Book Title: Updesh Tarangini
Author(s): Ratnamandir Gani, Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनाय • श्रीरत्नमंदिरगणी कर नपदेशतरंगिणी -~~>ocoआ अमूल्य ग्रंथमा विविधोपदेशणी भरली पांच तरंगोनुं मूलसहित आषांतर आ ग्रंथमां अनेक प्रकारना अपूर्व विषयोलोमवेश होवाथी समस्तचतुर्विध श्रीसंघने अवश्य वांचवा जणवा माटे घणोज उपयोगी जाणीने. श्रावक. शा० नीमसिंह माणकें. मुंबापुरीमध्ये निर्णयसागर नामक मुजालमा सकियो वीर वंत वीक्रम सवंत १९५७ वैशाख शुदि३ रवै. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. सर्व सुझ जैन बांधवोने मालुम श्राय जे आ उपदेशतरंगिणी नामना अतिमनोहर ग्रंथनुं गुजराती नाषांतर उपावी प्रसिद्ध करवानो अमारो घणां वर्षों थयां विचार हतो पण केटलीक - गवडोने लीधे ते कार्य मूलतवी रह्यु हतुं. पण हालमां तेनुं श्रा गुजराती जाषांतर उपावी अमोए प्रसिद्ध करेलु ने. या ग्रंथना कर्ता श्री रत्नमंदिरगणी जीए तेना पांच तरंगो कर्या . पेहेला तरंगमां पांच प्रकारनां दानोनुं घणुंज रमणीक स्वरूप आपेलुं ने. तेम ते दरेक दानोनां स्पष्टी करण माटे मनोहर कथा आपीने घणाज उत्तम प्रकारथी तेनुं विवेचन करेलुं . बीजा तरंगमां जैनधर्मनां शास्त्रोमां कहेलां साते क्षेत्रोनुं घणाज खुलासाथी. वर्णन करेलु , तथा ते साते क्षेत्रोमां पोतानुं अन्य खरचवाथी केवो खान थाय . ? ते सघलु दृष्टांतो तथा पुरावा साथे स्पष्टरीते समजावेलुं बे. त्रीजो तरंग पूजा पंचासकनो ने. ते तरंगमा विविध प्रकारनी जिनपूजाउनुं स्वरूप तथा तेथी मखतां फलो मनोहर कथानी साथे समजावेलां जे. चोथा तरंगमां तीर्थयात्रानुं स्वरूप देखामेळुने अने ते साथे पूरातन कासमां जे जे महान जैनधर्मी शाहुकारोए अत्यंत प्रव्यखरचीने तीर्थ यात्रा करेली , तेनुं लोकप्रिय वर्णन करवामां आवेढुं . पांचमो तरंग धर्मोपदेशरूप बे. तेमां विशेष प्रकारे जैन धर्म संबंधि अत्यंत रमणीक उपदेश कथा सहित आपेलो जे. एवी रीते श्रा ग्रंथ पांच तरंगोथी बनेलो . श्रा ग्रंथना कर्ता श्री रत्नमंदिरगणी तपगडमां श्रएला श्री सोमसुंदरसूरिजीना शिष्य श्री रत्नशेखरसूरिना शिष्य पंडित नंदिरत्न गणिना शिष्य हता. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ते महान् विधान् तथा इतिहासिक बाबतोथी वधारे माहितगार हता, एम श्रा तेमनो रचेलो ग्रंथ स्पष्ट रीते सूचवी श्रापे बे. या ग्रंथ एटलो तो उपयोगी तथा रसिक बे के तेनुं श्र जगोए बिलकुल वर्णन नहीं करतां श्रमो मारा स्वधर्मी जैनबंधुने ते समस्त ग्रंथ आद्यथी ते अंतसुधी वांची जवानीज मो लामण करीए बीए. श्र ग्रंथ उपदेशक होवाथी ते परम वैराग्यथी जरपूर बनेलो बे. अने तेथी एटलुंज कहेवुं बस यशे के, दरेक जैन बंधु या ग्रंथनुं मनन करवुं. या ग्रंथ वांचवाथी जैनधर्मनुं ज्ञान थवानी साथे जैनधर्ममां यएला महान राजार्ज तथा शाहुकारोना इतिहासिक वृत्तांतोनी पण माहेतगारी मली शकशे अने तेथी मोने आशा ने के, दरेक जैनबंधु या ग्रंथ खरीद करी तेनो लान लेशे. या मूल ग्रंथ संस्कृत भाषामा होवाथी, छाने ते जाषानुं हालना समयमां सर्व जैनबंधुर्जने जाणपणुं न होवाथी मोए तेनुं गुजराती भाषांतर बपावी प्रसिद्ध करेलुं बे. तेमां प्रमादथी के मतिदोषथी जो कई विपरी के उत्सूत्र लखायुं होय ते " मिलामि डुक्करं " इत्यलं विस्तरेण. श्रावक भीमसिंह माणेक. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. पृष्ठ. तरंग पहेलो. श्रांक. विषय. १ मंगलाचरण. .... .... .... २ पुरुषनुं माहात्म्य तथा रैवताचसनो महिमा. , ३ नवखंमा पार्श्वनाथनुं वृत्तांत. । सेरिसक तीर्थन वृत्तांत. .... ५ तारंगउर्गादिक तीर्थनुं वृत्तांत. ६ बझीनुमाहात्म्य. .. .... ७ न्यायोपार्जित अव्यनुं निर्धन माणसनी जींदगीनुं वृ० ए ७ दान- सामान्य स्वरूप. ..... --ए नव नंदोर्नु तथा मम्मण शेग्नुं वृत्तांत. . .... १२ १० दाननी सफलतानो उपदेश. .... ११ सुपात्र दान- स्वरूप. ..... .... १२ सुपात्रदानपर युधिष्ठरराजानुं दृष्टांत. .... .... १६ १३ दाननां दश हेतुउनुं स्वरूप..... १४ अजयदान- स्वरूप. ..... १५ अजयदानपर शांतिनाथ प्रनुनुं दृष्टांत. १६ अजयदानपर सुमेरु हाथीनुं दृष्टांत. .... १७ अजयदानपर आरामिकनुं दृष्टांत. .... १० अजयदानपर अवंति सुकुमाल, दृष्टांत. १ए अजयदानपर अजयकुमारनुं दृष्टांत .... २० जीवहिंसापर माधव गोवालीआनुं दृष्टांत.... .... २१ सुपात्र दाननो महिमा. ...... .... .... २७ .... १५ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ सुपात्र दानपर चंदनबालानुं तथा मूल देवनो दृष्टांत.२५ २३ सुपात्र दानपर बे ब्राह्मणोनुं दृष्टांत. .... .... ३० २५ सुपात्र दानपर रथकार मृगनुं दृष्टांत..... .... ३० २५ सुपात्र दानपर धनसार व्यवहारीनुं दृष्टांत. .... ३१ २६ दान पापी तेनां प्रत्युपकारनी श्वान राखवाविषे दृ० ३३ २७ मुधाजीवी मुनीनुं दृष्टांत. अनुकंपादाननुं स्वरूप. ३३३३३ २७ अन्नदानपर रामचंञजीनुं दृष्टांत. .... .... ३५ शए जगमुशाह शेग्नुं दृष्टांत. .... .... .... ३६ ३० विक्रम राजानुं दृष्टांत तथा उचीतदाननो स्वरूप.... ३७ ३१ सिघराज अने श्रीपालकवितुं दृष्टांत. ३२ सिघसेन दिवाकर, वृत्तांत..... .... .... ३ए ३३ कीर्तिदान- स्वरूप तथा कीर्तिदानपरविक्रमराजानीक.ध ३४ नोजराजा श्रने धनपालकवितुं दृष्टांत. .... ४६ ३५ कीर्तिदानपर सिघराजनी तथा कुमारपाल राजानीक. ५० ३६ कीर्तिदानपर विशल देव राजानी कथा. .... ५५ ३७ कीर्तिदानपर उदयसिंह राजानी.श्रानदेव मंत्रीनी क.५३ ३० कीर्तिदानपर विमलशाह शेउनी कथा. ३ए कीर्तिदानपर वस्तुपाल मंत्रीनी कथा..... ४० शालिगराजानुं दृष्टांत. .... .... ४१ समराशाहनी कथा. . .... ४२ शील संबंधि उपदेश. ... .... ४३ ब्रह्मचर्यव्रतपर जिनदासनी कथा. .... ४४ तपसंबंधि उपदेश. ... ४५ पादलिप्त सूरिश्रने नागार्जुन- दृष्टांत...... ४६ लावनासंबंधि उपदेश. .... .... तरंग बीजो. ४७ सप्तक्षेत्रोपदेशस्वरूप तथा सालिग शेग्नुं दृष्टांत. ७१ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dr 3 ४० जिनमंदिर बांधवामाटे श्रामराजानुं दृष्टांत. .... ६ए कुमारपाल राजानुं दृष्टांत. .... ५० संप्रति राजानी कथा. .... .... ..... ०५ .५१ जिनमंदिर बांधवामाटे सिद्धराज हांशी शरावीका इ. 69 ५२ जीर्णोधार माटे सऊन कोटवाखनुं दृष्टांत. ५३ पारस शेग्नुं दृष्टांत. . .... ५४ विमलशाह शेउनी कथा. .... ५५ जीर्णोधार माटे वस्तुपाल तेजपालनी कथा. ५६ पेथडशाह तथा जांऊण शाहनी कथा. ५७ बाहडदे मंत्रीनुं दृष्टांत. ... .... २८ धनसार अने गुणसारनी कथा. . .... एए पौषध शालामाटे देदाशाहनी कथा. .... ६० शांतु मंत्रीनी कथा. .. .... .... १०६ ६१ श्राजडशाहनुं दृष्टांत. .... .... १०७ ६५ जिनबिंबपर जरतचक्री तथा वस्तुपासनी कथा..... ६३ जीमश्रावक तथा घनशाहनी कथा. .... ..... १११ ६५ समराशाह रोग अने एक जाटनी कथा. .... ११५ ६५ हांसी श्राविकानुं दृष्टांत. .... .... ६६ जैनपुस्तकोपर पेथडशाहनुं दृष्टांत. .... ६७ पंचपरमेष्टिनु माहात्म्य. .... ६७ परमेष्ठी मंत्रपर जीमाक शेग्नी कथा..... .... १२४ ६ए नीतिमार्गनो उपदेश.. .... .... १२५ ७० चतुर्विध संघनी पूजानो उपदेश संघपूजानो महिमा.१२७ ७१ संघवात्सल्यपर धनाशाह शेरनी कथा..... .... १३३ ७५ स्वामिवात्सत्यपर जरतचक्री तथा पुनड श्रावकनी कथा१३७ ७३ श्राजुशेठ तथा कांफण शेउनी कथा..... .... १३७ १४ जगसिंहशाह विगेरेनां दृष्टांतो. ..... .... १३ए .... . . . . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ तरंग त्रीजो. ७५ जिनपूजा, माहात्म्य. .... .... ७६ अंगपूजानुं स्वरूप. . .... .... ७७ दीपकपूजा पर स्वयंजू पूजारानुं दृष्टांत. .... १४ए 3 उंटणीनुं दृष्टांत..... . .... १५० Hए जिणह कोटवालनी कथा. .... .... १५३ G० जिनपूजापर पेथडशाहनी कथा. .... १५५ ७१ देवपालनी कथा..... .... १५६ २ नील अने नीलडीनी कथा.... .... १५७ ३ नंदक श्रने नषक व्यापारीनी कथा. .... .... १५७ ०४ सुंदर कुमारनी कथा. .... १६१ ८५ पाटहण राजानी कथा. .... ..... १६५ ०६ देवपाल शेग्नुं दृष्टांत. ..... .... १६३ 09 श्रीधरवणिकनी कथा. ... .... १६६ दलीजी डोशीन दृष्टांत. .... नए साजणसिंह शेउनी कथा.. .... .... १७१ ए. परोपकारनुं स्वरूप. तथा धनसार शेउनी कथा.१७२-१७३ ए१ वज्रकर्ण राजानी कथा. .... .... .... १७५ एर आनंद अने कामदेवश्रावकनी तथा श्रीकृष्णनी कथा१०१ ए३ जिनदास श्रावकनी कथा. .... .... .... १४ तरंग चोथो. ए। तीर्थयात्रानो उपदेश. .... . .... .... १०५ एए हेमाचार्य तथा कुमारपाल राजानी कथा. १०६ ए६ धाराकशाह शेउनी कथा. .... ...... १० तरंग पांचमो. ए धर्मोपदेशनुं स्वरूप. ..... १७२ ए धर्मोपदेशनो महिमा .... .... १एन .... १६॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी भाषांतर ( कर्ता श्री रत्नमंदिरगणि) श्री नाज्ञेयः स वो देया- दमेयाः परमा रमाः ॥ यन्नामध्यानतः सर्व-सिद्धयः स्युः स्वयंवराः ॥ १ ॥ अर्थ - श्री नानि राजाना पुत्र प्रथम तीर्थकर तमोने माप विनानी उत्कृष्ट लक्ष्मी आपो ? के जे श्री नानि राजाना पुत्रना नामना ध्यानी सर्व सिद्धि पोतानी मेलेज श्रावीने वरे बे. ॥१॥ मना प्रजावना समूहोथी सर्प पण धरणेंद्र थलो बे, ते श्री पार्श्वनाथ प्रभु भक्तिवंतोनी अत्यंत रुचिमाटे थार्ज ? श्री चंद्रमा सरखा सुंदर यशना समूहथी जरेल बे पृथ्वीनं तल जेर्जए तथा मोक्षरूपी लक्ष्मीना मुकुट सरखा एवा श्री वर्धमान प्रभुने हुं नमस्कार करूं बुं. ( या श्लोकमां कविए पोताना गुरु श्री सोमसुंदर महाराज तथा श्री रत्नशेखर महाजने पण गर्जित नमस्कार कर्यो बे. ) जेनी कृपाथी जड माणस पण वृद्धवादीनी पेठे जगतमां पूजनीक थाय बे, ते सरस्वती देवी सनोने आनंद पो ? अमृतसरखी देशनाना रसथी मनोहर थपली, तथा मुनिराजोने पण माननीक एवी श्रा उपदेशतरंगिणी घणा कालसुधी जय पामो ? श्रीनंदिरत्नना शिष्य एवा श्री रत्नमंदिरगणी साधु हवे उपदेशरूपी मध्थी प्राणी ने खुशी करे बे. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ते नीचे प्रमाणेवसुधान्नरणं पुरुषः, पुरुषान्तरणं प्रधानतरलक्ष्मीः ॥ लक्ष्म्यानरणं दानं, दानान्तरणं सुपात्रं च ॥१॥ अर्थ- पुरुष ने ते पृथ्वीन आभूषण , अने उत्तम लक्ष्मी ते पुरुषर्नु आजूषण बे, लक्ष्मीनुं आजूषण दान , अने दानबाजूषण सुपात्र जे. ॥१॥ परमार्थथी चतुर माणसोए पुरुषोनेज पृथ्वीना आजूषणरूप कहेला ने, केमके, जगतमा जे उत्तम लावो थाय ने, ते सघला उत्तम पुरुषना अवतारथी थाय जे. जेमके, पुरुषोमां सिंहसमान एवा तीर्थकर महाराज ज्यारे विचरे , त्यारे आ पृथ्वी मणिना, सुवर्णना तथा रुपाना त्रण गढोवाली, चार घारवालांसमोसरणवाली, देवोए करेलां सुवर्णमय कमलोवाली, घुटणपर्यंत सुगंधि पुष्पोना समूहवाली, अशोकवृक्ष तथा सर्व शतुनी वनस्पति, पुष्प, तथा फलोना जारथी नूषित थाय , तेम मरकी, उकाल,जय, ति, वैर, तथा रोग आदिकना उपनवो विनानी श्राय जे. तेम चक्रवर्ती, तथा वासुदेव आदिक (त्रेसन) शलाका पुरुषो राज्य करते ते नाना प्रकारनां नगरोनी स्थापना, मोटा मेहेलो, बगीचा, वावडी, कुवा, तलाव, किला, खाल,कुंगो,परबो, मगे तथा देवमंदिरोथी पृथ्वी सुंदर थाय ने तेम चोरोनी धाड, कुलटा स्त्री, लुटारानां टोलां आदिक मुष्टोनां कष्टोनी श्रेणिउथी रहित अश्ने मनोहर श्राय बे. शास्त्रमा पण कडं ने के, पुरिसेहिं रश्य तित्थं, न दु पुरिसा हुँति तित्थरश्यावि॥ श्तो पवरं तित्थं, पुरिसं पन्नणंति सव्वणू ॥१॥ पुरिसान होइ तित्थं, न हुंति तित्थान तिहुअणे पुरिसा॥ सलिलान हव धणं, नो नीरं होश् धणा ॥२॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. अर्थ- एवी रीते तीर्थोने पण पुरुषोएज प्रवर्तावेलां जे. केमके, अतीत, अनागत अने वर्तमान कालमां अनेक सिखोने सिपदनी प्राप्तिथी श्रीशजय तीर्थन "श्रीसिषक्षेत्र तीर्थ" एवं नाम प्रसिद्ध अयुं ले. कडं ने के. उस्सप्पिणी पढमं, सिधो इह पढमचकिपढमसु ॥ पढमजिस्सय पढमो, गणहारो जत्थ पुंडरि ॥१॥ चितस्स उन्निमाए, समणाएं पंच कोडिपरिवरि ॥ निम्मलजसपुंडरियं, जयन तयं पुंडरियतित्थम् ॥२॥ अर्थ- आथी करीनेज हमणाना कालमां पण श्रीशत्रुजय, सोपारक, वृद्ध नगर आदिक क्षेत्रोमां नाना प्रकारनां स्थानकोथी आवेला संघो चैत्री पुनेमने दिवसे पुष्प, दाम आदिकना दानपूर्वक सिद्धांतोमां कहेली विधिथी पूजा, ध्वजारोपण, घीनी धारावमी, तथा प्रदक्षिणा आदिक महोत्सवो करे . वली कडं बे के, जे रायणना वृदनी नीचे नालिराजाना पुत्र श्रीज्ञानदेव प्रनु समोसर्या हता, ते रायणनुं वृद वंदनिकपणाने प्राप्त अयु . वली सारावलि प्रकीर्णकमां पण कडं ने के, नवाणु पूर्व वखत श्रीषनदेव प्रन्नु शत्रुजयपर समोसर्या . एटले ६ए०५४ J0000000000 वार समोसा . तेम श्री रेवताचलजीनुं तीर्थ पण अनंता तीर्थकरोनां त्रण कल्याणको थवाथी प्रख्यात थएलुं . कडं ने के, दीदाकेवलनिर्वृति-कल्याणत्रिकमनंततीर्थकृताम् ॥ युगपदथैकमन्नवत ,स जयति गिरिनारगिरिराजः १ श्री नेमीश्वर प्रजुनां ज्यां त्रण कल्याणको थयां हतां त्यां श्रीकृत वासुदेवे त्रण प्रासादो कराव्यां हतां, तथा नाना प्रकारना प्रनाववाली राजीमती, सांब प्रद्युम्नकुमार, मात्र जसना Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. गलवाथी नंगने प्राप्त भएली खेप्यमय प्रतिमाने जोवाथी खिन्न थएला रत्नसार श्रावके अंबिका दिवीन श्राराधन कर्युः त्यारे तेणीए श्री ब्रह्मे बनावेली वज्रमयमूर्ति तेने श्रापी, अने तणे ते मूर्तिने त्यां स्थापी; इत्यादि अनेक पूर्वे थर गएला प्रधानपुरुषोना प्रजावथी ते रैवताचल प्रसिद्धताने प्राप्त अयो, तथा सर्व दर्शनीउथी जगतमां पूजावा लाग्यो. कडं ने के, सारं सिधगिरेर्यदेव विदितं यनेमिनः स्वामिनः, कंदर्पधिपदर्पमईनहरे/रावदातास्पदम् ॥ यन्निःसंख्यमहर्षिकेवलरमासंयोगसंकेतभ स्तीर्थश्रीगिरिनारनाम तदिदं दिष्ट्या नमस्कुर्महे १ अर्थ- जे श्रीगिरनार नामर्नु तीर्थ सिद्धगिरिनो सार , तथा कामदेवरूपी हाथीना दर्पने नाश करवामां सिंहसमान एवा श्री नेमिनाथ प्रजुना वीरपणानुं स्थानक , तथा जे संख्याविनाना महान शषिउनी केवलज्ञानरूपी स्त्रीना संयोगनी संकेतनी नूमिसरखं , एवा ते श्रीगिरनारजी नामना तीर्थने सारी रीते हुँ नमुं बुं. वली तेमज श्रीपाबुजीनुं तीर्थ पण जरतचक्रीए करावेला श्रीयुगादि प्रजुना प्रासाद तथा बिंबथी, तथा श्री नागेंजादिक आचार्योथी प्रतिष्ठित भएली श्री आदीश्वर प्रनुनी प्रतिमाना स्थापनथी, तथा श्रीविमलशा, वस्तुपाल आदिकोएं बनावेलां श्रीशषनदेव, तथा नेमिनाथ प्रज्जुना प्रासाद श्रादिक पुण्यकार्योनी परंपराथी पृथ्वीमांप्रसिधथएलुं ले. कर्तुं ने के, नागेंचंतनिर्वृति-विद्याधरप्रमुखसकलसंघेन ॥ अर्बुदकृतप्रतिष्ठो, युगादिजिनपुंगवो जयति ॥१॥ तेवीज रीते नागहृदमां रहेळु नवखंमापार्श्वनाथनुं तीर्थ पण जाणवं. तेनुं वृत्तांत नीचे प्रमाणे के. . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. चित्रकूटनो स्वामी श्री चित्रांगद राजा आघाटपुरत्तन जोवा माटे श्राव्यो हतो त्यां तेने रात्रिए स्वप्न श्राव्यु के, परवालां तथा मोतीना स्वस्तिकथी शोनिता श्रएला नागहृद नामना कुंडमां श्री पार्श्वनाथजीनी प्रतिमा बे. पळी ते कुंडमांथी ते प्रतिमाने तेणे कहाडीने नागहृद नामना नगरमां देहेरुं बांधीने तेमां स्थापन करी. हवे एक दहाडो ते नगरमां ते राजाना वंशनो सोम नामे राजा राज्य करतो हतो. त्यारे त्यां लडवा माटे योगिनी नामना नगरथी असुरोनुं लश्कर आव्युं. त्यारे ते सोम राजाए ते प्रतिमार्नु पूजन कर्यु; त्यारे ते ते प्रतिमाना अधिष्ठायकथी अधिष्ठित शरीरवालो श्रश्ने लडवाने गयो; अने ते असुरोना सैन्यनो तेणे पराजय कर्यो. पण पोताना शरीरमां त्यां तलवारना नव घा वाग्या. पगी ज्यारे ते पागे आव्यो, त्यारे तेणे पोताने अदत शरीरवालो, तथा मूर्तिने नव टुकडावाली जोश. त्यारे तेणे त्रण उपवास करीने देवता- आराधन कर्यु. पठी ते देवताए दीधेला स्वप्नने अनुसारे ते नवे टुकमाउने जोमीने तेणे प्रतिमाने सऊ करी. अने तेथी महामहिमाना स्वानकरूपातला सर्व उपवोने हरनारं ते नवखंमा पार्श्वनाथन तीर्थ थयु. वली तेवीज रीते श्री श्रीपदना तीर्थने पाठ जरतचक्रीए प्रवर्ताव्यु के. कडुं ने के, अष्टापदाजिशिखरे, निजनिजसंस्थानमानवर्णधराः ॥ नरतेश्वरनृपरचिताः, सपत्नमया जयंति जिनाः ॥२॥ तेवीज रीते सेरिसक तीर्थ पण जाणवू, तेनुं वृत्तांत नीचे प्रमाणे जाणवु. देवचंड नामना कुबकने चक्रेश्वरी देवीए सर्व कार्योनी सिचिनुं वरदान आप्युं हतुं; तेणे त्रण नूमिवालुं एक अत्यंत सुंदर जिनमंदिर एक रात्रिमांज बनाव्यु. तथा तेमां श्री पार्श्वनाथ प्रनु Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ उपदेशतरंगिणी. दिक चोविसे जिनेश्वरोनी कायोत्सर्ग ध्यानमा रहेली प्रतिमार्जने स्थापन करी. ते तीर्थ या कलिकालमां पण अतुल्य प्रजाववालुं देखाय बे. वली तेमज श्री कुमारपाल राजाए करावेतुं एवं अत्यंत उंचा एवा श्री अजितनाथ प्रभुना प्रासादवालु, छाने सर्व लोकोना आनंदरूपी कंदने उत्पन्न करवामां नवीन मेघ सरखुं श्री तारंगदुर्ग नामनुं तीर्थ पण प्रसिद्धज बे. तेमज मंडपाचलपर रहेला मोटा मंदिरवा तीर्थ पण प्रसिद्ध बे, के जेमां महा सती सीताए गोमयनी श्री पार्श्वनाथ प्रभुनी प्रतिमा बनावी हती, पण ते ना शीलना माहात्म्यथी ते वज्रमय थइ गइ हती. वधारे शुं कहें ? जीरापल्ली, फलवर्धिक, कलिकुंड, कुक्कटेश्वर, पावक, श्रारासण, शंखेश्वर, रावण पार्श्वनाथ, वीणादीश्वर, चित्रकूट, घाट, श्रीपूर, स्तंनपार्श्व, राणकपुरनुं चौमुख प्रासाद, इत्यादिकक तीर्थो के जे या दुनीयापर हयात बे, थइ गयां बे, नेवानां पण बे, ते ते सघलां तीर्थो, पुरुषोमां मुकुटसमान तथा पुरुषोमां इंद्र समान एवा प्रधानपुरुषोए प्रवर्तावेलां बे. पण कई पोतानी मेलेज उत्पन्न थयां नथी. वली एवं पण कोइ तीर्थ संजलाएल के जोवाएलुं नथी, के जेमांथी पुरुषो उत्पन्न था, करीनेज पृथ्वीनं भूषण पुरुषज बे. कह्युं बे के, हस्ती जाति मदेन के जलरुहैः पूर्णेउना शर्वरी वाणी व्याकरणेन हंसमिथुनैर्नद्यः समा पंक्तैिः ॥ शीलेन प्रमदा जवेन तुरगो नित्योत्सवैमंदिरं सत्पुत्रेण कुलं नृपेण नगरं लोकत्रयं धार्मिकैः ॥ १ ॥ कारान्धावमृतं धने वितरणं वाणी विलासे श्रुतं देहेऽन्योपकृतिः फलं वरतरौ वंशे च मुक्ताफलम् ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. मृत्स्नायां कनकं सुमे परिमलः पंके पयोजं यथा संसारे पुरुषायुषं निगदितं सारं तथा कोविदैः ॥२॥ गत्याऽघहत्या श्रुतसंयमाभ्यां, सद्दानसध्यानतपःक्रियानिः॥ अर्हत्पदज्ञानशिवर्धिन्निश्च, मानुष्यकं जन्म वरं सुरेभ्यः ॥३॥ वली ते पुरुषोनुं आजूषण लक्ष्मीज . पण रूप अने कलादिक गुणो आजूषणरूप नथी. कहुं ने के, जाश्रुवं विजातिनि, विनिवडंतु कंदरे विवरे॥ अछुच्चिय परिवहन, जेण गुणा पायमा कुँति ॥१॥ वली लक्ष्मीवान माणस अकुलिन होय तोपण उत्तम कुलनो, बन्ने कुलथी शुच, एकसो एक कुलोनो उद्योत करनारो, बन्ने पक्थी निर्मल राजहंसना अवतार सरखो गणाय ; वली ते कलाविनानो होय तोपण समीथी बहोंतेर कलानो जाण कहेवाय बे; वली त्रीज के तेरस आदिकना जेदन जेने जान पण नथी, एवो पण पुरुष जो अव्यवालो होय तो चउद विद्यानो पारंगामी तथा बृहस्पति सरखो दुनियामां कहेवाय जे कुरूप- ' वालो होय तोपण उत्तम रूपवालो कामदेव सरखो, कालो होय तो कृष्णावतारवालो, गणो होय तो वामन वासुदेवना अवतारवालो, चंचो होय तो धुंटणसुधि लांबा हाथवालो, लांबा कानोवालो होय तो चंपाना गेड जेवो, थामुं बोलनारो होय तो मुखकमलमांधी कर्पूरनी चूरणने खरवावालो, बहुबोलो होय तो वाचाल चाणाक्य सरखो चकोर, थोड़ें खातो होय तो देवांशी तथा पोपटनी पेठे आहार करनारो, घणुं खातो होय तो पूर्व नवे संपूर्ण दान देने आवेखो अने तेथी पोतानी श्वा प्र Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. माणे जोजन करनारो, आलसु होय तो लाग्यशाली, उद्यमी होय तो साहसिकोमां शिरोमणि, लंगको होय तो मनोहर हाथीना बच्चांसरखी लीलायुक्त गतिवालो, लोजीष्ट होय तो चिंतामणिनी पेठे गुप्त दान देनारो, पात्र अपात्रना विचार विनानो जो होय तो उदार चरित्रवालो तथा आषाढ मासना वरसादनी पेठे जंच नीच स्थाननो विचार कर्याविना दान देनारो, इत्यादि अनेक दूषणोना समूहवालो होय तो पण समीरूपी स्त्रीथी जे आलिंगित आयो बे, तेना दूषणोने पण लोको गुणपणाथीज जुए जे. कडं ने के, विगुणमविगुणटुं रूवहीणं च रम्मम् जममवि मश्मंतं मंदसतंपि सूरम् ॥ अकुलमविकुलीणं तं पयंपंति लोआ नवकमलदललीणा जं पलोए लबी॥१॥ वयोवृधास्तपोवृधा, ये च वृधा बहुश्रुताः ॥ सर्वे ते धनवृधस्य, घारे तिष्टंति किंकराः॥२॥ वंद्यते यदवंद्योऽपि, यदपूज्योऽपि पूज्यते॥ गम्यते यदगम्योऽपि, स मनावो धनस्य हि ॥३॥ यस्यास्ति वितं स नरः कुलीनः स पंमितः स श्रुतवान् गुणज्ञः ॥ स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयते॥४॥ आलस्यं स्थिरतामुपैति नजते चापट्यमुद्योगितां मूकत्वं मितन्नाषितां वितनुते मौग्ध्यं नवेदार्जवम॥ पात्राऽपात्रविचारसारविरहो यबत्युदारात्मतां । मातर्लक्ष्मि तव प्रसादवशतो दोषा अपि स्युर्गुणाः॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. अर्थ- नवा कमलनां दलपर लीन थएली लक्ष्मी जेने जुए बे, ते माणस निर्गुणी होय तोपण गुणवान कहेवाय , तथा रूपविनानो होय तोपण मनोहर कहेवाय , मुर्ख होयं तोपण बुद्धिवान कहेवाय ने, निर्बल होय तोपण शूरो कहेवाय ने, तथा अकुलिन होय तोपण लोको तेने कुलीन कहे . ॥१॥ वयथी वृक्ष श्रएला, तपथी वृक्ष श्रएला, तथा घणा सिद्धांतो नणीने तेमांजे वृक्ष श्रएला , तेसघलाई धनथी वृक्ष थएवार्डने बारणे चाकर थश्ने रहे ॥२॥ नहीं वांदवालायक पण जे वंदाय ने, नहीं पूजवालायक पण जे पूजाय , अगम्य पण जे गम्य थाय बे, ते सघलो व्यनो प्रत्नाव जे. ॥३॥ जेनी पासे धन बे, ते माणस कुलीन, तेज पंडित, तेज शास्त्रवेत्ता, तेज गुणोने जाणनरो, तेज वाचाल तथा तेज जोवालायक श्राय बे, माटे सर्वे गुणो धननो आश्रय करीने रहेला . पालक्ष्मीना प्रत्नावथी बालस स्थिरताने प्राप्त थाय , चपलता उद्योगपणाने प्राप्त श्राय , मुंगापणुं मितनाषिपणाने विस्तारे , मुग्धपणुं आर्जवतारूप थाय ने, पात्र अपात्रनो विचार उदारपणाने आपे बे, माटे हे लक्ष्मीदेवी ! तमारी कृपाना वशथी दूषणो पण गुणरूप थाय . ॥ ५॥ हवे वधारे शुं कहेवू? सर्व प्रकारोथी पुरुषोनुं आजूषण खदमीज . हवे ते लक्ष्मी पण जो न्यायथी उपार्जन करी होय, तोज ते वधारे उत्तम बे, पण अन्यायथी उपार्जन करेली लक्ष्मी उत्तम नथी. कडुं ने के, अन्यायसंन्नवा श्री-रन्यायेनैव याति सा नियतम् ॥ अर्जनहानिक्लेशः, केवलमवशिष्यते कुधियाम॥२॥ अर्थ- पुष्ट बुद्धि माणसोनी अन्यायश्री उत्पन्न भएली ते Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. खरेखर अन्यायथीज चाली जाय बे, फक्त लक्ष्मीना कमावानो ने हानीनो क्लेशमात्र तेने तो बाकी रहे बे. ॥ १ ॥ न्यायोपार्जितं वित्तं, दश वर्षाणि तिष्ठति ॥ प्राप्ते षोडशमे वर्षे, समूलं च विनश्यति ॥ २ ॥ अर्थ - अन्यायी उपार्जन करेलुं धन फक्त दश वर्षोसुधिज रहे बे, पण शोलमं वर्ष श्रावते बते ते मूल सहित नाश पामे बे. २ वली लक्ष्मीविनाना पुरुषोनां कुल, शील, लावण्य, रूप, तथा विद्यादिक गुणो पण दूषणपणाने प्राप्त थाय बे. कयुं छे के, साकारोऽपि सविद्यपि, निर्द्धव्यः क्वापि नार्श्यते ॥ व्यक्ताक्षरः सुवृत्तोऽपि, प्रमः कूटो विवर्ज्यते ॥ १ ॥ अर्थ - उत्तमरूपवालो ने विधान एवो पण माणस जो धन रहित होय तो तेने लोको गणकारता नथी; केमके, प्रगट वालो ने गोलाकारवालो पण खोटो पैसो वर्जी देवाय बे ॥ १ ॥ - १० वरं रेणुर्वरं जस्म, नष्टश्रीर्न पुनर्नरः ॥ मुक्त्वेनं दृश्यते पूजा, क्वापि पर्वणि पूर्वयोः ॥ २ ॥ अर्थ - धूल छाने राख सारी बे, पण निर्धनं पुरुष श्रेष्ठ नथी; केमके ते निर्धन पुरुषविना धूल ने राखनी कोइक पर्वमां पूजा थती देखाय बे. ॥ २ ॥ वे निर्धन माणस जो उंचो होय तो ते थंजा सरखो, नीचो होय तो कुबको, जो रूपालो होय तो श्रमवायुवालो, कालो होय तो वनमा रहेता नील सरखो, थोकुं खातो होय तो मंद, घणुं खानारो होय तो काली, उदार होय तो उमाउ, आडंबरवालो होय तो दुराचारी, विनयी होय तो जीखारी, थोरुं बोलनारो होय तो मुंगो ने मूर्ख, वाचाल होय तो बहु बकबकी, क्षमावालो होय तो बीकाने रांकाने शूरो होय - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. तो धाडपाडनारो कहेवाय ने वधारे शुं कहेवू? निर्धन माणस तो क्याए पण पूजनीक श्रतो नथी. आश्री करीनेज पुरुषyाजूषण उत्तम लक्ष्मी कहेली . हवे लक्ष्मीनु आजूषण दान ले. कडं ने के, काव्येनेव कविर्धियेव सचिवो न्यायेन भूमीधवः शौर्येणेव नटो हियेव कुलजः सत्येव गेह स्थितिः॥ शीलेनैव तपस्विषेव सविता वित्येव आध्यात्मवान, वेगेनेव हयो दृशेव वदनं दानेन लदमीस्तथा॥१॥ अर्थ- काव्यश्री जेम कवि, बुधिश्री जेम मंत्री, न्यायथी जेम राजा, शूरापणाथी जेम सुलट, लजाथी जेम कुलपुत्र, सती स्त्रीथी जेम घरनी स्थिति, शीलथी जेम तप, कांतिथी जेम सूर्य, ज्ञानथी जेम अध्यात्मी, वेगथी जेम घोडो, तथा आंखथी जेम मुख तेम दानथी बदमी शोने ॥१॥ वली दानविना लक्ष्मीनो नाश पण संललाय बे; कह्यु के के, श्रीवृधिनखवलेद्या, न धार्यैव कदाचन ॥ प्रमादात्स्खलिते क्वापि, समूलापि विनश्यति ॥१॥ अर्थ- लक्ष्मीनी वृधिने नखनी पेठे बेदवी; पण तेने संची राखवी नहीं; केमके, प्रमादथी स्खलना होते बते ते समूली नाश पामे ले. ॥१॥ दानं नोगोनाश-स्तिस्रो गतयो नवंति वितस्य ॥ यो न ददाति नभुंक्ते, तस्य तृतीया गतिवति ॥२॥ अर्थ- दान, लोग अने नाश एम त्रण गति धननी जे; माटे जे दान देतो नथी के लोगवतो नथी, तेना धननी त्रीजी गति एटने नाश श्राय .॥२॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ उपदेशतरंगिणी. आयामशतलब्धस्य, प्राणेभ्योऽपि गरीयसः ॥ गतिरेकैव वित्तस्य, दानमन्या विपत्तयः ॥ ३॥ - सैंकडोगमे प्रयासथी मलेला तथा प्राणोथी पण वहाला एवा धननी दानरूप एक उत्तम गति बे, बाकी तो विपत्तिरूप गति बे. ॥ ३ ॥ दातव्यं जोक्तव्यं, सति धने संचयो न कर्तव्यः ॥ पश्येह मधुकरीणां, संचितमर्थं हरंत्यन्ये ॥ ४ ॥ -धन होते ते तेनुं दान देवुं, तथा तेने जोगवनुं, पण संचय करी राखवो नहीं; केमके, जुर्ज ? के हीं नमरीए एकवां करेला धनने ( मधने) बीजार्ज हरी जाय बे. ॥ ४ ॥ एव ते सर्व प्रकार विचार करतां थकां लक्ष्मीने शोनावनारुं दानज बे. कंबे के, सारं तदेव सारं, नियोज्यतेय जिनेंऽभवनादौ ॥ अपरंपुनरफलं, पृथ्वीमलखंडपिंडं वा ॥ १ ॥ - जे धनने जिनवनादिकमां जोडवामां यावे तेज धन उत्तम बे, पण बीजुं तो पृथ्वीना मेलना खंड अथवा पिंड सरखुं धन निष्फल a. ॥ १ ॥ दानरूपी भूषण विना लक्ष्मीने पाषाणना मेलरूपज जाएवी. जेम पूर्वे पाटलीपुत्र नामना नगरमां नव नंद नामना राजा थया हता; ते अत्यंत कृपण होवाथी तेर्जए लोकोपर कर नाखीने तथा तेने पीडीने घणुं धन एकतुं कयुं हतुं तथा ते धनना तेर्जए सुवर्णना नव डुंगरो कर्या हता. पण तेर्जना श्रमाग्यना योगथी ते कुंगरो पाषाणरूप थइ गया. अने जे पण ते मुंगरो पाटलीपुरपासे गंगाना कांठापर पीला पत्थरना देखाय बे. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उपदेशतरंगिणी. तेमज रंक श्रेष्ठिनी संपूर्ण लक्ष्मी पातालमां लुप्त थ गजे. तेमज राजगृही नगरीमा रहेता मम्मण शेने अत्यंत लक्ष्मी एकठी करीने मणिनो बलद बनाव्यो हतो. पण बेवटे दानादिकना अनावथी तेनी ते सर्व लक्ष्मी फोकटज पृथ्वीपर नाश पामी. तेमज संकुल नामना शेठे कपिल बटुने कडं के, हुँ तने आवती काले लोजन करावीश; पण वटे तेने लोजन नहीं करावतां उमास सुधि तेणे तेने ठग्यो. त्यारे कपिल बटुए त्रण उपवासो करीने कालिका माता, आराधन कर्यु; पजी ते देवीए दीधेली रूप बदलाववानी विद्याना बलथी तेणे संकुलनुं रूप धारण कर्यु. तथा तेनी सघली लक्ष्मी ने लोगवी. पनी पोतानुं रूप प्रगट करीने तेणे संकुलने एवो उपदेश आप्यो के, दातव्यं नोक्तव्यं, सति विनवे संचयो न कर्तव्यः ॥ यदि संचयं करिष्यसि, संकुल पुनरागमिष्यामि ॥१॥ . अर्थ- हे संकुल! धन होते ते तेनुं दान देवू, तथा तेने जोगवईं; पण तेनो संचय करी राखवो नहीं; माटे हवे फरीने जो तुं धननो संचय करीश, तो हुँ पागे श्रावीश. ॥१॥ ___ माटे हवे वधारे शुं कहेवु? लक्ष्मीनुं आभूषण केवल दानज ने; पण लोगआदिकनी सामग्री तेना आजूषणरूप नथी कां ने के, आरोहंति सुखासनान्यपटवो नागान हयांस्तङ्गुषस्तांबूलाद्युपभुंजते नटविटाः खादंति हस्त्यादयः मासादे चटकादयोऽपि निवसंत्येते न पात्रं स्तुतेः स स्तुत्यो नुवने प्रयवति कृती लोकाय यः कामितम्। अर्थ-(केटलाक) मूल् पालखीउपर बेसे बे, हाथी घोडावाला हाथी घोडाउपर चडे , नटविटो तांबूलादिक खायचे, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ उपदेशतरंगिणी. हाथीआदिको पण खाय , मेहेलमां चीडीआदिको पण रहे, पण ते स्तुतिपात्र नथी; पण जे कृतार्थ माणस आ जगतमां खोकोने इछित दान आपे , तेज स्तुति करवा लायक ने ॥१॥ वली दीधेढुं दान क्याएं पण. निष्फल जतुं नश्री. कयुं के, पात्रे धर्मनिबंधनं तदितरे प्रोद्ययाख्यापकं मित्रे प्रीतिविवर्धकं रिपुजने वैरापहारदमम् ॥ भृत्ये नक्तिन्नरावहं नरपतौ सन्मानपूजापदं नट्टादौ च यशस्करं वितरणं न क्वाप्यहो निष्फलम। अर्थ-सुपात्रप्रते आपेलुं दान धर्मना कारणरूप मे, तथा अन्यप्रत्ये दीधेलुं दान दयाने जणावनारुंजे, मित्रप्रते दीधेलुं दान प्रीति वधारनारुं , शत्रुने आपेलुं दान वैरनो नाश करवामां समर्थ ने, चाकरने दीधेलु दान नक्तिना समूहने धारण करावनाएं बे, राजाने आपेढुं दान सन्मान अने पूजा श्रापनारं , तथा जाटआदिकने दीधेलुं दान यशने करनालंबे एवी रीते अहो! दान क्याएं पण निष्फल जतुं नथी.॥१॥ __ हवे ते दान- आजूषण सुपात्रनो संयोगज ने केमके, सुपात्र प्रते जे दान देवाय तेज कट्याणने अने शांतिने करनालं. नैषधकाव्यमां कडं ने के, पूर्वपुण्यविनवव्ययबधा, संपदो विपद एव विमृष्टाः ॥ पात्रपाणिकमलार्पणमासां, तासु शांतिकविधिविधिदृष्टः अर्थ-पूर्व करेखां पुण्योरुपी विनावना खरचवाथी मलेली संपदाउने आपदार्जरुपज मानेली के; पण ते संपदाउनुं सुपात्रोप्रते हस्तकमलथी जे अर्पण करवू, ते तेउने विषे ब्रह्माए दीलो शांतिनो विधि ॥१॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. सुपात्रोप्रते श्रापेलुं श्रोतुं दान पण बहुफलवालुं थायजे. कडुंडे के, जले तैलं खले गुह्यं, पात्रे दानं मनागपि ॥ माझे शास्त्रं सतां प्रीति-विस्तारं यात्यनेकधा ॥१॥ अर्थ-पाणीमां नाखेलुं तेल, खलप्रते कहेली गुप्तवात, सुपात्र प्रते आपेलु थोर्नु पण दान, विघानने (नणावेलुं) शास्त्र तथा सङनोनी प्रीति अनेक प्रकारे विस्तारने पामे ॥१॥ व्याजे स्याद् हिगुणं वित्तं, व्यवसाये चतुर्गुणम् ॥ क्षेत्रे शतगुणं प्रोक्तं, पात्रेऽनंतगुणं पुनः ॥२॥ अर्थ-व्याजमां बेवहुं धन थाय ने, व्यापारमा चोगणुं थाय बे, देत्रमा सो गणुं थायमे, पण सुपात्रप्रते श्रापेलुं धन अनंतगणुं थाय . ॥॥ __ माटे सुपात्रप्रते श्रापेलु धन बहु फलदायक ने, अने कुपात्र प्रते श्रापेटुं धन विपरीत फलने देनारुं . ___ हवे अहीं कोइ एम कहेके, पात्र अपात्रनो विचार तो कृपणज करे, पण उदार माणस करे नहीं. कर्वा ने के, “पाननी परीक्षा शा माटे करवी जोएं? केमके वरसतो एवो वरसाद कंश समविसमनी परीक्षा करतो नथी." तेने उत्तर श्रापे ने के, एम नहीं, केम के, वरसी वरसीउ अंबुहर, वरसीडां फल जो॥ धत्तुरए विष इकुए रस, एवड अंतर हो ॥१॥ वली स्वाति नक्षत्रमा पाणीमां पण पात्र विशेषनी अपेक्षाए मोटो अंतर जे; केमके, तेज पाणी जो सर्पना मुखमां पडे तो फेररूप धायने, अने जीपना मुखमां जो पडेने, तो मोतीरूप थशे. कडं के- . Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. आने निंबे सुतीर्थे कचवरनिचये शुक्तिमध्येऽहिवकत्रे ॥ औषध्यादौ विषौगुरुसरसि गिरौ पांमुभूकृष्णभूम्योः श्दुदेकषायजुमवनगहने मेघमुक्तं यथांन स्तइत्पात्रे कुपात्रे जगति निजधनं दतमायाति पाकम॥ अर्थ-आंबापर अने लींबडापर, उत्तम तीर्थमां अने कचराना समूहमां, बीपमां अने सर्पना मुखमां, औषधिआदिकमां अने फेरी वृक्षमा, मोटा तलावमां अने पर्वतपर, सफेद जमीनमां अने काली जमीनमां, तथा सेलडीना देत्रमा अने कषाएला वृदोनां वनमां वरसादे वरसावेलुं पाणी जेम जुदा जुदा लावोने जजनारं थाय ने तेम आ जगतमां सुपात्र अने कुपात्रने आपेलू पोतानुं धन पण पकनावने प्राप्त थाय ने ॥१॥ हवे पात्र पण तेज उत्तम जाणवू के, जे नाम प्रमाणे गुणोवालुं होय; तेथी विपरीत जे होय ते उत्तम पात्र कहेवाय नहीं. कडं जे केनौमे मंगलनाम विष्टिविषये ना कणानां दये वृद्धिः शीतलिकेति तीव्रपिटके राजा रजःपर्वणः मिष्टवं लवणे विषे च मधुरं रैकंटिकाद्यं यथा पात्रवं च पणांगनासु रुचिरं नाम्ना तथा नार्थतः ॥१॥ ___ पात्र तो ते कहेवाय के, जे पोते तरवामां अने परने तारवामां समर्थ होय. जेम के, बुडी जाय एवं पण त्रांचं पात्ररूप थयुं थकुं पोते तरे , तथा तेनो आश्रय करीने रहेली सर्व वस्तुउँने पण तारे बे. पात्र परीक्षामां युधिष्ठिर अने नीमनो संवाद नीचे प्रमाणे जे. हस्तीनागपुरमा एक दहाडो युधिष्ठिर राजा सनामां सिंहास Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. नपर बेग हता. एटलामां बारणे रहेला जीमे आवीने तेमने विनंती करी के, हे राजेंज ! एक मूर्ख तपस्वी अने विधान शूज बन्ने जणा बारणे उजा, तेमांथी कोने दान आपq. ? त्यारे युधिष्ठिरे कडं के, हे जीम! तप तो सुखेथी तपी शकायचे, पण विद्या मेलववी बहु मुश्केल , माटे हुँ तो विधाननी पूजा करीश; तपोनुं शुं प्रयोजन के ? त्यारे नीमे कह्यु के, हे युधिष्ठर! जेम कुतराना चांबमांमां प्राप्त थएली गंगा, तथा मदिराना कुंजमां पडेलु दूध तेम कुपात्रमा प्राप्त भएली विद्या शा उपयोगनीचे ? त्यारे कृष्ण वैपायने कह्यु के, केवल विद्या के तपसाथी पात्रपणुं यतुं नथी, जेनामां विद्या अने उत्तम आचार , तेज सुपात्र कहेवाय . माटे सुपात्र प्रते आपेलुं धन कल्याणकारी . कडुं ने के, ॥१॥ सा लक्ष्मीर्या धर्मकर्मोपयुक्ता, ___ सा लक्ष्मीर्या बंधुवर्गोपन्नोग्या ॥ सा लदमी- स्वांगन्नोगप्रसंगा, .. . यान्या मान्या सा तु लदमीरलक्ष्मीः ॥१॥ __ अर्थ- जे लदमी धर्मकार्योमा जोडाय , तथा जे बंधुवर्गना उपत्नोगमां आवे बे, अने जे पोताना पण उपत्नोगमां आवे , तेज खरेखरी लदमी , पण तेथी विपरीत लदमीने तो “ असदमीज” मानवी. ___ माटे धर्मना अर्थी माणसे न्यायथी उपार्जन करेलु, तथा क्षेत्र, काल अने लावधी निर्दोष थएटुं एवं दान कीर्ति आदिकनी अपेक्षा राख्याविनाज सुपात्रने आपq. हवे दान प्रायें करीने हेतुवालुं होय . ते दान देवामां दश हेतु नीचे प्रमाणे होय . (१) रोगी अथवा जिदाचरोने दयाथी दान अपाय बे. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. (२) मदद आपनारने संग्रहथी दान अपाय बे. (३) उर्जनोने जयथी दान आपq पडे . (४) पुत्रादिकने जुदा करती वखते कारणीक दान अपाय . (५) लोकलजाथी दान आप, पडे बे. (६) नाट चारणादिकोने गर्वथी दान अपाय . (७) हिंसकोने अधर्मथी दान आप, पडे . (७) साधु आदिक चतुर्विध संघने धर्मबुद्धिथी दान अपाय . (ए) आने दुं दान आपीश तो ते मने कोश् वखते पण उपकार करशे एवी बुद्धिथी दान अपाय जे. (१०) तथा पदेलां आणे मने बहु उपकार कर्यो ने, एवी बुद्धिथी दान अपाय जे. एवी रीते दान दश प्रकारचें . तेमांथी त्रण प्रकार आलोक संबंधि दानना ले. कडं ने के, नयलोन स्तथास्नेह-स्त्रयो दानस्य हेतवः ॥ ये दातारवयं मुकवा, धन्यास्ते मुक्तिगामिनः ॥१॥ अर्थ- जय, लोन, तथा स्नेह ए त्रणे हेतु दानना , ते त्रणे हेतुउँने गेमीने जेठे दान आपे , ते धन्य मनुष्यो मोदगामी थाय . हवे वधारे शुं कहेवू ? दान- भूषण सुपात्र ने. कर्वा ने के, उत्तमफलं सुपात्रे, दानं विनवस्य मध्यमो नोगः ॥ अधमं व्यसनव्ययगति-रधमाधममवनिविन्यासः॥१॥ अर्थ- सुपात्र प्रते जे दान देवू, ते धननु उत्तम फल , जोगो जोगववा ते मध्यम फल , तथा व्यसनमां खरचq ते अधम फल बे, अने धनने जे जमीनमां नंडारी राख, ते अधममां अधम फल बे. ॥१॥ अधः दिपंति कृपणा, वितं तत्र थियासवः ॥ संतस्तु गुरुचैत्यादौ, तउच्चैः पदकांक्षिणः ॥१॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ उपदेशतरंगिणी. अर्थ- कृपण लोको नीची गतिमां जवानी श्वावाला होवाथी धनने नीचे जमीनमां नंडारी राखे , पण सजनो उंची गतिनाश्बको होवाथी ते धनने उंचां जिनप्रासादादिकमां वापरे. ___ माटे हे नव्यलोको ! लाग्यवान एवा तमोए सुपात्रदानरूप धर्मविधिमा सर्वदा उद्यम करवो. ॥ इति सुपात्रदानोपदेशः॥ हवे दानना फलनो उपदेश कहे जे. अन्नयं सुपत्तदाणं, अणुकंपा नचित्र कितिदाणं च ॥ . दोहि विमुको नणित, तिन्नि विनोग्गाश्अंदिति ॥१॥ __ अर्थ- आ जगतमां दान पांच प्रकारचें प्रसिद्ध जे. वधबंधनादिक जयथी नयनीत थएला जंतुउँने, तेठना प्राणो बचावीने जे तेउने निर्णय करवां, तेने पहेलुं अनयहान कहेलु जे. कडं ने के, ॥१॥ जीवानां रक्षणं श्रेष्टं, जीवा जीवितकांदिणः ॥ तस्मात्समस्तदानेभ्यो-ऽनयदानं प्रशस्यते ॥१॥ अर्थ- जीवोनुं रक्षण करवू ते श्रेष्ठ कार्य , केमके, जीवो जीवितना अनिलाषि ने, माटे सर्व दानोश्री अजयदान प्रशंसवा लायक बे. ॥१॥ . यो दद्यात्कांचनं मेलं, कृत्स्नां चैव वसुंधराम् ॥ एकस्य जीवितं दद्यात, न च तुल्यं युधिष्टिर॥३॥ अर्थ- हे युधिष्ठिर ! कोइ माणस कोश्ने सुवर्णनो मेरु पर्वत आपी दीए, अथवा समस्त पृथ्वीने आपी दीए; तथा एक जीवने जीवितदान आपे, ते बन्ने एक सरखां नथी. (अर्थात् जीवितदान सर्वश्री श्रेष्ठ बे. ॥२॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. अहिंसा सर्वजीवानां, सर्वज्ञैः परित्नाषितम् ॥ इदं हि मूलं धर्मस्य, शेषस्तस्यैव विस्तरः ॥३॥ अर्थ- श्री सर्वज्ञ प्रनुए एम कडं ले के, सर्व जीवोनी हिंसा नहीं करवी, ए धर्मनुं मूल , अने बाकीनी धर्मक्रिया तो ते अहिंसानोज विस्तार बे. ॥३॥ अन्नयं सर्वसत्वेभ्यो, यो ददाति दयापरः ॥ तस्य देहाधिमुक्तस्य, जयं नास्ति कुतश्चन ॥४॥ अर्थ-जे माणस दयामां तत्पर अश्ने सर्व प्राणीजने अजयदान आपे , तेने मृत्युबाद क्यांय पण नय थतो नथी. ॥४॥ अजयदान देवाथी "आ माणस कट्याणकारी, दयालु, तथा कृपाना समुज सरखो ने” एवी रीतनी कीर्ति आ लोकमां थाय ने अने परलोकमां राज्यसंपदादिक लोगोनो समूह मले बे. कडं ने केदीर्घमायुः परं रूप-मारोग्यं श्लाघनीयता ॥ अहिंसायाः फलं सर्व, किमन्यत्कामदैव सा ॥१॥ अर्थ- लांबु आयुष्य, उत्कृष्टरूप, आरोग्यता तथा कीर्ति ए सघलु अहिंसा, फल बे; माटे कामघा वली बीजी कई बे ? ते अहिंसा कामघा ॥१॥ ___ पण जे धर्मबुद्धिथी हिंसा करे , तेने कट्याण के, पुण्य श्रतुं नश्री. कां ने के, हिंसा विघ्नाय जायेत, विप्रशांत्य कृतापि हि ॥ कुलाचारधियाप्येषा, कृता कुलविनाशिनी ॥१॥ . अर्थ- विघ्नोनी शांतिमाटे पण करेली हिंसा खरेखर विघ्न करनारी थाय ने तेम कुलाचारनी बुद्धिथी करेली हिंसा पण कुखनो नाश करनारी थाय ने ॥१॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. यदि ग्रावा तोये तरति तरणिर्यादयति, _प्रतीच्यां सप्तर्चिर्यदि नजति शैत्यं कथमपि ॥ यदि मापी स्याउपरि सकलस्यापि जगतः, प्रसूते सत्वानां तदपिन वधः क्वापि सुकृतम्॥२॥ अर्थ-जो पत्थर पाणीमां तरे, सूर्य पश्चिम दिशामां उदय पामे, अग्नि कोश्क यत्ने शीतलताने नजे, तथा आ पृथ्वीतल कदाच' सर्व जगतनी उपर थइ जाय, तोपण प्राणीउनी हिंसा क्यांय पण पुण्य उत्पन्न करे नहीं. ॥ २॥ स कमलवनमग्नेर्वासरं नावदस्ता, दमृतमुरगवक्त्रात्साधुवादं विवादात् ॥ रुगुपगममपथ्याजीवितं कालकूटा, दन्निलषति वधाद्यः प्राणिनां धर्ममिछेत् ॥३॥ अर्थ- जे माणस प्राणीउनी हिंसाथी धर्मने श्वे, ते अनिश्री कमलोना वनने, सूर्यास्तथी दिवसने,सर्पना मुखमांथी - मृतने, विवादथी कीर्तिने, अपथ्य लोजनथी रोगना नाशने, तथा फेरना नदाणथी जीवितने श्छे . ॥ ३॥ . __एवी रीते अनयदानरूप धर्मना आराधनथी घणां जव्य मा सो मोदनगरमां गया जे. जेम श्री शांतिनाथ प्रन्नुए बाज पदीने पोतानुं मांस आपीने पारापतनुं रक्षण कर्यु , एवा ते श्री शांतिनाथ प्रतु तमोने शांति आपो? एवीरीते ते श्री शांतिनाथ प्रनुए मेघरथ राजाना नवमां पारापतने अजयदान आपीने त्रणे लोकमां करुणासागरपणुं मेलव्यु. तेम सुमेरु नामनो हाथी ससलाने अजयदान आपवाथी मगधना राजा श्रेणिकनो मेघकुमार नामनो पुत्र श्रयो बे. तेनी कथा नीचे प्रमाणे जाणवी. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. विंध्याचल व मां सातसो हाथणीनो स्वामी सुमेरु नामे एक हाथी हतो. एक दहाको त्यां दावानलने जोड़ने तेने जातिस्मरण ज्ञान थयुं. तेथी पूर्वजवमां दावानलथी थएला दुःखथी जय पामीने तेणे वर्षाकालमां एक योजनसुधिनी मिपरथी घासादिक वृोने उखेमीने चोख्खं मेदान करी राख्युं. हवे एक दहाड ते वनमां फरीने दावानल लाग्यो; त्यारे ते सुमेरु हाथी ते मेदानमां परिवारसहित रह्यो; तेम हरिणादिक बीजा जीव पण ते मैदानमां चावीने जराया. ते वखते शरीरे खरज श्राववाथी ते सुमेरु हाथीए पोतानो एक पग उंचो कर्यो. त्यारे बीजार्जथी हडसेलातो एक ससलो ते हाथीना पगनी नीचे जया खाली श्रवाथी आावीने जरायो. त्यारे हाथीने दया - ववाथी तेणे त्रण दिवसो सुधि पोतानो ते पग उंचोज धारी राख्यो. पी दावानल शांत थवाथी सर्व जीवो पोतपोताने स्थानके गया; त्यारे ते हाथी ए पोतानो ते पग नीचो मूक्यो; पण लोही जरा जवाथी ते हाथी त्यां पकी गयो; तथा क्षुधा ने तृषार्थी पीडित ने त्यां ते मृत्यु पाम्यो पनी ते पुण्यना प्रजावथी ते earl मगधना राजा श्रेणिकनी धारिणी नामनी राणीना पुत्रपणे उत्पन्न थयो. ते वखते ते राणीने मेघवृष्टिनो दोहलो उत्पन्न थवाथी तेनुं मेघकुमार नाम पारुवामां आवयं. पत्नी त्यां ते त्यंत सौभाग्यना जाजनरूप थयो. बेवढे ते दीक्षा लेने विजय नामना विमानमा एकावतारी देव थयो. एवी रीते सुमेरु हाथी नुं अजयदान उपरे दृष्टांत जाणवु. 