभाकरः। कीदृशं रथस्थस्य भूमिस्थेन मह युद्धमिति मत्वा कनकशेखरोऽपि स्थितो भूतले / ततो दशितानेककरणविन्यासमभिवांछितमर्मप्रहारं प्रतिप्रहारवञ्चनामारं संजातं दयोरपि वृहती वेलां वलं करवास्लयुद्धम् / ततः ममाहत्य स्कन्धदेशे पातितः कनकशेखरेण विभाकरो भूतले। गतो मुछी / ममुलमितः कनकशेखरबले हर्षकलकलः। ततो निवार्य तं वायुदानमलिलाभ्युक्षण दिभिराश्वासितो विभाकरः कनकशेखरेण अभिहितश्च / साधु भो नरेन्द्रतनय साधु न मुक्तो भवता पुरुषकारः नाङ्गोकृतो दौनभावः ममुज्चालिता पूर्वपुरुषस्थितिः लेखितमात्मीयं शशधरे नामकं / तदुत्थाय पुनर्योद्भुमर्हति राजसूनुः। ततोऽहो अस्य महानुभावता अहो गम्भीरता अहो पुरुषातिरेकः अहो वचनातिरेकः इति चिन्तयता विभाकरेणाभिहितं। आर्य अलमिदानौं युद्धेन / निर्जितोऽहं भवता न केवलं खड्गन किं तर्हि चरितेनापि। ततः परमबन्धुवत् स्वयं निविमितो विभाकरः स्वकीयस्यन्दने कनकशेखरेण समाह्लादितो मधुरवचनैः / उपसंहतमायोधनं / गतं पदातिभावं सर्वमपि परसैन्यं कनकशेखरस्य / दृष्टे भयातिरेकप्रकम्पमानगात्रयष्टौ विमलाननारत्नवत्यौ ममानन्दिते पेशलवाक्यैः स्थापिते निजभर्तस्यन्दनयोः कनकचूडेन / ततो लब्धजयतया हर्षपरिपूर्णाङ्ग वयं कुशावर्तपुरे प्रवेष्टुमारब्धाः / कथम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / पुरतः कुञ्जरारूढो राजा देवेन्द्रमनिमः / ददद्दानं यथाकामं प्रविष्टो निजमन्दिरे // तत्र प्रमुदिताशेषलोकलोचनवौक्षितः / पुरं प्रविश्य खे गेहे गतः कनकशेखरः // ततो रत्नवतीयुक्रः स्यन्दनस्थः शनैः शनैः / यावगच्छामि तत्राहं निजावामकसम्मुखम् // तावदेते समुल्लापाः प्रवृत्ताः पुरयोषिताम् / जयश्रिया परीताङ्गे मयि मस्पृहचेतसाम् // जगत्यप्रतिमनोऽपि येनामौ विनिपातितः / द्रुमः समरसेनश्च स मोऽयं नन्दिवर्धनः // अहो धैर्यमहो वीर्यमहो दाक्ष्यमहो गुणाः / अस्य नूनं न माऽयं देवोऽयं नन्दिवर्धनः // इयं रत्नवतौ धन्या याम्य भार्या महात्मनः / धन्या वयमपि ह्येष यामां दृष्टिपथं गतः // अथवा सर्वमेवेदमहो धन्यतमं पुरम् / अचिन्यमाहमायेन यदनेन विभूषितम् // ततस्तास्तादृशौर्वाचः श्टण्यतो मम मानसे / महामोहममुत्पनो वितोऽयमभूङ्गशम् // ममायमौदृशो लोके प्रवादोऽत्यन्तदुर्लभः / यः संजातो महानन्दहेतुरुन्नतिकारकः / तस्यास्य कारणं तावदयस्यो हितकारकः / एष वैश्वानरोऽत्येव नात्र सन्देहगोचरः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। तथापि प्रियया नूनं ममेदं हन्त हिंसया / सर्व संपादितं मन्ये कृतमालोकनं यया // अहो प्रभावो हिंसाया अहो मय्यनुरक्तता ! अहो कल्याणकारित्वमहो सर्वगुणाढ्यता // यादृशौ वर्णिता पूर्व वरमित्रेण मे प्रिया / एषा वैश्वानरेणोच्चैस्तादृश्येव न संशयः // तस्याग्रहीतसङ्केते वृत्तान्तस्यात्र कारणम् / स मे पुण्योदयो नाम वयस्यः परमार्थतः // केवलम् / तदा न लक्षयाम्येवमहं पापहतात्मकः / यथा पुण्योदयानातं ममेदं सर्वमञ्जमा // ततश्च / एवं विधविकल्पनाहं वैश्वानरहिमयोः / अत्यन्तमनुरकात्मा न जानामि स्म किंचन // इतश्च हट्टमार्गेण मामकीनरथस्तदा / प्राप्तो राजकुलाभ्यर्ण कृतलोकचमत्कृतिः // श्रथास्ति सुह्मनाथस्य दुहिता जयवर्मणः / प्रिया कनकचूडस्य देवौ मलयमञ्जरी // तस्याश्च भुवनाभोगसर्वसौन्दर्यमन्दिरम् / अस्ति मन्मथमञ्जूषा कन्या कनकमञ्जरी // मा स्यन्दनस्यं गच्छन्तं वातायनकमंस्थिता / मां दृष्ट्वा पञ्च वाणस्य शरगोचरतांगता // 17 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / कुतूहलवशेनाथ वीक्षमाणेन सर्वतः / गवाक्षे लीलया दृष्टिर्मया तत्र निपातिता // ततः कनकमचर्या लोललोचनमौलिता। क्षणं मा मामिका दृष्टिश्चलति स्म न कौलिता // सापि तां मामिकां दृष्टिं पिबन्ती स्तिमितेक्षणा / खेदकम्पनरोमाञ्चैयतकामा क्षणं स्थिता // मम तस्याश्च मानन्दं दृष्टिसंयोगदौपितम् / मदीयमारथिर्भावं तेतलिस्तमलक्षयत् // ततश्चिन्तितं तेतलिना / अये रतिमकरकेतनयोरिवातिसुन्दरोयमनयोरनुरागविशेषः। केवलं महाजनसमक्षमेवमनिमेषाचतया निरीक्षमाणस्यैनां होनसत्त्वतया लाघवमस्य संपत्स्यते / रत्नवत्याश्च कदाचिदी• संपद्येत / ततो न मे युक्तमुपेचितुमिति / ततः काकलौं कृत्वा चोदितस्तेतलिना स्यन्दनः / ततोऽहं लावण्यामृतपशमनामिव कपोलपुलककण्टकलग्नामिव मदनशरशलाकाकोलितामिव तदीयसौभाग्य गुणस्यतामिव कनकमञ्जरोवदनकमलावलोकनात् कथंचिदृष्टिमावष्य तस्यामेव निक्षिप्तहृदयः प्राप्तः क्रमेण निजमन्दिरे। तत्र च शून्यमनस्कोविधाय दिवमोचितं कर्तव्यमारूढो ऽहमुपरितनभूमिकायां / ततः प्रस्थाप्य समस्तं परिजनमेकाको निषणः शय्यायां / तस्यां चापरापरैः कनकमञ्जरौगोचरैर्वितर्ककल्लोलैर्विधरितचेतोवृत्तिर्न जानामि स्माहं / यदुत किमागतोऽस्मि / किं गतोऽस्मि / किं तत्रैव स्थितोऽस्मि / किमेककोऽस्मि / किं परिजनतोऽस्मि / किं सुप्तोऽस्मि किं वा जागर्मि। किं रोदिमि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 301 किं वा न रोदिमि / किं दुःखमिदं किं वा सुखमिदं / किमुत्कण्ठकोऽयं किं वा व्याधिरयं / किमुत्मवोऽयं किंवा व्यसनमिदं। किं दिनमिदं किं वा रजनीयं / किं मृतोऽस्मि किं वा जौवामौति / क्वचिदोषलब्धचेतनः पुनश्चिन्तयामि / अये क्व गच्छामि / किं करोमि / किं श्टणोमि / किं पश्यामि / किमालपामि / कस्य कथयामि / कोऽस्य मे दुःखस्य प्रतीकारो भविष्यतीति। ____एवं च पर्याकुलचेतमो निषिद्धाशेषपरिजनस्यापरापरपार्श्वण शरीरं परावर्तयतो महानारकस्येव तीबदुःखेनालब्धनिद्रस्यैव लविता मा रजनौ / समुद्गतोऽशुमालौ / गतस्तथैव तिष्ठतो मेऽर्धप्रहरः / अत्रान्तरे समागतस्तेतलिः / अतिवालभतया मे न वारितः केनापि / प्राप्तो मत्समीपं / कृतमनेन पादपतनं। निषलो भूतले। विरचितकरमुकुलेन चाभिहितमनेन। देव नौचजनसुलभेन चापलेन किंचिद्देवं विज्ञापयिष्यामि तच्चाईचारु वा सोढुमर्हति देवः / मयाभिहितं / भद्र तेतले विश्रब्धं वद। किमियत्याकूर्चशोभया / तेतलिनाभिहितं / यद्येवं ततो मया देवपरिजनादाकर्णितं यथा रथादवतौर्य देवो न ज्ञायते किमत्र कारणं सोद्वेग व निषिद्धाशेषपरिजनः मचिन्तः शयनीये विवर्तमानस्तिष्ठति। दूतश्च स्यन्दनाश्वानां हृप्तिं कारयतो लवितोऽतौतदिनशेषः। ततो रात्रौ समुत्पन्ना मे चिन्ता। यदुत किं पुनर्देवस्योरेगकारणं भविष्यति। ततस्तदलक्षयतश्चिन्ता विधुरस्य जाग्रत एव मे विभाता रजनौ / ततो यावदुत्थाय किलेहागच्छामि तावहहत्तमं प्रयोजनान्तरमापतितं। तेनातिवाद्येयतौं वेलामहमागत इत्यतो निवेदयतु देवः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 372 उपमितिभवप्रपच्चा कथा / प्रसादेन शरीरकुशलवार्तामात्रायत्तजीविताय किङ्करापसदायास्मै जनाय यदस्य व्यतिकरस्य कारणमिति ब्रुवाणः पतितो मेचरणयोस्तेतलिः / ततो मया चिन्तितं / अहो अस्य मयि भक्तिप्रकर्षः अहो वचनकौशलं / युज्यत एवाम्मै सद्भावः कथयितुं। तथापि वामशीलतया मदनविकारस्य मयाभिहितं। भद्र तेतले न जाने किमत्र कारणं। केवलं यतः प्रमति हट्टमार्गमतिक्रम्य समानौतस्वया रथो राजकुलाभ्यणे धारितस्तत्र कियन्तमपि क्षणं तदारात्सर्वाणि मे विलीयन्तेऽङ्गानि प्रवर्धतेऽन्तस्तापः ज्वलतीव भवनं न सुखायन्ते जनोलापाः श्राविर्भवति रणरणकः समुद्भूतालौकचिन्ता शून्यमिव हृदयं / ततोऽहमस्य दुःखस्यालब्धपरित्राणोपायः खल्वेवं स्थित इति ततः महर्षण तेतलिनाभिहितं / देव यद्येवं ततो विज्ञातं मयास्य दुःखस्य निदानमौषधं च। न विषादः कर्तव्यो देवेन / मयाभिहितं / कथं / तेतलिः प्राह / समाकर्णय निदानं तावदस्य दुःखस्य चक्षुर्दोषः / मयोक्त। कस्य सम्बन्धौ। तेतलिः प्राह। न जाने किमसौ लक्षिता न वा देवेन मया पुनईहतौं वेलां निरूपिता तत्र राजकुलपर्यन्तवर्तिनि प्रासादे वर्तमाना काचिद्वृहद्दारिका देवमर्धतिरश्चीनेनेक्षणयुगलेन साभिनिवेशमङ्गप्रत्यङ्गतो निरूपयन्तौ। तनिश्चितमेतत्तस्या एव सम्बन्धी चक्षुर्दोषोऽयं / यतो देव अतिविषमा विषमौलानां दृष्टिर्भवति / ततो मया चिन्तितं। वष्टः खल्वेष तेतलिः। बुद्धोऽनेन मदीयभावः / विलोकिता मा चिरमनेन। अतः पुण्यवानयं। यतश्च वदत्येष यथा लब्धं मया तवास्य दुःखस्य भेषजमिति ततः संपादयिष्यति नूनं तां मदनज्वर For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 373 हरणमूलिकां कन्यकामेष मे / तस्मात्प्राणनाथो ममायं वर्तत इति विचिन्य समारोपितो बलात्पर्यङ्के तेतलिः / अभिहितश्च / साधु भो साधु सुष्टु विज्ञातं भवता मदीयरोगनिदानं / इदानीमौषधमस्य निवेदयतु भद्रः / तेतलिनाभिहितं / देव इदमत्र चक्षुर्दोषे भेषजं। यदुत निपुणवृद्धनारीभिः कार्यतां सम्यग् लवणावतारणक विधीयतां मन्त्रकुशलैरपमार्जनं लिख्यन्तां रक्षाः निबध्यन्तां कण्डकानि अनुशी ल्यन्तां भूतिकर्माणि / अन्यच्च / शाकिन्यपि किल प्रत्युच्चारिता न प्रभवतीति कृत्वा गत्वा निष्ठुरवचनैर्गाढं निर्भ य॒तां मा दारिका / यदुत हे वामलोचने निरीक्षितस्त्वया विषमदृष्ट्या देवः / ततस्त्वं ज्ञाता बुद्धा तिष्ठसि / यदि च देवस्य गरौरे मनागपि स्वलितं भविष्यति ततो नास्ति ते जौ वितमिति / एवं क्रियमाणे देव नियमादुपशाम्यत्येष चक्षुषः / तदिदमस्य भेषजं मया विज्ञातमिति / ततो विहस्य मयाभिहित। भद्र तेतले पर्याप्तं परिहासेन / निवेद्यतां यद्यवधारितः कश्चिद्भवता निश्चितं महुःखविगमोपायः। तेतलिः प्राह / देव किमलब्धदेवदुःखप्रतीकारा एव देवपादोपजीविनः कदाचिदपि देवस्य पुरतः सोद्धेगे सति देवे सहर्ष जल्पितमुत्महन्ते / तस्मान्मा कुरुत विषादं / सिद्धमेव देवसमौहितं। मया हि देवोद्वेगनिरासार्थमेवैष परिहामो विहितः। मयाभिहितं / वर्णय तर्हि कथं सिद्धमस्मत्ममौहितम् / तेतलिः प्राह। देव विज्ञापितमिदमादावेव मया। यथा मम प्रत्युषस्येव देवममोपमागच्छतो वृहत्तमं प्रयोजनान्तरमापतितं / तेन लवितो ममायं दिनार्धप्रहर इति। तद्देवसमौ For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 374 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / हितसिद्ध्यर्थमेव प्रयोजनान्तरं / कथमन्यथा बहत्तमत्वमस्योपपद्यते। यतोऽस्ति मम परिचिता मलयमञ्जरीसम्बन्धिनौ कपिञ्जला नाम वृद्धगणिका / मा मम शयनादुत्तिष्ठतः पुरतः प्रविश्य मद्भवने वयस्य त्रायध्वं बायध्वमिति महता शब्देन पूस्कृतवती / ततोऽनुपलब्धभयकारणेन मयाभिहितं / भने कपिञ्जले कुतस्ते भयं / तया भिहितं। मौनकेतना दिति। मयाभिहितं / कपिञ्जले अश्रद्धेयमिदं। यतोऽहमेवं तर्कयामि / यदुत कुङ्कुमरागपिङ्गलपलितचिताज्वालावलौभासुरं कटकटायमानास्थिपञ्जरशिवाशब्दभैरवं संकुचितवलौतिलकजालपिच्छलताभीषणं उल्लम्बितशवाकारलम्बमानातिस्थलस्तनभयानकं अतिरौद्रमहाश्मशानविभ्रमं त्वदीयारीरमिदमुपलभ्य नूनं कामः कातरनर द्वाराटौर्दत्त्वा दूरतः प्रपलायते / ततः कुतस्ते भयमिति। कपिञ्जलयाभिहितं / अयि अलौकदुर्विदग्ध न लक्षितस्त्वया मदीयोऽभिप्रायः / तेनैवं ब्रवौषि / अतः समाकर्णय यथा मे मदनाभयमिति / मयाभिहितं / तर्हि निवेदयतु भवती / मा प्राह / अस्ति तावविदितैव भवतो मलयमञ्जरी नाम मम स्वामिनौ। तस्याश्चास्ति कनकमञ्जरौ नाम दुहिता॥ अत्रान्तरे तेतलिना कनकमञ्जरीनामग्रहणादेव स्पन्दितं मे दक्षिणलोचनेन स्फुरितमधरेण उच्छसितं हृदयेन रोमाञ्चितमङ्गेन गतमिवोद्वेगेन / ततो मया चिन्तितं / नूनं मैषा मम हृदययिता कनकमचरीत्युच्यते। महर्षण चाभिहितं / ततस्ततः / ततो लक्षितमदीयभावेन अहो प्रियनामोच्चारणमन्त्रसामर्थमिति विचिन्त्य तेतलिनानुमन्दधानेन कपिञ्चलावचनमिदमभिहितं / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। 375 मा च मदीयस्तन्यपानेन संवर्धिता / तेन मम सर्वस्वमिव शरीरमिव हृदयमिव जौवितमिव मा कनकमञ्जरी खरूपादयतिरेकिणी वर्तते / अधुना पौद्यते सा वराकी मकरध्वजेन / ततो यत्तस्या मौनकेतनाभयं तत्परमार्थतो ममैव भयमिति // तदिदमाकर्ण्य धारयतस्तेतलेरावय्य करवालमरे रे मन्मथहतक मुञ्च मुञ्च मे प्रियां कनकमञ्जरौं पुरुषो वा भव दुरात्मनास्त्यधुना ते जौवितमिति ब्रुवाणोऽहमुत्थितः शयनीयतलाद्वेगेन / तेतलिनाभिहितं। देव अलमवेगेन / न खलु सदये देवेदं कनकमचर्या मदनहतकादन्यस्माद्दा सकाशाद्भयगन्धोऽपि। कथानकं चेदमतस्तच्छेषमण्याकर्णयतु देवः। ततस्तद्वचनेनाहं पुनः प्रत्यागतचेतनो मनाग् विलक्षीभूतो निषणः शय्यातले। तेतलिः प्राह / ततो मयाभिहितं / भने कपिञ्जले किं पुनर्निमित्तमासाद्य तस्यां कनकमञ्जयां प्रभवति मदनहतकः। कपिञ्जलयाभिहितं पाकर्णय। अस्ति तावदतौते दिने संपन्नं वधूहरणविवरं / संजातो देवस्य कनकचूडस्य परैः सह महासङ्ग्रामः / ततो लब्धपताकेषु नगरं प्रविशत्सु कनकचूडकनकशेखरनन्दिवर्धनेषु कुतूहलवशेनाहं गेहानिर्गत्य स्थिता हट्टमार्ग। प्रविष्टेषु गता स्वामिनी भवनं / श्रारूढा चोपरितनभूमिकायां / तत्र च वातायने वर्तमाना राजमार्गाभिमुखनिःसारितवदनकमला निष्पन्दमन्दस्तिमितशून्यदृष्टिका चित्रविन्यस्तेव शैलघटितेव निष्यन्नयोगेव परमयोगिनी व्यपरताशपाङ्गप्रत्यङ्गचलनचेष्टा दृष्टा मया कनकमञ्जरौ। ततो हा किमेतदिति विचिन्य स सम्भ्रमं पुत्रि कनकमञ्जरौति पुनः पुनस्ता For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / महमाहतवती। न च दत्तं मे मन्दभाग्यायास्तया प्रत्युत्तरं / दूतश्च तस्मिन्नवसरे तत्रामौत्कदलिका नाम दासदारिका / ततस्तां प्रति मयाभिहितं / भद्रे कदलिके केन पुनर्हतना वत्मायाः कनकमचर्या इयमेवं विधावस्था संजातेति / कदलिकयाभिहितं / अम्ब न सम्यग् लक्षयामि। केवलं यतः प्रभृति राजमार्गऽवतीर्णा नन्दिवर्धनकुमारः पतितो दृष्टिगोचरे भतेदारिकायाः तत प्रारभ्येयं प्रमुदितेव लन्धरत्नेव अमृतमिनेव महाभ्युदयप्राप्तेव अनाख्येयं किमपि रमान्तरमनुभवन्तौ मया दृष्टामौत् / यदा वतीतोऽसौ दृष्टिगोचरात् तदेयमिदृशोमवस्थां प्राप्तेति तत. स्तदाकी मरिष्यतीयमकृतप्रतीकारेति संचिन्य शोकविहलतया विहितो मया हाहारवः / तदाकर्णनेन ममागता मलयमअरौ। ततः मापि किमेतत्कपिञ्जले किमेतदिति वदन्ती निरीक्ष्य कनकमञ्जरौं विलपितमारब्धा / ततो वृहत्तमतया वोलस्य जननौवल्लभतया हृदयस्य खभ्यस्ततया विनयस्य मनाक् संजातचेतना संपना कनकमञ्जरी। मोटितमनया शरीरकं / प्रवृत्ता जम्भित / ततस्तां स्वकौयोत्सङ्गे निधाय मलयमचर्याभिहितं / वत्से कनकमञ्जरि किं ते शरीरके बाधते। कनकमञ्जर्याभिहितं। अम्ब नाहमन्यत्किंचिल्लक्षयामि / केवलं दाहज्वरो मे शरौरं बाधते / ततो यावदाकुला वयं कुर्मस्तस्याः शारीरस्य मलयजरसेनसेचनं प्रेरयामः कर्पूरजलबिन्दुवर्षाणि तालबन्तानि प्रयच्छामोऽझे हिमसेकशीतला जलार्द्राः समर्पयामो मुहुर्मुहुः कर्पूरपूरितानि नागवल्लौदलवीटकानि समाचरामोऽन्यामप्यनेकाकारां शीतक्रियां For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 377 तावद्गतोऽस्तं वासरेश्वरः समुद्तो निशीथिनीनाथः परितावितं चन्द्रिकया नभस्तलं। ततो मयाभिहिता मलयमञ्जरौ / स्वामिनि सघर्ममिदं स्थानं / अतः प्रकाशे निःसार्यतां राजदुहिता / तयाभिहितं / एवं क्रियतां / ततो हिमगिरिविशालशिला विभ्रमे सुधाधवलपकाशहर्म्यतले कथंचिद्धार्यमाणा नौता कनकमञ्जरौ विरचितं तत्रातिशीतलनलिनौदलपल्लवशयनीयं / तत्र तां निवेश्य विहितानि भुजयुगले मृणालनालवलयानि / स्थापितो वक्षस्थले सिन्दुवारहारः / समुपनौताः स्पर्शनार्थ प्रक्षेपमात्रेण महामरोवरस्थापि स्यानभावसम्पादकाः शीतवीर्या महामणयः / लगति च तत्र प्रदेशे स्वत एव बलिनामपि रोमहर्षदन्तवीणासञ्जननो गन्धवाहनः। ततो मलयमञ्जर्याभिहितं / वत्से कनकमञ्जरि किमपगताधुना भवत्या दाहज्वरबाधा। कनकमञ्जरौ प्राह / नहि नहि अम्ब प्रत्युताधुना मम मतिः यदुतानन्तगुणा मा वर्तते / यतः प्रज्वलितखादिराङ्गारपुञ्जायते मां प्रत्येष शशधरहतकः / ज्वालाकलापायते चन्द्रिका / विस्फुलिङ्गायते तारका निकरः / दहति मामेष नलिनौदलस्रस्तरः। प्लोषयन्ति मिन्दुवारहारादयः / किंबहुना हतशरीरकमपि मेऽधुना पापाया दाहात्मकतया वकिपिण्डायते // ततो दोघे निःश्वस्य मलयमञ्जर्याभिहितं भद्रे कपिचले जानासि वत्मायाः किं पुनरौदृशदाहज्वरकारणं / मया तु कर्ण स्थित्वा निवेदितं तस्यास्तत्कदलिकावचनं / मलयमञ्जर्याभिहितं। यद्येवं ततः किं पुनरत्र प्राप्तकालं // अत्रान्तरे समुत्थितो राजमार्ग शब्दः / यदुत सिद्धमेवेदं प्रयोजनं / केवलं 48 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। वेलाच विलम्बिते / ततः सहर्षया मयाभिहितं। स्वामिनि ग्टहीतः शब्दार्थः / सा प्राह / बाढं रहौतः / मयाभिहितं / यद्येवं ततः सिद्धमेव वत्सायाः कनकमञ्जर्याः ममोहितं / स्यन्दते च मम वामलोचनं / अतो नात्र सन्देहो विधेयः / मलयमञ्जरौ प्राह / कोऽद्यापि सन्देहः सिध्यत्येवेदं // अत्रान्तरे कनकमञ्जर्या एव ज्येष्ठा भगिनौ मणिमञ्जरी नाम मा समारुह्य हर्म्यतलं महर्षा निषलास्मत्ससोपे। मयाभिहितं / वत्से मणिमञ्जरि निर्दुःखसुखतया कठोरा त्वमसि / मा प्राह / कथं / मयोक्तं। या त्वमेवमस्मासु विषादवतीषु महर्षा दृश्यते / मणिमञ्जर्याभिहितं / श्रथ किं क्रियतां। न शक्यते गोपयितुं महन्मे हर्षकारणं / मयोक्तं / आख्याहि वत्से कौदृशमिति। मणिमञ्जयोक्तं / गताहमासं तातसमीपे / निवेशिता तातेन निजोत्सङ्गे / तदा च तातस्य कनकशेखरः पार्श्ववर्ती वर्तते। ततस्तं प्रति तातेनाभिहितं। पुच येनानेन नन्दिवर्धनेन महाबलावपि तौ समरसेनद्रुमौ लीलया विनिपातितौ म नैष सामान्यः पुरुषः। न चास्य सुकृतस्य वयं जीवितदानेनापि निष्क्रयं गच्छामः / तदिदमत्र प्राप्तकालं / जौवितादपि वल्लभतरे ममैते मणिमञ्जरीकनकमञ्जी। दत्ता चेयं पूर्वमेवास्यैव महत्तमसहोदराय शौलवर्धनाय / इयंत कनकमञ्जरौ साम्प्रतमस्मै नन्दिवर्द्धनाय दीयतामिति। कनकशेखरेणोक्त। चारु मंत्रितं तातेन / तात एवोचितं जानौते। ततो दातव्यैवेति / स्थापितस्ताभ्यां सिद्धान्तः / समुत्थिताहं तातोत्सङ्गात् प्रवृत्ता चेहागन्तुं / चिन्तितं च मया / अहो मे धन्यता अहो अनुकूलता For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 378 दैवस्य अहो सुपर्याप्लोचितकारिता तातस्य अहो विनयः कनकशेखरस्य / भविष्यत्येवं प्रियभगिन्या मह मम यावनौवमवियोगः / ललिव्यावहे नानाविधं। एवं च चिन्तयन्या ममाविर्भूतः स्फुटबहिर्लिङ्गो हर्षः / तदिदं मे हर्षकारणमिति / मलयमञ्जर्याभिहितं। कपिञ्जले पश्य कालहौनो निमित्तस्य संवादः / मयो / किमाञ्चयं यतो देवौयमुत्पातुका भाषा भवति। केवलं वत्से कनकमञ्जरि मुञ्चेदानौं विषादं। अवलम्बस्व धैयें। सिद्धमधुना नः ममोहितं / व्यपगतं भवत्या दाहज्वरकारणं / प्रतिपादितासि देवेन हृदयनन्दनाय नन्दिवर्धनाय // ततः संजाताश्वामापि हृदये कुटिलशीलतया मदनस्य विधाय ममाभिमुखं विषमभकुटिं कनकमञ्जर्याभिहितं / श्राः भवतु मातः किमेवमलीकवचनैमी प्रतारयसे / शिरोऽपि ममाधुना स्फुटति लममनेनासंबद्धप्रलापेन मलयमञ्जर्याभिहितं। वत्मे मा मैवं वोचः / मत्यमेवेदं नान्यथा वत्सया संभावनौयं। ततः कुतो ममेयन्ति भाग्यानीति शनैर्वदन्ती स्थिताधोमुखी कनकमञ्जरी। ततस्तां निजपतिभक्रस्त्रीकथानिकाकथनव्याजेन विनोदयन्तीभिरस्माभिरतिवाहिता रजनौ / न चाद्याप्युपशाम्यति तस्या: परिदहनं / मया चिन्तितं / यावत्क्रमेण संपत्स्यते नन्दिवर्धनदर्शनं तावन्मरिय्यतौयं राजदुहिता। अतः पश्यामि तावत्तेतलिं। वल्लभोऽसौ कुमारस्य शक्नोति तं विज्ञापयितुं। कदाचित्ततः संपद्यतेऽस्याः परित्राद्यैव कुमारदर्शनेनेति विचिन्त्य समागताहं लत्ममोपे। तदिदं निमित्तमासाद्य तस्यां प्रभवति मौनकेतन इत्येतदाकर्ण्य वयस्यः प्रमाणं // मयाभिहितं / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 380 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / यद्येवं ततो यद्यपि वश्येन्द्रियो देवो महासत्त्वतया च रणमिवस्त्रैणमाकलयति तथाप्येवं विज्ञपयामि यथाभ्युद्धरति निजदर्शनेन राजदुहितरं / केवलं रतिमन्मथे कानने भवतीभिः स्थातव्यं / ततो महाप्रसादोऽनुग्रहीतोऽमौति वदन्तौ पतिता मच्चरणयोः कपिअला। गता स्वभवनं / अहमपीहागतः / तदिदं देव मया भवइदभेषजमवाप्तं // मयाभिहितं। माधु तेतले माधु त्वमेव वक्तुं जानौषे / ततः समारोपितस्तस्य वक्षःस्थले मयात्मौयो हारः परिहिता भुजयोः कटककेयरादयः / तेतलिः प्राह / देवात्र तुच्छकिङ्करजने देवकीयोऽयमतिप्रमादोऽनुचित दूवाभासते। मयाभिहितं / आर्य प्राणप्रदेऽपि सवैये किं किंचिदनुचितमस्ति / तन्न कर्तव्योऽत्र भवता संक्षोभः / त्वं ममेदानौं जीवितादव्यतिरिको वर्तसे // अत्रान्तरे समागतो द्वारि विमलो नाम महाराजमहत्तमो निवेदितो मे प्रतिहार्या / स्थितः पृथगामने तेतलिः / प्रविष्टो महत्तमः / कृतोचिता प्रतिपत्तिः / अभिहितमनेन / कुमार देवेन प्रहितो युमत्ममोपेऽनेनार्थेण / यथास्ति मम जीवितादपौष्टतमा कनकमञ्जरी नाम दुहिता। सा ममोपरोधात् कुमारेण स्वयं पाणिग्रहणेनालादनीया // ततो निरीक्षितं मया तेतलिवदनं / तेनाभिहितं / देवानुवर्तनीयो महाराजो देवस्य / अतो मान्यतामियं तस्य प्रथमप्रणयप्रार्थना / मयाभिहितं / तेतले वमत्र प्रमाणं / विमलः प्राह / कुमार महाप्रसादः / ततो निर्गतो विमलः // तेतलिनाभिहितं / देव गम्यतामिदानों तत्र रतिमन्मथे For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतोयः प्रस्तावः। 381 कानने / मा उन्मनीभूत्मा राजदुहिता कालहरणेन / मयाभिहितमेवं भवतु // ततस्तेत लिमहाय एव गतोऽहं तत्रोद्याने / दृष्टं तदपहमितनन्दनवनं काननं / ततश्चम्पकवौथिकासु कदलोगुपिलेषु अतिमुक्तकलतावितानेषु केतकौषण्डेषु मृवौकामण्डपेषु अशोकवनेषु लवलौगहनेषु नागवल्ल्यारामेषु नलिनसरोवरोपान्तेषु विचरितमितश्चेतश्च भूयो भूयः कनकमञ्जरौदर्शनलोलुपतया / न च दृष्टा मा कुरङ्गलोचना। ततो मया चिन्तितं। हन्त प्रतारितोऽहमनेन तेतलिना। विमलव्यतिकरोऽपि नूनं तेतलेरेव मायाप्रपञ्चः। कुतस्तद्दर्शनसम्पादकानि भाग्यानि मादृशां // त्रान्तरे श्रुतो मया तरुलतागहनमध्ये कलनूपुरध्वनिः / ततोऽपसृत्य तेतलिममोपानिरूपितं तगहनं मया। दृष्टा च तमालतरोरधस्तादर्तमाना स्वर्गात्परिभ्रष्टेवामराङ्गना स्वभवनानिष्कासितेव नागकन्यका रतिरिव मदनविरहकातरा सशोकाकनकमञ्जरी। विलोकितमनया तरलतारया दृश्या दिक्चक्रवालं। न दृष्टः कोऽपि सत्त्वः / ततोऽभिहितं तया। हे भगवत्यो वनदेवताः प्रतौतमेवेदं भवतीनां / यत्किल प्रतिपन्नं तेतलिना तस्य जनस्यानयनं दत्तोऽत्र रतिमन्मथे कानने सङ्केत इत्युपप्रलोभ्याहमिहानौता तया जरन्मार्जार्या / अधुना किलामौ जनो न दृश्यत इति तं गवेषयामौत्यभिधाय मामेका किनौं विमुच्य मा न जाने कुत्रलिगता / तदेवं प्रतारिताहमिन्द्रजालरचनाचतुरया कपिञ्जलया। तदल मे जौवितेन शियविरहानलदग्धाया श्राप्तजनेनापि वञ्चिताया मन्दभाग्यायाः / केवलं प्रसादाभगवतीनां जन्मान्तरेऽपि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / स एव जनो भर्ता भूयादिति वदन्या वल्मौकमारुह्य निबद्धस्तमालतरुशाखायां पाशकः / निमिता तत्र शिरोधरा / प्रवृत्ता मोक् शरीरं। अत्रान्तरे सुन्दरि मा माहसं मा माइममिति ब्रुवाण: प्राप्तोऽहं वेगेन वृतं / वामभुजेनाग्निथ्य मध्यदेशे निपतच्छरौरं। छिन्नो दक्षिणकरेणा मिपुत्रिकया पाशकः / श्राश्वामिता पवनदानेन / अभिहिता च / देवि किमिदमसमञ्जसमारब्धं / ननु स्वाधीनोऽयं जनस्ते वर्तते / तन्मुञ्च विषादं / ततः सा तथैव स्थिता घर्णमान विलोलविलोचना मां निरौक्षमाणा तत्क्षणमनेकरमसंभारगर्भनिर्भरं सुपरिस्फट मदनचिहं योगिनामपि वाग्गोचरातोतं खरूपं धारयन्ती मया विलोकिता। कथं एकाकिनौति भौता म एवायमिति सहर्षा कुत इति माशङ्का स्वरूपोऽयमिति समाध्वमा स्वयमागतेति सलज्जा विजने प्राप्तेति दिक्षु निक्षिप्ततरलतारिका दत्तसङ्केतेति विश्वस्ता दृष्टमिदमनेन मदीयमाचरणमिति सवैलक्ष्या लक्ष्मीरिव चौरोदमन्थनोत्थितमात्रा विशदखेदजलप्लावितदेहतया कदम्बकुसुममालिकेव परिस्फुटपुलको दसुन्दरतया पवनप्रेरिततस्मञ्जरीव प्रकम्पमानमर्वाङ्गतया श्रानन्दमागरमवगाहमाना स्तिमितनिष्यन्दमन्दलोचनतया। मानभिव्यक्तरक्षरैर्मुञ्च मुञ्च कठोरहदय मुच्च न कार्यमनेन जनेन जनस्येति वदन्ती मदौयभुजमध्यावहिर्मुखं निष्पतितमारब्धा / ततो निवेशिता मया ललितकोमले दूर्वाविताने। निषणः खयमभ्यर्ण एव तदभिमुखः / ततो ऽभिहितं मया। सुन्दरि मुञ्च लज्जां। परित्यज कोपं / न खल्वाज्ञाकारी किङ्करजनोऽयं कोपस्य गोचरो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 383 भवितुमर्हति / एवं च वदति मयि सा कनकमञ्जरौ किंचिद्द कामापि न वक्तुं शकुवती केवलं विलमद्दशनकिरणरचिताधरविम्बा कपोलामलस्फुरितसूचितान्तःस्मिता वामचरणाङ्गुष्ठेन भूतलं लिखन्तौ स्थितेषदधोमुखौ। मयाभिहितं / अलमत्र सुन्दरि विकल्पितेन / यतः। हृदयाज्जीविताहात्मकाशादतिवल्लभा / नाथोऽत्र त्वां विहायान्यो नास्ति मे भुवनत्रये // अद्यमति निर्मिथ्यं तव पद्मविलोचने / क्रौतः मनावमूल्येन दासोऽहं पादधावकः // कठोरह्दयो नाहं कठोरोऽत्र विधिः परम् / यो मे दर्शनविच्छेदं कुर्यात्ते वक्त्रपङ्कजे // एतच्च मामकं वाक्यमाकर्ण्य प्रीतमानसा / मया निरौक्षिता बाला भजन्ती मा रमान्तरम् // कथम् / क्षणेनामृतमिक्तव चिव सुखसागरे / प्राप्तराज्याभिषेकेव तोषादन्येव मा स्थिता / इतश्च मामन्विष्य नानास्थानेषु पर्यटन्ती प्राप्ता तमुद्देश कपिञ्जला / दृष्टस्तेतलिः / अभिहितमनया। खागतं वयस्य क पुनः कुमार इति / तेतलिनाभिहितं / अत्र तरुलतागहेन प्रविष्टः / ततश्चलिते वे अपि ते अस्मदभिमुखं / दृष्टमावयोमिथुनं / संजातो हर्षातिरेकः / कपिञ्चलयाभिहितं / नमस्तस्मै भगवते देवाय येनेदं युगलमत्यन्तमनुरूपं संयोजितं / तेतलिः प्राह / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 384 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / कपिञ्चले नूनं रतिमन्मथयोरिवानयो-गेनेदमुद्यानमद्येव यथार्थ मंपन्न / इतरथा व्यर्थकमेवास्य रतिमन्मथमित्यभिधानं पूर्वमासीत् / ततोऽस्मन्निकटदेश प्राप्ते तेतलिकपिञ्जले। समुत्थिता ससंभ्रमेण कनकमञ्जरी। कपिञ्जलयाभिहितं। वत्से निषौदालं संभ्रमेण / ततोऽमृतपुञ्जक इव तत्र दूर्वा विताने निषमानि स्नेहनिर्भरमहासविश्रम्भजल्यैः स्थितानि वयं कियन्तमपि क्षणं // अत्रान्तरे समागतो योगन्धरो नाम कन्यान्तःपुरकञ्चको। तेन च विधाय मम प्रणाम सत्वरमाहता कनकमञ्जरौ। कपिञ्चलयाभिहितं / भद्र किमितौदमाकारणं। योगन्धरः प्राह / श्रुतेयमपटुशरीरा रात्री देवेन / ततः प्रभाते खयमेव गवेषिता स्वस्थाने न चोपलब्धा / ततः पर्याकुलोमतो देवः / ममादिष्टोऽहमनेन / यथा यतः कुतश्चिदत्मां ग्टहीत्वा भौघमागच्छति / तदिदमाङ्कानकारणं / ततस्तदाकालानीयवचनस्तात इति मन्यमाना मुहुर्मुहुमां वलिततारं विलोकयन्ती मालस्यं प्रस्थिता मह कपिञ्जलया कनकमञ्जरी क्रमेणातिक्रान्ता दृष्टिगोचरात् / तेतलिनाभिहितं / देव किमिदानीमिह स्थितेन / ततोऽहं तदेव कृतककोपं वदनं तदेव मुञ्च मुञ्च कठोरहृदय मुञ्चेति वचनं तच्च विलसद्दशनकिरणरञ्जितमधरबिम्बं तदेव च हर्षातिरेकसूचकममलकपोलविस्फुरितं तच्च सद्भावसमर्पकं सलब्नं चरणाङ्गुष्ठेन भूमिलेखनं तदेव चाभिलाषातिरेकसन्दर्शक तिरश्चौनेक्षणनिरीक्षणं तस्याः कनकमञ्जर्याः मम्बन्धि तीव्रतरमदनदाहज्वरप्रवर्धकमपि प्रकृत्या महामोहवशेन तदुपशमार्थमम्मतबुद्ध्या स्वचेतमि पुनः पुनश्चारयन् प्राप्तः खभवनं / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हतीयः प्रस्तावः। 385 कृतं दिवमोचितं कर्तव्यं / अपराले ममायाता कदलिका। तयाभिहितं / कुमार देवः समादिशति / यथा। निरूपितं मया मांवत्सर्विवाहदिनं अद्यैव गोधुल्यां शुध्यतौति / तदाकर्ण्य निमन वाहं रतिसमुद्र। दापितं कदलिकायै पारितोषिकं / स्तोकवेलायां समायाता ग्टहीतकनककलशा वारनार्यः / निर्वर्तितं मे सपनकं / विहितानि कौतुकानि / ततो दापितानि महादानानि / मोचितानि बन्धनानि / पूजिता नगरदेवताः / सन्मानिता गुरवः / विधापिता हट्टशोभाः। शोधिता राजमार्गाः। पूरितः प्रणयिवर्गः / गौतमम्बाजनैः / नृत्तमन्तःपुरैः। विलसितं राजवल्लभैः। ततो महता विमर्दैन प्राप्तोऽहं राजभवनं / प्रयुक्रा मुमलताडनादयः कुलाचाराः। प्रविष्टोऽहं वधूग्टहके। तत्र चामरवधूरप्युपहसन्तो रूपातिपयन रतिमपि विशेषयन्ती मदनहरविलासैः ईषलम्बालका चक्रवाकमिथुनविभ्रमेण स्तनकलशयुगलेन सुनिविष्टनासिकावंशा रकाशोककिमखयाकाराभ्यां कराभ्यां कोकनदपत्रनेत्रा करिकराकारधरेणोरुदण्डद्वयेन विस्तीर्णनितम्बबिम्बा त्रिवलीतरङ्गभङ्गुरेण मध्यभागेन कृष्णस्निग्धकुटिलकेशा स्थलकमलयुगलानुकारिणा चरणदयेन कुण्डमिव मदनरमस्य राभिरिव सुखानां निधानमिव रतेः श्राकरो रूपानन्दरत्नानां मुनीनामपि मनोहारिणौमवस्थामनुभवन्तौ महामोहतिरोहितविवेकलोचनेन मया दृष्टा कनकमञ्जरौ। हष्टचेतमा पुलकितशरीरेण कृतं प्रधानसांवत्सरवचनेन पाणिग्रहणं। भ्रान्तानि मण्डलानि। प्रयुक्ता आचाराः। विहिता लोकोपचाराः। वृत्तो महता विमर्दन For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / विवाहयज्ञः। प्रविष्टोऽहमपहसितसुरभवने कनकमञ्चरोमनाथे वामभवने अवगाषितसुरतामृतसागरः। एवं च प्रवर्धमानानुरागयोरावयोर्गतानि कतिचिद्दिनानि // दूतच विभाकरस्य कृतं व्रणकर्म। प्रगुणीभूतः शरीरेण / जातो मया महास्य खेहभावः / समुत्पनी विश्रम्भः / अन्यदा विधाय बहुमानं प्रहितः सपरिकरोऽसौ स्वस्थाने कनकचडराजेन / येऽपि तेऽम्बरीषनामानश्चरटा वीरसेनप्रभृतयो हते प्रवरसेने प्रतिपत्रभृत्यभावा मया सह पूर्वमागतास्तेऽपि कृतसन्माना मया विसर्जिता गताः स्वस्थाने / ततोऽहं विगतचिन्तासन्तापस्ताभ्यां रत्नवतीकनकमञ्जरीभ्यामानन्दमहोदधिमवगाहमानः स्थितस्तचैव कियन्तमपि कालं / प्रस्थापि च व्यतिकरस्य परमार्थतः स एव पुण्योदयः कारणं / मम तु महामोहवशेन तदा प्रतिष्ठितं हृदये / यदुताहो हिंसावैश्वानरयोः प्रभावातिशयः। अनयोहि माहात्म्येन मयेयं निरुपमानन्दामृतरसकूपिका कनकमञ्जरी लब्धेति। यतः कथितं तेतलेः कपिञ्चलया कनकचडराजादाकर्णितं मणिमञ्जरौवचनं यथा यतोऽनेन नन्दिवर्धनकुमारेण महाबलावपि द्रुमसमरसेनौ लोलया विनिपातितौ तस्मादस्मै युक्रेयं दातुं कनकमञ्जरौति। तौ च द्रुमसमरसेनौ मया हिंसावैश्वानरप्रभावादेव विनिपातितौ। तस्मात्परमार्थतो हिंसावैश्वानराभ्यामेव ममेयं कनकमञ्जरी संपादितेति / ततो जातं मे गाढ़तरं हिंमावैश्वानरस्नेहप्रतिबद्धमन्त:करणं / ततो वैश्वानरवचनेन तैः क्रूरचित्ताभिधानैवटकैः प्रतिदिनमुपयुज्यमानैर्जनितं मे चण्डत्वं संपादितमसहनत्वं विहिता For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। रौद्रता निर्वतितो भासुरभावः। गतागागौभावं क्रूरता। जातोऽहं खरूपं तिरोधाय माचादिव वैश्वानरः / ततो नापेक्षे वटकोपयोग। किं तर्हि मततप्रज्वलितोऽहमाक्रोशामि हितभाषिणं ताडयामि निष्कारणमेव परिजनं / हिंसथा तु पुनः पुनराश्लिष्यमाणस्य मे संजातमाखेटकव्यमनं / ततः प्रतिदिनं निपातयामि स्माहमनेकजन्तुमंघात। दृष्टं तन्मदौयचेष्टितं कनकशेखरेण / चिन्तितमनेन। अहो किमिदमौदृशमस्थासमञ्जसं चरितम् / तथाहि / रूपवान् कुलजः शूरः कृतविद्यो महारथः / . तथाप्ययं ममाभाति न किंचिनन्दिवर्धनः // यतोऽयं हिंसयाग्निष्टो युको वैश्वानरेण च / परोपतापनिरतो धर्मादरेण वर्तते // अतो नोपेचितं युको ममायं हितकारिणः / वचने यदि वर्तेत स्थादस्मै हितमुत्तमम् // केवलस्य च मे वाक्यं कदाचिन्न करोत्ययम् / ताताभ्यर्थे पुनः प्रोक्तः कुर्यात्तत्तातलज्जया // नदेनं तातसहितः शिक्षयामि तथा कृते / हिंसावैश्वानरौ हित्वा स्यादेष गुणभाजनम् // ततः कृतो ग्रहीतार्थः कनकशेखरण राजा। अन्यदा प्रविष्टोऽहं राजास्थाने / विहितप्रतिपत्तिर्निविष्टो नरेन्द्रसमोपे। ततः लाघितोऽहं कनकचडराजेन। कनकशेखरेणाभिहितं। तात एवंविध एवायं नन्दिवर्धनः स्वरूपेण / केवलमिदमेकमस्य विरूपकं यदेष For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। मतां गर्हिते कुसंसर्ग वर्तते / नृपतिराह / कीदृशोऽस्य कुसंसर्गः / कनकशेखरेणाभिहितं / अस्त्यस्य स्वरूपोपतापहेतुः सर्वानर्थकारणं वैश्वानरो नाम वयस्यः / तथा विद्यतेऽस्य श्रूयमाणापि जगतस्त्रासकारिणौ महापापहेतुहिमा नाम भार्या / ताभ्यां प युक्तस्यास्येचुकुसुमस्येव निष्फलेव शेषगुणधवलता। नृपतिराह / यद्येवं ततस्तयोः पापयोस्त्याग एव श्रेयान् नाश्रयणम् // तथाहि। वयस्यः म विधातव्यो नरेण हितमिच्छता। इहामुत्र च यः श्रेयान् न लोकदयनाशकः // मा भार्या विदुषा कार्या या लोकाल्हादकारिका / धर्ममाधनहेतुश्च न पुनर्दुष्टचेष्टिता // एवं च वदतोस्तयोर्वचनेन मततं ज्वलमानोऽपि वहिरिव मर्पिषा गाढंतरं प्रज्वलितोऽहं। ततो मया व्याधुनितमुत्तमाङ्गं प्रास्फोटितं करतलेन भूमिपृष्ठं विमुक्तः प्रलयनिर्घाताकारो हुङ्कारः आलोकितमुयचलत्तारिकया दृश्या तयोरभिमुखं अभिहितश्च राजा। अरे मृतक मदीयजौवितं वैश्वानरं हिंसां च पापतया कल्पयसि। न लक्षयसि कस्य प्रमादात्त्वयेदं राज्यं ममामादितं। किं नर्हि मदीयवैश्वानरमन्तरेण भवतः पित्रापि मसमरसेनो द्रुमो वा निहन्तुं शक्येत / कनकशेखरः पुनरेवमभिहितः / अरे वृषल किं मत्तोऽपि पण्डिततरस्वममि येनैवं मां शिक्षयमि। ततस्तदवलोक्याकर्ण्य च मदीयवचनं विस्मितो राजा। हतं कनकशेखरेण मोरं मुखं / मया चिन्तितं। श्रये नैतौ मां गणयतः / ततः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रतीयः प्रसावः। 3 ममाष्टा चमत्कुर्वाणा चुरिका। अभिहितं च / अरे गेहेनर्दिनौ दर्शयामि भवतोः स्वकीयवैश्वानरवीर्य / प्रहरणहस्तौ भवतं / ततः समुत्खातचुरिकं ललमानजिहं यममिव मामवलोक्य दूरीभूतं राजकं। न चलितौ राजकनकशेखरौ। ततः मनिहिततया पुण्योदयस्य महाप्रतापतया राजकनकशेखरयोर्भवितव्यतावशेन चादत्वैव प्रहारं निर्गतोऽहमास्थानाइतः स्वभवनं / ततः प्रत्यपकर्णितोऽहं कनकचूडकनकशेखराभ्यां / मयापि दृष्टौ तौ शत्रुरूपौ। विच्छिन्नः परस्परं खोकव्यवहारोऽपौति // अन्यदा ममागतो जयस्थलाद्दारको नाम दूतः। प्रत्यभिजातो मया। निवेदितमनेन। यथा कुमार महत्तमः प्रहितोऽहं। मया चिन्तितं। अये किमिति महत्तमैः प्रहितोऽयं न पुनस्तातेन / ततो जाताशकन पृष्टोऽसौ मया। अपि कुशलं तातस्य / दारुकः प्राह। कुशलं। केवलमस्ति वङ्गाधिपतिर्यवनो नाम राजा। तेन चागत्य महाबलतया समन्ताविरुद्धं नगरं खौलतो बहिर्विषयः दापितानि स्थानकानि भनः पर्याहारः। न चास्ति कश्चित्तनिरा. करणोपायः / ततः चौरमागरगम्भौरहदयोऽपि मनागाकुलौभूतो देवः। विषमा मन्त्रिण: / उन्मनीभूता महत्तमाः। जस्ता नागरकाः। किं बहुना / न जाने किमत्र भविष्यतीति वितण संजातं सर्वमपि देवशरणं तन्नगरं। ततो मन्त्रिमहत्तमैः कृतपर्याचोचः स्थापितः सिद्धान्तः / यदुन नन्दिवर्धनकुमार एव यदि परमेनं यवनहतकमुत्सादयति नापरः पुरुष इति / ततो मतिधनेनाभिहितं / ज्ञाप्यतामिदमेवंस्थितमेव देवाय / बुद्धिविशालेनाभिहितं / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 360 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / नैवेदं देवाय ज्ञापनौयं / मतिधनः प्राह / कोऽत्र दोषः / बुद्धिविशालेनोनं / सुतवत्मलतया देवस्य कदाचिदेवं विधमङ्कटे नन्दिवर्धनागमनं न प्रतिभासते। तस्माद्देवस्याज्ञापनमेव श्रेयः / प्रज्ञाकरः प्राह / माधु माधुपपद्यमानं मन्त्रितं बुद्धिविशालेन / मतिधन किमत्रान्येन विकल्पेन / प्रेष्यतां कुमाराहानाय प्रच्छन्न एव दूतः थेन सर्वत्र शान्तिः संपद्यते / मतिधनेनाभिहितं / एवं भवत् / ततः सर्वरोचकेन प्रहितोऽहमिति // तदिदं दूतवचनमाकोल्लसितो वैश्वानरः / भविष्यति मम चारुतरोऽवसर इति प्रहसिता हिंसा / मयाभिहितं। अरे ताडयत प्रस्थानभेरिं। मज्जौकुरुत चतुरङ्गसेनां / तथा कृतं नियुक्तः / ततः मर्वबलेन चलितोऽहं / नाख्यातं कनकचडकनकशेखरयोः / केवलं कनकमञ्जरीवत्सलतया प्रवृत्ता मणिमञ्जरी। ततोऽनवरतप्रयाणकैः प्राप्ता वयं जयस्थलामन्ने। अभिहितो मया वैश्वानरः। यदुत वयस्य मततप्रवृत्ता ममाधुना तेजस्विता नापेक्षते वटकोपयोगं / तत्किमत्र कारणमिति। वैश्वानरेणाभिहितं / कुमार निष्कत्रिमभक्रियाह्या वयं। अतुला च ममोपरि कुमारस्य भक्तिः / मदौर्यप्रभवाणि चैतानि क्रूरचित्तानि वटकानि भकिमतामेव पुमां शरीरे प्रचरन्ति / तेन प्रचरितानि कुमारस्य शरीरे गतानि तन्मयतां / किं बहुना। मट्रप एवाधुना वौर्येण कुमारो वर्तते / अन्यच्च / कुमार मदीयवचनानुभावादेवेयमपि हिंसाधुना कुमारस्थ प्रतिपन्ना मात्मीभावं / नात्र मन्देहो विधेयः / मयाभिहितं। अद्यापि मन्देहः॥ ततो यावदेतावानावयोर्जन्यः संपद्यते स्म तावद्दर्शनवौथिमवतीर्ण परबलं / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ...तीयः प्रस्तावः / 361 दृष्टमनेनास्मदनौकं / ततस्तत्संनद्धमागतमभिमुखं / ततः संलग्नमायोधनं / तच कीदृशम् / रथौघघर्घरारवं गजेन्द्रगर्जिदारुणम् / महाश्व हेषितोडुरं पदातिशब्दभौषणम् // क्षणेन च तत्किंभूतं संपन्नम्। विदीर्णचक्रकूबरं विभिन्नमत्तकुञ्जरम् / विनाथवाजिराजितं पतत्पदातिमस्तकम् // प्रजातसैन्यतानवं प्रनष्टदेवदानवम् / असिग्रहप्रवर्धकं प्रनृत्तमत्कबन्धकम् // ततोऽभिभूता यवनराजसेनयास्मत्पताकिनी / समुल्लसितस्तवले कलकलः / ततो वलितोऽहमेककस्तदभिमुखं / ममापतितो मया सह योद्धं खयमेव यवनराजः / रणरभसेन चातीव मिलितो स्थन्दनौ / ततः स्थित्वाहं कूबराग्ने दत्त्वा करणं पतितस्तत्स्यन्दने / चोटितं स्वहस्तेन यवनराजस्य मस्तकं / ततः प्रादुर्भवत्तोषलमज्जयजयारवम् / अस्मद्दलं परावृत्य समायातं मदन्तिकम् // अन्यच्च / तदा / देवदानवगन्धर्वा वर्णयन्तः पराक्रमम् / मम गन्धोदवं पुष्पैर्मिश्रं मुञ्चन्ति मस्तके // ततश्च तत्परानौक क्षणेन हतनायकम् / जातं मे किङ्करं सर्वमाज्ञानिर्देशकारकम् // निर्गत्य नगरात्तातो हर्षण मह बन्धभिः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 262 उपमितिभवप्रयचा कथा / समागतः समीपं मे नगरं च मबालकम् // ततो रथादवतौर्य पतितोऽहं तातपादयोः / ग्टहीत्वांमदेशयोरू/सत्यानन्दोदकवर्षेण स्वपयता ममालिङ्गितोऽहं तातेन / चुम्बितो मुहुर्मुहुर्मूर्धदेशे। ततो दृष्टा मयाम्बा / कृतं तस्याः पादपतनं / ममालिङ्गितोऽम्बया चुम्बितो मस्तके / अभिहितश्चानन्दाश्रुपरिपूर्ण लोचनया गद्गदया गिरा / यथा / पुत्र वशिलासम्पुटघटितमेतत्ते जनन्याः सम्बन्धि हतहदयं यत्तवापि विरहे न शतधा विदीर्णं / निःमा रितानि च वयममुभागर्भवासादिव नगररोधंकाद्भवता / अतो ममापि जीवितेन चिरं जीवेति // ततो लज्जितोऽहं स्थितो मनागधोमुखं / समारूढानि सर्वाण्यपि रथवरे / ततश्च / हष्टा वैरिविमेन तुष्टा मत्मङ्गमेन च / ते राजलोकाः सर्वेऽपि तदा किं किं न कुर्वते // तथाहि / केचिद्ददति दानानि केचिङ्गायन्ति भाविताः / उद्दामतूर्यनिर्घोषैः केचिन्नृत्यन्ति निर्भरम् // केचित्कलकलायन्ते केचिदुकृष्टनादिनः। काश्मीरचन्दनक्षोदः केचित्केलिपरायणाः // केचिद्रत्नानि वर्षन्ति तथान्ये हासपूर्वकम् / हरन्ति पूर्णपात्राणि वलामानाः परस्परम् // तुष्टो नागरको लोको वलान्ते कुजवामनाः / कृतो वाहवो नृत्ताः सर्वऽन्तःपुरपालकाः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हतीयः प्रस्तावः / / एवं महाप्रमोदेन प्रविश्य नगरं ततः / स्थित्वा राजकुले किंचिह्नतोऽहं निजमन्दिरे / दिवमोचितकर्तव्यं तत्र संपाद्य सर्वथा / अनेकाद्भुतविस्तारदर्शनप्रीतमानमः // ममं कनकमञ्जर्या रजन्यां शयने स्थितः / अथैवं चिन्तयामि स्म महामोहवशंगतः // अहो वैश्वानरस्योचै.प्रभावोऽयं महात्मनः / ममेयमौदृशौ जाता यतः कल्याणमालिका // श्रागतोऽहं तदुत्माहाज्जाता तेजस्विता परा / तोषितौ जनको लोके लब्धा जयपताकिका // अहो प्रभावो हिंसाया या विलोकनलीलया / करोत्येषा विशालाक्षी मंच वैरिविमर्दनम् // नातः परतरं मन्ये प्रभावे दृद्धिकारणम् / यथेयं मम हिंमेति प्रत्यक्ष फलदायिनी // ततो गाढतरं रक्कोऽहं वैश्वानर हिमयोः / मिद्धान्तं हृदयेनैवं स्थापयामि विशेषतः // एते मे परमौ बन्ध एते परमदेवता / एते एव हिते मन्ये सर्वमत्र प्रतिष्ठितम् // एते यः माघयद्धन्यः म मे बन्धुः म मे सुद्दत् / एते यो देष्टि मूढात्मा म मे शत्रुन संशयः // न पुनस्तद्विजानामि महामोहपरायणः / यथा पुण्योदयाज्जातं ममेदं सर्वमनमा / 50 . For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 264 उपमितिभवप्रयचा कथा। हिंमावैश्वानरामतः पुण्योदयपरामुखः / ततोऽहं धर्ममार्गस्य दूरादूरतरं गतः // नतश्च। रात्रिशेषे समुत्थाय पापी बद्धमानमः / नाताम्बादौनदृष्ट्वैव गतोऽटव्यामहं ततः // अनेकमत्त्वमम्भारं मारयित्वा गते दिने / मन्ध्यायां पुनरायातः प्रविष्टो भवने निजे // प्रथामौ विदुरः प्रोक्रस्तातेनाकुलचेतमा / मत्समीपे कुमारोऽद्य किं नायातो निरूपय / / विदरेणोक्र प्रभातेऽहं स्मृत्वा मैत्रौं चिरन्तनौम् / दर्शनार्थं कुमारस्य गतस्तस्यैव मन्दिरे // ततः परिजनेनोनं यथाखेटककाम्यया / रात्रावेव गतोऽटव्यां कुमारो नास्ति भो रहे / ततो मयाभिहितं। किमद्यैव कुमारो गतः पापड़िबुद्ध्या किं वा प्रतिदिनं गच्छतौति। परिजनः प्राह / भद्र यतः प्रभृतीयं हिंमा परिणौता कुमारेण तत प्रारभ्य प्रतिदिनं गच्छति / नान्यथा तिं लभते / किं बहुना। जीवितादपि बल्लभोऽधुना आखेटकः कुमारस्येति। मया चिन्तितं / अहो हता देवेन वयं मन्दभाग्याः। तदिदमाभाणकमाया। यदुत यत्करभस्य पृष्ठे न माति तत्कण्ठे निबध्यत इति / तथा हि वैश्वानरपापमित्रयोगेणैव कुमारस्य गाढमुद्धेजिता वयं यावते यमपरा कृत्येवास्य भार्या संपन्नेति। तत्किं पुनरत्र विधेयमिति चिन्तयतो मे गतं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 365 दिनं। तदिदं कुमारस्य युभत्ममी पेऽनागमनकारणमिति / तातेनाभिहितं / विदुर महापापहेतुरिदं मृगयाव्यमनं न च सेवितमस्मदंशजेनरपतिभिः / अतो यद्यस्य निमित्तभूतेयं भार्या कुमारस्यापमार्यते ततः सुन्दरं भवति / विदुरः प्राह। देव वैश्वानरवन्निरुपक्रमेयं लक्ष्यते / अथवा श्रूयते पुनरप्यायातोऽत्र नगरे म जिनमतज्ञो नैमित्तिकः / ततः स एवाय प्रष्टुं युक्तो यदत्र कर्तव्यमिति। तातेनाभिहितं। आकारय तर्हि तं नेमित्तिकं / विदुरेणोक्तं / यदाज्ञापयति देवः // ततो निर्गतो विदरः / समागतः स्तोकवेलायां ग्टहीत्वा जिनमतज्ञं। ततो विधाय तस्य प्रतिपत्तिमाख्यातं तातेन प्रयोजनं। ततो निरूपितं बुद्धिनाडौसञ्चारतो नैमित्तिकेनाभिहितं च। यथा महाराज एक एवात्र परमुपायो विद्यते / म यदि संपद्यत ततः स्वयमेव प्रलीयेत कुमारस्थयमनर्थकारिणी हिंसाभिधाना भार्या / तातेनाभिहितं। कीदृशः स इति कथयत्वार्यः / जिनमतज्ञेनाभिहित। यत्तदा वर्णितं ममक्षमेव भवतां / यथास्ति रहितं सर्वोपद्रवैर्निवासस्थानं समस्तगुणानां कारणं कल्याणपरम्परायाः दुर्लभं मन्दभागधेयश्चित्तसौन्दर्य नगरं। तत्र च यो वर्णितः / यथास्ति हितकारी लोकानां कृतोद्योगो दुष्टनिग्रहे दत्तावधानः शिष्टपरिपालने परिपूर्ण: कोपदण्डसमुदयेन शुभपरिणामो नाम राजा। तस्य राज्ञो यथासौ क्षान्तेर्जनयित्री निष्पकम्पता नाम महादेवी तदा वर्णिता तथैव तस्यान्यापि द्वितीयास्ति हितकारिणी लोकानां निकष For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 366 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / भूमिः सर्वशास्त्रार्थानां प्रवर्तिका सदनुष्ठानानां दूरवर्तिनौ पापानां चारुता नाम राजौ। तथाहि / तावदुःखानि संसारे लभन्ते सर्वजन्तवः / खर्गापवर्गमार्ग च न लभन्ते कदाचन // यावत्मा चारुता देवी तैर्न सम्यग् निषेव्यते / यदा पुनर्निषेवन्ते तां देवौं ते विधानतः // लब्धा कल्याणमन्दोहं तदा यान्ति शिवं मराः / अतः मा चारुता देवी लोकानां हितकारिणौ // संसारसागरोत्तारकारणानि महात्मनाम् / लोके लोकोत्तरे वापि यानि शास्त्राणि कानिचित् / / तेषु सर्वेषु शास्त्रेषु वर्णिता परमार्थतः / उपादेयतया देवौ मा प्राजैस्तत्त्वचिन्तकैः / / तेन मा निकषस्थानं शास्त्राणमिह गौयते / तां विना सर्वशास्त्रार्थोऽमबुद्धिप्रकरायते // दानं शौलं तपो ध्यानं गुरुपूजा शामो दमः / एवमादौनि लोकेऽत्र चारुकर्माणि भावतः / / प्रवर्तयति मा देवौ स्वबलेन महात्मनाम् / तेन मा सदनुष्ठानजनकेति निरुच्यते // . कामक्रोधभयद्रोहमोहमात्सर्यविभ्रमाः / शाद्यपैन्परागाद्या ये लोके पापहेतवः // तेषां तया महावस्था नास्येव भुवनत्रये / श्रतः मा चारुता देवी पापानां दूरवर्तिनौ / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / तस्याश्च भपरिणामसम्बन्धिन्याश्चारुताया महादेव्या श्राह्रादहेतुर्जगतः सुन्दरा रूपेण वल्लभा बन्धूनां कारणमानन्दपरम्परायाः सततं मुनौनामपि हृदयवासिनौ विद्यते दया नाम दुहिता / तथाहि / सर्वे चराचरा जौवा भुवनोदरचारिणः // दुःखं वा मरणं वापि नाभिकाङ्गन्ति सर्वदा // ततश्च / सा दया द्वयमप्येतदारयत्येव देहिनाम् / तेन मा भुवनालादकारणं परिकीर्तिता // मुखं शशधराकारं माभौर्दानाख्यमुत्तमम् / सद्दानदुःखत्राणाख्यौ दयायाः पौवरौ स्तनौ // विस्तीर्णं जगदानन्दं शमाख्यं जघनस्थलम् / यदा नास्त्येव तदेहे किंचिदङ्गमसन्दरम् // रूपेण सुन्दरा प्रोता तेन मा मुनिपुङ्गवः / यथेष्टा बन्धुवर्गस्य तथेदानौं निगद्यते // क्षान्तिः शुभपरिणामश्च चारुता निष्प कम्पता। शौचमन्तोषधैर्याद्या दयाया बान्धवा मताः // तेषां तु मतताह्लादकारिणी हृदयस्थिता / तेनातिवल्लभा प्रोक्ता बन्धुवर्गस्य मा दया / सुरेषु मर्त्यलोकेषु मोचे च मुखपद्धतिः / दयापरौतचित्तानां वर्तते करवर्तिनौ / श्रानन्दपद्धतेर्हेतुस्तेन मा कन्यका मता / श्रत एव सुमाधूनां हृदये सा प्रतिष्ठिता // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 368 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / अथवा। दया हितकरी लोके दया सर्वगुणावहा / दया हि धर्ममर्वस्वं दया दोषनिषदनौ / दयैव चित्तमन्तापविध्यापनपरायणा / दयावतां न जायन्ते नूनं वैरपरम्पराः // किं वात्र बहुनोकन गुणसम्भारगौरवम् / वहन्ती पद्मपत्राची मा दया केन वर्ण्यताम् // तदत्र परमार्थोऽयं महाराजाय कथ्यते / हिमायाः प्रलयोपायो नापरोऽत्र निरौक्ष्यते // यदैष तां दयां धौरः कुमारः परिणेष्यति / तदास्य स्वयमेवैषा दुष्टा भार्या विनंक्ष्यति // यतः / दूयं दाहात्मिका पापा मा पुनर्हिमगौतला / ततोऽनयोर्विरोधोऽस्ति यथा निजलयोः सदा // ततस्तातेनाभिहितं / आर्य कदा पुनरेष मन्दिवर्धनकुमारस्तां दयाकन्यकां परिणे व्यति / जिनमतज्ञेनाभिहितं। यदा शुभपरिणामो दास्यति / तातः प्राह / स एव तर्हि कदा दास्यति / जिनमतज्ञेनाभिहितं। यदा कुमारं प्रति प्रगुणो भविष्यति / तातेनाभिहितं। कस्तर्हि तस्य प्रगुणीभवनोपायः। जिनमतज्ञः प्राह / कथितं पूर्वमेवेदं मया भवतां / यथा तं शुभपरिणामनरेश्वरं यदि परं कर्मपरिणाममहाराजः प्रगुणयितुं समर्था नापरः / तदायत्तो यतोऽसौ वर्तते / तस्माकिमत्र बहुना। यदा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतोयः प्रस्तावः। 366 म कर्मपरिणाममहानरेन्द्रः कुमारं प्रति मप्रसादो भविष्यनि तदा स्वयमेव भपरिणामेनास्मै कुमाराय दयादारिकां दापयिष्यति / किं च चिन्तया / अन्यच्च / लक्षयाम्येवाहं निमित्तबलेन कुमारम्य भव्यतामपेक्ष्य युक्तिबलेन च। यदुत नियमेन कचिकाले मप्रमादो भविष्यत्येनं कुमारं प्रति कर्मपरिणामो नात्र सन्देहः / ततश्च तस्मिन् काले श्रापृच्छय महत्तमभगिनों लोकस्थितिं पर्यालोच्य मह कालपरिणत्या निजभार्यया कथयित्वामौयमहत्तमाय स्वभावाय संभाल्य च स्वरमधुरवचनैरस्यैव नन्दिवर्धनकुमारस्य सम्बन्धिनौं समस्तभावान्तरानुयायिनौं प्रच्छन्नरूपामन्तरङ्गभायीं भवितव्यतां दौपयित्वा नियतियदृच्छादीनां कुमारवीर्य स्थापयित्वा दयादारिकादानस्य योग्योऽयमिति मर्वसमदं मिद्धान्तपक्षं ततो दापयिष्यत्येव स कर्मपरिणाममहाराजो दयादारिकां कुमाराय। निःसन्दिग्धमेतदतो मुञ्चत य्यमाकुलतां। तातः प्राह। तत्किमधुनास्माकं प्राप्तकालं / जिनमतज्ञेनोक् / मौनमवधौरणा च। तातेनाभिहितं। आर्य किमात्मपुत्रोऽम्माभिरवधौरयितुं शक्यत। जिनमतज्ञः प्राह। तत्किमत्र क्रियतां / यदि हि बहिरङ्गोऽयमुपद्रवः कुमारस्य स्यात्ततो न युज्येत कतुं तत्रभवतामवधोरणां / अयं पुनरन्तरङ्गोपद्रवो वर्तते / ततस्तमवधीरयन्तोऽपि भवन्तो नोपालम्भमर्हन्ति / ततो यदादिशत्यार्य इति वदता तातेन परिपूज्य प्रहितो नैमित्तिकः॥ गतानि कतिचिद्दिनानि / समुत्पन्नेयं तातस्य बुद्धिः। यथा स्थापयामि यौवराज्ये नन्दिवर्धनकुमारं। ज्ञापितं महत्तमानां / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 40. उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्रतिपन्नमेतैः। गणितं प्रशस्तदिनं / कृताभिषेकमामग्रौ। समाहतोऽहं। विरचितं भद्रासनं। मौलिताः सामन्ताः। समागता नागरकाः / संनिधापितानि माङ्गलिकानि / प्रकटितानि रत्नानि / प्रत्यासन्नीभूतान्यन्तःपुराणि || अत्रान्तरे प्रविष्टा प्रतौहारौ / कृतं तया पादपतनं / विरचितं करपुटकुमलं निवेशितं ललाटपट्टे / गदितमनया। देव अरिदमननृपतेः सम्बन्धी स्फुटवचनो नाम महत्तमः प्रतीहारभूमौ तिष्ठति। एतदाकर्ण्य देवः प्रमाणं / तातेनाभिहितं / शीघ्र प्रवेशय / प्रवेशितः प्रतीहार्या। विहिता प्रतिपत्तिः। अभिहितं स्फटवचनेन / महाराज श्रुतो मया बहिरेव कुमारस्य यौवराज्याभिषेकव्यतिकरः। तेनाहं शुभमुहूर्ताऽयमिति कृत्वा स्वप्रयोजनसिद्धये त्वरिततरः प्रविष्टः। तातेनाभिहितं / सुन्दरमनुष्ठितं / निवेदयतु स्वप्रयोजनमार्यः। स्फुटवचनः प्राह / अस्ति तावद्विदित एव भवादृशां शार्दूलपुराधिपतिः सुग्रहौतनामधेयो देवोऽरिदमनः / तस्यास्ति विनिर्जितरतिरूपा रतिचल्ला नाम महादेवी। तस्याश्चाचिन्त्यगुणरत्नमञ्जूषा मदनमञ्षा नाम दहिता। तया च लोकप्रवादेनाकर्णितं नन्दिवर्धनकुमारचरितं / ततो जातस्तस्याः कुमारेऽनुरागातिरेकः / निवेदितः स्वाभिप्रायो रतिचूलायै / तथापि कथितो देवाय / ततस्तां मदनमञ्षां कुमाराय प्रदातुं युमत्समीपे प्रहितोऽहं देवेन / अधुना महाराजः प्रमाणम् // ततो निरीक्षितं तातेन मतिधनवदनम् / मनिधनः प्राह / देव महापुरुषोऽरिदमनः / युक्त एव देवस्य तेन माधु सम्बन्धः / ततोऽनुमन्यतामिदं तस्य वचनं। कोऽत्र विरोधः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। ___401 तातेमाभिहितं। एवं भवत् / अत्रान्तरे मयाभिहित। अहो कियद्दूरे तत्तावकीनं शार्दूलपुरमितः स्थानात् / स्फुटवचनः प्राह / सार्धयोजनशते / मयाभिहितं / मैवं वोचः / स्फुटवचनः प्राह / तर्हि यावरे तत्कथयत स्वयमेव कुमारः। मयाभिहितं / गव्यूतेनोने मार्धयोजनशते / स्फुटवचनः प्राहः / किमेतत् / मयाभिहितं / श्रुतमस्माभिर्बालकाले / स्फुटवचनः प्राह / न सम्यगवधारितं कुमारेण / मयो / त्वया कथमवधारितम् / स्फुटवचनः प्राहः / गणितं मया पदं पदेन / मयाभिहितं / सुनिणेतमिदमस्मा भिरप्याप्तप्रवादात् / स्फुटवचनेनोतं / कुमार विप्रतारितः केनापि / न चलतीदं मदौयं प्रमाणं तिलतुषत्रिभागमात्रेणापि // ततो मामेष दुरात्मा लोकमध्येऽलोकं करोतीति चिन्तयतो मे जम्भितं वैश्वानरेण प्रहमितं हिंसया। प्रयुक्ता योगशक्तिः / कृतो द्वाभ्यामपि मदीयशरोरेऽनुप्रवेशः / ततः संजातोऽहं साक्षादिव प्रलयज्चलनः। समाकृष्टं दिनकरकरनिकरकरालं करवालं // पत्रान्तरे चिन्तितं पुण्योदयेन। यदुत पूर्ण ममाधुनावधिः / पालितो भवितव्यता निर्देशः / न योग्योऽयमिदानौं नन्दिवर्धनकुमारो मत्सम्बन्धस्य / तस्मादपक्रमणमेव मेऽधुना श्रेयः / इत्यालोथ नष्टः पुण्योदयः // मया कुर्वतो हाहारवं तावतो जनसमुदायस्याग्रत एव अविचार्य कार्याकार्यमेकप्रहारेण कृतो द्विदलः स्फुटवचनः / ततो हा पुत्र किमिदमकार्यमनुष्ठितमिति ब्रुवाण: ममुत्थितः सिंहासनात् तातश्चलितो मदभिमुखं वेगेन। मया चिन्तितं / श्रयमप्येतद्रप एव यो दुरात्मा मयापि कृतमिदम 1 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 402 उपमितिभवप्रपचा कथा। कार्यमित्यारटति। ततः समुदौर्णखड्गो वलितोऽहं ताताभिमुखं / कृतो लोकेन कोलाहलः / ततो मया न मतं जनकत्वं न लक्षिता स्नेहनिर्भरता न गणितं परमोपकारित्वं नालोचितो महापापागमः / सर्वथा वैश्वानरहिंसावशीभूतचित्तेनावलम्य कर्मचाण्डालतां तथैव रटतस्तातस्य त्रोटितमुत्तमाङ्गं / ततो हा जात हा जात मा माहसं मा माहसं चायध्वं लोकास्त्रायध्वमिति विमुक्तकरुणाकन्दरवा श्रागत्य लग्ना ममाम्बा करे करवालोद्दालनार्थ / मया चिन्तितं। इयमपि पापा मम वैरिणव वर्तते येवं शत्रच्छेदपरेऽपि मयि लकशकायते / ततः चता मापि वेधा करवालेन / ततो हा भ्रातर्हा कुमार हा आर्यपुत्र किमिदमारब्धमिति पूत्कुर्वाणानि शौलवर्धनो मणिमञ्जरी रत्नवतौ च लगानि बौयपि मम भुजयोरेककालमेव निवारणार्थ / मया चिन्तितं / एकालोचितं नूनममौषां सर्वेषामपि दुरात्मनां / ततो गाढतरं परिज्वलितोऽहं / नीतानि त्रौण्यप्येकैकप्रहारेणान्तकमदनं // अत्रान्तरेऽमुं व्यतिकरमाकर्ण्य हा आर्यपुत्र किमिदं किमिदमिति प्रलपन्तौ प्राप्ता कनकमञ्जरौ। मया चिन्तितं। अये एषापि पापा मवैरिणामेव मिलिता येवं विक्रोशति। अहो हृदयमपि मे वैरिभूतं वर्तते / तकिमनेन / अपनयाम्यस्या अपि बन्धुवत्मलत्वं / ततो विगलितप्रेमाबन्धे विस्मृता तद्विरहकातरता। न स्फुरितानि हृदये विश्रयजल्पितानि / अपहस्तिता रतिसुखमन्दोहाः / न पर्यालोचितस्तस्याः सम्बन्धी निरुपमः स्नेहाबन्धः / सर्वथा वैश्वानरान्धबुद्धिना हिंसाक्रोडौकतहदयेन मया विदलिता करवालेन वराको कनकमञ्जरी। For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्टतौयः प्रस्तावः। 403 अत्रान्तरे संरम्भेण गखितं मे कटौतटात्परिधानं विलुलितं भूमौ। निपतितमुत्तरीयं चितितले। जातोऽहं यथाजातः / मुत्कलौभूताः केशाः। संपनः साक्षादिव बेतालः। ततस्तथाभूतं मामवलोक्य दूरवर्तिभिः प्रेक्षकडिम्भरूपईसद्भिरट्टहासेन छता किलिकिलिका / ततः सुतरां प्रचलितोऽहं चलितस्तन्मारणाय वेगेन / ततो मे भ्रातरो भगिन्यः स्वजनाः मामन्ताश्च लमाः सर्वेऽप्येककाखं निवारणार्थे / ततः कृतान्त व समदर्शितया समस्तानपि निर्दलयन्त्रहं गतः कियन्तमपि भूभागं / ततो भूरितया लोकस्य वनकरीव श्रमे पातयित्वा ग्रहौतः कथंचिदहं / उहालितं मण्डलायं। बद्धः पश्चाबाहुबन्धेन / ततो रटनसभ्यवचनानि प्रक्षिप्तोऽपवरके / दत्ते कपाटे। तत्र च प्रज्वलन्ननुनयवचनैः प्रलपन्नश्राव्यभाषया ददानः ककाटयोर्मस्तकास्फोटां चामो बुभुक्षया पौडितः पिपासया दन्दह्यमानश्चित्तमन्तापेनालभमानो निद्रां महाघोरनारक दूव तथा बद्ध एव स्थितो माममात्र कालं अवधौरितः परिजनेन // अन्यदात्यन्तक्षीणतया समागता ममार्धरात्रे क्षणमाचं निद्रा / ततः प्रसुप्तस्य छिन्नं मे मूषकैर्बन्धनं / जातोऽहं मुत्करः / उद्घाटिते कपाटे। निर्गतो बहिर्देशे। निरूपितं राजकुलं / यावत्र कश्चिञ्चेतयते ततो मया चिन्तितं / सर्वमेवेदं राजकुलं नगरं च मम वैरिभृतं वर्तते येनाहमेवं परिक्लेशितः पापेन / ततो विजम्भितो ममान्तर्वौँ वैश्वानरः। महर्षया हुङ्कारितं हिंसया। दृष्टं मया प्रज्वलिता निकुण्डं। चिन्तितं पदये। अयमत्र वैरिनिर्यातनोपायः। यदुत रहौत्वा शरावं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 808 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / भृत्वाङ्गाराणां ततो राजकुलस्य नगरस्य च परापरेषु इन्धनबहुलेषु स्थानेषु स्तोकस्तोकान्प्रक्षिपामि। ततः स्वयमेव भस्मीभविष्यतीदं द्वयमपि दुरात्मकमिति। ततः कृतं सर्वं तथैव 1 तन्मया लग्नं समन्तात्प्रदीपनकं / निर्गतोऽहमपि दंदह्यमानः कथंचिद्भवितव्यताविशेषेण / प्रवृत्ती जनाक्रन्दरवः / धावन्ति स्म लात लातेति ब्रुवाणाः परबलशङ्कया सुभटाः। ततः होणतया शरीरस्य परस्परानुविद्धतया शरीरमनमोविगलितं धैर्थे / समुत्पन्न मे भयं / पलायितोऽटवौसमुखं / पतितो महारण्ये विद्धः कण्टकैः स्फोटितः कलकैः परिभ्रष्टो मार्गात् प्रस्खलितो विषमोदृशात् निपतितोऽधोमुखो निन्न देशे। चूर्णितान्यङ्गोपाङ्गानि / न शक्नोम्युत्थात // अत्रान्तरे समागताश्चौराः। दृष्टस्तैस्तथावस्थितोऽहं / अभिहितममौभिः परस्परं / अरे महाकायोऽयं पुरुषो लस्यते परकूले बहुमूल्यं / तद् ग्टहीत्वा नयामः स्वस्वामिमूलमेनं। तदाकर्ण्य ममुनमितो ममान्तर्निमग्रो वैश्वानरः / स्थितोऽहमुपविष्टः / ततस्तेषामेकेनाभिहितं। अरे विरूपकोऽस्याभिप्रायः। ततः शौघं बनौत ययमेनमन्यथा दुर्घहो भविष्यति। ततो गाढं हत्वा धनुःशाखाभिनियन्त्रितोऽहं पश्चान्मुखीकृत्य बाहू। ददतो गालोर्बद्धं मे वनकुहरं। ततः समुत्थापितोऽहं। परिहितं जरचीवरखण्डं। खेटितो ददद्भिर्गाढप्रहारान् नौतः कनकपुरप्रत्यासन्नां भीमनिकेतनाभिधानां भिल्लपल्लौं / दर्शितो रणवीरस्य पल्लोपतेः / अभिहितमनेन / अरे पोषयत तावदेनं येन पुष्टो विक्रेतं नौयते / ततो यदा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीयः प्रस्तावः। 405 ज्ञापयति देव इति वदता नौतोऽहमेकेन चौरेण स्वभवने / कोटितं वदनं कृतो मुत्कलो लग्नोऽहं चकारादिभिः / कुपितचौरो। हतोऽहं दण्डादिभिर्नवरं समर्पितोऽयं मम खामिनेति मत्वा न मारितोऽहमनेन / केवलं दापितं कदशनं / ततो बुभुक्षाक्षामकुक्षितया संजातं मे दैन्यं / तदेव कदन्नं भवयितमारब्धः / न पूरितमुदरं / संजातश्चित्तौदेगः / गतानि कतिचिद्दिनानि / पृष्टोऽमौ रणवीरेण चौरः कीदृशोऽसौ पुरुषो वर्तत इति। म प्राह / देव न कथंचित्तस्य बलमारोहतीति। ततः चपितोऽहमेवं तेन भूयासं कालं // अन्यदा समायातः कनकपुराचौराणामुपरि दण्डः / नष्टास्तस्कराः। लूषिता मा पल्ली। ग्रहौता बन्यो नौताः कनकपुरे। गतोऽहमपि तन्मध्ये। दर्शिता बन्यो विभाकरनृपतेः। ततो मामवलोक्य चिन्तितमनेन / अये किमिदमाश्चयं यदेष पुरुषोऽस्थिचर्मशेषतया दवदग्धस्थाणुकल्पोऽपि नन्दिवर्धनकुमाराकारं धारयति। ततो निरूपितोऽहं नखाग्रेभ्यो वालाग्राणि यावत् / ततः स्थितं तस्य हृदये नन्दिवर्धनकुमार एवायं / केवलं कथं तस्येह संभवोऽथवा विचित्राणि विधेविलमितानि / तद्दशगानां हि प्राणिनां किं वा न संभवति / तथाहि / य एकदा नताशेषभूपमौल्यर्चितक्रमः / वचने वचने लोकैर्जय देवेति भण्यते // म एव विधिना राजा तस्मिन्नेव भवेऽन्यदा / रोराकारं विधायोच्चै नाकारं विडम्ब्यते // तस्मात्म एवायं नास्त्यत्र सन्देहः। ततः स्मृतमित्रभावेन For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / गलदानन्दोदकप्रवाहचालितकपोलेन सिंहासनादुत्थाय समालिङ्गितोऽहं विभाकरेण / ततः किमेतदिति विस्मितं राजमण्डलं / ततो निवेश्यात्मीयार्धासनेऽभिहितोऽहमनेन। वयस्य कोऽयं वृत्तान्तः / ततः कथितं विभाकराय मयात्मचरितं / विभाकरः प्राह। हा कष्टं न सुन्दरमनुष्ठितं भवता यदिदमतिनिणं जननौजनकादिमारणमाचरितं / ततः अयमपौह जन्मन्येव क्लेशो भवतस्तस्यैव फलविपाकः। तच्छ्रुत्वा विस्फुरितौ ममान्तर्गतौ हिंमावैश्वानरौ। चिन्तितं मया। यथायमपि मे वैरिरूप एव यो मत्कर्तव्यमप्यसुन्दरं मन्यते। ततो जातो मे तन्मारणाभिप्रायः / तथापि दुर्बलतया देहस्य महाप्रतापतया विभाकरस्य संनिहिततया बहुराजवृन्दस्य अनिकटवर्तितया प्रहरणस्य न दत्तो मया प्रहारः / केवलं कृतं कालं मुखं / लक्षितो विभाकरण मदीयाभिप्रायः। यथा न सुखायतेऽस्य मदीयोऽयं जन्यः / तत् किमनेन संतापितेन। ततो विहितः प्रस्तुतकथाविक्षेपः / ज्ञापितं मामन्तमहत्तमादीनां / यथैष नन्दिवर्धनकुमारो मम शरीरं जीवितं सर्वस्खं बन्धुर्धाता पूज्योऽद्य जातोऽहमस्य दर्शनेनातः कुरुत प्रियसमागममहोत्सवमिति / तैरभिहितं। यदाज्ञापयति देवः / ततः प्रवर्तितो महानन्दः / स्वपितोऽहं विधिना परिधापितो दिव्यवस्त्राणि भोजितः परमात्रैः विलेपितः सुरभिविलेपनेन भूषितो महालङ्कारैः। दत्तं खयमेव विभाकरेण मनोहारि ताम्बलं। मया वहमनेनेदमभिहितो यथा न सुन्दरमनुष्ठितं भवतेति ततो मारयिष्याम्येनं वैरिणमिति रौद्रवितर्कपरंपरादो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हतीयः प्रस्तावः / 4.7 दूयमानचेतसा न किंचिञ्चेतितं। उत्थाय भोजनमण्डपादुपविष्टा वयमास्थानशालायां / मतिशेखरेण मन्त्रिणाभिहितं / किं विदितं कुमारेण यथा देवभूयं गतः सुग्टहीतनामधेयो देवः प्रभाकरः। ततो धूनिता मया कन्धरा। कृतं विभाकरण माथु लोचनयुगलं अभिहितं च / वयस्य ताते परोक्षेऽधुना युभाभिस्तातकार्यमनुष्ठेयं / तदिदं राज्यमेते वयमेताच तातपादप्रमादलालिताः प्रकृतयः प्रतिपन्नाः किङ्करभावं वयस्यस्य / यथेष्टं नियोज्यतां / ततो वैश्वावैगुण्यादवस्थितोऽहं मौनेन। लवितो दिवसो दत्तं प्रादोषिकमास्थानं। तदन्ते विसर्जितराजमण्डलो निवार्य प्रियतमाप्रवेशं मया सहातिस्नेहनिर्भरतया महार्हायामकस्यामेव शय्यायां प्रसुप्तो वामभवने विभाकरनरेन्द्रः / ततो भद्रेऽग्टहीतसङ्केते तदा मया हिंसावैश्वानरभ्यां विधुरितहृदयेन स तथा विधोऽतिस्निग्धविधी विभाकरः समुत्थाय विनिपातितः पापेन / निर्गतचाई परिधानद्वितीयः। स्वकर्मत्रामेन पलायितो वेगेन निपतितोऽटव्यां / मोढानि नानाविधदुःखानि / प्राप्तो महता क्लेशन कुशावर्ने / विश्रान्तो बहिः कानने। दृष्टः कनकशेखरपरिकरण। निवेदितः कनकचूडकनकशेखरयोः / चिन्तितमाभ्यां / भवितव्यमत्र कारणेन यदेकाको नन्दिवर्धन इति। ततः समागतौ कतिचिदाप्तपुरुषपरिवारौ मत्मनोपं / विहितमुचितं / स्थितो मया महोत्मारके कनकशेखरः / पृष्टमेकाकिताकारणं। मया चिन्तितं / अस्यापि न प्रतिभामिप्यते मदौयचरितं / तत्किं कथितेन / ततो मयाभिहितं / अलमनया कथया। कनकशेखरः प्राह / किं मह्यमपि न For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / कथ्यते। मयोकं / नेति। कनकशेखरणोकं / कुमारावश्यतया कथनीयमितरथा न भवति मे चित्ते निर्वाणं / ततो मयादिष्टमयमुनस्यतौति चिन्तयतो मेऽन्तर्गतौ प्रचलितौ हिंसावैश्वानरौ / समाकृष्टा कनकशेखरकटौतटाकतान्तजिहाभासुरामिपुचिका / समुद्रौर्णः कनकशेखरमारणाय प्रहारः। ततः किमेतदिति प्राप्ता वेगेन कनकचूडादयः / प्रादुर्भूतः कोलाहलः / स्तम्भितोऽहं कनकपोखरगुणावर्जिततया यथासंनिहितया देवतया। समुत्क्षिप्तः पश्यतामेव तेषां गगनमार्गण। नौतम्तद्विषयमन्धिदेशे। चिप्तस्तेषामम्बरोषाभिधानानां वौर सेनादौनां चरटानां मध्ये। दृष्टस्तैस्तथैवोगीर्णप्रहारो ग्रहौतारिकः / प्रत्यभिज्ञातोऽमौभिः / पतिताः पादयोरभिहितं च तैः / देव कोऽयं वृत्तान्तः / न शकितं मया जन्पितुं। विस्मिताश्चरटाः / श्रानौतमासनं। न शकितं मयोपवेष्टुं / ततो गता दैन्यमेते / तत्करुणयोत्तम्भितोऽहं देवतया। चालितान्यङ्गानि / हृष्टास्ते वराकाः। निवेशितोऽहमासने पुनरपि पृष्टः प्रस्तुतव्यतिकरं। मया चिन्तितं / अहो यत्र यत्र व्रजामस्तत्र तत्र वयमेतैः परतप्तिपरायणैरलोकवत्सलेले कैरामितुं न लभामहे। ते त्वलब्धप्रतिवचनाः पुनः पुनमीं पृच्छन्ति सा। ततो विस्फुरिती मे हिंसावैश्वानरौ। निपातिताः कतिचिच्चरटाः। जातः कलकलः / ततो बहुत्वात्तेषां ग्टहीता मम हस्तादमिपुत्रिका / बद्धोऽहमात्मभयेन // अत्रारेन्त गतोऽस्तं दिनकरः / विजम्भितं तिमिरं / समालोचितं चरटैः। यथा पूर्ववैरिक एवायमस्माकं नन्दिवर्धनो येन हतः प्रवरसेनोऽधुनापि घातिता एतेनैते प्रधानपुरुषाः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतौयः प्रस्तावः / 4.8 तथापि प्रतिपनोऽस्माभिरेष खामिभावेन प्रख्यापितो लोके / विज्ञातमेतद्देशान्तरेषु / ततोऽस्य मारणे महानयशस्कारः संपद्यते / नैष वशिवत्पुट्टलके कथंचिद्वारयितुं शक्यः। तस्माद्दूरदेश नौवा त्याग एवास्य श्रेयानिति स्थापितः सिद्धान्तः // ततो नियन्त्रितोऽहं गन्त्रामारटंश्च बद्धो वस्त्रेण वदनदेशे / युक्तौ मन:पवनगमनौ वृषभौ / प्रस्थापिताः कतिचित्पुरुषाः / खेटिता गन्त्रौगता रजन्यैव द्वादश योजनानि। ततः प्रापितोऽहमनवरतप्रयाणकैः शार्दूलपुरं / त्यतो मलविलयाभिधाने बहिष्कानने। गताः स्वस्थानं मगन्त्रीकास्ते मनुष्याः // स्तोकवेलायां अकाण्ड एव विजम्भितः सुरभिपवनः / विमुक्रः सहजोऽपि वैरानुबन्धः पशुगणैः। भुवनश्रियेव तत्समाध्यामितं काननं / समवतीर्णः ममकमेव सर्व ऋतवः। प्रमुदिता विहङ्गमगणाः / मनोहरमनुत्तालतालं रंटितं मधुकरावलोभिः / विगततापं विशेषतस्तमुद्देशमुयोतयितुमारब्धो दिनकरः / तथा ममापि मनाग्गलित व चित्तसन्तापः॥ तदनन्तरं च देहभूषणप्रभाप्रवाहेण द्योतयन्तो दिक्चक्रवालं समागतास्तत्र देवाः / शोधितं तैर्भूतलं / वृष्टमतिसुरभिगन्धोदकं / विमुक्तः पञ्चवर्णमनोहारिकुसुमप्रकरः / विरचितं विशालमतिरमणीयं मणिकुट्टिमं। विहितं तस्योपरि कनककमलं / विस्तारितमुपरिष्टाद्देवदयवितानं / अवलम्बितास्तत्र मौक्तिकावचूलाः। ततः समुत्सुकैस्तेर्दैवरवलोकितमार्गः कल्पद्रुम दव यथेष्टफलदायितया कनकगिरिरिव स्थिरतया चौरनौरधिरिव गुणरत्नाकरतया प्रशधर व गौतलेण्यतया दिनकर व मप्रताप 52 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 41. उपमितिभप्रपञ्चा कथा / तया चिन्तामणिरिव दुर्लभतया स्फटिक व निर्मलतया भूभाग दूव सर्वसहिष्णुतया गगनतलमिव 'निरालम्बनतया गन्धकरीव वरकरिभिः परिकरितः स्वप्रतिबिम्बकैरिव बहुविधविनेयैः समागतः केवलज्ञानदिवाकरो विवेको नामार्यः। समुपविष्टः कनककमले। प्रणिपत्य विहितकरामुकुला निषमा परिषत् / प्रारब्धं व्यख्यानं // अत्रान्तरे भगवतः प्रतापं सोढमशक्नुवन्तौ मदीयगरौरानिर्गतौ हिंसावैश्वानरौ दूरदेश स्थितौ मां प्रतीक्षमाणौ / अथारिदमनो राजा मुनि विज्ञाय लोकतः / स पुरो निर्गतस्तस्य मुनेर्वन्दनकाम्यया // तथा मदनमञ्जूषा या दत्ता मम कन्यका / मापि तत्र समायाता सहिता रतिचूलया // विहाय पञ्चचिहानि भक्तिनिर्भरमानसः / राजा कृतोत्तरामङ्गः प्रविष्टः सूर्यवग्रहे। पञ्चाङ्गप्रणिपातेन पादयोन्य॑स्तमस्तकः / प्रणम्य सूरिं नौति स्म ललाटे कृतकुद्मलः // कथम् / अज्ञानतिमिरोच्छेद करनाथ दिवाकर। नमस्ते रागसन्तापनाशकारिनिशाकर // खपाददर्शनेनाद्य नाथ कारुण्यमागर / भवता भवनिर्नाशपूतपापाः कृता वयम् // अद्यैव ननु जातोऽस्मि राज्येऽद्यैव प्रतिष्ठितः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। अद्यैव पटुकणेऽस्मि पश्याम्यद्यैव चक्षुषा // यदद्याखिलसन्तापपापजौर्णविरेचनम् / भाग्यमंसूचकं मन्ये संपन्नं तव दर्शनम् // एवं संस्तुत्य राजेन्द्रः सूरिं सूदितकल्मषम् / प्रणम्य शेषमाधूंश्च निषमः शुद्धभूतले // स्वर्गापवर्गपण्यस्य मयंकार दवाखिलैः / गुरुभिर्मुनिभिश्वोच्चैधर्मलाभः कृतो नृपे // ततः कृतप्रणामेषु शेषलोकेषु भावतः / प्रयुक्रलोकयात्रेण गुरुणारम्भि देशना // कथम् / भो भव्या भवकान्तारे पर्यटगिरनारतम् / अत्यन्तदुर्लभो ह्येष धर्मः मर्वज्ञभाषितः / / यतः / अनादिरेष संसारः कालोऽनादिः प्रवाहतः / जीवाश्चानादिकाः सर्वे दृश्यन्ते ज्ञानचक्षुषा // न चैते प्राप्नुवन्तोऽमुं धर्म सर्वजभाषितम् / कदाचिदपि पूर्व तु तेनैते भवभाजनम् // अथावाप्तो भवेज्जैनो धर्माऽमो भि: कदाचन / ततः कुतो भवोऽमौषां व ताण वजिमौलके // तस्मात्सुनिश्चितं राजनेतन्नास्यत्र संशयः / नैवावाप्तः पुरा धर्मी जन्तुभिर्जिनदेशितः // एवं च स्थिते / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 412 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / यदानादौ भवेऽमौषां मत्स्यानामिव मागरे / मदा दोलायमानानां जीवानां दुःखसङ्कले // स्वकर्मपरिणामेन भव्यत्वपरिपाकतः। मनुष्यत्वादिसामय्या तथा काला दियोगतः // धन्यः सकल कल्याणजनकोऽचिन्त्यशक्तिकः / यत्र क्वचिद्भवेन्नौवेऽनुग्रहः पारमेश्वरः॥ म तदा लभते जीवो दुर्भदयन्थिभेदतः / अशेषक्लेशनि शि जैनेन्द्रं तत्त्वदर्शनम् // ततोऽसौ ग्रहिधर्म वा प्राप्नुयाज्जिनभाषितम् / लभते माधुधर्म वा सर्वदुःखविमोचकम् // मा चेयती भवेत्कस्य सामग्रौयं सुदुर्लभा / राधावेधोपमानेन धर्मप्राप्तिः प्रकीर्तिता // तदत्र लब्धे सद्धर्म कुरुध्वं यत्नमुत्तमम् / अलब्धस्य तु लाभार्थं घटध्वमिह हे जनाः // अचान्तरे चिन्तितं नरेन्द्रेण / केवलज्ञानदिवाकरो भगवानयं। नास्त्यस्य किंचिदज्ञेयं / अतः पृच्छामि भगवन्तमात्मीयसंशयं / अथवा पश्यत्येव भगवान्मदौयसन्देहं जिज्ञासां वा / अतः कथयतु ममानुग्रहेण / ततो भगवता सूरिणा भव्यजनबोधनार्थमभिहितो मरेन्द्रः / महाराज वाचा पृच्छ / नृपतिनाभिहितं / भदन्त येयं मदौयदुहिता मदनमञ्जूषा अस्याः पद्मनृपतिसुतनन्दिवर्धनकुमाराय दानार्थं प्रहितो मया जयस्थले स्फुटवचनो नाम महत्तमः / गतः कियानपि कालो न निवृत्तोऽमौ / ततः प्रहिता For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतौयः प्रस्तावः। मया तदात्तीपलंभार्थं पुरुषाः / तैश्चागत्य निवेदितं / यथा देव तज्जयस्थलं भस्मीभूतं दवदग्धस्थलमात्रमधुना वर्तते / छिन्नमण्डलं च तत्तेन न विद्यन्ते प्रत्यामन्नान्यन्यग्रामनगराणि / अरण्यप्रायः मोऽधुना देशों वर्तते / तथा वार्तामात्रमपि. नास्माभिरुपलब्ध कथं तत्तथाभृतं संजातमिति / ततो मया चिन्तितं। हा कष्टमहो कष्टं / किं पुनरत्र कारणं / किमकाण्ड एव तत्रोत्पाताङ्गारवृष्टिर्निपतिता किं वा पूर्वविरुद्धदेवेन भस्मौकृतं नगरं / उत मुनिना केनचित्कोपामिना दग्नं / पाहोस्वित् क्षेमवहिना चौरादिभिर्वा / ततश्चाविज्ञातपरमार्थः समन्देहः शोकापन्नश्च स्थितोऽहमेतावन्तं कालं / अधुना भगवति दृष्टे संजातः शोकापनोदः / सन्देहः पुनरद्यापि मे नापगच्छति / तमपनयतु भगवानिति // भगवताभिहितं / महाराज पश्यसि त्वमेनं पर्षदः प्रत्यासन्नं नियन्त्रितं पश्चादाहुबन्धेन निबद्धवत्रा विवरं तिरश्चीनं पुरुषं / नृपतिनाभिहितं / सुष्टु पश्यामि। भगवानाह / महाराज एतेन भस्मौकृतं नगरं / नृपतिराह / भदन्त कोऽयं पुरुषः / भगवानाह। महाराज स एवायं तव जामाता नन्दिवर्धनकुमारः। नृपतिराह / कथं पुनरनेनेदमौदृशं व्यवसितं। किमिति वायमेवंविधावस्थोऽधुना वर्तते / ततः कथितो भगवता स्फुटवचनविरोधादिकश्चरटमनुष्यपरित्यागपर्यवसानः सर्वोऽपि नरपतये मदीयवृत्तान्तः / तमाकर्ण्य विस्मितो राजा परिषच्च / नृपतिना चिन्तितं / किं छोटयाम्यस्य वदनं / करोमि मुत्कलं बाहुयुगलं / अथवा नहि नहि / निवेदितमेवास्य चरितं भगवता / तदेष For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 410 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / मुत्कलोऽस्माकमपि केनचिदकाण्डविड्वरसम्पादनेन धर्मकथाश्रवणविघ्नहेतः स्यात् / तस्मात्तावदयं यथान्यासमेवास्तां / पश्चादुचितं करिष्यामः / अस्थानं चैष करुणायाः यस्येदृशं चरितं / तदधुना तावदपरं भगवन्तं सन्देहं प्रश्नयामः / ततोऽभिहितं नृपतिना / भदन्त नन्दिवर्धनकुमारोऽस्माभिरेवंगुण: समाकर्णितः / यद्त / वीरो दक्षः स्थिरः प्राज्ञो महासत्त्वो दृढव्रतः / रूपवानयमार्गज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः // गुणानां निकषस्थानं प्रख्यातपरपौरुषः / अतोऽनेन महापापं कथं चेष्टितमौदृशम् // सूरिणाभिहितं राजन्नास्य दोषस्तपखिनः / तादृग्गुणगणोपेतः स्वरूपेणेष वर्तते // राजाह ननु कस्यायं दोषो नाथ विवेद्यताम् / यद्येवमात्मरूपेण निर्दोषो नन्दिवर्धनः // ततो गुरुणाभितं / यदेतदृश्यते दूरवर्त्ति कृष्णरूपं मानुषद्वयं अस्यैष समस्तोऽपि दोषः / ततो नरपतिना विस्फारितं तदभिमुखमौक्षणयुगलं / निरूपितं बहतों वेलां तन्मानुषदयं / गदितं चानेन / भगवन्नेकोऽत्र मनुय्यो द्वितीया नारीति लक्ष्यते / भगवताभिहितं / सम्यगवधारितं महाराजेन / नृपतिराह / भदन्त कोऽयं मनुष्यः / भगवताभिहितं / एष महामोहस्य पौत्रको द्वेषगजेन्द्रस्य सूनुरविवेकितानन्दनो वैश्वानरोऽभिधीयते / अस्य हि जननौजनकाभ्यां प्रथम क्रोध इति नाम प्रतिष्ठितं / पश्चात्वगुणैरस्य परिजनसकाशादिदं द्वितीयं वैश्वानर इति प्रियनामकं संपवं / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हतीयः प्रस्तावः। नृपतिराह / तर्हि नारी केयं / भगवताभिषितं / एषा देषगजेन्द्रप्रतिबद्धस्य दुष्टाभिसन्धिनरेन्द्रस्य निष्करुणताया महादेव्या दुहिता हिंमोच्यते / नृपतिनाभिहितं / अनेन नन्दिवर्धनकुमारेण महानयोः कः सम्बन्धः / भगवानाह / अस्यान्तरङ्गे एते मित्रभार्ये भवतोऽनयोश्च समर्पितहदयोऽयं न गणयति खकमर्थान) नापेक्षते धर्माधर्म न लक्षयति भक्ष्याभक्ष्यं नाकलयति पेयापेयं न जानौते वाच्यावाच्यं नावगच्छति गम्यागम्यं न बुध्यते हिताहितविभागं / ततो विस्मरन्ति स्वभ्यस्ता अपि समस्ताः क्षणमात्रेण निजगुणाः / परावर्तते निःशेषदोषपुञ्जतयास्थात्मा / ततो महाराज नन्दिवर्धनेनानेन बालकाले कदर्थिता निरपराधा दारकाः खलीकृतः कलोपाध्यायस्ताडितो हितोपदेशदायकोऽपि विदुरः / तथा तरुणेन मता घातिताः प्राणिसंघाताः विहिता महासङ्ग्रामाजनितो जगत्मन्तापः परमोपकारिणौ बान्धवावपि मारयितुमारचौ तिरस्कृतौ कनकचूडकनकशेखरौ / तदारात्पुनर्यदनेनाचरितं स्फुटवचनेन महाकाण्डभण्डनं तन्मारणं च तथा जननौजनकमहोदरभगिनौप्रियभार्यादिव्यापादानं नगरदहनं स्नेहनिर्भरमित्रभृत्यनिपातनं च तनिवेदितमेव युभाकं / स एष महाराज समस्तोऽप्यनयोरेव पापयोहिंसावैश्वानरयोरस्य भार्यावयस्ययोर्दोषसंघातो न पुनः स्वयमस्य तपखिनो नन्दिवर्धनकुमारस्य दोषगन्धोऽप्यस्ति / तथाह्ययं स्वरूपेण स्थानमनन्तज्ञानस्य भाजनमनन्तदर्शनस्य पात्रमनन्तवीर्यस्य निलयनमनन्तसुखस्य कुलभवनमपरिमितगुणानां। न चेदृशमात्मस्वरूपमद्याप्येष वराको लक्षयति / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 416 उपमितिभवप्रपचा कथा / तेनानयोः पापभावियस्ययोः स्वरूपविपर्यासकारिणोर्वशे वर्तते / तथा च वर्तमानोऽयमेवंधिामनन्तदुःखहेतुभूतामनर्थपरंपरामासादयति // नृपतिनाभिक्तिं। भदन्त स्फुटवचनव्यतिकरात्पूर्वमस्माभिः श्रुतमासौ लोकवार्त्तया। यदुतानेन नन्दिवर्धनकुमारेणोत्पद्यमानेनानन्दितं पद्मराजकुलं वर्धितं कोशदण्डसमृध्या तोषितं नगरं। वर्धमानेन पुनराहादिताः प्रकृतयो विस्तारितो गुणप्रारभारः प्रतापेन वशीकृतं भूमण्डलं निर्जिताः शत्रवः ग्रहौता जयपताका समुल्लसितो यशःपटहः सिंहायितं भूतले अवगाहितः सुखामृतसागरः। तत् किं तदास्य नास्तामेतौ पापभार्यावयस्यौ यदीमौ दुःखपरंपराकारणभूताविति / भगवताभिहितं / महाराज तदाण्यास्तामेतौ किं तु तदान्यदेव कल्याणपरंपराकारणमासीत् / नृपतिराह। किं तत् / भगवतो / पुण्योदयो नाम सहचरः। स हि विद्यमानः खकौयप्रभावेण मर्वेषामेषामनन्तरोक्तानां पद्मराजकुलानन्दजननादौनां प्रयोजनविशेषाणां संपन्नः कारणं / केवलं महामोहवशान लक्षितोऽनेन नन्दिवर्धनेन तदीयः प्रभावः / पुण्योदयमाहात्म्यजातमपि कल्याणकदम्बकं हिमावैश्वानरप्रतापजनितं ममैतदित्येवमेष मन्यते स्म। ततोऽयमविशेषज्ञ इति मत्वा विरक्तोऽसौ पुण्योदयः / नष्टो ग्टहीत्वैकां दिशं स्फुटवचनव्यतिकरावसरे। ततस्तबिकलस्यास्य मन्दिवर्धनकुमारस्थेदमनर्थकदम्बकमाभ्यां हिंसावैश्वानराभ्यां संपादितमिति। नृपतिराह। भदन्त कियान्युनः कालोऽस्य हिंसावैश्वानराभ्यां मह सम्बन्धस्य / भगवताभिहितं / अनादिपरिचितावस्येमौ हिंसावैश्वानरौ। केवलमत्र For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 417 पद्मराजग्टहे निवसतोऽस्याविभूताविमौ / पूर्व तिरोभूतौ स्थितौ / नृपतिराह / किमनादिरूपोऽयं नन्दिवर्धनकुमारः। भगवानाह / वाढं। नृपतिराह। तत्किमित्ययं पद्मराजपुत्रतया प्रसिद्धः / भगवानाह / मिथ्याभिमानोऽयमस्य यदुत पद्मराजपुत्रोऽहं / श्रतो नात्रास्था विधेया। नृपतिनो कं / भदन्त तत्परमार्थतः कुतस्त्योऽयमवधार्यतां। भगवता भिहितं। असंव्यवहारनगरवास्तव्यः कुटुम्बिकोऽयं मंसारिजौवनामा कर्मपरिणाममहाराजादेशेन लोकस्थितिनियोगमुररीकृत्य स्वभार्यया भवितव्यतया ततो नगरान्निःसारितोऽपरापरस्थानेषु पर्यटन् धार्यत इत्यवधारणीयं। नृपतिराह। भदन्त कथमेतदिति मप्रपञ्चामस्य वक्तव्यतां श्रोतुमिच्छामि। भगवानाह। महाराजा कर्णय / ततः कथितो भगवता समस्तोऽपि विस्तरेण मदीयव्यतिकरः। ततः क्षुमतया भगवद्द नेऽरिदमनस्य विमलतया बोधस्य प्रत्यायकतया भगवद्वचनस्य लघुकर्मतया जीवस्य प्रत्यामन्नतया महाकल्याणस्य परिस्फुरितमस्य हृदये। अये भगवता विमलकेवलालोकेनोपलभ्यास्य नन्दिवर्धनकुमारस्य सम्बन्धी भवप्रपञ्चोऽयमनेन व्याजेन प्रतिपादितः / ततो ऽभिहितमनेन / भदन्त यथैवं मयावधारितं तथैवेदमुतान्यथेति / भगवानाह / महाराज तथैव / मार्गानुसारिणौ हि भवतो बुद्धिः / तत्कुतस्तत्रान्यथाभावः। नृपतिनाभिहितं। भदन्त तत्किमस्यैव नन्दिवर्धनस्यायं वृत्तान्तः किं वान्येषामपि प्राणिनामिति / भगवानाह / महाराज मर्वषां संसारोदरविवरवर्तिनामसुमतामेष व्यतिकरः प्रायेण ममावर्तते / तथाहि / स्थिताः सर्वेऽप्येतेऽनादिक 53 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 118 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / कालं प्रायोऽसांव्यवहारिकजीवराशिमध्ये / तत्र च निवसतामेतेषामेत एव क्रोधमानमायालोभास्रवद्वारादयोऽन्तरङ्गः परिजनः / यावन्तश्चागमप्रतिपादितानुष्ठानबलेन जौवाः सिध्यन्ति तावन्त एवामांव्यवहारिकजीवराशिमध्यादागच्छन्तीति केवलिवचनं / ततो निर्गताश्चैतेऽपि मर्व जौवा विडम्बिता भूयांसं कालमेकेन्द्रियेषु विनाटिता विकलेन्द्रियेषु विगोपिताः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिजेषु कदर्थिता नानाविधानन्तदुःखैः कारिता बहुविधरूपाणि सततमपरापरभवप्रायोग्यकर्मजालविपाकोदयद्वारेण भवितव्यतया भ्रमिताश्चारघट्टघटीयन्त्रन्यायेन सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकपृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वौन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंझ्यसंजिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिजखचरजलचरादिभेदविवर्तन सर्वस्थानेषु प्रत्येकमनन्तवाराः / ततः कैश्चिन्नौवैः कथंचिन्महामागरपतितैरिव रत्नदीपं महारोगभराक्रान्तैरिव महाभेषजं विषमूर्छितैरिव महामन्त्री दारिद्र्याभिभूतैरिव चिन्तामणि: प्राप्यतेऽतिदुर्लभोऽयं मनुष्यभवः / तत्रापि महानिधिग्रहण व वेताला भृशमाविर्भवन्येते हिंसाक्रोधादयो दोषा यैरभिभूतास्तिष्ठन्तु तावदेते प्रबलमहामोहनिद्राघर्णितमानसा नन्दिवर्धनमङ्गुला वराकसत्त्वाः किं तर्हि येऽपि जिनवचनप्रदौपेन जानन्येनं भवप्रपञ्चं लक्षयन्ति मनुष्यभवदुर्लभतां बुध्यन्ते संसारसागरतारकं धर्म वेदयन्ते स्वसंवेदनेन भगवदचनाथें निश्चिवन्ति निरुपमानन्दरूपं परमपदं तेऽपि बालिशा व प्रवर्तन्ते परोपतापेषु भवन्ति गर्वाधाताः कुर्वन्ति परवचनानि रज्यन्ते द्रविणोपार्जनेषु व्यापादयन्ति सत्त्वसंघातं भाषन्तेऽलोकवचनानि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 416 श्राददते परधनं ग्टध्यन्ति विषयोपभोगेषु पाचरन्ति महापरिग्रहं भजन्ते रजनौभोजनानि / तथा मुह्यन्ति शब्देषु मूर्छन्ति रूपेषु लुभ्यन्ति रसेषु हप्यन्ति गन्धेषु प्रापिलव्यन्ति स्पर्शषु द्विषन्ति चानिष्टशब्दादीन भ्रमयन्ति पापस्थानेषु सततमन्तःकरणं न नियन्त्रयन्ति भारतौं उच्छृङ्खलयन्ति कायं भज्यन्ते दूरेण तपश्चरणात्। ततोऽयं मनुष्यभवो मोक्षाक्षेपकारणभूतोऽपि तेषामधन्यतया न केवलं न किंचिद्गुण लवलेशमात्रमपि माधयति किं तर्हि यथास्य नन्दिवर्धनस्य तथैव प्रत्युतानन्तदुःखपरंपराकुलसंमारकारणतां प्रतिपद्यते। तथाहि प्राप्तोऽयं मनुथ्यभवोऽनादौ संसारे पूर्वमनन्तवारान् न च मद्धर्मानुष्ठानविकलेनानेन किंचित्माधितं / अत एवास्माभिः पूर्व भगवद्धर्मस्यात्यन्तदुर्लभता प्रतिपादिता / तथाहि / पद्मरागेन्द्रनौलादिरत्नसङ्घातपूरितम् / लभ्यते भवनं राजन्न तु जैनेन्द्र शासनम् // मम्मृद्धं कोषदण्डाभ्यामेकच्छत्रमकण्ठकम् / सुप्रापमोदृशं राज्यं न तु धर्मो जिनोदितः // संपूर्णभोगसम्प्राप्तिपौणितेन्द्रियमानसम् / सुलभं नृपदेवत्वं न मतं पारमेश्वरम् // संसारे परमैश्चर्यकारणं भूप लभ्यते / इन्द्रत्वमपि जौवेन न धर्मो जिनदेशितः // एते हि भावा राजेन्द्र संसारसुखकारणम् / सद्धर्मस्तु सुनौन्द्रोको निर्वाणसुखकारणम् // निर्वाणसुखसंसारसुखयोश्च परस्परम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 420 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / चिन्तारत्नस्य काचेन यावत्तावगुणान्तरम् // एवं च ज्ञातमाहात्म्यैः संसारे ब्रूहि तत्त्वतः / ईदृक्षधर्मसम्प्राप्तिर्भूप केनोपमीयताम् // एवं स्थिते / एनं संसारविस्तारं विलंध्य कथमप्यदः / मानुष्यं प्राप्य दुष्पापं राधावेधोपमं जनः // यो जैनमपि संप्राप्य शासनं कर्मनाशनम् / हिंसाक्रोधादिपापेषु रज्यते मूढमानमः // संहारयति काचेन चिन्तामणिमनुत्तमम् / करोत्यङ्गारवाणिज्यं दग्ध्वा गोशीर्षचन्दनम् / / भिनत्ति नावं मूढ़ात्मा लोहाथै स महोदधौ / सूत्रार्थ दारयत्युच्चैर्वैडूर्य रत्नमुत्तमम् // प्रदीपयति कौलार्थ देवद्रोणणे महत्तमाम् / रत्नस्थाल्यां पचत्यांलखलकं मोहदोषतः // सौवर्णलाङ्गलागेण लिखित्वा वसुधां तथा / अर्कवीजं वपत्येष बला) मूढमानमः // छित्त्वा कर्पूरखण्डानि कोट्रवाणां समन्ततः / वृतिं विधत्ते मूढोऽयमहं मश्रुतिकः किल // यतः / हिंमाक्रोधादिपापेषु जन्तोरासतचेतसः / मद्धोऽयं जिनेन्द्रोक्तो दूरादरेण गच्छति // मद्धर्मरहितश्चासौ पापपूरितमानसः / For Private And Personal Use Only
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________________ www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra टतीयः प्रस्तावः / 421 न मोक्षमार्गलेशेन कथंचिदपि युज्यते // ततो जाननपि बलात्युन मे महोदधौ / निर्वालं याति मोहान्धो यथायं नन्दिवर्धनः // नृपतिनाभिहितं / भगवंस्तस्य नन्दिवर्धनस्य किमियतापि प्रपञ्चेन कथ्यमाने स्वसंवेदनमंसिद्धेऽपि निजचरिते संजातः प्रबोधः / भगवताभिहितं / महाराज न केवलमम्य प्रतिबोधाभावः किं तर्हि मयि कथयति प्रत्युताम्य महानुद्वेगो वर्तते / नृपतिराह / किमभव्योऽयं / भगवतोतं / नाभव्यः किं तर्हि भव्य एव / केवलमयमस्यैव वैश्वानरस्य दोषो यन्मदौयवचनं न प्रतिपद्यते / यतोऽयमनन्तोऽनुबन्धोऽस्येति कृत्वा अनन्तानुबन्धौति योयनाम्ना मुनिभिर्गोयते / ततोऽत्र विद्यमाने न सुखायते मदीयवचनं उत्पादयत्यरतिं जनयति कलमलकं / ततः कुतोऽस्य तपस्विनः प्रबोधः। पर्यटितव्यमद्याप्यनेन नन्दिवर्धनेनास्य वैश्वानरस्य प्रसादादपरापरस्थानेषु दुःखमनुभवतानन्तं कालं प्राप्तव्या च वैरपरंपराः / नृपतिराह / भदन्त महारिपुरेषोऽस्य वैश्वानरः / भगवतोतं / पर्याप्तमियत्या महारिपुतया / नृपतिराह / किमस्यैवायं वयस्यः किं वान्येषामपि जन्तुनां / भगवानाह / यदि महाराज स्फुटं प्रश्रयसि ततस्तथा ते कथयामि यथा पुनः प्रष्टव्यमिदं न भवति / नृपतिराह। अनुग्रहो मे / भगवता भिहितं / दह सर्वेषां जौवानां प्रत्येकं त्रीणि ७ौणि कुटुम्बकानि / तद्यथा / शान्तिमार्दवावमुनिज्ञानदर्शनवीर्यसुखसत्यगौचतपःसन्तोषादौनि यत्र ग्रहमानुषाणि तदिदमेक कुटुम्बकं / तथा क्रोधमानमायालोभरागद्वेषमोहाज्ञानपोकभया For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 822 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / विरतिप्रभृतयो यत्र बान्धवाः तदिदं द्वितीयं कुटुम्बकं / तथा शरीरं तदुत्पादकौ स्त्रीपुरुषावन्ये च तथा विधा लोका यत्र सम्बन्धिनः तदिदं बतौयं कुटुम्बकं। कुटुम्ब त्रितयद्वारेण चासंख्याताः स्वजनवर्गाभवन्ति / तत्र यदिदमाद्यं कुटुम्बकमेतज्जीवानां स्वाभाविकमनाद्यपर्यवसितं हितकरण शौलमा विर्भावतिरोभावधर्मकमन्तरङ्गं च वर्तते मोक्षप्रापकं च / यतः प्रकृत्यैवेदं जीवमुपरिष्टान्नयति / यत्पुनरिदं द्वितीयं कुटम्बकमेतज्जौवानामस्वाभाविकं / तथाप्यविज्ञातपरमार्थजन्तुभिर्टहीतं तगाढतरं स्वाभाविकमिति / तदनाद्यपर्यवसितमभव्यानां अनादि सपर्यवसितं केषांचिगव्यानां एकान्तेनाहितकरणशौलमाविर्भावतिरोभावधर्मकमन्तरङ्गं च वर्तते संमारकारणं च / . यतः प्रकृत्यैवेदं जीवमधस्तात्यातयति / यत्पुनरिदं हतीयं कुटम्बकमेतजौवानामस्वाभाविकमेव तथा सादि सपर्यवमितमनियतसद्भावं च / यथा भव्यतया हिताहितकरणशीलमुत्पत्तिविनाशधर्मकं बहि रङ्गं च वर्तते तथा भव्यतया संसारकारणं मोक्षकारणं वा भवति / यतो बाहुल्येन द्वितीयकुटुम्बकस्थावष्टम्भकारकमिदमतः संसारकारण / यदि पूनः कथंचिदाद्यं कुटुम्बकमनुवर्तते ततो जीवस्येदमप्याद्यकुटुम्बकपोषणे महायं स्यात् / ततश्च मोक्षकारणतां प्रतिपद्येत / तदेवंस्थिते महाराज यदिदं द्वितीयं कटुम्बकमस्य मध्ये सर्वेषां संसारिजौवानामेष वैश्वानरो वयस्यस्तथेयमपि हिंसा भार्या विद्यत एव / नात्र सन्देहो विधेयः / नृपतिराह / भदन्त यदौदमाद्यं कुटुम्बकं खाभाविकं हितकरणशौलं मोक्षकारणं च तत्किमितीमे जौवा गाढं नेदमाद्रियन्ते। यदि चेदं द्वितीयकटम्बक For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 423 मस्वाभाविकमेकान्तेना हितकरणशीलं संसारकारणं च तत्किमितीमे जौवा गाढतरमिदं पोषयन्ति / भगवानाह। महाराजाकर्णयात्र कारणं। एतदाद्यं कुटुम्बकमनेन द्वितीयकुटुम्बकेनानादौ संसारे सकलकालमभिभूतमास्ते। ततो भयात्तिरोभावं गतस्य तस्य न संपन्न कदाचिदभिव्यक्तं दर्शनं / ततो न लक्षयन्त्येते वराका जौवास्तत्सम्बन्धिनं गुणकलापं / तेन न तस्योपरि गाढमादरं कुर्वन्ति / विद्यमानमपि तदविद्यमानं मन्यन्ते / तस्य गुणनपि वर्णयन्तमम्मदादिकं न गणयन्ति / एतत्पुनर्दितौयं कुटुम्बकमनादौ संमारे शत्रुभूतस्याद्यकुटुम्बकस्य निराकरणदवाप्तजयपताकं लब्धप्रसरतया वल्लगमानं प्रायेण सकलकालमाविर्भूतमेवास्ते / ततः संपद्यते तेन महामोषां जौवानामहर्निशं दर्शनं / ततो वर्धते प्रेमाबन्धः समुत्पद्यते चित्तरतिः मंजायते विश्रम्भः प्रादुर्भवत्यनेन मह प्रणयः / ततोऽस्य द्वितीयकुटुम्बकम्य सततमनुरक्रमानसाः खल्वेते जीवा न पश्यन्ति दोषसंघातं ममारोपयन्यस्यासन्तमपि गुणसन्दोहं / तेनेदं गाढतरमेते पोषयन्ति / इदमेवेक परमबन्धभूतमस्माकमिति मन्यन्ते / अस्य च दोषप्रकाशकमस्मदादिकं शत्रुबुद्ध्या ग्टहन्ति / नृपतिराह / भदन्त सुन्दरं भवति यद्येते तपखिनो जौवा अनयोः कुटम्बकयोर्गुणदोषविशेषमवगच्छेयुः। भगवानाह। किमतःपरं सुन्दरतरं / एतावन्मात्रमेव हि निःशेषकल्याणानि वाञ्छता परमार्थतः पुरुषेण कर्तव्यं यदुतानयोः प्रथमद्वितीययोः कुटुम्बकयोर्गुणदोषविशेषपरिज्ञानमिति / तथास्माभिरपि जीवानां धर्मकथाभिरेताचन्मात्रमेव संपादनौयं। केवलमेते जौवाः स्वयोग्यतामन्तरेण For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 424 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / नानयोर्विशेषं कथंचिदपि ज्ञापयितुं शक्यन्ते / तेनायोग्येषु वयमपि गजनिमौलिकां कुर्मः / यदि पुनः सर्वेऽपि जौवा अनयोः कुटुम्बकयोर्गुणदोषविशेषमवगच्छेयुस्तदादित एव संसारोच्छेदः स्यात् / ततो निराकृत्येदं द्वितीयं कुटुम्बकं मर्वेऽपि जौवा मोक्षं गच्छेयुरिति। नृपतिराह / यद्येवमशक्यानुष्ठानं मर्वेषां जीवानामनयोर्गुणदोषविशेषज्ञापनं तत्किमनया चिन्तया / अस्माभिर्विज्ञातस्तावद्भगवत्पादप्रसादेनानयोः कुटुम्बकयोर्गुणदोषविशेषः / ततः सिद्धं नः ममोहितं / यतः / परोपकारः कर्तव्यः सत्यां शतौ मनीषिणा / परोपकारासामर्थ्य कुर्यात्वार्थ महादरम् // भगवानाह / न परिज्ञानमात्रं त्राणं / नृपतिराह। यदन्यदपि विधेयं तदादिशन्तु भगवन्तः। भगवतोतं / अन्यदत्र विधेयं श्रद्धानमनुष्ठानं च। तच्चास्त्येव भवतः श्रद्धानं अनुष्ठानं च / पुनयदि शक्रोषि ततः मिध्यत्येव समौहितं नात्र मन्देहः / केवलं तत्रातिनिघृणं कर्म समाचरणौयं / नृपतिराह ! भदन्त को दृशं तत्कर्म / भगवानाह / यदेते माधवः सततमनुशौलयन्ति / नृपतिराह। यदनुशौलयन्येते तच्छ्रोतुमिच्छामि। भगवतोतं / आकर्णय। अनादिस्नेहसंबद्धं द्वितीयं यत्कुटुम्बकम् / योधयन्ति तदाद्येन घोरचित्ता दिवानिशम् // तथाहि / निघृणा यत एवेदमाविर्भूतं कुटुम्बकम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वृतीयः प्रस्तावः। तं घातयन्ति ज्ञानेन महामोहपितामहम् // यस्तन्त्रकः समस्तम्य कुटुम्बस्य महाबलः / रागं वैराग्ययन्त्रेण तमेते चूर्णयन्त्यलम् // अन्यच्च निरनुक्रोभा रागस्यैव महोदरम् / द्वेषं मैत्रीशरेणोच्चैरेते निघ्नन्ति माधवः // क्षमाक्रकचपाटेन पाटयन्ति सुदारुणाः / एते भोः माधवः क्रोधं रटन्तं स्निग्धवान्धवम् / / क्रोधस्य भ्रातरं मानं तथैते देवनन्दनम् / हत्वा मार्दवखङ्गन क्षालयन्यपि नो करौ / मायामार्जवदण्डेन दलयन्ति तपखिनौम् / लोभं मुनिकुठारेण रौद्राश्छिन्दन्ति खण्डमः / तथैते मुनयो भूप स्नेहाबन्धपरायणम् / कामं निष्पौद्य हस्तेन मर्दयन्तीव मत्कुणम् // दहन्ति गोकसम्बन्ध तौबेण ध्यामवहिना / भयं भिन्दन्ति निर्भीका धैर्यबाणेन वत्मलम् // हास्यं रतिर्जुगुप्मा च तथारतिः पित्वमा / विवेकशलया राजेन्द्र साधुभिर्दारिता पुरा // अन्यच्च भ्रानभाण्डानि पञ्चाक्षाणि सुनिघृणाः / सन्तोषमुद्रेणोच्चैदलयन्तीह साधवः // एवं ये ये भवन्यत्र कुटुम्बे स्निग्धबान्धवाः / तांस्तानिपातयन्त्येते जातानातान् सुनिर्दयाः। वर्धयन्ति बलं नित्यं प्रथमे च कुटुम्बके / 34 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 126 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / सर्वेषां स्निग्धबन्धूनामेते राजेन्द्र साधवः / / पुष्टिं गतेन तेनोच्चैनिहतं भग्नपौरुषम् / अमीषां बाधकं नैव तद्वितीयं कुटुम्बकम् // अन्यच्च पोषकं ज्ञात्वा द्वितीयस्य तृतीयकम् / राजनेतैः परित्यक्तं सर्वथैव कुटुम्बकम् // यावत्तृतीयं न त्यतं तावज्जेतुं न शक्यते / द्वितीयमपि कायन पुरुषेण कुटुम्बकम् // श्रतो यद्यस्ति ते वाञ्छा भूप संसारमोचने / ततोऽतिनिघणं कर्म मयोतमिदमाचर // केवलं सम्यगालोच्य मध्यस्थेनान्तरात्मना / किं शक्येत मया कर्तुं किं वा नेदमिति त्वया / / एतेऽतिनिघृणाः कर्म कथंचिदिदमौदृशम् / कुर्वन्त्यन्यासयोगेन नृशंसा भूप साधवः // अन्येन पुनरौदृक्षं कर्म बन्धुदयालुना / चिन्तयितुमपि नो शक्यं करणं दूरतः स्थितम् / / किंतु। योऽयं त्यागस्तृतीयस्य द्वितीयस्य च घातनम् / कुटुम्बकस्य राजेन्द्र प्रथमस्य च पोषणम् // एतत्त्रयं परिज्ञाय कृत्वा श्रद्धानमञ्जमा / अनुष्ठाय च वीर्येण भूयांसो मुनिपुङ्गवाः / / भवप्रपञ्चानिर्मुक्काः सर्वदन्दविवर्जिताः / स्थित्वा स्वाभाविके रूपे मोदन्ते मोक्षवर्तिनः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः। g27 तदिदं दुष्करं कर्म किं तु पर्यन्तसुन्दरम् / एवं व्यवस्थिते भूप कुरुष्व यदि रोचते // नपतिराह। शिष्टं भगवता पूर्व कुटुम्बद्धयमा दिमम् / अविच्छिन्नं प्रवाहेण सदानादिभवोदधौ / / ढतौयं पुनरुद्दिष्टं विनाशोत्पत्तिधर्मकम् / तत्किं भवे भवे नाथ संभवत्यपरापरम् // सूरिराह महाराज संभवत्यपरापरम् / भवे भवेऽत्र जन्तूनां तत्ततीयं कुटुम्बकम् // राजाह नाथ यद्येवं ततोऽनादिभवार्णवे / अनन्तानि कुटुम्बानि त्यतपूर्वाणि देहिभिः / / सूरिराह महाराज सत्यमेतन्न संशयः / एते हि पथिकप्रायाः सर्वे जीवास्तपखिनः / ततश्च / अन्यान्यानि कुटुम्बानि मुञ्चन्तो वामकेष्विव / अपरापरदेहेषु संचरन्ति पुनः पुनः // राजाह नाथ यद्येवं ततोऽत्रापि भवे नृणाम् / कुटुम्बे स्नेहसम्बन्धो महामोह विजृम्भितम् // सूरिराह महाराज सम्यग्ज्ञातमिदं त्वया / महामोहं विना को वा कुर्यादेनं सकर्णकः // राजाह यो न शक्नोति कत नाथ निबर्हणम् / द्वितीयस्य कुटुम्बस्य कथंचिच्छक्तिविभ्रमात् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपचा कथा। रतीयस्य परित्यागात्तम्य किं जायते फलम् / यथोकं यदि वा नेति ममेदं प्रविवेचय // मूरिराह महाराज यो न हन्ति द्वितीयकम् / हतीयत्यजनं तस्य नूनमात्मविडम्बनम् / / वतीयं हि परित्यज्य यदि हन्यानिराकुम्नः / द्वितीयमेवं तत्त्यागः सफलो विफलोऽन्यथा // नृपतिनाभिहितम् / भदन्त यद्येवं ततः / भवप्रपञ्चं विज्ञाय महाघोरं सुदुस्तरम् / अवाप्य मानुषं जन्म संमारेत्यन्तदुर्लभम् // अनन्तानन्दसंपूर्ण मोक्षं विजाय तत्त्वतः / नस्य कारणभृतं च बुद्धा जैनेन्द्र शासनम् // युमादृशेषु नाथेषु प्राप्तेषु हितकारिषु / कुटुम्बत्रयरूपे च विज्ञाते परमार्थतः / को नामाधकुटुम्बस्य पुरुषो हितकामुकः / कुर्यात्र पोषणं नाथ बन्धुभूतस्य तत्त्वतः // विघ्नं सर्वसमृद्धीनां सर्वव्यमनकारणम् / द्वितीयं वा न को हन्ति शचभूतं कुटुम्बकम् // येनात्यकेन दुःखौघस्यकन परमं सुखम् / को न त्यजति तनाथ बतौयं वा कुटुम्बकम् // मूरिराह महाराज ज्ञाततत्त्वेन जन्तुना / इदमेवात्र कर्तव्यं त्रयं समारभौरुणा // राजाहाज्ञाततच्चाना नाथ मौनौन्द्रशामने / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतौयः प्रस्तावः / 426 किं विद्यतेऽधिकारोऽत्र नेति नेति गुरोर्वचः // राज्ञा चिन्तितम् / अये विज्ञाततत्त्वोऽहं श्रद्धाचालितमानसः / ततोऽस्ति मेऽधिकारोऽत्र गुरूके कर्मणि ध्रुवम् // ततो राजा समुद्भूतवी-लामो यतीश्वरम् / प्रणम्य पादयोरेवं म प्राह विहिताञ्जलिः // यदादिष्टं भदन्तेन किल कर्मातिनिघणम् / तदहं कर्तुमिच्छामि नाथ युभदनुज्ञया // सूरिणोतं महावौर्य युक्तमेतद्भवादृशाम् / अनुज्ञातं मयापौदं ज्ञातं तत्त्वं त्वयाधुना // ततः सरभसेन नरपतिना विलोकितं पार्श्ववर्तिनो विमलमतेर्मन्त्रिणो वदनं / श्रादिशतु देव इति ब्रुवाणोऽसौ स्थितः प्रहतरः / नृपतिनाभिहितं / प्रार्य त्यजनीयो मया राज्यखजनदेहादिमङ्गः निहन्तव्या भगवदादेशेन रागादयः पोषणीयान्यहनिशं ज्ञानादीनि ग्रहौतव्या भागवतौ दीक्षा। ततो यदस्य कालस्योचितं तत्तर्ण कुरुष्वेति। विमलमतिराह। यदाज्ञापयति देवः। किं तु न मयैव केवलेनास्य कालस्योचितं विधेयं किं तहि यान्येतान्यन्तःपुराणि ये चैते सामन्ता यश्चान्योऽपि राजलोको या चेयं समस्तापि परिषत् तैः सर्वै रेवास्य कालस्योचितं कर्तव्यं / राज्ञा चिन्तितं। ये मयायमादिष्टः किल मम दौवाग्रहणकाले यदुचितं जिमस्नपनपूजादानमहोत्मवादिकं तत् कुरुष्वेति / तदयं किमेवमुलपति / अहो गम्भौरः कश्चिदभिप्रायः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 431 परपदाभिलाषातिरेकसंवर्धनो धर्मदेशना। गता यथास्थानं देवादयः // मम पुनरग्टहौतमङ्केते तदमृतकल्पमपि न परिणतं तदा भागवतं वचनं / निकटीभूतौ हिंसावैश्वानरौ। कृतः पुनस्ताभ्यां मम शरौरेऽनुप्रवेशः / मोचितश्चाह बन्धनात् सर्वजन्तूनां बन्धनमोचनाथें नियुक्त राजपुरुषैः। चिन्तितं च मया। विगोपितोऽहमनेन लोकमध्ये श्रमणेन / ततो धमधमायमानश्चेतमा किमत्र स्थितेनेति मन्यमानः प्रवृत्तो विजयपुराभिमुखो गन्त / लवितः कियानपि मार्गः। इतश्च तत एव विजयपुरारिशखरिनृपतेः सूनुमत्कल्प एव हिंसावैश्वानरदोषेण निर्वामितः खविषयाजनकेन दृष्टो मयारण्ये प्रातिपथिको धराधरो नाम तरुणः / पृष्टो मया विजयपुरमार्ग। ततः पर्याकुलतया चित्तस्य न श्रतं तेन मद्दचनं / मया चिन्तितं। परिभवबुद्ध्या मामेष न गणयति। ततः समुल्लसितौ मे हिंसावैश्वानरौ। ग्टहीता तत्कटौतटादमिपुत्रिका। ततस्तेनापि विस्फुरितहिंसावैश्वानरेणैव समावष्टं मण्डलायं। दत्तौ समकमेव दाभ्यामपि प्रहारौ। दारिते शरीरे // अत्रान्तरे मम तस्य च जीर्णा सा एकभववेद्या गुडिका। ततो वितीर्ण अपरे गुडिके दयोरपि भवितव्यतया / दूतश्चास्ति पापिष्ठनिवासा नाम नगरौ / तस्यामुपयुपरि सप्त पाटका भवन्ति / तेषु च पापिष्ठाभिधाना एव कुलपुत्रका वमन्ति / ततः षष्ठे तमाभिधाने पाटके नौती द्वावपि गडिकाप्रभावेण भवितव्यतया For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 432 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / स्था पितौ तादृशकुलपुत्रकरूपतया। प्रवृद्धः सोऽधिकतरमावयोवैरानुबन्धः। स्थितौ परस्परघातमनेकयातनाभिर्विदधानौ द्वाविंशति सागरोपमानि / अवगाहितोऽनन्तमहादुःखसागरः। ततस्तस्याः पर्यन्ते गुडिकादानेनैवानौतौ पञ्चाक्षनिवामनगरे द्वावपि भवितव्यतया विहितौ गर्भजसर्परूपौ। प्रादुर्भूतः पूर्वावेधेन परस्परं पुनः क्रोधाबन्धः / युध्यमानयोः संपन्नं गुडिकाजरणम्। पुनः प्रापितौ तेनैव प्रयोगेण तस्यामेव पापिष्ठनिवामायां नगयीं धूमप्रभाभिधाने पञ्चमे पाटके भवितव्य नया। तत्रापि परस्परं निर्दलयतो तानि सप्तदश मागरोपमानि। अनुभूतान्यतितीव्रःखानि // ततः पुनरानीय पञ्चाक्षनिवासनगरे विहितौ द्वावपि सिंहरूपौ / तत्रापि तदवस्थितो वैराबन्धः। ततश्चान्योन्यं प्रहरतोरपनीय तद्रूपं विहितं तस्यामेव पुयीं पङ्कप्रभाख्ये चतुर्थपाटके पापिष्ठरूपं भवितव्यतया। तहतयोः पुनरप्यावयोरनुवर्तते स्मासौ रोषोत्कर्षः / लविता नि तत्रापौतरेतरं निघ्नतोर्दश मागरोपमानि / मोढानि वाग्गोचरातीतानि दुःखानि // ततः पुनरानौय जनितौ द्वावपि श्येनरूपौ। संलग्न मुल्लसितवैश्वानरयोरायोधनं / ततश्यावयित्वा तद्रूपं पुनर्नीतौ तस्यामेव पुरि वालुकाप्रभानाम्नि हतीयपाटके गुडिकाप्रयुक्तिवशेनैव भवितव्यतया। तत्रापि परस्परं शरीरचूर्णनं कुर्वतोः क्षेत्रानुभावजनितानि परमाधार्मिकासुरोदौरितानि चानन्तदुःखानि सततमनुभवतोरतिक्रान्तानि सप्त सागरोपमानि। तदन्ते पुनरानौतौ पञ्चाक्षनिवासनगरे दर्शितौ च नकुलरूपौ भवितव्यतया। न त्रुटितस्त्रत्रापि परस्परं मत्सर For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वतीयः प्रस्तावः / प्रस्तावः। 33 प्रकर्षः / प्रहरतोश्चान्योन्यं विदीर्ण दयोरपि गरौरे। जीर्ण प्राचीनगुडिके। वितीर्ण पुनरपरे / नौतौ पुनस्तस्यामेव नगीं शर्कराप्रभाभिधाने द्वितीयपाटके। ततो विहितबीभत्सरूपयोरन्योन्यं पिषतोः परमाधार्मिककदर्थनां क्षेत्रजनितमन्तापं च वेदयतोरतीतानि तत्रापि त्रीणि सागरोपमानि। एवं पापिष्ठनिवामनगर्याः पञ्चाक्षनिवामनगरे ततोऽपि पुनस्तस्यां गत्यागमनं कुर्वता तेन च धराधरण साधं वैरं खेटयता भट्रेऽग्टहौतमक्रेते विडम्बितानि मया भवितव्यताप्रेरितेन भूयांमि रूपाणि। ततः पुनः कुतूहलवशेनैव तया निजभार्यया जीर्णायां तस्यामेकभववेद्याभिधानायां कर्मपरिणाममहाराजसमर्पितायां गुडिकायां भूयो भूयोऽपरां गुडिकां योजयन्या तदसंव्यवहारनगरं विहायापरेषु प्रायेण सर्वस्थानेषु तिलपौडकन्यायेन भ्रमितोऽहमनन्तकालमिति // ___ एवं वदति संसारिजौवे प्रज्ञाविशालया चिन्तितं / श्रहो रौद्ररूपोऽसौ क्रोधः / दारुणतरा हिंसा। तथाहि / तद्दशववर्तिनानेन संसारिजौवेन घोरसंसारमागरं कथंचिदतिलंध्य प्राप्तेऽपि मनुष्यभवे विहितं तत्तादृशमतिरौद्रं कर्म / न प्रतिपन्नं भागवतं वचनं हारिता मनुष्यरूपता निर्वतिता वैरपरंपरा उपार्जिता समारमागरेऽनन्तरूपा विडम्बना खौरतो महादुःखसन्तानः / तदिदमनुभवागमसिद्धमनुभवन्तोऽप्येते मनुष्यभावापन्नाः प्राणिनो न लक्षयन्तौवानयोः स्वरूपं प्रात्मवैरिण व समाचरन्ति तमेव क्रोधं तामेव हिंमां मततमनुवर्तन्ते / तदेतेऽपि वराका For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / लस्यन्ते नूनमेवंविधामनर्थपरंपरामित्येषा चिन्ता ममान्तःकरणमाकुलयति // संसारिजौवः प्राह / ततः पुनरन्यदाहमग्टहीतसङ्केते नौतः श्वेतपुरे भवितव्यतया विहितश्चाभौररूपः। तद्रूपतया वर्तमानस्य मे तिरोभूतोऽसौ वैश्वानरः / जातो मनागहं शान्तरूपः / प्रवृत्ता मे यदृच्छया दानबुद्धिः / न चाभ्यस्तं किंचिद्विशिष्टं शौलम् / न चानुष्ठितः कश्चित्संयमविशेषः। केवलं कथंचिइर्षणवर्णनन्यायेन संपन्नोऽहं तदा मध्यमगुणः। ततस्तथाभूतं मामुपलभ्य जाता मयि प्रसन्नहृदया भवितव्यता / ततश्चाविर्भावितोऽनया पुनरपि सहचरो मे पुण्योदयः / ततोऽभिहितमनया। आर्यपुत्र गन्तव्यं भवता सिद्धार्थपुरे स्थातव्यं तत्र यथासुखासिकया। अयं च तवानुचरः पुण्योदयो भविष्यति / मयाभिहितं। यदाज्ञापयति देवौ / ततो जीर्णायां प्राचीनगुडिकायां दत्ता पुनरेकभववेद्या मा ममापरा गुडिका भवितव्य तयति। भो भव्याः प्रविहाय मोहललितं युभाभिराकीतामेकान्तेन हितं मदीयवचनं कृत्वा विशुद्धं मनः / राधावेधसमं कथंचिदतलं लब्चापि मानुष्यक हिंसाक्रोधवशानुगैरिदमहो जौवैः पुरा हारितम् // अनादिसंसारमहाप्रपञ्चे क्वचित्पुनः स्पर्शवशेन मूढैः। अनन्तवारान् परमार्थशून्यैविनाशितं मानुषजन्म जौवैः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टतीयः प्रस्तावः / 435 एतनिवेदितमिह प्रकटं ततो भोस्तां स्पर्शकोपपरतापमतिं विहाय / शान्ताः कुरुध्वमधुना कुशलानुबन्ध महाय लव यथ येन भवप्रपञ्चम् // इत्युपमितभवप्रपञ्चायां कथायां क्रोधहिंसा स्पर्शनेन्द्रियविपाकवर्णनस्तृतीयः प्रस्तावः // ग्रंथा 8000 // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 436 उमितिभवप्रपञ्चा कथा / चतुर्थः प्रस्तावः / अथ विख्यातमौन्दर्य मपुण्यजनसेविते / सिद्धार्थनगरे तत्र भूपोऽभून्नरवाहनः / यस्तेजसा महस्रांशं गाम्भीर्यण महोदधिम् / स्थैर्येण शैलराजेन्द्र जयति स्म महाबलः // येन बन्धुषु चन्द्रत्वं शत्रुवंशे कृशानुता / प्रदर्शितात्मनो नित्यं धनेन धनदायितम् // तस्य रूपयशोवंशविभवैरनुरूपताम् / दधानामोन्महादेवी नाम्ना विमलमालती // मा चन्द्रिकेव चन्द्रस्य पद्मेव जलजन्मनः / तस्य राज्ञः मदा देवी हृदयान्न विनिर्गता // ततोऽग्टहीतमङ्केते तदानौं निजभार्यया / सह पुण्योदयेनाहं तस्याः कुक्षौ प्रवेशितः // अथ संपूर्णकालेन सर्वावयवसुन्दरः / निष्क्रान्तोऽहमभिव्यकरूपश्छन्नस्तथेतरः / / ततो मामुपलभ्यामौ देवौ विमलमालती। मंजातः किल पुत्रो मे परं हर्षमुपागता || ततो निवेदितो राजे तुष्टोऽसावपि चेतमा। मंजातो नगरानन्दः कृतो जन्ममहोत्सवः / / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चनुर्थः प्रस्तावः / 430 ममापि च समुत्पन्नो वितको निजमानसे / यथा हमनयोः पुरस्तातो मातेति तावुभौ // अथ मासे गते पूर्ण महानन्दपुरःमरम् / तत: प्रतिष्ठितं नाम ममेति रिपुदारुणः // नन्दिवर्धनकाले या ममामौदविवेकिता। मा धात्री पुनरायाता स्तनपायनतत्परा // इतश्च तेन मा भर्चा निजेन प्रियकामिना / कचिवेषगजेन्द्रेण मंयोगं समुपागता / / यदा चापन्नगर्भाभूदेवी विमलमालती। तदैव दैवयोगेन मंजाता मापि गर्भिणौ // ततो मज्जन्मकाले मा प्रसूता दुष्टदारकम् / उन्नामितमहोरस्कं वदनाष्टकधारकम् // तं वौच्य मा विशालाक्षौ परं हर्षमुपागता / ततश्च चिन्तयत्येवं स्तिमितेनान्तरात्मना / अहो मदौयपुत्रस्य कूटानि सुगिरेरिव / मूर्धानोऽष्ट विराजन्ने तदिदं महदद्भुतम् // ततः समागते मासे निजमूनोर्गुणोचितम् / करोति नाम विख्यातं शैलराज इति स्फुटम् // दूतश्च / मा धात्रौ म च तत्सूनुरनादावपि सर्वदा / ममान्तरङ्गोऽभूदेव तिरोभूततया परम् // ततः पित्रोर्महानन्दं दधानः सुखलालितः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रयच्चा कथा / महैव शैलराजेन परां वृद्धिमहं गतः // अथातीतेषु वर्षेषु पञ्चषेषु ततो मया / म व्यकं रममाणेन पोलराजो निरीक्षितः // अनादिस्नेहमोहेन तं दृष्ट्वा मम मानसे / या प्रोतिरामौत्माख्यातुं वचनेन न पार्यते // विलोकयन्तं मां वौच्य स्निग्धदृष्ट्या म दारकः / गठात्मा चिन्तयत्येवं लब्धलक्ष्यः खचेतमा // अये मामेष राजेन्द्रतनयः स्निग्धचक्षुषा / विलोकयति तनूनं ममायं वर्तते वगे // ततो विस्मेरिताक्षोऽसौ किलाहं स्नेहनिर्भरः / दर्शयनिति मे देहं ममालिङ्गति मायया // ततो मे मोहदोषेण म्फुरितं निजमानसे / अहो भावज्ञताप्यस्य त्रैलोक्यमतिवर्तते // तदिदानौं मया नैष स्निग्धो बन्धुर्विचक्षणः / मोक्तव्यः क्षणमप्येवं कृतश्चित्ते विनिश्चयः // ततस्तेन महोद्यानकाननेषु दिने दिने / क्रौडतः सततं याति कालो मे इष्टचेतमः // न लक्षितं मया मोहविहलोभूतचेतमा / यथैष शैलराजो मे परमार्थेन वैरिकः // ततो दिनेषु गच्छत्सु मैत्री तेन विवर्धते / तत्प्रभावात्प्रवर्धन्ते वितर्का मम मानसे // यथा ममोत्तमा जातिः कुलं मर्वजनाधिकम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / बलं भुवनविख्यातं रूपं भुवनभूषणम् // मौभाग्यं जगदानन्दमैश्वर्यं भुवनातिगम् / श्रुतं पूर्वभवाभ्यस्तं परिस्फुरति मेऽग्रतः // मघवापि पदं खौयं यद्यहं प्रार्थये ततः / ददात्येव न कार्य मे लाभगकिरियं मम / / ये चान्येऽपि तपोवौर्यधैर्यमत्त्वादयो गुणाः / ते मय्येव वमन्त्युच्चैर्विमुच्य भुवनत्रयम् // यदि वा। यस्येदृशेन मित्रेण संजातो मम मौलकः / तस्य को वर्णयेलो के गुणसम्भारगौरवम् // तथाहि। पुरुषम्य भवेत्तावत्सर्वस्यैकमिहाननम् / अयं वक्त्राष्टकेनैव जयत्येव परं जनम् // तदेष शैलराजो मे यस्य प्राप्तो वयस्यताम् / तम्य नास्ति जगत्यत्र यन्न मंपनमन्त्रमा // ततोऽवलिप्तचित्तोऽहं तां विकल्पपरंपराम् / वर्धयन्नात्मनः मर्व ननं मन्ये तदा जनम् // जोकृतनिजग्रोवो नक्षत्राणि निभालयन् / अग्रतोऽपि न पश्यामि मत्तवगन्धवारणः // आपूर्ण भूरिवातेन विततात्मा यथा दृतिः / ततोऽहं विचरामि स्म निःमारो मदविहलः // चिन्तयामि न मे वन्द्यः कश्चिदस्ति जगत्त्रये / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 44. उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / यत एतद्गुणैः सर्वमधस्तान्मम वर्तते // को ममान्यो गुरुनूनमहमेव गुणैर्गुरुः / क एते देवसङ्घाता ये मत्तोऽपि गुणाधिकाः // ततोऽग्टतीतसङ्केते तदाहं गर्वनिर्भरः / शैलस्तम्भममो नैव कस्यचित्प्रणतिं गतः // किं च। সঘনায়মনৰূিৰীয়াসুনিলিনম্ / न नतं जातचिद्रे तातौयं पादपङ्कजम् // अशेषजनवन्द्यापि स्नेहनिर्भरमानमा / कदाचिदपि नैवाम्बा मया नूनं नमस्कृता // ये केचिलौकिका देवा याश्चान्याः कुलदेवताः / न ताः प्रणामकामेन चक्षषापि मयेचिताः // ततो मां तादृशं वौक्ष्य गैलराजममन्वितम् / वर्धमानं