22 हवे तेज अजयदान उपरे सौभाग्य देवीनं दृष्टांत कहे बे. जयपुर नामना नगरमां मकरकेतु नामना राजाए कोइक चोरने पककी बांधीने शूलिए चमाववानो हुकम कर्यो. पण कमला नामनी पट्टराणीए ने एकदिवस माटे बोकाव्यो. तथा ते दिवसे तेनो जोजन, वस्त्र, तथा तांबुलादिकथी सत्कार करीने तेणीए Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. तेने राजाने सोप्यो. पनी बीजे दिवसे बीजाणार,श्रीजे दिवसे त्रीजी राणीए, एम साते राणलिए तेनो धनादिकथी सरकार करीने राजाने सोंप्यो. आपमे दिवसे सौजाग्यदेवी नामनी - मानीती राणीए विनयपूर्वक राजीन खुशी करीन तर चोरने अनयदान अपाव्यु; तथा तेने अटप अने सामान्य जोजन, वस्त्रादिक आपीने गेडी मेट्यो. त्यारे ते चोर नृत्य, गीत आदिक करतो थको हर्षित अयो. त्यारे राजाए तेने पूज्युं के, अरे ! आजे तो तने सामान्य प्रकारचं जोजनादिक मट्युं बे, त्यारे तुं केम नाच्या करे ? त्यारे ते चोरे कडं के, हे स्वामी ! आजदनसुधि सर्व राणीउए जोके मारो घणो सत्कार कर्यो, तोपण मृत्युना नयथी वाघनी समीपे बांधेला एवा लीला यवना नोजनवाला पण घेटानी पेठे में तो पुःखज अनुलव्यु; पण आजे तो रसविनाना घांससरखा आहारथी पण व्यापारीने घेर बांधेला बलदनी पेठे हुँ अन्नयदानथी सुख अनुलबुं बुं; अने तेथी. हुं नाच्या करं.एवीरीते अजयदानपर सौलाग्य देवीनुं दृष्टांत जाणवू. हवे तेज अनयदानपर आरामिकनी कथा कहे . जयपूर नामना नगरमां धन नामना मालीए दयाना परिणामथी पांच पूराउनुं रदण कर्यु हतुं. पनी ते माली मरीने एक कुलपुत्र थयो. तेनां मातपिता बाट्यावस्थामांज मृत्यु पाम्यां. पठी ते देशांतर जातो थको वनमां एक वडना वृदनी नीचे बेगे. त्यां रहेता पांच यदोए तेने जोयो त्यारे ते कुलपुत्रने तेउए पूर्वनवनो पोतानो उपकारी जाणीने कह्यु के, तने आजथी पांचमे दिवसे राज्य मलशे. ते सांजली ते हर्षित थयो. पनी पांचमे दिवसे नरपाल राजा अपुत्री मरी जवाथी तेने वाराणसी नगरीनु राज्य मट्यु. पनी ते तो मंत्रीउने राज्य सोंपीने सुख अनुनववा लाग्यो. एटलामां सीमामाना राजाए तेनां नगरने घेरो घाट्यो. ते वात मंत्रीए राजाने जणावी; पण ते तो जुगारनी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ उपदेशतरंगिणी. क्रीमामां आसक्त श्रयो हतो, तेथी ते वात तेणे सांजली नहीं. त्यारे राणीए कहेवाथी तेणे तेणीने कडं के, हे कट्याणि ! ते वडपर रहेला पांच यदो राज्य आपेठे, अने हरेने माटे जे श्रवार्नु होशे ते अशे, माटे तुं पाशा नाख ? एम कहेवाथी ते यदोएज सीमाडाना राजाउँने बांधीने तेने पगे पडाव्या. ते जो लोकोने आश्चर्य थयु. पनी एक दिवसे त्यां ज्ञानी महाराज आव्या, तेमने लोकोए पूवाथी ज्ञानीए कह्यु के, आणे पूर्वनवमां पांच पुराउनुं रक्षण कर्यु हतुं; तेज पूराऊना जीवो आ यहरूप श्रयाने अने तेजेएज तेना राज्य, रक्षण कर्यु . वती तेज अजयदान उपरे अवंतिसुकुमालनी कथा कहे. श्रीपुर नामना नगरमां कोश्क महीमार हतो; ते पोतानी क्रूर स्त्रीना कहेवाथी रात्रिने चोथे पहारे जाल लेश्ने माग्लां पकडवा गयो; पण हजु घणी रात्रि होवाथी मार्गमां आवेला आंबाना वृदनीचे बेठेला कोइ मुनिपासे गयो. त्यां ते महात्माना उपदेशथी तेणे एवं नियम ली, के, जालमा जे पेहेलुं मानलं आवे, तेने मारे गेडी देवु. पजी तेणे समुज्ने कांग्रे जइ जालमां पेहेला आवेला मारलांने जोडी दीधुं. हवे त्यां देवे तेनी परीझा करवा मांडी. तेथी तेने तेज माउलु वारंवार तेनी जालमां श्राववा लाग्यु. त्यारे तेणे कोडी बांधीने ते माउलांने निशानी करी. बेवटे निराश श्रश्ने ते घेर गयो. त्यां तेनी क्रूर स्त्रीए तेने क्रोधथी घरमांथी कहाडी मेट्यो. त्यारे तेणे तेज साधुनी पासे जइ फरीने धर्म पूग्यो. त्यारे साधुए जीवदयारूप पेहेलुं व्रत तेने कह्यु. फरीने पूजवाथी पांच अणुव्रतो पण कह्यां. पत्री ते धर्मने सारीरीते श्राराधिने अंते शुलध्यानथी मृत्यु पामीने ते नलिनीगुल्म विमानमां देव थयो. त्यांथी चवीने लता नामनी सार्थवादनी स्त्रीने पेटे बत्रीस स्त्रीउनो स्वामी अवंतिसुकुमाल नामे पुत्र थयो. त्यां पोताना घरनी चित्रशालामां उतरेला सु Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. हस्ति आचार्यना मुखथी पठन थता नलिनीगुह्म अध्ययननु स्वरूप सांजलीने तेने जातिस्मरण ान थयु. तेथी पूर्वजवर्नु स्मरण करीने, तथा दीदा लेश्ने ते स्मशानमा रह्या. त्यां शियाक्षणीए करेला उपसर्गोने सहन करीने ते फरीने नलिनीगुटम विमानमां उत्पन्न थया. तेमने ज्यां उपसर्ग श्रयो ते जगोए (जआयनीमां) तेमना पुत्रे महाकालनुं प्रासाद बनाव्यु. ते श्री सिप्रसेनजीए करेला प्रत्नाववालुं महाकालनुं देवल आजे पण उजायनीमां हयात जे. एवीरीते अजयदानपर अवंतिसुकुमालनुं दृष्टांत जाणवू. वली तेज अजयदानपर अजयकुमारनी कथा कहेजे. - एक दहाडो श्रेणिक राजाए सलामां कह्यु के, हमणां नगरमां कर वस्तु सोंधी ने ? त्यारे निर्दय एवा दत्रिए कह्यु के, हमणां मांस सोंधू . त्यारे अजयकुमारे विचार्यु के, बाजे मारे तेउनी परीक्षा करवी. पनी तेणे रात्रिए सर्व क्षत्रिने घेर जश्ने जुडं जुएं कडं के, अरे! राजपुत्रो! आजे राजाने मोटो रोग श्रयो बे. तेनां वैद्योए घणां औषधो कर्या, पण ते मटतो नथी. पण जो मनुष्यना कालजानुं बेटांकनार मांस मले तो ते राजा जीवी शके; नहींतर ते मृत्यु पामशे. माटे तमो आ राजाना गरासीबा गे, तो शुं आटलुं पण कार्य तमो नहीं करो? त्यारे एके कडं के, तमारे जोइए तो एक हजार सोनामोहोर ट्यो? पण मने ते कार्यश्री मुक्त करो? अने बीजापासे जाउँ. पठी अजयकुमार ते प्रव्य लेश्ने बीजापासे गया, अने तेने पण तेम कडं. त्यारे तेणे पण एकहजार सोनामोहोरो आपी, पण मांस आप्यु नहीं. एवीरीते दरेकने घेर आखीरात जमीने तेणे एकलाख सोनामोहोरो एकठी करी. तथा प्रनाते सन्नामां ते सोनामोहोरो देखाडीने तेणे क्षत्रीउने कडं के, अरे क्षत्रि ! तमो कहेता हता के, आजकाल मांस सोंधू जे, पण ते तो श्रा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ उपदेशतरंगिणी. टलाबधा धनथी पण मलतुं नश्री. त्यारे ते सर्व सति थने मौन धारी बेटा. त्यारे अजयकुमारे सर्वेने निष्ठुर्या के, अरे ! मूर्खो ! पोतानुं मांस तो सर्व जीवोने वहालुं बे; तमो मांसलुब्ध श्रइने फोकटज बबड्या करो बो. केमके, विष्ठामां रहेला कीडाने अने देवलोकमा रहेला इंजने जीवितनी इवा तथा मृत्युनो जय तुयज बे. वली दुर्गतिमां गएलो जीव पण मरवाने इतो नथी; तथा कुत्सित एवा पण पोतानां भोजनने तेज स्वादिष्टज माने बे. वली पशुना शरीरपर जेटला रोमकूपो बे, तेटलाहजार वर्षोसुधी पशुहिंसा करनार प्राणी पकवाय बे. वली या जगतमां सुवर्ण, गाय, तथा धनादिकनुं दान देनारा तो सुलन बे; पण जे प्राणी ने अजयदान पेढे ते दुर्लन बे. एवीरीते अजयदान उपरे अजय कुमारनुं दृष्टांत जाणवुं. हवे जे माणस जीवहिंसा करे बे, ते वध बंधनादिक दुःखोने जोगवनारो थाय बे. जेम एक गोवाली बावलनी शूलमां जुंजैने परोवतो हतो, अने ते पापथी तेने एकसो आववार शूलीपर चडवुं पड्यं बे. तेनी कथा नीचे प्रमाणे जावी. नागपुर नामना नगरमां एक माधव नामे गोवाल हतो. एक दहाडो ते गायो चराववा माटे मोटी छटवीमां गयो. त्यां तापथी पीमायो को बावलना वृक्षनीचे बेठगे. एटलामां तेनां मस्तक परथी जुळे तेना खोलामां खरीने पमी. त्यारे निर्दयपणाथी ते ते जुने बावलनी तीक्ष्ण शूलमां परोवी; अने ते विचार्य के, छारे !! या मारा शरीरना बलने ( रुधिरने ) चोरनारी बे. पी ते पापना उदयथी तेज जवमां तेने शूली पर चडीने मरकुं पड्यं. एवी रीते बीजा एकसोने सात जुदा जुदा जवो सुधि चोरी दिनापराधथी शूलिपर चडीने तेने मरवुं पड्युं. पी एकसोने सातमेवे ते कर्म थोकुं रहेवाथी तेणे तापसी दीक्षा अंगीकार करी. त्यां हमेशां ते वनमां रहीने सुकेलां फल Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. २७ पत्रो खावा लाग्यो. तथा निःसंग व्रत धारण करवा लाग्यो. त्यां वेवटे तेने विनंग ज्ञान उत्पन्न थयुं. एटलामां त्यां नजदीकमां रहेली चंपा नामनी नगरीना नरसिंह राजानी पटराणी रनादेनां भूषणोनी पेटी एक चोरे चोरी. त्यारे पगी तेनी शोध करता थका तेनी पाबल लाग्या. त्यारे ते चोर ते पेटीने ते . तापसपासे मुकीने एक वडपर चमी गयो. त्यारे पगी ते सुतेजा तापसने पेटी सहित कमीने राजापासे लेइ गया. पबी ते तापस विनंगज्ञानी होवाथी पोतानां कर्मने निंदतो थको त्यां मौन रह्यो; तेथी राजाए तेने शूलीए चडाव्यो. एवी रीते कर्म दय करीने ते देवता थयो. एवी रीते जीवहिंसापर ते गोवालनी कथा जाणवी. वली शास्त्रोमां संजलाय वे के, जीवहिंसाथी रूप ध्यानमां तत्पर थएला सुनूम ने ब्रह्मदत्त चक्री पण सातमी नरके गया a. वधारे शुं कहेतुं ? पोतानुं हित इनार माणसे बन्ने लोकमां सुख करनारा एवा अजयदाननुं श्राराधन कर. हवे सुपात्रदाननुं विवेचन करे बे. ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, क्षमा, समता, शील, दम तथा संयम आदिक गुणोने धारण करवामां जे पात्ररूप बे, ते सुपात्र कहेवाय बे. कह्युं ने के, पाकारेणोच्यते पापं, त्रकारस्त्राणवाचकः ॥ अक्षरद्दयसंयोगे, पात्रमाहुर्मनीषिणः ॥ १ ॥ अर्थ - " पा ” एटले पाप, अने तेथी "त्रा " एटले ( - त्मानं ) रक्षण करवुं; एवी रीते ते बन्ने रोना संयोगथी “पात्र" शब्द थाय बे; एम विधानो कहे बे. ॥ १ ॥ ८८ एवी रीते नामप्रमाणे गुणवालुं सुपात्र दुर्लन बे. कं बे के श्रानीयामां लक्ष्मी मले बे, तथा सर्व इति सुख पण " "" Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. 3 मलेबे, पण जगतमां उत्तम एवं सुपात्रदान दुर्लन बे. वली जाग्यवानोनीज लक्ष्मी सुपात्रे देवाय बे. केमके दुःखेथी मेलवेली एवी केटलाकनी लक्ष्मीने तो राजा बलात्कारे लेइ ले बे, केटलाकोनी लक्ष्मीने अकस्मात् अग्नि बाली नाखे बे, विषयि- जेनी लक्ष्मी वेश्यार्जुना घरोमां जाय बे, पण पुण्यशाली उनी अरिहंत प्रजुना बिंबमां, प्रासादमां तथा उत्तम साधुर्जने उपयोगमां तां वस्त्रादिकमां वपराय बे, श्रावक उदार मनथी जो न्यायोपार्जित अव्यथी मुनिर्जने कह्पे एवां वस्त्र, पात्र, भोजन, औषध विगेरे जक्तिथी आपे, तो तेने मोद मले बे, तो पी देवगति तथा मनुष्यगतिनी तो वातज शी करवी ? जेम सुपात्र दानथी शालिन त्रणे लोकोमां प्रख्यात थएला बे. केम के, देवरूप थरला तेमना पिता गोत्र हमेशां तेमने आभूषणा-. दिकनी पेटी पता हता, तेणे खरीदेलां तथा तेमनी स्त्रीए पगे लुबीने फेंकी दीघेलां रत्नकंबलो राजानी राणीने पण 5र्लज थपड्यां, ते सघलुं तेमनां सुपात्रदाननुं फल हतुं. वली पण सुपात्ररूपी ते क्षेत्र लांबा कालसुधि जय पामो, के जेमां एकवार वावेला प्रव्यरूपी चोखा हजारो वखत सुधि ली शकाय बे. पालथी अथवा परे दीधेला दाननुं फल तो मले अथवा न पण मले, पण पोताने हाथे दीधेला दाननुं फल तो मलेज बे, तेमां संशय नथी. धनसार्थवाहना जवमां श्री रुष देव प्रभु पण साधुर्जने घृतदान दीधुं हतुं, के जेथी तेमने पण श्री तीर्थंकर पदवी मली बे. जरत चक्रीए पण पूर्वजवमां मलेला अन्ननो पांचसो साधु वच्चे संविजाग करी जोजन कर्यु इतुं, तेथी तेमने चक्रीनी तथा मोहनी पदवी मलेली बे. तेम श्रेयांसकुमारे पण श्री प्रथम प्रजुने सेलमी रस वोरावीने सुपादान दीधुंबे, तेथी अक्षय त्रीजना पर्वनी प्रवृत्ति श्रएली बे. • वली उचित काले सुपात्रप्रते पेलुं अपदान पण, चंदन G १८ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्ए उपदेशतरंगिणी. बालाए वीर प्रनुप्रते श्रापेला बाकुलानी पेठे बहु फलवालुं थाय वे. ते चंदनबालानुं दृष्टांत नीचे प्रमाणे जाणवू. . श्री वीर प्रन्नुए एवो अनिप्रद लीधो हतो के, राजानी पुत्री होय, दासीपणाने प्राप्त अश् होय, पगमां बेडी होय, मस्तके मुंमी होय, दुधातुर होय, रगती होय, एक पग डेहेलीमां होय अने एक पग बहार होय, एवी कोइ स्त्री जावथी जो मने सुपडाना खुणामां रहेला बाकुला वहोरावे, तो मारे पारणुं करवु. अने एवी रीतनो प्रनुनो अनिग्रह मासे चंदनबालाथी संपूर्ण श्रयो अने ते वखते देवोए त्यां धनावह शेठने घेर सामाबार क्रोम सोनश्यानी वृष्टि करी. ते जोइ तेनी पडोशणे विचार्यु के, ज्यारे आणे फक्त था तपस्वीने बाकुला वहोरावीने बाटली बधी शधि मेलवी, त्यारे हुँ तपस्वीने वोरावेला एवा घृतसाकर आदिके करीने युक्त उधपाकना जोजनथी पण वधारे शधि मेलवीश; एम विचारि तेम करीने ते आकाश सन्मुख जोवा लागी. ते जोड्ने ते तपस्वीए कह्यु के, अरे मुग्धे! तारा लावधी अने ते आपेला आधार्मिक आहारथी तो पाषाणोनी वृष्टि श्रशे; पण रत्नोनी कई वृष्टि थशे नहीं. एवीरीते सुपात्रदानपर चंदनबालानुं दृष्टांत जाणवू. वली तेवीजरीते देशांतर गएला मूलदेवे एक महिनाना उपवासी मुनिने दीधेला बाकुलाना दानना पुण्यथी उत्कृष्ट राज्य मेलव्युं हतुं. तेमज श्री वीरप्रन्नुने हुँ चतुर्मासनुं पारणुं करावीश, एवा उत्तम ध्यानथी मृत्यु पामीने जीर्ण शेठे बारमो देवलोक मेखव्यो हतो. तेमज कोबर नामना गाममां एक चंपक नामे शेठ वसतो हतो, तेणे गुणाकर मुनिनुं पात्र क कांगसुधि घीथीनरी आप्यु, पण तेने लाल थवानो जाणीने तेणे निषेध को नहीं. अने एवीरीते लावनाना वशथी ते शेठ सर्वार्थसिप्रिते गया. अहीं ध्याननो नांगो एवो ने के, ते शेठे दान देतां Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. विचार्य के, अहो! श्रा मुनि लोनी , केमके, ते एकला उतां श्राटलाबधा घीने शुं करशे? एवीरीतना तेना चित्तने जाणीने "अरे पड नहीं पड नहीं" एम कहीने मुनिए तेमने बारमा देवलोकमां स्थाप्या. एवीरीते चंपकवेष्ठितुं उदाहरण जाणवू. वली बीजुं दृष्टांत कहे. हबूर नामना गाममां देवशर्मा अने सोमशर्मा नामना बे ब्राह्मणो हता. तेउमां देवशर्मा मिथ्यात्वी हतो, अने सोमशर्मा श्रावक हतो, पण निर्धन हतो. देवशर्मा धनवान हतो, पण कुपात्रोप्रते दान श्रापनारो हतो. तेणे लद लोजननो याग कर्यो. सोमशर्मा तेने घेर लोजन पीरसवा आदिकनुं कार्य करतो हतो, अने एवं जूई नोजन खाइने तेनी चाकरी करतो हतो. एक दहाडो पोताना नागमा आवेला सर्व प्रासुक लाडु आदिक तेणे साधुउने अने साधर्मीउने आप्या. ते दानपुण्यना प्रजावधी ते मगध देशना राजा श्रेणिकनो पांचसो राणीउनो स्वामी एवो नंदिषेण नामे पुत्र थयो. तथा ते अत्यंत लाग्यशाली थश्ने लोगो जोगववा लाग्यो. वली तेज सुपात्रदानपर रथकार मृगर्नु दृष्टांत कहे. श्रीकृष्णना मोटा लाइ रामे दीदा लीधी, तथा एक दहाडो ते नगरमां जता हता, त्यां तेमनुं अनुतरूप जोश्ने कुवाना कांगपर पाणी नरवाने श्रावेली स्त्री तेनापर अत्यंत मोहित थइ. अने तेमनुं रूप जोवामां लीन थएली एक स्त्री घडाने बदखे पोताना पुत्रना गलामां रसी बांधीने कुवामां पाणी खेवामाटे नाखवा लागी. ते जो मुनिए तेणीने उपयोग आपी तेम करतां निवारी. तथा ते वखते पोते एवो अनिग्रह लीधो के, धिक्कार ने मारारूपने!! आजथी मारे नगरमां जq नहीं, एम अनिग्रह लेख्ने ते राममुनिराज वनमा रहेवा लाग्या. तथा त्यांथी ज्यारे कोश्क सार्थ वटाय, त्यारे तेमनी पासेथी लिहा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. इने धर्मध्यानपूर्वक काल निर्गमन करवा लोया मां त्यां कोइक रथकार काष्ठ लेवामा आवी चड्यो, तथा श्ररधी जांगेली डालवाला कोक वृक्षनी नीचे भोजनमाटे बेठो. त्यां एक हरिणे देखाडेल बे मार्ग जेमने एवा राममुनिराजने जोश्ने ते खुशी थयो थको तेमने आहार पाणी देवामाटे तैयार थयो. ते मुनि पण त्यां श्राव्या, एटलामां अकस्मात प्रचंवायुना वेगथी ते डाल त्रुटी पडी, अने तेथी ते त्रणे त्यां मृत्यु पामीने पांचमे देवलोके गया. वली एवीज रीते सुपात्रदान देनारा वंकचूलादिको, कोशा वेश्या, तथा अवंति सुकुमाल श्रादिको पण संसाररूपी समुद्रने तरी गया बे. दवे वली तेज सुपात्रदानपर धनसार व्यवहारीनुं दृष्टांत कहे बे. राजग्रही नामनी नगरीमां धनसार नामे एक व्यवहारी रतो हतो, ते महा धनाढ्य तथा एकांतरे उपवास करनारो, बन्ने वखत प्रतिक्रमण करनारो, तथा त्रिकाल देवपूजा करनारो हतो. केक काले कर्मयोगे ते निर्धन थयो. पनी स्त्रीना कद्देवाथी ते साथवानुं जातुं लेने प्रव्य मागवामाटे गोबर नामना गाममां पोताना शालापासे गयो. पण निर्धनपणाथी त्यां पण तेनुं धन नहीं मलतां उल अपमान थयुं. त्यारे दिलगीर थइ ते पाटो वढ्यो, अने रस्तामां जावपूर्वक एक मासोपवासी मुनिने तेणे ते साथवाथी पार कराव्युं. तथा पबी स्त्रीने खुशी करवामाटे तेणे नदीमांथी केटलाक गोल रंगबेरंगी कांकरा एकठा करीने पोताना खमीयामां जर्या, तथा पढी घेर आव्यो. ते वखते शासन देवीना प्रजावथी तेना खडीश्रमानां कांकरा बहु मूल्यवालां रत्नो थर गयां एवी रीते सुपात्रदानना प्रजावथी ते फरीने धनवान थइ दान आपवा लाग्यो, तथा जिनमंदिरो दिक पुण्यनां कार्यों करी पृथ्वीमां ते प्रख्यात श्रयो. - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ उपदेशतरंगिणी. वली व स्त्रीनो जरतार धन्य शेठ सुपात्रदानना महाम्यथी एकावतारी य सर्वार्थसिद्धे गएला बे. वली तेवीज रीते कयवन्नादिक घणा जन्य माणसो सुपात्रदानथी संसाररूपी समुने तरी गया बे. तेम वली दुराचारी माणसो पण सुपात्रदाना महात्म्यथी सारी गति मेलवे बे. वली अनादर, विलंब, विमुखता, प्रिय वचन, तथा पश्चाताप ए पांचे उत्तम दाननां दूषणो बे. तेम आनंदाश्रु, रोमांच, बहुमान, प्रियवचन, तथा अनुमोदना ए पांच उत्तम दाननां भूषणो बे. प्रियवाणी सहित दान, अहंकार विनानुं ज्ञान, क्षमावालुं शौर्य, तथा त्यागवालुं धन ए चारे बाबतो दुर्लन बे. वधारे शुं कहेतुं ? कृपणोनुं धन निष्फलज बे. कह्युं बे के, निर्बुद्धि माणसने शास्त्रोथ, अंधने दीपकोथी, नपुंसकने स्त्रीथी, कायरने हथियारोथी, बहेराने वाजिनोथी, कदरूपाने श्राजूषपोथी, ज्वरवालाने जोजनोथी, तथा कृपणने मलेलां घणां अव्योथी शुं थवानुं बे ? माटे जे माणस सुपात्रप्रते धन आपे बे, तेज धन्य बे. कांबे के, पंडित माणस पोतानुं धन सुपात्रने पेबे, मुग्ध माणस पोतानुं धन जोगोमां वापरे बे, तथा कृपएना धननो फोगट विनाश थाय बे. एक दहाको जोजराजा वनमां गया हता, त्यां तेणे एक गलता मधुकने जोड़ने धनपाल कविने पूच्छे के, श्री मधुक केम गले बे ? त्यारे कविए कां के, ज्यारे पात्र मले बे, त्यारे धन होतुं नथी, छाने ज्यारे धन होय बे त्यारे पात्र होतुं नथी, एवी रीतना शोकमां पलो श्री मधुक अश्रुपातथी रुदन करे बे, एम डुं मानुं बुं. स्थावर छाने जंगम, एम बे नेदथी सत्पात्र बे. तेमां जिनप्रासादादिक रूप स्थावर सत्पात्र दश प्रकारनुं छे. छाने एवी रीतना सुपात्रो दीधेनुं दान महा फलदायक थाय बे. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ३३ हवे सुपात्र प्रते जे दान आप, ते प्रतिउपकारनी अपेक्षा राख्याविनाज आपq. तेने माटे एक नागवत-उदाहरण कहे जे. कोश्क परिव्राजके कोश्क नक्तिवान जागवतने कडं के, वर्षाकाले हुँ तारा मकानमा रहीश. त्यारे ते लागवते कडं के, जो तुं प्रतिउपकार मारापर न करे, तो नले सुखेथी रहे. पनी ते वात ते परिव्राजके अंगीकार करवाथी ते नागवते तेने मकान आप्युं तथा नोजनादिकथी ते हमेशां तेनो सत्कार करवा लाग्यो. एम करतां केटलोक समय गया बाद ते लागवतनो घोडो चोरो चोरी गया. पण एटलामा प्रजात थवाथी ते चोरो ते घोडो लश् जवाने अशक्त थवाथी, ते ते घोडाने वनमां एक वृक्षसाथे बांधीने नाशी गया. एटलामां प्रनाते ते परिव्राजक स्नान करवा माटे तलावपर गयो. त्यां तलावपासे रहेली काडीमां ते अश्वने जो उलखी कहाड्यो के था अश्व मारा उपकारी नागवतनो बे. पनी तेणे ते कामीमां पोतानुं धोएलु वस्त्र मुकीने पोताने स्थानके आवी ते नागवतना माणसोने कह्यु के, हुँ मारुं वस्त्र पेली काडीमां वीसरी आव्यो बुं माटे लावी आपो? त्यारे तेए त्यां माणसोने मोकट्यां, अने त्यां ते घोमाने जोड्ने ते तेने लाव्या. ते बाबतनी नागवतने खबर पड्याथी तेणे विचार्यु के,आ परिव्राजके आवो मिष करीने पण मारापर प्रतिउपकार कया मे, पनी तेणे ते परिव्राजकने बोलावीने कडं के, हे जज ! हवे तुं चाट्यो जा? केमके, उपकारी प्रते दीधेलुं दान निष्फल थाय ने. वली पण एक मुधाजीवी मुनिनुं दृष्टांत कहे. __ कोश्क वैराग्यवान राजाए धर्मनी परीक्षा करवामाटे एवो ढंढेरो नगरमां वगडाव्यो के, राजा लामुळे आपेजे, माटे जेने जोश्ता होय तेमणे आवq. ते सांजली कापडी आदिक घणा लोको त्यां गया. त्यारे राजाए तेउँने पूज्यु के, तमो तमारी आजीविका शीरीते चलावोगे ? त्यारे एके कां के, ढुं मुखथी Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ उपदेशतरंगिणी. बीजे कडं के, हुँ पगोथी, त्रीजे कडं के, हुं हाथोथी, तथा चोथ कह्यु के, हुं लोकोनी दयाथी आजीविका चला, बु. पनी राजाए एक जैन साधुने बोलावी पूज्युं के, तमो तमारी आजीविका शीरीते चलावो गे? त्यारे ते जैनसाधुए कह्यु के, हुँ तो मुफत आजीविका चलाqq. त्यारे वली ते राजाए ते सवने पूज्यु के, तमो ते आजीविका शीरीते चलावोगे ? त्यारे पेहेले कडं के, हुं कथा करनारोबु, तेथी रामायणादिक कथा लोकोने संजलावी आजीविका चलावं तुं, बीजे कडं के, हुं खेपीयो बुं, तेथी बेघडीवारमांज एक योजन पगे चाल्यो जावं, अने एवीरीते खेप करीने आजीविका चलावुनु, त्रीजे कडं के, ढुं लही, तेथी पुस्तको लखीने आजीविका चलाईं, चोथे कडं के, हुँ निकुक बुं तेथी लोकोनी दयाथी आजीविका चलावुलु. पगी जैनसाधुए कह्यु के, हुँ एक मोटा शाहुकारनो पुत्र हतो, पण आ संसारने असार जाणीने में दीक्षा लीधी, अने तेथी जैनधर्मनी आ कृपा मुजब जेवो आहार मलेले, तेथी हुँ मारी आजीविका चलाqq. ते सांजली राजाए कडं के, अहो! आ महानधर्म सर्व मुःखोथी मुकावनारो ने, एम विचारि पुत्रने राज्य सोंपीने ते राजाए जैनाचार्यपासे दीक्षा लीधी. __ एवीरीते सुपात्रदानपर शास्त्रोमां अनेक दृष्टांतो प्रसिद्ध के, अहीं ग्रंथगौरवना नयथी वधारे खख्यां नश्री. हवे त्रीजा अनुकंपादान- विवेचन करे. दीन, दरिजी, तथा पुर्बल आदिक जीवोने पात्रापानी विचारणा कर्याविना दयाथी जे अन्नपानादिक देवू तेनुं नाम अनुकंपादान ने, कडं ने के, उत्तम माणसो निर्गुणी लोकोपर पण दया करे , केमके, चं ने ते चांडालना घरपरथी पोताना प्रकाशने कई खेंची लेतो नथी. महान पुरुषो दान देती वखते कई पात्रापात्रनो विचार करता नथी, केमके, दयाने खातर श्री वी Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ३५ रप्रचुए पण पोतानुं अर्ध देवष्य वस्त्र ब्राह्मणने आप्यु जे. जत्तम बुद्धिवान माणसे पोताना अपकारीपर पण विशेष प्रकारे दया करवी, केमके, दंशता एवा पण सर्पने श्री वीर प्रनुए प्रबोध को बे. वली शुष्ध धर्मीपणुं तो दयाश्रीज शोले ने जेम आर्यसुहस्ति महाराजे संप्रति राजाना जीव रंकने यथेष्ट नोजनश्री संतुष्ट कर्यो हतो, तथा बेवटे ते रंक मृत्यु पामीने संप्रति राजा थयो, अने जैनधर्मनी घणीज उन्नति तेणे करी. हवे अन्नदानपर श्रीरामचंजीन दृष्टांत कहे. रामचंतजीए वनवासश्री आवीने पोतानी प्रजाने पूज्यु के, तमारे अहीं धान्यनी तो सुलजता ने नी ? त्यारे लोकोए विचार्यु के, रामचंञजीने वनवासमां अन्न मलेळ लागतुं नथी, तेथी ते आवी रीते पूरे ने, एम विचारि तेउ हसी पड्या. पजी केटलाक दिवसो गयावाद रामचंञजीए पोतानी प्रजाने नोजनमाटे निमंत्रण कयु. सघला लोजनमाटे बेसी गया बाद रामचंञजीए रत्नोथी थाली नरीने ते ने पीरसी त्यारे तेढ कदेवा लाग्या के, हे स्वामी ! आवी रीतनी नवीन रसवती अमो खाइ शकता नथी. त्यारे रामचंजजीए कह्यु के, त्यारे तमोए ते वखते केम हांसी करी हती ? माटे तमो सांजलो के, जे धान्यनी उत्पत्ति उर्खन बे, अने जेनो क्ष्य तो दनदन प्रते वे एवा सर्व प्रकारना रत्नोमां पण उत्तम रत्नसरखं धान्य जे. केमके, प्राणो अन्नने आधिन ने, माटे ते अन्न सरखं रत्न आ पृथ्वीमां को पण नथी. आ पृथ्वीमां जल, अन्न, अने मिष्ट बचन एज उत्तम रत्नो, पण जवाहिर तो पाषाणरूप . उत्तम गायनो, स्त्री, कपूर, कस्तूरि, चंदन, अगर, सुवर्ण, रत्न विगेरे उपनोग वखते तो उत्तम लागे , पण तेमनो विरह थया बाद तो ते दुःखदाइ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. बे, पण अन्न तो हमेशां प्रीति करावनारुं बे. हवे अनुकंपादानपर जगमुशा शेग्नु दृष्टांत कहे. पाटण नामना शेहेरमा रहेता महा धानाढ्य जगमुशाह नामना जैनधर्मी शेठ एक दहाडो नोजन करवाने बेग हता. ते वखते कोश्क वृक्ष सिद्ध पुरुष तेमना घारपासे आवी पहोंच्यो, तथा मध्यानकाल थवाथी तेने शेठे जोजन माटे बेसाड्यो. पनी तेने सर्व अन्नपीरस्यु, तथा सर्व पाणी पायुं तो पण ते तृप्त थयो नहीं. त्यारे ते जो चमत्कार पामेला जगमुशाह शेठे तेने तेनुं कारण पूज्युं. त्यारे ते सिद्ध पुरुषे कह्यु के, आजथी मांडीने पांचमे वर्षे नवं जल अने नवं धान्य दृष्टिए पमशे. एम कहीने तेज दाणे ते अदृश्य श्रश् गयो. पठी ते जगमुशाह शेठे पांच व सुधि उकाल पडवानो जाणीने पोतानुं सर्व अव्य खरचीने सघला देशोमांथी आडतीआ मारफते जेटलुं मट्युं तेटलुं धान्य खरीद करावीने तेनो संग्रह कर्यो. पनी ज्यारे ते नयंकर उकाल लोकोने मुख देवा लाग्यो, त्यारे तेणे दीव्ही, खंलात, धोलका आदिक बारसो मोटा मोटा शेहेरोमां दानशाला करावी. तथा कुष्ट राजाना डरथी ते दरेक दानशालापर एवी रीतनां नामनां पाटीयां चोमाव्यां के, आ दानशाला "रंकमाटेनी” . पनी तेणे घणां राजा आदिकोने पण धान्यनी सहायता करी. हवे एवी रीतनी जगमुशाहनी कीर्ति सांजलीने विशलदेव राजाने शो श्रम अने तेथी तेणे पण पोताना नगरमां एक दानशाला मांडी. पण धन खुटवाथी तेणे तेमां अर्थिउने तेल पीरसवा माड्यु. पण बेवटे ते राजाए पण पोतानो अहंकार तजीने ते जगमुशाहशग्ने नमस्कार कर्यो. हवे प्रजातमा जे जगोए बेसीने जगमुशाह दान आपता, त्यां आडो एक पमदो बंधावता, तथा पगदामा पोते बेसीने तेनी अंदरथी याचकना हाथमां दान श्रापता, के जेथी कुलीनोने ते दानथी लजा थाय नहीं. एवी रीते Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. याचको पोतानो हाथ ते पडदानी अंदर जगमुशाहपासे धरता अने जगमुशाह तरफथी तेमने तेमना लाग्यप्रमाणे मलतुं. एम करतां करतां एक दहाडो विशलदेव राजाने एवी श्वा थ के, हुँ पण मारां जाग्यनी परीक्षा तो करुं, एम विचार एक दहामो वेष बदलीने ते त्यां एकाकी गयो, तथा तेणे पोतानी जमणो हाथ पम्दानी अंदर नांख्यो. त्यारे सामुजिक शास्त्रना पारंगामी एवा जगमुशाहे तेना हाथनी रेखाउँ जो विचार्यु के, श्रा कोश महा जाग्यवान राजा ने, तथा तेनापर संकट आवी पड्युं बे, माटे तेने एवी वस्तु हुँ बापुं के, जेथी तेने जीवन पर्यंत मुःख सहन करवू पडे नहीं. एम विचारि तेणे पोतानी आंगलीमां पेहेरेली अमूट्य मणिनी वींटी उतारीने तेना हाथमां मूकी. पली राजाए थोडीवार रहीने पागे पोतानो डाबो हाथ पडदानी अंदर राख्यो, त्यारे जगमुशाहे वली पोतानी बीजी तेवीज वींटी तेना हाथमां मुकी. एवी रीते बन्ने वींटी लेश्ने राजा तो पोताना मेहेलमां आव्यो. पी बीजे दिवसे तेणे जगमुशाहने सन्मानपूर्वक बोलावीने ते वींटीसंबंधि हकीकत जाहेर करी. त्यारे जगमुशाह शेठे कर्वा के, सर्वत्र वायसाः कृष्णाः, सर्वत्र हरिताः शुकाः॥ सर्वत्र सुखिनां सौख्यं, उःखं सर्वत्र उ:खिनाम् ॥१॥ अर्थः- सर्व जगोए कागडा श्याम होय , तेम सर्व जगोए पोपटो लीला होय , वली सुखी माणसोने सर्व जगोए सुख होय , अने मुखिउने सर्व जगोए मुःख होय बे. पजी राजाए ते वींटी, जगमुशाह शेठने पानी पहेरावी. तथा अत्यंत सन्मान पूर्वक हाथीपर चडावीने तेमने घेर पहोंचाड्या. एवी रीते अनुकंपादानपर जगमुशाह शेउनी कथा कही. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ उपदेशतरंगिणी. वली विक्रमराजानी कथा कहे. विक्रमादित्यराजाए सुवर्णपुरुषना प्रसादथी पृथ्वीपरना मनुप्योने सुवर्ण पीने तेजेने करजरहित करेला ने, अने हजुसुधि पण तेथी तेनो संवत्सर चाले . एक दहाडो ते विक्रमादित्य राजा हाथीपर बेसी मार्गे जता हता, तेवामां जमीनपर वेराएला केटलाक चोखाना दाणा तेनी दृष्टिए पड्या, तेथी हाथीपरथी उतरीने ते चोखाना दाणाने तेणे मस्तके धर्या. ते वखते अनाधिष्ठायिका लक्ष्मी देवीए प्रसन्न अश् प्रत्यद श्रश्ने तेने कडं के, हे विक्रमादित्य राजा! तमो मारी पासे वरदान मागो? त्यारे लोकोपर अनुकंपावाला विक्रमराजाए तेणीने कयु के, हे लक्ष्मी देवी ! तमो मने एवं वरदान आपो के, आ मालव देशमां कदीपण मुकाल पडे नहीं. त्यारे देवीए पण ते वरदान तेने आप्यु. अने तेथी आजदनसुधि पण मालवा देशमां काल पडतो नथी. कां ने के, दयायुक्त मन आरोग्यताने नजदीक करे , प्रशंसा वधारे , संसाररूपी समुथी तारे , आयुष्य विस्तारे बे, शरीरने सुंदर करे , गोत्रनी वृद्धि करे , धनने वधारे , तथा बलनी पण वृद्धि करे . हवे चोथा उचितदाननुं स्वरूप कहे. अवसर आव्ये ते योग्य परोणाने, देवगुरूना समागम वखते, मंदिर चणाववा समये, प्रतिमानी प्रतिष्ठा करावती वेलाए, वधामणी आपनारने, अथवा काव्य, कथा आदिक संचलावनार उत्तम कवि आदिकने दानापवं, ते उचितदान कहेवाय . हवे ते उचितदानपर कुंलकारनी कथा कहे. पाटलिपुत्र नामना नगरमां पंकप्रिय नामनो एक कुंजार वसतो हतो. पण ते कोश्क कारणे इर्षाथी ते नगर तजीने वनमां जश् एक मोटा तलावनी पालपर कुंपडी बांधीने रह्यो हतो. एक दहाडो अवली चालना घोडाथी खेंचाएखो नरवाहन राजा त्यां Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ३ए आवी चड्यो. ते राजा लुधा अने तृषाथी अत्यंत पीडित भयो । हतो. तेने आ कुंजारे लोजन तथा शीतल पाणी आप्याथी ते बहु खुशी थयो. अने तेथी राजाए तेनापर खुशी थने तेने नगरमां लश् जश् घणुं प्रव्य आप्यु, तथा गरास पण आप्यो. - वली कोइ कविनी कविताथी खुशी थइ तेने जे राजा आदिको दान आपे , ते पण उचित दान कहेवायचे. तेपर कथा कहे जे. एक दहामो शक्तिसिंह राजानो मुंगलराज नामनों पुत्र घोमा खेलाववा माटे वनमां गयो. त्यां तेने कोइक गोपाले अन्योक्तिनी कविताथी रंजन को. त्यारे राजाए तेने अल्पदान आप्यु, तेथी फरीने तेणे वडवृद प्रतेनी अन्योक्तिथी रंजन कर्यो, त्यारे राजाए तेने घेर बोलावीने तेने जोजनमाटे बेसाड्यो. तथा तेनी थालीमां हीरा माणेक, मोती विगेरे अमूट्य वस्तु पीरसीने तेने संतुष्ट कर्यो. वली तेवीज रीते सिद्धराज नृपतिए पोतानी समश्या पुरवामाटे पोताना शरीरपरनो सर्व शृंगार श्रीपाल कविने आप्यो . वली तेवीज रीते जीर्ण गढनो राजा खेंगार एक दहाडो शिकारमाटे वनमा गयो हतो, त्यां मार्ग चूकी जवाथी तेणे एक चारणने मार्ग पूज्वाथी तेणे वक्रोक्तिपूर्वक कर्वा के, जीवहिंसा नहीं : करवी तेज शुध मार्ग जे. ते सांजली राजाए खुशी थइ जीवितपर्यंत जीवहिंसानो त्याग करीने ते चारणने गरास आप्यो. वली तेवीज रीते स्तंजपुरमा केटलाक जैनी साधुए त्यांना यवन राजाने पोतानी कविताथी खुशी करीने जैनशासननी प्रत्नावना विस्तारी हती. . वली एक दहाडो ज्यारे सिझसेन दिवाकरनो उजयनीमां प्रवेश महोत्सव थतो इतो, त्यारे बंदिलोको तेनी सर्वज्ञपुत्रादिकनी प्रशंसापूर्वक बिरुदावलि बोलता हता. ते वखते विक्रमादित्य राजा घोडा खेलाववा माटे निकट्यो हतो. त्यारे ते राजाए Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. त श्राचार्यजीनी परीक्षामाटे मनथी तेमने नमस्कार कर्यो, त्यारे आचार्यजीए तेने धर्मलान प्यो. त्यारे राजाए कह्यं के, मो ने नमस्कार वनाज धर्मलान केम आप्यो ? त्यारे - चार्यजी एक के, नरेंद्र ! प्रणाम मन वचन अने कायाथी त्रण प्रकारे थाय बे. तेमांथी तमोए मने मानसिक प्रणाम कर्यो a. त्यारे राजा खुशी ने आचार्यजीने पूच्छं के, श्र धर्मलाजनी आशिषथी शुं थाय बे ? त्यारे श्राचार्यजीए कह्युं के, जे धर्मानी शिषथी महान हाथी, पवनना वेगने पण जी - तनारा घोकार्ड, रथो, लीलायुक्त स्त्री, चामरोथी शोजिती राज्यलक्ष्मी विगेरे उत्तम वस्तु मले बे, एवा धर्मलाज तमोने जय पो ? वली जो दीर्घायुनी आशिष आपवामां आवे तो ते नारकीने पण होय बे, घणा धनवानपणानी आशिष - पवामां आवे तो ते म्लेछोने पण होय बे, घणा पुत्रवाननी - शिष पवामां आवे तो ते कुतराउने पण होय बे, माटे सर्व सुखनेापनारी तो धर्मलाजनीज आशिष बे. ते सांगली विक्रमराजाए हाथीपरथी उतरी श्राचार्यजीने पंचांग प्रणाम कर्यो, तथा तेमने एक क्रोड सोनामोहोरो देवा मांडी. त्यारे श्राचाजीए कहां के, ४० मुंजीमहि वयं जैक्ष्यं, शीर्ष वासोवसीमहि ॥ शीमहि महीपीठे, कुर्वीमहि किमीश्वरैः ॥ १ ॥ अर्थः- मो तो जिक्षा मागीने जोजन करीए बीए, जीर्ण वस्त्रो पेहेरीए बीए, तथा पृथ्वीतलपर शयन करीए बीए, माटे अमोने धननुं शुं प्रयोजन बे ? एवी रीते या निस्पृही आचार्यजीए ते धन लीधुं नहीं. त्यारे राजा पण ते धन पाउं लेवानी ना पाडवाथी श्राचार्यजी ना उपदेशथी ते धन संघना प्रधान पुरुषोए जिनमंदिरोना जीर्णोद्धार Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ४१ माटे वापर्यु. एवी रीते उचित दानपर विक्रमादित्य राजानी कथा जावी. वली तेज उचित दानपर विक्रमराजानी बीजी कथा कहे. एक दहाको विक्रमराजा वसंत शतुमां वनमां क्रीमा करवा गयो हतो. त्यां ते सुंदर केलोना वृद्धोना मंरुपमां सुवर्णना सिंहासनपर बेठो हतो. ते वखते त्यां बत्रीस जातना वाजित्रोथी मनोहर पात्रोनुं नृत्य थइ रह्युं हतुं. एवी रीते त्यां ते अनेक प्रकारां सांसारिक सुख जोगवतो थको वारंवार नी चेनुं काव्य जपतो हतो. क्वचिद्दीणावेणुप्रवणरमणी मीतमणितिः कचिट्टश्रेणिः पठति बिरुदालीमविरतिः ॥ सहर्ष हेते कचिदपि हया दंतिनिवहाः नदति क्ष्मांत प्रवरमपरं राज्यसदृशम् ॥ १॥ एवी रीते संसारसुखमां निमग्न थला राजाने धर्माधिकारी मंत्री एक के, हे राजन् ! जो या श्रात्माने संसाररूपी केदखानामांथी श्रपणे बोमावीएं नहीं तो पबी, राज्य, धन, धान्य, आभूषणो, उत्तम जाति, कुल तथा उत्तम गुणो पण शा कामना बे ? वली जोगोमां तो रोगोनो जय बे, सुखमां दयनो जय , धादिकनो जय बे, दासपणामां स्वामिनो जय बे, कुलमां खराब चालनी स्त्रीनो जय बे, मानमां ग्लानिनो जय बे, गुणो दुर्जननो जय बे, शरीरने यमनो जय बे, पण दे राजन् ! वैराग्यने कोइनो पण जय नथी. ते सांजली वैराग्यवान् राजा कह्युं के, अहो ! श्र धर्माधिकारिए युक्त वात कही. केमके, भ्रमण करी रहेल बे चूकुटिरूपी जलचरो जेमां, तथा केशोरूपी वे शेवाल जेमां, छाने कर्णोरूपी बे, आवर्तो जेमां, तथा स्फुरायमान् नेत्रोरूपी बे कमलो जेमां एवां या शरीररूपी तलावांथी हमेशां तृषातुर एवो काल आयुष्यरूपी पाणीने पी ६ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. जाय . वली आ संसारमा श्रायुष्य तो जसना मोजांनीपेठे नंगुर , अने लक्ष्मीतो स्वमनी पेठे नश्वर ने, अने यौवन तो वादलांनीपेठे क्षणिक , माटे खरेखर आ संसार वैराग्यरूपज के. एवी रीते संसारनी असारता लावीने विक्रमराजाए ते धर्माधिकारीने पाठ क्रोड सोनामोहोरो नाम तरीके आपी. एवी रीते उचित दानपर अनेक दृष्टांतो ने. हवे पांचमा कीर्तिदान- स्वरूप कहे. पोतानां कुल, वंश, रूप, विद्या, गुण आदिकोना वर्णनमाटे जे लाट, चारण, गवैया, तथा मागण आदिकने जे दान देवु ते कीर्तिदान कहेवाय . ते कीर्तिदानपर विक्रमराजानी कथा कहे. एक दहामो विक्रमराजा ज्यारे सनामां बेठेला हता, त्यारे तेमने तृषा लागवाथी नीचेप्रमाणे काव्य जणीने पाणी माग्यु. स्वछ सजनचितववघुतरं दीनार्थिवछीतलं पुत्रालिंगनवतथा च मधुरं बालस्य संजल्पवत॥ एलोसीरलवंगचंदनलसत्कर्पूरपालीमिलत पाडट्युत्पलकेतकीसूरनितत्पानीयमानीयताम॥१॥ अर्थः- सजनोना मननीपेठे स्वच, दीनयाचकनी पेठे हलकुं, पुत्रादिंगननीपेठे शीतल, बालकना वचननीपेठे मधुर, तथा एलची, लविंग अने चंदनथी नवसायमान तथा कपुरनी श्रेणिथी मखेला गुलाब, कमल अने केतकीथी मनोहर एवं . पाणी लावो ? ॥१॥ __त्यारे मंत्रि सुवर्णना कचोलामां राजामाटे जल लान्यो. त्यारे पासे बेठेला कवीश्वरे नीचे प्रमाणे काव्य कह्यु. वक्रांनोजे सरस्वत्यधिवसति सदा शोण एवाधरस्ते बाहूः काकुत्स्थवीर्यस्मृतिकरणपटुर्दक्षिणस्ते समुः॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ उपदेशतरंगिणी. वाहिन्यः पार्श्वमेताः कथमपि नवतो नैव मंचंत्यजत्रं स्वऽतर्मानसेऽस्मिन किमवनिपते तेऽबुपानानिलाषः एवी रीतना कवीना काव्यने सांजलीने तुष्टमान श्रएखा किक्रमराजाए पांड्यराजापासेथी दंग तरीके श्रावेली सर्व वस्तु तेने इनाममां आपी. ते नेट श्राप्रमाणे हती. आठ कोड सोना मोहोरो, त्राणु मोतीऊना हारो, पचास हाथी, दश हजार घोमा, तथा चारसो नाटको तेमां हता. वली पण तेज कीर्ति दानपर विक्रमराजानी बीजी कथा कहे. एक दहामो विक्रम राजानी धोबण वस्त्रो धोईने तेमने श्रापवा श्रावी, त्यारे ते वस्त्रोमा हजु किंचित् मेल बाकी रहेलो होवाथी राजाए तेणीने तेनुं कारण पूज्युं. त्यारे ते महा चतुर धोबणे कडं के, हे राजन् ! श्रा वर्षाकाल गयो तोपण श्रापना हाथी नदीकिनारापर आवीने एटली बधी धूड उमामे ने के, तेथी हजु नदीन पाणी स्वच्छ अतुं नथी. धोबणना ते वचनथी खुशी थश्ने विक्रमराजाए ते वस्त्रो तथा एक क्रोम सोनामोहोरो तेणीने श्नाम आपी. एक दहामो श्री सिद्धसेन दिवाकर विहार करता थका उजायनीमां पधार्या. त्यारे संघे एका अश्ने आचार्यजीने विनंती करी के, हे जगवन् ! आप जो विक्रमराजाने वश करीने, ओंकार नगरमां जे ब्राह्मणो जिनमंदिर बांधवा नथी आपता, ते बांधी शकाय तेवं जो आप करी बापो, तो आपनी विद्या प्रमाणनूत कहेवाय. ते सांजली सिमसेनजी चार नवीन श्लोको रचीने राजदरबारमां गया. अने उमीदारने मुखेथी राजापासे नीचेप्रमाणे श्लोक जणाव्यो. दिदृकुनिकुरेकोऽस्ति, वारितो हारि तिष्ठति ॥ हस्तन्यस्तचतुःश्लोको, यहागरातु गछतु ॥१॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. अर्थः- आपने मलवानी इछावालो कोइक निलु चार श्लोको हाथमां लेने काव्याथी बारणे उजो वे, ते खावे के चाहयो जाय ? त्यारे राजाए कह्युं के, तेने दश लाख सोना मोहोरो श्रापो ? छाने तेनी इच्छा होय तो सुखेथी अहीं आवे, छाने जो तेनी इला न होय तो ते सुखेथी जाय. त्यारे सिद्धसेनजीए बडीदारने कह्युं के मारे सोनामोहोरोनो खप नथी, एम कही ते राजसजामां गया. त्यां विक्रमराजा पूर्व सन्मुख सिंहासनपर बेठा हता. तेने जोइ श्राचार्यजीए नीचे प्रमाणे एक श्लोक कह्यो. " ४४ पूर्वेयं धनुर्विद्या, जवता शिक्षिता कुतः ॥ मार्गणैौघः समभ्येति, गुणो याति दिगंतरम् ॥ १ ॥ अर्थ :- हे राजन् ! यावी अपूर्वं धनुर्विद्या तमो क्यांथी शीख्या ? केमके, तमारां बाणोनो समूह ( पदे - याचकोनो समूह ) नजीक वे बे ने दोरी ( प- तमारा गुणो ) उलटा दिशांतरमां जाय के !! ॥ १ ॥ ते सांजली राजा पूर्व सन्मुखनुं सिंहासन बोडीने दक्षिणतरफ बेग त्यारे श्राचार्यजीए नीचे प्रमाणे बीजो श्लोक कह्यो. सर्वदा सर्वदोऽसीति, मिथ्या संस्तूयसे बुधैः ॥ नारयो लेजिरे पृष्ठं, न वक्षः परयोषितः ॥ २ ॥ अर्थ :- हे राजन् ! हमेशां तमो "सर्व वस्तु आपनारा बो" एवी रीते पंकितो तमारी फोकट स्तुति करे बे, केमके शत्रु तमारी पीठने मेलवी शकता नथी, तेम परस्त्री तमारां वक्षस्थलने मेलवी शकती नथी. ॥ २ ॥ सांजलीने विक्रमराजा पश्चिम दिशातरफ बेवा. त्यारे श्राचार्यजीए नीचेप्रमाणे त्री जो श्लोक कह्यो. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ग्राहते तव निःखाने, स्फुटितं रिपुहृद्घटैः ॥ गलिते तत्प्रियानेत्रे, राजंश्चित्रमिदं महत् ॥ ३ ॥ ४५ अर्थ :- हे राजन् ! तमारुं निसान वागते ते शत्रुर्जना हुदयरूपी घमा फूटी गया; पण जल तो तेउनी स्त्रीउना नेत्रोमांथी निकस्युं ! ए मोडं आश्चर्य बे ! ॥ ३ ॥ सांजलीने विक्रमराजा उत्तरतरफ बेठा. त्यारे श्राचार्यजीए नीचेप्रमाणे चोथो श्लोक कह्यो. सरस्वती स्थिता वक्त्रे, लक्ष्मीः करसरोरुहे ॥ कीर्तिः किं कुपिता राजन्, येन देशांतरं गता ॥४॥ हे राजन् ! सरस्वती तो तमारा मुखमां बेठेली बे, छाने ल मी तो तमारा हस्तकमलमां बेठेली बे, त्यारे तमारी कीर्ति शुं ( शोक्यपणाना ) जयश्री कोप पामी बे ? के जे ते देशांतरमां वाली गइ बे. ॥ ४ ॥ एवी रीते चोथो श्लोक सांजलीने विक्रमराजाए सिंहासनथी उतरी श्राचार्यजीने नमस्कार कर्यो; छाने कां के दे जगवान् ! में आपने चारे दिशाउनुं राज्य पी दीधुं बे. त्यारे श्राचार्यजीए कह्युं के, हे राजन् ! मो निस्पृही मुनि राज्यने शुं करी ? एम कही आचार्यजीए पोतानो मुनिव्यवहार तेमने कदी संजलाव्यो. बेवटे राजाए घणी खेंच करी पण आचार्यजीए कंई पण वस्तु लीधी नहीं. पी विक्रमराजा त्यारथी जैनधर्मी rs शुद्ध श्रावकपणुं पालवा लाग्या, तथा हमेशां सिद्धसेन दिवाकरना चरणो सेवीने तेणे शत्रुंजयादिक तीर्थोनो उवारकर्यो, तथा कारादिक शेहेरोमां जिनमंदिरो बंधाव्यां. एवीरी कीर्तिदानपर विक्रमादित्य राजानी कथा जाणवी. वल एवीज रीते नोजराजाए पण पोतानी कीर्तिमाटे का Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ उपदेशतरंगिणी. सिदास, वररुचि, मयूर, तथा बाण आदिक कविने सेंकडो गमे गाम श्रादिकनुं दान प्राप्युं बे. वली ते कीर्तिदानपर जोजराजा अने धनपाख कविनी कथा कहे. सर्वदेव ब्राह्मणनो पुत्रधनपाल पोतानालाइ शोजनाचार्ये करेसा उपदेशथी प्रतिबोध पामीने परम जैनी श्रयो हतो. एक दहामो नोजराजा ज्यारे शिकारे जतो हतो, त्यारे तेणे बलात्कारे धनपास पंडितने साथे सीधो. पनी त्यां पोताना बाणधी एक हरिणने मार्याथी ते हरिण पृथ्वीपर पडीने पोतानी पुंगमी फफडाववा लाग्युं. त्यारे नोजराजाए धनपाल कविने तेनुं कारण पूगुं. त्यारे कवीश्वरे कडं के, हे राजन् ! ते हरिण पुंगडी फफडावीने एम सूचवे ने के, रसातलं यातु तदत्र पौरुषं उनीतिरेषा धरणीनृतानां ॥ निहन्यते यलिनापि उर्बलो हहा महाकष्टमराजकं जगत ॥१॥ अर्थः- राजाउनु ते पौरुष रसातलमा जाउँ ? तेम श्रा तेउनी कुनीति के केमके, बलवान माणस पण मुर्बलने जे हणे बे, तेथी अरेरे!! श्रा जगत् तो राजाविनानुं लागे ॥१॥ पदे पदे संति नटा रणोद्यता, । न तेषु हिंसारस एष पूर्यते ॥ धिगीदृशं ते नृपते कुविक्रमः, कृपाश्रये यः कृपणे मृगे मयि ॥२॥ अर्थः-वली आजगतमां पगले पगले सुलटो रणसंग्राममां तत्पर यएला ; पण तेऊनो हिंसारस संपूर्ण थतो नथी; माटे हे रा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. . जन् ! दया करवाने योग्य एवा हुँ मृगप्रते जे ते श्रा तारूं खराब पराक्रम फोरव्युं ते, ते तारा पराक्रमने धिक्कार . वैरिणोऽपि हि मुञ्चंते, प्राणांते तृणन्नदणात ॥ तृणाहाराः सदैवैते, हन्यते पशवः कथम् ॥३॥ प्रणांतकाले मुखमां तृण खेवाथी .माणसो वैरिउने पण बोडी मुके जे; तो हमेशां तृण लक्षण करनारा एवा था पशुऊने शामाटे हणवा जोइए ! श्रावी रीतनी धनपालनी वाणी सांजलीने लोजराज मनमां जरा क्रोधातुर थयो. परी बागल चालतां ते राजा पोते बनावेला एक तलावपासे श्राव्यो, तथा ते तलावनुं वर्णन करवाने तेणे धनपाल कवीश्वरने कयु, त्यारे धनपाले कयुं के, एषा तटाकमिषतो वरदानशाला, मत्स्यादयो रसवतीमगुणा सदैव ॥ पात्राणि यत्र बकसारसचक्रवाकाः, ... पुण्यं कियनवति तत्र वयं न विद्मः॥१॥ अर्थः- तलावना मिषयी खरेखर बातो एक दानशाला लागे बे, केमके त्यां मत्स्यादिकरूप रसोइ हमेशां तैयार होय , तथा तेमां बगलां, सारस, चक्रवाक आदिक पदिउँ अतिथि तरीके श्रावे , माटे या तलाव बांधवाथी केटलुक पुण्य थाय ने ? ते अमो जाणी कशता नश्री. ॥ १ ॥ ते सांजलीने पण लोजराजा तो मनमा गुस्से अयो. पनी ते नगरमां आव्याबाद त्यां यज्ञमंझपमां होमवामाटे बांधेला बकरानी बूमो सांजलीने राजाए धनपाल पंमितने कडं के, श्रा बकरो शुं बोले ? त्यारे धनपाले कडं के ते एम कहे के. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ . उपदेशतरंगिणी. नाहं स्वर्गफलोपन्नोगतृषितो नाभ्यर्थितस्त्वं मया संतुष्टस्तृणन्नदणेन सततं साधो न युक्तं तव ॥ स्वर्ग यांति यदि त्वया विनिहता यागे ध्रुवं माणिनो यज्ञं किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथा बांधवैः॥१॥ · अर्थ-हे राजन् !मने स्वर्गफलना उपजोगनी तृष्णा नथी, तेम में तमारी पासे कंई याचना करी नथी; तेम ढुंतृणनदणथी संतुष्ट थयो व. माटे तमारे मने मारवो उचित नथी, वली कदाच तमोए यझमां मारेला प्राणी जो स्वर्गमां जता होय, तो तमो तमारा मातपिता तथा पुत्रो अने बांधवोनो यज्ञ केम करता नथी ? १ ते सांजली क्रोधायमान श्रएला लोजराजाए धनपालनी आंखो कहाडी लेवाने श्वयु. धनपाल पंमिते पण चेष्टाथी राजानो ते विचार जाणी लीधो. पठी चालतां अकां ज्यारे ते दरवाजामां आव्या, त्यारे कोश्क डोशीने मस्तक धुणावती तेजेए दीनी, तथा तेनीपासे एक मुग्ध होकरी पण उनी हती. ते जोश राजाए धनपालने तेनुं कारण पूज्यं. त्यारे धनपाल कविए कह्यु के, हे स्वामी ! था मोशीने ते मुग्धबालिका नीचेप्रमाणे पूरे ने, अने तेनो ते मोशी निषेध करे बे. किं नंदी किं मुरारिः किमुत सुरपतिः किं जलः किं कुबेरः किं वा विद्याधरोऽसौ किम रतिरमणः किं विधुः किं विधाता ॥ नायं नायं न चायं न खलु न हि न वा नापि नासौ न चैष क्रीडां कर्तुं प्रवृत्तः स्वयमिह । हि हले नूपतिन्नोंजदेवः ॥१॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. .. ए अर्थः- शुं श्रा महादेव ने ? के विष्णु ने ? के इंज? के नल ने ? के कुबेर ने ? के को विद्याधर ? के कामदेव ने? के चंज ? के ब्रह्मा ने ? त्यारे ते मोशीए कह्यु के, अरे मुग्धे सखि! तेमांथी ते कोइ पण नथी;आ तोलोजराजा पोते क्रीमा करवाने जाय . ते सांजली नोजराजाए कडं के, हे कवीश्वर! मने विष्णु आदिकनी उपमा शीरीते घटी शके ? त्यारे धनपाल कवीश्वरे कडं के, हे राजन् ! सांजलो. अभ्युता वसुमती दलितं रिपूरः क्रोडीकृता बलवता बलिराजलदमीः॥ एकत्र जन्मनि कृतं तदनेन यूना, जन्मत्रये यदकरोत्पुरुषः पुराणः ॥१॥ अर्थ-वलवान एवा तमोए एकज जन्ममा पृथ्वीने उधरी ने, शत्रुटने दट्या ,तथा (बलिराजनी) बलवान राजाउनी लक्ष्मीने वश करीने अने विष्णुए तो त्रण जन्ममां ते त्रणे कार्यो कर्या ने. ते सांजली तुष्टमान श्रएला नोज राजाए कवीश्वरने कयुं के, हे कविराज ! तमो कं; पण वरदान मागो ? त्यारे धनपाले कह्यु के, जो एम ने तो मने ( मारी ) आंखो आपो ? त्यारे राजाए कडं के, ते आंखो तो प्रथमश्रीज तमारीपासे बे. त्यारे कवीश्वरे कडं के ते आंखो बे, पण नहीं होवासरखी हती, केमके, आपे मनश्री ते ले लेवानीज श्वा करी हती. त्यारे राजाए कह्यु के, तमोए ते शी रीते जाण्युं? त्यारे कविराजे कह्यु के, आकारैरिंगितर्गत्या, चेष्टया नाषणेन च ॥ नेत्रवऋविकारैश्च, लक्ष्यतेऽतर्गतं मनः ॥१॥ आकार, इंगित, गति, चेष्टा, वचन, अने नेत्र तथा मुखना विकारथी प्राणीउनुं अंतरंग मन जणाय वे. ॥१॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ते सांजली राजाए क में तमोने ते तमारां च कीर्तिदानो प्यां बे. उपदेशतरंगिणी. के, हे कविराज ! तमो शांत था ? श्राप्यां इत्यादि भोजराजाए घणां वली तेज कीर्तिदानपर सिद्धराज राजानी कथा कहे. एक दहाडो सिद्धराज ग्रीष्मऋतुमां, क्रीमा करवामाटे वनमां गया हता. त्यां मार्गमां रामचंद्र नामना साधु तेमने महया. त्यारे ते राजा तेमने पृच्यं के, ग्रीष्म शतुमां दिवसो लांबा केम होय बे? त्यारे रामचंs ह्युं के, देव श्री गिरिदुर्गमल्ल जवतो दिग्जैत्रयात्रोत्सवे धावछी रतुरंग निष्ठुरखुरकुरणक्षमा मंडलात् ॥ वातोडूतरजो मिलत्सुरसरित्संजात पंकस्थलीदूर्वाचुंबनचंचुरा र विहयास्तेनातिवृ दिनम् ॥१॥ - हे गिरिदुर्गने जीतनारा राजन् ! तमारा दिग्विजय समये दोडता एवा सुटोना घोडाउंनी उग्र खरीना घातथी खोदाएली पृथ्वीपरथी पवने करीने उडेली रजथी आकाशगंगामां कादव थयो, छाने तेथी तेमां उगेली धोकडने खावानी लालची सूर्यना घोडा थोजी गया बे, अने तेथी दिवसो मोटा थया वे. ते सांजली तुष्टमान थपला सिद्धराजे तेमने “ कविकट्टारमनुं " बिरुद युं. एवी रीते सिद्धराजे पण श्रीपाल यादिक कविने घणुं कीर्तिदान श्राप्यं बे. वली तेज की र्तिदानपर कुमारपाल राजानी कथा कहे. एक दहाडो कुमारपाल राजाए सपाद लक्ष्ना राजाश्रणधिपपर चडाई करी; ते वखते तेना सामंतोए गुप्त रीते तेनी हांसी करीके, अरे! या वकिनी पेठे जैनधर्म पालनारो बे, तो हिंसाथी डरीने शत्रुने शी रीते जीती शकशे ? ते वात राजाना क Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ५१ पर आववाथी ते सामंतोने पोतानुं बल देखाडवा माटे कुमारपाले मार्गमां पमेली एक आखी सोपारीनी गुणीने पोताना नालांवती उचकी लीधी, तथा एक धोबीना सात कमायां के, जे एक बीजापरसाथे पडेल हतां, तेने नालांथी वींधी नांख्यां. ते समये आम्रनट्ट कविए समयोचित राजानी प्रशंसा करवाथी कुमारपाले तेने दरेक अक्षरप्रते घोडा आप्या. पली अर्णराजाए केटलुक प्रव्य आपीने कुमारपालना केटलाक सामंतोने ज्यारे पोताना पदमां लीधा त्यारे कुमारपाल शोकातुर थयो, त्यारे एक चारणे तेने कर्वा के, कुमारपाल मम चिंत करेश, चिंतित्रं किंपि न हो ॥ जिणे तुज राज समप्पिन, चिंत करेसिइ सोइ ॥१॥ पगी ज्यारे कुमारपालनो जय श्रयो त्यारे कविए कर्वा के, जीयाच्चिरं कीर्तिलतालवाल, कुमारपाल दितिपाल नास्वान् ॥ यस्य प्रतापो हि वनेऽप्यरीणां, स्वेदोदबिंदून्नधिकांश्चकार ॥१॥ अर्थ- हे कीर्तिरूपी वेलडीना क्यारासमान अने सूर्यसरखा कुमारपाल राजा तमो घणा कालसुधी जय पामो ? के जे कुमारपालराजाना प्रतापे वनमा रहेला शत्रुने पण अधिक पसीनाना बिंऽ करेला बे. ॥१॥ विहारं कुर्वता वैरि-वनिताकुचमंडलम् ॥ महीमंडलमुदंड-विहारं येन निर्ममे ॥२॥ अर्थ- वली जे कुमारपाल राजाए पृथ्वीपर विहार करतां थकां शत्रुऊनी स्त्रीउना स्तनममलने हारो विवानुं कर्यु . ॥२॥ इत्यादि तेनी प्रशंसाना अनेक काव्यो कविए कह्यां , अने तेथी कुमारपालराजाए तेने घणुंज कीर्तिदान आपेलुं . Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ उपदेशतरंगिणी. वली एवीज रीते कुमारपाल राजा एक दहाको पोताना गुरु श्री हेमचंद्राचार्यनी साथे शत्रुंजयपर जई चैत्यनां दर्शन करता हता, ते वखते हेमचंद्रजीए तेमनो डाबो हाथ फाट्यो हतो, ते जो कपर्दि कविए कहां के, श्री चौलुक्य स दक्षिणस्तवकर: पूर्व समासूत्रित - प्राणिप्राणविघातपातकसखः शुको जिनेंाचनात् ॥ वामोऽप्येष तथैव पातकसखः शुद्धिं कथं मानयात् न स्पृश्येत करेण चेद्यतिपतिः श्री हेमचंद्रः प्रभुः ॥ १ ॥ अर्थ- हे चौलुक्यवंशना राजा कुमारपाल ! पूर्वे करेली प्राहिंसाथी पापिष्ट थलो तमारो जमणो हाथ तो श्री जिनेश्वर प्रजुनी पूजाथी शुद्ध एलो वे; अने तेवीज रीते तमारो डाबो हाथ पए के जे पापिष्ट हतो, तेने जो या महान आचार्य श्री हेमचंद्रजी ए स्पर्श कर्यो नहोत, तो ते पण शुद्ध क्यांथी यात? ते सांजली कुमारपालराजाए कपर्दि कविने घणुं प्रव्यापी संतुष्ट कर्यो. वली तेज कीर्तिदानपर विशलदेवराजानी कथा कहे. एक दद्दाको विशलदेवराजाए जोजन कर्याबाद हाथमां एक तृण लेने का रिसिंह नामना कविने कह्युं के, तमो आ तृनुं वन करो ? ने तेमां जो तमो चमत्कारिक जंगी थी वर्णन करशो, तो तमोने हुं बेवडो गरास पीश, अने तेम जो नहीं थाय, तो तमारो जे गरास बे, ते पण यांचकी लेश्श. ते सांकविराजे कांके, कारोऽन्धिः शिखिनोमखा विषमयं श्वभ्रं दींडुर्मुधा माहुस्तत्र सुधामियं तु दनुजस्तत्रैव लीनातृणे ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ५३ पीयूषप्रसवो गवां यदशनाद्दत्वा यदासोनिजे देव वत्करवालकालमखतो निर्याति जातिषिाम् ॥१॥ एवी रीतना चमत्कारिक वर्णनने सांजलीने विशालदेवराजाए ते कविराजने बमणो गरास आप्यो. वली तेज कीर्तिदानपर उदयसिंह राजानी कथा कहे. एक दहामो योगिनी नामना नगरथी जलालुदिन नामनो बादशाहं मोटुं लश्कर लेश्ने गुजरातपर चडी आव्यो, तथा ते देश जीतीने ज्यारे ते पागे वढ्यो त्यारे गोपगिरिना राजा उदयसिंहे पोतानुं लश्कर लेख्ने तेनापर हुमलो कर्यो; तथा ते बादशाहना लश्करने दरावीने तेनो सघलो असबाब पोते लुंटी लीधो तथा एवी रीते जय पामीने ज्यारे ते नगरमा प्रवेश करतो हतो त्यारे एक चारणे तेने कर्वा के, सुंदरसरिअसुरहंदतलि, जलपिधनं वयणेहिं ॥ उदयनरिंदहिं कढीनं, तीहं नारीनयणेहिं ॥१॥ एवी रीतनी चारणे कहेली गाथाने सांजलीने तुष्टमान श्रएला उदयसिंहराजाए ते चारणने पोताने लुटमां मलेलो सर्व असबाब आपी दीधो. . एवी रीते कर्णराजा, वनराज, नीम, आमराजा आदिक राजाऊना कीर्तिदानना प्रबंधो जाणी लेवा. हवे मंत्रि, प्रधान, व्यापारि आदिकोना कीर्तिदाननुं स्वरूप कहे . तेमां प्रश्रम आम्रदेव मंत्रिनी कथा कहे__एक दहाडो गुजरातना राजा कुमारपाले कोईबंदिना मुखथी. कोंकणना राजा मस्विकार्जुननी प्रशंसा सांजली. तेथी तेने क्रोध चड्यो, अने तेटतामाटे तेणे पोताना मंत्रि आम्रदेवने तेने जीतवामाटे बलवान लश्करसहित त्यां मोकट्यो. त्यां खडाश्मां Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. देव मंत्रिए मलिकार्जुनने मार्यो, तथा त्यां रहेता माही - मानी जीविकानो बंदोबस्त करावीने तेउपासेनी त्रासो जालोने बाली नाखी तथा ते देशमां सर्व जगोए कुमारपालनी श्राज्ञा वर्तावी. पनी त्यांथी पाना वलतां सोपारक नगरमां जीवंत स्वामी तथा श्री युगादि प्रजुना मंदिरमां तेा महोत्सव कर्यो, तथा त्यांथी मेलवेली अमूल्य वस्तु लेइने तुरत पाटणम आयो, अने सर्व वस्तु तेणे कुमारपालराजाने सोंपी. ते जो तुष्टमान थला राजाए ते श्रनदेवने “ राजपितामहनुं " बिरुदायुं, तथा तेनी साथे एक क्रोड सोना मोहोरो, सोनाना कलशो, छाने चोवीस उत्तम घोडा पण प्या. त्यारे देवे ते त्रण कलशोने नृगुकवादिकमां जिनमंदिरोपर चडाववामाटे राख्या, अने बाकीनुं राजा पेलुं प्रव्य तथा पोताना घरमा रहेलुं प्रव्य पण तेथे जाट चारण श्रादिकोने पी दीधुं. ते जोई राजाने ईर्षा थई, त्यारे देवे कह्युं के, हे स्वामी ! आप तो बार गामना स्वामी एवा त्रिभुवनपालना पुत्र बो, छाने हुं तो तमो के जे अढार देशोना राजा बे, तेनो पुत्र तुं, माटे अधिक दान केम न आएं ? ते सांजली कुमारपाल - राजा संतुष्ट थया. वली ते आम्रदेव मंत्रिए जरुचमां श्री मुनिसुव्रतस्वामिना मंदिरमां आरति उतारती वखते घणुं प्रव्य याचक लोकोने प्युं हतुं. कयुं ने के, दाविंशद्धम्मलका भृगुपुरंवसतेः सुव्रतस्यार्हतोऽग्रे कुर्वन्मांगल्यदीपं स सुरनरवरश्रेणिनिः स्तूयमानः ॥ यो ऽदादर्थिव्रजस्य त्रिजगदधिपतेः सगुणोत्कीर्तनायां ' स श्रीमानाम्रदेवो जगति विजयतां दानवीराग्रयायी १ ५४ अर्थ - रुचमां श्रीमुनिसुव्रतस्वामिजीपासे मंगल दीपकरतां कां, देवो ने उत्तम मनुष्योनी श्रेणिउंथी स्तुति करा - Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ५५ एला जे श्री आम्रदेव मंत्रीए, त्रिलोकना स्वामिना गुणोत्कीर्तन करनार लोजक आदिकोने बत्रीस लाख सोनामोहोरो आपी बे, एवा महा दानेश्वरी श्रीआम्रदेव मंत्री जगतमां जय पामो ? वली ज्यारे ते मंत्रीश्वरे नरुचमां जिनमंदिरनो प्रतिष्ठामहोत्सव को त्यारे तेनी उदारता जोई चकित थएला हेमचंत्राचार्यजीए पण कर्वा के, किं कृतेन न यत्र वं यत्र वं, किमसौ कलिः ॥ कलौ चेन्नवतो जन्म, कलिरस्तु कृतेन किम् ॥१॥ ते सांजली एक लाख अने बत्रीस हजार सोनामोहोरोनुं श्री हेमचंजाचार्यपर बुंउन करीने आम्रदेवे ते सर्व जव्य याचकोने वहेंची आप्यु. एवी रीते किर्तिदानपर कुमारपालराजाना महामंत्री आम्रदेवनी (अंबडदेवनी ) कथा कही. हवे तेज कीर्तिदानपर विमलशाहनी कथा कहे जे. विमलशाह शाहुकारे ज्यारे आबु पर्वतपर जिनमंदिरो बांधवानो प्रारंल कर्यो, तेसमये ते नूमिनो अधिष्ठाता वालिनाह तेमने अंतराय करवा लाग्यो, तथा मदिरा अने मांसना निवेदनी याचना करवा लाग्यो; त्यारे विमलशाहे अंबिकादेवीना आराधनश्री तेने वश कर्यो, अने तेथी ते फक्त वडांना निवेदश्रीज खुशी अयो. पनी ते विमलशा शेने जिनमंदिर पूरुं कर्याबाद अत्यंत नक्तिथी संघनी सेवा करी तथा निकुक लोकोने एवा तो संतुष्ट कर्या के, हजुसुधि पण “ विमल श्रीसुप्रजात" एवी रीतनी लोकवाणी चाली आवे जे; अने याचक विगेरे पोताना यजमानने ते वचन कहीने आशीर्वाद आपे बे. ते आशीर्वाद वचननो अर्थ एवो के, जेम विमलशाह शेठ अने तेनी स्त्री श्रीदेवीनो Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ उपदेशतरंगिणी. प्रजात जगतो हतो, तेवो प्रजात तमारो पण गो? वली एक चारणे विमलशाह शेग्नी प्रशंसा करी के, मंडीमुरकीर करइ, मिस्हीअमंसग्गाह ॥ विमलहिं खंडळंकढीजं, नान वालिनाह ॥१॥ . ते सांजली विमलशाह शेने ते चारणने एक लाख सोनामो होरो आपी हती. एवी रीते विमलशाह शेठना कीर्तिदाननी कथा जाणवी. वली तेज कीर्तिदानपर वस्तुपालनी कथा कहे . वस्तुपाल मंत्री दर वर्षे त्रणवार चतुर्विध संघनी पूजा करता हता; अने अत्यंत दान आपता हता. एक दहाडो कोश्क दरिखी ब्राह्मणे तेमने विनंति करी के, हे देव! तमो तो कट्पवृदनीपेठे सर्व लोकोनी श्छा पूरो गे, तो एक दिवस मारा तरफ पण दृष्टि करो के, जेथी मारी दरिजताने तो हुँ जलांजलिज देलं. ते सांजली मंत्रिए पोताना माणसोने कह्यु के, अरे! आने कंइंक वस्त्र आपो? त्यारे माणसोए कडं के, वस्त्रो बांधवानी एक जाडी चादर अहीं हाजर . त्यारे मंत्रिए जरा हसीने कडं के, ते श्रापो? पठी ते चादर लेश्ने ब्राह्मणे कडं के, क्वचित्सूत्रं क्वचितूलं, कापसास्थि कचित् कचित् ॥ देव त्वदरिनारीणां, कुटीतुल्या पटी मम ॥१॥ अर्थ-श्रा वस्त्रमा तो कोश्क जगोए सुतर, तो कोश्क जगोए पुंबडां, तो क्यांक 'क्यांक तो वली कपासीबा पण वलगेला , माटे हे देव! आमारुं वस्त्र तो आपना शत्रुर्जनीकुटी सरखं .॥१॥ ते सांजली. जरा हंसीने मंत्रीश्वरे कडं के, फरीने ते श्लोक तुं बोल ? ते सांजली ते ब्राह्मण सत्तर वखत ते श्लोक फरी फरीने ' * बोली गयो; तेथी तुष्टमान थएला मंत्रीश्वरे तेने सत्तरसो सोनामोहोरो आपी. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. एक दहाडो वस्तुपालमंत्री यात्रा वखते नरचं आचार्यजीने वांदवा माटे आव्या; त्यारे आचार्यजी जरा ध्यानमां हता. त्यारे मंत्रीश्वरे कडं के, हे जगवनू ! आ समये आप निजामां केम गे? त्यारे आचार्यजीए कह्यु के, हुं कई निजामां नथी, पण समुजमां रहेता लक्ष्मी अने विष्णु वातो करे , ते सांजलु बु. त्यारे मंत्रीश्वरे पूज्युं के, ते शुं वातो करे ? त्यारे आचार्यजीए कह्यु के, लदिन प्रेयसि केयमास्यशितिति वैकुंठकुंगेऽसि किम् ॥ ___नो जानासि पितुर्विनाशमसमं संघोत्थितैःपांसुन्निः मानीर्नीरु गन्नीर एव नवितांनोधिश्चिरं नंदतात, संघेशो ललितापतिर्जिनपतेःस्नानांबुकुल्यां सृजन १ तेसांजली मंत्रीश्वरे तेमना मानमाटे सुवर्णतुं सिंहासन रचाव्युं. एक दहाडो बालचं साधुए वस्तुपालनी प्रशंसा करी के, गौरी रागवती त्वयि त्वयि वृषो बधादरस्त्वं पुन āत्या त्वं च समुबसणगणः किं वा बहु ब्रूमहे श्रीमंत्रीश्वर नूनमीश्वरकलायुक्तस्य ते युज्यते बालें चिरमुच्चकैरचयितुं त्वतोऽपरः कः दमः ३ ते सांजली मंत्रीश्वरे तेमनु पादोपवेशन कर्यु. __एक दहाडो तेजपालमंत्री नृगुकच (नरुच ) नामना नगरमां पधार्या. त्यारे मुनिसुव्रतस्वामिना चैत्यमा रहेता आचार्योए तेमने कडं के, हे मंत्रीश्वर ! एक संदेशो हुँ तमोने कहुं ते सांजलो? त्यारे मंत्रीश्वरे हाथ जोडीने कडं के, हे लगवन् ! आप फरमावो? त्यारे आचार्यजीए कह्यु के,आजे पाउली रात्रिए मने • एक वृद्ध स्त्रीए आवीने कडं के, तेजःपालकृपालधर्यविमलपारवटावंशध्वज श्रीमन्नंबडकीर्तिरर्ध वदति त्वत्संमुखं मन्मुखात॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. आजन्मावधि वंशयष्टिकलिता ब्रांताहमेकाकिनी वृधा संप्रति पुण्यपूजन्नवतः सौवर्णदंडस्पृहा॥२॥ ते सांजली तेजपाल मंत्रीश्वरे जिनमंदिरोपर बहोतेर सोनाना कलशो अने दंडो चडाव्या. तथा दश हजार सोनामोहोरोनुं आचार्यजीने ढुंगणुं कर्यु. वली एक दहाडो वस्तुपालमंत्री शत्रुजय पर्वतपर सर्व संघनी समद श्री युगादीश प्रजुनी आरति उतारता हता ते वखते याचको दान लेवामाटे उपरा उपर पडता हता. ते वखते सोमेश्वर कविए कर्वा के, श्वासिधिसमुन्नते सुरगणे कल्पपुमैः स्थीयते ___पाताले पवमानन्नोजनजने कष्टं प्रणष्टो बलिः ॥ नीरागानगमन मुनीन सुरनयश्चिंतामणिःकाप्यगात ___ तस्मादर्थिकदर्थनां च सहतां श्रीवस्तुपालःदितौर - अर्थः- कटपवृहो तो श्लासिधिवाला देवोपासे गया, अने महादानेश्वरी बलिराजा पातालमां गया, कामधेनु नीरागी मुनिपासे गर्छ, अने चिंतामणिरत्न तो कोण जाणे क्यांयें चाट्युं गयु: माटे हवे तो आ पृथ्वीपर याचकोनी पीडा तो वस्तुपालनेज सहन करवी बाकी रही . ते सांजली मंत्रीश्वरे सोमेश्वर कविराजने एक हजार सोनामोहोरो आपी. त्यारे फरीने सोमेश्वरे कडं के, . के निधाय वसुधातले धनं, वस्तुपाल न यमालयं गता त्वं तुनंदसि निवेशयन्निदं, दिदुधावति जने दुधावति अर्थ-हे वस्तुपालमंत्री! आ पृथ्वीपर धनने गेडीने यमने स्थानके कोण गया नथी! पण तमोतो ते धनने दिशाप्रते दोडता एवा कुधातुर माणसने आपता का आनंद पामो गे॥१॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ते सांजली मंत्री श्वरेफरी ने तेने एक हजार सोनामोहोरो श्रापी. वली ते समये अरिसिंह कविराजे कं के, श्री वासांबुजमाननं परिणतं पंचांगुलिवझतो जग्मुर्द क्षिणपंचशाखमयतां पंचापि देवकुमाः ॥ वांडापूरणकारणं प्रणयिनां जिह्वैव चिंतामणि जता यस्य किमस्य शस्यमपरं श्रीवस्तुपालस्य न अर्थ- जे वस्तुपालनं मुख तो लक्ष्मीने निवास करवाने क मल सरखं बे, तथा हाथमां रहेली पांचे ांगली ना मिषथी पांचे जातिनां कल्पवृक्षो तो जेने स्वाधीन थएलां बे, तेम लोकोनां वां बिताने पूरनारी जेनी जिह्वा तो चिंतामणिरत्नसमान बे, माटे एवी रीते श्री वस्तुपालमंत्री नुं बीजुं पण शुं प्रशंसवालायक नथी ? ते सांजली मंत्री श्वरे तेने बे हजार सोनामोहोरो पी. एक दहाडो वीरधवल राजाए तुष्टमान थइने वा मंत्री ने दश लाख सोनामोहोरो इनाममां पी; पण ते संथली सोरामोहोरो तेणे घेर पहोंचतां पेहेलांज मार्गमा प्राचीने प दीधी. त्यारे कोइ कविए कह्युं के, श्रीमंत दृष्ट्वा द्विजराजमेकं पद्मानि संकोचमवाप्नुवंति समागतेऽपि द्विजराजलदे, सदा विकाशी तव पाणिपझे ₹1 - लक्ष्मीवान एवां कमलो एकज द्विजराजने कहेतां चंने जोने संकोचाइ जाय बे, पण हे मंत्री श्वर ! लाखो विजराज (ब्राह्मण) व ते पण तमारुं हस्तकमल तो हमेशां प्रफुल्लितज रहे बे !! ॥ १ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. . एवी रीतनी पोतानी स्तुति सांजलीने वस्तुपास मंत्री लजाथी नीचुं नोवा लाग्या; ते जोइ नाना नामना कविए कह्यु के, एकस्वं नुवनोपकारकशति श्रुत्या सतां जटिपतं लगानम्रशिरा धरातलमिदं यहीसे वेनि तत् ॥ वाग्देवीवदनारविंदतिलकत्रीवस्तुपाल ध्रुवं पातालालिमुद्दिधीर्घरसकृन्मार्ग नवान मार्गसि॥१॥ अर्थ- " तुं एकज जगतनो उपकारी डे" एवी सऊनोनी वाणी सांजलीने लजाथी मस्तक नमावीने जे तमो नीचे जुड़े बगे तेनुं कारण हुँ जाणुं वं; हे सरस्वतीना मुखपर तिलकसमान एवा वस्तुपाल मंत्री ! खरेखर तमो पातालमांथी बलिराजाने खेंची कहाडवानी श्वाथी मार्गने शोधो जो. ॥१॥ ते सांजली मंत्रीश्वरे ते कविराजने सुवर्णनी जीन पी. एक दहाडो सोमेश्वर कत्रि वस्तुपालने घेर आव्यो, त्यारे मेंत्रीश्वरे तेमने बेसवामाटे उत्तम आसन आप्युं, पण तेपर ते बेगे नहीं; त्यारे मंत्रीश्वरे तेनुं कारण पूज्यु; त्यारे कविए कह्यु के, अन्नदानैः पयः पान-धर्मस्थानैश्च नूतलम् ॥ यशसा वस्तुपालेन, रुधमाकाशमंडलम् ॥१॥ अर्थ- वस्तुपाल मंत्रीश्वरे अन्नदानथी, जलदानथी, तथा धमनां मकानोथी पृथ्वीतलने रोक्युं , तेम यशथी आकाशममलने रोक्यु , ( माटे जगो नहीं मलवाथी हुँ बेसतो नथी.) ते सांजली मंत्रीश्वरे तेने नव हजार सोनामोहोरो आपी. एक दहाडो वस्तुपाल मंत्री संघपूजा करता हता त्यारे वि. जयसेनसूरिजीए कह्यु के, आजे तो इंजना नंदनवनना उद्यानपालके इंनी सनामां जश् एवो पोकार कर्यों के, Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी.. ६१ देव स्वर्नाथ कष्टं ननु क इहमवान्नंदनोद्यानपालः ॥ खेदस्तत्कोऽथ केनाप्यहह हत हृतः काननात्कल्पवृक्षः॥ अर्थ- हे इंद्र महाराज जे तो मने मोटुं कष्ट थयुं बे; त्यारे इंद्रे कह्यं के, तुं तो नंदनवननो उद्यानपाल बे; तने जे शुं कष्ट बे ? त्यारे उद्यानपाले कह्युं के, अरेरे !! जे तो कोइ नंदनवनमांथी कल्पवृक्षने उपासी गयुं बे ! ! ते सांजली इंजे कांके, हुं मा वादी स्तदेतत्किमपि करुणया मानवानां मयैष ॥ प्रीत्यादिष्टोऽयमुर्व्यास्तिलकयति तलं वस्तुपालनलेन ॥ १ ॥ अर्थ - अरे ! उद्यानपाल ! तुं एम नहीं बोल ? ते कल्पवृक्षने तो में मनुष्योपर कृपा लावीने मनुष्य लोकमां जवाने कां बे. नेते जे ते कल्पवृक्ष वस्तुपाल मंत्री श्वरना मिषथी पृथ्वीतलने शोजावे ॥ १ ॥ वली ते समये कोईके रोहणाचल पर्वतने प्रश्न कर्यो के, हो रोहण रोहति त्वयि मुहुः किं पीनतेयंसदा अर्थ- हे रोहणाचल ! हालमां तने चावी पुष्टता ते हमेशां केम मलती जाय बे ? त्यारे रोहणाचले कह्युं के, प्रातः संप्रति वस्तुपालसचिवत्यागैर्जगत्मीयते ॥ तेनास्तैव ममार्थिकुट्टनकथा प्रीतिर्दरी किन्नरीगीतैस्तस्य यशोऽमृतैश्च तदियं मेदविता मेऽधिकम् ॥ १॥ - अर्थ- हे जाई ! हमणां तो वस्तुपाल मंत्री श्वरना दानोश्री जगत आनंद पामे बे; छाने तेथी याचकोथी थता मारा खोदा - कथा नष्ट थ बे; तेम गुफाउंमां रहेली किन्नरी जनां गीतोथी मने प्रीति थइ बे, अने ते वस्तुपाल मंत्री श्वरना यशोरूपी अमृतथी मारी कष्टता अधिक अधिक वृद्धि पामे बे. ॥ १ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ उपदेशतरंगिणी. __एक दहाडो प्रजासपाटणथी सोमनाथ महादेवना पूजारा त्यां अव्या. त्यारे वस्तुपाल मंत्रीए कह्यु के, त्यां पूजा सेवा तो सारी रीते चाले नी ? त्यारे ते पूजाराठए कह्यु के, नादतेनसितं सितं सचिव ते कर्पूरपूरं स्मरन् कौपीने न च कुप्यति प्रनुरसौ शंसन उकूलानि ते ॥ दिग्धो उग्धन्नरैर्जलेषु विमुखः श्रीवस्तुपाल त्वया कर्पूरागरुपूरितः पशुपति! गुग्गलं जिघ्रति ॥ १॥ ते सांजली ते पूजाराऊने दश हजार सोनामोहोरो मंत्रीए आपी. वली ज्यारे मंत्रीश्वर दानमंडपमा रहीने याचकोने दान आपता इता त्यारे कवि तेनी स्तुति करता हता के, ये पापप्रवणाः स्वन्नावकृपणाः स्वामिप्रसादोटबणा स्तेऽपि अव्यकणाय मर्यनषणा जिहे नवंयस्तु ताः॥ तस्माततघापघातविधये बहादरा संप्रति श्रेयास्थान विधानधिकृतकलिं श्रीवस्तुपालं स्तुहि॥१॥ सूरो रणेषु चरणप्रणतेष सोमो, वक्रोऽतिवऋचरितेषु बुधोऽर्थबोधे ॥ नीतो गुरुः कविजने कविरक्रियासु, मंदोऽपि च ग्रहमयो न हि वस्तुपालः॥२॥ एवी रीतनी स्तुति करनार कविउँने दरेकने तेणे एकेक हजार सोनामोहोरो इनामदाखल आपी. पीयूषादपि पेशलाः शशधरज्योत्स्नाकलापादपि खडा नूतनचूतमंजरिजरादप्युवसत्सारतः ॥ वाग्देवीमुखसामसूक्तविशदोगारादपि प्रांजलाः केषां न प्रथयंति चेतसि मुदः श्रीवस्तुपालोक्तयः ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. श्रीवस्तुपाल तव नालतले जिनाझा, वाणी मुखे हृदि कृपाकरपद्धवश्रीः ॥ देहे द्युतिर्विलसतीति रुषेव कीर्तिः, पैतामहं सपदि धाम जगाम नाम ॥२॥ अनिःसरंतीमपि गेहग - कीर्ति परेषामसती वदंति ॥ स्वैरं ब्रमंतीमपि वस्तुपाल, त्वत्कीर्तिमाहुः कवयः सतीं तु ॥३॥ सेयं समुज्वसना तव दानकीर्तिः, पूरोतरीयपिहितावयवा समंतात् ॥ अद्यापि कर्णविकलेति न लक्ष्यते य तन्नानुतं सचिवपुंगववस्तुपाल ॥४॥ एवी रीतनी प्रशंसा करनारा दरेक कविउँने मंत्रीश्वरे हजार हजार सोनामोहोरो आपी. एवी रीते सेंकडोगमे कीर्तिदानो वस्तुपाल मंत्रिए श्रापेलां. तेनी विशेष हकीकत तेमना चरित्रथी जाणी लेवी. शत्रुजय नामना महातीर्थनी यात्रा करनार शालिगराजानीसनामां एक दिवसे कोश्क कैलासवासि ब्राह्मण आव्यो; तेने राजाए पूज्युं के हालमां कैलासमां शुं वर्ती रह्यं ने ? त्यारे ब्राह्मणे कडं के, ब्राह्मी वीक्ष्य शरस्यकारणशिरोमालां मरालाशय कंकाल तवाधिकंठलुठितां वैरस्य शुधौ किलं ॥ आधते नवदालयस्य नितरां मलोपलोन्मूलनं का नीतिः परमस्य लक्षणविधौ श्रीशालिगो गर्जति ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उपदेशतरंगिणी. __ एवी रीतनुं काव्य सांजलीने ते ब्राह्मणने शालिगराजाए घणुं धन प्राप्यु. वली विक्रम संवत् १३७१ मां समराशाहे ज्यारे शत्रुजय तीर्थनो उद्धार कर्यो, त्यारे रामजट्ट नामना कविए कह्यु के, अधिक रेखया मन्ये, समरं सगरादपि ॥ कलौ म्लेछबलाकीणे, येन तीर्थ समुघृतम् ॥१॥ अर्थ- हुँ तो सगरचक्रीथी पण समराशाहने अधिक प्राक्रमवालो जाणुं बुं, केमके तेणे आ कलिकालमां म्लेडोना लश्करथी जरेला एवा पण समयमा तीर्थनो उधार करेलो ने. ॥१॥ • ते सांजली तुष्टमान थएला समराशाहे ते कविने सुवर्णनी जीन आपी. एवी रीते सारंग, संग्रामसोनी, जगसी मोणसी, पेथम, छांऊण आदिकना कीर्तिदानो बीजा ग्रंथोथी जाणी लेवा. __ एवी रीते अजयदान, सुपात्रदान, अनुकंपादान उचितदान तथा कीर्तिदान मलीने पांच प्रकारनां दानोनुं स्वरूप कडं. हवे ते पांचे दानोमांथी अजयदान अने सुपात्रदानथी शांतिनाथ प्रनु तथा चंदनबाला दिकोनीपेठे मोद थाय ने, वली अनुकंपादान, उचितदान, तथा कीर्तिदानथी मेघकुमारादिकनी पेठे लोगादिक मले . एवं जाणीने विवेकी माणसोए सर्व प्रकारे दानधर्मनुं आराधन करवू. हवे शीलसंबंधि उपदेश कहेले. ये यौवने शीलधरा नराः स्यु स्तेषामहो सत्पुरुषेषु रेखा ॥ ते तारकाः स्युः प्रविशंति पूरे, तरंगिणीनां तरणदमा ये ॥१॥ अर्थ- जे माणसो यौवन अवस्थामांज शीलने धारण करे में, Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. तेउनीज गणत्री सजनोमां थाय ने केमके, जे तारुढ नदीऊना पूरमा प्रवेश करे , तेज खरेखरा तारू कहेवाय .॥ श्रा जगतमा जे लोको यौवन अवस्थामां पण शीलथी शएणगारेला श्रश्ने रहे , तेज सजतिए जनारा . कडुं ने के, ये न स्खलंति ते ददाः, कृष्णकेशतमोन्नरे॥ वार्धके तु सदोद्योतः, शिरस्थपलितेऽतः ॥१॥ अर्थ- जे श्याम केशोरूपी अंधकारना समूहमां स्खलना पामता नथी, तेज डाह्या पुरुषो के केमके, वृद्धावस्थामां तो मस्तकपर रहेला श्वेतपालरूपी चंथी हमेशां प्रकाश थाय .१ वली यौवनावस्थामांज व्रतपालवू मुकर . कह्यु के, यौवनं विकरोत्येव, मनः संयमिनामपि ॥ राजमार्गे प्ररोहंति, वर्षाकाले किलांकुराः॥१॥ अर्थ- यौवनावस्था मे ते मुनिना मनमां पण विकार उत्पन्न करे ने केमके, वर्षाकालमां तो राजमार्गमां पण अंकुराउँ उगी निकले .॥५॥ शीलरूपी रत्नवाला पुरुषे हमेशां मनमां स्त्रीना स्वरूपनुं निदनिकपणुंज चिंतवq. जेम के, प्राप्तुं पारमपारस्य, पारावारस्य पार्यते ॥ स्त्रीणां प्रकृतिवाणां, उश्चरित्रस्य नो पुनः ॥१॥ अर्थ- अपार एवा समुजनो पार तो पामी शकाय बे, पण स्वनावधीज वक्र एवी स्त्रीऊना पुराचरणनो पार पामी शकातो नथी. ॥१॥ हय विहिणा संसारे, महिलारूवेण मंडिअंपासं ॥ बज्जंति जाणमाणा, अयाणमाणावि बज्जति ॥ ५ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ उपदेशतरंगिणी. अर्थ - अरेरे !! ब्रह्मा श्रा संसारमां स्त्रीरूपी पास मांड्यो ने अज्ञानी पण फसाइ जाय बे ॥ बे, के जे पासमां ज्ञानी संसार तव निस्तार- पदवी न दवीयसी ॥ अंतरा उस्तरा न स्यु- र्यदि रे मदिरेक्षणाः ॥ ३ ॥ अर्थ- संसार ! तारामां अंदर जो स्तर एवी स्त्री न होत तो तरा पारने पहोंच कंई मुइकेल न होतुं ॥ ३ ॥ कामं कुलकलंकाय, कुलजातापि कामिनी ॥ शृंखला स्वर्णजातापि, बंधनाय न संशयः ॥ ४ ॥ अर्थ- कुलीन एवी पण स्त्री कुलना कलंक माटे खरेखर थाय बेज, केमके, सोनानी सांकल पण बंधनकारक बे, तेमां संशय नथी ॥ ४ ॥ इत्यादिक स्त्रीनुं निंदनिक स्वरूप जावीने शील पालवं. हवे वली प्रकारांतरथी शीलनुं माहात्म्य कहे बे. मनुष्याः किंकरायंते, देवा निर्देशवर्तिनः ॥ शीलनाजोऽथवा कस्य, कल्पवृक्षो न वलनः ॥ १ ॥ - शीलधारी पुरुषपासे मनुष्यो तो चाकर थइने रहे बे, तथा देवोपण तेनो हुकम माथे चडावे बे; वली एवं कल्पवृक्ष सरखुं शील कोने वहालुं होतुं नथी ? ॥ १ ॥ शीलं प्रधानं न कुलं प्रधानं, कुलेन किं शीलविवर्जितेन ॥ नैके नरा नीचकुले प्रसूताः, स्वर्गं गताः शीलमुपेत्य धीराः ॥ १ ॥ - शील उत्तम बे, पण कई कुलनी प्रशंसा यती नथी, Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. केमके, शीलविना कुखं शुं उपयोगर्नु ? वली घणा धीर पुरुषो नीच कुखमां पण जनमीने शीलने पामीने स्वर्गे गएला . ॥२॥ विनूतयोऽपि माऽनूवन , शीलम्लानिपचेलिमाः॥ गेहदाहसमुद्भूत-मुद्योतं कः समीहते ॥३॥ अर्थ- शीलने मलीन करनारी एवी विजूति (अव्य) पण उपयोगनी नथी, केमके, घरने सलगाववाथी उत्पन्न थएला प्रकाशने कोण श्छे ? ॥३॥ . हवे ते शीख पाखवा माटे स्त्रीने उपदेश करे ने. ऐश्वर्यराजराजोऽपि, रूपमीनध्वजोऽपि च ॥ सीतया रावण श्व, त्याज्यो नार्या नरः परः ॥१॥ अर्थ- ऐश्वर्यथी राजाऊना पण राजा सरखा, तथा कामदेव सरखा रूपवंत एवा पण रावणने जेम सीताए तज्यो , तेम स्त्रीए परपुरुषने तजवो. ॥१॥ सीतया उरपवादन्नीतया, पावके स्वतनुराहुतीकृता ॥ पावकस्तु जलतां जगाम य सत्र शीलमहिमाविज॑नितम् ॥२॥ अर्थ- पोताना अपवादथी डरेली सीताए पोताना शरीरनी अग्निमां आहुति श्रापी, पण ते समये अग्नि तो जलरूप थर गयो; माटे तेमां शीलनुज माहात्म्य जाणवू. ॥२॥ सुविसुधसीलजुतो, पाव कितिं जसं च इह लोए ॥ सव्वजणवबहञ्चित्र, सुहगन्नागीय परलोए ॥३॥ अर्थ- उत्तम अने शुछ शीलें करीने युक्त श्रयलो प्राणी श्रा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० उपदेशतरंगिणी. लोकमां कीर्ति ने जश मेलवे बे; तेम ते सर्व लोकोने वहालो था, ने परलोकमां शुभ गतिने जजनारो थाय बे. ॥ ३ ॥ देवदाणवगंधब्वा, जरकर रकस्स किन्नरा ॥ बंजयारं नमसंति, उक्करं जे करंति ते ॥ ४ ॥ अर्थ- जे मासो जगतमां दुष्कर ब्रह्मचर्य पाले बे, तेने देव, दानवो, गंधर्वों, यहो, राक्षसो ने किन्नरो नमस्कार करे. जो देश कणयकोडिं, हवा कारे काय जिणनवणं ॥ तस्स न तत्तीयपुन्नं, जत्तिय बंजवर धरी ॥ २ ॥ अर्थ- जे माणस क्रोडोगमे सोनामोहोरोनुं दान आपे बे, अथवा सोनानुं जिनमंदिर बंधावे बे, तेने पण तेटलुं पुष्य यतुं नथी, के जेटलुं ब्रह्मचर्य पालनारने थाय बे. ॥ ५ ॥ श्रन्यदर्शन ना शास्त्रमां पण कां ने के, एकरात्रोषितस्यापि, या गतिर्ब्रह्मचारिणाम | न सा ऋतुसहस्रेण, प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर ॥ १ ॥ अर्थ- हे युधिष्ठिर ! ब्रह्मचर्य पालनाराजेनी एक रात्रिना उपवासथी पण जे गति थाय बे, ते गति एक हजार यज्ञोथी पण मली शकती नथी. ॥ १ ॥ एक दहाडो हिलपुर पाटणमां श्री हेमचंद्राचार्य सिद्धराजनी सजामां पधार्या, त्यारे राजाए श्रासन पवाथी तेपर ते बिराज्या. पनी राजाए पूयं के, आजकाल व्याख्यानमां श्रापशुं वाचो हो ? त्यारे हेमचंद्रजीए कह्युं के, हालमां तो स्थूलन चरित्रनुं व्याख्यान वंचाय बे. त्यारे राजाए पूधुं के, ते चरित्रमां शुं वृत्तांत बे ? त्यारे आचार्यजीए कह्यं के, पूर्वना परिचयवाली कोशा नामनी वेश्यानो तेमणे त्याग कर्यो बे, तथा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ६ए तेनेज घेर रही षट्रस जोजन करतां थकां तेमणे शील पाड्यु ने; इत्यादिक वृत्तांत ते ग्रंथमां बे. ते सांजली क्रोध पामेला देवबोधि आदिक ब्राह्मणो बोली उठ्या के, विश्वामित्रपराशरमन्नृतयो ये शुष्कपत्राशिनस्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः ॥ आहारं सघृतं पयोदधियुतं नुजति ये मानवास्तेषामिज्यिनिग्रहः कथमहो दंनः समालोक्यतामा अर्थ- विश्वामित्र पारासर आदिक शषिट के जेउ सूकां पांदडां श्रादिक खानाराउ हता ते पण मनोहर एवां स्त्रीना मुखरूपी कमलने जोश्नेज मोह पामेला ; तो जे माणसो हमेशा घृत, दही, दूध आदिकवालांनोजनो जमे , तेउने इंजियदमन ते क्यांथी होय ? माटे अहो आमनुं कपटीपणुं तो जुट ? ॥ ते सांजली हेमचंज श्राचार्यजीए कह्यु के, सिंहो बलिहिरदशूकरमांसन्नोजी, ___ संवत्सरेण रतिमेति किलैकवारम् ॥ - पारापतः खरशिलाकणनोजनोऽपि, __ कामी नवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः॥१॥ अर्थ- बलवान एवा हाथीओना तथा शुकरना मांसने खानारो सिंह तो वर्षमां फक्त एकज वार कामविकारी श्राय डे, अने पारेवु ( कबुतर ) तो वेलु खाय ने उतां पण हमेशां कामी थाय ने माटे हे ब्राह्मणो! तमो कहो के तेनो हेतु शुंजे? ॥१॥ . एवी रीते श्राचार्यजीए सत्य उत्तर आप्याथी राजा खुशी थया. वली तेज शीलना माहात्म्यनी प्रशंसा करे . . . . Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. वेश्या रागवती सदा तदनुगा पनीरसैनोजनं रम्यं धाम मनोरमं वपुरहो नव्यो वयःसंगमः॥ कालोऽयं जलदागमस्तदपि यः कामं जिगायादरात तं वंदे युवतिप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलन्न प्रन्नुम ॥१॥ अर्थ- जे स्थूललाजीपर वेश्या हमेशां रागवाली हती, तथा तेना कहेवा प्रमाणे वर्तती हती, वली, जे तेने त्यां रही षट्रस जोजन जमता हता, मकान पण सुंदर हतुं, शरीर पण मनोहर हतुं, वय पण युवान हती, समय पण वर्षाकालनो हतो, तो पण जेमणे श्रादरपूर्वक कामदेवने जीत्यो हतो, एवा ते स्त्रीउने प्रबोध करवामां कुशल एवाश्रीस्थूखलजीने हुं नमस्कार करं. १ श्रीनेमितोऽपि शकडालसुतं विचार्य मन्यामहे नटममुं वयमेकमेव ॥ देवोऽपिउर्गमधिरुह्य जिगाय मोहं ___ यन्मोहनालयमयं तु वशी प्रविश्य ॥२॥ अर्थ- श्रीनेमिनाथ प्रनु करतां पण अमो शकडालमंत्रीमा पुत्र एकज श्रीस्थूलनाजीने वधारे शूरा मानीए बीए, केमके, श्रीनेमिनाथजी प्रनुए तो पर्वतना किल्लापर चड़ीने मोहराजाने जीत्यो हतो, पण आ जितेंघिय एवा स्थूलनजीए तो मोहना स्थानकमांज जश्ने तेने जीत्यो ॥२॥ एवी रीते श्रीस्थूलनाजीनुं दृष्टांतध्यानमां लेश्ने हमेशां शीखनुं श्राराधन करवामां प्रयत्न करवो. सीमाखानिषु वनखानिरगदंकारेषु धन्वंतरिः कर्णस्त्यागिषु देवतासु कमला दीपोत्सवः पर्वसु ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी.. १ उकारः सकलादेरषु गुरुषु व्योम स्थिरेषु दितिः श्रीरामो नयतत्परेषु परमं ब्रह्म व्रतेषु व्रतम् ॥१॥ अर्थ- खाणोमां जेम हीरानी खाण, वैद्योमा जेम धन्वंतरि, दातारोमा जेम कर्ण, देवीउमां जेम लक्ष्मी, पर्वोमां जेम दीवाली, सघला श्रदरोमां जेम ऊंकार, मोटी वस्तुमां जम आकाश, स्थिर वस्तुमां जेम पृथ्वी, अने न्यायी राजाउमां जेम श्रीरामचंजी तेम सर्व व्रतोमां ब्रह्मचर्य व्रत श्रेष्ठ बे. ॥१॥ . श्रा शीलव्रत उपरना हजारोगमे दृष्टांतो शीलोपदेशमाला, शीलकुलक आदिक ग्रंथोथी जाणी लेवां, वहीं ग्रंथगौरवताना जयथी लख्यां नथी. श्रीमन्नेमिजिनो दिनोऽघतमसां जंबूप्रन्नुः केवली सम्यक् दर्शनवान सुदर्शनगृही स स्थूलनको मुनिः ॥ साचंकारि सरस्वती च सुन्नगा सीता सुन्नमादयः शीलोदाहरणे जयंति जनितानंदा जगत्यञ्जताः॥१॥ _ वली एवीज रीते श्रीनेमिश्वर प्रजुना नाइ रथनेमिजीने जो के रागरूपी घोडे पगडी नाख्या हता तो पण, तथा पर्वतनी गुफामा रहेली नग्न राजीमतीने जोश्ने विकारयुक्त श्रया हता तो पण ते राजामतीना उपदेशथी प्रतिबोध पामी तप तपीने मोहे गएखाजामतीना उपदेशन जोड्ने विकारण तथा पर्वतनी रागक्षेषतुरंगम-पौनःपोनाधिरोहपतनशतैः ॥ विहिताभ्यासस्तउपरि-दत्तपदस्त्वरितमेति शिवम् ॥१॥ - अर्थ- रागषरुपी घोडापर वारंवार चडवाथी अने ते परथी सेंकडो गमेवार पडवाथी अन्यासें करीने अनुक्रमे ते घोडापर पग मुकीने प्राणी तुरत मोदमां जाय . ॥१॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. वली ते ब्रह्मचर्यव्रतपर जिनदासर्नु दृष्टांत कहे. वसंतपुर नामना नगरमां शिवंकर नामे एक शेठ वसतो हतो. ते परम जैनी हतो. एक दहामो ते नगरमां श्रीधर्मदास नामना श्राचार्य महाराज पधार्या; तेमने वांदवा माटे ते शिवंकर शेठ त्यां गयो; पनी गुरुजीने वांद्याबाद हर्षसहित शिवंकरे कर्वा के, हे जगवनू! मने मारा मनमां एवो मनोरथ श्रयो ने के, हुँ एक लाख साधर्मी जाने जमाटुं; पण शुं करुं के, तेटलुं धन मारी पासे नथी. त्यारे आचार्यजीए कह्यु के, तुं अहींथी जरुचमांश्रीमुनीसुव्रतस्वामिजीनी जात्रा करवा माटे जा? अने त्यांना रहेवासी जिनदास नामना श्रावकने तेनी स्त्री सुहागदेवी सहित नोजन करावजे, तथा तारी शक्ति मुजब तेने वस्त्राभूषणो श्रापजे? अने एवी रीते तेनुं वात्सल्य करवाथी तने लाख साधर्मीउने जमाड्या जेटलुं पुण्य प्राप्त थशे. पनी ते शिवंकरे त्यां जरुचमां जश्ते जिनदास शेग्नुं यथोक्त वात्सट्य कर्यु. पनी ते शिवंकर शेठे बजारमा आवी लोकोने पूज्युं के, था जिनदास उत्तम माणस ने के, कपटी जे? त्यारे लोकोए ते शिवकरने कह्यु के, तुं सांजल? आ जिनदास ज्यारे सात वर्षनी उमरनो हतो त्यारथी तो ते पौषधशालामां सुए ने एक दहामो त्यां गुरुना मुखथी शीलोपदेशमालानुं व्याख्यान सांजलीने एकांतरे ब्रह्मचर्य व्रत पासवानुं तेणे नियम लीधुं; हवे एवीज रीते आ सुहागदेवीए पण साधवी पासेथी एकांतरे शीलव्रत पालवानुं नियम लीधुं. त्यारबाद दैवयोगे तेढ बन्नेनां परस्पर लग्न श्रयां; अने तेमां एम बन्युं के, जे दिवस जिनदासने बुटो होय, ते दिवस सुहागदेवीने नियमवालो होय, अने जे दिवस सुहागदेवीने बुटो होय, ते दिवस जिनदासने नियमवालो होय. त्यारे एक दहाडो सुहागदेवीए पोताना स्वामिने कह्यु के, हे स्वामी ! तमो बीजी स्त्री परणो? अने हुँ दीदा लेश. ते सांगली जिनदासे Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी.. ७३ बेक जीवितपर्यंत ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार कर्यु, एवी रीते ब्रह्मचर्य व्रतपर जिनदासनी कथा जाणवी. ___ एवीज रीते वली प्रौपदी, कलावती, मृगावती, शीलवती, सुलता, सुलसा आदिकना शीलना महात्म्यवालां दृष्टांतो जाणवां. अहीं ग्रंथगौरवताना नयथी वधारे लख्यां नथी. एवी रीते शीलोषदेशनुं स्वरूप कह्यु. हवे तपोपदेशनुं स्वरूप कहे. चके तीर्थकरैः स्वयं निजगदे तैरेव तीर्थेश्वरैः श्रीहेतुर्ऋमहारि दारितरुजं सन्निर्जराकारणम् ॥ सद्यो विघ्नहरं हृषीकदमनं मांगल्यमिष्टार्थकृत देवाकर्षणमारदर्पदलनं तस्माधेियं तपः ॥१॥ अर्थ- जे तप तीर्थकरोए पोते करेलो , तथा तेज तीर्थकरोए जेने कह्यो , तेम जे लक्ष्मीनो हेतु जे, संसारने हरनारो बे, रोगोने दूर करनारो , उत्तम निर्जरा करावनारो , तुरत विघ्नने हरनारो , इंडियोने दमनारो बे, मंगलरूप बे, वांछित पदार्थोने करनारो , देवोनुं आकर्षण करनारो बे, कामदेवना दर्पने दलनारो , माटे ते तपने ( हमेशां) आदरवो. श्री शषनदेव प्रनुए वरसी तप करेल , तथा श्रीमहावीर प्रजुए उमासी तर करेल बे; वली श्री तीर्थकर प्रनुए पोते पण बार प्रकारनो तप प्ररुप्यो बे. वली ते तपथी सुवर्णपुरुषादिकनी सिधि थाय ने, अने एवी रीते ते तप लक्ष्मीना हेतुरूप . वली तेज तप चिलातिपुत्रादिकनी पेठे संसारनो क्य करनारो बे. वली श्रीपाल महाराजनी पेठे तेज तप कुष्टादिक रोगोने पण उपशमावे . दृढप्रहारि आदिकनी पेठे तेज तप कर्मोनी निर्जरा करे . वली पारिका नगरीमां वैपायन देवे करेला उपसर्गोने जेम अांबेल आदिक तपथी बार वर्षीसुधी रोकवामां आवेला , तेम ते तप विघ्नोने हरनारो के. वली तेज तप १० Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ उपदेशतरंगिणी. इंघिउने पण महामुनिराजोनी पेठे दमे के. वली तेज तप पांमवादिकोनी पेठे मंगलिक करनारो के. वली तेज तपथी हरिकेशी बलमुनिनी पेठे देवो पण सेवामां हाजर थाय . तथा तपस्याथी कामदेव पण पोतानुं प्रराक्रम प्राणीउपर चलावी शकतो नथी ते तो प्रसिज जे. वली जेम दूषणवालुं एवं पण सुवर्ण अग्निथी शुष्ट थाय , तेम तपथी प्राणीनुं शरीर अने सेनो आत्मा पण शुद्ध थाय . श्री गोपगिरिमां आम राजाने एकांतरी ताव आवतो हतो, पण महातपस्वी एवा श्री बप्पट्टिजी आचार्यजीए करेला उपचारथी ते ताव शांत श्रयो के. वली तपस्वीना मूत्रथी पाषाणो पण सुवर्णरूप श्राय डे, जेम श्रीपादलिप्तसूरिजीने नागार्जुने सिद्ध रस मोकल्यो हतो, पण पादलिप्तसूरिजीएते रसने पृथ्वीपर ढोली नाख्यो, अने खप्परमां पोतानुं मूत्र जरीने ते तेने आचार्यजीए मोकलाव्यु, तेथी क्रोधायमान थएला नागार्जुने ते मूत्रसहित खप्परने लोखंगनी शीलापर पलामी फोमी नाख्यु, त्यारे ते शीला सुवर्णमय थइ ग ते जोश्नागार्जुने पादलिप्तसूरिजीने नमस्कार कर्यो, तथा तेमनो सेवक अयो. वली तपस्वीना हाथना स्पर्शथी सर्व वस्तु अक्षय्य थाय बे. जेम श्रीगौतमस्वामिए पोतानी लब्धिथी पांचसो तापसोने एक पात्रमा रहेली दीरथी नोजन कराव्युं हतुं. ___ हवे तप केवो करवो तेने माटे कहे . सोअ तब्बो कायबो, जेण मणो मंगुलं न चिंते॥ जेण इंदिअहाणी, जेण य जोगा न हायंति ॥१॥ अर्थ- तप एवी रीतनो करवो के, जेथी मनने असमाधि न थाय, इजिउनी हानी न पाय तथा जेथी मन वचन अने कायाना जोगोनी हानि न थाय. ९ . Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. पूजालोन्नमसिध्यर्थ, तपस्तप्यत योऽस्पधीः॥ शोष एव शरीरस्य, न किंचितपसः फलम् ॥१॥ अर्थ- जे अल्पबुद्धिवालो माणस मान, लोज, अने कीर्तिमाटे तप तपे , तेने तो फक्त शरीरनो शोषज बे, पण तेने कई तपसानुं फल मलतुं नश्री. विवेकेन विना यच्च, ततपस्तनुतापकृत् ॥ अज्ञानकष्टमेवेदं, नो नरिफलदायकम्॥१॥ अर्थ- विवेकविना जे तप तपवो, ते फक्त शरीरने खेदकारीज , तेम ते अज्ञानकष्टज बे, तेवी रीतनो तप कई घj फल आपनारो नथी. (अहीं तामलि तापसनुं दृष्टांत जावी लेवू.) ये रात्रौ सर्वदाहारं, वर्जयंति सुमेधसः ॥ तेषां पदोपवासस्य, फलं मासेन जायते ॥१॥ अर्थ- जे सुबुद्धि माणसो रात्रिए सर्वथा प्रकारे आहारनो त्याग करे , तेउने एक मासमां पदोपवासनुं फल मले . . अने तेथीज आ उर्लन मनुष्य नव पामीने हमेशां तप करवो. अहीं बाहुबलि, ढंढणकुमार, गजसुकुमाल आदिकनां दृष्टांतो जाणी लेवां. उःखव्यूहापहाराय, सर्वैज्यिसमाधिना ॥ आरंजपरिहारेण, तपस्तप्येत शुधधीः ॥१॥ अर्थ- शुद्ध बुद्धिवान माणसे दुःखोनो समूह दूर करवा माटे सर्व इंजिनी समाधिपूर्वक आरंजरहित तप तपवो. यडूरं यदुराराध्यं, यच्च दूरे व्यवस्थितम् ॥ तत्सर्व तपसा साध्यं, तपो हि उरतिक्रमम् ॥१॥ अर्थ- जे दूर तथा उष्प्राप्य , ते सघर्बु तपथी साधि शकाय , माटे तप महा बलवान बे. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. .. तपस्वी माणसे क्रोधनो तो सर्वथा प्रकारे परिहार करवो; केमकेनहींतर क्रोधरूपी अग्नि तपरूपी चंदनने बालीने जस्म करे. . एकेन दिनेन तनो-स्तेजः पाएमासिकं ज्वरो हंति ॥ कोपः दणेन सुकृतं, यदर्जितं पूर्वकोट्यापि ॥१॥ अर्थ- ताव ने ते एकज दिवसमां उमासना शरीरना तेजने हणे , पण क्रोध ने ते कोमोगमे पूर्वोमां मेलवेला पुण्यने एक क्षणवारमांज नष्ट करे . जुमोजवं हंति विषं न हि जुमं, न वा नुजंगप्रनवं तुजंगमम् ॥ अदःसमुत्पतिपदं दहत्यहो, महोटबणं क्रोधहलाहलं पुनः॥१॥ अर्थ- वृदयी उत्पन्न भएलु केर वृदने हणतुं नथी, तेम सपंथी उत्पन्न भएलु केर सर्पने हणतुं नथी, पणं आ तपथी उत्पन्न भएलु पद महाबलवान एवा क्रोधरूपी फेरने बाली नांखे बे. कषाया देहकारायां, चत्वारो यामिका श्व ॥ यावजाग्रंति पार्श्वस्था-स्तावन्मोदः कुतो नृणाम्॥१॥ अर्थ- आ शरीररूपी केदखानामां ज्यांसुधि चार कषायोरूपी चोकीदारो जागता बेग चे, त्यांसुधि माणसोनो मोद क्यांथी. नाशांबरवे न सितांबरवे, न तववादे न च तर्कवादे॥ न पनसेवाश्रयणेन मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव॥ अर्थ- दिगंबरपणामां, के श्वेतांबरपणामां, के तत्ववादमां, के तर्कवादमां के पक्षसेवामां पण मुक्ति नथी, पण कषायोने जे गेमवा तेज खरेखरी मुक्ति के. (अहीं कुरगडुक मुनिनुं दृष्टांत जावी लेवु.) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. हवे तप कर्याबाद तेनुं उजमणुं करवं, ते विषेनो उपदेश. प्रासादे कलशाधिरोपणसमं बिंबे प्रतिष्टोपमं पुण्यश्रीस्फुटसंविनागकरणं बिनविशिष्टे जने ॥ सौजाग्योपरिमंजरीप्रतिनिन्नं पूर्णे तपस्यावधौ यः शक्योद्यपनं करोति विधिना सम्यग्दृशां सोऽग्रणी। __ अर्थ- देवल बनाव्या पनी जेम तेपर कलश चमाववो, तथा बिंब जराव्या पी जेम तेनी प्रतिष्ठा कराववी, उत्तम माणसने जेम अतिथिसंविजाग करवो तेम जे माणस तप पूरो थये बते, सौलाग्यनी मांजर सरखं पोतानी शक्तिमुजब.उजमणुं करे बे, ते समकीतिमा अग्रेसरी के. शुधं तपः केवलमप्युदारं, सोद्यापनस्यास्य पुनःस्तुमः किम् ॥ हृद्यं पयो धेनुगुणेन ततुं, जादासिताचूर्णयुतं सुधेव ॥१॥ अर्थ- केवल शुद्ध तप तपवो ते पण मनोहर , त्यारे उजमणासहित तपनी तो वातज शी करवी ? केमके, गायना गुणथी दूध मनोहर तो , तेमां पण ज्यारे साकर अने जादा मले, त्यारे तो ते अमृतसर थाय ने. सिंहस्तपःप्रक्रम एव ताव-दुःकर्मदंतावलमंमलीनाम् ॥ तदद्य तस्मिन् प्रखरानिवेशो,यद्यउद्यापनविस्तरोऽयम् अर्थ-तप नेते मुकर्मोरूपी हाथीउनी श्रेणिनो नाश करवामां सिंहसमान बे, अने तेनुं उजमणुं करवू, ते तपरूपी सिंहने पाखर पेराववा सरखं . वृदो यथा दोहदपूरणेन, , कायो यथा ससन्नोजनेन ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. विशेषशोन्नां लन्नते यथोक्ते नोद्यापनेनैव तथा तपोऽपि ॥१॥ अर्थ- वृक्ष जेम दोहद पूरवाथी, शरीर जेम उत्तम रसवालां जोजनश्री, तेम यथोक्त उजमणाथी तप पण विशेष शोला पामे बे. लक्ष्मीः कृतार्था सफलं तपोऽपि, __ध्यानं सदोच्चैर्जिनबोधिलान्नः ॥ . जिनस्य नतिर्जिनशासनश्री गुणाःस्युरुद्यापनतो नराणाम् ॥ १॥ अर्थ- उजमणुं करवाथी माणसोनी लक्ष्मी कृतार्थ थाय ने, तप सफल थाय , उत्तम ध्यान थाय , समकीतनी प्राप्ति थाय , प्रनुनी जक्ति थाय ने, तथा जिनशासननी शोना थाय बे, इत्यादि गुणो प्राप्त थाय बे. __ एवं विचारीने पुण्यना अर्थी माणसोए हमेशां उजमणुं करवामां प्रयत्न करवो. हवे जावनानो उपदेश कहे. झेयान्यंगानि दानादी-ज्येव धर्मनरेशिनुः ॥ - तस्य तेष्वधुना जीवो, नावनामा निगद्यते ॥१॥ अर्थ- धर्मरूपी राजानां दान आदिक अंगो जाणवां अने तेउमा लावनारूपी जीव बे. दानं तपस्तथा शीलं, नृणां लावेन वृर्जितम् ॥ . अर्थहानिदुधापीडा, कायक्लेशश्च केवलम् ॥ १॥ अर्थ- नावनाविनाना. माणसोनां, दान, तप, अने शील फक्त (अनुक्रमे) धननी हानीरूप, ठुधानी पीमारूप, तथा शरीरना कष्टरूपज ले. चिरादेकेन दानादि-क्लेशैः पुण्यं यदर्जितम् ॥ तस्यानुमोदनानावात, कणादन्यस्तदर्जयेत् ॥ १॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. जए अर्थ- कोश् माणसे घणा कालसुधी दानादिक क्वेशोने सहन करीने जे पुण्य मेलव्यु होय, ते पुण्यने तेना अनुमोदनथी बीजो माणस दाणवारमां पण मेलवी शके . जावना ते लरतराजानी पेठे उत्तम जोगोथी पण मुक्ति देनारी ने वली मरुदेवा माता के जेणीए कोइपण दिवसे एकासणादिक कं; पण तप कर्यो न होतो, ते पण नावनाथी मोदे गएलां ने. प्रसन्नचंड राजशषि पण नावनाथी केवलज्ञान पाम्या . वली गौतमस्वामिए प्रतिबोधेला पंदरसो तापसो पण नावनाथी मोदे गएला . वली एक देडको के जे श्रीवीरप्रजुने वांदवामाटे आवतो हतो ते मार्गमां घोडानी खरीथी कचरावाथी मृत्यु पामीने दरांक देव थयो, तथा बेवटे ते लावनाथी केवलज्ञान पाम्यो बे. अहीं सर्व लावना कुलक पोतानी मेले वांची लेवं. औचित्येन गुणोच्चयः प्रियगिरा दानं गृहस्थक्रमः लक्ष्म्यांनश्चयसेचनेन विपिनं सामेन तवज्ञता ॥ प्रेम्णा स्त्रीजनविघ्रमः सुमुनिता ब्रह्मव्रतेनांगिनां धते नावनयाश्रितः सफलतां सर्वोऽपि धर्मक्रमः॥१॥ अर्थ- जेम उचितताथी गुणोनो समूह, प्रिय वाणीथी दान, लक्ष्मीथी गृहस्थाश्रम, जलसमूहना सेचनथी वन, समताथी तत्वज्ञान, प्रेमश्री स्त्रीउनो विलास, तथा ब्रह्मचर्यथी जेम उत्तम मुनिपणुं सफल थाय ने, तेम प्राणीनो सर्व प्रकारनो धर्मक्रम जावनाथी सफल थाय . वित्तसाध्यमिह दानमुत्तम, शीलमप्यविकलं सुऽर्धरम् ॥ उःकराणि च तपांसि नावना, । स्वीयचितवशगेति नाव्यताम् ॥१॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उपदेशतरंगिणी. अर्थ- अहीं उत्तम दान धनथी थाय ने तेम निर्मल शीख पण उधर ने, तपो पण मुकर , अने लावना तो पोताना मनथी थाय , एम नाव. नावस्यैकांगवीरस्य, सानिध्याद्वहवः शिवम् ॥ ययु३कोऽपि दानाद्यै- वहीनैर्धनैरपि ॥१॥ अर्थ- एक लावनारूपी सुन्नटना सहायश्री घणा मोदे गएला , पणं लावना विनाना घणा एवा दानादिकथी पण कोश मोदे गया नथी. नावो धर्मस्य हृन्मित्रं, नावः कर्मेधनानलः ॥ सत्कृत्यन्नघृतं नावो, जावो नीवी शिवश्रियः ॥१॥ अर्थ-जाव चे ते धर्मनो दिलोजान दोस्तदार ने, कर्मोरूपी काष्टोने बालवामां अग्निसमान , पुण्यरूपी अन्नमां घृतसमान ने, तथा मोक्षरूपी लक्ष्मीनी कटिमेखला ने. . इति नावनोपदेशः जातः श्रीयुतसोमसुंदरगुरुः श्रीमतपागलप स्तत्पादांबुजषट्पदो विजयते श्रीनंदिरत्नोगणिः॥ पादांनोरुहरत्नमंदिरगणिस्तस्यालिलीलाधरस्तब्वब्धप्रन्नवोपदेशसरिति प्राच्यस्तरंगोऽन्नवत् ॥१॥ इति श्रीतपागबनायक श्रीसोमसुंदरसूरि श्रीरत्नशेखरसूरि नंदिरत्नगणिशिष्य रत्नमंदिरमुनिगुंफितायां श्रीउपदेशतरंगिण्यां दान, शील, तपो,नावनेद चतुर्विधजिनधर्म प्रकाशकः पंचदशोपदेशपेशलः प्रथमस्तरंगः ॥ श्रीरस्तु ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १ अथ घितीयः सप्तदेत्रोपदेशरूपस्तरंगः जिनन्नवनबिंबपुस्तक-चतुर्विधश्रमणसंघरूपाणि ॥ सप्तदेत्राणि सदा, जयंति जिनशासनोक्तानि॥१॥ अर्थ- जिनशासनमां कहेलां जिननवन, जिनबिंब, पुस्तक अने चतुर्विध श्रमण संघरूप साते क्षेत्रो हमेशां जयवंतां वर्ते ने. हवे तेमांथी प्रथम जिनजवननो उपदेश कहे . जिनन्नवनं निर्माप्यं, सफलीकर्नु निजां लक्ष्मीम् ॥ धन्यैः स्वपरश्रेयः-पुण्योद्यहोधिलानाय ॥१॥ अर्थ- धन्य पुरुषोए पोतानी लक्ष्मीने सफल करवा माटे, अने पोताना अने परना कट्याणथी उत्पन्न श्रतां पुण्यथी बोधिलाल माटे जिनमंदिर बंधाव. तेनापर दृष्टांत कहे जे. ___ एक दहाडो कोरंटक नामना गाममा विक्रम संवत १२५२ मां श्री देवसूरि महाराज चतुर्मास रह्या. त्यां नाहड नामे मंत्रि हतो; तेना नाना लानुं नाम सालिग हतुं. तेढ बन्नेना पांचसो कुटुंबोने आचार्यजीए प्रतिबोध को. आसु सुद पाप नवमीने दिवसे तेजेए आचार्यजीने कडं के, अमारी गोत्रदेवी जे चंडिका बे, ते बलिदानमां पामानी मागणी करे , माटे हवे अमारे शुं करवु ? ते सांजली गुरुमहाराजे रात्रिए चंडिकाने प्रयद करीने तेणीने कह्यु के, तुं पूर्वनवमां श्रीपुर नामना नगरमां धनसार नामना व्यापारीनी जैनधर्मी स्त्री हती. पांचमने दिवसे पवित्र वस्त्रो पेहेरीने तुं बालक पुत्रने घेर राखीने देवमंदिरे ग ते जो तारो बालक पुत्र तारी पाउल रडतो रडतो रस्तामां चालवा लाग्यो; एटलामां कोश्क लडकेवा पाडाए तेने पाडी नाख्यो अने तेथी ते मृत्यु पाम्यो. त्यारे तुं पण ते पुत्र वियोगना पुःखथी मृत्यु पामीने चंडिका अश् चे, अने पूर्वनवना वैरश्री तुं बीजा ११ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. पाडाने पण शामाटे हणे जे? जरा दया राख ? अने शांत था? त्यारे चंडिकाए कह्यु के, हे जगवन् ! हुं मारेकर्मी बुं, अने तेथी जीवहिंसा तजवाने शक्तिवान थती नथी. त्यारे प्राचार्यजीए कडं के जो एम , तो तुं नाहडमंत्रिना कुटुंबने तारां बलिदानथी मुक्त कर? पठी ते वात तेणीए पण कबुल राखी. पी धममां दृढ थएला नाहडमंत्रिए कोरंटकादिकमां "नाहडवसहि" आदिक बहोतेर जिनमंदिरो बंधाव्या. अने तेउनी प्रतिष्ठा श्राचार्यजीए विक्रम संवत १२५५ मां करी. वली नाहड मंत्रिए जावोजीवपर्यंत नोजन कर्या पेहेलां जिनपूजनादिकनो अनिग्रह लीधो. रम्यं येन जिनालयं निजन्नुजोपातेन कारापितं मोदाथै खधनेन शुधमनसा पुंसा सदाचारिणा ॥ वेद्यं तेन नरामरेंजमहितं तीर्थेश्वराणां पदं प्राप्तं जन्मफलं कृतं जिनमतं गोत्रं समुद्योतितम् ॥१॥ अर्थ-जे शुभमनवाला तथा सदाचारि माणसे पोताने हाथे उपार्जन करेला धनथी मोद माटे जिनमंदिर बंधाव्युं बे, ते मा सो देवोथी पूजाएला तीर्थकरपदने मेलवे ने, वली तेऐज पोताना जन्मनुं फल मेलव्यु , तथा तेणेज जिनशासनने अने पोताना गोत्रने पण दीपाव्युं . वली पोतानां घरो तो सुघरी, कागडा, चकलां विगेरे पोतानी शक्ति मुजब बनावे , पण जाग्यवान तो तेनेज जाणवो के, जे पोतानी शक्ति मुजब उत्तम जिनमंदिर बंधावे .ते पर दृष्टांत कहे जे. श्रीरियं पुरुषान प्रायः, कुरुते निजकिंकरान ॥ कुर्वते किंकरीं तां ये, तैरसौ रत्नसूरसा ॥१॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. अर्थ-प्रायें करीने लक्ष्मी पुरुषोने पोताना चाकर करे वे पण तेणीने जे दासीरूप करे ,तेथीजा पृथ्वी रत्नगर्जा भएली. ते सांजलीने आमराजाए गोपगिरिमां श्रीमहावीरप्रनु, मंदिर बंधाव्युं ते मंदिर एकसो एक हाथ ऊंचुं हतुं. साडात्रण कोड सोनामोहोरोनो रस करीने तेनी प्रतिमा बनावीने तेमां स्थापन करी. ते मंदिरमांरंगमंम्प बनाववामां एकवीस लाख सोनामोहोरो खरची. मूल मंमपमा एक लाख पचीस हजार सोनामोहोरो खरची. वली ते राजाए विक्रम संवत ०११ मां एक क्रोड सोनामोहोरो खरचीने श्री बप्पट्टिजीना सूरिपदनोमहोत्सवको. वली ते राजाए तेज आचार्यजीना उपदेशश्री शत्रुजय अने गीरनारपर उधारो कर्या . तेनुं विशेष वृत्तांत चतुर्विंशतिप्रबंधमांथी जाणी लेवू. ये कारयंति जिनमंदिरमादरेण बिंबानि तत्र विविधानि विधापयंति॥ संपूजयंति विधिना सततं जयंति ते पुण्यन्नाजनजना जनितप्रमोदाः ॥१॥ अर्थ- जे माणसो आदरपूर्वक जिनमंदिरो बंधावे ने, तथा तेमां विविध प्रकारनां बिंबो जरावे बे, अने तेउने हमेशां विधिपूर्वक जे पूजे जे, ते पुण्यशाली तथा हर्ष उत्पन्न करनारा लोको जयवंता वर्ते ने. जे उत्तम पुरुषो आदरपूर्वक अव्य खरचीने उंचां तोरणोवालां जिनमंदिरो बंधावे , अने तेमां सुवर्णमय बिंबो स्थापे , तेपुरुषोज आ जगतमां जीवता बेग , केमके, ते गणधरादिकनी पदवी लोगवीने मोदमां जाय जे. ते पर दृष्टांत कहे... हेमाचार्यजीए प्रतिबोधेला श्रीकुमारपाल राजाए तारंगाजी, तथा खंलात आदिक नगरोमां १५४४ नवां जिनमंदिरो बंधान्यां Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. बे. तेउपर तेणे सुवर्णना दंमो अने कलशो स्थापन कर्या बे. वली तेणे पाटणमा पोताना पिताजी त्रिन्नुवनपालना नामनी यादगीरी माटे “ तिहुणविहार” नामर्नु बहोतेर देवकुलिकासहित जिनमंदिर बंधाव्युं . ते मंदिरमां तेणे चोवीस सोनानी, चोवीस रुपानी, चोवीस पीत्तलनी इत्यादि प्रतिमा स्थापी हती. वली तेमां १२५ आंगुलनी अरिष्ठरत्ननी श्रीनेमिनाथ प्रनुनी प्रतिमा तेमणे स्थापी हती. सर्व मली तेमां उन्नु क्रोड सोनामोहोरो खरची हती. तेमां उदयन, आम्रदेव, कुबेरदत्त आदिक अढार हजार श्रावको हमेशां नृत्यगायन सहित स्नात्रमहोत्सव करता हता. श्रीमौनगृहे जिनप्रतिकृतौ जैनप्रतिष्ठाविधौ श्रीजैने तपने जिनार्चनविधौ श्रीसंघपूजादिके ॥ श्रीजैनागमलेखने च सततं श्रीतीर्थयात्रादिके येषां वं विनियोगमेति धनिनां धन्यास्तएव दितौ ॥१॥ __ अर्थ- जे धनवान माणसोनुं व्य जिनमंदिरमां, जिनप्रतिमामां; जिनप्रतिष्ठाविधिमां जैन तपमां, स्वामिवात्सल्यमां, जैनागम लखाववामां, तथा तीर्थयात्रादिकमां वपराय ने, तेउँनेज आ पृथ्वीमां धन्य छे. कां ने के, ज्वलनजलचौरचारण-नृपखलदायादबंदिकोधृतम् ॥ धन्योऽसौ यस्य धनं, जिनन्नवनादौ शुन्ने लग्नम्॥१॥ ___ अर्थ- अग्नि, जल, चोर, चारण, राजा, उष्टपुरुषो, पितरा , तथा नाटआदिकना नयश्री मुक्त अएलु एवं जे माणसनुं धन जिनमंदिर आदिक शुन्न कार्यमा लागेलुं ने, तेनेज धन्य . तेमां पण जिनमंदिर बंधाववाथी अपार पुण्य थाय ,कां ने के, काष्टादीनां जिनावासे, यावंतः परमाणवः॥ तावंति वर्षलदाणि, तत्कर्ता स्वर्गन्नाग नवेत् ॥१॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ उपदेशतरंगिणी. अर्थ- जिनमंदिर बांधवामां जेटलां काष्ट आदिकनां परमागुड होय ने, तेटलां लाख वर्षीसुधी तेनो कर्ता स्वर्गनुं आयुष्य जोगवे . परमाणुनुं लौकिक स्वरूप नीचेप्रमाणे बे. जालांतरगते सूर्य, यत्सूदनं दृश्यते रजः तस्य त्रिंशतमो नागः,परमाणुः स उच्यते॥१॥ अर्थ- जालीमांथी सूर्यनो तमको पडतां जे सूक्ष्म रज देखाय , ते रजनो पण जे त्रीशमो नाग ते परमाणु कहेवाय ने.. नूतनाघारवास-विधाने यत्फलं नवेत् ॥ तस्मादष्टगुणं पुण्यं, जीर्णोधारे विवेकिनाम॥१॥ अर्थ- नईं जिनमंदिर बंधाववामां जेटलुं पुण्य श्राय , तेथी आवगणुं पुण्य विवेकीने जीर्णोधारथी श्राय बे. वली आज हेतुथी पद्म नामना चक्रवर्तीए पोतानी माताना हर्ष माटे हमेशां एकेकुं जिनमंदिर बंधाव्युं हतुं. वली तेज बाब तपर संप्रति राजानुं दृष्टांत कहेले. ___ संप्रति राजा त्रिखंड जरतत्रिनो दिग्विजय करीने शोल हजार मुकुटधारी राजाउँथी परिवर्यो थको उजायनीमां आव्यो. ते वखते नगरना लोकोए तेनो घणाज आनंदथी प्रवेशमहोत्सव को. पगी ते पोताना मेहेलमां जश् पोतानी माता कमलाने पगे पड्यो. पण ते वखते पोतानी माताने दिलगिर मुखवाली जोड्ने तेणे पूज्युं के, हे माताजी! मारा जेवो आपने पुत्र ने, तोपण तमो केम दिलगिर था गे? त्यारे माताए कह्यु के, हे वत्स ! संसार साधनारां, तथा वटे नरक आपनारां एवां तमारां राज्योपार्जनथी मने कई पण हर्ष यतो नथी; पण जो तमो जिनप्रासादो करावीने मारी पासे आवो, तो मने घणो हर्ष वाय. ते सांजली संपतिराजाए मोटा निमित्तिाउँने बोलावीने तेउने पो Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ताना आयुष्यनुं प्रमाण पूज्यु; त्यारे तेजेए कह्यु के, हे राजन् ! तमारं आयुष्य सो वर्षोनुं . त्यारे राजाए मंत्रिउने पूज्युं के, एकसो वर्षना केटला दिवसो थाय? त्यारे मंत्रिए का के, एकसो वर्षोना उत्रीस हजार दिवसो थाय. पनी तेणे शत्रुजयादिक तीर्थोमां जिनमंदिरो बंधाववामाटे पोताना माणसोने हुकम कर्यो अने हमेशां एक मंदिर संपूर्ण श्रयानी खबर मेलवीने ते पोतानी माताने चरणे नमवा लाग्या. ते सांजली कमला माता पण हर्ष सहित हमेशां पोताना पुत्रने पोताने हाथे तिलक करती हती. एवी रीते संप्रति राजाए सवालख जिनमंदिरो बंधाव्यां. तेउँमा बन्नु हजार तो सिघपुरादिकमां श्रीनेमिश्वरविहारादिक कराव्यां. नेव्यासी हजार जीर्णोधार कराव्या. सवाकोड जिनबिंबो - राव्यां. हालमां पण सिंधुदेशमां आवेला मरोग्पुरमां संप्रति राजानी बनावेली पंचाणु हजार मोटी पित्तलनी जिनप्रतिमा बे. ते मांहेली श्रीमहावीर प्रनुनी प्रतिमा गिरनारपर खरतरवसतिमां विद्यमान बे. वली ते संप्रति राजाए सातसो तो दानशासा करावी. वली तेणे अनार्य देशोमां पण जैनधर्मना फेलावा माटे प्रथम साधुवेषधारी पुरुषोने मोकल्या हता, तथा एवी रीते त्यांना लोकने साधुना व्यवहारथी जाणीता करीने पालथी त्यां उत्तम साधुऊने पण जैनधर्मना फेलावा माटे मोकट्या हता. एवी रीतनां पुण्यनां कार्यों करीने संप्रति राजाए पोतानुं धन, अने पोतानो जन्म सफल को हतो. जिनन्नवनं जिनबिंबं, जिनपूजां जिनमतं च यः कुर्यात तस्य नरामरशिवसुख-फलानि करपलवस्थानि ॥१॥ अर्थ- जे माणस जिनमंदिर, जिनपूजा, अने जिनमतनो फेलावो करे बे, तेने नर, देव, अने मोदनां सुखो हथेलीमां आवी पडे बे. लोकने साधन उरुषाने मोकल्यानधर्मना फेलावा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. श्री देवसूरिजीना उपदेशश्री सिद्धराजे पण विक्रम संवत् ११०३ मां पाटणमां श्रीकृषनदेव प्रभुनुं जिनमंदिर बंधाव्यं हतुं. तेमां पंच्यासी अंगुलना प्रमाणवाली श्रीषनदेव प्रजुनी प्रतिमा स्थापन करी हती, अने ते मंदिरनुं नाम " राजविहार " राखवामां श्राव्यं हतुं. एक दहाडो ते जिनमंदिरमां पासिल ना - मनो कोइक निर्धन श्रावक पूजा करवा माटे श्राव्यो; तथा मोटी प्रतिमा जोइने आश्चर्यसहित ते प्रतिमानुं ते माप लेवा लाग्यो. ते वखते नेवु लाख सोनामोहोरोना अधिपति बाडा नामना व्यापारीनी हांसी नामनी बालविधवा पुत्री पण दर्शन करवा वहती. पासिलने ते प्रतिमानुं माप लेतो जोइने तेणीए हां - सीथी तेने पुग्यं के, शुं तारे वी नवी प्रतिमा कराववी बे ? ते सांजली पासिले कहां के, हे बेहेन ! ते समये तमारे प्रतिष्ठामहो - त्सवपर जरूर पधारवुंज. तेणीए पण ते कबुल कर्यु. पनी पासिले दश उपवास करीने रासनी अधिष्ठाता अंबिकादेवीनं - राधन कर्यु. त्यारे ते संतुष्ट थने तेने कह्युं के, सुवर्णनी खामाथी तने नवुं जिनमंदिर बांधवा माटे जोइशे तेटलुं धन निकलशे एम कही ते अदृश्य श्र. पी ते खाणमांथी पस्तालीस हजार सोनामोहोरोनी किमत जेटलुं सुवर्ण निकस्याथी ते 5व्य खरचीने पासिले एक सुंदर जिनमंदिर बंधाव्यं. ते वखते तेणे हांसीने पण निमंत्रण करीने श्री देवसूरिजी ने हाथे प्रतिष्ठा करावी. हांसीए पण नव लाख सोनामोहोरो खरचीने ते जिनमंदिरनो रंगमंरुप बांध्यो. हवे जीर्णोद्धारनो उपदेश कहे बे. • 62 जीर्णोधारः कृतो येन, विजवेन सुचारुणा ॥ जिनाशा पालिता तेन, क्लेशकूपारपारदा ॥१॥ अर्थ- जे माणसे पोताना उत्तम प्रव्यथी जीर्णोद्धार करेलो बे, ते क्लेशरूपी समुद्रनो पार पहोंचाकनारी जिनाशा पालेली बे Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ០២ उपदेशतरंगिणी. हवे ते जीर्णोधारपर दृष्टांत कहे. जांब नामना मंत्रिना वंशमां अएलो सङन नामनो सिद्धराजनो एक कोटवाल हतो तेने योग्य जाणीने सिद्धराजे सौराष्ट्र देशनो हाकेम को हतो. ते सऊने त्रण वर्षनी उपज एकठी करीने राजानी आज्ञा लीधाविनाज बहोतेर लाख सोनैया खरचीने गिरनारपर श्रीनेमिश्वर प्रनुना जिनमंदिरनो उघार कराव्यो, केमके, ते जिनमंदिर पूर्व काष्ठोनुं बांधेलु हतुं, अने तेनापर वीजली पडवाथी तेमां नुकशान थयुं हतुं.पनी केटलेक काले कोश्क पुजेने ते वात जाहेर करी राजाने कर्वा के, सजान तो राजपव्यनो आवी रीते गेर उपयोग करे . त्यारे राजाने सोमनाथ जवानो अलिग्रह होवाथी ते मिष करीने ते पाटणथी चाट्यो. सोमनाथने नमन करीने ते संकली नगरीमां आव्यो. ते वखते सजने तेमनी सामे आवीने तेमने नमस्कार कर्यों पण राजाएते वखते पोतानुं मुख फेरवी नांख्युं. त्यारे सजाने विचार्यु के, राजा मारापर गुस्से श्रया जे. पी सजने तो वामनस्थलीमां (वणथलीमां) जश्ने सांमतो तथा व्यापारि पासेथी बहोतेर लाख सोनामोहोरो एकठी करी. पी सिझराजे आलिंग प्रधानने पूज्यु के आ पर्वत कयो ? अने अहीं कयुं तीर्थ के ? त्यारे प्रधाने कर्वा के, हे स्वामी! आतो श्री गिरनार तीर्थ , माटे तेनां दर्शन कर्याविना आपणे जq उचित नथी. ते सांजली राजा गिरनारपर. चड्या, अने त्यां नवं मनोहर जिनमंदिर जोड्ने हर्षथी बोली उठ्या के, जे माणसे आबुं सुंदर जिनमंदिर बंधाव्युं बे, तेनी माताने धन्य !! तेज समये पाउल रहेला सजाने कह्यु के, धन्य ने माता मयणवदेवीने के, जेणीए एवी रीतना पुरुषरत्नने जन्म आप्यो बे. ते वचन सांजलीने सिद्धराजे सजननी सन्मुख जोयुं, अने मंत्रिने पूज्यु के, आ शुंगे? त्यारे आलिंगमंत्रिए कह्यु के, हे स्वामी! एक बाजु तो आ श्रीगिरनारजीना जीर्णोधारनुं पुण्य , तथा ते Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ए जयार करवामां जेटलुं प्रव्य खरचायुंजे, तेटलुं अव्य संघ आपने समर्पण करे , माटे ते बन्नेमांथी जे लेवानी आपनी श्या होय ते फरमावो? ते सांजली अत्यंत प्रमुदित श्रएला सिधराजे कडं, के 'मारे तो तीर्थोघारना पुण्यनीज जरूर ; व्यनी जरूर नथी. एम कही तेणे ते तीर्थनी पूजा माटे, तथा तेना रक्षण माटे बार गामो नंडारमा आप्यां; तथा शत्रुजय अने गिरनार, ए बन्ने तीर्थोने जोडवामाटे तेणे बार योजननी रेशमी वस्त्रनी धजा बंधावी; तथा संघेपण एकतुं करेलुं प्रव्य खरचीने वामनस्थलीमां (वनथलीमां) वीरप्रनु आदिकनां चार जिनमंदिरो बंधाव्या. एवी रीते सजन ( साजण ) कोटवालतुं दृष्टांत सांजलीने बीजा जव्य लोकोए पण जिनमंदिरोनो जीर्णोद्धार कराव्यो. यावत्तिष्टति जैनें, मंदिरं धरणीतले ॥ धर्मस्थितिः कृता ताव-ौनसौधविधायिना॥१॥ अर्थ- आ उनीआपर ज्यांसुधि जैनमंदिर हयातिमां रहे , त्यांसुधि जैनमंदिर बंधावनारे (आ जगतमां) धर्मनी स्थिति करेली , एम जाणवू. __ एक दहामो श्रीदेवसूरि महाराज मेमता गाममां चतुर्मास करीने फलवधि गाममां पधार्या; अने त्यां मासकटप कर्यो त्यांना पारस नामना एक श्रावके ते समये नगरनी नजदिक काडीमां एक मटोडीनो ढग जोयो, तथा तेपर पुष्पो पडेलां जोयां. तेवात आचार्यजीने कहेवाथी आचार्यजीएते ढगने बहुज जालवणीथी खोदवानुं कह्यु. पठी ते पारस श्रावके तेम कर्या बाद तेमांथी श्री पार्श्वनाथजीनी प्रतिमा निकली. पळी तेमना अधिष्ठाता पार्श्व नामना यदेते श्रावकने स्वप्नमां एक जिनबंदिर बांधी तेमां ते प्रतिमा स्थापन करवानुं कडं. त्यारे पारस श्रावके कडं के, मारी पासे अव्य नथी, माटे प्रासाद शी रीते बंधावू. त्यारे यहे कडं १२ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए- उपदेशतरंगिणी. के, आ प्रतिमानीपासे तुं अक्षतनो स्वस्तिक हमेशां करजे, अने ते अदतो सुवर्णमय थप जशे, अने ते प्रव्य वापरीने तुं जिनमदिर बंधावजे. पनी ते पारस श्रावक हमेशां तेम करतो गयो, अने जिनमंदिर बंधाववा लाग्यो. एम करतां थकां एक बाजुनो तो सर्व मंझप तैयार थयो. एटलामां ते श्रावकना पुत्रे पोताना पिताजीने पूज्युं के, आ भव्य तमोए क्याथी मेलव्यु? ते पारस श्रावके प्रव्यागमन- खरेखलं स्वरूप तेने कही बताव्यु. अने त्यारथी तेने प्रव्य मलवा न लाग्यु, अने तेथी आजदनसुधि पण ते जिनमंदिर तेटलुंज अधुरुंचे. ते मंदिरमा विक्रम संवत ११एए मां फागणसुदि दशमने दिवसे प्रतिमानी प्रतिष्टा श्रश तथा१२०४ मामाहासुदि तेरसने दिवसे तेपर धजा चमी; अने एवी रीते ते फलवधि ( फलोधि ) पार्श्वनाथजीनुं तीर्थ प्रसिद्ध अयु. कारयंति जिनेंशाणां, तृणवासानपीह ये॥ . मणिरत्नविमानानि, तैर्लनंते नवे नवे ॥१॥ अर्थ- जे आ जगतमां श्री जिनेश्वरोनां घासनां पण मंदिरो बंधावे , तेउने दरेक नवोमांमणि अने रत्नोनां विमानो मले . माणिक्यहेमरलायैः, प्रासादान कारयति ये तेषां पुण्यैकमूर्तीनां, को वेद फलमुत्तमम् ॥१॥ अर्थ- वली जे माणसो माणेक, सुवर्ण तथा रत्नादिकोथी जिनमंदिरो बंधावे , ते पुण्यशालीउना उत्तम फलने तो जाएणीज कोण शके में ? ( हवे तेपर दृष्टांत कहे जे.) श्री विमलशाह नामना शेठ गुजरातना राजा जीमदेवना प्रधान हता. एक दहडो कोइ उष्टे राजाना कर्णो नंलेखाथी राजानी तेनापर इतराजी श्रइ. तेथी पांचसो घोमा, पांच क्रोड सोनामोहोरो, तथा घणां घंटोसहित ते त्यांथी रात्रिए नाशीने चं Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ए? जावतीमा गयो त्यारे तेना मरथी त्यांनो धारावर्ष राजा नाशी गयो; पठी त्यांना मांडलिकोए विमलशाहने त्यांनो राजा - राव्यो. पनी ते विमलशाह शेठे शाकंनरी, मेदपाट, जावालिपुर विगेरेना राजाउने जीतीने आबुपर बत्र धारण कर्यु. वली एक दहाडो तेणे रोम नगरना बार सुबाउने हरावीने पोताना चाकरो कर्या; अने तेउनां बारे उत्रो पोते धारण कर्या. वली आबुपर वागतां तेनां निशानोनां शब्दो सांजलीने नय पामेला नीमराजाए तेने कोड सोनामोहोरोनी लेट करी. एक दहामो ते विमलशाह शेठे धर्मसार सूरिजीना मुखश्री एवी वाणी सांजलीके, चनहिं गणेहिं नरयानअं । बज्ऊंति जीवा, तं जहा म-॥ हारंन्नयाए महापरिग्गहाए कुणिमाहारेणं पंचिंदिअवहेणमिति ॥ अर्थ- जीवो चार स्थानकोथी नरकनुं आयुष्य बांधे जे. ते श्रावी रीते के महा आरंलथी, महापरिग्रहथी, (मांसादिकना) क्वीष्ट जोजनथी, अने पंचेंजिना वधश्री. ते सांजलीने पापोथी डरेला विमलशाह शेठे गुरुमहाराजने चरणे नमीने कर्वा के, हे स्वामी ! में संग्राममा हजारो मनुष्योनो वध कर्यो कराव्यो ; तो मने तेनी आलोचना आपो? ते सांलली आचार्यजीए कह्यु के, हवे तमो सर्व जीवोप्रते अमारीपटह वजडावो? तथा जिनमंदिर आदिक बंधावीने पुण्योनां कार्यो करो? ते सांजली विमलशाह शेठे अंबा माताजीनुं आराधन कर्यु. त्यारे ते प्रसन्न थश्ने तेमने कहेवा लागी के, तमो कई वरदान मागो ? त्यारे विमलशाह शेठे कर्वा के, पुत्रनी प्राप्ति तथा जिनप्रासादनी निष्पत्तिरूप बे वरदान आपो? त्यारे देवीए कां के, कांतो पुत्रप्राप्तिनुं वरदान मागो ? अथवा प्रासादनिष्प Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U3 उपदेशतरंगिणी. त्तिनुं वरदान मागो? ते बेमांथी एक वरदान आपीश. त्यारे ते माटे शेठे पोतानी स्त्री श्रीदेवीने पूज्युं, त्यारे तेणीए कह्यु के, प्रासादनी निष्पत्तिज वरदान मागो ? पुत्रनी आपणे कई जरूर नथी. पी अंबामाताए बहोंतेर लाख सोनामोहोरो सहित जिनप्रासाद बांधवामाटे विमलशाह शेग्ने अर्बुदाचलपर नूमि सोंपी. पनी त्यां विमलशाह शेगे जिनमंदिर बांधवानो प्रारंन कर्यो, पण दिवसे करेली चणतर रात्रिए पमीजवा लागी. अने एवी रीते उ महिना वीती गया. त्यारे शेठे अंबिका मातार्नु स्मरण करीने तेनुं तेणीने कारण पूण्यु; त्यारे देवीए कह्यु के, आ जूमिना अधिष्ठाता वालीनाहनुं तारे त्रण उपवासपूर्वक आराधन करवू; अने तेम करवाथी जो ते विरवद्य नैवेद्य मागे तो तारे तेने ते आपq. पण मदिरादिक सावद्य नैवेद्य आपq नहीं; अने तेम बतां जो ते सामो थाय, तो तारे खज कदामीने तेने डराववो. पजी विमलशाह शेठे तेने आराधवाथी ते प्रत्यक्ष थइ सावद्य नैवेद्य याचवा लाग्यो; त्यारे विमलशाह शेठे खज कहाडी तेने डराव्यो; अने ते खजमां अंबिकाना अवतरणथी ते वालीनाह त्यांथी नाशी गयो. तथा बेवटे अंबाजीना वचनथी त्यां देत्रपाल श्रश्ने ते रह्यो. अने पठी विघ्नरहित जिनमंदिर संपूर्ण थयु. तेमां विक्रम संवत १०७ मां मूलनायक श्री युगादीश प्रनुनी स्थापना श्रश्. वली त्यां अंबिका देवी तथा वालिनाह देत्रपालनी पण देरीमा स्थापना करी. वली ते प्रतिष्ठामहोत्सवमा विमलशाह शेठे चतुर्विध संघनी अत्यंत सेवा करी; तथा याचकोने एवा तो तेणे खुशी कर्या के, आजे पण ते यजमानने “ विमल श्री सुप्रजातनी" आशिष आपे ने. सारं तदेव सारं, नियुज्यते यजिनेंनवनादौ ॥ अपरं पुनरपरधनं, पृथ्वीमलखंडपिंडं वा ॥१॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ए३. अर्थ- तेज अव्यने उत्तम जाणवू, के जे जिनेअनुवनादिकमां वपराय बे, अने बाकीनुं धन तो परतुं अथवा पृथ्वीना मेलना पिंड सर जे. ते पर हवे वस्तुपाल तेजपालनी कथा कहे . महामंत्री वस्तुपाल अने तेजपाल प्रथम यात्रा माटे ज्यारे धोलकाथी हडाला गामे आव्या, त्यारे एवी खबर मली के, मार्गमा झुटारुनी मोटी धाड तेमनी राह जोती बेठेली बे. त्यारे तेए परस्पर विचार करीने रात्रिए सर्व प्रव्य त्रांबाना कखशोमां जरीने एक तलावने कांठे आवेला घना क्षेत्रमा रहेका खीजमाना वृक्ष नीचे दाटवा मांड्यु, पण त्यां जमीन खोदतां तेमनां लाग्योथी उलटुं सुवर्णनिधान निकट्युं. ते जो तेमने मोटुं आश्चर्य श्रयु. पनी ते निधान तथा पोतार्नु पण सघलुंजव्य त्यां तेजेए स्थापन कर्यु. पनी तेढ चिंतातुर श्रया थका ज्यारे पाग व्या त्यारे, अनुपम देवीए तेनुं कारण पूज्यु; त्यारे तेउए तेणीने एकांतमां सर्व हकीकत कही. त्यारे तेणीए कह्यु के, हे स्वामी ! धन एवी रीते गुप्त न रखाय, पण एवी रीते राखq के, जे धनने सर्व कोइ जो शके, पण लेइ शके नहीं; अर्थात् ते अन्य खरचीने जिनमंदिरो बंधाववां; केमके, उत्तम पुरुषोनो तेज आचार जे. कडुं ने के, अधः दिपंति कृपणा, वित्तं तत्र यियासवः ॥ संतस्तु गुरुचैत्यादौ, तउच्चैःपदकांक्षिणः ॥१॥ ___ अर्थ- जे कृपणोने नीची गतिमां जावानी श्वा होय, तेज नीचे नूमिमां अव्यने दाटे चे, पण जेऊने जंचि गतिमां जावानी ला , एवा उत्तम माणसो तो मोटां जिनमंदिरादिकमां ते अव्य खरचे . एवी रीतनां तेणीनां वचनोथी उत्पन्नथएल ने विवेक जेउने Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए उपदेशतरंगिणी. एवा ते वस्तुपाल अने तेजपाले ते धनने शत्रुजयादिकपर जिनमंदिरो बांधवामां वापर्यु. एवी रीते ते मंत्रीश्वरोए १३१३ नवां जिनमंदिरो बंधाव्यां ने, तथा ३३०० जिनमंदिरोनो जीर्णोद्धार करेलो . वली तेए एक लाख आडत्रीस हजार नवां जिनबिंबो जराव्यां , पचीसो माहेश्वरोनां प्रासादो बंधाव्यां ने बत्रीस कीबाट कर्या ने, 'सातसो दानशालार्ड करावी , चोर्यासी वावो बंधावी , पांचसो पौषधशाला, पांचसो जैनमगे, पांचसो शैवमगे, तथा पांचसो पाठशाला पण बंधावी के वली हमेशां पांत्रीससो जैन मुनि तेमने त्यांथी आहारपाणी लेता हता. पूर्वे धोलकामा लुणिग, मालदेव, वस्तुपाल अने तेजपाल निर्धन स्थितिमा रहेता. हता. लुणिगनी ज्यारे अंतावस्था आवी त्यारे तेणे पोताना कुटुंब पासे पुण्य माटे त्रणलाख नवकारो माग्या हता. त्यारे वस्तुपाले तेमने कह्यु के बीजुं कांइ पण तमो मागो? त्यारे लुणिगे कह्यु के, अर्बुद पर्वतपर विमलवसतिमां एक जिन- . मंदिर बंधाववानो मने मनोरथ हतो, माटे ते जो बने तो करजो? पठी व्यापारमा धननी वृद्धि थवाथी वस्तुपाले चंघावतीना राजा पासेथी वीश लाख रुपीया जमीनपर पाथरीने ३६ मूढक जमीन लीधी. ते वखते माताना पूजारी ए कडं के, हजु रुपीआनी चारे बाजुनए जमीन खाली रहे , त्यारे तेपर पण रुपीआठ मूकीने तेउने संतोष्या. पनी त्यां जिनमंदिर बांधवानी तैयारी करी, त्यारे शोजनशिटपीए कह्यु के, आ जिनमंदिरनो पायो तो सुवर्णथी पुरवो जोश्ये. त्यारे मंत्रीश्वरे सुवर्णनी इंटो लावी आपी. त्यारे ते शिरूपीए कह्यु के, हे स्वामी! में तो तमारी - दारतानी परीक्षा करी , माटे या इंटो तो आप आपना नंडारमांज राखो ? पठी मंत्रीश्वरे आरासण अने अर्बुदाचल वच्चे कारीगरो अने मजुरो माटे जगोए जगोए लामुना रसोमां स्थाप्यां, तथा गामांना बेलो माटे जगोए जगोए घासनी गंजी Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए उपदेशतरंगिणी. अने पाणीना अवामा तथा धान्यना कोगरों स्थाप्या. ते जिनमंदिर बांधवा पाबल पंदरसो शलाटोने कामे लगामवामां श्राव्या हता; तथा तेउमाटे जोजनादिकनो सर्व बंदोबस्त मंत्रीश्वरे करी आप्यो हतो. तेमां चणवा माटे लाववामां आवेला आरसपहाणोनी किम्मत तेटलां वजननां रूपां सरखी पमी हती. विक्रम संवत १२०३ मां ते प्रासाद बांधवानो प्रारंज करवामां आव्यो हतो, अने १२ए२ मां तेमां प्रतिष्ठा करवामां आवी हती. तेनी पाउल कुल खरच बारक्रोम अने त्रेपन लाख सोनामोहोरोनो थयो हतो. तेप्रासादनुं “लुणिगवसही" नाम पाड्यु, पण लोकोमां " तेजलवसही " ना नामथी प्रसिद्ध थयु. प्रतिष्ठा समये त्यां जालपुरना राजा उदयसिंहादिक चोर्यासी राणा बार मांगलीको, चार महाधरो, तथा चोर्यासी झातिनुं महाजन एक थयुं हतुं. ते वखते वस्तुपाले उदयसिंह राजाना प्रधान यशोवीरने पूज्यु के, आ जिनप्रासादनी बांधणीमां जे गुण दोषो होय ते कही बतावो ? त्यारे तेणे सन्नावच्चे शोलन शिलाटने कह्यु के, हे शोजन! आ कीर्तिस्तंजपर जे तारी मातानो हाथ तें कोतो.चे, ते अयुक्तज केमके, आपर तो प्रव्य खरचनार वस्तुपालनी मातानो हाथ जोश्तो हतो, के जेणीए श्रावां पुरुषरत्नोने पोतानी कुदिमां उत्पन्न कर्या ने तुं तो तेनो फक्त पैसा माटेनो चाकरज बे. हवे ते बांधेलां था जिनमंदिरमां नीचे प्रमाणे दोषो जे. एक तोजे तें या स्तंनोमां जिनबिंबो कोतर्या ने ते अयुक्त ने, केमके, तेथी आशातना थाय तेम बे. गर्जागारमा प्रवेश करवानी जगोए जे बन्ने सिंहोथी तोरण कर्यु बे, ते देवनी विशेष पूजानो अनाव सूचवे . पूर्वजनी मूर्तिउने जिननी पाग्ल बेसाडवाथी संतान अने शधिनो नाश थाय तेवू . आकाशमां मुनिउँनी मूर्तिउने बेसाडवाथी अन्यदर्शनीउथी श्रानी अटप पूजा थशे. जिनमंदिरना रंगमंरुपमां पुत्तलीउनो Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ उपदेशतरंगिणी. विलास अघटित . वली अहीं करेलां नानां पगथी संताननो अनाव सूचवनारां बे. बार हाथ लांबां नारोटी अनुचित बे, केम के, तेना नांगवाथी प्रासादनो विनाश थवानो संप्नव के. वली बाह्यघारमा जे कसोटीना स्तंजो कर्या ते पण अयुक्त बे, केमके, ते मूल्यवान होवाथी सर्वनी दृष्टिए पमवाथी कदाच प्रासादलंगनो लय रहे . इत्यादि घणां दूषणो निवेदन कर्या. तेनां ते वचनोने सत्य मानीने शोजनादिके यशोवीरनी स्तुति करी तथा कह्यु के, जे बनवानुं हतुं ते बनी चुक्युं . एक दहाडों मंत्रीश्वरनी स्त्री अनुपमदेवी एक जैनसाधुने आहार आपी नमस्कार करती हती, ते वखते प्रमादश्री साधुनुं घीथी नरेलुं पात्र तेणीनापर पडी गयुं, अने तेथी तेणीनुं नवरंगी चीर घीवालुं थयुं, ते जोइ घरना कोश्क मुष्ट चाकरे साधुने गाल आपी. त्यारे अनुपमदेवीए क्रोध पामीने तेने घरमांथी कहामी मेट्यो, अने कह्यु के, हुं जो कोई तेलीनी के कंदोश्नी स्त्री होते तो, दरेक पगले मारां वस्त्रो घृत अने तेलथी मलीन श्रते. आ तो माहं परम लाग्य बे के, मुनिराजना पात्रथी मारु देहसिंचन श्रयं. इत्यादि आ मंत्रीश्वर माटेनुं विशेष वृत्तांत प्रबंधामृतदीर्धीका विगेरेची जाणी लेवू तथा एम विचारि सर्व लोकोए पोतानी लक्ष्मीने धर्ममार्गे वापरीने पोतानो जन्म सफल करवो. स्वैऽव्यर्जिनमंदिराणि रचयत्यभ्यर्चयत्यर्हतखिनकत्या यतिनां तनोत्युपचयं वस्त्रान्नपात्रादिन्निः ॥ धत्ते पुस्तकलेखनोद्यममुपष्टभ्यातिसाधर्मिकान दीनाभ्युधरणं करोति कलयत्येवं सुपुण्यार्जनम् ॥१॥ अर्थ- प्राणी पोतानां व्योथी जिनमंदिरो बंधावे , जिने Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए उपदेशतरंगिणी. श्वरोने पूजे बे, ऋण प्रकारनां जक्तिथी मुनिर्जने वस्त्र, अनं तथा पात्र प्रमुख पे बे, पुस्तको लखावे बे, स्वामीवात्सल्य करे बे, दीनोनो उच्चार करे बे, तथा एवी रीते उत्तम पुण्य - पार्जन करे . तप गलनायक श्री धर्मघोषसूरिजीना उपदेशथी पेथरुशादे तथा जांऊणशाहे विक्रम संवत १३२१ मां जीरावली तथा शत्रुंजयादिकपर सुवर्ण कलशो सहित चोर्यासी जिनमंदिरो बंधाव्यां a. ते वखते देवगिरि तथा ओंकार आदिक नगरोमां ब्राह्मणोए जिनमंदिर नहीं बांधवा देवाथी तेमणे त्यांना राजा रामदेवना मोटा प्रधान हेमादिकना नामोथी घणी दानशाला मांडी; तथा तेमां कापमी विगेरे पंथिने लागु, दाल, शाक, जात विगेरे तेने पेटपूर पवा माड्यं अने तेथी ते पंथि हेमादिकनी अत्यंत प्रशंसा बोलवा लाग्या; अने ते नगरोमां पण हेमादिकनी कीर्ति लोको घरे घरे गावा लाग्या. ते जोइ ते हेमादिक प्रधानो विचार्यु के, आपणे तो कई पण दान श्राप्यं नथी, माटे खरेखर कोइक कारणथी महा पुण्यशाली जीवे श्रापणां नामोथी श्र दानशाला खुली करी बे. पनी ते विषेनी बातमी मेलवतां ते सर्व वृत्तांत तेज॑ना जाणवामां आव्यो. पठी ते हेमादिक प्रधानोए राजाने कहींने ते पेथडशाहने देवगिरिना चौटामां जिनमंदिर माटे जगो छापावी. पक्षी ज्यारे त्यां पायो खोदवा मांड्यो, त्यारे जमीनमांथी मीतुं पाणी निकट्युं. ते देवगिरिमां मीतुं प्राणी बहु दुर्लन हतुं, तेथी कोइ चाडी आए जश्ने कांके, त्यां तो मीतुं पाणी निकट्युं बे, माटे त्यां आप वाव बंधावो ने पेथडशाहने साटे बीजुं स्थानक श्रापजो. त्यारे राजाए क के, प्रजाते हुं तेनो तपास करीश. ते वातनी पेथडशाहने बातमी मलवाथी ते गुप्त रीते रात्रिए ते पाणी मां निमक नखायुं; पते राजा ज्यारे तेनी तपास करवा श्रव्यो; त्यारे ते पाणी १३ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. खारु जणायाधी त्यां जिनप्रासाद करवानी पेथडशाहने तेणे बुट श्रापी. पठी अनुक्रमे केटलेक काले सुवर्णकलश तथा ध्वज सहित ते जिनप्रासाद विक्रम संवत १३३५ मां संपूर्ण आयु. तेना चाकरो ज्यारे तेनां खरचनुं नामुं मांमवा बेग, त्यारे फक्त तेमां खपेला दोरडांउनीज किम्मत चोर्यासी हजार रुपीथानी थक्ष एवं विचारि तेए नामुं मांगq तजी दीधुं. पठी ते प्रासादनुं “अमूट्यप्रासाद " नाम पाडवामां आव्यु. तेमां चोर्यासी आंगुलनी पारसनी श्री महावीरप्रनुनी मूर्ति स्थापवामां आवी. तेनुं विशेष वृत्तांत रत्नमंडनसूरिए करेला सुकृतसागर नामना काव्यश्री जाणी लेवं. जर्णोधारः श्रुतपरिमलामोदितात्मन्यजत्रं पात्रे दानं नगवति जिनाधीश्वरे नित्यन्नक्तिः ॥ दीनानाथो चरणमनिशं विश्वविश्वोपकारः । प्राणित्राणं फलमिदमहो चंचलायाः श्रियोऽस्याः अर्थ- जीर्णोधार करवो, सिद्धांतोना परिमलथी सुगंधि श्रात्मावाला एवा सुपात्र प्रते हमेशां दान श्राप, जिनेश्वर प्रनुनी हमेशां लक्ति करवी, तेम हमेशां दीन अने अनाथ माणसोनो उचार करवो; समस्त जगतपर उपकार करवो, तथा प्राणीउनुं रक्षण करवू; एज आ चंचल लक्ष्मीनुं फल . हाथीना कानसरखी चंचल एवी लक्ष्मीनु तेज फल ने के, तेथी जीर्णोधारादिक पुण्यकार्य करवं. जेम बाहडदेवमंत्रिए, शत्रुजय तीर्थनो नझार, रेवताचलपर पगधी बांधवानुं कार्य, नृगुकबमा समलिका विहारनो नझार, तथा बन्ने तीर्थोनी यात्रा, एवी रीतना पोताना पिता उदायन मंत्रिना चारे मनोरथो सफल कर्या ने. ते नीचे प्रमाणे जाणवा. बाहडदेवमंत्रि एक दहाडो श्री शत्रुजयपर यात्रा माटे गया, Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए उपदेशतरंगिणी. त्यां सकल संघनुं वात्सट्य कर्याबाद तेमणे पूर्वन जीर्ण श्रयर्बु काष्टमय देवल दूर करीने नवु पाषाणमय जिनमंदिर बंधाववानुं शरु कर्युः अने ते कार्य पोताना माणसोने सोंपीने ते पाटणमां गया, त्यां राजाए तेमनो मोटा श्राबरथी प्रवेशमहोत्सव कर्यो. केटलेककाले ते जिनमंदिर संपूर्ण श्रयाश्री, तेनी वधामणी आपनार माणसने तेमणे शोल सुवर्णनी जीहा आपी. एटलामां पांच दिवसो वीत्याबाद कोश्क बीजा माणसे आवीने खबर आपी के, जमतीमां वायु जरावाथी तमारुं जिनमंदिर फाटी गयुं . ते सांजली बाहड मंत्रीए तेने बत्रीस सोनानी जीहा आपी. ते जोश परिवारे कडं के, हे स्वामी! आ वखते तो आपने शोक थवानुं कारण बे, बतां आपने हर्ष केम थयो? ते सांजली मंत्रिए कह्यु के, हजु माझं ऐश्वर्य दनदनप्रते वधतुं ने, अने तेथी आ समये तेवा खबर जे मझ्या , ते हर्षदायक ने, केमके, तेथी हुँ ते मंदिर फरीने पण बंधावी शकीश. पनी तेणे शलाटोने कह्यु के, हवे तमो जमतीविना फरीने ते उत्तम जिनमंदिर बंधावो? त्यारे शलाटे कडं के, नमतीविना जिनप्रासाद कराववाथी संतान थतां नथी. ते सांजली मंत्रिए कह्यु के, उर्गतिनी वधामणी श्रापनार संताननुं मारे प्रयोजन नथी, मारे तो फक्त जिनप्रासादज प्रयोजन जे. पनी तेणे ते जिनप्रासाद त्रण कोम अने त्रण लाख सोनामोहोरो खरचीने फरीथी बंधाव्यु. पनी त्यां शत्रुजयपर ज्यारे कुमारपाल राजा हेमचंजाचार्य सहित पधार्या, त्यारे पर्वतपर धमधमाट शब्द थयो, ते सांजली हेमचंघाचार्यजीए कुमारपाल राजाने कडं के, एवो वृक्षवाद ने के, एकी वखते जो बे पुण्यशाली जीवो आ पर्वतपर चडवा मांझे तो, उपरनी त्रशिला तेउपर पके. माटे दुं अने आप जुदे जुदे समये तेपर चमीशं. जो के तीर्थमा मृत्यु तो नाग्यथीज थाय , पण तेथी जिनशासननी हीलना थाय. पी तेपर तेजे जुदे जुदे समये चड्या. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. वली ते बाहम मंत्रीए गिरनारपर पगथी बंधावी, के जेथी वृयो श्रने बालोने पण तेपर चडवानुं सुगम थयु. ते पगधी बांधवा पागल तेमणे त्रेसठ लाख सोनामोहोरो खरची हती. का डे त्रिषष्टिलक्षणम्माणां, गिरिनारगिरौ व्ययात् ॥ नव्या बाहडदेवेन, पद्या हर्षेण कारिता ॥१॥ अर्थ- त्रेसठ लाख सोनामोहोरो खरचीने बादडदेव मंत्रिए श्री गिरनार तीर्थपर हर्षथी मनोहर पगथी बंधावी . जिन्नवणाणि जे नधरंति, नती समीयपडियाई॥ ते नंधरंति अप्पणं, नीमान नवसमुद्दा ॥१॥ __ अर्थ- जे माणसो नक्तिश्री जीर्ण श्रएला तथा पडी गएलां जिनमंदिरोनो उद्धार करे , ते माणसो जयंकर एवा श्रा नवसमुत्रमाथी पोताना श्रात्मानो उद्धार करे . गोपगिरिपर आमराजाए पोतानुं अमूल्य सिंहासन श्री बप्पनट्टिजी सूरिजीने बेसवा माटे अर्पण कर्यु, ते जोश क्रोधातुर थएला ब्राह्मणोए राजाने कह्यु के, हे स्वामी ! आ श्वेतांबरो तो शूजो , तेउने सिंहासन आपq उचित नथी. एवी रीते वारंवार राजाने कहेवाथी राजाए ते नवलद नामनु सिंहासन पाळ पोताना जंडारमा मुकाव्यु, तथा तेनी जगोए एक नानुं सिंहासन राख्यु. प्रजाते ज्यारे आचार्यजीए ते जोयु, त्यारे राजाना मननो अभिप्राय जाणी तेमणे कडं के, मईयमानमतंगजद, विनयशरीरविनाशनसर्पम् ॥ हीणो दर्पाद्दशवदनोऽपि, यस्य न तुट्यो जुवने कोऽपि ॥१॥ ते सांजली खजातुर श्रएला श्रामराजाए फरीने ते नवलक्ष Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. सिंहासन त्यां स्थाप्यु. फरीने ते ब्राह्मणो राजाने ज्यारे कहेवा गया, त्यारे राजाए पात्र अपात्रनी परीक्षा माटे तथा ते ब्राह्मणोने प्रतिबोध श्रापवा माटे आठ हजार रुपामोहोरो सन्नामां मंगावी अने ब्राह्मणोने कह्यु के, मारे आ सुपात्रोने आपवी जे. ते सांजली सर्वे ब्राह्मणो कहेवा लाग्या के, हे स्वामी ! अमो चतुर्वेदी ब्राह्मणो जीये, माटे अमारासरखा बीजां कोण उत्तम पात्रो ? एवी रीते आत्मप्रशंसा करता थका कहेवा लाग्या के, ते व्य अमोने आपो ? एम कही एक बीजापर हडसेला मारी तेउए ते सर्व प्रव्य खुंटी लीधुं. बीजे दिवसे श्री बप्पनट्टीजी सूरिराजने बोलावी तेमनी पासे सवा कोड सोनामोहोरो मुकीने राजाए तेमने कह्यु के, हे जगवन्! आप कृपा करीने श्राव्य ग्रहण करो? एवी रीते वारंवार राजाए कहेवाश्री आचार्यजीए तेने कडं के, हे राजन्! आरंन्ने गस्थि दया, महिलासंगेण नासए बंन्नं ॥ संकाए सम्मतं, पञ्चजा दवगहणेण ॥१॥ अर्थ- आरंज करवाथी दया रहेती नथी, स्त्रीना संगथी ब्रह्मचर्यव्रत नाश पामे , शंकाथी सम्यक्त्व खंडित थाय , तथा अव्य लेवाथी प्रव्रजानो विनाश थाय . इत्यादिक शास्त्रोनी गाथा कहीने ते अव्य तेमणे लीधुं नही. पनी ते आम राजाए आचार्यजीना उपदेशथी ते अव्य खरचीने एकसो जिनमंदिरोनो उधार कराव्यो. यत्रणमयीमपि कुटी, कुर्याद्दद्यात्तथैकपुष्पमपि ॥ नक्या परमगुरुभ्यः, पुण्योन्मानं कुतस्तस्य ॥१॥ अर्थ-जे माणस नक्तिथी परम गुरुमाटे एक घासनी पण ऊंपडी बंधावी आपे , तथा तेमने फक्त एकज पुष्प श्रापे , तेनां पुण्य, पण कोण माप करी शके तेम ? ॥१॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ उपदेशतरंगिणी. किंपुनरुपचितघन-शिलासमुद्रातघटितजिनन्नवनम् ॥ ये कारयंति समतयो-विमानिनस्ते महाधन्याः॥॥ - अर्थ- जे उत्तम बुद्धिवान माणसो महान् भने उत्तम पाषाणोथी जिननवन बंधावे , तेउना पुण्यनी तो त्यारे वातज शुं करवी? ते महा लाग्यवंत पुरुषो देवलोकमां जश् वसे ॥२॥ जिनन्नुवन बंधाववा माटे कयो माणस अधिकारी ? ते हवे कहे. न्यायोपार्जितवितो, मतिमान स्फीताशयः सदाचारः॥ गुर्वादिमतो जिनन्नवन-कारकस्याधिकारी स्यात् ॥१॥ अर्थ- जे माणसे न्यायथी धन उपार्जन करेलुं , तेम जे बुद्धिवान् , मनोहर श्राशयोवालो ने, सदाचारि , तथा जे गुरु श्रादिकथी अनुमत थएलो , तेज माणस जिनमंदिर बंधाववाने अधिकारी वे. ( तेपर हवे दृष्टांत कहे.) __ राजगृही नामनी नगरीमां धनसार अने गुणसार नामना बे बांधवो हता. तेउमांथी मोटा धनसारनी स्त्री शिलादिक गुणोएं करीने शोनिती हती; पण नाना नाश् गुणसारनी काली नामनी स्त्री महा मुराचारी हती, अने तेणीना कहेवाथी ते नानो नाइ पोताना मोटा लाश्थी जुदो श्रश् पृथक् घरमा रहेवा लाग्यो. दैवयोगे ते नाना नाइने त्यां लक्ष्मी वृद्धि पामी, अने मोटा लानी लक्ष्मी अल्प यश् गइ. एक दहाडो नगरमां केटलाक शलाटो धंधा अर्थे श्रावी चड्या, अने तेए गुणसारना घरनां घारपासे तेनी स्त्री कालीने अमूल्य आजूषणोवाली जोइ पूज्युं के, हे शेगणी ! आ नगरमां को नुवन बंधवनारो ? ते सांजली पोताना धनना मदथी तेणीए कह्यु के, मारो जेठ धनसार नुवन बंधाववानो , माटे तेने त्यां तमो जाउँ ? पत्री ते ज्यारे धनसारने घेर गया त्यारे तेनी स्त्रीए तेजेने आववानुं का Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १०३ रण पूरीने बेसाड्या. लोजन माटे धनसार शेठ ज्यारे घेराव्या, त्यारे तेणीए ते शलाटोनी सर्व हकीकत कहीने कह्यु के, श्रा लोकोने मारी देराणीए मोकट्या जे. ते सांजली ते शेठे ते स्त्रीनां आंजूषणो वेंचीने त्यांना एक जीर्ण प्रासादनो जीर्णोधार ते शलाटो पासे कराव्यो. पी प्रतिष्ठाना खरच माटे प्रव्य उपार्जन करवा माटे ते धनसार शेव परदेश चाट्या, त्यां मार्गमां तेमने एक योगी मट्यो. ते योगीने शेठे पोतानुं वृत्तांत जणाववाथी ते योगी तेने एक पर्वतनी गुफामां तेडी गयो. ते गुफामां अंधार होवाथी योगीए नेंसनां घुबडां शलगावीने तेमां अजवालु कर्यु. त्यार बाद ते गुफामां तेउने वींनी, जमरा तथा स्त्री श्रादिकना उपञवो श्रया, पण शीलव्रतधारी ते साहसिक शेठ तेथी मर्यो नहीं. योगी तो त्यां एक स्त्रीने जोर लपटाइ गयो, तथा ते स्त्रीए त्यांज तेने मारी नांख्यो. शेव तो ज्यारे गुफानी अंदर पहोच्यो त्यारे तेणे त्यां एक सुवर्णना हिंचोलापर एक महा तेजस्वी व्यंतरेजने जोयो. ते व्यंतरेजे पण शेठने जो तेने घणां श्रादरमानपूर्वक पोतानी पासे बेसाड्यो, अने कह्यु के, हे शेठ ! तमो मारा लाइ तुल्य जगे, पूर्वजन्ममां हुं राजगृही नगरीमां जिनदास नामे व्यापारी हतो, अने ते समये में जे जिनमंदिर बंधाव्यु हतुं, तेनो तमोए जीर्णोधार कराव्यो , माटे हुँ तमारापर तुष्टमान श्रयो बुं; एम कही तेणे तेने अमूट्य रत्नोनी पोटली आपीने तेने स्थानके मेट्यो. पठी त्यां ते धनसार शेठे मोटा महोत्सवपूर्वक प्रतिष्ठामहोत्सव कों, संघर्नु अत्यंत नक्तिथी स्वामिवात्सल्य कर्यु, अने एक रत्नजडित सुवर्णनी जीह्वा तेणे पोतानी लाली कालीने आपी. त्यारे संघादिक लोकोए ते जीहा आपवानुं तेने कारण पूग्याथी तेणे जणाव्यु के, अमोने श्रा जीर्णोधार तथा प्रतिष्ठा आदिक माटे धनप्राप्तिनुं कारण ते मारी जानीनी जीह्वाज ने. पनी ते धनसार शेठे क जीवित Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ उपदेशतरंगिणी. पर्यंत पोतानुं अव्य धर्ममार्गे वापरी सफल कयु. जेवटे स्त्रीसहित श्री धर्मघोष आचार्यजी पासे दीदा लेइ काल करी पेहेला देवलोकमां ते महा शशिवंत देव श्रया. हवे पौषधशाला माटेनो उपदेश कहे. पुण्या९ पौषधागारं, तत्रैत्य ग्राहको जनः ॥ व्रतादिपण्यं क्रीणाति, क्रमेणानंतलानदम् ॥१॥ अर्थ- पौषधशाला ने ते एक पुण्यनी कान ने, केमके, त्यां आवेलो ग्राहक ब्रतादिरूप करीश्राणुं खरीद करे , के जे करीवाणुं अनुक्रमे अनंत लाल देनारं थाय ने ॥१॥ कलिबुद्धिः कुरुक्षेत्रे, यथा स्नेहवतामपि ॥ तथा स्याधर्मशालाया-मधमस्यापि धर्मधीः ॥॥ - अर्थ- जेम स्नेहीजने पण कुरुक्षेत्रमा क्वेशनी बुद्धि उत्पन्न थाय , तेम धर्मशालामां अधम प्राणीने पण धर्मबुद्धि थाय . हवे तेपर दृष्टांत कहे.. पेथडदेनो देद नामनो पिता कोश्क कार्यप्रसंगे देवगिरि नामनी नगरीमा गयो; त्यां रहेला आचार्यजीने नमवा माटे ते कोश्क उपाश्रयमां गयो, अने त्यां आचार्यजीने वांद्याबाद, त्यां एक बाजुए बेठेला केटलाक श्रावकोने पण तेणे नमस्कार कर्यो, ते श्रावको त्यां एकठा श्रश्ने एक पौषधशाला बांधवानो विचार करता हता. तेऊना ते विचारने जाणीने देदा शेठे तेमनी पासे खोलो पाथरी कह्यु के, जो मारापर कृपा करीने तमो मने आज्ञा आपो तो हुँ अहीं ते पौषधशाला बंधावू, केमके, हूं तो एक संघनो दास बुं. ते सांजली ते श्रावकोमांना एक मुख्य श्रावके तेमने कह्यु के, आप कहो नगे ते युक्तज , पण ते पौषाधशाला सर्व संघनी बंधावेली जोइए, पण एक धणीनी बंधावेली न जोइए. केमके, जो एक आसामी ते बंधावे तो ते शय्यातर श्राय, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी १०५ अने तेथी मुनि तेना घरनुं अन्नादिक ले नहीं; अने जो घणां लोको एकठा थइ बंधावे तो मुनि हमेशां अकेकना घरनो त्याग करे. एवी रीते युक्तिथी तेने समजाव्या बतां पण तेणे मान्यु नहीं. त्यारे वली एक बीजो श्रावक बोली उठ्यो के, अहीं जो कोइ । पौषधशाला बांधवाने शक्तिवान् न होय तो तो आपनी हठ पण व्याजबी गणाय, पण अत्रे तेवा घणाचे, पण ते बतां जो तमो ते पौषधशाला सुवर्णनी इंटोनी बंधावो, तो तेम पण करीएं. ते सांजली देदा शेठे संघने पगे पडी कडं के, हुं ते पौषधशाला सुवर्णनी इंटोथी बंधावीश. पठी ते शेग्ने आचार्य महाराजे समजाव्या के, तेम करवाथी श्रा कलिकालमां बहु विघ्न थवानो संजव ने, केमके, ते कीमती जाणीने पुष्ट लोको लोजना मार्या तेनो विनाश करशे. त्यारे शेठे कह्यु के, हुं ते पौषधशाला इंटोनी बनावी तेनापर सुवर्णतुं पतरं जमावीश. तेम करवानो पण गुरु महाराजे ज्यारे निषेध कर्यो, त्यारे तेणे ते सुवर्ण जेटली किम्मतर्नु केशर ले ते धुंटावीने चुनामां नाख्युं, अने एवी रीते करीने पण ते पौषधशाला तेणे बंधावी. अने ते पौषधशाला "कुंकुलोलशालाना" नामश्री जगतमां प्रसिद्ध श्रश्. यस्तनोति वरपौषधशालां, सर्वसिभिललनावरमालाम् ॥ सर्वदैव लन्नते सुविशाला, बोधिबीजकमलां विमलां सः॥१॥ अर्थ- जे माणस सर्व प्रकारनी सिघिउरूपी स्त्रीने वरवामां वरमाला सरखी एवी विशाल पौषधशाला बंधावे , ते माणस हमेशां निर्मल एवी बोधिबीजरूपी लक्ष्मीने मेलवे . ॥१॥ जेम गोपगिरिपर श्री बप्पनट्टिजी महाराजना उपदेशथी श्राम राजाए एक मनोहर अने विशाल पौषधशाला बंधावी १४ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ उपदेशतरंगिणी. हती. ते पौषधशालामा एक हजार तो स्तंनो हता. तेमां साधु, साधवी, श्रावक अने श्राविका सुखेथी आवी जश् शके, ते माटे तेनां त्रण विशाल घारो कर्या हतां. वली तेमां दूर दूर बेठेला साधुने पमिलेहण तथा स्वाध्यायादिक सात मांमलिक वेलाउनी चेतवणी आपवामाटे मध्यस्तंनमां मोटा नादवालो घंट बांधवामां आव्यो हतो. तेमां वली व्याख्याननो मंडप त्रणलाख सोनामोहोरो खरचीने बांध्यो हतो. अने तेमां एवां तो चंकांतादिक तेजस्वी रत्नो जडाव्यां हतां के, जेथी रात्रिए पण त्यां बिलकुल अंधकार जणातो नहोतो, अने तेना तेजश्री रात्रिए पण साधु त्रसकायादिकनी विराधना विना पुस्तको विगेरे वांची शकता हता. पापनिष्कंधनं धर्म-सदनं कारयति ये ॥ तारयति नवाब्धेः स्वं, ते जनाः कुलतेजनाः ॥१॥ अर्थ- कुलनो उद्योत करनारा एवा जे माणसो पापोने नाश करनारी पौषधशाला बांधे , ते पोताना आत्माने आ जवरूपी समुथी तारे जे. ॥१॥ तेपर दृष्टांत कहेजे. सिद्धराज जयसिंहना वखतमां तेना राज्यनो पांच हजार घोडेस्वारोनो अधिपति शांतु नामे एक सेनापति हतो. ते श्री देवसूरिजी महाराजनो परमजक्त हतो. एक दहाडो तेणे चोर्यासीहजार सोनामोहोरो खरचीने राजमेहेल सरखं एक पोतार्नु घर बंधाव्यु, अने ते घरने जोइ सर्व लोको तेनी तारिफ करवा लाग्या. एक दहाडो तेणे पोता, ते घर श्री देवसूरिजी महाराजने पण बताव्युं, पण गुरुमहाराजे तेनां वखाण कर्या नहीं; त्यारे सेनापतिए पूज्युं के, हे नगवन् ! सर्व लोको तो आ सुंदर घरनां वखाण करे , पण आप केम करता नथी? ते सांजली देवसूरिजीना शिष्य श्री माणिक्यचंप्रसूरिजीए कह्यु के, हे सेनापति! तमोए जो आवी पौषधशाला बंधावी होते तो तो, गु Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश तरंगिणी. १०७ रुमहाराज तेनी प्रशंसा करते, पण गृहस्थीना घरनी प्रशंसा साधु करे नहीं, केमके गृहस्थीना घरमा चुलो, खांडणी, सावरणी विगेरे हिंसक पदार्थोनो उपयोग थाय बे. ते सांजली शांतु मंत्रिए ते घरनी पौषधशाला बनावी, अने तेमां पुरुषना शरीर जेवडा बे दर्पण बंधाव्या. कारयति नरा धन्या, जावात्पौषधशालिकाम् ॥ संसारसागरं तीर्त्वा, ते लनंते परं पदम् ॥ १ ॥ अर्थ- जे धन्य माणसो जावथी पौषधशाला बंधावे बे, ते श्रा संसाररूपी समुद्रने तरीने मोछे जाय बे. हवे ते पर दृष्टांत कहे बे. पाटणमां एक जड नामे कोइक निर्धन श्रावक रहेतो हतो. ते कंसाराने घेर घूघरा घसीने तेथी हमेशां मलता पांच 5मोथी ते पोतानी आजीविका चलावतो हतो. एक दहाडो तेणे हेमचंद्राचार्यजी ने कह्युं के, हे जगवन्! मने सातसो सोनामोहोरोना परिग्रहनुं प्रत्याख्यान करावो. ते सांजली हेमचंद्राचार्ये तेना हस्तनी रेखार्ड जोइ पराणे त्र लाख सोनामोहोरोनुं नियम कराव्यं. एक दहाको तेने घेर पुत्र श्रववाथी तेने दूध पावा माटे एक बकरी वेचाती लेवा माटे ते ग्रामांतरे गयो. त्यां बकरीना टोलांमां एक बकरी ने गले तेणे इंद्रनीलमणी बांधेलुं जोयुं. ते बकरीनुं तुछ मूल्य पीने तेणे गोवाल पासेश्री वेचाती सीधी. पीते मणि सिद्धराजने तेणे देखाड्याथी तेणे पोताना हारमां नाखवा माटे सवा लाख सोनामोहोरो आनडने आप खरीद कर्यु. एक दहाडो तेणे केटलीक मंजीवनी गुणी वेंचाती लीधी, पण तेना जाग्यथी तेमांथी सुवर्ण नीकली पड्युं, खने तेथी ते करोरुपति थइ गयो. पढी पोताना परिग्रहप्रमाणने याद लावीने ते चोर्यासी पौषधशाला बंधावी, तथा चोवीसे . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ उपदेशतरंगिणी. तीर्थकरोनां चोवीस जुदां जुदां जिनमंदिरो बंधाव्यां, अने एवी ते तेणे साते क्षेत्रमां नेवु लाख मोनामोहोरो खरची. वली स्तंजतीर्थमां कोइक नीम नामना श्रावके नगरनी अंदर जगो नहीं मलवाथी नगरनी बहार घणुं प्रव्य खरचीने चंदन ने हाथीदांतोथी एक पौषधशाला बंधावी. त्यारे कोइके तेने कहां के, या नगरनी बहार पौषधशाला करी, ते तो फोकट द्रव्य खरच्युं, केमके, तेमां तो कदाच जिल्लवीने निवास करशे. ते सांजली मेक के, कोक विहार करीने श्राकेला मुनि खरोखर तेमां कायोत्सर्गादिक ध्यान धरशे अने तेथी ते पौषधशाला सफल थशे. बेवढे नगरनी वसती वधवाथी ते पौषधशाला हाल नगरनी अंदर श्रावी गइ बे. वली वस्तुपाले पण सातसो पौषधशालाई बंधावी बे. एम विचारि बीजा जाग्यवान् पुरुषोए पण पौषधशाला बंधावी पुण्य संपादन करवुं. हवे जिनबिंबोनो उपदेश कहे. अंगुष्ठमानमपि यः प्रकरोति बिंबम् - वीरावसानवृषभादि जिनेश्वराणाम् ॥ स्वर्गे प्रधान विपुलधिसुखानि भुंक्त्वा पश्चादनुत्तरगतिं समुपैति धीरः ॥ १ ॥ अर्थ- जेधीर माणस शषनदेव प्रजुथी मांडीने महावीर प्रभुपर्यंतना अंगुठा जेवमां पण बिंबो जरावे बे, ते स्वर्गमां उत्तम शशिनां सुखोने जोगवीने पावलथी मोदे जाय बे. भरतचक्रीए पोतानी वींटीमां श्री आदिनाथ प्रजुनी मणिमय प्रतिमा करावी हती; अने ते प्रतिमा आजे पण देवगिरि |देशना कव्यपाक नगरमां माणिक्यस्वामिना नामथी प्रसिद्ध बे. वली तेज चक्रीए अष्टापद तीर्थपर सर्व जिनेश्वरोनी पोतपोताना शरीरना प्रमाणनी रत्नमय मूर्ति भरावेली बे. वली ब्रों Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १० ए जरावेली श्री नेमिनाथ प्रजुनी मूर्ति गिरनारपर बिराजे बे. संप्रति राजाए सवाक्रोड नवां जिनबिंबो जराव्यां बे. जावडी शाहे पोताना पिताना पुण्य माटे जंगणीश लाख सोनामोहोरो खरची ने शत्रुंजयपर श्री रुषनदेव प्रजुनी तथा बे पुंकरी कजीनी प्रतिमा करावी बे. ते प्रतिमानी प्रतिष्ठा विक्रमनी १०८ नी सालमां श्री वज्रस्वामीजीए करावेली बे. कह्युं वे के, अष्टोत्तरे च किल वर्षशते व्यतीते श्रीविक्रमादथ बहुविव्ययेन ॥ यत्र न्यवीविशत जाव डिरादिदेवं श्री पुंमरी कयुगलं नवजी तिनेदि ॥ १ ॥ एम विचारि नव्य पुरुषोए जिनबिंबो कराववां. जो व्याजवीमसागरगतैर्मानुष्यदेहादिका सामग्री न सुखेन लभ्यत इति प्रायः प्रतीतं सताम् ॥ तद्युष्माभिरिमां पुरातनशुभैरापाद्य सद्योऽनघां सर्वप्रतिमादिके प्रतिदिनं धर्मे कुरुध्वं मनः ॥ १ ॥ · अर्थ- हे जव्य लोको ! आजवरूपी जयंकर समुद्रमां पडीने मनुष्यदेहादिकरूप सामग्री सुखेश्री प्राप्त यती नथी, एम सर्व बुद्धिवानोने खातरी बे. माटे हमेशां जिनप्रतिमादिक धर्मकार्यमा मनने जोडj. हवे ते पर वस्तुपालमंत्री नुं दृष्टांत आपे बे. एक वखते दिहिना बादशाहनी माता मक्के हज करवा माटे जवा सारुं ज्यारे खंजातबंदरमां श्रावी त्यारे वस्तुपाल मंत्रीए प्रथम तेणीने माणसो मारफते लुंटावी, अने पछी तेनो सर्व सबाबीने पोते स्वाधिन कर्यो, ने बेक मक्कासुधि ते ते नी साथे गयो. वली त्यां मक्कामां पण तेणीना मान खातर तेथे त्रण लाख सोनामोहोरो खरचीने तोरण बांध्युं ने पाली तेणीने Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० उपदेशतरंगिणी. , सुखे समाधे दीडही पहोंचाडी. ते वखते सन्मुख श्रावेला बादशाणीने पुयुंके, तारी हज तो सुखे समाधे थइनी ? ते सांजली तेनी माताए कह्युं के, मारा धर्मपुत्र वस्तुपालनी कृपाथी मारी हज सुखे समाधे थइ बे. से सांजली हर्षित थरला बादशाहेतुरत वस्तुपालने दीही बोलाव्यो. ते ज्यारे दिल्ही आव्यो त्यारे बादशाहे तेनी सन्मुख जड़ घणा आदरमानथी तेनुं सामैयुं कर्यु. पबी बादशाहे तेने ज्यारे पोतानुं अर्ध राज्य पवा मांड्यं त्यारे वस्तुपाले कह्युं के मारे राज्यनो खप नथी, फक्त नागपुर पासे वेली मम्माणीनी खाणमांथी त्रण जिनप्रतिमा थाय तेवा पत्थरो जोइए बीए. ते सांजली तुष्टमान थएला बादशाहे ते खी खातेने स्वाधिन करी. पबी वस्तुपाले ते खाणमांथी मम्माणीना उत्तम पत्थरो कढावीने तेमांथी एक रूपनदेवप्रभुनी एक पुंडरीकजीनी, ने एक पार्श्वनाथजीनी एम ऋण जन्य प्रतिमार्ज करावी. ने अनुक्रमे शत्रुंजय पर्वतपर तथा तेजलपुरमां सुंदर जिनप्रासादो करावी तेमां स्थापी वली ते मंत्रिए रलोनी, सुवर्णनी, रूपानी, पित्तलनी, आरसपानी, तथा मम्मापीनी सर्व मली सवा लाख जिनप्रतिमार्ज करावी छे, छाने ते सर्व प्रतिमार्जने तेणे पोते करावेला पांच हजार जिनालयोमां स्थापन करी . जे मासो पोते करावेली जिनप्रतिमामे पोताने हाथे पूजे बे, तथा ते प्रतिमाने जिनालयोमां स्थापी बीजार्जने हाथे पूजावे बे, तेनुं पुण्य व्याजु मुकेला द्रव्यनी पेठे वृद्धि पामे बे. वली जिनपूजा करनारने हीनजातिपणुं प्राप्त यतुं नथी. जेम जयकुमार दन नामना म्लेखना पुत्र जिनप्रतिमानी जेट मोकली हती, छाने ते प्रतिमा जोइने ते आ'ईकुमारने जातिस्मरण ज्ञान थवाथी तेणे दीक्षा लीधी हती, तथा बेवढे ते मोछे गया हता. कां वे के, कुमारने Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. निर्मायाहतबिंबमाईतपदस्थानानिमं धार्मिकः । खात्मानं च परं च निर्मलयति स्तुत्यर्चनावंदनैः ॥ मंत्रीश्रेणिकसूरिवाकसुतं मोहांधकारस्थितं दीपः पुष्यति कस्य चापि न मुदं श्रेयःश्रियामास्पदम्॥ वली स्वयंजूरमण समुप्रमा मत्स्यरूपे रहेला लव्य जीवो त्यां जिनप्रतिमाना आकारवाला मत्स्योने जोड्ने जातिस्मरण ज्ञान पामी अनशन करी स्वर्गे जाय , वली शय्यंजवसूरिजी पण जिनप्रतिमाना दर्शनयी प्रतिबोध पामेला ने. कर्वा ने के, सिजनवं गणहरं, जिणपडिमादसणेण पमिबुद्धं ॥ मणगणिअरंदसका-लिअगस्स निजुहगं वंदे ॥१॥ श्री शय्यंजवाचार्यजीनी कथा लोकप्रसिद्ध बे. पितलसुवन्नरुप्पय- रयणेहिं चंदकंतमाईहिं ॥ जो कारवेश जिणवर-पडिमं सो पावए मुखं ॥१॥ अर्थ- पित्तलनी, सोनानी, रूपानी, तथा चंजकांतादिक रनोनी जिनप्रतिमा जे कोइ करावे , ते खरेखर मोद पामे ने. जेम नीमश्रावके आबु पर्वतपर जिनमंदिर बंधावीने तेमां मूल नायकनी ५१ अंगुलनी प्रतिमा स्थापवा माटे घणीवार गाली गालीने उत्तम पित्तलनो रस कराववा मांड्यो. एटलामां पालणपुरना रहेवासी धनाशाए श्रावी तेने विनंति करी के, हे जीम ! आ प्रतिमा बनाववामां तुं मारो लाग ले? पण जीमे ना पाडवाथी ते रस ढालती वखते धनाशा पोताना ऊनानी बांहोमां गुप्तरीते केटलुक सुवर्ण लाग्यो, अने हाथ पहोला करवाना मिषथी ते सुवर्ण ते पित्तलना रसमां नांखी दीधुं, अने तेथी आजे पण ते प्रतिमा अत्यंत ऊगऊगायमान देखाय ने, ते पर श्यामता आवती नथी. अने हालमां ते प्रतिमा कुंजमेरुपर Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. • पूजाय बे. वली वनवासमा रहेला लक्ष्मणजीए सीताने पूजवा माटे एक बानी पार्श्वनाथजीनी प्रतिमा बनावी चापी हती, पण सीताना शीलना माहात्म्यथी ते प्रतिमा वज्रमय थइ गइ. जे पण मंडदुर्गमां ते प्रतिमा पूजाय बे, ते प्रतिमानो महिमा एवो बेके, तेथी सर्व उपप्रवोनो नाश थाय बे. सन्मृत्तिकामल शिलातल दारुरूप्यसौवर्णरत्नमणिचंदनचारुविंबम् ॥ कुवैति जैनमिह ये स्वधनानुरूपं तेऽप्यामरीं च शिवसंपदमाप्नुवंति ॥ १ ॥ ११२ अर्थ- जे लोको हीं पोतानी शक्तिमुजब उत्तम माटीनी, उत्तम पत्थरनी, काष्ठनी, रूपानी, सोनानी, मणिर्जनी, तथा चंदननी जिनप्रतिमा बनावे बे, ते पण देवलोकनी तथा मोनी संपदा मेलवे बे. संवत १३७१ मां ज्यारे समराशादे शत्रुंजयनो उचार कर्यो, त्यारे तेथे जाट यादिकोने चौदसो सोनानी वींटी आपी. ते समये मट्ट नामना जाटने शेठे मूलथी लाखनी वींटी श्रापी. पी ज्यारे ते सर्वने जोजनमाटे बेसाड्या, त्यारे ते मल्लनट्टे पोतानी वींटी चांगली मांथी कहाडीने नीचे मेली. ते जोइ शेठे तेनुं कारण पूवाथ तेणे कधुं के, या वखते श्र उष्ण नोजनथ तमारी आपेली लाखनी वींटी जंगली जाय माटे में नीचे मूकी बे ने तेम जो न करूं तो पछी मारा देशमां जइ दुं लोकोने तमारी तरफथी नेट मलेली वस्तु शीरीते बतावी शकुं ? ते सांजली शेठे ते वींटी हाथमां लेइ तपासी जोइ, अने ते लाखनी मालुम परुवाथी तेनी माफ मागीने शेठे तेने दशे चांगadमां रत्नजति सुवर्णनी वींटी पहेरावी. ते वखते सकल संघनी समक्ष ते मलजाट बोली उठ्यो के, Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. अधिकं रेखया मन्ये, समरं सगरादपि ॥ कलौ म्लेच्छबलाकीर्णे, येन तीर्थं समुद्धृतम् ॥ १॥ ते सांजली तुष्टमान थला समराशाह शेठे तेने जीवितपर्यंत वरशासन करी प्युं. ११३ काराय प्रतिमां जैनी, पूजयंतीह चानिशं ॥ ये जनास्ते सुतं पूज्या, जवंति महतामपि ॥ १ ॥ अर्थ- जे माणसो जैन प्रतिमा करावीने या जगतमां हमेशां पूजे बे, ते तुरत महान पुरुषोने पण पूजनीक थाय बे. ते पर दृष्टांत कहे. जिनदासनी पुत्री हांसीनां गांधार नगरना रहेवासी केशवना पुत्र मुकुंद साथे लग्न कर्या हतां. लग्न कर्याबाद जान तेीने लेइने गांधार नगर प्रते चाली, छाने सेढी नदीने किनारे सर्व लोको जोजन माटे बेवा. त्यारे हांसीए कह्यं के, हुं जिनपूजा कर्याविना जोजन करती नथी. ते सांजली तेणीना देवरोए मरकरी थी नेवेल एकटी करीने तेीना माटे एक जिनप्रतिमा बनावी, तथा ते प्रतिमापर पत्रो ने पुष्पो चडावीने हांसीने तेनुं पूजन करवाने कयुं. तेणीए पण नमस्कारपूर्वक ते प्रतिमानुं जावी पूजन कर्यु ने त्यारबाद तेणीए जोजन कर्यु. तेज व खते तेना शीलमाहात्म्यथी ते प्रतिमा वज्रमय थने देवताथी अधिष्ठित इ. पक्षी ज्यारे त्यांथी जान चालवा लागी त्यारे ते अधिष्ठायक देवे सर्व गाडांटने यंत्री राख्यां. त्यारे ते लोको त्यां एक जिनमंदिर बंधावीने तेमां ते प्रतिमाने स्थापी, नेते प्रजाव जोड़ने सर्व लोको जैनधर्मी थया, तथा पनी सुखे समाधे गांधार नगरे तेन॑ पहोंच्या. हवे ते प्रतिमाने हमेशां त्यां १५ 2. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ उपदेशतरंगिणी. एक वृद्ध स्त्री पूजवा लागी, तथा तेनी पासे द्रव्यनी याचना करवा लागी. एक दहाडो तेणीनी जक्तिथी तुष्टमान यएला - धिष्ठायक देवे ते स्वप्नमां कह्युं के, तारे हमेशां हवेथी प्रजातमां व प्रतिमाना हाथमां रहेली एकेक सोनामोहोर लेवी. पीतेम करतां ते वृद्ध स्त्री पासे घणुं प्रव्य थयुं. एक दहाडो तेपीनी पडोशणे तेणीने पूजयं के, तारी पासे टलुं बधुं प्रव्य क्यांथी श्रव्यं ? ते सांजली ते डोशीए मुग्धपणाथी यथार्थ बात कही संजलावी. ते सांजली ने बीजे दिवसे ते पडोशण प्रजातमां वहेली त्यां जश्ने प्रतिमाना हाथमांथी सोनामोहोर लेवा लागी, तो ते सोनामोहोर तुरत ते प्रतिमाजीना हाथमांज चहोंटी गर, अने त्यारथी रूष्टमान थपला अधिष्ठायके पेली डोशीने पण सोनामोहोर पती बंध करी. हजुसुधि पण ते सोनामोहोर ते प्रतिमाजीना हाथमां चोंटेली मालुम पडे बे, वली त्यां जलयी दीवार्ड बले बे, छाने पखालनुं पाणी क्यां जाय बे ? ते मालुम पडतुं नथी. एम विचारी बीजा जन्य माणसोए प जिप्रतिमा राववी. हवे जैन पुस्तको लखाववा माटेनो उपदेश कहे . ये लेखयंति जिनशासनपुस्तकानि व्याख्यानयंति च पठंति च पाठयंति ॥ शृएवंति रक्षणविधौ च समाजियंते ते देवमर्त्यशिवशर्म नरा लनंते ॥ १ ॥ अर्थ- जे माणसो जिनशासननां पुस्तको लखावे बे, तेनी व्याख्या करे बे, जो बे, जावे बे, सांजले बे, तथा ते पुस्तकोनुं जे रक्षण करे बे, ते देवतानां, मनुष्यनां छाने मोहनां सुखो मेलवे बे. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी.. लेखयित्वा सदा शास्र, श्रोतव्यं च विचक्षणैः॥ निरंतरसुखमाप्त्य, प्रारंनादासमाप्तिकम् ॥१॥ अर्थ- हमेशां विचक्षण माणसोए शास्त्र लखावीने निरंतर सुखनी प्राप्ति माटे आद्यथी ते अंत सुधि सांजल. सद्झानांबुप्रपा धर्म- सत्रं पुस्तकवाचना॥ येन कार्येत तेनाप्न-मैहिकामुष्मिकं सुखम् ॥१॥ अर्थ- उत्तम ज्ञानरूपी पाणीना परब सरखं, तथा धर्मनी दानशाला सर, एवं पुस्तकोनुवांचq जे करें , तेणे था लोक अने परलोकसंबंधी सुख मेलव्युं . एषा शुन्ना पुस्तकदानशाला, नानाविधार्थावलिन्नोज्यमाला ॥ पूर्वर्षिनामामृतपूरपूर्णा, सदा सतां स्यात्सुखसेवनीया ॥१॥ अर्थ- विविध प्रकारना अर्थोनी श्रेणिरूपी लोजनोवाली, तथा पूर्वाचार्याना नामोरूपी अमृतना समूहथी: जरेली एवी आ पुस्तकरूपी दानशालाने सजानोए हमेशां सुखेथी सेववी. धर्मे यत्नः शुन्ना बुद्धिः, सारासारवनिर्णयः॥ हेयोपादेयविज्ञानं, संवेगोपशमौ श्रुते ॥१॥ अर्थ- सिद्धांतो जाण्याथी धर्ममा प्रयत्न थाय ने, उत्तम बुद्धि आवे , सारासारपणानो निश्चय थाय ने, हेयोपादेयंगें ज्ञान थाय ने, तथा बेवटे तेथी वैराग्य अने शांतता थायजे. श्रीधर्मघोष सूरिजीना उपदेषथी पेथडशाहे तेमना मुखथी श्रग्यारे अंगो सांजलवा मांड्यां, तेमां पांचमा अंग मध्ये ज्यांज्यां “गोअमाए" एवी रीतनो शब्द आवतो गयो, त्यां त्यां ते ना Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ उपदेशतरंगिणी. मथी आनंद पामीने दरेक नामे तेणे एकेक सोनामोहोर मुकी, ने एवी रीते ते बीस हजार सोनोमोहोरोथी ते गमनी पूजा करी, अने ते व्यथी तेणे सर्व शास्त्रो लखावीने जुगुकलादिक दरेक शेहेरोना भंडारमां राख्यां वली तेवीज रीते श्रीकुमारपाल राजा सातसो लैया राखीने व लाख ने बीस हजार गमो लखाव्यां बे. वली तेमणे दरेक: आगमनी बब प्रति तो सोनाना अक्षरोथी लखावी बे. हेमचंद्राचार्ये रचेलां व्याकरण तथा चरित्रादिक ग्रंथोनी तेमणे एकवीस एकवीस प्रतिर्ज लखावी बे. वधारे शं कहे ? सर्व दानोमां ज्ञानदान ति श्रेष्ठ वे एम ज्ञानीए कहेलुं बे. कह्युं बे के, ज्ञानाज्जयोपग्रहदाननेदा - तच्च त्रिधा सर्वविदो वदति ॥ तत्रापि निर्वाणपथप्रदीप ज्ञानस्य दानं प्रवरं वदंति १ हवे ते ज्ञानदान पुस्तकविना थइ शकतुं नथी, अने तेथी हमेशां नाविक श्रावको पुस्तक लखाववां ते युक्तज बे. लेखयंति नरा धन्या, ये जैनागमपुस्तकान् ॥ ते सर्ववाङ्मयं ज्ञात्वा, सिद्धिं यांति न संशयः १ - धन्य पुरुषो जैनागमनां पुस्तको लखावे बे, ते केवलज्ञान पामीने मोके जाय बे, तेमां संशय नथी. वली जिनागम लखावनारने या संसारमां पण कई कष्ट यतुं नथी. कांबे के, न ते नरा दुर्गतिमामुवंति, न मूकतां नैव जडस्वभावम् नैवांधतां बुद्धिविहीनतांच, ये लेखयंत्यागमपुस्तकानि १ अर्थ- जे लोको आगमोनां पुस्तको लखावे बे, ते दुर्गतिमां जता नथी, तेर्जने मुंगापणुं, मूर्खता, अंधपणुं, तथा निपी. ॥ १ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. पुस्तको लखाववां ए सर्व प्रकारनुं पुण्य करवारको कम ते पुस्तको धर्मनी दानशाला सरखां जे. जेम पर्युषण पर्वमां श्री कट्पसूत्र वांचवा सांजलवाथी श्रावको दान, पूजा, शील, तप विगेरेमां उद्यम करे बे, अने तेथी घणुं पुण्य मेलवे . वली पुस्तकविना पंडितपणुं पण प्राप्त अतुंनथी. जेम श्रीवस्तुपाल मंत्रिए सात क्रोड सोनामोहोरो खरचीने सुवर्णनी शाहीथी तथा मषीनी शाहीथी, ताडपत्रो अने उत्तम कागलोपर पुस्तको लखावीने सात सरस्वती नंडारो स्थाप्या हता, अने तेथी श्रीउदयप्रनसूरिजीए तेमने नीचेप्रमाणे आशिर्वाद थाप्यो हतो. • जंबधीपो जलधिपरिखानूषितो यावदास्ते ज्योतिष्चक्रं सुरगिरितटीं पर्यटत्येव यावत् ॥ यावत्कूर्मो वहति वसुधां त्वद्यशःपुंजसार्धं जीयाजैनं मुखमिव परं पुस्तकं वस्तुपाल ॥१॥ अर्थ- हे वस्तुपाल ! ज्यांसुधी समुघरूपी खाश्री जूषित श्रएलो आ जंबूधीप हयात ने, तथा आ ज्योतिष्चक्र ज्यांसुधी मेरुपर्वतना तटने भ्रमण करे , अने ज्यांसुधी काचबाए आ पृथ्वीने धारी राखी ने, त्यांसुधी आ श्री जिनेश्वर प्रनुना उत्तम मुख सरखं पुस्तक तमारा यशनी साथे जयवंतुं वरतो? एम विचारि बीजाईए पण पुस्तको लखाववां तथा ते पुस्तकोना रक्षणमाटे उंदरादिक जीवोना तथा जल अग्नि विगेरेना उपनवविनानां स्थानको बंधाववां. एम जाणी पुस्तको लखाववानो आदर करवो. कडं ने के, तैरात्मा सुपवित्रितः स्वजननं तैर्निर्मलं निर्मितं तैः संसारमहांधकूपपततां हस्तावलंबो ददे Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० . उपदेशतरंगिणी. दत्तं तैरिह सर्वसौख्यजननं सद्ज्ञानदानं नृणा श्रीसर्वचरित्रपुस्तकमहो ये लेखयंत्यादराता। अर्थ- जे माणसो आदरपूर्वक श्री सर्वज्ञ प्रजुर्जना चरित्ररूप पुस्तकने लखावे , तेजेए पोतानो आत्मा पवित्र करेलो ने, तेए पोतानो जन्म निर्मल करेलो ने, तेजेए संसाररूपी मोटा अंधारा कुवामां पढ़ता प्राणीउने हाथथी टेको आपेलो , अने तेए आ जगतमां सर्व सुख उत्पन्न करनारुं उत्तम ज्ञान- दान लोकोने आपेलु . ये तीर्थनाथागमपुस्तकानि, न्यायार्जिताथैरिह लेखयंति ते तत्वतो मुक्तिपुरोनिवास-. स्वीकारपत्रं किल लेखयंति ॥१॥ अर्थ- जे माणसो आ जगतमां पोतानां न्यायोपार्जित - व्यथी जिनेश्वर प्रजुना आगमोनां पुस्तको लखावे , ते तत्वथी ( जोश्य ) तो खरेखर मुक्ति पुरीना निवासनां स्वीकारपत्रो लखावे . _वली शान लणनार माणस हिंसादिकनो पण त्याग करे , अने तेथी तेने सुगति मले . कडं ने के न शुकः क्वापि मांसाशी, चत्वरे रामपाठतः यस्याभ्यासः श्रुतांऽशेपि, तस्य हिंसामति कुतः १ अर्थ- चौटावच्चे रामनो पाठ करनारो होवाथी पोपट को पण जगोए मांसनदी होतो नथी, केमके, ज्ञानना अंशनो पण जेने अन्यास होय , तेने हिंसाबुधि क्याथी होय? अहीं ज्ञानश्री केवा केवा फायदा श्राय ? तेपर चिलाती Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ११ पुत्र, रौहिणेयक, क्षुल्लककुमार, दरिनप्रसूरिजी सिद्धसेन दिवाकरादिकना दृष्टांतो जाणी लेवां. यदि गाथापदं चैकं, गुणाय महते जवेत् ॥ धन्यास्त एव ये ज्ञानं सम्यगाराधयत्यहो ॥ १ ॥ अर्थ - ज्यारे गाथानुं एक पद पण मोटा गुणमाटे थाय बे, त्यारे तेर्जनेज धन्य मानवा के, जे सम्यक् प्रकारे ज्ञानने राधे. यानपात्रसमं ज्ञानं, बुडतां जववारिधौ ॥ मोहांधकारसंहारे, ज्ञानं मार्तंडमंडलम् ॥ २ ॥ अर्थ - श्राजवरूपी समुद्रमां बुकता प्राणीने ज्ञान बे ते वहासरखुंबे, तेम मोहरूपी अंधकारनो नाश करवामां ते सूना मंडलसर बे. तृतीयं लोचनं ज्ञानं, द्वितीयो हि दिवाकरः ॥ अचौर्यहरणं वित्तं विनास्वर्णविभूषणम् ॥ ३ ॥ , अर्थ- ज्ञान बे ते त्रीजां लोचनसरखुं, बीजा सूर्यसरखुं, तथा चोरोथी पण न हराय एवां व्यसरखं श्रने सुवर्णविना श्रा - भूषणसरखं बे. लेखनीयमतो जैनं, शास्त्रं वाच्यं सुबुद्धिः ॥ श्रोतव्यमुत्तमैर्ज्ञानं तृतीयं नेत्रमिनिः ॥ ४ ॥ " अर्थ- माटे ज्ञानरूपी त्रीजा नेत्रनी इवावाला उत्तम बुद्धिवानू माणसोए जैनशास्त्रो लखाववां, वांचवां ने सांजलवां. ४ हवे नियमग्रहणनो उपदेश कहे बे. नियम ग्रहण करवाथी आलोक ने परलोकमां पण लान थाय बे. जेम वकचूल श्रावकने जाया फलच्या दिकनां नि Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० उपदेशतरंगिणी. यमो पोतानां श्रात्मानी रक्षा माटे थएलां बे. वली विमलना पुत्र कमले जो के उठ नियमो लीधां हतां, तो पण तेने ते नियमो महालाकारक निवडेलां बे. हवे नमस्कारस्मरणनो उपदेश कहे बे. विमुच्य निषां चरमे त्रियामा यामार्धमागे शुचिमानसेन ॥ दुष्कर्मरक्षोदमनैकदको, ध्येयस्त्रिधा श्री परमेष्ठिमंत्रः ॥ १ ॥ अर्थ - रात्रिना बेला अर्ध पहोरे निजा बोडीने शुद्ध चित्तश्री दुष्कर्मरूपी राक्षसने दलवामां समर्थ एवा पंच परमेष्ठी मंत्रने मन, वचन ने कायाथी ध्याववो. किं मंत्रयंत्रौषधिमूलिकाभिः किं गारुडस्वर्गमणींडुजालैः ॥ स्फुरति चित्ते यदि मंत्रराजपदानि कल्याणपदप्रदानि ॥ २ ॥ - जो मनमां कल्याणपद अपनाएं मंत्राधिराजनां पदो स्फुरायमान थइ रहेलां बे, तो मंत्र, यंत्र, औषधि, जमी बुटी गारुडी विद्या, चिंतामणि तथा इंद्रजालोनो पण शुं खप बे ? श्रीमन्नमस्कारपदानि सर्व सिद्धांतसाराणि नवापि नूनं आद्यानि पंचातिमहांति तेषु, मुख्यं महाध्येय मिहामनंति - नवे नमस्कारनां पदो खरेखर सर्व सिद्धांतोनां साररूप बे; तेमां पण पहेलां पांच पदो महान् बे, केमके, तेजनुं ध्यान श्रीं मुख्य कलंबे ॥ ३ ॥ · Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. पंचादौ यत्पदानि त्रिभुवनपति निर्व्याहृता पंचतीर्थी तीर्थाष्येवाष्टषष्टिर्जिनसमयरहस्यानि यस्याक्षराणि यस्याष्टौ संपदश्चानुपमतममहा सिध्योऽद्वैतशक्तिजयालोकयस्याभिलषितफलदः श्री नमस्कार मंत्रः ४ - जे नमस्कारना पहेलां पांच पदोने तो श्री जिनेश्वर प्रजुए पंचती थींरूप कह्यांबे, अने जेना अडसठ रोने जिनसिद्धांतना रहस्यरूप कहेला बे, अने तेनी आठ संपदाने तो पूर्व शक्तिवाली अनुपम महासिद्धिरूप कहेली बे, एवी रीतनो बन्ने लोकोमा इच्छित फलोने देनारो श्री नवकार मंत्र जय पामो पंचतायाः दणे पंच - रत्नानि परमेष्टिनाम् ॥ १२१ प्रास्ये दधाति यस्तस्य, सङ्गतिः स्याद्भवांतरे ॥ १ ॥ अर्थ- जे माणस मृत्यु समये परमेष्ठी नमस्कार रूप पांच रत्नोने पोताना मुखमां धारण करे बे, तेनी जवांतरमां सजति थाय. याताः प्रयांति यास्यति, पारं संसारवारिधेः ॥ परमेष्ठिनमस्कारं, स्मारं स्मारं घना जनाः ॥ १ ॥ अर्थ - परमेष्ठि नमस्कारनुं स्मरण करीने घणा माणसो संसाररूपी समुना पारने पहोंच्या बे, पहोंचे बे, तथा पहोंचशे. सिंहेनेव मदांधगंधकरिणो मित्रांशुनेव दिपाध्वांतौधो विधुनेव तापततयः कल्पणेवाधयः ॥ तार्क्ष्यणेव फणानृतो घनकदंबेनेव दावाग्नयः सत्वानां परमेष्ठिमंत्रमहसा वल्गंति नोपश्वाः ॥१॥ अर्थ- सिंहथी जेम मदोन्मत्त गंधहस्ती, सूर्यना किरणथी जेम रात्रिसंबंधी अंधकारनो समूह, चंद्रथी जेम तापनी श्रेणिर्ड, कल्पवृक्षथी जेम श्रधि, गरुरुथी जेम सर्पो ने वरसादना १६ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ उपदेशतरंगिणी. समूहथी जेम दावानटो तेम परमेष्ठिमंत्रना तेजश्री प्राणीउने उपनवो वृद्धि पामता नश्री. संग्रामसागरकरींपनुजंगसिंह उर्व्याधिवहिरिपुबंधनसंन्नवानि ॥ चौरग्रहन्नमनिशाचरशाकिनीनां नश्यंति पंचपरमेष्ठिपदैर्नयानि ॥१॥ अर्थ- पंच परमेष्ठिना पदोथी, सांग्राम, समुज, हाथी, सर्प, सिंह, सुर्व्याधि, अग्नि, शत्रु, बंधन, चोर, ग्रह, चम, राक्षस, के शाकनीना लयो नाश पामे . ध्यातोऽपि पापशमनः परमेष्ठीमंत्र: किं स्यातपःप्रबलितो विधिनाचितश्च ॥ उग्धं स्वयं हि मधुरं कथितं तु युक्त्या ___ संमिश्रितं च सितया वसुधासुधेव ॥१॥. __ अर्थ- परमेष्ठीमंत्र ते ध्यान. धरवाथी पण पापोने उपशमावनारो ; त्यारे तेने जो तपथी बलवान को होय, अने विधिपूर्वक ते मंत्रने जो पूज्यो होय, तो तो पगी तेना माहात्म्यनी वातज शुं करवी ? केमके, उधने स्वनावधीज मधुरं तो कयुं श्रने तेमां जो साकर मिश्रित करवामां आवे, तो तो ते श्रा जगतमां अमृतसरखंज . मंताणमंतो परमोश्मुति,धेयाणधेयं परमंश्मुति ॥ तताणततं परमं पवितं, संसारिसताणउहाहयाणं १ .. अर्थ-श्रा नवकार मंत्र, सर्व मंत्रोमां परममंत्ररूप, सर्व ध्यानोमां परमध्यानरूप, सर्व तत्वोमां परमतत्वरूप, तथा संसारथी तारनारो, अने मुःखोने हरनारो . Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १२३ ताणं अन्नं तु नो अस्थि, जीवाणं नवसायरे ॥ बुमुताणं श्मं मुतं, नवकारं सुपोयणं ॥१॥ अर्थ-श्रा नवरूपी समुजमां बुडता जीवोने आ उत्तम नवकारमंत्रशिवाय बीजं पण कोइ पण शरणुं नथी. अणेगजम्मंतरसंचिआणं, उहाणसारीरियमाणसाणं ॥ कुतो अन्नघाणहविज नासो, न जाव पत्तो नवकारमंतो ॥१॥ अर्थ- ज्यांसुधी नवकार मंत्र प्राप्त भयो नथी, त्यांसुधी अनेक नवोमां संचय अएलां एवां शरीर अने मन संबंधी मुःखोनो नाश क्याथी थाय? हर उहं कुण सुहं, जण जसं सोसए नवसमुदं • इहलोए परलोए, सुहाणमूलं च नवकारो॥१॥ अर्थ- नवकार मंत्र जे ते पुःखने हरे , सुख करे , जश . उत्पन्न करे , लवरूपी समुत्रने शोषे , तेम आ लोक अने परलोकमां पण सुखोनुं मूल नवकारमंत्रज बे. आसतां मनुजा दूरे, तिरश्चामपिनिश्चितम् ॥ मंत्रोऽसौ सातिं दते, प्रांतकाले स्मृतोऽपिहि ॥१॥ अर्थ- मनुष्यो तो एक बाजु रहो, पण तिर्यंचोने पण आ नवकारमंत्र, मृत्यु समये स्मरण करवायी खरेखर सजति श्रापे. जिणसासणस्स सारो, चनदस्स पुवाण जो समुधारो॥ जस्स मणे नवकारो, संसारो तस्स किं कुण॥१॥ अर्थ- जिनशासनना एक साररूप, तथा चौदे पूर्वना उचा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ उपदेशतरंगिणी. ररूप एवो आ नवकार मंत्र जेना मनमां वसी रहेलो , तेने श्रा संसार शुं करवानो हतो? एसो मंगलनिलज, नवविल सयलसंतिजणअ॥ नवकारपरममंतो, चिंतिएअमितो सुहं दे॥२॥ अर्थ-श्रा नवकारमंत्र परम मंगलरूप, नवोनो नाश करनारो, सर्व शांतिने उत्पन्न करनारो, अने चिंतित सुख देनारो . आ नवकारमंत्रना माहात्म्यवाला राजसिंह, रत्नवती आदिकनां दृष्टांतो षमावश्यकमां प्रसि जे. तेम आ कालमां पण ते नवकारनो महिमा दृष्टिए पडे . तेपर कथा कहे . द्याव नामना गाममां सीमाक नामे एक शेठ वसतो हतो. एक दहाडो तेने को मंत्रवादी योगी मट्यो. तेने ते शेरे दीरनुं लोजन कराव्यु, तेथी ते मंत्रवादी योगीए तेने कर्वा के, हे श्रेष्ठि! तारे जो कई कार्य होय तो मने कहे, के जेथी मारी मेंत्रशक्तिथी हुँ तारो मनोरथ संपूर्ण करं. ते सांजली शेठे कर्तुं . के, हे योगीं! मने अष्टापदपर्वतपर जवानो मनोरथ ने. ते सांजली योगीए एक पाटलो चंदनादिकथी पूज्यो, अने पोताना अमोघ मंत्रथी तेने मंतों. पठी शेठ तेपर जेवो बेगे के, तुरत ते पाटलो आकाशमार्गे उडवा लाग्यो, अने मध्यान्हकाले श्रष्टापदप्रते पहोंच्यो. ते वखते त्यां सूर्यना अत्यंत उषणकीरणोथी ते शेग्ने बहु ताप लागवा मांड्यो, पण ते पाटलो त्यांथी यागे हठ्यो नहीं. ते जो शेठे मृत्युनो नय विचारि नमस्कारमंत्रस्मरण कर्यु, अने ते मंत्रना प्रजावथी ते पाटलो पागे आकाशवाटे उडीने ते योगी पासे शेठसहित आव्यो. ते जो योगीए कडं के, में हजु पाटलो पागे आववानो तो मंत्र कह्यो नथी, बतां ते केम श्राव्यो? त्यारे शेरे कह्यु के, में नवकारमंत्रनो जाप कर्यो, तेथी ते पागे आव्यो ने ते सांजली ते योगीए पण Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १२५ त्यारथी नमस्कार मंत्र जपवा मांड्यो, अने तेथी ते तेने सर्व नवकारमंत्रना माहात्म्यपर सिद्धि करनारो थयो . एवी रीते बीजां दृष्टांतो पण जाणी लेवां. वे न्यायनीतिनो उपदेश कहे. न्यायमार्ग सेववाथी लोक ने परलोकमां पण यश, कीर्ति, प्रतिष्ठादिक लानो थाय बे, तथा सति मलेबे. कहां बेके, यांति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यचोऽपि सहायताम् ॥ पंथानं तु गच्छंतं, सोदरोऽपि विमुञ्चति ॥ १ ॥ अर्थ - न्यायमार्गे चालनार माणसने तिर्यचो पण सहाय करेबे, अन्यायमार्ग चालनार माणसने सगो जाइ पण तजी पेढे. पंचेंद्रियनो निग्रह, प्रतिक्रमण, सामायिक, तथा पौषध, अने पुष्कर एवी प्रतिमादिक वह्याश्री मोटो लान थायडे. इंजिन विषयो खरेखर अनर्थ करनारा बे. कां वे के, , कुरंगमातंग पतंग भृंग मीना हताः पंचभिरेव पंच ॥ एकः प्रमादी स कथं न हन्यात्, यः सेवते पंचभिरेव पंच ॥ १ ॥ अर्थ- हरिण, हाथी, पतंग, चमर तथा मत्स्यो अनुक्रमे श्रोत्रेंड, स्पर्शेषि, नयनेंद्रि, घ्राणेंषि तथा रसेंजिना लोलुपीपपाथी हणाला, तो जे प्रमादी माणस ते पांचे इंडियाने लोलुपी इने सेवेबे, ते केम हणाय नहीं ? चतुर्दग्धं परस्त्रीजि, हस्तौ दग्धौ प्रतिग्रहैः ॥ जिह्वा दग्धा परान्नेन, गतं जन्म निरर्थकम् ॥१॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ उपदेशतरंगिणी. अर्थ- जेनी आंखो परस्त्रीने ( जोवाथी ) दग्ध थएली ने, जेना हाथो चोरी करवाथी दग्ध थएला , तथा जेनी जीहापरना अन्नथी दग्ध श्रएली , तेनो जन्म निरर्थक गयेलो . ___एवी रीते वैराग्यनी वासनावालो प्राणी शुन्न गतिने मेलवे; अहीं प्रदेशी राजादिकनां दृष्टांतो लावी लेवां. हवे चतुर्विध श्रमणसंघनी नक्तिपूजानो उपदेश कहे. रलेषुचिंतामणिरत्नयघ-सारस्तरूणामिव कल्पवृक्षः॥ देवेषु सर्वेष्वपि वीतराग-स्त सुपात्रेषु सुसाधुसंघः॥१॥ अर्थ- रत्नोमां जेम चिंतामणिरत्न उत्तम , तथा वृक्षोमां जेम कल्पवृक्ष उत्तम ने, तथा देवोमां पण जेम वीतराग प्रनु उत्तम ने, तेम सुपात्रोमां श्रमणसंघ उत्तम बे. ज्ञानादिनिश्शेषगुणोघरत्ना करे च बिंजरिवानसोऽतः ॥ संघे नियुक्तो निजवितलेशः, स्याददयः दीपपरिदयेऽत्र ॥१॥ अर्थ- ज्ञानादिकरूप सर्व गुणोना समूहरूपी रत्नोना समूहवाला एवा संधमां, जलना बिंनी पेठे नाखेढुं पोतानुं अल्प अव्य पण अक्ष्य प्राय . श्री श्रमणसंघने रत्नाकरनी उपमा युक्तज जे. कडं ने के, पंचपरमिहिरयणाई, बहुमलाई जस्स मज्जंमि ॥ उपाँति सया विहु, स संघरयणायरो जयन ॥१॥ - अर्थ- जे संघरूपी रत्नाकरमांथी पंचपरमेष्ठीरूप अमूस्य रत्नो उत्पन्न थाय , ते संघरूपी रत्नाकर हमेशां जयवंतो वर्तो, श्रमणसंघ ने ते पचीसमा तीर्थकररूप ने, केमके, तेने सर्व तीर्थकरो पण नमस्कार करे. कडुं ने के, Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. लोकेभ्यो नृपतिस्ततोऽपि हि वरश्चक्री ततो वासव: सर्वेभ्योऽपि जिनेश्वरः समधिको विश्वत्रयीनायकः ॥ सोऽपि ज्ञानमहोदधिः प्रतिदिनं संघं नमस्यत्यहो वजस्वामिवउन्नतिं नयति तं यः स प्रशस्यः दितौ॥१॥ अर्थ- लोकोथी उत्तम राजा, तेथी उत्तम चक्री, तेथी जत्तम इंज, अने ते सर्वथी उत्तम त्रणे जगतना नायक श्री जिनेश्वर प्रनु बे; एवा झानना दरिया सरखा जिनेश्वर पण हमेशां जे संघने नमे , ते संघनी वज्रस्वामीनी पेठे जे उन्नति करे , ते जगतमां प्रशंसनीय थाय जे. (अहीं संघनी जक्तिपर श्री वज्रस्वामिनो समस्त प्रबंध वांची लेवो.) पुत्रजन्मविवाहादि-मंगलानि गृहे गृहे ॥ परं नाग्यवतां पुंसां, श्रीसंघा_दिमंगलम् ॥१॥ अर्थ- पुत्रजन्मनां तथा विवाहादिकनां मंगलो तो घरे घरे होय , पण श्री संघनी पूजादिकनुं मंगल तो लाग्यवान पुरुषोनेज घेरं होय . रुचिरकनकधारा प्रांगणे तस्य पेतुः, प्रवरमणिनिधानं तगृहांतः प्रविष्टं ॥ अमरतरुलतानामुशमस्तस्य गेहे, नवनमिह सहर्ष यस्य पस्पर्श संघः॥१॥ अर्थ- आ जगतमा जे माणसना घरने संघे स्पर्श करेलो ने, तेना आंगणामां मनोहर सुवर्णधारा पमेली बे, अने उत्तम मपिउनु निधान ते माणसना घरमां दाखल थयुं , तथा तेने घेर कट्पवती जगेली . Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० उपदेशतरंगिणी. श्रा हेतुश्रीज श्री वस्तुपाल मंत्री दरेक वर्षे त्रणवार संघनी पूजा करता हता. कडं ने के, एकं वासः सुरेशैः कृतसुकृतशतैर्जन्मकाले जिनानां दतं दीदादणे वा ध्वजवसनमथो एकमेवांबरं च ॥ सूर्यादीनां ग्रहाणांपुनरपिविधिना दतमस्मिन दणेऽसौ श्रीसंघे नूरि यचन्नधरितसुरपो दानदाता स मंत्री ॥१॥ अर्थ- करेलां ने सेंकमो गमे सुकृत जेए एवा इंस्रोए जिनोना जन्म वखते एकज वस्त्र आप्युं ने, तथा दीदा वखते पण एकज वस्त्र आप्यु , तेम ब्रह्माए सूर्या दिक ग्रहोने पण एकज अंबर-वस्त्र (आकाश) आप्यु , पण आ वस्तुपाल मंत्रीए तो संघप्रते घणां वस्त्रो देश्ने इंशादिकोथी पण पोतानी कीर्ति वधारी जे. ते दान देती वखते वस्तुपाले कयुं हतुं के, कदा किल नविष्यति, मगृहांगणनूमयः॥ श्रीसंघचरणांनोज-रजोराजिपवित्रिताः॥१॥ अर्थ- श्री संघनां चरणकमलोनी रजोनी श्रेणिश्री मारा घरना आंगणानी नूमि हवे क्यारे पवित्र थशे ? ___एम विचारिने लाग्यवान पुरुषे पोतानी शक्तिमुजब दरवर्षे श्री श्रमणसंपनी पूजा करवी. अर्हतामपि मान्योऽयं, पूज्यः पुण्यवतामपि ॥ सेव्यः सुरासुरेशानां, संघः पूज्यस्ततो बुधैः ॥१॥ अर्थ- आ संघ श्री अरिहंत प्रनुउने पण माननीक , तेम । पुण्यवानोने पण पूजनीक , वली देव अने दानवोना इंशोने पण सेवनीक ने, माटे बुद्धिवान माणसोए संघने पूजवो. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १२ए संघः सगुणसंघसंहतिकरः संघो जिनैवैदितः संघः शासनवृधिहेतुरसकृत्संघः सतां मुक्तिदः॥ तनत्या विहितं जुजार्जितधनैः संघस्य यैः पूजनं किंतै मन पूजितं सुकृतिनिः किं वा न लब्धंफलम अर्थ- संघ ने ते उत्तम गुणोना समूहने करनारो , तीर्थकरोथी वंदाएलो , हमेशां शासननी वृधिनो हेतु बे, तथा उत्तम माणसोने मुक्ति उपजावनारो ने, एवी रीतना संघ- पोतानी नुजाथी उपार्जन करेलां धनथी जे माणसोए पूजन करेलुं , ते पुण्यशालीउए शुं पूज्युं नथी? तथा शुं फल मेलव्युं नथी? अर्थात् सर्व मेलव्युं . . संघनी पूजा वस्त्र, पात्र, अलंकार तथा तांबूल आदिक नेदोथी चार प्रकारे कराय जे. कां ने के, न्यायोपातैः सितैर्वस्त्रैः, संघमभ्यर्चयंति ये॥ तोहपंजरे लक्ष्मी, कुरुते सारिकाव्रतम् ॥१॥ अर्थ- जे माणसो न्यायथी उपार्जन करेलां एवां निर्मल वस्त्रोथी संघनी पूजा करेने, तेना घररूपी पांजरामां लक्ष्मी मेनानीपेठे श्रावीने रहेजे. यजन्मैव गुणास्पदं जगति यबृंगार आद्यो नृणा शीतोष्णाद्यमुपवं हरति यन्निर्लजन्नावापहम् ॥ मासादध्वजकैतवादिव सुरैरारोप्यते मूर्ध्नि यत् तहेयं गुरवे विशुधवसनं धन्यैः सुपुण्यात्मने ॥१॥ अर्थ- जे वस्त्रनो जन्मज गुणोथी ( तंतुथी), तथा जे माणसोनो मुख्य शंगार , तथा जे वस्त्र ठंडी तथा तापादि Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. कना उपप्रवने हरे , वली जे निर्लजताना नावनो नाश करे बे, वली जे वस्त्रने देवो पण प्रासादपर रहेली ध्वजाना मिषधी मस्तके धरे , एवं पवित्र वस्त्र पुण्यशाली गुरुने आपq. पतगृहादिकं पात्रं, देयं योग्यं सुसाधवे ॥ संसारसागरोतार-हेतवे धातुवर्जितम् ॥१॥ अर्थ- संसाररूपी समुश्री तरवामाटे धातुविनानुं योग्य पात्र उत्तम साधुने समर्पण करवं. पट्टकूलादिवासांसि, स्वर्णादितिलकानि च ॥ साधर्मिकाणां सम्यक्त्व-शुद्ध्यै देयानि नावतः॥ अर्थ- सम्यक्त्वनी शुधिमाटे साधर्मिक लोकोने लावधी पट्टकूदादिक वस्त्रो तथा स्वर्णादिकना तिलको देवां. कर्वा ने के, साहमियंमि पते, घरंगणे जस्स हुइ नेहो ॥ जिणसासणन्नणियमिणं, सम्मते तस्स संदेहो ? अर्थ- घेरने आंगणे स्वामीलाइ आव्या उतां पण, तेनापर जेने स्नेह थतो नथी, तेना सम्यक्त्वमां संदेह ने, एम जिनागमोमां कहेलुं बे. रुप्यस्वर्णादिकैष्टंकैः, क्रमुकैः शुन्नन्नावतः ॥ नागवबीदलैर्देयं, तांबूलं श्रावकैः सदा ॥१॥ अर्थ- श्रावकोए हमेशां शुल लावधी रूपाना तथा सुवर्णना सिक्कासहित, सोपारीसाथे नागरवसीना पानोनुं तांबूल आपq. एवी रीतना प्रकारोथी विवेकी माणसोए संघनी पूजा करवी. यः ससारनिरासलालसमतिर्मुक्त्यर्थमुत्तिष्ठते यं तीर्थ कथयति पावनतया येनास्ति नान्यः समः॥ . Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. . १३१ यस्मै तीर्थपतिर्नमस्यति सता यस्माबुनं जायते। स्फुर्तिर्यस्य परावसंति च गुणा यस्मिन्स संघोऽर्थ्यताम॥ अर्थ- जे संघ संसारथी विरक्त बुद्धिवालो थश्ने मुक्तिमाटे प्रयत्न करे ने, तथा जेने पवित्रपणाथी तीर्थरूप कहे , तथा जेनासमान बीजो कोइपण नथी, वली जे संघने तीर्थकर प्रनु पण नमस्कार करे , तथा जेथी बुद्धिवानोने कल्याण थाय ने, वली जे संघनी प्रख्याति ने, तथा जेनामां गुणो वसी रह्या ने, ते संघनी पूजा करवी. नावार्थ- आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, श्रावक अने श्राविकारूप एवो जे संघ, क्रिया, ज्ञान, दर्शन, दान, शील, तथा तपादिक रूप पुण्योथी मुक्तिमाटे उद्यम करे , वली जे संघने महान् शषि उत्कृष्ट तीर्थरूप गणे , वली आ आर्यदेशमां उत्पन्न वाथी ते संघसमान बीजो कोइ पण नथी. केमके, सुप्रव्य, सुकुलमा जन्म, सिपत्र, समाधि, अने संघ ए पांचे सकारो पुर्खन कह्या . वली धर्म देशना देती वेलाए “ नमो तिथ्थस्स" एम कहीने श्री तीर्थकर प्रनु पण ते संघने नमस्कार करे बे. वली ते संघश्रीज जिनप्रासाद, जिनप्रतिमा, तीर्थयात्रा, पदप्रतिष्ठा, स्वामिवात्सत्य, दान शालार्ड, अमारी पटह विगेरे मांगलीकना कार्यों थाय जे. वली ते संघनो महिमा पण मोटो जे, केमके, राजा जेवा पण संघनी आज्ञा पोताना मस्तकोपर चडावे , अने तेनी विराधना करता नथी. वली जे संघनी सामे थइ उलटी रीते चाले ने, तेढ गई जिसराजा तथा नमुचीप्रधान आदिकनीपेठे मुःख पामे बे. वली तेज संघमां दान, शील तथा सत्यादिक गुणो वसी रहेला बे. एवी रीतना महा प्रनाविक संघने वस्तुपालमंत्रीनी पेठे पुण्यशालीए लो Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ उपदेशतरंगिणी जन, पान, खादिम, स्वादिम आदिक आहारोथी, तथा विविध प्रकारना वस्त्रो, पात्रो तथा आजूषणो आदिकथी सत्कारपूर्वक पूजवो. कडं ले के, चौलुक्यः परमार्हतो नृपशतस्वामी जिनेशाज्ञया निग्रंथस्य जनाय दानमसमं न प्राप जाननपि ॥.. संप्राप्तस्त्रिदिवं स्वचारुचरितैः सत्पात्रदानेन्छया वजूपोऽवततार गुर्जरनुवि श्रीवस्तुपाल ध्रुवम् ॥१॥ अर्थ- हे वस्तुपालमंत्री ! परम जैनधर्मी, तथा सेंकडो गमे राजाउँनो अधिकारी एवो चौलुक्यवंशनो राजा कुमारपाल जिनेप्रजुनी आज्ञाथी जाणता उतां पण साधुलोकने घणुं दान दश् शक्यो नहीं. ( राजपिंड जैन मुनि ने लेवो कटपे नहीं, एम श्री जिनेश्वरप्रनुए जिनागमोमां कहेलुं .) बेवटे पोताना मनोहर आचरणोश्री ते देवलोकमां गयो, पण सुपात्रोप्रते दान देवानी पोतानी श्वाश्री ते तमारं रूप करीने खरेखर आ गुर्जर नूमिमां पागे अवतरेलो होय एम नासन थाय बे. (आवी रीते कोश्क कविए वस्तुपालमंत्रीमाटे उत्प्रेदा करेली .) रत्नानामिव रोहणः दितिधरः खं तारकाणामिव स्वर्गः कटपमहीरुहामिव सरः पंकेरुहाणामिव ॥ पाथोधिः पयसां शशीव महसां स्थाने गुणानामसावित्यालोच्य विरच्यतां नगवतः संघस्य पूजाविधिः॥२॥ अर्थ- रत्नोलुं स्थानक जेम रोहणाचल पर्वत , ताराउनु स्थानक जेम आकाश में, कटषवृदोनुं स्थानक जेम स्वर्ग मे, . कमलोनुं स्थानक जेम तलाव , पाणीनुं स्थानक जेम समुज ने, · तथा तेउन स्थानक जेम चंज , तेम आ संघ, विनयादि अ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १३३ नेक गुणोनुं स्थानक , एम विचारीने आ लाग्यवान संघनी पूजाविधि करवी. यन्नक्तेः फलमर्हदादिपदवी मुख्यं कृषेः शस्यवत् चक्रिवत्रिदशेस्तादि तृणवत प्रासंगिकं गीयते ॥ शक्तिं यन्महिमस्तुतौ न दधते वाचोऽपि वाचस्पतेः संघः सोऽघहरः पुनातु चरणन्यासैः सतां मंदिरम॥१॥ ___ अर्थ- खेतीमांथी जेम धान्य, तेम जे संघनी नक्तिनुं मुख्य फल अरिहंतादिकनी पदवी ने, तथा चक्रीपणुं अने इंजपणुं तो खेतरमां उगतां घासनी पेठे प्रासंगिक , वली जे संघना माहात्म्यनी स्तुति करवामाटे बृहस्पतिनी वाणी पण समर्थ नथी, एवो पापोने हरनारो ते संघ पोताना चरणन्यासोथी सजानोनां घरने पवित्र करो ? हवे ते संघवात्सट्यपर दृष्टांत आपे ले. एक दहाडो श्री हेमचंजाचार्य शाकंजरी नगरीमां पधार्या ते नगरमां एक धनाशा नामे निर्धन श्रावक रहेतो हतो. तेणे पोताने शीयालामा उढवामाटे, पोतानी स्त्रीने हाथे सुतर कंतावीने तेनो एक जाडो चोफाल बनान्यो हतो, पण नाव आववाथी तेणे ते चोफाल श्री हेमचंजसूरिजीने वोराव्यो. पठी ज्यारे ते हे. मचंत्राचार्य पाटणमां पधार्या त्यारे कुमारपालादिक बहोतेर राजाउँ तथा कुबेर आदि अढार हजार श्रावको पोतपोतानी शझिसहित तेमनी सामे आव्या. ते वखते आचार्यजीए पोताना शरीरपर तेज जाडो पाणकोरांनो चोफाल उढ्यो हतो. ते जो कुमारपाल राजाए तेमने कह्यु के, हे लगवन् ! श्राप मारा गुरु श्रश्ने आवां निर्मात्य वस्त्रो पहेरो बगे, तेथी मने खजा श्राय Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ उपदेशतरंगिणी. ने. ते सांजली हेमचंज महाराजे तेमने कयु के, हे राजन! तमो आ पृथ्वीपर राज्य करोगे, अने तमारा आ वस्त्रदान देनारा साधर्मी श्रावको ज्यारे महा मुशीबने पोतानुं गुजरान चलावे बे, तेथी तमोने शुलजा नथी थती? अमो निस्पृही मुनि तो जो सामान्य वस्त्रो पेहेरीयें तोज अमारी गुरुना जलवाइ रहे . केमके सर्वज्ञ प्रजुए पण कडं ने के, त्यक्तसंगो जीर्णवासा, मलक्तिन्नकलेवरः॥ . नजन माधुकरी वृत्तिं, मुनिचर्या कदाश्रयेत् ॥ १॥ ते सांजली कुमारपाल राजाए अनिग्रह सीधो के, आजथी हवे मारे दरवर्षे स्वामिवात्सल्य करवू, अने निराधार श्रावकने दरवर्षे मारे दरवर्षे हजार सोनामोहोरो आपवी. एवी रीते दान देतां थकां तेने वर्षनी एक क्रोड सोनामोहोरो जोश्ती इती अने चौद वर्षा दरम्यान तेणे एवी रीते चौद कोड सोनामोहोरो साधर्मी नाळने आपी. कल्पोर्वीरुहसंततिस्तदजिरे चिंतामणिस्तत्करे लाध्या कामधानघा च सुरनी तस्यावतीर्णा गृहे ॥ त्रैलोक्याधिपतित्वसाधनसहा श्रीस्तन्मुखं वीदते संघो यस्य गृहांगणं गुणनिधिः पादैः समाजामति॥१॥ अर्थ- गुणोना जंडाररूप एवो संघ जे माणसना घरना आंगणामां आवे , तेना आंगणामां कल्पवृदोनी श्रेणि उगेली ने, तेना हाथमां चिंतामणि रत्न आवेढुंचे, तेने घेर मनोहर कामधेनु उतरेली , तथा त्रणे लोकना अधिपतिपणाने सूचवनारी लक्ष्मी तेनी सन्मुख जुए . ( हवे तेपर दृष्टांत कहे .) तपगड नायक श्री सोमतिलकसूरि एक वखते सुरगिरिमांशा. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १३५ जगसिंहना घरमां तीर्थंकर प्रजुने नमवा माटे गया. ते वखते तेमना उपदेशथी जगसिंह शेठे सातसो सोनामोहोरो खरची ने संघने तांबूल प्यां तां वली विशलशाहनी स्त्री खीमाबाईए श्री सोमसुंदरजी महाराजना उपदेशथी सर्व देशोना श्रावकोने साकरनी लाणी करी हती. एव ते हीं संघपूजापर बीजां पण प्राचीन ने अर्वा - चीन दृष्टांतो पोतानी मेलेज वांची लेवां. हवे साधर्मिक वात्सल्यनो उपदेश कहे बे. साधर्मिकाणां वात्सल्यं, जोजनाच्छादनादिभिः ॥ यस्तनोति नरो जावात्, तजन्म सफलं भवेत् ॥ १ ॥ अर्थ- जे माणस जावथी जोजन तथा वस्त्रादिकोथी साधर्मी लोकोनुं वात्सल्य करे बे, तेनो जन्म सफल थाय à. कहां वे के, न कयं दिणूकरणं, न कयं साहम्मिप्राणवचलं ॥ हिययंमि वीरा, न धरिउ हारिज जम्मो ॥ १ ॥ अर्थ- जेणे दीन लोकोनो उच्चार कर्यो नथी, तथा जेणे स्वामिवात्सल्य कर्यु नथी, तेम जेणे हृदयमां श्री वीतराग प्रभुने धार्या नथी, ते पोतानो जन्म फोकट गुमाव्यो बे. हवे ते साधर्मिकवात्सल्य जावना वशथी अनेक प्रकारनुं बे. जेम प्रति उपकारनी हाथी मोटा शाहुकारोने जोजन प शाहवात्सल्य कवाय बे. दुर्जनादिकोने जयश्री जोजन - पवं ते सांडवात्सल्य कहेवाय बे. मात पिता, तथा श्वसुरपक्षादिकना स्वजनोने प्रीति श्रादिकनी वृद्धिमाटे जे जोजन दान देवुं, ते स्वजनवात्सल्य कहेवाय बे. पण ते त्रणे दानोमां धर्मबुद्धिनो Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ उपदेशतरंगिणी. अन्नाव होवाथी ते दानो निरर्थक ने. सार्थक दान तो ते कहेवाय के प्रति उपकारनी श्वाविनाज फक्त धर्मबुद्धिथी पैसादार अने गरीब एवा साधर्मी जाने जेद राख्याविना सन्मानपूर्वक उदार चित्तथी जे दान देवू. अने तेज दान महा लाजकारी थाय जे. कडुं ने के, मिथ्यादृष्टिसहस्रेषु, वरमेको ह्यणुव्रती ॥ अणुवृत्तिसहस्रेषु, वरमेको महाव्रती ॥१॥ अर्थ- हजारो गमे मिथ्यादृष्टिमां एक अणुव्रतधारी श्रेष्ठ ने, अने हजारो गमे अणुव्रतीउमां एक महाव्रतधारी श्रेष्ठ जे. महाव्रतिसहस्रेषु, वरमेको हि ताविकः ॥ तात्विकसमं पात्रं च, न नूतं न नविष्यति ॥१॥ अर्थ- हजारो गमे महाव्रतिमां एक तत्ववेत्ता श्रेष्ठ ने, तत्ववेत्तासमान सुपात्र अयुं नथी, अने अशे पण नहीं. __ जम नरतचक्रीए बारव्रतधारी श्रावकोने तेउनी उलखाणमाटे काकीणी रत्नथी बार तिलको कर्या हतां, अने बेक जीवितपर्यंत तेमणे साधर्मीवात्सल्य कयु हतुं. वली तेवीज रीते संप्रति राजाए त्रिखंग जरतक्षेत्रमा दरेक गामे स्वामिवात्सल्य कयु . बली वढवाणना रहेवासी एवा रत्न नामना एक श्रावकपासे दक्षिणावर्त शंख हतो, ते शंखे तेने एक दहाडो स्वप्नमां कडं के, हवे हुँ वस्तुपालपासे जवानो वं. ते सालली तेणे बहुमानपूर्वक तेने सात दिवसोसुधि राख्यो. एटलामां सात लाख माणसो सहित वस्तुपाल त्यां संघ कहाडीने शजय जतां आवी पहोंच्या. त्यारे ते रत्न श्रावके ते संघने अत्यंत आदरमानथी लोजन करावीने ते शंख वस्तुपालने सोंप्यो. ते रत्नश्रावकनुं वृत्तांत चतुविशति प्रबंधथी जाणी लेवं. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. . १३५ सिधिपुरंध्रीवरणं, श्रावकधर्मश्रियो वरान्तरणम् ॥ कृतजिनमतसाफल्यं, रचयत साधर्मिकेषु वात्सख्यम् ॥ अर्थ- मोक्षरूपी स्त्रीसाथे वरावनालं, श्रावकधर्मनी खमीना उत्तम आजूषण सरखू तथा जिनमतने सफल करनारं, एवं साधर्मिकवात्सल्य करो ? नागपुर नामना नगरमां पूनम नामे एक महा धनाढ्य श्रावक वसतो हतो. तेने मौजुद्दीन बादशाहनी बीबी प्रेमकलाए पोतानो लाइ कर्यो हतो. तेणे विक्रम संवत १२७३ मां पेहेली शत्रुजयनी यात्रा करी हती. पनी विक्रम संवत १२८६ मा तेणे बीजीवार यात्रा करी. ते वखते तेनीसाथे संघमां १७०० गाडा तथा केटलाक मांडलिको पण हता. पनी ते पूनम श्रावक संघसहित ज्यारे धोलकापासे आव्यो त्यारे वस्तुपाल अने तेजपाल मंत्री तेनीसामे गया. ते समये पवनथी जेजे दिशामा संघनी रज उमती हती, ते ते दिशातरफ ते मंत्रि: जवा लाग्या. ते जो बीजा माणसोए तेउंने कह्यु के, हे मंत्रीराज ! ते बाजु तो घणी रज उडे , माटे तमो आतरफ आवो ? त्यारे मंत्रीए कह्यु के, आ रजनो स्पर्श तो पुण्योथी थाय . ते रजनो स्पर्श कर्मोनो नाश करे . कह्यु के, श्रीतीर्थपांथरजसा विरजीनवंति, तीर्थेषु च ब्रमणतो न नवे ब्रमति ॥ व्यव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्युः, पूज्या नवंति जगदीशमथार्चयंतः ॥१॥ अर्थ- तीर्थमार्गनी रज़थी माणसो कर्मरहित थाय ने, अने तीर्थोमां जमवाथी माणसोने जवमां जमपरतुं नथी, वली १८ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ उपदेशतरंगिणी. तीर्थमां धन खरचवाथी माणसो स्थिर संपदावाला थाय बे, तेम तीर्थमां प्रजुनी पूजा करवाथी पूजनीक थाय बं. पछी त्यां: ते मंत्री ने पुनड बन्ने एकठा थया, संघ पण तलावने किनारे स्थिर थयो. ते वखते मंत्रिए विचार्य के, संघना चररजोथी मारां घरनुं श्रांगणुं क्यारे पवित्र थशे ? एम विचारि तेणे संघने भोजनमाटे निमंत्रण कर्यु. पनी प्रजाते रसोइ तैयार थया बाद संघना लोको ज्यारे जोजन माटे श्राव्या, त्यारे मंत्रि ते सर्वना चरणाने पोताने हाथे दालन करवा लाग्या, तथा तेर्जने तिलक करवा लाग्या. एम करतां बे पोहोरो व्यतीत थया, त्यारे तेजपाले वस्तुपाल मंत्री ने कह्युं के, हे जाइ हवे संघनी जक्ति बीजार्ज पण करशे, तमो जोजन करीहयो ? त्यारे वस्तुपाले कह्युं के, हुं पालथी जोजन करीश, केमके, यावो अवसर वारंवार मलतो नथी. पी संघने जोजन करावी ने तेमणे वस्त्रादिकनुं दान प्राप्यं. त्यारबाद पूनमशाहनी प्रेरणाथी मंत्री पण संघनी साथे शत्रुंजयपर पधार्या, तथा त्यां जावपूर्वक यात्रा करीने ते बन्ने पोतपोताने स्थानके गया. जिननक्तिः कृता तेन, शासनस्योन्नत्तिस्तथा ॥ साधर्मिकेषु वात्सल्यं, कृतं येन सुबुद्धिना ॥ १ ॥ अर्थ- जे सुबुद्धि माणसे साधमनुं वात्सल्य कर्यु बे, ते जिननक्ति तथा शासननी उन्नति करेली बे. (तेपर दृष्टांत कहे बे.) थापक नामना नगरमां श्रीमाली वंशनो जू नामे एक शेठ वसतो हतो, तेने पश्चिम मांगली कनुं बिरुद मस्युं हतुं. एक दहाडो मंरुपडुर्गमां कांऊणशाद पासे ते आजूना माटे एवं वर्णन कर्यु के, जूशा पोताने घेर वेला साधर्मीकोने जोजन कराव्याविना पोते जोजन करता नथी. ते सांजली चमत्कार पामेला जांजणे तेनी परीक्षा करवा माटे तजवीज करी, छाने तेथी ते Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १३ बीस हजार साधकोना संघ सहित जुदे जुदे मार्गेथी चौदसने दिवसे थाप नगरमां आव्यो. ते दिवसे आशादे तो पौषध लीधो हतो, पण तेना जाइ जिनदासे संघने लो जाणी तुरत तेमने जोजनमाटे निमंत्रण कर्यु, तथा एक पोहोरनी अंदर समस्त संघने सोना ने रूपाना थालोमां जोजन कराव्युं, तथा उपर वस्त्रादिकनुं दान पण प्युं. ते जोइ फांऊशाहे आशेने पगे पमी कह्युं के, आपे मारो अपराध क्षमा करवो, केमके, व रीते करीने मे आपनी परीक्षा करी. एवी रीते तेनी क्षमा मागीने शत्रुंजयनी यात्रा करीने कांऊण शेठ मंरुप दुर्गमां गया. चक्रे तेन जिनार्चनं स विदधे सम्यग्गुरूपासनं तत्वं तेन जिनागमस्य विदितं संघोन्नतिं स व्यधात् ॥ सत्यंकारितमेव तेन सुधिया निर्वाणसौख्यं जवात् यः साधर्मिकगौरवं वितनुते हृष्टो गुरूणामिव ॥ १ ॥ " अर्थ- जेणे हर्षित थने गुरुजनी पेठे साधर्मीकोनुं वात्सल्य कर्युबे, ते जिनपूजा करेली बे, सारी रीते गुरुनी उपासना करेली बे, तेणे जिनागमनुं तत्व जाएयुं बे, तेणे संघनी उन्नत्ति करीबे, वली ते सुबुद्धिए मोक्ष सुखने वेगथी हस्तगत करेलुं बे. जेम सुरगिरिमां जगसिंहशाहे द्रव्य पीने पोताना त्रासो साठ साधर्मीकोने पोताना जेवाज शाहुकारो बनाव्या हता. एवी रीते छहीं जावरुशाह, उदायनमंत्री, बाहडमंत्री, पेथडशाह, कांकणशाह, जगमुशाह, तथा जीमाशाह श्रादिकना हजारोगमे दृष्टांतो जाणी लेवां. एम विचारि सर्व माणसोए संघवात्सस्य करीने पोतानो जन्म सफल करवो. जिनौकः पौषधोकश्च, जैनागमसुलेखनम् ॥ साध साधर्मि कुर्वन्नपवो जवेत् ॥ १ ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ उपदेशतरंगिणी. अर्थ- जिनमंदिर, पौषधशाला, जिनागमोनुं लखाववं, साधु तथा साधर्मीकोनी नक्ति इत्यादिक शुन्न कार्यों करवायी प्राणी अपनवी थाय बे. जिनमंदिरादिक साते क्षेत्रोमां नक्ति करनारो माणस महा श्रावक कहेवाय बे. कडं ने के, नरेषु धरणीपतिस्तरुषु दिव्यकारस्करः ___ करिष्वमरसिंधुरः फणधरेषु शेषः पुनः॥ सुपर्वसु पुरंदरो गिरिषु रत्नसानुर्यथा . तथा सुकृतवत्स्वसौ महाश्रावकः कथ्यते ॥१॥ अर्थ- माणसोमा जेम राजा, वृदोमा जेम कट्पवृक्ष, हाथीउमां जेम ऐरावण, नागोमां जम शेषनाग, देवोमा जेम इंज तथा पर्वतोमा जेम मेरु तेम पुण्यशालीउमां (साते देत्रोनी नक्ति करनारो माणस ) महाश्रावक कहेवाय बे. श्री हेमचंत्राचार्ये पण कुमारपाल पासे नीचे प्रमाणे महा श्रावकनुं लक्षण कडं . एवं व्रतस्थितो नकया, सप्तदेव्यां धनं वपन् । दयावानतिदीनेषु, महाश्रावक उच्यते ॥१॥ अर्थ- एवी रीते व्रतमा रहेलो, तथा नक्तिथी साते क्षेत्रोमां धनने वापरनारो, अने अति दीन प्राणी प्रते दयालु एवो माएस महाश्रावक कहेवाय .. इति श्री तपागच नायक श्री सोमसुंदरसूरि, श्रीरत्नशेखरसूरि पं० नंदिरत्नगणि शिष्यरत्नमंदिरगणि गुंफितायां श्री उपदेशतरंगिण्यां श्री जिननवनादि सप्तत्रिवित्त वितरण विवेक प्रकाशकश्चत्वारिंशउपदेशमनोहरो वितीयस्तरंगः समाप्तः श्रीरस्तु ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १४१ तृतीयस्तरंगः प्रारभ्यते हवे पूजापंचाशक नामनो त्रीजो तरंग कहे. पूजया पूर्यते सर्व, पूज्यो नवति पूजया ॥ शभिवृधिकरी पूजा, पूजा सर्वार्थसाधनी ॥ १॥ अर्थ- पूजाथी सर्व वस्तु मले बे, तेम पूजाश्री प्राणी पूजनीक थाय ने, पूजा ने ते शधिनी वृद्धि करनारी तथा सर्व अर्थाने साधनारी बे. जे माणस विधि पूर्वक रागषेष विनाना श्री जिनेश्वर प्रजुने पूजे जे, ते माणस त्रीजे नवे मोदे जाय , कदाच ते नारे कर्मी होय तो ते सात आठ नवे तो मोदे जाय ज. कडुं ने के, जिणपूअणं तिसंऊ, कुणमाणो सोहए सम्मतं ॥ तित्थयरनामगुतं, पावर सेणीयनरिंदच ॥१॥ अर्थ- त्रिकाल जिन पूजा करनार माणस पोतानुं सम्यक्त्व शुद्ध करे , तथा श्रेणिक राजानी पेठेतीर्थकर नाम गोत्रने पामे जे. वेहेला उत्तम अने सुगंधि पुष्पो नहीं मलवाथी सवारमा वासहेपनी पूजा करवी. कर्तुं ने के, मातः प्रपूजयेघासै, मध्याह्नेकुसुमैर्जिनं ॥ संध्यायां धूपनैर्दीपै-स्त्रिधा देवं प्रपूजयेत् ॥१॥ अर्थ- प्रजाते वासक्षेपथी, मध्याह्ने पुष्पोथी, तथा संध्याकाखे धूप अने दीपकोथी, एवी रीते त्रिकाल श्री जिनेश्वर प्रजुनी पूजा करवी. सामान्य प्रकारनां तु पुष्पोथी जिनपूजा करवी नहीं. कडं ने के, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ . उपदेशतरंगिणी. ___न शुष्कैः पूजयेद्देवं, कुसुमैन महीगतैः॥ न विशीर्णदलैस्तुबै- शुन्नै विकाशिन्निः ॥१॥ अर्थ- सूकां, पृथ्वीपर पमेलां, तुटेली पांखडी वालां, तुन अशुल, तथा नहीं प्रफुल्लित श्रएलां एवां पुष्पोथी देवपूजा करवी नहीं. . पुष्पद्यर्चा तदाज्ञा च, तद् व्यपरिरक्षणम् ॥ उत्सवस्तीर्थयात्रा च, जक्तिः पंचविधा जिने ॥१॥ अर्थ- जिनेश्वर प्रजुनी पुष्पादिकोथी पूजा, तेमनी आज्ञा, तेमना व्यर्नु रक्षण, तेमनो उत्सव, तथा तेमना तीर्थनी यात्रा एवी रीते पांच प्रकारे जिनन्नक्ति थाय . __ चंपक, मालती, कमल, मोगरो, तथा गुलाब आदिक उत्तम पुष्पो, तथा श्रादि शब्दथी मोतीउँना हार, सुवर्णना बत्र, मु. कुट, कुंडल आदिक पण जिनपूजा माटे जाणी लेवां. तेमां पण आजूषणनी पूजा शाश्वती जे. कडुं ने के, - म्लायति पुष्पनिचयाः महरार्धकेन, वैगंध्यमेति दिवसेन कृतोउंगरागः॥ जीर्यति रम्यवसनान्यपि नरिवर्डं, नों जीर्यते युगशतैर्जिनरत्नपूजा ॥१॥ अर्थ- पुष्पोना समूहो अरधा पोहोरमां श्लानि पामे , विलेपन एक दिवसमां निर्गध थाय ने, मनोहर वस्त्रो घणे वर्षे जीर्ण थाय , पण रत्नादिकोना आजूषणोथी करेली पूजा सेंकडो गमे युगोमां पण जीर्ण थती नथी. ज्यारे वस्तुपाल मंत्री सात लाख मनुष्यो सहित गिरनारपर यात्रा करवा गया हता, त्यारे तेमनी स्त्री अनुपमा देवीए बत्री Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १४३ सलाख सोनामोहोरोनी किमतनां आजूषणोथी श्री नेमीश्वर प्रनुनी पूजा करी हती. कडं ने के, घात्रिंशतम्मलदै-रेकदा रैवताचले ॥ नेमीश्वरस्यानुपमा, पूजां चक्रे प्रमोदतः ॥१॥ अर्थ- अनुपमादेवीए एक दिवसे रैवताचलपर हर्षथी श्री नेमिनाथ प्रनुजीनी बत्रीसलाख सोनामोहोरोथी पूजा करी हती. वली ते जोड्ने तेजपाल मंत्रीए हर्षित श्रश्ने बत्रीसलाख सोनामोहोरोनी पोते पण त्यां पूजा करी. वली शत्रुजयपर अनुपमा देवीए श्री शषनदेव प्रनुनी पण बत्रीसलाखना आजरणोथी पूजा करी, ते जो तेनी देराणी ललिता देवीए पण बत्रीसलाखना आजरणोथी पूजा करी. शोजना नामनी दासीए पण ते वखते एक लाख सोनामोहोरोना आमरणोथी पूजा करी, अने वस्तुपाल मंत्रीए ते सर्वथी अधिक पूजा करी. वली देवगिरिना रहेवासी धाइ देव नामना श्रावके मोती, प्रवालां, हीरा, माणेक तथा सुवर्णनां पुष्पोथी श्री शषनदेव प्रजुनी आंगी करावी हती, अने पनी नवलाख चंपाना पुष्पोथी पूजा करी हती. जिनेश्वर प्रनुनी आज्ञा पण सम्यक् प्रकारे पालवी. कडं ने के, आणा तब्बो आणा संजमो, तहेव दाणमाणाए ॥ आणारहिउ धम्मो, पलालफुहब्ब पडिहा ॥१॥ अर्थ- जिननी आणा तेज तप, संयम, तथा दान , आणाविनानो धर्म पलाल पुष्पनी पेठे पडवाइ बे, अर्थात् निरर्थक ले. आणाखंडणकारी, जवि तिकालं महाविनूपए ॥ पूएइ वीयरायं, सञ्चंपि निरत्थयं तस्स ॥१॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. अर्थ- जिननी आणाने खंडित करनारो माणस कदाच त्रिकाल .मोटी अधिथी प्रनुने पूजे, तो पण तेनुं ते सर्व कार्य निरर्थक ले. __वली देव अव्यनुं रक्षण करवू, तथा ते अव्यनी जे वृद्धि करवी ते पण जिनपूजाज . कडुं ने के, वढूतो जिणदवं, तित्थयरतं लहइ जीवो ॥ नखंतो जिणदवं, अपंतसंसारिज नपि ॥१॥ अर्थ- जिनजव्यने वधारतो श्रको जीव तीर्थकरपणुं पामे बे, अने जिनपव्यनुं जहण करतो थको जीव अनंत संसारि थाय बे, एम कडं . नकणे देवदहस्स, परत्यागमणेण य॥ . सतमं नरयं जंति, सतवाराज गोअमा ॥१॥ - अर्थ- हे गौतम ! देवषव्य लक्षण करवाथी, तथा परस्त्री गमन करवाश्री माणस सात वार सातमी नरके जाय . वली अचार महोत्सव, पर्युषणमां कल्पसूत्रनुं श्रवण, तथा प्रजावनादिक जे उत्तम कार्यों करायचे, ते सघलां शासननी जन्नत्तिना हेतु होवाथी जिननक्तिरूपज . ___ एवं'जाणीने पुण्यवान माणसोए तीर्थ यात्रादिक महोत्सवो पूर्वक जिननक्ति करवी. सयं पमजणे पुनं, सहस्सं च विलेवणे॥ सयसाहस्सीआ माला, अणंतं गीयवाश्रं ॥१॥ अर्थ- जिनप्रतिमा प्रमार्जन कर्याश्री सोगगुं, विलेपन करवाथी हजारगणुं, पुष्पमाला चडाववाथी लाखगणुं, अने तेनी पासे गीत अने अने वाजित्रोनी पूजा कोथी अनंतगणुं उपवासोनुं पुण्य थाय .. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १४५ मणसा होश् चनत्थं, फलं नहिअस्स संनव॥ गवणस्सय पारंन्ने, होइ फलं अहमोवासो॥१॥ गमणे दसमं तु नवे, तहेव उवालसमं गए किंचि॥ मज्जे पकुववासो, मासोवासं च दिशेणं ॥२॥ संपतो जिबनवणे, पाव उम्मासियं फलं पुरिसो॥ संवरियं तु फलं, बारंमिय संविउ लहश् ॥३॥ पायखणेण पावश, वरिससयफलं त जिणे महिए॥ पावश् वरिससहस्सं, अणंतपुरणं जिणे थुणीए॥४॥ अर्थ- जिनमंदिर प्रते जवानी मनमां श्ला करवाथी एक उपवास,, त्यां जवाने उपवाथी बन्नु, जवानी तैयारी करतां श्र मर्नु, जतां थकां दश उपवासमुं, थोमुक चालवाथी बार उपवास,, मध्य लागे पहोंचवाथी पक्षोपवासमुं, जिनमंदिर जोवाथी मासोपवास, जिननुवनपासे पहोंच्याथी मासीनू, जिनमंदिरना घारमा गयाथी वरसीतपर्नु, जिनेश्वरप्रजुने जोवाथी सो वर्षना उपवासजें, जिनेश्वरप्रजुने पूजवाथी एक हजार वर्षांना उपवास,, तथा जिनेश्वर प्रनुनी स्तुति करवायी अनंत उपवासोनुं पुण्य थाय . जेम रावण राजाए अष्टापद पर्वतपर जरत राजाए बंधावेलां जिनमंदिरमा श्री शषनदेव प्रजुनी पूजा करीने, पोतानी मंदोदरी आदिक शोल हजार राणी सहित नृत्य करवा मांड्यु हतुं, अने ते समये वीणानो तार त्रुटी जवाथी, जिनगुणना गायनना रंगमां नंग पडवाना डरथी पोताना शरीरनी नस त्रोमीने पण तेवी रीतनी जिननक्तिथी तेणे तीर्थकर गोत्र कर्म बांध्यु हतुं अने तेथी ते महाविदेह देत्रमा तीर्थकर थशे. एम विचारि बीजाउँए पण जिनपूजा माटे उद्यम करवो. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ उपदेशतरंगिणी. अंगपूजा, अग्रपूजा, अने लावपूजा एम पूजात्रण प्रकारनी . पूष्पादिक चमाववाथी अंगपूजा थायडे, नैवेद्य आदिक मूकवाश्री अग्रपूजा थाय , तथा स्तुति आदिकथी जावपूजा थाय बे. अंगपूजा जलश्री, पुष्पोथी तथा आजूषणोथी एम त्रण प्रकारोधी पायजे. जलपूजा, कर्पूरना जलथी, पुष्पोना जलश्री, केसरना जलथी तथा निर्मल सामान्य जलथी एम चार प्रकारे थाय. पुष्प पूजा कमल, चंपक, मालती आदिक अत्यंत सु. गंधि पुष्पोथी हारो गुंथीने तथा बुटां पुष्पोथी पण थायने.श्राजूषण पूजा, मुकुट, कुंमल, रत्नजडीत हार विगेरे थी थाय. एवी रीतेज धूपपूजा, वासदेपनी पूजा इत्यादिक अंगपूजामां आवी जाय जे. सोनारूपाना श्रदतो, नालीएर, मोदक, विविध प्रकारनां पकवानो विगेरे जिनप्रतिमापासे धरवां, ए अग्र पूजा ने तथा स्तुति आदिकथी लावपूजा थायचे. ते पूजा अष्टप्रकारी, सतरलेदी, एकवीस प्रकारी विगेरे अनेक प्रकारोथी थाय . एम विचारि जाग्यवान माणसे यथाशक्ति जिनपूजा करवी. कां ने के, पुष्पैर्गधैर्बहुपरिमलैरहतैषूपदीपैः “सन्नैवेद्यैः शुन्नफलगणैर्वारिसंपूर्णपात्रैः ॥ कुर्वाणस्ते जगदधिपतेरर्चनामष्टनेदां सर्वाशंसारहितमतयो विश्ववंद्या नवंति ॥१॥ अर्थ- सर्व प्रकारनी आशारहित बुद्धिवाला जे माणसो पुपोथी, सुगंधिउँथी, बढु परिमलवाला श्रदतोश्री, धूपोथी, दीपकोथी, उत्तम नैवेद्योथी, उत्तम फलोना समूहोथी अने जलथी जरेलां पात्रोथी एवी रीते आठ प्रकारोथी जिनपूजा करे , ते जगतथी पण वंदाय . एवी रीते आठ प्रकारनां साधनोनी जोगवा कदाच न मले Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १४७ तोश्रदत अने दीपक पूजातो अवश्य करवीज केमके, अक्षतपूजाथी अक्ष्य सुख मले , तथा दीपकपूजाथी उत्कृष्टुं तेज मले बे. वली दीपकपूजाथी सर्व प्रकारनां विघनो तथा मरकी श्रादिकना उपवनो नाश श्राय जे. (हवे ते अष्टप्रकारी पूजाना फलोनो उपदेश कहे .) पूअर जो जिणचंद, तिन्निवि संज्जासु पवरकुसुमहिं ॥ सो पाव सुरसुखं, कम्मेण मुकं सयासुकं ॥ १॥ अर्थ-जे माणस त्रणे संध्यावखते उत्तम पुष्पोथी श्री जिनेश्वर प्रनुने पूजे जे, ते देवलोकनुं सुख पामे , तथा अनुक्रमे शाश्वता सुखवाली मुक्ति पामे . श्क्केणवि कुसुमेणं, नती वीअरायपूआए ॥ पावश् परमविनूइं, जीवो सिरिकुमारपालुव्व ॥१॥ अर्थ-क्ति पूर्वक एक पुष्पथी पण जे माणस वीतराग प्रनुनी पूजा करे , ते श्रीकुमारपाल राजानी पेठे उत्कृष्टी शधिपामे श्री कुमारपाल राजाए पूर्व नवमां पोतानी पासे रहेली पांच कोडीउनी किम्मतनां फक्त अढार पुष्षोथी वीतराग प्रनुनी पूजा करी हती, अने ते पुण्यथी ते महाराजाधिराज श्रया, बहोतेर राणा तेना चरणोनी सेवा करवा लाग्या, अढार देशोना ते राजा थया, चौदसो नवां जिनमंदिरो तेणे बंधाव्यां, साते व्यसनोनुं तेणे निवारण कर्यु, ब्रह्मचर्य व्रत धारण करीने तेणे अढारे देशोमां अमारीपटह वगमाव्यो. श्री हेमचंत्राचार्यना चरणोने आराधवावाला थया, अने एवी रीते जिननक्तिथी ते एकावतारी श्रया ने. इत्यादि तेनुं सर्व वृत्तांत कुमारपाल प्रबंधश्री जाणी लेवू. अंगं गंधसुअंध, वन्नं रुवं सुहं च सोहग्गं ॥ पावश् परमपयंपि, पुरिसो जिणगंधपूआए ॥१॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० उपदेशतरंगिणी. अर्थ- सुगंधि अव्योथी जिनपूजा करवाची माणस पोतानुं सुगंधवालुं शरीर, रूप, वर्ण, सुख तथा सौजाग्य, अने मोक्ष पण पामे. नावार्थ- सुगंधि बरास, चंदन, कर्पूर कस्तूरी विगेरे वास देपथी जिनपूजा करवाश्री माणसोनुं शरीर सुगंधयुक्त थायने, तेने उत्तम स्वरूप मले मे, मोदक श्रादिकनां उत्तम जोजनो मले मे, पद्मिनी आदिक उत्तम सौलाग्यवाली स्त्री मले बे, तथा वटे गुणधर कुमारनी पेठे मोक्ष पण मले . वली श्री जिनेश्वर प्रतु पासे उत्तम प्रकारना अदत, घG आदिकना लाखोगमे दाणाथी, ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी कटपना पूर्वक जे त्रण पुंजो करे बे, ते अखंड सुखोने मे लवे . कडं ने के, अदतैरुज्ज्वलैः स्थालं, नृतं येन जिनाग्रतः ॥ श्रेयोनिस्तादृशैरेव, तैरात्मा परिपूरितः ॥१॥ अर्थ-जे माणसे उज्ज्वल अक्षतोश्री श्री जिनेश्वर प्रज्जु श्रागल स्थाल जरीने मेट्यो , ते माणसे तेवांज ( उज्ज्वल ) कट्याणोथी पोताना आत्माने परिपूर्ण करेलो . (श्रा अक्षत पूजापरनी कथा श्री पार्श्वनाथ प्रनुना चरित्रथी जाणी खेवी.) __ कर्पूरादिकनो उत्तम धूप करवाथी तेनो धुंवामो जे ऊंचो चडे बे, ते एवं सूचवे ने के, ते धूपपूजा करनारी परलोकमां ऊर्ध्वगति थशे तथा था लोकमां तेने उंचा प्रकारना लोगोनी सामग्री मलशे, अने सकल लोको तेनी प्रशंसा करशे. जो देश दीवयं जिणवरस्स, नवणंमि परमन्नत्तीए ॥ सो निम्मलबुधिधरो, रम नरो सुरविमाणेसु॥१॥ अर्थ- जे माणस परम जतिथी जिनेश्वर प्रजुना मंदिरमा Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १४ए दीपककरे ने,ते निर्मल बुधिवालो श्रश्ने देव विमानोमां क्रीडा करे.. जो जिणवरस्स पुरज, देश पश्वं पराश्नतिए॥ एमेव तस्स झज्जर, पावपयंगो न संदेहो ॥२॥ अर्थ-जे माणस जिनेश्वर प्रनुनी समीपे उत्कृष्ट नक्तिथी दी- . पक धरे , तेनां पाप पालो बलीने जस्म थाय , तेमां संदेह नथी. जिणबिंबाणं पुरज, दीवं दितस्स पवरसघाए ॥ देहस्स हो दीति, रयणाणि बहुप्पयाराणि ॥३॥ अर्थ- परम श्रयाथी जिनबिंबनी पासे दीपक धरवाथी पोताना शरीरनी कांति वधे , तथा उत्तम रत्नो मले बे. ते दीपकपूजापर हवे दृष्टांत कहे. मणियारपुर नामना नगरमां सूर्यना मंदिरमां एक स्वयंजू नामे पूजारो हतो. एक दहाडो कंज्ञक कार्य प्रसंगे ते एक घांचीने घेर जर तेल लावीने एक जिनमंदिरमा गयो. त्यां तेणे गंजारामां एक वस्त्राजूषणोथी शोनिती थएली जिनप्रतिमा दीठी. ते प्रतिमानी पासे तेणे लावधी दीपक कर्यो, अने तेनुं तेज जोश ते विचारवा लाग्यो के, पूर्व में घणा देवोनी पासे दीपको कर्या , पण आ देवनी पासे करेला दीपको सरखा शोलता नहोता. एम चिंतवतां तेणे मनुष्य जवनुं आयुष्य बांध्यु. अनुक्रमे त्यांथी काल करीने ते वीतशोका नामनी नगरीमां तेजसार नामे राजा अयो. त्यां केटलाक लोगो नोगव्याबाद वैराग्यथी पोताना मणिरथ कुमारने राज्य सोंपीने तेणे केवली जगवान पासे दीक्षा लीधी. दीदा पाली काल करी ते विजय विमानमां देव थयो, तथा त्यांथी चवीने ते मोदे जशे. आ तेजसारनी कथा पांचसो ग्रंथोना प्रमणवाली , अने तेनुं विशेष वृत्तांत प्राकृतनाषामां मनोरमाना चरित्रथी वांची खे. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० उपदेशतरंगिणी. दीपं विधाय देवाना-मग्रतः पुनरेव न॥ गृहकार्य च कर्तव्यं, तिर्यग्रूपी भवेन्नरः ॥१॥ अर्थ- देवोनी पासे दीपक धरीने, ते दीपकथी घरनुं कार्य करवू नहीं, नहींतर तेम कर्याथी तिर्यचपणुं प्राप्त श्राय बे. इंजपुर नामना नगरमां ज्यारे अजितसेन नामे राजाराज्य करतो हतो, त्यारे त्यां एक देवसेन नामे शेठ वसतो हतो. तेज नगरमां एक धनसेन नाममो ऊंटोनो व्यापारी रहेतो हतो. तेने घेर रहेली उंटणीउमांथी एक उंटणी हमेशां देवसेनने घेर आववा लागी. ते उंटणीने धनसेन लाकडीउनो प्रहार करे तोपण ते ते देवसेन-घर गेडे नहीं. पी एवं जाणीने देवसेने ते उटणीने वेचाती लीधी. एक दहामो ते नगरमां धर्मघोष नामना आचार्य पधार्या, तेमने देवसेन शेठे पूज्युं के, हे नगवन् ! आ उंटणी मारं घर गेमीने बीजे कोश्पण स्थानके रहेती नथी, तेनुं शुं कारण जे? त्यारे आचार्यजीए पण पोताना ज्ञानथी जाणीने कडं के, हे श्रेष्ठी ! आ उंटणी पूर्वनवमां तमारी माता हती. ते हमेशां जिनेश्वरप्रन्नु आगल दीपक करीने, तेज दीपकथी पोतानां घरनां कार्यो करती हती. ते दीपकमां काकडी सलगावीने चूलो संधरूकती हती. ते कर्मनी आलोचना नहीं लेवाथी ते उंटणी थइने, अने पूर्वजवना स्नेहथी ते तारा घरनुं आंगणुं गेडती नथी. एम विचारीने देवसंबंधि निर्मात्य वस्तु पण ग्रहण करवी नहीं, तेम देवप्रव्य व्याजे पण राखवू नहीं. ढोअश् बहुन्नतिजुङ, नेवऊं जो जिणंदचंदाणं ॥ खंजर सो वरनोए, देवासुरमणुअनाहाणं ॥१॥ अर्थ- जे माणस बहुन्नक्तिपूर्वक श्री जिनेश्वर प्रन्नुने नैवेद्य धरे बे, ते माणस देव, दानव, अने मनुष्योना अधिपतिना उत्तम लोगो जोगवे. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १५१ .. पकवान, पुडला, लात, दाल, घी, जुदी जुदी जातिनां शाक, दही, शीखंड, लवंग, विगेरे नैवेद्य जाणवां. एवी रीते नैवेद्य पूजा जाणवी. वरतरुपवरफलाइं, ढोयश् जो जिणवरस्स नतीए । जम्मंतरेवि सहला, जायंति मोरहा तस्स ॥१॥ अर्थ- जे माणस नक्तिपूर्वक श्री जिनेश्वर प्रनु आगल उत्तम वृदोनां सुंदर फलो धरे , तेना सर्व मनोरथो जन्मांतरमां सफल थाय बे. __नालीएर, सोपारी, दामिम, आंबा विगेरे फलो जाणवां. एवी रीते फलपूजा जाणवी. ढोय जो जलन्नरिअं, कलसं नती वीयरायाणां ॥ सो पाव परमपयं, सुपसत्थं नावसुधीए ॥१॥ अर्थ- जे माणस नक्तिथी श्री वीतराग प्रनुने जलथी जरेलो कलश चडावे , ते लावशुद्धिथी मोक्षपदने पामे बे. कपूर, केसर, चंदन, कस्तुरी विगेरे सुगंधि अन्योथी मिश्रित करेखां जलोथी जलपूजा जाणवी. ..श्रा आठे प्रकारी पूजापर तेनां फलोनां दृष्टांतो पूजाष्टक नामना ग्रंथथी वांची लेवां. मनो वाक्कायवस्त्रोर्वी-पूजोपकरणस्थितौ ॥ शुधिः सप्तविधा कार्या, श्रीजिनेंजार्चनदणे॥१॥ अर्थ- श्री जिनेश्वर प्रन्नुनी पूजा समये, मनशुधि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, वस्त्रशुधि, नूमिशुधि, पूजानां उपकरणोनी शुद्धि, तथा स्थितिशुधि, एम सात प्रकारे शुद्धि करवी. घर जुकान, व्यापार तथास्त्रीश्रादिकना ध्यानना परिहारथी Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ उपदेशतरंगिणी. मननी शुद्धि थाय ने, सावधवचनना परिहारथी श्रने मौन धारण करवाथी वचनशुद्धि थाय ने कह्यु बे के, विचदण माणसोए व्याख्या वखते, पूजा वखते प्रतिक्रमण वखते, लोजन वखते, गमनवखते तथा बीजाऊनां षणो बोलवामां मौन रहे. वली सावध कार्यने साधनारी एवी हायनी के वृकुटीनी संज्ञा पण करवी नहीं. ते पर जिगह कोटवाल- दृष्टांत कहे जे. ___एक दहामो नीमराजाए जिणह कोटवालने तेनी बहाउरीथी खुशी थश्ने धोलका नगर प्यु.तेनगरमां तेनी बादाउरीथी को पण चोर के खुंटारा वसता नहोता,अने तेथी ते पोतानुं निष्कंटक राज्य चलावतो हतो. त्यां तेणे श्री कलिकुंभ पार्श्वनाथादिकना चार जिनमंदिरो बंधाव्यां, अने तेमां मौन धरीने ते त्रिकाल पूजा करतो हतो. एक दहाडो सौराष्ट्रना रहेवासी कोश्क चारणे तेनी परीक्षा माटे राजानो एक उंट चोर्यो. त्यारे पोलीसना माणसो ते चारणने बांधीने जिणह कोटवालपासे ले गया. ते वखते मध्यान्हकाल होवाथी कोटवाल जिनमंदिरमा एकाग्र मनश्री मौन धरीने पूजा करतो हतो. पोलीसना माणसोए तेने कडं के, श्रआ उंटना चोरने अमोए पकड्यो . ते सांजली कोटवाले आंगलीनी संज्ञा करीने तेनुं मस्तक बेदवाने तेउने हुकम कर्यो. पण ते पोलीसना माणसो समजी शक्यां नहीं. ते जोर कोटवाले पुष्पर्नु एक डीटीजं तोमीने संज्ञा करी. ते जोर जयजीत श्रएला चारणे कडं के, श्कजिणहा नई जिणवरह,न मिलई तारेतार जेहिं अमारणपूजाइ,ते किम मारणहार ॥१॥ इक्का चोरी सा करी, जा खोलडर न मा॥ बीजा चोरी जु कर, तु चारण चोर न था ॥२॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १५३ ते सांजली मंत्रिए मिथ्याउःकृत देश, तेनुं स्वरूप पूरीने, ते चारणने पेहेरामणी सहित रवाना कर्यो. - स्नानादिकनीशुद्धि पूर्वक कायशुद्धि करवी. उपलक्षणथी जिनपूजन करतां शरीरे खरज करवी नहीं, तेम धुंकवु के श्लेश्मादिक कहाड, नहीं. सांधेलु, बलेवू, फाटेलु, अने परनुं वस्त्र जिनपूजा करतां नहीं पेहेरवं, एवी रीते वस्त्रशुद्धि जाणवी. मल, तथा श्लेश्मादिक अशुचि पदार्थोथी अपवित्र थएली नूमिपर रही देवपूजा करवी नहीं. उपलदाणथी कलश, रकाबी, लोटा विगेरे पूजानां उपकरणोने घरनां कार्योमां वापरवां नहीं. चोर्यासी प्रकारनी आशातना वर्जवाथी स्थितिशुद्धि थाय ने. संसारपारगं वीत-रागं मुक्तिसुखप्रदम् ॥ चंपकादिकविस्तीर्ण-कुसुमैः पूजयेद्बुधः ॥ १॥ अर्थ-श्रा संसाररूपी समुश्री पार गएला, अने मोदसुखने देनारा एवा श्री वीतराग प्रनुने चंपक आदिक प्रफुलित पुपोथी डाह्या माणसे पूजवा. जिनपूजा समये अपवित्र पुष्पो वापरवां नहीं, तेम हाथथी पडेलां, पृथ्वीपर पडेलां, पगे अडकेलां, सुकाएलां, खराब वस्त्रमा राखेलां, नालिथी नीचे धारण करेलां, पुष्ट लोकोथी स्पर्शित थएलां, कीडाथी खवाएलां विगेरे दूषणयुक्त श्रएलां पुष्पो जिनपूजामां वापरवां नहीं. जे माणस दूषणयुक्त पुष्पोथी जिनपूजा करे , तेने पण तेवुज मले . तेपर दृष्टांत कहे. कामरूप नामना नगरमा मातंगोना कुलमां एक दांतो सहित पुत्रनो जन्म भयो. एवी रीतनो तेने जोइ तेनो पिता तो नाशी गयो, अने तेथी ते पुत्रनी माता जयथी ते पुत्रने घरनी बहार गेडी श्रावी. एटलामां रयवाडीए चडेला राजाए ते बालकने जो तेने ले लीधो, अने पालीपोषीने मोटो को. पगी दीक्षा Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ उपदेशतरंगिणी. लवानी स्वाथी राजाए तेने राज्यनी गादीपर बेसाड्यो, अने पोते दीक्षा लीधी. केटलेक काले ते राजशषिने ज्ञान अवाथी ते ते तेने प्रतिबोधेवामाटे त्यां पधार्या. ते समये राजा लोकोनी साथे तेमने वांदवा माटे गया. ते वखते पेली मातंगी पणं तेमने वांदवा माटे त्यां आवी हत्ती. राजाने जो तेणीने अत्यंत हर्ष थयो, अने राजाने पण तेणीनापर मातृस्नेह श्राव्यो. ते समये ते राजज्ञषिए सर्व वृत्तांत तेमने कही संललाव्यो. पनी राजाए ज्यारे तेमने पोताना पूर्व जवनो वृत्तांत पूग्यो, त्यारे राजशषिजीए कह्यु के, तुं पूर्व नवमां कोश्क नगरमां महा धनाढ्य व्यापारी हतो. एक समये जिनपूजा करतां पद्मासनपर पडेलां केटखांक पुष्पो तें प्रजुने चडाव्यां हता. त्यारबाद ते कर्मनी आलोचना नहीं करवायी तुं मृत्यु पामीने आ मातंगना कुलमा उत्पन्न थयो. पण जिनपूजाना प्रत्नावथी तने राज्य मट्यु. ते सांजली ते राजाने जातिस्मरण शान अयु, अने तेथी दीक्षा ले ते स्वर्गे गयो, अने त्यांथी मोके जशे. एवी रीतनी कथा सांजलीने अशुचि पुष्पोथी जिनपूजा करवी नहीं. वली दमयंतीए पोताना वीरमतीना पूर्व नवमां चोवीसे जिनेश्वरोनी रत्नोनां तिलकोथी पूजा करी हती, अने तेथी तेणीना ललाटमां महा तेजस्वी तिलक हतुं, अने त्रण खंडना स्वामी नलराजानी ते पटराणी श्र हती. वली पुष्पपूजा करवाथी तीर्थकरनी पदवी पण मले ने, केमके, तीर्थंकरो पण पूर्वना तीर्थकरोनीज पूजा करवाथी तीर्थकर पदने पाम्या बे. धूपं दहति पापानि, दीपो मृत्युविनाशकः ॥ नैवेद्यैर्विपुलं राज्यं, प्रदक्षिणा शिवप्रदा ॥१॥ अर्थ-धूपपूजा पापोने बाले बे,दीपक मृत्युने नाश करनारोने, नैवेद्यथी विस्तीर्ण राज्य मले ने,अने प्रदक्षिणा मोक्ने आपनारी जे. वीरमतीना पर जिनपूजा करावी रीतनी कमी Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १५५ वीतराग प्रनुनी रत्नोथी पूजा करवाश्री चक्रवर्तिनी पदवी मले ने, वधारे शुं कहेवू ? तेथी मोहनी पण प्राप्ति थाय. वीतरागं स्मरन योगी, वीतरागत्वमश्नुते ॥ ईलिका जमरीनीता, ध्यायंती उमरी यथा ॥१॥ अर्थ-वीतरागर्नु स्मरण करतो श्रको योगी वीतरागपणुं पामे ने, जेम नमरीने ध्यावती एवी इलिका नमरीपणाने पामी. जिनस्य पूजनं हंति, प्रातः पापं निशानवम् ॥ आजन्मविहितं मध्ये, सप्तजन्मकृतं निशि ॥१॥ अर्थ-प्रनाते करेलुं जिनपूजन रात्रिना पापोनो नाश करे , मध्यानकाले करेलुं जिनपूजन जीवितपर्यंतनुं पाप नाश करे , तथा रात्रिए करेलुं जिनपूजन सात जवानां पापोनो नाश करे ने एवी रीते योग्य अवसरे करेली जिनपूजा लानकारक थायजे. कडं ने के, जलाहारौषधस्वाप-विद्योत्सर्गकृतिक्रियाः॥ सत्फलाः स्वस्खकाले स्यु-रेवं पूजा जिनेश्वरे॥१॥ अर्थ- जलपान, जोजन, औषधग्रहण, निजा, विद्या, तथा मलशुद्धि आदिक क्रिया पोतपोताने अवसरे करवाश्री जेम सफल थाय , तेम जिनपूजा पण जाणवी. ते जिनपूजा पण पेयमशाहनी पेठे एकाग्र मनथी करवी. पेथडशाह शेठ हमेशां त्रिकाल जिनपूजन करता हता. एक दहाडो ते पूजा समये सिघराज राजाए तेने पांच वार माणसो मोकलीने बोलाव्यो, पण पूजाना एकाग्रपणाथी ज्यारे तेणे जवाब आप्यो नहीं, त्यारे राजा पोते त्यां श्राव्यो. ते समये पेथडशाहने देवपूजामां लीन थएलो जोस्ने तेनी पाउल पुष्पो आपवाने बेठेला माएसने उगमीने राजापोते गुप्तरीते बेसीने पुष्पो श्रापवालाग्यो. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ उपदेशतरंगिणी. पण पुष्पो आपवानी विधिने नहीं जाणवाथी ते बीजां बीजां पुष्पो आपवा लाग्यो. ते जोर पेथडे पाचं वालीने जोयु, तो रा. जाने जोया; तेज वखते ते उन्नो श्रवा जतो हतो, पण सिझराजे तेनो हाथ कालीने तेने बेसाडी दीधो, अने देवपूजामां तेनुं एकाग्रपणुं जोश्ने खुशी थइ कहेवा लाग्यो के, हे पेथडशाह ! हुँ तमोने बोलावं ते वखते जो तमो जिनपूजामां हो तो तमारे आवq नहीं. एम कहीने राजा पोताने स्थानके गयो. एवी रीते एकाग्र चित्तथी त्रिकाल देवपूजन करवू. . स्वर्गस्तस्य गृहांगणं सहचरी साम्राज्यलक्ष्मीः शुन्ना सौन्नाग्यादिगुणावलिविलसति स्वैरं वपुर्वेश्मनि ॥ संसारः सुतरः शिवं करतलकोडे लुग्न्यंजसा यः श्रधान्जरजाजनं जिनपतेः पूजां विधत्ते जनः ॥१॥ अर्थ- श्रधाना समूहनो नाजनरूप एवो जे माणस श्री जिनेश्वर प्रनुनी पूजा करे , तेने स्वर्ग तो घरना प्रांगणांरूप थाय ने, मनोहर एवी राज्यलक्ष्मी तो तेनी सोबतण थाय ने. तेम तेना शरीररूपी घरमां सौलाग्यादिक गुणोनी श्रेणि विलास करे , संसार सुखेथी तराय ने, अने मोद तो तुरत तेनी हथेसीमां आवीने रहेजे. (तेपर दृष्टांत कहे.) . . देवपाल नामे कोश्क गोवाल गायोने वनमां चरावतो हतो. एक दहाडो नदीनी पडी गएली लेखडमां तेणे एक जिनप्रतिमा जोइ. पठी तेणे वनमांज एक कुंपडी बांधीने तेमां ते प्रतिमाने तेणे स्थापन करी, अने एवो अनिग्रह लीधो के, आ प्रतिमानी पूजा कयो विना हुँ जोजन करीश नहीं. एवी रीते हमेशां ते प्रतिमाने ते पूजवा लाग्यो. एक दहाडो नदीमां पूर आव्यु, अने ते पूर सात दिवसोसुधि रह्यु, अने तेथी ते देवपालने सात जपवासो थया. आग्मे दिवसे पूजा करीने तेणे जोजन कयु, तेनी Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १५७ एवी दृढता जोड्ने शासनदेवीए तुष्टमान थइ तेने वरदान मागवानुं कह्यु. त्यारे तेणे पासेना एक नगरनुं राज्य माग्यु. शासनदेवीए पण ते राज्य तेने आप्यु. पनी केटलाक अहंकारी सामंतो, जेठ ते देवपालनी आज्ञा नहीं मानता हता, तेउने पण तेणीए बांधीने वश कर्या. जीवित पर्यंत राज्य पालीने ते स्वर्गे गयो. (एवी रीते जिनपूजानुं फल जाणीने तेमां उद्यम करवो.) जिनपूजनं जनानां, जनयत्पेकमपि संपदो विपुलाः ॥ जलमिव जलदविमुक्तं, काले शस्यश्रियो ह्यखिलाः॥१॥ अर्थ- एक जिनपूजन पण ( पुण्यानुबंधि पुण्यथी) माणसोने विस्तीर्ण संपदा आपे के केमके आजैदिक अवसरे वरसादथी पडेलुं पाणी धान्यनी सघली संपदाउने आपे बे. (तेपर दृष्टांत कहेजे.) एक पर्वतमा एक नील अने नीलडी वसतां हतां. एक दहामो त्यां कोई जैनमुनि आवी चड्या. ते मुनिए तेउनी पासे जिनपूजा, फल कडं. ते सांजली नीलडीए पोताना लघुकर्मपणाथी ते अंगीकार कयु, अने त्यारथी ने नीलमी वनमां रहेला एक जिनमंदिरमां जश्ने श्री शषनदेव प्रजुने पूजवा लागी. ते जो नीले तेणी ने कह्यु के, अरे !! आ तो वाणीआना पारसनाथ , माटे ते आपणे पूजवाना नथी. एवी रीते ते नील ते एपीने वारंवार वारतो, पण नीलडीए पोतानुं कार्य तज्युं नहीं. अनुक्रमे केटलेक समये ते नीलमी काल करीने पासेना एक नगरना राजानी पुत्री थइ. यौवनपणुं पामीने एक दहामो ज्यारे ते फरुखामां बेठी हती, त्यारे तेज नीलने त्यांथी जतो तेणीए जोयो, अने तेने जोवाथी तेणीने जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न थयुं. पळी ते नीलने तेणीए बोलावीने कडं के, तुं मने उलखे ? एवी रीते कहीने तेपीए तेने कर्वा के, पूर्व नवमां तें मारुं कडं Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ उपदेशतरंगिणी. मान्यु नहीं. एवी रीते तेने उपदेश देने तेने जिनपूजनमां दृढ कर्यो. ते राजपुत्री पण केटलुक सुख जोगवीने स्वर्गे गइ. __ माटे एम विचारिने लाग्यवान माणसे लावपूर्वक जिननक्ति करीने पोतानुं जीवितव्य सफल करवं. तेपर दृष्टांत कहे. कोइएक नगरमां नंदक अने जनक नामना बे व्यापारी वसता हता. तेउ बन्नेनी उकानो साम सामी हती. लक हमेशां प्रजातमां उठीने पोतानी फुकाने जतो हतो, अने नंदक तो हहेशांप्रजातमां उठीने देवपूजा माटे जिनालयमांजतो हतो. ते जो जषक हमेशां मनमा एम विचारतो हतो के, धन्य मे आ नंदकने, के जे हमेशां प्रजातमां उठीने बीजुं कार्य गोडीने जिनपूजा करे . अने हुँ महापापी दरीजी धन मेलववानी श्वाथी प्रजातमांज अहीं आवीने पामरोनां मुखो जो बुं, माटे मारां जीवतरने धिक्कार ने, एवी रीतना शुञ्ज.ध्यानरूपी जलथी ते हमेशां पोतानां कर्मोरूपी मेलने दूर करतो हतो, अने पुण्यरूपी बीजने सिंचतो हतो. नंदक हमेशां एम चिंतवतो हतो के, हुँ ज्यारे देवपूजामां रोका बुं त्यारे महा पक्को नषक ग्राहको पासेथी खूब धन कमाइ ले जे; पण करुं शुं ? केमके में मूर्खे देवपूजानो अनिग्रह लीधो बे; हवे ते देवपूजाथी मलवानुं फल तो एकबाजु रह्यु, पण आथी तो उलटुं प्रव्य पण पेदा थश् शकतुं नथी. एवी रीतना कुविकटपोथी नंदक पोतानुं पुण्य हारी गयो एम विचारि डाह्या माणसोए एकतानथी जिनपूजन करवू. एकैव हि जिनपूजा, अर्गतिगमनं नृणां निवारयति ॥ प्रापयति श्रियमखिला-मामुक्तेनक्तितो विहिता ॥१॥ _अर्थ- एकज जिनपूजा माणसोना पुर्गतिगमनने निवारे , तेम नक्तिथी नेक मोनसुधिनी सघली लक्ष्मीने प्राप्त करावे . (वली था जिनपूजा सर्व पुण्यकरणीउँमा मुख्य होवाथी का Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. र १५ए रण पड्ये निःसंग यतिपण जव्य जीवोने तेनो उपदेश देने वज्रस्वामिनी पेठे करावे .) फलं पूजाविधानुः स्या-सौन्नाग्यं जनमान्यता ॥ ऐश्वर्य रूपमारोग्यं, स्वर्गमोक्षसुखान्यपि ॥१॥ अर्थ- पूजा करनार माणसने, सौजाग्य, लोकोतरफनुं मान, मोटाई, रूप, आरोग्यपणुं, अने स्वर्ग तथा मोदनां सुखो पण फलरूपे थाय ने. कडं ने के, खीरेण जोन्निसेअं, कर जिणंदस्स नतिराएण ॥ सो खीरधवल विमलो, रमइ विमाणोसु चिरकालं ॥१॥ अर्थ- जे माणस नक्तिरागथी जिनेश्वरप्रनुने दूधथी अनिषेक करे , ते दूधसरखो उज्ज्वल अने निर्मल थईने लांबा वखतसुधि विमानोमां रमे बे. कंचणमोतियविद्युम-रयणाजरणेहिं नावसंजुतो॥ जो पूयए। जिणंद, सो पावे सासयं ठाणं ॥१॥ . अर्थ- कंचन, मोती, परवाला तथा रत्नादिकनां आनरणोथी नावसहित जे माणस जिनेश्वरप्रनुने पूजे जे, ते खरेखर मोक्षसुख पामे बे. (जेम श्रीवस्तुपालमंत्रीए पोतेज नरावेलां सवालाख जिनबिंबोने, तथा शत्रुजयपरना जिनबिंबोने सुवर्ण अने रत्नोनां आजूषणो पहेराव्यां हतां.) यः पुष्पैर्जिनमर्चति स्मितसुरस्त्रीलोचनैः सोऽर्च्यते यस्तं वंदत एकशस्त्रिजगता सोऽहर्निशं वंद्यते ॥ यस्तं स्तौति परत्र वृत्रदमनस्तोमेन स स्तूयते यस्तं ध्यायति क्लृप्तकर्मनिधनः स ध्यायते योगिन्निः १ अर्थ- जे माणस चंपक आदिक सुगंधि पुष्पोथी जिनेश्वर प्रनुनी पूजा करे , ते माणस विकस्वर थएलां एवां देवांगना Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० उपदेशतरंगिणी. नां नयनोथी पूजाय बे. अने जे माणस प्रजुने एकज वखत वंदन करे बे, ते हमेशां त्रणे जगतोथी वंदाय बे. वली जे माणस जिनेश्वरप्रजुनी स्तुति करे बे, ते परलोकमां इंद्रोना समूहथी स्तवाय बे, अने जे माणस तेमनुं ध्यान धरे बे, ते कर्मरहित थ योगीथी पण ध्यावाय बे. नौरेषा जववारिधौ शिवपदप्रासादनिःश्रेणिका मार्ग: स्वर्गपुरस्य दुर्गतिपुरधारप्रवेशार्गला ॥ कर्मग्रंथिशिलोच्चयस्य दलने दंनोलिधारासमा कल्याणैकनिकेतनं निगदिता पूजा जिनानां परा १ अर्थ- श्री जिनेश्वर प्रजुनी पूजा आ जवरूपी समुद्रमां नावसमान बे, तेम मोक्षपदरूपी मेहेलनी नीसरणी बे, स्वर्गपुरनो मार्ग बे, दुर्गति नगरनां धारमां प्रवेश करवाने मी जागोल - सरखी बे, जोगांतराय तथा दानांतराय आदिक कर्मोरूपी पत्थरोना समूहने जांगवामां वज्रधारासरखी बे ने कल्याणना एक स्थानक रूप . नेत्रानंदकरी जवोदधितरी श्रेयस्त रोमंजरी श्रीमधर्ममहानरेंश्नगरी व्यापलताधूमरी ॥ हर्षोत्कृर्षशुप्रजावलहरी जावद्दिषां जित्वरी पूजा श्री जिनपुंगवस्य विहिता श्रेयस्करी देहिनाम् अर्थ - श्री जिनेश्वरप्रभुनी करेली पूजा नेत्रोने आनंद करनारी बे, जवरूपी समुद्रमां वहाणसमान बे, कल्याणरूपी वृदनी मांजर बे, श्रीमान् धर्मराजानी नगरी बे, श्रापदारूपी वेलोने नाश करवामां धूमरीसरखी बे, दुर्षनो उत्कृर्ष तथा उत्तम जावोनी लहरी सरखी बे, जावशत्रुर्जने जीतनारी बे, तथा प्राणीनुं कल्याण करना बे. ( तेपर दृष्टांत कहे बे. ) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. . १६१ • जयंती नामनी नगरीमा एक नरसिंह नामे राजा हतो. ते निःपुत्री हतो. तेज नगरमां एक कमल नामे शेठ वसतो हतो, तेने रूप, लावण्य, सौजाग्य तथा विनयादिक गुणोथी मनोहर एवो सुंदरकुमार नामे पुत्र हतो. राजानी तेनापर अत्यंत प्रीति थवाथी तेणे तेने पुत्र करीने राख्यो, अने तेथीते हमेशां राजानीसाथे अरधा आसनपर बेसतो. एक दहामो ते नगरमां एक श्रीपाल नामे कोटिध्वजशेठ उत्रीस जातनां करीबाणासहित व्यापार करवाने आव्यो. तेणे रत्न, मोती, प्रबालांविगेरेथी एक सुवर्णनो थाल जरीने, तेपर एक दिव्यसुगंधिवाळु एक हजार पांखडीउनु कमल मुक्युं, अने ते थाल राजाने नेट को. ते वखते कमलनी सुगंधिथी सर्व सना खुशी थई. राजाए पण ते कमल हाथमां ले विचार्यु के, श्रावं मनोहर कमल मारे मुंदरकुमारनेज आप,. एम विचारि तेणे ते कमल ते कुमारने आप्यु. ते लेइ सुंदरकुमार ज्यारे घेर आववा लाग्यो, त्यारे मार्गमां जिनमंदिर जोइ तेणे विचार्यु के, श्रा उत्तम कमलतो जिनेश्वर प्रन्नुने चडावq तेज योग्य जे. एम विचारी तेणे ते का मल जिनमंदिरमां आवीने जिनप्रतिमाना मुकुटपर मुक्यु, अने तेथी ते प्रतिमा बहुज सुंदर देखावा लागी. एटलामां त्यां दर्शन करवा माटे व्यापारीनी चार पुत्री आवी हती. तेए ते दीव्य कमल जोश्ने सुंदर कुमारनी अत्यंत अनुमोदना करी. अनुक्रमे ते सुंदरकुमार ते चारे कन्याने परण्यो. अने ते पुण्यथी ते पांचे त्यांथी काल करीने देवलोकमां महा शधिवंत देवो थया. त्यांची चवीने ते एक मोटा व्यापारीना पुत्रो श्रया, अने यांपण एक दहाडो उत्तम जिनपूजा जोश्ने तेउने जातिस्मरण ज्ञान यु. पनी दीक्षा ले केवलज्ञान पामी तेढ मोदे गया. दर्शनाडुरितध्वंसी, वंदनाघांगितमदः ॥ पूजनात्पूरकः श्रीणां, जिनः सादात्सुरजुमः॥१॥ २१ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ . उपदेशतरंगिणी. - अर्थ-जिनेश्वर प्रनु ( तेमनां) दर्शनथी पापोनो नाश करनारा ने, वंदनथी वांछित अर्थने देनारा ने, पूजवाथी लक्ष्मीने पूरनारा , अने एवी रीते ते सादात् कट्पवृक्ष सरखा . (तेपर दृष्टांत कहे.) ___ अर्बुदाचलना परमारवंशना राजा पाहहणे एक पित्तलनी प्रतिमा गलावी नांखी, अने ते पापथी तेने गलत्कृष्टनो रोग श्रयो. गोत्रीए तेनुं राज्य ले लीधुं; पनी मृत्युना डरथी ते देशांतरमा गयो. एक दहाडो नमतां थकां तेने शीरधवल नामना आचार्यजीनो मेलाप थयो. तेमनी पासे तेणे पोतानुं पाप कही बताव्युं गुरुए पण तेने प्रतिबोध प्राप्यो. पनी पश्चात्ताप थवाथी तेणे गुरुजीने चरणे नमी कह्यु के, हे जगवन् ! आप कृपा करीने ते पातकना दयनो उपाय कहो? त्यारे गुरुए तेने कह्यु के, हे राजन् ! हवे तमो जिनमंदिर तथा जिनप्रतिमा आदिक पुण्यनां कार्यों करो? ते सांजली तेणे पोताना नामश्री प्रहादनपुर (पालणपुर ) नामर्नु नगर वसाव्यु, अने त्यां तेणे सुवर्णना शोल कोंगरांवालुं पादहणविहार नामनुं जिनमदिर बंधाव्यु. ते मंदिरमां तेणे श्री पार्श्वनाथजीनी प्रतिमा स्थापी. ते पुण्यना प्रजावथी तेना कुष्टरोगनो नाश थयो. जीवित पर्यंत जिननक्तिकरीने ते देवलोके गयो. पापं लुपति मुर्गति दलयति व्यापादयत्यापदं पुण्यं संचिनुते श्रियं वितनुते पुष्णाति नीरोगताम् ॥ वैराग्यं विदधाति पखवयति प्रीतिं प्रसूते यशः वर्ग यति निवृतिं च रचयत्यर्चाहतां निर्मिता ॥१॥ अर्थ- करेली एवी श्री अरिहंत प्रनुनी पूजा पापने लोपेजे, पुर्गतिने दले , आपदाने नष्ट करे , पुण्यने एकहुं करे , लदमीने विस्तारे , आरोग्यपणाने पुष्ट करे , वैराग्य करे , प्री Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी.. १६३ तिने नवपसव करे , यशने उत्पन्न करे , स्वर्ग श्रापे ने, तथा मोदने रची मेले . यांति इष्टरितानि दूरतः, कुर्वते सपदि संपदः पदम् ॥ भूषयति नुवनानि कीर्तयः, पूजया विहितया जगजुरोः अर्थ- जगतना गुरु एवा श्री तीर्थकर प्रनुनी पूजा करवाथी उष्ट पापो दूर जाय , संपदा पोतानुं स्थानक करे , तथा कीर्ति जुवनने शोनावे . ( तेनापर दृष्टांत कहे .) __ वाणारसी नामनी नगरीमां देवपाल नामे एक व्यापारी वसतो हतो. तेणे लक्ष्मीनुं चंचलपणुं जाणीने पोतानुं धन साते क्षेत्रोमां खरची नांख्यु, अने पोते चणावेलां जिनमंदिरमा ते हमेशां विविध प्रकारनी पूजा करावतो हतो. अनुक्रमे ते निर्धन थ गयो, तेथी ते एक पासेना गाममां गयो, अने त्यां खेती आदिक करीने घणीज मुशीबते ते पोतानी आजीविका चलाववा लाग्यो, तथा निर्धन होवाथी ते पोताना जिनमंदिरमां कई पण पूजादिक कार्य करी शक्यो नहीं. ते जोर प्रतिमाना अधिष्ठायक देवे विचार्यु के, हालमां आ मंदिरमा पूजादिक कार्य केम अतुं नथी ? पनी अवधिज्ञानथी ज्यारे तेणे शेग्नुं स्वरूप जाण्यु, त्यारे तेनापर उपकार करवा माटे ते देव दूर देशमा रहेला एवा तेना जाणेजार्नु स्वरूप करीने तेने घेर आव्यो, अने पोतानी मामीने पूज्युं के, मारा मामा क्या ? तेणीए कडं के ते खेतरे गया बे. ते सांजली ते मामाने मलवा माटे खेतरे गयो, अने त्यां मामाने प्रणाम करीने तेणे तेनी आजीविकानुं स्वरूप पूज्यु. त्यारे शेठे पण पोतानुं सर्व वृत्तांत तेने कही बताव्यु. पनी ज्यारे मध्यान्हकाल थयो त्यारे जाणेजे कडं के, हे मामाजी ! चालो हवे आपणे जोजन माटे घेर जश्एं. ते सांजली मामाए कडं के, आटला सांग ज्यारे कपाश रहेशे, त्यारे घेर जवाशे. ते सांजली ते Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ उपदेशतरंगिणी. जाणेज रूप श्रएला देवे ते सर्व सांगडे एकदम वाढी नांख्या. अने तेनो नारो बांध्यो. पनी ते नारो लेग्ने जेवा तेउँ बन्ने घेर श्राव्या केते समये मामीए पोताना यारमाटे उत्तम लोजन करी राख्यु हतुं; पठी जेवी ते यारने जोजनमाटे बेसाडे बे, तेवा ते मामोलाणेज बन्ने घरमां दाखल थया. तेउने आवता जोइ ते मुष्ट मामीए पोताना जारने ढोरनी कोडमां संताड्यो अने तेनापर घास नाखी दीधुं. नाणेजे पण पेलो सांगनो नारो ते यारपर नांख्यो. पनी मामो ज्यारे लोजनमाटे बेसवा लाग्यो त्यारे जाणेजे कह्यु के, हे मामाजी! तमो देवपूजा कर्याविना कम लोजन करो नगे ? त्यारे मामाए कह्यु के, निर्धनपणाथी ते सर्व कार्य हुँ विसरी गयो जं. त्यारे जिनपूजा विना लोजन न करवू एवं नियम नाणेजे मामाने आप्यु. पगी ते बन्ने ज्यारे लोजन माटे बेग त्यारे उष्ट मामीए तेउँने अत्यंत रसविनानुं जोजन पीरस्यु. ते जो नाणेजे कडं के, अरे ! वासणमा रहेली लापसी, दाल, जात विगेरे पीरसोनी ? ते सांजली मामीए ते नोजन पीरस्यां. पजी लोजन कर्या बाद जाणेजे कडं के, हे मामाजी! हवे तो चालो तो आपणे बजारमा जएं. ते सांजली मामाए कह्यु के, हजु तो आ सांगठमांथी अनाजना कणो कहाडवाना . ते सांजली नाणेजे मुशल लेश्ने ते नारापर जोरथी मारवा नाड्यु, अने तेथी अनाजना कणीाउँतो बुटा पड्या, पण अंदर रहेला ते उष्ट यारना हामकां खोखरां श्रश् गया. पनी नाणेजे मामीने कह्यु के, हवे तमो आ दाणा एकका करी लेजो? एम कही ते बन्ने बजारमां गया. त्यार बाद शेगणीए पोताना यारने तेमांथी कहाड्यो, तथा ज्यां रुधिर निकट्युं हतुं त्यां त्यां शंखनी चूर्ण दाबीने तेने पोताने घेर रवाना कर्यो. हवे ते जाणेजरूप गएला देवे हमेशां जिनपूजा- माहात्म्य देखाडीने, तथा Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. . १६५ अव्यनो नंडार पण देखामीने शेने धर्ममांजढ को. परी संपत्ति थवाथी तेणे पोताना एक पुत्रनो विवाह करवामांड्यो. तेमां मांमवाने दिवसे ते शेठे सघला सगाउने तथा नातीलाउने जोजन माटे तेड्या; मामीए पोताना यारने पण नोतरं आप्यु हतुं. अने तेथी ते पण स्त्रीनो वेष लेने पंगतमां बेडे बेसी गयो. ते वखते सघला पुरुषवर्गनी आगतास्वागता शेठ करवा लाग्या, अने नाणेज स्त्रीउनी आगतास्वागता करवा लाग्यो. पली स्त्रीउनी पंगतमां पीरसतो पीरसतो नाणेज ज्यारे ते यार आगलं आवतो, त्यारे तेने धीमेथी ते कहेतो के, ते दिवसे सांगठनी नीचे तुं हतो के ? त्यारे ते कहे तो के, “नहीं, नहीं, दुं नहीं." त्यारे ते नाणेज लोकोने एम समजावतो के, या स्त्री कहे के, मारे ते लाकु जोश्ता नथी. एवी रीते वारंवार कहीने ते जाणेजे तेने कशुं पण पीरस्युं नहीं. पठी ते वातनी मामीने खबर पडवाथी तेणीए गुप्तरीते पोताना ते यारने बार लाडु आप्या, अने ते लामु तेणे काखमां कंचुक नीचे संताडी राख्या. पजी नोजन कर्याबाद सर्व स्त्री ज्यारे पोतपोताने घेर जवा लागी, त्यारे जाणेजे तेणीउने कह्यु के, तमो सर्वे मारा मामाना मांगवाने वधावती जाउँ ? ते सांजली सघली स्त्री पोताना हाथो उंचाकरीने एक पनी एक वधावती चाली. अनुक्रमे ते स्त्रीवेषधारी यारनो पण वारो आव्यो, अने तेथी तेणे पोताना हाथो ऊंचा नहीं करतां एमने एमज मंझपने वधाव्यो. ते जोइ नाणेजे कडं के, एम बंधहाथे न वधावाय, एम कही बलात्कारे ज्यारे तेना हस्तो लांबा कर्या, के तुरत पेला चोरेलालामुढ नीचे जश् पड्या. पळी ते शेगणीनुं सघलुं जुष्ट वृत्तांत लोकोमा जाहेर थयु. जे. वटे ते नाणेजरूप देव शेग्ने प्रतिबोधीने पोताने स्थानके गयो. शेठे पण दीक्षा लेइ तप तपीने पोतानुं आत्मकार्य साध्यु. .... Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ उपदेशतरंगिणी. श्रीम जिनेंद्रपदपंकज पूजनेन ज्ञान क्रियाकलितसगुरुसेवनेन ॥ स्वाध्यायसंयमतपोविनयादिना च कस्यापि पुण्यपुरुषस्य दिनानि यांति ॥ १ ॥ अर्थ- श्रीमान् जिनेश्वर प्रजुना चरणकमलोने पूजवाथी, ज्ञान क्रियावाला उत्तम गुरुने सेववाथी तथा सज्जायध्यान, संयम, तप, ने विनयादिकथी कोइ पुण्यशाली पुरुषनाज दिवसो जाय बे. कोइक पंडित माणसज जिनेश्वर प्रजुने नमीने पोतानां मस्तकने, तेमना गुणो सांजलीने पोताना कर्णाने, तेमनी मूर्ति जोने पोतानां नेत्रोने, तेमनुं स्तवन करीने पोतानी जिद्दाने, तेमनुं पूजन करीने पोताना हस्तोने, तेमने मंदिरे जइ पोताना चरोने, तथा तेमनुं स्मरण करीने पोताना मनने पवित्र करे बे. जिनपूजन कर्या विनानी सर्व क्रिया निष्फल बे. कां बेके, हे, नाथ! जेणे तमोने वांद्या नथी, पूज्या नथी, जक्तिथी स्तव्या नथी, तथा उत्तम ध्यानथी तमोने ध्याव्या नथी, तेणे वनमां रहेली मालतीनी पेठे पोतानो जन्म निरर्थक गुमाव्यो बे. माटे तेज माणसने धन्य जावो के, जेनुं द्रव्य जिनपूजा माटे वपराय बे. कह्युं बे के, जिनपूजा, जिनमंदिर, जिनबिंब, तथा नियात्रा दिकमां विधिपूर्वक जे द्रव्य खरचाय बे, तेज सफल बे, बाकीनुं प्रव्य तो निष्फल बे. हवे तेपर दृष्टांत कहे. गजपुर नामना नगरमां श्रीधर नामे एक वणिकू रहेतो हतो. ते एक. दहाडो साधुना मुखश्री जिनपूजानुं फल सांजयुं. अने तेथे ते हमेशां त्रिकाल जिनपूजा करवा लाग्यो. एक दहामो धूपपजा करतां थकां तेणे एवो निग्रह लीधो के, ज्यारे धूप थ रहेशे त्यारे हुं अहींथी जश्श. एटलामां त्यां एक Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १६७ सर्प श्रावी चड्यो, तेने जोड्ने पण ते निर्जय श्रश्ने त्यां स्थिर रह्यो. पठी क्रोधथी सर्प जेटलामां तेने डंखवा श्राव्यो के, तुरत शासन देवताए ते सर्पने उपामीने दूर फेंकी दीधो, अने लक्ष्मीनी वृद्धि करनारुं एक रत्न ते श्रीधर शेग्ने श्राप्यु. ते रत्नना प्रजावथी ते कोटीध्वज अयो. एक दहाडो तेणे लोकोना मुखथी सांनट्यु के, कामरूप नामना यदनी वूजा करवाथी सर्व वांछित फले . ते सांजली लोजने वश थइ तेणे ते यदनी पूजा करी, तथा लोकोनां वचनथी तेणे चंडी, गणेश विगेरेनी पण पूजा करवा मांमी. एम करतां थकां एक दहाडो चोरोनी धाडे आवीने तेनुं सर्व जव्य लुंटी लीधुं. अने तेथी तेनी आजीविका पण बहु मुःखथी चालवा लागी. ते जो तेणे त्रण उपवास करीने गोत्रदेवीनी आराधना करी. त्यारे तेणीए प्रत्यक्ष श्रइ कह्यु के, तें मने तजीने यद, चंडी विगेरेनी आराधना करी ने, माटे ते तने अन्य आपशे, एम कही ते तो गुस्सामांज अंतान थइ गइ. पंजी तेणे शासन देवी, आराधन कर्यु, तो तेणीए प्रत्यक्ष यश तेने फरीने जैनधर्ममां दृढ कर्यो, तथा कोडोगमे सोनामोहोरो आपी. त्यारबाद ते श्रीधर शेठ त्रिकाल जिनपूजा करतो श्रको वटे मृत्यु पामीने देवलोकमां देवपणे उत्पन्न थयो. वरपूजया जिनानां, धर्मश्रवणेन सुगुरुसेवनया ॥ शासनन्नासनयोगैः, सृजति सफलं निजं जन्म ॥१॥ अर्थ- ( माणसो ) जिनेश्वर प्रनुनी उत्तम पूजाथी, धर्म श्रवणथी, गुरुसेवाथी, तथा शासनोद्योतना योगथी पोतानो जन्म सफल करे . जिनपूजन विना राज्यादिक पण निष्फलज ले. कर्तुं ने के, जे माणस वीतरागप्रजुनुं मंदिर के तेमनुं बिंब, के तेमनी पूजा करतो नश्री, तेनुं राज्य, तेनुं धन, तेनुं शरीर, तेनां आजूषणो, तेनी Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० उपदेशतरंगिणी. पंडिताइ, तथा तेर्नु उत्तम कुल पण शा उपयोगर्नु ? क्रोध, राग, घेष तथा मानथी रहित श्रश्ने एकाग्रमनथी जिनपूजा करवी. धर्मने सांजलवाथी, जोवायी,करवाथी, कराववाथी, तथा अनुमोदवाथी, पण ते क सात पेहेडी सुधि पवित्र करे बे. ते धर्मर्नु श्रवण गुरुसेवाथी थाय ने. केमके, विचक्षण माणस पण गुरुनी सहायता विना धर्मने जाणी शकतो नथी. कारण के, उत्तम लोचनवालो माणस पण अंधकारमा रहेली वस्तुने दीपकनी सहायता विना जोइ शकतो नथी. ते पर दृष्टांत कहे. - गोपगिरिमां एक दहाडो केटलाक मातंग नाटककारो आव्या; तेउमां एक नटी घणीज स्वरूपवान हती. तेणीने जोश त्यांनो आम राजा मोहित थयो, अने तेणीनी साथे नोगविलास करवानी तेनी श्वा इ. ते बाबतनी तेना माननीक गुरु श्री बप्पनट्टीजीने खबर पडवाथी तेमणे राजाने प्रतिबोधवा माटे तेना मेहेखना धारपर अन्योक्तिनुं नीचे प्रमाणे काव्य खडीथी लख्यु. शैत्यं नाम गुणस्तवैव नवतः स्वान्नाविकी स्वछता किं ब्रूमः शुचितां ब्रजंत्यशुचयः संगेन यस्यापरे ॥ किं चातः परमस्ति ते स्तुतिपदं वं जीवितं देहिनां वं चेन्नीचपथेन गछसि पयः कस्त्वां निरोडु दमः॥१॥ __ अर्थ- हे पाणी ! तारो गुण शीतल , तेम तारी स्वच्छता पण स्वानाविक , वली तारां पवित्रपणानां अमो शुं वखाण करीये? केमके तारा संगथी बीजा अशुचि पदार्थो पण पवित्र थाय ने, वली तारा समान बीजी का पवित्र वस्तु बे ? तुं प्रापीउने जीवित आपनार बे; एवं पण तुं जो नीच मार्गमां जशे, तो पनी तने अटकाववाने कोण समर्थ अशे? ." इत्यादिक काव्योथी प्रतिबोधिने आचार्यजीए तेने ते श्रकायथी अटकाव्यो. आम राजाए पण तेथी जीवित पर्यंत परस्त्री Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १६ए गमननी बाधा लीधी; अने ते पापना प्रायश्चित्त माटे तेणे जिनमंदिर बंधाव्यु. इत्यादि तेनो विशेष वृत्तांत बप्पनट्टीप्रबंधश्री जाणी लेवो. तथा हेमचंप्राचार्य अने कुमारपाल राजा श्रादिकना पण गुरुमहात्म्यना प्रबंधो जाणी लेवा. अज्ञानतिमिरांधानां, ज्ञानांजनशलाकया ॥ .नेत्रमुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१॥ अर्थ- अज्ञानरूपी अंधकारथी अंध थएला माणसोनां नेत्रने जे गुरुमहाराजे ज्ञानरूपी अंजनशलाकाथी खुल्लां कर्या , एवा श्री गुरुमहाराजपते नमस्कार था ? जिनबिंबार्चनं सेवा, गुरूणां प्राणिनां दया ॥ शमो दानं तपः शील-मेष धर्मो जिनोदितः ॥१॥ अर्थ- जिनबिंबनी पूजा, गुरुनी सेवा, प्राणीउपरनी दया, समता, दान, तप, अने शील, ए रूपधर्म श्री जिनेश्वरोए कह्यो . माणसोए एवी रीतनो धर्म श्राराधीने पोताना जन्मने सफल करवो. कडं ने के, जिनपूजा, गुरुसेवा, जीवदया, सुपात्रदान, गुणोनो अनुराग, तथा आगमश्रवण एटलां आ मनुष्य जन्मरूपी वृदनां फलो . तेमां पण जिनपूजा ने ते, अत्यंत मंगलकारी, पापोने नाश करनारी, तथा मनोरथोने पूरनारी जे. ते पूजाना ध्यानथी पण अत्यंत लाल श्राय बे. तेपर दृष्टांत कहे. काकंदी नामनी नगरीमां ज्यारे जितारिनामे राजा राज्य करतो हतो, त्यारे त्यां एक महा दलित्री डोशी वसती. हती. एक दहाडो त्यां श्री वीर प्रन्नु आवीने समोसा. तेमने वांदवा माटे जितारि राजा प्रजा सहित तेमनी पासे आव्यो. ते अवसरे ते वृघडोशी त्यांची लाकडांनो जारो लेने चाली जती हती. ए Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० उपदेशतरंगिणी. टेलामा राजादिकथी पूजाता श्री वीर प्रनुने तेणीए पण जोया. तेमने जो अत्यंत हर्षथी विस्मित श्रश्ने ते विचारवा लागी के, अहो या जगतमां एक आज खरेखर देव ने, केमके, तेमने सुर असुर विगेरे आवीने सेवे . में पूर्व नवमां खरेखर श्रावा वीतराग प्रनुने पूज्या नथी, अने तेथी आ जवमा हुँ श्रावं कष्ट सहन करुं बु. माटे हवे आ समये तो ते श्री वीर प्रन्नुने पूजु, के जेथी आवता नवमां मने कष्ट सहन करवू पडे नहीं. एम विचारिने ते डोशी तो त्यां काष्ठनो नारो गेडीने, तथा केटलांकत्यांथी पुष्पो लेश्ने प्रजुने पूजवामांटे तुरत श्रावी, पण घरपणने लीधे तेनी आंखो नबली होवाथी ते मार्गमां पत्थरनी ठेस लागवाथी पडी गइ, अने त्यां रहेलो एक खीलो तेना मस्तकमां खुंची जवाथी ते त्यांज मृत्यु पामीने, पूजाना ध्यानना प्रत्नावथी देव रूपे थइ. त्यां अवधिज्ञानथी पोताना पूर्वजवनो वृत्तांत जाणीने ते देव श्री वीर प्रचने वांदवा माटे आव्यो. एटलामां त्यां जितारि राजा पण श्रावी पहोंच्यो, तथा ते देवने जोश्तेणे प्रन्नुने पूज्युं के, हे जगवन् ! आ देव अत्यंत कांतिवालो केम ? ते सांजली प्रनुए कह्यु के, हे राजन् ! तें मार्गमा जेमोशीने मृत्यु पामेली जोश् , तेनोज जीव अमारी पूजाना ध्यानथी श्रा देवरूपे थयो ने, अने ते हलुकर्मी होवाथी थोमीज मुदतमा मोदे जशे. जिनन्नवनं जिनबिंबं, जिनपूजां जिनमतं च यः कुर्यात।। तस्य नरामरशिवसुख-फलानि करपयवस्थानि ॥१॥ अर्थ- जिनमंदिर, जिनबिंब, जिनपूजा, तथा जिनमतने जे करेने, तेने मनुष्य, देव, तथा मोदसुखनां फलो हथेलीमां आवे वे. कां ने के, काष्ठ आदिकनां जिनमंदिरमा जेटलां परमाणु बे, तेटलां लाख वर्षोसुधि तेनो कर्ता स्वर्ग लोगवनारो थाय . Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १७१ अहीं ३६ हजार जिनप्रासाद बंधावनार संप्रति राजा, चौदसो चम्मालीस जिनप्रासाद बंधावनार कुमारपाल राजा, पांचहजार जिनप्रासाद बंधावनार वस्तुपाल मंत्री, शत्रुजय, तथा भृगुकबादिकनो उद्धार करनार बाहम मंत्री, चोर्यासी जिनप्रासाद बंधावनार पेथमशाह, तथा साजन कोटवाल आदिकनां दृष्टांतो जाणी लेवां. जिनबिंब करावनारने, कुगति, दलिता के उर्जाग्यपणुं पण आवतुं नथी. अहीं सवाकोड जिनबिंबो जरावनार संप्रति राजा, सवालाख बिंबो जरावनार वस्तुपालमंत्री, जावमशाह आदिकना दृष्टांतो नावी खेवां.. वली जे माणस जिनपूजा करे , तेने चक्रवर्तीपणुं, वासुदेवपणुं, तीर्थकरपणुं, तथा इंजपणुं विगेरे उत्तम पदवी प्राप्त थाय बे, अने बेवटे मोदसुख पण मले बे. पूजा, पञ्चरकाण, पडिकमणुं, पोसह तथा परोपकार ए पांचे पकारो आ जगतमां मुर्खन . जिनपूजा प्रजावतीनी पेठे करवी. पच्चखाण कपर्दी यदनी पेठे करवू. पडिकमणुं पण पदसंपदा सहित मौनमुमाथी एक चित्तथी करवं. तेपर दृष्टांत कहे . दीटहीमां साजणसिंह नामे एक श्रावक वसतो हतो. ते हंमेशां बन्ने वखत पडिकम' करतो हतो. अने तेने एबुं नियम हतुं के, पडिकमणाविना मारे जोजन करवू नहीं. एक दहाडो पीरोजशाह बादशाहे तेने केदखाने नाख्यो. त्यां रही तेणे चोकीदारोने पचास सोनामोहोरो श्रापीने पचास पडिकमणां काँ. एटलामां बादशाहे तेनापर तुष्टमान थश्ने तेने पेहेरामणी आपी गेडी मेट्यो, अने तेथी ते वाजिनादिकना मोटा उत्सवपूर्वक पोताने धेर गयो. ते जो जय पामेला ते चोकीदारो नेटनो मिष करीने तेने ते पचास सोनामोहोरो पानी देवा आव्या. ते वखते शेने ते ने कह्यु के, ते समये जो तमोए पचास तो शुं ? पण प Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ उपदेशतरंगिणी. चास हजार सोनामोहोरो मागी होते तो हुँ तमोने ते श्रापीने पण माझं प्रतिक्रमण करवानो हतो. एम कही तेणे बहुमानपूर्वक ते सोनामोहोरो तेने आपी दीधी. पर्वतिथिने दिवसे पौषध करवो. पांचमा परोपकारनुं वर्णन ग्रंथकार अरधा श्लोकथी कहे. परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम्। अर्थ-परोपकार ने ते पुण्य माटे श्राय बे, तथा परने जे मुख देवं ते पापने अर्थे थाय . ' अहीं श्रीकृष्ण, तीर्थकर प्रन्नु, मुनिसुव्रतस्वामी विगेरेनां दृष्टांतो पोतानी मेलेज जावी लेवां. _श्रीकृष्णे संतुष्ट थएला देवे दीधेली नेरी वगाडीने घारिका . नगरीमा वारंवार उ मासने अंते मरकोना उपप्रवने शांत कर्यो हतो. तीर्थकरोए सांवत्सरिक दान देने जगतने अनृणी करेलु बे. मुनिसुव्रतस्वामिजी पण प्रतिष्ठानपुरथी एक रात्रिमा साठ योजन विहार करीने अश्वने प्रतिबोधवा माटे तथा तेनी रक्षा माटे भृगुकचमां आवेला हता. इत्यादि परोपकारनां घणां दृष्टांतो शास्त्रोमां प्रसिद्ध . उपसर्गाः दयं यांति, नियंते विघ्नवदयः ॥ मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥१॥ अर्थ- श्री जिनेश्वर प्रन्नुनी पूजा करवाथी उपसर्गोनो नाश थाय , विघ्ननी वसीउ बेदाश्जाय , तथा मनने आनंद थाय. जेम पूर्वनवमां क्रोध पामेला दैपायन असुरे घारिका नगरीनो जंग करवाने श्वयु हतुं, पण नगरना लोकोए जिनपूजा, स्नानपूजा, तथा अांबेल आदिक तपो काँ, अने ते पुण्यश्री बार वर्षोसुधिमां त्यां कं; पण उपजव थयो नहीं. अने पनी लोकोनां पुण्य शिथिल अवाथी ते उपसर्ग त्यां थयो. श्री शांति Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १७३ नाथ प्रनु पण ज्यारे गर्नमां हता, त्यारे तेमनी अचिरा माताजीना स्नानोदकथी भरकीनो उपजव शांत अयो हतो. हालमां पण अष्टोत्तरी पूजाथी नूत, प्रेत, पिशाच आदिकथी थता उपनवो शांत पामेले. पूजाकोटिसमं स्तोत्रं, स्तोत्रकोटिसमो जपः ॥ जपकोटिसमं ध्यानं, ध्यानकोटिंसमो लयः ॥१॥ अर्थ- क्रोडो जिनपूजा करवाथी जे पुण्य थायडे, ते पुण्य एक जिनगुणोना स्तवनथी थाय ने, अने क्रोमोगमे तेवां जिनस्तवनोथी जे पुण्य थाय बे, ते पुण्य नमस्काररूप जिनेश्वर प्रनुना जपथी थाय ने तेम क्रोमोगमे तेवा जपथी जे पुण्य थायचे, ते पुण्य प्रचना निरक्षर ध्यानथी थायने अने जे पुण्य तेवा क्रोमो गमे ध्यानोथी थायचे, ते पुण्य मोह, मान, मद विगेरेथी रहित थश्ने एकाग्रताथी तेमां लीन थवाथी थाय बे. पण ते सर्वमा उत्तम नाव होवो जोए. कडुं ने के, मंत्र देवे गुरौ तीर्थे, दैवझे स्वप्नन्नेषजे ॥ याहशी नावना यस्य, सिधिवति तादृशी ॥१॥ अर्थ- मंत्रमां, देवमां, गुरुमां, तीर्थमा, निमित्तिामां, स्वसमां, तथा औषधमां जेवी जेनी नावना तेवी सिद्धि थाय. हवे तेपर दृष्टांत कहे. कुसुमपुर नामना नगरमां धनसार नामे एक शेठ हतो, ते हमेशां त्रिकाल जिनपूजा करतो हतो. एक दहाडो तेणे पोतानां न्यायोपार्जित अव्यथी एक जिनमंदिर बंधाव्युं. पण ते कार्य तेना पुत्रोने रुच्यु नहीं. कर्मवशे अनुक्रमे ते शेठ निर्धन अयो, त्यारे तेना पुत्रो तेने कहेवा लाग्या के, तमोए पुण्य कर्यु, तेथी सर्व धन नष्ट थयु. एवी रीते सांजलतां उतां पण शेठ तो श्रद्धा . राखीने हमेशां योj थोर्नु पण पुण्य करवा लाग्यो. एक दहामो Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ उपदेशतरंगिणी. गुरु तेने पूयुं के, हालमां तमोने सुख तो बेनी ! त्यारे तेणे कां के, संतोषरूपी सुख बे, पण लोकोमां धर्मनी अपचाजना थाय बे. ते सांजली गुरुए तेने पार्श्वमंत्र नामनो महामंत्र प्यो. पी ते शेठे पोताना जिनमंदिरमां रहेली प्रतिमापासे कमल दिकनी पूजापूर्वक ते मंत्रनो जाप कर्यो. तेथी संतुष्ट थएला धरणें प्रगट थइ तेने कह्युं के, तुं इच्छित वस्तु मागी ले ? त्यारे शेठे कयुंके, कमलनी पूजाथी मने जेटलुं पुण्य मह्युं बे, तेलुं व्यपो ? ते सांजली धरणें कां के, तेटलां पुण्यनुं फल यापवाने तो चोसठे इंद्रो पण समर्थ नथी, छाने ते पुण्यनुं वर्णन करवाने केवली पण समर्थ नथी. कहां बे के, सागरोपमनुं श्रायुष्य होय, तेम ते आयुष्य व्याधि आदिकथी रहित होय, सर्व वस्तु संबंध पंडितपणुं होय, ने क्रोडोगमे जीहार्ड होय तोपण श्री जिनपूजाना फलनुं वर्णन करवाने ते शक्तिवान नथी. त्यारे शेठे कह्युं के, एक पुष्पनुं फल आपो ? तेटलं पवाने पण ज्यारे ते असमर्थ थयो त्यारे ते एक पांखडीनुं फल माग्यं, पटी तेलुं पण ज्यारे ते पवाने समर्थ थयो त्यारे शेठे तेने कह्युं के, त्यारे तो आप आपने स्थानके पधारो ? पढी धरणेंजे कयुं के, देवदर्शन वृथा होय नहीं, माटे में तारा घरना चारे खुणामां रत्नोथी नरेला कुंजो राख्या बे, एम कही ते दृश्य थयो. पबी शेठे पुत्रोने पुण्यनुं फल देखाडीने ते धर्ममां स्थिर कर्या. छाने ते धनश्री ते जीवितपर्यंत जिनपूजामां तत्पर रहीने सुखी थयो. संसारांशोधिबेडा शिवपुरपदवी दुर्गदारिषभूमृद् नंगे दंगोलिनूता सुरनर विजवमा शिकल्पकल्पा ॥ दुःखाग्नेरंबुधारा सकलसुकरी रूपसौभाग्यभृत्र पूजा तीर्थेश्वराणां भवतु भवभृतां सर्वकल्याणकर्त्री ॥ १ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १७५ अर्थ- संसाररूपी समुष्मांधी तरवाने नाव सरखी, मोक्षपदनी पदवी सरखी, जयंकर दलितारूपी पर्वतने जेदवामां वज्रसरखी, सुर, नर विगेरेनां सुखोनी प्राप्ति कराववामां कटपवृक्ष सरखी, पुःखरूपी अग्निने गरवामां जलधारा सरखी, सकल सुखोने करनारी, तथा रूप अने सौलाग्य वधावनारी, एवी जिनपूजा प्राणीउने सर्व कल्याणोनी करनारी था ? __ श्री जिनेश्वर प्रनुनी पूजा लोगो अने मुक्ति देनारी ने, माटे ते पूजा हमेशां करवी. आ लोक अने परलोकनां सुखोनी वा करनार एवा जे माणसे जिनेश्वर प्रनुनी पूजा करी नथी, ते माणस पुःखीज थाय ने. अने जिनपूजा करनार हमेशां सुखी थाय बे. ते पर दृष्टांत कहे. दशपुर नामना नगरमां वज्रकर्ण नामे राजा हतो. तेने शिकार करवानुं व्यसन पड्यु हतुं. एक दहाडो वनमां कोश्क जैनमुनिए तेने उपदेश कर्यो के, हे राजन् ! जीवहिंसा करवाथी श्रा जव अने परजव, बन्नेमां दुःख लोगववां पडे बे. ते सांजली राजाए तेमने कह्यु के, हे जगवन् ! त्यारे हवे मारां कर्मों शी रीते नष्ट थाय ? त्यारे मुनिए कह्यु के, शुद्ध एवा श्री वीतराग प्रनुनी पूजा करवाथी कर्मोनो लय श्राय . ते सांजली राजाए एवो अनिग्रह लीधो के, आजथी हवे मारे श्री जिनेश्वर प्रनु शिवाय बीजा कोश्ने पण नमस्कार करवो नहीं. एक दहाडो तेणे पोताना स्वामी सिंहोदर राजाने नमतां थकां तात्विक रीते तो मुनिकामा रहेली जिनप्रतिमानेज तेणे नमस्कार को. ते जोइ क्रोध पामेला सिंहोदरे मोटां लश्करथी तेनी नगरीने घेरो घाट्यो. ते समये रामचंघजी तथा लक्ष्मणजीए पोताना साधर्मिक एवा वज्रकर्ण राजाने मदद करीने सिंहोदरने बांध्यो. तथा पजी तेने वज्रकर्ण साधे मित्रा करावी आपी. शास्त्रमा पण कडं ने के. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ उपदेशतरंगिणी अहो सात्विकमूर्धन्यो, वजकों महीपतिः॥ सर्वनाशेऽपि योऽन्यस्मै, न ननाम जिनंविना ॥१॥ अर्थ- अहो ! वज्रकर्ण राजा खरेखर महासात्विकशिरोमणि हतो, केमके सर्वस्वनो नाश श्रया उतां पण तेणे श्री जिनेश्वर प्रनु शिवाय बीजाने नमस्कार को नहीं. ( वज्रकर्ण राजानी सविस्तर कथा रामायणथी वांची लेवी.) ये देवं स्नपयंति शाम्यतितमां तेषां रजः कर्मणां ये नाथं परिपूजयंति जगतः पूज्या नवंत्येव ते ॥ मंगल्यानि जिनस्य ये विदधते तविघ्ननाशो नवेत पादाब्जे प्रणमंति ये नगवतस्ते वंदनीयाः सताम्॥१॥ अर्थ- जे माणसो श्री जिनेश्वर प्रनुने स्नान करावे , तेउनी कर्मोरूपी रज शांत थाय ने, वली जे प्रजुने पूजे जे, ते जगतने पण पूजनिक थाय , तेम जे माणसो श्री जिनेश्वर प्रनुपासे मंगल धरे , तेउनां विघ्नोनो नाश थाय , तथा जे ते प्रजुनां चरणकमलने नमे , ते विधानोने पण वंदनीक थाय . __ वली घणी वाटोवाली आरति प्रनुपासे करवाथी क्रोमो कहपोसुधि माणसो देवलोकमां वसे , तथा तेमां कर्पूर मेट्याथी बेवटे तेने मोह पण मले बे. वली कह्यु बे के, धूप पापोने बाले. बे, दीपक मृत्युने नाश करनारो ने, नैवेद्य पूजाथी विस्तीर्ण राज्य मले ने, तथा प्रजुने प्रदिदाणा करवाथी मोद मले ने, वली जिनपूजा वखते यथाशक्ति दान पण आप, केमके, आम्रदेवे भृगुपुरमां श्री मुनिसुव्रतस्वामीजीनी पूजा करीने याचकोने बत्रीस लाख सोनामोहोरो श्रापी हती. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १७७ गंधैश्चारुविलेपनैः सुकुसुमै पैरखंगादतैर्दीपैनॊज्यवरैर्विनूषणगणैर्वस्वैर्विचित्रैः फलैः॥ नानावर्णसुवर्णपूर्णकलशैः स्तोत्रैश्च गीतादिन्निः पूजां पूज्यपदस्य केऽपि कृतिनः कुवैति सौख्यावहाम्॥ अर्थ- सुगंधिथी, मनोहर विलेपनोथी, उत्तम पुष्पोथी, धूपोथी, अखंड अदतोश्री, दीपकोथी, उत्तम नैवेद्योथी, आ जूषणोनां समूहोथी, वस्त्रोथी, विचित्र फलोथी, नाना प्रकारना सुवर्ण कलशोथी, स्तोत्रोथी, तथा गीतादिकोथी, कोश्क कृतार्थ माणसोज सुखो आपनारी श्री जिनेश्वर प्रनुनी पूजा करे . इत्यादि बहु नेदोनी रचनापूर्वक जेजे देवपूजा करे बे, ते स्वर्गादिकनां सुखो लोगवे बे. वधारे शुं कहेवू ? कोइपण प्रकारे करेली जिनपूजा निष्फल जतीज नथी. कां ने के, असर्वनावेन यदृच्छया वा, परानुवृत्त्या विचिकित्सया वा॥ ये त्वां नमस्यंति चिनेचं, तेऽप्यामरौं संपदमाप्नुवंति __ अहीं मणिकार श्रेष्ठि तथा सेडक विप्रादिकश्री कथा वांची लेवी. पुण्यवान माणसोए वली पर्वने दिवसे तो जिनपूजा, तप, दान, शील आदिक पुण्यनां कार्यो विशेष प्रकारे करवां. जेम जगतमां दीवाली आदिकने दिवसे लोको लामु आदिकनां उत्तम नोजनो जमे बे, सारां सारां वस्त्रो पहेरे , तेम पर्युषणादिक पर्वमा विशेष प्रकारे पुण्य करवं. कां ने के, मंत्रोमां जेम परमेष्ठि मंत्र, तीर्थोमां जेम शत्रुजय, दानोमां जेम अन्नयदान, गुणोमां जेम विनय, व्रतोमा जेम ब्रह्मचर्य, नियमोमां जेम संतोष, तथा तपोमां जेम समता , तेम सर्व पर्वोमां पर्युषणापर्व श्रेष्ठ जे. वली तेवीज रीते असाड चोमासु, कार्तिक चोमासुं, फागण चोमासु, अने चैत्र तथा आश्विन मासनी अ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ उपदेशतरंगिणी. वाइ पण उत्तम पर्वो बे. इत्यादि पवतिथिमां प्रतिक्रमण - दिक कर्याथी शुभकर्मो बंधाय बे. कांबे के अष्टमीनी तिथि ठे कर्मोंनो नाश करनारी बें, चतुर्दशी मोक्ष आपनारी बें पंचमी केवल ज्ञान आपनारी बे. अष्टाहिकादिमहिमां जिनपुंगवानां कुर्वेति ये सुकृतिनः कृतिनः सुभक्त्या ॥ कर्माष्टकं जगति ते हि नवाष्टकस्य मध्ये विधूय शिवदं शिवधाम यांति ॥ १ ॥ अर्थ- जे पुण्यशाली जीवो उत्तम नक्तिश्री श्री जिनेश्वर प्रभुर्जनो अाइ महोत्सव करे बे, ते या जगतमां खरेखर व जवनी अंदर आठे कर्मोनो नाश करीने सुख देनारा मोप्रते जाय बे. सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, जिनपूजा, स्नात्रपूजा, विलेपनपूजा, ब्रह्मचर्य, दान, दया प्रमुख क्रिया चतुर्मासनां - भूषणो बे. वली ते चतुर्मासमां श्रावकोए व्याख्यान श्रवण, जिनदर्शन, गुरुवंदन, प्रत्याख्यान, श्रागमश्रवण, तथा शक्तिमुजब तप विगेरे पण कार्यो करवां वली सांवत्सरिक पर्वने पण उपली क्रीयार्जनी साथे आलोचना तथा क्षमायाचन पूर्वक सफल करवुं. जिणाएं पूजत्ताए, साहूणं पजुवास | आवस्सयंमि सज्जाए, नऊमेह दिये दिले ॥ १ ॥ अर्थ - जिनेश्वरोनी पूजामां, साधुर्जनी पर्युपासनामां, श्रावश्यकमां, तथा सज्जाय ध्यानमां दनदनप्रते उद्यम करवो. एक दहाडो श्री हेमचंद्राचार्ये कुमारपाल राजाने उपदेश दधाथी ते त्रिकाल जिनपूजामां तत्पर थया, हमेशां अढारसो Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १७ कोटीध्वज शाहुकारोसहित पोताना बनावेला तिहुश्रणविहार नामना जिनमंदिरमां ते स्नात्रपूजा करवा लाग्या, चतुर्दशीने दिवसे पौषधव्रत लेवा लाग्या, साधर्मीळनां वात्सट्य करवापूर्वक लोजन करवा लाग्या, दरेक वरसे गरीब श्रावकोने क्रोमोगमे सोनामोहोरो देवा लाग्या, पोताना अगीयार लाख घोडाउने हमेशां वस्त्रथी गालेलं पाणी पावानो तेमणे माणसोने हुकम कर्यो हतो, साते व्यसनोनुं निवारण कर्यु, एवी रीते अनेक पुएयनां कार्यो ते राजाए करेलां . . देवपूजा दया दानं, दाक्षिण्यं दमददते ॥ यस्यैते षट् दकाराः स्युः, स देवांशी नरः स्मृतः ॥१॥ अर्थ- देवपूजा, दया, दान, दाक्षिणता, दमता, तथा ददता ( डहापण ) एउ“दकारो" जेनी पासे , तेने देवांशी पुरुष जाणवो.. जेम श्री विक्रमादित्य राजाए, सिधसेनदिवाकरे प्रगट करेली पार्श्व प्रनुनी प्रतिमा जोश्ने अत्यंत जावपूर्वक तेनी पूजा करी हती. वली एक दहामो तेज राजाए नीचे पडेला अदतना कणने, हाथी उपरथी पोते उतरीने पोताना मस्तकपर चडाव्या, ते जोर धान्यनी अधिष्ठाता देवीए खुशी थश्ने तेने वरदान मागवानुं कडं, त्यारे विक्रम राजाए कह्यु के, मारा मालवदेशमा कोइपण दिवसे उकाल न पडे तेवु वरदान आपो? ते सांजली देवीए तेवु वरदान आप्यु, अन तेथी आजदनसुधि पण मालवामां उकाल पडतो नथी. वली तेज राजाए सुवर्णपुरुषनी सिघिथी क जीवितपर्यंत सघली पृथ्वीने करजरहित करी हती, अने तेथी आजे पण तेनो संवत्सर चाले . पूज्यपूजा दया दानं, तीर्थयात्रा जपस्तपः॥ श्रुतं परोपकारश्च, मय॑जन्मफलाष्टकम् ॥१॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 उपदेशतरंगिणी. अर्थ - जिनपूजा, दया, दान, तीर्थयात्रा, जप, तप, ज्ञान, परोपकार ए वे मनुष्य जन्मनां फलो बे. कां बे के, त्रिकाल देवपूजा करवी, यशने एकठो करवो, लक्ष्मीने सुपात्रे पवी, न्यायमार्गपर मनने दोडाव, काम, क्रोध आदिक शत्रुर्जने मारवा, प्राणी प्रते दया करवी, जिनेश्वर प्रजुए कहेला सिद्धांतो सांजलवां, अने तेम करीने वेगथी मुक्तिरूपी स्त्रीने वरवी जिनपूजा करवाथी जय थतो नथी, दरिद्रता नाश पामे बे, तथा कुगति पण मलती नथी. देवपूजा गुरूपास्तिः, स्वाध्यायः संयमस्तपः ॥ दानं चेति गृहस्थानां, षट् कर्माणि दिने दिने ॥ १॥ अर्थ- देवपूजा, गुरुसेवा, सज्जायध्यान, संयम, तप, अने दान ए कार्यो गृहस्थोए हमेशां करवां. श्रावकोनां गृहकार्य, काननुं कार्य, व्यापार, धनोपार्जन दिक कार्यो तो या लोकने साधनाएं बे, पण उपर जावेलां कार्यो परलोक साधनाएं बे, माटे श्रावकोए ते कार्यो हमेशां करवां. शास्त्रमां कह्युं वे के, त्रिकाल जिनपूजा करवी, हमेशां संघनुं सन्मान करवुं, सज्जायध्यान करवुं गुरुसेवा करवी, विधिपूर्वक दान देवुं, प्रतिक्रमण करवुं शक्तिप्रमाणे व्रत पालवं, ज्ञाननी पाठ करवो, इत्यादि धर्मकार्यो श्रावको करवां. मंडपदुर्गमां कुंवरपाल नामना श्रावक हमेशां दरेक पहोरे सीता महासतीए करावेली श्री सुपार्श्वनाथ प्रजुनी प्रतिमानी पूजा करता जेम श्रेणिक राजा विविध प्रकारनां पुष्पादिकोथी जिनपूजा करेली बे, ते जिनपूजा करवी, श्रीकृष्ण जेम नेमीश्वर प्रजु प्रमुख अढार हजार साधुर्जने वांद्या हता तेम गुरुमहाराजने वंदन कर. - यांसकुमारनी पेठे दान देवुं, सुदर्शन शेवनी पेठे शील पालवं. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ सलवा. उपदशेतरंगिणी. आदीश्वर प्रनुनी पेठे तप करवो. जरत चक्रीनी पेठे नावना जाववी. वधारे शुं कहेवू ? कामदेव श्रावकनी पेठे धर्ममां दृढता राखवी. __ एक दहाडो श्रेणिक राजा तथा अनय कुमारे नगरनी बहार श्वेत अने श्याम रंगना बे मेहेलो बंधाव्या. पी धर्मी अने पापीउनी परीक्षामाटे तेए नगरमां एवो पटह वगडाव्यो के, जे धर्मी होय तेए श्वेत मेहेलमां जq, अने जे पापी होय तेउए श्याम मेहेलमा जq. ते सांजली सघला व्यापारी तथा कालकसूकर आदिक पापीठे श्वेत प्रासादमां दाखल थया, अने आनंद श्रावक तथा कामदेव श्रावक बन्ने जण श्याम प्रासादमां दाखल थया. ते जो श्रेणिक राजाए तेउने पूज्यु के, तमो अहीं केम आव्या ? त्यारे ते बन्ने महान् श्रावकोए कह्यु के, अमो तो गृहस्थी जीए माटे महा आरंज विगेरे पापोमां पमेला बीए. ते सांजली राजाए तेउने नमस्कार करी तेउनु पूजन कयु. जिनपूजा, विवेक, सत्य, पवित्रता, सुपात्रदान विगेरे श्रावकोनां आजूषणो , पण मुकुट, कंकण, हार, मुनिका विरेरे खरेखरां कंई आजूषणो नथी. कडुं ने के, गुरुनी आज्ञा, ते तिलकरूप , श्रागमोनां वचनोनुं श्रवण कुंडलरूप , ज्ञान हाररूप बे, दान कंकणरूप बे, महान् तीर्थोनी यात्रा करवी ते चरणोनुं जूषण , एवी रीतनां दिव्य आजूषणो उत्तम श्रावकोए अंगीकार करवां. एक दहाडो घारिका नगरीमां श्री नेमिनाथ प्रनु संध्या समये आवीने समोसर्या. त्यारे श्रीकृषणे पोतानी सन्नामां कडं के, प्रजातमां श्री नेमिनाथ प्रचने जे माणस प्रथम जश्ने नमस्कार करशे तेने दुं मारो पाटवी घोडो आपीश. ते सांजली घोडानी लालचथी अश्वपाल रात्रिएज प्रजुने जश् वांदी आव्यो. शांबकुमारे पोताना घरमांज रहीने प्रनुनी दिशासन्मुख सात आठ प Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ उपदेशतरंगिणी. गलां चालीने तथा उत्तरासंग करीने, एकसो श्राप काव्योनी स्तुतिपूर्वक प्रचने वंदन कर्यु. प्रनाते प्रजुना मुखथी ते बन्नेनो वृत्तांत जाणीने श्रीकृष्णे शांबकुमारने ते पाटवी घोडो प्राप्यो, अने अश्वपालने अजव्य जाणीने नगरमांथी कहाडी मेट्यो. किंकरंति सुरास्तस्य, तस्य मित्रंति शत्रवः॥ येन जन्मांतरोपाता, पूजा पुण्यमहौषधी ॥१॥ अर्थ- जे माणसे जन्मांतरमा पुण्यरूपी महान् औषधिरूप जिनपूजा मेलवेली , तेनी पासे देवो तो चाकररूप श्रश्ने रहे, तथा शत्रुपण तेना मित्रो थाय ने. परोपकारः सुकृतैकमूलं, परोपकारः कमलाउकूलम् ॥ परोपकारः प्रजुताविधाता, परापकारः शिवसौख्यदाता अर्थ- परोपकार , ते पुण्यनुं मूल बे, लक्ष्मीनी साडी ने, मोटा करनारो ने, तथा मोद सुखने आपनारो वे. (तेपर हुष्टांत कहे.) ... एक दहामो सौधर्मे पोतानी - सनामां कडं के, हे देवो? श्रीकृष्ण वासुदेव कोनो पण अवगुण बोलता नथी. ते सांजली कोश्क देवे तेनी परीक्षामाटे श्रीकृष्णाने जवाना मार्गमा एक कुतरानुं मुडई मेट्यु, अने तेमांथी अत्यंत सुगंध फेलावा लागी. . ते जो श्रीकृष्णे तेना सर्व अवगुणो दूर करीने कह्यु के, नीलमना थालमां जेम मोती, तथा आकशमां जेम तारा तेम श्रा कुतराना श्याम शरीरमां तेना दांतोनी श्रेणि शोले . ते जो तुष्टमान थएला देवे प्रत्यद थश् तेमने वरदान मागवानुं कडं. त्यारे श्रीकृष्णे कडं के, जो तुं मारापर तुष्टमान श्रयो होय तो तुं तेम कर के, जेथी सर्व लोकोने रोगनो उपव न थाय. केमके, श्रा मारुं अने था परनुं एवी गणना तो कुज माणसोनी Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १७३ होय , उदार माणसोने तो आ सर्व पृथ्वी कुटुंबरूपज बे. ते सांजली ते देवे तेमने एक चंदननी नेरी आपी, अने कह्यु के, आ री वगाडवाथी माससुधिमां रोगनो उपजव नहीं थाय, एम कही ते देव अंतर्ध्यान थयो. पनी केटलेक काले ते नेरी साचवनार माणसे लोनथी तेना टुकडा करी वेची नाख्या. पनी रोगनी शांति माटे श्रीकृष्णे धन्वंतरि अने वैतरणी नामे बे वैद्यो बनाव्या. एम विचारि सर्व लोकोए परोपकार करवो. पूजामाचरतां जगत्रयपतेः संघार्चनं कुर्वताम तीर्थानामन्निवंदनं विदधतां जैनं वचः शृण्वताम् ॥ सदानं ददतां तपश्च चरतां सवानुकंपाकृतां येषां यांति दिनानि जन्मसफलं तेषां सपुण्यात्मनाम् ॥ अर्थ-त्रणे जगतना स्वामिनी पूजा करतां अका, संघनी नक्ति करतां थकां, तीर्थोनी यात्रा करतां थकां, जैनवचन सांजलता थकां, सुपात्रे दान आपतां थकां, तप तपतां थकां, तथा प्राणीउपर दया करतां कां जे पुण्यशालीऊना दिवसो निर्गमन थाय ने, तेनोज जन्म सफल बे. वली देवनी पूजा करतां थकां, सत्य वचन बोलतां, थकां, सजनोनो संग करतां थकां, तथा दान देतां थकां जेना दिवसों जाय , तेनाज गोत्रने जन्मने अने जीवितने अमो उत्तम मानीए बीए. निजा लीधाबाद पंचपरमेष्ठीनुं ध्यान धरवू, दिवसे जिनपूजा कर्याबाद व्यापार आदिक कार्य करवू, साधुऊने वंदन करवू, प्रमादनो त्याग करवो, सिद्धांतो सांजलवां, सर्वपर उपकार करवो, सुपात्रे दान आपq, विगेरे उत्तम कार्यो करवां. हवे तेपर दृष्टांत कहे.. चंपा नामनी नगरीमां जिनदास नामे एक श्रावक वसतो हतो ते त्रिकाल जिनपूजन करतो हतो, बन्ने वखत प्रतिक्रमण करतो Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ उपदेशतरंगिणी. हतो, तथा प्रत्याख्यान आदिक करीने गुरुसेवामां पण तत्पर रतो हतो. एक दहाडो ते आठमने दिवसे पौषधव्रत लेश्ने रात्रिए एक शून्य घरमां कायोत्सर्ग ध्यानमा रह्यो हतो. एटलामां परपुरुषमां आसक्त थएली तेनी स्त्री पोताना यारसहित तेज घरमां एक खाटलो लेझ्ने आवी. ते खाटलाना पायामां एक अएणीवालो खीलो हतो. अंधारामां ते खाटलो तेणीए त्यां नाख्यो, अने तेथी ते खीलो जिनदासना पगमां खुंची गयो. तेथी तेने घणुं कष्ट थयुं, मेरुनी पेठे निष्कंप रही कोयोत्सर्ग ध्यानमांज ते मृत्यु पामीने देवलोकमां देवपणे उत्पन्न भयो. तथा त्यांथी आवीने तेणे पोतानी स्त्रीने प्रतिबोध आप्यो. वंद्यास्तीर्थकृतः सुरेंजमहिताः पूजां विधायामलां सेव्याः सन्मनयश्च पूज्यचरणाः श्रव्यं च जैनं वचः ॥ सहीलं परिपालनीयमतुलं कार्य तपो निर्मलं ध्येया पंचनमस्कृतिश्च सततं नाव्या च संज्ञावना ॥१॥ __ अर्थ- इंशोथी पूजाएला एमा तीर्थकरोनी निर्मल पूजा करीने तेमने वांदवा, पूज्यपाद एवा उत्तम मुनिउँने सेववा, जिनवचन सांजल, निर्मल तप तपवो, हमेशां पंचपरमेष्ठीनुं ध्यान धरवू तथा शुल लावना लाववी. कर्तव्यं जिनवंदनं विधिपरैर्हर्षोलसन्मानसैः सच्चारित्रविनूषिताः प्रतिदिनं सेव्याः सदा साधवः ॥ श्रोतव्यं च दिने दिने जिनवचो मिथ्यावनिर्नाशनं दानादौ ब्रतपालने च सततं कार्या रतिः श्रावकैः ॥१॥ अर्थ- हर्षथी जवसायमान मनवाला थश्ने हमेशां विधिपूर्वक जिनवंदन करवू, उत्तम चारित्रथी नूषित श्रएला मुनिने हमेशां सेववा, दन दनप्रते मिथ्यात्वनो नाश करनारं एवं जिन Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १०५ वचन सांजलq तथा व्रत पालवामां अने दानादिकमां पण हमेशां श्रावकोए प्रीती करवी. __ अहीं कुमारपाल राजानु, चिलातिपुत्रनुं, वंकचूलनु, मास- . तुसमुनिनु, चंदनबालानु, मूलदेवतुं, तथा शालिजनुं अंबडपरिव्राजकनुं विगेरे दृष्टांतो जिनपूजनादिक उपरे जाणी सेवां. दया दीनेषु वैराग्यं, विधिवजिनपूजनं ॥ विशुधा न्यायवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबंध्यदः ॥१॥ अर्थ- गरीबो प्रते दया, वैराग्य, विधिपूर्वक जिनपूजा, अने शुद्ध न्यायवृत्ति, ए पुण्यानुबंधि पुण्य .. इति तपगजेश श्री सोमसुंदरसूरि श्री रत्नशेखरसूरि पं० नंदिरत्नगणि शिष्य पं रत्नमंदिरगणि गुंफितायां श्री उपदेशतरंगएयां पूजापंचाशक नामा तृतीयस्तरंगः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥ ___ चतुर्थस्तरंगः प्रारभ्यते हवे तीर्थयात्राना उपदेशरूप चोथो तरंग कहे जे. वपुः पवित्रीकुरु तीर्थयात्रया,चितं पवित्रीकुरु धर्मवांउया। वित्तं पवित्रीकुरु पात्रदानतः, कुलं पवित्रीकुरु सच्चरित्रैः अर्थ- हे जव्य माणस ! तुं तीर्थयात्राथी शरीरने पवित्र कर? धर्मनी स्वाथी मनने पवित्र कर ? सुपात्र दानथी धनने पवित्र कर ? तथा उत्तम आचरणोथी कुलने पवित्र कर ? श्रीसिद्धसेन दिवाकरजीना प्रतिबोधथी विक्रमराजाए चौद मुकुटबद्ध राजा, सीत्तेर लाख श्रावको, सिद्धसेनदिवाकर प्रमुख पांच हजार आचार्यो, एकसो जंगणोतेर सुवर्णनां जिनमंदिरो, एक क्रोड दश लाख अने पांच हजार गाडांट, श्रढार Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ उपदेशतरंगिणी. लाख घोडा, उत्रीससो हाथी, तथा बीजी पण केटलीक सामग्री सहित श्रीशत्रुजय तीर्थनी यात्रा करी हती. प्रन्नावना श्रीजिनराजचैत्यं, जिनमतिष्ठा जिनतीर्थयात्रा ॥ अमारिरेतानि महावृषाणि, पंचापि पंचांगरमाकराणि ॥१॥ अर्थ- प्रनावना, जिनमंदिर, जिनबिंबनी प्रतिष्ठा, जिनतीर्थोनी यात्रा, तथा अमारिपटह ए पांचे महाधर्मनां कार्यो, पंचांगी लक्ष्मीना हाथोरूप जे. हवे तेपर दृष्टांत कहे. एक दहाडो अढारसो कोटिध्वज व्यापारिउनी साथे कुमारपाल राजाए पौषध ग्रहण करेलो हतो, ते वखते कुमारपाल राजा श्री हेमचं महाराजने वांदिने तेमनी पासे बेग हता. ते वखते हेमचंघजी महाराजे तेमने तीर्थयात्रानो उपदेश आप्यो के, आरंलोनी निवृत्ति, व्यनी सफलता, संघर्नु वात्सट्य, जीर्ण चैत्योनो नझार, ए सघलां तीर्थयात्रानां फलो ने, अने तेथी तीर्थकर गोत्र बंधाश्ने आवटे मोद मले . ते सांजली कुमारपाल राजाए तेमने पूज्युं के, हे लगवन् ! यात्रा केटला प्रकारनी ने? त्यारे आचार्य महाराजे कडं के, अष्टाहिका, रथयात्रा, तथा तीर्थयात्रा एम यात्रा त्रण प्रकारोनी बे. ते सांजली कुमारपाल राजाए बहोतेर राणा तथा अढारसो कोटिध्वज शाहुकारो अने लाखो गमे बीजा श्रावकोना संघसहित श्री विमलाचल, गिरनार विगेरे तीर्थोनी घणाज आमंबरथी यात्रा करी. तेमां दरेक स्थानके स्नात्रमहोत्सव, ध्वजारोपण, संघवात्सट्य, आदिक कार्यों तेमणे कर्या, तेनो विशेष वृत्तांत जिनमंमन वाचकना रचेला कुमारपाल प्रबंधथी जाणी लेवो. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी.. १७७ हवे ते तीर्थयात्रा नीचेप्रमाणे विधिपूर्वक करवी. एकाहारी नूमिसंस्तारकारी, .. पनयां चारी शुधसम्यकावधारी॥ यात्राकाले सर्वसञ्चितहारी, पुण्यात्मा स्याद् ब्रह्मचारी विवेकी ॥१॥ अर्थ- विवेकी एवो पुण्यशाली माणस यात्रा समये एक वखतज लोजन करनारो होय,' पृथ्वीपर संथारो करनारो होय, पगे चालनारो होय, शुद्ध सम्यक्त्वने धरनारो होय, सर्व प्रकारनां सचित्तोने परिहरनारो होय, तथा ब्रह्मचारी होय. आबुजी पासे रहेला उवर नामना गाममा रहेनार पारसशाहना पुत्र देशलशाहे चौद कोड सोनामोहोरो खरचीने शत्रुजय श्रादिक सात तीर्थोनी यात्रा करी जे. कडं ने के, श्रीदेशलः सुकृतपेशलवितकोटी श्चंचच्चतुर्दशजगजानितावदातः॥ · शत्रुजयप्रमुख विश्रुतसप्ततीर्थ यात्राश्चतुर्दश चकार महामहेन ॥१॥ वली तेज देशलशाहना वंशमां श्रएला लमशाह तथा वीजडशाहे विक्रम संवत १३५३नी सालमां विमलवसतिनो उद्धार कर्यो. सदा शुन्नध्यानमसारलक्ष्भ्याः , .. फलं चतुर्धा सुकृतातिरुच्चैः ॥ तीर्थोन्नतिस्तीर्थकृतां पदाप्ति गुणा हि यात्रामन्नवाः स्युरेते ॥१॥ अर्थ- हमेशां शुलध्यान, असार एवी लक्ष्मीनु फल, उंचेप्रकारे पुण्यनी प्राप्ति, तीर्थनी उन्नति, तथा तीर्थकरपदनी प्राप्ति , एटलां तीर्थयात्राथी श्रतां फलो जाणवां. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. तीर्थयात्रामां मार्गमां देवपूजा, दरेक गामनां चैत्योनी परिपाटी, संघवात्सत्य आदिक कार्यो करवाथी शुल ध्यानज रहेने, पण धान्य, घृत, चर्म, वस्त्र आदिकना व्यापारीनी पेठे ते समये, "काल आदिक थाय तो ठीक" एवी रीतर्नु पुर्ध्यान कंथतुं नथी. वली ते समये चंचल एवी लक्ष्मी ने साते देत्रोमां जोमवाथी तेनी सफलता पण थाय जे. वली बरी पालवाथी दान, शील, तप तथा लावनारूप पुण्योनी प्राप्ति थाय जे; वली ते समये जगो जगोए महोत्सव करवाश्री तीर्थनी उन्नति पण थाय ने, अने परजवमां तेथी तीर्थकरगोत्र श्राय . . जेम थारापा नामना नगरना रहेवासी श्रीमाल ज्ञातिना शेठे मोटा आडंबरथी श्री शत्रुजय तीर्थनी यत्रा करी हती. ते समये तेनी साथे सातसो तो देवालय हतां; तेमां एक हजार पांचसोने दश जिनबिंबो हतां. चार हजार गामां हतां. पांच हजार घोडाउँ हता. बावीसो घंटो हता; नेवु पालखी हती. सात पाणीनी परबो हती. बेंतालीस जल वहन करनारा बलदो हता. त्रीस जलवहन करनारा पामा हता. एकसो रसोइ करवानां मोटां कडायां हतां. बत्रीस आचार्यो हता. एकसो कंदोई हता. एकसो बीजा रसोश्या हता. बसो माली हता. एकसो तंबोली हता. एकसो उत्रीस उकानो हती. चौद लुहारो हता. सोल सुतारो हता. अने ते तीर्थयात्रामां तेणे बारक्रोम सोनामोहोरो खरची हती. एक क्रोड सोनामोहोरो खरचीने तेणे ज्ञाननंमार कराव्यो, अने ते ज्ञानगंडारमा बलाख अने उंगणचालीस हजार पुस्तको तेणे लखाव्यां. ते दरेक पुस्तकनी अकेकी प्रति तेणे सुवर्णनी साहीथी लखावी, अने बाकी सघली मषीनी साहीथी लखावी. वली त्रणसो आठ श्रावकोने तेणे पोताना सरखाज धनाढ्य कर्या. वली तेणे बे एवी तो उत्तम कोरणीनां जिनमंदिरो बंधाव्यां के, एकेक जिनमंदिरनी किम्मतश्री साधा Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. रण कोरणीनां तेवां चोर्यासी चोर्यासी जिनमंदिरो थाय. वली पोताना मृत्यु समये तेणे साते देत्रोमा सात क्रोङ सोनामोहोरोनो व्यय कर्यो. १८‍ श्री तीर्थपांथरजसा विरजीजवंति, तीर्थेषु बंज्रमणतो न नवे मंति ॥ अव्यव्ययादिह नराः स्थिर संपदः स्युः, पूज्या जवंति जगदीशमथार्चयतः ॥ १ ॥ अर्थ - श्री तीर्थमार्गनी रजथी प्राणी कर्मोरूपी रजथी मुक्त थाय बे, तीर्थोमां जमवाथी या जवमां जमवुं पडतुं नथी, तीर्थमां प्रव्यनो व्यय करवाथी प्राणी स्थिर संपदावाला थाय बे, जुने पूजवाथी ते पण पूजनीक थाय बे. 'जेम श्रीवस्तुपाले विक्रम संवत १२०५ मां पेहेली श्री शत्रुजय तीर्थनी यात्रा करी हती. ते समये तेमनी साथे चोवीस तो हाथीदांतनां जिनमंदिरो हतां, एकसो वीस काष्ठनां जिनमंदिरो हतां, पस्ताली ससो गाडां दतां, सातसो पालखी हती. पांचसो कारिगरो हता, सातसो आचार्यो हता, बे हजार श्वेतांबर मुनिर्ज हता, ग्यारसो दिगंबरो दता, उगणी ससो साधवीट हती, चार हजार घोडा हता, बे हजार उंटो हता, अने, सात लाख तो माणसो हतां. एवी रीते पेहेली यात्रा कर्या बाद तेथी अधिकाधिक श्राडंबरथी तेमणे बीजी यात्रा करी हती. सुराष्ट्र देशमां श्रावेला गोमंगल नामना गामना रहेवासी धाराकशाह नामे शेव हता. तेने सात पुत्रो हता, सातसो सुन्नटो हता, तेरसो गाडां हतां, अने तेर क्रोम सोनामोहोरो तेनी पासे हती. तेली सामग्रीसहित श्री शत्रुंजय तीर्थनी यात्रा करीने ते रैवताचलपर गया. पण ते समये ते तीर्थने दिगंबरोए स्वाधिन Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० उपदेशतरंगिणी. करेलु हतुं. अने तेथी तेणे त्यांना राजा खेंगारसाथे युद्ध करवं प्रड्यु. तेमां तेनां सात पुत्रो, तथा सातसो सुन्नटो मार्या गया. तेथी ते शेठ बप्पनटीजीसूरिना सेवक आमराजापासे गोपगिरिमां गया. अने त्यां व्याख्यानमां जश् तेमणे पोतानो वृत्तांत श्राचार्यजी महाराज.पासे निवेदन कर्यो. ते सांजली श्री बप्पनट्टीजी सूरिराजे ते श्री गिरनार तीर्थनो महिमा व्याख्यानमां कही बताव्यो. ते सांजली आमराजाए एवो अनिग्रह लीधो के, गिरनारपर श्री नेमिनाथ प्रनुनां दर्शन को विना मारे नोजन करवू नहीं. ते जोइ त्यांना बीजा एक हजार श्रावकोए पण तेवोज अनिग्रह लीधो. पनी त्यांथी संघ चालवा लाग्यो ते वखते एक लाख सुनटो, एकलाख घोडाठ, सातसो हाथी, वीसहजार उंटो; त्रण लाख पाला, वीसहजार श्रावको विगेरेनो परिवार हतो. बत्रीस उपवासे ते राजा अनुक्रमे स्तंजतीर्थमां पधार्या. तथा पनी अंबिका देवीना प्रसादथी दिगंबरोनो पराजय कों, अने त्यांथी प्रयाण करी गिरनारनुं तीर्थ स्वाधिन कयु. सद्व्यं सत्कुले जन्म, सिधदेत्रं समाधयः ॥ संघश्चतुर्विधो लोके, सकाराः पंच उर्लन्नाः ॥ १॥ __ अर्थ- सद्रव्य, सुकुलमा जन्म, सिघदेत्र, समाधि तथा चतुर्विध संघ ए पांच सकारो आ जगतमां पुर्खन . शत्रुजयः शिवपुरं, नदी शत्रुजयान्निधा ॥ श्रीशांतिः शमिनां दानं, शकाराः पंच उर्खन्नाः॥१॥ अर्थ- शत्रुजय तीर्थ, शिवपुर, शत्रुजयी नदी, शांतिनाथ प्रनु तथा शमियो (मुनियो) प्रते दान, ए पांच शकारो उर्लन . जे माणसो सर्व प्रकारोथी विधिपूर्वक श्रा तीर्थयात्रा Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. ११ करे, तेठए चंजमा पोतानुं निर्मल नाम लखेळु , तेउए आ पृथ्वीने पवित्र करेली , वली ते कृतार्थ पुरुषो सजनोने वंदनीक , तेम ते वंशना आजूषण रूप , वली अत्यंत अव्यवान या थकाजीवे , अने जय पामे , तथा तेज कट्याणना स्थानक रूप . एवी रीतनो उपदेश श्री धर्मघोष सूरिजीना मुखथी सांजलीने पेथडशाह तथा छांऊणशाहे विमलाचलनी घणाज आडंबरथी यात्रा करी हती. तेनो विशेष वृत्तांत रत्नमंमन सूरिजीए करेला सागरकाव्यथी जाणी लेवो. जरत चक्रीए शत्रुजय तीर्थपर स्वर्णमय प्रासाद बंधावीने तेमां मणिमय प्रतिमा स्थापी हती. तेमना समयमां नवाणुं क्रोम नेव्यासी लाख अने चोर्यासी हजार राजा संघपति श्रया हता. सगर चक्रीए ताम्रमय प्रासाद बंधावीने तेमां रत्नमय बिंबो स्थापन कर्या हता. तेना समयमां पचास क्रोड पंचाणुलाख अने पंचोतेर हजार राजा संघपति श्रया हता. पांवो अने विक्रमादित्य वच्चे चोर्यासी हजार राजा संघपति श्रया हता. तैरात्मा सुपवित्रितो निजकुलं तैर्निर्मलं निर्मितं तैः संसारमहांधकूपपततां हस्तावलंबो ददे ॥ लब्धं जन्मफलं कृतं च कुगतिघारैकसंरोधनं ये शत्रुजयमुख्यतीर्थनिवहे यात्रासु कृप्तोद्यमाः॥१॥ अर्थ- जेए श्री शत्रुजय तीर्थनी यात्रामा उद्यम करेलो बे, तेउए श्रात्माने पवित्र करेलो ने, पोताना कुलने निर्मल करेलुं बे, संसाररूप अंधकुवामां पडता माणसोने हस्तावलंबन दीधेलुं ने,जन्मनुं फल मेलव्युं, तथा कुगतिनाघारने अटकाव्युं बे. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ उपदेशतरंगिणी. कां वे के, हजारो गमे पापो करीने, तथा सेंकडो गमे जीवोने मारीने पण तीर्थ मेलवीते तिर्यचो पण मोदे गएला ठे. तीर्थन सर्व महिमा शत्रुंजयमाहात्म्यथी जाणी लेवो. वली हीं बावन देवालयनी यात्रा करनारा सारंगशाह, चम्मालीस देवालयनी यात्रा करनार सोनपाल शाह, चोविस देवालयनी यात्रा करनार सालिंगशाह, समराशाह विगेरेनां दृष्टांतो जाणी लेवां. श्री बप्पनट्टीजी सूरिजी आकाशगामिनी नामनी विद्याना बलथी हमेशां पंचतीर्थांनी यात्रा करता हता. इति श्री तपागल नायक श्री सोमसुंदर सूरि श्री रत्नशेखर सूरि पं० नंदिरत्नगणि शिष्य पं० रत्नमंदिरगणि गुंफितायां श्री उपदेशतरंगिण्यां चतुर्थस्तीर्थयात्रोपदेशस्तरंगः ॥ श्रीरस्तु ॥ पंचमस्तरंगः प्रारभ्यते वे धर्मोपदे रूप पांचमो तरंग कहे. यत्कल्याणकरोऽवतारसमयः स्वप्नानि जन्मोत्सवो यत्नादिकवृष्टिरिंऽविहिता यडूपराज्यश्रियः ॥ यद्दानं व्रतसंपडुज्ज्वलतरा यत्केवलश्रीर्नवा ययातिशया जिने तदखिलं धर्मस्य विस्फुर्जितम् ॥ १ ॥ 1 अर्थ - जिनेश्वर प्रजुना जन्मसमये जे कल्याणक थाय बे, तेमनी माताने जे उत्तम स्वप्नो आवे बे. तेमनो जे जन्मोत्सव थाय बे, इंड जे तेमनी पासे रत्नोनी वृष्टि करे बे. वली तेमने जे रूपाने राज्यनी शोजा मंले बे, तेमनुं जे वरसीदान बे. उत्तम व्रत बे, तेम केवलज्ञाननी जे तेमने लक्ष्मी बे, तेम तेमने जे उत्तम अतिशय बे, ते सघलुं धर्मनुं माहात्म्य बे. वली निराधार एवा पण कुमारपालने जे श्रढार देशोना रज्यनी प्राप्ति थइ, श्री पालराजाना कुष्टनी शांति थइ, विक्रमराजाने Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ उपदेशतरंगिणी. अग्निवेताल वश थयो, नरत राजाने चक्रीपणानी प्राप्ति अश्, बाहुबलीने अत्यंत बल प्राप्त अयु, अजयकुमार तथा शाखिलजादिकोने अपूर्व शधि प्राप्त थइ, सुजूम चक्रीने माढाउँनो थाल चक्ररूप थयो, ते सघळु धर्मज माहात्म्य जाणवू. वली धर्मश्रीज समु, मेघ, अग्निविगेरे वश थाय ने. इंज, चक्री, वासुदेव विगेरे जे संपदाउँने लोगवे , ते सघळु धर्मनुज महात्म्य . सौधर्मेजने बत्रीसलाख विमानो, चोर्यासी हजार सामानिक दे. वो विगेरेनी शद्धि धर्मश्रीज मलेली . वली चक्रवर्तिने उ खंगजरतदेत्र, बत्रीसहजार देशो,नव निधानो,चौद रत्नो,उन्नुकोडगाम, नन्दु क्रोड पाला, चोर्यासीलाख हाथी, तेटलाज घोमा, तथा तेटलाज रयो, चोसठहजार राणी, एकलाख अजविस हजार वारांगनाढ, सेवा करनारा बत्रीसहजार मुकुटबद्ध राजा, विगेरे जे संपदा मलेली, ते पण धर्मना प्रजावटीज मलेली . वासुदेवने तेथी अधि शधि मले , तेम कोश्ने चिंतामणिरत्न, कामधेनु, दक्षिणावर्तशंख, चित्रावेली, सुवर्णसिधि, कल्पवृक्ष विगेरे जे उत्तम पदार्थो मले बे, ते पण धर्मनोज प्रत्नाव जाणवो. आरोग्यं सौन्नाग्यं, धनाढ्यता नायकवमानंदः॥ कृतपुण्यस्य स्यादिह, सदा जयो वांवितावाप्तिः ॥१॥ अर्थ- पुण्यशाली पुरुषने आ जगतमां हमेशां आरोग्यता, सौलाग्य, धनाढ्यपणुं, नायकपणुं, आनंद तथा इनित वस्तुनी प्राप्ति थाय . धर्मथी श्री आदिनाथ प्रनुनी पेठे आरोग्यपणुं मले जे. केमके, चोर्यासीलाख पूर्वना आयुष्यनी अंदर कोइपण दिवसे तेमनुं मस्तक पण मुख्यु नश्री; वली वरसीतपने पारणे जारी एवा सेखडीरसना पारणाथी पण तेमने कई नुकशानी या नहीं. वसुदेवनी पेठे धर्मथी सौलाग्य थाय ने केमके, सामान्यप २५ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ णामां पण हकने धर्मश्री धनहिणी राणी उपदेशतरंगिणी. णामां पण तेमनां बहोतेर हजार कन्या साथे लग्न थयां हतां. शालिजत्रादिकने धर्मथी धनाढ्यपणुं प्राप्त थयु जे. कुमारपालादिकने धर्मथी राज्य मड्यु जे. रोहिणी राणीने धर्मश्रीज शोकनो अनाव अने आनंद थयो जे. तेम बाहुबलि आदिकने धर्मश्रीज इलित वस्तुनि प्राप्ति थएली ... दिने दिने मंजुलमंगलावलिः, सुसंपदः सौख्यपरंपरा च ॥ इष्टार्थसिर्बिहुला च बुद्धिः, सर्वत्र सिधिवति हि धर्मात ॥१॥ अर्थ- दनदन प्रते मनोहर मंगलोनी श्रेणि, उत्तम संपदार्ज, सुखोनी श्रेणि, वांछित पदार्थोनी सिद्धि, अत्यंत बुद्धि, अने सर्व जगोए सिद्धि धर्मश्रीज थाय ने. __ मंगलो आ जगतमा व्यथी अने नावथी एम बे प्रकारनां वे. दधि, दूर्वा, अक्षत, चंदन विगेरे व्य मंगलरूप जे. पण तेथी पण अधिक धर्मरूप मंगल . वली दर्पण, नासन, स्वस्तिक, कलश, मत्स्य, पुष्पमाला, श्रीवत्स, तथा नंदावर्त नामना पाउ मंगलोपण अव्य मंगलरूप जे. वली पुण्यशाली पुरुषोने घेर देवपूजा, गुरुसेवा, विवाह आदिक महोत्सव, बंदिठना जयजय शब्दो विगेरे मंगलो हमेशां श्राय . वली घरना घारपासे मदोन्मत्त हाथी फुले के सोनेरी साजश्री नूषित थएला घोडा हेपारव करे बे; वीणा, मृदंग, शंख विगेरेना मंगलिक शब्दो थाय , ते सघलुं धर्मनुंज महात्म्य . अहीं श्री शांतिनाथ चक्री आदिकनां दृष्टांतो जाणी लेवां. वली धर्मथीज धम्मिल श्रादिकनी पेठे उत्तम संपदा मले बे. विक्रमराजानी पेठे धर्मधीज सुवर्ण पुरुषनी प्राप्ति श्राय बे. वली धर्मश्रीज अजय Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १ए कुमार श्रादिकनी पेठे उत्पादिकी, वैनयिकी, कार्मकी, श्रने पारिणामिकी नामनी चार प्रकारनी बुद्धि प्राप्त थाय जे. पुंसां शिरोमणीयंते, धर्मार्जनपरा नराः। आश्रियंते च संपनि-लतान्निरिव पादपाः ॥१॥ अर्थ- धर्म उपार्जन करवामां तत्पर एवा पुरुषो जगतमा शिरोमणिरूप थाय ने, तेम लताउँथी जेम वृदो तेम संपदाउँथी ते श्राश्रित थाय . . अहीं सारंगशाह, समराशाह, जगसिंशाह, पेथडशाह, वस्तुपाल, विमलशाह, जावडशाह, बाहममंत्री, कुमारपाल राजा, आमराजा विगेरेनां दृष्टांतो जाणी लेवां. वली नागिलाने तजनार लवदेवना लाइ नवदत्तनी पेठे लजाथी धर्म थाय ने, मेतार्य मुनिने हणनार सोनीनी पेठे जयश्री धर्म थाय ने, वितर्कथी चंडरूजाचार्यना शिष्यनी पेठे धर्म थाय ने, स्थूलना पर मात्सर्य करनार सिंहगुफानिवासी साधुनी पेठे मात्सर्यथी धर्म थाय , अर्हन्नक यति मातानी पेठे अथवा स्थूलनजना नाना नाश् श्रीयकनी पेठे स्नेहथी धर्म थाय ने, सुहस्ति महाराजे प्रतिबोधेला मकनी पेठे लोनथी धर्म थाय बे, बाहुबलिनी पेठे हत्थी धर्म थाय ने, दशार्णलष राजानी पेठे अनिमानश्री धर्म थाय , ( अहंकारना संबंधमां गौतमस्वामी, सिद्धसेन दिवाकर, हरिजन सूरि विगेरेनां संबंधो पण जाणी लेवा.) नमि विनमिनी पेठे विनयथी धर्म थाय , ब्रह्मदत्त चक्रीनी पेठे शृंगारथी धर्म थाय , आनीर तथा श्रायरक्षित आचार्यनी पेठे कीर्तिथी धर्म थाय ने, कार्तिक शेग्नी पेठे मुखथी धर्म थाय ने, गौतम स्वामिए प्रतिबोधेला पंदरसो त्रण तापसनी पेठे कौतुकधी धर्म थाय ने, इलापुत्रनी पेठे विस्मयश्री धर्म थाय , अजयकुमार तथा आर्षकुमारनी पेठे व्य Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ उपदेशतरंगिणी. वहारथी धर्म थाय ने, जरतचक्री तथा चंजावतंसनी पेठे जावथी धर्म थाय बे, कीर्तिधर, सुकोशील, श्रादिकनी पेठे कुलाचारथी धर्म थाय ने, जंबूस्वामी, धनगिरि, वज्रस्वामी, प्रसन्नचंड तथा चिलातिपुत्रादिकनी पेठे वैराग्यथी धर्म थाय ने. क्षमाने विषे गजसुकुमाल, कुरगमुकमुनि, वीरप्रनु, पार्श्वप्रनु, खंधकमुनि आदिकनां दृष्टांतो जाणवां. शीलविषे सुदर्शन श्रेष्ठी, मही प्रनु, नेमिनाथजी, स्थूलनजी, सीता, प्रौपदी, राजीमती आदिकनां दृष्टांतो जाणवां. सम्यक्त्वविषे श्रेणिकराजा, नारायण, तथा विक्रमराजा श्रादिकनां दृष्टांतो जाणवां. प्रनाविकपणाविषे श्री हेमचंत्राचार्य, जीवदेवसूरि, कालिकाचार्य, जिनप्रनसूरि, विष्णुकुमार, यशोदेवसूरि, आर्यखपुटाचार्य, बप्पनट्टीसूरि, पादलिप्तसूरि, धर्मघोषसूरि, मानदेवसूरि, मानतुंगसूरि, हरिलप्रसूरि विगेरेनां दृष्टांतो जाणवां, वधारे शुं कहे ? सर्व प्रकारथी करेलो धर्म महालानकारी थाय ने. कडुं ने के, धर्मः श्रुतोऽपि दृष्टोऽपि, कृतो वा कारितोऽपि च ॥ अनुमोदितोऽपि राजेंड, पुनात्यासप्तमं कुलम् ॥१॥ अर्थ- हे राजेंज! सांजलेलो, दीलो, करेलो, करावेलो भने अनुमोदेलो एवो पण धर्म बेक सात पेहेमी सुधि पवित्र करे ले. फलं च पुष्पं च सुतरुस्तनोति, वितं च तेजश्व नृपप्रसादः ॥ शाई प्रसिधि ननुते सुपुत्रो, नुक्तिं च मुक्तिं च जिनेधर्मः॥१॥ अर्थ- उत्तम वृक्ष फल अने पुष्पने विस्तारे , राजानी कृपा धनने अने तेजने वधारे , उत्तम पुत्र धन श्रने प्रशंसाने विस्तारे , अने जिनधर्म नुक्ति अने मुक्तिने विस्तारे जे. आंबा, दाडिम आदिक उत्तम वृदो स्वादिष्ट तथा मनोहर Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. फलो आपे , तथा चंपक श्रादिक उत्तम जातिनां पुष्पवृक्षो सुगंधि पुष्पोने आपे बे, राजानी मेहेरबानी होय तो उदयन, वाग्नट्ट आदिकोनी पेठे अन्यनी तथा तेजनी प्राप्ति थाय ने, उत्तम पुत्र पोताना कुलनी अने पूर्वजोनी प्रख्याति करे . तेने माटे श्री आदिनाथ प्रनु, वीरप्रनु, रामचंजजी आदिकनां दृष्टांतो जाणी लेवां. तेवीज रीते श्री जैनधर्म पांडवो तथा सगरचक्री आदिकनी पेठे आ लोकमां राजाधि श्रादिकना लोगो तथा परलोकमा मोह आपे बे. राजप्रसादो दिव्यास्त्रं, वाणिज्यं हस्तिरत्नयोः ॥ जैनधर्मस्तथैकोऽपि, महालानाय जायते ॥१॥ अर्थ- राजानी कृपा, दिव्य शस्त्र, तथा हाथी अने रत्नोनो व्यापार जेम, तेम एक पण जैनधर्म महादानकारी पाय . राजानी कृपा जेम तीर्थोझार, यात्रा श्रादिकनां महा खान माटे थाय ने, तेम जेम चक्र रत्न आदिक दिव्य शस्त्रोथी नर-. तचक्री, वासुदेव, बलदेव, चेमाराजा, कोणिकराजा, करकंग, शिलादित्य आदिक राजाउए राज्यसमृधि मेलवेली , वली श्वेतहाथी विक्रम राजाने आपवाथी जावडना पिता नावडशाहे तेमना पासेश्री मधुमती आदिक चोर्यासी गामो मेखव्यां हतां, वली मेतार्य अने कृतपुण्ये श्रेणिक राजाने रत्न आपवाथी तेनी पुत्री साथे लग्न कर्या हतां, तथा श्रानड श्रावके सिघराजने मणि आपीने पांचसो गामोनी मालेकी, तथा सवाकोड सोनामोहोरो मेलवी हती, तेम जैनधर्म पण मोक्ष आदिकनो महालाल श्रापे जे. कडं ने के, धुमणिस्पर्शपाषाण-दक्षिणावर्तशंखवत् ॥ कृष्णचित्रकवशिव-शानदं जिनशासनम् ॥१॥ अर्थ- चिंतामणि रत्नना स्पर्शथी जेम पाषाण, तथा दक्षिणावर्त शंख, अने चित्रावेलीनी पेठे जिनशासन लाल देना . Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ए उपदेशतरंगिणी. अतिनिर्मला विशाला, सकलजनानंदकारिणी प्रवरा॥ कीर्तिर्विद्या लक्ष्मी-धर्मेण विज़न्नते लोके ॥१॥ अर्थ- धर्मथी आ लोकमां अति निर्मल, विशाल, सघला लोकोने आनंद करनारी एवी कीर्ति, विद्या तथा लक्ष्मी फेलाय . कीर्ति लाग्यश्री मले ने, कां ने के, जे माणसने राजा सजनो तथा गुरु वखाणे , तेने उत्तम पुरुष जाणवो. वली जे माणसने लुच्चाउ, चारणो, तथा वेश्या वखाणे , तेने अधम पुरुष जाणवो. निर्मल ब्रह्मचर्यव्रत पालनारा स्थूलजजीनी, रामचंघजीना न्यायी राजनी, तेम श्री युगादि देवनी पण कीर्ति हजु विद्यमानज बे. विद्या पण पुण्यश्रीज मले जे. जेम श्रीबप्पनट्टीजी महाराज सातसो श्लोको हमेशां कंठे करता, वज्रस्वामीजीए पालणामां सुतां थकांज अग्यारे अंगोनो अभ्यास कर्यो हतो, उर्बलिका पुष्पमित्रमुनि हमेशां घृतादिक स्निग्ध पदार्थोनुं जोजन करता हता, उतां विद्याना अध्ययनना श्रमथी ते हमेशां . पुर्बलज रहेता हता; श्री सोमप्रनसूरिजीने एक गाथाना एकसो अर्थो करवानी शक्ति हती; देवसूरिजी महाराजनी वादलब्धि जगतमां प्रसिद्धज; हेमचंजाचार्यजीने व्याकरणादिक अनेकशास्त्रो रचवानी शक्ति हती. मलयगिरिजी तथा अजयदेवसूरिजी महाराजने अनेक सिद्धांतोपर टीका करवानी शक्ति हती. ते सघलो धर्मनोज प्रजाव हतो. वली लक्ष्मीपण पुण्यने अनुसरनारीज जे. जेम मुहणसिंह शेठ जगतमां सत्यवादी प्रसिघहता. एक दहाडो तेने जूटुं बोलाववा माटे बादशाहे सना समद पूज्यु के, तारा घरमां केटलुं अव्य ? त्यारे मुहणसिंह शेठे पोतानी सर्व देशावरोनी पेहेमीउँनुं सरवायुं वांची कह्यु के, मारा स्वाधिनमां चोर्यासी लाख सोनामोहोरो . ते सांजली संतुष्ट श्रएला बादशाहे तेने बीजी सोल लाख सोनामोहोरो आपीने तेने कोटीध्वज को. तथा मोटा उत्सवपूर्वक तेना घरपर तेणे को Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. १एए टिध्वजनी पताका बंधावी आपी. पठी ते लक्ष्मीने शेठे दान आपीने कृतार्थ करी. सुकुलजन्म विनूतिरनेकधा, प्रियसमागमसौख्यपरंपरा ॥ नृपकुले गुरुता विमलं यशो, नवति धर्मतरोः फलमीहशम ॥१॥ अर्थ- उत्तम कुलमां जन्म, अनेक प्रकारनी विनूति, प्रिय सजनोनो समागम, सुखनी श्रेणि, राज्यकुलमां मोटाइ, तथा निर्मल यश ए सघलां धर्मरूपी वृदनां फलो . .... इक्ष्वाकु आदिक उत्तम कुलोमां धर्मना माहात्म्यथीज जन्म थाय जे; वली ते जन्मने शोलावनारी लक्ष्मी पण धर्मश्रीज थाय ने लक्ष्मी ने ते खरेखलं मनुष्यनुं जूषण जे. केमके रामचंघजी महाराज उत्तम कुलना हता, तोपण वनवास समये ज्यारे ते वशिष्ठ ऋषिना आश्रममां पधार्या, त्यारे ते समये ते निर्धन होवाथी शषिए तेमने कंई सन्मान आप्युं नहीं. पी रावणनो जय करीने, अने लंकानुं अधिपतिपणुं मेलवीने ज्यारे ते पाग तेज श्राश्रममां आव्या त्यारे वशिष्ठ कृषि उन्ना थइ तेनी सन्मुख गया, तथा तेमने आसन आदिक यापी तेमनी घणीज आगतस्वागत करी. त्यारे रामचंअजीए तेमने कह्यु के, तेज तमोगे, अने तेज हुं बुं, तथा तेज तमारो आश्रम , पण पूर्वे तो तमो मने कं; पण श्रादरमान प्राप्यु नहीं, अने हमणां आपो गे तेनुं शुं कारण ? त्यारे वशिष्ठ शषिए कडं के, तेज तमो गे, तेज हुँ बु अने तेज अमारो आश्रम के, पण पूर्वे ज्यारे तमो पधार्या हता, त्यारे तमो निर्धन हता, अने हमणा तो तमो सधन थया गे, अने तेने खेश्ने हुं तमोने आदरमान आपुं बु. माटे धनमर्जय काकुस्थ, धनमूलमिदं जगत् ॥ . . अंतरं नैव पश्यामि, निर्धनस्य मृतस्य च ॥१॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशतरंगिणी. अर्थ- हे रामचंघजी ! तमो धन मेलवो? केमके, आ जगत धन ने मूल जेनुं एवुज निर्धन माणस श्रने मुडदां वच्चे कंपण हुं अंतर जोतो नथी. धर्मो महामंगलमंगनाजां, धर्म:पिता पूरितसर्वकामः॥ धर्मो जनन्युद्दलिताखिलार्तिः,धर्मः सुहृपर्धितनित्यहर्षः __ अर्थ- प्राणीउने धर्म महामंगलरूप , तेम पितानी पेठे सर्व इलितोने श्रापनारो ने, वली मातानी पेठे सर्व पीमाउने दूर करनारो, तथा मित्रनी पेठे हर्ष वधारनारो . बुझेः फलं तत्वविचारणं च, देहस्य सारं व्रतधारणं च // अर्थस्य सारं किल पात्रदानं, वाचः फलं प्रीतिकरं नराणाम् // 1 // अर्थ-बुधिनुं फल तत्वविचार ने, शरीरनुसार्थक व्रतधारवारूप ने, धनफल सुपात्रदान बे, अने वाणीनुं फल लोकोने प्रेम उपजाववो, ते बे. __एवी रीते आ श्री उपदेशतरंगिणी नामना ग्रंथनुं गुजराती भावार्थवालुं नाषांतर जामनगर निवासि पंमित श्रावक हीरालाल वि. हंसराजे गुरुमाहाराज श्री चारित्रविजयजीनी कृपाथी करेलु . तेमां जे जूल चुक थइ होय ते “मिनामिक्कडं" इति तपगमेश श्री सोमसुंदर सूरि श्री रत्नशेखर सूरि. पं० नंदि रत्नगणि शिष्य श्री रत्नमंदिरगणि गुंफितायां. श्री उपदेश तरंगिण्यां धर्मोपदेश रूपः पंचम स्तरंगः समाप्तः // श्रीरस्तु // हीनपुण्या न पश्यंति, रागांधास्तत्वसंस्थितिम् // तान्नेऽतान्नफलं चैव, लग्नंते ते नराधमाः // 1 // समाप्तोऽयं ग्रंथः // श्रीरस्तु //