म राजेन्द्रो मनमा पर्यचिन्तयत् // अहो मदौयपुत्रोऽयं गाढं मानधनेश्वरः / तदस्य लोको यद्याज्ञां लवयेत कदाचन // ततोऽयं चित्तनिर्वेदान्मन्यमानोऽवधौरणाम् / मां विहाय क्वचिङ्गच्छत्तदिदं नैव सुन्दरम् / / ज्ञापयित्वा नरेन्द्रादौन् कुमारचरितं ततः / श्राजाविधेयानस्थोच्चैः करोमि मकलानपि / एवं विचिन्त्य मे तातः स्नेहनिर्भरमानमः / समस्तं तत्करोत्येव यत्वयं परिचिन्तितम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / अथ ताताजया सर्व नरेन्द्रा नतमस्तकाः। बालम्यापि ममात्यन्तं किङ्करत्वमुपागताः / प्रधानकुलजाता ये ये च विक्रमशालिनः / तेऽपि मां देव देवेति ब्रुवाणाः पर्युपासते // यदहं वच्मि तत्मा राजलोकः कृतादरः / जय देवेति लपत्रच्चैः शिरमा प्रतिपद्यते // किं चात्र बहुनोकेन ततोऽम्बा च मबान्धवा / वौक्षते मर्वकार्येष्वधिकं मां परमात्मनः // स च पुण्योदयस्तत्र माहात्म्ये मम कारणम् / तथापि मोहदोषेण मयेदं परिचिन्तितम् / / अयं ममेष यो जातो देवानामपि दुर्लभः / सर्वम्याम्य प्रतापस्य शैलराजो विधायकः // तत: मंतुष्टचित्तेन गैलराजो मयान्यदा / प्रोको विश्रम्भजल्पेन स्नेहनिर्भरचेतमा // .. वयम्य योऽयं संपन्नो लोकमध्येऽतिसुन्दरः / मम ख्यातिविशेषोऽयं प्रतापो हन्त तावकः / ततश्च / मदीयवचमा तुष्टः शैलराजः स्वमानसे / वष्टतामुररीकुर्वन्निदं वचनमब्रवीत् // कुमार परमार्थोऽयं कथ्यते तव साम्प्रतम् / यदेवंविधजल्पस्य कुमारास्येह कारणम् // ये दुर्जना भवन्त्यत्र गुणपूर्ण परं जनम् / 56 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 442 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा! खाभिप्रायानुमानेन मन्यन्ते दोषपुनकम् // ये मज्जना पुनर्धन्यास्ते लोकं दोषपूरितम् / खाभिसन्धिविशुद्यैव लक्षयन्ति गुणालयम् // एवं च स्थिते / यद्भासते गुणित्वेन गुणहीनोऽप्ययं जनः / कुमार तावके चित्ते सौजन्यं तत्र कारणम् // प्रतापस्तावकोनोऽयं समस्तोऽपि सुनिश्चितम् / भावत्कवीर्यविख्याताः के वयं परमार्थतः // तदिदं शैलराजीयं वचनं सुमनोहरम् / आकर्याहं तदा भने परं स्नेहरमं गतः // चिन्तितं च मया। अहो मय्यनुरागोऽस्य अहो गम्भौरचित्तता / अहो वचनविन्यामस्तथाहो भावमारता // ततो मयाभिहितं / वयस्य नेदृशं वाच्यमुपचारपरं वचः / ममाग्रतो यतो ज्ञातं माहात्म्यं तावकं मया ! ततो हर्षवशात्तेन शैलराजेन जल्पितम् / प्रमादपरमे नाथे भृत्यानां किं न सुन्दरम् // अन्यच्च / यदि सम्भावना जाता भवतां मादृशे जने / ततो मे परमं गुह्यं भवद्भिरनुमन्यताम् // विद्यते मम मौर्य हदयस्यावलेपनम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 883 तबिजे हृदये देयं कुमारेण प्रतिक्षणम् // मयाभिहितं / कुतस्तदवाप्तं भवता किनामकं को वा नस्य हृदयावलेपनस्य प्रभाव इति श्रोतुमिच्छामि / शैलराजेनाभिहितं / कुमार न कुतश्चिदपि तदवाप्तं मया किं तर्हि स्वकीयेनैव वौर्यण जनितं / नामतः पुनः स्तब्धचित्तं तदभिधीयते / प्रभावं तस्यानुभवदारेणैव विज्ञास्यति कुमारः। किं तेनावेदितेन / मयाभिहितं / यदयस्थो जानौते / ततः ममर्पितं ममान्यदा शैलराजेन तदात्मीयं हृदयावलेपनं। विलिप्तं मया हृदयं / जातोऽहं गाढ़तरमुल्लम्बितशूनतस्कराकारधारितया नमनरहितः / ततस्तथाभूतं मामवलोक्य सुतरां प्रणतिप्रवणा: मंपन्नाः मामन्तमहत्तमादयः / तातोऽपि मप्रणामं मामालापयति स्म / तथाम्बापि स्वामिनमिव मां विज्ञपयति स्म। ततः मंजातो मे हृदयावलेपनप्रभावे सम्प्रत्ययः। संपन्ना स्थिरतरा शैलराजे परमबन्धबुद्धिरिति // दूतश्चान्यदा गतोऽहमन्तरङ्गे क्लिष्टमानमाभिधाने नगरे / तच्च कीदृशं / श्रावामः सर्वदुःखानां नष्टधर्मेनिषेवितम् / कारणं सर्वपापानां दुर्गतिद्वारमञ्जमा // तत्र च नगरे दुष्टाशयो नाम राजा / म च कीदृशः / उत्पत्तिभूमिर्दीषाणामाकरः क्लिष्टकर्मणाम् / मद्विवेकनरेन्द्रस्य महारिः म नराधिपः // तस्य च राज्ञो जघन्यता नाम देवौ / मा च कौदृशौ / नराधमानां माभीष्टा विद्वद्भिः परिनिन्दिता / प्रवर्तिका च मा देवी सर्वेषां निन्द्यकर्मणाम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 448 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तयोश्च जघन्यतादृष्टाशययोर्दैवीनृपयोरत्यन्तमभौष्टोऽस्ति मृषावादो नाम तनयः / स च कीदृशः / समस्तभूतमावस्य विश्वासच्छेदकारकः / निःशेषदोषपुञ्जत्वाइर्हितश्च विचक्षणः // शायपेशन्यदौर्जन्यपरद्रोहादितस्कराः / तं राजपुत्रं सेवन्ते मदनुग्रहकाम्यया // स्नेहो मैत्री प्रतिज्ञा च तथा सम्प्रत्ययश्च यः / एतेषां शिष्ठलोकानां राजमूनुरमौ रिपुः / / पितासौ व्रतलोपस्य मर्यादाया महारिपुः / अयशोवादतर्यस्य मदास्फालनतत्परः // ये केचित्ररकं यान्ति तस्य निर्देशकारिणः / स एव प्रगुणं मार्ग तेषां दर्शयितुं क्षमः // ततो दृष्टोऽसौ मया दुष्टाशयो मरेन्द्रः / तत्पार्श्ववर्तिनौ च विलोकिता मा जघन्यता महादेवी / तयोश्चायतो वर्तमानो निर्वर्णितो मया तयोरेव चरणशुश्रूषाकरणपरायणः स मृषावादो राजदारकः / ततो विहितप्रतिपत्ति: स्थितस्तत्राहं कियन्तमपि कालं / महामोहविमोहितमानमेन च मया न लक्षितं तदा तेषां नगरराजेन्द्रमहादेवौदारकाणां सम्बन्धि स्वरूपं। ग्रहीतोऽपि परमबन्धबुद्ध्या विशेषतः प्रतिपन्नो वयस्यतया मृषावादः / प्राप्तः प्रकर्षगतिं तेन सह प्रेमाबन्धः / दृष्टोऽसौ शरीरादभिन्नरूपतया। ततश्चानौतः म मया मृषावादः स्वस्थाने / ततस्तेन मह ललमानस्य मे समुत्पद्यन्ते स्म मनमौदृशा वितर्काः / यदुत / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 445 ननं विदितमारोऽहमहमेव विचक्षणः / शेषः सर्वः पशुप्रायो मुग्धबुद्धिरयं जनः // यस्थ मे मर्वसम्पत्तिकारको मित्रतां गतः / सर्वदायं मृषावादः स्नेहेन हृदि वर्तते // अमद्भूतपदार्थ पि मढद्धिं जनयाम्यहम् / मद्भूतमप्यमद्भूतं दर्शयामि सुहद्दलात् // कृतं प्रत्यक्षमप्युच्चैर्महामाहसमात्मना / वरमित्र प्रमादेन लगयामि परे जने // चौयं वा पारदाय वा कुर्वतोऽपि यथेच्छया / कुतोऽपराधगन्धोऽपि मम यावदयं सुहृत् // स्वार्थमिद्धिः कुतस्तेषां येषामेष न विद्यते / अतो मूर्खा श्रमी लोकाः स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता // विग्रहेऽपि क्वचित्मन्धि मन्धावपि च वियहम् / मृषावादप्रसादेन घटयामि यथेच्छया // यत्किंकिंचिचिन्तयाम्यत्र वस्तु लोकेऽतिदर्लभम् / वरमित्रप्रमादेन सर्व संपद्यते मम // मया पुण्यैरवाप्तोऽयमयमेव च मे सुहृत् / एष एव जगदन्द्यो यथेष्टफलदायकः // ततोऽग्टहौतमङ्केते मया मोहहतात्मना। कुविकल्पैमनस्तत्र मृषावादे प्रतिष्ठितम् // तहणेन च येनाः संपद्यन्तेऽतिदारुणाः / पुण्योदयप्रभावेण ते यान्ति विलयं तदा // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 446 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / अहं तु तन्न जाने स्म महामोहवणं गतः / ततस्तत्र मृषावादे पश्यामि गुणमालिकाम् // एवं च वर्तमानस्य वयम्यद्वययोगतः / कलाग्रहणकालो मे संप्राप्तः क्रमशोऽन्यदा // ततस्तातेन संपूज्य कलाचार्य विधानतः / तस्थापितोऽहं सद्भक्त्या महानन्दपुरःमरम् // उक्तश्चाहं गुरुः पुत्र तवायं ज्ञानदायकः / अतः पादौ प्रणम्यास्य शिव्यभावं ममाचर // मयोक्तं तात मुग्धोऽमि यो मामेवं प्रभाषसे / वराकः किं विजानौते ननमेष ममाग्रतः // गुरुरन्यस्य लोकस्य स्यादेष न तु मादृशाम् / श्रतो नाहं पताम्यस्य पादयोः शास्त्र काम्यया // केवलम् / भवतामनुरोधेन ग्रहामि मकलाः कलाः / मदीयविनयो नूनमस्य स्थानमा हलोहितम् // ततस्तातेन म प्रोतः कलाचार्या रहःस्थितः / आर्य मामकपुत्रोऽयं गाढं मानधनेश्वरः / / तदत्र भवता नास्य दृष्ट्वाप्यविनयादिकम् / चित्तोबेगो विधातव्यो ग्राहणौयश्च मत्कलाः // ततो विनयनमस्य श्रुत्वा तातस्य जल्पितम् / यदादिशति राजेन्द्र इत्याह म महामतिः // चिन्तितं च तदा तेन कलाचार्येण मानसे / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / किलैष यावच्छास्त्रस्य मनावं नावबुध्यते // यावच्च केलिबहुला बालतामनुवर्तते / अलोकगर्विताभातस्तावदेवं प्रभाषते // यदा तु ज्ञातमद्भावः शास्त्रार्थानां भविष्यति / तदा मदं परित्यज्य स्वयं नम्रो भविष्यति // एवं निश्चित्य हृदये कलाचार्या महामतिः / ततः मर्वादरेणासौ प्रवृत्तो ग्राहणे मम // दूतश्चान्येऽपि तत्पार्श्व बहवो राजदारकाः / प्रशान्ता विनयोयुका ग्टह्णन्ति सकला: कलाः / / यथा यथा च मे नित्यमादरं कुरुते गुरुः / तथा तथा वयस्यो मे शैलराजो विवर्धते // ततश्च तदशेनाहमुपाध्यायं मदोद्धतः / जात्या श्रुतेन रूपेण हौलयामि क्षणे क्षणे // ततश्च चिन्तितं महामतिना / अये। ग्रस्तम्य मनिपानेन चौरानमिव सुन्दरम् / अपथ्योऽस्य वराकस्य कलाशास्त्रपरिश्रमः // गाढं कर्षितदेहस्य यथाम्नं भूरिभोजनम् / तथास्य मकतो यत्नः श्वय) वर्धयत्यलम् // ततो यद्यपि राजेन्द्रः पुत्रस्नेहपरायणः / उत्मायति मां नित्यं गुणाधानार्थमस्य वै // तथाप्यपात्रभूतोऽयं य एवं रिपुदारण: / तस्य त्यागः परं न्याय्यो ज्ञानदानं न युज्यते // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 886 उपमितिभप्रपञ्चा कथा / यो हि दद्यादपात्राय मंज्ञानममृतोपमम् / म हास्यः स्यात्मतां मध्ये भवेचानर्थभाजनम् // न चैष शक्यते कर्तुं नम्रो यत्नशतैरपि / को हि खेदशतेनापि श्वपुच्छं नामयिष्यति // ततश्चैवं स्वचेतस्यवधार्य तेन महामतिना कलाचार्यण शिथिलितो ममोपरि कलाशास्त्रग्राहणानुबन्धः परित्यकमुपचारसंभाषणं दृष्टोऽहं धूलिरूपतया। तथापि तातलज्जया नामौ वहिर्मुखविकारमात्रमपि दर्शयति न च मनागपि मां परुषमाभाषते। दूतश्च तेऽपि राजदारकाः शैलराजमृषावाद निरतं मामुपलभ्य विरक्राश्चित्तेन। तथापि पुण्योदयेनाधिष्ठितं मां ते चिन्तयन्तोऽपि न कथंचिदभिभवितुं शक्नुवन्ति // दूतश्च यथा यथा तौ शैलराजमृषावादौ वर्धते तथा तथामौ मदीयवयस्यः पुण्योदयः छौयते / ततः कृणीभूते तस्मिन् पुण्योदये समुत्पन्ना मे गाढतरं गुरुपरिभवबुद्धिः। अन्यदा निर्गतो बहिः प्रयोजनेनोपाध्यायः / ततोऽधिष्ठितं मया तदीयं महाहं वेत्रामनं। दृष्टोऽहमुपविष्टस्तत्र राजदारकैः / ततो लज्जितास्ते मदौयकर्मणा / लघुध्वनिना चोकमेतैः / हा हा कुमार न सुन्दरमिदं विहितं भवता / वन्दनीयमिदं गुरोरामनं / न युक्तं भवादृशामस्थाक्रमणं / यतोऽस्मिन्नुपविशतां मंपद्यते कुलकलङ्कः समुल्लमति भृशमयशःपटहः प्रवर्धते पापं संजायते चायुषः चरणमिति। मयाभिहितं / अरे बालिशा नाहं भवादृशां शिक्षणाहः। गच्छत यूयमात्मीयं सप्तकुलं शिक्षयत / तदाकर्ण्य स्थितास्ते बोभावेन / ततः स्थित्वा तत्र वेत्रामने बहती वेलामुत्थितोऽहं / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 44 यथेष्टचेष्टया समागतः कलोपाध्यायः / कथितं तस्मै राजदारकैर्मदीयविश्वमितं / क्रुद्धः स्वचेतसा / पृष्टोऽहमनेन। ततः सासूयं मयाभिहितं / अहमेतत्करोमि। अहो ते शास्त्रकौशलं अहो ते पुरुषविशेषज्ञता अहो ते विचारितभाषिता अहो ते विमर्शपाटवं यस्त्वमेतेषां मत्मरिणामसत्यवादिनां वचनेन विप्रतारितो मामेवमाभाषसे। ततो विलक्षीभूतः कलोपाध्यायः / चिन्तितमनेन / न तावदेते राजदारका विपरीतं भाषन्ते। अयं तु स्वकर्मपराधमेवमपलपति। तदेनं स्वयमुपलभ्य शिक्षयिष्यामि। अन्यदा प्रच्छन्न देशस्थितेनावरक्षितोऽहं तेन महामतिना। दृष्टस्तत्र वेत्रासने मरभसमुपविष्टो ललमानः / ततः प्रकटौभूतोऽसौ दृष्टो मया। मुक्तं झगिति वेत्रासनं। महामतिनाभिहितं। इदानौं तर्हि भवतः किमुत्तरं। मयोक्तं / कीदृशे प्रश्ने। महामतिराह / तत्रैव पूर्वके / मयोकं / न जानाम्यहं कीदृशोऽसौ पूर्वकः प्रश्नः / महामतिराह। किमुपविष्टस्त्वमत्र वेत्रामने न वेति / ततो हा मान्तं पापमिति ब्रुवाणेन पिहितौ मया कण / पुनर भिहितं / पश्यत भो मत्सरविलसितं यदेते स्वयमकार्यं कृत्वा ममोपर्यवमारोपयन्ति / महामतिना चिन्तितं। अहो सेयं दृष्टेऽप्यनुपपन्नता नाम / अहो अस्य धार्य अवैद्यकः खल्वयं / इयत्तातः परमसत्यवचनस्य / राजदारकैरभिहितमेकान्ते विधाय कलाचायें। यदुताद्रष्टव्यः खल्वयं पापः / तत्किमेनमस्माकं मध्ये धारयत ययं / महामतिना चिन्तितं / सत्यमेते तपखिनः प्रवदन्ति / नोचित - मेवायं रिपुदारण: सत्सङ्गमस्य / तथाहि। For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पू० उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। लुधमर्थप्रदानेन क्रुद्धं मधुरभाषणः / मायाविनमविश्वासात् स्तब्धं विनयकर्मण / चौरं रक्षणयनेन सद्बुड्या पारदारिकम् / वशीकुर्वन्ति विद्वांसः शेषदोषपरायणम् // न विद्यते पुनः कश्चिदुपायो भुवनत्रये / असत्यवादिनः पुंसः कालदष्टः स उच्यते / यतः / सर्वेऽपि ये जगत्यत्र व्यवहाराः शुभेतराः / मत्ये प्रतिष्ठिता नेदं यस्यासौ नवलौकिकः / / अतो विज्ञाय यत्नेन मत्यहीनं नराधमम् / त्यजन्त्येव सुदूरेण प्रियसत्या महाधियः / ततोऽयं मत्यहीनत्वादस्माकं रिपुदारणः / सम्यगविज्ञातगौलानां न मध्ये स्थातुमर्हति // अथवा नास्य वराकस्य रिपुदारणस्यायं दोषो यतोऽयमनेन शैलराजेन प्रेर्यमाणस्तावत्मकलदुर्विनयमाचरति। तथानेन मृषा वादेन प्रोत्साह्यमानः खल्वयमेवं भाषते / ततो यद्यतौ पापवयस्यौ परिहरति तदर्थं शिचयामि तावदेनं। ततः कृतोऽहमुत्मारके महामतिनाभिहितश्च / कुमार नेदृशानां स्थानमिह मदीयशालायां। अतः कदाचिदेतौ पापवयस्यौ परिहर यदि वा भागन्तव्यमिह कुमारेणेति। मयाभिहितं। त्वमात्मीयजनकाय खस्थानं प्रयच्छ / वयं तु त्वदीयस्थानेन वयापि च विनैव भविष्यामहे / ततश्चैवंविधैस्तिरस्कृत्य परुषवचनैरुपाध्यायमुनामितया For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / कन्धरया गगनाभिमुखेन वदनेन विततौकृतेन वक्षःस्थलेनाविकटपादपातेन गतिमार्गण विलिप्य तेन स्तब्धचित्तेन गैलराजीयविलेपनेनात्महदयं निर्गतोऽहमुपाध्यायभवनात्। ततोऽभिहिता महामतिना राजदारकाः / अरे निर्गतस्तावदेष दुरात्मा रिपुदारणः। केवलं गरौयानरवाहननृपतेः पुत्रस्नेहः। स्नेहमूढाच प्राणिनो न पश्यन्ति वलभस्य दोषममूहं समारोपयन्यसन्तमपि सुणसङ्घातं रष्यन्ति तद्विप्रियकारिणि जने न विचारयन्ति विप्रियकरणकारणं न वक्षयन्ति स्थानमानान्तरं कुर्वन्ति स्वाभिमतविप्रियकर्तर्महापायं। तदेवं व्यवस्थिते भवद्भिनिमवलम्बनौयं / यदि रिपुदारणनिर्गमनव्यतिकरं प्रश्नयिष्यति देवो नरवाहनस्ततोऽहमेव तं प्रत्याययिष्यामि। राजदारकैरभिहितं / यदाज्ञापयत्युपाध्यायः // दूतश्च ततो निर्गत्य गतोऽहं तातममोपे। पृष्टस्तातेन / पुत्र किं वर्तते कलाग्रहणस्येति / ततः शैलराजौयहदयावलेपनवशेन मृषावादावष्टम्भेन च मयाभिहितं / तात समाकर्णय / पूर्वमेव ममाशेषं विज्ञानं हृदयस्थितम् / अयं तावकयनो मे विशेषाधायकः परम् // लेख्ये चित्रे धनुर्वेदे नरादीनां च लक्षणे / गान्धर्व हस्तिशिक्षायां पत्रच्छेद्ये सवैद्यके / शब्दे प्रमाणे गणिते धातवादे सकौतुके। निमित्ते याश्च लोकेऽत्र कलाः काश्चित्सुनिर्मलाः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 452 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तासु सर्वासु मे तात प्रावीण्यं वर्तते परम् / आत्मतुल्यं न पश्यामि त्रैलोक्येऽप्यपरं नरम् // सुतस्नेहेन तच्छ्रुत्वा तातो हर्षमुपागतः / चुम्बित्वा मूर्धदेश मामिदं वचनमब्रवीत् // जात चारु कृतं चारु सुन्दरस्ते महोद्यमः / किं त्वेकं मे कुमारेण वचनं श्रूयतामिति // मया भिहितं / वदतु तातः / तातेनाभिहितं / विद्यायां ध्यानयोगे च स्वभ्यस्तेऽपि हितैषिणा। सन्तोषो नैव कर्तव्यः स्थैर्य हितकरं तयोः // एवं च स्थिते। ग्रहीतानां स्थिरत्वेन शेषाणां ग्रहणेन च / कलानां मे कुमारत्वे त्वं पुषाण मनोरथान् // मयाभिहितं / एवं भवतु / ततो गाढतरं तुष्टस्तातः। दत्तो भाण्डागारिकस्यादेशः। अरे पूरय महामतिभवनं धनकनकनिचयेन येन कुमारः मकलोपभोगमम्पत्त्या निर्व्यग्रस्तत्रैव कलाग्रहणं कुर्वनास्ते / ततो यदाज्ञापयति देव इत्यभिधाय संपादितं भाण्डागारिकेण राजगासनं। महामतिनापि मा देवस्य चित्तसन्तापो भविष्यतीत्याकलय्य न निवेदितं ताताय मदौयविलसितं। ततोऽभिहितोऽहं तातेन। वत्स अद्यदिनादारभ्य स्थिरीकुर्वता पूर्वग्रहोतं कलाकलापं ग्टलता चापूर्वं तत्रैवोपाध्यायभवने भवता स्थातव्यमहमपि न द्रष्टव्यः / मयाभिहित। एवं भवतु / जातश्च मे हर्षः / ततस्तातममोपानिर्गतेन मया मृषावादं प्रत्यभिहितं / वयस्य For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 453 कस्योपदेशेनेदृशं भवतः कौशल्यं येन युभदवष्टम्भन मया संपादितस्तातस्य हर्षः प्रच्छादितः कलाचार्यकलहव्यतिकरो लब्धा चेयमतिदुर्लभा मुत्कलचारितेति / मृषावादेनाभिहितं। कुमाराकर्णय / अस्ति राजसचित्ते नगरे रागकेसरी नाम राजा / तस्य च मूढता नाम महादेवी / तयोश्चास्ति माया नाम दुहिता। मा मया महत्तमा भागिनी प्रतिपन्ना। प्राणेभ्योऽपि वल्लभोऽहं तस्याः / ततस्तदुपदेशेन ममेदृशं कौशलं / सा च जननौकल्पमात्मानं मन्यमाना यत्र यत्र क्वचिदहं संचरामि तत्र तत्र वत्सलतया सततमन्तौना तिष्ठति न क्षणमात्रमपि मां विरहयति / मयाभिहितं / वयस्य दर्शनीया ममापि सात्मीया भगिनी भवता / मृषावादेनाभिहित। एवं करिष्यामि // ततो मया ततः प्रभृति वेश्याभवनेषु द्यूतकरशालासु दुर्ललितमौलकेषु तथान्येषु च दुर्विनयस्थानेषु यथेष्टचेष्टया विचरता तथापि मृषावादबलेन कलाग्रहणमहं करोमौति लोकमध्ये गुणोपार्जनतत्परमात्मानं प्रकाशयता तातमपश्यतैवातिवाहितानि द्वादश वर्षाणि। मुग्धजनप्रवादेन च समुच्चलितालोकवार्ता यथा रिपुदारणकुमारः सकलकलाकलापकुशल इति / प्रचरितो देशान्तरेवपि प्रवादः / समारूढचाहं यौवनभरे // ततश्च शेखरपुरे नगरे नरकेसरिनरेन्द्रस्य वसुंधराया महादेव्याः कुक्षिसंभूतास्ति नरसुन्दरौ नाम दुहिता। मा च भुवनामुतभूतरूपातिशयेन निरुपमा कलासौष्ठवेन संप्राप्ता यौवनं। समुत्पनीऽस्याश्चित्तेऽभिनिवेश: / यदुत यः कलाकौशलेन मत्तः समधिक For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir પૂ છે उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। तरः स एव यदि परं मां परिणयति नापरः। निवेदितं पित्रोनिजाकृतं। संजातमनयोः पर्याकुलत्वं नास्त्येवास्याः कलाभिः समानोऽपि भुवने पुरुषः कुतः पुनरधिकतर इति भावनया / ततः श्रुतस्ताभ्यां मदीयः कलाकौशलप्रवादः। चिन्तितं नरकेसरिणा। स एव रिपुदारणो यदि परमस्याः ममर्गलतरो भविष्यति। युज्यते च नरवाहनेन महास्माकं वैवाह्यं। थतः प्रधानवंशो महानुभावश्चासौ वर्तते तस्य च राज्ञो रत्नसूचिरिव महानागस्य निरपत्यस्य मैवैका नरसुन्दरी दुहिता। ततोऽत्यन्तमभीष्टतया तस्याश्चिन्तितमनेन। गच्छामि तत्रैव सिद्धार्थपुरे ग्टहीत्वा वत्मां नरसुन्दरौं। ततः परीक्ष्य तं रिपुदारणं विवाहयाम्येनां येन मे चित्तनिर्वृतिः संपद्यते / ततः सर्वबलेन समागतो नरकेसरी / ज्ञापितस्तातस्यागमनवृत्तान्तः। परितुष्टोऽसौ। कारितमुच्छ्रितपताकं नगरं। प्रवेशितो महाविमर्दन नरकेमरी तातेन / दत्तमावासस्थानं। भविष्यति रिपुदारणकुमारस्य नरसुन्दर्या मह कलाकौशलपरीक्षेति ज्ञापितं लोकानां / प्रशस्तदिने मन्नौकारितः स्वयंवरमण्डपः / विरचिता मञ्चाः। मौलितं राजवृन्दं / समुपविष्टस्तन्मध्ये मपरिकरस्तातः / ममाहतोऽहं कलाचार्यश्च / प्राप्तोऽहं सह मित्रत्रयेण तातसमीपं महामतिश्च सह राजदारकैः / / इतश्च पुण्योदयस्थ मदीयदृष्टचेष्टितानि पश्यतश्चित्तखेदेनैव संजातं कशतरं शरीरं विगलितं परिस्फुरणं मन्दीभूतः प्रतापः / ततोऽहमुपविष्टस्ताताभ्यणे कलोपाध्यायश्च / निवेदितं विनयनमेण नरवाहनेन महामतये नरकेसरिराजागमनप्रयोजनं। तदाकर्ण्य For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 855 संजातो मे हर्षातिरेकः। स्थितस्वष्णौंभावेन स्वहृदयमध्ये हमन्बुपाध्यायः / अत्रान्तरे समागतो नरकेसरौ। परितुष्टो नरवाहनः / दापितं तस्मै महाईसिंहासनं / उपविष्टः सपरिकरो नरकेसरी। ततस्तदनन्तरं पूरयन्तौ जनहृदयसरांमि लावण्यामृतप्रवाहेण अधरयन्ती वरबर्हिकलापं कृष्णस्निग्धकुञ्चित केशपाशेन प्रोद्भामयन्ती दिक्चक्रवालं वदनचन्द्रेण विधुरयन्ती कामिजनचित्तानि लोलामन्थरेण विलामविलोकितेन दर्शयन्ती महेभकुम्भविभ्रम पयोधरभरेण उच्चजनयन्तौ मदनवारणं विस्तीर्णजघनपुलिनेन विडम्बयन्ती सञ्चारिरक्तराजौवयुगललौलां चरणयुग्मेन उपहमन्तौ कलकोकिलाकुलकूजितं मन्मथोलापजल्पितेन कुवलयन्ती वरमुनौनपि प्रवरनेपथ्यालङ्कारमाल्यताम्बूलाङ्गरागविन्यासेन परिकरिता प्रियमखौबन्देन अधिष्ठिता वसुंधरया प्रविष्टा नरसुन्दरी / ततस्तां विलोक्याहं हष्टश्चेतसा। विजम्भितः शैलराजः / विलिप्तं स्तब्धचित्तेन तेनावलेपनेन मयात्महदयं / चिन्तितं च / कोऽन्यो मां विहायनां परिणेतमर्हति / न खलु मकरध्वजादृते रतिरन्यस्योपनीयते // अचान्तरे विहितविनया तातादीनामभिहिता नरकेसरिण नरसुन्दरौ। यदुत उपविश वत्से। मुञ्च लज्जां। पूरयात्मौयमनोरथान् / प्रश्नय रिपुदारणकुमारं कलामार्म यत्र कचित्ते रोचते। ततो नरसुन्दर्या महर्षमुपविण्याभिहितं / यदाज्ञापयति तातः / केवलं गुरूणां समक्षं न युक्तं ममोड्राहयितुं। तस्मादार्यपुत्र एवोडाहयत सकलाः कलाः। अहं पुनरेकैकस्यां कलायां सारस्थानानि प्रश्नयिष्यामि। तत्रार्यपुत्रेण निर्वाहः For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रयचा कथा / करणीय इति। तदाकर्ण्य हृष्टौ नरवाहननरेन्द्रौ समस्तराजकुलं लोकाश्च / ततस्तातेनाभिहितोऽहं। कुमार सुन्दर मन्त्रितं राजदुहित्रा। तत्साम्प्रतमुद्राहयतु कुमारः मकलाः कलाः पूरयत्वस्या मनोरथान् जनयत् ममानन्दं निर्मलयत कुलं ग्टह्णातु जयपताकां। एषा मा निकषभूमिवर्तते विज्ञानप्रकर्षस्थेति // मम तु तदा कलानां नामान्यपि विस्मृतानि। ततो विहलोभूतमन्तःकरणं प्रकम्पिता गात्रयष्टिः प्रादुर्भूताः प्रखेद बिन्दवः संजातो रोमोद्धर्षः प्रनष्टा भारतौ तरलिते लोचने। ततो हा किमेतदिति विषमस्तातः / प्रलोकितं महामतिवदनं। महामतिराह / किं कर्तव्यमादिशतु देवः / तातेनाभिहितं / किमितीयमौदृशौ कुमारशरोरेऽवस्था। ततः कर्णे निवेदितं महामतिना। देव मनःक्षोभविकारोऽयमस्य / तातः प्राह। किं पुनरस्य मनःक्षोभनिमित्तं / महामतिराह / देव प्रस्तुतवस्तुन्यज्ञानं / भवत्येव हि वागायुधानां सदसि विदुषां सस्पर्धमाभाषितानां ज्ञानावष्टम्भविकलानां मनसि क्षोभातिरेकः / तातेनाभिहितं। आर्य कथमज्ञानं कुमारस्य / ननु सकलकलासु प्रकर्ष प्राप्तः कुमारो वर्तते / ततः संस्मृत्य मदीयदुर्विलसितं ग्रहोतो मनाकोधेन कलाचार्यः / ततोऽभिहितमनेन / देव प्रकर्ष प्राप्तः कुमारः शैलराजमषावादप्रणौतयोः कलयोन पुनरन्यत्र / तातः प्राह / के पुनस्ते कले / महामतिराह। दुर्विनयकरणमसत्यभाषणं च / एते ते शैलराज - मृषावादप्रणौते कले। अनयोश्चात्यन्तं कुशलः कुमारः। न पुनरन्यकलानां गन्धमात्रमपि जानौते / तातः प्राह / कथमिदं / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 457 महामतिनाभिहितं / देव देवस्य दौर्घचित्तसन्तापभौरुभिस्तदैव नाख्यातमिदमस्माभिः। यतो लोकमार्गातीतं कुमारस्य चरितमिदानीमपि देवस्य पुरतस्तत्कथयतो न प्रवर्तते मे वाणौ / तातेनाभिहितं। यथावृत्तकथने भवतो नास्त्यपराधः। निःशङ्क कथयत्वार्यः। कलाचार्यणावज्ञाकरणदिको वेवासनारोहणगी दुर्वचनतिरस्करणपर्यन्तो निवेदितः समस्तोऽपि मदौयदुर्विलसितवृत्तान्तः / तातेनाभिहितं / आर्य यद्येवं ततो जानतापि त्वयास्य कुलदूषणस्य स्वरूपं किमित्ययमेवंविधसभामध्ये प्रवेशितः। ननु विगोपिता वयमाकालमनेन पापेन। महामतिराह। देव न मयायमिह प्रवेशितः। मझवनान्निर्गतस्यास्य दादश वर्षाणि वर्तन्ते। केवलमकाण्ड एव संजातमद्य मम देवकीयमाकारणं / ततः समागतोऽहं / अयं तु कुतश्चिदन्यतः स्थानादिहागत इति / तातेनाभिहितं। आर्य यद्येवमपात्रचूडामणिरेष रिपुदारणो गुणानामभाजनतया वर्जितो युभाभिः तत्किमिति गर्भाधानादारभ्यास्येयन्तं कालं यावत्कल्याणपरंपरा संपन्ना किमिदानौमेवं लोकमध्ये विगुप्यत इति / महामतिराह / देव अस्त्यस्य पुण्योदयो नामान्तरङ्गो वयस्यः। तज्जनिता प्राकनी कल्याणपरंपरा / तथाहि। तत्प्रभावादेवायं प्रादुर्भूतः सुकुले संपन्नो जननौजनकयोरभौष्टतमः संजातो रूपसौभाग्यसुखैश्वर्यादिभाजनं। तातः प्राह। तर्हि व पुनरधुना गतोऽसौ पुण्योदयः / महामतिराह / न कुत्रचिङ्गतोऽचैव प्रच्छन्नरूप प्रास्ते। केवलं पश्यन्त्रस्यैव रिपुदारणस्य सम्बन्धौनि दुर्विल मितानि चित्तदुःखासिकया साम्प्रतं 58 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 458 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / चौणशरीरोऽसौ तपस्वी वर्तते / न शक्नोत्यस्यापदं निवारयितुमिति। तदाकर्ण्य तातो नास्त्यत्र कश्चिदुपायो विनाटिता वयमनेन दुष्युत्रेण महालोकमध्ये प्रमभमिति चिन्तया राहुग्रस्तशशधरबिम्बमिव कृतं तातेन कृष्णं सुखं / लक्षितः समस्तलोकैः पर्यासोचनपरमार्थः / ततो विलक्षौभृतास्तातबान्धवाः। विद्राणवदनः संपन्नः परिजनः। प्रहमिता मुखमध्ये खिड्गलोकाः / विषणा नरसुन्दरौ। विस्तिो नरकेसरिलोकः / ततश्चिन्तितं अनेन तातलज्जया लघुध्वनिना परस्परमुक्तं च / श्रये। गर्वाधातः परं मूढो बस्तिवद्दातयूरितः / निःसारोऽपि गतः ख्यातिमेष भो रिपुदारण: // अथवा। निरक्षरोऽपि वाचालो लोकमध्येऽतिगौरवम् / वागाडम्बरतः प्राप्तो यः स्यादन्योऽपि मानवः // म मर्वो निकषप्राप्तः प्राप्नोत्येव विडम्बनाम् / महाहास्यकरौं मूढो यथायं रिपुदारण: // मम तु तातोपाध्यायौ कर्णात्मारकेण परस्परं तथा जल्पन्तौ पश्यतः समुत्पन्नो मनमि विकल्पः / श्रये बलात्कारेण मामेतौ जल्पयिष्यतः / ततो भयातिरेकेण स्तम्भितं मे गलकनाडौजालं निरुद्धयोच्छासनिःश्वासमार्गः। संजाता म्रियमाणावस्था / ततो हा पुत्र हा तात हा वत्स हा तनय किमेतदिति प्रलपन्ती वेगेनागत्य गरौरे लग्ना ममाम्बा विमलमालती। पर्याकुलौकृतः परिजनः किं कर्तव्यताविमूढा वसुंधरा विस्मितो नरकेसरी। For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / तातेनाभिहितं। गच्छत भो लोका गच्छत न पटुः शरौरेणाद्य कुमारः। पुनर्जल्पो भविष्यति। तदाकर्ण्य निर्गता वेगेन लोका मिलिता बहिस्त्रिकचतुष्कचत्वारादिषु। अहो रिपुदारणस्य पाण्डित्यमहो पाण्डित्यमिति प्रवृत्तं प्रहसनं / प्रहितौ लज्जावनमेण तातेन कलोपाध्यायनर केसरिणौ। गतः स्वावासस्थाने नरकेसरी। चिन्तितमनेन। दृष्टं यद्रष्टव्यं / दीयतां प्रभाते प्रयाणकमिति // ममापि निर्जनीभूते मन्दीभृतं भयं स्वस्थौभूतं शरीरं। तातस्य तु हतराज्यस्येव वजाहतस्येव महाचिन्ताभराक्रान्तस्य लवितं तद्दिनं / समागता रजनी / न दत्तं प्रादोषिकमास्थानं / निवार्य जनप्रवेशं प्रसुप्तः / केवलं तया चिन्तयापनिद्रेणेवातिवाहितप्राया विभावरौ // इतश्च लज्जितो मे वयस्यः पुण्योदयः / चिन्तितमनेन / यस्य जीवत एवं पुंसः स्वामौ विडम्व्यते / किं तस्य जन्मनाप्यत्र जननौलेशकारिणः // ततश्च / जातं विच्छायकं तावन्ममैतदतिदुःसहम् / यायात्मुतामदत्त्वेव यद्यमौ नरकेसरी // ततोऽस्य सर्वथा व्यर्थ कुमारस्य मदीयकम् / मंनिधानमतो नैव ममोपेक्षात्र युज्यते // ततो यद्यप्ययोग्योऽयमेतस्या रिपुदारणः / तथापि दापयाम्येनामस्मै कमललोचनाम् // अत्रान्तरे समागता तातस्य रात्रिशेषे निद्रा। ततो भने For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपच्चा कथा / ऽग्टहौतमकेते समाश्वासनार्थं तातस्य दत्तं कामरूपितया स्वप्नान्तरे तेन पुण्योदयेन दर्शनं / दृष्टः सुन्दराकारो धवलवर्णः पुरुषः / अभिहितमनेन / महाराज किं स्वपिषि किं वा जागर्षि। तातेनाभिहितं / जागर्मि / पुरुषः प्राह / यद्येवं मुञ्च ततो विषादं। दापयिष्याम्यहं रिपुदारणकुमाराय नरसुन्दरीमिति। तातेनाभिहितं / महाप्रसादः // अत्रान्तरे प्रहतं प्राभातिकं व्यं / ततो विबुद्धस्तातः / पठितं कालनिवेदकेन / होनप्रतापो यः पूर्वं गतोऽस्तं जगतां पुरः / स एवोदयमामाद्य रविराख्याति हे जनाः // यदा येनेह यल्लभ्यं शुभं वा यदि वाशुभम् / तदावाप्नोति तत्सर्वं तत्र तोषेतरौ वृथा // एतच्चाकर्ण्य चिन्तितं तातेन। यदुत न कर्तव्यो मयाधुना विषादः। यतो लम्भयिष्यामि कुमारं नरसुन्दरौमिति / स्फुटमेव निवेदितं स्वप्ने मम देवेन / अनेन तु कालनिवेदकपाठव्याजेन दत्तो ममोपदेशो वेधमा / यदुत यः पुरुषो यावतः सुन्दरस्यासुन्दरस्थ वा वस्तुनो यदा भाजनं तस्य तावत्तदतर्कितमेव तदा मदशेन संपद्यत इति / न कर्तव्यौ तत्र विदुषा हर्षविषादौ। ततोऽनया भावनया स्वस्थीभूतस्तातः // दूतश्चाविन्यप्रभावतया पुण्योदयस्य संपादिता तेन नरकेसरिणो बुद्धिः। यदुत महानुभावोऽयं नरवाहनराजः / विज्ञातं च राज्यान्तरेष्वपि मम यदिहागमनप्रयोजनं। ततो For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / लनाकरं पक्षद्वयस्यापि नरसुन्दरीमदत्त्वा मम स्वस्थाने गमनं / अतः संभाल्य कथंचिदेनां प्रयच्छामि रिपुदारणकुमारायेति // ततो निवेदितो नरकेसरिणा वसुंधरासमक्षं नरसुन्दथै स्वाभिप्रायः / ततो नरसुन्दर्या अपि पुण्योदयप्रभावादेव वलितं मां प्रति मानसं / चिन्तितमनया। युक्तियुक्तमेव तातेन मन्त्रितं / ततोऽभिहितमनया। यदाज्ञापयति तातः। तदाकर्ण्य हृष्टो नरकेसरौ। आगत्याभिहितोऽनेन नरवाहनः / महाराज किमत्र बहुना जल्पितेन / आगतैवेयं वत्मा नरसुन्दरौ कुमारस्य स्वयंवरा। तदत्र किं बहुना विकत्यनेन / केवलं दुर्जनवचनावकाशो भवति। अतो निर्विचारं ग्राह्यतां कुमारेण स्वपाणिना पाणिरस्थाः / तातेनाभिहितं / / एवं क्रियते / गणितं प्रशस्तदिनं / परिणीता मया महता विमर्दन नरसुन्दरौ। तां विमुच्य गतः खस्थाने नरकेमरौ / दत्तो मह्यं तातेन निर्व्यग्रभोगार्थ महापामादः। गतानि नरसुन्दर्या मह ललमानस्य मे कतिचिद्दिनानि / घटितं च पुण्योदयेन निरन्तरमावयोः प्रेम समुत्पादितश्चित्तविश्रम्भः लगिता मैत्री जनितो मनोरतिप्रबन्धः प्ररोहितः प्रणयः वर्धितश्चित्तमौलकाल्हादसागरः / सर्वथा स्वप्रभामिव तौक्षणांशश्चन्द्रिकामिव चन्द्रमाः / क्षणमेकं न मुञ्चामि तामुमामिव शङ्करः // मापि मामकवत्राबरसास्वादनतत्परा / भ्रमरोव गतं कालं न जानाति तपखिनौ // ततस्तं तादृशं वौच्य देवानामपि दुर्लभम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 462 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / माधं मे नरसुन्दर्या प्रेमाबन्ध मनोहरम् // मदीयौ सुहृदाभासौ परमार्थन वैरिको / तो मृषावादशैलेशौ चित्तमध्ये रुषं गतौ // चिन्तितं च ततस्ताभ्यां कथमेष वियोक्ष्यते / एतया नरसुन्दर्या पापात्मा रिपुदारण: // शैलराजो मृषावादं ततश्चेत्थमभाषत / त्वं तावन्नरसुन्दर्याः कुरु चित्तविरञ्जनम् // खयमेवाहमत्रार्थ भलिव्यामि ततः परम् / मादृशा च कृते यत्ने कीदृशं प्रेमबन्धनम् // मृषावादस्ततः प्राह नोत्साह्योऽहं भवादृशा / कृतमेव मया पश्य एतस्याश्चित्तभेदनम् // तदेवं महियोगार्थ ततस्तौ कृतनिश्चयो / शैलराजमृषावादौ पर्यालोच्य व्यवस्थितौ // अहं तु तां समासाद्य सद्भायीं नरसुन्दरौम् / चिन्तयामि त्रिलोकेऽपि प्राप्तं यत्सुन्दरं मया // ततश्चोनामितैकमूर्मन्थरोकतलोचनः / दत्त्वा तच्चैलराजौयं हृदये खेऽवलेपनम् // चिन्तयामि न लोकेऽत्र पुरुषोऽन्योऽस्ति मादृशः / यतो ममेदृशौ भार्या ततो गाढतरं पुनः / / न पश्यामि गुरुं नैव देवानो बन्धुसन्ततिम् / न मृत्यवर्ग नो लोकं न जगत् सचराचरम् / / अथ तत्तादृशं दृष्ट्वा मदीयं दुष्टचेष्टितम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / पुण्योदयो मनस्तापागाढं जातोऽतिदुर्बलः // ततो मां तादृशं वीक्ष्य विरकाः सर्वबान्धवाः / इदं जल्पितमारब्धा हसन्तस्ते परस्परम् // पश्यताहो विधेः कीदृगस्थानविनियोजनम् / स्त्रीरत्नमौदृशं येन मूर्खणनेन योजितम् // स्तब्धोऽभून्मीभावेन प्रागेष रिपुदारणः / श्रामाद्यमा पुनर्भायीं गर्वणन्धोऽधुना ह्ययम् // स एव वर्तते न्यायो लोके यः किल श्रूयते / एक म वानरस्तावद्दष्टोऽन्यदृषणेऽलिना // तदेषा चारसर्वाङ्गी मद्भार्या नरसुन्दरौ / करिणीव खरस्योच्न योग्यास्य मृगेक्षणा // अन्यदा नरसुन्दर्या सद्भावार्पितचित्तया / स्नेहगर्भपरीक्षार्थं चिन्तितं निजमानसे // किं ममार्पितसद्भावः किं वा नो रिपुदारणः / श्रा ज्ञातं स्नेहसर्वस्वं गुह्याख्याने न गम्यते // अनाख्येयमतः किंचिगुह्यमर्वस्वमञ्जमा / पृच्छाम्येनं दृढस्नेहे ततो व्यनिर्भविष्यति // ततश्चिन्तितं नरसुन्दर्या / कौदृशं पुनरहं गुह्यमधनार्यपुत्र पृच्छामि। इं ज्ञातं तावत्सुनिश्चितमिदं मया / यदत नितरां कमनीयशरोरोऽपि रताशोकपादपवदेष निखिलकलाकलापकौअलफलविकल एवार्यपुत्रः / यतो विजानाभावनिताझ्यातिरेकादेव तथाविधोऽस्य तदा सभामध्ये मनःक्षोभोऽभूत्तदधुना तदेव For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 464 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। मनःक्षोभकारणमार्यपुत्र' प्रश्नयामि। ततो यदि स्फुटमाचक्षीत विज्ञास्यामि यथास्ति मया सहास्य स्नेहमभावः / अथ न कथयत्ततस्तत्राप्यभिप्रायं लक्षथिव्यामौ ति विचिन्त्य पृष्टोऽहं नरसुन्दा / यदुतार्यपुत्र कीदृशं तव तदा सभामध्ये शरीरापाटवमासौदिति / अत्रान्तरे ज्ञातावसरेण प्रयुक्ता मृषावादनात्मौया योगशतिः / कृतमन्तर्धानं / प्रविष्टो मदीयमुखे / ततोऽभिहितं मया / प्रियतमे वया पुनस्तदा कीदृशं लक्षितं / नरसुन्दरी प्राह / न मया किंचित्तदा सम्यग विज्ञातं / केवलं समुत्पन्ना शङ्का किं सत्यमेव शरीरापाटवमार्यपुत्रस्य किं वा कलाकलापे न कौशलमिति / मयाभिहितं / सुन्दरि न तत्रैकोऽपि विकल्पः कर्तव्यः / यतस्तरन्ति हृदये मम सकलाः कलाः / शरीरापाटवपि मम न किंचित्तदासीत् / केवलमम्बया तातेन चालीकमोहात् कृतो मुधैव बहलः कलकलः / तथाविधालौककलकले च स्थिरतया स्थितोऽहं मौनेन। एतच्चाकर्ण्य नरसुन्दर्याः संजातो मनसि व्यलोकभावः / चिन्तितमनया / अहो अस्य प्रत्यचापलापित्वं अहो निर्लज्जता अहो आत्मबहुमानिता। ततोऽभिहितं नरसुन्दर्या / आर्यपुत्र यद्येवं ततो महत्कुतुहलं मम इदानीमप्यहमार्यपुत्रण कलाखरूपमुत्कोत्यमानं श्रोतुमिच्छामि। अतो महता प्रसादेन समुत्कोर्तयत तदार्यपुत्रः / मया चिन्तितं / अये पाण्डित्याभिमानेन परिभवबुद्ध्या मामुपहसत्येषा / अत्रान्तेर लब्धावमरो विजृम्भितः शैलराजः / विलिप्तं तेन स्तब्धचित्ताभिधानेनात्मौयविलेपनेन स्वहस्तेन मद्धदयं / ततश्चिन्तितं मया। एवं या मम परिभवेनोपहामकारिणी For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 465 खल्वेषा पापा नरसुन्दरी / तया किमिह स्थितया / ततो मयाभिहितं / अपमर पापे दृष्टिमार्गादपसर वर्ण निर्गच्छ मदौयभवनात् / न युक्तं भवादृश्याः पण्डितंमन्याया मूर्खणानेन जनेन सहावस्थातमिति / ततोऽवलोकितं मदौयवदनं नरसुन्दर्या / चिन्तितमनया / हा धिक् सद्भावौभूत एवायं / वशौकतो मानभटेन नो गोचरः साम्प्रतं प्रमादनायाः / ततो मन्त्राहतेव भुजगवनिता समुन्मलितेव वनलतिका उत्खोटितेव चूतमञ्जरौ अङ्कनकृष्टव करिणिका मर्वथा विद्राणदौनवदना साध्वसभारनिर्भर हृदयमुद्दहन्तौ मन्दं कणन्मणिमेखला किङ्किणैकलकोलाहलनूपुरझणझणारावसमाकृष्टस्नानवापिकाकलहंसकानि पदानि निक्षिपन्तौ चलिता नरसुन्दरौ निर्गता मामकौनमदनात् प्राप्ता तातोयभवने // स्थितोऽहं शैलस्तम्भतया यावदद्यापि न शुष्यति शैलराजौयं तदक्षःस्थलावलेपनं तावती वेलां। शोषमुपागते मनाक्पुनस्तत्रावलेपने संजातो मे पश्चात्तापः / बाधते नरसुन्दरोस्नेहमोहः / समाध्यामितोऽहमरत्या ग्टहीतो रणरणकेन अङ्गीकृतः शून्यतया उररोक्तो विहलतया प्रतिपन्नो विकार कोटीभिः अवष्टब्धो मदनज्वरेण / ततो निषमः शयनीये। तत्रापि प्रवर्धमानया जम्भिकयानवरतमुहर्तमानेनाङ्गेन मत्स्यक व खादिराङ्गारराशिमध्ये दन्दह्यमानः स्तोकवेलायां यावत्तिष्ठामि तावदागता सविषादमम्बा विमलमालती। ततस्तां वीक्ष्य कृतं मयाकारमंवरणं / निषला भद्रामने स्वयमेवाम्बा / स्थितोऽहं पर्यङ्क एवोपविष्टः / अभिहितमम्बया / वत्म न सुन्दरमनुष्ठितं भवता यदमौ तपखिनौ नरसुन्दरी 59 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / परुषवचनेस्तथा तिरस्कृता / तथाहि यदितो गतायास्तस्याः संपचं तत्ममाकर्णयतु वत्मः / मयाभिहितं / उच्यतां यत्ते रोचते / अम्बयाभिहितं / अस्ति तावदितो गता नयनसलिलधाराधौतगण्डलेखा दौनमनस्का दृष्टा मा मया नरसुन्दरी। पतिता रुदन्तौ मम पादयोः। मयाभिहिता / हले नरसुन्दरि किमेतत् / तयाभिहितं / अम्ब दाहचरो मां बाधते / ततो नौता मया मा संप्रवातदेशे। सन्नौकारितं शयनीयं। तत्र च स्थापिता मा / निषलाहं पार्श्व / ततः प्रहते व महामुहरेण प्लष्यमाणेव तौवाग्निना खाद्यमानेव वनपञ्चाननेन ग्रस्यमानेव महामकरण अवष्टभ्यमानेव महापर्वतेन उत्कर्त्यमानेव कृतान्तकर्तिकया पाव्यमानेव क्रकचपाटेन पच्यमानेव नरके प्रतिक्षणमुदर्तपरावर्त कर्तमारब्धा / मयाभिहितं / हले किंनिमित्तकः पुनस्तवायमेवंविधो दाहज्वरः / ततो दीर्घदौर्घ निःश्वस्य न किंचिजल्पितमनया। मया चिन्तितं / मानसौयमस्या: पौडा / कथमन्यथा ममापि न कथयेत् / ततः कृतो मया निर्बन्धः / कथितं कृच्छ्रेण नरसुन्दर्या यथावृत्तं / ततो नियुज्य तस्याः शौतक्रियाकरणे कदलिकां मयाभिहिता मा नरसुन्दरौ। यदुत वत्से यद्येवं ततो धौरा भव मुच्च विषादं अवलम्बस्व माहमं / गच्छाम्यहं खयमेव वत्मस्य रिपुदारणस्य समोपे। करोमि तं तवानुकूलम् / केवलं किं न विज्ञातं पूर्वमेव त्वयेदं यथा नितरां मानधनेश्वरो मदीयस्तनयः न विषयः प्रतिकूलमाषणस्य / तदिदानौमपि विज्ञातमाहात्म्ययास्थ त्वया न कदाचिदपि प्रतिकूलमाचरणौयं यावज्जौवं परमात्मेवायमाराधनीयः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / ततश्चेदं मदीयवचनमाकर्ण्य मा बाला नरसुन्दरौ विकसितेव कमलिनो कुसुमितेव कुन्दलता परिपाकबन्धुरेव मञ्जरौ मदसुन्दरेव करिणिका जलसेकाय्यायितेव वल्लरी पौतामृतरसेव नागप्रणयिनी गतघनबन्धनेव चन्द्रलेखिका सहचरमौलितेव चक्रवाकिका क्षिप्तेव सुखासतमागरे सर्वथा किमप्यनाख्येयं रमान्तरमनुभवन्तौ शयनादुत्थाय निपतिता गाढं मम चरणयोः / अभिहितमनया। अम्ब महाप्रसादः / अनुग्रहौतास्मि मन्दभाग्याहमनेन वचनेनाम्बया / तगच्छतु शौघ्रमम्बा करोतु ममानुकूलमेकवारमार्यपुत्रं / ततो यदि पुनरयं जनस्तस्य प्रतिकूले वर्तमानः स्वप्रेऽपि विज्ञातः स्यादम्बया ततो यावन्नौवं न संभाषणोयो नापि द्रष्टव्यः पापात्मेति / मयाभिहितं / यद्येवं ततो गच्छामि / नरसुन्दरी प्राह / श्रम्ब महाप्रसादः। ततः समागताहमेषा वत्मस्य समीपे / तदयमत्र वत्म परमार्थः / मा तु दन्दह्यते बाला विदित्वा प्रतिकूलताम् / तवानुकूलतां मत्वा प्रमोदमवगाहते // वल्लभेयं कुमारस्य श्रुत्वेदममृतायते / अनिष्टेयं कुमारस्थ श्रुत्वेदं नारकायते // त्वदौयरोषनाबापि नियते मा तपस्विनी / सन्तोषमात्रनाम्नापि तावकोनेन जीवति // अतो यन्मुग्धया किंचिदपराद्धं तया तव / बालया प्रणयात्मवै तवत्सः चन्तुमर्हति // प्रणतेषु दयावन्तो दौनाभ्युद्धरणे रताः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / मस्नेहार्पितचित्तेषु दत्तप्राण हि माधवः // ततश्चेदमम्बया नरसुन्दरोस्नेहसर्वस्वमुत्कौय॑मानमाकर्ण्य यावकिलाहं स्नेहनिर्भरतया तां प्रति प्रगुणो भवामि तावच्छेलराजेन विरचिता कुटिलधुकुटि●नितमुत्तमाङ्ग दत्तो मदीयहृदये विलेपनचर्चः / ततस्तस्याः सम्बन्धिनमपराधं संस्मृत्य जातो मम पुनश्चित्तावष्टम्भः / ततोऽभिहिता मयाम्बा / यदुत न कार्य मम तया परिभवकारिण्या पापयेति / अम्बयाभिहितं / ' वत्म मा मैवं वोचः / क्षन्तव्यो मम लगाया वत्सेन तदीयोऽयमेको गुरुरपराधः / ततः पतिता मचरणयोरम्बा। मया भिहितं / अपसर बमप्यवस्तुनिर्बन्धपरे मम दृष्टिपथादपसर / न प्रयोजनं त्वयापि मे या वं मया निःमारितां तां दुरात्मिकां संग्टहामि / ततश्चरणाभ्यां प्रेरिता मयाम्बा / ततो भद्रेऽग्टहीतसङ्केते शैलराजवशवर्तिना मया पापात्मना तथा तिरस्कृता सती लवयित्वा मदीयमनिवर्तकमाग्रहविशेषं निराशा मुञ्चन्ती नयनसखिलं यथागतमेव प्रतिगताम्बा / निवेदितो नरसुन्दथै व्यतिकरः। तमाकर्ण्य वज्रनिर्दलितेव मूर्छया निपतितासौ भूतले / मिना चन्दनरसेन समाश्वामिता तालवन्तवायुना लब्धचेतना रोदितमारब्धा / विमलमानत्याभिहितं / पुत्रि किं क्रियते / वज्रमयहृदयोऽसौ ते भर्ता / तथापि मा रुदिहि मुञ्च विषादं / साहमावष्टम्भेन कुरु तावदेकं त्वमुपायं / गच्छ स्वयमेव प्रियतमप्रसादनार्थं / ततः स्वयं गतायाः प्रत्यागतहृदयः कदाचित्प्रसीदत्यमौ / यतो मार्दवसाध्यानि कामिहदयानि भवन्ति / अथ तथापि कृते न प्रसौदेत्ततः पश्चात्तापो न भविष्यति / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 469 यतः सुपरिमाणिते वल्लभके किलावरकको न भवतीति लोकवार्ता / नरसुन्दरी प्राह / यदाज्ञापयत्यम्बा / ततश्चलिता सा मम तोषणार्थं / किमस्थास्तत्र गतायाः संपद्यत इति विमर्शन लमा तदनुमानृणाम्बा / प्राप्ता मम पार्श्व नरसुन्दरौ / स्थिता द्वारदेश विमलमालती / नरसुन्दर्याभिहितं / नाथ कान्त प्रिय खामिजौवदायक वल्लभ / प्रसौद मन्दभाग्यायाः प्रसौद नतवत्सल // न पुनस्ते मनोदुःखं करिव्येऽहं कदाचन / त्वां विना शरणं नाथ नास्ति मे भुवनत्रये // एवं च वदन्ती बाघ्योदकबिन्दुवर्षणालोललोचनयुगलेन वपयन्ती मदीयचरणद्वयं प्रणता नरसुन्दरी / मम तु तां तादृशौं पश्यतस्तदा कीदृशं हृदयं संपन्नं / अपि च / स्नेहेन नरसुन्दर्या भवत्युत्पलकोमलम् / वौचिते गेलराजे तु शिलामवातनिठुरम् // नवनौतमिवाभाति यावञ्चिन्तयति प्रियाम् / वज्राकारं पुनर्भाति गैलराजवशीकृतम् // ततो दोला ममारूढं तदा मामकमानमम् / निश्चेतुं नैव शक्नोति किमत्र मम सुन्दरम् // तथापि मोहदोषेण मया दौनापि बालिका। शैलराज प्रिय कृत्वा भर्मिता नरसुन्दरौ / कथम् / श्राः पापे गच्छ गच्छति वागाडम्बरमायया / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / न प्रतारयितुं शक्यस्त्व यायं रिपुदारणः // कुशलापि कलासूच्चैरन्येषां यदि वञ्चनम् / कर्तुं शतामि नो जातु मूर्खाणामपि मादृशाम् // यदाहं हसनस्थानं संजातस्त्वादृशामपि / तदा किं ते प्रलापेन कीदृशौ मम नाथता // इत्युक्त्वा स्तब्धसर्वाङ्गः शून्यारण्ये मुनिर्यथा / स्थितोऽहं मौनमालम्ब्य शैलराजेन चोदितः // ततः मा वराको नरसुन्दरी विगलितविद्येवाम्बरचरौ परिभ्रष्टममाधिसामर्थ्येव योगिनौ तप्तस्थलनिक्षिप्तेव शफरिका अवाप्तनष्टरत्ननिधानेव मूषिका सर्वथा त्रुटिताशापाशबन्धना निपतिता महाशोकभरमागरे चिन्तयितुं प्रवृत्ता। किमिदानौं सर्वथा प्रियतमतिरस्कृताया मम जीवितेनेति / ततो निर्गत्य भवनात् क्वचिङ्गन्तमारब्धा / ततः किमियं करोतीति विचिन्त्य सहित एव शैलराजेनालचितपादपातं लगोऽहं तदनुमार्गेण // दूतश्च लोकयन्निव निर्विलो मदीयं दुष्टचेष्टितम् / अचान्तरे गतोऽन्यत्र तदा क्षेत्रे दिवाकरः // ततः समुलमितमन्धकारं। संजाता विरलजनमञ्चारा राजमार्गाः। ततो गता सैकत्र शून्यग्टहे नरसुन्दरौ। दूतचोदन्त प्रवृत्तः प्रशधरः / ततो मन्दमन्दप्रकाशे तामेव निरीक्षमाणः प्राप्तोऽहमपि तद्दारदेश स्थितो गोपायितेनात्मना / ततो नरसुन्दर्या विलोकितं दिग्चक्रवालं दृष्टकास्थलमारुह्योत्तरौयेण बद्धो मध्यवलये पाशकः / नियमिता तत्र शिरोधरा / ततोऽभिहितम For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 171 नया / भो भो लोकपालाः श्टणत ययमथवा प्रत्यक्षमेवेदं दिव्यज्ञानिनां तत्रभवतां / यदुत लब्धप्रसरतया नाथवादेन कलोपन्यामं कारितो मयार्यपुत्रो न परिभवबुद्ध्या / तस्य तु तदेव मानपर्वतारोहकारणं संपन्नं / एवं च सर्वथा निराकृताहं तेन मन्दभाग्या / अत्रान्तरे मया चिन्तितं / नास्यास्तपखिन्या ममोपरि परिभवबुद्धिः किं तर्हि प्रणयमात्रमेवात्रापराध्यति / ततो न सुन्दरमनुष्ठितं मया / अधुनापि वारयाम्येनामितोऽध्यवसायादिति विचिन्य पाशकच्छेदार्थ यावच्चलामि तावदभिहितं नरसुन्दयो / यदुत तत्प्रतौच्छत भगवन्तो लोकपालाः साम्प्रतं मदीयप्राणान् / मा च मम जन्मान्तरेवपि पुनरेवंविधव्यतिकरो भूयादिति / ततः शैलराजेनाभिहितं / कुमार पश्य जन्मान्तरेऽपि त्वदीयसम्बन्धमेषा नाभिलषति / मया चिन्तितं। सत्यमिदं / तथाहोयं प्रस्तुतव्यतिकरनिषेधमाशास्ते / मदीयव्यतिकरश्चात्र प्रस्तुतः / तन्त्रियतां / किमनया मम पापया। ततो लब्धप्रसरेण दत्तो मम हृदये गैलराजेन स्खविलेपनहस्तकः / स्थितोऽहं तस्य माहाम्येन तां प्रति काष्ठवनिष्ठितार्थः / ततः प्रवाहितो नरसुन्दर्यात्मा पूरितः पाशक: लम्बितं प्रवृत्ता निर्गते नयने निरुद्धः श्वासमार्गः वक्रीकृता ग्रौवा श्रावष्टं धमनौजालं शिथिलितान्यङ्गानि समसमाथितं श्रोतोभिः निर्वादितं वत्रकुहरं विमुक्रा च सा प्राणैर्वराकौ // इतश्च भवनानिर्गच्छन्तौ दृष्टाम्बया नरसुन्दरौ अहं च तदनुयायो / चिन्तितमनया / नूनं भग्नप्रणयेयं रुष्टा वत्मा गच्छति मे वधः / अयं पुनरस्था एव प्रसादनाथे पृष्ठतो लग्नो मम पुत्रकः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 472 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / ततो दूरं गतयोरावयोरनुमार्गणागच्छन्ती ममागताम्बापि तत्र शून्यग्टहे / दृया तथा लम्बमाना नरसुन्दरौ। चिन्तितमम्बया / हा हा हतास्मि / नूनं मत्पुत्रकस्यापीयं वार्ता / कथमन्यथास्यामेवं व्यवस्थितायां स हृष्णौमासीत् / मया तु गेलराजीयावलेपनदोषेणैव श्रवस्तुनिर्बन्धपरेयमिति कृता तदवधारणा / ततः शोकभरान्धया मम पश्यत एव तथैव चापादितोऽम्बयाप्यात्मा / ततः माध्वसमन्तापेनेव शुष्क मनाङ् मे स्तब्धचित्ताभिधानं तत्तदा हृदयावलेपनं / ग्टहीतोऽहं पश्चात्तापेनाक्रान्तः शोकभरेण / ततः स्वाभाविकस्नेहविहलोभूतमानसः / क्षणं विधातुमारब्धः प्रलापमतिदारुणम् // तथाप्यतिप्रौढतया निजमाहात्म्येन कृत एव मे शैलराजेन चित्तावष्टम्भः / चिन्तितं मया / श्रये मनुष्यः कथं स्त्रीविनाशे रोदितौति / ततः स्थितोऽहं तूषणोंभावेन // दूतश्च कदलिकया चिन्तितं / किमिति स्वामिनी नागच्छति। तइच्छाम्यहं तदन्वेषणार्थ / ततः कुतचिनिश्चित्य प्राप्ता सापि तं प्रदेशं / ततो दृष्ट्वा विमलमालतीनरसुन्दा तथा लम्बमाने कृतस्तया हाहारवः / मिलितं सतातं नगरं। समुच्छलितः कोलाहलः / किमेतदिति पृष्टा कदलिका। निवेदितं तया सर्वं यथावृत्तं // अत्रान्तरे संपन्नः स्फटतरश्चन्द्रालोकः / ततो दृष्टे तथैवोलम्बमाने सर्वलोकेनाम्बानरसुन्दयौँ। विलोकितोऽहमपि स्वकर्मत्रस्ततया भग्नगतिप्रसरो नष्टवाणी कस्तचैव लौनो वर्तमानश्छन्न प्रदेश / जातःसंप्रत्ययः / धिक्कारितोऽहं जनेन। कारितं तातेनाम्बानरसुन्दोर्मतक कार्यम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 473 ततस्तत्तादृशं वीक्ष्य मदीयं कर्म दारुणम् / तातः शोकभराक्रान्तस्तदैवं चिन्तयत्यलम् // अहो अनर्थपुञोऽयमहो मे कुलदूषणः / अहो सर्वजघन्योऽयमहो पापिष्ठशेखरः // अहो मर्वापदां मूलमहो लोकपथातिगः / अहो वैरिकसङ्काशो ममायं रिपुदारणः // न कार्य मे ततोऽनेन पुत्रेणापि दुरात्मना / एवं विचिन्य तातेन कृतश्चित्ते विनिश्चयः // ततोऽवधौरितस्तेन भवनाच्च बहिष्कृतः / भ्रष्टश्रीकः पुरे तत्र विचरामि सुदुःखितः // खदुष्टचेष्टितेनैव बालानामपि सर्वथा / गम्यश्चाहं तदा जातस्ततश्चैवं विगर्हितः // पापोऽयं दुष्टचेष्टोऽयमद्रष्टव्यो विमूढधीः / कुलकण्टकभूतोऽयं सर्वथा विषपुञ्जकः // मानावलेपतो येन कलाचार्योऽपकर्णितः / मूर्खचूडामणित्वेऽपि पाण्डित्यं च प्रकाशितम् // माता च प्रियभार्या च येन मानेन मारिता / को वा निरौक्षते पापं तमेनं रिपुदारणम् // उनमेवेदमस्माभिःचितास्य दुरात्मनः / मा कलाकौशलादीनां खानिर्या नरसुन्दरौ॥ ततश्च वियुक्तो नरसुन्दर्या यदयं तच्च सुन्दरम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / किं तु मा पद्मपत्राक्षौ यन्मता तन्न सुन्दरम् // अहं पुनर्महामोहलुप्तजानः स्वचेतमा / तदापि चिन्तयाम्य वं भने विमललोचने // त्यनस्यापोह तातेन निन्दितस्यापि दर्जनैः / गेवराजमृषावादौ तथापि मम बान्धवौ // अनयोहि प्रसादेन भुकपूर्व मया फलम् / भोक्ष्ये च कालमामाद्य पुनर्नास्त्यत्र मंशयः // ततश्चैवं जनेनो निन्द्यमानः क्षणे क्षणे / स्थितोऽहं भूरिवर्षाणि दःखमागरमध्यगः // इतश्च अत्यन्तदुर्बलौभूतः मकोपो मयि निस्फुरः / स तु पुण्योदयो भद्रे स्थितोऽकिंचित्करम्तदा // अथान्यदा क्वचिद्राजा वाहनार्थ सुवाजिनाम् / वेष्टितो राजवन्देन निर्गतो नगराइहिः // ततः कुबूहलाकृष्टः मो नागरको जनः / तत्रैव निर्गतोऽहं च संप्राप्तस्तस्य मध्यगः / अथ बाल्हीककाम्बोजतुरुष्कवरवाजिनः / वाहयित्वा भृशं राजा राजलोकविलोकितः // ततः खेदविनोदार्थमुद्यानं सुमनोहरम् / प्रविष्टः मह लोकेन ललितं नाम शीतलम् // तच कीदृशम् अशोकनागपुन्नागतालहिन्तालराजितम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 475 प्रियङ्गुचम्पकाकोलकदलीवनसुन्दरम् // केतकीकुसुमामोदइष्टालिकुलमालितम् / ममस्तगुणसंपूर्ण मर्वथा नन्दनोपमम् // तत्रैकदेशे विश्रम्य म राजा नरवाहनः / उत्थाय मह सामन्तोलया हृष्टमानमः // प्रलोकयितुमारब्धः कौतुकेन वनश्रियम् / विस्फारितेन नौलाबचारूणा लोलचक्षुषा / मत्कान्तियुक्तनक्षत्रग्रहमङ्घातवेष्टितम् / प्रकाशितदिगाभोगं माक्षादिव निशाकरम् // रकाशोकतरुस्तोमपरिवारितविग्रहम् / यथेष्टफलदं माक्षाज्जङ्गमं कल्पपादपम् // उन्नतं विबुधावामं कुलगैलविवेष्टितम् / हेमावदातं सुखदं सुमेरुमिव गत्वरम् // कुवादिमत्तमातङ्गमदनिर्नाशकारणम् / वृतं मत्करिवृन्देन निर्मदं गन्धवारणम् // अथ माधूचिते देशे रक्ताशोकतलस्थितम् / मत्माधुसङ्घमध्यस्थं कुर्वाणं धर्मदेशनाम् // शुभार्पितं यथा धन्यो निधानं रत्नपूरितम् / विचक्षणाख्यमाचार्य म नरेन्द्रो व्यलोकयत् // अथ तं तादृशं वौच्य सूरिं निर्मलमानमः / नरवाहनराजेन्द्रः परं हर्षमुपागतः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 476 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / ततश्चित्ते कृतं तेन ननं नास्ति जगत्त्रये / ईदृशं नरमाणिक्यं यादृशोऽयं तपोधनः // निर्जितामरसौन्दर्या निवेदयति वौक्षिता / अमुव्याकृतिरेवोच्चैर्गुणसम्भारगौरवम् // तदौदृशस्य किं नाम भवेद्वैराग्यकारणम् / येन यौवनसंस्थेन खण्डितो मकरध्वजः // अथवा गला प्रणम्य पादानं खयमेव महात्मनः / ततः पृच्छामि पूतात्मा भवनिर्वेदकारणम् // एवं विचिन्त्य गत्वामौ नत्वा सूरेः क्रमदयम् / दत्ताशौस्तेन इष्टात्मा निषमः शुद्धभूतले // ततस्तदनुमार्गण राजवृन्दं तथा पुरम् / उपविष्टं यथास्थानं नत्वाचायांघ्रिपङ्कजम् // मया तु भद्रे पापेन शैलराजवशात्मना / न नतं तादृशस्यापि तदा सूरेः क्रमद्दयम् // पाषाणभूतमुक्नोलौमन्निभो लोकपूरणः / केवलं स्तब्धसर्वाङ्गो निषलोऽहं भुवस्तले // अथ गम्भीरघोषेण मेघवन्नौरपूरितः / धर्ममाख्यातमारब्धः स प्राचार्यो विचक्षण: // अभिहितं च तेन भगवता / यदुत भो भो भव्याः प्रदीप्तभवनोदरकल्पोऽयं संसारविस्तारो निवास: शारीरादिदुःखानां / न युत दह विदुषः प्रमादः / अतिदुर्लभेयं मानुषावस्था प्रधानं पर For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / लोकमाधनं / परिणामकटवो विषयाः / विप्रयोगान्तानि मत्मङ्गतानि / पातभयातुरमविज्ञातपातमायुः / तदेवं व्यवस्थिते विध्यापनेऽम्य समारप्रदीपनकस्य यत्नः कर्तव्यः / तस्य च हेतुः मिद्धान्तवामनामारो धर्ममेघः / अतः खोकर्तव्यः मिद्धान्तः / सम्यक् मेवितव्यास्तदभिज्ञाः / भावनौय मुण्डमालिकोपमानं / त्य कव्या खल्वमदपेक्षा / भवितव्यमाजाप्रधानेन / उपादेयं प्रणिधानं / पोषणीयं सत्माधुमेवया / रक्षणीयं प्रवचनमालिन्यं / एतच्च विधिप्रवृत्तः संपादयति / अतः मर्वत्र विधिना प्रवर्तितव्यं / सूत्रानुसारेण प्रत्यभिज्ञातव्यमात्मस्वरूप / प्रवृत्तावपेक्षितव्यानि निमित्तानि। यतितव्यमसंपवयोगेषु / लक्षयितव्या विस्रोतमिका / प्रतिविधेयमनागतमस्याः / भवत्येवं प्रवर्तमानानां मोपक्रमकर्मविलयः / विच्छिद्यते निरूपक्रमकर्मानुबन्धः / तम्मादत्रैव यतध्वं ययमिति // एवं च निवेदिते तेन भगवता विचक्षणमूरिणास्या: परिषदो मध्ये केषांचिद्भव्यानामुलमितश्चरणपरिणामः / अपरेषां संजातो देशविरतिक्षयोपशमः / अन्यैः पुनर्विदलितं मिथ्यात्वं / अपरेषां प्रतनूभूता रागादयः / केषांचित्मपन्नो भद्रकभावः / ततो निपतितास्ते सर्वेऽपि भगवचरणयोः। अभिहितमेतेः / इच्छामोऽनुशास्तिं कुर्मो यदाज्ञापयन्ति नायाः // अत्रान्तरे विदितं तातेन / यदुत प्रश्नयाम्यधुना तदहमात्मविवचितं / ततो ललाटतटविन्यस्तकरमुकुलेनाभिहितमनेन / जनातिशायिरूपाणां जगदैश्वर्यभागिनाम् // भदन्त तत्रभवतां किं वो वैराग्यकारणम् // सूरिणाभिहितं भूप यद्यत्र तव कौतुकम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 478 उपमितिभवप्रपञ्च। कथा / ततस्ते कथयाम्येष भवनिर्वेदकारणम् // किंतु अात्मस्तुतिः परे निन्दा पूर्वकौडितकौर्तनम् / विरुद्धमेतद्राजेन्द्र माधूनां त्रयमप्यलम् // ममात्मचरिते चैतत्कथ्यमाने परिस्फुटम् / वयं संपद्यते तेन न युक्त नस्य कीर्तनम् // तातेनाभिहितम् / एवं निगदता नाथ वर्धितं कौतुकं त्वया / कर्तव्योऽतः प्रमादो मे निवेद्यं चरितं निजम् // ततो विज्ञाय निर्बन्धं मध्यस्थेनान्तरात्मना / प्रबोधकारणं ज्ञावा सूरिरित्यमवोचत / यदुत अनादिनिधनं लोके नानावृत्तान्तमङ्गुलम् / विद्यते भूतलं नाम नगरं सुमनोहरम् // नत्रास्ति भुवनख्यातो देवानामपि नायकः / अलंध्यसत्प्रतापाज्ञो नरेन्द्रो मलसञ्चयः // सुन्दरासुन्दरे कार्ये नित्यं विन्यस्तमानमा / तस्य चास्ति महादेवौ तत्पकिर्नाम विश्रुता // तयोश्च देवौनृपयोरेकः सुन्दरचेष्टितः / विद्यते जगदाल्हादौ पुत्रो नाम शुभोदयः // तथा द्वितीयस्तनयस्तयोर्दैवीनरेन्द्रयोः / अस्ति सर्वजनोत्तापौ विख्यातश्चाशुभोदयः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 476 खभर्तुर्वत्सला माध्वौ सुन्दराङ्गौ जनप्रिया / भार्या शुभोदयस्यास्ति पद्माची निजचास्ता // तथाशुभोदयस्यापि जनमन्तापकारिणौ / भार्या स्खयोग्यता नाम विद्यतेऽत्यन्तदारुणा // इतश्च कालपर्यायादवाप्य निजचास्ताम् / ततः शुभोदयाज्जातः पुत्रो नाम विचक्षण: // तथैव कालपर्यायादवाप्यैव स्वयोग्यताम् / ततोऽशुभोदयाज्जातो जडो नाम सुताधमः // तयो विचक्षणस्तावदर्धमानः प्रतिक्षणम् / यादृशः स्वैर्गुणैर्जातस्तदिदानौं निबोधत // मार्गानुमारिविज्ञानः पूजको गुरुमंहतेः / मेधावी प्रगुणो दक्षो लब्धलक्ष्यो जितेन्द्रियः // सदाचारपरो धौरः सद्भोगौ दृढसौहदः / देवाभिपूजको दाता ज्ञाता स्वपरचेतसाम् // सत्यवादी विनौतात्मा प्रणयागतवत्सलः / क्षमाप्रधानो मध्यस्थः मत्त्वानां कल्पपादपः // धमैकनिष्ठः शुद्धात्मा व्यमनेऽप्यविषमधीः / स्थानमानान्तराभिज्ञः कुत्सिताग्रहवर्जितः / / ममस्तशास्त्रतत्त्वज्ञो वाचि पाटवसंगतः / नौतिमार्गप्रवीणत्वात् त्रामकः शत्रुसंहतेः // खगुणोत्सेकहीनात्मा विमुक्तः परनिन्दया / अद्दष्टः सम्पदा लाभे पराथें च विनिर्मितः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / किं चेह बहुनोतन यावन्तः पुरुषे गुणाः / गौयन्ते तेऽखिलास्तत्र प्रादुर्भता विचक्षणे // अथ संवर्धमानोऽसौ शरीरेण प्रतिक्षणम / जडस्तु यादृक् संपन्नस्तदिदानौं निबोधत // विपर्यस्तमनाः सत्यशौचमन्तोषवर्जितः / मायावी पिशुनः लोबो निन्दकः माधुसंहतेः // असत्यसन्धः पापात्मा गुरुदेवविडम्बकः / अमत्प्रलापो लोभान्धः परेषां चित्तभेदकः // अन्यच्चित्ते वदत्यन्यच्चेष्टते क्रिययापरम् // दह्यते परमम्पत्सु परापत्म प्रमोदते // गर्वाभातः सदा क्रुद्धः सर्वेषां भषणप्रियः / आत्मश्लाघापरो नित्यं रागद्वेषवशानुगः // किं वात्र बहुनोनेन ये ये दोषाः सुदुर्जने / गौयन्ते तेऽखिलास्तत्र प्रादुर्भुतास्ततो जडे // एवं च वर्धमानौ तौ स्वगेहे सुखलालितौ / विचक्षणजडौ प्राप्तौ यौवनं परिपाटितः // इतश्च गुणरत्नानामुत्पत्तिस्थानमुत्तमम् / पुरं निर्मलचित्ताकं विद्यते लोकविश्रुतम् // तत्रान्तरङ्गे नगरे नृपो नाम्ना मलक्षयः / अस्ति सद्गुणरत्नानां जनकः पालकश्च सः // तस्य सुन्दरता नाम महादेवी मनःप्रिया / विद्यते चारसर्वाङ्गी मा तद्रत्नविवर्धिका // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 481 ताभ्यां च कालपर्यायाज्जाता पद्मदलेक्षणा / बुद्धिर्नाम गुणैराड्या कन्यका कुलवर्धनौ / ततः मा गुणरूपाभ्यामनुरूपं विचक्षणम् / विचिन्त्य प्रहिता बाला ताभ्यां तस्य स्वयंवरा // परिणीता च मा तेन महाभूतिप्रमोदतः / विचक्षणेन मत्कन्या जाता च मनसः प्रिया // तया युक्तम्य तस्योच्चैर्मुञानस्य मनःसुखम् / विचक्षणस्य गच्छन्ति दिनानि शुभकर्मणा // अथान्यदा क्वचिडुवेर्वान्वेिषणकाम्यया / मलक्षयेण प्रहितो विमर्शो निजपुत्रकः // स च बुद्धौ दृढस्नेहभावभावितमानमः / तस्या एव समीपस्थः मद्भगिन्याः स्थितो मुदा // महोदरसमायुक्ता भर्चा च बहुमानिता / ततः मा चित्तनिर्वाणादर्भ ग्रहाति बालिका // अथ तस्याः शुभे काले सगर्भपरिपाकतः / जातो देदीप्यमानाङ्गः प्रकर्षा नाम दारकः // जातः संवर्धमानोऽसौ प्रकर्षा बुद्धिनन्दनः / विचक्षणगुणैस्तुल्यो विमर्शस्थातिवल्लभः // [अथान्यदा खकं दृष्टं काननं सुमनोहरम् / विचक्षणजडाभ्यां भो नाम्ना वदनकोटरम् // . तत्र खादनपानेन ललमानौ यथेच्छया / नौ दावपि स्थितौ कंचित्कालं संतुष्टमानमौ // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 42 उपमितिभवप्रपच्चा कथा / तत्र कुन्दममाः शुभ्रा रदनाः मन्ति वृक्षकाः / तेषां च वौथिकायुग्मं ताभ्यां दृष्टं मनोहरम् // ततः कुतुहल्लेनान्तः प्रविश्य प्रविलोकितम् / तत्र चालब्धपर्यन्तं दृष्टं ताभ्यां महावितम् // ततो विस्फारिताक्षाभ्यां कौतुकेन मविस्मयम् / विचक्षणजडाभ्यां तत् सुचिरं संनिरौचितम् // अथ तस्मात्ममुद्भूता रक्तवर्ण मनोहरा / दासचेच्या ममं काचिल्ललना चारुविग्रहा // तां वीक्ष्य स जडश्चित्ते परं हर्षमुपागतः / ततश्च चिन्तयत्येवं विपर्यामितमानसः // अहो अपूर्विका योषिदहो सुन्दरदर्शना / अहो संस्थानमेतस्या अहो रूपमही गुणाः // किमेषा नाकतो मुग्धा भ्रष्टा स्थादमराङ्गना / किं वा पातालतो बाला नागकन्या विनिर्गता // अथवा नहि नहि सुष्टु मया चिन्तितं / यतः / खर्गे वा नागलोके वा कुतः स्थादियमौदृशौ / मयं च दूरतोऽपास्ता वार्तापौदृश्योषितः / तन्ननं विधिना मह्यं परितष्टेन कल्पिता / निर्माप्येयं प्रयत्नेन सुन्दरैः परमाणुभिः // अन्यच्च / नूनं पुरुषहौनेयं मदर्थं विहिता वने / यतो मां वोचते बाला लोलदृष्टिर्मुहुर्मुडः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 13 गत्वा समीपमेतस्याः कृत्वा चित्तपरौक्षणम् / ततः करोमि स्वीकारं किं ममान्येन चेतमा // इतश्च / विचक्षणश्च तां दृष्ट्वा लखनां ललिताननाम् / ततश्चेतसि संपन्नो वितोऽयं महात्मनः // एकाकिनी वने योषा परकीया मनोरमा / न द्रष्टुं युज्यते रागानापि संभाषणोचिता // यतः सन्मार्गरकानां व्रतमेतन्महात्मनाम् / परस्त्रियं पुरो दृष्ट्वा यान्त्यधोमुखदृष्टयः // अतो व्रजाम्यतः स्थानात्किं ममापरचिन्तया / ततो गन्तुं प्रवृत्तोऽसौ हस्तेनाकृष्य तं जडम् // तेन चाकृष्यमाणोऽसौ कथंचिदलिना जडः / हृतसर्वस्ववन्मोहात्परं दुःखमुपागतः // यावत्तौ गच्छतः स्तोकं भूभागं राजपुत्रको / तावत्मानुचरौ तस्याः पश्चालमा ममागता // तया च दूरत एव विहितः पूत्कारः / यदुत बायध्वं भो नाथास्त्रायध्वं / हा हतास्मि मन्दभागिनौ / ततो वलितस्तदभिमुखं जडः / तेनाभिहितं / सुन्दरि मा भैषौः। कथय कुतस्ते भयमिति / तयाभिहितं / यद्भवन्तौ मम स्वामिनौं विमुच्य चलितौ तेनैषा जातमूळ म्रियते। लग्नाधुना। तस्माद्देवौ तावसमौपे स्थौयतां भवड्यामेतस्याः येन युग्मत्सविधानेन मनाक्खस्थीभूतायां स्वामिन्यां ततोऽहं निराकुला मती भवतोरेतत्वरूपं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 484 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / समस्तं विज्ञापयामि / ततो जडेनाभिहितो विचक्षणः / भ्रातर्गम्यतामेतत्स्वामिनौसमीपे / भवतु मा स्वस्था। विज्ञपयत्वेषा यथाविवक्षितं / को दोषः / विचक्षणेन चिन्तितं / न सुन्दरमिदं / दयं हि वष्टा चेटौ तरला स्वभावेन प्रतारयिष्यति नूनमस्मान् / अथवा पश्यामि तावत्किमेषा तत्र गता जल्पति। न चाहमनया प्रतारयितुं शक्यः / तस्मागच्छामि / कात्र मम शङ्का / एवं विचिन्याभिहितं विचक्षणेन / भ्रातरेवं भवतु / ततो गतौ पश्चान्मुखौ विचक्षणजडौ प्राप्तौ तत्समीपे / स्वस्थौभूता ललना। निपतिता दामचेटौ तयोश्चरणेषु / अभिहितमनया। महाप्रसादः। अनुग्टहौतास्मि युवाभ्यां / जीविता स्वामिनी / दत्तं मे जीवितं / जडेनाभिहितं / सुन्दरि किनामिकेयं तव स्वामिनी / चेच्याभिहितं / देव सुग्टहीतनामधेया रसनेयमभिधीयते / जडेनाभिहितं / भवती किंनामिकामवगच्छामि। ततः सलज्जमभिहितमनया। देव लोलताहं प्रमिद्धा लोके चिरपरिचितापि विस्मृताधुना देवस्य / तत्किमहं करोमि मन्दभागिनौति / जडेनाभिहितं / भट्रे कथं मम त्वं चिरपरिचितासि / लोलतयाभिहितं / इदमेवास्मद्विज्ञपनीयं / जडः प्राह / विज्ञपयतु भवती। लोलतयोक्तं / अस्ति तावदेषा मम स्वामिनी परमयोगिनौ। नानात्येवातीतानागतं / अहमपि चाम्याः प्रमादादेवंविधैव / इतश्च कमपरिणाममहाराजभुक्तौ स्थितमस्त्यसंव्यवहारनगरं / तत्र कदाचिद्भवतोरवस्थानमामौत् / ततः कर्मपरिणमादेशेनैवायातौ भवन्तावेकाक्षनिवामपुरे / ततोऽप्यागतौ विकलाक्षनिवासे / तब त्रयः पाटका For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 485 विद्यन्ते / तत्र प्रथमे द्विषोकाभिधानाः कुलपुत्रकाः प्रतिवसन्ति / ततस्तेषां मध्ये वर्तमानाभ्यां युवाभ्यां यथानिर्देशकारितया प्रमन्नेन कर्मपरिणाममहानरेन्द्रेण भटभुक्त्या दत्तमिदं वदनकोटरं काननं / एतच्च स्वाभाविकमेवात्र सर्वदा विद्यत एव महाबिलं / इयं च मर्वाप्यस्मदुत्पत्तेः पूर्विका वार्ता / ततो विधिना चिन्तितं / यहिणीरहिताविमौ वराकौ न सुखेन तिष्ठतः। अतः करोम्यनयोहिणौ / मिति / ततस्तेन भगवता विधात्रा दयापरौतचेतसा पुत्रयोनिमित्तमत्रैव महाबिले निर्वर्तितैषा मे खामिनौ। तथाहं चास्था एवानुचरौति // जडेन चिन्तितं / श्रये यथा मया विकल्पितं तथैवेदं संपन्न / अस्मदर्थमेवेयं रसना निष्पादिता वेधमा / अहो मे प्रज्ञातिशयः / विचक्षणेन चिन्तितं / कः पुनरयं विधिर्नाम / इं ज्ञातं / स एव कर्मपरिणामो भविष्यति। कस्यान्यस्येदृशौ शकिरिति // जडः प्राह / भद्रे ततस्ततः / लोलतयोक्तं / ततः प्रभृत्येषा मे स्वामिनी युक्ता मया युवाभ्यां मह खादन्तौ नानाविधानि खाद्यकानि पिबन्तौ विविधरसोपेतानि पानका नि ललमाना यथेष्टचेष्टया तत्रैव विकलाक्षनिवासे नगरे त्रिवपि पाटकेषु तथा पञ्चायनिवासे मनुजगतौ अन्येषु च तथा विधेषु स्थानेषु विचरिता भूयांसं कालं / अतएव क्षणमप्येषा युभदिरहं न विषहते / युभदवधौरणया चागतमूळ म्रियते खामिनौ। तदेवमहं भवतोचिरपरिचितास्मि // एतच्चाकर्ण्य सिद्धं नः समौहितं इति भावनया परितुष्टो जडः / ततोऽभिहितमनेन / सुन्दरि यद्येवं प्रविशतु तव स्वामिनी नगरे / पवित्रयत्वेकं खावस्थानेन महा For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 486 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / प्रासादं येन पुनस्तत्र चिरन्तनस्थित्या सुखमास्महे / लोलतयाभिहितं। मा मैवमाज्ञापयत देवः। न निर्गतेयं स्वामिनी कदाचिदपौतः काननात् / पूर्वमपौयमचैव वर्तमाना युवाभ्यां सह ललिता। तदधुनाप्यस्मिन्नेव स्थाने तिष्ठन्तो लालयितुं युज्यते खामिनी / जडः प्राह / यद्भवतो जानौते तदेव क्रियते / सर्वथा त्वमेवाच प्रमाणं / कथनीयं यद्रोचते तव स्वामिन्यै येन संपादयामः / लोलतयोक्तं / महाप्रसादः / किमत्रापरमुच्यतां / अनुभवत भवतोः खामिनौ लालनेन सुखामृतमविच्छेदेनेति। एवं च स्थापिते सिद्धान्ते / तत प्रारभ्य यत्नेन जडो वदनकोटरे / तिष्ठन्तौं रसनां नित्यं लालयत्येव मोहतः // कथं / चौरेक्षुशर्कराखण्डदधिमर्पिगुंडादिभिः / पक्वानखाधकैर्दिव्यैर्द्राक्षादिवरपानकैः // मधर्मामरमैचित्रैर्मधुभिश्च विशेषतः / ये चान्ये लोकविख्याता रसास्तैश्च दिने दिने / एवं लालयतस्तस्य जडस्य रसनां सदा / यदि चूणं भवेत्तच्च कथयत्येव लोलता // यतः मानुदिनं वकि खामिनीमधुर प्रिया / मांसमाहर मद्यं च नाथ सृष्टं च भोजनम् // ददख व्यञ्जनान्यस्यै रोचन्ते तानि सर्वदा / तत्सर्वं म करीत्येव मन्वानोऽनुग्रहं जडः / / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / म तथा लालनासको भायाः प्रतिवासरम् / क्लेशराशिनिमनोऽपि मोहादेवं च मन्यते // घदुत / धन्योऽहं कृतकृत्योऽहमहो मे सुखसागरः / यस्येदृशौ शुभा भार्या संपन्ना पुण्यकर्मणः // नास्ति नूनं मया यादृक् सुखितो भुवनत्रये / यतोऽस्या लालनां मुक्ता किं नाम भुवने सुखम् // ततोऽलोकसुखाखादपरिमोहितचेतनः / तदर्थं नास्ति तत्कर्म यदसौ नानुचेष्टते // तं भार्यालालनोद्युक्त तथा दृष्ट्वाखिलो जनः / जडं हमितमारब्धः सत्यमेष जडो जडः // यतो धर्मार्थमोऽभ्यो विमुखः पशुसन्निभः / रसनाचालमोद्युतो न येतयति किंचन // जडस्तु तत्र रद्धात्मा लोकैरेवं सहस्रशः / हसितो निन्दितश्चापि न कथंचिनिवर्तते // विचक्षणस्तु तच्छ्रुत्वा लोलतायाः प्रभाषितम् / ततश्च चिन्तयत्येवं तदा मध्यस्थमानमः // अस्ति तावदियं भार्या मम नास्यत्र संशयः / श्रास्माके दृश्यते येन वने वदनकोटरे // केवलं यदियं वक्ति रसनालालनं प्रति / अपरौक्ष्य न कर्तव्यं तन्मया सुपरिस्फुटम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir gce उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / यतः स्त्रीवचनादेव यो मूढात्मा प्रवर्तते / कार्यतत्त्वमविज्ञाय तेनानी न दुर्लभः // ततोऽनादरतः किंचिल्लोलतायाचने सति / दत्त्वा खाद्यादिकं तावत्कुर्महे कालयापनाम् // ततश्च / भार्ययं पालनौयेति मत्वा रागविवर्जितः / ददानः शुद्धमाहारं लोलतां च निवारयन् // अविश्रब्धमनास्तस्यां लोकयात्रानुरोधतः / अनिन्दितेन मार्गण रसनामनुवर्तयन् // धर्मार्थकामसंपन्नो विवद्भिः परिपूजितः / स्थितो विचक्षण: कालं कियन्तमपि लौलया // तं च तेजखिनं मत्वा निरीहं च विचक्षणम् / भावज्ञा किंचिदप्येनं याचते नैव लोलता || स लोलताविनिर्मुको रसनां पालयन्नपि / अशेषक्लेशहौनात्मा सुखमास्ते विचक्षणः // यतः / ये जाता ये जनिष्यन्ते जडस्येह दुरात्मनः / रसनालालने दोषा लोलता तत्र कारणम् // विचक्षणेन मा यस्माल्लोलतालं निराकृता / रमनापालनेऽप्यस्य ततोऽनर्थी न जायते // दूतश्च तुष्टचित्तेन जडेनाम्बा खयोग्यता / जापिता रमनालाभं जनकश्चाशुभोदयः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / तयोरपि मनस्तोषस्त छ्रुत्वा ममपद्यत / ततस्ताभ्यां जडः प्रोकः स्नेहापूर्णेन चेतमा // पुत्रानुरूपा ते भार्या संपन्ना पुण्यकर्मणा / सुन्दरं च त्वयारवं यदस्याः पुत्र लालनम् // दयं हि सुखहेतुस्ते सुभार्ययं वरानना / ततो लालयितुं युका पुत्र रात्रिंदिवं त्वया // ततश्च / स्वयमेव प्रवृत्तोऽमौ जनकाभ्यां च चोदितः / एक सोन्माथिता बाला मयरैर्लपितं तथा // ततो गाढतरं रको रमनायां जडस्तदा / तलालनार्थं मूढात्मा सहतेऽसौ विडम्बनाः // दतो विचक्षणेनापि स्वीयतातः शुभोदयः / जापितो रसनालाभं माता च निजचास्ता // तथा बुद्धिप्रकर्षां च विमर्शश्च विशेषतः / बोधितो रमनावाप्तिं मिलितं च कुटुम्बकम् // ततः शुभोदयनोकं वत्म किं ते प्रकथ्यते / जानामि वस्तुतस्तत्त्वं सत्योऽसि त्वं विचक्षणः // तथापि ते प्रकृत्यैव यन्ममोपरि गौरवम् / तेन प्रचोदितो वत्म तवाहमुपदेशने // वाम तावत्ममस्तापि नारी पक्नचञ्चला / क्षणरतविरका च सन्ध्याधालौव वर्तते // नदीव पर्वतोद्भूता प्रकृत्या नौचगामिनौ / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 46. उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / दर्पणर्पितदुर्गाह्यवदनप्रतिमोपमा // बहुकौटिल्यनागानां संस्थापनकरण्डिका / कालकूटविषस्योच्चैलतेव मरणप्रदा // नरकानलसन्तापदायिकेयमुदाहता / मोक्षप्रापकमध्यानशत्रुभूता च वर्तते // कार्य मंचिन्तयत्यन्यद्भाषतेऽन्यच्च मायया / करोत्यन्यच्च मा पुंसः शुद्धशौला च भासते // ऐन्द्रजालिकविद्येव दृष्टेराच्छेदकारिका / नरचित्तजतुद्रावकारिणौ वन्हिपिण्डवत् // प्रकृत्यैव च सर्वेषां वैमनस्यविधायिनौ / संसारचक्रविभ्रान्तिहेतुर्नारौ बुधैर्मता // पुंभिराखादितं दिव्यं विवेकामृतभोजनम् / चुदेव वामयत्येषा भुज्यमाना न संशयः // अनृतं साहसं माया नैर्लज्ज्यमतिलोभिता / निर्दयत्वमशौचं च नार्याः स्वाभाविका गुणाः // वत्म किं बहुनोतन ये केचिद्दोषसञ्चयाः / ते नारौभाण्डशालायामाकालं सुप्रतिष्ठिताः // तस्मात्तस्याः सदा पुंसा न कर्तव्यो हितैषिणा / विश्रम्भवणगो ह्यात्मा तेनेदमभिधीयते // येयं ते रसना भार्या संपन्ना लोलतायुता / न सुन्दरैषा मे भाति को वा योगस्तवानया // यतो न ज्ञायतेऽद्यापि कुतस्येयं ततस्वया / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 461 मशहं कुर्वतामुख्या मूलशुद्धिः परोक्ष्यताम् // यतः / अत्यन्तमप्रमत्तोऽपि मूलद्धेरवेदकः / स्त्रीणामर्पितमनावः प्रयाति निधनं नरः // ततो निजचास्तयाभिहितं / वम विचक्षण सुन्दरं ते जनकेन मन्त्रितं। अन्विष्यतामस्या रसनाया मूलशुद्धिः / को दोषः / विज्ञातकुलशौलस्वरूपा हि सुखतरमनुवर्तनीया भविष्यति / बुझ्याभिहितं / आर्यपुज्ञ यद्गुरू श्राज्ञापयतस्तदेवानुष्ठातुं युक्तमार्यपुत्रस्य / अलकनीयवाक्या हि गुरवः सत्पुरुषाणां भवन्ति / प्रकर्षः प्राह / तात सुन्दरमम्बया जल्पितं / विमर्शनीतं / को वात्रासुन्दरं वक्तुं जानौते / सर्वथा सुन्दरमेवेदं यत्सुपरीक्षितं क्रियत इति / विचक्षणेन चिन्तितं / सुन्दरमेतानि मन्त्रयन्ति / न संग्रहणीयैव विदुषा पुरुषेणा विज्ञातकुलमोलाचारा ललना / केवलं कथितमेव मम लोलतया रसनायाः सम्बन्धि मूलोत्थानं / विज्ञातश्चाधुना मया शोलाचारः / यदुत खादनपानप्रियेयं रसना। अथवा नहि नहि को हि सकर्णकः पुरुषो भुजङ्गवनितागतिकुटिलतरचित्तवृत्तेः कुलयोषितोऽपि वचने संप्रत्ययं कुर्यात् / किं पुनर्दासचेव्याः / तत्कौदृशो मम लोलतावचने संप्रत्ययः / भौलाचारोऽपि सहसंवासेन भूयसा च कालेन सम्यग् विज्ञायते न यथाकथंचित्। तत्किमनेन बहुना / करोमि तावदहं तातादौनामुपदेशं गवेषयाम्यस्या रसनाया मूलशुद्धिं / ततो विज्ञाय यथोचितं करिष्यामौति विचिग्य विचक्षणेनाभिहितं / यदाज्ञापयति For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 162 882 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। तातः / केवलं तातः स्वयमेव निरूपयत् कः पुनरत्र रसनामूलशुद्धिगवेषणार्थं प्रस्थापनयोग्य इति / शुभोदेयनोक्तं / वत्म अयं विमर्श: परमरूपकार्यभरस्य निर्वाहणक्षमः / तथा हि / युक्तं चायुक्रवद्धाति सारं चासारमुच्चकैः / अयुक्त युक्तवद्भाति विमर्शन विना जने // तम्य हेयमुपादेयमुपादेयं च हेयताम् / भजेत वस्तु यस्यायं विमर्णी नानुकूलकः // अत्यन्तगहने कार्य मतिभेदतिरोहिते / विमर्श: कुरुते नृणामेकपक्षं विवेचितम् // किं च। नरस्य नार्या देशस्य राज्यस्य नृपतेस्तथा / रत्नानां लोकधर्माणां सर्वस्य भुवनस्य वा // देवानां सर्वशास्त्राणां धर्माधर्मव्यवस्थितेः / विमर्गोऽयं विजानौते तत्त्वं नान्यो जगत्त्रये // येषामेष महाप्राज्ञो वत्म निर्देशकारकः / ते ज्ञातसर्वतत्त्वार्था जायन्ते सुखभाजनम् // अतो धन्योऽसि यस्यायं विमर्शस्तव बान्धवः / न कदाचिदधन्यानां चिन्तारत्नेन मौलकः // एष एव नियोक्रव्यो भवतात्र प्रयोजने / भानुरेव हि शर्वर्यास्तमसः चालनक्षमः // विचक्षणेनाभिहितं / यदाज्ञापयति तातः / ततो निरीक्षितमनेन विमर्शवदनं / विमर्शः प्राह / अनुग्रहो मे / विचक्षणेनोकं / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 463 यद्येवं ततः शीघ्र विधीयतां भवता तातादेशः / विमर्शनाभिहितं / एष सज्जोऽस्मि / केवलं विस्तीर्णा वसुन्धरा नानाविधा देशा भूयामि राज्यान्तराणि / तद्यदि कथंचिन्मे कालक्षेपः स्यात्ततः कियतः कालाविवर्तितव्यं / विचक्षणेनोक्र / भद्र संवत्सरस्ते कालावधिः / विमर्श: प्राह / महाप्रसादः / ततो विहितप्रणामश्चलितो विमर्शः // अत्रान्तरे शुभोदयस्य पादयोर्निपत्याभिवन्द्य निजचारुतां प्रणम्य च जननौजनको प्रकर्षणाभिहितं / तात यद्यपि ममार्यकताताम्बाविरहेऽपि न मनसो निर्वृतिस्तथापि महचरतया मामे मम गाढतर प्रतिबद्धमन्तःकरणं / नाहं मामेन विरहितः क्षणमात्रमपि जीवितमुत्महे / ततो मामनुजानौत ययं येनाहमेनं गच्छन्तमनुगच्छामौति / एतच्चाको नमितापत्यवेहमोहपूरितहदयेनानन्दोदकबिन्दुसन्दोहलावितनयनपुटेन विचक्षणेन दक्षिणकराङ्गुलीभिरुनामितं प्रकर्षम्य मुखकमलकं दत्ता चुम्बिका श्राघ्रातो मूर्धप्रदेश: / माधु वत्म माध्विति वदता निवेशितश्चासौ निजोमङ्गे / शुभोदयं च प्रत्यभिहितं / तात दृष्टो बालकस्य विनयः निरूपितो वचनविन्यासः श्राकलितः स्नेहसारः / शुभोदयः प्राह / वत्म किमत्राश्चर्थ / त्वया बुद्धेर्जातस्येदृशमेव चेष्टितं युज्यते / किं च वत्म / न युक्तमिदमस्माकं स्वषापौत्रकवर्णनम् / विशेषतस्तवाभ्यणे यत एतदुदाहृतम् // प्रत्यक्षं गुवरः स्तुत्याः परोक्षं मित्रबान्धवाः / भृतका कर्मपर्यन्ते नैव पुत्रा मृताः स्त्रियः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 888 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तथापि चानयोर्दृष्ट्वा गुणसम्भारगौरवम् / अवर्णितेन तेनाहं पुत्र शक्नोमि नामितम् // इयं हि भार्या ते बुद्धिरनुरूपा वरानना / गुणवृद्धिकरौ धन्या यथा चन्द्रस्य चन्द्रिका // भर्खस्नेहपरा पट्वी सर्वकार्यविशारदा / बलसम्पादिका गेहभरनिर्वहणक्षमा // विशालदृष्टिरप्येषा सूक्ष्मदृष्टिरुदाहता / सर्वसुन्दरदेहापि द्वेष हेतुर्जडात्मनाम् // अथवा / मलक्षयेण जनिता पुरे निर्मलमानसे / या च सुन्दरतापुत्रौ तस्याः को वर्णनक्षमः // श्रत एव प्रकर्षोऽपि नेदानौं बहु वर्ण्यते / अनन्तगुण एवायं जनयिया विभाव्यते // वत्म किं बहुनोतन धन्यस्त्वं सर्वथा जने / यस्येदृशं महाभागं संपन्नं ते कुटुम्बकम् // अत एव वयं चित्ते माशङ्काः साम्प्रतं स्थिताः आकर्ण्य रसनालाभं नोचितेयं यतस्तव // मा भूटुद्धेविघाताय सपत्नी मत्सरादियम् / विशेषतः प्रकर्षस्य तेन चिन्तातुरा वयम् // किं वा कालविलम्बेन प्रस्तुतं प्रविधीयताम् / ततो यथोचितं ज्ञात्वा युक्तं यत्तत्करिष्यते // मातुलस्नेहबद्धात्मा प्रकर्षः प्रस्थितो यदि / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 865 इदं चारुतरं जातं चौरे खण्डस्य योजनम् // तदेतौ महितावेव गच्छता कार्यसिद्धये / युवाभ्यां न तु कर्तव्या चिन्तेति प्रतिभाति मे // ततो विचक्षणेन बुद्ध्या चाभिहितं / यदाज्ञापयति तातः / ततो निपतितौ गुरूणां चरणेषु विमर्शप्रकर्षो / कृतमुचितकरणौयं / प्रवृत्तौ गनुं // इतश्च तदा शरत्कालो वर्तते / स च कीदृशः / प्रास्यमम्भारनिष्यन्नभूमण्डलो मण्डलाबद्धगोपालरामाकुलः / माकुलत्वप्रजाजातसारक्षणो रक्षणोद्युक्तमच्छालिगोपप्रियः // यत्र च शरत्काले / जलवर्जितनौरदवृन्दचितं स्फुटकाशविराजितभूमितलम् / भवनोदरमिन्दुकरैर्विशदं कलितं स्फटिकोपलकुम्भसमम् // अन्यच्च / शिखिविरावविरागपरा श्रृतिः श्रयति हंसकुलस्य कलखनम् / न रमते च कदम्बवने तदा विषमपर्णरता जनदृष्टिका // लवणतितरमाच्च पराङ्मुखा मधुरखाद्यपरा जनजिव्हिका / स्फुटमिदं तदहो प्रियताकरो जगति शुद्धगुणो न तु संस्तवः / / तथा / खच्छन्नौरपूरं सरोमण्डलं फुल्लसत्पद्मनेत्रैर्दिवा वीक्षते / यन्नभस्तत्पुनर्लोकयात्रेच्छया राबिनक्षत्रसल्लोचनैरौक्षते // नन्दितं गोकुलं मोदिताः पामराः पुष्पितो नौपवृक्षो निशा निर्मला / चक्रवाकस्तथापौह विद्राणको भाजनं यस्य यत्तेन तल्लभ्यते // ततश्चैवंविधे शरत्ममये पश्यन्तौ मनोरमकाननानि विलोकयन्तौ For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 166 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / कमलपण्डभूषितमरोवराणि निरीक्षमाणे प्रमुदितानि ग्रामाकरनगराणि हष्टौ शक्रोत्मवदर्शनेन तुष्टौ दौपालिकावलोकनेन पाल्हादितौ कौमुदौनिरीक्षणेन परीक्षमाणौ जनहृदयानि प्रयुमानौ स्वप्रयोजनसियर्थमुपायशतानि विचरितौ बहिरङ्ग देशेषु विमर्शप्रकर्षों / न दृष्टं क्वचिदपि रमनायाः कुलं / तथा च विचरतोस्तयोः समायातो हेमन्तः / कीदृशश्चासौ / अर्घितचेलतैलवरकम्बलरलकचित्रभानुको विकसिततिलकलोध्रवरकुन्दमनोहरमल्लिकावनः / शीतलपवनविहितपथिकस्फुटवादितदन्तवीणको जलशशिकिरणहम्य॑तलचन्दनमौक्रिकसुभगताहरः // यत्र च हेमन्ते दुर्जनमङ्गतानौव इखतमानि दिनानि सज्जनमैत्रीव दीर्घतरा रजन्यः सज्ज्ञानानौव संग्टह्यन्ते धान्यानि काव्यपद्धतय व विरच्यन्ते मनोहरा वेण्यः सुजनहृदयानीव विधीयन्ते खेहमाराणि वदनानि परबलकलकलेन रणशिरसि सुभटा इव निवर्तन्ते दवौयोदेशगता अपि निजदयिताविकटनितम्बबिम्बपयोधरभरगौतहरोभसंस्मरणेन पथिकलोका इति / प्रतापहानिः संपन्ना लाघवं च दिवाकरे / अथवा / दक्षिणाशावलग्नस्थ सर्वस्यापीदृशी गतिः // अन्यच्च / अयं हेमन्तो दुर्गतलोकान् प्रियवियोगभुजङ्गनिपातितान् शिशिरमारुतखण्डितविग्रहान् / पशुगणानिव मुर्मुरराशिभिः पचति किं निशि भक्षणकाम्यया // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / / थदा यतापि कालेन नोपलब्धा विमर्गप्रकर्षाभ्यां रमनामूलशद्धिस्तदा प्रविष्टौ तावन्तरङ्गदेशेषु / तत्रापि पर्यटितौ नानाविधस्थानेषु / अन्यदा प्राप्तौ राजमचित्तनगरे / तच्च दीर्घमिवारण्यं भूरिलोकविवर्जितम् / क्वचिदृष्टग्टहारक्षं ताभ्यां ममवलोकितम् // ततः प्रकर्षण भिहितं / माम किमितीदं नगरं विरलजनतया शून्यमिव दृश्यते / किं वा कारणमाश्रित्येदमौदृशं संपन्न / विमर्श: प्राह / यथेदं दृश्यते सर्व समृद्धं निजसम्पदा / केवलं लोकमन्दोहरहितं सुस्थितालयम् // तयेदं भाव्यते नूनं नगरं निरुपद्रवम् / प्रयोजनेन केनापि क्वचिनिष्क्रान्तराजकम् // प्रकर्षः प्राह / एवमेतत्सम्यगवधारितं मामेन / विमर्शः प्राह / भद्र कियदिदं। जानाम्यहं सर्वस्यैव वस्तुनो दृष्टस्य यत्तत्त्वं। प्रष्टव्यमन्यदपि यत्र ते क्वचित्मन्देहः संभवति / प्रकर्षणाभिहितं। माम यद्येवं ततः किमितौदं नगरं रहितमपि नायकेन विवर्जितमपि भूरिलोकैर्निजश्रियं न परित्यजति। विमर्शनोक्त / अस्यस्य मध्ये कचिन्महाप्रभावः पुरुषः / तजनितमस्य मौकत्वं / प्रकर्षः माह / यद्येवं ततः प्रविश्य निरूपयावस्तं पुरुषं / विमर्शनोक / एवं भवत् / ततः प्रविष्टौ तौ नगरे प्राप्तौ राजकुले / दृष्टस्तत्राहकारादिकतिचित्पुरुषपरिकरो मिथ्याभिमानो नाम महत्तमः / ततो विमर्शः प्रार। भद्र मोऽयं पुरुषो यत्प्रभावजन्यमस्य राज 63 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४हज उपमितिभव प्रपच्चा कथा / मचित्तनगरस्थ मौकत्वं / प्रकर्षणोक्तं / यद्येवं ततस्तावेदनमुपसृत्य जल्पयावः / पृच्छावश्च कोऽत्र वृत्तान्त इति। विमर्शनोक / एवं भवत्। ततः संभाषितस्ताभ्यां मिथ्याभिमानः पृष्टश्च। भद्र केन पुनर्व्यतिकरण विरलजनमिदं दृश्यते नगरं। मिथ्याभिमानः प्राह / ननु सुप्रसिद्धैवेयं वार्ता कथं न विदिता भद्राभ्यां / विमर्शनोकं / न कर्तव्योऽत्र भद्रण कोपः / श्रावां हि पथिको न जानौवों महच्चात्रार्थ कुतूहलमतो निवेदयितुमईति भद्रः / मिथ्याभिमानेनोक्र / अस्ति तावत्ममस्तभुवनप्रतीतोऽस्य नगरस्य स्वामी सुग्रहीतनामधेयो देवो रागकेसरौ। तज्जनकश्च महामोहः / तथा तयोमन्त्रिमहत्तमाश्च भृयांसो विषयाभिलाषादयः / तेषामितो नगरात् मर्वचस्लममुदयेन दण्डयात्रया निर्गतानामनन्तकालो वर्तते / तेनेदं विरलजनमुपलभ्यते नगरं / विमर्शः प्राह / भद्र केन सह पुनस्तेषां विग्रहः / मियाभिमानः प्राह / दुरात्मना सन्तोषहतकेन। विमर्शनोकं / किं पुनस्तेन माधैं विग्रहनिमित्तं / मिथ्याभिमानेनोक / क्वचिद्देवादेशेनैव जगदशौकरणार्थ विषयाभिलाषेण प्रहितानि पूर्व स्पनरसनादौनि पञ्चात्मीयानि ग्रहमानुषाणि / ततस्तैर्वशौकतप्राये त्रिभुवने सन्तोषहतकेन तान्यभिभूय निर्वाहिताः कियन्तो ऽपि लोकाः प्रापिता निर्वृतौ नगयों / तच्छ्रुत्वा सन्तोषहतकस्योपरि प्रादुर्भूतक्रोधानुबन्धो निर्गतः स्वयमेव देवो रागकेसरी विक्षेपेण / तदिदमत्र विग्रहनिमित्तं / विमन चिन्तितं / श्रये उपलब्धं तावद्रमनाया नामतो मूलोत्थानं / गुणतः पुनर्विषयाभिसाषं दृष्ट्वा ज्ञास्यामि / यतो जनकानुरूपाणि प्रायेणापत्यानि For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / भवन्ति। ततो भविष्यति मे तद्दर्शनानिश्चयः / ततोऽभिहितमनेन / भद्र यद्येवं ततो भवतां किंनिमित्तमिहावस्थानं / मिथ्याभिमानेनोक्तं / प्रस्थितोऽहमप्यासं तदा। केवलमग्रानौकानिवर्तितो देवेन अभिहितश्च / यथार्य मिथ्याभिमान न चलितव्यमितो नगरानवता / दं हि नगरं त्वयि स्थिते निर्गतेवण्यस्माखविनष्टीकं निरुपद्रवमास्ते / वयमप्यत्र स्थिता एव परमार्थतो भवामः। यतस्वमेवास्य नगरस्य प्रतिजागरणक्षमः / मयाभिहितं। यदाज्ञापयति देवः / ततः स्थितोऽहं। तदिदमस्माकमवावस्थानकारणं / विमर्गनोकं / अयि प्रत्यागता काचिद्देवसकाशात्कुशलवार्ता / मिथ्याभिमानः प्राह / बाढमागता। जितप्रायं वर्तते देवकीयसाधनेन / केवलममावपि वष्टः सन्तोषहतको न शक्यते सर्वथाभिभवितुं ददात्यन्तरान्तरा प्रत्यवस्कन्दान् निर्वाहयत्यचापि कंचिच्चनं / प्रत एव देवेऽपि रागकेसरिणि लग्ने स्वयमेतावान् कालविलम्बो वर्तते / विमर्शनोक / क पुनरधुना भवदीयदेवः श्रूयते / ततः समुत्पन्ना मिथ्याभिमानस्य प्रणिधिका / न कथितं यथावस्थितं / अभिहितं चानेन / न जानीमः परिस्फुटं। केवलं ताममचित्तं नगरमुररीहत्य तावदितो निर्गतो देवः / ततः कदाचित्तत्रैवावतिष्ठते। विमोशनोकं / पूरितं भनेणावयोः कुकूहलं / निवेदितः प्रस्तुतवृत्तान्तः / दर्शितं सौजन्यं / तगच्छावः साम्प्रतमावां। मिथ्याभिमानेनोक्त। एवं सिद्धिर्भवत् / तदाकर्ण्य दृष्टो विमर्शः / ततः परस्परं विहितं मनागुत्तमाङ्गनमनं / निर्गतौ राजमचित्तनगराद्विमप्रिकर्षा / विमर्शनोक्तं / भद्र कथिता नावदनेन तेषां विषयाभिलाष For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 500 उपमितिभवायचा कथा / मानुषाणं मध्ये रमना। तदधुना तमेव विषयाभिलाषं दृष्ट्वा तस्याः खरूपमावयोर्गुणतो निश्चेत युक्तं / तगच्छावस्तत्रैव तामसचित्तनगरे। प्रकर्षः प्राह। यन्मामो जानौते। ततो गतौ तामसचित्तपुरे विमर्शप्रकर्षों। तच्च कीदृशम् / नाशिताशेषसन्मार्गमामूलतस्तेन दुर्ग न लंध्यं परेषां सदा। सर्वदोद्योतमुक्तं च तदर्तते चौरवृन्दं तु तत्रैव मंवर्धते // वल्लभं तत्मदा पापपूर्णात्मनां निन्दितं तत्मदा शिष्टलोकः पुरम। कारणं तत्सदानन्तदुःखोदधेर्वारणं तत्मदाशेषसौख्योन्नतेः // केवलं तदपि ताभ्यां विमर्शप्रकर्षाभ्यामौदृशमवलोकितं। यदुत। दवदग्धमिवारण्यं कृष्णवर्णं समन्ततः / रहितं भूरिलोकेन न मुक्तं च निजश्रिया // ततः प्रकर्षस्तदृष्ट्वा प्रत्याह निजमातुलम् / माम किं विद्यते कश्चिदत्रापि पुरनायकः // विमर्शः प्राह नैवास्ति योऽत्र भो मूलनायकः / केवलं नायकाकारः कश्चिदत्रास्ति मानवः // ततो यावदेतावान् विमर्शप्रकर्षयोजल्पः संपद्यते तावदृष्टस्ताभ्यां तचैव नगरे प्रवेटुकामो दैन्याक्रन्दनविलपनादिभिः कतिचित्प्रधानपुरुषैः परिकरितः भोको नाम पाडौरिकः / ततः संभाषितोऽसौ विमर्शप्रकर्षाभ्यां पृष्टश्च / भद्र कोऽत्र नगरे राजा / शोकः प्राह / ननु भुवनप्रमिद्धोऽयं नरेन्द्रः। तथाहि / / महामोहसमुद्भूतो रागकेसरिसोदरः / .. धवोऽविवेकितायाश्च प्रसिद्धोऽयं नराधिपः // , For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 5.1 वर्गपातालमत्त्येषु शत्रुभिर्भीतकम्पितैः / नामापि ग्राह्यते तस्य प्रतापहतवैरिणः // देवस्थाचिन्त्यवीर्यस्य सत्पराक्रमशालिनः / तस्य देवगजेन्द्रस्य नाम कः प्रष्टुमर्हति // किं च पास्तां तावद्देवः / किं तर्हि / या मोहयति वौर्यण सकलं भुवनत्रयम् / ख्याताविवेकिताप्यत्र मा देवी देववल्लभा / अन्यच्च / मा महामोहनिर्देशकारिणौ गुरुवमला। मा महामूढ़ताज्ञायां वर्तते सुन्दरा वधूः // रागकेसरिनिर्देशं न लजन्यति मा सदा / मूढ़तायाश्च तत्पन्याः सौहार्द दर्शयत्यलम् // .... तथा देषगजेन्द्रस्य मा भर्तुर्गाढवत्सला / तेनाविवेकिता लोके प्रख्याति समुपागता // तदेतौ भुवनेऽप्यत्र ख्याती देवीनरेश्वरौ / इदानौं हन्त भद्राभ्यां कथं प्रष्टव्यतां गतौ // विमर्शः प्राह नैवात्र कोपः कार्यस्त्वया यतः / सर्वः सर्वं न जानौते मिद्धमेतज्जगत्त्रये // भावां दवीयमो देशादागतौ न च वौषितम्। पूर्वमेतत्पुरं किं तु श्रुतौ देवीनरेश्वरौ // . ततश्च / किं स्याद्वेषगजेन्द्रोऽत्र किं वा स्थानगरान्तरे। .. For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समितिभवप्रपञ्चा कथा / ततः कुबहलेनेदं पृष्टं संदिग्धचेतसा // तद्भद्र माम्प्रतं ब्रूहि किमत्रास्ते नराधिपः / किं वा विनिर्गतः क्वापि पश्यावस्तं नरेश्वरम् // शोकेनोनं जगत्यत्र वृत्तान्तोऽयमपि स्फुटम् / प्रसिद्ध एव सर्वेषां विदुषां दत्तचेतमाम् // यथा देवो महामोहस्तत्पुत्रो रागकेसरी / तथा देवगजेन्द्रश्च समस्तबलसंयुताः // सन्तोषहतकस्योचैर्वधाय कृतनिश्चयाः / विनिर्गताः स्वकस्थानाद्भूरिकालश्च लडिन्तः // विमर्शः प्राह यद्येवं ततो भद्रः किमर्थकम् / इहागतः किमास्तेऽत्र पुरे भोः माविवेकिता // शोकेनाभिहितम् / नास्त्यत्र नगरे तावदधुना माविवेकिता / नापि देवसमीपे मा तत्राकर्णय कारणम् // यदा तातो महामोहस्तथान्यो रागकेसरी / सन्तोषहतकस्योचैर्वधार्थं कृतनिश्चयः / / तदा प्रचलिते देवे ताभ्यां सह तोद्यमे / देवेन साधं मा देवी प्रस्थिता भवत्मला // ततो देषगजेन्द्रेण मा प्रोक्ता कमलेक्षणा। स्कन्धावारक्षम देवि न त्वदीयं शरीरकम् / दौर्घा कटकसेवेयं त्वं च गर्भभरालसा / नातः संवाहनायोग्या बेला मासस्य वर्तते // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 5. 3 तस्मात्तिष्ठ त्वमति व्रजामो वयमेककाः / तयोकं त्वां विना नाथ नात्र मे नगरे तिः // तच्छुत्वा देवपादैः मा पुनः प्रोक्ता वरानना / तथापि नैव युक्तं ते स्कन्धावारे प्रवर्तनम् // किंतु। रौद्रचित्तपुरे गत्वा देवि दुष्टाभिसन्धिना / रचिता तिष्ठ निश्चिन्ता पदातिः स हि मेऽनघः / ततोऽविवेकिता प्राह किमत्रास्माभिरुच्यताम् / पदार्यपुत्रो जानौते तदेव करणक्षमम् // ततो विनिर्गतो देवो महामोहादिभिः सह / रौद्रचित्तपुरे देवी देवादेशेन मा गता // ततोऽपि बहिरेङ्गषु पुरेषु किस वर्तते / किंचित्कारणमाश्रित्य माधुना युक्रकारिणौ // जातश्चामौत्तदा पुत्रस्तथान्योऽप्यधुना किल / निजभर्तुः समायोगादेतदाकर्णितं मया // तदेवं नास्ति मा देवौ यत्पुनर्मम कारणम् / नगरागमने भद्र तदाकर्णय साम्प्रतम् // अत्रान्तरे प्रज्ञाविशालयाभिहिताग्रहीतसङ्केता। प्रियमखि यदमेन संसारिजीवेन नन्दिवर्धनवैश्वानरवक्रव्यतायां हिंसापरिणयनावसरे वैश्वानरमूलशुद्धिं निवेदयता पूर्वमभिहितमामौत् यदुत यादृशं तत्तामसचित्तनगरं यादृशश्चासौ द्वेषगजेन्द्रो राजा यादृशी माविवेकिता यच्च तस्यास्तस्मात्ताममचित्तनगराद्रौद्रचित्त For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 504 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / पुरं प्रत्यागमनप्रयोजनमेतत् सर्वमुत्तरत्र कथयिष्याम इति तदिदमधुना तेन संसारिजीवेन समस्तं निवेदितमिति / अग्टहीतसङ्केतयाभिहितं / साधु प्रियसखि साधु सुन्दरं मम स्मारितं भवत्या। ततः प्रज्ञाविशालया संसारिजौवं प्रत्यभिहितं। भद्र यदा विचक्षणाचार्यण नरवाहननरेन्द्राय विमर्शप्रकर्षवक्तव्यतां कथयता तव रिपुदारणस्य मतस्तस्यामेव परिषदि निषलस्य समाकर्णयतो निवेदितमेवमविवेकितापूर्वचरितं तदा किं विज्ञातमासोद्भवता यदुत यासौ वैश्वानरस्य माताभुनन्दिवर्धनकाले मम च धात्री मैवेयमविवेकिता साम्प्रतं शैलराजस्य जननी वर्तते मम च पुन(चौति किं वा न विज्ञातमिति / संसारिजौवेनो / भने न किंचित्तदा मया विज्ञातं / अज्ञानजनित एव मे समस्तोऽपि निवेदयिष्यमाणोऽनर्थपरम्पराप्रबन्धः / केवलं तदाहं चिन्तयामि यथा कथानिकां कांचिदेष प्रव्रजितकस्ताताय कथयति / न पुनस्तद्भावार्थमहं वक्ष्यामि स्म यथेयं साम्प्रतमगृहीतसङ्केता न लक्षयति / अगृहीतसङ्केतयाभिहितं / भद्र किमन्यः कश्चिद्भावार्थी भवति। संसारिजौवः प्राह / बाढं भने नास्ति प्रायेण मदीयचरिते भावार्थरहितमेकमपि वचनं / ततो न भवत्या कथानकमात्रेण सन्तोषो विधातव्यः किं तर्हि भावार्थोऽपि बोद्धव्यः / म च परिस्फुट एव भावार्थः / तथाप्याटहौतसङ्केते यत्र क्वचित्र बुध्यते भवतो तत्र प्रज्ञाविशाला प्रष्टव्या / यतो बुध्यते सभावार्थमेषा मदीयवचनं। अटहीतसङ्केतयो / एवं करिष्यामि / प्रस्ततमभिधीयतां // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 505 ततो विचक्षणसूरिवचनमनुसंदधानः संसारिजीवः कथानकशेषमिदमाह / यदुत / ततो विम”नाभिहितं / भद्र वर्णय यदिहागमनकारणं भद्रस्य / शोकेनाभिहितम् / आस्तेऽत्र नगरेऽद्यापि वयस्योऽत्यन्तवल्लभः / मम जीवितसर्वस्वं मतिमोहो महाबलः // तद्दर्शनार्थमायातस्ततोऽहं भद्र साम्प्रतम् / भावामितं महाटव्यां मुक्का देवस्य साधनम् // विमर्शनोत्रम् / म कस्मात्खामिना साधं न गतस्तत्र माधने / शोकः प्राह म देवेन धारितोऽत्रैव पत्तने // उक्तश्चासौ यथा नित्यं न मोक्रव्यं त्वया पुरम् / मतिमोह समेवास्य यतः संरक्षणक्षमः // ततः प्रपद्य देवाज्ञां संस्थितोऽत्र पुरे पुरा / एतनिवेदितं तुभ्यं प्रविशामोऽधुना वयम् // विमर्शः प्राह सिद्धिस्ते तुष्टः शोको गतः पुरे / विमर्शश्च ततश्चेदं प्रकर्षे प्रत्यभाषत // भद्र या माधनाधारा प्रोक्तानेन महाटवी / गत्वा तस्यां प्रपश्यावो रागकेमरिमन्त्रिणम् // प्रकर्षः प्राह को वात्र विकल्यो माम गम्यताम् / ततः प्रचलितौ वर्ण हृष्टौ स्वस्रौयमातुलौ // ततो विलंध्य वेगेन मार्ग पवनगामिनौ / प्राप्तौ तौ मध्यमे भागे महाटव्याः प्रयाणकैः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / अथ तत्र महामोहं रागकेसरिसंयुतम् / युक्त द्वेषगजेन्द्रेण चतुरङ्गबलान्वितम् // आवासितं महानद्याः पुलिनेऽतिमनोरमे / महामण्डपमध्यस्थं वेदिकायां प्रतिष्ठितम् // महासिंहामनारूढं भटकोटिविवेष्टितम् / गत्वा स्म नातिदूरं तौ दत्तास्थानं प्रपश्यतः // ततो विमर्गनाभिहितं / भद्र प्राप्तौ तावदावामभीष्टप्रदेशे / लजिता महाटवौ / दृष्टं महामोहसाधनं / दर्शनपथमवतीर्णोऽयं दत्तास्थानः सह रागकेसरिण सपरिकरो महामोहराजः / तन्त्र युक्तोऽधुनावयोरस्मिन्नास्थाने प्रवेशः / मा भूदेतेषामास्थानस्थायिनां लोकानामपूर्वयोरावयोर्दर्शनेन काचिदागका / अन्यच्चात्रैव प्रदेश व्य स्थिताभ्यां दृश्यत एवेदं सकलमास्थानं / अतः कुबहलेनापि न युक्तोऽत्र प्रवेशः / प्रकर्षणोक्तं / एवं भवतु / केवलं मामेयं महाटवी दयं च महानदी इदं च पुलिनं अयं च महामण्डपः एषा च वेदिका एतच्च महासिंहासनं श्रयं च महामोहनरेन्द्रः एते च सपरिवारा: समस्ता अपि शेषनरेन्द्राः सर्वमिदमदृष्टपूर्व अतो महदत्र कुहलं / तेनामौषामेकैकं नामतो गुणातश्च मामेन वर्षमानं विस्तरतः श्रोतुमिच्छामि। अभिहितं च पूर्व मामेन / यथा जानाम्यहं दृष्टस्य वस्तुनो यथावस्थितं तत्त्वं अतः समस्त निवेदयितमर्हति मामः / विमर्श: प्राह / सत्यमभिहितमिदं मया / केवलं भूरिप्रकारं परिप्रनितमिदं भद्रेण / ततः सम्यगवधार्य निवेदयामि / प्रकर्षः प्राह / विश्रब्धमवधारयतु मामः / ततो विमर्शन For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / समन्तादवलोकिता महाटवी निरीक्षिता महानदौ विलोकितं पुलिनं निर्वर्णितो महामण्डपः निरूपिता वेदिका निभालितं महासिंहासनं विचिन्तितो महामोहराजा विचारिता: प्रत्येक महताभिनिवेशेन सपरिकराः सर्वे नरेन्द्राः। हृदयेन प्रविष्टो ध्यानं / तत्र च व्युपरताशेषेन्द्रियग्रामवृत्तिनिष्यन्दस्तिमितलोचनयुगस्तः स्थितः किंचित्कालं / ततः प्रकम्पयता शिरः प्रहमितमनेन / प्रकर्षः प्राह / माम किमेतत् / विमर्शनोक्तं / अवगतं समस्तमिदमधुना मया / ततः समुद्भूतो हर्षः / प्रच्छनीयमन्यदपि साम्प्रतं यत्ते रोचते / प्रकर्षणोक्तं / एवं करिष्यामि / तावदिदमेव प्रस्तुतं निवेदयतु मामः / विमर्गनाभिहितं / यद्येवं ततस्तावदेषा चित्तवृत्तिर्नाम महाटवी। इयं च भद्र विस्तीर्णविविधाडतसंगता / उत्पत्तिभूमिः सर्वेषां भद्रत्नानामुदाहता // दयमेव च सर्वेषां लोकोपद्रवकारिणम् / महानर्थपिशाचानां कारणं परिकीर्तिता // सर्वेषामन्तरङ्गाणां लोकानामत्र संस्थिताः / चित्तवृत्तिमहाटव्यां ग्रामपत्तनभूमयः // यदापि बहिरङ्गेषु निर्दिश्यन्ते पुरेषु ते / किंचित्कारणमालोच्य विद्वद्भिर्ज्ञानचक्षुषा // तथापि परमार्थन तेऽन्तरङ्गजनाः सदा / अस्यामेव महाटव्यां विज्ञेयाः सुप्रतिष्ठिताः // यतः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / नैवान्तरङ्गलोकानां चित्तवृत्तिमहाटवीम् / विहाय विद्यते स्थानं बहिरङ्गपुरे क्वचित् // ततश्च / सुन्दरासुन्दराः सर्वे येऽन्तरङ्गाः क्वचिजनाः / एनां विहाय ते भद्र न वर्तन्ते कदाचन // अन्यच्च / मिथ्यानिषेविता भद्र भवत्येषा महाटवौ / घोरसंसारकान्तारकारणं पापकर्मणम् // सम्यनिषेविता भद्र भवत्येषा महाटवौ / अनन्तानन्दसन्दोहपूर्ण मोक्षस्य कारणम् // किं चेह बडनोक्तेन सुन्दरेतरवस्तुनः / सर्वस्य कारणं भद्र चित्तवृत्तिमहाटवौ // यं चासारविस्तारा दृश्यते या महानदौ / एषा प्रमत्तता नाम भट्र गीता मनीषिभिः // इयं निद्रातटिस्तुङ्गा कषायजलवाहिनी / विज्ञेया मदिरावादविकथास्रोतसां निधिः // महाविषयकल्लोललोलमालाकुला सदा / विकल्पानल्पसत्त्वौघपूरिता च निगद्यते // योऽस्यास्तटेऽपि वर्तेत नरो बुद्धिविहीनकः / तमुन्मूल्य महावः क्षिपत्येषा महापगा // यस्तु प्रवाहे नौरस्य प्रविष्टोऽस्याः पुमानलम् / स यज्जीवति मूढात्मा क्षणमात्रं तदमृतम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 506 यदृष्टं भवता पूर्व रागकेसरिपत्तनम् / यच्च द्वेषगजेन्द्रस्य सम्बन्धि नगरं परम् // ताभ्यामेषा समुद्भूता विगाहमा महाटवीम् / गत्वा पुनः पतत्येषा घोरसंसारनौरधौ // अतोऽस्यां पतितो भद्र पुरुषस्तत्र सागरे / अवश्यं याति वेगेन तस्य चोत्तरणं कुतः // ये गन्तुकामास्तत्रैव भौमे संसारसागरे / अत एव सदा तेषां वल्लभेयं महापगा // ये तु भौताः पुनस्तस्माद्धोरात्संसारसागरात् / ते दूरादरतो यान्ति विहायेमां महानदीम् // तदेषा गुणतो भद्र वर्णिता तव निम्नगा / त्वं तदिलमितं नाम माम्प्रतं पुलिनं श्टण // एतद्धि पुलिनं भद्र हास्थविब्बोकसैकतम् / विलासलाससङ्गीतहंससारमराजितम् // नेहपाशमहाकाकासधवलं तथा / घूर्णमानमहानिद्रामदिरामत्तदुर्जनम् // केलिस्थानं सुविस्तीर्णं बालिशानां मनोरमम् / विज्ञाततत्वैर्दूरेण वर्जितं शौलशालिभिः // तदिदं पुलिनं भद्र कथितं तव माम्प्रतम् / महामण्डपरूपं ते कथयामि सनायकम् // अयं हि चित्तविक्षेपो नाम्ना संगीयते बुधैः / गुणतः सर्वदोषौघवासस्थानमुदाहृतः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 510 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / अत्र प्रविष्टमात्राणां विस्मरन्ति निजा गुणाः / प्रवर्तन्ते महापापसाधनेषु च बुद्धयः // एतेषामेव कार्यण निर्मितोऽयं सुवेधसा / राजानो येऽत्र दृश्यन्ते महामोहादथः किल / बहिरङ्गाः पुनर्लीका यदि मोहवशानुगाः / स्युर्महामण्डपे भद्र प्रविष्टाः क्वचिदत्र ते // ततो विभ्रमसन्तापचित्तोन्मादब्रतप्तवान् / प्राप्नुवन्ति न सन्देहो महामण्डपदोषतः // एनं भद्र प्रकृत्यैव महामण्डपमुच्चकैः / एते नरेन्द्राः संप्राप्य मोदन्ते तुष्टमानसाः // बहिरङ्गाः पुनीका मोहादामाद्य मण्डपम् / एनं हि दौर्मनस्येन लभन्ते दुःखसागरम // अयं हि चित्तनिर्वाणकारिणौँ निजवौर्यतः / तेषामेकाग्रतां हन्ति सुखसन्दोहदायिनीम् // केवलं ते न जानन्ति वीर्यमस्य तपस्विनः / प्रवेशमाचरन्यत्र तेन मोहात्पुनः पुनः // यैस्तु वौर्य पुनर्जातं कथंचित् पुण्यकर्मभिः / अस्य नैवात्र ते भद्र प्रवेशं कुर्वते नराः // एकाग्रमनमो नित्यं चित्तनिर्वाणयोगतः / ततस्ते सततानन्दा भवन्यत्रैव जन्मनि // तदेष गुणतो भद्र चित विक्षेपमण्डपः / मया निवेदितस्तुभ्यमधुना श्टणु वेदिकाम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / एषा प्रसिद्धा लोकेऽत्र हृष्णानाम्नौ सुवेदिका / अस्यैव च नरेन्द्रस्य कारणेन निरूपिता // भद्रात एव त्वं पश्य महामोहेन यो निजः / कुटुम्बान्तर्गतो लोकः स एवास्यां निवेशितः // ये तु शेषा महीपालास्तत्सेवामात्रवृत्तयः / एते निविष्टास्ते पश्य सर्वे मुत्कलमण्डपे // एषा हि वेदिका भद्र प्रकृत्यैवास्थ वल्लभा // महामोहनरेन्द्रस्य खजनस्य विशेषतः // अस्यां समुपविष्टोऽयमत एव मुहुर्मुहुः / सग वौक्षते लोकं सिद्धार्थोऽहं किलाधुना // एतच्च प्रौणयत्येषा स्वभावेनैव वेदिका / खस्योपरिष्टादासीनं महामोहकुटुम्बकम् // बहिरङ्गाः पुनर्लोका यद्येनां भट्ट वेदिकाम् / आरोहन्ति ततस्तेषां कौतत्यं दीर्घजीवितम् // अन्यच्चैषा स्ववौर्यण हृष्णाख्या भद्र वेदिका / अत्रैव मंस्थिता नित्यं भ्रामयत्यखिलं जगत् // तदेषा गुणतो भद्र यथार्था वरवेदिका / मया निवेदिता तुभ्यमिदानौं श्टणु विष्टरम् // एतसिंहासनं भद्र विपर्यासाख्यमुच्यते / अस्यैव विधिना नूनं महामोहस्य कल्पितम् // यदिदं लोकविख्यातं राज्यं याश्च विभूतयः / तबाहं कारणं मन्ये नृपतेरस्य विष्टरम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 512 उपमितिभवप्रयचा कथा / यावच्चास्य नरेन्द्रस्य विद्यते वरविष्टरम / इदं तावदहं मन्ये राज्यमेताश्च भूतयः // यतः / अस्मिन्निविष्टो राजायं महासिंहासने सदा / सर्वेषामेव शत्रूणामगम्यः परिकीर्तितः // यदा पुनरयं राजा भवेदस्माद्दहिः स्थितः / सामान्यपुरुषस्यापि तदा गम्यः प्रकीर्तितः // एतद्धि विष्टर भद्र बहिरङ्गजनैः सदा / श्रालोकितं करोत्येव रौद्रानर्थपरंपराम् // यतः / तावत्तेषां प्रवर्तन्ते सर्वाः सुन्दरबुद्धयः / यावत्तैर्विष्टरे लोकैरत्र दृष्टिर्न पातिता // निबद्धदृष्टयः सन्तः पुनरत्र महामने / ते पापिनो भवन्युचैः कुतः सुन्दरबुद्धयः // किं च / यन्नद्यास्तत् पुलिनस्य मण्डपस्य च वर्णितम् / वेदिकायाश्च तदीय सर्वमत्र प्रतिष्ठितम् // तदिदं गुणतो भद्र कथितं तव विष्टरम् / महामोहनरेन्द्रस्य निबोध गुणगौरवम् // जराजौर्णकपोलापि यैषा भुवनविश्रुता / अमुव्येयमविद्याख्या गात्रयष्टिरुदाहता // एषात्र संस्थिता भद्र मकलेऽपि जगत्त्रये / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। यत्करोति खवीर्येण तदाकर्षय माम्प्रतम् // अनित्येष्वपि नित्यत्वमशुचिष्वपि शुद्धताम् / दुःखात्मकेषु सुखतामनात्मस्वात्मरूपताम् // पुगलस्कन्धरूपेषु शरीरादिषु वस्तुषु / लोकानां दर्शयत्येषा ममकारपरायणा // ततस्ते बद्धचित्तत्वात्तेषु पुगलवस्तुषु / श्रात्मरूपमजानन्तः क्लिश्यन्तेऽनर्थक जनाः // तदेनां धारयन्त्रच्चैर्गाचयष्टिं महाबलः / जराजौर्णाऽपि नैवायं मुच्यते निजतेजमा // अयं हि भद्र राजेन्द्रो जगदुत्पत्तिकारकः / तेनैव गोयते प्राज्ञैर्महामोहपितामहः // ये रुद्रोपेन्द्रनागेन्द्रचन्द्र विद्याधरादयः / तेऽप्यस्य भद्र नेवाज्ञां नवयन्ति कदाचन // तथा हि। योऽयं स्ववीर्यदण्डेन जगचक्र कुलालवत् / विभ्रम्य घटयत्येव कार्यभाण्डानि लौलया // तस्यास्याचिन्यवीर्यस्य महामोहस्य भूपतेः / को नाम भद्र लोकेऽस्मिन्नाज्ञा लवयितुं क्षमः // नदेष गुणतो भद्र वर्णितस्ते नराधिपः / अधुना परिवारोऽस्य वर्ण्यते तं विचिन्तय // केवलं कथयत्येवं मयि भद्र विशेषतः / केनाप्याकूतदोषेण न त्वं पृच्छसि किंचन // 65 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। हुङ्कारमपि नो दत्से भावितश्च न लक्ष्यसे / शिरःकम्पनखस्फोटविरहेण विभाव्यसे / निश्चलाक्षो मदौयं तु केवलं मुखमोक्षसे / तदिदं नैव जानेऽहं बुध्यसे किं न बुध्यसे // प्रकर्षः प्राह मा मैवं माम वोचः प्रसादतः / ताहं नास्ति तल्लोके यन्त्र बुध्ये परिस्फुटम् / विमर्शः प्राह जानामि बुध्यसे त्वं परिस्फुटम् / अयं तु विहितो भद्र परिहासस्त्वया सह // यतः। विज्ञातपरमार्थ पि बालबोधनकाम्यया। परिहामं करोत्येव प्रसिद्धं पण्डितो जनः // बालो विनोदनीयश्च मादृशां भद्र वर्तसे / अतो मत्परिहासेन न कोपं गन्तुमर्हसि // अन्यच्च जानतापोदमस्माकं हर्षवृद्धये / त्वया प्रश्नोऽपि कर्तव्यः क्वचित्प्रस्तुतवस्तुनि // किंच। अविचार्य मया माधं वस्तुतत्त्वं यथास्थितम् / त्वमत्र श्रुतमात्रेण भद्र न ज्ञातुमर्हसि // ऐदम्पर्यमतस्तात बोद्धव्यं यत्नतस्त्वया / अज्ञातपरमार्थस्य मा भूगौतकथानिका // प्रकर्षः प्राह / मम कथय कौदृशौ पुनः मा भौतकथानिका / विमर्शनाभिहितं / भद्र ममाकर्णय / अस्ति क्वचिनगरे जन्म For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 515 बधिरः सदाशिवो नाम भौताचार्यः। स च जराजौर्णकपोल: सन्नुपहासपरेण हस्तसंज्ञयाभिहितः केनचिर्तबटुना। यथा भट्टारक किल्लैवं नौतिशास्त्रेषु पयते / यदुत / विषं गोष्ठी दरिद्रस्य जन्तोः पापरतिर्विषम् / विषं परे रता भार्या विषं व्याधिरुपेक्षितः / / अतः शीघ्रमस्य बाधिर्यस्य करोत् किंचिदौषधं भट्टारकः / न खलपेक्षितुं युक्तोऽयं महाव्याधिः / ततः प्रविष्टो भौताचार्यस्य मनसि स एवाग्रहविशेषः। ततोऽभिहितोऽनेन शान्तिशिवो नाम निजशिय्यः / यदुत गच्छ वं वैद्यभवने मदीयबधिरत्वस्य विज्ञाय भेषजं ग्टहीत्वा च तत्तूर्णमागच्छ। मा भूत्कालहरणेन व्याधिद्धिरिति। शान्तिशिवेनाभिहितं / यदाज्ञापयति भट्टारकः / ततः प्राप्तोऽसौ वैद्यभवने / दृष्टो वैद्यः / इतश्च बहती वेलां रमणं विधाय दारात्ममागतो वैद्यपुत्रः / ततः क्रोधान्धबुद्धिना वैद्येन ग्रहौतातिपरुषा वालमयी रज्जुः / बद्धश्चारटनमौ निजदारकः स्तम्भके / ग्टहीतो लकुटः / ताडयितुमारब्धः। ताद्यमाने च निर्दयं तत्र दारके शान्तिशिवः प्राह / वैद्य किमित्येनमेवं ताडयसि / देवेनोक्तं / न श्टणोति कथंचिदप्येष पापः / अचान्तरे हाहारवं कुर्वाणा वेगेनागत्य लग्ना वैद्यस्य हस्ते वारणार्थं भार्या / वैद्यः प्राह। मारणीयो मयायं दुरात्मा यो ममैवं कुर्वतोऽपि न श्टणोति। अपसरापसर त्वमितरथा तवापौयमेव गतिः / तथापि लगन्तौ ताडिता मापि वैद्यन / शान्तिभिवेन चिन्तितं / श्रये विज्ञातं भट्टारकस्यौषधं / किमधुना पृष्टेन / ततो निर्गत्य For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 516 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / गतोऽसौ माहेश्वरग्टहे। याचिता तेन रज्नुः / समर्पिता माहेश्वरः शणमयो / शान्तिशिवः प्राह / अलमनया / मम वालमय्यातिपरुषया प्रयोजनं। दत्ता तादृश्येव माहेश्वरैरभिहितं च / भट्टारक किं पुनरनया कार्य। शान्तिशिवेनोक्तं / सुग्टहीतनामधेयानां सदाशिवभट्टारकाणामौषधं करिष्यते / ततो ग्रहोला रज्जु गतो मठे शान्तिशिवः / तत्र च दृष्ट्वा गुरुं कृतमनेन विषमभृकुटितरङ्गभङ्गकरालं वत्रकुहरं बद्धश्चाराटोर्मुञ्चन्नसौ मठमध्यस्तम्भके निजाचार्यः। ततो ग्टहीतबहल्लकुटोऽसौ प्रवृत्तस्तस्य ताडने / दूतश्च माहेश्वरैश्चिन्तितं / गच्छामो भट्टारकाणां क्रियायां क्रियमाणायां प्रत्यासन्नाः स्वयं भवामः / ततः समागतास्ते। दृष्टो निर्दयं ताडयन्नाचार्य भान्तिशिवः / तैरभिहितं। किमित्येनमेवं ताडयमि / शान्ति शिवः प्राह / न एणोति कथंचिदप्येष पापः / ततो विहितः सदाशिवेन म्रियमाणेन महाक्रन्दभैरवः शब्दः / ततो लगा वारणार्थं हाहारवं कुर्वन्तः शान्तिशिवस्य माहेश्वराः / शान्तिशिवः प्राह / मारणीयो मयायं दुरात्मा यो ममैवं कुर्वतोऽपि न श्टणोनि। अपसरतापसरत यूयमितरथा युभाकमपीयमेव वातति। तथापि वारयतो माहेश्वरानपि प्रवृत्तस्ताडयितुमसौ लकुटेन / ततो बहुत्वात्तेषां रे लात लातेति बेवाणैरुद्दालितस्तस्य हस्तालकुटः / चिन्तितं च। नूनं ग्रहग्टहीतोऽयं / ततो बद्धस्तैस्ताडयित्वा पश्चावाहुबन्धेन शान्तिशिवः / विमोचितः मदाशिवः / लन्धा चेतना / जौवितो दैवयोगेन / माहेश्वरैरभिहितं / शान्तिशिव किमिदं भगवतस्लया कर्तमारब्धमामौत् / शान्तिशिवः प्राह / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 510 ननु बधिरताया वैद्योपदेशादौषधं। किंच। मुञ्चत मां / मा भट्टारकव्याधिमुपेक्षध्वं / माहेश्वरैश्चिन्तितं / महाग्रहोऽयं / ततोऽभिहितमेतैः। मुञ्चामस्वां यद्येवं न करोषि / शान्तिशिवः प्राह / किमहं भवतां वचनेन खगुरोरपि भैषजं न करिष्यामि / अहं हि यदि पर तस्यैव वैद्यस्य वचनेन तिष्ठामि नान्यथा / ततः समाहतो वैद्यः / निवेविदतस्तस्मै वृत्तान्तः / ततो मुखमध्ये हसताभिहितं वैद्यन / भट्टारक न बधिरोऽसौ मदीयो दारकः / किं तर्हि पाठितो मया लगेन वैद्यकशास्त्राणि / स तु रमणशीलतया मम रटतोऽपि तदर्थं न श्टणोति। ततो मया रोषात्ताडितः / तन्नेदमौषधं। किंच। प्रगुणीभूतः खल्वयं साम्प्रतं तव प्रभावादनेनैव भैषजेन / तस्मादतःपरं न कर्तव्यं मदीयवचनेन त्वयास्येदमौषधमिति / शान्तिशिवेनाभिहितं एवं भवत्। भट्टारकैर्हि प्रगुणैर्मम प्रयोजनं। ते च यदि प्रगुणस्ततः किमौषधेन। ततो मुक्तः शान्तिशिवः // __ तदेषा भद्र भौतकथानिका श्रुतमात्रग्राहिणस्तवापि मया सार्धमविचारयतो मा भूदित्येवमयं परिचोदितस्त्वं मयेति / प्रकर्षः प्राह। साधु साधक्तं मामेन। पृच्छामि तौदानौं किंचिद्भवन्तं / विमर्गेनोनं / प्रश्नयत भद्रः। प्रकर्षः प्राह / माम यद्येवं ततो विज्ञातेयं मया समस्तान्तरङ्गलोकाधारभूता बहिरङ्गलोकानां सर्वसुन्दरासुन्दरवस्तुनिर्वतिका सभावार्था चित्तवृत्तिर्महाटवी। एतानि तु महानदीपुलिनमहामण्डपवेदिकासिंहासनगात्रयष्टिनरेन्द्ररूपाणि वस्तुनि यानि भवता प्रमत्ततातदिलमितचित्त For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 510 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / विक्षेपणाविपर्यासाविद्यामहामोहाभिधानानि निवेदितानि मया भावार्थमधिकृत्य न सम्यग्विज्ञातानि / विकल्पितानि मया यथानाम्ना परमेतानि भिद्यन्ते नार्थेन / यतः सर्वाण्यपि पुष्टिकारणतयामौषामन्तरङ्गलोकानामनर्थकारणतया च वहिरङ्गजनानां समानानि वर्तन्ते / ततो यद्येतेषामस्ति कश्चिदर्थन भेदस्तं मे निवेदयतु मामः / विमर्शः प्राह / ननु निवेदित एव प्रत्येकमेतेषां गुणन् वर्णयता मया परिस्फुटोऽर्थभेदः। तथापि स यदि न विज्ञातो भद्रेण ततः पुनरपि निवेदयामि / ततः कथितो विमशैन महानद्यादौनां वस्तूनां प्रत्येकं भावार्थः / बुद्धः प्रकर्षेण // अत्रान्तरे नरवाहनः प्राह। भदन्त वयमपि बोधनौयास्तेषां भावार्थ / ततः प्रबोधितो नरवाहननरेन्द्रोऽपि तेन भगवता विचक्षणमूरिणा। ततोऽग्टहीतसङ्केतयाभिहितं / भद्र संमारिजीव तर्हि यद्येवं ततोऽहमपौदानौं तेषां महानद्यादिवस्तुनां बोधनीया भवतार्थ वेदनौया भवतार्थभेदं। संसारिजौवेनोक्तं / भने स्पष्टदृष्टान्तमन्तरेण न त्वया सुखावमेयमेतेषां प्रविभक्तं खरूपं / अतो दृष्टान्नं कथयिष्ये। अग्टहीतसङ्केतयोक्तं / अनुग्रहो मे / संसारिजीवेनाभिहितं। अस्ति संभावितसमस्तवृत्तान्तं भवनोदरं नाम नगरम् / तत्र च निवारको हरिहरहिरण्यगर्भादौनामपि प्रभुगतरनादिर्नाम राजा / तस्य च नौतिमार्गनिपुणा विच्छेदकारिणी कुयुनिमिथ्याविकल्पजल्पानां संस्थिति म महादेवौ। तयोश्चात्यन्तवल्लभोऽस्ति वेलहलो नाम तनयः / स च गाढ़माहारप्रियो दिवानिशमनवरतं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / પૂરતું विविधखाद्यपेयानि भक्षयनास्ते / ततः संजातं महाजीणं प्रकुपिता दोषाः संपन्नोऽन्तर्लोनो ज्वरः। तथापि न विच्छिद्यते तस्याहाराभिलाषः। प्रवृत्ता चोद्यानिकागमनेच्छा। ततः कारिता भूरिप्रकारा भक्ष्यविशेषाः / तांश्च पश्यतस्तस्य एनमेनं च भक्षयिष्यामौति प्रवर्तन्ते चित्तकल्लोलाः। लौह्यातिरेकेण च भक्षितं सर्वेषामाहारविशेषाणां स्तोकस्तोकं / ततः परिवेष्टितो मित्रवृन्देन परिकरितोऽन्तःपुरेण पठता बन्दिवृन्देन ददद्दानं विविधैर्विलासैमहता विमर्दन प्राप्तो मनोरमे कानने। निविष्टं सुखमासनं / तत्र चोपविष्टस्य विरचिताः पुरतो विविधाहारविस्ताराः / ततश्वाहारलेशभक्षणेन पवनस्पर्शादिना गाढतरं प्रवृद्धो ज्वरः / लक्षितश्च पार्श्ववर्तिना समयज्ञाभिधानेन महावैद्यसुतेन / यदुतातरवदनो दृश्यते कुमारः। ततो दत्तस्तेन शङ्खयोहस्तः / निरूपितानि सन्धिस्थानानि। निश्चितमनेन / यथा ज्वरितः खल्वयं कुमारः / ततोऽभिहितं ममयज्ञेन / देव न युक्तं तव भो। प्रबलज्वरं ते शरीरं वर्तते / यतोऽत्यन्तमातुरा घूर्ण ते दृष्टिः। श्राताम्रस्निग्धं वदनकमलं / द्रगट्रगायेते गङ्खौ। ध धमायन्ते सन्धिस्थानानि / ज्वलतीव बहिस्त्वम् / दहतीव हस्तं। ततो निवर्तख भोजनात् / गच्छ प्रच्छन्नापवरके। भजस्व निवातं। कुरुष्व लवनानि / पिब कथितमुदकं / समाचर विधिनास्य सवी प्रतिक्रियामितरथा मनिपातस्ते भविष्यति // स तु वेल्लहलो दत्तदृष्टिः पुरतो विन्यस्त तस्मिन्नाहारविस्तारे एतदेतच्च भक्षयामौति भ्रमयन्नपरापरेषु खाद्यप्रकारेषु खोयमन्तःकरणं नाकर्णयति तत्तदा वैद्यसुतभाषितं For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 520 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / नाकलयति तस्य हितरूपता न चेतयते तं वारणार्थं लगन्तमपि भरौरे। ततो वारयतो वचनेन धारयतो हस्तेन तस्य समयज्ञस्य समक्षमेव बलात्प्रवृत्तो भक्षयितमाहारं वेल्लहलः / ततः समुत्कटतयाजोर्णस्य प्रबलतया ज्वरस्य न क्रमतेऽसौ गलकेनाहारः / तथापि बलादेव कामितः कियानपि वेल्लहलेन। ततः समुहत्तं हृदयं मंजातः कलमलकः संपन्नं वमनं विमिश्रितं च तेन वमनेन सर्वमपि पुरतो विन्यस्तं भोजनं / ततश्चिन्तितं वेल्लहलेन / क्षुधाक्षामं शरीरं मे नूनमूनतया भृशम् / एतद्धि वायुनाकान्तमन्यथा वमनं कुतः // एवं स्थिते / रिक्तकोष्ठं शरीरं मे वाताक्रान्तं विनंक्ष्यति / ततश्च प्रौणयामौदं भुञ्जे भूयोऽपि भोजनम् // ततोऽसौ वान्तिसंमिश्र तत्पुरःस्थितभोजनम् / निर्लज्जो भोकुमारब्धः सर्वेषामपि पश्यताम् // तदृष्ट्वा समयज्ञेन प्रोतः पूत्कुर्वता भृशम् / देव देव न युनं ते कतुं काकस्य चेष्टितम् // मा च राज्यं शरीरं च यशश्च मशिनिर्मलम् / देव हारय भनेन त्वमेकदिनभाविना // अन्यच्चेदं सतां निन्द्यममेध्यं शौचदूषणम् / उद्वेगहेतु नो भकं देवः खादितुमईति // देव दुःखात्मकं चेदं सर्वव्याधिप्रकोपनम् / गाढमुल्वणदोषाणां विशेषेण भवादृशाम् / / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 521 का वास्योपरि ते मूळ यहाह्यं पुगलात्मकम् / अतो देव विहायेदमात्मानं रक्ष यत्नतः // इत्थं च समयज्ञस्य रटतोऽपि वचस्तदा / म राजपुत्रः श्रुत्वापि स्खचित्ते पर्यचिन्तयत् // अहो विमूढः खल्वेष समयज्ञो न बुध्यते / नूनं मदौयप्रकृतिं नावस्थां न हिताहितम् // यो वातलं क्षुधाक्षामं भुञ्जानं मां निषेधति / एतच्च दूषयत्येष भोजनं देवदुर्लभम् // तत्किमेतेन मूर्खण भुजे भोज्यं यथेच्छया। स्वार्थ सिद्धिर्मया कार्या किं ममापरचिन्तया // ततः परिजनेनोच्चैः सहितेऽपि पुनः पुनः / समयज्ञे रटत्येवं भवितं तेन भोजनम् // ततः प्रबलदोषोऽसौ भक्षणानन्तरं तदा / मन्निपातं महाघोरं संप्राप्तो निजकर्मणा // पुनर्वमनबीभत्से ततस्तत्रैव भूतले / पश्यतां पतितस्तेषां काष्ठवन्नष्टचेतनः // म लोलमानस्तत्रैव जघन्ये वान्तिकर्दमे / कुर्वन् घुरघुरारावं लेभापूर्णगलस्तदा // अनाख्येयामचिन्यां च तेषामुद्देगकारिणीम् / अशक्यप्रतिकारां च प्राप्तोऽवस्था सुदारुणाम् // न शक्यः समयज्ञेन बातमेष न बान्धवैः / तदवस्यो न राज्येन न देवैर्नापि दानवैः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 522 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / केवलं तदवस्थेन लुठताशुचिकर्दमे / अनन्तकालं तत्रैव स्थातव्यं तेन पापिना // तदेष भद्रे दृष्टान्तः प्रस्तुताना परिस्फुटः / वस्तनां भेदमियर्थ मया तुभ्यं निवेदितः // ततोऽग्टहीतसङ्केता प्राह विकलमानमा / संसारिजौव नैवेदं पौर्वापर्यण युज्यते // यतः / नद्या दिवस्तुभेदार्थ कथितं मे कथानकम् / त्वयेदं तत्र मे भाति कोष्ट्रो नौराजना क च // प्रथास्ति कश्चित्सम्बन्धो हन्त प्रस्तुतवस्तुनि / स्फुटः कथानकस्यास्य स दूदानौं निवेद्यताम् // ततः संसारिजौवेन तद्दान्तिकयोजने। बहुभाषेण खिन्नेन तत्मखौ संप्रचोदिता // कथम् / अस्याः प्रज्ञाविभाले त्वं निःशेषं मत्कथानकम् / घटय प्रस्तुतार्थेन निजगैलिकया स्फुटम् // अथ प्रज्ञाविशालाह कामं भोः कथयामि ते / भनेऽग्टहीतसङ्केते समाकर्णय सांप्रतम् // यस्ते वेल्लहलो नाम राजपुत्रो निदर्शितः / एषोऽनेन विशालाक्षि प्रोक्तो जीवः सकर्मकः // स एव जायते भद्रे नगरे भवनोदरे / अनादिमंस्थितिसुतः स एव परमार्थतः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 523 स एवानन्तरूपत्वाइहिरङ्गजनः स्मृतः मामान्यरूपमुद्दिश्य म चैकः परिकीर्तितः // मनुष्यभावमापत्रः स प्रभुः सर्वकर्मणाम् / महाराजसुतस्तेन स प्रोकोऽनेन सुन्दरि // तस्यैव सका विज्ञेया चित्तवृत्तिर्महाटवौ / सुन्दरेतरवस्तनां मा तस्यैव च कारणम् // केवलं यावदद्यापि स श्रात्मानं न बुध्यते / महामोहादिभिस्तावस्नुष्यते मा महाटवी // यदा तु तेन विज्ञातः स स्थादात्मा कथंचन / तौर्य वौक्ष्य नश्यन्ति महामोहादयस्तदा // यावच्च ते विवर्तन्ते चित्तवृत्तौ महाभटाः / महानद्यादिवस्तूनि तावत्तस्यां भवन्ति वै // तेषामेव यतस्तानि क्रौड़ास्थानानि भूभुजाम् / अतस्तेषु विनष्टेषु तेषां नाशः प्रकीर्तितः // एवं स्थिते / अविज्ञातात्मरूपस्य भने जीवस्य कर्मणा / महामोहनरेन्द्रे च मप्रतापेऽटबौस्थिते // यदा तानि विवर्धन्ते जीवश्च बहु मन्यते / महानद्यादिवस्वनि नितरामात्मवैरिकः // तदा तानि खवौर्यण यत्कुर्वन्ति पृथक् पृथक् / जीवस्य तद्विशेषार्थं दृष्टान्तोऽयं निवेदितः // स चैवं योज्यते भने प्रस्तुतार्थन पण्डितः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 524 उपमितिभवप्रपश्चा कथा / महानद्या दिवस्तूनां प्रत्येक भेदसिद्धये / / यथाहारप्रियो नित्यं राजपुत्रो निवेदितः / तथायमपि विज्ञेयो जीवो विषयलम्पटः // यथा च तस्य संजातमजीर्ण भूरिभक्षणात् / तथास्यापि कुरङ्गाक्षि कर्माजीणं प्रचक्षते // पापाज्ञानात्मकं तच्च वर्तते कर्म दारुणम् / यतः प्रमत्ततोद्भूता तज्जन्यं तत्पुरदयम् // यथा प्रकुपितास्तस्य दोषा जातस्तनुज्वरः / तथा रागादयोऽस्थापि वर्धन्ते ज्वरहेतवः // यथा तथास्थितस्यापि बुद्धि ज्येषु धावति / नरेन्द्रदारकस्येह तथास्यापि दुरात्मनः // तथाहि / मनुष्यभावमापन्नः कर्माजीणे सुदारुणम् / रागादिकोपनं मूढश्चित्तज्वरविधायकम् // जौवो न लक्षयत्येष ततश्चास्य प्रवर्तते / अहितेषु सदा बुद्धिः प्रकाशं सुखकाम्यया // तथाहि स्वदते मद्यं निद्रात्यन्तं सुखायते / विकथा प्रतिभात्युच्चैरस्थानेकविकल्पना // दृष्टः क्रोधः प्रियो मानो माया चात्यन्तवल्लभा / लोभः प्राणममो मन्ये रागद्वेषौ मनोमतौ // कान्तः स्पर्णा रसोऽभौष्टः कामं गन्धश्च सुन्दरः / अत्यन्तदयितं रूपं रोचते च कलध्वनिः / / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 525 विलेपनानि ताम्बूलमलङ्काराः सुभोजनम् / मान्यं वरस्त्रियो वस्त्रं सुन्दरं प्रतिभासते // श्रासनं ललितं यानं शयनं द्रव्यमञ्चयाः / अलौककीर्तिश्च जने रुचितास्य दुरात्मनः // चित्तवृत्तिमहाटव्यां भद्रे मततवाहिनौ / महानदी वहत्युच्चैः सेयमस्य प्रमत्तता / यथा च तदवस्थस्य राजपुत्रस्य सुन्दरि। समुत्पन्ना विलासेच्छा यातमुद्यानिकां मतिः // कारितानि च भोज्यानि लौल्येन प्राशितानि च / निर्गतच विलासेन पुरात्प्राप्तश्च कानने // निविष्टमासनं दिव्यमुपविष्टश्च तत्र सः / विस्तारितं पुरो भकं नानाखाद्यकसंयुतम् // तथास्यापि प्रमत्तस्य जीवस्य वरलोचने / कर्माजीणात्ममुत्पन्ने भोषणेऽपि मनोज्वरे // जायन्ते चित्तकल्लोला नानारूपाः क्षणे क्षणे / यथोपाय॑ धनं भूरि विलसामि यथेच्छया // करोम्यन्तःपुरं दिव्यं भुञ्ज राज्यं मनोहरम् / महाप्रासादमवातं कारये काननानि च // ततश्च / महाविभवसंपन्नः क्षपिताखिलवैरिकः / लाघितः सर्वलोकेन पूरितार्थमनोरथः // शब्दादिसुखसन्दोहसागरे मनमानमः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 526 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तिष्ठामि मततानन्दो नान्यन्मानुष्यके फलम् // सेयमुद्यानिकाकाङ्क्षा विज्ञेया सुन्दरि त्वया / ततो जौवो महारम्भः कुरुते द्रव्यसञ्चयम् // यथेष्टं दैवयोगेन विधत्तेऽन्तःपुरादिकम् / शब्दादिसुखलेशं च किंचिदास्वादयेदपि // अस्य जीवस्य जानीहि तदिदं मृगौक्षणे / कारणं मृष्टभोज्यानां तल्लवानां च भक्षणम् // ततोऽलोकविकल्पैश्च सुखनिर्भरमानमः / विलासलास्यमङ्गौतहास्यविब्बोकतत्परः // युतो दुर्ललितैर्नित्यं द्यूतमधर तिप्रियः / मन्मार्गनगराद् दूरे याति दौःशौल्यकानने // एतन्महाविमर्दन पुरनिर्गमनं मतम् / उद्यानप्रापणं चेदं विद्धि नौलाजलोचने // म मिथ्याभिनिवेशाख्ये स्थितो विस्तीर्ण विष्टरे। कर्माख्यपरिवारेण रचितानि ततोऽग्रतः // मनोहराणि चित्राणि लब्धाखादो विशेषतः / प्रमादवृन्दभोज्यानि सुन्दरत्वेन मन्यते // प्रमत्ततामहानद्याः पुलिनं पद्मलोचने / तत्तदिलमितं विद्धि वृत्तान्तस्यास्य कारणम् // ततो यथावलेशेन भक्षितेन तनुज्वरः / वायुस्पादिभिश्वोच्चैर्वर्धितस्तस्य दारुण: // लचितश्च सुवैद्येन वारितश्च सुभोजनात् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 527 न चामौ बुध्यते किंचिह्नोजनाचिप्तमानसः // जीवस्यापि तथा भने काजीर्णद्भवो ज्वरः / प्रमादात्तेन वर्धत तथैवाज्ञानवायुना // लक्षयन्ति च तं वृद्धं धर्माचार्या महाधियः / समयज्ञमहावैद्या वारयन्ति च देहिनम् // कथम् / अनादिभवकान्तारे भ्रान्त्वा भद्रातिसुन्दरम् / अवाप्य मानुषं जन्म महाराज्यमिवातलम् // कर्माजीर्णज्वराक्रान्तं प्रमादमधुनापि भोः / मा मेवस्वं महामोहमत्रिपातस्य कारणम् // कुरुष्व ज्ञानचारित्रसम्यग्दर्शनलक्षणम् / चित्तज्वरविघाताय जैनौं भद्र प्रतिक्रियाम् // स तु प्रमादभोज्येषु चिप्तचित्तो न बुध्यते। तत्तादृशं गुरोर्वाक्यं पापो जीवः प्रपञ्चितम् // ततश्च। उन्मत्त व मत्त व ग्राहग्रस्त वातरः / गाढसुप्त दवोद्धान्तो विपरीतं विचेष्टते // स एष भद्रे सर्वाऽपि चित्तविक्षेपमण्डपः। महानदीकूलसंस्थो जीवस्यास्थ विजृम्भते // यथा च राजपुत्रेण भोजनं चारुलोचने / अगच्छदपि कण्ठेन गमितं लौल्यदोषतः // तदनन्तरमेवोच्चैर्वान्तं तत्रैव भोजने / जीवस्यापि विजानीहि समानमिदमञ्चसा // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 527 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / तथाहि। कर्माजीर्णज्वरग्रस्तः सदा विकलमानमः / जराजौर्णतनुचामो रोगार्दितशरीरकः // सर्वेषामक्षमो भोगे भोगानामेष वर्तते / तथापि जायते नास्य स्तोकापि विरतौ मतिः // ततश्च गाढलौल्येन तथाभूतोऽपि सेवते / प्रमादवन्दभोज्यानि वार्यमाणो विवेकिभिः // शतप्राप्तौ सहस्रेच्छा सहस्रे लक्षरोचनम् / लक्षे कोटिगता बुद्धिः कोटौ राज्यस्य वाञ्छनम् // राज्ये देवत्ववाञ्छास्य देवत्वे शक्रतामतिः / शक्रत्वेऽपि गतस्यास्य नेच्छापूर्तिः कथंचन // सुपुत्रैर्वरयोषाभिः सर्वकामैर्मुहुर्मुहुः / नास्थाभिलाषविच्छित्तिः कोटिशोऽपि निषेवितैः / संग्टहाति ततो मृढः सर्वार्थान् सुखकाम्यया / ते तु दुःखाय जायन्ते मज्वरस्येव भोजनम् // जलज्वलनदायादचौरराजादिभिस्तथा / तस्यार्थभोजनस्योच्चैबलादान्तिर्विधाप्यते // इत्कलमलकं घोरं वन्यमानः सहत्ययम् / पाराटौर्मुञ्चति प्राज्याः कृपाहेतुर्विवेकिनाम् // तदेषा चारसर्वाङ्गि चित्तविक्षेपमण्डपे / जीवस्य विलमत्युच्चस्तषणानाम्नौ सुवेदिका // यत्पुनश्चिन्तयत्येवं तदा वेलहलः किल / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 526 वाताक्रान्तं शरीरं मे ततोऽभूदमनं मम // एतच्च रिक्तकोष्टत्वादायुनाभिभविष्यते / अतः संप्रणयामौदं भुझे भूयोऽपि भोजनम् // जीवोऽपि चिन्तयत्येव तदिदं तारवीक्षणे / पापञ्चरवशादुच्चैनष्टे विभवमञ्चये // मृतेषु च कलत्रेषु पुत्रेषु स्वजनेषु च / अन्येषु च विनष्टेषु चित्ताबन्धेषु मन्यते // न मया चेष्टितं नीत्या न कृतं चारु पौरुषम् / नाश्रितो वा वरखामौ न कृता वा प्रतिक्रिया // तेनेदं मम सर्वखं पत्नी वा चारुदर्शना / पुत्रा वा बान्धवा वापि विनष्टाः पश्यतोऽपि मे // न चैषां विरहे नूनं वर्तऽहं क्षणमप्यतः / उपार्जयामि भूयोऽपि तान्येवोत्माहयोगतः / / उपार्जितानि सन्नीत्या रक्षिष्यामि प्रयत्नतः / जागलस्तनस्येव जीवितव्यं वृथान्यथा // सर्वमस्य विजानौहि तदिदं सुभ्र भावतः / जौवस्थास्य विपर्यासनामविष्टरचेष्टितम् // यथा च भोतमारब्धः स निर्लज्जतया पुनः / पश्यतः सर्वलोकस्य वान्तिसंमिश्रभोजनम् // ततः सपरिवारेण तेन पूत्कुर्वता भृशम् / वारितः समयज्ञेन तद्दोषाश्च निवेदिताः // स तु तत्र गुणरोपाभोजने बद्धमानमः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 53. उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। तं रटन्तमनालोच्य भक्षणं कृतवानिति // तथायमपि चार्वणि जीवः कर्ममलौममः / भुक्तोत्सृष्टेषु भोगेषु निर्लन्नः संप्रवर्तते // परमाणमया होते भोगाः शब्दादयो मताः / सर्वे चैकैकजीवेन गृहीताः परमाणवः // ग्टहोला मुक्तपूर्वाश्च बहुशो भवको टिषु / भुक्रवान्तास्ततः सत्यमेते शब्दादयोऽनघे // यचास्य किंचिल्लोकेऽत्र चित्ताबन्धविधायकम् / जीवस्य वस्तु मनेत्रे तत्सर्वं पुद्गलात्मकम् // तथापि भट्रे पापात्मा पश्यतां विमलात्मनाम् / श्राबद्धचित्तस्तत्रैव जाम्बाले संप्रवर्तते // कृपापरीतचित्ताश्च भोगकर्दमलम्पटम् / तं जीवं वारयन्येते धर्माचार्याः प्रयत्नतः // कथम् / अनन्तानन्दसौर्यज्ञानदर्शनरूपकः / देवस्व भद्र नो युक्तमतो भोगेषु वर्तनम् // अन्यच्चामो विवर्तन्ते सर्व भोगाः क्षणे क्षणे / अपरापररूपेण तुच्छमास्थानिबन्धनम् // वान्ताशुचिसमाश्चैते वर्णितास्तत्त्वदर्भिभिः / भद्रः परमदेवोऽपि नातोऽमून् भोक्रुमर्हमि // दुःखोपढौ किनाश्चामौ दुःखरूपाश्च तत्त्वतः / दुःखस्य कारणं तेन वर्जनीया मनीषिणा // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 531 ये च बाह्याणुनिष्पन्नास्तुच्छा गाढ़मनात्मकाः / तेषु कः पण्डितो रागं कुर्यादात्मखरूपवित् // अतो ममोपरोधेन भद्र भोगेषु कुत्रचित् / अन्येषु च प्रमादेषु मा प्रवर्तिष्ट साम्प्रतम् // तदेवं पद्मपत्राक्षि निवारयति सद्गुरौ / प्रमादभोजने मनः स जौवो हृदि मन्यते // अहो विमूढः खल्वेष वस्तुतत्त्वं न बुध्यते / पाल्हादजनकानेष यो भोगानपि निन्दति // तथा हि / मद्यं वरस्त्रियो मांसं गान्धर्व मृष्टभोजनम् / माल्यताम्बूलनेपथ्यविस्ताराः सुखमासनम् // अलङ्काराः सुधा शुभ्रा कौर्तिर्भुवनगामिनी / सद्रननिचयाः शूरं चतुरङ्ग महाबलम् // राज्यं प्रणतमामन्तं यथेष्टाः सर्वसम्पदः / यद्येतदुःखहेतुस्ते किमन्यत्सुखकारणम् // विप्रलब्धाः कुसिद्धान्तैः शुष्कपाण्डित्यगर्विताः / ये नूनमीदृशा लोके भोगभोजनवञ्चिताः // ते मोहेन स्वयं नष्टाः परानपि कृमोद्यमाः / नाशयन्ति हि तत्ते ते वर्जनौया विजानता // तथाहि / यो भोगरहितो मोक्षो बन्धनं तदुदाहृतम् / तदर्थ कत्यजेदृष्टमिदं भोगसुखामृतम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 532 उपमितिभवप्रपच्चा कथा। एवंविधविकल्पैश्च गुरुवाक्यपराङ्मुखः / अभूतगुणसङ्घातं तेषु भोगेषु मन्यते // कथम् / स्थिरा ममैते शुद्धाश्च सुखरूपाश्च तत्त्वतः / एतदात्मक एवाहमलमन्येन केनचित् // श्रास्तामेष रहौतेन मोक्षेण प्रशमेन वा। अहं तु नेदृशैर्वाक्यरात्मानं वञ्चयामि भोः // ततश्च / सद्धर्मावेदनव्याजागाढं पूत्कुर्वतोऽग्रतः / गुरोरपि प्रवर्तत प्रमादाचिकर्दमे // मा सर्वयमविद्याख्या जीवस्यास्य वरानने / महामोहनरेन्द्रस्य गात्रयष्टिर्विजम्भते // यथा स भोजनं भूयो भवयित्वा पुनर्वमन् / संजातमनिपातत्वात्पतितस्तत्र भूतले // लठन्त्रितस्ततो गाढं मुञ्चत्राक्रन्दभैरवम् / अनाख्येयामचिन्यां च प्राप्तोऽवस्था सुदारुणाम् // न त्रातः केनचिल्लोके तदवस्थः स्थितः परम् / तथायमपि विज्ञेयो जीवः सर्वाङ्गसुन्दरि // तथाहि / यदा प्रमत्ततायुक्तस्तदिलासपरायणः / विक्षिप्तचित्तस्तृष्णाता विपर्यासवगतः // अविद्यान्धीकतो जीवः सक्नः संमारकर्दमे / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 533 आरोपितगुणवातस्तत्रैव विषयादिके // सर्वज्ञं धर्मसूरिं वा वारयन्तं मुहुर्मुडः / सुवैद्यमनिभं पापो विमूढमिति मन्यते // ततश्च / पापाजीर्णज्वराक्रान्तः स जीवो वान्तिसबिभे / तं रटन्तमनालोच्यामत्प्रमादे प्रवर्तते // तदा निःशेषदोषोधभरपूरितमानसे / मनिपातममो घोरो महामोहोऽस्य जृम्भते // ततश्च तदशेनायं जीवः सुन्दरलोचने / पश्यतामेव निश्चेष्टो भवत्येव विवेकिनाम् // मूत्रान्त्राशचिजाम्बालवसारुधिरपूरिते / निर्वालं निपतत्येव नरके वान्तिपिच्छले // लुठतीतस्ततस्तत्र मुञ्चबाक्रन्दभैरवान् / महते तीव्रदुःखौघं यदाचां गोचरातिगम् // तथा विचेष्टमानं च वरगात्रि तपोधनाः / ज्ञानालोकेन पश्यन्ति तं जौवं शुद्धदृष्टयः // केवलं सन्निपातेन समाकान्तं भिषवराः / अचिकित्यमिमं ज्ञात्वा वर्जयन्ति महाधियः // ततश्च तदवस्थस्य तस्य तारविलोचने / कोऽन्यः स्यात्त्रायको जन्तो?रदुःखौघमागरे // अन्यच्च तदवस्थोऽपि जीवोऽयं वल्गुभाषिणि / प्रमादभोजनाखादलाम्पश्यं नैव मुञ्चति // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 534 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। दोषाः प्रबलतां यान्तस्ततो मुष्णन्ति चेतनाम् / प्रत्यर्थं च महामोहमनिपातो विवर्धते // एवं च स्थिते / मंमारचक्रवालेऽत्र रोगमृत्युजराकुले / अनन्तकालमामौनस्त्यनः सद्धर्मबान्धवैः // तदिदं निजवौर्यण जीवस्यास्य महाबलः / मनिपातममो भट्र महामोहो विचेष्टते // किं च / प्रवर्तकश्च सर्वेषां कार्यभूतश्च तत्त्वतः / महामोहनरेन्द्रोऽयं नद्यादीनां सुलोचने // तदेवं राजपुत्रौयो दृष्टान्ताऽनेन सुन्दरि / महानद्यादिवस्तूनां दर्णितो भेदमिद्धये // श्रयाद्यापि न ते जाता प्रतीति: सुपरिस्फुटा / भूयोऽपीदं समासेन प्रस्पष्टं कथयामि ते // विषयोन्मुखता यास्य मा विज्ञेया प्रमत्तता / तत्तदिलसितं विद्धि योगेषु प्रवर्तनम् // प्रवृत्तौ लौल्यदोषेण शून्यत्वं यत्तु चेतसः / ज्ञेयः म चित्तविक्षेपो जीवस्यास्य मृगेक्षणे // हप्तेरभावो भोगेषु भुकेषु सुबडम्वपि / उत्तरोत्तरवाञ्छा च हृष्णा गौता मनौषिभिः / पापानोगेषु जातेषु जातनष्टेषु वा पुनः / बाह्योपायेषु यो यत्नो विपर्यासः स उच्यते // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 535 अनित्याशचिदुःखेषु गाढं भिन्नेषु जीवतः / विपरीता मतिस्तेषु या माविद्या प्रकीर्तिता // एतेषामेव वस्तूनां सर्वेषां यः प्रवर्तकः / एतैरेव च यो जन्यो महामोहः म गीयते // तदेवं भिन्नरूपाणि तानि सर्वाणि सुन्दरि / महानद्यादिवस्वनि चिन्तनीयानि यत्नतः // प्राहाग्टहीतसङ्केता चारु चार निवेदितम् / सत्यं प्रज्ञाविशालासि नास्ति मे संशयोऽधुना // तत्तिष्ठ त्वं विशालाति माम्प्रतं विगतः श्रमः / निवेदयतु संसारिजीव एव ततः परम् // नरवाहनराजाय यदिचक्षणमूरिणा / निवेदितं प्रकर्षाय विमर्शन च धीमता // ततः संमारिजौवेन प्रोनं विमललोचने / निवेदयाम्यहं तत्ते विमर्शन यदीरितम् // ततः प्रोक्तं विमर्शन भद्र ज्ञातो यदि त्वया / महानद्यादिभावार्थस्ततोऽन्यत्किं निवेद्यताम् // प्रकर्षः प्राह मे माम नामतो गुणतोऽधुना / महामोहनरेन्द्रस्य परिवारं निवेदय // या चेयं दृश्यते स्थूला राजविष्टरसंस्थिता / एषा किंनामिका ज्ञेया किंगुणा वा वराङ्गना // विमर्शः प्राह नन्वेषा प्रसिद्धा गुणगहरा / भो महामूढता नाम भार्यास्य पृथिवीपतेः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 536 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / चन्द्रि केव निशानाथे स्वप्रभेव दिवाकरे / एषा देवी नरेन्द्रेऽस्मिन् देहाभेदेन वर्तते // अत एव गुणा येऽस्य वर्णिता भद्र भूपतेः / ज्ञेयास्त एव निःशेषास्त्वयामुष्या विशेषतः // प्रकर्षः प्राह यद्येवं ततोऽतिनिकटे स्थितः / महाराजाधिराजस्य कृष्णवर्णः सुभौषणः // निरीक्षमाणो निःशेष राजकं वक्रचक्षुषा / य एष दृश्यते सोऽयं कतमो माम भूपतिः // विमर्शः प्राह विख्यातो राज्यसर्वखनायकः / मिथ्यादर्शननामा महामोहमहत्तमः // अनेन तन्त्रितं राज्यं वहत्यस्य महीपतेः / बक्षसम्पादकोऽत्यर्थममौषामेष भूभुजाम् // अत्रैव संस्थितो भद्र निजवौर्यण देहिनाम् / यदेष वहिरङ्गानां कुरुते तन्निबोध मे // अदेवे देवसङ्कल्पमधर्म धर्ममानिताम् / श्रतत्त्वे तत्त्वबुद्धिं च विधत्ते सुपरिस्फुटम् // अपात्रे पात्रतारोपमगुणेषु गुणग्रहम् / संमारहेतौ निर्वाणहेतुभावं करोत्ययम् // तथाहि / हमितोगौतविब्बोकनाट्याटोपपरायणाः / हताः कटाचविक्षेपैर्नारोदेहार्धधारिण: // कामान्धाः परदारेषु सकचित्ता क्षतत्रपाः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / .. 537 मक्रोधाः मायुधा घोरा वैरिमारणतत्पराः // सभापप्रसादयोगेन लसचि + + + + + / ईदृशा भो महादेवा लोकेऽनेन प्रतिष्ठिता. // ये वीतरागाः सर्वज्ञा ये शाश्वतसुखेश्वराः / क्लिष्टकर्मकलातौता निष्कलाश्च महाधियः // शान्तकोधा गताटोपा हास्यस्त्रीहेतिवर्जिताः / श्राकाशनिर्मला धौरा भगवन्तः मदाशिवाः // शापप्रसादनिर्मुकास्तथापि शिवहेतवः / चिकुटि शुद्धशास्त्रार्थदेशकाः परमेश्वराः // ये पूज्याः सर्वदेवानां ये ध्येयाः सर्वयोगिनाम् / ये चाज्ञाकरणराध्या निर्दन्दफलदायिनः // ++ +++++ न लोकेऽनेन स्ववीर्यतः / देवाः प्रच्छादिता भद्र न जायन्ते विशेषतः // तथा / हिरण्यदानं गोदानं धरादानं मुहुर्मुहुः / स्नानं पानं च धूमस्य पञ्चाग्नितपनं तथा // तर्पणं चण्डिकादीनां तीर्थान्तरनिपातनम् / यतेरेकर हे पिण्डो गौतवाद्ये महादरः // वापीकूपतडागादिकारणं च विशेषतः / यागे मन्त्रप्रयोगेण मारणं पशुसंहतेः // कियन्तो वा भविष्यन्ते भूतमर्दनहेतवः / रहिता शुद्धभावेन ये धर्माः केचिदीदृशाः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 538 उपमितिभवप्रपश्चा कथा / सर्वेऽपि बचिनानेन मुग्धलोके प्रपञ्चतः / ते मिथ्यादर्शनाकेन भद्र ज्ञेयाः प्रवर्तिताः // चान्तिमार्दवमन्तोषशौचार्जवविमुक्तयः / तपःसंयमसत्यानि ब्रह्मचर्य शमो दमः / / अहिंसास्तेयसयानवैराग्यगुरुभक्रयः / अप्रमादसदै काय्यनैन्थ्यपरतादयः / / ये चान्ये चित्तनैमल्यकारिणोऽमृतमन्निभाः / सद्धर्मा जगदानन्दहेतवो भवसेतवः // तेषामेष प्रकृत्यैव महामोहमहत्तमः / भवेत्प्रच्छादनो लोके मिथ्यादर्शन नामकः // तथा / श्यामाकतण्डलाकारस्तथा पञ्चधनु:प्रतः / एको नित्यस्तथा व्यापौ मर्वस्य जगतो विभुः / / क्षणमन्तानरूपो वा ललाटस्थो हृदिस्थितः / धात्मेति ज्ञानमात्रं वा शुन्यं वा सचराचरम् / / पञ्चभूतविर्ता वा ब्रह्मोप्तमिति वाखिलम् / देवोप्तमिति वा ज्ञेयं महेश्वर विनिर्मितम् // प्रमाणबाधितं तत्त्वं यदेवंविधमञ्जसा / मबुद्धिं कुरुते तत्र महामोहमहत्तमः // जौवाजौवौ तथा पुण्यपापासंवरनिजेराः / प्रास्त्रवो बन्धमोचौ च तत्त्वमेतनवात्मकम् // सत्यं प्रतौतितः सिद्धं प्रमाणन प्रतिष्ठितम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 536 तथापि निहते भद्र तदेष जनदारुणः // तथा / ग्रहिणो ललनावाच्यमर्दका भूतघातिनः / असत्यमन्धाः पापिष्ठाः सङ्ग्रहोपग्रहे रताः // तथान्ये पचने नित्यमामकाः पाचनेऽपि च / मद्यपाः परदारादिसे विनो मार्गदूषकाः // तप्तायोगोलकाकाराम्तथापि यतिरूपिणः / ये तेषु कुरुते भद्र पात्रबुद्धिमयं जने // सज्ज्ञानध्यानचारित्रतपोवौर्यपरायणाः / गुणरत्नधना धौरा जङ्गमाः कल्पपादपाः // संसारसागरोत्तारकारिणो दानदायिनाम् / अचिन्त्यवस्तुवोहित्थतल्या ये पारगामिनः // तेषु निर्मलचित्तेषु पुरुषेषु जडात्मनाम् / एषोऽपात्रधियं धत्ते महामहोमहत्तमः // तथा / कौतुकं कुहकं मन्त्रमिन्द्रजालं रमक्रियाम् / निर्विषीकरणं तन्त्रमन्तर्धानं मविस्मयम् // औत्पातमान्तरिक्षं च दिव्यमाङ्गं स्वरं तथा / लक्षणं व्यञ्चनं भौमं निमित्तं च शुभाशुभम् // उच्चाटनं मविद्वेषमायुर्वेदं सजातकम् / ज्योतिषं गणितं चूर्ण योगलेपास्तथाविधाः // ये चान्ये विस्मयकरा विशेषाः पापशास्त्रजाः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 540 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। अन्ये भृतोपमर्दस्य हेतवः शायकेतवः // तानेव ये विजानन्ति निःशङ्काश्च प्रयुञ्जते / न धर्मबाधां मन्यन्ते शठाः पापपरायणाः // त एव गुणिनो धौरास्ते पूज्यास्ते मनखिनः / त एव धौरास्ते लाभमा जिनस्ते मुनीश्वराः // इत्येवं निजवौर्येण वहिरङ्गजनेऽमुना। मिथ्यादर्शनसंज्ञेन भद्र पापा: प्रकाशिताः // ये पुनमन्त्रतन्त्रादिवेदिनोऽप्यतिनि:स्पृहाः / निवृत्ता लोकयात्राया धर्मातिक्रमभौरवः // मूकान्धाः परवृत्तान्ते खगुणभ्यासने रताः / असता निजदेहेऽपि किं पुनःविणादिके // कोपाहंकारलोभायेर्दूरतः परिवर्जिताः / तिष्ठन्ति शान्तव्यापारा निरपेक्षास्तपोधनाः // न दिव्यादिकमाख्यान्ति कुहकादि न कुर्वते / मन्त्रादौन्नानुतिष्ठन्ति निमित्तं न प्रयुञ्जते // लोकोपचारं निःशेषं परित्यज्य यथासुखम् / स्वाध्यायध्यानयोगेषु सक्रचित्ताः सदामते // ते निर्गुणा अलोकज्ञा विमूढा भोगवर्जिताः / अपमानहता दौना ज्ञानहीनाश्च कुर्कुटाः // इत्येवं निजवीर्येण बहिरङ्गजनेऽमुना / ते मिथ्यादर्शनाकेन ख्यापिता भद्र साधवः // तथा / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः 541 उदाहनं च कन्यानां जननं पुत्रसंहतेः / निपातनं च शत्रूणां कुदुम्बपरिपालनम् // यदेवमादिकं कर्म घोरसंसार कारणम् / तद्धर्म इति संस्थाप्य दर्शितं भवतारणम् // यः पुनर्ज्ञानचारिचदर्शनायो विमुक्तये / मार्गः मोऽपि मोऽनेन लोपितो लोकवैरिणा // ततश्च भद्र यत्तुभ्यं ममासेन मयोदितम् / वौर्य महत्तमस्यास्य ब्रुवाणेन पुरा यथा // अदेवे देवसङ्कल्पमधर्म धर्ममानिताम् / प्रतत्त्वे तत्वबुद्धिं च करोत्येष जडात्मनाम् // अपात्रे पात्रतारोपमगुणेषु गुणग्रहम् / संमारहेतौ निर्वाणहेतुभावं करोत्ययम् / तदिदं लेशतः सर्व प्रविवेच्य निवेदितम् / विस्तरेण पुनर्वीर्य कोऽस्य वर्णयितुं क्षमः // अन्यच्चायं निजे चित्ते मन्यते भद्र सर्वदा / मदोद्धतः प्रकृत्यैव महामोहमहत्तमः // निक्षिप्तभर एवायं राज्यसर्वखनायकः / महामोहनरेन्द्रेण कृतः सर्वत्र वस्तुनि // एवं च स्थिते / विश्रम्भार्पितचित्ताय मयास्मै हितमुच्चकैः / अन्यव्यापारशून्येन कर्तव्यं ननु सर्वदा // ततश्च / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 542 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / मण्डपं चित्तविक्षेपं हृष्णानानौं च वेदिकां / गाढं ममारयत्येष विपर्यासं च विष्टरम् // समारितानि चानेन यदेतानि वहिर्जने / कुर्वन्ति तदहं वच्मि समाकर्णयं साम्प्रतम् // यदुन्मत्तग्रहग्रस्तमविभो भद्र सर्वदा / जनो दोलायतेऽत्यर्थ धर्मबुद्ध्या वराककः // कथम्। करोति भैरवे पातं याति मूढ़ो महापथम् / गौतेन म्रियते माघे कुर्वाणो जलगाहनम् // पञ्चाग्नितपने रको दह्यते तौबवहिना / गवाश्वत्थादिवन्दारुरास्फोटयति मस्तकम् // कुमारोब्राह्मणादौनामतिदानेन निर्धनः / महते दुःखसङ्घातं श्राद्धः पूतमलः किल / / परित्यज्य धनं गेहं बन्धुवर्ग च दुःखितः / अटाय्यते विदेशेषु तीर्थयात्राभिलाषुकः / पिनतर्पणकार्यण देवाराधनकाम्यया / निपातयति भूतानि विधत्ते च धनव्ययम् // मांसमद्यैर्धनैः खाद्यैर्भक्रिनिर्भरमानमः / तप्तायोगोलकाकारं ततस्तर्पयते जनम् // हास्यं विवेकिलोकस्य धर्मबुड्या विनाटितः / इत्येवमादिकं धर्म करोत्येष पृथगजने // न लक्षयति शून्यात्मा भूतमर्दै सुदारुणम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः 543 नात्मनो दुःखमातं हास्यं नापि धनव्ययम् // रागद्वेषादिजातस्य स्वपापस्य विरुद्धये / एवं च घटते लोकस्तत्त्वमार्गाव हिष्कृतः // धर्मोपायमजानानः कुरुते जीवमर्दनम् / प्राप्नोति करभं नैव रासभं दामयत्ययम् // तिला भस्मौकता वह्नौ दग्ध पेयं तवेत्यहो / धनमुद्दालितं धूर्जनस्तु इदि भावितः // न च मन्मार्गवकारः पूत्कुर्वन्तोऽप्यनेकधा / लोकेनानेन गण्यन्त प्रोच्यन्ते च विमूढ़काः // तदिदं भद्र निःशेषं मिथ्यादर्शनसंज्ञिना / अमुना संस्कृतस्यास्य मण्डपस्य विजम्भितम् // यत्पुनर्मियमाणोऽपि लोकोऽयं नैव मुञ्चति / भद्र कामार्थलाम्पश्यं नानाकारैविडम्बनैः // कथम् / अप्सरोथ करोत्येष नन्दाकुण्डप्रवेशनम् / पत्युः मङ्गमनाथं च दहत्यात्मानमग्निना // खर्गाथं भूतिकामेन पुत्रखजनकाम्यया / अग्निहोत्राणि यागांश्च कुरुतेऽन्यच्च तादृशम् // दानं ददाति चाशास्ते भूयादेतन्मृतस्य मे / श्राशास्ते क्लेशनिर्मुकं न फलं मोक्षलक्षणम् / / यत्किचित्कुरुते कर्म तन्निदानेन दूषितम् / अर्थकामप्रदं मेऽदः परलोके भविष्यति // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 544 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। तदस्य सकलस्येयं मिथ्यादर्शनसंस्कृता / वृत्तान्तस्येह हृष्णाख्या वेदिका भट्र कारणम् // यत्पुनर्भद्र लोकोऽयं दिङ्मूढ़ व मानवः / शिवं गन्तुमनास्तुणे विपरीतः पलायते // . कथम् / देवं विगर्हते मूढः सर्वज्ञं सर्वदर्शिनम् / वेदाः प्रमाणमित्येवं भाषते निष्प्रमाणकम् // धर्मच दूषयत्येष जडोऽहिमादिलक्षणम् / प्रख्यापयति यत्नेन यागं पशुनिबर्हणम् // जीवादितत्त्वं मोहेनापहृतेऽलोकपण्डितः / संस्थापयति शून्यं वा पञ्चभूतात्मकादि वा // ज्ञानादिनिर्मलं पात्रं निन्दत्येष जडात्मकः / सर्वारम्भप्रवृत्तेभ्यो दानमुच्चैः प्रयच्छति // तपः क्षमा निरौहत्वममून् दोषांश्च मन्यते / शायमुत्का पिशाचत्वं षिगत्वं मनुते गुणान् / / शुभं ज्ञानादिकं मार्ग मन्यते धर्तकल्पितम् / कौलमार्गादिकं मूढो मनुते शिवकारणम् // कलयत्यतलं धर्म विशेषेण ग्टहाश्रमम् / निःशेषद्वन्दविच्छेदा गईते यतिरूपताम् // तदनेनात्र रूपेण मिथ्यादर्शनसंस्कृतम् / लोके भो विलसत्येतविपर्यासाख्यविष्टरम् // अन्यच्चास्यैव सामर्थ्यालोकाध्वान्तवशंगताः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 545 यदन्यदपि कुर्वन्ति भद्र तत्ते निवेदये // जराजौर्णकपोला ये हास्यप्रायाश्च योषिताम् / वलीपलितखालित्यपिप्लुव्यङ्गादिदूषिताः // तेऽपि त्रपन्त जरमा विकाररसनिर्भराः / कथयन्यात्मनो जन्म गाढमित्वरकालिकम् // अनेकद्रव्ययोगैश्च कार्यसम्पत्तये किल / तममेव महार्दैन रञ्जयन्ति शिरोरुहान् // जनयन्ति मृजां देहे नानास्नेहर्मुहुर्मुहुः / तथा कपोलशैथिल्यं यत्नतश्छादयन्ति ते // भ्रमन्ति विकटं मूढास्तरुणा व लीलया / वयास्तम्भनिमित्तं च भक्षयन्ति रसायनम् // खच्छायां दर्पणे बिम्ब निरीक्षन्ते जलेषु च / क्लिश्यन्ते राढया नित्यं देहमण्डनतत्पराः // पाहतास्तात तातेति ललनाभिस्तथापि ताः। पितामहसमाः सन्तः कामयन्ते विमूढकाः // सर्वस्य प्रेरणाकाराः सन्तोऽपि नितरां पुनः / कुर्वन्तो हास्यविब्बोकान गाढं गच्छन्ति हास्यताम् // जराजौर्ण शरीराणं येषामेषा विडम्बना / ते भद्र मति तारुण्ये कीदृशाः सन्तु जन्तवः // लेभान्त्रक्लेदजाम्बालपूरिते ते कडेवरे। श्रामक्रचित्ताः खिद्यन्ते यावचौवं वराककाः // अनन्तभवकोटौभिलब्ध मानुय्यकं भवम् / 69 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। वृथा कुर्वन्ति निीका धर्मसाधनवर्जिताः // आयतिं न निरौचन्ते देहतत्त्वं न जानते / आहारनिद्राकामा स्तिष्ठन्ति पशमन्निभाः // ततस्तेषामपारेऽत्र पतितानां भवोदधौ / निर्नष्टशिष्टचेष्टानां पुनरुत्तरणं कुतः // तदनेनापि रूपेण मिथ्यादर्शनसंस्कृतम् / ददं विजम्भते भद्र विपर्यासाख्यमासनम् // अन्यच्च। प्रशमानन्दरूपेषु मारेषु नियमादिषु / वशेनास्य भवेद्र दुःखबुद्धिर्जडात्मनाम् // गत्वरेषु सुतुच्छेषु दुःखरूपेषु देहिनाम् / भोगेषु सुखबुद्धिः स्थादासनस्यास्य तेजसा / तथैष भुवनस्यान्तः प्रधानोऽत्र महाबलः / बहिरङ्गजनस्योच्चैः सर्वानर्थविधायकः // मया भद्र ममासेन मिथ्यादर्शननामकः / महामोहनरेन्द्रस्य कथितस्ते महत्तमः // ___ ततः प्रकर्षो दृष्टात्मा श्रुत्वा मातुलभाषितम् / उत्क्षिप्य दक्षिणं पाणिं तं प्रतीदमभाषत / चारु चारु कृतं माम यदेष कथितस्वया / या वेषार्धासनेऽस्यैव सा किनाम्नौ वराङ्गना // विमर्शोऽवददेषापि समानफलमाहमा / अस्यैव भार्या विज्ञेया कुदृष्टि म विश्रुता // . For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 547 ये दृश्यन्ते विमार्गस्था वहिरङ्गजने मदा / भद्र पाषण्डिनः केचित्तेषामेषेव कारणम् // ते चामी नामभिर्भद्र वर्ण्यमाना मया स्फुटम् / ज्ञेया देवादिभेदेन विभिन्नाश्च परस्परम् // तद्यथा। शाक्या स्त्रैदण्डिकाः शैवाः गौतमाश्चरकास्तथा। सामानिकाः सामपरा वेदधर्माश्च धार्मिकाः // श्राजौविकास्तथा शुद्धा विद्युद्दन्ताश्च चुचणाः / माहेन्द्राश्चारिका धूमा बद्धवेषाश्च खुंखुकाः // उल्काः पाशुपताः कौलाः काणादाश्चर्मखण्डिकाः / सयोगिनस्तथोलका गोदेहा यज्ञतापमाः // घोषपाशुपताश्चान्ये कन्दच्छेदा दिगम्बराः / कामर्दकाः कालमुखाः पाणिलेहा स्त्रिराशिकाः // कापालिकाः क्रियावादा गोव्रता मृगचारिणः / लोकायताः शङ्खधमाः सिद्धवादाः कुलंतपाः // तापसा गिरिरोहाश्च शुचयो राजपिण्डकाः / संमारमोचकाश्चान्ये सर्वावस्थास्तथा परे // अज्ञानवादिनो ज्ञेयास्तथा पाण्डुरभिक्षवः / कुमारव्रतिकाश्चान्ये शरीररिपवस्तथा // उकंदाचक्रवालाश्च त्रपवो हस्तितापमाः / चित्तदेवा बिलावासास्तथा मैथुनचारिणः // अम्बरा असिधाराश्च तथा माठरपुत्रकाः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 540 उपमितिभवप्रपश्चा कथा। चन्द्रोहमिकाश्चान्ये तथैवोदकम्मृत्तिकाः // एकैकस्थालिका मंखाः पक्षापक्षा गजध्वजाः / उलूकपक्षा मात्रादिभकाः कण्टकमर्दकाः / / कियन्तो वात्र गद्यन्ते नानाभिप्रायसंस्थिताः / पाषण्डिनो भवन्त्येते भो नानाविधनामकाः // देवैर्वादैस्तथा वेषैः कल्पैर्मोचविशुद्धिभिः / वृत्तिभिश्च भवन्येते भिन्नरूपाः परस्परम् // तथा हि। रुनेन्द्रचन्द्रनागेन्द्रबुद्धोपेन्द्रविनायकाः / निजाकूतवशादेतैरिष्टादेवाः पृथक् पृथक् // ईश्वरो नियतिः कर्म स्वभावः काल एव वा। जगत्कर्तेति वादोऽयं सर्वेषां भिन्नरूपकः / त्रिदण्डकुण्डिकामुण्डवल्कचौवरभेदतः / वेषः परस्परं भिवः स्फुट एवोपलक्ष्यते // कल्पोऽपि भक्ष्याभक्ष्यादिलक्षण: खधिया किल / अन्योन्यं भिन्न एवैषां तौर्थिनां भद्र वर्तते // विधातदोपरूपाभः सुखदुःखविवर्जितः / एषां पाषण्डिनां भद्र मोक्षो भित्रः परस्परम् // निजाकूतवशेनैव विशुद्धिरपि तौर्थिकैः / श्रमौभिर्भद्र सत्त्वानां भिन्नरूपा निवेदिता // कन्दमूलफलाहाराः केचिद्धान्याशिनोऽपरे / वृत्तितोऽपि विभिद्यन्ते ततस्ते भद्र तौर्थिकाः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 488 एवं च स्थिते / अमौ वराकाः सर्वेऽपि डोलायन्ते भवोदधौ / अस्थाः कुदृष्टेर्वोर्यण शुद्धधर्मवहिष्कृताः // तत्त्वमार्गमजानन्तो विवदन्ते परस्परम् / खाग्रहं नैव मुञ्चन्ति रयन्ति हितभाषिणे / तदेषा भुवनख्याता मिथ्यादर्शनवमला। कुदृष्टिविलमत्येव बहिरङ्गजनाहिता // यस्वेष विष्टरे तुङ्गे निविष्टः प्रविलोक्यते / प्रसिद्ध एव भद्रस्य म नूनं रागकेसरौ // एनं राज्ये निधायोचैर्महामोहनराधिपः / गतचिन्ताभरो नूनं कृतार्थो वर्ततेऽधुना // केवलं दत्तराज्येऽपि महामोहनरेश्वरे। सविशेषं करोत्येष विनयं नयपण्डितः // महामोहनरेन्द्रोऽपि सर्वेषामग्रतः स्फुटम् / अस्यैव भोः सुपुत्रस्य प्रभुत्वं ख्यापयत्यलम् // तदेवं स्नेहसंबद्धौ पितापुत्रौ परस्परम् / एतावेव वशीकत क्षमौ भद्र जगत्त्रयम् // यावविप्रतपत्येष नरेन्द्रो रागकेसरी। बहिरङ्गजने तावत्कौतस्त्यः सुखमङ्गमः / / यतोऽयं भद्र संसारसागरोदरवर्तिषु / बहिर्लोके पदार्थषु प्रौतिमुत्पादयत्यलम् // मंक्लिष्टपुण्यजन्येषु संक्लिष्टेषु स्वरूपतः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / संक्लेशजनकेम्वेव संबध्नाति पृथगजनम् // अन्यच्च भद्र पार्श्वस्थं यदस्य पुरुषत्रयम् / रक्रवर्णमतिस्निग्धदेहं च प्रविभाव्यते // एते हि निजवौर्यण शरीरादविभेदिनः / अनेन विहिता भद्र त्रयोऽप्यात्मवयस्यकाः // अतत्त्वाभिनिवेशाख्यः प्रथमोऽयं नरोत्तमः / दृष्टिराग इति प्रोक्तः स एवापरमूरिभिः / अयं हि भद्र तीर्थ्यानामात्मीयात्मीयदर्शने / करोति चेतमोऽत्यन्तमाबन्धमनिवर्तकम् // द्वितीयो भवपाताख्यः पुरुषो भद्र गौयते / अयमेवापरैः प्राज्ञैः स्नेहराग इतौरितः // अयं तु कुरुते द्रव्यपुत्रखजनसन्ततौ / मूर्खातिरेकतो भद्र चेतसो गाढबन्धनम् // अभिम्वङ्गाभिधानोऽयं हतीयः पुरुषः किल / गौतो विषयरागाख्यः स एव मुनिपुङ्गवः // अयं तु भद्र लोके ऽत्र भ्रमबुद्दामलीलया। शब्दादिविषयग्रामे लौल्यमुत्पादयत्यलम् / नरत्रयस्थ सामर्थ्यादस्य भद्र जगत्त्रयम् / पाक्रान्तमेव मन्येऽहं रागकेसरिणा पुनः // मन्मार्गमत्तमातङ्गकुम्भनिर्भेदनक्षमः / खवीर्याक्रान्तभुवनः सत्योऽयं रागकेसरौ // या त्वेषा दृश्यते भद्र निविष्टास्यैव विष्टरे। For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। 551 अस्यैव भार्या मा ज्ञेया मूढता लोकविश्रुता // ये केचिदस्य विद्यन्ने गुणा भट्र महीपतेः / तस्यां सर्व सुभार्यायां विज्ञेयाः सुप्रतिष्ठिताः // यतः शरौरनिक्षिप्तां पार्वतीमिव शङ्करः / एनामेष सदा राजा धारयत्येव मूढताम् // ततश्च / अन्योन्यानुगतो नित्यं यथा देहस्तथानयोः / अविभका विवर्तन्ते गुणा अपि परस्परम् // यस्त्वेष वामके पार्श्व निविष्टोऽस्यैव भूपतेः / भद्र देषगजेन्द्रोऽसौ प्रतीतः प्रायशस्तव // अत्रापि च महामोहनरेन्द्रस्य सुतोत्तमे / चित्तं विश्रान्तमेवोच्चैर्गुणाः कल्याणकारकाः // यतः। जन्मना लघुरप्येष रागकेसरिणोऽधुना / वौर्यणाभ्यधिको लोके नरेन्द्रो भद्र वर्तते // तथा हि। न भयं यान्ति दृष्टेन रागकेसरिणा जनाः / दृष्टा द्वेषगजेन्द्रं तु जायन्ते भौत्वकम्पिताः // . यावदेष महावीर्यश्चित्ताटव्यां विजृम्भते / बहिरङ्गजने तावत्कौतस्त्यः प्रौतिमङ्गमः // येत्यन्तसुझ्दो लोकाः स्नेहनिर्भरमानमाः / तेषामेष प्रकृत्यैव चित्तविश्लेषकारकः कः . For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 552 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। चित्तवृत्तिमहाटव्यां चलत्येष यदा यदा। तदा तदा भवन्येव जनास्तेऽत्यन्तदुःखिताः // परलोके पुनर्यान्ति नरके तीनवेदने / प्राबद्धमत्सरा वैरं प्रविधाय परस्परम् // भद्र देषगजेन्द्रोऽयं यथार्थो नाच संशयः / यस्य गन्धेन भज्यन्ते विवेकाः कलभा दूव // था त्वस्य भार्या तहात शोकेनैव निवेदिता / श्रत एव न पार्श्वस्था दृश्यते सा विवेकिता // [प्रकर्षः प्राह यस्वेष निविष्टस्तुङ्गविष्टरे। मरचयपरीवारः पृष्ठतोऽस्यैव भूपतेः // रकवर्णोऽतिलोलाक्षो विलासोल्लामतत्परः / पृष्ठापीडितदौरः सचापः पञ्चबाणकः // भ्रमझमरझङ्कारहारिगौतविनोदितः / विलमद्दौमिलावण्यवीया वरयोषिता // वस्था एव तनुश्लेषवत्रचुम्बनलालमः / कमनीयाकतिः मोऽयं कतमो माम भूपतिः // विमर्श: प्राह नन्वेष महाश्चर्यविधायकः / उद्दामपौरुषो लोके प्रसिद्धो मकरध्वजः // यद्येषोऽद्भुतकर्तव्यो भवता नावधारितः / न किंचिदपि विज्ञातं भद्राद्यापि ततस्त्वया // यो भद्र श्रूयते लोके परमेष्ठौ पितामहः / मोऽनेन कारितो मौरीविवाहे बालविशवम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 553 स एव चापपरोनृत्तरूपविक्षिप्तमानमः / अनेनैव कृतो भद्र पञ्चवक्त्रधरः किल // यो लोके जगतो व्यापी श्रूयते किस्त केशवः / अनेन कारितः सोऽपि गोपीनां पादवन्दनम् // अन्यच्च भद्र सोऽनेन सुप्रसिद्धो महेश्वरः / दापितोऽधैं शरीरस्य गौर्यै विरहकातरः // उला मितहल्लिङ्गः स एव सुरकानने / तद्भार्याक्षोभणे रक्तस्तथानेन विनाटितः // उत्पाद्य सुरते तृष्णां स एवानेन धारितः / दिव्यं वर्षसहस्रं भो रतस्थ इति गोयते // अन्येऽपि बहवो लोके मुनयो देवदानवाः / वशीकृत्य कृताः सर्वे भद्रानेनात्मकिङ्कराः // कोऽस्य लवयितुं शको नूनमाज्ञां जगत्त्रये / श्रात्मभूतं महावौर्य यस्येदं पुरुषचयम् // अयं हि प्रथमो भटू पुरुषोऽनघपौरुषः / नाम्ना विज्ञाततद्वौर्यैः पुंवेद इति गोयते // अमुख्य तात वौर्यण बहिरङ्गा मनुष्यकाः / पारदार्य प्रवर्तन्ते जायन्ते कुलदूषणः // द्वितीयः पुरुषो ह्येष स्त्रीवेद इति सूरिभिः / व्यावर्णितो महातेजा व्यालुप्तभुवनोदरः // अस्य धाम्ना पुनस्तात योषितो विगतत्रपाः / विलंध्य कुलमर्यादां रज्यन्ते परपूरुषे // 70 For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 554 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / हतीयः पुरुषो भद्र षण्डवेद इति स्मृतः येन दन्दह्यते लोको बहिरङ्गः स्वतेजमा // पालप्यालमिदं तावदस्य वौर्यविचेष्टितम् / अनिवेद्यं जने येन विगुप्यन्ते नपुंमकाः // एतन्नरत्रयं भद्र पुरस्कृत्य प्रवतते / अविज्ञातबलोऽन्येषां नूनमेष जगत्त्रये // या त्वेषा पद्मपत्राचौ रूपसौन्दर्यमन्दिरम् / अस्यैव वल्लभा भार्या रतिरेषाभिधीयते // येऽनेन निर्जिता लोका नरवीर्यपुरःसरम् / तेषामेषा प्रकृत्यैव सुखबुद्धिविधायिका // तथाहि। अस्या वौर्यण भो लोका दुःखिताः परमार्थतः / तथापि तेऽदो मन्यन्ते मकरध्वजनिर्जिताः // यदुत। श्राबादजनकोऽस्मभ्यं हितोऽयं मकरध्वजः / प्रतिकूला पुनर्यऽस्य कुतस्तेषां सुखोद्भवः // ततो रत्यानया भट्ट ते वशीकृतमानसाः / जाता निर्मिथ्यभावेन मकरध्वजकिङ्कराः // तदादेशेन कुर्वन्ति हास्य स्थानं विवेकिनाम् / आत्मनः सततं मूढा नानारूपं विडम्बनम् // कथम् / रचयन्यात्मनो वेषं योषितां चित्तरञ्जनम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / आचरन्ति च मोहेन देहे भूषणविभ्रमम् // तुष्यन्ति कामिनौलोललोचनार्धविलोकिताः / वहन्ति हृदये प्रीतिं तदालापैनोरमैः / भ्रमन्ति विकटः पादरुन्नामितशिरोधराः / रामाकटाचविक्षिप्ताः सुभगा इति गर्विताः // कुलटादृष्टिमार्गषु तच्चित्ताक्षेपलम्पटाः / निष्क्रौड़यन्ति मोहान्धा दत्तकान् कारणं विना / / इतस्तत: प्रधावन्ति दर्शयन्ति पराक्रमम् / तामां मनोनुकूलं हि ते किं किं यन्न कुर्वते // कुर्वन्ति चाटुकर्माणि भाषन्ते किङ्करा दुव / पतन्ति पादयोस्तामा जायन्ते कर्मकारकाः // महन्ते योषितां पादप्रहारान्मस्तकेन ते / मन्यमाना निजे चित्ते मोहतस्तदनुग्रहम् // आखाद्य मद्यगण्डषं योषावक्त्रसमर्पितम् / स्लेमोन्मित्रं च मन्यन्ते स्वर्गादभ्यधिकं सुखम् // ये नरा वौर्यभूयिष्ठा ललनाभिः स्वलीलया। भूक्षेपेणैव कार्यन्ते तेऽशुचेरपि मर्दनम् // तत्मङ्गमाथें दह्यन्ते सुरतेषु न तोषिणः / दूयन्ते विरहे तासां म्रियन्ते शोकविकलाः // अवधूताश्च खिद्यन्ते रुण्टन्ति च बहिष्कृताः / पररकवनारीभिः पात्यन्ते दुःखसागरे / ईर्थया च वितुद्यन्ते स्वभार्यारक्षणोद्यताः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / एता विडम्बना भद्र प्राप्नुवन्तीह ते भवे // परलोके पुनर्यान्ति घोरे संमारनौरधौ / ये जाता रतिवौर्यण मकरध्वजकिङ्कराः // बहवश्चेदृशाः प्रायो बहिरङ्गा मनुष्यकाः / ये त्वस्य शासनातौता विरलास्ते मनीषिणः // तदयं यस्त्वया पृष्टो लेशोद्देशादमौ मया / परिवारयुतो भद्र वर्णितो मकरध्वजः / / प्रकर्षः प्राह मामेदं सुन्दरं विहितं त्वया / यमन्यमपि पृच्छामि मन्देहं तं निवेदय // मकरध्वजपार्श्वस्थं यदिदं प्रविभाव्यते / किंनाम किंगुणं चेदं माम मानुषपञ्चकम् // विमर्शः प्राह यस्तावदेष शक्नो मनुष्यकः / म हास इति विज्ञेयो विषमोऽत्यन्तदुष्करः // अयं हि कुरुते भद्र निजवौर्यण मानुषम् / बहिरङ्ग विना कार्य सशब्दमुखकोटरम् // किंचिनिमित्तमासाद्य निमित्तविरहेण वा। खं वौर्य दर्शयत्युच्चैर्येषामेष महाभटः // महाकहकहवाईमन्तः मिष्टनिन्दिताः / निर्वादितमुखास्तुच्छास्ते जने यान्ति वाघवम् // आशङ्कायाः पदं लोके जायन्ते निर्निमित्तकम् / जनयन्ति परे वैरं लभन्ते वनविभ्रमम् // भचिकामशकादौनामुपघातं च देहिनाम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः। पाचरन्ति विना कार्य परेषां च पराभवम् // तदिदं भद्र निःशेषमिह लोके विजम्भते / हामोऽयं परलोकेऽस्मात्कर्मवन्धः सुदारुण: // प्रस्त्यस्य तुच्छता नाम सद्भार्या हितकारिणी। देहस्थास्यैव पश्यन्ति तां भो गम्भौरचेतसः // एनमुलासयत्येव निमित्तेन विना मदा / हामं मा तुच्छता वत्स लघुलोके यथेच्छया // यतो गम्भीरचित्तानां निमित्ते सुमहत्यपि / मुखे विकासमात्र स्थान हास्यं बहुदोषलम् // या त्वेषा कृष्णसर्वाङ्गी गाढं बीभत्मदर्शना / दृश्यते खलना सेयमरति म विश्रुता // किंचित्कारणमासाद्य बहिरङ्गजने सदा। करोत्येष मनोदुःखं जम्भमाणातिदुःसहम् // यस्वेष दृश्यते भद्र कम्पमानशरीरकः / पुरुषः स भयो नाम प्रसिद्धो गाढदुःसहः // विलमन्नेष महाटव्यामेतस्यां किल लोचया / बहिरङ्गजनानुच्चैः कुरुते कातराननान् // कथम्। वस्यन्तीह मनुष्यादेः कम्पन्ने पशुसंहतेः / अर्थादिहानि मन्वानाः पलायन्तेऽतिकातराः / / अकस्मादेव जायन्ते त्रस्तास्तरललोचनाः / जौविष्यामः कथं चेति चिन्तया मन्ति विकलाः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 557 उपमितिभवायचा कथा / मरिष्यामो मरिय्याम इत्येवं भावनापराः / मुधैव जीवितं हित्वा म्रियन्ते सत्त्ववर्जिताः // जने च मा भूदलाचेत्येवं भावेन विकलाः / नोचितान्यपि कुर्वन्ति कर्माणि पुरुषाधमाः // स एष निकटस्थायिसप्तमानुषसम्पदा / विज़म्भते भयो भद्र बहिरङ्गजने सदा // किं च। पलायनं रणे दैन्यमरोणां पादवन्दनम् / अस्थादेशेन निर्लज्जास्ते कुर्वन्ति नराधमाः // तदेवं भद्र लोकेऽत्र ये भयस्य वशं गताः / विनाटिताः परत्रापि यान्ति भौमे भवोदधौ // प्रस्थापि च शरीरस्था भार्यास्ति पतिवत्सला / संवर्धिका कुटुम्बस्य प्रोच्यते होनसत्त्वता // तां होनसत्त्वतां देहाभार्यामेष न मुञ्चति / नूनं हि म्रियते भद्र भयोऽयं रहितस्तया // भद्र प्रत्यभिजानौषे किमेनं तु न साम्प्रतम् / तं तत्र नगरे शोकं यममुं द्रक्ष्यसि स्फुटम् // अनेनैव तदा वार्ता समस्तापि निवेदिता / सोऽयं ममागतस्तूर्णं शोको भद्र पुनर्बले // अपेक्ष्य कारणं किंचिदयं लोके बहिर्गते / आविर्भूतः करोत्येव दैन्याक्रन्दनरोदनम् // दष्टेवियुक्ता ये लोका निमग्राश्च महापदि / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थ प्रस्तावः / 556 अनिष्टैः संप्रयुक्ताश्च तस्य स्थर्वशवर्तिनः // न लक्षयन्ति ते मूढा यथेष रिपुरुच्चकैः / अस्यादेशेन मुञ्चन्ति पाराटौः केवलं जडाः // एष शोकः किलास्माकं दुःखत्राणं करिष्यति / अयं तु वर्धयत्येव तेषां दुःखं निषेवितः // न साधयन्ति ते स्वार्थ धर्मावश्यन्ति मानवाः / प्राणैरपि वियुज्यन्ते मूळसंमौलितेक्षणः // ताडनं शिरसोऽत्यर्थं लुञ्चनं कचमन्ततः / कुट्टनं वक्षसो भूमौ लोठनं गाढविक्लवम् // तथात्मोलम्बनं रज्वा पतनं च जलाशये। दहनं वहिना शैलशिखरादात्ममोचनम् // भक्षणं कालकूटादेः शस्त्रेणात्मनिपातनम् / प्रलापनमुन्मादं च वैक्तव्यं दैन्यभाषणम् // अन्तस्तापं महाघोरं शब्दादिसुखवञ्चनम् / लभन्ते पुरुषा भद्र ये शोकवशवर्तिनः // इत्थं भूरितरं दुःखं प्राप्नुवन्तौह ते भवे / कर्मबन्ध विधायोच्चैर्यान्यमुत्र च दुर्गतौ / / तदेष बहिरङ्गानां दुःखदो भद्र देहिनाम् / किंचिल्लेशेन शोकस्ते वर्णितः पुरतो मया // अस्यापि च शरीरस्था भवस्था नाम दारुणा। विद्यते पत्निका वत्म शोकस्य ग्रहनायिका / सास्य संवर्धिका ज्ञेया तां विना नैव जीवति / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 56. उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / अत एव शरीरस्थां धारयत्येष सर्वदा // या वेषा दृश्यते कृष्णा भोः संकोचितनामिका / नारौ मा सूरिभिर्भद्र जुगमा परिकीर्तिता // दूयं तु बहिरङ्गानां लोकानां मनमोऽधिकम् / व्यलोकभावमाधत्ते तत्त्वदर्शनवजिनाम् // कृमिजालोल्वणं देहं पूयक्लिनं मलाविलम् / वस्तु दुर्गन्धिबीभत्सं ते हि दृष्ट्वा कथंचन // कुर्वन्ति शिरसः कस्यं नामिकाधूननं जडाः / दूरतः प्रपलायन्ते मौलयन्ति च लोचने // हुं हुं हुमिति जल्पन्ति वक्रां कुर्वन्ति कन्धराम् / विशन्ति शौचवादेन सचेलाः शौतले जले // नामिका कुञ्चयन्युच्चैर्निष्ठौवन्ति मुहुर्मुहुः / भारलेषे वर्मचेलादेः क्रुद्धाः स्त्रान्ति पुनः पुनः // छायामपि च नेच्छन्ति परेषां स्पष्टुमात्मना / जायन्ते शौचवादेन वेताला व दुःखिताः // चित्तशूकावशादेव माचादुन्मत्तका अपि / केचिद्भद्र प्रजायन्ते ये जुगुप्मावशं गताः // परलोके पुनर्यान्ति तत्वदर्शनवर्जिताः / तमोभिभूतास्ते मूर्खा घोरसंसारचारके // तदेवं बहिरङ्गानां लोकानां बहुदुःखदा / किंचित्ते वर्णिता भद्र जुगुप्सापि मयाधुना // प्रकर्षः प्राह दृश्यन्ते यान्येतानि पुरो मया / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / निविष्टानि नरेन्द्राणामुत्सङ्गादिषु लीलया // गाढं दुर्दान्तचेष्टानि चटुलानि विशेषतः / भारतकृष्णवर्णनि डिम्मरूपाणि षोडश // अमूनि नामभिर्माम गुणैश्च सुपरिस्फुटम् / अधुना वर्ण्यमानानि श्रोतुमिच्छाम्यहं त्वया // विमर्श: प्राह सर्वेषामेतेषां सूरिभिः पुरा / सामान्यतः कषायाख्या भट्र लोके प्रकाशिता // विशेषतः पुनर्भद्र यान्येतानौह वौक्षसे / महत्तमानि दुष्टानि सर्वषामग्रतस्तथा // चत्वारि गर्भरूपाणि रौद्राकाराणि भावतः। तान्यनन्तानुबन्धौनि गौतानि किल संज्ञया // अमूनि च प्रकृत्यैव मिथ्यादर्शननामकः / अयं महत्तमो भद्र खात्मभूतानि पश्यति // ततश्च बहिरङ्गानां लोकानां निजवीर्यतः / एतान्यपि प्रकुर्वन्ति मिथ्यादर्शनमकताम् // यतः। यावदेतानि जम्भन्ते डिम्मरूपाणि लीलया चित्तवृत्तिमहाटव्यां तावत्ते बाह्यमानुषाः // अनन्यचित्ताः सततमेनमेव महत्तमम् / लोकवाक्यनिराकांक्षाः मङ्गत्या पर्युपासते // अत एव च। चित्तवृत्तिमहाटव्यामुलमत्खेषु ते जनाः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / न तत्त्वमार्ग भावेन प्रपद्यन्ते कदाचन // एवं स्थिते / ये दोषा वर्णिताः पूर्वं मिथ्यादर्शनसंश्रयाः / बहिर्जनानां सर्वेषां तेषामेतानि कारणम् // एतेभ्यो लघुरूपाणि यानि चत्वारि सुन्दर / अप्रत्याख्याननामानि तानि गौतानि पण्डितैः // एतानि निजवौर्यण बहिरङ्गमनुष्यकान्। प्रवर्तयन्ति पापेषु वारयन्ति निवर्तनम् // किंबहुना। यावदेतानि गाहन्ने चित्तवृत्तिमहाटवीम् / तावद्भद्र निवर्तन्ते न ते पापादणोरपि // तत्त्वमार्ग प्रपद्येरनेतेषु विलसत्वपि / लभन्ते तद्वन्नात्मौख्यं विरतिं तु न कुर्वते // ततस्तेऽमुत्र संतप्ता निपतन्ति परत्र च / विधाय पापसंघातं संसारगहने जनाः // यान्येतानि पुनर्भद्र लघौयांसि ततोऽपि च / प्रत्याख्यावारकाणौह बुधास्तानि प्रचक्षते // अमूनि किल वल्गन्ते यावदत्रैव मण्डपे / बहिरङ्गजनाः सर्व तावन्मुञ्चन्यघं म वै // किंचिन्मात्रं तु मुञ्चेयुः पापं बाह्यजनाः किल / चित्तवृत्तिमहाटव्यामेतेषु विस्लमत्सु भोः // एतान्यपि स्वरूपेण तस्मात्मन्तापकारणम् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 563 बहिर्जनानां कल्याणे विरतिस्तत्र कारणम् // एतेभ्योऽपि लघीयांमि यान्येतानौह सुन्दर / वर्तन्ते गर्भरूपाणि चत्वारि तव गोचरे // तानि संज्वलनाख्यानि गौतानि मुनिपुङ्गवैः / लोलया चटुलानौत्थमुल्लमन्ति मुहुर्मुडः // एतानि सर्वपापेभ्यो विरतानामपि देहिनाम् / होलसन्ति कुर्वन्ति बाह्यानां चित्तविप्लवम् // दूषयन्ति ततो भूयः सर्वपापनिबर्हणम् / ते मातिचारा जायन्ते वीर्यणेषां बहिर्जनाः // न सुन्दराणि सर्वेषां तदेतान्यपि देहिनाम् / लघुरूपाणि दृश्यन्ते तात यद्यपि जन्तुभिः // चतुष्टयानि चत्वारि तदेतानि विशेषतः / एतेषां नामभिर्भट्र गुणेश्च कथितानि ते // प्रत्येकं यानि नामानि ये गुणाश्च विशेषतः / एतेषां तत्पुनर्भद्र को वा वर्णयितुं नमः // तस्मात्ते कथयिष्यामि विश्रब्धः कुत्रचित्युनः / प्रस्तावागतमेवेह वौर्यमेषां विशेषतः // अन्यच्च / एतेषां गर्भरूपाणां मध्येऽष्टौ परया मुदा। याटेतानि प्रनृत्यन्ते रागकेमरिणोऽग्रतः // तान्यस्मादेव जातानि रागकेसरिणः किल / अत्यन्तवल्लभान्यस्य मूढतानन्दनानि च / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। यानि त्वेतानि चेष्टन्ते क्रीडयाष्टौ मुडमुडः / पुरे देषगजेन्द्रस्य गर्भरूपाणि सुन्दर / अस्मादेव प्रसूतानि प्रियाणि द्वेषभूपतेः / माताविवेकितामोषां सर्वेषां भद्र गोयते // एवं च स्थिते। महामोहनरेन्द्रस्य यानि पौत्राणि सुन्दर। तत्पुत्रयोरपत्यानि तात विख्यातवीर्ययोः // तेषाममौषां लोकेऽत्र दौर्खालित्यविराजितम् / वौर्य सहस्रजितोऽपि को निवेदयितुं क्षमः // पश्य पश्यत एवैषामेतानि निजचेष्टितैः / शौर्ष सिद्धार्थकायन्ते सर्वेषामेव भूभुजाम् // तदिदं ते समासेन मया तात निवेदितम् / महामोहनरेन्द्रस्य खाङ्गभूतं कुटुम्बकम् // ये त्वमौ वेदिकाभ्यर्ण विवर्तन्ते महीभुजः / ते महामोहराजस्य स्वाङ्गभूताः पदातयः // य एष दृश्यते भद्र रागकेसरिणोऽग्रतः / श्रानिष्टललनो मृष्टं ताम्बूलं खादयनलम् // रणविरेफरिंछोलिसूचितोत्कटगन्धकम् / लौलाकमलमत्यर्थमाजिघ्रंश्च मुहुर्मुडः // खभामलवक्त्राले कुर्वाणो दृष्टिविश्रमम्।। वस्मकौनूपुरारावकाकलौगोतलम्पटः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / यश्चैवं विषयानेष पञ्चापि किल लीलया। भुनानो मन्यते सर्वमात्मनो मुष्टिमध्यगम् // भद्र मोऽयमिहायाता वयं यस्य दिदृचया। रागकेमरिणो मन्त्री लोके विख्यातपौरुषः / अस्यैव तानि वर्तन्ते पुत्रभाण्डानि सुन्दर / यानि मिथ्याभिमानेन कथितानि पुरावयोः // तवन जगत्मवें वशौहत्य महाबलः / भद्र नूनं करोत्येव चेष्टया तुल्यमात्मनः // तथा हि। एतत्प्रयुन] दृष्टा मानुषैर्भद्र देहिनः / ते स्पर्शरसमहन्धरूपशब्देषु लालमाः // कार्याकार्यं न पश्यन्ति बुध्यन्ते नो हिताहितम् / भक्ष्याभक्ष्यं न जानन्ति धर्माधर्मबहिष्कृताः // तन्मात्रलब्धसौहार्दा वर्तन्ते सार्वकालिकम् / नान्यत्किंचन बौक्षन्ते यथासौ वर्तते जडः // दर्शनादेव निर्णैतो बुद्ध्या च परिनिश्चितः / रमनाजनको भद्र स एवायं न संशयः // रागकेसरिणो राज्यं तन्त्रयनिखिलं सदा / परबुद्धिप्रयोगेण नैवैष प्रतिहन्यते // पुरुषाः पण्डितास्ताववहिरङ्गा दृढव्रताः / यावदेष खवौर्येण तानो चिपति कुत्रचित् // यदा पुनर्महाप्राज्ञस्तानेष सचिवः कचित् / : For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / . धारभेत स्ववीर्येण बहिरङ्गमनुष्यकान् // तदा ते निहतप्राया बालिशा व किङ्कराः / बताग्रहं विमुच्यास्य जायन्ते विगतत्रपाः // वर्धयत्येष साम्राज्यमेतेषामेव भूभुजाम् / बहिरङ्गजनस्यायममात्यो दुःखदः सदा // यतः। पस्यादेशेन कुर्वन्ति पापं ते बाह्यमानुषाः / तच्च पापं कृतं तेषामिहामुत्र च दुःखदम् // निपुणो नौतिमार्गेषु गाढं निर्व्याजपौरुषः / भेदकः परचित्तानामुपायकरणे पटुः // विदिताशेषवृत्तान्तः सन्धिविग्रहकारकः। . विकल्पबहुलो लोके सचिवो नास्त्यमूदृशः // किं वात्र बहुनोकेन तावदेते नरेश्वराः / यावदेष महामन्त्री तन्त्रको राज्यमन्ततः // ततः महर्षः प्रकर्षाऽब्रवीत् / साधु माम माधु सुन्दरं निर्णेतं मामेन / न तिलतषत्रिभागमात्रयापि चलतौदं। एवंविध एवायं विषयाभिलाषो महामन्त्री नास्त्यत्र सन्दहः / तथा हि। प्राकारदर्शनादेव ते गुणा मम मानसे / प्रादावेव समारूढा येऽस्य संवर्णितास्त्वया // विमर्श: प्राह नाश्चर्य लक्षयन्ति भवादृशाः / नराणं दुष्टमात्राणां यद्गुणागुणरूपताम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 560 तथा हि। ज्ञायते रूपतो जातिर्जातेः शौलं शुभाशुभम् / शौलागुणः प्रभासन्ते गुणैः सत्त्वं महाधियाम् // न केवलं त्वयास्यैव दर्शनादेव लक्षिताः / गुणः किं तर्हि सर्वेषां नूनमेषां महौभुजाम् // बुद्धेर्जातस्य ते भद्र किं वा स्यादविनिश्चितम् / यत्तु मां प्रश्नयस्येवं तात मा तेऽभिजातता // प्रकर्षः प्राह यद्येवं ततो माम निवेद्यताम् / किनामिकेयं भार्यास्य मन्त्रिणो मुग्धलोचना // विमर्श: प्राह भद्रेयं भोगहष्णाभिधीयते / गुणैस्तु तुल्या विज्ञेया सर्वथास्यैव मन्त्रिणः // ये वेते पुरतः केचित्पार्श्वतः पृष्ठतोऽपरे / दृश्यन्ते भूभुजो भद्र मन्त्रिणोऽस्य नताननाः // दृष्टाभिमन्धिप्रमुखास्ते विज्ञेया महाभटाः / महामोहनरेन्द्रस्य खाङ्गभूताः पदातयः / अन्यच्च / महामोहनृपस्येष्टा रागकेसरिणो मताः / भृत्या देषगजेन्द्रस्य सर्वेऽप्येते महौभुजः // अनेन मन्त्रिणादिष्टा राज्यकार्येषु सर्वदा / एते भद्र प्रवर्तन्ते निवर्तन्ते च नान्यथा // ये केचिद्दाह्मलोकानां क्षुद्रोपद्रवकारिणः / अन्तरजा महौपालास्तेऽमौषां मध्यवर्तिनः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / माय डिम्भाश्य ये केचिदन्येऽप्येवंविधा जने / अमीषां मध्यगाः सर्वे द्रष्टव्यास्ते महीभुजाम् // तदेते परिमातीता निवेद्यन्तां कथं मया / संक्षेपतः समाख्याताः खाङ्गभूताः पदातयः // प्रकर्षः प्राह ये त्वेते वेदिकादारवर्तिनः / निविष्टा भूभुजः सप्त माम मुत्कलमण्डपे // युताः मत्परिवारेण नानारूपविराजिनः। एते किंनामका ज्ञेयाः किंगण वा महौभुजः // विमर्शः प्राह भट्रेते सप्तापि वरभूभुजः / महामोहनृपस्यैव बहिर्भूताः पदातयः // तत्र च। य एष दृश्यते भद्र संयुक्रः पञ्चभिर्नरैः / ज्ञानसंवरणो नाम प्रसिद्धः म महीपतिः // अत्रैव वर्तमानोऽयं बहिःस्थं सकलं जनम् / करोत्यन्धं खवौर्यण ज्ञानोद्योतविवर्जितम् // किं च। मान्द्राज्ञानान्धकारेण यतो मोहयते जनम् / ततोऽयं शिष्टलोकेन मोह इत्यपि कौर्तितः // यस्त्वेष नवभियुक्तो मानुषैः प्रविभाव्यते / दर्शनावरणो नाम विख्यातः म महौतले // दृश्यन्ते पञ्च या नार्यस्ताः खवौर्येण सुन्दराः / करोत्येष जगत्मवें घूर्णमानगतिक्रियम् // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / ये त्वमी पुरुषा भद्र चत्वारोऽस्य पुरः स्थिताः / एतत्मामर्थ्ययोगेन जगदम्धं करोत्ययम् // नरदयसमायुको यः पुनर्भद्र दृश्यते / म एष वेदनौयाख्यो राजा विख्यातपौरुषः // सातनामा प्रसिद्धोऽस्य जगति प्रथमो नरः / करोत्याज्ञादसन्दोहनन्दितं भुवनत्रयम् // द्वितीयः पुरुषो भद्र यस्त्वस्य प्रविलोक्यते / असातनामकः मोऽयं जगत्मन्तापकारकः // दौर्घहस्खैः ममायुक्रश्चतुर्भिडिम्भरूपकैः / विवर्तते महीपालो यस्त्वेष तव गोचरे // आयुर्नामा प्रमिद्धोऽयं सर्वेषां भद्र देहिनाम् / निजे भवे किलावस्थां कुरुते डिम्भतेजमा // द्विचत्वारिंशता युतो मानुषाणं महाबलः / यस्त्वेष दृश्यते भद्र नाममामा महीपतिः // निजमानुषवौर्यण जगदेष चराचरम् / विडम्बयति यत्तात तदाख्यातं न पार्यते // चतुर्गतिकसंसारे नरनारकरूपताम् / ये दधाना विवर्तन्ते पशदेवतया परे / एकेन्द्रियादिभेदेन नानादेहविवर्तिनः / नानाङ्गोपाङ्गसंबद्धवाः संघातकरणोद्यताः / / भिन्नसंहननाः सत्त्वा नानासंस्थानचारिणः / वर्णगन्धरसस्पर्शभेदेन विविधास्तथा // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / गौरवेतरहौनाश्च स्वोपघातपरायणाः / पराघातपराः केचिदिष्टजन्मानुपूर्विणः // सदुच्छासातपोद्योतविहायोगतिगामिनः / चमस्थावरभेदाश्च सूक्ष्मवादररूपिणः // पर्याप्तकेतराः केचिदन्ये प्रत्येकचारिणः / माधारणाः स्थिराः केचित्तथान्ये स्थिररूपिणः / शुभाशुभत्वं बिभ्राणः सुभगा दुर्भगास्तथा / सुखरा दुःखरा लोके ये चादेया मनोहराः / अनादेयाः खवर्गऽपि यशःकौर्तिममन्विताः / अयशःकौर्तियुकाच मिर्मितात्मशरीरकाः // प्रणताशेषगौर्वाणमौलिमालार्चितक्रमाः। ये च तीर्थकरा लोके भवन्ति भवभेदिनः // निजमानुषवीर्येण सर्वमेष नराधिपः / तदिदं जम्भते वत्म नामनामा महाबलः / यः पुनर्भद्र भूपोऽयं वोचते पुरतः स्थितम् / पात्मभूतं महावीर्यं नौचोच्चं पुरुषद्वयम् // गोत्राभिधानो विख्यातः स एष जगतीपतिः / देहिनां कुरुते भद्र सुन्दरेतरगोचताम् // नरपञ्चकसेव्योऽयं यः पुनः प्रविभाव्यते / अन्तराय इति ख्यातः स तात वरभूपतिः // अयं तु नरवौर्यण कुरुते बाह्यदेहिनाम् / दानभोगोपभोगाप्तिवीर्यविघ्नं नराधिपः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 571 तदेते कथितास्तात नामभिर्गुणलेशतः / सप्तापि भूभुजस्तुभ्यं समासेन मयाधुना // वौर्यवक्रव्यतामेषां विस्तरेण पुनर्यदि। वर्णयामि ततोऽत्येति तचैव मम जीवितम् // तदेवमतिगम्भीरं श्रुत्वा मातुलजल्पितम् / प्रकर्षा इष्टचित्तत्वादिदं वचनमब्रवीत् // चारू माम कृतं चारु मोचितो मोहपञ्चरात् / एतेषां वर्णनं राज्ञां कुर्वतैवमहं त्वया // केवलं कंचिदद्यापि मामं पृच्छामि संशयम् / तमाकर्य पुनर्मामो मह्यमाख्यातुमर्हति // ततो विमर्शस्तुष्टात्मा तं प्रतोदमभाषतः / पृच्छ यट्रोचते तुभ्यं भद्र विश्रब्धचेतसा // प्रकर्षः प्राह मामायं विस्मयो मम मानसे / एषु मंकीर्त्यमानेषु राजसु प्रतिभामते / / यदामून्मण्डपान्तःस्थाविरौके नायकानहम् / परिवारं न पश्यामि तदामौषां निजं निजम् // यदा विलोकयाम्युच्चैः परिवारं विशेषतः / तदा विस्फारिताक्षोऽपि नैवेचे नायकानहम् // भवता तु परीवारो नायकाश्च पृथक् पृथक् / नामतो गणतश्चैव कीर्तिता बत तत्कथम् // विमर्शनोदितं वत्स न विधेयोऽत्र विस्मयः / नेकदोभयवेत्ताच कश्चिदन्योऽपि विद्यते // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 572 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा। यतः। ये निरावरण ज्ञानाः केवलालोकभास्कराः / प्रभुं परिकरं चैषां नैकदा तेऽपि जानते // यतः। सामान्यरूपा राजानः सर्वेऽमौ परिकीर्तिताः / विशेषरूंपा विज्ञेयाः सर्वे चामौ परिच्छदाः // तथाहि / अवयव्यत्र सामान्य विशेषोऽवयवाः स्मृताः / राजानश्चांशिनो ज्ञेयास्तदंशास्तु पदातयः // नायातः कस्यचित्माचादेकदा ज्ञानगोचरम् / ययैतौ प्रकृतिस्तात मा मामान्यविशेषयोः / देशकालखभावैश्च भेदोऽपि च न विद्यते / तादात्म्यादेतयोस्तात तेनैकः प्रतिभाति ते // तथाहि / के तरो दिनः सन्तु धवानखदिरादयः / धवाम्रादिविनाभूतः कस्ता प्रकाश्यताम् // श्रुतस्कन्धातिरेकेण नास्त्यध्ययनसंभवः / न चाध्ययननिर्मुकः श्रुतस्कन्धोऽस्ति कश्चन // केवलं योगपद्येन न दृष्टौ तावितीयता। नादृष्टावेव तौ वत्म कालभेदेन दर्शनात् // तथाहि / दृश्यते हि ताईरान लक्ष्यन्ते धवादयः / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / अभ्यर्थं तेऽपि दृश्यन्ते लक्ष्यते न तरुः पृथक् // तथापि तवयं दृष्टं कालभेदेऽपि कौर्त्यते / यथाक्रमेण दृष्टत्वायूपाद्याश्चक्षुरादिभिः // अतो भेदेन दृष्टवाद्भिनमेवेदमिथ्यताम् / अभिन्नस्य हि नो भिन्नं कालभेदेऽपि दर्शनम् // तथाहि / अभेदेऽपि स्वभावाद्यैर्यत्मामान्यविशेषयोः / संख्यासंज्ञाङ्ककार्यभ्यो भेदोऽप्यस्ति परिस्फुटः // तेन तवारजः सर्वो व्यवहारो न दृश्यति / भेदाभेदात्मके तत्त्वे भेदस्येत्थं निदर्शनात् // तथाहि / संख्यया तकरित्येको भूयांम: खदिरादयः / संज्ञापि तरुरित्येषा धवाम्रार्कादि भेदिनाम् // अनुवृत्तिस्तरोस्तेषु लक्षणं पृथगौक्ष्यते / धवाश्वत्थादिभेदानां व्यावृत्तिश्च परस्परम् // काय तु तस्मात्रेण माध्यं छायादिकं पृथक् / विशिष्टफलपुष्पाद्यमन्यदेवानकादिभिः // व्यवहारोऽपि मामान्ये श्रुतस्कन्धेऽन्य एव हि / अन्य एवास्य भेदेषु यदुद्देशादिलक्षणः // तस्मात्तं भेदमाश्रित्य संख्यासंज्ञादिगोचरम् / अभेदं च तिरोधाय देशकालखभावजम् // राजानः परिवाराश्च मया वत्स पृथक् पृथक् / For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / नामतो गुणसंख्याभ्यां तवाये परिकीर्तिताः // एवं च भेदिनोऽप्ये ते न परस्परभेदिनः / योगपद्येन भासन्ते भद्र तन्मुश्च विस्मयम् // न चान्यचापि कर्तव्यो विस्मयो लक्षणादिभिः / कथ्यमाने मया भेदे भो. सामान्यविशेषयोः // प्रकर्षणोदितं माम नष्टोऽयं मंशयोऽधुना / ममेष माम सन्देहः परिस्फुरति मानसे // घदुत / य एते सप्त राजान एतेषां मध्यवर्तिनः / बतीयश्च चतुर्थश्च पञ्चमः षष्ठ एव च // एते महौपाश्चत्वारो यथा व्यावर्णितास्त्वया / तथा जनस्य लक्ष्यन्ते सुन्दरेतरकारिणः // नैकान्तेनैव सर्वेषामपकारपरायणाः / एते हि बाह्यलोकानां केषांचित्सुखहेतवः // श्राद्यो राजा द्वितीयश्च यश्च पर्यन्तभूपतिः / दुःखदा एव सर्वेषां योऽप्ये ते तु देहिनाम् // ततः मपरिवारण महामोहमहीभुजा / एतैश्च इतसाराणां तेषां किं नाम जीवितम् // एवं च स्थिते / किं विद्यन्ते जनाः केचिरहिरङ्गेषु देहिषु / अमौभिन कदीन्ने ये चतुर्भिररातिभिः // किं वा न संभवन्येव तादृशा माम देहिनः / . For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थः प्रस्तावः / 505 येऽमौषां निजवौर्यण प्रतापक्षतिकारिणः // तच्छ्रुत्वा भागिनेयोकं वचन विहितादरः। श्रवादीदौदृशं वाक्यं विमर्शो मधुराक्षरैः // विद्यन्ते बहिरङ्गेषु वत्स लोकेषु तादृशाः / एतेषां वौर्यनिर्णाशाः केवलं विरला जनाः // तथाहि / मद्भूतभावनामवतन्त्रशास्त्रा महाधियः / कृतात्मकवचा नित्यं ये तिष्ठन्ति बहिर्जनाः // अप्रमादपरास्तेषामेते सर्वेऽपि भूभुजः / महामोहादयो वत्म नोपतापस्य कारकाः // यतः। सततं भावयन्येवं निर्मलीमममानमाः / जगत्स्वरूपं ये धौराः श्रद्धासशुद्धबुद्धयः // कथम् / अनादिनिधनो घोरो दुस्तरोऽयं भवोदधिः / राधावेधोपमा लोके दुर्लभा च मनुष्यता // मूलं हि सर्वकार्याणमाशापाशनिबन्धनम् / जलबुद्धदसंकाशं दृष्टनष्टं च जीवितम् // बीभत्समशः पूर्ण कर्मजं भित्रमात्मनः / गम्यं रोगपिशाचानां शरीरं क्षणभङ्गुरम् // यौवनं च मनुष्याणां सन्ध्यारकादविभ्रमम् / चण्डवातेरिताम्भोदमालारूपाश्च सम्पदः // For Private And Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 576 उपमितिभवप्रपञ्चा कथा / भादौ संपादिताल्हादाः पर्यन्तेऽत्यन्तदारणाः / एते शब्दादिसम्भोगाः किंपाकफलमविभाः // माता भ्राता पिता भार्या पुत्रो जाति जन्तवः / जाताः सर्वेऽपि सर्वेषामनादिभवचक्रके / उषित्वैकनगे रात्रौ यथा प्रातर्विहङ्गमाः / यथायथं ब्रजन्येव कुटुम्बे विश्ववान्धवाः // दृष्टैः समागमाः सर्वे स्वप्राप्तनिधिरूपताम् / नूनं समाचरन्येव वियोगानलतापिनः // जरा जर्जरयत्येव देहं सर्वशरीरिणाम् / दलयत्येव भूतानि भीमो मृत्युमहौधरः // ततश्च / तेषामेवंविधानेकभावनाभ्यामलामिनाम् / निर्धततममां पुंसां निर्मलौभूतचेतमाम् // भट्र नैष महोपालो महामोहः सभार्यकः / जायते बाधको नापि सवधूकाविमौ सुतौ // अन्यच्च / न शोको नारतिस्तेषां न भयो नापि शेषकाः / दुष्टाभिसन्धिप्रमुखा ननं बाधाविधायकाः // नामूनि डिम्मरूपाणि न चान्ये भद्र तादृशाः / यैरेवं भावनाशस्वैः पितापुत्रा श्रमौ जिताः // तथा / सर्वज्ञागमदृष्टेषु तत्त्वेषु सुविनिश्चिताः / For Private And Personal Use Only
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